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श्रनुशिष्टि महाधिकार
न पश्यति सनेत्रोपि श्रोत्रोऽपि शृणोति न । कामार्त्तः प्रमदाकांक्षी वंतीय हतचेतनः ।।६४५।।
सलिलेनेव कामेन सद्यो जाडयविधायिना | दक्षोऽपि जायते मंदो नीयमानः समंततः ॥६४६ ।। वर्षद्वावशकं येrयां निषेव्यापि स्मरातुरः । नाजासीदगोरसंदीव: पदांगुष्ठमशोभनम्
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कामांध पुरुष नेवार होकर भी देवता नहीं, गर्म होकर भी सुनता नहीं, इसतरह काम से पीड़ित स्त्रीका अभिलाषी वनहाथी के समान संमूढ हो जाता है अर्थात् . जैसे वन हाथी हथिनीके वश हुआ कुछ भी देखता सुनता नहीं वैसे ही कामी पुरुष होता है ।। ४५ ।।
जैसे जलप्रवाह में डूबता हुआ पुरुष जड़ता युक्त मूच्छित हो जाता है वैसे काम द्वारा चतुर भी पुरुष शीघ्र ही चारों ओरसे मंद हो जाता है अर्थात् उसको कार्य कुशलता नष्ट होती है— मूच्छितसा हो जाता है || २४६ || कोई गोरसंदोव नामा मुनि कामार्त्त होकर बारह वर्ष तक वेश्या का सेवन करता हुआ भी उसके अशोभन जीर्ण नष्ट पैरके Sairat नहीं जान सका था ।।१४७।।
गोरसंदीव नामके भ्रष्ट मुनिको कथा
श्रावस्ती नगरीका राजा द्वीपायन था उसका दूसरा नाम गोरसंदोव या गोचर संदीव था । एक दिन वह राजा वनक्रीड़ाके लिये जा रहा था मार्ग में एक आम्रवृक्ष मंजरीसे भरा हुआ देखकर राजाने एक मंजरीको कोतुकवश तोड़ लिया राजा आगे निकल गया । पोछेसे आनेवाले जनसमुदायने राजाका अनुकरण किया अर्थात् सभीने एक एक करके उस आम्रवृक्षकी मंजरी तोड़ ली पुनः पत्ते तथा डालियां भी नष्ट कर दी । राजा वनक्रीडा करके वापिस लौटा तो वृक्षको न देखकर पूछा । लोगों से वृक्ष नष्ट होनेका वृत्तांत सुना तथा उस वृक्षको केवल टूटमा खड़ा देखकर अकस्मात् राजाको वैराग्य हुआ और उसने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। अब वे मुनि होकर विहार करते हुए उज्जयिनों में आहारार्थ पहुँचे । किसी एक घर के आंगन में वे प्रविष्ट हुए वह गृह कामसुंदरी वेश्या का था । वेश्याको देखकर मुनि मोहित होगये और वहीं रहने लगे ।