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जिन प्रवचन का सार प्रस्तावना
एक गाथा के लिए प्रवचन
___ गाया क्रमांक १०१३ (द्वार क्रमांक १५७ में 'मोत्तण ग्रोही...........गाथा पाती है। इस द्वार की १००६ से सारोद्धारे
। १०२. तक की गाथाएं उत्तराध्ययन नियुक्ति में से ली हुई है। इसमें १८१३ क्रमांक को गाथा की व्याख्या सटीके
चूणिकार महषि ने नहीं की है। बादिवेताल शान्तिसूरि महाराज ने मी उत्तराध्ययन वृत्ति में लिखा है कि
यहां 'मोत्तूण ... .' गाया है, लेकिन इसका अर्थ चूणिकार ने नहीं लिखा है इसलिए लिखते नहीं है। ॥१०॥ इस प्रकार इस गाया की व्याख्या कहीं भी दृष्टिगोचर न होने से हमारे लिए यह समस्या हुई कि इस
गाथा के विविध पाहों में से किस पाठमो दहीकृत करें । बाद में एक पाठ को उपर स्वीकृत कर दूसरे पाठों को टिप्पण में स्थान दिया लेकिन हमें संतोष नहीं हुआ।
पाटणस्थित हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर से उत्तराध्ययन नियुक्ति को हस्तप्रते नीकलवाकर देखी, तो मी समस्या ज्यों कि त्यों रही, क्योंकि दो प्रतो में भिन्न-भिन्न पाठ मिले।
तत्पश्चात्, प्रवचन सारोद्धार की भी उदयप्रभसूरि कृत विषमपदवृत्ति को हस्तप्रत हमने देखी तो वहां उक्त गाथा का अर्थ मिला।
यह सामग्री प्रस्तुत द्वार छप जाने के बाद ध्यान में पाने से वहां हम नहीं दे सके हैं। परिशिष्ट १-विशेष टिप्पण में उस सामग्री को रख दिया है। (द्रष्टव्यः पृ.६७६)
साभार वचन पूज्यपाद शासन प्रमादक प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कारसूरीश्ववरजी महाराजा, पूज्यपाद वर्धमान तपोनिधि आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनमानुसूरीश्वरजी महाराजा एवं प्रागम विशारद पूज्य पंन्यास प्रवर श्री जयघोष विजयजी महाराज की प्रेरणा से हमने प्रस्तुत सम्पादन कार्य शुरु किया था, जो देव-गुरुकृपा से प्राज परिपूर्ण हुप्रा।