Book Title: Pravachansaroddhar Part 2
Author(s): Nemichandrasuri
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...nica Kakishtetoskhabahakaabhaashatakshablesbaateihindy ॥श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ __ श्रीमद्देवभद्रान्तिषच्छोमसिद्धसेन सूरिसूत्रिततत्त्वज्ञानविकाशिनीटीकाविभूषितः श्रामन्नेमिचन्द्ररिप्रवरविनिर्मितः । प्राचार्यदेवधीमद्विजय मसूरीश्वर ग्रन्थमालायाः पुष्पमिदम् ॥ Aatankitarmoniciness * प्रवचनसारोद्धारः * [द्वितीयः खण्ड ] कपा प्रकाशिका-भारतीय प्राच्यतत्त्व प्रकाशन समिति, पिंडवाडा। . हालात Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० रुपये प्रतिसंख्या-४०० -द्रव्य सहायकबीभीपालनगर संघ शानझाता (मुंबई) पर संवत २५०९ विक्रम संवत् २०३९ इस्वीसन् १५३ - प्राप्तिस्थान :मारतीय प्राच्यतस्व प्रकाशन समिति 0/0 रमणलाल लालचंद १३५/१३.वेरी बाजार मुंबई-४००००० २. भारतीय-प्राच्य-तत्व प्रकाशन समिति Com. समरथमस रायचन्दजी पिवाडा-३०७०० स्टे.-सिरोहीरोह (राज.) 1. भारतीय-प्राच्यतच प्रकाशन समिति शा रमणलाल वजेचन्द ००विलिपकुमार रमणलाल मस्कती माट अमदाबाद-३८०००२ - : संपादक :मुनि पद्मसेनविजय मुनि मुनिचन्द्रविजय indian m do www मुखक:-ज्ञानोदय प्रिन्टिग प्रेस, पिश्वासा-३०००२२ (राज.) ARTicar monalepatitis a tion meindlanimalist Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन - सारोद्वारे सटीके ॥ १॥ - * प्रकाशकीय निवेदन * संपूर्ण एक युग (५ वर्ष) की दीर्घ तपश्चर्या के फलस्वरूप " प्रवचनसारोद्धार" पत्थरत्न का मुद्रण कार्य समाप्ति का शिखरारोहण कर रहा है यह मान कर विद्वानों का वन्द हर्ष का अनुभव करेगा इसमें कोई संदेह नहीं है । arrantar afte सम्राट् कर्म साहित्य निष्णात स्व. प. पू. प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसुरीश्वरजी महाराज के मंगल सानिध्य में हमारी संस्था का श्रीगणेश हुआ । तदनन्तर कई मूल्यवान एवं भारतीय प्राचीन साहित्य के जाज्वल्यमान ग्रन्थरत्नों के प्रकाशनों का हमें अमूल्य लाभ प्राप्त हुआ। दिन-प्रतिदिन हमारी संस्था प्रकाशन के क्षेत्र में ठोस कदम बढा रही है इस का परम श्रेय न्यायविशारद उपविहारी प. पू. प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनमानुसूरीश्वरजी म.सा. एवं उनके शिष्याग्रणी भागम-प्रकरण रहस्यविद् प. पू. पं श्री जयघोष विजय गणिवर प्रादि शिष्य समुदाय की है। उनके मूल्य मार्गदर्शन से हमें प्रकाशन कार्यों में अनेकविध सहायता प्राप्त होती रही है । 'प्रवचन सारोद्धार' टोकासहित प्रभ्थ वे ला पु. फंड की ओर से चिरपूर्व प्रकाशित था जो कालकता से जर्जर एव दुर्लभ बन चुका था। प. पू. श्रुतोद्वारप्रेमी मुनिराज श्री पद्यसेनविजय महाराज एवं मुनिराज श्रीमुनिन्द्र विजय महाराज ने नये सिरे से उसका संपादन कार्य हाथ में लिया। प. पू. मुनिराज श्री मुनिषद्रforest ने प्रनेक हस्ततों में से पाठांतरादि के संचय का महत्वपूर्ण परिश्रम किया। इन दोनों मुनियों के उदार सहकार से प्राज नयो साजसज्जा के साथ प्रवचन सारोद्वार का दूसरा विभाग पूर्णता को प्राप्त कर चुका है प्रकाशकीय निवेदन ॥१॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ॥ २ ।। एतदर्थ उपरोक्त सभी संतपुरुषों के प्रति हम कृतज्ञ है। प्रस्तुतप्रन्थरश्न के द्वितीय माग के संपूर्ण मुद्रणध्यय प्रथम भाग की तरह श्रीपालनगर जैन संघ ट्रस्ट (बालकेश्वर-मुंबई) के ज्ञाननिधि की उदार सहायता से किया गया है, एतदर्थ ट्रस्ट के ट्रस्टी गण और सदस्य धन्यवाद के पात्र हैं और उनकी इस श्रुतभक्ति की हम अनुमोदना करते है। तदुपरांत पिंडवाडा प्रेस के संचालक श्री विजयराजजी मोदी और शंकरदासजी प्रादि अन्य कर्मचारिगरा भी ग्रन्थ के सुदर मुद्रण के लिए यशोभागी है। सहायता देने वाले सभी के प्रति हम कृतज्ञता व्यक्त करते है । शास्त्र के स्वाध्याय द्वारा मुमुक्षुगण अपनी मात्मा को कृतार्थ करें यही शुभेच्छा । लि०-ट्रस्टीगण भारतीय प्राsaara प्रकाशन समिति – पिण्डवाडा प्रकाशकीय निवेदन ॥ २ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन महामहिम श्री महावीरस्वामिने नमः । प्रविन्स्यचिन्तामणि श्री शङ्खेश्वर पापनानाय नमः परमतारक श्री धर्मबाथस्वामिने नमः पूज्यपाद विजय सिदिसूरीश्वरेभ्यो नमः । पूज्यपाद श्रीमद् विजय भन्रीपवरेभ्यो नमः। पूज्यपाद श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः । सारोद्वारे सटीके का सार प्रस्तावना खण्ड: जिन प्रवचन का सार * प्रवचन साहार* परम कृपालु परमात्मा एवं सद्गुरुवयों की असीम कृपा से सम्पादित प्रत्यरत्न 'प्रवचन सारोद्धार' के इस द्वितीय खण्ड को विद्वानों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए हम प्राज प्रतीव प्रानन्द महसूस कर रहे हैं। . व्याप में छोटा, कलेक्सन में अन्ठा २७६ द्वारों-Chaptera में विभक्त करीबन १६०० मायात्रों से समृद्ध यह ग्रन्थरत्न, चर्च्य विषयों को अपेक्षा से, च्याप में छोटा होने पर भी कलेक्सन संग्रह में अनूठा है। गागर में सागर । अन्साइक्लोपेडिया प्रोक जैनिजम् । इस ग्रन्थ रत्न में इतने विषयों पर सूक्ष्मतम चर्चा की गई है कि इस प्रन्थ में क्या क्या प्राता है यह कहने के बजाय क्या क्या नहीं पाता है यह कहना सरल होगा। च विषयों को सूचि-द्वारों एवं उपद्वारों के वर्णन के साथ-हमने विषयानुक्रम में दी है, जिस पर वृष्टि करने से जात होगा कि समंदर कितना गहरा है प्रवचन सारीद्धार का । और यह भी कहना पडेगा कि इस महान BALT000mAreasesjalorfarishnsomniwaphsionals. र H uncheWisuage Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwgHREEMAI जिन प्रवचनमारोदारे सटीक सार प्रस्तावना द्वितीयः कृति के रचयिता महापुरक में 'समंद समानार में' की उक्ति को चरितार्थ करने के लिए कितना अपूर्व रचनाकौशल्य दिखलाया है। _प्रस्तुत प्रग्य पद्य में है और समुचा ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है, सिर्फ एक श्लोक संस्कृत में है (क्रमा९७१)। बहुलतया प्रार्या छंव का प्रयोग गाथायों में किया गया है। कतिपय स्थलों पर अन्य छन्द भी प्रयुक्त किये गये है। अन्धकार महर्षि प्रथकार महषि है प्राचार्य श्री नेमिचन्द्रसूरिजी । अन्य के अन्त में समय नहीं दिया है लेकिन उनकी ही एक शन्य कृति 'प्रणतनाह बरिय' वि.सं.१२१६ में रची गई है। इस पर से ग्रन्धकार का समय १२-१३वी शतो निश्चित होता है । प्राप के कृतित्व से विभूषित अन्य ग्रन्थ जीवकुलक है, जो कि प्रस्तुत अन्य के २१४ वे द्वार में समाविष्ट हो जाता है। 'पर्णतनाह चरिय' के अलावा दूसरे मी चरित्र का प्रापने निर्माण किया था ऐसा जपवेश माला' की प्रशस्ति (प्रशस्ति संग्रह, पृ. २६) से ज्ञात होता है, लेकिन वह प्रत्य प्रश्न तक अप्राप्य है। प्राचार्य प्रवर श्री नेमिचन्द्र सूरिजी को पट्ट परम्परा उन्होंने प्रणतनाह चरिय' की प्रशस्ति में दी है। पहले खण्ड के प्राक-कथनम् (संस्कृत प्रस्तावना) में हमने इस प्रशस्ति का प्रावश्यक पाठ दिया है। टोकाकार प्राचार्य श्री सिद्धसेन सूरिजी के सम्मुख इस प्रन्थ की १५६६ गाथाएं होगी ऐसा लगता है, क्योंकि इतनी ही गायात्रों को व्याख्या टोका में है। हमने जिसका उपयोग किया है इस सिर्फ मूल गाथानों वाली ताडपत्रीय प्रत में व अन्य प्रत में हमने कुछेक प्रधिक गाथा बेखो, जो कि मुद्रित . ला, संस्करण में नहीं है ऐसी गापाएं हमने उस उस स्थल पर टिप्पण में 'अमुक प्रति में यहां अधिक गापा मिलती है' ऐसे निर्देश पूर्वक की है । (ब्रष्टव्यः भा. २ पृ. १४६, मा २१ ४०६, मा २ पृ. ४०८) micss Prime Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारीद्वारे मटीके द्वितीय: प्राचीन गाथाओं के मूलस्रोत की खोज प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथानों में से बहुतसी गाथाएं प्रत्थकार महर्षि ने प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत की है. ऐसी गायों का मूल स्थान प्रागनग्रंथ, नियुक्तियां माध्य, प्रकरण ग्रन्थ, कर्मग्रन्थ प्रावि में हम खोज सके हैं और उस उस स्थल पर गाथाओंों के पश्चात् स्ववेर ब्रोकेट में वह मूलस्थान दिया है' । इसके अतिरिक्त भी कुछ ऐसी गाथाएं है जिनका मूलस्रोत- सन्दर्भ तो हमें नहीं मिला, किन्तु वे गाथाएं marines की erfrमद्रोय वृत्ति यादि प्राचीन ग्रन्थों में भी उद्धृत के रूप में है, अतः निश्चित है कि ये गाय मान्यकार को रचित शायद नहीं है, किन्तु प्राचीन है। इस उद्धरण का उल्लेख हमने वहां वहां टिप्पण में दिया है। [य] द्वार १२१ गाथा ८१८-३५ द्वार २७२ मा १५७१-९, द्वार २७० गा, १४६६ से ] टीका एवं टीकाकार महर्षि स्वविकाशिनी नाम की सरल एवं विशद टीका के रचयिता हैं प्राचार्य श्री सिद्धसेन सूरिजी महाराजा । प्रस्तुत टोक के अन्त में उन्होंने अपनी पट्टावली इस रूप में दी है- चन्द्रगच्छीय श्राचार्य श्री अभयवेक्ष सूरि धनेश्वर सूरि प्रजितसिंह सूरि वर्षमानसूरि श्री चन्प्रभ मुनिपति श्री मद्रेश्वर सूरि प्रजितसिंह सूरि श्रीदेव सूरि-श्री सिद्धसेन सूरि + + टीका को रचना अपने करि(पाठान्तरः- कर-सागर-रवि-सङ्ख्ये विक्रमनूप तिवत्सरे' की है ( प्रशस्ति ) अर्थात् यह टीका ग्रन्थ विक्रम के १२४२, १२४८ या १२७८ वें वर्ष में रचित हुआ है । प्रस्तुत टीका में टीकाकार महर्षि ने स्वरचित तीन प्रत्थों का उल्लेख किया है। 'तथा चावोचाम स्तुतिषु [भा, १ प. ५४८ ], तथा चाचमहि श्री पद्मप्रभवरित्रे [मा. २ प ६५० ] श्रस्मदुपरचिता सामाचारी निरीक्षणोया [भा २.६५७] यद्यपि इन तीन प्रत्थों में से एक मो श्रमी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । १ परिशिष्ट में भी मूलगाथाओं का स्रोत अलग बताया है । जिन प्रवचन का सार प्रस्तावना ॥ ५ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R AGHIBAHANE PARTAINMEANING शास्त्रों के समर्थशाता वृत्तिकार प्रवचन तत्त्व ज्ञानविकाशिनो टीका-वृत्ति यथार्थ नामवती है । तत्त्व पर प्रकाश अच्छी तरह से मला है। इति इतनी जिन सारोद्धारे। तो विशद एवं सरल है कि सामान्य वाचक भी ग्रन्थ के हार्द तक पहुंच सकता है। प्रवचन मटीके निकार शास्त्रों के समर्थ ज्ञाता है ऐसा वृत्ति के प्रवगाहन से निश्चित होता है। वृत्ति में प्रसंग प्रसंग पर का सार प्राते उद्धरणों की संख्या बहुत बडो है, ५०० से अधिक ! कतिपय स्थलों पर ग्रन्थों के नामों के साथ उद्धरण द्वितीयः प्रस्तावना उल्लिखित है, करीबन ६० से अधिक का नामोल्लेख किया है। कुछ स्थलों पर बिना ग्रन्थनाम उद्धरण दिये गये है। ऐसे उद्धरणों के मूलस्रोत की खोज भी हमने यथाशक्य को है एवं ऐसे मूलस्रोतों का उल्लेख उद्धरण के पीछे स्क्वेरकेट में दिया है। समी उद्धरणों को प्रकारादि क्रम से सूचि - प्राप्त मूलस्रोतों के साथ परिशिष्ट में दी है, जिस को देखने से खयाल प्रायेगा कि यत्तिकार महषि ने कहां कहां से शारत्रपाठ उद्धृत कर कर के एक साथ दे दिये हैं। श्रद्धा से हम उपकारी ग्रन्थकार के प्रति नतमस्तक हो जाएंगे। वृत्तिकार महर्षि समर्थ प्रतिभाशाली होने से मूलगत शब्दों के भाव को खुलकर, विशद रूप से, 'इदम् प्रत्र हुवयम् , अयं भाव:' कह कर खोलते है, जहाँ विशेष उहापोह की प्रावश्यकता होती है, वहां 'ननु' से शङ्कारल उठाकर, जमकर के उत्तर देते है। जिस स्थल पर मूल प्रादर्श के पाठ में शास्त्रीयता से विसंबाद दीखा, वहां कह दिया है उन्होंने कि 'यहाँ प्रादशं प्रति में यह पाठ है लेकिन यह ठीक जचता नहीं। यहां ऐसा पाठ होना चाहिए' यु कह कर उसको व्याल्या करते है । एवं स्वघ्याल्या को शास्त्राधारों से पुष्ट बनाते है द्रिष्टव्यः परमाणू रहरेणू ....द्वार २५४ गा. १३६१] जहां व्याख्या दो प्रकार की देखी जाती हैं वहां लिखते है, यहां हम अपने गुरुदेव पास जिस तरह समझे है, उस रूप से व्याख्या करते है । अन्य लोग दूसरे रूप से व्याख्या करते है। [द्रष्टव्यः मा. २, १५०, ५५, ६१९] 220120MPSTR000 RRIBE Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके || 6 || वृत्तिः डायजेस्ट या मधुसंचय वृत्तिकार महर्षि जहां सरल एवं विशद विवेचन की प्रावश्यकता होती है वहां, ऐसा विवेचन प्राचीन ग्रन्थों में से मिल जाने पर अक्षरश: Nute कर लेते है। यह बात इस बात को ध्वनित करती है कि प्रस्तुत कृति एक मधु कृति है. डायजेस्ट, जहां सम्पादक श्रेष्ठता को चोतरह से गृहित करता है ।" विशेष रूप से मां के स्तनपान की उपमा जिसको दी गई है, ऐसी मलयगिरिसूरि महाराज की आगमीय वृत्तियों में से बहुत चयन किया है। ऐसे स्थलों पर हमने टिपण में निर्देश दिया है। प्रवचन सारोद्धार के साथ लघु प्रवचन सारोकार परिशिष्ट २ में हमने श्री चन्द्रसूरि महाराज निर्मित लघु प्रवचनसारोद्वार नाम से प्रसिद्ध प्रत्थ- जिसमें प्रत्याख्यान सम्बन्धी व प्रशनादि एवं प्रणाहारी चीजों की चर्चा की गई है वे दिया गया है। ग्रन्थकार श्री चन्द्रसूरि महाराज का परिचय हीरालाल कापडिया ने इस तरह दिया है (जैन साहित्य का वृहद् इतिहास मा. ४, पृ. १७४ ) "श्री चन्द्रसूरिजी मलधारी हेमचन्द्रसूरिजी के शिष्य थे। इन्होंने वि. सं. ११९३ में 'मुनिसुव्वय चरियम्' भी लिखा है। इसके अतिरिक्त 'खेलसमास' ('णमिउं वीरं' से प्रारंभ होनेवाला ) भी लिखा है। प्राप पूर्वावस्था में लाट देश के किसी राजा के संभवतः सिद्धराज जयसिंह के मन्त्री (मुद्राधिकारी ) थे । संखित्त संग्रहणी (संगणि रयण) मी शाप की कृति है। इस ग्रन्थ का अधिकतर पठन-पाठन हो रहा है। सम्पादन संशोधन के लिए हमने जिन वो हस्तप्रतों का उपयोग किया है, उनका परिचय इस तरह है । D यह प्रत डेलानो उपाश्रय (दोशीवाडानी पोल, श्रमदावाद) स्थित भंडार के डा. नं. १०८ क्रमांक ६४८२ को है। आकार: २०४५ सेन्टी मिटर पत्र संख्या: १२ प्रति पत्र पंक्ति : ६ जिन प्रत्रचन का सार प्रस्तावना ॥.७॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके प्रति पंक्ति अक्षर:३६ स्तबक लिखने के लिए जगह छोड़ी हैं, लेकिन लिखा नहीं है। पार्श्व माग में टिप्पण है। अन्त भाग: "इति श्री प्रवचन सारोद्धार नामकं प्रकरणं प्रत्याख्याने कल्पाकल्पमेवसूचक सम्पूर्णम् । वासनार्थ मुनि बल्लभविजयजी। संवत १९०६ ना हर्ष फागण शुदि ४॥" L यह प्रत लालभाई दलपतभाई मारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर (प्रमदाबाद स्थित मण्डार के भेट क्रमांक प्रवचन | का सार प्रस्तावना द्वितीयः खण्डः ।। ८1 प्राकारः२७४४१३ सेन्टी मिटर इति भो प्रवचनसारोद्धारनामक प्रकरणं । प्रत्याख्याने कल्पाकल्प मेदसूचकं संपूर्णम् ॥धी। म. मुनिश्री मानविजय संपावित व वि.सं. १९६५ में प्राचार्य श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरप्रन्थमाला (१५) में प्रकाशित संस्करण के पाठ भेदों म. संकेतसे दिये गये है। प्रस्तुत सम्पादन प्रस्तुत ग्रन्थ ५६-६० वर्ष पूर्व देवचंद लालमाई पुस्तकोद्धार फण्ड द्वारा प्रकाशित हया था। उसके सम्पादन में कौन सी हस्त प्रत उपयुक्त की गई थी उस पर प्रकाश उक्त संस्करण में नहीं डाला गया है। इस प्रन्थ को संशुद्ध करने के लिए विविध स्थलों से प्राचीन हस्तप्रतें प्राप्त करने का प्रयास हमने किया। दे ला संस्करण के पाठों से विशिष्ट या शुख पाठ मिलने पर हमने उस पाठ को स्वीकार कर मूस में समाविष्ट किया एवं दे. ला. संस्करण के पाठ को मु. संकेत से टिप्पण में निविष्ट किया। प्रागम प्रकरण प्रादि में जहां जहां प्रस्तुत अन्य के साथ समता दृष्टिगोचर हुई, वहां टिप्पण में दुलना दी है। - प्रस्तुत ग्रन्थ से अन्य प्रन्थ में मतान्तर देखने पर उसका भी निर्देश टिप्पण में दिया हैं [xण्टभ्यः मा. १ 14. १५८] का सामना m arath RASIROHI Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन प्रवचन. सारोद्धारे सटीके कहीं कहीं टीकाकार स्वयं भी मतान्तर का निर्देश करते है, एके, प्रन्ये लिखकर। वहां एके अन्ये से कौन अभिप्रेत है, यह मी जहां जहां पता चला वहां प्रग्धोकनेस पूर्वक दिया है। सम्पादनोपयुक्त हस्तप्रतः सम्पादनोपयुक्त इन हस्तप्रतों का विस्तृत विवरण प्रथम खण्ड के प्राक्कथन में विस्तृत रूप से दिया है। संक्षेप में वह इस तरह है। जे-जेसलमेर को १२६५ वि. सं. में लिखित प्राचीन तारपत्रीय प्रत । . ता-पाटण, संघयो के पाडे की ताडपत्रीय प्रत । प्रवचन का सार प्रस्तावना द्वितीयः सि-प्राचार्य श्रीमद् विजय सिदिसूरीश्वरजी शास्त्रसंग्रह की प्रत (जैन विद्याशाला, प्रमदाबाद), वि. सं. १५५९ में लिखित । वि-उपर मुताबिक वि. सं. १५५३ में लिखित । त्रिः उपर मुताबिक दि सं. १६०८ में लिखित । पोश्रो जन पोरवाल पंच ज्ञान भडार, पाडोव (राजस्थान), वि. सं. १६४६ में लिखित । सं-सदेगो उपाश्रय, हाजा पटेल की पोल अमदावाद, वि. सं. १६६२ में लिखित । विप. (विषम पद) खंभात भण्डार, ताडपत्रीय । अनु १५६ । इस दूसरे खण्ड में, उक्त हतप्रतों से अतिरिक्त जिन प्रतों का उपयोग किया गया है, उनका परिचय इस तरह है। ख खेमात स्थित शान्तिनाथ जैन ज्ञान भण्डार को ताडपत्रीय प्रत. १४":"। १३४ से २०६ द्वार तक । अन १५५ । R=राधनपुर (जनशाला ज्ञानभण्डार), १०॥४४"० २५, अनु.४४६, पत्र३७१, प्रति पंक्ति ५३ अक्षर ID m" उपर मुलाबिक डा० १४, अनु०२८२ । Ctroch l ondiaadi Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन प्रवचन का सार प्रस्तावना एक गाथा के लिए प्रवचन ___ गाया क्रमांक १०१३ (द्वार क्रमांक १५७ में 'मोत्तण ग्रोही...........गाथा पाती है। इस द्वार की १००६ से सारोद्धारे । १०२. तक की गाथाएं उत्तराध्ययन नियुक्ति में से ली हुई है। इसमें १८१३ क्रमांक को गाथा की व्याख्या सटीके चूणिकार महषि ने नहीं की है। बादिवेताल शान्तिसूरि महाराज ने मी उत्तराध्ययन वृत्ति में लिखा है कि यहां 'मोत्तूण ... .' गाया है, लेकिन इसका अर्थ चूणिकार ने नहीं लिखा है इसलिए लिखते नहीं है। ॥१०॥ इस प्रकार इस गाया की व्याख्या कहीं भी दृष्टिगोचर न होने से हमारे लिए यह समस्या हुई कि इस गाथा के विविध पाहों में से किस पाठमो दहीकृत करें । बाद में एक पाठ को उपर स्वीकृत कर दूसरे पाठों को टिप्पण में स्थान दिया लेकिन हमें संतोष नहीं हुआ। पाटणस्थित हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर से उत्तराध्ययन नियुक्ति को हस्तप्रते नीकलवाकर देखी, तो मी समस्या ज्यों कि त्यों रही, क्योंकि दो प्रतो में भिन्न-भिन्न पाठ मिले। तत्पश्चात्, प्रवचन सारोद्धार की भी उदयप्रभसूरि कृत विषमपदवृत्ति को हस्तप्रत हमने देखी तो वहां उक्त गाथा का अर्थ मिला। यह सामग्री प्रस्तुत द्वार छप जाने के बाद ध्यान में पाने से वहां हम नहीं दे सके हैं। परिशिष्ट १-विशेष टिप्पण में उस सामग्री को रख दिया है। (द्रष्टव्यः पृ.६७६) साभार वचन पूज्यपाद शासन प्रमादक प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कारसूरीश्ववरजी महाराजा, पूज्यपाद वर्धमान तपोनिधि आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनमानुसूरीश्वरजी महाराजा एवं प्रागम विशारद पूज्य पंन्यास प्रवर श्री जयघोष विजयजी महाराज की प्रेरणा से हमने प्रस्तुत सम्पादन कार्य शुरु किया था, जो देव-गुरुकृपा से प्राज परिपूर्ण हुप्रा। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साद्वारे महामनोश्रो. प्रागम प्रम पूज्यपाद मुनिराज श्री जम्बू विजयजी महाराज साहब ने स्थलस्थल पर मार्ग दर्शन दे कर हमें उपकृत किया है। प्रवचन- सम्पादन के इस श्रमसाध्य कार्य में पूज्यपाद बिर्य अरविन्द विजयजी महाराज. पूज्यपाद विद्वद्वर्य । जिन गायोपहरज, विदर्ष मुनिराजश्री यशोविजयजी म. सा. विद्वद्वयं मुनिराजश्री जयसुन्दरविजयजी प्रवचन महाराज, मुनिराज श्री भाग्येश विजयजी महाराज एवं मुनिराज श्री महायशविजयजी महाराज का अच्छा सटीके सहयोग मिला........साध्वीजी श्री सुबताश्रीजी, साध्वीजी श्री महायशाश्रीजी प्रादि ने भी संशोधन में सुचार प्रस्तावना द्वितीयः अम लिया था। खंभात से तारपत्रीय प्रत प्राप्त करवाने में पं छबीलदासभाई, डेना भण्डार बला र भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदाबाद से हस्तप्रत प्राप्त कराने में मुनिराज श्री रवत विजयजी (पू. प्राचार्यदेव श्री अरिहन्तसिद्ध सूरि महाराजा के शिष्य) व पं. बाबुलाल सपचंदभाई ने अच्छा सहयोग दिया। समी हस्तप्रत प्राप्त कराने वाले भिन्न भिन्न ज्ञान भण्डार के कार्यवाहकों को श्रुतमक्ति को साधुवाद देते है। जिन प्रवचन के सारभूत प्रकरण रूप इस प्रन्थरत्न का अध्ययन अमण-श्रमणी संघ में बड़े पैमाने पर हो बही शुभकामना के साथ'पूज्यपाद संघस्थविर प्राचार्यदेव श्रीमद पूज्ययाद आचार्यदेव श्रीमद विजय विजयमद्रसूरीश्वरजी महाराज के। भुवनभानूसूरीश्वरजी महाराजा शिष्यरल यू मुनिराज श्री जिमनन्द के शिष्य विजय महाराज के शिष्य मुनि पद्मसेनविजय मुनि मुनिचन्द्र विजय ॥११॥ . .. . Reinatamdaniya Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सम्पादनोपयुक्त ग्रन्थसूचिः [सम्पादनो. प्रवचन सारोदार मटीके । - अंगविजा । प्र. प्राकृतटव सोसायटी) २ अंगुल सत्तरी (मुनिचन्द्रसूरिविरचिता प्र. महावीर जैन सभा खंभात, इ. स. १६१८) ३ अनुयोगद्वारसूत्रम् (प्र. महावीर विद्यालय) ४ अनुयोगद्वारसूत्रम् (मलधारगच्छीयाचार्य व हेमचन्द्रसूरिकृतवृत्तियतम् प्र. दे ला.) ५ अभिधानचिन्तामणिः ६माचारागसत्रम् (श्रीशीलाचार्यत्तियतम) (श्रीमलयगिरिसूरिविवरणयुतम् । प्र.प्रागमोदय समिति वि. सं. १९८४-६२) प्रावश्यक नियुक्तिदीपिका (मारिणक्यशेखरसूरिकृता, प्र. प्राचार्य श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरजी ग्रन्थमाला गोपीपुरा, सूरत, वि. सं. १६६७) प्रावश्यकसूत्रम् मावश्यकनियुक्ति-हरिभद्रसूरि कृतवत्तियुतम , आगमोदयसमिति वि. - सं. १९७२-11 १. उत्तराध्ययनसूत्रम् (श्रीशान्ति सूरिवृत्तियुतम् , प्र. देवचन्द्र लालभाई वि. सं. १९७२.३) । | ग्रन्थसचिः ११ उपदेशपदप्रकरणम् मुनिचन्दसूरिवृत्तियुतम प्र.म.क्तिकमलजैनमोहनमाला वि.सं. १९७६) १२ उपासकदशांगसूत्रम् [ सटीकम् ] १३ प्रोनियुक्ति : (द्रोणाचार्यवृत्तियुता) १४ प्रौपपातिकसूत्रम (श्रीमभयदेवसूरिकृतवृत्तियुतम प्र.प्रागमोदयसमिति ई. स. १६.१६) १५ ऋग्वेद (पुरुषसूक्त सायणभाष्ययुक्तः वैदिक संशोधन मंडल पूना) १६कर्मग्रन्थः देवेन्द्रसरिकृतस्वोपजटीकायतः वि. स. १९९० भा. १ कर्मग्रन्थ १-४ प्र.जैन प्रारमानन्दसभा) १७ कर्मग्रन्थ : (भा.२, कर्मग्रन्थ ५-६, प्र. जैन धर्मप्रचारकसभा वि. सं. १९६८) . S -. -५५५५ ७४०-RAMROHARASHeasts Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके १८ कर्मग्ररथ : (चत्वार:प्राचीना: कर्मग्रन्थाः प्र.भारतीय प्राच्य तत्त्व प्रकाशन समिति, पिंडवाहा) १६ कल्पसूत्रम् (कल्पद्रुमकलिकावृत्तियुत्तम) २० गोम्मटसार : (कर्मकांड, प्र. रायश्चन्द्र शास्त्रमाला २१ चेहप्रवंदणमहामास २२ जीयकप्पो (साधुरलसूरिवृत्तियतः प्रभाग मोद्धारकनाथमाला वि.स.२०२८) २३ जम्बूद्विपप्राप्तिसूत्रम् (श्री शान्तिचन्द्रीयधृत्तियु तम् प्र. देवचन्द्र लालभाइ जैन पुस्तकोद्धारक संस्था, स.१६७६) २४ जीतकल्पवृणिः २५ जीवसमासप्रकरणम् ( सटीकम प्र. प्रागमोदय . समिति ग्रन्थोद्धारकसस्था सं१९८४) २६ जीवाभिगमसूत्रम् (सटीकम्) २७ ज्योतिकरणहकः (वृत्तियुतः) २८ साताधर्मकथासूत्रम् (बृत्तियुतम) २९ तस्वसग्रहपछिजका (प्र.ओरिग्रेन्टल सिरिज वडोदरा) ३० तस्वार्थमाष्यम् ३१ तत्त्वार्थसूत्रम् (सर्वार्थ सिद्धिटीकायुतम , प्र भारतीय ज्ञानपीठ) सम्पादनो३२ तत्वार्थसूत्रम् (सिद्धसेनगरिणटोकायतम्) पयुक्त ३३ तन्दुलवैचारिकसूत्रम् वृत्त्यवचुरिसहितम्, प्र. देवचन्द्र लालभाई वि. स १९७८) ग्रन्थसूचिः ३४ त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरितम् ३५ दशवकालिक सूत्रम् (हरिभद्रसूरिरचित्तवृत्ति युतम् , प्र. देवचन्द्र लालभाइ) ३६ शाश्रुतस्कन्ध ३७ बसकालियसूत्तम् ( अगस्त्यसिंहसूरिरचितचूरिण युतम , प्र. ऋषभदेव केशरीमल) ३८ देशी शम्दसंग्रह ( प्रा. श्री हेमचन्द्रसूरिरचित देशीनाममाला.प्र.यनिवसिटी ग्रंथ निर्माण बोर्ड) ३६ धातुपारायणम ( प्रा. श्री हेमचन्द्र सूरिरचितम्, । प्र. गिरधरनगर जैन संघ अमदाबाद) ४. धर्मविन्दुप्रकरणम ४१ धर्मरत्नप्रकरणम (स्वोपज्ञवृत्तियतम्) ४२ धर्मसंग्रहः [स्वोपज्ञवृत्तियुतः प्र. देवचन्द्र लालभाइ भा १-२ वि. सं.१९७१-४) ॥१३॥ how toileonind Silvollorasses Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारीद्धारे रणम सम्पादनो पयुक्त ग्रन्थसूचिः सटीके द्वितीयः ॥१४॥ ४३ वर्गपहः गूरानमा माहित जैनविद्या शाला, अमदाबाद) ४४ धर्मसंग्रहणी वृत्तिः (प्र. प्रागमोदयसमिति, सूरत) ४५ ध्यानशतकम् ४६ नन्दिसूत्रम् (प्रा. श्री मलयगिरिसूरित्तियतम , प्र. प्रागमोदय समिति, सूरत) ४७ नवतस्वप्रकरणम् ४८ निशीथसूत्रम् (भाष्य-चूरिणयुतम् , प्र. सन्मति ज्ञानपीठ प्रागरा, वि. सं. २०१४-२०१६) ४६ पक्खोसुत्त ५. पक्षवस्तुकः (स्वोपजवत्तियुतः, प्र. देवचन्द्र लालभाइ वि. सं.१९८३) ५१ पञ्चसग्रहः (स्वोपझ-रालयगिरिवृत्तियुतः प्र. मुक्ताबाइज्ञानमंदिर, वि. सं.१९६३) ५२ पश्चाशकप्रकरणम् (अभयदेवसूरिकृतवृतियुतम् , प्र.जैन धर्मप्रसारकसभा वि.सं. १६६६) ५३ पञ्चाशकप्रकरणम् (चूरिणयुतम् प्र. देवचन्द्र लालभाइ वि.सं. २००८) ५४ सिरि पयरणसंदोह (प्र. ऋषभदेव केशरीमल) ५५ पाणिनीयव्याकरणम् ५६ पिण्डविशुद्धिः वृत्तियता, प्र. प्रा. श्रीमद्विजय दानसूरीश्वरजी ग्रन्थमाला वि. सं. १९९५) ५७ पिण्डनियुक्तिः (मलयगिरिसूरिरचितटीकायुता प्र. देवचन्द्र लालभाइ विस.१९७४) ५८ प्रशापनासूत्रम् (मलयगिरिसूरिवृत्तियुतम) ५६ प्रमाणमीमांसा (प्र. भारतीय प्राच्यविद्याभवन काशी ६. प्रशस्तिसंग्रहा ६१ प्रवचनसारः ६२ प्रश्नय्याकरणसूत्रम् (पभयदेवसूरिटीकायुतम् प्र. प्रागमोदय समिति, वि. सं. १९७५) ६३ बोषिचर्यावतारः (असियाटिक सोसायटी कलकत्त) ६४ महत्कल्पसूत्रम् (नियुक्ति-भाष्य-वृतियुतम् । प्र. अन प्रात्मानन्दसभा वि. सं. १९८६-९८) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोदारे लटीके हितोष ११बहत्संग्रहणो [चिनभद्र-क्षमाश्रमणकृता, मलमगिरि- मूरिटोकायुता प्र. जैन आत्मानन्दसभा _ वि.सं १९७३) बहसंग्रहणी (देवभद्रीयवृत्तियुना) १८ मगवतीसूत्रम् (मभयदेवसूरिवृत्तियुक्तम् प्र. प्राग मोदयसमिति बि. स. १६७४-७७) ६६ महापाचखाणपयनो ७. महाभारतम् (प्र. निर्णयसागर प्रेस मुंगा) ७१ योगबिन्दुप्रकरणम् ७२ योगशास्त्रम स्वोपशवृत्तियुतम् , सम्पादक श्री जम्। विजयजी, भा. १-२, प्र.जैन साहित्यविकासमण्डल वि.सं. २०३३] ४. योगशास्त्रम् स्विोपशवृत्तियुलम, प्र. जैनधमप्रसा रकसभा वि.सं. १९८२) ७४ सोकप्रकाशः ७५ बसुदेवहिधिप्रथमसलम (प्र.जंन मारमानन्दसभा मि. सं. १९८६ ७६ विचारसारप्रकरणम् (श्युम्न सूरिविरचितम प्र. प्रागमोरयसमिति बि. सं. ११७१) ७. विशेषनवतो विषमपदार्थावबोधः (प्रवचनसारोदारस्य टिप्पनकम , हस्तलिखितम् ) सम्पादनो७६ विशेषशतकम समयसुन्दरगणिकृतम् प्र. शेठ लखमीचन्द अमरचन्द प्रागरा ।पयुक्त वि. स. १६७३) सचिः ८. विशेषावश्यकमाध्यम (स्वोपविवरणयतमः कोट्याचार्यवादिगणिकृतपूर्तिरुपविवरणसहितंच.प्र.ला. इ. भार तीय संस्कृति विद्यामन्दिर ८१ म्यवहारसूत्रम् ( भाष्य-वृत्तियुतम , प्र. वकिल विकमलाल उगरचन्द्र ममदावाद वि.स. १९८४) ८२ सास्त्रवार्तासमुच्चयः (प्र. देवचन्द्र मामभाइ ८३ भापकर्मविधि प्रकरणम् (प्र. केशरवाइ जैन ज्ञानमंदिरपाटण वि.सं.१९७६) ८५श्रावप्रमाप्तिः (प्र.ज्ञानप्रसारमण्डल विसं.१९६६) ८५ भाषक तमङ्गप्रकरणम् ८६पयनसमुन्धयः (गुणरत्नसूरिवृत्तियुतम , प्र. भारतीय ज्ञानपीठ) mah Clickasana' .. .. .. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......... ........ndian ma r g प्रवचन सारोदारे १७ सहजीकप्पो ८८ सप्ततिशतस्थानप्रकरणम् (प्र.जैन प्रारमानन्दसमा कि.सं. १९७५) को सम्मतितर्कः (सटीक, प्र. गुजरात विद्यापीठ भमदाबाद ) ६. समवायाङ्गसुत्रम ( अभयदेवसूरकृितटीकायुतम, प. प्रागमोदय ममिति ) ११ सम्बोधप्रकरणम् ६२ सुर्दसणाचरियम सम्पादनो६३ सूत्रकृताङ्गसूत्रम (सटीकम्) १४ स्थानाङ्गसुत्रम (मभयदेवसूरिकतटीकायतम , सांचा पागमोदयसमिति, वि.सं. १९७५-६) सटीके तिोय ॥ ९ ॥ meindia Sanam vaitrint... on anim Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maaishine । विषयानुक्रमः ५७-५८ Home NATUwIashionabainessmashlessonse # विषयानुक्रमः # विषय विषय प्रकाशकीय निग्रंथाचतुर्गतिका: प्रस्तावना क्षेत्रातीतम संपावनोपयुक्त ग्रंथसूचिः मार्गातीतम् कालातीतम् प्रायश्चितवशकम् प्रमाणातिकान्तम् १९-१०० ग्रोध-पदविभागसमाधायो ११-१२ सम्माचतुष्कम् १०१ वक्रवालसमाचारी १२-२० सुखसम्याचतुष्कम् १०२ उत्कृष्टतः उपशमणिक्षपकमि प्राप्ति:२०-२१ क्रियास्थानानि १३ १.३ साधुविहारस्वरूपम सामायिके प्राक प्रप्रतिबद्धविहारस्वरूपम् २२-२७ जाताऽजातकल्पस्वरूपम् २७-२६ शीलाङ्गानि ५००० परिष्ठापनोच्चारकरणविक मयसातकम् १०६ रोक्षानहर्हाः पुरुषाः १८ ३४.४१ वस्त्रग्रहणविधिः दोक्षानर्हाः स्त्रिय. २० पत्रव्यवहारा: दोक्षनहींः नपुसकाः বাজারনি दीक्षनहींः विकलाङ्काः रात्रिजागरणविधिः यतिकल्ध्यवस्त्रमूल्यम् ४७.४८ मालोचनावायकान्वेषणविधि: शम्यातरपिण्ड: प्रतिजागरणकालः श्रुते सम्यक्त्वम् সুগন্ধিখলঙ্কাল १०४ edialiKAR ६१-६८ ६८-७० ७०-७७ ७७-८ ८६-६२ १२५ ४१ १०१ . 0.00 १३० __१०१-१०२ ॥१०॥ १०२-१०४ News Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६१ २१८-२१८ २२०-२३१ २३१.६ प्रवचन सारोदारे विषयानु क्रमः १५५ ११३-११४ MPEHHAT20p १३८ २३४-२४६ २४६.२५४ २५४-८ २५८.०६० १३०-७ प्राहारमानम् वसतिशुदिः संलेखना वृषमेणबसतिग्रहनम् मलस्य सचित्तताका तिमंचादिस्त्रीमानम् मानर्मदशकम माषाचतुष्कम् बछनषोशकम् मासपञ्चकम् पक्षपाकम लोकस्वरूपम कालिक्याधिसंशाः३ माहाराविसंज्ञा: ४ संज्ञा १० संज्ञा १५ सम्यक्त्वमेवा: ६७ सम्यक्त्वस्य एकाश्मेिवाः कुलकोटोसड़ाया ८४ योनिलक्षाः कास्यवृतविवृत्तिः १३-१४३ १४३-४ १५३ भादप्रतिमाः। पाग्यानीजस्वम् १५४ क्षेत्रातीतानामचित्तत्वम् धान्यादीनामवित्तत्वम मरणानि १७ १५८ पल्योपमस्वरुपम् सागरोपमस्वरुपम अक्सपिणीस्वरूपम् उत्सर्पिणीस्वरूपम् पुद्गलपरावर्तस्वरूपम् मममयः १५ प्रकर्मभूमय ३० मवाः ८ प्राणातिपातमेवाः २४३ परिणाममेदाः १.८ ब्रह्ममेदाः ५५ कामभेदाः २४ प्राणा: १० कल्पमाः१० १२ नरकनामगोत्राणि २६१-२७२ १४॥ manmM माम १६६ १६४-५ १८t-tel १६-२०१ २०१-२०५ ३०१-११७ २७५-७ २७७- २७८-२८० २५०-१ २८१-४ २८.६ MWANUNU Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन १७५ सारोद्धारे १७६ सटीके १०७ १७८ द्वितीयः राम: १७३ १७४ ॥ १९ ॥ नारकतनुमानम् मरकती उत्पत्तिनाविरहः नारकलेश्या: नारकावधि: परमधार्मिकाः नरकोद्वत्तान लब्धिः नरकेषु उपपात: एकेन्द्रियादीनां काय स्थितिः एकेन्द्रियादोनां भवस्थिति: एकेन्द्रियादीनां नुमानम् इन्द्रियाणां स्वरूपविषयों पृथ्व्यादीनां लेश्या; एकेन्द्रियादीनां गतिः एकेन्द्रियादीनामागतिः १११ १६६०३ उपपात च्यवन विरहः PE १८० १८१ १८२ १८५ १८६ १८७ १८५ मरकावासाः नारकवेदना: नारकायुः १८६ १६० जात मृत सङ्ख्या भवनपत्यादीनां स्थितिः २८६ TEX १९६ २७-२१२ २३२-३ २६३-६ १९८ १९७ ५१६-७ २३८-३८२ १९९ ૨૦૦ २०१ ३०२ ३०३-५ २०२ ३०५०. २०३ ३०७६ २०४ ३०३-११ ३११-३ ३१३.७ ३१७-३२२ ३२२-३ ३२४-६ ३२६-३५० २३१-३ २३-४५ २०५ २०६ ૨ २०८ ૨૦૨ २१० २११ २१२ २१३ २१४ भवनपत्यादीनां भवनानि देवानी देहमानम् देवानां लेश्याः देवानामवधिज्ञानम् देवानामुत्पत्तिविरहः देवोवर्तनाविरहः tataनासङ्ख्या देवानां गतिः देवानामागतिः सिद्धिगतिविरहः जीवानामाहारादि ३६३ पाखण्डिनः प्रभावभेषाः ८ चक्रवनिः १२ बलदेवाः ९ वासुदेवा: ९ प्रतिवासुदेवा: ९ वासुदेव रत्नानि नवनिधिस्वरूपम् जीवसङ्ख्याकुलकम् ३४६-९ _३४९-३५१ २५१-२ ३५२.७ क्रमः ३५७-७ ३६० ३६१ ३६१-२ ३६३-४ ३६४ ३६५-७१ ३७१-८५ ३८५-६ ૩૮૬ ८६-७ ३८ ३८७-८ विषयानु ३८८-१२ ३१२ ३१-४०७ ॥१९॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ प्रवचन विषयानु १९७८ सारोट सटीक द्वितीयः | y: ८मूलप्रकृतयः १५८ उत्तरप्रकृतयः बन्धादिस्वरुपम कर्मस्थितिः साबाधा ५२ पुण्यप्रकृतयः १२ पापप्रकृतयः भावषटकम् गुणस्थान केषु माबपञ्चदम जोवानां चतुर्दशकम् मजोबानां चतुर्दशक म् ४६१-४४४ ४४४.६ ४४७८ ४४८.8 ४४१.४१ ४५६-१६० ५३३ ५३३-४ २३१ मयस्थानानि सप्त षड् भाषा: अप्रशस्ताः श्रावकवतमनाः पापस्थानानि मुनिगुणाः ७ धावकगुणा: २१ तियंग्गर्भस्थितिः उत्कृस्टा २४.२ मनुष्यगर्भस्थिति: काय स्थिति: २४३ गर्भस्थित जीवस्य प्राहारः २४४ गर्भसंभूतिकालः २४५-६ पितृ-पुत्र संख्या ४. स्त्री-पुरुषाबीजकाल: २.४८ शुक्रादीनां प्रमाणम सम्यक्त्वादीनां लाभान्तरम् मनुष्यत्वे अनागमकाः पूर्वाङ्गपरिमाणम् २५० पूर्वमानम् लवशिखामानम् २५४ अङ्गुलस्वरूपम् २५५ तमस्कायस्वरूपम् ३७.४३ TE २२७ २२८ २०६ मार्गणाः १४ उपयोगा: १२ योगाः १५ परलोकगतिः गुणस्थानचेषु गुणस्थानकालमानम् विकुर्वणाकाल: समूद्घाताः सप्त पर्याप्यः षड् मनाहारकाचत्वारः २३० ४५७- ४८१.२ ४८२-४ ४८५ ४८५-४६ ४५२-५ ४९५-६ ५५५ २३२ ५४७-५५६ ५५६-८ ॐ ROBAR सिर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८-९ ६५७-६६१ प्रवचनसारोदारे विषयानुक्रमः २५५ ६६६-६६६ ५७३-४ १२ प्रनन्तषट्कम अष्टाङ्गनिमित्तम् मानोन्मानप्रमाणानि अष्टादशमोज्यानि षट्स्वानवृद्धिहानि असंहरणीयाः अन्तीपा. ५६ जीवाऽजीवाल्पबहुत्वम् युगप्रधानसूरिसङ्ख्या श्रीमद्रकृतीर्थप्रमाणम् देवानां विचारः कृष्णराजीस्वरुपम् अत्याध्यायस्वरुपम् नन्दीश्वरद्वोपस्वरुपम लम्धिस्वरुपम विविधाः तपो भेदाः २७२ पातालकलशस्वरूपम् २७३ माहारकशरीरस्वरुपम अनार्यदेशाः २७५ प्रार्यदेशाः २.६ सिद्धगुणा: ३१ परिशिष्टानि१ विशेष टिप्पणम श्री लघुप्रवचनसारोद्वार: ३ उद्धरणसूचिः ४ विशेषनामानि ५ क्षेत्रनामानि ६ शास्त्रनामानि ७ समानग्रंथगाथांकाः . समानविषयग्रंथस्थान निर्देशः शुद्धिपत्रकम् २६४ -५ ६७६ ६७७-६८४ ६८५-७०१ ७०२-३ ७०४ २६८ २६९ ५८५-७ VEG-५६१ ५६१-६०७ ६०७-६१६ ६१६-६२६ । ७०७-८ २७० Eakti Homemeo emew intmiritinsonilon Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रवचन सारोद्धारः .. e : : : SARMmso Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री जिनाय नमः ॥ श्रीमद्देवभद्रान्तिषच्छीमसिद्धसेनमूरिसूत्रितटीकाविभूषितः श्रीमन्नेमिचन्द्रसूरीश्वरविनिर्मितः * प्रवचनसारोद्धारः % {द्वितीयः खण्डः] इदानी दस पायच्छित्साई' ति अठनवतं द्वारमाह आलोयण १ पडिक्कमणे २ मीस ३ विवेगे ४ तहा विउस्सग्गे ५। तब ६ च्छेय ७ मूल ८ 'अणवटिया य९पारंचिए चेव १०॥७५०॥ [आव. नि. १४१८, पञ्चाशक १६।२ व्यवहारमा. ५३] आलोइज्जइ गुरुणो पुरओ कज्जेण हत्थसयगमणं १ । समिइपमुहाण मिच्छाकरणे कीरइ पडिक्कमणं २ ॥७५१।। १ भगवट्टया-इति भाव. नियुक्तौ पञ्चाशके च पाठः । अणबठियाय-इति व्यवहारमाध्ये (गा. ५३) पाठ: 11 । २ हत्यसयगमणे-मु.॥ SHERE Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन - सारोद्धारे सटी के ॥ २ ॥ 1 1 1194311 extree रागाहविरयणं साहिजं गुरूण पुरो दिज्जह मिच्छादुकडमेयं मीसं तु पचितं ३ ॥७५२॥ कज्जो अणेसणिज्जे गहिए असणाइए परिचाओ ४ कोर का स्rगो दिट्ठे दुस्समुमि ५ frbaruाई दिज्जर पुढवाइविघट्टणे तवविसेसो ६ तदुद्दमस्स मुणिणो किज्जइ पज्जायनुच्छेओ ७ पाणाइवायपमुहे पुणब्ययारोवणं विहेयवं ८ ठाविज्जह नवि एसु कराघात्पदुमणो ९ पारंचियमावजह सलिंगनिव भारियाइ सेवाहि । ॥७५६॥ roadलिंगधरणे 'धारसव रिसाह सूरीणं १० नवरं दसमावतीए नवममज्झावयाण पच्छितं । छुम्मासे जाव तयं जनमुोसओ वरिसं ॥७५७॥ दस ता अणुसज्जती जा चउदसपुवि पढमसंघयणी । तेण परं मूलंतं दुष्पसहो जाव afrat ॥७५८।। १ रागाइविरइयन्ता• ॥। २ साहियं ता । साहिय-सं. ॥ ३ दुस्सषिण० मु. ॥ ४ बारसवरिसाई सं. ॥ 1194811 1 ॥७५५॥ 1 ९८ द्वारे प्रायश्चित दशकं गाथा ७५०० ७५८ प्र. आ. २१७ ॥ २ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके दशक 'आलोये त्यादिगाथानवकम् । 'आङ्-मर्यादायां सा च मर्यादा इयम्त 'जह बालो जपतो कज्जमकजं च उज्जु भणइ । तं तह आलोएज्जा मायामयविप्पमुक्को य ॥१॥ [ओघनि. ८०१] । ९८द्वारे अनया मर्यादया 'लोचू दर्शने' चुरादित्वात् णिच्, लोचनं लोचना-प्रकटीकरणं 'आलोचना, प्रायश्चित्तगुरोः पुरतो वचसा प्रकाशनमिति भावः । यत्प्रायश्चित्तमालोचनामात्रेण शुद्धधति तदालोचनार्हतया कारणे कार्योपचारा दालोचनम् १ । गाथा ____ तथा प्रतिक्रमणं-दोपात्प्रतिनिवर्तनम् अपुनःकरणतया मिथ्यादुष्कृतप्रदानमित्यर्थः तदर्ह प्रायश्चित्त ७५०. मपि प्रतिक्रमणम् । किमुक्तं भवति ?-यत् प्रायश्चित्तं मिथ्यादुष्कृतमात्रेणैव शुद्धिमासादयति न च ७५८ गुरुसमक्षमालोच्यते, यथा सहसाऽनुपयोगतः श्लेष्मादिप्रक्षेपादुपजातं प्रायश्चित्तम् , तथाहि-सहसाऽनु प्र. आ. पयक्तेन यदि श्लेष्मादि प्रक्षिप्तं भवति न च हिंसादिकं दोषमापनस्तर्हि गुरुसमक्षमालोचनामन्तरेणापि मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेण स शुद्धथति तत्प्रतिक्रमणाईत्वात्प्रतिक्रमणम् २ । यस्मिन् पुनः प्रतिसेविते प्रायश्चित्ते यदि गुरुसमक्षमालोचयति आलोच्य गुरुसन्दिष्टः प्रतिक्रामति पश्चाच्च मिथ्यादुष्कृतमिति व ते तदा शुद्धयति तदालोचनाप्रतिक्रमणलक्षणोभयाहत्यान्मिश्रम् ३ ॥ यथा बालो जल्पन कार्यमकार्य च ऋजुकं मणति। तथा तदालोचयेत् मायामदविप्रमुक्तश्च ॥२॥ १ तुलना-व्यवहारवृत्तिः (भा.१गा. ५३, पृ. २०) । जइजीयकप्पसू. वृत्तिः प.४॥ २ आलोचनं-इति व्यवहारवृत्तौ (भा. १, पृ. २० B) जइजीयकप्पवृचौ अपि पाठः ।। ३ ०दालोचना-मु. ।। २१८ ॥३॥ CESS Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके ॥। ४ ॥ तथा विवेक:- परित्यागः, यत्प्रायश्चित्तं विवेक एवं कृते शुद्धिमासादयति नान्यथा, यथा कर्मणि गृहीते, तद्विवेकात्वाद्विवेकः ४ । तथा व्युत्सर्गः --कायचेष्टानिरोधः, यद् व्युत्सर्गेण-कायचेष्टानिरोधोपयोगमात्रेण शुद्धयति प्रायश्चित्तं यथा दुःस्वप्नजनितं तत् व्युत्सगर्हित्वाद् व्युत्सर्गः ५ । 'तवे 'ति यस्मिन् प्रतिसेविते निर्विकृतिकादिषण्मासान्तं तपो दीयते तत्तपोऽर्हत्वात्तपः ६ । यस्मिन् पुनरापतिते प्रायश्चित्ते सन्दूषितपूर्व पर्याय देशावच्छेदः शेषपर्यायरक्षानिमित्तं दुष्टव्याधिसन्दूषितशरी बैंक देशच्छेदन मित्र शेषशरीरावयव परिपालनाय क्रियते तच्छेदार्हत्वाच्छेदः ७ । 'मल' ति यस्मिन् समापतिते प्रायश्चिते निरवशेषपर्यायोच्छेदमाधाय भूयो महावतारोपणं तन्मूला र्हस्वान्मूलम् ८ । द येन पुनः प्रतिसेवितेन उत्थापनाया अप्ययोग्यः सन् कञ्चित्कालं न व्रतेषु स्थाप्यते यावन्नाद्यापि प्रतिविशिष्टं तपीर्णं भवति पश्चाच्च चीर्णतपास्तदोषोपरतौ व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाईत्वाद 'नवस्थितप्रायश्चित्तम्, यद्वा यथोक्तं तपो यावन कृतं तावन्न व्रतेषु लिङ्गे वा स्थाप्यते इत्यनवस्थाप्यः, तस्यभावोऽनवस्थाप्यता ९ । 'पारंचिए चेव' ति 'अंचू गतौ' यस्मिन् प्रतिसेविते लिङ्गक्षेत्रकालतपसां पारमञ्श्चति तत्पाराञ्चितम् पाराचितमर्हति 'तदर्हती' ति ( पा० ५-१-६३) सूत्रेण डः पाराञ्चितम् यद्वा पारम् - अन्तं प्रायश्चित्तान १० नवस्थता प्रायश्चित्तं सं. 1 तदनवस्थित्वादनवस्थितप्रायश्चित्तं इति व्यवहारवृत्तौ (मा. १, प. २०) पाठ: ।। 1 ९८ द्वारे प्रायश्चित्त दशकं गाथा ७५० ७५८ प्र. आ. २१८ ॥ ४ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभारादपराधाना वा पारमश्चति--गच्छतीत्येवंशीलं पाराश्चि तदेव पाराश्चिकमिति १० ||७५०॥ अर्थतानि स्वयमेव व्याचष्टे-'आलोज्जई' इत्यादिगाथाषट्कम् , कार्येण-अवश्यकरणीयेन भिक्षा- | ९८ द्वारे ग्रहणादिना हस्तशतात्परत:-उद्ध्वं यद्गमनमुपलक्षणत्वादागमनादि च 'तदालोचनाहस्य गुरोः पुरत आलो- प्रायश्चित्तच्यते-वचसा प्रकटीक्रियते । इयमत्र भावना-गुरुमापृच्छय गुरुणाऽनुज्ञातः सन् स्वयोग्यभिक्षा-वस्त्र दशकं पात्र-शच्या संस्तारक-पादप्रोग्छनादि यदिवा आचार्योपाध्याय स्थविर-बाल ग्लान-शैक्षक-क्षपका-ऽसमर्थ गाथा प्रायोग्यवस्त्रपात्रभक्तपानौषधादि गृहीत्वा ममागतो यद्वा उच्चारभृमेविहाराद्वा समागतः अथवा चैत्य ७५०चन्दननिमित्तं पूर्वगृहीतपीठफलकादिप्रत्यर्पणनिमित्तं वा बहुश्रुतापूर्चसंविग्नानां वन्दनप्रत्ययं वा संशय ७५८ व्यवच्छेदाय वा श्राद्धस्वज्ञात्यवसन्नविहाराणां श्रद्धावृद्धयर्थं वा साधर्मिकाणां वा संयमोत्साहनिमित्त प्र. आ. हस्तशतात्परं दृरमासन्नं वा गत्वा समागतो यथाविधि गुरुसमश्नमालोचयतीति । इयं चालोचना गमना- २१८ गमनादिश्ववश्यकर्तव्येषु सम्यगुपयुक्तस्यादुष्टभावतया निरतिचारस्य छअस्थस्याप्रमत्तस्य यतेष्टव्या । सातिचारस्य तूपरितनप्रायश्चित्तसम्भवात् । केवलज्ञानिनश्च कृतकृत्यत्वेनालोचनाया अयोगात् । १सदालोचहेस्य-मु.॥२ तुलना-व्यवहारवृत्तिः मा. १, माध्य गा. ५७ पृ.२२ । ।। ३ सन् श्रतोपदेशनोपयुक्तः स्वयोग्य इति व्यवहारवृत्तौ (मा.१, पृ.२२B) पाठः ।। ४ श्राद्धस्य ज्ञात्य इति व्यवहारसूत्रवृत्तौ (भा.१, पृ. २२B) पाठः॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके | दशक आह-यानि नामावश्यकर्तव्यानि 'गमनागमनादिनि तेषु सम्यगुपयुक्तम्यादुष्टमावतया निरतिचारस्य 1९-द्वारे छास्थस्याप्रमत्तस्य किमालोचनया ?, तामन्तरेणापि तस्य शुद्धत्वात् , यथासूत्रं प्रवृत्तेः, सत्यमेतत् , प्रायश्चित्त केवलं याश्चेष्टानिमित्ताः सूक्ष्मप्रमादनिमित्ता वा सूक्ष्मा आश्रव क्रियास्ता आलोचनामात्रेण शुद्धयन्तीति छुद्धिनिमित्तमालोचना १ ।। गाथा तथा समितिप्रमुखाणा सहसाकारतोऽनाभोगतो वा कथमपि प्रमादे मति मिथ्याकरणे-अन्य धाकरण प्रतिक्रमणं-मिथ्यादष्कृतप्रदानलक्षणं प्रायश्चितं क्रियते । तत्र समितयः पञ्च, तद्यथा-ईयासमिति ७५८ र्भापासमितिरेपणामितिरादानभाण्डमात्रनिक्षेपणाममितिरुच्चारप्रश्रवणखेलमिगनजलपारिष्टापनिकासमिति प्र. आ. श्च, प्रमुखग्रहणाद् गुप्त्यादिपरिग्रहः, गुप्तयश्च तिसम्तद्यथा-मनोगुप्तिर्वचनगुप्तिः कायगुनिश्च । इयमत्र २१९ भावना-महमाकारतोऽनाभोगतो या ईर्यायां यदि कथा कथयन् व्रजेत , भाषायामपि यदि गृहस्थभाषया ढडरस्वरेण वा भाषेत, एपणायां भक्तपानगवेपण वेलायामनुपयुक्तो भाण्डोपकरणस्यादाने निक्षेपे वा अप्रमार्जयिता अप्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले उच्चारादीनां परिष्ठापयिता न च हिंसादोषमापन्नः, तथा यदि मनसा दुश्चिन्तितं स्यात् , वचसा दुर्भाषितं, कायेन दुश्चेष्टितं, तथा यदि कन्दपों वा हासो वा स्त्री-भक्त-चौर जनपदकथा वा तथा क्रोध-मान-माया-लोभेषु गमनं, विषयेषु वा शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शलक्षणे प्वमिष्वङ्गः सहसाऽनाभोगतो या कृतः स्यात्तत एतेषु सर्वेषु स्थानेषु आचार्यादिषु च मनसा प्रद्वेषादिकरणे १ गमनादीनि-मुः ॥ २ तुलना-व्यवहारसूत्रवृत्तिः मा.१, पृ.२३ : || ३ वनुषंगः इति व्यवहारसूत्रवृत्ती (मा. १, पृ. २३१) पाठः ॥ .. . ESSA i ... न Police - b Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ॥७॥ वाचा अन्तरभावादिकृतौ कायेन पुरोगमनादौ तथा इच्छामिध्यातथाकारादिप्रशस्त योगा करणे च मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणं प्रायश्चित्तमिति २ ॥७५१ ॥ तथा शब्दादिषु - शब्दरूपप्रभृतिष्विष्टानिष्टविषयेषु 'रागादिविरचनं' रागस्य - अभिष्वङ्गलक्षणस्य वादिग्रहण - अरणस्य मनोमात्रेण करणं गुरूणां पुरतः "साहि" ति कथयित्वा यदीयते मिथ्यादुष्कृतमेतत्प्रायश्चित्तं मिश्रमिति भणितम् । इयमत्र भावना - नानाप्रकारान् शब्दादीन् विषयान् इन्द्रियविषयभूताननुभूय कस्यचिदेवं संशयः स्याद् यथा शब्दादिषु विषयेषु रागद्वेषौ गतो वा न वेति, ततस्तस्मिन् 'शङ्काविषये मिश्र - पूर्वं गुरूणां पुरत आलोचनं तदनन्तरं गुरुसमादेशेन मिथ्यादुष्कृतदानमित्येवंरूपं प्रायश्चित्तं भावतः प्रतिपद्यते । यदि हि निश्चितं भवति यथा अमुकेषु शब्दादिषु विषयेषु राग द्वेषं वा गत इति, तत्र तपोऽहं प्रायश्चित्तम्, अथैवं निश्चयो-न गतो रागं द्वेष वा तत्र स शुद्ध एव न प्रायश्चित्तविषयः ३ ॥ ७५२ || तथा नेपणीये- अशुद्धे अशनादिके- अशन-पान खादिम - स्वादिमरूपे सकलौघिकौपग्रहलक्षणे च वस्तुनि गृहीते सति परित्यागः कार्यः । इदमुक्तं भवति - सम्यगुपयुक्तेन केनापि साधुना भक्तपानादिकं गृहीतं पश्चात्कथमासुकमनेपणीयं वा ज्ञातं तत्र प्रायश्चित्तं तस्य गृहीतस्य भक्तपानादेः परित्यागः । उपलक्षणमेतत् तेन एतदपि द्रष्टव्यम् - अशठभावेन गिरि-राहु- मेघ-महिकारजः समावृते सवितरि १ साहियं जे ।। २ संशयविषये मु. 1 तुलना व्यवहारसूत्रवृत्तिः भा, १, पृ. ३७ ॥ ३ तुलना- व्यवहारसूत्रवृत्तिः मा. १, पृ. ३५४ ॥ ९८ द्वारे प्रायश्चित्त दशकं गाथा ७५० ७५८ प्र. आ. २१९ ॥७॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे। सटीके ॥ ८ ॥ उद्गतबुद्धया अनस्तमितबुद्धया वा गृहीतमशनादिकं पश्चाद् ज्ञानमनुते अस्तमिते वा सूर्ये गृहीतं तथा reation गृहीत्वा चतुर्थीमपि पौरुषीं यावद् धृतमशनादि शठभावेनाशठभावेन वा अर्धयोजनातिक्रमणेन नीतमानात वाशनादि तत्र विवेक एक प्रायश्चित्तमिति । शठाशठयोश्चेदं लक्षणं-इन्द्रियविक थामायाक्रीडादिभिः कुर्वन् शठः, ग्लान' सागारिकास्थण्डिलभयादिकारणतोऽशठः ४ । तथा दुःस्वप्नप्रमुखे दृष्टे सति तद्विशोधनाय क्रियते कायोत्सर्गः तत्र दुःस्वप्नः- प्राणातिपातादिसावद्यबहुलः, प्रमुखग्रहणागमनागमननौ संतरणादिपरिग्रहः, एतेषु विषये कायोत्सर्गलक्षणं प्रायश्चित्तमिति भावः । उक्तं च "गमणागमणचियारे सुत्ने वा सुमिणदंस राओ | नावा नसतारे 'पायच्छित्तं विग्गो ॥१॥" [तु. आव.नि. १५३३, व्यवहारभा. प्र. १११] अत्र ' 'सुते वत्ति सूत्रे - मूत्रविषयेषु उद्देश समुद्देशाऽनुज्ञा-प्रस्थापन प्रतिक्रमण श्रुतस्कन्धाऽङ्गपरि'वर्तनादिष्वविधिमाचरणपरिहाराय प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः ५ || ७५३॥ १०सागारिकस्थंडिटर इति व्यवहारसूत्रवृत्तौ (भा. १, पृ. ३६B) पाठः ।। २ एतेष्वविषये जे. ॥ गमनागमनयोर्विचारे सूत्रे वा स्वप्नदर्शने शत्रौ । नावा नदीसंतरणे प्रायश्चित्तं व्युत्सर्गः ॥ १ ॥ ३. रियादिया पडकमणं-इति भव. नियुक्तौ पाठः ॥ ४ तुलना-व्यवहारसूत्रवृत्तिः मा. १ पृ. ३६ ॥ ५ वर्तनादिव विधिसभा इति व्यवहारसूत्रवृत्तौ (भा. १ पृ. ३९ ) पाठः ९८ द्वारे प्रायश्चित्त दशकं गाथा ७५०० ७५८ प्र. आ. २१९ ॥८॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे | सटीके वा समुच्चये, तथा पृथिव्यादिविघट्टने-सचित्तप्रथिवीकायादिसट्टने निर्विकृतिकादिकः षण्मासावसानस्तपोविशेषो दीयते छेदग्रन्थानुसारेण जीतकल्पानुसारेण वा, एतत्तपोलक्षणं प्रायश्चित्तमिति ६ । तथा तपसा दुर्दमस्य-विशोधयितुमशक्यस्य मुनेः क्रियते पर्यायव्यवच्छेदः महाव्रतारोपणकालादारभ्य अहोरात्रपञ्चकादिना क्रमेण श्रामण्यपर्यायच्छेदनम् , तत्र तपोदुर्दमो यः षण्मासक्षपकोऽन्यो वा विकृष्टतपःकरणसमर्थस्तपसा गर्वितो भवति यथा कि ममानेन प्रभूतेनापि तपसा क्रियते ? इति तपःकरणासमों वा ग्लानासहबालवृद्धादिः तथाविधतपःश्रद्धानरहितो वा निष्कारणतोऽपवादरुचिर्वति ॥७५४|| तथा प्राणातिपातप्रमुखे-प्राणिवध-मृपावादादिकेऽपराधे सङ्कल्प्य कृते पुन तारोपणं-भृयोऽपि व्रतस्थापनं विधातव्यम् । अयमर्थः-आकुट्टया पञ्चेन्द्रियजीववधे विहिते दर्पण मैथुने सेविते मृषावादा-दत्तादान-परिग्रहेषु च उत्कृष्टेषु प्रतिसेवितेषु आकुट्टया पुनः पुनः सेवितेषु वा मृलाभिधानमेतत्प्रायश्चित्तं भवतीति । तथा करादिभिः-मुष्टियष्टिप्रभृतिर्घातो मरणनिरपेक्षतया आत्मनः परस्य वा स्वपक्षगतस्य परपक्षगतस्य वा घोरपरिणामतः प्रहरणं तेन प्रदुष्टमना-अतिसक्लिष्टचित्ताध्यबसायो न व्रतेषु स्थाप्यते यावदुचितं तपो न कृतं स्यात् । उचितं च तपःकर्म उत्थाननिषदनाद्यशक्तिपर्यन्तम् , स हि यदा उत्थानाद्यपि कतु - मशक्तस्तदा 'अन्यान् प्राथयते-आर्या ! उत्थातुमिच्छामीत्यादि , ते तु तेन सह सम्भाषणमकुर्वाणास्तत्कत्यं कुर्वन्ति । एतावति तपसि कृते तस्योत्थापना क्रियत इति १ ॥७५५॥ १ तुलना-योगशास्त्रवृत्तिःश६०, प. ३१२।। ९८ द्वारे प्रायश्चित्त. दशक गाथा ७५०७५८ प्र.आ. २२० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके १८द्वारे प्रायश्चित्त ॥१०॥ ७५८ तथा पाराश्चिकं नाम दशानं प्रायश्रितमापाने म्बलिङ्गिनी नृण्मार्यादिसेवाभिः, आदिशब्दाल्लिङ्गिघातराजवधादिपरिग्रहः । एतच्च अव्यक्तलिङ्गधारिणां जिनकल्पिकप्रतिरूपाणां क्षेत्रावहिःस्थिताना सुविपुलं तपः कुर्वतां महासचाना मुरीणाम्- आचार्याणामेव जघन्यतः षण्मासान् उत्कृष्टतो द्वादश वर्षाणि यावद्भवति, ततश्च-अतिचारपारगमनानन्तरं प्रव्राज्यते नान्यथेति १० ॥७५६।। अथात्रैव विशेषमाह- "नवरं गाहा, नवरं-केवलं दशमप्रायश्चित्तापत्तावपि मत्यां नवममेव-अन. वस्थाप्यलक्षणं प्रायश्चित्तमध्यापकाना-उपाध्यायानां भवति । अयमर्थ:-येषु येप्वपराधेपु पागश्चिकमापद्यते तेषु तेष्वपि बहुशः समासेवितेषु उपाध्यायस्यानवम्थाप्यमेव प्रायश्चितं भवति, न तु पाराश्चिकम् , उपाध्याय स्यानवस्थाप्यपर्यन्तस्यैव प्रायश्चित्तस्य प्रतिपादनात् । एवं सामान्य साधूनामप्यनवस्थाप्यपाराश्चिकयोग्ये वपराधेषु सत्सु मृलपर्यन्तमेव प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् , तच्चानवस्थाप्यं जघन्यतः षण्मासान यावद्भवति उत्कृष्टतस्तु वर्षमिति । इदं च आशातनानवस्थाप्यमाश्रित्योक्तम् , प्रतिसेवनानवस्थाप्यापेक्षया तु जघन्यतो वर्षमुत्कृष्टतो द्वादश वर्षाणि । उक्तं च ___ "तत्थ आसायणाअणवट्ठप्पो जहन्नेणं छम्मासा उक्कोसेणं संवच्छर, पडिसेत्रणाअणवट्ठप्पो जहन्नेणं बारस मासा उक्कोसेणं बारस संबच्छराणि" ति । तत्र तीर्थकरप्रवचनगणधरायधिक्षेपकारी आशातनानवस्थाप्यः । हस्तताडनसाधर्मिकान्यधार्मिकस्तैन्यकारी प्रतिसेवनानवस्थाप्यः ॥७॥७॥ १ 'नवर' मित्यादिगाथात्रयं-मु. ॥ २ आशातनानवस्थाप्या. सं.॥ . प्र.आ. २२० Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके नन्वेतानि दशापि प्रायश्चित्तानि यावत्तीथं तावद्भवन्ति ? उत नेत्याह-'दस ता' गाहा, यावचतुर्दशपूर्वी प्रथमसंहननी च ताबद्दश प्रायश्चित्तानि अनुषजन्ति-अनुवर्तन्ते, एतौ च चतुर्दशपूर्वि-प्रथमसंहननिनौ युगपदेव व्यवच्छिनौ, तयोश्च व्युच्छिन्नयोरनवस्थाप्यं पाराश्चितं च व्यवच्छिन्नम् , ततः द्वारे परण-अनवस्थाय-पाराश्वतव्यपच्छदादनन्तरमालोचनादि मूलान्तमष्टविधं प्रायश्चित्तं तावदनुवर्तमानं ओघपदबोद्धव्यं यावद् दुष्प्रसभनामा सूरिः, तस्मिश्च कालगते तीर्थ चारित्रं च व्यवच्छेदमुपयास्यतीति विभाग॥७५८॥१८॥ सामाचायौं .. इदानीम् 'ओहम्मि पयविभागम्मि सामाचारीदुर्ग' ति नवनवतं शततमं च द्वारमाह-- गाथा सामायारी ओहं मि ओहनिज्जुसिजंपियं सव्वं । ७५९ सा पयविमागसामायारी जायगंधुत्ता ।।७५९॥ प्र.आ. 'सामायारी' गाहा, समाचरणं समाचार:-शिष्टजनाचरितः क्रियाकलापः, समाचार एव | २२० सामाचार्यम् , भेषजादित्वात् स्वार्थे प्यञ् [पा०५-४-२३] स्त्रीविवक्षायां 'पिद्गौरादिभ्यश्चेति [पा० ४-१-४१] डीप्, 'यस्ये' [यस्येति च पा० ६-४-१४८] त्यकारलोपः, यस्य हल (पा०६-४-४९) इत्यनेन तद्धितयकारलोपः । परगमनं सामाचारी, "सा विधा भवति-ओघसामाचारी दशधासामाचारी पदविभागसामाचारी च । तत्र ओघः-सामान्यं तद्विषयासामाचारी-सामान्यतः सङ्क्रपाभिधानरूपा साच ओधनियुक्तिजल्पितं सर्व क्षेयम् , तत्र हि वतिनामोघतः सर्वसमाचारः प्रत्युपेक्षणादिका कथ्यते इति । ॥११॥ १च.मु.नास्ति ।। २ छेयगंधुत्ती-जे. ३ तुलना-आप, मलयावृत्तिः प. ३४१ । || ४ तुलना-भोपनिवृत्तिः प. १ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीक तथा सा पदविभागसामाचारी या छेदग्रन्धेपु-जोतकल्प-निशीथादिक्तेति, इह च साम्प्रतकालप्रजितानां तथाविधश्रुतपरिज्ञानशक्तिविकलानामायुष्कादिाहासमपेक्ष्य ओघसामाचारी नवमात्पूर्वान् तृतीयाद्वस्तुन द्वारे आचाराभिधानात तत्रापि विंशतितमात्याभृतात् तत्राभ्योधप्राभृतप्राभृतात् 'निदा । पदविभागसामाचार्यपि चक्रवालनवमपूर्वादेव 'नियू टेति ॥७५९॥९९-१०॥ समाचारी इदानीमेकशततमं 'चक्कदालसामायारी' ति द्वारमाह--- गाथा इच्छा ? मिच्छा २ तहक्कारो ३, आवस्सिया य ४ निसोहिया ५ । ७६०. आपुच्छणा य ६ पडिपुच्छा ७, छंदणा य ८ निमंतणा ॥७६०॥ ७६७ भगवती . श. २५/उ.७,सू.८०१] |प्र.आ. उवसंपया य १० काले, सामायारी भवे दसविहा उ । २२१ एएसिं तु पयाणं,पत्तेयपरूवणं वोच्छं ॥७६१॥[उत्तराध्ययननि,४८२-३,पञ्चाशकप्र.१२।२-३] जइ अभत्थिज्ज परं कारणजाए करेज्ज से कोई । तत्थ य इच्छाकारी न कप्पड़ बलाभिओगो उ १ ॥ ७६२ ॥ संजमजोए अन्भुट्टियस्स जं किंपि वितहमायरियं । मिच्छा एयंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं २ ॥७६३॥ १ निव्यूढा-मुः। ओघनि-वृत्तौ [पृ.१] अपि. नियूंढा-इति पाठः ॥ २ निव्यू टेति-मु.॥ SMORE Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे | १०१द्वारे सटीके चक्रवाल समाचारी गाथा कप्पाकप्पे परिनिष्ट्रियस्स ठाणेः बसु छियरस । संयमतवड्गस्स उ अषिकप्पेणं तहक्कारो ३ ॥ ७६४ ॥ [ आवनि. ६६६,६६७-६६८.६८२,६८८-पश्चा.प्र.१२।१०,१४] आवस्सिया विहेया अवस्सगंतव्वकारणे 'मुणिणा ४ । सम्मि निसीहिया जत्थ सेज्जठाणाइ आयरइ ५ ॥ ७६५ ।। आपुच्छणा उ कज्जे ६ पुष्वनिसिहण होइ पडिपुच्छा ७ । पुव्वगहिएण छंदण ८ निमंतणा होअगहिएणं ९ ॥७६६॥ [आव.नि.६६७] उवसंपया य तिचिहा नाणे तह दसणे चरित्ते य १० । एसा हु दसपयारा सामायारी तहऽन्ना य ॥७६७॥ 'इच्छे' त्यादिगाथाष्टकम् , "एपणमिच्छा, करणं-कारः, कारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, इच्छया बलाभियोगमन्तरेण करणं इच्छाकारः, तथा च इच्छाकारण ममेदं कुर्विति । किसुक्तं भवति ?-इच्छाक्रियया न बलाभियोगपूर्विकया ममेदं कुर्विति १ । तथा मिथ्या वितथमनृतमिति पर्यायाः। मिथ्याकरणं मिथ्याकारो मिथ्याक्रियेत्यर्थः । तथा च संयमयोगवितथाचरणे विदितजिनवचनसाराः साधवस्तक्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय मिथ्याकारं विदधते मिथ्या १ मुणिणो-मु.॥२ होइअगहिएणं-ता.॥ ३ तुलना-भावश्यकसूत्रस्य हारिमद्रीवृत्तिः (पृ.२५८४ :) मलयगिरीया वृत्तिः (पृ.३४२ तः) ।।४ तथा संयम. मु.। आव. हारिभद्रथाम भाव. मलय. वृत्तावपि तथा च संयम इति पाठः॥ प्र. आ. %AA Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीक ।।१४।। क्रियमिति । तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नादिगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथैवेदमित्येवं स्वरूपः ३ । तथा अवश्यम् - अवश्यशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति ततोऽवश्यस्य - अवश्यं कर्तव्यस्य क्रिया आवश्यकी, चः समुच्चये ४ | तथा निषेधेन - असंतगात्रानिवारणेन निर्वृता तत्प्रयोजना वा या शय्यादिप्रवेशनकिया साधक ५ तथा आच्छनमाच्छा, सा विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेषु गुगेः करणीया, चः पूर्ववत् ६ तथा प्रतिछा-प्रतिप्रश्नः सा च प्राग्नियुक्तेनापि करणकाले कार्या निविदेन वा प्रयोजनतः तुकामेनेति । तथा छन्दना - पूर्वगृहीतेनाशनादिना आमन्त्रणा विधेया । तथा निमन्त्रणा अगृहीतेनैवाशनादिना अहं HEदर्थमशनाद्यानयामीत्येवंरूपा । तथोपपच्च विधिना देया, इयं कालेकालविषये सामाचारी भवेद् दशविधा । एवं तावत्समासत उक्ता, सम्प्रति प्रपञ्चतः प्रतिपदमभिधित्सुरिदमाह-एतेषां पदानां तुविशेषणे विपयप्रदर्शनेन प्रत्येकं पृथकरूपणां वक्ष्ये कथयामि ॥७६०-७६१ ॥ छारो पर्थेषु क्रियते तत्प्रदर्शनार्थमाह-जईत्यादि यदीत्यभ्युपगमे अन्यथा साधनामकारणे अभ्यर्थनैव न कल्पते । ततथ यदि अभ्यर्थयेत्परम् - अन्यं साधु ग्लानादौ कारणजाते समुत्पन्ने सति, ततस्तेनाभ्यर्थयमानेन इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः । यदिवा अनभ्यर्थितोऽपि कोऽप्यन्यः साधुः 'से' ति तस्य कर्तुकामस्य कस्यचित्साधोः कारणजाते कुर्यात्, तत्रापि तेनानभ्यर्थितेन साधुना तस्य चिकीर्षितं तुकामेन इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः । इह विरलाः केचिदनभ्यर्थिता एव परकार्यकर्तार इति कोऽपीतिग्रहणम् । १ तुलना पचाशक वृत्तिः ५. १९४ ।। २ विधिनाऽऽदेवा इति भव. हारिभद्रां पाठः ॥ ३ एवं काले-इति भावः हारिमद्रयाम् भव मलयः वृत्तौ च पाठः ॥ १०१ द्वारे चक्रवाल समाचारी गाथा ७६० ७६७ प्र. आ. २२१ ॥१४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ॥१५॥ अथ कस्मादिच्छाकारप्रयोगः क्रियते ?, उच्यते बलाभियोगो मा भूदिति हेतोः । तथा चाह-यतो न कल्पते बलाभियोगः साधनाम्, तत इच्छाकारप्रयोगः कर्तव्यः । तुशब्दः काचिद्बलाभियोगोऽपि कल्पते इति सूचनार्थः १ ॥७६२॥ सम्प्रति मिथ्याकारविषयप्रतिपादनार्थमाह- संजमजोर' गाहा, 'संयमयोगः -समितिगुप्तिरूपः तस्मिन् विषयेयुत्थितस्य सतो यत्किञ्चिद्वितथम् अन्यथाऽऽचरितम् - आसेवितं भूतमिति शेषः, मिथ्या विपरीतमेतदिति विज्ञाय किं १- मिथ्येति कर्तव्यं तद्विषये मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः, संयमयोगविषयायां च प्रवृत्तों वितथासेवने मिथ्यादुष्कृतं दोषापनयनाय समर्थम्, न तूपेत्यकरणविषयायां नाप्यसकृत्करणगोचरायामिति २ ॥ ७६३॥ 1 इदानीं तथाकारी यस्य दीयते तत्प्रतिपिपादयिपुराह - 'कप्पाकप्पे' गाहा, कल्पो विधिराचार इति पर्यायाः, कल्पविपरीतस्त्वकल्पः, जिनस्थविरकल्पादिर्वा कल्पः, चरकसुगतादिदीक्षा पुनरकल्प इति । कल्पश्वाकल्पश्च कल्पा कल्पमित्येकवद्भावः तस्मिन् परि-समन्ताभिष्टितः परिनिष्ठितो ज्ञाननिष्ठां प्राप्तस्तस्य । अनेन च ज्ञानसम्पदुक्ता । तथा तिष्ठन्ति मुमुज़वो येषु तानि स्थानानि - महाव्रतानि, तेषु पञ्चसु - पश्चसख्येषु स्थितस्य- आश्रितस्य अनेन च मूलगुणसम्पत्तिरुक्ता । तथा संयमः प्रत्युपेचोत्प्रेक्षादिः, तपश्च- अनशनादि, ताभ्यामाध्यस्य-सम्पन्नस्येत्यनेनोत्तरगुण युक्ततामाह । तस्य, ॥ १ तुलना - आव हारिभद्रीयवृत्तिः (प. २६३ 13 ) आव मलय वृत्ति: प. ३४६ २ तुलना - आष. हारिभद्रया वृत्तिः प. २६४ छ, भाव. मलय. वृत्तिः प. ३४७०, पलाशवृत्तिः प. १९८ ॥ १०१६ चक्रवाल समाचार गाथा ७६० ७६७ प्र. आ. २२२ ॥१५॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके किमित्याह–'अविकल्पेन' निर्विकल्पं तदीयवचने वितथत्वाशङ्कामकुर्वाणेनेत्यर्थः तथाकारः । कार्य |१०१द्वा इत्यध्याहारः । कोऽभिप्रायः ?-एवंविधस्य गुरोर्वाचनादानादौ पृच्छनानन्तरमुत्तरदाने तथा सामाचारी चक्रवालशिक्षणादौ च यथा यूयं वदथ तथैवै तदित्यर्थसंसूचकस्तथाशब्दः प्रयोक्तव्यः ३ ॥७६४।। समाचारी ___इदानीमावश्यिकी-नेपेधिकीद्वारद्वयमाह-'आवस्सिया गाहा, 'आवश्यिकी विधेया वसते | गाथा निर्गच्छता साधुना अवश्यं गन्तव्ये ज्ञानादिवरादेत ते भिक्षाटनादौ कारणे सति, अनेन निष्कारणगमननिषेध उक्तः ४ । तथा बहिर्देशानिवृत्तेन तस्मिन् स्थाने नैपेधिकी विधेया यत्र शय्यास्थानायाचरति । तत्र शय्या-वसतिस्तस्यां स्थानम्-अवस्थानं तच्च प्रस्तावात्प्रवेशलक्षणम् आदिशब्दाच्चैत्यप्रवेशादि परिग्रहः, बहिर्देशाद्वसत्यादौ प्रविशन नैवेधिकी विदध्यादिति भावः ५ ॥७६५।। २२२ साम्प्रतमापृच्छादिद्वारचतुष्टयमेकगाथया प्राह-'आपुच्छणा' गाहा, आपृच्छनमापृच्छा सा च कतुमभीष्टे कार्ये प्रवर्तमानेन गुरोः कार्या-भगवन् ! अहमिदं करोमीति । द्वारम् ६ । तथा पूर्वनिषिद्धेन सता यथा त्वयेदं न कर्तव्यमिति । उत्पन्ने च प्रयोजने कतु कामेन होइ पडिपुच्छ' त्ति भवति प्रतिपृच्छा पूज्यरिदं निषिद्ध मासीत् इदानीं तेन कार्येण प्रयोजनं यदि पूज्या आदिशन्ति तदा करोमीत्येवंरूपा । पाठान्तरं वा 'पुवनिउत्तेण होइ पडिपुग्छ' त्ति पूर्व नियुक्तेन सता यथा भवतेदं कार्यमिति तत्कतु कामेन गुरोः प्रतिपच्छा भवति कर्तव्या, अहं तस्करोमीति । तत्र हि गुरुः कदाचित्कार्यान्तरमादिशति समाप्त -rrrieromr- train . १ मावश्यकी-मु.॥२ तुलना आवश्यक हारिमद्रीया वृत्तिः (प. २६५), माल. मलय. वृत्तिः प. ३५० ॥ . Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १०१ द्वारे चक्रवालसमाचारी गाथा ७६० ॥१७॥ वा तेन प्रयोजनमिति । द्वारम् । तथा पूर्वगृहीतेनाशनादिना छन्दना शेषसाघुभ्यः कर्तव्या, यथा मयेदमशनाद्यानीतं यदि कस्यचिदुपयुज्यते ततोऽमाविच्छा कारण ग्रहणं करोत्विति । द्वारम् ८ । तथा निमन्त्रणा भवत्यगृहीतेनाशनादिना, यथाऽहं भवतां योग्यमशनाद्यानयामीति । द्वारम् ॥७६६॥ इदानीमुपसम्पद्वारमाह-'उपसंपया य' गाहा, उपसम्पदनमपसम्पत्-कस्माश्चिदप्यपरगुरुकुलादपरस्य विशिष्टश्रुतादियुक्तस्य गुरोः समीयागमन मिति । सा च 'विधा-ज्ञाने ज्ञानविषया एवं दर्शनविषया चारित्रविपया च । तत्र ज्ञान-दर्शनयोः सम्बन्धिनी त्रिधा भवति-वर्तना सन्धना ग्रहणं च । एतदर्थं हि उपसम्पद्यते इति । तत्र वर्तना पूर्वगृहीतस्यैयास्थिरस्य सूत्रादेगुणमिति । सन्धना च-तम्यैव सूत्रादेः प्रदेशान्तरे विस्मृतस्य मीलना घटना योजनेत्यर्थः । ग्रहणं पुनस्तस्यैव तत्प्रथमतया आदानम् । एतत् त्रितयमपि सूत्रार्थतदुभयविषयमवगन्तव्यम् , एवं ज्ञाने नव भेदाः । तथा दर्शनेऽपि दर्शनप्रभावकसंमत्यादिशास्त्रविषये एत एव भेदा विजेया इति । तथा चास्त्रिविषया द्विधा सम्पन्चे यावृत्त्यविषया क्षपणविषया च अयमाशयः चारित्रार्थमन्यगच्छमत्काचार्याय कश्चिद्वैयावृत्यकरत्वं प्रतिपद्यते । स च कालतः कश्विदित्वरकालम् , कश्चिच्च यावज्जीवमिति । अत्राह पर:-ननु "किमत्रोपसम्पदा कार्यम् ?, स्वगच्छ एवायं चारित्रार्थ किमिति वैयावृत्यं न १.तुलना-आवश्यकहारिमद्रीया वृत्तिः (प. २६७ B तः) आव. मलय. वृत्तिः ५.३५० BIH २ घटना-मुः । आव हारिभद्रयामपि (५.२६७ ॥) भाव. मलय. वृत्तौ (३५० B ) अपि घटना इति पाठः ॥ ३ तुलना-भाव. हारिभद्रीयावृत्तिः प. २७०Bi आव.मलयावृत्तिः प. ३५४ ॥ प्र.आ. २२२ ॥१७॥ DoAAA AAAMAN Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके करोति ?, सत्यम् , स्वगच्छे न तथाविधा निर्वाहादिसामग्री वैयावृत्यादिकरणक्षमा समस्ति ततः परगच्छोपसम्पदं करोतीति । तथा क्षपणविषय भवति-यथा कश्चित्क्षपणार्थमुपसम्पद्यते, 'सच क्षपको ||१०१ द्वारे सामाचार्यः द्विविधः-इत्वरो यावत्कथिकश्च । यावत्कथिक उत्तरकालेऽनशनकर्ता । इत्वरस्तु द्विविधो-विकृष्टक्षपको गाथा ऽविकृष्टक्षपकश्च । तत्राष्टम-दशमादिकर्ता विकृष्टक्षपकः । पठान्ततपःकारी तु अविकृष्टक्षपक इत्यादिम्वरूप ७६८ 'मावश्यकादिभ्यो विज्ञेयमिति १० । एषा हुः-स्फुट चक्रबाले-चक्रवालविषया चक्रवत्प्रतिपदं भ्रमन्ती प्र.आ. दशविधा सामाचारी विज्ञेयेति शेषः । तथा अन्या च वक्ष्यमाणा सामाचारी दशविधा ज्ञेया ॥७६७॥ तामेवाहपडिलेहणा १ पमज्जण २ भिक्ख ३ रिया ४ '55लोय ५ भुजणा ६ चेव । 'पत्तगधुवण ५ वियारा ८ थंडिल ९ आवस्सयाईया १० ॥३८॥ [पञ्चव. २३०] 'पहिलेहणा' गाहा, पूर्वाहणेऽपराहणे च वस-पात्रादीनां प्रत्युपेशणा विधेया १, तथा प्रमार्जना वसतेः पराहणे च कर्तव्या २, तथा कृतकायिकादिव्यापाराः पात्राणि गृहीत्वा आवश्यकीकरणपूर्व 'वसते. निर्गत्याहारादिषु मुर्छामकुर्वन्तः पिण्डग्रहणेषणायां सम्यगुपयुक्ताः साधयो 'भिक्ख'त्ति मिक्षा गृह्णन्ति ३, तथा भिक्षाग्रहणानन्तरं नैपेधिकीपूर्व वसती प्रविश्य 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' इत्येवरूपं वाचिकं नमस्कार ।।१८॥ १ तुलना-आवश्यकहारिमद्रीया वृत्तिः (प..२७१ ) पाव. मलय. वृत्तिः प. ३५४ B॥२ आवश्यकनियुक्तिः ७१६. पवाशकथुत्तिः [१२।४७] च द्रष्टव्या ॥ ३ ०ऽऽलोग-मु. ।। ४. पत्तगधुयण-मु. ।। ५ पसतेर्विनि सं.॥ : 8731SE 12 SRIODA STRA PAR AMMERS लमnlintuilunes RESENIML I P-Hindi Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१०१ द्वारे सामाचार्यः गाथा मुच्चार्य योग्यदेशं चक्षुःप्रत्युपेक्षणापुरस्सरं रजोहरणेन प्रमृज्य 'ईरिय' ति ईर्यापथिकी प्रतिक्रामन्ति ४, प्रवचन- कायोत्सर्गे च भिक्षाभ्रमणभाविनो निर्गमनादारभ्य प्रवेशपर्यन्तान् पुरःकर्मादीनतिचारान् गुरुनिवेदनार्थ सारोद्धारे चिन्तयन्ति । पारयित्वा च चतुर्विशतिस्तवं पठन्तीति, तथा च चतुर्विंशतिस्तपाठानन्तरं भावतश्चारित्रपरिसटीके । णामापन्नाः सन्तो गुरोगुरुसम्मतस्य वा ज्येष्ठार्यस्य पुरतो यदोदनादि येन प्रकारेण करोटिकाप्रभृतिभाज नादिना गृहीतं तत्सर्व तथैव प्रवचनोक्तेन विधिना 'आलोय' ति आलोचयन्ति निवेदयन्तीत्यर्थः । तदनन्तरं दालोचितभक्तपानयोनिमित्तमेपणानेपणयोर्वा निमित्त कायोत्सर्ग कुर्वन्ति । इच्छामि पडिक्कमिउं गोयरचरियाए भिक्खायरियाए जाब तस्स बिछामि युगडं, रामः उत्तरीकर शेणं जाव वोसिरामि' त्ति कायोत्सर्ग कुर्वन्ति च । तत्र नमस्कारं 'जई मे अणुग्गहं कुज्जा 'साहू हुज्जामि तारिओ' इत्यादि वा चिन्तयेत् । * यदुक्तमोघनियुक्तौ'तहि दुरालोइयभत्तपाणएसणमणेमणाए उ । अट्ठस्सासे अहवा अणग्गहाई व झाइज्जा ॥२॥ [तुलना-ओपनि.मा. २७४ ] दशवकालिके त्वस्मिन् कायोत्सर्गे 'अहो जिणेहि असावज्जा' इतिगाथाचिन्तनं भणितम् , पारयित्वा च चतुर्विंशतिस्तवमणनम् , तदनु परिश्रमाद्यपनयनाय मुहूर्त्तमुपविष्टाः स्वाध्यायं विदधत्तीति ५ । तथा निःसागारिके स्थाने रागद्वेषविरहिताः सन्तो नमस्कारं पठित्वा 'सन्दिशत पारयाम' इत्यभिधाय च गुरुणा ७६८ प्र.आ. २२३ . चिहनद्वयमध्यवर्तिपाठ जे. नास्ति ।। १साहू' इत्यादि-मुः।। चिहृदयमध्यवर्तीपाठः जे. नास्ति ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे। द्वारे सटीके उपशमअणिः गाथा imammiinm ऽनुज्ञाता व्रणलेपायुपमया"भुजण'त्ति-भोजनं कुर्वन्ति ६ । तथा भोजनानन्तरमन्छोदकेन भाजनेषु समयप्रसिद्धं कल्पवयं दया 'पत्तगधुवण' ति पात्रकाणां धावनं कुर्वन्ति, समयपरिभाषया त्रेप्यन्तीत्यर्थः ७ । तदनु यद्यपि प्रागे काशनकं प्रत्याख्यातं तथाध्यप्रमादार्थ 'मागारिकाकारणं गुरुअब्भुट्टाणेणं आउंटणपमाग एरिटायणि नमारेगा' इत्येषां प्राग्गृहीतानामाकाणां च निगेधनार्थ ग्रन्याख्यानं विधेयमिति, तथा 'वियार'त्ति विचार:-पंज्ञाव्युत्मजनार्थ बहिरामनं तं वक्ष्यमाण विधिना कुर्वन्ति ८ तथा 'थंडिलं ति स्थण्डिलं-परानुपरोधि प्रासुकभूभागलक्षणं निर्यग् जघन्येन हम्तमात्रं प्रतिस्तेषयन्ति, तच्च सप्तविंशतिविधम् , तथाहि-कायिकायोग्यानि वसतेमध्ये पट् स्थण्डिलानि बहिभागेऽपि पडेय, मिलिनानि च द्वादश. एवमुच्चारयोग्यान्यपि द्वादश, त्रीणि च कालग्रहणयोग्यानीति है । नथा पूर्वोक्तविधिना 'आवस्सय' त्ति आवश्यक-प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति । आदिशब्दात्कालग्रहणादिपरिग्रहः इत्येषा प्रकारान्तरेण दशविधा प्रतिदिनसामाचारी समायतो व्याख्याता । विस्तरस्तु पञ्चवस्तुकद्विनीयद्वारादव से येति ॥७६८॥१०१।। इदानीं 'निग्गयत्तं जोवस्स पंच वाराओ भववासे ति द्वय त्तरशततमं द्वारमाह---- उवसमसेणिचउक्कं जायइ जीवस्स आभवं नूणं । ... ता पुण दो एगभवे खवगस्सेणी पुणो एगा ॥७६६।। ...'उवसमसेणि' गाहा, उपशमश्रेणिचतुष्क्रम्-उपशमश्रेणिचतुष्टयमेव जायते-भवति जीवस्याभ-संसारे वर्तमानस्य तत् नूनं-निश्चितम् । उत्कर्षतो नानाभवेषु बारचतुष्टयमुपशमश्रेणि प्रतिपद्यत भुजन्ति- भोजन-मु.॥ २ गाथा २३० तः द्रष्टव्यम्। २२४ Mareasiess Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके |१०३ द्वारे साधुविहार स्वरुपं गाथा ॥२१॥ ७७०. इति भावः, ते पुनरुपशमश्रेण्यौ एकस्मिन् भवे उत्कर्षतो द्वे भवतः । झपकणिः पुनरेवै कस्मिन् भवे भवति । ततोऽयमर्थः-उपशान्तमोहे क्षीणमोहे च मुस्थानके निधन भवति । योपशमश्रेणिचतुष्टये अपकश्रेणौ चैकस्यां कृतायां पञ्चधा भवत्युत्कर्षतः संसारे वसतो जीवस्येति ।।७६६॥१२॥ इदानीं 'साहुषिहारसरूवं' ति व्युत्तरशततमं द्वारमाह गीयत्यो य विहारो बीओ गोयत्थमीसओ भणिओ । एत्तो तइयविहारो नाणन्नाओ जिणवरेहिं ।७७०॥ [. क. मा. ६८८, व्यवहारभा. उ. २ गा.२०, ओघनि. १२१] दव्दओ चक्खुसा पेहे, 'जुगमित्तं तु खेसओ । कालओ जाव रीएज्जा, उवउत्तो य भावओ ॥७७१॥ [उत्तगध्ययनम्. २४७] 'गीयत्थो य' गाहा, गीतो-विज्ञातः कृत्याकृत्यलक्षणोऽर्थो येस्ते गीतार्था-बहुश्रुताः साधवः, तत्सम्बन्धित्वाद्गीतार्थः, चशब्दः समुच्चये भिन्नक्रमश्च, विहारो-विचरणं प्रथम इति गम्यते । द्वितीयश्चअन्यो विहारो गीता मिश्राः-समन्विता येऽगीतार्थास्ते गीतार्थमिश्रास्तेषां सत्को गीतार्थमिश्रः स एव गीतार्थमिश्रको भणितः-उक्तो जिनैविधेयतया । पाठान्तरं गीतार्थनिश्रित इति, तत्र गीतार्थस्य निश्राआश्रयणं गीतार्थनिश्रा सा सञ्जाता अस्येति गीतार्थनिश्रितः । इत:-आभ्यां द्वाभ्यां विहाराभ्यामन्यस्तृतीय एकानेकागीतार्थसाधुरूपो नानुज्ञातो-नानुमतो विधेयतया जिनवरैरिति ॥७७०॥ १ जुगुमेत-ता.॥२ उप -मु.॥ ॥२१॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे अप्रति सटीके ॥२२॥ विहारः गाथा विहारचतुर्विधो भवति, द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, एतदेवाह-दिव्वओ' इत्यादि, द्रव्यतश्च. क्षुषा प्रेक्षते मार्गस्थितान् जीवानिति शेषः, क्षेत्रतो युगमात्र क्षेत्रम् , युगं-यूपं चतुर्हस्तप्रमाणं तत्प्रमाण भूमि निरीक्षेत, अत्यासन्नस्य दृष्टस्यापि कस्यचिज्जीवादेः रक्षितुमशक्यत्वात ( ग्रन्थानं ८०००) युगमात्राच्च परतः श्लक्ष्णाजीवादेष्टुमप्यशश्यत्वादिति युगमात्रग्रहणम् , कालतो यावत्कालं मुहर्त प्रहरादिकं 'रोएज्ज' ति गच्छेत , भावतश्च उपयुक्तः-सम्यगुपयोगपर इनि ॥७७१।१०३॥ साम्प्रतम् 'अप्पडिबद्धविहारो' त्ति चतुरुत्तरशनमं द्वारमाह अप्पडिबडो अ सया गुरूवएसेण सध्यभावेसु । मासाइविहारेणं 'विहरेज्ज जहोचियं नियमा ७७२॥ मुत्तूण मासकप्पं अन्नो सुत्तमि नथि उ बिहारो । ता कहमाइग्गहणं कज्जे ऊणाइभावेणं ॥७७३।। [पञ्चव० ८६५-६] कालाइदोसओ जइ न दवओ एस कारण नियमा । भावेण तहवि कीरइ संथारगवच्चयाईहिं ॥७७४।। काऊण मासकरूपं तत्थेव ठियाण तीस मग्गसिरे । सालंबणाण जिद्दोग्गही य छम्मासिओ होइ ॥७७५|| विहरेइ-ता.॥२ कीरये-जे । कीरई-इति घ.सं. वृत्तौ पाठ: मा. २ । प. १४७ B॥ ३ काऊण (कम्हिंपि)-मु.॥ ७७१ [प्र. आ. २२५ SHRS MONIAN ROMANNA Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १०४द्वारे अप्रति बद्ध अह अस्थि पयविचारो चउपाडिवयंमि होइ निग्गमणं । अहवावि अनितस्स 'आरोषण सुत्तनिधि ॥७७६॥ [वृ. क. भा. ४२८६-७] एगखेलाधिशासी काशाइएकाचारिगो जइवि । । तहवि हु विसुहचरणा विसुद्धआलंघणा जेण ॥७७७॥ सालंधणो पड़तो अत्ताणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालवणसेवी धारेइ जई असहभावं ॥७७८॥ [आव. नि. ११७२] . काहं अछित्ति अदुवा *अहीहं तवोवहाणेसु य उज्जमिस्स ।। .. गणं व नीईसु य सारइस्सं, सालंयसेवी समुवेइ मोक्त्रं ॥७७९॥ ... "अप्पडिबडो' इत्यादि गाथाऽष्टकम् , अप्रतिबद्धश्च सदा-सर्वकालमभिष्वङ्गरहित इत्यर्थः, गुरूप- देशेन हेतुभूतेन, क्रेत्याह-सर्वभायेषु द्रव्यादिषु, "तत्र द्रव्ये-श्रावकादी, क्षेत्रे- “निवातसत्यादौ, कालेशग्दादो, भावे-शरीरोपचयादौ अप्रतिबद्धः, किमित्याह-मासादिविहारेण सिद्धान्तप्रसिद्धेन विहरेत-विहारं कुर्यात् । “यथोचित-संहननायौचित्येन नियमाद्- 'अवश्यंभावत इति । एतदुक्तं भवति-द्रव्यादिप्रतिबद्धः सुखलिप्सुतया तावदेकत्र न तिष्ठेत् । किं तर्हि १, पुष्टालम्बनेन, मासकल्पादिना विहारोऽपि च १ आरोयण सुत्तनिदिदा जे. २ ता । आरोवण घुबनिद्दिट्रा-इति कृ. क. मा. पाठः॥२ अहिस्सं मु आवश्यकहारिमद्रयामपि [प.५३४] अहीहं-इति पाठः।। ३तवोवहाणेण-ता.॥४नीहसु-मु.।। ५ तुलना-धर्मसंग्रहवृत्तिः मा.२ .१४७ त ६ निर्यातमु निवास सि.। धर्मसं. वृत्तावपि भा.२१.१४७] निवात इति पाठः । ७ यथोक्तं-जे.॥ अवश्यंभावयति-जे.। अवश्यं माव इति-वि.॥ विहारः गाथा ७७२७७९ प्र. आ. २२५ Lavanniumineration ॥२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १०४ द्वारे अप्रति विहारः गाथा ७७३७७९ द्रव्याद्यप्रतिबद्धस्यैव सफला, यदि पुनरमुकं नगरादिकं गत्वा तत्र महर्द्धिकान् बहन् वा श्रावकानुपार्जयामि तथा च करोमि यथा मां विहायापरस्य ते भक्ता न भवन्तीत्यादिद्रव्यप्रतिबन्धेन, तथा 'निवातवसत्यादिजनितरत्युत्पादकममुर क्षेत्रए, तु न शानिमित्यादिक्षेत्रप्रतिबन्धेन तथा परिपक्वसुरभिशाल्यादि. शस्यदर्शनादिरमणीयोऽयं विहरता शरत्कालादिरित्यादिकालप्रतिबन्धेन तथा स्निग्धमधुराबाहारादिलामेन तत्र गतम्य मम शरीरपुष्टथादि सुखं भविष्यति, अत्र तु न तत्सम्पद्यते, अपरं चैवमुद्यतबिहारेण बिहरन्तं मामेवोद्यतं लोका भणिष्यन्ति, अमुकं तु शिथिलमित्यादिभावप्रतिबन्धेन च मामकल्पादिना विहरति तदाऽसौ विहारोऽपि कार्यासाधक एव । तस्मादवस्थान विहारो वा द्रव्यायप्रतिबद्धम्यव साधक इति ॥७७२।। ____ अथ पराभिप्रायमाशङ्कय परिहारमाह-'मुत्तणे त्यादि, मुक्त्वा-विहाय मायकल्प-मासविहारमन्यः सूत्रे-मूलागमे तु शब्दस्य एवकारार्थत्वान्नास्त्येव विहारस्तथाऽश्रवणात , तत् कथं-कस्मादादिग्रहणमनन्तरगाथायाम् ?, तत्राह-'कज्जे'त्ति कार्ये तथाविधे सति न्यूनादिभावेन-न्यूनाधिकभावात्कारणादादिग्रहणम् , अयमाशयः-माधुमिस्तावन्मासकल्पेनैव मुख्यतो विहारः कार्यः, कारणवशतः पुनः कदा. चिदपूर्णेऽपि मासे विहारः क्रियते कदाचिच्चाधिक्येनापि क्रियते, इत्येतदर्थमादिग्रहणं कृतम् ॥७७३॥ एतदेव प्रकटीकुर्वनाह ---'कालाई' त्यादि, कालादिदोषतः क्रियते--काल-क्षेत्र-द्रव्य-भावदोषानाश्रित्य, तत्र कालदोषो-दुर्भिक्षादिः, क्षेत्रदोषः-संयमाननुगुणत्वादिः, द्रव्यदोषो-भक्तपानादीनां शरीराननुकूलता, भावदोषो-ग्लानत्वज्ञानादिहान्यादिः । यद्यपि 'न' नैव 'द्रव्यतो' बहित्यिा 'एष' मासकल्पः, 'क्रियते' विधीयते, तथापि नियमाद' अवश्यतया 'भावेन' भावतः क्रियते एकस्थानस्थितैरपि यतिभिः । १निर्वात मु.॥ प्र.आ. |२२५ Santanaman ॥२४॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथमिति चेत्तत्राह---'संथारगवच्चयाईहिं' संस्तारकव्यत्ययादिभिः-शयनभृमिपरावर्तनप्रभृतिभिः, आदिशब्दावसति-पाटकादिपरिग्रहः । अयमाशय-एकस्यामपि वमतौ यस्यां दिशि संस्तारको मासं यावदास्तीरवचनः। स्तां दिशं मासे पूणे परित्यज्यापरम्यां दिशि संस्तारक भास्तरणीयः, एवमपश्यसतिसद्भावे मासादनन्तरम परवातौ सङ्क्रमः करणीयः । एवं च कुर्वतां मामकल्पविहागमावेऽपि यतित्वमविरुद्धमेव, यदवाचि १०४ द्वारे ___पंचसमिया तिगुत्ता उजुत्ता संजमे तवे चरणे । वासमयपि वसंता मुणिणो आराहगा भणिया ॥१॥" अप्रतिइत्यादि ।।७७४॥ बद्ध... अर्थकस्मिन् क्षेत्रे उत्कृष्टमवस्थानकालमानमाह - "काऊण' गाहा कमिश्चित क्षेत्रे कृत्वा-विधाय विहारः आषाढमासे मासकल्पं 'तत्र' तस्मिन्नेव क्षेत्रे 'स्थितानां कृतवर्षाकालानां यावन्मार्गशी-मार्गशीर्ष- गाथा विषयागि त्रिंशदिनानि एप 'सालम्बनानां' पुष्टकारण सेविना ज्येष्ठ- उत्कृष्टोऽवग्रहः-१ कलावस्थानलक्षणः १७७२. पणामासिक:-पण्मासप्रमाणो भवति । इदमुक्तं भवति-यत्र उष्णकालस्य चरमो मागकल्पः कृतस्तत्र तथा- ७७९ विधान्यक्षेत्राभावतो वर्षाकालं यदि तिष्ठन्ति वर्षाकाली च व्यतिक्रान्ते यदि मेघो वति ततोऽन्यायमदशकं |प्र. आ. तत्र तिष्ठन्ति, तस्मिन्नपि समाप्तिमुपगते यदि पुनर्बपति ततो द्वितीयं दिवमदशकं तिष्ठन्ति, तस्मिन्नप्यतीते पुनवृष्टस्तदा तृतीयमपि दिवसदशकं तत्र तिष्ठन्ति । एवमुत्कर्षतस्त्रीणि दिवसदशकानि वृष्टयाद्यालम्बनमाश्रित्य स्थितानां षण्मासप्रमाण उत्कृष्टोऽवग्रहो भवति । तद्यथा-एको ग्रीष्मचरममासः, चत्वारो वर्षाकालमासाः षष्ठो मार्गशीर्षो दिवसदशकायलक्षण इति ॥७७५॥ ॥२५॥.. १ 'कम्हिपी' स्यादि-मु. ॥ २ तत्र- सि. वि. नास्ति ॥ २२६ HENDE Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- स्ति पादाना-चर सारोद्धारे सटीके गाथा अथ मार्गशीन वर्षति मार्गाश्च हरितकर्दमाद्यनाकुलास्तत्र किं कर्तव्यमित्याह-'अहे' त्यादि, अथा 1१०४ द्वारे स्ति पादाना--चरणानां विचारो-गमनानुकूलता, तत इति शेपः, 'चउपाडिवयंमि' ति चतसृणां प्रतिपदा अप्रति समाहारश्चतुःप्रतिपत् , अत्र च प्रतिपदो मासान्तवर्तिन्यो विवक्षिताः, ततः कार्तिकानन्तरं भवति निर्गमनं बद्धविहार इत्यर्थः, अथ बिहारयोग्येऽपि समये न निर्गच्छति तदा तस्य साधोरनिर्गच्छतस्ततः स्थानादारोपणं विहार -प्रायश्चित्तं मूत्रनिर्दिष्टं-सूत्रकथितं भवतीति ॥७७६॥ नन्वेकत्र क्षेत्रे स्थितानां यतनापराणामपि यतीनां कुलप्रतिबन्धादयो बहवो दोपा पत्र भवन्ति ततः कथमिदं युक्तमित्याह-एगे' त्यादि, एकस्मिन् क्षेत्र निवाम एकक्षेत्रनिवामः तस्मन् मति यद्यपि ७७३. 'कालातिक्रान्तचारिणः' समयमणितकालातिक्रमचारीणो यतयस्तथापि 'हुः स्फुटं 'विशुद्धचरणा' निरतिचारचारित्रास्ते 'येन' यतः कारणात् 'विशुद्धालम्बना' विशुद्धं-शाठ्य नादृषितं वार्धकजङ्घनवलपरिक्षीणताविहारायोग्यक्षेत्रादिक्रमालम्बनं-कारणं येषां ते विशुद्धालम्बना इति ॥७७७॥ २२६ __ अथ कस्मादालम्बनमन्वेषणीयमित्याह ‘सालंधे' त्यादि, आलम्ब्यते-पतद्भिराश्रीयते इत्यालम्बनम् , तच्च द्विविध-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र गर्नादौ प्रपतद्भिर्यद् द्रव्यमालव्यते तद् द्रव्यालम्बनम् , तदपि द्रव्यं द्विविधं-पुष्टमपुष्टं च, तत्रापुष्टं-दुर्बलं कुशवल्बजादि पुष्टं तु दृढं कठोरवल्ल्यादि, भावालम्बनमपि पुष्टा-ऽपुष्ट भेदाद् द्विधा, तत्र पुष्टं वक्ष्यमाणं तीर्थाव्यचपिछत्यादि, शठतया स्वमतिमात्रोत्प्रेक्षितं त्वपुष्टम् , ततश्च सह. आलम्बनेन वर्तत इति सालम्बनः । असौ पतन्नप्यात्मानं दुर्गमेऽपि-गर्तादौ पुष्टा तथा जे ॥ २ कुशवल्कजादि जे । कुशवकच कादि-वि. । कुशवच्च काद• त्रिः । कुशवच्चजादि इति आव. ॥२६॥ हारिमद्रयाँ प. ५३४] पाठः॥ Allama SANELECTRE ASUREKHA Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १०५द्वारे जाताजात साराद्वार सटीके विहारः लम्बनावष्टम्भतो धारयति । 'इति' एवमेव सह आलम्बनेन वर्तत इति सालम्बनः, एवम्भृतः सन् किमपि नित्यवासादिकं सेवते-भजते इति सालम्बनसेवी 'यतिः' साधुः संसारगायां पतन्तमात्मानमराठभाव-मातृस्थानरहितं धारयतीत्येष आलम्नान्वेषणे गुणः ॥७७८॥ - कानि पुनस्तान्यालम्बनानीत्याह--'काह' मित्यादि, यः कश्चिदेवं चिन्तयति यथा करिष्याम्यहमत्र स्थितोऽच्छित्ति-अव्यवच्छित्तिं जिनधर्मस्येति शेषः, राजादेर्जिनशासनायतारणादिभिः, 'अदुवे' ति अथवा अहमध्येध्ये सूत्रतोऽर्थतश्च द्वादशाङ्ग दर्शनप्रभावकाणि वा शास्त्राणि, यदिवा तपोलब्धिसमन्वितत्वात्तपोविधानेषु नानाप्रकारेषु तपस्तु 'उज्जमिस्सं ति 'उद्यस्यामि-उद्ययं करिष्यामि । 'गणं वा' गच्छ वा 'नोइसु यत्ति सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वानीतिभिः सूत्रोक्ताभिः सारयिष्यामि-गुणः प्रवृद्धं करिप्यामि ! म एवं मालम्ब नसेवी एतैरनन्तरोदितैरालम्बनैर्यतनया नित्यवासमपि प्रतिसेवमानो जिनाज्ञानुल्लछनात्समुपैति-प्राप्नोति 'मोक्ष' सिद्धिम् । तस्मात्तीर्थाव्यवच्छेदादिकमेव यथोक्तं ज्ञान-दर्शन चारित्राणां समुदितानामन्यतरस्य वा यद् वृद्धिजनकं तदालम्बनं जिनाज्ञावशादुपादेयम् , नान्यत् , अन्यथा हि____*"आलंबणाण भरिओ लोओ जीवस्म अजउकामस्स । जं जंपिच्छद लोए तं तं आलंबणं कुणइ ॥१॥ [आव. नि. ११८८] इति ७७९ ॥ १०४ ॥ इदानीं जायाजायकप्प' त्ति पञ्चोत्तरशततमं द्वारमाह जाओ य अजाओ य दुविहो कप्पो य होइ नायव्यो । एक्केक्कोऽपि य दुविहो समत्तकप्पो य असमत्तो ॥७८०।। १ उद्यस्वामि-जे. नास्ति । -अयतितुकामस्य जीवस्य लोक मालम्बनेभृतः। यत् यत प्रेक्षते लोके तत्तद् पालम्न करोति ॥१॥ गाथा ७८० ७८२ प्र.आ. ૨૨૭ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके 1॥२८॥ 'गीयत्थ जायकप्पो अगीयओ खलु भवे अजाओ य । पणगं समत्तकप्पो तदृणगो होइ असमत्तो ।।७८१।। [व्यवहारभा. उ.४/गा.१५-६] उउबडे वासासु सत्त समत्तो तदृणगो इयरो । असमसाजाधा ओहेज न किंधि आहवं ॥७८२।। [ पश्चव. १३२८-३०] 'जाओ' इत्यादि गाथात्रयम् द्विविधः खलु कल्पः-समा वारो भवति ज्ञातव्यस्तयथा-जातोऽजातश्च । तत्र जाता-निष्पन्नाः श्रुतसम्पदुपेततया लब्धात्मलाभाः माधवः तदण्यतिर कात्कल्पोऽपि जात उच्यते । एतद्विपरीतः पुनरजातः, एकेकोऽपि च द्विधा-समाप्तकल्पोऽसमाप्तकल्पश्च । समाप्तकल्पो नाम परिपूर्णसहायः, तद्विपरीतोऽसमाजकल्पः ७८०॥ एतानेव चतुरो जानादीन व्याख्यानयति-- 'गोयस्थ न्यादिगाथाद्वयन , गीतार्थसाधुसम्बन्धिस्वागीताथों यो बिहार: म जातकल्पोऽभिधीयते. 'अगीतः खल' अर्ग जातः-अजातकल्पः, तथा द्वितीयगाथावर्तिनः 'उ बढे' इत्यस्य पदस्येद्द सम्बन्धात् 'ऋतुवढे' अवर्षासु 'पणगं' ति साधुपश्चकपरिमाणः समाप्तकल्पा नाम विहारो भवति, 'तदूनकः तस्मात्पश्चकान हीनतरो "द्वि-त्रि चतुर्णा साधूनामित्यर्थः कल्पो भवत्यममाप्तोऽ परिपूर्णसहायत्वान , वर्षासु-वपाकाले पुनः १०५द्वारे जाताजातविहारः गाथा७८०७८२ प्र. आ. २२७ गीयाथु जे.२१ गियन्थी-नि व्यवहारमाध्ये (उ.४ । गा.१६ पाठः ।। २ तुलना धसंग्रवृत्तिः भा. २१ प. १६८ तः ॥ ३ गियरथु-सि. वि.।। ४ द्वित्रिचतुराणां-मुः।। ५०परिपूर्णोऽस इति धर्मसङ्ग्रहवृत्तौ (मा. २१ प. १६६A) पाठः॥ ॥२८॥ BISHAMESSAGAONETE Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके ।। २९ ।। साधुसतकपरिमाणः समाप्तकल्पः, तदूनकः- तस्मात्सतकान्न्यूनतर इतर:- असमाप्त कल्पः । यच्च वर्षा सप्तानां 'विहारवर्णनं तत् किल वर्षासु तेर्पा ग्लानत्वादिसम्भवे सहायस्यान्यत आगमनासम्भवादल्पसहायता मा भूदिति हेतोः, ततश्वासमाप्ताजातानाम् - असमाप्तकल्पाजात कल्पवतां साधूनामोघेन - उत्सर्गेण न किञ्चित्तद्वशिष्पभक्तपानवस्त्रपात्रादिकमागमप्रसिद्धमाभाव्यमिति ॥ ७८१-७८२॥१०५॥ sarat 'efigarearraरणदिसि' त्ति पडुत्तरशततमं द्वारमाह 1 ||७८४ ॥ दिसा अवरदक्खिणा १ दक्खिणा य २ अवरा य ३ दक्खिणापुच्चा ४ । अवकतरा य ५ पुत्र्धा ६ उत्तर ७ पुच्वुत्तरा ८ चेव ॥ ७८३|| परन्नपाण पदमा बीयाए भन्तपाण न लहंति " तयाए उहिमाई नस्थित्थी सज्झाओ पचमियाए असंखडो छुट्टीए गणस्स भेवणं जाण सत्तमिया गेलनं मरणं पुण अहमे बिंति * दिसिपवणगामसूरियच्छायाए पमजिऊण तिक्खुत्तो । जस्सोग्गहोसि काऊण वोसिरे आयमेजा वा ॥ ७८६ ।। [ओपनि, ३१६] 1 ।।७८५ ॥ १ बिहारकर मु.] । धर्मसं वृत्तावपि 'बिहारवणेनं' इति पाठः ॥ २ एवा गाथा (७८२-४-५ ) आवश्य कहारिभदधामपि ( प. ६१०८) अन्यकर्तृ की इति कृत्वोद्धृताः ॥ ३ तईयाए जे ।। ४ इतः पूर्व ता. प्रतौ 'इहिं उच्चार करणं ति' इत्यधिकः पाठ उपलभ्यते ॥ १०६ द्वारे परापन दिग् गाथा ७८३ ७८९ प्र. आ. २२७ ॥ २९ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके ||३०|| 1102911 उत्तरपुव्वा पुज्जा जम्माए 'निसायरा अहिपति । घाणारिसा य पवणे सूरियगामे अवन्नो उ संसत्तग्गहणी पुण छायाए निग्गयाए वोसिरह । छायासह उपमिवि वोसिरिय मुहुत्तमं चिट्ठे ॥ ७८८ ।। [ ओघनि. मा. १८४-५ ] उगरणं वामगजाणुगंमि मत्तो य दाहिणे हत्थे । सत्थन व पुढे तिहि आयमणं अदूरंमि || ७८९ ।। (बृ.क. भा. १५०६-७-८, ४५६-७-=-९, पञ्चवस्तुक ४२६-६-७-६, ओघनि. ३१७] 'दिसे त्यादिगाथासप्तकम्, अचित्तसंयत परिष्ठापनाय दिक् प्रथमतोऽपरदक्षिणा - नैर्ऋतौ निरीक्षणीया, तस्याभावे दक्षिणा, तस्या अभावे अपरा- पश्चिमेत्यर्थः, तस्या अप्यभावे दक्षिणपूर्वाआग्नेयीत्यर्थः, तस्या अध्यभावेऽपरोत्तरा-वायवीति भावः, तस्या अध्यभावे पूर्वा, तस्या अप्यलाभे उत्तरा, तस्या अध्यलाभे पूर्वोत्तरा ऐशानीत्यर्थः । इह च यत्र ग्रामादौ मासकल्पं वर्षावास वा गीतार्थाः साधवः संवसन्ति तत्र प्रथममेव पूर्वोक्तासु 'दिक्षु परिष्ठापने मृतोज्झननिमित्तं त्रीणि महास्थण्डिलानि १ निसियरा जे. २ वा. । निसीयरा-इति वृ. क. भाष्ये (गा. ४५७) पाठः ॥ २ पात्रस्तु वृक, भाष्य ओघ नियुक्ति-धर्मसह वृत्त्यादिषु 'वामे उरुगंमि' इति पाठः ॥ ३ तिखायमणं-. । मोघ नियुक्ति पावस्तुक-वृ. क. माध्य धर्मसं. वृत्यादिष्वपि 'तिहि आयमणं' इति पाठः ।। ४ पश्चिमा तस्या-जे ॥ ४ तुलना आवश्यकहारिभद्रीया वृत्तिः प ६३० तः ।। ६ दिक्षु मृतोजानः सि.वि. ॥ १०६द्वारे परिष्ठापन दिग गाथा ७८३ ७८९ प्र. आ. २२७. 113011 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके ॥३१॥ प्रत्युपेक्षन्ते - आसन्ने मध्ये दूरे च । किं कारणमिति चेत्र मः प्रथमस्थण्डिले कदाचिद्वयावातो "भवेत्, तथाहि क्षेत्रं तत्र केनापि कृष्टम् उदकेन वा तत् प्लावित हरितकायो वा तत्राजनि कीटकादिभिर्वा तत्संसक्तं जातम्, ग्रामो वा तत्र निविष्टः, सार्थो वा कश्चित्तत्रावासित इत्यतो द्वितीये स्थण्डिले परिष्ठापनं विधेयम् तस्याप्येतैरेव हेतुभिर्व्याघाते तृतीये स्थण्डिले परिष्ठापनं कार्यमिति ||७८३ || सम्प्रति प्रथमायां दिशि सत्यां शेषदिक्षु परिष्ठापने दोपमाह - 'पउरे' त्यादिगाथाद्वयम्, 'पउरनपाण पदमा' इत्यत्र प्राकृतत्वात्ससम्या लोपः, ततः प्रथमायाम् - अपरदक्षिणायां परिष्ठापने प्रचुरान-पान वस्त्र पात्रादिलाभतः समाधिरुपजायते, तस्यां सत्यां द्वितीयस्यां दक्षिणायां परिष्ठापने भक्तपाने न लभन्ते । तृतीयस्यां पश्चिमायामुपभ्यादि न लभन्ते । चतुर्थ्यां - दक्षिणपूर्वस्यां नास्ति स्वाध्यायः स्वाध्यायाभाव इत्यर्थः ॥७८४|| } पञ्चभ्याम् - अपरोत्तरस्यां 'असंखडित्ति कलहः संयत-गृहस्था ऽन्यतीर्थिकादिभिः सह । षष्टयांपूर्वस्य गणस्य गच्छस्य भेदनं भेदं जानीहि । गच्छ भेदो भवतीत्यर्थः । सप्तम्याम्-उत्तरस्यां ग्लानत्वंरोगोत्पत्तिः । अष्टमीति प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपे अष्टम्य-पूर्वोत्तरस्यां दिशि मृतकपरिष्ठापने मरणं पुनवते । अन्यः कश्चित्संयतो म्रियते इत्यर्थः । इह च पानीय स्तेनभयादिव्याघातसद्भावतः पूर्वपूर्वदिगलामे उत्तरोत्तरस्यामपि दिशि मृतकपरिष्ठापने प्रचुरान-पानलाभलक्षण: प्रथमदिक्प्रतिपादित एव गुणोऽ १ भवति सि. वि. || कारण १०६ द्वारे परिष्ठापन दिग् गाथा ७८३ ७८९ प्र. आ. २२८ ॥३१॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके परिष्ठापन दिग মাথা ।७८३ प्र.आ. वसेयः । यदा पुनः पूर्वपूर्वदिक्सद्भावे उत्तरोत्तरस्यां दिशि परिष्ठापयन्ति तदा पाश्चात्या एव दोषा भवन्तीति ॥७॥ उक्ता अचित्तसंयतपरिष्ठापनदिक् , इदानीमुच्चारकरणदिगभिधीयते-'दिसी'त्यादि, साधुना संज्ञा ब्युत्सृजता 'दिसि' ति पूर्वस्यामुत्तरस्यां च दिशि पृष्टं न दातव्यम् । तथा पवन-ग्राम-सूर्याणां च पृष्ठं न दातव्यम्, । तथा छायायां निर्गतायां व्युत्मजेत् । तथा विकत्व:-चीन बागन प्रमाज्ये उपलक्षणमेतत् प्रत्युपेक्ष्य च स्थण्डिलमिति गम्यते ध्युन्सृजेत् । तत्र घायं विधिः-अयुगलिता अन्बरमाणा विकथारहिताश्च पुरीफ्युत्सर्जनाय ब्रजन्ति । तत उपविश्य पुतनिलेपनाय इष्टकादिखण्डरूपाणि डगलकानि गृहन्ति । पिपीलिकादिरक्षणार्थ च तेषां प्रस्फोटनं कुर्वन्ति । तदनन्तरमुत्थाय निर्दोष स्थण्डिलं गत्या 'ऊर्वमधस्तिर्यक् चावलोकनं कुर्वन्ति । तयोर्य वृक्षस्थ-पर्वतस्थादिदर्शनार्थम् , अधो गर्ता दर्याधुरलब्धये, तिर्यक् व्रजद्विश्राम्यदादिनिरीक्षणार्थमिति । ततः सागरिकाभावे संदंशकान् सम्प्रमाज्यं प्रेक्षिते प्रमार्जिते च स्थण्डिले पुरीपं व्युत्सृजन्तीति । तथा यस्यायमवग्रहः सोऽनुजानीयादित्यनुा कृत्वा व्युत्मजेत् आचमेद्वा ॥७८६॥ सम्प्रत्येनामेव गार्था वित्ररीतुकाम आह-'उत्तरे'त्यादि, उत्तरदिक्पूर्वदिक्च लोके पूज्येते ततस्तस्याः पृष्ठदाने लोकमध्येऽवर्णवादो भवति । वानमन्तरं वा 'किश्चित् कोपयेत् , तथा च सति १ तुलना-सवृत्तिकः पञ्चवस्तुकः गा. ४:८॥२वदिशाइति पञ्चव वृत्तौ ४२८ पाठः ।। ३ तुलना-वृ.क.मा-वृत्तिः गा. ४५७ ॥ ४ कश्चित् कोपयते-मुः। "किञ्चिन्मिध्यादृष्टिः कुप्येत्' इति बृ.क.मा. वृत्तौ [गा. ४५६] पाठः॥ MERICASA FayaBEATRENACE Diagnosti ३२॥ R HAPPS /ACEB3 %E Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ॥ ३३ ॥ ataaorts विनाशः । तस्मादिवा रात्रौ च पूर्वस्यानुत्तरस्यां च दिवा पृष्ठं वर्जयेत् । तथा याम्यादक्षिणा दिक् तस्य सकाशादानी निशाचराः - पिशाचादयो देवा अभिपतन्ति - उत्तराभिमुखाः समागच्छन्ति । ततस्तस्यां रात्रौ पृष्ठं न दद्यात् । उक्तं च "उभे मूत्रपुरीषे च दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तथा चायुर्न हीयते ॥ १॥" तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठदाने अशुभगन्धाघ्राणं नासिकार्या व अशस्युपजायन्ते । चशब्दा लोकोपहाच, यथा आम्रन्त्येतदेते' इति । तस्मात्पवनस्यापि पृष्ठं न कर्तव्यम् । तथा सूर्यस्य ग्रामस्य च पृष्टकरणेऽवर्णो-लोकमध्येऽश्लाघा । यथा न किञ्चिज्जानन्त्येते यल्लोकोद्योतकरस्यापि सूर्यस्य यस्मिन् ग्रामे स्थीयते तस्यापि च पृष्ठं ददति । ततस्तयोरपि न दातव्यं पृष्ठमिति ॥ ७८७॥ 'छाया' इति व्याख्यानार्थमाह-- 'संससे' त्यादि, संसक्ता द्वीन्द्रियै ग्रहणि: - कुक्षिर्यस्यासौ संग्रहणः । स द्वीन्द्रियरक्षणार्थं छायायां पुष्पफलदवृक्षादिसम्बन्धिन्यां निर्गतायां व्युत्सृजति । अथ छायाद्यापि न निर्गच्छति मध्याहने एवं संज्ञाप्रवृत्तेः, ततश्छायाया असति-अभावे उष्णेऽपि स्वशरीरपुरीषस्य कृत्वा व्युत्सृजति । व्युत्सृज्य च मुहूर्तकम् - अल्पं मुहूर्त तथैव तिष्ठति येन एतावता कालेन स्वयोगतस्ते परिणमन्ति । अन्यथोष्णेन महती परितापना स्यात् ||७८८ ॥ १ च पृष्ठ-सु. ॥। २ अशुभगन्धात्राणिः इति बृ. क.मा. वृत्तौ (गा. ४५७) पाठः ।। ३ल्लोकोपघातच जे. सि. वि. वस्तुकवृत्तौ गा. (४२६) च ॥४ अर्धस्येत देते इति बू क.मा. वृत्तौ पाठः, गा-४५६ ॥ ५ तुलना-वृ. क.मा.वृत्तिः ४५७ ॥ ६ ग्रहणी - मलद्वारं इति धर्म वृत्तौ पाठः भा०२ । १.६० ॥ स्वशरीरच्छायायां सि ॥ १०६ द्वारे परिष्ठापनदिग् गाथा ७८३ ७८९ प्र. आ. २२८ ॥ ३३ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे १०७द्वारे दीक्षानहर्हाः पुरुया: गाथा सटीके ॥३४।। ७९१ अथ व्युत्सृजन स्वोपकरणं कथं 'धरतीत्याह-'उवे' त्यादि, 'उपकरणं-दण्डकं रजोहरणं च वामे ऊरौ स्थापयति । मात्रकं च दक्षिणे हस्ते क्रियते । 'डगलकानि च वामहस्तेन धरणीयानि । ततः संज्ञा व्युत्सृज्य तत्रान्यत्र या प्रदेशे डगलकैः पृतं पुसयति-रुक्षयति । पुसयित्वा त्रिभिन वापूरकैः चुलुकैरित्यर्थः आचमन-रिलेपनं करोति । उक्तं च--- 'तिहि नावापूरणहि आयामइ-निल्लेवेइ, 'नावा-पपई पञ्चवस्तुकवृत्तिः गा. ४२९] इति । तदरी कायमगदुरे योनि । यदि पुनदरे आचमनि तत उड्डाहो, यथा कचिद् दृष्ट्वा चिन्तयेत्-अनिलितपुनो गत एप इति ||७८९६१०६।। हदानीं अट्ठारस पुरिसेसुति सप्तोत्तरशततमं द्वारमाह-- बाले १ बुढे २ नपुसे य ३, कोवे ४ जड्डे य ५ वाहिए ६ । तेणे ७ रायावगारी य ८, उम्मत्ते य १ अदंसणे १० ॥७९०॥ दासे ११ दुट्टे य १२ मूढे य १३, अणत्त १४ जु'गिए इय १५। "ओषहए य १६ भयए १७, 'सेहनिएफेडिया इय १८ ॥७९१।। . [निशीथभाष्य ३५०६-७, पञ्चकल्पमहाभाष्य २००.१] प्र. आ. २२९ S १ पारपतीत्यताइ-सि. वि.॥२ तुलना-म. क. मा. वृत्तिः , वा. ४५६ ॥ ३ गलानि-मु.॥ 'नाधापूरमओ नाम पसती इति इति ब. क. भा. वृत्तो (गा. ४५) पाठः॥ बढ़ए-जे.॥ ६ सेनि . EN2IES SEARRIC .॥ "Sasur ANSACTOR Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७द्वारे 'बाले' त्यादि श्लोकद्वयम् , 'जन्मत आरभ्य अष्टौ वाणि याबदालोऽत्राभिधीयते । म किल गर्भस्थो नव मासान् सातिरेकान् गमयति जातोऽप्यष्टौ वर्षाणि यावदीक्षां न प्रतिपद्यते । वर्षाष्टकादधो वर्तमानस्य प्रवचन । सर्वस्यापि तथास्वाभाव्याद्देशतः सर्वतो वा विरतिप्रतिपत्तेरभावात् । उक्तं च--- सारोद्धारे ।..A"एएसि बयपमाणं अट्ठ समाउत्ति वीयरागेहिं । भणिों सटीके | दीक्षानर्हाः जहन्नगं खलु" [पञ्चव, गा.५०] इति । :: अन्ये तु गावस्यादि दीक्षा मिले। यमर निशीथचूर्णी --- पुरुषाः गाथा ॥३५॥ "आदेसेण वा गब्मट्ठमस्स दिक्ख" [गा.३५४३] ति । ७९०। भगवद्वनस्वामिना व्यभिचार इति चेत् । तथाहि-भगवान वज्रस्वामी पाण्मासिकोऽपि भावतः । प्रतिपनसर्वसावधविरतिः श्रूयते । तथा च सूत्रम्-- प्र. आ. "छम्मासियं छसु जयं माऊए समन्नियं वंदे" [ आव. नि. ७६४ ] । सत्यमेतत् , किन्त्वियं २२१ शैशवेऽपि भगवद्वज्रस्वामिनो भावतश्चरणप्रतिपत्तिराश्चर्यभूता कादाचित्कीति न तया व्यभिचारः । ... उक्तं च पश्चवस्तुके"तदधो परिहवखेत्तं न चरणभावोऽवि पायमेएसि । आहच्चभावकहगं सुत्तं पुण होइ नायव्वं ॥१॥" [गा.५१] १ तुलना-धर्मबिन्दुवृत्ति: ५। ३३,धर्मसमवृत्तिः, मा.२/प-३॥ एतेषां वयाप्रमाणमष्टसमा इति बीतरागैर्भणितं जघन्यकं खलु"। आदेशेन वा गर्माष्टमस्य दीक्षेति ।।.पाण्मासिकं घटस यतं मात्रा समन्वितं बन्दे ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके अम्या व्याख्या-तेषामष्टानामधो वर्तमाना मनुष्याः परिभवक्षेत्रं भवन्ति । येन तेन वाऽतिशिशुत्वात्परिभूयन्ते, तथा चरणभावोऽपि-चरणपरिणामोऽपि प्राय एतेषां-वर्षाष्टकादधोवर्तमानानां न भवति । यत्पुनः सूत्रम् 'छम्मासियं छसु जयं माऊए समनियं बंदे' [आव. नि.७६४] इत्येवरूयं तत् 'आहउचभावकहगं' कादाचित्कभावकथकम् , ततो वर्षाष्टकादधः परिभवक्षेत्रत्वाच्चरणपरिणामाभावाच्च न दीक्ष्यन्ते इति । अन्यच्च 'बालदीक्षणे संयमविराधनादयो दोषाः । स हि अयोगोलकसमानो यतो यतः स्पन्दते ततस्ततोऽज्ञानित्वात् षड्जीवनिकायवधाय भवति । तथा निरनुकम्पा अमी श्रमणाः यदेवं बालानपि चलाहीझाकारागारे प्रक्षिप्य स्वच्छन्दतामुच्छिदन्तीति जननिन्दा । तत्परिचेष्टायां च मातृजनोचितायो क्रियमाणार्या स्वाध्यायपलिमन्थः स्यादिति १। तथा सप्ततिवर्षेभ्यः परतो वृद्धो मण्यते, 'अपरे त्याहुः-अगिपीन्द्रियादिहानिदर्शना पष्टिवर्षेभ्य उपरि वृद्धोऽभिधीयते । तस्यापि च समाधानादि कर्तुं दुःशकम् , यदुक्तम् - A'उच्चासणं समीहड़ विणयं न करेइ गब्धमुबहइ । वुड्ढो न दिक्खियत्रो जइ जाओ 'वासुदेवेणं ॥१॥" इत्यादि। १०७द्वारे दीक्षानहर्हाः पुरुषाः गाथा ७९.. ७९१ प्र. आ. २२९ J॥३६॥ १ बालदीक्षणायां-मु.। धर्मसं. वृत्तावपि (मा.२।७.४) बालदीक्षण' इति पाठः ॥२ जिननिन्दा जे.॥ ३ अन्ये जे.नि.सि.॥ ४ दुःशक्य-सि.वि.धर्मसं. वृत्तौ च ।। ५ वासुदेवेण-सि. वि.।। Aचासनं समीहते विनयं न करोति गर्वमुद्दति । वृद्धो न दीक्षितव्यो यदि जातो वासुदेवेन ॥१॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके ११०७द्वारे दीक्षानहीं पुरुषाः गाथा इदं च वर्षशतायुष्कं प्रति द्रष्टव्यम् , अन्यथा यद् यस्मिन् काले उत्कृष्टमायुस्तद्दशधा विभज्याष्टमनवम-दशमभागेषु वर्तमानस्य वृद्धत्वमवसेयम् २ । तथा स्त्री-पु सोभयाभिलाषी पुरुषाकृतिः 'पुरुषनपुसकः । सोऽपि बहुदोषकारित्वाद्दीक्षितुमनुचितः । 'बाले वुड्ढे य थेरे य' इति पाटस्तु निशीथादीष्वदर्शनादुपेक्षितः । तथा स्त्रीभिर्भोगेनिमन्त्रितोऽसंघृताया वा स्त्रियोऽङ्गोपाङ्गानि दृष्ट्वा शब्दं वा मन्मनोल्लापादिकं तासां श्रुत्वा समुद्भूतकामामिलापोऽधिसोलुयो न शक्नोति स पुरुषाकृतिः पुरुषक्लीवः । सोऽप्युत्कटवेदतया पुरुषवेदोदयाद् बलात्कारेणाङ्गनालिङ्गनादि कुर्यात् तत उड्डाहादिकारित्वादीक्षाया अनहे एव ४ ॥ तथा 'जड्डविविधो-भाषया शरीरेण करणेन च । भाषाजहः पुनरपि त्रिविधो-जलमूको मन्मनमुक एलकमूकश्च । तत्र जलमग्न इत्र बुडबुडायमानो यो यक्ति स जलमृकः । यस्य तु वदतः स्वच्यमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमृकः । यश्चेलक इबाव्यक्तं मुकतया शब्दमात्रमेव करोति स एलकमृकः । "तथा यः पथि भिक्षाटने वन्दनादिषु चाऽनीव स्थूलनया अशक्तो भवति स शरीरजहः । करणं-क्रिया तस्यां जहः करण जड्डः, “समिति-गुप्ति प्रतिक्रमण-"प्रत्युपेक्षण-संयमपालनादिक्रिया पुनः पुनरुपदिश्यमाना ७८१ प्र.आ. २३० १ पुरुषो नपुसक-इति धर्मसं. वृत्ती (प.४) पाठः।। मन्मथोल्ला मु.। धर्मसं. वृत्तावपि (प. ४) मन्मनोल्लाति पाठः ।। ३ तुलना आव. हारिमद्री प. ६२८ तः, निशीथमा. ३६२५ ।। ४ तुलना-निशीथ भा. ३६२६ ।। ५ वाऽतीष-मु.॥ ६ तुलना-निशीथमा. ३६३३॥७०प्रत्युपेक्षणा०सिवि.।। Br Down mmmmmmmmm ला Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्रचन सारोद्धारे | सटीके ॥ ३८ ॥ मप्यतीव जतया यो ग्रहीतुं न शक्नोति स करणजड इत्यर्थः । तत्र 'भाषाजडस्त्रिविधोऽपि ज्ञानग्रहणे - sancore दीक्ष्यते । शरीरजस्तु मार्गगमन भक्तपानाद्यानयनादिषु असमर्थो भवति । तथा अतिजडुस्य प्रस्वेदेन कक्षादि तत्वं भवति । तेषां जलेन क्षालनादिषु क्रियमाणेषु कीटिकादीनां प्राणिनां प्लावना सम्पद्यते, ततः संयमविरावना । तथा लोको निन्दां करोति - अहोऽसौ बहुभझकः कथमन्यथा एवंविधं स्थूलत्वमेतम्य मुण्डिनकस्य न हि गलचौर इति । तथा तस्योद्भर्वश्वासो भवति । अपरिक्रमच सर्प जलज्वलनादिषु समीपमागच्छत्सु स भवति । ततोऽसौ न दीक्षणीयः । तथा करणजोऽपि समितिगुप्यादीनां शिक्ष्यमाणोऽप्यग्राहकत्वात्र दीक्षणीय इति ५ । * तथा वाहिए' ति भगन्दरा-ऽतिमार-कुछ प्लीह-कार्य-कास- ज्वरादिरोगग्रस्तो व्याधितः सोऽपि न दीक्षाः । तस्य चिकित्सने पटकायविराधना स्वाध्यायादिहानिश्च ६ । तथा क्षत्रखननमार्ग' पातनादिचौर्यनिरतः स्तेनः सोऽपि गच्छte as aन्धन-ताडनादिनानाविधानfasstant दीक्षानर्ह एव ७ । तथा श्रीगृहान्तःपुर-नृपतिशारीर-तत्पुत्रादिद्रोहविधायको राजापकारी, चः समुच्चये, तदीक्षणे रुष्टराजकता मारण- देशनिःसारणादयो दोषा भवन्ति ८ । तथा यक्षादिभिः प्रवलमोहोदयेन वा परवशतां नीत उन्मत्तः सोऽपि न दीक्षाहः । यक्षादिभ्यः १ तुलना-निशोथमा ३६२७ ॥ २ तुलना-निशीथमा. २६३२॥ ३ स हि जे ॥ ४ तुलना- निशीथमा. ३६३१ ॥ ५ तुलना-निशीयमा ३६४५ तः ।। ६ पतनावि० सि. बि. ॥ १०७ द्वारे दीक्षान पुरुषाः गाथा ७९० ७९१ प्र.आ. २३० 1136 11 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनसारोद्धारे सटीके al॥ प्रत्यवायसम्भवात् स्वाध्याय- ध्यान संयमादिहानिप्रसङ्गाच ९ । तथा न विद्यते दर्शनं - दृष्टिरस्येत्यदर्शन:- अन्धः, स्त्यानद्विनिद्रोदयवानप्यत्र द्रष्टव्यः, न विद्यते दर्शनं - सम्यक्त्वमस्येति व्युत्पत्तेः । अयं च दीक्षितः सन् दृग्विकलतया यत्र तत्र वा सञ्चरन् पट् कायान् विराधयेत् freestoresादिषु च प्रपतेत् । स्त्यानर्द्धिस्तु प्रद्विष्टो गृहिणां साधूनां च मारणादि कुर्यात् १० | ॥७६॥ तथा गृहदास्याः सञ्जातो दुर्भिक्षादिष्वर्थादिना वा क्रीतः, ऋणादिव्यतिकरे वाऽवरुद्धो दास उच्यते तस्यापि दीक्षादाने तत्स्वामिकता उत्प्रवाजनादयो दोषाः ११ । तथा दुष्टो द्विधा - कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च । तत्र 'गुरुगृहीत सर्वपभज्जिकाव्यतिकराभिनिविष्ट१ 'सासणवाले' इमं उदाहरणं सासवाले छंदणं गुरु सव्वं भुजे एतरे कोवो खामण य अणुवसंते, गणिवैतणहि परिभो ।। निशीथ मा. ३६८३॥ एगेण साहुणा सासवणालुस्सेल्लयं सुसंभृतं लद्धं, तत्थ से अतीव गेड़ी, तेण य तं गुरुणो sati गुरुणा सव्यं भुक्तं इयरस कोवो जातो झटियं च । गुरुणा सो खाभितो, तदावि गोवसंतो । मणति य-भंज्ञामि ते दंता । गुरुणा विचितयं मा एस मे असमाधिमरणेण मारिees त्ति, गणे अन्नं भायरियं ठवेत्ता अन्नं गणं गंतु अणासगं पडिवणं ॥ ३६८३॥ पुच्छति य ते साहू "कत्थ मे गुरवो " १ फत पाक्साए सोत्राओ गंतु कत्थ से सरीरं । गुरुणा पु० कहिले दायिते पहिचरणदं तवही || ३६८४|| १०७ द्वारे दीक्षानर्हाः पुरुषाः गाथा ७९० ७९१ प्र.आ. २३० ॥३९॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे १०७ द्वारे दीक्षानीः पुरुषाः गाथा ॥४०॥ ७९१ प्र. आ. साध्यादिवदुत्कटकषायः कषायदुष्टः । अतीच परयोषिदादिषु गृद्धो विषयदुष्टः । सोऽपि दीक्षानोंतिसंक्लिष्टाध्यवसायत्वात् १२। ____ तथा स्नेहादज्ञानादिपरतन्त्रतया यथावस्थितवस्त्वधिगमशून्यमानसो मूढः । सोऽपि ज्ञान-विवेकभूलायामाहतीक्षायां नायिक्रियते । अज्ञानत्वात्कृत्याकृत्यादिविवेकविकलत्वाच्च १३ । तथा यो राजव्यवहारिकादीनां हिरण्यादिकं धारयति स ऋणातः, तस्य दीक्षादाने राजादिकृता ग्रहणा-5ऽकरण-कदर्थनादयो दोषाः १४ । तथा जाति-कर्म शरीगदिभिपितो जुङ्गितः । तत्र मातङ्ग-कोलिक-बरुड सूचिक- 'छिम्पादयोऽस्पृश्या जाति जुङ्गिताः । स्पृश्या अपि स्त्री-मयूर-कुकुट शुकादिपोषका वंशवरत्रारोहण नखप्रक्षालनसौकरिकत्व-वागुरिकत्वादिनिन्दितकर्मकारिणः कर्मजुङ्गिताः । कर-चरण-कर्णादिवर्जिताः पङ्गु कुञ्जवामनक काणकप्रभृतयः शरीरजुङ्गिताः, तेऽपि न दीक्षाहाः, लोकेऽवर्णवादसम्भवात १५ । तथा अर्थग्रहणपूर्वकं विद्यादिग्रहणनिमित्तं वा एतावन्ति दिनानि त्वदीयोऽहमित्येवं येनात्मनः पुच्छति कहिंगतो गुरु न कह ति साहा। सो अन्नश्री सोफचा गतो जत्थ गरबा । सहिं कहियं-अज्ज चेय कालगतो परिवितो। ताहे ते पुच्छति-कत्थ से सरीरयं? गुरुणा पुठवकहितो चिंधेहि उवलकिवतो-सो एस पावोत्ति । तेण किं करेसि ? पेच्छामि से सरीरं ति । ताहे दंसितो, सह ते साहुणा गुविलढाणठिता गं पडिचरितो किमेस काहिति ति पेच्छति । उबट्टितो तु गोलोवलं कदिऊण दंते वधंतो भणाति "सासणवाल खासि" ति एयं करेंतो विट्रो।" इति निशीथचूर्णी पृ. २६५॥१छिम्पकादयो-सि विलिम्पिधर्म, सं. वृत्तौ ।। PO मि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ॥४१॥ परायत्तता कृता भवति सोऽवबद्धः, स एवावद्भकः, सोऽपि न दीक्षाहः कलहादिदोषसम्भवान् १६ | तथा रूप्यकादिमाया या धनिनां गृहे 'दिन पाटिकादिमात्रेण तदादेशकरणाय प्रवृत्तो यः स भृतकः, सोऽपि न दीक्षोचितः । यस्यासौ वृांत गृहयति स दीक्ष्यमाणे तस्मिन् महतीमप्रीतिमादधाति १७ । तथा शैक्षस्य दीक्षितुमिष्टस्य निस्फेटिका - अपहरणं शैक्षनिस्फेटिका, तद्योगाद् यो माता-पित्रादि. भिरमुत्कलितोऽपहृत्य दीक्षितुमिष्यते सोऽपि शैक्षनिस्फेटिका, सोपि न दीक्षोचितः । माता-पित्रादीनां कर्मबन्धसम्भवात् अदत्तादानादिदोषप्रसङ्गाच्च १८ इत्येतेऽष्टादश पुरुषस्य - पुरुषाकारवतो दीक्षानद भेदा इति ॥ ७९१॥१०७॥ इदानीं 'बोस इत्थीसु'ति अष्टोत्तरशततमं द्वारमाह- जे अट्ठारस भैया पुरिसस्स तहित्थियाए ते चैव । गुब्विणी १ सबालबच्छा २ दुन्नि इमे हुति अन्नेवि ॥ ७९२|| 'जे अहारस भेया' गाहा, येऽष्टादश मेदाः पुरुषेष्वदीक्षणा उक्तास्तथा तेनैव प्रकारेण स्त्रियोsपित एव भेदा अष्टादश विज्ञेयाः । अयमर्थः यथा पुरुषाकारवतस्तथा स्त्रीजनाकारवतोऽपि बतायोग्या वालाariserer भेदास्तावन्त एव । " अन्यावपि द्वाविमौ भवतः, यथा गुर्विणी - सगर्भा सह वालेन-स्तनपायिना वत्सेन वर्तते सा सवाल वत्सा । एते सर्वेऽपि विंशतिः स्त्रीभेदा व्रतायोग्याः । दोषा अप्यत्र - पूर्ववद्वाच्याः । ७९२|| १०८॥ १ घन० सि. ॥ २० मिष्यते सोऽपि न मु. ॥ ३ तुलना-धर्मसं वृत्तिः भा. २, प. ५ ॥ १०८ द्वारे दीक्षानहः स्त्रियः गाथा ७९२ प्र. आ. २३१ -॥४१॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १०९द्वारे दीक्षानहीं नपुसका गाथा ७९३. इदानीं 'दस नपुसेसु' इति नवोत्तरशततमं द्वारमाहपंडए वाहए २ कीवे ३. कभी ईसालयत्ति य५। सउणी ६ तकम्मसेवी ७ य, पक्खियापक्खिए ८ इय ।।७९३।। [निशीथ भा. ३५६१] सोगंधिए य ९ आसत्ते १०. 'दस एते नपसगा । संकिलिहित्ति साहणं, पवावेउ अकप्पिया ॥७९४॥ 'पंडए' इत्यादिश्लोकद्वयम् , पण्डको वातिका क्लीबः कुम्भी ईर्ष्यालुः शकुनिस्तत्कर्म सेवी पाक्षिकापाक्षिकः सौगन्धिक आसक्तश्च दश एते नपुसकाः सङ्क्लिष्टचित्ता इति साधूनां प्रवाजयितुमकल्प्या व्रतायोग्या इत्यर्थः । सङ्क्लिष्टत्वं चैषां सर्वेषामप्यविशेषतो नगरमहादाहसमानकामाध्यवसायसम्पन्नत्वेन स्त्री-पुरुषसेवामाश्रित्य विज्ञेयम् , उभयसेविनो ह्य ते इति ॥७९३-७९४॥ तत्र पण्डकस्य लक्षणं महिलासहाको सरवन्नमेओ, मिदं महंतं मउया य वाणी । ससद्दयं मुत्तमफेणयं च, एयाणि छप्पंडगलक्षणाणि ॥ १ ॥ [निशीथमा. ३५६७] इति वृत्तादवसेयम् , अस्य व्याख्या-पुरुषाकारधारिणोऽपि महिलास्वभावत्वं पण्डकस्यैकं लक्षणम् , तथाहि गतिस्तस्यपदाकुला मन्दा च भवति, सशङ्क च पृष्ठतोऽवलोकमानो गच्छति, शरीरं च शीतलं १ ईसालुए सि-निशीथमाष्ये पाठः । तमाम मु.॥२ वस एए-जे.२ । पए दस-वा.॥ ३ तुलना-धर्मसं वृसिमा. २ । प.॥४ गतिस्त्रस्तपदा० मु..। तुलना-गती से मंदा पदाकुला...'इति निशीथपूर्णी गा. ३५६८ ॥ ७९४ प्र.आ. २३१ MORE Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके 1183:11 मृदु च भवति, योषिदिवानवरतं 'हत्थोल्लकान् प्रयच्छन् उदरोपरि तिर्यग्व्यवस्थापितवामकरतलस्यो परिष्टादक्षिण करकूर्परं विन्यस्य दक्षिणकरतले च मुखं कृत्वा बाहू च विचिपन् भापते, अभीक्ष्णं च कटिहस्तकं ददाति प्रावरणाभावे स्त्रीवद् बाहुभ्यां हृदयमाच्छादयति, भाषमाणश्च पुनः पुनः सविभ्रमं भूयुग्मक्षिपति, केशबन्धनप्रावरणादिकं च स्त्रीवत्करोति, योषिदाभरणादिपरिधानं व बहुमन्यते, स्नानादिकं समाचरति पुरुषसमाजमध्ये च सभयः शङ्कितस्तिष्ठति, स्त्रीसमाजे तु निःशङ्कः प्रमदाजनोचितं - कण्डन-पेषणादिकं कर्म विदधाति इत्यादिमहिला स्वभावत्वं पण्डकलक्षणम् १ । ' तथा 'स्वरवर्णभेदः' स्वरः- शब्दो वर्ण- शरीरसम्बन्धी उपलक्षणत्वाद्गन्ध-रस-स्पर्शाथ स्त्री-पुरुषापेक्षया विलक्षणास्तस्य भवन्तीत्यर्थः २-३ | 'मेन्द्र - पुरुषचिनं महद्भवति ४ । मृद्वी च वाणी ललनाया इव जायते ५ । तथा स्त्रिया व सशब्दं सूत्रं जायते फेनरहितं च तद्भवति ६ । एतानि षट् पण्डकलक्षणानि । " तथा वातोऽस्यास्तीति वातिकः, यः स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहने स्तब्धे सति स्त्री सेवायामकृतायां १ इत्थोलकान् सि., धर्मसं. वृत्तिश्च । तुलना- निशीथचूर्णिः गा. ३५५६ तः ॥ ॥ २ तस्यावोप० सि. वि. ॥ ३ टी० सि. का इस्तकं इति धर्म सं वृत्तौ पाठः ॥ ४ काण्डन सि. वि. ॥ ५ तुलना-निशीथ चूर्णिः गा. ३५६७ ॥ ६ मेहनं- सु. ॥ ७. तुलना- निशीथ माध्यम् ३ गा. ३५६९ तः ॥ १०९ द्वारे दीक्षा नह नपुंसका गाथा ७९३ ७९४ प्र.आ. २३१ ॥ ४३ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके 1188/1 वेदं धारयितु' न शक्नोति २ | तथा क्लीव: - असमर्थः स चतुर्धा दृष्टि शब्दाऽऽश्लिष्ट निमन्त्रणाक्लीबभेदात् । तत्र यो विवाद्यवस्थं विपक्षंक्ष्क्षुभ्यति स दृष्टिक्लीवः । यस्तु युवतिशब्दं श्रुत्वा क्षुभ्यति स शब्दक्लीवः । यः पुनः पुरन्धीfreeगूढो frefore तं विधातु ं न शक्नोति स यथाक्रममाश्लिष्टक्लीवो निमन्त्रितलीय विज्ञेयः ३ | यस्य तु मोहोत्कटतया सागारिकं नृपणों वा कुम्भ' वदुत्सूनौ भवतः स कुम्भी ४ । तथा यस्य प्रतिसेव्यमानां नित विलोक्य प्रकाममर्ष्या समुत्पद्यते स ईर्ष्यालुः ५ तथा चटकदुकट वेदताऽभीक्ष्णं प्रतिसेवनाप्रसक्तः शकुनिः ६ । तथा मैथुनमासेव्य बीज निसर्गे सति यः श्रान इव वेदोत्कटतया जिल्ह्वालेहनादिनिन्धकर्मणा सुखमात्मनो मन्यते स तत्कर्मसेवी ७ । तथा यस्य पक्ष - शुक्लपक्षेऽतीव मोहोद्भवो भवति अपक्षे च कृष्णपक्षे स्वल्पः स पाक्षिकापाक्षिकः ८ । तथा यः शुभगन्धं मन्वानः स्वकीयं लिङ्ग' प्रिति स सौगन्धिकः ९ । तथा यो वीर्यपातेऽपि कामिनीमालिङ्गय तद्गेषु कक्षोपस्थादिष्वनुप्रविश्यैव तिष्ठति स आसक्तः १० दण्डकादीनां च परिज्ञानं तेषां तन्मित्रादेव कथनादेरिति । ननु पुरुषमध्येऽपि नपुंसका उक्ता १ वत्स्तब्ध इति धर्मसं वृत्तौ । प. ६ ] पाठः ॥ १०९द्वारे दीक्षानही नपुंसकाः गाथा ७९३ ७९४ प्र. आ. २३.२ ॥४४॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहापि चेति तत्क एतेषां परस्परं प्रतिविशेषः १, सत्यम् , किन्तु तत्र पुरुषाकृतीनां ग्रहणम् , इह तु प्रवचन । नपुसकाकृतीनामिति । उक्तं च निशीथचूर्णीसारोद्धारे 'इयाणि नपुसया दम, ते पुरिसेसु चेक बुना नपुसदारे, 'जइ जे पुरिसेसु बुत्ता ते चेव इहंपि सटीके किंको भेदो ?, भन्नइ, तहिं पुरिमाकिई इह गहणं सेमयाण भवे' [गा.३७३६] त्ति । एवं स्त्रीष्वपि ॥ ४५ दा। ननु नगमाः मोउविधाः श्रते श्रयन्ते तत्कथमत्र दशैवोक्ताः १, सत्यं, दशैव तदाः प्रव्रज्याया अयोग्याः ततम्त एवोक्ताः, शेषाः पुनः षट् दीक्षायोग्या एव । तथा चोक्तम् 'वद्धिए चिप्पिए चेव, मंतोसहिउवहए । इसिसत्ते देवसत्ते य, “पवावेज्ज नपुंसए ॥१॥ अस्याः -आयत्या राजान्तःपुरमहलकपदनाप्स्यादिनिमित्तं यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्त्वा वृषणौ गालितो भवतः स पर्द्धितकः । यस्य तु जातमात्रम्याङ्गुष्ठागुलीभिर्दयित्वा वृपणौ द्राव्येते स चिरिपतः। एतयोश्चैवं कृने सति किल नपुंसकवेदोदयः सम्पद्यते । तथा कम्यचिन्मन्त्रसामर्थ्यादन्यस्य तु तथावि. धौषधीप्रभावात् पुरुषवेदे स्त्रीवेदे वा समुपहते सति नपुंसकवेदः समुदेति । तथा कस्यचिन्मदीयतपःप्रभावानपुसको भवत्वयमिति ऋषिशापात् । तथा कस्यचिद्देवशापात्तदुदयो जायते । इत्येतान् पट् नपुंसकान् निशीथोक्तविशेषलक्षणसम्भवे सति प्रव्राजयेदिति ॥१०॥ १०९ द्वारे दीक्षानहीं नपुंसकाः गाथा ७९३. ७९४ प्र.आ. २३२ १जाते-सि. वि. जे जति-इति निशीथचौँ पाठः ॥ २ गइणा-मु. ॥ ३ मंत ओसहि० सि.वि. धर्मसं. वृत्तौ च ॥ ४ पयावेजा-मुः।। ५ तुलना-निशीशचुणिः गा.३६०० ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mam प्रवचनसारोद्वारे सटीके ११०द्वारे प्रव्रज्याद्य विकलाङ्कस्वरूपम् ७९५. इदानीं 'विगलंग' ति द्वारं दशोत्तरशततममाह हत्थे पाए कन्ने नासा उठे विवज्जिया चेव । वामणगवडमरवुजा "पंगुलकुटा य काणा य ॥७९५।। पच्छावि होति 'विगला आयरियतं न कप्पए सेसि । सीसो ठावेयव्यो काणगमहिसोव 'निन्नंमि ॥७६६।। [निशीथभा. ३७०६-१०] 'हत्थे त्यादिगाथाद्वयम्, इह सर्वत्र तृतीयार्थे सप्तमी । ततोऽयमर्थ:-हस्तेन उपलक्षणवान् हस्ताभ्यां वा पदेन पादाम्यां वा कर्णेन कर्णाभ्यां वा नासया ओटेन वा विवर्जिता-हिताः. तथा वामनका-हीनहस्तपादाद्यवयवाः, पृष्ठतोऽग्रतो वा निर्गतशरीरा बडभाः, एकपाश्वहीना: कुजाः पादगमनशक्तिविकलाः पङ्गुलाः, विकलपाणयः 'कुण्टाः, काणा-एकाक्षाः, एते सर्वेऽपि बाजनानाः, प्रवचननिन्दादिदोषसम्भवादिति ॥७९॥ ___ अथ महीने व्रते ये विकलाङ्गा भवन्ति तेषां का बाता ?, तत्राह-पच्छावि हुँति' माहा, पश्चादपि 'श्रामण्ये स्थिता येऽक्षिगलनादिना विकला-विकलाङ्गा भवन्ति तेपामप्याचार्यगुणयुक्तानामप्याचार्यत्वं न कल्पते। प्रवचनहीलनाप्रसक्तेः । येऽप्याचार्यपदोपविष्टाः सन्तः पश्चाद्विकलाङ्गा जायन्ते तेषामपि न कल्पते धारयितुमाचार्यत्वम् , किन्तु तैस्तथा विकलाङ्गैः सद्भिरात्मनः पदे कोऽप्याकृतिमत्त्वादिगुणगणप्रशस्यः शिष्यः १विय ता.नि.॥२ विवजिए-मु.।। ३ पंगुलटुंटा-मु.॥ ४ थियला-मु.॥ ५ निम्ममि-मु. । निण्णमि-त्रि.॥ टुण्टा:-मु.।। ७ श्रामण्यस्थिता-मु.॥ प्र. आ. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटोके 11:89 11 taraftaar | आत्मा 'वप्रकाशे स्थाने स्थापfence: a इयवाह - 'काणकमहिप व निम्ने' इयमत्र भावना - काणको नाम चोरित इत्युच्यते । यथा चोरितमहिषो मा कोऽप्येनं द्राक्षीदिति हेतोर्ग्रामस्य नगरस्य वा बहिर्गतरूपे निम्ने प्रदेशे उपलक्षणमेव दतिगुपिले वा वनगहने स्थाप्यते; एवमेषोऽपि, अन्यथा प्रवचनहीलनाप्रसक्तिः आज्ञादिभङ्गदोषप्रसङ्गव । केवलमस्यापि यत्कृत्यं तत्सर्वमपि स्थविरा: कुर्वन्तीति ॥ ७६६ ॥ ११०॥ इदानीं ''अमुल्लं जकयं वत्थं'ति एकादशोत्तरशततमं द्वारमाहमुल्लजुयं पुण तिविहं जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं । " जहन्नेऽङ्कारसगं सयसाहस्सं उक्कोसं ॥ ७९७ दो साभरगा दीविच्चमा उ सो 'उत्तरावही एको । दो "उत्तरावहा पुण पाडलिपुत्तो 'हवइ एको । ७९८ ॥ दो दक्खिणाचा वा कंची नेलओ स ' दुग्गुणो उ । एको कुसुमनगरओ तेण पमाणं इमं होइ || ७९९ ।। [कृ. कल्प. भा. ३८९० -२] 'मुल्ले' त्यादि गाथात्रयम् मूल्ययुक्तं पुनर्वस्त्रं त्रिविधं भवति - जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । तत्र ★ १ प्रकाश० सिवि ॥ २ उच्यते-सु ॥ ३ ०दितिगुपिले - सि. वि. ।। ४ जइमोल्ले-सि. । जं मोहलं- वि. ॥ ५ जन्ते द्वारणं सयसहस्रं ता ॥ ६ दक्खिणावही जे. ॥ दक्खिणावहा जे. ॥ ८ भवे - जे. वा. ॥ ९. दुगुणाओ - मु.। ग्गुणो उ-जे. ॥ १११ द्वारे यतिकल्प्य वस्त्र मूल्यम् गाथा ७६७ ७६६ प्र.आ. २३३ ॥। ४७ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन Dainmeonemedies सारोद्धारे सटीके यतिकल्प्य वस्त्रमूल्यम् गाथा ७९७ ॥४८॥ जघन्येन-जघन्यतोऽष्टादशक-यस्याष्टादश रूपका नाणकविशेश मूल्यं तज्जघन्यं वस्त्रमित्यर्थः । शन. साहस्र च-रूपकलममूल्यमुत्कृष्टम् , शेषं तु मध्यममिति । तत्रह त्रिविधमपि मूल्ययुक्तं वस्त्रं साधना ग्रहीतुन कल्पते, किन्न्वेतस्मादणादशरूपकलक्षमल्याद्यन्न्यूनमूल्यं तदेव कल्पते । उक्तं च पञ्चकल्पबृहद्भाष्येA “ऊणगअट्ठारसर्ग वत्थं पुण साहुणो अणुन्नायं । एत्तो वहरिनं पुण नाणुनायं भवे वत्थं । १||||७|| नन्विर्ट केन रूपकेण प्रमाणमित्याह-'दो साभरगा' गाहा, माभरको नाम रूपकः, ततो द्वीपस्थानमत्काभ्यो द्वाभ्यां माभरकाभ्यामुत्तरापथे एकः म माभरको भवति । द्वीपश्च यः सुराष्ट्रामण्डले दक्षिण स्यां दिशि योजनमानं समुद्रमरगाह्य तिष्ठति सोऽत्र गृह्यते । द्वाभ्यां च उत्तरापथाभ्याम्-उत्तरापथसम्बन्धिभ्यां साभरकाभ्यां "पाटलीपुत्रनगरसत्क एकः सामरक इनि । अनेन रूपकेण वस्त्रप्रमाणमत्र कर्तव्यम् ।।७९८॥ ___ अथ प्रकारान्तरेण रूपकस्वरूपमाह- दो दविणावहा वागाहा, वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतने द्वौ दक्षिणापथसत्कौ रूपको काचीनगर्याः सम्बन्धी नेलको रूपक इत्यर्थः । स च नेलको द्विगुणः सन् एकः कुसुमनगरजः-पाटलीपुत्रसम्बन्धी रूपकः, तेन रूपकेणेद मष्टा दशकादि प्रमाणं भवतीति ॥७९९॥१११॥ ७११ प्र.आ. | २३३ - ॥४८॥ A ऊनाष्टादशकं वस्त्रं पुनः माधूनामनुशातम् । इतो व्यतिरिक्तं पुनर्नानुशतं मवेदनम् ॥ १॥ १ शतसहस्र-सि.॥ २ 'सामरेत्यादि-मु.॥३ पाटलीपुत्रे पाटली.सि. वि. ४ 'दक्खिणे त्यादि-मु.॥ न Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन सारोद्वारे सटीके ॥ ४९ ॥ इदानीं 'सेजायरपिंडो' ति द्वादशोत्तरशततमं द्वारमाह सेजायरो पहू वा पहुसंदिट्ठो य होइ कायव्वो । एगो गे य पहू पहुसंदिद्वेवि सागारियसंदिट्ठे एगमणेगे एगमणेगा बज्जा चक्कभयणा अन्नत्थ वसेजणं दोनिवि तरा भवंती सत्याइसु अन्नहा जड़ जग्गति सुविहिया करेंति आवस्सयं तु 'सेज्जायरो न होई सुत्ते व कए सो एमेव ॥ ८०० ॥ उ 1 ठावए एगं ॥ ८०१ || अणेगेसु य आवस्सग चरिममन्नहिं तु करे । "भयणा ||८०२|| अन्वत्थ । होई ||८०३ ॥ [कृ. क. मा. ३५२५.६-३०-२९] दाऊण गेहं तु सपुत्तदारो, वाणिज्जमाईहि उ कारणेहिं । तं चैव अन्नं व वएज्ज देखें, सेज्जायरो तत्थ स एव होह ||८०४|| लिंगत्थस्सवि ' वज्जो तं परिहरओ व भुजओ वावि । अजुन्तरस व रसावणो तत्थ दितो || ८०५ ॥ जुत्तरस १ सेज० मु. 1 सिज्जा० त्रि । २ एगुनोगे- वा. । एगमणेगे-इति बृ.क. माध्ये निशीथमाध्ये च पाठः ॥ ३. पसु - मु. निशीथमान्ये च ॥ ४ मणिया-ता ॥ ५ सिज्जा० मु. ॥ ६ विज्जो जे. ॥ ७ रसावणे सु. ॥ ११२ द्वारे शय्यातरपिंड: गाथा ७१७ ८०८ प्र. आ. २३३ ॥ ४९ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके ११२ द्वारे शय्यातर पिंडः गाथा ७९७. प्र. प्रा. तित्थंकरपडिकुट्टो 'अन्नायं उग्गमोवि य न सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेज्जा 'य वोच्छेओ ॥८०६॥ पुरपच्छिमवज्जेहिं अवि कर्म जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहएहि य न य सागारिअस्स पिंडो उ ॥८०७|| बाहुल्ला गच्छस्स उ पढमालिय-पाणगाइकज्जेसु । सज्झायकरणआउटिया करे उग्गमेगयरं ॥८०८॥ [निशीथभा. ११४४.५.९-८, ११९३, ११५८-९.६०.६२, बृ. कल्प. भा. ३५३९-४०.१-३] 'सेज्जे' त्यादिगाथानवकम् . "शय्यया-माधुममर्पितगृहलक्षणया संसारसागरं दुस्तरमपि तरतीति शय्यातरः ! म द्विधा भवति कर्तव्यः प्रभुर्वा-यतिप्रदत्तोपाश्रयस्वामी, प्रभुसन्दिष्टो वा-तेनैव प्रभुणा यत्कृतप्रमाणतया निर्दिष्टः । तत्र यः प्रभुः स एको वा भवेदनेको वा, प्रभुमन्दिष्टोऽप्येवमेव वाच्यः, कोऽर्थः १-प्रभुमन्दिष्टोऽप्येको वाऽनेको वा भवतीति ।।८००॥ ___ अमुमेवार्थ विशेषत आह-'सागारिये'त्यादि, सागारिकः-साधृपाश्रयस्वामी सन्दिष्टश्च-प्रभुमन्दिष्टः प्रत्येकमेको वाऽनेके वा भवन्ति, ततश्चतुष्कभजना-चतुर्भङ्गी ज्ञातव्या । तद्यथा-एकः प्रभुरेकः प्रभुसन्दिष्ट इति प्रथमो भङ्गः । एकः प्रभुरनेके प्रभुमन्दिष्टा इति द्वितीयः । अनेके प्रभव एकः प्रभुसन्दिष्ट इति तृतीयः । १अण्णया-वि.माणा-अण्णाय-उग्गमो ण सुज्मे इति-बृ.क. भाष्ये च पाठः ॥ २ उ-मु. । ३ तुलनार्थ विशेषार्थ पद्रष्टव्यानिशीधचर्णि: गा. ११४३ तः, वृहत्कल्पमाध्य वृत्तिः गा. ३५२२ तः ।। ४ ऽने के च - सि. वि.॥ .. . . ..... SHRIME Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे सीके ११२द्वारे शय्यातरपिंडः गाथा ७९७ ८०८ अनेके प्रभवोऽनेके च प्रभुसन्दिष्टा इति चतुर्थों भङ्गः । ते च शय्यातरा 'एको वाऽनेके या वर्जनीयाः । अत्रैवापवादमाह-'अणेगेसु य ठावए एग'ति अनेकेषु 'च-बहुषु शय्यातरेषु सत्सु एकं कमप्यपवादपदेन शय्यातरं स्थापयेत् । इयमत्र भावना-बहुजनसाधारणा वसतिः क्यापि लब्धा । तत्र च साधुसामाचारीकुशलाः श्रावका यद्येवं वदन्ति-एक कमपि शय्यातरं स्थापयत मा सर्वानपि परिहरतेति, तदा एकं शय्यातरं स्थापयित्वा शेषगृहेषु भिक्षां गृह्णन्ति । यद्वा यहवस्तत्र साधवस्ततो यदि मर्वेऽपि संस्तरन्ति तदा सर्वानपि शय्यातरान् कुर्वन्ति । असंस्तरणे तु एकं शय्यातरमिति । ग्रहणविधिश्वायं-द्वयोः शय्यातरयोरेकान्तरेण 'भिक्षाग्रहणवारको भवति त्रिषु शय्यातरेषु तृतीयदिने चतुषु चतुर्थदिने एवं वारकेण भिक्षां गृणन्तीति ॥८०१॥ अथायं शय्यातरः कदा भवति ?, तबाह --'अन्नत्थे' त्यादि, अन्यत्र-अन्यस्मिन कस्मिश्चित सार्थे ग्रामादौ वा उपित्वा सुप्त्वेत्यर्थः, चरम-प्राभातिकमावश्यक-प्रतिक्रमणमन्यत्र-स्थानान्तरे गत्वा यदि कुर्वन्ति तदा द्वावपि 'तर ति एकदेशेन समुदायोपचारान् शय्यातरौ भवतः, यस्यावग्रहे रात्रौ सुप्तो यदवग्रहे च प्राभातिक प्रतिक्रमणं कृतं तौ द्वावपि शय्यातरौ भवत इति भावः । इदं च प्रायशः सार्थादिषु सम्भवति आदिशब्दाच्च चौरा-वस्कन्दमयादिपरिग्रहः । अन्यथा तु-प्रकारान्तरसद्भावे भजना-शय्यातरस्य विकल्पना, यस्य गृहे स्थिताः स वाऽन्यो वा शय्यातरो भवतीत्यर्थः ॥८०२॥ १ एके-सि. ॥२ च.मु. नास्ति ॥ ३ गत्वा, यदि तु मिक्षा जे०॥ २३४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ॥ ५२ ॥ तामेव भजनामाह - 'जई 'त्यादि यदीत्यभ्युपगमे रात्रेश्चतुरोऽपि प्रहरान् जाग्रति शोभनं चितम् - अनुष्ठानं येष ते सुविहिताः साधव इत्यर्थः, आवश्यकं तु प्राभातिकप्रतिक्रमणं पुनरन्यत्र गत्वा कुर्वन्ति तदा मूलोपाश्रयस्वामी शय्यातरी न भवति, किन्तु सुप्ते वा शयने वा कृते सति कृते वा प्राभातिकप्रतिक्रमणे शय्यातरो भवति । अयमत्र तात्पर्यार्थः- शय्यातरगृहे सकलां रात्रिं जागरित्वा प्राभातिकप्रतिक्रमणं यद्यन्यत्र कुर्वन्ति तदा मौलः शय्यातरी न भवति किन्तु यद्गृहे प्रतिक्रमणं कृतं स एव । अथ शय्यातरगृहे रात्रौ सुप्या जागरित्वा वा प्राभातिकप्रतिक्रमणं कुर्वन्ति तदा स एव शय्यातर इति । यदा तु वसतिसङ्कीर्णतादिकारणादनेोपायेषु साधवस्तिष्ठन्ति तदा यत्राचार्यः स्थितः स एव शय्यातरो नान्य इति ॥ ८०३ || ननु साधूनां गृहमर्पयित्वा गृहस्वामी यदा देशान्तरं व्रजति तदा शय्यातरो भवति वा न वा १, तत्राह - 'दाऊणे' त्यादि वृत्तम्, कश्चिद् गृहस्थः साधूनां गृहं दवा 'सपुत्र दार:' पुत्र- कलत्रादिसकलनिजलोकपरिवृतो वणिज्यादिभिः कारणैस्तमेव देशमन्यं वा व्रजेत् तत्रापि च स्थितो यदि तस्य गृहस्य स्वामी तदा स एव शय्यातरो भवति । न पुनर्दरदेशान्तरस्थितत्वात्तस्य शय्यातरस्त्वं न भवतीति || ८०४ ।। अथायं शय्यातरः कस्य सम्बन्धी परिहरणीयस्तत्राह - 'लिंगस्थे' स्यादि, लिङ्गस्थस्यापि - लिङ्गमात्रधारिणोऽपि साधु गुणविरहितस्यापीत्यर्थः सम्बन्धी शय्यातरो वर्जनीयः, आस्तां तावदितरस्य चारित्रिण इति, स च साधुस्तं शय्यातरपिण्डं परिहरतु वा भुङ्क्त वा तथापि वर्ण्यः । अथ साधुगुणैर्वि१०गुणरहित० सि. वि. ॥ ११२ द्वारे शय्यातर पिंड : गाथा ७९७ ८०८ प्र. आ. २३४ ॥ ५२ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे। ११२ द्वारे सध्यातर सटीके ॥५३॥ गाथा युक्तस्य शय्यातरः कस्मात्परिहियते !, उच्यते, साधुगुणैयुक्तस्यायुक्तस्य वा शय्यातरः सर्वथा परिहर्तव्यः । ___अत्र च 'रसापणो' मद्यापणो दृष्टान्तः । तथाहि-महाराष्ट्राख्ये देशे सर्वेष्वपि मद्यहटेषु मा भवतु वा मा वा तथापि तत्परिज्ञापनाथं वजो बध्यते । तं च दृष्ट्वा सर्वेऽपि भिक्षाचरादयोऽभोज्यमितिकृत्वा परिहरन्ति । एवमस वपि साधुगुणयुक्तो वा भवतु अयुक्तो वा, तथाप्यस्य रजोहरणध्वजो दृश्यत इतिकृत्वा शय्यातरः परिट्टियत इति ॥८०५॥ अथ शय्यातरपिण्डग्रहणे दोपानाह-'तन्धकरेत्यादि, तीर्थकरैः सर्वैरपि प्रतिकुष्टो-निषिद्धः शय्यातरपिण्डः । तं च गृह्णता 'तीर्थकराज्ञा न कुना स्यात् । तथा अज्ञातस्य-अविदितस्य राजादिप्रत्रजितत्वेन उञ्छवृत्या यज्ञैक्षं तदज्ञातमुच्यते, तदेव प्रायः साधुना ग्राह्यम् 'अन्नायउञ्छ चरई विसुद्ध' [दशवे. ९/३/४] इति वचनात् । तचासन्ननिवासादतिपरिचयेन ज्ञातस्वरूपतया शय्यातरगृहे पिण्डं गृहणतो न शुद्धयतीति योगः । तथा शय्यातरपिण्डग्रहणे सति 'उद्गम:' कल्पनीयभक्तादिभवनमपि 'न शुद्धयति' न शुद्धो भवति । निकटादिभावेन पुनः पुनस्तत्रैव भैक्षपानकादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमदोषाः स्युरित्यर्थः । तथा स्वाध्यायश्रवणादिभ्यः प्रीतः शव्यातरः क्षीरादि स्निग्धद्रव्यं ददाति, तच्च गृहणता विमुक्ति:गार्यामावो न कृतः स्यात् । तथा अविद्यमानं लाघवं-लघुता यस्य स तथा तद्भावोऽलायवता। तत्र विशिष्टाहारलाभेनोपचितत्वाच्छरीरालाघवम् , शय्यातरात्तत्परिजनाच्चोपधेर्लामादुयधेरनल्पतया तदलाघ प्र. आ. २३५ १ तीर्थकदाझा-सि. वि. ॥ २ गृहणान-मुः ॥ ३ स्निग्ध-वि.॥ ॥५३॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके ॥५४॥ वमिति । तथा दुर्लभा-असुलभा शय्या च-वसतिः कृता भवति । येन किल शय्या देया तेनाहाराद्यपि देयमित्येवं गृहिणां भयोत्पादनात् । तथा व्यवच्छेदो-विनाशो दानभयाच्छच्यायाः शय्यातरेण क्रियते । |११२ द्वारे शग्यातरवसत्यभाशद्वा भक्त-पान-' शय्यादिव्यवच्छेदः स्यादिति ॥८०६॥ पिंडः तथा-'पुरे' त्यादि, पूर्वः-पभस्वामी, पश्चिमो-वर्धमानस्वामी, पती द्वावपि मुक्त्वा शेपैजिनवरैः गाथा द्वाविंशतिमयमध्यमतीर्थऋद्भिर्विदेहजैश्च-महाविदेहक्षेत्रसमुन्पन्नः सर्वैरपि तीर्थकरें: 'अवि कम्म' ति अपिः-सम्भावने कर्म-आधाकर्म 'लेशेन एकदेशेन शुक्लाम्, 'न' र 'सागारिकस्य' शय्यातरस्य पिण्डः । मध्यम विदेहतीर्थकराणां हिं यम्वेव योग्य माधाकर्म कृतं नम्यैव तन्न कल्पते शेपाणां प्र.आ. तु कल्पते इति तैगधाकर्मभोजनमपि कथञ्चिदनुमतम् , सागारिकपिण्डः पुनः सर्वथापि प्रतिषिद्ध एवेति ।। २३५ अयं च मागारिकपिण्डो द्वादशधा, अशन-पान-खादिम-स्वादिम ४ रजोहरण वस्त्र-पात्र-कम्बल ४ मूचीपिष्पलक कर्णशोधन-नखरदनिका ४ भेदात् । उक्तं च "असणाईया चउरो ४ पाउञ्छण ५ वत्थ ६ पत्त ७ कंबलयं ८ । सई ६ छुर १० कन्नसोहण ११ नहरणिया १२ सागरियपिंडो ॥१॥ ...... तृण डगलकादिस्वपिण्डः । उक्तं च .शिष्या. सि. वि. ॥ २ देशेन-सि. ॥ ३ एकदेशेन सि. वि. नास्ति । सूत्रादेशतः इति बृ. क. मा. वृत्तौ (३५४६) ॥५४॥ पाठः । सुत्सादे सेणं-दति निशीथ-चूर्णी (११६०) पाठः ॥ ४ च. मि.वि. नास्ति ॥ ५.०गलादि-सि. वि.॥ - imom - Home Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।११२ द्वारे प्रवचनसारोद्धारे सटीके 11५५॥ "तण-डगल-छार-मल्लग-सेज्जा-संथार-पीढ-लेवाई। सेज्जायरपिंडो सो न होइ सेहो य सोवहिओ ॥१॥" [७. क. भा. ३५३५, निशीथभा. ११५४] । अत्र 'सेहो य सोवहिओ' ति यदि शय्यातरस्य पुत्रः पुत्री वा वस्व-पात्रादिसहिता प्रव्रजेत्तदा स शय्यातरपिण्डो न भवतीति ।।८०७॥ तथा-'बाहुल्ले' त्यादि, गच्छस्य-साधुसमूहस्य बाहुल्याव-प्राचुर्याद्धेतोः प्रथमालिका-पानकाद्यर्थ शय्यातरगृहे पुनः पुनः प्रविशत्सु, साधुषु शय्यातर उद्गमदोषम्-आधाकर्मादीनामन्यतरं कमपि कुर्यात् । तत्र प्रथमालिका-क्षुल्लक ग्लानादीनां प्रथमत एव भोजनम् , पानकं च प्रतीतम् , तथा निरन्तरस्वाध्यायविधानेन करणेन च-चारित्रेण 'आउटिय' ति आवर्जिता उपेत्य उद्गमदोषान् कुयु रिति । अयं च अहोरात्रात्परतोऽशय्यातरो भवति । यदुक्तम्- 'वुत्थे वज्जेज्जऽहोरत्तं'[ ] इदमत्र हृदयं-यत्रोषितास्ततः स्थानाद्यस्यां वेलायां विनिर्गता द्वितीयदिने तावत्या वेलायाः परतोऽशय्यातरो भवति । तथा अपवादतो ग्लानत्वादिकारणे शय्यातरपिण्डोऽपि ग्रहीतु कल्पते । यदुक्तम् 'दुविहे गेलन्नमी निमंतणे दबदुल्लहे असिवे । ओमोयरियपओसे भए य गहणं अणुनायं ॥१॥ [.क.मा.३५५०, निशीथमा, २५३२] १ पेढ सि.वि. A उषिते वर्जयेदहोरात्रम् ॥ शल्यातरपिंडा गाथा ७९७. ८०८ प्र.आ. .. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३द्वारे सटीके मम्यक्त्व गाथा ८०९ प्र. आ. अस्या व्याख्या- 'आगाढा-ऽनागाढे-गाढतरा-ऽगाढतरे द्विविधे ग्लानत्वे शल्यातरपिण्डोऽपि प्रवचनसारोद्धारे । ग्राह्यः । इदमुक्तं भवति-अनागाढ़े ग्लानत्वे त्रीन बारानाहिण्ड्यते, यदि न लब्धं ग्लानप्रायोग्यं तदा शय्यातरपिण्डोऽपि गृह्यते । आगाढे पुनः शीघ्रमेव शय्यातरपिण्डग्रहणं क्रियते । निमन्त्रणेच-शव्या तरनिर्वन्धे सकृत् तं गृहीत्वा पुनः 'प्रसङ्गो निवारणीयः । दुर्लभे च जीरादिद्रव्ये आचार्यादीनां ॥५६॥ प्रायोग्ये अन्यत्रालभ्यमाने तत्रैव गृहणन्ति । अशिवे-दुष्ट व्यन्तरोपद्रवादिके, अबमोदयें च-दुर्भिक्षे अन्यत्र भिक्षायामलभ्यमानायां शय्यातरगृहेऽपि भिक्षां गृह्णन्ति । 'पओसे ति राज्ञा प्रद्विष्टेन सर्वत्र भने निवारिते प्रच्छन्नं तद्गृहेऽपि गृह्णन्ति । अन्यत्र च तस्कारादिभये तत्रापि गृहणन्ति भिक्षादिकमिति ८०८॥ ११२। इदानी जत्तिय सुत्ते सम्म' ति त्रयोदशोत्तरशततमं द्वारमाह चउदस दस य अभिन्ने नियमा सम्म तु सेसए भयणा । मइ-ओहिविधज्जासे होइ हु मिच्छं न सेसेसु ॥८.९॥ 'घउदस गाहा, यस्य साधोचतुर्दश पूर्वाणि यावदश च पूर्वाणि अभिन्नानि-परिपूर्णानि सन्ति तस्मिन्नियमात-निश्चयेन सम्यक्त्वं भवति । शेपे-किञ्चिदूनदशपूर्वधरादौ भजना-विकल्पना । सम्यक्त्वं वा स्यान्मिथ्यात्वं वेत्यर्थः, तथा मतेरवधेश्च विपर्यासे-मत्यज्ञाने विभङ्गज्ञाने च सति हु-निश्चयेन मिथ्यात्वं १ तुलना-बहत्कल्पवृत्तिः गा. ३५५० तः॥ २ प्रसङ्गानिका सि.॥३जित्तिय ता.॥ Liminamumm । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके भवति । मिथ्यात्ववशादेव हि मतिज्ञाना-बधिज्ञानयोविपर्याससद्भावः, श्रुतज्ञानस्य तु विपर्यासो दर्शित एव; 'सेसए भयण ति वचनात , शेषयोस्तु मनापर्यवज्ञान-केवलज्ञानयोमिथ्यात्वं न भवत्येवेति ॥८०९॥११३॥ | ११४ द्वारे इदानीं 'जे निग्गंथावि चउगइय' ति चतुर्दशोत्तरशततमं द्वारमाह चतुर्गचउदस ओहि आहारगावि मणनाणि वीयरागावि । तिकाः हुति पमायपरवसा तयणंतरमेव चउगइया ॥८१०॥ गाथा 'चउदस' गाहा, सर्वत्र सूचामात्रत्वात्सूत्रस्य 'चउदसति चतुर्दशपूर्वधरा अपि, तथा अवधिज्ञानिनोऽपि, तथा आहारका अपि-आहारकलब्धिमन्तोऽपि, चतुर्दशपूर्विणोऽपि केचिदाहारकलब्धिमन्तो' प्र. आ. न भवन्तीत्याहारकग्रहणम् , तथा मनःपर्यवज्ञानिनोऽपि, तथा वीतरागा अपि-उपशान्तमोहा अपि, क्षीणमोहानां त्वप्रतिपातित्वान्न ग्रहणम् , 'प्रमादपरवशाः' विषय-कषायादिकलुपीकृतचेतसः सन्तस्तदनन्तरमेव ११५द्वारे तद्भवानन्तरमेव चतुर्गतिका- नरक-तिर्यग्मनुष्य-देवलक्षणगतिचतुष्टयभाजो भवन्तीति ॥८१०॥११॥ क्षेत्रातीतं इदानीं 'खेत्ताईयं' ति पञ्चदशोत्तरशततमं द्वारमाह--- गाथा "जमणग्गए रविमि अतावस्खेतमि गहियमसणाइ । कप्पह न तमुवभोत्त खेत्ताईयति समात्ती ॥११॥ १जह-सा-त्रि.'चउदस-सि.पि.॥३न्तोऽपि न संमवन्ती सि. वि.॥४नारक.मु.॥ ५ तुलना-मगवतीसू. १ सू. २६६ ॥ ६ खेत्ताईयत्ति-मु.।खित्ताइप्रति इति धर्मसं० वृत्तौ [मा० २/प. ४०] पाठः ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके | ११६ द्वारे मार्गातीतं गाथा ८१२ ||५८॥ 'जमणग्गए' गाहा, यदनुद्गते खावतापक्षेत्रे रात्रावित्यर्थः गृहीतमशनादि-अशनं पानं खादिर्भ स्वादिमं च, न तदुपभोक्तु कल्पते गनीनाम् ; यनः क्षेत्रातीतं तदिति समयोक्तिः-सिद्धान्तभणितिरिति ॥८११॥ ११५॥ इदानीं 'मार्गातीत'मिति षोडशोत्तरशततमं द्वारमाह असणाई कप्पइ कोसचुगम्भंतराउ आणेउं । । परओ आणिज्जतं मग्गाईयंति तमकप्पं ॥८१२॥ ___ 'असणाईय' गाहा, अशनादिकं क्रोशद्वयाभ्यन्तराद्-गव्यूतद्वयमध्यादानेतु कल्पते यतीनाम् , परतस्तु-क्रोशद्वयात्परत आनीयमानं तदशनादि मार्गातीतमितिकृत्वाऽकल्पनीय मेवेति ॥८१२॥ ११६॥ इदानीं 'कालातीत' मिति सप्तदशोत्तरशततमं द्वारमाह पढमप्पहराणीयं असणाइ जईण कप्पए भोत्तुं । जाव तिजामे उड्डे तमकप्पं कालइक्कत ॥८१३॥ . 'पढमप्पहरा' गाहा, दिनप्रथमप्रहरानी तमशनादि कल्पते यतीनां भोक्तु यावत् त्रयाणां यामानां समाहारस्त्रियाम-प्रहरत्रयमित्यर्थः । ऊर्च तु-प्रहरत्रयादुपरि चतुर्थप्रहरे तदकल्प्यम्-अकल्पनीयं कालातिक्रान्तम् , सिद्धान्ते निषिद्धमितिकृत्त्वेति ॥१३॥ ११७॥ १०यमिति-सि.वि.॥ ११७ द्वारे | कालातीतं गाथा ८१३ प्र.आ. २३६ AMINETIONARASis t .. SE060 sion 13 scomwww ManunHAN DATFPARENARSS Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनरोद्धारे ११८द्वारे प्रमाणातिक्रान्तं गाथा इदानीं 'प्रमाणातिक्रान्त' मित्यष्टदशोत्तरशततमं द्वारमाह कुक्कुडिअंडयमाणा कवला बत्तीस साहुआहारे । अश्या मियाहारो कोरड् बत्तीसभाएहिं ॥८१४।। होइ पमाणाईयं तदहियकवलाण भोयणे जहणो । एगकवलाइऊणे ऊणोयरिया । तवो तमि ॥८१५॥ कुक्कु' इत्यादिगाथाद्वयम् , कुक्कुटी-पक्षिणी तस्या यदण्डकं तन्मानाः-तत्प्रमाणाः कवला द्वात्रिंशत्साधूनां-यतीनामाहारे भवन्ति । प्रकारान्तरेण कवलमानमाह-अथवा साधोरुदरं यावन्मात्रेणाहारेण न न्यूनं नाप्यत्याध्मातं भवति तावन्मात्रो निजकाहारो द्वात्रिंशद्भागैः क्रियते, । द्वात्रिंशत्तमश्च भागः कवल इति । एतस्माच्च द्वात्रिंशत्कवलमानादधिककवलभोजने यतेः प्रमाणातीतं भोजनं भवति । तथा एतस्माद् द्वात्रिंशत्कवल प्रमाणादाहारादेकेन द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुभिः पञ्चादिभिर्श कवलैन्यू ने सति तस्मिन्नाहारे ऊनोदरिकाभिधस्तपोविशेषो भवतीति ।।८१४-८१५ ॥११॥ इदानीं 'दुहसेज्वचउक्क' ति एकोनविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह-- पवयण असदहाणं १ परलाभेहा य २ कामासंसा ३ । . पहाणाइपत्थणं ४ इय चत्तारिऽवि दुक्खसेजाओ ॥८१६॥ नियआहारो-ता.॥२ संवि (तमि)-भुः। तम्मिता.॥ ३ कुक्कुदिअंडय इत्यादि० सि. वि. वि.॥ ४ कुकुटी-मु.॥ ५ नाप्यत्यानातं-मु.॥ ६०प्रमाणादारा० मु.॥७ तुलना-स्थानाङ्गसूत्रम् सू.३२५ ॥ ६ असहहणं.-ता.॥ ११९द्वारे व शय्या : गाथा ८१६ प्र.आ. २३७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०द्वारे सुख शय्या : गाथा प्र. आ. २३७ ‘पवयण' गाहा, शेरते आस्विस्ति शय्याः, दुःखदाः शय्या दुःखशय्याः । ताश्च द्वेधा-द्रव्यतो भावप्रवचन | सच, तत्र तोमनोशलामादिरूपा, जावतो दुस्थितचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावास्ताश्चतस्रः । तत्र सारोद्धारे प्रवचनस्य-जिनशासनस्याश्रद्धानम्-एवमेवेदमिति प्रतिपत्त्यभाव इति प्रथमा दुःखशग्या । तथा परेषाम्सटीके अन्येषां लाभस्य-वस्त्राद्यवाप्तेरीहा-प्रार्थनेति द्वितीया । चः समुच्चये । तथा कामाना-मनोज्ञशब्दरूपादीनामाशंसनम्-अभिलपणमिति तृतीया । तथा स्नानादीना-गात्राम्यङ्ग-मदन-प्रक्षालनादीनां प्रार्थनम्-आका क्षणमिति चतुर्थी । आसु हि क्लिष्टभावस्वभावासु श्रामण्यशय्यासु स्थितो जीयः कदाचिदपि श्रामण्यस्य न सुखमासादयतीति चतस्रो दुःखशय्याः ॥८१६॥११॥ इदानीं विंशत्युत्तरशततमं 'सुहसेज्जचउक्क' ति द्वारमाह 'सहसेन्जाओऽपि चउरो जहणो धम्माणुरायरसस्स । विवरीयायरणाओ सुहसेज्जाउत्ति भन्नंति ॥८१७॥ 'सुहसेज्जाओ' गाहा, "धर्मानुरागरक्तस्य' धर्मे-जिनधर्म अनुरागेण-गाढतराभिलाषरूपेण रक्तस्य-आसक्तस्य दुःखशय्याएव चतस्रोऽपि 'विपरीताचरणात्' पूर्वोक्तप्रवचना श्रद्धानादिवपरीत्यकरणतः सुखशय्या इति भण्यन्ते । अयं भावः प्रवचनश्रद्धानं परलाभानीहनं कामादीनामनाशंसनं स्नानादीनामप्रार्थनं 'चेति यतेः सुखशय्याः । तत्र हि स्थितः परमसन्तोषपीयूषमग्नमानसतया निरन्तरतपोऽनुष्ठानादिक्रियाकलापच्याप्ततया च सुखमेव यतिः समासादयतीति ।।८१७॥१२०॥ १दुह० जे. २॥ २ सुखशय्या एवं-मु.॥३०श्रद्धानादिदुःखशव्यावैप० मु.॥ ४ चेति-मु. नास्ति । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ themamrememmanmmenासासालmmmm प्रवचनसारोद्वारे सटीके इदानीं 'तेरस किरियाठाणाई ति एकविंशत्युत्तरशततम द्वारमाह'अट्ठा १ णट्ठा २ हिंसा ३ कम्हा ४ दिट्ठी य ५ मोस ६ ऽदिन्ने ७ य । |१२१द्वारे पागलाण ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३ ॥१८॥ क्रियातस-धाधर भूएहिं जो दंडं निसरई उ कज्जेणं । स्थानानि आयपरस्स व अट्ठा अट्ठादंड तयं विति १ ॥१९॥ गाथा जो पुण सरडाईयं थावरकायं च वणलयाईयं । ८१८. 'मारेउं छिंदिऊण व छडडेई सो अणटाए २ ॥२०॥ ८३५ अहिमाइव इरियस्स च हिंसिंसु हिंसई व हिंसेही । प्र.आ. जो दंतु आरभई हिंसादंडो हवइ एसो ३ ॥२१॥ २३७ अन्नहाए निसिरह कंडाई अन्नमाहणे जो उ ।। जो व नियंतो सरसं छिदिज्जा सालिमाईयं ॥२२|| एस अकम्हादंडो ४ दिहिविज्जासओ इमो होइ । जो मित्तममित्तंति ‘य काउं घाएज्ज अहवावि ॥२३॥ १एता अष्टादश (१५-३५) गाथा आवश्यकहारिमद्रथामपि [प. ६४८ तः) उपलभ्यन्ते तत्र स्वल्पपाठभेवश्च विद्यते।। तुलनार्थ विशेषार्थ च द्रष्टव्यं सुत्रकृताङ्गसूत्रम् , श्रुतस्कन्ध २, अध्ययन २ ।। २ मारेइ-मु.। मारेत्तु इति भाव.हारि- E24 मद्रयां पाठः ।। ३०वयरि० मु.॥ ४ हिंसेई-ता.। हिंसिहिई-प्रत्यावश्यकहारिभद्रयां पाठः॥५नियंती-मु.॥ ६ य-मु. नास्ति । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके ॥ ६२ ॥ लु पंचमयं ५ वगड़ 1 हवइ एसो ६ ॥ ८२५ । तु 1 होइ ॥८२६॥ गामाई धाएज्ज व अतेण तेणति वावि घाएजा किरियाठाणं दिविवज्जासेसो अत्तनायगाईण वावि 'अडाए जो मुसं सो मोसप्पच्चइओ दंडो छुट्टो प्रमेव आयनायगअड्डा जो गिन्हई अदिन्नं एसो अदिन्नवित्ती अज्झत्धीओ हमो नवि कोष भाइ तहवि हु हिरण तुम्मणो किंचि । ठाणा इमे तरस ||८२७|| reesज्झत्थी सीसइ चउरो कोहो माणो माया 'लोभो अज्झत्थिfore चे ८ माणेणं जो पुण जाड़मयाई अडविणं तु मत्तो होलेह परं विंसह परिभवड़ मानवच्चेया माइपना गाण जो * पुण अप्पेवि अवराहे ||८२९|| तिव्यं दंड कुण दहणंकण-बंध-ताडणाईयं तम्मित्तदोस वत्ती किरियाठाणं I ||८२८|| ९ 1 1 भवे दसमं १० ॥८३०॥ १ मठ्ठाइ मु. ॥ २ य-ता. नास्ति ।। ३ लोहो-ता. ॥ ४ माणश्त्तेसा ता. मावहारिद्र्यां च पाठः ॥ ५ पुणप्पेषिता ॥ ६०विवी-यु.।। 60 1 ||८२४|| १२१ द्वारे क्रियास्थानानि गाथा ८१८. ८३५ प्र. आ. २३७ ॥ ६२ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके एगारसमं माया अन्न हिययंमि अन्न वायाए । अन्नं आयरई वा सकम्मणा गूढसामथो ॥३१॥ मायावती एसा ११ 'एत्तो पुण लोहवत्तिया इणमो । सावजारंभपरिग्गहेसु सत्तो महंतेमु ॥३२॥ तह इत्थीकामेसु गिद्धो अप्पाणयं च स्क्वंतो । अन्नेसिं सत्ताणं वह-बंधण-मारणे कुणइ ॥३३॥ एसेह लोहबत्ती १२ इरियावहिअं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्सा समिईगुतीसुगुत्तस्स ॥३४॥ 'सययं तु अप्पमसरस भगवओ जाव चक्खुपम्हंपि । निवयइ ता सुहमा ह हरियावहिया किरिय एसा १३ ॥८३५|| 'अडे त्यादिगाथाऽष्टादशकम् , करणं क्रिया-कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा, तस्याः स्थानानि-भेदाः क्रियास्थानानि, तानि च त्रयोदश । तत्र 'अट्ठाऽणट्ठा हिंस' ति अत्र त्रिषु पदेषु प्राकृतलक्षणेन' चतुध्येकवचनस्य लोपो दृश्यः । ततोऽर्थाय-स्वपरप्रयोजनाय क्रिया अर्थक्रिया । अनर्थाय-स्वपरप्रयोजनामावेन क्रियाऽनर्थक्रिया । हिंसायै क्रिया हिंसाक्रिया । अर्शादेराकृतिगणत्वादच्प्रत्ययः । तथाऽकस्माद् १२१ क्रियास्थाना गाथा ८१८ ८३५ प्र. आ २३८ १२सो-ता.॥ २ सयतं अप० मु.॥३०न-सि वि. वि. नास्ति ।। ४ तार्थाय-सि.॥ womename Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके ॥६४॥ -अनभिसन्धिना क्रियाऽकस्माक्रिया। तथा 'दीही य' ति दृष्टिविपर्यासक्रिया सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा । |१२१द्वारे तथा मृपाक्रिया, तथाऽदत्तादानक्रिया, तथाऽध्यात्मक्रिया, तथा मानक्रिया, तथाऽमित्रक्रिया तथा माया क्रियाक्रिया, तथा लोभक्रिया, तथा 'ईर्यापथिका क्रियेति ॥८१८॥ स्थानानि अथैतानि क्रमेण व्याचिख्यासुः प्रथम क्रियास्थान व्याचष्टे-'तस-थावर' गाहा, अत्र तृतीयायाः गाथा सप्तम्यर्थत्वात् त्रसेषु-द्वीन्द्रियादिषु, स्थावरेषु-पृथिव्यादिषु, भूतेषु-प्राणिषु यः कश्चिदण्ड-दण्डयते आत्माऽन्यो वा प्राणी येन स दण्डो-हिंसा। तं निसृजति-करोति-कार्येण-प्रयोजनेन, तदेवाह-आय ८३५ परस्स व अट्ट' ति आत्मनः-स्वशरीरादेः परस्य वा-बन्धुवर्गादेय-उपकाराय, तं क्रिया-क्रियावतोर प्र.आ. भेदोपचारादर्थदण्डम्-अर्थक्रिया अवते तीर्थकरगणधरा इति १ ॥८५९॥ २३८ ___ अथ द्वितीयं क्रियास्थानमाह-"जो पुणे' त्यादि, यः पुनः कश्चित्सस्टादिक-कृकलासमृपिकादिक त्रसकार्य स्थावरकायं च-बनलतादिकं प्रयोजनव्यतिरेकेणेच यथाक्रमं मारयित्वा छित्वा च त्यजति स धर्मधर्मिणोरभेदोपचारादनाय क्रियेति २॥८२०॥ तृतीय क्रियास्थानमाह-'अही' त्यादि, अयं सर्पादिवरी वाऽस्मान हिसितवान हिनस्ति हिसिष्यति वा इत्यभिसंधिना अह्यादेः-सादेः मकारोऽलाक्षणिकः वैरिणो वा यो दण्डमारभते-बधं विधत्ते स हिंसादण्डः धर्म-धर्मिणोरभेदोपचाराद्भवत्येष इति ३ ।।८२१।। चतुर्थ क्रियास्थानमाह--'अन्नहाए.' इत्यादि सपादगाथा, अन्यार्थम्-अन्येषां मृग-पक्षि-सरीसृप१ ईयपिथक्रिया-मु.॥ . ला Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके ॥६५॥ प्रभृतीनां वधनिमित्तं 'निसजती' क्षिपत्ति काण्डादीक' शर-लेष्टुप्रभृतिकम् , अन्यं पुनराहन्यात् य एषोऽकस्माद्-अनभिसन्धिना अन्यवधार्थप्रवृत्या दण्डः-अन्यस्य विनाशोऽकस्माद्दण्डः । यो वा 'नियंतो' |१२१वार त्ति अवलोकयन् छेदनबुद्धथा तृणादिकम् , अन्यत् शाल्यादिकं शस्यमनाभोगेन छिद्यादिति । अयमर्थः क्रियाअन्यस्मिन् शाल्यादिमध्यव्यवस्थिते तृणादिके छेत्तुमुपक्रान्ते अनाभोगतोऽन्यच्छाल्यादिकं छिद्याद स्थानानि एष वाऽकम्माद्दण्डः ४ । गाथा __पञ्चमं क्रियास्थानमाह-'दीट्ठी विवलास' इन्यादिपादोनगाथाद्वयम् , दृष्टे:-बुद्धविपर्यासो-विपर्ययो ८१८ मतिविभ्रम इत्यर्थः, तस्मादयं-वक्ष्यमाणो दण्डो भवति । अमुमेवाह-यो मित्रमपि सदमित्रमितिकृत्वा घातयेत । यो मित्रस्याप्यमित्रोऽयमिति युद्धया वधः स दृष्टिविपर्यामदण्ड इति भावः । अथवाऽपीति प्रकारा । प्र.मा. न्तग्योतने, ग्रामादीन 'घानयेद्वा, अयमर्थ:-ग्राममध्यवर्तिना केनचित्कस्मिश्चिदपराधे कृते समग्रमपि ग्राम २३९ यन्मारयति एष वा दृष्टिविपर्यासदण्ड इति । यद्वा अस्तेनमपि-अचौरमपि स्तेनोऽयमितिकृत्वा हन्यादित्येष दृष्टिविपर्यासः पञ्चमं क्रियास्थानमिति ५॥८२२-८२४॥ पष्ट क्रियास्थानमाह-'अत्त?' त्यादि, आत्मार्थ परेषां वा-नायकादीनामर्थाय यो मृषा वदति स एप मृषाप्रत्ययिको-मृषाकारणिको दण्डः षष्ठो भवति ६ ॥८२५॥ सप्तमं क्रियास्थानमाह-'एमेवे' त्यादि, 'एवमेव' मृपावाद दण्डवदात्मनायकार्थम्-आत्मनः परेप वा नायकादीनां निमित्तम् , 'नाइग' त्ति पाठे तु ज्ञात्यर्थ-स्वजनार्थ यो गृणात्यदत्तम्-अन्येनावि७.१ प्रात येत-मुः ॥ २ अचौरमपि-मु. नास्ति ।। ३ मथ षष्ठं-मु. ।। ४ ०दण्ड० सि. वि. नास्ति ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके ८१८. तीर्णमेषोऽदत्तवर्ती अदत्तदण्डक्रियावानित्यर्थः ७ ॥८२६॥ । १२१द्वा अयं पुनर्वक्ष्यमाणो भवति आध्यात्मिको दण्डः, अध्यात्म-मनस्तत्र भवो बाह्यनिमित्ता'नपेक्षः क्रियाशोकोऽभिभव इति भावः । तमेवाह -'नवि कोइ' गाहा, यस्य सम्मुखं न कोऽपि किश्चिदप्यनिष्ट स्थानानि जल्पतितथापि हृदयेन-मनसा कृत्वा किञ्चिदतिशयेन दुर्मना:-कालुप्यभाग्भवति तस्याध्यात्मिकी क्रिया गाथा सहति कथ्यते । तस्य चाध्यात्मिकक्रियास्थानस्य इमानि-वक्ष्यमाणानि चत्वारि 'स्थानानि' कारणानि भवन्ति ।।८२७|| तान्येवाह-'कोहो' इत्यादि गाथा पूर्वार्द्धम , क्रोधो मानो माया लोभश्चेत्येतानि चन्चारि कारणा प्र. आ. न्यध्यात्मक्रियायां भवन्तीति ! बाह्यनिमित्तान पेक्षमाभ्यन्तरनिष्कारणक्रोधादिसमुद्भनं दौर्मनग्यमाध्यात्मिकक्रियेति तात्पर्यार्थः । नवमं क्रियास्थानमाह-'जो पुणे' त्यादि, यः पुनजातिमदादिना-जाति-कुल-रूप बल श्रुत-तपोलाभैश्वर्यमदलक्षणेनाष्टविधेन मानेन मत्तः सन् परम्-आत्मव्यतिरिक्तं हीलयति-जात्यादिभिर्निन्दति निकृष्टोऽयमित्यादिवचनैः परिभवत्यनेकाभिः कदर्थनाभिर्मानप्रत्यया एपा क्रियेति ९ .. दशमं क्रियास्थानमाह-'माइपिइ' इत्यादि सपादा गाथा, यः पुनर्माता-पितृस्वजनादीनामल्पेऽप्यपराधे ती दण्डं कुरुते दहना-ऽङ्कन-बन्ध-ताडनादिकं तन्मित्रद्वेषवर्तिक्रियास्थानम् , अमित्रक्रियेत्यर्थः ॥६६॥ मवेदशर्म क्रियास्थानमिति । तत्र दहनम्-उन्मुकादिमिदम्भनम् , अनं-ललाटादिषु चिहकरणम् , नपेक्ष्य-जे. । नापेक्ष्य-सि नापेझ-बि.॥ २ नपेक्ष्य० सि.॥ MAHOUR Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोद्धारे होके १२१ द्वारे क्रियास्थानानि बन्धो-रज्ज्यादिभिनियन्त्रणम् , ताडनं-कशादिभिराहननम् , आदिशब्दादन-पाननिषेधादिपरिग्रहः १० ॥८२८-८३०॥ 'एकादशमं क्रियास्थानमाह----'एगारे'त्यादि मार्द्धगाथा, एकादशमं माया-मायाक्रियास्थानम् , यथा हृदये-मनमि अन्यत्-वचःक्रियाविलक्षणम् , वाचि-बचसि अन्यत्-मनःक्रियाविलक्षणम् , अन्यच्च वाङ्मानसविसंवादि आचरति-करोति । कथम्भृतः सन् ?-'गूढसामर्थ्यः' गूढे-गोपने सामर्थ्य-शक्तिविशेषो यस्य स तथा, केन कृत्वा ?-स्वकर्मणा' निजचेष्टितेनाकारङ्गितादिना, मायाप्रत्यया एपा क्रियेति ११ ॥ द्वादशं क्रियास्थानमाह-एत्तो' इत्यादि, इत:-ऊवं पुनर्लोभप्रत्यया क्रिया इयं-वक्ष्यमाणा, यथा सावद्यारम्भाः-प्राण्युपमर्दादिना सपापव्यापारा ये परिग्रहा-धन-धान्यादिरूपास्तेषु महत्सु-गुरुषु सक्तोगाढतराकाङ्क्षायुक्तः । तथा स्त्रीषु-युवतिषु कामेषु च-मनोज्ञरूप-रस गन्ध-स्पर्श-शब्दस्वरूपेषु गृद्धःअत्यन्तमभिसक्तः । तथाऽऽन्मानमपायेभ्यो गाढादरेण रक्षन अन्येषां सच्चाना-प्राणिनां वध-बन्धन-मारणानि-लगुडादिहनन-रज्ज्वादिसंयमन-प्राणव्यपरोपणलक्षणानि करोति एपा इह-सिद्धान्ते लोभप्रत्ययालोभनिवन्धना क्रियेति १२ ॥ त्रयोदशं क्रियास्थानमाह-'इरियावहियमि'त्यादि, अतो लोभक्रियानन्तरमैर्यापथिकी क्रियां प्रवक्ष्यामि । तत्र ईरणमीर्या-गमनं तद्विशिष्टः पन्था ईपिथस्तत्र भवा ऐपिथिकी । व्युत्पत्तिमात्रमिदं प्रवृत्तिनिमित्तं तु यः केवलयोगप्रत्यय उपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मबन्धः सा 'ऐयापथिकी । १.एकादशं-सि. वि. ॥ २ ईरिया० सि. वि. ।। ८१८८३५ प्र.आ. २३९ जा ॥७॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्षाः गाथा ६८॥ ८३७ प्र. आ. इह खल्वनगारस्य साधोः समितिषु-ईर्यासमित्यादिषु गुप्तिषु-मनोगुप्त्यादिषु 'सुगुप्तस्य सुसंवृतस्य सतत. 1 मेवाप्रमत्तस्योपशान्तमोह-क्षीणमोह-सयोगकेवलिलक्षणगुणस्थानकायवर्तिनः । अन्येषां तु अप्रमत्तानामपि रोद्धारे। कषायप्रत्ययकर्मबन्धसद्भावेन केवलयोगनिमित्तकर्मबन्धासम्भवान्नाप्रमत्तशब्देनात्र ग्रहणम् , भगवतःटीके पूज्यस्य यावच्चक्षुःपश्मापि निपतति-स्पन्दते, इदं च योगस्योपलक्षणम् , ततोऽयमर्थः-यावच्चक्षुर्निमेषोन्मेष मात्रोऽपि योगः सम्भवति तावन्सूक्ष्मा-एकसामायिकवन्धत्वेनात्यल्पा मातबन्धनलक्षणा क्रिया भवति, एषा हु:-स्फुटमैर्यापथिकी क्रिया त्रयोदशीति ।।८३१-८३५।।१२।। इदानी आगरिसा सामाईए चउविहेवि एगभवे' इति द्वाविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह सामाइयं चउडा सुय १ देसण २ देस ३ सव्व ४ भएहिं । ताण इमे आगरिसा एगभवं पप्प भणियव्वा ।।८३६|| तिण्ह सहस्स पुहुत्तं च सयपुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवइया हुँति नायव्वा ॥३७॥ [आव. नि. ८५७] 'सामे' त्यादिगाथाद्वयम् , समो-राग द्वेषयोपान्तरालवर्ती मध्यस्थः । 'इण् गतौ' अयनं अयो गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः-समीभृतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्तिः । समाय एवं सामायिकम् , विनयादेराकृतिगणत्वात् स्वार्थिक इकणप्रत्ययः, एकान्तोपशान्तगमनमिति भावः । तचतुर्धा- चतुर्भेदं श्रुतदर्शन-देश-सर्वलक्षणैर्भेदः, श्रुतसामायिकं सम्यक्त्वसामायिक देशविरतिसामायिकं सर्वविरतिसामायिक १ गुणस्य संवृत्तस्य-सि, वि. ॥ २बन्धोदयस. सि ॥ ॥६॥ S SATURE Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन - सारोद्धारे सटीके ॥६९॥ *BROUG चेत्यर्थः । ते च चतुर्णामप्येते वक्ष्यमाणा आकर्षा एकं भवं उपलक्षणत्वान्नानाभवांश्च प्राप्य - आश्रित्य भणितव्याः । तत्र आकर्षणमाकर्ष:- प्रथमतया मुक्तस्य वा ग्रहणमित्यर्थः । ते च द्विधा - एकभविका नानाभविका ॥ ३६ ॥ तत्र प्रथमत एकभविकानाह - 'तिहेत्यादि, त्रयाणां सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिक देशविरतिसामायिकानामेकम त्वमाकर्षाणामुतो भवति । विरतेः सर्वविरतेस्त्वेकभवे शतपृथक्वाकर्षाणामुत्कर्षतः, पृथक्त्वमिति द्विप्रभृतिरानवभ्यः । एवमेतावन्त उत्कर्पत एक आकर्षा ि ज्ञातव्याः । परतस्तु प्रतिपातोऽलामो वा जघन्यतः पुनश्वतुर्णामपि सामायिकानामेक एवाकर्ष एकस्मिन् भवे भवति । उक्तं चावश्यकचूण 'सुसामाइयं एगभवे जहन्नेणं एक्कसि आगरिसेह उक्कोसेणं सहस्मपुडुतंवारा, एवं सम्मत्तस्सवि देसविरईए य पुण जहन्ने एक्कंसि, उक्कोसेणं सयहुतंवार" [भा. १/५. ४८८ ] इति ॥८३॥ अथ नानाभवगतान् प्रतिपादयति तिन्ह 'असंखसहरसा सहसपुष्टुतं च होड़ विरईए । नाणभवे आगरिसा एवइया हुति नायव्वा || ८३८ || [आव.नि. ८५८] १ भाद्वारं तुल्यप्रायमावश्यकमलयगिरिवृत्तिः, प. ४७२ ।। २ एगम्मि आगरिसे-पु. ॥। ३ एकम्मि-मु. ॥ ४ सदस्सम संखा इत्यावश्यक नियुक्तौ पाठः ॥ १२२ द्वारे आकर्षाः गाथा ८३६. ८३८ प्र. आ. २४० ॥६९॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके 'तिण्ह' इत्यादि, त्रयाणा-सम्यक्त्व श्रुत-देशविरतिसामायिकानां नानाभवेष्वाकर्षाणामुत्कर्पतो भवन्त्यसङ्ख्येयानि सहस्राणि । यतस्त्रयाणामप्येकांस्मन् भव सहस्रपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्तम् , भवाश्च क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागगतनभः प्रदेशतुल्याः হাকানি , A संमत्तेदसवरिया पलियस्सासंखभागमेत्ता उ ।'[ ] इति बच. नान् । ततः सहस्रपृथक्त्वं तेगु गिनमसङ्ख्येयानि सहस्राणि भवन्ति । सहयपृथक्त्वं च नानाभवेष्वाकर्याणा | মাথা मुत्कर्पतो भवति विरतेः-सर्वविरतः, तस्या हि स्वल्नेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्पाणामुक्तं भवाश्चाष्टौ ततः -३९. शतपृथक्त्वमष्टभिगुणितं सहस्रपथक्त्वं भवति । एतावन्तो नानाभवेष्वाकर्षा भवन्ति ज्ञातव्याः । अन्ये पठंति --- 'दोण्ह मुहम्समसंखा' [ प्र. आ. ] इति तत्रापि श्रुतमामायिकं सम्यक्त्व'मामायिकनान्तरीयकन्वा. दनुक्तमपि प्रतिपत्तव्यम् , सामान्यश्रुतस्य त्वक्षरात्मकम्य नानाभवेष्वाकर्षा अनन्तगुणा इति ।१८३८॥१२२|| २४० इदानीं 'सीलंगाणहारससहस्स' त्ति त्रयोविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह-- सीलंगाण सहस्सा अट्ठारस पत्थ हुति 'नियमेणं । भावेणं समणाणं अक्खंडचरित्तजुत्ताणं ॥८३६॥ जोए ३ करणे ३ सन्ना ४ इंदिय ५ भोमाइ १० समणधम्मे य १० । सीलंगसहस्साणं अद्वारगस्स निप्फत्ती ॥८४०॥ A सम्यक्त्वदेशविरताः पयस्यासंखमागमात्रा एव || १ सामायिकानन्त. मु. पाच. मलय. वृत्तावपि सामायिकनान्त इति पाठः । सामायिकानातक इत्यावश्यकहारिमद्रया पाठर ५.३६३ ॥२ सीलंगट्टा० मु.॥३ नायव्वा-ता.॥ WAVARKARIUS Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके करणाई तिन्नि जोगा मणमाईणि हवंति करणाई। आहाराई सन्ना घर 'सोयाईदिया पंच ॥८४१।। भोमाई नव जीवा अजीवकाओ य समणधम्मो य । खंताइदसपयारो एवं 'ठिए भावणा एसा ||४|| न करह मणेण आहारसन्न विप्पजदगो उ नयमेण सोइंदियसंवरणो पुढविजिए खंतिसंजुत्तो ॥८४३।। इय मदवाइजोगा पुढविकाए हवति दस भेया। आउकायाईसुवि इअ एए पिंडिअं तु सयं ॥८४४|| सोइ दिएण एवं सेसेहिवि जं इमं तओ पंच । आहारसनजोगा इय सेसाहिं सहस्सदुगं ॥४५॥ एवं मणेण 'वयमाइएसु एवं तु छस्सहस्साई। न करे सेसेहिंपि य एए सम्वेहिं अद्वारा ॥८४६|| [पश्चाशकप्र. १४१२.९] 'सोलंगाण' गाहा, शीलाङ्गाना- 'चारित्रांशानां तत्कारणानां वा सहस्राण्यष्टादश, 'अन' यतिधर्म शासने वा भवन्ति-म्युनियमेन--अवश्यम्भावेन न न्यूनान्यधिकानि 'वेति भावः । कथमित्याह-'भावेन' १R-इति पञ्चाश के पाठः ।। २ ठिय-मु. ॥ ३ माणेणाहारसण्णा० इति पञ्चाशके पाठः॥४ क्यसाता ॥ ५ आदारं तुल्यप्राय पश्चाशकवृत्ती १४। २, ५.२२५ तः॥ ६ चेति-सि. ।। |११३द्वारे शिलाङ्गानि गाथा ८३९८४६ प्र. आ. २४१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके १२३द्वारे शीला ङ्गानि ॥७२॥ गाथा ८३९ ८४६ प्र. आ. विशुद्धपरिणामेन बहिया तु कल्पप्रति' सेवायां न्यूनान्यपि स्फूरिति भावः । केषामित्याह-श्रमणाना-साधूनाम् , न पुनः श्रावकाणाम् , सर्वविरताचेच तेषामुक्तसंख्याकानां सम्भवात् , अथवा भावेन श्रमणानाम् , न तु द्रव्यश्रमणानाम् , तेषामपि किंविधानामित्याह-'अखण्डचरित्रयुक्ताना' समग्र चरणप्रतिसम्प न तु दर्पप्रतिसेवया खण्डितचारित्रांशानाम् , नन्वखण्ड चारित्रा एव मर्व विस्ता भवन्ति तत्खण्डने असर्वविरत. स्वप्रसक्तेः, 'तथा "पडिवज्जइ अहकम्मे पंच' [ ] इत्यागमप्रामाण्यान् सर्वस्तिः पश्चापि महावतानि प्रतिपद्यते अतिक्रामति च पश्चाप्येव नैकादिकमिति, कथं सर्वबिरतेशखण्डन मिति !, अत्रोच्यते, सत्यमेतत् । किन्तु प्रतिपत्त्यपेक्षं सर्वबिरतत्वम् , परिपालनापेक्षया त्वन्यथाऽपि सञ्जवलनकषायोदयान्म्यात् , अत एवोक्तम्- "सव्वेवि य अहयारा मंजलणाणं तु उदयश्री होती" ति [आव. नि. ११२] अतिचारा हि चारित्रदेशखण्डनरूपा एव । तथैकव्रतातिक्रमे सर्वत्रतानिक्रम इति यदुक्तं तदपि विवक्षया । सा चेयम्___ यस्स जाब दाणं तात्र अइक्कमइ नेव एगपि । एग अइक्कमंतो अइकम्मे पंच मूलेणं ॥१॥" एवमेव हि दशविधप्रायश्चित्तविधानं सफलं स्यात् , अन्यथा मूलायेव तत्स्यात् , व्यवहारनयतश्चातिचारसम्भवः निश्चयतस्त्वसर्वविरततया भङ्ग एवेति पर्याप्तं प्रपञ्चेनेति ।।८३९॥ कथं पुनरेकविधस्य शीलस्याङ्गानामष्टादश सहस्राणि भवन्तीत्याह-'जोए' इत्यादि, योगे-करणादिव्यापारे विषयभूते, करणे-योगस्यैव साधकतमे मनःप्रभृतिके, संज्ञादीनि चत्वारि पदानि द्वन्द्वैकत्ववन्ति, .१ सेवया-मुः ।। २ चरणप्रतिपनाना-मु.॥ ३ तथाहि-मु.॥ ४ पडिवज्जइ भइ० इति पश्चाशकवृत्तौ पाठः ।। O सर्वेऽप्यति चाराध संज्वलनानामेयोचयतो भवन्ति || . ॥७२॥ अ 22:35 ER.2 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ द्वारे शीलाङ्ग. सहस्राणि सटीके गाथा तत्र संज्ञासु-चेतनाविशेषरूपासु आहारादिषु, इन्द्रियेषु-अशेषु श्रोत्रादिषु, भूम्यादिषु-पृथिव्यादिजीवकायेप्रवचन- वजीवकाये च, श्रमणधर्म च शान्त्यादौ शीलाङ्ग-सहस्राणां प्रस्तुतानामष्टादशपरिमाणस्य वृन्दस्येन्यष्टासारोद्धारे। दशकम, तस्य निष्पत्तिः-'मिद्भिर्भवतीति ॥८४०॥ योगादीनेव व्याख्यातुमाह- करणाई नित्रि' इत्यादिगाथाद्वयम् , विभक्तिलोपाकरणादय:करण कारणा-ऽनुमतयस्त्रयो योगा भवन्ति । तथा मनादीनि तु-मनो बचन कायरूपाणि पुनर्भवन्तिस्युः करणानि त्रीण्येव । तथा आहारादयः-आहार-भय-मेथुन-परिग्रहविषया वेदनीय-भयमोहनीय-वेदमोहनीय-लोभकषायोदयसम्पाद्या अध्यवसायविशेषरूपाः । 'चउ' ति चतस्रः संज्ञा भवन्ति । तथा श्रोत्रादीनि--पश्चानुपूर्ध्या ओर-इ-गण-मन सेनानीन्द्रिमाणित भवन्ति । उत्तरोत्तरगुणावाप्तिसाध्यानि शीलाङ्गानीति ज्ञापनार्थ मिन्द्रियेषु पश्चानुपूर्वीति । तथा भूम्यादयः-पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पति-द्वि-त्रि-चतुःपञ्चेन्द्रिया नब जीवा-जीवकायाः । अजीवकायस्तु-अजीवकायः पुनर्दशमो य परिहार्यतयोक्तः, स च महामूल्यवस्त्रपात्र सुवर्णरजतादिरूपो दुष्प्रत्युपेक्षिता-ऽग्रत्युपेक्षितदृष्य-पुस्तक-चर्म-तृणपश्चकादिरूपश्च । तथा श्रमणधर्मस्तु-यतिधर्मः पुनः क्षान्त्यादिः-शान्ति-मार्दवा-ऽऽजेव-मुक्ति-तपः-संयम सत्य शौचा-ऽऽकिञ्चन्यब्रह्मचर्यरूपो दधविध इति । एवं'ति एवमुक्तन्यायेन 'स्थिते' औत्तराधर्येण पट्टकादौ व्यवस्थिते त्रित्रि-चतुः पश्च-दश-दशसङ्ख्ये मूलपदकलापे 'भावना' भङ्गप्रकाशना 'एषा' अनन्तरवश्यमाणलक्षणा शीलानिष्पत्तिविषयेति ॥८४१-८४२।। १ सिद्धिर्भवति-मु. २०सुवर्ण सि.वि. नास्ति ।। ३ त्रिचतु: मु.॥ [प्र. आ. २४१ winted ॥७३॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटोके गाथा तामेवाह-'न करेई' त्यादि, न करोतीति करणलक्षणः प्रथप्रयोग उपात्तः, मनसेनि 'प्रथमकरणम् , 'आहारसन्नविष्पजढगो उ' त्ति आहारसंज्ञाविप्रहीणः सन् , अनेन च प्रथमसंज्ञा, तथा नियमेन शीलाल अवश्यन्तया श्रोत्रेन्द्रियमंबरणो-निरूद्धरागादिमाछोत्रन्द्रियप्रवृत्तिः, अनेन च प्रथमेन्द्रियम , एवंविधः मन् मावाणि किं न करोतीत्याह-गाथाजीवान आरम्भविषयानिति शेषः, पृथिवीजीवारम्भं न करोतीति तात्पर्यम् , अनेन च प्रथमजीवस्थानम् । क्षान्तिसंयुक्तः-क्षान्तिसम्पन्नः, अनेन च प्रथमश्रमणधर्मभेद 'उक्त इति ॥८४३|| तदेवमेकं शीलाङ्गमाविर्भावितमिति, अथ शेषाण्यपि तान्यतिदेशनो दर्शयन्नाह-'इय महवाइजोगा' इत्य दिगाथात्रयम् , 'इति'अनेनैव पूर्वोक्ताभिलापन मार्दवादियोगात-मार्दवा-जवादिपदसंयोगेन 'पृथिवोकाये' पृथिवीकायमाश्रित्य पृथिवीकायारम्भमित्यभिलापेनेत्यर्थः, सम्भवन्ति-स्युर्दश भेदा-दश शील प्र. आ. विकन्याः, अकायादिवपि नवसु स्थानेषु, अपिशब्दो दशेत्यस्येह सम्बन्धनार्थः, इत्यनेन क्रमेण एते सर्वेऽपि भेदाः 'पिंडियं तु' त्ति प्राकृतत्वात् पिण्डिताः पुनः सन्तः, अथवा पिण्डितं-पिण्डमाश्रित्य, शतंशतसङ्ख्याः स्युरिति ॥८४४॥ __श्रोत्रेन्द्रि येणेतत् शतं लब्धम् , शेषैपि चक्षुरादिभिर्यद्-यस्मादिदं शतं प्रत्येकं लभ्यते, ततो 'मिलितानि पश्च शतानि स्युः, पञ्चत्वादिन्द्रियाणा, एतानि चाहारसंज्ञायोगलब्धानि इति, एवं शेषाभिरपि भयसंज्ञादिभिस्तिसृभिः पञ्च पञ्च शतानि म्युः सर्वमीलने च सहस्रद्वयं स्यात् । यतश्चतस्रः संज्ञा इति । एतत्स१ प्रथम-मु. ॥ २ तात्पर्यायः-मु. ॥ ३ उक्त-सिवि-नास्ति ॥ ४ मीमितानि-इति पश्चाशकवृत्तौ[५ २२५] पाठः॥ । MENUARO व्यापOHTERVANTRA.. BRe52RAYURETIRSANAHITY सी R eli Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोद्धारे सटीके १२३ द्वारे शीलाङ्गसहस्राणि गाथा ८३९. हस्रद्वितयं मनोयोगेन लब्धम् , 'वयमाइएसु' ति वागायोः-वचन-काययोः प्रत्येकमेतत्महस्रद्वितयम् , इत्येवं षट् सहस्राणि | त्रिमङ्ख्यत्वात् मनो-वचन-काययोगानाम् , एतानि न करोतीत्यनेन लब्धानि । शेषयोरपि च कारणाऽनुमत्योः षट् पट् सहस्राणि स्युः, एते अनन्तरोक्ताः सर्वेऽपि शीलभेदाः पिण्डिताः रिवाज सन्तोऽष्टादश सहस्राणि * भवन्तीति ॥८४५-८४६।। आलापकगाथाश्चैवमत्र करणीयाः "न करेमि मणसाऽऽहारसनविरओ उ सोयसंगुत्तो! पुढचीकायारंभ खंतिगुणे यमाणोऽहं ॥१॥ एवं मद्दवगुणे वट्टमाणोऽहं २ । 'अजबगुले मागोहं ३ । पावगुणे वट्टमाणोऽहं १०॥ एवमकायादिष्वपि गाथा भणनीयाः। तथा कारेमि न मणसाहारसम्नविरओ उ सोयसंगुत्तो। पुढवीकायारंभ खंतिगुणे वट्टमाणोऽहं ॥ १ ॥ इत्यादि तथा "नऽणुमन्ने मणसाहारसम्नविरओ उ सोयसंगुत्तो । पुढवीकायारंभ खंतिगुणे वट्टमाणोऽहं ॥१॥ इत्यादि । नन्कायोगे एवाष्टादश सहस्राणि स्युर्यदा तु द्वयादिसंयोगजन्या भङ्गका इह गृह्यन्ते तदा बहुतराः स्युः, तथाहि-एकद्वयादिसंयोगेन योगेषु सप्त विकल्पाः, एवं करणेष्वपि, संज्ञासु पञ्चदश, इन्द्रियेवेकत्रिंशत् , भूम्यादिषु त्रयोविंशत्यधिकं सहस्रम् , एवं क्षमादिष्वपीति, एष च राशीनां परस्परगुणने द्वे कोटीसहस्र त्रीणि कोटीशतानि चतुरशीतिः कोटयः एकपश्चाशल्लक्षाणि 'त्रिषष्टिः सहस्राणि हे शते * द्रष्टव्यं पृ. ७६ ॥ १ मजवगुणवडूमाणो-सि.॥ २ णण सि.॥ ३ तुलना-पञ्चाशकवृत्तिः प. २२६ ।। ४त्रि कोटि.सि. वि.॥ ५ त्रीणि षष्टिः मु.॥ २४२ ७।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे नोकरंति जे न कार- जे न अणुम६००० वति ६००० नंति ६.००/ अष्टादशसहस्रशीलाङ्गरय-स्थापना च विचारसारे [पृ. ५६] इत्यम् [विशेषार्थ 'श्री शीलांगादि रथ संग्रह' पुस्तके द्रष्टव्यम् ] मणसा वयसा । कायसा निज्जिया-निज्जयमय-निजियमेह-निराजयपरिहारसन्न५०० सन्न ५०० सन्न ५०० महसन्न५०० सोइंदी चक्खुइकी घाणिंदी । रसणेदी फासेदी१०० १०० | १०० १० १०० पुढवीकाया-आरक्काया-ते उक्काया- बाउक यारंभास्सइक्का-इंदियारभ तेइंदियारंभीच उरिदियान चिंदिया- अजीवाणारंभ रंभ १० । रंभ १० | १० मारंभ०१० १० १० रंभ १० । रंभ १० रंभ १० खंति जुभा समवा ते समजवा ते समुत्तिणी ते तवजुत्ता ते ससंजमा ते सच जुभा ते सोयजुआ ते अकिंचणा तेभिजुआ ते | निमुणी धना मणी घना शमुणीधन्ना १ मुणोधन्ना मुणी धन्ना शमुणी धन्ना मणी धन्ना १ मुणी धन्नाशमुणी धना मणी धन्ना - १७६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोबारे सटीके ।।७७॥ पश्चषष्टिश्चेति २३८४५१६३२६५ ततः किमित्यष्टादशैव महस्राण्युक्तानि १, उच्यते यदि श्रावकधर्मवदन्यतरभङ्गकेन सर्वविरतिप्रतिपत्तिः स्यात्तदा युज्येत तद्भणनम् , न चैवमेकतरस्यापि शीलाङ्गभङ्गकस्य शेष- |१२४ द्वारे सद्भाव एव भावादन्यथा सर्वविरतिरेव न स्यादिनि । उ च-इत्थ इम विन्नेयं अइदंपज्ज तु बुद्धि नयमेदाः मंतेहिं । एक्कपि सुपरिसुद्धं सीलंग सेमसम्भावे ॥ १॥" [पश्चाशका. १४.१०] अस्या व्याख्या-अत्र शीलाङ्गाधिकारे इदं विज्ञेयमैदम्पर्य-तत्त्वं बुद्धिमद्भिः पुरुषः, यदुत-एकमपि सुपरिशुद्धं शीलाङ्ग शेए गाथा सद्भावे-तदपरशीलाङ्गसत्तायामेव, तदेवं समुदितान्येवैतानि भवन्तीति न द्वयादिसंयोगभङ्गकोपादानम् , अपि तु सर्वपदान्त्यभङ्गस्येयमष्टादशसहस्रांशतोक्ता, यथा त्रिविधं त्रिविधेनेत्यस्य नवांशतेति, अत एव श्रावकाणामेतानि न भवन्त्येव, किन्तु मनःस्थैर्यसम्पादनार्थं तेऽप्यनुमतिप्रधानेन स्वामिलापेन गाथो. प्र.आ. चारणमात्रमा'मूत्रयन्ति । अभिलापश्चार्य २४३ 'न करेंती मणसाहारसन्नविरया उ मोयसंगुत्ता । पुढवीकायारंभ धन्ना जे खंतिगुणजुत्ता १॥१॥एवं धन्ना जे मद्दबुज्जुत्ता २, धन्ना जे अज्जयुज्जुत्ता ३, एवं यावद्धन्ना जे भगुणजुत्ता', इत्यादि ॥८४६॥१२३॥ इदानीं 'नयसत्तर्ग' ति, चतुर्विशत्युत्तरशततमं द्वारमाह नेगम १ संगह २ ववहार ३ रिज्जुसुए ४ चेव होइ बोहव्वे । सद्दे ५ य समभिरूढे ६ एवंभूए ७ य मूलनया ॥८४७॥ १ सूत्रयन्तीति-सि. ॥ २ महबजुत्ता- वि.॥ माम ॥७७॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -प्रवचन सारोद्वारे सटीके 11७८|| एक्क्को य सविशे सत्त नयसया हवंति एवं तु । ओविय आएसी पंचैव सया नयाणं तु ॥ ४८ || [आ. नि. ७५४, ७५९] 'नेगम' गाहा: 'अनेक वस्त्वनवधारणपूर्वकमेकेन नित्यत्वाद्यन्यतमेन धर्मेण प्रतिपाद्य स्वबुद्धि नीयते- प्राप्यते येनाभिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः । अयमत्र तात्पर्यार्थः- इह यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षतया स्याद्वादलाञ्छितं वस्तु प्रतिपद्यते स परमार्थतः परिपूर्ण वस्तु गृह्णातीति प्रमाण एवान्तर्भवति । यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणानवधारणपूर्वक वस्तु परिच्छेतुमभिप्रैति स वस्त्वेकदेशपरिग्राहकत्वाभय इत्युच्यते । स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव अयथावस्थितार्थवस्तु परिग्राहकत्वात् । अत एवोक्तमन्यत्र सबै नया मिच्छावाणी' [ ]ति । यत एव च नयवादो मिथ्यावाद:, तत एव च 'जिनप्रत्रचनतन्ववेदिनो मिथ्यावादित्यपरिजिहीर्षया सर्वमपि स्यात्कारपुरस्सरं भाषन्ते, न तु जातुचिदपि स्यात्कारविरहितम्, यद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतीर्णा न सर्वत्र सर्वदा साक्षात्स्यान्पदं प्रयुञ्जते तथापि तत्राप्रयुक्तोऽपि सामर्थ्यात् स्याच्छन्दो द्रष्टव्यः । प्रयोजकस्य कुशलस्वात् । उक्तं च "अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । विधी निषेवेऽन्यत्रापि, कुशलश्चेत्प्रयोजकः ॥ १॥" अत्र 'अन्यत्रापी' ति अनुवादाऽतिदेशादिवाक्येषु । ते च नया मूलभेदापेक्षया सप्त, तथा चाह- 'नेगमे' १. तुलना आव मलय-वृत्तिः प ३६६, विशेषावश्यक मा. गा. २१८० ॥ २ प्रतिप्राचस्य बुद्धि इत्यावश्यक मलय. वृत्तीपाठ: ॥ ३ स्थात्पदना० इत्यावश्यक मलय. वृत्तौ पाठः ॥ ४ नवप्रवादा० सि. वि. । A सर्वे नया मिथ्यावादिनः । ५ निनप्रवचनवेदिनो-मु. भावः मलय. वृत्तावपि तस्व० इति पाठोऽस्ति ||६ न च सर्वत्र सि. ॥ १२४ द्वारे नयभेदाः 910 गाथा ८४७ ८४८ प्र आ. २४३ ||26|| Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १२४ द्वारे नयभेदाः ॥७९॥ त्यादि, नैगमः संग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रश्चैव भवति बोद्धव्यः । शब्दश्च समभिरूढ एवंभृतश्चेति मूलनया इति माथासक्षेपार्थः । तत्र न एक नै नायं ना किन्तु न इति अन स्वरे' इति न भवति, प्रभतानीत्यर्थः ।। ततो नैका-प्रभूतसङ्ख्याकैर्मानैः-महासामान्या-चान्तरसामान्यविशेषादिविषयः प्रमाणमिमीते-परिमिछनत्ति वस्तुजातमिति नैगमः, पृपोदरादित्वादिष्टरूपसिद्धिः । यद्वा निश्चितो गमो निगमः, परस्परविविक्तसामान्यादिवस्तुग्रहणं स एव प्रज्ञादेराकृतिगणतया स्वार्थिकाणप्रत्ययविधानान्नेगमः, अथवा गमा:पन्थानो नैके गमा यस्य स 'नैगमः, पृषोदरादित्वात्ककारस्य लोपः, बहुविधवस्वभ्युपगमपर इत्यर्थः । तथाहि-एष सत्तालक्षणं महासामान्यमवान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्वादीनि तथा अन्त्यान विशेषान्-सकलासाधारणरूपान् अवान्तरविशेषांश्च-पररूपव्यावर्तनक्षमान् सामान्यादत्यन्तविनिलु ठितस्वरूपान् प्रतिपद्यते । यतोऽसावेवमाह- "संबिन्त्रिष्टाः किल पदार्थव्यवस्थितयः । तत्र सर्वेष्वपि पदार्थेषु द्रव्यादिरूपेषु सत् सदित्यविशेषेण प्रत्यय उपजायते वचनं च, न चैते तथारूपे प्रत्ययवचने द्रव्यादिमात्रनिबन्धने, द्रव्यादीनामसर्वव्यापकत्वात् , तथाहि-यदि द्रव्यमात्रनिवन्धनः सदिति प्रत्ययस्तर्हि स गुणादिषु न भवेत् , सत्र द्रव्यत्वाभावात् , गुणमात्रनिबन्धनत्वे द्रव्यादिषु न स्यात् , तत्र गुणत्वाभावात् , एवं सर्वत्रापि भावनीयम् , ततोऽस्ति द्रव्यादिभ्यो व्यतिरिक्त महासत्ताख्यं नाम सामान्यं यदशादविशेषण गाथा ८४७८४८ प्र. आ. २४३ १ तुल्यप्रायमावश्यक. मलयवृत्तिः प. ३०१ B॥२ तुलना-विशेषावश्यक भा. २१८६ तः ।। ३ नेगमः- मु.॥ ४ तुलना-"नैगम इति प्राकृते ककारस्याश्रवणात गमनं गमः पन्थाः-[क] गमो नेकपथः" इति विशेषाव.मा.कोया पार्यवृत्ती (.५४) ५ संविनिविष्टा:-मु.1 आव. मळय. वृत्तावपि संषिभिष्टा:-नति पाठः॥ ॥७९॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटी ॥८ ॥ सर्वत्र सदिति प्रत्यय इति । तथा नवसु द्रव्येषु द्रव्यं द्रव्यमित्यनुगताकारप्रत्ययदर्शनात द्रव्यत्वं नामा- १२४ द्वारे चान्तरसामान्यं प्रतिपत्तव्यम् , एवं गुणत्वकर्मत्वगोत्वाश्वत्वादीन्यपि, अमुनि चावान्तरसामान्यानि सामान्य | नयभेदाः विशेषा इत्युच्यन्ते यत एतानि स्वस्वाधारविशेषेषु अनुगताकारप्रत्ययवचनहेतत्वात सामान्यानि विजातीयेभ्यो व्यावर्तमानत्वाच्च विशेषा इति सामान्यविशेषाः, तथा तुन्य जातिगुणक्रियाधाराणां नित्यद्रव्याणां परमा गाथा ज्वाकाशदिगादीनामत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वादन्त्या विशेषाः ते च योगिनामेव प्रत्यक्षाः, अस्मदादीनां त्वनु मेयाः, तथाहि -तुल्य जातिगुणक्रियाधाराः परमाणको व्यावर्तकधर्मसम्बन्धिनो 'च्यावृत्तप्रत्ययविषयत्वात् , 'मुक्ताफलराश्यन्तर्गतसचिह्नमुक्ताफलवत् , ये चावान्तरविशेषा घटपटादीनामितरेतरव्यावर्तनसमास्ते आवालगोपालाङ्गनादिजनानामपि प्रत्यक्षाः, एने च महामामान्यावान्तर सामान्यान्यविशेषावान्तरविशेषाः २४४ परस्पर विसकलितस्वरूपास्तथैव प्रतिभासमानत्वात , तथाहि-न सामान्यग्राहिणि विज्ञाने विशेषावभासः नायि विशेषग्राहिणि सामान्याव भामः, ततः परस्परविनि'लु ठितस्वरूपाः, तथा चात्र प्रयोगः-यद्यथाऽव. भासते तत्तथाऽभ्युपगन्तव्यं, यथा नीलं नीलतया, अबभासन्ते च परस्पर विसकलितस्वरूया इति नैगमः । नन्वेष यदि सामान्यविशेषाभ्युपगमपरस्तर्हि यत्सामान्यं तद् द्रव्यं ये तु विशेषास्ते पर्याया इति परमार्थतो १व्यावृत्ति मु.। व्यावर्तन० जे.॥२ मुक्ताफलमास्यन्तर्गतचिह्न इत्यावश्यक. मलयवृत्तौ पाठः ।। ३. सामान्यान्त० इत्यावश्यक. मलय. वृत्तौ (क. ३७२) पाठः।। * विसंकसि. विशक० इत्यावश्यक. मलय. वृत्तौ पाठः ।। ५ लुण्ठित सि. भाव. मलयवृत्तौ च ।। ६ च ते पर मु । आव. मलय. वृत्तावपि च पर. इति पाठ: मु.॥ ७ विसं० सि.॥ NPPEKRAMAamaatimes BANDHWLAMARISTMAINASAMUNDARuleso Pricecredations Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ द्वारे प्रवचनसारोद्धारे सटीके ॥ ८१॥ नयमेदाः द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयमतावलम्बित्वात् सम्यग्दृष्टिरेव प्रतिपन्नजिनमतत्वात्तथाविधसम्यग्जैनसाधुवन ततः कथं मिथ्यादृष्टिः ?, तदेतदयुक्तम्, प्रतिपन्नजिनमतत्वासिद्धेः परम्पर'विसकलितमामान्यविशेषाभ्युपगमात् , तथाहि-एप परस्परमेकान्ततो विभिन्नावेव मामान्यविशेषाविच्छतिः गुणगुणिनाम क्यवावयविनां क्रियाकारकाणां चात्यन्तभेदम् , न पुनर्जेनसाधुरिव सर्वत्रापि भेदाभेदावतो मिथ्याष्टिः कणादव , कणादेनापि हि सकलमप्यात्मीयं शास्त्रं द्वाभ्यामपि द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयाभ्यां साथतं तथापि तन्मिध्या, स्वविषयप्रधानतया परस्परमनपेक्षयोः सामान्यविशेषयोरभ्युपगमान , उक्तं च-"जं सामनविसेसे परोप्परं वत्थुतो य से मिन्ने । (ग्रन्था १००००) मन्नइ अमचंतमतो मिच्छादिदी कणादोय ॥१॥ "दोहिंवि नपहिं नीयं सत्थमुलूगेण तहनि मिच्छत्तं । जं सविनयपहाणनगेण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥२॥" [विशेषाब. २१९४-५, सन्मतितर्क प्र. ३.४९] १॥ तथा सङ्गृणाति- 'अशेषविशेषातिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया समस्तं जगदादत्ते इति मनहः, तथाहि-अयमेवं मन्यते-सामान्यमेवैक ताचिकं न विशेषाः, ते हि भावलक्षणसामान्यायतिरिक्ता वा गाथा ८४७ CX २४४ १ विसं० मु. आव. मलय. वृत्तावपि विसः इति पाठः ।। २०वयव्यवबिना-इत्यावश्यक. मलय. वृत्ती पाठः ।। ३ तन्मिध्यात्वं मु.। आव. मलय. वृत्तावपि तन्मिध्या-इति पाठः॥ यत सामान्यविशेषौ परस्परं वस्तुतश्च ती मिन्नौ । मन्यते अत्यन्तमतः कणाद इव मिथ्याष्टिः ॥१॥ द्वाभ्यामपि नयाभ्यामुलूकेन शास्त्रं नीतं तथापि मिथ्यात्वं । यत स्वविषयप्रधानत्वात् अन्योऽन्यनिरपेक्षौ इति वदति ॥ ४सो-इति विशेषावश्यकभाष्ये पाठः ।। ५ दोहि वि-मु.॥ ६ भशेषविशेषा. मु.तुलना-मावश्यक मलय वृत्तिः प. ३७४ ।। ८ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४वारे प्रवचनसारोद्धारे मटीके भवेयुरव्यतिरिक्ता वा गत्यन्तराभावात प्रथमपक्षेन सन्स्येव विशेषाः, भावाद्वयतिरिक्तवादाकाशकुशेशयवत् , अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि विशेषा अपि भावमात्रमेव, तथाहि-भावमात्रं विशेषास्तदव्यतिरि. क्तत्त्वात् , इह यद्यस्मादव्यतिरिक्तं तत्तदेव, यथा भावम्य म्वरूपम् , अव्यतिरेकिण भावाद्विशेषा इति, नयभेदाः किंच-विशेषाग्रहो विशेषेण त्याज्यो विशेषव्यवस्थापकप्रमाणाभावान , तथाहि-भेदरूपा विशेषाः, न च । 'किञ्चित्प्रमाणं भदमयमाहते, प्रत्यक्षं हि भावसम्पादितमत्ताकम् , अतस्तमेव साक्ष कतु मलं नाभावम् , गाथा अभावस्य सकलशक्ति'विरहरूपतया तदुत्पादने व्यापागभावात , अनुत्पादकस्य च साक्षात्करणे सर्व ८४७साक्षा करणप्रसङ्गः, तथा च सति विशेषाभावा त्सों द्रष्टा सर्वदर्शी स्यात् , अनिष्टं चैतत् , तस्माद्भव ८४८ ग्राहकमेव प्रत्यक्ष मेष्टव्यम् , स च भावः सर्वत्राविशिष्टस्तथैव तेन ग्राह्य इति न प्रत्यक्षाद् विशेषावगतिः, प्र. आ. नाप्यनुमानादे:, प्रत्यक्षपूर्वकत्वाच्छेपत्रमाणपटलस्य, ततः मामान्यमेव परमार्थतः सत् न विशेषा इति सङ्ग्रहः २। ___ तथा 'व्यवहरणं व्यवहारः, यदिवा विशेषतोऽवहियते-निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः, विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनय इत्यर्थः । स येवं विचारयति- 'सदित्युक्ते घटपटाद्यन्यतमो विशेष एव २४४ किञ्चन प्रमाणं मु.। किश्चित्प्रमाणभेगमगाईने-इत्यावश्यक मलय. वृत्तौ पाठः ।। २ विष्टम्धरूपतया-इत्यावश्यक. मलयावृत्तौ पाठः ॥ ३. सर्वोऽपि-मु.। आवश्यक. मलय. वृत्तावपि सर्वो-इति पाठः ॥ ४ मानादि इत्यावश्यक. मलय. वृत्ती पाठः॥ ५ तुलना-यावश्यक-मलय. वृत्तिः प. ३७४ B|| ६ यदि सदित्युक्ते-मु. । सदित्युक्तो- इस्यावश्यक मलय. वृत्तौ पाठः | HTHAN Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके १२४द्वारे नयभेदाः ॥८३॥ कोऽप्यनिर्दिष्टस्वरूपः प्रतीयते, न सङ्ग्रहनयसम्मतं सामान्यं, तस्यार्थक्रियामामध्यंविकलतया सकललोकव्यवहारपथातीतत्त्वान् ततो विशेष एवास्ति न सामान्यम् , इतश्च न मामान्यमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तस्यानुपलब्धेः । इह यदुपलब्धिलक्षण प्राप्तं सन्नोपलभ्यते तदसदिति व्यवहर्तव्यम् । यथा क्वचित्केवलभृतलप्रदेशे घटः, नोपलभ्यते चोपलब्धिलझणप्राप्तं सत् सङ्ग्रहनयसम्मतं सामान्यमिति स्वभावानुपलब्धिः, अपि च-सामान्यं विशेषेभ्यो व्यतिरिक्तं स्यादव्यतिरिक्तं वा स्यान् ?, यद्याद्यः पक्षस्तर्हि सामान्यस्याभाव एव, विशेषव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्यासम्भवात् , न हि मुकुलितार्धमुकुलितादिविशेषविकलं किमप्याकाशकुसुममस्तीति परिभावनीयमेतत् । अथाव्यतिरिक्तं ततो विशेषा एव, न सामान्यम् , तदव्यतिरिक्तत्वात्तत्स्वरूपवत् । यदपि चोक्तम् 'प्रत्यक्षं भावसम्पादितसकलसत्ताकमतस्तमेव साक्षात्कर्तु मलम् [ ] इत्यादि, तदपि बालप्रलपितम् , प्रत्यक्षं हि नाम तेन सम्पादितसत्ताकमुच्यते यदुत्पन्नं सत्प्रत्यक्ष साक्षात् करोति, कुरुते च प्रत्यक्षं साक्षात् घटपटादिरूपं विशेषं न सङ्ग्रहनयसम्मतं सामान्यम् , न च विशेषो घटपटादिरूपोऽभावो भावात्मकत्वात् , ततो नार्थक्रियाशक्तिबिकल इत्यदोषः, ततो विशेष एव प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धो न सामान्यमिति सामान्याग्रह एव त्याज्यो न विशेषाग्रहः, किच-यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् , न च सामान्य 'दोहदाहादिक्रियासूपयुज्यते किन्तु विशेषा एव गवादयः ततस्त एव तात्त्विकाः न सामान्यमिति गाथा ८४७८४८ प्र. आ. २४५ १. दोहादिकिया मु. । दोहवाहादि० सि. । वाहवाहावि. वि. । दोहदाहादि इत्यावश्यक मलयवृत्तौ पाठः॥ AURA malini sital Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ द्वारे नयमेदाः गाथा ८४७८४८ एष च व्यवहारनयो लोकसंव्यवहारपरः ततो यदेव लोकोऽभिमन्यते तदेवेषोऽपि न शेष सन्तमपि, लोकश्च भ्रमरादौ परमार्थतः पञ्चवर्णाधुपेतेऽपि कृष्णवर्णादित्वमेव प्रतिपन्नः, तस्य स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात् , रोद्वारे तत एषोऽपि तदनुयायितया नदेवेच्छति न शेषान् सतोऽपि शुक्लादीन वर्णानिति ३ । तथा 'ऋजु-प्रगुणमटीके कुटिलमतीतानागतपरकीयवक्रपरित्यागाद्वर्तमानक्षणविवर्ति स्वकीयं च सूत्रयति-निष्टङ्कितं दर्शयतीति ऋजुसूत्रः, यदिया ऋजुश्रुत इति शब्दसंस्कारः, तत्र ऋजुः-पूवोक्त धक्रविपर्य यादभिमुखं श्रुतं-ज्ञानमस्येति ऋजुश्रुतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात् , तथाहि- एष मन्यते यदतीतमनागतं वा तद्यथाक्रमं विनष्टत्वान अलब्धात्मलाभाच्च नार्थक्रियासमर्थ नापि प्रमाणगोचरो ऽथवार्थक्रियासमर्थ प्रत्यक्षादिप्रमाणपथमवतीर्ण वस्तु न शेषम्, अन्यथा शशशृङ्गादेरपि वस्तुत्वप्रसक्तेः, ततोऽर्थक्रियासामयविकलत्वात प्रमाणपथातीतन्यानच नातीतमनागतं वा वस्तु, यदपि च परकीयं वस्तु तदपि परमार्थतोऽसत निष्प्रयोजनत्वात् परधनवत् , एष च ऋजुसूत्रो वार्तमानिकं वस्तु प्रतिपद्यमानो लिङ्ग-वचनभिन्नमप्येकं प्रतिपद्यते, तत्रेकमपि त्रिलिङ्ग यथा तटस्तटी तटम् , तथैकमपि एकवचन-द्विवचन बहुवचनवाच्यं यथा 'गुरुगुरवः, गोदी ग्रामः, आपो जलम्ः, दाराः कलत्रमित्यादि, निक्षेपचिन्तायां च नाम-स्थापना-द्रव्य-भावरूपाश्चतुरोऽप्यसो निक्षेपानभिमन्यते ४ । तथा 'शब्द्यते-प्रतिपाद्यते बस्त्वेनेनेति शब्दः, शब्दस्य यो वाच्योऽर्थः स एव येन नयेन तच्चतो गम्यते १तुलना-यावश्यक. मलय, वृत्तिः प.३७५ ।। २ ०वक्र० सि. नास्ति ।। । ३ अयं-मु.। आव. मलयवृत्तावपि एष इति पाठः॥४०ऽथ चार्थ मु.॥ ५ गुरुगुरू गुरवः-मु. भाव. मलय. वृत्तावपि गुरुगुरषः इति पाठः॥ ६ तुलना आव. मलय. वृत्तिः प. ३७५ B || प्र. आ. २४५ ॥८४॥ BE AVITHAORATRIOUSNIGribe lioned Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १२४ द्वारे नयभेदाः ॥८५॥ न शेषः स नय उपचारात शब्द इत्युच्यते, अस्य च द्वितीयं नाम साम्प्रत इति, साम्प्रतवस्त्वाश्रयणात साम्प्रतः, तथाहि-एषोऽपि ऋजुमूत्रनय इव साम्प्रतमेव वस्त्वभ्युपगच्छति 'नातीतमनागतं वा, नापि वर्तमानमपि परकीयम् , अपि च-निक्षेपचिन्तायां भावनिक्षेपमेव केवलमेष मन्यते न नामादीन निक्षेपान , तथा च नामादिनिक्षेपनिराकरणाय प्रमाण माह-नामस्थापनाद्रव्यरूपा घटा न घटाः घटकार्यकारित्वाभावात् , यद् घटकार्यकारि न भवति तन्न घटो यथा पटस्तथा चामी घटा घटकार्यकारिणो न भवन्ति तस्मान्न घटा इति नामादिघटानां घटत्वाभावः, इतश्च घटत्वाभावस्तलिङ्गादर्शनात , न खलु नामादिघटेषु घटलिङ्गं पृथुबुध्नोदराद्याकाररूपं जलधारणरूपं वा किमप्युपलभामहे, अनुपलभमानाश्च तेषु कथं घटव्यपदेशप्रवृत्तिमिच्छामः १, अपि च-नामादीन घटान् घटत्वेन व्यपदिशत ऋजुसूत्रस्य प्रत्यक्षविरोधः, अघटरूपतया पटादीनामिव तेषां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानत्वात् । अन्यच्च एष लिङ्गवचन भेदाद्वस्तुनो भेदं प्रतिपद्यते, यथा अन्य एव तटीशब्दस्य वाच्योऽर्थः, अन्य एव तटशब्दस्य पुल्लिङ्गस्य, अपर एव च नपु. सकलिङ्गस्य, तथा अन्य एवं गुरुरित्येकवचनवाच्याऽर्थः, अन्य एव च गुग्च इति बहुवचनवाच्यः, ततो न बहुवचनवाच्योऽर्थ एकवचनेन वक्तु शक्यते, नाप्येकवचनवाच्यो बहुवचनेन, तथा न पुलिङ्गाों नपु'सकलिङ्गेन वक्तु शक्यः नापि स्त्रीलिङ्गेन, नापि 'नपुसकः पुलिङ्गेन स्त्रीलिङ्गेन वा, नापि स्त्रीलिङ्गः पुल्लिङ्गेन नपुंसकलिङ्गेन बा, अर्थाननुयायितया तेषामर्थतो भिन्नत्वात् , तथा चात्र प्रयोगः-ये पर१ नागर्न-सि. । नाप्यतीतमनागतं. प्रत्याय. मलय वृत्तौ पाठः ।। २ भघटस्वरूप० इत्यावश्यक. मलय. वृत्तौ पाठः॥ ३ नपुसकलिङ्ग:- इत्यावश्यक. मलय. वृत्ती पाठः॥ गाथा ८४७. ८४८ प्र. आ. २४५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SH -प्रवचन- सारोद्धारे - - स्परमर्थतोऽननुयायि नस्ते भिन्नार्था इति व्यवहर्तव्याः यथा घटपटादिशब्दाः, परस्परमर्थतोऽननुयायिनश्च लिङ्गवचनभेदभिन्नाः शब्दा इति. ये विन्दशक्रपुरन्दरादयः शब्दाः सुरपतिप्रभृतिलक्षणमेकमभिन्नलिङ्ग १२४ द्वारे नयभेदाः वचनमधिकृत्याभिन्नलिङ्गवचनास्तेषामभिन्नोऽर्थ इत्येकार्थता ५ । तथा 'सम्-एकीभावेन अभिरोहति-व्युत्पत्तिनिमित्तमास्कन्दति शब्दप्रवृत्ती यः स समभिरूढः, एप हि पर्यायशब्दानामपि प्रविभक्तमवायमभिमन्यत, गाचा यथा घटना घटः, विशिष्ट काचनापि या चेष्टा युवतिमस्तकाधारोहणादिलक्षणा मा परमार्थनो घटशब्द ८४७वाच्या, तद्वत्यर्थे पुनर्घटशब्दः प्रातले उपचारात , एवं 'कुट कौटिल्ये' कुटनात कुटः, अत्र पृथुयुध्नो 1८४८ दरकम्बुग्रीवाद्याकारकोटिल्य कुटशब्दवाच्यम् , तथा 'उभ उंभ पूरणे' कुः-पृथिवी तम्या स्थितस्य उम्भनात प्र. प्रा. पूरणात्कुम्भः, अत्र यत् पृथिव्यां स्थितस्य पूरणं तत्कुम्भशब्दवाच्यम्, एवं सर्वेषामपि पर्यायशब्दानां नानात्वं प्रतिपद्यते, वदति च-न शब्दान्तराभिधेयं वस्तु द्रव्यं पर्या यो वा तान्पशब्दवाच्य प्रस्तुरूपता सङ्कामति, न खलु पटशब्दवाच्योऽर्थो जातुचिदपि घटशब्दवाच्यवस्तुरूपतामाकन्दनि तथाऽनुपलम्मान आस्कन्दने वा वस्तुसाङ्कर्यापत्तिः, तथा च सति मकललोकप्रसिद्धप्रतिनियनविषयप्रवृत्तिनिवृत्यादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः, ततो घटादिशब्दवाच्यानामर्थानां कुटादिशब्दवाच्यार्थरूपनाऽनास्कन्दनान कुटादयः शब्दा घटाद्यर्थवाचका ८६॥ इति विभिन्नार्थाः पर्यायशब्दाः, प्रमाणयति च-इह ये ये प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकाः शब्दास्ते ते भिन्नार्थाः यथा घटपटशकटादिशब्दाः, भिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकाश्च पर्यायशब्दा इति, यत्पुनरविचारित१ तुलना आवश्यक मलय. वृत्तिः प. ३७६ Ba: २ विभिन्नार्धाः- मु. । प्रायः मलय. वृत्तावपि मित्रार्था:- इति पाठः ॥ AAS R ULANTA TAM CORDNELONaidualA AslelusiveluniwwthnewwwsasarametalliANIMAL . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे सटीके १२४ द्वारे जयभेदाः गाथा 1८४७ प्रतीतिबलादेकार्थाभिधायकत्वं पर्यायशब्दानां 'प्रतिपाद्यते, तदसमीचीनमतिप्रसङ्गात् , तथाहि-यदि युक्तिरिक्ताऽपि प्रतीतिः शरणीक्रियते तर्हि मन्दमन्दप्रकाशे दबीयसि देशे संनिविष्टमृतयो विभिन्ना अपि निम्बकदम्बाश्वत्थकपित्थादय एकतर्वाकारतामाबिभ्राणाः प्रतीतिपथमवतरन्तीत्येकतयैव तेऽभ्युपगन्तव्याः, न चैतदस्ति, विविक्ततत्स्वरूपग्राहिप्रत्यनीकप्रत्ययोपनिपातयाधितत्वेन पूर्वप्रतीते त्रिविक्तानामेवैतेषामभ्युपगमात् , 'एवमन्यत्रापि भावनीयम् , अन्यच्च-शब्दनय ! यदि त्वया परस्परमर्थतो भिन्नत्वाल्लिङ्गवचनभिन्नानां शब्दानां भिन्नार्थता व्यचहियते ततः पर्यायशब्दानामपि किं न 'मिनार्थताव्यवहारः क्रियते १, तेषामपि परस्परमर्थतो भिन्नत्वात्तस्मान्नैकार्थवाचिनः पर्यायधनय इति ६ तथा 'एवंशब्दः प्रकारवचनः एवं-यथा व्युत्पादितस्तं प्रकारं भूतः-प्राप्त एवम्भूतः शब्दः, तत्समर्थनप्रधानो नयोऽप्येवम्भृतः उपचारात, अयं हि शब्दमर्थेन विशेषयनि, अर्थवशान्नयत्ये व्यवस्थापयतीति भावः, यथा स एवं "तन्त्रतो घटशब्दो यश्चेष्टावन्तमर्थ प्रतिपादयति न शेषः, तथा अर्थ शब्देन विशेषयति, शब्दचशात्तच्छब्दवाच्यमर्थ प्रतिनियतं व्यवस्थापयतीति भावः, यथा "या घटशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धा चेष्टा सा घटनात घट इति व्युत्पत्यर्थपरिभावनाबलात् योषिदादिमस्तकारूढम्य घटस्य जलाहरणादिक्रियारूपा द्रष्टव्या न तु स्थानभरणक्रियारूपा, ततश्च 'यस्मिन्नर्थे शब्दो व्युत्पाद्यते स व्युत्पत्तिनिमित्तमर्थों यदेव स्वरूपतो १ प्रतिपद्यते-सि.वि ।। २ विमक्ता वि. ॥ ३ एवमत्रापि- इत्यावश्यक. मलय. वृत्तौ पाठः॥ ४ घिमित्रा मु०। आव. मलय बत्तावपि भिन्ना इति पाठः।। ५ तुलना-आव, मलय.वृत्तिः प. ३७%AI ६ तत्त्वात-सि. ! ७वा-इत्याध, मलय वृत्तौ पाठ ! ८ तुलना माव. मलय. वृत्तिः प. ३७५A || ८४८ प्र. पा. ||८|| Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ द्वारे नयभेदाः सारोद्धारे ७०० गाथा cell वर्तते तदैव तं शब्दं प्रवर्तमानभिप्रेति न शेषकालम्, यथोदकाद्याहरण वेलायां योपिदादिमस्तकारूढो विशिष्टचेष्टावान् घटो घटशब्दवाच्यो न शेपो घटशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तशून्यत्वात् पटादिवत्, तथा घटशब्दोऽपि तत्वतः स एव द्रष्टव्यो यश् चेष्टावन्तम) प्रतिपादयति न शेष:. शेषस्य स्वाभिधेयार्थशून्यत्वात् , 'एवं चैप व्युत्पत्ति निमित्ताास्तित्वभूषितमेव तात्विकं शब्दमभि लपति, य एवं पञ्चेन्द्रियत्रिविधवला. दिरूपान् दशविधान प्राणान धारयति स एव नारकादिरूपः सामारिका प्राणी जीवशब्दवाच्यो न सिद्धः, 'मूत्रोक्तम्वरूपप्राणधारण लक्षणव्युत्पत्तिनिमित्तासम्भवात् , सिद्धस्त्वात्मादिशब्दवाच्यः, अतति-सातत्येन गच्छति ताम्नान ज्ञानदर्शनसुस्वादिपर्यायानित्याद्यात्मादिशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तसम्भवादिति ७ ॥८४७।। ___ 'सम्प्रत्येतेषामेव नयानां प्रभेदमसथादर्शनार्थमाह-'एक्केक्कोय' गाहा, नया मूलभेदापेक्षया यथोक्त. रूपा नेगमादयः सप्त, एकेकच प्रभेदतः शतविधः, नतः "सर्वप्रभेदगणनया सप्त नयशतानि भवन्ति, अन्योऽपि चादेशो-मतान्तरं पञ्चैव शतानि नयानां भवन्तीति, तथाहि-शब्दसमभिरुदैवम्भूतानां त्रयाणामपि नयानां शब्दपरत्वेनैकत्वविवक्षणात् पञ्चैव मृलनयाः, प्रत्येकं च शतप्रभेदत्वे पश्च शतानीति, 'अपिशब्दात् पद "चत्वारि शतानि द्वे वा शते, तत्र पट् शतान्ये-नगमः सामान्यग्राही सङ्ग्रहे प्रविष्टो विशेषग्राही त ८४८ प्र. आ. २४६ १ तुलना बाब. मलय वृत्तिःप ३७७ B॥२.निमिसमर्था वि. ॥ ३ लक्षन्-जे.॥ ४ तत्रोक इत्याव. मलय. वृत्तौ पाठः ॥ ५ लक्षण. सि. वि. नास्ति ।।६ सम्प्रत्येषामेव-सि. कि.। तुलना-आव. मलय. वृत्तिः प. ३५२ AM ७ सर्वभेदै० मु.। प्रभेद० सि. वि. । सर्वप्रभेद इत्याव. मलय. वृत्तौ पाठः ।। ८ अपिशब्दत्वात-सि. वि.।। शतानि-सि. वि. आव. मलय. वृत्तौ च नास्ति ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे १२५ द्वारे वस्त्रग्रहण विधिः गाथा ८४९. १८९॥ व्यवहारे, ततः पढेव मूलनयाः, एकै कब प्रभेदतः शतभेद इति पट शतानि, तथा सङ्ग्रहव्यवहारऋजुमूत्र. शुन्दा इनि चन्वार एव मूलनयाः एकैकश्च शनविध इति चत्वारि शतानि, शतद्वयं तु नैगमादीनां ऋजुसूत्रपर्यन्तानां चतुर्णा द्रव्याम्तिकन्वान् शब्दादीनां तु त्रयाणां पर्यायास्तिकत्वात्तयोश्च प्रत्येकं शतमेदत्वात् , अथवा यात्रन्तो बचनपथाम्तावन्तो नया इत्यमवयाताः प्रतिपत्तव्या:८४८॥ १२४॥ इदानी 'चत्वग्गण विहाणं' नि पञ्चविंशत्युत्तरं शततमं द्वारमाह जन्न तयट्ठा कीयं 'नेव बुयं 'नेव गहियमन्नेसिं आहडपामिच्छ चिय कप्पए साहुणो वत्थं ॥८४९।। अंजणखंजणकहमलित्ते, मूसगमक्खिय अग्गिविदड्ढे । उत्रिय कुहिय पज्जवलीटे, होइ विवागो 'सुहो असुहो वा ८५०॥ नवभागकए वत्थे चउरां कोणा य दुन्नि अंता य । दो कनावट्टीउ मज्झ वत्थस्स एक्कं तु ॥८५१॥ चत्तारि देवया भागा, दुवे भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा, एगो पुण जाण रक्खसो ॥८५२॥ ८५३ प्र.आ. १नेय-जे.२.ता.॥२ जन- मु. जन्न-इति विचारसारे पाठः॥ ३ तुन्निय-इति बु. क-माध्ये निशीथमाष्ये विचार सारे, धर्म सं.वृत्तौ मा.२५.४६ च पाठः॥४ सुह-मु.॥ malishinion Sunni Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके १२५ द्वारे स्निग्रहणविधिः শাখা ८४९. ८५३ प्र. आ. देवेसु तृतभो लाभी, माणुसेस य मज्झिमो । आसुरेसु य गेलन्न, मरणं जाण रक्खसे ।।८५३॥ [वृ.क. भाष्य २८३२-३१-३३-३४, निशीथमाष्य ५०८७-८६-८८-८६, विचारसार ३२६-१] 'जन्न तयट्ठा' गाहा, इह 'तावद्वस्त्रमेकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियावयवनिश्पत्तिभेदात त्रिधा भवति, तत्र एकेन्द्रियावयवनिप्पन्न कार्यासिकादि, विकलेन्द्रियावयवनिश्पन्न कौशेयकादि * एतच्च कारण एवं गृह्यते,* पञ्चेन्द्रियावयवनिष्पन्न और्णिकादि । पुनरेकैकं त्रिधा-यथाकृता-ऽल्पपरिकर्म-बहुपरिकर्मभेदात् । तत्र यानि परिकर्मरहितान्येव तथास्वरूपाणि लभ्यन्ते तानि यथाकृतानि । यानि चैकवार खण्डत्वा सीवितानि तान्यत्पपरिकर्माणि । यानि पुनर्बहुधा खण्डित्वा सीवितानि तानि बहुपरिकर्माणि । इह च यान्यल्पपरिकमाणि वस्त्राणि तानि बहुपरिकमवस्त्रापेक्षया स्तोकसंयमव्याघातकारीणीत्यतस्तदपेक्षया शुद्धानि, तेभ्योऽपि यथाकनान्यतिशुद्धानि, मनागपि पलिमन्थादिदोपकारित्वाभावात् । ततो गृहद्भिः पूर्व यथाकृतानि ग्राह्याणि, तदलामे चाल्पपरिकर्माणि, तेषामप्यभावे बहुपरिकाण्यपि वस्त्राणि ग्राह्याणीति । एतच्च सर्वमपि वस्त्र गच्छवासिभिः कल्पनीयमेव ग्राह्यम् । तच्चवं-यखन तदर्थ-व्रतिनिमित्तं क्रीतम् , यच्च नैव वतिनिमित्तं 'वुयंति अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् वायितम् , यन्त्र नैव गृहीतमन्येषां सम्बन्धि, अनिच्छतोऽपि पुत्रादेः सकाशात् साधुदानाय बलाद्यन्न गृहीतमिति मावः, एवं विध वस्त्रम् । तथा अभ्याहृतमपमित्यकं च त्यक्त्वा शेष साधोः कल्पत इति । तत्र अभ्याहृतं द्वेधा-परनामाम्याहृतं स्वप्रामाभ्याइतं तुम्ना-धर्मस वृत्तिः मा. २, प. ४८ तः। विदयमध्यवर्सी पाठः सि. प्रतौ नास्ति ।। २ मत्र-सि. ॥ १०॥ गति ATHISRO Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोवारे सटीके च। परग्रामाभ्याहृतं यदन्यस्माद् ग्रामादेः साधुनिमित्तमानीतम् । स्वग्रामाभ्याहृतं हट्टादिभ्यो यद् व्रति भिरदृष्टं यतिनिमित्त मेव गृहे समानीतम् ,बतिदृष्टं तु हट्दादिभ्योऽप्यानीतं गृहादिषु यतीनां ग्रहीतु कल्पत । इति । तथा अमित्य कम्-उद्धारके मान्यस्माद् गृहीत्वा यद्ददाति । दोषाश्चात्रापि पिण्डवद्वाच्या इति । अपरं १२५ द्वारे च-अत्राप्यविशोधिकोटिविशोधिकोटिद्वयं ज्ञातव्यम् , तत्र मूलतो यत्यर्थ वायनादिकं वस्त्रस्यावि- वस्त्रग्रहणशोधिकोटिः, प्रक्षालनादिकं च यत्यर्थ क्रियमाणं विशोधिकोटिः । इदं च वस्त्रं यदा कल्पनीयमित्यवसितं । विधिः भवति तदा द्वयोरप्यन्तयोगीता सर्वतो निरीक्षणीप । मा तर मुहिणां मणिर्वा सुवर्ण वा अन्यद्वा गाथा रूपकादिद्रव्यं निबद्धं स्यात् । ततः सोऽपि गृहस्थो भण्यते-निरीक्षस्व एतद्वस्त्रं सर्वतः । एवं च यदि तेन 1८४९ मण्यादि दृष्टं ततो गृहीतम् । अथ न दृष्टं ततः साधुरेव दर्शयति एनमपनयेति । आह-गृहिणः कथिते कथ- ८५३ मधिकरणं न भवति ?, उच्यते, कथिते स्तोकतर एव दोषः, अकथिते तु महानुड्डाहादिः स्यादिति ॥ प्र.आ. ___अथ यादृशे वस्त्रे लब्धे शुभं भवति यादृशे चाशुभं भवतीत्येतदाह-'अंजणे' त्यादि 'वृत्तम् , अञ्जनं २४७ -सौवीराञ्जनप्रभृतिक * तेलकज्जलाञ्जनप्रभृति * वा खञ्जनं दीपमलः, कर्दमा-पङ्कस्तैर्लिप्ते-खरण्टिते वस्त्रे, तथा मुपकैरुपलक्षणत्वात्कंसारिकादिभिश्च भक्षिते, तथाऽग्निना विशेषेण दग्धे तथा तुणिते तुनकारेण स्वकलाकौशलतः पूरितच्छिद्रे, तथा कुट्टिते-रजककुट्टनेन पतितच्छिद्रे, तथा पर्यवैः-पुराणादिभिः पर्यायलीटे-युक्ते, अतिजीर्णतया कुत्सितवर्णान्तरादिसंयुक्त इत्यर्थः, एवंविधे वस्त्रे गृहीते सति भवति विपाक: ॥११॥ १ वृत्तम-मु. नास्ति ।। ॐ चिह्नद्वयमध्यवर्ती पाठः जे. सि. नास्ति । Maravema n dinbesimanmail Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्चनमारोद्वारे सटीके १२५ द्वारे वस्त्रग्रहणविधि: মাথা ८४९. ८५३ परिणामः शुभोऽशुभो वा । इयमत्र भावना-गृहीतस्य वस्त्रस्य नव भागाः कल्प्यन्ते । तत्र च केचिद्रा. गेषु अञ्जन-खञ्जनादिके सति शुभं फलमुपजायते केषुचित्पुनरशुभमिति ॥८५०॥ ___ अथ तानेव 'भागानाह-'नवभाग'गाहा, कल्पनया नवभिर्भागः कृते वस्त्रे एते नव भागा विज्ञेयाः, यथा-चत्वारः कोणकास्तथा द्वावन्तौ ययोर्दशिका भवन्ति, तथा द्वे कर्णपट्टिके, मध्ये च वस्त्र स्यैको भागः ।।८५१॥ सम्प्रत्येतेषामेव विभागानां क्रमेण स्वामिन आह-'चत्तारी' त्यादिश्लोकः चत्वारः कोणकरूपा भागा देव्या-देवसम्बन्धिनः । द्वावन्त्यो दशिकासम्बद्धौ भागौ मानुषौ-मनुष्यस्वामिको । द्वौ च भागौकर्णपट्टिकालक्षणो आसुरी-असुरसम्बन्धिनौ । सर्वमध्यगतः पुनरे को भागो राक्षसो-राक्षससम्बन्धीत्येवं क्रमेण नवानामपि विभागानां स्वामिनो जानीहीति ।।८५२।। अर्थतेषु भागेषु अञ्जनादिसद्भावे प्रशस्ताप्रशम्तं फलमाह- देवेसु' इत्यादि, दैव्येषु भागेषु यद्यञ्जनादिभिषितं वस्त्रं भवेत्तदा तस्मिन् गृहीते यतिजनस्य उत्तमो लामो भवेद्वस्त्रपात्रादीनाम् , तथा मानुषभागयोजनादिभिः पिते वस्त्रे मुनीनां मध्यमो लाभः सम्पद्यते । तथा आसुरभागयोरञ्जनादिभिः क्षिते वस्त्रे गृह्यमाणे ग्लानन्यं वतिनां जायते । 'राक्षसभागे पुनरञ्जनादिषिते जानीहि यतीनां मरणमिति ॥५३॥१२५॥ २४८ १०विभागे सि.॥२ केनचिसि.॥३ विभागा०सि.।। ४ विमागौ-मु.॥५राक्षसे-सि.।। .. . TERenk Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोहारे सटीके ।। ९३ ।। साम्प्रतं 'ववहारा 'पंच' त्ति पड्विंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह आगम १ सय २ आणा ३ धारणा ४ य जीए ५ य पंच ववहारा । केवल १ मणो २ हि ३ चउदस ४ दस ५ नवपुव्वाइ ६ परमोत्थ ||८५४|| कहि सव्यं जो बुत्तो, जाणमाणोऽवि गूहइ । बिंति अन्नस्थ सोहय || ८५५|| सम्भावा न य मायओ । माइणो उ न साहए १ || २५६ | न तस्स दिति पच्छित्तं, नमरे जे दोसे, पचक्खी साहए ने उ, आयारपकप्पाई सेसं सव्वं सुर्य विणिदि २ । गूढपयालोयणा आणा ३ ||८५७|| सुद्धिं अवहारिकण तह चेव । 1 देसंतर हियाण गोयrथेणं दिन्नं दितस्स धारणा तह डिपरणरुचा वा ४ ||८५८ || संघयणाण हाणिमासज्ज दव्वाह चिंतिऊणं पायच्छित्तं जोयं रूढं वा जं जहिं गच्छे ५ ।। ८५९॥ 'आगमे' त्यादि, व्यवह्रियन्ते जीवादयोऽनेनेति व्यवहारः, अथवा व्यवहरणं व्यवहारो - मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, तत्कारणत्वाद् ज्ञानविशेषा अपि व्यवहारः । स च पञ्चप्रकारस्तद्यथा - आगम्यन्ते -परि९. पंचैव चिन्मुः ॥ १२६ द्वारे : पश्च व्यवहाराः गाथा ८५४ ८५९ प्र. आ. २४८ ॥ ९३ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन सागेदारे सटीके -॥ ९४ ॥ च्छिद्यन्ते पदार्था अनेनेत्यागमः १, श्रवणं श्रूयते इति वा श्रुतम् २, आज्ञाप्यते - आदिश्यते इत्याज्ञा ३, वरणं-धारणा ४, जीयत इति जीतम् ५ । तत्र प्रथमः- 'आगमव्यवहारः षड्विधः, कस्क इत्याह- केवलज्ञानम्, 'मणोहि' त्ति 'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' मनःपर्यायज्ञानम् अवधिज्ञानम् उदस दस नव पुव्वाई' ति पूर्वशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते चतुर्दश पूर्वाणि दश पूर्वाणि नव पूर्वाणि च एष सर्वोउप्यागमव्यवहार उच्यते इति । इह च यदि केवल प्राप्यते तदा तस्यैवालोचना दीयते, तदभावे मनःपर्यावज्ञानिनः तस्याप्यभावेऽवधिज्ञानिनः इत्यादि यथाक्रमं वाच्यम् ॥ ८५४ ॥ तत्र केवल्या दिरागमव्यवहारी स्वयमपि तावत्सर्वं जानीत्येव ततोऽतिचारजातं शिष्यस्य स्वयमपि प्रकटीकृत्य प्रायश्चित्तं ददाति अन्यथा वेत्याशङ्कय प्रासङ्गिकं 'तावदाह - 'कहेही' न्यादिश्लोकद्रयम्, कथय सर्व दोषजातमिति आगमव्यवहारिणा प्रोक्तो यः शिष्यो जानानोऽपि स्वदोषान् मायावितया गूहतिगोपायति न तस्मै मायाविने प्रायश्चित्तं ददति पहारिणः, किन्तु ब्रुवते - 'अन्यत्र ' अन्यस्य समीपे गत्वा शोधय-शोधिं गृहाण ||८५५ ॥ यस्तु सद्भावतः एव दोषान कांश्चिन स्मरति न पुनर्मायया तस्य तान् दोषान् प्रत्यक्षी - प्रत्यक्षज्ञानी आगमव्यवहारीत्यर्थः 'साहए' ति कथयति मायाविनस्तु न कथयतीति । एतदुक्तं भवतिजगमव्यवहारी यदि केवलज्ञानादिवले नै तज्ज्ञानाति यथेष भणितः सन् शुद्धभावत्वात् सम्यक्प्रतिपत्स्यते इति तदा स्मारयति यथाऽमुकं तवालोचनीयं विस्मृतं ततस्तदष्यालोचयेति । यदि पुनरेतदवगच्छति यथेष १ तुलना - जीतकल्पचूर्णिः प. २ तः ॥ २ तदेवाह सि ।। ३ तुलना व्यवहारवृत्ति: मा. २, प. ४३ ॥ १२६ द्वारे पञ्च व्यवहाराः गाथा ८५४ ८५९ प्र. आ. २४८ ।। ९४ ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोबारे १२६ द्वा पञ्च व्यवहार गाथा भणितोऽपि सन् मायावितया न मम्यक्प्रतिपस्यते इति तदा तमप्रतिपत्स्यमानं नैव स्मारयति निष्फलस्वात् । अमृढलक्षो हि भगवानागमव्यवहारी, अत एव दत्तायामप्यालोचनायो यद्यालोचकः सम्यगावृत्तो ज्ञातस्ततस्तस्मै प्रायश्चित्तं प्रयच्छति । अथ न प्रत्यावृत्तस्ततो न प्रयच्छतीति । ननु चतुर्दशपूर्वधरादेः कथं प्रत्यक्षज्ञानित्वम् १ तस्य श्रुतज्ञानित्वेन परोक्षज्ञानित्वात् । उच्यते, चतुदेशादिपूर्वबलसमुत्थस्यापि ज्ञानस्य प्रत्यक्षतुल्यत्वात् , तथाहि-येन यथा योऽतिचारः कृतस्तं तथा सर्वमेते जानन्तीति । अथ यदि आगमव्यवहारिणः सर्वभावविषयं परिज्ञानं ततः कस्मात्तस्य पुरत आलोच्यते १, किन्तु तस्य समीपमुपगम्य वक्तव्यमपराधं मे भवन्तो जानते तस्य शोधिं प्रयच्छतेति । उच्यते, आलोचिते बहुगुणसम्भवतः सम्यगाराधना 'भवति । तथाहि-आलोचनाऽऽचार्येण स आलोचकः प्रोत्साह्यते, यथा वत्स ! त्वं धन्यस्त्वं च भाग्यवान यदेवं मानं निहत्यात्महितार्थतया स्वरहस्यानि प्रकटयसि, महादुष्करमेतत् , एवं स प्रोत्साहितः सन् प्रवर्धमानपरिणामः सम्यग् निःशल्यो भूत्वा यथावस्थितमालोचयत्ति शोधिं च सम्यक्प्रतिपद्यते, ततः पर्यन्ते आराधना, स्तोककालेन च मोक्षगमनमिति ।।८५६।। अथ श्रुतव्यवहारमाह-आयारे' त्यादिगाथापूर्वार्द्धम् , आचारप्रकल्पो-निशीथस्तदादिक कल्प. व्यवहारदशाश्रुतस्कन्धप्रभृत्तिकम् , एकादशाङ्गावशेषपूर्वप्रमुखं च शेषं श्रुतं-सर्वमपि श्रुतव्यवहारः । नवादिपूर्वाणां श्रुतत्वाविशेषेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वात् केवलादि वदागमत्वेनैव प्र. आ. २४९ १ मावना भवति-सि. ॥ २ त्वं माग्यवान-मुः। धन्यस्त्वं भाग्यमागु-जे.॥३ ०३या सि.॥ |॥ १५॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन होकं द्वौ वा वारावालोचित १२६ द्वारे सारोद्वारे ॥ ९६ ॥ व्यवहारा: गाथा ८५४८५९ प्र.आ. व्यपदेशः । एते च श्रुतव्यवहारिणः स्फुटतरोपलब्धिनिमित्तं 'त्रीन् वारानालोचनाईमालोचापयन्ति, ते ह्य के द्वौ वा वारावालोचिते अनेन सम्यगालोचितमसम्यग्वेति विशेष नावगच्छन्तीति, कथमालोचापयन्तीति चेदुच्यते, प्रथमवेलायां निद्रायमाण हव शृणोति तनो बने-निद्राप्रमादं गतवानहमिति न किमप्यश्रौषमतो भूयोऽप्यालोचय, द्वितीयवारमालोचिते भणति-न सुष्टु मयाऽधुनाऽयधारितमनुपयोगभावादतः पुनरप्यालोचय, एवं त्रिष्वपि बारेषु यदि सदृशार्थमालोचितं ततो ज्ञातव्यमेषोऽमायावी, अथ विसदृशं तर्हि ज्ञातव्यमेष परिणामतः कुटिल इति । एवं च सति तस्यापि प्रत्यय उपजायते यथाऽहं विमदृशभणनेन मायावी लक्षित इति । ततो मायानिष्पन्न प्रायश्चित्तं पूर्व दातव्यं तदनन्तरमपराधनिमित्तमिति । ____ अथ आज्ञाव्यवहारमाह-'देसंतरे'त्यादिगाथोत्तरार्द्धम् , देशान्तरस्थितयोयोर्गीतार्थयोगूढपदेशलोचना-निजातिचारनिवेदनमाज्ञाव्यवहारः, एतदुक्तं भवति-यदा द्वावष्याचार्यावासेवितमूत्रार्थतया' गीतार्थों क्षीणजङ्घात्रलौ विहारक्रमानुरोधतो दुरतरदेशान्तरव्यवस्थितौ, अत एव परस्परस्य समीपं गन्तु. मसमर्थावाभूताम् , तदाऽन्यतः प्रायश्चित्ते समापनिने मति तथाविधयोग्यगीतार्थशिष्याभावे सति मतिधारणाकुशलमगीतार्थमपि शिष्यं समयभाषया गूढार्थान्यतीचारासेवनपदानि कथयित्वा प्रेषयति । तेन च गत्वा गूढपदेषु कथितेषु म आचार्यो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव संहनन-धृति-बलादिकं परिभाव्य स्वयं वा तत्र गमनं करोति शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थ प्रज्ञाप्य प्रेषयति, तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारशुद्धि कथयतीति ।। ८५७॥ १ तुलना-व्यवहारवृत्तिः भा. २, गा. १३७ ।। २ मयानुधारित सि.॥ ३ व्याऽतिगी सि. থা २४९ ॥ ९६॥ कAANANA Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके ॥१७॥ .. अथ धारणाच्यवहारमाह-गोयत्येत्यादि, इह गीतार्थेन संधिग्नेनाचार्येण कस्यापि शिष्यस्य क्वचिदपराधे द्रव्य क्षेत्र काल-भावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्वावलोक्य या शुद्धिः प्रदत्ता तां शुद्धिं तथैवावधार्य १२६ द्वारे सोऽपि शिष्यो यदाऽन्यत्रापि तादृश एवापराधे तेष्वेव द्रव्यादिषु तथैव प्रायश्चित्तं ददाति तदाऽसौ पञ्च धारणानाम चतुर्थो व्यवहारः, 'उद्भुतपदधरणरूपा वा धारणा, इदमुक्तं भवति- यावृत्यकरणादिना व्यवहाराः कश्चिद्गच्छोपकारी साधुरद्याप्यशेषच्छेदश्रुतयोग्यो न भवति ततस्तस्यानुग्रहं कृत्वा यदा गुरुरुद्धतान्येव | गाथा कानिचित्प्रायश्चित्तपदानि कथयति तदा तस्य तेषां पदानां धरणं धारणाऽभिधीयते इति ॥ ८५८ ॥ ८५४. अथ जीतव्यवहारमाह-'दब्वाई'त्यादि, येवपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वप्यपराधेषु साम्प्रतं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावान् विचिन्त्य संहनन धृति-बलादीनां च हानिमासाद्य | प्र.आ. समुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीतमुच्यते, अथवा यत्प्रायश्चित्तं यस्याचार्यस्य गरछे मूत्रातिरिक्त कारणतः प्रवर्तितमन्यैश्च बहुभिरनुवर्तितं तत्तत्र रूढं जीतमुच्यते, तदेवमेतेर्पा पश्चानां व्यवहाराणामन्यतरेणापि व्यवहारेण युक्त एव प्रायश्चित्तप्रदाने गीतार्थों गुरुरधिक्रियते न स्वगीतार्थः, । अनेकदोषसम्भवात् उक्तं च---- A'अग्गीओ न वियाणइ सोहिं चरणस्स देइ ऊणऽहियं । तो अप्पाणं आलोयगं च पाडेइ संसारे ॥१॥ [श्राद्धजितकल्प. गा. २०] इति ।।८५६।१२६।। १ उद्धृतपदधा-मु.|| Aअगीतार्थो न विजानीते चरणस्य शोधि ददात्यूनामधिका बा। तत आत्मानमालोचकं च पातयति संसारे॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a.baat प्रवचनसारोद्धारे सटीके ॥९८॥ इदानी 'पंच 'अहाजाप' ति सप्तविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह 1१२७ द्वारे पंच अहाजायाइ' चोलगपट्टो १ तहेव रयहरणं २ । उन्निय ३ खोमिय ४ निस्तेज्जजुयलयं तह य मुहपोत्ती ५ ॥८६॥ यथापंच अहा.' गाहा, चोलपट्टस्तथा रजोहरणं तथा अंणिक-झोपनिषद्यायुगलकं तथा मुखपोतिका जातानि एतानि पञ्च यथाजातानि । यथाजातं-जन्म तच्च श्रमणत्वमाश्रित्य द्रष्टव्यम् , चोलपट्टादिमात्रोपकरणयुक्त एव हि श्रमणो जायते, अतस्तद्योगादेतान्यपि यथाजातान्युच्यन्ते । तत्र चालपट्टः प्रनीत एव, बाया-ऽभ्य- गाथा न्तरनिषद्या द्वयरहितमेकनिषद्यं सदशं रजोहरणम् । इह किल सम्प्रति दशिकाभिः सह 'या दण्डिका ८६० क्रियते सा सूत्रनीत्या केवलैव भवति न सहदशिका, तस्याश्च निषधात्रयम् , तत्र या दण्डिकाया उपरि |प्र. आ. तियग्वेष्टकत्रयप्रमाणपृथुत्वा एकहस्तायामा कम्बलीखण्डरूपा मा आद्या निषद्या, तस्याशाग्रे हस्तत्रिभागायामा दशिकाः सम्बद्धयन्ते, एषा च निषद्या 'दशिकाकलिनाऽत्र रजोहरा शब्देन गृह्यते उक्तं च*"एगानसेनं च स्यहरणं" [ ]इति द्वितीया स्वेनामेव निषद्या नियंत्रभिष्टकरावेष्टयन्ती किश्चिदधिकहस्तप्रमाणायामा हस्तप्रमाणमात्रपृथुत्वा 'वस्त्रमयी निपद्या सा अभ्यन्तरनिषद्या, इयं च क्षौमिकनिषद्याग्रहणेनेह गृह्यते. तृतीया तु तस्या एवाभ्यन्तरनिषद्यायाः तिर्यग्वेष्टकान् बहून कुबन्ती चतुरङ्गुलाधिकैकहस्तमाना चतुरस्रा कम्बलमयी भवति । सा चोपवेशनोपकारित्वादधुना पादप्रोञ्छनकमिति रूढा । इयं बाह्या १ तहा आहा ता.॥२ अर्णिकाक्षौमिकनिः सि.।। ३ यसहित सि.॥४ या च द.सि.।। ॥९॥ दशिका० सि. नास्ति ।। * एकनिषद्यावरूच रजोहरणम् ।। ६ तन्तुमयी-जे. ॥ | २५० PARA ECHE SARSHAI048 E-508 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे सटीके ॥९९॥ 5 निषद्येत्यभिधीयते, अस्यास्त्विह और्णिकनिषद्याग्रहणेन ग्रहणमिति । तथा मुखविधानाय पोतं वस्त्रं मुखपोतम् मुखपोतमेव ह्रस्वं चतुरङ्गुलाधिकत्रितस्तिमात्रप्रमाणत्वान्मुखपोतिका मुखवत्रिकेत्यर्थः । 'अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानि' [ ] इति वचनाच्च प्रथमतो नपुंसकत्वेऽपि कप्रत्यये समानीते स्त्रीत्वमिति ॥ ८६०॥१२७॥ इदानों 'मिसिजागरणविहि' त्ति अष्टाविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह Hodsfa पढमयामे दोत्रिय वसहाण आइमा जामा } ओ होइ गुरूणं उत्थ सव्वे गुरू सुग्रह || = ६१ ॥ [ तुलना- ओघनि. ६६० ] 'सव्वेष' गाहा, सर्वेऽपि साधवः प्रथमयामे - रात्रेः प्रथमं प्रहरं यावत् स्वाध्यायाऽध्ययनादि कुर्वाणा जाग्रति द्वौ च आद्यौ यामौ वृषभाणाम्, वृषभा इव वृषभा - गीतार्थाः साधवस्तेषाम्, अयमर्थःद्वितीये यामे ये सूत्रवन्तः साधवस्ते स्वपन्ति, वृषभास्तु जाग्रति, ते च जाग्रतः प्रज्ञापनादिसूत्रार्थं परावर्तयन्ति । तृतीयः प्रहरो भवति गुरुणाम्, कोऽर्थः १ - प्रहरद्वयानन्तरं वृषभाः स्वपन्ति गुरवस्तूस्थिताः प्रज्ञापनादि गुणयन्ति चतुर्थ प्रहरं यावत् । चतुर्थे च प्रहरे सर्वेऽपि साधवः समुत्थाय वैरात्रिकं कालं गृहीत्वाकालिकतं परावर्तयन्ति । 'गुखः पुनः स्वपन्ति, अन्यथा प्रातर्निद्रा घूर्णमानलो चनास्तद्वशादेव च भज्य - मानपृष्ठका व्याख्यानभव्यजनोपदेशादिकं कतु ते सोद्यमाः सन्तो न शक्नुवन्तीति ॥ ८६१ ॥ १२८॥ १ गुरु पुनः स्वपित्ति-मु. ॥ १२८ द्वारे रात्रि जागरण विधि: गाथा ८६१ प्र. आ. २५० ॥९९॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटीके ॥१०॥ इदानीम् 'आलोयणदायगन्नेस' त्येकोनत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाहसल्लुद्धरणनिमित्तं गीयस्सऽन्नेसणा उ उक्कोसा ।। १२१द्वारे आलोजोयणसयाई सत्त उ पारस वासाई कायव्वा ॥८६२॥ [पञ्चाशक-१५॥४१] चना'सल्लुहरण: कहा, 'काल्पोरणनिमित्तम् , आलोचनार्थ 'गीतस्य' गीतार्थस्य गुरोन्वेषणा दायका- 'गवेषणा, तुः पुनरर्थे, उत्कृष्टा क्षेत्रता सप्तेव योजनशतानि यावत्कर्तव्या, कालतस्तु द्वादश वर्षाणि याव- न्वेषणा दिति । अयमर्थः-संनिहित एव गीताथों गुरुः यदि न लभ्यते तदा योजनशत 'सप्तकप्रमाणक्षेत्रेऽसावुत्कृष्टतो विधिः ऽन्वेषणीयः, कालतस्तु द्वादश वर्षाणि यावत्समागच्छन् प्रतीक्षणीय इति । नन्वेतावति क्षेत्रे तदन्वेषण गाथा पर्यटन्नेतावन्तं च कालं 'समागच्छन्तं प्रतीक्षमाणः स यदि अन्तराले प्रदत्तालोचनोऽपि म्रियते तदा ८६२किमयमाराधको न वेति ?, उच्यते, आलोचना दातु सम्यक्परिणतोऽन्तराऽपि म्रियमाणोऽयमाराधक प्र.आ. एव, विशुद्भाध्यवसायसम्पन्नत्वात , उक्तं च २५१ _*'आलोयणापरिणओ सम्म संपट्टिो गुरुमयासे । जइ अंतरावि कालं करेज आगहो तहवि ॥१॥ अथैवमन्वेषणेऽपि सकलोक्तगुणगुरुगुरुर्न प्राप्यते तदा संविग्नगीतार्थमात्रस्याप्यालोचना दातव्या । "यत श्रूयते-अपवादतो गीतार्थसंविग्नपानिकसिद्धपुत्रप्रवचनदेवतानामलामे सिद्धानामप्यालोचना देया, सशल्यमरणस्य संसारकारणत्वात् इति । आह च१ गवेषणा-मु. नास्ति ॥ २ गुरु:- नास्ति । ३ सप्तप्र.मु. १४ तमा- मु. ॥ ५ तु.-पश्चाशवृत्तिः प. २४८॥ [श्राद्धजित गा.३॥ आलोचनापरिणतः सम्यक् संप्रस्थितो गुरुसकाशे । यद्यन्तराऽपि कालं कुर्यात तथाप्याराधकः॥ ॥१०॥ . .. AIRAGAR Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके १३० द्वारे प्रतिजागरणकाल: ॥१०१॥ गाथा ८६३ *" 'संविग्गे गीयत्थे असई पासस्थमाइसारूची" [ ] ति ॥८६२॥ १२६॥ सम्प्रति ‘गुरुपमूहाणं कीरह असुडसुन्डेहिं जत्तियं कालं।' इति त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह--- जावज्जोवं गुरुणो 'असुद्धसुद्धेहिं वावि कापव्वं । घसहे बारस वासा अट्ठारस भिक्षुणो मासा ॥८६॥ 'जावजीवं' गाहा, यावज्जीवमाजन्मापीत्यर्थः, गुरो:-आचार्यस्य, शुद्धैः-आधाकर्मादिदोषादक्षितैरशद्वैर्वाऽपि-आधाकर्मादिदोषयुक्तैर्वाऽपि अशन-पान-भैषजादिभिः कर्तव्यं प्रतिजागरणमिति शेषः । असमर्थः-शुद्धरशुद्धश्च ते यावज्जीवमपि 'प्रतिजागरणीयाः साधुश्रावकलोकेन, सर्वस्यापि च गच्छस्य तदधीनत्वात् यथाशक्ति निरन्तरं सूत्रा-ऽर्थनिर्णयप्रवृत्तेश्च । तथा वृषमे-उपाध्यायादिके द्वादश वर्षाणि यावत् प्रतिजागरणा शुद्धरशुद्धवस्तुभिश्च विधेया। ततः परं शक्ती भक्तविवेकः । एतावता कालेनान्यस्यापि समस्तगच्छमारोद्वहनसमर्थस्य वृषभस्य उत्थानात् । तथा अष्टादश मासान यावद्भिक्षोः-सामान्यसाधोः शुद्धैरशुद्धैः प्रतिजागरणा विधेया, ततः परमसाध्यतया शक्तौ सत्या भक्तविवेकस्यैव कतु मुचितत्वात् । इदं च शुद्धा-ऽशुद्धाशनादिभिराचार्यादीनां परिपालनं रोगायभिभूतवपुषा क्षेत्र-कालादेः परिहाणिवशतो. भक्ताद्यलाभवतां च विधेया(यं) न पुनरेवमेव सुस्थावस्थायामिति । व्यवहारभाष्ये तु सर्वसामान्यग्लानप्रक्रियाव्यवस्थार्थमियं गाथा लिखिताऽस्ति, यथा* संविग्ने गीतार्थ असति पावस्थादयः सरूप्यन्ताः इति।। १ संविग्गो-सि. ॥२ सुद्धअसुद्धेहि-ता. तुलनाधर्मसं. वृत्तिः मा.२१ प. १७७॥ ३ प्रतिजागरीया-सि.॥ . प्र.आ. २५१ ॥११॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके १३१ द्वारे उपधिधावन ॥१२॥ "छम्मासे आयरिश्रो कुलं 'तु संबच्छराई तिनि भवे । संवच्छरं गणो खलु जावज्जीवं भवे संघो ॥ १॥" तुलना - क, भा. २००१] अस्या व्याख्या- 'प्रथमत आचार्यः पड़ मासान् यावशिचकित्सा ग्लानस्य कारयति । तथाप्यप्रगु. णीभृतं तं कुलस्य समर्पयति । ततः कुलं त्रीन् संवत्सरान् यावच्चिकित्सकं भवति । तथाप्यप्रगुणीभवने कुलं गणस्य तं समर्पयति । तदनन्तरं संवत्सरं यावद्गणः खलु चिकित्सां कारयति । तथाप्यनिवर्तितरोगे नं गणः सङ्घस्य समर्पयति । ततः सङ्घो यावज्जीव-प्रासुकप्रत्यवतारेण तदभावे चाप्रामुकेनापि यावज्जी चिकित्सको भवति । एतरुचोक्तं भक्तांववक कतु मशक्नुपतः, यः पुनर्भरतविवेकं कर्तुं शक्नोति तेन प्रथमतोऽष्टादश मासान् चिकित्सा कारयितव्या, विरतिसहितस्य जीवितस्य पुनः संसारे दुष्प्रापवान् , तइ. नन्तरं चेत्प्रगुणीभवति ततः सुन्दरम् , अथ न भवति तर्हि भक्तविवेकः कर्तव्य इति ॥८६३॥ १३०॥ इदानीम् 'उपाहियोयणकालो' ति एकत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह अप्पत्ते चिचय वासे सव्वं उवहिं धुवति जयणाए । असईए उदगस्स उ जहनओ पायनिज्जोगो ॥६॥ आयरियगिलाणाणं महला महला पुणोवि धोइज्जा । मा हु गुरुण 'अवपणो लोगम्मि अजीरण इअरे ॥८६५॥ [पिण्डनि. २६-२७.ओघनि. ३५१-२] १च. सि. धर्म सं.वृत्तौ च ।। २ तुलना- वृकल्प.मा-वृत्ति-पृ. ५७६ ॥ ३ मपन्नो-ता.॥ गाथा ८६४. ८६५ प्र. आ. ॥१०२।। S Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचनभोला सटीके । १३१ द्वारे उपधिधावनकाल: गाथा 'अप्पत्ते च्चिय' गाहा, 'अप्राप्त एव-अनायाते एव, वर्षे-वर्षाकालान्मनागक्तिने काले इत्यर्थः जलादिसामग्र्यां सत्यामुत्कर्पतः सर्वमुपधिम् - उपकरणं यतनया यतयः प्रक्षालयन्ति । उदकस्य-जलस्य पुनरसति-अभावे जघन्यतोऽपि पात्रनिर्योगोऽवश्यं प्रक्षालनीयः । इह निस्पूर्वो युजिरुपकारे वर्तते, 'उक्तं च पाठोदूखले-'निज्जोगो 'उवयारो [ ] इति । तत्र नियुज्यते--उपक्रियतेऽनेनेति नियोगः उपकरणम् , पात्रस्य निर्योग पात्रनियोगः-पात्रोपकरणं पात्रकान्धादिः, उक्तं च "पत्तं पत्ताधो पायडवणं च णायकेसरिया । पडलाई रयत्ताणा गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ १॥" [ओघनि, ६७४, पञ्चव. ७७२] इति । आह-किं सर्वेषामेव वस्त्राणि वर्षाकालादर्वागेव प्रक्षात्यन्ते ? किं वाऽस्ति केपाश्चिद्विशेषः ?, अस्तीति अमः, १८६४॥ केषामिति 'चेदत आह–'आयरिये'त्यादि, आचार्या:-प्रवचनार्थव्याख्याधिकारिणः सद्धर्मदेशनादिगुणग्रामभूरयः सूरयः, आचार्यग्रहणमुपलक्षणं तेनोपाध्यायादीनां प्रभूणां परिग्रहः, तेषाम् । तथा ग्लाना-मन्दास्तेषां च पुनः पुनर्मलिनानि २ वस्त्राणि प्रशालयेत् , प्राकृतत्वाच्च मलिनानीत्यत्र सूत्रे पुस्त्वनिर्देशः, प्रस्तुतेऽर्थे कारणमाह--'मा हु' इत्यादि, मा भवत हुः-निश्चितं गुरूणां मलिनवस्त्रपरिधाने लोकेऽवर्ण:-अश्लाघा । यथा निराकृतयोऽमी मलदुरभि गन्धोपलिप्तदेहाः ततः किमेतेषामुपकण्ठं गतैरस्माभिरिति । तथा इतरस्मिन्-ग्लाने मा भवत्वजीर्णमिति । मलक्लिम्मवस्त्रप्रावरणे हि शीतलमारुतादि१ तुलना-पिण्डनि.वृत्तिः प. १२॥२ उक्तं च "पाठोदूखले निलोगो उवयारो" इति पिण्डनि. बत्तौ ।। ३ वयारे इति ततो-सि.॥४ भेदत-सि.॥५०गन्धोपदिग्धति पिण्डनि.वृत्तौ पाठः।। ८६५ २५२ ॥१.३॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोद्धारे आहार टीके । मानम् १०४ गाथा ८६६. ८७० प्र. आ. सम्पर्कतः शैत्यसम्भवेन भुक्ताहारस्यापरिणतौ ग्लानस्य विशेषतो मान्यमुज्जम्भते इति । इह वर्षाकालप्रत्यासन्नं कालमपहाय शेषे ऋतुबद्धे काले चीवरप्रक्षालनं यतीनां न कल्पते । प्राण्युपमर्दोपकरणचकुशस्वाधनेकदोषसम्भवात् । नन्वेते दोषा वर्षाकालादयंगपि वस्त्रप्रक्षालने सम्भवन्ति, ततस्तदानीमपि न चीयराणि प्रक्षालनी. यानि, तन, तदानीं चीवरप्रक्षालनस्य सूत्रोक्तनीत्या बहुगुणत्वात् , येऽपि च प्राण्युपमर्दादयो दोषास्तेऽपि यतनया प्रवर्तमानस्य न सम्भवन्ति । यो हि सूत्राज्ञामनुसृत्य यतनया सम्यक्प्रवर्तते स यद्यपि कथश्चिप्राण्युपमर्दकारी तथापि नासौ पापभाग्भवति नापि तीव्रप्रायश्चित्तभागी। सूत्रबहुमानतो यतनया प्रवर्तमानत्वाद । अत एवोक्तम्- 'धुवंति जयणाए' इति ॥८६॥ १३१॥ इदानीं 'भोषणभाय' त्ति द्वात्रिंशदुत्तरशततमं द्वारं व्याचिख्यासुः प्रथमतः कवलमानमाह-- बत्तीसं किर करला आहारो कुच्छिपूरओ भणिो । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥८६६॥ अद्धमसणस्स सव्वजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । 'वायपवियारणहा छम्भागं ऊणयं कुज्जा ॥८६॥ सीओ उसिणो साहारणो य कालो तिहा मुणेयव्वो । साहारणमि काले तत्थाहारे इमा मत्ता ॥८६८॥ १वाउ इति पिण्हनियुक्ती पाठः । ॥१४॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके सीए दवरस एगो भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे । उसिणे दवस्स दुनी तिनिधि सेसा उ भत्तस्स ॥८६९॥ १३२ द्वारे एगो दवस्स भागो अवडिओ भोयणरस दो भागा । आहारवति व हायंनिय दो दो भागा पक्के !!८७०॥ पिण्डनि. ६४२, ६५०३] मानम् 'घतीसं किर' गाहा, पुरुषस्य कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणो द्वात्रिंशत्कवलाः । किलेत्याहारस्य गाथा मध्यमप्रमाणतायाः संसूचकम् , महेलायाः कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणोऽष्टाविंशतिः कवला इति ॥६६॥ ८६६. अथ भोजनभागप्रतिपादनार्थमेवाह (ग्रन्थाग्रं ९०००)-'अद्धे त्यादि, इह किल सर्वमुदरं षड्भि ८७० भांग विभज्यते । तत्राध-त्रीन् भागानशनस्य-कूर-मुद्गमोदकादेः सव्यञ्जनस्य-तक-तीमन-मर्जिकासहितस्य (प्र. आ. योग्यं कुर्यात-विदध्यात् , तथा द्रवस्य-पानीयस्य योग्यौ द्वौ भागौ कुर्यात् , षष्ठं तु भागं वातप्रविचार- २५२ णार्थ-वायसश्चलनार्थमनकं कुर्यात् । अन्यथा हि वायुविष्कम्भतः शरीरे रोगादिसम्भव इति ॥८६७॥ इह कालापेक्षया तथा तथा भवति आहारस्य प्रमाणम् , कालश्च त्रिधा, तथा चाह-'सीओ' इत्यादि, त्रिधा कालो ज्ञातव्यः, तद्यथा-शीत उष्णः साधारणश्च तत्र' तेषु कालेषु मध्ये साधारणे काले आहारे-आहारविषये इयं-अनन्तरोक्ता मात्रा-प्रमाणम् ॥८६८॥ 'सीए' इत्यादि, शीते-अतिशयेन शीतकाले द्रवस्य-पानीयस्य एको भागः कल्पनीयः, चत्वारो भक्त-भक्तस्य,मध्यमे तु शीतकाले द्वौ भागी पानीयस्य कल्पनीयौ त्रयस्तु भागा भक्तस्य । अथवेतिशब्दो ||१०५।। मध्यमशीतकालसंसूचनार्थः । तथा उष्णो-मध्यमोष्णकाले द्वौ भागौ द्रवस्य-पानीयस्य कल्पनीयो शेषा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तु प्रयो भागा भक्तस्य, अत्युष्णे च काले त्रयो भागा द्रवस्य शेषौ तु द्वौ भागौ भक्तस्य, वाशब्दो १३३ द्वारे | नात्युष्णकालसंसूचनार्थः, सर्वत्र च षष्ठो मागो वायुप्रविचारणार्थ मुत्कलो मोक्तव्यः ॥८६९॥ | वसति.. सम्प्रति भागानां चरस्थिरविभागप्रदर्शनार्थमाह-'एगो' इत्यादि, एको द्रवस्य भागोऽवस्थितो, न कदाचिदपि न भवतीति कारः । द्वौ च भागौ भोजनस्य, शेषौ तु द्वौ द्वौ भागो एकैकस्मिन्-भक्ते पाने गाथा चेत्यर्थः । वर्धते वा हीयेते वा, वृद्धि वा बजतो हानि वा व्रजत इत्यर्थः । तथाहि-अतिशीतकाले द्वौ भ गौ ८७१भोजनस्य वर्धते अत्यष्णकाले च पानीयस्य अत्यष्णकाले च द्वौभागी भोजनस्य हीयेते अतिशीतकाले च ८७४ पानीयस्येति ॥८७०॥१३२॥ साम्प्रतं 'वसहिसुद्धि' त्ति त्रयस्त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह प्र. आ. पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीओ । 'मूलगुणेहिं विसुद्धा एसा हु अहागडा वसही ।।८७१।। 'वंसगकणोक्कंधण छायण लेवण दुवारभूमी य । परिकम्मविप्पमुक्का एसा मूलुत्तरगुणेसु ॥८७२॥ दूमिय धूविय वासिय उज्जोइय पलिकडा अवत्ता य । सित्ता संमहावि य विसोहिकोडिं गया वसही ॥८७३ [तु.कृ.क भा. ५८२-४] । १ मुलगुणेहुववेमा-इति पनवस्तुके पाठः । मूलगुणेहिं उवहया-इति वृ. क. माष्ये पाठः ।। २ सयकडगाइक्कंधण-ता. सगकरणोक्कंपण-इति पञ्चवस्तुके पाठः । सगकडणोक्कचण-इति बृ.क. माष्ये पाठः । तुलना-विचारसार २७ ॥ ३ धूमिय-जे. पञ्चवस्तुके विचारसारे (गा.२६९) च । धूसगकडगो-ता. ।। | ॥१०॥ THURAKOS SHIVANI LateORESAKARAMBAR KHATARNIRNO Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीके मृलुत्तरगुणसुद्ध थीपसुपंडगविवत्रिय वसहि । बचन सेविज सव्यकालं विवजए हुति दोसा उ॥८७४।। [तु.पञ्चवस्तुकः७०७.९,७०६] गरोद्धारे 'पट्टीवंसो' गाहा. उपरितनस्तिर्यपाती 'पृष्ठवंशो गृहसम्बन्धी मध्यवलक इत्यर्थः । द्वौ मूलधा । १३३ द्वारे रिण्यौ-बृहद्वल्यौ ययोरुपरि पृष्ठवंशस्तिर्यक स्थाप्यते, चतस्रो मूलवेलयश्चतुर्यु गृहपार्श्वेषु, उभयोर्धारणयो- वसतिरुभयतो द्विद्विवेलिसम्भवात् , एते च वसतेः सप्त मूलगुणाः, एतैर्मूलगुणैः सप्तभिरात्मार्थ कृतैः सद्भिर्वसति शुद्धिः ११०७ विशुद्धा भवति, या पुनः साधुसङ्कन्पेन निष्पादितैमूलगुणयुक्ता एषा हु:-स्फुटमाधाकृता भवति गाथासाधनाधाय-सम्प्रधार्य कृता आधाकृता आधार्मिकीत्यर्थः ॥८७१॥ ८७१. - उक्ता मूलगुणविशुद्धा वसतिः, अथोत्तरगुणविशुद्धाऽभिधीयते । ते चोत्तरगुणा द्विविधाः-मूलोत्तर- ८७४ गुणा उत्तरोत्तरगुणाश्च । तत्र प्रथमं तावन्मूलोपरगुणानाह-वंसगे' त्यादि, वंशका ये मूलवेलीनामु- प्र. आ. परि स्थाप्यन्ते, पृष्ठवंशस्योपरि तिर्यक् च कटन-कटादिभिः समन्ततः पार्थाणामाच्छादनम् , उत्कम्बनम्उपरि कम्बिकाना बन्धनं छादनं-दर्भादिभिराच्छादनम् , लेपनं-कूड थानां कर्दमेन गोमयेन च लेपप्रदानम् , 'दुवार' ति संयतनिमित्तमन्यतो वसतेरकरणं बृहदल्पद्वारकरणं वा, 'भूमि' ति विषमायाभूमेः समीकरणम् , एते सप्त मूलभूता उत्तरगुणा मूलोत्तरगुणाः, उत्तरगुणेषु एते मूलगुणा इत्यर्थः । एतद्रूपं यत्परिकर्म-साध्वर्थमेतेषां निष्पादनं तेन विप्रमुक्ता-विरहिता या वसतिरेषाम्लोत्तरगुणेषु विशुद्धा, | ॥१७॥ एतानि सप्त साध्वयं यत्र न कृतानि सा मूलोत्तरगुणविशुद्धा वसतिरिति भावः । | पृष्ठि इति पञ्चवस्तुकवृत्तौ [प.११२] पाठः तुलनार्थ मतान्तरदर्शनार्थश्च द्रष्टच्या पञ्चवस्तुकवृत्तिः [प. ११२] वृ.क. ...afe. ६ ॥२ पार्थानाति ब.क. मा. वृत्तौ पाठः।। २५३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HETAURINKS प्रवचन सारोद्धारे सटीके ૦૮ १३३ द्वारे वसतिशुद्धिः गाथा __ एते च पृष्ठवंशादयश्चतुर्दशाप्यविशोधिकोटिः, उत्तरोत्तरगुणास्तु विशोधिकोटिः । ते चामी-'दृमिये त्यादि, दूमिया नाम-सुकुमारलेपनेनकोमलीकृतकुडया 'खटिकया धवलीकृतकुडया च, धृपिता-दुर्गन्धे. तिकृत्वाऽगुरुधुपादिभिः सुगन्धीकृता, वासिता-पटवासपुष्पादिभिरपनीतदोर्गन्ध्या, उद्योतिता-रत्नप्रदीपादिमिरन्धकारे प्रकाशिता, बलिकृता-कतापूपकूरादिवलिविधाना, अवत्ता-छगणमृत्तिकाभ्यां जलेन चोपलिप्तभूमितला, सिक्ता-केवलोदकेन आकृता, सम्मृष्टा-सम्मार्जिन्या प्रमार्जिता, एतैरुत्तरोत्तरगुणैः संयतनिमित्तं कृतैर्विशोधिकोटिं गता वसतिः, अविशोधिकोटी न भवतीत्यर्थः, यत्र त साध्वर्थ मेते न निष्पादिताः सा वसतिर्विशुद्धवेति ॥२७॥ तथा चाह-'मूलुत्ते' त्यादि, मूलोत्तरगुणपरिशुद्धा तथा स्त्री-पशु-पण्डकविवर्जिता वसति सेवेत सबैकालम् , विपर्यये-अशुद्धायाँ स्यादिसंसक्तायां च वमतो भवन्ति दोषा इति । एतदनुसारतस्तु चतुःशालादिवपि मृलोत्तरगुणविभागो विज्ञेयः । यत्पुनरिह सूत्र चतुःशालाद्यपेक्षया मूलोत्तगुणविभागः साक्षानोक्तस्तत्रेदं कारणं-यथा विहरता साधूनां श्रुताध्ययनादिव्याक्षेपपरिहारार्थ प्रायो ग्रामादिप्वेव वामः सम्भवति, तत्र च वसतिः पृष्ठवंशादियुक्तैव भवति, ततस्तासामेव वसतीनां साक्षाद्भणनमिति, उक्तं च "चाउस्सालाईए विन्नेओ एवमेव उ विभागो। इह मूलाइगुणाणं सक्खा पुण सुण नजं भणिो ॥१॥ [पञ्चवस्तु० गा. ७००] १ सेटिकया-इतिवृ.क. मा. वृत्तौ पाठः ।। २ पृष्ठी० इति पञ्चवस्तु कवृत्तौ [५.११३, गा.७१०] पाठः॥ ८७४ प्र. आ. २५४ ॥१०८॥ . . . Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन- नारोद्धारे १३४ द्वारे संलेखना गाथा८७५. विहरताणं पायं समत्तकज्जाण जेण गामेसु ! वासो तेसु य वसही पट्ठाइजुया 'अओ तासि ।। २॥" [ पञ्चवस्तुकः गा. ७१०-१ ] ॥८७४॥ १३३॥ साम्प्रतं 'संलेहणा दुवालस तरिसे' नि ननुनिमातुनाशनता द्वारमाह-- . चत्तारि विचित्ताई ४ विगईनिज्जूहियाई चत्तारि ४ ।। संवच्छरे य दोन्नि उ एगेनरियं च आयामं १० ॥८७६॥ नाइविगिट्ठो य तबो छम्मासे परिमियं च आयाम । अवरेऽवि य छुम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्म ११ ॥८७६॥ [पश्चव० १५७४-६] चासं कोडीसहियं १२ आयामं कटु आणुपुवीए । गिरिकंदरं व गंतु पाओवगमं पवज्जेइ ॥८७७॥ 'चत्तारि विचित्ताई' इत्यादिगाथात्रयम् , संलेखन संलेखना-आगमोक्तेन विधिना शरीराद्यपकरणम् , सा च त्रिविधा-जघन्या पाण्मासिकी, मध्यमा संवत्सरप्रमाणा, उत्कृष्टा तु द्वादश वर्षाणि । तत्र उत्कृष्टा तावदेवं- 'प्रथमं चत्वारि वर्षाणि 'विचित्राणि' विचित्रतपांसि करोति । किमुक्तं भवति ?-चत्वारि वर्षाणि यावत्कदाचिच्चतुर्थ कदाचित् षष्ठं कदाचिदष्टमम् , एवं दशम-द्वादशादीन्यपि करोति । पारणकं च सर्वकामगुणितेनोद्गमादिशुद्धेनाहारेण विधत्ते । ततः परमन्यानि चत्वारि वर्षाणि उक्तप्रकारेण विचित्रतपांसि करोति विकृतिनियू हितानि-विकृतिरहितानि किमुक्तं भवति ?-विचित्रं तपः कृत्वा पारणके निर्विकृतिक १ तभी-इति पञ्चवस्तु के पाठः ॥ २ तुडनीया पञ्चवस्तुकगाथा १५७६ ।। ३ तुलना-धर्मसंग्रह वृत्तिःमा २ । प. १७१ ॥ प्र. आ. २५४ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maanRIINDum Mere प्रवचनसारोद्धारे सटीके १३४ द्वा संलेखना गाथा ८७५ ॥११०॥ प्र. आ. २५४ भुङ्क्ते उत्कृष्टरसवर्ज च । ततः परतोऽन्ये द्वे च वर्षे एकान्तरितमाचाम्लं करोति । एकान्तरं चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारयतीत्यर्थः । एवमेतानि दश वर्षाणि गतानि !८७५॥ __ एकादशस्य तु वर्षस्याद्यान् षण्मासान् 'नानिविकृष्टं' नातिगाढं तपः करोति । 'नातिविकृष्टं नाम तपश्चतुर्थ षष्ठं चाऽवसेयम् , नाष्टमादिकम् , पारणके तु परिमितं-किश्चिदूनोदरतासम्पन्नमाचाम्लं करोति । ततः परमपरान् षण्मासान विकृष्टम्-अष्टम दशम द्वादशादिकं तपः करोति । पारणके तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिपमितिकृत्वा परिपूर्णध्राण्या आचाम्लं करोति । न पुनरूनोदरतयेति । द्वादशं तु वर्ष कोटीसहितं निरन्तरमाचाम्लं करोतीत्यर्थः । उक्तं च निशीथचूर्णी___“दुवालसमं परिमं निरंतरं हायमाणं उमिणोदएण आयंबिलं करेइ, त कोडिसहियं भवइ, जेणार्यविलस्स कोडी कोडीए मिलई" [ भाष्यमाथा ३८१४, मा. ३, पृ २९४ ] त्ति | चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारयति । पुनश्चतुर्थ विधायाचाम्लेनैव पारयतीत्यादीन्यपि बहूनि मतान्तराणि द्वादशस्य वर्षस्य विषये वीक्ष्यन्ते । परं ग्रन्थगौरवमयान्नात्र लिखितानीति । ___ इह च द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वन प्रतिदिनमेकैककवलहान्या तावनोदरता करोति यावदेक कवलमाहारयति । ततः शेषेषु दिनेषु क्रमश एकेन सिक्थेनोनमेकं कवलमाहारयत्ति, द्वाभ्यां सिस्थाभ्याम् , त्रिभिः १ पञ्चवस्तुवृत्ती तु-"नातिविकृष्टं च तप:-चतुर्थादि षण्मासान करोति"इति[५.२२३] ॥ २ तपः कर्ममवति-मु.॥ ३ यासमि० खं., सि.पा. २.१.३ धर्म संवृत्ती [मा.२, प.१७१] च । द्रष्टव्यं सिद्धहेम० सूत्रम ४४८६॥ ४ परिपूर्ण घ्राण्या-इति धर्म सं. वृत्तौ पाठः।। A nth Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ॥१११॥ सिक्थैीर्थं यावदन्ते एकमेव विपथं मुङ्क्ते । यथा दीपे समकालं तैलपतिक्षयो भवति तथा शरीराssyriaft समकं क्षयः स्यादिति हेतोः । *अपरं चेह द्वादशस्य वर्षस्य पर्यन्तवर्तिनश्चतुरो मासान् यावदेकान्तरितं तैलगण्डूपं चिरकालमसौ मुखे धारयति । ततः खेलमल्लके भस्ममध्ये प्रक्षिप्य मुखमुष्णोदकेन शोधयति यदि पुनस्तैलगण्डूषविधानं न कार्यते तदा रूक्षत्वात्तेन मुखयन्त्रमीलनसम्भवे पर्यन्तसमये नमस्कारमुच्चारयितु' न शक्नोतीति । तदेवमनयाऽऽनुपूर्व्या - क्रमेण द्वादशवार्षिकीमुत्कृष्ट संलेखनां कृत्वा गिरिकन्दरी च गत्वा उपलक्षणमेतत् अन्यदपि षट्कायोपमर्दरहितं विविक्तं स्थानं गत्वा पादपोपगमनम्, वाशब्दाद्भक्तपरिज्ञामिङ्गिनीमरणं वा प्रपद्यते । મ मध्यमा तु संलेखना पूर्वोक्तप्रकारेण द्वादशभिर्मासः, जघन्या च द्वादशभिः पक्षैः परिभावनीया । स्थाने मासान् पक्षांव स्थापयित्वा तपोविधिः प्रागिव निरवशेष उभयत्रापि भावनीय इति भावः ॥ ८७५॥ ॥ ७६ ॥ ॥ ८७७।।।। १३४ ॥ इदानीं 'वसहेण वसहिगहणं 'ति पंचत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह नयराइएस घेप्पर वसहो पुव्वामुहं ठविय बसह वामकडीए fries 'दोहीमेकपर्यं I ||८७८॥ १ पस्तुवृत्तौ तु "तेलगण्डूषधारणं च मुखमङ्गे" इति [ ५.२२३ ] ॥ २ धार्यते खं. सि. धर्मसद्वृत्तौ च ॥ ३ वाकडी - मु. ॥ ४ दीssain मु. । दीही कया० सं. ॥ १३५ द्वारे वृषभेण वसति ग्रहणम् गाथा ८७८ ८८० प्र. आ. २५५ ॥ १११ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके ॥१३५ द्वारे वृषमेण वसतिग्रहणम् गाथा ८७८ सिंगक्खोडे कलहो ठाणं पुण नेव होह चलणेसु । अहिठाणे पोहरोगो पुच्छमि य फेडणं जाण ॥८७६॥ मुहमूलंमि य चारी सिरे य कउहे य पूयसक्कारो । खधे पट्टीय भरो पुट्टमि य धायओ वसहो ॥८८०॥ [बृहत्कल्पभा. १५६४-५] 'नयराइएसु' गाहा, नगरप्रामादिषु पूर्वाभिमुखं वामकटया-बामपार्श्वेण भिविष्टम्-उपविष्टम् , दीर्घाकृताग्रिमकपादम्-'आयतीकृताग्रेतने कतरचरणं वृषभं बलीबदं स्थापयिन्वा-निवेश्य वसतिगृह्यते । अयमर्थ:- यावन्मात्रं क्षेत्र वसिमाक्रान्तं भवति तावत्सर्वमपि वामपाश्वोपविष्टपूर्वाभिमुखवृषभरूपं बुद्धया परिकल्प्य प्रशस्तेषु प्रदेशेषु साधुभिर्वसप्तिाहयेति ॥७॥ इत्थं च क्षेत्रे वृषभरूपे कल्पिते कुत्रायवे वमतिः क्रियमाणा किम्फला भवति ?, तबाह-'सिंगक्खोडे' इत्यादिगाथाद्वयम् , शृङ्गप्रदेशे यदि वमति करोति तदा निरन्तरं अतिनां कलहो भवति । तथा स्थानम्-अवस्थितिः पुनव भवति चरणोषु-पादप्रदेशेषु क्रियमाण्डाय बसतो । तथाऽधिष्ठाने-अपानप्रदेशे वसतौ क्रियमाणायां मुनीनामुदररोगो भवति । तथा पुच्छे-पुन प्रदेशे क्रियमाणायां वसती स्फेटनम्-अपनयनं वसतेर्जानीहि । तथा मुखमूले वसतौ क्रियमाणायां 'चारित्ति भोजनसम्पत्तिः साधूनां भन्या भवति। तथा शिरसि-शृङ्गयोर्मध्ये ककुदे बा-अंशकूटप्रदेशे वसतिकर पूजा-प्रवस्वस्त्रपात्रादि प्रदान भायती कृताप्रतनैक० मु. । कृताग्रेतनिक० सं० ।। २ वसगृ० खं. सं. ॥ ३ तुलना-वृ.क. मा-वृत्तिः पृ.४४२॥ ४ वसति० सं.॥५.प्रदान० खं. सं. नास्ति । प्र. आ. ॥ RE- R eali..... Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEDIAS प्रवचन सारोद्वारे सटीके ॥११३॥ १३६ द्वारे जलस्य सचित्तता काल: गाथा ८८१ लक्षणा सत्कारश्व-अभ्युत्थानादिरूप) व्रतिनां भवति । तया स्कन्धप्रदेशे पृष्ठप्रदेशे च वसतो सत्यां भरो भवति-साधुभिरितस्तत आगन्छद्भिर्वसतिराकुला भवति । तथा "पोहमि य' त्ति 'उदरदेशे वसतो विधीयमानायां ध्रातः-तृप्तो भवति,वृषभो-'वृषभकल्पो गृहीतवमतिनिवासी यतिजन इति ॥७९॥८८०॥१३॥ इदानों 'उसिणस्स फासुयासवि जलस्स सच्चित्तया कालो' इति षट्त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह उसिणोदग तिदडुक्कलियं फासुयजलंति जइकप्पं । नवरि गिलाणाइकर पहरतिगोवरिवि धरियव्वं ॥८॥ जायइ सचित्तया से गिम्हमि पहरपंचगस्सुवरि । चउपहरोवरि सिसिरे वासामु पुणो तिपहरुवरि ॥५२॥ [विचारसारे गा. २५७.८] 'उसिणोदगं' गाहा, त्रिभिर्दण्डै:-"उत्कालैरुत्कलितम्-आवृत्तं यदुष्णोदकम् , तथा यत्प्रासुकं स्वकाय-परकायशस्त्रोपहतत्वेनाचित्तीभूतं जलं तदेव यतीनां कल्प्यं-ग्रहीतुमुचितम् । इह किल प्रथमे दण्डे जायमाने कश्चित्परिणमति कश्चिन्नेति मिश्रः, द्वितीये प्रभूतः परिणमति स्तोकोऽवतिष्ठते, तृतीये तु सर्योsप्यप्कायोऽचित्तो भवतीति त्रिदण्डग्रहणम् , इदं च सर्वमपि प्रहरत्रयमध्य एवोपभोक्तव्यम् , प्रहरत्रयाद्धर्व पुनः कालातिकान्तदोषसम्भवेनोपभोगानहत्वान्न धारणीयम् , नवरं-केवलं ग्लानादिकृते-ग्लानवृद्धादीनामर्थाय प्रहरत्रिकादप्यूद्ध धर्तव्यमिति ॥८८१॥ पोटेम्मिलं. सि.॥२ उदरप्रदेशेषु नित्यं तृप्त एव भवति- संतुलनीया-ओधनि-वृत्तिः प.६A || ३ वृषमकल्पना-खं. ।। ४ . उत्कलेरुत्कालिस-मु०॥ प्र. आ. २५५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र सटीक । 'जायइ' गाहा, जायते-भवति सचित्तता 'से' ति तस्य उष्णोदकस्य प्रासुकजलस्य या ग्लाना प्रवचनः अर्थ धृतम्य "ग्रीष्मे उष्णकाने प्रहरपञ्चकस्योपरि-प्रहरपञ्चकादूर्वम् कालस्यातिरूक्षत्वाच्चिरेणैव जीव |१३७द्वान । सारोद्धार संसक्तिसद्भावात् , तथा शिशिरे-शीतकाले कालस्य स्निग्धत्वात् प्रहरचतुष्टयादूर्ख सचित्तता भवति । तिर्यश्चादि वर्षासु-वर्षाकाले पुनः कालस्यातिस्निग्धत्वात्मासुकीभृतमपि जलं भूयः प्रहरत्र यादृद्ध सचित्तीभवति । स्त्रीमानम गाथा ।॥११॥ तवमपि यदि धियते तदा क्षारः प्रक्षेपणीयो येन भूयः सचित्तं न भवतीति ॥२॥ १३६॥ ८८३. इदानी २ तेरिच्छिी माणवीओ देवीओय तिरियमणुयदेवाण । जग्गुणाओ जत्तिय. मेत्ताहिगाज' ति सप्तत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह प्र. आ. "तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इथिया मुणेयन्वा । २५६ सत्तावीसगुणा पुण मणुपाणं तयहिया चेव ॥८८३॥ बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिया य तह य देवाणं । देवीओ पन्नत्ता जिणेहिं जियरागदोसेहिं ८८४॥ 'तिगुणा' इत्यादिगाथाद्वयम् ,त्रिगुणाखिभी रूपैरधिकाश्च तिरश्चां पुदिना स्त्रियो ज्ञातव्याः, कोऽर्थः ? -असत्कल्पनया सर्वेभ्यस्तिर्यग्योनिकपुरुषेभ्यः प्रत्येकं तिम्रस्तिस्तिय स्त्रियो दीयन्ते तिस्रश्च तिर्यकत्रिय १ दशवे. अगस्त्यसिंहचूर्णी तु-"गिम्हे अहोरत्तेणं सच्चित्तीभवति, हेमंत वासासु पुढवण्हे कतं भवरण्हे ।" स. ३।। ॥११॥ । गा.६॥२ तेरिच्छमाणवीभो देवीमो तिरियमणुय देवाणं-मुः ॥ ३जेत्तियमेत्ताहियाउ-खं.॥४ तुलना-पाशीति नामा (प्राचीन) चतुर्थकमप्रन्यवृत्तयः (गा ५६वृत्तयः प. २३२-३,४२, २०१), जीवाभिगम सू.६४॥ AAS PERMARRE Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८द्वारे আস্বदशकम् श्री ८८५ । उद्धरन्ति, 'न तयोग्यस्तियग्योनिकः पुमान् प्राध्यत इति । एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या। तथा मनुष्याणां स्त्रियों मनुष्यपुरुषेभ्यः साविंशतिगुणाः, तदधिकाश्च-सप्तविंशतिरूपाधिकाः । तथा देवपुरुषेभ्यो देवस्त्रियो द्वात्रिंशद्गुणा द्वात्रिंशद्रूपाधिकाश्च प्रज्ञप्ताः-कथिता जिनैर्जितरागद्वेपैरिति ॥८८८८४||१३७॥ इदानीम् 'अच्छेरयाण दसगं' ति अष्टत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह-- उपसग्ग १ गम्भहरणं २ इत्योतित्थं ३ अभाविया परिसा ४ । कण्हस्स अवरकंका ५ अपयरणं चंदसूराणं ६ ॥८८५॥ हरिवंसकुलुप्पत्तो ७ धमरुप्पाओ ८ य अट्ठसयसिद्धा ९ । अस्संजयाण पूया १० दसवि अणंतेण कालेणं ॥८८६॥ [स्थानाङ्ग सू०७७७, पञ्चवस्तुक गा. ९२६.७] 'सिरिरिसहसोयलेसु एक्केक्कं मल्लिनेमिनाहे य । वीरजिणिंदे पंच उ एग सम्वेसु पाएणं ॥८८७॥ रिसहे अहऽहियसयं सिद्धं सीयलजिणमि हरिवंसो । नेमिजिणेऽवरककागमणं कण्हस्स संपन्नं ८८८॥ ८८९ प्र. आ. ततो न-मु.॥२ एतद्गायात्रयं (501) कल्पसूत्रस्य कल्पद्रमकलिकावृत्तावपि(पृ.३३) उद्धधृतमस्ति, कल्पसूत्रटिपनं (देवेन्द्रमुनि) २० द्रष्टव्यम् । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके इत्थीतित्थं मल्ली पूया असंजयाण नवमजिणे । अवसेसा अच्छेरा वीरजिणिदस्स तित्यमि ॥८८९॥ 'उवसग्गे'त्यादिगाथाद्वयम् , 'आ-विस्मयतश्चर्यन्ते अवगम्यन्ते 'जनैरित्याश्चर्याणि-अद्भुतानि । तानि च उपसर्गादीनि दश । तत्रोपसृज्यते-क्षिप्य नाणते प्राणी पदिदे)भिरिन्युगाः -सुर-नरादिकृतोपद्रवाः । ते च योजनशतमिते क्षेत्रे प्रशमितदुरवस्मारिविड्वरदुर्भिशाद्युपद्रवोद्रे कस्यापि वरेश्यपुण्यपण्यापणस्यापि तीर्थकरस्यापि भगवतः श्रीमहावीरस्य छमस्थकाले केवलिकाले च नराऽ मर-तिर्यककृताः समभवन् , इदं च किल न जातुचिद् जातपूर्वम् । तीर्थकरा हि निखिलनग-ऽमर-तिरश्चा सत्कारस्थानमेव, नोपसर्गभाजनम्, इति अनन्तकालभाव्य यमों लोकेऽभुतभूत इति । तथा गर्भस्य-स्त्रीकुक्षिसमृद्भुतसच्चस्य संहरणम्-अन्यस्त्रीकुक्षौ सङ्क्रामणं गर्भसंहरणम् , एतच्च तीर्थकरमुद्दिश्याभूतपूर्वमस्यामवसर्पिण्या भगवतः श्रीमहावीरस्य जातम् , तथाहि-श्रीमहावीरजीबो मरीचिभवे समुपार्जितनी गोत्रकर्मा प्राणतकल्पपुष्पोत्तरविमानानस्यत्वा ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्ता ऽपरनामधेयसोमिलद्विजदयिताया देवानन्दायाः कुश्शावाषाढशुक्लषष्ठयामवातरत् । इतथ द्वयशीतिदिनेषु समतिक्रान्तेषु सौधर्माधिपतिरुपयुक्तावधिर्न तीर्थकृतः कदाच नापि नीचैः कुलेषु जायन्ते इति विमृश्य भुवनगुरुभक्तिभरभावितमनाः पदात्यनीकाधिपत्ति हरिणेगमेषिमादित्-यथेप भरतक्षेत्रे चरमतीर्थकृत् प्रागुपात्त१तुलना-स्थानानयुत्तिः प. ५२३॥ २ जिनै० खं. सं. ॥ ३ धर्मादि. मु. धर्मादे० इति स्थानावृत्तौ पाठः ॥ ४ घरेण्यपुण्यापणस्यापि-मु. शि.॥ ५ इति मु. नास्ति । तुलनीया स्थानावृत्तिः ।। १३८ द्वारे आश्चर्य दशकम् गाथा EE५. ८८९ प्र. आ. |२५६ AURATी chodai Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवचननारीद्वारे टीके | ११७॥ कर्मशेषपरिणतिवशतस्तुच्छ कुले जातः, तदयमितः संहत्य क्षत्रियकुण्डग्रामे प्रसिद्ध सिद्धार्थ पार्थिवपत्न्यास्त्रि शलादेव्याः कुक्षौ स्थाप्यतामिति । ततः स हरिणेगमेपिस्तथेति प्रतिपद्याश्वयुकृष्ण त्रयोदशीदिव से रात्रौ प्रथमप्रहरद्वयमध्ये देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात् त्रिशलादेव्याः कुक्षौ भगवन्तं संहृतवान् । एतदप्यनन्तकाल भावित्वादावर्यमेवेति २ । तथा स्त्री - योषित्तस्यास्तीर्थङ्कत्वेनोत्पन्नायास्तीर्थ-द्वादशाङ्गं सङ्घो वा स्त्रीतीर्थम्, तीर्थं हि त्रिभुवनातिशायिनिरुपमानमहिमानः पुरुषा एव प्रवर्तयन्ति । इह त्वयां कुम्भनृपतिपुत्र्या मल्ल्यभिधानया एकोनविंशतितमतीर्थकरत्वेनोत्पन्नया तीर्थं प्रवर्तितम् । तथाहि इहेव जम्बूद्वीपे द्वीपे पर विदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकाय नगर्यां 'महाबली नाम भूपतिरभूत् । स च सुचिरं परिपालितराज्य: षड्भिर्वालमित्रः सममार्हतं धर्ममाकर्ण्य 'वरधर्म मुनीन्द्रसमीपे प्रवव्राज तेश्च सप्तभिरपि यदेकस्तपः करिष्यति तदन्यैरपि कर्तव्यमिति प्रतिज्ञाय समं चतुर्थादितपश्चक्रे । अन्यदा च महाचलमुनिस्तेभ्यो विशिष्टतर फलेप्सया 'पारणकादिनेऽप्यद्य मे दुष्यति शिरोऽद्य मे दुध्यत्युदरमद्य मे नास्ति क्षुदित्यादि व्यपदेशेन मायया तान् वञ्चयित्वा तपश्चके । तेन च मायामिश्रेण तपसा स्त्रीवेदकर्म अर्हद्वात्सत्यादिभिः 'विंशतिस्थानैस्तीर्थक्रन्नामकर्म च बद्ध्वा पर्यन्त १० सप्ततिशतस्थानप्रकरणे तु 'वेसमणो' इति पाठः, गा. ४६ । २ सुचिर० मु. ॥ ३ बरधर्म. खं. सं. सि.नास्ति ॥ ४० फललिप्सया सं. ॥ ५ पारण कदिने पादोऽद्य मे दुष्यति शिरोऽद्य मे दुष्यति दुष्यत्युदरमय मे नास्ति मेse क्षदि० मु ॥। ६ विंशति० खं. सं. नास्ति । | १३८ द्वारे आर्य दशकम् गाथा ८८५. ८८९ प्र. आ. २५७ ॥११७॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रवचन सारोदारे सटीके ॥११॥ समये समयोक्ताराधनया विपद्य वैजयन्तविमानेषु सुरः समुत्पेदे । ततश्श्युत्वा च मिथिलानगर्या कुम्भा. भिधवसुधाधिपतेः पन्याः प्रभावत्याः प्राग्जन्मकृतमायासमुपार्जितस्त्रीवेदकर्मवशतो मल्लयभिधाना पुत्री आश्चर्यसमानयत् । अमेय व सौवना यथाविधि प्रवज्या प्रतिपद्य केवलज्ञानमुपागमत् । अष्टमहापातिहार्य दशक्रम प्रभृतितीर्थकरसमृद्धिसंशोभिता च तीर्थ प्रवर्नयामासेति । अस्यापि भावस्यानन्तकालजातत्वादाश्चर्यतेति ३। गाथा तथा अभव्या-अयोग्या चारित्रधर्मस्य पर्पत-तीर्थकरसमवसरण स्थित श्रोतृलोकः । श्रूयते हि भगवनः ८८५. श्रीवर्धमानस्वामिनो जम्भिकग्रामाद्रहिः सात्पन्ननिःसपन्न फेवलालोकम्य तत्कालसमायातमङ्खयानी. ८८९ तसुर "विरचितसुचारुसमवसरणस्य भूरिभक्तिकुतूहलाकुलितमिलितापरिमितामर नातिरश्चां स्वस्वभाषानु प्र. आ. सारिणा सजलजलधरध्यानानुकारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्वनिना धर्मकथा कुर्वाणस्यापि न केनचिद्वितिः २५७ प्रतिपन्ना । केवलं प्रथमसमवसरणेऽवश्यमेव तीर्थकृद्धिः कर्तव्या धर्मदेशनेति स्थितिपरिपालनायैव, धर्मकथ बभूव । न चैतत्तीर्थकरस्य कस्यापि भूतपूर्वमित्याश्चर्यम् ४ । तथा कृष्णस्य नवमवासुदेवस्यापरकङ्काभिधाना नगरी गमनगोचरोऽभूदित्यभूतपूर्ववादाचर्यम् । इह किल श्रूयते हस्तिनागपुरे युधिष्ठिरप्रष्ठाः पश्चापि पाण्डवाः काम्पिल्यपुराधिपापदनृपपुच्या द्रौपचासह सहर्ष वारकेण विषयसुखापभुञ्जानाः परमप्रमोदेनदिनान्यविवाहयन्ति स्म । अन्येधुर्नारदनामा मुनिर्मनःसमीहितान प्रदेशान् परिभ्राम्यन् द्रौपदीमन्दिरमाययो । द्रौपद्या चाविरतोऽयमिति मन्या ॥११८॥ मुदपापयत् वं. स. ॥ २ दाश्चयमिति-सं. ॥३. तृलोकाः मु.। स्थानाङ्गवृत्तावपि (प. ५२४) लोकः-इतिपाठः।।। ४ जम्मिका-सं. ॥ ५०विसरविरचित० मु.॥ ६०गोचरे० सि.॥ देशान्- मु.॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EMPLE अपचन-1 सारोबारे सटीके ॥११॥ नमस्कृतिमात्रेणापि न तस्य प्रतिपत्तिः कृता । ततोऽसौ क्रोधामातमना नारदः कामयं महादुःखभाग्भविष्यतीति चिन्तयंस्तनिकेतनानिर्गत्य भरतक्षेत्रे च कृष्णभयात्तस्याः कुतोऽप्यपायमपश्यन् धातकी १३८द्वारे खण्डसम्बन्धिभरतक्षेत्रे चम्पाधिपतिकपिलाख्यकेशवसेवकस्य ललनालम्पटस्य पद्मनामनृपस्य पुरीम. आश्चर्यपरकङ्काभिधामभ्यगात् । सोऽपि नृपः ससम्भ्रममुत्थाय प्रतिपत्तिपुरस्सरमन्तःपुरे नीत्वा निखिला अपि दशकम् निजप्रेयसीः प्रदर्शयन् भगवन् ! अनवरतं सर्वत्राप्यस्खलितप्रचारेण मत्रता विलोकिताः क्वाप्येवंविधाः गाथा पुरन्ध्रय इति नारदं निजगाद । नारदोऽपि सेत्स्यत्यनेन मम प्रयोजनमिति मनसि निश्चित्य प्रत्यवादीत ८८५राजन् ! कूपमण्डूक इव किमताभिः 'स्वान्तःपुरपुरन्ध्रीभिः प्रमोदमानमानसो भवान् १, यज्जम्बू 1८८९ द्वीप भरतभूषणायमाने हस्तिनागपुरे पाण्डवानां प्रेयस्या द्रौपद्याः पुरस्तादेताः सर्वा अपि दासीदेश्या प्र, आ. एवेत्यभिधाय नारदमुनिरुत्पपात । २५७ ...... अथ पद्मनाभो द्रौपदीप्राप्तिपर्याकुलः पातालनिवासिनं पूर्वसङ्गतिक सुरं तपसा समाराध्य प्रत्यक्षीभूतं किं करोमीतिवादिनं पाण्डवप्रणयिनी द्रौपदीमिहानीय मम समर्पयेत्यवादीत् । देवोऽपि महाराज ! द्रौपदी हि महासती पाण्डवव्यतिरेकेण नान्यं मनसाऽपि पतिमभिलषति, तथाऽपि त्वन्निबन्धादत्रानयामीत्युक्त्वा हस्तिनागपुरापुरादव स्वापिनीदानेन निशि प्रसुप्तां द्रौपदीमपहृत्य तस्मै समर्पयामास पद्मनाभोऽपि प्रमुदितमनाः प्रबुद्धा निजदयितायनवलोकनेन विह्वलितहृदयां द्रौपदीमभाषत-मा भैषीमृगाक्षि ? मयैवेह त्वमानापिताऽसि । अहं हि धातकीखण्डभरतक्षेत्रे अपरकङ्कापुरीपतिः पद्मनाभनामा नृपस्त्वां प्रेयसी प्रार्थये । ॥११९॥ १स्वान्तःपुरीमिः मु.॥२ स्वापनौ-ख. सं.।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके ॥१२०॥ ततो मया सह स्वेच्छया तुच्छान् भोगान् भुङ्क्ष्वेति । द्रौपद्यपि च तद्वचः श्रुत्वा तत्कालसमुत्पन्नमतिः मासमध्ये यदि मदीयः कोऽपि इह नागमिष्यति तदा त्वदीयं समीहितं करिष्यामीत्यवोचत । राज्ञाऽपि जम्बूद्वीपजुषां पुरुषाणामत्रागमनमसंभवीति विमृश्य तद्वचः प्रत्यपद्यत । इतश्च पाण्डवाः प्रभाते द्रौपदीमपश्यन्तः सादरं सर्वत्रान्वेषणेऽपि तद्वमप्यलभमानाः समग्रमपि वृत्तान्तं वासुदेवाय न्यवेदयन् । वासुदेवोऽपि 'किंकर्तव्यतामूढो यावदास्ते तावदस्मान्नारदमुनिस्त स्वयंकृतमनर्थमवलोकयितुमाजगाम । सर्वत्राप्यस्खलितप्रचारं सञ्चरता भवता किं क्वापि द्रौपदी दृष्टेति कृष्णेनानुयुक्तः स उक्तवान् घातकीखण्डे 'अपरकङ्कायां नगर्यां गतेन मया पद्मनाभ नृपसमनि द्रौपदी erfe धायान्यतोऽगमत् । ततः कृष्णः पद्मनृपतिना द्रौपदी हृता, एषोऽहं तामिहानेष्यामीति मा मनागपि खेदं विदध्वमिति पाण्डवान् समाश्वास्य महापृतनापरिवृतः पाण्डवैः सह दक्षिणाम्भोनिधितटनिकटमभ्यगात् । पाण्डवा अप्यत्यन्तभीषणमपारं पारावारमवलोक्य स्वामिन्नयं मनसाऽप्यलङ्घयः कथं लङ्घनीय इति विष्णु ं व्यजिज्ञपन् । विष्णुरपि न काचिचिन्ता भवद्भिर्विधेयेति तानुक्त्वाऽष्टमतपसा सुस्थितनामानं लवणसमुद्रस्वामिनममरमाराधयामास । अथाविभूय देवेन किं करोमीत्युक्ते विष्णुश्वदत् - सुरश्रेष्ठ ! पद्मनाभनृपत्यपहता घातकीखण्डद्वीपाद् द्रौपदीद्रुतमेव यथा समानीयते तथा कुर्विति । देवोऽपि यथा पद्मनाभपार्थि१ मासमध्ये खं. सं. ॥। २ इतिकर्तव्यता० खं. सं. ॥ ३ ०इमर० मु ॥ ४ नृपस्य सद्मनि मु• ॥ ५ माय सोऽन्यतो-सु. ॥ ६ ०.सं. ॥ ११३८ द्वा आर्य दशकम् गाथा ८८५ ८८९ प्र. आ. २५८ ॥१२०॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १३८ द्वारे सारोद्धारे। ॥१२१॥ वस्य पूर्वसङ्गतसुरेणापहृत्य समर्पिता तथा तवाप्यहमर्पयामि यद्वा तं सबलवाहन मम्भोनिधिमध्ये क्षिप्त्वा तामानयामीत्यादि बहु जल्पितवान् । कृष्णोऽप्यभाषत-नायं यशस्करः पन्थाः । ततः पाण्डवानां ममाषि च षण्णां स्थानामम्मोधिमध्येन मार्गमव्याहतं कुरु येन स्वयमेव तत्र गत्वा तं च युधि विनिर्जित्य द्रुपदतनयामानयाम इति । सुस्थितेन च तथैव कृते श्रीपतिः पञ्चभिः पाण्डवैः सह द्विलक्षयोजनप्रमाणमपि जलधि स्थलमियोल्लङ्घन्यापरकङ्कापुरीपरिसरोद्याने च स्थित्वा प्रथमं दारुकाख्यदुतप्रेपणेन द्रौपदीमयाचत् । पद्मोऽपि स तत्रैव वासुदेवः इह त्वात्मषष्ठोऽप्यसौ मम न किश्चित् , ततो गत्वा युद्धाय स्वस्वामिनं सज्जयेति सगर्वमभिधाय युयुत्सुः ससैन्यः सन्नह्य तदेवोद्यानमागमत् । विष्णुरपि दारुकवचनश्रवणाद् द्विगुणीभूतरोषस्तं ससैन्यमापतन्तमालोक्य शङ्खमापूर्य तद्ध्वनिना सेनात्रिभागमनाशयत् । ततः शास्किालनजनितध्वनिनाऽपि सैन्यत्रिभागे नाशिते पद्मनाभनृपोऽवतिष्ठमानतृतीयांशबलो रणाङ्गणान्नंष्ट्वा निजपुरीमध्ये प्रविश्य गोपुराणि पिहितवान् । कृष्णोऽपि सक्रोधं स्थादवतीयं नृसिंहरूपधारी नितान्तं 'तर्जनिजपाद. दर्दनः पुरमपातयन् । ततः पद्मनाभो भयव्याकुलः क्षम्यता २ देवि ! 'रक्ष मामस्मात्कृष्णादिति वदन द्रौपदी शरणमगमत् । तयाऽपि मां पुरस्कृत्य विधाय च स्त्रीवेषं शाङ्गिणमेव शरणं व्रजेत्युक्तः स तथा कृतवान् । कृष्णोऽपि द्रौपदी पाण्डवानामर्पयित्वा तेनैव पथा रथारूढः प्रतिनिवृत्तः । আশ্বর্য दशकम् गाथा ८८५. ८८१ प्र. आ. २५८ १ मम्मोधि० खं. सं. ॥ २ शङगा० सं. ॥ ३ गर्ज ० मुः। ४ भयव्याकुलितः-मु.॥ ५ रक्ष २-मु.॥ ६ ममस्मात्क्रुद्धा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके आश्चर्यदशकम् ।।१२२॥ ८८५. ८८१ प्र.पा. तदानीं च तत्र चम्पायाँ पुर्यामुद्याने समवसृतं मुनिसुव्रतजिनं कपिलनामा वासुदेवस्तत्समीपमासीनः स्वामिन् ! कस्यायं ममेव शलस्वनः श्रूयते १, इति 'पप्रच्छ, भगवानपि समग्रं द्रौपदीवृत्तान्तमाख्यत् । ततः कपिलो जम्बूद्वीपभरतार्धाधिपतेरभ्यागतस्य स्वागतिको भवामीति भगवन्तमपृच्छत् । ततो भगवता यथैकत्र न द्वितीयोऽहन्न चक्रभृन्न च विष्णुरुत्पद्यते तथा कारणागतोऽपि नान्येनमिलतीत्युक्तोऽपि कपिल: कौतुकात् कृष्णदिदृक्षया जलधितटे जगाम । दृष्टवाश्चाम्भोधिमध्ये' व्रजतो विष्णो रथध्वजान् । ततः कपिलनामा वासुदेवस्त्वां द्रष्टुमुत्कण्ठितोऽहमिहागतस्तद्वलस्वेति स्पष्टाक्षरं शङ्खमवादयत् । कृष्णोऽपि वयमतिदूरं गतास्ततस्त्वया न किञ्चिद्वाच्यमिति व्यक्ताक्षरं शङ्खध्वनिना तं प्रतियोध्य क्रमेण स्वस्थान प्राप्त इति ५। ___ तथा कौशाम्ब्यां नगर्या समवसृतस्य भगवतः श्रीमद्वधमानविभोर्वन्दनार्थ पश्चिमपौरुष्यामवतरणम्आकाशात्समवसरणभुवि समागमनं युगपच्चन्द्र-सूर्ययोः शाश्वतविमानस्थितयोर्बभूव इदमप्याश्चर्यमेव । अन्यदा हि उत्तरबैंक्रियविमानेनैबावतरत इति । तथा हरेः-पुरुषविशेषस्य वंशः-पुत्रपौत्रादिपरम्परा हरिवंशः, तल्लक्षणं यत्कुलं तस्योत्पत्तिहरिवंशकु लोत्पत्तिः । कुलं घनेकधा ततो हरिवंशेन विशेष्यते । एतदपि च पूर्वमभूतवादाश्चर्य मेवेति । श्रूयते हि इहैव जम्बूद्वीपभरतक्षेत्रे कौशाम्ब्या नगयां सुमुखो नाम भूपतिरभूत् । एकदा च विचित्रविलासवसतौ वसन्तस१ पप्रष्ट-सं. ॥ २ यथैकत्र द्वितीयोहन चक्रभृन्न तथा विष्णुरपि न भवति, तथाकारणादागतोऽपि-मु. ३ ०ध्येनमु.॥ ४ श्रीवर्धक मुः ॥ ५ हि-सं. नास्ति ॥ ॥१२॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरोक मये समागते 'मतङ्गजारूढः स राजा रन्तुकामः पुरपरिसरोद्यानं गच्छन् मार्गे वोरकाव यस्य कुविन्दम्य दयितां वनमालाभिधानामसमानलावण्यपुण्यदेहावयबामवलोकितवान । साऽपि प्रणयस्पृशा दृशा वारं वारं साकाझमुदक्षत । राजा च तां निर्निमेषचक्षुषा सस्पृहं पश्यन् स्मरविधुरस्तत्रैव गजं भ्रमयन कमपि १३८ द्वा आश्चर्यप्रतीक्षमाण इस नाग्रतो जगाम । अथ सुमतिनामा सचिवस्तद्भावं जिज्ञासुः स्वामिन् । सर्वमपि सैन्यमिह दशकम प्राप्तं ततः किमद्यापि विलम्ब्यते ? इति राजानं व्यजिज्ञपत् । राजापि सचिववचसा चेतः कथमपि संस्थाप्य माथा लीलोद्यानमगमत् । तत्र च शून्यहृदयो हृद्येऽप्युद्याने न स्वापि रतिं प्राप । अथ तमुद्विग्नमानसममात्यः ८८५सुमतिरवादीतु-देव ! किमद्य 'शून्यहृदय इव स्त्र लक्ष्यसे ?, यद्यगोप्योऽयं मनोविकारस्तत्कथ्यतामिति । राजापि त्वमेव मम मनोविकारप्रतीकारप्रवणः, 'सतस्तवाप्यगोप्यं किञ्चिदस्ति १ इत्यभिधाय स्वस्वरूप न्यरूपयत् । अथ देव ! त्वत्समीहितं शीघ्रमेव सम्पादयिष्यामि, बजतु स्वामी स्वस्थ: स्वावासमित्यमात्येनोक्तः क्षितिपतिः स्वात्रासमयासीत् । ततो मन्त्री विचित्रोपायपण्डितामात्रेयिकां नाम परिव्राजिका वनमालायाः पावें प्राहिणोत् । साऽपि तत्र गत्वा तद्विरह विह्वला वनमालामवोचत्-वत्से । किमद्य विच्छाया वीक्ष्यसे ?, निवेदय स्वदुःखमिति । साऽपि निःश्वस्य दुष्प्रापप्रार्थकतामात्मीयामकथयत् आत्रेयिकापि मदीयमन्त्रतन्त्राणां न किश्चिदसाध्यमस्ति ततः प्रातः पृथ्वीपतिना सह सङ्गमं तव करिष्यामीति तामाश्वास्य गत्वा च सचिवसविधं तद १ मत्तगजारूढः सं. ॥ २ हृदयशून्य-सं. ॥ ३ ततस्तव गोप्यं न किञ्चि० मु. । ततस्तवाऽपि गोप्यं किश्चि० सं.।। - ॥१२॥ ४ प्रतिरूपयन-सं.॥ प्र. आ. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १३८ द्वारे आश्चर्यदशकम् বাঘা ॥१२४॥ ८८९ नृपप्रयोजनं निष्पन्नप्रायं न्यवेदयत् । सचिवोऽपि तवृत्तान्तनिवेदनेन नृराजमरञ्जयत् । ततः प्रभाते परिव्राजिका वनमालामादाय नृपमन्दिरमगमत् । राजाऽप्यनुरागवशतस्तामन्तःपुरे निक्षिप्य तया सममसमं संसारसुखमन्वभूत् । ___ इतश्च धोरककुविन्दोऽपि वनमालामनवलोकमानो हा प्रिये वनमाले ! क्य गताऽसीत्यायनेकप्रकार प्रलपन्नुन्मत्त इव च त्रिकचत्वरादिषु परिभ्रमन्नेकदा नृपतिनिकेतनान्तिकमभ्यगात् , भूपालोऽपि वनमाला सहितस्तथाविकृताकारं शून्यमानसं हा वनमाले इत्यादिपलापिनं तमवेक्ष्य व्यचिन्तयन-अहोऽस्माभिरुभयलोकविरुद्धमतिनिघृणं कर्म समाचरितं सर्वथाऽप्यस्माकं नरकऽप्यवस्थानं नास्तीत्यादि बह्वात्मानं निन्दतोस्तयोः सहसैवाकाशात्तडित्पतित्या प्राणान् जहार । मृत्वा च तौ परस्परस्नेहवशात् शुभध्यानाच्च हरिवख्येि तृतीये क्षेत्रे मिथुनरूपिणो हरिहरिणोनामकावुत्पन्नौ । तत्र च कल्पपादपसम्पादितसमीहितौ सततमवियुक्तों सुखेन विलसन्तौ तस्थतुः। वीरककुविन्दोऽपि तयोमृत्युमवगत्य त्यक्तग्रहिलभावो दुम्तपमज्ञानतपः किमपि कृत्वा मृत्वा च सौधर्मकल्पे किल्विपिकसुरः समुत्पेदे । अवधिना च निजं पूर्वभवं हरि-हरिणीनामको च पूर्व भववैरिणी विलोक्य तत्कालोत्पन्नरोषारुणेक्षणः क्षणमचिन्तयत्-इह हरिवपक्षेत्रे क्षेत्रानुभावादेव तायवध्यौ मृतौ चावश्यमेव देवलोकं ब्रजिष्यतस्ततो दुर्गतिनिबन्धने अकालेऽपि मरणप्रदे नयाम्यन्यत्र स्थानान्तरे इति विनिश्चित्य तावुभावपि कल्पतरुभिः सह ततः क्षेत्रादपहृत्य भरतक्षेत्रे चम्पापुर्यामानैषीत् । १ नृपराज० मु.॥ २०क्तौ परस्परस्नेह वशान सुचिरं विलसन्तौ-मु।। ।। ३ वीरकुविन्दो० मु. ॥ ४ ततो मृत्वा-सं. ॥ प्र. आ. २५८ ॥२४॥ .. .....32 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।१३८ द्वारे प्रवचनसारोद्वारे आश्चर्य सटीके दशकम् गाथा ८८५ -११२५॥ प्र.आ. तस्यां च पुरि तदानीमिश्वाकुवंशजश्चन्द्र कोतिनामा नृपोऽपुत्रः पञ्चत्वमगमत् । ततस्तस्य प्रकृतयो राज्याहमपरं पुरुषमन्वेष्टु सर्वतोऽपि प्रवर्तमानास्तेन देवेनाकाशस्थितेन स्वसमृद्धिवशतः सर्वस्यापि जनस्य विस्मयमुपजनयता सादरमभिहिताः-भो भो राज्यचिन्तकाः ! भवत्पुण्यप्रेरितेनेव मया हरिवति हरिण्याख्यनिजपल्या समन्वितो हरिनामा राज्याईः पुमान युग्मरूपोऽनयोरेवादारयोग्यः कल्पद्रुमैः सममिहानीतः तदयमस्तु भवतां राजा, एतयोश्च कल्पपादपफलमिश्रं पशु-पक्षिमासं मद्यं चाहारो देय इति । प्रकृतयोऽप्येवमस्त्विति भणित्वा हरिं राज्ये स्थापयामासुः । सोऽपि सुरः स्वशक्त्या तयोरायुःस्थिति स्वा तनु च धनुःशतमानां कृत्वा तिरोदधे । हरिरपि पयोधिपर्यन्तां वसुधा साधयित्वा सुचिरं राज्यमकरोत् । ततः प्रभृति च पृथिव्यां तन्नामा हरिवंशो बभूवेति ७। ___ तथा चमरस्य-असुरकुमारेन्द्रस्योत्पातः-ऊर्ध्वगमनं सोऽप्याकस्मिकत्वादाचर्यमिति । श्रूयते हि इहैव भरतक्षेत्रे 'विभेलसन्निवेशे पूरणो नाम धनाढयो गृहपतिरभृत् । स चान्यदा निशीथे चिन्तयामासनूनं प्राग्भवाचीर्ण विस्तीर्णतपः प्रभावतः प्राप्ता तावदियं लक्ष्मीः मान्यता च । ततः पुनरप्येष्यद्भवे विशिष्टफलप्राप्तये गृहवासं परित्यज्य किमपि दुस्तपं तपः करोमीत्येवं विचिन्त्य प्रातः सर्वानपि स्वजनानामछथ तनयं च निजपदे निवेश्य प्राणामनामकं तापसवतमग्रहीत । तद्दिनादारभ्य च यावज्जीवं षष्ठं तपश्चकार । पारणकदिने च दारुमयं चतुष्पुटं भिक्षापात्रमादाय मध्याक्षणे 'भिक्षा भ्राम्यति स्म । १ विभेले मु ॥ २ प्रणाम सं. । तुलनीया भगवती सूत्रवृत्तिः ॥१११३४ ।। ३ मिक्षाभाजनं काराय्य प्रथमपात्र- मादाय-सं. मिक्षामादाय-खं. सि.॥ २५९ १२५॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचन सारोद्धारे सही फै ॥१२६॥ ? तत्र प्रथमपुटपfeat मिक्ष पान्यादिभ्यः, द्वितीयपुटपतित भिक्षा काकादिभ्यः तृतीयपुटभिक्षां च मत्स्यादिजलचारिभ्यो दत्वा राग-द्वेषादिरहितश्चतुर्थपुटभिक्षां स्वयमभुङ्क्त । एवं द्वादश वर्षाणि बालतपः कृत्वा पर्यन्तसमये मासमेकमनशनमादाय मृत्वा च चमरचश्चार्या चमरेन्द्रो बभूव । उत्पन्नव तदाव धिज्ञानेनेतस्ततः पश्यन्नूर्व सौधर्मावतंस के विमाने सौधर्मेन्द्रं दृष्ट्वा क्रुद्धः सुरानवोचत् - अरे कोऽयं दुरात्माप्रार्थित प्रार्थको मम शिरसि स्थित एवं विलसतीति १, तेऽप्यृचुः अयं हि पूर्वमवाजितैः पुण्यैः सर्वातिशायिसमृद्धिपराक्रमः सौधर्माधिपः शक इति । एतच्च श्रुत्वाऽधिकतरं क्रुद्धः स्वपरिवारनिवारितोऽपि युयुत्सुः शिक्षयाम्येनमवज्ञाकारिणमिति वदन् परिघमादाय स हि शक्तः श्रूयते ततः कथमपि तत्पराजितोऽहं कं शरणं प्रपत्स्ये १ इति विचिन्त्य स सुमारपुरे प्रतिमास्थितस्य श्रीमहावीरस्य समीपमागमत् । तत्र च प्रणामपूर्वकं भगवंस्तव प्रभावेण चत्रिणं जेष्यामीति विभु विज्ञप्य लक्षयोजनमानमतित्रिकृतं निजवपुर्विधाय परिघप्रहरणं परितो भ्रमयन् गर्जनास्फोटयन त्रिदशान् त्रासयन् दर्पान्धः सौधर्मेन्द्रं प्रति समुदपतत् । तत एवं पादं सौधावतंसक विमानवेदिकायामपरं सुधर्मायां निधाय परिनेन्द्रकी त्रिस्ताडयित्वाऽनेकशः शक्रमाक्रोशयामास । शक्रोऽप्यवतितं विदित्वा कोपाज्जावल्यमानः स्फारस्फुरत्स्फुलिङ्गशतसमाकुलं कुलिशं तं प्रति मुमोच । चमरोऽपि पृष्ठतो दम्भोलिमायान्तमवलोकितुमप्यक्षमः श्रीमहावीरं शरणं प्रपित्सुर्वपुर्विस्तरमुपसंहृत्य त्वरिततरं पलायिष्ट । समासनी भूतकुलिशव शरणं शरणमिति ब्रुवाणः सूक्ष्मीभूय स्वामिपादयोरन्तरे प्राविशत् । शक्रोऽप्यर्हदादिनिश्रामन्तरेण नासुराणा१ तत्राव० मु । २ व्प्रार्थितो- मु. ॥ ३ शिरः स्थितः मुः ॥ ४ तसं ॥ ५ लोकयितु० मु. ॥1 १३८ द्वारे आश्चर्यदशकम् गाथा ८८५. ८८९ प्र. आ. २६० ॥ १२६॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे सौके मिहागन्तु स्वतः शक्तिः सम्भवतीति विचिन्त्यावधिज्ञानावगततद्वथतिकरस्तीर्थकाशातनामयाचरितमागत्य स्वामिपादयोश्चतुरङ्गुलमप्राप्तं वज्रमुपसंजहार । स्वामिनं च क्षमयित्वा चमरमवोचत्-मुक्तोऽस्यहो भगवतः 1१३८द्वा प्रसादाभास्ति ते भयमिति एवं चमरमाश्वास्य भूयोऽपि भगवन्तं नत्वा शकः स्वस्थानमगमत् । चमरो आचर्यऽप्यमरेन्द्र गते प्रभुपादद्वयान्तरानिर्गत्य प्रणम्य च प्रभु प्रास्तावीत् । यथा दशकम् 'श्रीमद्वीरजिनेन्द्र । भद्रमतुल तुभ्यं भवत्यन्वहं, | गाथायस्यानन्यसमानदिव्यमहिमव्यामिश्रया निश्रया । ८८५. किश्चित्कर्म मनीषितं तनुमा व्यातन्त्रता सम्मुखी, ८८९ भृताच्याशु विपत्तिरेति निधनं सम्पत्ति रुज्जृम्भते ॥१॥' [ ] प्र. आ. एवं च स्तुत्वा स चमरचश्चापुरीमयासीत् ८ । तथाऽष्टभिरधिकम् शतमष्टशतम् 'अष्टशतं च ते सिद्धाः-निवृता अष्टशतसिद्धाः एकसमयेनेति शेष । तथा चास्मिन् भरतक्षेत्रे अस्यामवसर्पिण्यां भगवतः श्रीनाभेयस्य निर्वाणसमये अयते अष्टोत्तरं शतमेकसमयेन सिद्धम् । तथा चोक्तं सङ्घदासगणिना वसुदेवचरिते-- भयवं उसमसामी जयगुरू पुब्बसयसहस्सं वाससहस्सूणयं विहरिऊणं केवली अट्ठावयपव्वए सह दसहिं समणसहस्सेहिं परिनिव्वाणमुवगओ 'चउद्दसेणं भत्तेणं माघबहुले पक्खे तेरसीए अभीइणा २ मष्टशतं च मु. नास्ति । स्थानाङ्गवृत्तावपि (प. ५२४) अष्टशतं च ते इति पाठोस्ति ।। २ मय च जगगुरु उस० ॥१२७॥ इति वसुदेवहिण्डिग्रन्थे पाठः ॥ ३ ॥ण-मु. ।। ३ चउद्दसमेणं-मुः । चोइसेणं-इति वसदेवहिण्डिान्थे (पू. १८५)॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके ॥१२८॥ |१३८ द्वारे आश्चर्यदशकम् गाथा ८८५. ८८९ नक्खत्तेणं एगूणपुत्तसएणं अहि य नतुएहि सह 'एगसमएणं निव्युओ, सेसाण वि अणगाराणं दस सहस्साणि 'अट्ठसयऊणगाणि सिद्धाणि तंमि चेव रिक्खे समयंतरेसु बहुसु"[वसुदेवहिंडी पृ. १८५] इति । ___ इदमप्यनन्तकालजातमित्याश्चर्यम् एतदाश्चर्यमुत्कृष्टावगाहनायामेव ज्ञातव्यम्, । मध्यमावगाहनायां त अनेकशोऽपि अष्टोत्तरशतं सिध्यतीति तथा असंयता-असंयमवन्तः आरम्भपरिग्रहप्रसक्ता अब्रह्मचारिणम्तेषु पूजा-सत्कारः । सर्वदा हि किल संयता एव पूजाहाः, अस्यां स्यवमर्पिण्यां विपरीतं ज्ञातमित्याश्चर्यम् । तथा च श्रयने श्रीसुविधि स्वामिनिर्वाणात्कियत्यपि काले गते हुंडावसर्पिणी दोषतः साधनामुच्छेदः समपद्धत । ततः स्थविर• श्रावकान् धर्ममार्गानभिज्ञा जना धर्म पप्रच्छुः । अथात्मपरिज्ञानानुसारतः किश्चिद्धर्म कथयता "स्थवि. रश्रावकाणां ते जनाः श्रावकजनयोग्यां धन-बसनादिकां पूजां प्रचक्रिरे । तेऽपि तत्पूजया समुत्पन्नगर्दा स्तत्कालं स्वबुद्धया शास्त्राणि समासूत्र्य मही मन्दिर-शय्या स्वर्ण रूप्य लोह तिल-काम-गो कन्या-गजा-ऽश्वादेर्दानानि इहाऽसुत्र च महाफलान्याचख्युः । महागृद्धया च वयमेव दानायोचितं पात्रम् , अपरं सर्वमपात्रमित्याधुपदेशतः सर्वतो जनं विप्रतारयन्तोऽपि तदानीं तथाविधगुर्वभावाल्लोकानां गुरुतां गताः । एवमस्मिन् क्षेत्रे समन्ततस्तीर्थसमुच्छेदे सजाते श्रीशीतलस्वामितीर्थ यावदसंयतानामपि तेषां धिग्वर्णाना प्रथीयसी पूजा समजायतेति १० । १ एकस मु० । वसुदेवहिं मन्थेऽपि एगस० इति पाठः ॥२ असऊण इति वसुदेवहिण्डि- ग्रन्थे पाठः॥ ३.AA विद्वयमध्यवर्तिपाठः २-जे. खं नास्ति ।। ४ दोषारसा मु.। ५ तेषां स्थविर मु॥ प्र. आ. २६. ॥१२॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्ड: एनानि च दशाप्याश्चर्याण्यनन्तन कालेन-अनन्तकालादस्यामवसर्पिण्या संवृत्तानीति । उपलक्षणं चैतान्याश्चर्याणि । अतोऽन्येऽप्येवमादयो भाषा अनन्तकालभाविन आश्चर्यरूपा द्रष्टव्याः । यदुक्तं पञ्चवस्तुके-'उबलकखणं तु एयाई' [गा. ९२८] 'इति ।।८८५॥ ८८६।। अथ कम्य तीर्थकृतः काले कियन्त्याश्चर्याणि जातानीत्येतदाह--'सिरी'त्यादि, श्रीऋषभनाथशीतलस्वामिनोस्तीर्थे एकैकमाश्चर्यमभूत् । सत्र श्रीमनाथे एकसमयेनाष्टोत्तरशतसिद्धिः। शीतलस्वामितीर्थे च हरिवंशोत्पत्तिः । तथा मल्लिजिन नेमिजिननाथयोरप्येककम् । तत्र स्त्रीतीर्थ मल्लिजिनेनैव. प्रवर्तितम् , नेमिनाथतीर्थे च कृष्णस्यापरकङ्कागमनं संवृत्तम् । तथा वीरजिनेन्द्रे गर्भहरणोपसर्ग-चमरोत्पाताऽभव्यपर्पकचन्द्रसूर्यावतरणलक्षणानि पञ्चैवाश्चर्याणि क्रमेण जातानि । तथा एकमसंयतपूजालझणमाश्चर्य प्रायेण-बाहुल्येन सर्वेष्वपि तीर्थकरेषु सम्पन्नमिति ।।८८७॥ एतदेव स्पष्टतरं प्रतिपादयन्नाह-- "रिसहे' गाहा, 'इत्थो' गाहा, व्याख्यातार्थ चैतन , नवरं 'पूया अस्संजयाण नवमजिणे' इति यदुक्तं तत्सर्वथा तीर्थोच्छेदजनितासंयतपूजाप्रारम्भमाश्रित्य द्रष्टव्यम् , सुविधिस्वामिप्रभृतीनां शान्तिनाथपर्यन्तानामष्टानां तीर्थकृतामन्तरेषु सप्तसु तीर्थोच्छेदजाताया असंयत. पूजायाः सद्भावात् । यत्पुनः श्रीऋषभनाथादिकाले मरोचि-कपिलादीनामसंयतानां पूजा श्रूयते तत्तीर्थे प्रवर्तमान एवेति । अत एव प्रागुक्तम् 'एग सम्वेसु पाएणे' ति ॥८८८-८८९ ॥१३८ ॥ १ ति-मुः ॥ २०नाथतीर्थ एक० मु. ।। ३ ० नेमिनाथ मु.॥ ४ रिस भट्टहियसयमित्यादिगाथाद्वयं-खं. ॥ १३८ द्वारे आश्चर्यदशकम् गाथा ८८५. ८८९ प्र. आ. २६१ ॥१२९॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥१३०॥ sarat 'est भासा' त्ति एकोनचत्वारिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह- ॥८९०॥ पदमा भासा सच्चा १ बी उ सुमतिवज्जिया तासि । उत्थीत्ति पुणो तह सच्चा मुसा ३ असच्यामुसा ४ जणवय १ संमय २ ठवणा ३ नामे ४ रूवे ५ पडुच्चसच्चे य ६ | ववहार ७ भाव ८ जोगे ६ दसमे ओवम्मसच्चे य १० ॥८९१॥ कोहे १ माणे २ माया ३ लोभे ४ पेज्जे ५ तहेव दोसे ६ य । हास ७ भए ८ अक्वाइय ९ उवघाए १० निस्सिया दसहा ॥९२॥ [ प्रज्ञापना पद ११, सू. ८६२-३] य जीव अज्जीवे ६ | अडडा १० ॥८९३॥ उप्पन्न १ विगय २ मीसग ३ जीव ४ अजीवे ५ तह मीसा अनंता ७ परीस ८ अडा ९६ आमंतणि १ 'आणमणी २ आणि ३ तह पुच्छ्रणी य ४ पनवणी ५ । भासा भासा इच्छालोमा य ७ पच्चक्खाणी ||८९४ || १ चत्वारिंशशतं द्वारखं. सं. ॥ २ तइज्जिया जे. २ सं. ॥ ३०मा० इति ता० प्रतौ दशवे० नियुक्तौ च पाठः || ४ आणवणी-इति दश० नियुक्तौ धर्मसं वृत्तौ च पाठः ॥ १३९ द्वारे भाषाचतुष्कम् गाथा ८९० ८९५ प्र. आ. २६१ ॥१३०॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे सटीके | भाषा द्वितीय खण्ड: ॥१३१॥ अणभिग्गहिया ८ भासा भासा य 'अभिग्गहंमि ९ योद्धव्वा । संसयकरणी १० भासा 'वोयड ११ अन्वोयडा १२ चेव ॥८९५॥ [प्रज्ञापनाम पद ११, २, ८६६ । दशवकालिकनि. गा. २७३-७] १३९ द्वारे 'पढमा भासा' गाहा, भाष्यते इति भाषा, सा चतुर्विधा, तत्र प्रथमा भाषा सत्या, सन्तो-मृलोत्तरगुणास्तेषामेव जगति मुक्ति 'पदप्रापकतया परमशोभनत्वात् , अथवा सन्तो-विद्यमानास्ते च भगवदुपदिष्टा एवं जीवादयः पदार्था अन्येषां कल्पनामात्ररचितसत्ताकतया तत्त्वतोऽसवात् तेम्यो हिता गाथासत्या । सत्याविपरीतस्वरूपा मृषा द्वितीया । उभयस्वभावा सत्यामृषा, तासां चतसृणां भाषाणां ८९० मध्ये तृतीया । या पुनस्तिसृष्वपि भाषास्वनधिकृता-तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्तर्भाविनी सा आमन्त्रणाज्ञापनादिविषया असत्यामृषा, तासां भाषाणां मध्ये चतुर्थीति ॥८९०॥ प्र. आ. साम्प्रतमेतासामेव भाषाणां भेदानभिधित्सुः प्रथमं सत्यभाषाया भेदानाह-'जणवये त्यादि, सत्या भाषा तावद्दशनकारा भवति जनपदसत्यादिभेदात् । तत्र 'जनपदेषु-देशेषु या यदर्थवाचकतया रूढा देशान्तरेऽपि सा तदर्थवाचकतया 'प्रयुज्यमाना सत्या-अवितथेति जनपदसत्या । यथा कोङ्कणादिषु पयः पिच्चं नीरमुदकमित्यादि । सत्यता चास्या. अदुष्टविवक्षाहेतुत्वामानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकृत्वाद्वयवहारप्रवृत्तेः । एवं शेषेष्वपि भावना कार्या १ । १मिगाहमि-सं ॥२ वाया अम्वायदा-इति वशवे० नियुक्ती पाठः ॥३पदप्रदायकतया-मु.॥४ तुलना-धर्म- 193 सम्मवृत्तिःमा०२, प. १२२ ॥ ५त्यज्यमानापि-इति धर्मसं-पत्ची पाठः। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन रोद्धारे | टीके तथा सकललोकसम्मत्येन सत्यतया प्रसिद्धा सम्मतसत्या । यथा कुमुद कुबलयोत्पल-तामरसान समानेऽपि पङ्कसम्भवे गोपालादीनां सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजं न शेषमित्यरविन्दे सम्मततया पङ्कजशब्दः सत्य:, कुवलयादावसत्योऽसम्मतत्वादिति २ । तथा स्थापनासत्या या तथाविधमङ्कविन्यासं मुद्राविन्यास चोपलभ्य प्रयुज्यते, यथा एककं १३२ ॥ पुरतो बिन्दुद्वय सहितमुपलभ्य शतमिदमिति चिन्दुत्रयसहितं सहस्रमिदमिति । तथा तथाविधं मुद्राविन्यासमुपलभ्य मृत्तिकादिषु 'मासोऽयं कार्षापणोऽयमिति । यद्वा यल्लेप्यादिकर्म अर्हदादिविकल्पेन स्थाप्यते सा स्थापना, तद्विषये सत्या स्थापनासत्या । यथाऽजिनोऽपि जिनोऽयम्, अनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति ३ । तथा नामतः - अभिधानमात्रेण सत्या नामसत्या, यथा कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्धनः धनमवर्धयन्नपि धनवर्धनः, अयक्ष यक्ष इति ४ । तथा रूपतो- रूपापेक्षया सत्या रूपसत्या । यथा दम्भतो गृहीतप्रवजितरूपः प्रब्रजितोऽयमिति ५ । तथा प्रतीत्य- आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसत्या । यथा अनामिकायाः कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वं मध्यमामधिकृत्य हृस्वत्वम्, न asi restar par दीर्घत्वं च तावकं परस्परविरोधादिति । भिननिमित्तत्वे परस्परविरोधासम्भवात् । तथाहि तामेव यदि कनिष्ठ मध्यम १. माषकोऽयं इति दश वृत्तौ पाठः ५ २०८ ॥ ॥ २ व्यां इति धर्मसं वृत्तौ ॥ १३९द्वारे भाषा चतुष्कम् गाथा ८९०० ८.९५ प्र. आ. २६२ ॥१३२॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥१३३॥ वा एकामगुलिमङ्गीकृत्य इस्वत्वं दीर्घत्वं च प्रतिपाद्यत ततो विरोधः सम्भवेत् , एकनिमित्तत्वे परस्परविरुद्धकार्यद्वयासम्भवात् । यदा त्वेकामधिकृत्यहस्वत्त्वं गामधिकृत्य दीर्घन्वं तदा सच्चा-ऽसत्त्व योरिव भिन्ननिमित्तत्वान्न परस्पर विरोवः । अथ यदि ताचिके हस्वत्वदीर्घत्वे तत ऋजुत्व-वक्रत्वे इव कस्मात्ते भाषा'निरपेक्षे न प्रतिभासेते ?, तस्मात्परोपाधिकत्वात्काल्पनिके हमे इति । तदुक्तम् , द्विविधा हि वस्तुनो धर्माः-सहकारिव्यङ्गवरूपा इतरे च । तत्र ये सहकारिव्यङ्गयरूपास्ते सहकारिसम्पर्कवशात्प्र गाथा तीतिपथमायान्ति, यथा पृथिव्या जलसम्पर्कतो गन्धः, इतरे वेवमेवापि यथा कपूरादिगन्धः । हस्वत्वदीर्घत्वे 'अपि च सहकारिव्यङ्गयरूपे, ततस्ते तं तं सहकारिणमासाद्याभिव्यक्तिमायात इत्यदोषः ६। ८९५ तथा व्यवहारतो-लोकविवक्षातः सत्या व्यवहारसत्या । यथा गिरिर्दह्यते, गलति भाजनम् , अनु- प्र. आ. दरा कन्या, अलोमिका एडका, लोको हि गिरिगततृणादिदाहे तृणादिना सह गिरेरभेदं विवक्षित्वा गिरिदह्यते इति ब्र ते । भाजनादुदके प्रति उदकभाजनयोरभेदं विवक्षित्वा गलति भाजनमिति । सम्भोगजबीजप्रभवोदराभावेऽनुदरेति, लवनयोग्यलोमाभावेऽलोमिकेति । ततो लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तथा अवतो व्यवहारसत्या भाषा भवति । तथा भावतो वर्णादि स्वरूपान् सत्या भावसत्या | किमुक्तं भवति ?-यो भावो वर्णादियस्मिन्नुस्कटो भवति तेन या सत्या भाषा सा भावसत्या । यथा सत्यपि पञ्चवर्णसम्भवे शुक्लस्यैव वर्णस्योत्कटत्वाद्वलाका शुक्लेति ८ । ॥१३३।। १ परनिर मु.॥ २ मपि स० मु.सि.॥ ३ ०स्वरूपा-मु. तुलना-धर्मसंग्रहवृत्तावपि स्वरूपात् इति । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १३६ द्वारे भाषाचतुष्कम् गाथा ८६० तथा योगा-सम्बन्धस्तस्मात्सत्या योगसत्या । यथा छत्रयोगाद्विवक्षितशब्दप्रयोगकाले त्राभावेप्रवचन मोऽपि छत्रयोगस्य सम्भवात् छत्री । एवं दण्डयोगाइण्डीह । तथा उपमैव औपम्यं तेन सत्या औपम्य. सटीक सत्या, यथा समुद्रवत्तडागमिति १० ॥८६॥ __ अथ द्वितीयभाषाया मृपालक्षणाया भेदानाह-'कोहे' इत्यादि, क्रोधनिःसृतादिभेदान्मृषाभाषा दशद्वितीय विधा भवति । सप्तम्याः पञ्चम्यर्थत्वानि मृतशब्दस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धात्क्रोधाग्निःमृना क्रोधाद्विनिगतेत्यर्थः । एवमन्यत्रापि । तत्र क्रोधाभिभूतो विसंवादनबुद्धथा 'प्रत्याययन् यत्सत्यमसत्यं या भाषते तत्सर्व मषा । तस्य हि आशयोऽतीव दुष्टः । ततो यदपि घुगाक्षरन्यायेन मत्यमापतति, शाठ्ययुद्धया योपेत्य सत्यं भापते तदप्याशयदोषदुष्टमिति मृषा । यथा वा क्रोधाभिभूतः पिता पुत्रमाह-न त्वं मम पुत्र इति, अदासं वा दासमभिधत्ते इति । तथा मानानिःसृता यत्पूर्वमननुभूतमप्यैश्वयमात्मोत्कर्षख्याफ्नायानुभूतमस्माभिस्तदानमियमैश्वमित्यादि वदति २ । तथा मायाया निःसृता यत्परवञ्चनाभिप्रायेण सत्यमसत्यं वा भाषते ३। तथा लोभानिःसृता वणिक्प्रभृतीनामन्यथा क्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादि ४ । तथा प्रेम्णो निःसृता, यदतिप्रेमवशाद्दासोऽहं तवेत्यादि वदति ५ । तथा द्वेपानिःसृता मत्सरिणां गुणवत्यपि निगु - णोऽयमित्यादि ६ । तथा हास्याम्निःमता यथा कान्दर्पिकाणां' कस्मिंश्चित्कस्यचित् सम्बन्धिनि गृहीतेऽपि पृष्टानां केलिंबशतो न दृष्टमित्यादि ७ । तथा भयान्निःमता तस्करादिभयेनासमञ्जसभासणम् ८ । तथा १ परं प्रत्या० मु ।। २ तव तवेत्यादि-खं. ॥ ३ ०ना इति दशवै हारि. वृत्तौ [५० २०६ A] पाठः ॥ प्र.आ. २६२ ॥१३४॥ 23ER Swagand Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥१३५॥ आख्यायिका निता यथा कथास्वसंभव्यभिधानम् ९ | तथा उपघातान्निसृता चौरस्त्वमित्याद्यसदस्या ख्यानमिति १० । ८६२|| कम अथ तृतीयभाषायाः सत्यामृवाया भेदानाह - 'उपपन्ने 'त्यादि, उत्पन्नमिश्रितादिभेदात्सल्यापा भाषा दशधा भवति । इह च मध्यस्थितस्य 'मीसय' त्ति पदस्य सर्वत्रापि सम्वादुत्पन्नमिश्रिता विगतमिश्रितेत्यादि द्रष्टव्यम् । ततश्च उत्पन्नमिश्रिता अनुत्पन्नैः सह सङ्ख्यापूरणार्थं या सा उत्पन्नमिश्रिता एवमन्यत्रापि यथायोगं भावनीयम् तत्रोत्पन्नमित्रिता ग्रामे नगरे वा न्यूनेष्वधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका अस्मिन्नद्य जाता इत्यादि । व्यवहारतः सत्यामृषात्वाद् अस्याः । श्वस्ते शतं पञ्चाशत्यपि दत्तायां लोके मृषात्वादर्शनादनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव च मृषात्वव्यवहारात् १। तथा एवमेव मरणकथने विगतमिश्रिता । यथा अस्मिन्नद्य दश वृद्धा विगता इत्यादि २ | तथा जन्मनो मरणस्य च कृतपरिमाणस्याभिधाने विसंवादने च मिश्रकमिश्रिता उत्पन्नविगतमिश्रितेत्यर्थः । यथाstore दश दारका जाता दश च वृद्धा विपन्ना इति ३ । तथा प्रभूतानां जीवत स्तोकानां च मृतानां शङ्ख शङ्खनकादीनामेकत्र राशौ दृष्टे यदा कश्विदेवं वदतिअहो महान् जीवराशिरयमिति तदा सा जीवमिश्रिता । सत्यामृषात्वं चास्या जीवत्सु सत्यस्यान्मृतेषु मृषास्वात् ४ | तथा यदा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शङ्खादिदेवं वदति - अहो महानयं मृतो जीवराशिरिति तदा सा अजीवमिश्रिता, अस्या अपि सत्यामृषात्वं मृतेषु सत्यत्वात् जीवत्सु च मृषात्वात् ५ । तथा तस्मिन्नेव राशौ एतावन्तोऽत्र जीवन्ति एतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयतो विसंवादे जीवाजीवमिश्रिता ६ । १३९ द्वारे भाषा चक गाधा ८६० ८६५ प्र. आ. २६३ ॥१३५॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा गाथा प्र. आ. २६३ तथा मूलकादिकमनन्तकायं तस्यैव सत्कः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित्प्रत्येक वनस्पनिना प्रवचन । मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतोऽनन्तमिश्रिता ७ । तथा प्रत्येकवनस्पतिसङ्घातमनन्तसारोद्धारे कायिकेन सह राशीकतमवलोक्य प्रत्येकवनस्पतिश्यं सर्वोऽपीति बदतः प्रत्येकमिश्रिता ८ । सटीके तथा अद्ध-कालः, स चेह प्रस्तावाद्दिवसो रात्रिर्वा परिगृह्यते । स मिश्रितो यया सा अद्वामिश्रिता । द्वितीय यथा कश्चित्कनन त्वरयन दिवसे धर्तमान एव वदति- 'उत्तिष्ठ रात्रिर्जानेति, रात्री का वर्तमानायामुत्तिष्ठ' दिवसो जात इति ९ । तथा दिवसम्य रावेर्वा एकदेशोऽद्धाद्धा, सा मिश्रिता यया या अद्धाद्धामिश्रिता । ॥१३६॥ यथा प्रथमपौरुष्यामेव वर्तमानायां कश्चित कश्चन स्वरयन्ने बदति-चल चल मध्याहोजात इति १०॥८९३॥ । असत्यामृपाया भेदानाह-आमंतणी' त्यादिगाथद्वयम् , आमन्त्रण्यादिभेदादसत्यामृषा भाषा द्वादशभेदा भवति । तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त ! इत्यादि । एपा हि प्रागुक्तसत्यादिभाषात्रयलक्षाविकलत्वाम्म सत्या नापि मृषा नापि मत्यापा, केवलं व्यवहारमात्रप्रवृत्तिहेतुरित्यसत्यामृषा १ । “एवं भावना कार्या । आज्ञापनी-कायें पाम्य प्रवर्तनम् , यथेदं कुर्विति २ । याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणम् ३ । प्रच्छनी अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वा कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पायें कथमेतदिति प्रच्छनम् ४ । प्रज्ञापनी विनेयजनस्योपदेशदानम् , यथा प्राणिवधानिवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुष इत्यादि ५ । प्रत्याख्यानी-याचमानस्य प्रतिषेधवचनम् ६ । १ बत्तिष्ठ २ रात्रिः मु.॥ २ ०८४ २ दि० मु. ॥ ३ भामंत्रणीत्यादि मा० मु० ॥ ४ न घा-मु ॥ ५ एवं सर्वत्रापि भावना-मुः। धर्मसंवृत्तौ [प. १२३] अपि 'सर्वत्रारिन स्ति । LAX ॥१३६॥ PAHARAN imalsi n a Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ||१३७|| इच्छानुलोमा नाम यथा कश्चित् किञ्चन कार्यमारभमाणः कञ्चन पृच्छति स प्राह-करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति ७ । अनभिगृहीता यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणम्, यथा बहुषु कार्येषूपस्थितेषु कश्चित् कञ्चन पृच्छति किमिदानीं करोमि १ स प्राह-यत्प्रतिभासते तत्कुर्विति ८ । अभिगृहीता-प्रतिनियतार्थायथा इदमिदानीं कर्तव्यमिदं नेति । यद्वा अनभिगृहीता याऽर्थमनभिगृह्योच्यते डित्थादिवत् । वधारणम्, अभिगृहीता स्वर्थमभिगृह्य योग्यते घटादिवत् ९ । संशयकरणी या एकका वागनेकार्थाभिधायितया "परस्य संशयमुत्पादयति । यथा सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दो लवणवस्त्र-पुरुष-वाजिषु १० । व्याकृता या प्रकटार्था ११ । अव्याकृता अतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा अविभावितावादिति १२ ॥८९४ ॥ ८९५|| १३९|| ૨ इदानीं 'वयणसोलसगं' ति चत्वारिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह १४० द्वारे वचन षोडशकम् गाथा ८९६ प्र.आ. २६३ कालति ३ श्रतियं ६ लिंगतियं ९ तह परोकख १० पचचक्त्रं ११ । उवणयsaणयचक्कं १५ अज्झत्थं चेच सोलसमं ॥८९६ ॥ 'कालतिय' गाहा, कालत्रिकं तथा वचनत्रिकं तथा लिङ्ग तथा परोक्षमत्र प्रथमैकवचनस्य लोप:, तथा प्रत्यक्षं तथोपनयचतुष्कम्, तथाऽध्यात्मं चैत्र षोडशमिति गाथावयवार्थः । तत्राकरोकरोति करिष्यतीत्यतीतादिकालनिर्देशप्रधानं वचनजातं कालत्रिकवचनमित्यर्थः । तथा एको द्वौ बहव इत्येकत्वाद्यभिधायकः शब्दसन्दर्भो वचनत्रिकमिति । तथेयं स्त्री, अयं पुरुषः, इदं कुलमिति त्रीणि 'लिङ्ग१ परस्परं मु.। धर्मसं वृत्तावपि 'परस्य' इति पाठः ॥ २ अतिगभीर० मु. । तुलना- धर्मसं वृत्तिः ॥ गाथासमुदायार्थः ॥१३७॥ अवयवार्थ:- जे. ॥ ३ लिङ्गप्रधानानीति तथाखं. ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके नक्षत्रादि. | मासपञ्चकम गाथा ८९७. द्वितीय खण्ड: प्रधानानि वचनानीति 'लिङ्गत्रिकम् । तथा स इति परोक्षनिर्देशः परोक्षवचनम् । अयमिति प्रत्यक्षनिर्देशः प्रत्यक्षवचनम् तथोयनयापनयवचनं चतुर्धा भवति, तद्यथा-उपनयापनयवचनम् , तथा उपनयोपनयवचनम् , तथा अपनयोपनयवचनम् , तथा अपनयापनयवचनमिति । तत्रोपनयो-गुणोक्तिः , अपनयो-दोपभणनम् , तत्र सुरूपेयं रामा परं दुःशीला इत्युपनयापनयवचनम् । तथा मुरूपेयं स्त्री सुशीलेत्युपनयोपनयवचनम् । तथा 'कुरूपेयं स्त्री परं सुशीलेत्यपनयोपनयवचनम् । कुरूपेयं कुशीला चेत्यपनयापनयवचन मिति । A यता उपनयः-स्तुतिरपनयो-निन्दा, तयोर्वचनचतुष्क-यथा रूपवती स्त्रीन्युयनयवचनम् , कुरुपास्त्रीत्यपनयकचनम् , रूपचनी 'स्त्री किन्तु कुशीलेत्युपनया ऽपनयवचनम् , "कुरूपास्त्री किन्तु सुशीलेन्यपनयोपनयवचन मिति तथा अन्यच्चेतसि निधाय विप्रतारकबुद्धयाऽन्यद्भिणिपुरपि सहसा यच्चेतसि तदेव यक्ति यत्तत् षोडशमध्यात्मवचनम् ॥८९६॥ १४०॥ इदानी 'मासाण पंचभेय' सि एकचत्वारिंशदत्तरशततमं द्वारमाह--- मासा य पंच सुत्ते नक्वत्तो १ चंदिओ २ य रिउमासो ३ । आइच्चोऽविय 'इयरो ४ ऽभिवड्डिओ तह य पंचमओ ५ ॥९॥ अहरत्त सत्तवीसं तिसत्तसत्तद्विभाग नक्वत्तो २७ । । चंदो उणत्तीसं विसट्ठि 'भाया य यत्तीसं २९ ३३॥८९८॥ लिङ्गत्रिक-सि. नास्ति ॥ २ कुरुया स्त्रीयं परं-मु.] AA चिद्वयमध्यवर्तिपाठः मु. नास्ति।। ३ स्त्री. जे. नास्ति ।। ४ तथा कुरुपा-जे. खं.11 ५ अवरो-मु.॥ ६ भागा उता.॥ प्र. आ. २६४ ॥१३८॥ A .. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥१३९॥ ३० मासो तीसदिणो ३० आइच्चो तीस होइ अडं च अभिवडिओ य मासो चवीस एण लेणं भागाणिगवीससयं तीसा एगाहिया दिणाणं तु ३१ एए जह निष्फत्तिं दहति समयाउ तह नेयं 'मासा य पंच' गाहा, मासा नक्षत्रादयः पञ्च 'सूत्रे' पारमेश्वरे प्रवचने प्रतिपादिता इति शेषः । तत्र नक्षत्रेषु भो नाक्षत्रः किमुक्तं भवति - चन्द्रवारं चरन् यावता कालेनाभिजित आरम्योत्तराषाढा नक्षत्र पर्यन्तं गच्छति तत्कालप्रमाणो नाक्षत्रो मासः । यदिवा चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तयतो निष्पन्न इत्युपचारान्मासोsपि नक्षत्रम् तथा चन्द्रे भवश्चान्द्रः युगादौ श्रावणे मासे बहुलपक्षप्रतिपद आरभ्य "यावत्पौर्णमासी परिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणञ्चान्द्रो मासः । एकपौर्णमासीपरावर्तश्चान्द्रो मास इति यावत्, अथवा चन्द्रचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चन्द्रः २ । चः समुच्चये । तथा ऋतुमासः इह किल ऋतुकरूढ्या पष्ट्यहोरात्रप्रमाणो मासद्वयात्मकः, तस्यार्धमपि मासोऽवयवे समुदायोपचारात् ऋतुः स चार्थात्परिपूर्ण त्रिंशदहोरात्रप्रमाणः । एष एव च ऋतुमासः कर्ममास इति वा सावनमास इति वा व्यवहियते । उक्तञ्च - " , "एसचैव उमासो कम्ममासो 'सावणमासो भन्न" [ १ यावत्पूर्णिमा० मु. ॥ २ चान्द्र:-मु. ॥। ३ सावणी - मु. ॥ ] इति ३ | ॥८९९॥ । ॥ ९००॥ १४१ द्वारे नक्षत्रादि मास पञ्चकम् गाथा ८९७ - १०० प्र. आ २६४ ॥१३९॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥१४०॥ तथा आदित्यस्यायमादित्यः स च एकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा व्यशीत्यधिकदिनशतप्रमाणस्य षष्ठभागमानः यदिवा आदित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽप्यादित्यः ४ | तथा पञ्चमो मासोभिर्धितः । अभिवर्धितो नाम मुख्यतत्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सरः । द्वादशचन्द्र मासप्रमाणा संवत्सरादेकेन मासेनाभिवर्धितत्वात् परं तद्वादशभागप्रमाणो मासोऽप्यवयवे समुदायोपचारादभि वर्धितः ५ | तदेवमुक्ता नामतो नक्षत्रादयः पञ्चापि मासाः ॥ ८९७ ॥ " साम्प्रतमेतेषामेव मासानां दिनपरिमाणमाह- "अहरते' गाहा, 'उ' गाहा, 'भागा' गाहा, नाक्षत्रो - नक्षत्रसम्बन्धी मामः सप्तविंशतिरहोरात्र एकस्य चाहोरात्रस्य सप्तषष्टिर्भागात्रिः सप्तएकविंशतिरित्यर्थः । तथा चान्द्रः - चन्द्रमासः एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वाषष्टिभागाथ अहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् । तथा ऋतुमासः परिपूर्णानि त्रिंशद्दिनानि । तथा आदित्यः- आदित्यमासो भवति त्रिंशदहोरात्रा अर्ध चाहोरात्रस्य । तथा अभिवर्धितमासो दिनानामेकेनाधिका त्रिंशत्, एकत्रिंशदहोरात्रा इत्यर्थः, rate artistय चतुर्विंशत्युत्तरशतरूपेण छेदेन मागेन विभक्तस्य एकविंशत्यधिकं शर्त भागानां भवतीति । एते पञ्चापि मासा यथा निष्पत्ति लभन्ते तथा 'समयात्' सिद्धान्ताद् 'ज्ञेयं' ज्ञातव्यमिति । १ अद्दरतेत्यादिगाथाश्रयम्-खं. सि. ॥ २ सप्त त्रयो वाराः सप्त पक० मु० ॥ एताः स्थापनाः मु. नास्ति । १४१द्वारे नक्षत्रादि मास पश्चकम् गाथा ८९७ १०० प्र. आ. २६५ ॥ १४० ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥१४॥ स च निष्पत्तिप्रकारः सिद्धान्तानुसारेण विनेयजनानुग्रहाय किश्चिद् दय॑ते-इह किल चन्द्रचन्द्रा-भिवर्धित-चन्द्रा ऽभिवर्धितलक्षण संवत्सरपञ्चकप्रमाणे युगे अहोरात्रराशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो ||१४१ द्वा १८३० भवति । कथमेतदवसीयते ? इति चेदुच्यते-इह सूर्यस्य दक्षिणमुत्तरं वा अयनं यशीतिअधिकदिन- | चान्द्रारि शतात्मकं युगे च पञ्च दक्षिणायनानि पञ्चोत्तरायणानीति सर्वसङ्ख्यया दशायनानि ततस्वथशीत्यधिक मासदिनशतं दशकेन गुण्यते इत्यागच्छति यथोक्तो दिनराशिः। एवंप्रमाणं दिनराशि स्थापयित्वा नक्षत्र- पञ्चकम चन्द्रऋत्वादित्यमासाना दिनमानानयनाय यथाक्रम सप्तपष्टिद्वाषष्टये कषष्टिषष्टिलक्षण र्भागहारैर्भागं हरेत् , गाथा ततो यथोक्तं नक्षत्रादिमासगतदिनपरिमाणमागच्छति । तथाहि-युगदिनराशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो ८९७ध्रियते : तस्य सप्तपष्टियुगे नक्षत्रमासा इति सप्तपष्टया भागो हियते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, एकविंशतिरहोरात्रस्य सप्तपष्टिभागाः, 'एष नक्षत्रमासः । तथा तस्यैव युगदिनराशेविंशदधिकाष्टादशशत प्र. आ. मानस्य युगे चन्द्रमामा द्वापष्टिरिति द्वापष्टया भागे हने यल्लभ्यते तच्चन्द्रमासमानम् । तथाऽस्यैव युगदि-२६५ नराशेरेकषष्टिय गे ऋतुमासाः, इत्येकपष्टया भागहरणे लब्धं यथोक्तमृतुमासमानम् । तथा युगे सूर्यमासाः पष्टिरिति पटथा ध्रुवराशेर्भागहारे यल्लब्धमेतत्सूर्यमासपरिमाणम्, उक्तं च A रिक्खाईमासाणं करणमिणमं तु आणणोवाओ। जुगदिणरासि ठाविय अट्ठार सयाई तीसाई॥१॥ १ एक-खं.॥ १४१॥ Aऋक्षादिमासानां करणमिदं त्वानयनोपायः । युगदिनराशि स्थापयित्वाऽष्टादश शतानि त्रिंशानि .. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १४१वा चान्द्रादि मासपञ्चकम गाथा ८९७ द्वितीयः खण्ड: * ताहे हराहि 'भायं रिक्खाईयाण दिणकरंताणं । सत्तट्ठीवावट्ठीएगट्ठीसट्ठिभागेहिं ॥२॥" व्यवहार भा. उ. १, गा. १६-१७] तथा यस्मिन् वर्षे अभिवर्धितरूपे तलीये पञ्चमे वा त्रयोदश शशिमासा भवन्ति तद्वषं द्वादशभागीक्रियते तत एकैको भागोऽभिवर्धितमास इत्युच्यते । इह किलाभिवर्धितसंवत्सरस्य त्रयोदशचन्द्रमासमानस्य दिनपरिमाणं व्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागा रात्रिन्दित्रस्य ३८३६६ । तथाद्वि-एकस्मिन् चन्द्रमासे एकोनविंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागाः । मासाश्च त्रयोदश इति तानि दिनानि तदंशाच त्रयोदशभिगुण्यन्ते जातानि सप्तसप्तत्युत्तराणि दिनानां त्रीणि शतानि, अंशाना व पोडशाधिकानि चत्वारि शतानि । ते च दिनस्य द्वापष्टिभागाः । ततो दिनानयनाय द्वापष्टया भागो हियते लब्धानि षट् दिनानि । तानि च पूर्वोक्तदिनेषु मील्यन्ते । ततो जातानि त्रीणि शतानि ध्यशीत्यधिकानि दिनानां चतुश्चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागाः । तत 'वर्षे मासा द्वादश' इति मासानयनाय द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश । ते च चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्विंशत्युत्तरशतेन गुण्यन्ते । जातानि त्रयोदश शतानि चतुष्षष्ट्य. धिकानि, येऽपि च उपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद्-द्वापष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ ॥१४२॥ प्र. आ. ॥१४२॥ ततोहर मामृशादीनां दिनकगनानाम् । सम्पष्टिद्वापष्टिएपष्ट्रिपष्टिमार्गः ।।२।। १ मागं-मु.॥२ तस्मिन्-मु. । अस्मिन्-खं सं. सि.॥३च-मु. नास्ति ।। Shai... Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके |१४२ चान्द्रा वर्षाणि द्वितीय द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता अष्टाशीतिः, साऽनन्तरमागराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि च चतुर्दश शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि, तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानाम् , एतावदभिवर्धितमासप्रमाणम्, ३ उक्तं च “जमि वरिसंमि तेरस ससिणो मासा हवंति सो वरिसो। बारसभाए कज्जइ अभिवड़ियमास सो भागो ॥१॥ तिह-६००॥१४॥ समाति परिसातच गहि द्विचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह संवच्छरा उ पंच उ चंदे १ चंदे २ ऽभिधड्डिए ३ चेव । चंदे ४ ऽभिवड्डिए ५ तह बिसहिमासेहिं जुगमाणं ॥९०१॥ __ 'संबच्छराउ' गाहा, चान्द्रश्चान्द्रोऽभिवर्धितः चान्द्रोऽभिवर्धितश्चेत्येवं क्रमेण पश्च संवत्सरा भवन्ति । एते च पश्चाप्यनेन क्रमेण भवन्तो मिलित्या एकं युगं निष्पादयन्तीति युगसंवत्सरा इत्युच्यन्ते । तत्र पूर्वोक्तस्वरूपचन्द्रमासनिष्पन्नत्वात्संवत्सरोऽपि चान्द्रः । तस्य च प्रमाणं त्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदतराणि दिनानां द्वादश च द्वापष्टिभागाः ३५४१२ । तथाहि-एकोनत्रिंशदिनानि. द्वापष्टिभागीकृतस्याहोरात्रस्य च द्वात्रिंशदंशाश्चन्द्रमासः २६ स च द्वादशभिगुण्यते ततो यथोक्तं चन्द्रसंवत्सरप्रमाणं भवति । एवं द्वितीयचतुर्थावपि संवत्सराविति । तथा चन्द्रसंवत्सरादेकेन मासेनाभिवर्धितत्वादभिवधितसंवत्सरः । तस्य च प्रमाणं त्रीणि शतानि अह्नां व्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागाः यस्मिन् वर्षे त्रयोदश शशिनो मासा भवन्ति तत् वर्षद्वादशमागीक्रियते स मागोऽभिवर्षितमासः ॥२॥ १ इति-मु.॥२ तुलना-स्थानाङ्गसू.४६० ।। ९०१ प्र. आ २६६ ॥१४३॥ । ॥१४३ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे १४३ द्व लोक सटीके द्वितीयः खण्ड: खण्डका गाथा ९०२. ||१४४॥ प्र. आ. ३८३३ । तथाहि-एकत्रिंशदहोरात्राश्चतुर्विशत्युत्तरशतभागानां चैकविंशं शतमभिवर्धितमासप्रमाणम् । तत्रैकत्रिंशद्दिनानि द्वादशभिगुण्यन्ते जातानि द्वासप्तत्युत्तराणि त्रीणि शतानि । यच्चैकविशत्यधिकं भागशतं तदपि द्वादशभिगुण्यते जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि चतुर्दश शतानि । तेषां च चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागहरणे लब्धान्येकादश दिनानि तानि च पूर्वोक्तदिनेषु प्रक्षिप्यन्ते । भवन्ति च त्रीणि शतानि ध्यशीत्यधिकानि । शेषस्य चाष्टाशीतिरूपभाज्यराशेश्चतुर्विंशत्युत्तरशतरूपभाजकराशेश्च यथोक्तभागानयनाय द्विकेनापवर्तना क्रियते । लब्धाश्चतुश्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः, एषोऽभिवधितसंवत्सरः। एवं पञ्चमोऽपि । एभिश्चान्द्रादिभिः पञ्चभिः संवत्सरेक युगं भवति । तच्च द्विपष्टि चन्द्रमासप्रमाणम् । तथा है-युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सराः, एकैकास्मिंश्च चन्द्रसंवत्सरे द्वादश चन्द्रमासाः, ततस्त्रयो द्वादशभिगुण्यन्ते जातः पर्विशन, अभिवधिनसंवत्सगै च युगे द्वावेव एकैकस्मिश्वाभिवर्धितसंवत्सरे त्रयोदश चन्द्रमासाः, अधिकमासकस्य तत्र सद्भागत् , ततो द्वौ त्रयोदशभिगुण्येते जाताः षड्विंशतिः, उभयमीलने व द्वापष्टिश्चन्द्रमासा इति ॥९०१॥ १४२ ॥ इदानीं ''लोगसरूवं' ति त्रिचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह माधवईए तलाओ ईसिंपञ्भार उवरिमतलं जा । चउदसरज्जू लोगो तस्साहो वित्थरे सत्त ॥९०२॥ उरि पएसहाणी ता नेया जाव भूतले एगा । तयणप्पएसवुढी पंचमकप्पंमि जा पंच ।९०३|| १लोगस्वरूवं-मु.॥२ तस्स-ता.॥ २६६ am १४४ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ द्वारे प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: लोकखण्डकादि गाथा - ॥१४॥ | ९१७ प्र आ. पुणरवि पएसहाणि जा 'सिद्धसिलाए एकगा रज्जू । धम्माए लोगमज्झो जोयणअस्संखकोडीहिं ।।९०४॥ हेहाहोमुहमल्लगतुल्लो उपरि तु संपुडठियाणं ।' अणसरह मल्लगाणं लोगो पंचस्थिकायमओ ॥९०५ ।। तिरियं सत्तावन्ना उड्ड पंचेष हुति रेहाओ । पाएसु चउसु रज्जू चउदस रज्जू य तसनाडी ॥२०॥ लिरिक पडसे पोछ दोसु अट्ठ दस य इविक्के । यारस दोसु सोलस दोसु बीसा य चउसुपि ।९०७॥ पुणरवि सोलस दोसुबारस दोसुपि हुँति नायव्या । तिसु दस तिसु अट्ट च्छा य दोसु दोसुपि चत्तारि ॥९॥ ओयरिय लोयमझा चउरो चउरो य सबहिं नेया ।। तिग तिग दुग दुग एकिकगो च जा सत्तमी पुढची ॥९०९।। अडवीसा छुव्वीसा चउचीसा वीस सोल दस चउरो । सत्तासुवि पुढवीसु तिरियं खण्डुयगपरिमाणं ॥११॥ १ सिद्धि० जे. २६ सिद्धसिलाइ ता.॥२.भो-ता, ॥ ३ एकिक्के-जे. २ । एक्केक्को-ता.॥ ४ दोसंता.॥ ५ एताश्चत्वारः गाथा पाचारामवृत्ती (प. १६६ B) दृश्यन्ते । ६ वोसं.ता. ॥ ७ एक्किगगो-ता. ॥ १८ ॥१४॥ mmsenew Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥१४६॥ WAARD ॥१.१३ ॥ पंच सय वारसुतर हेट्ठा तिसया उ चउर अमहिया । अह उड्हें अह सया सोलहिया खंडया सव्वे ॥ १११ ॥ 'बत्तीसं रज्जुओ हेडा रुपगस्स हुति नायव्वा । एगोणीमुवरिं ચર્ચા सव्चपिंडेणं ॥९९२॥ दाहिणपास' दुखंडा वामे संधिज्ज विहियविवरीयं । नाडीजुया तिरज्जू उड्डाहो सत्त तो जाया हेट्ाओ वामखंडं दाहिणपासंमि ठवसु विवरीयं । उवरिम तिरज्जु खंडं वामे ठाणंमि संधिज्जा ॥ ९९४ ॥ तिन्नि सया तेयाला रज्जूणं हृति सम्योगम्मि | चउरंसं होइ जयं सत्तण्ह घणेणिमा संखा ॥११५॥ छ खंडगे यदुगं च दुर्गं दस हुति चत्तारि । उसु चक्क गेवेज्जणुत्तराई चक्कंमि ॥९१६॥ सभुपुरिमताओ अवरंतो जाव 'रज्जुभाणं तु । रज्जुमाणेण लोगो चउदसरज्जुओ एएण ॥९१७॥ १ इतः पूर्व ता. प्रतौ "सत्तेव य रज्जुओ एगा पंचेत्र लोगवित्थारा । अह तिरिय बंगलोए एगा रज्जूय लोगंते ॥ इत्यधिका गाथा विद्यते भीमशीमा रोक संस्करणेऽपि विद्यते (पृ.३६८) ।। २ एग० ता ॥ ३०सि ता० ॥ ४ यान्ता ॥ ५ रज्जुभी एएणजे ॥ | १४३ लोक खण्डक गाथा ९०२ ११७ प्र. अ २६७ ॥१४ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥१४॥ 'माधवईए' इत्यादिगाथात्रयम् , माघवत्याः-तमस्तमप्रभापराभिधानायाः सप्तमनरकपृथिव्यास्तलाद्'अलोकसंस्पर्शिनः सर्वाधस्तनभागादारभ्य ईपत्प्राग्भारायाः-सिद्ध शिलायाः सर्वोपरितनतलं लोकान्तलक्षणं यावद धोभागेन चतुर्दशरज्जूप्रमाणो लोको भवति । तस्य च लोकस्याधस्तात-सप्तमपृथिव्या अधोभागे लोक. विस्तरतो देशोनाः सप्त रज्जवः, सूत्रकारेण स्वल्पत्वाद्देशोनत्वं न विवक्षितम् । ततोऽधोलोकान्तादुपरि प्रदेश- खण्डक हानि:-तिर्यगङ्गुलासङ्ख्येयभागहानिस्तावद् ज्ञातव्या यावद् भृतले-तिर्यग्लोकमध्यवर्तिसमभूमिभागे विस्त-गाथा रत एका रज्जः । तदनु-समभूमिभागादुपरिमुखं प्रदेशवृद्धिः-तिर्यगङ्गुलासङ्ख्येयभागवृद्धिस्तावद् द्रष्टव्या यावद्धलोकमध्ये पश्चमे ब्रह्मलोकाभिधे कल्प विस्तरतः पञ्च रज्जवः । ततः पुनरप्यूर्व प्रदेशहानिस्तावदवसेया यावसिद्धशिलाया उपरिष्टाल्लोकान्ते विस्तरत एकैच रज्जूः। घायां च-रत्नप्रभापराभि- प्र. आ धानायां प्रथमपृथिव्यां योजनानामसङ्खथाताभिः कोटिभिर्वहसमभूभिभागादतिक्रान्ताभिर्लोकमध्यम् । | २६७ इयमत्र भावना-इह सामस्त्येन चतुर्दशरज्ज्वात्मको लोकः, स च त्रिधा भिद्यते । तद्यथा-ऊर्ध्वलोकस्तिर्यग्लोकोऽधोलोकश्च । तत्र तिर्यग्लोकस्य ऊर्ध्वाधोऽपेक्षया अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुबहुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः । तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः । एष एव रुचका सर्वासां दिशां विदिशा च प्रवर्तकः, । एतस्माच्च रुचका धस्तिर्यग्लोकविभागाः । तथाहि-रुचकस्याधस्तादुपरिष्टाच्च नव नव योजनशतानि तिर्यम्लोकः, तस्य च तिर्यग्लोकस्याधस्तादधोलोकः, उपरिष्टा लोकः । देशोनसप्तरज्जूप्रमाण ऊलोका, १ अलोकपृथिव्यासंस्पर्शिनः-जे.॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१४८॥ समधिकसप्तरज्जूप्रमाणोऽधोलोकः, मध्येऽष्टादशयोजनशतोच्छ्यस्तिर्यग्लोकः ! ततो- 'रुचकसमाद् भूतल |१४३ द्वा भागादधोमुखमसङ्ख्याता योजनकोटीगत्या रत्नप्रभायां चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य मध्यभागः परिपूर्णसप्तरज्जूप्रमाणो भवतीति ॥९०२.-९०४॥ सम्प्रति लोकस्य संस्थानमाह-'हेट्टे 'त्यादि, अधस्ताद् | खण्डकाति अधोभागे अधोमुखमल्लकतन्यः-अधोमुखीकृतसरावसदृक्षाकारः, उपरि पुनः सम्पुटस्थितयोर्मल्लकयो: गाथा शराबयोगकारमनुसरति लोकः । अयमर्थः-प्रथमं तावदेकं शरावमधोमुखमवस्थाप्यते, ततस्तस्योपरि द्वितीय 1९०२मुपरिमृखं तस्याप्युपरि तृतीयमधोमुखमित्येवं व्यवस्थितशरावत्रयसदृशाकारः सकलोऽपि लोको भवतीति । ९१७ स च पश्चास्तिकायमयो-धर्माऽधर्माऽऽकाश-जीव-पुद्गललक्षणैः पञ्चभिरस्तिकायाप्तः ॥९०५॥ प्र. आ. अथ चतुदेशरल्वात्मकमपि लोकमसत्कल्पनया खण्डकाविभागेन दिदर्शयिषुः खण्डकनिष्पादनाय ताबदाह-'तिरिय'मित्यादि, तिर्यक्-तिरश्चीनाः सप्तपञ्चाशत्सङ्ख्या रेखाः पट्टिकादौ स्थाप्यन्ते । ऊम्उपर्यधोभावेन पुनः पञ्चैव रेखाः स्थाप्या भवन्ति । तथा 'पाएसु चउसु' त्ति सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वा चतुर्भिः पादैः-खण्डकैरेका रज्जूभवनि । इह चतुर्भिः खण्डकैरेका रज्जूः परिकल्पिता ततो रज्जूचतुर्थभागत्वात् खण्डकं पाद इत्यभिहितम् . चतुर्दशरज्जूश्च-ऊर्धाधोभावेन चतुर्दशरज्जूप्रमाणा सनाडी । इयमत्र भावना-तिर्यग्व्यवस्थापितसप्तपश्चाशद्रेखाभिरूधिोभावेन पट्पञ्चाशत्खण्डकानि जायन्ते । चतुर्भिश्च खण्डकैरेका रज्जूरिति पट्पञ्चाशतश्चतुर्भिर्भागहारे ऊर्धाधश्चतुर्दश रज्जवो लभ्यन्ते इति ! ४८ .. १ रुचकसमाभू० मु.।। ASH Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NANDASEANMptunescMYASHOMAINMMITE Inadensatirettoonsethernesd16mmendoutNDON EMAITREATMASMIRATESenseletonestswamPriHTaggarm प्रवचनसारोद्धारे सटीके लोक खण्ड माथा९०२. ॥१४९ तिर्यक्त्रसनाडीमध्ये सर्वत्र एकै रज्जूरुपयोमावविमिवेशितरेखापश्चकेन खण्डकचतुष्कस्यैव निष्यन्नत्वात् । एवं तावत् सनाडीमध्ये ऊर्धाधोभावेन खण्डकान्युक्तानि ॥९०६॥ अथ सकलस्यापि लोकस्य तिर्यग्वःनि खण्डकान्यभिधातुकामः प्रथम ताव लोके रुचकादारभ्य लोकान्तं यावत्तिर्यकखण्डान्याह---'तिरिय मित्यादि, रुचकसमाद् भूभागाचं द्वयोः पङ्क्त्योरेकोनत्रिंशत्तमरेखोपरिवर्तिन्योस्तियक्-तिरथीनानि चत्वारि चत्वारि खण्डकानि मनाडीमध्यगतान्येव भवन्ति, सनाडया बहिस्तत्र खण्डकानामभावात् । तत उपरितन्योर्द्धयोः पञ्जत्योः षट् खण्डकानि । तत्र चत्वारि सनाडीमध्यवर्तीन्येव एकैकं तु सनाडया बहिः प्रत्येकमुभयपाययोरिति । तत एकैकस्यां पङ्क्तो क्रमेणाष्टौ दश च खण्डकानि । तथाहि-एकस्यां पङ्क्तो नाडीमध्ये चत्वारि बहिश्चैकपायें द्वयं द्वितीयपाऽपि द्वयमित्यष्टौ । अपरस्यां च पङ्क्तौ चत्वारि मध्ये बहिश्च उभयतः प्रत्येकं त्रितयं त्रितमिति दश । ततोऽपि द्वयोः पङक्त्योः प्रत्येक द्वादश द्वादश खण्डकानि, चत्वारि मध्ये बहिश्चत्वारि चत्वारीति । तदनन्त द्वयोः पङ्क्त्योः प्रत्येकं षोडश षोडश खण्डकानि, चत्वारि मध्ये पार्श्वयोश्च षट् पडिति । तत उपरितनीषु चतसृषु पङ्क्तिषु प्रत्येकं विंशतिः खण्डकानि, चत्वारि मध्ये बहिश्चैकपाद्येऽष्टाचपरपार्वेऽप्यप्राविति । तदेवमूर्ध्वलोके चतुर्दशसु पङ्क्तिषु यथासम्भवं खण्डकानां वृद्धिरुक्ता ॥९०७॥ ___ अथ चतुर्दशस्वेव पक्तिषु हानिमाह-(अन्धा. १००००) 'पुणरवो' त्यादि, पुनरप्युपरितनपक्तिद्वये षोडश खण्डकानि । भावना च सर्वत्र प्राग्वदवसेया । ' तत ऊर्ध द्वयोः पङ्क्तयोादश - १ ततोऽपि पङ्कितद्वये द्वादश-जे.॥ प्र. आ २६८ ॥१४९ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १४३द्वारे लोकखण्डकादिगाधा ९०२ द्वितीयः खण्ड : ॥१५॥ प्र. आ. द्वादश खण्डकानि । ततोऽपि तिसृषु पक्तिषु दश दश खण्डकानि । ततोऽपि तिमृषु पस्तिषु अष्टावष्टौ खण्डकानि । तदनु द्वयोः पङ्क्त्योः षट् पट् खण्डकानि । ततोऽपि साधारेवतिन्धोद्वयोः पत्योर्नाडीमध्यगतान्येव चत्वारि चत्वारि खण्डकानि भवन्तीति । इत्थं तावन्निजगुरुप्रदर्शितस्थापनानुसारतो रुच. कादारभ्य लोकान्तं यावत् 'तिरियं चउरो दोसु' इत्यादिगाथाद्वयं व्याख्यातम् । अपरे तु वैपरीत्येन पट्टे षु स्थापना पश्यन्त एतद्गाथाद्वयं लोकान्तादारभ्य लोकमध्यं यावद्वयाख्यानयन्तीति ।।९०॥ अथाधोलोके सप्तस्वपि पृथिवीषु ऊर्धाधोभावेन खण्डकान्याह--'ओयरिये' त्यादि, अवतीर्य लोकान्ताल्लोकमध्यं समागत्य ततो लोकमध्याद्-रुचकलक्षणादारभ्य मर्वत्र-सर्वासु पृथिवीषु वसनाडीमध्ये ऊर्धाधोभावेन चत्वारि चत्वारि खण्डकानि ज्ञातव्यानि । सनाड्यान्तु बहिद्वितीयाद्यासु पृथिवीषु यथाक्रमं खण्डकानां त्रिकं त्रिकं द्विकं द्विकमेकैकं च खण्डकं तावद् विज्ञेयं यावत् सप्तमी पृथ्वी । इयमत्र भावना-रत्नप्रभायां तावत् सनाड्याः यहिः खण्डकानामभाव एव । ततः शर्कराप्रभाया उपरितनतलादारभ्य दक्षिण-वामभागयोः प्रतिपङ्क्ति तिरश्चीनानि त्रीणि त्रीणि खण्डकानि तावदृधिोभावेन ज्ञेयानि यावत्सप्तमपृथिव्या अधस्तनो भागः । ततो वालुकाप्रभाया उपरितलादराभ्य उभयपाश्चयोः खण्डकत्रयात्पुरतः पुनरपि त्रीणि त्रीणि खण्डकानि तावदवसेयानि यावत्मप्तमी पृथिवी । ततः पङ्किप्रभाया उपरितलादारभ्य द्वयोः पार्श्वयोः पूक्तिखण्ड केभ्यः परतो द्वे द्वे खण्डके तावदधगन्तव्ये यावत्सप्तमी पृथिवी । ततः पुनरपि धृमप्रभाया आरभ्य पार्श्वद्वयेऽपि द्वे द्वे खण्डके तावद्भवतो यावत्सप्तमी पृथिवी । ततो भूयोऽपि तमःप्रभाया आरभ्य पार्श्वद्वयोस्तावदेकै खण्डकं स्थापनीयं यावत् सप्तमी पृथिवी । ततः ... 11१५०॥ PRASHARE Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200L प्रवचन सारोद्धारे सटीके "द्वितीयः लोकखण्डकादि गाथा ९०२. सप्तम्यामपि पृथिव्यां पूर्वोक्तखण्डकेभ्यः परत उभयपाययोरेकै खण्डकं प्रतिपङ्क्ति तावद्भवति यावत्सधिस्तनी पङ्क्तिरिति । तदेवमधोलोके ऊर्धाधोभावेन खण्ड कान्युक्तानि ॥९०९॥ अथ तमस्तमःप्रभाया आरम्य रत्नप्रभा यावत्प्रतिपृथिवि तियवस्खण्डकामाणमाह-"अडवीसा' गाहा, सप्तम्या-तमस्तमःप्रभायां नरकपृथिव्यामष्टाविंशतिः खण्डकानि तिर्यग्भवन्ति । तत्र त्रसनाडया बहिरेकपा द्वादश द्वितीयपार्वेऽपि द्वादश सनाडीमध्ये च चत्वारीति । तमःप्रभायां षडविंशतिः खण्डकानि, चत्वारि मध्ये बहिर्भागयोश्चैकादशैकादशेति । धृमप्रभायां चतुर्विंशतिः, चत्वारि मध्ये उभयपार्श्वयोश्च दश दशेति । पङ्कप्रभायां विंशतिः, मध्ये चत्वारि बहिर्भागयोश्चाष्टाष्ट्राविति । वालुकाप्रभायां पोडश, मध्ये चत्वारि उभयपार्श्वयोश्च षट् षडिति । शर्कराप्रभायां तिर्यग्दश खण्डकानि, चत्वारि मध्ये दक्षिण-वामभागयोश्च त्रीणि त्रीणीति । रत्नप्रभायां च प्रसनाडीमध्यगतान्येव चत्वारि तिर्यक्खण्डकानीत्येवं सप्तस्वपि नमस्तम:प्रभाद्यास प्रथिवीप तिर्यक्तिस्वीनखण्डकानां-कल्पित चतरनाकारनभोभागरूपाण परिमाणसङ्ख्यानं समवसेयमिति ॥९१०॥ - अथ सकलस्थापि लोकस्य खण्डकसर्वसङ्ख्यामाह-'पञ्चे' त्यादि, पश्च शतानि द्वादशोत्तराणिद्वादशाधिकानि खण्डकानां 'हे'त्ति अधोलोके भवन्ति । तथाहि-'अडवोसा' इत्यादिगाधोक्तान अष्टाविंशत्याद्यवान् मीलयित्वा प्रतिपृथिवि अष्टाविंशति-षड्विंशत्यादि वण्डकसङ्खयोपेतपकिनचतुष्टयमझाबाच्चतुर्भिगुणयेत् , ततो जायन्ते पश्च शतानि द्वादशोत्तराणीति । 'अह उद' ति, अथ-अधोलोकादनन्तरमूर्ध्वम्-ऊर्ध्वलोके त्रीणि शतानि चतुर्भिरभ्यधिकानि खण्डकानां भवन्ति । 'तिरियं चउरो दोसु' भट्ठावीसे' त्यादि-मु.॥ प्र.आ. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः ॥१५२॥ इत्यादिगाथाद्वितयोदितखण्डकमीलने यथोक्तमङ्ख्यासद्भावात् । सर्वाणि चाधोलोको_लोकसम्बन्धीनि । खण्डकानि मिलितानि अष्टौ शतानि पोडशाधिकानि भवन्तीति ।।९११॥ लोकअथ सर्वस्मिन्नपि लोके यावत्यो यावत्यो रज्जवो भवन्ति तावतीदर्शयितुमाह-'बत्तोस' इत्यादि, खण्डका रुचकस्य-पूर्वोक्तस्वरूपस्थाधस्तादधोलोके इत्यर्थः द्वात्रिंशद्रज्जवो भवन्ति ज्ञातव्याः, इह किल त्रिधा गाथा रज्जू:-सूचीरज्जूः प्रतररज्जूपनरज्जूश्च । तत्रायामतः खण्डकचतुष्टयप्रमाणा बाहल्यतः पुनरेकखण्डप्रमिता खण्डकश्रेणिः सूच्याकारव्यवस्थापितखण्डकचतुष्टयनिष्पन्नत्वात्सूचीरज्जूः, स्थापना ....तथा एपेव प्राक्प्र-९१७ दर्शिता खण्डकचतुष्कात्मिका सूचिस्तयैव गुण्यते, अतः प्रत्येक खण्डक चतुष्टयनिष्पन्नसूचीचतुष्टयात्मिका प्र. आ. उपरितनाधस्तनखण्डकरहिता पोडशखण्डकसङ्ख्या प्रतररज्जूः सम्पद्यते, स्थापना तथा प्रतर एव मूच्या २६९ गुणितो दैव्येण विष्कम्भतः पिण्डतश्च सममङ्ख्यखण्डकोपेता सर्वतश्चतुरस्रा घनरज्जूः । देादिषु विष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव घनस्येह रूढत्वान् । प्रतररज्जुश्व दीर्घ-विष्कम्भाभ्यामेव समानपिण्डस्तस्यैकखण्डकमात्रत्वादिति भावः । एषा च घनरज्जूश्चतुःषष्टिखण्ड कात्मिका, पूर्वोक्तमूच्याऽनन्तरोदितषोडशखण्डकप्रमिते प्रतरे गुणिते एतावतामेव खण्डकानां भावान् । स्थापना च-पागुक्तपोडशखण्डकात्मकतरस्योपरि तीन वारान् षोडश षोडश खण्ड कानि दवा भावनीया । तथा च देध्य विष्कम्भ-पिण्डैस्तल्योऽयमापद्यत इति । उक्तं च-- "मुई रज्जू चउहिं उ खंडगेहिं मोलमहि पयरज्जू य । चउसद्विखंडगेहिं घणरज्जू होइ विन्नेया ||१॥" ॥१५२॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके लोकस्वण्डकादि गाथा ततो द्वादशोत्तरपश्वशतरूपस्याधोलोकखण्डकराशेः प्रतररज्ज्वानयनाय षोडशभिर्भागे हते द्वात्रिंशप्रवचन प्रतररज्जवो भवन्ति । तथा उपरि-ऊलोके एकोनविंशतिः प्रतररज्जवः, चतुरुत्तरशतत्रयस्य षोडशसारोदार भिर्भागहारे एकोनविंशतेरेव लभ्यमानत्वात् । तथा सर्वपिण्डेन-अधोलोको लोकसम्बन्धिसर्वरज्जूमील नेन एकपञ्चाशत्प्रतररज्जवो भवन्तीति ।।९१२।। द्वितीयः साम्प्रतं घनरज्जूसङ्ख्या प्रतिपिपादयिषुः प्रथम तावल्लोकघनीकरणमाह--'दाहिण' गाहा, 'हेटाओ' गाहा, ऊर्ध्वलोके त्रमनाउथा दक्षिणपार्श्ववर्तिनी ये द्वे खण्डे--ब्राह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च खण्डं ते परिगृह्य विपरीते च विधाय-अधस्तनभागमुपरितनम् उपरितनं चाधः कृत्वेत्यर्थः, वामपावें सन्दध्यात्-संयोजयेत् । ततस्ते द्वे खण्डे रज्जूविस्तृतया सताडया युते सर्वत्र विस्तरतस्तिस्रो रज्जयो जाताः, ऊर्ध्वाधश्वोच्छ्येण सप्त रज्जवः इत्यूललोकसंवर्त्तनम् , 'हेटाउ' ति अधस्ताद्-अधोलोके पुनस्त्रसनाडीतो वामभागवर्ति खण्डं बुद्धया गृहीत्वा दक्षिणपार्श्वे विपरीतं कृत्वा स्थापयेत् । तत उपरितनसंवतितोयलोकरूपं खण्डं त्रिरज्जूविस्तीर्ण संवर्तिताधोलोकखण्डस्य वामे स्थाने-वामपायें सङ्घातयेत् । इयमत्र भावना-इह स्वरूपतस्तावल्लोक उर्धाधश्चतुर्दशरज्जूप्रमाणः अधस्ताद्विस्तरतो देशोनसप्तरज्जूप्रमाणः, तिर्यग्लोकमध्यभागे एकरज्जूः, ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जूः उपरि च लोकान्ते एकरज्जूः, शेषस्थानेषु पुनरनियतविस्तरः । एवंप्रमाणस्य लोकस्य वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य घनीकरणाय प्रथममुपरितनलोकाध संवय॑ते । तथाहि-सर्वत्रैकरज्जूविस्तीर्णायास्त्रसनाडथा दक्षिणभागवर्तिनी ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च ये द्वे खण्डे कूर्पराकारसंस्थिते ब्रह्मलोकमध्ये प्रत्येकं द्विरज्जूविस्तीर्णे देशोनार्धचतुष्टय प्र.आ. २६९ ॥१५॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १४३ द्वारे लोक खण्डकादि गाथा द्वितीयः खण्ड १५४|| रज्जूच्छये ते बुद्धिकल्पनया समादाय सनाड्या एवोत्तरपार्वे चैपरीत्येन सङ्घात्येते, एवं चोपरितनं लोकाध विरज्जूविस्तारं देशोनसप्तरज्जूच्छ्यम् , बाहल्यतस्तु ब्रह्मलोकमध्ये पश्चरज्जूप्रमाणमन्यत्र त्वनियतबाहल्यं जायते । ततोऽधोलोके च सनाडथा दक्षिणभागवय॑धोलोकखण्डमधोमागे देशोनत्रिरज्जूविस्तारं क्रमेण हीयमानविस्तरं तावद्यावदुपरिष्टाद्रज्ज्वसङ्ख्येयभागविष्कम्भं समधिकसप्तरज्जूच्छ्यं बुद्धथा परिगृह्य वसनाडया एवोत्तरपाचे ऊर्ध्वाधोभागविपर्यासेन संयोजयेत् । एवं च कृतेऽधस्तनं लोकाधं देशोनचतू. रनिगा सानिरेलमारजनलयं बाइल्यतोऽप्यधः क्वचित्किश्चिदूनसप्तरज्जूमानम् , अन्यत्र त्वनियतयाहल्यं जयाते । तत उपस्तिनमधं वुद्धया गृहीत्वाऽधस्तनस्यार्थस्योत्तरपाचे सङ्घात्यते । तथा च सति कच. त्सातिरेकसप्तरज्जूच्छया, क्वचिच्च देशोनसप्तरज्जूच्छ्यः , विस्तरतस्तु देशोनसप्तरप्रमाणो धनो जातः । ततः सप्तरज्जूनामुपरि यदधिकं तत्परिगृह्य उत्तरपार्थे उर्ध्वाध आयतं सङ्घात्यते । ततो बिस्तरतोऽपि परिपूर्णाः सप्तरज्जवो भवन्ति । तथा सङ्घातितोपरितनखण्डस्य पाहल्यं क्वचितपत्र रज्जयः, अधस्तनखण्डम्य तु बाहल्यं अधस्ताद्यथासम्भवं देशोनाः सप्त रज्जवः । तत उपरितनखण्डवाहल्यादेशोनरज्जूद्रयमत्रातिरिच्यते इत्यस्मादतिरिच्यमानबाहल्यादधं गृहीत्वा उपरितनखण्डचाहल्ये संयोज्यते । एवं च कृते बाहल्यतस्तावत् कियत्यपि प्रदेशे किश्चिदूनाः षट् रजवो भवन्ति । व्यवहारतस्तु सर्वमध्येतचतुरस्रीकृतनभाखण्डं सप्तरज्जूप्रमाणमुच्यते । व्यवहारनयो हि किञ्चिन्न्यूनसप्तहस्तादिप्रमाणमपि पटादिवस्तु परिपूर्णसप्तहस्तादिमानं व्यपदिशति । देशतोऽपि च दृष्टं वाइल्यादिधर्म परिपूर्णेऽपि वस्तुनि व्यवस्यति स्थूलअष्टित्वादिति भावः । अत एव तन्मतेनैवात्र सप्तरज्जवाहल्यता सर्वगताऽयगन्तव्या । आयाम-विष्कम्भाम्या प्र.आ. २७० ||2yz Marathawnishtaang ... ma d h ubalbesexdadisudiode Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन - सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१५५॥ मपि यत्र देशोनसप्रज्ज्प्रमाणमिदं व्यवहारतस्तत्रापि प्रत्येकं सप्तरज्जूप्रमाणता दृश्या । तदेवं व्यवहारनयमतेनायाम- विष्कम्भ बाहल्यैः प्रत्येकं सप्तरज्जुप्रमाणो घनो जायते । एतच पट्टिकादौ लिखित्वा भावनीयमिति ॥ ९१३ --९१४।। इदानीं घनीकृतस्य लोकस्य रज्जूसख्यां प्रतिपादयितुमाह - ' तिणि' इत्यादि, सर्वस्मिन्नपि चतुरज्ज्वात्मके लोके कृते त्रिचत्वारिंशदुत्तराणि त्रीणि शतानि रज्जूनां भवन्ति । अथ घनीकरणे की संस्थानी लोकः सम्पद्यते ? तत्राह - 'उस होइ जयं' चतुरस्र - सर्वतः समचतुरस्र जगत्लोको भवति । संवर्तितं सदिति शेषः । इयं च त्रिचत्वारिंशदुत्तरशतत्रयलक्षणा रज्जूसङ्ख्या सप्तानां घनेन 'समत्रिराशिहतिर्धन' इतिवचनादन्योऽन्यं त्रिस्ताडनेन जायते । एतदुक्तं भवति - संवर्तितस्य लोकस्यायाम विष्कम्भवाल्यानां प्रत्येकं सप्तरज्जूमानत्वात् सप्त सप्तकेन गुण्यन्ते जाता एकोनपञ्चाशत्, साऽपि पुनः सप्तकेन गुण्यते जातानि त्रीणि शतानि त्रिचत्वारिंशानीति । एतच्च व्यवहारमाश्रित्योक्तम्, निश्श्यतस्तु एकोनचत्वारिंशदधिकशतद्वय सङ्ख्यानामेव घनरज्जून सम्भवात् । तथाहि-षटपञ्चाशत्सङ्ख्यास्वपि पङ्क्तिषु 'तिरीयं चउरो दोस्र" इत्यादिगाथाकथितानि चतुरादीनि प्रतरखण्डकानि एकैकपक्तिगतानि पृथक्पृथग्वर्ग्यन्ते । 'सदृशद्विराशिघातो वर्ग' इतिवचनात् चतुष्कादयोऽङ्काश्चतुष्कादिभिरेव गुण्यन्ते इत्यर्थः । जाताः षोडशादयोऽङ्काः । तेषां च सर्वमीलने पञ्चदश सहस्राः yorare च द्वे शते खण्डकानां भवन्ति । अस्य च राशेर्धनरज्जू समानयनाय चतुःषष्ट्या भागो हियते । ततो जायन्ते' एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशतसङ्ख्या एव घनरज्जव इति । उक्तं च१ ०ते - मु. ॥ १४३ द्वारे लोकखण्डकादि गाथा ९०२ ९१७ प्र. आ. २७० ॥१४५॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके लोक द्वितीयः खण्ड: 'अह उपरि छप्पन्ना पयरपच्चरखदिठ्ठखंडाणं । वग्गं कुणह पिहु पिहु संजोगे तिजयगणियपयं ॥१॥ सहसेगारस दुसया बत्तीसहिया अहमि खंडाणं । समदीह पिहुव्वेहाण रज्जुचउरंसमाणेण ॥२॥ चत्तारि सहस्साई चउसद्विजुआई उड्ढलोगम्मि ! पनरसमहम्स दुमयं कृण्ण उयं जायमुभएसि ॥३॥ खण्डकादि चउसट्ठीए विहत्तं उणयाला दो सया हविज्जे । लोए धणरज्जूणं तिरियं चउरोति गाहत्थो ॥४॥' |६१५॥ गाथा अथोलोके यावत्सु खण्डकेषु यावन्तो देवलोका भवन्तीत्येतदाइ-'सु' इत्यादि, 'रुचकसमाद् भूभागादुपरिमुखेषु पटसु खण्डकेषु, सार्धरज्जूप्रमाणे क्षेत्रे इत्यर्थः । द्विकं-सौधर्मशानलझणं देवलोकद्वयं । भवति । ततोभ्युपरितनेषु चतुर्यु खण्डकेषु-रज्जूमाने क्षेत्रे सनत्कुमार-माहेन्द्ररूपं देवलोकद्विकं भवति । प्र. आ. ततोऽप्युपरि दशसु खण्डकेषु-अर्धतृतीयरज्जूप्रमिते क्षेत्रे भवन्ति ब्रह्मलोक-लान्तक-शुक्र-महस्रारस्वरूपा २७१ श्वत्यागे देवलोकाः । तदनु चतुर्यु खण्ड केषु-रज्जूपरिच्छिन्ने क्षेत्र आनत प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युननामकानां देवलोकानां चतुष्कं भवति । ततः सर्वोपरिवर्तिनि खण्डकचतुष्टये-अन्तिमरज्जो नवग्रेवेयक विजय वैजयन्त जयन्ता-ऽपराजित-सर्वार्थसिद्धाख्यानि पश्चानुत्तरविमानानि सिद्धिक्षेत्रं च भवन्तीति ।।९१६।। सम्प्रति रज्जुस्वरूपमाह-सयंभु' इत्यादि, सकलद्वीपपयोधिपर्यन्तवर्तिनः स्वयम्भूरमणाभिधानजलनिधेः 'परतटवर्ती 'पुरिम' ति पूर्ववेदिकान्तादारभ्य यावत्तस्यैव तोयधेरपरवेदिकान्तः एतावत्प्रमाणा रज्जूरवगन्तव्या । अनेन च रज्जूमानेनोच्छ्यतो लोकश्चतुर्दशरज्जूप्रमाणो भवतीति ॥९१७॥१४३॥ १ अस्मिन विषये विविध मतान्तराय लोकप्रकाशसर्ग-२२ श्लोक ११ तः द्रष्टव्यः । २ परतटवर्ती मु. नास्ति ।। RBSE... chanel . ..... . . .... . ..tein Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटौके क्यादि द्वितीयः वन्ड: इदानीं 'सन्नाओ तिन्नि' ति चतुश्चत्वारिंशं शततमं द्वारमाह सन्नाउ तिनि पहमेऽस्थ दीहकालोवएसिया नाम । तह हेउवायदिट्ठीवाउचएसा तदियराओ ॥९१८॥ एयं करेमि एयं कयं मए इममहं करिस्सामि । सो दोहकालसन्नी जो हय तिकालसन्नघरो ॥९१९॥ जे उण संचिंतेउ इटाणिठेसु विसयवत्थूसु । 'वत्तंति नियतंति य सदेहपरिपालणाहेउं ॥९२० पाएण संपइच्चिय कालंमि न यावि दोहकालंमि । ते हेउवायसन्नी निच्चेट्ठा हुति हु असन्नी ॥९२१॥ सम्मट्टिी सन्नी 'संते नाणे खओवसमिए य । अस्सन्नी मिच्छत्तंमि दिद्विवाओवरसेणं ।।९२२।। 'सन्नाउ तिन्नि' गाहा, मंज्ञानं संज्ञा ज्ञानमित्यर्थः । सा त्रिभेदा 'पढमेत्य' ति प्रथमा-आया, अत्र-एतासु तिसृषु संज्ञासु मध्ये दीर्घकालोपदेशिकी नाम, दीर्घकालमतीतानागतवस्तुविषयत्वेनोपदेशःकथनं यस्याः सा दीर्घकालोपदेशी, सैव दीर्वकालोपदेशिका । तथा तदितरे-द्वितीया तृतीये हेतुवाद-दृष्टिवादोपदेशे । उपदेशशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् हेतुवादोपदेशा द्वितीया सज्ञा, दृष्टिवादो. १ वट्टति-ता. ॥ २ सम्मे-ता.सं. ॥ ३ ०शा-ख. सि.॥ ४ द्वितीय तृतीये मु० । द्वितीये० सं० ।। ३ संज्ञा गाथा९१८. ९२२ प्र. आ. ||१५७॥ २७१ 1०५७ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदेशा च तृतीयेत्यर्थः । तत्र हेतुः कारणं निमित्तमित्यनान्तरं तस्य वदनं-बादस्तद्विषय 'उपदेशः-प्ररू.. प्रवचन पणं यस्यां सा हेतुबादोपदेशा । तथा दृष्टिः-दर्शनं सम्यक्त्वं तस्य वदनं-बादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः सारोद्धारे तद्विषय उपदेश:-प्ररूपणं यस्यां सा दृष्टिवादोपदेशेति ॥९१८॥ सटीके __अथ दीर्घकालोपदेशसंज्ञायाः स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुस्तया संज्ञिनमेचाह-'ए,' इत्यादि, एतत्करोद्वितीय म्यहम् , एतत्कृतं मया, एतत्करिष्याम्यहम् , इत्येवं यस्त्रिकालविषयां वर्तमानातीतानागतकालत्रयवर्तिवस्तुविशां गंझा-मनोविज्ञान धारादि ल दीर्घकालसंज्ञी । दीर्घकाला-दीर्घकालोपदेशा संज्ञाऽस्यास्ती तिकृत्वा । स च गर्भजस्तियङ् मनुष्यो बा, देवो नारकश्च मनःपर्याप्तियुक्तो विज्ञेयः, तस्यैव त्रिकाल॥१५॥ विषयविमर्शादिमम्भवात् । एष च प्रायः सर्वमप्यर्थ स्फुटरूपमुपलभते । नथाहि-यथा चक्षुष्मान प्रदीपादिप्रकाशेन स्फूटमर्थमुपलभते तथैषोऽपि मनोलब्धिसम्पन्नो मनोद्रव्यावष्टम्भसमुत्थविमर्शवशतः पूर्वापरानुसन्धानेन यथावस्थितं स्फुटमर्थमुपलभते । यस्य पुनर्नास्ति तथावित्रिकालविषयो विमर्शः सोऽसंज्ञीति सामर्थ्याल्लभ्यते । स च सम्मूछिमपञ्चेन्द्रियविकलेन्द्रियादिविज्ञेयः । स हि स्वल्पस्वल्पतरमनोलब्धिसम्पन्नत्वादस्फुटमस्फुटतरमथं जानाति । तथाहि-संक्षिपञ्चेन्द्रियापेक्षया सम्मृद्धिमपञ्चेन्द्रियोऽस्फुटमर्थ जानाति, ततोऽप्यस्फुटं चतुरिन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतमं द्वीन्द्रियः, ततोऽप्यत्यस्फुटतममेकेन्द्रियः, तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भवात् । केवलमव्यक्तमेव किश्चिदतीवाल्पतरं मनो द्रष्टव्यं -- यद्वशादाहारादिसज्ञा अव्यक्तरूपाः प्रादुष्यन्तीति १ ॥९१९॥ ११ उपदेशः प्ररूपणा-मुः । उपदेश प्ररूपण-सि ।। १४४ द्वारे कलि क्यादि ३ संज्ञा गाथा ९१८९२२ प्र.आ. २७१ ॥१५८॥ 207ठाया Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ द्वारे प्रवचनसारोद्धारे सटीके क्यादि द्वितीयः खण्डः साम्प्रतं हेतु वादोपदेशसंज्ञया संज्ञिनमसंज्ञिनं चाह-"जे उण' गाहा, 'पारण' गाहा, ये पुनः सश्चिन्त्य सश्चिन्त्येष्टानिष्टेषु-छाया-ऽऽतपा-ऽऽहारादिषु विषयवस्तुषु मध्ये स्वदेहपरिपालनातोरिष्टेषु वर्तन्ते, अनिष्टेभ्यस्तु तेभ्य एव निवर्तन्ते. प्रायेण च साम्प्रतकाल एव, न चापि-नैव दीर्घकाले-अतीताऽनागतलक्षणे, प्रायोग्रहणात् केचिदतीता-ऽनागतकालावलम्बिनोऽपि नातिदीर्घ कालानुसारिणः ते द्वीन्द्रियादयो हेतुपादोपदेशसंज्ञया संज्ञिनो विज्ञेयाः । अत्र च निश्चेष्टा:-धर्माद्यमितापेऽपि तन्निराकरणाय प्रवृत्तिनिवृणिविरहिताः पृशिरसाद समाज्ञिनो भवन्ति ।। इदमुक्तं भवति-यो बुद्धिपूर्वकं स्वदेहपरिपालनार्थमिष्टेप्वाहारादिषु वस्तुषु प्रवर्तते, अनिष्टेभ्यश्च निवर्तते स हेतूपदेशसंज्ञौ । स च द्वीन्द्रियादिरपि वेदितव्यः । तथाहि-इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिसञ्चि- न्तनं न मनोव्यापारमन्तरेण सम्भवति । मनसा च पर्यालोचनं संज्ञा । सा च द्वीन्द्रियादेरपि विद्यते। तस्यापि प्रतिनियतेष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् । ततो द्वीन्द्रियादिरपि हेतूपदेशसंज्ञया संज्ञी लभ्यते । नवरमस्य सश्चिन्तनं प्रायो वर्तमानकालविषयम् , न भूत-भविष्यद्विषयमिति, नायं दीर्घकालोपदेशेन संझी । यस्य पुनर्नास्त्यभिसन्धारणपूर्विका प्रवृत्तिनिवृत्तिशक्तिः स प्राणी हेतुवादोपदेशेनाप्यसंज्ञी लभ्यते, स च पृथिव्यादिरेकेन्द्रियो वेदितव्यः । तस्याभिसन्धिपूर्वकमिष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्त्यसम्भवात् । या अपि च आहारादिका दश संज्ञाः पृथिव्यादीनामप्यत्र वक्ष्यन्ते प्रज्ञापनायामपि च प्रतिपादितास्ता अप्यत्यन्त गाथा ९१८| ९२२ प्र.आ. २७२ ॥१५॥ १ जेणेत्यादिगाथाद्वयं-खं. ॥ २ द्रष्टव्य प्रज्ञापनासू. पर / सू.७२५ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन । सारोद्धारे - सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१६॥ मव्यक्तरूपा मोहोदयजन्यत्वादशोभनारचेति न तदपेक्षयाऽपि तेषां संज्ञित्वव्यपदेशः । न हि लोकेऽपि ॥१४४ द्वारे कार्षापणमात्रास्तित्वेन धनवानुच्यते, न चाविशिष्टेन मूर्तिमात्रेण रूपवानिति । अन्यत्रापि हेतुवादो कालिपदेशसंज्ञित्वमाश्रित्योक्तम्-"कृमिकीटपतङ्गायाः समनस्काजङ्गमाश्चतुर्भेदाः ।। क्यादि अमनस्काः पञ्चविधाः पृथिवीकायादयो जीयाः ॥२॥ २ ॥१२॥९२१॥ ३ संज्ञा अथ दृष्टिवादोपदेशसंज्ञया संझिनमसंज्ञिनं चाह-'सम्मे' त्यादि, दृष्टिवादोपदेशेन 'क्षायोपशमिकज्ञाने गाथा वर्तमानः सम्यग्दृष्टिरेव संज्ञी । संज्ञानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञानं तयुक्तत्वात् । मिथ्यादृष्टिः पुनरसंझी विपर्ययत्वेन ९१८. वस्तुतः सम्यग्ज्ञानरुप संज्ञारहितत्वाद । यद्यपि च मिथ्यादृष्टिरपि सम्यग्दृष्टिरिव घटादिकंजानीते व्यवहरति च ९२२ तथापि तस्य सम्बन्धि व्यवहारमात्रेण ज्ञानमपि निश्चयतोऽज्ञानमेयोच्यते । स्याद्वादाश्रयणेन ज्ञाननिबन्धनस्य प्र. आ. भुवनगुरुनिर्णीतयथावस्थितवस्त्वभ्युपगमस्य कदाचिदप्यभावात् । आह-यदि विशिष्टसंज्ञायुक्तत्वात २७२ सम्यग्दृष्टिः संक्षीप्यते तहि किमिति क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तोऽसौ गृह्यते ?, क्षायिक ज्ञाने हि विशिष्टतरा सा प्राप्यते, ततस्तवृत्तिरप्यसौ कि नाङ्गीक्रियते ?, उच्यते, यतोऽतीतस्यार्थम्य स्मरणमनागतस्य च चिन्ता संज्ञाऽभिधीयते सा च केवलिना नास्ति. सर्वदा सर्वार्थावभासकत्वेन केवलिना स्मरणचिन्ताद्यतीतत्वात् इति क्षायोपशमिक्रज्ञान्येव सम्यग्दृष्टिः संज्ञीति । ननु प्रथमं हेतवादोपदेशेन संज्ञी वक्तुयुज्यते, हेतुबादोपदेशेनाल्पमनोलब्धिसम्पन्नस्थापि द्वीन्द्रियादेः मंझित्वेनाभ्युपगमात् तस्य चाविशुद्धतरत्वात् । ततो दीर्घकालोपदेशेन, हेतूपदेशसंज्यपेक्षया दीर्घकालोपदेशमंझिनो मनःपर्याप्तियुक्ततया विशुद्धत्वात् , तत्किमर्थमुत्क्रमो. १क्षायोपशमिके-मु. ।। २ सही-ख.सं. नास्ति ॥ ३ ०नि-मु.॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: आहगदि ४ मंज्ञा गाथा पन्यासः १, उच्यते, इह सर्वत्र सूत्रे यत्र कचित्संझी असंझी वा परिगृह्यते तत्र सर्वत्रापि प्रायो दीर्घकालोपदेशेन गृह्यते, न हेतुवादोपदेशेन नापि दृष्टिवादोपदेशेन । तत एतत्संप्रत्ययार्थ प्रथमं दीर्घकालोपदेशेन संझिनो ग्रहणम् , उक्तं च"सन्नित्ति असन्नित्ति य सब्बसुए कालिओवएसेणं । पायं संववहारो कीरइ तेगाइओ स कओ। " ततोऽनन्तरमप्रधानत्वात् हेतूपदेशेन संज्ञिनो ग्रहणम् , ततः सर्वप्रधानत्वादन्ते दृष्टिवादोपदेशेनेति ॥९२२॥१४४॥ इदानीं 'सन्नाओ चउरो' ति पश्चचत्वारिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह-- आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ रुवाओ हुँति चत्तारि । सत्ताणं सन्नाओ आसंसारं समग्गाणं ॥९२३॥ 'आहार' गाहा, संज्ञानं संज्ञा-आभोगः, सा द्विधा-क्षायोपशमिकी औदयिकी च । तत्राद्या ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यमतिभेदरूपा, सा चानन्तरमेवोक्ता । द्वितीया पुनः सामान्येन चतुर्विधाऽऽहार संज्ञादिलक्षणा, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयाद् या कवलाद्याहाराद्यर्थ तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया सा आहारसंज्ञा, तस्या 'आभोगात्मिकत्वात् , सा पुनश्चतुर्भिः कारणैः समुत्पद्यत्ते, यदुक्तं स्थानाङ्गे ___ "चउर्हि ठाणेहि आहारसन्ना समुप्पज्जइ, तंजहा- ओमकोड्याए छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्सुदएणं मईए तदट्ठोवओगेणं" [सू.३५६] ति । १ आमोगात्मक. सं.॥२ ओमकु. मु. । स्थानाङगेऽपि ओमको इति पाठः ॥ प्र.आ. २७३ ॥१६॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीक Fede द्वितीय खण्ड: r -- ॥१६॥ तत्र अवमकोष्ठतया-रिक्तोदरतया, 'क्षुकलीयस्य कर्मण जनरेगा परमा--आहालथाश्रवणादिजनि |१४५ द्वारे तबुद्धया, तदर्थोपयोगेन-सततमाहारचिन्तयेति १। तथा भयमोहनीयोदयायोदभ्रान्तस्य दृष्टिबदन आहारादि विकाररोमाञ्चोद्भेदादिक्रिया भयसंझा । इयमपि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते, यदुक्तम् -- ४ संज्ञा "होणसत्तयाए भयवेयणिज जस्स कम्मम्स उदएणं मईए तदट्ठोवोगेणं" [स्थानाङ्ग सू.३५६] ति । गाथा तत्र हीनमत्त्वतमा-सच्चाभावेन, * 'भयवेदनीयस्य कर्मण उदयेन, मत्याभयवार्ताश्रवण-भीषण ९२३. दर्शनादिजनितया बुद्धया, तदर्थोपयोगेन- इहलोकादिभयलक्षणार्थपर्यालोचनेनेति २। तथा लोभोद प्र. आ. यात्प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतन्द्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसंज्ञा । एपापि चतुर्भिः स्थान २७३ रुत्पद्यते, यदुक्तम्____ "अविमुत्तयाए लोभवेणिजम्स कम्मम्स उदएणं मईए तट्ठोत्रओगेणे" ति । [स्थानाङ्गमू, ३५६] ति । तत्र अविमुक्ततया-सपरिग्रहतया, "लोभवेदनीयकर्मण उदयेन A मत्या-सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्धया, तदर्थोपयोगेन-परिग्रहानुचिन्तनेनति ३ । तथा पुवेदोदयान्मैथुनाय म्ध्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तंभितोरवेपथुप्रभृतिलक्षणा क्रिया मैथुनसंज्ञा । अपावपि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते । यदुक्तम्-'चियमंससोणियाए मोहणिज्जस्स कम्मस्म उदएणं मईए तदट्ठोवओगेणं' [स्थानाङ्गस. ३५६] ति । तत्र चिते- ॥१२॥ भिनयमगपतिपाठः स्वं जो नामित सि. प्रती पायेमागे बघितोऽस्ति । एवम विष्वपि स्थलेषु॥ विजयमध्यवर्तिपाल वं. नास्ति। ३ लोकाशिसप्तमय-॥ ४ चिश्वयमध्यवर्तिपाठ जे लं. नास्ति ॥ - - woman SomHTRANSpetire ॐ ERE Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: स्व: ॥१६३॥ 'मोहनीयस्य कर्मण उपचिते मांस शोणिते यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तथा चितमांसशोणिततया, उदयेन मत्या - सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्धया, तदर्थोपयोगेन -- मैथुनलक्षणार्थचिन्तनेनेति ४ । एताश्चतस्रः संज्ञाः समग्राणामेकेन्द्रियादीनां पञ्चेन्द्रियपर्यवसानानां सच्चानां जीवानामासंसारं संसारवास यावद्भवन्ति । तथा च केषाञ्चिदे केन्द्रियाणामप्येताः स्पष्टमेवोपलभ्यन्ते । तथाहि जलाद्याहारोपजीवनावनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा, सङ्कोचनीवल्ल्यादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्या अवयवसङ्कोचनादिभ्यो भयसंज्ञा, विल्व - पलाशादीनां तु निधानीकृतद्रविणोपरि पादमोतादम्याएर अशोक तिलकादीनां तु कमनीय कामिनीजनावगूहन-राणिप्रहार कटाक्ष विक्षेपादिभ्यः प्रसून पल्लवादिप्रसवदर्शनान्मैथुनसंज्ञेति ॥ ९२३ ॥ १४५ ॥ इदानीं सन्नाओ दस' त्ति षट्चत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ तह कोह ५ माण ६ माया ७ य । लोभो ८ ह ९ लोग १० सन्ना दसभेया सव्वजीवाणं ॥ ९२४ ॥ 'आहार' गाहा, संज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति संज्ञा वेदनीय मोहोदयाश्रिता ज्ञानावरण दर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्राहारादिप्राप्तिक्रिया । सा चोपाधिभेदादशविधा । तत्राहार-भय-परिग्रह-मैथुनसंज्ञा अनन्तरमेव व्याख्याताः । तथा क्रोधवेदनीयोदयात्तदा वेशगर्भा परुषमुखनयनदन्तच्छदस्फूरणादिचेष्टा क्रोधसंज्ञा, मानोदयादहङ्कारात्मिका उत्सेकादिपरिणतिर्मानसंज्ञा, मायावेदनीये ना शुभ सङ्क्लेशादनृतस१ चिनद्वयमध्यवर्ति पाठ: जे. खं. नास्ति ।। २ प्रसूनपल्लवादिप्रसवप्रदर्शनः || ३ तुलना भगवतीसू. ७ ८ २६६ ॥ ४ दसऽवेया - मु. ॥ १४६ द्वारे १० संज्ञा गाथा ९२४ प्र. आ. २७३ ॥ १६३॥ A Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-- सारोद्धारे सटीके द्वितीयः गाथा ९२५. प्र. आ. ॥१६॥ म्माभाषणादिक्रिया मायासंज्ञा, लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभसंज्ञा, तथा .'मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमात् शब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया ओघसंज्ञा तद्विशेषावबोधक्रिया लोकसंज्ञा, एवं चेदमापतितं-दर्शनोपयोग ओघसंज्ञा ज्ञानोपयोगो लोकसंज्ञा एष स्थानाइटीका. भिप्रायः 'आचाराङ्गटीकायां पुनरभिहितम्-प्रोषसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा वल्लीवितानारोहणादिसंज्ञा लोकसंज्ञा "स्वच्छंदघटितविकल्परुपा 'लौकिकाचरिता । यथा- 'न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो यक्षाः, विप्रा देवाः, काकाः पितामहाः, बर्हिणां पक्षवातेन गर्भ इत्यादिका' इति । अपरे तु ज्ञानोपयोग ओघसंज्ञा, दर्शनोपयोगो लोकसंज्ञेत्येवमाहुः । एते दशापि अयं जीव इति संज्ञानहेतुत्वात् संज्ञाः सपा संसारिजीवानां ज्ञेयाः । सुखप्रतिपत्त व स्पष्ट पा. पेन्द्रियानधिकृत्य व्याख्याताः, एकेन्द्रियादीनां स्वेता अव्यक्तरूपा अवगन्तव्या इति ॥९२४।। १४६॥ इदानीं 'सन्नाओ पन्नरसे' ति सप्तचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ सुह ५ दुक्रव ६ मोह ७ 'वितिगिच्छा ८ । तह कोहह माण १० माया ११ लोहे १२ लोगे य १३ धम्मो १४ हे १५॥९२५॥ आचाराङ्गनि. ३९] १... चिहनद्वयमध्यवर्तिपाठः लोकप्रकाशे [सर्ग ३ गा. ४५६ पश्चात] उद्धृतोऽस्ति ॥ २ स्थानाङ्गवृत्तिः [प. ५०५] द्रष्टव्या ॥३ आचारानवृत्तिः [५.१२] द्रष्टव्या ॥४ तु स्व० मु. ॥ ५ लोकोपचरिता-इति लोकरकारो पाठः ।। ६ तहमिच्छा -ता. ।। धे-मु.॥ और TR Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१६५॥ १४८ द्वारे सम्यक्त्व. भेदाः ६७ 'आहार०' गाहा, प्रक्रमायातस्य संज्ञाशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादाहारसंज्ञादय ओसंज्ञापर्यन्ताः पञ्चदश संज्ञा भवन्ति । तत्र दश पूर्वोक्तस्वरूपा एव । सुख-दुःखसंज्ञे-साता सातानुभवरूपे, मोहसंज्ञा - मिथ्यादर्शनरूपा, विचिकित्सासंज्ञा- चिचविप्लुतिलक्षणा, धर्मसंज्ञा- क्षमाद्यासेवनस्वरूपा, एताश्व विशेषानुपादानाद्यथासम्भवं सर्वजीवानामवसेयाः । इह च कचिद् ग्रन्थे चतुर्विधाः संज्ञाः उक्ताः, fatafaधाः कचित्तु पञ्चदशविधाः, ततः कासाञ्चित्पुनर्भणनेऽपि न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम्, तथा गाथा आचाराङगे विलापवैमनस्यरूपां शोकसंज्ञां प्रक्षिप्य षोडश संज्ञाः प्रतिपादिता इति ॥ ९२५ ॥ १४७॥ इदानीं 'सत्तसलिraणभेय विसुद्ध सम्मत्तं' ति अष्टचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाहसहण ४ लिलिंगं ३ दसविणय १० तिसृद्धि ३ पंचगयदोसं ५ | अडपभावण ८ भूसण ५ लक्खण ५ पंचविहसंजुतं विजयणा ६ ssगारं ६ छन्भावण ६ भावियं च उडाणं ६ इय सत्तयसलिखण भेयविसुद्ध च सम्मतं परमस्थसंथवो था १ सुदिपरमत्थसेवणा वावि २ ९२६९४१ प्र. आ. ॥ ९२६॥ २७४ | ॥९२७॥ 1 चावन्न ३ कुदसणवज्जणा य ४ सम्मत्तसद्दहणा ॥ ९२८॥ [ प्रज्ञापना. ११०, गा-१३१] गुरुवाणं जहास माहीए ३ सम्मद्दिस्सि लिंगाई सुरसूस १ धम्मराओ २ वैयावच्चे नियमो 1 ॥९२९॥ १ च. मु. नास्ति ॥ २ बाचाराङ्गवृत्तिः [प. १२ ] द्रष्टव्या ॥ ३ तुलना-धर्म सं. वृतिः मा० ११प. ४३ तः ॥ ४ तह वा "इस सत्तसट्टी भेविसुद्धं तु सम्मतं । इति धर्म सं. वृत्ती मा. १, प. ४३ ॥ ॥१६५॥ XXX€exwap Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१६६॥ अरहंत १ सिद्ध २ चे ३ सय ६ । आपरिय ७ उवज्झाएस ८ पं पवयणे ६ दंसणे १० यावि ॥ ९३० ॥ भक्ती पूया 'वन्नज्जलणं वज्जणमवन्नवायस्स I समासेणं आसायणपरिहारो दंसणविणओ मोसूण जिणं १ मोत्तूण जिणमयं २ जिणमयहिए मोत्तुं संसार कतवारं चिंतिज्जंत जगं सेसं ।। ९३२॥ संका १ ख २ ॥ ९३३ ॥ । गच्छा ३ पसंस ४ तह संथवो कुलिंगोसु ५ । सम्मत्तस्सऽइयारा परिहरियन्वा पयतेर्ण पावणी १ धम्मही २ वाई ३ नेमित्तिओ ४ तवस्सी ५ य विज्जा ६ सिडो य ७ कवी ८ अद्वेव पभावगा भणिया ॥१३४॥ जिणसासणे कुसल्या १ पभावणा २ ऽऽ * ययणसेवा ३ भत्ती य ५ गुणा सम्मत दीवया उत्तमा पंच उसम १ सवेगोऽवि य २ निव्वेओ ३ तह य होइ अणुकंपा ४ । 'अस्थिक्कं चिय ५ एए संमत्ते लक्खणा पंच ॥९३६॥ थिरया ४ । ।। ९३५ ॥ ॥९३१॥ ३ | १ चन्त्रणं - जे. नं. । वन्न ( एस ) जगणं- इति धर्म संवृतौ मा १ प.४३ ॥ ०कफचवारं-मु पुजे कायार कज्जव कतवारा' इति देशीशब्दसंग्रहे . १८३०० स्वं. सं. ॥ ४ थिरया य-सं. ॥ ५ तत्किं जे. ॥ १४८ द्वारे सम्यक्त्वभेदाः ६७ गाथा ९२६ ९४१ प्र. आ. २७४ ॥१६६॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे| । सटीके सम्यक्त्वभेदाः६७ ॥१६७॥ नोअन्नतिस्थिए अन्नतिथिदेवे य तह सदेवेऽपि । गहिए कुतिस्थिएहिं वदामि न वा नमसामि ॥९३७।। नेव अणालतो आलवेमि नो संलवेमि तह तेसिं । देमि न असणाईयं पेसेमि न गंधपुप्फाइ ॥९३८ । रायाभिओगो य १ गणाभिओगो २, पलामिओगो य ३ सुराभिओगो ४ । कतारवित्ती ५ गुरुनिग्गहो य ६, छ छिडिआओ जिणसासणम्मि ॥९३९।। मूल १ दारं २ पहाणं , आहारो ४ भायणं ५ निही ६ । 'दुच्छक्कस्सावि धम्मस्स, सम्मत्तं परिकित्तियं ॥९४०॥ अस्थि य १ निच्चो २ कुणई ३ कयं च वेएइ ४ अधि निव्वाणं ५ । अस्थि य 'मोक्खोवाओ ६ छस्सम्मत्तस्स ठाणाई ॥१४१।। - चसद्दहणे त्यादिगाथाद्वयम् , चत्वारि श्रद्धानानि यत्र तच्चतुःश्रद्धानम् , श्रद्धानचतुष्टयान्वितं सम्यक्त्वं भवतीति भावः । प्राकृतत्वाच्च प्रथमैकवचनलोपः, एवमग्रेऽपि यथासम्भवं 'समासो विभक्तिलोपश्च द्रष्टव्यः। "त्रिलिङ्ग' लिङ्गत्रययुक्तम् , दशविनयं-दश विधविनयोपेतम् , 'त्रिशुद्धि-शुद्धित्रयसमवितम् 'पंच-गयदोसं' ति गताः पञ्च दोषा यस्मात्तद्गतपञ्चदोषम् दोषपश्चकपरिवर्जितमित्यर्थः। छन्दो ९२६. ९४१ प्र. आ. २७५ ॥१६७॥ १.दुककत्सविता ।। २ मोक्खाषाओ-मु.। धर्म सं. वृत्तायपि मोक्खो० इति पाठः॥ ३ समासे-सं. ॥ ४ त्रिलिङ्गमितिलिङ्ग- मु.॥ ५त्रिशुद्धं-मु. ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रवचन सारोद्धारे |१४८ द्वारे सम्यक्त्वभेदाः ६७ गाथा ९२६ द्वितीयः ९४१ ॥१६८॥ भङ्गभयाच्च क्तान्तस्य परनिपातः, अष्टप्रभावनम्-अष्टविधप्रभावनापरिगतम् 'भूसणलपरखणपंचविहसंजुत्तं ति पञ्चविधेन भूषणेन पत्रविधेन 'लक्षणेन च संयुक्तम् , अत्रापि पञ्चविधशब्दस्य परनिपातस्तथैव । तथा षडविधा' यतना-ऽऽकारोच यस्य तत् पड़विधयतनाकारम् , षडभियतनाभिः पर्भिधाकार, परिकलितमित्यर्थः । षड्भावनाभावित-पड्भिर्भावनाभिर्निरन्तरं परिशीलितम् , षट्स्थान-स्थानषट्कयुक्तम् , इत्येवं सप्तपष्टया 'लक्षणभेदैः' लक्ष्यते-निश्चीयते सम्यक्त्त्रमेभिरिति लसणानि-श्रद्धानादीनि, तेषां भेदा:-प्रकाराः परमार्थसंस्तवादयस्तै विशुद्धं चस्यैवकारार्थत्वादेतैः सप्तषष्टया लक्षणभेदै विशुद्धमेव परमार्थतः सम्यक्त्वं भवति । सम्यक्शब्दः प्रशंसार्थोऽविरोधार्थो वा, सम्यग्-जीवस्तस्य भावः सम्यक्त्वम् , प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा जीवस्य स्वभावविशेष इतियावत् ॥९२७॥ अथैतानेव लक्षणभेदान् प्रत्येकं प्रतिपिपादयिषुः प्रथम 'चउसहहणं' ति व्याख्यातुमाह-- 'परमे' त्यादि, परमाश्च-ताविकाच तेऽर्थाश्व-जीवा-ऽजीवादयस्ते परमार्थास्तेषु संस्तवः-परिचयस्तात्पर्येण बहुमानपुरस्परं जीवादिपदार्थाव गमायाभ्यास इतियावत् , वाशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये इति प्रथम श्रद्धानम् , तथा सुष्टु-मम्यग्नीत्या दृष्टा-उपलब्धाः परमार्था-जीवादयो यस्ते सुदृष्टपरमार्था:-आचार्यादयस्तेषां सेवनं पयुपास्तिः सुदृष्टपरमार्थ सेवनम् , स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् वाशब्दोऽनुक्तसमुच्चये, ततो यथाशक्ति *तद्वैयावृत्यप्रवृत्तिश्च, अपि समुच्चये, इति द्वितीयं श्रद्धानम् । तथा 'चावन्नकुदसण' ति, दर्शनशब्दः ११ लक्षणेन संयुक्तं मु.॥२ धौ यतनाकारौ यस्य-मुः।। ३ दयस्तेषु-मु.। तुला-प्रज्ञापनावृत्तिः प. ६०॥ ४ गमाभ्यास मु.।। ५ वैयावृत्तिप्र० मु.॥ प्र. आ. २७५ । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके mammimmammyImeenscreemesed प्रत्येकमभिसम्बध्यते, व्यापन्नं- 'बिनष्टं दर्शनं येषां ते ध्यापन्नदर्शना-निह्ववादयः, तथा कुत्सितं प्रवचन दर्शनं येषां ते कुदर्शनाः-शाक्यादयस्तेषां वर्जनं-परिहारो व्यापन्नकुदर्शनवर्जनम् । मा भूदेतदपरिहारतः सम्य- १४८द्वारे सारोदारे क्त्वमाहित्यनिति । यानि सी गलतत्वात् । इनि तृतीय-चतुर्थे श्रद्धाने । 'सम्मत्तसद्दहणा' इति | सम्यक्त्वसम्यक्त्वं श्रद्धीयते-अस्तीति प्रतिपद्यतेऽनेनेति सम्यक्त्वश्रद्धानम् , प्रत्येकं च परमार्थसंस्तवादिभिरस्य भेदाः ६७ सम्बन्धादेकवचनम् , न चाङ्गारमर्दकादेरपि परमार्थसंस्तवादीनां सम्भवाद्वयमि चारिता, ताचिकाना गाथा द्वितीयः मेवे षामिहाधिकृतत्वात् , तस्य च तथाविधानामेषामसम्भवादिति ॥९२८॥ ९२६. __'तिलिंग' ति व्याख्यातुमाह-'सुरसूसे'त्यादि, श्रोतुमिच्छा-शुश्रूषा, इस्वत्वं तु प्राकृतशैल्या, ९४१ सदोधावंध्यनिबन्धनधर्मशास्त्रश्रवणवाञ्छेत्यर्थः । सा च वैदग्ध्यादि गुणोत्तरतरुणनरकिन्नरगानश्रवणरागा प्र.आ. दप्यधिकतमा सम्यक्त्वे सति भवति । तथा धर्मः-श्रुतचारित्रलक्षणः, तत्र श्रुतधर्मरागस्य शुश्रषापदेनैव २७५ प्रतिपादितत्वादिह धर्मरागश्चारित्रधर्मरागोऽभिप्रेतः, स च तथाविधकर्मदोषतस्तद करणेऽपि 'कान्तारातीतदुर्गतवुभुक्षाक्षामब्राह्मणघृतपूर्ण भोजनाभिलाषादप्यतिरिक्तोऽत्र भवति । तथा गुरखो-धर्मोपदेशका आचार्यादयः देवाश्च-आराध्यतमा अर्हन्तो गुरुदेवाः, तेषाम् , इह च गुरुपदस्य पूर्वनिपातो विवक्षया गुरूणां पूज्यतरस्वख्यापनार्थः । न हि गुरूपदेशमन्तरेण सर्वविद्दे वावगम इति भावः । 'यथासमाधि-समाधानानति विपन्न-विनष्टं-मु.॥२ सम्मवादे० मु.।। ३ ०चारता-मु.। तुलना-धर्म सं.वृत्तिः भा. १५.४४ ॥४गुणवत इति धर्मसं वृत्तौ ।।५.करणे नमु.1 धर्म सं. धृत्तावपि करणेऽपि-इति ॥६कान्तारागत.माधर्म ॥१६॥ वृत्तावपि कान्तारातीत इति ॥ ७०वामिगम-मु.।।तथाखं.॥ - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रवचन Ram सारोद्धारे। । सटीक १४८ द्वारे सम्यक्त्र गाथा ॥१७०| क्रमेण, अत्र पाव्ययीभावसमासादपि तृतीयाया अलोपः प्राकृतत्वात् । वैयावृत्ये-तत्प्रतिपत्ति-विश्रामणाऽभ्यर्चनादौ नियमः-अवश्यकर्तव्यतयाऽङ्गीकारः, स च सम्यक्त्वे सति भवतीत्येतानि सम्यग्दृष्टेः-धर्मधर्मिणो. रभेदोपचारात् सम्यक्त्वस्य लिङ्गानि । एतैः शुश्रूषादिभिस्त्रिभिलिङ्गः सम्यक्त्वमुत्पन्नमस्तीति निश्चीयत इति भावः । यद्यपि च शुश्रुषादय उपशान्तमोहादीनां साक्षान्न भवन्ति कृतकृत्यत्वा तथापि फलतो भवन्ति तद्भावस्य तत्फलत्वादिति ।।९२९॥ 'दसविणय' ति व्याख्यानयनाह- "अरिहंत' गाहा, 'भत्ती' गाहा, अर्हन्तः-तीर्थकराः, सिद्धाः-क्षीणाष्टकर्ममलपटलाः, चैत्यानि- जिनेन्द्रप्रतिमाः, श्रुतम्-आचाराद्यागमः, धर्म:-क्षान्त्यादिरूपः, साधुवर्गः-श्रमणसमूहः, आचार्योपाध्यायो-प्रतीतो, प्रवक्ति जीवादितचमिति प्रवचन-सङ्घः, दर्शनंसम्यक्त्वं तदभेदोपचारात्तद्वानयि दर्शनमुच्यते, एवं प्रागपि यथासम्भवं वाच्यम् । .. एतेषु अहंदादिषु दशमु स्थानेषु विषये किमित्याह- "भत्तो' त्यादि, भक्तिः अभिमुखगमनाऽऽसनप्रदान-पयुपास्त्यञ्जलिबन्धानुजनादिलक्षणा पूजा-गन्धमाल्य-वस्त्र-पात्रा-उन्न-पानप्रदानादिसत्काररूपा, वर्णन 'वर्ण:-लाधनम् , तेन ज्वलन-ज्ञानादिगुणोद्धासनं वर्णज्वलनम् , तथा वर्जन-परिहरणमवर्णबादस्य-अश्लाघायाः, आशातना-मनोवाककायैः प्रतीपवर्तनम् , तस्याः परिहार:-प्रतिषेधः आशातना१ मरिहते त्यादिगाथाय-खं. ॥ २ जैनेन्द्र० मु.॥ ३ विषयेषु-मु. ॥ ४ तुलना-"वर्णः प्रशंसा, तजननमुद्भासनम्" इति धर्मसं वृत्ती। प्र. आ. २७६ dance ॥१७॥ 295 more 10 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१७॥ परिहारः, एष दशस्थानविषयत्वादशविधो दर्शनविनयः । सम्यक्त्वे सति अस्य भावात्सम्यक्त्वविनयः 'समासेन' सङ्क्षेपेण द्रष्टव्यः, विस्तरतस्तु शास्त्रान्तरादवसेय इति ॥ १३१ ॥ 'तिसुडि' ति व्याचिख्यासुराह - 'मोत्तूणे' त्यादि, 'मुक्त्वा' विमुच्य 'जिन' वीतरागं मुक्त्वा च 'जिनसतं' स्यात्पदलाञ्छिततया तीर्थकृद्भिः प्रणीतं यथावस्थितं जीवाजीवादितत्वं तथा जिनमतस्थितथि - प्रतिपन्न पारमेश्वरप्रवचनान् साध्वादीन् मुक्त्वा शेषमेकान्तग्रहग्रस्तं 'जगदपिचिन्त्यमानंपरिभाव्यमानं 'संसार' कत्तवारं' ति संसारमध्ये कचवरनिकरप्रायमसारमित्यर्थः । जिनादित्रितयमेव सारं शेषं तु सर्वमप्यसारमिति चिन्तया सम्यक्त्वस्य विशोध्यमानत्वादेतास्तिस्रः शुद्धय इति ॥ १३२ ॥ 'पंचगयदोर्स'ति प्रकटयन्नाह - 'संके' त्यादि, शङ्का सर्वोक्तवचसि संशयः, काङ्क्षा-अन्यान्यदर्शनाभिलाषः, विचिकित्सा - सदाचारसाध्वादिनिन्दा, तथा कुत्सितं लिङ्ग-दर्शनं येषां ते कुलिङ्गिन:कुतीर्थिकाः तेषु विषये प्रशंसा - श्लाघा, तथा तद्विषय एव संस्तवः सम्भाषणादिना परिचयः, एते पञ्चापि शङ्कादयः सम्यक्त्वस्य मालिन्यहेतुत्वादती चारा - दोषाः सम्यग्दृष्टिना प्रयत्नेन परिहर्तव्यावर्जनीयाः, विशेषतस्त्येतेषां स्वरूपं षष्ठे श्रावकप्रतिक्रमणातिचारद्वारे प्रतिपादितमिति ॥ ९३३॥ 'अभावण" विवरीपुराह - 'पावयणी' त्यादि, प्रवचनं द्वादशाङ्ग तदस्यास्त्यतिशयवदिति * प्रवचनी - युगप्रधानागमः । धर्मकथा प्रशस्याऽस्यास्तीति धर्मकथी यः क्षीराश्रवादिलब्धिसम्पन्नः सजलजल १ जगच्चिन्त्य • मु. । धर्म सं वृत्तावपि जगदपि इति पाठः ॥ २ कच्चवारं मु. ॥। ३० स खं. सं. | सु-सि ॥ ४ णं मु. ॥ ५ प्रा० सु. धर्म. सं. वृत्ती च ॥ १४८ द्वारे सम्यक्त्व ६७ भेदाः गाथा ९२६ ९४१ प्र. आ. २७६ ।।१७१ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटीके १४८ द्वारे सम्यक्त्वभेदाः ६७ ३ संज्ञा गाथा ९२६. द्वितीयः धरधानानुकारिणा नादेनाऽऽक्षेपणीविक्षेपणी'संवेगजनी-निवेदिनीलक्षणां चतुर्विधी जानतजनमनःप्रमोदप्रथा धर्मकां कथयति । वादि प्रतिवादि-सभ्य-सभापतिरूपायां चतुरङ्गायाँ परिषदि प्रतिपक्षप्रतिक्षेपपूर्वक स्वपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति वादी, निरुपम वादिलब्धिसम्पन्नत्वेन वावदकवादिवृन्दैरप्यमन्दीकृतवाग्विभव इति भावः । निमित्तं-त्रैकालिकलाभालामप्रतिपादक शास्त्रं तद्वत्यधीते वा नैमित्तिका, सुनिश्चितातीतादिनिमित्तवेदीत्यर्थः । विप्रकृष्टम्-अष्टमप्रभृतिकं दुस्तपं तपोऽम्यास्तीति तपस्वी । 'विज्ज' त्ति मतुब्लोपाद्विद्यावान विद्याः-प्रज्ञप्त्यादयः शासनदेवताः ताः सहायके यस्य स विद्यावान् अजनपादलेष-तिलकगटिकासकलभताकर्षणवैक्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयः, ताभिः सिद्धयति स्मेति सिद्धः । कव नवनवभङ्गीवैदग्ध्यदिग्धैः पाकातिरेकरसनीयरसरहस्यास्वादमेरितसहृदयहृदयानन्द निःविशेषभाषा-वैशारग्रहृद्यैर्गद्यपद्यप्रबन्धैर्वर्णनं करोतीति कविः । ___एते प्रवचन्यादयोऽष्टौ प्रभावयन्ति-स्वतः प्रकाशकस्वभावमेव देशकालाद्यौचित्येन सहायककरणात्प्रवचनं प्रकाशयन्तीति प्रभावकाः कथिताः, तेषां च कर्म प्रभावना, सा च सम्यक्त्वं निर्मलीकरोतीति । अन्यत्र पुनरन्यथाऽष्टौ प्रभावका उक्तास्तथाहि-5"अइसेसइडि १ धम्मकहि २ वाई ३ आयरिय ४ १७२॥ प्र.आ. १संवेजनी० मु. । संवेयजनी० ख. । धर्म सं. वृत्ती अपि० संवेगज इति ॥ २०याद० मु.॥ ३ स-नैमि मु. ४ विद्यावान् वनस्वानिवत्-मु.।। तुला--धर्म सं. वृत्तिः ॥ ५ नि:शेष० मु. ॥ ६ वैदग्भ्यहृद्या मु. ॥ ७ प्राक० मु.1८ सहायकर० मु.॥ # अतिशेषर्धयो धर्मकथको वादी भाचार्यःक्षपकःमित्तिका विद्यासिद्धःराजगणसंमतश्च तीर्थ प्रमावयन्ति ।। ॥१७॥ SAR Paintistianilesteemediae ....... a ndedndianSH Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥१७३॥ खवग ५ नेमित्ती ६ । विज्जा ७ रायागणसंमया ८ य तित्थं 'पभाति ॥१॥" ___तत्र अतिशेषा-अवधि मनः पर्ययज्ञाना-ऽऽमोपध्यादयोऽतिशयास्ते तैर्वा ऋद्धिर्यस्य सोऽतिशेषद्धिः । राजसम्मता-नृपवल्लभाः, गणसम्मता-महाजनादिबहुमता इति ॥९३४॥ |१४८ द्वारे भसण'त्ति व्याचिख्यासह जिणसासण' गाहा, जिनशासने-अर्शनविषये पताच सर्वत्र सम्यक्त्वसम्बध्यते कुशलता-नैपुण्यम् , तद्वशेन हि नानाप्रकारैरुपायैः सुखेनैव परं प्रतियोधयतीति । तथा प्रम भेदाः ६७ वति जैनेन्द्र शासनं तस्थ प्रभवतः प्रयोजकत्वं च प्रमावना, सा चाष्टधा प्रभावकभेदेन प्रागेवोक्ता, यत्पुनरिहोपादानं तदस्याः स्वपरोपकारित्वेन तीर्थकरनामकर्मनिबन्धनत्वेन च प्राधान्यख्यापनार्थम् , तथा ९२६. आयतनं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जिनगृहादि, मावतस्तु ज्ञानदर्शनचारित्राधाराः साध्यादयः तस्यासेवनं-पर्युपास्तिः । स्त्रीत्वं च प्राकृतत्वादिति । तथा स्थिरता-जिनधर्म प्रति चलितचित्तस्य परस्य प्र. आ. स्थिरत्वापादनं 'स्वस्य वा परतीर्थिकसमृद्धिदर्शनेऽपि जिनप्रवचनं प्रति निष्पकम्पता । तथा भक्ति:प्रवचने विनय-यावृत्यरूपा प्रतिपत्तिः । एते सम्यक्त्वस्य दीपकाः-प्रभासका उत्तमाः-प्रधाना गुणाभूषणानि, एतैगुणः सम्यक्त्वमलकियत इति भावः ॥९३५॥ 'लक्रवणपंचविहसंजुत्तं' ति विवृण्वन्नाह-'उपसमे त्यादि, अपराधविधायिन्यपि कोपपरिवर्जनमुपशमः । स च कस्यचित्क्रषायपरिणतेः कटुकफलावलोकनाद्भवति कस्यचित्पुनः प्रकृत्यैवेति । तथा नरा-ऽमरसुखपरिहारेण मुक्तिसुखाभिलाषा संवेगः, सम्यग्दृष्टिहि नरेन्द्रसुरेन्द्राणां विषयसुखानि १पमाति-मु.सि.॥२०पर्याय० सं.सि. स्वयं-लं. सं.॥ | २७७ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड: प्रश्चनदुःखानुपङ्गाद् दुःखतया मन्यमानो मोक्षमुखमेव सुखत्वेन मन्यतेऽभिलपनि चेति । तथा नारकतिर्यगादि १४८ द्वारे सारोद्धारे सांसारिकदुःखेभ्यो निर्विष्णता निर्वेदः । सम्यग्दर्शनी हि दुःखातिगहने संसारकारागारे गुरुतरकर्मदण्ड सम्यक्त्वपाशिकैस्तथा तथा कदयमानः प्रतिकतु मक्षमो ममत्वरहितश दुःखेन निविण्णो भवति । अन्ये तु संवेगो भवनिरागः निवेदो मोक्षाभिलाप इत्यनयोरर्थव्यत्ययमाहुः । तथा दुःखितेषु प्राणिवपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छ। द्वितीयः 'अनुकम्पा. पक्षपातेन तु करुणा स्यपुत्रादौ व्याघ्रादीनामयस्त्येष । सा चानुकम्पा द्रव्यतो भावनश्च भवति । द्रश्यतः असत्यां शक्तौ दुःखप्रतिकार भारत आद्रहृदयस्वेनेति । तथा अस्तीति पनिरस्येत्या स्तिका, ९२६. ॥१७४॥ तम्य भावः कर्म चा आस्तिक्यम् , तत्वान्त श्रवणेऽपि जिनगदितनविषये निराकाङ्क्षा प्रतिपत्तिः । ९४१ एतान्युपशमादीनि पञ्च सम्यक्त्वे-रम्यक्त्वविच्याणि लक्षणानि । एतैः परस्थं परोक्षपि सम्यक्त्वं प्र. आ. सम्यगुपलश्यत इति ।।९३६॥ ... (Freek बिहजय तिव्याख्यान यौह-'नो अन्ने' त्यादि, 'नेचे' त्यादि, अन्यतीथिकान परदर्शनिन: परिव्राजक-भिक्षु भौतिकादीन अन्यत्तीथिकदेवांश्च-रुद्र-विष्या सुगतादीन , तथा स्वदेवानपिअन्प्रितिभालक्षणान कुतीथि :--दिगम्बरादिभिगृहीतान-स्वीकृतान भौतिकादिभिर्वा परिगृहीतान महाकालाहीन 'नो नव वन्दे 'नवा न च 'नमस्यामि नमस्करोमि, तद्भक्तानां मिथ्यात्वादिथिरीकरणान् । तन्त्र बन्दन-शीवाभिवादनम् , नमस्करण-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तनिभिगुणोत्कीर्तनम् । तथा अन्यनीथिकः पूर्व मनानसः सन तान्नेवालपामि, नापि मलपामि । तत्र आङ इंपदधन्वाद् ईशायणमा लापम् , पुनः पुनः सम्भापण संलपनम् , तत्सम्भापर्ण हि सेः सह परिचय प्ल्या 'तत्यक्रियाश्रवणदर्शनादिभिर्मिथ्या- |१७४ा १ दया- नु० मु.।। २ भौतिकादिर रखें. सं. ध स. वृत्ती च ।। ३ वा. ॥ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रवचनसारोद्धारे सटीक द्वितीयः खण्ड स्वोदयोऽपि स्यात् । प्रथमालप्तेन त्वसंभ्रमं लोकापवादभयात् किञ्चित्स्वल्पं वाच्यमपीति । तथा तेषाम्अन्यतीथिकानां ददामि नाशनादिकम्-अशनपानखादिम स्वादिम वस्त्र पात्रादिक्रम् , तद्दाने यात्मनोऽन्येषां च पश्यतां तेषु बहुमानसद्भाया सदैव मिथ्यात्वगमनम् , इह च परतीथिकानामशनादिदानमनुकम्पा विहाय प्रतिषिद्धम् , अनुकम्पागोचरापन्नं तु तेषामपि दानं दातव्यम् , यस उक्तम्A"मुम्बेहिपि जिणेहिं दुञ्जयजियरागदोसमोहेहिं । सत्ताणुकंपणट्ठा दाणं न कहिंचि पडिसिद्धं ॥१॥" तथा तेषामेव-परतीर्थिकदेवानां तत्परिगृहीतजिनप्रतिमानां च पूजादिनिमित्तं न प्रेपयामि गन्धपुष्पादिकम् आदिशब्दाद्विनय-वैयावृत्य-यात्रा-स्नानादिकं च तेषां न करोमीति । एतत्करणे हि लोकानां मिथ्यात्वं स्थिरीकृतं स्यात् । एताभिः परतीर्थिकादिवन्दन-नमस्करणा-ऽऽलपन-संलपना-ऽशनादिदानगन्धपुष्पादिप्रेषणलझणाभिः षड्भियतनाभिर्यतमानः सम्यक्त्वं नातिक्रमतीति ॥१३७-९३८॥ 'छागारं' ति वितन्यन्नाह-रायाभिभोगोय' इत्यादि वृत्तम्-तत्राभियोजनम्-अनिच्छितोऽपि व्यापारणमभियोगः, गज्ञो-नृपतेरभियोगो राजाभियोगः । गण:-स्वजनादिसमुदायस्तस्याभियोगो गणाभियोगः । बलं-बलवतो हठप्रयोगस्तेनाभियोगो बलाभियोगः । सुरस्य-कुलदेवतादेरभियोगः सुराभि १ ततः प्रतिक्रियाश्रवण सं. । परिचयात् प्रतिक्रियाप्रश्ण इति धर्म सं. वृत्तौ (भा. १ प.४६) पाठः ।। २०सदेव-ख. ।। ३ ०१-मु. सं.। 'वि-इति धर्म सं. वृत्तौ ।। ४०वृत्तम्-मु. नास्ति । A सर्वैरपि जिनैर्जितदुर्जयराग-द्वेष-मोहे: । सत्त्वानुकम्माये दानं न कुत्रापि प्रतिषिद्धम् ॥१॥ १४८ द्वारे मम्यक्त्व भेदाः ६७ गाथा ९२६९४१ प्र. आ. २७७ १७५॥ ॥१७५॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारा १४८ द्वारे सम्यक्त्वमेदाः ६७ गाथा सटीके द्वितीयः ॥१७६॥ योगः, कान्तारम्-अरण्यं तत्र वृत्तिः-वर्तनं निर्वाहः कान्तारवृत्तिः, यद्वा कान्तारमपि बाधाहेतुत्वादिह बाधास्वेन विवक्षितम् , ततः कान्तारेण-बाधया वृत्तिः-प्राणवर्तनरूपा कान्तारवृत्तिः, कण्टेन निर्वाह इतियावत् । गुरवो-मातृ-पितृप्रभृतयः । यदुक्तं'माता पिता कलाचार्य,एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतो मतः॥१॥[योगविन्दुःगा.११०] तेषां निग्रहो-निर्वन्धः, तदेताः षट् छिण्डिका-अपवादा जिनशासने भवन्ति । इदमत्र तात्पर्यम्-प्रतिपन्नसम्यक्त्वस्य परतीर्थिकवन्दनादिकं यत्प्रतिषिद्धं तद्राजाभियोगादिभिरेतैः षभिः कारणैर्भक्तिवियुक्तो' द्रव्यत: समाचरम्नपि सम्यक्त्वं नातिचरतीति ॥१३॥ 'छम्भावणभावियं' ति व्याख्यातुमाह-'मूलं दार' मित्यादि श्लोकः, द्विषट्कस्यापि-द्वादशभेदस्यापि पश्चाणुव्रत-त्रिगुणव्रत-चतुःशिक्षाव्रतरूपस्य चारित्रविषयस्य इदं सम्यक्त्वं मूलमिव मूलं कारणमित्यर्थः परिकीर्तितं-कथितम् , तीर्थकरादिभिरिति सर्वत्र सम्बन्धः । यथा हि मूलविरहितः पादपः प्रचण्डपवनप्रकम्पितस्तत्क्षणादेव निपतति, एवं धर्मतरुरपि सुदृढसम्यक्त्वमूलविहीनः कुतीर्थिकमतमारुतान्दोलितः स्थैर्य नासादयेदिति । 'दारं ति द्वारभित्र द्वारं प्रवेशमुखमिति भावः । यथा हि अकृतद्वारं नगरं 'सन्ततः प्राकारवलयवेष्टितमप्यनगरमेव भवति अनप्रवेशनिर्गमाभावात् , एवं धर्ममहापुरमपि सम्य१ कलाचार्या-मु. । योगबिन्दौ.धर्मस. वृत्तावपि कलाचार्य-इति ।। २ ०क्तं-मु. । धर्मसं. वृत्तावपि ०क्तो इति पाठः ।। ३.०इलोक:-मु. नास्ति ॥४ चारित्रधर्मस्य-मु.। धर्मस्य-सं. धर्म सं. वृत्तावपि चारित्रविषयस्य-इति पाठः ॥ ५ मूलमिव-मु. नास्ति ।। ६ समन्ततः-मु.॥ प्र. आ. २७८ ॥१७६।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१७७॥ क्त्वद्वारशून्यमशक्याधिगमं स्यादिति । 'पइहाण' ति प्रतिष्ठते प्रासादोऽस्मिन्निति प्रतिष्ठान-पीठम् , ततः प्रतिष्ठानमिव प्रतिष्ठानम् , यथा हि पयापर्यन्तपृथ्वीतलगतगर्तापूरकरहितः प्रासादः सुदृढो न भवति, १४८ द्वारे तथा धर्मदेवस्य हर्म्यमपि सम्यक्त्वरूपप्रतिष्ठानपरित्यक्तं निश्चल न भवदिति । माहारो' ति आधार सम्यक्त्वइव आधार आश्रय इतियावत् । यथा हि धरातलमन्तरेण निरालम्वं जगदिदं न तिष्ठति, एवं धर्मजगदपि मेदाः ६७ सम्यक्त्वलक्षणाधारव्यतिरेकेण 'नावतिष्ठतेति : 'भायणं' ति भाजनमिव भाजनं पात्रमित्यर्थः । यथा हि गाथा. कुण्डादिभाजनविशेषविवर्जितं क्षीरादिवस्तुनिकुरम्बं विनश्यति, एवं धर्मवस्तुनियहोऽपि सम्यक्त्वभाजनं विना ९२६. विनाशमासादयेदिति। 'निहि' ति निधिरिव निधिः, यथा हि निरवधिनिधिव्यतिरेकेण महार्हमणिमौक्तिक ९४१ कनकादिद्रव्यं न प्राप्यते, तथा सम्यक्त्वमहानिधानानभिगतौ चारित्रधर्मवित्तमपि निरुपमसुखसम्पादकं आ. २७८ न प्राप्यते इति । इत्येताभिः षड्भिर्भावनाभिर्भाव्यमानमिदं सम्यक्त्वमविलम्बमसममोक्षसुखसाधकं भवतीति ।।१४०॥ 'छहाणं' ति प्रपञ्चयितुमाह-'अत्थी'त्यादि, अस्ति-विद्यते चशब्दस्यावधारणार्थत्वादस्त्येव जीव इति गम्यते । प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणप्रसिद्धचैतन्यान्यथानुपपत्तेः । तथाहि-न चैतन्यमिदं भूताना धमः, तद्भर्यत्वे सति पृथिव्याः काठिन्यस्येव तस्य सर्वत्र सर्वदा चोपलम्भप्रसङ्गात् , न च सर्वत्र सर्वदा चोपलभ्यते, लोष्ठादौ मृतावस्थायां चानुपलम्भाव , नापि चैतन्यमिदं भूतानां कार्यम् , अत्यन्तवैलक्षण्यादेव कार्य-कारणभावस्याप्यनुपपत्तेः, तथाहि-प्रत्यक्षत एवं 'काठिन्यावबोधस्वभावानि भूतानि प्रतीयन्ते, ॥१७७॥ १ नावतिष्ठति-मु.॥ २ काठिन्यादि स्व० मु.॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१७८॥ चैतन्यं च तद्विलक्षणम्, ततः कथमनयोः कार्य-कारणभावः १ न भूत भूतकार्य वा चैतन्यम्, अथ चास्ति प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धम्, अतो यस्येदं स जोव इति, अनेन च नास्तिक मतमपहस्तितम् १ | "frees' f सच जीवो नित्यः- उत्पत्ति विनाशविरहितः, तदुत्पादककारणाभावात् सतः सर्वथा विनाशायोगाच्च । अनित्यत्वे हि जीवस्य बन्ध-मोक्षाधेकाधिकरणत्वाभावप्रसक्तेः । तथाहि यद्यात्मा नित्यो नाभ्युपगम्यते किन्तु पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसन्धाना ज्ञानक्षणा एव तथा सत्यन्यस्य बन्धोऽन्यस्य मुक्तिः, अन्यस्य क्षुदन्यस्य तृप्तिः, अन्योऽनुभविताऽन्यः स्मर्ता अन्यचिकित्सादुःखमनुभवति अन्यो व्याधिरहितो जायते अन्यस्तपः परिक्लेशमधि सहतेऽपरः स्वर्गसुखमनुभवति, अपरः शास्त्रमभ्यसितुमारभतेऽन्योऽधिगतशास्त्रार्थो भवति । न चैतद्युक्तम् अतिप्रसङ्गादिति । एतेन शीडोदनिसिद्धान्तध्वान्तमपध्वस्तम् २ | 'कुणह' सि स स जीवः करोति - मिथ्यात्वाऽविरति कषायादिवन्ध हेतुयुक्ततया तत्तत्कर्माणि निर्वर्तयति । प्रतिप्राणिप्रतीतविचित्रसुखदुःखाद्यनुभवान्यथानुपपत्तेः । तथाहि-- लोके सुखं दुःखं वा चित्रमनुभूयते न चित्रसुखदुःखानुभयो निर्हेतुकः, सर्वदा 'सद्भावाभावप्रसङ्गात् । 'नित्यं सत्यमचं बाहेतोरन्यानपेक्षणा' [प्रमाणवार्तिक ३।३५ ] | इति न्यायात् । तस्मादस्य सुखदुःखानुभवस्य स्वकृतमेव कर्म हेतुरिति सिद्धो जीवः कर्मणां कर्तेति कापिलप्रतिकल्पनाप्रतिक्षेषः । नन्वयं जीवः सुखाभिलाषी न कदाचनाप्यामनो दुःखमाशास्ते ततो यदि स्वकर्मणामेष कर्ता ततः कथं दुःखफलं कर्म करोतीति ९, उच्यते, यथा १०रि० मु चास्ति ॥ २ सद्भावाप्र० सं । सद्भावप्र० सिं. ॥ ३० खं. सं. नास्ति ।। ४ करोति-मु. ॥ १४८द्वारे सम्यक्त्व मेदाः६७ गाथा ९२६ ९४१ प्र. आ. २७८ ॥१७८॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ द्वारे सम्यकबभेदाः ६७ सटीके गाथा हि रोगी रोगनिवृत्तिमिच्छन्नपि रोगाभिभूतत्वाद् अपथ्यक्रियानिबन्धनं भाविनमपाय जाननपि चापथ्यक्रियामासेवते तद्वदेषोऽपि जीवो मिथ्यात्वाद्यभिभूतत्वात् कथंचित् जानन्नपि दुःखफलं कर्म करोतीति ३। - कयं च वेएई' त्ति स च जीवः कृत-स्वयमभिनिर्वचितं शुभाशुभं कर्म वेदयते-स्वयमेवोपभुङ्क्ते सारोद्धारे। अनुभवलोका-ऽऽगमप्रमाणतस्तथैवोपपद्यमानत्वात् । तथाहि-यदि 'स्वकृतकर्मफलभोक्तृत्वं जीवस्य नाभ्युपगम्यते ततः सुखदुःखानुभवो मुक्ता-ऽऽकाशयोखि तस्य न स्यात् । सुखदुःखानुभवकारणसातासातवेदनीयकोपभोगाभावात् । अस्ति चायं सुखदुःखानुभवः प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धत्वात् । लोकेऽप्येष जीवः प्रायो भोक्ता सिद्धः, तथाहि-सुखितं कञ्चन पुरुषं दृष्ट्या लोके वक्तारो भवन्ति-पुण्यवानेष यदित्थं ॥१७९॥ सुखमनुभवतीति तथा आगमेषु च जैनेतरेषु भोक्ता सिद्धः, A 'सव्यं च पएसतया भुजइ कम्ममणभावओ नियं[ ] तथा 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कोटिकल्पशतैरपि' । इत्यादिवचनात् । न चैवं लोकप्रतीता. वागमेषु या वर्तमानेषु कस्यचिद्विवेकचक्षुयो विप्रतिपत्तिरस्ति । कृतवैफल्यप्रसङ्गात् । न चैतद्युज्यते । बणिकृषीवलादीनां स्वकृत शुभाशुभकर्मफलभोगस्य साक्षादेव दर्शनात् । तथा च सति सिद्ध एष जीवः । स्वकृतकर्मणां भोक्तेति । अनेन चाभोक्तजीववादी दुर्नयो निराकृतः ४।। 'अस्थि निव्याण' ति अस्य जीवस्यास्ति-विद्यते निर्वाणं-मोक्षः, सत एव जीवस्य राग-द्वेष-मदमोह-जन्म-जग-रोगादिदुःखक्षयरूपोऽवस्थाविशेष इतियावत् । एतेन प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावरूपं निर्वाण १ स्वयंकृत मु.सि.।। २ सुखिन-मु.॥ ३ मइयं-मुः। निययं-सं॥ ४०शुभकर्म० खं. सं.॥ A सर्वच प्रदेशतया भुज्यते कर्म, अनुभावतो निचितम् ।। प्र.आ. ॥१७॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १४८द्वारे सम्यक्त्व. भेदाः ६७ गाथा ९२३. द्वितीय: ॥१८॥ मित्याद्यसङ्गत सङ्गिरन्तः सौगतविशेषा व्युदस्ताः । ते हि प्रदीपस्येवास्य जीवस्य सर्वथा ध्वंस एव निर्वाणमाहुः । तथा च तद्वचा "दीपो यथा नि तिमभ्युपेतो, नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चित् , स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥१॥ जीवस्तथा नि तिमभ्युपेतो, नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काचिद्विदिशं न काञ्चित् , क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।।२॥" एतच्चायुक्तम् , दीक्षादिप्रयासवैयात् । प्रदीपदृष्टान्तस्याप्यसिद्धत्वात् । तथाहि-न प्रदीपानलस्य सर्वथा विनाशः, किन्तु तथाविधपुद्गलपरिणामवैचित्र्यात् त एवं पाचकपुद्गला भास्वरं रूपं परित्यज्य ताममं रुपान्तरमाप्नुवन्ति तथा च विध्याते प्रदीपेऽनन्तरमेव तामसपुद्गलरूपो विकारः समुपलभ्यते, चिरं चासौ पुरस्ताद्यनोपलभ्यते तत्सूक्ष्मसूक्ष्मतरपरिणामसद्भावादअनरजोवन , अञ्जनस्य हि पवनेनापडियमाणस्य यत्कृष्णरज उड्डीयते तदपि परिणामसौक्षम्यान्नोपलभ्यते न पुनरसच्चादिति । ततो यथाऽनन्तरोक्तस्वरूपं परिणामान्तरं प्राप्तः प्रदीपो निर्वाण इत्युच्यते तथा जीवोऽपि कर्मविरहितः केवलामूर्तजीवस्त्ररूपलक्षणं परिणामान्तरं प्राप्तो निर्वाणमुच्यते । तस्मात् दुःखादिक्षयरूपा सतोऽवस्था निर्वाणमिति स्थितम् ५ । प्र. आ. २७९ ॥१८॥ . ... .SHA Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन 'अत् य मक्खोवाओ' ति अस्ति च मोक्षस्य निर्वृ तेरुपायः - सम्यक्साधनम्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मुक्तिसाधकतया घटमानकत्वात् । तथाहि सकलमपि कर्मजालं मिथ्यात्वा ऽज्ञानप्राणिसारोद्वारे हिंसादिहेतुकम्, ततस्तत्प्रतिपक्षतया सम्यग्दर्शनाद्यभ्यासः सकलकर्मनिर्मूलनाय प्रभविष्णुरेव । न चैवं मिथ्यादृष्टिप्रणीतोऽप्युपायो मुक्तिसाधको भविष्यतीति वाच्यम्, तस्य 'हिंसादिदोपकलुषितत्वेन संसारकारणत्वात् अनेनापि मोक्षोपायाभावप्रतिपादकदुर्नयन्यक्कारः कृतः ६ । सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥ १८९॥ " एतान्यात्मास्तित्वादीनि पट् सम्यक्त्वस्थानानि सम्यक्त्वमेषु सत्स्वेव भवतीति भावः । अत्र च प्रतिस्थानकमात्मादिसिद्धये बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते ग्रन्थगहनताप्रसङ्गादिति ॥९४१ ॥१४८॥ इदानीम् 'एग विहाइ दसविहं सम्मन्तं' त्येकोनपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह--- एगविह १ दुविह २ तिविहं ३ उहा ४ पंचविह ५ वसविहं ६ सम्मं । दव्वाइ कारगाई उवसमभेहि वा सम्मं ॥९४२॥ एगविहं सम्मरुई १ निसग्गऽभिगमेहि' २ तं भवे दुविहं । तिविहं तं खहयाई ३ अहवावि हु कारगाईयं ॥ ९४३ ॥ सम्मत्तमीस मिच्छुकम्म 'क्खयओ भणति तं खयं । मिच्छ्रुत्तखओवसमा वाओवसमं ववइति ॥ ९४४|| १ हिंसादिकतु० खं. सं. ॥ २ तुलना-धर्म सं. वृत्ति: मा. १ प ३५ तः ॥ ३०हिं ता. सि. ॥ ४ कारगाईदि - मु. 1 कारगाश्यं खं । कारगाइअ - इति धर्म सं. वृत्तौ पाठः ॥ ५०क्खनौ-वा. । ०क्खनोय-सं. ॥ १४९ द्वारे सम्यक्त्व स्य एकादि भेदाः गाथा ९४२ ९६२ प्र. आ २८० ॥१८२॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके द्वितीयः १४९ द्वारे सम्यक्त्व स्य एकादि भेदाः गाथा ९४२. ९६२ प्र.आ. हा ||१८२॥ मिच्छत्तस्स 'उपसम जवसमय से भणंति समयन्नू । तं उवसमसेडीए आइमसम्मत्तलाभे वा ॥९४५।। विहिआणुट्ठाणं पुण कारगमिह रोयगं तु सद्दहणं । मिच्छट्टिी दीवइ जं तत्ते दीवगं तं तु ॥९४६॥ वहयाई सासायणसहियं तं चविहं तु विन्नेयं ।। तं सम्मत्तम्भंसे मिलताऽऽपत्तिरूवं तु ॥९४७॥ 'वेययसंजुत्तं पुण एय चिय पंचहा विणिदिह । समत्तचरिमपोग्गलवेयणकाले तयं होई ॥१४॥ एवं चिय पंचविहं निसग्गाभिगमभेयओ दसहा। अहवा निसग्गरुई इचाह जमागमे भणिों ॥९४९॥ निस्सग्गु १ वएसई २ "आणाई ३ सुत्त ४ षीय ५ रुईमेव । 'अहिगम ६ वित्थाराई ७ किरिया ८ संवेव ९ धम्माई १०॥९५०॥ जो जिणदिढे भावे चउविहे 'सदहाइ सयमेव । एमेव ननहत्ति य निसग्गरुइत्ति नायवो ॥९५१॥ १. बसमा मु.१२धेययसम्मत्तं-ता. जे. ॥ ३०ई-ता ॥४ आयामई-मु.॥ ५ अभिगमखं. सं. धर्मसं. वृत्तौ च ॥ ६ सइइइ-मु. । प्रज्ञापनासूत्रे पछाशकचूर्णावपि प.११] सइहाइ-इति पाठः ।। e mentatumnew HAP ॥१८॥ PARAMHARMA KASHANISA . Muhurtatemarthabahinsahit Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोद्वारे सटीक १४९द्वारे सम्यक्त्वग्य एकादि मेदाः amhanihind गाथा एए व उ भावे उघटे जो परेण सहहह । छउमत्थेण जिणेण प उचएसरुइत्ति नायव्वो ॥१५॥ प्रज्ञापासू. ११६, मा१२, १२१, १२२] रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होई । आणाए रोयंतो सो स्खलु आणाई नाम ॥१५३॥ जो सुत्तमहिज्जतो सुएणमोगाहई उ सम्मत्तं । अगेण बाहिरेण 'व सो सुत्तरुइत्ति नायवो ॥९५४॥ एगपएऽणेगाई पयाई जो पसरई उ सम्मत्ते । उदएव्व तिल्लपिंदू सो बीयरुइत्ति नायव्यो ॥९५५।। सो होइ 'अहिगमाई सुयनाणं जस्स अथओ दिलु । एक्कारस अंगाई पइन्नगा दिहिवाओ य ॥९५६॥ दव्याण सव्वभावा सव्वप्पमाणेहिं जस्स उवलहा। सवाहिं नयविहीहिं वित्थारमई मुणेयन्वो ॥९५७॥ नाणे दसणचरणे .तबविणए "सव्वसमिइगुत्तोसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारूई नाम ॥९५८॥ अणभिग्गहियकुदिट्ठी संवेवरुइत्ति होइ नायचो। अविसारओ पवयणे "अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥९५९॥ मो-म.१२ पयरह-ता.जे.२ सि.॥३भभिगम० ता. उत्तराध्ययने च ।। ४ सचमु.॥५आणता.॥६०सु-मु.॥ प्र.आ. २८० | ॥१८॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे द्वितीयः - ॥१४॥ जो अस्थिकायधम्मं सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । १४९ द्वारे सद्दहइ जिणामिहियं सो धम्मरुइति नायव्वो ॥९६०॥ सम्यक्त्व'आईपदवीस तिस खय १ उवसम २ वेयगं३१ सम्मत्तं । स्य एकादि पणिदितिरियाण एमेव ॥९६२॥ भेदाः सेसाण नारयाणं तिरियत्धीणं च तिविहदेवाणं । गाथा नस्थि ह स्वइयं सम्म अन्नेसिं चेव जीवाणं ॥१६॥ ९४२. 'एगविह' गाहा, एकविधं द्विविधं त्रिविधं चतुर्धा पञ्चविधं दशविधं सम्यक्त्वं भवतीति शेषः। ९६२ तत्र एकविधं तस्त्रार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यक्त्वम् । एतच्चानुक्तमप्यविवक्षितोपाधिभेदत्वेन सामान्यरूपत्वादवसीयते इत्यस्यां गाथायां न विवृत्तम् । द्विविधादि तु न ज्ञायते इत्युल्लेखमाह-'दन्वाइ' इत्यादि, द्विविधं द्रव्यादिभेदतः, तत्र च 'दव्य'त्ति मूचामात्रत्वाद् द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतो विशोधित्रिंशेषेण विशुद्धिकृता मिथ्यात्वपुद्गला एव । भावतस्तु तदुपष्टम्भोपजनितो जीवस्य जिनोक्ततन्वरुचिपरिणामः । आदिशब्दः प्रकारान्तरैरपि द्वैविध्यदर्शनार्थः । तेन नैश्वयिक-व्यवहारिकभेदतः पौगलिका-ऽपौद्गलिकमेदतो नैसर्गिकाऽधिगमिकभेदतोऽपि च द्विविधमिति । तत्र यद्देश काल-संहननानुरूपं यथाशक्ति यथावत्संयमानुष्ठानरूपं मौनम्-अविकलं मुनिवृत्तं तन्नै श्वयिक सम्यक्त्वम् । व्यवहारिकं तु सम्यक्त्वं न केवलमुपशमादिलिङ्गगम्यः १ आय पु० ता. ॥ २ द्विविधत्वद मु॥ Piron iyerapisodiaenternationalitientifotonindians indian laman Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटोके १४९द्वारे सम्यक्त्व. स्य एकादि द्वितीयः मेदाः शुभात्मपरिणामः किन्तु सम्यक्त्वहेतुरपि अर्हच्छासनप्रीत्यादिः कारणे कार्योपचारात्सम्यक्त्वम् । तदपि हि पारम्पर्येण शुद्धचेतसामपवर्गप्राप्तिहेतुर्भवतीति । उक्तं च---- * 'जं मोणं तं सम्म ज सम्म तमिह होइ मोणं तु | निच्छयओ इयरस्स उ 'सम्म सम्मत्तहेवि ॥१॥' व्यवहारनयमतमपि च प्रमाणम् , तद्रलेनैव तीर्थप्रवृत्तेः । अन्यथा तदुच्छेदप्रसङ्गात् । तदुक्तम्-- ● 'जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा वचहारनिच्छ्यं मुयह ।। पबहार "ओछेप तिरपुच्छो जोऽवसं ॥१॥” इति । [विशेषावश्यकभा. मा. २३८२] तथा अपनीतमिथ्यास्वभावसम्यक्त्वपुञ्जगतपुद्गलवेदनस्वरूपं झायोपशमिकं पौद्गलिकम् । सर्वथा मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलानां क्षयादुपशमाच्च जातं केवलजीवपरिणामरूपं क्षायिकमोपशमिकं चापौद्गलिकम् । नैसर्गिका-अधिगमिके पुनरग्रे वक्ष्येते । तथा 'त्रिविधं कारकादि' कारक-रोचक-दीपकभेदतः । 'उवसमभेएहिं व' ति वाशब्दः त्रैविध्यस्यत्र प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः । बहुवचनं च गणार्थम् , ततस्त्रिविधं चतुर्विधं पञ्चविधं दशविध च सम्यक्त्वमुपशमादिभि दैर्भवतीति । इदमुक्तं भवति-औपशमिक-मायिक झायोपशमिकभेदात् त्रिविधम् । औपशमिक-सायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादनभेदाच्चतुर्विधम् । औपशमिक-सायिक-झायोपशामिक । गाथा ॥१८॥ ९६२ प्र. आ. २८१ ॥१८॥ १ सम-खं ॥ २०३-ख.1 ०६-इति पश्चाशकचूणों [प. १०] पाठः ॥३व्ये सं.॥४ नउच्छेमो-ख. सं. सि.॥ यन्मौनं तत्सम्यक्त्वं यत्सम्यक्त्वं तदिह मवति मौनमेव । निश्चयस्य इतरस्य तु सम्यक्त्वहेतुरपि सम्यक्त्वम् ।। • यदि जिनमतं प्रतिपद्यसे तहि व्यवहारनिश्चयौ मा मुख्च । व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो यतोऽवश्यम् ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रवचन सारोद्वारे सम्यक्त्वस्य एकादि भेदाः माथा ९४२. खण्डः ॥१८६॥ सास्वादन-वेदकभेदात्पश्चविधम् , एतदेव प्रत्येकं निसर्गा-ऽधिगममेदादशविधमिति । कथं पुनर्द्विविधादिभेदं सम्यक्त्वमित्याह-सम्यग्-अवैपरीत्येन आगमोक्तप्रकारेण, न तु स्वमतिपरिकल्पितभेदै रिति भावः ॥९४२॥ .. अथैनामेव गार्था स्फुटतरं व्याख्यानयनाह- 'एगविहं' गाहा, एकविधम्-एकप्रकारमुपाधिभेदाविवक्षया निर्मेदमित्यर्थः । 'सम्यग् रुचिः सम्यग-अज्ञान-संशय विपर्यासनिरासेन इदमेव तच्चमिति निश्चयपूर्विका जिनोदितजीवादिपदार्थेष्वभिप्रीतिः । जिनोक्तानुमारितया तत्त्वार्थश्रद्धानरूपमेकविधं सम्यक्त्वमिति भावः । तथा निसर्गा-ऽधिगमाभ्यां तन-सम्यक्त्वं भवेद् द्विविधम् , तत्र निसर्गः-स्वभावो गुरूपदेशादिनिरपेक्षस्तस्मात्सम्यक्त्वं भवति, यथा नारकादीनाम् ' हिमो-गुरूपदेशादिर रमात्मयतत्वं भवतीति प्रतीतमेव । अयमभिप्रायः-तीर्थकराद्युपदेशदानमन्तरेण स्वत एव जन्तीयकर्मोपशमादिभ्यो जायते तनिसर्ग: सम्यक्त्वम् , यत्पुनस्तीर्थकराद्युपदेश-जिनप्रतिमादर्शनादिवाह्यनिमित्तोपष्टम्भतः कोपशमादिना प्रादुर्भवति तदधिगमसम्यक्त्वमिति । तथा त्रिविधं तत्-सम्यक्त्वं क्षायिकादि; अथवा त्रिविधं कारकादि ॥९४३।। तत्र क्षायिक-क्षायोपशमिके व्याख्यातुमाह-सम्मत्त' गाहा, सम्यक्त्व-मिश्र-मिथ्यात्वकर्मक्षयाऋणन्ति तीर्थकरगणधराः क्षायिकं सम्यक्त्वम् , त्रिविधस्यापि दर्शनमोहनीयस्य अयेण-निमलोच्छेदेन निवृत्तं क्षायिकम् , अयमर्थ:-अनन्तानुचन्धिकषायचतुष्टयक्षयानन्तरं मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वपुञ्जलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीयकर्मणि सर्वथा क्षीणे क्षायिक सम्यक्त्वं भवतीति । तथा मिथ्यात्वस्य-मिथ्याबमोहनीयकर्मण उदीर्णस्य क्षयादनुदीर्णस्य चोपशमात्सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विष्कम्भितोदयस्वरूपाच्च प्र. आ. २८१ ॥१८६॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोदारे - द्वितीयः खण्ड: ॥१८॥ क्षायोपशमिक सम्यक्त्रं व्यपदिशन्ति-कथयन्ति । इदमुक्तं भवति-यदुदीर्णय-उदयमागतं मिथ्यात्वं तद्विपाकोदयेन वेदितत्वात् क्षीणं-निजीणम्-याच शेपं सत्तायामनुदयागतं वर्तते तदुपशान्तम् । उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीत मिथ्यास्वभावं च । 'मिथ्यात्व-मिश्रपुञ्जावाश्रित्य विष्कम्भितोदयं शुद्धपज. माश्रित्य पुनरपनीतमिध्यात्वस्वभावमित्यर्थः । तदेवमुदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेण, अनुदीर्णस्य चोपश सम्यन्व स्य एकादि मेन नित्तत्वात् त्रुटितरसं शुद्धपुञ्जलक्षणं मिथ्यात्वमपि क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते । शोधिता हि भेदाः मिथ्यात्वपुद्गला अतिस्वच्छवस्त्रमिव दृष्टेर्यथाऽवस्थिततच 'रुच्यध्यवसायरूपम्य सुम्यक्त्वस्यावारका न गाथा भवन्ति । अतस्तेऽप्युपचारतः सम्यक्त्वमुच्यन्ते इति ॥९४४॥ - अथौपशमिकं सम्यक्त्वमाह-'मिच्छत्तस्स' गाहा, मिथ्यात्वस्य-मिथ्यात्वमोहनीयस्य कर्मणो ९६२ य उपशमो-विपाकप्रदेशरूपतया द्विविधस्याप्युदयस्य भस्मच्छन्नवविद्विष्कम्भणं तस्मात जवसमा ति प्राकृतशैल्या औपशमिकं तत्सम्यक्त्वं भणन्ति समयज्ञाः-सिद्धान्तवेदिनः । तत्पुनरुपशमश्रेण्यामौप-२८१ पशमिकी श्रेणिमनुप्रविष्टस्य सतो जन्तोरनन्तानुबन्धिषु दर्शनत्रिके चोपशमं नीते भवति । किमुपशमणिगतस्यै चैतद्भवति १, नेत्याह--'आइमे त्यादि, आदिमः-प्रथमोऽनादिमिथ्यादृष्टेः सतो जीवस्य योऽसौं सम्यक्त्वलामस्तस्मिन वा औपशमिकं सम्यक्त्वं भवति । इह खन्धनादिमिथ्याष्टिः कश्चिदायुर्वर्जसप्तकर्मप्रकृतिष्वनाभोगनिवर्तितेन यथाप्रवृत्तिकरणेन अपयित्वा प्रत्येकं पल्योपमासङ्ख्येय ॥१८॥ १ मिथ्यात्वस्व० सं. ॥ २ मिथ्यात्वस्व० मु. ॥ ३ रुझ्यव्यवसायरूपस्य सम्यक्त्व० जे. नास्ति ॥ ४ उपसमयं-मु. ॥ य उपशमो Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके १४९द्वारे सम्यक्त्वस्य एकादि मेदाः गाथा ९४२. द्वितीयः खण्ड: १८८॥ ९६२ भागन्यूनसागरोपमकोटीकोटिप्रमाणता नीतासु अपूर्वकरणेन भन्नई करणं तु परिणामो' [ ] इतिवचनादध्यवसायविशेषरूपेणातिप्रकृष्टधनरागद्वेषपरिणामजनितस्य वज्राश्मवद् दुर्भेद्यस्य कर्मग्रन्थे:दं विधायानिवृत्तिकरणं प्रविशति । तत्र च प्रतिसमयं विशुद्धयमानस्तान्येव कर्माणि 'नितरां क्षपयन् , उदीणं च मिथ्यात्वं वेदयन् , अनुदीर्णस्य तु तस्योपशमलक्षणमन्ती इतकालमानमन्तरकरणं करोति । तस्य चायं विधिः-यदुत अन्तस्करणस्थितेमध्यावलिकं गृहीत्वा "गृहीत्वा प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति । एवं च प्रतिसमयं तावत्प्रक्षिपति यावदन्तरकरणदलिक सकलमपि क्षीयते । अन्तमहूर्तेन च कालेन सकलदलिकक्षयः । ततस्तस्मिन्ननिवृत्तिकरणेऽवसिते उदीर्णेच मिथ्यात्वेऽनुभवतः क्षीणे अनुदीर्णे च परिणामविशुद्धिविशेषतो विष्कम्भितोदये ऊपरदेशकल्पं मिथ्यात्वविधरमासाद्य औपशमिकं सम्यक्त्वमधिगच्छति । तम्मिश्च स्थितः सत्तायां वर्तमान मिथ्यात्वं विशोध्य पुञ्जत्रयरूपेणावश्यं व्यवस्थापयति । 'यथा हि कश्चिन्मदनकोद्रवानौषधवशेन शोधयति, ते च शोध्यमानाः केचिन्छुद्धयन्ति केचिदर्धशुद्धा एव भवन्ति केचित्तेष्वपि सर्वथैव न शुद्धयन्ति, एवं जीवोऽप्यध्यवसायविशेषतो जिनवचनरुचिपतिबन्धकदुष्टरसोच्छेदकरणेन मिथ्यात्वं शोधयति । तदपि शोध्यमानं शुद्धमर्धशुद्धमशुद्धं च त्रिधा जायते । तत्र शुद्धपुञ्जः सर्वज्ञधर्म सम्यक्प्रतिपत्यप्रतिबन्धकत्वेनोपचारात् सम्यक्त्वपुञ्ज उच्यते । द्वितीयस्तु अर्धशुद्ध इति मिश्रपुञ्ज उच्यते । तदुदये तु जिनधर्मे औदासीन्यमेव भवति । अशुद्धस्त्वहंदादिषु मिथ्याप्रति१ निरन्तरं-मु.॥ २ च-मु. नास्ति ।। ३ प्रविशति-मु. सि. ॥ ४ गृहीत्वा मु. नास्ति ।। ५ तथा-रत्र.सं. सि.॥ प्र.आ. २८२ ॥१८॥ SEARS IPASRARRES OTHORNER Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥ १८९॥ [ पत्तिजनकत्वान्मिथ्यात्वपुञ्जोऽभिधीयते । तदेवमन्तरकरणेन' अन्तर्मुहूर्त कालमोपशमिकसम्यक्त्वेऽनुभूते तदनन्तरं नियमादम क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिमिश्री मिध्यादृष्टिर्वा भवतीत्येष कार्मग्रन्थिकाभिप्रायः । * सैान्तिकाभिप्रायः पुनरयमनादिमिध्यादृष्टिः कोऽपि ग्रन्थिभेदं विधाय तथाविधतीवपरिणा मनपूर्वकरणमुपारूढः सन्मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकरोति, 'अपुव्वेण तिषु' जं मिच्छतं कुणइ 'कुहवोवमया ।' ] इति वचनात् । ततोऽनिवृत्तिकरण मामर्थ्याच्छुद्धपुञ्जपुद्गलान् वेदयश्रौपशमिकं सम्यFreness प्रथमत एवं क्षायोपशमिकसम्यम्टष्टिर्भवति । अन्यस्तु यथाप्रवृत्त्यादिकरणत्रयक्रharart औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते । पुंजत्रयं त्वसौ न करोत्येव । aastvaमिकसम्यक्त्वातोsari मिध्यात्वमेव गच्छतीति । नन्वोपशमिकसम्यक्त्वस्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्वात्को विशेषः, उभयत्रापि ह्यविशेषेणोदितं मिथ्यात्वं क्षीणम्, अनुदितं चोपशान्तमिति उच्यते । अस्ति विशेषः, क्षायोपशमिकेहि सम्यक्त्वे मिथ्यात्वस्य प्रदेशानुभवोऽस्ति, न त्वौपशमिके सम्यक्त्वे इति । अन्येतु व्याचक्षते - श्रेणिमध्यवर्तिन्येवोपशमिके सम्यक्त्वे प्रदेशानुभवो नास्ति, न तु द्वितीये, तथापि तत्र सम्यFarrageena एव विशेष इति ॥ ९४५ ॥ इदानीं कारक- रोचक - दीपकसम्यक्त्वानि क्रमेणाह - 'विहिया'० गाहा, विहितस्य- आगमोक्तस्य यदनुष्ठानं करणं तदिह- सम्यक्त्वविचारे कारकं सम्यक्त्वम् । अयमर्थ:- यदनुष्ठानं यथा सूत्रे मणि १ न खख नास्ति । २ संद्धान्तिका:- मु. ३ को० मु. ७४ सम्यक्त्वे प्रदेशानुभवो नास्ति इति-सं० ॥ vw g १४९ द्वारे सम्यक्त्व स्य एकादि भेदाः गाथा ९४२ ९६२ प्र. आ. २८२ ।।१८९।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः गाथा खण्डः ॥१९॥ तद् यस्मिन् सम्यक्त्वे परमविशुद्धिरूपे सति देश-काल-संहननानुरूपशक्त्यनिगृहनेन तथैव करोति तत् १४९ द्वारे सदनुष्ठान कारयतीति कारकमुच्यते । एतच्च साधूनां द्रष्टव्यम् । तथा श्रद्धानमात्र रोचकं सम्यक्त्वम् । इद सम्यक्त्व. मुक्तं भवति यत्सम्यक्त्वं सदनुष्ठानं रोचयत्येव केवलं न पुनः कारयति, तद्रोचयति तथाविधविशुद्धिभावाद्वि य एकादिहितानुष्ठान' इति रोचकम् । यथा श्रेणिकादीनाम् , तथा यः स्वयमिह मिथ्याष्टिरभन्यो वा कश्चि भेदाः दङ्गारमर्दकादिवत् अथ च धर्मकथया मातृस्थानानुष्ठानेनातिशयेन वा केनचिनवानि जिनोक्तानि दीपयति-परस्य प्रकाशयति यस्मात्तस्मात्तत्सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते । ननु स्वयं मिथ्यादृष्टिस्थ च तस्य सम्य. क्त्वमिति कथमुच्यते ? विरोधात , उच्यते, मिथ्यादृष्टेरपि सतस्तस्य यः परिणामविशेषः स खलु प्रतिपत्तणां । ९६२ सम्यक्त्वस्य कारणम् , ततः कारणे कार्योपचारात सभ्यन्वमित्युच्यते, यथाऽऽयुतमित्यदोषः ॥९४६॥ प्र. आ. अथ चतुर्विधं सम्यक्त्वमाह-'श्वइये' त्यादि, नदेव नायिकादित्रिविधं सम्यक्त्वं सास्वादन २८३ सहितं चतुर्विधं विज्ञेयम् । तत्पुनः सास्वादनमनन्तानुबन्धिकमायोदयेन 'सम्यक्त्वस्यौपशमिकारख्यस्य । भ्रंशे-हासे मिथ्यात्वाप्राप्तिरूपमवसेयम् । इयमत्र भावना-इहान्तरकरणे औपशमिकसम्यक्त्वाद्धायां जधन्यतः समयशेषायामुत्कृष्टतम्तु पडावलिकाशेषायां वर्तमानस्य कस्यचिदनन्तानुबन्धिकषायोदयः सम्पद्यते, ततस्तेन कषायोदयेनौपशमिकसम्यक्त्वाच्च्यवमानस्य मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्नुवतोऽत्रान्तरे जघन्यतः समयमुस्कृष्टतस्तु षडावलिकाः सास्वादनमम्यक्त्वं भवति, परतस्त्वसौ नियमेन मिथ्यात्योदयामिथ्यादृष्टिर्भवतीति ॥९४७।। ॥१९॥ १०ने खं. सं. सि. ।। २ सम्यक्त्वोप० ख. 1 सम्यक्त्वोप० सं.।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीक द्वितीयः सम्प्रति पञ्चविधं सम्यक्त्वमाह-'वेयये त्यादि, एतदेव पूर्वोक्तं चतुर्विधं सम्यक्त्वं वेदकसम्यक्त्वसंयुक्तं पुनः पञ्चधा-पञ्चविधं 'विनिर्दिष्टं-विशेषतः कथितं वीतरागैः । तच वेदकसम्यक्त्वं सम्य- | १४९ द्वार क्वपुञ्जस्य बहुतरक्षपित्तस्य चरमपुगलानां वेदनकाले-माससमये भवति । वेदयति-अनुभवति सम्यक्त्व सम्यक्त्वपुद्गलान् इति वेदक:-अनुभविता । तदनर्थान्तरभूतत्वात सम्यक्त्वमपि वेदकम् , यद्वा यथा आहियत स्य एकादि. इत्याहारके तथा वेद्यत इति वेदकम् । इदमत्र तात्पर्यम्-क्षपकश्रेणिं प्रतिपनस्यानन्तानुबन्धिकषाय चतुष्टय भेदाः मपि क्षपयित्वा मिध्यात्वमिश्रपुजेषु सर्वथा क्षपितेषु सम्यक्त्वपुञ्जमप्युदीयोंदीर्यानुभवेन निर्जस्यतो गाथा निष्ठितोदीरणीयस्य चरमग्रासेऽवतिष्ठमानेऽद्यापि सम्यक्त्व अझलाना कियतामपि वेद्यमानत्वादिकं ९४२. सम्यक्त्वमुपजायते इति । अत्राह-नन्वेवं सति क्षायोपशमिकेन सहास्य को विशेषः १, सम्यक्त्वपुञ्ज |९६२ पुद्गलानुभवस्योभयत्रापि समानत्वात् , सत्यम् , किन्त्वेतदशेषोदितपुद्गलानुभूतिमतः प्रोक्तम् , इतर प्र. आ. त्तदितानुदितपुद्गलस्यैतन्मात्रकृतो विशेषः । परमार्थतस्तु क्षायोपशमिकमेवेदम् , चरमग्रासशेषाणां पुद्गलानां क्षयाचरमग्रामवर्तिनां तु मिथ्यास्वभावापगमलक्षणस्योपशमस्य सद्भावादिति ॥९४८॥ अथ दशविधं सम्यक्त्वमाह-'एय' मित्यादि, एतदेवानन्तरोदितं पञ्चविधं सम्यक्त्वं निसर्गाऽधिगमभेदाभ्यां दशधा भवति, क्षायिक-क्षायोपशमिक औपशमिक-सास्वादन-वेदकाना प्रत्येकं निसर्गतोऽधिगमनश्च जायमानत्वाद्दशविधत्वमित्यर्थः अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनार्थः, निसर्गरुचिरुपदेशरुचिरित्यादिरूपतया यदागमे-प्रज्ञापनादौ प्रतिपादितं तेन वा दशविधत्वमवगन्तव्यम् ॥९४९॥ निर्दिष्टं-व० सं० ।। २ यदा-मु.सि. नास्ति ।। ३ चतुष्टयमिध्यात्व० सं. सं.॥४ च-मु०॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन. सारोद्धारे सटीके सम्यक्त्वप्य एकादिभेदाः गाथा ९४२ द्वितीयः ११२॥ तदेवाह-'निसरगु' इत्यादि, अत्र रुचिशब्दः प्रत्येक योज्यते, ततो निसर्गरुचिरुपदेशरुचिरिति द्रष्टव्यम् । तत्र निसर्ग:समावस्तेन रुचिः-जिनप्रणीततवाभिलापरूपा यस्य स निसर्गरुचिः १, उपदेशो-गुर्वादिभिर्वस्तुतत्वकथनं तेन रुचिः-उक्तस्वरूपा यम्य स उपदेशरुचिः २, आज्ञा-सर्ववचनात्मिका तया रुचि:-अभिलापो यस्य स आज्ञारुचिः ३, 'सुत्त-बीयरूहमेव' त्ति अत्रापि रुचिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, मूत्रम्-आचारायङ्गप्रविष्टम्, अङ्गबाह्य चावश्यक-दशवेकालिकादि तेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः ४, बीजमिव बीजं यदेकमप्यनेकार्थप्रबोधोत्पादकं वचः तेन सचिर्यस्य स बीजरुचिः ५, अनयोश्च पदयोः समाहारद्वन्द्वः, तेन नपुसकनिर्देशः एवेति समुच्चये। 'अहिगम वित्थाररुइत्ति अत्रापि सचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः, ततोऽधिगमरुचिविस्ताररुची । तत्राधिगमो-विशिष्टं परिज्ञानं तेन सचिर्यस्यासावधिगमचिः ६, विस्तारो-व्यासः सकलद्वादशाङ्गस्य नयः पर्यालोचनमिति भावः, तेनोपवृहिता रुचिर्यस्य स विस्ताररुचिः ७, 'किरियासस्वेव धम्मरुई' ति रुचिशब्दस्यात्रापि प्रत्येकमभिसम्बन्धान क्रियारुचिः सङ्के परुचिर्धरुचिरिति द्रष्टव्यम् । तत्र क्रिया-सम्यक्संयमानुष्ठानम् , तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारूचिः ८. मझेपः-सङ्ग्रहस्तत्र रुचिर्यस्य विस्तरार्थापरिज्ञानात् स मळेपरुचिः ९, धर्मे-अस्तिकायधर्मे श्रुतधर्मादी वा रुचिर्यस्य स धरुचिः यच्चेह सम्यक्त्वस्य जीवानन्यत्वेनाभिधानं तद्गुणगुणिनोः कश्चिदनन्यत्वख्यापनार्थमिति गाथासक्षेपार्थः ॥१५॥ *व्यासार्थे तु स्वत एव मूत्रकृदाह-'जो जिण.' गाहा, यो जिनदृष्टान-तीर्थकरोपलब्धान भावान् १ द्रष्टव्यम , अत्र मु, च द्रष्टव्य-खं. सं. सि. । तुला-उत्ताध्ययनवृत्तिः प. ४९७ तः ।। २ वा वं०॥ ३०विस्तार विश्व-मु.॥४.आसाम तु स्तत-जे ॥ प्र. आ. |२८३ NAGAakananda m adaniMMEANIRE Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे १४९ द्वारे सम्यक्त्वस्य एकादि भेदाः सटीके द्वितीयः खण्म: ९२४. जीवादिपदार्थाश्चतुर्विधान-द्रव्य-क्षेत्र काल-भावभेदतो नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदत्तो वा चतुष्प्रकारान् स्वयमेव-परोपदेशनिरपेक्षं जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया स्वमत्यैव श्रद्दधाति, केनोल्लेखेन श्रद्दधाति ? तत आह-एवमेतत् जीवादि यथा जिनेप्टं नान्यथेति, चः समुचये एष निसर्ग रुचिरिति ज्ञातव्यः ।।९५१॥ उपदेशरुचिमाह-एए चेव उ' गाहा, एतांश्चैव अनन्तरोक्तान् , तुः पूरणे, भावान-जीवादीनुपदिष्टान-कथितान् परेण-अन्येन श्रद्दधाति-तथेति प्रतिपद्यते । कीदृशा परेण ?-छादयतीति छमघातिकर्मचतुष्टयम, तत्र लियतीति छद्रस्था-अनुत्पन्चकेवलम्तेन, जयति रागादीनिति जिनस्तेन, च-उत्यकेवलज्ञानेनताथकदादिनी, छअस्थम्य तु प्रागुपन्यासस्तत्पूर्वकत्वाज्जिनस्य प्राचुर्येण वा तथाविधोपदेतृणाम् , स ईक्किमित्याह-उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥९५२।। ____ आज्ञारुचिमाह-'रागो' इत्यादि, रागः-अभिष्वङ्गो द्वेषः-अप्रीतिः, मोहः-शेषमोहनीयप्रकृतयः, अज्ञान-मिथ्याज्ञानरूपं यस्यापगतं नष्टं भवति, सर्वथा चास्यैतदपगमासम्भवाद्देशत इति गम्यते । अपगत'शब्दश्च लिङ्गविपरिणामतो रागादिभिः प्रत्येकमभि सम्बध्यतेः एतदपगमाञ्च 'आणाए' ति "अवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य आज्ञयेव केवलया तीर्थकरादिसम्बन्धिन्या रोचमानः कचिदपि कुग्रहाभावात् प्रवचनोक्समर्थजातं तथेति प्रतिपद्यमानो माषतुषादिवत् , स खलु-निश्चितमाज्ञारुचिः नामेत्यभ्युपगमे, ततश्चाज्ञारुचिरित्यभ्युपगन्तव्यः ॥९५३।। १०चितिव्यः-मु, सि.1 तुलना-प्रज्ञापनावृत्तिः प. ५९ A ॥ २ कीदृशेन-सु.।। ३ शब्दस्य-मु.॥४ सम्बन्धःमु. सि.॥ ५ अविधा. जे. ।। ९६२ प्र. आ. ।२८४ ॥११॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१९४॥ सूत्ररुचिमाह-'जो मुत्ते' इत्यादि, यः सूत्रम्-आगममधीयानः-पठन् श्रुतेनेति-सूत्रेण तेनैवाधीय ११४९ द्वारे मानेन अङ्गेन-अङ्गप्रविष्टेन आचारादिना बाह्य न च--अङ्गबाह्य न आवश्यकादिना सम्यक्त्वमक्गाहते. सम्यक्त्वप्राप्नोति। तुशब्दस्याधिकार्यसूचकत्वात्प्रसन्नप्रसन्नवराज्यवसायश्च भवति स गोविन्दवाचकवत् सूत्ररुचि म्य एकादिरिति ज्ञातव्यः ॥१५४॥ भेदाः बीजरुचिमाह--'एग पए' गाहा, एकेन पदेन प्रक्रमाज्जीवादिना अवगतेन अनेकानि पदानि गाथा प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययादनेकेषु--बहुषु पदेषु--जीवादिपु या प्रसरति-व्यापितया गच्छति सम्यक्त्व ९४२. मित्यनेन रुचिरत्रोपलक्षिता, ततो धर्म-धर्मिणोरभेदोपचारान् आन्मा सम्यक्त्ववान सन् प्रसरति रुचिरूपेण ९६२ प्रसरतीत्यर्थः । यदा तु 'पयरई उ सम्मत्त' इति पाठस्तदा एकपदविषय सम्यक्त्व-रुची सति अनेकेषु प्र. आ. 'पदेषु प्रचरति-प्रकर्पण व्यापितया गच्छति रुच्यात्मकत्वेनैवेत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु स एवेति । तु शब्दो २८४ ऽवधारणे, प्रसरत्येव, कथमित्याह-उदक इच तैलबिन्दुः, किमुक्तं भवति ?-यथा उदकैकदेशगतोऽपि तैलबिन्दुः समस्तमुदकमाक्रामति तथा तत्वैकदेशोत्पनरुचिरप्यात्मा तथाविधक्षयोपशमशादशेषेषु तत्वेषु रुचिमान् भवति । स एवंविधो बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः । यथा हि बीजं क्रमेणानेकवीजाना जनक एवमस्यापि रुचिविषयो' भेदतो भिन्नाना रुच्यन्तराणामिति ।।९५५।। अधिगमरुचिमाह-'सो होइ' गाहा, यस्य श्रुतज्ञानमर्थतो दृष्टम् , किमुक्तं भवति ?-येन श्रुतज्ञानस्यार्थोऽधिगतो भवतीति, किं पुनस्तत् श्रुतज्ञानमित्याह-एकादशाङ्गानि-आधारादोनि प्रकीर्ण १ पदेपु-सं. नास्ति ।। २ प्रसरत्येव-स्त्र. सं. नास्ति ।। ३ व-सि. सं.ग्रे. ख.॥ ४ भवति-मु. सि. ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥ १९५ ॥ कानि-उत्तराध्ययन- नन्यध्ययनादीनि दृष्टिवादा-परिकर्मसूत्रादिः, अङ्गत्वेऽपि पृथगुपादानमस्य प्राधान्यख्यापनार्थम्, शब्दादुपाङ्गानि चौपपातिकादीनि स भवत्यधिगमरुचिः ॥ ९५६॥ विस्ताररूपिमाह-- 'दव्या मित्यादि द्रव्याणा-धर्मास्तिकायादीनामशेषाणामपि सर्वे भावा:-- पर्यायाः सर्वप्रमाण:- अशेषैः प्रत्यक्षादिभिर्यस्योपलब्धा: - यस्य प्रमाणस्य यत्र व्यापारस्तेनैव प्रमाणेन प्रतीताः, 'सव्वाहिं' ति सर्वैश्व नयविधिभिः - नैगमादिनयप्रकारैः, अम्र भावमयम्, अमु ं चायं 'नय भेद इच्छतीति स विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः सर्ववस्तुपर्यायप्रपञ्चावगमेन तस्य रुचेरतिविमलरूपतया भावात् ॥ ९५७|| 'क्रियारुचिमाह - 'नाणे' इत्यादि, ज्ञाने तथा दर्शनं च चारित्रं च दर्शन- चारित्रं समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् तथा तपसि विनये च, तथा सर्वासु समितिषु - ईर्यासमित्यादिषु सर्वासु च गुप्तिषु-मनोगुप्तिप्रभृतिषु, 'सच्च' ति पाठे तु सत्या - निरुपचरितास्ताच ताः समितिगुप्तयश्च यदिवा सत्यं च अविसंवादयोगाद्यात्मकं समितिगुप्तयश्च सत्य समिति गुप्तयस्तासु यः क्रियाभावरुचिः, किमुक्तं भवति १यस्य भावतो ज्ञानाद्याचारानुष्ठाने रुचिरस्ति स खलु क्रियारुचिर्नाम, इह च चारित्रान्तर्गतत्वेऽपि तप:प्रभृतीनां पुनरुपादानं विशेषत एष मुक्त्यङ्गत्वख्यापनार्थम् ।। ९५८ || सङ्क्षेपरुचिमाह-- 'अणभिगहिय.' गाहा, अनभिगृहीता-अनङ्गीकृता कुत्सिता दृष्टि: सौगता - दिदर्शनं येन स तथा अविशारदः -- अकुशलः प्रवचने-जिनप्रणीते शेषेषु च कपिलादिप्रणीतेषु प्रवचनेषु १ नयभेदमि (द ३) च्छवीति मु. ॥ १४९ द्वारे सम्यक्त्व स्य एकादि. भेदाः गाथा ९४२ १६.२ प्र. भा २८४ ॥ १९५॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १४९द्वारे सम्यक्त्वस्य एकादिभेदाः गाथा ९४२. द्वितीयः खण्ड: अनभिगृहीतो--न विद्यतेऽभीत्याभिमुख्येनोपादेयतया गृहीतं ग्रहणं ज्ञानमस्येत्यनभिगृहीतः, पूर्वमनभिगृहीतकुदृष्टिरित्यनेन दर्शनान्तरपरिग्रहः प्रतिषिद्धः, अनेन तु परदर्शनपरिज्ञानमात्रमपि निपिद्धमिति विशेषः । इदमत्र तात्पर्यम् 'य उक्तविशेषणो सझेपेणेव चिलातोपुत्रवदुपशमादिपदत्रयेण तत्वरुचिमवाप्नोति स सझेपरुचिरुच्यते इति ।।९५९॥ धर्मरुचिमाह--'जो अस्थिकाय.' गाहा, यः खलु जीवोऽस्तिकायाना-धर्मास्ति'कायादीनां धर्म--गत्युपष्टम्भकत्वादिरूपं स्वभाव श्रुतधर्मम्--अङ्गप्रविष्टाद्यागमस्वरूपं चारित्रधर्म च-सामायिकादिकं जिना. भिहितं -तीर्थकृदुक्तं श्रदधाति--तथेति प्रतिपद्यते स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः । इह च शिष्यमतिव्युत्पादनार्थमित्थमुपाधिभेदेन सम्यक्त्रभेदाभिधानम् , अन्यथा हि निसर्गायदेशयोरधिगमादौ वा क्वचित्केपाश्चिदन्तर्भावोऽस्त्येवेति ।।९६०॥ अथ पूचोंक्तान्येव क्षायिकादीनि त्रीणि सम्यक्त्वानि प्रसङ्गतो नारकादिजीवेषु चिन्तयन्नाह'आई पुढवीसु' इत्यादिगाथाद्वयम् , आद्यासु तिसृषु पृथिवीपु-रत्नप्रभा-शर्कराप्रभा-वालुकाप्रभासु वयउवसमवेयग' ति सूचकत्वात् सूत्रस्य क्षायिकमौपशमिक वेदकं च सम्यक्त्वं भवति, इह च वेद्यन्ते-अनुभूयन्ते शुद्धसम्यक्त्वपुजपुद्गला अस्मिन्निति वेदकं झायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते, औपशमिकसायिकसम्यक्त्वयोः पुद्गलवेदनस्य सर्वथैवाभावात् , यत्पुनः क्षप्यमाणसम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलचरमग्रासलक्षणं वेदकसम्यक्त्वं पूर्व मुक्तं तदिह पृथग न विवक्षितम् , पुद्गलवेदनस्य समानत्वेन क्षायोपशमिकसम्यक्त्व १ यः उक्तविशेषणो सं० खं. सं. ॥ २ याना-खं. ॥ ३ खयोव० मु.। चेयउयसमत्ति-सि.॥ ग्र. आ. २८५ स Wariamwitwanolisanile MAINMEN000 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥१९॥ एव तस्यान्तर्भावात् , ततोऽयमर्थः-आद्यनरकपृथिवीत्रयवर्तिनारकाणां क्षायिकौपशमिकक्षायोपशमिकानि त्रीण्यपि सम्यक्त्वानि सम्भवन्तीति, तथाहि-योऽनादिमिथ्यादृष्टिारका प्रथम सम्यक्त्वमवाप्नोति तस्यान्तरकरणकालेऽन्तर्मुहूर्तमौपशमिकं सम्यक्त्वं भवति । औपशमिकसम्यक्त्वाच्चानन्तरं शुद्धसम्यक्त्वपुञ्ज- | सम्यक्त्वपुद्गलान् वेदयत्तस्तस्यापि झायोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, मनुष्य-तिर्यग्भ्यो वा यः क्षायोपशमिकसम्य-स्यएकादिग्दृष्टिारकेषुत्पद्यते तस्यैतत्पारभविकं लभ्यते, विराधितसम्यक्त्वो हि षष्ठीपृथिवीं यावत् गृहीतेनापि सम्य- भेदाः क्येन सैद्धान्तिकमतेन कश्चिदुत्पद्यते । गाथा कार्मग्रन्धिकमतेन तु वैमानिकदेवेभ्योऽन्यत्र तिर्यङ्गनुष्यो वा वान्तेनैव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेनो. स्पद्यते न गृहीतेनेति, यदा पुनः कश्चिन्मनुष्यो नारकयोग्यमायुर्वन्ध विधाय पश्चात्क्षपकश्रेणिमारभते बद्धा. युष्कत्वाच तां न समापयति केवलं दर्शनसप्तकं क्षपयित्वा क्षायिकं सम्यक्त्वमवाप्नोति, ततश्च मनुष्यायु प्र. आ. स्त्रुटिसमये मृत्वा नारकेवृत्पद्यते तदा आद्यपृथिवीत्रयनारकाणां पारभविकं क्षायिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, २८५ न तु ताद्भविकन् , मनुष्यस्यैव तद्भवे क्षायिकसम्यक्त्वारम्भकत्वादिति । तथा वैमानिकदेवानां 'पणिदितिरियाण' ति व्याख्यानतो विशेषावगतौ पञ्चेन्द्रियाणा मनुष्याणां तिरश्वा वा सङ्ख्येयवर्षायुषामेवमेव-- पूर्वोक्तमेव, त्रीण्यपि सम्यक्त्वानि भवन्तीत्यर्थः ॥ - तत्र वैमानिकदेवानामौपशमिकं - क्षायिकं च नारकवदेव, क्षायोपशमिकं त्वौपशमिकसम्यक्वानन्तरकालभावि ताभविकम् , तिर्यक् मनुष्यो वा यः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः सन् वैमा. निकेत्पद्यते तस्यैतत्पारमविकं च लभ्यते । मनुष्यास्तु द्विविधाः सङ्ख्येयवर्षायुषोऽसङ्ख्येयवर्षायुषश्च । १ बा-मुः ॥ २ तादा. वं. ": :! •ikixits --॥१९॥ e x . .. ..... Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERO h S0 प्रवचन १४९द्वारे सम्यक्त्वस्य एकादि भेदाः गाथा ९४२ | तत्र सङ्ख्य यवर्षायुषा नुष्याणामौपशमिकं सम्यक्त्वमनन्तरोक्तन्यायन प्रथमसम्यक्त्व'लाभकाले भव त्युपशमश्रेण्या वा तदनन्तरकालादिमावि तु क्षायोपशमिकं ताविकम् , देवादीनां तु क्षायोपशमिकसारोदारे। शादृष्टिगः मनुष्यपनी पारारिक क्षायोपशमिकम् , क्षायिकं तु क्षपकश्रेण्या ताद्भविक, नारकमटीके देवानां क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां मनुष्येघूत्पत्तो पारभविक तथैव । असङ्ख्येयवर्षायुषां पुनर्मनुष्याणा। द्वितीयः मौपशमिर्क क्षायिकं च नारकवदेव वाच्यम् , झायोपशमिकं तु तदनन्तरकालादिमावि ताद्भविकं तथैव । । खण्डः तिर्यङ्मनुष्यास्तु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्ता वैमानिकेष्वेव जायन्ते नान्यत्र । ये तु मिथ्यादृष्टयवस्थायाँ बद्धायुकत्वादेवत्पद्यन्ते ते अवश्यं मरणसमये मिथ्यात्वं गत्ववोत्पद्यन्ते इति पारभविकं क्षायोपशमिक *सम्यक्त्वममीषां न लभ्यते इति कार्मग्रन्थिकाः । सैद्धान्तिकास्तु मन्यन्ते-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वसंयुक्ता अपि बद्धायुष्का अमी केचिदेतेपुत्पद्यन्ते इति पारभविकमपि झायोपशमिकं सम्यक्त्वममीषा लभ्यते । असङ्ख्येयवर्षायुष्कतिरश्चां पुनस्त्रीण्यपि सम्यक्त्वान्यसव्येयवर्षायुष्कमनुष्यवद्वाच्यानि । शेषाणामाद्यपृथिवीत्रयव्यतिरिक्तानां नारकाणां पङ्कप्रभा. घधस्तनपृथिवीचतुष्टयनारकाणामित्यर्थः । 'निरियत्थीणं च' ति असङ्ख्येयवर्षायुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरथा तत् स्त्रीणां च, तथा त्रिविधदेवानां-भवनपत्ति-व्यन्तर-ज्योतिष्कलक्षणानां नास्त्येव क्षायिकं सम्यक्वम् , क्षायिक हि सम्यक्त्वमेतेषु ताद्भविकं तावन्न भवति, सङ्ख्येयवर्षायुष्कमनुष्यस्यैव क्षायिकसम्यक्वारम्भकत्वाव, पारमविकमपि न भवति क्षायिकसम्यग्दृष्टेरेतेष्वनुत्पत्ते, औपशमिक-क्षायोपशमिकेतु मवत इति । 'सम्म अन्नेसिं चेव जीवाण' ति अन्येषां पुनर्जीवानां सम्यक्त्वमेव नास्ति, चा १ बाम वं. स. नास्ति ॥ २५ तरिति-वं. सं. ॥ ३ तानुशर० स० ॥ ४ सम्यक्त्वमेषां-मु.॥ प्र.आ. २८५ k | ॥१९॥ HARSSESSMARRIA ATES. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीक पुनरर्थे, एवोऽवधारणे भिन्नक्रमः स च योजित एव । - एतदुक्तं भवति-एक द्वित्रि चतुरिन्द्रिया ऽसज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां तद्भवं परभवं वा अपेक्ष्य प्रस्तुतसम्यक्वत्रयमध्य एकमपि न सम्भवति । सास्वादनमम्यक्त्वं पुनर्वादरपृथिव्यम्बुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंक्षिपञ्चेन्द्रियेप्वपर्याप्तावस्थायां पारमविकं पर्याप्तसंशिपञ्चेन्द्रियेषु तु ताभविकमवाप्यते । सूक्ष्मैकेन्द्रियबादरतेजोवायुषु पुनः सम्यक्त्वलेशवतामप्युत्पादाभावात् सास्वादनं नास्तीत्येष कार्मग्रन्धिकाभिप्रायः । सूत्राभिप्रायेण तु पृथिव्याधेकेन्द्रियाणां सास्वादनसम्यक्त्वं नास्ति । यदुक्तं प्रज्ञापनायां "पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! पुढविकाइया नो सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी नो सम्मामिच्छदिट्ठी, एवं जात्र वणप्फइकाइया" [पद १६ । सू. १४०२] इति ।।९६१ ।। ९६२ ॥ १४९ ॥ इदानीं 'कुलकोडोणं संखा जीवाणं' ति पश्चाशदधिकशततमं द्वारमाह पारस सत्त य तिनि य सत्त य कुलकोडिसयसहस्साई। नेया पुढवि-दगा-गणि-वाऊणं चेव परिसंवा ॥९६३॥ कुलकोडिसयसहस्सा सत्सह य नव य अठ्ठवीसं च । बेइदिय-तेइ दिय-चउरिदिय-हरियकायाणं ॥१६॥ अद्वत्तेरस बारस दस दस नव चेव सयसहस्साई । जलयर-पक्खि -चप्पय-उर--भुयसप्पाण कुलसंखा ॥९६५।। कुलको संख्या गाथा ९६३. ९६७ प्र. आ. २८६ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १५० द्वा कुलकोटीसंख्या गाथा ९६३. द्वितीयः खण्ड: ॥२०॥ छन्वीसा 'पणवीसा सुरनेरइयाण सयसहस्साई । धारसय सयसहस्सा कुलकोखीणं 'मणुस्साणं ॥९३६॥ एगाकोडाकोडी सत्ताणउई भवे सयसहस्सा । पन्नासं च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयव्वा ।।९६७।। [जीवसमास गा.४०-४४] 'पारसे' त्यादिगाथापचकम् , पृथिव्युदकाग्निवायूनामेव कुलान्याश्रित्य परिसङ्खथानं परिसङ्कथा यथाक्रम ज्ञेया, तद्यथा-द्वादश कुलकोटिशतसहस्राणि-लक्षाः पृथिवीकायिकानाम् , सप्त उदकजीवानाम् , त्रीण्यग्निकायिकानाम् , वायूनां पुनः सप्तव "कुलकोटिशतसहस्राणि ॥९६३।। - 'कुलकोडि०' गाहा, अत्रापि यथासङ्ख्येन योजना, द्वीन्द्रियाणां सप्त कुलकोटिशतसहस्राणि, अष्टौ त्रीन्द्रियाणाम् , नव चतुरिन्द्रियाणाम् , अष्टाविंशतिहरितकायिकानां-समस्तवनस्पतिकायिकानाम् ॥९६४॥ । 'अडत्तेरस' गाहा, अत्रापि यथाक्रमं पदघटना, तत्र जले चरन्ति-पर्यटन्तीति जलचराःमत्स्य-मकरादयः, तेषामर्धत्रयोदश कुलकोटिशतसहस्राणि, सार्धा द्वादश कुलकोटिलक्षा इत्यर्थः, पक्षिणांकेकि-काकादीनां द्वादश, चतुष्पदाना-गज-गर्दभादीनां दश, उरःपरिसर्याणां-भुजगादीनां दश, भुजपरिसर्पाणा-गोधा-नकुलादीनां नत्र, कुलकोटिलक्षाणि भवन्ति ।।९६५।। 23. १. पणु० ता. २ मुणेयवा-ना.॥ ३ परिसङ्ख्यानं मु. नास्ति ॥ ४ तुला-जीवसमासवृत्तिः प. ३० तः।। ५ कुलकोटीना शतक स्व. सं.॥ प्र. आ. २८६ 55555 as - |॥२०० Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥२०१॥ 'acarसे' त्यादि, सर्वेषां भवनपत्य दिसुराणां पविंशतिः, कुलकोटिलक्षाणि नारकाणां तु पञ्चविंशतिः, मनुष्याणां पुनर्द्वादश कुलकोटीनां शतसहस्राणि भवन्तीति ।।९६६।। अथ पूर्वोक्तानामेव कुलानां सर्वसङ्ख्यामाह- 'एगा कोडाकोडी' गाहा, सर्वसङ्ख्या एका कुलकोटीकोटिः सप्तनवतिः कुलकोटीनां शतसहस्राणि पञ्चाशच सहस्राः कुलकोटीनां ज्ञातव्याः || १६७॥ १५० ॥ इदानीं 'ओणिलक्ख 'चुलसी' त्येकपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह पुढविद्गअगणिमारुय एक्केक्के सत्त जोणिलक्खाओ 1 वणपतेयअणते दस चउदस जोणिक्खाओ ।।९६८।। विगलिदिए दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरिए होंति चउरो चउदस लक्खा उ मणुएस ॥९६९॥ [वृहत्सं. गा. ३५१-२] समवन्नाहसमेया बहवोऽधि हु 'जोणिभेयलक्खाओ सामना face एकगजोणी ' गहणेणं 1 ।।९७० ।। 'विदगे' स्यादिगाथाद्वयम् 'यु मिश्रणे' इत्यस्य धातोर्यु' वन्ति-भवान्तरसङ्क्रमणकाले तेजसका शरीरवन्तः सन्तो जीवा औदारिकादिशरीरप्रायोग्यपुद्गलस्कन्धैर्मिश्री भवन्त्यस्यामिति औणादिके निप्रत्यये योनिः जीवानामुत्पत्तिस्थानमित्यर्थः । तत्र 'पृथिव्युदकाग्निमरुतां सम्बन्धिन्येकैकस्मिन् समुहे सप्त सप्त योनिक्षा भवन्ति । तद्यथा-सप्त पृथिवीनिकाये, सप्तोदकनिकाये, सप्ताग्निनिकाये, सप्त वायु १ हुति ता. सि ॥ २ जोणिलक्खभेयाओ- मु. ॥ ३ए-ता. सं. ॥ ४ तुला जीवसमासवृत्तिः प. ३१ ॥ ५ तुला वृहत्सं, मलय, वृत्तिः १. १३६ ॥ १५१ द्वारे ८४ योनि लक्षाः गाथा ९६८ १७० प्र. आ. २८७ ॥२०३॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रवचनमारोद्वारे HARE निकाये, "वनस्पतिनिकायो द्विविधस्तद्यथा-प्रत्येकोऽनन्तकायश्च, तत्र प्रत्येकवनस्पतिनिकाये दश योनिनिकाये, १५१ द्वारे लक्षाः, अनन्तवनस्पतिनिकाये चतुर्दश लक्षाः । विकलेन्द्रियधु-द्वीन्द्रियादिषु-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय. 1८४ योनिरूपेषु प्रत्येक द्वे द्वे योनिलक्षे, तद्यथा-वे योनिलक्ष द्वीन्द्रियेषु, द्वे त्रीन्द्रियेषु, द्वे चतुरिन्द्रियेषु । तथा लक्षाः चतस्रो योनिलक्षा नारकाणाम् , चतस्रो देवानाम् , तथा नियक्ष पञ्चेन्द्रियेषु चतनो योनिलक्षाः । चतु गाथा दशयोनिलक्षा मनुष्येषु । सर्वसङ्ख्यायाश्च मीलने चतुरशीतियों निलझा भवन्तीति ।। 'नच वक्तव्यमनन्तानां जीवानामुत्पत्तिस्थानान्यष्यनन्तानि प्राप्नुवन्ति । यतो जीवानां मामान्याधारभृतो लोकोऽप्यसय्येयप्रदेशात्मक एव, विशेषाधाररूपाण्यपि नरकनिष्कुटदेव शयनीयप्रत्येकमाधारगजन्तुशरीराण्यसङ्ग्च्येयान्येव, ततो जीवानामानन्न्येऽपि कथमुत्पत्तिस्थानानामानन्त्यम् ?, मवन्तु ना - सङ्ख्येयानीति चेन्नैवम् , यनो बहन्यपि तानि केवलिदृष्टेन केनचिद्वर्णादिना धर्मेण सदृशान्येकच योनिरिष्यते, ततोऽनन्तानामपि जन्तूनां केवलिविवक्षितवर्णादिमादृश्यतः परम्पगन्तर्भावचिन्तया चतुरशीतिलझसङ्कथा एवं योनयो भवन्ति, न हीनाधिकाः ।।९६८-९६९।। एतदेवाह-'समवन्नाइ' गाहा, मयैः-सदृशैवर्णादिभिः-वर्ण-गन्ध रस-स्पर्शेः समेता-युक्ताः समानवर्ण-गन्ध-नम स्पर्श इत्यर्थः । बहवोऽपि-प्रभूता अपि योनिभेदलक्षा, हुः-निश्चितमिह एकयोनिजातिग्रहणेन गृह्यन्ते, कुतः ?-मामान्यान-व्यक्तिमदतः प्राभृत्येऽपि समानवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शसद्भावन सादृश्यादिति । ।।।२०२॥ है वनस्पतिकायो-खं.स. तुला-जीवसमासवृत्तिः प.३१॥ ३० शयनप्र० खं.सं. २८७ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: ॥२०३॥ 'ननु योनि - कुलयोः कः प्रतिविशेषः १, उच्यते योनि जीवानामुत्पत्तिस्थानम् । यथा वृश्चिकागोमयादि कुलानि तु योनिप्रभवानि, तथाहि एकस्यामेव योनावनेकानि कुलानि भवन्ति, यथा छगयोनौ कृमिकुलं कीटकुलं वृश्चिककुलमित्यादि, यदिवा तस्यैव वृविकादेर्गोमयाद्येकयन्युत्पन्नस्यापि कपिल रक्तादिवर्णभेदादनेकविधानि कुलानीति । अथ प्रज्ञापनानुसारेण योनिविषयोऽपरोऽपि विशेषः कश्चिदुपदर्श्यते यथा शीतोष्णमिश्र• भेदात् त्रिधा योनिः । तत्र नारकाणां शीता उष्णा च 'आद्यकासु तिसृपृष्णवेदनासु पृथिवीषु शीता, चतुर्थ्यां बहुपरितनेषु उष्णवेदनेषु नरकावासेषु शीता, अभः स्वोकेट शीतवेदनेष उष्णा । पञ्चम्यां "बहुषु शीतवेदनेषु उष्णा, स्तोकेषु उष्णवेदनेषु शीता, पष्ठी - सप्तम्योच शीतवेदनयोर्नारकाणां योनिरुष्णैव शीतयोनिकानां हि उष्णवेदनाऽभ्यधिका भवति, उष्णयोनिकानां तु शीतवेदना । नारकाणां च यथा वेदनामापद्यते प्रायः सर्वं तथैव परिणमति ततो वेदनाक्रमप्रातिकूल्येन योनि क्रमसम्भवः । सुराणां गर्भजतिर्यङनराणां च शीतोष्णरूपोमयस्वभावा योनिः नैकान्तेन शीतं नाप्युष्णम्, किन्त्वनुष्णाशीतं तदुपपातक्षेत्रमिति भावः । पृथिव्यम्बु- वायु-वनस्पति-द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय- सम्मूच्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय सम्मूच्छिममनुष्याणामुपपातस्थानानि शीतस्पर्शान्युष्णस्पर्शान्युभयस्पर्शान्यपि भवन्तीति तेषां त्रिधा योनिः केपाचच्छता केपाचिदुष्णा, केषाञ्चिन्मिश्रेति, तेजस्कायिकानामुष्णैव योनिः, उष्णस्पर्शपरिणत एव क्षेत्रे तेषामुत्पत्तेः । १ तुला जीवसमासवृतिः ५. ३१ ॥ २ तुला समयसुन्दरगणिकृतं श्रीविशेषपणशतकम् प. ४५ ॥ ३ प्रज्ञापना पद ९/ सू. ७३, प्र. १९९ द्रष्टव्यम् । जीवसमासवृत्तिः गा. ४७, ४६, ४५ द्रष्टव्या ॥ ४ भाषासु-सु. ॥ ५ नार० खं. ॥ १४८ द्वारे ८४ योनिलक्षाः गाथा ९६८ ९७० प्र. आ. २८७ ॥२०३॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके ८४ योनि द्वितीयः खण्ड: ९६८ ॥२०४|| तथा सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रभेदादपि विधा योनिः । तत्र नारकाणां देवानां चाचित्ता, तदुपपातक्षेत्रस्य केनापि जन्तुनाऽपरिगृहीतत्वेनाचेतनत्वात् , यद्यपि च सूक्ष्मैकेन्द्रियाः सकललोकव्यापिनस्तथापि न तत्प्रदेशैरुपपातस्थानपुद्गला अन्योऽन्यानुगमेन सम्बद्धा, इत्यचित्तव तेषां योनिः । एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियसम्मूछिमतिर्यग्नराणां 'त्रिविधाऽपि योनिः । जीवति गवादावुत्पद्यमानानां कृम्यादीनां सचित्ता, अचित्ते काष्ठे समुत्पद्यमानानां घुणादीनामचित्ता, सचित्ता-चित्लेषु काष्ठगोशतादिषु घुणा-क्रम्यादीनामेव मिश्रा, गर्भजतिर्यग्नराणां पुनर्मिश्रा, ये हि शुक्रमिश्राः शोणितपदला योन्याऽऽत्मसात्कृतास्ते सचित्ताः, अन्ये त्वचित्ता इति । तथा संवृतविवृतोभयभेदादपि त्रिधा योनिः, तत्र नारकदवै केन्द्रियाणां संवृता योनिः; नारकोत्पत्तिस्थानानां निष्कुटानां संवृतगवाक्षकल्पत्वात् , देवानां तु देवशयनीयेषु देवघ्याभ्यन्तरे संवृतम्वरूपे समुत्पादात , एकेन्द्रियाणां तु योनेः स्पष्ट मनुपलक्ष्यमाणत्वात् द्वित्रिचतुरिन्द्रियसम्मूछिमतिर्यग्नराणां विवृता योनिः, तेपामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयादेः स्पष्ट मुपलक्ष्यमाणत्वात् , गर्भजतियग्नराणां तूभयरूपा योनिः, गर्भस्य संवृतविकृतरूपत्वात् , गो ह्यन्तः स्वरूपतो नोपलभ्यते, बहिः पुनरूदरवृद्धयादिना समुपलक्ष्यते इति । ___ अथ मनुष्ययोनिगतो विशेषः प्रतिपाद्यते-यथा मनुष्याणां योनिस्त्रिधा--कूर्मोन्नता शङ्खावर्ता बंशीपत्रा च, कूर्म पृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता, शङ्खस्येवावतो यस्यां सा शङ्खावर्ता, संयुक्तवंशीपत्रद्वयाकारा १ त्रिविधा-ख. सं. ॥ २ ०पेषु-सं. ॥ प्र.आ. २८८ २०४|| ॐ BHANDA R Enactiti. .. ... Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि AIRPENNIANTEESegorywetprapes वचन रोद्धारे वटीके तीयः वंशीपत्रा । तत्र कूर्मोन्नतायां योनौ तीर्थकृचक्रवर्ति-वासुदेव-बलदेवा उत्पद्यन्ते; वंशीपत्रायां सामान्यमनुष्या जायन्ते, 'शङ्खावर्ता तु स्त्रीरत्नस्यैव भवति; तस्यां च गर्भ उत्पन्नोऽपि न निष्पत्तिं याति, प्रबलतमकामाग्निपरितापतो ध्वंसगमनादिति वृद्धप्रवादः ॥९७०॥१५॥ सम्प्रति 'तिकालाईवि तत्थ विवरणं' ति द्विपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह त्रैकारण ३ नगपटनं ६ ननपदामिनं जीवषटकायलेश्याः ६, पश्चान्ये चास्तिकाया ५ व्रत ५ समिति गति ५ ज्ञान ५ चारित्र ५ भेदाः । इत्येते मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमहगिरीशै । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पशति च मतिमान् यः स वैशुद्धदृष्टिः ॥९७१॥ एयस्स विवरणमिणं तिकालमईयवट्टमाणेहिं । होइ भविस्सजुएहिं दव्वच्छक्कं पुणो एयं ॥९७२।। धम्मथिकायदव्वं १ दव्यमहम्मत्थिकायनाम २ च । आगास ३ काल ४ पोग्गल ५ जीवदन्वस्सत्वं च ६ ॥९७३।। जीवा जीवा२ पुन्नं ३पावा SSसव ५ संवरो य ६ निज्जरणा७ । बंधो - मोक्खो ९ य इमाई नव पयाई जिणमयम्मि ॥९७४|| १५२ द्वारे त्रैकाल्यवृत्तविवृत्तिः गाथा ९७१९७९ प्र. आ. २८८ २०५।। १ शङ्कावर्तीस्तु-लं.॥ ||॥२०५॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवचन नारोद्वारे नटीके दतीयः |२०६॥ जीवं कर्क इग १बि २ति ३घउ ४ पणिदिय ५ अनिंदियसत्वं ६ | छक्काया पुढवि १ जला २ नल ३ वा ४ वणरसह ५ तसेहि' ६ ||९७५ ।। छल्लेसाओ कण्हा १ नीला २ काऊ य ३ ते ४ पउम ५ सिया ६ । कालविहीण दन्यच्छक्क इह अस्थिकायाओ ॥९७६॥ पाणिव १ मुसावाए २ अदन्त ३ मेहुण ४ परिग्गहेहि ५ इहं | पंच वयाई' भणिया पंच समिईओ साहेमि ॥९७७॥ इरिया १ भासा २ एसण ३ गहण ४ परिवण ५ नामिया ताओ । पच गईओ नारय १ तिरि २ नर ३ सुर ४ सिद्ध ५ नामाओ || ९७८ ॥ नाणाई' पंच मइ १ सुय २ ओहि ३ मण ४ केवलेहि ५ भणिग्राहं । सामाइय १ य २ परिहार ३ सुहम ४ अहवाय ५ चरणाइ ॥ ९७९ ।। 'त्रैकाल्य' मित्यादिवृत्तम्, त्रयः कालाः समाहृतात्रिकालम्, त्रिकालमेव त्रैकाल्यमतीतादिकालत्रिकमित्यर्थः द्रव्यषट्कं - धर्मास्तिकायादिभेदात् नवभिः पदैः- जीवादिभिस्तच्चैः सहितं युक्तं द्रव्यपकमेव ज्ञातव्यम् । तथा पशब्दस्य डमरुकमणिन्यायेनोभयत्र सम्बन्धात् पट् जीवा-एकेन्द्रियादयः, षट् कायाः - पृथिवीकायादयः, पट् च लेश्याः - कृष्णादयः, अपरे च पञ्चास्ति १०व-ता ॥ २ गतीओ-वि. ॥ 1 १५२द्वारे काव्य वृत्त विवृत्तिः गाथा १७१ १७९ प्र. आ. २८८ ॥ २०६॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन काया-धर्मास्तिकायादयः, तथा पञ्चशब्दस्य प्रत्येकमत्रापि योजनात्पश्च व्रतभेदाः-प्राणिवधविरमणादया, पञ्च समितिभेदा-ईर्यासमित्यादयः, पश्च गतिभेदा-नरकगत्यादयः, पञ्च ज्ञानभेदाः-मतिज्ञानादयः, पञ्च चारित्रभेदाः-सामायिकादयः, इत्येते पूर्वोक्ताः सर्वेऽपि पदार्थास्त्रिभुवनमहितैःचिलोशाचितैरईति- तीर्थकरीस-हवालाविककर्मक्षयजन्यसुरविरचितचतुस्त्रिंशदतिशयस्वरूपपरमैश्वर्योपशोभितमोक्षमूल-निर्वाणकारणं प्रोक्तम्-उपदिष्टम् । अतो यः पुमान् मतिमान-प्रवेकविवेक'कलितएतान् प्रत्येतिस्वरूपतोऽवगच्छति श्रद्धाति-इदमेव तत्त्वमित्यात्मनो रोचयति स्पृशति च-यथायथं सम्यगासेवते, सवै स्फुट 'शुद्धदृष्टिः शुद्धा-मिथ्यात्वमलानाविला दृष्टिः-सम्यक्त्वं यस्य स शुद्धदृष्टिरितिः ॥९७१।। अथैनं वृत्तं व्याचिख्यासुः कालत्रिक प्रतिपादयन्नाह-'एयरस'गाहा, एतस्य-पूर्वोक्तस्य त्रैकाल्यमित्यादेः स्रग्धरावृत्तस्येद-वक्ष्यमाणं विवरण-व्याख्यानं विज्ञेयमिति शेषः । तत्र त्रैकाल्यमतीत-वर्तमानास्यां भविष्यद्युक्ताभ्यां भवति, अतीत-वर्तमान-भविष्यवक्षणास्त्रयः काला इत्यर्थः । तत्रातिशयेन इतोगतोऽतीतो, वर्तमानत्वमतिकान्त इत्यर्थः । वर्तत इति वर्तमाना-साम्प्रतमुत्पन्नः, सर्वसूक्ष्मनिरंशसमयमात्रमान इति भावः । भविष्यतीति भविष्यन्-वर्तमानत्वं न प्राप्तोऽनागत इति हृदयम् । द्रव्यषट्कं पुनरिंदवक्ष्यमाणम् ॥९७२॥ तदेवाह-'धम्मत्थिकाय० गाहा, धर्मास्तिकाया-ऽधर्मास्तिकाया-ऽऽकाशास्तिकाय-काल-पुद्गला १५२द्वारे काल्यवृत्तविवृत्तिः गाथा ९७१ ०७॥ प्र.आ. । २८९ . १०कलित-खं.सं. नास्ति। ॥२०७॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥२०८॥ स्तिकाय जीवास्तिकाय स्वरूपाणि षड् द्रव्याणि । तत्र जीवानां पुद्गलानां च स्वत एव गतिक्रियापरिणतान 'तत्स्वभाववरणात्मपोषणाद्धर्मः अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां कायः - सङ्घातोऽस्तिकायः । ततो धर्मश्वासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः । सकललोकव्यापी असंख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्ती द्रव्यविशेष इत्यर्थः । जीवपुद्गलानामेव तथैव गतिपरिणतानां तत्स्वभावेऽधरणादधर्मः स चासावस्तिकायश्चाधर्मास्तिकायः । किमुक्तं भवति ? जीव- पुद्गलानां स्थितिपरिणामपरिणतानां तत्परिणामोपष्टम्भको मूर्ती लोकव्यापी 'असंख्येयप्रदेशात्मकोऽधर्मास्तिकायः । लोकमात्रत्वं चानयोरेतदवष्टम्भकाकाशदेशस्यैव लोकत्वात्, अलोकव्यापित्वे त्वनयोर्जीव - पुद्गलानामपि तत्र प्रचारप्रसंगेन तस्यापि लोकत्वप्राप्तेरिति । ' तथा आङिति मर्यादया तत्संयोगेऽपि स्वकीयस्त्रकीय स्वरूपेऽवस्थानतः सर्वथा तत्स्वरूपाप्राप्तिलक्षणया क्राशन्ते-स्वभावलामेनावस्थितिकरणेन च दीप्यन्ते पदार्थसार्था यत्र तदाकाशम् । यदा त्वभिविधावाङ्, तदाऽऽङिति सर्वभावाभिव्याप्त्या काशते - प्रतिभासते इत्याकाशम् तच्च तदस्तिकायश्चाकाशास्तिकायो, लोकालोकव्यापी अनन्तप्रदेशात्मको द्रव्यविशेष इत्यर्थः । , तथा कलनं - समस्तबस्तु स्तोमस्य सङ्ख्यानमिति कालः, अथवा कलयन्ति समयोऽस्यानेन रूपेणोस्पन्नस्यावलिका मुहूर्तादि वा इत्यादिप्रकारेण सर्वमपि सचेतनाचेतनं वस्त्ववगच्छन्ति केवल्यादयोऽनेनेति काल:- 'समयावलिकादिरूपो द्रव्यविशेषः । तथा पूरण- गलनधर्माण: पुद्गलाः- परमाण्वादयोऽनन्ताणुस्कन्धपर्यन्ताः । एते हि कुतश्रिद् १. च तत्स्व० जे० ॥ २असख्यात० सि. ॥ ३ भद्य आङिति - जे. ॥ ४ समयावलिकारूपो - मु. ॥ १५२ द्वारे त्रैकाल्य वृत्त विवृत्तिः गाथा ९७१ ९७९ प्र. आ. २८९ ॥२०८॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १५२ द्वार काल्यवृत्त विवृतिः गाथा ९७१. द्वितीयः खण्ड: ॥२०९॥ द्रव्याद्गलन्ति-वियुज्यन्ते, किञ्चित्तु द्रव्यं स्वसंयोगतः पूरयन्ति-पुष्टं कुर्वन्ति, पुद्गलाश्च तेऽस्तिकायश्च पुद्गलास्तिकायः। तथा जीवन्ति जीविष्यन्ति जीवितवन्त इति जीवास्ते च तेऽस्तिकायश्च जीवास्तिकायः, प्रत्येकमसङ्ख्येयप्रदेशात्मकसकललोकभाविनानाजीवद्रव्यसमूह इत्यर्थः । अत्र च जीवपुद्गलानां गत्यन्यथानुपपत्तेधर्मास्तिकायस्य, तेषामेव स्थित्यन्यथानुपपत्तेरधर्मास्तिकायस्य, जीवादिपदार्थानामाधारान्यथानुपपत्तेराकाशास्तिकायस्य, बकुलाशोकचम्पकादिपुष्पफलप्रदाननैयत्यान्यथाऽनुपपत्तेः कालस्य, घटादिकार्यान्यथानुपपत्तेः पुद्गलास्तिकायस्य, प्रतिप्राणि स्वसंवेदनसिद्धचैतन्यान्यथानुपपत्तेश्च 'जीवास्तिकायस्य सत्त्वं समवसेयमिति ।।९७३॥ अथ नव पदान्याह-'जीवाजीवा' गाहा, जीवाः-सुखदुःखोपयोगलक्षणाः, अजीवा:-तद्विपरीता धर्मास्तिकायादयः, पुण्यं-शुभप्रकृतिरूपं कर्म, पापं-तद्विपरीतं कर्मैव, आश्रवति-आगच्छति कर्मानेनेत्याश्रवः, शुभाशुभकर्मोपादानहेतुः हिंसादिः, संवरणं संवरो-गुप्त्यादिभिराश्रवनिरोधः, निर्जरणं निर्जराविपाकात्तपसो वा कर्मणां देशतः क्षपणम् , बन्धो-जीवकर्मणोरत्यन्तसंश्लेषः, मोक्षः-कृत्स्नकर्मक्षयादास्मनः स्वात्मन्यवस्थानम् , इत्येतानि नवसङ्ख्यानि पदानि-तत्त्वानि जिनमते-अर्हत्प्रवचने विज्ञेयानीति । इह च आश्रवन्धपुण्यपापानि मुख्य संसारकारणमिति हेयानि, संवरनिर्जरे मुख्यं मोक्षकारणम् , मोक्षस्तु मुख्यं साध्यमित्येतानि त्रीण्यप्युपादेयानीत्येवं शिष्यस्य हेयोपादेयतापरिज्ञानार्थ मध्यमप्रस्थानापेक्षया १ जीवादका ख.॥ प्र.आ. २८९ ॥२०॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवचन मारीद्वारे लटीके: द्वतीयः ब्रॅण्ड: २१०॥ नवेत्युक्तम् अन्यथा सङ्क्षेपापेक्षया जीवा ऽजीवयोरेव पुण्य-पापादीनामन्तर्भावसंभवाद् द्वित्वसङ्घवामिया स्थानाङ्गे -- 'स्थिचणं लोए तं सव्वं दुपडोयारं, तंजहा- जीवा चेव अजीवा चेव' [सू. ५७ ]त्ति ! विस्तरतस्तु तदुत्तरोत्तरभेदविवक्ष' याऽनन्तमेव स्यात् । अथ कथं जीवा जीवयोरेव पुण्यपापादीनामन्तर्भावसम्भवति चेदुच्यते, पुण्य-पापे कर्मणी, बन्धोऽपि तदात्मक एवं कर्म च पुद्गलपरिणामः, पुलाचा जीवा इति । श्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य स चात्मानं पुद्गलवि मुक्त्वा कोsन्यः ९, संवरोऽप्याश्रवनिरोधलक्षणो देश सर्वभेद आत्मनः परिणामो निवृत्तिरूपः । निर्जग तु कर्मपरिशाटो जीवः कर्मणां यत्पार्थक्यमापादयति स्वशक्त्या । मोक्षोsपि सकलकर्मविरहित आत्मैवेति । अन्यत्र पुनः पुण्यपापयोर्धन्धेऽन्तर्भावात् सप्तैव तत्त्वान्युक्तानि ||९७४ || अथ जीव-काय के प्राह- 'जीवच्छक' गाहा, इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादे केन्द्रियद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियानिन्द्रियस्वरूपं जीवषटकम् । तत्र एक स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः- पृथिव्यम्बु तेजोवायुवनस्पतयः, द्वे स्पर्शनरसनलक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः शङ्ख- शुक्तिका - चन्दनक कपर्दक जलूका कृमि- गण्डोलक-पूतरकादयः, त्रीणि स्पर्शन-रसन घाणलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते श्रीन्द्रिया:--यूका मत्कुण - गर्दभकेन्द्रगोपक- कुन्थु मत्कोट-पिपीलिकोप देहिका' कार्पासास्थि त्रसबीजक १०य-खं. सं । द्वित्वसहृत्यैवामित्रेया सि. २ व्यानन्त्यमेव सु. ॥ ३ तत्त्वार्थसूत्रादिषु (१) इति ध्येयम् ॥ ४ 'गे' त्यादि इन्द्रिय० मु० ॥ ५० कर्पासा० खं खं ॥ १५२ द्वारे त्रैकाल्य वृत्त विवृत्तिः गाथा ९७१९७९ प्र. आ. २९० ॥२१०॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१५२ द्वारे त्रैकाल्य टीके वृत्त विवृत्तिः गाथा 'तुम्बरकादयः, चत्वारि स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुर्लक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रया:--भ्रमर-मक्षिका दंश-मशक-वृश्चिक-कीट-पतङ्गादयः, पञ्च स्पर्शन रसनघ्राण-चक्षुःश्रोत्रलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः-करि-मकर-मयूर मनुजादयः, निखिलकर्मनिमुक्तत्वेन शरीरविरहितत्वान्न विद्यते इन्द्रियं-स्पर्शनादि येषां ते अनिन्द्रिया:--सिद्धाः। तथा षट् कायाः पृथ्वी-जला-ऽनल वायु बनस्पति त्रसभेदात , पृथ्वीकाय-जलकाया-ऽनलकायवायुकाय-बनस्पतिकाय-त्रसकायलक्षणाः षट् काया इत्यर्थः । तत्र पृथिवी--काठिन्यादिलक्षणा, सैव कायःशरीरं येषां ते पृथिवीकायाः, जलं-पानीयम् , तदेव कायः- शरीरं येषां ते जलकायाः, अनलो--वह्निः, स एव काय:-शरीरं येषां तेऽनलकायाः, वायु-पवनः, स एव कायः-शरीरं येषां ते वायुकायाः, वनस्पतिःलतादिरूपः, स एव कायः--शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः; सनशीलास्त्रसाः--चलनधर्माणः कायाःशरीराणि येषां ते त्रसकायाः ।।९७५ ___ अथ लेश्याषट्कमस्तिकायपञ्चकं चाह--'छल्लेसओ' गाहा, लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह जीवो यकाभिस्ता लेश्या:--कृष्ण-नील कापोततेजःपद्म-शुक्लवर्णद्व्यसाहाय्याज्जीवस्याशुभाः शुभाश्च परिणामविशेषाः। उक्तं च-- 'कृष्णादिद्रव्यमाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥ १.तुम्बुर० खं. सं. ॥ तुलना- 'तंबरुणमज्जिया म.प्र.।तिबुरणमज्जिया-धः । इति प्रज्ञापना सूत्रे पाठान्तराणि' पद १। सू. ५७॥ २ तत्र पृथ्वी०सं.!! ९७९ प्र.आ. २९० ॥२११॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२द्वारे त्रैकाल्य प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयःः कृष्णादिद्रव्याणि च केचिद् 'योगपरिणामो लेश्या' [ ] इतिवचनाद्योगान्तर्गतद्रव्याण्याहुः, 'अन्ये तु 'सकलकर्मप्रकृतिनिःस्यन्दरूपाणि', अपरे पुनः 'कार्मणशरीरवत्पृथगेव कर्माष्टकात्कार्मणवर्गणानिष्पन्नानि कृष्णादिद्रव्याणी' ति प्रतिपादयन्ति । तत्त्वं तु तीर्थकृतो विदन्तीति । एताश्च परिणामविशेषात्मिका लेश्याः षड् भवन्ति । तद्यथा--कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, 'सिय' ति सितलेश्या, शुक्ललेश्येत्यर्थः । तत्र कृष्णद्रव्यात्मिकाकृष्णद्रव्यजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्येत्यर्थः । एवं नीललेश्येत्यादिपदेष्वपि भावनीयम् , तासु चाद्यास्तिम्रोऽशुभाः, अपरास्तु तिम्रः शुभाः । एतासां च विशेषतः स्वरूपनिरूपणार्थ जम्बूखादकपटपुरुपीरष्टान्तो ग्रामघातकदृष्टान्तश्चोच्यते । तथाहि-- कस्मिश्चित्कानने क्षत्क्षामकुक्षयः पट् पुरुषाः सुपरिपक्वसरसफलभरावनमित--सकलशाखं कल्पशाखिसक्षमेकं जम्वृवृक्षमद्राक्षुः । ततः सर्वैरपि प्रमुदितैः प्रोक्तम् अहोऽवसरप्राप्तमस्य दर्शनम् , अपनयामो बुभुक्षाम् , भक्षयामः स्वेच्छयाऽतुन्छान्यम्यस्वादुफलानीत्यैकमत्ये सति तन्मध्ये क्लिष्टपरिणामेनैकेनोक्तं--'युक्तमिदं केवलमस्मिन्ननोकहे दुरारोहे समारोहतां जीवितव्यस्यापि संशयः; तस्मात्तीक्ष्णधारः कुठारैरमुमूलत एव कर्तयित्वा तिर्यक्प्रपात्य सुखेनैव सकलानि फलान्यभ्य'वहरामः । एष एवंजातीयः कृष्णलेश्यापरिणामः । द्वितीयेन तु किश्चित्मशूकेनोक्तं--'किमस्माकमेतेनातिमहता पादपेन छिन्नेन ? महीयसी शाखामेवैको कर्तयित्वा फलान्यास्वादयामः ।' एवंप्रकारो नीललेश्यापरि ..१ विशेषार्थ द्रष्टव्या प्रज्ञापनावृत्तिः, प. ३३१ ।। २ केचित कम्मिं० मु.11३ वहागमः एष स एवं-सि. वि. ॥ ४ सीमस्य-मु. 1 महीय-सी-जे ।। विवृतिः गाथा ९७१ ९७९ प्र.आ. २९० ॥२१२॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: णामः । तृतीयः पुनः प्राह--किमेतया महाशाखया हिश्या १. देवदेशमृताः प्रशाखा एवं कर्तयामः ।' इत्येवंविधः कापोतलेश्यापरिणामः । चतुर्थश्चोवाच-'किमाभिरपि वराकीभिः कर्तिताभिः १, तत्पर्यन्तयतिनः १५२ द्वारे कांश्चिद्गुच्छानेव छियः ।' एष तेजसलेश्यापरिणामः । पञ्चमः पुनः प्रोवाच -'गुच्छरपि किं नश्छिनः ?, काल्य. तन्मध्यात्सुपक्वानि भक्षणोचितानि कानिचित्फलान्येव गृणीम' इत्यसो पझलेश्यापरिणामः ।' पृष्ठस्तु । बभाषे--किं तैरपि त्रोटितैः १. यावत्प्रमाणेः प्रयोजनमस्माकं तावत्प्रमाणानि फलान्यधस्तादपि पतितान्यस्य विवृतिः विटपिनः प्राप्यन्ते तद्वयममीभिरेव प्राणवृत्ति विदध्मः, किमुन्मूलनादिनाऽस्य शाखिनः खेदेन ? ।' इत्ययं गाथा शुक्ललेश्यापरिणाम इति ॥ ग्रामघातकदृष्टान्तस्तु कस्मिंश्चिद् ग्रामे धन धान्यादिलुब्धैः षड्भिरतस्करस्वामिभिमिलित्वा घाटी प्रक्षिमा । तत्रैके नोक्तं-यत्किमपि द्विपद चतुष्पद-पुरुष-स्त्री बाल-वृद्धादिकं पश्यथ तत्सर्व मारयत । इत्येवं प्र. आ. जातीयः कृष्णलेश्यापरिणामः । द्वितीयस्तु नीललेश्यापरिणामवर्ती बभाषे–'मानुपाण्येव मारयत किं तिर्य २९१ भिरिनि ।' तृतीयः पुनः कायोतलेश्यायुक्तो जगाद-'पुरुषानेव व्यापादयत ?, किं स्त्रीभिरिति ।' चतुर्थस्तु ते जसलेश्यापरिणामान्वितः प्राह-'पुरुषेष्वपि सप्रहरणानेव निशुम्भत, किं निष्प्रहरणैरिति । पञ्चमः पुनः पद्मलेश्यापरिणामसम्पन्नः प्रोवाच- सायुधेष्वपि युध्यमानानेव विनाशयत, किमन्यैर्निरपराधैरिति ।' पष्टस्तु शुक्ललेश्यापरिणामपरिगतः प्रतिपादयति स्म-'अहो महदसमञ्जसं यदेकं तावद् द्रव्यमपहरथ, अपरं च वराक्रमेनं जनं विनाशयथ, तस्माद्यद्यपि द्रव्यमपहरथ तथापि प्राणांस्तावत्सर्वस्यापि लोकस्यरक्षतेति ॥ १० तः खः वि.। तसि. ॥ २ •रपि.मु. ।। ३ विशेषार्थ द्रष्टव्यं योगशास्त्रे (४॥४४) ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीक द्वितीयः ॥२१४॥ तथा कालविहीनं-काललझणद्रव्य'विरहितं पूर्वोक्तं द्रव्यपट्कमेवास्तिकायाः-धर्मास्तिकाया-ऽधर्मास्ति |१५२ द्वारे काया-ऽऽकाशास्तिकाय-पुद्गलास्तिकाय-जीवास्तिकायलक्षणाः प्रागुक्तस्वरूपाः पञ्चास्तिकाया इत्यर्थः । अथ त्रैकाल्ययथा धर्मास्तिकाय इत्युक्तं तथा कालास्तिकाय इति कस्मानोच्यते ? इति चेत् , नैवम् , प्रदेशबहुत्व एवा. स्तिकायत्वोपपत्तेः, अत्र च तन्नास्ति । अतीता-जागतसमया(ग्रन्थाग्रं १२०००) नां विनष्टा ऽनुत्पन्नत्वेन । विवृत्तिः प्रज्ञापकप्ररूपणाकाले वर्तमानसमयरूपस्यैव कालप्रदेशस्य सद्भावादिति । यद्येवमावलिका-मुहूर्त-दिवसादि गाथा प्ररूपणाया अन्यभावप्रसङ्गः प्राप्नोति, आवलिकादीनामप्यसङ्ख्येयममयाद्यात्मकत्वेन प्रदेशबहुत्व एवो. ९७१. पपत्तेः, सत्यमेतत् , केवलं स्थिर स्थलकालत्रयवर्तिवम्त्यधुपगमपरव्यवहारनयमतमवलम्च्याऽऽचलिकादि ९७९ कालप्ररूपणाः निश्चयनयमतेन तु तदभाव एवेति न कालेऽस्तिकायता ॥९७६॥ प्र. आ. पञ्च व्रतान्याह--'पाणिवहे त्यादि, व्रत-शास्त्रविहितो नियमः, तस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धात्प्राणिवत्रत-मृपावादवता-ऽदत्तादाननत-मैथुनयत-परिग्रहवतेरिह-जिनसिद्धान्ते पञ्च व्रतानि भणितानि । इतः पञ्च समितीः ‘साहेमि' ति कथयामि ।।९७७॥ ता एवाह- 'इरिये' त्यादि पूर्वार्धम् , ईर्यासमिति षासमितिरेपणासमितिग्रहणसमितिः-आदाननिक्षेपसमितिरित्यर्थः, परिष्ठापनासमितिश्चेत्येताः पञ्च समितयः । व्रत-समितिस्वरूपं च पट्पष्टे सप्तपष्टे चद्वारे विस्तरेणोक्तमिति । 1२१४॥ अथ पञ्च गतीगह---'पंचे' त्यादि उत्तरार्धम् , नारकगति-सिर्यग्गति-नरगति-सुरगति-सिद्धगति१रहित मु.॥ २ स्थूलकायत्रय मु.। धुरकाल. सं. 812 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन- बरोद्धारे । नामिकाः पञ्च गतयः । तत्र गम्यते-प्राप्यते स्वकर्मरज्जूसमाकृष्टेजन्तुभिरिति गतिः, नारकाणां गतिनारकगतिः तिरश्वाम्-एकेन्द्रियादीनां गतिम्तिमतिः, नशम-मनु याणां गतिरगांता, सुराणा-देवानां गतिः सुरगतिः, सिद्धगतिस्तु कर्मजन्या शास्त्रपरिभाषिता न भवति, केवलं गम्यत इति मतिरिति व्युत्पत्तिसाम्यमात्रादिहोपात्तेति ॥९७८॥ ___अथ पञ्च ज्ञानानि चारित्राणि चाह-'नाणाइ' इत्यादि, मतिश्रुता-ऽवधि-मनःपर्यय केवललक्षणेभैदैः पञ्च ज्ञानानि । एतानि चाग्रे व्याख्यास्यन्ते । तथा चर्यते-गम्यते प्राप्यते भवोदधेः परकूलमेभिरिति चरणानि-चारित्राणि, तानि च पञ्च सामायिक पदेकदेशेऽपि पदसमुदायोपचारात् छेदोपस्थापनिक परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं चेति । तत्र समो-राग-द्वेपरहितत्वाद् अयो-गमनं समायः, एष चान्यासामपि साधुक्रियाणामुपलक्षणम् , सर्वासामपि साधुक्रियाणां रागद्वेषरहितत्वात् । समायेन निवृत्तं समाये वा भवं सामायिकम् , यद्वा समानां -ज्ञान-दर्शन-चारित्राणामायो लाभः समायः, समाय एव सामायिकम् : विनयादेराकृतिगणतया स्वार्थे इकण | तच्च सर्वसावद्यविरतिरूपम् , यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकम् , तथापि छेदादिविशेष विशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते । प्रथम पुनरविशेषणात्सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति । तच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च । तत्र स्वल्पकालभावि इत्वरम् । इदं च भरतैरावतेषु प्रथम पश्चिमतीर्थकरतीर्थे धनारोपितमहाव्रतस्य शेशस्य विज्ञेयम् , अत्र जन्मनि यावज्जीवितकथाऽस्त्यात्मन १५२द्वारे काल्यवृत्तविवृत्तिः गाथा ९७१९७९ प्र.आ. २९२ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A सटीके वृत्त खण्डः ९७१ । स्तावत्कालभावि यावत्कथं तदेव यावत्कथिकं आभववर्तीत्यर्थः । एतच्च भरतेरावतभाविमध्यमद्वाविंशतिप्रवचन ११५२ द्वारे सारोद्धारे तीर्थकरतीर्थेषु विदेहतीर्थकरतीर्थेषु च मुनीनामवसेयम् , तेपामुपस्थापनाया अभावात् । वैकाल्यननु चेत्वरमपि सामायिकं करोमि भदंत ! सामायिकं यावज्जीवम् ' इत्येवं व्रतग्रहणकाले यावदायु रागृहीतम् , तत उपस्थापनाकाले तत्परित्यजतः कथं न प्रतिज्ञाभङ्गः १, उच्यते, ननु प्रागेवोक्तं सर्वमेवेदं विवृतिः द्वितीयः चारित्रमविशेषतः सामायिकम् , समापि समावद मोगविपतिमद्रापान , केवलं छेदादिविशुद्धिविशेय गाथा विशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तस्तश्च नानात्वं भजते । ततो यथा यावऋथिक सामायिकं छेदोपस्थापनं वा परम॥२१६॥ विशुद्धिविशेषरूपसूक्ष्मसम्परायादिचारित्रावाप्ती न भङ्गमङ्गीकरोति तथा इत्यरमपि सामायिकं विशुद्धिः ९७९ रूपच्छेदोपस्थापनावाप्तौ । यदि हि प्रव्रज्या परित्यज्यते तहिं तद्भङ्ग आपद्यते न तु तस्येव विशुद्धिविशेषा प्र. आ. वाप्ताचिति । २९२ तथा छेदः पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च महाव्रतेषु यस्मिन चारित्रे तच्छेदोपस्थापनम् तदेव छेदोपस्थापनिकम् , "ते वा विद्यने यत्र तच्छेदोषस्थापनिकम् , तच्च द्विधा-सातिचारं निरतिचारं च । तत्र निरतिचारं यदित्वरसामायिकवतः शैक्षस्यागेप्यते; तीर्थान्तरसङ्क्रान्ती वा, यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्धमानस्वामितीर्थ संक्रामतः पश्चयामधर्मप्रतिपत्तौ । सातिचारं यन्मूलगुणघातिनः पुनर्वतारोपणम् । १सर्व मु. नास्ति । विशुद्धिरूपसूक्ष्मपच्छे दो० खं.। विशुद्धिरूपसूक्ष्मच्छेदो० वि. विशुद्धिरूपसूक्ष्मरूपच्छेदो सि. .. तदेव छेदोपस्थानिकं ख. वि. सि. नास्ति ।। ४ तदेव वा- मुसि.॥ | ॥२१६॥ ह ASHOUSAR EMANTRA Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: वृत्त ॥२१७॥ तथा परिहरणं परिहारः-तपोविशेषस्तेन विशुद्धिः-कर्मनिर्जरारूपा यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिकम् । तच्च द्विधा-निर्विशमानक निर्विष्टकायिक च, तत्र निर्विशमानका-विवक्षितचारित्रासेवकाः, ॥१५३ द्वारे निर्विष्टकायिका-आसेवित विवक्षित चारित्रकाया':, तदन्यतिरेकाचारित्रमप्येवमुच्यते । इह नवको गणश्च त्रैकाल्यत्वारो निर्विशमानकाश्चत्वारश्वानुचारिणः एकः कल्पस्थितो वाचनाचार्यः, एतत्स्वरूपं च सविस्तरमेकोनसम्पतिद्वारे प्रत्यादि। विवृत्तिः गाथा तथा गति-पत्ति संगणनेनेति सम्पाय:-कषायोदयः, सूक्ष्मो-लोभाशावशेषः सम्परायो ९७१यत्र तत् मूक्ष्मसम्परायम् , तच्च द्विधा-विशुद्धथमानकं संक्लिश्यमानकं च । तत्र विशुद्धथमानकं अपकश्रेणिमुपशमश्रेणिं वा समारोहतः मङ्क्लिश्यमानं तूपशमश्रेणितः प्रन्यवमानस्य । प्र. आ. __ तथा अथशब्दो- याथातथ्यार्थे, आङ् अभिविधीः 'याथातथ्येन अभिविधिना 'यत् ख्यातं-कथितम २९२ अपायचारित्रमिति तत् अथाख्यातम् ; यथाख्यातमिति द्वितीयं नाम । तस्यायमन्वर्थः यथा सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यात-प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत्तत् यथाख्यातम् । इदं च द्विधा-छाहास्थिक कैवलिक च, तत्र छानस्थिकमुपशान्तमोहगुणस्थानके क्षीणमोहगुणस्थानके वाः कैवलिकं सयोगिकेवलिभवमयोगिकेवलिभवं चेति ! ९७९॥१५२।। १०का:- मु.॥२ यथा वि.॥३यथा० मु.॥४ वा-मु.॥ ॥२१७॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन. . सारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥२१॥ इदानीं 'सड्डपडिमाओ' ति त्रिपञ्चाशदधिकशततम द्वारमाह'दसण १ वय २ सामाइय पोसह ४ पडिमा ५ अयंभ ६ सच्चित्ते ७। १५३ द्वारे श्राद्ध आरंभ ८ पेस ९ उद्दि १० बज्जए समणभूए ११ य ९८०॥ प्रतिमाः जस्संखा जा पडिमा तस्संखा तोए हुति मासावि । गाथा कोरंतीसुवि कज्जाउ तासु पुवुत्तकिरिया उ ॥९८१॥ ९८०पसमाइगुणविसिर्ल्ड कुग्गहसकाइसल्लपरिहीणं । ९९४ 'सम्मदसणमणहं दसणपडिमा हवइ पढमा १ ॥९८२॥ प्र. आ. बीयाणुव्वयधारी २ सामाइकड़ो य होइ तइयाए ३ । होइ चउत्थी चउद्दसीअठ्ठनिमाईसु 'दियहेसु ॥९८३॥ पोसह चउविहपि य पडिपुण्णं सम्म सो उ अणुपाले । बंधाई अइयारे पयतओ 'वज्जईमासु ॥९८४॥ सम्ममणुव्वयगुणवयसिक्खावयवं थिरो य नाणी य । 'अट्टमिचउद्दसीसु पडिमं ठाएगराईयं ॥९८५॥ १तुलना-पञ्चाशकप्र. १०१३तः, मावश्यकहारिमद्रीयावृत्तिः प.६४६, धर्मसं. वृत्तिः मा. १। प. २५८ तः । सुदंसणा परियं उद्देश १६, गा. २५३ त: प.१३३ ।। २ सम्म सणमेवं-ता. ।। ३ बीया अणुव्वयघरा-ता.॥ ४ दिव. २१८ सेसु-मु. दिइयेसु-जे. २। पञ्चाशकेऽपि दिहयेसु इति पाठः ॥ ५ वज्जइइमासु-ता.॥ ६ अट्टमी० मु. समवायाङ्गवृत्ती [प. २० ] च । पञ्चाशकेऽपि अमि० इति पाठः ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववचनसारोद्वारे प्रतिमाः द्वतीयः न असिणाण' वियडभोई मउलियडो दिवसबंभयारी य । रति परिमाणकडो पडिमावज्जेसु दिवसेसु ॥९८६॥ १५३ द्वा झायइ पडिमाए ठिओ तिलोयपुज्जे जिणे जियकसाए । श्राद्ध निगोलासनीयं अन वा पंच जा मासा ॥९८७॥ [पञ्चाशकप्र. १०११७-१९] सिंगारकहविभूसुक्करिसं इत्थीकहं च वज्जितो । गाथा वज्जह अबंभमेगंतओ य छट्ठाइ छम्मासे ॥९८८॥ ९८०. सत्तमि सत्त उ मासे नवि आहारइ सचित्तमाहारं । जं जं हेछिल्लाणं तं तूवरिमाण सव्वंपि ॥९८९॥ आरंभसयंकरणं अट्ठमिया अट्ठ मास वज्जेइ । २९३ नवमा नव मासे पुण पेसारंभेऽवि वज्जेह ॥१९॥ दसमा दस मासे पुण उद्दिट्टकयंपि भत्त नवि भुजे । सो होइ उ छुरमुडो सिहलिं वा धारए कोई ॥९९१॥ जं निहियमत्यजायं पुच्छंत 'सुयाण नवरि सो तत्थ । जइ जाणइ तो साहइ अह नवि तो घेइ नवि याणे ॥१९॥ १ ०fण-पो. ।। ३ तं तं चरि. मु. । तं तुमुवरि० ता. । तं तूपरि० पो. ॥ ३ भोत्तु नवि जे.२ । भत्तमवि-जे.॥॥२१९॥ ४ सुभाण-वि. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके | १५३ द्वारे श्राद्ध प्रतिमाः বাঘ ९८० द्वितीयः खण्ड: ॥२२०॥ खुरमुडो 'लोएण प रयहरणं पडिग्गहं च गिमिहत्ता । 'समणभूओ विहरइ मासा एक्कारसुक्कोसं ॥९९३॥ ममकारेऽवोच्छिन्ने वच्चइ सवायपल्लि दटुं जे । तत्थवि साहुव्व जहा गिण्हइ 'फासु तु आहारं ॥९९४॥ 'दसण' गाहा, 'दर्शनं च-सम्यक्त्वम् , व्रतानि च-अणुव्रतादीनि, सामायिकं च-सावधा-इनवद्ययोगपरिवर्जनासेवनम्वरूपम् . पोषधं च-अष्टमी-चतुर्दश्यादिपर्वदिनानुष्ठेयोऽनुष्ठानविशेषः, प्रतिमा च कायोत्सर्गः, अब्रह्म च-अब्रह्मचर्यम् , सचित्तं च-सचेतनद्रव्यम् इति समाहारद्वन्द्वः । तत एतस्मिन् विपये प्रतिमेनि प्रस्तावादवसेयम् , अत्र च दर्शनादिषु पञ्चसु विधिद्वारेण प्रतिमाभिग्रहः, अब्रह्म सचित्तयोस्तु प्रतिषेधमुखेनेति । तथा आरम्भश्च-स्वयं ऋष्यादिकरणम् , 'प्रैपश्च-प्रेषणं परेषां पापकर्मसु व्यापारणम् , उद्दिष्टं च-तमेव श्रावकमुद्दिश्य सचेतनं मदतनीकृतं पक्वं वा यो वर्जयति-परिहरति स "आरम्भप्रैषोद्दिष्टवर्जकः । प्रतिमेति प्रकृतमेव, इह च प्रतिमाना प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमा-प्रतिमावतोरभेदोपचारात्प्रतिमावतो निर्देशः कृतः, एवमुनरत्रापि । तथा अमणः-साधुः स इब यः स श्रमणभृतः, भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात् । चः समुच्चये । आयां च दर्शन प्रतिमा वनप्रतिमेत्यादिरूपोऽभिलापः कार्यः । एता एकादश श्राद्धानाम्उपासकानां प्रतिमाः-प्रतिज्ञा अभिग्रहाः श्राद्रप्रतिमा इति ।।९८०॥ प्र. प्रा. ।।२२०॥ १०डा-ता. १२ समणो हुओ-मु.॥३ फास-वि.सि. ॥ ४ तुलना-पञ्चाशवृत्तिः प. १६३ ।। ५ प्रेषश्च-व. सि.॥ इ.सचेतनमचे०वि०॥ ७ आरम्भप्रेषो ख. सि पञ्चाशकवृत्तौ च ।। ८ प्रतिमावतानां-खं. प्रतिमादीनां प्रतिमे सि.॥ अधिया के काम पनि मिती वजार प्रतिभावानाको प्रतिभावांनी प्रतिभः सि.॥ १२२०॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-ड सारोद्धारे १५३ द्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: २२१॥ 'अर्थतासामेव प्रतिमाणां प्रत्येक स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमं तावत् कालमानं सामान्यस्वरूप चाह--'जस्संखे' त्यादि, यत्सङ्खधा-यावत्सङ्ख्यामाना प्रथम-द्वितीयादिकत्यर्थः प्रतिमा तस्यां मासा अपि तत्सङ्घयाः-तावत्प्रमाणा भवन्ति । अयमर्थः-प्रथमायां प्रतिमायाको मासः कालमानम् , द्वितीयायां द्वौ मासौ, तृतीयायां त्रयो मासा यावदेकादश्यां प्रतिमायामेकादश मामा इति । प्रतिमाः एतच कालमानं यद्यपि दशाश्रुतस्कन्धादिषु साक्षानोपलभ्यते 'तथाऽप्युपासकदशासु प्रति-गाथा माकारिणामानन्दादिश्रमणोपासकाना सार्धवर्षपञ्चकलक्षणं प्रतिमैकादशप्रमाणं प्रतिपादितमस्ति, तरूच पूर्वोक्तयैव एकादिकयकोत्तरया वृद्धया सङ्गकछत इति । तथा उत्तरोसरास्वपि तासु प्रतिमासु क्रियमाणासु ९९४ पूर्वपूर्वप्रतिमाप्रतिपादिताः सर्वा अपि क्रिया-अनुष्ठानविशेषरूपाः कर्तव्या एव । तुशब्द एक्कारार्थः। प्र. आ. इदमत्र तात्पर्यम्-द्वितीयायां प्रतिमायां प्रथमप्रतिमोक्तमनुष्ठानं निरवशेषमपि कर्तव्यम् , तृतीयायां तु प्रतिमायां प्रथमद्वितीय प्रतिमाद्वयोक्तमप्यनुष्ठानं विधेयम् , एवं यावदेकादश्यां प्रतिमायां पूर्वप्रतिमा दश कोका सर्वमप्यनुनानं विधेयम् , एवं यावदेकादश्यां प्रतिमायां पूर्वप्रतिमा दशकोक्तं सर्वमध्यनुष्ठान कार्यमिति ।।९८१॥ . अथ दर्शनप्रतिमास्वरूपनिरूपणायाह- 'पसमे' त्यादि, सम्यग्दर्शनं-सम्यक्त्वं 'प्रथमा दर्शन १. उपासकदशावृत्तिः (प. १७ तः) द्रष्टव्या ॥ २ ०प्रतिमोक्ता खं. ॥ ३ दशोक्तं-खं. ॥ ४०दशोक्त-रखं. २२१॥ ५ प्रतिमा-गों Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 १५३द्वारे सारोद्धारे नुकम्पा-ऽऽस्तिक्या श्राद्ध सटीके प्रतिमाः गाथा ९८० द्वितीयः ॥२२२॥ प्र. आ. प्रतिमा भवतीति सम्बन्धः । कथम्भूतं सम्यग्दर्शनमित्याह-प्रशमादिगुणविशिष्टं- 'प्रशम-संवेग-निदा-5 नुकम्पा-ऽऽस्तिक्यलक्षणैः पञ्चभिगुणविशिष्टम्-अन्वितम् , तथा कुग्रहश्च तत्त्वं प्रति शास्त्रवाधितत्वेन कुत्सितोऽभिनिवेशः, शङ्कादयश्च-शङ्का-काङ्क्षा-विचिकित्सा-मिथ्यादृष्टिप्रशंसा-तत्संस्तवरूपाः पञ्च मुम्यऋत्त्वातीचाराः कुग्रहशङ्कादयस्त एव शल्यते-अनेकार्थत्वाद्राध्यते जन्तुरेभिरिति शल्यानि, तैः परिहीनंरहितम् , अत एव अनघ-निर्दोषम् , ___अयमत्र भावार्थ:-सम्यग्दर्शनस्य कुग्रहशङ्कादिशल्यरहितम्याणुव्रतादिगुणयिकलस्य योऽभ्युपगमः सा 'दर्शनप्रतिमेति । सम्यग्दर्शनप्रतिश्च तस्य पूर्वमप्यासीत् केवलमिह शङ्कादिदोषराजाभियोगाद्याकारपटकवर्जितत्वेन यथावत्सम्यग्दर्शनाचारविशेषपरिणलनाभ्यपगमेन च प्रतिमात्वं सम्भाव्यते । कथमन्यथा उपासकदशासु एकमासं प्रथमायाः प्रतिमायाः पालनेन, द्वौ मासौ द्वितीयायाः प्रतिमायाः पालनेन, एवं यावदेकादश मासानेकादश्याः पालनेन पञ्च सार्धानि चर्पाण्यर्थतः प्रतिपादितानीति, न चायमों १ तुलना- "अस्थिक्कादिगुणजुतो-(१०१६) अथ गुणसद्भावमाह-आस्तिक्यादिगुणयुत अस्तिक्या-ऽनुकम्पानिवेद-संवेग-प्रशमगुणान्वितः । ग्रन्थान्त रे तु यथाप्रधानन्यायमाश्रित्य प्रशमादयोऽभिधीयन्ते । इह त्वास्तिक्यप्रमप्रत्यारक्रमेणान्येषामेवमुपन्यासः । आस्तिक्यमेव चोररीकृत्य दशाश्रुतस्कन्धादी दर्शनप्रतिमोफयते । तथाहि-पढ़मं उवासगपडिम परिवपणे समपोवासए सव्वधम्मरूई आविभवई, आहियदिदी आहियपण्णे ( ) इत्यादि तत्सूत्रम् । अत आस्तिक्यादिगुणयुत इत्युक्तम् ।" इति पञ्चाशकवृत्तौ प. १६४|| .२ दर्शन जेलं. नास्ति, सि. प्रतो पाश्र्वभागे योजितम् ।। ३ प्रतिमायाः-खं. सि. पो. नास्ति । Bar Ay..... ॥२२२॥ R Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीक द्वितीयः खण्ड ॥२२३॥ , दशाश्रुतस्कन्धादावुपलभ्यते । श्रद्धामात्ररूपायास्तत्र तस्याः प्रतिपादनात् एवं दर्शन (व्रत) प्रतिमादिष्वपि यथायोगं भावना कार्या ॥ ९८२ ॥ अथ गाथाद्वयेन व्रत- सामायिक पौषधप्रतिमात्रयमाह - 'बीये' त्यादि, अणुव्रतानि-स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि उपलक्षणत्वाद् गुणत्रतानि शिक्षाव्रतानि च वधबन्धाद्यतिचाररहितानि निरपवादानि च धारयतः सम्यक्परिपालयतो द्वितीया व्रतप्रतिमा भवति । सूत्रे च प्रतिमा- प्रतिमावतोरभेदोपचारादित्थं निर्देशः । तथा तृतीयायां सामायिकप्रतिमार्या सामायिकं - सावद्ययोग परिवर्जन निरवद्ययोगा सेवनस्वभावं कृतं विहितं देशतो येन स सामायिककृतः । आहिताग्न्यादिदर्शनात् क्तान्तस्योत्तरपदत्वम् । इदमुक्तं भवति - अप्रतिपत्र पोपधस्य दर्शनत्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं तृतीया प्रतिमेति । तथा "भवति चतुर्थी पोषधप्रतिमा यस्यां चतुर्दश्यष्टम्यादिषु दिवसेषु चतुर्दश्यष्टम्यमावास्यापौर्णमासीषु पर्व तिथिषु चतुर्विधमप्याहार - शरीर-सत्कारा- ब्रह्मचर्य - व्यापारपरिवर्जनरूपं पौषधं परिपूर्णम्, न पुनरन्यतरेणापि प्रकारेण परिहीनं सम्यग् आगमोक्तविधिना स- प्रतिमाप्रतिपत्ता तुशब्दस्यावधारणार्थत्वादनुपालयत्येव - आसेवत एव । एतासु चतसृष्वपि व्रतादिषु प्रतिमासु बन्धादीन् बन्ध-वध-च्छ विच्छेदप्रभृतीन् पष्टिसंख्यान् अतिचारान् द्वादशव्रतविषयान् प्रयत्नतो वर्जयति परिहरतीति ॥ ९८३ ॥९८४॥ अथ प्रतिमाप्रतिमास्वरूपमाह - 'सम्ममणुव्वय' गाहा, सम्म' त्ति सम्यक्त्वं मकारोऽला१ मति मु. नास्ति । २ पटिहान् जे. नास्ति खि प्रतौ पार्श्वभागे योजितम् ।। १५३द्वारे श्राद्धप्रतिमाः गाथा ९८० ९९४ प्र.आ. २९४ ॥२२३॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीक द्वितीयः खण्ड: ॥२२४॥ , ature: aradyuran- 'शिक्षावतपदानि च यस्य विद्यन्ते स तद्वान् पूर्वोक्तप्रतिमाचतुष्टयान्वित इत्यर्थः । स्थिरः- अविचल सचः इतरो हि तद्विराधको भवति । यतोऽस्यां प्रतिमायां निशि चतुष्पथादौ कायोत्सर्गः क्रियते, तत्र चोपसर्गाः प्रभूताः सम्भवन्तीति । ज्ञानी व प्रतिमाकल्पादिपरिज्ञानप्रवणः, अजानानों हिं narrators fiyataत्यतिमाप्रतिपत्ताविति । अष्टमी चतुर्दश्योरुपलक्षणत्वादष्टमीचतुर्दश्यमावास्याfuratsis treatववि द्रष्टव्यम्, 'प्रतिमा' कायोत्सर्ग 'टाइ' तितिति, धातूनामनेकार्थत्वात्करीaterर्थः । किम्प्रमाणमित्याह-एका रात्रिः परिमाणमस्या इत्येकरात्रिकी- 'सर्वरात्रिकी तां यस्तस्य प्रतिमा * प्रतिमा भवतीति शेषः ||९८५|| hotty reast भवति तद्दर्शयितुमाह- 'असिणाणे' त्यादि, अस्नानः- स्नान परिवर्जकः, विकटे-कटे प्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः दिवापि वा प्रकाशदेशे मुङ्क्ते अशनाद्यभ्यवहरतीति विकट भोजी । पूर्व किल रात्रिभोजनेऽनियम आसीत् तदर्थमिदमुक्तम्, मउलियडो' सि अबद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः । तथा दिवसे - दिवा ब्रह्म चरतीत्येवंशीलो दिवसचारी । 'रति' ति रात्रौ किमत आह- परिमाणंtatori aanti at प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृतः । कदेत्याह- प्रतिमावर्जेषु-कायोत्सर्गरहितेष्वपर्वस्वित्यर्थः, दिवसेषु दिनेष्विति ॥ ९८३ ॥ १ शिक्षात्रतानि सु. शिक्षापदानि जे. खं. पो. ॥ शिक्षापदानि इति पञ्चाशक वृत्तौ पाठः प १६८ । तुलनापलाशवृत्तिः ॥ २ सामु । खं. सि. पो. प्रतिषु पश्वाशकवृत्तावपि सर्व० इति पाठः ।। ३ प्रतिमा- मु. नास्ति । ४ तुला- 'भसिणाह' त्ति अलायी स्नानपरिवर्जकः, क्वचित्पठ्यते- 'अनिसाइ' सि न निशायामन्तीत्यनिशादी ।' इति समवायाङ्गवृत्ती प. २० ६ ॥ १५३ द्वारे श्राद्ध प्रतिमाः गाथा १८०. ९९४ प्र. आ. २९४ ॥२२४॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः ||२२५॥ अथ कायोत्सर्गस्थितो यञ्चिन्तयति तदाह- 'झायई' त्यादि, ध्यायति-चिन्तयति प्रतिमाया कायोत्सर्गस्थितः-अवस्थितस्बिलोकपूज्यान-त्रिभुवनाभ्यर्चनीयान् जिनान-तीर्थकृतो जितकषायान-निर- १५३ द्वार स्तसमस्तद्वेषादिदोषान् , अन्यद्वा जिनापेक्षया निजदोषप्रत्यनीकं-स्वकीयकाम-क्रोधप्रमुखदूषणप्रतिपक्षभृतं । श्राद्धकामनिन्दा-शान्तिप्रभृतिकं ध्यायति । कियत्प्रमाणेयं पश्चमी प्रतिमेत्याह- 'पञ्च मासान् यावदिति ॥९८७॥ | प्रतिमाः ___ अथ पष्ठी प्रतिमामाह- सिंगारे त्यादि, श्रृङ्गारकथा-कामकथा, तथा विभूमावा: स्नानविलेपन- गाथा धूपनप्रभृतिकाया उत्कर्षः- *प्रकर्षः, ततः समाहारद्वन्द्वः, तद्वर्जयन्-परिहरन् ; उत्कर्पग्रहणाच्छरीरमात्रानुगां विभूषां विदधात्यपीति । तथा स्त्रिया-योपिता सह रहसि कथा-प्रणयवाती वर्जयन् : किमिस्याह-वर्जयति अब्रह्म-मैथुनमेकम् , 'तओ य' त्ति 'तक:-असी प्रतिमाप्रतिपत्ता, षष्ठथाम्-अब्रह्मवर्जन- प्र. आ. प्रतिमायां पण्मासान यावत् । पूर्वस्यां हि प्रतिमायां दिवस एव मैथुनं प्रतिषिद्धम् , रात्रौ पुनरप्रतिषिद्ध- २९५ मासीत् । अस्यौ तु दिवापि रजन्यामपि च सर्वथापि मैथुनप्रतिषेधः । अत एवात्र चित्तविप्लुतिविधायिना कामकथादीनामपि प्रतिषेधः कृत इति ॥९८८॥ अथ सप्तमी प्रतिमामाह---'सत्तमी' त्यादि, सप्तम्या-सचित्ताहारवर्जनप्रतिमायां सप्त मासान् यावत् सचित्तं-सचेतनमाहारम्-अशन-पान खादिम-स्वादिमस्वरूपं नैवाहारयति-अभ्यवहरति । तथा यद्यदधस्तनीना- प्राक्तनीनां प्रतिमानामनुष्ठानं तत्तत्सर्वमपि-निरवशेषमुपरितनीनाम्-अग्रेतनप्रतिमानामव१ एवं पञ्च-पो. ॥ २०धूपप्र० मु.॥ ३ उत्कर्पतः-खं. पो.॥४ प्रकर्षता-खं. ॥ ५ ततः कोसौ प्रतिमाप्रत्या-जे. ॥ ॥२२॥ ६ प्राकानीनां-खं. नास्ति ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके श्राद्ध प्रतिमाः गाथा द्वितीयः १२२६॥ प्र. आ. सेयम् , एतच्च प्रागुक्तमपि विस्मरणशीलविनेयजनानुग्रहाय पुनरुपन्यस्तम् , एवमन्यत्रापि ॥९८९॥ अथाष्टमी-नवम्यौ प्रतिमे प्रतिपादयितुमाह--'आरंभे त्यादि, अष्टमी-स्वयमारम्भवर्जनप्रतिमा भवति यस्यामष्टौ मासान् यावदारम्भस्य-पृथिव्याधुपमर्दनलक्षणस्य स्वयम्-आत्मना करणं-विधानं वर्जयति-परिहरति । स्त्रयमिति वचनाच्चैतदापन्नं- 'वृत्तिनिमित्तमारम्भेषु तथाविधतीव्रपरिणामरहितः परैः कर्मकरादिभिः सापद्यमपि व्यापारं कारयतीति । ननु स्वयमप्रवर्तमानस्याप्यारम्भेषु प्रेष्यान व्यापारयतः प्राणिहिंसा तदवस्थैव, सत्यम् , किन्तु या सर्वथैव स्वयमारम्भाणां करणतः परैश्च कारणत उभयजन्या हिंसा सा स्वयमकरणातस्तावत्परिहतेव । यतः स्वल्पोऽपि प्रारम्भः परिहियमाणः प्रोज्जम्भमाणमहाव्याधेः स्तोकतर-स्तोकनमक्षय इव हित एव 'भवतीति । या पुनर्नवमी-प्रेप्यायम्भवर्जनप्रतिमा भवतिः यस्यां नव मासान यावत् पुत्र-प्रात्रप्रभृतिषु न्यस्तसमस्तकुटुम्बादिकार्यभारतया धन-धान्यादिपरिग्रहेप्वल्पाभिष्वङ्गतया प्रेष्यैरपि-कर्मकरादिभिरपि आस्ता स्वयम् आरम्भान-सपापच्यापारान् महतः कृयादीनिति भावः । आसनदापनादिव्यापाराणां पुनरतिलघूनामनिषेध एव; तथाविध कर्मवन्धहेतुत्वाभावेनारम्भत्वानुपपत्तेः ॥१९॥ अथ दशमी प्रतिमामाह-'दसमे' त्यादि, दशमी पुनरुद्दिष्टभक्तवर्जनप्रतिमा दश मासान यावद्भवति, यस्यामुद्दिष्टम्-उद्देशम्तेन कृतं-विहितमुद्दिष्टकृतम् । तमेव श्रावकमुद्दिश्य संस्कृतमित्यर्थः । १ वृत्तिनिवृत्त ख. ॥ २ या-जे. नास्ति ।। ३ भवति-मु. सि.॥४८कर्म० जे. नास्ति । २९५ 1२२ B2 Shaiksi Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥२२७॥ एवं स्वरूपं भक्तमपि - ओदनादिकं नैव भुञ्जीत आस्तां तावदिनरसावद्यव्यापारकरणमित्यपिशब्दार्थः । 'सो होइ' तिस पुनर्दशमप्रतिमाप्रतिपत्ता कश्चित् क्षुरमुण्ड: - मुण्डितमस्तको भवति, 'सिहिलि' ति शिवा शिरस कोऽपि भारतीति ॥९९२॥ तथा - 'जं निहिय' गाहा, नवरं केवलं स श्रावकस्तत्र तस्यां दशमप्रतिमार्या स्थितो यन्निहितं-भूम्यादौ निक्षिप्तमर्थजातं द्रव्यं सुवर्णादिकं तत्पृच्छतां सुतानां पुत्राणाम् उपलक्षणत्वाद्भात्रादीनां च यदि जानाति ततः कथयति अकथने वृत्तिच्छेदप्राप्तेः अथ नैव जानाति ततो ब्रूते नैवाहं किमपि जानामि - • स्मरामीति । एतावन्मुक्त्वा नान्यत्किमपि तस्य गृहकृत्यं क कल्पत इति तात्पर्यम् ॥ ९९२ ॥ कादश प्रतिमामाह-'खुरमु'डो' गाहा, क्षुरेण मुण्डो- मुण्डितः क्षुरमुण्डो लोचेन वा-हस्तgat: सन् रजोहरणं पतद्ग्रहं च उपलक्षणमेतत् सर्वमपि साधुपकरणं गृहीत्वा "समणभूओ' ति श्रमणो-निर्ग्रन्थस्तद्वद् यस्तदनुष्ठानकरणात्स श्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः, विहरेत्--गृहान्निर्गत्य निखिलसासामाचारी समाचरणचतुरः समिति-गुप्त्यादिकं च सम्यगनुपालयन्, 'भिक्षार्थं गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमगोपासकाय प्रतिमाप्रतिपन्नाय भिक्षां दत्तेति भाषमाणः, कस्त्वमिति कस्मिंश्चित्पृच्छति प्रतिमाप्रतिपन्नः श्रमणोपासकोऽहमिति ब्रुवाणी ग्राम-नगरादिष्वनगार इव मासकल्पादिना विचरेदेकादश मासान् यावदिति । एतच्चोत्कृष्टतः कालमानमुक्तम् जघन्यतः पुनरेकादशापि प्रतिमाः प्रत्येकमन्तमुहूर्तादिमाना एव; तच्च मरणे वा प्रब्रजितत्वे वा 'सम्भवति, नान्यथेति ॥ ९९.३।। १० सि. वि. ।। २ समपाहूओ मु. ॥ ३ ब-मु. नास्ति ॥ ४ तुला- समवायावृत्तिः प २० ॥ ५ प्रव्रजति सि. वि. ।। १५३ श्राद्ध प्रतिम गाथा ९८० ९९४ प्र. अ २९५ ॥२२७ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मटीके बीजत्वम् गाथा ॥२२॥ १००० प्र.आ. तथा--'ममकारे' माहा, ममेत्यम्य करणं ममकारतस्मिन्नव्यवच्छिन्ने-अनपगते मति, अनेन स्वजनदर्शनार्थित्वकारणमुक्तम् , संज्ञाता:-स्वजनास्तेषां पली-मत्रिवेशम्नां मंत्रातपली व्रजति-पाच्छति द्रष्टु-बिलोऋयितु संत्रातानिति गम्यते । 'जे' इति पादपूरणे, तत्रापि-मंत्रातपल्लयामपि, आस्तामन्यत्र, साधुग्वि-संयत इव वर्तते, न पुनः स्वजनोपरोधेन गृहचिन्तादिकं कुर्यात् । यथा च माधुः प्रासुकमेषणीयं च गृहणानि तथा सोऽपि श्रमणभृतप्रतिमाप्रतिपत्ता' प्रामुकमेव-प्रगतासुकमेवाचेतनमेवोपलमणवादम्यषणीय चाहारम्-अशनादिकं गृहणानीति । वातयो हि म्नेद्वादनेषणीयं भक्तादि कुर्वन्ति, आग्रहेण च तद् ग्राहयितुमिच्छन्ति, अनुवर्तनीयाश्च ने प्रायो भवन्तीति ताशं सम्मायने, तथापि तदमी न राहणातीनि भावः ।। इह चोनगम मतम् प्रतिमास्वावश्यक प्रकासपिरते, तथाहि-- - ''गईभत्तपग्निानि पञ्चमी, मचिनादाम्परित्राएनि षष्टी, दिया ब्रह्मचारी गोपरिमाणकडेति मममी, दियाचि गोवि बंभयारी अमिणाणए बोमकेममंसुगेमनट्रेनि अष्टमी, मारंभपरित्रापनि नवमी, पेमार भग्निानि दशमी, "उद्दिद्रुमनविवजय ममणभृएत्ति एकादशी" [भा. २१ पृ.१२०] ति ॥९९४॥ १५३ दानी 'धन्ना गम योयनं' नि चतुष्पश्चाशदधिकशततमं द्वारमाह जब ? जवजव • गोहम : सालि ४ वीहि ५ धन्नाण कोहयाईमु । म्विविऊणं पिहियाण लित्ताणं मुदियाणं च ॥९९५॥ १न-मु.॥ तुला-समवायाङ्गवृत्तिः प. १०तः । पखाशकवृतिः १.३३३ राबोधि-वि. नानि ।।४ अहिदनवि- कजए-मु । तिमत्तबजा-इति समवायाङ्गवृत्ती [५. ३१ A] पश्वाशकवृत्ती [१०१३३] च पाठः ।। उद्दिमत्त विवन्जिए स्व.वि.॥ ५ वीयति तिखं. ! तुलना-भगवतीस. २४ ॥ २२ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥२२९|| arati for 'होइ तिनि वरिसाणि तण एएसि । विद्धंसिज्जर जोणी तत्तो जायह अबीयतं ॥९९६॥ तिल १ सुग्ग २ मसुर ३ कलाय ४ मास ५ `चवलय ६ कुलत्थ ७ तुवरीणं ८ । तह कसिणचण ९ वल्लाण १० कोहयाईसु विविकणं ॥९९७॥ ओलिताणं पिहियाण त्रियाणं च मुद्दियाणं च 1 उक्किटिई वरिसाण पंचगं तो अबीयतं ॥९९८॥ अपसी १ लट्टा २ कंगू ३ कोड्सग ४ सण ५ कोदव ८ सलग ९ मूलगीयाणं १० faranti eergaोसटिईए सत्त होइ जहण ● पुणो अंतमुहुसं वरह ६ सिस्था ७ । कोडयाईसु वरिसाइ ॥९९९ ॥ 1 समग्गाणं ॥ १०००॥ , 'जव जवे' त्यादिगाथाद्वयम् यवा गोधूमाश्च प्रतीताः, यवयत्रा - यवविशेषाः, शालयः - कलमादिविशेषाः, व्रीहयः - सामान्यतः, एतेषां धान्यानां कोष्टकादिषु कुशूल-पन्यप्रभृतिषु क्षिप्त्वा - प्रक्षिप्य पिहितानांतथाविधविधानकेन स्थगितानाम्, लिप्तानां द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना सर्वतोऽवलिप्तानाम्, मुद्रितानां च मृत्तिकादिमुद्रावतामुत्कर्षतस्त्रीणि वर्षाणि यावत् स्थितिः - - अविनष्टयोनिकत्वेन अवस्थानं * भवति । तदनु- ततः परमेतेषां यवादीनां पञ्चानां धान्यानां योनिः -- अङ्कुरोत्पत्तिहेतुर्विध्वस्यते--क्षीयते, १ होईन. सि. ।। २ ० वि. सि. ॥ ३ कोट्टईयासु सु । कोट्टाईयाईसु-सि. कोट्याईसु-ता. ॥ ४ - वि. नास्ति ॥ ५ भवतीति सु. ॥ १५४ द्वारे धान्या बीजत्वम् गाथा ९९५ १००० प्र. आ. २९६ ॥२२९॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥२३०॥ ततो-- योनिविध्वंसे सति जायतेऽवीजत्वं तद्बीजमबीजं भवति, उप्तमपि नाङ्कुरमुत्पादयतीति भावः ।।९९५ ।। ९९६।। तथा - ' तिले' त्यादि, तिल-मुद्र- माष चवलकाः प्रतीताः, 'मयूरो- वृत्ताकारो धान्यविशेषः, (ग्रन्था० ७००) चनकिका इत्यन्ये, कलाय:- त्रिपुटाख्यो धान्यविशेषः कुलत्था:-- चवलकाकारा श्चिपिटिका भवन्ति, तुवर्य:-- आढक्यः, वृत्तचणका:-- शिखारहिता वृत्ताकाराश्रणकविशेषाः, वल्ला--निष्पावाः, एतेषां दशानां धान्यानां कोष्टकादिषु क्षिप्त्वा विहितानां ततोऽवलिप्तानां ततो लाञ्छितानां रेखादिभिः कृतलाञ्छनानां मुद्रितानां चोत्कृष्टा स्थितिर्वर्षपञ्चकं यावद्भवति ततोऽवीजत्वं जायते । छन्दोऽनुरोधाच्च पिहिताऽवलिप्तयोर्व्यतिक्रमनिर्देशः ॥ ९९७ ॥ ९९८ 'अयसी' त्यादि गाथाद्वयम्, अतसी--क्षुमा, लडाकुसुम्भम् कङ्गुः -- पीततण्डुलाः, 'कोडूसग' ति कोरदूषकः कोद्रवविशेषः, शणं त्वक्प्रधानो धान्यविशेषः, 'धरह' त्ति धान्यविशेषः स वरठीति संपादलक्षादिषु प्रसिद्धः, सिद्धार्थाः सर्षपाः, कोद्रवाः प्रतीता एव रालकः -- कविशेषः, मूलकं-शाकविशेषस्तस्य बीजानि मूलकबीजानि, एतेषां दशानामपि धान्यानां कोष्टकादिषु निक्षिप्तानाम्, उपलक्षणमेतत् पिहितानामवलिप्तानां लाञ्छितानां मुद्रितानां चोत्कृष्टायां स्थित सप्त वर्षाणि भवन्ति । जघन्येन पुनः समग्राणां सर्वेषामपि पूर्वोक्तानां धान्यानामन्तर्मुहूर्त स्थितिर्भवति । अन्तर्मुहू I तुला-भगवती सूत्रवृत्तिः १. २७४ ॥ २ पनि० खं. ॥ ३ कलायास्त्रि० नं. सि. ।। ४०श्चिपिटा-खं. ॥ ५०काः- कोद्रयविशेषाः- मु.॥ ६ पठति रीति सि. ॥ ७ स्थितिर्भवेत्-वि. सि. ॥ । १५४ द्वारे धान्या बीजत्वम् गाथा ९९५ १००० प्र. आ. २९६ ॥२३०॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्च परतः स्वायुःक्षयादेवाचित्तता जायतेः सा च परमार्थतोऽतिशयज्ञानेनैव सम्यक्परिज्ञायते, न छात्रस्थिकज्ञानेनेति न व्यवहारपथमवतरति । अत एव च पिपासापीडितानामपि साधूनां स्वभावतः स्वायुःरोद्धारे क्षयेणाचित्तीभूतमपि तडागोदकं पानाय वर्धमानस्वामी भगवान् नानुज्ञातवान् । इत्थंभूतस्याचित्तीभवनस्य छद्मस्थानां दुर्लक्षत्वेन मा भूत्सर्वत्रापि तडागोदके सचित्तेऽपि पाश्चात्य साधूनां प्रवृत्तिप्रसङ्ग इति टीके कृत्वा ॥९९९॥१०॥३५४॥ नीय: -३११ 4 1 ॥ १००१॥ इदानीं 'खेत्ताइयाणऽचित्तं' ति पञ्चपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह-ओपण तु गंता अणहारेण तु भंडसंकती 'वायागणिधूमेहि य विsत्थ होइ लोणाई हरियाली मणसिल पिप्पली उ खज्जूर मुद्दिया अभया । एमेव आइनमणाइना तेऽवि नायव्वा ॥१००२॥ आरुहणे ओरुहणे निसियण गोणाइणं च गाउम्हा ! भोम्माहारच्छेओ उवकमेणं तु परिणामो 11900311 [वृकल्पभायेगा. ९७३-५ । निशीथभाष्ये गा. ४८३३-५] 'जोपणस तु' गाहा, एकं योजनशतं गत्वा - अतिक्रम्य लवणादि विध्वस्तम् अचित्तं भवतिः केनेत्याह- अनाहारेण-स्वदेशजसाधारणाहाराभावेन । अयमर्थः - विवक्षित क्षेत्रादन्यत्र क्षेत्रे लवणादिकं यदा नीयते तदा तत्प्रतिदिनं विध्वस्यमानं २ तावद्गच्छति यावद्योजनशतम् ; योजनशतादूर्ध्वं पुनर्भिन्नाहारत्वेन १ वायामणिधूमेहिं सि. निशीथभाध्ये च । वायागणि धूमेण इति बृ. क. भाष्ये, धमेह वृत्तौ [भा. १ प. ७७] च पाठः । १५५ द्वारे योजनशतेना चित्तता गाथा १००१ १००३ प्र. आ. २९७ ॥२३१॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥२३२॥ शीतादिसम्पर्कतश्रावश्यमचित्ती ' भवतीति । केचित्तु योजनशतस्थाने गव्यूतशतं पठन्ति । यदुक्तं निशीथचूण 'केई पठतिगाउयसयगाहा' [ भाष्यगाथा ४८३३, भा. ३, पृ. ५१६ ] इति । तथा "भंडसंती' ति प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययात् भाण्डसङ्क्रान्त्या - पूर्वभाजनादपरभाजनप्रक्षेपणेन पूर्वभाण्ड शालाया वाऽन्यभाण्डशाला सञ्चारणेन वाताऽग्निधूमैश्व योजनशतमगतमपि स्वस्थानेऽन्तरे वा वर्तमानं लवणादिकमचितं भवतीति । इत्थं च क्षेत्रादिक्रमेणाचित्तीभवनं पृथिवीकायिका 'दीनां वनस्पतिपर्यन्तानां सर्वेषामपि प्रतिपत्तव्यम् ||१००१ ॥ अत एवाह - 'हरियाले' त्यादि, हरितालादयः प्रतीता एव, नवरं 'मुद्रिका द्राक्षा, अभया-efecate, eastaमेव ज्ञातव्याः, योजनशतात्परतः पूर्वोक्तेरेव हेतुभिरचित्तीभवन्तीति भावः । 'आइन्नमाइन' चि योजनशतादागता अपि केचिदाचीर्णाः केचित्पुनरनाचीर्णाः, तत्र पिप्पली-हरितक्यादय आचीर्णा अतो गृह्यन्ते, खजूर द्राक्षादयः पुनरनाचीर्णास्ततोऽ * चित्ता अपि न गृह्यन्ते इति ||१००२ || अथ लवणादीनामेवा चित्तताकारणाभिव्यञ्जनायाह - 'आरुहणे' इत्यादि, तेषां लवणादीनामारोहणे शकटगवादिपृष्ठादिष्वधिरोपणे सति तथा अवरोहणे शकटादिभ्य एवावतारणे, तथा निषीदन्तीति नन्द्यादेश कृतिगणत्वाप्रत्यये निषदना - लवणाद्युपरि निविष्टपुरुषाः तेषां गवादीनां च गात्रोष्मणा; तथा यो यस्य लवणादेराहारी भीमादि: पार्थिवादिस्तस्य व्यवच्छेदे च अभावे सति तथा उपक्रम्यते--बहु + १ भवति मु. ॥ २ कानां-. ।। ३ मुद्रि (मृद्धी) का इति धर्मसंग्रहवृत्तौ [ मा. १.] पाठः । द्राक्षापर्याये तुमृडीका दृश्यन्ते न मुद्रिका, अभिधानचिन्तामणावपि द्राक्षा तु गोस्तनी । मृद्वीका हारहूरा च (४।२२१-२२२) । ४० चित्तता-खं. वि. ॥ १५५ द्वारे योजन शतेना चिराता गाथा १००१ १००३ प्र. आ. २१७ १२३२॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ द्वारे धान्यानि प्रवचन सारोद्वारे सटीके २४ থা १००४ द्वितीयः ॥२३३॥ कालवेद्यमप्यायुः स्तोकेनैव कालेन निष्ठां नियते अनेनेत्युपक्रमः--स्वकायशस्त्रादिः, तथाहि किञ्चित्कस्यचित् स्वकायशस्त्रं यथा क्षारोदकं मधुरोदकस्यः किश्चित्परकायशस्त्र यथा ज्वलनो वनस्पतेः, किश्चित्तभयशस्त्र यथा मृत्तिकामिश्रमुदकं शुद्धोदकस्यः तेन च परिणामः--अचित्तता भवति । सचित्तमप्येतैः कारणैरचित्ततारूपेण परिण मतीत्यर्थः ।।१०८३॥ १५५|| इदानीं च 'धन्नाचउम्बोसं' ति पट्पश्चाशदधिकशततमं द्वारमाह--- *धन्नाईचउचोसं जब १ गोहुम २ सालि ३ वोहि ४ सट्ठी ५ य । कोइव ६ अणुया ७ कंगू ८ रालय र तिल १० मुग्ग ११ मासा १२ य ॥१००४॥ अयसि १३ हरिमंथ १४ 'तिउडग १५ शिकाव १६ सिलिंब रागमाला १८ य । इक्खू १९ मसूर २० तुधरी २१ कुलत्थ २२ तह धन्नय २३ कलाया २४ ॥१००५॥ धान्यानि चतुर्विशतिर्भवन्ति, यथा-यवाः १ गोधूमाः २ शालयो ३ व्रीहयः ४ षष्ठिकाः ५ कोद्रवा ६ अणुकाः ७ कगुः ८ रालकः ९ तिला १० मुद्गा ११ माषाश्च १२ तथा अतसी १३ हरिमन्थाः १४ "त्रिपुटकाः १५ 'निष्पावाः १६ शिलिन्दा १७ राजमाषा १८ "इक्षवः १९ ममूराः २० तुवर्यः २१ कुलत्था २२ स्तथा धान्यकं २३ कलायाः २४ इत्येतानि च प्रायेण लोकप्रसिद्धानि प्रागुक्तान्येव । नवरं १०मध्येभिः-मु.॥२ तुलना-धर्मसं. भा.११५.६८ ३ हिरि० वि. हरिमत्थ-सि.॥ ४ विगड-मु. तिउडम-इति धर्मसं.वृत्तौ पाठः । तिउद्धग-जे.॥ ५ त्रिपुटिकाः-मुसि. "त्रिपुटकोमालवकप्रसिद्धोधान्यविशेषः' इति धर्म सं.वृत्तौ। तुला-दशबै. वृत्तिः प. १३३।। ६ निष्पावा वल्ला:-इतिधर्मसं. वृत्तौ ।। खुबेरदिका सम्माव्यते-इति धर्म संवृत्तौ।। प्र. आ. २९८ ॥२३३॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार मटीके द्विवीयः ". ॥२३४॥ पष्टिका-शालिमेदाः' ये षष्टिरात्रेण पच्यन्ते, 'अणुका-युगन्धरी,हच्छिग कगुः, अन्पतशिगे गलकः, हरिमन्थाः कृष्णचणकाः, शिलिन्दा-मकुष्टाः, राजमायाः - 'चालकाः, धान्यकं- "कुसुम्भरी, कलाया मरणा अत्र वृत्तचणका इति ॥१०.४.५॥१५॥ अधुना 'मरणं सत्तरसभेयं ति सप्तपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाहआवीइ १ ओहि २ अंतिय ३ चलायमरणं ४ वसहमरणं च ५ । गाचा अंतोसत्वं तार ब दह पहियं : मीसं १० ॥१००६॥ उमत्थमरण" केवलि १२ 'वेहायस१३ गिहपिट्टमरणं १४ च। मरणं भत्तपरिन्ना १५ इगिणि १३ पाओवगमणं च १७ ॥१०॥ अणुसमयनिरंतरमा विहसन्नियं भणनि पंचविहं । दव्चे म्वेत्ते काले 'भवे य भावे य संसारे ॥१००८|| एमेघ ओहिमरणं जाणि मो ताणि चेव मरइ पुणी । एमेव 'होइ अंतियमरणं नवि मरइ ताणि पुणो ॥१००९॥ 'संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । है दियविसयवसगया मरंति जे तं वसर तु ॥१०१०॥ १वा-मु.खं.॥२"मणको मिणचवाख्या धान्यभेदा इति हमद्याश्रयवृत्तौ, यदाऽणुका युगन्धरी इत्यपि क्वापि दश्यते ।। इति धर्म सं. वृत्तौ माः १५.६८॥ ३ चपलका:-इति धर्म संवृत्ती॥ ४ कसु० स्वं. कस्तु इति दशवे. वृत्तौर पाठः ॥ देहाणस-ता. सि. वि.। उस्त. नियुक्तावपि बेदाणसं इति ॥ ६. विति० वा. विससि .वि.॥ भावे। बमदेवि ॥ ८ बाद मु॥ SARAMSA S Bolte Mini Man a ccinianweducationwwwwwwwwwwwmom TETS Medititeniliwaldotelaiaashakalnantelstonianidiades i . nandanu s andh a RIMIRE Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोद्वारे १५७द्वारे मरणानि टीके नीयः गाथा १००६. २३५॥ गारवकनिबुड्डा अइयारं जे परस्स न 'कहति । दसणनाणचरित्ते ससल्लमरणं हवइ तेसिं ॥१०११॥ मोन्तु अकम्मभूमियनरतिरिए सुरगणे य नेरइए । सेसाणं जीवाणं तम्भवमरणं च केसिंचि ॥१०१२॥ उत्तराध्ययननियुक्तिः -२१२३-५-६-७-२१६-२२१] मोत्तण ओहिमरणं आवीइ अंतियंतिय चेव । सेसा मरणा सव्वे तब्भवमरणेण नायव्वा ॥११॥ अविरयमरणं पालं मरणं विरयाण पंडियं विति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥१०१४॥ मणपज्जवोहिनाणी सुयमइनाणी मरंति जे समणा । छलमत्थमरणमेयं केवलिमरणं 'तु केवलिणो ॥१.१५॥ गिडाइभरवणं "गिडपिट्ट उब्बंधणाइ बेहासं । एए दोनिवि मरणा कारणजाए अणुन्नाया ॥१०१६॥ [उत्तराध्ययननियुक्तिः -१२२-४] कति ता॥२ भूमि-ता. ३ ओहिमरणं आवी (ई) यंतियंतियं चेव-मु.। ओहिमरणं मरणं आवीर अंतियं चेच-ता. आहिमरणं भावीय तिथं तियं चेक-सि । भोहिमरण आचियं अंतियं तयं चेव-कि.॥ ४ च-ता.॥ ५ गद्धपिट्र-सि.॥ प्र.आ. २९८ ॥२३५.. Ematalathi Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: १५७द्वारे । मरणानि १७ খ। ॥२३६॥ मरणं भत्तपरिना इंगिणि पायवगमणं च तिन्नि मरणाई ।। कन्नसमझिमजेडा 'घिसंघयणेण उ विसिहा ॥१०१७॥ 'आवीई त्यादिगाथाद्वयम् , 'मरणशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादावीचिमरणम् , अवधिमरणम् , 'अतिय' ति आत्यन्तिकमरणम् , आपत्वाञ्चेत्थं निर्देशः, एवमुत्तरत्रापि । "वलायमरण' ति वलन्मरणम् , वशार्तमरणं च अन्तःशल्यमरणं तद्भवमरणं बालमरणं तथा पण्डितमरणं मिश्रमरणं छद्मस्थमरणं केवलिमरणम् , 'वेहायसं ति चैहायसमरणं गध्रपृष्ठं च मरणं 'भत्तपरिन्न' ति भक्तपरिज्ञामरणम् , इंगिनीमरणं पादपोपगमनमरणं चेति ॥१००६-७॥ एतानि क्रमशः स्वयमेव विवरीषुराबीचिमरणं तावदाह-'अणुसमय' गाहा, अनुसमयं-'समयं समयमाश्रित्य, इदं च व्यवहितसमयाश्रयणतोऽपि भवतीति मा भृद्भ्रान्तिरत आह-निरन्तरम्-"न सान्तरमन्तरालाभावात् किं तदेवंविधम् ?-'आवीचिसंज्ञितम्' आ-समन्तात् वीचय इव वीचय:-प्रतिसमय मनुभूयमानायुषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणा अवस्था यस्मिन् मरणे तदावीचि । तत आवीचीति संज्ञा सञ्जाता यस्मिन् तदावीचिसंज्ञितम् , तारकादित्वादितचि रूपमिदम् । अथवा वीचिः-विच्छेदस्तद भावादबीचिः; दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वान ; उभयत्र प्रक्रमान्मरणम् , तदेवम्भृतं १ ठिड-ता.॥२ बसिट्रा-वि. ॥ ३ आद्वार, तुलना-उत्तराध्ययनस्य शान्तिसूरिवृत्तिःप.२३० Ba: || ४ क्लायन्मरणता. क्लाजन्मसि ।। ५ वेहाणस-सि. त्रि.३। वैहाणसं-खं.।।६ समयं-मु. सि. नास्ति ।। ७ असा० मुः। उत्तरा. वृत्तावपि न सा० इति ।। मनुलोममनुभूया बि.सि. । तुला भगवतीसूत्रवृत्तिः प. ६२५ ।। || मावोऽवीचि:मुः। उत्तराध्ययनवृत्तौ समवायाङ्गवृत्तावपि च [प. ३४] ०मावादबीचिः-इति पाठः ।। १०१७ प्र. आ. २९९ ॥२३६॥ -284 au/8935Bish, SIANE Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥ २३७॥ प्रतिक्षणमा युव्यचिचटनलक्षणमात्रीचिमरणं पञ्चविधं भणन्ति तीर्थकर गणधरादयोऽस्मिन् संसारे जगति । पञ्चविधत्वमेवाह- द्रव्ये क्षेत्रे काले भने 'च भावे च द्रव्याssवीचिमरणं क्षेत्राssवीमचिरणं कालाssवीचिमरणं भवाssवीचिमरणं भावाऽऽवीचिमरणं चेत्यर्थः । तत्र द्रव्याऽऽवीचिमरणं नाम यन्नारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात्प्रभृति निजनिजायुः कर्मदलिकानामनुसमय मनुभवनाद्विचटनम् ; तच्च नारकादिभेदाच्चतुर्विधम् एवं नारकादिगति' चातुर्विध्यापेक्षया तद्विषयं क्षेत्रमपि चतुर्विधम् । ततस्तत्प्राधान्यापेक्षया क्षेत्र मरणमपि चतुर्थैव । काल इति यथायुष्ककालो गृह्यते, न तु अद्धाकालस्तस्य देवादिष्वसम्भवात् ; सच देवायुष्ककालादिभेदाच्चतुर्विधः, अतस्तत्प्राधान्यापेक्षया कालावीचिमरणमपि चतुर्विधमेव । नारकादिचतुर्विधमवापेक्षा भावचिमरणमपि चतुर्थैव तेषामेव च नारकादीनां चतुर्विधायुः क्षयलक्षणभावप्राधान्यापेक्षया भावावीचिमरणमपि चतुर्धेवेति ॥ १००८ ॥ 1 " अथावधिमरणमाह-'" एमेवेत्यादिगाथा पूर्वार्द्धम्, एवमेव यथाऽऽवीचिमरणं द्रव्य-क्षेत्रकाल भव- भावभेदतः पञ्चविधं तथेदमवधिमरणमपीत्यर्थः । तत्स्वरूपमाह यानि मृतः सम्प्रतीति शेषः, तानि चैव 'मरह पुण'ति तिव्यत्ययेन मरिष्यति पुनः किमुक्तं भवति १- अवधि:--मर्यादा, ततश्च यानि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुः कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, पुनर्यदि नान्येवानुभूय मरिष्यति तदा द्रव्यावधिमरणम् ; तद्व्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणा वधि यावज्जीवस्य मृतत्वात् । सम्भवति हि गृहीतोज्झितानामपि कर्म दलिarat yo परिणामवैचित्र्यादिति । एवं क्षेत्र कालादिष्वपि भावना कार्या । १ व सु. नास्ति ॥ २ तु खं ॥ ३ अधावधि-मु. ॥ ४ एवमेवेत्यादि, एवमेव-मु. ॥ ५०. । •वधिया० सि. वि. खं. प्रतौ भगवती सूत्रवृत्तौ [५.६२५] अपि वर्षि० या इति ॥ १५७ द्वार मरणानि १७ गाथा १००६१०१७ प्र. आ. २९९ ॥२३७।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १५७ द्वारे मरणानि सटीके गाथा द्वितीयः खण्ड: ॥२३८।। १०१७ प्र. आ. आत्यन्तिकमरणमाह-'एमेवेत्यादिगाथोत्तरार्द्धम् । एवमेव-अवधिमरणवदात्यन्तिकमरणमपि द्रव्यादिभेदतः पञ्चविधम् ; विशेषः पुनरयं-'नवि मरइ ताणि पुणो त्ति अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैव तानि-द्रव्यादीनि पुनर्मियते । अयमर्थः-यानि नरकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय. मरिष्यतीत्येवं यन्मरणं तद्व्यापेक्षयाऽत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति । एवं क्षेत्रादिष्वपि वाच्यम् ॥१००६॥ __ वलन्मरणमाह-संजम' त्यादिगाथापूर्वाद्ध , संयमयोगा:-संयमव्यापारास्तैस्तेषु वा विषण्णाः संयमयोगविषण्णा:--अतिश्चरं तपश्चरणमाचरितुमक्षमाः व्रतं च कुलादिलज्जया मोक्तुमशक्नुवन्तः कथश्चिदम्माकमितः कष्टानुष्ठानान्मुक्ति भवस्विति विचिन्तयन्तो नियन्ते यच्च तहलना-संयमानुष्ठानान्निवर्तमानानां मरणं बलन्मरणम् , तुशब्दो विशेषणार्थो भग्नव्रतपरिणतीनां तिनामेवैतदिति विशेषयति । अन्येषां हि संयमयोगानामेवासम्भवान् कथं तद्विषादः १, तदभावे च कथं तदिति ॥ वशालैमरणमाह-'इंदिये त्यादिगाथोत्तगईम् , इन्द्रियाणां-वागदीनां विषया-मनोज्ञरूपादय इन्द्रियविषयाः, तद्वशं गताः-प्राप्ता इन्द्रियविषयवशगताः स्निग्यदीपकलिकावलोकनाकुलशलभवन्नियन्ते "येन तदशार्तमरणम् . वशेन-इन्द्रियविषयपारतन्त्र्येण ऋता:-पीडिता वार्ताः, तेषां मरणमप्युपचारादशार्तमुच्यते इति॥१०१०॥ र अन्तःशल्यमरणमाह-'गारवे' त्यादि, गौरव-सातद्धिरसगौरवात्मकम् , तदेव कालुष्यहेतुतया १०भविष्यति इति विचिन्तया ये च तदूलता-सि. ॥२ तषियदः-खं....... येन नास्ति-मुः। यत्तदशाते इति उत्तरावृत्तिः ॥ न BANNEL ||२३८॥ SGww.SALYAN SociaWORCANEWS Home -0000 ANSAREN Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: पङ्क:-कर्दमः, तस्मिन्निमग्नाः तत्क्रोडीकृततया अतिचारम्-अपराधं ये परस्य-आलोचनाम्याचार्यादेने कथयन्ति; मा भूदस्माकमालोचनाईमाचार्यादिकमुपसर्पताम् ; 'तद्वन्दनादिना-तदुक्ततपोऽनुष्टानासेवनेन १५७ द्वारे ऋद्धिरसमाताभावसम्भव इति । उपलक्षणं चैतन् , ततो बहुश्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्यमुद्ध मरणानि रिष्यति ?, कथं चाहमस्मै वन्दनादिकं दास्यामि ?, अपभ्राजनाहीयं मम इत्यभिमानेन लज्जया वाअनुचितानुष्टानसंवरणस्वरूपया येऽतिचारं न कथयन्तीति । किं विषयमित्याह-दर्शन ज्ञान-चारित्रे-दर्शन गाथा ज्ञान-चारित्रविषयम् । तत्र दर्शनविषयं शङ्कादि, ज्ञानविषयं कालातिक्रमादि, चारित्रविषयं समित्यननुपालनादि। १००६शल्यमिव शल्यं कालान्तरेऽप्यनिष्टफलावधानं प्रत्यवन्ध्यतया सह तेन सशल्यम् , तच्च तन्मरणं च सशल्यमरणम्-अन्तःशल्यमरणं भवति तेपा-गौरवपकनिमग्नानामिति ॥१०११॥ । तद्भवमरणमाह-'मात्तु' इत्यादि, मुक्त्वा-अपहाय, कान् ?-अकर्मभूमिजाश्च ते देव. प्र. आ. कुरूत्तरकुर्वादिपूत्पन्नतया नरतियश्चश्वाकर्मभूमिजनरतियश्चस्तान् ; तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः । ३०० तथा सुरगणांश्च-सुरनिकायान् , किमुक्तं भवति ?-चतुर्निकायवर्तिनोऽपि देवान , तथा निरयो-नरकस्तस्मिन भवा नरयिकास्तांश्च मुक्त्वेति सम्बन्ध तेषां देवानां च तद्धवानन्तरं तियन्मनुष्येष्वेवोत्पत्ते शेषाणाम्-एतदुद्धरितानां कर्मभूमिजनरतिरश्चा जीवाना-प्राणिनां तद्भवमरणम् ; तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः; तद् १०१७ १ तद्वन्दनादितदुक्स मु.। उत्तराध्ययनवृत्तावरि नादिना तदुक्त इति ॥ २ दास्यामि १ भयं च ज्ञानहीनोऽयं या मम सम इत्य-मु. दाभ्याम्यपभ्राजनाही नोयमम-ख.। दाध्यामपभाजना हीनार्य मम-सि.1 दास्यामपभ्राजनाहीनोऽयं स मे इत्या जे.। अपभ्राजनाहि इयं मम इति उत्तरा-वृत्तिः । . ... ... ... ....... ॥२३९॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यते यस्मिन् भवे-तिर्यग्मनुष्यलक्षणे वर्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुद्धवा पुनस्तत्क्षयेण म्रियमाणस्य भवति तुप्रवचन-- १५७ द्वारे सारोद्धारे शब्दस्तेषामपि सङ्ख्येयवर्षायुषामेवेति विशेषख्यापकः; असङ्ख्येयवर्षायुषां हि युगलधार्मिकत्वादकर्मभूमिजा मरणानि | नामिव देवेष्वेवोत्पादः, तेषामपि न सर्वेषाम् ; किन्तु केषाश्चित्तद्भवोपादानरूप मेवायुःकर्मोपचिन्वतामिति ॥१०१।। अत्रान्तरे' 'मोत्तण ओहिमरणं' इत्यादिगाथा सूत्रे दृश्यते, न चास्या भावार्थः सम्यगवगम्यते, गाथा द्वितीयः नाप्यसावुत्तराध्ययनचूण्यादिषु व्याख्यातेत्युपेक्ष्यते ॥१.१३॥ खण्ड: सम्प्रति बाल-पण्डित-मिश्रमरणान्याइ–'अविरये त्यादि, विरमणं विरत-हिंसा-ऽनृतादेरु॥२४॥ परमणम् , न विद्यते तद्येषां तेऽमि अविरतास्तेषां-मृतिसमयेऽपि देशविरतिमध्यप्रतिपद्यमानानां मिथ्या प्र. आ. दृशां सम्यग्दृशा वा मरणमविरतमरणम् , तद् बाला इव वाला:--अविस्तास्तेषां मरणं बालमरणमिति अवते इति सम्बन्धः । तथा विरताना सर्वसावधनिवृत्तिमभ्युपगताना मरणं पण्डितमरणं अवते तीर्थकरगणधगदय इति । तथा जानीहि बालपण्डितमरण मिति मिश्रमरणम् , पुनःशब्दः पूर्वापेझया विशेषद्योतनार्थः; "देशात्सर्वविरतविपयापेक्षया स्थूलपाणिव्यपरोपणादेर्विरता देशविरतास्तेषां देशविरतानाम् ॥१.१४॥ एवं चरणद्वारेण बालादिमरणत्रयमभिधाय ज्ञानद्वारेण लग्रस्थमरण-केवलिमरणे 'प्राह-'मणपज्जवो' इत्यादि, मनःपायज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनःश्रतज्ञानिनो मतिज्ञानिनश्च म्रियन्ते ये श्रमणा: तप भावी ति गाथा-मु.॥मोत्तण भोहिमरणं ओहिमरणं इत्यादि-जे. सि.। मोत्तण भोहिमरणं इत्यादि-ख.।। २ तेऽवि.मु.। तेमीवि०खें. उत्तराध्ययनवृतावपि तेमी भवि० इति पाठः ।। ३ खा-ख. सि.नास्ति। ४ण मिश्र०-मु.। णमिति मिश्रखं.॥ ५ देशाः सर्व० जे. सि. ६ प्यार-सि.वि.!! - MORE PROM Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: स्विनः, छादयन्तीति यानि ज्ञानावरणादीनि कर्माणि, तेषु तिष्ठन्तीति छद्मस्थास्तेषां मरणं छद्मस्थमरणमेतत् । इह च प्रथमतो मनःपर्याय निर्देशो विशुद्धिकृतप्राधान्याङ्गीकारेण चारित्रिण' एतदुपजायते इति स्वामिकृतप्राधान्यापेक्षया द्रष्टव्यम् ; एवमवध्यादिष्वपि यथायोग स्वधियेव हेतुर्वाच्य इति । तथा केवलमरणं 1१५७द्वारे केवलिन:-उत्पन्न केवलज्ञानस्य सकलकर्मपुद्गल शाटननो निरमाणस्य भवतीति ।।१०१५|| मरणानि साम्प्रतं वैहायस-गृध्र पृष्ठमरणे अभिधातुमाह-"गिहाई' त्यादि, गधाः- प्रतीताः, ते आदिर्येषां शकुनिकाशिवादीनां तेर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनस्तदनिवारणादिना तद्भश्यकरि-करभादिशरीरानुप्रवेशेन च गृधादिभक्षणम् ; तकिमुच्यते ? इत्याह-*गिडपिट्ठ' ति गृधैः स्पृष्टं-स्पर्शनं यस्मिन् तद् गृध्रस्पृष्टम् , यदि वा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदगदि च मतु यस्मिन् तद् गृध्रपृष्टम् ; स ह्यलक्तकपूणिकापुट- प्र.आ. प्रदान नात्मानं गध्रादिभिः पृष्ठादौ भक्षयतीति । पश्वानिर्दिष्ट्रस्यापि 'चास्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहामत्वविषयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम् । ___ 'उब्बंधणाइ वेहास' मिति उद्-उद्ध्वं वृक्षशाखादी बन्धनमुद्बन्धनम् , तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मनेव' जनितम्य मरणस्य तदुद्घन्धनादि । 'वेहास' मिति प्राकृतत्वाद्यलोपे विहायसिव्योमनि भवं वहाय मम् । उद्धस्य हि विहायस्येव भवनमिति तत्प्राधान्य विवक्षयेत्थमुक्तमिति । नन्वेवं ॥२४॥ १ निर्देशाद्विशु.मु.सि. ॥२६णि-सि.वि.॥ ३ गद्धाइ गाहावं. ४ गद्धपट्ट-ख. सि. वि.॥ ५ तस्य मु.सि. । तस्याःजे.! चास्या-खं । वि. प्रतौ उत्तराध्ययनवृत्तोऽपि चास्य-इति पाठः ॥ ६०वात्मजनितस्य-खं.॥ ७ स्थानाङ्गवृतौ तु प्राकृतत्वेन 'वेहाणस'-मित्युक्तमिति ।। ॥२४॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७द्वारे मरणानि गाथा १०१७ प्र. आ. गृध्रपृष्ठस्याप्यात्मधातरूपत्वाद्वैहायस एवान्तर्भावः, सत्यमेतत् केवलमस्याल्प'सत्त्वैरध्ययमातुमशक्यत्वप्रवचन- । सारोद्धारे। ख्यापनार्थ भेदोपन्यासः । ननु A भावियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण नस्थि हु विसेसो। पटीके अप्पाणं मि परम्मि य तो बज्जे पीडमुभओऽपि ॥१॥ इत्यागमः । द्वतीयः एते चानन्तरोक्ते मरणं अत्यन्तभात्मपीडासारिणी इति कप नागमविरोधः ?, अत एव च 'भक्तखण्डः परिज्ञानादिषु पीडापरिहाराय||२४२॥ * 'चत्तारि विचित्ताई । विगईनिहियाई चत्तारि ॥ [पञ्चव० ५७४] इत्यादिसंलेखनाविधिः पानकादिविधिश्च तत्राभिहितः । दर्शनमालिन्यं चोभयत्रेत्याशङ्कयाह-एते-अनन्नरोक्त द्वे अपि-गृध्रपृष्ठवैहायसाख्ये मरणे 'कारग' ति प्राकृतत्वेन सप्तमीलोपान कारणे--दर्शनमालिन्यपरिहारादिके जाते-समुत्पन्ने यद्वा कारणजाते-कारणप्रकारे सति उदायिनपानुमृततथाविधगीतार्थाचार्यवदनुज्ञाते इत्यदोषः ॥१०१६।। सम्प्रति अन्त्यमरणत्रयमाह- 'मरण' मित्यादि, भक्त भोजनं तम्य परिज्ञानं परिज्ञा; सा द्विधा-ज्ञपरिज्ञा प्रत्यारुयानपरिज्ञा च । ज्ञपरिक्षयाऽनेकविधमस्माभिभुक्तपूर्वमेतद्धेतुकं च सर्वमवद्यमिति परिज्ञानम् ; प्रत्याख्यानपरिज्ञया चA मावि जनरचनानां ममत्वरहितानां नास्त्येव विशेषः बास्मनि च परस्त्रिश्च ततो बजयेत् पीडामुमयोरपि। * चत्वारि बिपाणि विचित्राणि विकृतिनियंढानि चत्वारि ॥ १०सत्वैर्विधातु मु.। सत्वरध्यवसायितु स.वि. सत्वैश्यवसातु० स्वं.: तुलनीया-उत्तराध्ययनवृत्तिः [प. २३४] ॥२० नादिषु मु ॥ ३ मत्तपरिन्ना गाहा खं.॥ २४२॥ H a ndsoon.... Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनः १५७ द्वारे मरणानि नटीके गाथा अतीयः १०१७ * "सव्वं च अमणपाणं चउचिहं 'जा य बाहिरो उबही ।। अम्भिन्तरं च उबहिं जावजीवं च बोसिरह ।।१॥" [महापच्चक्खाणपयनो गा. ३४] इत्यागमवचनाचतुर्विधाहारस्य 'त्रिविधाहारस्य वा यावज्जीवमपि परित्यागात्मकं प्रत्याख्यान भक्तपरिजोच्यते। तथा इङ्गयते-प्रतिनियतदेश एव चेष्टयतेऽस्यामनशनक्रियायामितीङ्गिनी । भक्तपरिज्ञायां हि त्रिविधं चतुर्विधं वाऽऽहारं प्रत्याचष्टे शरीरपरिकर्म च स्वतः करोति परतश्च कारयति । इङ्गिन्यां तु नियमाच्चतुर्विधाहारविरतिः परपरिकमविवजनं च भवतिः स्वयं पुनरिङ्गिनदेशाभ्यन्तरे उद्वर्तनादि चेष्टासकं परिकर्म यथाममाधि विदधान्यपीति विशेषः । तथा पादैः-अधःप्रसपिमृलात्मकः पिवतीति पादपोवृक्षः । उपशब्दश्वौपम्ये उपमेयेऽपि मादृश्येऽपि च दृश्यने । ततश्च पादपमुपगच्छति-सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोषगमनम् किमुक्तं भवति ? यथैव पादयः कचिन्कथञ्चिनिपतितः 'सममसममिति वा अविभा. वयन निश्चल एवास्ते, तथा अयमपि भगवान् यद्यथा समविषमदेशेवमुपाङ्ग का प्रथमतः पतितं न तत्ततश्चलयतीति । इह चैवंविधानशनोपलक्षितानि मरणान्यध्येवमुक्तानि | अत एवाह-त्रीणि मरणानि ! सर्व चाशनपान चतुर्विध यश्च बाह्य अधिः । अभ्यन्तरं च उपधि यानीवं च ध्युत्मृति १जो-मु.प्रकीर्ण के च खं.। वि.सि उत्तराध्यबनवृत्तावपि जा-इति पाठः ॥२ घडविहं-मु.। खं. सि. प्रत्योःप्रकीर्णके उत्तराध्ययन-वृत्तावपि च उचाहि-इति पाठः ॥ ३ त्रिविधाहारस्य-इति पाठ उत्तराध्ययनवृत्तौ [प.२३५नास्ति। तच टिपने वादः पूर्वगायोस्त सोपध्याहारत्यासूचार्थः।' इति ॥ ४ करोति-वं.वि.सि. नास्ति ।। ५ चेष्टादिकखें. ॥ ६ सम्म समं बा-मु. । समसिम वा-सि.वि. । मममसममिति चावि इति उतराध्ययनवृत्तौ पाठः।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबधन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥२४४ ।। अथैतेषामेव त्रयाणां मरणानां किञ्चित् स्वरूपमाह - 'कन्नस'त्ति सूत्रत्वात् कनिष्ठं-लघु जघन्यमितियावत्, मध्यमं - लघु-ज्येष्ठयोर्मध्यभावि, ज्येष्ठम् - अतिशय वृद्धमुत्कृष्टमित्यर्थः । तत एतेषां द्वन्द्वे कनिष्ठ मध्यम- ज्येष्ठानि यथासङ्ख्येन त्रीण्यपि मरणान्यवसेयानि । तथा 'धि' ति धृतिः - संयमं प्रति चित्तस्वासंहननं - शरीरसामर्थ्य हेतु ऋषभ नाराचादिः ततः समाहारद्वन्द्वे धृति संहननं तेन विशिष्टान्येतानि । इदमुक्तं भवति यद्यपि त्रितयमप्येतत्- स्थ्यम् 4. धीरेणवि मरियव्वं 'काउरिसेणावि अवस्स मरियच्वं । तम्हा अवस्समरणे वरं खु धीरतणं इत्यादिभावनातः शुभाशयवानेव प्रतिपद्यते, कलमपि वैसामु समानम्, तथा चोक्तम् *" एयं पच्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्मं । वैमाणिओ व देवो हविज्ज अहवावि सिज्झिज्जा || १ || " तथापि विशिष्ट विशिष्टतर विशिष्टतमधृतिमतामेव तत्प्राप्तिरिति ज्येष्ठत्वादिस्तद्विशेष उच्यते । तथाहि - भक्तपरिज्ञा मरणमार्थिकादीनामप्यस्ति । यत उक्तम् "सायि अज्जाओ सव्येवि य पढमसंघयणवज्जा | सब्वेवि देसविरया पञ्चकखाणेण उमरंति ||१२||" [निशीथ भाष्य गाथा ३६१८] मरिउं ॥ १ ॥ ॥ च यस्यापि A धीरेणापि मर्त्तव्यं कापुरुषेणाप्यवश्यं मर्तव्यं । तस्मादवश्यमरणे धीरत्वेनैव तु वरम् ॥ १॥ ★ एतत् प्रत्याख्यानमनुपालय सुविहितः सम्यक वैमानिकी देवी वा भवेत् अथवापि सिध्येत् ॥ ८. सर्वा अपि चार्याः सर्वेऽपि च प्रथमसंहननवः। सर्वेऽपि देशविरताः प्रत्याख्यानेनैव म्रियन्ते ॥ १ ॥ १कापुर मु. ॥ २०- मु. ॥ ३ सिञ्जखं ॥ ४ च तत्प्रा मु. सं. सि. वि. उत्तराध्ययनवृत्तावपि च-मास्ति ।। १५७द्वारे मरणानि १७ गाथा १००६ १०१७ प्र. आ. ३०१ ॥२४४ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A E nding.... ... . - अत्र च प्रत्याख्यानशब्देन भक्तपरिज्ञैव भणिता । तत्र प्राक् पादपोपगमादेरन्यथा भणनात् , प्रवचन- इङ्गिनीमरणं तु विशिष्टतरधृतिसंहननवतामेव भवतीत्यार्यिकादिनिषेधत एवायसीयते । * पादपोपगमनं तु |१५७ द्वारे सारोद्धारे। नाम्नैव विशिष्टतमधृतिमतां वर्षभनाराचसहननिनामेव भवति । उक्तं च मरणानि सटीके A "पढमंमि य संघयणे वट्टते सेलकुड्डसामाणा' । गाथा तेसिपि य चोच्छे ओ चोद्दसपुत्रीण वोच्छेए ॥१॥ इति। [व्यवहारभा. उ. १०।गा. ५७] द्वितीयः खण्ड: तीर्थकरसेवितत्वाच्च पादपोपगमनस्य ज्येष्ठत्वम् ; इतरयोश्च 'विशिष्टसाधुसेवितत्वादन्यथात्वम् , १००६. यतोऽभ्यधायि-- १०१७ ॥२४५।। * सव्वे सबदाए सव्वन्नू सबकम्मभूमीसु । सव्वगुरू सबमहिया सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता ॥१॥ प्र. आ. सव्याहि लद्धीहिं सव्वेऽवि परिसहे पराजिता । सम्वेवि य तित्धयरा पाओवगया उ सिद्धिगया ॥२॥ अवसेमा अणगारा तीयपडुप्पनऽणागया मच्चे । केई पाओगया परचक्खाणिगिणी केई ॥३॥" व्यवहारभाष्ये उ. १० । गा.५२४.६] इति । * चिहृदयमध्यवर्ती पाठा खं. नास्ति ॥ १ च भ० मु.॥ २०णे इति उत्तराध्ययन वृत्ती [प. २३६] पाठः ॥ Aप्रथमे च संहनने वतमाने शैलकुल्थसमानाः । तेषामपि च व्युच्छेदश्चतुर्दशपुर्विणां व्युच्छेदे ॥१॥ ३०श्चाविक इति उत्तराध्ययनवृत्तौ पाठः ।। A सर्वे सर्वाद्धायां सर्वज्ञाः सर्वकर्मभूमिषु सर्वगुरवः सर्वम हिताः सर्वे मेरौ अभिषिक्ताः ॥ सर्वामिलैंधिभियुक्ताः । सर्वानपि च परिषहान् पराजित्य । सर्वऽपि च तीर्थकराः पादपोपगताः सिद्धिगतानाशा ॥२४५| अवशेषा अनगारा अतीतप्रत्युत्पन्नानागताः सर्वे । केचित् पादपोपगताः प्रत्याख्यानिन इङ्गिनश्व केचित् ॥३॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनर सारोद्धारे १५८द्ध पन्योपम स्वरूपं गाथा द्वितीयः १०१८ ॥२४६॥ तस्माद्भक्तपरिज्ञान कनिष्ठम् , इङ्गिनी प्रणां मध्यम , पादपोपगमनं तुज्येष्ठमिति ॥१०१७॥१५७।। इदानीं 'पलिओवम' इत्यष्टपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह-- 'पलिओवमं च तिविहं उद्धारऽडं च खेत्तपलियं च । एक्केक्कं पुण दुविहं पायरसुहमं च नायव्वं ॥१८॥ जं जोयण विच्छिन्नं तं तिउणं परिरएण सविसेसं । तावइयं उव्विडं पल्लं पलिओवमं नाम ॥१९॥ एगाहियहियतेहियाण उक्कोस सत्तरत्ताणं । सम्मट्ठ संनिचियं भरियं बालग्गकोडीणं ॥२०॥ [ज्योतिष्करण्डे गा. ७६] तत्तो समए समए 'एकिक्के अवहियंमि जो कालो । संखिजा खलु समया बायर उद्धारपल्लंमि ॥२१॥ एक्केक्कमओ लोमं कटुमसंखिज्जखंडमहिस्सं । समछेयाणंतपएसियाण पल्लं भरिवाहि ॥२२॥ तत्तो समए समए "एक्केक्के अचहियंमि जो कालो । संखिन ...... पासकोडो सुहमे उद्धारपल्लमि ॥२३॥ १ एतद् गाथाष्टकम (१०१८-२५) बृहत्समहणी-मलयगिरिवृत्तावपि (प.) दृश्यते ।। २ हिन्. । तुला-मनुयोगद्वारे सू. ३७४, ज्योतिब्रण्डके गाथा ॥ विक-युः । एक्वेश के इति जीवसमासे पाठः ॥ ४ एक्के अविहियमि जो कालो-ता.॥ १०२६ प्र. आ. ३०२ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥२४७॥ वाससए वाससए एrhea बायर अडापलियं संखेज्जा एक्क्के हवंति वायरे अवहियंमि वासकोडीओ अवहियम्मि सुहृमंमि वासा असंखिज्जा 1 ॥२४॥ । वाससए वाससए सुमं अापलियं बायरसुहुमायासे खेत्तपएसाणसमयमवहारे I बायरसुमं खेत्तं उस्सप्पिणीओ असंखेज्जा ||२६|| [तुलना - जीवसमास-गा. ११७ ॥२५॥ १८-१६-२०-२१-२२-२५-२६-३१] 'पलिओ मं' इत्यादिगाथानत्रकम्, पल्यो - वतु लाकुतिर्धान्याधारविशेषः, 'पल्यवत्पल्य:पुरस्ताद्वक्ष्यमाणस्वरूपः तेनोपमा यत्र कालप्रमाणे तत्पल्योपमम् । तच्च त्रिधा - उद्धारपल्योपमम्, अद्धापल्योपमं क्षेत्रपल्योपमं च । तत्र चक्ष्यमाणस्वरूपवालाग्राणां तत्खण्डानां चोद्धारेण द्वीप समुद्राणां वा प्रतिसमयमुद्धरणम्-अपहरणमुद्धारः तद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपममुद्धारपल्योपमम् । तथा अद्धा - कालः स चेह प्रक्रमाद्वक्ष्यमाणवालाग्राणां तत्खण्डानां वा प्रत्येकं वर्षशतलक्षण उद्धारकालो गृह्यते । अथवा प्रस्तुताद्धापल्योपमपरिच्छेद्यो नारकाद्यायुष्कलक्षणः कालोऽद्धा, तत्प्रधानं तद्विषयं वा पल्योपममद्वापल्योपमम् । तथा क्षेत्र - विवक्षिताकाशप्रदेशस्वरूपं तदुद्वारप्रधानं पल्योपमं क्षेत्रपल्योपमम् । एतेषां च मध्ये १ तुलना - जीवसमासप्रकरणं प. ९०९ तः । बृहत्समणी-मलयगिरिवृतिः प. ६ तः ॥ १५८ पल्यो स्वरुप गाथा १०१ १०२ प्र. अ ३०२ ॥२४ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके १५८ द्व पस्योपम म्वरूपं गाथा १०१८ द्वितीयः खण्ड: १०२६ ॥२४८॥ प्र. आ. पुनरेकैकं द्विभेदं ज्ञातव्यं-मादरं सूक्ष्मं च; तत्र वालाग्राणां सूक्ष्मखण्डाकरणतो यथावस्थितानां स्थूलानां ग्रहणादादरम् , तेषामेवासङ्ख्येयसूक्ष्मखण्डकरणतः सूक्ष्ममिति ॥१८॥ का पुनरसौ पल्यो येन पल्योपमे उपमा विधीयते ? इत्याह--'जं जोयण.' गाहा, नाम इति शिष्यस्य कोमलामन्त्रणे पलिओवम' इत्यत्र प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययात् सप्तमी; 'पल्लं' इत्यादावपि लिङ्गव्यत्ययात् पुस्त्वम् , ततश्र पत्योपमे-पल्योपमविषये धान्यपल्यवत्पल्यः प्रागुदिष्टः स विज्ञेयो । यः किमित्याह-यो विस्तीर्णः, कियदित्याह-योजनमुत्सेधागुलक्रमनिष्पन्नम् ; वृत्ताकारत्वाईयेणापि योजनमिति द्रष्टव्यम् : 'तच्च योजनं त्रिगुणं सविशेष परिरयेण; भ्रमितिमङ्गीकृत्य सर्वस्यापि वृत्तपरिधेः किश्चिन्यूनपड़भागाधिकत्रिगुणत्वादस्यापि पल्यम्य किश्चिन्यूनषड्भा(ग्रं०-९०० गाधिकानि त्रीणि योजनानि परिधिर्भवतीत्यर्थः । उवि उसमोऽपि तावदेव योजनमेवेत्यर्थः, आयामविष्कम्भाभ्यां प्रत्येकमेकयोजनमानः 'उच्चत्वेनापि योजनप्रमाणः, परिधिना तु किश्चिन्यूनषड्भागाधिकयोजनत्रयमानो यः पल्यः स इह पल्योपमं विजेय इति तात्पर्यम् ॥१९॥ अथ अयमेव पल्यो यत्स्वरूपैर्वालाप्रैः पूर्यते तदेतन्निरूपयितुमाह-'एगाहिये' त्यादि, एकेनाला निवृत्ता एकाहिक्यः, द्वाभ्यां त्रिभिश्चाहोभिनिष्पन्ना द्वयाहिक्यच्याहिक्यश्च, तासामेकाहिकी-द्वयाहिकी-व्याहिकीनामेवं चतुराहिकीनामेवं यावदुत्कर्षतः सप्तगत्रारूढानां वालानामेवातिसूक्ष्मवादग्रकोटयो २४८ १ तथा-कि. २ उच्चत्वे पि-ख. ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HeasinessUTSCHIMNEmai m evariehlitatememoskamRomwimplendAIIMAMAAVAAMAIRangeeeeeeeeeeamyouprememove SiewegunyaPostwwYPSCENsynoneRRAWsvodomprasammu.seysewari THREAprampappyNewYPARTMETHATARREARNAMASTAVAIMARY Sinition प्रवचन । १५८ द्वारे सारोद्धारे। सटीके द्वितीयः ॥२४९॥ वालाग्रकोटयस्तासां भृतोऽसौ पल्योऽत्राधिक्रियते । तत्र मुण्डिते शिरस्येकेनाहा यावत्प्रमाणा वालाग्रकोटय उत्तिष्ठन्ति ता एकाहिक्यः, द्वाभ्यां तु या उत्तिष्ठन्ति ता द्वयाहिक्यः, त्रिभिस्तु व्याहिक्यः, एवं यावत्सप्तरात्रप्ररूढाः सप्तरात्रिक्य इति । कथं पुनस्तासा वालाग्रकोटीनां भृत इत्याह-संमृष्टः-आकर्ण पूरितः संनिचितः-प्रचविशेषानिबिडीकृतः, किं बहुना ?, तथा कथचनापि भृतोऽसौ 'पल्यो यथा तानि वाला पल्योपमग्राणि न वायुरपहरति. नापि मिर्दहति, न च तेषु सलिलं प्रविश्य कोथमापादयति । तदुक्तम्-- स्वरुप "ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा, नो बाऊ हरेजा, 'नो सलिलं कुत्थेज्जा" [अनुयोगद्वारसूत्र ३७२] इत्यादि । २०॥ ततः किमित्याह'तत्तो'इत्यादि,ततो-यथोक्तवालाग्र भूतपल्यात् समये समये-प्रतिसमयमेकैकस्मिन् वालाग्रेऽपहियमाणे यायान कालो लगति, प्रतिसमयं वालाग्राकर्षणाद्यावता कालेन सकलोऽपि स पल्यः प्र.आ. सर्वात्मना निलेपो भवतीत्यर्थः, तावान् कालो बादरमुद्धारपल्योपमं इत्यावृत्या प्रथमान्तनयाऽप्यत्र सम्ब- । ३०४ द्धयते । कियान पुनरसो काल इति कथ्यतामित्याह-खल्यवधारणे सङ्ख्येया एव समया अस्मिन् बादरे उद्धारपल्योपमे भवन्ति नासङ्ग्य्येयाः, बालाग्राणामध्यत्र सङ्ख्यातत्त्वात् , तेषां च प्रतिसमयमेकैकापहारे सङ्ख्येयस्यैव समयराशेः सद्भावादिति ॥२१॥ १पल्यो-सि.वि. नास्ति । तुलनीया ज्योतिरावृत्तिः प. ४६ ॥ .तान वालाग्रान नाग्निदहेन न वायुह रेत न सलिल कोथयेत॥ २नो सलिलं कुत्थेज्जा-मु.नो सलिले कुत्थेजजा-वि.नो कुहेजा-इति सटीके अनुयोगद्वारसूत्रे (सू. १३१ प. १८० ॥ पाठः । नो कुन्थेजा इति अनुयोगद्वारे (महावीरविद्यालय संस्करणे सू. ३७२) पाठः ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SH प्रवचनसारोद्वारे मटीके १५८ द्वारे पल्योपमस्वरूपं गाथा द्वितीयः कान ॥२५॥ प्र. आ. उक्तं बादरमुद्धारपल्योपमम् , अथ क्रमप्राप्तमेव सूक्ष्ममुहारपल्योपममभिधित्सुराह-'एक्केक्के' त्यादि, अता-सहजवालाग्रभृतपल्यादेकैकं लोम-पूर्वोक्तवालाग्रलक्षणमसङ्ख्येयानि खण्डानि यत्र तदस ङ्ख्येयखण्डमदृश्यं कृत्वा; एतदुक्तं भवति-पूर्व वालाग्राणि सहजान्येव गृहीतानि, अत्र तु तान्येव वालाप्राणि प्रत्येक तावदसत्कल्पनया खण्डयन्ते, 'यावदृश्यस्वरूपासख्येयषण्डरूपतामेकैकं वालाग्रं भजत इति । तत्पुनरेकैक वालाग्रस्तुण्डं 'द्रव्यतोऽत्यन्तविशुद्धलोचनश्छअस्थः पुरुषो यदतीव सूक्ष्म पुट्रलद्रव्यं चक्षुपा पश्यति तदसङ्खयेयभागमात्रम् ; क्षेत्रतस्तु सूक्ष्मपनकशरीरं यावति क्षेत्रेऽवगाहते तदसङ्खयेयगुणक्षेत्रावगाहि द्रव्यप्रमाणम् । तथा चानुयोगद्वारसूत्रम् -- "सन्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई किज्जइ, ते णं वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जहभागमेत्तातो सुहुमस्य पणगजीवस्म सरीरोगाहणार असंखेज्जगुणा" [सू ३७४] इति । वृहास्तु व्याचक्षते- वादरपर्याप्तपृथिवीकारशरीस्तुल्यमिति । तथा चानुयोगद्वारमूलटीकाकृदाह हरिभद्रसूषि:-- "चादरपृथिवीकायिकपर्याप्तशरीरतुल्यान्यसङ्ख्येयखण्डानीति वृद्धवाद:" (प.८६)। १ याबदहश्यताम्ब० मु. । यावदश्याना-सि. वि. । जीवसमासेऽपि यावददृश्यस्त इति पाठः ॥ २ तुलना-बहवं. वृत्तिः प.६Bतः । ज्योतिष्करवृत्तिः प.४३॥ तत्र कस्य वालाग्रस्यासंख्येयानि खण्ढानि क्रियन्ते तानि बालाप्राणि दृष्टयवगाइनातोऽसंख्येयभागमात्राणि सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनाया असंख्येयगुणानि ।। ३ बादरपर्याप्ति- पृथिवीकायिकपर्याप्पश० वि. सि. । वादरपर्याप्रथिवीकायिकश० ख [सू. ३७४] इति । ॥२५॥ I ndianseal traili..........downloadhindiradionulioundatiotanication 2 -272 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे १५८ पन्योपम स्वरुप गाथा द्वितीयः ॥२५॥ 'एवं कृत्वा ततः किं विधेयमित्यत्रोच्यते--ततोऽमीषां सर्वेषामपि समच्छेदाना--परस्परं तुल्यखण्डीकृताना प्रत्येकं चाद्याप्य नन्तप्रादेशिकानामनन्तुपरमाण्वात्मकानां तमेव पूर्वोक्तं पल्यं विभृया--'बुद्धया परिपूर्ण विदध्यास्त्वमिति ॥२२॥ " एवं च तस्मिन् भने यत्कर्तव्यं तदाह-'तत्तो' गाहा ततः-सूक्ष्मखण्डीकृतवालाग्रभूतपल्यात्प्रतिसमयमेकैकस्मिन् सूक्ष्मवालाग्रखण्डेऽपहियमाणे याचान कालो लगति तावत्प्रमाणं सूक्ष्ममुद्धारपल्योपमं ★ भवतीति प्राग्यदत्रापि सम्बन्धः कियान पुनरमा कालो भवतीत्याह-समये या वर्षकोटयः सूक्ष्मे उद्धारपन्योपमे भवन्तीति *ज्ञातव्यम् । वालाग्राणामिह प्रत्येकमसख्येयखण्डात्मकत्वादेकेकस्यापि वालाग्रस्य सम्बन्धिना खण्डानामपहारेऽसयेयसमयराशिप्राप्तेः सर्ववालाग्रखण्डात्मकापहारे भवन्त्येव सङ्ख्याता वर्षकोटयः ॥२३॥ अथ घादरमहापल्यापमं प्रतिपादयितुमाह-वाससए'गाहा' तस्मिन्नेवोत्सेधागुलप्रमितयोजनप्रमाणायामविष्कम्भोद्वधे पन्ये पूर्वोक्तमहजबादरवालाग्रेनिभृतं भूते सति प्रति वर्षशतमेकैक वालाग्रमपहियते "यायता च कालेन स पल्यो निलंपीक्रियते तावान कालो बादरमद्धापल्योपमं विज्ञेयम् । तत्र च बादरेऽद्धापल्योपमे सङ्खयेया 'वर्षकोटथो भवन्तीति ।।२४॥ अथ सूक्ष्ममदापल्योपममाह-वाससए' गाहा, स एव पत्यः प्राग्वदसङ्ख्येयखण्डीकृतसूक्ष्मवालारा कर्ण परिपूर्णः क्रियते; ततो वर्षशते वर्षशतेऽतिक्रान्ते सत्येकै कसूक्ष्मवालाग्रापहारतो यावता तुलना-जीवस. प. १११तः ।। २ बिभृतयः वि. । विभृतया:-सि.| ** चिहनयमध्यवर्तीपाठः स्त्रं. नास्ति ।। ३ तुलना वृहत्सं, वृत्तिः ५.७A तः । ४ यावता का.मु.। यावताच्च का. जे.।। ५ मु. नास्ति । ६ वर्षकोटयः खं.॥ ७०राकीण परिपूर्ण-वि.॥ प्र. आ. ॥२५॥ metimedmi Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 प्रवचन मारोद्वारे रूटी के द्वितीयः खण्ड: ॥ २५२॥ कालेन स पल्यः सर्वात्मना रिक्तो भवति तावान् कालः सूक्ष्ममद्वापल्योपममवत्रोद्धव्यम्, तत्र च सूक्ष्मेद्वापल्योपमे भवन्त्यसंख्येयानि वर्षाणि; असंख्येया वर्षको यो भवन्तीत्यर्थः ||२५|| सम्प्रति बादरं सूक्ष्मं व क्षेत्रपल्योपममाह - 'यायरे' त्यादि, 'चादराणि च सूक्ष्माणि च बाइसूक्ष्माणि पूर्वोक्तवल्यगतानि सहजान्यसंख्येयखण्डीकृतानि यानि वालाग्राणीत्यर्थः तेशमवगाढसम्बन्धेन सम्बन्धि यदाकाशं तत्र ये क्षेत्र प्रदेशा- निरंशन भोत्रि भागस्वरूपास्तेषामनुसमयं -- प्रतिसमय मे केकापहारे क्रियमाणे यावान् कालो लगति तदात्मकं यथाक्रममेव वादरं सूक्ष्मं च क्षेत्र क्षेत्रपल्योपमं भवति । इयमत्र भावना - एवोत्सेधाङ्गुलप्रमितयोजन प्रमाणविष्कम्भायामा बगाहः पल्यः पूर्ववदेकाहोशश्रयावत्सप्ताहोरात्रप्ररूदैर्वालाग्रैराकर्णं निचितो भ्रियते; ततस्तैर्वालायै नमःप्रदेशाः स्पृष्टास्ते समये समये एकैकनभः प्रदेशप्रति समयापहारेण यावता कालेन सर्वात्मना निष्ठामुपयाति तावान् कालविशेषो बाद क्षेत्रपल्योपमम् । एतच्चासङ्ख्येयोत्सर्पिणीमानम्, यतः क्षेत्रस्यातिसूक्ष्मत्वेनैके कवालाग्रावगाढक्षेत्र प्रदेशानामपि प्रतिसमय मेकाहारे 'अगुलअसंखभागे ओसप्पिणीओ असंखेजा' [ * [] इति वचनात् असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो लगन्तिः किं पुनः सर्ववालाग्रावगाढक्षेत्र देशापहार इति । " तथा स एव पूर्वोक्तः पत्यः पूर्ववदेकैकं वालाग्रमसंख्येयखण्डं कृत्वा तैराकर्ण भृतो निचितश्च तथा क्रियते यथा मनागपि न तत्रान्यादिकमाक्रामति । एवं भूते तस्मिन पन्ये ये आकाशप्रदेशास्तैर्वा १ तुलना - जीवस० व ११५ । २०मावगाढः मु. ॥ ३०ति० खं. वि. सि. नास्ति ॥ ★ अङ्गुला संख्येमागे अवसर्पिण्योऽसंख्येयाः ॥ ४ तुलना-वृहत्संवृत्तिः प. ७Bतः ॥ १५८द्वारे पल्योपम स्वरुपं गाथा १०१८ १०२६ प्र. आ. ३०४ ॥ २५२ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANSrijakosh प्रवचनसारोद्वारे सटीके १५८ द्वारे पल्योपमा स्वरूप गाथा द्वितीयः १०१८ ninenesinesenteneraibarelievisi ॥५३॥ लाप्रैः स्पृष्टा ये च न स्पृष्टास्ते सर्वेऽप्येकै कस्मिन् समये एक काकाशप्रदेशापहारेण समुद्रियमाणा यावता कालेन सस्मिना निष्ठामुपयान्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमम् , इदमप्यसंख्येयोत्मपिण्यवसर्पिणीमानमेव केवलं पूर्वस्माइसंख्येयगुणम् ; बालाग्रस्पृष्टनभःप्रदेशेभ्योऽस्पृष्टानामसंख्यातगुणस्वादिति। ननु यालागरेकान्ततो निचिनमापूरिते सति तस्मिन पल्ये वझ्यादिकमपि सर्वथा नाक्रामति तत्र कथं तैर्वालाग्रैः अस्पृष्टा नभःप्रदेशाः सम्भाव्यन्ते : * 'येनोच्यते ते लागेरम्पया इति, * अत्रोच्यते, वालाग्रेभ्योऽसङ्ख्येयखण्डीकृतेभ्योऽपि नभःप्रदेशानामत्यन्तसूक्ष्मत्वात् । तथा चात्रार्थे प्रश्न निर्वचनरूपमनुयोगद्वारसूत्र--- 'तत्थ गं चोयगे पण्णवगमेवं वयामी-अस्थि णं तम्स पल्लम्सागासप्पएमा जे णं तेहिं वालग्गेहिं अफुन्ना ?, हंता अस्थि, जहा को दिढतो?, से जहानामए एगे पल्ले सिया से णं कोहंडाणं भरिए तत्थ माउलिंगा पक्खित्ता तेवि माया तत्थ गं बिल्ला परिवत्ता तेवि माया तत्थ णं आमलगा पक्खित्ता १* * चिह नद्वयमध्यवर्तीपाठः रखें. प्रतो नास्ति ॥ २ भगएकुण्या इति अनुयोगद्वारे पाठः ।। ३. एगे-लं. वि.सि. नास्ति । नामए कोद्रप सिबा-इति अनुयोगद्वारसूत्रे॥ [। तत्र चोदकः प्रज्ञापक्रमेवमवादीत-सन्ति तस्य पल्यस्याकाशप्रदेशा ये तै लापरस्पृष्टाः, हुन्त सरित, यथा को दृष्टान्त:, ताथा नाम एकापल्यः स्यात् स कूष्माण्डेभृतः तत्र मातृलिङ्गानि प्रक्षितानि तान्यपि मातानि, तत्र चणका प्रक्षिप्तास्तेऽपि माताः, एवमनेन दृष्टान्तेन सन्ति तस्य पल्यस्याकाशप्रदेशा ये वालाग्रेने स्पृष्टाः ।। प्र.आ. m ॥२५॥ ania Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८द्वारे पल्योपमस्वरूपं गाथा १०१८. १०२६ तेवि माया तत्थ णं बदरा पक्खित्ता तैत्रि माया, तत्थ णं चणगा पक्खिता ते वि माया, एवमेएणं प्रवचन | दितेणं अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासप्पएसा जे णं तेहिं वालग्गेहिं 'अणुप्फुना" [म. ३९७] इति । मारोद्धारे तदेवमादृष्टयो यद्यपि यथोक्तपल्ये शुषिराभावतोऽस्पृष्ट नभःप्रदेशाम्न सम्भावयन्ति तथापि * सटीक सक्ष्माणापि बालाग्राणां बादरत्वादाकाशप्रदेशानां पुनरतिसूक्ष्मत्वात्सन्त्येवासङ्ख्याता अस्पृष्टा नभःप्रदेशाः । द्वितीय दृश्यन्ते च निबिडतया सम्भाव्यमानेऽपि स्तम्मादौ आस्फालितानां कीलिकानां प्रभूतानां तदन्तः प्रवेशः, न चासौ शुषिरमन्तरेण भवतीति । ननु यद्याकाशप्रदेशा वालाप्रैः स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च परिगृह्यन्ते ततः किं वालाग्रैः प्रयोजनम् १, एवं प्ररूपणा क्रियताम्-उत्सेधागुलप्रमितयोजनायामविष्कम्भावगाहे पल्ये यावन्तो नभःप्रदेशा इति, सत्यमेतत् , केवलमनेन सूक्ष्मपल्योपमेन दृष्टिवादे स्पृष्टास्पृष्टभेदेन द्रव्यप्रमाणं क्रियते, यथा यैर्वालाग्रैः स्पृष्टा नभःप्रदेशास्तेषां प्रतिसमय मेकैकनभःप्रदेशापहारेण यत् 'बादरक्षेत्रपन्योपमं तत्प्रमाणान्येतानि द्रव्याणि 'ये तु वालः स्पृष्टा अस्पृष्टा वा नभःप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकनभःप्रदेशापहारेण यत् सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमं तावत्प्रमाणा'नीमानि द्रव्याणि । ततो द्दष्टिवादे वालाग्रैः प्रयोजनमिति तत्प्ररूपणा क्रियते इति ।। १०२६॥१५॥ प्र.आ. ३०४ १.अणफुण्णा इति अनुयोगद्वारे पाठः ॥२ तुलना-वृहत्सं. वृत्तिः प.A तः॥ ३०ढे-मु.॥ ४ सूक्ष्म क्षे० सि.।। सूक्ष्म क्षे० वि. ॥ ५न तु-सि. वि. ६ णाण्येतानि- मु.॥ ...... Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे .. १५९द्वारे सागरोषमस्वरुप गाथा १०२७१०३२ द्वितीय इदानी 'अयर' त्येकोनषष्टयधिकशततमं द्वारमाह उद्धारपल्लगाणं कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ एकरस भवे परिमाणं ॥२७॥ जावदओ उद्धारो अदाइज्जाण सागराण भवे ।। तावइआ खलू लोए हवंति दीवा समुहा य ॥२८॥ सह अहापल्लाणं कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवपरम उ परिमाणं हवह एगस्स ॥२९॥ सुहमेण उ अहासागरस्स माणेण सव्वजीवाणं । कम्मठिई कायठिई 'भवहिई होइ नायव्वा ॥३०॥ इह खेत्तपल्लगाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । त सागरोवमस्स उ एकस्स भवे परीमाणं ॥३१॥ एएण खेत्तसागरउवमाणेणं हविज्ज नायव्वं । पुढविदगअगणिमारुयहरियतसाणं च परिमाणं ॥३२|| [ तुलना-जीवस. १२३-२४ २७-३०-३२-३३] 'उद्धारे त्यादिगाथाषट्कम् , अतिमहत्वसाम्यात्सागरेण-समुद्रेणोपमा यस्य तत्सागरोपमम् ; तदपि १मबठिइ-ता!! प्र. आ. ॥२५॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १५९द्वारे सागरोपम सारोद्धारे सटीके स्वरुप गाथा १०२७१०३२ ॥२५६।। त्रिधा-उद्धारा-ऽद्धा क्षेत्रसागरोपमभेदात् । पुनरेकै द्विधा-बादरं सूक्ष्मं च । तत्र 'उन्हारमाह-उद्धारपल्ययोः पूर्वोक्तस्वरूपयो दर-सूक्ष्मभेदभिन्नयोर्या प्रत्येक कोटीकोटिर्दशभिमुणिता दश कोटीकोटय इत्यर्थः तदेतत्प्रत्येकमेकस्य चादरोद्धारसागरोपमस्य सूक्ष्मोद्धारसागरोपमस्य च परिमाणं भवेदिति । दशभिर्वादरोद्धारपन्योपमकोटिकोटिभिरेकं बादरोद्धारसागरोपमं भवति । दशमिश्च सूक्ष्मोद्धारपल्योपमः कोटिकोटिभिरेक सूक्ष्मोद्धारसागरोपमं भवतीत्यर्थः ॥२७॥ अथ सूक्ष्मोडारसागरोपमस्य प्रयोजनमाह-'जावइओ' गाहा, अर्धतृतीयप्रमाणानां व्याख्यानान् सूक्ष्मोद्धार सागरोपमाणां पश्चविंशनि पत्यकोटि कोटि वित्यर्थः, 'वालाग्रोद्धारोपलक्षितः समयराशिरित्यर्थः. भवेत-जायेत तावन्त एव लोके द्वीपाः समुद्राश्च भवन्ति । एतदुक्तं भवति-सार्धे सूक्ष्मोद्धारमागरोपमद्वये सूक्ष्मोद्धारपल्योपमानां पञ्चविंशतिकोटिकोटिबित्यर्थः यावन्तो यालाग्रोद्धारविषयाः समया भवन्ति तावत्मङ्ख्याम्तिर्यग्लोके द्वीपममुद्रा अपि सर्वे भवन्तीत्यर्थः । इह च यद्यपि सूत्रे सामान्येने वोक्तं तथापि सूक्ष्मोद्धारमागरोपमस्यैवेदं द्वीपसमुद्रमङ्ख्यानयनलक्षणं प्रयोजनमबसेयम् । 4 'एहि सुहुमेहि उद्धारपलिओवममागरीवमेहिं दीवसमुदाणं उद्धारो पिप्पइ' [तुलनाअनुयोगद्वार मू. १५१ पृ. १५१] १ उद्धारमाह-मु. नास्ति । द्धारमाहा पल्य. जे ॥२ नुजना-जीवसमासवृत्तिः प. ११२ तः॥ ३ सूक्ष्मोद्धारसागरोपमस्य-मि.वि नास्ति ॥ ४ पल्योपमानां वं वि.॥५पल्य० कि. मि. नास्ति ॥ ६ सूक्ष्मवा० मु. । जीव. समासेऽपि [प.११२] सूक्ष्म इति पाठो नास्ति ।। ७ सम्भवती मु.॥A एताभ्यां सूक्ष्मोद्धारपल्योपमसागरोपमाभ्यां दीपसमुद्राणामुद्धारोगृहयते । ३०५ ॥२५६॥ RAKHLES Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटोके द्वितीय: खण्ड: ।।२५७।। sia वचनात्। बादरोद्वारसागरोपमेण तु न किमपि प्रयोजनम्, केवलं बादरे प्ररूपिते सूक्ष्मप्ररूपणा क्रमनिष्पन्नत्वात् सुखकर्तव्या सुखावसेया च भवतीत्यतस्तत्प्ररूपणामात्रं कृतम् एवं बादराद्धाक्षेत्र सागरोमोरपत्यमत्रये च वाच्यमिति ॥ २८|| 1 अथ बादरं सूक्ष्मं श्राद्धासागरोपममाह - 'तहअडा'० गाहा, तथेति समुचये 'अद्वापल्योपमयोमयोर्बादरसूक्ष्म भेदभिन्नयोर्या प्रत्येक कोटिकोटिर्दशभिर्गुणिता दश कोटिकोटय इत्यर्थः तदेतप्रत्येकमेकस्य बादराद्धासागरोपमस्य सूक्ष्मद्रसागरोपमस्य च प्रमाणं भवेत् भावार्थस्तु उद्धारसागरोपमत्रदिति ॥ २६ ॥ अथ सूक्ष्माडा सागरोपमप्रयोजनमाह- 'सुहुमेण उ' गाहा, सूक्ष्मेणाद्धासागरोपमस्य मानेनप्रमाणेन सर्वेषां नारकतिर्यगादिजीवानां कर्मस्थिति कार्यस्थिति-भवस्थितयो भवन्ति ज्ञातव्याः । तत्र कर्मणां ज्ञानावरणादीनां स्थितिः - अवस्थानकाल त्रिंशत् नागरोपमकोटी कोट्यादिरूपः कर्मस्थितिः कायःपृथिव्यादिकायोऽत्राभिप्रेतः, ततश्चैकस्मिन् काये पुनः पुनस्तत्रैवोत्पच्या स्थितिः असङ्ख्येयोत्सर्पिण्यसर्पिण्यात्मिका कार्यस्थितिः । भवो - नारकाद्येकजीवस्य विवक्षितमेत्र जन्म, तत्र स्थिति :- आयुः कर्मानुभवनपरिणतिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमादिरूपा भवस्थितिः । एताः कर्म - काय मवस्थितयः सूक्ष्माद्धासागरोपमेण प्रमीयन्ते इति भावः ॥ ३० ॥ १ तुलना - जीवसमासवृत्तिः प. ११३ तः ॥ २ तुलना - पञ्चसङ्ग्रहमलयगिरिवृतिः २/३७ प ७३ तः ॥ ३ तुलनाजीवसमासवृत्तिः प. ११४ तः । ४ विवक्षितमेकमेव सु. ॥ १५९ द्वारे सागरोपम स्वरुपं गाथा १०२७. १०३२ प्र. आ. ३०५ ॥२५७॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड ॥३५८ प्र. आ. अथ पावरं सूक्ष्मं घ क्षेत्रसागरोपममाह-'इहे' त्यादि, इह-अस्मिन् प्रक्रमे 'बादरक्षेत्रपल्योपमानां दशभिः कोटिकोटिभिर्वादरं क्षेत्रसागरोपमम् , सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमानां तु दशभिः कोटिकोटिभिः अवसर्पिणी. सक्ष्म क्षेत्रसागरोपममिति तात्पर्यार्थः, अक्षरार्थस्तु पूर्ववदिति ॥३१॥ स्वरूप सूक्ष्मक्षेत्रसागरोपमस्य प्रयोजनमाह- एतेणे' त्यादि, एतेन-मूक्ष्म क्षेत्रसागरोपमम्यंत्र गाथा मानेन-प्रमाणेन ज्ञातव्यम् , किमित्याहपरिमाणं-सङ्ख्यानम् , केषां ?-पृथिव्युदका ऽग्नि-वायु-वनस्पति सजीवानाम् , एतच प्राचुर्येण दृष्टिवादे प्रतिपादितं सकृदेवान्यत्र सूक्ष्मोद्धाराद्धाक्षेत्रपल्योपमानामप्येतान्येव प्रयोजनानि द्रष्टव्यानीति ॥१०३२॥१५६।। इदानीं 'ओसप्पिणि' ति पष्टयधिधशततमं द्वारमाह-. ३०६ दस कोडाकोडीओ अडाअयराण हुति पुनाओ । अवसप्पिणीए तीए भाया छच्चेव कालस्स ॥३३॥ 'सुसमसुसमा य१ सुसमा २ तइया पुण सुसमदुस्समा ३ होइ । दूसमसुसम चउत्थी ४ दूसम ५ अइदूसमा छट्ठो ६ ॥३४॥ सुसमसुसमाए कालो चत्तारि हवंति कोडिकोडीओ । तिनि. सुसमाए' कालो दुन्नि भवे सुसमदुसमाए ॥३५।। र तुलना जीवममासवृत्तिः प. १९७ः ॥ २ क्षेत्र स्खें. वि. नास्ति । ३ गाथात्रयम् (१०३४-६) ज्योतिष्करण्डे ८५-७ | ननीयम । गावा पनकम [२०३४-७) सपदेशरद पत्तावपि गा.१७५.३३ दश्यते।।४०मा ता.॥५ए मु.॥ ६ एम् ॥ २५८॥ FONERICANA Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रवचनसारोद्धारे सटीके १६.द्वारे अवमर्पिणीस्वरुप गाथा द्वितीय: ||२५९॥ 'एका कोडाकोडी पायालोसाए जा सहस्सेहिं । वासाण होई ऊणा दूसमसुसमाइ सो कालो ॥३६।। अह दृसमाए' कालो वाससहस्साई एक्कवीसं तु । तावइओ चेव भवे कालो अइदूसमाएवि ॥३७॥ 'दसे' त्यादिगाथापश्चकम् , अवसर्पति हीयमानारकतया अवसर्पयति वाऽऽयुष्कशरीरादिभावान हापयतीत्यवसर्पिणी तस्याम् , तरीतुमशक्यानि प्रभूतकालतरणीयत्वादतराणि-सागरोपमाणीत्यर्थः, सूक्ष्मादासागरोपमाणां सम्पूर्णा दश कोटीकोटथो भवन्ति, सूक्ष्माद्धासागरोपमाणां दशभिः कोटीकोटीभिर्निपो. ऽवसर्पिणीलक्षणः काल विशेषोऽवगन्तव्य इति तात्पर्यम् । तस्यां चावसर्पिण्यां कालस्य भागा-विच्छेदाः सुपमसुपमादयः षडेव भवन्ति ।।३३।। तानेवाह-'सुसमे त्यादि, शोभनाः समाः-वर्षाण्यस्यामिति सुपमा; अत्यन्तं सुषमा 'सुपमसुषमा, सर्वथा दुष्षमानुभावरहित एकान्तसुषमारूपोऽवसर्पिण्याः प्रथमो भागः । द्वितीया सुषमा, तृतीया पुनः सुषमदुष्षमा भवति, दुष्टाः समा अस्यां सा दुष्षमा, सुषमा चासौ दुष्पमा च सुपमदुष्पमा; सुपमानुभावबहुला अल्पदुष्पमानुभावेत्यर्थः । चतुर्थी दुष्पमसुषमा, दुषमा 'चासौ सुषमा च दुष्पमसुपमा, १ एगा-ता. ॥ २ ऍ-मु. 1॥ ३ ऍ-मु. ॥ ४ तात्पर्यार्थः- मु. । तात्पर्यार्थम्-खं. ॥ ५ सुपमासुषमा-मु.॥ ॥२५९॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन: सटीके द्वितीय:: खण्ड: ॥२६०॥ दुष्पमानुभावबहुला अल्पसुषमानुभावेत्यर्थः । पञ्चमी दुष्पमा । षष्ठी स्वतिशयेन दुष्पमा अतिदुष्पमा, सर्वथा सुषमानुभावरहिता दुष्पमदुष्पमेत्यर्थः ॥ ३४ ॥ अथैतेषामेव खुपसुभानी पण्यामरकाणां प्रमाणमाह-'सुसम सुसे' त्यादि, सुषमसुषमाय काल:- कालप्रमाणं सागरोपमाण चतस्रः कोटिकोटयो भवन्ति, सुषमाय तिस्रः सागरोपमकोटिकोटयः; सुषमदुष्पमायां द्वे सागरोपमकोटिकोटी; एका-एकसङ्ख्या सागरोपमकोटिकोटिद्विचत्वारिंशता सह न्यूना भवति स दुष्पमसुमायाः कालो; द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनैकसागरोपमकोटिकोटिय प्रमाणा दुष्पसुमेत्यर्थः । अथ दुष्पमायां कालप्रमाणमेकविंशतिवर्षसहस्राणि तावानेव च दुष्पमाप्रमाण एव भवेत् कालः अतिदुष्पमायामपि एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणा दुष्पमदुष्पमापि भवतीति भावः । 1 अस्यां चावसर्पिण्या शरीरोच्छ्रयायुष्क कल्पवृक्षादिशुभभावानां परतोऽनन्तगुणा परिहानिः । तथाहिसुमसुमायां मनुष्याणां गव्यूतत्रितयं शरीरोच्छ्रयः, त्रीणि च पल्योपमान्यायुः, शुभपरिणामोऽपि कल्पवृक्षादिरनेकः । सुपमायां द्वे गव्यते द्वे च पल्योपमे कल्पपादपादिपरिणामश्र शुभो हीनतरः । सुषमदुष्पमायामेकं गतम् एकं पल्योपमं हीनतमत्र कल्पवृक्षादिपरिणामः । दुष्पमसुपमाय पञ्च धनुःशतप्रभृति सप्तहस्तान्तं तनुमानमायुरपि पूर्वकोटिप्रमाणं परिहीनश्च कल्पवृक्षादिपरिणामः । दुष्पमायामनियतं देहमानमारप्यनियतं वर्षशतादर्वाक् पर्यन्ते विंशतिवर्षाणि परमायुः, शरीरोच्छ्रयो हस्तद्वयम्, औषधिविर्यपरिहाणिश्रान्तगुणा । अदुपमायामप्यनियतं शरीरोच्छ्यादि सर्वं पर्यन्ते तु हस्तप्रमाणं वपुः षोडश वर्षाणि परमाविशेपौषधिपरिहानिश्चेति । एवमन्यदप्येतत्स्वरूपं समयात् समवसेयमिति ॥ १०३५-३६-३७।। १६०॥ १६० द्वारे अवसर्पिणीस्वरुपं गाथा १०३३ १०३७ प्र. आ. ३०६ ॥२६०॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्पिणी प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: इदानीं 'उस्सप्पिणि' ति एकपष्टयधिकशततमं द्वारमाह अवसप्पिणीव' भागा हवंति उस्सप्पिणीइवि छ एए । पडिलोमा परिवाडी नवरि विभाएसु नायव्वा ॥३८॥ "अवसतिणीमादि, उति नरकापेक्षया उत्सर्पयति वामभावानायुष्कादीन वर्धयतीत्युत्सर्पिणी । अस्यामप्येत एवावसर्पिण्याः सम्बन्धिनः सुषमसुषमादयो षट् कालविभागा भवन्ति; नवरंकेवलं विभागेषु-अरकेषु प्रतिलोमा-विपरीता परिपाटी-आनुपूर्वी ज्ञातव्या । अयमर्थः-अवसर्पिण्या सुषमसुषमाया दुषमदुषमान्ताः षडरका उक्ताः, उन्सर्पिण्यां तु दुषमदुष्षमाद्याः सुषमसुपमापर्यन्ताः षडरका भवन्तीति । तदेवं विंशतिसूक्ष्माद्धासागरोपमकोटीकोटीप्रमाणद्वादशारकमेतदवसपिण्योः कालचक्रं पञ्चसु भरतेवरवतेषु च पश्चस्वनाधन्तं परिवर्तते । यथाऽहोरात्रे वासरो रजनी वा न शक्यते निरूपयितुमादित्वेनान्तत्वेन वा, अनादित्वादहोरात्र चक्रकप्रवृत्तेस्तथेदमपीति ॥१०३८॥१६१॥ इदानीं 'दब्वे खेत्ते काले । भावे पोग्गलपरियट्टो' त्ति द्विषष्टयधिकशततमं द्वारमाह ओसप्पिणी अणंता पोग्गलपरियहओ मुणेयव्वो । तेऽणता तीयद्धा भणागयडा अणंतगुणा ॥३९॥ गाथा १०३८ प्र. आ. ॥२६॥ १य-ता.। ०३-सि.वि. ॥२ दुषमदुष. वि. सि.॥३०मादयो-खं ॥४ चक्रप्रमु.॥ ॥२६॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२द्वारे प्रवचनसारोदारे पुद्गलपरावर्तः गाथा खण्ड: १०३९ पोग्गलपरियहो इह दवाइचउव्विहो मुणेयव्यो । थूलेयरभेएहिं जह होइ तहा निसामेह ॥४॥ ओरालविउवातेयकम्मभासाणपाणमणएहिं । फासेवि सव्वपोग्गल मुक्का अह थायरपरहो ॥४१॥ अहव हमो दवाई ओरालविउच्चतेयकम्मेहिं । नोसेसदव्वगहणंमि थायरो होह परियहो ॥४२॥ दवे सुष्टुमपरट्टो जाहे एगेण अह सरोरेणं । फासेवि सन्चपोग्गल अणुक्कमेणं नणु गणिज्जा ॥४॥ लोगागासपएसा जया मरतेण एस्थ जीवेण । पुछा कमुक्कमेणं वेत्तपरहो भवे थलो ॥४४॥ जीवो जहया एगे खेत्तपएसंमि अहिगए मरद । पुणरवि तस्साण तर' पीयपएसंमि जइ मरए ॥४५॥ एवं तरतमजोगेण सववेत्तंमि जह मओ होइ । सुहमी खेत्तपरटो अणुक्रमेण नणु गणिज्जा ॥४६॥ १०५२ प्र.आ. PA-.. २६२।। १०रि सि.मु ॥ २ मरइ-ता.॥ Meen Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे द्वितीयः ओसप्पिणीए समया जावइया ते य निययमरणेणं । पुट्ठा कमुक्कमेण कालपरहो भवे धूलो ॥४७॥ सुहुमो पुण ओसप्पिणी पढमे समयंमि जइ मओ होइ । पुणरवि तस्साणंतरपीए समयंमि जइ मरद ॥४८॥ एवं तरतमजोएण सव्वसमएसु चेव एएसु । जह कुणइ पाणचायं अणुक्कमेण नण गणिज्जा ॥४९|| एगसमयंमि लोए सहुमागणिजिया उ जे उ पविसंति ।। ते 'हुतऽसंखलोयप्पएसतुल्ला असंखेज्जा ॥९ ॥ तसो असंवगुणिया अगणिकाया उ तेसि कायठिई । तत्तो संजमअणुभागबंधठाणाणिऽसंखाणि ॥५|| ताणि मरतेण जया पुढाणि कमुक्कमेण सव्वाणि । भावमि बायरो सो मुहुमो य कमेण बोडव्वो ॥२॥ 'ओसप्पी' त्यादि माथाचतुर्दशकम् , 'इह अवसर्पिणीग्रहणेनोत्सर्पिण्यप्युपलक्ष्यते; ततोऽयमर्थः-अवसर्पिण्पुत्सर्पिण्योऽनन्ता समुदिताः पृलपरावतों ज्ञातव्याः ते च पुद्गलपरावर्ता अनन्ता १ति-ता. ॥ २०णाण० वि.सि. । णाण कम्माई- ता.।। ३ इह-मु. नास्ति ॥ ४ मिलिताः समु. मु. ।। १६२ द्वा पुद्गलपगवर्तः गाथा १०३९. १०५२ प्र. आ. ३०७ ॥२६॥ - ॥२६३॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे १६२द्वारे पुद्गलपरावर्तः गाथा १०३९. १०५२ प्र. आ. द्वितीयः अतीताद्धा; अनन्तपुद्गलपरावर्तात्मकोऽतीतः काल इत्यर्थः । अतीताद्धापेक्षया चानन्तगुणोऽनागताद्धा भविष्यकाल इत्यर्थः। ननु भगवत्यां 'अणागयद्धाणं तीयद्धाओ 'समयाहिय' [श. २५ उ ५ सू. ७४८Jनि सूत्रेऽनागतकालोऽतीतकालात्समयाधिक उक्तः, तथाहि--"अतीतानागतो कालावनादित्वानन्तत्वाभ्यां तुल्यो, तयोश्चमध्ये भारतः प्रशासनयो वर्चते; त चामिनटत्वेनातीते न प्रविशतीत्यविनष्टसाधादनागते शिप्तः, ततोऽतीतकालादनागताद्धा समयाधिको भवती" ति [ ] इह पुनरतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणाऽभिहिता तत्कथं न विरोधः । अत्रोच्यते, यथा अनागताद्धापा अन्तो नास्ति * एवमतीताद्धाया आदिरित्युभयोरप्यन्ताभावमात्रेण तत्र तुल्यत्वं विवक्षितमिति न दोषः । यदि च अतीतानागनाद्धे वर्तमान * समये समे स्यातां ततः समयातिक्रमेऽनागताद्धा समयेनोना स्यात् ततो द्वयादिभिः समयः, एवं च समत्वं नास्ति; तम्मादतीताद्धायाः सकाशादनागताद्धाऽनन्तगुणेति स्थितम् , अत एवानन्तेनापि कालेन गतेन नासो क्षीयत इति, वर्तमानकसमयरूपा वर्तमानाद्धाऽप्यस्तिः सा च सूक्ष्मत्वान्नेह पृथक्प्रतिपादितेति ॥३९॥ पुद्गलपरावर्तभेदानभिधातुमाह- 'पोग्गले त्यादि, 'इह-अस्मिन् पारमेश्वरप्रवचने पुद्गलपरावतों द्रव्यादितो-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भात्रभेदतश्चतुर्विधः-चतुष्प्रकारो ज्ञातव्यः; तद्यथा-द्रव्यपुद्गलपरावर्तः, ॥२६४॥ ॥२६४॥ - १ समाहि० खं ॥२ सूत्रेणाना० स्वं ॥ ३ उक्तत्वात-सि. वि. ॥ ५६% * चिहनदयमध्यवर्तिपाठः वं. नास्ति ॥ । ५ तुलना-पञ्चप्सहमत्यगिरिवृत्तिः०/३७५.७३ तः ॥ R RAMBASEATRE 35500 R SANTMATLWARA Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धार सटीके द्वितीयः खण्ड: पुद्गल. परावतः गाथा १०३९. १०५२ ॥२६॥ क्षेत्रपुद्गलपरावर्तः, कालपुद्गलपरास्तों भावपुद्गलपरावर्तश्च, पुनरप्येकेकः पुद्गलपरावर्तः स्थूलेतरभेदाभ्यांबादरसूक्ष्मत्वभेदेन द्विधा-बादरः सूक्ष्मश्च । स च यथा भवति तथा निशमयत-शृणुतेति ॥ ४०॥ तत्र पादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तमाह--'ओराले' त्यादि, एकेन जन्तुना विकटा भवाटवीं पर्यटता अनन्तेषु भवेषु औदारिक वे क्रिय-तैजस-कामण-'भाषा-ऽऽन-प्राण मनोलझणपदार्थसप्तकरूपतया चतुर्दशरउज्यात्मकलोकवर्तिनः सर्वेऽपि पुद्गलाः स्पृष्टा-परिभुज्य यावता कालेन मुक्ता भवन्ति एष वादग्द्रव्यपुद्गलपरावतः। किमुक्तं भवति ?-यावता कालेनैकेन जीवेन सर्वेऽपि जगद्वर्तिनः परमाणको यथायोगमौदारिकादि सप्तकस्वभावत्वेन परिभुज्य२ परित्यक्तास्तावान कालविशेषो बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तः । आहारकशरीरं चोत्कृटतोऽप्येकजीवस्य वारचतुष्टयमेव सम्भवति, ततस्तस्य पुद्गलपरावर्त प्रत्यनुपयोगान्न ग्रहणं कृतमिति ॥४१॥ ___अथ मतान्तरेण द्रव्यपुद्गलपरावर्तमाह- 'अहवे' त्यादि, अथवा-अन्येषामाचार्याणां मतेनौदारिक बैंक्रिय-तैजस कार्मणशरीरचतुष्टयरूपतया निःशेषद्रव्यग्रहणे एकजीवेन सर्वलोकपुद्गलानां परि. भुज्य २ परित्यजनेऽयं बादरः-स्थूलः पुद्गलपरावर्तो भवति, किंविशिष्टः १-द्रव्यादिः, द्रव्यशब्द आदिर्यस्य प्रदलपरावतेस्य सद्रव्यादिः, द्रव्यपद्गलपरावते इत्यर्थः ॥४२॥ सूक्ष्म द्रव्यपुद्गलपरावर्तमाह--'दव्वे' इत्यादि, अथ द्रव्ये-द्रव्यविषयः सूक्ष्मः पुद्गलपरायतों भवति, यदा औदारिकादिशरीराणामेकेन-अन्यतमेन शरीरेण एको जीवः संसारे परिभ्रमन् सर्वानपि पुद्ग१ माषानपान० कि. । "माधानापात० ख०माषानपात. सि. ॥२ यथा-मुः।। प्र. आ. ॥२६॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्ड: । लान् स्पृष्ट्वा-परिभुज्य २ मुश्चति । इयमत्र भावना-यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाकाशभाविनः परमाणव औदारिप्रवचन काद्यन्यतमैकविवक्षितशरीररूपतया परिभुज्य २ निष्ठा नीयन्ते तावान् कालविशेषः सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्तः। सारोद्धारे । पुद्गलपुद्गलानां-परमाणनामौदारिकादिरूपतया विवक्षितैकशरीररूपतया का सामस्त्येन परावर्तः-परिणमनं परावतः सटीके यावति काले स तावान् कालः पुद्गलपरावतः । इदं च शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तम् ; अनेन च व्युत्पत्तिनिमित्तेन स्वैकार्थसमवायिप्रवृत्तिनिमित्तमनन्तोत्सर्पिण्यचमर्पिणीमानस्वरूपं लक्ष्यते; तेन क्षेत्रपुद्गलपरायदिौ पुद्गलपरावर्तनाभावेऽपि प्रवृत्तिनिमित्तस्यानन्तोत्सपिण्यवसर्पिणीमानस्वरूपस्य विद्यमानत्वात्पुद्गलपरावर्त. ॥२६६॥ शब्दः प्रवर्तमानो न विरुद्धधने; यथा गोशब्दः पूर्व गमने व्युत्पादितः; लेन च गमनेन व्युत्पत्तिनिमित्तेन प्र. आ. 'स्वैकार्थसमवायिखुर-ककुद लाल-सानादिमा प्रतिलिमिलाप लक्ष्यते; ततो गमनरहितेऽपि ३०८ गोपिण्डे प्रवृत्तिनिमित्तसद्भायाद्गोशब्दः प्रवर्तते इति । 'अणुक्रमेण नणु गणेज्ज' ति एताश्च पुद्गलान अनुक्रमेण-विवक्षितकशरीरस्पृष्टतारूपया परिपाटथा ननु-निश्चितं गण येत् । इदमत्र तात्पर्यम्-एतस्मिन् सूक्ष्मे द्रव्यपुद्गलपरावर्ते विवक्षितैकशरीरव्य. तिरेकेणान्यशरीरतया ये परिभुज्य २ परित्यज्यन्ते ते न गण्यन्ते, किन्तु प्रभृतेऽपि काले गते सति ये च विवक्षित कशरीररूपतया परिणम्यन्ते त एव परमाणवो गण्यन्त इति । प्रथमपक्षाभिप्रायेण तुऔदारि. कादिसप्तकमध्यादन्यतमेनकेन केनचित्पूर्वोक्तरीत्या सर्व पुद्गलस्पर्शने सूक्ष्मपुद्गलपरावर्ती भवतीति ॥४३॥ १.स्वैका सि.वि.॥२ लभ्यते- खं. ॥ ३ परि० खं. नास्ति । MARATHI Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥२६७| अथ पादरक्षेत्र पुद्गलपरावर्तमाह- 'लोगे' स्यादि, लोकस्य - चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्याकाशप्रदेशा - निर्विभागा नभोभागा यदा त्रियमाणेनात्र - जगति जीवेन स्पृष्टा व्याप्ताः क्रमेण तदनन्तरभावलक्षणेनोत्क्रमेण वा - अर्दवितमरणाक्रान्तक्षेत्र प्रदेशरूपेण तदा क्षेत्र पुद्गलपरावर्ती भवेत् स्थूलो- बादरः किमुक्तं भवति १ - यावता कालेनैकेन जीवेन क्रमेण उत्क्रमेण वा यत्र तत्र म्रियमाणेन सर्वेऽपि लोकाकाशप्रदेशा मरणे संस्पृष्टाः क्रियन्ते स तावान् कालविशेषो बादरः क्षेत्र पुद्गल परावर्तः || ४४|| सम्प्रतिक्षे जीवो जहया' इत्यादिगाथाद्वयम् एकः कश्चिज्जन्तुरनन्तभवभ्रमणपरो यदा एकस्मिन् क्षेत्र प्रदेशेऽधिगते- प्राप्ते सति, तत्र स्थित इत्यर्थः कल्पनया 'परमार्थेन असङ्ख्यातप्रदेशावगाढत्वाज्जीवस्य, म्रियते प्राणान् परित्यजति पुनरपि तस्य- प्रथम मरणस्पृष्टप्रदेशस्यानन्तरे अव्यवहिते द्वितीये प्रदेशे यदि म्रियते, पुनरप्यनन्तरे तृतीये प्रदेशे यदि म्रियते, एवं तरतमयोगेन - अनन्तरानन्तरप्रदेश मरण लाभलक्षणेन सर्वस्मिन्नपि क्षेत्रे - लोकाकाशे मृतो भवति तदा सूक्ष्मः क्षेत्र पुद्गलपरावर्ती ज्ञेयः । अत्र च क्षेत्र प्रदेशान् अनुक्रमेणैव प्रथमप्रदेशानुबद्धप्रदेशपरम्परापरिपाटर्थव गणयेत् ; न पुनः पूर्वस्पृष्टान् व्यवहितान् वा प्रदेशान् गणयेत् । tent भावना - " यद्यपि जीवस्यावगाहना जघन्याऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशात्मिका भवति, तथापि विवक्षिते कस्मिद्दिशे प्रियमाणस्य विवक्षितः कश्विदेकः प्रदेशोऽवधिभूतो विवक्ष्यते, ततस्तस्मात्प्रदेशादन्यत्र प्रदेशान्तरे ये नमः प्रदेशा मरणेन व्याप्यन्ते ते न गण्यन्ते, किन्त्वनन्तेऽपि काले गते सति विवक्षिता१ न पर० सु. ॥। २ समये खं. त्रि.सि. ॥ ३ तुलना पद्मसमय वृत्तिः २।३६ ५.७४ ।। १६२ द्वारे पुद्गलपरावर्त्तः गाथा १०३९ १०५२ प्र.आ. ३०९ ॥२६७॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AURATHI प्रवचन सारोद्धारे द्वितीयः खण्ड: ॥२६॥ प्रदेशादनन्तरों या प्रदेशो मरणेन व्याप्तो भवति स गण्यते, तस्मादप्यनन्तरो यः प्रदेशो 'मरणेन व्याप्तः १६२ द्वारे स गण्यते, एवमानन्तर्यपरम्परया यावता कालेन सर्वलोकाकाशप्रदेशा मरणेन स्पृष्टा भवन्ति तावान् पुद्गल. कालविशेषः सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गलपरावर्तः । अन्ये तु व्याचक्षते-येष्वाकाशप्रदेशेश्वरगाढो जीवो मृतस्ते परावतः सर्वेऽष्याकाशप्रदेशा गश्यन्ते, न पुनस्तन्मध्यवर्ती विवक्षितः कश्चिदेक एवाकाशप्रदेश इति ॥४॥४३॥ अथ बादरं कालपुद्गलपरावर्तमाह-ओसप्पिणीए' गाहा, अवसर्पिण्या उपलक्षणत्वादुः त्सपिण्याश्च यावन्तः समया:-परममूक्ष्मा: कालविभागास्ते यदा एकजीवन निजमरण: क्रमेणोत्क्रमेण वा स्पृष्टा भवन्ति तदा कालपुद्गलपराबतों भवेत् म्यूलः । अयमर्थः-यावता 'यारता कालेनैको जीवः प्र. आ. सर्शनष्यबसविण्यत्सर्पिणीममयान क्रमेणोत्क्रमेण वा मरणेन व्याप्तान करोति तावान कालविशेषो बादरः३०९ कालपुद्गलपरावर्तः ॥१७॥ सूक्ष्म कालपुद्गलपरावतेमाह-'सुहमा' इत्यादिगाथाद्वयम् , सूक्ष्मः पुनः कालपुद्गल. परावतों भवति, तद्यथा--एका कविजीवोऽवसर्पिण्याः प्रयमे समये यदि मृतो भवति पुनरपि तस्यावसर्पिणीप्रथमसमयम्यानन्तरे द्वितीये समय यदि म्रियते, एवं तरतमयोगेन-अनन्तरानन्तरसमयमरणलाभलक्षणेन एतेषु सर्ववयवमपिण्युत्मर्पिणीसम्बन्धिषु समयेषु यदि प्राणपरित्यागं करोति तदा सूक्ष्मः "पुद्गलपगवर्तो भवति । इहापि समयान अनुक्रमेणव-प्रथमसमयानुगतसमयपरम्परापरिपाट १ मरणे-मु । मरासि ॥२ पञ्चमकर्मग्रन्थस्य देवेन्द्रसूरिकृतवृत्तिः [गा. द्रष्टव्या ॥ ३८णेन.मु.॥ २१८।। ४ यावता-मु.सि नास्ति ॥५काल पुमु॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ द्वारे सारोदारे सटीके द्वितीयः पुद्गल| पगवतः thiirithiantyamirminstamento गाथा ॥२६९॥ थैव गणयेत , न पुनः पूर्वस्पृष्टान् ब्यवहितान वा समयान गण येदिति । अनापीयं भावना-इद्दावमर्पिणीप्रथमममये कधिज्जीबो मृत्युमुपगतः, ततो यदि समयोनविंशतिसागरोपमकोटीकोटीभिरतिक्रान्ताभिभूयोऽपि म जन्तुरवसर्पिणी-द्वितीयसमये म्रियते तदा स द्वितीयः समयो मरणस्पृष्टो गण्यते; शेषास्तु समया मरणस्पृष्टा अपि सन्तो न गण्यन्तेः यदि पुनम्नम्मिन्नव मर्पिणीद्वितीयसमये न म्रियते किन्तु समयान्तरे तदा सोऽपि न गृह्यते; किन्त्वनन्ताम्बत्रमर्पिण्युत्मर्पिणीषु गतामु यदाऽत्रमर्पिणीद्वितीयसमये एवं मरिष्यति तदा स समयो गण्यते । एवमानन्लयप्रकारेण यावता कालेन सर्वेऽप्युन्मपिण्यवसर्पिणी. समया मरणव्याप्ता भवन्ति तावान कालविशेषः सूक्ष्मः कालपुद्गल परावर्तः ॥४८॥४९॥ साम्प्रतं द्विविधमपि भावपुद्गलपगवत विवक्षः प्रथमं तावदनुभागवन्धस्थानपरिमाणमाह'एगसमयंमि' त्यादिगाथाद्वयम् , लोके इह-जगनि एकस्मिन् समये ये पृथिवीकायिकादयो जीवाः 'मुटुमागणिजिया उ' ति सप्तम्यर्थत्वात्प्रथमायाः सूक्ष्माग्निजीवेषु-मूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिपु ने जम्कायिकजीवेषु प्रविश्नन्ति-उत्पधन्ते ते भवन्त्यसयेयाः; असङ्ख्येयत्वमेवाह-अमङ्ख्येयलोकप्रदेशतुल्याः-अमयेयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः । इह च विजातीयजीवानां जात्यन्तरखयोत्पत्तिः प्रवेश उच्यते । इत्थमेव प्रज्ञप्तौ प्रवेशनकशब्दार्थस्य व्याख्यातत्त्वाद; 'ततो ये जीवाः पृथिव्यादिभ्योऽन्यकायेभ्यो चादरतेजस्कायेभ्यश्च सूक्ष्मतेजस्कायत १०३९. १०५२ प्र. प्रा. १वतस्ते- मुखतो ते-सि ॥२०भ्योऽवका सि.योका वि । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ द्वारे पुद्गलपरावतः गाथा खण्ड: १०५२ प्र.आ. योत्पद्यन्ते ते इह गृह्यन्तेः, ये पुनः पूर्वसुस्पनाः (सूक्ष्म स्तेजस्कायिकाः पुनभृत्वा तेनैव पर्यायेणोत्पद्यन्ते; प्रवचन । न गृह्यन्तेः तेषां पूर्वमेव प्रविष्टत्वात् । ततः सर्वस्तोका एकसमयसमुत्पन्नसूक्ष्माग्निकायिकाः ॥५॥ सारोद्धारे 'तप्तो' ति ततः- 'तेभ्यः एकसमयोत्पन्नसूक्ष्माग्निकायिकेभ्योऽसङ्खथगुणिता-असङ्ख्येयगुणा सटीके अग्निकायाः पूर्वोत्पन्नाः सर्वेऽपि सूक्ष्माग्निकायिकजीवाः कथमिति चेदुन्यते-एकः सूक्ष्माग्निकारिको जीवः समुत्पन्नोऽन्तम हृत जीवति; एतावन्मात्रायुकत्वात्तेषाम् : तस्मिथान्तमुहूर्ते ये समयास्तेषु प्रत्येकमसाड्येयद्वितीयः लोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः सूक्ष्माग्निकायिकाः समुत्पद्यन्ते, अतः सिद्धमेकममयोत्पन्नसूक्ष्माग्निकायिकेभ्यः सर्वेषां पूर्वोत्पन्नसूक्ष्माग्निकायिकानामसङ्ख्येयगुणत्वम् : तेभ्योऽपि सम्रश्माग्निकायिकेभ्यस्तेषामेव प्रत्येक ॥२७॥ कायस्थितिः-पुनः पुनस्तत्रैव काये समुत्पत्तिलक्षणाऽसङ्ख्यातगुणाः, एकैकस्यापि सूक्ष्मारिकायिकस्यासङ्ख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीप्रमाणायाः कायस्थितरुत्कर्पतः प्रतिपादितत्वादिति । तस्या अपि कायस्थितेः सकाशासंयमस्थानान्यनुभागबन्धस्थानानि च प्रत्येकममङ्ख्येयगुणानिः, कास्थिताव सङ्ख्येयानां स्थितिबन्धान भावाद , एकैकम्मिश्च स्थितिबन्धेऽसङ्ख्येयानामनुभागवन्धस्थानानां सद्भावादिति । संयमस्थाना. न्यप्यनुभागबन्धस्थानम्तुल्यान्येवेति तेषामुपादानम् , तत्स्वरूपं चाग्रे वक्ष्यामः । अथानुभागबन्धस्थानानीति कः शब्दार्थः , उच्यते, तिष्ठत्यस्मिन् जीव इति स्थानम् , अनुभागबन्धस्य स्थानमनुभागस्थानबन्धस्थानम् ; एकेन कापायिकेणाध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षितक१ विशेषार्थ द्रष्टव्यः पञ्चसामह [ ] कर्मग्रन्थ [ ] लोकप्रशाशाः [ ३५/७६.] ॥ २०सङ्ख्येयगुणानां-मुः ।। S aisi ॥२७॥ ROORKARISROREGAIN BAHENNANORTHAN Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: - खण्ड: ||२७१ || समयबद्धरससमुदायपरिमाणमित्यर्थःः तानि चानु भागबन्धस्यानान्य सङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि तेषां चानुभागबन्धस्थानानां निष्पादका ये कषायोदयरूपा अवसाय विशेषास्तेऽप्यनुभागबन्धस्थानानीत्युच्यन्तेः कारगे कार्योपचारात् । तेऽपि चानुभागवन्धाध्यवसाया अमख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा इति ॥ ५१ ॥ अथ बादर सूक्ष्मं च भावपुद्गलपरावर्तमाह-- 'ताणी' त्यादि, तानि - अनुभागत्रन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वाण्यप्यसङ्ख्ये यलोकाकाश प्रदेशप्रमाणानि म्रियमाणेन यदा जीवेनैकेन क्रमेण आनन्तर्येणोत्क्रमेण च पारम्पर्येण स्पष्टानि भवन्ति एष बादरभावपुद्गलपरावर्तः । किमुक्तं भवति ? यावता कालेन क्रमेणोत्क्रमेण वा सर्वेष्वप्यनुभागवन्ध्यवसायेषु वर्तमानो मृतो भवति तावान् कालो बादरभावपुद्गलपरावर्तः सूक्ष्मः पुनः भावपुद्ग पर वर्तो बोद्धव्यो यदा क्रमेण परिपाटया सर्वाण्यप्यनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानि स्पृष्टानि भवन्ति । इयमत्र भावना - कचिज्जन्तुः सर्वजघन्ये कषायोदयरूपेऽध्यवसाये वर्तमानो मृतस्ततो यदि स एव जन्तुरनन्तेऽपि काले गते सति प्रथमादनन्तरे द्वितीयेऽध्यवसायस्थाने वर्तमानो म्रियते तदा तन्मरणं गण्यते, शेषाण्युत्क्रमभावीन्यनन्तान्यपि मरणानि ततः कालान्तरे भूयोऽपि यदि द्वितीयस्मादनन्तरे तृतीयेser सायस्थाने वर्तमानो म्रियते तदा वृतीयं मरणं गण्यते, न शेषाण्यपान्तरालभावीन्यनन्तान्यपि मरणानि । एवं क्रमेण 'सर्वाण्यप्यनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानि यावता कालेन मरणेन स्पृष्टानि भवन्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्म मात्र पुलपरावर्तः । इह च बादरे प्ररूपिते सति सूक्ष्मः सुखेनैव शिष्यैः १ सर्वाण्यनु मु. सि. ॥ १६२ द्वारे पुद्गल परावर्त्तः गाथा १०३९ १०५२ प्र. आ. ३१० ॥२७१॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे कर्मभुमय गाथा सदीके द्वितीयः प्र.आ. ॥२७२॥ समधिगम्यते इति बादरपुद्गलपरावर्तप्ररूपणा क्रियते, न पुनः कोऽपि बादरपुद्गलपरावर्तः कचिदपि सिद्धान्तप्रदेशे प्रयोजनवानुपलभ्यत इति । तथा सूक्ष्माणामपि चतुणां पुद्गलपरावर्तानां मध्ये जीवा. भिगमादौ पुद्गलपरावर्तः क्षेत्रतो पाल्पेन 'परिन्द्रहीता, क्षेत्रको मार्गमायां तस्योपादानात् । था च ततत्सूत्रम् * 'जे से 'साए सपज्जवसिए 'मिच्छदिट्ठी से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अपतं कालं, अणताओ उमप्पिणीयोसप्पिणीओ कालो, खेतो अब पोग्गल परियट्ट देसूर्ण' इत्यादि । ततोऽन्यत्रापि यत्र विशेषनिर्देशो नास्ति तत्र पुद्गलपरावर्तग्रहणे क्षेत्रपुद्गलपरावर्तो गृह्यते इति सम्भाव्यतेः, तत्वं तु बहुश्रुता एव बिदन्तीति ॥१०५२॥ १२॥ इदानीं 'पन्नरस कम्मभूमीउ' ति त्रिपश्यधिकशततमं द्वारमाह भरहाइ ५ विदेहाई ५ एरवयाई च ६ पंच पत्तेयं । भन्नति कम्मभूमी'उ धम्मजोग्गा उ पन्नरस ॥२३॥ [ विचारसार गा. ४२] 'भरहाई गाहा, भरतानि 'विदेहाइ' ति महाविदेहा ऐग्यतानि च प्रत्येकं पञ्च पञ्च भण्यन्ते पञ्चदश कर्मभूमयः । एतामामेव स्वरूपमाह-धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य योग्या-उचितास्तदनुष्ठानम्य तत्रव सम्भवात् । अयमर्थः-कर्म-कृषि-वाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा, तत्प्रधाना भृमयः कर्मभूमयः, ताश्च पञ्चदश * यस सादिसपर्यवसितो मिथ्याष्टिः स जघन्येनान्तमु हत्ते मुत्कृष्टेनान-तं कालम , अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽपा पुगपरावर्त देशोमम । परि० मुसि. नास्ति ।। २ साइए-मु.॥ ३ मिच्छा० मु ॥ ४ उ मु.नास्ति । तुला-विचारसार गा. ४२।। ॥२७२॥ Call NEE SS. W WW . sairahu a daily Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः mmmmmmmmunita भवान्त, तद्यथा-एक भरतक्षत्र जम्बूद्वापे, द्वे धातकीखण्डे, द्वे च पुष्करवरद्वीपार्थे, एवं भरतानि पञ्च । एवं महाविदेहा ऐरवतानि च प्रत्येकं पश्च पञ्चेति ॥१०५३।।१६३।। ||१६४द्वारे इदानीं 'अकम्मभूमीओ तोस' ति चतुःषष्टयधिकशततमं द्वारमाह --- अकमहेमवयं १ हरिवासं २ देवकुरू ३ तह य उत्तरकुरूवि ४ ।। भमय: रम्मय ५ एरनवयं ६ इय छन्भूमी उ पंचगुणा ॥५४॥ [विचारसार गा. ४१] गाथा एया अकम्मभूमीउ तीस सया जुअलध'म्मिजणठाणं । १०५४५ दसविहकप्पमहामसमुत्थभोगा पसिहाओ ॥५५॥ ___ 'हमवय' मित्यादिगाथाद्वयम् , हेमवतं हरिव देवकुरवस्तथा उत्तरकुग्यो रम्यकर्मण्यवन चेत्येताः । (१६५ द्वारे पड़भूमयः पञ्चभिगुणितास्त्रिंशदकर्माणो-यथोक्तकर्मविकला भृमयोऽकर्मभृमयो भवन्ति । पण पचाना मदाः त्रिंशत्सङ्ख्यात्मकत्वात् । एताश्च सर्वा अपि सदा-गर्वकालं युगलधार्मिकजनानां स्थानं-आश्रयः, युगल-गाथा धामिका एवं नरतियश्चस्तत्र वसन्तीति भावः । तथा दशविधा ये कल्पमहाद्रुमा वक्ष्यमाणम्वरूपाम्तममु. स्थेन-तदुत्पन्नेन भोगेन-अन्न-पान-वसना-ऽलङ्कारादिना प्रसिद्धाः-प्रख्याता इति ॥१०५४-१०५५॥१६४|| प्र. आ. साम्प्रत 'अट्ठ मय'त्ति पञ्चपष्टयधिकशततम द्वारमाह--- जाइ १ कुल २ व ३ बल ४ सुय५ तव ६ लामि ७ सरिय ८ अट्ठ मयमत्तो। एयाई चिय बंधइ असुहाई बहु च संसारे ॥५६॥ २७३॥ १०धम्म० मुः ।। २. ल भू० सि. वि.॥३ सरय-सि. वि. ॥ ४ बहुयं-ता. ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥२७४॥ 'जाइकुल' गाहा, जाति-कुल- रूप-बल-भूत तपो लामैश्वर्य स्वरूपैरष्टभिर्मदैः - अभिमानैर्मतः - परवशः प्राणी एतान्येव जात्यादीन्यशुभानि - हीनानि बध्नाति - अर्जयति, बहुं च प्रभूतं कालं यावदस्मिन् संसारे परिभ्रमतीति शेषः । अयमर्थ:- जातिमदं विदधानो जन्तुरन्यजन्माने तामेव जाति दोनों लभते विकटों च aaraat fearfi raमग्रेऽपि भावना कार्या तत्र जाति : - मातृकी विप्रादिका वा कुलं - पैतृकमुग्रादिकं वा रूपं - शरीरसौन्दर्यम्, बलं सामश्रुतम् - अनेकत्रोधः, तपः - अनशनादि, लाभ:-अभिलषितवस्तुप्राप्तिः, ऐश्वर्य प्रभुत्वमिति ॥१०५६॥१६५॥ इदानीं 'दुनिया तेयाला भेया पागाइवायरस' इति षट्षष्ट्यधिकशततमं द्वारमाहभू १ जल २ जलणा ३ मिल ४ वण ५ बि ६ ति ७ च ८ पंचिदिएहिं ९ नव जीवा । मणवघणकाय ३ गुणिया हवंति ते सत्तषीसंति ॥५७॥ एक्कासीई सा करणकारणाणुमहताडिया हो । सच्चिय तिकालगुणिया दुन्नि सया होंति तेयाला २४३ ॥ ५८॥ 'भू-जले' त्यादिगाथाद्वयम् भूः- पृथ्वी, जलम् - आपः ज्वलनः - अग्निः, अनिलो वायुः, वनस्पतयः प्रतीताः, द्वीन्द्रिय- श्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रियाश्चेत्येतेर्भेदै नवविधा जीवा ते च मनो-वचनarraaभः करणैगुणिताः सप्तविंशतिर्भवन्तिः तथा सा-सप्तविंशतिः करण-कारणा- ऽनुमतिभिस्ताडिता १ च प्रभु० मु. ॥ २ सप्ति-सि. वि. ।। १६६द्वारे हिंसाभेदा: गाथा १०५७ १०५८ प्र. आ. ३११ १२७४॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोदारे । - सटीके । | परिणाम भेदाः | गाथा |१०५९ -द्वितीय । -॥२७५| -गुणिता एकाशीतिर्भवत्ति; मैये काशीतिरतीत-वर्तमान-भविष्यलक्षणैत्रिभिः कालगुणिता द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिक भवतः। ___अयमत्र भावार्थः -पृथिव्यादीनां नवानामपि जीवानां मनसा वचनेन कायेन च प्रत्येकं वधस्य सम्भवात् सप्तविंशतिर्भेदाः, तत्रापि पृथिव्यादिवधं मनःप्रभृतीभिः कश्चित्स्वयं करोति, कश्चिदन्येन कारयति, कश्चित्पुनरन्यं कुर्वन्तमनुमन्यते, इति प्रत्येक करण-कारणा-ऽनुमतिसम्भवेनेकाशीतिभेदाः, ते च प्रत्येक कालत्रयेऽपि सम्भवन्तीति द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिक प्राणातिपातभेदा इति ॥१०५७॥१०५८॥१६६॥ सम्प्रति 'परिणामाणं अट्ठुत्तरसयं' ति सप्तषष्टयधिकशततमं द्वारमाह संकप्पाइतिएणं ३ मणमाईहिं ३ तहेव करणेहि ३ । कोहाइचउक्केणं ४ परिणामेऽहोत्तरसयं च ॥१९॥ संकप्पो संरंभो १ परितावकरी भवे समारंभो २ । आरंभो ३ उहवओ सुडनयाणं च सव्वेसि ॥६॥ ''संकप्पाइ' गाहा, इह सङ्कल्पशब्देन संरम्भ उपलक्ष्यते पर्यायत्वात् ; आदिशब्दात्समारम्भारम्भ परिग्रहः, ततो वक्ष्यमाणस्वरूपाः संरम्भ-समारम्भा-ऽऽरम्भास्त्रयों मनो-वचन-कायैगुण्यन्ते जाता नव; तथा 'करणेहि' ति बहुवचननिर्देशात्कारणा-ऽनुमतिपरिग्रहः, ततः पूर्वोक्ता नव करण-कारणा-ऽनुमतित्रिकेण गुण्यन्ते जाताः सप्तविंशतिः, सापि क्रोधादिचतुष्केण-क्रोध-मान-माया-लोभलक्षणैश्चतुर्भिः कषायैगुण्यते प्र. आ. ३१२ २७५॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ द्वारे परिणाम • सारोद्धारे भेदाः गाथा प्र. आ. | जातं परिणाम षष्टी-सप्तम्योरथं 'प्रत्यभेदात् परिणामाना-चित्तादिपरिणतिविशेषाणामष्टोत्तरं शतमिति । । प्रवचन इदमत्र तात्पर्यम्-उद्भूतक्रोधपरिणाम आत्मा करोति स्वयं कायेन संरम्ममित्येको विकल्पःः तथा आविर्भूतमानपरिणाम आत्मा स्वयं करोति कायेन संरम्ममिनि द्वितीयः, तथा समुपजातमायापरिणतिरात्मा "करोति स्वयं कायेन संरम्भमिति तृतीयः, तथा लोभषायग्रस्त आत्मा करोनि स्वयं कायेन संरम्भमिति द्वितीयः चतुर्थः। एवं कृतेन चत्वारो विकल्पाः, कारितेन चत्वारः अनुमन्याऽपि चन्वारः, एते द्वादश कायेन लब्धाः, तथा वचसा द्वादश, मनसाऽपि द्वादश; एते पत्रिंशत्संरम्भेग लब्धाः तथा समारम्भेणापि पद॥२७६॥ त्रिंशत् , तथा आरम्भेणापि पत्रिंशदित्येवमष्टोत्तरं परिणामशतं भवतीति । ५९।। अथ सङ्कल्पादोनामेन हारूपमा... 'संकप्पो' गाहा, प्राणातिपातं 'करोमीति यः मलप-अध्यवमायः स मंगम्भाः यः पुनः परम्य परितापकर:-पीडाविधायी व्यापारः स समारम्भः; अपाय पनो जीवितात्परं व्यपगेपयतो व्यापार आरम्भः । एतच्च संम्भादित्रितयं सर्वेषामपि शुद्धनयानां सम्मतम् . अयमर्थः-इह नेगम-सङ्ग्रह-व्यवहार- जुमूत्रशब्द-समभिरुयंभृतलमणाः सप्त नयाः । तत्र शुद्रेरन्त तकारितार्थ वान् शोधयन्ति कर्ममलिनं जीवमिति शुद्धाः नैगम-सङ्ग्रहव्यवहाररूपास्त्रयः, ते हि अनुयायिद्रव्याभ्युपगमपराः; ततो भवान्तरेऽपि कृतकर्मफलोपभोगोपपत्तेः सद्धर्मदेशनादौ प्रवृत्तियोगतो भवति ताचिकी शुद्धिस्तम्मात्त एवं शुद्धाः । .. ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढेवंभृतस्वरूपास्तु चत्वारो नया अशुद्धाः; ते हि पर्यायमात्रमभ्युपगच्छन्ति, १ प्रति भे० सि. वि.॥२ स्वयं करोति कायेन-मु. ॥ ३ करोतीति-जे. ॥४८पाश्चत्वारो-खं ॥ २७६॥ BAR Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १६८द्वारे ब्रह्म सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: भेदाः गाथा प्र. आ. ॥२७७॥ पर्यायाणां परस्परमात्यन्तिकं भेदं च एवं च सति कृतविप्रणाशादिदोषप्रसङ्गः; तथाहि-मनुष्येण कृतं कर्म किल देवो भुङ्क्ते, मनुष्यावस्थातश्च देवावस्था भिन्नाः ततो मनुष्यकतकर्मविणणारे, मनुष्येण सता तस्योपभोगाभावात् , देवस्य च फलोपभोगोऽकृताभ्यागमः, देवेन सता तस्य कर्मणोऽकरणात् , 'कृतविप्रणाशादिदोषपरिज्ञाने 'चन कोऽपि धर्मश्रवणेऽनुष्ठाने वा प्रवर्तते इति मिथ्यात्वशुद्धयभावः; तदभावाच्च न ते शुद्धा इति । अथवा शुद्धनयाना चेत्यत्र प्राकृतत्वात्पूर्वम्याकारस्य लोपो द्रष्टव्यः, ततः सर्वेषामप्यशुद्धनयानामेतसंरम्भादित्रितयं सम्मतं न तु शुद्धानामिति, तत्र नैगम-माहव्यवहाररूपा आद्यास्त्रयो नया अशुद्धाः, व्यवहाराभ्युपगमपरत्वात् ; उपरितनास्तु चत्वारः शुद्धाः, नैश्चयिकत्वादिति । तदिदमत्र तात्पर्य-संरम्भ-समाssरम्भलक्षणं त्रितयं नैगमादीनामेव त्रयाणां सम्मतम् । व्यवहारपरतया तेषां मतेन 'त्रितयस्यापि सम्भवान; ऋजुसूत्रादयस्तु हिंसाविचारप्रक्रमे न बाह्यवस्तुगतां हिंसामनुमन्यन्ते । यतस्तन्मतेनात्मैव तथाऽध्ययसायपरिकलितो हिंसा, न बाह्यमनुष्यादिपर्यायविनाशनम् , 'आया चेव उ हिंमा' [ ] इति वचनात् । ततः संरम्भ एव हिंसा, न समारम्भो नाप्यारम्भः, ऋजुसूत्रादीनां मतेनेति ॥१०६०॥१६७।। सम्प्रति वंभमट्टयसभेयं ति अष्टषष्टयधिकशततमं द्वारमाहदिव्या कामरहसुहा तिविहं 'तविहेण नवविहा विरई । ओरालि'याउवि तहा तं भं अट्ठदसभेयं ॥६॥ १कृत प्रमु.॥ २ च कोऽपि धर्मश्रवणेऽनुष्याने वान प्रब.सि.वि.५३ त्रितयस्य-खं." ४ व्यामोतिविहान्ता.10वावि-वि.। ॥२७॥ meani Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे १६९द्वारे कामभेदाः गाथा २०६२ सटीके द्वितीयः खण्ड: प्र. आ. ॥२७८॥ __'दिव्वा' गाहा, दिवि भवं दिव्यम् , नच्च बैंक्रियशरीरसम्भवम् ; काम्यन्त इति कामा-विषयास्तेषु रतिः-अभिषङ्गस्तस्मान्सुखं कामरतिसुखं सुरतसुखमिति भावः, तम्मादिन्याकामरतिसुखात् त्रिविधं यथा भवति कृत-कारिता ऽनुमतिभिरित्यर्थः, त्रिविधेन-मनोवाकायलक्षणोन 'करणेन नवविधा विरतिः, एवमौदारिकादपि तिर्यङ्मनुष्यसम्भवात् 'तत तथा-त्रिविधं त्रिविधेन नवविधा वितिः इत्येवं तद्-ब्रह्मचर्यमष्टा. दशभेदं भवति । इयमत्र भावना-मनमाऽब्रह्म न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमपि परं नानुमन्ये; एवं वचमा कायेन चेति दिव्ये ब्रह्मणि नव भेदाः; एवमौदारिकेपीत्यष्टादशेति ।।१०६१।१६८।। सम्प्रति 'कामाण चउव्वोस' त्ये कोच सप्तत्यधिकशतान बारमाह --- कामो चउवीसचिहो संपत्तो म्बलु तहा असंपत्तो । चउदसहा संपत्तो दसहा पुण होअसंपत्तो ॥६॥ तस्थ असंपत्तेऽत्था १ चिंता २ तह सड ३ संभरण ४ मेव । विकवय ५ लसनासो ६ पमाय ७ उम्माय ८ तनावो ९ ॥३३॥ ...मरणं च होई दसमो' १. संपत्तपि य समासओ वोच्छं । दिहीए संपाओ १ दिहीसेवा २ य संभासो ३ ॥६॥ रणेन-सि.पि. नास्ति ॥ २ कादिधपि तिग्मनुष्यसम्मवादि ना तथा-वि. सि ॥ ३ तत्-मु. नास्ति ॥ संशिक मापसाथि ॥ ५ मे- । तुलना मये, नियुक्ति ॥२७८॥ PRASARMER INTERNET 2192RSANMAATMALKATARIRAL B akisteddi MASyndrowse Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनसारोद्धार सटीके १६९द्वारे कामभेदाः गाथा १०६२. द्वतीयः ॥२७९॥ प्र. आ. [३१३ हसिय ४ ललिओ ५ वगृहिय ६ दंत ७ नहनिवाय ८ चुघणं ९ चेव । आलिंगण १० मादाणं ११ कर १२ सेवण १३ ऽणंगकीडा १४ य ॥६५॥ [तु. दशच. नि. २५९-६२] 'कामो' गाहा, कामश्चतुर्विशतिविधः-चतुर्विंशतिभेदो भवति । तत्र प्रथमं तावत्सामान्येन द्विधासम्प्राप्त:-कामिनामन्योऽन्यं सङ्गमसमुत्थः, तथा असम्प्राप्तश्च-विप्रलम्भस्वरूपः । तत्र सम्प्राप्तश्चतुर्दशधाचतुर्दशप्रकारः, दशधा पुनः-दशप्रकारो भवत्यसम्प्राप्त इति ॥६२॥ तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादसम्प्राप्तं तावदाह--'तत्थ असंपत्तो' इत्यादिगाथा, तत्र-द्वयोः सम्प्राप्ता-उसम्प्राप्तयोर्मध्ये असम्प्राप्तोऽयं-'अत्थे' ति अर्थनमर्थः-अदृष्टेऽपि रमण्यादौ श्रुत्वा तदभिलाषमात्रम् ?, चिन्ताअहो रूपादयस्तस्यागुणा इत्यनुरागेण चिन्तनम् २ तथा श्रद्धा-तत्सङ्गमाभिलाषः ३, तथा संस्मरणं-सङ्कल्पिततपस्यालेख्यादिदर्शनेनात्मनो विनोदनम् ४, तथा विक्लवत्ता-तद्विरहदुःखातिरेकेणाहारादिष्वपि निरपेक्षता , तथा लज्जानाशो-गुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तनम् ६, तथा प्रमादः-तदर्थमेव सर्वारम्भेषु प्रवर्तनम् ७, तथोन्मादो-नष्टचित्ततया आलजालजल्पनम् ८, तथा तद्भावना-स्तम्मादीनामपि तबुद्धथाऽऽलिङ्गनादिवेष्टा ९, मरणं च भवति दशमोऽसम्प्राप्तकामभेदः १० । इदं च सर्वथा प्राणपरित्यागलझणं न ज्ञातव्यम् , शृङ्गाररसभङ्गप्रसङ्गात् ; किन्तु मरणमिव मरणं-निश्चेष्टावस्था मूर्छाप्राया काचिदित्यर्थः । इत्थमेवा-भिनवगुप्तेन भरतवृत्तिकृताऽपि व्याख्यातत्वादिति । ॥२७९॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १७० द्वारे प्राणदशकम् गाथा खण्ड: १०६६ प्र.आ. ॥२८॥ अथ संप्राप्त काममाह- 'संपत्तंपी' त्यादि..संप्राप्तमपि कामं समासतः-सक्षेपेण वक्ष्ये, तदेवाह-'दृष्टे: सम्पातः स्त्रीणां कुचाद्यवलोकनं १ तथा दृष्टि सेवा-हावभावसारं तदृष्टेष्टिमीलनम् २, तथा सम्भाषणम्-उचितकाले स्मरकथाभिजल्पः ३, ॥ ३३ ॥६४॥ 'हसिय' गाहा, हसितं च-वक्रोक्तिगर्भ हसनम् ४, ललितं-पासकादिक्रडा ५, उपगूढ-गाढतरपरिष्वक्तम् ६, दन्तपातो-दशनच्छेदविधिः ७, नखनिपात:-कररुहविपाटनप्रकारः ८; चुम्बन-वक्त्रसंयोगः ९, आलिङ्गनम्-ईपरस्पर्शनम् १०, आदानं -कुचादिग्रहणम् ११, 'करसेवणे' ति प्राकृतशल्या करणा-ऽऽसेवने, तत्र करणं-सुरतारम्भयन्त्रं चतुरशीति. भेदं वात्स्यायनप्रसिद्धम् १२ आसेवनं-मैथुनक्रिया १३, अनङ्गक्रीडा च-आस्यादावर्थक्रियेति १४ ॥१०६५॥१६९॥ इदानीं 'दस पाण' ति सप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह इदिय ५ बल ३ ऊसासा १ उ १ पाण घउ छक्क सत्त अद्वेव । इगि विगल 'असन्त्री सन्नी नव दस पाणा य बोद्धव्वा ॥१६॥ 'इंदिय' गाहा, इन्द्रियबलोच्छवासा'षि प्राणा इत्यभिधीयन्ते; ते च दश; तत्रेन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि पश्चः बलं कायबामनोभेदात् त्रिधाः, उच्छ्वासशब्देनाविनाभाविवानिःश्वासोऽपि गृह्यते, तत उच्छवासनिःश्वासरूप एको मेदः, आयुश्च दशममिति । सम्प्रति येषां जीवानां यावन्तः प्राणाः सम्भवन्तीत्येतदाह..चिहृदयमध्यवर्तिपाठः स्वं.वि. सि. नास्ति ।। १ सन्नि-ता. ॥ ९०ऽपि-मु. नास्ति । ॥२८०1 : : Hownlodlowiecreatensinhanc h ar Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥२८१॥ 'agre' त्यादि, इह सूचकत्वात्सूत्रस्य 'दगि' त्ति एकेन्द्रियाः "विगल' त्ति विकलेन्द्रियाः, द्वित्रि- चतुरिन्द्रिया इत्यर्थः तत एकेन्द्रियाणां द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियाणां च यथासङ्ख्यं चत्वारः षट् सप्त अष्टौ च प्राणा भवन्ति । इयमत्र भावना - स्पर्शनेन्द्रिय-काय लोच्छ्वासाऽऽयुलेक्षणाश्चत्वारः प्राणा एकेन्द्रियाण पृथिव्यादीनाम् ; स्पर्शनेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय-काय 'बल-वाम्बलोच्छ्वासाऽऽयुः स्त्ररूपाः षट् प्राणा द्वीन्द्रियाणाम् ; तएव घ्राणेन्द्रियसहिताः सप्त प्राणास्त्रीन्द्रियाणाम् त एव सप्त चक्षुरिन्द्रियसहिता अष्टौ प्राणाश्चतुरिन्द्रियाणाम् ; तथा असंज्ञिनां संज्ञिनां च नव दश प्राणा बोद्धव्याः अत्राप्ययमर्थः - इन्द्रियपञ्चकका यवाग्वलोच्छ्वासनिःश्वासायुर्लक्षणा नव प्राणा असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम्, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां तु पूर्वोक्ता दशापि प्राणा भवन्तीति ॥ १०६६॥ १७० ॥ www. सम्प्रति 'दस कप्पदुम' श्येकसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह मत्तं गया य १ भिंगा २ तुडियंगा ३ दीव ४ जोइ ५ चितंगा ६ | चित्तरसा ७ मणिगंगा ८ गेहागारा ९ अणियणा य १० ॥६७॥ मत्तंगएसु मज्जं सुहपेज्जं १ भायणाणि भिंगेसु २ 1 तुडियंगेस य संगतुडाई बहु पगाराह दीवसिंहा ४ जोइसनामगा य एए करेंति उज्जयं ५ । चित्तं य मल्लं ferrer भोयणडाए ३ በቀረበ ७ ॥६९॥ १ विफलत्ति-सुः सि. ।। २ बलोच्छवासायु:- मु. ॥। ३ भायणा य मु. ॥ १७१ द्वारे. कल्पद्रुमदशकम् गाथा १०६७ १०७० प्र. आ. ३१४ ॥२८॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥ २८२॥ 1 ॥७०॥ मणिगंगेसु य भूसणवराई ८ भवणाइ भवरुखेसु ९ तह अणिघणेसु 'य घणियं चत्थाई बहुप्पयाराह १० 'गया ' गाहा, इह मर्त्त - मदस्तस्याङ्गं - कारणं मदिरास्तद्ददतीति मत्ताङ्गदाः, यद्वा मत्तस्य- मदस्याङ्ग - कारणं मदिरारूपं येषु ते मत्ताङ्गस्त एवं मत्ताङ्गकाः १ । 'भिंग' ति भृतं भरणं पूरणं तत्राङ्गानि कारणानि भूताङ्गानि - भाजनानि न हि भरणकिया भरणीयं भाजनं विना भवतीति तत्सम्पादकला अपि मृताङ्गाः, प्राकृतत्वाच भिंगा उच्यन्ते २ | तथा त्रुटितानि सूर्याणि तत्कारणत्वात् त्रुटिनाङ्गाः ३ । 'atest चित्तंग' ति इहाशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यतेः ततो दीपः- प्रकाशकं वस्तु तत्कारणत्वादीपाङ्गाः ४ | ज्योतिः - अग्निस्तत्र च सुषमसुषमायानग्नेरभावात् ज्योतिरिव यद्वस्तु सोमप्रकाशमिति भावः, तत्कारणत्वाज्ज्योतिरङ्गाः ५ तथा चित्रस्य - अनेकप्रकारस्य विवक्षाप्राधान्यान् माल्यस्य कारणत्या चित्राङ्गाः ६ । तथा चित्रा - विविधा मनोज्ञा रसा-मधुरादयो येभ्यस्ते चित्ररसाः ७ । • तथा मणीना- मणिप्रधानाभरणानां कारणत्वान्मव्यङ्गाः ८ । तथा गेह-गृहं तद्वदाकारो येषां ते गृहाकाराः ९ । 'अणियण' ति विचित्रवखदायित्वाम विद्यन्ते नग्नास्तनिवासिनो जना येभ्यस्तेऽनग्नाः १० । १ बसु. नास्ति । २ वाङ्गकानिन्स || ३ सोमप्रकाशकमिति मु. ॥ १७१ द्वारे कल्पद्रुमदशकम् गाथा १०६७. १०७० प्र. आ. ३१४ ॥२८२॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोद्धारे सटीके कल्पद्रुम - द्वितीयः ॥२८३॥ इत्येते दश कल्पमा भवन्तीति ।।६७|| अर्थतेषां मध्ये येषु यद्भवति तदाह- 'मत्तङ्गएसु' इत्यादिगाथात्रयम् , मत्ताङ्गकेषु कल्पद्रुमेषु सुखपेयं परमातिशयसंपन्नवर्णादिविशिष्टत्वेन पातुमभिलषणीयं सुपक्वेक्षु-द्राक्षादिरसनिष्पन्नं मद्यं भवति । । १६४ द्वा कोऽर्थः -तेषां फलानि विशिष्टबलवीर्यकान्तिहेतुवित्रसापरिणतसरससुगन्धिविविधपरिपाकागतहृद्यमद्यपरिपूर्णानि 'स्फुटित्वा स्फुटित्वा मद्यं मुश्चन्तीति १ । दशकम् तथा भृताङ्गेषु भाजनानि-स्थालप्रभृतीनि भवन्ति । अयमर्थः-यथा इह मणि-कनक-रजतादिमय- गाथा विचित्रभाजनानि 'दृश्यन्ते, तथैव विश्रसापरिणतैरपरिमितेः स्थाल-कच्चोलक कलश-करकादिमिर्भाजनैः फलैरिवोपशोभमानाः प्रेक्ष्यन्ते २ । तथा त्रुटिताङ्गेषु सङ्गतानि-सम्यग्-यथोक्तरीत्या सम्बद्धानि त्रुटितानि-आतोद्यानि बहुप्रकाराणितत-वितत-घन-शुषिरभेदभिन्नानि फलानीव भवन्ति । तत्र ___ 'तत-वीणादिकं ज्ञेयम् ; विततं--पटहादिकम् । धनं तु-कांस्यतालादिः, शुषिरं-काहलादिकम् ॥१॥ इति । तथा दीपशिखा ज्योतिषिकनामकाच एते कल्पतरव उद्योतं-प्रकाशं कुर्वन्ति । इदमुक्तं भवतियथेह स्निग्धं प्रज्ज्वलन्त्यः काञ्चनमणिमय्यो दीपिका उद्योतं कुर्वाणा दृश्यन्ते तद्वद्विश्रसापरिणताः (दीप ॥२८॥ १ भवन्ति स्फुटित्वा स्फु० कि.॥२ स्थालप्रभृतीनि-दृश्यन्ते-मुः ।। ३ अन्त्याः-खं. वि.॥ प्र. आ. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥२८४॥ १०७० शिखाकल्पवृक्षाः ) प्रकृष्टोद्योतेन सर्वमुद्योतयन्तो वर्तन्तेः ज्योतिपिकास्तु सूर्यमण्डलमिव स्वतेजसा 'सर्वमप्यवभासयन्तः सन्तीति ४-५ । १७१ द्वारे तथा चित्राङ्गेषु माल्यम्-अनेकप्रकारसरमसुरभिनानापर्णकुसुमदामरूपं भवति ६ । कल्पद्रमतथा चित्ररसा भोजनार्थाय-युगलधार्मिकाणां भोजननिमित्तं भवन्ति । एतदुक्तं भवति-इहत्यविशि दशकम् पदालिकलमशालिशालनकपक्वान्नप्रभृतिभ्योऽतीवापरिमितस्वादुनादिगुणोपेतेन्द्रियबलपुष्टिहेतु द्यखाद्यभोज्य । गाथा पदार्थपरिपूर्णै: फलमध्ये विराजमानाचित्ररसाः सतिष्ठन्ति ७ । ____ तथा मण्यङ्गेषु वराणि-श्रेष्ठानि भूषणानि विश्रमापरिणतानि 'कटककेयुर-कुण्डलादीन्याभरणानि भवन्ति । प्र. आ. तथा भवनवृशेषु गेहाकारनामकेषु कन्पद्रुमेषु भवनानि-विश्रमापरिणामत एव 'प्रासुप्राकागेपगृढ सुखारोहसोपानपिितविचित्रचित्रशालाविततवातायनानेकगुप्तप्रकटापवरककुट्टिमतलाद्यलकृतानि नानाविधानि निकेतनानि भवन्ति ९ । तथा अनम्नेषु कल्पपादपेषु 'धणिय'ति' -अत्यर्थ बहुप्रकाराणि विचित्राणि वस्त्राणि-विश्रसारशत एवातिसूक्ष्मसुकुमारदेवयानुकारीणि मनोहारीणि निर्मलभासि वासांसि समुपजायन्त इति १०॥१०६८१०६९-१०७०॥१७१॥ ॥२८॥ १ सबैमवावं. ॥ २ कटककुण्डल यूगदी• मु. ॥ ३ प्रांसु० खं. नास्ति ॥ ४ ति-मु. नास्ति ।। 38 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ||२८५॥ इदानीं 'नरय' त्तिद्विसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह धम्मा १ वंसा २ सेला ३ अंजण ४ रिहा ५ मघा ६ य माघवई ७ । 'नरयपुढवीण नामाह सुति रमणाइ गोत्ताई ॥७१॥ tute १ सकरपह २ वालुयपह ३ पंकपहभिहाणाओं ४ । धूमपह ५ तमपहाओ ६ तह महातमपहा ७ पुढवी ॥७२॥ [ तुलना - बृहत्सं. गा. २३९] 'घम्मे' त्यादि गाथाद्वयम्, इह यदनादिकाल प्रसिद्ध मन्वर्थरहितमभिधानं तत्सर्वकालं यथाकथञ्चिदन्वर्थनिरपेक्षतया नमनात् प्रवर्तनानामेत्युच्यते । यत्पुनः सान्वर्थं तो:-स्वाभिधायकवचनस्य त्राणाद्यथार्थत्वसम्पादनेन पालनागोत्रमिति । तत्र धर्मा वंशा शैला अञ्जना रिटा मघा मायवती चेन्येतानि नरकपृथिवीनां सप्तानां यथाक्रमं नामानि भवन्ति । तथा 'रयण' ति एकदेशेन समुदायोपचाराद्रत्नप्रभादीनि गोत्राणि भवन्ति । तत्र प्रभाशब्दो बाहुल्यवाची । ततो रत्नानां - कर्केतनादीनां प्रभा-बाहुल्यं यस्यां सा रत्नप्रभा रत्नबहुलेति भावः । एवं शर्कराणामुलखण्डानां प्रभा यस्यां सा शर्कराप्रभा । वालुकायाः परुषपसूत्कररूपायाः प्रभा यस्य सा वालुकाप्रभा । पङ्कस्य प्रभा यस्यां सा पङ्कप्रभा, कर्दमामद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः । धूमस्य प्रभा यस्यां सा धूमप्रभा, धूमाभद्रव्योपलक्षितेति भावः । तमसः प्रभा - बाहुल्यं यत्र सा तमःप्रभा । तथा महातमसः - अतिशायितमसः १ नरय० त्रि. बृहत्संयां नास्ति । २ पंकण्यभिहा० सि. वि. पंकप्पा त्रि. ॥ १७२ द्वारे नरक नाम गोत्राणि गाथा १०७११०७२ प्र. आ. ३५१ ||२८५॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके १७३ द्वा नरकावासाः गाथा १०७३ प्र. आ. प्रवचन प्रमा-पाहुन्यं यत्र सा महातमःप्रभा । अपरे तु तमस्तमस्य-प्रकृष्टतमसस्तमस्तमसो वा-अत्यन्ततमसः सारोद्वारे प्रमा-बाहुल्यं यस्यां सा 'तमस्तमप्रभा तमस्तमःप्रमेति वा मन्यन्त इति ॥७१-७२।। १७२।। सम्प्रति 'नेरायाणं आवास' ति त्रिसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह तो एपीक्षा २ पारस ३ दस ४ चेव तिन्नि ५ य हवंति। द्वितीयः खण्ड: पंखूण सयसहस्सं ६ पंचेव ७ अणुप्तरा नरया ॥७३॥ [ तुलना-कृ.सं. गा. २५५/ भगवतीपू. ११५१४३ ] ॥२८॥ 'तीसा य' गाहा, नारकाणामावासाः क्रमशः सप्तस्वपि पृथिवीषु त्रिंशलक्षादयो भवन्ति । *तथाहि-प्रथमायां पृथिव्यां त्रिंशछतसहस्रा लक्षा इत्यर्थः । एवं द्वितीयस्यां पश्चविंशतिः, तृतीयस्या पञ्चदश, चतुर्थ्यां दश, पश्चम्यां त्रीणि, पठया पश्चभिरूनं शतसहस्र लक्षमित्यर्थः, सप्तम्यां पञ्चैवानुनराः-साधोवर्तिनो 'नरकावासाः । ते चैव-पूर्वस्यां दिशि कालनामा नरकावासः, अपरस्यां दिशि महाकालः, दक्षिणस्या "दिशि 'रोरुकः, उत्तरस्यां 'महारोरुकः, मध्येऽप्रतिष्ठान, मिलिताश्चैते चतुरशीतिलेक्षाः ॥७३॥१७३|| . . । १ नमस्तमप्रमा- मु. नास्ति । तमस्तमप्रमा-मि. ॥ २ बाहुल्यं -वि.॥ ३ तुलना श्रीजिनमद्रगणिक्षमाश्रमणकता वृहत् पाणी गा. २५५ १.१.२ ॥ ४ नारका मु.॥ ५ दिशि-मु नास्ति ॥ ६ रौरव-सि.बि.॥ महार: सि.बि बना बोकप्रकाराः स १४ । ३०५ पात् ।। नमः । निका-वि ॥ .. सम २८ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIGaase वचन । रोद्धारे Amousammmum १७४ द्वारे नारकवेदनाः गाथा १०७४ तीयः । पडः TH सम्प्रति 'वेयण' ति चतुःसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह-- 'सत्तसु स्वेत्तसहावा अन्नोऽन्नुद्दीरिया य जा लट्ठी । तिसु आइमासु वियणा परमाइम्मियसुरकया य ७४|| 'सत्त०' गाहा, क्षेत्रस्वभावा-क्षेत्रस्वभावसमुद्भता दुःखवेदना तावदविशेषेण सप्तम्वपि नरकपृथिवीषु भवति । 'अन्नोऽन्नुहोरिया य जा छट्ठी' ति यादोऽयगास्थानादेकार्थचादिश पादावाची । ततोऽन्यो-ऽन्योदीरिता-नारकैरेव परस्परमुपजनिता वेदना पष्ठीं पृथिवीं यावत्-पष्टया अर्वाक्पश्चमीमभिव्याप्य भवतीति । इदमुक्तं भवति-अन्योऽन्योदीरिता वेदना द्विधा-प्रहरणकृता शरीरकृता च । तत्र प्रहरणकृता आद्यास्वेव पञ्चसु पृथिवीषु भवति; शरीरकता तु सामान्येन सप्तस्वपि पृथिवीषु । न चैतदनापम् । तथा 'चोक्तं जीवाभिगमोपांगे A"हमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए पुढवीए नेरइया जाव एगत्तंपि पहू विउवित्तए पुहुत्तपि पहू विउवित्तए', एगतं विउब्वमाणा एगं महं मुगाररूवं वा, एवं 'करवत्त-असि-सत्ति-हल-गया-मुसलचक्क-नाराय-कुत-तोमर-मूल-लगुडजाव भिंडिमालरूवं वा, पुहुतं "विउव्वमाणा मुग्गररूवाणि वा जाव भिंडमालरूवाणि वा, ताई संखेज्जाइं नो असंखेज्जाई संबद्धाई नो असंबद्धाई सरिसाइं नो असरिसाई २८७॥ प्र. आ. ३१६ १तुलना वृहत्सं वृत्तिा प. ९७ A॥२ मुसुढीरूवं वा एवं-मु.॥३ करवत्ति-सि.वि.॥ ०४ विउन्वे. मु.॥ A अस्या मदन्त ! रत्नप्रमायां पृथिव्यां नरविका यावद् एकत्वमपि प्रभुर्विकुर्वित पृथक्त्वमपि प्रभुर्विकुर्षितुम, ॥२८७॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: २८८|| A विन्दति । विउन्नित्ता अन्नमन्नस्स कार्य अभिभवमाणा वेषणं उदीरयन्ति एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए, छट्ठमत्तमासु णं पुढवीसु नेरहया लोहियकु थुरुवाई चरामयतुडाई गोमय कीडसमाणाई विउब्वित्ता अन्नमनस्स कार्य समतुरंगेमाणा २ खाएमाणा २ सययोगकिमिया इव चालेमाणा चालेमा अन्तो अन्न व वेषणमुदीरयति" ति [ तुलना- सू. ८९, १. ११७ तः ] । अत्र पृथक्त्वशब्दवाची, ततः पृथक्त्वं प्रभूतानि मुरादीनि भिण्डिमालपर्यन्तानि प्रहरणानि विकुर्वन्तः परिमितानि स्वशरीरसंलग्नानि समानरूपाणि च विकुर्वन्ति । असङ्ख्यातानां स्वशरीर पृथग्भूतानां विसदृशानां च प्रहरणानां विकुर्वशो तथाभवस्वामान्येन सामर्थ्याभावात् । 'समतुरङ्गमाणा समतुरङ्गेमाणा' इति समतुरङ्गा इवाचरन्तः समतुरङ्गायमाणाः अश्वा इवान्योऽन्यमारोहन्त इत्यर्थः । शतपर्वकृमय इव - इक्षुक्रमय इव 'चालेमाणा चालेमाणा' शरीरमध्येन सञ्चरन्तः सञ्चरन्त इति ।। एक विकुर्वन्त एक महन मुररूपं वा मुण्डीवं वा एवं करपत्राऽसि शक्ति हल-गदा-मुशल-चक्र-नाशच कुन्त-तोमरशूल लकुटवाचन मिण्डिमालरूपं वा पृथक्त्वं विकुर्वन्तो मुद्गररूपाणि वा याबद मिण्डिमालरूपाणि वा तानि सङ्घरूयेयानि नासख्येयानि, सम्बद्धानि नासम्बद्धानि, सदृशानि नासदृशानि विकुर्वन्ति । विकुये अन्योऽन्यस्य कायम freest वेदनामुदीरयन्ते । एवं यावद् धूमप्रमायां व्याम्, षष्ठी - सप्तम्योः पृयोर्नरविका लौहिककुन्थुरूपाणि मण्डानि गोमृतककीटसमानानि विकुर्व्य अन्योऽन्यस्य कार्य समतुरङ्गायमाणा' २ खादन्तः २ शतपर्वकृमय इ चालयन्तः २ अन्तरन्तरनुप्रविशन्तो वेदनामुदीरयन्ते ॥ १ पृथग्भावानां वि.सि. ।। २ समतुरंगेणमाणा-सि. वि. ॥ १७२३ नारक वेदनाः गाथा १०७४ प्र. आ. ३१६ ॥२८८ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा 'तिसृष्वाद्यासु पृथिवीषु परमाधार्मिकसुरकृताऽपि वेदना भवति । तत्र क्षेत्रस्त्र भावजा (ग्रन्थाग्रं. प्रवचन- । । १३००० ) रत्नप्रभा शर्कराप्रभा-चालुकाप्रभामूष्णा । एतन्नारकाणां हि शीतयोनिकत्वेन केवलं हिमप्रतिम. १७४ द्वा सारोद्धारे शीतप्रदेशात्मकत्वात योनिस्थानादन्यत्र च सर्वस्यापि भूम्यादेः खदिराङ्गारेभ्योऽप्यत्यन्तप्रतप्तत्वाद् गाढतर नारकउष्णवेदनानुभव एवमन्यास्वपि वाच्यम् , पङ्कप्रभायां बहुप्परितनेषु नरकावासेपूष्णा अधस्तनेषु | वंदनाः स्तोकेषु च शीता; धूमप्रभायां बहुषु शीता स्तोक पूजा, षष्टयां मतम्यां च पृथिव्यां केवला शीत- गाथा द्वितीय: खण्ड: वेदनैव । इयं च वेदना सर्वाऽप्यधोऽधोऽनन्तगुणतया तीब्रा तीव्रतग तीव्रतमा चाव सेया। १०७४ उष्णवेदनायाः शीतवेदनायाश्च स्वरूपं पुनरित्थं प्रदर्शयन्ति प्रवचनवेदिनः-यथा निदाघचरम॥२८॥ प्र. आ. समयमध्याहने नभोमध्यमधिरूढे प्रौढे चण्डरोचिपि, सर्वथाऽपि जलदपटलविकले गगनतले, मनागप्यस्फुरति मरुति, प्रभूतपित्तकोपाभिभूतस्य, कृतातपवारणनिवारणस्य, सर्वतः प्रज्वलज्ज्वलन ज्वालाकगलितकलेवरस्य कस्यचित्पुसः किल वाक्पथातीतसंवेदना यादृगुष्णवेदना प्रादुर्भवति नतोऽप्युष्णवेदनेषु नरकेषु नारकाणामनन्तगुणा । अपिच-यदि नारका उष्णवेदनेभ्यो नरकेभ्य उत्पाट्य धमनीमुखोमायमानखादिरा. झारराशिशय्याशायिनः क्रियन्ते तदा 'सुधारस सेकातिरेकनिर्वाध्यमाणा इवात्यन्तसुखास्वादमेदुरमनसो निद्रामपि लभेरन् । तथा पौषे माधे वा निशीथे सर्वथाऽप्यभ्रविभ्रमविरहितेऽपि वियति सर्वतोऽपि वपुःप्रकम्पकृति प्रवाति १ लोकप्रकाशः १४/२२० पश्चात् द्रष्टव्यः ।। २ शीसा-मु.॥ ३ मारुति-मु.॥ ४०जाल जालकारा . । ५ सुधासारस खं. वि. ॥ ६ वपुः प्रकम्पः संपति-खं.वि. । वपुः प्रकंपसंपत्कृति-सि.॥ ॥२८९॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटीके द्वितीयः १७४ नारकवेदनाः गाथा २०७४ ॥२१ ॥ वाते तुषारशिखरिशिखरकृतस्थितैस्तुहिनकणगणसम्पर्किणो निरग्नेनिराश्रयस्य निरावरणस्य पुसो या शीतवेदना ततो भवति शीतवेदनेषु नारकाणामनन्तगुणा । किंव-यदि ते नारकाः शीतवेदनेभ्यो नरकेभ्य उत्पाट्य यथोक्तपुरुषस्थाने स्थाप्यन्ते तदा ते प्राप्तात्यन्तनिर्वातस्थाना इव निरुपमसुखसम्पत्तनिद्राम या. सादयेयुरिति । तथा क्षुत्पिपासाकण्डूपारवश्यज्वरदाहमयशोकादिकाऽन्याऽपि नारकाणां वेदना श्रुते श्रूयते । तथाहिते नारकाः सर्वदेवाक्षयाग्निदह्यमानशरीराः सकलजगद्गनसुस्निग्धघृतादिपुद्गलाहारेणापि न तृप्यन्ति । पिपासाऽपि' तेपी शश्वत्कण्ठोष्ठतालुजिह्वादिशोषकृग्निखिल पयोधिपयःपानेऽपि नोपशाम्यति । कण्डूः पुनः कण्डूयमाना क्षुरिकादिभिरष्यनुच्छेद्या । पारवश्य-ज्वर-दाह-भय शोकादयोऽप्यत्रत्येभ्योऽनन्तगुणाः । यदपि च नारकाणामवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानं वा तदपि ते दुःखकारणम् । ते हि दरत एव तिर्यगूमधश्च निरन्तरं दुःखहेतुमापनन्तमालोकर्यान्त; आलोक्य च मयेन कम्पमानकायाः मोद्वेगमवतिष्ठन्ते । इयं सर्वाऽपि क्षेत्रस्वभावजा दुःखवेदना। अथ परस्परोदीरिता प्रतिपाद्यते-इह द्विविधा नारका:-मभ्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च । तत्र ये मिथ्यादृष्टयस्ते मिथ्याज्ञानावलिप्सचेतसः परमार्थमजानानाः परस्परमुदीरयन्ति दुःखानि । ये तु सम्यग्दृष्टयस्ते तु नूनमम्माभिः कृतं जन्मान्तरेऽपि तत्किमपि पापं प्राणिहिंसादिरूपं येन निमग्ना वयं परमदुःखाम्भोधाविति परिभावयन्तः सहन्ते सम्यक्परोदीरितानि दुःखानि, न पुनरन्येषामुत्पादयन्ति; १०ऽपि-खं. नास्ति ॥२०५योनिधिः वि.सि.!! Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ द्वारे नारक. प्रवचन सारोदारे सटीके गाथा द्वितीयः १०७४ प्र.आ. ॥२९१॥ दृष्टनिजकर्मविपाकत्वात् । अत एव च ते मिथ्याष्टिभ्योऽधिकतरदःखाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्तेः भूयिष्ट. त्या मानसिकदुःखसम्मवात् । येऽपि च मिथ्यादृष्टयः परस्परमुदीरयन्ति दुःखानि तेऽप्येवं- यथेह जगत्यपूर्वाद् ग्रामान्तरादागच्छतः शुनो दृष्ट्वा तद्ग्रामवास्तव्याः श्वानो निर्दयं क्रुद्धयन्ति परस्परं प्रहरन्ति च, तथा नारका अपि विभङ्गज्ञानबलेन दूरत एवान्योऽन्यमालोक्य क्रोधान्धा वैक्रिय भयानक रूपमाधाय तेष्वेव स्वस्वनरकायासेषु क्षेत्रानु. भावजनितानि पृथिवीपरिणामरूपाणि शूल-शिला-मुद्गर-कुन्त-तोमर-खड़ग-यष्टि-परशुप्रभृतीनि प्रहरणानि वैक्रियाणि वाऽऽदाय तैः कर-चरण-दशनैश्व परस्परमभिघ्नन्ति; ततः परस्पराभिघाततो विकृताङ्गा निस्स्वनन्तो गाढवेदनाः सूनान्तःप्रविष्टमहिषादय इव रुधिरकर्दमे विचेष्टन्ते । एवमादिकाः परस्परोदीरिता दुःखवेदनाः। परमाधार्मिककृतास्तु तमत्रपान-ततायोमयस्त्रीसमालिङ्गन-कूटशाल्मल्यग्रारोपण-अयोधनाघात-वास्यादितक्षणक्षतक्षारोष्णतेलक्षेपण-कुन्तादिप्रोतन भ्राष्ट्रभर्जन-यन्त्रपीलन--करपत्रपाटन-बै क्रियानेक कंकोलूकसिंहादिकदर्थन-तप्तवालुकावतारण -असिपत्रवनप्रवेशन-वैतरणीतरङ्गिणीप्लावन- परस्परायोधनादिजनिता अपरिमिताः समयसमुद्रादवगन्तव्याः । किश्व-कुम्भीषु पच्यमानास्तीव्रतापात्ते नारका उत्कर्षतः पञ्च योजनशतान्युर्ध्वमुच्छलन्ति । तथा चोक्तं जोवाभिगमे १ मगवतीसू. ११२ । सू. २१ द्रष्टव्यम् ।। २ ०काकोलूक• मु.॥ ३१ HERE Sainatdada ॥२९॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपवनसारोबारे सटीके द्वितीयः ॥२९॥ 'नेरइयाणुप्पाओ उक्कोसं पंच जोयणसयाई । दुक्खेणऽभिदुयाणं वेयण' सयसंपगाढाणं ॥१॥' ११७५ द्वारे [सू.६५, गा. ७, प. १२६ 4 ] पतन्तश्च विकुवितव्रतुण्डेरण्डजैरन्तराले नोटिभिस्रोट्यन्ते, किश्चिच्छेपास्तु भूमिपतिता व्याघ्रादिभि नारकायुः गाथा बिन्त हि४ि||१७४।। इदानीम् 'आउ' त्ति पञ्चसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह--- १०७५.६ सागरमेगं १तिय २ सत्त ३ दस ४ य सत्तरस ५ तह य बावीसा ६ । तेत्तीस ७ जाव ठिई सत्तसु पुढवी सु उक्कोसा ।। ७५ ।। |प्र.आ. जा पहमाए जेहा सा थीयाए कणिहिया भणिया । ३१८ तरतमजोगो एसो दसवाससहस्स रयणाए। ७६ ॥ [ बृहत्सं. जिनभद्रीया गा.२३३-४] 'सागरमेग' गाहा, सप्तस्वपि नरकपृथिवीष्वियं यथासङ्ख्यमुत्कृष्टा स्थितिः; तद्यथा-रत्नप्रभायां पृथिव्यां सागरोपममेकमुत्कृष्टा स्थितिः, शकराप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि', वालुकाप्रभायां सप्त, पङ्कप्रभायां दश, धूमप्रभायां सप्तदश, तम प्रभायां द्वाविंशतिः, तमस्तमःप्रभायां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युस्कृष्टा स्थितिरिति ॥ ७५ ॥ सम्प्रति सप्तस्वपि पृथिवीषु जघन्यां स्थितिमाह -- 'जा पढमाए' गाहा, या प्रथमायां - २१२॥ Aयिकाणामुत्याप्त उत्कृष्टतः पञ्च योजनशतानि । दुःखेनामिदूतान वेदनाशतसंप्रगाढानाम् ॥१॥ १०समयं खं. वि. सि. 1॥ २ तुलना-वृहत्संग्रहणीवृत्तिः प. B तः।।३.नि-खं.सि.वि.। एवमग्रेऽपि ।। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके Punarwas द्वितीयः रत्नप्रभायां ज्येष्ठा-उत्कृष्टा स्थितिरेकसागरोपमलक्षणा मा द्वितीयायां पृथिव्यां शराप्रभाभिधानाया कनिष्ठा-जधन्या भणिता । एष तरतमयोगो-जधन्योत्कृष्टस्थितियोगः सर्वाम्वपि पृथिवीपु भावनीयः । तद्यथा-या द्वितीयायामुत्कृष्टा सा कुतीयायां जघन्या, या सूतीयायांमुस्कटा सा चतुथ्यो जघन्या, एवं या षष्ठयामुत्कृष्टा सा सप्तम्यां जघन्या; रत्नप्रभायां प्रथम पृथिव्यां जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणीति । नारकअयमभिप्रायः-प्रथमपृथिव्यां रत्नप्रभायां जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, शर्कगप्रभायामेकं सागरोपमम् , तनुमान वालुकाप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि, पङ्कप्रभायां सप्त, धूमप्रभायो दश, तमःप्रभायां सप्तदश, तमस्तमः गाथा प्रभायां कालादिषु चतुर्दा नरकावासेषु द्वाविंशतिसागरोपमाणि जघन्या स्थितिः । जघन्योन्कृष्टान्तराल १०७७. वर्तिनी' तु स्थितिः सर्वत्रमध्यमा बोद्धच्या ।।७५-७६।।१७५।। १०८० प्र.आ. इदानीं 'सणुमाणं' ति षट्सप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह-- 'पढ़माए' इत्यादिगाथाद्वयम् , पढमाए पुढवीए नेरइयाणं तु होइ उच्चत्त । सत्त धणु तिनि रयणी छच्चेव य अंगुला पुण्णा ॥७७|| सत्तमपुढवीए पुणो पंचेव धणुस्सयाई तणुमाणं । मझिमपुढवीसु पुणो अणेगहा मज्झिमं नेयं ॥७८॥ जा जम्मि होह भवधारणिज्ज अवगाहणा य नरएसु । सा दुगुणा बोडव्वा उत्तरवेउवि उक्कोसा ॥७९॥ ॥२९॥ १ नीषु सर्वत्र- जे.सि.।। ३१८ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सीके द्वितीय खण्ड: ॥२९४॥ भवधारणिजरूवा उत्तर 'वेडव्या य नरएसु । ओगाहणा अहन्ना अंगुल अस्संखभागो य ॥८०॥ [ तु. बृहत्सं. २७९-८० ] 'पढमाए' इत्यादिगाथाद्वयम् अवगाहते - अवतिष्ठते जीवोऽस्यामित्यवगाहना-तनुः शरीरमित्येकोऽर्थः सा द्विधा भवधारणीया उत्तरवैक्रिया च । भवे-नारकादावायुः समाप्तिं यावदनवरतं धार्यतेऽसाfaft भवधारणीया; स्वाभाविकं शरीरमित्यर्थः । सहजशरीरग्रहणोत्तरम् - उत्तरकालं कार्यविशेषमाश्रित्य विविधा क्रियत इत्युत्तरवै क्रिया । एकैक्राऽपि च द्विधा - जघन्या उत्कृष्टा च । तत्र प्रथमं तावत् प्रतिपृथिवि उत्कृष्टा भवधारणीयाऽवगाहना प्रोच्यते- प्रथमायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारकाणामुत्कर्षतो भवधारणीयावगाहनोश्चत्वं सप्त धनूंषि तिस्रो रत्नयः- यो हस्ता इत्यर्थः, षडेव चाङ्गुलानि पूर्णानि, उत्सेधाङ्गुलेन सपादक त्रिशद्धस्ता इति भावः । सप्तमपृथिव्यां पुनः पञ्चैव धनुःशतान्युत्कर्षतो नारकार्णा तनुमानं शरीरोच्छ्रयः । मध्यमपृथिवीषु शर्करा प्रभाद्यासु तमःप्रभापर्यन्तासु पुनर्मध्यमं - प्रथम सप्तम पृथिवीनारकत नुमानयोर्मध्यवर्ति अनेकधा । पूर्वपूर्व पृथिवीत उत्तरोत्तरपृथिवीषु द्विगुणद्विगुणं तनुमानमुत्कर्षतो ज्ञातव्यम् । तथाहि - रत्नप्रभानारकतनुमानाद् द्विगुणं शर्कराप्रमाय- पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि देहमानम् एवं वालुकाप्रमायामेकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, पङ्कप्रभायां द्वाषष्टिर्धन् पि द्वौ हस्तौ धूमप्रभायां पञ्चविंशं धनुःशतम् तमःप्रभार्या सार्धे द्वे धनुःशते, समस्तमः प्रभाय पञ्चैव धनुः शतानीति ॥७७-७८॥ , १०वि० मु० ।। २उ मु- ।। ३०बी-सि ॥ ४ संपादिक० खं. ॥ १७६३ नारक तनुमान‍ गाथा १०७७. १०८० प्र. आ. ३१८ ॥२९४॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय सड: ॥२९५॥ सम्प्रति प्रतिपृथिव्युत्कर्षत 'उत्तरवेकियामवगाहनामाह - 'जा जम्मी' त्यादि, सप्तसु नरकेषु - नरकपृथिवीषु मध्ये यस्मिन्नरके - नरक पृथिव्यामुत्कृष्टा भवधारणीया याऽवगाहना उक्ता सा द्विगुणा सती यावत्प्रमाणाभवति तावती तस्य नरकपृथिव्यामुत्कृष्टा उत्तखेक्रियरूपा अवगाहना बोद्धव्या । तद्यथारत्नप्रमायामुत्कृष्टा उत्तरखैक्रियावगाहना पञ्चदश धनूंषि द्वौ च सा हस्ती, शर्कगप्रभायामेकत्रिंशद्धनुषि एको हस्तः, वालुकाममा पष्टिर्धनपि च हस्ती, पशुप्रभायां पञ्चविंशं धनुःशतम्, धूमप्रभाय सार्धं द्वे शते तमःप्रभार्यां पञ्च धनुःशतानि, तमस्तम प्रभायां धनुः सहस्रमिति ॥७६॥ सम्प्रति भवधारणीयामुत्तरवैक्रियां व जघन्यामाह - 'भवधारणिज्ज०' गाहा, नरकेषुसर्वासु नरकपृथिवी नारकाणां जघन्या भवचारणीया अङ्गुलस्यासङ्ख्येयो भागः सा चोत्पत्तिसमये द्रष्टव्या ; न त्वन्यदा । उत्तरक्रियरूपा पुनश्वगाहना जघन्याऽङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्राः साऽपि च प्रारम्भकाले द्रष्टव्याः केवलं सा प्रथमसमयेऽपि तथाविध' प्रयत्नाभावादङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रैव भवति न त्वसङ्ख्येय भागमात्रा, केचिच्च 'अंगुल असंखभागो उ' इति पठन्तो जघन्यामुत्तरवै क्रियामप्यगुलासयात भागप्रमाणामाहू, तदसङ्गतमेव समयविरोधात्, तथा च प्रज्ञापनासूत्रम् - "तत्थ णं ज्ञा सा उत्तरवेउच्चिया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उकोसेणं धणुसहस्स [पद २१सूत्र २७२ | प. ४१७] मिति । १ उत्कृष्ट० वि ॥ २ तुलना - गृहत् वृत्तिः ३ गा. २७६, प. ३१० वः ॥ ३ प्रयत्न मा० इति बृ.सं. वृत्तौ ॥ १७६ द्वा नारक तनुमानम् गाथा १०७५० १०८० प्र. आ. ३१९ ॥२९५।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके १७७द्वा नरकगती उत्पतिनाश विरह गाथा १०८१.. द्वितीयः खण्ड: तथा अनयोगद्वारटीकायां हरिभव महिरयाह "उत्तरक्रिया तु तथाविध प्रयत्नामावादाद्यसमयेऽप्यनुलसङ्ख्येयभागमात्रैधे" [प. ८०] ति 1८॥१७६।। इदानीम् 'उप्पत्ति-नास-विरहो' ति सप्तसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह चउवीसई मुलुत्ता १ सत्त अहोरस २ तह य पन्नरस ३ ! मासो य ४ दो य ५ चउरो ६ छम्मासा ७ विरहकालो उ ॥८॥ उक्कोसो रयणासु सव्वासु जहन्नओ भवे समओ' ।। एमेव य उच्चदृणसखा पुण 'सुरवरुनुल्ला ।। ८२ ॥ [तुलना-बृहत्सं. २८१-२] चवीसइ मुहुत्ता' इत्यादिगाथाद्वयम् , 'इह नरकगती नियंङ्मनुष्यगतिका जीवास्तावदनवरतं सदैवोत्पद्यन्ते, कदाचित्चन्तरमपि भवति; तच्च सामान्येन सर्वामपि नरकगतिमाश्रित्य जघन्येने का समयः, उत्कृष्टतस्तु द्वादश मुहूर्ताः । एतावन्तं कालमन्यन आगत्येकोऽपि जन्तुर्नरकगतौ नोत्पद्यते इति भावः । इदं च सूत्रेऽनुक्तमपि स्वयमेव द्रष्टव्यम् । यदुक्तम् ॥२९॥ प्र. आ. . ... . १ प्रयत्न मावा० इति बृ. सं. वृत्तौ पाठः॥२०यं-सि. प्रकरणरत्नाकरे (भा. ३) भीमसिंह संस्करणे बृ. सग्रहण्यां च ।। ३ समयो मु.। तुला-वृ. सङ्ग्रहणी ॥ ४ सुरवरुतुल्ला पराण समा)-मु. । सुखरू० इति बृहत्संग्रहिण्यां पाठः । सुरवरा इति भगवती. वृत्ती १. १०७.पाठः ॥ ५ तुलना-बृहत्सं. वृत्तिः प. १११ ० तः। जीवसमासवृत्तिः प. २६०॥ ॥२९॥ SANILIVAHARASHTRADISTERMALARIANTARBARHAMAARAKASATORa n imoon nunctionindiatimestianet Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Auth "निरइगई णं भन्ते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नणं एक समयं प्रवचन- उक्कोसेणं बारस मुहुत्त" [समवायाङ्ग सू. १५४ ति । १७७वा सारोद्धारे प्रतिपृथिवीपू (वि तू ) त्पादान्तरमुत्कृष्टतो रत्नप्रभायां चतुर्विंशतिमुहर्ताः, शर्कराप्रभायां सप्ता- नरकग सटोके । होरात्राः, वालुकाप्रभायां पश्चदश, पङ्कप्रभायामेको मासः, धृमप्रभायां द्वौ मासो, तमःप्रभायां चत्वारो उत्पत्ति मासाः, तमस्तमःप्रभायां षण्मासा विरहकाला-अन्तरकाल उत्कृष्टतः । जधन्यतः पुनः सर्वास्वपि रत्न- नाशद्वितीयः खण्ड: प्रभादिकासु पृथिवीषु प्रत्येकं भवत्येकः समयो विरहकालः । विरहः 'एवमेव य उव्वण' ति यथोपपातविरहकाल उक्तः, एवमेव उद्वर्तनविरहकालोऽपि जघन्यत | गाथा ॥२९७॥ उत्कर्षतश्च वाच्यः । किमुक्तं भवति ?-नरकेभ्यो नारकाः प्रायः सततं च्यवन्ते कदाचिदेव त्वन्तरम् ; तच्च सामान्येन नरकगतिमाश्रित्य जघन्यत एकः समयः, उत्कृष्टतस्तु द्वादश मुहूर्ताः । विशेषचिन्तायां तु जघन्यतः सर्वास्वपि पृथिवीषु उद्वर्तनाविरहकाल एकः समयः, उत्कर्पतो रत्नप्रभायां चतुर्विशतिमुहूर्ताः, शर्कराप्रभार्या प्र. आ. सप्त दिनाः, वालुकाप्रभार्या पक्षा, पङ्कप्रभायां मासः, धूमप्रभायां द्वो मासौ, तम प्रभायां चत्वारो मासाः, तमस्तमःप्रभायां षण्मासाः । एकस्मिन्नारके उवृत्ते पुनरियता कालेनान्यो नारक उद्वर्तत इति भावः । 'संखा पुण सुरवरतुल्ल' ति उपपातोद्वर्तनयोः सङ्ख्या पुनरेकस्मिन् समये कियन्तो नारका उत्पद्यन्ते च्यवन्ते चेत्येवंलक्षणा सुरवरैस्तुल्या, यथा सुराणां वक्ष्यते तथैव द्रष्टच्या । तद्यथा-एकस्मिन् समये नारका उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कर्षतस्तु सङ्ख्याता असङ्ख्याता 'वेति ॥१०८१-८२११७७॥ ॥२९॥ १ चेति- स्व.॥ a mstARERNADANAL Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥२९८|| सम्प्रति 'लेखाउ' ति अष्टसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह काऊ ? काऊ २ तह 'काउनील ३ नीला ४ य नीलकिण्हा ५ य । किver ६ किव्हा ७ य तहा सप्तसु पुढवोसु लेसाओ ॥८३॥ [तु. बृहत्सं. गा. २८६ ] 'काऊ' गाहा, इह सामान्येन तावनारकाणां लेश्याषट्रकमध्यादाद्याः कृष्ण-नील कापोत्याख्यास्तिस्र एव लेश्या भवन्ति । ताथ प्रतिपृथिवि प्रतिपाद्यन्ते । तत्र कापोत्यादयो लेश्याः सप्तस्वपि पृथिवीषु यथासख्येन भवन्ति । तथाहि - 'रत्नप्रभायामेका कापोतलेश्यैव भवति । शर्कराप्रभायामपि कापोतलेश्यैव: केवलं क्लिष्टतरा दिया । एवं सर्वत्र सजातीया विजातीया' च लेश्याऽघोऽधः क्लिष्टतरा क्लिष्टतमा वाच्या वालुकाप्रभायो 'कापोती नीला च लेश्या भवतिः केषुचिदुपरितनेषु प्रस्तटेषु कापोतलेश्या, केषुचिदस्तनेषु नीललेश्येति भावः । पङ्कप्रभायां केवला नीललेश्यैव । धूमप्रभार्यां नीललेश्या कृष्णलेश्या च केषुचिदुपरितन प्रस्तटेषु नीललेश्या, शेषेष्ववस्तनप्रस्तटेषु कृष्णलेश्या भवतीत्यर्थः । तमः प्रभायामेव कृष्णलेश्या । तमस्तमःप्रभायामध्यतिमक्लिष्टतमा कृष्ण लेश्यैवेति । 'इह च केचिदाचक्षते यथैता नारकाणां वक्ष्यमाणाश्च देवानां वाह्मवर्णरूपाः किल द्रव्यलेश्या अवगन्तव्याः; अन्यथा सप्तमपृथिवीनारकाणां या सम्यक्त्वप्राप्तिः श्रुतेऽभिधीयते सा न युज्यते; 'तेजस्यादिलेश्यात्रय एव तदवाप्तेरुक्तत्वात् । यदुक्तमावश्यके १ का नीखन्मु । २०वी- सि वि. ॥ ३ कापोतादयो-मु. ॥ ४ तुलनाजीवसमासवृत्तिः प. ६५ तः ॥ ५ व्यादि लेश्या० सं. ॥। ६ कापीत मु. ॥ कृष्णलेश्मेव भवति-सं. ॥ ८ तुलना महत् वृत्तिः प. ११३ ॥ तेवसि ॥ १७८ द्वारे नारक लेश्याः गाथा १०८३ प्र. आ. ३२० ॥२९८॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सारोद्वारे नारक सटी के द्वितीय बेश्याः गाथा१०८३ ॥२९॥ A"सम्मत्तस्म यतिसु उवरिमासु पडिबजमाणो होइ ! पुचपडियन्न श्रो पुण अन्नयरीय उलेमाण ॥ १॥'' उपरितन्यश्च तिम्रो लेश्यास्तेषां न सन्ति । सप्तमपृथिव्यां कृष्णलेश्याया एवोक्तत्वात् । तथा मोधर्म तेजोलेश्येव केवला वक्ष्यते; अस्याश्च प्रशस्तपरिणामहेतुत्वेन सङ्गमकादीना भुवनगुरी रोद्रोपसर्गक त्यानुपपत्तिः । तथा- 'काऊ नीला 'कण्हा लेसाओ तिम्नि होति नरएसु ।' [ तुलना यू.सं.गा.२८८] इत्यादिरूपो नियमोऽपि विरुध्यते । D'देवाण नारयाण य दबल्लेसा हवंति एयाओ। भावपरावत्तिइ पुण सुरनेरझ्याण छल्लेसा ।। १ ।।' [जीवसमास गा. ७४] इति वचनात् । तस्मादेता नारकाणां वक्ष्यमाणाश्च सुराणा बाह्यवर्णरूया एवेति । ... तदेतदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात् । लेश्याशब्दो हि शुभाशुभे परिणामविशेषे व्याख्यातः, तस्य च परिणामविशेषस्योत्पादकानि कृष्णादिरूपाणि द्रव्याणि जन्तूनां सदा संनिहितानि सन्ति । एतैश्च कृष्णादिद्रव्यैर्जीवस्य ये परिणामविशेषा जन्यन्ते मुख्यतया त एव लेश्याशब्देनोच्यन्ते । गौणवृत्त्या पुनः कारणे कार्योपचारलक्षणया एतान्यपि कृष्णादिरूपाणि द्रव्याणि लेश्याशब्देन छ्यपदिश्यन्ते । ततश्च नारकाणां सम्यक्त्वस्य च तिसपूपरितनीषु प्रतिपद्यमानको मवति । पूर्वप्रतियन्नकोऽन्यतरस्यां पुनलेइयायाम ॥१॥ *कापोती नीला कृष्णा लेश्यास्तिम्रो भवन्ति करके। किण्हा-ख.॥२ मावपरावत्तीय-सि.वि.मावपरित्तीय-इति जीवसमासे पाठः॥ तुलना-जीवसमासवृत्तिः१.६६॥ देवानां नारकाणां च द्रव्यलेश्या मवन्त्येताः। भावपरावृत्तौ पुनः सुरनरयिकाणां पटलेश्या |शा प्र. आ ३२० amoom m e Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके १७८ नारकलेश्या गाथा द्वितीयः खण्ड: प्र.आ. देवानां च या लेश्यास्ता द्रव्यलेश्या द्रष्टव्याः। तत्तन्लेश्याद्रव्याणि तस्य तस्य नारकस्य देवस्य वा 'सर्वदैवावतिष्ठन्तोदयानि 'द्रष्टव्यानीसि तात्पर्यम् । न पुनर्बाह्यवर्णरूपाः; तानि च लेश्याद्रव्याणि तिर्यामनुष्याणामन्यलेश्याद्रव्योपधाने विशुद्धवस्त्रमित्र मञ्जिष्ठादिरागयोगे सर्वथा स्वरूपत्यागात्तद्रूपेणैव परिणमन्ते; अन्यथेतन्लेश्यायाः पन्योपमत्रयस्थितेरपि सम्भवादुत्कर्षतोऽप्यन्तमु हूतमागमोक्त विरुध्यत । नारकदेववेश्याद्रव्याणां तु तदन्यलेश्याद्रव्यसम्पर्के तदाकारमात्र 'तत्प्रतिबिम्बमात्र वा जायते; न पुनः स्वस्वरूपपरिहारेण तद्रूपता । तथाहि-यथा बैडूर्यादिमणे: प्रोतकृष्णादिसूत्रसम्पर्कादम्पष्टं किश्चित्तदाकारभावमात्रं भवति, स्फटिकोपलस्य वा जपाकुसुमादिसन्निधानतः स्पष्टं तत्प्रतिबिम्बमात्रम् ; न तूभयत्रापि तद्रुपतापत्तिः । तथा कृष्णादिलेश्याद्रव्याण्यपि नीलादिलेश्याद्रव्याचं प्राप्य कदाचिदम्पाटं तदाकारमात्रमात्रं कदाचिस्पष्टं तत्प्रतिबिम्बमात्र प्रतिपद्यन्ते न पुनम्तद्वर्ण-गन्ध-रम-स्पर्शतया परिणम्य नीलादिलेश्याद्रन्यरूपाण्येव भवन्ति । न चैतन्निजमनीषाविजृम्भितम् । प्रज्ञापनायां लेश्यापदे इत्थमेव प्रतिपादितत्त्वात् । तत्सूत्रं च विस्तरभयान लिखितमिति । ___ एवं च सप्तमपृथिव्यामपि यदा कृष्णलेश्या नेजोलेश्यादि द्रव्याणि प्राप्य तदाकारमात्रेण तत्प्रतिबिम्बमात्रेण वाऽन्विता भवति तदा सदावस्थित कृष्णलेश्याद्रव्ययोगेऽपि साक्षात्तेजोलेश्यादिद्रव्यमाचिव्ये इव शुभःपरिणामो नारकस्य जायते जपोपरक्तस्फटिकसन्निधाने स्फटिकस्य रक्ततावत् : तत्परिणामे चास्य सम्यक्त्वावाप्तिरविरु१ सदेवावस्थितोदयानि - मु.॥ २ द्रव्याणीसि.सि. वि. ॥ ३ तत्प्रति विश्वमात्रं-ख. । ४.०णि-सि.णिः-जे.॥ ५ द्रव्याण्यपि नीलादिलेश्याद्रव्याणि तदाकारमात्रेण वान्विता-सि. वि ॥ न्ति-मु.।। ७ अपोपरक्तस्फटिकसन्निधाने स्फटिकस्य-मुः।। aswitcoincipasanmerasacviat ||३०० w Karishiseniwalluminatiirit Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १७८ द्वारे नारकलेश्याः गाथा १०८३ द्धेति । न चैवमपि तेजोलेश्यादिसद्भावे सप्तमपृथिव्यां केवलकृष्णलेश्याभिधायिनः मूत्रस्य व्याघातः, यतप्रवचन- स्तस्यां कृष्णव सदावस्थायिनी तेजस्यादिका त्वाकारमात्रादिना कदाचिदेव जायते; न च जातापि चिरसारोद्धारे भवतिष्ठते ; न चावस्थितायामपि तस्यां 'कृष्णलेश्याद्रव्याणि सर्वथा स्वस्वरूपं त्यजन्ति । ततोऽधिकृतसटीके सूत्रे कृष्णैव सप्तम्यामुक्तेत्येवं सर्वत्र भावनीयम् । अत एव सङ्गमकादीनामप्याकारमात्रादिना कृष्णलेश्याद्वितीयः सम्भवादुपपद्यते त्रिभुवनगुराचुपसर्गविधातृत्वम् । या अपि भावपरावृत्या सुरनारकाणां पडपि लेश्या उक्ता स्ता अपि प्रागुक्तेनैयाकारभावमात्रादिना प्रकारेण घटन्ते नान्यथा । लेश्यात्रयनियमस्तु सदावस्थितोदयलेश्याद्रव्यापेक्षत्वादविरुद्ध इति । किंच-आमा बाह्यवर्णरूपत्वे 'प्रज्ञप्त्यादिषु--- __'नेरहया णं भंते ! सच्चे समवन्ना १, गोयमा ! नो इणढे समढे, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुन्चोववनगा य पछोववनगा य, तत्थ णं जे ते पुन्चोववन्नगा ते णं विसुद्धवनतरागा, जे ते पच्छोववनगा ते णं अविसुद्धवनतरागा, से एणद्वेमं गोयमा! एवं बुच्चइ नो नेरइया सव्वे 'समयमा" [भगवती सू . ११२। स . २१] । इति वर्णमुक्त्वा 'नेरइया णं भंते ! सच्चे समलेसा ?, गोयमा! नो इणठे समठे, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुथ्वोववनगा पच्छोववनगा य, तत्थ णं जे ते पुच्चोवनगा ते णं विसुद्धलेसतरागा, जे ते पच्छोववनगा ते णं अविसुद्धलेसतरागा, से एएणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-नो १ कृष्णलेश्याविद्रव्याणि-मु.॥२ लेश्यास्दरुपविषये विशेषार्थ द्रष्टव्यं योगशास्त्रे [जैनसाहित्यविकाशमण्डलप्रकाशितेटिप्पनं ५, ८१६ तः॥३समा खं.।। प्र. आ. ३२१ ॥३०१॥ - . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ द्वा प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः नारक. अवधि: गाथा १०८४ |प्र. आ. ॥३०२॥ नेरइया सव्वे समलेस्सा" [भगवती सू .१/२/सू. २१] । इति लेश्योक्तिरतिरिच्येत, वर्णानामेव लेश्यात्वाभ्युपगमात् । तेषां च पूर्वसूत्रेणैव प्रतिपादितत्वादिति ॥८३॥१७८।। सम्प्रति 'अवहि' ति एकोनाशीत्यधिकशततमं द्वारमाह चत्तारि गाउयाई १ अहहाई.२ 'तिगाउयं चेव ३ ।। अड्डाइज्जा ४ दोन्नि य ५ दिवड्ड ६ मेगं च ७ नरयोही ॥८४॥ [ तु. आव. नि. गा. ४७ ] 'चत्तारि' गाहा, इह रत्नप्रभायां नरकावासेषु नारकाणां चत्वारि गन्यूतान्यवधिः-उत्कृष्टमवधिक्षेत्रप्रमाणं भवति । शर्कराप्रभायां तु अर्ध चतुर्थस्य येषु तान्यर्धचतुर्थानि गन्यूतानि साधं गव्यूतत्रयमित्यर्थः । वालुकाप्रभायां गव्यतत्रयम् । पङ्कप्रभायामधं तृतीयस्य येषु तान्यतृतीयानि गव्यूतानि ; धूमप्रभायां द्वे गव्यूते; तमायां द्वितीयस्याधं यत्र तद् द्वयर्ध 'गव्यूतम् , सप्तमपृथिव्यां पुनरेकं गव्य॒तमुत्कृष्टमवधिप्रमाणम् । तथा सप्तस्वपि पृथिवीषु प्रत्येकमुत्कृष्टादवधिक्षेत्रप्रमाणादर्धगत्यने व्यपनीते जघन्यमबधिक्षेत्रप्रमाणं भवति । तथाहि-प्रथमायां पृथिव्यां सार्धानि त्रीणि गव्य॒तानि, द्वितीयायां त्रीणि गव्यूतानि, तृतीयायामतृतीयानि गव्यूतानि, चतुथ्या द्वे गव्यूते, पञ्चम्यां सार्ध गव्यूतम् , षष्ठयामेकं गव्यूतम् , सप्तम्यामर्धगन्यूतमिति । उक्तं चOf अट्ठगाउयाई जहन्नयं "अद्धगाउयंताई" [विशेषावश्यक-भाग्ये गा. ६६४] ति ॥८४॥१७६।। १ तिगाउयाई-ता. ॥ २ - ता. ॥ ३ गव्यूत- सि. कि. नास्ति ।। ४ अदुईयायाई-सं. । अटूईयाई इति विशेषावश्यके ॥ ५ भगाया" इति-मु.॥ मध्युष्ठगम्यूतादिको जघन्योऽधेगव्यूतान्तः ॥ । JORDARSEWA Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: ॥३०३॥ सम्प्रति 'परमाहम्मिय' सि अशीत्यधिकशततमं द्वारमाह---- अंबे १ अंबरिसी २ चैत्र, सामे य ३ सबलेइ य ४ । कहो ९ रु ६ का ७, महाकालित्ति ८ आवरे ॥ ८५ ॥ [तुला-भगवती सूत्रे ३।७४ ] असिपत्ते ९ घणू १० कु मे ११, वालू १२ वेयरणी इय १३ । स्वरस्सरे १४ महाघोसे १५, पन्नरस परमाहम्मिया ॥ ८३ ॥ [तुला-समवायाङ्गे सू. १५ ] 'अंबे' इत्यादि लोकद्वयम् परमाश्र ते अधार्मिकाच सक्लिष्टपरिणामत्वात् परमाधार्मिकाअसुरविशेषाः । ते च व्यापारभेदेन पश्चदश भवन्ति । तत्र यः परमाधार्मिको देवो नारकानम्बरतले नीत्वा निःशङ्कं विश्वति सोऽस्व इत्यभिधीयते १ । " "यस्तु नारका निहतान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोतीत्य सावम्बरीपस्यभ्राष्ट्रय सम्बन्धादम्बरीप इति २ । यस्तु रज्जुपाणिप्रहारादिना शातन-पातनादिकं करोति वर्णतश्च श्यामः स श्याम इति ३ । यथान्त्र- वसाहृदय-कालेज्यकादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शबल: - कबु', 'शबल इति ४ यः शक्तिकुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्रः ५ । यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि मनवित सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्रः ६ । यः पुनः कण्वादिषु पचति वर्णतश्च कालः स कालः ७ । १ तुला- समवायाङ्गवृत्तिः प. २३ B भगवतीसूत्रवृत्तिः ३३७ ॥ ४ ॥ १८०द्व १५परम धार्मिका गाथा १०८५ प्र. आ. ३२१ ॥३०३३ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे सटीके १८. द्वारे १५परमा धार्मिकाः गाथा १०८५-६ प्र. आ. ३२१ द्वितीयः खण्ड: महाकाल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः; स च श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकाल इति । असिः-खड्गस्तदाकारपत्रवद्वनं विकुर्च्य यस्तत्समाश्रितान्नारकानसिपत्रपातनेन तिलशश्छिनत्ति सोऽसिपत्रः ।। यो धनुर्विमुक्तार्धचन्द्रादिभिर्वाणः कर्णादीनां छेदन-भेदनानि करोति स धनुः १० । भगवत्यां तु महाकालान्तर'मसिस्ततोऽसिपत्रस्ततः कुम्भ इति पठ्यते । तत्र योऽसिना नारकाशिछनति सोऽसिः; शेषं तथैव । यः कुम्भ्यादिषु तान् पचति स कुम्भः ११ । यः कदम्बपुष्पाकारासु बज्राकारासु वा बैंक्रियवालुकासु तप्तासु चनकानिव तान् पचति स वालुकः १२। विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति यथाथां पूय-रुधिर-त्रपु ताम्रादिभिरतितापात्कलकलायमान तो नदी विकुवित्वा तत्तारणेन नारकान यः कदर्थयति स वैतरणीति १३ । यो बजकण्टका कुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य खरं स्वरं खरस्वर: १४ । १०मसिभूतोस्वतो. खं. वि. । मस्तिभूतो० सि. ॥ २ बैंक्रियासु-मु. वैक्रिया-सि.॥३ये. वं. वि.॥ ४.कुलशाल्मलीवृक्षे मु.। सं.वि. प्रत्योः समवायाजवृत्तावपि कुलं शाल्मलीवृक्षम् इति पाठः [५.३०]॥ निस MAHARANASI .... Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥३०५॥ यस्तु भीतान् प्रपलायमानाचारकान पशूनिय वाटकेषु महाघोषं कुर्वन् निरुणद्धि स महाघोष इति १५ । एवमेते पञ्चदश परमधार्मिकाः प्राग्जन्मनि मक्लिष्टक्रूरक्रियाः पापाभिरताः पञ्चाग्न्यादिरूपं मध्यreersः कृत्वा रौद्रीमासुरीं गतिमनुप्राप्ताः सन्तस्ताच्छील्यान्भारकाणामाद्यासु तिसृषु पृथिवीषु विविवेदनाः समुदीरयन्ति तथा कदर्थ्यमानांश्च नारकान् दृष्ट्वा इहत्यमेष-महिष-कुक्कुटादियुद्धप्रेक्षकनरा हृयन्ति । हृष्टाश्रामं चेलोन्क्षेपं त्रिपद्याम्फालनादि च कुर्वन्ति । किंबहुना ?. प्रीतिर्न तथा नितान्तकान्ते प्रेक्षणकादाविति ||१०८५-८६॥१८०॥ यथैषामित्थं सम्प्रति नरयुव्वाण लडिसंभव त्येकाशीत्यधिकशततमं द्वारमाहतिसु तित्थ चरत्योए उ केवलं पंचमीप सामन्न छडीए विरssविरई सतमवीए सम्मत्तं पदमा चक्कवही बीयाओ' राम केसवा हुति तक्षाओ अरहंता Resतकिरिया चत्थीओ" उव्वहिया व संता नेरहया तमतमाओ" पुढवीओ " । न लहंति माणसतं तिरिक्खजोणि उवणमंति ॥ ८९ ॥ ॥ ८८ ॥ + || 62 11 1 ॥ ॥ १ कुर्वतो - मु.। खं. चि. प्रत्योः समवायाङ्गवृत्योरपि 'कुन्' इति पाठः । ॥ २ कुकुट० मु. सि. ॥ ३ष्टश्राद्वा ट्टहासं-मु. सि. ॥ ४ नरयुवट्टण-खं । नरए उब्वट्टा - सि. बि. ॥ ५ उन्मु नास्ति ॥ ६ ०३.मु. नं.१७ तुला-बृहत् ०ओ-मु.। तुला-बृहत्णी ॥ एता ०३-सि ॥ १००ए. वि. ।। ११०३ वि. ।। १२०३-सि ॥ ॥ १८१ द्वा नरको तानी लब्धिः गाथा १०८११०९० प्र. आ. ३२२ ||३०५|| Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८१ स्वण्ड: छडीओ पुढवीओ उच्चट्टा इह अणंतरभवंमि । प्रवचन मजा 'मणस्सजम्मे संजमलं भेण उ विहीणा ॥१०॥ [ तुला-बृहत्सं. २९१-४] सारोद्धारे नरको 'तिसु तित्थ' गाहा, 'इह 'तिसु' ति सप्तम्याः प्राकृतत्वेन पश्चम्यर्थत्वादाद्याभ्य तिसृभ्य एव । सटीके ताना पृथिवीभ्य उद्धृत्ता अनन्तरभवे तीर्थकृतो भवन्ति, न शेषपृथिवीभ्यः, सम्भवमानं चेदं, न नियमः । तेन द्वितीयः (लब्धिः ये 'पूर्वबद्धनरकायुषः सन्तः स्वहेतूपात्ततीर्थकुनामगोत्राः श्रेणिकादय इव नरकेषु गच्छन्ति त एव तत गाथा उदृत्ता अनन्तरभवे तीर्थकृतो, न शेषाः । चतुर्थ्याः पृथव्या उद्धृत्ताः केचित केवलं-केवलज्ञान सामान्येन १०८१ प्राप्नुवन्ति, तीर्थकृतस्तु नियमेन न भवन्ति । पञ्चम्या उवृत्ताः श्रामण्यं- *श्रमणभावं लभन्ते, न १०९० तु केवलज्ञानम् । षष्ठया उद्धृत्ता विरत्यविति-देशविरतिं लभन्ते, न तु श्रामण्यम् । सप्तम्या उबृत्ता प्र. आ. सम्यक्त्वं-सम्यग्दर्शनरूपम् , न देशविरत्यादिकमिति । अयमत्र 'भावार्थः-आद्याभ्यस्तिमृभ्य उद्धृत्तास्तीर्थकृतो भवन्ति, चतसृभ्य उद्धृत्ताः केवलज्ञानिनः, पञ्चम्या उदृत्ताः संयमिनः, षष्ठया उद्वृत्ताः देशविस्ताः सप्तम्या उद्धृत्ता सम्यग्दृष्टय इति ॥८॥ पुनरपि लब्धिविशेषसम्भचं दर्शयन्नाह-'पढमाउ' गाहा, प्रथमाया:-रत्नप्रभाया एवोवृत्ताश्चक्रव. तिनो भवन्ति, न शेषपृथिवीभ्यः । द्वितीयायाः-द्वितीयां मर्यादीकृत्य नरकेम्य उदृत्ता राम केशवा-बलदेववासुदेवा भवन्ति । एवं सर्वत्र मर्यादा भावनीया । तृतीयाया उद्धृत्ता अर्हन्तो भवन्ति । चतुर्थ्या उद्धृत्ता ॥३०६ १ माणसजम्मे-इति बृहत्सक प्राण्यां पाठः ॥ २ तुलना-बृहत्सं. वृत्तिः प. ११६ 4 तः ॥ ३ पूर्वनिबद्ध-मुः ।। --४ सर्वेविरतिरूपं-मु. ॥५ परमार्थः- वं. ३२२ m etalesedhapes Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे १८२ द्वारे मटीके नरकेषु उपपात: गाथा C -८8-80॥१८॥ ॥३०॥ 'अंतकिरिय' ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् अन्तक्रियासाधकाः, मुक्तिगामिनो भवन्तीत्यर्थः । तथा तमस्तमाभिधानायाः सप्तम्याः पृथिव्या उद्वृत्ताः सन्तो नारका नियमान्मानुषत्वं न लभन्ते । किन्तु तिर्यग्योनि'मुपनमन्ति-धातूनामनेकार्थत्वेन प्राप्नुवन्ति । तथा षष्ठयाः-तमःप्रभाभिधानायाः पृथिव्या उद्वृत्ताः सन्तो नारका इहानन्तरभवे मनुष्यजन्मनि माज्या:-केचिन्मनुष्या भवन्ति केचित्तु नेति भावः । येऽपि च मनुष्या भवन्ति तेऽपि नियमतः संयमलामेन सर्वविरतिरूपेण विहीना भवन्ति; न तु कदाचनापि तयुक्ताः ॥१०॥ इदानीं 'तेसु जेसिमुववाओ' इति द्वयीत्यधिकशततम द्वारमाह--- अस्सन्नी खलु पदमं दोच्चं च 'सरिसिवा तइय पक्खी । -: . सीहा. जंति घउस्थि उरगा पुण पंचमि पुढवि ॥११॥ छट्टि च इत्थियाओ मच्छा मणया य सत्तमि पुर्वि । स एसो परमुववाओ योद्धव्वी नरयपुदवोसु ॥९२ ॥ - पालेसु य 'दाढीसु य पक्खीसु य जलयरेसु उववन्ना । संखिजाउठिईया पुणोऽपि नरयाउया हुति ॥९३॥ [तुला-बृहत्सं. २८४.६ ] "असन्त्री त्यादिगाथाद्वयम् , असंज्ञिन:- "सम्मूछिमपञ्चेन्द्रियाः खलु प्रथमां नरकपृथिवीं १ मुपनयन्ति-खं. ॥ २ सर्वविरतिमाभेन-मु. ॥ ३ सरिसवा-सि. वि. ॥ ४ पुहवि-सि. वि. ॥ ५०उ-सि. । ६ काडेसु-ता॥ ७ सम्मूर्छिमाः पन्चे मु.॥ तुलना-वृहत्सं. वृत्तिः ५. ११२ तः ।। प्र. आ. ३२३ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १८२द्वारे नरकेषु उपयातः गाथा १०९१३ प्र.आ. द्वितीयः 11३०८॥ गच्छन्ति । खलुशब्दोऽवधारणे; तच्चाबधारणमेवम्-असंझिनः प्रथमामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति; न परत इति; न तु त एवं प्रथमां गच्छन्ति । गर्भजसरीसृपादीनामपि उत्तरपृथिवीपटकगामिनां तत्र गमनभावात् । एवमुत्तरत्राप्य वधारणीयम् । असंझिनश्चात्र तियेचो ज्ञेयाः; संमृच्छिममनुष्याणामपर्याप्तानामेव कालकरणतो नरकगतेरभावात् । तत्रापि पल्योपमासङ्ख्येयभागायुष्केष्वेव, उक्तं च-- ० "असन्त्री नेरइयाउ' पकरेगा जहन्नेणं दानासमहामाई, उड़कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइमागं परिति"[ ]त्ति। __ तथा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति सरीसृपा-भुजपरिसर्पा गोधा-नकुलादयो गर्भव्युत्क्रान्ता, न ततः परतः । एवं तृतीयामेवगर्भजाः पक्षिणो-गृध्रादयः; चतुर्थीमेव सिंहाः-सिंहोपलक्षिताश्चतुष्पदा गर्भजाः, पञ्चमीमेव गर्भजा उरगाः उरःपरिसर्पाः सर्पादयः, षष्ठीमेव स्त्रियः-वीरत्नाद्या महारम्भादियुक्ताः, सप्तमी यावद्गर्भजा मत्स्या-जलचरा मनुजाश्च "अतिक्रराध्यवमायिनो महापापकारिणः । एष जीवविशेषमेदेन परमः-उत्कृष्ट उपपातो बोद्धव्यो नरकपृथिवीषु, जघन्यतस्तु सर्वेषामपि रत्नप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे, मध्यमतः पुनर्जघन्यात्परतः स्वस्वोत्कृष्टोपपाताद गिति ।। ९१-९२॥ सम्प्रति केषाश्चित्तिर्यग्योनिजानां बाहुल्यकृतं विशेषमाह- 'बालेसु' इत्यादि, नरकेश्य उद्धृता व्यालेषु-सादिषु, दंष्ट्रिषु-व्याघ्र-सिंहादिषु, पक्षिपु-गृधादिषु, जलचरेषु-मत्स्यजातिषु सङ्खयातायुः ० असंझिनो नरयिकायुः प्रकुर्वन्तो जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टतः पल्योपमम्यासंख्येयमागं प्रकुर्वन्ति ॥ १०वधारणं मावनीयं-मु.॥२ उयं-खं ।।३०जा:-स्व. अति० सि. वि. नास्ति । ॥३०॥ MHAN NDI Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितय उत्पन्नाः सन्तो भृयः कराध्यवसायवशगाः पञ्चेन्द्रियवधादीन विधाय नरकायुपो भवन्ति । एतच्च बाहुल्येनोच्यते,' न तु नियमः, यतो नारकेभ्योऽपि केचिदुवृत्य सम्यक्त्वादिप्राप्तिवशाच्छुमा प्रवचनगतिमासादयन्तीति ।।९३ ॥ १८२॥ १८५द्वारे सारोद्धारे। सम्प्रति 'संस्खा उप्पज्जताण' त्ति व्यशीत्यधिकशततमद्वारस्य तह य उवट्टमाणाणं' ति चतुरसटीके शीत्यधिकशततमद्वारस्य चाक्सगे विवरणाय, परमुत्पत्तिनाशविरहकालद्वारे 'संखा पुणसुरवरतुल्ल' [गा. यादीनां १०८२] नि गाथादलेन तद्वारद्वयमपि व्यक्तं प्राग्व्याख्यातमिति नेदानीं तद्विवृतमिति ।।१८३-१८४॥ कायस्थिति द्वितीयः सम्प्रति 'एगिदियविगलिंदियसन्नीजीवाण कायठिइओ' त्ति पञ्चाशीत्यधिकशततमं द्वारमाह- गाथा अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीउ एगिदियाण य चउपहं । १०९४-५ ॥३०॥ ता व ऊ अणंता धणस्सइए उ घोडव्वा ॥ ९४ ॥ [ उपदेशपद गा. १७] प्र. आ. वाससहस्सा संवा 'विगलाणं ठिईज होइ बोद्धव्वा । ३२४ सत्तट्ठभवा उ भवे पणिदितिरिमणय उच्कोसा ।। ९५ ॥ [तुलना-वृहत्सं. गा. ३३३-४] 'असंखोसप्पिणि' त्यादि गाथाद्वयम् , एकेन्द्रियाणां चतुर्णा-पृथिव्यप्तेजोवायुरूपाणां प्रत्येक मुत्कृष्टा कायस्थितिः-मृत्वा मृत्वा तत्रैव कायेऽवस्थानमसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः । एतच्च कायस्थितिमान कालता, क्षेत्रतस्त्वसङ्ख्येया लोकाः । इदमुक्तं भवति-असङ्ख्येयेषु लोकाकाशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे सर्वप्रदेशापहारेण यावत्योऽसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति; ता एव१. न्ते खं ।। २ (उ)-भु.॥ ३ विगलाणं ठिइउ-मु. । वि. प्रती बृहत्साहिण्यामपि विगलाण ठिईज- इति पाठः ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके दीनां द्वितीयः खण्ड: ॥३१०॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योऽनन्ता वनस्पतिकायिकस्योत्कृष्टा कायस्थितिः बोद्धव्या, इयमपि कालतः, क्षेत्रतस्तु पूर्वोक्तप्रकारेण अनन्ता लोकाः, असयेयाः पुद्गलपरावर्ताः, ते च आवलिकाया असङ्ख्येयतमे १८५द्वारे भागे यावन्तः समयाः तत्तुल्या, इयं च कापरिपतिः बन्दवहारिकामाश्रित्यापा, 'असांव्यवहारिक | एकेन्द्रिया. जीवानां त्वनादिरवसेया; ततो न मरुदेव्यादिभिर्व्यभिचार, तथा च क्षमाश्रमणाः' - *'तह काय-ठिइ कालादओ विसेसे पडुच किर जीवे । कायनाणाइवणस्सइणो जे संववहारवाहिरिया॥१॥"विशेषणवती गा. ५६] स्थितिः यापि 'चासांव्यवहारिकजीवानामनादिः कायस्थितिः साऽपि केषाश्चिदनादिरपर्यवसाना ये जातु. गाथा चिदप्यमांव्यवहारिकराशेरुद्धृत्य सांव्यवहारिकराशौ न निपतिष्यन्ति, केषाश्चिनादिः सपर्यवसाना, येऽ १०९४-५ सांव्यवहारिकराशेरुद्धत्य सांव्यवहारिकराशौ निपतन्ति । अथ किमसांव्यवहारिकराशेर्विनिर्गत्य सांव्यवहारिकराशावागच्छन्ति ?, उच्यते, आगच्छन्ति, तथा चोक्तं विशेषणवत्याम् प्र.आ. ."सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासीओ । ३२४ इन्ति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि ॥१॥" [गा. ६०] तत्र येऽनादिसूक्ष्मनिगोदेभ्य उद्धृत्य शेषजीवेयूत्पद्यन्ते ते पृथिव्यादिविविधव्यवहारयोगात् सांव्यवहा. रिकाः, ये पुनरनादिकालादारभ्य सूक्ष्मनिगोदेष्वेवावतिष्ठन्ते ते तु तथाविधव्यवहारातीतत्वादसांच्यवहा१अ० खं. २०णा-खं.सि.॥३चासं. खं. सि. ॥ ★ तथा काय-स्थिति-कालादयो विशेषान् जीवान् किन प्रतीत्य । नानादिवनस्पतीन् ये संन्यवहारबाह्याः ॥१॥ ॥३१॥ .सिध्यन्ति यावन्त: किलेह संव्यवहारजीवराशेः । वायान्ति अनादिवनस्पतिराशेस्तावन्तस्तस्मिन् ॥१॥ CORE: Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ।।३११॥ रिकाः । तत्र सांव्यवहारिकाः सूक्ष्मनिगोदेस्य उद्धृत्य शेषजीवेषूत्पद्यन्ते, तेभ्योऽप्युद्धृत्य केचिद् भूयोऽपि तेष्वेव निगोदेषु गच्छन्ति परं तत्रापि सांव्यवहारिका एव ते, व्यवहारे पतितत्वात् तत्र च सूत्रोक्तमुत्कर्षतोऽवस्थानकालमानम्, असांव्यवहारिकास्तु सदा निगोदेष्वेवोत्पत्तिमरणमाजो, न कदाचनापि त्रसादिभावं लब्धवन्त इति ।। ९६४ 1 1 तथा विकलानां - द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं 'काय स्थितिस्तु सङ्ख्याता वर्षसहस्राः, 'विगलाण य वाससहस्सं संखेज्ज' ति [ द्वार-२ गा. ४९] पञ्चसङग्रहवचनात् पञ्चेन्द्रियतिरथां मनुष्याणां च संज्ञिपर्याप्तानामुत्कृष्टा काय स्थितिः सप्ताष्टौ वा भवा भवेत् । तत्र सप्त भवाः सङ्ख्येयवर्षायुषः, अष्टमस्त्वसङ्ख्येय'वर्षायुरेव । तथाहिं - पर्याप्तमनुष्याः पर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यश्वो वा निरन्तरं यथासङ्ख्येयं सप्त नरभवांस्तिर्यग्भवान् वाऽनुभूय यद्यष्टमे भवे भूयस्तेष्वेवोत्पद्यन्ते ततो नियमादसङ्ख्यायुष्केष्वेव नेतरेषुः *असङ्ख्यायुषश्च मृत्वा सुरेष्वेवोत्पद्यन्ते, ततो नवमोऽपि नरभवस्तिर्यग्भवो वा निरन्तरं न लभ्यते । अष्ट चभवेत्कर्षतः कालमानं त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाधिकानि ; जघन्या तु सर्वत्रापि कायस्थितिरन्तमुहूर्तमिति ॥ ९५ ॥१८५॥ सम्प्रति 'एगिंदिविगलस निजीवाणं भवद्वि' त्ति षडशीत्यधिकशततमं द्वारमाहसतेव सहस्स तिनिहोरत्ता दसवास सहस्सिया 1 रुक्खा पावोसह वाए तिनि सहस्सा सहस्सा ॥९६॥ १. काय स्थितेभ्यः खं । कायस्थितिः - वि. ॥ २०वर्षायुष एव-मु. ॥ ३ तदा-मु. ॥ ४ असख्यायुश्च मु. ॥ ५ ०ई - मु. ॥ १८६ द्व एकेन्द्रिय दीनां भवस्थिि गाथा १०९६ प्र. आ. ३२४ ॥३१२१॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ।।३१२।। संवछराई पारस राईदिय हुति 'अणुणपन्नासं 1 छुम्मास तिनि पलिया पुढवाई ठिक्कोसा ॥९७॥ सहाय १ सुद्ध २ वालुय ३ मणोसिला ४ सक्करा य । खरपुढवी ६ । एक्कं १ वारस २ चउदस ३ सोलस ४ अडार ५ बावीसा ॥९८॥ [ तुलना-बृहत्सं. गा. ३१२-४ ] 'श्रावीसाई' इत्यादिगाथाद्वयम् पृथिव्यादीनां मनुष्यपर्यन्तानां स्थितिः - आयुः प्रमाणरूपा एषा उत्कृष्टा, यथा- पृथिवीकायिकानां द्वाविंशधिर्षसहस्राणि अकाशियानां सप्तवर्षसहस्राणि तेजस्कायिकान त्रीणि रात्रिन्दिवानि वाते-वातकाये त्रीणि वर्षसहस्राणि वृक्षा-वनस्पतयो दशवर्षसाहस्रिकाम किमुक्तं भवति १ - वनस्पतिकायिकानामुत्कर्पतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणीति । तथा द्वीन्द्रियाणामुत्कर्षत आयुःस्थितिर्द्वादश वर्षाणि श्रीन्द्रियाणामेकोनपञ्चाशद्रात्रिन्दिवानि चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः पञ्चेन्द्रियाणां तिर्यग्मनुष्याणां त्रीणि पत्योपमानि; एषा चोत्कृष्टा स्थितिः, प्रायो निरुपद्रवस्थाने द्रष्टव्या एवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥ ९६ ॥ ९७ ॥ एवं सामान्येन पृथिव्यादीनामुत्कृष्टां स्थितिमभिधाय पृथिवीभेदेषु विशेषेणाह - 'सण्हा य' गाहा, इह पूर्वार्धपदानामुत्तरार्धपदानां च यथाक्रमं योजना, सा चैवं - लक्ष्णा - मरुस्थव्यादिगता पृथिवी तस्या एकं वर्षसहस्रमुत्कृष्टमायुः, शुद्धा - कुमारमृत्तिका तस्या द्वादश वर्षसहस्राणि, वालुका-सिकता तस्याश्चतुर्दश १ मरणपत्रा मु । २ ठिङ इति बृहत्संग्रहण्यां पाठ ॥ ३ तुलना-बुद्द वृत्तिः प. १२१ तः ॥ १८६द्वार एकेन्द्रिया दिनां भवस्थिति गाथा १०९६-० प्र. आ. ३२४ | ||३१२॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोबारे सटीके द्वितीयः खण्ड: 'वर्षसहस्राणि, मनःशिला प्रतीता तस्याः षोडशः शर्करा-दृपत्कर्करिका तस्या अष्टादश, खरपृथिवी- *शिलापाषाणरूपा तस्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राण्युत्कृष्टमायुः, जघन्यं तु सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्तमिति ॥९८॥१८॥ सम्प्रति 'एएसि तणुमाणं' ति सप्ताशीत्यधिकशततमं द्वारमाहजोयणसहस्समहियं ओहपएगिदिए तरुगणेसु । मच्छजुयले सहस्सं उरगेसु य गन्भजाईसु॥१०९९।। [बृहत्सं. गा. ३०७) उस्सेहंगुलगुणियं जलासयं जमिह जोयणसहस्सं । तस्थुप्पन्नं नलिणं विनयं भणिय'मित्तंतु ॥११००॥ जं पुण जलहिदहेसु पमाणजोयणसहस्समाणेसु । उप्पज्जा घरपउमं तं जाणम भूपियारंति' ॥११०१|| वणऽणंतसरीराणं 'एगमनिलसरीरगं पमाणेणं । अनलोदगपुदवीणं असंवगुणिया भवे वुड्डी ॥२॥ धिगलिंदियाण पारस जोयणा तिनि चउर कोसा य । सेसाणोगा हणया अंगुलभागो असंविज्जो ॥३॥ गब्भचउप्पय छग्गाउयाई भुयगेसु गाउयपुछत्तं । पपस्वीसु धणुपुटुत्तं मणुएसु य गाउया तिनि ॥४॥ [बृहत्संगा. ३११, ३१०, ३०८] १ वर्षसहस्राणि-खं. नास्ति । वर्ष० पि.सि. नास्ति ॥ २ सिखारूपा-मि. ॥३माणंति-मु.॥४तु- ता. ॥ ५ एग मनि० सा. ।। १८७द्वारे एकेन्द्रियादीना तनुमानम् गाथा १०९९११०४ प्र.आ. ३२५ ॥३१३॥ . ..... eleme ntinuteubalavintrinsatta Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे १८७ द्वारे एकेन्द्रिया दीनां सटीके "द्वितीयः रूण्ड: तनुमानम् गाथा १०९९ ॥३१४॥ ११०४ 'जोयण सहस्स' गाहा, ओषपदे-सामान्यचिन्तायामेकेन्द्रिये पृथिव्यादिविशेषानाकाक्षितानामेकेन्द्रियाणामित्यर्थः, विशेषचिन्तायां तरुगणेषु-प्रत्येकवनस्पतीनामित्यर्थः, उत्कर्षतः सातिरेक योजनसहस्र शरीरप्रमाणमवसेयम् , एतच्च समुद्रे गोतीर्थादिगतलतानलिननालाद्यधिकृस्य वेदितव्यम् ; अन्यवैतावदौदारिकशरीरस्यासम्भवात् । तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चस्त्रिविधा:-जलचराः स्थलचराः खेचराश्च, जल. नगा सामूनेता पवन पुनः प्रायेकापर्याप्ताः' पर्याप्ताश्चेत्येवं चतुर्विधाः; स्थलचरास्तु द्विविधा:चतुष्पदाः परिसर्याश्च; चतुष्पदाः पुनरपि सम्मृर्छजा गर्भजाश्च पुनः प्रत्येकमपर्याप्ताः पर्याप्ताश्चेत्येवं चतुर्विधा:: परिसास्तु द्विविधाः-उर-परिसर्या मुजपरिसपश्चि: उभये अपि प्रत्येकं चतुष्पदवच्चतुर्विधाः; इत्येवं स्थलचराः सर्वेऽपि द्वादश विधाः । खेचरास्तु जलचस्वच्चतुर्विधाः तदेवं विंशतिभेदानां तिरश्चा तनुमानचिन्तायां मत्स्यानां-जलचराणां पुगले-सम्मुर्छज-गर्भजलक्षणे उरगेषु च-उर-परिसपेषु सर्वादिषु, 'गर्भजातिष-गर्भजेप प्रत्येक परिपर्ण योजनसहसमिति ॥१९॥ ननु तनुप्रमाणमुत्सेधाङ्गुलेन 'उस्सेहपमाणओ मिणसु देह' [बृहत्सं. गा. ३४९] इति वचनात् ; समुद्र पद्म-इदादीना तु प्रमाणं प्रमाणाङ्गुलेनः ततः समुद्रादीनां योजनसहम्रा वगाहत्वात्तद्गतपयनालादीनामुत्सेधाङ्गुलापेक्षयाऽत्यंतदेयं प्राप्नोतीत्यत आह- "उस्सेह' मित्यादि, 'ज' मित्यादि, उत्सेघाङ्गुलेन 'परमाणू रहरेण' इत्यादिक्रमनिष्पन्नेन गुणिता-प्रमितः सन् योऽसौ जलाशया-समुद्रगोतीर्थादिरिहमनुष्यलोके योजनसहरप्रमाणो भवति, तत्र समुत्पन्न नलिन-पद्म भणितमानं-पूर्वोक्तकिश्चित्समधिक- १ ता-जे. ॥ २ गर्भजातियु-मु. नास्ति ॥ ३०गाहनवा-मु०॥ ४ उस्सेहं गुजेत्याविगाथादूयम्-खं. ॥ -- प्र.आ. ३२५ ॥३१४॥ ' m ISRO a ....MOM.OROR Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meeeeeeeeee सारोबारे सटोके द्वितीयः ॥३१५॥ योजनसहस्रप्रमाणं विज्ञयम् , यत् पुनः प्रमाणाङ्गुलानां योजनसहस्रमानेषु जलधि-हृदादिषु वरं-प्रधान पप्रमुत्पद्यते तजानीहि भूविकारं-पृथिवीविकारमिति । |१८७ द्वारे इदमुक्तं भवति-इह समुद्रमध्ये प्रमाणाङ्गुलतो योजनसहस्त्रावगाहे यानि पद्मानि तानि पृथिवीपरि- एकेन्द्रियाजामरूपाण्येव । यथा श्रीदेवतायाः पद्महदे पबम् ; यानि पुनः शेषेषु गोतीर्थादिषु स्थानेषु पानि सानि वनस्पतिपरिणामरूपाण्यपि भवन्ति तानि च शेषेषु जलाशयेषु, बल्ल्यादयश्चोत्कर्षतो यथोक्तमाना भवन्ति । तनुमानम् तथा चोक्तं विशेषणवत्याम् गाथा + "पुढचीपरिणामाई ताई किर सिरिनिवासपउमं च । गोतित्थेसु वणम्सइपरिणामाई तु होजाहि ॥१॥ अन्थुस्सेहंगुलओ सहस्समवसेसएमु य जलेसु । बलीलयादओऽपि य सहस्समायामओ होति ॥२॥" ११.४ गा.७-८] ।।११००-११०१।। प्र.आ. तथा प्रत्येकवनस्पतिवर्जिताना पंचानामपि पृथिव्यादीनामगुलासङ्ख्येयमागमानाऽवगाहना वक्ष्यते; ३२६ ततस्तत्र विशेषमाह- "वणे' त्यादि, 'विगले' त्यादि, 'गम्भे' त्यादि, 'वण' ति वनस्पतीनाम् , 'अणंत सि अनन्तकायिकानां सूक्ष्माणां यान्यसलयेयानि शरीराणि तेषां प्रमाणेन-मानेनैकमनिलशरीरक-वायुशरीरम् , किमुक्तं भवति ?-सूक्ष्मसाधारणवनस्पतीनामसङ्ख्यातैः शरीरैस्तुल्यमेक सूक्ष्म वायुशरीरमिति । उक्तं च प्रज्ञप्तौ--- १०सु-मुः। तुलना-विशेषणावती ।। २ क्याण त गाहा वणत्ति-खं.॥ +सानि किन पृथ्वीपरिणामानि श्रीनिवासपद्ममिव । गोतीर्थयु बनस्पतिपरिणामानि तु मवेयुः ॥१० पत्रोत्सेधांगुलतः सहस्रमवशेषेषुच अलेषु । पल्लीलतादयोऽपि च सहस्रामायामतो मचन्ति २॥ .. - boln o Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे स.६५२ सटीके द्वितीयः ॥३१६॥ 'अणताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमवाउसरीरे" [भगवतीसूत्र १९।३१ |१८७द्वारे सू.६५२] त्ति अनन्तकायिकाना यावन्ति शरीराणि तदेकं मूक्ष्म वायुशरीरम् , तावत्शरीरप्रमाणमित्यर्थः; एकेन्द्रिया यावग्रहणाचासख्यातानि शरीराणि ग्राह्याणि, अनन्तानामपि वनस्पतीनामेकाद्यसङ्ख्येयान्तशरीरत्वेना दीना नन्ताना शरीराणामभावात् । ततो वायुकायिकशरीरादनलोदकपृथिवीनाम्- अग्निजलपृथिवीकायिकशरीराणां | वनुमानम् सूक्ष्मा बादराणां च यथाक्रममसङ्ख्यगुणा भवति वृद्धिः । गाथा इयमत्र भावना-यावत्प्रमाणमेकं 'मूक्ष्मवायुकायिकशरीरं ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं सूक्ष्मतेजस्कायिकशरीरम् , ततोऽसङ्ख्यातगुणमेकं सूक्ष्माष्कायिकशरीरम् , ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं सूक्ष्मपृथिवीकायिकशरीरम् , ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं बादरवायुशरीरम् ततोऽसङ्ख्यातगुणमेकं चादराग्निशरीरम् , ततोऽप्य प्र. आ. सङ्खथातगुणमेकं चादराकयिकशरीरम् , ततोऽप्यसङ्खथातगुण मेकं बादरपृथिवीशरीरम् , तस्मादप्यसङ्कथातगुणमेकं बादरनिगोदशरीरमिति । एतच्च सर्वमपि भगवत्येकोनविंशतितमशतकतृतीयोद्दे शकानुसारेणोक्तं न तु निजमनीषिकयेति । इह च पृथिव्यादीनामगुलासङ्ख्येयभागमात्रावगाहनात्वेऽप्यसङ्ग्ब्येयभेदत्वादगुलासङ्ख्येयभागस्येतरेतरापेक्षयाऽसयेयगुणत्वं न विरुद्धयते ॥२।। ___ अथ द्वीन्द्रियादीनामवगाहनामानमाह-विगलेंदिय' गाहा, विकलेन्द्रियाणां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां यथाक्रमं शरीरमानं द्वादश योजनानि, त्रयः क्रोशाः चत्वारः क्रोशाः । इयमत्र भावना-द्वीन्द्रियाणां १ सूक्ष्मवायुकायिकाविशरीरं-सि. वि. ।। २ वावर कायश० खं. ॥ ३ बाहनामाह-विकलेन्द्रियाणां- मु.॥ . Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wammaanmainine प्रवचनसारोद्वारे सटीके १८८द्वारे इन्द्रियाणां स्वरुपविषयों गाथा द्वितीयः शङ्खादीनामुत्कर्षतो देहमानं द्वादश योजनानि, त्रीन्द्रियाणां कर्णशृगाली-मत्कोटकादीनां त्रीणि गव्यूतानि, चतुरिन्द्रियाणां भ्रमरादीनामेकं योजनम्, शेषाणां पृथिव्यप्तेजोवायूनां साधारणवनस्पतीनां समर्छिममनुष्याणां सर्वेषामपि चापर्याप्तजीवानामुत्कर्षतोऽवगाहना-देहमानमगुलासङ्ख्येयो भागः ॥३॥ अथ तिर्थक्पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च देहमानमाह- गर्भजचतुष्पदानां-हस्त्यादीनामस्कृष्टं देहमानं षड्गव्यूतानि, भुजगेषु गर्भजेषु-गोधानकुलादिषु गव्यूतपृथक्त्वम् , पृथक्त्वं च द्विप्रभृत्यानवन्यः । पक्षिषु-गृध्रादिषु 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ते' [ ] गर्भजेषु संमूर्छिमेषु च धनुःपृथक्त्वम् , मनुष्येषु च गर्भजेषु त्रीणि गव्यूतानि , 'मणुएस य' त्ति चकारोऽनुक्तसमुच्चये; ततः संमूर्छिमचतुष्पदाना मवादी नामुत्कयतो देहभानं गधूतपृथक्त्वम् ; संमृछिमभुजगानां धनुःपृथक्त्वम् , संमूर्छिमोरगाणां च योजनपृथक्त्वम् । एतच्च प्रज्ञापनावगाहनासंस्थानपदोक्तानुसारेणास्माभिरभिहितमिति । इदं चोत्कर्षतः सर्वमपि देहमानम् , जघन्यतस्तु सर्वेषामपि जीवानामङ्गुलस्यासङ्ख्याततमो भागः, स चोपपातसमये बोद्धव्यः ॥ ४॥ १८७ ॥ सम्प्रति वियसरूवषिसओ य एएसिं' ति अष्टाशीत्यधिकशततमं द्वारमाहकार्यषपुप्फगोलय १ मसूर २ अइमुसयरस कुसुमं च ३ । सोयं १ चक्ख २ घाणं ३ खुरप्पपरिसंठिअं रसणं ४ ॥५॥ प्र. आ. १ ०मि.वि.२ प्रज्ञापनासूत्रे एकविंश पवमित्यर्थः ।। ३ इंदियविसओ वंदियषिसमषिसमो-सि.वि.॥ mamdaewww Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ||३१८|| सब्वाई' नवर नाणागारं फासिंदियं तु बाहलओं प अंगुलअसंवभागं एमेव पुहुत्तओ अंगुलपुहुत्त रसणं फरिसं तु सरीरवित्थड बारसहिं जो हिं सोयं परिगिन्हए स रूयं गिues जोयणलक्खाओ साइरेगाओ 1 भणियं ॥७॥ 'चक्खु गंध મં श्र फार्स ओपणनवगाड 'सेसाई' ॥ ८ ॥ अंगुल असंखभागा मुणंति विषयं जहनओ मोन्त । चक्खु तं पुण जाणइ अंगुलसंविज्जभागाओ ॥९॥ 'कार्य' गाहा, इन्दनादिन्द्रः - आत्मा सर्वद्रव्योपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात् ; तस्य लिड्ग-चिह्न - मविनाभावि इन्द्रियम् ; तद् द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च । तत्र द्रव्येन्द्रियं द्विधा- 'निवृतिरूपमुपकरणरूपं च | 'निवृत्तिर्नाम प्रतिविशिष्ट संस्थानविशेषः । साऽपि द्विधा चाह्या आभ्यन्तरा च तत्र 'कर्ण कर्पटिकादिरूपा; सा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया 'व्यपदेष्टुं शक्यते; तथाहि मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुम पार्श्वतो माविनी 'भ्रुवां चोपरितने श्रवणबन्धापेक्षया समे, वाजिनो नेत्रयोरुपरि 1 ! ॥ ६॥ १ परिगे० इति प्रज्ञापनावृत्तौ प. ३००B || २ सेसाणि-मु. ॥ ३ परिजाइ वा ॥ ४ निवृत्तिरूनकरणरूपं.पि.सि. ॥५- प्रज्ञापनावृत्ति प. २९३ वः ॥ ६ कर्णप० सि. । बाह्या प० इति प्रज्ञापना. वृत्तौ ॥ ७ प्रति नियत जे नास्ति । ०नियत सि. नास्ति । म अप० जे.सि. ॥ वासि भ्रषौ इति प्रज्ञापनावृत्तौ पाठः ॥ १८८द्वारे इन्द्रियाणा स्वरुप विषयों गाथा ११०५.९ प्र. आ. ३२७ ॥३२८॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादिजातिभेदाभानाविधा । 'आभ्यन्तरा तु नित्तिः सर्वेषामपि जन्तूनां समाना । E: प्रवचन- तामेव चाधिकृत्य प्रस्तुतसूत्रोक्तं संस्थानमवसेयम् : केवलं स्पर्शनेन्द्रियनिकृतेः प्रायो न बाह्याभ्यन्तर १८८ द्वारे - सारोदारे। 'मेदः, 'तत्त्वार्थमूलटोकायां तथाऽभिधानात् । हन्द्रियाणां उपकरण-खड्गस्थानीयाया वासनित्ते खड्गधारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिकाभ्यन्तरा स्वरुप"नितिः तस्याः शाक्तिविशेषः । इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमन्तनिवृतेः कथञ्चिदर्थान्तरम् । शक्तिशक्ति- विषयों मतोः कथञ्चिद्भेदात् । कश्चिद्भेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तनिवृत्तौ द्रव्यादिनोपकरणस्य विधातसम्मवाद । माथा तथाहि-सल्यामपि कदम्बपुष्पाधाकृतिरूपायामन्तर्नित्तावतिकठोरतरपनगर्जितादिना शक्त्युपधाते सति न ११०५.९ परिच्छेक्षुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति । भावेन्द्रियमपि द्विधा-लब्धिरुपयोगक्ष, तत्र लब्धिा-श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावरण कर्मक्षयोपशमा, उपयोगः-स्वस्वविषये लब्धिरूपेन्द्रियानुसारेणात्मनो 'व्यापारः प्रणिधानमिति । तच्च पञ्चधा-श्रोत्रादिभेदात् । तत्र श्रोत्रमाभ्यन्तरी निवृत्तिमधिकृत्य कदम्बपुष्पाकारं मांसगोलकरूपम् , चक्षुः ३२७ किश्चित्समुनतमध्यपरिमण्डलाकारमसुराख्यधान्यविशेषसदृशम् , घ्राणमतिमुक्तककुसुमदलचन्द्रकवत् किश्चिद् "वृत्ताकारमध्यविनतम् , प्रदीर्घश्यससंस्थितं कर्णाटकाषुधं क्षुरप्रस्तत्परिसंस्थित--तदाकारं रसनेन्द्रियमिति ॥५॥ १अभ्य वं. वि.जे. प्रमापनावृत्तौ । २ .भेदाः-सि. ॥ ३ तत्वार्थसूत्रस्य [२११०] वृत्तिष्टग्या । ४ निवृत्तिः तस्याः निवृत्तिः तस्याः-खं. ॥ ५ तस्थामन्त० मु.॥६ व्यापारप्रणि मु.॥ । वृत्ताकारमपविततं-मु.जे.सं. विनताकारमध्यविनतं-सि। बितता. वि. । Commonstimoल हाल Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHAHRASupportindidownoaatra प्रवचन. सारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥३२०11 मा---'माणे त्यादि, सानेन्द्रिय पुन नाकारम्-अनेकसंस्थानसंस्थितम् शरीरस्यासयेयमेद- Indean स्वात् । तथा 'बाहल्यतः सर्वाण्यपीन्द्रियाण्यङ्गुलस्यासङ्ख्येयो भागः । इन्द्रियाणां ननु यदि स्पर्शनेन्द्रियस्याप्यमुलासङ्ख्येयभागो बाहल्यं ततः कथं खड्गाधभिषाते अन्तः स्वरूपशरीरस्य वेदनानुभवः १, तदयुक्तम् , वस्तुतचापरिज्ञानात् । स्वगिन्द्रियस्य हि विषयः शीतादयः स्पर्शाः । | विषयौ यथा चक्षुषो रूपम् । न च खड्गाद्यभिधाते अन्तः शरीरस्य शीतादिस्पर्शवेदनमस्तीतिः किन्तु केवलं दुःख. गाथा वेदनम् । तच्चात्मा सकलेनापि शरीरेणानुभवति, न केवलेन त्वगिन्द्रियेण, ज्वरादिवेदनावत् । ततो न कश्रिदोषः। अथ शीतलपानकादियाने अन्तः शीतस्पर्शवेदनाऽप्यनुभूयते, ततः कथं सा घटते १, उच्यते, इह प्र. आ. त्वगिन्द्रियं सर्वत्रापि प्रदेशपर्यन्तवर्ति विद्यते, तथा पूर्वसूरिभिर्व्याख्यानात् । तथा च प्रज्ञापनामूलटीका--"सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्तित्वाचचोऽभ्यन्तरतोऽपि शुषिरस्योपरि त्वगस्त्येव" [ ] इति । ततोऽभ्यन्तरतोऽपि शुषिरस्योपरि त्वगिन्द्रियस्य भावादुपपद्यते अन्तरपि शीतस्पर्शवेदनानुभवः । तथा एक्मेव-अगुलासयेयभागप्रमाणान्येव पृथुत्वतो-विस्तरतोऽपीन्द्रियाणि भवन्ति ।।६।। नवरं रसन-स्पर्शनयोविशेषः, तमेवाह-~'अंगुले' त्यादि गाथापूर्वार्धम् , अगुलपृथक्त्व विस्तरं रसनेन्द्रियम् । स्पर्शनं पुनः शरीरविस्तृतं भणितम् । यस्य जीवस्य यावन्मानं शरीरं स्पर्शनमपि तस्य "विस्तरतस्तावत्प्रमाणमित्यर्थः ।। .. १बाहुल्यतः-जे.सि.॥२ तुला-प्रज्ञापनावृत्तिः प. २६४ ॥ बाहुल्यं-जे.सि. ॥ ४ शीतादिस्पर्शने-मुः। शीतादिपों-खं । सि. प्रती प्रसाफ्नाचायपि-शीवादिस्पर्श इति ॥ ५०विस्तार-मु.॥ ॥३२॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोङ्कारे सटीके द्वितीय: खुण्ड ॥ ३२१॥ अथेन्द्रिय विषयमानमाह-- ' बारे' त्यादि 'सार्द्धगाथा, द्वादशभ्यो योजनेभ्य आगतं घनगर्जितादिशब्दमुत्कृष्टतो गृहाति श्रोत्रम्, न परतः । परत आगताः खलु ते शब्दपुङ्गलास्तथास्वाभाव्यान्मन्दपरिणामास्तथोपजायन्ते येन स्वविषयं श्रोत्रविज्ञानं नोत्पादयितुमीशाः । श्रोत्रेन्द्रियस्य च तथाविधमत्यद्भुतं बलं न विद्यते येन परतोऽप्यागतं शब्दं शृणुयादिति ॥७॥ तथा चक्षुरिन्द्रियमुत्कर्पतः सातिरेकाद्यो जनलक्षादारम्प कटकुय्यादिभिरव्यवहितं रूपं गृह्णाति-परिच्छिनति । परतोऽव्यवहितस्यापि परिच्छेदे चक्षुषः शक्त्यभावात् । एतच्चाभासुरद्रव्यमधिकृत्योच्यते । भासुरं तु द्रव्यम् प्रमाणागुलनिष्पन्नेभ्य एकविंशतियोजनलक्षेभ्योऽपि परतः पश्यन्ति । यथा पुष्करaratपार्श्वे मानुषोत्तरनगनिकटवर्त्तिनो नराः कर्कसंक्रान्तौ सूर्यभिम्बम् । उक्तं च " इगवीसं खलु लक्खा चउती चैव तह सहस्साई । तह पंच सया भणिया सत्ततीसाए अरिता ॥१॥ इह नयणविसयमाणं पुक्खरदीवडवासिमणुषाणं । घुठवेण य अवरेण य पिहं पिहं होइ नान्यं ||२||" [] तथा शेषाणि - प्राण- रसन-स्पर्शनेन्द्रियाणि क्रमेण गन्धं रसं स्पर्श च प्रत्येकमुत्कर्षतो नवभ्यो योजनेस्य आगतं "गृहन्ति; न परतः । परत आगतानां मन्दपरिणामत्वभावात् घ्राणादीन्द्रियाणां च तथारूपराणामपि तेषां परिच्छेदं कतुमशक्तत्वात् ||८|| १८८ द्वारे इन्द्रियाण स्वरुप विषय गाथा ३१९५-९ प्र. आ. १ सार्था-मु.।। २. तुला- प्रज्ञापनावृत्तिः प. २४६ ॥ ३ शब्द- सि.वि. नास्ति ॥ ४ विशेषावश्यक मा. गा. ३४३ सः द्रष्टव्या ॥ ५ द्रव्यमधिकृत्य-मु. ॥ ६ तुला-प्रापनावृत्तिः प. ३०१ A ॥ ७ सत्तती० इति प्रज्ञापनावृत्ती सि. | ३२१ ॥ प्रतौ च पाठः ॥ ८ गृह्णावि-सि.वि. ।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥३२२i अथ जघन्यं विषयमानमाह- 'अंगुले' त्यादि, चक्षुरिन्द्रियं मुक्त्वा शेषाणि चत्वारि भोत्रा ११८६ द्वारे दीनि जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागादागतं स्वस्वविषयं शब्दादिकं जानन्ति । प्राप्तार्थपरिच्छेदकत्वात् । चक्षुः पृथ्व्या'पुनरप्राप्तकारित्वाजघन्यतोऽ गुलमङ्ख्येयभागमात्रव्यवस्थितं पश्यतिः न तु ततोऽप्यक्तिरमिति । दीनां प्रतिप्राणि प्रतीमायमर्थः । तथा च नातिमनिकृष्टमञ्जनरजोमलादिकं चक्षः पश्यतीति । लेश्या ____ इह च पृथुत्वपरिमाणं स्पर्शनेन्द्रियव्यतिरेकेण शेषाणां चतुर्णामिन्द्रियाणामात्मागुलेन प्रति गाथा पत्तव्यम् , स्पर्शनेन्द्रियस्य तूत्सेधाङ्गुलेन, विषयपरिमाणं पुनः सर्वेषामप्यात्मागुलेनैव । अत्र चोभयत्राप्यु. १११० पपत्तिः सविस्तरतरा भाषयादवसातव्या ॥९॥ १८॥ इदानी लेसाउ' ति एकोननवत्यधिकशततम द्वारमाह---- प्र. आ. पुढवोआउधणस्सइयायरपत्तेसु लेस चत्तारि । गम्भे तिरियनरेसु छल्लेसा तिनि सेसाणं ॥१०॥ [वृहत्म. गा. ३४२ 'पुटवी.' गाहा, बादरशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, प्रत्येकवनस्पतीनां च स्वरूपोपदर्शनार्थमेव व्यभिचाराभावात् । पर्याप्त इति विशेषणं च मामाद् द्रष्टव्यम् । अन्यथा तेजोलेश्याया अयोगात् । ततो चादरपर्याप्तेषु पृथिवीकायिकेधकायिकेषु प्रत्येकवनस्पतिषु चाद्याश्चतस्रः कृष्ण-नील-कापोत-तेजोरूपा लेश्या भवन्ति । तेजोलेश्या कथमवाप्यते इति चेद् , उच्यते, ईशानान्तदेवानामेतेवृत्पादात्कियन्तमपि ॥३२॥ १ पुनरप्राHि० मि.कि.॥ २ गुलकस. सि.वि. ॥ ३ तुला-वृहत्सम्प्रहणि मलयधृतिः प. १३०॥... ४ नषा इवि-ख.वि. सि.॥ ३२८ 26 MAUThudURATI THARASHAN PROGRAMINATION HASABHABARRC PATRA PHAishwINDIA Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालं तेजोनेश्यापि सम्भवति । यल्लेश्या हि जन्तवो नियन्ते पर भवेऽपि तल्लेश्या एबोन्पद्यन्ते । न पुनः प्रवचन-1 पाश्चात्यभवान्त्यसमयेऽन्पो लेश्यापरिणामोऽन्यश्चागामिकभवाद्यसमये । सारोद्वारे यदागमः--"जल्लेसाई दवाई आइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उत्रवज्जइ' [ ] ति । केवलं |१८९द्वारे सटीके । तियनरा आगामिभवसम्बन्धि लेश्याया अन्तमुहूर्तेऽतिकान्ते, सुरनारकास्तु स्वस्वभवसम्बन्धिलेश्याया पृथ्व्याअन्तमूहर्ते शेष सति परभवमासादयन्ति । द्वितीय दिनां गर्भजतिर्यङ्मनुष्येषु 'पडपि लेश्याः, तेषामनवस्थितलेश्याकत्वात् । तथाहि-तिरश्वां पृथिवीकायिका लेश्या दीनां नराणां सम्मूर्छिम-गर्भजाना शुक्ललेश्यावर्जा याः काश्चिल्लेश्याः सम्भवन्ति ताः प्रत्येकं जघन्यत गाथा ॥३२३॥ उत्कर्षतवान्तमुहूर्तस्थितयः । शुक्ललेश्या तु जघन्यतोऽन्तमुहूर्तावस्थाना उत्कर्षतः किश्चिन्यूननववर्षोनपूर्वकोटिप्रमाणेति । इयं चोत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटेरुवं संयमावाप्तेरभावात् । पूर्वकोट्यायुषः किश्चित्समधिकवर्षाष्टकार्ध्वमुत्पादितकेवलज्ञानस्य केवलिनोऽवसेया । अन्येषां तूत्कर्पतोऽप्यन्त हर्तावस्थानैवेति । प्र. आ. शेषाणां तेजोवायूनां सूक्ष्मपृथिव्यम्बूवनस्पतीनां साधारणानामपर्याप्तबादरपृथिव्यम्बुप्रत्येकवनस्पतीनां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां सम्मूर्छिमपञ्वेन्द्रियतिर्यड्नराणां च तिस्रा-कृष्ण-नील-कापोतनामानो लेश्या भवन्तीति ॥१०॥ १८९॥ इदानीम् 'एयाणं' जत्थ गह' ति नवत्यधिकशततमं द्वारमाह यल्लेश्यानि द्रव्याणि प्रादाय काळं करोति तल्लेश्येत्पद्यते । १ पापि लेश्या वेश्याकत्वात-जे. सि.॥ ... तेजोवायूनां सूक्ष्मप्रभृत्यम्बूनां सालं. तेजोवायूक्ष्मपृथिवीबनस्पस्यन्वानां-सि.॥३०-मु.॥ ३२८ . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन । सारोद्धारे सटीके १९०द्वारे एकैन्द्रियादीना गतिः द्वितीयः खण्ड: ११२० प्र. आ. एगॅवियजीवा जंति नरतिरिच्छेसु जुयलवज्जेसु । अमणतिरियावि एवं नरयमिवि जति ते पदमे ॥११॥ तह समुच्छिमतिरिया भवणाहिवर्षतरेसु गच्छंति । जं तेसिं उपवाभो पलियासरखेज्जाकसू ॥१२॥ पंचिंदियतिरिया पारसनो सारसार । नरएसु समग्गेसुवि वियला अजुयलतिरिनरेसु ॥१३॥ नरतिरिअसंखजीवी जोइसवज्जेसु जंति देवेसु । नियआउयसमहीणाउएसु ईसाणतेसु ॥१४॥ उववाओ तावसाणं उकोसेणं तु जाव जोइसिया । जावंति संभलोगी चरगपरिवायउववाओ ॥१५॥ "जिणवयउक्किहतवकिरियाहिं अभवमन्वजीवाणं । गेविज्जेसुकोसा गई जहन्ना भवणवईसु ॥१६॥ उमस्थसंजयाण उववाउकोसओ अ सबढे । उववाओ साधयाणं उक्कोसेणऽच्चुओ जाव ॥१७॥ [तुला-बृहत्सं. गा. १७०] उवधाओ लंतगंमि घरदसपुब्धिस्स होइ उ जहन्नो। लकोसो सव्वढे सिडिगमो वा अकम्मरस ॥१८॥ [बृहत्म. गा. १६९] १८म-ता. ॥ २ सर्ववाउनकोसो उ-सि.वि. ॥ ३ जिणमय ता० ॥ mero ३२४॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय : खण्ड: ॥३२५॥ अविराहिय सामन्नस्स साहुणो सावयस्सऽवि जहन्नो । सोहम्मे उषाओं ariगे वणयराईसु ||१९|| [तुला- बृहत्सं. गा. १७१] सेसाण तावसाईण जहन्नओ वंतरेसु उवधाओ । भणिओ जिणेहिं सो पुण नियकिरियठियाण विन्नेओ ||२०|| [बृहत्सं. गा. १७२ ] 'eiferater' गाहा, इह 'एगेंदियजीव' ति सामान्योक्तावपि न तेजो-वायवो गृह्णन्ते तेषां मनुष्येष्वेवानुत्पादात् । उक्तं च- ● 'सत्तममहिनेरहया तेऊ चाऊ अनंतरुव्वट्टा । नवि पावे माणुस्सं तहा असंखाडया सव्वे ॥ १॥ तत एकेन्द्रियजीवाः - पृथिव्यम्बुवनस्पतयो युगलवर्जेषु-युगलधार्मिकवर्जितेषु सङ्ख्यातायुष्केष्वित्यर्थः; नरेषु तिर्यक्षु च यान्ति - उत्पद्यन्तेः न देवनारका सख्ये यवर्षायुस्तिर्यग्नरेष्विति भावः । तथाऽमनस्कतिर्यश्वोऽपि - असंशिपञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वोऽप्येवं पूर्ववत् । सख्येयायु केषु नरतिर्यक्षु समुत्पद्यन्त इति भावः । arashtra प्रथमे ते गच्छन्ति । इदमुक्तं भवति - असंझिपञ्चेन्द्रिय'तिर्यश्चश्चतसृष्वपि गतित्पद्यन्ते । केवलं नरदेवगत्योरुत्पद्यमानानाममीषां विशेषः । तत्र नरकगतौ प्रथमपृथिव्यामेव न शेषासु । तत्राप्युत्कृष्टतोऽपि पन्योपमासङ्ख्येयभागायुष्केष्वेव जायन्ते नाधिकायुष्केष्विति ॥ ११ ॥ harat greenaraf विशेषमाह-- 'स'हे' त्यादिगाथानवकम् तथा संमूर्छिमतिर्यो देवेभूसप्तम महीनेर विकास्ते जो वायू अनन्तरोद्वृत्ताः । नैव प्राप्नुवन्ति मानुष्यं तथाऽसंख्यायुषः सर्वे ॥ १ ॥ निर्यात मु. ॥। २ तथाप्यु० वि. वि. । १९० द्वारे एकेन्द्रियादीनां गतिः गाथा११११२० प्र. आ. ३२९ ।। ३२५।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीना त्पद्यमाना मगनपतिव्यन्तरेवेव 'वायन्ते। न योसिम्कादिषु । यस्माषा-सम्मछिमतिरथा देवेषु पल्योपमासायातमागमात्रायुकेम्वेवोपपाती नाधिस्थितिविति ॥१५॥ १९.बारे सारोवारे _ 'पंचेदिय.' गाहा पञ्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कर्षत उपपातः सहस्रारं यावद्भवति । नरकेष्वपि 'समग्रेषु एकेन्द्रियासटीके सास्वपि नरकपृथिवीषु । इदमत्र तात्पर्य-सङ्ख्यातायुष्कसंझितिर्यपञ्चेन्द्रियाश्चतसञ्चापि गतिवृत्पद्यन्ते । गतिः मितीयः । केवलं देवगतौ सहस्रारकम्पमेव यावदुत्पद्यन्ते न तु 'परेणानतादिषु । तथाविधयोग्यताऽभावादिति । गाथा तथा विकला-द्वित्रिचतुरिन्द्रिया युगलवर्जेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु चोत्पद्यन्ते, न देवनारकेषु ॥१३॥ नरतिरि०' गाहा, असङ्ख्यनीविन:-असङ्ख्यवर्षायुषो नरास्तिर्यश्चश्च ज्योतिष्कचर्जितेषु देवेषु ११११. यान्ति । देवगतिं विमुच्य शेषे गलित्रये मोक्षे च 'नैते गच्छन्तीत्यर्थः । इह च यद्यपि सामान्येनासङ्ख्येय. वर्षायुष्का नरतियश्चो मणितास्तथापि 'सूचकत्वात् सूत्रस्य' विशिष्टा एव 'खचरतिर्यक्पञ्चेन्द्रिया अन्तर- प्र. आ. द्वीपजतिर्यग्नराश वेदितव्याः । तथाहि-असञ्झ्येयवर्षायुषो देवेषुत्पद्यमाना निजायुपः समस्थितिषु हीन- ३२९ स्थितिषु चोत्पद्यन्ते, नाधिकस्थितिषु । ततः पन्योपमासङ्ख्येयभागमात्रेणासङ्ख्येयवर्षायुषः 'खचरतिर्यक्ष चेन्द्रिया अन्तरद्वीपजतिर्यग्नराच ज्योतिष्कवर्जेषु, उपलक्षणमेतत् , ज्योतिष्क-मोधर्मेशानक्र्जे वृत्पद्यन्ते, न ज्योतिष्कादिष्वपि अधिकस्थितिधूत्पादाभावाद , ज्योतिष्केषु हि जघन्यतोऽपि पन्पोपमाष्टमभागः सौधर्मशानयोत्र पस्योपमं स्थितिरिति । गन्ति -.॥२ समप्रेषु-सांवपि-ले. सि. नास्ति र परत मानसारिपुमु.॥ नैव ते- मुनते-चं. ॥३२६॥ .वि. पो- को-मि.॥६-सेचर मु.॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन १९०द्वारे एकेन्द्रियादीनां गतिः गाथा A शेषास्त्वसञ्जयेयवर्षायुषो हैमवतादिक्षेत्रमाविनस्तथा सुषमसुषमादिषु विष्वरकेषु भरतैरवतभाविनश्च तिर्यग्मनुष्या निजायुषः सम-हीनायुकेषु सर्वेप्यपीशानान्तेषु गच्छन्ति । तत ऊर्भ तु सर्वथा निषेधः । यत ईशाना सनत्कुमारादिषु जघन्यतोऽपि सागरोपमद्वयादिकैव स्थितिः । असङ्ख्यातवर्षायुषा तिर्यहमनुष्याणां पुनरुत्कर्षतोऽपि त्रीण्येव पस्योपमानीति ॥१४| । 'उववाओ' गाहा, तापसाचनवासिनो मूल-कन्द-फलाहारा बालतपस्विनः, तेषामुपपात उत्कर्षतो भवति यावज्ज्योतिष्काः । तत ऊर्व 'तु नोत्पद्यन्त इति भावः । तथा चरकपरिव्राजका-धाटिमक्षोपजीविनाशिपिटनाः अपया चरका:-कच्छोटकाइयः, परिवाजकार-कपिलमुनिसूनवः, चरकाच परिव्राजकाच तेषामुत्कर्पत उपपातो याबद्रह्मलोक ॥ १५ ॥ ... "जिणवय' गाहा, जिनोक्तानि यानि ब्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि, यच्चोत्कृष्ट-विशिष्टमहमादितपो याच क्रिया:-प्रतिदिनानुष्ठेयप्रत्युपेक्षणादिकाः, एतैः सर्वैरपि भव्यानामभव्यानां च मिध्या शो जीवाना देववृत्पद्यमानानामुत्कृष्टा गतिवेयकेषु । इयमत्र भावना-ये किल भव्या अभव्या या सम्य. क्त्वविकलाः सन्तः श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणश्च तेऽपि केवलक्रियाकलापप्रभावत उपरितनौवेयकान यावदुत्पद्यन्ते एव । असंपताश्चैते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणाम"शन्यत्वादिति । जघन्या तु गतिर्भवनपतिषु । एतच देवेवत्पादापेक्षया द्रष्टव्यम् । (प्रन्या ८०.) अन्यथा देवत्वादन्यत्रापि यथास्यवसायमुत्पादो भवतीति ॥१६॥ १-मु. नास्ति ॥२ शून्बादिवि-11 . सातवा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे द्वितीयः ॥३२८ 'छउमत्य' गाहा, छाधते-आवियते यथाऽवस्थितमात्मनः स्वरूपं येन तच्छब-ज्ञानावरणीयादिकर्म, तस्मिन् तिष्ठन्तीति छवस्थाः, ते च ते संपताश्च छवस्थसंयताः तेषामुत्कर्षत उपपातः सर्वार्थसिद्धे महा- 1. विमाने । श्रावकाणां- 'देशविरतमनुष्याणा पुनरुपपात उत्कर्षतोऽच्युतं-बादशदेवलोकं यावदिति ॥१७॥ दीना गतिः ___ 'उववाओ' माहा, उपपातो लान्तके-षष्ठदेवलोके चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्यतो भवति । उत्कृष्टतस्तु गाथा सर्वार्थसिद्धे । अकर्मकस्य-झीणाष्टकर्मणः पुनश्चतुर्दशपूर्विणः, उपलक्षणत्वादन्येषां च मनुष्याणां क्षीणकर्मणां सिद्धिगमो-मोक्षावाप्तिर्भवतीति ।।१।। ___ 'अविराहिय' ० गाहा, साधोः प्रवज्याकालादारभ्याविराधितश्रामण्यस्य-अखण्डितसर्वविरतिरूपचारि प्र.आ. प्रस्य, श्रावकस्य चाविराधितश्रामण्यस्य-अखण्डितयथागृहीतदेशचारित्रस्य जघन्य' उपपातः सौधर्म-प्रथमदेवलोके । केवलं तत्रापि साधोर्जघन्या स्थितिः पल्योपमपृथक्त्वम् , श्रावकस्य तु पस्योपममिति । तथा साधना श्रावकाणां च निजनिजवतभङ्गे 'जघन्य उपपातो वनचरादिपु । वनचरा-व्यन्तरास्तेषामादयः-प्रथमा:, भवनपतिव्यन्तरादिक्रमेणागमे देवानां प्रसिद्धत्वात् भवनपतय इत्यर्थः; तेषु । तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां "विराहियसंजमाणं जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे' [ पद २० सू. १४७०] तथा "विराहियसंजमासंजमाणं जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु' [पद. २० सू.१४७०] ति अत्र च ॥३२८॥ १ देशपिरति-मु. १२ च-मु. नास्ति ।। ३-४ जघन्यत-मु. ॥ ५-६ सु - सि. वि. नास्ति ।। ३३ our nahini-- - - Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥३२९॥ ''विराधितसंयमान' 'विराधितः - सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपश्या भूयः संधितः संयमः संयमासंयम यैस्ते तथा तेषाम् ॥ १९ ॥ 'सेसाण' गाहा, शेषाणां तापसादीनां तापस- चरक परिव्राजकादीनां 'जघन्य उपपातो जिनै: - तीर्थकरें मैfणतो व्यन्तरेषु । प्रज्ञापनायां तु तापसादीनां 'जहन्नेणं भवणवासीसु' [ पद २०, सू. १४७० ] इत्युक्तं स पुनरुपपातविधिर्निजक्रियास्थितानां निजनजागमोक्तानुष्ठाननिरतानाम्, न स्वाचारहीनानामिति ||२०|| १९०॥ I इदानीम् 'एएसि जत्तो आगइ' ति एकनवत्यधिकशततमं द्वारमाहनेरहयजुपलवजा 'एगिदिस इनि अवरगइजीवा विगलत्तेणं पुण ते हवंति 'अनिरईय अमरजुयला ॥२१॥ हुति हु अमणतिरिच्छा नरतिरिया जुगलधम्मिए मोत्तु । पावंति 'अजुयलचउगड्या गन्भच उपयभावं ॥२२॥ नेरहया अमरावि य तेरिच्छा माणवा य जाति मणुते जुगलधम्मियनर तिरिन्छा" ि 1 ॥२३॥ १. विधित संयमानां खं नास्ति । २ विराधितः सर्वात्मनासि नास्ति ॥ ३ जघन्यत मु. ॥ ४ एगिंदिसु-सि ॥ x भनिस्य ॥ ६ अजुवचः ख । अजुयचउगईया - सि० ॥ ७०कल्ले मु.॥ १९१ द्वारे एकेन्द्रियादीनामा गतिः गाथा ११२१-३ प्र.आ. ३३० ॥३२९॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके च १९३. 3 पयाप्तवादरेषु द्वितीयः खण्ड: 'नेरहय.' गाहा, नैरयिक-युगलधार्मिकवर्जिता अपरगतिजीवाः सङ्खथातवर्षायुषः एकद्वित्रिचतु:पञ्चेन्द्रियतिर्यनराः सनत्कुमारादिदेवानामेकेन्द्रियेष्वनुत्पादान पननतिमन्नामोतिष्कसौधर्मेशानदेवाश्च एकेन्द्रियेषु-पृथिव्यादिष्वागच्छन्ति । केवलं तथाभवस्वाभाव्याद्देवास्तेजोवायुवर्जितेषु पर्याप्तवादरेषु 'च समायान्तीत्यवसेयम् । तथा नैरपिक-देव-युगलधार्मिकवजितास्ते-तिर्यड्नरजीवा विकलेन्द्रियत्त्वेनद्वित्रि'चतुरिन्द्रियत्वेन भवन्ति, द्वित्रिचतुरिन्द्रियेप्वागच्छन्तीति भावः ॥२१॥ 'हुति हु' गाहा, युगलधार्मिकास्तिरश्चो नरांच वर्जयित्वा शेषा नरास्तियश्चत्र भवन्त्यमनस्कतिर्यश्नः, उपलक्षणत्वादमनस्का मनुजाश्च । इदमुक्तं भवति-सङ्ख्यातवर्षायुष्कनरतिर्यश्च एवासंत्रिपञ्चेन्द्रियतिथंङ्नरेत्पद्यन्ते. न देवनारका इति । तथा युगलधार्मिकनरतिर्यग्वर्जिताश्चतुर्गतिका अपि जीवा गर्भजचतुष्पद. भावं प्राप्नुवन्ति । केवलं देवाः महनारादर्वाग द्रष्टव्याः। आनतादिदेवानां मनुष्येष्वेवोत्पादात् । एवं शेषाणामपि गर्मजतिर्यपञ्चेन्द्रियाणां द्रष्टव्यम् । जीचाभिगमादी चतुर्गतिकजीवानां जलचरादिष्वप्युत्पादस्योक्तत्वात् ॥२२॥ 'नेरहया' गाहा, नैरयिका अमराश्च तथा युगलधार्मिकनरतिर्यग्वर्जितास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च मनुजत्वेन-गर्भजमनुष्यत्वेनोत्पधन्ते ॥२३॥ १९१।। सम्प्रति उत्पत्तिमरणविरहो जायतमरंतसंखा उ' ति द्विनवति-त्रिनवत्यधिकशततमं द्वारदम्ममाह नास्ति ॥ २ चतुरिन्द्रियेण-लं. ॥ ३ बाराविदूत्वा० मु.॥ ४ जात. वं.॥ द्वारयोर उत्पत्तिमरणविरहः जान-मृत. संख्या च गाथा ११२४.७ प्र. आ. - ३३१ ॥३३ ॥ - YMSAGAR Pradias Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्नमुहत्तो विगलंदियाण संमुच्छिमाण प तहव । पारस मुहत्त गम्भे सव्वेसु जहनओ समओ ॥२४॥ प्रवचन उच्वद्दणावि एवं संस्था समएण सुरवरु तुला । सारोद्वारे नरसिरियसंख सम्वेसु 'जंति सुरनारया गम्भे ॥२५॥ - सटीके बारस मुहुत्त गन्भे मुहत्त सम्मुच्छिमेसु चउवीसं। उकोसविरहकालो दोसुवि य जहन्नओ समओ ॥२६॥ द्वितीयः । एमेन य उल्वामा ला सण सुरवस्तुल्ला ।। मणुएम उववज्जेऽसंखाउय मोतु सेसाओ ॥२७॥ [वृहत्सं. ३३७-८, ३४०-१] 'भिन्ने' त्यादिगाथाचतुष्कम् , विकलेन्द्रियाणां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां सम्मूर्छिमाणां च-असंजि'पञ्चेन्द्रियाणां तिरचा प्रत्येकं भिन्न-खण्डो मुहुर्तोऽन्तमुहूर्तमित्यर्थः, उत्कृष्ट उपपातविरहकालः । तथा 'गब्भे ति गर्भजपञ्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कृष्ट उपपातविरहकालो द्वादश मुहूर्ताः । 'जघन्यः पुनः सर्वेष्वपि विकलेन्द्रियादिपपातविरहकाल एकसमयः ॥२४॥ विकलेन्द्रियाणां सम्मूबानां गर्भमुस्कान्तानां च पञ्वेन्द्रियतिरश्चौ "एवं उपपातविरहकालसमतया सहमति-कि. अंति-सि.२सुरवर मु.५३ पल्वेन्द्रियाणां परचेन्द्रियतिरवां-सि. वि.॥ ४ जघन्यतः-मु.॥ ५ एवं-मु. नास्ति । ... १९३ द्वारयोः उत्पत्तिमरणविरहः जातमृतसंख्याच गाथा. ११२४.७ प्र. आ. ॥३३॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वारयोः उत्पत्ति द्वितीयः मरण उद्धर्तनापि-उद्वर्तनाविरहकालोऽपि वक्तव्यः । तथा एतेषामेव द्वीन्द्रियादीनामेकेन समयेन-एकस्मिन् समये उपपाते उद्वर्तनायां च सङ्ख्या सुरवरैस्तुल्या भणनीया । सा चैवं'एगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा याममए । उनारनवाया हब'तावि एमेव ॥१॥ बहसं. गा. १५६] तथा नरास्तिर्यचच सङ्ख्यातवर्षायुषः सर्वेष्वपि स्थानेषु यान्ति । चतसृष्वपि गतित्पद्यन्ते इति भावः । 'सुरनारया गम्भे' ति सूत्रस्य सुचामात्रपरत्वात सुरा नारकाच गर्भजपयोप्तमङ्ख्यातवायुष्कतिर्थमनुष्येषु गच्छन्ति, नान्यत्र । नवरं सुरा एकेन्द्रियेष्वपि । उक्तं च'वायरपज्जत्तसु सुराण भूदगवणेसु उप्पत्ती । ईसाणताणं चिय तत्थवि न उ उङ्गाणपि ॥१॥ ॥२५।। उक्तस्तिस्वामुपपात-च्यवनयोविरहकाल एकसमयसङ्ख्या च प्रसङ्गतः सामान्येन गतिद्वारं च, अथ मनुष्याणामेतदेवाह-'यारसे' न्यादि गाथाद्वयम् , गर्भ जेषु मनुष्येषु उत्कर्षत उपपातविरहकालो द्वादश मुहूर्ताः संमूच्छिम'मनुजेषु चतुर्विंशतिमुहुर्ताः । जघन्यतस्तूभयत्राप्येकः समयः ॥२६॥ तथा उद्वर्तनापि-उद्वर्तनाविरह कालोऽप्येवमेव-उपपातविरहकालबद्वेदितव्यः । सलथा पुनरेकस्मिन् समये उत्पद्यमानानामुद्वर्तमानानां च नराणां सुरवर स्तुन्या । सा चैवम्'एगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा उ एगसमएणं । उववज्जतेवइया उव्वतावि एमेव । १।। [यहत्सं. गा. १५६] इति । १ मनुष्येषु-मु.।। २ एको-खं । एको-सि.॥ विरहः जात-मृतसंख्या च गाथा ११२४-७ १३३२॥ SHMIR e mainsonilisatissuesamirsiya USARAIN i milndedwwwinnibelawarendriwwwwww Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ womeonmomemONTISITY been ११२८ नवरमसङ्ख्थातत्वं सामान्यतो गर्भजसम्मूछिमसङ्ग्रहापेक्षया द्रष्टव्यम् , तथा असङ्ख्यातवर्षायुषो नरप्रवचन | तिरश्चः उपलमणत्वात् सप्तमपृथिवीनारकतेजोवायूश्च मुक्त्वा शेपाः सर्वेऽपि सुरनरतियङ्नारका मनुष्ये- १९४ द्वारे सारोद्वारे घृत्पद्यन्त इति ॥२७॥१९२-११३॥ भवनसटीके सम्प्रति "भवणवइ-वाणमन्तर-जोइसिय-विमाणवासिदेवाण ठिहति चतुर्नवत्यधिक (पत्यादीनां शततमं द्वारमाह | स्थितिः द्वितीयः खण्ड: भवणवदवाणमंतरजोइसियविमाण'वासिणो देवा । गाथा दस १ अट्ठ २ पंच ३ छठवीस ४ संखजुत्ता कमेण इमे ॥२८॥ ॥३३३॥ असुरा १ नागा २ विज्जू ३ सुवन्न ४ अम्गी ५ य वाउ ६ थणिया ७ य ! उदही ८ दीव १ दिसाविय १० दस भेया भवणवासीणं ॥२९॥ पिसाय १ भूया २ जक्खा ३ य रक्स्वसा ४ किन्नरा ५ य किंपुरिसा ६ । प्र. आ. महोरगा ७ य गंधवा ८ अट्टविहा वाणमंतरिया ॥३०॥ [बृहत्सङ्ग्रहणी गा. ४२,५८] अणपन्निय १ पणपत्रिय २ इसिवाइय ३ भूयवाइए ४ चेव । कंदिय ५ तह महकंदिय ६ कोहंडे ७ चेव पयगे ८ य ॥३१॥ [प्रज्ञापना स. १९४/१५१] इय पहमजोयणसए रयणाए अट्ठ वंतरा 'अवरे । तेस' इह सोलसिंदा रुयगअहो दाहिणुत्तरओ ॥३२॥ [धृहत्सं. चन्द्र.४०-१] ||३३३॥ १०वासिदेवाण-वि. बासिदेवाण-सि ॥२ एए-ता.॥ . 2:3usta Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: m ॥३३४॥ चंदा १ सूरा २ य गहा ३ नक्खत्ता ४ तारया ६ य पंच इमे । एगे चलजोइसिया घंटायारा थिरा अवरे ॥३॥ भवनसोहंमी १ साण २ सणंकुमार ३ माहिंद ४ भलोयभिहा ५ । पत्यादि संतय ६ सुक७ सहस्सार ८ आणय ९ पाणया १० कप्पा॥३४॥ [तुला-जीवसमास गा.१९-२०] स्थितिः तह आरण ११ 'ऽच्चुया १२ विष्ट इम्हि गेविज्जवरविमाणाई । गाथा परमं सुदरिसणं १३ तह 'बिईयं सुप्पबुहंति १४ ॥३५॥ तइयं मणोरमं १५ तह विसालनामं १६ च सव्वओभ६१७ । ११२८ ११४६ सोमगसं १८ सोभाणस १९ महपीहकरं च २० आइञ्च २१ ॥३६॥ विजयं च २२ वेजयंतं २३ जयंत २४ मपराजियं २५ च सव्वट्ठ २६ । प्र.आ. एयमणत्तरपणगं एएसिं चरब्धिहसुराणं ॥३७॥ ३३२ घमरवलि सारमहियं सेसाण सुराण आउयं वोच्छं । दाहिणदिवद्वपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं ॥३८॥ अष्ट अद्धपंचमपलिओवम असुरजुयलदेवीणं । सेसवणदेवयाण य देसूणखपलियमुक्कोसं ॥३९॥ अरुधुवा- ॥ २ तस्स-ता. सि. ॥३पियं-सि. वि. ॥ ४ बिजयंत-सि.वि. ॥ ५ ०धम-सि. वि. नास्ति । । HIM SAMS UREMEventil SOORNSSONSTIPALASH Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवचननारोद्धारे माटोके द्वितीयः दस भवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहण्णोणं । 'पलिओवममुक्कोसं वंतरियाणं वियाणिज्जा ॥४०॥ [ वृहत्सङ्ग्रहणी गा. ५, ६, ४] पलियं सवरिसलक्खं ससीण पलियं रवीण 'ससहस्सं । गहणवत्तशामण सियमा मा चउभागो ॥४॥ तह वीणवि तद्विाअई अहियं तमंतदेविटुगे । पाओ जहन्नमहसु तारयतारीणमट्टसो ॥४२॥ दो साहि सत्त 'साहिय दस चउदस सत्तरेव अयराई । सोहम्मा जा सुक्को तदुवरि एक्केकमारोवे ॥४३॥ [बृहत्संग्र. गा. १२] तेत्तीसऽयरुकोसा विजयाइसु ठिइ जहन इगतोसं । अजहन्नमणुकोसा सवढे अयर तेत्तीसं ॥४४॥ पलि यंअहियं "सोहंमीसाणेसु तोऽहकप्पठिई । वरिल्लमिजहन्ना कमेण जावेकतीसऽयरा ॥४॥ सपरिग्गगराणं सोहमीसाण पलियसाहीयं । उकोस सत्स 'पन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥४६॥ [वृहत्सङ्ग्रहणी गा. १७] १ पलिमोमुसि .वि.॥२ सयसहस्सं-मु.॥३-मु. नास्ति ॥ ४ माही-सि.।। ५ बोसारसाहि सुदरपठिई-ता.॥ बन्ना-मुः । पन्ना-मि. वि. । १९४ द्वारे भवनपत्यादीनां स्थितिः गाथा ११२८. ११४६ प्र. आ. ३३२ ॥३३५।। note.in Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ||३३६ ॥ 'भवणे' त्यादिगाथा एकोनविंशतिः, दीव्यन्तीति देवाः प्राग्भवोपात्तपुण्यप्राग्भारोपनतविशिष्टभोगसुखाः प्राणिविशेषाः । ते च मूलभेदतस्तावच्चतुर्विधाः । तद्यथा - भवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्का विमानवासिनत्र । तत्र भवनानां पतयः - तन्निवासित्वात्स्वामिनो भवनपतयः । तन्निवासित्वं च बाहुल्यतो नागकुमाराद्यपेक्षया द्रष्टव्यम् । ते हि प्रायो भवनेषु वसन्ति कदाचिदावासेषु । असुरकुमारास्तु प्राचुर्येणावासेषु कदाचिद्भवनेषु । भवनानामावासानां चायं विशेष:- भवनानि वहिवृ' तान्यन्तः समचतुरस्राणि अधःकर्णिकासंस्थानानि । आवासास्तु कायमानस्थानीया महामण्डपा विचित्रमणिरत्नप्रभाभासितसकलदिक्चक्रा इति । ' तथा विविधमन्तरं - शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते वनान्तराः । यदिवा विगतमन्तरं विशेषो मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः तथाहि मनुष्यानपि चक्रवर्ति-वासुदेवप्रभृतीन् भृत्यवदुपचरन्ति केचियन्त इति मनुष्येभ्यो विगतान्नराः । प्राकृतत्वाच्च सूत्रे 'वाणमंतरा' इति पाठ: । यद्वा 'वानन्तरा' इति पदसंस्कारः । तत्रापि वनानामन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः । पृषोदरादिस्वादुभयपदान्तरालवर्ती मागमः । इदं तु व्युत्पत्तिनिमित्तं प्रवृत्तिनिमित्तं तु सर्वत्रापि जातिभेद एवानुसर्तव्यः । तथा द्योतयन्ति - प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतींषि - विमानानि तेषु भवा ज्योतिष्काः । तथा विविधं मान्यन्ते - उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति विमानानि तेषु वसन्तीत्येवं शीला विमानवासिनः एते च भवनपत्यादयो देवाः 'क्रमेण यथासङ्ख्यं दशाष्टपञ्चपविंशतिसङ्ख्यै में युक्ता भवन्ति ॥ २८ ॥ सम्प्रत्येतानेव क्रमेण भेदानभिधित्सुः प्रथमं तावद्भवन पतिभेदानाह- 'असुरे 'त्यादि, भवन१ तुका बृहत्समहणीमलय वृत्तिः ५० ४ ॥ २ व्यन्तराः खं बृहत्सं. मलय. वृत्तौ च || ३ बनान्तराणि-खं. नास्ति ॥ १९४ द्वारे भवन पत्यादीना स्थितिः गाथा ११२८ ११४६ प्र. आ. ३३२ ॥३३६॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sanilioned प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥३३७॥ वासिना अवान्तरजातिभेदमधिकृत्य दश भेदा भवन्ति । तद्यथा---'असुरा' इति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादसुरकुमाराः । एवं नागकुमारा इत्याद्यपि 'भावनीयम् । अथ कस्मादेते कुमारा इति व्यपदिश्यन्ते ?, १९४ द्वारे उच्यते, कुमारवन्वेष्टनात् । तथाहि-मर्च एवेते कुमारा इव श्रृङ्गाराभिप्रायकृत विशिष्टविशिष्टतरोत्तररूपक्रिया. भवनसमुद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहना अत्युल्यणरागाः क्रीडनपराश्च ततः कुमारा इन कुमारा इति । पत्यादीनां 'गाथानुबन्धानुलोम्यादिकारणाच्च कुतश्विदेते एवं पठिताः । प्रज्ञापनादौ त्वमुनव क्रमेण पठयन्ते, तथाहि स्थितिः "असुरा नाग सुवना विज्जू अग्गी य दीव उदही य । गाथा दिसिपवणथणियनामा दमहा एए भवणवासी ॥ १॥ [पद २ सूत्र १७७ गा. १३७]॥ २९ ॥ ११२८रुयन्तरभेदानाह--'पिसाये' त्यादि, सुगमा ।। ३० ॥ ११४६ इहापरेऽस्यष्टौ व्यन्तरभेदाः सन्तीत्यतस्तानप्याह-'अणे' त्यादिगाथाद्वयम् , अप्रज्ञप्तिकाः, पञ्चप्रज्ञप्तिकाः, ऋषिवादिताः, भृतवादिताः, क्रन्दिताः, महाक्रन्दिताः, कूष्माण्डाः पतगाश्चेत्येवमपरे-पिशा- प्र. आ. चादिव्यतिरिक्ता अष्टौ व्यन्तरनिकायाः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे-उपरितने योजनशते भवन्ति ।। एतदुक्तं भवति-रत्नप्रभाया उपरितने रत्नकाण्डरूपे योजनसहस्र अध उपरि च प्रत्येकं योजनशतरहिते पिशाचादयोऽष्टौ व्यन्तरनिकायाः सन्ति । तत्र च यदुपरि योजनशतं मुक्तं तत्राध उपरि च दशयोजनरहितेऽप्रज्ञप्तिकादयोऽष्टाविति । तेषु च-अप्रज्ञप्तिकादिषष्टम व्यन्तरनिकायेषु रुचकस्याधस्ता१ परिमापनीयं-मु.वं. वि. सि. परि० नास्ति ।। २०विशिष्टोत्तरोत्तर. मु. ० विशिष्टविशिष्टतरोत्तरखं.॥ ३ माथा बन्धास्त्रं. ॥ ४ पतमा मु.॥५मप्राप्तादि० खं. ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥३३८॥ दक्षिणत उत्तरतश्च द्वयोयोरिन्द्रयोर्भावात पोडश इन्द्रा भवन्ति । एवं पिशाचादिष्वप्यष्टसु पोडश, मवन १९४द्वारे पतिषु च दशसु विंशतिः । अत एव विंशतिर्भवनपतीन्द्राणाम् , द्वात्रिंशतो व्यन्तरेन्द्राणाम् । असङ्ख्यातत्वे भवनऽपि चन्द्रार्काणां जातिमात्राश्रयणाद् द्वयोश्चन्द्रसूर्य योज्योतिकेन्द्रयोः दशानां च सौधर्मादिकल्पेन्द्राणां पत्यादिना मीलने चतुःषष्टिरिन्द्रा इति ॥३१.३२॥ থিলিঃ ___ज्योतिष्कभेदानाह--'चंदे' त्यादि, चन्द्राः, सूर्याः, ग्रहाः, नक्षत्राणि, तारकाश्चेत्येवं' पत्र गाथा ज्योनिष्कभेदा भवन्ति । तत्र चंके-मनुष्यक्षेत्रवर्तिनो ज्योनिष्काश्चला-मेरोः प्रादक्षिण्येन सर्वकालं भ्रमण ॥११२८शीलाः, अपरे पुनये मानुषोत्चरपर्वतात्परेण स्वयंभृरमणसमुद्रं यावद्वर्तन्ते ते सर्वेऽपि स्थिराः-सदावस्थान स्वभावाः । अत एव घण्टाकारा अचलनधर्मकत्वेन घण्टावत् स्थानस्था एव तिष्ठन्तीत्यर्थः ॥३३॥ वैमानिकभेदानाह-'सोहमी' त्यादिगाथा'चतुष्कम् । इह वैमानिका द्विविधाः-कल्पोपपन्नाः प्र. आ. कल्पातीताश्च । तत्र कम्प:-आचारः, स चात्र इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंशादिव्यवस्थारूपः, तं प्रतिपन्नाः कल्पोपपत्राः। ते च द्वादश । तद्यथा-सौधर्मदेवलोकनिवासिनः सौधर्माः, ईशानदेवलोकनिवासिन ईशानाः, एवं सर्वत्रापि भावनीयम् , भवति च 'तात्स्च्याचद्वथपदेशो' यथा पश्चालदेशनिवासिनः 'पत्राला इति । यथोक्तरूपं कल्पमतीता:-अतिक्रान्ताः कल्पातीताः-प्रेयका अनुत्तरविमानवासिनः । सर्वेषामपि तेषामहमिन्द्रत्वात् । तत्र लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेशे भवानि विमानानि अवेयकानि । तानि च नव । तथा- ॥३३॥ १०ते-तं. ॥ २ ०चतुष्टयं च ।। ३ पासाला मु. । पश्चाला- सं. किसि. ॥ MINE . . ............. i so - MAIR P ER Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करम् ८, आदित्यम् , चेति । प्रवचन- सारोद्धारे सटिके द्वितीयः सुदर्शनम् १, सुप्रबुद्धम् २, मनोरमम् ३, विशालम् ४, सर्वतोभद्रम् ५, सुनमः ६, सौमजस ७, प्रीति १९४द्वारे तथा न विद्यन्ते उत्तराणि प्रधानानि 'विमानानि येभ्यस्तान्यनुत्तराणि; तानि च पञ्च । तद्यथा । भवनविजयम् , वैजयन्तम् , जयन्तम् , अपराजितम् , सर्वार्थसिद्धं च । एतन्निवासिनो देवा एतन्नामानो द्रष्टव्याः।। पत्यादिनां मिलिताश्च वैमानिकाः पडविंशतिः। स्थितिः एतेषां मूलभेदापेक्षया चतुर्विधान भवनपत्यादिदेवानां 'ठिई' ति स्थितिरायुष्कलक्षणा प्रतिपाद्यते गाथा १९२८॥ ३४ ॥ ३५॥३३ ।। ३७॥ तामेवाह--"चमरे' त्यादि, इहासुरकुमारादयो दश भवनपतिनिकायाः । 'एकैके च द्विधामेरोदक्षिणदिग्भागवर्तिनो मेरोरेवोत्तरदिग्भागवर्तिनश्च । तत्रासुरकुमाराणां दक्षिणदिग्भाविनामिन्द्रश्चमरः; प्र. आ. उत्तरदिग्भाविनां च बलिः। तत्र 'चमर-घलि सारमहियं' ति पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचारात् 'सार' मिति सागरोपमं द्रष्टव्यम् । प्राकृतत्वाच्चमर-बलिशब्दाभ्यां परतः षष्ठीविभक्तेलोपः । ततोऽयमर्थः-चमरबल्योः क्रमेण सागरोपममधिकं चोत्कृष्टमायुः । किमुक्तं भवति १-चमरस्यासुरेन्द्रस्य दक्षिणदिग्वर्तिन उत्कृष्टमायुरेकं परिपूर्ण सागरोपमम् , बलेरसुरेन्द्रस्य उत्तरदिग्वर्तिनः सागरोपमं किञ्चित्समधिकमिति । १ विमानानि-सि.वि. नास्ति ॥ २ 'परम' गाहाख ।। एवमग्रेऽपि 'मर' स्थाने 'चरम' इति स.प्रवी॥ तुला-वृहत्सं. मलय. वृत्तिः प..All ॥३३॥ meme Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे। सटीके द्वितीयः खण्ड: सम्प्रति शेषाणां चमर-घलिव्यतिरिक्तानां सुराणां-देवानां नागकुमारावधिपतीनामित्यर्थः आयु. चक्ष्ये । तदेव कथयति- "दाहिणदिवड्डपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणइत्यादि, दाक्षिणात्यानां । । भवननागकुमारावधिपतीनां-धरणप्रमुखाना नवानामिन्द्राणामुत्कृष्टमायुः द्वितीयमधं यस्य तद् द्वयधं पल्योपमम् पत्यादीनां साध पस्योपममित्यर्थः । 'उत्तरिल्लाण' ति 'उत्तराहाणाम्-उत्तरदिग्भाविना नागकुमारादीन्द्राणां स्थितिः भूतानन्दप्रभृतीनां नवानां देशोने-किश्चिने द्वे पल्योपमे | उत्तरदिग्वर्तिनो ह्य ते स्वमात्रादेव शुभाश्चि. गाथा रायुषश्च भवन्ति । दक्षिणदिग्वर्तिनस्तु तद्विपरीता इति ॥ ३८॥ ११२८___ 'इत्युक्तं भवनवामिना देवानामुन्कृष्टमायुः; सम्प्रति भवनवासिव्यन्तरदेवीनामाह-'अन्हुडे' ११४६ त्यादि, 'असुरयोः-असुरेन्द्र योश्च मरबलिनाम्नोयुगलं असुरयुगलम् , तस्य देवीना यथाक्रममुस्कृष्टमायुरर्धचतुर्थानि अर्धपश्चमानि च पन्योपमानि । चमरेन्द्रदेवीनां सार्धानि त्रीणि, बलीन्द्रदेवीना तु सार्धानि प्र. आ. चत्वारि पल्योपमानीत्यर्थः । शेषार्णा नागकुमाराद्यधिपतीनां तूत्तरदिग्वर्तिनां तथा 'वण' ति वनचराणा"व्यन्तराणामुत्तरदक्षिणदिग्धतिना चशब्दात् दक्षिमदिग्भाविनागकुमाराद्यधिपतीनां च सम्बन्धिनीनां 'देवीना यथाक्रममुस्कृष्टमायुर्देशोनं पल्योपममर्धपल्योपमं च । ३३४ १ दाहिणेत्यादि खं. बृ.सं. वृत्तौ च ॥ २ भौत्तः स्त्र. । उत्तराहीनां-इति वृ.सं. वृत्तौ ।। ३ उक्तं च-खं.॥ ४ तुला-बृहत्सङ्ग्रहणीवृत्तिः प. ! B तः ॥ ५ सयन्तराणामुत्कृष्टमायुर्दे शोनं पल्योपमं दक्षिण खं. ॥ ६ देखीनां चोत्कृष्टमायुर्धपल्योपमं चखं । STETRai Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयमत्र भावना---उत्तरदिग्भाविनागकुमारायधिपतिदेवीनामुत्कृष्टमायुदेशोनं पल्योपमम् , प्रवचन दक्षिणदिग्माविनागकुमाराधिपतिर्दधीनां दक्षिणोरदिग्भाविव्यन्तराधिपतिदेवीनां चोत्कृष्टमायुरधं पन्यो- १९४ द्वारे सारोद्धार | पममिति । केचिद्वयन्तरीणां पल्योपममुत्कृष्टमायुगहुः 'श्रीहीधृतिकीर्तिवुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितय" भवनपत्यासटीके [ ] इति वचनश्रवणान् । तच्च तेषामागमानवगमविजृम्भितम् , यदुक्तं प्रज्ञापनायाम्- . दीना.. द्वितीयः स्थितिः ___"घाणमंतरीणं भंते ! केवइकालं ठिई पन्नत्ता १, गोयमा ! जहन्नेणं दस वासमहम्साई उक्कोसेणं खण्ड: गाथा अद्धपलिग्रोवमं' [पद ४ सूत्र ३६४] इति, श्रीप्रभृतयस्तु भवनपतिदेव्यः । तथा च सङ्ग्रहणीटीकायां ११२८. ॥३४१॥ हरिभव मूरि:-"तासां भवनपतिनिकायान्तर्गतत्वादि" [ ] ति ॥ ३६॥ अथ भवनपति'व्यन्तरदेवदेवीनां जघन्यां व्यन्तरदेवानामुत्कृष्टां च स्थितिमाह-दसे प्र. आ. त्यादि, सूचकत्वात्सूत्रस्य 'भवण' त्तिभवनपतिदेवानाम् , 'उपलक्षणत्वात्तद्देवीनां च वनचराणा-व्यन्तरदेवानां तद्देवीना च जघन्येन स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि । 'जघनम्-अधस्तानिकृष्टो भागः, तत्र भवं जघन्यरोममलादि तच्च किल स्तोकम् , ततोऽन्यदपि स्तोकं लक्षणया जघन्यमित्युच्यते । केवलं भावप्रधानत्त्वानि देशस्य ! जघन्येन-जयन्यतया सर्वस्तोकतयेत्यर्थः । तथा व्यन्तराणां-व्यन्तरदेवानामुत्कृष्ट स्थिति विजानीयात् “पन्योपमप्रमाणाम् , तदेवीना तु पल्योपमा मुत्कृष्टा स्थितिः प्रागेवोक्तेति ॥ ४०॥ ३३४ १व्यन्तरदेवदेवानां खा व्यन्तर देवाना-सि.॥२ उपलक्षणत्वात्तदेवीनां च-खं. वि. नास्ति। उपलक्षणत्वात्सि.नास्ति॥ परागसि॥४जवन्यं ख. सि. ॥५०टं-खं.॥६पल्योपमप्रमाण-खं ।। पल्योपमं प्रमाण-सि.॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ११२८ सम्प्रति ज्योतिष्कदेवदेवीमामुत्कृष्टां जघन्यां च स्थितिमाह-'पलिये' त्यादिगाथाद्वयम् , ||१९४ द्वा ज्योतिष्कदेवास्तावचन्द्रा-ऽऽदित्य-ग्रह-नक्षत्र-तारकभेदात्पञ्चविधाः, तद्देव्योऽपि पश्चविधा इति सर्वेऽपि भवनपत्या दशविधाः । तत्र शशिनाम्-असङ्ख्येयद्वीपसमुद्रवर्तिचन्द्रविमानवासिंदेवानां सवर्षलक्षं-वर्षाणां लक्षेणाधिक दिनां पन्योपममुत्कृष्टमायुः । एवं स्वीणाम्-आदित्यानामशेषाणां ससहस्र-वर्षाणां सहस्र णाधिकं पल्योपम स्थितिः मुत्कृष्टमायुः । तथा ग्रह-नक्षत्र-ताराणां पल्योपमं पल्योपमाधं पल्योपमचतुर्भागश्च यथाक्रममुत्कृष्टमायुः । गाथा इयमत्र भावना-ग्रहाणा-भौम-युधादीनां परिपूर्ण पल्योपमम् ; नक्षत्राणाम्-अश्विन्यादीनां पल्योपमार्धम् ; तारकदेवानां च पल्योपमस्य चतुर्थो भाग उत्कृष्टमायुरिति ! तथा तेषां-चन्द्रा-ऽऽदित्य-ग्रह-नक्षत्र सारकदेवानां सम्बन्धिन्याः स्थितेरध-समप्रतिभागरूपं तेषामेव प्र. आ. सम्बन्धिनीनो देवीनां क्रमेणोत्कृष्टमायुः । 'केवलमन्त्यदेवीद्विके-नक्षत्र तारकदेवीद्वये तदेवार्धमधिकंविशेषाधिकमत्रसेयम् , इदमुक्तं भवति-चन्द्रविमानवासिनीना देवीनां पल्योपमा पश्चाशद्वर्षसहस्राधिकम् , सूर्यदेवीना पल्योपमा पञ्चवर्षशताधिकम् , ग्रहदेवीनां च पूर्ण पल्योपमा मुत्कृष्टमायुः । तथा नक्षत्रदेवीना पन्योपमस्य चतुर्थो भागो विशेषाधिकमुत्कृष्टमायुः । तारकदेवीनां पल्योपमस्याष्टमो भागः किश्चिदधिकमुत्कृष्टमायुरिति । तथा तारकदेवदेव्योः पृथगभिधानात् शेषेवष्टसु-चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रदेवतद्देवीरूपेषु भेदेषु पादः-पल्योपमस्य चतुर्थो भागो जघन्यमायुः तथा तारकदेवानां तारकदेवीनां च पल्योपमस्या- ३४२।। ष्टांश: अष्टमो भाग इति ॥४१॥ ४२।। १ केवलमन्तदेवी० रखें ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ वैमानिकदेवानामुत्कृष्टां स्थितिमाह--'दो साही' त्यादि 'सौधर्मात्-सौधर्मकल्पाद्यावत् वन-| शुक्रो-महाशुक्रकल्पस्तावदनेन क्रमेणोत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपत्तव्या । तथाहि-सौधर्मे कल्पे देवानामुत्कृष्टा सारोद्वारे स्थिति अतरे, 'तरीतुमशक्यं प्रभूतकालतरणीयत्वादतरं सागरोपमम् , द्वे सागरोपमे इत्यर्थः । ईशाने १९४द्वारे भवनपत्यासटीके ते एव द्वे सागरोपमे साधिके-किश्चितसमधिके । सनत्कुमारे सप्त सागरोपमाणि । माहेन्द्र तान्येव सप्त सागरोपमाणि साधिकानि । ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि । लान्तके चतुर्दश, महाशुक्र सप्तदश । द्वितीयः । स्थितिः खण्ड: दुवरि एक्केकमारोवे' इति तस्य-महाशुक्रस्य कल्पस्योपरि सहस्रारादिषु प्रतिकल्पं प्रतिवेयक गाथा च पूर्वस्मात् पूर्वस्मादधिकमेकैकं सागरोपमम् उत्कृष्टायश्चिन्तायामारोपयेत् । तद्यथा-सहस्रारेऽष्टादश ॥३४३॥ ११२८सागरोपमाण्युत्युत्कृष्टा स्थितिः । आनते एकोनविंशतिः, प्राणते विंशतिः आरणे एकविंशतिः, अच्युते द्वाविंशतिः, 'अधस्तनाधस्तने ग्रैवेयके त्रयोविंशतिः, अधस्तनमध्यमे 'चतुर्विंशतिः, अधस्तनोपरितने पञ्चविशतिः मध्यमाघस्तने पड़विंशतिः, मध्यममध्यमे सप्तविंशतिः, मध्यमोपरितनेऽष्टाविंशतिः उपरितनाधस्तने प्र. आ. एकोनत्रिंशत् ; उपरितनमध्यमे त्रिंशत् ; उपरितनोपरितनवेयके एकत्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः॥४३॥ एकैकद्धया च एकत्रिंशतोऽनन्तरमनुत्तरेषु द्वात्रिंशदेव स्यात् अतस्तेषु पृथगाह-'तेत्तीसे' त्यादि, विजयादिषु-विजय चैजयन्त-जयन्ता-ऽपराजितेषु चतुर्यु अनुत्तरविमानेषु त्रयस्त्रिंशदतराणि-सागरोपमाA तुला-वृहत्सग्रहणीवृत्तिः प.१२॥ २ढे सागरोपमे इत्यर्थः-तरी० जे. सागरोपमे इत्यर्थ:-तरी०सि वि.॥ | ॥३४॥ ३ अधस्तनाधस्तन मु.॥४॥ चतु.सि. कि.।। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः स्वण्ड : 1138811 oयुत्कृष्टा स्थितिः । जघन्या पुनरेतेषु विजयादिषु चतुर्षु एकत्रिंशत्सागरोपमाणि । तथा सर्वार्थसिद्धे त्रयस्त्रित्सागरोपमाण्य जघन्योत्कृष्टा स्थितिरिति ॥ ४४|| अथ वैमानिकदेवानामेव जघन्यां स्थितिमाह - 'पलिय' मित्यादि, इह यथाक्रमं पदसम्बन्धात् सौधर्मे कल्पे एक पल्योपमम् ; ईशाने तदेव किञ्चित्समधिकं जघन्या स्थितिः । तत ऊर्ध्वं सनत्कुमारादिषु ग्रैवेयकानुत्तरविमानावसानेषु अधःकल्पस्थितिः - अधोवर्त्तिनः कल्पस्य या उत्कृष्टा स्थितिः उपयु परिवर्त्तिनि सैव जघन्या स्थितिः । अनेन च क्रमेण तावत्प्रतिपत्तव्यं यावदेकत्रिंशदतराणि । तथाहि यैव सौधर्मे सागरोपमद्वयरूपा उत्कृष्टा स्थितिः सैव तदुपरिवर्तिनि सनत्कुमारे जघन्या । यैव चेशाने सातिरेकसागरोपमद्वयस्वरूपा उत्कृष्टा स्थितिः सैव तदुपरिवर्तिनि माहेन्द्रे जघन्या । सनत्कुमारोत्कुष्टस्थितिस्तु सागरोपमसकलक्षणा तदुपरिवर्तिनि ब्रह्मलोके जघन्या । तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम् - "मलोए कप्पे देवाणं केवइयकालं ठिई पन्नत्ता १ गोयमा ! जहन्नेणं सच सागरोत्र माई" [पद ४ सू. ४१९] ति । तस्वार्थ भाष्ये तु - "या माहेन्द्रे परा स्थितिर्विशेपाचिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवती" [ ] त्युक्तम् । ब्रह्मलोकोत्कृष्ट स्थितिस्तु दशसागरोपमात्मिका लान्तके जघन्या | लान्तकोत्कृष्टस्थितिरपि चतुर्दश सागरोपमरूपा महाशुक्रे जघन्या । तदुत्कृष्टस्थितिस्तु सप्तदशसागरोपमस्वरूपा सहस्रारे जघन्या । १ वा.सु ॥ १९४ द्वारे भवनपत्या दिनां स्थितिः गाथा ११२८. ११४६ प्र. आ. ३३५ ॥ ३४४॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन- रोद्वारे द्वतीयः तदुत्कृष्टस्थितिः पुनरष्टादशसागरोपमलक्षणा आनते जघन्या। तदुत्कृष्टस्थितिस्त्वेकोनविंशतिसागरोपमस्वरूपा प्राणते जघन्या । तदुत्कृष्टस्थितिरपि विंशतिसागरोपमात्मिका आरणे जघन्या । तदुत्कृष्टस्थितिस्त्वेकविंशतिसागरोपमस्वरूपा अच्युते जघन्या । तदुत्कृष्टस्थितिस्तु द्वाविंशतिसागरोपमरूपा 'अधस्तनाधस्तनधेयके जघन्या । एवमेककं सागरोपमं वयता तावन्नयं यावदनुत्तरचतुष्के-विजय-वैजयन्तजयन्ता-ऽपराजितरूपे एकत्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्या स्थितिः । सर्वार्थसिद्धे पुनर्जधन्या स्थिति स्ति । अजघन्योत्कृष्टायास्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपाया एव स्थितेस्तत्राभिधानादिति ॥ ४५ ॥ सम्प्रति वैमानिकदेवीनां जघन्यामुत्कृष्टां च स्थितिमाह--'सपरी' त्यादि, इह वैमानिक देवीनामुत्पत्तिः सौधर्मेशानयोरेव, ताश्च द्विधा परिगृहीताः-कुलाङ्गना इव, अपरिगहीताश्च-वेश्या इव । तत्र सपरिग्रहाणां-परिगृहीतानामितरासां च-अपरिगहीतानां जघन्या स्थितिः सौधर्मे ईशाने च यथासङ्ख्यं पल्यं-पल्योपमम् , साधिकं च । किमुक्तं भवति ?-सौधर्मे परिगृहीताना देवीनामपरिगृहीतानां च देवीनां जघन्यायुः पल्योपमम् । ईशाने परिगृहीतानामपरिगृहीतानां च देवीनां साधिकं पल्योपममिति । तथा सौधर्म परिगृहीतानामपरिगृहीतानां ( ग्रन्धाग्रं १४००० ) चोत्कृष्टमायुर्यथाक्रम सप्त, पञ्चाशच्च पल्योपमानि, इशाने नव, पञ्चपश्चाशच्च । इयमत्र भावना--सौधर्मे परिगृहीतानामुत्कृष्टमायुः सप्त पल्योपमानि, अपरिगृहीतानां पश्चाशत् ईशाने परिगृहीतानामुत्कृष्टमायुर्नव पल्योपमानि; अपरिगृहीतानां च पञ्चपश्चाशदिति ॥४६॥ १६४॥ १ मधस्तनप्रैवे० सि. वि. ॥२ तुला-बृहत्सङमहणीवृत्तिः प. १४ B तः। १९५द्वारे भवनपत्या| दिनां स्थितिः गाथा ११२८. ११४६ १३४५॥ प्र. आ. ॥३४५॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके १९५द्वा भवनपत्य दीनां भवन ना! गाथा ११४७ ५४ द्वितीयः खण्ड: - ॥३४६॥ सम्प्रति 'भवण' त्ति पञ्चनवत्यधिकशततमं द्वारमाह-- सत्तेव य कोडीओ हवंति यावत्तरी सयसहस्सा । एसो भवणसमासो भवणवईणं वियाणिजा ॥४॥ घउसट्ठो असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई । पावत्तरि कणगाणं वाउकुमाराण छन्न उई ॥४८॥ दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदणियअग्गीणं । छण्हपि जुयलाणं 'लावत्तरिमो सयसहस्सा ॥४९॥ [ वृहत्सङ्ग्रहणी गा. ३५.७] इह संति षणयराणं रम्मा भोमनयरा असंखिज्जा । सत्ता संखिज्जगुणा जोइसिणणं विमाणाओ ॥५०॥ [तुला-वृहत्सङ्ग्रहणी गा. ५५] बत्तीसऽहावीसा बारस अट्ठ “य चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा ॥५१॥ पंचास पत्त छच्चेव सहस्सा लंत सुक्क सहस्सारे । सय घरो आणयपाणएसु 'तिन्नारणच्यए ॥२॥ १ बाव० मु.। प्रज्ञापनासूत्रे वृहत्सल्यहीण्यामपि-छाव० इति पाठः ॥२ श्य-सि. ॥ ३ मोमानयरा-ता... ४.सा. नास्ति ।। वारणाचुए-वा-॥ RTANTRA प्र. आ. HEEZE R . .. .mid FAIRESER FACROSTASE A REMEMBRANASI REANTARRANARTERS KH IRCRAHORE MSLOAD M Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोद्धारे टीके एक्कारसुत्तरं हटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए । पंचेव अणत्तरविमाणा ॥३॥ चुलसीई सयसहस्सा सत्ताणउई भवे सहस्साई । तेवीसं च विमाणा विमाणसंखा 'भवे एसा ॥५४॥ [ बृहत्सङ्ग्रहणी ११७-२०] 'सत्तेव य' गाहा, भवनवासिनां देवानां दशस्वपि निकायेषु सम्पिण्डय चिन्त्यमानानि सर्वाण्यपि भवनानि सप्त कोटयो द्वासप्ततिश्च शतसहस्राणि-लक्षाः भवन्ति ७७२०००००। एष भवनपतीनां भवनसमासो भवनसर्वसङ्ख्या इति विजानीयात् । एतानि च अशीतिसहस्राधिकलक्षयोजनाहल्याया रत्नप्रभाया अध उपरि च प्रत्येकं योजनसहस्रमेकं "मुक्त्वा शेषेऽष्टसप्ततिसहस्राधिकलक्षयोजनमाने मध्यभागेऽवगन्तव्यानि । अन्ये वाहुः- 'नवतेयोजनसहस्राणामधस्ताद्भवनानि । अन्यत्र चोपरितनमधस्तनं च योजनसहस्र मुक्त्वा सर्वत्रापि यथासम्भवमावासा इति ॥४७॥ . सम्प्रति भवनवासिनामेव प्रतिनिकायं भवनसङ्ख्यामाह-'चउ' इत्यादि, असुराणां- 'असुरकुमाराणां दक्षिणोत्तरदिग्भाविनां सर्वसङ्खथया भवनानि चतुःषष्टिः शतसहस्राणि-लक्षा भवन्ति ६४००००० । एवं नागकुमाराणां चतुरशीतिर्लक्षाः ८४०००००; कनकाना-सुवर्णकुमाराणा द्विसप्ततिर्लक्षाः ७२०००००; भवनपत दीनां भवना गाथा ११४५ ५४ ३४७॥ प्र. आ .. १ मुयना-सा.॥२भवन्ति-जे. नास्ति ॥३ तुला वृहत्संग्रहणी मलय वृत्तिः प. २३ ॥ ४ मुक्वा सर्वत्रापि यथासम्मबमावासादिति योजनमाने-खं०। मुक्त्वासर्वत्रापि यथासम्भवमावासा इति-सि० वि०॥५नवति योजना खंनिक्योजन सि.बि.॥६असुरकुमारादीनां-खं.वि.॥७मवनानि-खं. नास्ति ।। भकानि-मु-नास्ति। एवमप्रेऽपिशेयम।। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: __||३४८॥ वायुकुमाराणां पण्णवतिलक्षाः ६६०००००; द्वीपकुमारदिपकुमारोदधिकुमारविद्युत्कुमारस्तनितकुमाराग्निकुमाराणां षण्णामपि दक्षिणोत्तरदिग्वर्तिलक्षणयुग्मरूपाणां प्रत्येकं पट्सप्ततिः षट्सप्ततिर्लक्षा भवन्ति भवनानाम् ७६००००० । एषां च सर्वेषामप्येकत्र मीलने प्रागुक्ताः सङ्ख्या भवन्ति' ७७२००००० भवनपत्या ॥४८॥४॥ दिनां सम्प्रति व्यसरनगरयसयतामाह---'इहे त्यादि, इह-तिर्यग्लोके रत्नप्रभायाः प्रथमे । भवनानि योजनसहस्र रत्नकाण्डरूपे अध उपरि च प्रत्येकं योजनशतविरहिते वनचराणा-व्यन्तराणां रम्याणि- गाथा रमणीयानि, भूमौ भवानि भौमानि-भूम्यन्तवर्तीनि नगराण्यमङ्ख्यातानि सन्ति । रम्यता चैतेषु नित्यमुदितैय॑न्तरर्गतस्यापि कालस्यावेदनात् । यदाह--- २ तहिं देवा वंतरिया वरतरुणीगियवाइयरवेणं । प्र.आ. निच्वं सुहिया पमुइया गयंपि कालं न याति ॥ १॥" [बृहत्सं. चन्द्र. गा, ३३] ३३७ यास्तु मनुष्यक्षेत्रात हिद्वीपेषु समुद्रेषु च व्यन्तराणां नगर्यस्ता जीवाभिगमादिशा भ्योऽव. सेयाः । तेभ्योऽपि व्यन्तरनगरेभ्यः सङ्ख्येयगुणानि ज्योतिष्काणा ज्योतिष्कदेवानां विमानानि ।। ५० ॥ सम्प्रति धैमानिकदेव विमानसख्यामाह--'बत्तीसे' त्यादि गाथाचतुष्कम् , ब्रह्म लोकाद्- 'ब्रह्मलोकपर्यन्तादारतः-अर्वा ; किमुक्तं भवति ?-ब्रह्मलोकमभिव्याप्य एषा विभानसङ्ख्या ॥३४८॥ १०ति-जे. वं. सि. वि. ॥ २ तेहि-खं. सि. । A तत्र देवा व्यन्तरा वरतरुणीगीतवादिवरवेण । नित्यं सुखितप्रमुदिता गतमपि कालं न जानन्ति ।।।। ३ विमानानां सङ्ख्या-मु.।। ४ तुला-बृहत्सप्रणीवृत्तिः प. ४७॥ ५ ब्रह्मलोकचरमपर्यन्ता० मु.॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANIrrenimittandndianmanNewHAIRHATHORasmAINTEmwwendrantetntnessesMIGRem. प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः ॥३४॥ भवति । तद्यथा-सौधर्मे कल्पे द्वात्रिंशद्विमानानां शतसहस्राणि ३२०००००, ईशानेऽष्टा विंशतिः २८०००००, सनत्कुमारे द्वादश १२०००००, माहेन्द्रेऽष्टौ८००००० ब्रह्मलोके चत्वारि ४०००००॥५१॥ १९६ द्वारे तथा-'पंचासे'त्यादि, अत्रापि पूर्वार्धे 'कल्पक्रमेण सङ्ख्या पदयोजना । लान्तके पश्चाशद्विमानानां देवाना। सहस्राणि ५००००; महाशुक्रे चत्वारिंशद ४००००; सहस्रारे षट् सहस्राः ६००० । तथा आनत-प्राण- । देहमानम् तयोर्द्वयोः समुदितयोश्चत्वारि विमानशतानि ४०० । तथा 'आरणा-ऽच्युतयोयोः समुदितयोस्त्रीणि गाथा विमानशतानि ३.० ॥५२॥ ११५५.८ तथा-'एगारे' त्यादि, अधस्तनेषु त्रिषु अवेयकेषु समुदितेषु विमानानामेकादशोत्तरं शतम् ११० मध्यमे ग्रैवेयकत्रिके समुदिते सप्तोत्तरं शतम् १०७ । उपरितनवेयकत्रिके समुदिते शतमेकम १००, सर्वान्तिमप्रतरे तु विजयादीनि पञ्चैवानुत्तरविमानानि ५॥५३॥ प्र.आ. अथ विमानानां सर्वसङख्यामाह-'चुलसीई' त्यादि, 'अनन्तरेण गाथात्रयेणाभिहिताना विमानानामेषा सर्वसङ्ख्या-चतुरशीतिः शतसहस्राणि सप्तनवतिः सहस्राणि त्रयोविंशतिश्च विमानानीति ८४९७०२३ ॥५४॥१९५॥ सम्प्रति 'देहमाणं' ति षण्णवत्यधिकशततमं द्वारमाह भवणवणजोइसोहम्मीसाणे सत्त हुति रयणीओ । एक्केक्कहाणि सेसे दुयुगे य दुगे चउक्के य ॥५५॥ १ कल्पे-वं.वि.।।२ तथा.खं. वि. नास्ति ।। ।भनन्तर गाथात्रयामि मु.॥४०ति (८४६७०२३)-मु.।। ------- ॥३४॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सीके १९६द्वारे देवानां देहमानम् द्वितीयः १०५५-८ ॥३५०॥ गेविज्जेसुदोनि 'य एगा रयणी अणुत्तरेसु भचे । भवधारणिन एसा उक्कोसा होइ नायच्या ॥५६॥ सम्वेसुक्कोसा जोयणाण वेउब्धिया सयसहस्स । गेविष णत्तरेसु उत्तरवेउब्धिया नस्थि ॥५॥ अंगुलअसंत्रभागो जहन्न भवधारणिज पारंभे । संखेसा अवगाहण उत्तरवेउब्धिया साचि॥५८ [बृहत्सङ्ग्रहणी १४३-४४,१४८,१५०] "भवणे त्यादिगाथाचतुष्टयम् , 'मवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्कमाधर्मशानेषु देवानामुन्सेधाङ्गुलेन देहमानमुत्कर्षतः सप्त रत्नयो-हस्ता भवन्ति । शेषे द्विके द्विके द्विके चतुष्के च एकैकहानि:-एकैकहस्तविषया हानियक्तव्या। तद्यथा-सनत्कुमार-माहेन्द्रयोरुत्कषतः पट् हस्ताः शरीरप्रमाणम् : ब्रह्मलोक-लान्तकयोः पश्च; शुक्र-सहस्त्रारयोश्चत्वारः, आनत-प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युतेपु त्रय इति । नथा ग्रेवेय केपकर्षतः शरीरप्रमाणं द्वौ रस्नी । एकश्च रनिरनुत्तरेषु भवेत् , एषा च सप्तहस्तप्रमाणादिका उत्कृष्टायगाहना भवधारणीया वेदितव्या ॥ ५५ ॥ ५३॥ __ "साम्प्रतमुत्तरवै क्रियरूपावगाहनामानमाह--'सब्बेसु' इत्यादि, भवनपत्यादिषु अच्युतदेवलोकपर्यन्तेषु सर्वेष्वपि देवानामुत्तरक्रिया तनुरुत्कर्षतो योजनाना 'शतसहस्र, योजनलक्षप्रमाणा भवती १विता.॥२ साता.॥३ सुला:वृहत्सग्रहणीवृत्तिःप. ६५ तः ॥ ४ तुला-हल्सामहणीवृत्तिः प.६९ ॥ ५ सर्वेषामपि-मुः॥ ६ द्रष्टव्या मनुयोगद्वारस्वतिः प. १६५ ॥ प्र. आ. ३३७ ॥३५०॥ OSHO wamyammatomyaminimum NUMANORAwaowwwmore sinationshion l ineK wwN0000000000wwwINITINENERONMHARAT AMINORITAMARHWAGHAWANING ANMainintidoindantination ............................................... -rihirii म राyिaaMotivationals मरन H Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके १९७द्वारे देवाना लेश्याः गाथा त्यर्थः । अवेयकेषु अनुत्तरेषु च देवानामुत्तरक्रिया तनुर्नास्ति । सत्यामपि शक्ती प्रयोजनाभायतस्तदकरणात उत्तरवैक्रिय ह्यत्र गमनागमननिमित्तं 'परिचारणानिमित्तं वा क्रियते, न चैतेषामेतदस्तीति ।।५७।। सम्प्रति जघन्यतो भवधारणीयामुत्तरवैक्रिया चाह-'अंगुले' त्यादि, सर्वेषामपि भवनपत्यादीनां भवधारणीया-स्वाभाविक्यवगाहना जघन्यागुलस्यासख्ये यो भागः । सा च प्रारम्भे 'उत्पत्तिप्रथमसमये समवसेया । उत्तरवैक्रिया पुनरवगाहना जघन्याऽगुलस्य सङ्खथे यो भागः । पर्याप्तत्वेन तस्य तथाविधजीवप्रदेशसङ्कोचाभावात् । साऽपि प्रारम्भे उत्तरवैक्रियशरीरनिर्माणप्रथमसमये द्रष्टच्या ॥५८॥ १६६॥ साम्प्रतं 'लेसाउ' ति सप्तनवत्यधिकशततमं द्वारमाहकिण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहमीसाण तेउलेसा मुणेयव्वा ॥५६॥ कप्पे सणकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य । :. एएसु पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसाओ ॥६॥ किण्हा' इत्यादिगाथाद्वयम् , भवनपतयो व्यन्तराश्च कृष्ण-नील-कायोत-तेजोलेश्याकाः । कृष्णा नीला कापोती तैजसी चेषां लेश्या 'भवन्तीत्यर्थः । तत्रापि परमाधार्मिकाः कृष्णलेश्याः । तथा ज्योतिकेषु सौधर्मेशानयोश्च देवास्तेजोलेश्याका ज्ञातव्या । तथा सनत्कुमार-माहेन्द्रब्रह्मलोकाख्येषु त्रिषु कल्पेषु १परिचराणा खं.। परिवाराणा सि.॥२ उत्पन्नप्र. जे.सि. ॥ ३ तस्य-सि.वि. नास्ति ।। ४ मषणवंतरया-सि.कि.॥ ५ मवतीत्यर्थः-खं. सि.॥ ६ द्रष्टव्या जीवसमासवृत्तिः ( प. ७३ )। प्र.आ. ॥३५॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥३५२॥ देवाः पद्मलेश्याकाः । ततो ब्रह्मलोकात्परम् - ऊर्ध्वं लान्तकादिषु अनुसरविमानान्तेषु देवाः शुक्ललेश्या ज्ञातव्याः । सर्वा अपि च लेश्या यथोत्तरस्थानं विशुद्धविशुद्धतारा बोद्धव्याः । are भालेश्या 'वोऽवस्थिता कृष्णादिद्रव्यरूपा द्रव्यलेश्या एवेह प्रतिपत्तव्याः, न भावलेश्याः aaraatara | नापि बाह्यवर्णरूपाः बाह्यवर्णस्य देवानां प्रज्ञापनादौ पार्थक्येनोक्तत्वात् । एतच्च नारकलेश्याद्वारे प्रागेवोक्तम् । भावलेश्यास्तु देवानां प्रतिनिकायं यथासम्भवं षडपि भवन्ति । तथा च स्वार्थमूलीका हरिभद्रसूरि :- "भावलेश्याः पडपीष्यन्ते देवानां प्रतिनिकाय" [ ] मिति ४६॥६०॥१९७॥ इदानीम् 'ओहिना'' त्यष्टनवत्यधिकशततमं द्वारमाह सक्कीसाणा पदमं दोच्च च सकुमारमाहिंदा तच्चं घ बंभलंतग सुक्कसहस्सारय उत्थि आणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचम पुढव तं चेव आरणच्चुय ओहिणाणेण पासंति सप्तमि 每 gs हिडिममज्झिमगेविज्जा भिनलोगनालिं अणुत्तरा पासंति १ - मु. नास्ति ॥ २ ० हेतवो भवस्थिताः-मु. ॥ ३ ते ता. ॥ raftar देवा 1 ॥६२॥ 1 ॥६२॥ 1 ॥६३॥ १९८ द्वारे देवानामदधिः गाथा ११६१६ प्र. आ. ३३८ ।।३५२।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे सटीके १९८द्वारे देवानामवधिः गाथा द्वितीयः याणं एएसिमसंखेज्जा तिरियं दीवा य सागरा चेव । बहुययरं उपरिमया उड्ड च सकप्पथूभाई' ॥४॥ संखेज्जजोयणा देवाणं अहसागरे ऊणे । तेण परमसंखेज्जा जहन्नयं पन्नवीसं तु ॥६५॥ [ बृहत्सङ्ग्रहणी २२०-४] भवणवइवणयराणं उड्ड बहुओ अहो य सेसाणं ।। जोइसनेरह _तिरियं ओरालिओ चित्तो ॥६६॥ 'सको' त्यादिगाथाष्टकम् , 'शक्रेशानौ-सौधर्मशान कल्पदेवेन्द्रौ, उपलक्षणमेतत् इन्द्रसामानिकादयश्वोत्कृष्टायुषः, एवमन्यवग्प्युणलक्षणव्यायानं तव्यम् : प्रथमा-रत्नप्रभाख्या पृथिवीं यावत् रत्ननभायाः पृथिव्याः सर्वाधस्तनं भागं यावदुत्कृष्टतोऽवधिना पश्यतः । सनत्कुमार-माहेन्द्राविन्द्रौ द्वितीयांशर्कराप्रभां पृथिवीं यावत् ; शर्कराप्रभायाः पृथिव्या अधस्तनं सर्वान्तियं चरम भागं यावदित्यर्थः । एकमुत्तरत्रापि भावनीयम् । ब्रह्मलोक-लान्तकौ तृतीयां-बालुकाप्रभा यावत् । शुक्रसहस्रारौ चतुर्थी पङ्कप्रभा यावत् । तथा आनत-प्राणतकल्पयोर्देवाः-इन्द्र-तत्सामानिकादयः पञ्चमी पृथिवीं-धूमप्रभा यावदवधिना पश्यन्ति । आरणाच्युतदेवा अपि तामेव पञ्चमी पृथ्वी "यावत् पश्यन्ति, नवरम् आनत-प्राणतदेवेश्य आरणाच्युतदेवास्तामेव विशुद्धतरां बहुपर्यायां च । तत्राप्यानतदेवेभ्या प्राणतदेवाः, आरणदेवेभ्यश्चाच्युतदेवाः प्र.आ. ३३८ १०६.मु.॥२ जोइसिमु.॥ ३ तुला-बहत्सम्पहणी वृत्तिः प.८६ तः॥४०कल्पेन्द्रौ-मु.॥५ यावत् तथा आनत. मु.॥ सास Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ।।३५४।। : सविशेषां पश्यन्ति । उत्तरोत्तरदेवानां विमल- विमलतरावधिज्ञान सद्भावात् । एवं प्रागुत्तरत्र च सर्वत्र tration | atarra 'आधेये आधारोपचारात्' तनिवासिनो देवाः षष्ठीं तमःप्रभां पृथिवीं यावत्पश्यन्ति । 'उपरितना - उपरितनग्रैवेयकवासिनो देवाः सप्तम पृथिवीं यावत् । अनुसरघिमानaferस्तु देवाः सभां परिपूर्णा लोकनाड - लोकमध्यवर्तिनीं त्रसनाडीमधस्तादवधिना पश्यन्ति । उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये "अनुत्तरविमानवासिनस्तु कृत्स्नां लोकनालि पश्यन्ती" [अ. ४. सू. २१] ति / अन्ये तु स्वfवमानध्वजादूर्ध्वमदर्शनात् किञ्चिदूनां लोकनाड पश्यन्तीत्याहुः, तदेवमधस्तादवधिविषयभूतं क्षेत्रमुक्तम् ।। ६१ ।। ६२ ।। ६३ ।। सम्प्रति तदेव तिर्यगूर्ध्व चाह - 'एएसि' मित्यादि एतेषां शक्रेशानादिदेवानां तिर्यक् तिरवीनमवधिविषयं क्षेत्रमसङ्ख्येया द्वीपा : सागराचा असङ्ख्यातान् द्वीपानसङ्ख्यातांश्च समुद्रानवधिना तिर्यक्पश्यन्तीत्यर्थः । केवलमेतदेव द्वीपसमुद्रासङ्ख्येयकम् 'उचरिमया" इति उपयु परिवर्तिकल्पवासिनो देवा बहुकतरम् ; उपलक्षणमेतत् बहुकतमं च तिर्यगवधिना पश्यन्ति । उपर्युपरिदेवलोकनिवासिनां विशुद्धविशुद्धतरावधिज्ञानसद्भावात् । ऊर्ध्वं पुनः सर्वेऽपि शक्रादयो देवाः स्वकल्पस्तूपादीन् - स्वस्वविमानचूलाध्वजादिकं यावत्पश्यन्ति न परतः । तथामथस्वाभाव्यात् । १ उपरितनासु नास्ति ।। २ ० इति तत्त्वार्थ माध्ये पाठः ॥ ३ ०गा-खं. वि. ॥ ४ लग्रहणी देवमद्रीय वृत्तिः प. ७२ ॥ १९८द्वारे देवाना मवधिः गाथा ११६२-६ प्र. आ. ३३८ ॥३५४॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रवचन- सारोद्वारे १९८ द्वारे देवानामवधिः गाथा द्वितीयः • जघन्यतः पुनरमी सर्वेऽपि सौधर्मादयोऽनुत्तरक्मिान'वासिपर्यन्ता अगुलासङ्ख्येयभागमात्र क्षेत्रं पश्यन्ति । तथा चावश्यकचूर्णि: "वैमाणिया सोहम्माओ आरम्भ जाव सब्वट्ठसिद्धगा देवा ताव जहन्नेण अंगुलस्स असंखेज्जइभागं ओहिणा जाणंति पासंति ।" [भा. १ । ५. ५३] .... नन्वङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रक्षेत्रमितोऽवधिः सर्वजधन्यो भवति । सर्वजधन्यश्चावधिस्तियंग्मनुष्ये वेव न शेषेषु । यदुक्तम्-+'उक्कोसो मणासु मणुस्सतेरिन्छएमु य जहन्नो।' [ ] 1 तत्कथमिह वैमानिकानां सर्वजघन्य उक्तः १, उच्यते, सौधर्मादिदेवानां पारभविकोऽप्युपपातकालेऽवधिः सम्भवति । स च सर्वजघन्योऽपि कदाचिदवाप्यते । उपपातानन्तरं तु देवभवप्रत्ययजः । ततो न कश्चिद्दोपः । यदाह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-- A"माणियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नओ होइ । उववाओ परभविओ तम्भवजो होइ तो पछा ॥१॥" पारमविकत्वाचायं सूत्रकृता नोक्त इति ॥६॥ उक्तं वैमानिकानामधस्तिर्यगूर्ध्व चावधिक्षेत्रम् , अथ सामान्यतः शेषदेवानामाह-'संखेज्जे' त्यादि, देवानां-भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्काणामर्धसागरोपमप्रमाणे किश्चिदनायुषि सति संख्येयान्येव + उत्कृष्टो मनुष्येषु मनुष्यतियक्ष च जघन्यः॥ मानिकानामगुलासंख्यमागो जघन्यतो मवति । औपपातिकः (उपपाते) पारभविक तद्भपजो भवति तत् पश्चात् ॥१॥१ वासिनः पर्यन्ता-सि. ! वासिने पर्यन्ता-जे, २ कदाचिदोषः मु.॥ प्र. आ. ३३ । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥३५॥ योजनानि अवधिपरिच्छेद्यक्षेत्रम् । ततः परं संपूर्णार्धसागरोपमादिक आयुषि सति पुनः असङ्ख्येयानि योजनानि । केवलमायुद्ध्या योजनासङ्ख्यातकस्यापि वृद्धिर्वाच्या । जघन्यं 'पुनरवधिक्षेत्रं पञ्चविंशति | १९८द्वारे | देवानायोजनानि । तानि च येषां सर्वजघन्य दशवर्षसहस्रप्रमाणम् आयुस्तेषामेव भवनपतिव्यन्तराणां द्रष्टव्यानि-न-- | मवधिः शेषाणाम् । आह च भाष्यकृत् गाथा A "पणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जमि'' [ ] मिति । ११६१-६ ज्योतिष्काः पुनरसङ्ख्येयस्थितिकत्वाज्जघन्यतोऽपि सङ्ख्येययोजनप्रमितान् सङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानवधिज्ञानतः पश्यन्ति । उत्कपतोऽपि तानेव । केवलमधिकतरान् । उक्तं च प्रज्ञापनायाम् - प्र. आ. "जोइसिया णं भंते ! केवइयं खेतं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा ! जहन्नेणवि संखेज्जे ३३९ दीवसमुद्दे, उक्कोसेणवि संखेज्जे दीवसमुद्दे" [पद ३३, सू. ११९७] इति ॥ ६५ ।। अथ नारकतिर्यङनरामराणां मध्ये कस्य कस्यां दिशि प्रभूतोऽवधिरिति प्रतिपादयभाह'भवणे त्यादि, भवनपतीनां व्यन्तराणां चावधिरुवं बहुकः-प्रभृतः । शेषासु च दिक्षु स्वल्पविषय एवावधिः । एवमग्रेऽपि भावनीयम् । शेषाणां तु वैमानिकदेवानां पुनरधः प्रभूतोऽवधिः, ज्योतिष्कनारकाणां निर्यक्प्रभतः । ॥३५६॥ १ तु पुन० मु. ॥ A पञ्चविंशतियोजनानि दशवर्षसाहस्रिका स्थितियेषाम् ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- पारोदारे सटीके १९९द्वारे देवाना द्वितीय मुत्पत्ति ॥३५७॥ तथा तिर्यग्मनुष्याणां सम्बंध्यवधिरौदारिकावधिरुच्यते । अयं तु चित्रो-नानाप्रकारः, केषाश्चिय बहः, अन्येषां स्वधः, परेषां तु तिर्यक , केपाश्चित तुल्य इति भावः ॥६६॥१६॥ सम्प्रति 'उप्पत्तीए विरहो ति नवनवस्यधिकशततमं द्वारमाह-- भवणवणजोइसोहमीसाण चउचीसई' मुहुत्ता उ । उक्कोस विरहकालो सव्वेसु जहनओ समओ ॥६७॥ नव दिण वीस मुहुत्ता बारस दस चेव दिण मुहुत्ता उ । बावीसा अद्ध चिय पणयाल असीह दिवससयं ॥६॥ संखिज्जा मासा 'आणयपाणय तह आरणच्युए वासा । संखेज्जा विन्नेया गेविज्जेसु अओ वोच्छं ॥६६ । "हिहिमे वाससयाई 'मज्झिमे सहसाइ उवरिमं लक्खा । सखिज्जा चिन्नेया 'जहसंखेणं तु तीसुपि ॥७॥ पलिया असंस्खभागो उक्कोसो होइ बिरहकालो उ ।। विजयाइसु निहिवो सब्वेसु जहन्नओ समओ ॥७१॥ [बृहत्सङ्ग्रहणी गा. १५०-४] १ न्य-सि. । व्य-इति वृहत्समहीण्या पाठः ॥ २ संखिज्ज मास-मुः। तुला-बृहत्संग्रहणी ॥ ३ बाणयपाणएसुता. सि.॥ ४हिदिम-ता. ॥ ५ मज्झिम-मु. । मज्झिमि-ता। बहसमहण्यामपि मनिझमे-इति ॥ ६ जहा-सि.॥ ७ अगा-मु.1150सा-सि.वि.॥ विरह गाथा ११६७० ११७१ प्र. आ. ३३९ ॥३५॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पारोद्धारे पटीके १९९द्वारे देवानामुत्पत्ति विरहा गाथा द्वतीयः एण्ड: ११७१ 'भवणे' त्यादिगाथाचतुष्कम् , इह भवनपत्यादिषु देवाः प्रायः सततमुत्पद्यन्ते कदाचिदेव त्वन्तरम् , तच सामान्येन चतुर्विधेष्वपि समुदितेषु देवेषु द्वादश मुहूर्ताः। तदनन्तरमवश्यमन्यतमस्मिन् कश्चिद्देव उत्पद्यते 'इति । उक्तं च ."गमयतिरिनरसुरनारयाण विरहो मुहत्तबारसगं" [ ] इति ।। विशेषतस्तु भवनवासिषु व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु सौधर्मे ईशाने च प्रत्येकमुत्कर्षत उपपातविरहकालश्चतुर्विंशतिमुहर्ताः। इयमत्र भावना-भवनवास्यादिषु मध्ये प्रत्येकमेकस्मिन् बहुषु वा देवेपत्पन्नेषु सत्सु अन्य उत्कृष्टमन्तरं चतुर्विशतिं मुहूर्तान् कृत्वा नियमतः समुत्पद्यते इति । जघन्यत उपपातविरहकालः सर्वेष्वपि भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानरूपेषु एकः समयः । किमुक्तं भवति ?-एतेषु पञ्चस्वपि स्थानेषु प्रत्येकमेकस्मिन् बहुषु वा समुत्पन्नेष्वन्यः समयमेकमन्तरं कृत्वा समुत्पद्यत इति । 'शेषः सर्वोऽप्युपपातविरहकालो मध्यमो वेदितव्य इति ॥ ६७॥ __ "सनत्कुमारे देवानामुत्कर्षत उपपातविरहकालो नव दिनानि-रात्रिन्दिवानि विंशतिश्च मुहूर्ताः, माहेन्द्रे द्वादश दिनानि दश च मुहूर्ताः; ब्रह्मलोके सार्धानि द्वात्रिंशतिदिनानि; लान्तके पश्चचत्वारिंशदिनानि, महाशुक्रेऽशीतिदिनानि, सहस्रारे दिवसशतम्- अहोरात्रशतम् ।। ६८।।। .. १. एक-मुः ।। २ भाद्वारं तुला-वृहत्सङ्ग्राइणीवृत्तिः प. ७० तः ॥ ३ सनत्कुमारे शेषः-जे. सि. दि.॥ ४ सर्वोप्युमपातो वेदितव्य-जे. सि.॥ ५ सनत्कुमारे कल्पे दे० मु.॥ । गर्भजतियेकनरसुरनारकाणां विरहो मुहूर्तानां द्वादशकम् । प.आ. T - 11३५८॥ RS NROERRISHTRANJARAT Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ।।३५९।। आनते प्राणते च प्रत्येकमुत्कर्षत उपपातविरहकालः सङ्ख्येया मासाः । केवलमानतापेक्षया प्राणते प्रभूता वेदितव्याः ते च वर्षादर्वागेव । तथा आरणे अच्युते च प्रत्येकं सख्येयानि वर्षाणि, नवरमत्राप्यारणापेक्षयाऽच्युते प्रभूतानि तानि च वर्षशतादवगेव, अतः परं ग्रैवेयकेषूत्कर्षत उपपातविरहकालं वक्ष्ये ।। ६९ ।। प्रतिज्ञातमेवाह 'हिडिमे' त्यादि, त्रिष्वपि 'अधस्तनादिषु ग्रैवेयकत्रिकेषु यथासङ्ख्येन सङ्ख्येयानि वर्षशतानि वर्षसहस्राणि वर्षलक्षणाणि च विज्ञेयानि, तथाहि अधस्तनग्रैवेयकत्रिके उत्कृष्ट उपपतिविरहकाला सपा वर्षशतानि तानि वर्षादारतः । मध्यमग्रैवेयकत्रिके सङ्ख्येयानि वर्षसह - खाणि । तानि च वर्षादर्वाक् । उपरितनग्रैवेयकत्रि के सख्येयानि वर्षलक्षाणि । तानि च वर्षको था आरतो द्रष्टव्यानि । अन्यथा कोटीग्रहणमेव कुर्यादित्येवं सर्वत्र भावनीयम् । इयं च व्याख्या हरिभद्रसूरिकृतसङ्ग्रहणीटी का नुसारतः, अन्ये तु सामान्येनैव व्याचक्षत इति ॥ ७० ॥ साम्प्रतमनुत्तरविमानेषु उपपातविरहकालमानमाह - 'पलिये त्यादि, विजयादिषु - विजय वैजयन्तजयन्ता ऽपराजितरूपेषु चतुर्षु विमानेषूत्कृष्ट उपपातविरहकालोऽद्धापल्योपमासख्येयभागः । तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात्सर्वार्थसिद्धे पल्योपमस्य सङ्ख्येयो भागः । तथा च प्रज्ञापना "सव सिद्धदेवा णं भंते! केवकालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता १, गोषमा ! जहन्नेणं एवं समयं उकोसेणं पलिओ मस्स संखेज्जहभाग " [पद ६ / स. ६०५ ] मिति । १ अधस्तनमध्यमो परितनये देयक त्रिकेषु- मु.। अधस्तनासु यथा० सं० वि० ॥ २ यथासङ्ख्यं सं० वं । यथासख्येयानि-सि ।। ३ सम्बद्ध सिद्ध-खं. ॥ १९९ द्वा देवाना मुत्पत्ति विरहः गाथा ११६७ ११७१ प्र. आ. ३४० ।।३५९॥। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥३६०॥ जघन्यतः पुनः सर्वेष्वपि सनत्कुमारादिष्वनुत्तरान्तेषु उपपातविरहकाल एकः समय इति ॥ ७१ ॥ १६६ ॥ सम्प्रति 'उणा विरहो' ति द्विशततमं द्वारमाह देवेसु 1 reateविरहकालो एसो जह वण्णिओ य उणावि एवं सव्वेसिं होइ विन्नेया || ७२ ।। [ बृहत्सङ्ग्रहणी गा. १५५ ] 'उववाय' गाहा, उपपतनमुपपातः - तदन्यगतिकानां सत्त्वानां देवत्वेनोत्पादः, तस्य विरहकाल:अन्तरकालः, एप:- चतुर्विशतिमुहूतादिक उत्कृष्टो जघन्यतत्र यथा देवेषु 'प्रागेववर्णितः, एवम् अनेनैव प्रकारेण सर्वेषां देवानामुद्वर्तनाऽपि विज्ञेया । तद्यथा-भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशान देवानामुत्कृष्ट उद्वर्तनाविरहकालश्वतुर्विंशतिर्मुहूर्ताः । सनत्कुमारे नव दिनानि विंशतिश्च मुहूर्ता माहेन्द्रे द्वादश दिनानि दश च मुहूर्ताः ब्रह्मलोके साध द्वाविंशतिर्दिनाः; लान्तके पञ्चचत्वारिंशदिनाः; शुक्रे अशीतिर्दिनाः, सहस्रारे दिनशतम्, आनत - प्राणतयोः सङ्ख्येया मासाः आरणाऽच्युतयोः सङ्ख्येयानि वर्षाणि, अधस्तनेषु त्रिषु ग्रैवेयकेषु सङ्ख्येयानि वर्षशतानि मध्यमेषु त्रिषु सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि उपरितनेषु * त्रिषु सङ्ख्येयानि वर्षलक्षाणि विजयादिषु चतुर्षु पल्योपमा सङ्ख्येयभागः, सर्वार्थसिद्धे 'पुनः पल्यो - पमसख्येयभागः । 'जघन्यः पुनः सर्वेषामप्युद्वर्तनाविरहकाल एकः समय इति ॥ ७२ ॥ २०० ॥ १ प्रागुपध• मु. ॥ २ तुला - बृहत्सङ्ग्रहणीवृत्तिः प. ७१ ॥ ३ त्रिषु सि. वि. नास्ति ॥ ४ च पुनः पल्यो० मु. ॥ ५ जघन्यतः- मु. ॥ २०० द्वारे देवोद्र तैना विरहः गाथा ११७२ प्र. आ. ३३९ ॥३६०॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAM प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥३६१॥ इदानीम् 'इमाण संख' स्येकोत्तरद्विशततमं द्वारमाह एको दो व तिन व संखमसंखा 'य एगसमएर्ण 1 उववज्जनेवइया उच्चतावि एमेव ॥ ७३ ॥ [ बृहत्सग्रहणी गा. १५६ ] 'एको व' गाहा, 'भवनवास्यादिषु प्रत्येकमेकस्मिन् समये जघन्यतः एको द्वौ वा त्रयो वा उत्पद्यन्तेः उत्कर्षतः सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा । केवलं सहस्रारादु सर्वत्रोत्कर्षतः सङ्ख्याता एव वक्तत्र्याः नासङ्ख्याताः यतो "मनुष्या एवं सहस्रारादुद्धर्वं गच्छन्ति, न तिर्यञ्चो। मनुष्याश्च सङ्ख्याता एa | 'उच्चतावि एमेव' ति उद्वर्तमाना अपि सन्तो भवनपति व्यन्तरादिभ्य एवमेवोद्वर्तन्ते । * तद्यथा - जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः समायाता असख्याता वा यावत्सहस्रारकल्पः | सहखारकल्पाद्धर्वमुत्कर्षतः सङ्ख्याता एव च्यवन्तेः आनतादिच्युता हि मनुष्येष्वेवागच्छन्ति न तिर्यक्षु, मनुष्याश्च सङ्ख्याता एवेति ||७३|| २०१|| इदानीं 'जम्मि एयाण गह' ति द्वय तरद्विशततमं द्वारमाह-"गर्भ पुढवी आरवणस्स पज्जत संख' जोवीसु erregur बासो सेसा पडिसेहिया ठाणा ||७४ || [ बृहत्सग्रहणी गा. १८०] १ उता । व-इति बृहत्सहण्याम् ॥ २ तुला - बृहत्सग्रहणीवृत्तिः प. ७१ ॥ ३ मनुष्याणां जे. ।। ४ इयमेबो० . ॥ ५ ते च ज०मु० । तथा ज० सि. वि. ॥ ६ कप्पे - जे. ॥ ● नीवेसु -वा. ॥ २०१-२ द्वारयोः देवाना मुद्वर्तना सङ्ख्या गविश्व गाथा ११७३.६ प्र. आ. ३४१ ।।३६१।। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीक पायरपज्जत्तेसु सुराण भूदगवणेसु उप्पत्ती । प्रवचनईसाणताणं चिय तत्थवि न उव्वगाणंपि ॥७५|| २०२ द्वारे सारोद्धारेआणयपभिईहितो जाणुत्तरवासिणो 'चविऊणं । देवानां मणुएसु चिय जायइ नियमा 'संखेज्जजीविसु ॥७६।।। गतिः द्वितीयः 'पुढवीआउ.' गाहा, स्वर्गाद- देवोत्पादस्थानाच्च्युतानां सामान्येन भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क गाथा वैमानिकाना देवानां वासो-वसनमुत्पत्तिरित्यर्थः, पृथिवीकाये अप्काये वनस्पत्तिकाये तथा गर्भजेषु पर्या |११७४-६ ॥३६२॥ प्तेषु सङ्ख्यातवर्षजीविषु तिर्यग्मनुष्येषु भवति । शेषाणि पुनः स्थानानि-तेजस्कायवायुकायद्वित्रि चतुरि प्र.आ. न्द्रियासङ्ख्यातायुष्कसम्मृर्छिमापर्याप्ततियग्नरदेवनारकरूपाणि प्रतिषिद्धानि तीर्थकरगणधरैः ॥७४|| अत्रेच विशेषमाह-'थायरे' त्यादिगाथाद्वयम् , पृथिव्युदकप्रत्येकवनस्पतिष्वपि चादरपर्याप्तेष्वेव सुराणां-देवानामुत्पत्तिः, न पुनः सूक्ष्मपृथिव्यप्कायिकेषु साधारणवनस्पतिषु अपर्याप्तेषु चादरपृथिव्यप्रत्येकवनस्पतिष्वेवेति । तत्रापीशानान्तानामेव 'देवानामेकेन्द्रियेत्पत्तिः, न तूद्धर्वगानां सनत्कुमारादीनाम् , ते हि पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्येश्वोत्पद्यन्ते ।।७५॥ तथा आनतप्रभृतिभ्यः-आनतकल्पदेवानारभ्य यावदनुत्तरवासिनो देवाः स्वस्थानाच्च्यत्वा नियमतः सङ्ख्यातवर्षायुष्केषु मनुष्येष्वेव जायन्ते । नैकेन्द्रियेषु नापि तियक्ष्विति भावः ॥७६॥२०२।। १ चवे ऊर्ण-भुः ॥ २ संखिज्ज० मु.॥ ३ तुझा-यात्सल्महणीभृत्तिः प. ७A || ४ देखानामेकेन्द्रियगणे उत्पत्ति:-सि.वि.॥ १ ॥३६२।। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे सटीके द्वितीयः २०३द्वारे देवानामागतिः गाथा ११७७८ ॥३६३॥ प्र. आ. इदानीं 'जत्तो आगई एसिं' ति व्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह-- परिणामविसुद्धीए देवियकम्मबंधजोगाए पंचिंदिया उ गच्छे नरतिरिया सेसपडिसेहो ॥७७|| आईसाणा कप्पा उववाओ होह देवदेवीणं । सत्तो परंतु नियमा देवीणं नथि उववाओ॥७८॥ [ बृहत्सङ्ग्रहणी गा. १५७, १८४] 'परिणाम.' गाहा, 'परिणमनं परिणामो-मानसिको व्यापारविशेषः । स च द्विधा-विशुद्धोऽविशुद्धश्च । तत्र यो विशुद्रः स देवमतिकारणमिति तत्प्रतिपादनार्थ विशुद्धिग्रहणम् , परिणामस्य विशुद्धिः परिणामविशुद्धिः, तया , प्रशस्तेन मानसव्यापारणेत्यर्थः । एतेन शुभाशुभगत्यवाप्तौ मनोव्यापारस्यैव प्राधान्यमाह । सापि च परिणामविशुद्धिः काऽप्युत्कर्ष प्राप्ता मुक्तिपदस्यैव प्रापिका । अतस्तन्निवृत्त्यर्थमाहदेवायुःकर्मबन्धनयोग्यया हेतुभूतया, पञ्चेन्द्रियाः, तुशब्द एक्कारार्थः, पञ्चेन्द्रिया एव नैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादय इत्यर्थः, नरा-मनुष्यास्तिर्यश्चश्च देवेषु मध्ये गच्छन्ति । शेषाणां तु सुरनारकाणां देवगतिगमने प्रतिषेधो ज्ञातव्यः । न खलु देवा नारका वा स्वायुःक्षयेऽनन्तरं देवत्वेनोत्पद्यन्त इति ।।७७ ॥ ___ सम्प्रति प्रसंगतो देवदेवीनामुत्पत्तिस्थानमाह--'आईसाणे त्यादि, आ 'ईशानाव-ईशानकल्पममिव्याप्य । किमुक्तं भवति १-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवेषु देवानां देवीना चोपपातोजन्म भवति । तत:-ईशानात्परमृर्व सनत्कुमारादिषु देवीनामुपपातो नास्ति किन्तु देवानामेव केवलानाम् । १ तुला-बृहत्सं. वृत्तिः प. १ तः ॥ २ तुळा बृहत्संग्रहणीवृत्तिः प. ७८ ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलं सनत्कुमारादिदेवानां स्ताभिलाषे सति देव्यः खल्वपरिग्रहीताः सौधर्मादीशानाच्च सहस्रारं यावद्नप्रवचन २०४ द्वारे च्छन्ति न परत इति । सारोद्धारे सिद्धिगतितथा अच्युतात्परतः सुराणामपि गमागमौ न स्तः । तत्राधस्तनानामृर्व शक्त्यभावात् । उपरितसटीके विरहा नानां विहागमने प्रयोजनाभावात् । ग्रेवेयका-ऽनुत्तरसुरा हि जिनजन्ममहिमादिष्वपि नात्रागच्छन्ति । द्वितीयः गाथा किन्तु 'स्थानस्था एव भक्तिमातन्वते । संशयप्रश्ने चावधिज्ञानतो भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि खण्ड: ११७९ साक्षादवेत्य तदाकारान्यथानुपपन्या जिज्ञासितमर्थ निश्चिन्वन्ति । न चान्यत्प्रयोजनम् , तन्न तेषामिहागम ॥३६४॥ इति ॥७८||२०३।। प्र. आ. सम्प्रति 'विरहो सिद्धिगईए' ति चतुरुत्तरद्विशततमं द्वारमाह ३४२ एक्कसमओ जहन्नो उक्कोसेणं तु जाव छम्मासा । विरहो सिडिगईए उव्वट्टणवज्जिया नियमा ॥७९॥ 'एक्कसमओ' गाहा, एकः समयो जघन्यतः सिद्धिगतो विरह:-अन्तरं भवति, उत्कर्षतस्तु यावत् षण्मासाः । सा च सिद्धिगतिनियमान-निश्चयेनोद्वर्तनवर्जिता । न खलु सिद्धास्ततः कदाचनाप्युदर्तन्ते । तद्धेतूनां कर्मणां निर्मूलमुन्मृलितत्वात् । उक्तं च "दग्धे वीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥१॥" [तत्त्वार्थभाष्ये १०७ गा.८]||७९॥२०॥ ॥३६॥ । १ स्वस्थानस्था-मुः ॥२ तुखा-वृहत्संग्रहणीवृत्तिः १० १३२ A ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनरोद्धारे टीके २०५द्वा जीवानामाहारादि गाथा ११८०-८ तीयः -३६५॥ सम्प्रति 'जीवाणाहारगहण ऊसास' ति पश्चोत्तरद्विशततमं द्वारमाह--- सरिरेणोयाहारो तयाय फासेण 'रोमआहारो । पक्वेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायव्यो ॥८०॥ [पृहत्सं. चन्द्र. गा.१४०] ओयाहारा जीवा सव्वे अपजत्तगा मुणेयव्वा । पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे हुति भइयचा ॥१॥ रोमाहारा एगिदिया य नेरइयसुरगणा चेव ।। सेसाणं आहारो रोमे पक्खेवओ चेव ॥२॥ ओयाहारा मणभक्खिगो ५ सध्धेऽपि सुरममा होशि ।। सेसा हवंति जीवा लोमाहारा मुणेयच्या ॥८॥ अपज्जत्ताण सुराणाणाभोगनिवत्तिओ य आहारो । . पज्जत्ताणं मणभक्खणेण आभोगनिम्माओ ॥४॥ जस्स जइ सागराई ठिक तस्स तेत्तिएहिं पक्खेहिं ।। ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो।।८।। [बृहत्सं. गा. १९८-९, २००-२, २१४] दसवाससहस्साई जहन्नमाऊ घरंति जे देवा । नेसि चउत्थाहारो सत्तहि थोवेहिं ऊसासो ॥८६॥ १ नोमा इति बृहत्सम्महण्यां पाठः, एवमप्रेऽपि ॥ २ तस्स य ते. मु.॥ . . प्र.आ. ३४२ ॥३६५ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहारावि गाथा खण्ड: दसवाससहस्साई समयाई जाव सागरं ऊणं । प्रवचन दिवसमुहत्तपुछुत्ता आहारूसास सेसाणं ॥८७॥ [वृहत्सं. जिन. २१५, चन्द्र. १३५,१३९] सारोद्धारे 'सरीरे त्यादिगाथाष्टकम् , 'शरीरेणैव केवलेन य आहारः स ओजाहारः । एतदुक्तं भवति-पद्य जीवानासटीके प्यौदारिक-बै क्रिया-ऽऽहारक-तैजस-कार्मणभेदतः शरीरं पञ्चधा; तथाऽपीह तैजसेन तत्सहचारिणा कार्मणेन । द्वितीयः | च शरीरेण 'पूर्वशरीरत्यागे विग्रहेणाविग्रहेण वोत्पत्तिदेश प्राप्तः जन्तयत्प्रथममौदारिकादिशरीरयोग्यान् पुद्गलानाहारयति, "यच्च द्वितीयादि समयेप्यौदारिकादिमिश्रेणाहारयति यावच्छरीनिष्पत्तिः एप सर्वो ११८० ॥३६६॥ ऽप्योज आहारः । ओजमा-तैजसशरीरेणाहार-ओजाहारः । सकारवर्णलोपादोजाहागे वा । यद्वा ओजःस्वजन्मस्थानोचितः शुक्रानुविद्धशोणितादिपुद्गलसङ्घातस्तस्याहार ओजाहारः । प्र. आ. तथा त्वचा-त्वमिन्द्रियेण यः स्पर्शस्तेन य आहारः शरीरोपष्टम्भकानां शिशिरप्राट्कालादिभाविना शीतजलादिपुद्गलानां ग्रहणं स लोमभिः-लोमरन्धेराहारः प्रचुरतरमूत्राद्यभिव्यङ्गयो लोमाहारः । यः पुनराहारः काबलिका-कवलनिष्पन्नो भवति स प्रक्षेपाहारः ।।८०॥ अथ यस्यामवस्थायां जीवानां य आहारस्तदाह-'ओयाहारे' त्यादि, "ओजः-उत्पत्तिदेशे स्वशरीरयोग्यः पुद्गलसमूहस्तदाहारयन्तीत्योज आहाराः, यद्वा ओजः-तैजसशरीरं तेनाहारो येषां ते ओज १ तुला धृहत्सङ्ग्रहणीदेवमद्रीयावृत्तिः ना. १४० ।। २ तुला-बृहत्सं० देवमद्रीयावृत्तिः ५.८२ तः॥ ३ चो० मु.॥ ॥३६३॥ ४ प्रातः सन् ज०मु.॥ ५ तकच-वं. वि. सि. ।। ६ समयेवप्यौ० मु. · खं. वि. सि., वृ. सं. देवमद्रीयावृत्तावपि (१.६७) समयेप्यौदारिक इति ।। ७ तुला वृहत्सं. देवमद्रीयावृत्तिः प.८२ तः ।। ३४२ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । द्वारे माहारादि यः आहारा जीवाः सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियान्ता अपर्याप्ता "ज्ञातव्याः। अपर्याप्तत्वं च शरीरपर्याप्तिमपेक्ष्य नाहारपर्याप्तिम् । तदपर्याप्तानामनाहारकत्वात् । सर्वाभिः स्वयोग्यपर्याप्तिभिरपर्याप्ता ओजआहारा इत्यन्ये । २०५ द्वारे ____ तथा पर्याप्ताः-शरीरपर्याप्त्या 'पर्याप्ताः, मतान्तरेण सर्वाभिः स्त्रयोग्यपर्याप्तिमिः पर्याप्ताः सर्वे जीवा जीवानालोम्नि-लोमाहारे नियमतो भवन्ति । पर्याप्तानां सर्वेषामपि जीवानां सर्वदापि लोमाहारो भवत्येवेति भावः । तथा च धर्माद्यभितप्ताश्छायया शीतलानिलमलिलस्पर्शनेन वा प्रीयन्ते प्राणिनः । प्रक्षेपे-प्रक्षे गाथा पाहारे भवन्ति भजनीयाः-यदेव कवलप्रक्षेपं कुर्वन्ति तदैव प्रक्षेपाहारो नान्यदा । लोमाहारता तु ३११८०-७ पवनादि स्पर्शनात् सदैवेति ॥११॥ अथैकेन्द्रियादीनां पृथगाहारनैयत्यमाह- रीमे' त्यादि, शरीरपर्याप्त्या पर्याप्ताः, मतान्त-प्र. आ. रेण सर्वस्वयोग्यपर्याप्तिपर्याप्ता एकेन्द्रिया नैरयिकाः सुरगणाश्च सर्वे लोमाहाग एव ज्ञातव्याः । न पुनः ३४२ प्रक्षेपाहाराः । तत्र एकेन्द्रियाणां प्रक्षेपाहाराभायो मुखाभावात् , नैरयिकदेवानां तु 3 क्रियशरीरतया 'तथास्वभावात् । उक्तं च--- *"एगिदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो । सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो ॥१॥" [वृहत्सं० गा० १९९] ... ३७ १ मन्तव्या-मु.सि.॥२ ओज य पुन: भाहरः आहारा-जे.। भोज य पुनः आहारा-सि.वि.।। ३ पर्याप्त-सि. वि. नास्ति ॥ ४ स्पर्शात्-खं ।। ५ लोमाहारा गाहा-खं. ॥ ६ तथा स्वभावत्वात-खं॥ *एकेन्द्रियदेवानां नैरयिकाणां च नास्ति प्रक्षेपः । शेषाणां जीवानां संसारस्थानां प्रक्षेपः॥१॥ ७ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥३६८॥ शेषार्णा - द्वित्रिचतुरिन्द्रयाणां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां चाहारो लोग्नि- लोमविषयः प्रक्षेपतश्च भवति । उभयरूपस्याप्याहारस्य तेषां सम्भवात् ॥ ८२ ॥ अथ देवानामाहारविषयं विशेषमाह – 'ओये' त्यादि, सर्वेऽपि भवनपत्यादयः सुरगणा अपर्याप्तावस्थायामोज आहाराः । पर्याप्तावस्थायां मनोमक्षिणो-मनसा चिन्तितोपनतान् सकलेन्द्रियाह्लादकrangers agraन भक्षयन्ति वै क्रियशरीरेणात्मसात्कुर्वतीत्येवंशीला मनोमक्षिणः । इयमंत्र भावना- यथा शीतपुद्गलाः शीतयोनिकस्य 'प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्ते, उष्णाः पुद्गला वा उष्णयोनिकस्य, तथा देवैरपि मनसाऽभ्यवाहियमाणाः पुद्गलास्तेषां तृप्तये परमसन्तोषाय चोपकल्पन्ते । तत आहारविषयाभिलाषनिवृत्तिर्भवतीति । शेषा:- सुरव्यतिरिक्ता जीवा नैरयिकादयोऽपर्याप्तावस्थायामोज आहाराः । पर्याप्तास्तु लोमाहारा ज्ञातव्याः न पुनर्मनोभक्षिणः । मनोभक्षणलक्षणो ह्याहारः स उच्यते ये तथाविधशक्तिवान्मनसा स्वशरीरपुष्टिजनका : पुद्गला अभ्यवह्रियन्ते यदभ्यवहरणानन्तरं च तृप्तिपूर्वः परमसन्तोष उपजायते । न चैतन्नैरयिकादीनामस्ति प्रतिकूलकर्मोदयत्रशतस्तेषां तथारूपशक्त्यभावात् ॥ ८३॥ पुनस्त्रैव विशेषमाह - 'अपज्जे' त्यादि, आभोगनमाभोगः - आलोचनमभिसन्धिरित्यर्थः । आभोगेन निर्वर्तितः- उत्पादित आभोगनिर्वर्तितः आहारयामीतीच्छापूर्व निर्मापित इतियावत् । तद्विपरीतो १] प्राणिनः सुखिनः सुखिवि ।। २ पुनमेनोमिलाषिणः-खं. वि. सि ॥ ॥ ३ यदभ्यवहरणादनन्तरं - खं २०५ जीवा माहार गाथा ११८ प्र. अ ३४३ ॥३६ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके जीवा माहा गाथा द्वितीयः खण्ड: ८७ ॥३६९॥ ऽनाभोगनिर्वतितः; आहारयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेण निष्पाद्यते यः प्रावृट्काले प्रचुरतरमृत्राधभिव्यङ्ग्यशीतपुद्गलाद्याहारवत् सोऽनाभोगनिर्वर्तित इति भावः । 'तत्रापर्याप्तकानां सुराणामोजआहारोऽ'नाभोगनिर्दतितः अनाभोगसम्पादितो भवति । मनःपर्याप्तेरभावात् आभोगासम्भवात् । पर्याप्तानां पुनर्यो मनोभक्षणेन-मनसा सश्चिन्त्य विशिष्टपुद्गलाभ्यवहरणेनाहारः स आभोगनिर्मितः आभोगसम्पादितो भवति ।।८४|| सम्प्रति सागरोपमसङ्घयया आहारोच्छ्वासयोः कालमानमाह--'जस्से' त्यादि, 'देवानां मध्ये यस्य देवस्य यानन्ति सागरोणागि टिनिस्तस्य तालद्धिः पक्षरुच्छ्वासः-शरीरान्तर्गतप्राणपवनोसर्पणं प्रवर्तते । तावद्भिश्च वर्षसहस्र राहारः-आहाराभिलाषः । यथा-यस्य देवस्यैकं सागरोपमं स्थितिस्तस्यैकस्मिन् पक्षेऽतिक्रान्ते उच्छ्चासः, एकस्मिन् वर्षसहस्र आहारः । यस्य द्वे सागरोपमे तस्य पक्षद्वये उच्छ्वासो वर्षसहस्रद्वये आहारः; यावत् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यस्य स्थितिस्तस्य त्रयस्त्रिंशत्पक्षातिक्रमे उच्छ्वासः, त्रयस्त्रिंशद्वर्पसहस्रातिक्रमे आहारः । देवेषु हि यो यथा महायुः स तथा सुखी । सुखितानां च यथोत्तरं महानुच्छ्वासनिःश्वासकियाविरहकालः । दुःखरूपत्वादुच्छ्वासनिःश्वासक्रियायाः । ततो यथा यथाऽऽयुषः सागरोपमवृद्धिस्तथा तथोच्छ्वामक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः । आहारक्रियायास्तु ततोऽप्यतिदुःखरूपत्वाद्वर्षसहस्रवृद्धिः ॥ ८५ ॥ प्र. आ | ३४३ १ मत्रा० मु.॥२०ऽनामोगनिवर्तितः-सि.बि. नास्ति ॥ ३ तुला बहत्समहणीदेवमद्रीया वृत्तिः प.८४ ।। ४ प्रयस्त्रिंशलक्षान्ते-ख, ॥ ५ यथा-सि.बि. नास्ति ।। sar Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोट सटीके 11३७०॥ अब जघन्यायुषामाहारोच्छ्वासयोः कालमानमाह-'दसे' त्यादि, ये देवा-भवनपतयो २०५६ व्यन्तराध जघन्यं दशवर्षसहस्राण्यायुर्धरन्ति तेषामाहार:-आहाराभिलाषश्चतुर्थादू' अहोरात्रादुत्पद्यते । जीवाना सति चाहाराभिलापे मनसा परिकल्पिताः शुभाः पुद्गलाः सर्वेणैव कायेनाहारतया परिणमन्ति । तथा माहारा तेषामेव- दशवर्षसहस्रधारिणां देवानां सप्तभिः स्तोक:-आधिव्याधिरहितमनुष्यसत्कोच्छ्वासनिःश्वाससप्तक गाथा द्वितीयः । प्रमाणः कालविशेषरुच्छ्वासः । सप्तसप्तस्तोकातिक्रमे एवोच्छ्वसन्ति । शेषकालं च तदाबाधया रहिताः स्तिमिता एव तिष्ठन्तीत्यर्थः ।। ८६॥ ____ अथ वर्षसहस्रदशकस्थितेरूवं यावत्सागरोपमं सम्पूर्णमेतावत्यन्तराले आहारोच्छ्वासकालमानमाह'दसवे' त्यादि, येषामुक्तेभ्यः शेषाणां देवानां दशवर्षसहस्राणि समयादीनि-समया-ऽऽवलिका-मुहूर्त "दिवस-मास-संवत्सर-युगाद्यधिकानि यावत्किञ्चिदूनं सागरोपममायुःस्थितिः, तेषां दिवसपृथक्त्वादाहारो प्र. आ मुहूर्तपृथक्त्वादुच्छ्वासश्च सूत्र च-'पुहुत्ते' ति एकवचन निर्देशो जात्यपेक्षः । ततोऽयं भावार्थ:- | ३४३ दशवर्षसहस्रम्य ऊर्ध्व समयादिवृद्धौ यथाक्रममाहारोच्छ्वासयोर्दिवसमुहूर्तपृथक्त्वानि तावद्वर्धनीयानि यावत्परिपूर्णसागरोपमायुपा पक्षादुच्छ्वासो वर्षसहस्रादाहार इति । तथा एकेन्द्रियाणामाहाराभिलाषः सततम् , विकलेन्द्रिय-नारकाणामुत्कर्षतोऽन्तमुहूर्तात् ; पञ्चे१०द इति महो० खं. सि.न. २ पूर्णमेतावत्यन्तराले-मु. । यावत्सागरोपममित्येतावत्यन्तराले-सि. ।। ॥३७ तुला-मत्सग्रहणीदेवभद्रीया वृधिः प. ८५ ॥४०दिवसपक्षमास सि, वि. ॥ ५ सतवा-जे. । संव:-सि.॥ - HALEGHAT FROM Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः । न्द्रियतिरश्चामहोरात्रद्वयातिक्रमात् ; मनुष्याणां चाहोरात्रत्रयातिक्रमादिति । उच्छवासोऽपि नारकाणां निरन्तरम् ; एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिर्यड्नराणां पुनरनियतमात्रः ॥८७॥२०५॥ सम्प्रति तिनि सया तेवहा पासंडीणं' ति षडत्तरद्विशततमं द्वारमाह 'असीइसय किरियाणं १८० अकिरियवाईण होह घुलसीई ८४ । अन्माणिय सत्सही ६७ घेणयाणं च यत्तीसं ३२ ॥८८॥ जीवाइनवपयाणं अहो विज्जति सयपरयसहा । तेसिपि अहो निच्चानिच्चा सदा ठविज्जन्ति ॥८९॥ काल १ स्सहाय २ नियई ३ ईसर ४ अप्पत्ति ५ पंचवि पयाई । निफचानिच्चाणमहो अणुक्रमेणं ठविज्जति ॥९ ॥ जीयो इह अस्थि सओ निच्चो कालाउ इय पक्षमभंगो । बीओ य अस्थि जीवो सओ अनिच्चो य कालाओ ॥११॥ एवं परओऽपि दोमि भंगया पुधदुगजुया चउरो । लहा कालेणेषं . सहावपमुहाचि पाविति ॥१२॥ २०६६ ३६३ पाखण्डि गाथा ११८० ।१२०६ - म. आ. १ तुला-मगवतीसूत्र ३०११, स्थानाङ्गसू. ४।४।३४५, तत्त्वार्थसूत्र-सर्वार्थसिद्धिवृत्तिः ८/१, माघारागसूत्रशीलाका चार्यवृत्तित्तः शाप.१६ B, गोम्मटमारकर्मकाण्डः गा.६७६ ।। २कालो सहाय-ता.॥३पाति-मु.॥ ||३७१ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्रचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ।।३७२॥ पंचहिषि चक्केहिं पत्ता जीवेण वीसई भंगा 'एवमजीबाईहिवि य किरियावाई असिस विणा ठविज्जन्ति इह जीवाई पयाइ पुत्रं पावं 1 ॥ ९३ ॥ I ठविज्जए ॥ ९६ ॥ सिमहोभायम सपरसद्ददुगं ॥ ९४ ॥ Rafe अहो लिहिज्जह काल १ जहिच्छा य २ पयदुगसमेयं । नियह १ स्सहावर ईसर ३ अप्पत्ति ४ इमं पक्कं ॥ ९५ ॥ पहमे भंगे जीवो नत्थि सओ कालओ तयणु थीए । परओऽवि नस्थि जीवो काला इय भंगगा दोन एवं जइच्छाईहिवि परहिं गहुगं दुगं पतं 1 मिलियाचि ते दुवालस संपता जीवतसेण एवमजीवाईहिवि पता जाया तओ "य चुलसीई । भेगा अकिरियवाईण हुति इमे सब्वसंखाए संत १ मसंत २ संतासंत ३ मवत्तव्ब ४ सय अवत्तन्वे ५ । असयअवत्तव्यं ६ सयवत्सच्वं ७ सयसयवतव्वं च सत्त पया ॥ ९९ ॥ ।। ९७ ।। ॥ ९८ ॥ १ एवमजीबाईहिं वि इय-वि. ।।२किरियाबाई-ता. ॥३०पयानंता ॥४ य-ता. सि. नास्ति । ५ दुगे-ता । दुयं वि ॥ ६ उ मु. ॥ ७०-जे ॥ ८व्वं मु. ॥ ६ सयषतम् (सयसयवत्तवं च मु । सयबवत्तच्वं सयसयबन्तव्यं वप्त संयत्तपया- सि. ॥ २०६ द्वार ३६३ पाखण्डिन गाथा ११८८ १२०६ प्र. आ. ३४४ ॥३७२॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ द्वारे प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः पाखण्डिन गाथा ११८८१२०६ जीवाइनवपयाणं अहोकमेणं इमाई ठविऊण । जह कीरइ अहिलायो तह साहिज्जा निसामेह ॥१२००॥ संतो जीवो को जाणइ ? अहवा किं व तेण नाएणं' । सेसपएहिवि भंगा इय जाया सत्त जीवरस ॥१॥ एवमजीवाईणऽवि पत्तेयं सत्त मिलिय तेसट्ठी ।। तह अन्नेऽवि हु भंगा चत्तारि इमे उ इह हुति ॥२॥ संती भावुप्पत्ती को जाणइ किंच तीए नायाए १ । एवमसंती भावुप्पत्ती सदसतिया चेव ॥३॥ तह अव्वत्तवाघि हु भावुल्पत्ती इमेहिं मिलिएहिं । भंगाण सत्तसही जाया अन्नाणियाण इमा ॥४॥ सुर १ निवइ २ जई ३ नाई ४ थविरा ५ बम ६ माइ ७ पिहसु ८ एएसिं । मण वयण २ काय ३ दाणेहिं ४ चउविहो कीरए विणओ ॥६॥ अहवि चउक्कगुणिया बत्तीस हवंति वेणय भेया । सव्धेहिं पिडिएहिं तिनि सया हुति तेसहा ॥६॥ १०ण-विः ॥ २ सदसत्तिया-मु. ॥ ३ जई-ता.॥ प्र.आ. ॥३७३॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: ॥३७४॥ 'असीई' त्यादिगाथैकोनविंशतिः, 'न कर्तारमन्तरेण क्रिया- पुण्यबन्धादिलक्षणा सम्भवति । aa एवं परिज्ञायत क्रियामात्मसमवायिनीं वदन्ति, तच्छीलाथ ये ते क्रियावादिनः - आत्माद्यस्तत्वप्रतिपत्तिलक्षणाः, तेषामशीत्यधिकं शतं भवति । वक्ष्यमाणप्रकारेण अशीत्यधिकशतसङ्ख्यास्ते इति भावः । "fer a steeroine मवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति, उत्पत्यनन्तरमेव विनाशादित्येवं ये वदन्ति तेऽक्रियावादिनः - आत्मादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः । तथा चाहु:*“क्षणिकाः सर्व संस्कारा, अस्थिराणां कृतः क्रिया ? । भृतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते ॥ १॥" तेषां चतुरशीतिर्भवति । ' तथा कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्ति तेन वा चरन्तीत्यज्ञानिका:- असंचिन्त्यकृतबन्ध वैफल्यादिप्रतिपादनपराः । तथाहि ते एवमाहुः- न ज्ञानं श्रेयः तस्मिन् सति परस्परं विवादयोगेन चित्तकालुष्यादिमावतो दीर्घतरसंसारप्रवृत्तेः । तथाहि - केनचित्पुरुषेणान्यथा देशिते वस्तुनि विवचितो ज्ञानी ज्ञानभागमातमानमस्तस्योपरि कलुषचित्तः तेन सह विवादमारभते । विवादे च क्रियमाणे तीव्र तीव्रतरचिचकालुष्यradiseङ्कारश्च प्रभूत-प्रभूततराशुभकर्मबन्धसम्भवः । तस्माच्च दीर्घ-दीर्घतरसंसारः । तथा चोक्तम् १ तुला- नन्दिसूत्रमलयगिरिवृत्तिः प २३३ ॥ २ तुका मगवतीसूत्रवृत्तिः ३०११ । ३तुला- नन्विसूत्रमस्थ वृतिः २१५ ॥ ४ श्वोकोऽयं बोधिचर्यावतार (पू. ३७६)--तत्त्वसंग्रह (पृ. १९) - भगवतीसूत्र-ममयदेववृत्ति (३०1१)- नदीसूत्रमय वृत्त्यादिषु (प. २१५) उद्धृतोऽस्ति ॥ ५ भूतिर्ये मु । भूतियें ( मैं ) इति बहुदर्शनसमुगुणरत्नसूरिवृत्तौ (प. २१) पाठः ॥ ६ तुला- नन्दीसूत्रमस्ववृत्तिः प २१५ Bः ॥ ज्ञानगर्वा० ॥ ८०मा (स्व) तोहङ्कारः ततश्च प्रभूत० इति नन्वीसूत्रमल वृत्तौ (प. २१५ B) पाठः ॥ २०६ द्वारे 築專築 पाखण्डिन गाथा ११८८ १२०६ प्र. आ. ३४५ ||३७४॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटिके पाखण्डिन गाथा द्वितीयः । 'अन्नेण अनहा देसियंमि भावंमि नाणगवेणं | कुणइ विवाय कलुसियचित्तो तत्तो य से बंधो ।।१।" ___ यदा 'पुनर्नज्ञानमाश्रीयते तदा नाहकारसम्भवो नापि परस्योपरि चित्तकालुष्यभावः, ततो न कर्मबन्धसम्भवः । अपिच-या सञ्चिन्त्य क्रियशे कर्मवन्धः स दारुणविपाकः । अत एवावश्यंवेद्यः । तस्य तीव्राध्यवसायतो निष्पनत्वात् । यस्तु मनोव्यापारमन्तरेण काय-वचनकर्म वृत्तिमात्रतो विधीयते,न तत्र मनसोऽभिनिवेशः, ततो नासाववश्यंवेद्यो नापि तस्य दारुणो विपाकः । केवलं अतिशुष्कसुधापकधवलितभित्तिगतरजोराजिरिव स कर्मसङ्गः स्वत एव "शुभाध्यवसायपवनविक्षोभितोऽपयाति । "मनसोऽमिनिवेशामावश्वाज्ञानाभ्युपममे समुपजायते । झाने 'सत्यभिनिवेशसम्भवात् । तस्मादज्ञानमेव मुमुक्षुणा- मुक्तिमार्गप्रवृत्तेनाभ्युपगन्तव्यम् , [अन्याय ३००] न ज्ञानमिति । किञ्च-भवेद्युक्तो ज्ञानस्याभ्युपगमो यदि ज्ञानस्य निश्चयः कतु पार्यते । परं यावता स एव न पायते । तथाहि-सर्वेऽपि दर्शनिनः परस्परं मिन्नमेव ज्ञान प्रतिपन्नाः । ततो न निश्चयः कर्तुं शक्यते-किमिदं ज्ञानं सम्यगुत "इदमिति । यदुक्तम् 'सम्वे य मिहो भिन्नं नाणं इह नाणिणो जो विति। "तीरइ न तओ काउं विणिच्छओ एवमेयन्ति ॥१॥" ॥३७५॥ १२०६ प्र. आ. A मन्येनान्यथा देशिते भावे ज्ञानगर्वण । करोति विवाद कलुषितचित्तस्ततश्च तस्य बन्धः ॥शा . .सर्वे च मिथो मिन्नं ज्ञानं इहसानिनो यतो बते, शक्यते ततो न कत्तु विनिश्चय एवमेतदिति ॥१॥ १पुनरज्ञान. मु.॥२ निवृत्तिमात्रती० खं.वि. ॥ ३ शुभ एव-सि ॥ ४ शुमाभ्यवसाय एवं विक्षो सि. वि. ॥ ५मनमोभिनिवेश्यमाव० खं.सि.पि.॥ ६ सत्यमिनिवेश्य सम्भवातू-सि.वि. ॥ ७ नेवमिति-भु.॥ तरह तमो ||३७५|| न काउं-मु.। तुका-नंदिमलयवृतिः प. २१६ ।। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः पाखण्डिन गाथा ११८८१२०६ तेषामज्ञानिकानां 'सप्तपष्टिः । तथा विनयेन चरन्तीति वैनयिकाः, एते चानवधृतलिङ्गाचारशास्त्राः, केवलं विनयप्रतिपत्तिप्रधानाः । एषां च द्वात्रिंशद्भेदा इति ॥८८॥ ___अथ 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् क्रियावादिनामशीत्युत्तरशतसङ्ख्याभङ्गानयनोपायमाह-'जीवे' त्यादिगाथाद्वयम् , जीवादीनि नव पदानि- जीव-अजीव-आश्रव-बन्ध संवर-निर्जरा-पुण्य-पाप मोक्षलक्षणानव पदार्थान परिपाट्या पट्टिकादौ विरचय्य तेषामधः प्रत्येकं स्वतः परत इति शब्दी स्थाप्यते । तयोरपि-स्वतः परत इति शब्दयोग्धः प्रत्येकं नित्या-ऽनित्यशब्दौ स्थाप्येते । ततोऽपि-नित्या-ऽनित्यशब्दयोरधस्तादनुक्रमेण-परिपाट्या काल-स्वभाव-नियतीश्वरा-ऽऽत्मस्वरूपाणि पश्च पदानि स्थाप्यन्ते ॥८॥१०॥ अर्थतेषामेव भेदानामभिलापमाह-'जीवो' इत्यादिगाथात्रयम् , इह अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः प्रथमो मङ्गो-विकल्पः । अस्य च विकल्पस्यायमर्थ:-इह-अस्मिन् जगति अस्ति-विद्यते खल्वयं जीवः-आत्मा स्वतः-स्वेन रूपेणः, न तु परोपाध्यपेक्षया, हस्वत्वदीर्घत्वे इव, नित्यः-शाश्वतः, न क्षणिका, पूर्वोत्तरकालयोरवस्थितत्वात् , विद्यते खलु अय जीवः आत्मा स्वतः स्वेन रूपेण 'कालवादिनो मतेन । ॥३७६॥ प्र.आ. -AGRY -MSup १सप्तपष्टिभेदाः-मु.॥२ तुला-नन्दीसूत्रमलय. वृत्तिः प. २१७ BI ३ तुला नन्दीसूत्रमलय. कृतिः प. २१३B तः ॥ ४ इयं प्रथमो-खं.॥.. चिह्नद्वयमध्यवर्तिपाठः मु. नास्ति । ५ काळवादिनो मतेन-जे. नास्ति । कालवादिनी ....कामकृतमेव-ख. नास्ति । ॥३७६॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरोद्धारे टीके तीयः १३७७॥ . कालवाधिनश्च ते मन्तव्या ये कालकृतमेव सर्व जगन्मन्यन्ते । तथा च ते एवमाहुः-न कालमन्तरेण सहकार-चम्पका-शोकादिकुसुमोद्गमफलानुबन्धादयो हिमकणानुपक्तशीतप्रपात-नक्षत्रगर्भाधान- २०६द्वारे वर्षादयो वा ऋतुविभागसम्पादिता बाल-कुमार-यौवन-चलिपलितागमादयो वा अवस्थाविशेषा घटन्ते । प्रतिनियतकालविभाग एव तेषामुपलभ्यमानत्वात् । अन्यथा सर्वमव्यवस्थया भवेत् । न चैतद् दृष्टमिष्टं पाखण्डिन: वा । अपिच' -मुद्दादिपक्तिरपि न कालमन्तरेण लोके भवन्ती दृश्यते । किन्तु कालक्रमेण । अन्यथा गाथा स्थालीन्धनादिसामग्रीसम्पर्कसम्भवे प्रथममम येऽपि मुद्गादिपक्तेर्भावप्रसङ्गः । न च भवति । तस्माद्यत्कृतकं |११८८. तत्सर्व कालकृतमिति । यदाहु: १२०६ "न कालव्यतिरकेण, 'गर्भबालशुभादिकम् । यत्किचिजायते लोके, सदसौ कारणं किल ॥१॥ किंच कालाहते नेव, मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । स्थास्यादिनिधानेऽपि, ततः कालादसों मता ॥२॥ प्र.आ. [शास्त्रवार्तासमु. का. १६५-६]|३४६ द्वितीयश्च भङ्गोऽयं-अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः। एवमुक्तप्रकारेण परतोऽपि द्वौ भङ्गो कर्तव्यो । यथा-अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः । अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः। सर्वेषामपि हि पदार्थाना परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वस्वरूपपरिच्छेदः । यथा दीर्घत्वापेक्षया इस्वत्वस्य, हस्त्रत्वापेक्षया च दीर्घत्वस्य । इत्येवमेवात्मनः स्तम्भ-कुम्भादीन समीक्ष्य तद्वयतिरिक्ते वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्तत इति । अतो यदात्मनः स्वरूपं तत्परत एवावधार्यते न स्वतः । पूर्वेण च स्वत एव इति पद- १०च-सि.पि. नास्ति ।। २ भवन्तीति-जे. ॥१नद्भवति--मु.॥ ४ गर्भयालयुवादिकम्-इति षड्दर्शनवृत्तौ प.१६ ।। ॥३७७॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः ॥३७८॥ लब्धेन भङ्गद्विकेन युक्तावेतौ भङ्गो चत्वारो भवन्ति । ते च कालपदेन लब्धाः । एवमनेन प्रकारेण २०६द्वारे स्वभावप्रमुखा अणि-स्वभाव नियतीश्वरा-ऽऽत्मपदान्यपि प्रत्येकं चतुरश्चतुरो विकल्पान प्राप्नुवन्ति । माहिति दीदः घनो नित्य स्वभावतः १ । अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः स्वभावतः २ । अम्ति पाखण्डिन जीवः परतो नित्यः स्वभावतः ३ । अस्ति जीवः परतोऽनित्यः स्वभावतः४ । गाथा 'ते हि स्वभाववादिन एवमाहुः-इह सर्व भावाः स्वभाववशापजायन्ते । तथाहि-मृदः कुम्भो । ११८८भवति, न पटादिः । तन्तुभ्योऽपि पट उत्पद्यते, न कुम्भादिः । एतच्च प्रतिनियतं भवनं तथाम्नभावता. मन्तरेण न घटते । तस्मात्सकलमिदं स्वभावकृतमक्सेयम् , अन्यच्च-आस्तामन्यत्कार्यजातम् ; इह मुद्दादिपक्तिरपि न स्वभावमन्तरेण भवितुमर्हति । तथाहि-स्थालीन्धनकालादिसमग्रमामग्रीसम्भवेऽपि न प्र. आ. भवति तत्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्कृतमिति स्वभावकृता मुद्गपक्तिरप्येष्टव्या । ततः सकलमेवेदं काकुडुकमुद्गानां पक्तिरूपलभ्यते । तस्माद्यद्यद्भावे भवति यदभावे च न भवति तत्तदन्वयच्यतिरेकानुविधायि तत्कृतमिति स्वभावक्ता मुद्गपक्तिरप्येष्टव्या, ततः सकलमेवेदं वस्तुजातं 'स्वभावकृतमवसेयमिति । तथा अस्ति जीवः स्वतो नित्यो नियतितः १ । तथाऽस्ति जीवः स्वतोऽनित्यो नियतितः २ । अस्ति जीवः परतो नित्यो नियतितः ३ । अस्ति जीवः परतोऽनित्यो नियतितः ४।। नियतिवादिनो विमाहुः- "नियति म तत्त्वान्तरमस्ति यशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेनैव । दुका नन्दीस्त्रमलय. वृत्तिः प. २१४ B ॥ २ काइलुन्-मु. नन्दीसूत्रमजय, वृत्तौ (प. २१४३) च॥ ॥३७४। समायहेतुकम सु.॥ ४ तुला-मन्दीसूत्रमलय, वृत्तिः प. २१४ ॥ aan i Mhataneseliticias Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचन नासेद्वारे बटीके द्वितीय: लण्ड ॥३७९॥ ; रूपेण प्रादुर्भवन्ति नान्यथा । तथाहि यद्यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते । अन्यथा कार्य-कारणभावव्यवस्था प्रतिनियतरूपव्यवस्था च न भवेत् नियामकाभावात् । तत एवं कार्य यत्यतः प्रतीयमानामेनां नियति को नाम निराकतु मलम् १, तथा चोक्तम् , "नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत् । ततो नियतिजा हा ते, 'तत्स्वरूपानुभेदतः ॥ १ ॥ यद्यदैव यतो यावत् तत्तदैव ततस्तथा । नियतं जायते न्यायात् क एनां वाधितु ं क्षमः १ ॥२॥ " [शास्त्रवार्ता समु. का. १७३-४ ] तथा अस्ति जीवः स्वतो नित्य ईश्वरतः । १ । अस्ति जीवः स्वतोऽनित्य ईश्वरतः २ । अस्ति जीवः परतो नित्य ईश्वरतः ३ । अस्ति जीवः परतोऽनित्य ईश्वरतः ४ । ईश्वरवादिनो हि सर्व जगदीश्वरकृतं मन्यन्ते । ईश्वरं च सहज सिद्धज्ञानवैराग्यधर्मैश्वर्यरूपचतुष्टयं प्राणिनां च स्वर्गापवर्गयोः प्रेरकमिति । तदुक्तम्--- ★ "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्यं चैव धर्मश्थ, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥ तुरोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥२॥ " [महाभारत] वनपर्व ३०।२१] इत्यादि । १ तत्स्त्ररूपानुवेधतः इति षड्दर्शन वृत्ति-नन्दी सूत्रमय वृस्यो । ★ उद्धृतोऽयं श्लोकः शात्रवार्तासमुचये (गा. १९५), सूत्रकृताङ्गवृत्ती ( प. २५६), सम्मतिवृत्तौ प. ६६ प्रमाणमीमांसा (प. १२), नन्दीसूत्रमक्षयवृत्ती (प. २१४) च ॥ २ तुला- नन्दीसूत्रमय वृत्तिः ५.२१४ ॥ २०६ द्वारे ३६३ पाखण्डिन गाथा ११८८ १२०६ प्र. आ. ३४६ ॥३७९॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म सटीके २०६द्वारे ३६३ खण्डिनः गाथा ११८८ द्वितीयः खण्डः ॥३८०॥ Hum प्र.आ. तथा अस्ति जीवः स्वतो नित्य आत्मतः १ । अस्ति जीवः स्वतोऽनित्य आत्मतः '२ । अस्ति जीवः परतो नित्य आत्मतः ३ । अस्ति जीवः परतोऽनित्य आत्मतः ४ । 'आत्मवादिनो हि विश्वपरिणतिरूपमात्मानमेवैकं प्रतिपन्नाः । यत उक्तम्'एक एव हि भृतात्मा, देहे देहे व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैत्र, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ तथा "पुरुष एवेदं सर्व यद् भृतं यच्च भाव्य" [ऋग्वेद १०१९०२] मित्यादि। तदेवं पञ्चभिरयि चतुष्कर्मिलित विशनिर्भङ्गा जाताः । एते च जीवमेदेन प्राप्ताः । एवमजीवादिभिरप्यष्टमिः पदैः प्रत्येक विशनिर्विशतिर्विकल्पाः प्राप्यन्ते । यथा अस्त्यजीवः स्वतो नित्यः कालत इत्यादि सर्व भावनीयम् । इत्यतो विंशतिनवमिगणिता शतमशीयन क्रियावादिना भवति ॥११॥ ॥९२||९३॥ इदानीमक्रियावादिनां चतुरशीतिसङ्घयभङ्गानयनोपायमाह-'इहे'त्यादिगाथाद्वयम् , इह अक्रियावादिभेदानयनप्रक्रमे जीवादीनि पूर्वोक्तानि पुण्य-पापवर्जितानि सप्त पदानि परिपाट्या पट्टि कादौ स्थाप्यन्ते । तेषां च जीवादिपदानामधोभागे प्रत्येकं स्व-परशब्दद्विकं स्थाप्यते । स्वतः परत इति द्वे पदे न्यस्येते इत्यर्थः । असत्यादात्मनो नित्या-ऽनित्यविकल्पो न स्तः; तद्धर्मिसिद्धयापत्तेः । तस्यापि च-स्वपरशब्दद्विकस्याधस्तात्काल यदृच्छारूपपदद्वयसमेत मेतनियतिस्वभावेश्वरा-ऽऽत्मलक्षणं पदचतुष्कं लिख्यते । काल-यदृच्छा-नियति-स्वभावेश्वरा-ऽऽत्मस्वरूपाणि षट् पदानि स्थाप्यन्त इत्यर्थः। १-२-३-४ ०ना-मु.॥५ आत्मवेदिनो- मु.॥ ६ विंशतिः-मु. नास्ति ।। ७ इत्यादि-सि.वि. ॥ ८०दि-खं.॥ ३४६ ॥३८॥ जन किया ..... Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः ११८८ ॥३८॥ इह यदृच्छावादिनः सर्ने क्रियावादिन एन । ल केचिदपि क्रियावादिनः । ततः प्राग्यदृच्छा नोफ्न्यस्ता ||९४॥१५॥ २०६ द्व अथ विकल्पाभिलापमाह-'पढमे' त्यादिगाथात्रयम् , नास्ति जीवः स्वतः कालत इति प्रथमो ३६३ भङ्गः । तदनु नास्ति जीवः परतः कालत इति द्वितीयो भङ्गः । एतौ द्वौ च मङ्गौ कालेन लब्धौ । एवं पाखण्डि यदृच्छादिभिरपि पञ्चभिः पदैः प्रत्येकं द्वौ द्वौ विकल्पौ प्राप्येते । सर्वेऽपि मिलिता द्वादश । अमीषां च गाथा विकल्पानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः । 'नवरं यदृच्छात इति-यदृच्छावादिना मते । ___ अथ के ते यदृच्छावादिनः१, उच्यते, इह ये भावानां सन्तानापेक्षया न प्रतिनियतं कार्यकारणभावमिच्छन्ति किंतु यदृच्छया ते यदृच्छाचादिनः । तथा च त एवमाहुः न खलु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणभावः, तथाप्रमाणेनाग्रहणात् । तथाहि-शालूकादपि शालूको जायते गोमयादपि, अग्नेरप्यग्नि प्र. आ. र्जायते अरणिकाष्ठादपि । 'धृमादपि धूमोऽग्नीन्धनसंपर्कादपि । कन्दादपि जायते कदली बीजादपि, वटादयोऽपि वीजादुपजायन्ते शाखैकदेशादपि । ततो न प्रतिनियतः क्वचिदपि कार्यकारणभाव इति यदृच्छातः क्वचिदपि किंचिद्भवतीति प्रतिपत्तव्यम् । न खल्वन्यथा वस्तुसद्भावं पश्यन्तोऽन्यथाऽऽत्मानं प्रेक्षावन्तः "परिक्लेशयन्तीति । एते च द्वादश विकल्पा जीवतत्वेन-जीवपदेन संप्राप्ता-लब्धाः । एवमजीवादिभिरपि षभिः पदैः प्रत्येकं द्वादश द्वादश विकल्पाः प्राप्ताः । ततो द्वादशभिः सप्त गुणिता जाताश्चतुरशीतिः । सर्वसङ्ख्यया चाक्रियावादिनामेते मेदा भवन्तीति ॥९६॥९॥९८|| | ॥३८॥ १ तुला-नन्दीसूत्र मलय. वृत्तिः २१५4 ॥ २ एत-मु. ॥ ३ जायते धूमावपि-मु. ॥ ४ परिक्लेशयन्ति-मु.॥ ३४७ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६द्वा मारोद्धारे मटीके पाखण्डिन गाथा द्वितीयः खण्ड: इदानीमज्ञानिकानां सप्तषष्टिसङ्ख्यभेदानयनोपयमाह-'संते'त्यादिगाबाद्वयम् , सचम् !, असचम २. सदसत्चम ३, अवक्तव्यत्वम् ४, सदवक्तव्यत्वम् ५, असदवक्तव्यत्वम६. सदसदवक्तव्यत्वं ७ चेति सप्त पदानि-सप्त भङ्गाः । तत्र सर्व-स्वरूपेण विद्यमानत्वम् असत्वं--पररूपेणाविद्यमानत्वम् । सदमय-स्वपररूपाभ्यां विद्यमानत्वाविद्यमानत्वम् । तत्र यद्यपि सर्व वस्तु स्वपररूपाभ्यां सर्वदेव म्वभावत एव सदसन तथापि काचिन् किश्चित्कदाचिदुद्भत प्रमात्रा विवक्ष्यते । तत एवं यो विकल्पा भवन्ति । तथा तदेव सचममचं च यदा युगपदेकेन शन्देन वक्तुमिध्यने तदा तद्वाचकः शब्दः कोऽपि न विद्यते इति अवक्तव्ययम् । यदा खेको भागः सन्त्रपरश्चावक्तव्यो युगपद्विवक्ष्यते तदा सदवक्तव्यत्वम् । यदा खेको भागोऽसन्नपरश्वावक्तव्यो युगपद्विवक्ष्यते तदाऽसदवक्तव्यत्वम् । यदा त्वेको भागः मनपरश्वासन् अपरश्वावक्तव्यस्तदा सदसदवक्ता व्यत्वमिति । न चैतेभ्यः सप्तविकल्पेभ्योऽन्यो विकल्पः संभवति । सर्वस्यैतेम्वेव मध्येऽन्तर्भावात् । इह च घटमाश्रित्य किञ्चिद्भावना प्रदश्यते । तथाहि-ओष्ठ-ग्रोवा-कपाल कुक्षिवुघ्नादिभिः वपर्यायः सद्भादेन विशेषितः कुम्भः कुम्भो भण्यते । सन् घट इति प्रथमो भङ्गो भवतीत्यर्थः । तथा पटादिगतेस्त्वक्त्राणादिभिः परपयायरसद्भावेन विशेषितोऽकुम्भो भवति । सर्वस्यापि घटस्य परपर्यायरसच्चविवक्षायामसन घट इति द्वितीयो मङ्गो भवतीत्यर्थः २ । तथा एकस्मिन् देशे स्वपर्यायसवेन अन्यत्र तु देशे परपर्यायासवेन विवक्षितो घटः संश्वासंश्च भवति । घटोऽघटश्च भवतीत्यर्थः ३ । तथा मोऽपि घरः । तुला नन्दीसूत्रमालय वृत्तिः ५. २१७ A !! २-३ ८क्तव्यम्-खं. वि. सि.॥ प्र. आ. ३४७ Since ॥३८॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन स्वपरोभयपर्यायः सद्भावासद्भावाभ्यां विशेषितो युगपदक्तुमिष्टोऽवक्तव्यो भवति । स्वपरपर्यायमत्वा सत्त्वाभ्यामेकेन केनाप्यसांकेतिकेन शब्देन सर्वस्यापि तस्य युगपद्वक्तुमशक्यत्वात् ४ ! तथा एकस्मिन् |२०६द्वान मारोदारे। देशे स्वपर्यायः सत्त्वेन विशेषितोऽन्यत्र तु देशे स्वपरोभयपर्यायः सत्यासत्वाभ्यां युगपदसांकेतिकेनैकेन । ३६३ ।। सटीके शब्देन वक्तु विवक्षितः कुम्भः संश्वावक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः । देशे तस्य घटत्वाद्देशे चावक्तव्यत्वादिति ५। पाखण्डिन तथा एकदेशे परपर्यायरसत्वेन विशेषितोऽन्यस्मिस्तु देशे 'स्वपरपर्यायः सत्चासत्वाभ्यां युगपदसांकेति- | गाथा केनैकेन शब्देन वक्तु विवक्षितः कुम्भोऽसन्नवक्तव्यश्च भवति । अकुम्भोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः । १९८८ देशे तस्याकुम्भवात् देशे चावक्तव्यत्वादिति ६ । तथा एकदेशे स्वपर्यायः सस्पेन विशेषितः, एकस्मिस्तु १२०६ देशे परपर्यायरसत्वेन विशेषितोऽन्यस्मिस्तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सत्वासस्वाभ्यां युगपदेकेन शब्देन वक्तु विवक्षित: कुम्भः संधासंश्चावक्तव्यश्च भवति । घटोऽघटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः । देशे तस्य प्र.आ. घटत्वाद्देशेऽघटस्वाद्देशेऽवक्तव्यत्वादिति ७। एवं सप्तभेदो घटः । एवं पटादिरपि द्रष्टव्य इति । ३४८ । एतानि च सप्त पदानि जीवादीनां नवानां पदानां परिपाट्या पट्टिकादौ विन्यस्तानामधस्तात्क्रमेण प्रत्येक स्थापयित्वा यथा-येन प्रकारेण क्रियतेऽमिलापस्तथा साहिष्यत इति कथ्यते निशमयत--शृणुत । एतच्च शिष्याणामवहितत्वोत्पादनार्थमुक्तमिति ।।९९॥ १२००॥ तमेवामिलापमाह-संतो' इत्यादिगाथाद्वयम् , सन् जीव इति को वेत्ति ?, किं वा तेन ज्ञाते. नेति प्रथमो भङ्गः । अस्य चायमर्थः-न कस्यचिद्विशिष्ट ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियमात्मानमवभोत्स्यते । ॥३८३॥ ... स्व. सि. वि. नास्ति ।। २ एवेति- मु.॥ E Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ द्वार प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: पाखण्डिन गाथा ११८८. १२०६ ||३८४|| प्र. आ. न च तेन ज्ञातेनापि किञ्चित्कलमस्ति । तथाहि-यदि नित्यः सर्वगतोऽमृतॊ ज्ञानादिगुणोपेत एतद्गुणव्यतिरिक्तो वाऽऽत्मा ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति । तस्मादज्ञानमेव श्रेयः।। एवं शेषैरप्यसदादिभिः षड्भिः 'पदैर्भङ्गा भवन्ति । असन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेनेत्यादि । इति जाता जीवपदस्य सप्त भङ्गाः । एवमजीवादीनामप्यष्टानां पदानां प्रत्येकं सप्त सप्त भङ्गा भवन्ति, सर्वेऽपि मिलितास्त्रिषष्टिः, तथा अन्येऽपि-अमी वक्ष्यमाणाः हुशब्दस्यावधारणार्थत्वाच्चत्वार एव मङ्गा इह-अज्ञानिकप्ररूपणप्रक्रमे भवन्ति ।। १ ॥२॥ तानेवाह-'संती' त्यादिगाथाद्वयम् , सती भावोत्पत्तिः को जानाति १, किंवाऽनया ज्ञातया ११ । एवमसतो भावोत्पत्तिः को वात, कि वाऽनया ज्ञातया ? २ । सदसती मावोत्पत्तिः को वेत्ति ?, किं वाऽनया ज्ञातया १३ । अवक्तव्या भावोत्पत्तिः को वेत्ति , किं वाऽनया ज्ञातया १४। एतेषां च भङ्गानामयं तात्पर्यार्थः-इह पदार्थस्योत्पत्तिः किं सतोऽसतः सदसतोऽवाच्यस्य वेति को जानाति ?, ज्ञातेन वा न किञ्चिदपि प्रयोजनमिति । शेषविकल्पवयं तु उत्पच्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न संभवतीति नोक्तम् । एतैश्चतुर्भिङ्गैर्मिलितैः त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्तैर्जाता 'एषा सप्तपष्टिरज्ञानिकानामिति ॥३॥४॥ इदानी वैनयिकानां द्वात्रिंशभेदानाह–'सुरे' त्यादिगाथाद्वयम् , सुरा-देवाः, नृपतयोराजानः, यतयो-मुनयः, ज्ञातयः-स्वजनाः, स्थविरा-वृद्धाः, अवमा- 'अनुकम्पनीयाः कार्पटिकादयः, १ पदेर्जीवमला-मु, ॥ २ एषा मङ्गकानां सप्त० मु. ॥ ३ भवक० खं ।। ॥३८४॥ RE Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: 1136411 मातापितरौ प्रतीती, एतेषामष्टानां प्रत्येकं मनो वचन काय दानैश्चतुर्विधो विनयः क्रियते । तद्यथासुराणां विनयं करोति मनसा तथा वाचा तथा काये तथा देशकालोदानेन इत्यादि । एते च विनयादेव केवलत्स्वर्गापवर्गमभ्युपगच्छन्ति । विनयश्च नीचैव स्यनुत्सेकलक्षणः । सर्वत्र चैवंविधेन विनयेन देवादिषूपतिष्ठन् स्वर्गापव भाग्भवतीति । तदेवमेतेऽष्टावपि 'भङ्गा चतुष्केण गुणिता द्वात्रिंशद्वैनयिकभेदा भवन्तीति । सर्वैरप्येतैः पूर्वोक्तैः क्रियाऽक्रियाऽज्ञानवैनयिकवादिभेदे : पिण्डितैः- एकीकृत स्त्रीणि त्रिपयधिकानि पाखण्डिनां शतानि भवन्तीति । एतेषां च प्रतिक्षेपः 'सूत्रकृताङ्गादिभ्यः समवसेयः ॥ ५-६ || २०६ || सम्प्रति "अट्टहा पमाय' चि सप्तोत्तरद्विशततमं द्वारमाह पमाओ य मुणिदेहि. भणिओ अनुभेयओ I अन्नाणं १ संसओ २ चैव मिच्छानाणं ३ तहेव य ॥७॥ रागो ४ दोसो ५ महन्मंसो ६, धम्मंमि य अणायरी ७ । जोगाणं दुष्पणिहाणं 6, अट्ठहा वज्जियव्वओ ||८|| प्रमाद्यति - मोक्षमार्ग प्रति शिथिलोद्यमो भवत्यनेन प्राणीति प्रमादः । स च मुनीन्द्रः--तीर्थकुद्धिभणित: प्रतिपादितो भवति, अष्टभेद:- अष्टप्रकारः । तद्यथा - अज्ञानं मूढता, संशय: - किमेतदेव स्यादुतान्यथेति संदेहः, मिथ्याज्ञानं विपर्यस्ता प्रतिपत्तिः, रागः -- अभिष्वङ्गः, द्वेषः -- अप्रीतिः, स्मृतिभ्रंशो११] भङ्गा-जे, नास्ति ।। २सूत्रकृताङ्गसूत्रवृतिः अभ्य. १२.प. २११तः, नन्दी सूत्र मलय. वृत्तिः २१८तः द्रष्टव्या ।। ३अट्टय - वि. पो. ॥ २०७द्वार ८ प्रमाद मेदाः गाथा १२०७८ प्र. आ. ३४८ ||३८५ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे खण्ड: विस्मरणशीलता, धर्मे चाई प्रणीनेऽनादरः-अनुद्यमः, योगाना-मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानं दुष्टताप्रवचन| करणम् । अयं चाष्टविधोऽपि प्रमादः कर्मवन्धहेतुत्वावर्जयितव्यः-परिहर्तव्य इति ।।७-८ । २०७।। २०८सम्प्रति 'मरहाहिव' ति अष्टोत्तरद्विशततमं द्वारमाह द्वारयोः सटीके चक्रिवल भरहो १ सगरो २ मघवं । सणंकुमारो य रायसदद्लो ४ । द्वितीयः सती ५ कुथु ६ य अरो ७ हवड़ सुभूमो ८ य कोरव्यो ॥९॥ नवमो य महापउमो ९ हरिसेणो १० चेव रायसङ्कलो । गाथा ॥३८६॥ जयनामो ११ य नरवई बारसमो बंभदत्तो य १२ ॥१०॥ १२०९ [समवायाङ्गसू. १५८ । गा. ४७८] १२११ भरतः प्रथमश्चक्रवर्ती, द्वितीयः सगर:-सगरनामा, तृतीयो मघवान , चतुर्थः सनत्कुमारो राजशार्दूलः, शालशब्दः सिंहपर्यायः, 'राजा शार्दूल इव राजशाद लश्चक्रवर्तीत्यर्थः । पश्चमः शान्तिनाथः, षष्ठ कुथुनाथः, सप्तमोऽरस्वामी, अष्टमः सुभूमो भवति, कौरव्यः-कौरव्यगोत्रः, नवमो महापद्मः, दशमो प्र. आ. हरिषेणो राजशार्दूल:-चक्रवर्ती, एकादशमो जयनामा नरपतिः, "द्वादशमो ब्रह्मदत्तः ।।९।। १०॥२०८।। |३४९ इदानीं 'हलधर' त्ति नवोत्तरद्विशतनम द्वारमाह "अयले १ विजये २ भद्दे ३, सुप्प य ४ सुदंसणे ५ । आणंदे ६ नंदणे ७ पउमे ८, रामे यावि ९ अपच्छिमे॥११॥ [आवश्यकभाष्य गा. ४१] | १रामां शाल व गजसु वा शादुलश्चक्रवर्तीत्यर्थ:-मु.।। २ एकादशो-मु.॥ ३ द्वादशो-मु.॥ ४ तुला समशयाङ्गवृत्तिः सू. १५६ गा.५३ ।। कम 1 . 4 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासुदे ... प्रथमो बलदेवोऽचलः, द्वितीयो विजयः, तृतीयो भद्रः, चतुर्थः सुप्रभः, पञ्चमः सुदर्शनः, षष्ठ प्रवचन- | आनन्दः, सप्तमो नन्दनः, अष्टमः पद्मः, सीताभर्ता राम इत्यर्थः, नघमो राम:-कृष्णसहचरः अपश्चिम:सारोदार | सर्वान्तिमः, न विद्यते पश्चिमो यस्मादिति व्युत्पत्तेः ॥११॥२०॥ द्वारयो सटीके सम्प्रति 'हरिणो' ति दशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह वासुदे द्वितीयः । 'तिविठू य दुविठू य २ सयंभु ३ पुरिसुत्तमे ४ पुरिससीहे ५ । प्रति तह पुरिसपुडरीए ६ वत्ते ७ नारायणे ८ कण्हे । ॥१२॥ [ आवश्यकभाष्य गा. ४०] त्रिपृष्ठः प्रथमो वासुदेवा, प्राकृतत्वादापत्वाच्च सूत्रे 'तिविठू'त्ति निर्देशः । द्वितीयो द्विपृष्ठः, गाथा तृतीयः स्वयम्भूः, चतुर्थः पुरुषोत्तमः, पञ्चमः पुरुषसिंहः, षष्ठः पुरुषपुण्डरीकः सप्तमो दत्तः, अष्टमो १२१२ नारायणो रामभ्राता लक्ष्मण इत्यर्थः, नवमः कृष्णः ॥१२॥ २१॥ इदानीं पडिवासुदेव' त्येकादशोत्तरद्विशततमं द्वारमाहआसग्गीवे १ तारय २ मेरए । मधुकेटवे ४ निसुभे ५ य । प्र. आ. पलि ६ पहराए ७ तह रावणे य ८ नवमे जरासंधे ९॥१३॥ . [आवश्यकभाष्य गा.४२] १३४९ - अश्वग्रीवः प्रथमः प्रतिवासुदेवः, तारको द्वितीयः, मेरकस्तृतीयः, मधुकैटभश्चतुर्थः, अस्य च मधुरित्येव नाम केवलम् । केटमामिधभ्रातृसंबन्धात्मधुकैटभ इत्युच्यते । निशुम्भः पञ्चमः, बलिः षष्ठ, १.२ तुला समवायावृत्तिः सू. १५८ गा. ५२, ६१ ।। ३ जरासिंधू-मु. । जरासंघ ता. पो.।। ॥३८७ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय खण्ड: ३८८|| प्रभाराजः प्रहलादो वा सप्तमः, रावणोऽष्टमः, जरासन्धो नवमः । एते सर्वेऽपि निवानामपि वासुदेवानां यथाक्रमं प्रतिशत्रवः । तथा सर्वेऽपि चक्रयोधिनः सर्वेऽपि च हताः स्वचक्रः । यतस्तान्येव प्रतिवासुदेवचक्राणि प्रतिवासुदेवै वसुदेवच्यापचये क्षिप्तानि पुण्योदयवशाद्वासुदेवान् प्रणम्य वासुदेवहस्ते घटितानि । तैः क्षिप्तानि तान्येव प्रतिवासुदेवान् व्यापादयन्ति ||१३|| २११॥ सम्प्रति 'रयणाई' 'चउदस' ति द्वादशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह- सेणावर १ गाहावर २ पुरोहिय ३ 'गय ४ तुरय ५ वडई ६ इत्थी ७ । चक्कं ८ छत्त ९ चम्मं १० मणि ११ कागिणि १२ खग्ग १३ दंडो १४ च ।। १४ ।। * १ स्वग्गं २ व घणू ३ मणी ४ य माला ५ तहा गया ६ संखो ७ । एए सत्त ड रयणा सव्वेसिं वासुदेवाणं चर्क छतं दंडं तिन्निवि एयाई वाममित्ताइ चम्मं दुहत्थदीहं बत्तीसं अंगुलाई' असी गुलामणी पुण तस्सर्वं चेव होह विच्छिन्नो ||१५|| । ॥१६॥ I उरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरका गिणी नेया ||१७|| [ बृहत् सं. गा. ३०३-४-१२] सेनापतिः १, गृहपत्तिः २, पुरोहितः ३, गजः ४, तुरंगः ५, वर्धकिः ६, स्त्री ७, चक्रम् ८, चर्म १०, मणिः ११, काकिनी १२, खड्गः १३, दण्ड १४ श्वेत्येतानि चतुर्दशापि रत्नानि छत्रम् ९, १ तुरय-गय- मु. ।। २ बट्ट पो.वि.सि. ॥ ३०ईसि ॥ ४ तुरगः जः वर्धकिः-सु ।। २१२ द्वारे चक्रिवा देवरत्नानि गाथा १२१४-७ प्र. आ. ३५० ||३८८॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन सारोंद्वारे सटीके द्वितीयः गण्ड: ।। ३८९ ।। ] मिति वचनात् सेनापत्यादिजातिषु वीर्यत निगद्यते । 'रत्नं निगद्यते तज्जातौ जातौ यदुत्कुष्ट' [ उत्कृष्टत्वेन रत्नानीत्युच्यन्ते तत्र 'सेनापतिः - दलनायको गङ्गासिन्धुपरपारविजये बलिष्टः १ | गृहपतिः - चक्रवर्तिगृहसमुचितेतिकर्तव्यतापरः शाल्यादिसर्वधान्यानां समस्तस्वादसहकारादिफलानां सकलशाकविशेषाणां निष्पादकश्च २ । पुरोहितः - शान्तिकर्मादिकृत् ३ । तुरङ्गमगजी प्रकृष्टवेग महापराक्रमादिगुणसमन्वितौ ४ - ५ | वर्धकिःगृहनिवेशादिसूत्रणाकारी, 'यस्तमिस्रगुहायां खण्डप्रपातगुहायां चोन्मग्नजला- निमग्नजलयोर्नद्योश्चक्रवत्तिंसैन्योत्तरणाय काष्ठमयं सेतुबन्धं करोति ६ । स्त्रीरत्नमत्यद्भुतकामसुखनिधानम्, ७ । चक्रं समस्तायुधातिशायि दुर्दमरिपुजयकरम् ८ । छत्रं चक्रवर्तिहस्तसंस्पर्शप्रभाव संजातद्वादश योजनायामविस्तारं सत् वैताढ्यनगोत्तरविभागवर्तिम्लेच्छानुरोधिमेघकुमारवृष्टाम्बुभरनिरसनसमर्थं नवनवतिसहस्रकाञ्चनशलाकापरिमण्डितं निर्वाणसुप्रशस्तकाश्चनमयोद्दण्डदण्डं त्रस्तिप्रदेशे पञ्जरविराजितं राजलक्ष्मीचिह्नमर्जुनाभिधानपाण्डुर स्वर्ण प्रत्यवस्तृतपृष्ठदेशं शारदसंपूर्णपूर्णिमामृगाङ्कमण्डल मनोहरं तपना ऽऽतव-वात- वृष्टिप्रभृतिदोषक्षयकारकम् । चर्मरत्नं- छत्रस्याधस्ताचक्रवर्तिहस्तस्पर्शप्रभाव संजातद्वादशयोजनायामविस्तारं प्रातरुतापराव संपद्मोपभोग्यशाल्यादिसम्पत्तिकरम् १० । १- सुला- जिनमद्रव्यू.सं. मलय, वृत्तिः गा. ३०४१. ११८ वतः । २ तद् विवरणं जिन, पू. सं. मळयन्तौ गृहपतिरत्नाधिकारविषयम् दृश्यते । प. ११८ B ॥ २१२ द्वारे चक्रि वासुदेव रत्नानि गाथा १२१४-७ प्र.आ. ३५० ॥ ३८९ ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके २१२ द्वारे चक्रिवासुदेवरत्नानि गाथा १२१४.८ द्वितीयः ॥३९॥ मणिरत्न-वैडूर्यमयं व्यस्र षडंशं यथाक्रमपूर्वाधः स्थितयोरछत्रचर्मरत्न योरपान्तराले छत्रतुम्बे न्यस्तं सद् द्वादशयोजनविस्तारिणः समस्तस्यापि चक्रवर्तिकटकस्य निरुपमप्रकाशकारि तमिस्रगुहाया खण्डप्रपातगृहायां च प्रविशतश्चक्रवर्तिनो इस्तिरत्नदक्षिणशिरसि निबद्धं च द्वादश योजनानि यावत्पूर्वापरपुरतोरूपासु तिसृषु दिक्षु निविडतममपि तमःस्तोममपहरति । यस्य च हस्ते शिरसि वा बद्धयते तस्य दिव्यतिर्यग्मनुष्यकृतसमस्तोपद्रवसमस्तरोगापहारं करोति । एतच्च मृय॑न्यत्र वाऽङ्गे व्यवस्थाप्य संग्रामे प्रशिया सन्मानयो अलि सर्वभयविमुक्तश्योपजायते । अन्यच्च-तस्मिन् मणिरत्ने सदा मणिबन्धादी व्यवस्थितेऽवस्थितयौवनोऽवस्थितकेशनखश्चोपजायते 'पुमान् ११ । काकिणीरत्नमष्टसौवणिक समचतुरखसंस्थानसंस्थितं विषापहारसमर्थम् , यत्र चन्दप्रभा सूर्यप्रभा वहिदीप्तिर्वा न तमास्तोममपहतु मलं'-समर्थस्तत्र तमिस्रगुहायामतिनिबिडतिमिरतिरस्करण दक्षम् , यस्य दिव्यप्रभावकलिततया द्वादश योजनानि यायचमिस्रविसरविनाशिका गभस्तयो विवर्धन्ते । यच्च सर्वकालं चक्रवर्ती निजस्कन्धावारे रात्रौ "स्थापयति तद्धि प्रकाशं दिवसालोकभृतं रजन्यामादधाति । यस्य च प्रभावेण चक्रवर्ती द्वितीयमधभरतमभिजेतु सकलसैन्यसमेतस्तमिस्रगुहाँ प्रविशति । तथाहि तत्र प्रविष्टः सन् स पूर्वमित्तितटे पश्चिमभित्तितटे च प्रत्येक योजनान्तरितानि पञ्चधनुःशतायामविष्कम्भान्पुभयपायोर्योजनोद्योतकराणि १०स्थितयोश.सि.पि. नास्ति ॥२ समस्तचर सि.वि.३ पुमान्- जे. नास्ति ।।४लं मवति तत्र-मु.॥ ५करोति-जे.सि.पि.।। ६ तद्धि दिवसालोकभूतं प्रकाश रजन्या. मु.|| गुहायां मु.॥ गुफा-वि.।। सथा च तत्र-मु.॥ प्र.आ. ASIAHINMARAMETARAKS Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोबारे सटीके द्वितीयः चक्रनेमिसंस्थानानि चन्द्रमण्डलप्रतिनिमानि वृत्तहिरण्यरेखारूपाणि 'गोमूत्रिकान्यान्यनेन कस्या मित्तौ पञ्चविंशतिस्परस्यां तु चतुर्विंशतिरित्येकोनपश्चाशतं मण्डलान्यालिखन व्रजति । तानि च मण्डलानि यावश्चक्रवर्ती चक्रवर्तिपदं परिपालयति तावदवतिष्ठन्ते । गुहाऽपि तथैवोद्घाटिता तिष्ठति, उपरते तु चक्रिणि तत्सर्वमुपरमते १२ । खङ्गरत्न-संग्रामभूमावप्रतिहतशक्तिः १३ । दण्डरस्न-रत्नमयपश्चलताकं वचसारमयं सर्वशत्रुसैन्यविनाशकारकम् , चक्रवर्तिनः स्कन्धाबारे विषलोरखतिभागेषु सावकारि शान्तिकरं चक्रवर्तिनो हितेप्सिसमनोरथपूरक दिव्यमप्रतिहत प्रयत्नविशेषतश्च व्यापार्यमाणं योजनसहस्रमप्यधः प्रविशति १४ । एतानि चतुर्दश रत्नानि प्रत्येकं यक्षसहस्राधिष्ठितानि भवन्ति । तथैतानि सेनापत्यादीनि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि, चक्रादीनि सप्त एकेन्द्रियाणि पृथिवीपरिणामरूपाणि, प्रत्येक जम्बूद्वीपे जघन्यपदेऽष्टाविचतिरेककालं प्राप्यन्ते, जघन्यतोऽपि चक्रवर्तिचतुष्टयसद्भावात् । उत्कृष्टतस्तु दशोत्तरद्विशतसङ्ग्यानि, चक्रवर्तिनोककाले त्रिंशद्भवन्ति । यथा अष्टाविंशतिर्विदेहे एकको भरतैरवतयोः, सप्तानां च त्रिंशता गुणने आते दशोत्तरे भवत इति ॥१४॥ , भय रत्नप्रस्तावाबासुदेवस्यापि रत्नान्याह-'चक्क'मित्यादि, 'चक्र खड्ग-धनुर्मणयः प्रतीता, माला सदैव चाम्लाना देवार्पिता, गदा-कौमोदकी नाम प्रहरणविशेषः, शङ्खः-पाश्चजन्यो द्वादशयोजनविस्तारिवाना, एतानि सप्त रत्नानि सर्वेषामपि वासुदेवानां भवन्ति ।।१५। १ गोमूत्रकानि न्यायेनेकस्या-सि. ॥ २ अष्टम्यं त्रिशष्टिशलाका पु. चरित्रे (सर्ग-२ श्लो. १८६) ।। ३ तुडा-जिनमद्र. व. सं. माय. वृत्तिः ५.११. !! द्वारे चक्रिवासुदेवरत्नानि गाथा १२१४-७ ॥३९॥ प्र. आ. ३५१ ॥३९॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके २१३ द्वारे नवनिधि स्वरुपम् गाथा १३१८ द्वितीयः खण्ड: ||३९२॥ भय सप्तानामप्येकेन्द्रियरस्नानां प्रमाणमाह-'सक्क'मित्यादि गाथाद्वयम् ; चक्रं छत्रं दण्डमित्येतानि त्रीण्यपि रत्नानि 'व्यामप्रमाणानि; 'व्यामो नाम प्रसारितोभयवाहोः पुसस्तिर्यग्हस्तद्वयागुलयोरन्तरालम् । चर्मरत्नं द्विहस्तदैर्घ्यम् द्वात्रिंशदगुलदीर्घोऽसिः-खड्गरत्नम् , तथा देयमधिकृत्य मणिः पुनश्चतुरङ्गुलप्रमाणः, तस्य-दैय॑स्या द्वे अमुले इत्यर्थः, विस्तीर्णो-विस्तृतः । तथा चतुरडगुलप्रमाणा सुवर्णवरकाकिनी-जात्यसुवर्णमयी काकिनाम रत्नं ज्ञेया । एतानि सप्ताप्येकेन्द्रियरत्नानि सर्वचक्रवर्तिनामात्मा गुलेन ज्ञेयानि । शेषाणि तु सप्त पञ्चेन्द्रियरत्नानि तत्तत्कालीनपुरुषोचितमानानीति १६ ॥१७॥२१२॥ सम्प्रति 'नव निहिओ ति त्रयोदशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह नेसप्पे १ पंडयए २ पिंगलए ३ सव्वरयण' ४ महपउमे ५। काले य ६ महाकाले ७ माणवग ८ महानिही संत्रे ९॥१८॥ नेसप्पंमि निवेसा गामागरनगरपट्टणाणं च । दोणमुहमषाणं खंधाराणं गिहाणं च ॥१९॥ गणियस्स य 'गीयाणं माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धनरस य बीयाणं उप्पत्ती पंडुए भणिया ॥२०॥ वाम सं. ।। २ वामो-मं.। ३ अत्र "इहाङ्गुलं प्रमाणागुलमवगन्तव्यम् । सवेचक्रवर्तिनामपि काकिन्यादिरलानां तुल्यप्रमाणत्वात् । इति जिनमद्-वृ. सं. मलयवृत्तौ प. ११८ पाठः॥ ४ तुलना-प्रश्नव्याकरणवृत्तिः अमयदेवसूरीया प.७१।। ५ णे-सं. ॥ ६बीयाण-इति स्थानानसूत्रे पाठः॥ अ. आ. ३५१ K ॥३९२॥ M Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ३९३॥ सव्वा आहरणविही पुरिसाणं जा य जा य महिलाणं । 'आसाण य हत्थीण य पिंगलगनिहिम्मि सा भणिया ||२१|| रयणाहं सव्वरयणे चउदस पचराई चक्कवीस्स ! उप्पज्जति efitदयाई पांच दियाई घ ॥२२॥ वत्थाण य उपपत्ती निष्पत्ती चैव सव्वभत्तोणं । रंगाण य धाऊण य सव्वा एसा महापउमे ||२३|| काले कान्नाणं भव्व पुराणं च तिसुवि वंसेसु । सिप्पस कम्माणि य तिन्नि पधाए हिमकराई ||२४|| लोहस् य उप्पत्ती होइ महाकाल' आगराणं च । रूपरस सुवण्णस्स य मणिमोत्तियसिल वालाणं || २५ ॥ जोहाण य ' उप्पली आवरणाणं च पहरणाणं च I सव्वा य जुनी माणवगे डोई य ॥२६॥ मासायण ता० सि० ।। २ चक्कवट्टीण- मु. ॥। ३ धोयाण-इति स्थानाङ्गसूत्रपाठः ॥ ४ तीसु वासेस-इति स्थानाशसूत्रपाठः || ५ पढाई हिय० ता । पया हिय० सि. || ६० लि-इति स्थानाङ्गसूत्रे पाठः ॥ ८०वालाणं. वि. प्रतौ स्थानाङ्गेऽपि च वाला-इति पाठः ॥ ९० निष्कन्ति इति स्थानाङ्गसूत्रे पाठः ॥ णां-वि. ॥ २१३ द्वार नवनिधि स्वरूपम् गाथा १२१८ १२३१ प्र. आ. ३५१ ॥ ३९३॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे २१३वा नवनिधि स्वरुपम् गाथा १२१८१२३१ द्वितीयः खण्ड: ॥३९४॥ नविही नाडयषिही कध्वस्स चउब्धिहस्स निष्फत्ती । संखे महानिहिम्मि उ तुडियंगाणं च सव्वेसिं ॥२७॥ 'चक्कहपाहाणा अठुस्सेहा य नव य विक्खंभे । पारस दीहा मंजूससंठिया जहवीए मुहे ॥२८॥ वेरुलियमणिकवाडा कणयमया विविहरयणपडिपुत्रा । ससिसूरचक्कलक्खण 'अणुसमवयणोववत्तीया ॥२९॥ पलिओवमहिईया निहिसरिनामा य तत्थ खलु देवा । जेसिं ते आवासा अक्केजा आहिवच्चाय' ॥३०॥ एए से नव निहिणो पभूयधणरयणसंचयस मिडा । जे वसमुवगच्छति सव्वेसिं चक्कवहीणं ॥१॥ [स्थानाङ्गसूत्रे-ठाण-8, मू. ६७३, गा०१-१४] नैसर्पः, पाण्डुका, पिङ्गलका, सर्वरत्नः, महापद्मः, कालः, महाकालः, माणवकः, महानिधिः शङ्खश्व, एते नव निधयः । एतेषु च निधिषु कल्पपुस्तकानि शाश्वतानि वर्तन्ते । "तेषु च विश्वस्थितिराख्यायते ॥१८॥ १चक्ट्रपयद्राणा-ता.सं.॥२ अणुसमजुगबाहुवतणा -इति स्थानासूत्रे पाठः ॥ ३वा-इति स्थानास पाठः ॥ ४ ते च-सि. वि. प्र. आ. ३५१ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२१३ प्रवचनसारोदारे | नवनि स्वरूपा सटीके द्वितीयः माथा १२१८ १२१६ ॥३१५॥ तब यस्मिन्निधौ यदाख्यायते सदाह-'नेसप्पंमी' त्यादिगाथा एकादश, नैस-नैसमिधे निधी ग्रामा-ऽऽकर-नगर-पत्तनानां 'द्रोणमुख-मडम्बानां स्कन्धावाराणां गृहाणां चशब्दादापणानां च निवेशा: स्थापना व्याख्यायन्ते । तत्र ग्रामो-वृश्यावृतः, आकरो-यत्र सन्निवेशे लवणाधुत्पद्यते, नगर-राजधानी, पत्तनं-जलस्थलनिर्गमप्रवेशम् , द्रोणमुखं-जलनिगमप्रवेशम् , अर्धेतृतीयगव्यूतान्तामान्तररहितं मडम्बम्, स्कन्धावार:-कटकनिवेशः, गह-भवनम् , आपणो हट्ट इति ॥१६|| 'गणितस्य-दीनारादिपूगफलादिलक्षणस्य, तथा गीताना-स्वरकरणपाटकरण'धूपकागास्कटिकिकाप्रभृतीनां प्रबन्धानाम् , तथा मान-सेतिकादि, तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्यादि मेयमिति भावः, सथा उन्मानं-तुलाकर्षादि, तद्विषयं यत्तदप्युन्मानम् , खण्ड-गुडादि धरिममित्यर्थः, ततः समाहारद्वन्दः, ततस्तस्य यत्प्रमाणम् , तथा धान्यचीजाना च-शान्यादीनां देशकालौचित्येनोत्पत्तिः-निष्पत्तिः पाण्डुकनिधौ मणिता-व्यावर्णिता ॥२०॥ सर्वोऽप्याभरणविधियः पुरुषाणां यश्च महिलानां तथा अश्वाना हस्तिनां च स यथोचित्येन पिङ्गलनामके महानिधौ मणितः ॥२१॥ इह चक्रवर्तिनश्चतुर्दश रत्नादि सर्वोत्तमानि भवन्ति । तद्यथा-चक्रप्रमुखाणि सप्त एकेन्द्रियाणि, सेनापतिप्रमुखाणि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि, तानि चतुर्दशापि सर्वरत्नाख्ये महानिधौ उत्पद्यन्ते । तदुत्पत्तिस्तत्र व्यावर्णितेत्यर्थः । अन्ये त्वेवमाहुः-उत्पद्यन्ते एतत्प्रभावात् स्फीतिमन्ति च भवन्तीत्यर्थः ॥२२॥ होणमखमंडवा. सि.वि.।। २ स्थापनाम्यास्यायन्ते-मु.॥३ मंडव-सि.वि.॥४तुलना-स्थानावृत्तिःप.४४ ॥ ५ तथा बीजानां तनिबन्धनभूवानाम-ति स्थानाजवृत्तौ ।।६ धूपक. मि.वि.सं.॥ प्र. आ ३५२ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे। सटीके | २१३ द्वान नवनिधिस्वरूपम् गाथा १२१८१२३१ द्वितीयः ॥३९६॥ सर्वेषामपि वस्त्राणां या उत्पत्तिः, तथा सर्वेषामपि वस्त्रादिगतानां मक्तिविशेषाणां सर्वेषामपि च | रक्षाणां-'मञ्जिष्ठा-कृमिराग-कुसुम्मादीनाम् , धातूनां च-लोह-ताम्रादीनाम् , 'धोन्वाण य' ति पाटे तु सर्वेषां वस्त्रादिप्रक्षालनविधीना या निष्पत्तिः, सर्वा चैषा महापी निधावभिधीयते ॥२३॥ काले-कालनामनि निधी कालज्ञान-समस्तज्योतिः शास्त्रानुगतं ज्ञानमितिभावः। ___ तथा जगति त्रयो वंशाः, वंश: प्रवाह आवलिकेत्यनान्तरम्, तद्यथा-तीर्थकरवंशश्चक्रवर्तिवंशो बलदेववासुदेववंशश्व, तेषु विष्वपि वंशेषु यद्भाव्यं-भावि यच्च पुराणम्-अतीतम् , उपलक्षणमेतत् वर्तमानं च । 'तिमुवि वासेसुतिपाठे तु अनागतवस्तुविषयमतीतवस्तुविषयं च कालज्ञानं क्रमेणानागतातीतवर्षत्रयगोचरमिति । क्वचिद् 'भव्वपुराणं च तिसुवि कालेसु'त्ति पाठः, तत्र च विष्वपि कालेपु-वर्तमानात नागलेषु भयं- शुभम्, पुर.णं च-अशुभं कालज्ञानमिति । तथा 'यन् शिल्पशतं-घट-लोह चित्र-वस्त्र-नापितशिल्पानां पश्चानामपि प्रत्येक विंशतिभेदत्वात् यानि च कृषिवाणिज्यादीनि जवन्यमध्यमोत्कृष्टभेदमिन्नानि त्रीणि कर्माणि प्रजाया हितकराणि तदेतसर्वमभिधीयते ॥२४॥ महाकाले निधी लोहस्य नानाभेदभिन्नस्योत्पत्तिराख्यायते, रूप्यसुवर्णमणिमुक्ताशिलाप्रबालानां संबन्धिनामाकराणां च । तत्र रूप-सुवर्णे प्रतीते, मणयः-चन्द्रकान्तादयः, मुक्ता-मौक्तिकानि, शिलाःस्फाटिकादिका, प्रबालानि-विद्रुमाणीति ॥२५॥ १ मजिष्ठा मु.॥ २ शास्त्रानुबन्धिगत जे. सि. वि. ॥ ३ यद्भव्य • मु. ॥ ४ तत्-सि.। यतः-॥ प्र. आ. Bibe ALSO Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः ॥३९७॥ माणके निधी योधान-शुरपुरुषाणाम् आवरणानां 'खेटकादीनाम् प्रहरणानां -खड्गादीनां च यत्र यथा वा उत्पत्तिर्भवति तथाऽभिधीयते । तथा सर्वाऽपि युद्धनीतिः व्यूहरचनादिलक्षणा, सर्वाऽपि च दण्डनीतिः सामादिचतुर्विधाऽऽरूपायते ||२६|| शङ्खाभिधाने पुनर्महानिधौ सर्वोऽपि नर्तनविधिः- नृत्यकरणप्रकार: सर्वोऽपि च नाटकविधिःअभिनेयप्रबन्धप्रपञ्चनप्रकारः, तथा धर्मार्थ-काम-मोक्षलक्षण पुरुषार्थप्रतिबद्धस्य यद्वा संस्कृतप्राकृताser शसंकीर्ण भाषानिबद्धस्य गद्य-पद्य-मेय चौर्णपदवद्धस्य वा चतुर्विधस्यापि काव्यस्य, तथा सर्वेषां त्रुटिताङ्गानाम् - आतोद्यापरपर्यायाणामुत्पत्तिराख्यायते । " अन्ये ते पूर्वोक्ताः पदार्थाः सर्वेऽपि नवसु निधिषु साक्षादेव समुत्पद्यन्ते इति व्याख्यानयन्ति ||२७|| अथ नवानामपि निधीनां साधारणं स्वरूपमाह - 'चक्कपई'त्यादि, प्रत्येकमष्टसु चक्रेषु प्रतिष्ठानम् - अवस्थानं येषां ते अष्टचक्रप्रतिष्ठानाः प्राकृतत्वादष्टशब्दस्य परनिपातः । अष्टौ योजनानि उत्सेधःउरुवैस्त्वं येषां ते तथा । नत्र च योजनानि विष्कम्भेण नवयोजनविस्तारा इत्यर्थः । द्वादशयोजन दीर्घाः, मञ्जूषासंस्थानसंस्थिताः, सदैव जाहच्या गंगाया मुखेऽवस्थिताः, चक्रवर्त्तिन उत्पत्तिकाले च भरतविजयानन्तरं चक्रवर्तिना सह पातालेन चक्रवर्तिपुरमनुगताः ॥ २८॥ वैढूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा मयट्प्रत्ययस्य वृत्या उक्तार्थता, कनकमयाः सौवर्णाः, त्रिविधरत्नपरिपूर्णाः, शशि-पूर चक्राकाराणि टकाना - वि. वि. सन्नाहानां- इति, स्थानानवृत्तौ प ४४० ॥ २ सति जे.सि. नास्ति १ गद्यपदयोर्न० सि । गद्यपद्ययवर्णपदभेदबद्धस्य इति स्थानाङ्गवृत्तौ पाठः । | २१३द्वारे नवनिधि स्वरुपम् गाथा १३१८. १२३१ प्र. आ. ३५२ ||३९७|| Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २१३द्वारे नवनिधि सारोद्वारे द्वितीयः सध: गाथा १२१८. ॥३९८॥ लक्षणानि-विद्वानि येषां ते तथा, प्राकृतत्वात्प्रथमावहुवचनस्य लोपः, "अणुसमवयणोववत्तीय" लि अनुरुपा समा-अविषमा, वदनोपपतिः-दारघटना, येषां ते तथा। __ 'अणुवम' सिपाठे तु न विद्यते उपमावचनस्योपपत्तिा-घटना येषां स्वरूपव्यावर्णने ते अनुपम बचनोपपत्तिका:-- 'उपरमा प्रतिगादमिनुपशाया, 'उपमाया एवामावादिति भावः । क्वचित *अणुसमयचयणोववत्तीय' तिपाठः, तत्र अनुसमर्य-प्रतिसमयं पुद्गलानां च्यवनमुपपत्तिश्च येषां ते तथा; यावन्तस्तेभ्यः पुद्गला गलन्ति तावन्त एवानुसमयं लगन्तीत्यर्थः । 'स्थानाने तु 'अणुसमजुग. बाहुवयणा य' ति पठ्यते । तत्र चायमर्थः- अनुममा-अनुरूपा अविषमा जुगति-यूपस्तदाकारा वृत्तत्वादीर्घत्वाच्च बाहबो-द्वारशाखा वदनेषु-मुखेषु येषां ते तथा ॥२९॥ तेषु च निधिषु पल्योपस्थितिका निधिसदृशनामानम्ने देवा भवन्ति येषां देवाना त एवं निधय आवासा-आश्रयाः आधिपत्याय-प्राधिपत्यानिमित्तमक्रेयाः, "नाधिपत्यं क्रयेण लभ्यमिति भावः ॥३०॥ एते ते नव निधयः प्रभूनधनरत्नमंचयसमृद्धाः ये सर्वेषामपि मरतक्षेत्राधिपचक्रवर्तिनां वशमुपयान्तीति ॥३१॥२१३॥ इदानी 'जीवसंवा उ' नि चतुर्दशोचद्विशनतमं द्वारं विमणिपुः स्वकृतमेव जीवसङ्ख्याप्रतिपादक कुलकमत्र ग्रन्ये निक्षिप्तवान् ग्रन्थकारः, तत्र चेयमादिगाथा प्र. आ. ॥३९८॥ .... उपमाया-मि. वि.सं.॥२ उपमा माया-सि.वि.॥३अनुसमय सि.॥ ४ स्थानावगे ६७३ बमे सूत्रे ।। ५ तुला स्थानाचिःप.४५० ॥ ६ तेषामाधिपत्यं-मु.॥ नामा Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोबारे सटीके.. द्वितीयः जीवसङ्कथा ॥३९॥ नमिउं नेमि एगाइजीवसंग्वं भणामि समयाओ । यणजुसा एगे १ भवत्यसिडा दुहा जीवा २ ॥३२॥ सस यावरा य दुविहा २ तिविहा पीपुनसगविभेया ३ । नारयतिरियनरामरगइभेयाओ उन्भेया ४ ॥३३॥ अहव तिवेयअवेयगसरूपओ वा हवंति चत्तारि ४ । एगषितिचउपणिदियख्वा पंचप्पयारा ते ॥३४॥ एए विषय छ अणिंदियजुत्ता ६ अहवा छ भूजलग्गिनिला। पणनससहिया ६ छप्पिय ते सत्त अकायसंवलिया ॥३५॥ अंडय १ रसय २ जराउय ३ संसेयय ४ पोयया ५ समुच्छिमया ६ । अनिमय ७ तहोववाइय ८ भेएणं अट्टहा जीवा ॥३६॥ पुढचाइ पंच बितिचउपणिदि ४ जुत्ता य नवविहा९ति । नारयनपुस तिरिनरतिवेय. सरथीपुमेवं वा ॥६॥ ३७॥ पुढवाइ अह असलि सन्नि दस ते ससिड इगदसउ ११ । पुढवाइया . तसंता अपज्जपज्जत पारसहा ॥३८॥ गाथा १२३२१२४८ । प्र. आ. . १ बितिचतप्पणिवि जुया-सि. ॥ २ च-जे. सि. पो. ॥ THARRARAMAILY Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटीके २१४ द्वारे जीवसङ्ख्याकुलकम् गाथा द्वितीयः ॥४०॥ १२४८ पारसवि अतणुजुत्ता तेरस सुहमियरे' गिदिषेइंदी । तिय घउ असन्नि सन्नी अपलपज्जत घउदसहा ॥३६॥ धउदसघि अमलकलिया पनरस तह अंडगाइ जे अह ।। ते 'अपज्जत्तगपजत्तभेयो सोलस हवंति ॥४०॥ सोलसवि अकायजुया सत्तरस नपुमाइ नव अपज्जत्ता । पज्जत्ता अट्ठारस अकम्मजुअ ते इगुणवीसं ॥४॥ पुढवाइ दस अपजा पज्जत्ता हुँति वीस संखाए । असरीरजएनि तेहिं वीसई होइ एगहिया ॥४२॥ सुहमियरभूजलानलवाउवणाणत दस सपत्तेा । पितिचउअसन्निसन्नी अपज पज्जत पत्तीसं ॥४३।। तह नरयभवणवणजोइकप्पगेवेजऽणुत्तरुप्पन्ना । सत्तवसाइपणवारस नवपणछप्पन्नवेउव्वा ॥४४॥ हुति अडवनसंवा ते भरतेरिच्छसंगया सव्वे । अपजत्तपजतेहिं सोलमुत्तरसयं तेहिं ॥४५॥ प्र.आ. ॥४० ॥ १.रि०पो, वि.॥२ अपजसगाइप० ता.। अपज्ज तगायप० सि.॥ ३०णुत्तरावन्ना-ता. ०णुत्तरपन्ना-सि ।। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन रोद्वारे टीके द्वतीयः पड: ४०१ ॥ दुगहोण बत्तीससंगयं तं सूर्य उग्रत्तालं | तं ॥४८॥ भव्वाभव्य गदूरभव्व आसन्नभव्यं च ॥४६॥ संसार निवासीणं जीवाण सयं इमं छयत्तालं । अप्पं व पालियव्वं सिवसुहकस्वीहिं जीवेहि ||४७ || सिरिअम्मएवमुणिवह विणेयसिरिनेमिचंदसूरीहिं । सपरहियत्थं रइयं कुलयमिणं जीवसंखाए नत्वा- प्रणम्य, नेमिं -'द्वाविंशतितीर्थकरम् ; एकादिकाम्-एकद्विग्यादिकाम् जीवसङ्ख्यां भणामिकथयामि, समयात् - सिद्धान्तात् । न पुनः स्वमनीषिकयेति । तत्र चेतनायुक्ताः - चैतन्योपेता जीवा एके - एकविधाः, उपयोगलक्षणत्वाज्जीवानाम्, सिद्धसंसार्ययस्थाद्वयेऽप्युपयोगभावेन 'सततावबोधभावात्, सततावोधाभावे चाजीवत्वप्रसङ्गात् ; तथा भवस्थ - सिद्धभेदेन द्विधा जीवाः । तत्र भवस्थाः - संसारवर्तिनः; सिद्धा मुक्तिपदप्राप्ताः ||३२|| 整 अथवा स स्थावरभेदेन द्विधा जीवाः । तत्र वसा - द्वीन्द्रियादयः, स्थावराः - पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः । तथा त्रिविधाः स्त्री-पु-नपुंसकमेदतः । इह स्यादयः स्त्र्यादिवेदोदयात् योन्यादिसंगता गृन्ते । तथा चोक्तम् “ योनिमृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धताऽबलता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥१॥ १ द्वाविंशतीर्थंकरम् सु. ॥ २ सतताबोध मावात् सि. वि. पो. नास्ति ॥ २१४द्वारे जीव सङ्ख्या कुलकम् गाथा १२३२. १२४८ प्र. श्रा. ३५३ 118 211 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसङ्ख्या जारोद्धारे टीके द्वतीयः 1४०२॥ मेहनं खरता दाढय, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुस्त्वे प्रचक्षते ।।२।। |२१४ द्वारे स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥३॥" तथा नारक-तियग्नश-उमरगतिमेदत वसुभदा जीपा ॥३३॥ कुलकम् र अथवा 'त्रिवेदावेदस्वरूपतो भवन्ति चतुर्विधा जीवाः, वाशब्दः समुच्चयेः तत्र 'त्रिवेदा-स्त्रियः गाथा पुरुषाः नपुसकाच, न विद्यते वेद उपशमितत्वात् क्षपितत्वाद्वा येषां ते अवेदाः-अनिवृत्तिबादरादयो मवस्था सिद्धाश्च । तथा एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदतः पञ्चप्रकारास्ते जीवाः ॥३४|| १२४८ एत एव एकेन्द्रियादयः पञ्चप्रकारा जीवा अनिन्द्रिययुक्ताः षड्विधा भवन्ति । न विद्यन्ते इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि येषां तेऽनिन्द्रियाः- सिद्धाः । अथवा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदतः षड्विधा जीवाः । तथा पूर्वोक्ता एव पृथिव्यादयः षड्विधा जीवा अकायमहिताः सप्तविधा भवन्ति । न विद्यते प्र. आ. काया-पञ्चप्रकारमपि शरीरं येषां तेऽकाया:- सिद्धाः ॥३५॥ अण्डजादिभेदतोऽष्टविधा जीवा भवन्ति । तत्र अण्डाज्जाता अण्डजाः- पक्षि गृहकोकिला-मत्स्यसर्पादयः । रसाज्जाता रसजा:-तका-ऽऽरनाल-दधि-तीमनादिषु पायुकुम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा जीवविशेषाः । बरायो:-गर्भवेष्टनाज्जातास्तद्वेष्टिता इत्यर्थः, जरायुजा-मनुष्यगोमहिष्यादयः । संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजा (त्रिमेवा० मि. मि. ॥ २ त्रिपदाचयः पुरुषाः खियो नपु० मुः ॥ ३ पक्षिगृहकोलिकाम० सि. वि. पो.॥ ४ इस्पष्टी-जे. सि.बि.पो.॥ DIRECSYBOAR SKARMERO ESSAGE WATRAMuhuratNAINARA EARCASciencial Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन रोद्वारे टीके तीय:: ४०३॥ मत्कुण-यूका- शतपदिकादयः । पोतं वस्त्रम्, तद्वज्जाताः पोतादिव बोहिस्थाज्जाता अजरायुवेष्टिता इत्यर्थः, पोतजा - हस्ति वल्गुली-वर्न-जलूकाप्रभृतयः । संसृच्छेन निर्वृताः संमूष्ठिमा :- कृमि पिपीलिका-मक्षिकाशालिकादयः । उद्भेदाद्-भूमिभेदाज्जाता उद्भेदजाः पतङ्ग - खञ्जनकादयः । उपपाते - देवशयनीयादों HET औपपातिकाः- देवा नारकाश्चेति ||३६|| पृथिव्यादयः - पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः पञ्च द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिययुक्ता 'नवविधा भवन्ति । अथवा नारका नपुंसकत्वेनैकविधाः तिर्यञ्चो नराय त्रिवेदत्वेन - स्त्री-पु' नपुंसक वेदत्वेन प्रत्येकं त्रिभेदाः, सुराच स्त्री-पुरुष भेदत्वेन द्विविधाः इत्येवं नवविधा जीवाः ||३७|| पृथिव्यादयः-- पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणा अष्टौ जीवाः 'असंज्ञि-संज्ञि-पञ्चेन्द्रियेण सहिता दशविधा भवन्ति । तथा त एव दशविधा जीवाः ससिद्धा: - सिद्धसहिता एकादशविधा मवन्ति । तथा पृथिव्यादयस्त्र सान्ताः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसा इत्यर्थः । प्रत्येकमपर्याप्त पर्याप्तभेदतो द्वादशविधा भवन्ति ॥३८॥ ते द्वादशापि अतनुयुक्तास्त्रयोदश भवन्ति । न विद्यते तनुः शरीरं येषां तेऽतनवः सिद्धाः । तथा एकेन्द्रिया द्विषा-सूक्ष्मा बादराय । तथा द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियास्तु द्विविधाःअसंज्ञिनः संज्ञिनथ । एते सप्तापि प्रत्येकमपर्याप्ताः पर्याप्ताश्चेति चतुर्दशविधा जीवाः || ३९ ॥ १ नवविध जीवा म० मु.। जीवा-सि. वि. पो. नास्ति । २ महिनां संहिनां च पञ्चेन्द्रियेण - पो. सा २१४ द्वा जीवसाया कुलकम् गाथा १२३२ १२४८ प्र. आ. ३५४ ||४०३॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड : ॥४०४॥ एत एव चतुर्दश अमलसहिताः पञ्चदशविधाः । न विद्यते मलः इव मलो - निसर्गनिर्मलजीव मालिन्यापादन हेतुत्वादष्टप्रकारं कर्म येषां तेऽमलाः- सिद्धाः । तथा येऽण्डज-रसजादयः पूर्वमष्टौ जीवभेदा मणितापर्याप्तपर्याप्तभेदतः षोडश भवन्ति ||४०|| एत एव षोडश अकायेन - सिद्धेन युक्ताः सप्तदशविधाः । तथा पूर्वोक्ता 'नपुंसकादिभेदा-नारकनपुंसक-स्त्रीषु नपुंसकतिर्यक्स्त्रीषु नपुंसकमानव-स्त्रीषु वेददेवलक्षणा नवविधा अपि जीवाः प्रत्येकमपर्याप्ताः पर्याप्ता सन्तोऽष्टादश भेदाः । तथा ते एव चाष्टादश अकर्मभिः सिद्धैयु क्ता एकोनविंशतिः ॥४१॥ पूर्व ये पृथिव्यादयो दशविधा जीवा भणिताः, त एवाऽपर्याप्त पर्याप्तभेदाय विंशतिसङ्ख्या भवन्ति । तथा तैरेव पृथिव्यादिभिर्विशति सङ्ख्यै र्भेदे र शरीरयुतैः - सिद्धसहितैः सद्भिरेकविंशतिर्जीव मेदा भवन्ति ||४२ || पृथिव्यप्तेजोवाय्वनन्त वनस्पतयः पञ्च प्रत्येकं सूक्ष्म बादरमेदतो दश भवन्ति । ते च सप्रत्येकाःप्रत्येक वनस्पतिसहिता एकादश, द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिचेन्द्रियाश्च पश्च मिलिताः षोडश, एते च प्रत्येकपर्या पर्याप्तभेदभिन्ना द्वात्रिंशद्भवन्ति । इयमत्र भावना - पृथिवीकायो द्विधा - सूक्ष्मो बादरव, पुनरेकैको द्विधा - अपर्याप्तः पर्याप्तश्चेति चतुर्विधः पृथ्वीकायः । एवं जला ऽनल - वायवोऽपि । वनस्पतिर्द्विधा - साधारणः प्रत्येकव, तत्र साधारणो द्विधा-सूक्ष्मो बादरश्वः पुनरेकैको द्विधा - अपर्याप्तः पर्याप्तश्व, प्रत्येकस्तु बादर एव स चापर्याप्त पर्याप्तभेदेन द्विविध इति षोढा वनस्पतिकायः । द्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः १ नपुंसका नारक तिर्यक स्त्रीपुन्नपुंसक तियेक स्त्री नपुंसक मानवस्त्रीपु' देवदेवलक्षणा-सि ॥ २ द्विचतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः- सि । द्वित्रिचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिया:- वि. ॥ २१४ द्वारे जीवसङ्ख्याकुलकम् गाथा १२३२ १२४८ प्र. आ. ३५५ ॥४-४॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन रोद्वारे 巨 यः ९०५ ॥ Peeves'p' पुनः प्रत्येकमपर्याप्त पर्याप्तभेदतो द्विधा । मिलिताच द्वात्रिंशदिति ॥१.३॥ नारक भवनपति वनचर-ज्योतिष्क- कल्प-ग्रैवेयका ऽनुत्तरविमानोत्पन्ना जीवा यथाक्रमं सप्त-दशअष्टपञ्च द्वादश-नव-पश्च भेदा भवन्ति । एवं च वैकियशरीरिण: पट्पञ्चाशद्भेदाः । एतदुक्तं भवति - रत्नप्रभादिपृथिवीसप्तकनिवासित्वेन नारकाः सप्तविधाः, भवनपत योऽसुरकुमारादिभेदतो दशविधाः व्यन्तराः पिशाचादिमेदादष्टविधाः, ज्योतिष्काचन्द्रादिभेदेन पञ्चविधाः कल्पोपपन्नाः सौधर्मादिद्वादशदेवलोकोपनत्वेन द्वादशविधाः ग्रैवेयकोत्पन्ना अधस्तनाधस्तनादियैवेयक नवकनिवासित्वेन नवविधाः, अनुत्तरविमानोत्पन्नास्तु विजयादिविमानपञ्चकोत्पन्नत्वेन पञ्चविधाः । सर्वमीलने च षट्पञ्चाशदिति ||४४ || सर्वेऽपि शरीरिणो नरतिर्यक्संगताः सन्तोऽष्टपञ्चाशत्सङ्ख्या भवन्ति । तथा तैरेवाटपञ्चा शत्सङ्ख्यैः प्रत्येकमपर्याप्तपर्याप्त मेदभिन्नैः पोडशोत्तरशतं भवति ॥४५॥ संज्ञिद्विकं - पर्याप्ताऽपर्याप्तसंज्ञिरूपम् तेन हीना-रहिता पूर्वोक्ता या द्वात्रिंशत् तथा संगतं मिलितमेतदेव षोडशोत्तरं शतं षट्चत्वारिंशं शतं भवति । संब्रिद्विकस्य तु षोडशोत्तरशतग्रहणेनैव ग्रह्णाद्वर्जनमिति । तच्च षट्चत्वारिंशं शर्त भव्या भव्य दूर भव्या-ऽऽसन्न भव्य लक्षणैश्चतुर्भिर्भेदैः संगृह्यते । इदमत्र तात्पर्य - पूर्वोक्तस्य षट्चत्वारिंशदुत्तरशतस्य मध्ये केचिज्जीवा भव्याः केचिदभव्याः, केचिद् दूरभव्याः केचिदासन्नभव्या इति । तत्र मुक्तिपर्यायेण भविष्यन्तीति भव्याः - सिद्धिगमन योग्याः, १ भवन्ति सु. ॥ २ संसिद्विके पर्याप्तशिरूपत्वेन हीना-सि ।। २१४द्वारे जीव संख्या कुलकम् गाथा. १२३२४८ प्र. आ. ३५५ ॥४०५॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसंख्या कुलकम गाथा १२३२. ४८ न पुनरवश्य सिद्धिगामिन एव, मव्यानामपि केषाश्चिसिद्धिगमनासंभवात् । उक्तं च भव्याधि न रोद्धारे सिझिस्संति केह" [ ] इत्यादि। टीके भव्यविपरीता अभव्याः, तथा च ते न कदाचिदपि 'संसाराकूपारस्य पारं प्राप्नुवन्तः प्राप्नुवन्ति प्राप्स्यन्ति चेति । इदं च भव्यानां भव्यत्वमनादिकालसिद्धं शाश्वतमेय; न पुनः सामगग्यन्तरेण पश्चाङ्ग वत्यपगच्छति वा अभव्यत्वमप्यमव्यानामित्थमेव द्रष्टव्यम् । यद्यपि च भव्यत्वाऽभव्यत्वाभ्यामेव सर्वेऽप्यमी जीवभेदाः संगृहीतास्तथापि भव्यविशेषत्वादेती दूरभव्या ऽऽसत्रभव्यलक्षणों भेदौ पृथगुपातौ । तत्र रेण-दीर्धतरेण कालेन भव्या-मुक्तिगामिनो दग्भव्याः-ये गोशालकारितामोक्षं गाम्पन्ति ! ये पुनस्तेनैव भवेन द्वियादिभिर्वा भोक्षं यास्यन्ति ते आसमभव्याः । ___ इह च भव्यत्वाभव्यन्वलक्षणमेवमाचक्षते वृद्धाः-यः संसारविपक्षभूतं मोक्षं मन्यते तदवाप्त्यमिलापं च सस्पृहं वहति किमहं भव्योऽभव्यो वा ? यदि भव्यस्तदा शोभनम् , अथाभन्यस्तदा धिमामित्यादिचिन्तां च कदाचिदपि करोति स इत्यादिप्रकारेण चिनेन ज्ञायते भव्य इति । यस्य तु जाचिदपि नेयं चिन्ता समुत्पना समुत्पद्यते समुत्पत्स्यते वा स ज्ञायतेऽभव्य इति । उक्तं च आचाराजटीकायाम-"अमव्यस्य हि भव्यामव्यशंकाया अमावाद"[ ] इत्यादि ।।४।। १ संसाररूपमारस्थ-सि ॥२- मि.लि. नास्ति | प्र. आ. ॥६॥ POINES HTAS Pos C SAPAIKHREER Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥४०७॥ संसारनिवासिनां भववर्तिनां जीवानां प्राणिनामेतत् षट्चत्वारिंशदुत्तरं शतमात्मवद् पालनीयं रक्षiti शिवसुखकाङ्क्षिभिः मोक्षसुखाभिलाषुकैर्जीवैरिति ||४७|| श्री. आम्रदेवसूरिशिष्यैः श्रीनेमिचंद्रसूरिभिः स्वपरहिताय, आत्मनोऽविस्मृतये परेषां चावचोare इत्यर्थः । जीवसङ्ख्यायाः प्रतिपादकमिदं कुलकं-गाथासमुदायात्मकं रचितं - कृतमिति ॥ ४८ ॥ २१४॥ इदानीं 'कम्मा' अड त्ति' पञ्चदशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह--- पढमं नाणावरणं १ बोयं पुण दंसणरस आवरणं २ | तइयं च देयणीयं ३ तहा चत्थं च मोहणीयं ४ ॥४९॥ [कर्मविपाकाव्य प्रथम-कर्मग्रन्थः (प्राचीन) गा. ५ ] पंचममा ५ गोर्य छ ६ सत्तमगमंतरायमिह ७ I बहुतमपयडित्तेर्णं भणामि अट्टमपर नाम ८ ॥५०॥ प्रथमम् आर्थ ज्ञानावरणम्, द्वितीयं पुनर्दर्शनावरणम् तृतीयं न वेदनीयम्, तथा चतुर्थं च मोहनीयम्, पञ्चममायुः, गोत्रं षष्ठम् सप्तमं चान्तरायम्, इह च बहुतमोत्तरप्रकृतित्वेन बहुवक्तव्यत्वात् भणामि अष्टमपदे अष्टमपदस्थाने वा नामकर्मेति । ग्रन्धान्तरे हि आयुर्नाम गोत्रमन्तरायं चेत्यनेन क्रमेण पठ्यते । इह तु बहूत्तरप्रकृतितया पर्यन्ते नामकर्मेति । 9 'तत्र ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको १ तुला-सप्ततिकाटीका गा० २ ॥ २१५६ कर्मणो मूलमेद गाथा १२४९ १२५० प्र. आ. ३४६ day ॥४०७| Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ||४०८|| बोधः, आवियते - आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरण- मिध्यात्वादिसचिव जीवव्यापारहृतकर्मवर्गणान्तःपाती विशिष्ट - पुद्गलसमूहः ज्ञानस्य-मत्यादेरावरणम्- ज्ञानावरणम् । तथा दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं - सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधः, तस्यावरणं दर्शनावरणम् २ |* तथा वेद्यते - आह्रादादिरूपेणानुभूयते यत्तद्वेदनीयम्, यद्यपि सर्व कर्म वेद्यते तथापि 'पङ्कजादिशब्दवद्वेदनीयशब्दस्य रूढिविषयत्वात् साता-सातमेव कर्म वेदनीयमित्युच्यते, न शेषम् ३ । तथा मोहयति - सदसद्विवेकविकलं करोत्यात्मानमिति मोहनीयम् ४ । तथा एति - आगच्छति प्रतिबन्धकर्ता स्वकृतकर्मावाप्तनरकादिकुगतेर्निष्क्रमितुमनसो जन्तोरित्यायुः, अथवा आसमन्तादेति - गच्छति भवाद्भवान्तरसंक्रान्तौ जन्तूनां विपाकोदयमित्यायुः ५ । तथा ग्रूयते - शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैर्यत्तद् गोत्रम् - उच्च-नीच कुलोत्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः afaredi कर्मापि गोत्रम्, कारणे कार्योपचारात् ६ । तथा अन्तरा - दातृ प्रतिग्राहकयोरन्तर्विघ्नहेतुतया अयते गच्छतीत्यन्तरायम्, यज्जीवस्य दानादिकं तु न ददातीत्यर्थः ७ । १. जादिशब्दवद्वेदनीयस्य शब्दस्थ वि. ॥ इतोऽयं यतः पडिणीयप्राणनिन्दर उबधाय पमोस अंतरायण। अध्यासायणयाए भावरणदुगं जिभो जणई' इति सि. प्रतावधिका गाथा ॥ २१५द्वारे कर्मणो मूलमेदाः गाथा १२४९ १२५० प्र. आ. ३५६ ||४०८|| Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Traigseaset weepsta meepermeaAMEETITARONTHTTPHONKAREENAMENTachyaatmentntreheadNTIVI T AI N07398560380mAPRABO08090111ATTISTREAM DARDARRIERROMANAVSHARMINGAYATRowntowwwending सारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥४.९॥ तथा नामयति-गत्यादिविविधभावानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम ८ । एता अष्टौ । मूलप्रकृतयः ।।४६-५०।२१५॥ साम्प्रतं 'तेसिं उत्तरपपडीण अहवनसयं' ति षोडशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह--- १५८ पंचविहनाणवरणं नव भेया सणस्स दो वेए । प्रकृतयः अट्ठावीसं मोहे चत्तारि य आउए हुति ॥५१॥ [प्राचीन कर्मग्रन्थ १, गा. ७] गाथा गोयम्मि बोलि पंचतराइए तिगहियं सयं नामे । उत्तरपयहीणेवं १२५१अट्ठावन्नं सयं होइ ॥५२॥ १२७५ मह १ सय २ ओही ३ मण ४ केवखाणि जीवस्स आवरिज्जति । जस्स पभावओ तं नाणावरणं भवे कम्मं ॥५३॥ प्र. आ. नयणे १ यरो २ हि ३ केवल ४ देसणआवरणयं भचे घउहा। निदा ५ पयलाहि छहा ६ निहाइदुरुत्त ७-८ पीपाडी ॥५४॥ 'एवमिह दसणावरणमेयमावरह दरिसणं जीवे । सायमसायं च दहा वेयणियं सुहद्हनिमित्त ॥५५॥ १ एव० सा.तोऽप्रेलीयाकस्मात् सुक्खं वा दुक्खं बंधति-गुरुमत्तिखंतिकरणा वयोग कसायविजयवाणकुमो धम्माई मन्या सायमचायं विवरजमो || मधुना मोहनीयो कथ्यते, इत्यधिक पाठःसि.प्रती ॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ! प्रवचनसारोदारे सटीके द्वितीयः कोहो माणो माया लोभोऽणताणबंधिणो 'चउरो ।": : १ एवमपच्चक्खाणा पच्चक्रवाणा य संजलणा ॥५६॥ . सोलस इमे कसाया एसो नवनोकसाय संदोहो । इत्थीपुरिसनपुसकरूवं . यत्तयं तमि ॥५॥ हासरईअरईअयसोगदुगु छत्ति हासछक्कमिमं । दरिसणतिगं तु. मिच्छत्तमीससम्मत्तजोएणं.. ॥५८॥ का मोह अग्नीसा नारयतिरि नरसुराउय चउक्कं । गोयं नीयं उच्चं च अंतरायं तु पंचविहं ॥५ दाउन लहइ लाहो न होइ पावइ न भोगपरिभोगे । निरुओऽवि असत्तो होइ अंतरायप्पभावेणं ॥६॥ नामे पायालीसा भेयाणं अहव होइ सत्तही । ... अहवाविहुतेणउई तिग अहियसयं हवा अहवा ॥१२॥ पढमा यायालोसा ४२ गई १ जाइ २ सरीर ३ अंगुवंगे ४ य । बंधण ५ संघायण ६ संघयण ७ संठाण ८ नामं च ॥२॥ उत्तरप्रकृतयः गाथा १२५१. १२७५ प्र.आ. br.my .oM १ मणिया-ता॥२०संदेहो-सि.पो. ॥३नरयसुराज्य-ता.॥४०गं-मु.॥ ५०ण-सि.पो......... windiaynehaRO PE A n d ekinnountalilioni Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे सटीके द्वितीयः उत्तरप्रकृतयः गाथा १२७५ तह वन्न ९ गंध १० रस ११ फास १२ नाम अगुरुलष्ट्रयं च १३ बोद्धव्वं । ...... उवधाय १४ पराघाया १५ णपुचि १६ ऊसाँसनामं च १७॥३३॥ : आयावु १८ जोय ११ विहायगई २० तस २१ थावरामिहाणं च २२ ॥ . थायर २३सुष्टुम २४ पज्जसा २५ पज्जत्तं च २६ नायव्वं ॥६४|| ............ पत्त यं २७ साहारण २८ थिर २९ मधिर ३० सुभा ३१ सुभं ३२ च नापव्वं । सूभग ३३ दृभग ३४ नामं मूसर ३५ तह दूसरं ३६ चेव ॥६५।। [धर्मसङ्ग्रहणी गा. ६१८-६२०] "आएज्ज ३७ मणाएज्जं ३८ जसकित्ती नाम ३९ अजसकित्ती ४० य । निम्माणं : ४१ तित्थयरं ४२ भयाणवि हुतिमे भेया ॥६६॥ . गह होई. चउप्पयारा जाईवि य पंचहा मुणेयव्वा । पंच य: हुति सरीरा. अंगोवंगाई तिन्नेव ॥७॥ छस्संघयणा ६ जाणसु संठाणावि य हवंति छच्चेव ६ ।। वन्नाईण घउपकं ४. अगुरुलहु १ बघाय १ परघायं १ ॥६८।। अणुपुञ्ची घउभेया ४ उस्सास . १ आयवं.१ च उज्जोयं १ । सुहअसहा वियगई २. तसाइचीसं च २०. निम्माण ॥१९॥ १ माइज्जमणाइज-सा. ॥४१॥ HINESEDilimm abi Remittee mmm ..... Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः ||४१२॥ तित्थयरेण सहिया १ ससट्ठी एव इति पयडीओ ६७ t संमामीसेहि विणा तेना सेकम्माणं 119011 I एवं agreei १२० 'बंधे reवीण होइ नायव्यं बंधणसंघायाषि य सरीरगहणेण इह गहिया 119211 बंधणभेया पंच उ संघायावि य हर्षति पंचेव 1 चा दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा य ॥७२॥ सोलस छब्बीसा एमा मेलेवि सत्तसडीए दस T तेणउई होइ तओ बंधणभेया उपन्नरस ॥ ७३ ॥ ( तुला- प्राचीनकर्मग्रन्थ १, गा. ७१-८२) drearहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणं I न बंधणाणि इयरसहियाणं तिन्नि तेसिपि ॥ ७४ ॥ [ पञ्चसङ्ग्रहे द्वा. ३, गा. ११] सव्वेहिवि हिं तिगअहिय संयं तु होड़ नामस्स । इय उत्तरपयडीणं कम्मट्ठग अट्ठावन्नयं 119411 पश्चविधं ज्ञानावरणम्, नव भेदा दर्शनस्य - दर्शनावरणस्य, द्वौ वेदनीये, अष्टाविंशतिमहनीये, aarta आयुषि भवन्ति । गोत्रे द्वौ, पञ्च अन्तरायके, त्रिभिरधिकं शतं नामकर्मणि, उत्तरप्रकृतीनामेवं सर्वपादधिकं शतं भवतीति ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ १ पंधणपदीण-वा. सि. ॥ २ मेलिवि-मु. ॥ २१६ द्वारे १५८ उत्तर प्रकृतयः गाथा १२५१ १२७५ प्र. आ. ३५७ ॥४१२॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: 解释: ॥४१३॥ तत्र यथास्वं तानेव मेदान् क्रमेण नामग्राहमाह - 'मई'त्यादिगाथास्त्रयोविंशतिः तत्र मतिश्रुताऽवधि - मनः पर्यव - केवलानि जीवस्यात्रियन्ते - आच्छाद्यन्ते यत्प्रभावतस्तद् ज्ञानावरणं भवेत्कर्म । किमुक्तं भवति १ - ज्ञानावरणं पञ्चप्रकारम्, तद्यथा - मतिज्ञानावरणम् श्रुतज्ञानावरणम् अवधिज्ञानावरणम्, मनःपर्यवज्ञानावरणम्, केवलज्ञानावरणं चेति ।। ५३ ।। , तथा 'दर्शनावरणं बन्धे उदये सत्तायां च त्रिधा प्राप्यते । तद्यथा - कदाचिच्चतुर्धा, कदाचित् योढा, कदाचिच्च वा । तत्र कथं चतुर्धा ? कथं पोढा, कथं वा नवयेति त्रीनपि प्रकारान दर्शयन प्रथमतवतुर्धा दर्शयति- दर्शनावरणं चतुर्धा - चतुष्प्रकारं भवति । कथमित्याह- नयनेतराऽवधिकेवलेषुनयनेतरा ऽवधिकेवलविषयं तत् सूत्रे तु सप्तम्या अदर्शनं लोपाद, लोपश्च प्राकृतत्वात् । एप चात्र भावार्थ:- दर्शनावरणं यदा चतुर्धा बन्धे उदये सत्तायां वा विवक्ष्यते तदेवंरूपं तदवगन्तव्यम्, यथा नयनदर्शनावरणमितरदर्शनावरण मचक्षुर्दर्शनावरणमित्यर्थः, अवधिदर्शनावरणम्, केवलदर्शनावरणं चेति । तदेव दर्शनावरण चतुष्कं निद्रा प्रचलाभ्यां सह पोढा भवति । दर्शनावरणषट्कग्रहणे च सर्वत्रापीदमेव दर्शनावरणषट्कं ग्राह्यम्, एतदेव दर्शनावरणपटुकं निद्रादिद्विरुक्तप्रकृतिस्त्यानधिभिः सहितं नवधा द्रष्टव्यमिति शेषः । सूत्रे च विभक्तिलोप आपत्वात् । निद्रादीनि निद्रा प्रचलाasat road वाचकत्वेन ययोस्ते निद्रादिद्विरुक्ते निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला चेत्यर्थः । एतदिह शास्त्रे नवविधं दर्शनावरणमुक्तम् । एतच्च जीवे - जीवस्य दर्शनं - सामान्योपयोगरूपमावृणोति आच्छादयति, केवलं निद्रापञ्चकं प्राप्ताया दर्शनलब्धेरुपघातकृत् दर्शनावरणचतुष्टयं तु मूलत एवं दर्शनलब्धिमुपहन्ति । आह च गन्धहस्ती१ तुलना पञ्चसम्प्रवृत्तिः - द्वा०३ मा ४ प. ११० तः ॥ २ चतुष्टयं मु. ॥ ३ सह- मु. नास्ति || २१६ द्वारे १५८ उत्तर प्रकृतयः गाथा १२५१ १२७५ प्र. आ. ३५७ ॥४१३॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TVMakeM RAPEERA:-.'.. निद्रादयः समधिगताया एवं दर्शनलब्धेरुपयाते वर्तन्ते, दर्शनावरणचतुष्टयं तद्गमोच्छेदित्वात् प्रवचनः। समूलपातं हन्ति दर्शनलन्धिम्" [ ] इति । वेदनीयं द्विधा सातवेदनीयमसातवेदनीयं च, एतच्च |२१६ द्वारे सारोदारे क्रमेण सुख-दुःखनिमित्त-सुखनिमित्तं सातवेदनीयम् , दुःखनिमित्तमसातवेदनीयमित्यर्थः ॥५४.५।। १५८ सटीके उत्तरतथा मोहनीयं द्विधा दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं 'च; दर्शन--सम्यक्त्वम् , तन्मोहयतीति प्रकृतयः द्वितीय दर्शनमोहनीयम् ; चारित्र--सावद्येतरयोगनिवत्तिप्रवृत्तिलिङ्गमात्मपरिणामरूपम् , तन्मोहयतीति चारित्र. गाथा मोहनीयम्। ॥४१४॥ तत्र बहुतरवक्तव्यत्वात् प्रथमतश्चारित्रमोहनीयं निर्दिशति । तच्च द्विधा-कषाय-नोकषायभेदात् , १२५१तत्र क्रोधो मानो माया लोमश्वेत्यानन्तानमन्धिनचत्वारः कृपायाः । एवमेत एव क्रोधादयश्चत्वारः १२७५ प्रत्येकमप्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाच मिलिताः षोडश । तथा एष वक्ष्यमाणो प्र. आ.. नवाना नोकषायाणा संदोह-समूहः तत्र स्त्री-पुरुष नपुंसकस्वरूपं वेदत्रयम् , हास्य-रत्यरति-भय-शोक जुगुप्सालक्षणम् इदं हास्यषट्कं च । दर्शनमोहनीयं तु मिध्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वाना योगेन-मीलनेन विधा, इति मोहस्य-मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिर्भेदाः। तथा आयुषश्चतस्त्रः प्रकृतयः, तद्यथा-नारकायुस्तिर्यगायुनरायुः सुरायुश्च । गोत्रं तु विश-उच्चैो नीचे गोत्रं । ना लामाध्यति ८ सू. ८ भा. १८. १३५ ॥ लि- ॥ समामि..॥ ५ सथानि कि II |३५८ RRIPTIMRAPARICHRIS www. ro ARRANGANA MANANEIRDARSH AN Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय ॥४१५॥ ↑ अन्तरायं तु पुनः पञ्चविधम् तद्यथा-दानान्तरायम्, लाभान्तरायम् भोगान्तरायम्, परिभोगान्तरायम्, वीर्यान्तरायं च । एतां भेदान् सुखावबोधार्थमर्थकथनद्वारेणैव सूत्रकृनिर्दिशति-य -यस्यान्तरायस्य प्रभावतो दातु न लभते जीवस्तद्दानान्तरायम् । एवं यत्प्रभावतो जीवस्य लाभो न भवति तल्लाभान्तरायम् । यत्प्रभावतो भोगान् परिभोगांश्च न प्राप्नोति तत्क्रमेण भोगान्तरायं परिभोगान्तरायं च । प्रभावतच नीरुजोsपि - नीरोगोऽपि जीवोऽशक्तः - असमर्थो भवति तद्वीर्यान्तरायम् । 1 , इयमत्र भावना - " यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रे दत्तमस्मै महाफलमिति जानमपि दातु' नोत्सहते तद्दानान्तरायम् । तथा यदुदयवशाद्दानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुगृ है विद्यमानमपि देयमर्थजातं याचाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते तल्लाभान्तरायम् । तथा यदुदयवशात् सत्यामपि विशिष्टाहारादिप्राप्तावसति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा केवलं कार्पण्यानोत्सहते भोक्तु तद्भोगान्तरायम् । एवं परिभोगान्तरायमपि भावनीयम् । नवरं भोगपरिभोगयोश्यं विशेष:सकृद्भुज्यते इति भोगः - आहारमान्यादिः पुनः पुनः परिभुज्यते इति परिभोगो-भवनवनितादिः । तथा यदुदयवशात्सत्यपि नीरुजि शरीरे यौवनिकायामपि वर्तमानोऽल्पप्राणो भवति, यद्वा बलवत्यपि शरीरे साध्येsपि प्रयोजने streन्यतया न प्रवर्तते तद्वीर्यान्तरायमिति । तथा विवक्षान्तरतः कारणान्तरतव नामकर्म नानाप्रकारम्, तद्यथा-द्विचत्वारिंशद्भेदम्, सप्तषष्टिभेदम्, त्रिनवतिभेदम्, त्र्युत्तरशतभेदं च ॥५६-६२॥ १ तुलना - पञ्चसम्म वृत्तिः- द्वा०३, गा. ३, प. १०९ 4 तः ॥ २१६ द्वारे १५८ प्रकृतयः गाथा १२५१ १२७५ प्र. आ. ३५८ ॥ ४१५।। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे ... सटीके । नाम कर्षण द्वितीयः खण्ड: उत्तरप्रकृतयः गाथा |४१६॥ १२५१ तत्र तावद् द्विचत्वारिंशद्भेदानाह- "पदमे"त्यादिगाथानवकम् , प्रथमा द्विचत्वारिंशदियं द्रष्टव्या । तद्यथा-ग तेनाम, जातिनाम, वरनाम, अङ्गोपाङ्गनाम, क-धरलाग, संघातनाम, संहनननाम, संस्थाननाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, आनुपूर्वी. नाम, उच्छ्वासनाम, आतपनाम, उद्योतनाम, विहायोगतिनाम, बसनाम, स्थावरनाम, बादरनाम, सूक्ष्मनाम, पर्यातनाम, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकनाम, साधारण नाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशु. भनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यशःकीर्तिनाम, अयशाकीर्तिनाम, निर्माण नाम, तीर्थकरनाम चेति । तथा एतेषामेव गत्यादीनां भेदानां यदा नारकगत्यादयः प्रतिभेदा विवक्षिता भवन्ति तदा सप्तपष्टिः ।।६२॥ ६३॥ ६४।। ६५। ६६ ।। तामेव सप्तपष्टिमाह-'गई'त्यादिगाथापञ्चकम् , गतिनाम चतुर्धा-नरकगतितिर्यग्गतिमनुष्यगति-देवगतिभेदात् । जातिनाम पञ्चधा एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियजाति-भेदात् । शरीरनाम पञ्चधा औदारिक-बै क्रिया ऽऽहारक-तैजस-कार्मणशरीरभेदात । अङ्गोपाङ्गनाम त्रिधा औदारिकबैंक्रियाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गभेदात् । संहनननाम पोढा-वऋषभनाराच ऋषभनाराच-नाराच-अर्धनाराचकीलिका-सेवातयंहननभेदात् । संस्थाननाम घोढा समचतुरस्र न्यग्रोधपरिमण्डल-मादि-वामन-कुब्ज-हुंडसंस्थानभेदात् । वर्णादिचतुष्कं-वर्ण-गंध-रस-स्पर्शलक्षणम् । तथा अगुरुलघूपघात-पराघातं च । आनु. पूर्वीनाम चर्धातु नारक-तिर्यग्मनुष्य-देवानुपूर्वीभेदात् । तथा उच्छ्वासम् . आतपम , 'उद्योतम । विहायो १ उद्योतनं-सि. वि.॥ ।१२७५ - -- ॥४१६॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H E ROINTERNETSMASupport Farmire. २१६वारे उत्तर प्रकृतयः माथा १२५१ गतिर्द्विधा-शुभा-ऽशुभविहायोगतिभेदात् । प्रसादिविंशतिः-बस-स्थावरादिका यश कीर्ति-अयशःकीर्तिप्रवचन- पर्यन्ता, निर्माणं च। सारोद्धारे। एताः प्रकृतयस्तीर्थंकरनाम्ना सहिताः सप्तपष्टिर्भवन्ति । एता एव च बन्धसुदयं चाश्रित्य नामकर्मण सटिके उत्तरप्रकतयः परिगृह्यन्ते । शेषाणां च कर्मणां सम्यक्त्वमिश्रेविना त्रिपञ्चाशत् । बन्धचिन्तायां हि दर्शन मोहनीयोत्तरप्रकृती सम्यक्त्व-मिश्रे न गृहयेते; तयोर्बन्धासंभवात् । मिथ्यात्वपुद्गला एव हि तथाविधद्वितीयः विशोधिवशात सम्यक्त्वरूपतया मिश्ररूपतया च परिणमन्तीति । एवं च सप्तपटेर्नामकर्मभेदानां । शतश्च शेषकर्मभेदाना मीलने बन्धे विंशत्युत्तरं प्रकृत्तीनां शतं भवति ज्ञातव्यम् । ॥४१७॥ ननु पूर्वोक्तद्विचत्वारिंशदुत्तरप्रकृतिमध्ये ये बन्धन-संघातनाम्नी प्रतिपादिते ते सप्तपष्टिमध्ये कथं न गण्येते ? इत्याह-'बंधणे'त्यादि, बन्धन-संघातौ शरीरग्रहणेन शरीरनामकर्मान्तर्भूतत्वेनेहसप्तपष्टिभेदचिन्तायां गृहीताविति पृथग्न विवक्षितौ । तथा सत्तायां चिन्त्यमानायां नामकर्मप्रकृतयस्त्रिनवतिसङ्ख्या 'मतान्तरेण पुत्तरशतसङ्ख्याश्वाधिक्रियन्ते ॥६७-७१॥ ततः क्रमेणत्रिनवतिं युत्तरशतं चाह-पंधणे त्यादिगाथाचतुष्कम् , औदारिक-बै क्रिया-ऽऽहारकतेजस-कार्मणबन्धनभेदान्धननाम पञ्चधा । संघातनामापि औदारिक-वै क्रिया-ऽऽहारक-तैजस-कार्मणसंघातभेदात् पश्चधा। एवमेता दश । तथा वर्णनाम कृष्ण-नील-लोहित-हारिद्र-सितभेदात् पञ्चधा । गन्धनाम सुरभि-दुरभिगन्धमेदाद् द्विधा । रसनाम तिक्त कटु-कषाया-ऽम्ल-मधुरभेदात् पश्चधा । स्पर्शनाम कर्कश१मन्तरेण- वि. पो. ।। २ तिक्तकदुककषाया० पि. । ॥४१७॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २१६ - सारोद्धार द्वारे . सटीके . द्वितीय: खण्ड: मा प्रकृतयः गाथा १२५१ ॥४१८॥ मृदु-लघु-गुरु-शीतोष्ण स्निग्ध-रूममेदादष्टधा । एवमेता विंशतिः प्रकृतयः । एतासां मध्याद्वर्ण गन्ध-रसस्पर्शाना सामान्यतश्चतुर्णा सप्तपष्टिपक्षेऽपि गृहीतत्वात्तदपगमे शेषाः षोडश बन्धनसंघातदशकेन 'च सह षड्विंशतिः प्रकृत्तयो भवन्ति । एमाथ अनन्तरोत्तमसपष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते । ततो नामप्रकृतीनां विनवतिभवतीति । तथा प्रकारान्तरेण बन्धनस्य पश्चदश भेदाः, के ते इत्याह-'घेउवे त्यादि, धैक्रिया-ssहारकोदारिकाणां प्रत्येकं स्वकतैजस-कार्मणयुक्तानाम् , स्वकम्-आत्मीयम् , किमात्मीय'मिति चेदुच्यते, वैक्रियस्य वैक्रियम्, आहारकस्याहारकम् , औदारिकापौदारिकम् , तेन स्वकेन तैजसेन कार्मणेन च प्रत्येकं सहितानां बन्धनानि चिन्त्यमानानि नवनव सङ्खयानि भवन्ति । ___तद्यथा-वैक्रियबैंक्रियबन्धनम् , वैक्रियतेजसबन्धनम् , बैंक्रियकार्पणबन्धनम् , आहारकाहारकबन्धनम् , आहारकतैजसबन्धनम् , आहारककार्मणबन्धनम् , औदारिकौदारिकबन्धनम् , औदारिकतैजसबन्धनम् , औदारिककार्मणबन्धनमिति । तत्र पूर्वगृहीतवैक्रियपुद्गलानां स्वैरेव वैक्रियपुद्गलैगृह्यमाणैः सह संवन्धो वैक्रिय बैंक्रियबन्धनम् । तेषामेव वैक्रियपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गलैगृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्धो वैक्रिय-तैजस-बन्धनम् , तथा तेषामेव वैक्रियपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैगृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्धो वैक्रियकार्मणबन्धनम् , तथा पूर्वगृहीताना. माहारकपुद्गलानां स्वैरेवाहारकपुद्गलैगुह्यमाणः सह यः संबन्धः स आहारकाहारकबन्धनम् । तथा १ च-मु. नास्ति ॥ २ तुलना-पञ्चसापावृत्तिः-द्वा-३, गा. ११ प. १२१ A तः || ३ ०मित्युच्यते वि. सि.॥ प्र.आ. ना ४१८॥ S HANTINE P ARINEET PARE Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः । । तेषामेवाहारकपुद्गलाना पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गल ह्यमाणः पूर्व गृहीतैश्च सह संबन्ध आहारकतैजसबन्धनम् । तथा तेषामेवाहारकपुद्गलानां पूर्वगृहीताना गृह्यमाणां च कार्यणपुद्गलैग द्यमाणः पूर्वगहीतैश्च सह संबन्ध आहारककार्मणबन्धनम् ; तथा पूर्वगृहीतानामौदारिकपुद्गलानां स्वरेबौदारिकपुदगलैंग ह्यमाणैः सह यः संन्वधः स औदारिकोदारिकबन्धनम् । तेषामेवीदारिकपुद्गलानां 'पूर्वगृहीतानां गह्यमाणानां च तेजसपुद्गलैग ह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्ध औदारिकतै जसबन्धनम् । तथाते पामेवादारिकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैगृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्ध औदारिककागबन्धनम् । तथा 'इयरसहियाणं तिमित्ति इतराभ्या-तेजस कार्मणाम्यां द्वाभ्यां समुदिताम्यां सहिताना वैक्रियाऽऽ हारकोदारिकाणां त्रीणि बन्धनानि भवन्ति । तद्यथा-वैक्रियतैजसकार्मणबन्धनम् , आहारकतैजसकार्मणबन्धनम् , औदारिकतैजसकामणबन्धनं च । तत्र वैक्रियपुद्गलानां तैजसपुद्गलानां कार्मणपुद्गलानां च पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां वा यः परस्परं संबन्धस्तद्वैक्रियतैजसकार्मणबन्धनम् , एवमाहारकतैजसकार्मणबन्धनौदारिकतेजसकामेणबन्धनयोरपि भावनाऽनुसतव्या । अनेन च 'बन्धनत्रिकेण सह पूर्वोक्तानि नव बन्धनानि द्वादश भवन्ति । तथा 'तेसिंच' ति तयोश्च-तैजस-कार्मणयोः 'स्वस्थाने परस्परं च बन्धनचिन्तायां त्रीणि बन्धनानि भवन्ति । तद्यथा--तैजसतैजसबन्धनम् , तैजसकार्मणवन्धनम् , कार्मणकार्मणबन्धनं चेति । तत्र तेजस १ पूर्व मु.नास्ति ॥२ कार्मणपुद्ग.सि. वि ॥ ३ कार्मणबन्धन-पो. । कम्मेणबन्धन.सि. ॥ ४ स्वस्थाने च प.वि.पो.।।५ष-मु. नास्ति । द्वारे उत्तरप्रकृतयः | गाथा १२५११२७५ प्र.आ. ॥१९॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे सटीक | उत्तर द्वितीयः ॥४२०॥ पुद्गलानां पूर्वगृहीतानां स्वैरेव तैजसपुद्गलैंगृह्यमाणैः सह यः परस्परं संबन्ध'स्तत्तजसतैजसबन्धनम् । तेषामेव तैजसपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैग ह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्ध |२१६ द्वारे स्तै जसकानम् , कामगदुद्गलानां पूर्वगृहीतानां स्वैरेव कार्मणपुद्गलैंग ह्यमाणः सह संबन्धः कार्मणकार्मणबन्धनम् । एतैश्च विभिन्धनैः सहितानि पूर्वोक्तानि द्वादश बन्धनानि पञ्चदश भवन्ति । एतन्निमित्तभृतानि च यानि बन्धननामकर्माणि तान्यपि पञ्चदश । एतेश्च सर्वैरपि बन्धनभेदयन्धनपञ्चक प्रकृतयः गाथा रहितपूर्वोक्तत्रिनवतिमध्ये प्रक्षिप्तै मकर्मण उत्तरप्रकृतीनां युत्तरं शतं भवति । इत्येवं सर्वसङ्ख्यया अष्टानामपि कर्मणासत्तरप्रकतीनामपश्चाशदधिकं शतं भवतीति । १२५१ १२७५ तदेवमुक्ताः सर्वा अपि नामत उत्तरप्रकृतयः । साम्प्रतमेतामामेवार्थः कथ्यते, तत्र 'मन ज्ञाने मननं मतिः, यद्वा मन्यते-इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः-योग्यदेशावस्थितवस्तु- प्र. आ. विषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः, मतिश्चासौ ज्ञानं च मतिज्ञानम् , । तच्च द्विविध-श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितं च । तत्र प्रायः श्रुताभ्याममन्तरेणापि यत्सहजविशिष्टक्षयोपशमशादुत्पद्यते तदश्रुतनिश्रितम् औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयम् । यत्तु पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले तु अश्रुतानुसारितया समुत्पद्यते तत् श्रुतनिश्रितम् । तच्चतुर्धा, तद्यथा-अक्ग्रहः, ईहा, अबायः, धारणा चेति ।। पुनरवग्रहो द्विधा--व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च, तत्र व्यञ्ज्यते--प्रकटी क्रियते शब्दादिरर्थोऽनेनेति व्यञ्जनम्-- उपकरणेन्द्रियस्य कदम्बपुष्पाद्याकृतेः श्रोत्र-घ्राण-रसन-स्पर्शनलक्षणस्य शब्द-गन्ध-रस-स्पर्शपरिणतद्रव्याणां ॥४२०॥ १० स्तत्तजसबन्धन-वि. सि. पो. ॥२ कार्मण. वि. नास्ति ।। ..STATHI Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ द्वारे प्रवचन-- सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥४२१॥ च यः परस्परं संवन्धः प्रथममुपश्लेषमात्रम् । अपरं च-इन्द्रियेणाप्यर्थस्य व्यङ्ग्यमानत्वादिन्द्रियमपि व्यजनमुच्यते । ततश्च व्यञ्जनेन-इन्द्रियलक्षणेन व्यञ्जनस्य-विषयसंबन्धलक्षणस्यावग्रहणं परिच्छेदनमेकस्य व्यञ्जनशब्दस्य लोगार व्यञ्जनारदः । किगणीदामिनि अव्यक्तज्ञानरूपाक्ग्रहादधोऽव्यक्ततरं ज्ञानमात्रमित्यर्थः । अयं च नयन-मनोवर्जेन्द्रियचतुष्टयभेदाच्चतुर्था । नयन मनसोरप्राप्यकारित्वेन विषयसंबन्धाभावाद् , अस्य चेन्द्रिय-विषययोः संबन्धग्राहकत्वादिति भावः । 'अर्थ्यत इत्यर्थः, तस्य शब्द-रूपादिभेदानामन्यतरेणापि भेदेनानिर्धारितस्य सामान्यरूपस्यावग्रहणमर्थावग्रहः, किमपीदमित्यव्यक्तज्ञानमित्यर्थः । स च मनःसहितेन्द्रियपश्चकजन्यत्वात् षोढा । अवगृहीतस्यैव वस्तुनोऽपि किमयं भवेत् स्थाणुरेच न तु पुरुष इत्यादि वस्तुधर्मान्वेषणात्मकं ज्ञानचेष्टनमीहा । ईहनं ईहेतिकृत्वा । 'अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो, न चाधुना संभवतीह मानवः । प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमान नाम्ना ॥१॥ इत्याद्यन्वयधर्मघटन-व्यतिरेकधर्मनिराकरणाभिमुखताऽऽलिङ्गितो ज्ञानविशेष ईहा इति हृदयम् , साऽपि मनासहितेन्द्रियपश्चकजन्यत्वात् पोटैव । ईहितस्यैव वस्तुनः स्थाणुरेवायमित्यादिनिश्चयात्मको बोधविशेषोऽवायः । अयमपि पूर्ववत् 'पोढेच । तथा निश्चितस्यैवाविच्युतिस्मृतिवासनारूपं धरणं धारणा । साऽपि पूर्ववत् पोढेव । १ अर्यते भर्थः सि. ॥ २ रतिप्रियतमारि सि. पो. वि. ॥ ३ पोढा-मु.॥ उत्तरप्रतकृयः गाथा १२५११२७५ प्र. आ. ॥४२॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USSA-255. (२१६ द्वार * प्रवचन सारोद्धार सटीके द्वितीयः प्रकृतयः | गाथा १२५१ ॥४२२॥ तदेवमर्थावग्रहादीनां चतुर्णा प्रत्येक षविंधत्वाद्वयञ्जनावग्रहभेदचतुष्टयेन सह श्रुतनिश्रितं मतिज्ञानमष्टाविंशतिविधम् , अश्रुतनिश्रितेन चौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयेन सह द्वाविंशद्विधं भवति । जातिस्मरणमपि समतिक्रान्तसङ्खथातभवावगमस्वरूपं मतिज्ञानभेद एव । तथा चाचाराङ्गटीका"जातिस्मरणं त्वामिनियोधकविशेष" [प. २० A] इति । एतावद्भेदभिन्नस्यास्य एतावद्भेदमेव यदावरणस्वभावं कर्म तन्मतिज्ञानावरणमेकग्रहणेन गृह्यते । तथा श्रवणं श्रुतं-वाच्य-वाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंसृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः । एवमाकारं वस्तु घटशब्दवाच्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारीन्द्रियमनोनिमित्तो ज्ञानविशेष इत्यर्थः । श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् , तद्भेदाश्च नन्दादिभ्योऽवसेयाः । तस्य सभेदस्याप्यावरणस्वभावं कर्म श्रुतज्ञानावरणम् ।। ___तथा अवशब्दोऽधःशब्दार्थः; अव--अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः यद्वाऽवधिः-मर्यादा रूपिश्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, अवधिश्वासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानम् , तच्चानन्तद्रव्यभावविषयत्वात्तत्तारतम्यविवक्षयाऽनन्तभेदम् , असङ्ख्येयक्षेत्रकालविषयत्वात्त तत्तारतम्यविवक्षयाऽसङ्ख्येयभेदम् , प्रकारान्तरविवक्षया त्वनुगामिकादिभेदत आवश्यका. दिभ्योऽनुसरणीयम् , तस्यैतावद्भेदभिन्नस्यावरणस्वरूपं कर्म अवधिज्ञानावरणम् । ..' तथा संझिभिर्जीवः काययोगेन मनोवर्गणाभ्यो गृहीतानि मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य ॥४२२॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे। सटीके द्वितीयः ॥४२३॥ मानानि द्रव्याणि मनासीत्युच्यन्ते, तेषां पर्याया:--'चिन्तनानुगुणाः परिणामास्तेषु ज्ञानं 'मनःपर्यायज्ञानम् , इदं 'चार्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वतिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनम् , तच्च द्वेधा-ऋजुमति विपुलमति च ! २१६द्वारे एतत्स्वरूपं च लब्धिद्वारे वक्ष्यते । तस्यैवं भेदभिन्नस्यावरणस्वभावं कर्म मनःपर्यायज्ञानावरणम् । १५८ तथा केवलम् , एकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलङ्कविगमात् सकलं उत्तरवा केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः संपूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वा केवलमनन्यसदृशत्वात् , अनन्तं प्रकृतयः वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात् ; केवलं च तद् ज्ञानं च केवलज्ञानम् तस्यावरणं केवलज्ञानावरणम् । गाथा अत्र चाद्यानि चत्वायर्यावरणानि देशघातीनि केवलज्ञानावरणोद्धरितज्ञानदेशघातित्वात् । केवल. ११२५१ज्ञानावरणं तु सर्वधाति । एतानि मतिज्ञानावरणादीनि पश्चोत्तरप्रकृतयः । तनिष्पन्नं तु सामान्येन १२७५ ज्ञानावरणं मूलप्रकृतिः । यथाऽङ्गुलीपञ्चकनिष्पन्नो मुष्टिः, घृत-गुड-कणिका दिनिष्पन्नो वा मोदक इत्यादि । एवमग्रेतनेष्वपि भावना कार्या । प्र. आ. तथा 'नयनाभ्यां दर्शन-सामान्यावबोधरूपं नयनदर्शनम् , तस्यावरणं नयनदर्शनावरणं चक्षुर्दर्शनावरणमित्यर्थः । इतर:-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमितरदर्शनम् । तस्यावरणमितरदर्शनावरणम् , 'अचचुर्दर्शनावरणमित्यर्थः । अवधिरेव दर्शन भवधिदर्शनम् , तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम् , केवलमेव दर्शनं केवलदर्शनम् , तस्यावरणं केवलदर्शनावरणम् । चिन्तानुगुणा: मु०॥२०पर्ययज्ञानं सि.वि.पो.॥३पाधतृतीयसमुद्रा०मु.॥४.दिमिनिष्पनो मु.॥ ५ तुलना-पनसमवृत्तिः-द्वा-३ गा.४५.११० B तः।। ६ भचक्षदर्शनावरणमित्यर्थः सि.पि.पो.नास्ति। ॥४२३॥ मधिविदर्शनं तस्यावरण सि.वि.प्रत्योः नास्ति। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ उत्तरप्रकृतयः गाथा १२५१. १२७५ तथा 'द्रा कुत्सायां गतौ' नियतं द्राति-कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्राप्रवचन नखच्छोटिकादिमात्रेणैव सुखावयोधा स्वापावस्थेत्यर्थः । कारणे कार्योपचारात् तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि' सारोद्धारे। निद्रेत्युच्यते । तथोपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलति-विचूर्णयत्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला । तद्विासटीके कवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला । तथा निद्रातोऽतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रेति मध्यपदलोपी समासः । द्वितीयः । दुःखप्रबोधा स्वापावस्थेत्यर्थः । तस्यां हि चैतन्यस्यात्यन्तमम्फुटतरीभृतत्वाद्रहभिर्घोलनाप्रकारैः प्रबोधो भवति । अतः सुखप्रबोधनिद्रातोऽस्या अतिशायिनीत्वम् ; तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रा। तथा प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला । सा हि चक्रमणादिकमपि कुर्वतः स्वातुर्भवतीति ॥४२४॥ स्थानस्थितस्वप्तभवां प्रचलामपेक्ष्याम्या तिशायिनीत्वमा ___ तथा स्त्याना-बहुत्वेन संघातमापना गृद्भिः-अभिकाङ्क्षा, जाग्रदवस्थाऽध्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां मा स्न्यानगृद्धिः । तस्यां हि जाग्रदयस्थाऽध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति । स्त्याना वा-पिण्डीभृता ऋद्धिः-आत्मशक्तिरूपाऽस्यामिति स्त्यानद्धिरि त्यप्युच्यते । तद्भावे हि उत्कर्पतः प्रथमसंहननस्य केशवार्धवलसदृशी शक्तिरुपजायते । तथा च प्रवचने श्रूयते-क्वचित्प्रदेशे कोऽपि सुलको विपाकप्राप्तस्त्यानचिनिद्रासहितो द्विरदेन दिवा खलीकृतः । ततस्तस्मिन् द्विरदे बद्धाभिनिवेशो निशि स्त्यानद्धयु दये वर्तमानः समुत्थाय तद्दन्तयुगलमुत्पाट्य स्वोपाश्रयद्वारि व प्रक्षिप्य पुनः प्रसुप्तवान् इत्यादि । तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिपि म्त्यानगृद्धिः स्त्यानविर्वोच्यते । १०ति-मु. ॥ २ प्त्युच्यते-सि. वि. ॥ ॥४२४॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके ® तथा वेदनीय कर्म, वेद्यते-सुखं दुःखं वा आत्मना ज्ञायते तद्वेदनीयम् , तच्च द्विधा-सातमसात च यदुदयवशादारोग्यविषयोपभोगादिजनितमालादरूपं 'सात-सुखं वेद्यते तत्सातवेदनीयम् । यदयवशाद्रोगादिजनितं परितापरूपमसात-दुःखमनुभूयते तदसातवेदनीयम् ।। तथा कष्यन्ते-हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः-संसारः, कषमयन्ते-गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषाया:-क्रोध-मान-माया लोभाः । तत्र क्रोधः-अशान्तिपरिणतिरूपः, मानो-गर्यो जात्याद्यद्रवममार्दवम् , माया-वञ्चनाद्यात्मिका जीवपरिणतिः, लोभः-असंतोषात्मको जीवपरिणामः । ते च प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलनभेदाच्चतुर्धा । ततः षोडश । तत्र पारम्पर्येणानन्तं भवमनुबध्नन्ति- अनुसंदधतीत्येवंशीला अनन्तानुवन्धिनः । यद्यप्येतेषामन्यकषायरहितानामुदयो नास्ति तथाऽप्यवश्यमनन्तभवभ्रमणमूलकारणमिथ्यात्वो दयाक्षेपकत्वादेतेषामेवे - तन्नाम । न पुनः सहजोदयानामन्यकषायाणामपिः तेषामवश्यं मिथ्यात्वो दयाक्षेपकत्वाभावात् । नञोऽन्यार्थत्वादन्यं प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानं-देशविरतिरूपं तदप्यावृण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणाः । प्रत्याख्यान सर्वविरतिरूपमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः । 'परीपहोपसर्गादिसंपाते सति चारित्रिणमपि सम-ईषत ज्वलयन्तीति संज्वलनाः । | २१६ द्वारे १५८ उत्तरप्रकृतयः गाथा १२५११२७५ द्वितीयः ॥४२५॥ प्र. आ. ३६२ 8 चिद्रयमध्यवर्तिपाठः सि.वि. प्रत्योः नास्ति ॥१सातं वि. नास्ति ।। २ तुलना-प्रा. क. २, गा.१०, प.१०६ ३ कषायोदयरहि० मु.॥४०दयोपेक्षक० मु.॥ ५० दयापेक्षक० मु.॥ ६ तुलना-पश्चसङ्ग्रहवृत्ति-दा. ३, गा.५५-११२ B तः ॥ ॥४२५॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सुटीके २१६द्वारे उत्तरप्रकृतयः गाथा द्वितीयः १२७५ ॥४२६॥ तथा नोशब्दः साहचर्ये; ततः कषायः सहचारिणः-सहवर्तिनो ये ते नोकषायाः, कैः कषायः सहचारिण इति चेद्, उच्यते आयेादशभिः । तथाहि-नायेषु द्वादशसु कषायेषु क्षीणेषु नोकषायाणा. मवस्थानसंभवः, तदनन्तरमेव तेषामपि क्षपणाय क्षपकस्य प्रवृत्तिः । अथवा एते प्रादुर्भवन्तोऽवश्यं कपायानुद्दीपयन्ति, ततः कषायसहचारिणः । ते च नोकषाया नव । तत्र यदृदये स्त्रियाः पित्तोदये मधुरद्रव्याभिलाषवत् पुस्यभिलाषः समुत्पद्यते स कुकूलाग्निसमानः स्त्रीवेदः । यदुदये पुसः स्त्रियामभिलाषो भवति श्लेष्मोदयेऽम्लाभिलाषवत् स तृणाग्निजालासमानः पुवेदः । यदुदये पण्डकम्य पिनश्लेष्मोदये 'मज्जिकाऽभिलाषवदुभयोरपि स्त्रीपुरुषयोरभिलापः समुदेति स नगरमहादाहसमानो नपुसकवेदः । तथा यदुदये सनिमित्तमानिमित्तं वा हसति तत् हास्यमोहनीयम् , यदुदयाद्राह्या ऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रीतिरुपजायते तद्रति. मोहनीयम् , एतेष्वेव यदुदयादप्रीतिरुपजायते तदरतिमोहनीयम् , यदुदयात्स निमित्तमनिमित्तं वा तथा. रूपस्वसंकल्पतो बिभेति तद्भयमोहनीयम् , यदुदयात्प्रियविप्रयोगादौ स्वोरस्ताड माक्रन्दति परिदेवते भूपीठे घ लुठति दीर्घ निःश्वमिति तच्छोकमोहनीयम् , यदुदयवशात्पुनः पुरीपादिबीभत्सपदार्थेषु जुगुप्सावान् भवति तज्जुगुप्सामोहनीयम् , तथा 'यदुदयाजिनप्रणीततवार्थानामश्रद्धानं विपरीतश्रद्धानं वा तन्मिध्यात्वम् । यदुदयात्पुनर्जिनप्रणीतं तत्वं न सम्यक् श्रद्धत्ते नापि निन्दति तन्मिश्रम् , सम्यग्मिथ्यात्वमित्यर्थः । यदुदयवशात्पुनर्जिनप्रणीतं तत्वं सम्यक् अद्धत्ते तत्सम्यक्त्वमिति । र माणिका• सु. ॥ २ निमित्तम. वि. नास्ति ॥ ३ यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं वा तथानामबद्वान-वि.॥ प्र. आ. ॥४२६॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे सटीके द्वितीयः गाथा खण्डः ॥४२७॥ तथा नारकस्य सतो वेद्यमानमायुष्कं नारकाघुष्कम् , तिरश्चा तिर्यगायुष्कम् , मनुष्याणां नरायूष्कम् , देवानां सुरापुष्कमिति । तथा यदुदयवशादुत्तमजाति-कुल-तपो-रूपेश्श्य-श्रुत-सत्काराऽभ्युत्थाना-ऽऽसनप्रदाना-ऽञ्जलिप्रग्रहादि- उत्तरसंभवस्तदुच्चेर्गोत्रम् , यदुदयवशात्पुनर्ज्ञानादिसंपन्नोऽपि निन्दा लभते हीनजात्यादिसंभवं च तन्नीचैर्गोत्रम् । अन्तरायभेदाश्च नामोत्कीर्तनावसरे सूत्रकृतैव व्याख्याता इति । तथा 'गम्यते-तथाविधकर्मसचिवैर्जीवः प्राप्यत इति गतिः-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः, तद्विपाक- १२५ वेद्या कर्मप्रकृतिरप्युपचाराद्गतिः, सैव नाम गतिनाम । एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् , ततश्च नरकविषये गतिनाम १२७३ नरकगतिनाम । नारकशब्दव्यपदेश्यपर्यायनिवन्धनं नरकगतिनामेति तात्पर्यम् , एवं तिर्यग्मनुष्यदेवगतिनामापि वाच्यमिति । प्र. आ. तथा एकेन्द्रियादीनाम् एकेन्द्रियस्वादिरूपसमानपरिणामलक्षणमेकेन्द्रि' यादिव्यपदेशभाग् यत्सा (३६२ मान्य सा जातिः। ___इदमत्र तात्पर्य-द्रव्यरूपमिन्द्रियम् अङ्गोपाङ्गनामेन्द्रियपर्याप्तिनामसामर्थ्यात् सिद्धम् , भावरूपं 'तु स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमसामर्थ्यात् । 'क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणी' ति वचनात् । यत्पुनरेकेन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिबन्धन तथारूपसमानपरिणतिलक्षणं सामान्यं तदनन्यसाध्यत्वाज्जातिनामनिवन्धनमिति । ४२७ १ तुलना-पहचसम्मवृत्तिः-द्वा०३, गा-६ प.११३ Ba:11 २.०यव्यपदेश.वि. सि. सि. वि.॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतयः खण्ड: उक्तं च-"अव्यभिचारिणा सारश्येनैकीकृतोऽर्थोऽसौ जाति" [ ] इति । तनिमित्तं 'नाम जातिनाम । प्रवचन तत्र एकस्य स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्यावरणक्षयोपशमात्तदेकविज्ञानभाज एकेन्द्रियाः । एवं यस्य यावन्ती. |२१६द्वारे सारोदार न्द्रियाणि तस्य तान्याश्रित्यानेनाभिलापेन तावन्नेयं यावत्पश्चाना स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षुः-श्रोत्रज्ञानानासटीके __मावरणक्षयोपशमात् पञ्चविज्ञानभाजः पञ्चेन्द्रियाः । तेषामेकेन्द्रियाणां जातिनाम एकेन्द्रियजातिनाम, द्वितीयः । एवं यावत् पञ्चेन्द्रियजातिनाम । गाथा शीर्यत इति शरीरं-प्रतिक्षणं प्रागवस्थातश्चया-ऽपचयाभ्यो विनश्यतीत्यर्थः । तत्र यस्य कर्मण ॥४२८॥ __उदयादौदारिकवर्गणापुद्गलान् गृहीत्वा औदारिकशरीरत्वेन परिणमयति तदौदारिकशरीरनाम; एवं चैक्रिया १२७५ ऽऽहारक-तेजस-कार्पणशरीरनामस्वपि वाच्यम् , यावद् यस्य कर्मण उदयात्कार्मणवर्गणापुद्गलान् गृहीत्वा कार्मणशरीरत्वेन परिणमयति तत्कार्मणशरीरनाम । इदं च सत्यपि समानवर्गणापुद्गलमयत्वे स्वकार्य- प्र.आ. भृतात्कार्मणशरीरादन्यदेव । इयं हि कार्मणशरीरस्य कारणभूना नामकर्मण उत्तरप्रकृतिः । कार्मणशरीरं तु । ३६३ पुनरेतदुदयसंभवित्यादेतत्कार्य निःशेषकर्मणा प्ररोहभूमिराधारो वा संमार्यात्मनां च गत्यन्तरसंक्रमणे साधकतम 'करणमित्यन्यदेव 'स्वकार्यात्कार्मणशरीरात्कारणभृतं प्रस्तुतं कार्मणशरीरनामकर्मेति । तथा अङ्गानि-शिर-उर-उदर-पृष्ठ-चाहरुसंशितान्यष्टौ, तदवयवभूतानि त्वङ्गुल्यादीन्युपाङ्गानि, शेषाणि तु तत्प्रत्यवयवभृतान्यङ्गुलिपर्वरेखादीन्यङ्गोपाङ्गानि । अङ्गानि च उपाङ्गानि च अङ्गोपाङ्गानि ॥४२॥ १नाम-मु.नास्ति ॥२ तुलना-प्रा.क २ गा.१०, प. १०॥ ॥ ३०मेण-सि. वि.॥४कारणम।। ५ स्वकार्यकार्म० सि.वि.॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६द्वारे प्रकृतयः गाथा खण्ड: १२५१. १२७५ चेति द्वन्द्वे एकपदशेषे अङ्गोपाङ्गानि, तानि च यस्य कर्मण उदयाद् येषु त्रिषु शरीरेषु भवन्ति तत प्रवचन- त्रिविधम् अङ्गोपाङ्गनाम । तत्र यदुदयादौदारिकशरीरत्वेन परिणताना पुद्लानामङ्गोपाङ्गविभागेन परिणसारोद्धारे तिर्भवति तदौदारिकशरीराङ्गोपाङनाम ! एवं बैंक्रिया.ऽऽहारकाडोपाङ्गनाम्नोरपि वाच्यम् । तैजस-कार्मणसटीके योस्तु जीवप्रदेशसंस्थानानुगेधित्वानाम् पङ्गोपाङ्गमंभव इति । द्वितीयः तथा बध्यतेऽनेनेति बन्धनम्-श्रीदारिका दिपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परसंश्लेषकारि तच्च शरीरपञ्चकभेदात् पश्चधा । तत्र पूर्वग्रहीते रौंदारिकपुद्गलैः सह 'गृह्यमाणानौदारिकपुद्गलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्मा परस्परसंसक्तान करोति नदौदारिकबन्धननाम | दारु-पाषाणादीनां *जतु-रालाप्रभृतिश्लेषद्रव्यवत् । एवं वैक्रियादिवन्धनचतुष्केऽपि वाच्यम् , अथवा औदारिकौदारिक बन्ध. नभेदादि पञ्चदशधा । तच्च प्रागेव व्याख्यातम् । यदि विदं शरीरपुद्गलानामन्योऽन्यसंश्लेषकारि बन्धननाम न स्यात् तत्तेषां शरीरपरिगन्या संहितानामप्यसंबद्धत्वात्पवनापहृत कुण्डमंस्थितसंहतास्तिमितसक्तूनामिव एकत्र स्थैर्य न स्यादिति । तथा संघात्यन्ते-पिण्डीक्रियन्ते औदारिकादिपुद्गला येन तत्संघातनम् . तदपि शरीरपश्चमेदस्वात्पञ्चधा। तत्र यस्य कर्मण उदयादोदारिकशरीरत्वपरिणतान पुद्गलानात्मा संघातयति-पिण्डयत्यन्योऽन्यसंनिधानेन व्यवस्थापयति तदादारिकर्मधातनाम । इत्येवं वैक्रियादिशरीरचतुष्टयेऽपि वाच्यम् । १ गृह्यमाणेनी सि.बि.।। २ जतुरालप्रभृतयः श्लेष सि. वि. ॥ ३ बन्धननामभेदादि-मु.॥ ४०कुपस्थित-संइसा.मु.1 ०कुण्डस्थिता संहता. वि. प्राचीनकर्मग्रन्थ वृत्तौ च ।। ५ च शरीर० मु.॥ प्र. आ. ३६३ ॥४२॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६द्वारे प्रवचनसारोद्वारे सटीके उत्तरप्रकृतयः गाथा द्वितीयः यदि च पुद्गलसंहतिमात्रनिमित्तं संघातनाम न स्यात्तदा बन्धोऽपि न भवेत् । 'नासंहतस्य बंधनम् [ ] इति न्यायात् । तथा संहन्यमानशरीरपुद्गलाना लोहपट्टादिवत् उपकारि संहननम्-अस्थिरचनाविशेषः, तत्पुनरौदारिकशरीर एव नान्येषु । अस्थ्यादिरहितत्वात्तेषाम् , तश्च पोढा-बजऋषभनाराचादि । तत्र वज्रकीलिका, ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः, नाराचा-उभयतो मर्कटबन्धः, ततश्च द्वयोरस्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धन पद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयमेदि कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि भवति यत्र तद्वज ऋषभनाराचं प्रथमम् । वजर्ज ऋषभनाराचं द्वितीयम् । ऋषभव वजनाराचमित्यन्ये । वजचमन नामानंदतीयप , एकतो मर्कटबन्धं द्वितीयपावें कीलिकाविद्धमर्धनाराचं चतुर्थम् , ऋषभनाराचवर्ज कीलिकाविद्धास्थिद्वयसंचितं कीलिकाख्यं पश्चमम् ; यत्र पुनः परस्परं पर्यन्तमात्रसंस्पर्शलक्षणां सेवाम् अतानि-आगतान्यस्थीनि भवन्ति नित्यमेव च स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलनामाकाशति तत्सेवात षष्ठं मंहननमिति । तथा संस्थानम्-अवयवरचनामिका शरीराकृतिः, तदपि पोढा-समचतुरस्रादि, तत्र समाः-शरीरलक्षण. शास्त्रोक्तप्रमाणलक्षणाविसंवा(ग्रन्थाग्रं१५०००)दिन्यश्रतस्रोऽसया-चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्त्रम्: समासान्तोऽतप्रत्ययः । न्यग्रोधवत्परिमण्डलं न्यग्रोधपरिमण्डलम् ; यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्णावयवोऽधस्तु हीनस्तथेदमपि नामेपरि विस्तारबहुलं संपूर्णलक्षणादिमाग , अधस्तु न तथेति । तुलना- पळसन्मइटीका ।। ६, प. ११४ A ॥ २ पो. प्रती १४००० । सि. वि. प्रत्योः १३००० ।। प्र. आ. ३६३ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोद्वारे मटीके २१६६ उत्तरप्रकृतयः गाथा द्वितीयः संभव १२५१ १२७५ तथा आदिः-इहोत्सेधाख्यो नामेरधस्तनो देहभागो गधते, ततः सह आदिना-नामेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तत इसि सादि । यद्यपि च सर्वमपि शरीरमादिना सह वर्तते तथापि सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एवं प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह लक्ष्यते, तत उक्तं यथोक्तप्रमाणलक्षणेनेति । इदमुक्तं भवति-यसंस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपत्रमुपरि च हीनं तत्सादि इति । अपरे तु साचीति पठन्ति । तत्र साचीत प्रवषनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते । ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचि, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धकाण्डमतिपृष्टमुपरि च न तदनुरूपा महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधो भागः परिपूर्णो भवति, उपरितनभागस्तु नेति भावः ।। तथा वामनं मडहकोष्ठं पाणिपादधिरोपीवं यथोक्तप्रमाणलमणोपेतं शेष तूर-उदरादिरूपं कोष्ठं शरीरमध्यं मडह-लक्षणरहितं तद् यत्रत द्वामनमित्यर्थः । अधस्तनकायमडहं कुब्ज पाणि-पाद-शिरो-ग्रीवालक्षणोऽधस्तनकायो मडहो-लक्षणविसंवादी यत्र शेषं तु मध्यकोष्ठं यथोक्तलक्षणयुक्तं तत्कुञ्जम् , वाम नविपरीतमित्यर्थः । अन्ये तु दर्शितलक्षणव्यत्ययेन प्रथम कुन्ज ततो वामनं पठन्तीति । हुण्डं तु सर्वावययेषु प्रायो लक्षणविनिर्मुक्तम् , यस्यैकोऽप्यवयवः प्रायो न लक्षणयुक्तो भवति तत्सर्वत्रासंस्थितं हुण्डमित्यर्थः । ___तथा वर्ण्यते-अलक्रियते गुणवस्क्रियते शरीराधनेनेति वर्णः-कृष्णादिः पञ्चधा । तत्र कृष्ण प्र. आ. ३६४ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कज्जलादाविव, नीलः प्रियङ्गुपर्णादाविक, लोहितो हिगुलकादाविव, हारिद्रो हरिद्रादाविव, 'शुक्लः प्रवचन २१६ द्वान सारोडा खटिकादाविच । उत्तर सटीके द्वितीयः प्रकृतयः गाथा १२५११२७५ खण्ड: ॥४३२॥ तथा गन्ध्यते आघायत इति गन्धः, स द्विधा-सुरभिः श्रीखण्डादाविष, दुरभिर्लसुनादाविव ।। तथा रस्यते-आस्वाद्यत इति रसः तिक्तादिः पश्चधा । तत्र तिक्तः कोशातक्यादाविव, कटुः शुण्ठयादाविव; शास्त्रे हि यत्परिणाममङ्गीकृत्यातिदारुणं तत्कदुकमुच्यते । यच्च परिणामेऽतिशीतलं तनिम्बादिक लोके कटुकमपि शास्त्रे तिक्तमिति व्यपदिश्यते । कपायोऽपचकपित्थादाविव, अम्ल आम्लवेतसादाविव, मधुरः शर्करादाविय । तथा स्पृश्यत इति स्पर्श:-कर्कशादिरष्टधा । तत्र कर्कशः पाषाणादाविव, मृदुहंसरूतादाविव, लघुरर्फतूलादाविव, गुरुर्वजादाविव, शीतो मृणालादावित्र, उष्णो वह्नयादाविव, स्निग्धो घृतादाविव, रूक्षो भस्मादाविच । एवमेते वर्णादयो यदुदयवशाजन्तुशरीरेषु भवन्ति तान्यपि कर्माण्येतनामकानि वाच्यानीति । ___तथा सर्वप्राणिना शरीराणि यदुदयवशादात्मीयात्मीयापेक्षया नैकान्तेन लघूनि, नापि गुरूणि, किन्तु अगुरुलघुपरिणामपरिणतानि भवन्ति तदगुरुलघुनाम । एकान्तगुरुत्वे हि वोढुमशक्यानि स्युः, एकान्तलघुत्वे तु वायुना विक्षिप्यमाणानि धारयितु' न पारयेरनिति । तथा स्वशरीरावयवैरेव प्रतिजिह्वागलवृन्द-लम्बक-चौरदन्तादिभिः शरीरान्तर्वर्धमानैर्य दुदयादुपहन्यते-पीड्यते जन्तुस्तदुपधातनाम । तथा यदुदयादोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा नृपसभामपि गतः सम्यानामपि क्षोभमापादयति प्रतिपक्ष१ शीतः शहादाविष-सं.॥२ यदुदयादात्मीयापेक्षया-सि. वि.॥ meenemme ॥४३२॥ 189.8STANDINGIBE Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके द्वितीयः ॥४३३॥ प्रतिघातं च विधत्ते तत्पर घातनाम । 'तथा कूपर-लाङ्गल-गोमूत्रिकाकाररूपेण यथाक्रमं द्वि-त्रि-चतु:समयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गछतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी इहाऽऽनुपूर्वी । २१६वा तत्र नरकगत्या सहचरिताऽऽनुपूर्वी नरकगत्यानुरी, तत्सम व वेशलानन्या इमारित्वम् , एवं तिर्य नामग्मनुष्यदेवानुपूर्योऽपि वाच्याः । कर्मण तथा यदुदयादुन्छ्वास-निःश्वासलब्धिरात्मनो भवति तदुच्छ्वासनाम । सर्वलब्धीनां क्षायोपशमिक- | उत्तरस्वादौदयिकी लब्धिर्न संभवतीति चेत् , नेनदस्ति । वैकियाऽऽहारकादिलब्धीनाम् औदयिकीनामपि प्रकृतयः संभवाद, वीर्यान्तरायक्षयोपशमोऽपि च तत्र निमित्तीभवतीति सत्यप्योदयिकत्वे क्षायोपशमिकव्यपदेशोऽपि गाथा न विरुध्यते । ननु यदि उच्छ्वासनामकमोद यादुच्छ्यास-निःश्वासौ तदा उच्छवासपर्याप्तिनाम्नः घोष-१२५१योगः ?, उच्यते, उच्छ्वासनाम्न उच्छ्छाम-निःश्वासग्रहणमोक्षविषया लब्धिरुपजायते । सा च लम्धिनों- १२७५ च्छ्वासपर्याप्तिमन्तरेण स्वफल साधयति । न खल्विपुक्षेपणशक्तिमानपि धनुग्रहणशक्तिमन्तरेणेषु क्षेप्तु [प्र.आ. मलम् । तत उच्छवासलब्धिनिर्वर्तनार्थ मुच्छ्वासपर्याप्तिनाम्न उपयोगः । एवमन्यत्रापि भिन्नविषयता यथायोग सूक्ष्मधिया भावनीया । तथा यदुदयाज्जन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम । तद्विपाकश्च भानुमण्डलादिंगतेषु पृथिवीकायेष्वेच; न वह्नौ, प्रवचने प्रतिषेधात् । तत्रोष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् , उत्कटलोहितवर्णनामोदयाच्च प्रकाशकत्वमिति । ॥४३३|| तुला-पसमटीका २६, प. ११५ BI ..... ........ ..... Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके | २१६ द्वा नामकर्मण द्वितीय खण्ड: तथा यदुदयाज्जन्तुशरीराणि 'स्वरूपेणानुष्णान्यप्युनुष्णप्रकाशात्मकमुषोतमातन्वन्ति यथा 'यत्तिदेवोत्तरवैक्रिय-चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र-तारा-विमान-रत्नौषधयस्तदुद्योतनाम । तथा 'विहायसा-नमसा गतिः-प्रवृत्तिविहायोगतिः । ननु सर्वगतत्वाद्विहायसस्ततोऽन्यत्र गतिर्न संभवतीति किमर्थ विहायसा विशेषणम् ? व्यवच्छेद्याभावात् । सत्यमतद, किन्तु यदि गतिरित्येवोच्यते ततो नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्तीति पौनरुक्त्याशङ्का स्यात् । अतस्तद्ववच्छित्तये विहायसा विशेषणम् . विहायसा गतिने तु नारकत्वादिपर्यायपरिणतिरूपेति विहायोगतिः । सा च द्वेधा-प्रशस्ता अप्रशस्ता च । तत्र प्रशस्ता हंस-हस्ति-वृषभादीनाम् , अप्रशस्ता तु खरोष्ट्र-महिषादीनामिति । तथा त्रस्यन्ति---उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति प्रसा-द्वीन्द्रियादयः। तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि त्रसनाम । तथा तिष्ठन्तीत्येवंशीला उष्णाद्यमितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः स्थावरा:-पृथिव्यादय एकेन्द्रियादयः; तत्पर्यायविपाकवेयं कर्मापि स्थावरनाम । तेजो-वायूनां तु स्थावरनामोदयेऽपि चलनं स्वाभाविकमेव । न तूष्णाद्यमितापेन द्वीन्द्रियादीनामिव विशिष्टमिति । तथा 'यदुदयाज्जीवा बादरा भवन्ति तद्वादरनाम । बादरत्वं चात्र परिणामविशेषः; यद्वशात्पृथि प्रकृतयः गाथा १२५१. ॥४३४|| प्र. आ. RAM ॥४३४ १स्वरूपेणानुष्णान्यनु० मु. ॥२ यति० सि. वि. नास्ति ।। ३ तुला प्राचीनकर्मपन्य २ गा. १०५, प. १११, पञ्चI समाहटीका ३१६५. १९५ B॥४०सी-सि.वि. ॥५ तुला-पञ्चसमइटीका ३1८, प. ११६ B॥ EARS NAHANEY RAMANA.IN Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन रोद्धारे सटीके द्वितीय १४३५॥ व्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्वाभावेऽपि बहूनां समुदाये चक्षुषा ग्रहणं भवति तद्विपरीतं सूक्ष्मनाम | यदुदयाद्बहूनामपि समुदितानां जन्तुशरीराणां चक्षुर्ग्राह्यता न भवति । तथा यदुदयात्स्वयोग्य पर्याप्तिनिर्वर्तनसमर्थो भवति तत्पर्याप्तकनाम । यदुदयाच्च स्वयोग्य पर्याप्ति परिसमार्थो न भवति तदर्यातनाम । पर्याप्तस्वरूपं तु द्वाविंशत्यधिकद्विशततमद्वारे विशेषेण वक्ष्यते । तथा यदुदयात् जीवं जीवं प्रति भिन्नं शरीरमुपजायते तत्प्रत्येकनाम । तस्योदयः प्रत्येकशरीरिणाम्, प्रत्येकशरीरिणश्च नारका डमर मनुष्य- द्वीन्द्रियादयः पृथिव्यादयः कपित्थादितरवश्च । नतु यदि प्रत्येकनाम्न उदयः कपित्थादिपादपादीनामिष्यते तर्हि तेषां जीवं जीवं प्रति भिन्नं शरीरं भवेत् । न च भवति यतः कपित्था श्वत्थ- पीलु-शेल्वादीनां मूल-स्कन्ध-त्वक्शाखादयः प्रत्येकमसङ्ख्येयजीवा उच्यन्ते । यत उक्त प्रज्ञापनायाम् एकास्थिक बहुबीज वृक्षप्ररूपणावसरे "एएस मूला असंखेज्जजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालावि, पत्ता पतेयजीवीया" [पद १.४०] इत्यादि मूलादयश्च फलपर्यन्ताः सर्वेऽप्येकशरीराकारा उपलभ्यन्ते, देवदत्तशरीरवत् । यथा हि देवदत्त - शरीरमखण्डमेकरूपमुपलभ्यते तद्वन्मूलादयोऽपि तत एकशरीरात्मकाः कपित्थादयस्ते वासख्येयजीवाः, ततः कथं ते प्रत्येकशरीरिणः १, उच्यते, प्रत्येकशरीरिण एव तेषां मूलादिष्वसङ्ख्येयानामपि जीवानां १०. ॥ २० परिमाति० मु । ३ तच्च न मषति सु. ॥ ४ बहुजीववृक्ष० सि. बि. ॥ ५ मूलादिष्वपिस० बि० ॥ २१६ द्वारे नाम कर्मण उत्तर प्रकृतयः गाथा १२५१ १२७५ प्र.. आ. ३६५ 1183411 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डः | मिमभिन्नशरीरसंभवात् । केवलं श्लेषद्रव्यविमिश्रितसकलसर्षपवतिरिव प्रबलरागद्वेषोपचिततथारूपप्रत्येकसारोद्धार नामकर्मपुद्गलोदयतस्ते तथा परस्परविमिश्रशरीरा जायन्ते । तथा चोक्तं प्रज्ञापनायामेवसटीके "जह सगलसरिनाले सिलेसमिटमा बडिया नट्टी । पत्तेयसरीराणं तह हॉति सरीरसंघाया ॥१॥ द्वितीयः जह वा तिल पपडिया बहुएहिं तिलेहिं मीसिया संती । पत्तेयसरीराणं तह होति सरीरसंघाया ॥२॥ [पद १ । सू. ५३ गा. ४५-६] ॥४३६॥ गाथाद्वयस्याप्ययमक्षरार्थः-यथा सकलसर्पपाणां श्लेषद्रव्येण मिश्रीकृताना वर्तिता-बलिता वर्तिः, यथा च बहुभिस्सिलैर्विमिश्रिता सती तिलपर्पटिका भवति, तथा प्रत्येकशरीरिणां शरीरसङ्घाताः । इयमत्र भावना-यथा तस्या वतौ सकलसर्पपाः परस्परं भिन्ना नान्योऽन्यानुवेधभाजस्तथा प्रदर्शनात , अत एव सकलग्रहणं येन स्पष्टमेव 'अन्योऽन्यानुवेधामावः प्रतीयते, एवं वृक्षादावपि मूलादिषु प्रत्येकमसङ्ख्येया अपि जीवाः परस्परं विभिन्नशरीराः । यथा च ते सर्पपाः श्लेषद्रव्यमंपर्क माहात्म्यात परस्परं विमिश्रा जातास्तथा प्रत्येकशरीरिणोऽपि ते तथारूपप्रत्येकनामकर्म पुद्गलोदयात्परस्परं संहता जाता इति । तथा यदुदयवशादनन्तानां जीवानामेकं शरीरं भवति तत्साधारण नाम । ननु कथमनन्तान जीवानामेकं शरीरमुपजायते १, तथाहि-य एव प्रथममुत्पत्तिदेशमागतस्तेन तच्छरीरं निष्पादितम् , अन्योऽन्यानुगमनेन च सर्वात्मना क्रोडीकृतम् । ततः कथं तवान्येषां जीयानामवकाशः ?, न खलु देवदत्तशरीरे १ भिन्नशरीर० सं. वि. ॥ २ सिलपपलिया-सि. वि. ॥ ३ अन्योन्योनुकेधावतः वि. । ४ (मादाम्यात-मु.॥ ५ पुद्गलोदय-सं. पुद्गलोदयतः सि-वि.॥ २१६ द्वारे नामकर्मण उत्तरप्रकृतयः | गाथा १२५१. १२७५ प्र.आ. ॥४३६॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे सटीके द्वितीयः प्रकृतयः ॥४३७| देवदत्तेनान्योऽन्यानुवेधेन क्रोडीकृते देवदत्त इव सकलशरीरेण सहान्योऽन्यानुगमपुरस्सरमन्येऽपि जीवाः प्रादुष्पन्ति, तथाऽदर्शनाद । अपि च-सत्यप्यवकाशे येनैव तच्छरीरं निष्पाद्यान्योऽन्यानुगमेन क्रोडीकृतं । २१६ द्वारे स एव तत्र प्रधान इति । तस्यैव पर्याप्ताऽपर्याप्तव्यवस्था प्राणा-ऽपानादियोग्यपुद्गलोपादानं 'च भवेत । नामन शेषाणामिति । तदेतदसम्यक, सम्यग्जिनवचनपरिज्ञानाभावात् । ते ह्यनन्ता अपि जीवास्तथाविध- | कर्मण कर्मोदयसामर्थ्यतः समकमेवोल्पविदेशमधितिष्ठन्ति, समकमेव व सच्छरीराश्रिताः पर्याप्तीनिर्वतयितुमार | उत्तर. भन्ते 'समकमेव च पर्याप्ता भवन्ति । समकालमेव च प्राणा-ऽपानादियोग्यान पुद्गलानाददते । यच्चकस्य पुद्गलाभ्यवहरणं तदन्येषामनन्तानामपि साधारणम् , यच्चानन्तानां तद्विवक्षितस्यापि जीवस्य । गाथा ततो न कदाचिदनुपपत्तिरिति । उक्तं च प्रज्ञापनायाम् १२५१A "समयं वक्ताणं समयं तेमि सरीरनिष्फत्ती । समयं आणग्गहणं समयं उत्सासनिस्सासा ॥१॥ १२७५ एगस्स उजं गहणं चहण साहारणाण तं चेव । जं बहुयाणं गहणं समासो तंपि एगस्स ॥२॥ साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एवं ॥३॥" [पद १ । सू. ५४(१०) गा. ९१-१०१इति ।।३६६ १वा-सि.पि. ॥ २ समकमेव च पर्याप्ता भवन्ति-सि.वि. नास्ति । A समकं व्युत्क्रान्तानां समकं तेषां शरीरनिष्पत्तिः। समकमानापानग्रहण समकमुच्छ्वासनिःश्वासौ ॥शा ४३७॥ एकस्य तु यग्रहणं बहना साधारणानां संदेव । यद् बहूनां ग्रहणं समासतस्तदपि एकस्य ॥२॥ साधारण माहार- साधारणमानापानग्रहणं च । साधारणजीवानां साधारणलक्षणमेतत् ॥३॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन नाम सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: कर्मण उत्तर. प्रकृतयः गाथा १२५१ १२७५ ॥४३८॥ उगा दुरया घरीरावयवानां शिरोऽस्थि-दन्तानां स्थिरता भवति तत् स्थिरनाम । तथा यदुदयवशान्जिलादीनां शरीरावयवानामस्थिरता भवति तदस्थिरनाम | तथा यदुदयानाभेरुपरितनाः शिर: प्रभृतयोऽवयवाः शुमा भवन्ति तच्छुभनाम । शिरः प्रभृतिभिर्हि स्पृष्टः परो हृष्यतीति तेषां शुभत्वम् । तथा यस्योदयात्रामेरधस्तनाः पादादयोऽवयवा अशुभा भवन्ति तदशुभनाम । तैः स्पृष्टः परो रुष्यनीति तेषामशुभत्वम् , कामिन्याः पादेनापिः स्पृष्टस्तुष्यति ततो व्यभिचार इति चेत् , न, तत्तोषस्य मोहनीयनिबन्धनत्वात् , वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यते, ततो न दोषः । तथा यदुदयादनुषकार्यपि सर्वस्य मन:प्रह्लादकारी भवति तत्सुभगनाम । तथा यदुदयादुपकारकृदपि जनद्वेष्यो भवति तद् दुर्भगनाम । तथा यदुदयान्मधुग्गम्मीरोदारस्वरो भवति तन्सुस्वरनाम । तथा यदुदयात्खरभिन्नदीनहीनस्वरो भवति तद् दुःस्वरनाम । तथा यदुदयेन यत्किञ्चिदपि त्रुवाणः सर्वम्योपादेयवचनो भवति तदादेयनाम । तथा यदुदयाद् युक्तमपि अवाणः परिहार्यवचनः भवति तदनादेयनाम । तथा तपः-शौर्य-त्यागादिना समुपार्जितेन यशसा कीर्तनं-संशब्दनं श्लाघनं यशःकीर्तिः, अथवा यश:सामान्यन ख्यातिः, कीर्तिः-गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा; यद्वा सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यशः, एकदिग्गामिनी दानपुण्यकृता वा कीर्तिः, यशश्च कीर्तिश्च यशाकीर्ती, ते यदुदयाद्भवतस्ततो यश कीर्तिनाम । ननु च कथमेते यशाकीर्ती तमामोदयनिबन्धने ?, तद्भावेऽपि चित्तयोरभावात् । तदुक्तम्*"तरसेव केर जसकितिकित्तया अजसकित्ता अन्ने । पायाराई जं बैंति आइसए इंदयालत्तं ॥१॥"[ ] १ बा-प्राजोनममन्यः २ . १९२ ॥ ३ परिहार्यबस्नस्तपनादेवनाम-मु.॥ बसकेबिनमकीर्विकी कार बराबीहिंसाजन्य बस्मात प्राकारावीनतिरावानाम् इन्द्रजाल प्र. आ ३६६ pwwwwwwSA NTruarayaste S AMRATION HASPASHRSSMS BaloNRIES Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचन- मारोद्धारे द्वतीयः मण्ड: ॥४३९॥ नैष दोषः, सद्गुणमध्यस्थपुरुषापेक्षयव यश-कीर्तिनामोदयस्याभ्युपगमत्वात् । उक्तं च"जह कहविधाउवेसम्मयाए दुद्धपि जायए कडुयं । नियो महुरो कस्सई न पमाणं तहवि तं होइ ॥१॥"[] | २१७वा अपि तु | बन्धादि A विवरीयदब्वगुणभासयाए अपमाणता उ तसेव । सगुण विसयं तम्हा जाणह जसकित्तिनामं तु ||१|| स्वरूपम् तद्विपरीतमयशाकीर्तिनाम, यदुदयवशान्मध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्यो भवति । तथा यदुदयवशाज्जन्तु तथा पदुदयशाजन्तु गाथा । शरीरेषु स्वस्वजात्यनुसारेणाङ्गप्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानवतिता भवति तन्निर्माणनाम | तच्च सूत्रधारकल्पम् । १२७६. तदभावे हि तभृतककल्पैरङ्गोपाङ्गनामादिभिनिवर्तितानामपि शिर-उदरादीनां स्थानवृत्तेरनियमो भवेत् । १२७९ तथा यदुदयवशादष्टमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतुस्त्रिंशदतिशयाः प्रादुष्पन्ति तत्तीर्थकरनामेति ।। ७५ ॥ २१६॥ इदानीं 'बंधोदयोवीरणसत्ताणं किंचि सरूवं' ति सप्तदशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह प्र. आ. सत्तहछेगवंधा संतुदया अट्ट सत्तचत्तारि । ३६७ सत्तडछपंचदुगं उदीरणाठाणसंखेयं ॥७६।। [प्राचीन कर्मग्रन्थ ४ । गा. ७९] बंधेऽष्ट सत्सऽणाउग छविहममोहाउ इगविहं सायं । संतोदएसु अहउ सत्त अमोहा पर अघाई ॥ ७७ ॥ । १०गतत्वात-मुः ॥ २ कहवि सम्मसध्याए-वि. ॥ । * यदि कथमपि धातुवैषम्येण दुग्धमपि भवति कटुकम् । निम्नश्च कस्यचिन्मधुरो न तथापि तत्प्रमाणं मवति | ॥४३९॥ A द्रव्यगुणविपरीतभासकतया तस्यैवाप्रमाणता । तस्मात सद्गुणविषयं यश-कीर्तिनाम जानीहि ॥१॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सीके द्वितीयः १२७६ ॥४४॥ भह सदीरह सत्त उ प्रणाउ छविहमधेयणीआऊ। पण अधियणमोहाउग अकसाई नाम गोत्तदुगं ॥ ७८ ॥ २१७दा बंधे विसुप्सरसय १२० सयवावीसं तु होइ उदयंमि १२२।। बन्धादिउदीरणाएँ एवं १२२ अडयालसयं तु सन्तमि १४८ ॥ ७९ ॥ स्वरूपम् गाथा 'सत्ते'त्यादिगाथापकम् , मिथ्यात्वादिमिर्बन्धहेतुमिरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्नकवनिरन्तरं पुद्गलनि. चिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलेरात्मनो बड्डययस्पिण्डवदन्योऽन्यानुगमलक्षणः संबन्धो बन्धः । तम्य १२७९ चत्वारि स्थानानि तद्यथा-सप्त, अष्टो, षट् , एकमिति । तथा तेषामेव कर्मपुद्गलानां बन्ध-संक्रमाभ्यां लब्धात्मलाभाना निर्जरणसंक्रमकतस्वरूपप्रच्युत्यभावेऽपि सति सद्भावः सत्ता । तस्या अपि त्रीणि स्थानानि; प्र.आ. तद्यथा-अष्टी, सप्त, पधारि । तथा नेपाल कम्युजलानां यथास्वस्थितिबद्धानामपर्वतनादिकरणविशेषतः स्वभावतो वा उदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः तम्यापि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-अष्टौ, सम, चत्वारि । तथा उदयावलिकातो बहितिनीनां स्थितीनां दलिकं कषायैः सहितेन असहितेन वा योगसंज्ञकेन वीर्यविशेषेण समाकृष्योदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा । तस्याः पुनः पश्च स्थानानि; तद्यथा-सप्त, अष्टौ, षट् , पञ्च, द्वे, इत्येषां बन्धादीनां स्थानसख्या ॥ ७६ ॥ साम्प्रतमेतेषाम् 'एव बन्धादिम्थानानामेव स्वरूपमाह-पंधे'त्यादिगाथाद्वयम् , आयुर्वन्धकाले ज्ञानावरणादिका अष्टौ प्रकृतयो बन्धे प्राप्यन्तः शेषकालं त्वनायुष्काः-आयुर्वन्धविधर्जिताः सप्त । 'अमोहाउ' ४ ति मोहायुर्वर्जाः षट् प्रकृतीनतः षडविधो बन्धः । ज्ञान दर्शनावरणा-ऽन्तराय-नाम-गोत्रबन्धव्यवच्छेदे । १६ष-मु. नास्ति ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनरोटार टिके २१७द्वारे बन्धादिस्वरुपम गाथा १२७६. १२७९ तीयः ४४१॥ एकमेव सातं बध्नत एकविधो बन्धः । तथा सत्तायामुदये च सर्वप्रकृति समुदाये अष्टौ प्राप्यन्ते; मोहनीयस्य उदयसत्ताव्यवच्छेदे सप्त । घातिकपणी-ज्ञान-दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामुदयसत्ताव्यवच्छेदे चतस्रः। तथा सर्वप्रकृतिसमुदायेऽष्टौ प्रकृतीरुदीरयति । आयुष उदीरणायामपगतायामायुर्वर्जाः सप्तः वेदनीया.ऽऽयुषोरुदीरणायामपगतायां षड्विधं कर्मोदीरयति । वेदनीयमोहा-ऽऽयुषामुदीरणाऽपगमे पञ्च प्रकृतीरुदीरयति । अषायी केवली नाम-गोत्र-लक्षणे द्वे कर्मणी उदीरयति । अथैतान्येव बन्धादिस्थानानि विनेयव्युत्पत्तये गुणस्थानकयोजनया विभाव्यन्ते-मिथ्यादृष्टयादयो मिश्रवर्जिता अप्रमत्तान्ता अष्ट सप्त वा कर्माणि बध्नन्ति । आयुः कदाचिदेव बद्धयते, इत्यायुर्वन्धकाले अष्ट, आयुन्धाभावे तु सप्तैत्र । मिश्रा-ऽपूर्वकरणा-निवृत्तिवादरास्तु सप्तव बध्नन्ति; तेषामायुर्घन्धाभावात् , तत्र मिश्रस्य तथास्वाभाव्यात् इतरयोः पुनरतिविशुद्धत्वात् आयुर्वन्धस्य च घोलनापरिणामहेतुत्वात् । तथा सूक्ष्मसंपरायो मोहनीया-ऽऽयुर्वर्जानि षट् कर्माणि बध्नाति; 'मोहनीयबन्धस्य बादरकपायोदयहेतुत्वात् तस्य च तदभावात् आयुर्वन्धाभावस्त्वतिविशुद्धतरत्वादवसेयः। तथा उपशान्तमोह-क्षीणमोह-सयोगिकेवलिन एकविधं सातवेदनीयं कर्म बध्नन्तिः न शेषाणि, 'तद्वन्धहेतुत्वाभावात् । अयोगिकेवली तु योगस्यापि बन्धहेतोरमावादबन्धकः । तथा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकादारभ्य यावत्सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानं तावदष्टावपि कर्मप्रकृतय उदये सत्तायां च प्राप्यन्ते । सर्वत्रापि मोहनीयोदय-सत्तयोः प्राप्यमाणत्वात् । उपशान्तमोहे उदये सप्त प्राप्यन्ते; १ मोहनीयबन्धनस्य-मि. वि. ॥ २ तदुबन्धहेत्वमावात्-मु.॥ प्र. आ. Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Awar Sampat e nesamananews ............. | प्रवचनसारोद्धारे मटीके । गाथा द्वितीय. खण्ड: मोहनीयस्योपशान्तत्वेनोदयाभावात् ; सत्तायां त्वष्टौ; मोहनीयस्य विद्यमानत्वात् । क्षीणमोहे सत्ताया |२१७ द्वारे मुदये च सप्तः मोहनीयस्य क्षीणत्वेनोदय सत्तयोरभावात् । सयोग्ययोगिकेवलिनोस्तु चत्वार्यघातिमकर्माणि उदिरणाउदये सत्तायां च प्राप्यन्ते न शेषाणि तेषां क्षीणत्वात् । स्वरूपम् तथा मिथ्यादृष्टेगरभ्य यावत्प्रमत्तसंपरानुजस्थान तापज्जोहो निस्तरमष्टानामपि कर्मणामुदीरकः । केवलमनुभूयमानभवायुष्कावलिकावशेषे सत्यायुष आवलिकाप्रविष्टत्वनोदीग्णाया अभावार सप्लानामुदीरकः । सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान के तु वर्तमानः सर्वदेवाष्टानामुदीरकः; आयुष 'आवलिकावशेषत्वे मिश्रगुणस्थान कम्यागं भवान् । नथाहि-अन्तमुहर्तावशेष एवायुषि मिश्रगुणस्थानकात्प्रतिपन्य सम्यक्त्रं मिथ्यान्वं वा जीयो गच्छतीति । अप्रमत्ता-ऽपूर्वकरणा-निवृत्तिचादरा वेदनीया-ऽऽयुर्वण शेपाणां पण्णां कर्मणा प्र. आ. मुदीरकाः, न तु वेदनीया-ऽऽयुषोः अतिविशुद्धतया तदुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात् । सूक्ष्मपर - ३६८ यस्तु षण्णां पश्चाना वा उदीरका तत्र यावन्मोहनीयमावलिकावशेषं न भवति तावत्पूर्वोक्तानामेव एण्णामुदीरका *आवलि ज्ञानशेषे च मोहनीये तस्याप्युदीरणाया अभावात्पश्चानामुदीरकः । उपशान्तमोहोऽपि वेदनीया-ऽऽयुमोहनीयवर्जानां पश्चानामुदीरकः । तत्र वेदनीया-ऽऽयुषोः कारणं प्रागेत्रोक्तम् ; मोहनीयं तूदयाभावानोदीयते 'वेद्यमानमेवोदीयत' [ इति वचनात् । क्षीणमोहोऽप्यनन्तरोक्तानां पश्चाना कर्मणामुटीरका तानि च तावदुदीरयति यावद् मान-दर्शनावरणाऽन्तरायाणि आवलिकाप्रविष्टानि न NIONARISHARANASTRINA Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनपरोद्धारे तीयः | २१७द्वा बन्धादिस्वरूपम् गाथा १२७६१२७९ भवन्तिः आवलिकामाप्रविष्टेषु नेपु तेपामप्युदीरणाया अभावात द्वे एव नाम गोत्रलक्षणे कमणी 'उदीरयतीति । सयोगिकेवली पुनर्नाम-गोत्रे उदीरयति, न शेषाणि; घातिकर्मचतुष्टयस्य निर्मूलत एव क्षीणत्वान् ; वेदनीया-ऽऽयुषोस्तु पूर्वोक्तकारणानोदीरणति अयोगिकेवली त्वनुदीरकः, योगसव्यपेक्षत्यान उदीरणायास्तस्य च योगाभावादिति ॥७७॥७८।। अथ बन्धादिषु सर्वसङ्ख्यसङ्ख्यया यावत्य उत्तरप्रकृतयो भवन्ति तावतीर्दर्शयितुमाह--'बन्धे' इत्यादि, बन्धे गधानिन्तायां निभात्युत्तरं पकतीनां शतं भवतीति । उदये च द्वाविंशत्युत्तरं शतं भवतीतिः उदीरणायामध्येवम् , द्वाविंशत्युत्तरमेव शतमित्यर्थः । सत्तायां पुनरष्टचत्वारिंशदधिर्क शतं भवति । इयमत्र भावना-धन्धे उदये च चिन्त्यमाने बन्धननामानि संघातननामानि च स्वस्वशरीरान्तर्गतान्येव विवक्ष्यन्ते । तथा ये वर्ण गन्ध-रस-स्पर्शानामुत्तरभेदा यथाक्रम पञ्च-द्वि-पश्चा-ऽष्ट सङ्ख्याः , तेऽपि बन्धे उदये च न विवक्षपन्ते । किंतु वर्णादय एव चत्वारः, तथा बन्धे चिन्त्यमाने सम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्वे न गृयेते, मिथ्यात्वपुद्गलानामेव तथापरिणतेः । तथा च सति बन्धचिन्तायां बन्धनपञ्चकं संघातनपञ्चकं वर्णादिपोडशकं च नाम्नस्त्रिनवतेरपनीयते शेषाः सप्तषष्टिः परिगृह्यन्ते । मोहनीयप्रकृतयश्च सम्यक्त्व-सम्यग्मिध्यात्वहीनाः शेषाः षडूविंशतिः । ततः सर्वप्रकृतिसङ्ख्यामीलने बन्धे विंशत्युत्तरं प्रकृतिशतं भवति । - उदये च चिन्त्यमाने सम्यक्त्व-मिश्रे अप्युदयमायात इति ते अपि परिगृह्यते । तत उदये द्वाविंशं १ उदीस्यतीति सयोगिकेवली पुनर्नामत्रोत्रे-जे. सि. नास्ति ।। २.०ते-सि. वि. नास्ति ।। ३ परि० सि. वि. नास्ति । meromema प्र. आ. ॥४४३॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2069NE animate प्रवचनसारोद्धारे २१८ द्वारे साबाधा कर्मस्थितिः गाथा १२८०. १२८२ द्वितीयः खण्ड: ॥४४४॥ प्रकृतिशतम् । उदये सत्येवोदीरणा भवतीत्यत उदीरणायामपि द्वाविंशं शतम् । सत्तार्या तु चिन्त्यमानायां बन्धनपश्चकं संघातनपश्चकं वर्णादिषोडशकं च पूर्वापनीतं परिगृह्यते । 'ततः सर्वसङ्ख्यया प्रकृतीनामष्टचत्वारिंशं शतं भवति । उक्तं च कर्मस्तवे * "अडयालं पयडिसयं खविजिणं निव्वुयं वंदे" [ ] यदा पुनर्गर्गर्षिशिवशर्मप्रभृत्याचार्याणा मतेनाष्टपश्चाशदधिकं प्रकृतिशतं सत्तायामधिक्रियते तदा बन्धनानि पश्चदश विवक्ष्यन्ते । ततोऽष्टचत्वारिंशदधिकस्य प्रकृतिशतस्य पूर्वोक्तस्योपरि बन्धनगता दश प्रकृतयोऽधिकाः प्राप्यन्ते । इति भवत्यष्टपञ्चाशदधिकं प्रकृतिशतमिति ॥७९॥२१७. इदानीं 'कम्माहिई सावाह' ति अष्टादशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह--- मोहे कोडाकोडीउ सत्तरी चीस नामगोयाणं । तोसियराण चउण्हं तेत्तीसऽयराइ आउस्स ॥ ८० ॥ एसा उक्कोसठिई इयरा वेयणिय पारस मुहुत्ता । अष्ट नामगोत्तेसु सेसएसु मुहत्तंतो ॥८१ ॥ जस्स जइ 'कोसिकोडीउ तस्स तेत्तियसयाई वरिसाणं । होइ अचाहाकालो आउम्मि पुणो भवतिभागो ।। ८२ ।। १ अत:-सि,वि. मष्टचत्वारिंशं प्रकृतीना शतं भपपिस्ता निवृतं जिनं वन्दे ।। २ यान्तरमतेना. सि.वि.३ तुला-पश्वसहमहाद्वार ५ गा. ३१ ॥४ कोड.मु.।। प्र. आ. ४४४॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोद्धारे सटीके साबाधा द्वितीयः खण्ड: 'मोहे-मोहनीये षष्ठी-सप्तम्योरथं प्रत्यभेदात् मोहनीयस्य कर्मण उत्कृष्टा स्थितिः सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्यः । इह द्विधा स्थितिः, तद्यथा-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा अनुभवयोग्या च । तत्र कर्मरूपतावस्थानलक्षणामेव स्थितिमधिकृत्योत्कृष्टं जघन्यं वा प्रमाणमभिधातुमिष्टमवगन्तव्यम् अनुभवयोग्या पुनरवाधाकालहीनाः येषां च कर्मणां यावत्यः सागरोपमकोटीकोटयः तेषां तावन्ति वर्षशतान्यबाधाकालः । तेन मोहनीयस्योत्कृष्टा स्थितिः सप्ततिसागरोषमकोटीकोट्य इति तस्य सप्ततिवर्षशतान्यबाधाकालः । तथाहि-तन्मोहनीयमुत्कृष्टस्थितिकं बद्धं सत् सप्ततिवर्षशतानि यावन्न काश्चिदपि स्वोदयतो जीवस्याबाधामुत्पादयति, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिकः । किमुस्तं भवति ?-सप्तनिवातप्रमाणेषु समयेषु मध्ये न वेद्यदलिकनिक्षेपं करोतिः किन्तु तत उर्ध्वमिति । तथा नाम-गोत्रयोरुत्कृष्टा स्थितिविंशतिसागरोपमकोटीकोटयः, द्वे वर्षसहस्र अबाधा; अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । तथा इतरेषां चतुणां-ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटय उत्कृष्टा स्थितिः, त्रीणि वर्षसहस्राग्यबाधा; अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । आयुष उत्कृष्टा स्थितिस्त्रयस्त्रिंशदतराणि-सागरोपमाणि; 'पूर्वकोटित्रिभागोबाधा, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिपेकः । सूत्रकृता स्वसौ पूर्वकोटित्रिभागोऽबाधारूपतयेवापयाति, न पुनरुदयमायाति, अतो यावती स्थितिरायुषो वेद्यते तावत्येवाबाधारहितोपात्तेति ||८|| ___ अथ उत्कृष्ट स्थितिनिगमनपूर्व जघन्यो स्थितिमाह-'एसे'त्यादि, एषा पूर्वोक्ता उत्कृष्टा स्थिति इतरा-जघन्या पुनर्वेदनीये-वेदनीयस्य द्वादश मुहर्ताः; इह द्विधा वेदनीयस्य जघन्या स्थितिः प्राप्यते १ तुला-पञ्चसमहटीका ५। ३१ प. २१८ ॥ २ पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि पूर्वकोटिस्त्रिभागो भयाधाकालहीनश्च-सि. वि.।। स्थितिः गाथा १२८० ૨૨૮૨ ॥४४॥ ४४५ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोद्धारे मुटीके साबाधा द्वितीयः खण्ड: स्थितिः गाथा १२८२ सकपायानकषायांश्च प्रतीत्य तत्राकषायाणां वेदनीयस्थितिर्बिसमयस्थितिका; यतस्तत्कर्म प्रथमसमये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं तृतीयसमयेऽकर्मतामनुभवति, अषायाणां कषायरहितत्वेन बहुतरस्थितिबन्धासंभवात् , सकपायाणां तु सूत्रोपात्ता द्वादशमुहूर्ता जघन्या स्थितिः। अन्तर्मुहूर्तमबाधा, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । तथा नाम-गोत्रयोः प्रत्येकमष्टौ अष्टौ मुहूर्ता जघन्या स्थितिः अन्तमुहूर्तमबाधा अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः । तथा शेषाणां-ज्ञानावरण-दर्शनावरणा ऽन्तराय मोहनीया-5ऽयुषां जघन्या स्थिति मुहूर्तान्तः-अन्तम हूर्तम् । 'अत्राप्यन्तमुहूर्तमबाधा नवरं तल्लघुतरमवसेयम् ; अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषकः । तदेवमुक्ता मूलप्रकनीनामुत्कृष्टा जघन्या च स्थितिः, उत्तरप्रकृतीनां तु कर्मप्रकृत्यादिग्रन्थेभ्योऽबसेया ॥ ८१ ॥ साम्प्रतमेतेषामेव कर्षणामुत्कृष्टस्थिनमायाकालपरिमाणमाद-'जात्यादि, यम्य कर्मणो यावत्यः सागरोपम कोटीकोटय उत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपादिता तस्य कर्मणस्तावन्मात्राणि वर्षशतानि भवत्युत्कृष्टोऽवाधाकालः । यथा मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, ततस्तस्य सप्ततिवर्षशतान्यबाधा, एवं सर्वत्रापि भावनीयम् । आयुषि पुनरुत्कृष्टोऽवाधाकालो भवत्रिभागः-पूर्वकोटित्रिभागलक्षणः, पूर्वकोटित्रि भागमध्ये बध्यमानायुर्दलिकनिषेकं न विदधातीत्यर्थः । वेद्यमानस्य ह्यायुषो द्वयोस्त्रिभागयोरतिक्रान्तयोस्तृतीये भागेऽवशिष्टे परभवायुषो बन्धः ततः पूर्वकोटित्रिभागो लभ्यते; जघन्या त्वबाधा सर्वेषामपि कर्मणामन्तमुहूर्तप्रमाणेति ।। ८२ ॥ २१८ ।। १ अन्तर्मुहूर्तमबाधा-सि. वि.॥२ गात्-सि० वि०॥ प्र. आ. ॥४४६ ... .... ... ..... Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: २१९ ४२ पुण्यप्रकृतय गाथा १२८ १२८६ प्र. आ 11४४७॥ इदानीं 'बायालीसा य पुन्नपयडीओ' ति एकोनविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह सायं १ उच्चागोयं २ नरतिरिवेवाउ ५ नाम एयाओ मायदुर्ग ७ देवदुर्ग ( पंचिंदियजाइ १० तणुपण १५॥ ८३ ॥ अंगोवंगतिगंपि य १८ संघयणं बजरिसहनारायं १९ । पढम चिय संठाण २० पन्नाइच उक्क सुपसत्थं २४ ॥ ८४ ॥ अगुरुलहु २५ पराघायं २६ उस्सासं २७ आयवं च २८ उज्जोयं २९ । सुपसत्था विहगगई ३. तसाइदसगं च ४० निम्माणं ४१ ॥ ५ ॥ नित्थयरेणं सहिया पुन्नप्पयहोओ हुति पायाला ४२ । सिवसिरिकडक्खियाणं सयावि सत्ताणमेयाउ ॥ ८६ ।। सात-सातवेदनीयम् , तथा उच्चैगोत्रम् , तथा नरायुस्तिर्यगायुदेवायुश्च; तथा एताश्च नामकर- प्रकृतयस्तद्यथा-मनुष्यद्विकं-मनुष्यगति-मनुष्यानुपूर्वीलक्षणम् , देवद्विकं-देवगति-देवानुपूर्वीलक्षणम् , पञ्चेन्द्रियजातिः, तनुपञ्चकम्-औदारिक बैंक्रिया-ऽऽहारक-तैजस-कार्मणलक्षणम् , अङ्गोपाङ्गत्रिकम्-औदा. रिक-वैक्रिया-ऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणम् , संहननं वज्रर्षभनाराचाख्यम् , प्रथमं चैव संस्थान-समचतुरस्राख्यम् , तथा वर्णादिचतुष्क-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शस्वरूपं सुप्रशस्तं-'शुभम् । तत्र वर्णाः-शुक्ल-पीत-रक्ताः, गन्धः सुरभिः, रसा मधुरा-ऽम्ल-कपायाः, स्पर्शा मृदु-लघु-स्निग्धोष्णा इति । अगुरुलधु पराघातम् उच्छ्वासम् आतपम् १ शुभम्-सि. वि. नास्ति ।। - ॥४४७ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२.द्वार मारोद्धारे (१२८९ ४८ उद्योलम् सुप्रशस्ता विहायोगतिः, सादिदरच-बस-बादर-पर्याव-प्रत्येक-स्थिर-शुभ मुमग-सुस्वरा-देवयश-कीर्तिलक्षणं निर्माणं च । एता एव तीर्थकरनाम्ना सहिता द्विचत्वारिंशत्पुण्यप्रकृतपः शुभसंशिकाः प्रकृतयो भवन्ति । एताश्च शिवश्रीकटाझितानां सच्चानां सदैव प्राप्यन्त इति ॥ ३८६ ॥ २१॥ इदानी चासोई पावपयडीओ चि विंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह नाणंतरायदसगं१. 'दंसण नव , मोहपयह छब्बीसा २६ । अस्सायं निरयाउं नीयागोएण अडयाला ८७॥ नरयदृगं तिरियङग ४ जाइचक्कं ८ च पंच संघयणा १३ ! संठाणावि य पंच ३ १८ वनाइचउमपसत्यं २२ ॥८८॥ उवधाय २३ गाविसमगई २४ याजदान होलि चोत्तीसा ३४॥ सवाओ मीलियाभो पासीई पावपयडीओ ८२ ॥८॥ झानावरणपशकम् , अन्तरायपञ्चकम् , दर्शनावरणनवकम् , सम्यक्त-मित्रे उदयमेव केवलमाश्रिन्यासुमे, न बन्धमपि, तथोन्यासभवान , अतुम्त मोहनीयस्य षड्विंशतिः प्रकृतयः, असातं नरमायुकं नीचेगोत्रं चेत्येता अटचत्वारिंशत्रकृतयः, नरकद्विर-नरकगनि-नरकानुपूर्वीस्वरूपम् . निर्यन्द्विक-तियम्गतितियंगानुप्रीलक्षणम् , जानिचतुष्का-एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-वीन्द्रिय-चतुर्गिन्द्रयजातिलक्षणम् • पञ्च संहननानि प्रथमवानि, संस्थानान्यपि आधानि पञ्च, वांदिचतुष्कमप्रशस्तम् , स्त्र वौँ नील-कृष्णो, गन्धो १ दसमा ११ मोह० मु.॥ २ कुविहायगई-मु.॥ evea Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन दुरभिः, रसौ तिक्तकटुको, स्पर्शाश्च गुरु-खर- रुक्ष- शीतरूपा इति । उपघातं कुत्सिता च-अप्रशस्ता विहायोगतिः, स्थाereas च स्थावर सूक्ष्मा पर्याप्त-साधारणा -ऽस्थिरा ऽशुभ- दुर्भग- दुःस्वराऽनासारोद्वारे देया- यशःकीर्तिलक्षणम्, एताश्चतुस्त्रिशन्नामकर्म प्रकृतयः मिलिताश्च सर्वा द्वयशीतिः पापप्रकृतयः - अशुभसंज्ञाः प्रकृतय इत्यर्थः । वर्णादिचतुष्कं हि शुभप्रकृतिसङ्ख्यायामशुभप्रकृतिसङ्ख्यायां च परिगृह्यतेः तस्य द्विधा संभवात् ; अतो चन्धोक्ताया विंशत्युत्तरशतलक्षणसङ्ख्याया न व्याघात इति ||८७||८८|| ८९ || २२० || सटीके द्वितीय: खण्ड: ।।४४९।। इदानीं 'भावच्क्कं सपडिभेयं' त्येकविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह भावा छुच्चोवसमिय १ स्वइय २ खओवसम ३ उदय ४ परिणामा ५ । दु २ नव ९ द्वारि १८ गवीसा २१ तिग ३ भेया सन्निवाओ य ॥ ९० ॥ समचरणाणि पदमे दंसणनाणा दाणलाभाइ" । उपभोग भोगवीरिय सम्मचरिताणि य बिइए ॥ ९९ ॥ नाणमणातिगं दंसणतिग पंच दाणलडोओ ! सम्मन्तं चारितं च संजमासंजमो तइए ॥ ९२ ॥ चउगड़ चक्कसाया लिंगतिगं लेसकमनाणं | मिच्छत्तमसिडसं असंजमो तह चउत्थम्मि || ९३ ॥ १ य मु. ॥ २२१द्व भाव षट्कम् गाथा १२९० १२९८ प्र. आ. ३०७ ||४४९॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१द्वा भावपटकम गाथा पंचमगंमि य भावे जीवाभवत्तमव्वया चेव । नवचन पचहवि भावाणं भेगा मेन लेना ४ ।। नारोद्धार ओदयियस्वओवसमियपरिणामेहिं चउरो गइचउक्के । नटीके स्वइयजुएहिं चउरो तदभावे उवसमजुएहिं ।। ९५ ।। द्वतीयः एक्केक्को उवसमसेदीसिडकेवलिसु एवमविरहा । पन्नरस सनिवाइयभेया वीस असंभविणो ।। १३ ।। दुगजोगो सिहाणं केवलिसंसारियाण 'निगजोगी। चउजोगजुभं चरसुवि गईसु मणुयाण पणजोगो ।। ९ ।। मोहस्सेवोवसमो वाओवसमो चण्ह घाईणं । उदयकस्वय परिणामा अट्टण्डवि हुनि कम्माणं ॥ ९८ ॥ [पञ्चमंग्रहे गा. १४) विशिष्टहेतुभिः स्वभावतो वा जीवानां तेन तेन रूपेग भवनानि भावा:-यम्नुपरणामविशेषाः अयया भवन्त्येभिरुपशमादिभिः पर्यायरिति भावाः । 'छच्चे' ति चशब्दम्यावधारणायन्धान पव-पदमङ्ख्या एव । तद्यथा-औषशमिका, क्षायिका, झायोपशमिकः, औदयिका, पारिणामिकः, 'सानिपातिकश्च ।। । तत्रोपशमो-भस्मच्छन्नाग्नेग्विानुद्रेकावस्था प्रदेशतोऽप्युदयाभाव इति यावत् : इत्थंभूतश्चोपशमः - सर्वोपशम उच्यते । स च मोहनीयस्यैव कर्मणो न शेषस्य । 'सव्वुवसमो मोहस्सेव उ' इति वचनान् । AAREET तिय मु.॥ २ सानिपानिय सि. नास्ति ॥ ३ वापरामिको-मि.वि.॥ प्र. आ. VIE MARWSANIES MARECHAR UORPORAKAAYS ASTRAMSARDAMOHANTERA AGRAT BelanmaAGRAitiedoniationshipstimonymsofindiasmosis Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे। ओपश सटीके द्वितीयः क्षायिः भेदाः तत्र चैवं शब्दव्युत्पत्तिः- उपशम एवौपशमिकः, 'म्वार्थिक इकणप्रत्ययः, यद्वा उपशमेन निवृत्त औपशमिक:-क्रोधाद्यदयाभावफलरूपो जीवस्य परमशान्तावस्थालक्षणः परिणामविशेषः । क्षय:-कर्मणामत्यन्तोच्छेदः, क्षय एव क्षायिकः क्षयेण वा निवृत्तः क्षायिका-तत्कर्माभावफलरूपो विचित्रो जीवस्य परिणतिविशेषः । उदीयावरण ज्ञाः, अनुस्य चाशस्य विपाकमधिकृत्योपशमः क्षयोपशमः, स एव क्षायोपशमिकः तेन वा निवृतो घातिकर्मक्षयोपशमसंपाद्यो मतिज्ञानादिलब्धिरूप आत्मनः परिणामविशेषः क्षायोपशमिकः । अष्टानां कर्मणां यथास्वमुदयसमयप्राप्तानामात्मीयात्मीयस्वरूपेणानुभवनमुदयः, उदय एबौदयिका, या उदयेन निवृत्त औदयिको भावो-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिरूपः । परिणमनं परिणाम:कथञ्चिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वावस्थापरित्यागेनोत्तरावस्थागमनं स एव तेन वा निवृत्तः पारिणामिकः । :. . एषामेष यथाक्रम भेदानाह- 'दुनवे' त्यादि, द्वौ, नव, अष्टादश, एकविंशतिस्त्रयश्च यथाक्रमेण भेदा येषां ते तथा, सान्निपातिकश्च षष्ठो भावः, सनिपतनं सन्निपातो-मिलनं स एव तेन वा निवृत्तः सान्निपातिका, औदयिकादिभावद्वयादिसंयोगनिष्पाद्योऽवस्थाविशेष इत्यर्थः ॥ १० ॥ साम्प्रतमीपशमिक क्षायिकभेदान् द्विनवसङ्खधान व्याख्यातुमाह-'सम्मे'त्यादि सम्यक्त्वं चारित्रं चौपशमिकम् , प्रथमे औपशमिके भावे वर्तते । औषशमिकं हि सम्यक्त्वं 'दर्शनसप्तके चारित्रं तु चारित्रमोहनीये उपशान्ते संभवति । अत औपशमिकभाववर्तित्वमनयोरिति । तथा 'दसणनाणाई ति 'सूचक १ स्वार्थिक इकणप्रत्ययः-सि. नास्ति ।। २ परिणाम सि. वि. नास्ति । ३०क्षायिका सि.वि. नास्ति ।। ४ क्त्व-सि.बि.॥ ५ दर्शनमोहनीये-कि. ॥ प्र. आ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: २४५२॥ स्वात् सूत्रस्य' केवलदर्शनम्, केवलज्ञानम्, दानलाभोपभोगपरिभोगवीर्यलब्धयः, क्षायिकसम्यक्त्वम्, क्षायिक चारित्रं च द्वितीये क्षायिके भावे भवन्ति । तथाहि केवलदर्शनं केवलज्ञानं च निजनिजावरणक्षय एवोपजायते, क्षायिकदानादिलब्धयस्तु पञ्चापि पञ्चविधान्तरायक्षय एवः क्षायिकसम्यक्त्वमपि दर्शनमोहसमकक्ष, क्षायिक चारित्रं तु पुनश्चारित्रमोहनीय क्षये इति ॥ ९१ ॥ भावम्, अधुना क्षायोपशमिकमा मेदानष्टादशसङ्ख्यानाह - 'च' इत्यादि, चत्वारि ज्ञानानि -मति श्रुताsafe मनःपर्यायरूपाणि, अज्ञानत्रिक-मतिश्रुताज्ञानविभङ्गरूपम्, दर्शनत्रिकं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनस्व'पंचे 'ति सङ्ख्या दानेनोपलक्षिता लब्धयो दानलब्धयः, दानलाभोपभोगपरिभोगवीर्य लब्धयः, सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनम्, चारित्रं च सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसंपयलक्षणम्, संयमासंयमो - देशविरतिरूप इत्येतेऽष्टादश मेदास्तृतीये क्षायोपशमिके भावे भवन्ति । तथाहि -ज्ञानचतुष्कमज्ञानत्रिकं च यथास्वमावारकस्य मतिज्ञानावरणादिकर्मणः क्षयोपशम एव भवति दर्शनत्रिकं तु चक्षुदर्शनावरणादि क्षयोपशमे, दानादिकाः पुनः पञ्च लब्धयोऽन्तर कर्मक्षयोपशमे भवन्ति । ननु दानादिलश्धयः पूर्व क्षायिकभाववर्तिन्य उक्ताः इह तु क्षायोपशमिक इति कथं न विरोधः १० नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, दानादिलब्धयो हि द्विधा भवन्ति - अन्तरायकर्मणः क्षयसंभविन्यः क्षयो पशमसंभविन्यश्च तत्र याः क्षायिक्यः पूर्वमुक्तास्ताः क्षयसंभूतत्वेन केवलिन एव भवन्ति, यास्त्विह n १ च-सि. वि. नास्ति ॥ २ तु-मु. नास्ति ॥ ३ क्षायोपशमिक वि. क्षायोपशमिका-सि० ॥ ४ क्षायोपशमिके-सि. वि. ॥ ५०का:-सि ॥ २२१ द्व वायोप मिकमेद गाथा १२९० १२९८ प्र. आ.. ३७१ ॥४५२ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥४५३॥ क्षायोपशमिक्य उच्यन्ते ताः क्षयोपशमसंभूताः छद्मस्थानामेवेति । सम्यवत्वमपि क्षायोपशमिकं दर्शनसप्तकक्षयोपशमे, चारित्रचतुष्कं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमे, संयमासंयमश्चाप्रत्याख्यानावरणकषायमोहनीयक्षयोपशमे इति ॥ ९२ ॥ सांप्रतमेकविंशतिमौदयिक भावभेदानाह - 'उगई' त्यादि एतं सर्वेऽपि गत्यादयो भावाश्चतुर्थे औदयि भावे भवन्ति । तथाहि - चतस्रो नरकादिगतयो नरकगत्यादिनामक मदियादेव जीवे प्रादुष्पन्ति । कषाया अपि क्रोधादयश्चत्वारः कषायमोहनीय कर्मोदयात् । लिङ्गत्रिकमपि स्त्रीवेदादिरूपं स्त्री वेदपु वेदनषु सकवेदमोहनीय कर्मोदयात् । लेश्यापट्कं तु 'योगपरिणामो लेश्या' इत्याश्रयणेन योगत्रिकजनककर्मोदयात् । येषां तु मते कषायनिदो लेश्यास्तदभिप्रायेण कपायमोहनीय कर्मोदयात् । येषां तु कर्मनिदो लेश्यास्तन्मतेन तु संसारित्वासिद्धत्ववदष्टप्रकारकर्मोदयादिति । अज्ञानमपि - विपर्यस्त बोधरूपं मत्यज्ञानादिकं ज्ञानावरणमिध्यात्वमोहनीयोदयात् यत्तु पूर्वमस्यैव मत्याद्यज्ञानस्य क्षायोपशमिकत्वमुक्तं तद्वस्त्वबोध मात्रापेक्षया; सर्वमपि हि वस्त्वमात्रं विपर्यस्तमविपर्यस्तं वा ज्ञानावरणीय कर्मक्षयोपशम एव भवति । यत्पुनस्तस्यैव विपर्यासलक्षणमज्ञानत्वं तद् ज्ञानावरणमिध्यात्वमोहनीय कर्मोदय एव संपद्यते । इत्येकस्यैवाज्ञानस्य क्षायोपशमिकत्वमौदयिकत्वं च न विरुध्यते । इत्येवमन्यत्रापि विरोधपरिहारः कर्तव्य इति । मिध्यात्वं मिथ्यात्वमोहनीयोदयात् ; असिद्धत्वं - कर्माष्टकोदयात् : असंयमः --अविरतत्वम्, तदप्यप्रत्याख्यानावरण कपायोदयादुपजायत इति । १ च- मु.॥ २२१द्व ओदायि भेदाः गाथा १२९० १२९८ प्र. आ. ३७२ ।।४५३। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनआरोद्धारे सटीके द्वतीयः अण्ड: ।४५४॥ ननु निद्रापञ्चकासातादिवेदनाहास्यरत्यरत्तिप्रभृत्यः प्रभृततरभावा अन्येऽपि कर्मोदयजन्याः सन्ति तत् किमित्येतावन्त एवैते निर्दिष्टाः १, सत्यम् , उपलक्षणमात्रत्वादमीषा संभविनोऽन्येऽपि द्रष्टव्या इति ॥१३॥ २२१ द्वा पारिणाअथ पारिणामिक भेदास्त्रीनाह- 'पंचे'त्यादि, पश्चमके च पारिणामिकत्वलक्षणे भावे जीवन्या. मिकऽभव्यत्व-भव्यत्वानि वर्तन्ते । जीवत्वमभव्यन्वं भव्यत्वं चानादिपारिणामिको भाव इत्यर्थः उपलक्षणं चेतत , भेदाः तेन ये गुडघृततण्डुलामवघटादीनां नवपुराणत्वादयोऽवस्थाविशेषाः ये च वर्षधर पर्वत-भवन-विमान कूट गाथा रत्नप्रभादीनां 'पुद्गलविचटन संपाद्या अवस्थाविशेषाः, यानि च गंधर्वनगराणि, यच्च कपिहमिन मुल्कापातो गर्जितं महिका दिग्दाहो विद्युन् चन्द्रपरिषः सूर्यपरिय। चन्द्र सूर्यग्रहणमिन्द्रयनुरित्यादिः सर्वः सादिपारिणामिको भावः । लोकस्थितिरलोकस्थितिधर्मास्तिकायत्त्रमित्यादिरूपस्त्वनादिपारिणामिक इति । उक्ताः प्रत्येकं भावभेदाः, सम्प्रत्येतेषामेव भेदानां सर्वसङ्ख्यामाह- पंचण्हवी'त्यादि. पञ्चानाम प्र. आ. प्योपशमिकादीनां भावानां भेदाः समुदिताः सन्त एवमेव-पूर्वोक्तप्रकारंण त्रिपञ्चाशत्मङ्ख्या भवन्ति । द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयाणां मीलने तत्सङ्ख्यायाः सद्भावादिति । षष्ठम्तु सान्निपातिको भाव एतेषामेव द्वयादिसंयोगनिष्पाद्यः । तत्र चागमोक्तक्रमेण आदयिकीपशमिकक्षायिकमायोपशमिकपारिणामिकरूपाणां पश्चाना पदानां सामान्यतः षड्विंशतिर्भङ्गा उत्पद्यन्ते । तद्यथा-दश द्विकसंयोगे, दश त्रिकसंयोगे, पञ्च चतुष्कर्मयोगे. एका पञ्चकसंयोगे इति । ॥४५४॥ तत्र द्विकसंयोगे दश-औदयिक औपशमिक इत्येको भङ्गः, औदयिकः क्षायिक इति द्वितीयः, औद- । AAP पुदगल विचटनपटनसंपापा-मु॥२०आन्दः सि. वि. पविशतिर्भवाः समुपद्यन्ते-स.वि Erics HAMAU Company SASHAMATARWASSESSINE RA M Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन रोद्धारे टीके द्वतीयः ण्ड: १४५५॥ freः क्षायोपशमिक इति तृतीयः, औदयिकः पारिणामिक इति चतुर्थः, औपशमिकः क्षायिक इति पञ्चमः, औपशमिकः क्षायोपशमिक इति षष्ठः, औपशमिक पारिणामिक इति सप्तमः क्षायिकः क्षायोपशमिक इत्यष्टमः क्षायिकः पारिणामिक इति नवमः, क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति दशमः । तथा दश त्रिसंयोगे - औदयिक औपशमिकः क्षायिक इत्येको भङ्गः, औदयिक औपशमिकः क्षायोपशमिक इति द्वितीयः, औदयिक औपशमिकः पारिणामिक इति तृतीयः, औदयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक इति चतुर्थ, औदासिक पारिणानिक इति पञ्चमः, औदयिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकः इति षष्ठः, औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक इति सप्तमः, औपशमिकः क्षायिकः पारिणामिक इत्यष्टमः, औपशमिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति नवमः, क्षायिकः क्षायोपशमिकः परिणामिक इति दशमः । तथा चतुष्कसंयोगे - औदयिक औपशमिक क्षायिकः क्षायोपशमिक इत्येको भङ्गः, औदयिक औपशमिकः क्षायिकः पारिणामिक इति द्वितीयः, औदयिक औपशमिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति तृतीयः, औदयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति चतुर्थः, औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति पञ्चमः षड्विंशतितमस्तु भङ्गः पञ्चकसंयोगे जायमानः सुप्रतीत एव । एते च षड्विंशतिर्भङ्गा भङ्गरचनामात्रमधिकृत्य दर्शिता वेदितव्याः, संभविनः पुनरेतेषु मध्ये परमार्थतः षडेव । तद्यथा - एको द्विक्संयोगे ९ द्वौ त्रिकसंयोगे ५-६, द्वौ चतुष्कसंयोगे ३-४, एकः पञ्चकसंयोगे ॥९४॥ एते चावान्तरभेदतः पंचदश भवन्त्यतस्तान् सूत्रदाह -- 'ओदई'त्यादिगाथाद्वयम् औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकैर्भावैर्निष्पन्नस्य साभिपातिकस्य नारकतिर्यग्नरसुरस्वरूपगतिचतुष्कविषयतया , २२१ भाव भेदाः गाथा १२९ १२९ प्र. अ ३७२ ॥४५६ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड गाथा १२९०१२९८ ।।४५६॥ चिन्त्यमानस्य चत्वारो मेदा भवन्ति । इदमुक्तं भवति-औदयिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इत्ययं त्रिकसंयोगनिष्पनो भङ्गो गतिमेदाच्चतुर्धा भिद्यते, तद्यथा-निरयगतावौदयिकं नैरयिकत्वम् , क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि, पारिणामिकं जीवत्वादि। 'तिर्यग्गताचौदायिक तिर्यग्योनित्वम् , क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि, पारिणामिकं जीवत्वादि । एवं नरसुरगत्योरपि भावना काय। ___तथा एतैरेवौदयिकादिभिस्त्रिभिः क्षायिकसहितैर्निष्पन्नस्य सान्निपातिकस्य भावस्य चत्वारो भेदा भवन्ति । अयमर्थ:-अमीषामेव त्रयाणां भावानां मध्ये यदा क्षायिको भावश्चतुर्थः प्रक्षिप्यते तदा चतुष्कसंयोगो भवति । एवं चामिलपनीयः-औदयिका, क्षायिकः, क्षायोपशमिका, पारिणामिकः । एषोऽपि गतिभेदाच्चतुर्धा, तद्यथा-औदयिकी नरकगतिः, क्षायिकं सम्यक्त्वम् , क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि, पारिणामिक जीवत्वादि । एवं तिर्यग्नरसुरगतिष्वपि भावनीयम् । प्रकारान्तरेण चतुःसंयोगे एव चतुर्भेदानाह-तदभावे-अनन्तरप्रक्षिप्ततायिकभावाभावे औपशामिकभावयुक्तैरौदयिकादिभिरेव चत्वारो भेदा भवन्ति । एत दुक्तं भवति-यदा क्षायिकभावस्थाने औपशमिको भावः प्रक्षिप्यते तदापि चतुष्कसंयोगो भवति । एवं चामिलापा-औदयिकः, औपशमिकः, क्षायोपशमिका, पारिणामिकः । एषोऽपि गतिभेदात्यागिव चतुर्धा भावनीयः । नवरमौंपशमिकं सम्यक्त्वमवगन्तव्यम् । तथा 'एककः-एकसङ्खथः सानिपातिको भेद उपशमश्रेणिसिद्धकेवलिषु भवति । तत्र औदयिकः, औपशमिकः, क्षायिका, क्षायोपशमिका, पारिणामिक इत्येवंरूप एकः पञ्चकसंयोगो यः क्षायिकः सम्यग्दृष्टिः १ तिर्यग्जाता० सि. ॥ २ एकेका-सि.वि. ॥ प्र. आ. | ॥४५६ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w प्रवचन सारोद्धारे सटिके द्वितीयः खण्ड: ॥४५७॥ 11 सन्नुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते तस्य संभवति । तथाहि औदयिकं मनुष्यत्वादि, औपशमिकं चारित्रम्, क्षायिक सम्यक्त्वम्, क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि, पारिणामिकं जीवत्वादि । सिद्धेषु पुनरेको द्विकसंयोगलक्षणः सान्निपातिकभेदः । तद्यथा- क्षायिकः पारिणामिक इति । तत्र क्षायिकं सम्यक्त्व केवलज्ञानादि, पारिणामिकं जीवत्वम् । केवलिनां त्वेक स्त्रिसंयोगलक्षणः सान्निपातिकभेदः; तद्यथा-औदयिकः, क्षायिकः, पारिणामिकः, तत्रौदयिकं मनुप्यत्वादि, क्षायिकं केवलज्ञानादि, पारिणामिके जीवत्वमव्यत्वे । एवमनेन गत्यादिषु संयोगपट्कचिन्तनप्रकारेणाविरुद्धाः परस्परविरोधाभावेन संभविनः पञ्चदश सान्निपातिकभेदाः षट्कभावविकल्पा भवन्ति । विंशतिसङ्ख्याः पुनर्भङ्गा असंभविनः संयोगोत्थानमात्रतयैव 'संभवन्ति, न पुनर्जीवेषु कदाचिदपि प्राप्यन्ते इति ॥ ९५ ॥ ९६ ॥ अथैत एव संभविनः पड् भङ्गा येषु जीवेषु संभवन्ति तानाह - ' - 'दुगे' त्यादि, दशसु द्विक्संयोगेषु मध्ये क्षायिक परिणामिकभावद्वयनिष्पन्नो नवमो द्विक्संयोगः सिद्धानां संभवति । शेषास्तु नव प्ररूपणामात्रम् । अन्येषां तु जीवानामौदयिकी गतिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येतावत्रयं जघन्यतोSपि लभ्यत इति । तथा केवलिनां संसारिणां च त्रिकसंयोगः । तत्र दशसु त्रिकसंयोagar aaoor औदयिक क्षायिक पारिणामिकमावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भङ्गः संभवति । औपशमिकस्य मोहनीयाश्रितत्वेन तत्क्षयवर्ता केवलिनामसंभवात् । क्षायोपशमिकस्यापि इन्द्रियाद्यभावतोऽसंभवाद्, 'अतीन्द्रियाः केवलिन ' इति वचनात् । संसारिणां तु चतुर्गतिकजीवानामौदयिक क्षायोपशमिक-पारिणामिकमात्रय निष्पन्नः षष्ठस्त्रिसंयोगः 'संभवति । शेषास्त्वष्ट प्ररूपणामात्रम्, क्वाप्यसंभवादिति । १ संति-सि.वि. ।। २ त्रिकयो० सि. वि. ॥ ३ भवति खि. वि. || २२१द्वारे भाव षट्कम गाथा १२९० १२९८ प्र. आ. ३७३ ॥४५७॥ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भाव खण्ड : १२९८ तथा पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु मध्ये चतुर्योगयुग-चतुःसंयोगभङ्गाद्वयं चतसृष्वपि गतिषु संभवति । तथाहिप्रवचन २२१द्वा सारोद्धारे औषशमिक'सम्यग्दृष्टेरौदयिकौपशमिक--क्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुष्टयनिष्पन्नस्तृतीयो भङ्गः । सटीके क्षायिकसम्यपहाटेस्तु औदायिकः क्षायिका क्षायोपशमिकः पारिणामिक इत्येवरूपश्चतुर्थो भङ्गश्चतसृष्वपि गतिषु प्राप्यत इति । तथा मनुष्याणां पञ्चकयोगः-पूर्वोक्तभावपश्चकसंयोगः संभवति । केवलं क्षायिकसम्यग्दृष्टयः | गाथा द्वितीयः । सन्तो ये उपशमश्रेणि प्रतिपद्यन्ते तेषामेव न पुनरन्येषाम् । समुदितभावपञ्चकस्य तेषामेव भावादिति : ९७॥ उक्ता जीवानधिकृत्य सर्वेऽपि भावाः । इदानी को भावः कस्मिन् कर्मणि भवतीत्येतन्निरूपयितु माह-'मोहस्सेवे' त्यादि, अष्टानां कर्मणां मध्ये मोहनीयस्येवोपशमो-विपाकप्रदेशरूपतया द्विविधस्या॥४५८|| प्युदयस्य विष्कम्भणं नान्येषाम् , उपशमस्त्विह सर्वोपशमो विवक्षितो न देशोपशमः; तस्य सर्वेपामपि प्र. आ. कर्मणां संभवात् । तथा उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षयेणानुदयावलिकाप्रविष्टम्योपशमेन-विपाकोदय- ३७४ निरोधलक्षणेन निवृत्तः क्षायोपशमिकः । स चतुर्गामेव धातिकर्मणां-बानावरण-दर्शनावरण-मोहनीयाऽन्तरायरूपाणां भवति न शेषकर्मणाम् । चतुर्णामपि च केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरणरहितानाम् । तयोक्पिाकोदयविष्कम्भावतः क्षयोपशमासंभवात् । उदयक्षयपरिणामा अष्टानामपि कर्मणां भवन्ति । तत्र उदयो-विपाकानुभवनम् , तस्य सर्वेषामपि संसारिजीवानामष्टानामपि कर्मणां दर्शनात् ; मयः-आत्यन्तिकोच्छेदः, स मोहनीयस्य सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकस्य चरमसमये । शेषाणां तु त्रयाणां पातिकर्मणां क्षीणकषायगुणस्थानकम्य, अघातिकर्मणामयोगिकेवलिनः । तथा परिणमनं परिणामा-जीवप्रदेशैः सह ४१ सम्यारत्वो विक० सि.पि.॥ T HRITISH YAR NAL Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ द्वारे षट्कम् गाथा |१२९० १२९८ संलुलिततया मिश्रीभवनं यद्वा तत्तद्रव्यक्षेत्रकालाध्यवसायापेक्षया तथातथासंक्रमादिरूपतया यत्परिणमनं स परिणामः । एष चात्र तात्पर्या-मोहनीयस्य औपशमिक-क्षायिक-झायोपशमिकोदयिक-पारिणामिकलक्षणाः पश्चापि भावाः सम्भवन्ति । ज्ञानावरण दर्शनावरणा-ऽन्तरायाणामौपज्ञमिकवर्जाः शेपाश्चत्वारः, नाम-गोत्र-वेदनीया-ऽऽयुपा क्षायिकोदयिकपारिणामिकलक्षणास्त्रय इति ॥ ९८ ॥ . अथ गुणस्थानकेषु भावपश्चकं चिन्तयन्नाह--- ... सम्माइचउसु तिग चउ भावा चउ पणुवसामगुवसंते। चउ 'वीणेऽपुव्वे तिमि सेसगुणठाणगेगजिए ॥ ९९ ॥★ "सम्माई'त्यादि, सम्यग्दृष्टयादिषु चतुएं-अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत-प्रमत्ता-ऽप्रमत्तमंयतलक्षणेषु गुणस्थानकेषु त्रयश्चत्वारो या भाषाः प्राप्यन्त इति शेषः । तत्र क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टेश्चतुर्ध्वपि गुणस्थानकेषु त्रयो भावा लभ्यन्ते । तद्यथा-यथासंभवमौदयिकी गतिः, क्षायोपशमिकमिन्द्रिय-सम्यक्त्वादि, पारिणामिक जीवत्वमिति । क्षायिकसम्यग्दृष्टेरौपशमिकसम्यग्दृष्टेश्च चत्वारो भावा लभ्यन्ते, त्रयस्तावत्पूर्वोक्ता एव, चतुर्थस्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टेः क्षायिकसम्यक्त्वलक्षणः औपशमिकसम्यग्दृष्टेस्त्वौपशमिकसम्यक्त्वलक्षण इति । ..... तथा चत्वास पञ्च वा भावा द्वयोरप्युपशमकोपशान्तयोर्भवन्ति । किमुक्तं भवति :-अनिवृत्तिवादर१वीणापुम्वे-मुः। श्रीणे अपुल्वे-ता. ॥ खीणापुग्वे-इति चतुर्थ कर्मपन्थे [गा. ७०] पाठः ।। २श्वत्वारो-सि.वि.॥*गाथेयं (१२९४) 'चतुर्थकर्मग्रन्थे (नव्य गा.८) अपि विद्यते ।।. प्र. आ. ॥४५॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके २२२ स्थितिः गाथा १३०० द्वितीयः खण्ड: [प्र. आ|३७४ ॥४६॥ सम्मसम्परायलक्षणगुणस्थानकद्वयवर्ती जन्तुरुपशमकः, उपशान्तमोहगुणस्थानकवर्ती चोपशान्ता, तत्रानिवृत्तिबादर-सूक्ष्मसंपराययोश्चत्वारः 'पूर्ववदेव । उपशान्तमोहे तु चतुर्थ औपशमिकसम्यक्त्वचारित्ररूपा । पवमा पुगत्रयामागवि दर्शनसालक्षये उपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानानाम् । तथाहि-क्षायिकसम्यक्त्वस्य औपशमिकचारित्रस्य च सद्भावादिति ।। ___तथा चत्वारो भावाः झीणापूर्वयो:-क्षीणमोहगुणस्थानके अपूर्वकग्णगुणस्थानके च, तत्र त्रयः पूर्ववदेव, चतुर्थस्तु क्षीणमोहे क्षायिकसम्यक्त्वचारित्ररूपः । अपूर्वकरणे तु क्षायिकसम्यक्त्वरूप औपशमिकसम्यक्त्वरूपो वेति । 'तिन्नि सेसगुणठाणगे' ति, त्रयः-त्रिसङ्ख्या भावा भवन्ति । केष्वित्याह- 'विभक्तिलोपात् शेषगुणस्थानकेषु-मिथ्यादृष्टि-मासादन--सम्यग्मिध्यादृष्टि-सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणेषु । तत्र मिथ्यादृष्टयादीनां त्रयाणामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकलक्षणास्त्रयः, सयोग्ययोगिकेवलिनोस्त्वी. दयिकमायिकपारिणामिकरूपा इति । नन्वमी त्रिप्रभृतयो भावा गुणस्थानकेषु चिन्त्यमानाः किं सर्वजीवाधारतया चिन्त्यन्ते ? आहोश्चिदेकजीवाधारतयेत्याह-'एगजिए'त्ति एकजीवे-एकजीवाधारतयेत्थं भावचिन्ता मन्तव्या। नानाजीवापेक्षया तु संभविनः मर्वेऽपि भावा भवन्तीति ॥ ९९ ॥ २२१ ॥ इदानीं 'जीवच उदसगो' ति द्वाविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह इह सुहुमबायरेगिदियघितिचा असन्नि सन्नि पंचिंदि । पजत्तापजत्ता कमेण चरदस जियटाणा ॥१३००॥ [प्राचीन कर्मग्रन्थ ४, गा. ३] १ पूर्वशमिकवदेष-सि. वि. ॥२ विमक्तेर्लोपात्-मु.॥ ॥४६॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रवचनसारोद्धारे सटीके अजीवभेदा: गाथा द्वितीयः १३०१ इह-जगति प्रवचने वा अनेन क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि भवन्ति । तिष्ठन्ति जीवास्तत्तकर्यपारतन्यादेविति स्थानानि-सूक्ष्मपर्याप्त केन्द्रियत्वादयोऽन्तरविशेषाः, जीवानां स्थानानि जीवस्थानानि । केन क्रमेणेत्याह-सूक्ष्म-यादर भेदाद् द्विविधा एकेन्द्रियाः । तथा द्वीन्द्रियान्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्चासंज्ञिसंझिभेदतो द्विधा मिलिताश्च मप्त । गते च सूक्ष्मैकेन्द्रि यादयः प्रत्येकं द्विविधाः-पर्याप्सा अपर्याताश्चेति । तथा विशेषश्चात्र-अपर्याप्तका द्विधा- या करणेन च, तत्र ये अपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते, न पुनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समथ यन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनः स्वयोग्य करणानि-शरीरेन्द्रिया. दीनि नसामा नियन्ति, अब चावश्यं पुरस्तावितयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः । इह चैवमागमः लन्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमानावेव नियन्ते नार्वाक् , यस्मादागामिकमवायुद्ध या नियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तानामेव वध्यते' [ इति ॥ १३०० २२२ ॥ इदानीम् 'अजीव चउदसगो' ति त्रयोविंशन्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह धम्मा १ऽधम्मा २ऽऽगासा ३ तियतियभेया तहेव अहा य १०।। __खंधा ११ देस १२ पएसा १३ परमाणु १४ अजीव चउदसहा ।। १३०१ ।। ० इह अजीवा द्विविधाः-रूपिणोऽरूपिणश्च । रूपमेयामस्तीतिरूपिणः । रूपग्रहणं गन्धादीनामुपलक्षणम् । तद्वयतिरेकेण तस्यासंभवात् । अथवा रूपं नाम स्पर्शरूपादिसंमृर्छनामिका मूर्तिः, तदेषामस्तीति रूपिण: १ सूक्ष्मा० सि वि.॥२ सर्वेपि-वि. ॥ 0 गाथेयं (१३०१) नवतत्त्वप्रकरणे (गा. ८) अपि विद्यते॥ ३७५ ॥४६१८ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स भेदाः पुद्गलाः, तेषामेव रूपादिमत्त्वात् । रूपव्यतिरेकिणोऽरूपिणो-धर्मास्तिकायादयः । तत्र रूपिणश्चतुर्धा, अरूप्रवचन २२३ द्वारे पणिश्च दशधा । बहुवक्तव्यत्वाच्च प्रथममरूपिण आह-धर्मास्तिकाया-ऽधर्मास्तिकाया-ऽऽकाशास्तिकायाःसारोद्धारे । अजीवपूर्वोक्तस्वरूपास्त्रयोऽपि प्रत्येकं त्रिभेदाः । तद्यथा-धर्मास्तिकायद्रव्यम् , धर्मास्तिकायदेशाः, धर्मास्तिकाय. सटीके प्रदेशाः । तत्र 'धर्मास्तिकायरूपं सकलदेशप्रदेशात्मकाविभागधर्मानुगतसमानपरिणामवत् अवयविद्रव्य गाथाद्वितीयः । धर्मास्तिकायद्रव्यम् । तथा तस्यैव धर्मास्तिकायद्रव्यस्य देशाः-बुद्धिपरिकल्पिता द्वयादिप्रदेशात्मका विभागा खण्ड: धर्मास्तिकायदेशाः । तथा धर्मास्तिकायस्य प्रकृष्टा देशा-निर्विभागा 'भागा धर्मास्तिकायप्रदेशाः ते चास... ॥४६२॥ येया लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्तेषाम् । एवअधर्मास्तिकाया-55काशास्तिकाययोरपि प्रत्येकं त्रिभेदता प्र. आ. बाच्या । नवरमाकाशास्तिकायप्रदेशा अनन्ता द्रष्टव्याः, अलोकम्यानन्तत्वात् । दशमश्च अद्धाकालः, अस्य ३७५ च वर्तमानसमयरूपस्यैव परमार्थसत्वाद्देशकल्पनाविरहः । तथा स्कन्धा देशाः प्रदेशाः परमाणश्वेति चतुर्विधा रूप्यजीवाः । तत्र स्कन्दन्ति-शुष्यन्ति धीयन्ते च-पुष्यन्ति विचटनेन संघातेन चेति स्कन्धाः-अनन्तानन्तपरमाणुप्रचयरूपा मांसचक्षुग्राह्याः कुम्भस्तम्भा. दयः, तदग्राह्या अचित्तमहास्कन्धादयोऽपि पृषोदरादित्वाच्च रूपनिष्पत्तिः । अत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामानन्त्यख्यापनार्थम् , "देशाः-स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहां बुद्धिपरिकल्पिता द्वयादिप्रदेशात्मका विभागाः अत्रापि बहुवचनमनन्तप्रादेशिकेषु तथाविधेषु स्कन्धेषु "देशानन्तत्वसंभावनार्थम् । प्रदेशास्तु धर्मास्तिकायद्रव्यरूपम-मु. ।। २ सकलप्रदेशानुगतसमान० सि.बि. ३ मागा-सि.पि. नास्ति ।। ४ देशाना-सि.॥ ५ देशानामन्त० कि.॥ 2-2-2.5. . S म Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके २२४३ गुणस्था कानि द्वितीयः गाथा १३०२ ॥४६॥ स्कन्धान-कन्धवपरिणामपरिणतानां बुद्धि परिकल्पिताः प्रकृष्टा देशा निविभागा 'भागा न्यर्थः । अत्रापि बहुवचनं प्रदेशानन्तत्वसंभावनार्थम् , परमाश्च ते अणवश्च परमाणवा-निर्विभागद्रव्यम्पाः । ननु प्रदेशपरमाण्योः कः प्रतिविशेषः १, उभयोरपि निर्विभागरूपत्वान् । उच्यते, म्कन्धप्रतिबद्धा निर्विभागाः प्रदेशाः ये तु स्कन्धत्वपरिणामरहिता विशकलिना एकाकिन एवास्मिन् लोके वर्तन्ते ते परमाणवः । तदेवमजीवाः-जीवव्यतिरिक्ताश्चतुर्दशविधा झापन्ति ! १ ॥ २५३ ।। ... इदानीं 'गुण चउदसगु' त्ति चतुर्विशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाहमिच्छे , सासण २ मिस्से ३ अविरय ४ देसे ५ पमत्त ६ अपमत्ते ७ ।। नियहि ८ अनियटि ९ सुहुमु १० चसम ११ खीण १२ सजोगि १३ अजोगि १४ गुणा ॥२॥ प्राचीन कर्मग्रन्थ ४, गा० २६ सूचनात् सूत्र' मिति न्यायात् 'पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचाराद्वा' इहवं गुणस्थानकनिर्देशो द्रष्टव्यः । तद्यथा-मिथ्याइष्टिगुणस्थानम् , सासादुनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् , सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् , अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् , देशविरतिगुणस्थानम् , प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् , अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् , अपूर्वकरणगुणस्थानम् , अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानम् , सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानम् , उपशान्तकषायः धीतरागच्छमस्थगुणस्थानम् , क्षीणवायवीतरागच्छमस्थगुणस्थानम् , सयोगिकेवलिगुणस्थानम् , अयोगिकेवलिगुणस्थानम् इत्येतानि चतुर्दश गुणस्थानानि भवन्ति । मागा-सि. नास्ति । प्र.आ. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः-अर्हत्प्रणीततत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य 'भक्षितधत्तुरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिप्रवचन- | वत् स मिथ्यादृष्टिः । गुणा-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः; तिष्ठन्ति गुणा अस्मिन्निति स्थानंसारोद्धार ज्ञानादिगुणानामेव शुद्धयशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः, गुणानां स्थानं गुणस्थानम् , मिथ्याण्टेगुण-गुणसटीके स्थान-सासादनाद्यपेक्षया ज्ञानादिगुणानां शुद्धयपकर्षकृतः स्वरूपभेदो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । स्थान. द्वितीयः ननु यदि मिथ्यादृष्टिरसौ कथं तस्य गुणस्थानसंभवः ?, गुणा हि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाः, तत्कथं कानि खण्ड: ते दृष्टी ज्ञानादिविपर्यस्तायां भवेयुः १, उच्यते, इह यद्यपि तत्वार्थश्रद्धानलक्षणात्मगुणसर्वघातिप्रबलमिच्या-गाथा 11४६४॥ स्वमोहनीयविपाकोदयवशाद्वस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिम्सुमतो विपर्यस्ता भवति, तथापि काचिन्मनुष्यपश्वादि- १३०१ प्रतिपाचरन्ततो निगादावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ताऽपि भवति । यथाऽतिबहलघनपटलसमाच्छादितायामपि चन्द्रार्कप्रभायां काचित्प्रभा । तथाहि-समुन्नत नूतनघनाघनघनपटलेन रविरजनिकरकरनिकरतिरस्कारेऽपि नैकान्तेन तन्प्रभाविनाशः संपद्यतेः प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनिविभागाभावप्रसङ्गात् । उक्तं च- 'सुट्ठवि मेहसमुदए होइ पहा चंदसूगणं"[ ] इति । 'एवमिहापि प्रबलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचिदविपर्यस्तापि दृष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसंभवः । यद्येवं ततः कथमसो मिथ्यादृष्टिरेव मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्त्यपेक्षया अन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभृताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्यपेक्षया वा सम्यग्दृष्टित्वादपि ?, नैष दोषः, यतो भगवदहत्प्रणीतं सकल मक्षितहस्पूरपुरुषस्य-सि. वि. जीवसमासवृत्तौ (प.) च ।। २ नूतनधनाधनपटलेन-सि-वि. ॥ A सुष्ठपि मेघसमुदये भवति प्रमा चन्द्रसूर्ययोः॥ ३इत प्रारभ्य तुल्यप्रायं पासंग्रहमसय० वृत्तिः दा.१। गा. १५, ५, १६ A तः ।। | ॥४६॥ EXAMS Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२४ द्वारे गुणस्थानकानि गाथा प्र.आ. मपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गतमेकमप्यक्षा न रोचयति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेयोच्यते; प्रवचन- | तस्य भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययनाशात् । उक्तं चसारोद्धारे| "सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नमः । मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" सटीके किं पुनः शेषो भगवदर्हदभिहितयथावजीचाजीवादिवस्तु तत्वप्रतिपत्तिविकलः ? । ननु सकलप्रवचद्वितीयः नाभिरोचनात्तद्गतकतिपयार्थानां चारोचनादेष न्यायतः सम्यग्मिध्याष्टिरेव भवितुमर्हति, कस्मान्मिध्याखण्ड: दृष्टिः १, तदसत् , वस्तुतचापरिज्ञानात् । इह यदा सकलं वस्तु जिनप्रणीततया सम्यक् श्रद्धत्ते तदानीमसौ सम्यग्दृष्टिः । यदा त्वेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्यारो का मतिदौर्बल्यादिना प्रकान्तेन सम्यकपरिज्ञान-मिथ्यापरि॥४६५। ज्ञानाभावतो न सम्यक् श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः, तदा सम्यग्मिध्यादृष्टिः । उक्तं च शतकबृहच्चूणौं-- ___“जहा नालिकेरदीववासिस्स खुहाइयस्सवि इत्थ समागयरस पुरिसस्स ओयणाइए अणेगविहे ढोइए तस्स आहारस्सोवरिं न रुई न य निंदा, जेण तेण सो ओयणाहओ आहारो न कयावि दिवो नावि सुओ, एवं सम्मामिच्छादिद्विस्सवि जीवाइपयत्थाणं उपरि न य ई नाघि निंद" [ ]त्ति । यदा पुनरेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा एकान्ततो विप्रतिपत्ति प्रतिपद्यते तदा मिथ्यादृष्टिरेवेत्यदोषः । तथा 'आयम्-औपशमिकसम्यक्त्वलाभलक्षणं सादयति-अपनयतीति नैरुक्ते यशब्दलोपे आसाद. नम्-अनन्तानुबंधिकषायवेदनम् । सति पस्मिन् परमानन्दसुखफलदो निःश्रेयसतरुवीजभूत औपशमिक- १ तुला-प्राचीनकर्मग्रन्थटीका ४१२६, प. १८६ ॥ २०६.सि. वि. ।। ३७६ ॥४६५॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे मटीके २२४ द्वारे गुणस्थानकानि गाथा द्वितीय खण्ड: ॥४६६ प्र. आ. ३७७ सम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कृष्टतः पभिरावलिकाभिरपगच्छतीति । सह आमादनेन वर्तत इति सासादनः । सम्यग्-अविपर्यस्ता रष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः, मासादनवासी सम्यग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् । अथवा सह आसातनयाअनन्तानुवन्ध्युदयलझणया वर्तत इति सासातनः, स चासो सम्यग्दृष्टिश्च २, तस्य गुणस्थानं सामातनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् , सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति वा पाठः । तत्र मह सम्यक्त्वलक्षणरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः । यथा हि भुक्तक्षीरानविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले 'क्षीराभरसमास्वादयति तथेषोऽपि मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि न्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्वमन तद्रसमाम्वादयति, ततः स चामौ सम्यग्दृष्टिश्च २, तस्य गुणस्थानम् ।। एतस्वैवं भवति-दहापारमंसारपारावारान्तर्वी जन्तुर्मिथ्यादर्शनमोहनीयादिप्रत्ययमनन्तपुद्गलपरावर्तान् यावदनेकशारीरिकमानसिकदुःखलक्षाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशनो गुरुतरगिरिसरित्प्रवाहबाह्यमानोपलघोलनाकल्पेनाध्यवसायविशेषरूपेणानाभोगनिवर्तितेन यथाप्रवृत्ति करणेनाऽऽयुर्वर्जानि ज्ञानावरणादिकर्माणि सर्वाण्यपि 'पृथपन्योयमयलयेयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति । अत्र चान्तरे कर्कशकर्मपटलापहस्तितवीर्यविशेषाणामसुमतामतिकठोरतरनिविडचिरप्ररूढगहनतरुग्रन्थिवद् दुर्भेदः कर्मपरिणामजनितो जीवस्य धनरागद्वेषपरिणामरूपो ऽभिन्नपूर्वो ग्रन्धिर्भवति । इमं च ग्रन्थि यावद १ श्रीरानरसानास्वादयति-सि.बि. ॥ २ पल्योपमासस्येयमागन्यून० इति प्राचीनकर्मप्रन्धटीकायाम् ४।२६, ५.१८॥ ३०मिनरूपो-मु.॥ ... नाता SSA THOMMENTS RENAR Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्डः भव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तशः समागच्छन्ति । ततो ग्रन्थिभेदं कतुमसमर्थाः पुनरपि व्यावृत्य संक्लेशवशादुत्कृष्टस्थितीनि कर्माणि कुर्वन्ति । कश्चित्पुनर्महात्मा समासन्नपरमनितिसुखः समुलसितप्रभृतदुनिर्वायवीर्यप्रसरो निसि(शि)ताकुण्ठकुठारधारयेवापूर्वकरणरूपया परमविशुद्धया यथोक्तस्वरूपस्य २२४द्वा ग्रन्थेर्मेदं विधाय मिथ्यात्वमोहनीयकर्मस्थितेरन्त हर्तमुदयक्षणादुपरि गत्वा अनिवृत्तिकरणसंज्ञितेनान्त- गुणमुहर्तकालमानं तत्प्रदेशवेद्यदलिकामावरूपमन्तरकरणं करोति । अत्र च यथाप्रवृत्ता-ऽपूर्वा-निवृत्तिकरणाना- स्थानका मयं क्रमो यथा | गाथा __ "जा गंठी ता पढमं गंठि समइन्छो भवे बीयं । अनियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥२॥ 'गंठिं समइच्छओ' ति ग्रन्थि समतिकामतो भिन्दानस्येतियावत् । 'सम्मत्तपुरक्खडे ति प्र. आ. सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन स तथा तस्मिन् । आसन्नसम्यक्त्वे जीवे अनिवृत्तिकरणं भवतीत्यर्थः । एतस्मिथान्तरकरणे कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति : अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरन्तमुहर्तमाना, तस्मादेव चान्तरकरणादुपरितनी द्वितीया, स्थापना चेयम्, तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिरेच, अन्तमुहूर्तेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोति, मिथ्यात्वदलिंकवेदनाऽभावात् । यथा हि वनदवानलः पूर्वदग्धेन्धनमूपरं वा देशमवाप्य विध्या- । ॥४६७।। SA क यावत् प्रन्थिस्तावद् प्रथम प्रन्थि समतिकामतो भवेद् द्वितीयम् । अभित्तिकरणं पुनः पुरस्कृतसम्यक्त्वे जीवे ॥१॥ | Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ||४६८।। यति तथा मिथ्यात्ववेदनवनदवोऽप्यन्तरकरणमवाप्य विध्यायति । तथा च सति तस्योपशमिकसम्यक्त्व'उक्तं च लाभः, 'उसरदेसं दड्ढल्लयं व विज्झाह वणदवो पप्य । इय मिच्छस्स अणुदए उवसमसम्मं लहह जीवो || १ || तस्यां चान्तमौहूर्तिक्यामुपशान्ताद्धार्या परमनिधिलाभकल्पायां जघन्येन समयशेषार्या उत्कृष्टतः पडावलिकाशेपायां कस्यचिन्महाविभीषिकोत्थान कल्पस्तथाविधं किंचिन्निमित्तमाश्रित्यानन्तानुबन्ध्युदयो भवति । तदुदये चामो सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने वर्तते । उपशम श्रेणिप्रतिपतितो वा कश्वित्सासादनत्वं यातीति कार्मग्रन्थिक मतम् । सिद्धान्त श्रेण्याः समाप्तौ प्रनिविदा प्रभचगुणस्थानेऽप्रमत्तगुणस्थाने वा तिष्ठते । कालगतस्तु देवेष्वरितो भवतीति । सासादनोसरकालं चावश्यं मिध्यात्वोदयादयं मिध्यादृष्टिर्भवतीति २ । तथा सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौं सम्यग्मिध्यादृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानम्, इहानन्तरोक्तविधिना लब्धेनोपशमिकसम्यक्त्वे नौषधविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीयं मिथ्यामोहनीयं कर्म शोधयित्वा त्रिधा करोति । तद्यथा-शुद्ध मर्धविशुद्धमविशुद्धं चेति । स्थापना तंत्र त्रयाणां पुञ्जानां मध्ये यदा अर्धविशुद्धपुत्र उदेति तदा तदुदयत्रशाज्जीवस्यार्धविशुद्ध मर्हदभिहितत व श्रद्धानं भवति । तेन तदासौ सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानमन्तर्मुहूर्तकालं स्पृशति । तत ऊर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं मिध्यात्वं वा गच्छतीति ३ । १ उक्तं च-" ऊसरदेसं दडलयं व विद्या वणदवो पप्प इय मिच्हरस अणुदये उपसमसम्मं सहर जीवो ॥" नास्ति, सि. वि. प्रत्येोः पञ्चसम्प्रहेऽपि च दृश्यते ।। २२४ द्वारे गुणस्थान कानि गाथा १३०२ प्र. आ. ३७७ ॥४६८॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनपारोद्धारे अटीके द्वतीयः ree: गुणस्थानकानि गाथा -१४६९॥ तथा विरमति स्म-सावायोगेभ्यो निवर्तने म्मेति विरतः, न विरतोऽविरतः । अथवा विरमणं विरत-सावद्ययोगप्रत्याख्यानम् , नास्य विस्तमस्तीन्यविरतः; स चासो सम्यग्दृष्टिश्चेत्यविरतसम्यग्दृष्टिः । इदमुक्तं भवति-यः पूर्ववणितापशमिकसम्बराष्टिः शुद्धदर्शनमोहनोदयवर्ती वा झायोपशामिकसम्यग्दृष्टिः क्षीण दर्शनसप्तको वा झायिकसम्यग्दृष्टिविरतप्रत्ययं दृरन्तनस्कादिदुःखकलकर्मबन्धं सावद्ययोगविरतिं च परममुनिप्रणीतसिद्धिमाधाध्यारोहणनिःश्रेणिकल्पां जाननपि न विरतिमभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतते, अप्रत्या ख्यानावरणोदयविधिनतत्वात , ते हि अल्पमपि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति, स इहाविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यते ४। तथा सर्वमावद्ययोगम्य देशे-एकवनविषयस्थलमावद्ययोगादौ सर्वव्रतविषयानुमतिवर्जसावधयोगान्ते विरत' -विरतियस्यामौ देशविरतिः । सर्वमावधयोगविरतिस्त्वस्य नास्ति, प्रत्याख्यानावरणकपायोदयात् । सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणा उच्यन्ते इति । देशविरतस्य गुणस्थानं देशविरतगुणस्थानम् । तथा संयच्छति स्म--सर्वसावधयोगेभ्यः सम्यगुपरमति स्मेति संयतः, प्रमाद्यति स्म-मोहनी. यादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदति स्मेति प्रमत्तः, स चासौ संयतश्च प्रमत्तसंयतः, तस्य गुणस्थानं प्रमत्तमंयत्तगुणस्थानं-विशुद्धयविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकतः स्वरूपभेदः । तथाहि-देशविस्तगुणापेक्षया एतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षाऽशुद्धययकर्षश्च । अप्रमत्तसंयतगुणा १०ति-सि.॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प्रवचनसारोद्धारे सटीके गुण कानि द्वितीयः खण्ड: ॥४७० पेक्षया तु विपर्ययः । एवमन्येष्वपि गुणस्थानकेषु पूर्वोत्तरगुणापेक्षया विशुद्धयविशुद्धिप्रकषाप्रकर्षयोजना द्रष्टव्या ६। ___तथा न प्रमत्तोऽप्रमतो-निद्रादिप्रमादरहितः, स चासौ संयतश्चाप्रमत्तसंयतस्तस्य गुणस्थानमप्रमत्त. संयतगुणस्थानम् । स्थान तथा अपूर्वमभिनवमनन्यसदृशमितियावत् , करणं स्थितिघात-रसघात-गुणश्रेणि गुणसंक्रम-स्थितिबन्धानां पश्चानां पदार्थानां निर्वर्तनं यस्यामावपूर्वकरणः । तथाहि-बृहत्प्रमाणाया ज्ञानावरणादिकर्म गाथा स्थितेरपवर्तनाकरणेन खण्डनम् - अल्पीकर स्थितिशातः सामाणि हर्मपरमाणुगतस्निग्धलक्षणस्य १३० प्रचुरीभृतस्य सतोऽपवर्तनाकरणेन खण्डनं रसघातः । एतौ च द्वावपि पूर्वगुणस्थानकेषु विशुद्धेरल्पत्वादल्पावेव कृतवान् , अत्र पुनर्विशुद्धेः प्रकृष्टतरत्वाद् बृहन्प्रमाणतयाऽपूर्वाविमौ करोति । तथा उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तमु हतं यावदुदयक्षणादुपरि क्षिप्रतरक्षपणाय प्रतिक्षणमसङ्ख्येयगुणवृद्धथा यद्विरचनं सा गुणश्रेणिः । स्थापना-8888888° एतां च पूर्वगुणस्थानेष्वविशुद्धतरवाद कालतो द्राधीयमी दलिकविरचनामाश्रित्याप्रथीयसी च दलिकस्याल्पस्यापवर्तनाद्विरचितवान् । इह तु तामेव विशुद्धत्वादपूर्वा कालतो इस्वतरां दलिकविरचनामाश्रित्य पुनः पृथुतरां बहुतरदलिकस्यापवर्तनाद्विरचयतीति । तथा 'बध्यमानशुभाशुभप्रकृतिषु अवध्यमानशुभाशुभप्रकृतिदलिकस्य अत्र पासप्रवे (द्वार १ । गा. १५) मलयवृत्तौ (प.२२A) तु-"वध्यमानशुमप्रकृतिष्वबध्यमानाशुभप्रकृतिः || दलिदस्य प्रहिसमयसल्येय गुणग्या विशुश्विशानियनं गुणमस्कमः" इति पाठः ॥ प्र.३ aasaniya ShaEME ISISABITA MOHAIRIDORMONEY Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रतिक्षणमसङ्ख्येयगुणवृद्धया विशुद्धिवशान्नयनं गुणसंक्रमः । तमध्यसाविह अपूर्व करोति । तथा स्थिति प्रवचन- च कर्मणामशुद्धत्वात् प्राग्द्राधीयसी बद्धवान् , इह तु तामपूर्वा पल्योपमासङ्ख्येयभागेन हीनां हीनतरां २२४ सारोद्धारे हीनतमां च विशुद्धिवंशादध्नाति । गुणसटीके अयं चापूर्वकरणो द्विधा-झपक उपशमकश्च । क्षपणोपशमनार्हत्वाच्चैवमुच्यते, राज्याईकुमार स्थान द्वितीयः । राजवत् । न पुनरसो क्षपयत्युपशमयति वा किमपि सर्वात्मना कर्म, तस्य गुणस्थानमपूर्वकरणगुणस्थानम् । कानि अस्मिश्च गुणस्थानके कालत्रत्रयवर्तिनो नानाजीवानाश्रित्य प्रतिसमयं यथोत्तरमधिकवृद्धया असत्येय गाथा 11४७१॥ लोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति । तथाहि-येऽस्यान्तमुहर्तप्रमाणस्य गुणस्थानस्य 'प्रथमसमयं प्रतिपन्नाः प्रतिपद्यन्ते प्रतिपत्स्यन्ते च तान् सर्वानपेक्ष्य जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि लम्यन्ते । क्वचित्कदाचित्केषाश्चित्प्रथमसमयवर्तिनां परस्पर प्र. आ मध्यवसायस्थाने नानात्वस्यापि भावात् । तस्य च नानात्वस्यैतावत एव केवलज्ञानेनोपलब्धत्वात् । ३७८ अत एव चेदमपि न वाच्यं कालत्रयवर्तिनामेतद्गुणस्थानकप्रथमसमयप्रतिपत्तणामानन्त्यात्परस्परमध्यवसायस्थानानां नानात्वाच्चानन्तान्यध्यवसायस्थानानि प्राप्नुवन्ति, बहूनां प्राय एकाध्यवसायस्थानवर्तित्वात् । ततो द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराण्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, तृतीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि चतुर्थसमये तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं यावच्चरमसमयः । एतानि च स्थाप्यमानानि विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति । स्थापना 8000° । ||४७१ १ प्रथम-सि-वि.॥ 0000 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: गाथा १३० ॥४७२ ननु द्वितीयादिसमयेष्वध्यवसायस्थानानां वृद्धौ किं कारणम् १, उच्यते, स्वभावविशेषः । एतद्गुणस्थानकप्रतिपत्तारो हि प्रतिसमयं विशुद्धिप्रकर्षमासादयन्तः' खलु स्वभावत एव बहवो विभिन्नेषु विभि २२६ गुणन्नेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तन्त इति । अत्र च प्रथमसमयजघन्याध्यवसायस्थानात् प्रथमसमयोत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धम् , प्रथमसमयोत्कृष्टाञ्चाध्यवसायस्थानाद् द्वितीयसमयजघन्याध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धम् तस्मात्तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धम् , इत्येवं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टाध्यवसायस्थानाच्च. रमसमयजघन्याध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धम् , तस्मामि सदुरकरमान्त गुणविशुद्धमिति । एकसमयगतानि चामृन्यध्यवसायस्थानानि परस्परं षट्स्थाननिपतितानि । युगपदेतद्गुणस्थानकप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यस्ति । यथोक्तमनन्तरमितिकृत्वा निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते ८ । ___ तथा युगपद्गुणस्थानकं प्रतिपन्नानां बहूनामपि जीवानामन्योऽन्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिः ३७९ निवृत्तिः सा नास्ति अस्येत्यनिवृत्तिः । समकालमेतद्गुणस्थानकमारूढस्यापरस्य यस्मिन् समये यदध्यवसायस्थानमन्योऽपि विवक्षितः पुरुषस्तस्मिन् समये तदेवाध्यवसायम्थानं समनुवर्तते इत्यर्थः । संपरैतिपर्यटति संसारमनेनेति संपरायः-कषायोदयः, बादरः-सूक्ष्मकिट्टीकृतसंपरायापेक्षया स्थूरः संपरायो यस्य स बादरसंपरायः, अनिवृत्तिश्चासौ बादरसंपरायश्च २ तस्य गुणस्थानमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानम् । तस्या चानिवृत्तिवादरगुणस्थानकाद्धायामान्तमौहर्तिक्या प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धं यथोत्तर- Invi १०न्ति-सि.वि.॥२ तदध्य० सि.वि.॥ S Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥४७३॥ मध्यस्थानं भवति । यावन्तथान्तमुतें समयास्तावन्त्येवाध्यवसायस्थानानि तत्प्रविष्टानां भवन्ति attafa | एकसमयप्रविष्टानां सर्वेषामप्येकाध्यवसाय' स्थानत्वात् । स चानिवृत्तिवादरो द्वेधा-क्षपक उपशमकश्च । क्षपयति उपशमयति वा कषायाष्टकादिकमितिकृत्वा ९ । २२४द्वा गुण तथा सूक्ष्मः - किड्डीकृतः संपरायो - लोभकषायोदयरूपो यस्य स सूक्ष्मपरायः । स द्विधा - क्षपक स्थानकानि उपशमकश्च । क्षपयति उपशमयति या अनिवृत्तिबादरेण किड्डीकृतं लोभमेकमितिकृत्वा, तस्य गुणस्थानं सूक्ष्मपरायगुणस्थानम् १० । गाथा तथा छादयति ज्ञानादिकं गुणमात्मन इति छद्म-ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मोदयः, छद्मनि तिष्ठतीति छथः । स च सरागोऽपि भवतीति तद्वयवच्छेदार्थं वीतरागग्रहणम्, वीतो- विगतो रागो-मायालोभकपायोदयरूपः उपलक्षणत्वादस्य द्वेषोऽपि - क्रोधमानोदयरूपो यस्य स वीतरागः, स चासौ छद्मस्थश्व aarच्छद्मस्थः । स च क्षीणकषायोऽपि भवति, तस्यापि यथोक्तरागापगमात् ततस्तद्वयवच्छेदार्थमुपशान्तकषायग्रहणम् । उपशान्ताः - उपशमिता विद्यमाना एवं सन्तः संक्रमणोद्वर्तनापवर्तनादिकरणेविपाकोदय प्रदेशोदयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषाया येन स उपशान्तकषायः, स चासौ वीतरागच्छप्रस्थश्च २ तस्य गुणस्थानमुपशान्तिकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् ११ 1 * तथा क्षीणा - अभावमापन्नाः कषाया यस्य स क्षीणकषायः 1 तत्रान्येष्वपि गुणस्थानकेषु क्षपकश्रेणिद्वारोक्तयुक्त्या क्वापि कियतामपि कषायाणां क्षीणत्वसंभवात् क्षीणकषायव्यपदेशः संभवति, ततस्त१०स्थानित्वात् सि. । स्थानात् वि. ।। २ तुला- प्राचीन कर्म ग्रन्थवृत्तिः ४।२३, प. ९९८ ॥ १३०२ प्र. आ. ३७९ १४७३॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HomeIIRAMRIE प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: ॥४७४ व्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् । क्षीपाकषायवीतरागत्वं च केवलिनामप्यस्तीति सचबच्छेदार्थ छमस्थग्रहणम् , यद्वा छअस्थः सरागोऽपि भवतीति तदपनोदाथ वीतरागग्रहणम् , धीतरागचासौ छद्मस्थश्च २२४ द्वारे वीतरागच्छमस्यः । म चोपशान्तकषायोऽप्यस्तीति तद्वयवच्छेदार्थ क्षीणकषायग्रहणम् । क्षीणकपायचासौ गुण स्थानकानि वीतरागच्छमस्थव २ तस्य गुणास्थानं क्षीणकथायीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् १२। गाथा तथा योजनं योगो व्यापारः, उक्तं च-"कायबाङ्मनाकर्म योगः" तत्त्वार्थसू. ६६१] सह योगेन वर्तन्ते ये ते सयोगा-मनोवाकायाः, ते यस्य विद्यन्ते स सयोगी । तत्र भगवतः काययोगश्चमणनिमेपोन्मेपादिः, बाग्योगो देशमादिः, मनोयोगो मन पर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृष्टस्य मनसैन देशना । ते हि भगवत्ायुक्तान मनोदव्याणि मनापायज्ञानेनावविज्ञानेन च पश्यन्ति । |३८० दृष्ट्वा च ते हि विवक्षितवस्त्वालोचनाऽऽकारा न्यथानुपपच्या अलोकस्वरूपादिकमपि बायमर्थ पृष्टमवगच्छन्ति । केवलं ज्ञानं दर्शनं च विद्यते यस्य स केवली, सयोगी चासौ केवली च.सयोगिकेवली, तस्य गुणस्थानं सयोगिफेवलिगुणस्थानम् १३ । तथा योग:-पूर्वोक्तो विद्यते यस्यासौं योगी न योगी अयोगी, स चासो केवली च अयोगिकेवली, तस्य गुणस्थानमयोगिकेलिगुणस्थानम् । अयोगित्वं पुनरेवम्-इह विविधोऽपि योगः प्रत्येक द्विधा--सूक्ष्मो बादरश्च तत्र केवलोत्पत्तेरनन्तरं जघन्यतोऽन्तमुहर्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्व कोटी विहृत्यान्त-॥१७४॥ १ वाग्यागो-मु.॥२ कारार्थानुपपत्त्या-मु.॥ ३ सयोगी-सि.दि.।। - - Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्तावशेषायुष्कः सयोगिकेवली शैलेशी प्रतिपित्सुः पूर्व बादरकाययोगेन बादरवाग्योगं निरुणद्धि, ततो चादरमनोयोगम् , ततः मूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगम् । सति तस्मिन् सूक्ष्मयोगस्य निरोद्धमशक्यत्वात् । २२४द्वारे वचनः । ततस्तेनैव 'सूक्ष्मवाग्योगम् . ततः सूक्ष्ममनोयोगम् , ततः सूक्ष्मक्रियमनिवृत्ति शुक्लध्यानं ध्यायन सूक्ष्म- गुणनारोद्धारे काययोग स्वात्मनैव निरुणद्धि । अन्य स्यावष्टम्भनीययोगान्तरस्य तदाऽसवात् । तन्निरोधानन्तरं समुच्छि-शानकानि नटीके । भक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायन इस्वपश्चाक्षरोच्चारणमात्रकालं शैलेशीकरणं प्रविष्टो भवति । गाथा द्वतीयः शीलस्य-योगलेश्याकलङ्कविप्रमुक्तयथाख्यातचारित्रलक्षणस्य य ईशः स शीलेशस्तस्येयं शैलेशी। १३०२ त्रिभागोनस्वदेहावगाहनायामुदरादिरन्ध्रपूरणवशात् संकोचितम्वप्रदेशस्य शैलेशस्यात्मनोऽत्यन्तस्थिरावस्थितिरित्यर्थः, तस्यां करणं-पूर्वरचितशैलेशीसमयसमानगुणश्रेणिकस्य वेदनीयनामगोत्राख्यस्याघातिकर्मत्रितयस्यासङ्ख्येयगुणया श्रेण्या आयुःशेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणम् तत्रासौ प्रविष्टोऽयोगिकेवली भवति । अयं च भवस्थः ततः शैलेशीकरणचरमसमयानन्तरं कोशवन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषादेरण्डफलमिव भगवानपि कर्मसम्बन्धविमोकलक्षणसहकारिसमुत्यस्वभावविशेषार्ध्व गच्छति । स चोर्ध्व गच्छन् ऋजुश्रेण्यां यावत्स्वाकाशप्रदेशेषु इहावगाढस्ताक्त एव प्रदेशाभूमप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाशान्यत्समयान्तरमस्पृशन् लोकान्ते गच्छति न परतोऽपि गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावात् । तत्र च गतः सन् शाश्वतं कालमवतिष्ठते १४ ॥१३०२॥२२४॥ ॥४७५॥ १प्राचीनकर्मपन्थवृत्तिः (२२२ प.६६) द्रष्टव्या । प्राचीनकर्मप्रन्धवृत्तिः (४१२६, प.२०१३) तुलनीया ।। । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ।४७६।। "धायच्या ३८० इदानीं 'मम्गणच दसगो ति पञ्चविंशत्युसरद्विशततमं द्वारमाह | २२५ द्वारे गइ १ इंदिए य २ काये ३ जोए ४ वेए ५ कसाय ६ 'नाणे य ७।। मार्गणाः संजम ८ दंसण ९ लेसा १. भव ११ सम्मे १२ सन्नि १३ आहारे १४ ॥३॥ गाथा [ आवश्यकनियुक्ति गा. १४, जीवसमास गा. ६ ] गतिः, इन्द्रियाणि, कायाः, योगाः, वेदाः, कषायाः, ज्ञानानि, संयमः, दर्शनानि. लेश्याः, भव्याः, सम्यक्त्वम् , संझी, आहारक इति मूलभेदापेक्षया चतुर्दश मार्गणास्थानानि । मार्गणं-जीवादीनां पदार्थानामन्वेषणं मार्गणा, तस्याः स्थानानि-आश्रया मार्गणास्थानानि । उत्तरमेदापेक्षया तु द्वाषष्टिः । तथाहि-सुर• प्र.आ. नरतिर्यग्नारकगतिभेदा गतिश्चतुर्धा । स्पर्शन-रसन-प्राण चन:-श्रोत्रेन्द्रियभेदात् पश्च इन्द्रियाणि । पृथिव्य. प्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायभेदान काया पोढा । मनोवचनकायाख्या योगास्त्रयः स्त्रीनपुसकस्वरूया वेदा. स्त्रयः । क्रोधमानमायालोभलक्षणाः कषायाश्चत्वारः । मतिश्रुतावधिमनःपर्याय केवल मेदात् पञ्च ज्ञानानि । ज्ञानग्रहणेन चाज्ञानमपि तत्प्रतिपक्षभूतमुपलक्ष्यते, तच्च विधा-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानभेदात् । एवमष्टौ । सामायिक-च्छेदोपस्थापनीय-परिहारविशुद्धिक क्षमसंपराय-यथाख्यातभेदात संयमः पश्चधा। तत्प्रतिपक्षत्वाच देशसंयमोऽसंयमश्च गृह्यते, एवं सप्त । चक्षुरचक्षुरवाधिकेवलभेदाचत्वारि दर्शनानि । कृष्णा, नीला, कापोती, तैजसी, पद्म, शुक्ला चेति षट् लेश्याः । भव्यस्तत्प्रतिपक्षत्वेन चाभव्यइति द्वयम् , क्षायोपशमिकभेदाद सम्यक्त्वं त्रिधा, सम्यक्त्वग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभृतानि मिश्रसासादनमिथ्यात्वान्यपि गृह्यन्ते, एवं षट् , संज्ञी तत्प्रतिपक्षश्वासंझीति द्वयम् , आहारकस्तत्प्रतिपक्षोऽनाहारक इति द्वयम् । सर्वमीलने च द्वापष्टिरिति ।३॥२२५॥ ॥४७॥ नाणेसु-मुः। ADIOm R Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ||४७७॥ इदानीम् 'उवओग पारस' त्ति षड्विंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह मह १ सुप २ ओही ३ मण ४ केवलाणि ५ मइ ६ सुयन्त्राण ७ किभंगा ८ | अचक्खु ९ चक्खु १० अवहां ११ केवलचउदसणु १२ वओगा ।। १३०४ ॥ उपयुज्यते - वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीव एमिरित्युपयोगा :- बोधरूपा जीवस्य स्वतवभूता व्यापाराः ते च द्विधा साकारा अनाकाराश्च । तत्र आकारः प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामरूपो विशेषः, 'आगारो व विसेसो' इति वचनात् सह आकारेण वर्तन्ते इति साकाराः । सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्राहिण इत्यर्थः । तद्विपरीतास्त्वनाकाराः, सामान्यांशग्राहिण इत्यर्थः । तत्र मतिश्रुतावधि - मनःपर्याय केवला ख्यानि पञ्च ज्ञानानि । मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपाणि त्रीणि चाज्ञानानि इत्यष्टौ साकाराः अचक्षुश्चक्षुरवधिकेचलाख्यानि चत्वारि दर्शनान्यनाकाराः । तदेवं मिलिता द्वादश उपयोगाः । तत्र ज्ञानानि दर्शनानि च प्रागेवोक्तानि । तथा मतिश्रुतावधिज्ञानान्येवः नञः कुत्सार्थत्वान्मिथ्यात्व कलुषिततया यदा कुत्सितानि भवन्ति तदा यथाक्रमं मत्यज्ञान श्रुताज्ञानविभङ्गव्यपदेशभानि भवन्ति । 'विभंग' ति विपरीतो मङ्गः - परिच्छित्तिप्रकारो यस्मिन् तद्विभङ्गमिति ॥ ४ ॥ २२६ ॥ इदानीं 'योगा पत्नरस' त्ति सप्तविंशत्युत्तरं द्विशततमं द्वारमाह १ सच्चं मोसं २ मीसं ३ असच्चमो ४ मणो तह वई प ४ । परल १ विउब्वा २ हारा ३ मीस ३ कम्मयग १ मिय जोगा || १३०५ ॥ [प्राचीन कर्मग्रन्थ ४ । गा. ३४ ] १ः पर्व - 'उपयोगाः' इति सि. प्रतौ । तदेवं मिलिता द्वादश उपयोगाः जे. प्रतौ अधिकम् ॥ २ मणं वा ॥ २२३द्वारे उपयोगाः गाथा १३०४ २२७द्वारे योगाः गाथा १३०५ प्र. आ. ३८१ ॥४७७॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७द्वारे योगा: गाथा सटीके ॥४७८॥ ३८१ 'यद्यपि मनोवाकायावष्टम्मसमुत्यो जीवस्य परिस्पन्द एव योग उच्यते तथाऽपीह योगशब्देनप्रवचन। कारणे कार्योपचारात्तत्सहकारिभृतं मनःप्रभृत्येव विवक्षितमिति तैः सह योगस्य सामानाधिकरण्यम् । सारोद्धारे तत्र मनश्चतुर्धा, तद्यथा-सत्यं मृपा मिश्रममत्यामृषा च । तत्र सन्तो-मुनयः पदार्था वा जीवादयस्तेषु यथासङ्ख्यं मुक्तिप्रापकन्वेन यथावस्थितवस्तुस्वरूपचिन्तनेन च साधु सन्यम् , यथा-अस्ति जीवः सदसद्र्पो द्वितीयः देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुविकल्पनचिन्तनपरं सत्यम् विपरीतमसत्यं, यथा-नास्ति जीव खण्ड: एकान्तसद्यो वेत्यादि अयथावस्थितवस्तुप्रतिमामनपरम् । सत्यं च मृषा चेति मिश्रम् , यथा धव-खदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुवशोकप्रक्षेप्वशोकवनमेने मिति विकल्पपरम् ! अन्न हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यता, अन्येषामपि धवादीनां सद्भाबादसत्यता । व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते । परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, यथापिकल्पितार्थायोगात् । तथा यन्न सत्यं नापि मृषा नापि सत्यमृषा तदसन्यामृषा । इह विप्रतिपत्तौ सत्यां यद्वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते यथा अस्ति जीवः सदसद्प इति, तकिल सत्यं परिभाषितम् आराधकत्वात् । यत्पुनर्विप्रतिपत्तौ सत्या वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमनोत्तीर्ण विकल्प्यते यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेति तदसत्यं विराधकत्वात् । यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाशामन्तरेणस्वरूपमात्रपर्यालोचनपरं यथा हे देवदत्त ! घटमानय, गां देहि मह्यमित्यादिचिन्तनं तदसत्यामृषा । इदं हि स्वरूपमात्र पर्यालोचनपरत्वान्न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषेति । इदमपि व्यवहारनयमतेन स्तुमा-पनसमहमलयः वृत्तिः ६.१ | गा.प.५ATः ॥२ यथावस्थित्यस्तुचिन्तनपर-सि. वि.॥ शाजन ४७८॥ iatv MOST Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे - सटीके द्वितीयः खण्ड: २२७ट्ठा योगाः गाथा प्र. आ. ३८२ ||४७९॥ द्रष्टव्यम् , निश्चयनयमतेन तु विप्रतारणादिबुद्धिपूर्वकममन्येऽन्तर्भवनि अन्यथा तु सत्ये इति । यथा मनः सत्यादिभेदाच्चतुर्धा तथा वागपि सत्यादिभेदाच्चतुर्धा। तथौदारिकवैक्रियाहारकाणि शरीराणि, तत्र उदारं-प्रधानम् , प्राधान्यं च तीर्थ कर गणधरशरीरापेक्षया द्रष्टव्यम् । ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनरूपत्वात् । अथवा उदा- 'सातिरेकयोजनसहस्रमानवाच्छेषशरीरेभ्यो बृहप्रमाणम् , बृहत्ता चास्य वैक्रियमाश्रित्य भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या । अन्यथोत्तरक्रिय योजनलक्षमानमपि लभ्यते इति । उदारमेवौदारिकम् । .. तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां मवं वैक्रियम् । तथाहि-तदेकं भूत्वाऽनेकं भवति, अनेक च भूत्वा एकम् , तथा अनुभूत्वा महद्भवति, महद् भूत्वा अणु इत्यादि। तथा चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधकार्योत्पत्तो विशिष्टलब्धिवशादाहियतेनिर्वयंत इत्याहारकम् , तथा मिश्रशब्दः प्रत्येक संबध्यते । औदारिकमिश्रं वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्रं च । तत्रौदारिकमिश्रं कामणेन, तच्चापर्याप्तावस्थार्या केवलिसमुद्घातावस्थायां वा । उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरागतो जीव आद्यसमये कार्मणेनैव केवलेनाहारयति । ततः परमौदारिकस्याप्यारन्धत्वादीदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावच्छरीरस्यनिष्पत्तिः । केवलिसमुद्घातावस्थायां तु द्वितीय-षष्ठ-सप्तमसमयेषु कामणेन मिश्रमौदारिक प्रतीतमेव । १ सातिरेकयोजनशतसहस्र० मु.1 सि.वि. प्रत्योः पश्चसङमहेऽपि-[द्वा. मा. ४. प. ६-३तः ] सातिरेकयोजन- सहसा इति पाठः ।। ४७९॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोद्वारे मटीके द्वितीयः खण्ड: ॥४८॥ तथा वैक्रियमिश्रं कार्मणेनौदारिकेण वा तत्र कार्मणेन मिश्रं देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायामाद्य २२७दा समयानन्तरं द्रष्टव्यम् । बादरपर्याप्तकवायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां च वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियारम्भकाले । योगाः वैक्रियपरित्यागकाले वा औदारिकेण मिश्रम् । तथा सिद्धप्रयोजनस्य चतुर्दशपूर्वविद आहारकं त्यजत औदा गाथा रिकं गृखत आहारकं वा प्रारममाणस्याहारकमिश्रमौदारिकेण ज्ञेयम् । तथा 'कम्मयगं' ति कर्मजकं कर्मणो जातं कर्मजं कर्मात्मकमित्यर्थः, तदेव कर्मजकम् । किमुक्तं १३०५ भवति ?-कर्मपरमाणव एवात्मप्रदेशैः सह क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणताः कर्मजं शरीरमिति । अत एव तदन्यत्र कार्मणमित्युक्तम्. कर्मणो विकारः कामणमिति । तथा चोक्तम् प्र. आ. A "कम्मविवागो कम्मण मट्ठविधिचित्तकम्मनिष्फन्नं । सव्वेसि सरीराणं कारणभूयं मुणेयच्वं ॥१॥" ३८२ अत्र 'सोनि' इति खलामौदारिकादीनां शरीर: कारणभूतं-बीजभृतं कार्मणं शरीरमिति । न खल्यामूलसमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहबीजभृते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः । इदं च कर्मजं शरीरं जन्तोगत्यन्तरसंक्रान्तो साधकतम 'करणम् । तथाहि-कमजेनेव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति । ननु यदि कार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं संक्रामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् वा कस्मान दृश्यते ?, उच्यते, कर्म पुद्गलानामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् । तथा च परतोर्थिकरप्युक्तम्“अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते । निष्क्रामन्या प्रविशन्वा, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥" ॥४८॥ १ तुला-पञ्चसमह मलय-वृत्तिः द्वा.१। गा.४ ५. ६ यतः ॥ २ कर्मज-मु.॥ ३ कारण-मु.॥ कर्मविपाकः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम् । सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं ज्ञातव्यम् ॥१॥ *34-SIRRE S IDE Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः ||४८१ ॥ तदेवं चतुर्धा मनोयोगश्चतुर्धा वाग्योगः सप्तधा च काययोगः इति पञ्चदश योगाः । ननु तैजसमपि शरीरं विद्यते यद् भुक्ताहारपरिणमनहेतुः यद्वशास्त्र विशिष्टतपोविशेषसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः तत्किमिह नोक्तमिति १. उच्यते सदा कार्मणेन सहाव्य भिचारितया तस्य तद्ग्रहणेनैव गृहीतत्वादिति ॥१३०५ ||२२७ १ sarai 'परलोय गुणठाणएस' ति अष्टाविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाहमिले ससाणे ता अविरगभावमि अहिगए जंति जिया परलोयं संसेक्कार सगुणे अहवा 1 मोतु ॥६॥ मिथ्यात्वे सासादनत्वे वा अथवा अविरतमात्रे - अविरत सम्यग्दृष्टित्वेऽधिगते- प्राप्ते सति मिध्यात्वादिना गृहीतेनेत्यर्थः । परलोकं भवान्तरं जीवा यजन्ति । शेषांस्तु मिश्र देशविरत्यादीनेकादश गुणस्थानकान् मुक्त्वा इह भव एव सर्वथा परित्यज्य जीवाः परलोकं यान्ति । इयमत्र भावना - मिथ्यात्वेन गृहीतेन भवान्तरगमनं प्रतीतमेव । तस्य च सर्वत्रापि संभवात् । एवं सासादनभावेऽपि । ● 'अणुबंधोदय माउगबन्धं कालं च सासणी कुणः ।' [ ] इति वचनात् । तथा गृहीतसम्यक्त्वस्यापि देवादिषुत्पादादविग्तसम्यग्दृष्टित्वेऽपि परलोगमनम् । तथा गृहीतमिश्र - भावो न भवान्तरं गच्छति । 'न सम्ममिच्छो कुण काल' [ ] इति वचनात् । O सास्वादनोऽनन्तानुबन्धिबन्धोदयमायुर्बन्ध काळं च करोति । ० न सम्बमिध्यादृष्टिः कालं करोति । २२८द्वा परभव गुणाः गाथा १३०६ प्र. आ. ३८२ ॥४८१॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके देशविरत्यादिगुणस्थानकानां तु विरतिसद्भाव एव भावात् । विरतिश्च यावज्जीवितावधिकत्वान्न प्रवचन। तेषु परलोकसंभव इति ॥६॥२२८।। २२९ द्वारा सारोद्धारे। गुणस्थान इदानीं 'गुणठाणयकालमाणं' त्येकोनत्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह काल: मिच्छत्तमभव्वाणं अणायमणतयं च विन्नेयं । गाथा द्वितीयः भव्वाणं तु अणाई सपज्जवसियं 'ध सम्मत्ते ॥७॥ १३०७. खण्ड: 'छावलियं सासाणं समहियतेप्सीससायर चउत्थं । प्र. आ. ॥४८२॥ देसूणपुल्यकोडी पंचमगं सरसं च पुढो ॥८॥ लहुपंचक्रवर 'चरिमं तइयं छठाइ पारसं जाव । इह अट्ठ गुणहाणा अंतमुटुत्ता पमाणेणं ॥६ इह च मिथ्यात्वकालचिन्तायां चतुर्भङ्गी, तद्यथा-अनाद्यनन्तः १, अनादिसान्तः २, साधनन्तः ३, सादिसान्तश्च ४ । तत्र मिथ्यात्व-विपरीतरुचिरूपमभव्यानामनाद्यनन्तं च विज्ञेयम् । अनादिकालात्तेषु तत्सनावात् , आगामिकालेऽपि च तदभावासंभवादिति भावः । भव्यानां पुनर्मिथ्यात्वमनादि सपर्यवसितम् । तु-सि.वि. ॥ २ इतः पूर्व मुद्रिते-[ मीसा बोगस जोगे न मरंतिकारसेसु ममति । तेसुधि तिसु गहिएमु परजोभगमो न घढेसुमा त्यधिका गाथा दृश्यते, ता. प्रतौ नास्ति, मत्र व मनुपयोगित्वान अम्माभिमू ने न स्थाप्यते ॥ ॥४८२ SN देणा -सि.बि.॥४ परम-सि.पि. | KARNERARAMITAMACHARYANA SAGAR1583SAMIGRAP982803808880 asaram Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटिके द्वितीयः खण्ड: ૫૪૮) चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् सादिमपर्यवसितं च विज्ञेयम्, सपर्यवसितत्वं च सम्यक्त्वे-सम्यक्त्वा सत्याम् । इदमुक्तं भवति योऽनादिमिध्यादृष्टिः सन् भव्यजीवः सम्यक्त्वं लप्स्यते तस्य मिध्यात्वमनादिसान्तम् | 'अनादिकालात्तेषु तस्य सद्भावात् श्रागामिकाले तु मन्यत्वान्यथानुपपत्तेरवश्यं सम्यक्त्वावाप्तौ पर्यवसानाच्च । यस्त्वनादिमिध्यादृष्टिः सम्यक्त्वं लब्ध्वा केनापि कारणेन पुनर्मिथ्यात्वं याति तस्य तत्सादि । सम्यक्त्वलाभादनन्तरं तत्प्राप्तेः सादित्वात् । मिध्यात्वे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टतस्त्वदाशातनादिपापत्रहुलतयाऽपार्धषुगलपरावर्ते यावत् स्थित्वा यदा पुनरपि सम्यक्त्वं लभते तदा तत्सान्तम् | सायनंतमितितृतीयभङ्गस्तु शून्य एव । प्रतिपतितसम्यग्दृष्टीनामेव हि मिध्यात्वं सादि । तेषां चावश्यं सम्यक्त्वभावतो मिथ्यात्वस्यानन्तत्वासंभवादिति । तथा सासादनगुणस्थानकम् उत्कर्षतः षढावलिकाप्रमाणम् । तत ऊर्ध्वमवश्यं मिथ्यात्वोपगमात् । आवलिका चासङ्ख्यातसमयसमुदायरूपा । चतुर्थम् अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि साधिकानि । तथाहि - कविदितः स्थानादुत्कृष्टस्थितिष्वनुत्तरविमानेषूत्यनः, तत्र चाविरतसम्यग्दृष्टित्वेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितः, darवात्राप्यायातो यावदद्यापि विरतिं न लभते तावत्तद्भावेनैव स्थित इत्यतो मनुष्य भवसंबद्धतिपयवर्षाधिकत्रिशत्सागरोपमसंभवः । १ अनादिकालावर्त्तेषु सि. वि. ॥ २२१३ गुणस्था काल: माथा १३०७ प्र. अ. ३८३ 1184311 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटीके द्वितीय: 11४८४॥ पश्चम-देशविरतिगुणस्थानकम् , त्रयोदशं सयोगिगुणस्थानकम् , एते द्वे अपि पृथक् प्रत्येक किश्चि ||२२९ द्वारे दनपूर्वकोटिप्रमाणे । गर्भस्थो हि किल सातिरेकानव मासान् गमयति, जातोऽपि चाष्टौ वर्षाणि यावद्विरत्य गुणस्थाननहीं भवति । तत अचं देशविरतिं 'प्रतिपद्य, सर्वविरतिप्रतिपच्या केवलज्ञानं बोत्पाद्य यो देशविरति-सयोगि काल: केवलिनी प्रत्येकं पूर्वकोटिं जीवतस्तयोः किश्चिदनवर्षनवकलक्षणेन देशेन न्यूना पूर्वकोटिरिति । गाथा तथा चरमम्-अयोगिकेवलिगुणस्थानं लघुपञ्चाक्षरम, किमुक्तं भवति ?-नातिदूतं नातिविलम्बितं १३०७.९ च किंतु मध्यमेन प्रकारेण यावता कालेन जाणनम इत्येवंरूपाणि पश्चाक्षराण्युच्चार्यन्ते तावत्कालमानमिति । तत ऊर्च मुक्त्यवाप्तः । तृतीयं-सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानम् , तथा षष्ठादि द्वादशं यावत्प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणानि-३८३ वृत्तियादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहक्षीणमोहरूपाणीत्यर्थः इत्येतान्यष्टौ गुणस्थानानि प्रत्येकमन्तमुहूर्तप्रमाणानि । परतो गुणस्थानकान्तरगमनात कालकरणावति । एतच्चोत्कृष्टतः कालप्रमाणमुक्तम् , जघन्यतस्तु सासादनप्रमत्ताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहानामेकः समयः । तल मरणभावनान्यत्रोपगमात् । मिथ्यादृष्टिमिश्राविरतदेशविरतक्षीणमोहसयोगिकेवलिना चान्तमुहूर्तम् । अयोगिकेवलिनस्तु 'जघन्योत्कृष्टतः पूर्वोक्तमेवेति ॥७८॥९॥२२॥ १ प्रतिपय मु. । सि.वि. जीवसमासेऽपि-"प्रतिपथ" इति पाठः गा. २२३ प. २२१] ।। २ तथा-सि.वि. नास्ति ।। ॥४८४॥ जघन्योत्कृष्टः- सि.॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _AS=Step प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥४८५ ।। इदानीं 'निरय- तिरि--नर- सुराणं उक्कोस विउच्चणाकालो' ति त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाहअंतमुतं नरपसु हृति चत्तारि तिरियमणुए । देवे अमासो shre faraणाकालो ॥१०॥ अन्तर्मुहूर्त नरकेषूत्कर्षतो विकुर्वणावस्थान कालः । तिर्यक्षु मनुष्येषु च चत्वार्यन्तमुहूर्तानि | देवेषु भवनपत्यादिषु अर्धमासः' - पञ्चदशदिनान्युत्कष्टतो विकुर्वणाकाल इति ॥१०॥ २३० ॥ इदानीं 'सत्त समुग्धाय' त्येकत्रिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह वेण १ कसाय २ मरणे ३ वेडब्बिय ४ तेयए घ ५ आहारे ६ | deferendure सत्त इमे हुँति मणुयाणं ॥११॥ の [तुला- जीवसमासः गा. १६२] इमे पंच 1 एगिंदीणं केवलिआहारगवज्जिया पंचावि अवेउव्वा विगलासनीण चत्तारि ॥१२॥ केवलियस मुग्धाओ पदमे समयंमि विरयए' 'डं । बीए पुणो कवाडं मंधाणं कुणइ तइयंमि ॥१३॥ लोयं भरइ उत्थे पंचमए अंतराई संहरह | छडे पुण मंधाणं हरह कवापि सत्तमए ॥१४॥ १०सा सि.वि. ।। २ संणीण- जे. । सन्नीण-ता. | मणुयाणं-सि ॥ ३०३ वि. ॥ २३०द्वार विकुर्वणा कालः गाथा १३१० २३१द्वार समुद् घाताः गाथा १३११-६ प्र. आ. ३८४ ||४८५|| Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके २३१द्वार समुद् घाताः गाथा १३११.६ द्वितीयः ।।४८६॥ ३८४ अहमए दंडपि हु उरलंगो 'पढमचरमसमएसु । सत्तमछपिहज्जेसु होइ ओरालमिस्सेसो ॥१५॥ कम्मणसरीरजोई घउत्पए पंचमे तहज्जे य । जे होइ अणाहारो सो तमि तिगेऽवि समयाणं ॥१६॥ समित्येकीमावे उत् प्राबल्येन इननं-वेदनीयादिकर्यप्रदेशानां निर्जरणं धातः, एकीभावेन प्राबल्येन घातः समुद्घातः । केन सहकीभावगमनमिति चेद् , उच्यते-अर्थाद्वेदनादिभिः । तथाहि-पदाऽऽरमा वेदनादिसमुद्घातं गतस्तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवति नान्यज्ञानपरिणत इति वेदनाद्यनुभवझने पापविश्यावगन्तव्या । प्राबल्येन घातः कथमिति चेद्, उच्यते - इह वेदनादिसमुद्- घातपरिणतो जन्तुहुन् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभव योग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभृय च निर्जस्यति । आत्मप्रदेशः सह संश्लिष्टान शातयतीति भावः । स च सप्तधा । तद्यथा-वेदना समुद्घातः, कषायसमुद्धातः, मारणान्तिकसमुद्धातः, वैक्रियसमुद्घाता, तेजससमुद्घातः, आहारकस. मुद्घातः, केवलिसमुद्'घातश्चेति । तत्र वेदनया- 'अमद्वेदनीयोदयजनितया पीडया हेतुभूतया समुद्घातो वेदनासमुद्घातः । स चासातवेदनीयकाश्रयः । तथाहि-वेदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशान् अनन्तानन्तकर्मस्कन्धानुविद्धान १ पढमचरिम० ता.॥२ समया उ-ता.॥३तुला-जीवसमामवृत्तिः प. १८६ ॥ ४. योग्योपी० मि. ॥ ५०धान इति-सि.वि. ।। ६ भसद्वेदनोदय मु. ।। - तुला- पसमाहमलयवृत्तिः-दा,२गा २७१ प. ६५4 सः ERS. ॥४८६ BREAK S SHISHA Bista B HI MINIS T ANTSETURES SHAYARIRHARWAMINORIA Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन २३१द्वान घाताः गाथा १३११.६ शरीराबहिरपि विक्षिपति । तैश्च वदनजठरादिरन्ध्राणि 'कर्णस्कन्धाधन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च शरीरमात्र क्षेत्रमभिव्याप्यान्तमुहूर्त यावत्तिष्ठति । तस्मिश्चान्तमुहर्ते प्रभूतासातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिचार्ट सारोद्धारे। करोति । ततः समुद्घाताभिवृत्त्य स्वरूपस्थो भवति १ । सटीके कषाय:-क्रोधादिभिहेतुभूतैः समुद्घातः कषायसमुद्घातः । स च कषायाख्यचारित्रमोहनीयद्वितीयः कर्माश्रयः । तथाहि-तीव्रकषायोदयाकुलो जीवः स्वप्रदेशान बहिर्विक्षिप्य तैः प्रदेशवंदनोदरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते । तथाभूतश्च प्रभृतान् ॥४८॥ कायकर्मपुद्गलान् परिशातयति २ ॥ मरणमेव प्राणिनामन्तकारित्वादन्तो मरणान्तस्तत्र भवो मारणान्तिकः, स चासो समुद्घातश्च मारणान्तिकसमुद्धातः । स चान्तमुहूर्तशेषायुः कर्माश्रयः । तथाहि कश्चिज्जीवोऽन्तमुहर्तशेष स्वायुषि बहिः 'स्वप्रदेशान् विक्षिप्य तैर्वदनीदरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्य विष्कम्म-बाहल्याभ्यां स्वशरीरप्रमाणमायामतः स्वशरीरातिरेकतो जघन्येनाङ्गुलासङ्ख्येयभागमुत्कर्षतोऽसङ्ख्येयानि योजनान्येकदिशि क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते । तथाभूतश्च प्रभूतानायुःकर्मपुद्गलान् परिशातयति ३ । वैक्रिये प्रारभ्यमाणे समुद्घातो वैक्रियसमुद्घातः । स च वैक्रियशरीरनामकर्मविषयः । तथाहिवैक्रियलब्धिमान जीवो वैक्रियकरणकाले स्वप्रदेशान् शरीरातहिनिष्कास्य विष्कम्भ-वाहल्याभ्यां शरीर१. कर्म सि. वि.! एवमपि ॥ २ स्वदेशान् मु. ।। प्र. आ. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥४८८॥ प्रमाणम् , आयामतः सङ्ख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति । निसृज्य च यथास्थलान् बैंक्रियशरीर ॥ २३१ द्वारे नामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति । यत उक्तम्"वेउन्चियसमुग्घायेणं समोहणइ समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरइ निमिरित्ता घाता: अहाबायरे पुग्गले 'परिसाडे"ति ४ । गाथा तेजसि विषये भवस्तैजसः, स चासो समुद्घातश्च तैजसमुद्घातः । स च तेजोलेश्याविनिर्गमकालमावी तेजसशरीरनामकर्माश्रयः । तथाहि-तेजोनिसर्गलब्धिमान क्रुद्धः साध्वादिः सप्लाष्टौ पदानि अवष्वक्य विष्कम्भवाहल्याभ्यां शरीरमानम् , आयामतस्तु सङ्ख्येययोजनप्रमाणं जीवप्रदेशदण्डं शरीरादहिः प्र. आ. प्रक्षिप्य क्रोधविषयीकृतं मनुष्यादि निर्दहति । तत्र च प्रभृतांस्तैजसशरीरनामकर्मपुद्गलान शातयति ५।। आहारकशरीरे प्रारम्यमाणे समुद्घात आहारकसमुद्धातः। म चाहारकशरीरनामकर्मविषयः । तथाहि-आहारकशरीरलब्धिमानाहारकशरीरं चिकीपुर्विष्कम्भवाहल्याभ्यां देहमानम् , आयामतः मलयेय. योजनप्रमाणं शरीरादहिः स्वप्रदेशदण्डं निसृज्य यथास्थूलान् प्रभूतानाहारकशरीरनामकपपुद्गलान् प्राग्बद्धान् 'शातयतीति ६। एते च षडपि समुद्घाताः प्रत्येकमान्तर्मुहृतिकाः । तथा केवलिन्यन्तमुहर्तमाविपरमपदे भवः कैवलिकः, स चासो समुद्घातश्च केवलिकसमुद्घातः| meearn स च सदसद्वेधशुभाशुभनामोच्चनीचैर्गोत्रकर्माश्रयः । अमुच सूत्रकारः स्वयमेव पुरस्तात्प्रपञ्चयिष्यतीति । १ परिसाडेति-मु.॥२ शातयति-सि. वि. ।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i etnamnathanainamumain . V . karatoalutatinummitrs प्रवचनरोद्धारे २३१ द्वारे समुद्घाताः गाथा १३११.६ सटीके द्वितीय प्र. आ. ॥४८॥ अथैतानेव समुद्घातान् जीवेषु चिन्तयति-'सत्त इमै हुँति मणुया ति सप्ताप्यते पूर्वोक्ताः समुदुधाता मनुष्याणां भवन्ति । मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् ॥११॥ "एगेंदी' त्यादि, एकेन्द्रियाणां-पृथिव्यादीना कैवलिकाहारकसमुद्घातवर्जिता इमे आद्याः पश्च समुद्घाता भवन्ति । पञ्चापि चैते वैक्रियवर्जिताश्चत्वारः समुद्धाता विकलेन्द्रियाणामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च भवन्ति । इयं च गाथा 'प्रज्ञापना-पंचसंग्रह जीवसमासादिभिः शास्त्रान्तरैः सह विसंवदति, तेष्वेकेन्द्रियादीनां तैजससमुद्घातस्य प्रतिषिद्धत्वात् । तथा च चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण प्रज्ञापनासूत्रम् "नेरहयाणं मंते ! कइ समुयाया पम्नत्ता १. गोयमा! चत्तारि समुग्घाया पन्नता। तंजहावेयणासमुग्याए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्धाए, वेउब्वियसमुग्माए । असुरकुमाराणं भंते ! का समुग्धाया पन्नत्ता १, गोयमा ! पंच समुषाया पनत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्याए, तेयसमुग्धाए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्धाए, वे उब्बियसमुग्धाए । एवं जाव थणि यकुमाराणं । पुढविकाइयाणं भंते ! कह समुपाया पनत्ता १, गोयमा ! तिनि समुग्धाया पनत्ता । तंजहा-यणासमुग्याए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्धाए । एवं जाव चरिंदियाणं । नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्धाया पन्नत्ता । तंजहा यणासमुग्धाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमुग्याए, वेउव्वियसमुग्याए । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं जाव वेमाणियाणं भंते ! कई समुग्धाया पन्नता ?, गोयमा । पंच समुग्घाया पन्नत्ता । तंजहा-वेयणासमुग्धाए, कसायससुग्घाए, तेयसमुग्याए, मारणंतियसमुग्याए, वेउध्वियसमग्घाए । नवरं मणुस्साणं १ प्रज्ञायानायां [पद ३६] जीवसमासे (गा. १३) पञ्चासाहे च (द्वा. २ । गा. २६) द्रष्टव्यम् ।। ३८५ ॥४८९॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोद्धारे सटीक E द्वितीयः वष्टः ॥४९॥ सत्तविहा समुग्धाया पन्नत्ता । तंजहा-वेयणासमुग्धाए जाव केवलिसमुग्धाए" [पद ३१ । सू. २००६-९२] इति । २३१ द्वारे एतच्च सुखार्थ किंचिद्वयाख्यायते-नैरयिकाणामाद्याश्चत्वारः समुद्घाताः । तेषां भवप्रत्ययेन सिम तेजोलेश्यालब्ध्याहारकलब्धिकेवलित्वाभावतः शेषसमुद्घात'प्रयासंभवात् । असुरकुमारादीनां दशानामपि समुद्घाताः मवनपतीना तेजोलब्धेरपि भावादायाः पश्च । पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामाद्यास्त्रयः । गाया तेषां वैक्रियलब्धेरप्य संभवात् । वायूनामाद्याश्चत्वारस्तेषां चादरपर्याप्ताना वैक्रियलब्धिसंभवाद्वैक्रियसमुद्घातस्यापि संभवात् । पञ्चेन्द्रियतिरश्चामाद्याः पञ्च । केषां चित्तेषां वैक्रियतेजोलेश्यालब्धेरपि संभवात् । मनुष्याणां सप्तापि । व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां त्वाद्याः पञ्चेति ॥१२॥ ___ अथ 'केवलिसमुद्घातं मूत्रकृदेव व्याचष्टे-'केवली'त्यादिगाथाचतुष्कम् , 'केवलिसमुद्घातः प्र.आ. प्रतिपाद्यत इति शेषः । तत्रान्तमुहूर्तावशेषायुः केवली कश्चित्कर्मणां समीकरणार्थ समुद्घातं करोति यस्य | ३८५ वेदनीयादिकमायुषः सकाशादधिकतरं भवति । अन्यस्तु न करोत्येव । तं च कुर्वन् प्रथमसमये बाहल्यतः स्वशरीरप्रमाणं ऊर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तमात्मप्रदेशानां दण्डाकारत्वेन विस्तारणाद्दण्डं विरचयति । द्वितीये पुनः समये तमेव दण्डं पूर्वापरं दक्षिणोत्तरं वाऽत्मप्रदेशानां प्रसारणास्पार्श्वतो लोकान्तगामि कपाटमिव कपाटं करोति । तृतीयसमये 'तमेव कपाटं दक्षिणोत्तरं पूर्वापरं वा दिग्द्वयप्रसारणान्मथिसदृशं मन्यानं ॥४१०॥ १संबंधात्-सि. वि. ॥ २०संभवेन-सि. वि. ॥ ३ कैवलिकस० सि.पि.।। कवनिका पि. केवलिक.सि.॥ ५ तदेव-सि. वि.॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१द्वारे घाताः गाथा लोकान्तप्रापिणमारचयति । एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं भवति मध्यन्तराणि त्वपूरितानि । जीवप्रवचन- । प्रदेशानामनुश्रेणि गमनात् । चतुर्थसमये तान्यपि मध्यन्तराणि सह लोकनिष्कुरैः पूरयति । तथा च सारोदारे समस्तोऽपि लोकः पूरितो भवति । तदनन्तरं च पञ्चमे समये यथोक्तप्रक्रमात् प्रतिलोममध्यन्तराणि सटीके संहरति । प्रसृतान् जीवप्रदेशान् सकर्मकान् मध्यन्तर्गतान् संकोचयतीत्यर्थः । पष्ठे पुनः समये मन्थान मुपसंहरति, धनतरसंकोचात् । सप्तमे समये कपाटमपि संहरति । दण्डात्मनि संकोचात् । अष्टमे तु द्वितीयः समये दण्डमपि संहत्य स्वशरीरस्थ एव भवति । तदेवमष्टसामयिकः कैवलिकः समुद्घातः । एतेषु चाष्टस्वपि समयेषु केवली प्रभूतान् वेदनीयनामगोत्रकर्मपुद्गलान् शातयति । सम्प्रति समृद्घातगतस्य योगव्यापारश्चिन्त्यते-योगाश्च-मनोवाकायाः, तत्र समुद्घातगतस्य काययोग एव केवलो व्याप्रियते । न मनोवाग्योगो प्रयोजनाभावाद । तत्र प्रथमचरमसमययोरौदारिकाङ्गो भवति । औदारिककायव्यापारप्राधान्यादौदाम्कियोगयुक्त एवेत्यर्थः । सप्तमपष्टद्वितीयेषु औदारिकमिश्रः । समुद्घातमापन्न औदारिक तस्माच्च बहिः कार्यणवीर्यपरिस्पन्दादौदारिककार्यणमिश्रकाययोगयुक्त इत्यर्थः । चतुर्थपञ्चमतृतीयसमयेषु पुनर्बहिरेवौदारिकाबहुतरप्रदेशव्यापारसद्भावात् कार्मणशरीरयोगयुक्त एव, तन्मात्रचेष्टनात् । अत्रैव हेतुमाह-'जं होइ अणाहारो सो संमि तिगेवि समयाणं' ति यद्-यस्मास्कारणात् स तस्मिन् समयत्रिकेऽप्यनाहारको भवति । यश्चानाहारकः स नियमादेव केवलकार्यणशरीरयोगीति ॥१२॥१४॥१५॥१६॥ २३१॥ १ तदेवमष्टसामाविका-सि. वि.॥ प्र. आ. .. . Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥४९२॥ इदानीं 'छप्पज्जत्तीओ' ति द्वात्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह आहार १ सरीरं २ दिय ३ पज्जत्ती ४ आणपाण ४ भास ५ मणे ६। तारि पंच छप्पिय एगिदियविगलसीणं ॥१७॥ [प्राचीन कर्मग्रन्थ १ । गा. १३६. वृ. सं. गा. ३६३, जीवसमासे गा. २५ ] गतमा समयमाणा सेसा अंनोमुहुत्तिया य कमा । समपि हुति नवरं पंचम छडा 'उ अमराणं ||१८|| पर्याप्तिर्नाम आहारादिपुद्गलग्रहण परिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः । सा च पुद्गलोपचयादुपजायते । किमुक्तं भवति - उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेष तथा अन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्संपर्कतस्तद्रूपतया जातानां यः शक्ति विशेषः - आहारादिपुद्गलखलरसादिरूपतापादनहेतुः, यथोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः शक्तिविशेषः सा पर्याप्तिः । सा च पोढा, तद्यथा - आहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्ति प्राणापानपर्याप्तिर्भाषापर्याप्तिर्मनःपर्याप्तिश्च । तत्र यथा शक्त्या करणभूतया जन्तुर्बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः । यया रसीभूतमाहारं स्सासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जा शुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः । यया तु धातुरूपतया परिणमितादाहारादेकस्य द्वयोस्त्रयाणां चतुर्णां पञ्चानां वा इन्द्रियाण १ य मु. ॥ २- तुला - बृ.सं. (जिनमद्रीया) मलयवृत्तिः-गा. ३६३ प १३८ Bः ॥ २३२ द्वारे पर्याप्तयः षड् गाथा १३१७-८ प्र. आ. ३८६ ॥४९२॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनरोद्धारे टीके तीयः २९३॥ प्रायोग्यानि द्रव्याण्युपादाय एकद्वित्रयादीन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः । यया पुनरुच्छ्वा सयोग्यवर्गणादलिकमादाय उच्छ्वासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा प्राणापानपर्याप्तिः । यया तु भाषाप्रायोग्य दलिकमादाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुचति सा भाषापर्याप्ति । यया 'पुनर्मनो योग्यवर्गणादलिमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः । आह- किं सर्वेषामपि जीवानां सर्वा अध्येताः पर्याप्तयः प्राप्यन्ते ?, नेत्याह 'बत्तारी' त्यादि, इह यथासङ्ख्येन संबन्धः | तद्यथा-आद्याश्चतस्र एकेन्द्रियाणाम् । भाषामनसोस्तेष्वभावात् । विकलशब्देन चात्र मनोविकला गृणन्ते च पायातुरिन्द्रिया असंज्ञिपवेन्द्रियाश्च लभ्यन्ते । तेषामाद्याः पञ्चैव पर्याप्तयो न तु मनःपर्याप्तिः, मनसस्तेष्वभावादिति । संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां पुनः esपि पर्याप्तयः प्राप्यन्ते । मनसोऽपि तेषां सद्भावादिति । एताभिश्च स्वस्वयोग्यपर्याप्तिभिरपर्याप्ता एव ये कालं कुर्वन्ति तेऽप्याद्यपर्याप्तित्रयं समाप्य ततोऽन्तर्मुहूर्तेनायुर्वध्वा तदनन्तरमबाधाकालरूपमन्तमुहूर्त जीवित्यैव व म्रियन्ते इति ॥ १७ ॥ अधासां निष्पत्तिकालमानमाह - 'पढमे' त्यादि, प्रथमा- आहारपर्याप्तिः समयप्रमाणा, शेषा:शरीरपर्यात्यादयः पञ्च पर्याप्तयः क्रमेण प्रत्येकमान्तमौहूर्तिक्यः । इदमुक्तं भवति एताः पर्याप्तयः सर्वा अयुत्पत्तिप्रथमम एव यथास्त्रं युगपज्जन्तुना निष्पादयितुमारभ्यन्ते । क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति । तद्यथा - प्रथममाहारपर्याप्तिः, ततः शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि । आस्वाहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एवं १ पुनमैनोयोग्य पर्याप्त वर्गणा-सि. वि. ।। २ - जे.सि. वि. ।। ३ सद्भावादु सि.बि. ।।४ क्रमेण. सि. वि. नास्ति ।। २३२ द्वारे पर्याप्तयः षड् गाथा १३१७-८ प्र. आ. ३८६ ॥। ४९३॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥४९४।। निष्पाद्यते । शेषास्तु पञ्चापि प्रत्येकमन्तमुहूर्तेन कालेन । अथ आहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यते इति कथमवते, उच्यते, इह भगवता आर्यश्यामेन प्रज्ञापनायामाहारपदे द्वितीयोदेशके सूत्रमिदमपाठि - " आहारपज्जतीए अपज्जतए णं भंते । किं आहारए अणाहारए १, गोयमा ! नो आहारए" [ पद २८ । सू. १९०५] इति । "तत आहारपर्याप्तत्या अपर्याप्तो विग्रहगतावेवोपपद्यते, नोपपातक्षेत्रसमागतोऽपि । उपपातक्षेत्रसमागतस्य प्रथमसमय एवाहारकत्वात् । तत एकसामयिकी आहारपर्याप्तिनिवृत्तिः । यदि पुनरुपपातक्षेत्र मागतोऽपि आहापर्याया अपर्याप्तः स्यात्तत एवं व्याकरणसूत्रं पठेत्- 'सिय आहारए सिय अनाहारए । यथा शरीरादिषु पर्यातिषु 'far आहारए सिय अनाहारए' इति । सर्वासामपि च पर्याप्तीनां परिसमाप्तिकालोऽन्तमुहूर्तप्रमाणः । एतच्च सूत्रे यद्यपि सामान्येनोक्तं तथाप्यौदारिकशरीरिणामेव द्रष्टव्यम् । वैकियाहारकशरीरिणt स्वाहारेन्द्रियानप्राणभाषामनःपर्याप्तयः पञ्चाप्येकैकेनैव समयेन समाप्यन्ते । शरीरपर्याप्तिः पुनरन्तमुहूर्तेन । उक्तं च ★ "वेउव्वाहाराणं सरीर अन्नाउ पण इगिगतमया । पिहू पण अंतमुहुत्ता उराल आहार इगसमया ॥ १ ॥ अथ देवानां विशेषमाह - 'समगंपि हु'ति नवरं पंचम छडा ' अमराणंति' नवरंकेवल पञ्चमी- माषापर्याप्तिः, षष्ठी च-मनःपर्याप्तिः, एते द्वे अपि पर्याप्ती अमराणां देवानां समकमपि - १ वन माह माहार० सि. वि. । ★ वेक्रियाहारकयोः शरीरमन्याः पञ्चैकैकधामयिकाः । पृथक् पश्च मान्तमु हूलिंका बौदारिके आहारपर्वातिरेकसामयिकी ॥ २ व अमराणं ति-मु.। भमरान्ति-वि.वि. ॥ २३२द्वा पर्याप्तयः षड् गाथा १३१७-० प्र. आ. ३८७ ४९ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः - ॥४९५॥ युगपदपि भवतः । केनाप्यभिप्रायेण व्याख्यामजप्त्यादिषु देवानामनयोः परित्यारे कन्यप्रतिपादनान । तथा च व्याख्याप्रज्ञप्टिीका "पंचविहाए पज्जतीति पशि:-महानादीनामभिनिवृत्तिः । मा चान्यत्र पोढा उक्ना, इड तु पञ्चधा, भाषा मनःपर्याप्त्योबहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेन एकत्वविवक्षणाद्" [भगवतीवृत्तिः श. ३. चत्वार उ. १ सू. १२९] इति ॥१७॥१८॥२३२॥ अना हारकाः इदानीम् 'अणाहारया चउरो' ति त्रयस्त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह-- विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य । | गाथा सिद्धा य अगाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१६॥ [जीवसमास गा. ८२] १३१९ विग्रहगतिः-'भवात् भवान्तरे विश्रेण्या गमनम् , तामापन्नाः-प्राप्ताः सर्वेऽपि जीवाः, तथा केवलिनः समुद्भता:-कृतसमुद्घाताः, तथा अयोगिना-शैलेश्यवस्थाः, तथा सिद्धा:-क्षीणकर्माष्टकाः; सर्वेऽप्येते. प्र. आ. नाहाराः । एतद्वयतिरिक्ताः शेषाः सर्वेऽप्याहारकाः । इह परभवं गच्छतां जंतूना गतिव॑िधा-ऋजु- २ गतिविग्रहगतिश्च । तत्र यदा जीवस्य मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं समश्रेण्या प्राञ्जलमेव भवति तदा ऋजुगतिः । सा चैकसमया । समश्रेणिव्यवस्थितत्वेनोत्पत्तिदेशस्यायसमय एव प्राप्तेः । नियमादाहारकश्चास्याम् । हेयग्राह्यशरीरमोक्ष'ग्रहणान्तरालाभावेनाहाराव्यवच्छेदात् । यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं वक्रं भवति तदा विग्रहगतिः । वनश्रेण्या अन्तरालरूपेण विग्रहेणोपलक्षिता गतिविग्रहगतिरितिकृत्वा । | ॥४९५/ । भवात्-सि.पि. नास्ति ॥ २ जीपानां-मुः ॥ ३०प्रणामावे• सि. वि. ॥ ३८७ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे पडू द्वितीयः खण्ड: सत्र विग्रहगत्योत्पन्ना उत्कर्षतस्त्रीन समयान यावदनाहारकाः । तथाहि-अस्या वक्रगतौ स्थिती जन्तुरेकेनद्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्चा वरुत्पत्तिदेशमायाति । 'तत्रैकवक्रायां द्वौ समयौ, तयोश्च नियमा. २३२वा पर्याप्तयः दाहारका; तथाहि-आधसमये पूर्वशरीरमोक्षः तस्मिथ समये तच्छरीरयोग्याः केचित्पुद्गला जीवयोगानोमाहारतः संबन्धमायान्ति । औदारिकवैक्रियाहारक पुद्गलादानं चाहारः । तत्त आद्यसमये आहारकः । द्वितीये । माथा च समये उत्पत्तिदेशे तद्भवयोग्यशरीरपुद्गलादानादाहारकः । द्विवक्रायां गतो त्रयः समयाः । तत्राधे अन्त्ये च प्राग्यदाहारको मध्य मे वनाहारकः । त्रिचक्रायां चत्वारः समयाः, ते चैवं-त्रसनाच्या बहिरवस्तन भागादुधमुपरितनमागादधो वा जायमानो जन्तुर्विदिशो दिशि दिशो वा विदिशि यदोत्पद्यते तदैकेन समयेन प्र.आ. विदिशा दिशि याति, द्वितीयन सनाडॉ प्रावेशति, तृतीयेनोपर्यधो वा यानि, चतुर्थेन बहिरुम्पद्यते । दिशो | sar विदिशि उत्पादे त्वाद्ये समये त्रमनाडौं प्रविशति, द्वितीये उपर्यधो वा याति, तृतीये बहिर्गच्छति, चतुर्थे । विदिश्यूत्पद्यते । अत्रान्तयोः प्राचदाहारकः मध्यमयोस्त्वनाहारकः । चतुर्वक्रायां पञ्च समयाः । ते च प्रसनाड्या बहिरेव विदिशो विदिश्युत्पादे प्राग्वद्भावनीयाः । अत्राप्याद्यन्तयोराहारका, त्रिषु वनाहारकः । तथा केवलिनः समुदातेऽष्ट मामयिक कृतीय चतुर्थपञ्चमरूपान् केवलकार्मणयोगयुताखीन् समयान ; अयोगिनः शैलेश्यवस्थायां इस्वपश्चाक्षरोचारणमात्रम् । सिद्धास्तु सादिमपर्यवमितं कालमनाहारका इति । ॥१९॥२३३।। ॥४९॥ जीवसमासवृत्तिः, प.८०॥ २०पुद्गलादीनां सि.वि.॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटिके द्वितीय: खण्ड: ॥४९७॥ इदानीं 'सत्त भट्ठाणाई' ति चतुस्त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह- इह १ परलीया २ SS' याणा ३ मकम्ह ४ आजीव ५ मरण ६ मसिलोए ७ । सन्त भट्ठाणाई इमाई' सिद्धंतभणियाइ ||२०|| भयं भयमोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामः, तस्य स्थानानि - आश्रया भयस्थानानि । तत्र मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद्भयं तदिहलोकभयम् । इहाधिकृत भीतिमतो जन्तोर्जात यो लोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तेः । तथा परस्मात् विजातीयात्यिग्देवादेः सकाशान्मनुष्याatai rai devrataमयम् । तथा आदीयते इत्यादानम्, तदर्थं मम सकाशादयमिदमादास्यतीति यच्च िमयं वदादानम् उप अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेव स्थितस्य राज्यादौ भयमकस्माद्भयम् । तथा धनधान्यादिहीनोऽहं दुष्काले कथं जीविष्यामीति दुष्कालपतनाद्याकर्णनाद्भयमाजीविकाभयम् । नैमित्तिकादिना मरिष्यसि त्वमधुनेत्यादिकथिते भयं मरणभयम् | अकार्यकरणोन्मुखस्य विवेचनाय जनापवादमुत्प्रेक्ष्य भयमश्लोकभयमिति । इमानि सप्त भयस्थानानि सिद्धान्ते भणितानि ||२०|| २३४ ॥ इदानीं 'इन्भासाओ अप्पसत्याओ' ति पंचत्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाहहीलिय १ विसिय २ फरसा ३ अलिआ ४ तह गारहत्थिया भासा ५ । उट्ठी पुण उवसंताहिगरणउल्लाससंजणणी ६ ॥२१॥ 1 ३ व्याण-वा. व्याणे- सि. 11 २३४३ सप्त भय स्थानारि गाथा १३२० २३५ द्वा षड् भाष अप्रशस्त गाथा १३२१ प्र. आ. ३८८ ॥४९७॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागेद्धार सटीके २३६ द्वारे श्रावकव्रतमाः गाथा |१३२२. १३४१ द्वितीयः खण्: १४९८॥ भाष्यन्ते-प्रोच्यन्ते भाषा-वचनानि, ताश्च अप्रशस्ता-गुरुकर्मबन्धहेतुत्वादशोभना हीलितादिभेदतः षड् भवन्ति । तत्र हीलिता सासूयमवगणयन् वाचक ! ज्येष्ठार्येत्यादि जल्पनम् १ । खिसिता जन्मक मायुद्घाटनम् २ । परुषा दुष्टशैक्षेत्यादि कर्कशवचनम् ३ । अलीका किं दिवा 'प्रचलयसीत्यादिप्रश्ने न प्रचलयामीत्पादि भणनम् ४। [ग्रन्थाग्रं १५०००] तथा गृहस्थानामियं भाषा गार्हस्थी, सा च पुत्र मामक भागिनेयेत्यादिरूपा ५ | षष्ठी पुनर्भाषा 'उपशान्ताधिकरणोल्लाससंजननी' उपशान्तस्य-उपशम नीतस्थाधिकरणस्य-कलहस्य य उल्लास:-प्रकास प्रवर्तनं तस्य संजननी-समुत्पादयित्रीत्यर्थः ॥२१॥२३५।। इदानीं 'भंगा 'अणव्वयाण' ति पत्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह - दुविहा २ अट्टविहा वा ८ बत्तीसविहा य ३२ सत्तपणतीसा ७३५ । सोलस य सहस्स भवे अट्ठ सयहोत्तरा १६८०८ घणो ॥२२॥ दुविहा विरयाविरया दुषिहंतिविहाइणहहा हुति । घयमेगेगं छविहगणिय दुगमिलिय घत्तीसं ॥२३॥ तिन तिया तिन्नि या तिनिक्केका य हुति जोएसु । ति दु एक्कं ति दु एक्कं ति दु एक्कं चेव करणाइ ॥२४॥ मणवयकाइयजोगे करणे कारावणे अणुमईए ! एक्कगद्गतिगजोगे सत्ता सत्तेव "इगुवन्ना १ प्रचलायसी.सि.वि. गिहिवयाण-वि. ३ गुणावन्ना-मु. । इगवन्ना-ता. 1 भावनतमङ्गप्रकरणेऽपि इगु इति पाठः॥ प्र.आ. | ३८८ DIRECEMBER ॥४९८॥ ... SHRA Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे । सटीके द्वितीयः खण्ड: बतभा শাখা। १३२ पढमेक्को तिन्नि लिया दोन्नि नवा तिनि दो नवा चेव । कालतिगेण य गुणिया सीयालं होइ भंगसयं ॥२६॥ पंचाणवयगणियं सोयालसयं तु भवरि जाणाहि । सत्त सया पणतीसा सावयषयगणकालंमि ॥२७|| सीयालं भंगसयं जस्स 'विसुद्धिए होइ उचलहूं । सो खलु पच्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसला उ ॥२८॥ दुविहतिविहाइ लच्चिय तेसिं भेया कमेणिमे हुति । पढमेक्को दुन्नि तिया दुगेग दो छक्क इगवीसं ॥२६।। एगवएछन्भंगा निहिा सावयाण जे सुत्ते । ते चिचय पयवुनीए सत्तगुणा छज्जुया कमसो ॥३०॥ इगवीसं स्वलु - भंगा निविद्या सावयाण जे. सुत्ते । ते च्चिय यावीसगुणा इगवीसं पक्विवेयव्वा ॥३१॥ एगवए नवभंगा निद्दिष्टा सापयाण जे सुत्ते । ते चिय दसगुण काउं. नव पक्वेवंमि कायचा ॥३२॥ इगवन्नं खलु भंगा निविद्या सावयाण जे सुत्ते । ते किचय पन्नासगुणा "इगुवन्तं पक्खिधेयव्वा ॥३॥ सहिया-इति आवकतमङ्गप्रकरणे धर्मसबमहवृत्तौ [मा.१ ५.५७] च पाठः ।। २ पिसुद्धस्स-ता.॥ ३ छबिह-मुः। श्रावतभङ्गप्रकरणे धर्मसमवृत्तावपि मा.१ ५.५६] चिय इति पाठः ॥ ४ इग० मु.।। ५ गुणवन्न-मु.॥ प्र. आ. ३८९ । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ assantent m प्रवचनसारोद्धारे। सटीके श्रावक बतमा गाथा द्वितीयः खण्ड: १३२ १३४ एगाई एगत्तरपत्तेयपयंमि 'उधर पक्वेवो । एक्केकहाणिअवसाणसंखया हुति 'संजोगा ॥३४॥ आहवा पयाणि ठविउं अक्खे चित्तण चारणं कुज्जा ।। एक्कगदुगाइजोगा भंगाणं संस्त्र कायया ॥३५॥ पारस १ लावट्टीवि य २ वीसहिया दो य ३ पंच नव चउरो ४ । दो नव सत्त य ५ चउ दोनि नव य ६ दो नव य सत्तेव ७ ॥३६॥ पण नव चउरो ८ वीसा य दोन्नि ९ छावटि १० षारसे ११क्को १२ य । सावयभंगाणामिमे सव्वाणविहुति गुणकारा ॥३॥ छच्चेव थ१ छत्तीसा २ 'सोलस दुर्ग चेव ३ छ नव दुगमिक्कं ४ । छ सत्त सत्त सत्त य ५ छप्पन्न छसछि चउ छढे ६॥३८|| "छतीसा नवनई सत्तावीसा य ७ सोल छनउई । सत्त य सोलस भंगा अहमठाणे वियाणाहि ८ ॥३९॥ 'छानउई 'छावत्तरि सत्त दु सुन्नेक्क हुति नवमम्मि ९ । 'छाहत्तरि इगसही छायाला मुन्न छच्चेव १० ॥४॥ १ जाव पक्खेत्रो-सि.वि.।। २ संयोगा-मु.॥ ३सोल दुगं-मु.॥ ४ दुगमेक्क-सि.वि.।। दुग एक्क-ता. ५बत्तीसा-ता.।। ६ छन्न रई-मुः । छाणउई-इति श्रा.ब्र.म.प्र.॥ ७ बाब० इति श्रा.व्र, मङ्गप्रकरणे पाठः।। ८ छाबत्तरी-इति श्रा.. मङ्गप्रकरणे पाठः॥ . Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड : ॥५०१॥ ॥३१॥ दुविहं एगविहे ॥४२॥ ॥४३॥ नव सत्तावीस तह व छत्तोसा ११ । अत्तर छहतरोगवीसा १२ दुविहं दुविहेण वीयओ होइ I एगविह चैव तिविहेणं एगविह दुविण एक्hrafविण ओ हो । उत्तरगुण सत्तमओ 'अविरयओ अहमो होइ पंचमणुवयाणं एक्कगडुगतिगच उक्कपणगेहिं पंचगदसदसपणएक्कगो य संजोय नायश्वा छच्नेव य छत्तीसा 'सोल दुर्गं चेव छ नव दुर्गा एक्कं छरसत्त सत्त सन्त य पंचण्ह वयाण गुणणपयं वयएक्कग संजोगाण हुति पंचve तोसई भंगा । दुगसंजोग दसपि तिन्नि सट्टा सया हुति ॥४६॥ तिगसंजोग दसन्हं भंगसया एक्कवीसह सट्टा संजोगपणगे उसहि सयाण 'असियाणि I छप्पन्न सुन्न सत्त य छत्तीसा तेवीसा दुविहतिविण पढमो 1 । ॥ ४४ ॥ ॥४५॥ ||४७|| १ अट्टमओ भविश्य होइ इति श्रा व भङ्गप्रकरणे पाठः ।। २ सोलस-सि.वि. || ३ गुणसंजोगन्भु, ॥ ४ सियाणि- सि.बि. सं. ॥ २३६द्वा श्रावक व्रतमङ्गः गाथा १३२२ १३४९ प्र. आ. ३८९ १५०१ ।। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके श्रावकव्रतमङ्गः गाथा १३२२ द्वित्तीयः खण्ड : ॥५०२॥ १३४९ सत्तसरी सयाई छहत्तराई' तु 'पंचगे हुति । उत्तरगुण अविरयमेलियाण जाणाहि सम्वरगं ॥४८॥ सोलस चेव सहस्सा अट्ठ सया घेवहुति अहहिया । एसो पयपिंडत्यो दसणमाई उ पडिमाओ ॥४९॥ श्रावकत्रतभङ्गप्रकरणे २-१४, १६.२८, ३०] 'व्रत-नियमविशेषस्तद्विद्यते येषां ते वतिनः श्रावका इत्यर्थः । ते द्विधा-वक्ष्यमाणयुक्त्या द्विप्रकाराः, अथवा अष्टविधाः, अथवा द्वात्रिंशद्भदाः, अथवा सप्त शतानि पश्चत्रिंशदधिकानि, अथवा षोडश सहसा अष्टौ शतान्यष्टोत्तराणि वतिनो भवन्ति । अत्र च बतिन इत्युक्ते सामान्येन श्रावका गृहन्ते न तु देशविरता एव; अविरतसम्यग्दृष्टीनामपि सम्यक्त्वप्रतिपत्तिलक्षणस्य नियमस्य सद्भावात् ॥२२॥ अर्थतानेव भेदान प्रत्येकं व्याचिख्यासुराचं भेदत्रयमाह-'दुविहे' त्यादि, द्विविधाः श्रावकाःविरता अविरताश्च । तत्र विस्ता:-प्रतिपनदेशविरतयः, अविरता:-अभ्युपेतक्षायिक-[कादि] पम्यक्त्वाः सत्यकि-श्रेणिक-कृष्णादय इव । 'दुविहं तिविहाइणहा होति' ति द्विविधा-कृतकारितरूपः, 'त्रिविधो-मनोवाक्काय मेदेन यत्र स द्विविधत्रिविध एको मङ्गः, स आदिर्यस्य द्विविधत्रिविधादेर्भङ्गजालस्य तेन द्विविधत्रिविधादिना भाजालेनाष्टविधाः श्रावका भवन्ति । यद्वक्ष्यति १ पंचमे-म. ॥ २तुला-मायकवतमङ्गप्रकरणापचूरिः प. २ तः ॥ ३ त्रिधा-सि. चि. ॥ प्र.आ. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चनरोद्धारे "दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥१॥ एगविहं दुविहेणं एक्फेक्कविहेण छट्टओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविस्यओ अट्ठमो होइ ।।२॥" [आव. नि. गा. १५५८.९] ___ अनयोश्च 'सोपयोगत्वादत्रैव व्याख्या क्रियते-इह व्रतं प्रतिपित्सुः कोऽपि किश्चित्प्रतिपद्यते । श्रावकवतप्रतिपत्तेहुभङ्गत्वात् । तत्र 'द्विविध-कृतकारितभेदम् , त्रिविधेन-मनसा वचसा कायेनेति प्रथमो भङ्गः । एवं च भावना-स्थूलहिंसादिकं न करोत्यात्मना, न कारयत्यन्येन मनसा वचसा कायेन चेति; अस्य चानुमतिरप्रतिषिद्धा । 'अपत्यादिपरिग्रहसद्भावात्तै हिसादिकरणे च तस्यानुमतिप्राप्तेः, अन्यथा परिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रव्रजिताप्रचमित्तयोरभेदापत्तेः । यत्पुनाख्याप्रज्ञप्त्यादौ त्रिविधं त्रिविधेने. त्यपि प्रत्याख्यानमुक्तमगारिणस्तद्विशेषविषयं विज्ञेयम् । तथाहि-यः किल प्रविजिपुरेव पुत्रादिसंततिपालनाय विलम्बमानः प्रतिमाः प्रतिपद्यते, यो वा विशेष स्वयम्भूरमणादिगतं' मत्स्य-मांसदन्तिदन्त-चित्रक-चर्मादिकं स्थूलहिंसादि वा कचिदवस्थाविशेषे प्रत्याख्याति, म एव त्रिविधं त्रिविधेनेति करोति इत्यल्पविषयत्वादत्र न 'विवक्षितमिति । २३३द्वारे श्रावकव्रतमङ्गः गाथा १३२२० तीयः प्र. आ. १ सोपयोगित्वावध व्यास्यायते-सि-वि ॥ २ तुला योगशास्त्रवृत्तिः [२।१८, ५. १९२], धर्मसत्यत्तिः भा-१५.५५ तः ॥३भाप० मु. ॥ ४०त-इति श्रावक. ब्र. अवघरौ योगशास्त्रवृत्ती धर्मसमहत्तौ च॥ । ५०षेण-मु. वि.सि.पा. प्रत, भवचरिधर्मसं वृत्योरपिधे-इति ॥ ६ विवक्षितमपि-सि.पि. ॥ ॥५०शा Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरोद्धारे टीके २३६द्वारे श्रावकव्रतमङ्गः गाथा १३२२. १३४९ जीयः २०४|| द्विविधं द्विविधेनेति द्वितीयो भङ्गः । अत्र चोत्तरभङ्गास्त्रयः, तत्र द्विविधमिति-स्थूल हिंसादिकं न करोति न कारयति, द्विविधेनेति मनसा वचसा १, यद्वा मनसा कायेनेति २, यद्वा वाचा कायेनेति ३ । तत्र यदा मनसा वाचा न करोति न 'कारयति तदा मनसाऽभिसन्धिरहित एव वाचाऽपि हिंसादिकम ब्रुवन्नेव कायेनैव दृश्येष्टितादेना असंज्ञिकवत्करोति । यदा तु मनसा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसाऽभिसन्धिरहित एव कायेन दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेवानाभोगाद्वाचैव हन्मि घातयामि चेति ब्रूते । यदा तु वाचा कायेन न करोति न 'कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिमधिकृत्य करोति कारयति च । अनुमतिस्तु त्रिभिरपि सर्वत्रैवास्ति । एवं शेषविकल्पा अपि भावनीयाः । द्विविधमेकविधेनेति तृतीयः । अत्राप्युत्तरभङ्गास्त्रयः । द्विविधं करणं कारणं च एकविधेन मनसा १, यद्वा वचसा २ यद्वा कायेन ३ । एकविधं त्रिविधेनेति चतुर्थः । अत्र च द्वौ प्रतिभङ्गो, एकविधं करणं मनसा वाचा कायेन च अथवा एकविध कारणं मनसा वाचा कायेन | एकविधं द्विविधेनेति पञ्चमः । अत्र चोत्तरभेदाः पट् , एकविधं करणं द्विविधेन मनसा वाचा १, यद्वा मनसा कायेन २, यद्वा वाचा कायेन ३ । अथवा एकविध कारणं द्विविधेन मनसा वाचा ४, यद्वा मनसा कायेन ५, यद्वा वाचा कायेन ६ । 'एकविधमेकविधेनेति षष्ठो मूलभङ्गः । अत्राप्युत्तरभङ्गाः षट् , एकविध करणम् एकविधेन मनसा १, १ कारयेत्-सि.वि. ॥ २ कायेन यदा-सि. ॥ ३ तदेव एक सि.पि.! प्र. आ. MARATHI Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोदारे सटीके द्वितीयः सा: ॥५०५ यद्वा वाचा २, यद्वा कायेन ३, अथवा एकाविधं कारणं एकविधेन मनमा ४, यद्वा वाचा ५, यद्वा कायेनेति ६। तदेवं मूलभङ्गाः पट ! पणामपि च मूलभङ्गानामुत्तम्भङ्गाः सर्वमलयय कविंशनिः । तथा च 'वक्ष्यति- | २३६ द्वारे "दुविहतिविहा य छच्चिय तेमि भेया कमेणिमे होंति ! पढमेकको दोन्नि तिया दुगेग दो 'छन्च इगवीसं ॥३॥" [श्रावकवतभङ्गप्रकरणे गा.९ प्र.सा. १३२९] एपाऽपि प्रक्रमादिहव व्याख्यायते-अनन्तगेक्ता एवं द्विविधत्रिविधादयः पड्भङ्गाः स्थाप्यन्ते । तेषा गाथा पण्णा भङ्गानां क्रमेणते वक्ष्यमाणा भेदा-उत्तरविकल्पा भवन्ति । तथाहि-प्रथममेकः स्थाप्यते, तदनन्तरं क्रमेण द्वो त्रिको, तत एको द्विकः, तदनु क्रमेण द्वौ पट्को । इयमत्र भावना-प्रागुक्तायाः १३४४ षड्भङ्ग्याः प्रथमे भङ्गे एक एव भेदः, द्वितीयमगे उत्तरभेदात्रयः, तृतीयेऽपि श्रयः, चतुर्थे द्वौ, पञ्चमे पट्, पष्ठेऽपि मूलभङ्गे उत्तरभङ्गाः षडिन्येवं षड्भङ्ग्यामुत्तरमङ्गका मिलिता एकविंशतिरितिः । प्र. आ. स्थापनाचेयम् | २| २| २| १|| १ | योगाः इति करण कारणमनोवाकार्यरुत्तरभेदाः ।।३९, | उत्तरगुण सत्तमओ' ति प्रतिपन्नोत्तरगुणः | ३ २ १ ३ २] १ करणान सप्तमो भेदः । | १| ३| ३ | २| ६] ६ भङ्गाः श्रावकाणां हि द्विधा नियमो-मूलगुणविषय १अब १३२६ तम गाथायाम् ।। २ छक-इति श्रावकवतमङ्ग प्रकरणे पाठः॥ ॥५०॥ ३ एकविंशतिरपि-सि. ॥ ४ स्थापना चेयं-करण स्तरमा उत्तरगुणसत्त सि. वि. ॥ कारण मनोवाकाय । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन. सारोद्धारे २३६६ श्रावक व्रतमा गाथा सटीके द्वितीयः खण्ड: उत्तगुणविषयश्च । तत्र मूलभूता गुणाः मूलगुणा:-पञ्चाणुव्रतानि, उत्तरभूता गुणा उत्तरगुणाः-त्रीणि अणुव्रतानि चत्वारि च शिक्षाव्रतानि । इह च संपूर्णासंपूर्णोत्तरगुणभेदमनात्य सामान्येनैक एव भेदो विवक्षितः । 'अविरयओ अहमो होइ' ति अविरत:-अविरतसम्यग्दृष्टिरष्टमो भेदः, तदेवमुक्ताः अष्टविधाः श्रावकाः । अथ द्वात्रिंशद्विधानाह-'वयमेगेगं' इत्यादि, एकैकं स्थूलप्राणातिपातविरमणादिकं व्रतं षड्मिविधाभिः-मेदैगुणित-ताडितं द्विविधत्रिविधादिकया पूर्वोक्तया षड्भग्या गुणितमित्यर्थः । प्रतिपनोत्तरगुणाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणभेदद्विकमिलितं द्वात्रिंशद्भवन्ति । तथाहि-स्थूलप्राणातिपातविरतिं षड्भङ्गीमध्यात्कश्विदायेन भङ्गेन गृह्णाति, कश्चिद् द्वितीयेन, कश्चित् कृतीयेन, कश्चिच्चतुर्थेन, कवित्पश्चमेन, कश्चित् षष्ठनात प्राणातिपातविरतेः षड् मङ्गाः । एवं मृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि प्रत्येकं षड् भङ्गा वाच्याः, मिलिताच त्रिंशत् । __ आवश्यके पुनरेवं त्रिंशद्भङ्गाः-यथा कश्चित्पश्चाप्यणुव्रतानि समुदितान्येव गृह्णाति । तत्र च द्विविधत्रिविधादयः षड्भेदाः। अन्यो व्रतचतुष्टयं गृह्णाति तत्रापि पट् । अपरो व्रतत्रयं तत्रापि षट् । अन्यो व्रतद्वयं तत्रापि षट् । अन्यस्त्वेकमेवाणुव्रतं गृह्णाति तत्रापि पडेव भङ्गाः । एवमेते पश्च षट्कास्त्रिंशद्भवन्ति । उत्तरगुणाविरतसहितास्तु द्वात्रिंशत् ॥२३॥ एवं तावदावश्यकनियुक्त्यभिप्रायेण कृता भङ्गप्ररूपणा, सांप्रतं पश्चत्रिंशदुत्तरसप्तशतसङ्ख्थान् श्रावकमेदान् प्रतिपिपादयिषुभंगवत्यभिप्रायेण नत्रभङ्गीमाह-'तिनी'त्यादि, योगेषु-करणकारणानुमति प्र. आ ३९१ ॥५० Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nan A ML प्रवचन. सारोद्वारे सटीके স্বাগত वतभा द्वितीयः रूपेषु त्रयस्त्रिकाः, त्रयो द्विकाः, त्रय एककाच भवन्ति क्रमेण 'स्थाप्या इति शेषः । तदधस्ताच क्रमेण त्रीणि द्वे एकम् , त्रीणि द्वे एकम् . त्रीणि द्वे एक चैव करणानि-मनोवाक्कायलक्षणानि स्थाप्यानि भवन्तीति पदघटना । भावार्थः पुनरयं-त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रथमो भङ्गः, कश्चिद् गृही साययं योगं न करोति न कारयति नान्यं 'समनुजानीते मनसा वचसा कायेन चेत्येको मङ्ग इति भावः । त्रिविधं द्विविधेनेति द्वितीयो मूलभङ्गः । अत्रोसरभङ्गास्त्रयः, तथाहि-न करोति न कारयति नानुजानाति मनसा वाचा १, यद्वा मनसा कायेन २, यद्वा वचसा कायेन ३ । त्रिविधमेकविधेनेति तृतीयो भङ्गः। अत्राप्युत्तरभङ्गास्त्रयस्तथाहि-न करोति, न कारयति, नानुजानीते, मनसा १, यद्वा वचसा २, यहा कायेन ३ । द्विविधं त्रिविधेनेति चतुर्थो मङ्गः, अत्राप्युत्तरभङ्गास्त्रयः, तथाहि-न करोति न कारयति मनसा वचसा कायेन १ ! यद्वा न करोति नानुजानीते त्रिभिरपि करणैः २ । यद्वा न कारयति नानुजानाति त्रिभिरपि करणः ३ । द्विविधं द्विविधेनेति पञ्चमो भङ्गः । अत्र चोत्तरभेदा नव । तथाहि-न करोति न कारयति मनसा वचसा १, यद्वा मनसा कायेन २, यद्वा क्चसा कायेन ३, अथवा न करोति नानुजानीते मनसा वचसा ४, यद्वा मनसा कायेन ५, यद्वा वचसा कायेन ६, अथवा न कारयति नानुजानीते मनसा वचसा ७, यद्वा मनसा कायेन ८, यद्वा वचसा कायेन ९ । ॥५०७॥ प्र.आ miminaytmya ॥५०॥ १ प्राप्यन्ते-सि. वि. ॥ २ समनुजानाति-सि. वि. भावकत्रतमगावचूरौ च । 'होऽनुपसर्गात" सि. है. ३३९६ द्रष्टव्यम् ॥ ३ त्रिविधेन-सि.पि.॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सीके द्वितीयः खण्ड: ॥५०८॥ द्विविधमेकविधेनेति षष्ठो भङ्गः । अत्राप्युत्तरभेदा नव । तथाहि-न करोति न कारयति मनमा १, . २३६ द्वारे यद्वा वचसा २ यद्वा कायेन ३, अथवा न करोति नानुजानीते मनसा ४, यद्वा वचसा ५, यद्वा कायेन श्रावक६, अथवा न कारयति नानुजानीते मनसा ७, यद्वा वचसा ८, यद्वा कायेन ९ । व्रतमता एकविधं त्रिविधेनेति सप्तमो भङ्गः । अत्र चोत्तरभङ्गास्त्रयः, तथाहि-न करोति मनसा बचमा कायेन गाथा१, यद्वा न कारयति त्रिभिरपि करणः २, यद्वा नानुजानीते त्रिभिरपि करणः ३ । १३२२एकविधं द्विविधेनेत्यष्टमो भङ्गः । अत्र चोत्तरविकल्पा नव, तथाहि-न करोति मनसा वचसा १, १३४९ यद्वा मनसा कायेन २, यद्वा वचसा कायेन ३, अथवा न कास्यति मनसा वचसा ४, यद्वा मनसा प्र. आ. कायेन ५. यद्वा वचसा कायेन 43; अथवा नानुजानीते मनसा वचसा ७, यद्वा मनसा कायेन ८, यद्वा वचसा कायेन ९॥ एकविधं एकविधेनेति नवमो मूलभङ्गः । अत्राप्युत्तर विकल्पा नव । तथाहि-न करोति मनसा १, यद्वा बचमा २, यद्वा कायेन ३; अथवा न कारयति मनमा ४, यद्वा वचसा ५, यद्वा कायेन ६, नानुजानीते मनमा ७, यद्वा वचमा ८, यद्वा कायेनेति ९ । तदेवं मूलभङ्गा नव उत्तरभङ्गास्तु मीलिताः सर्वमङ्खथया एकोनपश्चाशत् । उक्तं च"तिविहंतिविहेण पढमो तिविह दुविहेण बीयओ होइ । तिविहं एगविहेणं दुविहं तिविहेण ति चउत्थो ॥शा ५०८॥ दुविहदुविहेण पंचम दुविहेक्कविहेण छ?ओ होइ । एकविहं तिविहेणं दुविहेण य सत्तमट्टमओ ॥२॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोदारे सटीके द्वितीयः ॥५०९ एक्कविहेक्कविहेणं नवमो पढममि एकभङ्गो उ । सेसेसु तिमि तिन्नि य तिन्नि य नव नव य तह तिन्नि ।।३।। नव नव य होति कमसो एए सब्वेवि इगुणवत्रामं ॥" २३६ द्वा 'स्थापना-इति करण कारणानुमतिमनोवाक्काया:। वारकाया। श्रावकननु च वाक्कायाभ्यां तावत्प्रत्यक्षादिप्रमाणत एव । व्रतभङ्गः करणकारणानुमतयो दृश्यन्ते, मनमस्तु ताः कथं गाथा | | ३ | ३ | ३ | ९| ९| ३ | ९| ९| प्रत्येतल्याः १, अन्तर्व्यापारत्वेन परैरनुपलक्ष्य- १३२२ माणत्वात् । उच्यते, निर्व्यापारकायवचनो यदा सावद्ययोगकरणादि मनसा विकल्पयति तदा मुख्य तया कायवचनवन्मनस्यपि करणादीनि संभवन्ति । तथाहि-सावद्ययोगमेनमहं करोमीत्येवं यदा मनसा प्र. आ. चिन्तयति तदा करणम् । यदा तु मनसा चिन्तयति करोत्वेष सावधं असावपि चेङ्गितज्ञोऽभिप्रायादेव प्रवर्तते तदा कारणम् , यदा पुनः सावधव्यापार विधाय मनसा चिन्तयति-सुष्टु कृतमिदं मया तदा ३९२ मानसी अनुमतिरिति । तदेवं सूत्रकृनिगदितां नवभङ्गी विवृण्यद्भिरस्माभिः प्रसङ्गादेकोनपश्चाशद्भङ्गयपि प्रदर्शिता ॥२४॥ करण कारणानुमति १ स्थापना चात्र-सि. वि. ॥ जे प्रती स्थापनायाम् मनोवाकायाः इत्यस्ति । उत्तरमकाः २ इति करणकारणानुमति मनोवाकाया:-सि.वि. नास्ति । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके २३६ द्वारे श्रावकव्रतमङ्ग द्वितीयः खण्डः संप्रति प्रकारान्तरेण सूत्रकार एवैना 'प्रतिपादयितुमाह-मणे' त्यादि, इह च प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययोऽवगन्तव्यः । ततः करणस्य कारणस्यानुमतेश्च मनोवाकायलक्षणैः 'त्रिभिः करणैः "सह योगे-संबन्धे सति एकद्विकत्रिकयोगे-संबन्धे सति एकद्वित्रिकयोगे-प्रत्येकमेकसंयोगद्विकसंयोगचिन्तया सप्त सप्तका भवन्ति । तथाहि-स्थूलहिंसादिकं न करोति मनमा १, वाचा २, 'कायेन ३, मनसा वाचा ५, मनसा कायेन ५, वाचा कायेन मनसा वाचा कायेन च ७। एते करणेन सप्त भङ्गाः। एवं कारणेन सप्तः अनुमत्या सप्त । तथा स्थलहिंसादिकं न करोति न कारयति च मनसा १, वाचा २. कायेन ३, मनसा बाचा ४, मनसा कायेन ५, वाचा कायेन ६, मनसा वाचा कायेन ७। एते करणकारणाभ्यां सप्त भङ्गाः । “एवं करणानुमतिभ्यां सप्त कारणानुमतिभ्यामपि सप्त करणकारणानुमतिभिरपि सप्त । एवं सप्त सप्तका मीलिता एकोनपश्चाशद्भवन्ति ।।२५॥ अत्र सूत्रकारः पूर्वोक्ताया एव नवभङ्गथा उत्तरभङ्गप्रति पादनपूर्व सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतसङ्ख्यान् मङ्गकानाह-'पढमे' इत्यादि, 'तिन्नि तियेत्यादिगाथोक्तानां नवभङ्गीप्रतिपादकानामङ्कानामधस्ताप्रथमे स्थाने एककः स्थाप्यते, ततः क्रमेण त्रयखिकाः, ततो द्वौ नवको, तत एकस्विकः, पुनरपि द्वौ १३२२१३४९ ५१०॥ प्र. आ. १ प्रतिपादयन्नाह-सि-संशो ॥ २ तुला-श्रावकव्रतमगावचरिः ५.२ ॥ ३ त्रिभिः करणैः-सि. वि. नास्ति । | ॥५१०॥ ४ सहसंयोगे-सह सम्बन्धे- जे. ॥ ५ कायेन च-मुः। कायेन या-सि.। कयेन-वि.॥ ६ एव कारणानुमतिभ्यामपि सप्त, करणानुमतिभ्यां सप्त-मु, ।। ७ पापावनसूत्र-सि.वि. ॥ तथा-सि.वि.॥ H334800 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: gros: ॥५११॥ नवापी - त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र प्रथमभङ्गे एक एव विकल्पः सर्वप्रकारैः प्रत्याख्यातत्वाद्विकल्पान्तराभाव इति भावः । तदन्येषु पुनर्द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु त्रयस्त्रयः, पञ्चमपोर्नव नव, सप्तमे त्रयः, अष्टमन मर्न नयोवेत्येवं सर्वेऽप्येकोनपञ्चाशत् । एते च त्रिकालविषयत्वात्प्रत्याख्यानस्य कालत्रिकेण - अतीतानागतवर्तमानलक्षणेन गुणिताः सप्तचत्वारिंशं शतं भङ्गानां भवन्ति । त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्दया, साम्प्रतिकस्य संवरणेन, अनागतस्य च प्रत्याख्यानेनेति । यदाह “अईयं निद्रामि पडुपपन्नं संवरेमि अणागयं च पच्चकखामि " [पक्खीमूत्रे ] ति । २६ || साम्प्रतं पञ्चत्रिंशदुत्तरसप्तशतसङ्ख्यान् श्रावकमेदानाह- 'पंचे 'त्यादि, इह नवरिशब्द 'आनन्तर्यार्थः, 'maa rat' [२/१८८] ति प्राकृतलक्षणवचनात् । आनन्तर्य च पूर्वक्तापेक्षया । ततोऽयमर्थःएतदेव सप्तचत्वारिंशं शतं पञ्चस्वप्यणुव्रतेषु प्रत्येकं सप्तचत्वारिंशदधिकस्य भङ्गशतस्य भावात्पञ्चभि वगुणितं सप्तशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि जानीहि - बुध्यस्व श्रावकव्रतग्रहणकाले श्रावकाणां पञ्चाणुव्रतप्रतिपत्तिप्रस्तावे इति ॥२७॥ raat areasवगताः स एव प्रत्याख्यानप्रवीण इति दर्शयन्नाह - 'सोयाल' मित्यादि, विशुद्धिर्नाम जीवस्य विशुद्धिकारित्वात्प्रत्याख्यानमुच्यते तद्विषयं 'सीयालं' ति सप्तचत्वारिंशदुत्तरभङ्गा - ग्रहणप्रकाररूपाणां शतं यस्योपलब्धम् - अर्थतः सम्यक्परिज्ञातं भवति स खलु स एव प्रत्याख्याने नियमविशेषप्रतिपत्तिरूपे कुशलो - निष्णातः, शेषा- एतद्व्यतिरिक्ताः पुनरकुशला अनभिज्ञाः । इह च यद्य१ आनन्तर्यार्थः- सि. वि. नास्ति ॥ २ पवस्वण० सि. वि ।। ३ मङ्गकस्य सि. वि. ॥ २३६ द्वार श्रावक व्रतभङ्गः गाथा १३२२ १३४९ प्र. आ. ३९३ ||५११|| Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोद्धारे सटीके २३६ द्वारे श्रावकव्रतमङ्गः गाथा द्वितीयः प्र. आ. प्यनन्तरं पश्चत्रिंशदुत्तराणि सप्त शतान्यभिहितानि तथापि सप्तचत्वारिंशन्छतमूलत्वात्तेषां मुख्यतया सूत्रे सप्तचत्वारिंशच्छतमेवमुक्तमिति ॥२८॥ ____ अथ 'षड्भङ्गया एवोत्तरभङ्गरूपामेकविंशतिभङ्गीमाह-'दृविहे त्यादि, इयं च प्राग्व्याख्यातेव । इह च द्विविधत्रिविधादिना पूर्वमणितेन मङ्गकनिकुाम्बेन श्रावकाई पत्राणुव्रतादिव्रतसंहतिमङ्गकदेवकृलिकाः सूचिताः, साश्च एककवतं प्रत्यभिहितया पड़ मङ्गया, तथा तथा एकविंशतिमङ्गथा, तथा नवमङ्गया, तथा एकोनपश्चाशद्भङ्गया च निष्पद्यन्ते ।। अथ देवकुलिका इनि कः शब्दार्थः१, उच्यते, एकादिवतप्रतिबद्धभङ्गकदम्बकप्रतिपादका अङ्काः पट्टादिपुन्यस्ता देवकुलिकाकारत्वेन प्रतिभासनादेवकुलिका इति व्यपदिश्यन्ते सर्वास्वपि च देवकुलिकासु प्रत्येक त्रयस्त्रयो राशयो भवन्ति तद्यथा-आदी गुण्यराशिः, मध्ये गुणकारकराशिः, अन्ते चागतराशि रिति ।।२९।। तत्र प्रथमं तावदेतासामेव देवकुलिकाना पड़भङ्गयादिक्रमेण विवक्षितव्रतमङ्गकसर्वसङ्ग्यारूपानेवंकारकराशीनाह-'एगे' स्यादिगाथाचतुष्कम् , एकस्मिन् व्रते-स्थुलप्राणातिपातविरमणादिके ये द्विविधत्रिविधादयः षड्भङ्गाः मूत्रे-आवश्यकनियुक्त्यादी श्रावकाणां निर्दिष्टाः-कथिताम्त एव पड्भङ्गाः सप्तगुणाःसप्तभिस्ताडिताः षड्युताय क्रमेण सर्वभङ्गकसङ्खयाराशिं जनयन्तीति शेषः । कथं पुनः पड्भङ्गाः सप्तभिगुण्यन्ते ? इत्याह-पदवृद्धया-मृपावादाद्यकैकवतवृद्धया, यावन्ति व्रतानि विपश्यन्ते तावतीर्वारा गुण्यन्ते * पमकानों-मि. वि. ॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनबारोद्धारे श्रावक सटीक व्रतभङ्गाः द्वतीय १३२२ १५१३॥ इति तात्पर्यम् । स्थुलं च न्यायमाश्रित्यैवमुच्यते यावता एकवतभङ्गकराशेरवधौ व्यवस्थापितत्वाद्विवक्षितव्रतेभ्य एकेन हीना वारा गुण्यन्ते इति । इयमत्र भावना-- 'एकवते तावत् षड्भङ्गाः, ते च सप्तभिगुणिता जाता द्विचत्वारिंशत् , तत्र पट् क्षिप्यन्ते, जाता अष्टचत्वारिंशत् , एषाऽपि सप्तमिगुप्यन्ते षट् च क्षिप्यन्ते, जातं ३४२, अत्रापि सप्तमिगुणिते षट्सु प्रक्षिप्तेषु जातं २४.०, पुनः सप्तभिगुणिते पट्प्रक्षेपे च जातं १६८०६ । एवं सप्तगुणनपटप्रक्षेपक्रमेण तावद्गन्तव्यं यावदेकादश्यां वेलायामागतं '१३८४१२८७२०० एते चाष्टचत्वारिंशदादयो द्वादशाप्यागतराशय उपर्यधोभावेन व्यवस्थाप्यमाना अर्द्धदेवकुलिकाकारी भूमिकामास्तृण्वन्तीति खण्डदेवकुलिकेत्युच्यते तदेवमुक्ता षड्मङ्गीप्रतिबद्धा खण्डदेवकुलिका ॥३०॥ एकविंशतिमङ्गयादिखण्डदेवकुलिका अप्येवमेव भावनीयाः । केवलमेकविंशतिभङ्गीपक्षे एकविंशतिस्वधी व्यवस्थाप्य वारंवार द्वाविंशत्या गुण्यन्ते, एकविंशतिस्तु प्रक्षिप्यते यायदेकादशवेलायो द्वादशव्रतभसर्वसङ्ख्यायामागतं ११२८५५००२६३१०४६२१५ । ३१॥ नवमङ्गीपक्षेऽप्येवम् , नबरमवधौ नघ, ते च वारंवारं दशभिगुण्यन्ते नव च प्रक्षिप्यन्ते यावदेकादश्यां वारायां सर्वव्रतमानसर्वसङ्ख्यायामागतं ९९९९९९९९९९९९ ॥३२॥ एकोनपश्चाशद्भङ्गीपक्षे पुनरवधावेकोनपश्चाशत् , सा च वारंवारं पश्चाशता गुण्यते एकोनपञ्चाशश्व १तुला-धर्मसंग्रहवृत्तिःभा.११.५६, भावनतमङ्गावचरिः प. ४ ॥२ एषा सप्त-सि.वि.॥ ३ एकादश्यां वेज्ञायां तु १३४१२८७२०. भवति, १३८४१२८७२०२ तु उत्तरगुणाविरतिसंयुक्ता मधन्ति ।। ४ मि.वि. प्रस्थो:-१९८५५०००२६२१०४४२१५ इति ।। प्र. आ. ३९३ ॥५१३॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे मटीके २३६ द्वारे श्रावकव्रतमगाः गाथा द्वित्तीयः खण्ड: ॥५१४॥ प्र.आ. प्रक्षिप्यन्ते, यावदेकादश्या वारायां सर्वव्रतभङ्गकसङ्खयायामागतम् '२४४१४०६२४९९९९९९९९९९९९। अक्षरार्थस्तु सुगम एवेति । तथा सप्तचत्वारिंशच्छतभङ्गपक्षेऽप्येवम् , नवरं तत्र सप्तचत्वारिंशच्छतभवधौ व्यवस्थाप्यते । वारंवारमष्ट चत्वारिंशच्छतेन गुण्यते सप्तचत्वारिंशच्छतं च प्रमिप्यते यायदेकादश्यां चलायाभागतम् ११०४४३. ६०७७१९६११५३३३५६९५७६९५ । उक्तं चA"सीयालं मङ्गसयं वयवुड यालमयगुण कार्ड । सीयालमएण जुयं सम्बग्गं जाण भङ्गाणं ॥१॥" ___ तदेवं प्रतिपादिताः पञ्चापि खण्डदेवकुलिकाः । साम्प्रतं संपूर्ण देवकुलिकानामवसरः । तत्र च प्रतिव्रतमेकैकदेवकुलिकासद्भावेन पडभनयादिषु प्रत्येकं द्वादश द्वादश देवकुलिकाः प्रादुर्भवन्ति ॥३३॥ तासु च सर्वास्वप्युल्यमानासु महान् ग्रन्थविस्तरो भवतीत्यतो दिग्मात्रप्रदर्शनाय षड्भङ्गयामेव द्वादशी देवकुलिकामभिधित्सुरेककद्विकादिसंयोगसूचकगुणकारकराशिसमानयनोपायमाह- 'एगाई' त्यादि, 'एगाई एगत्तरति यावत्प्रमाणानां पदानामेककद्विकादिसंयोगाः समानेतुमिष्यन्ते तावत्प्रमाणा एव एकादय एकोत्तस्या वृद्धया उपर्यु परि क्रमेण स्थाप्यन्ते । इह च द्वादशानां व्रतानां संयोगाः समानेतव्याः, तत एकादयो द्वादश यावन्यसनीयाः । स्थापना-11:- -- ततः 'पत्तेयपयंमिति प्रत्येक एकैकस्मिन् पदे - 'उवरि' ति प्रक्षेपाङ्कोपरिस्थिते 'पक्खेवोत्ति अधस्तनाङ्कस्य प्रक्षेपः कार्यः । अधस्तनाङ्कस्तु तथैव १जे.सि.वि. प्रतिषु २४१४०२२४९९९९९९९९९९९९ इति । A सप्तचत्वारिंशं भङ्गशतं व्रत वृद्धाष्टचत्वारिंशतगुणं कृत्वा । सप्तचत्वारिंशच्छतेन युतं सर्वाय जानीहि मङ्गानाम्॥१॥ ॥५१४॥ N . TOO PACKERARAGAON Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन - सारोद्वारे सटीके द्वितीय: ॥५१५॥ त्रियते, कथं प्रक्षेपः कार्यः १ इत्याह- 'एक्केक्कहाणि 'त्ति एकैकस्योपरितनाङ्कस्य हानिः- वर्जनं यथा भवति तथा क्षेपे २ उपरितनोऽङ्कोऽधस्तनाङ्कक्षेपरहितः कार्य इति भावः । 'अवसानसंख्या हुति संयोग' ति अवसानक्रमेण सर्वाङ्कप्रक्षेपपरिसमाप्तिरूपे ये अङ्काः क्रमशस्तत्सङ्ख्याः- तत्प्रमाणाः संयोगाएकद्विग्यादिपदमीलनरूपा भवन्ति । इयमत्र भावना - प्रथममेकादिद्वादशान्ता ऊर्ध्वायता पङ्क्तिः स्थाप्या । तत एकको द्विके क्षिप्यते, जातास्त्रयः । ते च त्रिषु क्षिप्यन्ते जाताः षट् । ते च चतुष्के क्षिप्यन्ते, जाता दश । ते च पश्चके क्षिप्यन्ते, जाता पश्चदश । ते च पटके जाता एकविंशतिः । सा च सप्तके जाता अष्टाविंशतिः । सा चाष्टके जाता पत्रिंशत् सा च नव जाता पञ्चचत्वारिंशत्, साच दशके जाता पञ्चपञ्चाशत् सा च एकादशे क्षिप्यते जाता पट्षष्टिः । एषा च नोपरिस्थे द्वादशके क्षिप्यते, किंतु द्वादशकस्तदवस्थ एव ध्रियते । 'एक्केrकहाणि' ति वचनात् इति प्रथमप्रक्षेपः । } पुनश्चैककत्रि के क्षिप्यते, जातावत्वारः । ते च षट्के क्षिप्यन्ते, जाता दश । ते च दशके जाता विंशतिः । सा च पञ्चदशके जाता पश्चत्रिंशत् । सा चैकविंशतो जाता षट्पञ्चाशत् । सा चाष्टाविंशतौ जाता चतुरशीतिः । सा च 'षत्रिंशति जातं विंशत्युत्तरं शतम् । तच्च पञ्चचत्वारिंशति जातं पञ्चपष्टयधिकं शतम् । तदपि पश्चपञ्चाशति प्रक्षिप्यते, जातं विंशत्युत्तरं शतद्वयम् । एतच्चोपरिस्थितषट्पष्टौ न क्षिप्यते । 'एक्केकहाणि' ति वचनात् इति द्वितीयः क्षेपः । 3. १ षडविंशती-मु. ॥ २ निक्षिप्यते-सि. वि० ।। २३६ द्वार श्रावक व्रतभङ्गाः गाथा १३२२ ४९ प्र. आ. ३९४ ।।५१५।। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥५१६॥ एवं च वारंवारं चरममकं वर्जयित्वोपयुपरि तावदकाः प्रक्षेप्तव्या यावदेकादशः क्षेपः । एककस्वन्त्यत्वान्न कुत्रापि क्षिप्यते इति द्वादशस्य क्षेपस्यासंभवः । स्थापनातदेवं एककसंयोगा द्वादश, द्विकसंयोगाः षट्-१२ श्रावक पष्टिः, त्रिकसंयोगा द्वे शते विंशत्युत्तरे, चतुष्कसंयोगा-११६६ श्रत्वारिशतानि पश्चनवत्यधिकानि, पञ्चकसंयोगाः सप्त || गाथा १३२ शतानि द्विनवत्यधिकानि, पटकसंयोगा नव शतानि ३६.१२०/३३०/७१२ ८४२१०४६२/१२४/ चतुर्विशत्यधिकानि, सप्तकसंयोगाः सप्त शतानि द्विन- ६RNVI [२५२४६२/७१२ वत्यधिकानि, अष्टकमयोगाश्चत्वारि शतानि पश्चनव-1५१५ ३५ / ७० १६२२१०१३३०/१६५/ प्र. आ 1५६८४१२० १२५/२२० । त्युत्तराणि, नवकसंयोगा द्वे शते विंशत्युत्तरे, दशक ३६/१०/१५ २१ / २८ | ३६ | ४५ | MEE. II ३९४ संयोगाः पट्पष्टिः, एकादशसंयोगाद्वादश, द्वादशक-| | संयोगः पुनरेक एवेति ॥३४॥ ____ अथवा प्रकारान्तरेण संयोगसङ्ख्यापरिज्ञानोपायमाह- 'अहवे' त्यादि, अथवा पदानि-विवक्षितव्रतलक्षणानि पट्टिकादौ स्थापयित्वा 'अक्षान् गृहीत्वा क्रमेण चारणां कुर्यात् । तत एकद्विकादिसंयोगविषये भङ्गाः समुत्पद्यन्ते । तेषां सङ्खथा कर्तव्या । इह च यद्यपि द्वादशी देवकुलिका वक्तुमुपक्रान्ता तथापि लाघवार्थ पश्चाणुव्रतान्येवाश्रित्य भावनाऽभिधीयते । तत्र पञ्चानां पदानामेकसंयोगे एकैकचारणया पश्च भङ्गाः । द्विकसंयोगे दश । ते चैव-प्रथमद्वितीय-प्रथमतृतीय-प्रथमचतुर्थ-प्रथमपञ्चमचारणया चत्वारः १ मतान -सि. वि.॥ ७८ १११११११ MADARA Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटिके द्वितीयः खण्ड: ॥५१७॥ द्वितीयतृतीय- द्वितीयचतुर्थ- द्वितीयपश्च मचारणया त्रयः; तृतीयचतुर्थ तृतीयपञ्च मचारणया द्वौ; चतुर्थपञ्चमचारणा त्वेकः सर्वे दश । तथा त्रियोगेऽपि दश । ते चैवं प्रथमद्वितीयतृतीय- प्रथमद्वितीयचतुर्थ - प्रथमद्वितीयपश्चमप्रथमतृतीयचतुर्थ - प्रथमतृतीय पञ्चम-प्रथमचतुर्थपञ्च मचारणया पट् द्वितीयतृतीय चतुर्थ-द्वितीयतृतीयपञ्चमद्वितीयचतुर्थपञ्च मचारणया त्रयः । तृतीयचतुर्थपञ्च मचारणया त्वेकः । सर्वे दश । चतुःसंयोगे पञ्च, ते चैवं प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थचारणया एकः, प्रथमद्वितीयतृतीयपञ्च मचारणया द्वितीयः, प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्च मचारणया तृतीयः, प्रथमतृतीयचतुर्थपञ्च मचारणया चतुर्थः, द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्च मचारणा तु पञ्चमः । पञ्चकयोगे पुनश्वारणाया असंभवादेक एव भङ्ग इति ॥ ३५ ॥ एवं सर्वत्रापि चारणा करणीया । अथ सूत्रकारः साचादेव द्वादश्या देवकुलिकायाः क्रमेणगुणकारकरा शीनाह - 'बारसे त्यादि गाथाद्वयम्, द्वादश षट्षष्टिविंशत्यधिके द्वे शते, 'पंच नव चररो' ति पश्च नव चत्वारश्च गणितव्यवस्थावशतो व्युत्क्रमेण स्थाप्यन्ते, ततो भवन्ति पश्ञ्चनवत्युत्तराणि चत्वारि शतानि, एवमग्रेऽपि । 'दो नव सत्त य'त्ति द्विनवत्यधिकानि सप्त शतानि । 'चउ दोन्नि नव य' त्ति चतुर्विंशत्युत्तराणि नव शतानि । 'दो नव य 'सत्तेव' ति द्विनवत्यधिकानि सप्त शतानि । पण नव रो' सि पञ्चनवत्युत्तराणि चत्वारि शतानि । विंशत्युत्तरे द्वे शते षट्षष्टिर्द्वादश एकश्चेत्येते राशयः सर्वेपामपि श्रावकभङ्गानां षट्पट्त्रिंशदादिरूपाणां गुण्यराशीनां यथाक्रमं गुणकारा भवन्ति । सर्वग्रहणं १ सत्तेवयति सि. वि. ॥ २३६ द्वारे श्रावक व्रतभङ्गाः गाथा १३२२ १३४९ प्र. अ. ३९५ ।।५१७॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे मटीके गाथा द्वितीयः ॥५१८॥ चेदं ज्ञापयति-न षड्भङ्गयामेव केवलायामेते गुणकाराः, कित्येकविंशतिभङ्गयादिष्वपि, गुणकारकराशीन |२३६ द्वारे सर्वत्राप्येकस्वरूपत्वात् ॥३६॥ ३७॥ श्रावकइदानी द्वादश्या एवं देवकुलिकायाः क्रमेण गुण्यराशीनाह-'छच्चेव येत्यादिगाथाचतुष्कम् , वनभङ्गाः पडेव पत्रिंशत् "सोलस दुर्ग चेव' त्ति द्वेशने पोडशोत्तरे २१६, 'छन्नव दुगेक्कं' ति एकमहस्र पात्यधिक इस स स सत्त सत्त य' नि सप्त महम्राः सप्त शनानि पटममन्य १३२२. धिकानि ७७७३, 'छपन्नछछहिछचउ' ति पट्चत्वारिंशत्महस्राणि षट् शतानि पट्पञ्चाशदधिकानि १३४९ ४६६५६, 'छ?' ति आद्यषटकापेक्षया षष्ठे स्थाने इत्यर्थः, 'छत्तीसा नवनउई सत्ताचीसा य' त्ति द्वे लझे एकोनाशीतिः महम्रा नत्र शतानि षट्त्रिंशच्चेति २७६६३६, 'सोलस छन्न उई सत्त य सोलस प्र.आ. भंग' ति सोलत्ति-पोडश लझा: एकोनाशीतिः सहस्राणि षट् शतानि षोडश मङ्गानष्टमस्थाने विजानीहि अवबुध्यस्त्र '१६७६६१३ । 'छन्नउई छावत्तरि सन दुसुन्नेके' ति एका कोटिः सप्तसप्ततिः सहस्राः पट् शतानि 'पण्णवतिश्च १००७७६६६ 'भवन्ति नवमे स्थाने 'छाहत्तरि इगसष्ठी छायाला सुन्न छुच्चेष' ति षट् कोट्यश्चतस्रो लक्षाः षट्क्षष्टिः सहस्राः शतमेकं षट्सप्ततिश्चेति ६०४६६१७६, 'छप्पन्न सुन्न सस्त य नव सत्तावीस सह य छत्तीसति पत्रिंशत्कोटयः सप्तविंशतिर्लक्षाः सप्तनवतिः सहस्राः पटुपश्चाशन्वेति, ३६२७६७०५६ । 'छत्तीसा तेवीसा अहत्तरी छहसरीगवीस' ति र सो दुर्ग-मः ॥ २सि. . प्रत्योः १६६४१-वि॥ ३ पण्णवतिय मनम्ति नवमे ग्याने १०:४०६९६-.॥ ॥५१॥ KAR MARNER anvaad Hits Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..-- - - श्रावकव्रतभङ्गा गाथा १३२२ द्वे कोटीशते सप्तदश कोटयः सप्तपष्टिलक्षाः द्वयशीतिः सहस्रास्त्रीणि शतानि पत्रिंशदधिकानि २१७६. ७८२३३६ । प्रवचनसारोद्वारे ___ एतेषां च राशीनामानयनोपायो यथा-आद्याः षट् पड्भिगुण्यन्ते जाताः षट्त्रिंशत् , सापि पड्मि गुण्यते जाते द्वे शते षोडशोत्तरे, एवं वारंवारं तावत् षभिगुणनं विधेयं यावद् द्वादशापि गुण्यराशयः सटीके संपूर्णाः संपद्यन्ते इति । 'एत एव पड़ देवकुलिकाः पत्रिंशदादयो द्वादश गुण्यराशयः क्रमशो द्वादशपदपष्टिप्रभृतिभिर्दादशमिगुणकारकराशिभिगुणिता आगतराशयो भवन्ति । 'उक्तं च पढमवए भगा छह छाई गुणिया य वारसवि ठाणा । संजोगेहि य गुणिया सावयवयभंगया हुँति ॥१॥" ॥५१९॥ ॥ इह च सूत्रकारणागतराशयोविस्तरभयानोक्ताः, वयं तु विनेयानुग्रहाय गाथाभिरुपदर्शयामः, 'यथा बाहत्तरि १ छाहत्तरि तेवीसा २ सुन्न दु पण सीयाला ३ वीसा पनरस चउसहि ४दु नव पणसीइ पनर छ य ॥१॥ चोयालसयं दस एकतीस चउ ६ बार ति नव सयरी य । हग दुदु ७ वीसा नव नव चालीसा एग तेयासी८॥२॥ वीस इगतीस नव सयरि एग बावीस ९ सोल छस्सत्त सुन्न नव नव तिनि य १० दसममि ठाणमि ॥३॥ बाहत्तरि छायाला छप्पन तिष्पन्न ति चउ ११ छत्तीसा । तेवीसा अइहत्तरि छहत्तरि एकवीसा यं १२ ॥४॥ गाथाचतुष्टयस्याप्यथः प्राग्वदवसेयः । तदेवमुक्ता गुण्यगुणकारकागतराभित्रयप्रदर्शनेन द्वादशी देवकुलिका । एतदनुसारेणाप्रोक्ता अन्या अध्येकादश देवकुलिकाः स्वयमभ्युह्याः । यथा च षड्भङ्गयां १ ते तत एव-वि. । तत एव सि. ॥ २ उक्तं प-सि. वि. नास्ति || ३ यथा-मु. नास्ति । एतदनुसारेण प्राक्तन्यो भाये-सि.पि. . प्र. आ. H m mmmmthan andinidinusinnomiyamarinanimirmireviewsMINIMIRRORIS T OTR Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके २३६ द्वारे श्रावकव्रतभङ्गाः गाथा १३२२. १३४९ द्वितीयः ॥५२॥ प्र. आ. द्वादश देवकुलिकाः एवमेकविंशतिनवैकोनपश्चाशत्सप्तचत्वारिंशशतभङ्गपक्षेऽप्यनया दिशा प्रत्येकं द्वादश द्वादश देवकुलिकाः समवसेयाः । सर्वसंख्यया च पष्टिदेवकुलिका भवन्तीति । सर्वासामप्यासा देवकुलिकाना स्थापना बहुश्रुतसूरिसूत्रितेभ्यः पटेभ्यः प्रतिपत्तव्याः, भावार्थस्तु पुरस्ताद्वयक्तीकरिष्यते ॥३८-४१॥ अथ 'दुविहं तिविहाइणऽहा होति' ति यत्पूर्वमुक्तं तद्विवृण्वन्नाह-'दुविहे' त्यादिगाथाद्वयं, एतच प्रागेव व्याख्यातम् ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ इदानीमष्टोत्तराष्टशताधिकषोडशसहस्रसंख्यान श्रावकभेदानभिधिन्सुः पञ्चाणवतदेवकुलिकाप्रतिपादनाय प्रथममेकादिसंयोगपरिमाणप्रदर्शनपरान् गुणकारकराशीनाह-'पंचपहमित्यादि, पञ्चानामणव्रतानामेककद्वित्रिकचतुष्कपश्चकैश्चिन्त्यमानाना यथासंख्येन पश्च दश दश पञ्चैकश्चेत्येवं संयोगा ज्ञातव्याः, अयमर्थः-पश्चानामणुव्रतानामेककसंयोगाः पञ्च, द्विकसंयोगा दश, त्रिकसंयोगा अपि दश चतुष्कसंयोगाः पश्च, पञ्चकसंयोगस्त्वेक एवेति । एते च संयोगा 'एगाई एगुत्तरे'त्यादिना करणेनाक्षसंचारणया वा समानेतव्या। भावना तु प्रागेव 'प्रदर्शिता ॥ ४४ ॥ अथ पञ्चमदेवकुलिकाया 'गुण्यराशी नाह-'छच्चेवे'त्यादि; आदौ पडेव, ततः षट्त्रिंशत् , 'सोलदुगं चेव' ति द्वे शते षोडशोत्तरे, 'नव दुग एक' मिति द्वादश शतानि पण्णवत्यधिकानि, 'छ सत्त सत्त सत्त य' ति सप्तसहस्राः सप्त शतानि षट्सप्तत्युत्तराणि, पञ्चानामपि व्रतानाममेतद्गुणनस्य-ताडनस्य पद-स्थानम् , गुण्यराशयः इत्यर्थः ॥ ४५ ॥ इदानीमष्टोत्तरशता० मु.॥ २ दर्शिता-सि. वि.] ३ गुणरा. सि. वि.॥ ॥५२०॥ 2-53 .. ... ..: PICIAlterEELLOs. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन नरोद्धारे टोके द्वतीय: इण्ड: ।५२१।। अथ पञ्चमदेवकुलिकाया एवागतराशीनाह - 'वये' त्या दिगाथात्रयम्, व्रतसंबन्धिनामेकक संयोगानां पञ्चानां त्रिंशद्भङ्गा भवन्ति । द्विकसंयोगानां दशानामपि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति । त्रिकसंयोगानां दशानामेकविंशतिर्भङ्गशतानि षष्ट्यधिकानि-पष्टयधिकशतोत्तरे द्वे सहस्र इत्यर्थः । चतु:संयोगपञ्च पञ्चानां चतुष्कसंयोगानां चतुःषष्टिः शतान्यशीत्युत्तराणि भवन्ति, पञ्चके - पञ्चकसंयोगे पुनः सप्तसप्ततिः शतानि षट्सप्तत्युत्तराणि भङ्गानां भवन्ति । इयमत्र भावना - कश्वित्स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि पञ्चाणुत्रतानि प्रतिपद्यते । तत्र किल पञ्चैकसंयोगाः, एकैकस्मिंश्व एकक संयोगे द्विविधत्रिविधादयः षद् षड्भङ्गा भवन्ति । ततः षट् पञ्चभिगुoयन्ते जातास्त्रिशत् । एतावन्तः पञ्चानां व्रतानामेककसंयोगे भङ्गाः, तथा एकैकस्मिन् द्विक्संयोगे पट्त्रिंशत् पत्रिंशङ्खङ्गाः । तथाहि प्राणातिपातयत संबन्धी द्विविधत्रिविधलक्षणः प्रथमो भङ्गकोऽवस्थितो मृषावादसत्कान् षड्भङ्गान् लभते । एवं प्राणातिपातव्रतसंबन्धी द्विविवद्विविधलक्षणो द्वितीयोऽपि मङ्गकोsafस्थितो मृषावादसत्कान् षड्भङ्गान् लभते । एवं प्राणातिपातवतसंबन्धी द्विविधैकविध लक्षणस्तृतीयोऽपि भङ्गः एकवित्रिविधलक्षणचतुर्थोऽपि एकविध द्विविधलक्षणः पञ्चमोऽपि एकविधैकविधलक्षणः षष्ठोऽपि भङ्गकोऽवस्थितः, एवं मृषावादसत्कान् षट् पद्मङ्गान् प्रत्येकं लभते । ततश्च पट् षड्भिर्गुणिताः षटूत्रिंशत् । दश चात्र द्विसंयोगा भवन्तीत्यतः षट्त्रिंशद्दशभिगुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि षष्यधिकानि । एतायन्तः पञ्चानां व्रतानां द्विक्संयोगे भङ्गाः । १. ०संयोगांनां त्रिंशदुमङ्गानां सि. वि. ॥ २ चतुःपञ्चसंयोगविषि ॥ ३ तथा सि. वि. ॥ ४ षड्मङ्गान् सि. वि. ॥ २३६ द्वारे श्रावक व्रतभङ्गा गाथा १३२२ ४९ प्र. आ. ३९६ ।।५२१॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २३६ द्वारे পাৰव्रतभङ्गाः गाथा १३२२ भङ्गामिलापश्चैव-स्थूलप्राणातिपातं प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृषावादमपि द्विविधं प्रवचन- त्रिविधेन १, स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलमृशावाद तु विविध द्विविधेन २, स्थूलप्राणातिपातं सारोद्धारे। द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलमृपावादं तु द्विविधमेकविधेन ३, स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलमृपासटीके वादं त्वेकविधं त्रिविधेन ४, स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलमृषावादं स्वेकविधं द्विविधेन ५, स्थूलप्राणानिपातं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृपावादं पुनरेकविधमेकविधेन ६ । द्वितीयः खण्ड: एवं स्थूलादत्तादानपैथुनपरिग्रहेष्वपि प्रत्येक षट् पड्भङ्गाः सर्वेऽपि मिलिताश्चतुर्विशतिः । एते च द्विविधत्रिविधलक्षणं प्राणातिपातप्रथमभङ्गममुञ्चता लब्धाः । एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठेष्वपि प्राणातिपातभङ्गेषु चतुर्विशतिश्चतुर्विशतिर्भङ्गा भवन्ति । एते सर्वेऽपि चतुश्चत्वारिंशदुत्तरं शतम् । तथा स्थूलमृपावादं प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन, स्थलादत्तादानमपि द्विविधं त्रिविधेनः स्थूलमृपावादं द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलादत्तादानं तु द्विविधं द्विविधेन । एवं पूर्वक्रमेण षड्भङ्गा ज्ञेयाः । एवं मैथुनपरग्रहेष्वपि प्रत्येक पट षड्भङ्गाः । सर्वेऽप्यष्टादश । एते च मृपावादप्रथमभङ्गममुञ्चता लब्धाः । एवं द्वितीयादिष्वप्यष्टादश २ भवन्ति । मिलिताश्चाष्टोतरं शतम् । तथा स्थूलादत्तादानं स्थूलमैथुनं च प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलादत्तादानं द्विविधं त्रिविधेन, 'स्थूलमैथुनं तु द्विविधं द्विविधेन । एवं पूर्वक्रमेण षड् भङ्गा ज्ञेयाः । एवं मैथुनपरिग्रहेष्वपि पड् भङ्गाः, सर्वेऽपि द्वादश । एते च स्थूलादत्तादानप्रथमभङ्गकममुञ्चता लब्धाः । एवं द्वितीयादिष्वपि द्वादश द्वादश भवन्ति । मिलिताथा द्वासप्ततिः। १ स्थूलमैथुनं तु द्विविधं द्विविधन-सि. वि. नास्ति । ||५२२॥ C Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः | স্বান্ত व्रतमङ्ग गाथा १३२२ ५२३॥ तशास्शुलशन ग्लएरिगई । प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलमैथुनं द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलपरिग्रहं तु द्विविधं द्विविधेन एवं पूर्वक्रमेण षड् भङ्गाः, एते च स्थूलमैथुनप्रथमभङ्गकममुश्चता लब्धाः । एवं द्वितीयादिष्वपि प्रत्येकं षट् पड्भवन्ति, मिलिताश्च पत्रिंशत् । एते च मूलादारभ्य सर्वेऽपि चतुश्चत्वारिंशं शतम् , अष्टोत्तरं शतम् , द्वासप्ततिः, विशच्च मिलितास्त्रीणि शतानि पष्टयधिकानि भवन्तीति । एवं त्रिकसंयोगादिष्यपि भङ्गामिलापः कार्यः । विस्तरभयाच्च नेह प्रदर्श्यते । तथा एकैकस्मिस्त्रिकसं योगे पोडशोत्तरं शतद्वयं प्रत्येक 'भङ्गानां भवन्ति । तथाहि-भृपावादसंबन्धी प्रथमो भङ्गोऽवस्थितोऽदत्तादानसत्कानपड्भङ्गान् लभते । एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठा अपि पड्भगान् लभन्ते । ततोऽत्रापि षट्त्रिंशद् भङ्गाः । ते च प्राणातिपातप्रथमभङ्गकेन लब्धाः । एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपश्चमषष्ठेरपि प्राणातिपातसंबन्धिभिभङ्गः पत्रिंशत् घट्विंशलब्धाः । पत्रिंशतश्च पद्मिगुणने द्वे शते पोडशोत्तरे । अत्र च त्रिकसंयोगा दश भवन्ति । ततो द्वे शते पोडशोत्तरे दशभिगुण्येते जातान्येकविंशतिः शतानि षष्टयधिकानि। एतावन्तः पश्चानां व्रतानां त्रिकसंयोगे भङ्गाः। तथा एककस्मिन चतुष्कर्मयोगे द्वादश शतानि षण्णवत्यधिकानि प्रत्येकं भङ्गानां भवन्ति । तथाहि-अदत्तादानसंबन्धी प्रथमो भङ्गोऽवस्थितो मैथुनव्रतसत्कान् पड्भङ्गान् लभते । एवं द्वितीयतृतीय- चतुर्थपञ्चमषष्ठा अपि पड् भङ्गान् लभन्ते । जाताः षट्त्रिंशद् भङ्गाः । ते च मृपावादप्रथमभङ्गकेन लब्धाः। एवं द्विनीयतृतीयचतुर्थपश्चमषष्ठैरपि मृपावादभङ्गः पत्रिंशत् पत्रिंशलब्धाः, जाते द्वे शते षोडशोतरे । एते च प्राणातिपातमङ्गकैः पभिरपि प्रत्येकं प्राप्यन्ते । जातानि १२९६ । चतुष्कसंयोगाश्चात्र पञ्च, १ भङ्गाना-सि. वि. नास्ति ॥२ दशमिर्गुण्यते-मि. वि.॥ [प्र.आ. . ॥२३॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥५२४॥ ततो द्वादशशतानि पण्णवत्यधिकानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते जातानि चतुःषष्टिशतान्यशीत्यधिकानि एतावन्तः पश्चानां व्रतानां चतुष्कसंयोगे भङ्गाः । तथा पञ्चसंयोगे मैथुनव्रतसंबन्धिनः प्रथमाद्याः षडपि मङ्गाः प्रत्येकं परिग्रहसत्कान् पट् पद्मङ्गान् लभन्ते । जातम् ३६ । सा च पत्रिंशत् अदत्तादानभङ्गैः पद्भिरपि प्रत्येकं प्राप्यते, जातम् ५१६ । एते च द्वे शते पोडशोचरे मृषावादभङ्गैः षड्भिरपि प्रत्येकं प्राप्यते, जातम् १२६६ । एतानि च द्वादश शतानि पण्णवत्यधिकानि प्राणातिपातव्रतसंबन्धिभिः पद्भिरपि भङ्गः प्रत्येकं प्राप्यन्ते जातानि ७७७६ । एक एव चात्र पञ्चकसंयोगः, ततः सप्तसप्ततिशतानि पद्मप्प्रत्युत्तराणि एकेन गुण्यन्ते, 'एकेन गुणित गुग्याशेष्ट दूधभावात्सप्तसप्ततिशतानि षट्सप्तत्यधिकानीत्यवस्थितैव सङ्ख्याजाता । एतावन्तः पञ्चानां व्रतानां पञ्चकसंयोगे भङ्गाः । T व्रतयन्त्रकस्थापना चेयम्, तदेवं गुणकारकगुण्यागतराशित्रिकेण निष्पन्ना परिपूर्णा पश्चमी देवकुलिका । एतदनुसारेण सर्वासामपि देवकुलिकाना 'निष्पत्तिनिपुणेन स्वयमवसेया । 'उत्तरगुणअविरयमेलियाणाजाणाहि सव्वग्गं' ति प्रतिपश्नोत्तरगुणाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षण मेदद्वयीमिलितानामनन्तरोक्तानां विंशत्भृतीनां भङ्गा सर्वाग्रं सर्वसङ्ख्यां जानीहि ॥४६॥४७॥४८॥ २३ २३ २१ 13 एतदेवाह - 'सोलसे 'त्यादि, पोडश सहस्रा अष्टौ शतान्यष्टाधिकानि भवन्ति १६८०८ । एषः - 'पूर्वोक्तो व्रतानां पञ्चानां पिंडार्थ:-सर्व समुदायसङ्ख्यास्वरूपः । १२ " १ निष्पतिर्निपुणत्वेन - मु । विशेषार्थं द्रष्टव्यः धर्मसमभाषान्तरमन्थः पू. १६७ सः । २- १६८०५-मु, नास्ति ॥ ३ पूर्वोक्तानां सि. वि. ।। Tt २१६ १० १२४६ ७७७१ प्रा 10 ६. २१६० ९४८५० ७७७६ प २१२१२५ 21 13 13 13 +3 १२ १२/१२ 3 15 31 11 " २३६ द्वारे श्रावक व्रत भङ्गाः गाथा १३२२ १३४९ प्र.आ. ३९८ ॥५२४|| Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mu mbai प्रवचन- सारोद्वारे सटीके श्रावकव्रतमङ्गाः गाथा १३५० द्वितीयः खण्ड: दर्शनादयस्तु प्रतिमा-अभिग्रहविशेषाः, न पुनर्जतानि, ताम्यो व्रतानां विभिन्नस्वरूपत्वादिति भावः । एते च श्रावकाणा मेदाः पञ्चैवाणव्रतान्याश्रित्योक्ताः, द्वादशवत्तविवक्षया तु भूयस्तरा अपि भेदा मवन्ति ॥४९॥ तथा चाह तेरसकोडिसयाई घुलसीइजुयाई पारस य लकवा । सत्तासोई सहस्सा दो य सया तह 'दुरग्गाय ॥५०॥ [श्रावकवतमङ्ग प्र. गा.४०] 'तेरसे'त्यादि, प्रयोदश कोटिशतानि चतुरशीतिकोटयो द्वादश लक्षाः सप्ताशीतिसहस्राणि दे शते द्वय त्तरं १३८४१२८७२०२, एताच षड्भङ्गीप्रतिबद्धाया द्वादश्या देवकुलिकायाः समागतसर्वराशिसंपिण्डनेन उत्तरगुणाविरतरूपभेदद्वयप्रक्षेपेण च भवतीति । एते च सर्वेऽपि श्रावकाणामेव व्रतमना इड प्रतिपादिताः। __साधूनां पुनः सप्तविंशतिरेव मङ्गा भवन्ति । तथाहि-यन करोति तन्मनसा वचसा कायेन । एवं न कारयत्यपि मनसा वाचा कायेन । एवं न समनुजानीते मनसा वचसा कायेनेत्येवं वर्तमाने काले नव माः । एवमतीतेऽपि नव । भविष्यत्यपि नवेत्येचं सप्तविंशतिः । आह च भाष्यकृत्D"करणतिगेणेकेक्कं कालतिए तिघणसंखियमिसीणं । सव्वंति ओमहियं सीयालसयं पुण गिहीणं ॥१॥ प्र. आ. ३९८ ॥५२॥ १दुरुत्ताय-मु.॥ करणत्रिकेणेकैकं (योग) कालत्रिकेण निधनसायमृषीणाम । समिति यतो ग्रहीत सातपत्वारिंश शसं पुनहिणाम् ।। (३४३४३-२७) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके पापस्थाना। गाथा द्वितीयः ॥५२६॥ .. अब न करोमि न कारयामीत्यादिकमेकैकं योगं मनःप्रभृतिना करणत्रयेण सह कालत्रिके चारयेत् । ततश्च त्रयाणां यो धनः-सप्तविंशतिलक्षणस्तत्सङ्ख्यैव-भङ्गकसङ्ख्यामाश्रित्य तत्सङ्ख्याप्रमाणमृषीणासाधूनामवबुध्येतेति शेषः । कस्मादित्याह-यतः सर्वसावधयोग प्रत्याख्यामीति साधुभिः प्रत्याख्यानं गृहीतम् , ततस्तत्प्रत्याख्यानभङ्गकानामेतत्सयाप्रमाणता । असर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यायिना पुनगृहिण प्रत्याख्यानस्य सप्तचत्वारिंशदुत्तरं भङ्गकशतं विज्ञेयमिति ॥५०॥२३६ ।।। अधुना 'अट्ठारस 'पावठाणगाई" ति सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह सव्वं पाणाइवायं १ अलिय २ मदत्तं ३ च मेहणं सव्वं ।। सव्वं परिग्गहं ५ तह राईभत्तं च 'वोसिरिमो ॥५१॥ सव्वं कोहं ७ माणं ८ मायं ९ लोहं १० च राग ११ दोसे १२ य । कलह १३ अब्भक्खाणं १४ पेसुन्नं १५ परपरीवायं १६ ॥५२॥ मायामोसं १७ मिच्छादसणसल्लं १८ तहेव 'वोसिरिमो। अंतिमऊसासंमि देहपि जिणाइपच्चक्खं ॥५३॥ सर्व-मप्रभेदं प्राणिातिपातम् १, तथा सर्वमलीकं-मृषावादम् २, तथा सर्वमदत्तम्-अदत्तादानम् ३, तथा सर्व मैथुनम् ४, तथा सर्व परिग्रहम् , ५, तथा सर्व रात्रिभक्तं च-रजनिभोजनम् ६, व्युत्सृजामः१ पावठाणाईति-सि. ॥ २ पाणवायं-मु. ॥ ३ बोसरिमो-मु. ॥ ४ वोसरिमो-मु. पोसिरामो-सि.॥ प्र. आ. |३९८ || ॥५२६ IAS BETHEATREEMinuddroid Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २३७ द्वारे अष्टादश प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः पाप परिहरामः । तथा सर्व क्रोधं ७ मानं . मा. लोभन १० गागडे पौ च ११.१२ तथा कलहम् १३ अभ्याख्यानं १४ पैशून्यं १५ परपरिवादं १६ मायामृषा १७ मिथ्यात्वदर्शनशल्यं च १८ तथैव सप्रभेदं व्युत्सृजामः । एतान्यष्टादश पापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि । न केवलमेतान्येव, किंतु अन्तिमे उच्छवासे, परलोकगमनसमये इत्यर्थः, देहमपि निजं शरीरमिति व्युत्सृजामः, तत्रापि ममत्वमोचनाद जिनादिप्रत्यक्ष--तीर्थकरसिद्धादीनां समक्षमिति । तंत्र प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रिभक्तक्रोधमानमायालोमाः प्रतीताः । तथा रागः-अनभिव्यक्तमायालोभलक्षणस्वभावभेदमभिष्वङ्गमात्रम् , 'दोसो' त्ति द्वेषणं द्वेषः, दूषणं वा दोषः, स चानभिव्यक्तक्रोधमान लक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रम् । कलहो-राटी, अभ्याख्यानं-प्रकटमसहोपारोपणम् , पैशून्य-पिशुनकर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविर्भावनम् । तथा परेषां परिवादः परपरिवादो.. विकथनमित्यर्थः, तथा माया च-निकतिः, मृषा च-मृपावादः, मायया वा सह मृषा मायामृपा प्राकृतवान्मायामोसं मायामुस वा दोषद्वययोगम्' इदं च 'मानमृषादिदोषसंयोगोपलक्षणम् , वेशान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये । तथा मिथ्यादर्शन--विपर्यस्ता दृष्टिः तदेव तोमरादिशल्यमित्र शल्यं दुःखहेतुत्वान्मिथ्यादर्शनशल्यमिति । - स्थानाङ्गे च रात्रिभोजनं पापस्थानमध्ये न पठितं किंतु परपरिवादाग्रतोऽरतिरप्तिः । तस्य चायमर्थः-अरतिश्च-तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वेगलक्षणः, रतिश्च-तथाविधानन्दरूपा, अरतिरति१०-सि. वि.॥२मानमृपाधिसंयोगोषोपलक्षणं-सि.वि.॥ स्थानानि गाथा | १३५१-३ ॥५२७॥ प्र.आ. ५२७॥ Manakasa Neerintentimanawwanmmmmm मालाला Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Assespon प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः d immmmmmmmmmmmmmmm ॥५२८॥ रित्येकमेव विवक्षितम् । यतः वचन विषये या रतिस्तामेव विषयान्तरापेक्षयाऽरति व्यपदिशन्ति । एव. १२३८ द्वारे मरतिमेव रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति । तथा रागपदस्थाने पिज्ज पदं च पठन्ति, तत्र व प्रिय. मुनिगुणा स्य भावः कर्म वा प्रेम, अर्थस्तु रागपदवाच्य एवेति ॥५१॥५२॥ ५३॥ २३७|| गाथा. इदानीं "मुणिगुण सत्तावीसं त्यष्टत्रिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह छध्धय छकायरक्खा पचिदियलोहनिग्गहो खंती । आनतिसुद्धी पडिलेहणाइकरणे विसुद्धी य ॥५४॥ संजमजोए जुम्सय अकुसलमणवयणकायसंरोहो । प्र. आ. सीयाइपीरसहणं मरणंतुषसग्गसहणं च ॥५५॥ षट् व्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि रजनिभोजनपर्यवसानानि, पण्णां कायाना-पृथिव्यादि. त्रसान्तानां रक्षा-संघट्टपरितापादिपरिहारेण सम्यगनुपालनम् , पञ्चानामिन्द्रियाणा-श्रोत्रादीनां निग्रहोनियन्त्रणम् , इष्टेतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणमित्यर्थः, लोभस्य च निग्रहो-विरागता, शान्ति:-क्रोध. निग्रहः, भावविशुद्धिः-अकलुषान्तरात्मता प्रतिलेखनादिकरणे च त्रिशुद्धिः, शुद्धनाध्यवसायेन सम्यगुपयुक्तया प्रत्युपेक्षणादिक्रियाकरणमित्यर्थः । तथा संयमोपष्टम्मको योऽसौ योगो-व्यापारस्तत्र युक्ततातत्परता, अकुशलानाम्-अप्रशस्तानां 'मनोवचनकायानां संरोधो-निषेधा, प्रशस्तानामेव तेषां करणमिति तात्पर्यम् । शीतवातातपादिजनितायाः पीडायाः-वेदनायाः सहन-सम्यग्मर्षणम् , 'मरणान्तोपसर्गसहनं । तुला-मावश्यक. हारिमीत्तिः १.६५० ॥ २ मरण (d) बसमा० मु. ॥ ३ मनोषचायाना.-मु.॥ .. - -- lingtoneMISSION Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च' मरणमन्ते येषां ते मरणान्ता-मरणहेतब इत्यर्थ, ते च ते उपसर्गाश्च मरणान्तोपसर्गास्तेषां सहनंकल्याणमित्रबुद्धया सभ्यक्तितिक्षणम् । एते सप्तविंशतिमुनीनाम्-अनगाराणां गुणाः-चारित्रविशेषा प्रवचन सारोद्धारे भवन्ति । सटीके २३६ २१ श्रावकगुणाः गाथा १३५६ द्वितीयः ॥५२९॥ प्र.आ. अन्यत्र पुनरित्थमनगारगुणा उक्ताः-महाव्रतानि पञ्च ५, इन्द्रियनिग्रहाश्च पश्च १०, क्रोधादिविवेकाश्चत्वारः १४, सन्यानि त्रीमि, सयमावशा शुद्धान्तरात्मता, करणसत्यं यथोक्तप्रतिलेखनादिक्रियाकरणम् , योगसत्य-मनःप्रभृतीनामवित्तथत्वम् १७, क्षमा-अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपम्य द्वेषसंज्ञितस्याप्रीतिमात्रस्याभावः । अथवा क्रोधमानयोरुदयनिरोधः, 'क्रोधमानशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागभिहित इति न पौनरुक्त्यम् १८, विरागता-अभिष्वङ्गमात्रस्याभावः, यद्वा मायालोभयोरनुदयो मायालोभविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागमिहित इतीहापि न पुनरुक्तता १९, मनःप्रभृतिनिरोधाः २२, ज्ञानादिसंपन्नतास्तिस्रः २५, वेदनाधिसहनता २६, मरणान्तोपसर्गसहनं च २७ ॥५४॥ ॥५५॥ २३८॥ इदानीम् 'इगवीसा सावयगुणाणं' त्येकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह अम्मरयणस्स जोगो अक्खुदो १ रूववं २ पगइसोमो ३ । लोयप्पिओ ४ अकूरो ५ भीरू ६ 'असदो ७ सदक्विन्नो ८ ॥५६॥ १कोषमानविवेकशम्दाभ्यां-वि.॥२ देवनाधिकसहनता-सि. वि.॥३मसठो-मु.॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटीके द्वितीय: खण्ड: ५३० लज्जालुओ ९ दयालू १० मज्झत्थो ११ सोमदिट्ठि १२ गुणरागी १३ । सहसु पक्खजुत्तो १४ सुदीहदसी १५ विसेसन्नू १६ बुड्डाणुगो १७ विणीओ १८ कथन्तुओ १९ परहित्यकारी य २० । ॥५७॥ २३९ द्वारे २१ श्रावक a serat २१ इगवीसगुणों हवइ सो ||२८|| [ धर्मरत्नपकरणे ५-७ ] गुणाः गाथा १३५६-८ परतीर्थिक प्रणीतानां सर्वेषामपि धर्माणां मध्ये प्रधानत्वेन यो रत्नमिव वर्तते स धर्मग्नं - जिनोदितो देशवित्यादिरूपः समाचारः, तस्य योग्यः - उचित ईक्स्वरूप एव श्रावको भवति । तद्यथा - अक्षुद्र इत्यादि । 'तत्र यद्यपि क्षुद्रः-छः क्षुद्र:- कूल, सुद्रो दरिद्रः, क्षुद्रो- लघुरित्यनेकार्थः क्षुद्रशब्दः, तथाsure तुच्छार्थी गृह्यते तस्यैव प्रस्तुतोपयोगित्वात् । ततः क्षुद्र:- तुच्छोऽगम्भीर इत्यर्थः तद्विपरीतोऽक्षुद्रः । स च सूक्ष्ममतित्वात् सुखेनैव धर्ममवबुध्यते १ । रूपवान् - संपूर्णाङ्गोपाङ्गता मनोहराकारः, स च तथारूपसंपन्नः सदाचारप्रवृत्या भविकलोकानां धर्मे गौरवमुत्पादयन् प्रभावको भवति । ननु नन्दिषेणहरिकेशबलप्रभृतीनां कुरूपाणामपि धर्मप्रतिपत्तिः श्रूयते, अतः कथं रूपवानेव धर्मेऽधिक्रियते ? सत्यम्, इह द्विविधं रूपं - सामान्यमतिशायि च तत्र सामान्यं संपूर्णाङ्गत्वादि, तच्च नन्दिषेणादीनामप्यासीदेवेति न विरोधः प्रायिकं चैतन्वगुणसद्भावे कुरूपत्वस्याप्यदृष्टत्वात् । एवमग्रेऽपि । अतिशायि पुनर्यद्यपि तीर्थकरादीनामेव संभवति, तथापि येन क्वचि देशे काले वयसि वा वर्तमानो रूपवानयमिति जनानां प्रतीतिमुपजनयति तदेवेहाधिकृतं मन्तव्यम् २ | २ तुला धर्मरत्नप्रकरणस्वोपज्ञवृत्तिः गा ५५.३ ॥ ४ तुला- धर्मरत्न प्र स्वोवृत्तिः गा. ६५, ६ वः ॥ १ सुदीन रिसी- इति धर्मरत्नप्रकरणे पाठ ॥ ३ तुला धर्मरत्न प्र. स्वो वृत्तिः गा. प ४ ॥ प्र. आ. ४०० 113011 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्डः ॥५३१॥ 'प्रकृत्या - स्वभावेन सौम्यः - अभीषणाकृतिर्विश्वसनीयरूप इत्यर्थः । एवंविधश्च प्रायेण न पायव्यापारे व्याप्रियते सुखाश्रयणीयश्च भवति ३ । लोकस्य सर्वजनस्य इहपरलोकविरुद्धवर्जनेन दानशीलादिगुणैश्च प्रियो-वल्लभो लोकप्रियः, सोऽपि सर्वेषां धर्मे बहुमानं जनयति । * अक्रूरः- अक्लिष्टाध्यवसायः क्रूरो हि परच्छिद्रान्वेषणलम्पटः कलुषमनाः स्वानुष्ठानं कुर्वन्नपि न फलभाग्भवतीति ५ । मोरु:- ऐहिकामुष्मिक पायसनशीलः, स हि कारणेऽपि सति न निःशङ्कमधर्मे प्रवर्तते ६ । अशठ: -अच्छद्मानुष्ठाननिष्ठः, शठो हि वञ्चनप्रपश्वचतुरतया सर्वस्याप्यविश्वसनीयो भवति ७ । सदाक्षिण्यः-स्वकार्यपरिहारेण परकार्यकरणैकरसिकान्तःकरणः, स च कस्य नाम नानुवर्तनीयो भवति १८ । 'लजालू य' ति प्राकृतशैल्या लज्जावान् स खल्वकृत्या सेवनवार्तयाऽपि 'व्रीड्यति, स्वयमङ्गीकृतमनुष्ठानं च परित्यक्तु ं न शक्नोति ९ । दयालुः-- दयावान्, 'दुःखितजन्तुजातत्राणाभिलाषुक इत्यर्थः, 'धर्मस्य हि दया मूल' मिति प्रतीतमेव १० । १ तुला- स्वोपज्ञवृत्तियुतं धर्मरत्नप्रकरणम् गा १० ॥ ३ तुला धर्मरत्नप्रकरणंगा. १२ वः ॥ ४ श्रीडते मु. ॥ २ तुला धर्मरत्नप्रकरणं गा. ११ ॥ ५ दुःखितजन्तुत्राणा० सि. वि. ॥ २३९ द्वारे २१ श्रावक गुणाः गाथा १३५६-८ प्र. आ. ४०० ॥५३॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीक द्वितीयः खण्डः ॥५३२।। मध्यस्थो- 'रागद्वेपत्यक्तधीः, स हि सर्वत्रारक्तद्विष्टतया विश्वस्यापि घनमो भवति ११ । ॥ २३९द्वारे सौम्यष्टिः कस्याप्यनुढेजका, स हि दर्शनमात्रेणापि प्राणिनां प्रीति पल्लवयति १२ ॥ २१ गुणेषु-गाम्भीर्यस्थैर्यप्रमुखेषु रज्यतीत्येवंशीलो गुणरागी, स हि गुणपक्षपातित्वादेव सद्गुणान् श्रावकबहु मन्यते निगुणश्विोपेक्षते १३ ।। गुणाः सत्कथा:-सदाचारचारित्वात्सुचरित्रचर्याकथनरुचयो न तु दुचारित्रचर्याकथनरुचयो ये सपक्षा:- गाथा सहाया जनास्तैयुक्तः-अन्वितो धर्माविबन्धकपरिवार इति भावः, एवंविधश्च न केनचिदुन्मार्ग नेत् । १३५६.८ शक्यते १४ । अन्ये तु सत्कथः सुपक्षयुक्तश्चेति पृथग्गुणद्वयं मन्यन्ते । मध्यस्थः सोमदृष्टिश्चेति द्वाभ्यामध्येकमेवेति । | प्र. आ, तथा सुदीर्घदर्शी-सुपर्यालोचितपरिणामपेशलकार्यकारी, स किल पारिणामिक्या युद्धथा सुन्दरपरिणाममैहिकमपि कार्यमारभते १५ ।। विशेषज्ञः-सारेतरवस्तुविभागवेदी, अविशेषज्ञस्तु दोषानपि गुणत्वेन गुणानपिदोषत्वेनाध्यवस्यति १६ । वृद्धान्-परिणतमतीननुगच्छति गुणार्जनबुद्धया सेवत इति श्रृद्धानुगः, वृद्धजनानुगत्या हि प्रवर्तमानः पुमान् न जातुचिदपि विपदः पदं भवति १७ । विनीतो-गुरुजनगौरवकृत् ; विनयवति हि सपदि 'संपदः प्रादुर्भवन्ति १८ । 1५३२ १. रागढेरे-सि. ॥ २ संपर-सि. वि.॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोद्वारे सटीके द्वितीयः |२४०द्वारेतिर्यगर्भस्थितिः उत्कृष्टा गाथा ॥५३३॥ स्वल्पमप्युपकारमैहिकं पारत्रिक वा परेण 'कृतं जानाति न निह्नते इति कृताः । कृतघ्नो हि सर्वत्राप्यमन्दा निन्दा समासादयति १६ । परेषाम्-अन्यषा हितान्-पथ्यानन्-प्रयोजनानि कतु' शीलं यस्य स परहितार्थकारी, सदाक्षिण्योऽभ्यर्थित एवं करोति, अयं पुनः स्वत एव परहिताय प्रवर्तते इत्यनयोर्भेदः । यश्च प्रकृत्यैव परहितकरणे नितरां निरतो भवति स निरीहचित्ततयाऽन्यानपि सद्धर्म स्थापयति २० । तथा लब्धमिव लब्धं लक्षं-शिक्षणीयानुष्ठानं येन स लन्धलक्षः, पूर्वभवाम्यस्तमिव सर्वमपि धर्मकृत्यं झटित्येवाधिगच्छतीति भावः । ईदशो हिनन्दनप्रत्युपेक्षणादिकं धर्मकर्म सुखेनैव शिक्षयितु शक्यते २१। सदेवमेकविंशतिगुणसंपन्नः श्राद्धः-श्रावको भवतीति ॥५६ ॥ ५७॥ १८ ॥२३॥ इदानीं 'तेरिच्छीणुकिहा' गभडिह' ति चत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह उबिट्टा गन्मठिई तिरियाणं होइ अट्ठ परिसाई । माणुस्सीणुकिहा' इत्तो गम्भडिह चुच्छं ॥ ५९ ॥ उत्कृष्टा गर्भस्थिति:-गर्भावस्थानं तिरश्चीना-तिर्यग्योषितां भवत्यष्टौ वर्षाणि, ततः परं गर्भस्य विपत्तिः प्रसवो वेति ॥ ५६ ॥ २४ ॥ इदानीं 'माणुसीणुकिडा गम्भठिई ति तथा "तग्गन्भस्स कायहिह'त्येकचत्वारिंशदधिकद्विचत्वारिंश्चदधिकद्विशततमे द्वारे आह१ कृतं जातं जानाति-वि.॥२०-मु.॥ ३ टू-मु.॥ ४ सद्गर्भस्य-सि. वि.॥ प्र.आ. ४०१ ॥५३३॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गम्भट्ठिा मणुस्सीणुकिष्ठा होइ वरिसथारसगं । प्रवचनसारोद्धारे। 'गम्भस्स य कायठिई नराण चवीस परिसाई ॥६. ॥ मानुपीणां-मनुष्यस्त्रीणामुत्कृष्टा गर्भस्थितिर्भवति वर्षद्वादशक-द्वादशवर्षप्रमाणा । अयमर्थः-कश्रिसटीके ज्जन्तुराविभूतप्रभूतपापाभिभूतवपुर्वातपित्तादिदूषिते देवादिस्तम्भिते वा गर्भे द्वादश वर्षाणि निरन्तरं तिष्ठद्वितीयः तीति । इयं च भवस्थितिरुक्ता, कायस्थितिः पुनर्नराणां गर्भस्य चतुर्विंशतिवर्षाणि, इदमुक्तं भवतिखण्ड: कश्चिज्जीवो द्वादश वर्षाणि जीवित्वा तदन्ते च मृत्वा तथाविधकर्मवशात्तत्रैव गर्भस्थिते कलेवरे समुत्पद्य पनदा वर्षाणि जीवतीत्येवं चतुर्विशतिर्वर्षाण्युत्कृष्टतो गर्भ जन्तुस्तिष्ठत्तीति ॥६०॥२४॥२४२॥ ॥५६४॥ इदानीं 'गम्भडियजीवआहारो' ति त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह पढमे समये जोवा उत्पन्ना गम्भवासमजलंमि । ओयं आहारती सव्वप्पणयाए' पूयन्व' ।। ६१॥ ओयाहारा जीवा सव्वे अपज्जसगा मुणेयया । पज्जत्ता उण लोमे पक्खेवे हुति भइयव्वा ।। ६२ ॥ प्रथमे समये जीवा उत्पन्ना गर्भवासमध्ये ओज आहारयन्ति-ओजआहारं कुर्वन्ति । सध्यप्पयणयार' ति सर्वात्मना, सर्वैरप्यात्मप्रदेशैरित्यर्थः । किंवदित्याह-अपूपा इव । यथा हि तेलभृततप्ततापिकायां प्रथमसमय एवापूषाः सकलमपि तेलमापिबन्ति एवं जीवा अपि गोत्पत्तिप्रथमसमये ओज आहारयन्ति । १. गम्मस्स बासमक्झम्मि नराण-सि. वि. ॥२०३-मु.॥ ३ सया-ता. सि.वि.॥ ४ च्या-मुः ।। द्वारेषु मनुष्यगर्भस्थितिः काय. स्थितिः आहारश्व गाथा १३६०.२ प्र. आ. ॥५३४॥ AR Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोटा गर्भकाल २४५-६ द्वारयोः पितृपुत्रसंख्या गाथा स पितुः संबन्धि शुक्रं मातुः संबन्धि शोणितमेतद्वयमप्येकत्र मिलितम् ओज इत्युच्यते । अथ कम्यामवस्थायां जीवस्याहारः क इत्येतत्प्रसङ्गतः प्राह-'ओये'त्यादि, इयं च प्रागेव पञ्चोत्तरद्विशततमद्वारे व्याख्याता ।। ३१-६२ ॥२४३ ॥ मी इदानीं 'रिउरूहिस्सुक्कजोए जेत्तियकालेण गम्भसंभूइ' ति चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह रिउसमयण्हायनारी नरोवभोगेण गम्भसंभूई । द्वितीयः बारसमुहुत्त मझे जायइ उचरिं पुणो 'नेय ।। ६३ ।। मासावसाने त्रीणि दिनानि. यावधुवत्तीना यदजसमस्र श्रवति ततुरित्युच्यते । तत्र ऋतुसमये । स्नातायाध्यहादूर्ध्व शुद्धिहेतोः कृतस्नानायाः नार्याः स्त्रियो नरोपभोगेन पुरुषसंभोगेन गर्भसंभृतिर्भवति । सा च द्वादशानामेव मुहूर्तानां मध्ये जायते । चतुर्विशतिघटिकानां मध्ये इत्यर्थ । ऊर्ध्व पुन व गर्भसंभूतिः, द्वादश मुहूर्तानि यावच्छुकशोणिते अविध्वस्तयोनिके भवतः । तत उर्व समुपगच्छत इति भावः ॥ ६३ ॥ २४४ ॥ इदानी 'जत्तिय पुसा गन्मे' ति तथा 'जत्तिय पियरो य पुत्तरस' त्ति पञ्चचत्वारिंशदधिकपटचत्वारिंशदधिके च द्विशततमे द्वारे प्रार मुयलक्वपुहुन्तं होइ एगनरभुत्तनारिंगभंमि। सक्कोसेणं नवसपनरभुत्तस्थीइ एगसुओ ॥ ६४ ॥ नेमा-सि. ॥ २ कोसेर्य-क्षा । बोसेम-सि. ॥ ३ ए-वा. ॥ : म. आ. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२४७ द्वारे स्त्री-पुरुषचीनकाल: गाथा प्र. आ. सुतजशपृथक्त्वं भवत्येकपुरुषभुक्ताया नार्या गर्ने । पृथक्त्वं चेह द्विप्रभृतिरानवम्य इति समयोक्तं सारोद्वारे | ज्ञेयम् , अयमर्थः-एकस्याः स्त्रियः पुरुषेणोपभुक्ताया गर्ने जपन्यत एको दौ त्रयो वा यावत् उत्कृष्टतस्तु नव लक्षाणि जीवानासत्पद्यन्ते । ' निष्पत्ति तु प्राय एको वा द्वौ वा गच्छता; शेषास्तु स्वल्पकालं जीवि वा तत एव म्रियन्त इति । तथोत्कृष्टशी 'नवशतसमयेर्नरैरुपभुक्तायाः स्त्रियो गमें एकः सुतो भवति । द्वितीयः कोऽर्थः -काचिद् दृढसंहनना कामातुरा च तरुणी यदा द्वादशाहूर्तमध्ये उत्कर्पतो नवभिनरशतैः संस खण्ड: ज्यते तदा तदीजे यः पुत्रो जायते स नवाना पितृशतानो पुत्रो भवतीति ।।६४ ॥२४५-२४६ ॥ इदानीं 'महिलाण गम्भअभवणकालो पुरिसअवीयकालो' ति सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततर्प द्वारमाह पणपन्नाए परेणं जोणि पमिलायए महिलियाणं । पणहतरीए परओ होई अषीयो नरो पायं ॥ ६५ ।। वाससयाउयमेयं परेण जा होइ पुष्वकोडीओ। तस्सद्ध अमिलाया 'सव्वाउयवीसहमभागो।। ६६ ।। वर्षाणां पञ्चपञ्चाशतः परत आर्तवाभावान्महिलानां योनिः प्रम्लायति-गर्मोत्पत्तिकारणता न प्रतिपयते । भावार्थस्तु निशीथचूर्यररुपदर्श्यते १ निप्पत्तिस्तु प्राय एको द्वौ-सि०॥२ नवशते नरे० सि.॥ ३सब्बाइयवीसमाये य-मु. सध्याउम बीसमागी ब-ता.॥ ४०२ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सारोद्धारे गृहणातीत्यर्थः । पणपन्नाव शुक्रादी १३६७ "इत्थीए जाव पणपन्न वासा न पूति ताव 'अमिलिया लाणा] जोणि, आर्त भवति गर्भ प्रवचन| गृहणातीत्यर्थः । पणपनवासाए पुण कस्सइ अत्तवं भवति न पुण गम्भं 'मिण्हह । पणपनाए परओ नो अतवं २४८ नो गभं 'गिण्हई" [निशीथचू. मू. १, उ. ६, गाथा २२३६] ति । सटीके तथा वर्षाणां पञ्चसप्ततेः परतः प्रायेण नर:-पुमान् भवत्यबीजो-गर्भाधानयोग्यवीर्यविवर्जितः ॥६५॥ प्रमाणम् द्वितीयः कियत्प्रमाणायुषा पुनरेतन्मानं द्रष्टव्यमित्याह-'वासे'त्यादि वर्षशतायुपादयुगीनानामेवैतद्- | गाथा गर्भधारणादिकालमानमुक्तं द्रष्टव्यं । परेण तर्हि का वार्ता ? इत्याह- 'परेण जा होइ पुवकोडीओ' ॥५३७॥ इत्यादि वर्षशतात्परतो वर्षशतद्वयं त्रयं चतुष्टयं चेन्यादि यावन्महाविदेहादिमनुष्याणां या पूर्वकोटिः सर्वा- | १३८३ युष्के भवति तस्य सर्वायुषोऽधं तदधं यावदम्लाना-गर्भधारणक्षमा युवतीनां योनिद्रष्टच्या । 'ततः परतः सकृत्प्रसवधर्मिणोऽम्लानयोनयश्चावस्थितयौवनत्वात् । पुरुषाणां तु सर्वस्यापि पूर्वकोटिपर्यन्तस्य स्वायुषो- प्र. आ. ऽन्त्यो विंशतितमो भागोऽबीजो भवति ।। ६६ ॥ २४७ ॥ इदानीं 'मुक्काईण पमाणं'त्यष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह बीर्य सुक्कं तह सोणियं च ठाणं तु जणणिगभंमि । ओयं तु उपभस्स कारणं तस्सरूवं तु ॥ ६७ ॥ १ ममिलिया य जोणि सि. वि. । अमिलाया-इति तन्दुलवैचारिकवृत्तौ पाठः ॥२ रोपा-सि.पि.॥ गेहा-सि. वि. ॥ ४ तुला-तन्दुलषेचारिकवृत्तिः प.५ ॥ ५ ततः अपि परत:-सि. वि.॥ ४०२ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोद्धारे सटीके २४८ शुक्रा प्रमाण गाथा १३६ ८३ द्वितीयः ॥५३८॥ 'अहारसपिडकरंडयस्स संधीउ हुति देहमि । पारस पंसुलियकरंडया 'इहं तह छ पंसुलिए ॥ ६८ ॥ होइ कडाहे सत्तंगुलाई जोहा पलाइ पुण चउरो । अच्छीउ दो पलाई सिरं तु भणियं चउकवालं ॥ ६ ॥ अधुट्टपलं हिययं यत्तीसं "दसण अद्विखंडाई । कालेजयं तु समए पणवीस पलाइ निद्दिढ ।। ७. ॥ अंताई दोन्नि इहयं पत्तेयं पंच पंच वामाओ । सहिसय संधीणं मम्माण सयं तु सत्तहियं ॥ ७१ ।। "सठिसयं तु सिराणं नाभिप्पभवाण सिरमुवगयाणं । रसहरणिनामधेजाण जाणऽणग्गहविधाएसु ॥ ७२ ।। सुइचक्खुघाणजीहाणणुग्गहो होइ तह विघाओ य। 'सहिसयं अन्नाणवि सिराणऽहोगामिणीण तहा।। ७३ ॥ पायतलमुवगयाणं जंघायलकारिणीणऽणुवघाए । उवघाए 'सिरचियणं कुणंति अंधत्तणं च तहा।। ७४ ।। M प्र.अ. ARACROREORIAGRILawuTIONS ५३ MASAH0 १ अट्टारसपिष्ट्रि. सि. वि. ॥ २ पांसु. वि. । पासु० ता. ॥ ३ इह इति पंसुला-ता.॥ .४ सण मच्छिखंडाई-मु.॥ ५ सट्टसर्य-ता. ॥ ६ सट्ठसयं-मु.॥ ७ सिरिवियणं-ता. सि.वि.॥ S Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥५३९॥ अवराण गुदपविद्वाण होइ सई सयं तह सिराणं' । जाण बलेण पवत्तह वाउ मुत्तं पुरीषं च ॥ ७५ ॥ अरिसा व पांडुरोगो वेगनिरोहो य ताण य विधाए । तिरियगमाण सिराणं सहसयं होइ अवराणं ॥ ७६ ॥ argeकारिणीओ उवधाए कुच्छिउपरवियणाओ । कुरुवंति तहsनाओ पणवीस सिंभधरणीओ ।। ७७ । तह पित्तधारिणीओ पणवीसं दस य सुक्कधरणीओ । इस सत्त सिरसया' नाभिव्यभवाह पुरिसस्स ॥ ७८ ॥ तीसूणाई' इत्थोण षीसहीगाई हुति सदस्स । नव हारूण सयाह' नव 'धमणीओ य देहमि ।। ७९ ।। तह व सव्वदेहे नवनउई लक्ख 'रोमवाणं । अधुडी कोडीओ समं पुणो केसमंसूहिं ॥ ८० ॥ मुत्तस्स सोणियरस य पत्तेयं 'आढयं बसाए । अवादयं भणंति य पत्थं 'मत्थुलुयवस्थुस्स ॥ ८१ ॥ ३ रोमकूत्रा यन्ता० ॥ ४ आढया-ता. ॥ १०० सि. वि. ।। २-सि. वि. ।। ५ मंथुल्यवत्यस्ता || मंयुक्त्तयः वि. वि ॥ २४८ शुक्रा प्रमाण गाथा १३६ १३८ प्र. आ ४०२ ।।५३९| Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसागेद्धारे सटीके (२४८ द्वारे शुक्रादीनां प्रमाणम् गाथा हितोय: Bाण्डः ॥५४॥ १३८३ असुइमल पत्थछक्कं कुलओ कुलओ य पित्तसिंभाणं । सुकरस अडकुलओ दुळं हीणाहियं होजा ॥ ८३ ॥ एक्कारस इत्थीए नव सोयाई तुहुति पुरिसस्स । श्य किं 'सुइत्तणं अद्विमंसमलरुहिरसंघाए ?।। ८३ ॥ 'योय' मित्यादि, बीजं-कारणं तच्च शरीरस्य शुक्र तथा शोणितं च, पितुः शुक्रम मातुः शोणितम् , एतद् द्वयमपि शरीरस्य कारणमित्यर्थः । स्थानं तु तस्यादौ जननीगर्भ-मातुरुदरमध्यभागे, शुक्रशोणितसमुदाय ओज इत्युच्यते शरीरोपष्टम्भस्यापि प्रथमतस्तदेव हेतुः- तस्य शरीरस्य कारणमित्यर्थः । तस्य शरीरस्य स्वरूपं तु अट्ठारसपिट्ठकरंज्यस्स' इत्यास नन्तरवश्यमालमणामिति शेषः ॥ ६७ ॥ तदेवाह-'अट्टे'त्यादिगाथाद्वयम् , देहे-मनुष्यशरीरे "पृष्ठकरण्डकस्य-पृष्ठवंशस्याप्टादश ग्रन्धिरुपाः संधयो भवन्ति । यथा वंशस्य पर्वाणि, तेपु चाष्टादशसु सन्धिषु मध्ये द्वादशभ्यः सन्धिम्यो द्वादशा "पंशुलिका निर्गत्योभयपा वावृत्य वक्षःस्थलमध्योर्धवयंस्थिस्थि लगित्या पल्लकाकारतया परिणमन्ति । अत आह-यह शरीरे द्वादश पंशुलिकारूपाः करण्डका-वंशका भवन्ति । 'तह छपुसुलिए होइ कसाहे' त्ति, तथा तस्मिन्नेव पृष्ठवंशे शेषषटमंधिभ्यः षट् पालिका निर्गत्य पाश्वे द्वयं चावृत्य हृदयस्योभयतो वक्षःपञ्जरादधस्ताद् "शिथिलकुक्षेस्तूपरिष्टारपरस्परासंमिलितास्तिष्ठन्ति । अयं च कटाह इत्युच्यते । जिला१ सुइत्ताण-ता. ॥ २ हेतुः कारणामित्यर्थः, तस्य शरीरस्य स्वरूपं तु-मु. ।। ३ तुला तन्दुलवैचारिकवृत्तिः प. ३० तः । पृष्टकरस्य सि.घि ॥४ पर्वणि-सि-वि.१५पांशु०इति तन्दुलवैचारिकवृत्तौ पाठः॥ ६ स्थि-मु.।स्थिति-तन्दुसदेवारिकवृत्तौ ॥ शिथिलक्षित मुः। तन्दुलवैचारिकवृत्तावपि शिथिमकुक्षितस्तुइति ॥ तु-सि.वि.॥ प्र. आ. ॥५४॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटिके द्वितीयः खण्ड: ॥५४१॥ मुखाभ्यन्तर्वर्तिमांसखण्डरूपा दैर्येणात्मागुलतः 'सप्ताङ्गुलप्रमाणा भवति । तौल्ये तु मगधदेशप्रसिद्धेन पलेन चत्वारि पलानि भवन्ति । अचिमसिगोलको तु द्वे पले । शिरस्तु अस्थिखण्डरूपेश्वतुर्भिः कपालैनिष्पद्यन्ते इति || ६८ ६९ ॥ ' तथा 'अ' त्यादि, हृदयान्तर्वर्तिमासखण्ड सार्वपलत्रयं भवति । द्वात्रिंशच्च मुखे दन्ता-अस्थिखण्डरुपाः प्रायः प्राप्यन्ते । कालेयजं तु वक्षोऽन्तगू ढमांसविशेषरूपं पञ्चविंशतिपलान्यागमे निर्दिष्टम् ॥ ७० ॥ * तथा- 'अंताई' इत्यादि, इह शरीरे द्वे अत्रे भवतः, प्रत्येकं पञ्च पञ्चवामप्रमाणे तथा संघयःअगुलाव स्थिखण्ड मेलापकस्थानानि तेषां षष्ट्यधिकं शतं भवन्ति । मर्माणि 'सङ्घाणिकाविरकादीनि, ते तु सप्ताधिकं शतं भवति ॥ ७१ ॥ , अथ पुरुषशरीरे शिरासङ्ख्यामाह - 'सकििसय 'मित्यादिगाथासप्तकम् इह पुरुषस्य शरीरे नाभिप्रभवाणि शिराणां - स्नसान सप्त शतानि भवन्ति । तत्र पष्ट्यधिकं शतं शिराणां नाभेः शिरसि गच्छति । तारसरणीनामधेयाः, रसो हियते विकीर्यते यकाभिरितिकृत्वा, यासां चानुग्रहविघातयोः सतोर्यथासख्यं "श्रोत्रचक्षुघ्राणजिह्वानामनुग्रहो विघातश्च भवति । तथा अन्यासामध्यत्रोगामिनीनां पादतलमुपगतानामनुपघाते जालकारिणीनां स्नान पर्याधिकं शतं भवति उपघाते तु ता एव "शिरोवेदनाऽन्धत्वादीनि कुर्वन्ति । तथाऽपरास गुदप्रविष्टानां शिराणां पष्टयधिकं शतं भवति, यासां बलेन वायुमूत्रं पुरीषं च १ सप्तागुलानि भवन्ति-सि. वि ॥ २ तथा सि. बि. नास्ति ॥ ३ तथा सि. वि. ॥ ४ शखाणिका वियरकादीनिइति तदुवैचारिकत्तौ ।। ५ व्यानि सि बि ॥ ६ श्रुतिचभ्रु० सि. वि. ॥ ७ शिरोवेदनाम्धतादीनि सि. बि. ॥ २४८ द्वारे शुकादीनां AA गाथा १३६७ १३८३ प्र. आ. ४०३ 1148211 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके २४८ द्वारे शुक्रादीनां प्रमाणं गाथा द्वितीयः ... प्राणिनां प्रस्तते । एतासांच विधातेऽशासि पाण्डुरोगो' वेगनिरोधश्च भवति । तथा अपरासा तिर्यग्गामिनीनां शिराणां षष्टयधिक शतं भवति । ताः पुनर्चाहुगलकारिण्यः । उपपाते प सति कुक्षिउदरवेदनाः कुर्वन्ति । तथाऽन्याः पञ्चविंशतिः शिराः श्लेष्मधारिण्यो भवन्ति । तथा पित्तधारिण्योऽपि पाविंशतिः शिराः, दश च शिराः शुक्राख्यसप्तमधातुधारिण्यः । इत्येवं नाभिप्रभवाणि सप्तशिराशतानि पुरुषस्य शरीरे भवन्ति ।। ७२-७८ ॥ ___ अथ स्त्रीनपुसकयोः क्रियन्त्य एता भवन्तीत्याशझ्याह-'तीसूणाई" इत्यादिगाथाचतुष्कम् , त्रिंशता न्यूनानि स्त्रीण! सप्त शिराशतानि भवन्ति । विशत्या च हिनानि सप्त शतानि शिराणा भवन्ति षण्डस्य-नसकस्य । तथा स्नायूनाम्-अस्थिवन्धनशिराणां शतानि नव 'नव च धमन्यो रसवहा-नाडयो देहे ॥७९|| तथा सबस्मिन्नपि देहे नवनवतिलेशा रोमकूपाणां भवन्ति । रोम्णा तनूरुहाणां कृपा इव कूपा रोमकूषा रोमरन्ध्राणीत्यर्थः । एतश्च संख्यानं श्मश्रुकेशविनाऽबसेयम् । तैस्तु सह सार्धास्तिनः कोटयोः रोमकूपानां जायन्ते । तत्र श्मश्रुणि-कूर्चकचाः, केशान्तु-शिरोरुहा इति ।।८०॥ शरीरे सर्वदेव मूत्रस्य शोणितस्य च प्रत्येकमवस्थितमाढकं मगधदेशप्रसिद्धमानविशेषरूपं भणन्ति । उक्तं च____ दो असईओ पसई, दो पमइओ सेइया, चत्तारि सेइयाउ कुलओ, चत्तारि कुडवा पत्थो, चत्तारि पत्था आढयं, चत्तारि आढया दोणो" [ ] इत्यादि। धान्यभृतोऽवाङ्मुखीकृतो हस्तोऽसतीत्युच्यते । वसायास्त्वर्धाढकं 'भणन्ति । 'मस्तकभेज्जको १०गा-सि. वि. ॥ २ नर-मु. नास्ति ॥ ३ मणित-सि. ॥ ४ मस्तक भेजको-सि.बि.। प्र.आ. mammi ॥५४२॥ HTHERS RMERNAMOSANTOS MEANILICHARSAGAR h t ..... Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥५४३॥ 'मस्तुलुकवस्तु । अन्ये त्वाः-मेदपिपिसादि मस्तुलुङ्गम् , तस्यापि प्रस्थं यथोक्तरूपं वदन्ति ॥८॥ ___ अशुचिरूपो योऽसौ मलस्तस्य प्रस्थषट्कं भवति । पित्तश्लेष्मणोः प्रत्येकं यथानिर्दिष्टस्वरूपः कुलचो भवति । शुक्रस्त्वर्धकुलवः । एतच्चाढकप्रस्थादिकं मानं बालकुमारतरुणादीनां 'दो असइओ पसई [ ] सम्यक्त्व त्यादिक्रमेणात्मीयात्मीयहस्तेनानेतव्यम् , उक्तमानाच्च शुक्रशोणितादेयंत्र हीनाधिक्यं भवति तत्र वातादि- दीनां दृक्षितत्वेनेति ज्ञेयम् ॥८१॥ लाभान्त अथ 'स्रोतानि शरीरे यावन्ति भवन्ति तावत्युपदश्योपसंहरति- एक्कारसे'त्यादि द्वौ कौँ दे | गाथा चक्षणी द्वे घ्राणे मुखं स्तनौ पायुरुपस्थश्चेत्येवमेकादश 'स्रोतानि स्त्रियो भवन्ति । स्तनवर्जाणि शेषाणि नव |१३८४ पुरुषस्य । एतच्च मनुजगतिमाश्रित्य प्रोक्तम् । तियग्गतौ तु अजादीनां द्विस्तनीनामेकादश 'स्रोतानि गवा. दीनां चतुःस्तनीनां त्रयोदशः सूकर्यादीनामष्टस्तनीनां सप्तदश । निर्व्यापाते एवम् , व्याघाते पुनरेकस्तन्या प्र. आ. अजाया दश, त्रिस्तन्याश्च गोदशेति । इत्येवमस्थ्यादिसंघातरूपे शरीरे किं नाम स्वरूपतः शुचित्वम् १ ४०४ न किश्चिदित्यर्थः ॥८॥२४॥ इदानीं 'सम्मत्ताईणुत्तमगुणाण लाहंतरंतु उक्कोसं' इत्येकोनपश्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह सम्मत्तंमि य लडे पलियपहुसेण सावओ होइ । चरणोषसमस्खयाणं सायरसंखंतरा दुति ।। ८४ ।। यावत्या कर्मस्थितौ सम्यक्त्वं लब्धं तन्मध्यात्पल्योपमपृथक्त्वलक्षणे स्थितिखण्डे अपिते श्रावको ॥५४३। १ मस्तुलक सि. वि. ॥ २ मस्तुळग. सि. वि. ॥ ३-४-५ मोत्राणि-मु.॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: स्वच्छ : ॥४४॥ देशविरतो भवेत् । ततवरणोपशमक्षयाणामन्तरा संख्यातानि सागरोपमाणि भवन्ति । इयमत्र भावना - देशविरतिप्राप्त्यनन्तरं संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषु चारित्रमवाप्नोति । ततोऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषूपशमश्रेणि प्रतिपद्यते । ततोऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु झपितेषु क्षपकश्रेणिर्भवति । ततस्तद्भवे मोक्ष इति । एवमप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य देवमनुष्यजन्मसु संसरणं 'कुर्वतोऽन्याऽन्यमनुष्य भवे देशविरत्यादिलाभो भवति । यदिवा तीव्रशुभपरिणामवशात्क्षपितबहुकर्मस्थितेरेकस्मिन्नपि भवेऽन्यतरश्रेणिवर्ज्यान्येतानि सर्वाण्यपि भवन्ति । श्रेणिद्वयं स्वेकस्मिन भने सैद्धान्तिकाभिप्रायेण न भवत्येव । किरवेकैवोपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिर्वा भवतीति । उक्तं च "एवं अपरिवडिए सम्मते देवमणयजम्मेसु । अन्नयरसेढिवज्जं एगभवेणं पि सच्चाई || १||" इदानीं 'न लहंति माणुसतं सत्ता जेवणंतरुवह' ति पञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाहसत्तममहिनेरइया तेऊ वाक अनंतरुव्वा । न लर्हति माणुसत्तं तहा असंखाउया सव्वे ॥ ८५ ॥ सप्तमपृथिवी नैरयिकास्ते जस कायिका 'वायुकायिकास्तथा असङ्ख्यातवर्षायुषः सर्वे तिर्यङ्मनुष्याश्चानन्तरमुध्टता मानुष्यं न लभन्ते । मृत्वाऽनन्तरभवे मनुजेषु नोत्पद्यन्ते इत्यर्थः । शेषास्तु सुरनरतिर्यग्नारका नरेवृत्पद्यन्ते ॥ ८५ ॥ २५० ॥ • एवमप्रतिपतिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मसु मन्यतरश्रेणिवजनि एकमवेनापि सर्वाणि ॥१॥ १ कुर्वतोऽन्योन्य० मु. ॥। २ एमवेणं वसु ॥ ३ वायुकायिकापि स्वथा-सि. ॥ २५० द्वारे मनुष्यत्वे अना गमकाः गाधा १३८५ प्र. आ. ४०४ ॥५४४॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय 1५४५॥ इदानी 'पुव्वंगपरिमाणं' ति एकपश्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह वरिसाणं लकवेहिं चुलसीसंस्वेहिं होइ पुव्वंग । एवं चिय एयगुणं जायइ पुव्वं तयं तु इमं ॥८६॥ वर्षाणां लश्चतुरशीतिसङ्ख्यैर्भवति पूर्वाङ्ग-पूर्वाख्यस्य मङ्खयाविशेषस्य कारणम् , अनेनेवैतद्गुणेन | पूर्वाद्धतस्य जायमानत्वात् । तथा चाह-'एयं चिय' इत्यादि, एतदेव-पूर्वाङ्ग' चतुरशीतिवर्पलक्षलक्षणम् , एत- । पूर्वलवणद्गुणं चतुरशीतिलगुणितं सञ्जायते पूर्वम् , तत्पुनरिदम्-अनन्तरद्वारे वक्ष्यमाणस्वरूपमिति ॥८६॥२५१।। | शिखा मानानि साम्प्रतं 'माणं पुवस्स' त्ति द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह'पुव्वस्स उ परिमाणं सयरिं खलु वासकोडिलकरवाओ । गाथा छप्पन्नं च सहस्सा बोद्धव्या वासकोखीणं ॥१॥ ८॥ [तुला-जीवसमासे गा. ११३, ज्यातिष्करण्डके गा. ६२] पूर्वाभिधानस्य सङ्ख्याविशेषस्य परिमाणं वर्षकोटिनां सप्ततिः कोटिर्लक्षाः पट्पञ्चाशत् सहस्राणि, ७०५६००००००००..|| ८७॥ २५२॥ इदानीं 'लवणसिहमाणं' ति त्रिपश्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह-- दसजोयण सहस्सा लवणसिहा धक्कवालओ सदा । सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा ॥२॥ ८॥ [बृहरक्षेत्रसमासे गा. ४१५] ॥५४५॥ १ गाथेयं बृहत्संग्रहण्या (चन्द्र.) २६२ ।। २ दसमोयणाण सह सा-मु. ! तुला स्थानावृत्तिः प. २२८ BH प्र. आ. Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणसमुद्रे योजनलमद्वयविष्कम्भे मध्यमेषु दशसु योजनसहस्र नगरप्राकार इच जलमूवं गतम् , प्रवचन १२५३द्वारे मागेद्वारे तस्पोत्सेषवृद्धिः शिखेर शिखा, ततो लवणस्य शिखा लवणशिखा, सा दशयोजनानां सहस्राणि चक्रवालतो लवणसटीके | रुन्द्राय यसमनिस्सी । भूतलममनलपट्टावं घोडशयोजनमहस्राण्युच्चा एकं तु सहस्रमधोऽवगाहा।। शिखामानं इयमत्र भावना-लवणसमुद्रे जम्बूद्वीपाद्धातकीखण्डद्वीपाच्च प्रत्येकं पञ्चनवतिपश्चनवतियोजन सहद्वितीयः | गाथा स्राणि गोतीर्थम् , गोतीर्थ नाम तडागादिचिव प्रवेशमार्गरूपो नीचो नीचतरो भूप्रदेशः, गोतीर्थमिति व्यु १३८८ त्पत्तेः । मध्यभागावगाहस्तु दशयोजनसहस्रप्रमाणविस्तारः । गोतीर्थ व जम्बूद्वीपवेदिकान्नसमीपे धातकी॥५४६॥ खण्डवेदिकान्तसमीपे चागुलासङ्ख्येयभागः । ततः परं समतलाद् भृभागादारभ्य क्रमेण प्रदेशहान्या प्र.आ. तावनीवत्वं नीचतरत्वं परिमावनीयं यावत्पश्चनवनियोजनसहस्राणि, पञ्चनपतियोजनसहस्रपर्यन्ते च समतलं भूभागमपेक्ष्य उण्डत्वं योजनसहस्रमेकम् । तथा जम्बूद्वीपवेदिकातो' धातकीखण्डद्वीपवेदिकातश्च समतले भूभागे प्रथमतो जलवृद्धिग्गुलसङ्ख्येय भागः, ततः समतलभूभागमेवाधिकृत्य प्रदेशया जलराशिः क्रमेण परिवर्धमानः परिवर्धमानः तावत्परिमावनीय यावदुमयतोऽपि पञ्चनवतियोजनमहस्राणि । पश्चनवतियोजनमहम्रपर्यन्ते चोभयतोऽपि समभूमागमपेक्ष्य जलवृद्धिः सप्त योजनशतानि । किमुक्तं भवति ?-तत्र प्रदेशे समभूभागमपेक्ष्यावगाहो योजनमहस्रम् , तदुपरि जलवृद्धिः सप्त योजनशतानीति । ततः परं मध्ये भूगागे दशयोजनसहस्रविस्तारेऽवगाहो योजनसहस्रम् जलदिपोश योजनसहस्राणि । पातालकलशगतवापुझोभे च तेषामुपरि अहोरात्र ARTHere Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोद्धारे सटीके २५४ द्वा अगुल स्वरू द्वितीयः खण्ड: गाथा १३८९ मध्ये द्वौ वारो किश्चिन्यूने द्वे गव्यूते उदकमतिरेकेण परिवर्धने पातालकलशगतवायूषशान्तौ च हीयने ८८॥२५३|| इदानीम् 'उस्सेहंगुलआयंगुलपमाणगुलयमाणं' ति चतुःपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह उस्सेहंगुल १ मायंगुलं च २ तइयं पमाणनामं च ३ । इय तिन्नि अंगुलाई पावारिज्जंति समयंमि ॥८९॥ [अंगुलस० २] सत्येण सुतिखेणवि छेत्तु भेत्तुच जं किर न सका । ., त परमाणु' सिडा वयंति आइ पमाणाणं ॥९॥ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्रे २०१६ अनुयोगद्वा. म ३४३।१००] 'परमाणू तसरेण रहरेणू अग्गयं च वालस्स । लिक्वा या य जवो अद्वगुणविवड्डिया कमसी ॥२१॥ [अनुयोगद्वारसूत्रे स. ३३६, ज्योतिष्करण्ड के गा. ७३-७४, जीवसमासे गा. ९८] वीसपरमाणुलक्खा सत्तानउई भवे सहस्साई । सयमेग यावन्नं : एगंमि उ अंगुले हुति ॥१२॥ परमाण इच्चाइक्कमेण उस्सेहअंगुल. भणिय । ज पुण आयंगुलमेरिसेण तं भासिय विहिणा ॥१३॥ १ परमाणु रहरेणू तसरेणू - ता. सि.पि. ॥ २ वीसंप० मु.॥ प्र. आ. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥५४८॥ 'जे जमि जुगे पुरिसा अट्ठसयंगुलसमृसिया हुति । तेसिं जं नियमंगुलमायंगुलमेत्य तं होई ॥९॥ [ तुला जीवसमासे गा. १०३] २५४ द्वारे अङ्गुल'जे पुण एयपमाणा ऊणा अहिगाव तेसिमेयं तु ।। स्वरूपं आयंगुलं न भन्नइ किंतु तदाभासमेवत्ति ॥९॥ [अंगुलसत्तरी गा. ४-५] गाथा उस्सेहंगलमेगं हवइ पमाणंगुलं सहस्सगुणं । उस्सेहंगुलदुगणं वीरस्सायंगुल भणियं ॥१६॥ [विशेषणवती गा. १] १३८१आयगलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाद मिणप्ट पपाणंगुलेगां तु ॥९॥ प्र. आ. 'अगि-रगीत्यादिदण्डके अगिर्गत्यर्थो धातुः । गत्यर्थाश्च ज्ञानार्था अपि भवन्त्यतोऽग्यन्ते-प्रमाणतो ज्ञायन्ते पदार्था अनेनेत्यङ्गुलं-मानविशेषः । तच्च त्रिविधम् , तद्यथा-आद्यमुत्सेधाङ्गुलम् , द्वितीयमास्मागुलम् , तृतीयं च प्रमाणागुलनामकम् , इत्येतानि त्रीण्यङ्गुलानि समये-सिद्धान्ते तत्तद्वस्तुमानविषयतया व्यापार्यन्ते । 'तानि च वस्तूनि यथायथमेभिर्मीयन्ते इत्यर्थः ॥८९॥ नवमीषामगुलानां मध्ये उत्सेधामुलं तावत् किंप्रमाणं भवतीत्याशक्य तत्प्रमाणनिष्पत्तिक्रमनिरूपणार्थमाह-'सत्येणे' त्यादि, शस्त्रेण-खड्गादिना सुतीक्ष्णेनापि छेत्तु -द्विधाक भेत्त' वा-खंडशो M५४८॥ विदारयितु सच्छिद्रं या कतु यं पुद्गलविशेष न शक्ताः पुमांसस्तं परमाणु घटायपेक्षयाऽतिसूक्ष्म सिद्धाः१ज-सि. वि.॥२ ज-सि.॥ ३ य-सि.वि. ॥ ४ पमाणांगुलं-सि.वि. ॥५धातुपाठे १०८३॥ ६त्वानि तानि प-सि. वि. ।। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके २५४द्वारे अगुलस्वरूप गाथा १३८९ द्वितीय खाः सैद्धान्तिकतया प्रसिद्धा यद्वा ज्ञानप्रसिद्धाः केवलिनः, न तु मुक्तिप्राप्ताः, तेषां शरीराद्यभावेन वचनस्यासंभवात् , बदन्ति-ब्रुवते प्रमाणानाम्-अङ्गुलहस्तादीनामादि' - मूलम् , किलशब्देन चेदं मुख्यते-लक्षणमेवेदं परमाणोः, न पुनस्तं छेत्तु भेत्तु वा कोऽप्यारमते । अतिश्लक्ष्णत्वेन छेदनभेदनाविषयत्वात्प्रयोजनामावाच्चेति । अयं चेह व्यवहारनयमतेनैव परमाणत्वेनोच्यते, यावताऽनन्ताणकस्कन्ध एवासौ । केवलं भूक्ष्मपरिमाणापन्नत्वेन चक्षुर्ग्रहणच्छेदन भेदनाद्यविषयत्वादसुमपि व्यवहारनयः परमाणु मन्यत इतीह परमाणन्वेनोपन्यस्त इति ॥९॥ उक्तं परमाणुस्वरूपम् , इदानीं तदुपरिवर्तिनः शेषानुत्सेधाङ्गुलनिष्पत्तिकारण भृतानन्यानपि परिमाणविशेषानाह-'परमाणू' इत्यादि. इह परमाणोरनन्तरम् उपलक्षणस्य व्याख्यानादुच्छलक्षणलक्षिणकादीनि त्रीणि पदानि गाथायामनुक्तान्यपि द्रष्टव्यानि । अनुयोगद्वारादिषु तथैवाभिधानाधुक्तिसंगतत्वाच्च । ततश्चानन्तः परमाणुभिरेकस्या उच्छलक्षणश्लक्षिणकाया आगमेऽभिधानात्परमाण वर्जयित्वा सर्वेऽप्येते उच्छ्लक्ष्णश्लक्षिणका-श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकोर्ध्वरेणु-त्रसरेणु-रथरेण्यादयो यवपर्यन्ताः परिमाणविशेषा यथोत्तरमष्टगुणाः क्रमेण कर्तव्याः । तत उत्सेधाङ्गुलं निष्पद्यते ।। "इयमत्र भावना-पूर्वोक्तव्यावहारिकपरमाणवोऽनन्ता मिलिताः सन्त एका उच्छलक्षणश्वक्षिणका भवति । अतिशयेन लक्षणालणलक्ष्णा सैव लक्षणलक्षिणका उत्तरप्रमाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन श्लक्षण १०दि-सि. वि. ॥२ सूक्ष्मपरिणामापसत्वेन-मु.॥३ भूतान परि० सि.वि.॥४०त-सि.वि.॥ ५ तुला-जम्बूद्विपप्राप्तियत्तिः (प्र. २१५ प. ६४), क्योतिष्करवृत्तिः प.४३ सः। जीवसमासवृत्तिद्रष्टव्या ।। प्र. आ. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||५५०|| लक्षिणका उच्छ्लक्ष्णलहिणका । अधारिइलहगाह विवामिरेका माणिका । प्राक्तनप्रमाणाप्रवचन ।२५४द्वारे सारोद्वारे पेक्षयाऽष्टगुणत्वाद , 'ऊर्ध्वरेण्यपेशया चाष्टमभागवर्तित्वात् । अष्टाभिः श्लक्ष्णश्लविणकामिरेक ऊर्ध्वरेणुः, जालप्रमाऽभिव्यङ्ग्यः स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यचलनधर्मा रेणुरूर्ध्वरेणुः । अष्टभिरूध्वरेणु अगुलसटीके स्वरूप मिरेकखसरेणुः, प्रस्यति-पूर्वादिवातप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स प्रसरेणुः । अष्टभित्रसरेणुभिरेको रथरेणुः, द्वितीयः गाथा 'भ्रमद्रथचक्रोत्खातो रेण स्थरेणुः । पूर्वः पौरस्त्यादिवातेषु चलति, अयं तु तत्सद्भावेऽपि रथचक्रायुरखननमन्तरेण न चलतीत्यस्मात्पूर्वोऽल्पप्रमाणः । इह च बहुषु सूत्रादर्शषु ‘परमाणु रहरेणू तसरेणु' इत्यादिरैव पाठो दृश्यते, स चासङ्गत एव लक्ष्यते । रथरेणुमाश्रित्य प्रसरेणोरष्टगुणत्वानुपपत्तेः, उक्तन्यायेन विपर्ययस्यैव घटनादिति । यदपि संग्रहण्यां 'परमाण रहरेण तसरेण [ ] इत्यादिरेव पाठो दृष्ट इत्युच्यते तत्रापि समानः पन्थाः । तस्यापि घटमानकत्वस्य चिन्त्यत्वादागमेन सह विरोधायुक्त्यसंगतत्वाच्चेति । __अष्टभी रथरेणुभिर्देवकुरुत्तरकुरुमनुष्याणां 'संबंधि एकं वालाग्रं भवति । तैरष्टमिह रिवरम्यक्मनुष्यवालाग्रं भवति, 'तैरष्टभिहमवतहरण्यवतमनुष्यवालाग्रम् , तैरष्टभिः पूर्वविदेहापरविदेहमनुष्यवालाग्रम् , "तैरप्यष्टभिर्भरतैरवतमनुष्यवालाग्रम् । इह चैवं वालाग्राणां भेदे सत्यपि वालाग्रजातिसामान्यविवक्षया १ रेणुत्वापेक्षया-मि.वि. ॥ रे तुला जीवसमासवृत्तिः गा, १८, .५८ ॥ ३ संपहिण्या-मुः। बृहत्संप्राण्या (चन्द्र.) गा. २.५ इटख्या ।। ४ पपा-सि. ॥ ५ अधिकं बालान-सि.वि.॥ तैस्टमिहमवरण्य० मु. । ज्योतिकरण्टीकायाम् | ॥५०॥ (४) बोकारो [॥२इम्यम् ॥ • तैरा० मु.॥ SONGS RAMA A TimrailesheelRASHTRA Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे २५४द्वा अगुल. स्वरूपं गाथा सटीक द्वितीयः .. ॥५५१॥ वालाग्रमिति सामान्येनैकमेव सूत्रे निर्दिष्टमिति । 'अष्टभिर्भरतैरवतमनुष्यवालारेका प्रतीतस्वरूपैव लिझा जायते । ताभिरष्टाभिरेका यूका, ताभिरप्यष्टाभिर्यवशब्दचितमेकं यवमध्यम् , अष्टभिर्यवमध्यरेकमुन्सेधाङ्गुलं निष्पद्यत इति । तक मत्रानुक्तमप्यपयोगित्वादुच्यते-एतानि पडङ्गुलान्य गुलपटक विस्तीर्णः पादस्य मध्यतलप्रदेशः पादेकदेशत्वात्पादो भवति, द्वौ च युग्मीकुतावेतो पादौ द्वादशाङ्गुलप्रमाणा वितस्तिः, द्वे वितस्ती हस्तः, चत्वारो हस्ता धनुः, द्वौ धनुः, द्वौ धनुःसहस्रौ गव्युतम् , चत्वारि गव्यतानि योजनमिति । उक्तं च"अटेव य जवमज्झाणि अंगुलं छच अंगुला पाओ। पाया य दो मिहत्थी दो य विद्वत्थी भवे हत्थो ॥१॥ उहत्थं पुण धणहं दुनि सहम्साई गाउयं तेति । चत्वारि गाउया पुण नोयणमेगं मुणेयवं" ||२|| ||९१॥ अर्थकस्मिन्नुत्सेधागुले कियन्तः परमाणवो भवन्तीत्येतदाशङ्कयाह-वीसे' त्यादि, विंशतिलक्षाः परमानना समनवतिसहस्राणि शतं चेक द्विपश्चाशदधिकम् एकस्मिन्नुत्सेधाङ्गुले एतावन्तः परमाणवो भवन्ति । इयं च संख्या परमाण तसरेण इत्यादिगाथायां साक्षादेशातानेव परमाणुविशेषानाश्रित्य द्रष्टच्या, उपलक्षणव्याख्यानलब्धोच्छ्लक्षणश्लक्षिणकादित्रयापेक्षया पुनरतिभूयसी परमाणुसंख्या संपद्यत इति ॥९२|| ___ अथोत्सेधाङ्गुलोपसंहारपूर्वमात्माङ्गुलं संबन्धयना---'परमाणु' इत्यादि, परमाण्वादिक्रमेण भणितं प्रथममुत्सेधाङ्गुलम् , उत्सेधो-देवादिशरीराणामुञ्चत्वं तमिर्णयकत कत्वेन तद्विषयमङ्गुलमुत्सेधा१ज्योतिष्करण्डक वृत्तौ तु-'भष्टौ पूर्वविदेहापरवि देहमनुष्यषालामाण्येका लिक्षा' इति दृश्यते । अनुयोगद्वारवृत्तिः जम्बूद्विपप्रज्ञानिवृत्तिश्च (प.१४) द्रष्टव्या ।। २ कामि-मि.वि. ॥ ३ च-सि.वि. नास्ति ॥ ४ संबंधमाह-वि.वि. निर्णयक स्वेन-सि. वि. . प्र.आ. - a aton iminiti Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ।।५५२ ।। गुलम्, यद्वा उत्सेधो 'अणंताणं सुहुमपरमाणुपुग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे ववहारपरमाणू ' [ ] इत्यादिक्रमेणोच्छ्रयो-वृद्धिस्तस्माज्जातमङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलम्, यत्पुनरात्माङ्गुलं पूर्वमुद्दिष्टं तदीदृशेनवक्ष्यमाणस्वरूपेण विधिना प्रकारेण भाषितं प्रतिपादितं तीर्थकृद्गणधरैः ॥९३॥ तमेव विधिमाह - 'जे जंभी' त्यादि, 'ये पुरुषा:- चक्रवर्ति वासुदेवादयो यस्मिन् युगे- सुषमदुष्षमादिकाले निजगुलेनैवाष्टोत्तरं शतमङ्गुलानामुच्छ्रिता - उच्चा भवन्ति तेषां च स्वकीयाङ्गुलेनाष्टोत्तरागुलvatsarai पुरुषाणां यनिजम् - आत्मीयमङ्गुलं तत्पुनरात्माङ्गुलं भवति । इह च ये यस्मिन् काले प्रमाणयुक्ताः पुरुषा भवन्ति तेषां संबन्धी आत्मा गृह्यते तत आत्मनोऽङ्गुलमात्माङ्गुलम् ||१४|| इदं च पुरुषront कालादिमेदेनानवस्थित मानत्वादनियतप्रमाणं द्रष्टव्यम् 'जे पुणे' त्यादि, 'ये पुनः पुरुषा एतस्मादष्टोतराङ्गुलशतलक्षणात्प्रमाणान्न्यूनाः समधिका वा तेषां संबन्धि यदगुलमेतदास्माङ्गुलं न गण्यते, किंतु तदाभासमेव आत्मागुलामासमेत्र, परमार्थत आत्माङ्गुलं तत्र भवतीत्यर्थः । लक्षणशास्त्रोक्तस्वरादिशेषलक्षणचैकल्य सहायं च यथोक्तप्रमाणाद्धीनाधिक्यमिह प्रतिषिद्धं न केवलमिति संभाव्यते, भरतचक्रचर्यादीनां स्वाङ्गुलतो विंशत्यधिकाङ्गुलशतमानानामप्यत्र निर्णीतत्वामहावीरादीनां च केषाञ्चिन्मतेन चतुरशीत्याद्यङ्गुलप्रमाणत्वादिति ॥ ९५ ॥ साम्प्रतं क्रमसंप्राप्तं प्रमाणाङ्गुलमाह-- 'उस्सेहंगुले' त्यादि, उत्सेधाङ्गुलम् - अनन्तरोक्तस्वरूपं सहस्रगुणं सदेकं प्रमाणाङ्गुलं भवति, परमप्रकर्षरूपं प्रमाणं प्राप्तमङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलम्, नातः परं १. तुला जीव समासवृत्तिः गा. १०३, १. १०१ ॥ २ प्रज्ञापनावृत्तिद्वेष्टव्या ॥ ३ परमं मु.॥ २५४ द्वारे अङ्गुल स्त्ररूपं गाथा १३८९ ९७ प्र. आ. ४०७ ॥५५२॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ द्वारे अगुल सटीके गाथा (१३८९. बृहत्तरमङ्गुलमस्तीति भावः । यदिवा समस्तलोकव्यवहारराज्यादि स्थितिप्रथमप्रणेतृत्वेन प्रमाणभृतो. प्रवचन । ऽस्मिन्नवसर्पिणीकाले तावद्युगादिदेवो भरतचक्रवर्ती वा तस्य प्रमाणभूतपुरुषस्याङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलम् , सारोद्धारे तञ्च भरत चक्रवर्तिन आत्मांगुलम् तदा आन्मामुलस्य प्रमाणामुलस्य च तुल्यत्वात् । ननु यदि भरतचक्रिणः संबन्ध्यङ्गुलं प्रमाणागुलमिन्युच्यते, एवं सत्युत्सेधागुलाप्रमाणामुलं द्वितीयः चतुःशतगुणमेव स्यात् , न सहस्रगुणम् , तथाहि-भरतचक्रवर्ती आत्मीयागुलेन किल विशं शतमगुलाखण्ड: नामनुयोगद्वारघूयादिषु निर्णीतः । उत्सेधाडगुलेन तु पञ्चधनुःशनमानत्वात् प्रतिधनुश्च षण्णवत्यङ्गुलसद्भावादष्टचत्वारिंशत्सहस्राण्यङगुलानाममो संपाते । एवं च सत्येकम्मिन प्रमाणाङ्गुले उत्सेधाङगुलाना चत्वार्यैव शतानि भवन्ति । विंशत्यधिकशतेन प्रमाणाङ्गुलानामष्टचत्वारिंशत्सहस्रसंख्यस्योत्सेधाङ्गुलराशेआंगापहारे एतावत एव लामात् । ततश्वेचं भरतसंबन्ध्याललक्षणं प्रमाणाङ्गुलमुत्सेधाजुलाच्चतु:शतगुणमेव स्थात् न सहस्रगुणमिति , सन्यमुक्तम् , किन्तु प्रमाणामुलस्यार्धतृतीयोत्सेधाङ्गुलरूपं पृथुत्वमस्ति , ततो यदा स्वकीयपृथुत्वेन युक्तं यथावस्थितमेवेदं चिन्त्यते तदोत्सेधागुलात्प्रमाणाङ्गुलं चतुःशतगुणमेव भवति । यदा वर्धततीयोत्सेधाङ्गुललमणेन विष्कम्भेण शतचतुष्टयलक्षणं प्रमाणागुलदैर्ध्य गुण्यते तदोत्सेधाङ्गुलविष्कम्भा सहस्राङ्गुलदीर्घा च प्रमाणाङ्गुलमचिर्जायते ।। इदमुक्तं भवति-अर्धतृतीयोत्सेधाङ्गुलविष्कम्भे प्रमाणाङ्गुले तिनः श्रेणयः कल्प्यन्ते, प्रथमा उत्सेधाङ्गुलेनैकाङ्गुलविष्कम्मा शतचतुष्टयदीर्घा, द्वितीयापि तावन्मानैव, तृतीयापि देईंग पतु: १०स्थितिप्रमाणप्रणेतृत्वेन-सि.॥२ तथा-सि.पि.॥३करूपन्ते-सि.वि.॥ ४०७. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके २५४ द्वारे अड्गुलस्वरूप गाथा द्वितीयः खण्ड: ॥५५४॥ शतमान विष्कम्भतस्त्वर्धागुलप्रमाणा, ततश्चैतस्या दैर्ध्यच्छतदयं गृहीत्वा विक्रम्मोऽछगुलप्रमाण: "संपाद्यते। तथा च सगुलशतापदीर्घा मगुलविकम्मा इयमपि सिद्धा । ततस्तिसृणामप्येतासामुपर्यु परि व्यवस्थापने उत्सेधाङ्गुलेनागुलसहस्रदीर्घा अगुलविष्कम्मा प्रमाणागुलस्य सचिः सिद्धा भवति । तत इमा सूचिमधिकृत्य उन्सेपाङ्गुलात्प्रमाणाड्गुलं सहस्त्रगुणदीर्घमुक्तम् । वस्तुतस्तु चतु:शतगुणदीर्घमेव । 'अत एव पृथ्वीपर्वतद्वीपपयोराशिविमानादिमानान्यनेनैव चतुःशतगुणेनार्धतृतीयाहाललक्षणस्वविष्कम्भान्वितेनानीयन्ते न तु सहस्रगुणया अगुलविष्कम्भया सूच्या इति तावद् घृडसम्प्रदायादवगतम् । तचं तु केवलिनो विदन्तीति । तथा तदेवोत्सेधागुलं द्विगुणं सद् वीरस्य भगवतोऽपश्चिमतीर्थकत एकमात्माङगुलं भणितं पूर्षाचायः, वधमानस्वामी हि भगवान् आदेशान्तरादात्माङ्गुलेन चतुरशीतिरङ्गुलानि, उत्सेधागुलतस्तु सप्तहस्तमानत्वादष्टपष्टयधिकं शतम् । तथा चानुयोगद्वारचूर्णि:-- "वीरो आएसंतरओ आयंगुलेण चुलसीइअंगुलमुव्विद्धो उत्सेहंगुलओ सयमद्वसटठं हवइ" [ ] इति । सतो हे उत्सेधाङ्गुले वीरस्यैकमात्मामुलं भवति । अत्र च मतान्तराण्यधिकृत्य बहु वक्तव्यं सच नोच्यते प्रन्यगौरवमयात् । इदं च विविधमप्यङ्गुलं पुनःप्रत्येक त्रिधा भवति, तद्यथा-पूच्यङ्गुलम् , प्रतरागुलम्, घनामुलं च, तत्र देणाडगुलायता पाहल्यतस्त्वेकप्रादेशिकी ममाप्रदेशश्रेणिः सूच्यङ्गुलमुच्यते । एतच्च संपते-मि. वि.॥र मारपशनार्थ इष्टव्यः लोकप्रकामा १।४३.४४ ॥ प्र. प्रा. ४०८ ॥५५॥ RAahe MINSARAI MERESTMANO RAN MMISNE 02/ दो MERO SOM Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन रोद्वारे टोके तीयः सद्भावतोऽसंख्येयप्रदेश मप्यसत्कल्पनया सूच्याकारव्यवस्थापितप्रदेशत्रय निष्पन्नं द्रष्टव्यम् स्थापना पेयं ०००, सूची सूच्यैव गुणिता प्रतराङ्गुलम्, इदमपि परमार्थतोऽसंख्येयप्रदेशात्मकम् असद्भावतस्त्वेपैवानन्तरदर्शिता त्रिप्रदेशात्मिका सूचिः तयैव गुण्यते । अतः प्रत्येकं प्रदेशत्रय निष्पमसूचीत्रयात्मकं नवप्रदेशसंख्यं संपद्यते । स्थापना चेयम् - 880, 000 प्रतरथ सूoया गुणितो दैर्घ्यविष्कम्भवान्येषु समसंख्यं घनाङ्गुलं भवति । दैर्ध्यादिषु त्रिष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव समयचर्यया घनस्येह रूढत्वात् । प्रतराङ्गुलं तु दैर्ध्य - विष्कम्भास्यामेव प्रदेशैः समं न पिण्डतः, तस्य तत्रैकप्रदेशमात्रत्वादिति भावः । इदमपि सद्भावतो दैर्ध्य विष्कम्भ बाहल्येषु प्रत्येकअसंख्येय" प्रदेशमा नमसत्प्ररूपणया तु सप्तविंशतिप्रदेशात्मकम् । पूर्वोक्तत्रिपदेशात्मकमुन्याऽनन्तरप्रदर्शिते नवप्रदेशात्मके प्रतरे गुणिते एतावतामेव प्रदेशान भावात् । एषां च स्थापनानन्तरनिर्दिष्टनवप्रदेशात्मकप्रतरस्याध उपरि च नव नव प्रदेशान् दत्त्वा मावनीया, तथा च सत्यायामविष्कम्भपिण्डैस्तुल्यविषयमापद्यत इति ।। ९६ ।। अथ येनाङ्गुलेन यन्मीयते तदाह- 'आय' मित्यादि, आत्मागुलेन वास्तु मिमी । तच्च वास्तु त्रिधा - खातमुच्छ्रितमुभयं च तत्र खातं रूपभूमिगृहतडागादि, उच्छ्रितं - धवलगृहादि, उभयंभूमिगृहादियुक्तं धवलगृहादि । तथा देहं देवादीनां शरीरमुत्सेधप्रमाणतः- उत्सेधाङ्गुलेन मिमी । १ स्थापना चेयं - सि. वि. ।। २ न -मु. नास्ति ॥ ३ प्रदेश० मु. नास्ति || ४ नम्वरदर्शिवनव० मि. वि. ।। ० २५४द्वारे अगुल स्वरूपं गाथा १३८९ . १७ प्र. आ. ४०८ ॥५५५॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: २५५द्वा तमस्कार स्वरूपं गाथा प्र. आ. प्रमाणानगुलेन पुनर्नगपृथ्वीविमानादीनि मिमीध्व । तत्र नगा-मेर्वाद्याः, पृथिव्यो-धर्माद्याः, विमानानिसौधर्मावतंसकादीनि, आदिशब्दावन नरकावासद्वीपसमुद्राद्यपि प्रमाणाङ्गुलेन मिमीष्वेति ॥१७॥ २५४॥ इदानीं 'तमकायसरूवं' ति पञ्चपश्चाशदधिकद्विशतमं द्वारमाह--- 'जंजूदीचाउ असंखेज्जइमा अरुणवरसमुद्दाभो । बायालीससहस्से जगईड जलं विलंघे ॥६८|| समसेणीए सतरस एकवोसाई जोयणसयाई । उल्लसिओ तमरूवो वलयागारो 'अउक्काओ || 'तिरियं पवित्थरमाणो आवरयंतो सुरालयचउक्कं । "पंचमकप्पे रिट्ठमि पत्थडे चरदिसिं पिलिओ ॥१४.०॥ हेट्ठा मल्लयमूल हिद्विभो 'उपरि बंभलोयं जा । कुक्कुडपंजरगागारसंठिओ सो तमकाओ ॥१४०१॥ दुविहो से विकरखं भो संग्वेज्जो अस्थि तह असंखेज्जो । 'पदमंमि उ विकखंभो संखेज्जा जोयणसहस्सा |२|| परिहीए ते असंखा बोए विखंभपरिहिजोएहिं । हुति असंखसहरसा नवरमिमं होई विस्थारो ॥३॥ तुलनीयं भगवतीसूत्रम ६।५. सू. २४१॥ २ अपुकायो–ता. । भवुक्कायो-सि. ३ तिरिय पवित्थर मु.। तिरिवं वित्यर० मि ॥४पंचमकप्पेहि-सि.१५ उरि-सि.६ पढममिबि-मु. । पढमंमि य-सि.॥ - | १६५६ SATH Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५द्वारे तमस्काय सारोदारे। सटीके द्वितीयः गाथा जम्बूद्वीपादसङ्ख्यं यत्तमो योऽसावरुणासमुद्रस्तमाश्रित्य द्विचत्वारिंशयोजनसहस्राणि जगत्या जलं चिलक्ष्य समश्रेण्या-समभित्तितया एकविंशत्यधिकानि सप्तदश योजनशतानि यावद्वलयाकारस्तमोरूपो देवानामपि तत्रोद्योतामावेन महान्धकारात्मकत्वादप्काय उल्लसितः । अयमर्थः-एतस्माज्जम्बूद्वीपात्तिर्यगसङ्ग्यातद्वीपसमुद्रान व्यतिक्रम्यारुणवरनामा द्वीपः समस्ति । तद्वेदिकापर्यन्ताद् द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यरुणवरं समुद्रमवगाह्मात्रान्तरे जलोपरितनललाध्वमेकविंशत्युत्तराणि सप्तदश योजनशतानि यावन्समभिस्याकारतया गत्वा वलयाकृतिरष्कायमयो महान्धकाररूपस्तमस्कायः समुलसित इति । 'अयं च तिर्यकाविस्तरन सुरालयचतुष्क-सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्ररूपं देवलोकचतुष्टयमावृण्वन्-आच्छादयन्नूचं तावद्गतो यावत् पञ्चमे ब्रह्मलोकनामके कल्पे तृतीयेऽरिष्ठविमानप्रस्तटे चतसृष्वपि दिक्ष मिलित इति ।।९८.१४००॥ अथ तमस्कायस्य संस्थानमाह- 'हेठे' त्यादि, अधस्ताद्- अधोभागे मल्लकमूलस्थितिस्थितोमल्लक-शरावं तस्य मूलं-बुघ्नं तस्य स्थिति:-संस्थानं तया स्थितो-व्यवस्थितः, शरावचुनाकार इति भावः । उपरिष्टाच ब्रह्मलोकं यावत् 'कुक्कटपञ्जरकाकारसंस्थितः सः-पूर्वोक्तस्वरूपस्तमस्कायो भवति । तमां-तमिस्रपुद्गलानां कायो-राशिस्तमस्काय 'इति ॥१॥ अथास्य समस्कायस्य विष्कम्भं परिधिं च प्राह-'दृविहो' इत्यादिगाथाद्वयम् , द्विविधो-द्विप्रकारः प्र. आ. १ अयं तिर्यक विस्तरन्-सि.॥२ मधोमागेन-सि.॥ ३ कुङ्कटमु.॥ ४ इति स्थापना।। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके अनन्त पटकं | गाथा १४०४ रितीयः प्र. आ. से' ति तस्य तमस्कायस्य विष्कम्भो-विस्तारो भवति-सङ्ख्यातस्तथा असङ्खयातश्च । तत्र प्रथमे विष्कम्मे आदित आरभ्य ऊर्ध्व सङ्ख्येययोजनानि यावत्सङ्ख्येया योजनसहस्राः प्रमाणतो भवन्ति । परिधौ-परिक्षेपे पुनस्त एव योजनसहस्रा असङ्खयाताः । अधस्तमस्कायस्य सङ्ख्यानयोजनविस्तृतत्वेऽप्यसङ्घयाततमद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात्तत्परिक्षेपस्यारुवासयोजनसहनमात्याविरुद्धम् , आन्तरबहिः परिक्षेपविभागस्तु नोक्तः । उभयस्याप्यसङ्ख्याततया तुल्यत्वादिति ।। तथा 'द्वितीये विष्कम्भे विष्कम्भपरिधियोगाभ्या-विष्कम्भेन परिधिना च प्रत्येकमसङ्ख्याता योजनसहस्रा भवन्ति । नवरं केवलमिदमत्रासयातयोजनसहस्ररूपं प्रमाणं विस्तारे भवति । वलयाकाराचं यदाऽसौ तमस्कायः क्रमेण विस्तरति तदानीमिदं प्रमाणमवसेयमिति भावः । अस्य च तमस्कायस्य महत्त्वमिन्थमागम विदःप्रवेदयन्ति । यथा--यो देवो महर्द्धिको यया गत्या तिसृभिश्चपुटिकाभिरेकविंशति वारान् सकलं जम्बूद्वीप मनुपरिवृश्यागच्छेत स एव देवस्तयैव गत्यापभिरपि मासे सवथातयोजन विस्तारमेव तमस्कायं व्यतिव्रजेत नेतरमिति, यदा च कश्चिदेवः परदेव्यासेवाहेबाकपररत्नापहारादिभिरपराधमाधत्ते तदा बलवदेवमयात् प्रपलाय्य देवानामपि भूरिभयाविर्भावकत्वेन गमनविघातहेतौ तस्मिस्तमस्काये निलीयत इति ।।२।।३।। ।।२५।। सम्प्रति 'अणंतछक्क' ति षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह---- _ सिद्धा१निगोयजीवा २ वणस्सई ३ काल ४ पोग्ग ला ५ चेव । . सधमलोगागासं ६ छप्पेएऽणतया नेया ॥४॥ द्विविध सि. ॥ २ केवलमिदमस सि. तुला-नव्यचतुर्थकर्मप्रन्थे ५५ गाथा ।। - जन Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७। अष्टाङ्ग सारोद्धारे सटीके द्वितीयः गाथा १४०५ प्र. आ. सर्व एव सिद्धाः-अपगतसकलकर्मकलंकाः, तथा सर्वेऽपि सूक्ष्मवादर मेदभिन्ना निगोदजीवा-- अनन्तकायिकजण तथा सः पनमामा-प्रत्येकालान्तवनस्पतिजीवाः, काल इति-सर्वेऽतीतानागतवर्त जीवनातवत मानसमयाः, सर्वे पुद्गलाः-समस्तपुद्गलास्तिकायगताः परमाणवः, तथा सर्व-समस्तमलोकाकाशम् , अयं च सर्वशब्दः प्रत्येकं लिङ्गवचनपरिणामेन सर्वत्र संबन्धनीयः, सच तथैव संबन्धितः । एते-प्रदर्शितस्वरूपाः षडपि राशयोऽनन्तका ज्ञेयाः ।।४।२५६॥ इदानीम् 'अटुंगनिमित्ताणं' ति सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह __ 'अंग १ सुविण २१ सरं ३ उपायं ४ अंतरिक्ख ५ भोमं च ६। घंजण ७ लक्खण मेव य अट्ठपयारं इह निमित्तं ॥५॥ अंगप्फुरणाईहिं सुहासुहं जमिह भन्नइ तमंगं १ । तहसुस्सिविणयदुस्सिविणएहिंजं सुमिणयंति तयं २ ॥६॥ इहमणि जं सरविसेसओ तं सरंति विनेयं ३। काहिरपरिसाइ जमि जायइ भन्नइ तमुपायं ४ ॥७॥ गहवेहभूयअहहहासपमुहं जर्मतरिक्खं तं ५ । भोमं च भूमिकंपाइएहिं नज्जा वियारेहिं ॥८॥ १ तुला उत्तराध्ययन सू.१५/, मंगविज्जा पृ. १, गा.१॥ २ तहसुसुमिणय दुस्सुमिणपहि-मु. सा.सुसिषिपाय सि.॥ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोदारे सटीक | २५-द्वा अष्टाक्षनिमित्तं गाथा १४०५. द्वितीयः ॥५६॥ प्र. आ. इह वंजणं मसाई ७ लछणपमुहं तु लक्षणं भणियं । सुहमसहस्यगाई भंगाईयाई अट्ठावि ॥९॥ अङ्ग स्वप्नः स्वर उत्पात आन्तरिक्ष मोमं व्यञ्जनं लक्षणं चेत्येवमष्टप्रकारम्-अष्ठविधमिहशास्त्रे निमित्तं भवति । अतोतानागतवर्तमानानामतीन्द्रियमावानामधिगमे निमित्तं-हेतुर्यद्वस्तु जातं तनिमित्तम्, सूत्रे स्वप्नादिपदेषु प्राकृतत्वानपुसकन्वमिति ॥५॥ साम्प्रतमष्टप्रकारमपि निमित्तं क्रमेण व्याख्यातुमाह-'अंगे' त्यादिगाथाचतुष्कम् , अङ्गम्फुग्णादिमिः-'मरीरावयवस्पन्दप्रमाणादिभिर्यदिह वर्तमानमतीत मनागतं वा शुभं वा-प्रशस्तमशुमं वाअप्रशस्तम् अन्यस्मै कथ्यते, तद्भण्यतेऽङ्गास निमित्तम् , यथा “दक्षिणपावें स्पन्दनमभिधास्ये तत्फलं खिया चामे। पृथिवीलामः शिरसि म्थानविवृद्धिललाटे स्यान् ।।१॥"इत्यादि १ । नथा सुस्वप्नदुःस्वप्नाभ्यां यत्कथ्यते शुभाशुमं तत्स्वप्नाख्यं निमित्तम्। यथा " देवेज्यात्मजबान्धवोत्मवगुरुच्छाम्बुजप्रेक्षणं, प्राकारद्विरदाम्बुदद्रुमगिरिप्रामादसंरोहणम् । अम्भोधेस्तरणं सुरामृतपयोध्नां च पानं तथा, चन्द्राकग्रमनं स्थितं भिवपदे स्वापे प्रशस्तं नृणाम् ॥१॥" ___ इत्यादि २। १ शरीरावयवस्पन्दि सि. ॥२ तुला-स्थानावृत्तिः ५. ४२७ B ॥ ३ देवेष्टात्म० जे.॥ ५६०॥ MARUNIA Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे सटीके द्वितीयः २५७ द्वारे अष्टाङ्गनिमित्तं गाथा ॥५६१॥ इष्टमनिष्टं च यत्स्वरविशेषतः पडजादिस्वरसप्तकविभागतः शकुनरुतरूपाद्वा परस्मै कथ्यते तत् स्वरनामकं निमित्तम् , यथा "सज्जेण लब्भए वित्ति, कयं चन विणसह । गावो मित्ता य पुत्ता य, नारीणं चेव चल्लाहो ॥१॥" इत्यादि । यद्वा--'चिलिचिलिमद्दो पुनो सामाए सूलिमूलि धनो उ । . चेरी चेरी दित्तो 'चिक्कुती लाभहेउत्ति ॥१॥' इत्यादि ३ ! सहजरुधिरवृष्टयादि 'यस्मिन् जायते भण्यते तदुत्पाताभिधं निमित्तम् , आदिशब्दादस्थिवृष्टयादिपरिग्रहः, यथा ___ "मज्जानि रुधिरास्थीनि, धान्याङ्गारान् वसा तथा । मघवा वर्षते यत्र, भयं विद्याच्चतुर्विधम् ॥१॥" इत्यादि ४ । प्रहवेषभूताट्टहासप्रमुखमान्तरिक्षं निमित्तम् , तत्र ग्रहवेधो-ग्रहस्य ग्रहमध्येन निर्गमा, भूताट्टहासः-अतिमहानाकाशे आकस्मिकः किलकिलारावः, यथा--. "भिनत्ति सोमं मध्येन, ग्रहेष्वन्यतमो यदा । तदा राजभयं विद्यात् , प्रजाक्षोभं च दारुणम् ॥" इत्यादि । प्रमुखग्रहणाद्गन्धर्वनगरादिपरिग्रहः । यथा "कपिलं शस्यपाताय, माजिष्ठं हरणं गवाम् । अव्यक्तवर्ण कुरुते, बलक्षोभं न संशयः ॥१॥ १ विविचिविसदो-इति स्थानागवृत्तौपाठः २७७ B॥ २ पत्ति-सि. ॥ ३ यस्मिन् जायते (मण्यते)- मु.॥ |प्र. आ. 1४१० ॥५६॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धार सटीके द्वितीयः, गंधर्वनगरं स्निग्धं, सपाकारं सतोरणम् । सौम्या दिशं समाभिस्य, राहस्तद्विजयङ्करम् ।।२।।" इत्यादि ५। भूमिकम्पादिभिर्विकारः शुभाशुभं यद् जायते तद्भौमं निमित्तम् , यथा"शन्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यत्र, राजा राष्ट्रच पीच्यते ॥१" 'इत्यादि। इह-अस्मिन् शास्त्रे व्यञ्जनं-मषादि, लाञ्छनप्रमुखं तु लक्षणं मणितम् , यथा"नाम्यधस्ताद्भवेद्यस्या, लाञ्छनं मशकोऽपि वा । कुमोदकसङ्काशं, सा प्रशम्ता निगद्यते ॥१॥" अष्टाङ्गनिमिर्च गाथा १४.५. ||५६२|| इत्यादि। निशीथग्रन्थे पुनरित्यमुक्तं- 'माणाइगं लक्खणं मसाइमं वंजणं, अहवा जं सरीरेण सह समुप्पन्नं तं लक्षणं पच्छा उप्पनं बंजण" [१३॥१६॥४२९४] मिति ।। तदेवं शुभाशुभसूचकान्वङ्गादीन्यष्टावपि प्रतिपादितानीति । लक्षणानि च पुरुषविभागेनेत्थं निशीथे प्रोक्तानि___ "पागयमणुयाणं बत्तीसं, अट्ठसय बलदेववासुदेवाणं, अट्ठसहस्सं पक्कबट्टितित्थगराणं, जे फुडा इत्थपायाइनु लखिज्जति सिं पमाणं भणियं जे पुण अंतो स्वभावसत्वादयः तेहिं सह बहुतरा भवंती' [१३५६४२:३] स्यादि, ॥६७८९॥२७॥ स्यादि- मास्ति ॥२ मा स्थानानाधिप... BId-पि ॥ ५६२६ 2500MANSHANTA REATIVASHAKTI AMANIAMOSADHANE FARANRAH Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ||५६३॥ संप्रति 'माम्माणपमा' ति अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह अदोणमडभारं समुहाइ" समूसिओ उ जो नव उ 1 माम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं नेयं ॥१०॥ मानं - जलद्रोणप्रमाणता, उन्मानं - तुलारोपितस्यार्ध मारप्रमाणता, "यश्व स्वमुखानि नचैव समुच्छ्रितः स पुमान् प्रमाणोपेतो भवति । अयमर्थः - पानीयपरिपूर्णायां पुरुषप्रमाणादीपदतिरिक्तायां महत्यां कुण्डिकार्या प्रवेशितो यः पुरुषो जलस्य द्रोणं- सर्वार्धघटिकाघटस्वरूपं निष्कासयति द्रोणेन जलस्योनी जातां पूरयति स पुरुषो मानयुक्तो भवति । तथा सारपुद्गलोपचितत्वात् तुलायामारोपितः समर्धमारं यः पुरुषस्तुलयति स उन्मानयुक्तो भवति । तथा यद्यस्यात्मीयमङ्गुलं तेनात्मनोऽङ्गुलेन द्वादशाङ्गुलानि मुखं प्रमाणयुक्तं भवति । अनेन च मुखप्रमाणेन नव सुखानि सर्वोऽपि पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति । प्रत्येकं द्वादशाङ्गलैर्नवभिन खैरष्टोत्तरं शतमगुलानां संपद्यते । ततश्चैतावदुच्छ्रयः पुमान् प्रमाणयुक्तो भवतीति । तदेवं मानोन्मानप्रमाणरूपमेतत् त्रिविधं लक्षणमुत्तमपुरुषाणां खलु निश्चयेन ज्ञेयमिति ॥ १० ॥ २५८ ॥ 1 १०ता भगवतीसूत्रवृत्ती व प. ११३ ॥ २एयं इति स्थानानुवृत्तौ (प.४६२) मगवती सूत्रषत्तौ च प. ११६. ३. यस्य मु । येश्व-सि । जम्बूद्वीप प्रतिष्टत्तिस्तुवनीया [प. २५२] तत्रापि 'या' इति पाठः ॥ ४ द्रोणं स वाघघटिका० सि. । 'पुरुषः सारपुद्गलोपचितो जलस्य द्रोणं त्रिखवर्णिक गणनापेक्षया द्वात्रिंशत्सेर प्रमाणं निष्काशयति' इति जम्बूद्वीप प्र. शान्तिचन्द्रीयवृत्ती २५२ ॥ २५८३ मानो न्मान प्रमाणा गाथा १४१० प्र. आ. ४११ ॥५६३॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः अष्टादश भोज्यानि गाथा ॥५६॥ इदानीम् 'अट्ठारस मक्स्वभोज्जाइ" स्येकोनषष्टयधिकद्विशततमं द्वारमाद 'सुओ! यणो २ जवन्नं ३ तिनि य मंसाई ६ गोरसी ७ जूसो८। भक्खा ९गुललावगिया १० मूलफला ११ हरियग 'हागो १३ ॥११॥ होइ रसाल य १४ तहा पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं १७ पेव । अट्ठारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिण्डो ॥१२॥ जलथलवहयरमसाइ तिमि जूसो उ जोरयाइजुओ । "मुग्गरसो भक्वाणि य खंडखजयपमोक्वाणि ॥१३॥ गुललावणिया गुडप्पपडीउ गुलहाणियाउ वा भणिया । "मूलफलतिपयं हरिययमिह जीरयाईय ॥१४॥ डाओ वत्थुलगाईण मजिया हिंगुजीरयाइजुया । सा य रसालू जा मजियत्ति मलकवणं चेयं ॥१५॥ यो घयपला महु पलं दहियस्सऽद्वादयं मिरिय वीसा । दस वंडगुलपलाई एस रसाल निवजोगो mm पाणं सुराइयं पाणियं जलं पाणगं पुणा एत्य । दवावापियपमुहं सागा सो तकसिई जं ॥ ॥ १ तुला स्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः १.११८ तः ।। २ सागो-इति स्थानाङ्गवृत्ती पाठः ।। ३ मग ता॥ ४ मूल फलनेकरूपयं-सि ॥ ५ 'णि-सि. १६ एस रसाल निवह जोगा-सि ।। प्र. आ. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥५६५॥ डाक सूपः ओदनः यवान्नं त्रीणि मांसानि गोरसो ग्रुषः भक्ष्याणि गुडलावणिका मूलफलानि हरितकं तथा भवति रसाला. आर्पत्वाच्च रसालू इति निर्देशः । तथा पानं पानीयं पानकम् अष्टादशश्व शाकः । एषोऽष्टादशविधो निरुपहतो- 'निर्गत उपहतः - दोषो यस्मादसों निरुपहतो - निर्दोष इत्यर्थः । लौकिको निर्विवेक लोकप्रतीतः पिण्डः- आहार इति ||११|| १२ || तत्र सूपो - दालिः, ओदनः- कूरः, यवान्नं यत्रनिषन्नं परमान्नम्, गोरसो- दुग्धदधिघृतप्रभृतिकः । शेषं च सूत्रदेव क्रमेण विवृणोति — 'जसे' त्यादिकं गाथापञ्चकम् जलचरस्थलचरखचरजीव संबन्धीनि त्रीणि मांसानि । तत्र जलचरा - मत्स्यादयः, स्थलचरा - हरिणादयः खचरा-लावकादयः । तथा जूषोजीरककभाण्डादिभिर्युतः सुभृतो मुद्गरसः तथा भक्ष्याणि - खण्डखाद्यकप्रमुखाणि खाद्यकं खज्जकम्, तच्च खण्डेन खरण्टितम्, तत्प्रमुखाणि तथा गुललावणिका गुडपर्यटका, पूर्वदेशीयप्रधानगुडकृता या पर्यटकेत्यर्थः । अथवा गुडमिश्रा धाना गुडवाना मणिता गुललावणिकेति । 'मूलकफल' मिति त्वेकमेव पदं ग्राह्यम् नतु द्वयम्, तत्र मूलानि अश्वगन्धादीनां फलानि सहकारादीनाम् तथा हरितकमिह जीरकादिपत्रनिर्मितम्, तथा 'डाको वस्तुलराजिकादीनां भर्जिका हिगुजीरकादिभिर्युता सुसंस्कृता; सा च रसाला ज्ञेया या "मार्जितेति लोके प्रसिद्धा, तस्याश्चेदं वक्ष्यमाणं स्वरूपम् । " , तदेवाह - 'दो घयपले' स्यादि, द्वे पले घृतस्य एकं पलं मधुनः, अर्धाढको दध्नः, विंशतिर्मरिचानिवर्तितानि दश च पलानि खण्डस्य गुडस्य वा एतैः पदार्थैर्मिलितै रसाला निष्पद्यते, एषा च १ निगमुप सि. ॥ २शाको इति स्थानाङ्गसूत्रवृत्तौ प ११८ ॥ २ तुला- धातुपारायणम् पृ. १७५, पृ. ३५३ ॥ २५९ द्वारे अष्टादशभोज्यानि गाथा १४१११७ प्र. आ. ४११ ||५३५॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे। सटीके वृद्धि गाथ द्वितीयः खण्ड: नृपतीना-राज्ञामुपलझणत्वादीश्वरलोकस्य योग्या-उचितेति । तथा पान-सुरादि, आदिशब्दात्सर्वमधमेदपरिग्रहः, तथा पानीयं-सुशीतलं सुस्वादु च जलम् , पानकं पुनरवद्रामाखजूरादिकृतं पानकप्रमुखम् , सथा शाकः स उच्यते यत्तक्रेण सिद्धं-निष्पन्न वटकादीति ॥१॥१४॥१५॥१६।।१७।। २५६।। सम्प्रति 'छहाणबुढिहाणि' ति षष्टयधिकद्विशततमं द्वारमाह वुड्डी वा हाणीधा अणंत १ अस्संख २ संखभागेहिं ३ । पत्थूण संख ४ अस्संख ५ णंत ६ गुणणेण य विहेया ॥१८॥ अनन्ताऽमङ्ख्यातमथातभागैः सङ्ख्यातामङ्गयातानन्तगुणेन च बस्तूना-पदार्थानां वृद्धिर्वा हानियां विधेया । इद पटस्थानके त्रीणि स्थानानि मागेन-भागहारेण वृद्धानि हीनानि वा भवन्ति; त्रीणि च स्थानानि गुणनेन-गुणकारेण, “आगो तिसु गुणणा तिसु'[ ] इति वचनान् । 'तत्र भागहारेऽनन्तामङ्ख्यातमङ्गयातलक्षणः क्रमः, गुणकारे च सङ्ख्यातासङ्ख्यातानन्तलक्षण इति । अयमर्थःसर्वविरतिविशुद्धिस्थानादीनां वस्तूनां वृद्धि हानि, चिन्त्यमाना पटम्थानगता प्राप्यते । तद्यथा-अनन्तमागवृद्धिः, असहयातभागवृद्धिः, सङ्ख्यातभागवृद्धिः, मङ्खथातगुणवृद्धिः, असङ्ख्यातगुणवृद्धिः, अनन्तगुणअद्विश्व, एवं हानिरपि । तत्र किश्चित्सुगमत्वात्सर्वविरतिविशुद्विस्थानान्येवाश्रित्य लेशतो भाव्यते-इह हि सर्वोत्कृष्टादपि देशविरतिविशुद्धिस्थानात सर्वजघन्यमपि सर्वविरनिविशुद्धिस्थानमनन्तगुणम् , अनन्तगुणता च सर्वत्रापि १समाग सि.। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः षट्स्थानचिन्तायां सर्वजीवानन्तकप्रमाणेन गुणकारेण द्रष्टव्या । इयमत्र भावना-सर्वजघन्यमपि सर्वविरतिविशुद्धिस्थानं केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेन विच्छिद्यते । छिचा च निर्विभागा भागाः पृथक क्रियन्ते । ते । निर्विभागा भागाः सर्वसंकलन या विभाव्यमाना यावन्तः सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागाः १२६० द्वा भागाः 'सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यमाना जायन्ते तावत्प्रमाणाः प्राप्यन्ते । अत्राप्ययं भावार्थः-इह किलासत्कल्पनया सर्वोत्कृष्टस्य देशविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा वृद्धिहानी भागा दश सहस्राणि १००००, 'सर्वजीवानन्तकप्रमाणश्च राशिः शतम् , ततस्तेन शतसङ्ख्येन सर्वजीवान गाथा स्तकमानेन राशिमा शसहस्रसथाः सर्वोत्कृष्टदेशावरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागा गुण्यन्ते, जाता १४१८ दश लक्षाः “१००००००, एतावन्तः किल सर्वजघन्यस्यापि सर्वविरतिपिशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भागा भवन्ति । एते च सर्वजघन्यचारित्रसत्कविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागाः समुदिताः सन्तः सर्वजधन्यं प्र. आ. संयमस्थानं भण्यते । तस्मादनन्तरं यद् द्वीतीयं संयमस्थानं तत् पूर्वस्मादनन्तभागवृद्धम् ।। किमुक्तं भवति ?-प्रथमसंयमस्थानगतनिविभागभागापेक्षया द्वितीयसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका भवन्तीति । तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत्ततोऽनन्तभागवृद्धम् , एवं पूर्वस्मात पूर्वस्मादुत्तरोत्तराणि निरन्तरमनन्तभागद्धानि संघमस्थानानि अगुलमात्रक्षेत्रासख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि वाच्यानि । एतानि च समुदितानि संयमस्थानान्येक कण्डकं भवति, कण्डकं नाम समयपरिभाषया अगुलमात्रक्षेत्रासङ्ग्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा सङ्ख्याऽभिधीयते । उक्त चर सजीवानम्तकगुणेन-सि. ॥ २ मुद्रिते-१.... नास्ति । सर्वसाधानन्तक० सि. ॥ ४ मुद्रिते १०००००० नास्ति । . ४१२ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. द्वारे प्रवचनसारोद्धारे सटीके वृद्धिहानि गाथा १४१८ द्वितीयः प्र. आ. ॥५६८॥ ॐ "कण्डंति एत्थ भन्नइ अंगुलभागो असंखेज्जो" [ ] तस्माच्च कण्डकात् परतो यदन्यदनंतरं संयमस्थानं तत् पूर्वस्मादसयेयभागाधिकम् । ___ एतदुक्तं भवति-पाश्चात्यकण्डकसत्कचरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया 'कण्डकानन्तरे संयमस्थाने निविभागभागगतप्रदेशा असङ्ख्येयतमेन भागेनाधिकाः प्राप्यन्ते । ततः पराणि पुनर्यान्यन्यानि संयमस्थानानि अङ्गुलमात्रक्षेत्रासङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि तानि यथोत्तरमनन्तमागवृद्धान्यकसेयानि । एतानि च समुदितानि द्वितीयं कण्डकम् । तस्य च द्वितीयकण्डकस्योपरि यदन्यत् संयमस्थानं तत्पुनरपि द्वितीयकण्डकसत्कचरमसंयम स्थानगतनिर्विभागभागापेक्षयाऽसङ्ख्येयभागवृद्धम् , ततो भूयोऽपि सतः पराणि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति । ततः पुनरप्येकमसलयेयभागवृद्धं संयमस्थानम् । एमनन्तभागाधिकः कण्डकप्रमाणैः संयमस्थानैर्व्यवहितान्यसङ्ख्येयमागाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्तान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति । चरमादसङ्ख्येयभागाधिक संघमस्थानात् पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि वाच्यानि । ततः परमेक सङ्ख्येयभागाधिकं संयमस्थानम् , ततो मृलादारभ्य यावन्ति स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव क्रमेणामिधाय पुनरप्येकं सङ्ख्येयभागाधिकं संयमस्थानं वाच्यम् । इदं च द्वितीयं सङ्ख्येयभागाधिक स्थानम् । शकण्कमिति भण्यतेऽगुलभागोऽपारयेयः। १ कण्डकावनन्तरे-सि.।। २०थानागत.सि.।। ५६८॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: मानntan ततोऽनेनैव क्रमेण तृतीयं वाच्यम् , अमृनि चै सङ्ख्येयभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि । २६० द्वारे यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति । 'तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि सङ्ख्येय भागाधिकस्थानप्रसंगे सङ्ख्येयगुणाधि षड्वृद्धिकमेकं स्थानं वक्तव्यम् , ततः पुनरपि मूलाना यारमिन राधमाधानानि मायनिक्रान्तानि तान्ति हानि भूयोऽपि तथैव वान्यानि ततः पुनरप्येकं सङ्ख्येयगुणाधिकं स्थानं वाच्यम् । ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य गाथा तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वाच्यानि । १४१८ ततः पुनरप्येकं सङ्ख्येयगुणाधिक स्थानम् , अमून्यप्येवं सङ्ख्येयगुणाधिकानि 'स्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति । नतस्तेनैव क्रमेण पुनः सङ्ख्ये यगुणाधिकस्थानप्रसंगेऽसत्येयगुणाधिक स्थानं वाच्यम् , ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति प्र. आ. तथैव भूयोऽपि याच्यानि । ततः पुनरप्येकपमङ्ख्येयगुणाधिक संयमस्थानं वाच्यम् , ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वाच्यानि । ततः पुनरप्येकमसङ्ख्येय गुणाधिकम् , अनि चैवमसख्येयगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि । ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यमङ्ख्येयगुणाधिकस्थानप्रसङगेऽनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वाच्यम् , ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागुस्तानि भवन्ति तावन्ति तथैव वाच्यानि, ततो भूयोऽप्येकमनन्तगुणाधिक स्थानम् , ततः पुनरपि मृलादारभ्य तावन्ति स्थानानि तथैव वाच्यानि, तनः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं स्थानम् , एवमनन्तगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डक १ ततस्तेनैवक्रमेण-सि.1॥२ संयमस्थानामि-सि.।। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे २३. द्वा षड्वृद्धिहानी सटीक द्वितीयः गाथा १४१८ मात्राणि भवन्ति । ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चवृद्धथात्मकानि संयमस्थानानि मूलादारम्प तथैव बाच्यानि । यत्पुनरनन्तगुणवृद्धिस्थानं तन्न प्राप्यते । षट्स्थानकस्य परिसमासत्वात् । इत्थंभूतान्पसख्येयानि कण्डकानि समुदितानि एक षट्स्थानकं भवति । अस्माच्च पदस्थानका मुक्तकमेणैव द्वितीयं षट्स्थानकमुत्तिष्ठति । एवमेव च तृतीयम् । एवं षट्स्थानकान्यपि तावद्वाच्यानि यावदसख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति । उक्तं च A "छहाणगअवसाणे अन्नं छट्ठाणयं पुणो अन्नं । एवमसंखा लोगा छठाणाणं मुणेयव्वा ॥१॥ 'अस्मिश्च षट्स्थानके यादृशोऽनन्ततमो भागोऽसयतमः सपतमो वा गृह्यते यादृशस्तु सलयेयोऽसमस्येयोऽनन्तो वा गुणकारः स निरूप्यते-तत्र यदपेशयाऽनन्तगुणवृद्धता तस्य सर्वजीवसङ्ख्या- प्रमाणे न राशिना भागो हियते. हृते च भागे यलब्धं मोऽनन्तनमो भागः, तेनाधिकमृत्तरं संयमस्थानम् । किमुक्तं भवति ?-प्रथमस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीवसङ्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हुने सति ये लम्यन्ते तावत्प्रमाणेनिर्विभाग भांग द्वितीयसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अधिकाः प्राप्यन्ते द्वितीयसंयमस्थानम्य ये निर्विभागा भागाम्तेषां सर्वजीवमङ्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यावन्तो लभ्यन्ते तावत्प्रमाणेनिर्विभागै गैरधिकास्तृनीये संयमस्थाने निर्विभागा भागाः प्राप्यन्ते । एवं यद्यसंयमस्थानमनन्तभागद्धमुपलभ्यते तत्सत्पाश्चात्यस्यसंयमस्थानस्य सर्वजीवसङ्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते तावत्प्रमागेना'नन्ततमेन भागेनाधिक्यमवगन्तव्यम् । 4 षट्स्थानकावसाने अन्य षस्थानकं पुनरन्यम् । एवमसयालोकाः षट्स्थानकानां कातव्याः ॥ १ मम्मिश्च गुणस्थानके-सि.॥२०र्द्वितीयमागसंयम-सि.॥ ३ नन्ततममागेन. सि.॥ प्र. आ. ४१३ ५७०॥ साता o totalbirdkorbandisto rtionation antalian.. ............ al .......... ......... . DREAn t o shine Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटिके २६० दा षड्बृद्धि हानी द्वितीयः गाथा असङ्ख्यभागाधिकानि पुनरप्येव-पाश्चात्यम्य संयमस्थानस्य सत्काना निर्विभागभागानामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हते सति यद्यलभ्यते 'सोऽसङ्ख्येयतमो भागः । ततस्तेनासव्येयतमेन भागेनाधिकान्यसलयेयभागाधिकानि स्थानानि वेदितव्यानि । सङ्ख्येयभागाधिकानि त्वेवं-पाश्चात्यस्य पात्रात्यस्य संयमस्थानम्योत्कृष्टेन सहळ्येयेन 'भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते स सङ्ख्येयतमो भागः । 'ततस्तेन सङ्ग्येयतमेन भागेनाधिकानि स्थानानि वेदितव्यानि । सङ्ख्ये यगुणवृद्धानि पुनरेवम्-पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य ये ये निर्विभागा भागास्ते ते उत्कृष्टेन 'सङ्ख्येयकमानेन राशिना गुण्यन्ते, गुणिते च सति यावन्तो यावन्तो भवन्ति तावत्तावत्प्रमाणानि सङ्ख्ययगुणाधिकानि स्थानानि द्रष्टव्यानि । एवमसङ्ख्येयगुणवृद्धान्यनन्तगुणवृद्धानि च मावनीयानि । नवरमसख्येयगुणवृद्धौ पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य निविभागा भागा असख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेनासङ्ख्येन गुण्यन्ते । अनन्तगुण वृद्धौ तु सर्वजीवप्रमाणे नानन्ते नेति । ___ अयं च षट्रस्थानविचारः स्थापना विना मन्दबुद्धिभिः सम्यगवबोधुन शक्यते, सा च स्थापना कर्मप्रकृतिपटेभ्यः प्रतिपत्तव्या, विस्तरभयात्तु नेह प्रदर्श्यते । केवलं कियन्तमपि स्थानाशून्यार्थ स्थापनाप्रकारं प्रकाशयामः । तथाहि-प्रथमं तावत्तिर्यपङ्क्तौ चत्वारो बिन्दवः स्थाप्यन्ते । तेषां च 'कण्डकमिति संत्रा । सर्वेषामपि चैतेषामन्योऽन्यमनन्तमागद्धया वृद्धिरवसेया । ततस्तेषामग्रतोऽसङ्ख्यातमागवृद्धिसंधक १स सोऽसहस्येय मि.॥ २ मागेनाइते-सि.।। ३ ततस्तेन तेन समस्येवमागेना. सि.॥ ४ समयेयमानेन सि.॥५नानस्तकेनेवि-सि.॥ ६ कंडकमिति-सि.॥ प्र. आ. ॥५७१।। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके द्वितीयः एककः स्थाप्यते । ततो भूयोऽपि चत्वारो बिन्दवः । तत एकक इत्यादि तायदवसेयं यावद्विशतिबिन्दवचत्वारश्चैकका जाताः । तदनु सङ्ग्यातमागवृद्धिसंज्ञको द्विकः स्थाप्यते । ततः पुनरपि विशतिर्विन्दव २६. द्वाद श्चत्वारश्चैककाः । ततो द्वितीयो द्विकः । एवं विंशतेविंशतेबिन्दनामन्तराऽरा 'चतुणां चतुर्णामेकका |पवृद्धि हानि नामवसाने तृतीयचतुर्थावपि द्विको क्रमेण स्थाप्यौ । तदनुभूयोऽपि चतुर्थद्विकस्याग्रे विंशतिबिन्दवश्चत्वार गाथा चककाः । एवं च जातं बिन्दूनां शतम् । एककानां विंशनिश्चत्वारश्च द्विकाः । अत्रान्तरे चतुर्णा बिन्दनामग्रतः सङ्ख्यातगुणवृद्धि संज्ञकः प्रथमस्त्रिका संस्थाप्यते । ततः पुनरपि १४१८ बिन्दुना "शतादेककानां विंशतेर्द्विकानां चतुष्टयाञ्च परतो द्वितीयस्त्रिका स्थाप्यते । एवं बिन्दुना 'शते, एककानां विंशती, द्विकानां च चतुष्टये चतुष्टयेऽतिक्रान्ते तृतीयश्चतुर्थावपि त्रिको स्थाप्यौ । तदनु चतुर्थ- प्र. आ. त्रिकस्याप्यो बिन्दना शतमेककानां विंशतिकिानां चतुष्टयं च स्थाप्यते । ततो जानानि पञ्च शतानि ४१४ बिन्दुनां शतमेककानां विंशतिकिानां चत्वारश्च त्रिकाः। अत्रान्तरे चतुणां बिन्दुनामग्रतोऽमङ्ख्यातगुणवृद्धि संज्ञकः प्रथमचतुष्कः स्थाप्यते । ततो भूयोऽपि पञ्च शतानि बिन्दूनाम् । शतमेककानां विंशतिर्द्विकानां चत्वारश्च त्रिकाः प्रागिव स्थाप्यन्ते । ततो द्वितीयचतुष्कः स्थाप्यः । एवं बिन्दुना *शतपश्चके एककानां शते, द्विकानां विंशती, त्रिकाणां चतुष्टये चतुष्टये चातिकान्ते तृतीयचतुर्थावपि चतुष्को क्रमेण स्थाप्यो । ततश्चतुर्थचतुष्कस्याग्रे पञ्चमचतुष्क १ च चतुणा-सि. ।। २ तृतीय चतुर्थेष्वपि-सि. ॥ ३ संहिक:-मि. ॥ ४ शतमेककाना-सि. संशो.। शतामेदेककानां-सि.मू.॥५शते शते. सि.।। ६ सहिक:- सि. || शतपनके शतपञ्चके -सि.॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REAcxtaraaaaamsan प्रवचन चन सारोद्धारे सटीके २६१ द्वारे द्वितीयः । ॥५७३॥ Animami योग्यं दलिक स्थापयित्वा अनन्नगुणवृद्धिसंज्ञकः प्रथमः पञ्चको न्यस्यते । एवमनेनैवानन्तरोक्तेन क्रमेण द्वितीयतृतीयचतुर्था अपि पश्चका न्यमनीयाः । ततश्चतुर्थपञ्चकस्याप्यग्रे पञ्चमपञ्चकोचितं दलिकं लिख्यते, न च पञ्चकः स्थाप्यते । तत आद्यन्तयोः प्रत्येक विन्दुचतुष्टयेन प्रथमं पटम्थानं समाप्यते; यदा पुनः असंहरप्रथमानन्तरं द्वितीय पटस्थानकं स्थापयितुमिष्यते तदा तदपेक्षया प्रथम पृथक्चवारो बिन्दवः स्थाप्यन्ते । णीयाः पानन्दरमेनादिः मोंदिऊपतविधिः क्रमेण कतंत्र्य इति । गाथा 'माम्यतमङ्कानां बिन्दुनां च सर्वसङ्कथा कथ्यते-जत्रकम्मिन् षट्रस्थान के चत्वारः पञ्चका भवन्ति । ततः पञ्चभिर्वा गुणयेदिति करणवशाच्चतुर्णा पश्चकाना पञ्चभिगुणने लब्धा विंशतिचतुष्काः । एतेषामपि वभिगुणने लब्धं शतं त्रिकाणाम् १०. तेषामपि पञ्चभिगुणने लब्धानि पश्च शतानि द्विकानाम् ५००, तेषामपि च पञ्चभिगुणने लब्धे द्वे महा साधे एककानाम् २५००, तेषामपि च पश्चमिगुणने लब्धानि अ. आ. द्वादश सहस्राणि सार्धानि बिन्दना १२५०० । इयमेकस्मिन पट्रस्थाने सर्वसङ्खथा । एवं शेषेष्वपि षट्स्थानकेषु प्रतिपत्तव्यमिति ॥१८॥२६॥ इदानीम् 'अवहरि जाई नेवतीरंति' क्येकषष्टयधिकद्विशततमं द्वारमाह समणी? मवगयवेयं २ परिहार ३ पुलाय ४ मप्पमतं ५ च । चउदसपुम्वि' ६ आहारगं च ७ न य कोइ संहरइ ॥१९॥ ---||५७६॥ १साम्प्रतमेकाना-मि. संशो.॥ २ मुद्रिते भक्कानिन सन्ति, एवमग्रेऽपि दूयोः स्थायोः ।। ३न्य-सि.॥ ४न बाइ-सि.नय कबाइ-ता. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीय ॥५७४ श्रमणीम्-अजिब्रह्मचरणशरणां साध्वीम , अपगतवेदं-अपितवेदम , 'परिहार' ति प्रतिपनपारि २६२ द्वारे हारिकतपश्चरणम् , पुलाकं-लब्धिगुलाकम् , अप्रमत्तम्-अप्रमत्तमयतम् , चतुर्दशपूर्विणं-चतुर्दशपूर्वधरम्, । अन्तरआहारकं च-आहारकशरीरिणं नैव कोऽपि-विद्याधरदेवादिः (प्रन्थाग्रं १७०००) संहरति-प्रत्यनीकतया दीपा 'ऽनुकम्पया अनुरागेण बोक्षिप्यान्यत्र क्षिपति । इह च न सर्वोऽपि चतुर्दशपूर्वधर आहारकलब्धिमान मवति, किंतु कश्चिदेवेति ज्ञापनार्थमाहारकग्रहणम् ॥१९॥२६१॥ गाथा इदानीम् 'अंतरदीव' ति द्विषष्ट्यधिकं द्विशततमं द्वारमाह ।।१४२०.८ 'चुलाहिमवंतपुवावरेण विविसासु सायरं तिसए। गंतुणंतरदीवा तिनि सए दुति विच्छिन्ना ॥२०॥ प्र. आ. अउणावननवसर किंचूणे परिहि तेसिमे नामा । ४१५ "एगोरुअ १ आभासिय २ वेसाणी घेव ३ नंगूली ४ ॥२१॥ एएसि दीवाणं परओ चत्तारि जोयणसपाणि । ओगाहिऊण लवणं सपडिदिसि चउसयपमाणा ॥२२॥ पत्तारंतरदीवा हयगय ६ गोकन ७ 'सक्कुलीकन्ना ८॥ एवं पंचसयाई छस्सय सत्तड्ड नव चेव ॥२३॥ १ नुकम्पतया अनुरूपेणा-सि.।। २ तुला प्रज्ञापनावृत्तिः प.५१, स्थानावृत्तिः प.२२७.६ ।। ३ एगोयरुम ५७४॥ मासिय-सि. । एगू कम-इति स्थानाजवृत्तौ, एगोयगामासिय इति प्रज्ञापनाइसौ प. ५१ B पाठः । तुला-प्रशापनासत्रम् ११३६ ।।४ ई-सि. स्थानावृत्तौ च ।। ५ संकुलीकमा-मु. । प्रज्ञापनासूत्रे (१॥३६) संकलि. इति पाठः ॥ SARomar Mmm BRA R EPARELIGARAMARRIALRSS Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय ॥५७५॥ भोगाहिऊण लवणं विक्रखंभोगाहसरिसया भणिया। चउरो पाउरो दीवा ईमेहिं नामेहिं नायच्या ॥२४॥ २६२ आर्यसमिंदगमुहा 'अयोमुहा गोमुहा य 'चउरेए १२ । अन्तरअस्समुहा हस्थिमुहा सीरमहा मेन दरमहा १६ ॥२५॥ द्वीपाः सत्तो य आसकना 'हरिकन्न अकन्न कमपावरणा २.। "उसमुहा मेहमुहा विज्जुमुहा विज्जुदंता य २४ ॥२६॥ पणदंत लहदंता प गूढदंता य मुडदंता य २८ । १४२०घासहरे "सिहरिमि य एवं चिय अहवीसावि ॥२७॥ प्र. आ. तिमेवहुति आई एगुत्तरवटिया नवसयाओ । ओगाहिऊण लवणं तावड्यं चैव विच्छिन्ना ॥२८॥ "ह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणार्णवजलसंस्पर्शी | महाहिमवदपेक्षया झुल्लो-लघुहिमवन्नामा पर्वतः समस्ति । तस्य लवणार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य पूर्वस्या १ मनोमुहा-ता २षरोप-मु.परेते इति स्थानाजवृत्तौ पाठः॥३हरिकमा-सि.हस्थियकना-इति स्थान बत्तौ पाठः ॥ ४ तक्कामुहा-इति प्रज्ञापनावृत्ती, डक्कमुह-इति कर्मप्रन्य देवन्द्रसूरवृत्तौ ॥५सिहरमिता. स्थाना | वृत्ती॥६ तुला-प्रशापनासूत्रमलयगिरिवृत्तिःप. ५१ कर्मप्रग्यदेवेन्द्रसूरवृत्तिः १॥ ..... . ... ..................... .......................... . na t Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः पश्चिमायां च दिशि प्रत्येक द्वे द्वे गजदन्ताकारे दंष्ट्र-विनिर्गते । तत्र 'ईशान्यां दिशि या निर्गता दंष्ट्रा |२३२दारे तस्यां हिमवतः पर्यन्तादारभ्य त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रं गत्वा-अवगाल अत्रान्तरे योजनशत. त्रयायामविष्कम्भः किञ्चिन्यूनकोनपञ्चाशदधिकनवयोजनशतपरिरय एकोरुकनामा द्वीपो वर्तते । अयं च अन्तर द्वीपाः पञ्चधनुःशतप्रमाणविष्कम्भया गव्यूतद्वयोच्छ्रितया पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च सर्वतः परिमण्डितः । एवं सर्वेऽप्यन्तरद्वीपाः प्रत्येकं पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च परिक्षिप्तपरिसराः समवसेयाः ।। गाथा ___ एवं तस्यैव हिमवतः पर्वतम्य पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्र १४२०.८ मवगाह्य द्वितीयदंष्ट्राया उपरि एकोषद्वीपप्रमाला प्रामासिकतामा दीयो त । अथा तस्येव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपश्चिमायां "दिशि नैऋतकोणे इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमरगाह्य दंष्ट्राया उपरि यथोक्तप्रमाणो वैषाणिकनामा द्वियः । तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायामेव प्र.मा. दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोनरस्यां दिशि वायव्यकोणे इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमध्ये ४१५ चतुर्थी दंष्ट्रामतिक्रम्यावान्तरे पूर्वप्रमाणो नाङ्गोलिकनामा द्वीपः । एवमेते हिमवतश्चतसृष्वपि विदिक्ष तुल्यप्रमाणाश्चत्वारोन्तरे-लवणममुद्रमध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपा अवतिष्ठन्ते । तत एतेषामेकोरुकादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतः 'सपडिदिसं' ति प्रत्येकं पूर्वोत्तरादिविदिनु चतसृष्वपि चत्वारि चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमयगाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीप ॥५७६।। १ ऐशान्यां-सि प्रमापनावृत्तौ कर्म ग्रन्थवृत्तौ च पाठः ॥ २ एकोरुचक-सि. ॥ ३ एकोहपक सि ॥ ४ दिशि-सि. प्रतौ प्रज्ञापनापत्तौ च नास्ति । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ द्वारे अवचनसारोद्धारे सटीके द्वीपाः ५६ द्वतीयः अण्ड: गाथा १४२०-८ ॥५७७॥ वेदिकातश्चतुर्थोजनशतप्रमाणान्तरा हयकर्ण गजकर्ण-गोकर्ण-शस्कुलीकर्णनामानश्चत्वारोऽन्तरद्वीपाः। तद्यथा"एकोरुकस्य परतो हयकर्णः, आभामिकस्य पस्तो गजकर्णः, पाणिकस्य परतो गोकर्णः, नङ्गोलिकस्य परतः शष्कुलीकर्ण इति । एवमग्रेऽपि भावना कार्या । ___तत एतेषामपि हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतः पुनरपि यथाक्रमं पूर्वोत्तगदिविदिक्ष प्रत्येक पञ्च पश्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य पश्चयोजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातः पश्चयोजनशतप्रमाणान्तग आदर्शमुख मेण्ढमुखा ऽयोमुख गोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपाना परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं षट् षट् योजनशतानि व्यतिक्रम्य षट्पड्योजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातः षड़योजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुख हस्तिमुख-सिंहमुख व्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः। एतेषामप्यश्वमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो 'भूयो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिषु विदिक्ष प्रत्येक सप्तयोजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातः सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा 'अश्वकर्णहरिकर्णाकर्णकर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एतेषामप्यश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानी परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्ष प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनशतान्यतिक्रम्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातोऽष्टयोजनशनप्रमाणास्तरा उल्कामुख मेघमुख-विद्युन्मुख-विद्यदन्ताभिधानाश्चत्वारो द्वीपाः । ततोऽमीषामप्युल्कामुखादीनां चतुर्णा एकोहचकस्य-सि.॥ २ पश्चयोजनशतानि व्यतिक्रम्य अन्तरा-सि. ॥ ३ भूयो-सि. प्रज्ञापनावृत्ती कर्मग्रन्थवृत्तौ च नास्ति ।। ४ पूर्वोत्तरादिविदिक्ष-सि प्रजापनावृत्ती कर्मगन्थवृत्तौ च ॥ ५ अश्वमर्णयकर्ण० इति कर्मप्रन्थ त कमपन्थ- वृत्तौ पाठ ॥ ग्र. आ. ॥५७७॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीक द्वितीयः ॥५७८॥ द्वीपानां परतो यथाक्रम पूर्वोतरादिविदिक्षु प्रत्येकं नव नवयोजनशतान्यतिक्रम्य नवयोजनशतायामविष्कम्मा जम्बूद्वीपवेदिकातो नवयोजनशतप्रमाणान्तरा धनदन्त लेष्टदन्त-मूढदन्त-शुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः। | २६२ द्वाद अन्तरद्वीप एवमेते हिमवति पर्वते चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसंख्यया अष्टाविंशतिः । एवं शिखरिण्यपि वर्षधरे-पर्वते लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्ष व्यवस्थिता एकोहकादि. | मनुष्याण नामानोऽष्टाविंशतिससथा द्वीपा वक्तव्याः । ततः सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपा भवन्तीति ॥२०.२८॥ | स्वरूपम् गाथा अर्थतेषु वर्तमानानां मनुष्याणां स्वरूपमाह-'संती' त्यादिगाथात्रयम् , संति हमेसु नरा बज्जरिसहनारायसंहणणजुसा । 'समचउरंसगसंठाणसंठियावेवसमरूवा ॥२९॥ अधणस्सयदेहा किंचूणाओ नराण इत्थीओ । प्र.आ. पलयअसंखिज्जहभागआऊया लक्त्रणोवेया ॥३०॥ दसविहकप्पदुमपत्तवंछिया तह न सेसु दीवेस । ससिसरगहण'मक्कणजयामसगाडया ईति एतेषु सर्वेष्वप्यन्तरद्वीपेषु नरा:-पुरुषाः सन्ति-सदैव परिवसन्ति । ते च वर्षभनाराच संहननिन: समचतुरसमस्थानसंस्थिता देवलोकानुकारिरूपलावण्याकारशोभितविग्रहा अष्टधनुःशतप्रमाणशरीरोच्छया। विंशति एवं शिवसण्याप वषेधरेससहरूमा जे. सि.॥२ समपरंसगसंठाणा संठिया-ता समचरंससंठाणं संठिया-सि. ३ मकुण भा० सि.॥ ४ ०संह निना-सि. प्रतौ कर्मप्रन्धवृत्तौ च, तुला-प्रज्ञापनासूत्रवृत्तिः ५. ५२ B, ॥५७८॥ कर्मप्रन्धपत्तिःप. २३ BULदेवलोकानुसारिरूपलावण्यालंकार० सि.। heastsARNE PRATARNAMMoon . Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके २६२द्वा अन्तरद्वीप मनुष्याण स्वरूपम् द्वितीयः स्त्रीणां विदमेव प्रमाणं किश्चिन्यूनं द्रष्टव्यम् । तथा पल्योपमासङ्ख्येयभागप्रमाणायुषः समग्रशुभलक्षण'तिलकमषाधुपेताः स्त्रीपुरुषयुगलव्यवस्थिता दशविकल्पपादपावाप्तवाञ्छितोपभोगसम्पदः प्रकृत्यैव प्रतनुक्रोधमानमायालोमाः संतोषिणो निरोत्सुक्या मार्दवार्जवसंपन्नाः सत्यपि मनोहारिणि मणि-कनक-मौक्तिकादिके ममत्वकारणे ममत्वाभिनिवेशरहिताः सर्वथाऽपगतवैगनुबन्धाः परस्परप्रेष्यप्रेषकभावरहितत्वादहमिन्द्राः इस्त्यश्वकरभगोमहिष्यादिसद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाः पादविहारचारिणो ज्वरादिरोगभूतपिशाचादिग्रहव्यस नविरहिताः । चतुर्थाच्चाहारमेते गृहन्ति । आहारश्च शाल्यादिधान्यसद्भावेऽपि न तनिष्पन्नः, किंतु शर्कगतोऽप्यनन्तगुणमाधुर्या मृत्तिका चक्रवर्तिभोजनादप्यधिकमधुराणि कल्पद्रुपपुष्पफलानि चेति । चतुःषष्टिश्च पृष्ठकरण्डकास्तेषाम् षण्मासावशेषायुषश्वामी स्त्रीपुरुषयुगलं प्रसुवते, एकोनाशीतिदिनानि च तत्परिपालयन्ति । स्तोकस्नेहकषायतया च ते मृत्वा दिवं व्रजन्ति । मरणं च तेषां 'जम्माकाशकतादिमात्रपुरस्सरं न शरीरपीडयेति ।। तथा तेषु द्वीपेष्वनिष्टसूचक्राश्चन्द्रसूर्योपरामादयः शरीरोपद्रवकारिणश्च मन्कूण युका मशक:-मक्षिकादयो न भवन्ति । येऽपि च जायन्ते भुजगव्याघ्रसिंहादयस्तेऽपि मनुष्याण न बाधितुमलम् , नाप्यन्योऽन्यं हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते । क्षेत्रानुमावतो गैद्रभावरहितत्त्वात् । अत एव तेऽपि मृत्वा दिवमेव व्रजन्ति । गाथा ॥५७९ १४२९. प्र.आ. ॥ १.तिलकमुखाय पेता:-सि.॥ २ संस्यपि-सि. तुला-प्रज्ञापनासूत्रवृत्तिः प. ५३B, कर्मप्रन्थतिः ५.२४ १.न विरहिताचतुर्थाका.सि.॥ ४०य-सि.॥५कल्पद्र फलानि-सि.॥ तत्परिपालयं स्तोक. सि.॥ ६जम्माकास.मु.सि. प्रतौ कर्मग्रन्थवृत्तावपि जुम्माकाश इति ।। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सटीके २६३६ जीवाडजीवाद बहुत्वम् गाथा १४३२ द्वितीयः 111८1 भूमिरपि तत्र रेणुप पाण्डकादिरक्षिता सफलदोपरित्वता सर्वत्र समतला रमणीया च वर्तत इति । यच्चात्र सूत्रातिरिक्तमुक्तं तत्सर्वमुपलक्षणत्वाद् द्रष्टव्यम् ॥२६ ||३०|॥३१॥२६२।। इदानीं 'जीवाजीवाणं अप्पषहुयं' ति त्रिपष्टयधिकद्विशततमं द्वारमाह नर १ नेरइया २ देवा ३ सिहा ४ तिरिया ५ कमेण इहहूंति। थोच १ असंख २ असंखा ३ अणंतगुणिया ४ अनंतगुणा ५ ॥३२॥ नारी १ नर २ नेरहया ३ तिरिच्छि' ४ सुर ५ देवि ६ सिद्ध ७ तिरिया ८ । थोष असंखगुणा चउ संखगुणाऽणतगुण दोन्नि ।।३।। तस तेउ पुढवि जल वाउकाय 'अकाय वणस्सह सकाया। थोव असंवगुणाहिय तिन्नि 'दोऽणतगुणअहिया ॥३४।। पण च ति दु य अणिंदिय एगिदि सइंदिया कमा हुति। थोवा तिनि य अहिया दोऽणंतगुणा विसेसहिया ॥३५॥ जीवा पोग्गल समया दन्च पएसा य पज्जवा चेव । पोवाणताणता विसेसअहिआ दुवेऽणंता ॥३६॥ इह सर्वत्र यथानपन पदयोजना, तत्र सर्वस्तोकास्तावन्नरा-मनुष्याः सङ्ख्येयकोटीकोटीमात्र. प्रमाणत्वात् । तेभ्यो नैरयिका असङ्ख्येयगुणाः । अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशगशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गमले १०-सि. ॥ २ भक्काय बणसा-ता. ॥ ३ होणतेण गुणमहिया-11. । दोणतगाणामी अहियत्ति-सि.॥ प्र. आ. ४१७ 11५८० Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके खण्ड: तृतीयेन वर्गमूलेन 'गुणिते यावान प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकी' श्रेणिषु यावन्तो नभः प्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् । नेभ्यो देवा असलयेयगुणाः । व्यन्तराणां ज्योतिप्काणां च प्रत्येकं प्रतरामङ्ख्येयभागवर्तिश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः | कालस्यानन्तन्वात् , परमायान्ते च कस्यचिदवश्यं सिद्धिगमनात् तन्प्राप्तम्य च पुनरावृत्त्यभावात् । तेभ्योऽपि तिर्योऽनन्तगुणाः । अनन्तेनापि कालेनै कनिगोदानन्तभागवति जीवराशेः सिद्धत्वात् , तिर्यगती | गाथा सलादो निमोदमदाबाद , प्रतिनिगोदं च सिद्धानन्तगुणजीवराशिभावात् ॥३२॥ उक्तं नैयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवमिद्धरूपाणां पश्चानामल्पबहुत्वम् इदानी गयिकतिर्यग्योनि |१४३२कतिर्यग्योनिकीमनुष्यमानुपीदेव देवीसिद्धलक्षणानामष्टानामम्पबहुत्व माह- 'नारी' त्यादि, मस्तोका नार्यो मनुष्यस्त्रियः । मदयेय कोटी कोटीप्रमाणत्वान् । ताभ्यो नरा-मनुष्या असाव्येयगुणाः । इह नरा इति समूछिममा अपि मनुष्या गृह्यन्ते. वेदस्याविरक्षणात् । ते च संमृच्छिमजा वान्तादिषु नगरनिर्धमनान्तेषु जाय. माना असङ्ख्ययाः प्राप्यन्ते । लेग्यो नैरयिका असर ये यगुणाः । मनुष्या युत्कृष्टपदेऽपि श्रेण्यसङ्ख्येय प्र. आ. भागगनप्रदेशराशिप्रमाणा लभ्यन्ते । नैरयिकास्त्वङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसत्कतृतीयवर्गमूलगुणितप्रथमवर्ग- ४१७ ।। मूलप्रमाणश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः । ततो भवन्त्यसङ्ख्येयगुणाः । तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः स्त्रियोऽसयेषगुणाः । प्रतरामद्ध्येयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । ताभ्योऽपि देवा असङ्ख्येयगुणाः । असङ्ख्येयगुणप्रतरामङ्ख्य भागवयंसङ्ख्येय श्रेणिगतप्रदेशराशिमानत्वात् । तेभ्योऽपि ॥५ ॥ १गुणितेन-सि. Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके २६३६ जीवाजी ल्पबहुत गाथा | १४३२ द्वितीयः खण्ड: देव्यः सङ्ख्येयगुणाः। द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । ताभ्योऽपि सिद्धा अनन्तगुणाः । तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः । अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता ॥३३॥ ___अथ सामान्येनैव जन्तूना कायविशेषणविशेषितानामन्पबहुत्वमाइ-'तसे'त्यादि, सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसकायत्वात् । तेषां च शेषकायापेक्षयाऽत्यल्पत्वात् । तेभ्यस्तैजसकायिका असङ्ख्येयगुणाः, असख्येयलोकाकाश'प्रदेशप्रमाणत्वात् । तेभ्यः पृथिवीकायिकाविशेषाधिकाः, प्रभूतासङ्ख्येयलोकाकाश प्रदेशप्रमाणत्वात् । तेभ्योऽकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासङ्ख्येयलोकाकाश प्रदेशप्रमाणत्वात् । तेभ्यो वायुकायिका "विशेषाधिकाः प्रभूततमासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् । तेभ्यो. कायिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्यो वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यः सकाया विशेषाधिकाः, पृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥३४॥ साम्प्रतमेकेन्द्रियन्वादिविशेषणविशिष्टानां जन्तूनामल्यबहुत्त्रमाह-'पणे'त्यादि, सर्वस्तोकाः पञ्चे. न्द्रियाः, सङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमितप्रतरासङ्ख्येयभागवर्त्य सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः । तेषां विष्कम्भमूच्याः प्रभूतसङ्ख्येययोजनकोटी. कोटीप्रमाणत्वात् । तेम्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भमूच्याः प्रभूततरसंख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात् । तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियाविशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भमूख्याः प्रभूततमसंख्येययोजनकोटीकोटी. १-२-३ प्रदेश सि. RD नास्ति ॥ ४ विशेषिका:-सि. RD ॥ [प्र. आ. ४१८ ॥५८२। मनिट TARAT Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्वारे प्रक्षपात् ।। ३५ ॥ २६३ द्वारे जीवाजीबाल्पबहुत्वं गाथा १३३२-६ प्रमाणत्वात् । 'तेभ्योऽनिन्द्रिया अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्योऽप्येकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, नवचन। बनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् । तेभ्योऽपि सेन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि तत्र अथ जीवपुद्गलादीनामल्पबहुत्वमाह-'जीवे' त्यादि, वक्ष्यमाणापेक्षया सर्वस्तोका जीवाः, तेभ्यः पटीके पुद्गला अनन्तगुणाः । इह हि परमाणुद्विप्रदेशिकादीनि पृथक्पृथग्द्रव्याणि । तानि च सामान्यतस्त्रिधाद्वतीयः प्रयोगपरिणतानि, मिश्रपरिणतानि, विस्रसापरिणतानि च । तत्र प्रयोगपरिणतान्यपि तावञ्जीवेभ्योऽनन्त गुणानि । एकैकस्य जीवस्यानन्तैः प्रत्येकं ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलस्कन्धरावेष्टितत्वात् । किं पुनः 1॥५८३॥ शेषाणि ?, यतः प्रयोगपरिणतेभ्यो मिश्रपरिणतान्यनन्तगुणानि, तेभ्योऽपि विस्रसापरिणतान्यनन्तगुणानि, ततो युक्तं जीवेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणाः । तेभ्योऽद्धासमया अनन्तगुणाः, यत्त एकस्यापि परमाणोव्यक्षेत्रकालभावविशेषसम्बन्धवशा दनन्ता भाविनः समया उपलब्धाः । यथैकस्य परमाणोस्तथा "सर्वेषां परमाणनां सर्वेषां च प्रत्येक द्विप्रदेशिकादीना स्कन्धानामेवमन्यान्यद्रव्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धिनामनन्ताः समया 'अतीता अपीति सिद्धं पुद्गलेभ्यः समयानामनन्तगुणत्वम् । तेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, 'कथमिति चेद् ? उच्यते, इह ये अनन्तरमद्धासमयाः पुद्गलेभ्योऽनन्तगुणा उक्तास्ते प्रत्येक द्रव्याणि, ततो द्रव्यचिन्तायां तेऽपि गृह्यन्ते । तेषु मध्ये सर्वजीवद्रव्याणि १ तेभ्योऽनिक मु. । २ सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्-भु.॥ ३ वनन्ता भावसमया-मु. } "दनन्तामाविनः समया-जे. RD| दनन्तान्य भाविनः समया-सि.।। ४ सर्वेषां परमाणूना-सि. R D नास्ति ॥ ५ अतीता अनागता अपीति-मु.॥ ६ कथमिति तेभ्यः सर्वद्रव्याण्यनन्तरमा जे.सि. RDI प्र. आ. - Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः 'सर्वपुद्गलद्रव्याणि धर्माधर्माकाशास्तिकायद्रव्याणि च प्रक्षिप्यन्ते । तानि च समुदितान्यप्यद्धासमयानामनन्तभागकल्पानीति तेषु प्रक्षिप्नेष्वपि मनागधिक जातमित्यद्वासमयेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि । युगप्रधान तेभ्यः सर्वप्रदेश अनन्तगुणाः । एकस्याप्यलोकाकाशद्रव्यस्य सर्वव्यानन्तगुणप्रदेशत्वात् । तेभ्यः सूरिसंख्य सर्वपर्यवा अन्तगुणाः । एकैम्मिन्नाझाशप्रदेशेऽनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां सद्भावादिति ॥३६॥२६३॥ गाथा इदानीं 'जुगप्पहाणसूरिसंख' ति चतुःपष्टयधिकद्विशतनमं द्वारमाह-- १४३७ जा दुप्पसहो सूरि होहिंति जुगप्पहाण आयरिया । अन्जमुहम्मप्पभिई चउरहिया दुन्निय सहस्सा ॥ ३७ ॥ इहावसर्पिण्या दुष्पमावमा नगमये द्विहम्नोतिपुर्विशतिवर्षायुष्कः पुष्कलतपाक्षपितकर्मतया समा.प्र. आ... मन्नसिद्धिमोंधः शुद्धान्तरात्मा दशवकालिकमात्रमप्रधगेऽपि चतुर्दशपूर्वधर इव शकपूज्यो दुष्प्रसभनामा ४१८ सन्तिमः मूरिभविष्यति । ततस्तं दुष्प्रमभं यावत्तमभिव्याप्यवेत्यर्थः । आर्यसुधर्मप्रभृतयः, आरात सर्वहेयधर्मेभ्यो ऽग्जिातः आर्यः, स चासौ सुधर्मस्तत्प्रभृतयः । प्रभूतिग्रहणाच जम्बूम्बामिप्रभवशय्यम्भवाद्या गणधरपरम्यग गह्यने । युगप्रधानाः-तत्कालप्रनरत्यारमेश्वरप्रवचनोपनिषद्वेदित्वेन विशिष्टतरमूलगुणोत्तरगुणसंपन्मन्येन च तत्कालापेशया भरतक्षेत्रमध्ये प्रधाना आचार्याः-पूरयश्चतुरधिकसहस्रद्वयप्रमाणा भविष्यन्ति । अन्ये तु चतूरहितमहस्रद्वयप्रमाणा इत्याहुः । सच्चं तु सर्वविदो विदन्ति । यच्च महानिशीथग्रन्थे जग्रन्थ ग्रन्थकार: ||५८४॥ सधेपुद्गलद्रव्याणि-सि. RD नास्ति ।। २ उता. ।। ३ दुष्प्रसहया यावन्तमभिकसि.॥४०वाग्याव:-मु.॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन रोद्धारे टीके तीयः 53: १८५॥ A" इत्थं चायरियाणं पणपना होति कोडिलक्खाओ । कोडिसहस्से कोडीसए य ' तह इत्तिए चैवत्ति ॥ १॥" तत्सामान्यमुनिपत्यपेक्षया द्रष्टव्यम्, तथा च तत्रैवोक्तम् *"एएस मज्झाओ एगे निव्वडड गुणगणाइन्ने । सव्युत्तमभंगेणं तित्थपरस्साणु सरिसगुरु ॥३॥ ||३७||२६४॥ इदानीम् 'उस्सप्पिणिअंतिमजिणतित्थप्पमाणं' ति पञ्चपष्टयधिकद्विशततमं द्वारमाह'ओसपिणि' तिमजिण तित्थं सिरिरिसहनाणपजाया । संखेजा जावइया तावयमाणं धुवं भविही ॥ ३८ ॥ इह श्रीस्वामिनः केवलज्ञानपर्यायी वर्षसहस्रन एकः पूर्वलक्षः । तत एवंस्वरूपा ज्ञानपर्यायाः सङ्ख्येया यावन्तो भवन्ति तावत्प्रमाणमुत्सर्पिण्यामन्तिमजिनस्य चतुर्विंशतितमस्य 'भद्रकृन्नाम्नस्तीर्थं कृतस्तीर्थं ध्रुवं निश्चितं भविष्यति । संङ्ख्येय पूर्वलक्षमानं तत्तीर्थमित्यर्थः || ३८ || २६५॥ इदानीं 'देवाण पवियारो' त्ति षट्षष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह दो कायप्पवियारा कप्पा फरिसेण दोन्नि दो रूवे । सहे दो चउर मणे नत्थि वियारो उवरि यत्थी ॥ ३९ ॥ [तुला- बृहत्संग्रहणी जिनभद्रया गा. १८१ ] A इत्थं चाचार्याणां पाशत्कोटीलाः कोटीसहस्रा कोटीशर्त तथैतावन्त एवेति ||१|| * एतेषां मध्यात् एके निपतन्ति गुणगणाकीर्णाः सर्वोत्तमभङ्गे तीर्थंकरानुखदृशा गुरवः ||१|| १ तहा-सि । २ भोसपिण- मु. ॥। ३ भद्रकृनाम० सि. DR || २६५ द्वारे भद्रकुत्तीर्थं गाथा १४३८ २६६ द्वारे देवप्रविचार: गाथा १३३९ ४० प्र. आ. ४१९ ५८५ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धार २६६ देव. प्रवीचा যাথা। द्वितीयः खण्ड: ४० प्र.आ. गेषिज्जणुत्तरेसु अप्पपियारा हवंति सम्धसुरा । 'सप्पवियारठिईणं अणंतगुणसोक्खसंजुत्ता ॥ ४० ॥ द्वौ कल्पाविति मर्यादायां कल्पशब्देन च तात्स्थ्यात् कल्पस्था देवाः । ततोऽयमर्थः-भवनपत्यादय ईशानान्ता देवाः 'क्लिष्टोदकपु वेदानुभावान्मनुष्यवन्मैथुने निमज्जन्तः सर्वाङ्गीणं कायक्लेश' स्पर्शानन्दमासाद्य तृप्यन्ति नान्यथेति । कायेन-शरीरेण मनुष्यस्त्रीपुसानामिव प्रवीचारो-मैथुनोपसेवनं ययोस्तो कायप्रवीचारौ । तथा स्पर्शेन द्वौ सनत्कुमार-माहेन्द्रौ सप्रवीचारौ । तद्देवा हि मैथुनाभिलापिणो देवीनां स्तनाद्यवयवस्पर्शलीलयैव कायप्रवीचारदेवेभ्योऽनन्तसुखमवाप्नुवन्ति तृप्ताश्च जायन्ते । देवीनामपि देवैः स्पर्श कृते सति दिव्यप्रमावतः शुक्रपुद्गलसंचारेणानन्तगुणं सुखमुत्पद्यते एवमग्रेऽपि भावना कार्या। तथा द्वौ ब्रह्मलोक-लान्तको रूपदर्शने सप्रवीचारौ । देवीनां दिव्योन्मादजनकरूपावलोकनेनैव तत्र सुराः सुरतसुखजुषो जायन्त इत्यर्थः । तथा द्वौ शुक्र-सहस्रारी देवीशब्दे श्रुते सति सप्रवीचारौ । सुरसुन्दरीणां सविलासगीतहसितभापितभूषणादिध्वनिमाहादकमाकर्ण्य उपांतवेदास्तत्र देवा भवन्तीत्यर्थः । तथा चत्वारः-आनत-प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युताभिधानदेवलोकदेवा मनसा सप्रवीचारा भवन्ति । ते हि यदा प्रवीचारचिकीर्षया देवीश्चित्तस्य गोचरीकुर्वन्ति तदैव तास्तत्संकल्पाज्ञानेऽपि तथाविधस्वभावतः कृताद्भुत. शृङ्गाराः स्वस्थानस्थिता एव उच्चावचानि मनांसि दधाना मनसैव भोगायोपतिष्ठन्ते । तत इत्थमन्योऽन्यं १ अप० ता. ॥ २ विष्ष्टोत्यपु सि. RD ॥ ३ -स. RDU ॥५८६ MUHSRAM ImandarishaPRE Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७द्वा कृष्णराज स्वरूपम् गाथा १४४१ अण्ड: मनःसङ्कल्पे दिव्यप्रमावादेव देवीषु शुक्रपुद्गलसंक्रमत उभयेषां कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुखं संपद्यते तृप्ति अवचन- बोबसतीति । उपरि घ-गवेयकादिषु स्त्रीप्रवीचार:-स्त्रीसेवा सर्वथा नास्तीति ॥ ३९ ॥ सारोद्धारे ___ अत एवाह-'गेवेज्जे' त्यादि, अवेयकेषु नवसु अनुत्तरविमानेषु पञ्चसु अप्रत्रीचारा-मैथुनसेवाविरसटीके हिता भवन्ति सर्वेऽपि सुरा-देवाः । नन्वेवं तेषामप्रवीचाराणां सुखं किंचिभ भविष्यतीत्याह-सप्रवीचारद्वितीयः | स्थितिभ्यो देवेभ्यः सकाशादनन्तगुण सौख्यसंयुक्तास्ते ग्रेयेयका अनुत्तरसुराश्च भवन्ति । प्रतनुमोहोदयतया प्रशमसुखान्तलीनत्वात् । ते च तथाभवस्वभावत्वेन चारित्रपरिणामामावान ब्रह्मचारिण इति ॥४०॥२६॥ संप्रति 'कण्हराईण सरूवं' ति सप्तषष्टयधिकद्विशततमं द्वारमाह 'पंचमकप्पे रिमि पत्थडे अट्ट कण्हराईओ । समचरंसवाडयठिाओ दो दो दिसिचउपके ॥ ४१ ॥ पुवावरउसरवाहिणाहि मनिमल्लियाहि पुट्ठाओ । दाहिणउत्सरपुव्वा अवरा पहिकपहराईओ॥ ४२ ।। पुव्वावरा छलंसा संसा पुण दाहिणसरा बज्झा । *अभंतरचउरंसा सव्वावि य कण्हराईओ ॥४३॥ [भगवतीस. ६।५।२४३] प्र. आ. १ तुला-मगवतीसूत्रम् ६५१२४२-३ । स्थानामसूत्रम् ६२३ ॥२ समचरंसक्खोडय० मु.। समचरंसखाता. सि. प्रती मगवतीसूत्रेऽपि सक्खा० ॥ ३ मझिल्लुयाहि-ता.|| ४ भवरार-ता.॥५भभिंतर ता. Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः ॥५८८॥ 'आयामपरिक्खेवेहिं 'ताण अस्संखजोषणसहस्सा। संखेजसहस्सा पुण विखंभे कण्हराईणं ।। ४४ ॥ २६७द्वार ईसाणदिसाईसु एयाणं 'अंतरेसु अट्ठसुवि । कृष्णराजी अट्ठ विमाणाईतहा तम्प्रज्झे एकगविमाणं ॥ ४५ ॥ स्वरूपम् "अचिं १ 'तहऽचिमालिं २ वइरोयण ३ पभंकरे य ४ चंदाभं ५ । गाथा सूराभं ६ सुक्काभं ७ सुपइटाभं च ८ रिद्वाभं ९ ॥ ४३ ।। १४११.९ अट्ठायरहिहया वसंति लोगंतिया सुरा तेसु । प्र. आ. सत्तभवभयंता गिज्जति इमेहिं नामेहिं ॥ ४७ ।।। सारस्सय १ माइच्चा २ वही ३ वरुणा य ४ गद्दतोया ५ य । तुसिया ६ अव्वाबाहा७ अग्गिच्चा८ चेव रिहा य ९ ॥४८॥ [आवश्यकनि. २१४१ पढमजुयलंमि सत्त उ सयाणि बोयंमि च उदस सहस्सा। तइए सत्त सहस्सा नव चेव सयाणि सेसेसु ॥४९॥ [भगवतीसूत्र ६।५।२४३] १ भगवतीसत्रे तु. 'कण्हराईओणं भंते ! केवतियं मायामेणं केवतियं विक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं पण्णासा? गोयमा! असंखेजाई जोयणासहस्साई मायामेणं असंखेन्जाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं अस्संखाई जोयणसहस्साई रिक्खेवेणं पणत्ताभो । ६५१ सू. २४२॥२ ताणं अस्संबजोपासहस्सा-सि. RD || ३ अंत रेसुवि-ता.॥४ स्थानाङ्गसूत्रे तु अरुची अचिमाली वतिरोअणे पभंकरे चंदाभ सूरामे सुरहट्ठामे अगिरथाभे' इति-३। सू. ६२३।। 11५८८॥ तहसिचयमालि-सिः॥ ६ वयरोयण-ता. । बयरोयण बभकरय चंदाम-सि.॥ ७ सयाविणीयंमि चउक्स-सि.॥॥ of:55 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः ॥५८९॥ पञ्चमे ब्रह्मलोकनामके कन्पे तृतीये रिष्टप्रस्तटे अष्टौ कृष्णराज्यो भवन्ति । कृष्णाः सचिसाचित्तपृथिवीपरिणामरूपा 'राज्यो-भित्याकारव्यवस्थिताः पङ्क्तयः कृष्णराज्यः । कथंभूतास्ता इत्याह-'सम- २६७४ चतरमाः समाः-सर्वास्वपि दिक्ष तुल्याः चतरवाः चतष्कोणाः अत एवाखाटकस्थितयः । हाखाटकाः कृष्णराः स्थाने आसनविशेषलक्षणाः । 'प्रज्ञप्तिटोकायां तथा व्याख्यानात् । तस्थितयः-तत्सदृशाकारा: स्वरूपम् यथा चैता व्यवस्थितास्तथा दर्शयति-'को दो दिसिनसक्के' ति दिक्चतुष्के-चतसृष्वपि पूर्वादिषु दिक्षु | गाथा दे द्वे कृष्णराज्यौ व्यवस्थिने । तथाहि-पूर्वस्या दक्षिणोत्तरायते तिर्यविस्तीर्णे द्वे कृष्णराज्यौ । एवं १४४१. दक्षिणस्यां पूर्वापरायते, अपरस्यां दक्षिणोत्तरायते, उत्तरस्यां पूर्वापरायते इति ॥४१॥ __अथ तासामेत्र पुनः स्वरूपमाह-'पुव्वे' त्यादि; पूर्वापरोत्तरदक्षिणाभिर्मध्यवर्तिनीभिः कृष्णराजीभिः क्रमेण दक्षिणोत्तरपूर्वापराबहिर्वर्तिन्यः कृष्णराज्यः स्पृष्टा । अयमर्थः-पौरस्त्याभ्यन्तरा कृष्णराजी दक्षिणबाह्या ४२० कृष्णराजी स्पृशति । एवं दक्षिणाभ्यन्तराद्या पश्चिमबाह्या, पश्चिमाऽभ्यन्तरा उत्तरबाह्याम् , उत्तराभ्यन्तरा च पूर्ववाद्यामिति । A स्थापना चेयम्-॥४२॥ ___कोणविभागस्त्वेवं-'पुन्वावरे' त्यादि, पौरस्त्य-पाश्चात्ये द्वे वाद्य कृष्णराज्यो षडस्र - षट्कोटिके, 'औसगदाक्षिणात्ये पुनर्बाहये द्वे कृष्णराज्यौ यस्र, अभ्यन्तराः सर्वा अपिचतस्रोऽपि कृष्णराज्यचतुरस्राः ॥४३॥ १ राजयो-सि. ॥ २ भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रबति) टीकायां २१ A पत्रे ॥ ३ उत्तरा० मु.॥ ४ स्थानावृत्तावपि ॥५८९॥ मौत्तरा इति। मौसरसि. A प्रवचनसारोदधारटीकायाः हस्तलिखितभादर्येषु यद्यपि स्थापना दृश्यते, किन्त न सा सुबोधा । भतः भगवतीसूत्र-स्थानाङ्गसूत्रयस्वादिषु रश्यमाना स्थापना पत्र प्रदश्यते । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: सण्ड: ॥५९०॥ 1 साम्प्रतमेतासामेव प्रमाणमाह- 'आयामे' त्यादि, आयाम परिक्षेपाभ्यां दैर्ध्य परिधिभ्यां तासी कृष्णराजीनामसङ्ख्याता योजनसहसा भवन्ति । विष्कम्भे विस्तारे पुनः कृष्णराजीनां सङ्ख्याता योजनसहस्रा इति ||४४ || " अथैतासांमध्ये विमानसंयोजनमाह - A 'ईसाने' त्यादि एतासामष्टानां कृष्णराजीनामीशानदिगादिष्वष्टस्वप्यन्तरेषु राजीद्वयमध्यलक्षणेष्ववकाशान्वरेष्वष्टौ विमानानि भवन्ति । तथा तन्मध्ये तासां मध्यभागे एक विमानम् ||४५ || तान्येव विमानानि नामतः प्राह - 'अच्ची' त्यादि, अयमर्थः - अभ्यन्तरोत्तर-पूर्वयोः कृष्णराज्योरन्तरे अर्चिर्विमानम् १, एवं पूर्वयोरचिर्मालिः २, अभ्यन्तरपूर्व ' दक्षिणयोर्वैरोचनम् ३, दक्षिणयोः प्रमङ्करम् ४, अभ्यन्तरदक्षिण पश्चिमयोश्चन्द्राभम् ५, पश्चिमयोः सूरामम् ६, "अभ्यन्तरपश्चिमोत्तरयोः शुक्राभम् ७ उत्तरयोः सुप्रतिष्ठाभम् ८, सर्वकृष्णराजीमध्यभागे तु रिष्ठाभमिति ९ ॥४६॥ अर्थतनिवासिनो देवानाह - 'अद्वाये' त्यादि, 'तेष्वेवाकाशान्तरवर्तिषष्टासु अर्चिःप्रभृतिषु विमानेषु 'लोकान्तिकाः' लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्ते समीपे भवाः सुरा देवाः परिवमन्ति । कथंभूता इत्याह'अतरस्थितयः ' ' अष्टावतराणि - सागरोपमाणि स्थितिर्येषां ते तथा । तथा सप्तभिरष्टभिर्वा भवान्तो १८ चिह्नद्वयमध्यवर्तीपाठः सि. RD नाहित || २०दक्षिणयोर्विरो० सि. ॥ ३ स्थानानवृत्तौ तु दक्षिणयोर्मध्ये शुभकरे विमाने वरुणाः । इति प. ४३३A || ४ स्थानात वृत्तौ तु - " अभ्यन्तरोत्तराया अग्रे मट्टाभेऽव्याबाधाः । इति प ४३३ || ५ तेष्ववकाशा सि. R ॥ ६ एकावतराः सिद्धयन्ति म माविनि निश्चितम् । अष्टावतरा अप्येते, निरूपिता मतान्तरे || २४४|| तन्मतद्वयं चैषं लोकान्ते-लोकामलक्षणे सिद्धिस्थाने मवा लोकान्तिकाः इति स्थानाङ्गवृत्ती" इति लोकप्रकाशे २० । २४४ तः ॥ २६८ द्वारे कृष्णराजी स्वरूपम् गाथा १४४१-९ प्र.जा. ४२० ।।५९० ।। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनरोद्धारे टोके -तीयः ५९१॥ मुक्तियेषां ते सप्ताष्टभवभवान्ताः, एतैश्च-क्ष्यमाणामभिरमी गीयन्ते-कथ्यन्ते ॥४७॥ तान्येव नामानि विमानक्रमेणाह-'सारे' त्यादि, सारस्वताः १मकारोऽलाक्षणिकः, आदित्याः २,२६८ द्वारे बदयः ३, वरुणाः ४. गर्दतोयाः ५, तुषिताः ६, अन्यावाधाः ७, आग्नेयाः ८, एते संज्ञान्तरतो मरुतो- अस्वाप्यभिधीयन्ते । रिष्ठाश्चेति 'तास्थ्यात्तद्वयपदेश' इति रिष्ठविमानाधारा रिष्टाः १ । एते च सारस्वतादयो ध्यायलोकान्तिकसुराः प्रवज्यासमयान्संवत्सरेणागेिव स्वयं 'सम्बुद्धमपि जिनेन्द्र कल्प इति कृत्वा 'भगवन् ! स्वरूपम् सर्वजनजीवहितं तीथे प्रवर्तयेति' बोधयन्ति ॥४८॥ गाथा अर्थतेषां देवानां परिवारमाह-'पढमे त्यादि, अयमत्राभिप्राय:-सारस्वता-ऽऽदित्ययोः समुदितयोः सप्त देवाः सप्त च देवशतानि परिवारः, एवं वह्नि-वरुणयोश्चतुर्दश देवाचतुर्दश च देवसहस्राः, गर्दतोयतुषितयोः सप्तदेवाः सप्त च देवसहस्राः, शेषेषुत्वव्याबाधाग्नेयरिष्टेषु नव देवा नव च देवशतानीति ॥४९॥२६७।। प्र. आ. इदानीं 'सज्झायस्स अकरण' त्यष्टषष्टयधिकद्विशततमं द्वारमाह-- संजमघा १ 'उप्पाये २ सादिध्वे ३ बुग्गहे य ४ सारीरे ५। "महिया १सच्चित्तरओ २ वासम्मि य ३ संजमे ति विहं ॥५०॥ महिया उ गम्भमासे सच्चित्तरओ य ईसिआयंध। वासे तिन्नि पगाराबुबुय तव्वज फुसिए य ॥५१॥ १ सम्बुद्ध इति-सि. B॥२बोधयन्ति-सि. R नास्ति ॥ ३ उवधाये-इति भावश्यकनियुक्ती [गा.१३२३] इति पाठः ।। ४ महया-ता.॥५ पासहस्सि य-सि.॥६.मु.। यो-भाव. नि. . ४२१ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: सण्ड : ॥५९२॥ 5 ॥५२॥ दवे तं चिय वच्यं लेते जहियं तु 'जच्चिरं कालं । ठाणाभास भावे मोन्तु उस्सास उम्मेसे पंसू य मंसकहिरे केससिलावुति स्युग्याए । मंसकहिरे 'अहरतं अवसेसे लच्चिरं सुतं 114311 पंसू अच्चित्तरओ रयस्सलाओ दिसा रउग्याओ । are सवाए freeायए य सुतं परिहरति ॥५४॥ reafter विज्जुक गज्जिए जून जक्व आलिते । एक्केकपोरिसिं गज्जियं तु दो पोरिसी हई ||२५|| दिसिदrst निलो क सरेहा पगाससंजुता । संभाळेयावरणो उ जूनओ सुकि 'दिन तिनि ॥५६॥ चंदिमसूरुवरागे निग्धाए गुजिए अहोरतं । संझाच पडिवर अं 'जहि सुगिम्हए नियम ||५|| आसादी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए व बोडवे । एए महामहा स्वलु एएसि "जाव "पाडवा ॥५८॥ १ यफिकरं-ति. ॥ २ बहोरन्तं सि. । महरत-इति मावश्यकनियुक्तौ ॥ ३ श्यरिसल्लाओ-इति आवश्यक नियुक्ती ४ पास जुत्ता वा इति आवश्यक नियुक्तौ ॥ ५ दिणि-सि । ६ जेहिं-ता. ॥ ७ चैव-इति व्यावश्यक नियुक्तौ ॥ म परिषयान्ता । पडिवइया-सि ॥ 11 २६८द्वा अस्वा ध्याय स्वरूपम् गाथा १४५० ७२ प्र. आ. ४२१ ॥५९२॥ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन मारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥५९३॥ झोसेन कुयालस चंदो जहत्रेण पोरिसी 'अड्ड । सूरो जहन बारस पोरिसि उक्कोस दो अड़ || ५९|| सम्महनिवुड्ड एवं सुराई जेण हुतिऽहोरता' | आइ दिणमुको' सोच्चिय दिवसो य राई थ ॥६०॥ griniडियमाई संखोभे दंडिए 'व कालगए । अणtre य सभए जच्चिरनिद्दोच्चाहोरतं ॥३१॥ तद्दिवस भोइआइ अंतो सत्तण्ह जाव सज्झाओ । * अणाहर य हत्थसयं दिडिविवित्तमि सुद्धं तु ॥ ६२ ॥ 'मयहर गए बहुपक्खिए य सन्तघर अंतर "मयंमि । निदुक्खत्ति य गरिहा न पढंति "सणीयगं वावि ॥३३॥ तिरिपबिंदिय दव्वे खेसे सहिहत्थ पोग्गलाइनं । तिकुरत्थ महंतेगा नगरे बाहिं तु गामस्स काले तिपोरिसि अड व भावे सुतं तु नंदिमाईयं । सोणिय मंसं चम्मं अट्ठीवि य ' अहव चत्तारि ॥६५॥ ॥६४॥ 1 १ भट्टासि ॥। २०त्तं सि ॥ ३ कके सु. ॥ ४ ब-मु. व.सि. नास्ति । वन्दति आवश्यक निर्युक्तौ ॥ ५ मणहस्समु. | अणयस्व-सि. ||६ मयहरति-सि ।। ७ मए वा. इत्यावश्यक नियुक्तिौ ॥ सनियगंसु । सीय-इत्यावश्यकनियुक्तौ सि. प्रतौ च मणीथगं वा ॥ हुति चत्तारि इत्यावश्यक नियुक्तौ ॥ 1 २६८१ अस्वा ध्याय स्वरूप गाथा १४५० ७१ प्र. आ. ४२२ ।।५९३ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके द्वितीयः २६८२ अस्वाध्यायस्वरूपं गाथा१४५० ||५९४॥ अतो पहिं व धोयं सही हत्या पोरिसी तिमि । महकाइ अहोरतं 'रते बूढे य मुई तु ६६॥ अंगमुजिमय कप्पे न य भूमि स्वर्णति इयरहा तिनि । असझाइयापमाणं मच्छ्यिाया अहिं बुड्डे ॥६७।। अजराउ तिनि 'पोरिसि जराउयाणं जरे 'पडे तिनि । रायपहबिंदुपडएि कप्पे बूढे पुणो नस्थि माणस्सियं पउहा अहिं मोसण सयमहोरसं । परियावनविवन्ने सेसे तिय सस अटेव ॥६॥ रत्तुकडा उ इल्ली भट्ठ "हिणावेण सन मुक्काहिए। तिह विणाण परेणं अणोउगं तं 'महारतं ॥७॥ दंते दिडे विगिंधण सेसहि पारसेव वरिसाई । दट्टोसु न चेव य कीरा समायपरिहारो ॥७१।। [आवश्यकभाष्य गा. २१६-७, आवश्यकनि १३३१-२१३३४-५, १३३७-८, १३४२. १३४४. १३४७, १३५०.२ आव. मा. २१९, २२० आव. नि. १३५५-६] आ-मर्यादया सिद्धान्तोक्तन्यायेन अध्ययनं-पठनम् आध्यायः सुष्ठु-शोभन आध्यायः स्वाध्यायः, १ रद्धे-इत्यावश्यक नियुक्ती ॥ २ पौरसि-ता. ॥ ३ पडिए ता. सि.॥ ४ दिणे-मु. । दिणे निजि ता. सि. । मावश्यकनियुक्तावपि दिणा-इति पाठः ॥ ५ यं-ता. । ६ महोर-इत्यावश्यकनियुक्ती॥ प्र. आ. ४२२ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन नारोदारे २६८द्वारे अम्बाध्यायस्वरूपं गाथा तीयः १४५० स एव स्वाध्यायिकं यत्र नास्ति तदम्बाध्यायिक-रुधिरादि । तन्मूलभेदापेक्षया द्विधा-आत्मसमुत्थं परसमत्थं च । आत्मन:-स्वाध्याय चिकीर्षोः समुद्भूतमात्मसमुत्थम् , परस्मात्-स्वाध्यायकतुरन्य- स्मात्समुद्भूतं परसमुत्थम् । तत्र बहुवक्तव्यत्वात्प्रथमतः परसमुत्यमेव प्रतिपाद्यते । तच्च पश्चविधम् , तद्यथा-संयमघाति संयमोपधातिकम् १, औत्पातिकम्-उत्पातनिमित्तम् २, सदेव-देवताप्रयुक्तम् ३, म्यूद्ग्रहः-संग्रामः ४, शारीरं च-शरीरसंभवम् ५ । एनेषु च पश्चस्वप्यस्वाध्यायिकेषु स्वाध्यायं विदधतः साधोस्तीर्थकदाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । तत्र संयमे-संयमोपघातविषयमस्वाध्यायिकं त्रिविध-महिका सचित्तरजो वर्ष चेति ॥५०॥ तीनपि मेदान् क्रमेण व्याख्यानयति--'मही त्यादि, 'महिका गर्भमासे पतन्ती धृमरी प्रतीता। गर्भभामो नाम कार्तिकादिर्यावन्माघमासः | सा च पतनसमकालमेव सर्वमकायभावितं करोति । सचित्तरजो नाम व्यवहारचित्ता वातोद्धृता श्लक्ष्णा लिः । तच्च सचित्तरजो वर्णत ईषदाताम्र दिगन्तरेषु दृश्यते । गाथायां पुस्त्वं प्राकृतन्यात् । तदपि निरन्तरपातेन त्रयाणां दिनानां परतः सर्व पृथ्वीकायभावितं करोति । वर्षस्य पुनस्त्र या प्रकारा भवन्ति । तानेवाह-'बुन्बुय' त्ति यत्र वर्षे निपतति पानीयमध्ये बुद्बुदाः-- तोयशलाकारूपा उत्तिष्ठन्ति तद्वर्षमप्युपचाराद् बुदमित्युच्यते । तद्वजे--तैय् बुदैवर्जितं द्वितीयं वर्षम् । तृतीयं "फुसिएय' त्ति जलस्पर्शिका निपतन्त्यः । नत्र बुद्बुद वर्षे निपतति यामाष्टकार्ध्वम् । अन्ये तुला-आवश्यकहाश्मिद्रीया वृत्तिः प.७३४॥२ अरण्यवातो-मु.॥३ फुसिमयत्ति-मु.॥ प्र. आ. ४२२ H . Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ५९६ ॥ तु व्याचक्षते - त्रयाणां दिनानां परतः । तद्वर्ज पश्चान दिनानां परतः । बलस्पर्शिकारूपे सप्तानी दिनान परतः सर्वमष्कायंस्पृष्टं भवति ॥५१॥ अथ संयमघातिभेदानां सर्वेषामपि चतुर्विधं परिहारमाह- 'दव्वे' इत्यादि, द्रव्ये द्रव्यतस्तदेartarfi महिका सचितरजो वर्ष वा वज्यंते । क्षेत्रे यावति क्षेत्रे महिकादि पतति ताव क्षेत्रम् । कालतो 'जच्चिरं' यावन्तं कालं पतति तावन्तं कालम् । भावे भावतो मुक्त्वा उच्छ्वासमुन्मेषं च । तद्वर्जने जीवितव्यव्याघातसंभवात् । 'शेष स्थानादिकां आदिशब्दाद्गमनागमनप्रतिलेखनादिपरिग्रहः कायिकी चेष्टां भाषां च वर्जयन्ति । इह च न निष्कारणेन कामपि लेशतोऽपि चेष्टां कुर्वन्ति । ग्लानादिकारणे तु समापतिते यतनया हस्तसंज्ञया अक्षिमंज्ञया अड्गुलीसंज्ञया वा व्यवहरन्ति पोतवरिता वा मायन्ते, वर्षाकन्पावृताश्च गच्छन्तीति ॥ ५२॥ मतं संयमोपधात्यस्वाध्यायिकम् इदानीमौत्पातिकमाह - 'पंसू ये'त्यादि, अत्र वृष्टिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, पांशुवृष्टी मांसवृष्टौ रुधिरवृष्टौ केशवृष्टी शिलावृष्टौ च । तत्र पशुवृष्टिनम यदचित्तं रजोनिपतति । मांसवृष्टिमांसखण्डानि पतन्ति । रुधिरवृष्टिर्यत्र रुधिरविन्दवः पतन्ति | केशवृष्टिर्यदुपरिभागात्केशाः पतन्ति । शिलावृष्टिः - पाषाणनिपतनं 'करकादिशिलावृष्टिर्वेत्यर्थः । तथा रजउद्घाते' रजस्वलासु दिक्षु सूत्रं न पठ्यते । शेषाः सर्वा अपि चेष्टाः क्रियन्ते । तत्र मांसे रुधिरे च पतति एकमहोरात्रं 1 १ बजे- मु.] तद्वपचानां दिनानां अल सि. ४ ॥ २ बज्र्ज्यन्ते मु. B ॥ ३ यच्चिरं-सि ॥ ४. शेषं स्थानादिकं - मु. ॥। ५ करकादि- शिला वर्षमित्यर्थ:-मु. ॥ ६ तेन सि. 8 ॥ २६८ द्वा अस्वा ध्वाय स्वरूपम् गाथा १४५०. ७१ प्र. आ. ४२२ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे सटीके द्वितीयः सद्य: ॥५९७॥ १४५० वयते, अवशेषे-पांशुवृष्टयादौ यावनिचरं-यावन्तं कालं पाशुप्रभृति पतति तावन्त कालं सूत्र-'नन्यादि' न पठ्यते । शेषकाले तु पठ्यते ॥५३॥ सम्प्रति पाशुरजउद्घातयोर्व्याख्यानमाह- 'पंसू' इत्यादि, पशिवो नाम धूमाकारमायाण्डुरमचित्त २६८द्वारे अस्वारजः । रमउद्घातो रजस्वला दिशो यासु सतीषु समन्ततोऽन्ध'कारमिव दृश्यते । तत्र पशुवृष्टौ रजउद्घाते ध्यायवा सबाते निति र पतति पादप साप परिहरन्ति ॥५४॥ गतमौत्पातिकम् । इदानीं सदेवमाह--'गंधध्वे' त्यादि, गन्धर्वनगरं नाम यच्चक्रवादिनगर स्वरूपम् गाथा स्योत्पातसूचनाय संध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टालकादिसंस्थितं दृश्यते । दिस' त्ति दिग्दाहः, विद्युत्-तडित् , उल्का-सरेखा, प्रकाशयुक्त्ता वा, गर्जितं-जीमृतध्वनिः, यूपको-वक्ष्यमाणलक्षणः, यक्षादीप्तं नाम-एकस्यां दिशि अन्तराऽन्तरा यद् दृश्यते विद्युत्सदृशः प्रकाशः । एतेषु मध्ये गन्धर्व ७१ प्र.आ. नगरादिकमेकैकां पौरपी हन्ति । एकैकं प्रहरं यावत्स्वाध्यायो न विधीयते इति भावः। गर्जितं पुनः द्विपौरुषीं ४२३ हन्ति । इह च गन्धर्वनगरं नियमात् । सदेवम् , अन्यथा तस्याभावात् । शेषकाणि तु दिग्दाहादीनि भाज्यानिकदाचित्स्वाभाविकानि भवन्ति कदाचिदेवकृतानि । तत्र स्वाभाविकेस्षु वाध्यायो न परिहियते, किंतु देवकृतेषु । पर येन कारणेन स्फुटं वैविक्त्ये न तानि न झायन्ते तेन तेषामविशेषेण परिहारः । उक्तं च--- 0 "गंधवनगर नियमा सादिव्वं सेसगाणि महयाणि जेण न नजंति फुडं तेण उ तेसिं तु परिहारो॥१॥५५॥ १ .कार इव -सि.॥२ वक्ष्यमाणः यसरीप्त-सि.।। ३ गन्धर्वनगरादिकमेकैकमेकैका-सि.॥ ४ वैवषक्तये-सि.।। ५९७॥ 0 गान्धर्व नगर नियमात सदेवं शेषकाणि मक्तानि । येन न झायन्ते स्फुटं तेन तु तेषां परिहार एव ॥१॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीय: झण्ड: ।।५१८|| अथ दिग्दाहादिव्याख्यानमाह - 'दिसी' त्यादि, दिशि-पूर्वादिकार्या छिन्नमूलो दाहः प्रज्वलनं दिग्दाहः । विमुक्तं भवति ? - अन्यतमस्यां दिशि महानगरं प्रदीप्तमिवोपरि प्रकाशोऽधस्तादन्धकार इति दिग्दाहः । उल्का पृष्ठतः 'सरेखा प्रकाशयुक्ता वा तारकस्येव पातः । ग्रुपको नाम 'शुक्ले - शुक्लपक्षे त्रीणि दिनानि यावद, द्वितीयस्यां तृतीयस्यां चतुर्थ्यां चेत्यर्थः सन्ध्याछेदः - सन्ध्याविभागः सत्रियते येन स "सन्ध्याच्छेदावरणश्चन्द्रः । इयमत्र भावना - शुक्लपक्षे द्वितीया तृतीया चतुर्थीरूपेषु त्रिषु दिनेषु सन्ध्यागतचन्द्र इतिकृत्वा सन्ध्या न विभाव्यते, ततस्तानि शुक्लपक्षे त्रीणि दिनानि यावच्चन्द्रः सन्ध्याच्छेदावरण: स यूपक इति । एतेषु त्रिषु दिनेषु प्रादोषिकं कालं न गृहन्ति, प्रादोषिक व सूत्रपौरुपीं न कुर्वन्ति । सन्ध्याच्छेदाविभावनेन कालवेलापरिज्ञानाभावादिति । न केवलं अमूनि सदेवानि, किंत्वन्यान्यपि ॥ ५६ ॥ तान्येवाट 'बंदी' स्यादि चन्द्रस्य चन्द्रविमानस्योपरागो-राहुविमान तेज सोपरञ्जनं चन्द्रोपरागो ग्रहणमित्यर्थः । एवं सूर्योपरागोऽपि । ततश्चन्द्रोपरागे सूर्योपरागे च ' तद्दिनेऽपगते इति वाक्यशेषः । तथा are for वा नभनि व्यन्तरकृतो महागर्जितसो मध्वनिनिघतिः । गर्जितस्यैव विकारो गुञ्जाबदुगुञ्जमानो महानिञ्जिनम्, तस्मिन्निर्घाते गुञ्जिते च प्रत्येकमहोरात्रं यावत्स्वाध्यायपरिहारः । अयं चात्र विशेष:-यस्यां वेलायां निर्घातो गुञ्जितं वाऽधिकृते दिनेऽभवत् द्वितीयेऽपि दिने यावत्सेव वेला प्राप्ता भवति तावदस्वाध्याय एव । उक्तं च- "निग्धायगुञ्जिएसु विसेसो-बिइयदिणे जाव सा 'वेला अहोरण ण हिजर, जहा अन्नेस "अमझारसु" [ ] इति । १ परेषा प्रकाश० सि० ॥ २ शुक्ले मु. नास्ति ।। ३ सन्ध्यावरणचन्द्र:- जे. ॥ ४ एवं सूर्योपरागमहणमित्यर्थः एवं सूर्यो परागोऽपि सिं. ॥। ५ तद्दिनापगते-सि ॥ ६ वेलति व्यहोरतम हिज्ज चि । वेलेवत्ति- ॥ ७ मासु ॥ २६८ अस्वा ध्याय स्वरूपर गाथा १४५० ७१ प्र. आ ४२३ ॥५९८ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन रोद्धारे टीके द्वितीय: उण्ट: |५९९|| 'संसार' ति चतस्रः संध्यास्तिस्रो रात्रौ तद्यथा - प्रस्थिते सूर्ये अर्धरात्रे प्रभाते च चतुर्थी दिनस्य मध्यभागे, एतासु चतसृष्वपि सन्ध्यासु स्वाध्यायो न विधीयते । शेषक्रियाणां तु प्रतिलेखनादीनां तु न प्रतिषेधः | 'पावर' ति प्रतिपदग्रहणेन प्रतिपत्पर्यन्ताश्चत्वारो महामहाः सूचिताः । ततचतुणां महामहानां चतसृषु प्रतिपत्सु तथैव स्वाध्याय एव न क्रियते । न शेषक्रियाणां प्रतिषेधः । 'जं जहिं सुगिम्हए नियम' ति एवमन्योऽपि य उत्सवः पशुवघादिबहुलो यस्मिन् ग्रामनगरादों यावन्तं कालं प्रवर्तते स तत्र तावन्तं कालं वर्जनीयः । सुग्रीष्मकः- चैत्रमासभावी पुनर्महामहः सर्वेषु देशेषु शुक्लपक्षप्रतिपद आरभ्य चैत्र पौर्णमासीप्रतिपत्पर्यन्तो नियमात प्रसिद्ध इति ॥५७॥ के पुनस्ते चत्वारो महामा: १ 'तत्राह - 'आसाडी' त्यादि, आषाढी- आपाढपौर्णमासीमहः, इन्द्र महः - अश्वयुपौर्णमासी, कार्तिकी कार्त्तिकपौर्णमासी, सुग्रीष्मकः - चैत्र पौर्णमासी, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वादेत एव चत्वारो महान्तः सर्वातिशायिनो महा-उत्सवा महामहा बोद्धव्याः । एतेषां च चतुणां महामहान मध्ये यो महामहो यस्मिन् देशे यतो दिवसादारभ्य यावन्तं कालं प्रवर्तते तस्मिन् देशे ततो दिवसादारभ्य तावन्तं कालं न स्वाध्यायं कुर्वन्ति । इह च यद्यपि सर्वेऽपि महामहाः पौर्णमासीपर्यंता एव प्रसिद्धास्तथापि क्षणानुवृतिसंभवेन प्रतिपदोऽप्यवश्यं वर्जनीयाः । अत एवाह-'जाब पारिवह' ति गतार्थम् ||५८ || सम्प्रति जघन्यत उत्कपेतच चन्द्रोपरागं सूर्योपरागं चाधिकृत्य स्वाप्यायविघात कालमाह'कोसेणे' त्यादिगाथाद्वयम् चन्द्र उत्कर्षतो द्वादशपौरुषीं हन्ति, जघन्यतस्त्वष्टौ । कथमिति चेदुच्यते१ सूत्रदाह-सु. ॥ २ चत्कतन्दो० सि. || ३. कालमानमाई मु. ॥ २६८द्व अस्वा ध्याय स्वरूपम् गाथा १४५० G प्र. आ. ४२३ ॥५९९॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके २६८२ अस्वाध्यायस्वरूपम् गाथा १४५० द्वितीयः खण्ड: 1500॥ उद्गच्छंश्चन्द्रमा राहुणा गृहीतः । ततश्चतसः पौरुषी रार्हन्ति, चतस्र आगामिनो दिवसस्य एवमष्टौ । द्वादश पुनरेवं-प्रभातकाले चन्द्रमाः 'सग्रहण एवास्तापगतः ततश्चतस्रः पौरुषीदिवसस्य हन्ति चतस्र आगामिन्या रात्रेश्चत्तस्रो द्वितीयस्य दिवसस्य । अथवा औत्पातिकग्रहणेन' सर्वरात्रि ग्रहणं सजातं सग्रह एव निमग्नः । तत्र संपितरात्रेश्चत्तस्रः पौरुषीरन्यच्चाहोरात्रम् । अथवा अभ्रच्छमतया विशेषपरिज्ञानाभावाच न ज्ञातं कस्यां वेलायां ग्रहणं १ प्रभाते च सग्रहो निमअन् दृष्टस्ततः समग्रा रात्रिः परिहता अन्यश्चाहोरात्रमिति द्वादश। तथा सूर्यो जघन्येन द्वादश 'पौरुषीहन्ति, उत्कर्षतो दावष्टौ-पोरशपौरुषीरित्यर्थः । कथमिति चेदुच्यते-सूर्यः सग्रह एवास्तमुपयातः, ततश्चतस्त्रः पौरुषी रानहन्ति, चतर आगामिनो दिवसस्य, चतस्त्र. स्ततः परस्या रात्रे रेवं द्वादश । षोडश पुनरेवं-सूर्य उगच्छन् राहुणा गृहीतः सकलं च दिवसमुत्पातपशासग्रहः स्थित्वा सग्रह एवास्तं गतः । ततश्चतस्रः पौरुषीदिवसस्य हन्ति चतस्र आगामिन्या रात्रेश्चतस्रोऽपरदिवसस्य ततोऽपि चतस्रोऽपरस्या रात्रेः एवं पोडश पौरुषीईन्ति सग्रह उद्गतः सग्रह एवास्तमितः । तथा चोक्तम् "एयं उग्गच्छंतगहिए सग्गहनिवुड्ढे दहब"[ ] मिति कथमिति चेदुच्यते-'सुराई जेण होताहोरत्त' त्ति सूर्योदयो येनाहोरात्राः, यतः सूर्यादिरहोरात्रस्ततो दिनमुक्ते सूर्ये स एव दिवमः सैव च रात्रिरस्वाध्यायिकतया परिडियन्ते । चन्द्रे तु तस्यामेव समह एवा. सि. ॥ २०न-सि. नास्ति ।। ३ पौरुषी इन्ति-सि. | ४ उपग:-सि. ॥ ४२४ १... BAR Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोद्धारे २६८द्वारे अस्वाध्याय स्वरूपम् तीयः गाथा रात्रौ मुक्ते यावदपरश्चन्द्रो 'नोदितस्ता तावदस्वाध्याय इति सेव रात्रिरपरं च दिनमित्येवमहोगत्रमस्वाध्यायः। अन्ये पुनगहुः आचीर्णमिदं-चन्द्रो रात्रौ गृहितो रावावेव मुक्तस्तस्या एव रात्रे शेष वर्जनीयम् , यस्मादागामिसूर्योदये समाप्तिरहोरात्रस्य जाता । सूर्योऽपि यदि दिवा गृहीतो दिवैव च मुक्तस्ततस्तस्यैव दिवसस्य शेष रात्रिश्च वर्जनीयेति ॥३०॥ गर्त सवनम्याध्यापिका , इशानी युद्रामाह--'बुग्गहे त्यादि गाथाद्वयम् , व्युद्ग्रहे-परस्परविग्रहे दण्डिकादीनाम् , आदिशब्दासेनापन्यादीनां च परस्परं विग्रहेऽस्वाध्यायः । इयमत्र भावना-द्वौ दण्डिको सम्कन्धावागै परस्परं संग्रामं कतु कामो यावन्नोपशाम्पतस्ताव स्वाध्यायं ऋतुन कल्पते । एवं द्वयोः सेनाधिपत्यो योर्वा तथाविधप्रसिद्धिपात्रयोः स्त्रियोः पारपरं व्युद्ग्रहे वर्तमाने, अथवा मल्लयुद्धे, तथा द्वयोमियोः परस्परं कलहभाचे बहवस्तरुणाः परस्परं लोप्टैयुध्यन्ति', यदिवा बाहुयुद्धादिभिः स्वतो लोष्टादिभिर्वा परस्परं कलहे देशविशेषप्रसिद्धे रमापर्वणि वा यावनोपशमो भवति सेनाधिपादिव्युद्ग्रहस्य तावदस्वाध्यायः । किं कारणमिति चेदुच्यते तत्र वानमन्तराः कौतुकेन 'स्वस्वपक्षण समागच्छन्ति ते छलयेयुः । भूयसां च लोकानामप्रीतियथा वयमेवं मीता वर्तामहे कामप्यापदं प्राप्स्यामः एते च श्रमणका निदुःखाः सुखं पठन्ति । तथा दण्डिके कालगते 'अणरायए य' ति यावदन्यो राजा नाभिषिक्तो भवति तावत्प्रजानां १ नोदेति ता० मु. 1 नोदितस्तावदस्वाध्याय-सि. ॥ २ तुना-भाषश्यकनियुक्ति दीपिका गा १३४० मा.२५० १२५ ॥ ३न्तो -सिः॥४ देशप्रसिद्ध मु.॥ ५ स्वपमेण-सि. B. प्र. आ. UPO ॥६ ॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय खण्ड: ॥६०२॥ 4 महान् संक्षोमो भवति, तस्मिन् संक्षोमे सति स्वाध्यायो न कल्पते । समयं - 'म्लेच्छादिमयाकुलं सस्मिअपि स्वाध्यायो न कर्तव्यः । एतेषु सर्वेषु व्युद्ग्रहादिष्वस्वाध्याय विधिमाह-'जविरऽ निद्दोच्चिऽहोरन्तं' ति व्युद्ग्रहादिषु यच्चिरं - यावन्तं कालम् 'अनिवोच्च' इत्यनिर्भयमस्वास्थ्यमित्यर्थः । तावन्तं कालमस्वाध्यायः । स्वस्थ भवनानन्तरमध्येकमहोरात्रं परिहृत्य स्वाध्यायः कर्तव्यः । उक्तं च "निदोsatara अहोरतमेगं परिहरिता सज्झाओ कीरह" [ ] इति । इह 'संस्वोभे दंडिए य कालगए' इत्यनेनान्यदपि सूचितमस्ति ततस्तदभिधित्सुराह - 'तद्दिवसे' त्यादि, भोजिके - ग्रामस्वाfift आदिशब्दाद्वक्ष्यमाणमहत्तरादिपरिग्रहः, सप्तानां गृहाणामन्तः - मध्ये कालगते सति तद्दिवसमहोरात्रं यावदस्वाध्याय-स्वाध्यायपरिहारः । I प्रसङ्गादन्यदपि प्रतिपादयति-- 'अणाहस्स' इत्यादि, कोऽप्यनाथो हस्तशताभ्यन्तरे मृतः तस्मि नाथे इस्तशताभ्यन्तरे कालगते स्वाध्यायो न क्रियते । तत्रेयं यतना - शय्यातरस्यान्यस्य वा तथाविधस्य कस्य यथा वार्ता कथ्यते 'स्वाध्यायान्तरायमस्माकमनाथमृतकेन कृतमस्ति, ततः सुन्दरं भवति यदीदं छते । एवमभ्यर्थितो यदि शय्यात्तरादिः परिष्ठापयेत्ततः शुभं भवतीति स्वाध्यायः कार्यः । अथवा शय्यातरादिर्न कोऽपि परिष्ठापयितुमिच्छति तदाऽन्यस्यां वसतौ व्रजन्ति । यद्यन्या वसतिर्नास्ति तदा रात्री सागारिका लोके वृपमास्तदनाथ मृतकमन्यत्र प्रक्षिपन्ति । अथ तत्कलेवरं श्वशृगालादिभिः समन्ततो विकीर्ण म्लेच्छादिमयं कु-सि. ॥ २ तुला आवश्यक नियुक्तिदीपिका गा. १३४३ मा. २ प. १२७ ॥ ३)राया० सु. 11४ वृषमावृहस्व० सि ॥ ॥ २६८ अस्वा ध्याय स्वरूपम् गाथा १४५० ७१ प्र. आ. ४२४ १६०२ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारोदारे सटीके द्वितीय ध्यायस्वरूपम् गाथा १४५० ॥६ ॥ ततः समन्ततो निभालयन्ति यद् दृष्टं तत्सर्वमपि त्यजन्ति, इतरस्मिस्तु प्रयन्ने कृतेऽप्यदृष्टे अशठा इति कृत्ला शुद्धाः । स्वाध्यायं कुर्वन्ति अपि न प्रायश्चित्तमाज इति मात्रः ॥६१-६२॥ ___ संप्रति 'तदिवसभोइयाई' इत्यत्रोक्तमादिशब्दं व्याख्यानयति-'मयहरे' त्यादि, महत्ताके-- गामप्रधाने प्रकृते-ग्रामाधिकारनियुक्ते बहुपाक्षिके-बहुस्वजने, चकारान् शम्यातरे, अन्यस्मिन् वा प्राकृते मनुध्ये स्ववसत्यपेक्षया मतगृहाभ्यन्तरे मृते तदिवसम्-एकमहोगत्रमस्वाध्यायः । किं कारणमत आहनिदुखा अमी इत्यप्रीत्या गमिमवात् । ततो न पठन्ति, [शनैर्वा पठन्ति] यथा न कोऽपि श्रृणोतीति । महिलारुदितशब्दोऽपि यावत् श्रूयते तावन्न पठन्ति ॥६३॥ गतं व्युद्ग्रह जम् , इदानीं शारीरिकम्यावसरः, 'तच द्विविध-मानुपं तेरश्चं च, नत्र नैरश्चं विधाजलज-मस्यादिनिर्यग्भयम् , एवं गवादीनां स्थलजम् , मयूरादीनां च खजम् । पुनर्जलजादिकं प्रत्येक द्रव्यादिभेदलश्चतुर्विधम् । तानेय द्रव्यादीन चतुरो भेदानाह-'तिरी त्यादि, द्रव्ये-द्रव्यतस्तियंपञ्चेन्द्रियाणां जलजादीनां रुधिरादिद्रव्यमस्याध्यायिकम् , न विकलेन्द्रियाणाम् । क्षेत्र-क्षेत्रतः पष्टिहस्ताभ्यन्तरे परिहरणीयम् , न परतः । अथ नम्थानं तैरश्चेन पौद्गलेन-मांसेन समन्ततः काककुक्कुरादिभिर्विक्षिप्तेनाकीर्ण-व्याप्तं तदा यदि स ग्रामस्तहि तस्मिन् तिसृभिः कुरध्याभिरन्तरिते विकीर्ण पौद्गले स्वाध्यायः क्रियते । अथ नगरं तदा तत्र यस्यां राजा सबलवाहनो गच्छनि देवयानो रथो वा विविधानि या वाहनानि गच्छन्ति तया महत्याऽप्येकया रथ्यया अन्तरिते स्वाध्यायः कार्यः । अथ स ग्रामः समस्तोऽपि विकीर्णेन १ तुला-मावश्यकनियुक्ति दीपिका गा. १३४४ मा. २५. १२. B॥ २ जलमत्स्यापि सि. R|| |प्र. आ. ४२५ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः RUS: ||६०४॥ पौद्गलेनाकीर्णो विद्यते न तिसृभिः कुरध्याभिरन्तरितं तत्पद्गलमवाप्यत तदा ग्रामस्य बहिः स्वाध्याय विधेयः ||३४|| डालतो मावतव तामाह-- 'काले' त्यादि, काले-कालतस्तज्जलजादिगतं रुधिरादि संभवकालादारभ्य तिस्रः पौरुषीर्हन्ति । 'अहेवे' ति यत्र महाकाय पञ्चेन्द्रियस्य 'मूषकादेर्मार्जारादिना मारणं तत्राष्टौ पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः । गता कालतोऽपि मार्गणा, भावत आहभावे भावतो नन्यादिकं सूत्रं न पठन्ति । अथवा जलजादिकं प्रत्येकं रुधिरादिभेदतश्चतुर्विधम्, तद्यथाशोणितं मांसं चर्म अस्थि चेति । चत्वार्यप्येतानि प्रतीतानि ||६५|| अव विशेषमाह 'तो' इत्यादि, यदि पष्टेर्हस्तानाम् अन्तः-मध्ये मांसं धौतं प्रक्षालितं तदा तस्मिन् "वहिनीतेऽपि तत्र नियमात् केचिदवयवाः पतिता भवन्ति ततस्तिस्रः पौरुषीः परिहर्तव्यः स्वाध्यायः । एवं पाकेऽप्यवयम् पष्टिहस्तेभ्यो बहि:- परतः पुनः प्रक्षालिते पक्वे वा पिशिते स्वाध्यायः कर्तव्यः; न कश्विदोषः । 'अट्ठेचे' ति प्राग्यदुक्तं तदिदानीं भावयति - 'महकाए अहोरतं' ति एतच्च प्रागेव व्याख्यातम् । 'अके प्राहु:- यदि मार्जारादिना मूषकादिरविभिन्न एव सन् मारितो मारयित्वा च गृहीत्वा अथवा मिलित्वा यदि ततः स्थानात्पलायते तदा पठन्ति साधवः सूत्रम्, न विशेषः । अन्ये नेच्छति यतः कस्तं जानाति अविभिन्नो भिलो वा मारित इति । अपरे पुनरेवमाहुः-यत्र मार्जारादिः स्वयं मृतोऽन्येन " १ मूषिका सि. ३ ।। २ बहिनीतेऽपि यतस्ततस्तत्र नियमात् मु.॥ तुला आवश्यक नियुकितदीपिकायां माध्यगाथा २२१ मा. २ प. ९२८ ॥ ४ न कश्चिदोष:-मु. ॥ २६८द्व अस्वा ध्याय स्वरूपम् गाथा १४५० ७१ प्र. आ. ४२५ ॥ ६०४ | Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके अस्वा . ध्यायस्वरूपम् माथा द्वितीयः स वा केनाप्यविमिन एवं सन्मारितस्तत्र यावत्तरकलेवरं न भिधते सावमास्वाध्यायिकम । विभिन्ने वस्वाध्यायिकमिति । तदेतदसमीचीनम् । यतश्चर्मादिभेदनश्चतुर्विधमस्वाध्यायिकं तस्मादविभिन्नेऽप्यस्वाध्याय एव । "रत्ते चूहे य सुद्ध' ति यत्ता पष्टिहस्ताभ्यन्तरे पतितं रक्त-रुधिरं तेनावकाशेन पानीयप्रवाह आगतस्तेन व्यूढं तदा पौरुषीत्रयमध्येऽपि शुद्धमस्वाध्यायिकमिति स्वाध्यायः कार्यः ॥६६॥ तेरयास्वाभ्यायिकप्रस्तावादन्यदप्याह-'अण्डगे' त्यादि, पष्टिहस्ताभ्यन्तरे अण्डके पतिते यदि तदण्डकमभित्रमवाप्यस्ति तदा तस्मिन्नुझिते स्वाध्यायः कल्पते । अथ पतितं सत्तदण्ड भिन्नं तस्य च कललबिन्दर्भ मौ पतितस्तदा न फल्पते । न च भूमि खनन्ति । इतरथा-भृमिखनने यदि सदस्वाध्यायिकमपनयन्ति तथापि तिम्रः पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः । अथ कल्पे पतितं सत्तदण्डकं भिन्न कललविन्दुर्वा सत्र लग्नस्तदा तस्मिन् षष्टिहस्तेभ्यः परतो बहिनीत्वा धोते कन्पते । अण्डकविन्दोरसृम्धिन्दोऽस्वाध्या. यिकस्य प्रमाणं यत्र मक्षिकापादा निमज्जन्ति, किमुक्तं भवति ?-यावन्मात्रे मक्षिकापादो निमज्जति तावन्मात्रेऽप्यण्डकावन्दी रुधिरविन्दौ वा भूमौ पतितेऽस्वाध्यायः ॥१७॥ किंच-"अजराउ" इत्यादि, अजरायु:-जरायुरहिता इस्तिन्यादिका प्रसता तिम्रः पौरुषीः स्वाध्याय हन्ति । अहोरात्रं छेदं मुक्त्वा-अहोरात्रे तु छिन्ने आसनायामपि प्रसूतायां कन्पते स्वाध्यायः । जरायुजादीनां पुनर्गवादीनां याचज्जरायुलम्बते तावदस्वाध्यायः । जरायो पतितेऽपि सति तदनन्तरं तिसः पौरुषीविस्वान्यायिकमाइ-जे. ॥ २ तदेवता सि. ॥ ३ मावश्यकनियुक्ति दीपिकामां तुमय रद्धे बुड्ढे भमुळे तु इति तुपरस्य व्यास्या-यन्मांसं राद्ध पक्वं यातसुद्धम् इति मा.२ प. १२८B॥ ४ अहोरात्र दमुक्त्वा-सि. 1 ७१ का Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके २६८ द्वासे अस्वाध्यायस्वरूपम् गाथा १४५०. द्वितीयः ७१ विदस्वाध्यायः । तथा राजपथे यद्यस्वाध्यायिकविन्दवः पतितास्तदा कल्पते स्वाध्यायः । किं कारणमिति चेदुच्यते, 'यतस्तत्स्वयोगत आगच्छता गच्छतां च मनुष्यतिरश्चा पदनिपातैरेवोत्क्षिप्तं भवति । जिनाज्ञा चात्र प्रमाणमतो न कश्चित् दोषः । अथ पुनस्तदस्वाध्यायिकं तैरश्चं राजपथादन्यत्र षष्टिहस्ताभ्यन्तरे पतितं तदा तस्मिन् व्यूढे वर्षोदकेन उपलक्षणमेतत् दग्धे वा प्रदीपनकेन शुद्धयति स्वाध्यायः ॥६॥ ___गतं तैरश्चमधुना मानुषमाह--'माणुस्से' त्यादि, मानुषमस्वाध्यायिक चतुर्धा-चर्म रुधिर मासम् अस्थि च । एतेष्वस्थि मुक्त्वा शेषेषु सत्सु क्षेत्रतो हस्तशताभ्यन्तरे न कल्पते स्वाध्यायः कालतोऽहोरात्रम् । 'परियावन्नविषन्ने' ति मानुषं तैरश्चं वा यदुधिरं तद्यदि पर्यापनत्वेन-परिणामान्तरापन्नत्वेन स्वभावाद्वर्णाद्विवर्णीभूतं भवति खदिरकल्कसदृशं तदा तदस्वाध्यायिकं न भवतीति क्रियते तस्मिन् पतितेऽपि स्वाध्यायः । 'सेस' त्ति पर्यापनं विवर्ण मक्त्वा शेषमस्वाध्यायिक भवति ।। तिग' ति यदविरताया मासे २ आतंत्रमस्वाध्यायिकमागच्छति तत्स्वभावतस्त्रीणि दिनानि गलति । ततस्तानि त्रीणि दिनानि यावदस्वाध्याय: । त्रयाणा दिवसाना परतोऽपि कस्याश्चिद्गललि परं न तदातवं भवति किंतु तन्महारक्तं नियमात् पर्यापन्न विवर्ण भक्तीति नास्वाध्यायिकं गण्यते । तथा यदि प्रसूताया दारको जातस्तदा सप्त दिनान्यस्वाध्यायिक अष्टमे दिवसे कर्तव्यः स्वाध्यायः । अथ दारिका जाता तर्हि सा रक्तोत्कटेति तस्यां जातायामष्टौ दिनान्यस्वाध्यायः । नषमे दिने स्वाध्यायः कल्पते ॥६॥ १ यत्तत् स्वयोगत-मु.॥ २ स्वभावाद्वर्णाद्विवर्णीकृतभूत-सि. R ॥ ३ याविरतयामासे मातब० सि. ॥ प्र.आ. ४२६ .. Hawa Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२६९ प्रवचन- सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्डः .. ॥६०७॥ एनमेव गाथावयव च्याचिख्यासुराह-'रत्तु' इत्यादि, निषेककाले यदि रक्तोत्कटता तदा स्त्री इति तस्यां जातायां दिनान्यष्टावस्वाध्यायः । दारकः शुक्राधिकस्ततस्तस्मिन् जाते सप्त दिनान्यस्वाध्यायः । तथा स्त्रीणां त्रयाणां दिनाना परतस्तन्महारक्तमनातवं भवति ततो न गण नीयम् ॥७॥ __अस्थि मुक्त्वेति यत्पूर्वमुक्तं तस्येदानी विधिमाह-दंते' इत्यादि । यत्र हस्तशताभ्यन्तरे दारकादीनां दन्तः पतितो भवति तत्र प्रयत्नतो निमालनीयः । यदि दृश्यते तदा परिष्ट्राध्यः । अथ 'सम्यग्मृग्यमाणैरपि न दृष्टस्तदा शुद्धमिति कल्पते स्वाध्यायः । 'अन्ये' तु अवते-तस्यावहेठनार्थ कायोत्सर्गः करणीयः । दन्तं मुक्त्वा शेषे अङ्गोपाङ्गसम्बन्धिन्यस्थिनि हस्तशताभ्यन्तरे पतिते द्वादश वर्षाणि न कल्पते स्वाध्यायः । अथास्थीन्यग्निना दग्धानि तदा हस्तशताभ्यन्तरे स्थितेष्वपि तेषु नैव क्रियते स्वाध्यायस्यवाचनादेः परिहारः । अनुप्रेक्षा तु न कदाचनापि प्रतिषिद्धयते इति ।।७१॥२६८॥ इदानीं 'नंदीसरदीवडिय' इत्येकोनसप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह विखंभो कोडिसयं तिसडिकोडी उ 'लक्खचुलसीई। नंदीसरो पमाणंगुलेण इय जोयणपमाणो ॥७२॥ एयंतो अंजणरयणसामकरपसरपूरिओवंता ।। घालतमालवणावलिजुयव्व घणपडलकलियव्य ॥७३॥ ५ सम्यग्मृगयमाणैरपि-सि. RA२ भङ्गोपाङ्गानां-सि. || ३ सक्खनचुलसीई- मु.।। स्वरूप गाथा १४७ ९१ प्र. अ ४२६ ६० Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन नरोद्धारे टीके द्वतीयः मः ६०८॥ अंजणगिरि पुवाइ विसासु ताणमेकेको । 'चुलसी सहस्तउच्चो ओगादो जोयणसहस्सं ॥७४ || 'जुम्मं || मूले सहस्सदसगं विक्खंभेत स्स उवरि सयदसगं । तेसु घणमणिमयाइं सिडाययणाणि चत्तारि ॥७५॥ जोयणसयदीहाई पावन्तरि ऊसियाई रम्माइ' । पत्रास fareers garराह सघवाड़ पदारं मणितोरणपेच्छा मंडव विरायमाणाइ पश्वषणुस्सग्रकसियअद्दुत रसय जिवजुयाइ ॥७६॥ ॥७७॥ मणिपेडिया महिंदज्झया य उपोक्स्वरिणिया य पासेसु । केल्लिसत्तवायचंय' व्यवणजुत्ताओ ॥७८॥ 1 119811 नंदुत्तरा य नंदा आनंदा नंदिवज्रणा नाम पुक्खरिणीओ चउरो पुर्वजणच उदिसिं संति farted भाषा मेहं जोयलक्वप्पमाणजुत्ताओ । दसजोयसियाओ चउदिसितोरणवणजुयाभो ॥८०॥ १. तुला स्थानसूत्रवृत्तिः ४२३७.२३१ ॥ २ जुम्मे-ता. R नास्ति ॥ ३ पोक्खरणिया- वा. ॥ ४० च्या सु. ॥ I २६९ द्वारे नन्दीश्वर द्वीप स्वरूपम् गाथा १४७२ ११ प्र. आ. ४२७ १६०८॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे सटीके २६९३ नन्दीश्वर द्वीप स्वरूपम् गाथा १४७२ द्वितीयः ॥६०९॥ मासिं मझे दहिमुह महोहरा दुइदहियसियवना । पोखरिणीकल्लोला'हणणोम्भवफेण पिण्डुच्च ॥८॥ चरसहिसहस्सुवा दसजोयणसहस्सवित्थडा सव्वे । सहसमहो उवगाढा उपरि अहो पल्लयागारा ॥८२॥ अंजणगिरिसिहरेसुव तेसुधि जिणमंदिराई दाइ।। चावीणमंतरालेसु पव्ययदुर्ग दुगं अस्थि ॥८३॥ ते रइकराभिहाणा विदिसिठिया अट्ठ पउमरायामा। उपरिहियजिणिंदसिणाणघुसिणरससंग पिंगुन्द ॥४॥ "अच्चतमसिणफासा अमरेसरविंदविहियावासा । दसजायणसहसुच्चा 'उम्बिडा गाउयसहस्सं ॥५॥ पलरिसंठाणठिया उच्चत्तसमाणवित्थडा सव्वे ।। तेमुचि जिणभवणाई 'नेयाई जहुत्तमाणाइ ॥८६॥ वारिणदिसाए भद्दा विसालवावी य 'कुमुयपुक्रवरिणी। तह 'डरीगिणी - मणितोरणआरामरमणीया ॥८॥ सारिणोजेणणी सि.॥२०पिडम्व-ता.सि. B३०पिंगठब-ता. सि.॥४ अफचंतमसिणफणा-जे. सि. RA ५चटा-सि. फचत्तबिमाण सिमेवाई-जे.भियाई-सि. कुमुपविक्खरिणी-सि.॥९बरीगणी-ता.॥ प्र.प्रा. ४२७ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः । २६९द्वान नन्दीश्वरद्वीपस्वरूपम् ॥६१०॥ १४७२ पुषस्मारिणी नपिसेका सहा अमोश पदावि गोयूभा। तह य सुदंसणवादी पच्छिमभंजणचउदिसासु ॥८॥ विजया य वेजयंती 'जयंति अपराजिया उ चावीओ। उत्तरदिसाए पुव्वुत्तवावीमाणा उ पारसवि ॥८९॥ 'सवाओ वावीओ दहिमुहसेलाण ठाणभूयाओ । 'अंजणपमुहं गिरितेरसगं विजह पाविसिपि ॥१०॥ इय बाघमगिरीसर सिहरहियवीयरायविम्याणं । पूयणकए बउब्धिहदेवनिकाओ समेइ सया ॥११॥ इतो जम्बुद्वीपादष्टमो 'वलयाकारः कामं कमनीयतया सकलसुरविसरानन्दी नन्दीश्वरो नाम द्वीपोऽस्ति । नन्द्या-अत्युदारजिनमन्दिरोद्यानपुष्करिणीपर्वतप्रभृतिप्रभूतपदार्थसार्थसमुद्भूतयाऽत्यद्भूतया समृद्धथा ईश्वर:-स्फातिमानन्दीश्वरः । स च विष्कम्मे-चक्रवालविष्कम्भतः एक कोटिशतं त्रिषष्टिः कोट्यश्चतुरशीतिर्लक्षाः १६३८४००००० इत्येतावद्योजनप्रमाणः । योजनानि चात्र प्रमाणाङ्गुलनिष्पमान्यवसेयानि ॥७२॥ १ जयंत-ता. ॥ २ सव्वाभो वि षावीमो-ता. ॥ ३ मंजणगिरिपमुहं-मु. ॥ ४०सिहरिटिउ० सि.॥ बायकारंवलयति काम-सि.॥ ६ तुला स्थानावृत्तिः प. २३१ ।। प्र. आ. २७ ॥१०॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२६९द्वा नन्दीश्वर द्वीप गाथा अथाअनशैलादिवक्तव्यतामाह- 'एयन्तो' इत्यादि गाथात्रिकम् , एतस्य नन्दीश्वरस्य द्वीपवचन-1 स्थान्त:-मध्यभागे पूर्वादिषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारः सर्वात्मनाऽजनरत्नमया अञ्ज नगिरयः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि देवरमणः, दक्षिणस्या नित्योद्योतः, पश्चिमायां स्वयंप्रभः, सटीके । उत्तरस्या रमणीयः । उक्तं च-- ही "पुन्वदिसि देवरमणो निच्चुज्जोओ य दाहिणदिसाए । अवरदिसाए सयंपम रमणिज्जो उत्तरे पासे॥१॥" [नन्दीश्वरप्रकरणसन्दोह गा.५] ... कथंभूतास्ते इत्याह-अञ्जनरत्नाना-कृष्णरत्नविशेषाणां ये श्यामा: करप्रसराः-प्रमापटलानि ते ६११॥ पूरिताः-परिपूर्णता नीता उपान्ताः-पर्यन्तभागा येषां ते तथा। एवंविधानोत्प्रेक्ष्यन्ते-बालतमालवनावलीयुता इव-तरुणतरतमालतरुवनमण्डलीवलयिता इव । तथा घनपटलकलिता इव-प्रावृषेण्यपयोदपक्तियुक्ता इव । धाराधरा हि 'विविधोद्यानहधाः सजलजलदजालमालिनो भवन्तीति ॥७३॥ ...तथा तेषामञ्जनकपर्वतानामेकेकोऽञ्जनका पर्वतः प्रत्येक चतुरशीतियोजनसहस्राणि उच्चा-उच्छ्तिा , एकं योजनसहस्रमवगाढो भूमिप्रविष्टः । तथा तस्यैकैकस्याञ्जनगिरेमले-धरणितले सहस्रदशकं-दश योजनसहस्राणि भवन्ति, विष्कम्भे-विस्तरतः । तदनन्तरं च "मात्रया परिहीयमानस्य तस्य उपरि-पर्यन्तमागे शतदशक-योजनसहस्र' विष्कम्भेन । एवं चैते चत्वारोऽप्यञ्जनगिरयो मूले विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरि च तनुकाः संवृत्ताः । तेषु चाञ्जनगिरिपु धनमणिमयानि-नानाविधनिःसपत्नरत्ननिर्मितानि एकैक विविधोयानाथा:-सि. ॥ २ हि मवन्तीति-मु. ॥ ३ मात्रया परिहीयते सस्य उपर्यन्तमागे-सि. ॥ | ११ प्र.आ. ४२७ ॥६११॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोदारे। | २६९द्वारे नन्दीश्वरद्वीपस्वरूपम् गाथा १४७२. द्वितीयः अण्ड: ।।६१२॥ स्मिन्नेकैकसद्भावाच्चत्वारि सिद्धायतनानि शाश्वतानि सिद्धानां वा-शाश्वतीनामहत्प्रतिमानामायतनानि सिद्धायतनानि भवन्ति ॥७४-७५|| अर्थतेषामेव प्रमाणादिप्रतिपादनायाह-'जोयणे' त्यादि गाथात्रयम् , तानि सिद्धायतनानि योजनशतमेकं दीर्घाणि-पूर्वपरिचारः, 'हामतियोंजागुलिष्टतानि, गम्याणि-रमणीयानि, पञ्चाशद्योजनानि विस्तृतानि-विस्तीर्णानि दक्षिणोत्तरतः। तथा एकैकस्या दिशि एकैकसद्भावेन चत्वारि द्वाराणि येषु तानि चतुर्दाराणि । सन्चजानि-पपताकानि ।।७६|| तथा प्रतिद्वारमेकेकस्मिन् द्वारे मणय:-चन्द्रकान्तादिरत्नविशेषास्तनिष्पन्नस्तोरणः, प्रेक्षाप्रेक्षणकं तदर्थ मण्डपा:-प्रेक्षामण्डपास्तैश्च प्रसिद्धस्वरूपैविशेषेण राजमानानि- 'शोभमानानि ॥७७|| तथा पश्वधनुः शतसमुच्छ्तिरष्टोत्तरशतसङ्ख्यः ऋषभ-वर्धमान-चन्द्रानन-वारिषेणाख्यै जिनः शाश्वतप्रतिमाभियुतानि-संयुक्तानि । तेषां सिद्धायतनानां मध्ये मणिमय्यः-सर्वात्मना रत्नमय्यः पीठिका-वेदिकाः प्रज्ञप्ताः, तामामुपरि महेन्द्रध्वजाः, महेन्द्रा इत्यतिमहान्तः समयभाषया ते च ते ध्वजाश्चेति । अथवा महेन्द्रस्यैव-शक्रादेना महेन्द्रध्वजाः । तेषां च पुरतः प्रत्येक योजनशतायामाः, पञ्चाशयोजनविष्कम्भा, 'दशयोजनोद्वेधाः पुष्करिण्यो-बाप्यः प्रज्ञप्ताः । ताच पाश्र्वेषु चतसृषु दिक्षु कङ्केलिसप्तपर्ण चम्पकचूतवनयुक्ताः । तत्र १ दासप्ततियोजनान्युत्यानि-सि. ॥ ॥२ शोमनानि-सि. ॥ ३ वशयोजनोच्छ्धा -सि. R ॥ प्र. आ. |४२८ ६१२॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके पूर्वस्यां दिशि अशोकवनम् , दक्षिणस्या सप्तच्छदवनम् पश्रिमायां चम्पकवनम् , उत्तरस्यां च सहकारवनमिति ॥७८॥ उक्ता अञ्जनगिरिवक्तव्यता, 'अथ पुष्करिणीवक्तव्यतामाह-'नन्दु' इत्यादि गाथाद्वयम् , तेषु चतुर्ष अञ्जनगिरिषु मध्ये योऽसौ पूर्वः- पूर्वदिग्भावी अञ्जनगिरिस्तस्य चतुर्दिशि-चतसृषु दिक्षु लक्षमेकं गत्वा चतस्त्रः पुष्करिण्यः सन्ति । तद्यथा-पूर्वस्या नन्दोत्तरा, दक्षिणस्यां नन्दा, अपरस्यां आनन्दा, उत्तरस्या नन्दिवर्धना च ॥७६।। ताश्च विष्कम्भायामाभ्यां योजनलप्रमाणयुक्ता, दश योजनान्युच्छिता-उद्विद्धाः, तथा चतसृषु २६९द्वा नन्दीश्वर द्वीपस्वरूपं गाथा १४७२. द्वितीयः . " प्र. आ. ४२८ १ लोकप्रकाशे तु-"नन्दिषेणा तथाऽमोधा, गोम्तूपाच सुदर्शन । स्युर्वाप्यो देवरमणात्पूर्वादिदिकचतुष्टये ॥१४॥ नन्दोत्तरा तथा नन्दा सुनन्दा नन्दिवर्द्धना । पुष्करिण्यश्चतस्रः स्युर्नित्योद्योताश्चतुर्दिशम ॥१४८|| भद्रा विशाला कुमुवा चतुर्थी पुण्डरोकिणी। स्वयंप्रमगिरेः पूर्वादिषु दिविति वापिकाः ॥१४॥ विजया बैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता । वाप्यः प्राकयादिषु दिन रमणीयाअनगिरेः ।।१५०॥ अयं नन्दीश्वरस्तवनन्दीश्वरकल्पामिप्रायेण पोशानामपि पुष्करिणीनां नामक्रमः"........."लोकप्रकाशे सर्ग २४ । ५.२९३॥ २लोकप्रकाशे "जीवामिगमसूत्रवृत्तौ प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ च एता दशयोजनोद्विद्धा उक्ताः । नन्दीश्वरस्तोत्रे नन्दीश्वरकल्पे च सहस्रयोजनोद्विद्धा उक्ताः । स्थानाङ्गसूत्रेऽपि.(सू.३०७) 'तामोणं गंदाभो पुक्खरणीओ एगं बोमपासयसहस्सं आयामेणं पन्नासं जोमणमहस्साई विखंभेणं दस जोमणसयाई उल्वेहेणं' इत्युक्त मिति ज्ञेय (सर्ग २४॥ गा. १४० तः) अत्रेव टिपने "आयामविष्कम्भावपेक्ष्य पुष्करिणीनां दशशतोद्वेधयोग्यतेति मध्याहार्यो दशशब्दात शतशः , ततो न विरोध केषामपि" इति लोकप्रकाशे द्वितीयविभागे [देवचन्द्रलालमाई संस्करणे]पाठ प.२९३AM Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सोद्वार सटीके द्वितीय: रूप: ।।६१४॥ दिक्षु नानामणिमयस्तम्भसंनिविष्टैरुनुङ्गैस्तोरणैः पूर्वादिदिक्क मेणाशोकस सच्छद चम्पकचूतवनैश्व युक्ताःपरिक्षिणः । एवं शेषान गिरिसम्बन्धिनीनामपि पुष्करिणीनां वाच्यम् । तासांमध्ये बहुमध्यदेश भागे सर्वात्मना स्फटिकमया दधिमुखनामानो महीधराः - पर्वताः सन्ति । तेच दुग्धदधिवत् सित: - श्वेतो वर्णः - कान्तिर्येषां ते तथा । अतश्वोत्प्रेक्ष्यन्ते पुष्करिणीनां वापीनां ये कल्लोला:- 'समुल्लसन्तस्तरङ्गास्तेषां यदाहननं- परस्परं प्रतिस्फालनं तत्समुद्भूताः फेनपिण्डा इव ॥ ८१ ॥ एते दधिमुखपर्वताः सर्वेऽपि चतुःषष्टियोजन सहस्राण्युच्छ्रिता दशयोजन सहस्राणि विस्तीर्णाः, एक योजन सहस्रमधोऽवगाढा, उपर्यधव सर्वत्र समाः, अत एव पल्यङ्कसंस्थान संस्थिताः ॥ ८२ ॥ af दधिमुखपर्वतेषु रुन्द्राणि - विशालानि जिनमन्दिराणि -सिद्धायतनानि वक्तव्यानि । यथाऽञ्जन गिरिशिखरेषु अञ्जनपर्वतो परिवर्तिसिद्धायतन वक्तव्यतात्रापि वक्तव्येति भावः । तथैतासामेव वापीनामपान्तरालेषु द्वौ द्वौ पर्वतौ स्तः ॥ ३॥ तत्स्वरूपमाह—'ते' इत्यादि गाथात्रयम् पूर्वाञ्जनगिरे विंदिक्षु व्यवस्थिता 'द्वयोर्द्वयोर्वाप्योरन्तराले बहिः कोणयोः प्रत्यासत्तौ प्रत्येकं पर्वतद्वितयभावादष्टौ रतिकरनामानः पर्वताः सन्ति । ते च पद्म १ समुल्लसमुल्लसन्तस्तरङ्गा० सि. । २ पर्वतौ ततस्तस्वरूपमाह-सि. B ॥ ३ द्वयोर्षाप्योरन्तराले सि. ॥ ४] प्रवचन चारोद्धारवृत्त्यभिप्रायेण एते पद्मरागमयाः, स्थानाङ्गवृत्त्यभिप्रायेण तु सौवर्णा इति । लोकप्रकाशे सर्ग २४ । १६९ प. प. २९४ । "सुष्ठुवर्णमया इत्यथकत्वेन विरोधः यद्वा पचरागो रक्तः सुवर्ण च रक्तमपि स्यात् " इति तत्रेय टिप्पने ॥ २६९३ नन्दीश द्वीप स्वरूपम गाथा १४७२ ११ प्र. आ. ४२८ ।।६१४ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः गाथा ॥६१५॥ रागाभाः' पद्मरागः-शोणमणिविशेषस्तद्वदामा-प्रभा येषां ते तथा । अत उत्प्रेक्ष्यन्ते-उपरिस्थिता:-तदुपरि वर्तमाना ये जिनेन्द्राः शाश्वतप्रतिमास्तेषां यत् स्नान-कुकमजलं तत्संपर्फतः पाटला इव । सर्वऽपि चैते रतिकराः प्रकामकोमलस्पर्शाः, तथा सुरपतिसमूहकृतावासाः, दश योजनसहस्राण्युच्छ्रिता, गव्यूतसहस्र नन्दीश्वर 'सार्धयोजनशतद्वयमुद्विद्धाः, उरचत्वसमानविस्तरा दशयोजनसहस्रविस्तीर्णा इत्यर्थः, सर्वतः समा झलरी द्वीपसंस्थानसंस्थिता 'इति । तेष्वपि रतिकरेषु यथोक्तमानानि पूर्वोक्तप्रमाणानि जिनभवनानि ज्ञेयानि स्वरूपम् ॥८४-८६॥ तदेवमुक्ता पूर्वाञ्जनगिरिवक्तव्यता । एतदनुसारेण च शेषदिगञ्जनगिरीणामपि सर्व वाच्यम् , |१४७२नवरं पुष्करिणीनां नामसु विशेषः । तमेवाह--'दाहिणे' त्यादि गाथाचतुष्कम् , दक्षिणस्यां दिशि 'दक्षिणाञ्जने इत्यर्थः पूर्वस्या दिशि भद्रा यापी, दक्षिणस्यां दिशि विशाला, अपरस्यां दिशि कुमुदा, उत्तरस्यां पुण्डरीकिणी । एताश्च सर्वा अपि मणिमयतोरणारामरमणीयाः ॥८॥ प्र. आ. तथा पश्चिमाअनगिरी पूर्वस्यां दिशि नन्दिपेणा वापी, दक्षिणस्याममोधा, अपरस्यां गोस्तूभा, ४२८ उत्तरस्या सुदर्शना तथोत्तराञ्जनगिरी पूर्वस्यां दिशि विजया दक्षिणस्यां वैजयन्ती, अपरस्यां जयन्ती, उत्तरस्यामपराजिता । द्वादशानामप्यमृपा वापीनां प्रमाणादिकं सर्व पूर्वाञ्जनगिरिखापीवद् वक्तव्यम् ।।८८८९॥ सर्वा अपि पोडशाप्यता वाप्यो दधिमुखशैलानां स्थानभूता:-आधारभृता एव । एतासु वापीषु १ सार्ध-सि. ॥ २ इत्यर्थः-जे. ॥ ३ दक्षिणस्याञ्जने-सि. ॥ ४ च वक्तव्य-सि. . - Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे सटीके द्वितीयः २७. द्वारे लब्धिस्वरूपं गाथा. १४९२१५०८ दण्डः ॥६१६॥ प्र. आ. मध्यभागे दधिमुखशैला व्यवस्थिता इत्यर्थः । तदेवं नन्दीश्वरद्वीपे चतसृष्वपि 'दिक्षु प्रत्येकमञ्जनगिरिप्रमुखं गिरित्रयोदशकं विद्यते । तथाहि-एकैकस्यां दिशि एककोऽअनगिरिश्चत्वारो दधिमुखाः, अष्टौ रतिकराः, मिलिताश्च त्रयोदश । ते च चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकमेतावतामद्रीणां सद्भावाच्चतुर्मिगुण्यन्ते । बाता द्विपश्चाशद्रियः ॥१०॥ साम्प्रतं सर्वोपसंहारमाह-'इथे' त्यादि, इति-प्रागुक्तप्रकारेण द्विपञ्चाशत्सङ्ख्यगिरीश्वरशिखरेषु स्थिताना वीतरागविम्बानां पूजाकृते चतुर्विधो-भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकलक्षणो देवनिकाय:सुरसमूहः सदासर्वकालं समेति ।। इह च नन्दीश्वरवक्तव्यतायां बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थगौरवमयात् । विशेषार्थिना च जीवाभिगमादिशास्त्राणि परिभाषनीयानि । यच्चात्र जीवाभिगमद्वीपसागरप्रज्ञप्तिसंग्रहिण्यादिभ्यः किश्चिदन्यथात्वं दृश्यते तन्मतान्तरमवसेयमिति ॥११॥॥२६६॥ इदानीं 'लडोओ' ति सप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह आमोसहि १ विप्पोसहि २ खेलोसहि ३ जल्लओसहो ४ चेव । सम्बोसहि ५ संभिन्ने ६ ओहो ७ रिउ ८ विउलमइलही ९॥१२॥ धारण १० आसीविस ११ केवलिय १२ गणहारिणो य १३ पुष्वधरा १४ । अरहंत १५ चकचट्टो १६ पलदेवा १७ वासुदेवा १८ य ॥९३।।। १ अविक्षः प्रत्येकमखनगिरि त्रयोदशकं सि ॥२ गणधारिणो-सा. सि.।। - .............. ficai.... . . S milarisment Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चचन सारोद्वारे सटीके द्वतीयः मण्डः ॥६१७॥ वीरमसपिआसव १९ कोट्ठयबुद्धी २० पयाणुसारी २१ य । तह बीयबुद्धि २२ ते २३ आहारग २४ सोयलेसा २५ य ||१४|| drforceलडी २६ अक्खीणमहाणसी २७ पुलाया २८ च । परिणामतववसेणं एमाई हुति लडीओ ॥९५॥ 'संकरिणमामीसो मुत्तपुरीसाण विप्पुसो 'वावि (वधवा) । अन्ने विडित्ति विद्या भाति पत्ति पासवणं ॥९६॥ एए अन्ने य बहू जेसिं "सव्वेवि सुरहिणोऽवयवा । 'रोगोवस समत्था ते हृति तओसहि पत्ता ॥९७॥ जो सुणह सव्वओ मुणइ सव्यविसए उ सवसोएहि । सुइ "बहुएव सह 'भिन्ने भिन्नसोओ सो ||१८|| fie सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं 1 पायं विसेसविमुहं घडमेतं चिंतियं मुणइ ॥९९॥ fare विसेसण नाणं तग्गाहिणी मई विउला । चिंतियमणुसरह घडं पसंगओ पज्जवसएहिं ॥ १५०० ॥ १ तुला प्रश्नव्याकरणस्य अभयदेवसूरीयावृत्तिः प १०५तः ।। २विप्पा इति प्रश्नव्याकरणवृत्तौ पाठः ॥ ३ सव्वे सुरमोऽवयवा इति प्रश्नव्याकरणवृत्तौ पाठः || ४ रोगोवसमत्था ता. R ॥ ५ बहुए वि-मुः ॥ ६ मन्नइ इति प्रश्नव्याकरणवृत्तौ पाठः ॥ ७ वत्युविसेसमाणं - इति प्रश्नव्याकरणवृत्तौ पाठः ॥ २७० द्वा लब्धि स्वरूपम् गाथा १४९२ १५०८ $1.34T. ४२९ ॥६१७॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ।।६१८|| ॥२॥ आसी दादा तग्गय महाविसाऽऽसीविसा दुविहभैया | ते कम्मजाइभेएण णेगहा चउविहविकप्पा ॥१५०१ || वीरमसप्पिसा' ओवमाणवयणा तयासवा हुति / कोयधन्न सुनिग्गलसुत्तत्था कोgaडिया जो सुत्तपरण बहु सुयमणुधावह पथाणुसारी सो । जो अत्थपणऽस्थं अणुसरह स बीबुडीओ ॥३॥ अक्खीणमहाणसिया भिक्वं जेणाणियं पुणो तेणं । परिभुक्तं चिय खिज्जद बहुए हिंदि न उण अन्नेहिं ||४|| भवसिडियपुरिसाणं एयाओ हुति भणियलडीओ | भवसिद्धिय महिलाणवि जत्तिय जायंति तं वोच्छं ॥५॥ अरहंत चक्किके सववलसं भिन्ने य चारणे पुव्वा I गणहरपुलाआहारगं च न हु भवियमहिलाणं अभवियपुरिसाणं पुण दस पुव्विल्लाउ केवलितं च उज्जुभई विउलमई तेरस एयाउ न हु हुति ||७|| ॥ ६ ॥ । १० भावमा बयाणा | भोवमा व वयणे इति प्रश्नव्याकरणवृत्तौ । २ बहुहिषि- मु. ॥ ३ ॥ २७० द्वा लब्धि स्वरूपम् गाथा - १४९२ १५०८ प्र. आ. ४२९ ॥६१८॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥६१९॥ अभवियमहिलापि छु एयाओ हुति भणियलडीओ । महुवीरावलडीव नेय सेसा उ अविरुद्धा ॥८॥ लब्धिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् आमशौषधिलब्धिः, विप्रुडौषधिलब्धिः, खेलौषधिलब्धिः, जल्लोपधिलब्धिः, सर्वोषघिलब्धिः, सम्भिन्नेति 'सूचकत्वात्सूत्रस्य' सम्मिन्न श्रोतोलब्धिः, अवधिलब्धिः, ऋजुमतिलब्धिः, विपुलमतिलब्धिः, चारणलब्धिः, आशीविपलब्धि:, केवलिलब्धिः, गणधरलब्धिः पूर्वं धरलब्धिः, अलब्धिः, चक्रवर्तिलब्धिः, बलदेवलब्धिः, वासुदेवलब्धिः, श्रीग्मधुसर्पिराश्रचलब्धिः, कोष्टकबुद्धिलब्धिः पदानुसारिलब्धिः, तथा बीजबुद्धिलब्धिः, तेजोलेश्यालब्धिः, आहारकलब्धिः, शीतलेश्यालब्धिः, वैकुविकदेहलन्धिः, अक्षीणमहानसीलब्धिः, पुलाकलब्धिः । एवमेता अष्टाविंशतिसङख्याः आदिशब्दादन्याश्च जीवानां शुभशुभतरशुभतम परिणामवशादसाधारणतपःप्रभावाच्च नानाविधलब्धयः ऋद्धिविशेषा भवन्ति ।। ९२-९५॥ अथैताः क्रमेण व्याचिख्यासुः पूर्वं तावदामशौपव्यादिलब्धिपञ्चकं प्रपञ्चयितुमाह – 'संफरिसे' त्यादि गाथाइयम्, संस्पर्शनमामर्शः स एवौषधिर्यस्यासावामशपिधिः करादिसंस्पर्शमात्रादेव विविधण्याधिव्यपनयनसमर्थो लब्धिलब्धिमतोरभेदोपचारात् साधुरेवामशपिधिरित्यर्थः । इदमत्र तात्पर्य - यत्प्रभावात् स्वहस्तपादाद्यवयव परामर्श मात्रेणैवात्मनः परस्य वा सर्वेऽपि रोगाः प्रणश्यन्ति सा आमशषधिः । 'मुत्तपुरीसाण विष्णुसो 'वाचि' (वयवा) तिमूत्रपुरीषयोर्विप्रुपः - अवयवाः इह विमुच्यते । 'विष्णुसो वाऽषि' ति पाठस्तु ग्रन्थान्तरेष्वष्टत्वादुपेक्षितः । अथ चावश्यमेतद्वयाख्यानेन प्रयोजनम्, १ बाबिति विप्पत्ति मूत्र० जे. सि. ।। २ मथवा-सि ॥ २७०३ लब्धि स्वरूपम् गाथा १४९३ १५०८ प्र.आ. ४३० ॥६१९६ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड : ॥६२० ॥ तदेत्थं व्याख्येयं - वाशब्दः समुच्चये, अपिशब्द एवकारार्थो मिश्रक्रमच । ततो मूत्रपुरीषयोरेवावयवा इ विदुच्यते इति । 'अन्ये तु भाषन्ते विडिति विष्ठापत्ति प्रश्रवणं मूत्रम् । 'सूचकत्वात् सूत्रस्ये' ति ||९६ ॥ तत 'एए' ति एतौ विण्मूत्राषयवौ 'अन्ने य' ति अन्ये च खेल जल्नकेशनखादयो बहवः सर्वे च समुदिता अवयवा येषां साधूनां सुरभयो रोगोपनसमर्थाय सावको भवन्ति । कथंभूता इत्याह'तओसहि पत्ति' त्ति ते च ते औषधयश्च तदोषधयो - वि०सूत्र खेल जन केशनखाद्योषधयः सर्वोषधयश्च ताः प्राप्तास्तदोपधिप्राप्ताः विण्मूत्राद्योषधयः सर्वोषधयश्च साधवो भवन्तीत्यर्थः । एतदुक्तं भवति यन्माहात्म्यान्मूत्रपुरीषावयवमात्रमपि रोगराशिप्रणाशाय संपद्यते सुरभि च सा विधिः । तथा खेल:- श्लेष्मा, जल्लो-मलः कर्ण वदन नाशिका नयन-जिह्वा समुद्भवः शरीरसम्भवश्च, तो खेल- जल्लो यत्प्रभावतः सर्वरोगापहारको सुरभी च भवतः सा क्रमेण खेलौ पधिर्जल्लोपधिश्च । तथा माहात्म्यतो विण्मूत्रकेशन खादयश्च सर्वेऽप्यवयवाः समुदिताः सर्वत्र भेषजीभावं सौरभं च भजते सा सर्वोषधिरिति ॥९॥ सम्प्रति सम्भिन्नश्रोतोलब्धिमाह - जो' इत्यादि, यः सर्वतः सर्वैरपि शरीरदेशेः शृणोति स सम्भिन्नश्रोताः । अथवा यः सर्वानपि शब्दादीन् विषयान् सर्वैरपि श्रीतोभिः - इन्द्रियैर्जानाति, एकतरेणापीन्द्रियेण समस्ता परेन्द्रियगम्यान् विषयान् योऽवगच्छतीत्यर्थः । स सम्भिन्नश्रोतलब्धिमान् । अथवा द्वादशयोजनविस्तृ तस्य चक्रवर्तिकटकस्य युगपब्रुवाणस्य तत्सूर्यमङ्घातस्य वा समकालमा फाल्यमानस्य सम्भिन्नान-लक्षणतो १. तुला प्रश्नव्याकरणवृत्तिः प १०५ ।। २ ते सि. नास्ति ॥ २७० द्वारे लब्धि स्वरूपम् गाथा १४९२ १५०८ प्र. आ. ४३० १६२० ॥ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० धारे लब्धि स्विरूपम् १४९२. १५०८ विधानतश्च परस्परं विभिन्मान् जननिवहसमुत्थान् शङ्खकाहलाभेरी माणक ढक्कादितूर्यसमुत्थान वा युगपदेव च सबहन शब्दान यः शृणोति स संमिश्रीताः सम्भिमश्रोतोलब्धिरिति ॥१८॥ अथ 'जुमतिलब्धिविपुलमतिलब्धिं चाह-'रिउ' इत्यादि गाथाद्वयम् । ऋजु-सामान्य वस्तुसारोद्वारे __ मात्रम् , तद्ग्राहिणी मति:- "संवेदनम् ऋजुमति मनोज्ञानं-मन:पर्यायज्ञानमेव । सा च प्रायो-बाहूल्येन सटीके विशेषविमुखं-देशकालाधनेकपर्यायपरित्यक्त घटमा परेण चिन्तितं जानाति । तथा विपुलं वस्तुनो घटादेद्वितीयः विशेषाणां देश-क्षेत्र कालादीनां मान-मङ्ख्यास्वरूपम् , तग्राहिणी मतिर्विपुला । मा च परेण चिन्तितं घटं प्रसङ्गतः पर्यवशतैरुपेतमनुपरति-सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽहालनो पढानपघरस्थित इत्याद्यपि 'प्रभूतविशेष॥६२१॥ विशिष्टं घटे परेण चिन्तितमबगच्छतीत्यर्थः ।। इदमत्र तात्पर्य-मनःपर्यायानं दूधा-ऋजमतिविपलमतिथ । सत्र सामान्यघटादिवस्तमात्रचिन्तनप्रवृत्तमनःपरिणामग्राहि किश्चिदविशुद्धतरमर्धतृतीयागुलहीनमनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं ऋजुमतिलब्धिः । पर्यायशतोपेतघटादिवस्तुविशेषचिन्तनप्रवृत्तमनोद्रभ्यग्राहि स्फुटतरं संपूर्णमनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं विपुलमतिलब्धिः ॥१४९९-१५००॥ सम्प्रत्याशीविषलब्धिमाह-'आसी'त्यादि, आश्यो-'दंष्ट्रास्तासु गतं-स्थित महद्विपं येषां भवति ते आशीविषाः । ते च द्विभेदा:-कर्मभेदेन जातिभेदेन च । तत्र कर्मभेदेन पञ्चेन्द्रियतियंग्योनयो १०माणमा सि.॥२ स सम्मिनसि. जुमतिलग्धिविपुलमतिलब्धी-सि.॥४ संबेद-सि. ॥ ५ प्रभूत-सि.॥ ६ दंष्ट्रास्तामुपगत-सि.॥ प्र. आ. ॥२१॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HETAMARHIPASHEE: GAR AmmmmmmmwwwmalinimiyaparwwwwwwwwwwwwA प्रवचनसारोद्धारे सटीके लन्धिस्वरूपं द्विसीयः ॥६२२॥ am - 000000000006 मनुष्या देवाश्च सहस्रारान्ता इत्यनेकविधाः । एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो का गुणत माशीविष. श्चिकभुजङ्गादिसाध्या क्रियां कुर्वन्ति । शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्तीति भावः । देवास्त्वपर्याभावस्थायां तच्छक्तिमन्तो मन्तव्याः । ते हि पूर्व मनुष्यभवे समुपार्जिताशीविपलब्धया सहस्रारान्तदेवेवभिनवोत्यमा अपर्याप्तावस्थायां प्राग्मविकाशीविषलब्धिसंस्कारादाशीविषलब्धिमन्तो व्यवहियन्ते । ततः परं तु पर्याप्तावस्थायां संस्कारस्यापि निवृत्तिरिति न तद्वयपदेश माजः। याप च नाम पर्याप्ता अपि देवाः शापादिना परं व्यापादयन्ति तथापि न लब्धिव्यपदेशः । भवप्रत्ययतस्तथारूपसामर्थ्यस्य सर्वसाधारणत्वात् । गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्यविशेषो लब्धिरिति प्रसिद्धेः, जातिभेदेन च वृश्चिक-मण्डूक सर्प-मनुष्य मेदान्चतुर्विधाः क्रमेण बहु-बहुतर-बहुतमात्तिबहुतमविषाः । वृश्चिकविषं धुत्कृष्टतोऽधं भरतक्षेत्रप्रमाणं वपुर्याप्नोति. मण्डूकविषं भरतक्षेत्रप्रमाणम् , भुजङ्गविषं तु जम्बूद्विपप्रमाणम् , मनुष्यविपं तु समय क्षेत्रप्रमाणमिति ॥१५०१॥ अथ क्षीरमधुसर्पिराश्रवलब्धि कोष्ठकवुद्धिलब्धिं चाह-'वीरे त्यादि, क्षीरं-दुग्धम् मधु-मधुरद्रव्यम् सर्पिः-घृतम् , एतत्स्वादोपमान वचनं वैरस्वाम्यादिवत्तदाश्रवाः झीरमधुमर्पिराश्रवा भवन्ति । इयमत्र भावना-पुण्ड क्षुचारिणीनां गवा लक्षस्य शीरमर्धाधक्रमेण दीयते यावदेकस्याः पीतगोक्षीरायाः क्षीरम्। तत्किल चातुरिक्यमित्यागमे गीयते । तबथोपभुज्यमानमतीव मनःशरीरप्रहलादहेतुरुपजायते, तथा यद्वचनमाकर्ण्यमानं मनाशरीरसुखोत्पादनाय प्रभवति ते क्षीरावा । क्षीरमिव वचनमा-समन्तात् श्रवन्तीति व्युत्पत्तेः । १०द्धः-सि. R ॥२ न-मि. Rm म INTINYANIPPIMPPAPRA ॥६२२॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन एवं मध्वपि किमप्यतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्यं द्रष्टव्यम् । घृतमपि पुण्ड्रेक्षुचारिगोक्षीरसमुत्थं मन्दाग्निकथितं विशिष्टवर्णाद्युपेतम् । मध्वित्र वचनमाश्रवन्तीति मध्वाश्रवाः । घृतमिव वचनमाश्रवन्तीति सारोद्वारे घृताश्रवाः । उपलक्षणत्वाच्च अमृताश्रविण ईक्षुरसाश्रविण इत्यादयोऽप्येवमवसेयाः । अथवा येषां सटीके पात्रपतितं कन्नमपि दोरमधुसर्विरादिरसवीर्यविपाकं जायते, ते क्रमेण क्षीराविणt Herrafor: सर्पिराश्रविण इत्यादि । द्वितीय: ख: ॥६२३॥ तथा कोष्ठकनिक्षिप्तधान्यानीय सुनिला - विस्मृतत्वाच्चिरस्थायिनः सूत्रार्थं येषां ते 'कोटक धान्यमुनिर्मलमूत्रार्थाः कोष्टबुद्धयः । कोष्ठे इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गतों तदवस्थावेव सूत्रार्थी धारयति न किमपि तयोः सूत्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा कोष्ठबुद्धिलब्धिरिति भावः ||२|| अथ पदानुसारिलब्धिं बीजबुद्धिलब्धिं चाह - जो' इत्यादि, योऽध्यापकादेः केनापि सूत्रपदेनाधीतेन वपि सूत्रं स्वप्रज्ञयाऽभ्युप तदवस्थमेव गृह्णाति स पदानुसारलब्धिमान् । तथा उत्पाद-व्ययstoryक्तं सदित्यादिवदर्थप्रधानं परमपदं तेनैकेनापि विजभूतेनाधिगतेन योऽन्यमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमाते स बजबुद्धिलब्धिमान् । इयं च बीजबुद्धिलब्धिः सर्वोत्तमप्रकर्षप्राप्ता "भगवताम् गणभृतां ते हिं उत्पादादिपदत्रयमवधार्यं सकलमपि द्वादशाङ्गयात्मक प्रवचनमभिमूत्रयन्तीति ॥ ३॥ इदानीमची महान सीलब्धिमाह - 'अक्खीणेत्यादि येनानीतं भैक्षं बहुभिरपि - लक्ष्म१ कोष्ठकधान्यसुनिर्गत सूत्रार्था:-सि ॥ २ सूत्रपदेनाधीयते (ऽनुधावति-मधीते) - मु. ॥ ३ गणभृतां भगवत-मु. ॥ २७० द्वारे लब्धि स्वरूपं गाथा १४९२ १५०८ प्र. आ. ४३१ ||६२३॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे २७. द्वा लब्धिस्वरूपम् सटीके द्वितीयः सण्ड: १४९२. १५०८ ॥६२४॥ प्र. आ. 'रप्यन्यै स्तृप्तितोऽपि भुक्तं न क्षीयते यावदात्मना भुङ्क्ते, किंतु तेनैव भुक्तं निष्ठा याति तस्याक्षीण. महानसीलब्धिः । अत्र चावधि-चारण-केवलि-गणधारि-पूर्वधर-अर्हच्चक्रवर्ति बलदेव-वासुदेव तेजोलेश्या-ऽऽहारकशीतलेश्या वैक्रिय पुलाकलब्धयः प्रायेण प्रागेव परमार्थतः प्रतिपादितत्वात्प्रतीतत्वाच्च सूत्रकृता न विवृता इति तेजोलेश्याशीतलेश्यालब्धी च स्थानाशून्यार्थ किश्चिद्वयाख्यायेते-तत्र तेजोलेश्यालब्धिः क्रोधाधिक्याप्रतिपन्थिनं प्रति मुखेनानेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनदक्षतीव्रतरतेजोनिसर्जनशक्तिः ।। शीतलेश्यालन्धिस्त्वगण्यकारुण्यवशादनुपायं प्रति तेजोलेश्याप्रशमनप्रत्यलशीतलतेजोविशेषविमोचनसामर्थ्यम् । पुरा किल गोशालकः कूर्मग्रामे करुणारसिकान्तःकरणतया 'स्नानाभावाविर्भूतप्रभूत. युकासन्ततितायिनं वैशिकाधिन पालतपस्विनमकारणकलहकलनतया 'अरे काशय्यातर' इत्याधयुक्तोक्तिभिः कोपाटोपाध्मायमानमानसमकरोत् । तदनु वैशिकायिनस्तस्य दुरात्मनो दाहाय वज्रदहनदेश्या तेजोलेश्यां विससर्ज । तत्कालमेव च भगवान वर्धमानस्वामी प्रगुणितकरुणस्तत्प्राणत्राणाय प्रचुरपरितापोच्छेदच्छेको शीतलेश्याममुञ्चदिति । इह यः खलु यमी निरन्तरं षष्ठं तयः करोति, पारणकदिने च सनखकल्माषमुष्ट्या जलचुलुकेन चैकेनात्मानं यापयति, तस्य षण्मासान्ते तेजोलेश्यालब्धिरियमुत्पद्यते । १रप्यन्यैस्तृप्तिं नाऽपि-सि. R ॥ २ स्नानाभावाचिर्भूतयूका० मु. ॥ ३ वह च यः खलु नियमान निरन्तरं-मु.॥ ॥६२४॥ " Benion intest ions Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P ORANSilpaidaeovotee kimedia लिब्धि सटीके गाथा तथा 'एमाईति लम्होओ' इत्यत्रादिशब्दादन्या अश्यणुत्व-महत्त्व लधुन्ध गुरुन्ध प्राप्तिप्रा. प्रवचन- | काम्येशित्व-वशिया-प्रतिघातित्या-अन्तर्धानकामरूपित्वादिका लब्धयो चोद्धव्याः । तत्राणायम - अण- |२७०द्वारे सारोदारे शरीरता येन विशन्छिद्रमपि प्रविशनि, तत्र च चक्रवर्तिभोगानपि भुङ्क्ते । महत्वं मंगप महत्तशरीर करणसामर्थ्यम् । लघुत्वं वायोपि लघुतरशरीरता । गुरुत्व-वजादपि गुरुतरशस्निया इन्द्रादिभिर्गप स्वरूपम् द्वितीय प्रकष्टवलद महता । प्राप्तिः-भूमिथस्य अगुल्यग्रेण मेरुपर्वताग्रप्रभाकगदेः स्पर्शमामयम् , प्राकाम्यमअप्सु भूमाविध प्रविशनो गमन शक्निः । तथाऽपिच भूमावन्मज्जननिमज्जने । ईशित्व-बैलोक्यस्य प्रभुना तीर्थ करत्रिदशेश्वरऋद्धिविकरणम् । वशित्व-सर्वजीववीकरणलब्धिः । अप्रनिघातित्वम्-अद्रिमध्येऽपि निःसङ्गगमनम् , अन्तधानम्-अदृश्यरूपता । कामरूपिन्वं-युगपदेव नानाकारूपतया विकुर्वणशक्तिरिति । अथ भव्यत्वामध्यत्वविशिष्टाना पुरुषाणां महिलानां च यावत्यो लब्ध यो भवन्ति तत् प्रतिपादयति "भवे त्यादि गाथाचतुष्कम्, भवा-माविनी सिद्धिः-मुक्तिपदं येषां ते ममिद्धिका भव्या इत्यर्थः । ते च ते पुरुषाश्च ते तथा, तेषामेना:-वोक्ताः मा अपि लब्धयो भवन्ति । तथा भवमिद्भिकमहिलानामपि यावत्यो लब्धयो न जायन्ते तद्वक्ष्ये ।।४।। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयात-"अरिहंते' स्यादि, अहाचक्रवर्ति-वासुदेव-बलदेव सम्भिन्मश्रोतश्चारणपूर्वधर-गणधर-पुलाका-ऽऽहारकलब्धिलक्षणा एता दश लब्धयो मध्यमहिलाना-भव्यस्त्रीणां न व भवन्ति । शेपास्त्वष्टादश लब्धयो भव्यत्रीणां भवन्तीति सामागम्यते । यच्च मल्लिस्वामिनः ॥२५॥ १प्रान• 81 प्राप्ताप्राकाम्ये० सि.॥ २ अणुशरीरमकुर्वाणां येन-सि. । भणशरीरमाण-R१३ महसेत्यादि-मि.RA www Magistramsenterywwwmommmm mmmmm messakse Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके विविधा तपोमेदा गाथा १५०९ १५७० । | स्त्रीत्वेऽपि 'यत्तीर्थकरस्वमभूत्तदाश्चर्यभूतत्वान गण्यते । तथा अनन्तरमुक्तास्तावद्दश लन्धया केवलिस्वं प्रवचनसारोदारे। -केवलिसन्धिरन्पच्च ऋजुमतिविपुलमतिलझणं लधियमित्येतास्त्रयोदश लब्धया पुरुषाणामप्यभव्यानां नैव कदावनापि भान्ति । शेषाः पुनः पादश भवन्तीति भावः । अमव्यमहिलानामप्येताः पूर्व मणितास्त्रयोदश लम्धयो न भवन्ति । चतुर्दशी मधुक्षीरावलब्धिरपि नैव तासा भवति । शेषास्त्वेतद्यद्वितीयः तिरिक्साश्चतुर्दशलब्धयोऽविरुद्धाः, भवन्तीत्यर्थः ॥६॥७॥८॥२७॥ इदानीं 'लव'त्येकसप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह१२॥ पुरिमकासणनिधिगयआयषिलाववासहिं । एगलगा इय पंचहिं होइ तवो इंदियजउत्ति ॥९॥ निविगइयमायाम उववासो इय लयाहिं तिहिं भणिओ। नामेण 'जोगसुखरी नवक्षिणमाणो तवो एसो ॥१०॥ नाणंमि दसण मि य चरणमि य तिमि तिनि पसेयं । अमवासो तप्पूयापुञ्चं तमामगतबंमि ॥१॥ एक्कासणगं तह नन्विगइयमाथिलं अभत्तहो । इय होश लयणउक्कं कसायविजए सचच्चरणं ॥१२॥ १ प्रभूतवीर्थकरत्वमभूत सि. ॥ २ जोगसिद्धि-सि.॥ प्र.मा. ४३२ R aabtvAsindianewsindian Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । MAnkaitmanasi सारोबारे सटीके द्वितीयः रूपः . 10७१ द्वारे विविधाः तपोभेदाः गाथा १५७० प्र. आ. __६२७॥ समणं एकासणगं एकगसित्यं च एगठाणं च । 'एचगवतं मीब्धियमायंपिलमहकवलं च ॥१३॥ एसा एगा लइया अहहि लक्ष्याहिं दिवस चउसही । इय अहकम्मरणतमि भणिया जिणिदेहि ॥१४॥ इगदुग इग तिग दुग पर लिग पण घर छक्क पंच सत्तछगं। अडग सतग नवग अडग नष सत्त अहेव ॥१५॥ छग सलग पण छक्कं चा 'पण लिग चउर दुग तिगे एगं। मुना एका हवाला राष्ट्रपिए निक्कीलियतवंमि ॥१६।। घउपन्नं वमणसयं 'दिणाण तह पारणाणि तेतीस । इह परिचारिचउक्के परिसदुर्ग दिवस अस्वीसा ॥१७॥ विगईओ निविगईयं तहा अलेवाडयं च आयाम । : परिवारिंचसक्कमि य पारणएसु विहेयध्वं ॥१८॥ • इण दुग इग तिग दुग बज तिग पण चउ छक्क पंच सत्त गं। अर सस नबार दस नव एक्कारस दस य बारसग ॥१९॥ १ एकग्गदत्ति-सि ॥ २ पणि-ता. ॥ ३ निकीलिवन्ता । निक्कीलिया. सि. ॥४.रिणाणि-ना.॥ । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके | विविधा तपोमेद द्वितीयः १५०९ ॥६२८॥ एक्कार तेर पारख दस देहराए नगर सलग । सोलस पनरस 'सोलाइ होइ विवरीयमेक्कत ॥२०॥ एए उ अभत्तहा इगसही पारणाणमिह होइ ।। एसा एगा साया चउग्गुणाए पुण इमाए ॥२१॥ 'वरिसटगं मासगं विवसाई तहेव वारस हवंति । एस्थ महासीहनिकीलियंमि तिब्वे तवचरणे ॥२२॥ "एको दुगाइ एक्कग अंतरिया जाव सोलस हवंति ।। पुण सोलस एगंता एकतरिया अभसहा १२३॥ पारणयाणं सही परिवाडिच उलगंमि चत्तारि । परिसाणि' हुति मुत्तावलोतवे दिवससंस्खाए ॥२४॥ इगदु ति काहलियासुदाडिमपुप्फेसु हुँति अट्ट तिगा। . एगाइसोलसंता सरियाजुयलंमि उववासा' ॥२६॥ अंतमि तस्स पयगं मत्थंकवाणमेकमह पंच । , सत्त य सस य पण पण तिनिक्कतेसु तिगरयणा ॥२६॥ १ सोला. म. विवरीयमेव ता.॥ ३ वरिषछपकं मासगं च दिवसाईबारस-सि.॥ ५ एगो ता. पक्को-सि.॥५०-वा.।। ६०सोता. ॥ प्र. आ. ४३३ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LUMms तारोद्वारे सटीके द्वितीयः २७१ द्वारे विविधाः तपोभेदाः गाथा १५७० पारणयविणहासी परिवाडि चउक्कगे परिसपणगं । नव मासा अट्ठारस दिणाणिग्यणावलितमि ॥२७॥ रयणावलीकमेणं कीरइ कणगावली तवो नवरं । 'कज्जा दुगा तिगपए दाहिमपुप्फेसु पयगे य ॥२८॥ परिवाडिचउक्के वरिसपंचगं दिणदुगूणमासतिगं । परमतवुत्तो कज्जो पारणयविही तवप्पणगे ॥२९॥ महाइसवेसु तहाऽऽइया लया इग दु तिन्नि चरपंच । तह तिचउ पंचग दाताह पणगइग दोन्नि निचक्कं ॥३०॥ तादति चल पणगेगं तह चउ पणगेग दोन्नि तिन्नेव । पणहसरि उचवासा पारणयाणं तु पणवीसा ॥११॥ पभणामि महाभ हग दुग तिग घउ पणच्छ सत्तेव । तह चउ पण छग सत्तग इग दु ति तह सत्त एक्कं दो ॥३२॥ तिन्नि चउ पंच छक्कं तह तिग चउ पण छ सत्तगेगं दो।' तह छग सत्तग इग दो तिग चउ पण तह दुगंति च ॥३३॥ पण छग सत्तेक्कं तह पंण छग सत्तेक दोन्नि तिय चउरो। १ कुजा-मु.।। २ तिग च उ पण इस दो-सि.॥ . प्र. आ. women Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः ।।६३०॥ ॥३४॥ पारणयाण शुवन्ना छण्णउपसर्य च उत्थाणं महोत्तरपडिमा पण छग सप्तड नव तहा सत्त । अड नव पंचss तहा नव पण छग सत्त अड्डेव ॥३५॥ तह छुग ससह नव पण लहड नव 'पणछु सनऽभसट्टा | पणहत्त रसग्रसंखा पारणगाणं तु पणवीसा ॥३६॥ tfsure soane पण छ सतह नव दकारा । तह अड़ नव दस एक्कार पण छ सप्त य तहेक्कारा ॥ ३७॥ * पण हग सत्तग अड नव दस तह स नव दकारा । पण छ तथा दस एक्कार पण छ सतह नव य सहा ||३८|| ग सत्तड नव दसगं एक्कारस पंच तह नवग दसगं । एकारस पण छपर्क सतह य इह तवे होंति ||३९|| तिमि सया बाणउया इत्थुचवासाण होंति संखाए । पारणया गुणवन्ना भहाइतवा इमे भणिया ॥४०॥ परिवइया एक्कच्चिय दुर्ग दुइज्जाण जाय पन्नरस । मणेऽमावसाओ होइ तव सव्वसंपती ॥४१॥ १ पणट्ट-मु. ॥ २ पण सत्तठ्ठट्ट नव दस सप्तट्ट नव इस एक्कार-सि ॥ ३ पारणयाण गुणबत्रा ता. 1 पारणयाणगुबन्ना सि ॥ २७१५ विविधा तपोमेदा गाथा १६०९ १५७० प्र. आ. ४६३ ॥६३०३ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे सटीके याRAamir विविध तपोमेव गाथा द्वितीयः १५७० रोहिणिरिक्स्वादिणे रोहिणीतवो' सत्त मासपरिसाई । सिरिवासपुज्जपूयापुब्ध कीरह अमत्सहो ॥१२॥ एक्कारस सुयदेवीतमि एकारसीओ मोणेणं । कीरति उत्थेहि सुयदेवीपूयणापुस्तां ॥४३॥ सव्वंगसुदरतवे कुणनि जिणपूयखंतिनियमपरा । अडववासे एगंतरंबिले धवलपक्खंमि ॥४४॥ एवं निरुजसिहोषि हु नवरं सो होइ सामले परन्वे । संमि य अहिआ कीरइ गिलाणपडिजागरणनियमो ॥४५|| सो परमभूसणो होइ जमि आयंबिलाणि बत्तीस । अमरपारणयाई भूसणदाणं व देवरस ॥४६॥ भायइजणगोवध नवरं सव्वासु धम्मकिरियासु । अणिमूहियबलविरियप्पवित्तिजुत्तहिं सो कज्जो ॥४७॥ एगंतरोववासा सन्धरसं पारणं. च संमि । सोहग्गकप्परकत्रो होइ सहा दिज्जए वाणं ॥४८॥ तवचरणसमसीए कप्पतरू जिणपुरो ससप्ताए । १०चे-सा. ब-सि ।। प्र.आ. mein musmanna Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे सटीके द्वितीयः विविधाः तपोभेदाः खण्ड: ካrካ፤ १५०९१५७० १६३२॥ कायचो नाणाधिहफलविलसिरसाहियासहिओ ॥४९॥ तित्थयरजणणिपूयापुच्वं एक्कासणाई सत्तेवः । तित्थयरजणणिनामगतमि कोरंतिः भद्दवए ॥५॥ एक्कासणाइएहिं भावयचउक्कगंमि सोलसहिं । होइ समोसरणतवो तप्पूयापुव्व विहिएहिं ॥५१॥ नंदीसरपपूया निययसामथसरिसतवचरणा । होइ अमावस्सनवो अमावसावासरुद्दिष्टो ॥५२॥ सिरिपुउरीयनामगतवंमि . एगासणाइ कायव्य । चेत्तस्स पुन्निमाए पूएयव्वा य तप्पडिमा ॥५३॥ देवग्गठवियकलसो जा पुनो अस्वयाण मुट्ठोए । जो तत्थ सत्तिसरिसो तवो तमस्वयनिहिं विति ॥५४॥ बड्डइ जहा कलाए एक्केकाएऽणवासरं चंदो । संपुनी संपज्जइ जा सयलकलाहिं पन्वंमि ॥१५॥ तह पडिवयाए एक्को कवलो बीयाइ पुन्निमा जाव । एक्केककवलबुट्टी जा तसिं होइ पनरसगं ॥५६॥ एक्फेक्कं किण्हंमि य पक्वमि कलं जहा ससो मुयइ । प्र. आ. ||६३२॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसाबरोदारे २७१ विविधा तपोमेद गाथा मटोके द्वितीयः ख : १५०१ १५७० कवलोवि सहा मुच्चा जाऽमावासाइ सो एक्को ॥५७॥ एसा चपडिमा अवयज्झा भासमित्त परिमाणा । इहि तु वज्जमझ मासप्पडिम पवक्रवामि ॥८॥ पारस पडिवयाए एक्कगहाणीए जावsमावस्सा । एक्केणं कवलेणं जाया तह पडिबई वि सिआ ५९ पायाइयासु इकगवुडो जा पुनिमाए पन्नरस । जवमजावज्जमज्झाओ दोषि पडिमाओ भणियाओं ॥६॥ दिवस दिवसे एगा दत्ती पदमंमि सत्तगे गिना । वह दत्ती सह सत्तगेण जा सत्त सत्तमए ॥१॥ इगुवनवासरेहिं होइ इमा सत्तसत्तमी पडिमा । अहमिया नवनवमिया य सदसमिया चेव ॥२॥ नवर वडा दत्ती सह अहगनवगदसगवुडीहिं । घरसही एकासी सपं च दिवसाणिमासु कमा ॥६३।। एगाइयाणि आयंबिलाणि एक्केकवुटिमंताणि । पज्जतअभत्तठाणि जाव पुन्नं सयं तसिं ॥६॥ एवं आयंबिलवडमाणनामं महातवच्च रणं । प्र. आ. . loannadanioshindimoon. LIDERE Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hos .. .. . .. . - प्रवचनसारोवार सीके द्वितीयः २७१ विविधाः तपोमेदाः गाथा m - प्र. आ. परिसाणि एत्य चउपस मासतिगं वीस दिवसाणि ॥६५॥ गुणरयणवच्छरमी सोलस मासा हवंति तवचरणे । एगतरोववासा पढमे मासंमि कायया ॥६६॥ ठायव्य 'उक्कुडआसणेण दिवसे निसाए पुण निच्च । वीरासणिएण सहा होयव्वमवाउडेणं च ॥६॥ पोचाइसु मासेसु कुज्जा एगुसराए वुडीए । जा सोलसमे सोलस उववासा हुनि मासंमि ॥६॥ जं पदमगंमि मासे तमणवाणं समग्गमासेसु । पंच सयाइ दिणाणं बीसूणाई इममि तवे ॥१९॥ तह अंगोवंगाणं चिहवंदणपंचमंगलाईणं । अवहाणाइ जहाविहि हपंति नेयाई तह समया ॥७॥ तपति-निर्दहति दुष्कर्माणीति तपः । तच्च नानाविधोपाधिनिबन्धनत्वादनेकप्रकारम् , तत्रेन्द्रियजयमूलवाजिनधर्मस्य प्रथममिन्द्रियजयाह्वयं तपः प्राइ-प्रथमदिने पूर्वार्धम् , द्वितीयदिने एकाशनकम् , तृतीदिने निर्विकृतिकम् , चतुर्थदिने आचामाम्लम् , पश्चमदिने उपवासा, इत्येवं पञ्चभिस्तपोदिनैरेका लता । लता श्रेणिः परिपाटी चेत्येकार्थाः। एकैकं चेन्द्रियमाश्रित्यैवस्वरूपा एकैका लता क्रियते । ततः १ हुयगासणेण सि. ।। ॥६३४॥ .........indiaposJMATTER Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः यः ॥६३५॥ 2 पश्चभिताभिः पञ्चविंशत्या दिवसैरिन्द्रियजयाख्यस्तपोविशेषो भवति । इन्द्रियार्णा स्पर्शनादीनां पचानामपि 'जयो- दमनं यस्मादसाविन्द्रियजयः । इन्द्रियजय हेतुत्वाद्वा इन्द्रियजयः । यद्यपि सर्वाण्यपि तर्पासीन्द्रियजये प्रभविष्णूनि तथापीन्द्रियजयमालम्ब्य क्रियमाणत्वादस्यैव तपसस्तद्धेतुत्वं पूर्वसूरिभिरभिदिनम् एवमुत्तरत्रापि वाच्यम् ॥ योगशुद्धितपः प्राह--- -- 'निव्विगइये' त्यादि, निर्विक्रतिकम् 'आचामाम्लम् उपवासश्व इत्येका लता । एकैकं च योगमाश्रित्यैवंविधा एकैका लता क्रियते । ततस्तिसृभिर्लताभिर्योगशुद्धिनामक दिननत्रकप्रमाणमेतत्तपो भणितं पूर्वर्षिभिः । सूत्रे च पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । योगानां मनोवाक्कायव्यापाराणां शुद्धिः - अनवद्यता यस्मात्तरुपो योगशुद्धिः ॥१०॥ , ज्ञान-दर्शन- चारित्रतपांसि प्राह- 'नाणंमी' स्यादि, ज्ञाने - ज्ञानशुद्धिनिमित्तम् दर्शने-दर्शनशुद्धिनिमित्तम्, चरणे चारित्रशुद्धिनिमित्तम् तत्पूजापूर्व-ज्ञानादिपूजापुरस्सरं तनामके - ज्ञानादिनामके तपसि प्रत्येकं त्रयस्त्रय उपवास भवन्ति । इतं भवति- 'ज्ञानशुद्धिहेतोखिभिरुपवासैः कृतैर्ज्ञानतप भवति, तत्र च यथाशक्ति ज्ञानस्य-सिद्धान्तादेः पुस्तकन्यस्तस्य सुप्रशस्त परिधापनिकादिकरणं ज्ञानवत पुरुषाणामेण खानपानप्रदानादिरूपा पूजा कर्तव्या । एवं त्रिभिरुपवा दर्शनतपो भवति । नवरं तत्र दर्शनप्रभावका सम्मत्यादिग्रन्थानां सद्गुरूणां च पूजा विधेया। तथा त्रिभिरुपवासैश्चारित्रतयो १ दमो सि. ।। २ भाषाले सि. पाशकप्रकरणं तुलनीयम् [१२/१८] | ३ ज्ञानस्य सिद्धि हेतो०-० ॥ सि. नास्ति || ४ २७१ द्वारे विविधा: तपोभेदाः गाथा १४७५ ११. प्र. आ. ४३५ ॥६३५।। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार 1 २७१वारे विविधाः तपोभेदाः द्वितीयः खण्ड: १५७० भवति । तत्रापि चारित्रिणां पूजा करणीयेति ॥११॥ कषायविजयतपः प्राह-'एक्के' त्यादि, एकाशनकम् , निर्विकृतिकम् , आचाम्लम् अभक्ताघेश्व-उपवासः, इत्येका लता । प्रतिकषायं चैकैका लता क्रियते 'तत्कषायविजयं तपश्चरणम् कपायाणाक्रोध-मान-माया-लोभलमणानां चतुर्णा विशेषेण जया-अभिभवनं यस्मादितिकृत्वा । अम्मिश्च तपसि चतस्रो लताः, षोडश दिवसानि ॥१२॥ अष्टकर्मसूदनं तपः प्राह-'स्वमण' मित्यादिगाथाद्वयम् , क्षमणम्-उपवासः १, एकाशनम् २, एकसिक्थकम ३, एकस्थानकम् ४, एका दत्तिः ५, निर्विकृतिकम् ६, आचाम्लम् ७, अष्टकवलं च ८ एषा एका लता । एकैकं च कर्माश्रित्यैवंरूपा एकैका लता क्रियते । ततोऽष्टाभिलतामिदिवसाना चतुःपष्टिर्भणिता जिनेन्द्ररष्टकर्मसदनतपसि । अक्षना कर्मणा - इनाणादीन दून-विनाशनं यस्मात्तदष्टकर्मसूदनं तपः । एतत्समाप्तौ च जिनपतीनां स्नपनविलेपनपूजनपरिधापनिकादि विधेयम् , पुरतो 'विशिष्टचलिमध्ये कनकमयी कर्मतरुदारिका कुठारिका च ढोकनीया ॥१३-१४॥ "लघुसिंहनिष्क्रीडितं तपः प्रतिपादयितुमाह-'हगे' त्यादिगाथाद्वयम् , 'अनन्तरवक्ष्यमाणमहासिंहनिष्क्रीडितापेक्षया लघु--इस्वं सिंहस्य निष्क्रीडितं--गमनमित्यर्थः, सिंहनिष्क्रीडितं तदिव यत्त १ पतरक० सि. ॥ २ कर्माप्रित्यर्ष स्वरू. सि. ॥ ३ विशिष्टषतिमध्ये सि. R॥ .. तुला-माताधर्मकथासूत्रम् मण्ययन सू.६४॥ तुला- मन्तकरशाशक्तिः ८।२।१९५.२%A1 बावाधर्मकवानचिः प. १२४ A औपपातिकसूत्रवृतिसू१५.३%AL....... प्र. प्रा. MIRRONMAMWAREAMIRMISARKOUMIRAINISPIRNति Montestlemesidesosanileakitainamerika Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्डः ॥६३७॥ पतसिंह कोडितमिति । सिंहो हि गच्छन् गत्वाऽतिक्रान्तं देशमवलोकयति एवं यत्र तपस्यतिक्रान्ततपोविशेषं 'पुनरासेव्यातनं तं प्रकरोति तत् सिंहनिष्क्रीडितमिति । एतस्य चैवं रचना एकादयो नवान्ताः क्रमेण स्थापयन्ते, पुनरपि प्रत्यागत्या नवादय एकान्ता:, ततच द्वयादीनां नवान्तानामग्रे प्रत्येकमेकादयोऽष्टान्ताः स्थाप्यन्ते । ततो नवाद्येकान्तप्रत्यागतपङ्क्तावष्टादीनां द्वयन्तानामादौ सप्तादय एकान्ताः स्थाप्यन्ते इति । स्थापना चेयम् अयमर्थ:- प्रथममेक उपवासः क्रियते, ततः पारणकम् एवमन्तरा सर्वत्र पारणकं ज्ञेयम्, aat द्वौ तत एकः, ततस्त्रय उपवासाः, ततो द्वौ ततचत्वारः, ततस्त्रयः, ततः पञ्च ततचत्वारः, ततः षट्, ततः पञ्च ततः सप्त, ततः षट् ततोऽष्टौ ततः सप्त ततो नव, aaise, ततो नव, ततः सप्त, नतोऽष्टौ ततः पट्, ततः सप्त ततः पञ्च, ततः षटू तत्वारः, ततः पञ्च ततस्त्रयः, ततञ्चत्वारः, ततो द्वौ ततस्त्रयः, तत एकः, ततो द्वौ तत एक इति । एते लघुसिंहनिष्क्रीडिते तपस्युपवासाः ॥ १५-१६ ॥ २ 11 ड २२ 7337 ४ ४ १ t ५ 153 " . E ७ . 2 ७ '७ 鄉 T अथोपवासदिवसान पारणकदिनानां च सङ्ख्यामाह - 'च' इत्यादि, लघुसिंहनिष्क्रीडिते तपसि क्षमणदिनानां - उपवासदिवसानां शतमेकं चतुष्पञ्चाशदधिकम् । १ पुनः पुनरासेव्यां इति अन्तद्दशाङ्गवृत्तिः पासू. १९५.२८ ॥ २ प्रत्यागत्य प्रतिमन्तशात २१६ प २८ ॥ ३ अन्तकृद्दशाङ्गवृती स्थापना चेयम् ११२११३/२४३५४६२५२७६८७१६८६१९६३७८२६७१५२६|४|५|३२|४||३|१२|१| [ ५.२८ ] ।। २७१ द्वारे विविधाः तपोमेदाः गाथा १५०९ १५७० प्र. आ. ४३६ ॥६३७॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धारे। २७१द्वारे | विविधाः तपोमेदाः गाथा१५०९१५७० तथाहि-द्वे नवसङ्कलने तत एका ४५, पुनः ४५, अष्टसङ्कलना चैका ३६, सप्तसङ्कलनाप्येकैव २८, प्रवचन सर्वमीलने च यथोक्ता सङ्ख्या भवति १५४ । तथा पारणकानि त्रयस्त्रिंशत् । तदेवं सर्वदिनसङ्ख्या १८७। ते च षण्मामाः सप्तदिनाधिका भवन्ति । 'एतच्च तपः परिपाटीचतुष्टयेन क्रियते । तत एतेषु चतुर्गुणिसटीके । तेषु द्वे वर्षे अष्टाविंशतिदिनाधिके भवतः ॥१७॥ द्वितीयः अथ परिपाटीचतुष्टयेऽपि प्रत्येकं पारणस्वरूपं निरूपयति-'विगई' त्यादि, प्रथमपरिपाट्यां पारण केषु विकृतयो भवन्ति । सर्वरसोपेतं पारणकमिति भावः । द्वितीयपरिपाट्यां निर्विकृतिक विकृतिविरहः, ॥६३८॥ तृतीयपरिपाट्यामलेपकारि-वल्लचणकादि । चतुपरिपाट्या माचाम्ल परिमितमेश्यमिति । एवमस्य तपसः पारणकमेदेन चतस्रः परिपाट्यो विधेयाः ६ ॥१८॥ महासिंहनिष्क्रीडितं तप आह--'इगे' त्यादि गाथाद्वयम् , "इह एकादयः पोड शान्ताः पोडशादयश्चैकान्ताः स्थाप्यन्ते । ततश्च द्वयादीनां षोडशान्तानामने प्रत्येकमेकादयः पञ्चदशान्ताः, षोडशादिषु त्वेकान्तेषु पञ्चदशादीनां द्वथन्तानामादौ प्रत्येकं चतुर्दशादयः एकान्ताः स्थाप्यन्ते । "स्थापना चेयम् , MINIMIM | MIT 1 FIX} 9 ||119111AMISHRIMAIMIMINS __ महासिंहनिष्क्रीडितं तपः MINMMImmisin1-911121181512 1 38 ... १सत-सि.-२ विकृतिकविह:-सि.७३ तुला-अन्तकृशाङ्गवृत्तिः ५.२८ B || ४ तुला-भोपपातिकवृतिः सू. १५ । प. ३० ॥ ४३६ . ॥६३८॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोदारे सटीके द्वितीयः अयमर्थ:--प्रथममेक उपवासः, ततो द्वी, तत एकः, ततस्त्रयः, ततो द्वौ, ततश्चत्वारः, ततस्त्रयः, ततः पञ्च, ततश्चत्वारः, ततः षट् , ततः पञ्च, ततः सप्त, ततः पट् , ततोऽष्टी, ततः सप्त, ततो नव, ततोऽष्टी, ततो दश, ततो नव, तत एकादश, ततो दश, ततो द्वादशः तत एकादश, ततखयोदश, ततो द्वादश, विविधाः ततश्चतुर्दश, ततस्त्रयोदश, ततः पञ्चदश, ततश्चतुर्दश, ततः पोडश, ततः पश्चदशोपवासा इति । एवं | तपोभेदा प्रत्यागत्याऽपि षोडशोपवासाः ततश्चतुर्दशेत्यादि तावदवनेयं यावत्पर्यंत एक उपवास इति ॥१६-२०॥ गाथा ___अथोक्तशेष दिनसर्वसङ्ख्या चाह-'एए' इत्यादि गाथाद्वयम् , अस्मिन्महासिंहनिष्क्रीडिते तीव्र-अतिदुश्चरे तपश्चरणे एते-पूर्वोक्तपङ्क्तिद्वितयोदिता अभक्तार्था-उपवासा भवन्ति । ते च सर्वसङ्ख्यया १५७. चत्वारि शतानि सप्तनवत्युत्तराणि । तथाहि-अत्र द्वे षोडशसङ्कलने १३६-१३६ 'एकपञ्चदशसङ्कलनेन प्र. आ. १२०, एकैव चतुर्दशसङ्कलनेति १०५ । तथा एकपष्टिः पारणकानि भवन्ति । ततः सर्वैकत्वे वर्षमेकं षण्मासा अष्टादश च दिनानीत्येषा परिपाटी । एतदपि च तपः पूर्ववत्पारणकभेदेन चतसृमिः ४३६ परिपाटीभिः परिसमाप्यते । ततोऽस्य राशेश्चतुर्भिगुणने वर्षाणि षट् , मासो द्वौ, दिनानि च द्वादश भवन्तीति ७॥२१-२२॥ मुक्तावलीतपः प्राह-'एको' इत्यादि गाथाद्वयम् , मुक्तावली-मौक्तिकहारस्तदाकारस्थापनया १एका पश्चदशमलनेना) १२० एकव चतुर्वशमलने (मा) मु.। पञ्चदशसफूलना १२० चतुर्दशसकूलना १०५-इति मन्त- 13 करशाङ्गवृत्तौ प. २८B॥२ अन्तकृदशासूत्रवृत्तौतु-"मुक्तापक्षी सुझानेव, नवरं तस्यां चतुर्थ ततः षष्ठादीनि पतुर्णि अत्तमपर्यन्तानि चतुर्थभक्तान्तरितानि ततश्चतुर्थ व रोहि एवं चेयं तपसि इयत्प्रमाणा भवति-पोसशसहननादिना । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: सण्ड: ॥६४०॥ यत्तपस्तन्मुक्तावलीत्युच्यते, तत्रादौ तावदेककः स्थाप्यते, ततो द्विक-त्रिकादय एककान्तरिता भवन्ति यावत् पर्यन्ते षोsa | ततः पुनः प्रत्यागत्या षोडशादय एककपर्यन्ता एककान्तरिताः स्थाप्यन्ते । स्थापना चेयम्- है 3] or my D ~ X [30] भ M 5 Scry अयमर्थ:- पूर्व तावदेक उपवासः, ततो द्वा ततः पुनरेकः, तवस्त्रयः, तत एकः, ततश्वत्वारः, तत एकः, ततः पश्ञ्च तत एकः, ततःपट्, तत एकः ततः सप्त तत एकः, ततऽष्टो, तत एकः, ततो नव, तत एकः, ततो दश, तत एकः, तत एकादश तत एकः, ततो द्वादश, तर एकः, ततस्त्रयोदश, तत एकः, ततश्चतुदेश तत एकः, ततः पञ्चदश तत एकः, ततः षोडशोपत्रामाः । एवमर्थं मुक्तावल्या निष्पन्नम् । द्वितीयमप्यर्धमेवं द्रष्टव्यम् । 'केवलमत्रप्रतिलोमगत्या उपवासान करोति तद्यथा - पोडशोपवासान् कृत्वा एकमुपवासं करोति, ततः पञ्चदशतत एकमित्येत्र मे कोपवासान्तरितमेको तरहान्या तावन्नेयं यावत्पर्यन्ते द्वावुपवासौ कृत्वा एक सुपवासं करोतीति । एतेऽभक्तार्था - उपवासाः सर्वाणि त्रीणि शतानि । तथाहि द्वे षोडशसङ्कलने १३६- १३६, अष्टाविंशति चतुर्थानि तथा षष्टिः पारणकानि, ततो जातं वर्षमेकम् । एतदपि तपः प्राग्वच्चतसृभिः 2x ܕ १३६, पञ्चदशसङ्कलना च १२०, चतुर्थानि २८, पारणकानि ५६, एषां च मीलनेन मासाः ११, दिनानि १३ मवन्ति । सूत्रे तु दिनानि १५ दृश्यन्ते तत्तु नात्रगम्यत इति प. ३१ B ॥ १ केवलमत्र प्रतिलोमत्रयं प्रतिलोमगत्या- सि. ॥ २७१ द्वारे विविधाः तपोमेदाः गाथा १५०९ १५७० प्र. आ. ४३७ ।।६४०॥ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHBONShootsummeer प्रवचनमारोद्वारे सटीके द्वितीयः १५७० ॥६४॥ परिपाटीभिः समाप्यते, ततो भवन्ति मुक्तावलीतपसि दिवससङ्ख्यया चत्वारि वर्षाणीति, 'अंतकृदशासु पुनर्य एव प्रथमपक्किपर्यन्ततिनः पोडश दितीयपक्तिप्रारम्भेऽपि त एव, एक एव पोडशक इति २७. द्वारे तात्पर्यम् ८१२३-४॥ विविधाः रत्नावलीतपः प्राह-'इगे'त्यादि गाथात्रयम् , रत्नावली-आभरणविशेषः रत्नावलीव रत्ना तपोमेदाः बली । यथा हि रत्नावली उभयत आदिसूक्ष्मस्थूलम्थूलतरविभागकाहलिकाख्यसौवर्णावयवद्वययुक्ता, गाथा तदनु दाडिमपुष्पोमयोपशोमिता, ततोऽपि सरलसरिकायुगलशालिनी पुनर्मध्यदेशे सुश्लिष्टपदकसमलता १५.१. प भवति । एवं यत्तपः पट्टादावुपदर्यमानमिममाकारं धारयति तद्रत्नावलीत्युच्यते । तत्रैककद्विकत्रिका उत्तरार्यक्रमेण काहलिकयोः 'स्थाप्या भवन्ति । तदनु द्वयोरपि दाडिमपुष्पयोः प्रत्येकमष्टौ त्रिकाः। प्र. आ. ते चोभयतो रेखाचतुष्टयेन नव कोष्ठकान विधाय मध्ये च शून्यं कृत्वा स्थाप्यन्ते । ततश्चाधोऽधः | १३७ सरिकायुगले एकादयः षोडशान्ताः स्थाप्याः । तस्य च सरिकायुगलस्यान्तेपर्यन्ते पदकं--पङ्क्त्यष्टकेन चतुर्विंशदकस्थानानि, कोष्ठकाः इत्यर्थः। तत्र प्रथमायां पङ्क्तावेकमकस्थानम् , द्वितीयस्यां पञ्च, तृतीयस्यां सप्त, चतुर्थ्यामपि सप्त, पश्चम्यां पश्न, पष्ठथामपि पश्च सप्तम्या त्रीणि, अष्टम्यां त्वेकमेवास्थानम् , तेषु चतुस्त्रिंशत्यपि कोष्ठकेषु विकरचना, त्रिकाः स्थाध्यन्ते इति भावः । स्थापना चेयम् , १ द्रष्टव्यं ८॥२॥ सूत्र २५५. ३१ Bः॥ २ तकदिकत्रिकान्तराधर्य सि.॥ ३ स्थाप्यावे. नास्ति ।। ४ त्वेकमेव सि.॥ | ॥६४१॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । नगगगगगगणगणगा का प्रवचनसारोछारे सटीके । ३.३ | ३|श शशशशशश |३३३३३ ३३३३३॥ २७१ विविधा तपोमेद गाथा १५०९ १५७० द्वितीयः __lmorr .... लगाना Becambahatechinamusamasummalnew प्र. आ. ४३७ इदमत्र तात्पर्य-रत्नावलीतपसि प्रथममेकमुपवासं करोति ततो द्वौ ततस्त्रीन् इत्येका काइलिका, अतरा च सर्वत्र पारणकं वाच्यम् । ततोऽयावष्टमानि-उपवासत्रिकात्मकानि करोति । एतः किल काहलि. काया अधस्तादाडिमपुष्पं निष्पद्यते, ततश्चैकमुपवासं करोति, ततोऽपि द्वौ, ततस्त्रीन् , ततोऽपि चतुर इत्येवं पञ्च, षट् , सप्ता- ऽष्टौ, नव, दशैकादश, द्वादश, त्रयोदश, चतुर्दश, पञ्चदश, षोडशोपवासान् करोति । एषा हि दाडिमपुष्पम्याधस्तादेका सरिका, ततश्चतुर्विंशदष्टमानि करोति । एतैः किल पदकं संपद्यते । ततः पोडशोपवासान् करोति, ततः पञ्चदश, ततश्चतुर्दश इत्येवमेकैकहान्या तावन्नेयं यावदेक उपवासः । एषा द्वितीया सरिका भवति । ततश्चाष्टावष्टमानि करोति । एतैरपि द्वितीयं दाडिमपुष्पं निष्पद्यते, ततस्त्रीनुपवासान् करोति, ततो द्रौ, तत एकमुपवासं करोति, एतद्धितीया काहलिका निष्पद्यते । एवं सति परिपूर्णा ६४२॥ .. ... M ahadashaindainvest Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधाः तपोभेदाः | गाथा १५०९. ॥१५७० प्र. आ. रत्नावली सिद्धा भवति । अस्मिश्च रत्नावलीतपसि काहलिकायास्तपादिनानि १२, दाडिमपुष्पयोः प्रवचन- षोडशभिरष्टमैदिनानि ४८, सरिकायुगले द्वाभ्यां षोडशसंकलनाभ्यां दिनानि २७२, पदके चतुस्विशतासारोदारे ऽष्टमैर्दिनानि १०२ । सबैकत्वे चत्वारि शतानि चतुस्त्रिंशदुत्तराणि, अष्टाशीतिश्च पारणकदिनानि, उभयसटोके मीलने पञ्च शतानि द्वाविंशत्युत्तराणि, 'पिण्डितास्तु वर्षमेकम् , मासाः पञ्च, दिनानि च द्वादश । इदमपि द्वितीयः च तपः पूर्ववञ्चतसृभिः परिपाटीभिः समय॑ते, ततश्चतुर्भिगुणने वर्षाणि पश्च, मासा नव, अष्टादश च दिनानीति ९ ॥२५-७॥ कनकावलीनः प्राह 'त्यो स्पादि बापापम् , कनकमयमणिकनिष्पनो भूषणविशेषः कनकावली, तदाकार स्थापनया यत्तपस्तत्कनकावलीत्युच्यते । एतच्च कनकावलीतपो रत्नावलीतपः क्रमेणैव क्रियते । नवरं केवलं दाडिमपुष्पयोः पदके च त्रिकपदे--त्रिकाणां स्थाने उपवासद्वयसूचका द्विकाः कर्तव्याः । शेषं पुनः सर्वमपि तथैवेति । अस्मिश्च तपसि काहलिकयोस्तपोदिनानि द्वादश दाडिमपुष्पयो त्रिंशत् सरिकायुगले दे शते द्वासप्तत्युत्तरे पदके चाष्टषष्टिः । सर्वसङ्ख्यया त्रीणि शतानि चतुरशीत्यघिकानि । अष्टाशीतिश्च पारणकदिवसाः । तत्प्रक्षेपाञ्चत्वारि दिनशतानि द्वासप्तत्युत्तराणि । सर्वाग्रपिण्डस्तु वर्षमेकम् प्रयो मासा, द्वाविंशतिर्दिवसाः । अत्रापि पूर्ववच्चतुर्मिगुणने वर्षाणि पश्च, मासौ छौ, दिनानि चाटाविंशतिरिति । . 'अन्तकृदशादिषु तु कनकावल्या पदके दाडिमदये च द्विकस्थाने त्रिका उक्ताः, रत्नावल्यां च द्विका | पिण्डस्तु मिः ॥ ३ मुला-भोपपातिकति प, २९ B: ३ द्रवरूयम् मन्तकदशासूत्रम् ८/२०१७ प. २० A M ॥६४३॥ नो Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः ण्ड : ॥६४४।। ५ १ २ ३ ४ इति । तथा प्रथमतपसि लघुसिंहनिष्क्रीडिते यः सर्वरसाहारादिकः पारणकविधिरुक्तः स तपःपञ्चकेऽपि लघुबहसिंहनिष्क्रीडित-मुक्तावली - रत्नावली- कनकावली लक्षणे कर्तव्यः । एतच्च सर्व यथायथं मात्रितमेवेति १० ॥ २८-६ ॥ अथ भरतपः - प्राह- मद्दे' त्यादि गाथाद्वयम् भद्रादिषु भद्र- महामद्र-मद्रोत्तर- सर्व - १/२ ३२४/२] तोभद्रेषु तपस्सु मध्ये पूर्व भद्रतपः प्रतिपादयामि । तद्यथा-आदौ भवेदेक उपवासः, ततो द्वौ, ३ ४ ५ १ २ ततस्त्रयः, ततश्चत्वारः, ततः पञ्चइत्येका लता, एवं त्रयचत्वारः पञ्च एको द्वौ इति द्वितीया, पञ्चएको द्वौ वार इति तृतीया, द्वौ श्रयश्वत्वारः पश्च एक इति चतुर्थी, चत्वारः पश्च एको द्वौ त्रय इति पञ्चमी । इह पञ्चभिर्लताभिः पञ्चसप्ततिरुपवासाः, पञ्चविंशतिश्च पारणकानि, २ ३ ४ ५ १ * उभयमीलनेन च शतमेकं दिनानामिति ११ । ३०-३१ ॥ स्थापना चेयम् । २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ महाभद्रं तपः प्राह-- ' पणामी त्यादि गाथात्रयम्, प्रकर्षेण भणामि प्रतिपादयामि महाभद्रनामकं तपः, तद्यथा- पूर्वमेक उपवासः, ततो द्वौ त्रयचत्वारः, पञ्च षट्, सप्तेत्येका लता । चत्वारः, पञ्च, षटू, सप्त, एको द्वौ, श्रय इति द्वितीया । सप्त, एको, द्वौ त्रयश्चत्वारः, पश्च षडिति तृतीया । श्रयश्चत्वारः, पश्च षट्, सप्तएको द्वाविति चतुर्थी । षट्, सप्तैको द्वौ, ४ ६५ ९ २ ३ ५।६।७।१ त्रय ७ १ २ ३ | ४ | ५ | ६ 3 ४ ५ १६७ ६ ७ १ ‍ D ३ ४ ५ २ / ३ ४ ५६ | ७ १५ | ६३७ ११२ १३ | ४ | १०-सि ॥ २ मद्रवपः प्राह-भद्रतप स्थापना- सि. || तुला - औपपातिकवृत्तिः सू. १५ प. ३० तत्र तु सर्वतोभद्रा मुद्रा इत्यभिधानम् | तत्त्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनीयावृत्तिः सु. ९२६, मा. २प. २०४, अत्रापि सर्वतोभद्रं क्षक्षकम् इत्य भिधानम् ॥ ३ यमीलने मु. ॥ ४ तुला अन्तकदशासूत्रम ८।६।२३ प. ३० 4 तत्र महासर्वतोभद्रा नृत्यभिधानम् ।। २७१ द्वारे विविधाः तपोमेदाः गाथा १५०१ १५७० प्र. आ. ४३८ १६४४॥ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ।।६४५।। चत्वारः, पञ्चेति पञ्चमी । द्वौ त्रयश्वत्वारः, पह षट्, एक पी।, षट्, सप्त, एको द्वौ, त्रयश्चत्वार इति सप्तमी "स्थापना-इकोनपञ्चाशत्पारणकानि, पणवत्यधिकं शतं चतुर्थानाम् - उपवासाना मित्यर्थः । एवं चास्मिन्महाभद्रे तपसि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदुत्तरे दिनानां भवत इति १२|| ३२-३४|| साम्प्रतं 'भद्रोत्तरं तपः प्राह - 'भद्दो' इत्यादि गाथाद्वयम् प्रतिमा नाम प्रतिज्ञाविशेषः । ततो द्रोत्तरप्रतिमायां-मद्रोत्तरतपसि पश्च षट्, सप्ताष्टौ नवेन्याद्या लता । सप्ताष्टौ नव, पञ्च षडिति द्वितीया । नव पञ्च षट् सप्ताष्टाविति तृतीया । पट्, सप्ताष्टौ नव, पञ्चेति चतुर्थी । अष्टौ नत्र, पच, पटू, सप्तेति पञ्चमी । इह पञ्चसप्तत्युत्तरं शतममक्तार्थानाम् उपवासानाम्, पश्चविंशतिस्तु पारणकानाम् एवं च मद्रोत्तरतपसि aagi दिनानां भवति । स्थापना चेयम् १३ || ३५-३६॥ ५ ६ ७ ५९ १७ | ८१९ s/v ६ १६ ७ ८/१ ८६५१६ ی १ स्थापना - मु. नास्ति ।। २ स्थापना चेयम् - मु. ॥ ३ तुला- भौपपातिकसूत्रवृत्तिः प सूत्रस्य सिद्धसेनीयावृत्ति: मा. २ प. २०५ । अन्तकरशाङ्गसूत्रम वर्ग ८ सू. २४ प ३० ४ तुला औपपातिकसूत्रवृत्ति प. ३२ । अन्तकृदशासूत्रवृत्ती- “बाचनान्तरे प्रतिमात्रयस्य Cena साम्प्रतं सर्वतोभद्रतपः प्राह - 'पडिमे' त्यादि गाथाचतुष्कम्, प्रतिमाया 'सर्वतोभद्रायां सर्वतोमद्रतपसीत्यर्थः पश्च, पटू, सप्त, अष्टौ, नव, दश, एकादश उपवासा इति प्रथमा लता । अष्टौ नव दश एकादश पञ्च पद्, सप्तेति द्वितीया । एकादश पञ्च षट्, सप्ताष्टौ नत्र, दशेति तृतीया । सप्त, अष्टौं नत्र, दश. एकादश पञ्च षडिति चतुर्थी । दश, एकादश, पञ्च, पट्, सप्त, अष्ट नवेति ३९ B द्रष्टव्या तः ॥ लक्षणगाथा उपल | २७१ द्वारे विविधाः तपोमेदाः गाथा १५०९ ७० प्र. आ. ४३९ १६४५॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः #792: ॥६४६॥ ६ ७ ८९ १० ११ ८६१००१५ ६ ७ ११५६ ७ ८ ९ १० ८११५६ १०११ ५ ६ ७ ८ ९ ७ ६ १०/११/५ पञ्चमी । पद्, सप्त, अष्टौ नत्र, दश, एकादश, पञ्चेति षष्ठी । नव, दश, एकादश पञ्च षट्, सप्त, अष्टाविति सप्तमी । स्थापना चेयम् । farai अत्र च सर्व सङ्ख्या त्रीणि शतानि द्विनवत्युत्तराणि उपवासानां भवन्ति । एकोनपञ्चाशच्चपारणकानां उमयमीलने चत्वारि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि तीत । तदेवमेतानी भद्रादीनि भद्र- महाभद्र-भद्रोत्तर- सर्वतोभद्ररूपाणि चत्वारि तपांसि मणितानि । ग्रंथान्तरे पुनरमून्यन्यथाऽपि दृश्यन्ते । एतेष्वपि चतुर्षु तपस्सु प्राग्यत्पारणकभेदतः प्रत्येकं चातुर्विषयं च द्रष्टव्यम्, fernet a ferreमानेतव्येति १४ ।। ३७-४० ॥ २७१ द्वारे विविधाः तपोमेदाः गाथा १५०९ १५७० प्र.आ. ४३९ १६७८ अथ सम्पत्तितपः प्राह- 'पडिवे' त्यादि प्रतिपदेकैव द्विकं द्वितीययोः, एवं यावत्यदश अमावास्याः क्षमणै:- उपवासैर्यत्र भवन्ति । अयमर्थः- एका प्रतिषद् द्वे द्वितीये तिस्रस्तृतीयाः, are एवं यावत्पञ्चदश पञ्चदश्यः कृतो वासा यत्र भवन्ति तत्तपः सर्वसंपत्तिः 'सूचकत्वात्सूत्रस्य ' भ्यन्ते, यथा-आई दो चउत्थं आई मदोत्तराए वारसमं । पारसमं सोतसमं बीसतिमं चेव चरिमाई । ........... अथ द्वितीयपरिचनार्थमाह-पढमं इयं तो जाब चरिमयं ऊणमाई उ पूरे पंच य परिवाडीको खुङ्गमिदुत्तराए ॥ ६४६ ॥ ... अथ महासती माया द्वितीयपक्तिरचनार्थमाह-पढमं तु चत्थं जाव परिमयं ऊणमाइ पूरे | सत्तय परिवाडीओ महालये सम्बभोभद्दे ॥ [प्र.३० Bतः ] ॥ 1111 १ च-सि नास्ति ॥ २ तुला-पञ्चाशकप्र. १६३८ ॥ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२७१६ विविधाः तपोभेदा गाथा १५७. प्र. आ. सर्वसौख्यसंपत्तिस्तपो भवति । सर्वेषां सौख्यानां संपत्तिः-प्राप्तिर्यस्मादितिकृत्वा, यद्वा सर्वसंपत्तिरित्येव नाम । प्रवचन तथाहि-तस्किमपि वस्तु नास्ति भुवस्तले यदस्य सम्यगासेवितस्य तपसः प्रभावतः प्रायेण प्राणिनां न संपद्यते सारोद्धारे इति । इह चामावास्याशब्दश्रवणादन्यत्र च “इय जाव पारस पुनिमासु कीरति जत्थ उपवासा' [ ] सटीके इत्यादिवचनाकर्णनादवसीयते इह च यथेदं तपः कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे वा प्रारभ्यते न कश्चिद्दोषः । अत्र च द्वितीयः । विशत्युत्तरं शतमुपवासानो भवति १५ ॥४१॥ रोहिणीतपः प्राह-'रोहिणी'त्यादि, 'रोहिणी-देवताविशेषः तदाराधनार्थ तपो रोहिणी तपः तस्मिन रोहिणीतपसि सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावद्रोहिणीनक्षत्रोपलक्षिते दिने उपवासः क्रियते । ॥६४७ इह च वासुपूज्यजिनप्रतिमायाः प्रतिष्ठा पूजा च विधेया १६॥४२॥ तदेवतातपः 'एक्के' त्यादि, श्रुतदेवताराधनार्थ तपः श्रुतदेवीतपः तस्मिन् श्रुतदेवीतपस्येकादश एकादश्यः श्रुतदेवतापूजापुरस्सर मुपवासमौनव्रतेन च विधीयन्ते । उपलक्षणं चैतत् । ततोऽम्यातपो. ऽप्यत्र द्रष्टव्यम् , तच्च पञ्चसु पञ्चमीषु नेमिजिनाम्बिकापूजापूर्वमेकाशनादिना भवति १७ ॥४३॥ सर्वाङ्गसुन्दरतपः प्राह-'सवंगे' त्यादि, सातानि सुन्दराणि-सौंदयोपेतानि भवन्ति यस्मात्तत्माङ्गसुन्दरं तपः, तस्मिन् सर्वाङ्गसुन्दरे तपसि क्षान्ति-मार्दषा-ऽऽर्जवाद्यभिग्रहकृताग्रहास्तीर्थकृत्यूपूजामुनिदीनादिदाननिरताचाष्टावुपवासान् एकान्तरितानाचाम्लेन कृतपारणकान धवलपक्षे कुर्वन्ति । १ तुला-पञ्चाशक वृत्तिः १९६२५ ॥ २ ०मुपपामामौनतेन वि० मु. ॥ ३ तुला--पश्चाशकप्र-वृत्तिः १५॥३०॥ ॥९४७ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे २७१ द्वारे विविधाः तपोमेदाः सटीके गाथा द्वितीयः १५.९. १५७. ॥६४८॥ अस्य च तपसः सर्वाङ्गसुन्दरस्वमानुषङ्गिकमेव फलम् , मुख्यं तु सर्वज्ञानया क्रियमाणानां सर्वेषामेव तपसा मोक्षावाप्तिरेव फलमिति भावनीयम् , एवं सर्वत्रापि १८ ॥४४|| निरुजशिखप्तपः प्राह-'एव'मित्यादि, रुजाना-रोगाणाममावो निरुजं तदेव प्रधानफलविवक्षया शिखेव शिखा-चूला यत्रासौ निरुजशिखस्तपोविशेषः सोऽप्येवमेव-सर्वाङ्गसुन्दरतपोवदष्टभिरुपवासराचाम्लपारणकेंद्रष्टव्यः । नवरं-केवलं स-निरुजशिखस्तयोविशेष: श्यामले-कृष्णपक्षे भवति । अधिकश्च तत्र क्रियते ग्लानप्रति जागरणनियमो-ग्लानो मया पथ्यादिदानतः प्रतिचरणीयः इत्येवंरूपप्रतिक्षाग्रहणमित्यर्थः, शेष त जिनपूजादिकं तथैवेति ११॥४५॥ ___ परमभूषणतपः प्राह-'सो' इत्यादि, परमाणि-शक चक्रवर्त्याधुचितानि प्रकृष्टानि हारकेयूरकुण्डलादीनि भूपणानि-आभरणानि यस्मादसौ परमभूषणा, तस्मिन् द्वात्रिंशदाचाम्लानि पारणकान्तरितानि शक्तिपदावे निरन्तराणि वा करोनि, तत्समाप्तौ च देवस्य मुकूट-तिलकाद्याभरणवितरण यथाशक्ति यतिदानादिकं च कर्तव्यमिति २० ॥४६॥ आयतिजनकं तपः प्राह-'आई' त्यादि, आयतिम्-आगामिकालेऽभीष्टफलं जनयति-करोति योऽमावायतिजनकस्तपोविशेषः, सोऽप्येवं-परमभूषणतपोयद् द्वात्रिंशताऽऽचाम्लैर्द्रष्टव्यः । नवरं केवलं सर्वासु धर्मक्रियासु-वन्दनक-प्रतिक्रमण स्वाध्याय साधु-साध्वीवैयावृश्यादिषु सर्वधर्मकृत्येष्वनिगृहितबल- वीर्यप्रवृत्तियुक्तैः अगोपायितशरीरमाणचित्तोत्साहप्रवर्तनप्रधानः सः-आयतिजनकः कार्य: २१ ॥४७॥ - बन्दनकप्रतिक्रमणक० सि.।। प्र. आ. ४४. ४८|| westindi Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: क्षणः ||६४९॥ " सौभाग्यकल्पवृक्षमाह - 'ए' त्यादिगाथाद्वयम् कल्पवृक्ष इव कल्पवृक्षः सौभाग्यफलदाने कन्पवृक्षः सौभाग्यकल्पवृक्षः, तत्र सौभाग्यकल्पवृक्षतपसि चैत्रमासे एकान्तरा एकदिन व्यवहिता उपवासाः समग्रमपि मासं भवन्ति । पारणकं च सर्वरसं सविकृतिकमित्यर्थः । तथाऽत्र यथाशक्ति साध्वादिभ्यो दानं दीयते । अस्य च तपश्चरणस्य समाप्तौ शक्त्यनुसारतो जिनपतेः पुरतः पूजाकरणादिपूर्व विशालस्थालावलमध्ये 'महारजतमयः सरलतण्डुलमयो वा विविधफलपटलविलसदसंख्यशाखाशिखः कल्पशाखी कर्तव्य इति २२ ।। ४८-४९॥ तीर्थंकर मातृतप आह- 'तिरथेत्यादि, तीर्थकरजननीपूजा पूर्वमेकाशनानि - एकभक्तानि सप्तैव तीर्थकरजननीनामके तपसि क्रियन्ते । अस्य च तपसो भाद्रपदे मासि शुक्ल सप्तम्यामारम्भः त्रयोदश्यां च समाप्तिः, वयं च यावदिदं तपः क्रियते २३ ॥ ५० ॥ समवसरणतप आह- 'एक्का' त्यादि, भाद्रपदमासि कृष्णप्रतिपद आरभ्य तत्पूजापूर्वसमवसरण प्रतिमापूजन पुरस्सरं स्वशक्त्यनुसारेणैकाशन निर्विकृतिका चाम्लोपवासैः षोडशभिर्भाद्रपद चतुष्केभाद्रपदेषु प्रत्येकं विहितैः समवसरणतपो भवति । अत्र च चतुर्षु भाद्रपदेषु चतुःषष्टिस्तपोदिनानि स्युः । अयं मावः समवसरणस्यैकैकं द्वारमाश्रित्य प्रत्येकं दिनचतुष्टयं क्रियते, तत एवास्य द्वारिकेति प्रसिद्धिः २४ ॥५१॥ १" कल्पवृक्षस्य सुवर्णतन्दुलादिमयस्य स्थापना व न्यासश्च -" इति पचाशक वृत्तौ १६३३६ ।। २ माद्रपदे मासे सि. ॥ २७१ द्वारे विविधाः तपोमेदाः गाथा १५०९ ७० प्र. आ. ४४० ||६४९|| Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके तपोभेदाः अमावास्यातपः प्राह-'नन्दी' त्यादि पर लिखित नन्दीश्वरमुरभुवन जिनार्चनान्वितं निजसामर्थ्यप्रवचनसदृशेत्र-स्वशक्त्यनुरूपेणोपवासादीनामन्यतमेन तपश्चरपणेन भवत्यमावास्यातपोऽमावास्यावासरोद्दिष्टम् , २७१द्वारे सारोद्धारे विविधाः अमावस्यादिवस इत्यर्थः । इदं च तपो दीपोत्सवामावास्यायामारभ्यते वर्षसप्तकेन च समाप्यत इति २५॥५२॥ पुण्डरीकतप आह-'सिरीत्यादि, श्रीपुण्डरीकनामके तपसि चैत्रमासस्य पूर्णिमायाः प्रारभ्य गाथा द्वितीय द्वादश पूर्णिमासीः, मतान्तरेण सप्त वर्षाणि यावदेकाशनादि तपः म्वशक्त्या कर्तव्यम् , पूजनीया घ १५०९तत्प्रतिमा-नाभेयजिनप्रथमगणधरस्य पुण्डरीकस्य प्रतिकृतिरिति । इह च चैत्रमासपूर्णिमास्यामस्य तपसः १५७० प्रारम्भे पुण्डरीककेवलोत्पत्तिरेव कारणम् । पुण्डरीकम्य हि भगवतश्चैत्रपूर्णिमायामुदपादि केवलज्ञानम् , तथा पापक्षमहि श्रीपद्मप्रभचरित्रे पुण्डरीकगणधरवक्तव्यताया: प्र. आ. " धगधाइकम्मकलुमं पकाबालिय सुक्कझाणसलिलेणं । चेत्तम्स पुनिमाए संपत्तो केवलालोय ॥१॥” इति । एवमन्यत्रापि उपयुज्य कारणं वाच्यम् २६ ॥५३॥ अक्षयनिधिमाह- 'देवे'त्यादि, देवाग्रे-सर्वज्ञप्रतिमायाः पुरतः स्थापितः कलशः प्रतिदिन || हिप्यमाणयाऽक्षतमुष्टया यावद्भिदिनेः पूर्यते तावन्ति दिनानि स्वशक्त्यनुरूपं यत्तप एकाशनान्यतरं नद् बुधा ब्रुवते अश्मयनिधिम , अभय:-सदेच परिपूर्णो निधिः-निधानं यस्मादितिकृत्वा २७ ॥५४॥ ॥६५०॥ A पनपातिकमेकलुषं प्रशाल्य शुक्लम्मानसलिलेन । चैत्रस्य पूर्णिमायां संप्राप्तः केवलालोकम ॥ Indusheshshindia Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमारोतारे सटीके हितीय ॥६५१॥ साम्प्रतं 'यवमध्यां चन्द्रप्रतिमामाह--'चटई त्यादिगाथाचतुष्कम् , चन्द्र इव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा गन्द्रप्रतिमा चन्द्रापाख्यं स५ इति । सा द्विधा-यवमध्या व चमध्या च। २७१ द्वा यवस्येव मध्ये स्थूलम्य पर्य-तभागयोस्तु तनुकम्य मध्यं यस्याः सा यवमध्या । वचस्येवमध्ये तनुकस्य विविधाः पर्यन्तयोस्त स्थलस्य मध्यं यस्याः मा वज्रमध्या। तपोभेदाः ... तबादौ यवमध्यां व्याख्यानयनि-यथा शुक्लपक्षे प्रतिपदः प्रारम्यानुवासरं-प्रतिदिवसमेकैकया गाथा कलया चन्द्रो वर्धते यावत्पर्वणि-पूर्णिमार्या सकलामिरपिकलाभिः संपर्णः संपद्यते । तथा तेनैव प्रकारेण १५०९प्रतिपदि एकः कवलः । उपलक्षणमेतत् , ततो मिक्षा दत्तिर्वा एकैच गृह्यते । द्वितीयायां द्वौ कवलो, १५७० तृतीयायां त्रयः कवलाः, एवमेकैककालदया यावत्पूर्णिमायां तेषां कवलाना पश्चदशकं भवति । पञ्चदश कवला अभ्यवस्यिन्ते इत्यर्थः । कृष्ण पक्षे च यथा प्रतिदिनमेकैका कलां शशी मुश्चति तथा कवलोऽपि ४४१ मुच्यते यावदमावास्यायां 'सो' ति स कबल एको भवति । कोऽर्थः । कृष्णपक्षप्रतिपदि पञ्चदश कवला गृह्यन्ते, द्वितीयायां चतुर्दशा तृतीयायां त्रयोदश, इत्येवं यावदमावास्यायामेक एव कवल इति । एषा यवमध्या चन्द्रप्रतिमा मासमात्रप्रमाणा भणिता२८ । ____ इदानी 'पुनर्मासप्रमिता-मासप्रमाणां वजमध्यां चन्द्रप्रतिमा प्रकर्षेण वक्ष्यामि ।।५५-५८।। तामेवाह'पनरे' स्यादिगाथाद्यम, कृष्णपक्षप्रतिपदि पञ्चदश-कवला गृह्यन्ते. तत एककहान्या तावनीयते यावद१ तुला-पब्वाशकप्र.वृत्ति: १९१६ : २ तुळा-मोपपातिकसूत्रवृत्तिः सू. १२५. ३२ A | तस्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनीया वृत्तिः भा.२ पृ. १४ सू.१६॥ पुनर्मासप्रतिमामासप्रमाण- सि.॥ प्र. आ. Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धार सटीके द्वितीयः ॥५२॥ मावास्यायामेकेन कवलेन जाता, अमावास्यायामेक एव कवलो गृपते इति भावः । तथा प्रतिपदपि |२७१ द्वारे सिता-शुक्ला एकेन कवलेन जाता । कोऽर्थः -शुक्लप्रतिपद्यप्येक एव कवलो गृह्यते, ततो द्वितीयाया विविधाः आरभ्य कोत्तरवृद्धथा तावन्नेयं यावत् 'पूर्णिमास्यां पञ्चदश कवला दत्तयो वा गद्यन्ते इति । तदेवमिमे तपोमेदाः यत्रमध्य-वज्रमध्ये द्वे अपि प्रतिमे मणिते इति । एष च पञ्चाशकाविग्रन्धामिप्रायः । 'व्यवहारचूर्ण्यभिप्रायः पुनरय-'शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि "चन्द्रविमानस्य दृश्यस्य पञ्चदशभागी गाथा कृतस्य एका कला रश्यते चतुर्दश कला न दृश्यन्ते, द्वितीयस्यां वै कले, तृतीयस्यां तिस्रः कलाः एवं याव १५०६. स्पश्चदश्यां परिपूर्णायां पञ्चदश कलाः । ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि एकया कलया ऊनो दृश्यते, चतुर्दश कला दृश्यन्ते, द्वितीयस्यां त्रयोदश, 'तृतीयायां द्वादश, यावदमावास्यायामेकापि न दृश्यते । तदेवमयं मास प्र.आ. आतावनो मध्ये संपूर्णोऽन्ते पुनरपि परिहीनो, यवोऽप्यादावन्ते च तनुको मध्ये विपुलः । एवं साधुरपि भिक्षा गहणाति शुक्लपक्षस्य प्रतिपद्येकाम् , द्वितीयस्या द्वे, तृतीयस्यां तिम्रो यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदश, ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि पुनश्चतुर्दश, द्वितीयायां त्रयोदश यावच्चतुर्दश्यामेको अमावास्यामुपोषितः । ततश्चन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च भिक्षायास्तनुत्वान्मध्ये विपुलत्वाधवमध्योपमितमध्यभागा । तथा चामुमेव यवमध्यां चन्द्रप्रतिमामधिकृत्यान्यत्रोक्तम्"एकैको वर्धयेद्भिक्षा, शुक्ले कृष्णे च दापयेत् । भुञ्जीत नामावास्यायामेव चान्द्रायणो विधिः ॥१॥" १.पूर्ण इति पवाशकप्र.वृत्तौ १ २ व्यवहारसूत्रम द्रष्टव्यम ७.१०/५.१॥ ३ सुला व्यवहारसूत्रवृत्तिः भ.१.। सू.११.२॥ ४ चन्द्रविमानसशस्य-इति व्यवहारसूत्रवृत्तौ ॥ ५ परिपूर्णाः-इनि व्यवहारसूत्रवृत्तौ ।। ७ तृतीयस्यां-सि. Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनमध्याय 'चन्द्रप्रतिमायाँ बहुलपक्ष आदौ क्रियते, तन एवं भावना-चहलपक्षस्य प्रतिपदि प्रवचन- | चन्द्रविमानस्य चतुर्दश कला दृश्यन्ते. द्वितीयम्यां त्रयोदश, तृतीयम्यो द्वादश, यावच्चतुर्दश्यामेका. २७१द्वारे सारोद्वारे अमावास्यायामेकापि न, नतः पुनरपि शुक्लपक्षम्य प्रतिपदि पन्द्रविमानस्य एका कला दृश्यते, द्विती.विविधाः सटीके यायां दे, यावत्पादश्यां पञ्चदशापि । तदयं मास आदावन्ते च पृथुलो मध्ये तनुको वामप्यादावन्ते तपोमेदाः द्वितीयः च विपुलं मध्ये तनुकमेवं माधुरपि मिर्जा गवाति बहुलपक्षम्य प्रतिपदि चतुर्दश, द्वितीयम्या प्रयोदश, गाथा यावच्चतुर्दश्यामेकामभावाम्यायां चोपवासयति, ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपको मिक्षा गहणाति, १५०९॥६५३॥ द्वितीयम्या द्वे. यावत्पादश्यां पञ्चदशेनि । नत एपापि चन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च विपु १५७० लनया मध्ये च तनुकनया बनमध्योपमितमध्यमागा वनमध्येति २६ ।।५९॥६॥ प्र. आ. साम्प्रतं सप्तसतमिकाचाश्चतस्रः प्रतिमाः प्रतिपादयति-'दिवसे' इत्यादिगाथात्रयम् , प्रथमे सप्तके दिवसे २ एका दत्तिाधा, ततः समकेन सह दत्सिर्वर्धते, यावत्सप्तमे मप्तके प्रतिदिन सप्त दत्तयो भवन्ति । इयमत्र भावना-सप्तमप्तमिकायर्या प्रतिमा सप्तममका दिनानां भवन्ति । नत्र प्रथमे सप्तके प्रतिदिवसमेकैका दत्ति गणाति, द्वितीये सप्तके प्रतिदिवस द्वे हे दत्ती, एवं तृतीये सप्तके तिस्रः २, चतुर्थे चतस्रः २, पामे पश्च २, पष्ठे षट् २, सप्तमे सात मप्तेति । एताच भोजनविषया एव दत्तय उक्ताः । एवमेतसाचा एक पानकविषया अपि प्रतिपत्तस्याः, तथा चाष्टमाङ्गवत्रम् चन्द्रप्रतिमायां-पि. नास्ति । चन्देण प्रतिमायाम-इति व्यवहारसूत्रवृत्ती ॥२ सप्तदिवस मि०॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसागमारे सटीके द्वितीयः ॥६५४॥ १५७० "पढमे सत्तए एक्केरकं भोयणस्स दत्ति पडिगाहेइ एक्के पाणयस्स, एवं जाव सत्तमे सत्त २७१द्वा दत्तीउ भोयणस पडिगाहेइ 'सत्त पाणयम्से" [अन्तकृतशाङ्गसूत्र ८.३१२१ प. २८ B ]त्यादि । विविधाः . अन्ये पुनरन्यथा प्रतिपादयन्ति प्रथमे सप्त के प्रथमदिवसे एका दनि गहणति, दितीये द्वे, तृतीये तपोमेदा: तित्र , चतुर्थे चतस्रः, पञ्चमे पञ्च, पष्ठे पट , सप्तमे सप्त । एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पत्रमे पष्ठे सप्तमे गाथा च मप्लके द्रष्टव्यम् , उक्तं च व्यवहारमाध्ये"अहवा एकोक्कियं दत्तिं जा मत्तेफेकम्म मत्तए । आएमो अन्थि एसोऽधि" [ ] ति । तदेव १५०९. मेकोन पश्चाशता वासरेरियं मातमतिका प्रतिमा भवनि । सप्त सप्तका दिनाना यम्यां सा सप्तमप्तकिका, सप्तशमककारस्य मकारः प्राकृतत्वात् । अथवा सप्त मनमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका । यस्यां हि प्र. आ. सप्त दिनमप्तकानि भवन्ति तम्या मप्त मप्तमानि दिनानि भवन्त्येवेति । - तथा अष्टाष्टमिका, नवनवमिका, दशदशमिका च प्रतिमा एवं-प्रामुक्तप्रकारेणेव द्रष्टव्या । नवरं. केवलमयं विशेषः-अष्टक-नवक दशकद्धिभिः सह प्रत्येकं दत्तिर्वर्धते । इदमुक्तं भवति-अष्टाष्टमिकायां प्रतिमायामष्टावष्टकानि भवन्ति । तत्र प्रथमेऽष्टके प्रतिदिनमेकैका दतिगृह्यते, द्वितीयेऽष्ट के प्रतिदिनं द्वे दत्ती, एवं तृतीये तिस्रः, चतुर्थे चतस्त्रः, एवमेककदत्तिवद्धथा तावदवगन्तव्यं यावदष्टमेऽष्टके प्रतिदिनमटावष्टी दत्तयो गृह्यन्ते । अस्यां हि चतुःपष्टिर्दिनानि भवन्ति । " ॥६५॥ सन सत्त-सि.॥ २ तुला- सप्तसत्तमिया गं भिक्खूपरिमा एगणपनए राइदियहि पगेण एवएणं मिक्खा- । SANJAVITTH Serial Sare SS HERO5MONTHI RPORASTRAMA MARRIA २ RESHERE Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन रोद्वारे टीके तीयः १६५५| तथा नवनवमिकाय प्रतिमाय नव नवकानि भवन्ति, नत्र प्रथमे नवके प्रतिदिनमेकैका दत्तिः, द्वितीये नवके प्रतिदिनं इति प्रतिदिनं दनित्रयम् एवमेकदत्तिवृदा तावदवसेयं tarah नवके प्रतिदिनं नव नव दत्तयः अत्र काशीतिर्दिनानि । 1 1 , तथा दशदशमिकायां प्रतिमार्यां दश दशकानि भवन्ति, तत्र प्रथमे दशके प्रतिदिन मेका दत्तिर्गृद्यते द्वितीये दशके प्रतिदिनं दत्तिद्वयम् एवमेकैकदत्तिवृद्धया तावन्नेतव्यं यावदृशमे दशके प्रतिदिनं दश दश दत्तयः | अत्र दिनानां शतमेकम् । तदेवं नवभिर्मामैश्वतुर्विंशत्या दिनेश्वतस्रोऽप्येताः प्रतिमाः समाप्यन्ते । अष्टाष्टमिकायामष्टाशीत्युत्तरे दे ssa fear प्रतिमायां दचिपरिमाणं पण्णत्यधिकं शतम्, शते दत्तनाम्, नत्रनवमिकायां पश्चोत्तराणि चत्वारि शतानि । दशदशमिकाय पञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि दत्तीनामिति ३० ||३१||६२ ॥ ३३ ॥ " इदानीमाचाम्लवर्धमानं तपः प्राह- 'एगे 'त्यादिगाथाद्वयम् एकादिकान्येकैकवृद्धिमन्ति पर्यन्ताHerefore म्लानि क्रियन्ते यावत्तेषामाचाग्लानां शतं परिपूर्ण भवति । एतदाचाम्लवर्धमाननामक महा तपश्चरणम्, आचाम्लं वर्धमानं यत्र तपश्चरणे तदाचाम्लवर्धमानम्, अयमर्थः प्रथमं तावदाचाम्लं क्रियते तत उपवासः, ततश्च द्वे आचाम्ले पुनरुपवासः, त्रीण्याचाम्लानि पुनरुपवासः, चत्वार्याचाम्लानि पुनरुपवासः, पञ्च आचाम्लानि पुनरुपवासः, एवमुपवासान्तरितान्ये कोत्तरवृद्धया तावदाचाम्लानि वर्धनीयानि यावत्पर्यन्ते शतसाचाम्लानां कृत्वा एकमुपवासं करोतीति । इह च शतं चतुर्थानां तथा पञ्चाशदधिकानि पञ्च सहस्राण्याचाम्लानां भवन्ति । उभयमीलने वर्षाणि चतुर्दश मासास्त्रयो दिनानि च विंशतिरिति ३१ ।।६४-६५॥ २७१द्वारे विविधाः तपोमेदाः गाथा १५०९ १५७० प्र. आ. ४४२ ॥३५५॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥६५६॥ अथ गुणरत्नवत्सरं तपः प्राह- 'गुणे' स्यादिगाथाचतुष्टयम् गुणानां 'निर्जरादीनां निर्जरा विशेषाण रचनं करणं वत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तपसि सद्गुणश्चनवत्सरम् ; अथवा गुणा एव रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नो वत्स यंत्र सद्गुणरत्नवत्मरं तपः, एतस्मिन् गुणरत्नवत्सरे तपश्चरणे पोडश मासा भवन्ति तत्र प्रथमे मासे एकान्त उपवासाः कर्तव्याः, तथा दिवसे निरन्तरमुस्कटुकासनेन स्थातव्यं निशायां पुनर्नित्यhaatraana - वीरासनोपविष्टेन तथा निश्चि भवितव्यमप्रावृतेन - निरावरणेनेत्यर्थः एवं द्वितीयादिष्वपि मासेकोतरा वृद्धा तावदुपवासाः कर्तव्या यावत्पोडशे मासे पोडशोपवासा भवन्ति । अयमर्थः -- प्रथमे मासे पाणकदिनान्तरित एकैक उपवासः कर्तव्यः, द्वितीये मासे द्वौ द्वावृपवासौ तृतीये मासे त्रयस्त्रय उपवासाः चतुर्थे चत्वारो यावत् षोडशे मासे षोडश षोडश उपवासा भवन्ति । अत्र च त्रयोदश मासाः सप्तदश दिनाधिकास्तपः कालः त्रिसप्ततिथ दिनानि पारणककालः । एवं चायम् 1 'परमवीचवीस वेव चवीस पद्मबीसा य। चउवीस एक्कवीसा चउवीसा सत्तावीसा य ॥ १ ॥ तीमा तेतीसादिय पडवीस छवीम मवीसा य। तीसा बत्तीसावि य सोलसमासेस तवदिवसा || २ || पारस दस छप्पच चउर पञ्चसु य तिथि तिमिति । पञ्चसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणमा ॥३॥' tears arseniतपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते तावन्त्यग्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयानि afaarfararatमासे क्षेप्तव्यानि तथा यत्प्रथमेत्यादिगाथायामुत्कटुकासनाद्यनुष्ठानं पूर्वमुक्तं तत्सम १ निर्जरादी (मेला) नां-मु. ॥ २ षोडशमासे-सु. ॥ २७१ द्वा विविधाः तपोमेदा गाथा १५०९ १५७० प्र. आ. ४४२ ।।६५६ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके safe are sriteम् सर्वसया चास्तिपसि विंशत्यूनानि पश्च शतानि दिarat neन्तीति ॥६६॥३७॥६८॥६९॥ द्वितीय: क्षण्यः , 1 तदेवदार: प्रवचनपारावारः तत्प्रतिपादिततपच प्रभूताः कतार इत्यतोऽनेकानि स्कन्दक मुखपृरुषविशेष गीर्णानि तपसि श्रूयन्ते कियन्तीह चैत्येन वक्तुन् ? दिमात्रं च किञ्चि angrafine ततः शेषाण । तपोविशेषाणामतिदेशमाह- 'महे' त्यादि, तथाशब्दः प्रागुक्तापेक्षया समु च्चये, अङ्गानाम्- प्रचारादीनाम् उपाहानाए औपपालिकादीनाम् चैन्यवन्दनाया. ऐर्यापथिकी-शक्रस्तव स्थापनार्हन्स्तव-नामस्तव श्रुतस्तव सिद्धस्तवस्वरूपाया: पंचमङ्गलमहाभूतस्कन्धग्य आदिशब्दात्प्रकीर्ण॥६५७|| arai waterenaादीनामुपधानानि तपोविशेषरूपाणि येन विधिना मfतानि तथैव मयातसिद्धान्ताद् भवन्ति धेयानि । इह च साम्प्रतं मुरलोकहिताय मितानि तपसि प्रचरन्ति दृश्यन्ते परं नेह तानि प्रतन्यन्ते, ग्रन्थपञ्चप्रसङ्गात् । तदर्थिना चास्मदुपरचिता सामाचारी निरीक्षणीया ॥ ७० ॥२७१ ॥ परम्पराप्रवर्तितान्यपराण्यपरि इदानी 'पायलकलस' सिद्विसप्तत्युरद्विशततमं द्वारमाह पणन सहस्लाइ ओगाहिता परिसि लवणं 1 चरोऽसिंजर संठाणसंठिया #ife पायाला 116?|| ↑ qadftaar: (cm 238-201) 7237: u & gar-intainqugfa:-9-8-358 4. ** २७२द्वा पाताल कलश स्वरूपं गाथा १५७१ प्र. आ. *** ||६५७॥ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीय: चण्ड: ||६५८॥ यह 'केयूरे तु तह ईसरे योssa | सव्वचद्दरामयाणं कुडुर एएसि दस सइया ॥७२॥ जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होंनि विच्छिन्ना । मज् य सयसहस्सं तत्तियमित्तं ओगाढा ॥ ७३ ॥ पलिओम द्विईया एएसिं अहिवई सुरा इणमो । काले य महाकाले वेलंब पभंजणे चेव 119811 अन्नेविय पायाला खुड्डालिंजरगसंठिया लवणे । अइ सया चुलसीया सत्त सहस्सा य सन्वेसिं ॥ ७५ ॥ जोयणसग्रविच्छिन्ना मूलुवरिं दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं दसजोगणिया य सिं कुड्डा || ७६ || पायालाण विभागा सव्वाणवि तिनि तिमि बोडव्या । हिद्विमभागे वाऊ मज्झे बाऊ य उदगं च 119911 उचरिं उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउसंखुभिओ । 'उ' वामे उदगं परिवड जलनिही खुभिओ ॥७८॥ १ केऊ जुयत इति स्थानाङ्गसूत्रवृत्तौ ॥ २ द्वियान्ता ॥ ३ सव्वैवि इति स्थानाङ्गवृत्तौ ॥ ४ वामे उदगं तेण य-इति स्थानाङ्गवृत्तौ ॥ | २७२ द्वारे पाताल कलश स्वरुपं गाथा १५७१ प्र. आ. ४४३ ॥६५८॥ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे। सटीके पाताल कलश. द्वितीयः ॥६५॥ । परिसंठिमि पवणे पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । घड्डइ तेण उदही परिहायहऽणुक्कमेणेव ॥७९।। जम्बूद्वीपमध्य मध्यासीनस्य मन्दराचलस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु प्रत्येकं पञ्चनवतियोजनसहस्राणि २७२ द्वा लवणार्णवमवगाह्य अत्रान्तरे चतरा दिक्ष प्रत्येक मेककभावेन चत्वारः पातालाः- 'पदेकदेश पदममुदायोपचाराद' पातालकलशाः, ते च किंसंस्थाना इत्याह --अलिञ्जरं-महापिहिडं तत्संस्थानमंस्थितास्तदाकारा म्वरुप इत्यर्थः ॥७॥ गाथा अथ तेषां नामादिकमाह-'वलये त्यादिगाथात्रयम् , मेरोः पूर्वस्यां दिशि पातालकलशो बडवामुखो बडवामुखनामा वलयामुखों वा, दक्षिणस्या केयूपः केयूरो बा, समवायाङ्गटीकायां तु केतुकः । अपरस्यां तु यूषा, उत्तरस्यामीश्वरः । एते चत्वारोऽपि सर्ववजमयाः-सर्वात्मना बज्रमयाः, तेषां चसर्ववन्नमयानां कुड्यानि-टिकरिकाः सर्वत्र बाहल्यमधिकृत्य दश शतकानि, दश योजनशतप्रमाणानि ||७२।। चत्वारोऽपि ते महापातालकलशा मृले-चुने, उपरि-मुखे च प्रत्येकं योजनसहस्रदशक-दश योजनमइस्राणि विस्तीर्णा भवन्ति । मध्ये-उदरप्रदेशे पुनः शतसहस्र-योजनलझं विस्तीर्णाः। तथा तावमात्र-योजनलामात्रमवगादा-भमी प्रविष्टाः । इदमुक्तं भवति-चत्वारोऽप्येते पातालकलशा एकैक योजनलक्षामुद्वेधेन, तथा मृले दश योजनसहस्राणि विष्कम्मेन, तत ऊर्ध्वमेकादेशिश्याः श्रेण्या ६५९॥ विष्कम्मतः प्रवर्धमानाः २ मध्ये एक योजनलझं विष्कम्मेन, तत ऊर्च भूयोऽप्येकप्रादेशिक्या श्रेण्या । tweenarami sincere m oni Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- । सारोद्वारे पातालकलशस्वरूपं द्वितीयः माथा १५७१.१ विष्कम्भतो हीयमाना हीयमाना उपरि-मुखमले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भत इति ॥७३॥ साम्प्रतमेतेषां पातालकलशानामधिपतीन देवानाह-एतेषां पातालकलशानामधिपतयः सुराः पन्योपमस्थितयो महर्षिका इमे-एवंनामानः । तद्यथा-वडवामुखे कालः, केयूरे महाकालः, यूपे वेलम्बः, ईश्वरे प्रभञ्जन इति ॥७॥ सम्प्रति लघुपातालकलशवक्तव्यतामाह-'अन्नेऽवी'त्यादिगाथाद्वयम् , लवणे-लवण समुद्र तेषा पातालकलशानामन्तरंषु तत्र तत्र प्रदेशेषु बहरोऽन्येऽपि झुल्ला-लघवः पाताला:- पातालकलशाः, चुल्लालिजाम्थिना-'लपिडकमंस्थानमंस्थिताः मन्ति । तत्र सर्वेषामपि सर्वमाथा सप्त महमाण्यष्टी शनानि चतुरशीन्युत्तराणि । एकैकस्य महापातालकलशस्य परिवारे एकसप्तत्यधिककोनविंशतिशतसङ्ख्याना लघुपातालकलशाना भावादिति ।।७५॥ एते च लघुपातालकलशाः प्रत्येकमपन्योपमस्थितिक देवः परिगृहीताः । सम्प्रत्येतेषां प्रमाण माहसर्वेऽपि लघुपातालकलशा मृले-बुध्ने उपरि-मुखे प्रत्येक योजनशतं विस्तीर्णाः । मध्ये-मध्यभागे जठरप्रदेशे दश शतानि-दश योजनशतानि विस्तीर्णाः, तथाऽवगाढा भूमौ प्रविष्टाः सहस्र-योजनसहस्रम् , तथा 'सिं' ति एतेषां लघुरातालकलशाना कुड्यानि-ठिक्करिका बाहत्यमधिकृत्य दशयोजनकानिदशयोजनप्रमाणानि ॥७॥ सम्प्रति गुरूणां लघूनां च पातालकलशाना बावादिविभागमाह-'पायालाणे' त्यादिगाथात्रयम् , १ लघुषिहडक. सि.॥ प्र.आ. ४४४ 1६६० Pincid . Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ द्वारे पाताल सर्वेषामपि गुरूणां लघूनां पातालकलशाना त्रयस्त्रयो विभागा भवन्ति । तद्यथा-अधस्तनी मध्यम प्रवचन उपरितनश्च, तत्र महापातालकलशानामेकै कस्विभागस्वयस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयवि. सारोद्धारे । शदधिकानि विभागश्च योजनस्य । लघुपातालकलशानां तु त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि सटीके विभागश्च योजनस्य । एतेषु च सर्वेषु महापातालकलशेषु लघुपातालकलशेषु च मध्ये प्रत्येकमधस्तने त्रिभागे वायुः, मध्यमे त्रिभागे वायुरुदकं च, उपरितने त्रिभागे उदकं भणितं तीर्थकर-गणधरैः। द्वितीयः नत्र तथाजगत्स्वाभाध्यादेव समकाल प्रतिनियते कालविभागे सर्वेष्वपि पातालकलशेषु प्रत्येकं प्रथमे खण्ड: द्वितीये च त्रिभागे बहवोऽन्येऽन्ये उदारा वायवः संमृच्छन्ति, तदनन्तरं क्षुभ्यन्ते, जातमहाद्भुतशक्तिकाः संत ऊर्ध्वमितस्ततो विप्रसरन्तीत्यर्थः, क्षणेन च तथा परिणमन्ति यथा तेरुदकमतितरामर्ध्वमुच्छान्यते, ततः प्रथमद्वितीयेषु त्रिभागेषु वायुः संक्षुब्धः सन्नूर्ध्वमुदकं वमयति-निःसारयति । तेन चोर्ध्व निःसार्यमाणेन जलनिधिः क्षुभितः सन परिवर्धते । परिमंस्थिते-उपशमं गते पुनः पवने पुनरप्युदकं तदेव संस्थानमाश्रयति । भूयोऽपि कलशेषु मध्ये प्रविशतीति भावः, तेन कारणेनानुक्रमेणव परिहीयते । अहोरात्रमध्ये च द्विकृत्वः प्रतिनियते कालविभागे-पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिषु तिथिम्वतिरेकेण ते वायवः क्षुभ्यन्ते । तेन प्रत्यहोरात्रं द्वौ वारौ पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिषु तिथिषु वार्विधते हीयते चेति । एते च सर्वेऽपि गुग्यो लघवश्च पातालकलशा लवणवारिनिधावेव विद्यन्ते, न पुन: 'शेषसमुद्रध्वीति ।।७७॥७८॥७९॥२७२।। इदानीम् 'आहारगस्सरूवं' ति त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह१शेषसमुदेविति-मु.॥ स्वरूपम् गाथा १५७१-९ प्र. आ. Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः ॥६६॥ समओ जहन्नमतरमुक्कोसेणं तु जाव छम्मासा । १२७३ द्वारे आहारसरीराणं' उक्कोसेणं नव सहस्सा ॥८॥ आहारकचत्तारि य वाराओ चउदसपुची करेह आहारं । शरीरसंसारम्मि वसंतो एगभवे दोन्नि धाराओ ॥८॥ स्वरूपम् तित्थयररिद्धिसंदसणत्यमत्योवगहणहेउं वा । गाथा संसयवुच्छेयत्थं वा गमणं जिणपायमूलंमि ॥४२॥ १५८०.२ चतुर्दशपूर्वधरैस्तथाविधप्रयोजनप्रसाधनाय विशिष्टलब्धिवशादाहियन्ते- निय॑न्ते इत्याहारकाणि शरीराणि । 'कृद्रहुल' [ ] मिति वचनात्कर्मणि बुञ् । यथा पादहारक इत्यत्र । तानि च वैक्रियशरीरा प्र.आ. पेक्षयाऽत्यन्तशुभानि स्वच्छस्फटिकशिलाशकलवदतिशुभ्रपुद्गलसमूहघटनात्मकानि पर्वतादिमिरप्यप्रतिह ४४४ तानि । तत्रैतानि कदाचिल्लोके सर्वथा न भवन्त्येव, ततोऽभवनलक्षण मन्तरमेषाम्-आहारकशरीराणां जघन्यत एकः समयः, उत्कर्षतः षण्मासाः । उक्तं च _v ''आहारगाई लोए छम्मासा जा न होतिवि कयाई । उक्कोसेणं नियमा एक्कं समय जहन्नेणं ॥१॥" यत्पुनर्जीवसमासादिषु-'आहारमिस्सजोगे वासपुहुत्तं' [गा. २६०] इत्यादिवचनत आहारकमिश्रस्य वर्षपृथक्त्वमन्तरमुक्तं तन्मतान्तरं संभाव्यते इति । यदापि भवन्ति तदापि जघन्यत एक द्वे त्रीणि वा ॥६६॥ १०-ता.॥ V आहारकशरीराणि लोके षण्मासान यावन्न भवन्त्यपि कदाचित । उत्कर्षेण नियमात एकं समयं जघन्येन ॥१॥ 30THS Meeticoleasetkarisaritiyaskeditationalitie s NGANA Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सटोके द्वितीयः २७२द्वा आहारक शरीरस्वरूपम् गाथा उत्कर्षतः सहस्रनवकम् । अवगाहना चाहारकशरीरस्य जघन्यतोऽपि' देशोना-किश्चिदना रनिः-दृम्तः, तथाविधप्रयत्नभावतस्तथाऽऽरम्भकद्रव्यविशेषनश्च प्रारम्भसमयेऽपि तस्या एतावत्या एव भावात् । न चौदारिकादरिवामुलासङ्ख्येयभागमात्रता प्रारम्भकाले इति भावः । उत्कप्तः पुनः परिपूर्णा रस्निः । उक्तं च समवायागे-- ___ "आहारगसरीरस्स जहन्नेणं देसूणी' रयणी, उकोसेणं पडिपुण्णा रयणी" [ ]ति ॥८॥ साम्प्रतमेकजीवस्य सर्वमवेष्वेकभवे च कियन्त्याहारकशरीराणि भवन्तीत्येतत्प्रतिपादनायाह'चत्तारी' त्यादि, चतुर्दशपूर्वधरः संमारे निवसन्नुत्कर्षतोऽपि वारचतुष्टयमेवाहारकशरीरं करोति । चतुर्थवेलायां कृते तद्रव एच मुक्त्यवाप्तेरिति भावः । एकस्मिन्तु भवे वारद्वयमेवेति ॥८॥ अथ चतुर्दशपूर्वधरोऽपि किमर्थमाहारकशरीरमारचयति ।, उच्यते, तीर्थकरपादपीठोपकण्ठगमनाय, तदपि किंनिमित्तमित्यत आह-'तित्थयरे त्यादि, तीर्थकरद्धिसंदर्शनार्थम् अर्थावग्रहण हेतोर्वा, यदा संशयव्यवच्छेदार्थ जिनपादमूले चतुर्दशपूर्व विदो गमनं भवति । इदमैदम्पर्यमत्र-सकलत्रैलोक्यातिशायिनीमष्टमहाप्रातिहार्यादिकामनुपमामाईती समृद्धिमखिलामालोकयितुमुत्पन्नकुतूहलस्तथाविधान् वा नवनवार्थसार्थान् जिघृक्षुः अथवा कस्मिंश्चिदर्थेऽत्यन्तगहने संदिहानस्तदर्थविनिश्चितये कश्चिच्चतुर्दशपूर्वविद्विदेहादिक्षेत्रवर्तिवीतरागचरणकमलमूलमाहारकशरीरेण समुत्सपत्ति । न खल्यौदारिकेण वपुषा शक्यते तत्र गन्तुम् , iminiminimlamTORITRIPATRI K १०ऽपि-मुनास्ति ॥ २णा-मु.॥ AAN Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे मटीके द्वितीयः तत्र च भगवन्तमालोकितसमस्तलोकालोकमालोक्य परिनिष्ठितप्रयोजनः पुनरागत्य तमेव देशं यत्र प्राम्ग ॥ २७४ द्वारे च्छतौदारिकमनावराधबुद्धया न्यासकवनिक्षिप्तं स्वप्रदेशजालावबद्धं तदवस्थमास्ते ततो याचितोपकरणवद्वि अनार्यमुच्याहारकमुपसंहृत्यात्मप्रदेशजालं द्रागौदारिकमेवानुप्रविशति । एष च प्रारम्भात्प्रभृति विमोचनावसानः देशाः सोऽप्यन्तमूहर्तपरिमाणः कालो भवतीति ॥८॥२७३॥ गाथा साम्प्रतं 'देसा अणारिय' ति चतुःसप्तत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह सग जवण सबर पल्पर काय 'मुझडोह 'गोड पक्कणया। 'अरषाग होण रोमय पारस स्वस खासिया चेव ॥८३|| प्र.पा. दुबिलय लउस बोकस 'भिल्लंघ पुलिंद कुच 'भमररुआ। ४४५ कोवाय चीण खंचय मालव दमिला कुलग्धा या ॥४४॥ केकाप किराय हयमुह स्वरमुह गयतुरयमिंदयमुहा य । हयकन्ना गयकन्ना अन्नेऽपि अणारिया पहवे ॥४॥ पावा य चंरकम्मा अणारिया निग्घिणा निरणतावी । धम्मोत्ति अक्खराई सुमिणेऽपि न नज्जए जाणं ॥८६॥ शकाः, यवनाः, शवराः, पराः कायाः, मुरुण्डाः, उड्डाः, गोडाः, “पक्कण गाः, अम्बागाः, हणाः, महोड-ता.॥२ गोण- मु.॥ गो-a1. सि.॥३ अरवागा-सि.॥ ४ बउस-सा. कुस-सि.॥ मिलिंघ-सि. B.॥६ ममरमया कोवाय वीय-सि. R.11 . पक्वणका:-सि.।। Ratnana healtulatest Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके रोमकाः, पारसाः, खसाः, खासिकाः, 'द्रुम्बिलकाः, लकुशाः, बोकशाः, मिल्लाः, अन्ध्राः, पुलिन्द्राः, कमा, भ्रमररुचाः 'कोपाकाः, चीनाः, चञ्चुकाः, मालवाः, द्रविडाः, कुलार्धाः, केकया:, किराताः, २७ द्वारे यमुखाः, ग्वरमुखाः, गजमुखाः, तुरङ्गमुखाः, मिण्ढकमुखाः, हयकाः, गजकर्णाश्चेत्येते देशा अनार्याः, अनार्यदेशाः आराद्-दरेण हेयधर्मेभ्यो याता:-प्राप्ता उपादेयधमैं रित्यार्याः । 'पृपोदरादय' [सिद्धहेम०३/२/१५५] इति गाथा रूपनि पनिः, सतिपरसा कार्याः, शिष्टासमतनिखिलव्यवहारा इन्यर्थः । न केवलमेत एव, किंवपरेऽप्येवंप्रकारा बहवोऽनार्या देशाः प्रश्नव्याकरणादिग्रन्थोक्ता विजेयाः ॥८३॥८४८५॥ - अथ सामान्यतोऽनार्यदेशस्वरूपमाह-'पावे'त्यादि, एते मर्वेऽप्यनायदेशाः 'पापा' पापम् प्र. आ. अपुण्यप्रकृतिरूपम् , तद्वन्धनिबन्धनत्वात्पापाः, तथा चण्डं-कोपोन्कटतया गैद्राभिधानरसविशेषप्रवर्तित ४४६ वादतिगेंद्रं कर्म-ममाचरणं येषां ते चण्डकर्माणः । तथा न विद्यते घृणा-पापजुगुप्सालक्षणा' येषां ते निघृणाः, तथा निरनुतापिन:-समासेवितेऽप्यन्ये मनागपि न पश्चात्तापभाज इति भावः, किंच-येषु धर्म इत्यक्षराणि स्वप्नेऽपि सर्वथा न जायन्ते , केवलमपेयपाना-ऽभक्ष्य भक्षणा-गम्यगमनादिनिरताः शास्त्राद्यप्रतीतवेषभाषादिसमाचाराः सर्वेऽप्यमी अनार्य देशा इति' ||८६-२७४॥ ||६६५॥ १म्बिला:सि. R॥२कोका-मु.॥ ३ तुक्षा-प्रशापनासूत्रवृत्तिः प.५५ ॥ ४ -सि. ते-सि. R! ६ तुला-क्लेच्छास्तु शाका यवना: शबराबरा भपि। काया मुरुण्डा उदारच गोडा: पक्वणकामपि ॥६॥ भरपाका हुणाश्च रोमकाः पारमा भपि । खसार खाधिका होम्बिनिकाच कुसा मपि ॥६॥ मिला मन्धा बुखसाश्च पुजिन्दा: क्रौनका भपि । भ्रमररूताः कुबारक, चीन-चचुक-मालवा: ॥६५॥ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारोद्धार मटीके 'सम्प्रति 'आयरियस' चि पञ्चसप्तत्यधिकविश्चततमं द्वारमाह रायगिह मगह चंपा अंगा २ तह तामखित्ति वंगा य३ । कंचणपुरं कलिंगा ४ वणारसी व कासी य ५ ॥८॥ २७५द्वा आर्यदेशा गाथा द्वितीयः ॥६६३॥ प्र. प्रा. mittiala द्रविडाश्च कुलक्षाश्च, किराता: कैकया अपि । त्यमुखा गजमुखास्तुरगा-जमुखा भपि ॥६॥ उगवण गमक अनार्या अपरेऽपि हि। मां येषु न जानन्ति धर्म इत्यक्षरायपि ॥६५३।। ॥इति त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीये पर्वणि तृतीयसमें ।। ५ सुक्षा-"द्विधाऽऽर्य-लेश्छमेवास ते, तत्रार्याः परिधाहक्षेत्र-जाति-कुल-कम-शिल्प-भाषाविभेदतः॥६६॥ क्षेत्रायः पश्चदशसु बायते कर्मभूमिषु । सत्रेह मारते सार्धपञ्चविंशनिदेशजाः ॥६६।। ते चायंदेशा नगरेकपलक्ष्या इमे यथा । राजगृहेण मगधा मङ्गदेशस्तु चम्पया ॥६६६॥ बना पुनस्ताम्रलिप्त्या धाराणस्या र काशयः । कानपूर्या कलिकाः साकेतेन च कोसलाः ॥६६॥ कुरको गजपुरेण शौर्येण च कुशातकाः । काम्पीस्येन च पश्चाला, अहिछत्रेण बाजालाः ॥६६८।। विदेहास्तु मिथिण्या, द्वारवत्या सुराष्टकाः । वत्सारच कौशाम्बीपुर्या, मलया भद्रिलेन तु ॥६६९।। नाम्दीपुरेण सन्दर्मा वरुणाः पुनरच्छया । वैराटेन पुनर्मत्स्याः , शुक्तिमत्या च चेयः ॥६७०॥ दशार्णा मृत्तिकावत्या, बीतभयेन सिन्धयः । सौवीरास्तु मथुरथा, सूरसेनास्तु पापया ॥६७१॥ माया मासपुरीवर्ताः, श्रावस्त्या च कुणालकाः । कोटीवर्षेण लाटाश्च श्वेतव्या केतकार्धकम ॥६७२।। मायदेशा ममी एर्मिनगरेहपतक्षिताः । तीर्थकृपपरभृत-कृष्ण-वलानां जन्म येषु हि ॥६७३॥ ॥ इति विषष्टिशन कापुडपचारिसे द्वितीयपर्वणि तृतीयसमें।। A Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ द्रारे आयदेशाः गाथा १२ साकेयं कोसला' ६ गयपुरं च कुस ७ सोरिय कुसट्टा य ८१ कंपिल्लं पंचाला : अहिछत्ता जंगला चेव १० ॥८८॥ पारवई य सुरहा ११ 'मिडिल विदेहा य १२ वत्थ कोसंघी १३ । सारोवारे नंदिपुरं संदिल्ला १४ महिलपुरमेव मलया य १५ ॥८॥ सीके वाराह मच्छ १६ वरुणा अच्छा १७ तह मत्तियावइ दसना १८ । सोसोमई ईदीया लिसोवीरा २० ॥९॥ महुरा य सूरसेणा २१ पावा मंगी य २२ मासपुरी वहा २३ । सावत्थी य कुणाला २४ कोटीवरिसं च लाटा य २५ ॥११॥ सेयवियाविय नयरी केयइअह २५ च आरियं भणियं । जत्युप्पत्ति जिणाणं चकीर्ण रामकण्हाणं ॥१२॥ .. . प्रज्ञापनापद १सूत्र १०२, गा. ११२-७] राजगह नगर मगधदेशः, चम्पानगरी अङ्गादेशः, तथा तामलिप्ती नगरी बना जनपदः, काम। नपुर नगरं कलिङ्गदेशा, चाणारसी नगरी काशयो देशाः, साकेत नगरं कोशला जनपदः, गजपुरं नगरं । कुरवो देशः, "सौरिकं नगर "कुशा देशा, कास्पिल्यं नगर पाश्चाला देशः, अहिच्छत्रा नगरी जङ्गला ला-सि. ॥ २ विदेह महिना स इति वृहस्कल्पभाष्यवृत्ती प.१०५॥ ३ मगधो-मु.। मगध-सि । मगधा-जे. ॥४ शौर्यपुर-इति लोकप्रकारी ३ कुझातो-मु.। कुशावर्सेधु-इति प्रथापनामलयवृत्ती प. ५॥ पाबानोन्मु.॥ • जंगलो-मु.॥ प्र. आ. iiiiii ॥६६॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धार सटीके |२७५ मारे आर्यदेशाः गाथा द्वितीयः १५८७ १६६८ देशः, द्वारवती नगरी 'सुराष्ट्रा देशः, मिथिला नगरी विदेहा जनपदः, वत्सा देशः कौशाम्बी नगरी, नन्दिपुरं नगरं शण्डिन्यो शाशिल्पा वा देशः, महिलपुर नगरं मलया देशः, वैराटो देशो वत्सा राजधानी; 'अन्ये तु वत्सा देशो वैराटं पुरं नगरमित्याहुः । वरुणानगरं अच्छादेशः, अन्ये तु वरुणेषु 'अच्छापुरीत्याहः । तथा मृत्तिकावती नगरी "दशा देशः, शुक्तिमती नगरी चेदयो देशः, वीतभयं नगर सिन्धसौवीरा जनपदः, मथुरा नगरी सूरसेनाख्यो देशः, पापा नगरी भङ्गयो देशः, मासपुरी नगरी वतों देशः, अन्गे लाहु:-नेटिए, मौक्तिकावती, नीनभयं सिन्धुषु. मौवीरेषु मथुरा, सूरसेनेषु पापाः, मणिषु मामपुरीचट्टेति, “तदतिव्यवहृतम् , परं बहुश्रुतसंप्रदायः प्रमाणम् , तथा श्रावस्ती नगरी कुणाला देशः, कोटीवर्ष नगरं 'लाढा देशः, श्वेतम्बिका नगरी केकयजनपदस्यार्धम् । ____एतावदर्धषड्विंशतिजनपदात्मक क्षेत्रमार्य भणितम् । कुत इत्याह-'जत्थुप्पत्ती' त्यादि; यस्मादत्र एतेष्वर्धषड्विंशतिमङ्ख्येषु जनपदेषुत्पत्तिर्जिनाना-तीर्थकगणाम् , चक्रिणां-चक्रवर्तिनाम् ; रामाणा-बलदेवानाम् कृष्णाना-वासुदेवानां च तत आर्यम् , एतेन क्षेत्रस्यायांनार्यव्यवस्था दर्शिता-यत्र तीर्थकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्य शेपमनार्य मिति । आवश्यकचौं पुनरिन्थमार्यानायव्यवस्था उक्ता "जेसु केसुवि पएसेसु मिहुणगादिपइट्ठिएसु हकाराइया नीई परूढा ते पायरिया, सेसा अणायरिया" प्र. आ. ४४६ - सुराष्ट्रो-मु.॥२ तुक्षा-प्रशापनामक्षय. वृत्ति: प.५८ ॥ ३ अच्छ० मु.१४ दशा!-मुः। तदत्र बहुश्रत सि. ६ बाटा-इति प्रज्ञापनामलयवृत्ती प. ५८॥७-सि. नास्ति । hitr te Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Maina प्रषचन- मारोद्धारे सटीके २७६द्वारे | सिद्धगुणाः गाथा द्वितीय खण्ड: प्र.आ. ॥६६॥ इति, एते च प्रत्यासच्या भरतक्षेत्रवर्तिन एवार्या उक्ताः, उपलक्षणत्वाच्चैषामन्येऽपि महाविदेहान्ततिविजयमध्यमखण्डादिवमी बहवो द्रष्टव्या इति ॥८७-९२॥२७॥ इदानीं 'सिद्धगत्तीसगुण' ति षट्सप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह 'नव दरिसणंमि ९चत्तारि आउए ४ पंच आइमे अंते ५ । सेसे दो दो भेया ८ वीणभिलावेण इगतीसं ॥९३ । पशिसेहण संठाणे य वन्नगंधरसफासवेर य । पण ५ पण ५ दु २ पण ५४८तिहा एगतीसमकाय १ऽसंग २कहा ३ ॥१४॥ दर्शने-दर्शनावरणीये कर्मणि चक्षदर्शनाऽचक्षदर्शना-ऽवधिदर्शन-केवलदर्शनावरण-निद्रा-निद्रानिद्राप्रचला-प्रचलाप्रचला-स्त्यानर्धिलक्षणा नव भेदाः । तथाऽऽयुपि नारकत्तिर्यग्नरामरायुर्लक्षणाश्चत्वारः, तथाऽऽदिमे-ज्ञानावरणीये मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यवकेवल ज्ञानावरणस्वरूपाः पञ्च, अन्त्येऽप्यन्तरायाख्ये कर्मणि दान लाभ-भोगोपभोग-वीर्यान्तरायरूपाः पञ्चैव भेदाः । शेषे च कर्मचतुष्के प्रत्येकं द्वौ द्वौ मेदो तत्र वेदनीये माताऽसातात्मको, मोहनीये दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयलक्षणो, नामकर्मणि शुभनामा-ऽशुभनामको गोत्रे चोच्चैर्गोत्र-नीचैर्गोत्राभिधौ भेदी भवत इति । तदेवमेते सर्वेऽपिभेदाः क्षीणाभिलापेनशीणशब्दविशेषितत्वेन प्रोच्चार्यमाणा एकत्रिंशत्सङ्ख्याः सिद्धानां गुणा भवन्ति । क्षीणचक्षुर्दर्शनावरण. इत्यादिकश्वामिलापः कार्यः ॥ ९३|| १ तुला-भावश्यकहारिमद्री वृत्तिः प.६६ ॥ २झानापरणीय स्वरूपा:-मुः ।। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रवचनसारोद्धारे सटीके २७६ द्वारे सिद्धगुणाः द्वितीयः Bण्ड गाथा१५९३-४ ६७० अथवा प्रकारान्तरेणकत्रिंशत्सिद्धगुणानाह-'पडिसेहे''त्यादि, प्रतिषेधेन-निषेधेन-संस्थानवर्ण-गन्ध-स-स्पर्शवेदानां क्रमेण पञ्च-पञ्च-द्वि-पञ्चाऽष्ट-त्रिभेदानां तथा अकाया-ऽसङ्गारुहपदत्रितयेन चकत्रिशसिद्धगुणा भवन्ति । तत्र संतिष्ठन्ते एभिरिति संस्थानानि आकाराः; तानि च पश्च परिमण्डल-वृत्तव्यत्र-चतुरस्रा-ऽऽयतभेदात , नत्र परिमण्डलं संस्थानं बहियत्ततावस्थितप्रदेशजनितमन्तःशुषिरं यथा वलयस्य तदेवान्तः पूर्ण वृत्तं यथा दर्पणम्य व्यस्र-त्रिकोणं यथा शृङ्गाटकस्य चतुरखं-चतुष्कोणं यथा स्तम्भाधारकुम्मिकायाः, आयतं-दीर्घ यथा दण्डस्य । घन प्रतरादिप्रतिभेदव्याख्या च 'बृहदुत्तराध्ययनटीकादिभ्योऽवसेया । तथा वर्णः पत्र श्वेत-पीत-क्त-नील कालभेदात् । गन्धो द्विधा-सुरभीतरभेदात । रमाः पञ्च तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात । म्पर्शा अष्टी गुरु लघु-मृद्-कश-शीतोष्ण-स्निग्ध-रुक्षभेदात् । वेदात्रयः स्त्री-पुनपुसकभेदात् । तथा मिद्धा अकाया-औदारिकादिकायपञ्चकविप्रमुक्ताः, तेषां मिद्धत्वप्रथमममय एव सर्वात्मना व्यक्तत्वात् । तथा प्रसङ्गा-बाह्याभ्यन्तरसङ्गरहितत्वात् । तथा अरुहान रोहन्ति भूयः संसारे समुत्पद्यन्ते इन्यरुहाः । संमारकारणानां कर्मणां निर्मूलकाकषितत्वात् । उक्तं च-- दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मचीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ॥१॥" तिचार्थे अप. कारिका ८] तदेवमष्टाविंशतिसङ्ख्यानां संस्थानादीनां निषेधादकायत्वासङ्गवारुहत्वविधानाच्च सिद्धानामेकत्रिंशदुगुणा भवन्ति । संस्थानाद्यमावाकायत्वादिसद्भावौ च सिद्धानां सुप्रसिद्धावेव, तथा चाचाराङगे १ भम्ययन.१ नियुक्तिगाथा ३८ ३९ ॥२ स्त्री नसक. सि. । । प्र. आ. ४४७ ॥६७०॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saamsamwammam २७६ द्वारे सिद्धगुणाः ""से न दोहे न वट्टे न तसे न चउर से न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुक्किले सुन्भिगंधे न दुभिगधे न तिचे न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न ककखडे न मउए न वचन | गरुए न लहुए न न सीए न उण्हे न निद्धे न लक्खे न काए न मंगे न रुहे न इत्थीए न पुरिसे न नसे" [.५] इत्यादि। __ एतच्च सिद्धगुणप्रतिपादकद्वार प्रकृष्टमङ्गलभृतं शास्त्रस्य शिष्य प्रशिष्यादिवंशगतत्वेनाव्यवच्छिद्वतीयः तिर्भूयादिति अन्तमङ्गलत्वेन पर्यन्ते मूत्रकारेणोपन्यस्तमिति ॥९३-९४।२७६।। तदेवं व्याख्यातानि पटसप्तत्यधिकद्विशतमख्यानि द्वाराणि, तद्वयाख्यानाच्च समर्थितः समग्रो रोद्वारे गाथा १५१३-४ ६७१॥ ऽप्ययं ग्रन्थः । प्र. आ. ४४२ सांप्रत प्रस्तुतप्रकरणकर्ता निजान्वयप्रकटनपूर्वकं स्वकीयं नामप्रदर्शयन्नेतन्प्रकरणे कारणमात्मनोऽनुद्धतत्वं च प्रतिपादयितुमाह धम्मधमतरणमहावराहजिणचंदसूरिसिरसाणं । सिरिअम्मएक्सूरीण पायपंकयपराएहिं सिरिविजयसेणगणहरकणिजसदेवसूरिजिडेहिं । "सिरिनेमिचंदसूरिहिं सविणयं सिस्सभणिएहि ॥१६॥ १ तुला-भावहारि.प.६६३ ॥ २ धम्मधुरचरण मु.। धम्मधरधरण-सि । धम्मघद्धरण ता. " ३ सूरिनेमि.मु.॥ ॥६७१॥ ENSIMM ONS Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनमागद्धा सटीक द्वितीय समयरयणायराओ 'रयणाई पिव 'सयरथदाराई । निउणनिहालणपुच्छ गहिर्ड संजत्तिएहिं व ॥१७॥ २७६ द्वारे पदयणसारुडारो रहओ सपरावयोहकज्जमि । मूलकारजंकिंचि इह अजुत्तं पहुस्सुआ तं विसोहंतु ॥९८|| 'जुम्म । प्रशस्तिः आशी: धर्म:-सर्वत्रप्रणीतः स एव जीवादिपदार्थाधारत्वेन धरा-पृथिवी तस्या यदुद्धरणं- 'स्वरुपभ्रशर. टीकाक्षणाद्यथास्थितत्वेनावस्थापनं तद्विषये महावराहा-आदिवराहा ये श्री जिनचन्द्रग्यस्तच्छिष्याणां प्रशस्तिः श्रीआग्नदेवसूरीणां पादपङ्कजपराग:-क्रमकमलकिजल्कभूतः श्रीमद्विजयसेनगणधरकनिष्ठर्यशोदेव गाथा सुरीणां च ज्येष्टैः श्रीनेमिचन्द्रसूरिभिः सविनयं शिष्यभणितः सांयात्रिक रिव-प्रावहणिकैरिव समय-१५९५-९ रत्नाकरात-सिद्धान्तसमुद्राद्रत्नानीव सदानि-शोभनाभिधेयानि षट्सप्तत्युत्तरद्विशतसङ्ख्यानि द्वाराणि निपुणनिमालनपूर्व गृहीत्वा प्रवचनसारोद्धारो नाम ग्रन्थः स्वपरावयोधकार्यनिमित्तं रचितो-निर्मितः, यच्चेह किश्चिदयुक्तमुक्तं तद हुश्रुता विशोधयन्तु ।। इह यद्यपि यद्भवितव्यं तदेव भवति तथापि शुभाशय. प्र. आ. ४४८ फलत्वाच्छोमनार्थेवाशंमा विधेयेति दर्शनार्थमाशंमा कुर्वन्नाह --- जा विजयइ भुवणत्तयमेयं रविससिसुमेरुगिरिजुत्तं । पवयणसारुहारो ता नंदर 'वुह पडिज्जतो ॥१५९९॥ ॥६७२॥ १रयणाण-मु. । रयणाईजे. ता. सि-।।२ समत्थदाराइ-मु.। सयथदाराई-ता.जे.सि. 1 प्रवचनसारोद्धारः समाप्तः।। १६०६-ला.॥ ४ स्वरूपभ्रशलक्षण. सि. ॥५बहु-मुः।बुर-जे. RI Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- सारोदारे प्रतिकारप्रशस्तिः प्र. आ. सटीक द्वितीयः IF७३11 यावदेनद्विजयते भुवनत्रयं-वर्ग-मयं पाताललक्षणम् , रवि-शशि-सुमेरुगिरियुक्त-दिनकरतुहिनकरसुरगिरिपरिगतं तावदयं प्रवचनसारोडारग्रन्थो बुधैः-तत्वावबोधयन्धुरबुद्धिभिः पठयमानी नन्दतुशिष्यप्रशिष्यपरम्पगप्रचारितरूपा समृद्धिमासादयतु ॥१५६६11 (ग्रन्थाग्रं १८०००) इति श्रीसिद्धसेनसूरिविरचिता प्रवचनसारोडारवृत्तिः समाप्ता ॥ सिद्धान्तादिविचित्रशाम्बनिकरच्यालोकनेन क्वचित् , क्वाप्यास्मीगुरूपदेशवशतः स्वप्रज्ञयाच क्वचित । अन्येऽस्मिन् गहनेऽपि शिष्यनिवस्त्यर्थमभ्यर्थिनस्तत्त्वज्ञान विकाशिनीमहमिमा वृत्ति सुबोघा व्यधाम् ॥३॥ मेधामन्दतया चला चलनया बिनम्य शिष्यावलीमा यतिपादनादिविषयच्याक्षेपभूयस्तया । यत्मिदान्तविरुदमत्र किमपि प्रन्धे निबद्धं मया, तद् भृतावहितेः अपश्चिाहतः शोध्यं सुधीभिः स्वयम् ॥२॥ श्री चन्द्रगच्छगगने प्रकटितमुनिमण्डलप्रभाविभवः । उदगानबीन महिमा श्रीमदमयदेव मूरिरविः ॥ साकिकागत्यविम्ताग्मिन्प्रज्ञाचुर कैश्विरम् । वधने पीयमानोऽपि येषां चादमहार्णवः । नदनु धनेश्वरसूरिर्जबे य: प्राप पुण्डरिकाख्यः । निर्मथ्य वादजलधिं जयश्रियं मुञ्जनपपुरतः ॥५॥ भास्वानभूमवीना श्री मदजितसिंहसूरिरथ यस्य । तपमोल्लामितमहिमा झानोद्योतः क्वनः स्फुरितः ॥६॥ श्री वर्धमानसूरिस्ततः पर गुणनिधानमनिष्ट । अतनिष्ट सोममृतेरपि यस्य सदा कलाविभवः ॥७॥ अथ देवचन्द्रसूरि श्रीमान गोमिर्जगज्जनं धिन्वन् । रजनीजानिरिवाजनि नास्पृश्यत यः परं तमसाबा श्रीचन्द्रप्रमनिपतिरवति स्वततः स्वगच्छमछमनाः अचलेन येन महता सुचि चक्रे चमोटरसा Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोदारे लटीके द्वितीय: ॥६७४। t अथ मद्रभुवोऽभूवन् श्रीमद्रेश्वरः । ये दघुर्विधुतारीणि तपसि च यशांसि च ॥१०॥ शिष्यास्तेषाम मवन् श्रीमद् जितसिंह सूरयः शमिनः । भ्रमरहितैः कुसुमैरिव शिरसि सदा यैः स्थितं गुणिनाम् । ११ । श्री देवप्रभसूरप्रभवोऽभूवनथोन्मथितमोहाः | सूरपुरेखा येषामाचैव बभूव भूवलये ॥१२॥ अप्रमेयप्रमेयोर्मिनिर्माणेऽर्णवसन्निभाः । यैः प्रमाणप्रकाशोऽयं, मध्यते विबुधैर्ननु ॥१३॥ श्री श्रेयांसचरित्रादि प्रबन्धाङ्गनसङ्गिनी पाणी लास्यतुल्लारक कस्य नोपमादधे ९ ||१४|| प्रज्ञावैभव' मणादहरहदें वेज्य सब्रह्मभियैर्वाग्वक्ष विनेयवृन्दहृदय क्षेत्रान्तरुप्तं तथा नित्याभ्यामघनाम्बुषृष्टिघटनादङ्कुरितं पूर्णतामायातं फलति स्म वादिविजयैर्दत्तप्रमोदं यथा || १५ || नाप्लाव्यंत कति स्मयोद्धुरधियो यद्गद्यगुम्फोर्मिभिः यद्वाग्भवमङ्गिभिः कति नहि प्राप्यन्त हर्ष नृपाः । मुद्रा कति न चानीयन्त चित्रं जना, यद्वा किं बहु जन्यितेन निखिलं यत्कृत्यमत्यद्भुतम् ॥ १३॥ तेषां गुणिषु गुरुणा शिष्यः श्रीसिकसेनसूरिरिमाम् । प्रवचनसारोवारस्य वृत्तिमकरोदतिस्पष्टाम् ॥१७॥ "करिसागर विसङ्ख्ये १२४८ श्रीविक्रमनृपतिवत्सरे चैत्रे पुष्यावर्कदिने शुक्लाष्टम्यां वृत्तिः समाप्ताऽसौ ॥ १८ ॥ तारकमुक्तोच्चले शशिकलशे गगनमरकतच्छत्रे । दण्ड इव भवति यावत् कनकगिरिर्जयतु तावदियम् ॥१९॥ इति श्रीमने मिश्चंद्रसूरीश्वरनिर्मितः श्रीमत्सिद्धसेन सूरिपुरंदर सूत्रिततत्वज्ञान विकाशिनीवृत्तिसहितः १ अ. सु. ॥ २ श्री देवमद्रसूरि. सि. ॥ १० से. सि ॥ ४ इतोऽसि प्रती- "सूत्रसमं सर्वसंश्वया पंचामं १०० प्रवचनसारोशारसूत्रवृत्तिसहितं पुस्तकं समाप्तम् ॥ ● श्री प्रवचनसारोद्धारः समाप्तः पृथिकारप्रशस्तिः प्र. म. ४४८ ॥६७४॥ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # परिशिष्टानिक सारोबारे मटीके १ विशेषटिप्पनम् परिशिरे विशेषटिप्पनम् ॥६७५ मा.२ पृ. २४. पं. ४ मत्रान्तरे - पत्र मुसुत्ति गापा दृश्यते सा.उत्तराध्ययमवर्णावपि उपेक्षितति नि(न)व्याख्याताापर यदि सहरयानो प्रतिमाप्ति तदेवं गमतिका कार्या-मुपस्वाऽवधिमृत्युमायोचीमात्पत्तिकं पशग्दा हातद्धवमस्यबशेषमरणानित बमृत्युना बातम्यानि यसो गाथायामपि मरणं []वमरणविषयेन (सातव्यानीत्यर्थः ।" इति विषमपयवृत्ती १.११४ B॥ अत्तराध्ययमनियुक्तेः हेमचनाचार्य जाममन्दिर पत्तनस्य १०३१३ कमाइ हस्तलिखितप्रतावपि इस गाथा "मुत्तम उहि मरणं माधोई अंतराइयं च । सेसा मरणा तब्बे तम्मनमरणेण यावा ॥ प.1 B १०४२७ क्रमाङ्कप्रतौ"मोतून बहिमर मात्रीयो भाइयं तु तंत्र । सेसा मरमा सम् तम्मनमरणेच याया। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे सटीके द्वितीयः ॥६७६॥ परिशिष्ट-२ श्रीहेमचन्द्र सूरिशिष्यश्रोश्रीचन्द्र मुनीन्द्र सन्दब्ध परिशिष्ट श्रीलघुप्रवचनसारोद्धारः । लघु प्रवचननमिऊण तमाइजिणं जस्संसे सोहए जडामउद्धो कप्याकप्पवियार पसखाणे मणिस्सामि ॥ यारोद्धार तिविहं पच्चक्खाण दुतिचउविहमेयमित्य निटूि । बहुविहमभिग्गहं पुण चउहाहारं भये णिच् ॥२॥ व्यग्रो खित्तनो चेव कालो मावो वहा । पचवलाण चउहा गायट्वं "निउणबुद्धीहि ॥३॥ जं जं "व्वं वरयुमुहिस्साणेगदम्वनो हो । खेतामो समयखित्तं भावेणाहागहियभंगा । प्रद्धामो पुण दसहा भावपमाहि यष्णियं समए । अइया १ रणागय २ कोडीसहियं ३ सागार ४ मनियट्ट ५ ॥ परिमाणविगइगयं संकेयं = निरवसेस ६ मद्धा ०य । प्रमेयं सविसेस संकेयं प्रहा होइ ॥६॥ अगदमूट्रिगंठीघरसे उस्सासथिबुगजोइक्खे । पचखारण 'विनालेकिच्चमणभिग्गहो सुचिरं । पठनविसेसे पुथ्व कारिजइ जं तव तमिह "भाबि । गुरु-गण गिलाण-सिक्नग-तवस्सि''कज्जाउललेणं ।।८।। तेणेव है उणा ज किग्जद तमाइक्कम च विण्णेयं । गोसे उबवासाइ काऊरण य बीयदिवसे वि९॥ गोसे ति चउम्राहार पच्चक्वाइ१२ तमेवं भत्तटु इय कोडीदुगमिलणे कोडोसहियं ति नामेण ॥१॥ चिं-DLI २खे DLI ३ मा प्रत्यारूपाने चतुर्दा-द्रव्यतो मावतश्च सुश्रावकसंयतानां १ द्रव्यतो नोमावतोऽयम्यादीनां २ भावतो नोद्रव्यतोऽविरतसम्यग्दृशां संविग्नपाक्षिकगीतार्थादीनां ३ न द्रव्यतो नोभावतश्च नास्तिकादीनां मिथ्याक्कुलिंगादीनां चेति ४।४ नियबुद्धिहि मु.॥ ५ वत्थुदव-D॥ यथामहीतभंग। ||६७६।। ७मध्ये मिणभिगाहे सुचिय-इति प्रवचनसारोद्धारे ।। ६ तं-मु ।। १. मनागतं ।।११ कार्याकुलत्वेन । १२६-भु.॥ AURAINIK Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनसारोदारे महदाज बिहियं तमसंपुषणे करे बोयं । पहियं वा कणवासं कोडिसहियमुहिद १६ प्रमुगविणम्मि य नियमा कायस्खोऽमुगतवो चउत्थाइ । हिट्ठेरण गिलाणेण व नियट्टियं संजिणा विति ॥१२॥ २ महवा पर कलाण बुडीहाणीहि पक्खमुभयदिणे । जं कायस्वं जियस पचवारणमनियट्री ॥१३॥ 'उसयुश्विसु जिणकप्पिएसु पदमम्मि व संधयणे । एय वोज्छिण्णं चिप "पाय येराग मा विसयं ॥१४॥ परिशिष्ट चउचत्ता प्रागारा तेहि जुय ज तमित्यं सागार । प्रागारविरहियं पुण भणियमणागारयं नाम ॥१॥ लघघउयाला प्रागारा 'पुरिम 'मत्तंव छच *उवगम्मि। एगो य चोलपट्ट विगइए हुति चत्तारि ॥१६॥ सोलस 'काउस्सगे छच्चेव यदसणम्मि चत्तारि । 'एगासणम्मि भरिणया प्रयवायपरहि मागारा ॥१७॥ सारोद्धारः महत्तरयागाराइ प्रागारेहिं जुयं तु सागारं । म किचि परचक्खाणे प्रश्नसहदुर्गपि कारिज्जा ॥१॥ दुन्मिय वित्ति कंतार-पाढरोगाइए वि कुज्जा । संलेहणपमुहेहि तमणागारं जिणेहि "मयं ॥१९॥ गाथाबत्ती-कवल धरोवहि पेडाइ भिक्खदग्वजोगेहि । नो मतपरिच्चायं करे परिमारणकरमेयं ॥२ना ११.२२ असणं पार्ण खाइम-साइममिह उठिवह पि बोसिरह । सम्बं सं निरवसेसं सव सविसेसमग्णं च ॥२१॥ केय गेहं सह तेण संकेय केय विधमहवा मं । साकेयं संकेयं सकियमासकियं उहा ॥२॥ 0000000MMonal-we- ॥६७७॥ mareemee MISSponsesamohan । चंद्रकलानां वृद्धि हानि यथा भवति प्रतिपदादिपूर्णिमान्ता वृद्धिरमावास्यता हानिस्ताप्रमाणकवलोपेतं तपइचन्द्र कक्षावृतिहानिरूपं चेति ।। २ ०तं-मु॥३%D L ॥ ४ थेरा वि तथा करेसि य-इति प्रवचनसारोद्वारे ।। ५ भन . पा. विसासाहु सम्ब० महेति सन्त ।। ६ सय-D L. - लेवा मले अच्छे. g. मसित्येभसिस्थे० इति पानकस्य षट् ॥ लेवा गिह सक्सि पहन इति चत्वारो विकृतेः । मनत्य कससिपणमित्यादयः पोडश ।। १०या० गणाका . देवा० गुरुनिमाह बित्तिकता. इति षडागारा: ॥११ सागा. पास गुरु पारिन् इति पवारः १२०भागाराइ-DL || १३ पमुएनि-मु.॥ १४ कर्य-DLI | ॥६७७॥ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीय: खण्ड: ॥६७८ ॥ मंढा कालो तहस य पमरणमवृषं तु जं भवे तमिह । श्रद्धापच्चवस्वाणं दस मेयं पवपणे मरियं ॥ २३॥ महापच्चक्ाणे कालयमाणं न नियमत्रो भणियों I तहविहु जहनकालो मुहुत्तमित्तो मुणेयच्वो ॥२४॥ रमणीपञ्चवाणस्स तीरणरुवा सिहा समुट्ठिा | नवकारेण समेया नवकारसी पञ्चचूला वा ।। २५ ।। नवकार- पोरसीए पुरिम गाणेगठाणे य 1 प्रायंबिल मत चरिमे य प्रभिग्गहो बिगई ॥२६॥ दो चैव ममोक्कारे श्रागारा छच्च पोरसोए उ I सत्तेन य पुरिमड्ढे एगासनमम्मि प्रदेव ||२| सत्तेगडास य व य अंक्लिम्मि आगारा I पंचेव य प्रमत्तठ्ठे छप्पाणे चरिम चारि ||२८|| पण चरोऽभिहिए निब्बीए श्रट्ट नय य श्रागारा | अप्पावरणे पच य हवंति सेसेसु चत्तारि ॥२॥ नवगाहिम प्रवदहिपिसियघयगुडे चैव f नव आगारा एसि सेसदव्वाणमट्टे व १३०॥ निसिचराणं न चहार होइ मुरलीग नियमेणं । पोरसीयाद सव्वं तिविहं वा चउत्रिहं होइ ||३१|| नमु-पोरसी सड्डाणं चत्रहार होइ पुरिम तिविह वा | दु-ति-चउहाहारं पुण सड्डाणं हुति रयणीए । ३२ । नाणन पाणिज्जं सुणी सङ्काणं । तिविहाए हार ) पोरसोए पारिज्जा तत्थ दुगवेलं ॥ ३३॥ चितमोइयाणं सङ्काण मुषीण हुति गरा 1 पण निसि नो तिविहे सचित्ताणं ||३४|| नमु-पोरस सट-पुरीमढवटठ मतट्ट मिचिगइ विगई। एयाणि 'अपारियाणी हवंति श्रहियाणि श्रहियाणि ॥ ३५॥ प्रायाममभिरम हेगाणाणि पारिकण श्रहियाणि । खदुममाईणि नो पुठ संगयं कुज्जा ॥३६॥ १० भु. ॥ २रात्रिप्रत्याख्यानम् अन्यथाऽभिमप्रत्याख्यानम् च न पारणीयं जिसि एक बकवाद्यामपाः भिमाद संकिण पारिवा, इति वचनात् दिवसचरिमपच्चकखाइ इत्येवं पाठरूपं विनस्थ चरिको भागो रात्रिः यथा शेष दिवसप्रत्याख्यानं क्रियते तथा शेषरात्रिप्रत्याख्यान न भवति कियन्त्यामपि गतायां रात्री 'दिवसचरिमपचखाइ' इत्येव भवति, अन्यथा प्रतिक्षणं प्रत्याख्यानस्थ भिन्नत्वापत्ते, एवं सर्वत्र भाव्यम् ॥ ३०ई-मु. ॥ ४ पान आणी ॥ ५ हुज्जा DD पाष्टमादिप्रत्याख्यानं पूर्वसंगतं न मषति एतावता तस्मिन्नेव दिने पिण्डीकृत्य भवति पार्थक्येन न मति पूर्वमेकोपशसो विहितो द्वितीयदिने पद्यष्टस्तदा पष्ठं एवं प्रत्याख्यति न त्वष्टमादिः ॥ २ परिशिष्टे लघु प्रवचन सारोद्धारः गाथा २३.३६ ||६७८|| Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NI सारोद्धारे सटीके -PAW द्वितीयः सडाणं दुविहारे चउहारं तस्य हुति रयणोए । तिथिहारे तह प्रचित्त मोइणो पाणपाहार ३ दुविहारं पुण जइगो नहुति कइया अभिगहे मयरगा। परिपोवहारिण सडारण मुरगीण पुरण पारगगाहारं ॥३८॥ घसणं अयण-सतुग मंडग-पय रब्ब-विदल-जगाराइ । कंगनाई सवा खम्जगविहि ससविगई 4 ॥३॥ परिशिष्टे असणम्मि सत्त विगइ साइमि गुल-महु-सुराय पाणम्मि । खाइम पक्कनकलाणं प्रोहण य सधप्रसणम्मि'। ४॥ चणउट्ट मसूर-तुबरी कुलस्थ - निष्फाव-मुग्ग-मासा य । चवल-कसाया- राइ पमुहं दुबलं च निष्णेहं ॥४॥ तिल-प्रयसि सिलिद कंगू-कुदव - प्रणा सिहं । ति के दुदहं पायं 'धनुन्य तं सव्वं ॥१२॥ प्रवचनकद्रवले. पक्कानं तक्कर-दहि-बुद्धपायमोसं जं । जमणंतकायजायं पत्तफलं पुष्क बीयं ॥४३॥ मोटार दवीकायो सध्यो बलझिझमिइसथ्यतिणधन्नं । लदहिंगू उमट्टप्पभि असणं बह विहं ॥४४|| उत्सेइम संसेइम पुष्फरसो रत्तपभिइतणुजायं । पाउक्कामो सम्यो सोनोरं जवोदगाईयं ॥४५॥ उच्छरस-मेरय-सुराऽऽसब-इफय सिरिफलाइफलनोरं । हिम-कर-वहरतरणाइचित्तं पाणं विणिहिट ४६|| गाथा मत्तीस दंताइ टोपर-खारिएक-दक्ख-सज्जूरं । अंबग-फणसं चिची चारुलिया "पत्तसागंज ४७१३७५२ भरें धनं सध्वं बदाम-प्रक्खोड-उच्छुगंडलिया । फल-पक्कन्नं सब्वं बहुविहं खाइम नेयं । ४८॥ दंतवणं तंजीलं चित्तं तुमसो-कुहेडगाईयं । महु-पिप्पलि-सुठि-मरीपणगं जाइफलाणं च | एलाद्गं लावगं अजमोयतियं तियं च प्रभयाणे । कापुर-कविदाई हिंगुल-निणयाण अगं बिडलवण वडिप वस्दुल कंटकरखाण छल्लिया सध्या। फोफल- कसेल्ल-पुवखर-"जवासपण कुलगयछल्ली * छिक्का हिक्का रुक्माण पत्तं बलजंच मिदं सिंगाय । उम्मायकर जं वा भेसज्ज प्रोमहाईयं ॥२॥ १८म्मी-मु. ।। २ उत्ति गुबारधाम्यं प्रतीत । निफ्फाब-मु. ६४ राई-DI मणु याइय-D L भन्नु - ७ पुढाविकार-DE हिंगुलवर्ण-मु. समु.सं.-DL पश्चाशके प्रवचनसारोद्वारे प॥ . चारुखिया मु. १११त्तसागजे मु.॥ १२काई मु०॥ १३हरीतकी १ बहेडा २ मामला ३ इति मभयात्रिकम् । १४ इ-मः॥ १५ कंटकर मु.।। १६ कसेल-मु०॥१७ अबासपू-L अक्षासमूल-इति धर्मसंपत्ती ॥गाथा मु.नास्ति ।। meas APRILALIRAMA Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सारोदारे मटीके द्वितीयः तियाय सगंधिधनय पत्त-जी-पप्पडी-बरड़ा य । रसजाइमेसज्जपमुहं साइममणेगविहं 101 दुविहारे कपिज्जद्द पाणं साइममणेगहा सध्वं । तिविहारे पाणं पुण उहारे किमपि नो कप्पं ।५४|| साइमगधारिणमाणिन कप्पए तह पसंगदोसायो। गुड-लवण-हिंगु सिंघव-जोरय-धागा-घरडा य। ५५।। परिशिष्टे प्रजमोतियाविट्टमामलगं तह कपूरकंदा य । प्रयोलगं च सूया एमाइ असणम्मि बबहारे' ॥५६॥ चहारे रयणोए कपिज्जइ जाणिमारिण पस्यूणि । सममागकया तिहला मूनोंबो' सीरचंदणयं ॥५॥ प्रवचनगोमुत्तं करोहिणी वग्छी अमया य रोहिणी तुगा । गुग्गुल-क्या- करीरय-लिब-पंचंगमासगणो || तह -प्रासगंघि बंभो-चोड-हलोद्दा य कुदुरुकूड्डा । विस 'नाइय धमासो बोलयबोया अरिष्टा य ॥५॥ सारोदारः मोडल-"मजोठ-कंकेल्लि-कुमारि कंथेर-बेर-कुट्ठा य । कप्पासबीयपत्तय प्रगुरु-तुरुक्का य संतुवाहा ।।६०॥ पवखयर-पलासाइ कटकरक्खाण छल्लिया साया । जं कडुपरसपरिगयं प्राहारपि इ प्रणाहारं ॥६॥ | गाथा इश्चाइजणि पंकूवमं तं भवे प्रणाहारं । जं इच्छाए भुजइ तं सश्वं हवईमाहारं ॥६२।। ५३.६७ यह एयाणं कां जं कालपमाणं मणामि सटवेसि । मतं सिद्धं वियलं कट्टदलं हिगुसहियं जं॥६३|| पुष्क-फल –पससाय बोयछल्लो विणाय प्रामफलं । "मागमपूवाइय-जललप्यसि-बडय-पप्पडया ॥६४|| चउपहरमाणमेसि प्रोयणमा बारजाम जगराए । तह तक्करबलछुभिए अहियं परिमाणमवि वृत्तं | वहि-तस्कर-राईणं कजिय-सागाण सोल जाम च । वासासु पक्ष हेमतमासुसिणु वोसदिणमाणं ।।६।। अपनस्सय कालो विज्योलो कुलिकाए पक्कन्ने५ । वासासु सगविणं वा चलियरसं जत्य जं जाइ । १६॥ १हरीतकी १ बरखा २ मामला इति त्रिकटु कम । २ जीराय-मु.॥ अं0 DL | ४ रोन्मु.।। ५ भूनिकी मु.। 'भुवि निम्ब इस भूमिम्मः' इति निघण्टुशेषवृत्ती गा. २२९ ॥ ६कारी. मु.।। 'करीमातु' इति माषायाम् ।। करीरमूल-इति धर्मसंग्रहे मा. प. १८६ क्षमी मु.॥ ८ कु. DL कुन्ना-इति धर्मसरहे । । नाई अ-मुः । नाहिमा इति धर्मसंग्रह मा.१५.१८६A १० मजिद-मु । ११ मंध्यमपूवाइय-य ॥ १२जिपा-DLI १३ पवनयस्म-मु.॥ ॥६८०॥ १४क्षिकाए-DL॥ १५०मो-मु.।। wwwwwwwww Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके निश्विगयं पक्कन्न असणजुयं तस्सिमेव परिमाणं । उन्द्रनिगापमा नलियरसे तं तहा जाण ॥६॥ घय-तिल्ल गुडाई वण्ण-रस-गंध-पमुहपज्जासे । कालपरिमाण मुत्तं जाणिज्जा नो तहा पायं ॥६॥ इत्थ य चलियरसम्मि जीवा बेइंदिया समुच्छन्ति। पुफिए एगिदिया 'बट्टति दुवेवि समगं वा । ७॥ अवित्तजले 'सचित्तीमवणे एगिदिया समुच्छति । अण्णरसुज्झियमिलिए पणिदी समुच्छिमा हुँति ।७१। तिल-मुग्ग मसूर चवलय-मास कुलत्थय-कलाय-तुवरीणं । वल्लाण वट-चणयाण पंग वरिसप्पमार्ण च जसा सालि-वीहि-जब-जुगंधरी-गोहम-तिण धन तिल-कपासा । वासतियं परिमाणं ततो विद्धसए जोणी ॥७३॥ लट्टा-कंगू-प्रयसी-सण- कोडूसग-वरट्ट-सिद्धत्था । रालय कुद्दब-मेही भूलग-बीया-च बड्डा य |७|| __ पिहियाणं लिताणं उक्कोसठिई उ सत्त वासाई। होइ जहणेण पुणो अंतमहत्तां च समग्गाणं [शा लिएपरि- 'खजूर-मिरी-मुद्दिय प्रभधा-बदाम खारिक्का एला-जाइफल' पुण कंकोल चारुकुलिया य ||७|| विसिज्जइ जोणी एसि जल थलोवभोगेहिं । संघाडय- जलफलाईयाण जोणी तहाचित्ता ॥७॥ 'जोयणसयं जलम्मि थलम्मि सट्ठी भंडसंकती । वायागणिधूमेहि पविद्धजोणी हाइ तेसि || हरियालं"लवण-मणसिल पूग-सेयाल-नालिकेरा य । एमेव प्रणाइन्ना विद्धत्ता अवि मुणेयवा ॥७९॥ सियसिंघव पासकरणी,''कहिगुलजा-१२-वडिंग-नागाइ।असित्तजोणिया फंदासाणाय-मिढल-मजिट्ठा। पिटू मिस्समसुद्धपण-चउ-१४तियदिणपमाणमापक्खं । सावणासोय पोसेसु जुअलम्मि य एस अणुप्रोगो || "पण-घउ-तिय जामाण माहदुगे वित्तजुयल-जिटदुगे। तह भज्जियधण्णाण वालीण विपज्जए पायं 1.HI परिशिष्टे लघुप्रवचनसारोद्धारः गाथा ६८.८२ १ मत-DL ||२वति-D L॥ ३ सचित्ती DL कोंडु. मु. ॥ फोडू. DL प्रवचनसारोद्धारे [गा, १९९] च ॥ ५ पहि. मु. ॥ ६ खजूर-DL॥ ७ ला DL८ जलफलयाईयाण- DL॥ प्रवचनमारोद्वारे १५५ तमं द्वारं द्रष्टव्यम् ॥१०.लं-मु.॥ ११ फटकही ।। १२ ई-मु. ।। १३० म. ॥ १४ पण मु.।। १५तियजामाणमापक्ख-D॥१६पण्ण मु.॥ | ॥६८१॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन मागेद्रा मटीके परिशिष्टे द्वितीयः प्रवचनसारोद्धारः गाथा ८३-१९ ६८२॥ RANImmaNameemIMmmaNAIHARIRAMMANITARINAMEPREVI वालिय-छड्डिय-तुसरहिय-सुबक जाताव मिस्सियं नेयं । लोणजय सागं मज्जिय तलिपण तं सुद्धा पन्ने मणति मजिजयधणाणं पक्षक--तलियमिव कालो । सग--पणदस-दसदिणं वासाइसु मिस्सलोणस्स ॥४॥ अंतमहुर्त 'मोयस्स चोवोसं जाम धाउपत्तगयं । गोमुत्तं जइ केवलमह साइमं रस विवज्जासे शा एखाइमि तले विच्चासे ति-चउ.-पण जाममुसिणनीरस्स । वासाइसु तम्मा फासुजलस्सादि एमेव Hasir 'उस्सेइम संसेइम तंदुलनीर तिलोदरी वादि । तुस जय प्रायाम वा सोबोरं सुद्धवियाडं च 191 अब कन्ट्रिाऽऽमलगं प्रयाग मालिंग खजूरं । दक्खा दाडिम कयरं चिचा नालियर कोलजलं ॥८॥ पुवतियं भत?, छ8 तिन-तुस- अबोदर्म मणिय । र सोमोर 'अट्ठमे उसिणनोरं च ।। अच्छमसिस्थं गलियं तियदडुक्क लिय--परिमियमलेवं । परकरजईण 'कप्पइ न कापण्णसुरुदोसा उस्से हम सेम तंदुल-तिल-तुस-जवाण नोरं च । प्रायामं सोवीर सुद्ध वियर्ड जलं नवहा ॥११॥ तिहला तमालपत्त मुस्थय-कुटु च स्वयरमाईहि । फासुकयं खजाइहि कारणो कपणिज तु ।। जितवेभत्तटूपडिमुवहाणेसु प्रमिगहा यामे । सट्टाणं चिय कापइ 'उण्ह जल प्रणसणे वि तहा 1|| चिचोदगमिगजाममायाम घण्णनीर मुहत्ततिगं । उच्छर से सोबोरे जामदुर्ग धोयणनमुह ॥६॥ वारस मंध पत्र मेयविमिस्सं खु हवाइ फासुजल । सकर गुड-खंडाइवत्युविमेएहि परिणमियं ॥१५॥ गो-एला महिसोग स्खोर पण-ड-दसदिणाणुवरि सुद्ध' । तिदिणाणुवरि बलद्धो नवप्पसूयाण एमेव It चउपहरोवरि जाय दहि सुद्ध हवइ कप्पणिज्ज च। तकरजुपखोरेयो बीयदिणे होइ सा कप्पा ६षा निष्णीरं तिलनिस्सं संवाणं तह वियारियफलार्ण । प्रचित्तमोइगो पुण कापड़ तक्करमणुगलियं ॥९॥ "निच्छल्लि-तिब्धीयं फलमाममम महत्तमुरिकय । प्रियलं तकरमिस्स न कप्पमुसणीकएण विणा HEEL प्रमवणस्य॥ २ तलशग्देन मध्यगतगर्भः।। ३तल-D॥ ४ उस्सेइम संसेम-D५ अडमे-D॥ DDL..-मु.॥- DL0. सहजले अण्पा मु.॥ ट्टी-DL ॥ निहल्लिननिकीय-भु ॥ १२ पइमु Dil ॥६८२॥ . SonisterAF HEAR Milannilinominition SRAELeoneindiahinilaondemnitiat a dindabasinilons Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्धारे सटीके द्वितीयः खक: १६८३॥ मोयाफलं पढोली घोसाइकल च oea दाइ तपfडबद्ध जं नो हव तं कप्पमचित्तं ॥१००॥ afeng - जन-मज्झिमभेहि होइ तिविद्ममत्त चउहार-सचित परिच्चाए विकटुमेएज ॥ १०१ ॥ तिविहारेण जहन्ने मज्झिमए कयचित्तवाधारो तत्थाणाहारयत्यु कप्पड सव्वावि रमणीए || १८३॥ प्रायंबिलमवितिविहं उकिट्ट जहन्नमज्झिमपएहि । निष्णेहं ज वियलंपू / स् ) वाईपकप्पए तस्य ॥ १०३॥ सिसव 'सुठि मिरी मेही सोवच्चल व बिडलवणं । हिगु-सुगंधिसुबाई पकtor साइमं वत्थू ॥ ॥ १०४ ॥ कारणजाएग जईण प्रत सिह हविज्ज तिमियं वा । पिट्ठ जलेण रवं घुग्घुरि छुट्टाइ 'सिद्धेणं ॥ १०५ ॥ * पवड वडिया रुक्खा सिद्धा तिमणी कया हवइ कप्पा भज्जियघण्णं तिष्णवण्ण कट्टवलं सिणेहवियल गं ॥ १०६॥ Roar word पिया दुषेण सिद्ध साइमयं । वेसण बग्धाराई हलिपमिई प्रकच १८७। तिमिरं काउं नो सक्कड़ तं तं न कयह रयाइ । पायें हिंदु न कप्पड़' दुकय दोसप्पसंगो जम्हा ॥ १०८ ॥ daवर्ण तंबोल armed नेव अबिलम्म तवे । जलमित्रम' नाहारं कप्पइ सम्यपि तत्थ ठिए ॥१०३॥ सोवो मुसिणजल कप्पड़ नो यण्णमेस विहि पाय । सोवोरं सिद्धपिट्ठ निष्णे वियलमुक्किट्ठे ॥ ११०॥ घुरिया हिपमा कपए भयणा । भज्जियधण्णाईयं सत्यंपिकप जहन्ने ॥ ११६ ॥ कदलीफलम् । २ पंडोली- मु. पटोले तु पाण्डुः कुलकः कर्कशः । राजीफलः कफहरो राजमान्योऽमृता फल :" इति निघण्टु मा ३६० 'परवर' इति तत्र परिशिष्टे प. ३१८ ॥ ३ पटोला लघुद्राक्षा तथा पटोला में डिकाकारफलविशेषा || इयं गाथा D L नास्ति ॥ ४ ॥ विविहं नं विमलपूवाई' इति अभिधानराजेन्द्रकोशे 'आयबी' शब्दे || ४. सूठि मिरि ॥ ६ सिद्धं न DL७ पपवतिया-DL | पडि बढवा-मु. ॥ =तिमयी-D L विमणी- इति समिधान राजेन्द्रकोशे बायबलं शब्दे ॥ ६ दिन १० स्वादि काठिन्यसहित मण्डक-खाखरा -पर्पटिकादि यस्तिमितुम आ न शक्यते तत् माचाग्लेऽकल्प्यम् | ११ पाय सु.॥ १२ कयदोपसंगम- pla १३०० सु. ॥ १४० ॥ १५ हिंगुप्पमुद्दा- मु. हिंगुपमुद्दाए-DL १६ एप्प-D. D. 1 २ परिशिष्टे लघु प्रवचन मारोद्वार गाथा १०.१११ १६८३॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ परिशिष्टे दु-ति-चउअंगुलमाणं नीर जद्द हवइ सिद्धभत्तुवरि । प्रायंबिलं विसुद्ध हविज्ज तो सम्वकद्वहरं ॥११२॥ प्रवचन । जगराजारपण जगरा-जोरयजुत्तं प्रोयमिह कप्पए जईण पुणो | साणं नो कप्पह तरिलट्टाइयं वि पुणो ॥११॥ सारोद्धारे निविगयं पुण तिविहं इम-बीयासणेगठाग-दत्तितवे। वग्वारियतिमण-खज्जग विगइगयं नोऽवभुजेई ॥१४॥ 'जत्थ अलेव भुजइ खाइमववि नोऽवभुजेइ । उक्किट्ठ निखिगई मज्झिमनो खाइमं भुजे ॥११॥ सटीके तत्थ जहन्ने सवं विगइगयं भुजए अकारण नो । संपइ इगासम्मि य किज्जइ निविवगयपच्चक्खाणं ॥११६॥ सोवीरमुसिणनोरं पकप्पए तिविनिदिवगम्मि । पाय सचितचायो कि बहुदिणत भयणा ॥१७॥ १८४ रइयं पगरमेयं मुणोण माहारभेयनाणटुं । सिरिसिरिचंदमुणिदेण हेमसूरीण सोसेण ११। लघुः प्रवचनसारोद्धारः गाधा ॥ इति श्रीलघुप्रवचनसारोद्धारः समाप्तः ॥ . ११८ १ अस्थ-मु.॥२ गइयंमि- माहारमेय मु.॥ ॥६८४॥ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके सचिः द्वितीयः खण्ड: ||६८५॥ परिशिष्ट-३ ® उद्धरण-सूचिः . प्रबहुअं अइबहुसो ११६२३ पिण्डनियुक्ति गा.१४६ | अणुवकयपराणग्गह- १९८६ सम्बोधप्रकरणध्यान पाराशटर अइयं निदामि २५११ पक्लोसूत्रे प्यानशतक ८ | उद्धरणप्राइसेस इडियम. २११७२ बायकधर्मविधि प्र.गा.६७, । अणुवट्टियस्स धम्म ४२ सम्बोध प्र. ४.७१ अण्हाणमाइएहि १६१२ प्रईयं पडिक्कमामि ॥१०३ एक्सीसूत्रे प्रतिवर्तन्ते स्वार्थ शहर अगणियो चिनिज ब ११६१ प्रावश्यक नि गा.१५ मतोतानागतो काला २१२६४ अग्गोश्रोन वियाणइ २१७ भाद्धजितकल्प.ना.२० अधुदगाउयाई २।३.२ विषावश्यकमान्य ६९४ । प्रज्जवमुणे बट्टमाणे २१७५ अनिस्पताशवमुदाहरन्ति ११५२॥ प्रज्ञो सन्तुरनीशोऽय० २।३७६ महामारतवमपर्व श्लो २१ प्रनिरिक्तियापमस्जिय १२०६ श्रावकप्रज्ञप्ति ३१५ प्रट्ट उ गोयरमूमी १।१७४ पञ्चवस्तुके २१९ अनुसरविमानवासि २०३४४ तस्वार्थमाष्य ४२१ अपस्या प्रसंपत्तो ११५५ ५प्रोधनियुक्ति गा. ७३४ अन्तरा भवबेहोऽपि ४८० भट्टसट्रिक्सरपरिमाणु १४४ मन्नेण अन्नहा. २०३७५ प्रदेशय जबमम्माणि २१५५१ भन्ने मनति इका-१४३ निशोषचूणि मा.२/पृ.१६४ प्रध्यालं पर्याडसय २।४४४ प्रपउसियोसहिमा १०२.४ प्रावश्यक.प्रत्यास्यान स प्रणेतरागया० नेर एगस. ११३१७ प्रज्ञापनासूत्र २०१३ अपसत्याण निरोहो१।१७८ मगता सुहमवणस्सइ.१३१६ भगवतीसूत्र १६॥३॥६५२ अपुरवं नाहीजइ १४१८ प्रणामयदा गं तीयदा०२२६४ मगवतीसूत्र २५३११७४८ अप्पबहत्तालोयण १।५.१ पञ्चवस्तुक १५१६ प्रबंधोदवमाउन २१४८९ प्रत्याहार प्रबड़ा २०१५ ..... mamimaniwomindainindi Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Press अस्सि बतु पडिग्गहियंसि १६२९ माचाराङ्गसूत्र प्रवचनसारोद्धारे सटीके २॥१॥११ परिशिष्एं उद्धग्ण द्वितीयः ॥६८६ प्रवेण तिपुंज ११७३ अप्पोलं मिउ पम्हं ११३४० हत्कल्पभाष्य ३९॥ अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र २१७८ मग्मासऽच्छणछंदाणु०११८१ अग्मितरसंबुका ॥६३३ पनवस्तुवति प. ३.. प्रमव्यस्य हि भध्या० १४०६ अरण्यमेतत् सविताऽस्त। प्रवसेसा प्रणगारा १।२४५ भवहद रायककुहाई ११३६ (विचारसार गा.६६५) अविमुत्तयाए लोमः २३१६२ स्थानाङ्गसूत्र ३५६ प्रविसहणऽतुरियगई १३५२१ पञ्चवस्तुक १६३६ बहत्कल्पमाष्य १३०५ भव्यभिचारिणा साद.२१४२५ प्रण्टाभिः प्रातिहायें: १,४० असहि समाईन्न १६३३६ प्रसणाईया चउरो २२५४ प्रसनीणं. नेरइयाउ २१३०८ असुरानागसुवन्ना २।३३७ प्रज्ञापनासूत्र २०१७७गा.१३७ प्रसोगवरपाय १।२६२ आवश्यकचूणि प. ३२५ मस्यिवः सुखं मासे १७१ मह उतरि छप्पना २०१५१ महवा एक्के विकयं २/६५४ मुचिः महवा फोडीकम्म१/१६४ महो जिणेहि प्रसावजा २।१६ वशकालिकर. ५. १२ महो विहितसंमा १/४० अंगारविक्कयं इट्टयाण १६१६५ अगुम प्रसंसभागे २१२५२ अतिमवूलाइ तिय १/४४नमस्कारपञ्जिकासिद्धचकादी अंतोमहत्तमेतं ११८३ सम्बोधप्रकरणसम्यकावा.२४ प्राकृष्टेन मतिमता १.५६६ प्रागारोउ विसेसो २१४७७ पाचेलक्कुद्देसिय ११५६६ पञ्चाशकप्र. १७.६, वक मा ६३६४ प्राणवमंसुपा ११३६३ ब.क.भा १३६६ प्राणतणवरि २५१५ प्राकृतलक्षण २१८० प्राणाइच्चिय चरणं १३२६.ब. क. मा २४८८ ॥६८६॥ प्रादेसेण वा गम्भट्ठमस्स २३५ निशीथचूणि: गा.३५४३ मानतय गवरी २४११ प्राकृतलक्षण २०१८ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे परिशिष्ट उद्धरण सटोके द्वितीयः ॥६८७॥ प्रावरिए सुसपोरुसि ११५०१ माया चेव उ हिसा २।२७७ भारामुज्जाणाइसु १११७८ प्रालबणाण भरिमो २२७ प्रावश्यकनि. १९५८ मालोगो मणुएसु ११५६७ आलोयणपडिक्कमणे ॥१७८ पालोयणापरिणम्रो २११०० मावन्ननिस्विगहयस्स १३१४७ प्रावायदोस तइए १३५६६ पञ्चवस्तु ४१८, क.क.मा.४२७ प्राशंसया विनिमुक्त: १।१६३ माहाकम्मनिमंतण १।२.३ पिंडनियुक्तिः१५२ पाहारउवाहिसेमासु १५३२ पचवस्तु १६५२ क.मा १३१६ माहारगसरीरस्सा २६३ पाहारगाई लोए २१६६२ पाहारपज्जत्तीए प्रयः २४६४ प्राहारमिस्सजोगे २१६६२ माहासुहमो य एएसु१६१३ इइ नपणविसबमाणं रा३२१ गयीसं खलु लवला ॥३२१ इसरियरकप्पे ११४६५ पलवस्तु १५२४, ब.क.भा. १४२६ इत्तरियाणुवसग १३४१५ पञ्चवस्तु १५२६ ब. क. मा. १४२८ इत्थ इमं विन्नेय ७७ पश्चाशकप्र. १४.१० इत्थं चारयाण २५५ इत्थीए जाव पणपत्र. २१५३७ इत्थीए मलियसयणा. २१३९३ इदितो तुम १३६३ (पा --१.५:) इन्द्रियाणां जये यस्माद् १४८१ इमोसे णं भंते ! रयण २।२८७ इयरे पुण मायरियं ॥१०२ इयाणि मसया बस २१४५ निशीषणिः गा. ३७५६ इंतस्सऽणुगच्छणया ॥१७६ इंदियकसायजोए २१७७ उकोसो मणुएसु २१३५५ अविखसमाइपरगा ११७५ पत्रावस्तु ३.३, ब.क. भा. १६५२ उच्चालियम्मि पाए २१४५३ मोधनियुक्ति: ४८ उन्मास समीहारा३६ उज्जुगंतु पस्चा० ११७५ पन्छाशक ३.. उड नाव सरोवेव. १५६१ ब.क, मा.गा. ६७५ ६८७॥ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ How प्रवचन सागेद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ६८८।। उत्तरक्रिया तु तथा२।२९६ अनुयोगद्वारा प. ५० उतिष्ठन्त्या रतान्ते * ११३८ उदयसेव निरोहो १११७० उद्देसियम्म नवगं ११४५१ मग ६० उमे मूत्रपुरीषे च २॥३३ उम्मय व लभेज्जा ११४८० उवगरण सुवेसण १/४७३ उवलवाणं तु एयाई २।१०६ पश्ववस्तु ९२८ उवसामगो य खवगो १६१६ उहिम्मि पसे ११४८३ निशोषण: मा. १४३३ उसमस्त तिनि गाउय० १।२६२ उसरसं दडलयं २1४६८ विशेवावश्यकमा गा. २०३४ ऊन प्रहारसगं ॥४८ एएसि वयमाणं २३५ पश्वावस्तुमा ५० एएसि मा २५८५ एएस मूला प्रसंखेज्ज २४३५ प्रज्ञापना पद १ सू. ४० एएहि सुमेहि २२२५६ अनुयोगद्वार सू २४१ पृ. १५१ * निशानारायणकविरचितोऽयं श्लोकः सुभाषितरत्नमाण्डागारे लक्ष्मीस्तुतिप्रकरणे उपलभ्यते ॥ एक एव हि तारमा २३८० एकस्मिiध्यर्थं १।१८६ एकाङ्गः शिरसो नामे ११५३ एका वर्धयेद् भिक्षा २।१५२ एक्कविक विणं २५० एक्काए वसहीए १३६८ बृहत्कल्पभाष्य १४१२ एक्कारसमो दंडो ११४८३ निशोथचूर्णि: मा. २४.१९४ एक्केश्कं पंच दिशे १५०६ एगनिसेज्जं च श्यहरण० २६८ एave पसंति १४५५ प्रोघनियुक्ति गा. ७३१ एगयरसमुपाए ११५२६ महत्कल्पमाथ्य १३०४ एयराइयं च णं भिक्खु०१४८० शाभूतस्कन्ध . पृ. ४७ एगराइया चह १४८० एगविहं दुविणं २५०३ मावश्यकनि. १३५९ एगस्स उ जं गहणं २ ४३७ प्रज्ञापना पद १ सू. ४४३१०० एमिदियदेवाणं २/३६७ बृहत्संग्रहणी १९९ एगो जह निज्जयगो १२१५१७ एगो व दो व तिमि व २।३३२ बृहत्संग्रहणी १५६ एस एस नेमो ११४६७ पश्ववस्तुगा १४६४ एवं उग्गतहिए २२६०० परिशिष्टं ३ उद्धरण सूचिः ||६८८|| Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .:45 20p mpMARUIRANI HOMEOPARTREAtewfunkenga"...... परिशिष्ट सारोद्वारे सटीके सचिः वितीयः एवं पच्चमा २२४४ एयमि गोयराई १५०० पंचवस्तुक १५१० एयामो विसेसेण १३५३५ पचवस्तुक १६६२ एमाणि गारपट्टा १५३१ पंचवस्तुक १६४८, बहत करुपमाध्य. १३१४ एक मपरिवखिए २५४४ एवं जहन्नेण: ११३ एवं जहन्नेण पंच वा १५११३ एवं धन्ना से मद्द. २७७ एवं मद्दवगुणे वट्ट. २७५ एस चेव उक्रमासो २३ मोगाहणा जहाणा १३१३ प्रोमो समराइणिमो १३६३ मोबास विसमं वाणु. ११४५३ दश सू. ५३१११ प्रोसरकणमाहिसक्कम ॥ ७६ पंचवस्तुक ३०४ प्रोसटिषणो उस्सपि. ११३१४ प्रोसप्पिणीए दोसु११४६६ पंचवस्तुक १४८७, बहत कल्पमाष्य १४१६ कडसामइनो बि ११२६ भावक प्राप्ति ३१४, संबोष प्रकरण ७१०१ करपद मादुम्बल्लेण० १६१८६ ध्यानशतक गा-४७, संबोषप्रकरणध्यानाधिकार गा.४ कपिल शस्यघाताय २५६१ कम्मविवागो कम्मण २३४८० करणतिगेणेक्षकं २०५२५ कबलस्सय परिमाण १९७५ कहामास हसण ॥५२५ पंचवस्तुक १६३१, बहतकल्पमाष्य १२९६ कति एत्य मन्ना २५६८ काऊण तासण चिय ११२१. भावक प्राप्ति-३१५ काऊनीला कम्हा २१९९बहत् संप्र.पा. २८८ कायचाइमाः (तस्वा०-६-११२२४७ कायया पुण भतीश८० काया बया सेस्किम १५२७ पंचवस्तुक १६२०, ॥१८॥ कारेमि न मनसा २१०५ कालन्मि कीरमाणं ११६६ कालाइयोसमोजह १५५ कालाम्चमो० ॥१२५ (पा.२-३-५) कालापेक्षायतिका १११६० ॥६८९॥ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काले प्रमिगहो पुण११५५ पंचवस्तुक-३.१ गणनो तिन्लेव गणा ॥४॥ प्रवचन परिशिष्ट पणिमं आई फलफोफलाइ २३०१ १.भा. १६५१ मारोदारे किकालाय.१२.१ गग्धर्वनगरं स्निग्ध १२५६ उदरणसटीके | किसकालायरले नेक० २।३०० शास्त्रबार्तास. १६६ गन्धवरधूपसम्बो ११३७ पंचाशक ४१४ सचिः कि मे कई कि च मे १६८ गन्धग्दनगरनियमा ५० केई पद्धति गाउयसया०२२३२ निशिव माध्यगाथा ३३ गम्मयतिरिनरसुर०२१३५८ कोहाईणमणुविण १।१७४ गमणागमणवियारे ।८ मा नि १५३३, कृत्यल्पुटो बहलमिति ॥१३२ व्यवहार मा पृ. १११ कृत्वा हाटककोटिभिग ११३८ मिहिपरियाए १४८.क.मा.१४१९ । कृमिकोटपतङ्गाया १६० गुणसुट्टियस्स बयण ११३८. क.मा. २४५ कृष्णाविद्रव्यसाचिण्यात् २१२११ गृहहप्रायसभा २५ पं.स. १६४१तु-पक मा १३०० कृष्णा शयते वर्ण ॥४॥ पण मूले पिर माझे ११३३६ हत्कल्पमा ३९७७ क्षणिकाः सर्वसंस्कारा: २१३७४ घणघाइकम्मकलुसंश क्षायोपशमिकाडावात् १।१०३ घयवुडमंडगाइ १।१४० क्षुत् पिपासा व शीतोष्णे ११५७१ पाउसट्टीएं मिहत्तं २।१५६ खबाइयणत्ति सेहे १४७ चउहत्थं पुण षणह २५५१ खंतो मुत्ती प्रज्जव० १.३८८ पउहि ठाणेहि माहार १०६१ स्थानाङ्ग सू.३५६ खामेइतम्रो संघ १४ ब.क.मा. १३:८ चतुर्णा करयोर्जान्योः १.५३ ॥६९ तं भरहेरवएसु १४६ पंचवस्तु १५२९, ब.क.मा. १४३१ बत्तारि उडलोए ॥३०॥ RESPARSH RUARINDIA माVARADHideindia ReOlivonsci ......... .. Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिप उद्धरण सुचिः सीके ॥६९१॥ चत्तारि विचित्ताई २१२४३ पंचव ५७४ जबत्यिक लोए २२१० स्थानाङ्गसू. ५७ घसारि सहस्साई १५६ जम्मेण तीसवरिसोश चंकमणाइसु सत्तो १५३३ ५.१६५. तु.क.भा. १३१९ जय त्रिमगतीपते। ११४१ पाउस्सालाईए १०८ पंचय गा.७०० बल्लेसाइ दवाई २१३२३ चियमंससोणियाए २११६२ स्थानाङ्ग सू. ३५६ जब बणया गोहममुग्ग ११२६४ चिलिचिलिसद्दो चुन्नो ५६१ बह वा तिलपप्पडिया २४३६ प्रज्ञापना पर ११५३४५ चोयालसय दस एक० २.५१६ मा गंठी ता पदम २४६० छस्कायदयावतोऽपि ११:७, ४४४ जह सगलसरिसवाण २४३६ प्रशापना न. पद १३५२४६ छदाणगप्रवसाणे २१५७० बहा नालिकेरदीव०४६५ शतकबहन्दूणिः अरमागे ग्रामो कीरा ११५८७ किछिपमाएणक मा. १३६८ ४४८ छम्मासियं छसु नयं २३५ प्राय नि .६४ जंघावलम्मि खीणे ५०१ पंचम १११५२२ छुम्मासे मायरिमो ग१०२५.कमा २००१ अमिबरिसम्मि २०१४३ । छिनाच्छिन्नयनपत्र. १३१६५ योगशास्त्र ३।१०३ मिसिरिपासपरिमाण छहासमा वेयणा नरिथ १५६२५ पिण्ड नि गा ६६५ मोणतं सम्म २१८५ छेयस्स आव वाणं २७२ मंट्टा उबगारे ११७२ जाकहवि घाउवेस २४३९ सामनविसेसे राम बहकिषि पमाएम २३६३ बाए उच्चिए य तयं श४७३ बाजिगमयं पवनह०१८ विशेषावश्यक मा गा २३०२ गाड्य मपति स्थूलाया श४११ जमोजमोऽवियणं परि१11८ जाणगो बाणगसगासे १।१६४ अनचाहिमवण ११५५८ पंचम १६३९५.क.मा.१३०५ जातिस्मरण स्वामिानबाब.२४२२-मायाराजटीका बत्युस्सेहगुमभो २१३१५ प.२०A L Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सारोद्वारे सटीके द्वितीयः ऋण्डः ॥६९२॥ चायण पुच्छाऽनुण्णवण १।४०५ (पंचाशक १८१६ जातियमुद्दे ११३९८ जियदु व मर व जीवो १।५५४ प्रवचनसार: ३१७० जिथपरसो जियनिदो १/३०७ जीवस्तथा निवृ तिमभ्यु• २/१८० सौचरनन्यकाव्यस १६/२९ जे बन्ने एवमाइ मेया १/४५६ . . . १५. ३२१ जेणेगेणं तवम्रो १/१५६ जे वहुप्रच्छर १/५५८ नि. खू. गा.४००२ सु केवि पएसेसु २/ जे से साइए सपज्जवसिए ३०६२/२७२ मोहसियान अंडे १२/ ३५६ प्रज्ञापना पद ३३ / स. ११९७ जो ज परं कंपतं १ / ५३३ च १६५४ तु क.मा. १२६४ मा. १३२० जो पुन उदयमईो १/५३४ को पुण तदेव मग्गं २/५३४ जो मोहे परं १/५३५ जो पुण विनश्चाय १/१४७ यो संमोदि एयासु १/४२४ पं. पंचव. १६५८ बु. क. मा. १३२४ पचच १६६० ब. क. भा. १३०६ १६२६ तु... मा १२९४ ज्ञानमप्रतिघं यस्य २/३७६ महाभारत बनपदं श्लो० ३० ज्योत्स्नादिभ्योऽण १-४८९ [पा.पू. २.१३. बा] ठस्येकः १/१६ पा. ७-३-५० for four य रूप्पो १/५३६ तयाए पोरसीए १/५०२ नजम्मे केवल ०ि १ / ३६५ पंचव. १४९८ तणडगलछारमल्लग०२५५. क. मा. ३५३५ निशीच. मा. १९५४ ततं वीणादिक ज्ञेयं २२२८३ तत्य प्रसारणा २।१० तत्थ णं एगमेगे २१२५० अनुयोगद्वार सु. ३०४ तस्य णं चोयते वावगं २।२५३ प्रज्ञापनापर २१ स्. २७२ तस्य णं जा सा उतरखेड २ / २६५ तस्थावा दुविहं ११५९५ २।३५ तदधी परिहव तदहं तोति (पा०५-१-६३१ २/४ पा. ५११६३ संजम जोगे १६३ तवेण सत्तेण सुसेण १।३५७, ४०१ खु. क. मा. १३२८ सस्यैद १११२० पा०४-३-१२० तस्सेव केइ जसकित्ति० २४३८ परिशिष्‍ उद्धरण सूचिः ॥ ६९२ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारोबारे इतोकः तहकाठियकालाम्रो २०३१० (विशेषणवतीगा I तहतह बहयमईमो १५३४ पंचव १६yt ३.क. भा. १३२५ तह देसकास जाणण १११८१ तहारूण भंते ! समज. १६९ हि कुरालोइय २१ प्रोपनि.मा. २७५ तहि बातरिया १३४८ बहस्सं.चं गा.३३ संघकहं बेइज्जा २२७ प्राब-नि.१८३ तासो भएनपतिनिकाय०२१३४१ साहेहराहि भाग २११४२ व्यवहार मा उ.मा.१७] तिमिसया तेत्तीसा उ. ११३२१ प्रा. नि.१६ तित्थयरमम्मघायरिय०१८. तित्येति नियमप्रोविनय २१४७ पंचव तिलभोयगतिलबाट १९४९ तिविह निमित एपोषक १५३.३.का मा० १३१८ तुच्या गारवकलिया १४६ (अनुयोगहार न. ३७२ तुरगेरिब तरलतरः १५१८१ सेणं वालग्गा नो अग्गी ॥२४६ अनुमोगद्वार-सूत्र ३४२ परिशिष्टं-३ तेन चरति पा०४-४-५ | उद्धरणस्वगघिरमांसद१५६५ मुचिः विविध त्रिविषनेत्यपि ०३ विरकरणा पुन मेरो ११६३भाष. मि. १२०४ रक्षिषपा स्पन्दन. १५६. रग्ये बोले यथाऽत्य.२॥३६४ तस्वार्थभाष्य १०४ मा. बाईविगहविचित. .. पं. ब. १५. बासनासमभकी ॥१७ मनुस्मृतिः ॥५ रस एक्को यकमेणं १६.४ पंचम.४.५ रस पणयाल विसोत्तर ११६०४ पंचन.४.४ रमो इकारसमो १।४नि . ५. मा. २.१.१९४ रान होई प्रफल ११४२५ पिण्ड नि०४१५ समानसमागमो १।१४८ दिसमरित्ता तिरिया ११५६६३०० भा०४२४ पंचव-११२ मो.नि ३०२॥१३ बिगबिनालं ११७५ पंचबर.२१०.१६५५ तिविहं तिबिहेब.२१५०८ तिविहं होइ निमित्तं ११५३१क. मा. १३१३ सिहि नानापूरएहि २३३४ पंचमरीका मा. ४२५ दुग्यतन जम्बो २२५४. H .. .. .. . .. ARMAme waseen metammnwunालm Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सागेद्वारे सटीके द्वितीय: झण्ड ॥६९४॥ दिपो यथा निर्वृतिः सौम्बरनन्यकाव्यसगं १६६२८ | द्रवमूर्तिस्पर्शयो: १५६३ (पा ६-१-२४) दीति य के इहं १११४७ दीहो बाहल्लपुहु० १५५२ धर्मध्याननिबद्धबुद्धि ११३९ धर्मसाधननिमित्तयुक्त० ११३८७ uttara मरियवं २२४४ ध्यानावेश विलोकिता० ११३८ दुवालसमं वरिस २३१५० निशीथ चूरिशः मा० गा० ३८१४ दुविह तिविहाय छत्रिय २५०५ भावकव्रतभङ्गप्रकरण न करेमि मरणसाSSहार० २१७५ नकरेंति मखसाहार० २७७ न कालव्यतिरेकेण २३३७ शास्त्रवार्ता समु० १६५ गा० ६ दुविहति विण पमो २२५०१ प्रावश्यक नि० १४४८ विवि पंचम २५०८ दुविहे गेली २७४ ब० क० मा० १५५०, नि० भा० २५३२ देवाण नारयाण व २.२९९ ओवसमास गा० ७४ सेवा देवीं नरा नारी १२३७ देवेज्यात्मजबान्धव० २५६० देसकुलजाई १३७ हम्म प्रसंलिहिए ११६२७०० १५७७ सो पसइ ११३४१ वोह सहस्तमा २७० बोसासह मज्झिमा १५४६ ० क० भा० ६४३५ रोहिदि नएहि २८१ विशेषाव २१३४ सम्मत्तिक प्र० lirt नऽणुमन्ने मणसाहार २७५ न मारयामीति कृतः १।१६१ न य तंपि इह पमार्ण १।१४८ नव नव य होंति कमसो २०५०१ नवरं इह परिभोगो १।१४७ नवि किचि प्रणुन्नायं १३८४ न सम्स्यनपत्यस्य २.१६४ न सम्ममिच्छो कुणइ कालं २/४८१ न सरह पमायजुत्तो ११२१० भावक प्रज्ञप्ति ३१६ सधोध प्र० भा० ११० महतचमरवासा १।१६६ न तहस तन्निमितो १४५४ प्रोपनियुक्तिः ७४८ परिशिष्टं ३ उद्धरण सूचिः ।।६९४| Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धा सटीके । नंदणयणि चत्तारि ३१८ सिद्ध प्रा. गाथा ४५ टीका | निरइगई णं भते ? ॥२६ [समवायग. १५४ नाणा प्रदूसेतो १३५३३ बि. क. भा०१३ निष्ठीवनं जुगुप्स० ११५६५ पंचव, १३५.] निष्ठीवनं वपुःस्पर्श. १।१६० परिशिष्ट नाणाइ तिहा,११५३४ पंचव०१६५७ ब. क. भा. १३.३ निस्संगया य पच्छा १।१७६ उद्धरण नाणे दंसणचरणे १७६ निःस्थामा स्थविरोधात्री ११४१६ नानन्दोदकलेशलम्पट १३८ नेइयाणं भंते ! २१४०९ प्रज्ञापनासू-३६ पर २०८९-१२ नाभुक्तं क्षीयते कर्म २११७६ नेरयाणं भंते ! सन्दे २१३०१ भगवती स. १३२.सू. २१॥ नान्यषस्तावचे यस्मा०६३ नेरइयाणं भंते सवे सम २२३०१ मगवतोस. १॥२ स२१ | नाशवेषोऽभूनं मुष्का १३१६७ [योगशास्त्र ३११२] नाश्रुत्वा विपरीतं वा १२ नेरयाणप्पामो २२१२ जीवामिगम मू.६५ गा.प. १२६) निग्घायगुजिएमु २५८ पट्टवणम्रो य दिवसो ११११८ निच्चं दुग्गहसोलो १५२ बलक: मा० १३१६ परिबंधो सहयसं २।५४४ पचासक प्र. १७३६ पंचव १६५० परिमाकप्पियतुल्लो २४७६ निजोगो उबयारो २४५३ पहिलेहण कुणतो १३४५४ पक्ष. १५१३६ निहामत्तो न सरह १।१०६ प्राव नि१५२५ प्रोधनि ३५३ निहोच्चीभूएवि २०६२ परिवनमइम्मे २/७२ निद्रोदयसमधिगताया०२१४१४ परिवज्जमाणगा पुण ११५१३ निष्पडिकम्मसरीरो १५१ पचवस्तुक १५१९.२० पडियामाण भयरणाए १३५०० नियएणुवगरणेणे ॥१६४ पहमदए छम्भंगा २१५१६ . . ॥३९५ नियतेनंव रुपेण १३७६ शास्त्रबार्ता समुश्चय १७३ । परमे सत्तए २.१६५४ :..:. Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारोद्धारे। मटीके ९८ द्वितीकः पहमम्मि म संभयो २१२४५ [ण्याहार.मा...।। पंचविहायारविसुदि. १०४ पंचविहे मायारे ११३७७ क. मा. २४३] परिशिष्ट-३ पवमम्मि सम्बजीश ११३७ [प्रो. नि.] पंचसमिया तिगुत्ता २१२५ उद्धरण पढमा बस्सयम्मि य १३५६ वृक.मा.१३३५] पंचसु सक्ताः पंच विनष्टा: २१४८१ सुधिः पणवीस नोयणाई २२३५६ पागयमणयाणं बत्तीस २१५६३ निशीष १३१४२९ पहोय होह पसियो १५३० पंचव १६४५ पाणा सोयल कुचाइया ११३७४ क. मा. १३११ पापनिवेदनगर्भः ११३८ षोडशक . पत्तं पत्ताबंधो २१.३ [मो नि ६.४ पंच-.०२) पायपमज्जणहे १३३४ परवारभिजगो पंच ११. पायाई सायरिए ११३८ परपरसेऽपि य दुविह 4 [पंच. ४० पायान्नेमिजिनः स ११५३ मा ४२२. प्रोप.नि.२९६] पायियेनोक्तत्वात् २०३५२ परियट्टीए पनिहरे ॥४५॥ पालेज्जसु गणमेयं ११३६३ पवरेहि साहहि । ३७ पंचाशक ४१६ पासस्यो माघ १७३ संबोच. प्र. देवाधि१७ पिण्डक्रियागुरणगतः ११३८ पोशाक ६ परवावेईन एसो (1) ११ पिता रक्षति कौमारे १९९९ [मनुस्मति] पसिणापसिणं सुमिणे ११५३१ पत्र १६४६ पोतफलगाइगहणे १३७४ १.क. भा. १२३१ पुविकाइयाणं पुच्छा १६ प्रज्ञापना पर १९.१४.२]. पनाचाताप्राविमः१.८ (पा. ४.३.२३] पुरवी पाउबकाए ११४५५ मोधनियुक्तिः २७४ ६९६॥ पंचपक्ष्या यजा लट्ठी ११४४५ पुत्वोपरिणामाई २।३१५ विशेषणवती गा.. पंवबिहाए पाजत्तीए ४४ भगवतीसत्रवृत्तिः ॥१।१३। पुरमो जुगमायाए । ४५५ रशकासिक श. was Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब. क. पुरिसावायं तिविहं १२५६६ [पंच ४३०११० क. भा. ४०३ पुरुष एवेदं सर्व २ । ३८० ऋग्वेद १०६० लागस्स भते ! ६ पुत्रदिसि देवरमणो ३६११ नम्वीश्वरप्रकरणसोह gaavaoणं विजय १३६३ [ क. भा. १३७२ goaपुरिसा जहोदिय ११ १८७ वाहियं सूर्य से १३४६ प्राथ. रिंग पृ. ७५/ ||६९७|| पुण्वाहियं तु तयं ४४६८ पच १४६६ ] प्रति प्रति प्रवर्तन था १११०३ प्रतिसेवनापश्वानां १ ६१८ तत्त्वार्थमाष्य अध्याय ६ सू. ४६ प्रवचन सारोद्वारे सटोके द्वितीयः WE: प्रयोजनमनुद्दिश्य १ । २ प्रवर: साधनं प्रायो १ । ३८ पृथक्त्वको बहुदा १३१३ बत्तीस कबला पुरि० १०६२३. बत्तीस किर कवला १० १५६, १७३ बत्तीस वा १२३ [. १५७ गा. ३६ ] बलावरोधि निर्दिष्ट १ । ६२६ अहं परे प्रथि २४६७ ( वश ५०२१२७) १। १८४ ३०० बभलोए कप्पे देवाण २) ३४४ प्रशापना पद. ४ सू. ४१३ are पृथिवीकायिक० २ २५० मनुयोगद्वारमूलटीका प. ८६ बाघरपज्जत २३३२ वाहतरि छायाला २५१६ बाहतरि छाहतरि २५१६ बट्टा सु । २९४ प्रा. नियुक्ति २४६ भत्ती तह बहुमाणो । १७६ भयव उसमसामी २ १२७ वसुदेवहिडी पृ. १८५ मध्यावि न सिस्सिंति २/४०६ भावलेश्या: पपीष्यते २। ३५२ तस्वार्थ भाव्य मूलटीका मावादिम १/१३२ [पा. ४-४.२०) मावियजिवयणाणं । ६२६, २।२४२ भासद सुयं दुध गच्छः २/५२६ | पंच-१३३४ ... मा १३००] मिनस सोमं मध्येन २।४६१ भिन्नपि मासकष्पं १४५४६ [ब. क. मा.६४३६] सुमनयणदंसणच्द० १५२५ [. क. मा. १२६७ ] नई मट्टियाइ व १५३० [पंच. १६४५ . . . १३११ परिशिष्टं उद्धरण सूविः १६ १७ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके me द्वितीयः ॥६९८॥ भूतस्य भाविनो वा ४६ २।४०८ मस्योरमावानियमोऽस्ति ।१९१चिोगशास्त्रटीका 101 "३२ परिशिष्टभेषजादित्वात् १।११पा. ५-४-२३] मती शय्या प्रातरुत्थाय ॥ १५७ मज्जानि रुधिरास्थीनि २१९६१ यद्यदैव यतो यावत् २०३७१ शास्त्रवाता समु. १७४ उद्धरणमज्जारमोरमक्कड श१६८ यस्य ज्ञानमनन्तमप्रति १०४० सुपिः मझे तिपासिय कुज्जा १।३३६ यस्य हलः २.११ पा.६.५-४९ मणवयकाइयविणो १६१८० यस्येति २६११ पा.६-४.१४८ मणयाणं तिरियरण १५१६६ या माहेन्द्र परा स्थिति: २ ३४४ मनसि जरसाभिभूता २३७१ येन सयमयोगाना १११८८ मरुदेवोवो पाएमतरेण १६३१३ सिद्धाभत मा. ३७ टीका योनिमंदुत्वमस्थय २१४०१ महावीरस्य भगवतः 11.६८ रयणिभिसारिपायो ११५ महिलासहाबो सरवन० २१५२ (निशीथ भा. ३५६७) रयमाइरक्खणट्ठा १।३३४ [पं.व. ८००) महमाजमसमक्खण १३१६६ राईभत्तपरिनार २१२२८ प्रावश्यकणिःमा २१.१२०) माणाइगं लक्खणं २५६२ निशोथ १३१६१४२९४ रागाधुरकटशत्रुस हुतिः १३६ माता पिता कलाचार्य २०१७६ योगविदु मा १० राजप्रतिग्रहदग्धानां ११५४४ मिच्छत्तपडिक्कमण १११०४ राजा बाहुबलि: सूर्य०११२३० मुत्तण मासकप्पं ११५४५प द. रिक्खाईमासाणं ११४१ मूसगरय उकेरे ३३. (प. ) लक्खा धायइ गुलिया १:१६५ [योगशास्त्रे ३।११२ टीका मेहनं खरता दादर्य ११४०२ लम्धापर्याप्तका २१४६१ ॥६९८ मोतु जिणाणमाणं १९१४६ लेवटमलेवर्ड वा ११७४ (पं. व. २६८] मोहोपक्षस एकस्मिन् ॥६१ लौकिकव्यवहारोऽपि १४ . ...... ...... ........... Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सटीके शितोषः परिशिष्टउद्धरण सचिः वणवबमाणमरणे ११६७ बोरो पाएमंतर पो २०१८ बस्यगंधमलङ्कार १३२२ दश. २:२] बोस इगतीस नव I बद्धिए चिप्पिए चेव ११४५ पत्थेवजेजहोरत्तं ११५५ बरगंवधूवचोक्ख. ११३८ पंचायक बेउववाहारार्ण २४६४ कामामतरीणं भते ! २।३४१ [पद. ४ सू.३६४] वेउवियसमुग्धाएर्ण २४८८ वायाकुक्कुमो पुण २५२५ [च.क, भा. १२९८] वेदो पवित्तिकाले २।४% विगई परिणइधम्मो १६१४६ वेमाणियाणगंगुल० २१३४ विगइ विगईमीयो १५१५८ वेगाणिया मोहम्मा २१५५ विगलाण य वास० २१३११ [द्वार, गा.४६]-.. | वेयावञ्च वावभावो १३१८२ विण्हवणहोमसिर० २।५३० [प.व. १६४ सत्यहि हासं १।५२६ [पं . बोहियंवो मसूरो ॥ २०१६ विरलिमाई मरिमेप्रा २॥ १४॥ निशोथ चूणि बाकटानां तबङ्गाना १६४ [ योगशास्त्र ३१०४] गा. ४८०२] शोन महता भूमिः २१५६२ । विराहियसकमाण २।३२८ पर०२० सू.१५७० सम्पूकावा ॥३३ [१] विवरीयमयगुण २४३ शास्यै बोझतु कपाल. ०३९ । विसवाणिज्ज मण्णा ।।१६५ मोऽस्पर्श १४६४ पा०८-२-४७ विस्फूजन्मदवारि० १॥३ विद्गीरादिभ्यः ॥ ११ [पा. ४-१-४१] । विहरता पायं ॥१०१ प.. गा ७१। सरकारमार्ग २१०१ बोरासगउक्कुडगास १।१७६ सम्बित्ताणे दम्बाणे. १५६ भगवती सूत्र २४ बोरासमाइसु गुणा १७६ सन्तः शम्बे हरिणः । SammMEDIA SASE NU 8352 SMARSA 1504 WATE Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन मारोद्वारे सटीके द्वितीयः खण्ड: ॥७००। सज्जेण लम्भए बिसि २०५६१ सममहिनेरइया २१३२५ सतावीस जहन्ना १५०० [पं.व. २४-३५ ] सदार तोसिस १३१६६ भाव सद्दे सनिति प्रसनित्ति य २११६१ सक्किमणो धम्मो १०१०४ समपि ति नवरं २०४९४ समतुरंगमाणा० श समयं वश्ता २४३० [प्रज्ञापना पद सू. ५४.६६ ] समग्र नियमा गुसो ११४६६ | बृ. क. मा. ४०५१ निशोथ मा. ३७] १०७ [ जाताधर्म २७१६] सम्मत्तसविरया २३७० सम्मलनाणसंजम० १०६३ सम्मसस्स यतिसु २१२९९ सम्परमादपरिज्ञानात ११५ सरदहतलायसोसो श सर्वोपदेशेन ११५ सर्वप्रवेशपर्यन्त० २/३२० सर्वे धातवः करो० ११२४ सम्वसिद्धदेवा २३५९ रिशिष्ट-३ स च प्रमणपार्ण २२२४६ महा पचवाण पयो गा.३४ उद्धरण सूचिः सव्वं च परसतया २२१७६ सवाए इड्ढीए सब्वाए १।३५ सादिय प्रज्जाम्रो २२४४ [ निशौय- मा.गा. ३९६८ ] वाहि लद्धीहि २१२४५ समो २/४५० सब्वे व मिट्टो मिग्नं २३७५ सध्ये मया मिथ्वाइणो २७८ सवय भइयारा २७२ [. नि. २१२] सध्ये सम्बद्धाए २२२५५ सपि हि २०१७५ ससमयपरसमयविक ११३७७ व् क. मा. २४१-४ सहसेगारस दुसया २।१५६ संकल्प संरभो १.३८९ कमाए दस १।३१६ [गा. ४५) संगगाहाए जो न ११८७ संघट्टत्ता पाएणं ११९० संघर्ण सठाणं ११३१२११५७३ प्रा. नि. १६० ॥७००॥ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचाइयाण कमो निग्रन्थीप्रमा.. संघासनप्रमों कोire मंनोश्यमभयो ११ मंदिगमसंविम्मे inte(प... ४.५८ पो.नि.२९६. ब.क.बा... मंदिग्य गोयन्ये मोर उदरवा सविः बिडीयः संसारमारवषये १३ सामाइयं नुका १० मावाप्राप्ति संबोध सुबमामाईयं एमवे /मा.. ] सुरबानमाइएडि ४२६ [..१३ .मा.१३.१] मुम्मूमना प्रणामा १५ मुहमा पाडियाधिय मूई रन्द्र वह २१ मृधोक्तम्यकस्याप्य ११ मेरी न बट्टे मेसा अट्ट भगा ३८ [गाबा...) मेमाम गई दम दमग पाया. ४८ सो उवर्मतकमायो १।६१६ मो उम्मको दृविहो प्राक. नि.ड, ११६६ समाविश्मशादि स्वस्थानाद या परस्थान ११०३ श्रीमहारजिनेन्द्र बीमहावीरती 18 थीहौतिकीसिद्धिका अस्वामिषेय मानाडौ । मामाइयाइवरमस्मर मामीजीवाद नवषद प्रकरण गा..] माहारामाहारी २६४५७ प्रज्ञापता पर निम्नति अलिया किर सिद्धरमयहिप्रकलय १३७ पवाशक ) सिव बाहार सिम मा arty सोधन मुहकका १३०० [...] । हीमलताप भवधि-२०१६ स्थाना३५६] हैवाहरमामये १६ मुनि मेहसमुवए २४६४ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टं विशेषनामानि १७.२॥ प्रवचनसारोद्धारे | प्रङ्गारर्मवक ६६. १३० प्रजितमिहसूरिः सटीके ममयदेवसूरिः २१६७३ द्वितीयः समयसेन, १५५६ अडः अभिनवगुप्तः भरतवृत्तिःt प्रमर १३.६ अम्बडः १३.६ मायिका २ मानन्दः १.३.५, २/२०१ मानवेवसूरिः २४.७ मानंदेवः २६७ प्रायवनस्वामी ७१ मार्यश्यामः २१४६४ उवायी ॥३०७, २४२. उमास्वातिः अवमस्वामी २०५४, २१६६ कपिलः २१, १२६ र कोतिः १०७ परिशिष्ट-४ विशेपनामानि कुम्मकः १७ कूर्मपुत्रः ११३२४ कृष्णः १७६, १९९.३०८-२०११८ अपाश्रमणः २३१० गणभृतः (मावस्यकनियु) १:११८ गम्धहस्ती ४१३ गुणसुन्दर सरिः ७ गोविन्धवाचकः ११५ भोशाश.४०९ चन्द्रकीतिः २११२५, ६.४ चन्द्रप्रभः ६३ चिलातीपुत्रः २११९६ चेटकमहाराजः ११९. अमालिः१५३४ जम्मूस्वामी १५, ५७३ हाइक: १५१३१ दुष्प्रसमः २०११ देवको १३८७ देशचन्द्रसूति:२६.१ देवप्रमसूरिः २,६७४ देवानवा ११६ स्वायुः ।।३०७ दुपदः ११८ हौपदी ११८ दीपायनः ११३०७ बनेश्वरसूरिः २०६७३ धर्मयोषः १७७५.. नविणः २।३० नारद. १३०६, २०११ नेमिचन्द्रसुरिः २४०७ मे मिबिनः ११ अमितायः ११२६७ .२॥ निगला ||१७ AAP BREAM 928KGE SRO CH Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्वारे पा. २०१२० पाण्यवः १११८ पालक: श६२ पूरणः २॥१२॥ पूर्वगणतः (हरिभद्राः) १३७ पोट्टिलकः १।३०७ प्रमावती २०१८ असत्रचन्द्रः शप्रमकः ॥ बलदेवः ॥२०७ बारक; १५४६ वासुदेवः १८२, २१३०५ विक्रमसिंहः १०६ विजयसेन. १६७२ बोरक: १८०-२११२३ शिकायी श६२४ परिशिष्टविशेषनामानि सटीके सम्यम्मव: १६ सङ्कवासः । सतालिः ॥३०७ महाबलः २१११७ महावीरः २१२६, ३.३ माषतुषः मुञ्जनप: २१६७३ मुनिसुव्रतः ११२२ महोदेवः . यशोमतः १६. युधिष्ठिरः २०१५ रेवती 1300 रेवतका १t रोहिणी ॥१० बहरस्वामी २ पचास्वामी , स.५ बनमाला २१२३ परपम्मः ॥११० वर्षमानसूरिस ॥६३ वर्षमानस्वामी २५४, ६२४ वात्स्यायन: २२० मोधरः श६७४ माष्यकार: (भातञ्जलिः) २११४ माष्यकृत् ३५, १६५ मरीचिः ॥१६, १९९ महदेवी १।३११, ३१६, १२३ मल्लिः २११८, १२६, २१, महाकालम् २०१७४, ३०४ पीतलः १ १२ भूलरमजरी १९७७ श्यामार्क: १६ श्रीकान्तः | सौगोदनी INE मीनाप्रभमुभिः । बीबन्द्रदरिः १३.८ बोमोश्वरमरिः ॥ RERaisinophetronilioni Sikari सममवादिनः (हरिमा:) E H S 4.INHEBAKK Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सम्भूतविजय: १/६ सङ्गमः २२३०१ सारोद्वारे सिद्धसेन सूरि : २१६७३ सटीके सुनन्द: ५।३०७ सुपा : १३०४, ३०७ सुस्थितः २.१२० सुमतिः २२१२३ द्वितीयः खण्ड: 1100811 प्रपरकङ्का ।११४. अपरविदेहाः २४१७ प्राणपुरी / २६५ अवन्ति: १७७ अष्टापदः १०६५ यन्तगिरिः १२६४ उत्तरापथः २५६ कामी २.४८ काम्पिल्यपुरं २०११ कुसुमन २०४८ कर्मग्रामः २।६२४. कीशास्त्री २११२२ त्रिप्रामः २।११७ सुमुखः २।१२२ सुलसा २।२०५ सुविधिः १।१२८ सुहस्ती १६ कम्बकः २६४७ स्थूलम: १।६,५७३ स्वातिबुद्धः १३०६ परिशिष्टम्-५ क्षेत्रनामानि चमरचा २।१२६ चम्पापुरी १२६४, २०१४६, १२२ जम्बूद्वीप: २१११७ पथः २६४८ द्वारमती १०८ द्वीपः २.४८ घातकीखण्डः २।११६. पाटलीपुत्र २४८, २२६२१ ब्राह्मणकुण्डग्रामः २२११६ बिमेल: २।१२५ भरतक्षेत्रं २।११६ मथुरा १।५४६ हरिणी २१२४ हरिणेयमेषी २।११६ हरिकेस: २०५३० हरिमसूरिः ११९६, ०१२५० २९६.३४१५२, ३५३ हरिः २१२४ हेमसूरि : १३२३० मिथिला २१८ वरणसमुद्रः २११२० वारस ११५४६ २११७ सम्मेलझेलः १।२६५ सलिलावतो विजयः २ ११७ सिणवल्ली १।११६. सुसुमापुरुं २।१२६ श्रीपुर १.७६ श्रीरेवतक: ११८१ स्वयम्भूरमणः २३१५६ हरिवन २।२२४ हस्तिनागपुर २।११६ परिशिष्ट-५ क्षेत्रनामानि ॥७०४|| Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम-६ शास्त्रनामानि परिशिष्ट-६ प्रयोगारनि:४६ रीका २५ मोगदारलटीका २० आयोगद्वारसूत्रम २.४४ प्रयोगद्वारालि उत्तराध्यमिक उषामाशा: २५ पायनियु स. ११४८४२११." भीषपातिकम १४अग्रहतियार सम्प्र कृतिः ४, ५. विष्टिरिता १.२३. स्यकामिकम् २०१० मातस्कम् , नामानि ५ . होयसागरप्रतिसाहनी भावाराहनिय वित: it. नमस्कार ! भिवानकलिका १९५५ विशोषणिः १७.३.y बायकलियु गित ०६ पास २१,२१८, ४२७.६ मिशीष १७., M. बीबममा पति: 10 मामा शाक सवाभाय ६५९,२३४४, २५५ पचवमकम् ॥४,४Ex 49. मायाममतीका . Jimma male Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mमाल A mmhemmmmw - naam सम्मोदीका जमवती , मरत (पत्र) इति::e wearin गोयद्यास्वम 13 योनिप्रामृतम् । ललितविस्तरा ३५ बलुदेवाचरित २५ सामाचारी अबकः ornwar HERemem १०.३१ 5 PEARS A KESOMETRO NEARCISES Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टं ७ ममानग्रंयगायांकाः ..विक्रमीयाचशे शसके यो प्रक म्नमुरिधिरचित नबसलयामात्मक विचारसारास्यप्रकरणे सपारशलत्रयाधिका परिवार मामा प्रबचनसारोद्धारासाविसमाना: बसन्तअत्र सामा गामानामंकाः प्रदाय सेवाप्रमा... शवामुक्का, २३६-४-35 .. ... माना जा १३-१०३-२०- ७२७-८, ५३०-२ Re- ३६, ७३७, ७३४ १२८-4=her. ३००३६३ var GOODarasinitisalthOsTMKAURATN A र ..... Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4000 OMSH6 0 -70810 Airite 4 11: airemideo 蔡装游離去 本杰墨器縣等聯 年十 | 好身材, 标语, 199 b. - 而 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान परिशिष्ट ८ ममानविषयग्रन्थम्याननिर्देशः प्रबनसारोबारे अनेकाः मूलवामा:विविवशास्त्रम्य उदयता:मम्ति प्रयाभि: यामातापिकाना गायानां मृलस्थवं प्राचीन साम्र र्ष सो मूचित्र प्रदम्यते । प्रथमारायलम्यून लोसकालगलि प्रवचनसारोडारबाबामक नतः = एनारसचिहानम्सरहा सत्र नत्र लिखितमशास्त्रस्य नसम्प्रकरणारिखका विजयम् । प्राचारानिनि : 925%3D ३९ 7741500,837.8% ८५.5,8478-७१५४ महलमति 1389%32,1394--13 1064-0.10931,1448:२४, अनुयोगदारसूत्रम् 1 39-4 1021391 %D३३९.. 1456-1467%-१३१-२,१५३४.११३३-८२३४० *बाबायकनियुक्तिः १३४४३७. ... 1470-1=15118 पावश्यकमाध्यम 988204124%3D1 183-4%3D1५३... 203-83 81.18.3,247-१et, स्थान उत्तराध्ययन मुत्रम- . 9:00-00 २८1१६, १८.. उनराध्ययन नियुक्ति: E91-८२, 760-13/२-३। 694228 700 750%3D१४ 1608-12 =२१२, २४, २१५, 758-764448-4६ REE,7673 ६७ १ इदं तु जोध्या-मावस्यामिषु वित-भावकभाध्यगाथाद्वानि पावाहारिमडीयवृतियुतमावश्यकनियू .au Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pindee प्रवचन सारोद्धारे । परिशिष्ट ८ समानविषय सरी || स्थाननिर्देश 1014-6-२-२-४ उपदेशपरम् 1094-१७ प्रोधनियुक्तिः -491-53D६६८.६, 506-518-७.३, ७०५, ७.८, ११, ७१३, १४, १,०३, ७१०, ७१२, ६६१,७०६, ७२, 529-580 =६७६06703७३०, 709-710%D३१३-४,770%D१२१.786-३१६, 789- ३१७ 861-६६०,864-5-३५१.२ मोधनियुक्पि भाष्यम् - 531-8-३१३-१२०, 55-२, 5692, 1783८४.५ कर्मग्रन्धः ( प्राचीन) 12413१५, 1251-१७, 1262-1273D1102.२, 1276 : 106, 1300:४१३, 1302 3D४५.६, 1305:४३४. 18171१६६ चेहप्रवण महामास 66-१८,247 = ४७८ 249-262-४६-४६432-६३ १३२, १२५-६, ७३१, १२३ १२४, १७, १३०, १३२, १३३, 1133-1-११-२०, 13.03 %D६ 1311-१६२, 1317-२५,131930२,1391 -१८, 11943१०३ ज्योतिएकरण्डक प्र 1020%D00 1990-1-७३.७१ अम्बूद्वीपप्रजाप्ति: 13903२ यमरत्नप्रकरणम्--1356-8 = ५-७ दशवकालिकनियुक्तिः --- 270-1-५७८,543-550- ३२५.६, 555 =४६,559-560-19-5, 891-5-२५३.७ 1004-5 %D२५२.३, 1062-5-२५६.२६३ चमसहगी 1263-5-६१८-२०, निशीय भाष्पम् - 433-4-१३९०-१,4g-१३१२ 676-8-४००३,४८०१-२, 790-1-३५०१793%D३५६१, 795.6-३७०६-१० 800-83११४४. -6-८, ११५८-९, १६०.२ 850-3:५०७, ५००६, ५०८८,५०८९ 1001-3:४८३३.५ पंचकरूपमाष्यम्-7901 =२८८.१ 963-13.४, 1018-10522 JALORENA SAXCOMVAHaim erola SEASRANCHI Diwalisesa n eleritatio n shindestinaleontioneinsteadinniliMANANEEDSee Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ins प्रवचन पचासङ्ग्रह:-1274-३११ 12513:३४,12008-१४३ एचनिन्थी प्रकरणा719%D४, 723-6=५.१३.३.१; 7-18 9:३२.४ पाप्रकरणम612-6-३१७-२१, 2035--१, 207-10-11२७-३०.563=1३1३571-8=१८.३-७ 600२५. 6.50-4-१४१०.८.१२, १६.. ३२ 656-5= 3GP 720%६२ 763-1-11२-३ 763-4 = १२६१०.१४ 839 845== १४-१ 862=१५४४३ 985-7= १०।१७९ पचवस्तुकप्रकरणम् 217-३७१,494--0y, 533-२७.611-4-१९३८-४१,623-83१५४७-५२, 1709-710E NE-Y0745306, 7683३०, 72-3:१५.६, 78023१३२८-३० 8716:00-8-4.१५७४-५ 885-6 = २६.. पिण्डविगुद्धिः- . प्रमापनासूत्रम: .:.-:891-2-पद १/८६-३, 895%D0६६, 20 /गा. १३१, 950-1-सू. ११०/मा. परिसिध्द १५६ १२१, १२२ 1131 = १९४३१५१ समान1587.92%ासू.१०२ गा.११२-. बहस्संग्रहमी विषय968-9 =१२,1072-3:२३९, २४५ ग्रन्थ1075-6%D२३३- - 1079-83-२७१-२८२, २८ 1091-8- ६. ३३३.४, ३१२-४, 10093३०४ निर्देश: 110243३११, ३१०, ३० 1110-3423111720%१७०.१६,५७१-271124-7%D३३७-८yari 1129-1130-१२,14,1138-40 =५,६४ 11433१२,11463 1147-54=३५-७, ५७। ११.२०,1155-8 =१४३-४४,१४८, 1161-5 =20.४, 1167-11 =१५०-४, 1172-4%3Dur १४६. १८०,1177-8-१५, १४, 1180-5-18 २००-२,२१४,1187% २१५,1215-7-३०३-१.३१२, 13173३६३, 14393१८१. 564-5:३४ ... 734-8 D६६२-६ 866-8% D0-१, ५२६ 864-870%3D२६.७, ६४२६५४.३ 498 %D१३२८, 614%D१४३६, 624-8 = ४५ --- ---- Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारे सटीके द्वितीयः ७१२॥ 650 = ६३६१, 663 = १७७५, 709-710% ४३.४, 770%D६५८ 775-6 =४.८६-७,783-9१५८६.८, ४६१ 797-9= ३८१४-२, 500-3%3D ३५२५-६, ३५३०, ३५२,805-8 = ३५५६.१.३५-४३, 850-3 -२५३२, ८३, २८३३, ३४, 87I.3 ५८-५.879-80-१४६४.५, 1001-3: ६७३.५ विशेषणवतो-1396 = १ . . . मगवतीमूत्रम-1449 = ६५४३ 760 0 ९०१1085- 13,1443 = ६.५१२४३ व्यवहारसूत्रभाष्यम्-750%3D1३,770 23.2 गा.२० 780-1 उ.३ । गा.१५.६ समवायांगसूत्रम-१८८६-१५,1209-10१५८४७-८ स्पानाङ्गसूत्रम-885-6-. ७७७ ___1218-31% D६७३.१.१४ संतिकर- 373-6=७.१., सप्ततिशतस्थानप्रकरणम 440 = २०८ संबोषप्रकरण 103:१८, 106-२१२. 124)= १७. | 238-18२, 26-4:---१४१267.01.१४६.269%3D ७.१४८,271-2--६१५०-,277-80-७३७, ४७.४८,६४, 28330१९%, 286=१३८ 432%3D१७, 443-5-१/४- 452-११४ विषय491 ॥१८, 551-2-२२30, २३, 557-२६८, ग्रन्थ 56221३१, 565-6-२२७.-1.568 -१२७१ 636-२।०३४,6403३१२३८, 641 -२.२३६. निर्देश 644 - २।१६,719 -२०२४१,728 = २४६ 734-२७१.7392२७७, 745-२२२80. 754-8 -११५३-६,809 =१३८,836 = ४.३० 837 =४।३२, 855१२६७.858 =१७,859%3D १२।७१,891-,927-४६..928:४६ 934-४.६%,945:४८४,946-४८.949%3D४.८८, 950-४८९,977-११.980= ६.८%981-2%3FICE ० 949:04, 950-४८६, 984-६९६, 986-६%989 = ६.१०४,992-3-६१०३, ११० 1057-१४५.1064-5201६५,६६,1238 = ३।३२, 1242-3:३१३७-८ 1244 = ३३१, 12473/२, 1354-5-11-२००,1356-8-५४६,७,८ श्रावस्वतमङ्गप्रकरणम्-1323-50%2-१४, १६-05, ७१२॥ : S Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रकम् सटीके पत्रं पंक्ति शुद्धम प्रबजार- 1 Kze सारोद्वारे ११ । पयविभागः १७ १ साधुम्यः २. १२ निर्णय २५ ८ तव ॥७१३॥ २६ ७ तस्मिन् २७ ३ पालम्बनावे: २७ १९ मालम्बन करोति २१ १. पंचम ३६ ५ दर्शनात् ३ भ्र युगमा ६ अंमुल्ल ६४१ विट्ठी ६४ ५ क्रियास्थानं ६४. १२ तृतीय, ६५ १ निसृजति ६५ १ फाण्डादिक ६५६ दिद्विविवज्जासउ ६६ ७ कारणा * शुद्धिपत्रकम् , पत्रे पंक्ति शुद्धम् ६६ ८ ०समुद्भुतं ६१ ५ मुत्कर्षतो ७० ३. संमस० ७३ १३ वश विध ०१६ पाठः। ' ८. ७ साझाकरण ८. ७ तस्माद्धाव. १०४ निम्पत्ति ९०yनिध्पन्न १० परिकम १० १० गृहद्भिः १३.१ धारणा तह 1४५ केवली Ev७ जानात्येव ६७ १४ श्राद्धजीत. १०० ४ गुरोरन्वेषणा १०. ७ षणार्थ १०२ ११ धुवंति १०५ १. सध्दजणस्स पत्रं पंक्ति शुद्धम १.६ ५ भागो ११० ४ खंधे ११२ ८ लियेति ११३ ५ तिबंदु १.४ लाना११८ । धर्मकथा ११६ ३ वपनाम ११६ १३ नागपुरावय। ११६ १५ नापिता १२४ । हरिहरिणी १२६ १२ जाज्वल्या १.६ १३ मुमोच १२७ सम्पत्तिसज्ज १२८ १५ वसुदेवहिरिग्रन्थे १३४ १५ माषणम् १३६ ४ अद्धा १३६ १५ न मृषा १४६ १० मय Prespearesolitanasan n atansitinction ......mandednekaandicenseduslidudukailerstudiciendslating Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन पत्रं पंक्ति शुद्धम् सारोद्वारे १४७ १ माघवईए १५० १३ पशुप्रभाया सटीके १३ द्वितीय: सणः ॥७१४॥ १५४ ७ १५५ १२ पट् १५४ १ ान जायते १६४ १३ कुमः १६६ १३ संवेगो १६७ ६ कतार ● १६७ E 'दुरुश्रु० ४ "तथादि १७० १६३ C स्टाम् १९३ ११ सम्बध्यते, १६६ १३ १६७ ११ २०० ० पुरुष: लाडू विकम् १६ ० कोटोनां २०६. 新 पच २०६ १६ जीवाविका छक्क पत्रं पंक्ति शुद्धम् २१० १५ (१४) २५० १६ महीयसी =२४ ५ तिष्ठति २३१ ८ "बाया• २३२ १६ दृश्यते २३३ १ नीयते २४० तेऽमी २५४ २५६ २५७ २७० いちゅ २७२ २०७ २८२ २८४ २९६ २९६ छ ३ मर्याष्टयो ४ दश मिश्र ४ पत्योपमयोः = १४ ३ १३ गृह्यन्ते भागबन्धः तथा च तत्सू तिथिहेण १ रुसु ७ oh ro १५ नामिद्रता० संखा तिरथ पत्रं पंक्ति शुद्धम् ३:४ ८ सामन्नं ३ .५ ११ तह ३४६ छ ३५२ ३५७ ܕ ܐ ६ तस्वार्थ १९ सविजा ३७६ १३ यं ३८६ ४ संती ३८६ * ५० षष्ठ कुन्नाचः १ गोमूत्र काण्यनेकस्यां १५ चतु ४१६ १२ तेजस Хак १४ ४२८ १ जाति: ४३० ४४३ ४५ १ ४५४ ર ४७० ९ गुरुवंप्रा० ५ सर्वसङ्ख्या ४ चांशस्य १ प्रभृतयः १ अरुपिण: osप्रमतो शुद्धि पत्रकम् १७१४॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साराद्वारे पत्रकम् -७१५॥ पत्र पंक्ति शूद्धम् | पत्रं पंक्ति शुद्धम् ७६ १४ क्षायोपशमिकक्षायिको. | ५४२ ७ होनानि शामिकभेदात ४८१ १३ परलोकगमनम ५४६२४ मृभागे ५४८ ७ भायेगुलेण ४८६, १६ प्रज्ञापनायां ५४९८ दुख्छलक्षणः ५०३१५ क्वचिद. ५.६ १. उत्तरगुण. ५५४ १ वर्षमा ११३ अष्टमनवमयानंबन ५६४ ६ मसाइ ५६४ १४ पुणो. १२ ५ षड्भङ्गया तथा एक . ५६५ ५ यवनिष्पन्न ५१२ ११ स्थूल प्रा. ५६७ १० द्वितीयं ५१३ १ स्थूलं ५६६ णाधिक ५१६ स्थापनायाम् ५.५३४. १२६. १७२ ६ चतुर्णा बिo ५७६ ९ द्वीपः .... ५१८ .१४ प्रबहर '५७८ १० पलिय.... ५२३ ४ बच्चि ५८८ ८ गिज्जति ५२७ २ मायामा ५४६ पथिए ५३. ७ वर्ष ५१८ ११ महागजितसमो ध्वनि ५४१ ३ . निस्पयते ६०१ १ नोक्तिस्तावर पत्रं पंक्ति शुद्धम ६८ १० ककेल्लि. ६१२ १ शतसमुच्छित ६२३ ११ बीज ६२६ ११ समिय चरणमि ६२६ १६ निष्कि ६३३६ बीया ६३३ १२ नवरं ६४. ततोऽष्टी ६४. ६ मोमिता ६४६ ५ मेतानि ६६६ १६ एभिनंगरे ६६६ १६ बसाना ६६७ १२ ताम्र लप्ति ६७३....१२ पवन स्फू० ६७६ मत्र लघु प्रवचनसासे...द्वारे मुद्राक्षरमोन अनु.... स्वारविन्द्वादयः स्पष्ट न श्यते-ते तु. वाचकेन । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ naramanand * स टी के एस प्रवचन साराहार: + + + - द्वितीया बराड: - समाप्त: // श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः // "DARSHILPIEC OOTTAMOROOM.