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________________ मरणकण्डिका कृतयोग्यक्रियो युद्ध, जगतीपतिदेहजः । आवत्से विद्विषो जित्या, बलाद्राज्यध्वजं यथा ॥२५॥ साधर्भावित चारित्रो, गृहोते संस्तराहवे । प्रामाधन जिन्दा, सिगारदाविद्विषस्तथा ॥२६॥ पद्मभावितयोगोऽपि, कोप्याराषयते मृति । तत्प्रमाणं न सर्वत्र, स्थाणुमूलनिधानवत् ॥२७॥ * पीठिका समाप्ताः जैसे श्रेष्ठ राजा का पुत्र पहले शस्त्रादि संचालन क्रिया का अच्छी तरह अभ्यास किया करता है फिर समर भूमि में शत्रु को बलात् जोतकर उसके राज्य ध्वज को हस्तगत कर लेता है ।।२५।।। ठीक इसीप्रकार जिसने जीवन में पहले भली प्रकार से चारित्र की आराधना की है ऐसा साधु रूपी राजपुत्र संस्तरसल्लेखना रूपी समर में प्रविष्ट होकर मिथ्यात्व आदि शत्रु राजा को जीतकर आराधनारूपी ध्वज को हस्तगत कर लेता है ।।२६।। यदि कदाचित् क्वचित् कोई व्यक्ति पहले व्रतों का निर्दोष पालन आदि कुछ भी नहीं किये हुए होते हैं और मरण काल में अच्छी तरह आराधना को प्राप्त होते हैं तो उसको सर्वत्र प्रमाण नहीं मान लेना अर्थात् किसी का पूर्व में व्रत तप ध्यान के किये बिना ही सल्लेखना सहित मरण हो जाता है । यह देखकर सभी को वैसा हो जायगा हम भी अन्तकाल में आराधना करेंगे ऐसा मानकर प्रमादो होकर नहीं बैठना चाहिये क्योंकि ऐसा होना स्थाणु मूल निधानवत् है । अर्थात् कोई जन्मांध व्यक्ति मार्ग में जा रहा था अचानक स्थाणु (ठूठ) से टकराया, मस्तक से विकारो खून निकल गया और उससे नेत्र खुल गये-दिखाई देने लगा, साथ ही जीणं स्थाणु उखड़ जाने से उसके मल में रखा हुआ धन का घट भी उसे प्राप्त हो गया। यह कार्य जिसप्रकार असंख्य जीवों में किसी एक के हो संभव है सबके लिये तो असंभव हो है, ऐसे ही बिना पूर्व में रत्नत्रय की साधना किये सल्लेखना की प्राप्ति होना अशक्य है ॥२७॥ ।। इसप्रकार पीठिका समाप्त हुई ॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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