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________________ (३) नागौर की हस्तलिखित प्रति में यही क्रम है। श्लोक संख्या २२७६ हैं 1 सम्वत् १५५४ को लिखित है । इस प्रति के अन्त में इस प्रकार परिचय है-सम्वत् १५५४ वर्षे । कातिक सुदी १५ मुरी श्री दुबला... हाडान्वये नाराइणदास राज्य प्रवतमाने श्रीमूलसंघ बलात्कारगणे, सरस्वतीगच्छे श्री नन्दीसंघ श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेवा तत् पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेवा तत् पट्टे भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवा तत् शिष्य मुनि श्री रस्नकोतिदेवा-मण्डलाचार्य तत् शिष्य मुनि हेमचन्द्र तत् सिषिणी अर्जका पुण्यश्री खडेलवालन्वये मोधा गोत्रे, साधु महाराज तत् भार्या साम्ही तयो पुत्री लोलू, साहूगांगा, साहू लोलू तद भार्या वाल्हू तयो पुत्र साह लोहट तथा साहगांगा तद् भार्या राणो तयो पुष साह हरसिंह तत् भार्या कर्मा, तयो पुत्र.........निजज्ञानावर्ण कम क्षयार्थ इदं शास्त्रं अर्यका पुण्यश्री योग्य पठनार्थ प्रदत्त । ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं नियांधी भेजषाभवेत् ।। ६ ।। सुभमस्तु ।। ६ ।। मांगल्यं ददाति । श्रेयो भवतु ॥ अर्थ सम्बत् १५५४ की वर्ष में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तिथि में गुरुवार में हाडा अन्वय में नारायणदास के राज्य काल में मूल संघ बलात्कारगण सरस्वती गम्छ नंदी संघ कुन्दकुन्द अन्य में भट्टारक पदमनन्दी हुए । पुनः उस पट्ट में क्रमश: शुभचन्द्र, जिन चन्द्र हुए उनके शिष्य मुनि रत्नकीर्ति हुए उनके शिष्य हेमचन्द्र मुनि और उनकी शिष्या आर्यिका पुण्यश्री नाम की थी । खंडेलवाल जाति में गोधा गोत्र वाले एक साधु महाराज श्रादक थे उसकी भार्या साल्ही उस दम्पत्ति के दो पुत्र थे लोलू साह और साहूगांगा । लोलू साहू को भार्या बाल्हू । इनका पुत्र साह लोहट था । तथा साधुगांगा की पत्नो रानी नाम को थो । उनका पुत्र साह हरसिंह था. उसकी पत्नी कर्मा यो । उसके पुत्र ने अपने ज्ञानावरण कर्म के नाश के लिए यह शास्त्र आयिका पुण्य श्री को पढ़ने के लिए दिया । ज्ञानदान से ज्ञानी, अभयदान से निर्भय अन्नदान से नित्यसुखी और प्रौषधिदान से निरोग होता है । शुभ हो । मंगल देवे । कल्याण हो । ग्रंथ का नाम-मरणों के अनेक भेदों का कथन करने से इसका नाम-मरणकंडिका है । प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में इसका नाम ग्रंथ प्रारम्भ में नहीं मिलता। हाँ अन्त में "मरणकंडिका नवखत्त गणनया सम्मता" ऐसा नामोल्लेख मिलता है। प्रशस्ति में "भगवतोमाराधनां स्थेयसोम्" आराधनेषा यदकारि पूर्णा...। तावत् तिष्ठतु भूतले भगवतो । इन शब्दों में उल्लेख प्राप्त होता है । अतः मरण कडिका तथा न केट में आराधना विधि नामकरण किया है। एक विशेष - शिवकोटि प्राचार्य प्रणीत भगवती पाराधना ग्रंथ में गाथा १९९० में मध्यम तथा 'उत्कृष्ट नक्षत्र में क्षपक का मरण होवे तो तृणमय बिम्ब अपित करें ऐसा कहा है किन्तु मरणकडिका में यह बिधि नहीं बताया है, उस स्थान पर जिनार्चा (शांति कम) बतलाई है। इसी प्रकार
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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