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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अह आदि अधिकार [ २७ ५. समाधि-मनका समाधान होना अथवा मनकी एकाग्रता । ६. अनियत विहार-साधुजन यत्र तत्र विहार करते हैं उससे जो लाभ होता है उसका वर्णन । ७. परिणाम-अपने को जो कार्य करना है उसका विचार करना । ८. उपधित्याग-परिग्रह त्याग । ९. श्रिति-शुभ परिणामों की उत्तरोत्तर वृद्धि । १०. भावना-संक्लिष्ट भावना का त्याग और शुद्ध भावना का ग्रहण । ११. सल्लेखना-फाय और कषायों का कृशीकरण । - १२. दिशा-समाधि के इच्छुक आचार्य अपने पद पर अन्य मुनिको प्रतिष्ठित करते हैं उस विधिका इसमें कथन होगा। १३. क्षमणा-समाधि के इच्छुक आचार्य अपने संघ से क्षमा याचना करते हैं, उसका कथन । १४. अनुशिष्टि-समाधि के वांच्छक आचार्य परमेष्ठी अपना पद अन्य शिष्य को देकर उसको तथा समस्त संघको पृथक् पृथक् उनके कर्तव्य का श्रेष्ठ उपदेश देते हैं, उसका कथन । १५. परगणचर्या-समाधि के लिये आचार्य अन्य संघ में जाने के लिये गमन करते हैं । १६. मार्गणा-समाधिमरण कराने में परम सहायक ऐमे आचार्य का अन्वेषण करना । १७. सुस्थित-अपने तथा परके उपकार करने में समर्थ आचार्य को सुस्थित कहते हैं ऐसे आचार्य के निकट जाना। १८. उपसर्पण-समाधिमरण कराने में समर्थ ऐसे आचार्य के चरणों में आत्म समर्पण । १६. निरुपण-उक्त समर्थ आचार्य द्वारा आगत क्षपक मुनिका निरीक्षणपरीक्षण करना।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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