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प्रवचन
सारीद्वारे
मटीके
द्वितीय:
प्राचीन गाथाओं के मूलस्रोत की खोज
प्रस्तुत ग्रन्थ की गाथानों में से बहुतसी गाथाएं प्रत्थकार महर्षि ने प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत की है. ऐसी गायों का मूल स्थान प्रागनग्रंथ, नियुक्तियां माध्य, प्रकरण ग्रन्थ, कर्मग्रन्थ प्रावि में हम खोज सके हैं और उस उस स्थल पर गाथाओंों के पश्चात् स्ववेर ब्रोकेट में वह मूलस्थान दिया है' ।
इसके अतिरिक्त भी कुछ ऐसी गाथाएं है जिनका मूलस्रोत- सन्दर्भ तो हमें नहीं मिला, किन्तु वे गाथाएं marines की erfrमद्रोय वृत्ति यादि प्राचीन ग्रन्थों में भी उद्धृत के रूप में है, अतः निश्चित है कि ये गाय मान्यकार को रचित शायद नहीं है, किन्तु प्राचीन है। इस उद्धरण का उल्लेख हमने वहां वहां टिप्पण में दिया है। [य] द्वार १२१ गाथा ८१८-३५ द्वार २७२ मा १५७१-९, द्वार २७० गा, १४६६ से ] टीका एवं टीकाकार महर्षि
स्वविकाशिनी नाम की सरल एवं विशद टीका के रचयिता हैं प्राचार्य श्री सिद्धसेन सूरिजी महाराजा । प्रस्तुत टोक के अन्त में उन्होंने अपनी पट्टावली इस रूप में दी है- चन्द्रगच्छीय श्राचार्य श्री अभयवेक्ष सूरि धनेश्वर सूरि प्रजितसिंह सूरि वर्षमानसूरि श्री चन्प्रभ मुनिपति श्री मद्रेश्वर सूरि प्रजितसिंह सूरि श्रीदेव सूरि-श्री सिद्धसेन सूरि
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टीका को रचना अपने करि(पाठान्तरः- कर-सागर-रवि-सङ्ख्ये विक्रमनूप तिवत्सरे' की है ( प्रशस्ति ) अर्थात् यह टीका ग्रन्थ विक्रम के १२४२, १२४८ या १२७८ वें वर्ष में रचित हुआ है ।
प्रस्तुत टीका में टीकाकार महर्षि ने स्वरचित तीन प्रत्थों का उल्लेख किया है। 'तथा चावोचाम स्तुतिषु [भा, १ प. ५४८ ], तथा चाचमहि श्री पद्मप्रभवरित्रे [मा. २ प ६५० ] श्रस्मदुपरचिता सामाचारी निरीक्षणोया [भा २.६५७] यद्यपि इन तीन प्रत्थों में से एक मो श्रमी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । १ परिशिष्ट में भी मूलगाथाओं का स्रोत अलग बताया है ।
जिन
प्रवचन
का सार प्रस्तावना
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