Book Title: Siddh Hemchandra Vyakaranam
Author(s): Himanshuvijay
Publisher: Anandji Kalyanji Pedhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहमचन्द्र व्याकरणम् । कर्ता, कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यः - day सम्पादकः मुनिहिमांशुविजयः न्यायकाव्यतीर्थः । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - कलिकालसर्वज्ञहेमचन्द्रसरिप्रणीतश्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनस्वोपज्ञ- . लघु वृत्तिः तथा $$$$***********HEKKØKKBOROSA स्वोपज्ञतत्त्वप्रकाशिकावृत्त्यपेता- टमाऽध्यायत्मक प्राकृतव्याकरणम् [ सिद्धहेमशब्दानुशासनस्त्रस्याकारादिवर्णानुक्रम -धातुपाठ-अनुबन्धकारिका-लिङ्गानुशासन न्यायसंग्रह-उणादिसहितम् ] सम्पादका मुनिहिमांशुविजयः न्यायकाव्यतीर्थः । श्रीआनन्दजीकल्याणजीपेढीकार्यवाहकैः प्रकाशितम् NO. विक्रम सं. २००६ इस्वीसन् १९५० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्यम् १६-०-० प्रमिलान शेठ आणदजी कल्याणजीनी पेढी Co. सवेरीबार पटणीनी सरकी-अमदावाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000 00000 0000000000000000000000000 प्र बे बोल son • जगतमा जीवोनी मन वचन अने कायाद्वारा अनेकविध प्रव. चिओ थाय छे. आ अनेकजातनी प्रवृत्तिओमाथी कोइ पण एक बर्गनी प्रवृत्तिना सचोट अने व्यवस्थित नियम घडवामां आवे छे तेने जनसमुहनी ते प्रवृत्तिनु शास्त्र कहे छे. ___ कोइपण शास्त्र जे विषयने नियम पूर्वक चर्चे ते विषयतो जग मा तेनी रचनानी पूर्वेज बनतो होय छे. व्याकरणशास्त्रो रचायां ते पहेलो पण भाषा तो बोलाती ज अने वैद्यकशास्त्रना ग्रंथो रचाया ते पहेलो पण लोको पोताना रोगोने औषधिथी मटाडता. पण ज्यारे शास्त्ररचना थाय त्यारे पृथक् पृथक् लोकोद्वारा थती पद्धतिओने ते सरणि पूर्वक गोठवे छे अने तेना चोकस नियमो घडे छे. आ संस्कृतभाषा प्रण एक काले जनसमूहनी भाषा हती. परंतु जते दिवसे तेमा फेरफार थतां तेमाथी प्राकृतभाषाओ बनी अने ते भाषाओ पण समयना व्हेणसाथे परावर्सन पामतां गुजराती, मराठी, हिंदी, बंगाळी विगेरे भिन्न भिन्ननामे भिन्न भिन्न रुपान्तरो पामी प्रसिद्धिने पामी. आम छतां भारतना एक छेडाथी बीजा छेडा सुषी वत्वचिंतकोनी भाषा तो संस्कृतज रही. अने ते नवीन फेरफारोथी अटकी नियमबद्ध बनी अने आजे सेंकडो वर्ष थयां संस्कृत भाषा मान्तर विना तेज़ स्वरुपे आपणी पासे मोजुद छे. आ भाषामा सेंकडो हजारो वर्षपूर्वे थयेला तपस्वी महर्षिओनो आयात्मिक विकासक्रमनो इतिहास अने भारतनीश्रमण अने ब्राह्मण संस्कृति आंतप्रोत भरेली छे. मा संस्कृत भाषाना ज्ञानमाटे कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्रशरिजी ए सिद्धहेमशब्दानुशासन नामनो महाग्रंथ बनाव्यो ते पहेला पाणि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीनुं व्याकरण, शाकटायन- व्याकरण, चांद्रव्याकरण विगेरे घणां व्याकरणो हता. आम छतां ते व्याकरणमा केटलांक अति दुर्गम, केटलांक अपूर्ण अने केटलाक गुंचवाडा भरेला होवाथी अभ्यासकोने अति कठिन पडतां. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्रसूरिए पोतानी पूर्वेनां सर्व व्याकरणो अवगाही पद्धतिसर नवीन संकलनापूर्वक सर्व भाषा ओना ज्ञानमाटे अभ्यासकनी सुगमताने ध्यान राखी सर्वांगसंपूर्ण सिद्धहेमशब्दानुशासन नामर्नु व्याकरण बनाव्यु. आ सिद्धहेमशब्दानु. शासनमां सिद्ध शब्दथी सिद्धराज अने हैम शब्दथी पोताना नामनो उल्लेख छे. कारणके आ व्याकरणनी रचना सिद्धराजनी विज्ञप्तिथी थयेल होवाथी अने घणा विद्वानोथी पण न करी शकायं तेवु बृहत् कार्य एकल हाथे एक वर्षमा हेमचंद्रसूरिए कर्यु होवाथी बन्नेना पूण्य नामथी अंकित आ ग्रंथy नाम सिद्धहेम राखवामां आव्यु. सिद्धराज अने श्रीहेमचंद्रसूरिनो अल्प परिचय. गुजरातनी वढीयार भूमिमां पंचासर नजीकना जंगलमा एक झाड नीचे झोळीमां बाळकने हींचोळ्ती माताने शीलसरिनां दर्शन थयां. आ मुनिए वनराज समान आनंद करता ते बाळकने वनराज कही संबोध्यो. जते दीवसे आ वाळके अणहिलपुर पाटण वसाव्यु अने वि. सं. ८०२ मां ते शीलांकमरिना आशीर्वादपूर्वक राज्यारूढ थयो. वि. सं. ८०२ थी मांडी गुजरातना राजाओ *जैनमुनिओना संसर्गवान अने जैनमंत्रीओनी बुद्धिबळथी गुजरातने नवपल्लवित करनारा बन्या छे. वनराजना ६० वर्षना राज्यकाळ पछी योगराज, क्षेमराज, भूवड, वैरसिंह, रत्नादित्य अने सामंतसिंह. अनुक्रमे ३५, २५, २९, २५, १५, अने ७ वर्ष गुजरातना राजवी बन्या. आम चावडावंशनु राज्य १९६ वर्षे रघु. ___* गूर्जराणामिदं राज्यं धनराजात्प्रत्भत्यपि । जैनस्तु स्थापितं, मन्त्रैस्तद्वेषी नैव नन्दति Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामंतसिंहने लीलादेवी नामनी भगिनी हती. आ लीलादेवी चौलुक्यवंशना राज नामना कुमारने परणी, आ लीलादेवीने मूळ नामनो पुत्र थयो. तेणे सामंतसिंह पछी गुजरातनुं राज्य ५५ वर्ष भोगव्युं. मूळराज पछी चामुंड, वल्लभराज, दुर्लभराज, मीमदेव अने कर्णदेवे अनुक्रमे १३ वर्ष, ६ मास, १३ वर्ष अने छ मास, ४२ वर्ष बने २० वर्ष राज्य कयु. आ पछी वि. सं. ११५० मा सिद्धराज पाटणनी गादी उपर आव्यो. मूलराज पछीनुं वंशवृक्ष आ प्रमाणे छे. मूलराज चामुंड पलभराज दुलेमराज नागराज मीमदेव .. कर्णदेव क्षेमराज देवप्रसाद त्रिभुवनपाल सिद्धराज जयसिंह कुमारपाल महीपाल, कीर्तिपाल सिद्धराजनो जन्म वि. सं. ११४३ मा थयो इतो अने मृत्यु ११९९ मा थयुं हतुं. सिद्धराज जयसिंहनी ऋण वर्षनी उम्मर हती स्वारेज तेना, पिता कणे ११४६मां तेने राज्यारुढ कर्यों पण कर्मठे'. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसात ११५० मा थतां खरो राज्याधिकारी तो ११५१ मांज सिद्धराज जयसिंह बन्यो. 1. वि. सं. ११९३मां सिद्धराज जयसिंहे मालवराजना यशोवर्मानो पराभव कर्यो, अने मालवामांथी लावेला ग्रंथसंदर्भमा भोज रचित सरस्वती कंठाभरण विगेरे ग्रंथो जोता सिदराज जयसिंहने पोतानी अदलक संपत्ति अने सत्ता विद्याव्यासंग विना निरस जेवां लाग्यां. तेणे सभा सामे दृष्टि फेरवी. आवा कोई अपूर्व ग्रंथनी रचना करवा विद्वानोने निमंत्रण आप्यु. राजसभाना विद्वानोए हेमचंद्रसूरिनुं नाम सिद्धराज आगळ रजु कयु. *सिद्धराजे आ पछी कोई सुंदर ध्याकरण ग्रंथ बनाववानी आचार्य हेमचंद्रसूरिने विज्ञप्ति करी. हेमचंद्रमरिए ते काळनां प्रसिद्ध व्याकरणोनी आठ प्रतिओ. मंगावी अने एक वर्षना टुंक गाळामां +सवालाख श्लोक प्रमाण 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामनु पंचांग व्याकरण बनाव्यु. कलिकाळ सर्वज्ञ हेमचंद्रसूरि सिद्धराज अने कुमारपाळ ए त्रणेना जन्मकाळमां बहु वर्षनु अंतर नथी, सिद्धराजनों जन्म वि. सं. ११४३ मां, हेमचंद्रसरिनो जन्म वि. सं. ११४५मां अने कुमारपालनो जन्म वि. सं. ११४९मा थयो हतो. कलिकाळ सर्वज्ञ हेमचंद्रसरि, सिद्धराज अने परमाईद कुमारपाळ भ संवधर्मा घणं प्राचीन साहित्य मले छे अनेते प्राचीन साहित्यने * यशो मम तव च्यातिः पुण्यं च मुनिनायकः विश्वलोकोपकाराय कुरु व्याकरणं नवम् ॥९ प्रबंधचिंतामणि. + श्रोहेमचन्द्राचार्यः श्रीसिद्धहेमाभिधान अभिनवं पञ्चांगमपिव्याकरसपलक्षग्रन्थमाण संवत्सरेण रुपयांपके प्र. चितामणि. पत्र. ६०. x १ संस्कृत प्राकृतव्याभयकाव्य २ मोहराजपरामवनाटक कुमारपालतियोधप्रबंधचिन्तामणि प्रभावकारिक बय कितनाराकाथरिव ६ पारिवसुदरमाणितकुमारास Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतुलथीने वर्तमानमा अनेक साहित्य अने नवलकथाओ प्रमान थई छे. आथी तेमनु चरित्र जेटलं आपq होय तेटलं आप शायजेम ले पण ते बधुं नहि आपता मात्र जन्म, दीक्षा, आचार्यपक विगेरेनी तेमनी टुंक विगत आपीए छोए. ___आ आचार्यदेवनो जन्म वि. सं. ११४५ कार्तिक सुदी १५ना रोज धंधुकामां थयो हतो, तेमना पितानुं नाम चाचिग, मातानुं नाम पाहिनी अने तेमनुं नाम चांगदेव राखवामां आव्युं हतुं. माता पूर्ण जैनधमेनी रागी हुती अने पिता जैनधर्मी न हता. पांच वर्षनी उमर - ना चाचिगने लई माता चंद्रगच्छना प्रद्युम्नसरिना शिष्य गुणसेनसूरिना शिष्य देवचंद्रसरिने वांदवा गया. बाळा चाचिग गुरुमहाराज दर्शन करवा गया हता एथी तेमनुं आसन खाली हतुं त्यां बेसी गयो. गुरुए आव्याबाद तेनी आकृति देखी अने तेनामां तेमने जैनशासननी प्रभावना करवानां अद्वितीय लक्षणो देखायां. देवचंद्रसरिए उदयन मंत्रीनी कुनेहथी चाचिग अने पाहिनीनी संमतिथी वि. सं. ११५० मां दीक्षा आपी. दीक्षा वखते तेमर्नु नाम सोमचंद्र पाडयुं. - दीक्षाबाद नागपुरमा वृद्धमुनिं साथे गोचरीए जतां कोइ गृहस्थना आंगणामां कोलसारुप थयेल निधि सोमचंद्रना हस्तस्पर्शथी मूळ सुवर्णस्वरुपे थयो, त्यास्थी आ सोमचंद्र हेमचन्द्रना नामे प्रसिद्ध थया. दीक्षा बाद हेमचंद्रसूरिए सरस्वतीदेवीने साधना की प्रसन्न करी तथा देवेन्द्रसूरि बने मलयगिरिजी साथे सिद्धचक्र मंत्रने गिरनार अपर सिद्ध कर्यों अमे विमळेश्वरदेवनां वरदानो मेळव्या. आ पछी बि. स. १.१६६ ना वैशाख सुदी ३ ना दीक्से गुरुए तेमने आचार्य-पदारुद कया. चरित्र ७ सोमतिकककृतकुमारपालचरित्र. ८ रिद्रकृतमा रपालपस्त्रि चतुर्विशतिबंध १० विविधतीर्थकरमा रका प्रबंध, १९ कुमारपाल प्रतियोष प्रबंध १३ मा T रास विगेरेविगेरे. . . " Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. १९८१मां पाटणमां सिद्धराजनी सभामां कुमुदचंद्र साथै वादिदेव रिए वाद कर्यो. आ वखते हेमचंद्रसूरि हाजर हता. आथी लागे छे के सिद्धराजनी समानो परिचय अने सिद्धराजने हेमचंद्रसूरिनो परिचय तो ते पहेलांथी ज होवो जोईए. आम छतां सिद्धगज साथे घनिष्ट परिचय तो त्यार पछीज थयो जणाय छे. वि. सं. १९९३मां सिद्धराजे यशोवर्मानो पराजय कर्यो स्यारवाद एक वर्षमां व्याकरणनी रचना करी ते पहेलां सिद्धराज धर्मसंबंधी, वेदो संबंधी, पांडवो संबंधी विगेरे अनेक खुलासाओ मेळवी हेमचंद्रसूरिनी विद्वता अने प्रतिमानो पूजक बन्यो हतो अने तेथीज ज्यारे भोजना ग्रंथो जोइ हृदयमां अजपो जाग्यो त्यारे हेमचंद्रसूरिने नवीन व्याकरण बनाववानी बिज्ञप्ति करी.. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्रसूरिनी सर्व कृतिओमां सिद्धहेमशब्दा नुशासन सर्व प्रथम कृति अने सर्वोच्चकृति छे, जे कृतिए जैनजैनेतर समग्र विद्वानोने नत मस्तक बनाव्या छे अने तेनी पहेलाना सर्व व्याकरण ग्रंथोने भूलाव्या छे. १२५००० श्लोक प्रमाणनो व्याकरण ग्रंथ तेमणे एक वर्षमां रच्यो. ते सवा लाख श्लोक आ प्रमाणे थाय छे. |१|८४००० श्लोक प्रमाण सिद्धहेमबृहन्न्यास. * | २|१८००० श्लोक प्रमाण सिद्धहेमबृहद्वति. | ३|६००० श्लोक प्रमाण सिद्धहेमलघुवृत्ति. | ४|४५०० श्लोक प्रमाण सिद्ध हेम रहस्यवृत्ति. x आ बृहन्म्यास ८४००० श्लोक प्रमाण बनाव्यो के तेमांथी हाल २०००० थी २५००० लोक प्रमाण उपलब्ध थाय छे. * आ रहस्यवृत्ति पंडित प्रभुदास बेचरदासद्वारा हमजांज संपादन करवामां आवी छे तेमां सूत्रोनी नीचे खास खास रहस्यने जणावनार अति संक्षिप्तवृत्ति छे. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ 1५।३६८४ श्लोकप्रमाणलिंगानुशासनसत्ति. . ।६।३२५० श्लोकप्रमाणउणादिगणपाठसविवरण. ... ... .. 1७५६०० श्लोकप्रमाण धातुपारायणसविवरण... .. आ उपरांत तेमणे बीजो ग्रंथो बनान्या छे ते आ प्रमाणे छे. अभिधानचितामणि स्वोपज्ञ टीका सहित श्लोक १०००० अभिधानचितामणि परिशिष्ट श्लोक अनेकार्थकोष श्लोक १९२९ निघंटु शेष श्लोक देशीनाममाळा स्वोपज्ञवृत्ति सहित श्लोक ३५०० काव्यानुशासन स्वोपज्ञवृत्तिसह. ६००० छंदोऽनुशासन स्वोपज्ञ छंदचूडामणि टीका सहित ' ३००० संस्कृतव्याश्रयमहाकाव्य श्लोक २८२९ प्राकृतव्याश्रयमहाकाव्य श्लोक - १५०९ प्रमाणमीमांसास्वोपज्ञवृत्तिसहित अपूर्ण - श्लोक २५०० त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र महाकाव्य दश पर्व , ' ३२००० परिशिष्टपर्व योगशास्त्रस्वोपज्ञटीका १२७० वीतरागस्तोत्र ___१९८ अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका महादेव स्तोत्र *अनेकार्थकोष গিয়ৰু ব্লগিয়িঙ্কা निघंटु ___* मा पछीना ग्रंथो कलिकालहेमचंद्ररिप बनान्या छ . पण उपलब्ध यता नथी. ३१०० Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणमीमांसानों माविष्ट मामा प्रमाणशाख आठमा अध्यापनी लपति बादानुशासन शेषसंग्रहनाममाला शेषसंग्रहनाममाला सारोद्धार सक्षसंधानमहाकाव्य प्रभावक चरित्रकार जणावे छ के 'तेमना बनावेला केटला प्रो छ तेनुं नाम पण मारा जेवा मंदबुद्धि जाणता नथी. न्याय, व्याकरण, साहित्य, तर्क, कथा, धर्म विगैरे पाय शास्त्रोनुं ज्ञान धरावता होवायी हेमचंद्रहरिने कलिकाल सर्वझर्नु विरुद विद्वानोए आप्युं छ. सेंकडो विद्वानो मेगा मळी जे न करी शके ते कार्य तेमणे एकल हाथे कयु छे अने ते उपरांत कुळपरंपराथी शैव धर्मना भक्त सिद्धसजने उभगाव्या विना जैनधर्म प्रत्ये रूचिवंत पनाव्यों अने कुमारपाळने परमाईत् बनावी जैनधर्मनी परमप्रभावक बनाव्यो. जे कार्य भगवान महावीरना वखतमा घेणिक नहोवा करी शक्या ते कार्य कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्रसरिना उपदेशथी कुमारपाळे कर्युः गामेगाम अने शहेरेशहेर जैनधर्मनी पताका फरकावी अने अढारे वर्णमा अहिंसाना संस्कार रेड्या जे आजे पण गुजरातनी प्रजामा छे. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्रहरि ने रामचंद्रशरि, महेन्द्रपरि, गुणचंद्रसरि, वर्षमानगणि, देवचंद्रमुनि, यशचंद्र बालचंद्र विगैरे शिष्यो हता, तेमां रामचंद्र कवि मूख्य हता. आ बधाए प्रखर विद्वानो अने समर्थ प्रतिभासंपन्न हता. रामचंद्र कविए सो नाटको बनान्या छे. इति तद्विहितग्रन्थसंख्यैव नहि विद्यते । नामापि न विदन्त्येषां माशा मंदबुद्धयः ।। प्रमापक चरित्र: प ३४ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेन्द्रसरिए अनेकार्थ कैरक्कौमुदी, गुणचंद्रगणिए स्वोपशव्या . लंकारवृत्ति वर्धमानगणिए कुमारविहार प्रशस्तिकाव्य विगेरे ग्रंथोनी रबमा करी छे. __ आम शासननी प्रभावना करता आचार्य चोराशी वर्षनी उम्मरे पहोंच्या अने कुमारपाळ ८० वर्षनी अवस्थाए पहोंच्यो. हेमचंद्रशरिए पोताना पट्टधर तरीके रामचंद्रयस्नेि स्थाप्या, आथी बालचंद्र अने केटलाक असंतुष्टो तेमना विरोधी बन्या. आम हेमचंद्रसूरिना छल्ला काळमां तेमना शिष्य मंडळमां खटपटे जोर पकडयु. ___कुमारपाळे हेमचंद्रसरिना निर्वाण बाद पोताना भाणेज प्रतापमल्लने राज्यगादीए बेसाडवानो निर्णय कर्यों. आ वातनी खबर राजाना भत्रीजा अजयपाळने पडी, तेणे राजाने झेर अपाव्यु, कुमार पाळ राजा हेमचंद्रसूरिना निर्वाण बाद छ महिने मृत्यु पाम्या. आ पछी अजयपाळ गादीए आव्यो तेणे कुमारपाळना प्रशंसको अने हेमचंद्रदरिना शिष्यो अने भक्तोने पुष्कळ रंजाड्या. रामचंद्रसरिने तपावेला कटाह उपर बेसाडी मारी नाख्या. आम सर्वोचशिखरे पहेलि गुजरातनु राज्य अजयपाळना वखतमां वैरनो बदलो लेवामा फेरवा. कलिकालसर्वज्ञहेमचंद्रमरिए सिद्धहेमशब्दानुशासन उपर रहस्यः इत्ति, लघुपत्ति अने बृहकृति एम प्रण वृत्तिओ बनाबी छे. आमा रहस्यवृत्ति अने.लघुत्ति सात अध्यायनीज उपलब्ध थाय छे. या ग्रंथमा आपबामा बावेल सात अध्यायनी वृत्ति ए लघुवृत्ति छे अने आठमा कच्यायनी वृत्ति ए* वृहद् वृत्ति छे. वि.सं. १९९१मा आग्रंथ शेठ आणंदजी कल्याणजीनी पेटीए स्व. पूज्य मुनिराजश्री हिमांशुविजयद्वारा संपादित कराव्यो हतो, परंतु ते ग्रंथनी प्रतिओ छल्ला पांच वर्षथी खलास थयेली होवाथी तेना पुनर्मुद्रणनी इच्छा पेढीने थई अने मने तेनुं पुनर्मुद्रण करवातुं सोप्यु. . .शुमो हेमसमीसा प्रस्तावना. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ग्रंथना पुनर्मुद्रण वखते केटलाक व्याकरणना अभ्यासीओनी इच्छाने ध्यान आपी. प्राकृतव्याकरणरूप आठमो अध्याय, लिंगानु शासन, धातुपाठ, उणादि, कारिका विगेरे सिद्धहेमशब्दानुशासनना सूत्र, धातुपाठ, लिंगानुशासन, उणादि अने गणपाठरुप पांच अंग पैकीनां चार अंगो आ ग्रंथमां आपवामां आव्यां छे. गणपाठ पण आपवानी भावना हती परंतु ग्रंथ बहु मोटो थई जशे ते बीके तेने अटकावी संतोष मान्यो छे. आ व्याकरणना स्पष्टीकरण अने स्वरुप अंगे बीजा व्याकरणना सूत्रो सानी तुलना तद्भिद्वत कृदंतना प्रत्ययो तद्धित अर्थो, विभक्तिनां विधानो अने अपवादो, समास संधिना प्रकागे सूत्रोमां आवेल धातुओ विगेरे वगेरे घणां परिशिष्टो आपी शकाय पण ग्रंथ गौवरवने लई मूळ मूळ साहित्य प्रगट कर्यु छे. ग्रंथकारे आ ग्रंथ एवो सर्वांग संपूर्ण ग्रंथ बनाव्यो छे के बीजाने कांइ जणाववानुं रहेतुं नथी. आ लघुवृत्तिग्रंथ कंठस्थ कर्या छतां व्याकरणनां बीजां अंगोने जाणवामां न आवे तो व्याकरणज्ञान अधुरूंज रहे तेथी तेनां बीजां अंगों लिंगानु शासन, धातुपाठ, उणादि विगेरे अने प्राकृतादि भाषाना व्याकरणरूप आठमो अध्याय आ ग्रंथमां दाखल करी अभ्यासीओने कंठस्थ करवा योग्य बधु साहित्य एकज ग्रंथमां मळी रहे ते आशये सं. १९९१मां छपायेल ग्रंथ करतां आनुं दल सवाथी दोढुं करवामां आव्युं छे. आपणां धर्मशास्त्रो अने भारतना बधा धर्मशास्त्रोना ज्ञानमाटे भाषा ज्ञाननी प्रथम आवश्यकता रहे छे ते भाषाशास्त्राने संपूर्ण जणावनार आ ग्रंथनुं अध्ययन करी वांचको धर्मशास्त्राने जाणी धर्ममां वधु दृढ बनशे तो आ ग्रंथनुं प्रकाशन करनार संस्था तथा अमे अमारा प्रयत्नने फळदायक मानी आनंद पामीशुं. . आ ग्रंथमां दृष्टिदोष के सहज प्रमादने लहू कोइ रखलना थइ होय तो तेने वांचको क्षंतव्य गणशे एज अभ्यर्थना. A ता. ५-१०-५० पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी. खेतरपाळनी पोळ - अमदावाद. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमसंस्करणस्य प्रस्ताव ना. व्याकरणे किल चिरकालादद्यावधि निरवद्या प्रीतिर्विद्यते विद्यावताम् । व्याकरणं हि न केवलं भाषापरिच्छेदकमेव किन्विदं शास्त्र स्वर्गापवर्गप्रदमपीति ‘पण्डितमण्डली मन्यते, अतोऽस्य भयिष्ठा प्रतिष्ठा प्रचुरः प्रचारश्च विबुधैर्यधायि । वैदिकाच वेदस्व प्रधानमङ्गमामनन्तीदमै । एतत्तु सुस्पष्टं यद् 'वाचा व्यवहारः कर्तव्यस्तर्हि वाक्युद्धिविधायकं व्याकरणमवश्यमध्येतव्यम् 'अन्यथा लोकेऽनोत्पत्तिकादासश्च स्याद् , अतः परम्शतैः पण्डितैर्वाङ्मलप्रक्षालनाय भूयासो व्याकरणग्रन्थाश्चक्रिरे। १. नाकमिष्टसुख यान्ति सुयुक्तैर्वद्धवाग्ररथैः । पाणिनीयदर्शनम् । विविज्ञा. नामसाधुस्वमिर्मुक्तानां शन्दानां प्रयुक्तः सम्यग्ज्ञानलक्षणा सिद्धिभवति । ... तद्वारेण च.निःश्रेयस परमिति हैमवृहन्न्यासः ।१।१।२।पृ.१०। २. भासन ब्रह्मणस्तस्य तपसामुत्तमं तपः । प्रथमं छन्दसामङ्गमाहुाकरणं बुधाः ॥ वाक्यपदीये ।।१। ३. पाणीप्रयोगरूपो हि. व्यवहारोऽत्र दृश्यते । . . . . . . . . . . . 'तस्माद् वाणीप्रयोगस्य साधि व्याकरणं पठेत् ॥ . अस्माभिः सिद्धान्तरनिकाप्रस्तावनायो व्याकरणस्य महत्वं निपुणं लिखित- . मतो नात्र पुनलिख्यते ।। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिस्तावना सिद्धहेमचन्द्रव्याकरणम् । __ अथ नैकान् पुस्तकान् आलोच्य पाठकानां पुरस्तादुपढौक्यमानहैमव्याकरणविषये वयमत्र किश्चिल्लिखिंष्यामः। वैक्रमद्वादशशताब्दयां चौलुक्यवंशोत्पन्नः सिद्धराजजयसिंह नामा प्रतापी गूर्जरभूपालो बभूव । यशोवर्मउत्पत्तिः। नामानं मालवदेशस्य राजानं स विजिग्ये । यदा सिद्धराजः पाटणाऽऽख्यं स्वनगरं प्राप तदा विजयिनं तं नैके बुधास्तुष्टुवुः। श्रीहेमचन्द्रनामा जैनाचार्यस्तदानीं सुधानामग्रगण्योऽभूत् । सोऽपि “भूमि कामगवि...." इत्याधनद्यवपद्यतस्तस्मै आशिर्ष ददौ । तन्नव्यमव्यकाव्यगुणेन चमत्कृतो विद्योत्ते. जको भूपो हेमचन्द्राचार्येऽतितरां भक्तिं बभार । तदाप्रभृति स स्वह र्येऽसकदाचार्यमामन्त्रयामास । - उअयनीग्रन्थमाण्डागारत आगतपुस्तकेष्वन्यतमं भोजेन राज्ञा कृतं 'सरस्वतीकण्ठाभरणं' व्याकरणमेकदा सिद्धराजो ददर्श, तेन विद्वद्यशोऽमिलापियो मालवशनोस्तस्य, चेतस्यपि नूतनं व्याकरणमुत्पादयितुं स्पृहाऽऽविर्भूता । किश्च तदानीं गूर्जरे कलापस्य-कातन्त्रस्य प्रचुरः प्रचार आसीत् । परन्तु तेन छात्राणां सम्पूर्णा समीचीना च व्युत्पत्ति व जायते स्म । शाकटायनपाणिनीयादोन्यपि लक्षणानि क्लिष्टत्वदुःश्रवत्वादीहेतुभिर्वैरस्यभाजनानि बभूवुः, तेन साङ्गपूर्णमपि सरलं सुश्रवं नवं व्याकरणं राज्ञा लोकैश्वाकाक्ष्यत । १. प्रभाचन्द्रसूरिकृतप्रभावकचरित्रगतहेमचन्द्रस्चिरित्रे ७०-१११ पयान्तं विस्तरात् प्रस्तुतम्याकरणविषयोल्लेखोऽस्ति । प्रबन्धचिन्तामणौ तु समासादस्ति । “भूमि कामगवि" इतिपर्य हैमव्याकरणप्रशस्तौ दृश्यते, सा चात्र हितो परिशिो सम्पादिताऽस्ति । , नासा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धहेमचन्द्रव्याकरणोत्पत्तिः ] 'इत्थमेकतो भोजराजकीर्तिजित्वरी कीर्तिमवाप्तुं स्पृहा, अपरतश्च सम्पूर्णसरलसुन्दरव्याकरणन्यूनतामपाकर्तुमीहा' इति रजासत्त्वगुणं कारणद्वयं नृत्नव्याकरणकरणे गूर्जरेन्द्रं प्रेरयामास । राजा नव्यव्याकरणनिर्माणस्वरूपामात्मीयामिच्छां गूर्जरविदुपामग्रे निवेदयामास । एतत्कार्यनिर्वाहे क्षमं हेमचन्द्राचार्यमेव सर्वे बुधाः सूचितवन्तः ततो राजा भक्तिभराद् हेमचन्द्रसरि नवीनव्या करणकरणे प्रार्थयाश्चक्रे । आजन्म साहित्यनिर्माणकव्रतेन व्रतीन्द्रहेमचन्द्रेण सिद्धराजेन्द्रस्याऽभ्यर्थना सानन्दमङ्गीचक्रे, तेन राजा तुतोष। कश्मीरादिदेशतो राजाऽऽज्ञया तत्प्रधानपुरुषैाकरणपुस्तकान्यानीयाचार्याय समर्पितानि । विद्वद्वर्यों हेमचन्द्राचार्योऽप्रतिमया स्वया प्रतिभया सर्वांङ्गपूर्ण तूर्णं सरलसुश्रवं नवं व्याकरणं व्यररचत् । प्रस्तुतं शब्दानुशासन (व्याकरण) सिद्धराजाऽभ्यर्थनया हेम । चन्द्रेण विरचितं तस्माद् एतस्य 'सिद्धहेमचकरणम्। न्द्रशन्दानुशासनम्' इति नामधेयं दत्तम् । अत्र हैमव्याकरणेऽष्टौ अध्यायाः सन्ति । प्रत्येकाभ्यायं चत्वारः पादा विद्यन्ते, तेन सम्पिण्डिताः पादा मानम्। ३२ भवन्ति । तेषु ४६८५ सूत्राणि; - उणादीनां च १००६ सूत्राणि सन्ति । सर्वेषां सूत्राणां सङ्खथा तु ५६९१ भवति । एतेषु सप्ताभ्यायपर्यन्तं सस्कृतभाषाव्याकरणमस्ति । अष्टमाध्याये चेतरभाषाणां विद्यते । संस्कृतव्याकरणसूत्राणां सङ्ख्या ३५६६, प्राकृतादिव्याकरणानां चाष्टमाध्याये सूत्रगणना १११९ विद्यते । १ क्वचित् प्राचीनप्रतौ एवमस्ति-" सिद्धराजेन कारितत्वात् 'सिद्धम् ' हेमचन्द्रेण कृतत्वाद् 'हेमचन्द्रम् ' " Systems of Sanskrit Grammar P. 75. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे [प्रस्तावना । तत्र प्रत्येकाच्यायं सूत्रसङ्ख्या निम्नलिखिता वर्ततेअध्याये। हैमसूत्राणि । | अध्याये । हैमसूत्राणि । २४१ पञ्चमे ४९८ द्वितीये ४६० षष्ठे ६९२ । तृतीये ५२१ सप्तमे .. ६७३ चतुर्थे । ४८१ । अष्टमे . १११९ - एतेषु षष्ठसप्तमाष्टमाध्याया बृहत्तराः सन्ति । पञ्चाध्यायेषु यावती सूत्रसङ्ख्याऽस्ति ततोऽप्यधिका अवशिष्टेषु त्रिष्यध्यायेषु विद्यते।कारणमत्र कुत्-तद्धित-प्राकृतादिषड्भाषाव्याकरणाऽऽख्यानि महान्ति प्रकरणानि सन्ति । प्रतोत्र बहुविषयतया बहु वक्तव्यं भवति प्रतिव्याकरणम् । सूत्र-गणपाठोपेतवृत्ति-धातुपाठ-उणादिलिङ्गानुशासनेत्याख्यानि व्याकरणस्य पश्चाप्यङ्गानि हैमव्याकरणे एकाकिनैव हेमचन्द्राचार्येण कृतानि । एषां सूत्राणां तादृशी रचना कता येन पुनर्वातिकादीनामावश्यकता नोत्पद्येत । एषामङ्गानां टीका बृहन्न्यासश्चाप्यनेनैव का चक्रिरे तेनास्य सम्पूर्णता प्रकटीभवति । सर्व हैमंचन्द्राचार्येण १२५००० सपादलक्षश्लोकात्मकमेतद् व्याकरण मकारीतिप्रबन्धचिन्तामणिकारेण लिखितम् । '.. श्रीहेमचन्द्राचार्यों न केवलं संस्कृतभाषाव्याकरणमेवात्र चकार । किन्तु सप्तसु अध्यायेषु सम्पूर्ण संस्कृतभाषाव्यासप्तभाषाणां करणं विरचय्य; अष्टमेऽध्याये प्राकृत-शौरसेनीव्याकरणम् मागधी-पैशाची-चूलिकापैशाची-अपभ्रंश इति षण्णां शिष्टसाहित्यभाषात्वेन प्रख्याति प्रातामां भाषाणां व्याकरणानि रचयामासेति समेषां विदुषामतिप्रमोदा १ सिद्धराजप्रबन्धे पृ० ६.। . . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभाषाणां बाकरणम् ] [.५ वहमस्ति । देशमाषाणां जनन्या अपभ्रंशभाषाया विशदं व्याकरणं : देशीनाममाला' चेतिद्वयं तु न हेमचन्द्रादन्यः कश्चित् प्राचीनो चीनो वा विद्वान् निबद्धवानिति सम्प्रति मनीषिणो मन्यन्ते । __ यथा किल पाणिनिना महर्षिणा लौकिकव्याकरणाद् अनन्तरं वैदिकसाहित्यपरिच्छेदाय प्रान्ते वैदिकप्रक्रिया व्याचक्रे तथा हेमचन्द्रेण महर्षिणाऽष्टमाध्याये जैनागमव्युत्पत्तये समासाद् आर्षभाषा यथाप्रयोग व्याचक्रे । अत्र पुस्तके तु अस्माभिः सस्कृतभाषायाः साधकाः सप्तैव अध्यायाः सम्पादिताः। प्राकृतादिभाषासाधकोऽष्ट. मोऽध्यायस्तु पैरैरसकृत् सम्पादितः सुलभश्च वर्त्ततेऽतो नात्र संपादितः । दिदृक्षुभिरन्यतो द्रष्टव्यः। यथा किल पाणिनीयसूत्रसिद्धिमुद्दिश्य रामचरितापरनाम भट्टि . काव्यं निष्पन्न; तथाऽचार्यहेमचन्द्रेण स्व. व्याकरणस्य व्याकरणसूत्रसिद्धये सरलललितं काव्यद्वयं काव्यद्वयम् । निर्मायि । सप्तध्यायसूत्राणां सिद्धयर्थं 'संस्कृतद्वयाश्रयकाव्यम् ' अष्टमाध्याय. प्राकृतादिभाषासाधनाथं च 'प्राकृतद्वथाश्रयकाव्यं (कुमारपालघरतम् ) इतिनामकं काव्यद्वयं हेमचन्द्रपिरेव चक्रिवान् । अत्र भट्टिकाव्यादप्ययं विशेषो यत् क्रमशोऽविकलहैमव्याकरसूत्रप्रयोगाः काव्यद्वयेत्र निबद्धाः, आ मूलराजात् कुमारपालपर्यन्तं चौलु १ अयं देश्यशब्दानां कोश: । 'रत्नावली' इत्यस्यैव नामान्तरमस्ति (दे० ना-८-७७ ) । अयं ग्रन्थः सवृत्तिः पं. मुरलीधरबेनर्जीतिमहाशयेन सम्पादितः, प्रकाशितश्च ईस्वीसन् १९३१ वर्षे कलकत्ता राजकीयविद्यालयेन । . २ जैनमूलसूत्राणां भाषाया आर्ष-अर्धमागधी-ऋषिभाषितेत्यादीनि नामानि सन्ति। ३ जर्मनीयपं० पिश्चल (Dr. R. Pischel ) इतिमहाशयेन, तथा P. L. Vaidya पण्डितेनाऽयमष्टमाध्यायः सम्पादितः । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. [प्रस्तावना । क्यवंशभूपालानां विस्तरादितिवृत्तं च वणितमतो द्वयाश्रयकाव्यमिति कथ्यते। अस्य व्याकरणस्य जयसिंहाख्यगूर्जरराजप्रार्थनया तद्दत्तपुस्त कादिसाधनसाहाय्येन निर्माणात् व्याकर- प्रशस्तिः। णकारः श्रीहेमाचार्यः प्रतिपादान्तमेकैकेन पद्येन: पश्चिमपादान्ते च चतुर्भिः पद्यः क्रमश: सप्तानां चौलुक्यभूपानां प्रशस्ति रचयामास । मालवेशं विजित्य स्वराजधानीनगरमागमनाऽनन्तरं गूर्जरेशि . तुहेमचन्द्रेण समं समागमोऽजनि । तदनरचनासमयः। न्तरमाचार्यहेमचन्द्रेण प्रस्तुतं व्याकरणं निर्मा यीतीदं तु सर्वेऽपि निर्विवादं मन्यन्ते । गूर्जरेशितुः स नगरप्रवेशस्तु विक्रमसं० ११९३ वर्षात् पूर्व संजात इति सम्भाव्यते । तत्पश्चात् श्रीहेमचन्द्रसरिणा व्याकरणमारब्धम् । प्रबन्धचिन्तामणिमतेनैकवर्षात्मकः कालः सपादलक्षश्लोकमितस्यास्य हैमव्याकरणस्य निर्माणे व्यतीतः । इयं च गणना हैमन्यासश्लोकगणनासहितैव भवितव्या, अन्यथा नेदृशी संख्या संभवति । हमसूत्रस्य १।१।२६ हैमन्यासे च स्वोपज्ञालङ्कारचूडामणेः (काव्यानुशानस्य ) उल्लेखोऽस्ति, तेन हैमन्यासात् पूर्वमेव हैमालङ्कारचूडामणेनिर्माणं जातमिति निश्चितम् । अलङ्कारचूडामणिश्व १ संस्कृतद्वयाश्रयकाव्यं विंशतिसर्गात्मक; प्राकृतं चाष्टसर्गात्मकमस्ति । प्रथम गीर्वाणवाण्यां; द्वितीय च प्राकृतादिषडभाषाकाव्यदृब्धम् । व्याकरणमिति. हासश्चेतिद्वयाधारवत्त्वा दनयोद्वर्याश्रयविशेषणमन्वर्थमस्ति । एतत् काव्यद्वयमपि Bombay Sanskrit and prakrit Series इतिनाम्न्या बंबइराज्यसंस्थया प्रकाशितम् । २ अस्याः प्रशस्ते. कानिचित् पद्यानि प्रबन्धचिन्तामणाबुद्धतानि सन्ति । ३ प्र. चि० सिद्धराजप्रबन्धे पृ. ६० । . ४ " यदाह स्वोपज्ञालङ्कारचूडामणौ-“वक्त्रादिवैशिष्टयादर्थस्यापि मुख्यामुख्यात्मनो व्यजकत्वम्" । हैमबृहन्यासः, पृ. ३५. पं. भगवानदाससम्पावितः । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासमयः ] [ ७ हेमचन्द्राचार्येणं व्याकरणरचनाऽनन्तरं निर्मायीति हेमाचार्य एव तत्रोल्लिलेखे, तस्माद् ' पूर्व हेमाचार्यः सूत्रवृत्याद्यात्मकं व्याकरणमूलपञ्चाङ्गभांग विक्रमसं० १९९३ वर्षे व्यरचत, न्यासादीन् टीकाग्रन्थास्तु पथा जग्रन्थ ' इत्यस्माकं मतमस्ति । प्रबन्धचिन्तामणिलिखितैकवर्षात्मकः कोलो व्याकरणमूलपञ्चाङ्गनिर्माणस्यैव संभवति । जर्मनदेशीय बुह्नराख्यः पण्डित ( DR. G. BUHLER. ) अस्प हैमव्याकरणस्य निर्माण वर्षत्रयमितं कालं कल्पते, स कालो वि० सं० १९९७ कल्प्यते तेन । हेमचन्द्राचार्यात् प्राग् जैनन्द्रशाकटायनबुद्धिसागरादीनि जैनानि, पाणिनीयादीनि चाऽजैनानि व्याकरणानि तुलना । विद्यन्ते स्म । पूर्वग्रन्थस्य प्रतिच्छाया न्यूनाधिक्यरूपेणोत्तरग्रन्थेषु प्रायः पतति । व्याक " रणे तु गौरवं दोषत्वेन मतम् शब्दसाधका नियमाः प्रयोगाश्च सर्वत्र सदा च समाना एव प्रायेण स्युरतः सर्वव्याकरणेषु प्रतिबिम्बं विशेषेण संभवि । तत्र मूलसूत्रेषु शाकटायनकृतानां सूत्राणां विशेषेण प्रति 56 शब्दानुशासनेऽस्माभिः साध्व्यो वाचो विवेचिताः । तासामिदान्तं काव्यत्वं यथावदनुशिष्यते ॥ २ ॥ " हैमकाव्यानुशासनं पृ० २ । २ The Life of Jain monk Hemchandra ( हेमचन्द्राचार्यचरित्रे ) इस्वीसन् १८८९ वर्षे जर्मनीभाषायां लिखिते । ३ अयं जैनाचार्य आसीत् । एतत्कृतव्याकरणस्य रचनासमयः प्रो० काशीनाथ बापुजी पाठकमतेन वि० सं० ८५० अस्ति । स्वसूत्रोपरि तेनैव शाकटायनेन अमोघवृत्तिविरचिता । अस्य जैनत्वादिविषये प्रो० गुस्ताव - ओपर्ट ( P. Gustav Oppert ) इतिविदुषा इस्वीखन् १८९३ वर्षे निबन्धो लिलिखे व्योर्लघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य पा० ८-३-१८ ) इवि पाणिनि लिखितादयमाचार्यों भिन्नोऽर्वाचीनश्च वेद्यः । "" "" Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० १९० प्रस्तावना । च्छाया प्रतिभाति, हैमहत्वृत्तौ च अमोघवृत्तेः कचित् साम्यं दृष्टिपथमवतरति । विद्वत्तोषायात्र किश्चिद् दय॑तेपृष्ठाङ्कः।। हैमव्याकरणसूत्रम् । । शाकटायनसूत्रम् । १३० कणेमनस्तृप्तौ ।३।१।६। कणेमनः श्रद्धोच्छेदे । । नित्यं हस्ते पाणौ उद्वाहे ।३।१।१५) नित्यं हस्ते पाणी स्वीकृतौ । १३१ प्राध्वं वन्धे । ३ । १।१६। . प्राध्वं बन्धे। .. १३५ पारेमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठया बा ।।१३।। पारेमध्येऽन्तः षष्ठया वा । क्रियाऽर्थो धातुः ।३।३ । ३। | क्रियाऽर्थो धातुः । न प्रादिरप्रत्ययः ।३ । ३।४। । प्रादिर्नाऽप्रत्यये ।। दर्भकृष्णाग्निशमरणशरदत्शुनकात् आ. | शरदच्छुनकरणामिधर्मकृष्ण. प्रायणाब्राह्मणवार्षगण्यवाशिष्ठभार्गववा- | दर्भात् भृगुवत्सवसिष्ठवृषग त्स्ये । ६।। ५७ । । णब्राह्मणामायणे । । हैमवृहद्धृत्तिः अमोघवृत्तिः । आग्निशर्मायणो वार्षगण्यः, आमिशमि | आग्निशर्मायणो वार्षगण्यः, रन्यः । ६ । १ । ५७। भानिशमिरन्यः ।।४।३६। - हैमलघुवृत्तिः । . ४०८ | आग्निशर्मायणो वार्षगण्यः ।६।१:५७ । लोकप्रयोगानुगामिनी भाषा भवति विकसति च, ततः स्वसमयपर्यन्तं यावान् संस्कृतादिभाषाणां . विकासः। विकासोजनि तावन्तमत्र श्रीहेमचन्द्राचार्य: सर्व स्त्रयामास । सूत्रोल्लेखपूर्वकमत्र किञ्चिद् निदर्श्यतेपाणिनीयसूत्रम् । । जैनेन्द्रसूत्रम् शाकटायनसूत्रम्।। हैमसूत्रम । पारेमभ्येऽग्रेऽन्तः पारेमध्ये षष्ठया वा । | पारेमध्ये तया वा | पारेमध्येऽन्तः षष्ठया वा। षष्ठया वा। दिवसश्च पृथिव्याम् । | दिवश्च । दिवदिवः पृथि. ..व्यां वा । भलंकृश्...... । अलकृञ्...।। | भाषि-अलग...। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत् । सिद्धहेमचन्दव्याकरण प्रचारः ] 'व्याकरणसूत्रतत्प्रत्ययसञ्ज्ञा बाहुलकात् दुर्धा दुःश्रवाश्च संज्ञा। भवन्ति, तेन लोकास्तस्मादुद्विजन्ते' इति विचार्याऽऽचार्यहेमचन्द्रेणात्र व्याकरणे सूत्रप्रत्ययसञ्ज्ञानां शीघ्रसुबोधत्वं सुश्रवत्वं च सम्पादितम् । विदुषां प्रतीत्यर्थ दिग्दर्शनं क्रियतेत्र पाणिनीये । हैमचन्द्रीये। पाणिनीये । हैमन्द्रीये । अच् । स्वरः। . टच् । हल। व्यञ्जनम् । ढक। एयण् । प्रकृतिभावः। असन्धिः । एरण । खर। अघोषः। फक्। आयण । विभाषा। नवा। घोषः। ढक् । इकण । सिः। झिः । अन्ति । औ। महिङ्। महि। टाप। आपू । णिच् । जिङ् । डीप् । . डीः। ___ण्वुल् । णकः । ढः। एयः। गुर्जरपतेः प्रबलेच्छाप्रार्थनात इदं हैमव्याकरणं निष्पन्नमतोऽस्य . .. पूय॑नन्तरं राज्ञा राजहस्तिनि तत् समाहैमव्याकरणस्य रोप्य सोत्सवं निजहर्म्यमानीय संपूज्य च प्रचारः। तत्रैव स्थापितम् । शतत्रयसङ्ख्यैः कुशल लेखकः (३००) अस्य प्रतिलिपीपुस्तकानि (कापीति भाषायां) लेखितानि । अङ्गबङ्गकलिङ्गादिषु द्वात्रिंश देशनगरेषु राज्ञाऽस्य भूयान् प्रचारश्चक्रे । कश्मीरग्रन्थभाण्डागारेऽस्य प्रतिलिपी. १. प्रबन्धचिन्तामणिः पृ. ६१। ... . . सुः। औट् । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [प्रस्तावना। पुस्तकानां विंशतिः (२०) प्रेषिताः । स्वाधीनप्रदेशेषु हैमव्याकरणमेवाध्यापयितुमाज्ञा राज्ञा प्रसारिता । अष्टव्याकरणवेदी काकलाख्यो प्रख्यातो वैयाकरणो हैमव्याकरणाध्यापकत्वेन नियुक्तः। परीक्ष्य च हैमव्याकरणपाठिभ्योऽसकृत् पुरस्कारा राज्ञा दीयन्ते स्म । अनेन व्याकरणेन गूर्जरस्य राजा प्रजाश्च गौरवं मेनिरे । एवं श्रीहेमचन्द्रजीवनकाल एवास्य प्रचारः सर्वत्र सम्पन्नः । हेमचन्द्राचार्यनिर्वाणपश्चादद्यावधि सहस्रशः पाठिभिरेतत् पठितम् । ग्रन्थकारैः स्वग्रन्थेषु प्रमाणितम् । कविभिः तुष्टुवे । बुधैर्बहुमेने । इदं हैमव्याकरणमुद्दिश्य नैकैवैयाकरणैरनेके व्याकरणग्रन्था रचयाश्चक्रिरे । साम्प्रतमपि कलकत्ताराजकीयमहाविद्यालयपरीक्षायामन्यत्र चेदं पाठ्यते । आचार्यहेमचन्द्रस्य प्रतिभा सर्वतोव्यापिन्यासीत्, प्रस्तुतव्या करणस्य च सर्वाङ्गपूर्णकरणे राज्ञ आचार्यस्य च मनोरथो बभूवातोऽन्यान्यपि व्याकरणानि निपुणं विलोक्य स्वप्रतिभया यथाई तेषां वैशिष्टयं संजग्राहाचार्यः। स्वव्याकरणस्य बृहद्वृत्तौ स्त्रोपज्ञ वृहन्न्यासे १. प्रभावकचरित्रे हेमचंन्द्रसूरिचरित्रम् । २. सारस्वतीय चन्द्रकीर्तीयटीका-विद्यगोष्ठी -वाक्यप्रकाशोत्तराध्ययनकमलसंय ___ मीयटीका-स्याद्वादमजदी-वाग्भट्टालङ्कार-हीरसौभाग्य-विजयग्रशस्ति-ति....... लकमलरीटीकाप्रभृतिषु । .. ३. भ्रातः । संवृणु प्राणिनिप्रलपितं, कातन्त्रकन्था वृथा । मा काषीः कटु शाकटायनवचः, शूद्रेण चान्द्रेण किम् ? । कः कण्ठाभरणादिभिर्बठरयत्यात्मानमन्यैरपि श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः ॥ - प्रबन्धचिन्तामणिः पृ. ६१ ४. हैमव्याकरणन्यास-टीकादि-न्यायसंग्रह-क्रियारत्नसमुच्चय-हैमकौमुदी-(चन्द्र प्रभा)-हैमलघुप्रक्रिया-सिद्धसारस्वतादयः पश्चाशत्तोऽप्यधिका ग्रन्था हैमव्याकरणोपरि निष्पन्नाः । ६. Pro. S. K. Belvalkar. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हेमचन्द्राचार्यः ] [99 चं महार्षिणा हेमचन्द्रेण बहूनि वैदिकबौद्धजैनग्रन्थ- ग्रन्थकाराणां मतानि नामानि चोल्लिखितानि, बहूनां मतानां कालिदासादि प्रयोगाणां चाssलोचना चक्रे । सूत्रवृत्यादिषु च यथाssसं गौरवदोषस्त्यक्तः । लघुवृत्तिः । अत्र मुद्रिता 'लघुवृत्तिः' सूत्रकर्त्रा हेमचन्द्रर्षिणैव विरचिता । अस्य प्रमाणं षट्सहस्र लोकसख्यमुच्यते । बृहद्वृत्ताविवाऽत्राऽपि समस्तानि हैमसूत्राणि समासतः प्रयोगपुरस्सरं सरलभाषयाऽऽचार्येण व्याख्यातानि । बृहद्वृत्तिरचनाऽनन्तरं समासात् तत्सारांशभृताया अस्या लघुवृत्तेः साधारणलोकबोधार्थ निर्माणं कृतम् तेन सिद्धराज - जयसिंहस्य मृत्योः (वि. सं. १९९९) प्रागेवेयं लघुवृत्तिरपि पूर्ति प्राप्तेति सम्भाव्यते । अष्टमाध्याये प्राकृतादिभाषार्थं तु वृत्तिद्वयं हेमसूरिणा न कृतमिति संभाव्यते, यतस्तत्प्रान्ते “....... स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः " (पृ. १७६ प्रो. पी. एल. वैद्यसम्मादितावृत्तिः) वृत्तेर्विशेषणं किमपि न दृश्यते, मुद्रिता अष्टमाध्यायवृत्तिश्च सप्ताध्यायलघुवृत्तेः सकाशात् विस्तीर्णा विशदप्रभृतोदाहरणा चास्ति । किञ्च तत्प्रान्ते “समाप्ता चेयं सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनवृत्तिः प्रकाशिकानामेति ( पृ० १७६ ) इति लिखितमस्ति । 'तत्वप्रकाशिका' च बृहद्वत्तेनमास्तीतिपण्डित भगवानदाससम्पादित है मन्यासाद् ज्ञायतेऽतो निर्वि शेषणात् अष्टमाध्याये तु ऐकैव वृत्तिमचन्द्राचार्येण कृतेति सम्भाव्यतेऽस्माभिः । इयं लघुवृत्तिः सप्ताध्यायेषु हेमचन्द्राचार्येणैव कृता इत्ययमर्थस्तु १ गूर्जर विद्वदभुषणं श्रीकेशवलालध्रुवाख्यो विद्वान् वक्ति यद् 'अष्टमाध्यायेsपि हेमचन्द्रीयं वृत्तिद्वयं सम्भाव्यते, या च मुद्रिता वृत्तिः, सा लघुरस्ति अष्टमाध्यायबृहद्वृत्ति पुस्तकं खम्भात भाण्डागारेऽस्तीति श्रूयते इति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] - [प्रस्तावना । ____ " इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ........" ___अल्पीयसा समेणन श्रमेण च संस्कृतव्याकरणस्य समासाद् निपुणं स्फुटमामूलं ज्ञानमवाप्तुमिच्छतामियं आधुनिका ग्रन्थाः। श्रीहेमचन्द्राचार्यकृता स्वोपज्ञलघुवृत्तिरतीवो. पयुक्ता, विस्तरबोधार्थ च बृहद्वतिरुपयुक्ता, नापरे हैमव्याकरणस्य वृत्त्यादिग्रन्थाः । साम्प्रतं केचन पल्लवग्राहि पाण्डित्येनात्यल्पपरिश्रमेण च पण्डितप्राप्यां कीर्तिमवाप्तुं मिथ्यालालसया हैमसूत्रोपरिष्टान्नवा वृत्तीरकाधूः, परन्तु सावधानं समालोचितासु तासु हैमचन्द्रवृत्तिगताः प्राविण्यसारल्यगाम्भीर्यगुणा नैव . दरीदृश्यन्ते । सर्वत्र पर्यायशब्दापात्रात् ; केषाञ्चित् च प्रसिद्धानुपयुक्तोदाहरणरूपानां भेदाद् हैमवृत्तिद्वये पिष्ट एव पदार्थः तासु पिष्यते; नूतनविशिष्टावश्यकार्थस्तु न समर्थ्यते, तेन तादृशवृत्यादिग्रन्था न विद्वद्योग्या न च छात्रोपभोग्या भवन्ति, प्रत्युत तैवथैव बत! धनहानिः वेलाक्षयश्च प्रजायते, न च तादृग्ग्रन्थकारवैयाकरणस्य यशो. ऽप्यवाप्यते इति दृष्ट्वा दूयते सोपहासमस्मन्मानसम् । अस्ति चेत् वैयाकरणत्वं स्वस्मिन् तदा हैमवृत्याधुपरि हैमसूत्रवृत्याद्यर्थसाधकपो षकाऽऽलोचकाष्टीकाटिप्पणवार्तिकादिग्रन्थाः सरलसुन्दरार्थवत्या भाषयाऽवश्यं लेखनीयाः, येन स्वकीया कीर्तिः; परोपकारः; साहित्य सौहित्यं चेत्यखिलं संपद्यतेति मामकं विनम्र मतमस्ति । __ श्रीहेमचन्द्राचार्यः। अस्य सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनस्य कर्ता श्रीहेमचन्द्र सूरिराचार्याणां धुर्यः, धीमतां धौरेयः; वाग्मिनां वरेण्यः; पण्डितम ण्डलमण्डनं चाऽऽसीत् । अनेन व्यकरणस्येव काव्यस्य, काव्यस्येव छन्दसः, छन्दस इव न्यायस्य, न्यायस्येवाऽध्यात्मस्य शास्त्रस्य, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादनम् | [ १३ अध्यात्मस्येव कोशानामनुशासनं चक्रे । एकक एवायमाचार्य अनेकाचार्यसाध्यं कार्यजातं चक्रिवान्, अत एवैनं प्राज्ञाः 'कलिका लसर्वज्ञम् ' आम्नायिसुः । अस्य सीमातिलङ्घिनी प्रतिभाः महान् ग्रन्थराशिः; महान् ग्रन्थराशिः पवित्रं चरित्रम् धर्षैौदार्यपुरस्सरं कार्य महीयसामपि चेतस्विनां चेतांसि चमत्करोति । एतस्याचार्यस्य चरित्रविषये व्याकरणादिसाहित्यविषये च वि स्तरात् सप्रमाणं लेखितुमस्मत्सविधे समुदारं साधनं विद्यते, परन्तु गौरवाद् विभ्यद्भिरस्माभिर्बत जन्मादिसमोल्लेखमेव विलिख्यात्र तुष्यते, प्राप्तऽवसरेऽन्यदा विस्तरा लिखिष्यते । श्री हेमचन्द्रसूरे विक्रमसं० ११४५ कार्तिकी पूर्णिमायां जन्म, ११५० माघशु० १४ साधुदीक्षा, ११६६ वैशाखतृतीयायाम आचार्यपदम्, १२२९ वैक्रमे वर्षे च निर्वाणमभूत् । आचार्यधुर्यस्यास्य श्रीरामचन्द्रादयः शिष्या अपि विशिष्टग्रन्थकाराः शिष्टमान्या मान्यचरित्रकीर्त्तयश्च बभूवुरिति विदाङ्करोतु कोविदावलिः । सम्पादनम् । अयं ग्रन्थः पुरा श्रीयशे । विजयग्रन्थमालया प्राकटयं निन्ये । परन्तु तत्राssवृत्तौ मूलग्रन्थ एव मुद्रितः, परिशिष्ट प्रस्तावनाविषयानुक्रमादि तत्र किमपि वैशिष्टथं नासीत् । गीतकीर्तिश्रीविजयधर्मसूरिपादानां प्रयासेन तेषां भक्तः श्रीसतीशचन्द्र विद्याभूषणनामा महान् पण्डितो राजकीय कलकत्तामहाविद्यालये Calcutta University संस्कृतपरीक्षायां श्वे० जैनव्याकरणपरीक्षां नियोज्य तत्रैनं ग्रन्थं मध्यमायां नियोजितवान् । प्रभुतप्रचारादस्यानुपलब्धिर्जाता । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रस्तावना । विद्याप्रचाराधतानवद्यमतिभिर्व्यक्तवक्तृत्वलेखनशक्तिभाग्भिः पूज्यश्रीविद्याविजयैरस्य पुनःप्रकाशनार्थ अमदावादनगरस्थ श्रीआनन्दजीकल्याणजीसभाकार्यवाहका उपदिष्टास्तैरुपदेशः प्रमाणीकृतः । ततः पूज्यैरस्य नूतनपद्धत्या सम्पादनं मह्यमादिष्टम् । अनुग्रहेण समं मया तेषामादेशः स्वीकृतः। . अत्र मूलपाठस्तु पूर्वप्रकाशितपुस्तकादेव गृहीतः । तत्र यो यः पाठोऽशुद्धोऽसम्बद्धश्च प्रतिभातोऽस्माकं स स हैमबृहद्वृत्तिवृहन्यासलघुवृत्तिहस्तलिखितप्रत्यादीनां ग्रन्थानां पर्यालोचनया शोधितः । क्वापि तत्पार्श्वे एव ( ) इतिचिह्नान्तर अस्मन्मतिकल्पितः शुद्धपाठोऽलेखि । शीघ्रबोधार्थ सन्धिविधटनं समासेऽसमासेऽपि च यथावश्यकं विवक्षातोऽकारि । बालबोधार्थ सरल 'बालटिप्पणं' समासतो यथावश्यकं मया कृतम् । एवमन्यदपि यद् यदावश्यक प्रतिभातं तत् तद् व्यंधायि । शिष्टछात्राणां तुष्टयेत्र सप्तपरिशि ष्टानि योजितानि । __ खंडानगरादवाप्तहस्तलिखितप्रतिद्वयात् पाठान्तराणि गृहीत्वात्र तुर्ये परिशिष्टे सम्पादितानि । तयोरेकं पुस्तकं ४९ पत्रात्मकमस्ति तत्प्रान्ते च " हीररत्नसूरिशिष्यलब्धिरत्नसिद्धिरत्नपठ. नार्थम्" इति लिखितमस्ति । द्वितीयं चाष्टपत्रात्मकं मञ्जुलाक्षरमस्ति, तस्मात् कलावतां लाभाय तदेकपत्रस्य यन्त्रात् प्रतिलिपी (ब्लॉक) कारिता, सा चात्र पुस्तके नियोजिता। द्वयोः प्रत्योः क्रमशः 'क' 'ख' इति संज्ञे निर्धारित स्तः। एतद् द्वयमपि कवि राजोदयरत्नोत्तरपरम्पराशिष्यभाग्यरत्नयतिर्मह्यं प्रदत्तवान् एतदर्थ तस्मै धन्यवादं वितरामि । अत्र समग्रे ग्रन्थे मया ये ग्रन्था उपयुक्तास्तस्कृत्प्रकाशकानामनुग्रहं मन्ये । विषयानुक्रमकारिणं विद्वद्वर्य श्रीरामगोपालाचार्य च बहुमन्ये। . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादनम् ] [ १५ सर्वस्यापि निश्चित एव । अस्याः प्रतिपादपूरणे सूरिरेवमुलिलेख'भरातीयमुद्रणालयेषु अक्षरयोजका प्रायेण असंस्कृतज्ञाः प्रमादिनश्च भवन्ति । तेषामनुग्रहात् प्रयत्नशीलेनाऽपि विदुषा सम्मादिते संस्कृतग्रन्थे बत सुलभा अशुद्धयः स्पुरिति खेदावहमस्ति । मयाऽस्य tears: फसंज्ञानि पत्राणि शोधितानि । प्रस्तुत पुस्तक सम्पादने परिशिष्टादिघटने चात्र वर्षत्रयमस्वीकृतापर मुख्यकार्येण मया सावधानं भूयान् प्रयासः सेवितस्तथापि मानवयोग्यानि स्खलनान्यत्र दृष्टिमार्गमा गच्छेयुस्तदा क्षमापरैः क्षन्तव्यः सूचयितव्यश्चाऽयं जनः । विविधपथा समुपयुक्तमिमं ग्रन्थमवधारयन्तु धीधनाः, पठन्तु पाठयन्तु च पाठकाः, विमृशन्तु विमर्शकाः, प्रेक्षन्तां प्रेक्षावन्तस्तेन च सकला अपि सफलयन्तु कर्तृ-सम्पादक - प्रकाशकपरिश्रममिति । ग्रन्थेऽत्र बुद्धिदोषाद्वा दृष्टिदोषात् त्वरादितः । स्खलितं दृश्यते यत् चेत्, तच्छोध्यं धीधनैर्जनैः ॥ निवेदक: हिमांशु विजयः ( अनेकान्ती ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ . परिशिष्टविषयाणामनुक्रमः विषयः पृष्ठाङ्कः विषयः पृष्ठाङ्कः १ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासन ६ रुधादिगणः १०३-१०४ सूत्राणां अकारादिवर्णाः . उभयपदिनः १०३ ..नुक्रमः २-७३ परस्मैपदिनः १०३ २ धातुपाठः ७४-१२० __आत्मनेपदिनः १०४ १ भुवादिगणः ७४-९२ । ७ तनादिगणः १०४ परस्मैपदिनः ७४-८३ उभयपदिनः । १०४ आत्मनेपदिनः ८३-८९ आत्मनेपदिनः १०३ उभयपदिनः ८९-९० ८श्यादिगण १०४-१०६ धुतादयः उभयपदिनः .. १०४ ज्वालादयः परस्मैपदिनः । १०५ यजादयः आत्मनेपदिनः १०६ घटादयः ९ चुरादिगणः १०६-११५ २ अदादिगणः ९३-९५ हैमघातुसंख्या ११५-१२० परस्मैपदिनः ९३ ३ धातुप्रत्ययअनुबन्धफल. आत्मनेपदिनः उभयपदिनः कारिका १२१-१२३ ह्राधन्तरगणिनः ९५ ४ हैमलिङ्गानुशासनम् १२४ १४० . पुंलिङ्गः १२४ ३ दिवादिगणः ९५-९९ स्त्रीलिङ्गः .१२६ परस्मैपदिनः नपुंसकलिङ्गः आत्मनेपदिनः स्त्रीपुंसलिङ्गाः १३३ उभयपदिनः पुनपुंसकलिङ्गाः १३४ ४ स्वादिगणः स्त्रीलीबलिगाः १३९ उभयपदिनः परस्मैपदिनः स्वस्त्रिलिङ्गाः १४० परलिङ्गाः १४० आत्मनेपदिनः ५ तुदादिगणः१००-१०३ ५ हैमपरिभाषापाठः उभयपदिनः १०० १४१-१४५ परस्मैपदिन: १०० ६ उणादिप्रकरणम् १४५-१६९ आत्मनेपदिनः १०३ । ७ प्रशस्तिः .. १७० १२९ ९९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासने । परि शिष्टा नि । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । श्रासिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनसूत्राणाम् अकारादिवर्णानुक्रमः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम् । . . सूत्राङ्कः । अइउवर्ण-देः ।।२।४१॥ अग्रहानुपदेशे० ॥३॥१॥५॥ अं अः-सगौं ।१।११९॥ अघक्यबल वीं ।४।४।२॥ अं अः ५ कटू ।१।११६॥ अघोषे प्र-टः।१।३५०॥ अंशं हारिणि ।७।१।१८२।। अघोषे शिटः । ४।१।४५॥ अंशादतोः । ७४।१४। अङप्रतिस्त-म्भः ।२।३॥४१॥ अः सपल्याः ।७।१।११९।। . अरे हिहनो-र्धात् ।४।१॥३४॥ अः सृजिदृशो०।४।४।१११॥ | अङ्गानिरसने णिङ् ।३।४।३८॥ अः स्थानः । ६।१ । २२। | अस्थाच्छत्रादेरञ् ।।४।६०॥ अकखाय-वा ।२।३।८०॥ अच । ५।१ । ४९ । अविनोश्च रञ्जः।४।२।५०॥ अचः। १।४ । ६९ ॥ अकद्र-ये । ७।४।६९ ॥ अचि ३।४ । १५ ॥ अकमेरुकस्य । २।२।९३॥ अचित्ताददेशकालात्।६।३।२०६॥ अकल्पात् सूत्रात् ।६।२।१२०॥ अचित्ते टक् । ५ । १। ८३ ॥ अकालेऽव्ययीभावे ।३।२।१४६॥ अच्च प्रा-श्व ।२।१।१०४॥ अकेन क्रीडाजीवे ।३।११८१॥ अजातेः पञ्चम्याः ।५।१।१७०॥ अक्लोबेऽध्वर्युक्रतोः ।३।१।१३९॥ अजातेः शीले ।५।१।१५४॥ अक्ष्णोप्राण्यङ्गे ।७।३३८५॥ अजातेने-वा । ७।३।३५॥ अगारान्तादिकः ।६।४।७५॥ अजादिभ्यो धेनोः ।६।१।३४॥ अगिलागिलगिल० ३।२।११५॥ अजादेः। २ । ४ । १६ ॥ अग्निचित्या ।५।१॥३७॥ | अज्ञाने ज्ञः षष्ठी ।२।२।८०॥ अमेथेः । ५।१।१६४॥ | अश्वः । २।४।३ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु सूत्रम्। . सूत्राङ्कः।। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। अश्चोऽनर्वायाम् ।४।२।४६॥ अदश्वाटू ।४।४।९०॥ अअनादीनां गिरौ ।३।२।७७॥ | अदसोऽकञायनणोः ।।२।३३॥ अञ्वर्ग-तः।१।३।३३ ।। अदसो दःसेस्तु डौ ।२।११४३॥ अवर्गात्-न्। १।२।४०॥ अदिस्त्रियां० ७१।१०७॥ अश्यतिम्-गोः ।३।४।१०॥ अदीर्घात-ने। १।३।३२। अधातोरा-छा।४।४।२९॥ अदुरुपसर्गा-नेः ।२।३।७७॥ अणयेक-ताम् ।२।४।२०॥ अरे एनः ।७। २ । १२२॥ अणि । ७।४।५२॥ अदृश्याधिके । ३।२।१४५॥ अणिकर्म णिक-तौ।३।३।८८॥ अदेतः-क् । १।४।४४ ॥ अणिगिप्राणिक० ३॥३३१०७|| अदेवासुरादिभ्यो०६।३।१६४॥ अतः । ४।३। ८२ ।। अदेशकालादध्या० ।६।४।७६॥ अतः कृकमि-स्य ।२।३॥५॥ अदोऽनन्नात् ।५।१।१५०॥ अतः प्रत्ययाल्लुक ।४।२८५॥ अदो मुमी ।१।२।३५॥ अतः शित्युत् । ४।२।८९।। अदोरायनिः०।६।११११३॥ अः स्यमोऽम् ।१।४। ५७।। अदोनदीमा-नः।६।१।६७। अन आ:-ये । १।४।१॥ अद्यतनी।५।२।४॥ अत इन् । ६।१।३१ ॥ . अद्यतनी-महि ।३।३।११॥ । अतमवादे-यर |७३।११॥ अद्यतन्यां वा-ने।४।४।२२॥ अतिरतिक्रमे च । ३।१।४।। अद्यर्थाचाधारे ।५।१।१२॥ अतोऽति रोरुः । १।३।२०॥ अव्यञ्जनात् स-लम् ।३।२।१८॥ अतोऽनेकस्वरात् ।७।२।६।। अद्व्यजने । २।१। ३५ ॥. अतो म आने ।४।४।११४॥ अधण-सः।१।१।३२॥ अतोरिथट् । ७।१ । १६१ ॥ अधरापराचात् ।।२।११८॥ अतोऽहस्य । २ । ३। ७३ ॥ अधर्मक्षत्रत्रि-या।६।२।१२१॥ अ च । ७।१।४९ ।। अधश्चतुर्थात् तथोधः।२।११७९॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवणानुक्रमः। (४) सूत्रम् । सूत्राङ्कः। । सूत्रम् । सूत्राङ्कः। अधातु बि-म ।१।१॥२७॥ अनपत्ये । ७।४ । ५५ ॥ अधातूदृदितः । २।४ ॥२॥ 'अनरे वा।६।३।६१ ॥ अधिकं तत्सं-डः।७।१।१५४॥ अनवर्णा नामी । १।१।६॥ अधिकेन भूयसस्ते ।२।२।११॥ अनाङ्माङो-छः।१।३।२८॥ अधीष्टौ । ५।४ । ३२ ॥ अनाच्छादजा-वा ।२।४।४७॥ अधेः प्रसहने ।३।३।७७॥ अनातो नमान्त-स्या४।१।६९।। अधेः शीस्थास० २।२।२०॥ अनादेशादे-तः । ४।१।२४॥ अधेरारूढे । ७।१।१८७|| अनाम्न्यद्विः प्लुप् ।६।४।१४१॥ अध्यात्मादिभ्य इकण।६।३।७८॥ अनामस्वरे नोन्तः।१।४।६४॥ अध्वानं येनौ ।७।१।१०३॥ अनार्षे वृद्ध-प्यः।२।४७८॥ अनः । ७।३।८८ ॥ . अनिदम्यणपवादे०।६।१।१५॥ अनक । २।१। ३६ ।। अनियो-वे । १।२ । १६ ॥ अनजिरादि-तौ ।३।२।७८॥ अनीनाद-तः। ७।४।६६॥ अनजः क्त्वो यप् ।३।२।१५४॥ अनुकम्पा-त्योः ॥७॥३॥३४॥ अनओ मूलात् ।२।४।५८॥ अनुबलम् । ७।१।१०२॥ अनट् । ५।३।१२४॥ अनुनासिके चट् ।४।१।१०८॥ अनडुहः सौ।१।४।७२॥ अनुपदं बद्धा । ७।१।९६॥ अनतोऽन्तोदात्मने।४।२।११४॥ अनतो लुप् ।१।४। ५९ ॥ अनुपद्यन्वेष्टा ।७।१।१७०॥ अनतो लुप् । ३।२।६॥ अनुपसर्गाः क्षीबो०।४।२।८०॥ अनत्यन्ते । ७।३।१४ ॥ अनुब्राह्मणादिन् ।६।२।१२३॥ अनद्यतने हिः ।७।२।१०१॥ अनुशतिकादीनाम् ।७.४।२७॥ अनद्यतने श्वस्तनी।५।३।५॥ अनेकवर्णः सर्वस्या७४१०७॥ अनद्यतने ह्यस्तनी ।५।२७॥ अनोः कमितरि ।७।१।१८८।। अननोः सनः।३।३७०॥ । अनोः कमण्यसति ।३।३:८१॥ अनन्तः प-यः।१।११३८॥ । अनोऽटये ये। ७।४।५१॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५). . परिशिष्टेषु सूत्रम् । - सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। अनोर्जनेर्डः। ५ । १ ।१६८॥ अपो यञ् वा । ६ । २।५६॥ अनोर्देशे उग् । ३।२।११०॥ अपो ययोनिमतिचरे ।३।२।२८॥ अनो वा । २।४) ११ ॥ अप्रत्यादावसाधुना।२।२।१०१॥ अनोऽस्य । २।१।१०८ ॥ अप्रयोगीत् । १।१ । ३७ ॥ अन्तःपूर्वादिकम् ।६।३।१३७॥ अप्राणिनि । ७।३।११२॥ अन्तद्धिः । ५।३।८९॥ अप्राणिपश्चादेः।३१।१३६॥ अन्तर्बहि-मः।७।३।१३२॥ अब्राह्मणात् । ६।१।१४१॥ अन्तो नो लुक् ।४।२।९४॥ | अभक्ष्याच्छादने वा०६२।४६॥ अन्यत्यदादेराः।३।२।१५२॥ अभिनिष्क्रामति०६३।२०२॥ अन्यथैवंकथ-कात् ।५।४।५०॥ । अभिनिष्ठानः ।२।३।२४॥ अन्यस्य ।४।१।८॥ अभिव्याप्तौ-जिन् ।५।३।९०॥ अन्यो घो-न् । १ । १।१४॥ | अभेरीश्च वा । ७।१।१८९॥ अन्वापरेः ।३।३।३४ ॥ . अभ्यमित्रमीयश्च ।७।१।१०४।। अन् स्वरे । ३।२।१२९ ।। अभ्यम्भ्य सः । २ । १ ॥१८॥ अपः । १। ४ । ८८ ॥ अभ्रादिभ्यः । ७।२। ४६॥ अपचितः। ४।४ । ७७॥ अभ्वादे-सौ।१।४।९०॥ अपञ्चमा-ट् । १।१।११।। अमद्रस्य दिशः १७॥४॥१६॥ अपण्ये जीवने । ७।१।११०॥ अमव्ययीभाव-म्याः ।३२।२।। अपस्किरः। ३ । ३ । ३० ॥ अमा त्वामा ।२।१।२४॥ अपाच्चतुष्पा-थें ।४।४।९५॥ अमाव्ययात्क्य न् च ।३।४।२३।। अपाञ्चायश्चिः क्तौ ।४।२।६६॥ अमूर्धगस्तकां-मे ।३।२।२२॥ अपायेऽवधिरपादा०।२।२।२९।। अमोऽकम्यमिचमः ।४।२।२६॥ अपील्यादेवहे । ३।२।८९॥ अमोऽधिकृत्य ग्रन्थे।६।३।१९८॥ अपोऽद् भे । २।१।४॥ अमोऽन्तावोधसः ।६३।७४॥ अपोनपादपा-तः ।६।२।१०५॥ अमौ मः । २ । १ । १६ ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्राङ्कः । सूत्रम् । अयज्ञे त्रः । ५।३।६८॥ अयदि श्रद्धा -- नवा |५|४|२३॥ अयदि स्मृन्तो ।५।२॥९॥ अयमियं पुं-सौ ।२।१ । ३८ ।। अयि रः । ४ । १ । ६ ॥ अरण्यात पथि-रे । ६ । ३ । ५१ । अरीहणादेरकण् |६|२|८३॥ अरुर्मनश्व - च्चौ । ७२ । १२७॥ अरोः सुपि रः । १ । ३।५७॥ अ च । १ । ४ । ३९ ॥ अतिवलीही - पुः |४|२|२१|| अर्थपदपदोत्तर - ण्ठात् |६|४|३७|| अर्थार्थान्ता-त् । ७ । २।८॥ अर्धपूर्वपदः ः पूरणः | १|१|४२॥ अर्थात् परि-देः | ७|४|२०|| अर्धात् पलकं-त् ।६।४।१३४।। अर्धाद् यः । ६ । ३ । ६९॥ अर्हतस्तो न्तु च । ७|१|६१ ॥ अर्हम । १ । १ । १ ॥ अर्हे तृच् । १।४ । ३७ ॥ अर्होऽचू । ५ । १ । ९१ ॥ अलाब्वाश्व- सि । ७ । १ । ८४ ॥ अलुपि वा । २ । ३ । १९ ॥ अल्पयूनोः कन् वा | ७|४|३३॥ अल्पे । ३ । २ । १३६ ॥ ( ६ ) सूत्राङ्कः । सूत्रम् । अवः स्वपः । २ । ३ । ५७ ॥ अवक्रये । ६।४।५३॥ अवयवात् तयट् |७|१|१५१ ।। अवर्णभो-धिः । १ । ३ । २२ ॥ अवर्णस्या-साम । १।४।१५॥ अवर्णस्ये रलू । १।२।६ ॥ अवर्णादश्नो ङयोः । २।१।११५ ।। अवर्णवर्णस्य । ७ । ४ । ६८ ॥ अवर्मणो त्ये । ७ । ४ । ५९ ॥ अहसासंत्रोः | ५|१|६३॥ अवाच्चाश्रयो रे | २|३|४२ ॥ अवात् । -५ ॥३॥६७॥ अवात् । ५ । ३ । ६२॥ अवात् कुटा-ते |७|१|१२६ ॥ अवात् तृस्तृभ्याम् |५|३|१३३|| अविति वा | ४|१|७५ ॥ अतिपरोक्षा - रेः |४|१|२३|| अविदूरेऽभेः ||४|४|६४ ॥ अविवक्षिते |५|२| १४ ॥ अविशेषणे - दः | २|२।१२२ ॥ अवृद्धाद्दोर्नवा |६|१|११०॥ अवृद्वेगृहति गर्थे |६|४|३४॥ अवेः संघा-म् |७|१ | १३२ ॥ | अवेर्दुग्धे-सम् ।६।२|६||® अवौ दाधौ दा | ३ | ३॥५॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) .. परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्कः।। सूत्रम् । सूत्राङ्क। अब्यक्तानु-श्च ।७।२।१४५।। असत्त्वे ङसेः ।३।२।१०॥ अव्यजात्थ्य प् ।७।१।३८॥ अमदिवापूर्वम् ।२।१।२५। , अव्ययम् ।३।१॥२१॥ असमानलोपे-छे ।४।११६३॥. अव्ययं प्रवृ-भिः ।३।११४८॥ असरूपोप-क्तेः।५।१।१६॥ . अध्ययस्य ।३।२।७। असहनवि-भ्यः ।२।४।३८॥ अव्यस्य कोऽद् च ।७३।३१।। असुको वाकि ।२।११४४॥ . अव्याप्यस्य मुचे।४।१।१९।। असूर्योग्राद् दृशः ।५।१।१२६॥ अशवि ते वा ।३।४।४॥ असोडसिवू टाम् ।२।३।४८॥ अशित्यस्मन्-टि।४।३।७७॥ अपच लौल्ये ।४।३।११५॥ अशिरसोऽशीर्षश्च ।७।२।७। अस्तपोमाया-विन् ।७।२।४७॥ अशिशोः ।२।४।८ ॥ अस्तित्रुवो वचाव० ४।४।१॥ अश्व वाऽमावा० ।६।३।१०४॥ अस्तेः सि-ति ।४।३।७३॥ अश्चैकादेः ॥७॥१५॥ अस्त्रीशुद्रे-वा ७।४।१०१।। अश्वत्थादेरिकण् ।६।२।९७॥ अस्थूलाच नसः ।७३।१६१॥ अश्रद्धामर्षे-पि ।५।४।१५॥ अस्पष्टाव-वा ।।३।२५।। अश्वाडवपू-राः ।३।१।१३१।। अस्मिन् ।७।३।२॥ अश्वादेः ।६।११४९॥ अस्य उयां लुक्।२।२।८६॥ अडक्षा-नः ७१।१०६॥ अस्यादेराः परोक्षायां ।४।१।६८॥ अषष्ठीतृती-र्थे ।३।२।११९॥ अस्याऽयत्त-नाम् ।२।४।१११॥ अष्ट और्ज-सोः ।१।४५३॥ अस्वयंभुवोऽव् ७४७०॥ असंभवाजिनक० ।२।४५७॥ अस्वस्थगुणैः ॥३॥११८७॥ असंयोगादोः ।४।२।८६॥ अहन्पञ्चमस्य-ति ।४।१११०७॥ असकृत् संभ्रमे ७४७२॥ अहरादिभ्योऽञ् ।६।२।८७॥ . असत्काण्ड-त् ।।४।५६॥ अहीयरुहो-ने ७२।८८॥ असचाराद० २।२।१२०॥ । अह्नः ।२।१७४॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्गानुक्रमः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः।। सूत्रम् । सूत्राङ्क । अह्नः।७।३।११६॥ आतोणव औः।४।२।१२०॥ अह्नाग-न।७।१।८५॥ आत्मनः पूरणे ।३।२।१४॥ आ अम्शसोऽता ।१।४।७५॥ आत्रेयाद् भारद्वाजे ।६।११५२॥ आःखनिसनिजनः।४।२।६०॥ आत्संध्यक्षरस्य ।४।२।१॥ आकालिक-न्ते ।६।४।१२८॥ आथर्वणिका-च।६।३।१६७॥ आख्यातर्युपयोगे ।२।२७३॥ आदितः । ४ । ४७१॥ आगुणावन्यादेः ।४।१।४८॥ आदेश्छन्दसःप्र०६२।११२॥ आग्रहायण्यश्व-कण।६।२।९९॥ आद्यद्वितीय-षाः ।१।१॥१३॥ आजः । ४।४।१२०॥ आद्यात् ।६।१। २९॥ आङः क्रीडमुषः।५।२।५१॥ आद्यादिभ्यः । ७।२।८४॥ आङ शीले ।५।११९६॥ . आद्योंश एकस्वरः ॥४॥१॥२॥ आडल्पे ।३।१॥४६॥ आ द्वन्द्वे। २२।३९॥ आङावधौ ।२।२७॥ आ द्वेरः । २।१।४१॥ आडो ज्योतिरुद्गमे ।३।३।५२॥ आधाराच्चोप-रे।३।४।२४॥ आंङोऽन्धूधसोः ।४।११९३॥ आधारात् ।५।१।१३७॥ आडो यमहनः-च ।३।३।८६॥ आधारात् ।५।४।६८॥ आङो यि ।४।४।१०४॥ अधिक्यानुपू] ७४/७५॥ आङो युद्धे । ५।३।४३॥ आनायो जालम् ।५।३।१३६॥ 'आडो रुप्लोः । ५।३।४९॥ आनुलोम्येऽन्वचा ।५।४।८८॥ आच हो।४।२।१०१॥ आपत्यस्य क्यच्छ्योः ।४।९।। आत् ।२।४।१८॥ आपो डितां-याम् ।१।४।१७।। आत ऐः कृऔ ।४।३॥५३॥ आप्रपदम् । ७।१।९५॥ आतमातेआथादिः।४।२।१२।। आबाधे।७।४।८५॥ आ तुमोऽत्या-त् ॥५॥१॥१॥ आभिजनात् ।।३।२१भा आतो डोऽहावामः ।५।११७६॥ । आम आकम् ।२१॥२०॥ आतो नेन्द्र-स्य ।७४।२९॥ । आमः कृगः।३।३।७५॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) अकारादिवणानुक्रमः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्राङ्कः। आमन्ताल्वाय्येत्नावय।४।३।८५|| आस्तेयम् । ६।३।१३१॥ आमन्व्ये ।२।२॥३२॥ आस्यटिव्रज्यजः क्या५।३।९७॥ आमयादीर्घश्च ।७।२।४८॥ आहावो निपानम् ॥५॥३॥४४॥ आमो नाम् वा ।१।४॥३१॥ | अहिताग्न्यादिषु ।३।१।१५३॥ आयस्थानात ।६।३।१५३॥ आही-दूरे । ७।२।१२०॥ आ यात् । ७।२।२॥ इकण् ।६।४।१॥ आयुधादिभ्यो-देः।५।१।९४॥ इकण्यथर्वण ।७।४।४९॥ आयुधादीयश्च ।६।४।१८॥ इकिश्तिव स्वरूपार्थे ।५।११३८॥ आरम्भ।५।१।१०॥ इको वा । ४।३।१६॥ आरादयः । २।२ । ७८॥ इङितः कत्तेरि।३।३।२२॥ आ रायो व्यञ्जने ।२।१॥५॥ इडितो व्यञ्जना-त् ।५।२।४४॥ आर्यक्षत्रियाद्वा ।२।४।६६॥ इङोऽपादाने-द्वा ।५।३।१९॥ आशिषि तु-तङ् ।४।२।११९॥ इच्चापुसो-रे ।२।४।१०७॥ आशिषि नाथः ।३।३।३६॥: इच्छाथै कर्मणःसप्तमी।५।४।८९॥ आशिषि हनः ।५।११८०॥ इच्छार्थे सप्तमीपश्च०५।४।२७॥ आशिषीणः।४।३।१०७॥ इच्यस्वरेदी-च ।३।२।७२॥ इच् युद्धे १७३।७४॥ आशिष्यकन् । ५।१।७०॥ इञ इतः।२।४७१॥ आशिष्याशीः पञ्च०।५।४।३८॥ इञः ७।४।११॥ आशीः क्यात्-सी०॥३॥३॥१३॥ इट ईति।४।३।७१॥ आशीराशा-गे।३।२।१२०॥ इटू सिजाशिषो-ने।४।४।३६॥ आश्वयुज्या अकञ्।६।३।११९॥ इडेत्पुसि-लुक्।४।३।९४॥ आसनः।७।४।१२०॥ इणः ।२।१॥५१॥ आसमदूरा-थे ।३।१॥२०॥ इणिकोः ।४।४।२३॥ आसीनः ।४।४।११५॥ इणोऽभ्रे ।५।३।७५॥ बासुयु-मः ।५।१।२०॥ इतावतो लुक् ।७।२।१४६॥ न Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टे । सत्रम्। सूत्राः ।। सूत्रम्। सूत्राः । इतोऽक्त्यर्थात् । २।४। ३२॥ ईषोमवरुणेज्ने ३३२॥४२॥ इतोऽतः कुतः १७१२।९०॥ ईगितः ।३।३९५॥ इतोऽनिजः।६।१। ७२ ॥ ईडौ वा ।२।१।१०९।।। इदंकिमीत्कीः ।३।२।१५३॥ ई च गमः।४।११६७॥ इदंकिमो-स्य।७।१।१४८॥ ईतोऽक ।६।३४१॥ इदमः।२।१॥३४॥ ईदे-नम् ।१।२॥३४॥ इदमदसोऽक्येव ॥१॥४॥३॥ ईनञ् च ६४॥११४॥ इदुतोऽने-त् ।१।४।२१॥ ईनयौ चाशब्दे ।६।३।१२९॥ इन: कच ।७।३।१७०॥ ईनेऽध्यात्मनोः ७४॥४८॥ इन्डीस्वरे लुक् ।।४।७९।।. ईनोऽहती ।२।२१॥ । इन्द्रियम् ।७।१।१७४॥ ईयः७१॥२८॥ इन्द्रे।१।२ । ३० ॥ ईयः स्वसुश्च ।६।१।८९॥ इन्ध्यसंयोगा-द्वत् ।४।३।२१॥ ईयकारके ।३।२।१२१॥ इन्हन्स्योः ।१।४।८७॥ ईयसोः ।७।३।१७७॥ इरंमदः ।५।१।१२७॥ ईर्यअनेऽयपि ।४।३।९७॥ इर्दरिद्रः।४।२।९८॥ ईशीड:-मोः ।४।४।८७॥ इवृद्धिमत्यविष्णौ ॥३२॥४३॥ ईश्वाववर्ण-स्य ।४।३।१११॥ इलश्च देशे।७।२॥३६॥ ईषद्गुणवचनैः ॥३॥१॥३४॥ इवर्णादे-लम् ।।२।२१॥ इ३वा १॥२॥३३॥ इवृध-सनः॥४॥४॥४७॥ उपदान्तेऽनूत् ।२।११११८॥ इश्च स्थाद:४॥३॥४१॥ उक्ष्णो लुकू ७४॥५६॥ इषोऽनिच्छायाम् ।।३।११२॥ उणादयः ।।२।९३॥ इष्टादेः १७।१।१६८॥ उत औविति व्य०।४।१५९॥ इसासःशासोङब्ध।४।४।११८॥ उति शवहीं-मे।४।३।२६॥ इसुसोबहुलम् ।७।२।१२८॥ | उतोज्जडुचतुरो वः ॥११४८१॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (११) सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। उतोऽप्राणिन-ऊङ् ।२।४७३॥ उपपीउरुध-म्या ।५।४।७५॥ उत्करादेरीयः ।६।२।९१॥ उपमान सामान्यैः ।।१।१०१॥ उत्कृष्टेऽनूपेन ।२।२॥३९॥ उपमानसहित-रोः ।।४।७५॥ उत्तरादाह ।६।३।५॥ उपमेयं व्याघ्रा-तौ।३।१।१०२॥ उत्थापनादेरीयः ।।४।१२१॥ उपसर्गस्यानि-ति ।१।२॥१९॥ उत्पातेन ज्ञाप्ये ।२।२।५९॥ उपसर्गस्यायौ ।२।३॥१०॥ उत्सादेर ।६।१॥१९॥ उपसर्गात् ।७।३।१६२॥ .. - उत्स्व राधु-से ।३३।२६॥ उपसर्गात् खल्व०।४।४।१०७॥ उदः पचि-रेः ।५।२२९॥ उपसर्गात् सुग-वे ॥२३२३९॥ उदः श्रेः५३॥५३॥ उपसर्गादध्वनः ।७।३।७९॥ उदः स्थास्तम्भः सः।१।३।४४॥ उपसर्गादस्पोहो वा ३।३।२।। उदकस्योदः पेपंधि०३।२।१०४॥ उपसर्गादातः ।५।३।११०॥ उदग्ग्रामाय-मः।६।३।२५॥ . उपसर्गादातो-श्यः ।५।१५६॥ उदकोऽतोये ।५।३।१३५॥ उपसगांदूहो हस्यः।४।३।१०६॥ उदच उदीच ।२।१११०३॥ उपसर्गादः किः ।५।३१८७॥ उदन्वानन्धौ च ।२।१।९७॥ उपसर्गादिव ।२।२।१७॥ उदरे विकणाधूने।७।१।१८१॥ उपसर्गादेव-शः ।५।२।६९।। उदश्वर साप्यात् ।३।३॥३१॥ उपाजेऽन्वाजे ॥३॥१॥१२॥ उदितः स्वरानोन्तः ।४।४।९८॥ उपाज्जानुनीवि-णादा॥१३९। उदितगुरोर्भा-ब्दे ।६।२।५॥ उपात् ।।६।५८॥ उदुत्सोरुन्मनसि ७११९२॥ उपात् किरो लवने ।५।४७२॥ उदोऽनूहे ।३।३२६२॥ उपात् स्तुतौ ।४।४।१०५॥ उद्यमोपरमौ ।४।३।५७॥ उपात् स्थः ।३।३१८३॥ उपज्ञाते ।६।३।१९१॥ उपाद्भपासमवाय-रे।४।४।१२।। उपत्यकाधित्यके ।७।१।१३१॥ | उपान्त्यस्यासमा-डे ।४।२।३५।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) परिशिष्टेषु सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। उपान्वध्वाक्वसः ।।२।२१॥ ऊनार्थपूर्वाद्यैः ।३।१।६७॥ उपायाद्हस्वश्च ।७।२।१७०॥ ऊर्जा विन्वन्तः।७।२।५१॥ उपेनाधिकिनि ।२।२।१०५॥ ऊर्णाहंशुभमो युस् ।७।२।१७॥ उसे । ६ । ३ । ११८ ॥ ऊर्ध्वात् पूरशुषः ।५।४७०॥ उभयाद् द्युम च ७।२।९९॥ ऊर्धादिभ्यः कर्तुः।५।१।१३६॥ उमोर्णाद्वा।६।२।३७॥ ऊर्वाद्रिरिष्टा-स्य ।७।२।११४॥ उरसोऽग्रे । ७।३।११४ ॥ ऊर्याद्यनु-तिः।३।१।२॥ उरसो याणौ ।६।३।१९६॥ ऋलति-वा।१।२।२॥ उवर्णयुपादेयः ।७।१।३०॥ ऋषः । ४ । ४ । २० ॥ उवर्णात् । ४।४।५८॥ . उवर्णादावश्यके ।५।१।१९॥ ऋवपू:पथ्यपोऽत् ॥७॥३७६॥ उवर्णादिकम् ।६।३।३९॥ ऋक्सामर्य-वम् ७३९७॥ उश्नोः ऋगृद्धिस्वरया० ।६।३।१४४॥ ।४।३।२॥ उषासोषसः।३।२।४६॥ ऋचः श्शसि । ३।२।९७॥ उष्ट्रमुखादयः ।३।१।२३॥ ऋचि पादः-दे ।२।४।१७॥ उष्ट्रादकम् । ६।२। ३६ ॥ ऋणाद्धेतोः।२।२।७६॥ उष्णात् । ७।१ । १८५ ॥ ऋणे प्र-र । १।२।७॥ उष्णादिभ्यःकालात्।६।३॥३३॥ ऋत इकण । ६।३।१५२॥ ऊडा ।३।२।६७॥ - ऋतः।४।४। ७९ ॥ ॐ चोञ् । १।२। ३९॥ ऋतः स्वरे वा ।४।३।४३॥ ऊटा।१।२।१३॥ ऋतां विद्यायो-न्धे ।३।२।३७॥ ऊढायाम् । २।४।५१॥ ऋते त-से । १ ।२।८॥ ऊदितो वा ।४।४।४२॥ ऋत द्वितीया च ।२।२११४॥ ऊदुषो णो ।४।२।४०॥ ऋतेमयः।३।४।३॥ ऊन्नः ।२।४।७॥ | तो दुर् । १।४। ३७॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (१३) सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। ऋतोऽत । ४ । १ । ३८॥ ऋवर्णा । ४।३ । ३६ ॥ ऋतो :-नि । २।१।२॥ वर्णोवर्ण-लुरु ।७।४।७१॥ ऋतो र-ते।१।२।२६॥ ऋवर्णोवर्णा-च ।।३।३७॥ ऋतो रीः।४।३।१०९॥ ऋतो वा तौ च ।१।२।४॥ ऋत्येद इट् । ४।४।८०॥ ऋषमृषकश-सेट् ।४।३।२४॥ ऋश्यादेः कः । ६।२।९४॥ ऋत्यारु-स्य । १।२।९॥ ऋषभोपा-ज्यः।७।११४६॥ ऋत्वादिभ्योऽण ।६।४।१२५॥ ऋषिनाम्नोः करणे ।५।२।८६॥ ऋत्विजदिश्-गः ।२।११६९॥ ऋषिवृष्ण्यन्धककुरु०।६।१।६१॥ ऋदुदितः।१।४। ७० ॥ ऋषेरध्याये ।६।३।१४५॥ ऋदुदित्तरतम-श्च ।३।२६३॥ ऋषौ विश्वस्य मित्रे ।३।२।७९॥ ऋदुपान्त्याद-चः ।५।११४१॥ ऋस्मिपूङञ्जशौ च्छः।४।४।४८॥ दुशनस्पु-औः ।१।४।८४॥ अवर्णस्य । ४।२। ३७॥ ऋहीघ्राधा ।४।२७६॥ ऋद्धनदीवंश्यस्य । ३।२५॥ ऋतां विडतीर् ।४।४।११६॥ अध ईते । ४।१।१७॥ ऋदिच्चिस्तम्भू-बा ।३।४।६५॥ अनरादेरणू । ६।४।५१॥ ऋल्वादेरे-प्रः।४।२।६८॥ ऋनित्यदितः।७३।१७१॥ ऋस्तयोः । १।२५॥ ऋफिडादीनां ।२।३।१०४॥ लुत-वा।१।२।३॥ ऋमतां रीः।४।१।५५॥ लृत्याल् वा । १।२।११॥ कर लूलं-षु ।२।३।९९॥ अवर्णदृशोऽङि ।४।३७॥ लुदियुतादि-स्मै ।३।४।६४॥ ऋवर्णव्यज-ध्यण् ।५।१।१७॥ | लृदन्ताः -नाः।१।१।७॥ . अवर्णशृयूगः कितः।४।४।५७॥ ए ऐ ओ औ-रम् ।१।१।८॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्क। । सूत्रम्। सूत्राङ्कः। एः।१।४ । ७७॥ एदोद्देश एवेयादौ ।६।१।९॥ एकद्वित्रि-ताः ।१।१॥५॥ एदोद्यां -रः।१।४।३५॥ एकद्विबहुषु । ३ । ३॥ १८॥ एद्वहुस्मोसि । १।४।४॥ यकधातौ कर्म-ये ।३.४।०६॥ एयस्य । ७।४ । २२ ॥ एयेऽग्नायी।३।२। ५२॥ एकशालाया इक: ७१।१२०॥ एये जिह्माशिनः ७४४७॥ एकस्वरात् । ६।२। ४८॥ एषामीर्व्यञ्जनेऽदः ।४।२।९७॥ एकस्वरादनु-तः।४।४५६॥ एज्यत्यवधौ-गे।५।४।६॥ . एकागाराचौरे ।६।४।११८॥ एष्यदणेनः । २।२।९४॥ एकात्-स्य ।७।२।१११॥ ऐकायें । ३।२।८॥ एकदश षोडश ।३।२।९१॥ ऐदौन-रैः। १।२ । १२ ॥ एकादाकि-ये।७।३।२७॥ . ऐषमापरु-प।७।२१००॥ एकादेःकर्मधारयात् ।७।२।५८॥ ऐषमोद्यश्वसो वा ।६।१९॥ एकार्थ चानेकं च ॥३१॥२२॥ ओजः सहो-ते।६।४।२७॥ एकोपसगस्य च धे।४।२।३४॥ ओजोजःस-ष्टः।३।२।१२।। एजे।।५।१ । ११८॥ ओजऽप्सरसः ।३।४।२८॥ एण्या एयज्ञ । ६।२।३८॥ ओत औः।१।४।७४ ।। एतदश्च से।१।३। ४६ ।। ओतः श्ये ।४।२।१०३॥ एताः शितः।३।३।१०॥ ओदन्तः।१ । २।३७॥ एत्यकः।२।३।२६ ॥ ओदौतोऽवान् ।१।२।२४॥ एत्यस्तेवृद्धिः।४।४।३०॥ ओमः प्रारम्भ [७।४।९६॥ एदापः।१।४। ४२॥ ओमाडि । १ । २ । १८ ॥ एदेतोऽयाय् ।१।२।२३॥ ओर्मान्तस्थान्णे।४।११६०॥ एदोबा-तुक । १।३।२७॥ । ओप्ठयादुर् ।४।४।११७॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्रम्। सूत्राङ्कः। । सूत्रम् । औता।१।४।२०॥ कथादेरिकण ७॥१॥२१॥ औदन्ताः स्वराः।१।१।४॥ कदाकोर्नवा ५॥३८॥ औरीः।१।४ । ५६ ॥ कन्थाया इकण् ।६।३।२०॥ कंशंभ्यां-मम् ।७।२।१८॥ कन्यात्रिवेण्या:-च ।६।११६२॥ कंसार्धात् । ६।४।१३५॥ कपिज्ञातेरेयम् ।७।१६५॥ कंसीयात् ज्यः ।६।२।४१॥ कपिबोधा-से ।६।१।४४॥ ककुदस्या-म् ।७।३।१६७॥ कपेगोत्रे । २।३। २९॥ कखपान्त्य-दोः।६।३।५९॥ कवरमणि-देः ।।४।४२॥ कगेवनूजनै-रञ्जः।४।२।२५॥ कमेणिङ् । ३।४।२॥ कङश्वञ् । ४।१।४६॥ कम्बलान्नानि ।७।१।३४॥ कच्छाग्निवक्त्र-दात् ।६।३६०॥ करणकिययाक्वचित् ।३।४।९४॥ कच्छादेनूनृस्थे ।६।३।५५॥ करणं च ।२।२। १९ ॥ कच्छ्वा डुरः ।७।२।३९॥ करणाद्यजो भूते ।५।१।१५८॥ कटः । ७।१। १२४ ॥ करणाधारे । ५।३।१२९ करणेभ्यः । ५।४।६४॥ कटपूर्वात्प्राचः।६।३५८॥ कर्कलोहि-च ।७।१।१२२॥ कठादिभ्यो वेदे लुप्।६।३।१८३॥ कर्णललाटात्कल् ।६।३।१४१॥ कडारादयः कर्म०।३।१।१५८॥ कर्णादेरायनि ।६।२।९०॥ कणेमनस्तृप्तौ ।३।१।६॥ कर्णादेमूले जाहः ।७।१।८८॥ कण्ड्वादेस्तृतीयः ।४।१।९॥ कर्तरि । २ । २। ८६। कतरकतमौलश्ने ।३।१११०९॥ कर्तरि । ५। १।३॥ कत्रिः ।३।२।१३३ ॥ . कर्तर्यनदृभ्यः शत् ।३।४७१॥ कन्यादेश्चैयक ।६।३।१०॥ कर्तुः विप्-डित् ।३।४।२५॥ कथमित्थम् । ७।२।१०३॥ कर्तुः खश् ।५।१।११७॥ कथमि सप्तमी च वा ।५।४।१३।।। कतुर्जीवपुरुषा-हः ।५।४।६९॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु (१६) सूत्राङ्क । सूत्रम् । कर्तुर्णिन् ।५।१।१५३॥ कर्तुर्व्याप्यं कर्म | २२|३|| कर्तृस्थामूर्ताप्यात् | ३|३|४०|| कर्मजा तृचा च । ३ | १॥८३॥ कर्मणः संदिष्टे ॥७२॥१६७॥ कर्मणि | २२|४०|| कर्मणि कृतः | २|२|८३ ॥ कर्मणोऽण |५|१|७२ | कर्मणोऽणू |५|३|१४|| कर्मण्यग्न्यर्थे |५|१|१६५॥ कर्मवेषाद्यः | ६ |४| १०३॥ कर्माभिप्रेयः संप्रदा० | २|२|२५|| कलापिकुथु - णः | ७|६|२४|| कलाप्यश्वत्थ-कः।६।३।११४॥ कल्प रेणू |६|१|१७| कल्याण्यादेरिन् चा० |६| ११७७॥ कवचिक | ६|२|१४| कवर्गैकस्वरवति |२|३|७६ ॥ कषः कृच्छ्रगहने |४|४|६७॥ कषोऽनिः |५|३|३|| कष्टकक्षकृच्छ्र-णे|३|४|४१ ॥ कसमा-र्धः | १|१|४१ ॥ कसोमात् ट्यण् ।६।२।१०७॥ काकतालीयादयः | ७|१|११७॥ काकवौ वोष्णे ||३|२|१३७|| सूत्रम् । काकाद्यैः क्षेपे । ३ | १ | ९०॥ काक्षपथोः | ३|३|१३४॥ सूत्राङ्कः । काण्डाssण्डभाण्डा०|७|२|३८|| काण्डात् प्रमा-त्रे | २|४|२४|| कादिर्व्यञ्जनम् | १|१|१० ॥ कामोक्तावकच्चिति |५|४|२६|| कारकं कृता | ३|१|६८॥ कारणम् ||५|३|१२७| कारका स्थित्यादौ | ३|१|३|| कार्षापणा-वा | ६|४|१३३ ॥ कालः | ३|१|६० ॥ कालवेलासमये - रे | ५|४|३३ ॥ कालस्यानहोरात्राणाम् |५|४|७|| कालहेतु - गे |७|१|१९३ ॥ काला जटाधा - पे | ७|२॥२३॥ कालात् |७|३|१९॥ कालात् तनतरतम० |३|२|२४|| कालात् परि-रे | ६|४|१०४॥ कालाद् देये ऋणे | ६|३|११३॥ कालाद् भववत् |६|२|१११ ॥ कालाद्यः |६|४|१२३॥ कालाध्वनोर्व्याप्तौ | २२|४२॥ कालाध्वभा-णाम् ॥२२१२३॥ काले कार्ये - |६|४|९८ ॥ कालेन तृप्य - रे |५|४|८२ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अकारादिवर्षानुनमः। सूत्रम् । . सूत्राङ्कः। । सूत्रम्। सूत्राङ्कः । काले भान्नवाऽऽधारे।२।२।४८॥ कुत्या दुपः ॥७॥३॥४९॥ .. कालो द्विगी च मेयैः।३।११५७॥ कुत्सिताल्पाज्ञाते ७।३॥३३॥ काशादेरिलः।६।२।८२॥ कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम् ।।१।१२१॥ काश्यपको-च ।६।३।१८८॥ कुप्यमिद्यो-भि ।५।११३९॥ काश्यादेः।६।३।३५॥. कुमहद्भ्यां वा ७।३।१०८॥ कासूगोणीभ्यां तरट्र ७॥३॥५०॥ कुमारः श्रमणादिना।३।१।११५॥ किंयत्तत्सर्वदा ।।२।९५॥ कुमारशीर्षात् णिन् ।५।१।२८॥ किंवृत्त लिप्सायाम् ।५।३।९॥ कुमारीक्रीड-सोः ॥७॥३१६॥ किंवृते सप्तमी-न्त्यौ ।५।४।१४॥ कुमुदादेरिकः ।६।२।९६॥ किंयत्तबहोरः ।५।१।१०१॥ .. कुरुछुरः ।२।११६६॥ किंकिलास्त्यर्थ-न्ती ।५।४।१६॥ कुरुयुगंधराद् वा ।६।३५३॥ किं क्षेपे ।३।१।११० ॥ कुरोर्वा ।६।१।१२२॥ कितः संशयप्रतीकारे।३।४।६।। कुर्वादेर्व्यः ।।१।१००॥ कित्याये-स्याम् ।७॥३८॥ . कुलकुक्षि-रे । ६।३।१२।। किमः क-च ।२।११४०॥ कुलटाया वा ।६।१।७८॥ किमयादि-तस् ।७।२।८९॥ कुलत्थकोपान्त्यादण ।६।४।४॥ किरो धान्ये ।५।३।७३॥ । कुलाख्यानाम् ।२।४।७९॥ किरो लवने ।४।४।९३॥ कुलाजल्पे । ७।१। ८६ ॥ किशरादेरिकट ।६।४।५५॥ कुलादीनः।६।१।९६॥ कक्ष्यात्मोदरा-खिः ।५।११९०॥ कुलालादरक ।६।३।१९४॥ कुञ्जादेओयन्यः ।।१।४७॥ कुलिजाद्वा लुप च ।।४।१३५॥ कुटादेद्विदणित् ।४।३।१७॥ कुल्मासादण् ।७।१।१९५॥ कुटिलिकाया अ६॥४॥२६॥ कुशलायु-याम् ।२।२।९७॥ टीशुण्डाद्रः ७।३।४७॥ कुशले ।६।३९५॥ .. कुण्ड यादिभ्यो य लु०।६।३।११॥। कुशाग्रादीयः।७।१।११६॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) परिशिष्टेषु । सूत्रम्। सूत्राङ्कः। । सूत्रम्। सूत्राङ्कः। कुपिञ्जाप्ये-च ३।४७४।। कृभ्यस्तिभ्यां कि।७।२।१२६॥ कुसीदादिकट ।६।४।३५॥ . कृवृषिमृजि-वा ।५।।४२. कूलादुद्रुजोद्वहः ।५।१११२२॥ कृशाश्वक-दिन् ।६.३।१९०॥ कूलाभ्रकरी-पः ।५।१।११०॥ कृशाश्वादेरीयण ।६।२।९३॥ कृगःखन-णे ।५ १११२९॥ कृष्यादिभ्यो वलच ।७।२।२७॥ कृगःप्रतियत्ने । २।२।१२॥ . कृतः कीर्तिः।४।४।१२३।। कृगः श च वा।५।३।१००॥ केकयमित्रयु-च ७४॥२॥ कृगः सुपुण्य-त् ।५।१।१६२॥ केदाराण्ण्यश्च ।६।२।१३॥ कृगो नवा ।३।१।१०॥ केवलमामक-जात् ।२।४।२९॥ कृगो यि च ।४।२।८८॥ केवलस-रौः।१।४।२६॥ कृगोऽव्ययेना-मौ ।५।४।८४॥ केशाद्वः । ७।२ । ४३॥ कृगग्रहो-वात ।५।४।६१॥ केशाद्वा।६।२ । १८ ॥ कृगतनादेरुः ।३।४।८३॥ . केशे वा ।३।२।१०२ ॥ कृतचूतनृत-वा ।४।४।५०॥ कोः कत् तत्पुरुषे ।३।२।१३०॥ कृताद्यैः । २।२।४७॥ | कोटरमिश्रक-णे ।३।२।१३०॥ कृतास्मरणा-क्षा ।५।२।११।। कोऽण्यादेः ।।२।७६॥ कृति।३।१।७७॥ कोपान्त्याचाण।६।३।५६॥ कृते । ६।३।१९२ ॥ कोऽश्मादेः।६।४। ९७॥ कृत्यतुल्या-त्या ।३।१।११४॥ कौण्डिन्याग-च।६।१।१२७॥ कृत्येऽयश्यमो लुक् ।३।२।१३८॥ कौपिञ्जलहास्तिप०१६।३।१७१॥ कृत्यस्य वा ।।२।८८॥ कौरव्यमाण्डूकासुरेः।।२।४।७०॥ कृत्सति-पि ।७।४।११७॥ | कौशेयम् । ६ । २ । ३९॥ कृद्येनावश्यके ।३।१।९५॥ विङति यि शय् ।४।३.१०५॥ कृपः श्वस्तन्याम् ।३।३।४६॥ तं नादिभित्रः ।३।१११०५॥ कृपाहृदयादालुः ।७।२।४२॥. तक्तबतू । ५। १ । १७४॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्रम् । सूत्राङ्कः । क्तयोः । ४ । ४ । ४० ॥ क्तयोरनुपसर्गस्य |४|११९२ ॥ तयोरसदाधारे | २|२|९१ ॥ ( १९ ) सूत्राङ्कः । क्ताः । ३ । १ । १५१ ।। क्ताच्च नाम्नि वा | २|४|२८|| क्तात्तमत्रादे-न्ते |७|३|५६॥ क्तादल्पे । २ । ४ । ४५॥ कासोऽपि |२| १ | ६१ ॥ सूत्रम् । क्रमो दीर्घः परस्मै | ४|२| १०९ ॥ क्रमोऽनुपसर्गात् ||३|३|४७॥ ऋय्यः क्रयार्थे |४|३|९१ ॥ क्रव्यात् क्रव्या - दौ |५|१|१५१ ॥ क्रियातिपत्तिः - महि | ३ | ३|१६|| क्रियामध्येऽध्व-च ॥२॥२॥११०॥ क्रियायां क्रियार्थी ० |५|३|१३|| क्रियार्थी धातुः | ३|३|३|| केटो गुरोर्व्यञ्जनात् | ५|३|१०६ ॥ क्रियाविशेषणात् |२| २|४१ ॥ क्रियाव्यतिहार्थे |३|३|२३|| क्रियाश्रयस्या- णम् ||२||३०| क्रियाहेतुः कारकम् | २२|१|| क्रीडोऽकूजने |३|३|३३॥ क्रीतात् करणादेः | २|४|४४॥ क्रुत्संपदादिभ्यः कि ३२५|३|११४ ॥ क्रुद् द्रुहे-पः ।२।२।२७॥ क्रुस्तुनः - सि | १|४|९१ ॥ क्रोशयोजन - मार्के | ६|४|८६ ॥ क्रोष्टुशलङ्कोर्लुक् च।६।११५६ ॥ क्तेन । ३ । १ । ९२ ॥ क्तेनासच्चे । ३ । १ । ७४ ॥ क्तेऽनिटच जोः - ति | ४|१|१११ ॥ क्त्वा । ४ । ३ । २९ ॥ क्वातुमम् । १ । १ । ३५ ॥ क्वातुमम् - वे । ५ । १ । १३ । वनः पलितासितात् | २|४|३७|| क्यः शिति । ३ । ४ । ७० ॥ क्यङ् । ३ । ४ । २६ ॥ क्यमानिपित्ते | ३|२| ५० ॥ क्षो नवा | ३|३|४३॥ क्यनि । ४ । ३ । ११२ ॥ क्ययङाशीर्ये ।४।३।१०। क्यो वा । ४ । ३ । ८१ ॥ क्रमः । ४ । ४ । ५४ ॥ क्रमः क्त्व वा ।४।१।१०६ ॥ क्रौड्य'दीनाम् |२|४|७९ ॥ क्रयादेः । ३ । ४ । ७९॥ क्लिन्नाल्ल स्य |७|१|१३०॥ क्लीबमन्ये वा | ३|१|१२८॥ क्ल । बे । २ । ४ । ९७ ॥ क्लीवे क्तः |५|३|१२३॥ - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् । सूत्राङ्क । सूत्रम् । सूत्राङ्कः। क्लीवें वा । २।१।९३ ॥ क्षुश्रोः । ५।३ । ७१ ॥ क्लेशादिभ्योऽपात्।५।११८१॥ क्षेः क्षीः । ४।३। ८९ ॥ कात्रेह । ७।२।९३।। क्षेः क्षी चाध्यार्थे ।४।२७४॥ कंचित् । ५।१।१७१ ॥ क्षेत्रेऽन्य-यः ।७।१।१७२।। कचित् । ६।२।१४५ ॥ क्षेपातिग्र-या: ७२।८६॥ कचित्तुर्यात् ७३४४॥ क्षेपे च यच्चयो ।५।४।१८॥ कचित् स्वार्थ ।७३॥७॥ क्षेपेऽपिजात्वो-ना ।५।४।१२। कसुष्मतौ च ।२।१।१०५।। क्षेमप्रिय-खाण ।५।१।१०५। किए । ५। १ । १४८ ॥ शुषिपचो-वम् ।४।२।७८॥ किवृत्तेरसुधियस्तौ ।।११५८॥ खनो डडरेके कव० ।५।३।१३७।। केहामात्र तमस्त्यच ।६।३।१६।। खरखुरान्ना-नम् ।७३।१६०॥ की।४।४ । १२०॥ खलादिभ्यो रिन् । ६।२॥२७॥ क्षत्रादियः ।६।१।९३१ .. खारीकाक-कच् ।६।४।१४९॥ क्षय्यजय्यौ शक्तौ ।४।३।९०॥ खार्या वा ७७३।१०२॥ क्षिपरटः । ५। २ । ६६ ।। खितिखीती-- ।१४॥३६॥ शिप्रांशंसार्थ-म्यौ ।५।४।३।। स्वित्यनव्यया-श्च ।३।२।१११।। खेयमृपोये ।५।११३८॥ क्षियाशीःश्रेषे ७४।१२॥ ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये ।५:४॥४८॥ क्षीरादेयण ।६।२१४२।। ख्यागि। १।३।५४ ॥ क्षुनगर्धेऽशना-यम्।४।३।११३। ख्याते दृश्ये ।५।२।८। . क्षुद्रकमालवा-नि ।६।२।११।। गच्छति पथिदूते।६।३।२०३॥ क्षुद्राम्य एरण वा ।।११८०॥ गडदबाद-ये ।२।१७७॥ क्षुधक्तिशकुष-सः।४।३।३१।। गड्यादिभ्यः ।३।१।१५६॥ क्षुधरसस्तेषाम् ।४।४।४३॥ गणिकाया ण्यः ।६।२।१७॥ क्षुब्धविरिब्ध-भौ।४।४७१॥ गतिः । १।१।३६ ॥ क्षुभ्नादीनाम्।२।३९६॥ गतिकारक-क्वौ ।३।२।८५॥ . . . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवणानुक्रमः । (२१) सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। गतिक्वन्य-पः ॥३॥१॥४२॥ गवि युक्ते ।३।२१७४॥ गतिबोधा-दाम् ।२।२।१०७॥ गवियुधेः स्थिरस्य ।२।३।२५॥ गते गम्येऽध्व-वा ।२।२।५॥ गस्थकः । ५।१।६६ ॥ गते वाऽनाते ।२।२।६३॥ गहादिभ्यः ।६।३।६३। गतौ सेधः ।२।३।६१॥ गहोजः । ४ । १ । ४० ॥ गत्यर्थवदोऽच्छः ।३।११८॥ गाः परोक्षायाम ।४।४।२६।। गत्यर्थाकर्मक-जेः ।५।१।११॥ गात्रपुरुषात् स्नः।५४।५९।। गत्वर्थात् कुटिले ।३।४।११॥ गाथिविद-नः ७४५४॥ . गत्वरः । ५। २७८॥ गान्धारिसाल्वेया०।६।१।११५। गन्धनावक्षे-गे।३।३।७६॥ गापापचो भावे ।५।३।९५॥ गमहनजन-लुक् ।४।२।४४॥ गापास्थासादा-कः।४।३।९६॥ गमहनविदल-बा।४।४८३॥ गायोऽनुपसर्गाटक।५१७४।। गमां को। ४ । २०५८ ॥ गिरिनदी-द्वा ७३९०॥ गमिषद्यमश्छः ।४।२।१०६॥ · गिरिनद्यादीनाम् ।।३।६८॥ गमेः क्षान्तौ ।३॥३५५॥ गिरेरीयोऽस्त्राजीवे ।६।३।२१९॥ गमोऽनात्मने ।४।४।५१॥ गुणाङ्गाद्वेष्ठेयम् ।७३।९॥ गमो वा ।४।३।३७॥ गुणाद-नवा ।२।२७७॥ गम्भीर-वात् ।६।३।१३५॥ गुणादिभ्यो यः ॥७॥२॥५३॥ गम्ययपः कर्माधारे ।२।२७४॥ गुणोऽरेदोत् ।३।३।२ ॥ गम्यस्याप्ये ।।२।६२॥ गुपौधूपवि-यः ।३।४।१॥ गर्गभार्गविका ।६।१।१३६।। गुतिजो-सन् ।३।४।५॥ गर्गादेयञ् ।६।१।४२॥ गुरावेकश्च । २ । २ । १२४॥ गर्वोत्तरपदादीयः ।६।३।५७॥ गुरुनाम्यादे-र्णोः ।३।४।४८॥ गर्भादप्राणिनि ७।१।१३९॥ गृष्टयादेः । ६।१।८४ ॥ गवाश्वादिः ।३।१।१४४॥ गृहेऽनीधो रणधश्च ।६।३।१७४॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्क। सूत्रम। सूत्राङ्कः । गृहणोऽपरोक्षायां दीर्घः।४।४।३४॥ गोस्तत्पुरुषात् ।७।३।१०५॥ गृलुपसद-गहर्ये । ३।४।१२॥ गोहः स्वरे । ४ । २ । ४२ ॥ गेहे ग्रहः।५।१।५५॥ गौणात् सम-या ।२।२।३३॥ गोः।७।२।५०॥ गौणो ड्यादिः ।।४।११६॥ गोः पुरीषे ।६।२।५०॥ | गौरादिभ्यो मुख्यान्०२।४।१९॥ गोः स्वरे यः।६।१॥२७॥ गौष्ठीतैकी-चरात् ।।३।२६॥ गोचरसंचर-पम् ।५।३।१३१॥ ग्मिन् । ७। २ । २५ ॥ गोण्यादेश्वेकण ७१२१२१॥ ग्रन्थान्ते । ३।२।१४७ ॥ गोण्या मेये ।२।४।१०३॥ ग्रहः ।५।३।५५॥ गोत्रक्षत्रिये-यः।६।३।२०८॥ ग्रहगुहश्च सनः ।४।४५९॥ ग्रहणाद्वा ।७।१।१७७॥ गोत्रचरणा-मे ७।११७५॥ ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः ।४।१४८४॥ गोत्रादकवत् ।६।२।१३४॥ ग्रहादिभ्यो णिन् ।५।१॥५३॥ गोत्रादङ्कवत् ।६।३।१५५॥ ग्रामकोटात् तक्ष्णः७।३।१०९।। गोत्राददण्ड-ध्ये ६।३१६९॥ ग्रामजनवन्धु-तल।६।२।२८॥ गोत्रोक्षवत्सोकञ्।६।२।१२।। ग्रामराष्ट्रांशाद्-णौ।६।३।७२॥ गोत्रोत्तरपदाद-त्यात् ।६।१।१२॥ ग्रामाग्रानियः ।।३।७१॥ गोदानादीनां-ये ।६।४।८१॥ ग्रामादीन च ६३९॥ गोधाया दुष्टे णारश्न ।६।१।८१॥ ग्राम्याशिशुद्धि-यः।३।१।१२७॥ गोपूर्वादत इकण ७ि२॥५६॥ । ग्रीवातोऽण च ।६।३।१३२॥ गोमये वा।६।३॥५२॥ ग्रीष्मवसन्ताद् वा १६।३।१२०॥ गोऽम्बाम्ब-स्य ।२।३।३०॥ ग्रीष्मावस्-का ।।३।११५॥ गोरथवातात्र-लम् ।६।२।२४॥ । ग्रो यङि ।२।३।१०१॥ गोर्नाम्न्यवोऽक्षे ।१।२।२८ ग्लाहाज्यः । ५।३।११८॥ गोश्वान्ते-हो ।१।४।९६॥ घनि भावकरणे ।४ २।५२॥ गोष्ठातेः शुनः ७३३११०॥ घन्युपसन-लम् ।३।२।८६॥ गोष्ठादीनञ् ७।२७९॥ घटादेईस्वो-४।२।२४)) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः | (२३) सूत्रम् । सूत्राङ्कः । ङयाप्त्यूङः | ६|१|७० ॥ चक्षो वाचि ख्यांग |४|४|१४|| सूत्रम् । सूत्राङ्कः । सेकस्वरा-सोः | ४|४|८२ ॥ घस्लृ सन-लि |४|४|१७॥ घस्वसः । २ । ३ । ३६॥ घुटि । १ । ४ । ६८ ॥ घुषेरविशब्दे । ४ । ४ । ६८ ॥ घोषदादेरकः |७|२|७४ | घोषवति । १ । ३ । २१ ॥ प्राध्मापा - शः | ५ | १|५८ ॥ घामोर्यांङ | ४ | ३ |९८ | यावश्यके |४|१|११५।। सेबाद | २|१|१९|| ङसोऽपत्ये ।६।१।२८॥ डस्युक्तं कृता |३|१|४९॥ ङिडौः । १ । ४ । २५ ॥ ङित्यदिति । १ । ४ । २३॥ ङेः स्मिन् । १ । ४ । ८॥ डेडसा त मे । २ । १ । २३ ॥ डेङस्योर्यातौ |१|४|६| डे पित्रः पप्य । ४|१|३३॥ ङ सासहिवाव - ति |५|२/३८ ॥ ह्णोःकटा-वा ।१।३।१७॥ ङयः । ३ । २ । ६४ ॥ यादीदूतः के | २|४|१०४॥ यादे गौण - च्योः | २|४|९५ ॥ पो बहुलं नाम्नि | २|४|१९|| | चजःकगम् ||२|११८६॥ चटकाण्णैरः- पू |६| ११७९ ॥ चटते स | १|३|७| चतस्रार्द्धम् ||३|१|६६ ॥ चतुरः । ७ । १ । १६३ ॥ चतुर्थी । २ । २।५३ ॥ चतुर्थी प्रकृत्या | ३|१|७० ।। चतुर्मासान्नानि |६|१|१३३॥ चतुष्पाद् गभिण्या ३|१|११२ ॥ चतुष्पाद्भय एयञ | ६ |१|८३ ॥ चतुर्दा-सि | २|३|७४॥ चत्वारिंशदादौ वा | ३|२|९३॥ ॥ चन्द्रयुक्तात्क्ते |६|२|६॥ चन्द्रायणं च चरति |६|४८२ ॥ चरकमा - नञ | ७|१|३९॥ चरणस्य स्थेो दे | ३|१|१३८|| चरणादक |६|३|१६८ ॥ चरणाद्धर्मवत् |६|२|२३| चरति । ६ । ४ । ११ ॥ चरफलाम् |४|१|५३॥ चराचरचला - वा |४|१|१३|| Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूचाङ्क सूत्रम् । सूत्राङ्क । चरेराङस्त्वगुरौ ।५।१॥३१॥ . चिस्फुसेनवा ।४।२।१२।। . चरेष्टः । ५।१। १३८ ॥ चीवसत्परिपार्जने ॥४॥४१॥ चर्मण्यत्र । ७।१।४५।। चुरादिभ्यो णिच् ।३।४।१७।। चर्मण्वत्य-त् । २।१।९६ ॥ चूडादिभ्योऽण् ।।४।११९॥ चर्मशुनः-चे ७४४६४॥ चूर्णमुङ्गा-णौ ।६।४।७॥ चमिवर्मि गत् ।६।१।११२॥ चेकि ।४।१३६॥ चर्मोदरात्पूरेः।५।४।५६॥ चेलार्थात् क्नोपेः ।५:४५८॥ चलशब्दार्था-त् ।५।२।४३॥ | चैत्रीकार्तिकी-द्वा ।६२।१००॥ चल्याहारार्थेङ् नः ।३।३।१०८॥ चौरादेः ।७।११७३॥ चवर्गद रे । ७।३।९८। | च्ची क्वचित् ।३।२।६०॥ चहणः शाठये ।४।२।३१॥ .. व्यर्थे कम्प्या -गः ।५।३।१४०॥ चातुर्मास्यन्-च ।६।४।८५॥ व्यर्थे भृशादेः स्तोः।३।४।२९।। चादयोऽसत्त्वे ।१।१॥३१॥ छगलिनों णेयिन् ।६।३।१८५॥ चादिः-नाङ्।१।२।३६।। छदिवलेरेयण् ।७।१।४७॥ चायःकीः ।४।१।८६॥ छदेरिस्मन्त्रट्कयो ।४।२।३३।। चार्थे द्वन्द्वाःसहोक्तौ ३।१।११७॥ छन्दसो यः ६।३।१४७॥ चाहहवैवयोगे ।२।१।२९॥ छन्दस्यः ।६।३।१९७॥ चिक्लिदचक्रसम् ।४।१।१४॥ छन्दोगौ घे।६।३।१६६॥.. चितिदेहा-देः ।५।३।७९॥ छन्दोऽधीते-वा ।७।१।१७३॥ चितीर्थ ।७।४।९३॥ छन्दोनाम्नि ।५।३।७०॥ चितेः कचि ।३।२।८३॥ छाशोर्वा ।४।४।१२॥ चित्ते वा ।४।२॥४१॥ छेदादेनित्यम् ।६।४।१८२॥ चित्रारेवती-याम् ।६।३।१०८॥ जङ्गल-वा ७।४।२४॥ चित्रे । ५ । ४ । १९॥ जण्टपण्टात् ।६।१।८२॥ चिरुपरुत्प-स्त्नः ।६।३।८५॥ । जनशो न्युपान्त्ये ४३३२३॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (२५) सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। जपजभदहदश-शः।४।१॥५२॥ जातेरयान्त-त् ।२।४।५४॥ जपादीनां पो वः ।२।३।१०५॥ जातेरीय:सामान्य०७३।१३९॥ जभः स्वरे ।४।४।१०॥ जातौ । ७ । ४ । ५८ ॥ जम्ब्वा वा ।६२।६०॥ जातौ राज्ञः।६।११९२॥ जयिनि च।६।३।१२२॥ जात्याख्यायां-वत् । २।२।१२१॥ जरत्यादिभिः ।३।११५५॥ जायापतेश्चि-ति ।५।११८४॥ जरसो वा ।१।४।६०॥ जायाया जानिः ॥७३।१६४॥ जराया ज-च ७३।९३॥ जासनाट-याम् ।२।२।१४॥ जराया ज-वा ।।१॥३॥ जिघ्रतेरिः। ४।२। ३८ ॥ जस इः।१।४।९॥ . जिविपून्यो-ल्के ।५।११४३॥ जस्येदोत् । १।४। २२ ॥ जिह्वामूला-यः॥६॥ १२७॥ जस्विशे-न्व्ये ।२।१।२६॥ जीणदृक्षि-थः ।५।२।७२॥ जागुः । ५। २।४८ ॥ जीर्णगोमूत्रा-ले ७२।७७॥ जागुः किति ।४।३६॥ 'जीवन्तपर्वताद्वा ।६।११५८॥ जागुरश्च ।५।३।१०४॥ जीविकोपनि-म्ये ।३।११७॥ जागुजिणवि ।४।३।५२॥ जीवितस्य सन् ।६।४।१७०॥ जाग्रुषसमिन्धेनेवा ।३।४।४९॥ जभ्रमवम-वा ।४।१।२६॥ जाज्ञाजनोऽत्यादौ ।४।२।१०४॥ जवश्वः क्त्वः ।४।४।४१॥ जातमहद्-यात् ।७।३।९५॥ जृषोऽतः ।५।१।१७३॥ जातिकालसुखा-वा ।३।१।१५२॥ जेगिःसत्परोक्षयोः ।४।१३५॥ जातिश्च णितद्वि-रे ।३।२।५१॥ ज्ञः। ३।३। ८२ ॥ जातीयैकार्थेऽच्चेः ।३२।७०॥ ज्ञप्यापो ज्ञीपीपू०४।११६॥ जातुयद्यदायदो स०।५।४।१७॥ ज्ञानेच्छा!र्था न ।३।११८६॥ बाते । ६।३। ९८॥ ज्ञानेच्छार्थिनी-क्तः।५।२।९२॥ जातेः सम्पदा च ।७।२।१३१॥ जीप्सास्थेये ।३।३।६४॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु । सूत्राकः।। सूत्रम्। सूत्राङ्कः । ज्ञोऽमुपसर्गात् ।३।३३९६॥ टूवितोऽथुः ।५।३।८३॥ ज्यश्च यपि ।४३११७६॥ डकश्चाष्टाच-णाम् ।६।४।८४॥ ज्यायान् ।७।४।३६॥ डतरडतमौ-श्ने ७४७६॥ ज्याव्यथा विति ।४।१।८१॥ । डतिष्णः-प् । १।४।५४ ॥ ज्याम्यधिष्यचि०।४।१७१॥ डत्यतु संख्यावत् ।।१।३९॥ ज्योतिरायु-स्य ।२।३॥१७॥ डाच्यादौ ।७।२।१४९॥ ज्योतिषम् ।६।३।१९९॥ डाच्लोहिता-पित् ।३।४।३०॥ ज्योत्स्नादिभ्योऽज् ॥२॥३४॥ डित्यन्त्यस्वरादेः।५।१।११४॥ जलहलहाल-वा।४।२।३२॥ डिद्वाणू ।६।२।१३६॥ बिरगमोर्चा ।४।४।१०६॥ . डिन् । ७।१।१४७॥ विच ते पद-च ।३।४।६६॥ डीयश्व्यैदितत्तयो।४।४।६१॥ त्रिणवि घन् ।४।३।१०१॥ इनः सः-शः ॥१३॥१८॥ बिदार्षादणिोश१४०॥ ड्रवितस्त्रिमक-तम् ।५।३।८४॥ पिति । ४।३।५०॥ दस्तड्ढे। १।३।४२ ॥ मिति घात ॥४॥३॥१०॥ णकचौ ।५।११४८॥ टः पुंसि ना ॥१॥४॥२४॥ णश्च विश्रवसो-वा ।६।१॥६५॥ टनण् । ५।१।६७। णषमसत्परे स्यादि०।२।११६०॥ टस्तुल्यदिशि ।६३।२१०॥ णस्वराघोषा-श्च ।२।४।४॥ टाङसोरिनस्यौ ।१।४।५॥ णावज्ञाने गमुः।४।४।२४॥ टायोसि यः।।१७॥ णिज् बहुलं-षु ।३।४।४२।। टादौ स्वरे वा १४९२॥ णिद्वान्त्यो गन् ।४।३।५८॥ टोस्मनः।२।१।३७ ॥ णिन् चावश्य-र्थे ।५।४॥३६॥ दोस्पेत् । १।४ । १९ ॥ णिवेत्यास-नः ।५।३।१११॥ इवेमाशाकासो वा ४३६७॥ णिश्रिद्रुमुकमः-जा३।४।५८॥ धेश्वेर्वा ।३५९॥ णिस्तोरेवाणि ।२।३॥३७॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्राङ्क । सूत्रम् । मिश्रात्मने - तू | ३|४|९२ ॥ णेरनिटि | ४ | ३ |८३॥ णेर्वा । २ । ३ । ८८ ॥ णोऽन्नात् । ७ । १ । १० । (२७) सूत्राङ्गः गौ क्रीजीङः |४| २|१०॥ णौ इसनि |४|१|८८ ॥ सूत्रम् । तत्राहोत्रांशम् ||३|१|९३॥ तत्रोद्धते पात्रेभ्यः | ६ |२| १३८ ॥ #1 तत्साध्यानाच्या -श्च । ३।३।२१ ॥ तद् । ७ । १ । ५० । तदः सेः- र्था । १ । ३ । ५५ ॥ तदन्वं पदम् । १ । १ । २० ॥ नौ दान्तशान्त - प्रम् | ४|४|७४ | | तदत्रास्ति | ६ | २॥७०॥ तदत्रास्मै वा-यम् ||६|४|१५८॥ तदर्थार्थेन |३|१|७२ || नौ मृगरमणे |४| २/५१ ॥ णौ सन्डे वा | ४|४|२७| प्योऽतिथेः । ७ । १ । २४ ॥ तः सौ सः । २ । १।४२। तक्षः स्वार्थे वा | ३|४|७७॥ ततः शिटः | १|३|३६| तत आगते । ६ । ३ । १४९ ॥ ततोऽस्याः ः । १ । ३ । ३४ ।। वो ह - र्थः । १ । ३ । ३ तत्पुरुषे कृति | ३|२|२० ॥ तत्र । ७ । १ । ५३ ।। . तत्र तलब्ध-ते |६|३|९४ || कान - त्|५|२२| ॥ तंत्र घटते-ष्ठः । ७।१।१३७॥ तत्र नियुक्त |६|४|७४ || तंत्र साधौ । ७ । १ । १५ ॥ तत्रादायमि-वः | ३|१२|२६ ॥ तत्राधीने । ७ । २ । १३२ ॥ तदस्य पण्यम् |६|४|५४ ॥ तदस्य सं-तः | ७|१|१३८ ॥ तदस्यास्त्य -तुः ७ २१ ॥ . तद्धितःस्वर-रे | ३|२२५५॥ तद्वितयस्वरेऽनाति |२|४|१२|| तद्विताकको - ख्याः | ३।२२५४॥ तद्धितोऽणादिः | ६|१|१॥ तद्भद्रायुष्य - षि |२२|६६ ॥ तद्यात्येभ्यः ||६|४|९७॥ तद्वति घणू | ७|२| १०८ ॥ तद्वेश्यधीते |६|२| ११७ तद्युक्तौ |२२|१०० ॥ तनः क्ये |४| २|६३ ॥ तनुपुत्राणु क्ते |७|३|२३|| तनो वा |४| १|१०५।। तन्त्रादचि ते ७:१।१८३॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) परिशिष्टेषु सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। तन्भ्यो वा-श्च ।४।३।६८॥ तस्य ध्याख्या-त् ।६।३।१४२॥ तन्व्यधीण-तः ।५।१६४॥ तस्येदम् । ६।३।१६० ॥ तपः कर्बनुतापे च ।३।४।९१॥ | तस्याहे-वत् १७३१॥५१॥ तपसः क्यन् ।३।४।३६॥ तादर्थे । २।२।५४ ॥ तपेस्तपःकर्मकात् ।३।४।८५॥ ताभ्यां वा-त् ।२।४॥१५॥ तप्तान्ववाद्रहसः ।७।३३८१॥ तारका वर्णका-त्ये ।।४।११३॥ तमहेति ।६।४।१७७॥ तालाद्धनुषि ६२॥३२॥ तमिस्रार्णवज्योत्स्नाः ।२।५२॥ तिककितवादी द्वन्द्वे ।६।१११३१॥ तं पचति द्रोणाद्वाञ्।६।४।१६१॥ तिकादेरायनिक ।६।१।१०७॥ तं प्रत्यनो-लात ६४॥२८॥ . तिक्कृतौ नाम्नि ५।१७१॥ तं भाविभूते ।६४।१०६॥ ति चोपान्त्या दुः ।४।११५४॥ तयोरबौं-याम् ।७।४।१०३॥ तित्तिरिबर-यण् ।६।३।१८४॥ तयोः समू-पु ७३॥३॥ तिरसस्तियति ।३।२।१२४॥ तरति ६।४।९॥ तिरसो वा । २।३।२।। तरुतृणधान्य-त्वे ३३१३१३३॥ तिरोन्तधौं । ३।१।९॥ तव मम सा ।२।१११५॥ तिर्यचापवर्ग। ५।४। ८५ ॥ तवर्गस्य श्च-ौँ ।१।३।६०॥ तिर्वा ष्ठिवः। ४।११४३॥ तव्यानीयौ ।५।१॥२७॥ तिलयवादनाम्नि ६।२।५२॥ तसिः ।६।३।२११॥ ... तिलादिभ्यः लाश१३६॥ तस्मै भृता-च ।६।४।१०७॥ तिवां णवः परस्मै हारा११७॥ तस्मै योगादेः शक्ते ।६।४।९४॥ तिष्ठतेः । ४ । २ । ३९ ॥ तस्मै हिते ॥७॥१॥३५॥ तिष्ठन्दि -यः ।३।११३६॥ तस्य । ७।१।५४॥ तिप्यपुष्ययोर्माणि ।२।४।९०॥ तस्य तुल्ये का-७।१।१०८।। तीयं डित्वा ।।४।१४॥ तस्य वापे ।६।४।१५१॥ । तीयशम्ब-डाचूं ७।२।१३५॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकारादिवणानुक्रमः। (२९) सूत्रम्। सूत्राङ्कः। । सूत्रम् । सूत्राङ्क। तीयाट्टीकणू-चेत् ।७।२।१५३॥ | तृषिधृषिस्वपो नजि।५।२।८०॥ तुः।४।४।५४॥ तृस्वसृ-र । १।४ । ३८ ॥ तुदादेः शः ॥४८॥ तृहः श्नादीत् ।४।३।६२॥ तुभ्यां मह्यं ङया ।२।१।१४॥ तृत्रपफलभजाम् ।४।३।२५॥ तुमर्हादिच्छायां-नः।३।४।२१॥ ते कृत्याः ।५।१।४७॥ तुमश्च मनःकामे ।३।२।१४०॥ तेन च्छन्नेरथे ।६।२।१३१॥ तुमोथ भा-न् ।२।२।६१॥ तेन जित-सु । ६।४।२॥ तुरायणपा-ने । ६।४।९२॥ तुल्यस्थाना-स्वः ॥१॥१॥१७॥ तेन निवृत्ते च ।६।२७१।। . तुल्यार्थस्तृतीयाष०।२।२।११६॥ तेन प्रोक्ते ।६।३।१८१॥ तूदीवर्मत्या एयण् ।६।३।२१८॥ तेन वित्ते-णौ ७१।१७५॥ तूष्णीकः।६।४।६१ ॥ तेन हस्ताद्यः।।४।१०१॥ तूष्णीकाम् ॥७३॥३२॥ तेहादिभ्यः।४।४॥३३॥ तूष्णीमा। ५।४। ८७॥ . ते लुग्वा । ३।२।१०८ ।। तृष्णादेःसल ।६।२।८१॥ तेषु देये । ६।४।९७॥ तृणे जातौ ।३।२।१३२॥ तो वा । ७।२ । १४८॥ तृतीयस्त-थे १।३।४९।। तो माझ्याक्रोशेषु ।५।२।२१॥ तृतीयस्य पञ्चमे ।१।३।१॥ तौ मुमो-स्वौ ॥१॥३॥१४॥ तृतीया तत्कृतैः॥३१॥६५॥ तौ सनस्तिकि ।४।२।६४॥ तृतीयान्तात्-गे ।१।४।१३॥ त्यजयजप्रवचः ।४।१।११८॥ तृतीयायाम् ।३।१।८४॥ त्यदादिः । ३।१।१२०॥ तृतीयाल्पीयसः।२।२।११२॥ त्यदादिः । ६।१।७॥ तृतीयोक्तं वा ॥३॥१॥५०॥ त्यदादेर्मयट् ।६।३।१५९॥ उन्नुदन्ता-स्य ।२।२९०॥ त्यदाद्यन्यसमा-च ।५।१११५२॥ तुन शीलधर्मसाधुषु ।५।२।२७॥ त्यदामेन-ते ।२।१॥३३॥ वृतार्थपूरणा-शा ।३।१।८५॥ । त्यादिसर्वादेः-ऽक् ।।३।२९।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) - . . | অভিহিত खत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः । त्यादेः सा-न।७।४।९।। दशेस्तृतीयया ।५।४।७३॥ त्यादेश्च प्र-पप् ।७३।१०॥ | दशेस्त्रः।५।२। ९० ॥ त्यादौ क्षेपे। ३।२।१२६ ।। दक्षिणाकडङ्गर-यो।६।४।१८।। त्रने वा । ४।४।३॥ दक्षिणापश्चा-त्यण् ।६।३॥१३॥ तस्वस्वरादेः ॥१४॥४३॥ दक्षिणेाव्याघयोगा।३।१४३।। अपुजतोः पोऽन्तश्च ।६।२।३३॥ दक्षिणोत्तराचातम् ।७।२।११७॥ अप च । ७।२। ९२॥ दगुकोशल-दिः।६।१।१०८॥ सिगृधि-क्नुः ।५।२।३२॥ दण्डादेयः।६।४।१७८॥ त्रिककुद् गिरौ ।७।३।१६८॥ दण्डिहस्तिने ।।४।४५॥ त्रिचतुरस्-दौ ।।१।१॥ . दत् । ४।४।१०॥.. त्रिशद्विशते-र्थे ।६।४।१२९।। दध्न इकण् ।६।२।१४३॥ त्रीणि त्रीण्यन्यादि ।३।३॥१७॥ दध्यस्थि-न् ।१।४।६३॥ वेस्तृ च । ७।१।१६६। दघ्युरःस-लेः ।७।३।१७२॥ वेस्त्रयः । १।४।३४॥ . दन्तपादना-वा ।२।१।१०१॥ दन्तादुन्नतात् ७॥२॥४०॥ चॅशचात्वारिंशम् ।६।४।१७४॥ दम्भः ।४।१। २८॥ . त्वते गुणः।३।२। ५९ ॥ दम्भो धिप्धीप् ।४।१।१८॥ त्वमहं-कः ।२।१।१२॥ दयायास्कासः॥३॥४॥४७॥ त्वमौ प्र-न् । २।१।११॥ दरिद्रोऽद्यतन्यां वा ।४।३७६॥ त्बे । २।४।१००॥ दर्भकृष्णाग्निशर्म-स्यो।११५७। त्वे वा।६।१।२६॥ दशनावोदै-थम् ।४।२।५४॥ थे वा । ४ । १ । २९ ॥ दशैकादशादिकश्च ।६।४।३६॥ थौ न्थ् । १ । ४ । ७८ ॥ दश्वाङः।५।१ । ७८॥ दस्ति । ३।२।४८॥ देवसम्मावि ४।२।४९॥ । दागोऽस्वासप्रसार०।३।३॥५३॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (३१) सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः । दाधेसिशद-रुः ।५।२।३६॥ दीर्घङयाब्-सेः ।१।४।४५॥ दाण्डाजिनि-कम् ।७।१।१७१॥ दीर्घमवोऽन्त्यम् ।४।१।१०३॥ दामः संप्रदा-च ।२।२।५२॥ दीर्घश्च्चियङ-च ।४।३।१०८॥ दामन्यादेरीयः ।७३।६७॥ दीर्घोनाम्य-पः ।१।४।४७॥ दाम्नः । २।४।१०।। दुःखात्प्रातिकूल्ये ७॥२॥१४१॥ दाश्वत्सावन्मीढ्वत् ।४।१।१५॥ दुःस्वीषत:-खल ।५।३।१३९॥ दिक्पूर्वपदादनाम्नः॥६॥३॥२३॥ दुगोरू च ।४।२।७७॥ दिक्पूर्वात्तौ ।६।३।७१॥ दुनादिकुर्वि-ज्यः ।६।१।११८॥ दिक्शब्दात्तीर-रः।३।२।१४२।। दुनिन्दाकृच्छे । ३।१।४३॥ दिक्शब्दा-म्याः ।७।२।११३॥ दुष्कुलादेयण्वा ।६।११९८॥ दिगधिकं संज्ञा-दे ।३।११९८॥ दुहदिहलिह-कः ।४।३।७४॥ . दिगादिदेहांशाधः।६।३।१२४॥ दुहेर्डधः ।५।१।१४५ ॥ दितेश्चैयण वा ।६।११६९॥ दूरादामन्य-नृत् ।।४।९९॥ दियद्ददृज्ज-प: ।५।२।८३॥ दूरादेत्यः।६।३।४॥ दिव औः सौ ।२।१।११७॥ दृगूदृशदृक्षे ।३।३।१५१॥ दिवम् दिवः-वा ।३।२।४५॥ दृतिकुक्षि-यण ।६।३।१३०॥ दिवादेः श्यः ।३।४७२॥ दृतिनाथात्पशाविः।५।१९७॥ दिवो द्यावा ।३।२।४४॥ दृन्पुनर्वर्षांकारैर्भुवः ।२।११५९॥ दिशो रूढया-ले ।३।१॥२५॥ दृवृग्स्तु जुषे-सः ।५।१॥४०॥ दिस्योरीट।४।४।८९॥ दृशः कनिम् ।५।१।१६६॥ दीङः सनि वा ।४।२।६।। दृश्यभिवदोरात्मने ।२।२।९।। दीपजनबुध-वा ।३।४।६७॥ दृश्यर्थैश्चिन्तायाम् ।२।१॥३०॥ दीप्तिज्ञानयत्न-दः।३।३।७८॥ दृष्टे साम्नि नाम्निा६।२।१३३॥ दीय दीड-रे ।४।३।९३॥ देये त्रा च ।७।२।१३३॥ . दीर्घः । ६।४।१२७॥ देदिगिः परोक्षायाम् ।४।१॥३२॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। देवता ।६।२।१०१॥ झुप्रावृट्वर्षा-त् ॥३॥२॥२७॥ देवतानामात्वादौ ७१४॥२८॥ द्रमक्रमो यङः ।५।२।४६॥ देवतान्तात्तदर्थे ।७।११२२॥ द्रव्यवस्नात्केकम् ।६।४।१६७॥ देवपथादिभ्यः ७१।१११॥ द्रीञो वा ।६।१।१३९॥ देववातादापः ।५।११९९॥ द्रेरजणोऽप्राच्य०६।१४१२३॥ देवव्रतादीन् डिन् ।६।४।८३॥ द्रोणाद्वा । ६।१।५९॥ देवात् तल् । ७।२।१६२॥ द्रोभव्ये ।७।१।११५॥ देवाद्यञ् च ।६।१॥२१॥ द्रोवेयः ।६।२।४३॥ देवानांप्रियः ।३।२॥३४॥ द्रथादेस्तथा ।६।१।१३२॥ देवार्चामैत्री-स्थः।३।३६०॥ द्वन्द्वं वा ।७।४।८२॥ देबिकाशि-वाः ७४॥३॥ द्वन्द्वात् प्रायः ।६।३।२०१॥ देशे। २।३।७०॥ द्वन्द्वादीयः।६।२।७॥ देशेऽन्तरो-नः ।२।३१९१॥ द्वन्द्वाल्लित् ।७।१७४॥ दैयेऽनुः ।३।१।३४॥ द्वन्द्वे वा । १।४।११॥ दैवयज्ञिशौचि- ।।४।८२॥ द्वयोविभज्ये च तरप् ७३६॥ दो मः स्यादौ ।२।१।३९॥ । द्वारादेः।७।४।६॥ दोरप्राणिनः।६।२।४९॥ द्विः कान:-सः ।१३॥११॥ दोरीयः । ६।३।३२॥ द्विगोः संशये च ७१।१४४॥ दोरेव प्राच: ।।३।४०॥ द्विगोः समाहारात् ।२।४।२२॥ दोसोमास्थ इः ।४।४।११॥ द्विगोरनपत्ये-द्विः ।६।१॥२४॥ द्यावापृथिवी-यो ।६।२।१०८॥ द्विगोरनहोष्ट् ।७।३।९९॥ धुतेरिः।४।१।४१॥ द्विगोरीनः ।६।४।१४०।। युद्धयोऽद्यतन्याम् ॥३३॥४४॥ द्विगोरीनेकटौ वा ।६।४।१६४॥ धुद्रोमः।७।२।३७॥ द्वितीयतुये-वौं ।४।१॥४२॥ घुप्रागपागु-या।६।३८॥ द्वितीयया । ५।४।७८॥.. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (३३) सूत्रम् । सूत्राङ्कः।। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। द्वितीया खट्वा क्षेपे ।३।१।५९॥ द्विस्वरादणः ।६।१।१०९॥ द्वितीयात्स्वरार्ध्वम् ।।३।४१॥ द्विस्वरादनद्याः ।।११७१॥ द्वितीयायाः काम्यः ।३।४।२२॥ द्विहेतो-वा ।२।२।८७॥ द्वितीयाषष्ठयावे०।२।२।११७॥ द्वीपादनुसमुद्रं ण्यः ।६।३।६८॥ द्वित्रिचतुरःसुन् ।७।२।११०॥ द्वेस्तीयः ।७।१।१६५॥ द्वित्रिचतुष्पू-यः ।३।११५६॥ द्वअन्तरनव-ईपू ।३।२।१०९॥ द्वित्रिबहो-स्तात् ।६।४।१४४॥ द्वथादेर्गुणान्-यत् ।७।१।१५१॥ द्वित्रिभ्यामयड् वा ७१११५२॥ द्वयुक्तजक्षपञ्चतः ।४।११९३॥ द्वित्रिस्वरौ-भ्यः ।२।३।६७॥ द्वयुक्तोपान्त्यस्य-रे ।४।३.१४॥ द्विवेरायुषः ॥७॥३॥१०॥ द्वयेकेषु-र्वा ।।१।१३४॥ द्विर्धमबेधौ वा ।।२।१०७|| द्वयेषमूत-स्य ।२।४।१०९॥ द्वित्रेध्नों वा ।७३।१२७॥ धनगणाल्लब्धरि ।७।१९। द्विव्यष्टनां-हौ ।३।२।९२॥ .धनहिरण्ये कामे ७१।१७९॥ द्विव्यादेर्याण वा।६।४।१४७॥ धनादेः पत्युः ।।१।१४॥ द्वित्वे गोयुगः ।७।१।१३४॥ | धनुर्दण्डत्सरु-हः ।५।१९२॥ द्वित्वेऽधोऽध्युपरि।२।२॥३४॥ धनुषो धन्वन् ।७।३।१५८॥ द्वित्वेऽप्यन्ते-वा ।२।३२८१॥ धर्मशील-त् ।७।२।६५॥ द्वित्वे वां नौ।२।१।२२॥ धर्माधर्माच्चरति ।६।४।४९॥ द्वित्वे हः।४।१। ८७ ॥ धर्मार्थादिषु द्वन्द्वे ।३।१११५९॥ द्विदण्डयादिः ।७३७५॥ धवाद्योगा-त् ।२।४।५९॥ द्विपदाद् धर्मादन्।७।३।१४१॥ धागः।४।४।१५॥ द्विर्धातुः परोक्षा:-धेः।४।१।१॥ धागस्तथोश्च ।२।११७८॥ द्विषन्तपपरन्तपौ ।५।१।१०८॥ धातोः कण्ड्वादेर्यक् ।३।४।८॥ द्विषो वातशः ।।२।८४॥ धातोः पू-च । ३।१।१।। द्विस्वरब्रह्म-देः।६।४।१५५॥ धातोः सम्बन्धे० ।५।४।४१॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्रातः। धातोरनेकस्वरादाम्॥३॥४॥४६॥ न कर्मणा बिच ।३।४।८८॥ धातोरिवों-ये ।२।१॥५०॥ न करतेयङः।४।१।४७॥ धात्री।५।२।९१ ॥ न किमः क्षेपे ।७।३७०॥ . धान्येभ्य इनञ् ।७।११७९॥ नखमुखादनाम्नि ।२।४।४०॥ घाय्यापाय्यसा-से ।५।१॥२४॥ नखादयः।३।२।१२८॥ धारीडोऽकृच्छ्रे तृश ।५।२।२५॥ न ख्यापूग-श्च ।।३।९०॥ धारेर्धर् च । ५।१।११३॥ नगरात्कुत्सादाक्ष्ये ।६३।४९॥ धुटस्तृतीयः ।२।१७६॥ नगरादाजे ।५।११८७॥ धुटां प्राक् । १।४।६६॥ न गृणाशुभरुचः ।३।४।१३॥ . नगोऽप्राणिनि वा।३।२।१२७॥ धुटो धुटि-चा ।१३।४८॥ . धुइहस्वा-थोः।४।३७०॥ नग्नपलित-कौ ।५।१।१२८॥ न चोघसः ७१॥३२॥ धुरोऽनक्षस्य ७४३७७॥ धुरो यैयण ॥७॥१॥३॥ न जनवधः।४।३१५४॥ धूगौदितः।४।४।३८॥ न ।३।१।५१॥ धृगुतीगोनः। ४।२।१८॥ नत्रः क्षेत्रज्ञे-चेः॥४॥२३॥ धूग्सुस्तोः परस्मै ।४।४।८५॥ नजत् । ३।२।१२५ ॥ नजव्यया-डः १७३।१२३॥ धूमादेः। ६।३।४६॥ न अस्वङ्गादेः ७।४।९॥ धृषशसः प्रगल्मे ।४।४॥६६॥ नबोऽनिः शापे।५।३।११७॥ धेनोरनञः।६।२।१५ ॥ नजोर्थात ७।३।१७४॥ धनोर्मव्यायाम् ।३।२।११८॥ नञ्तत्पुरुषात् ।७३७१॥ न।२।२।१८॥ नञ्तत्पुरु-देः।७।११५७॥ नं क्ये।१।१।२२ ॥ नवहो-णे ७॥३॥१३५॥ नः शिञ्च् ।१।३।१९॥ नसुदुर्व्यः वा ॥११३६॥ न कचि ।२।४।१०५॥ नसुव्युप-र: ७३३१३१॥ न कर्तरि ।३।११८२॥ | नटान्नृचे ज्यः ।६।३।१६५॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः।। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। नडकुमुदवेतस-डित् ।६।२।७४॥ नपुंसकाद् वा ७।३।८९॥ नडशादाद् वलः ।।२।७५॥ न वनिषेधे ।३।२।७१॥ नडादिभ्य आयनण् ।६।११५३॥ न प्राग्जितीये स्वरे ।।११३५॥ नडादेः कीयः ।६।२।९२।। न प्रादिरप्रत्ययः ।३।३४॥ न डीडशीङ्-दः ।४।३।२७॥ न वदनं संयोगादिः।४।१॥५॥ नणिङ्यमद-क्षः ।५।२।४५॥ नमस्पुरसो-सः ।२।३।१॥ न तमबादिः-भ्यः ॥७॥३॥१३॥ नमोवरिवश्चित्रडो-ये।३।४॥३७॥ न तिकि दीर्घश्च ।४।२।५९॥ न यि तद्धिते ।२।१॥६५॥ न दधिपयआदिः।३।१।१४५॥ न राजन्य-के ।२।४।९४॥ न दिस्योः । ४ । ३।६१॥ न राजाचार्य--णः ७१।३६॥ नदीदेशपुरा-नाम् ।३।१।१४२॥ न रात् स्वरे ।१।३।३७॥ नदीमिर्नाम्नि ३॥१॥२७॥ नरिका मामिका ।२।४।११२॥ नद्यादेरेयण् ।६।३।२॥ नरे ।३।२।८०॥ नद्यां मतुः ।६।२७२।। नवश्वेर्गतौ ।४।१।११३॥ नद्वित्वे ७२।१४७॥ नवभ्यः -वा ।१।४।१६॥ न द्विरद्वय-त् ।६।२।६१॥ न वमन्तसंयोगात् ।२।१११११॥ न द्विस्वरा-तात् ।६।३।२९॥ नवयज्ञादयोऽन्ते ।६।४।७३।। न नाङिदेत् ।१।४।२७॥ न वयो र ।४।११७३॥ न नाम्नि ।७।३।१७६॥ नवा कणयमहसस्वनः।५।३॥४८॥ न नाम्येक-ऽमः ।३।२।९॥ नवाऽखित्कृद-३।३।२।११७॥ न नृपूजार्थवज० ७१।१०९॥ नवा गुणः-रित् ।७।४।८६।। ननौ पृष्टोक्ती-त ।५।२।१७॥ नवाणः ६।४।१४२॥ नन्यादिभ्योऽनः ।५।१॥५२॥ नवादीन-स्य । ७।२।१६०॥ नन्वोर्वा ।५।२।१८॥ नवाद्यानि शत-पदम् ॥३॥३॥१९॥ नपुंसकस शिः।१४४५५॥ नवापः । २।४।१०६ ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) . परिशिष्टेषु सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः । नवा परोक्षायाम् ।४।४।५॥ नसनसिका-द्रे ।३।२।९९॥ नवा भावारम्भे ।४।४।७२॥ नं स्सः ।२।३।६९॥ नवा रोगालपे ।६।३।८२॥ न हाको लुपि।४।११४९॥ . नवा शोणादेः ।२।४।३१॥ नहाहोर्धतौ ।२।२८५॥ नवा सुजथैः काले ।२।२।९६॥ नाडीपटीखरीश्च ।५।२१२०॥ नवा स्वरे ।२।३।१०२॥ नाडीतन्त्रीयां-स्वाङ्गे।७।३।१८० नविंशत्यादि-न्तः ।३।११६९॥ नाथः ।।२।१०॥ न वृद्धिश्चा-पे।४।३।११॥ नानद्यतन-न्योः ।५।४।५॥ नवृद्भयः ॥४॥४॥५५॥ नानावधारणे ७४७४॥ नवैकस्वराणाम् ।३।२।६६॥ . नान्यत् २।१।२७॥ . नशः शः ।२।३ ७८॥ नाप्रियादौ ।३।२।५३।। न शसदद-नः।४।१॥३०॥ नामेनभ-शात् ।७।१॥३१॥ न शात् ।।३।६२॥ नामेनाम्नि ७७३।१३४॥ न शिति ।४।२।२॥ नामन्व्ये ।२।१।९२॥ नशेर्नेश् वाङि ।४।३।१०२। नाम नाम्नैकार्थे० ३।१११८॥ नशो धुटि।४।४।१०९॥ नामरूप-यः ।७२।१५८॥ नशो वा ।२।११७०॥ नाम सिद-ने १२२१॥ न विजागृशम-तः ॥४॥३.४९॥ नामिनः काशे ।।२।८७॥ .. न संधिः ।१।३।५२। नामिनस्तयोः षः ।२।३८॥. न संधिङीयलुकि ७ि।४।१११॥ नामिनोऽकलिहलेः।४।३।५१॥ : न सप्तमीन्द्वादि०।३।१।१६५॥ नामिनो गुणो-ति ।४॥३॥१॥ न सर्वादिः ।१।४।१२॥ नामिनोऽनिट् ।४।३।३॥ नसस्य ।२१३२६५।। नामिनो लुग्वा ।१।४।६१॥ न सामिवचने ।७३१५७॥ नाम्नः प्रथमै हौ ।।२३१॥ न स्त्र-थे ।१।१।२३। नाम्नः प्राग्- ७॥३॥१२॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्रम् । सूत्राङ्क । नाम्ना' ग्रहादिशः | ५|४|८३ ॥ नाम्नि । २ । १ । ९५ ॥ नाम्नि । २ । ४ । १२ ॥ नाम्नि । ३ । १ । ९४ ॥ नाम्नि । ३ । २ । १६ ॥ नाम्नि । ३ । २ । ७५ ॥ नाम्नि । ३ । २ । १४४॥ नाम्नि । ६ । ४ । १७२ ॥ नाम्नि कः । ६ । २ । ५४ ॥ नाम्नि पुंसि च |५|३|१२१॥ नाम्नि मक्षिकादिभ्यः | ६ | ३ | १९३ नाम्नि वा । १ । २ । १०॥ नग्न शरदो | ६ | ३|१०० || नाम्नो गमः - हः | ५ | १|१३१ ॥ नाम्नोद्विती- ष्टम् |४|१७| नाम्नो नोऽनलः | २|११९१ ॥ नाम्नो वदः क्यप् च |५|१|३५|| बाम्न्युत्तरपदस्य च ।३।२।१०७॥ नाम्न्युदकात् |६|३|१२५ । नाम्यन्तस्था-पि |२|३|१५|| नाम्यादेरेव ने | २|३|८६॥ नाम्युपान्त्य - कः | ५|१|५४॥ नारी सखी - | २|४|७६ ॥ नावः । ७ । ३ । १०४ ॥ नावादेरिकः । ७ । २ । ३ ॥ ( ३७ ) सूत्राङ्कः । सूत्रम् । नाशिष्य गोवत्सहले | ३ |२| १४८ ॥ नासत्वाश्लेषे || ३ | ४|५७॥ नासानति - टम् | ७|१|१२७॥ नासिकोदरौ ण्ठाद् | २|४|३९॥ नास्तिका-कम् |६|४|६६॥ सिनिक्ष-वा । २ । ३ । ८४ ॥ निकटपाठस्य |३|१|१४०॥ निकटादिषु वसति |६|४|७७॥ निगवादेर्नाम्नि | ५ | १|६१ ॥ निघोद्यसंघो -नम् |५|३|३६| निजां शित्येत् |४|११५७ || नित्यदिद्- स्वः | १|४|४३ ॥ नित्यमन्वादेशे | २|१|३१|| नित्यवैरस्य |३|१|१४१ ॥ नित्यं वनोऽण् ॥७३॥५८॥ नित्यं णः पन्थ |६|४|८९|| नित्यं प्रतिनाल्पे | ३|१|३७|| नित्यं हस्ते - हे | ३|१|१५| नि दीर्घः । १ । ४ । ८५ ॥ निनद्याः - ले । २ । ३ । २० ॥ निन्दहिंस- रात् |५|२|६८॥ निन्द्यं कुत्सनै- द्येः । ३।१।१०० ॥ निन्द्ये पाशपू । ७ । ३।४॥ निन्द्ये व्याप्यायः ॥५॥१॥१५९॥ निपुणेन चार्चायाम् | २|२१०३ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) परिशिष्टेषु पत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। निप्राधुजः शक्ये ।४।१।११६॥ निष्कादेः सात् ।७।२।५७॥ निप्रेभ्यो नः ।२।२।१५॥ निष्कुलानि-णे ।७।२।१३९॥ निमिल्यादिमेङ-के ।५।४।४६॥ निष्कुषः । ४ । ४ । ३९॥ . निमूलात्कषः । ५।४।६२॥ निष्प्रवाणिः । ७।३।१८१॥ निय आम् । १।४।५१।। निष्फले तिला-जौ।७।२।१५४॥ नियश्चानुपसर्गाद्वा ।५।३।६०॥ निष्प्रा-नस्य। २।३।६६॥ नियुक्तं दीयते । ६।४।७०॥ निसस्तपेऽनासेवा० ॥२॥३॥३५॥ निरमे पूल्वः ।५।३।२१॥ निसश्च श्रेयसः ७।३।१२२॥ निरभ्यनोश्व-नि ।२।३।५०॥ निसो गते । ६।३।१८॥ . निर्गो देशे।५।१।१३३॥ . निहवे ज्ञः । ३।३।६८॥ निदुःसुवे:-तेः।२।३॥५६॥ निदाशस-स्वट् ।५।२।८८॥ निर्बहि-गम् । २।३।९॥ । नीलपीतादकम् ।६।२।४॥ निर्दुःसो:-म्नाम् ।२।३॥३१॥ नीलात्प्राण्यौषध्योः।२।४।२७॥ निर्नेः स्फुरस्फुलोः ।२।३।५३।। नुप्रच्छः । ३।३।५४॥ निर्वाणमवाते ।४।२।७९॥ नुर्जातेः'।२।४।७२॥ निविण्णः।२।३। ८९॥ नुर्वा । १।४।४८॥ निवृत्तेऽक्षतादेः।६।४॥२०॥ नृतेयेङि।२।३।९५॥ निवृत्ते । ६।४।१०५ ॥ नृत्खन्रजः-ट् ।५।१।६५॥ नि वा।१।४। ८९॥ नृहेतुभ्यो -वा ।६।३।१५६॥ निवासाचरणेऽण् ।६।२।६५॥ नृनः-वा ।१।३।१०॥ निवासादरभवे-म्नि ।६।२।६९॥ नेन सिद्धस्य ।३।२।२९॥ निविशः। ३ । ३।२४।। नेमाध-वा ।१।४।१०॥ निविस्वन्ववात् ।४।४।८॥ नेरिनपिट-स्य ७१।१२८॥ निशाप्रदोषात् ।६।३।८३॥ नेमादापत-ग्धौ ।२।३॥७९॥ निषेदेऽलंखल्वोः क्त्वा।५।४।४४|| नेधुवे । ६।३।१७॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवणानुक्रमः । सूत्राङ्क । सूत्रम् । नेर्नदगदपठ-णः ।५।३।२६॥ नेर्बुः । ५ । ३ । ७४ ।। नैकस्वरस्य । ७ । ४ । ४४॥ कार्येऽक्रिये | २|३|१२ ॥ नोऽङ्गादेः । ७ । २ । २९ ॥ नोतः । ३ । ४ । १६ ॥ नोपदस्य द्विते | ७|४|६१ ॥ नोपसर्गात् - हा | २|२|२८ ॥ नोपान्त्यवतः । २ । ४ । १३ ॥ नोऽप्रशानो - रे । १।३।८॥ नोभयोर्हेतोः । २ । २ । ८९॥ नो मट् । ७ । १ । १५९ ॥ नोर्म्यादिभ्थः । २ । १ । ९९॥ नो व्यञ्जनस्या - तः |४| २|४५ ॥ नौद्विस्वरादिकः | ६|४|१० ॥ नौविषेण - ध्ये | ७ | १|१२॥ नू चोधसः । ७ । १ । ३२ ॥ न्यग्रोधस्य-स्य ।७।४७॥ न्यकूंद्र-यः ।४।१।११२ ॥ न्यङ्कोर्वा । ७।४।८ ॥ न्यभ्युपवेर्वाश्चोत् |५|३|४२॥ न्यवाच्छापे । ५ । ३ । ५६॥ न्यादो नवा । ५ । ३ । २४ ॥ न्यायादेरिकण | ६ |२| ११८ ॥ न्यायार्थादनपेते |७|१|१३॥ ( ३९ ) सूत्रम् । सूत्राङ्कः। न्यायावाया - रम् ||५|३|१३४॥ न्युदो ग्रः । ५ । ३ । ७४॥ न्स्महतोः । १ । ४ । ८६॥ पक्षाच्चोपमादेः | २|४|४३॥ पक्षातिः । ७ । १ । ८९ ॥ पक्षिमत्स्य - ति |६|४|३१॥ पचिदुहेः । ३ । ४ । ८७ ॥ पञ्चको वर्गः | १|१|१२॥ पञ्चतोऽन्यादे - दः | १|४|५८ ॥ पञ्चदशद्वर्गे वा | ६ |४| १७५ ॥ पञ्चमी - आमहैव् ||३|३|८|| पञ्चमी भयाद्यैः | ३|१ | ७३ ॥ पञ्चम्यपादाने |२|२|६९॥ पञ्चम्यर्थहेतौ । ५ । ३ । ११ ॥ पञ्चम्याः कृग् । ३।४|५२ ॥ पञ्चम्या त्वरायाम् ||५|४७७॥ पञ्चम्या नि-स्य |७|४|१०४॥ पञ्चसर्व-ये । ७ । १ । ४१ ॥ पणपादमाषाद्यः |६|४|१४८॥ पणेर्माने । ५।३।३२ ॥ पतिराजान्त - च ॥ ७ ॥ १ ॥६०॥ पतिवत्न्यन्त - ण्योः | २|४|५३॥ पत्तिरथ गणकेन | ३ | १ | ७९ ॥ पत्युर्नः । २ । ४ । ४८ ॥ पत्रपूर्वादञ् । ६ । ३ । १७७॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) परिशिष्टेषु । सूत्रम् । सूत्राङ्कः।। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। पथ इकट् । ६।४।८८॥ परतः स्त्री पुंवत्-डू ।३।२।४९॥ पथः पन्थ च।६।३।१०३॥ । परदारादिभ्योगच्छ०।६।४।३८।। पथिन्मथिन्-सौ ।१।४।७६॥ परशव्याघलुक् च ।६।२।४०॥ पथोऽकः।६।३।९६॥ परश्वधाद्वाण् ।६।४।६३॥ पथ्यतिथि-यण् ।७।१।१६॥ परस्त्रियाः प-र्थे ।६।१॥४०॥ पदः पादस्याज्या-ते।३।२।९५॥ परस्परान्योन्येत-सि ।३।२।१॥ पदकल्पल-कात् ।६।२।११९॥ । पराणि कानान-दम् ।३।३।२०॥ पदक्रमशिक्षा-कः।६।२।१२६॥ परात्मभ्यां । ।३।२।१७॥ पदरुजविश-घञ् ।५।३।१६॥ परानो कुगः ।३।३।१०१॥ . पदस्य । २।१। ८९॥ . परावरात्स्तात् ।७।२।११६॥ पदस्यानिति वा ७४१२॥ परावराधमो-यः ।६।३७३॥ पदाधुग्-त्वे । २।१।२१ ।। परावरे। ५।४।४५॥ पदान्तरगम्ये वा ।३।३।९९॥ परावेजेंः।३।३।२८॥ पदान्ता-तेः । १३६३॥ परिक्रयणे ।२।२।६७॥ पदान्ते । २।११६४॥ परिक्लेश्येन ।५।४।८०॥ पदास्वैरिवा-हः ।५।११४४॥ परिखाऽस्य स्यात् ।७।१॥४८॥ पदिकः । ६।४।१३॥ . परिचाय्योप-ग्नौ ।५।१।२५॥ पदेऽन्तरेऽना-ते ।२।३।१३।। परिणामि-थे ।७।११४४॥ पदोत्तरपदेभ्य इकः।६।२।१२५॥ परिदेवने ।५।३।६॥ पद्धतेः ।२।४।३३॥ परिनिवेः सेवः।२।३।४६॥ पथ्यादेरायनण् ।६।२।८९॥ परिपथात् ।६।४।३३॥ पयोद्रोर्यः। ६।२।३५॥ परिपन्थात्तिष्ठति च ।६।४।३२॥ परः । ७।४।११८॥ परिमाणा-ल्यात् ।२।४॥२३॥ पर शतादिः ।३।१।७५॥ परिमाणार्थ-चः ।५।१।१०९॥ परजनराज्ञोऽकीयः ।६।३॥३१॥ । परिमुखादे चात् ।६।३।१३६॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (४१) सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। परिमुहायमा-ति ।३।३।९४॥ पायाहणोत्पत्तौ० ।५।३।१२०।। परिव्यवात् क्रियः।३।३।२७॥ पर्वतात् । ६।३।६०॥ परेः।२।३। ५२ ॥ पर्धा डवण् ।६।२।२०॥ परेः क्रमे ।५।३।७६॥ पादेरण ७॥३॥६६॥ परेः सृचरेयः ।५।३।१०२॥ पर्षदो ण्यः ।६।४।४७॥ परेपः ।५।३।४०॥ पर्षदो ण्यणौ ।७।१।१८॥ परेोङ्कयोगे ।२।३।१०३॥ पशुभ्यः-ठः ७१।१३३॥ परेदेविमुहश्च ।५।२।६५॥ पशुव्यञ्जनानाम् ।३।१।१३२॥ परघुते ।५।३।६३॥ पश्चात्यनुपादात् ।६।४।४१॥ परेर्मुखपार्धात् ।६।४।२९॥ पश्चादाद्यन्ता-मः ।।३।७५॥ परेमृषश्च ।३३।१०४॥ पश्चोऽपरस्य-ति ।।२।१२४॥ परे वा ।५।४।८॥ . . पश्यद्वादि-ण्डे ।३।२॥३२॥ परोक्षा-महे ॥३॥३॥१२॥ पाककर्णपणे त् ।२।४५५॥ परोक्षायां नवा ।४।४।१८॥ पाठे धात्वादेो नः ।२।३।९७॥ परोक्षे ।५।२।१२॥ पाणिकरात् ।५।१।१२१॥ परोपात् ।।३।४९॥ पाणिगृहीतीति ।२।४।५२॥ परोवरीण-णम् ।७।१।९९॥ पाणिघताडघौ-नि ।५।१।८९॥ पर्णकणात-जात् ।६।३१६२॥ पाणिसमवाभ्यां सृजः।५।१॥१८॥ पर्दिरिकट् ।६।४।१२॥ पाण्टाहृति णश्च ।६।१।१०४॥ पर्यघेर्वा ।५।३।११३॥ पाण्डुकम्बलादिन् ।६।२।१३२॥ पर्यनोग्रामात् ।।३।१३८॥ पाण्डोडर्यण् ।६।१।११९॥ पयेपाङ्-म्या ।३।१।३२।। । पातेः । ४।२।१७॥ पर्यपात् स्खदः ।४।२।२७॥ पात्पादस्याह-देः ७।३।१४८॥ पिपाभ्यां वज्यै ।।२।७१॥ पात्राचिता-वा ।६।४।१६३॥ पर्यमा सर्वोभये ।७।२।८३॥ पात्रात्तौ ।६।४।१८०॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्कः।। सूत्रम् । सूत्रा। पात्रेसमि-यः ।।११९१॥ पुंस्त्रियोः-स् ।।१।२९॥ पाच्यशद्रस्य ।३।१११४३॥ पुच्छात् ।२।४॥४१॥ पादायोः ।२।१॥२८॥ पुच्छादुत्परिष्यसने।३।४॥३९॥ पाचार्ये ।७।०२३॥ पुजनुषोऽनुजान्धे ॥३॥२॥१३॥ पानस्य भावकरणे ।।३।६९॥ पुत्रस्यादि-शे ।१॥३॥३८॥ पापहीयमानेन ।७।२।८६॥ पुत्राधेयौ ।६।४।१५४॥ पारावार-च ७१।१०१॥ पुत्रान्तात् ।६।१।१११॥ पारावारादीनः ।६।३।६। पुत्रे ।३।२।४०॥ पारेमध्ये-वा ॥३॥१॥३०॥ पुत्रे वा ।३।२।३१॥ पार्थादिभ्यः-ङः ।५।१।१३५॥ पुनरेकेषाम् ।४।१।१०॥ पाशाच्छासा-यः।४।२।२०॥ पुनर्भपुत्र-जू।६।१॥३९॥ पाशादेव ल्यः ।६।२।२५॥ . पुमनडु-त्वे ।७३।१७३॥ पिता मात्रा वा ।३।१।१२२।। पुमोशि -रः ॥१॥३॥९॥ पितुर्यों वा ।६।३।१५१॥ पुरंदरमगंदरौ ।५।१.११४॥ पितृमातुर्य-रि।६।२।६२॥ पुराणे कल्पे ।६।३।१८७॥ पित्तिथट्-घात् ।७।१।१६०॥ पुरायावतोवर्चमाना।६।३।७॥ पित्रोर्डामहट् ।६।२।६३॥ पुरुमगधकलिङ्ग-दण।६।११११६॥ पिवैतिदाभूस्था-ट्।४।३॥६६॥ पुरुषः स्त्रिया ।३।१।१२६॥ षिष्टात् ।६।२।५३॥ पुरुषहृदयादसमासे .७.११७०॥ पीलासाल्वा-द्वा ।६।११६८॥ पुरुषात् कृत-यञ् ।६।२।२९॥ पील्वादेः-के।७।१।८७॥ पुरुषाद्वा ।२।४।२५॥ पुंनाम्नि घः।५।३।१३०॥ पुरुषायु-वम् ।७।३।१२०॥ पुंवत् कर्मधारये ।३।२।५७॥ पुरुषे वा ।३।२।१३५।। पुंसः।२।३।३॥ पुरोऽग्रतोऽने सः।५।१।१४०॥ पुंसोः न्म् ।।४।८३॥ पुरोडाश-टौ ।६।३।१४६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवणानुक्रमः। (४३) पत्रम्। सत्राः । सूत्रम्। पुरो नः ॥६॥३॥८६॥ पूर्वाग्रेप्रथमे ।५।४।१४९॥ पुरोऽस्तमव्ययम् ॥३॥१७॥ पूर्वोत्कर्तुः ।५।१११४१॥ पुव इत्रो दैवते ।५।२।८५॥ पूर्वापरप्र-रम् ।३।१।१०३॥ पुष्करादेर्देशे ॥२७॥ पूर्वापराध-ना ।३।१॥५२॥ पुण्यार्थाढ़े पुनर्वसु ।३।१।१२९॥ पूर्वापरा-धुस् ।७।२।९८॥ पुस्पो । ४ । ३।३। पूर्वावराध-पाम ।७।२।११५।। पूगादमुख्य-द्रिः ७३६०॥ . पूर्वाह्ना-नटू ।६३८७॥ पूक्लिशिभ्यो नवा ॥४॥४॥४५॥ पूर्वोहा कः।६।३।१०२॥ पूझ्यजेः शान:५।२।२३॥ पूर्वोत्तर-क्थनः ।७३।११३॥ पूजाचार्यक-य ।३।३।३९॥ . पृथग् नाना-च ।२।२।११३।। पूजास्वतेः प्राकटात् ।७३।७२॥ पृथिवीमध्यान्-स्य।६।४।१५६॥ . पूतक्रतुवृषा-च ।२।४।६०॥ पृथिव्याजाज ।६।१।१८॥ पदिव्यश्चेना-ने ४॥२७२॥ पृथिवीसवे-श्वाञ् ।६।१।१८॥ पूरणाद्ग्रन्थ-स्य ।७।१।१७६॥ पृथुमृदु-०७४।३९॥ पूरणाद्वयसि ।।२।६२॥ पृथ्वादेरिमन्वा ।७।११५८॥ पूरणा दिकः ।६।४।१५९॥ पृषोदरादयः।३।२।१५५॥ पूरणीभ्यस्तत्-प् ।३।१३०॥ पृष्ठाद्यः।६।२।२॥ पूर्णमासोऽण् ।७।२।५५॥ पृभृमाहाङामिः ।४।११५८॥ पूर्णाद्वा। ७।३।१६६॥ पैङ्गाक्षीपुत्रादेरीयः ।६।२।१०२॥ पूर्वकालैक-लम् ।३।१।९०॥ पैलादेः ।६।१।१४२॥ पूर्वपदस्था-गः ॥२।३१६४॥ पोटायुवति-ति ।३।१११११॥ पूर्वपदस्य वा । ७।३।४५॥ पौत्रादि वृद्धम् ।६१२॥ पूर्वप्रथमा-ये।७।४।७७॥ प्यायः पीः ।४।१।९॥ पूर्वमनेन-न् ।७।१।१६७॥ प्रकारे जातीयर् ॥७॥२१७५॥ पूर्वस्याऽस्वे स्वरे०४।१॥३७॥ प्रकारे था । ७।२।१०२॥ 27 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः । प्रकृते मयट् । ७।३।१।। प्रत्यये च । १।३।२।। प्रकृष्टे तमप् । ७।३।५॥ प्रत्याङः श्रु-नि ।२।२।५६॥ प्रघणप्रघाणो गृहांशे ।५।३।३५॥ प्रथमाद-छः ॥१॥३४॥ प्रचये नवा-स्य ।५।४।४३॥ प्रथमोक्तं प्राक् ।३।१।१४८॥ प्रजाया अम् ।७।३।१३७।। प्रभवति ।६।३।१५७।।.. प्रज्ञादिम्योऽण ।७२।१६५।। प्रभूतादि-ति ।६।४।४३॥ प्रज्ञापर्णोद-लौ ।७।२।२२॥ प्रभूत्यन्याथे-रैः ।२।२७५)। प्रज्ञाश्रद्धा-णेः १७२१३३॥ . प्रमाणसमासत्योः ।५।४।७६॥ प्रणाय्यो नि-ते ।५।१।२३।।. प्रमाणान्मात्रट् ।७।१।१४०। प्रतिजनादेरीन ।७।१।२०॥ प्रमाणीसंख्याड्डः ७।३।१२८॥ प्रतिज्ञायाम् ।३।३।६५॥ प्रयोक्तृव्यापारे णिम् ।३।४।२०॥ प्रतिना पञ्चम्याः ।।२।८७॥ प्रयोजनम् । ६।४ । ११७ ॥ प्रतिपथादिकश्च ।६।४।३९॥ प्रलम्मे गृधिवचे ।३।३३८९॥ प्रतिपरोऽनो-वात् ।।३।८७।। प्रवचनीयादयः।५।१॥८॥ प्रतिश्रवण-गे।७।४।९४॥ .. प्रशस्यस्य श्रः ।।४३४॥ . प्रतेः । ४।१ । ९८॥ . प्रश्नाख्याने वेञ् ।५।३।११९।। प्रतेः स्नातस्य सूत्रे ।२।३।२१॥ प्रश्ना विचा-र: ७१४३१०२॥ प्रतेरुरसः सप्तम्याः ७३८४॥ प्रश्ने च प्रतिपदम् ।।४।९८॥ प्रतेश्च वधे । ४ । ४ । ९४॥. प्रष्ठोऽग्रगे ॥२॥३॥३२॥ प्रत्यनोगुणा-रि ।२।२।५७॥ प्रसमः स्त्यः स्तीः ।४।१।९५॥ प्रत्यन्ववात्सामलोम्नः।७।३३८२॥ प्रसितोत्सु-द्धैः ।२।२।४९॥ प्रत्यभ्यतेः क्षिपः ।३।३।१०२॥ प्रस्तारसंस्थान-ति ।६।४।७९॥ प्रत्ययः-देः ।७।४।११५॥ प्रस्थपुरवहान्त-त् ।६।३१४३॥ प्रत्ययस्य ।।४।१०८॥ .... प्रस्यैषे-ण । १.२॥१४॥ प्रत्यये । २।३।६॥ । प्रहरणम् । ६।४। ६२ ।।. 47 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्रम् । सूत्राङ्कः । प्रहरणात्ः । ३ । १ । १५४ ॥ प्रहरणात् क्रीडायां०।२।२।११६ || प्राक्कारस्य व्यञ्जने | ३| २|१९|| प्राक्काले । ५ । ४ । ४७ ॥ प्राक्त्वादगडुलादेः | ७|१|५६ ॥ प्राग्नित्यात्कप् |७|३|२८|| प्राणिनात् | २|१|४८ ॥ प्राग्ग्रामाणाम् |७|४|१७॥ प्राग्जितादणू |६|१|१३॥ प्राग्देशे । ६ । १ । १०॥ प्राग्भरते - ञः | ६ |१|१२९॥ प्राग्वत् । ३ । ३ । ७४ ॥ प्राग्वतः - स्नञ् । ६ । १।२५॥ प्राचां नगरस्य |७|४|२६ ॥ प्राच्च यमयसः |५|२२५२॥ प्राच्येasatva o १० ।६ | १|१४३॥ प्राज्ञश्च । ५ । १ । ७९ ॥ प्राणिजाति - द | ७|१॥६६॥ प्राणितूर्याङ्गाणाम् | ३|१|१३७॥ प्राणिन उपमानात् |७|३|१११ ॥ प्राणिनि भूते |६|४|११२ ॥ गणिस्थादस्वा-त् ।७।२६० । प्राण्यङ्गरथखल-द्यः |७|१|३७|| प्राण्यङ्गादातोलः | ७|२|२०| प्राण्योपधिषु च ॥६२॥३१॥ - (४५) सूत्राङ्क । सूत्रम् । प्रात्तश्च मो वा | ४|१|९६ ॥ प्राचुपतेर्गवि | ४|४|१७|| प्रात्पुराणे नश्च | ७|२/१६१ ।। प्रात्यवपरि-न्तैः | ३|१|४७॥ प्रात्सूजोरिन् |५|२|७१ ॥ प्रात् खुदुस्तोः |५|३|६७॥ प्रादुपसर्गास्तेः | २३५८|| प्राद्द गस्त आ - क्ते |४।४।७॥ प्राद्रमिला | ५|३|५१ ॥ प्राद्वहः । ३ । ३ । १०३ ॥ प्राद्वाहणस्यैये | ७|४|२१॥ प्राध्वं बन्धे | ३|१|१६ ॥ प्राप्तापन्नौ च |३|१|६३॥ • प्रायोऽतोर्द्वय - ७२ १५५ ।। प्रायोऽन्नम - म्नि | ७|१|१९४ ॥ प्रायो बहुस्वरादि०।६।३।१४३॥ प्रायोऽव्ययस्य |७|४६५॥ प्रालिप्सायाम् ||५|३|५७|| प्रावृष इकः | ६|३|९९ ।। प्रावृष एण्यः | ६ | ३|९२ ।। प्रियः । ३ । १ । १५७ ॥ प्रियवशाद्वदः | ५ | १|१०७॥ प्रियसुखं-छे |७|४|८७॥ प्रियसुरवादा-ये | ७|२।१४०॥ प्रियस्थिर - न्दम् ||४|३८ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रम् । परिशिष्टेषु । . सूत्राङ्कः।। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। प्रसृल्योऽक: साधौ ।५।११६९॥ बष्कयादसमासे ।६।१॥२०॥ प्रेक्षादेरिन् ।६।२।८०॥ बहिषष्टीकण् च ।६।१।१६॥ प्रैषानुज्ञावसरे-म्यो।५।४।२९।। बहुग-दे।१।१।४०॥. प्रोक्तात् ।६।२।१२९।। बहुलं लुप् । ३।४।१४।। प्रोपादारम्भे ।३।३।५१॥ बहुलम् । ५।१।२। प्रोपोत्सं-णे ४७८॥ बहुलमन्येभ्यः।६।३।१०९।। प्रोष्ठभद्राजाते ७।४।१३॥ बहुलानुराधा-लुप् ।६।३।१०७।। प्लक्षादेरण ।६।२।५९। बहुविध्वरु-द: ।५।१।१२४॥ प्लुताद्वा । १ । ३ । २९ ।। बहुविषयेभ्यः ।।३।४५॥ प्लुतोऽनितौ । १।२ । ३२ ॥ बहुव्रीहे:-टः १७।३१२५॥ प्लुपचादा-देः।७।४।८१॥ . बहुध खियाम् ।६।१।१२४॥ प्वादेहस्वः।४।२।१०५॥ बहुवेरीः ।२।१।४९॥ फलवींचेनः ।७।२।१३।। बहुस्वरपूर्वादिकः।६।४६८॥ फलस्य जातौ ।३१।१३५॥ बहुना प्रश्ने-वा ७।३।५४॥ फले। ६ । २ । ५८ ॥ बहोडे । ७।३।७३॥ फल्गुनीप्रो-मे ।२।२।१२३।।। बहोर्णीष्टे भूय ७॥४४०॥ फल्गुन्याष्टः ।६।३।१०६॥ बहोर्धासन्ने । ७।२।११२ ॥ फेनोमबाष्प-ने ।३।४।३३॥ बह्वल्पार्था-पशस् ।७।२।१५०॥ बन्धे पनि नवा ।३.२।२३॥ बाढान्तिक-दौ ७४४॥३७॥ बन्धेर्नाम्नि । ५। ४।६७॥ बाहूर्वादेवलात् ।७।६६॥ वन्धौ बहुव्रीहौ ।२।४।८४॥ . बाह्वन्तक-म्नि ।२।४७४॥ बलवातदन्त-लः ।७।२।१९।। वाहादिभ्यो गोत्रे ।६।१॥३२॥ बलवातादलः १७११९१॥ बिडबिरी-च ।७।१।१२९॥ बलादेयः।६।२।८६॥ बिदादेवृद्धे ।६।११४१॥ पलिस्थूले दृढः ।४।४।६९॥ विभेतीषु च ३३१९२॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवणानुक्रमः । सूत्रम् । सूत्राङ्कः । बिल्वकीयादेयस्य| २|४|९३ ॥ ब्रह्मणः । ७ । ४ । ५७ ॥ ब्रह्मणस्त्वः | ७|१॥७७॥ ब्रह्मणो वदः | ५|१|१५६ ॥ ब्रह्मभ्रूणनृ-प् ।५।१।१६१॥ ब्रह्महस्ति सः | ७|३|८३ ॥ ब्रह्मादिभ्यः | ५|१|८५|| ब्राह्मणमाण- द्यः |६|२|१६| ब्राह्मणाच्छंसी | ३|२|११ ॥ ब्राह्मणाद्वा | ६|१|३५|| ब्राह्मणानाम्नि |७|१|१८४ ॥ ध्रुवः । ५ । १ । ५१ ॥ . ब्रूगः पञ्चानां च |४|२|११८ ॥ ब्रूतः परादिः || ४ | ३ |६३ ॥ भक्ताण्णः |७|१|१७॥ भक्तौदनाद्वाणिकट | ६|४|७२ || भहिंसायाम ||२|६॥ भक्ष्यं हितमस्मै | ६ |४१६९ ॥ भजति । ६ । ३ । २०४ ।। भजो विण् । ५ । १ । १४६ । मञ्जिभसिमिदो घुरः | ५|२|७४ ॥ भजे मैं वा । ४ । २ । ४८ ॥ . भद्रोणात्करणे | ३|२|११६ ॥ भर्गात् त्रैगर्ते | ६ | १|५१ ॥ भर्तु तुल्यस्वरम् | ३|१|१६२ || ( ४७ ) सूत्राङ्कः । सूत्रम् । भर्तुर्वेध्यादेरन् || ६ | ३|८९ ॥ भर्त्सने पर्यायेण | ७|४५९० ॥ भवतेः सिलपि | ४ | ३ |१२|| भोरिकणीस | ६ |३|३०|| भवत्वायु- र्थात् |७|२|९१ ॥ भविष्यन्ती । ५ । ३ । ४॥ भविष्यन्ती - है | ३ | ३ | १५ ॥ भवे । ६ । ३ । १२३ ॥ भव्य गेय जन्य - नवा |५|१|७|| भारिक | ६ | ४|२४ ॥ भागवित्तिता-वा |६|१|१०५॥ भागाद्येकौ । ६ । ४ । १६० ॥ भगिनि च - भिः | २२|३७|| भागेटमा १७|३|२४|| भाजगोण - शे | २|४|३०|| भाण्डात्समाचितौ | ३|४|४०|| भादितो वा ||३|२७|| भान्नेतुः । ७ । ३ । १३३ ॥ भावकर्मणोः ः |३|४|६८॥ भाववत्रो - णः | ६|२|११४॥ भाववचनाः । ५ । ३ । १५ ॥ भावाकर्त्रीः । ५ । ३ । १८ ॥ भावादिमः । ६ । ४ । २१ ॥ भावे । ५ । ३ । १२२॥ भावे चाशि - खः |५|१|१३०॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु खत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्क। भावे त्वतलू ।७।१५५॥ भूलुक चेवर्णस्य ॥४४१॥ भावेऽनुपसर्गात् ।५।३।४५॥ भूश्रूयदोऽल ॥५॥३॥२३॥ भिक्षादेः।६।२।१०॥ भूषाकोधार्थ-नः ।५।२।४२॥ भिक्षादेः । ६।२।१०॥ भूषादरक्षेपे-त् ॥३॥१४॥ भिक्ष सेनादायात्।५।१।१३९॥ भूषार्थसन्-क्यौ ।३।४।९३॥ भित्तं शकलम् ।४।२।८१॥ भूस्वपोरदुतौ ।४।१७०॥ भिदादयः ।५।३।१०८॥ भृगो नाम्नि ।५।३।९८॥ भियो नवा ।४।२।९९॥ भृगोऽसंज्ञायाम् ।५।१॥४५॥ भियो रुरुकलुकम् ।५।२७६॥ । भृग्वाङ्गिरस्कु-त्रेः।६।१।१२८॥ भिस ऐस् । १।४।२॥ भृजो भज । ४।४।६॥ भीमादयोऽपादाने ॥५१॥१४॥ भृतिप्रत्य-कः ॥७॥३१४०॥ भीरुष्ठानादयः ।२।३॥३३॥ भृतौ कर्मणः ।५।१।१०४॥ भीषिभूषि-भ्यः ।५।३।१०९॥ भवृजितृ-म्नि ।५।१।११२॥ भीहीमहोस्तिव्वत् ।३।४।५०॥ भशाभीक्ष्ण्या-देः ७४४७३॥ भुजन्युज-गे।४।१।१२०॥ भशाभीक्ष्ण्ये हि-दि ।५।४।४२॥ भुजिप त्या-ने ।५।३।१२८॥ भेषजादिभ्यष्टयण ७।२।१६४॥ भुजो भक्ष्ये ।४।१।११७॥ भुनजोत्राणे ॥३॥३॥३७॥ भोगवद्गौरिमतो ० शरा६५॥ भुवो वः-न्योः ।४।२।४३॥ भोगोत्तर-नः ॥१॥४०॥ भुवोऽवज्ञाने वा ।५।३।६४॥ भोजस्तयोः-त्योः ।२।४।८१॥ भृङः प्राप्तौ णिङ् ।३।४।१९।। भौरिक्यैषु-क्तम् ।६।२।६८॥ भूजेः ष्णुक् ।५।२।३०॥ भ्राजभासभाष-नवा ४॥३६॥ भूतपूर्व प्रचरट् ।७।२।७८॥ भ्राज्यलंकग-ष्णुः पा२।२८॥ भूतवञ्चाशंस्ये वा ।५।४।२॥ भ्रातुर्यः। ६।१।८८॥ भूते । ५।४।१०॥ भ्रातुः स्तुतौ ।।३।१७९॥ भूयःसंभूयो-च।६।१॥३६॥ । भ्रांतुष्पुत्र-या राश१४॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिक्षणानुक्रमः। (४९) सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राकः। भ्रातपुत्राः स्वस्-भिः।३३१२१।। मनयवलपरे हे ॥१॥३॥१५॥ भ्राष्ट्राग्नेरिन्छ ।३।२।११४।। मनसचाज्ञायिनि ।३।२।१५।। मासम्लासभ्रम-चा।३।४।७३।। मनुर्नभो-ति ।१।१।२४॥ भ्रुवोऽच्च-टयोः ।।४।१०१॥ | मनोरौ च वा ।२।४।६१॥ ध्रुवो भ्रुव च ।६।१।७६॥ मनोर्याणी पश्चान्तः ।६।११९४॥ भ्रश्नोः ।२।१।५३॥ मन्तस्य युवा-योः ।।१।१०॥ भ्वादिभ्यो वा ।५।३।११५॥ मन्थौदनसक्तु-चा ।३।२।१०६॥ म्वादेर्दादेघः ।२।११८३॥ मन्दाल्पाच मेधा०७३।१३८॥ भ्वादे मिनो-ने ।२।११६३॥ मन्माजादेर्नानि ७।२।६७॥ मड्डुकझझराद्वाण ।६।४।५८॥ मन्यस्यानावा-ने ।२।२।६४॥ मण्यादिभ्यः ।७।२।४४॥ मन्याण्णिन् ।५।१।११६॥ मतमदस्य करणे ७१।१४।। मन्वन्क्वनि-चित्॥५॥१२१४७॥ मत्स्यस्य यः ।२।४।८७॥ मयूरव्यंसकेत्यादयः ।३।१।११६॥ मथलपः ।५।२।५३॥ मरुत्पर्वणस्तः ।७।२।१५॥ मद्रभद्राद्धपने ७।२।१४४॥ मादिभ्यो यः ७।२।१५९॥ मद्रादब ।६।३।२४॥ मलादीमसश्च ॥७॥२॥१४॥ मधुबोर्ब्राह्म-के।६।१।४३॥ मध्यविधिवि-न ।४।१।१०९॥ मध्य उत्क-रः ।६।३१७७॥ मव्यस्याः ।४।२।११३॥ मध्यादिनम्णेया० १६३३१२६॥ मस्जेः सः ।४।४।११०॥ मध्यान्ताद्गुरौ ॥३२॥२१॥ महतः-डाः।३२१६८॥ मध्यान्म: १६३३७६॥ महत्सर्वादिकण् ।७३१४२॥ मध्ये पदे नि-ने ।३.११११॥ महाकुलाद्वाजोनो।६।१।९९॥ मध्वादिम्पो २ः १७२।२६।। महाराजप्रो-कण ।६।२।११०॥ मध्वादेः १६।२।७३॥ महाराजादिकण् ।६।३।२०५।। मनः।२।४।१४॥ महेन्द्राद्वा । ६.२।१०६॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) परिशिष्टेषु लम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। मांसंस्थानड्-वा।३।१४१॥ मासाद्वयसि यः।६४।११३॥ मापद्यतनी ।५।४।३९॥ मिग्मीगोऽखलचलि।४।२।८॥ माणवः कुत्सायाम् ।६।११९५॥ मिथ्याकृगोऽभ्यासे ।३।३।९३॥ मातमातृमातृके वा ।२।४।८५॥ मिदः श्ये । ४ । ३।५॥ मातापितरं वा ।।२।४७॥ मिमीमादामित्स्वरस्या४।१॥२०॥ मातुर्मातः-न्व्ये ११४४०। मुचादितफहफ-शे ।४।४९९।। मातुलाचार्यों-द्वा ।२।४।६३॥ मुरतोऽनुनासिकस्य ।४।११५१॥ मातृपितुः स्वसुः ।२।३॥१८॥ मुद्रुहष्णुहष्णिहो वा ।२।११८४॥ मातृपित्रादेडेयणीयणौ।६।११९०॥ प्रतिनिचिताभ्रे घनः।५।३।३७॥ मात्रट् । ७।१।१४५ ॥ . मूलविभुजादथः ।५।१।१४४॥ माथोत्तरपद-ति ।६।४।४०॥ मूल्यैः क्रीते ।६।४.१५०॥ मादुवर्णोऽनु ।२।१।४७॥ मृगक्षीरादिषु वा ३।२।६२।। मानम् । ६।४।१६९ ॥ मृगयेच्छा याश्चा० ।५।३।१०१॥ मानसंव-म्नि ७४।१९॥ मृजोऽस्य वृद्धिः ॥४॥३॥४२॥ मानात् क्रीतबत् ।६।२।४४॥ मृदस्तिकः ।७।२।१७१॥ मानादसंशये लुए।७।१।१४३॥ मृषः क्षान्तौ ।४।२८॥ माने । ५।३।८१॥ मेघर्तिभया-खः ।५।१।१०६॥ माने कश्च । ७।३।२६ ॥ मेडो वा मित् ।४।३।८८॥ मारणतोषण-ज्ञश्च ।४।२।३०॥ मेघारथानवेरः ७२।४१॥ मालायाः क्षेपे ।७।६४॥ मोऽकमियमिरमि०।४।३।५५।। मालेषीके-ते ।२।४।१०२॥ मो नो म्वोश्च ।।११६७॥ मावर्णान्तो-वः ।।१।९४॥ मोर्वा । २।१।९॥ माशब्दइत्यादिभ्यः ।६।४।४४॥ मोऽवर्णस्य ।२।१।४५|| मासनिशा-वा ।२।११००॥ मौदादिभ्यः ।६३।१८२॥ मासवर्णनात्रनुपूर्वम् ।३।१।१६१॥। म्नां धुइ-न्ते ।१।३।३९॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकारादिवणानुक्रमः । (५१) सूत्राङ्कः । सूत्रम् । यथाकामा - नि |७|१|१००॥ यथातथादीयोंरे |५|४|५१|| यः । ६ । ३ । १७६ ॥ यः । ७ । १ । १ ॥ यः सप्तम्याः |४|२|१२२॥ यतुरुस्तोर्बहुलम् ||४|३॥६४॥ यजसृज - षः । २।१।८७ || यादिवचः किति |४|१॥७९॥ यजादिवश - वृत् ||४|१|७२ ॥ यजिजपिदंशि- कः | ५|२|४७॥ शजिस्वपिरक्षि- नः | ५|३|८५|| यजेर्यज्ञाङ्गे |४|१|११४॥ यज्ञादियः | ६|४|१७९ ॥ यथाऽथा । ३ । १ । ४१ ॥ यथामुख - स्मिन् |७|११९३ ॥ यद्भावो भावलक्षणम् |२||१०६ ॥ यस्तद्वदाख्या | २|राष्४६ ॥ यद्वक्ष्ये राघीक्षी ||२२५८|| यपि । ४ । २ । ५६ ॥ यपि चादो जग्ध् | ४|४|१६ ॥ यवविङति |४|२|७| यमः सूचने | ४ | ३ | ३९ ॥ यमः स्वीकारे । ३।३।५९ ॥ ममदगदोऽनुपस० | ५|१|३०| यज्ञानां दक्षिणायाम् ||६|४|९६ ॥ यमिरमिन मिगमि० |४| २|५५ || यमिरमिनम्या -2 |४|४|८६ ॥ यमो परिवे-च |४| २|२९ ॥ यरलवा अन्तस्थाः । १ । १ । १५ ॥ यवयवक द्यः |७|१|८१ ॥ यवयवनार -वे |२| ४|६५॥ यज्ञे ग्रहः ।५।३।६५|| यज्ञे ञ्यः ।६।३।१३४।। यत्रोश्यादेः | ६|१|१२६ ॥ यञिञः । ६ । १ । ५४ ॥ यत्रो डायन् च वा | २|४|६७॥ यतः प्रतिनि-ना | २।२.७२॥ यत्कर्म स्पर्शाम्तः ||३|१२५ || यत् किमः पतत्किमन्यात् |७|३|५३ ॥ चदेतदो डावादिः | ७|१|१४९ | | यथाकथाचाण्णः | ६|४|१०० ॥ | ७|१|१५०॥ चोरसः | ६|३|२१२ ॥ यस्कादेर्गोत्रे | ६ | १|१२५ ॥ स्वरे पाटि | २|१|१०२ ॥ याचितापमित्यात्कणू | ६|४|२२|| याजकादिभिः | ३|१|७८|| याज्ञिकौक्थिक कम् | ६ |२| १२२ ॥ | सूत्राङ्कः । सूत्रम् । म्रियतेरद्यत - च |३|३|४२॥ य एच्चातः ।५।१।२८ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) परिशिष्टेषु सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राकः । याज्या दानचि ।५।१।२६॥ येयो चलुक् च ७२१६४॥ याम्युसोरियामियुसौ४।१२।। येऽवणे । ३ । २ । १०० ॥ यायावरः । ५।२। ८२।। यैयकनावसमासे वा ।।१।९७॥ यावतो विन्दजीवः ।५।१५५॥ योगकमभ्यां योको।६४।९५॥ याबदियरवे ।।१३।। योग्यतावीप्सा-श्ये।३।११४०॥ याकादिम्यः कः ।३।१५।। योद्धप्रयोजमाधुढे दारा११॥ यिः सन्वर्ण्यः १२११॥ योऽनेकस्वरस्य R१९६॥ यि लुक ४२१०२॥ योपान्त्या-नम् ।७।१७२। युजञ्चकुश्ची नोा ।१२७॥ योशिति ।४।३८०॥ युजभुजभज-न: ।५।२।५०॥ यौधेयादरम् ।७।३।६५॥ युजादेनेवा ।३।११८॥ | व्यक्ये। १।२।२५।। युजोऽसमासे १४७१॥ वः पदान्ताव-दौ ७॥५॥ युद्रोः । ५।३। ५९ ॥ वृत् सकृत् ।।१०२॥ युदोघम् ।५ । ३ । ५४॥ स्वृवर्णाल्लध्यादेः १६९॥ युवर्णदृवश-ह: ।५।३।२८॥ वोः प्ययव्यञ्जने०।४।४।१२१॥ युववृद्धं कुत्साचे वा ।६।१॥५॥ कखप - पौ।१।३॥५॥ युवा खलति-नैः ॥३३११११३॥ २ः पदान्ते-११॥३॥५३॥ युवादेरण १६७॥ रक्तानित्यवर्णयोः।७३॥१८॥ युष्मदस्मदोः।२।१॥६॥ रखदुञ्छतोः ।६।४।३०॥ युष्मदस्मदो-देः ॥१३॥३०॥ रहोः प्राणिनि वा ६३३१५॥ यूनस्तिः ।२।४। ७७॥ रजःफलेमलाग्रहः ।५।१९८॥ यूनि लुप् । ६।१।१३७ ॥ रथवदे। ३।२। १३१ ।। यूनीऽके । ७।४। ५०॥ रथात्सादेव बोदने १७५॥ यूयं वयं असा ।२।१।१३॥ रदादमूर्छम- च ।२६९॥ बे नवा । ४।२।६२ ॥ व इटि तु- १०॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ... अकारादिपर्णानुक्रमः । स्त्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्क।। रमलमशक-मिः ।४।१।२१॥ रिरौ च लुपि श५६॥ रमोऽपरोक्षाशवि ।४।४।१०२॥ रुचिकृप्य-धु ।२।२।५५॥ रम्यादिभ्यः-रि ।५।३।१२६॥ रुच्याव्यध्यवास्तव्यमा५५१६ रपृवर्णान्नो-रे ।२।३।६३॥ रुजार्थस्सा-रि।२।२।१३।। रहस्यमर्या-गे।७४८३॥ रुत्पश्चकाच्छिदयः ४१४८८॥ रागाट्टो रक्ते ।६।२।१॥ रुदविदमुष-च ॥४॥३॥३२॥ राजघः । ५ । १ । ८८॥ रुधः। ३।४।८९॥ राजदन्तादिषु ।३।१११४९॥ रुधा स्वराच्छ्नो -च ३।४२॥ राजन्यादिभ्योऽक २६६॥ रुहः पः । ४ । २ । १४ ।। राजन्वान् सुराज्ञि।२।१९८॥ रूढावन्तःपुरादिकः।।३३१४०॥ राजन्सखेः ७।३।१०६॥ रूपात्प्रस्ताहतात् ७॥२॥५४॥ • रात्रौ वसोय ।५।२६॥ रूप्योचरपदारण्याण्ण ।६।३॥२२॥ राज्यहासं- ४११०॥ रेवतरोहिणाझे ।२।४॥२३॥ रात्सः ।२।१।९०॥ . रेवत्यादेरिका ।६।१।८६॥ रादेफः।७।२१५७॥ रैवतिकादेरीयः ।६।३।१७०॥ राधेबंधे। ४।१।२२ ॥ रोः काम्ये । २।३।७॥ राल्लुक।४।१।११०॥ रोगाप्रतीकारे ।७।२८२॥ राष्ट्रक्षत्रियात्-न ।६।१।११४॥ रोपान्त्यात् । ६।३।४२॥ राष्ट्राख्याद्ब्रह्मणः।७।३।१०७॥ रोमन्थाद्व्याप्या-ये।३।४॥३२॥ राष्ट्रादियः।६।३।३॥ रोरुपसर्गात् । ५ । ३ ॥२२॥ राष्ट्रेऽनङ्गादिभ्यः ।६।२।६५॥ रो रे लुग्-तः ॥१३॥४१॥ राष्ट्रम्यः । ६।३।४४॥ रोयः।१ । ३ । २६॥ रिः शक्याशीयें ।४।३।११०॥ रोलुप्यरि।२।१।७५ ॥ रिति । ३।२।५८ ॥ रोमादेः ।६।२७९॥ रिरिधाव-ता ।२२।८२॥ म्यन्वात्- RIA८०| Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } (५४) सूत्रम् । सूत्राङ्कः । of वा । १ । ४ । ६७ ॥ हदिर्हस्व - वा ११।३।३१ ॥ लक्षणवीप्स्ये ना | २|२|३६|| लक्षणेनाभि-ये | ३|१|३३|| लक्ष्म्या अनः |७|२/३२ ॥ लघोर्दीर्घौऽस्वरादेः|४|१॥६४॥ लघोरुपान्त्यस्य |४ | ३ | ४ || लघोर्यपि |४|३|८६ | लघ्वक्षरास-कम् ||३|१|१६|| लङ्गिकम्प्यो- त्योः |४|२|४७ || लभः । ४ । ४ । १०३ ॥ ललाटवात - क: ।५।१।१२५ ॥ लवणादः । ६ । ४ । ६ ॥ लषपतपदः । ५ । २ । ४१ ॥ लाक्षारोचनादिकणू | ६|रा२॥ लिप्स्यसिद्धौ |५|३|१०| लिम्पविन्दः । ५ । १ । ६०॥ लियो नोऽन्तः - वे |४|२|१५|| लि लौ । १ । ३ । ६५ ॥ लिहादिभ्यः | ५|१|५० ॥ लीडलिनो-पि |३|३|९० ॥ लीङलिनोर्वा ||४|२|९॥ लुक् । १ । ३ । १३॥ लुम्बाजिनान्तात् |७|३|३९|| लुक्युत्तरपदस्य कन्नू | ७|३|३८|| परिशिष्टेषु । - सूत्रम् । सूत्राङ्कः । लुगस्यादेत्यपदे | २|१|११३ ॥ लुगातोनापः | २|१|१०७॥ लुप्यवृल्लेत् | ७|४|११२ ॥ लुत्रञ्चैः । ७ । २ । १२३ ॥ लुब्बहुलं पुष्पमूले |६|२१५७॥ लुब्वाध्यायानुवाके |७२/७२॥ लुभ्यञ्च विमोहा ||४|४४ ॥ लूधूम्-तः |५|२२८७॥ लूनवियतात् षशौ |७|३॥२१॥ लदिधूतादि० | ३|४|६४ ॥ लोकंपूणम-त्नम् ||३|२|११३॥ लोकज्ञाते - | ७|४|८४ ॥ लोकसर्व ते |६|४|१५७ ॥ लोकःत् । १ । १ । ३ । लोम पिच्छादेः शेलम् |७|२|२८|| लोम्नोऽपत्येषु |६|११२३ ॥ लो लः । ४ । २ । १६ ॥ लोहितादिश-त् | २|४|६८॥ लोहितान्मणौ | ७|३ | १७॥ वंशादेर्भा - त्सु || ६ |४| १६६॥ वंश्यज्यायो - वा | ६|१|३|| वंश्येन पूर्वा | ३ | १ | २९ ॥ वचोऽशब्दनानि |४|१ ।११९ ॥ वञ्चस्त्रंसध्वंस - नीः | ४|११५०॥ वटकादिन् |७|१|१९६॥ वतण्डात् । ६ । १ । ४५ ॥ वत्तस्याम् । १ । १ । ३४ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । (५५) सूत्राङ्क । सूत्रम् । सूत्राङ्कः । सूत्रम् । वत्सशालाद्वा |६|३|१११॥ वत्सोक्षाश्व-पित् |७|३५१ ॥ वदत्रजलूः । ४ । ३ । ४८॥ वदोऽपात् । ३ । ३ । ९७॥ वन्याङ्गपञ्चमस्य |४२२६५ ॥ वमि वा । २ । ३ । ८३ ॥ वम्यविति वा | ४|२८७॥ वयः शक्तिशी | ५|२|२४|| वयसि दन्त - तु | ७|३|१५१ ॥ वयस्यनन्त्ये ।२।४।२१ ॥ वराहादेः कण् || ६ | २|९५ ॥ वरुणेन्द्र - न्तः | २|४|६२ वर्गान्तात् |६|३|१२८ ।। वर्चस्कादिष्व यः | ३ |२| ४८ || वर्णा वा । ७ । १ । ५९॥ वर्णाद् - णि । ७ । २ । ६९ ॥ वर्णावकञ् । ६ । ३ । २१ ॥ वर्णाव्ययातरः | ७|२|१५६ ॥ वर्तमाना - महे | ३ | ३|६ ॥ तेर्वृत्तं ग्रन्थे | ४|४|१५ ॥ वर्त्स्यति गम्यादिः |५|३|१|| वत्स्र्त्स्यति - ले । ५ । ४ । २५ ॥ यणोऽचक्रात् |६|१|३३|| वर्योपसर्या - |५|१|३२| वर्षक्षर - जे । ३ । २ । २६ ॥ वर्ष विघ्नेऽर्वाग्रहः |५|३|५०॥ वर्षाकालेभ्यः | ६| ३८० ॥ वर्षादयः क्लीने |५|३|२९|| वर्षादश्च वा | ६|४|१११ ॥ वलच्यपित्रादेः | ३|२|८२ ॥ वलिवटि - र्भः ||२/१६॥ वशेरयङि । ४ । १ । ८३ ॥ वसातेर्वा । ६ । २ । ६७ ॥ वसनात् । ६ । ४ । १३८ ॥ वसुराटोः । ३ । २ । ८१ ॥ वस्तेरेयञ् |७|१|२१२॥ वस्नात् । ६ । ४ । १७ ॥ वहति रथयु-त् |७|१|२| वहाभ्रालिः | ५|१|१२३॥ वही नरस्यैत् । ७ । ४ । ४ ॥ वहेः प्रवेयः । २ । २ ७ ॥ वस्तुरिवादिः | ६ |३|१८०॥ वां करणे । ५ । १ । ३४ ॥ बल्यूर्दिपदि - न | ६ | ३|१४|| वाः शेषे । १ । ४ । ८२ ॥ वाऽकर्मणा - णौ |२||४॥ वाकाङ्क्षायाम् |५|२|१०| वाक्यस्य परिर्वर्जने | ७|४८८॥ वाक्रोशदैन्ये |४|३|७५ | वा क्लीबे । २ । २ । ९२ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्। सूत्राहम सूत्रम् । सूत्राका पाथः।३।४।७६ ॥ वा द्विषातोऽनः पुस ।४।२२९१॥ वागन्ती ७३३१४५|| वाधारेश्मावास्या ।५।१॥२१॥ वाग्रान्त-रात् । ७।३।१९५॥ वा नाम्नि । १।२।२०॥ बाच आलाटी श२४॥ वा नाम्नि ७।३।१५९॥ वाच इकण ।७२१६८॥ वान्तिके । ३।१।१४७ ॥ वाचंयमो व्रते ।५।११११५॥ वान्तिमान्ति-पद् ७४४॥३१॥ वाचस्पति-सम् ३३२॥३६॥ वान्यतः पुमान् रे ।१।१६२॥ वा जाते द्विः ।६।२।१३७॥ वान्येन ।६।१११३३॥ वा पलादि-णः ५।११६२॥ कापपुरो णमि।४।२।५।। वाञ्जलेस्लुकः ।७।३।१०।। । वा परोक्षायति।४।११९०॥ वाटाटयात् ॥५॥३॥१०॥ वा पादः । २।४।६॥ वाडयेयो वृषे ॥१८॥ वाप्नोः ।४।३।८७॥ वाणुमापात ७।११८२॥ वा बहुव्रीहे: ।२।४।५॥ वातपित-ने ।६।४।९५२॥ वाभिनिविशः।२।२।२२॥ वातातीसार-न्तः ।।६।। वाऽभ्यवाभ्याम् ।४।१९९॥ वा सुतीयायाः ।।२राशा वामः।४।२ । ५७॥ वातोरिकः ।६।४।१३२॥ वामदेवायः ।।२।१३५॥ पात्मने।३।४।६३॥ वामायादेरीन: १७११॥४॥ मात्यसंधिः१।२।३१॥ वामशसि । २।१। ५५ ॥ वा दक्षिणाव-आः।७।२।११९॥ वायनणायनिजोः।६।१।१३८॥ वादेव थक।५।२।६७॥ वा युष्मद-कस् ।६।३६७॥ वाबत्तनी क्रिया गर्मी ॥ वातपित्रुषसो यः।६२।१०९॥ वाचतनी पुरादौ ५॥१५॥ वारे कृत्वस् । ७।२.१०९॥ वाद्यात् । ।१।११।। | वार्धाच । ७।३।१०३॥ बादौ । २।१।४६॥ वा लिप्सायाम् ।।३।६१॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवणानुक्रमः। (५७) सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः । वाल्पे । ७ । ३ । १४६॥ विचारे पूर्वस्य ।७।४।९५॥ वावाप्यो-पी।३।२।१५६॥ विचाले च । ७।२।१०५॥ वा वेत्तेः क्वसुः ।५।२।२२॥ विच्छो न ।५।३१८६॥ वा वेष्टचेष्टः । ४।१।६६॥ विजेरिट्र । ४।३।१८॥ बाशिन आयनो।७।४।४६॥ वित्तं धनप्रतीतम् ।४।२।८२॥ वाश्मनो विकारे ७४६३॥ विदृग्भ्यः -णम् ।५।४।५४॥ वाश्वादीयः । ६।२।१९॥ . विद्यायोनिसम्ब०६।३।१५०॥ वाटन आः स्यादौ ११४५२॥ विधिनिमन्त्रणा-ने।५।४।२८॥ वासुदेवार्जुनादकः।६।३१२०७॥ विध्यत्यनन्येन । ७।१।८॥ वा स्वीकृतौ ।४।३।४०॥ . विनयादिभ्यः ।।२।१६९॥ वाहनात् । ६ । ३।१७८ ॥ विना ते तृतीया च।।२।११५॥ . वाहर्पत्यादयः।१।३। ५८॥ विनिमेयद्यूतपणं-हो।२।२।१६॥ वाहीकेषु ग्रामात् ।६।३।३६॥ विन्द्विच्छू । ५। २ । ३४ ॥ वाहीकेवब्राह्म-भ्यः।७।३।६३॥ विन्मतोर्णीष्ठे-लुप् ७।४।३२॥ वा हेतुसिद्धौ क्तः।५।३।२॥ विपरिप्रात्सतः।५।२।५५॥ बाह्यपथ्युपकरणे ।६।३।१७९॥ विभक्तिथ-भाः ।१।१॥३३॥ वाह्याद्वाहनस्य ।२।३।७२॥ विभक्तिस-यम् ।३।१॥३९॥ विंशतिकात् । ६।४।१३९॥ विभाजयित-च ।६।४।५२॥ विंशते-ति । ७।४।६७॥ विमुक्तादेरण् ।७।२।७३॥ विंशत्यादयः ।६।४।१७३॥ वियः प्रजने । ४ । २ । १३॥ विंशत्यादेर्वा तमट् ।७।१।१५६॥ विरागाद्विरङ्गश्च ।६।४।१८३॥ विकर्णकुषीत-पे ।६।१७५॥ विरामे वा । १।३।५१॥ विकर्णच्छगला-ये।६।११६४॥ विरोधिनाम-स्वैः ।३।१।१३०॥ विकारे । ६।२।३०॥ विवधवीवधाद्वा ।६।४।२५।। विकुशमिपरे:-स ।।३।२८॥ विवादे वा । ३।३। ८०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु (५८) सूत्रम् । सूत्राङ्कः । |६|३|१५३॥ विवाहे द्वन्द्वादक विशपतपद - क्ष्ये |५|४|८१ ॥ विशारवाषा - ण्डे | ६|४|१२० ॥ विशिरुहि - दात् || ६|४|१२२॥ विशेषणं विश्व | ३ | ११९६ ॥ विशेषणमन्तः |७|४|११३ ॥ विशेषणस - हौ | ३|१|१५० ॥ विशेषाविव- |५|२२५॥ विश्रमेर्वा | ४ | ३ |५६ ॥ विष्वचो विश्व | ७|२|३१|| विसारिणी मत्स्ये | ७|३|५९॥ बीप्सायाम् । ७ । ४ । ८० ॥ वीरुन्न्यग्रोधौ । ४ । १ । १२१ ॥ वृकाट्टेण्यण् |७|३|६४॥ वृगो वस्त्रे । ५ । ३ । ५२ ॥ वृजिमद्राद्देशात्कः | ६ |३|३८|| वृत्तिसर्गतायने | ३ | ३ | ४८॥ वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे |६|४|६७|| वृत्यन्तोऽसषे । १ । १ । २५ ॥ वृद्धखियाः - णश्च | ६| १॥८७॥ वृद्धस्य च ज्यः |७|४|३५|| वृद्धाद्यू नि । ६ । १ । ३० ॥ वृद्धिः स्वरेष्वा - ते |७|४|१॥ वृद्धिरैदौत् । ३ । ३ । १॥ वृद्धिर्यस्य स्व-दिः |६|१|८|| सूत्रम् । सूत्राङ्कः । वृद्धेञः । ६ । ३ । २८ ॥ वृद्धोयुनातन्मात्र मेदे | ३|१|१२४ || वृद्भिक्षिलुण्टिकः |५|२|७०॥ वृद्भयः स्यसनोः | ३|३|४५ ॥ वृन्दादारकः । ७ । २ । ११॥ वृन्दारकनागकुञ्जरैः | ३ | १|१०८ ।। वृषाश्वान्मैथुनेस्सो ० | ४ | ३ | ११४ ॥ वृष्टिमान - वा । ५।४।५७ ॥ वृतो नवाऽनाच |४|४|३५|| वेः । २ । ३ । ५४ ॥ वेः कृगः - शे | ३ | ३|८५|| वेः खुत्रग्रम् । ७ । ३ । १६३ ॥ वेः स्कदोऽक्तयोः ||२।३।५१॥ वेः स्त्रः । २ । ३ । २३ ॥ वेंः स्वार्थे । ३ । ३ । ५० ॥ वे |४| २|१०७॥ वेटोsपतः । ४ । ४ । ६२ ॥ वेणुकादिभ्य ई |६|३|६६ ॥ वेतनादेर्जीवति । ६ । ४ । १५ ।। वेत्तिच्छिदभिदः कित् |५|२|७५ || वेत्तेः कित् । ३ । ४ । ५१ ॥ वेत्तेर्नवा । ४ । २ । १६॥ वेदसह - नाम् । ३ । २ । ४१ ॥ वेदूतोऽनव्य- दे | २|४९९८ ॥ वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव ।६।२।१३० ॥ वेयिवदनाश्व-नम् |५|२|३|| Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्राङ्कः । सूत्रम् । युवोऽखियाः | १|४|३०|| वेश्यः । ४ । १ । ७४ ॥ वेरशब्दे प्रथने |५|३|६९|| वेर्देहः । ५ । २ । ६४॥ वेर्वय् । ४ । ४ । १९ ।। वेर्विचकत्थ-नः |५|२|५९॥ वेर्विस्ते - टौ ।७।१।१२३ ॥ वेश्व द्रोः । ५ । २ । ५४॥ वेष्टयादिभ्यः । ६ । ४१६५॥ वेसुसोऽपेक्षायाम् | २|३|११॥ वैकत्र द्वयोः । २ । २ । ८५ ॥ वैकव्यञ्जने पूर्ये | ३|२|१०५ ॥ वैकात् । ७ । ३ । ५५ ।। वैकात् - रः । ७ । ३ । ५२ ॥ वैकाद् ध्यम | ७|२|१०६ ॥ वैडूर्यः । । ६ । ३ । १५८ ॥ वैणे क्वणः । ५ । ३ । २७॥ वातात् प्राक् |५|४|११|| वोत्तरपद -ङ्खः ।२।३।७५ ॥ वोत्तरपदे | ७|२| १२५ ॥ वोत्तरात् । ७ । २ । १२१ ॥ वोदः । ५ । ३ । ६१ । वश्वितः | ६ |२| १४४॥ वोषकादेः।६।१।१३०।। वोपमानात् । ७ । ३ । १४७॥ (५९) सूत्राङ्कः । सूत्रम् । वोपात् । ३ । ३ । १०६॥ वोपादेरडाकौ च |७|३|३६|| वोमाभङ्गातिलात् |७|११८३ ॥ वोर्णुगः सेटि । ४ । ३ । ४६॥ वोर्णोः । ४ । ३ । १९ ॥ वोर्णोः । ४ । ३ । ६० ॥ वोर्ध्वं द - सट् | ७|१|१४२ ॥ वोर्ध्वात् । ७ । ३ । १५६ ॥ वो विधूनने जः | ४|२|१९ ॥ वोशनसो-सौ । ११४१८० ॥ वोशीनरेषु । ६ । ३ । ३७॥ वर्तिका | २|४|११० ॥ वौ विष्करोवा | ४|४|९६॥ 'वौ व्यञ्जनादेः - य्वः |४|३|२५|| वौष्ठतौ से । १ । २ । १७ ॥ व्यः । ४ । १ । ७७ ॥ व्यक्तवाचां सहोक्तौ | ३ | ३ |७९ ॥ व्यचोऽनसि | ४|१|८२ ॥ व्यञ्जनस्या - लुक् |४|१|४४ ॥ व्यञ्जनस्यान्त ईः |७|२|१२९॥ व्यञ्जनाच्छूना हेरानः | ३|४|८०|| व्यञ्जनात्तद्धितस्य | २|४|८८ ॥ व्यञ्जनात्प-वा | १|३|४७॥ व्यञ्जनादेरेक - वा |३|४|९|| व्यञ्जनादेर्नाम्युपा० | २|३८७॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) परिशिष्टेषु सत्रम। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्क। व्यञ्जनादेषों-सः ।४।३।४७॥ व्याश्रये तसुः ।७।२।८१॥ व्यञ्जनाद् घञ् ।५।३।१३२॥ व्यासवरुट-चाक् ॥६॥३८॥ व्यञ्जनाः सश्च दः।४।३१७८॥ व्याहरति मृगे ।।३।१२१॥ व्यञ्जनानामनिटि ।४।३।४५॥ व्युदः काकु-लुक ७।३।१६५॥ व्यञ्जनान्तस्था-ध्यः।४।२।७१॥ व्युदस्तपः। ३।३। ८७ ॥ व्यञ्जनेभ्य उपसिक्ते।६।४।८॥ व्युपाच्छीङ ।५।३।७७॥ व्यतिहारेऽनीहा-अः।५।३।११६॥ व्युष्टादिष्वण । ६।४।९९॥ व्यत्यये लुग्वा ॥१३॥५६॥ व्येस्यमोयडि |४|११८५॥ व्वघजपमयः ।५।३।४७॥ व्योः ।१।३।२३ ।। व्यपामेलेषः ।५।२।६०॥ व्रताद्भुजितनिवृत्योः ।।४।४३॥ व्ययोद्रोः करणे ।५।३।३८॥ वातादस्त्रियाम् ।७३।६१॥ व्यवात्स्वनोऽशने ।२।३।४३॥ बतादीन । ६।४।१९।। व्यस्तव्यत्यस्तात् ।६।३७॥ वीहिशालेरेयण ७।१।८०॥ व्यस्ताच क्र-कः।६।४।१६॥. बीहेः पुरोडाशे ।।२॥५१॥ व्यस्थवणवि । ४।२।३॥ वीयर्थतुन्दा-च७२।९॥ वीद्यादिभ्यस्तो अ२॥५॥ व्याघाघे प्रा-सोः ।५।११५७॥ व्यापरे रमः ।३।३।१०५॥ शंसंस्वयं-डुः ।५।२।८४॥ व्यादिभ्यो णिकेकणी।।३।३४॥ शंसिपत्ययात् ।५।३।१०५॥ व्याप्तो ।३।१।६१॥ शकः कर्मणि ।४।४७३॥ व्याप्तौ स्सात ७।२।१३०॥ शकषज्ञारम-तुम् ॥५॥४९॥ व्याप्याच्चेवात् । ५ । ४ (७१॥ शकटादण् । ७।१।७॥ व्याप्यादाधारे ।५।३।८८॥ शकलकर्दमाद्वा । ६ । २।३॥ व्याप्ये क्तनः ।२।२।९९॥ शकलादेर्यजः ।६।३२॥ व्याप्ये धुरके-च्यम् ।५।१॥४॥ शकादिभ्यो ट्रेल ।।१।१२०॥ व्याप्ये द्विद्रो-याम् ।।२।५०॥ शकितकिचति-त् ।५।१२९॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (६१) सूत्रम् । सूत्राङ्क। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। शकृत्स्तम्बाद्-गः।५।१।१००॥ शम्या लः ॥६॥२॥३४॥ शकोऽजिज्ञासायाम् ।३।३।७३॥ शम्सप्तकस्य श्ये ।४।२।१११॥ शक्तार्थवषट्नमः-भिः ।२।२।६८॥ शयवासिवासे-त् ।३।२।२५॥ शक्ताहे कृत्याश्च ।५।४।३५॥ शरदः श्राद्ध कर्मणि ।६।३।८१॥ शक्तियष्टेष्टीकण् ।६।४।६४॥ शरदर्भकूदी-जात् ।६।२।४७॥ शक्तेः शस्त्रे ।२।४।३४॥ शरदादेः ।७।३।९२॥ शङ्क्त्त र-च ।६।४।९०॥ शर्करादेरण ७१।११८॥ शण्डिकायैः ।६।३।२१५॥ शर्कराया इक-च ।६२७८॥ शतरुद्रात्तौ ।६।२।१०४॥ शलालुनो वा ।६४।५६॥ शतषष्टेः पथ इकट्।६।२।१२४॥ शपसे श-वा ॥१॥३॥६॥ शतात्केव-को ।६।४।१३१॥ शसोता-सि ।।४।४९॥ शतादिमासा-रात् ।७।१।१५७॥ शसो नः ।२।१॥१७॥ शताद्यः ।६।४।१४५॥ शस्त्रजीवि-वा ७।३।६२॥ शत्रानशावे-स्यौ ।५।२।२०॥ शाकटशा-त्रे ७१७८॥ शदिरगतो शात् ।४।२।२३॥ | शाकलादकञ् च ।६।३।१७३॥ शदेः शिति ।३।३।४१॥ शाकीप-श्च ।७।२।३०॥ शन्शद्विशतेः ।७।१।१४६॥ शाखादेयः।७।१।११४॥ शप उपलम्भने ।३।३॥३५॥ शाणात् । ६।४। १४६ ॥ शपभरद्वाजादात्रेये ।६।१॥५०॥ शान्दान्मान्बधा-तः॥३॥४॥७॥ शन्दनिष्कघोषमि० ३।२।९८॥ शापे व्याप्यात् ।५।४।५२॥ शब्दादेः कृतौ वा ।३।४।३५॥ शान्दिकदार्द-कम् ।६।४॥४५॥ शमष्टकात-ण । ५।२।४९॥ . शालङ्क्यौदिषा-लि।६।१॥३७॥ शमो दर्शने ।४।२।२८॥ शालीनको-नम् ।६।४।१८५॥ शमो नाम्न्यः ।५।१।१३४॥ शाससहनः-हि ।४।२।८४॥ शम्या रुरौ ।१३।४८॥ शामयुधिशि-नः ।५।३३१४१॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। शास्त्यसूवक्ति-रङ्।३।४।६०॥ । शीर्षच्छेदाद्यो वा ।।४।१८४॥ शिक्षादेवाण् ।६।३।१४८॥ शीलम् ।६।४।५९॥ शिखादिम्य इन् ।७।२।४॥ शीलिकामि-णः ।५।११७३॥ शिखायाः।६।२७६॥ शुक्रादियः ।६।२।१०३॥ शिटः प्रथ-स्य ।१॥३॥३५॥ शुङ्गाभ्यां भरद्वाजे ।६।११६३॥ शिटयघोषात् ।१।३।५५! शुण्डिकादेरण् ।६।३।१५४॥ शिटयाधस्य द्विती० ॥१॥३॥५९॥ शुनः। ३।२ । ९० ॥ शिड्ढेऽनुस्वारः ॥१॥३॥४०॥ शुनीस्तन-दधेः ।५।३।११९॥ शिदवित् । ४।३।२०॥ शुनो वश्चोदत् ।७।१।३३॥ शिरसः शीर्षन् ।३।२।१०१॥ · | शुभ्रादिभ्यः ।६।११७३॥ शिरीषादिककणौ ।६।२।७७) शुष्कचूर्ण-व ।५।४६०॥ शिरोऽधसः-क्ये ।२।३॥४॥ शूर्पाद्वाञ् ।६।४।१३७॥ शिघुट ।१।१।२८॥ शूलारपाके।७।२।१४२॥ शिलाया एयच्च १७।१।११३॥ शूलोखाधः।।२।१४१॥ शिलालिपा-त्रे ।६।३।१८९॥ गृङ्खल-मेः।७।१।१९१॥ शिल्पं ।६४५७॥ शृङ्गात् ।७।२।१२। शिवादेरण् ।६।१।६०॥ शूकमगम-कण ।५।२।४०॥ शिशुक्रन्दा-यः।६।३।२००॥ शृवन्देरारुः ।५।२।३५॥ शीङ ए: शिति ।४।३।१०४॥ शेपपुच्छला-नः ॥३॥२॥३५॥ शीडो रत् ।४।२।११५॥ शेवलाद्यादे-यात् ।७३।४३॥ शीश्रद्धानिद्रा-लुः।५।२।३७॥ शेषात्परस्मै ।३।३।१००॥ शीताच कारिणि ।७।१।१८६॥ शेषाद्वा ।७।३।१७५॥ शीतोष्णत-हे १७१११९२॥ शेषे ।२।२।८१॥ . शीतोष्णादृतौ ॥७॥३॥२०॥ शेषे।६।३।१॥ शीर्षः स्वरे तद्धिते।२।१०३॥ । शेषे भविष्यन्त्ययदौ ।५।४।२०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः । सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। शेषे लुक् ।२।१८॥ श्रमद्रुावा ।४।११६१॥ शोकापनुद-के ।५।१।१४३॥ श्रेण्यादिकृता-थें ।३।१।१०४॥ शोभमाने ।६।४।१०२॥ श्रोत्रियादलुक् च ७।१।७१॥ शो व्रते । ४ । ४ । १३॥ श्रोत्रौषधि-गे।७।२।१६६॥ शौनकादिभ्यो णिन्।४।३।१८६॥ श्रीवायुवर्णनिधृते ।५।३।२०॥ शो वा ।४।२।९५ ॥ श्रौतिकवुधिवु-दम्।४।२।१०८।। श्रश्चातः । ४।२।९६ ॥ श्वादिभ्यः।५।३ । ९२ ॥ शास्त्यो क् ।४।२।९०॥ श्लाघस्था -ज्ये ।२।२।६०॥ श्यः शीर्द्रवमूर्ति-शै।४।१९७॥ श्लिषः।३।४।५६ ॥ श्यशवः ।२।१।११६॥ श्लिषशी-क्तः।५।१।९॥ श्यामलक्षणा-टे ।६।१।७४॥ श्वगणाद्वा।६।४।१४। श्यावारोकाद्वा ।७।३।१५३॥ श्वन्युवन्म-उः।२।१।१०६॥ श्यतैतहरित-नश्च ।२।४।३६॥ श्वयत्यसूवच-सम ।४।३।१०३॥ श्यैनंपाता-ता।६।२।११५॥ श्वशुरः श्वश्रूभ्यां वा ।३।१।१२३॥ 'श्रः शृतं हविः क्षीरे।४।१।१००॥ श्वशुराधः।६।१।९१॥ श्रन्थग्रन्थो नलुक्-च ।४।१।२७।। श्वसजपवम-मः।४।४।७५॥ अपेः प्रयोत्रैक्ये ।४।१।१०१॥ श्वसस्तादिः।।३।८४॥ श्रवणाश्वत्थानाम्न्यः ।६।२८॥ श्वासो वसीयसः ।७३।१२१॥ अविष्ठाषाढादीयण् ।६।३।१०५॥ श्वस्तनी ता तास्महे ।३।२।१४॥ श्राणामांसौ-वा।६।४।७१॥ श्वादिभ्योऽञ् ।६।२।२६॥ श्राद्धमद्य-नौ ।७१।१६९॥ श्वादेरिति ।७।४।१०॥ श्रितादिभिः ।३।११६२॥ श्वेताश्वाश्वतर लुक् ।३।४।४५॥ श्रुमच्छमी-य ७।३।६८॥ श्वेर्वा ।४।११८९॥ ध्रुवोऽनाश्तेः ।३।३।७१॥ षः सोऽष्ठयै-कः।२।३।९८॥ श्रुसदवसभ्यः -वा ।५।२।१॥ षट्कति-थट् ।७।१।१६२॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - परिशिष्टेषु सूत्रम्। सूत्राः । सूत्रम्। सूत्राङ्कः। षट्वे षड्गवः ।।१।१३५॥ संख्याडते-कः ।६।४।१३०॥ षड्वर्जेक-रे ७॥३॥४०॥ संख्याता-बा ७३।११७॥ पढोः कः सि ।२०६२॥ संख्यातक-रत् ।७३।११९॥ षण्मासादवयसि को ६।४।१०८॥ संख्यादेः पादा-च ।७।२।१५२॥ षष्मासाद्य-कण ।६।४।११५॥ संख्यादेर्गुणात् ।२।१३६॥ षष्टयादेर-देः ।७।११५८॥ संख्यादेर्हाय-सि ।२।४।९।। षष्ठात् ॥७॥३॥२५॥ संख्यादेश्चा-चः।६।४।८०॥ षष्ठी वानादरे ।२२।१०८॥ संख्याधि-नि ७।४।१८॥ षष्टययत्नाच्छेपे ।३।११७६॥ संख्यानां म् ॥१॥४॥३३॥ षष्ठयाः क्षेपे ।३।२।३०॥ . संख्याने ।३।१११४६॥ षष्ठयाः समूहे ।६।२।९॥ . संख्यापाण्डू-मेः ।७३।७८॥ षष्ठया धर्थे ।६।४।५०॥ संख्यापूरणे डट् ७१।१५५॥ षष्ठयान्त्यस्य ७।४।१०६॥ संख्यायाः संघ-ठे ।६।४।१७१॥ षष्ठया रूप्य-द।७।२।८०॥ संख्याया धा ।७।२।१०४॥ : षात्पदे ।२।३।९२॥ संख्यायानदी-म् ।७।३।९१॥ षादिहन्-णि ।२।११११०॥ संख्याव्ययादलेः ७।३।१२४॥ पावटाद्वा ।२।४।६९॥ संख्या समासे ।३।१।१६३॥ पि तवर्गस्य ।१।३।६४॥ संख्या समाहारे।३।१॥२८॥ पितोऽङ् ।।३।१७७॥ संख्या समाहारे-यमा३३१४९९॥ ष्ठिवृक्लम्वाचमः।४।२।११०॥ संख्यासाय-वा ॥१॥४॥५०॥ ष्ठिसिवोऽवा ।४।२।११२॥ संख्यासंभ-र्च ।६।१॥६६॥ प्या पुत्रपत्योः -थे ।२।४।८३॥ संख्याहर्दिवा-टः।५।१।१०२॥ संकटाभ्याम् ।७३८६॥ संख्यैकार्था-शम् ।।२।१५१॥ संख्याक्ष-तौ ।।१॥३८॥ संगतेऽजर्यम् ।५।१॥५॥ संख्याकावस्त्रे ।६।२।१२९॥ । संघयोषा- ५।३।१७२॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ अकारादिवणानुक्रमः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। संघेऽनूधै । ५ । ३ । ८०॥ संयोगाददतः।४।३।९॥ संचाय्यकुण्ड-तौ ।५।१।२२॥ संयोगादेवा-ध्येः।४।३।९५॥ संज्ञा दुर्वा । ६।१।६॥ संवत्सरान-च ६३३११६॥ संध्यक्षरात्तेन ।७।३।४२॥ संवत्सरात्-णोः ।६।३।९०॥ संनिवेः।३।३। ५७ ।।। संविप्रावात् । ३।३।६३ ॥ संनिवेरदः।४।४।६३॥ संवेः सृजः । ५।२ । ५७ ॥ संनिव्युपाद्यमः ॥५॥३॥२५॥ संशयं प्राप्ते ज्ञेये ६।४।९३॥ संपरिव्यनुप्राद्वदः ।५।२।५८॥ संमष्टे । ६।४।५॥ संपरेः कृगः स्सट।४।४।९१॥ संस्कृते । ६।४।३॥ संपरेर्वा । ४।१ । ७८॥ | संस्कृते भक्ष्ये ।६।२।१४०॥ संपतेरस्मृतौ ।३।३।६९॥ संस्तोः ।५।३।६६ ।। संप्रदानाचान्य-यः ।५।१।१५॥ सः सिजस्तोदिस्योः।४।३६५॥ संप्राज्जा ज्ञौ ।७।३।१५५।। सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे ७३।१२६॥ संप्राद्वसात् । ५। २।६१॥ सखिवणिग्दूताधः ।७।१।६३॥ संप्रोनेःसं-पे।७।१।१२५॥ सख्यादेरेयण् । ६।२।८८॥ संबन्धिनां संबन्धे।७।४।१२१॥ सरव्युरितोऽशावै०।१।४८३॥ संभवदवहरतोश्च ।६।४।१६२॥ सजुषः।२।१।७३ ॥ संभावनेलम\-क्तौ ।५।४।२२॥ सजेर्वा । २।३ । ३८ ॥ संभावने सिद्धवत् ।५।४।४॥ सति । ५।२।१९ ॥ संमत्यमू-तः ।७।४।८९॥ सतीच्छार्थात् । ५।४।२४॥ संमदप्रमदी हर्षे ।५।३॥३३॥ सतीर्थ्यः । ६।४। ७८॥ संयोगस्या-कू ।२।११८८॥ . सत्यागदास्तो कारे।३।२।११२॥ संयोगात् । २।१ । ५२ ॥ सत्यादशपथे ।७।२।१४३।। संयोगादिनः । ७।४।५३॥ सत्यार्थवेदस्याः ॥३४॥४४॥ संयोगादृतः । ४।४।३७॥ सत्सामीप्ये सद्वद्वा ।५।४।१॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु स्वम्भ सूत्राङ्कः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सदाधुने-हि ।७।२।९६॥ सप्तम्याः । ७।२ । ९४ ॥ सदोऽप्रते-देस३२४४॥ सप्तम्या आदिः।७।४।११४॥ सद्योऽध-हि । ७।२।९७॥ सप्तम्या पूर्वस्य ।७।४।१०५।। सनस्तत्राबा।४।३१६९॥ सप्तम्या वा । ३।२।४॥ सनि । ४ । २। ६१॥ सप्तम्यताप्योढेि ।५।४।२१॥ सवीडय ४१२५। सब्रह्मचारी ।३।२।१५०॥ समिक्षासेक ५२॥३३॥ समः क्ष्णोः ।३।३।२९॥ सन्महत्परमो-याम्।३।१।१०७॥ समः ख्यः ।५।११७७।। सन्यङश्व ।४।१।३॥ समः पृचेपज्वरेः ।५।२।५६॥ सन्यस्य । ४।१। ५९॥ . समजनिपनिषद-णः।५।३।९९॥ सपल्वादो।२।४।५०॥ समत्यपाभिरः ।।२।६२॥ सपत्र विपत्रा-ने ७।२।१३८॥ समनुव्यवाद्धः ।५।२।६३॥ सपिण्डेयथास्थाना-द्वा।६।११४॥ समयात् प्राप्तः ।।४।१२४॥ सपूर्षत द्वा ।२।१।३२ ॥ समयाद्या-याम ।७।२।१३७॥ सर्वादिकण् ।६।३१७०॥ समर्थः पदविधिः ७।४।१२२॥ सप्तमी-ईमहि ॥३॥३७॥ समवान्धात्तमसः ७।३।८०॥ सप्तमी चाणे ।२।२।१०९॥ समस्ततहितेवा।३।२।१३९।। सप्तमीचोर्ध्व-के ।५।३।१२॥ समस्तृतीयया ।३३३३३२।। सप्तमीचो-के।५।४।३० ॥ समांसमीनम् ।७।१।१०५॥ सप्तमीद्विती-म्यः ७२।१३४॥ समानपूर्व-त् ।६।३१७९।। सप्तमीयदि । ५।४।३४॥ समानस्य धर्मादिषु ।३।२२१४९॥ सप्तमी शौण्डाः ।३।११८८॥ समानादमोतः ॥१४॥४६॥ सप्तम्यधिकरणे ।२।२।९५॥ समानानां-घः १२॥१॥ सप्तम्यर्थक्रि-तिः ॥५॥४९॥ समानामर्थेनकाशेषः।३३११११८॥ सप्तम्बाः ।।१।१६९॥ समाया इनः१६४।१०९॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राकः । समासान्तः । ७।३।६९॥ सर्वजनाण्ण्येनौ ।७।१।१९॥ समासेऽग्नेः स्तुतः।२।३॥१६॥ सर्वपश्चा-यः ।३।११८०॥ समासेऽसमस्तस्य ।।३।१३।। सर्वाणो वा ७१॥४३॥ समिणा सुगः ।५।३।९३॥ सर्वात्सहश्च ।५।११११॥ समिधआ-न्यण् ।६।३।१६२॥ सर्वादयोऽस्यादौ ।३।२६१॥ समीपे । ३१ । ३५ ॥ सर्वादिविष्वग्-श्ो।३।२।१२२॥ समुदाडो यमेरग्रन्थे ।३।३।९८॥ सर्वादेः प-ति ।७११९४॥ समुदोजः पशौ ।५।३॥३०॥ सर्वादेः सर्वाः ।२।२।११९॥ समुद्रान्नृनावोः ।६।३१४८॥ सर्वादेः स्मै स्मातौ।१॥४७॥ समूहार्थात्समवेते ६।४।४६॥ सर्वादेर्डस पूर्वाः ।।४।१८॥ समेंऽशेऽध नवा ॥३॥१॥५४॥ सर्वादेरिन् । ७।२१५९॥ समोगम-शः ।२।३।८४।। सर्वानमत्ति ।११।९८॥ समोगिरः । ३ । ३।६६॥ सर्वांश-यात् ।७।३।११८॥ समोज्ञोऽ--वा ।२।२।५१॥ सर्वोभया-सा ।२।२॥३५॥ समो मुष्टौ । ५ । ३।५८ ॥ सलातुरादीयण् ।६।३।२१७॥ समोवा । ५।१।४६ ॥ सविशेषण-क्यम ।१।२६॥ सम्राजः क्षत्रिये ।६।१११०१॥ ससर्वपूर्वाल्लप् ।६।२।१२७॥ सम्राट । १।३।१६ ॥ सस्त: सि ।४।३।९२॥ सयसितस्य । २।३। ४७॥ सस्नो प्रशस्ते ७२।१७२॥ सरजसोप-वम् ।७।३।९४॥ सस्मे ह्यस्तनी च 1५/४॥४०॥ सरूपाद्रेः-वत् ।६।३।२०९॥ | सस्य शपौ। १ । ३।६१॥ सरोऽनो-म्नोः ।७।३।११५॥ सस्थाद्गुणात्-ते ४१३१७८॥ सतैः स्थिर-त्स्ये ।५।३।१७॥ सस्त्रिचक्रिदधि-मि ।५।२।३९॥ सत्या । ३।४ । ६१॥ सहराजभ्यां-धेः५॥१६॥ सर्व चर्मण ईनेनबौ।६।३।१९५।। सहलुमेच्छा-देः४४४६॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु (६८) सूत्रम् ! सूत्राङ्गः । सहसमः सधिसमि । ३।२।१२३ ॥ सहस्तेन । ३ । १ । २४ ॥ सहस्रशत-दण् | ६|४|१३६|| सहस्य सोऽन्यार्थे | ३।२।१४३॥ सहात्तुल्ययोगे |७|३ १७८ ॥ सहायाद्वा । ७ । १ । ६२॥ सहार्थे । २ । २ । ४५॥ सहिवहे - स्य । १ । ३ । ४३ ॥ साक्षादादिच्व्यर्थे |३|१|१४ ॥ साक्षाद्द्रष्टा |७|१|१९७॥ सातिहेतियुति-र्ति | ५|३|९४ ॥ सादेः । २ । ४ । ४९ ।। सादेश्चातदः । ७ । १ । २५ ॥ साधकतमं करणम् ||२||२४|| साधुना । २ । २ । १०२॥ साधुपुष्यत्पच्यमाने । ६।३ | ११७|| साधौ । ५ । १ । १५५ ॥ सामीप्येऽधो - रि|७|४७९ ॥ सायंचिरप्रा-यात् ॥६।३॥८८॥ सायाह्रादयः | ३|१|५३॥ सारवैक्ष्वा-यम् | ७|४|३०॥ साल्वात् तौ |६|३|५४ || साल्वांशप्रत्य - दिन्। ६।१।११७॥ सास्य पौर्णमासी | ६| २|९८॥ साहिसातवे - त् |५|१|५९॥ सूत्रम् । सूत्राङ्कः । सिकताशर्करात् | ७|२|३५|| सिचि - परस्मै - ति |४|३|४४॥ सिचो ऽञ्जेः । ४ । ४ । ८४ ॥ सिचो यङि । २ । ३ । ६० ॥ सिजद्यतन्याम् ||३|४|५३ ॥ सिजाशिषावात्मने | ४|३|३५|| सिविदो भुवः ||२|९२ ॥ सिद्धिः - त् । १ । १ । २ ॥ सिद्धौ तृतीया | २|२|४३॥ सिध्मादि - | ७|२।२१॥ सिध्यतेरज्ञाने |४| २।११। सिन्ध्वपकरात्काणौ | ६ | ३ | १०१ ॥ सिन्ध्वादेरव् |६|३|२१६॥ सिंहाद्यैः पूजायाम् ||३|१|८९॥ सीतया संगते । ७ । १ । २७ ॥ सुः पूजायाम् | ३|१|४४ || सुखादेः । ७ । २ । ६३॥ सुखादेरनुभवे । ३ । ४ । ३४ ॥ सुगदुर्गमाधारे | ५ | १|१३२॥ सुगः स्यसनि | २|३|६२॥ सुग् द्विपाई:- ये |५|२२६ ॥ सुचो वा । २ । ३ । १० ॥ सुज्वार्थे सं-हिः | ३|१|१९|| सुतंगमादेरि |६| २|८५ ॥ सुदुर्भ्यः । ४ । ४ । १०८ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। (६९) सूत्रम्। सूत्राङ्कः। | सूत्रम्। सूत्राङ्क । “सुपन्थ्मादेयः ।६।२।८४॥ सेट क्तयोः ।४।३।८४॥ सुपूत्युत्सु-णे ७३२१४४॥ सेइनानिटा ।३।१।१०६॥ सुपातसुश्व-दम् ।७।३।१२९॥ सेनाङ्गक्षुद्र-नाम् ।३।१।१३४॥ सुभ्वादिभ्यः ७३।१८२॥ सेनान्तका-च ।६।१।१०२॥ सुयजोवेनिप् ।५।१।१७२।। सेनाया वा।६।४।४८॥ सुयाम्नःसौवी नि।६।१।१०३॥ सेनासे कर्मकर्तरि ।४।२।७३॥ सुरा शीधोः पिवः।५।१।७५॥ . सेनिवासादस्य ।६।३।२१३॥ सुवर्णकार्षापणात् ।६।४।१४३॥ सोदय समानोदर्यो ।६।३।११२॥ सुसर्वार्धाद्राष्ट्रस्य ।।४।१५॥ सोधिवा । ४।३। ७२ ॥ सुसंख्यात् । ७।३ । १५०॥ सोमात् सुगः ।५।१।१६३।। सुस्नातादि-ति ।६।४।४२॥ सोरुः । २।१।७२॥ सुहरित तृण-त् ।।३।१५२॥ सोवालुक्च ३।४।२७॥ सुहृदुईन्-त्रे ७।३।१५७॥ । सोऽस्य ब्रह्म-तोः।६।४।११६।। सूक्त साम्नोरीयः ।।२२७१॥ सोऽस्य भृति-शम् ।६।४।१६८॥ सूतेः पञ्चम्याम् ॥४॥३॥१३॥ सोऽस्य मुख्यः ७१११९०॥ सूत्राद्धारणे ।५।१।९३॥ सौ नवेतौ । १।२।३८॥ सूयत्याद्योदितः ।४।२।७०॥ सौ यामायनि-वा।६।१।१०६॥ सूर्यागस्त्ययो-च ।।४।८९॥ सौवोरेषु कूलात् ।६।३।४७॥ सूर्याद्देवतायां वा ।२।४॥६॥ स्कन्द स्यन्दः ।४।३॥३०॥ सृग्लहः प्रजनाक्षे ।५।३॥३१॥ स्कम्नः । २।३।५५ ।। सुषस्यदोमरक् ।५।२।७३॥ स्कृच्छ्रतो-याम् ।४॥३८॥ सृजः श्राद्धे-तथा ।।४।८४॥ स्क्रसृवृभ-याः ।४।४।८१॥ सृजिदृशिस्क-वः।४।४।७८॥ स्तम्बात् घ्नश्च ।५।३॥३९॥ सृजीनशष्ट्वरम् ।५।२।७७॥ । स्तम्भू स्तम्भू-च ।३।४।७८॥ से रद्धाचरुवा ।४।३।७९॥ | स्वाद्यशितो-रिट् ।४।४॥३२॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (७०) परिशिष्टे सूत्रम् । सूत्राङ्क। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। स्तुस्वञ्जश्चा-वा ।२३।४९॥ स्थामाजिना-प् ।६।३।९३॥ स्तेनान लुक्च ७११५४॥ स्थासनिसेध-पि ।२।३१४०।। स्वोकाल्प-णे ।२।।७९॥ स्थूल दूर-नः ७४॥४२॥ . स्तोमेडट।६।४ । १२६ ॥ स्थेशभास-र: ।५।२।८१॥ स्त्यादिर्विभक्तिः ।१।१।१९।। स्थो वा ।५।३।९६॥ स्त्रियाः।२।१।६४॥ स्नाताद्वेदसमाप्तौ ७७३।२२॥ स्त्रियाः पुंसो-च ७।३।९६॥ स्नानस्य नाम्नि ।२।३।२२।। स्त्रिया डितां-म् ।।४।२८॥ स्नोः । ४।४।५२।। स्त्रियां तिः ।५।३।९१॥ स्पर्ध । ७।४ । ११९ ॥ स्त्रियां नाम्नि १७३१५२॥ . स्पृश मृश कृष-वा ।३।४।५४॥ स्त्रियां नृतो-मः ।।४॥१॥ स्पृशादि सुपो वा।४।४।११२॥ त्रियां लुप् ।६।११४६॥ स्पृशोऽनुदकात् ।५।१।१४९॥ खियाम् । १।४ । ९३॥ स्पृहेाप्यं वा ।२।२।२६॥ स्त्रियाम् ।।२।६९॥ स्फाय स्फाब् ॥४॥२॥२२॥ स्त्रियामूधसोऽन् ।७।३।१६९।। स्फायः स्फी वा ।४।११९४॥ स्त्रीदतः।१।४। २९॥ स्फुर स्फुलोजि ।४।२।४। स्त्री पुंवच्च । ३।१।१२५ ॥ स्मिक प्रयोक्तु:०३३३३९१॥ स्त्री बहुष्वायनञ् ।६।१।४८॥ स्मत्यर्थदयेशः ।२।२११॥ स्थण्डिलात्-ती ।६।२।१३९॥ स्मृदृत्वरप्रथ-रः ॥४॥१॥६५॥ स्थलादेमधुकण् ।६।४।९१।। स्मृदृशः । ३।३ । ७२ ॥ स्थाग्लाम्लापचि-स्नुः।५।२।३१॥ स्मे च वर्तमाना ।५।२।१६॥ स्थादिम्यः कः।५।३।८२॥ स्मे पञ्चभी।५।४।३१॥ स्थानान्तगो-लात् ।६।३।११०॥ स्म्यजसहिंसर: ।५।२।७९॥ स्थानीवाऽवर्णविधौ ।४।१०९॥| स्यदोजवे । ४ । २।५३॥ स्थापास्नात्रः कः ।५।१।१४२॥ | स्यादावसंख्येयां ।३३११९।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) - अकारादिवर्णानुक्रमः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। स्यादेरिवे । ७।१। ५२॥ स्वरे वाऽनक्षे । १।२।२९॥ स्यादौ वः । २।१।५७॥ स्वर्ग स्वस्ति-पौ।६।४।१२३।। स्यौजस-दिः ।१।१।१८॥ स्वसृपत्योर्वा । ३॥ २ ॥३८॥ स्रम् ध्वस्-दः ।२।११६८॥ स्वस्नेहनार्था षः॥५४॥६५॥ स्वञ्जश्च । २।३।४५॥ स्वाङ्गतश्च्व्य र्थ-श्रा५।४।८६॥ स्वञ्जनवा । ४ । ३ । २२ ॥ स्वाङ्गात्-नि । ३।२।५६॥ स्वज्ञाजम-कात् ।२।४।१०८॥ स्वाङ्गादेरकृत-हेः ।२।४।४६॥ स्वतन्त्रः कर्ता ।२।२।२॥ स्वाङ्गाद्विवृद्धात्ते १७।२।१०॥ स्वपेयडेच । ४।१।८०॥ स्वाङ्गेनाध्रुवेण ।५।४।७९।। स्वपोणावुः ।४।१६२॥ स्वाङ्गेषु सक्ते ।।१।१८०॥ स्वयं साभी क्तेन ।३।१।५८॥ स्वादेः श्नुः ।३।४।७५॥ स्वरग्रहदृश-वा ।३।४।६९॥ स्वाद्वदिदीर्घात् ।५।४।५३॥ स्वरदुहो वा । ३।४।९०॥ स्वान्मिन्त्रीशे ।७।२।४९॥ स्वरस्य परे-धौ ।७।४।११०॥ स्वामिचिह्नणे ३२१८४॥ स्वरहनगमो:-टि ।४।१।१०४॥ स्वामिवैश्येऽय: ।५।१॥३३॥ स्वराच्छौ । १। ४ । ६५॥ स्वामीश्वरा तैः ।२।२।९८॥ स्वरात् । २।३। ८५ ॥ स्वाम्येऽधिः ।३।१।१३॥ स्वरादयोऽ-यम् ।१।१॥३०॥ स्वार्थे । ४।४।६०॥ स्वरादुतो-रोः ।२।४।३५॥ स्वेशेऽधिना राश१०४॥ स्वरादुपसर्गात्-घः।४।४।९॥ स्वैर-ण्याम् । १।२।१५ ॥ स्वरादेर्द्वितीयः ।४।१४॥ स्सटि समः । १।३।१२।। स्वरादेस्तासु । ४ । ४।३१॥ हा कालवीयोः ।५।११६८॥ स्वरेऽनः । ४।३। ७५॥ हत्या भूयं भावे ।५।१॥३६॥ स्वरेभ्यः। १।३।३०॥ हनः । २।३। ८२॥ स्वरे वा । १ ॥ ३ ॥ २४॥ हनः सिन् । ४।३ । ३८ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) परिशिष्टेषु सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। हनश्च समूलात् ।५।४।६३॥ हाकः । ४।२।१०॥ हनृतः स्यस्य ।४।४।४९॥ हाको हिः क्त्वि ।४।४।१४॥ हनो घि। २।३ । ९४ ॥ हान्तस्थाबीइभ्यांवा।२।१।८१ हनो घ्नीर्वधे ।४।३।९९॥ हायनान्तात् । ७।१।६८॥ हनो णिन् । ५।१।१६०॥ हितनाम्नो वा ७४६०॥ हनोऽन्तर्घना-देशे ।५।३।३४॥ हितसुखाभ्याम् ।२।२।६५॥ हनो वध आ-बौ।४।४।२१।। हितादिभिः । ३।१।७१॥ हनो वा वध च ।५।३।४६॥ हिमहतिकाषिये पद् ।३।२।९६॥ हनो हो घ्नः ।२।१।११२॥ हिमादेलुः सहे ७११९०॥ हरत्युत्सङ्गादेः।६।४।२३॥ हिंसार्थादेकाप्यात् ।५।४।७४॥ हरितादेरजः ।६।१॥५५॥ हीनात् स्वाङ्गादः ७।२।४५।। हलक्रोडाऽऽस्ये पुवः ।५।२।८९॥ हुधुटो हेधिः ।४।२।८३॥ हलसीरादिकण् ६।३।१६१॥ हलसीरादिकण् ।७।१॥६॥ हक्रोर्नवा । २ । २ । ८॥ हलस्य कर्षे । ७।१।२६॥ हृमो गवताच्छील्ये।३।३॥३८॥ हवः शिति ।४।१।१२॥ हगो वयोऽनुद्यमे ।५।१०९५॥ हविरन-वा । ७।१ । २९॥ हृदयस्य-ण्ये ।३२।९४॥ हविष्यष्टनः कपाले ।३।२।७३॥ हृद्भगसिन्धोः ७४।२५।। हशश्वद्युगान्तः-च ।५।२।१३॥ हृद्य पद्य तुल्य-म्यम् ।७।१।११।। हशिटो ना-सक् ।३।४५५॥ हुषेः केशलोम-ते।४।४।७६॥ हस्तदन्त-तौ ।७।२।६८॥ . . हे प्रश्नाख्याने ।६।४।९७॥ हस्तप्राप्ये चेरस्तेये ।५।३।७८॥ हेतुककरणे-णे ।२।२।४४॥ हस्तार्थात ग्रह-तः ।५।४।६६॥ हेतुतच्छील्या-त् ।५।१।१०३।। हस्तिपुरुषाद्वाण् ।७।१।१४१॥ हेतुसहार्थेऽनुना ।२।२।३९।। हस्तिबाहुकपा-क्तौ ।५।१।८६॥ हेतौ सं-ते ।६।४।१५३॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिवर्णानुक्रमः। सूत्रम् । सूत्राङ्कः। सूत्रम्। सूत्राङ्कः। हेत्वथै स्तु-द्याः ।।२।११८॥ हृस्वात् ङ्नो द्वे ।१।३।२७॥ हेमन्ताद्वा तलुक् च ।६।३।९१॥ हस्वानाम्नस्ति ।२।३॥३४॥ हेमादिभ्योऽञ् ।६।२।४५। हस्वापश्च।१।४।३२ ।। हेमार्थान् माने ।६।२।४२॥ हस्वे । ७।३।४६ । हेहेष्वेषामेव ७४१००॥ हस्वोऽपदे वा ।१।२।२२॥ होत्राभ्य ईयः ॥७॥११७६॥ ह्यस्तनी-महि ।३।३।९॥ होत्राया ईयः ७२।१६३॥ ह्यो गोदोहादी-स्य ।६२।५५॥ हो धुट्पदान्ते ।२।१।८२॥ ह्लादो हत्-श्च ।४।२।६७॥ हो दः।४।१।३१ ॥ हः समाह्वया-म्नोः ॥५॥३॥४१॥ हस्वः ।४।१। ३९। हः स्पर्धे । ३।३।५६॥ हस्वस्य गुणः ।११४॥४१॥ हालिपसिचः ।।४।६२॥ इस्वस्य तः पित्कृति ।४।४।११३। हिवणोरप्विति व्यौ ।४।३।१५॥ . इतिश्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनपरिशिष्टेषु हेममूलस्त्राणाम् । अकारादिवर्णानुक्रमः समाप्तः। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४॥ द्वितीयं परिशिष्टम् धातुपाठः। १ भू सत्तायाम्। ॥ २८ धे पाने । २१॥ २ पा पाने। ।। २९ देव शोधने । ।२२। ३ घां गन्धोपादाने। ।३। ३० ध्यें चिन्तायाम् । ।२३। . ४ मां शब्दा-ऽग्निसंयोगयोः। ३१ ग्लैं हर्षक्षये। ।२४। ३२ म्लैं गात्रविनामे । ।२५। - ५ ष्ठां गतिनिवृत्तौ। ।५॥ ३३ चैं न्यङ्गकरणे। ॥२६॥ .६ म्नां अभ्यासे। ।। ३४ ३ स्वप्ने। . ॥२७॥ ७ दां दाने। ३५ तृप्तौ। १२८ ८ जि ९ जिं अभिभवे ।। ३६ क ३७ - ३८ रै शब्दे । १० क्षि क्षये। ।९। ॥२९ ११ ६ १२ दु १३ हूँ १४ शु ३९ टय ४० स्त्य सङ्घाते च। १५ खं गतौ। १० ३०॥ १६ धुं स्थैर्य च। ११॥ ४१ बैं खदने । ।३१। १७ सुं प्रसवैश्वर्ययोः।।१२। ४२ ३.४३ 0 ४४ सैं क्षये । १८ स्मं चिन्तायाम् । ।१३। ३२॥ १९ गू २० सेचने ।।१४। ४५ मैं ४६ . पाके । ।३३। २१ औस्व शब्दोपतापयोः। ४७ पैं ४८ ओवै शोषणे। १५॥ . ३४॥ २२ व॒ वरणे । १६॥ ४९ ष्ण वेष्टने । ३५॥ २३ व २४ व कौटिल्ये। ५० फक नीचैर्गतौ। ।३६। १७ ५१ तक हसने। ३७) २५ सुं गतौ। ॥१८॥ ५२ तकु कृच्छ्रजीवने ।।३८॥ २६ प्रापणे च । ।१९। ५३ शुक गतौ। ३९। २७ तृ प्लवन-तरणयोः ।२०।। ५४ बुक्क भाषणे । ४० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातुपाठः (७५) ५५ ओख५६ राख ५७ लाख १०१ क्रुश्च गतौ। ५३॥ ५८ द्राख ५९ धाव १०२ कुश्च च कौटिल्याल्पी. शोषणालमर्थयोः ।।४१॥ भावयोः। ५४॥ ६० शाख ६१ लाख व्याप्तौ। १०३ लुच अपनयने । ५५॥ १४२॥ १०४ अर्च पूजायाम ।।५६। ६२ कक्व हसने । ४३ १०५ अञ्च् गतौ च । ।५७। ६३ उख ६४ नख ६५ णख १०६ वञ्चू १०७ चञ्च ६६ वख ६७ मख ६८ रख १०८ तञ्चू १०९ त्वञ्चू ६९ लख ७० मखु ७१ रखु ११० मञ्चू १११ मुञ्चू ७२ लखु ७३ रिखु ७४ इख ११२ ग्रञ्चू ११३ प्रचू ७५ इखु ७६ ईखु ७७ वल्ग ११४ म्लुचू ११५ ग्लुञ्चू ७८ रगु ७९ लगु ८० तगु ११६ पस्च गतौ। ५८। ८१ श्रगु ८२ श्लगु ८३ अगु । ११७ ग्रुचू ११८ ग्लुचू ८४ वगु ८५ मगु ८६ स्वगु स्तेये। ।५९॥ ८७ इगु ८८ उगु ८९ रिगु, ११९ म्लेछ अव्यक्तायां ९० लिगु गतौ। ४४॥ वाचि।।६० ९१ त्वगु कम्पने च । ।४५।। १२० लछ १२१ लाछु ९२ युगु ९३ जुगु . . लक्षणे।।६१॥ ९४ वुगु वर्जने । ४६। १२२ वाछु इच्छायाम् ।६२॥ ९५ .गग्य हसने। ४७।। १२३ आछु आयामे। ।६३॥ ९६ दघु पालने। ४८ १२४ हीछ लज्जायाम् ।६४। - ९७ शिघु आघ्राणे । १४९। १२५ हुर्छा कौटिल्ये १६५। ९८ लघु शोषणे। ५० १२६ मुर्छा मोह-समुछ्रा(पत्र — मधु मण्डने' इत्येके पठन्ति) ययोः। ॥६६॥ ९९ शुच शोके। ५१॥ | १२७ स्फुर्छा १२८ स्मुर्छा • १०० कुच शन्दे तारे ।।५२।। विस्मृतौ। ।६७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) १२९ युछ प्रमादे | १३० धृजं १३१ धृजु १३२ ध्वज १३३ ध्वजु १३४ ज १३५ जु १३९ अज क्षेपणे च । १४० कुजू १४१ खुजू परिशिष्टेषु १३६ वज १३७ व्रज १३८ षस्ज गतौ । ।६९। ॥७०॥ |६८ | १४२ अर्ज १४३ सर्ज स्तेये । ।७१ । अर्ज | ॥७२॥ ७३| १४४ कर्ज व्यथने । १४५ स्वर्ज मार्जने च । ।७४ | १४६ खन मन्थे । ॥७५॥ १४७ खजु गतिवैकल्ये । ७६ । १४८ एम कम्पने । १४९ टूवोस्फूर्जा ॥७७॥ निर्घोषे । १५० क्षीज १५१ कूज १५२ गुज १५३ गुजु अव्यक्ते शब्दे । ७९ | १५४ लज १५५ लजु १५६ तर्ज भर्त्सने । 1८०1 १५७ लाज १५८ लाजु भर्जने च । ॥८१॥ १५९ जज १६० जजु युद्धे । ८२ । 1261 १६१ तुज १६२ तुजु १६३ गर्ज हिंसायाम् ॥ ८३ ॥ बलने च १८४ | १६४ गुजु १६६ गुजु १६५ गुज १६७ मुज १६८ मुजु १६९ मृज. १७० मज शब्दे ||८५ | १८६ | ८७ १७१ गज मदने च । १७२ त्यजं हानौ । 1८८1 १७३ षञ्जं सङ्गे । १७४ कटे वर्षावरणयोः ॥८९ | १७५ शेट रुजाविशरणगत्यव शावनेषु । १७६ वट वेष्टने । १७७ किट १७८ खिट उन्नासे । १८० पिट १७९ शिट अनादरे । ।९३। १८१ जट १८२ झट संघाते । १८३ पिट शब्दे च । १८४ भट मृतौ । १८५ तट उच्छ्राये । १८६ खट काङ्गे । १८७ पट नृत्तौ । १९०१ ।९१। ॥९२॥ ।९४। १९५॥ |९६। ९७ ९८ ॥९९॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (७७) १८८ हट दीप्तौ। १००। २१५ मठ मद निवासयोश्च । १८९ षट अवयवे । ।१०१॥ ११७ १९० लुट विलोटने । १०२॥ | २१६ कठ कृच्छ्रजीवने ।११८। १९१ चिट प्रैष्ये । १०३। २१७ हठ बलात्कारे ।।११९। १९२ विट शब्दे। ।१०४। २१८ उठ २१९ रुठ १९३ हेट विवाधायाम् ।१०५। २२० लुठ उपपाते। ।१२०॥ १९४ अट १९५ पट २२१ पिठ हिंसा-संक्लेशयोः। १९६ इट १९७ किट . १२१॥ '१९८ कट १९९ कटु २२२ शठ कैतवे च ।।१२२॥ २०० कटै गतौ। १०६।। २२३ शुठ गतिप्रतीपाते।१२३॥ २०१ कुटु वैकल्ये। ।१०७। २२४ कुठु २२५ लुटु २०२ मुट प्रमर्दने। ।१०८। आलस्ये च । १२४॥ २०३ चुट २०४ चुटु २२६ शुटु शोषणे। ।१२५॥ .. अल्पीभावे ।।१०९।. २२७ अठ २२८ रुठु गतौ । २०५ वटु विभाजने । ।११०। १२६। २०६. रुटु २०७ लुटु २२९ पुडु प्रमर्दने । १२१ स्तेये । ।१११॥ २३० मुड्डु खण्डने च ।१२८१ २०८ स्फट २०९ स्फुट्ट २३१ मडु भूषायाम् । ।१२९॥ .. विसरणे ।।११२। २३२ गड्डु वदनैकदेशे ॥१३॥ २१० लट बाल्ये। ११३॥ २३३ शौड गर्वे । ।१३१॥ २११ रट २१२ रठ च २३४ यौड़ सम्बन्धे ।।१३२॥ .. परिभाषणे। ११४।। २३५ मेट्ट २३६ ग्रेड ..२१३ पठ व्यक्तायां २३७ म्लेड २३८ लोड वाचि। ।११५। २३९ लौड़ उन्मादे । १३३॥ २१४ वठ स्थौल्ये। ।११६। २४० रोड २४१ रौट्ट Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) परिशिष्टेषु २४२ तोड अनादरे । ।१३४॥ २७७ पैण गति-प्रेरण२४३ क्रीड विहारे। १३५। श्लेषणेषु। ।१५०। २४४ तुट्ट २४५ तूड़ २७८ चितै संज्ञाने। १५१॥ २४६ तोड तोडने । ।१३६। २७९ अत सातत्यगमने।१५२। २४७ हुट्ट २४८ हूड २८० च्युत आसेचने ।१५३। २४९ हूड २५० हौड गतौ। २८१ चुतृ २८२ स्चुत् १३७॥ २८३ स्च्युत क्षरणे । ।१५४। २५१ खोड प्रतीपाते ।१३८॥ २८४ जुतृ भासने । ।१५५। २५२ विड आक्रोशे।।१३९। २८५ अतु बन्धने। १५६। २५३ अड उद्यमे । १४०। २८६ कित निवासे । ।१५७ २५४ लड विलासे । ।१४१॥ २८७ ऋत घृणा-गति२५५ कडु मदे। ।१४२॥ . स्पद्धेषु । ।१५८ २५६ कद्ड कार्कश्य ।१४३॥ २८८ कुथु २८९ पुथु २५७ अद्ड अभियोगे ।१४४॥ २९० लुथु २९१ मथु २५८ चुड हावकरणे ।१४५। २९२ मन्थ २९३ मान्थ २५९ अण २६० रण . हिंसा-संक्लेशयोः। ।१५९। २६१ वण २६२ व्रण २९४ खाट भक्षणे। ।१६०। २६३ बण २६४ भण. २९५ बद स्थैर्ये । ।१६१॥ २६५ भ्रण २६६ मण २९६ खद हिंसायां च १६२॥ २६७ धण २६८ ध्वण २९७ गद व्यक्तायां २६९ध्रण २७० कण २७१ कण वाचि । ।१६३। २७२ चण शब्दे। ।१४६। २९८ रद विलेखने । १६४॥ २७३ ओण अपनयने ।१४७ २९९ गद ३०० विश्विदा २७४ शोण वर्ण-गत्योः।१४८। अव्यक्ते शब्दे ।।१६५। २७५ श्रोण २७६ श्लो” ३०१ आर्द गतियाचनयोः। संघाते। ।१४९।। ।१६६। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः [७९] ३०२ नई ३०३ गर्द ३२७ स्वन ३२८ वन - ३०४ गर्द शब्द। १६७ शब्दे। ।१८४॥ ३०५ तर्द हिंसायाम् ॥१६८। ३२९ वन ३०६ कर्द कुत्सिते शब्दे ।१६९॥ ३३० पन भक्तौ। १८५। ३०७ खर्द दर्शने । १७०। ३३१ कनै दीप्ति-कान्ति३०८ अदु बन्धने। ११७१॥ गतिषु। ।१८६। ३०९ इदु परमैश्वर्ये । ।१७२।। ३३.२ गुपौ रक्षणे। १८७॥ ३१० विदु अवयवे ।।१७३। ३३३ तर्फ ३३४ धुप ३११ णिदु कुत्सायाम् ॥१७४। संतापे।।१८८) ३१२ टुनदु समृद्धौ । ।१७५। ३३५ रप ३३६ लप ३१३ चदु दीस्याहादयोः। ३३७ जल्प व्यक्ते वचने।१८९। १७६। ३३८ जप मानसे च १९०॥ ३१४ त्रदु चेष्टायाम् । १७७ ३३९ चप सान्त्वने । ।१९१॥ ३१५ कदु ३१६ ऋदु ३४० शप समवाये। ।१९२। ३१७ क्लदु रोदनाहानयोः। ३४१ सृप्ठं गतौ। ।१९३॥ ।१७८ ३४२ चुप मन्दायाम् ।१९४॥ ३१८ क्लिदु परिदेवने ।१७९। ३४३ तुप ३४४ तुम्प ३१९ स्कन्दं गति ३४५ त्रुप ३४६ त्रुम्प .. शोषणयोः। १८० ३४७ तुफ ३४८ तुम्फ - ३२० पिधू गत्याम् । ।१८१॥ ३४९ त्रुफ ३५० त्रुम्फ . ३२१ विधौ शास्त्र हिंसायाम् । ।१९५। . मागल्ययोः। ।१८२॥ ३५१ वर्फ ३५२ रफ ३२२ शुन्ध शुद्धौ। १८३। ३५३ रफु ३५४ अर्ब ३२३ स्तन ३२४ धन ३५५ कर्ब ३५६ खर्व ३२५ ध्वन ३२६ चन - ३५७ गर्ब ३५८ चर्ब Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) परिशिष्टेषु ३५९ तर्व ३६० नर्व ३९२ अम ३९३ द्रम ३६१ पर्व ३६२ वर्ब ३९४ हम्म ३९५ मिमृ ३६३ शर्ब ३६४ पर्व ३९६ गम्लं गतौ। ।२१०॥ ३६५ सर्व ३६६ रिबु ३९७ हय ३९८ हर्यक्लान्तौ । ३६७ रबु गतौ। १९६। ... च ।२११॥ ३६८ कुबु आच्छादने ।१९७१ ३९९ मव्य बन्धने । २१२। ३६९ लुबु ३७० तुबु ४०० सय ४०१ ईय अर्दने। ।१९८।। ४०२ ईय॑ ईर्ष्यार्थाः ।२१३॥ ३७१ चुबु वक्त्रसंयोगे।१९९। ४०३ त्रुच्यै ४०४ चुच्यै ३७२ सृभू ३७३ सम्भू । .. अभिषवे ।२१४॥ ३७४ त्रिभू ३७५ पिम्भू · ४०५ त्सर छमगतौ ।।२१५॥ ३७६ भर्भ हिंसायाम् ।२००। ४०६,कमर हूर्छने। ।२१६॥ ३७७ शुम्भ भाषणे च ।२०१। ४०७ अभ्र ४०८ बभ्र ३७८ यमं ३७९ जल ४०९ मञ गतौ। २१७॥ मैथुने।।२०२। ४१० चर भक्षणे च ।।२१८॥ ३८० चमू ३८१ छमू. ४११ घोर गतेश्चातुर्ये ।२१९॥ ३८२ जमू ३८३ झम् । ४१२ खोर प्रतीपाते ।२२० ३८४ जिमू अर्दने । २०३।। ४१३ दल ४१४ विफला ३८५ क्रम पादविक्षेपे ।२०४॥ _ विशरणे ।२२१॥ ३८६ यमूं उपरमे। ।२०५। ४१५ मील ४१६ श्मील ३८७ स्यम् शब्दे । ।२०६। ४१७ स्मील ३८८ णमं प्रवत्वे । ।२०७। ४१८ मील निमेवणे ।२२२॥ ३८९ षम ३९० ष्टम ४१९ पील प्रतिष्टम्मे ।२२३॥ बैलव्ये।२०८॥ । ४२० गील वर्षे ।।२२४॥ ३९१ अम शब्द-भक्यो। | ४२१ शील समाधौ ।२२५। १२०९। । ४२२ कील बन्। ।२२६॥ न Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (८१) ४२३ कूल आवरणे ।२२७ ४५६ मर्व पूरणे । ।२४१॥ ४२४ शुल रुजायाम् ।२२८॥ ४५७ मर्व ४५८ धनु ४२५ तूल निष्कर्षे ।२२९॥ ४५९ शव गतौ। १२४२॥ ४२६ पूल संघाते ।२३० ४६० कर्व ४६१ खर्व ४२७ मूल प्रतिष्ठायाम् ।२३१॥ ४६२ गर्व दरें। ।२४३॥ ४२८ फल निष्पत्तौ ।२३२॥ ४६३ ष्टिवू । ४२९ फुल्ल विकसने ।२३३॥ ४६४ शिवू निरसने ।२४४i ४३० चुल्ल हावकरणे ।२३४। ४६५ जीव प्राणधारणे ।२४५॥ ४३१ चिल्लशैथिल्ये च ।२३५॥ ४६६ पीव ४६७ मीव ४६८ तीव ४३२ पेल ४३३ फेल ४६९ नीव स्थौल्ये १२४६। ४३४ शेल ४३५ षेलु ४७० उवै ४७१ तुर्वे ४३६ सेलु ४३७ वेह ४७२ धुर्वे ४७३ दुवै ४३८ सल ४३९ तिल ४७४ धुर्वै ४७५ जुबै ४४० तिल्ल ४४१ पल्ल ४७६ अर्व ४७७ पर्व ४४२ वेल्ल गतौ। ।२३६। ४७८ शर्व हिंसायाम् ।२४७॥ ४४३ वेल। ४७९ मुवै ४८० मव ४४४ चेलू ४४५ केल बन्धने । ।२४८ ४४६ क्वेल ४४७ खेल ४८१ गुर्वै उद्यमे । २४९। ४४८ स्खल चलने। ।२३७ ४८२ पिवु ४८३ मिवु ४४९ खल संचये च १२३८॥ ४८४ निवु सेचने। १२५०। ४५० श्वल ४५१ श्वल्ल ४८५ हिवु ४८६ दिवु . आशुगतौ ।२३९। ४८७ जिवु प्रीणने । ।२५१॥ ४५२ गल ४५३ चर्व ४८८ इवु व्याप्तौ च । ।२५२। ___ अदने ।२४०। १४८९ अव रक्षण-गति-कान्ति४५४ पूर्व ४५५ पर्व तृप्त्यवगमन प्रवेश-श्रवण Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु ( ८२ ) स्वाम्यर्थ याचन क्रियेच्छादीपवाल्या sऽलिङ्गन हिं सा-दहन - भाष- वृद्धिषु। २५३ । ।२५४। ४९० कश शब्दे । ४९१ मिश ४९२ मश रोषे च । ।२५५। ४९३ शव प्लुतिगतौ । २५६ | ४९४ णिश समाधौ । ।२५७| ४९५ दृं प्रेक्षणे । ।२५८। ४९६ दश दशने । ॥२५९। ४९७ शब्दे । ४९८ चूष पाने । • ४९९ तूप तुष्टौ । ।२६३। ५०० पूष वृद्धौ । ५०१ लुष ५०२ मूष स्तेये । ।२६४। ।२६०। ।२६१। ॥२६२॥ ५०३ पूष प्रसवे । ॥२६५॥ ५०४ ऊष रुजायाम् । ।२६६ । ५०५ ईष उञ्छे । ५०६ कृष विलेखने। ५०७ का ५०८ शिष ५०९ जप ५१० झष ५११ वष ५१२ मप ५१३ प ५१४ रुप ५१५ विष ५१६ यूप ५१७ खूप ५१८ शष ॥२६७॥ | २६८| ५१९ चष हिंसायाम् । । २६९ | ५२० वृषु संघाते च । ।२७०। ५२१ भष भर्त्सने । ।२७१। ५२२ जिषू ५२४ मिषू. ५२३ विष् ५२५ निघू ५२६ पृष् ५२७ बुषू ५२८ मृषू सहने च । ।२७२। ५२९ उषू ५३० श्रिवू ५३१ ि५३२ पुषू ५३३ प्लुष दाहे ५३४ घृषू संहर्षे । ५३५ हृषू अलीके । ५३६ पुष पुष्टौ । ५३७ भूष ५३८ तमु ५३९ तुस ५४१ इस अलङ्कारे ||२७७| ।२७३। ।२७४। ।२७५। ।२७६ । ५४० हस ५४२ रस शब्दे । २७८ | ५४३ लस श्लेषण क्रीडनयोः ॥ २७९ ॥ ।२८० | ।२८१। ५४४ घस्लूं अदने । ५४५ इसे इसने । ५४७ पेसृ गतौ । । २८२| ५४६ प ५४८ वे ५४९ शस्त्र हिंसायाम् । २८३॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः ५५० शंसू स्तुतौ च ।२८४॥ ५७८ त्वक्ष त्वचने। ।३०२। ५५१ मिहं सेचने । ।२८५। ५७९ सूर्य अनादरे ।।३०३। ५५२ दहं भस्मीकरणे ।२८६। ५८० काक्षु ५८१ वाक्षु ५५३ चह कल्कने ।२८७। ५८२ माक्षु काङ्क्षायाम् ॥३०४॥ ५५४ रह त्यागे। २८८ ५८३ द्राक्षु ५८४ धाक्षु ५५५ रहु गतौ। ।२८९। ५८५ ध्वाक्षु घोरवाशिते ५५६ दह ५५७ दृहु च ।३०५। ५५८ बृह [वह] वृद्धौ ।२९०॥ ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ [५८५ ] [सू. ३०५] ५५९ वृह ५६० वृहु शब्दे ५८६ गांङ् गतौ। । च। ।२९१॥ ५८७ मिङ् ईषद्धसने । २० ५६१ उह ५६२ तुट्ट ५८८ डी विहायसो गतौ ॥३॥ ५६३ दुट्ट अर्दने । ।२९२॥ ५८९ उङ् ५९० कुंकू ५६४ अर्ह ५९१ गुंङ् ५९२ घुङ ५६५ मह पूजायाम् । ।२९३॥ • ५९३ थुङ शब्दे। ५६६ उक्ष सेचने । २९४।। ५९४ च्युङ् ५९५ ज्युङ् ५६७ रक्ष पालने। १२९५। । ५९६ जुङ् ५९७ श्रृंङ् ५६८ मक्ष ५९८ प्लुङ् गतौ। ५। ५६९ मुक्ष सङ्घाते। ।२९६॥ ५९९ रुंङ रेषणे च । ।। ५७० अक्षौ व्याप्तौ च ।२९७॥ ६०० पूङ् पवने । ७) ५७१ तक्षौ ६०१ मूङ् बन्धने । ५७२ त्वक्षौ तनूकरणे ।२९८॥ ६०२ धुंङ् अतिध्वंसने ।९। ६०३ में प्रतिदाने १० ५७३ णिक्ष चुम्बने । ।२९९। ५७४ तृक्ष ५७५ स्वृक्ष ६०५ त्रैङ् पालने। ११४. ५७६ णक्ष गतौ। ।३००। ६०६ ३ गतौ। ।१२॥ ५७७ वक्ष रोपे। ३०१॥ ६०७ व्या वृद्धौ। १३॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) परिशिष्टेषु ६०८ वकुङ् कौटिल्ये।।१४। | ६४० वघुङ् गत्याक्षेपे.।।२६। ६०९ मकुछ मण्डने । ।१५। ६४१ मधुङ् कैतवे च । ।२७। ६१० अकुछ लक्षणे। ।१६। ६४२ राघृङ् ६११ शीक सेचने। १७॥ ६४३ लाघृङ् सामर्थे ।२८॥ . ६१२ लोकदर्शने । ॥१८॥ ६४४ द्राङ आयासे च ।२९। ६१३ श्लोकङ सङ्घाते। ।१९। ६४५ श्लाघृङ् कत्थने । ।३०। ६१४ द्रेक ६४६ लोचङ् दर्शने। ।३१॥ ६१५ धेकृ शब्दोत्साहे ॥२०॥ ६४७ पचि सेचने। ।३२॥ ६१६ रेकुक ६४८शचि व्यक्तायांवाचि॥३३॥ ६१७ शकुछ शङ्कायाम् ।२१। ६४९ कचि बन्धने । ।३४॥ ६१८ ककि लौल्ये। . . ६५० कचुङ् दीप्तौ च ॥३५॥ ६१९ कुकि ६५१ श्वचि ६२० वृकि आदाने। ।२३। ६५२ श्वचुङ गतौ। ३६। ६५३ वर्चि दीप्तौ। ६२१ चकि तृप्ति प्रतीघातयो। ३७॥ ... ६५४ मचि २४॥ ६५५ मुचुङ कल्कने । ॥३८॥ ६२२ ककुल ६२३ श्वकुङ् ६५६ मचुङ् धारणोच्छ्राय ६२४ प्रकुल ६२५ श्रकुङ् पूजनेषु ।३९। ६२६ श्लकुङ् ६२७ ढौकुछ ६५७ पचुङ् व्यक्तीकरणे।४०। ६२८ नौकुछ ६२९ वष्कि ६५८ ष्टुचि प्रसादे। ।४१॥ ६३० वस्कि ६३१ मस्कि ६५९ एजुङ् ६६० ब्रेज ६३२ तिकि ६३३ टिकि ६६१ भ्राजि दीप्तौ। ४२॥ ६३४ टीकङ् ६३५ सेकङ ६६२ इजुङगतौ। ४३॥ .६३६ टेकुक् ६३७ रघुङ् ६६३ ईजि कुत्सने च-४४। ६३८ लघुर गतौ। ।२५। ६६४ ऋजि गतिस्थानार्जनो६३९ अघुर ... जनेषु । ४५ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (८५) ६६५ ऋजुङ् ६८८ खडुङ् मन्थे । १६३॥ ६६६ भृजैङ् भर्जने। १४६॥ ६८९ खुडुङ् गतिवैकल्ये ६४। ६६७ तिजि क्षमा ६९० कुडुङ दाहे। १६५। निशानयोः ।४७ ६९१ वडुङ ६६८ घट्टि चलने । ४८ ६९२ मडुङ वेष्टने। १६६ ६६९ स्फुटि विकसने । ।४९। ६९३ भडुङ् परिभाषणे १६७ ६७० चेष्टि चेष्टायाम् । ।५०। ६९४ मुडुङ् मज्जने। १६८ ६७१ गोष्टि ६९५ तुडुङ् तोडने । १६९। ६७२ लोष्टि संघाते। ५१ ६९६ झुडुङ् वरणे। ७०। ६७३ वेष्टि वेष्टने। ५२॥ ६९७ चडुङ् कोपे। ७१। ६७४ अट्टि हिंसाऽतिक्र- ६९८ द्राङ मयोः। ५३।। ६९९ धाडङ् विशरणे । ७२। ६७५ एठि .. ७०० शादृश्लाघायाम् ७३। ६७६ हेठि विबाधायाम् ॥५४॥ .७०१ वाट्टङ् आप्लाव्ये ७४। ६७७ मठुङ् ७०२ हेडङ् ६७८ कठुङ् शोके। ।५५। ७०३ होइछ अनादरे । ७५॥ ६७९ मुलुङ पलायने। १६॥ ७०४ हिडुङ् गतौ च । ७६॥ ६८० बढुङ् एकचर्या- ७०५ घिणुङ् ७०६ घुणुङ्। . याम् । १५७ ७०७ घणुङ ग्रहणे । ७७॥ ६८१ अठुङ् ७०८ घुणि ६८२ पडुङ्ग तो। १५८ ७०९ घूर्णि भ्रमणे । ७८ ६८३ हुडुङ् ७१० पणि व्यवहार६८४ पिडङ् सङ्घाते । ५९। . स्तुत्योः । ७९॥ ६८५ शडुङ् रुजायां च १६०॥ ७११ यतैङ् प्रयत्ने ।।८०॥ ६८६ तडुङ् ताडने । १६॥ ७१२ युतुङ् ६८७ कडुङ् मदे। ६२॥ ७१३ जुक भासने। ८१॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु ७१४ विथङ ७३८ ह्रादैङ् सुखे च ।१०१॥ ७१५ वेशृङ् याचने। ।०२। ७३९ पदि कुत्सिते शब्दे ।१०२। ७१६ नाशृङ् उपतापैश्व- ७४० स्कुदुङ् आप्रवणे ।१०३। र्याशीषु च। ८३ ७४१ एधि वृद्धौ . १०४। ७१७ श्रथुङ् शैथिल्ये ।।८४॥ ७४२ स्पधि सङ्घर्षे । ।१०५। ७१८ प्रथुङ् कौटिल्ये १८५। ७४३ गाध प्रतिष्ठा७१९ कत्थि श्लाघायाम् ।८६। लिप्सा-ग्रन्थेषु १०६॥ ७२० विदुङ् श्वैत्ये। ८७ ७४४ बाध रोटने।।१०७॥ ७२१ वदुङ् स्तुत्यभिवा ७४५ दधि धारणे। ।१०८। दनयोः । ८८। ७४६ बधि बन्धने । ।१०९। ७२२ भदुङ् सुख कल्या- . ७४७ नाधृङ्नावत् ॥११॥ णयोः । ८९ ७४८ पनि स्तुतौ। ।१११॥ ७२३ मदुङ् स्तुति-मोद मद-स्त्रम गतिषु ।९० ७४९ मानि पूजायाम् ।११२॥ ७५० तिपूङ ७५१ टिपृङ् ७२४ स्पदु किश्चिचलने।९११ ७२५ क्लिदुङ् परिदेवने ।९२॥ ७५२ ष्टेपृङ् क्षरणे। ।११३॥ ७२६ मुदि हर्षे । ।९३। ७५३ तेपङ कम्पने च ।११४॥ ७२७ ददि दाने । ९४॥ ७५४ टुवेपृङ् ७५५ केपृङ् ७२८ हदि पुरीपोत्सर्गे ९५। ७५६ गेपृङ् ७२९ प्वदि ७३० स्वर्दि ७५७ कपुङ चलने । ।११५॥ ७३१ स्वादि आस्वादने ।९६॥ ७५८ ग्लेपूड दैन्ये च ॥११६। ७३२ उर्दि मान-क्रीडयोश्चा९७ ७५९ मेपङ् ७६० रेपृङ् ७३३ कुर्दि ७३४ गुदि ७६१ लेपृङ् गतौ। ।११॥ ७३५ गुदि क्रीडायाम् ।९८। । ७६२ पौषि लज्जायामा११८॥ ७३६ पुदि क्षरणे । ९९।। ७६३ गुपि गोपन७३७ हादि शब्दे। ।१०।। कुत्सनयोः ।११९॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः ७६४ अबुड़ ७६५ बुड् शब्दे । । १२० । ७६६ लबुडू अवस्रंसने च । १२१ । ७६७ कब्रुङ् वर्णे । ।१२२। ।१२४। ७६८ क्लीबृङ् आधाष्ट्र्र्ये । १२३ । ७६९ श्री मदे । ७७० शीभृङ ७७१ [ची] भृङ ७७२ शलभ कत्थने । १२५ । ७७३ वल्भि भोजने ।१२६। ७७४ गल्भि धाष्ट्र्र्ये । १२७ ७७५ रेभृङ् ७७६ अभुङ् ७७७ रभुङ ७७८ लभुङ् शब्दे । । १२८| ७७९ ष्टभुङ् ७८० स्कभुङ् ७८१ ष्टुभ्रूङ् स्तम्भे । १२९ । ७८२ जभुङ् ७८३ जभैड् ७८४ जुभुङ् गात्रविनामे ॥ १३० ॥ ७८५ रभिं राभस्ये । ।१३१। ७८६ डुलभष् प्राप्तौ । १३२ । . ७८७ भामि क्रोधे । ।१३३॥ ७८८ क्षमौषि सहने । । १३४| ७८९ कमू कान्तौ ॥ १३५॥ ७९० अयि ७९१ वयि ७९२ पथि ७९३ मयि [ ७ ] ७९४ नयि ७९५ चयि ७९६ रयि गतौ । ७९७ ति ७९८ णयि रक्षणे च । १३७| ७९९ दयि दान गति · हिंसादहनेषु च । १३८ | ८०० ऊयै तन्तुसन्ताने ।१३६। ॥१३९॥ ८०१ पूयैङ दुर्गन्ध-विशरणयोः ।१४०। ८०२ क्नुयै शब्दोन्दनयोः । ।१४१। ८०३ क्ष्मायैङ विधूनने । १४२ । -८०४ स्फायै ८०५ ओप्यायै वृद्धौ ॥१४३॥ ८०६ वायुङ् सन्तान पानयोः । १४४| ८०७ वलिं ८०८ वल्लि संवरणे । ।१४५| ८०९ शलि चलने च । १४६ | ८१० मलि ८११ मल्लि धारणे । ।१४७। ८१२ भलि ८१३ भल्लि परि भाषण हिंसा -दानेषु ॥ १४८ ८१४ कलि शब्द संख्यानयोः । । १४९। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८८] परिशिष्टेषु ८१५ कल्लि अशब्दे ।१५०। ८४२ पर्षि स्नेहने। १६२॥ ८१६ तेवृङ ८४३ घुषुङ् कान्तीकरणे। ८१७ देव देवने। १५१॥ १६३॥ ८१८ षेवृङ् ८१९ सेवृङ् ८८४ संबड प्रमादे ।१६४॥ ८२० केवृड ८२१ खेवृक्ष ८४५ कासृङ् शब्दकुत्सायाम् । ८२२ गेवड ८२३ ग्लेवृङ १६५॥ ८२४ पेवृक् ८२५ प्लेवृक् ८४६ भासि ८४७ दुनासि ८२६ मेवृक ८४८ टुभ्लासृङ् दीप्तौ ।१६६। ८२७ म्लेवृङ सेवने ।१५२॥ ८४९ रासृङ् ८५० णासृङ् शब्दे । १६७। ८२८ रेव ८५१ णसि कौटिल्ये १६८। ८२९ पवि गतौ। १५३।. ८५२ भ्यसि भये। १६९। ८३० काशृङ् दीप्तौ । ।१५४॥ ८५३ आङ शसुङ् ८३१ क्लेशि विबाधने ।१५५। ... इच्छायाम् ॥१७॥ ८३२ भाषि चव्यक्तायां वाचि ८५४ ग्रसूडू १५६। ८५५ ग्लसूङ् अदने ।१७१। ८३३ ईपि गति-हिंसा-दर्शनेषु । ८५६ घसुङकरणे। ।१७२। ।१५७ ८५७ ईहि चेष्टायाम् ।१७३। ८३४ गेषङ् अन्विच्छायाम् । ८५८ अहुङ १५८। । ८५९ लिहि गतौ। १७४॥ ८३५ येष प्रयत्ने । ।१५९। | ८६० गर्हि ८३६ जेषक ८३७ णेषङ् . ८६१ गल्हि कुत्सने । ।१७५॥ ८३८ एपृङ ८६२ बर्हि ८३९ हेषङ गतौ। १६०॥ ८६३ बल्हि प्राधान्ये ।१७६। ८४० रेपङ ८६४ बर्हि ८६५ बल्हि ८४१ हेषङ् अव्यक्ते शब्दे।। __ परिभाषण-हिंसा-च्छादनेषु ।१६।। १७७ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः ८६६ वेहङ ८६७ जेहङ् | ८८७ धृग् धारणे। ५। ८६८ वाहङ् प्रयत्ने । ।१७८। ८८८ डुकुंग् करणे। ।। ८६९ द्राहक निक्षेपे ।१७९॥ ८८९ हिकी अव्यक्ते शन्दे ।। ८७० ऊहि तर्के। १८० ८९० अञ्चूग् गतौ च । । ८७१ गाहौविलोडने।१८११ ८९१ डुयाग याश्चायाम् ।९। ८७२ ग्लहौङ ग्रहणे । १८२। ८९२ डुपची पाके। ।१०। ८७३ बहु ८९३ राज़ंग ८७४ महुङ् वृद्धौ। १८३॥ ८९४ टुभ्राजि दीप्तौ। ११॥ ८७५ दक्षि शैधये च ।१८४॥ | ८९५ भजी सेवायाम् । ।१२। ८७६ धुक्षि ८७७ धिक्षि ८ ९६ रञ्जीं रागे। ॥१३॥ सन्दीपन-क्लेशन-जीव- ८९७ रेगू परिभाषणनेषु । ।१८५॥ याचनयोः। ॥१४॥ ८७८ वृक्षि वरणे। . .१८६॥ ८९८ वेगृग् गति ज्ञान ८७९ शिक्षि विद्योपादाने।१८७। . चिन्ता-निशामन८८० मिक्षि याश्चायाम्।१८८) वादित्र ग्रहणेषु । ।१५॥ ८८१ दीक्षि मौण्ड्यज्यो. ८९९ चतेग याचने। ।१६। पनयन-नियम-व्रता ९०० प्रोग् पर्याप्तौ। ।१७ देशेषु । ।१८९।। ९०१ मिथग् मेघा-हिंसयोः। ८८२ ईक्षि दर्शने । १८॥ ।१९०। ॥ इति आत्मनेभाषाः ॥ . ९०२ मेथूग् सङ्गमे च ॥१९॥ (२९७) (सू. १९०) ९०३ चदेग् याचने। ॥२०॥ ९०४ उबुन्दृग निशामने ॥२१॥ ८८३ श्रिय सेवायाम्। १। ९०५ णिहर ९०६णेग् ८८४ णींग प्रापणे। २। कुत्सासनिकर्षयोः ॥२२॥ ८८५ हंग हरणे। । ।३। ९०७ मिहगू ९०८ मेग् ८८६ भुंग भरणे। मेधाहिंसयोः ॥२३॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) परिशिष्टेषु ९०९ मेधृगू सङ्गमे च ।२४।। ९२९ छषी हिंसायाम् ।४३ ९१० शृधग् ९३० त्विषीं दीप्तौ। ४४॥ ९११ मृधग उन्दे। २५॥ ९३१ अषी ९३२ असी ९१२ बुधग् बोधने। २६॥ गत्यादानयोश्च ।४५। ९१३ रखनूग अवदारणे ॥२७॥ ९३३ दासृग् दाने । ४६॥ ९१४ दानी अवखण्डने ॥२८॥ ९३४ माहृग् माने । ।४ ९१५ शानी तेजने। ।२९। ९३५ गुहौर संवरणे । ॥४८॥ ९१६ शपी आक्रोशे। ।३०। ९३६ म्लक्षी भक्षणे । ।४९। ९१७ चायग् पूजा-निशा- ॥ इति उभयतो भाषाः ॥ ५४ ... मनयोः। ३० [५४] [सू ४९ ] ९१८ व्ययी गतौ। ।३२॥ . ९१९ अली भूषण-पर्याप्ति- ९३७ धुति दीप्तौ । ॥ वारणेषु ।३३।। ९३८ रुचि अभिप्रीत्यां च ।२। ९२० धावूग् गति-शुद्धयोः। | ९३९ घुटि परिवर्तने। ३। ९४० रुटि ९४१ लुटि ९२१ चीवर झषीवत् । ।३५॥ ९४२ लुठि प्रतीपाते। ४॥ ९२२ दाग दाने। ३६॥ ९४३ श्विताङ् वर्णे। ५। ९२३ ज्ञषी आदान .. ९४४ जिमिदाङ् स्नेहने । संवरणयोः ॥३७ ९४५ जिश्विदाङ् । ९२४ मेषगू भये। ।३८॥ ९४६ विष्विदाङ् मोचने च ।। ९२५ श्रेग चलने च ॥३९॥ ९४७ शुभि दीप्तौ। ९२६ पपी बाधन ९४८ क्षुमि संचलने । । . स्पर्शनयोः।४। सशनयाः ।४० ९४९ णभि ९२७ लपी कान्तौ। ४१॥ ९५० तुमि हिंसायाम् । ।१०। ९२८ चपी भक्षणे। ४२॥ ९५१ खम्भूङ् विश्वासे ॥११॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः ९५२ भ्रंशूङ ९७२ चल कम्पने। ।१२। ९५३ संमूङ् अवस्त्रंसने ।१२।। ९७३ जल घात्ये। १३॥ ९५४ ध्वंसूङ गतौ च ॥१३॥ ९७४ टल ९५५ वृतून वर्तने । ।१४। ९७५ ट्वल वैल्लव्ये। १४॥ ९५६ स्यन्दौङ् स्रवणे ।१५।। ९७६ ष्ठल स्थाने। १५॥ ९५७ वृधूङ् वृद्धौ। ।१६। ९७७ हल विलेखने। १६॥ ९५८ भृधूङ् शब्दकुत्सायाम् । ९७८ णल गन्धे। ॥१७॥ ।१७। । ९७९ बल प्राणनधान्याव-रो९५९ कुपोङ् सामर्थे ।१८।। धयोः ॥१८॥ ।। वृत् द्युतादयः ॥ ९८० पुल महत्वे । ।१९॥ (सू. १८) (२३) ९८१ कुल बन्धु-संस्त्यानयोः। ॥२०॥ ____९६० ज्वल दीप्तौ। १. ९८२ पल ९८३ फल ९६१ कुच् सम्पर्चन-कौटिल्य ९८४ शल गतौ। २१॥ प्रतिष्टम्भ-विलेखनेषु ।२। | ९८५ हुल हिंसा-संघरणयोश्च । ९६२ पत्ल ९६३ पथे गतौ ।। २२॥ ०६४ को निष्पाके। ४। ९८६ क्रुशं आह्वान रोदनयोः । ९६५ मथे विलोडने। ५। ॥२३॥ ९६६ पढ़े विशरण-गत्यवसा- ९८७ कस गतौ। २४॥ दनेषु ।। ९८८ रुहं जन्मनि । २५॥ ९६७ शढे शातने। ११ ९८९ रर्मि क्रीडायाम् ॥२६॥ ९६८ बुध अवगमने। ९९० पहि मर्षणे। ।२७॥ ९६९ टुवमू उद्गिरणे। ।९। ।। वृत् ज्वलादिः । ९७० अमू चलने। १०॥ (३१) (सू. २७) ९७१ क्षर संचलने। ।११।। बलादिः ॥ . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु ९९१ यजी देवपूजा-सङ्गति. १०१२ दक्षि हिंसा-गत्योः॥११॥ करण-दानेषु ॥१॥ - १०१३ श्री पाके। ।१२। ९९२ वेंग् तन्तुसन्ताने । ।। १०१४ स्मूं आध्याने ॥१३॥ +९९३ व्यग् संवरणे। ।। १०१५ द भये। ।१४। ९९४ हेंग स्पर्धा-शब्दयोः।४। | १०१६ न नये । ।१५। .९९५ टुवपी बीजसन्ताने ।५। १०१७ ष्टक. ९९६ वहीं प्रापणे । । । १०१८ स्तक प्रतीपाते ।१६। ९९७ ट्वोश्विगति-वृद्धयोः।७। १०१९ चक तृप्तौ च ॥१७॥ ९९८ वद व्यक्तायां वाचि ।। १०२० अक कुटिलायां गतौ ९९९ वसं निवासे। ।। १०२१ कखे हसने। १९॥ . ॥ वृत् यजादिः ॥ १०२२ अग अकवत् । ।२०॥ ___(सू. ९) (९) । १०२३ रगे शङ्कायाम् । ।२१। . १००० घटिषु चेष्टायाम् ॥१॥ १०२४ लगे सङ्गे। ॥२२॥ १००१ क्षजुङ-गति-दानयोः । १०२५ ह्रगे १०२६ ह्रगे । १०२७ षगे १०२८ सगे १००२ व्यथिष्भय चलनयो। १०२९ष्टगे १०३० स्थगे संवरणे ॥२३॥ ३॥ १०३१ वट १००३ प्रथिः प्रख्याने ।।४। १०३२ भट परिभाषणे ॥२४॥ १००४ प्रदिए मर्दने। ५। १०३३ णट नती। ।२५। १००५ स्खदिष् खदने ।।६। १०३४ गड सेचने। ।२६। १००६ कदुङ १००७ कदुङ् १०३५ हेड वेष्टने। ।२७) १००८ क्लदुङ्-वैक्लव्ये । १०३६ लड जिह्वोन्मन्थने । १००९ क्रपि कृपायाम् ।। २८ १०१० बित्वरिष् सम्भ्रमे ।। १०३७ फण १०३८ कण १०११ प्रसिष् विस्तारे ।१०। १०३९ रण गतौ। २९। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४० चण हिंसा दानयोश्च । |३०| १०४१ शण १०४२ श्रण दाने । धातुपाठः |३१| ९०४३ स्नथ १०४४ क्नथ १०४५ क्रथ । ३३॥ १०४६ क्लथ हिंसार्थाः | ३२ | १०४७ छद ऊर्जने । १०४८ मंदै हर्ष - ग्लपनयोः॥ ३४ ॥ १०४९ ष्टन १०५० स्तन १०५१ ध्वन शब्दे । ।३५॥ १०५२ स्वन अवतंसने | ३६ | १०५३ चन हिंसायाम् |३७| १०५४ ज्वर रोगे । १०५५ चल कम्पने | १०५६ ल |४०| १०५७ हाल चलने । १०५८ ज्वल दीप्तौ च ॥४१॥ ॥ वृत् घटादिः ॥ (सू. ४१ ) (५९) [ धातु १०५८ ] [ सू. ६३९ ] ॥ इति भ्वादयो निरनुबन्धा धातवः समाप्ताः ॥ १०५९ अदं १०६० प्सां भक्षणे | १०६१ भां दीप्तौ । |३८| |३९| (९३ ) ॥३॥ १०६२ यांक् प्रापणे । १०६३ वांकू गति - गन्धनयोः ॥ ४ ॥ १०६४ ष्णांक शौचे । ॥१॥ રા ५। ॥६॥ १०६५ श्रांकू पाके । १०६६ द्रां कुत्सितगतौ |७| १०६७ पांक् रक्षणे । 1८1 १०६८ लांकू आदाने | |५| ॥१०॥ ११ । १०६९ शंकू दाने । १०७० दांव लवने । १०७१ ख्यांकू प्रथने १०७२ प्रांकू पूरणे । १०७३ मांकू माने । |१२| ।१३। ।१४। १०७४ इंक् स्मरणे । ।१५। ।१६। १०७५ इंण्क्रू गतौ । १०७६ वींक् प्रजन-कान्त्य सन खादने च |१७| १०७७ थुंकू अभिगमे । १८ । १०७८ क प्रसवैश्वर्ययोः ॥ १९ ॥ १०७९ तुंकू वृत्ति-हिंसा पूरणेषु |२०| १०८० युक् मिश्रणे । ।२१ ॥ १०८१ शुक्र स्तुतौ । १०८२ क्ष्णुक् तेजने । |२३| |२२| १०८३ स्नु प्रस्रवने | २४| १०८४ टुक्षु १०८५ रु Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) १०८६ कुंकु शब्दे | |२५| १०८७ रुदृक् अभ्रुविमोचने । |२६| १०८८ शये |२७| १०८९ अन १०९० श्वसक् प्राणने | |२८| १०९९ जक्षक भक्ष - हसनयोः । परिशिष्टेड |२९| १०९२ द्ररिद्राक् दुर्गतौ |३०| १०९३ जागृक् निद्राक्षये । ३१ । १०९४ चकासृक् दीप्तौ । ३२ | १०९५ शासक अनुशिष्टौ । ३३ । १०९६ वचं भाषणे | |३४| १०९७ मृजौक शुद्धौ | |३५| |३६| १०९८ सस्तुक् स्वप्ने | १०९९ विदक् ज्ञाने | ११०० हर्नक हिंसा गत्योः । |३७| ११०१ वशक् कान्तौ ११०२ असक् भुवि । ११०३ क्सक् स्वप्ने । यलुप् च । ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ (सु. ४२ ) |३८| |३९| |४०| ४१॥ १४२१ (४२) ११०४ इंक अध्ययने । |१| ११०५ शीक स्वप्ने । ॥२॥ ११०६ हुनु अपनयने | ३ | ११०७ पूक प्राणिगर्भविमोचने ॥४॥ ११०८ प्रचैक ११०९ जुड़ १११० पिजुकि संपर्चने ॥५॥ ११११ वृजैकि वर्जने ॥६॥ १११२ जिजुकि शुद्धौ । 1७1 १११३ शिजुकि अव्यक्ते । शब्दे |८| १११४ ईडिक् स्तुतौ । ist १११५ ईरिक गति कम्पनयोः ॥१०॥ १११६ ईशिक् ऐश्वर्ये । ।११॥ १११७ वर्सिक आच्छादने । १११८ आङ् शासकि ॥१२॥ इच्छायाम् ||१३| १११९ आसिक उपवेशने ॥१४॥ ११२० कसुकि गति शातनयोः ॥१५॥ ११२१ कि चुम्बने |१६| Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः ११२२ चक्षिक व्यक्तायां ११३६ ओहां गतौ ।। वाचि ।१७।। ११३७ मां मान॥ इति आत्मनेभाषाः ॥ शब्दयोः ।। (सू. १७) (१९) ॥ इति आत्मनेभाषा ॥ ११२३ ऊर्जुग्क् आच्छादने।। (२) (२) ११२४ टुंग्क स्तुतौ ।। ११२५ बूँगक व्यक्तायां ११३८ डुदांगूक दाने। १॥ वाचि ।। ११३९ धांगूक धारणे च।। ११२६ द्विषीक अप्रीतौ ।। २॥ ११२७ दुहीक क्षरणे ५। ११४० दुड्डुगक पोषणे च ।। ११२८ दिहीक लेपे। । ११४१ णिजूं की शौचे च।४। ११२९ लिहीक आस्वादने।७। ११४२ विजॅकी पृथग्भावे।५। । इति उभयतोभाषाः ॥ ११४३ विश्लंकी व्याप्तौ ।। (७१) (सू. ७) ॥ इति उभयतोभाषाः ।। (६) (६) वृतह्वादयः (१४) ११३० हुंक् दाना-ऽदनयोः। इति अदादयः कितो धातवः ॥ [८५] [सू. ४०] ११३१ ओहाँक त्यागे। ।२। ११३२ अिभीक मये । । | ११४४ दिवूच क्रीडा-जयेच्छा११३३ ही लज्जायाम् ।४। ___पणि-द्युति-स्तुति११३४ पुंछ पालन-पूरणयोः। __ गतिषु ।। ११४५ जृष् ११३५ ऋक् गतौ। ६॥ ११४६ झुषच जरसि । ।। ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ ११४७ शोंच तक्षणे। । (६) (६) ११४८ दों | ११४९ छौंच छेदने । ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) परिशिष्टेषु ११५० षोंच अन्तकर्मणि ॥५॥ ११७४ पुहच शक्तौ। ॥२४॥ ११५१ ब्रीडच् लज्जायाम् ॥६॥ [३१] ११५२ नृतच् नर्तने। 0 ११५३ कुथच् पूतिभावे ।। ११७५ पुषच पुष्टौ। ।२५। ११५४ पुथच हिंसायाम् ।। ११७६ उचच् समवाये ।२६। ११५५ गुधच परिवेष्टने ॥१०॥ ११७७ लुटच् विलोटने ।२७। ११५६ राधंच वृद्धौ। ।११॥ ११७८ विदाच गात्रप्रक्षरणे। ११५७ व्यधंच ताडने ।१२। .. १२८॥ ११५८ क्षिपंच प्रेरणे।।१३॥ ११७९ क्लिदौच आर्द्रभाव।२९। ११५९ पुष्पच् विकासने ॥१४॥ ११८० जिमिदाच स्नेहने।३०। ११६० तिम ११६१ तीम . . ११८१ जिश्विदाच्... ११६२ टिम ११६३ ष्टीमच .. मोचने च ।३१॥ आर्द्रभावे ॥१५॥ ११८२क्षुधं बुभुक्षायाम्॥३२॥ ११८३ शुधंच शौचे। ।३३। ११६४ पिवूच उतौ। ॥१६॥ ११८४ क्रुधंच कोपे। ॥३४॥ ११६५ श्रिव्व् गति- . ११८५ षिवून् संराद्धौ ।३५। शोषणयोः ॥१७॥ ११८६ ऋधूच् वृद्धौ। ।३६। ११६६ ष्टिवू ११८७ गृधूच्अभिकाङ्क्षायाम्। ११६७ शिवूच् निरसने ॥१८॥ ३७ ११६८ इपच् गतौ । ।१९। ११८८ रघौच हिंसा११६९ ष्णसू निरसने २०॥ संराद्धयोः। ३८ । ११७० नसून् वृति- ११८९ तृपौच प्रीतौ। ।३९॥ . दीत्यो।२१॥ ११९० हपौच हर्ष११७१ त्रसैच भये। ।२२। मोहनयोः ॥४॥ ११७२ प्युसच् दाहे। ॥२३॥ ११९१ कुपच क्रोधे। १४१॥ ११७३ षह .. ११९२ गुपच् व्याकुलत्वे ॥४२॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (९७) ११९३ युप ११९४ रुप १२१८ पुसच् विभाग ।।६१॥ ११९५ लुपच विमोहने ।४३।। १२१९ विसच् प्रेरणे । ।६२ ११९६ डिपच् क्षेपे । ४४॥ १२२० कुसच् श्लेषे। ।६३। ११९७ ष्टूपच समुच्छ्राये ।४५। १२२१ अमूच् क्षेपणे।।६४। ११९८ लुभच गाद्धर्थे । ।४६। १२२२ यसूच् प्रयत्ने ।।६५। ११९९ शुभच् संचलने ।४७। १२२३ जसूच् मोक्षणे।।६६। १२०० णभ १२२४ तम् १२०१ तुभच हिंसायाम् ॥४८॥ १२२५ दसूच् उपक्षये।।६७। १२०२ नशौच अदर्शने ।४९। १२२६ वसूच् स्तम्भे ।।६८॥ १२०३ कुशच श्लेषणे । ।५०। १२२७ वुसबू उत्सर्गे।।६९। १२०४ भृश् १२२८ मुसच्खण्डने। ७०। १२०५ भ्रंशूच अधःपतने ५१॥ १२२९ मसैच् परिणामे ७१॥ १२०६ वृशच वरणे । - ॥५२॥ १२३० शम् १२०७ कुशच तनुत्वे ॥५३॥ १.२३१ दमूच् उपशमे १७२। १२०८ शुषंच शोषणे ५४। १२३२ तमूचकाङ्क्षायाम् ॥७३॥ १२०९ दुषंच वैकृत्ये। ।५५॥ १२३३ श्रमूच् खेद-तपसोः। ७४। १२१० श्लिपंच आलिङ्गने । १२३४ भ्रमूच् अनवस्थाने । १२११ प्लु)च् दाहे। ।५७ १२३५ क्षमौच सहने । ७६। १२१२ बितृषच पिपासायाम् । १२३६ मदैच् हर्षे । ७७ ५८ १२३७ क्लमूच ग्लानौ ।।७८॥ १२१३ तुष १२३८ मुहौच वैचित्ये।।७९॥ १२१४ हृषच तुष्टौ। ५९। १२३९ दुहौच जिघांसायाम् । १२१५ रुपच रोषे। १६० ८० १२१६ प्युप् १२९७ प्युम् । १२४० ष्णुहोच् उद्भिरणे ।८। ७५॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) परिशिष्टेषु १२४१ ठिणहौ च प्रीतौ ।८२।। १२६० युधिंच सम्प्रहारे ।१९। ॥ वृत पुषादिः ॥ ६७ १२६१ अनो रुधिच कामे। ॥ दिवादिगणः ॥ . २०॥ .. ॥ इति परस्मैभाषाः ।। ९८ . (९८) (स. ८२) १२६२ बुधिं . १२६३ मनिच ज्ञाने। ॥२१॥ १२४२ षडौच प्राणिप्रसवे ॥१॥ १२६४ अनिच् प्राणने ।२२। १२४३ दुङ्च् परितापे। ।२। १२६५ जनैचि प्रादुर्भावे ॥२३॥ १२४४ दींच् क्षये। ।३। १२६६ दीपैचि दीप्तौ ।।२४। १२४५ धोंग्चु अनादरे ।४। १२६७ तपिंच ऐश्वर्ये वा । १२४६ मींड्च् हिंसायाम् ॥५॥ १२४७ रोंड्च् स्रवणे। १६॥ १२६८ पूरैचि आप्यायने । १२४८ लींच् श्लेषणे। ७ ।२६। १२४९ डीच गतौ। । १२६९ घूरैङ् १२५० वींङच वरणे । ।९। ॥ वृत् स्वादिः ॥ (९) ( सू. ९) १२७० जूरैचि जरायाम् ॥२७॥ १२७१ धूरै १२५१ पीङ्च् पाने। ॥१०॥ १२७२ गूरैचि गतौ। ।२८ १२५२ इंच गतौ। . ।११ १२७३ रैचि स्तम्भे । ।२९ १२५३ प्रींच् प्रीतौ। ।१२। १२७४ तूरैचि त्वरायाम् ।३०। १२५४ युर्जिच समाधौ ॥१३॥ घूरादयो हिंसायां च। १२५५ सृजिंच विसर्ग ।१४। ३१॥ १२५६ वृतूचि वरणे। ।१५। १२५७ पदिच गतौ। ।१६। १२७५ चूरैचि दाहे। ॥३२॥ १२५८. विदिच सत्तायाम् ।। १२७६ क्लिशिंच् उपतापे ।३३॥ ।१७। १२७७ लिशिंच् अल्पत्वे ॥३४॥ । १२५९ खिदिच् दैन्ये । ।१८। । १२७८ काशिच दीप्तौ ।३५। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातुपाठः (९९) १२७९ वाशिच् शब्दे । ।३६॥ १२९५ हिंट् गति-वृद्धयोः ।। (२९) १२९६ श्रृंट् श्रवणे। ।। ॥ इति आत्मनेभाषाः ॥३८॥ (सू. ३६) १२९७ टुदंट उपतापे। ।३ १२९८ ऍट् प्रीती। ।। १२८० शकींच मर्षणे। ।। १२९९ स्मृट पालने च । ।५। १२८१ शुचगैच पूतिभावे ।। १३०० शक्लृट् शक्तौ । ।। १२८२ रञ्जींच रागे। ॥३॥ १३०१ तिक १२८३ शपींच आक्रोशे ।।४। १३०२ तिग। १२८४ मृषीच तितिक्षायाम् । १३०३ षषट् हिंसायाम् ।। १३०४ राधं १२८५ णहीच बन्धने । ।६। १३०५ साधंट् संसिद्धौ।।। ॥ उभयतोभाषाः ॥६॥ ( सू. ६) १३०६ ऋधूट वृद्धौ। ।। ॥ इति दिवादयश्चितो धातवः ॥. (१४२) १३०७ आप्लट् व्याप्तौ ।१०। (सूत्र १२४) .१३०८ तृपटू प्रीणने । ।११। १३०९ दम्भूटू दम्मे । ।१२। १२८६ धुंगट् अभिषवे । ।१॥ १३१० कृवुट् हिंसा- . १२८७ पिंगटू बन्धने। ।२ करणयोः ॥१३॥ १२८८ शिंगद निशाने ।। १३११ घिवुट् गतौ। ।१४॥ १२८९ डुमिंग्ट प्रक्षेपणे ॥४॥ १३१२ बिधृषाट प्रागल्भ्ये।१५। १२९० चिंगट् चयने । ।५॥ ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ (१८) (सू.१५) १२९१ धूगट् कम्पने । ।६। १२९२ स्तुंगट् आच्छादने । । १३१३ टिपिट आस्कन्दने ।१। १२९३ कुंगट हिंसायाम् ।। १३१४ अशौटि व्याप्तौ ।२। १२९४ गट वरणे। १९॥ ॥ इति भात्मनेभाषाः ॥ (२) (सू. २) ॥ इति उभयतोभाषा ॥ ९॥ (सू. ९) | । इति स्वादयष्टितो धातवः(२९) (सू.२६) . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) परिशिष्टेषु १३१५ तुदीत् व्यथने । १।। १३३५ गृत् निगरणे । ।२०। १३१६ भ्रस्जीत् पाके। ।२।। १३३६ लिखत् अक्षरवि१३१७ क्षिपीत् प्रेरणे। ।। . न्यासे । ।२१॥ १३१८ दिशीत् अतिसर्जने।४। १३३७ जर्च १३३८ झर्चत् । १३१९ कृषीत् विलेखने ५॥ परिभापणे । ।२२। १३३९ त्वचत् संवरणे ।२३। १३२० मुलुंती मोक्षणे ६॥ १३४० रुचत स्तुतौ। ।२४। १३२१ षिचीत् क्षरणे । ७ १३४१ ओवस्चौत् छेदने ।२५। १३२२ बिलूंती लाभे ।।८। १३४२ ऋछत् इन्द्रिय१३२३ लुप्लंती छेदने । ।९। .. प्रलय-मूर्तिभावयोः ॥२६॥ १३२४ लिपीत् उपदेहे । ॥१०॥ १३४३ विछत् गतौ। ।२७॥ ॥ इति उभयतोभाषाः ॥ (१०) १३४४ उछैत् विवासे ।२८। १३४५ मिछत् उत्क्लेशे ।२९। १३२५ कृतैत छेदने। ।११। १३४६ उछुत् उञ्छे । ।३०॥ १३२६ स्त्रिदंव परिघाते ॥१२॥ १३४७ प्रछंत् ज्ञीप्सायाम् ॥३१॥ १३२७ पिशत् अवयवे ।१३। १३४८ उजत् आर्जवे ॥३२॥ ॥ वृत् मुवादिः ॥ (३) | १३४९ सृजत् विसर्गे ॥३३॥ १३५० रुजोत् भङ्गे। ।३४॥ १३२८ रिं १३५१ भुजोत् कौटिल्ये ॥३५॥ १३२९ पित् गतौ। ।१४। १३५२ टुमस्जोंत् शुद्धौ ।३६॥ १३३० बित् धारणे। ॥१५॥ १३५३ जर्ज १३५४ झझंत् १३३१ क्षित् निवास परिभाषणे ॥३७॥ .... गत्योः । ।१६। १३५५ उद्बत् उत्सर्गे ॥३८॥ १३३२ फूत् प्रेरणे। ।१७। १३५६ जुडत् गतौ। ।३९। १३३३ मंत् प्राणत्यागे ।१८।। १३५७ पृड. १३३४ कृत विक्षेपे। ।१९।। १३५८ मृडत् सुखने।।४०। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (१०१) १३५९ कडत् मदे । ४१॥ १३८० ऋम्फत् हिंसायाम्।५८। १३६० पृणत् प्रीणने । ।४२। १३८१ दृफ १३८२ दृम्फत् १३६१ तुणत् कौटिल्ये १४३। उत्क्लेशे ।५९। १३६२ मृणत् हिंसायाम् ।४४। १३८३ गुफ १३८४ गुम्फत् १३६३ द्रुणत् गति ग्रन्थने ।६।। कौटिल्ययोश्च ।४५। १३८५ उभ १३८६ उम्भत् १३६४ पुणत् शुभे। ४६॥ पूरणे ६१॥ १३६५ मुणत् प्रतिज्ञाने ।४७ १३८७ शुभ १३८८ शुम्भत् १३६६ कुणत् शब्दोपक शोभार्थे ।६२ रणयोः ॥४८॥ १३८९ दृभैत् ग्रन्थे। ६३। १३६७ घुण १३९० लुभत् विमोहने ।६४। १३९१ कुरत् शब्दे । १३६८ घूर्णत् भ्रमणे । ४९। ६५। १३६९ चूतैत् हिंसा १३९२ क्षुरत् विलेखने ।६६। १३९३ खुरत् छेदने च १६७ - ग्रन्थयोः ५० १३९४ घुरत् भीमाश१३७० णुदत् प्रेरणे। १५१॥ ब्दयोः ।६८) १३७१ षट्ठेत् अवसादने।५२। १३९५ पुरत् अग्रगमने ।६९। १३७२ विधत् विधाने १५३। १३९६ मुरत् संवेष्टने । ७०॥ १३७३ जुन १३९७ सुरत् ऐश्वर्य-दीस्योः । १३७४ शुनत् गतौ। ५४॥ ७१॥ १३७५ छुपत स्पर्शे । १५५। १३९८ स्फर - १३७६ रिफत् कथन-युद्ध- १३९९ स्फलत् स्फुरणे ॥७२॥ ... हिंसा-दानेषु ॥५६॥ । १४०० किलत् श्वैत्य१३७७ तृफ क्रीडनयोः १७३॥ १३७८ तृम्फत् तृतौ। ।५७।। १४०१ इलत् गति-स्वप्न१३७९ ऋफ क्षेपणेषु ७४॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) परिशिष्टेषु १४०२ हिलत् हावकरणे ७५। । १४२६ कुटत् कौटिल्ये।।९३॥ १४०३ शिल १४२७ गुंत पुरीपोत्सर्गे ।९४॥ १४०४ सिलत् उञ्छे । ७६। १४२८ ध्रुव गति-स्थैर्ययोः। १४०५ तिलत् स्नेहने १७७ ।९५॥ १४०६ चलत् विलसने (७८। १४२९ णूत् स्तवने । १६॥ १४०७ चिलत् वसने ७९। १४३० धूत् विधूनने। १९७१ १४०८ विलत वरणे । ।८० १४३१ कुचत् संकोचने ।९८ १४०९ बिल भेदने ।।८१॥ १४३२ व्यचत् व्याजीकरणे । १४१० णिलत् गहने । ।०२। १४३३ गुजत् शब्दे ।१००। १४११ मिलत् श्लेषणे ।।८३। १४३४ घुटत् प्रतीपाते ।१०१॥ १४१२ स्पृशंत् संस्पर्श ।८४। १४३५ चुट १४३६ छुट । १४१३ रुशं १४३७ त्रुटत् छेदने । ।१०२। १४१४ रिशिंत् हिंसायाम्।८५॥ १४३८ तुटत् कलहकर्मणि । १४१५ विशंत् प्रवेशने ।८६॥ १०३॥ १४१६ मृशंत् आमर्शने ।८७। १४३९ मुटत् आक्षेप१४१७ लिशं ' प्रमर्दनयोः।१०४॥ १४४० स्फुटन विकसने।१०५॥ १४१८ ऋषैत् गतौ .१८८॥ १४४१ पुट १४४२ लुठत् १४१९ इषत् इच्छायाम् ।८९॥ संश्लेषणे १४२० मिषत स्पर्द्धायाम्।९०। [डान्तोऽयमित्यन्ये ।।१०६॥ १४२१ वृहौत् उद्यमे । ।९१ १४४३ कुडत् घसने ।१०७॥ १४२२ तृहौ १४२३ तृहौ १४४४ कुडत् बाल्ये च ।१०८ १४२४ स्तृहौ १४२५ स्तूंहोत् १४४५ गुडत् रक्षायाम् ।१०९। हिंसायाम् ।९२॥ १४४६ जुडत् बन्धने. ११०॥ [९८] १४४७ तुडत् तोडने १११॥ १४४८ लुड १४४९ घुड Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५० स्थुडत् संवरणे । ११२ । १४५१ वुडत् उत्सर्गे च ॥ ११३ ॥ धातुपाठः १४५२ ब्रुड १४५३ अडत् संघाते ॥ ११४ ॥ १४५४ दुड १४५५ हुड १४५६ त्रुडत् निमज्जने ॥ ११५ ॥ १४५७ चुणत् छेदने । ११६। १४५८ डिपत् क्षेपे । ।११७ १४५९ छुरत् छेदने । ।११८ १४६० स्फुरत् स्फुरणे ।११९ । १४६१ स्फुलत् संचये च । [३६] ।१२०। ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ (१३७) १४६२ कुंडू १४६३ कूत् शब्दे । ।१२१। १४६४ गुरैति उद्यमे ॥१२२॥ (३) ।। वृत् कुटादिः ॥ १४६५ पुंङ्त् व्यायामे ।१२३ | - १४६६ आदरे | १२४ | १४६७ धृत् स्थाने । १२५॥ १४६८ ओविजैति भय चलनयोः ।१२६। १४६९ ओलजैड [१०३] १४७० ओलस्जैति व्रीडे । १२७ । १४७१ वञ्जित् सङ्गे । १२८ १४७२ जुषैति प्रीति - सेवनयोः । (८) ।१२९। ॥ इति आत्मने भाषाः ॥ ॥ इति तुदादयस्तितो धातवः ॥ (१५८) (१२९) |३| १४७३ रुपी आवरणे । |१| १४७४ रिपी विरेचने । |२| १४७५ विपी पृथग्भावे १४७६ युपी योगे । |४| १४७७ भिपी विदारणे ॥५॥ १४७८ छिपी द्वैधीकरणे | ६ | १४७९ क्षुपी संपेषे । ॥७॥ १४८० ऊछुपी दीप्ति देव नयोः || १४८१ ऊपी हिंसा नादरयोः | ९| ॥ इति उभयतोभाषाः ॥ ( ९ ) (सू. ९) १४८२ पृचैप संपर्के । ।१०। १४८३ वृचैप् वरणे । ।११॥ १४८४ तञ्च १४८५ तञ्जोपू संकोचने |१२| Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु ( १०४ ) १४८६ भञ्जोंपू आमर्दने | १३ | १४८७ भुजप् पालना ऽभ्यवहारयोः ||१४| १४८८ अजोपू व्यक्ति-प्रक्षणगतिषु ॥ १५ ॥ १४८९ ओविजैर् भय चनयोः | १६ | १७ १४९० कृतै वेष्टने । १४९१ उन्दै क्लेदने | १८ | १४९२ शिष्प विशेषणे । १९ । १४९३ पिप्लंपू संचूर्णने | २० | १४९४ हिसु १४९५ तृहप् हिंसायाम् |२१| ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ (१४) १४९६ खिर्दिर् दैन्ये ॥२२॥ १४९७ विदिंपू विचारणे | २३ | १४९८ त्रिपदीप्तौ |२४| ॥ इति आत्मनेभाषाः ॥ (३) ॥ इति रुधादयः पितो धानवः ॥ (२६) [ सू. २४ ] १४९९ तनूयी विस्तारे |१| १५०० षण्यी दाने । १५०१ क्षणूग् १५०२ क्षिणूयी ॥२॥ हिंसायाम् |३| १५०३ ऋणूयी गतौ । |४| १५०४ तृणूयी अदने । १५०५ घृणूयी दीप्तौ । ॥ इति उभयतोभाषाः ॥ 1५। |६| " ( ७ ) ॥७॥ १५०६ वनूयि याचने १५०७ मनूयि बोधने |८| ॥ इनि आत्मनेभाषाः ॥ ( २ ) ॥ इति तनादयो यितो धातवः ॥ ( ९ ) (सू. ८ ) १५०८ डुक्रींश् द्रव्य विनिये ॥१॥ १५०९ पिंगु बन्धने | |२| १५१० प्रींगूशू तृप्तिकान्त्योः । |३| .१५११ श्रींगू पाके । |४| १५१.२ मींग्ग् हिंसायाम् |५| १५१३ युंगुश् बन्धने ||६| १५१४ स्कुंगून आमवणे |७| १५१५ क्नूगू शब्दे । १८ | १५१६ हिंसायाम् |९| १५१७ ग्रही उपादाने |१०| १५१८ पूगूस पवने । ।११। १५१९ लूगूश् छेदने । |१२| १५२० धूश् कम्पने |१३| १५२१ स्तृमू आच्छादने । |१४| Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२२ कृगुश् हिंसायाम् ॥ १५ ॥ १५२३ वृग्श् वरणे । |१६| ॥ इति उभयतोभाषा: ॥ ( १६ ) १५२४ ज्यांश् हानौ । १ १५२५ शू गति - रेषेणयोः । ॥२॥ १५२६ लींग श्लेष । १५२७ ब्लींशू वरणे । १५२८ प्लीं गतौ । धातुपाठः क € • १५२९ १५३० मृ १५३१ शू हिंसायाम् । ६ १५३२ पृश् पालन- पूरणयोः । ७ ॥ वृत् प्वादिः ॥ ॥ वृत् ल्वादिः ॥ |३| |४| |५| १५३३ वृश भरणे । [८] १५३४ शू भर्जने च । ॥९॥ १५३५ दृश् विदारणे । ।१०५ १५३६ जगू वयोहानौ ॥११॥ ।१२। १५३७ नग् नये । १५३८ ग्रश् शब्दे | १५३९ ऋग् मतौ । . ॥१३॥ |१४| [१०५] १५४२ व्रींम् नरणे । |१७| १५४३ श भरणे । |१८| १५४४ हे भूतप्रादुर्भावे । |१९| १५४० ज्ञांशू अवबोधने ॥ १५ ॥ १५४१ पशु हिंसायाम् । १६ । १४ १५४५ मृडरा सुखने ||२०| १५४६ श्रन्थ मोचन -प्रतिहर्षयोः ॥२१॥ १५४७ मन्थरा विलोडने ॥ २२ ॥ १५४८ ग्रन्थश संदर्भे | |२३| १५४९ कुन्धरा संक्लेशे |२४| |२५| |२६| |२७| १५५० मृदश् क्षोदे | १५५१ गुधश् रोषे । १५५२ बन्धश बन्धने १५५३ क्षुभश संचलने |२८| M १५५४ णम् १५५५ तुभशू हिंसायाम् |२९| १५५६ खवश् हेठश्वत् |३०| १५५७ क्लिशौरा विवाधमे । ३१ । १५५८ अशशू भोजने |३२| १५५९ इक्यू आमीक्ष्ये |३३| १५६० विषश विप्रयोगे |३४| १५६१ पुष १५६२ प्लुषश् स्नेह-सेचन- पूरणेषु ||३५| १५६३ मुषश् स्तेथे । १५६४ पुषम् पुष्टौ । |३६| |३७| Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु . (१०६ ) |३८| १५६५ कुषश् निष्कर्षे १५६६ भ्रसुश् उञ्च्छे ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ (४३) १३९। १५६७ वृड्शू सम्भक्तौ ॥१। ॥ इति आत्मनेभाषाः ॥ ॥ इति क्रयादयः शितौ धातवः ॥ (६०) (सू. ५६) १ १५६८ चुरण्- स्तेये । १५६९ पृणू पूरणे । १५७० घृण् स्रवणे । ।२। ॥३॥ १५७१ श्वल्क १५७२ वल्कण् भाषणे |४| १५७३ नक्क १५७४ धक्कण् नाशने |५| १५७५ चक्क १५७६ चुकण् व्यथने | ६| ॥७॥ १५७७ टकूण बन्धने । १५७८ अर्कणू स्तवने । ઢા |९| १५७९ पिच्चण् कुट्टने । १५८० पचण् विस्तारे | १० | १५८१ म्लेच्छणू म्लेच्छने । ।११। १५८२ ऊर्जण् बल-प्राणनयोः । ।१२। १५८३ युजु १५८४ पिजु‍ हिंसा -बल-दान-निके तनेषु । १३ । १५८५ क्षजुण् कृच्छ्र जीवने ॥ १४ ॥ १५८६ पूजण् पूजायाम् |१५| १५८७ गज १५८८ मार्जणू शब्दे । |१६| १५८९ तिजण निशाने |१७| १५९० वज १५९१ व्रजण् मार्गणसंस्कारगत्योः ||१८| १५९२ रुजणू हिंसायाम् ॥ १९ ॥ १५९३ नटण् अवस्यन्दने | २० | १५९४ तुट १५९५ चुट १५९६ चुटु १५९७ छुटुन् छेदने |२१| १५९८ कुट्टण कुत्सने च ॥ २२ ॥ १५९९ पुट्ट १६०० चुट्ट १६०१ पुट्टण् अल्पीभावे | २३ | १६०२ पुट १६०३ म्रुटण् संचूर्णने ।२४। १६०४ अड्ड १६०५ स्मिटण अनादरे | २५ | १६०६ लुण्टण् स्तेये च |२६| १६०७ स्निटं स्नेहने |२७| Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (१०७) १६०८ घट्टण चलने। २८॥ १६३२ चुडुण छेदने ।।४। १६०९ खट्टण संवरणे ।२९। १६३३ मडुण भूषायाम् ॥४९॥ १६१० षट्ट १६११ स्फिट्टण १६३४ भडण् कल्याणे ५० हिंसायाम् ॥३०॥ १६३५ पिडुण संघाते । ।५१॥ १६१२ स्फुटण् परिहासे ।३१। १६३६ इंडण स्तुतौ। ५२॥ १६१३ कीटण वर्णने ।३२ १६३७ चडुण कोपे। ५३। १६३८ जुड १६१४ वटुण् विभाजने ॥३३॥ १६३९ चूर्ण १६१५ रुटण् रोषे। ३४॥ १६४० वर्णण प्रेरणे। ५४॥ १६४१ चूण १६४२ तूणण १६१६ शठ १६१७ श्वठ संकोचने ।५५॥ १६१८ श्वठुण् संस्कार १६४३ श्रणण् दाने। १५६। ___ गत्योः ॥३५॥ १६४४ पूणण संघाते १५७। १६१९ शुठण आलम्ये ३६। १६४५ चितुण स्मृत्याम् ।५८॥ १६२० शुठुण शोषणे · ॥३७॥ १६४६ पुस्त १६४७ वुस्तण १६२१ गुठुण वेष्टने ३८॥ __ आदरा-ऽनादरयोः ५९। १६२२ लडण् उपसेवायाम् । १६४८ मुस्तण संघाते ।६०। ३९) १६४९ कृतण संशब्दने ।६१॥ १६२३ स्फुडण परिहासे ।४।। १६५० स्वर्त १६२४ ओलडुण उत्क्षेपे ।४१॥ १६५१ पथुण गतौ। ।२। १६२५ पीडणू गहने । ॥४२॥ १६५२ श्रथण प्रतिहर्षे ६३॥ १६२६ तडण् आघाते ।।४३। १६५३ पृथुण प्रक्षेपणे ६४॥ १६२७ खड १६५४ पृथण प्रख्याने १६५। १६२८ खड्डुण भेदे।।४४॥ १६५५ छदण संवरणे १६६। १६२९ कडुण् खण्डने च। १६५६ चुदण संचोदने ।६७॥ ।४५॥ १६५७ मिदुण् स्नेहने १६८॥ १६३० कडुण् रक्षणे। ।४६। १६५८ गुर्दण् निकेतने ।६९। . १६३१ गुडणू वेष्टने च ।४७ ! १६५९ छःण वमने । ७०। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) परिशिप्टेम् १६६० बुधुण हिंसायाम् ७१।। १६८२ व्ययम् वये। १८९। १६६१ वर्धन छेवन । १६८३ यत्रुण संकोचने ।१०। पूरणयो।।७२।। १६८४ कुद्रुण अनृतमा. १६६२ गर्षण अभिकार: ___षणे ।९१॥ क्षायाम् ।७३।। १६८५ श्वश्रण गती। ।१२। १६६३ बन्ध । १६८६ तिला स्नेहने ९३। १६६४ बघण संयमने ७४॥ १६८७ जलण अपवारणे ।९४॥ १६६५ छपुण गतौ। ७५। १६८८ क्षलण् शौचे। ।१५। १६६६ क्षपुण क्षान्तौ १७६। १६८९ पुलण् समुच्छाये ।९६॥ १६६७ ष्टूपण समुच्छ्राये ७७। १६९० बिलण मेदे । १९७१ १६६८ डिपण क्षेपे। ७० १६९१ तलण प्रतिष्ठायाम्।९८॥ १६६९ हपणू व्यक्तायां १६९२ तुलण उन्माने ।।९९। वाचि ७९॥ १६९३. दुलण उत्क्षेपे ।१००। १६७० डपु. १६९४ बुलण निमज्जने।१०१॥ १६७१ डिपुणू संघाते ।। १६९५ मूलण रोहणे १०२। १६७२ शूर्पण माने । ८१॥ १६९६ कल १६९७ किल १६७३ शुल्ब सर्जने च ।।२।। १६९८ पिलण क्षेपे। ।१०३। १६७४ डबु १६९९ पलण रक्षणे ।१०४॥ १६७५ डिवुग् क्षेपे। ८३। १७०० इलण प्रेरणे। ।१०५। १६७६ सम्बण सम्बन्धे ।८४॥ १७०१ चल भृतौ ।।१०६। १६७७ कुबुण आच्छादने ।८५। १७०२ सान्त्वण साम१६७८ लब्बु १६७९ तुबु प्रयोगे ।१०७ अदेने ८६। । १७०३ धूशण कान्ती१६८० पुर्वणू निकेतने ८७॥ करणे ।१०८॥ १६८१ यमण परिवेषणे ।८८। । १७०४ विषण श्लेषणे ।१०९। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०५ लूषण हिंसायाम् ॥ ११० ॥ १७०६ रुषण रोषे । ।१११ । ११२ ॥ १७०७ प्युषण उत्सर्गे १७०८ पसुण् नाशने १७०९ जसुण रक्षणे १७१० पुंसण अभिमर्दने । ११५ । । १७११ ब्रूस १७१२ पिस ॥ धातुपाठः ११३ । ।११४ । । १७१३ जस १७१४ बर्हण हिंसायाम् । ११६ । १७१५ लिहण स्नेहने । ११७ | १७१६ प्रक्षण म्लेच्छ्ने। ११८। १७१७ भक्षण अदने ।११९ । १७१८ पक्षिण परिग्रहे । १२० । १७१९ लक्षीण दर्शनाङ्कनयोः ॥ १२१ ॥ · || इतोऽर्थविशेषे आलक्षिणः ॥ १५१ १७२० ज्ञाणू मारणादि (१०९) १७२८ लिगुणू चित्रीकरणे । ॥१२७॥ १७२९ चर्षण अध्ययने ॥ १२८ ॥ १७३० अञ्चण् विशेषणे । १२९ । १७३१ मुचण प्रमोचने ॥ १३० ॥ १७३२ अर्जणू प्रतियत्ने । १३१ । १७३३ भजणू विश्राणने । १३२ । १७३४ चट १७३५ स्फुटण् भेदे । । १३३। १७३६ घटण संघाते (हन्त्यर्थाश्च) ।१३४। नियोजनेषु ॥१२२॥ १७२१ च्युणू सहने ॥ १२३॥ १७२२ भ्रूण अवकल्कने । १२४ | १७२३ बुकण् भषजे । १२५॥ १७२४ रक १७२५ लक १७२६ रग १७२७ लगण् आस्वादने । १२६ । १७३७ कणणू निमीलने । ॥१३५॥ . १७३८ यतण् निकारोपस्कारयोः । (निरश्च प्रतिदाने । ) । १३६ १७३९ शब्द उपसर्गाद् भाषाविष्कारयोः ॥१३७॥ १७४० दणू आखवणे । १७४१ आङः क्रन्दणू १३८| सातत्ये ॥१३९ | १७४२ ष्वदण् आस्वादने । ॥१४०॥ (आस्वदः सकर्मकात् ) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) परिशिष्टेषु १७४३ मुदणू संसर्गे।।१४।। १७६४ अर्हण पूजायाम् । १७४४ शूधण् प्रसहने ।१४२॥ १६०॥ १७४५ कृपण अवकल्पने। १७६५ मोक्षण असने ।१६१। ।१४३ १७६६ लोक १७६७ तर्क १७४६ जभुग् नाशने ।१४४॥ १७६८ रघुः . १७६९ लघु १७४७ अमण रोगे।।१४५। १७७० लोच १७७१ विच्छ १७४८ चरण असंशये ।१४६। १७७२ अजु १७७३ तुजु १७४९ पूरण आप्यायने । १७७४ पिजु १७७५ लजु ।१४७ १७७७ लुजु. १७७७ भजु १७५० दलण विदारणे ।१४८॥ १७७८ पट १७७९ पुट १७५१ दिवण अर्दने ।१४९। १७८० लुट १७८१ घट १७५२ पश १७८२. घटु १७८३ वृत १७५३ पषण बन्धने ।१५० १७८४ पुथ १७८५ नद १७५४ पुषण धारणे ।१५१॥ १७८६ वृध १७८७ गुप १७५५ घुषण विशब्दने। १७८८ धूप १७८९ कुप ____ (आङः क्रन्दे ।)।१५२॥ १७९० चीव १७९१ दशु १७५६ भूष १७९२ कुशु १७९३ त्रसु १७५७ तसुण अलंकारे।१५३। १७९४ पिसु १७९५ कुसु १७५८ जसण ताडने ।१५४। १७९६ दसु १७९७ वर्ह १७५९ सण वारणे ।१५५। १७९८ बृहु १७९९ वल्ह १७६० वसण स्नेह-छेदा १८०० अहु १८०१ वहु .. ऽवहरणेषु ।१५६। १८०२ महुण् भाषाः । १७६१ ध्रसण उत्क्षेपे ।१५७। १६२॥ १७६२ ग्रसण ग्रहणे ।।१५८ ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ १७६३ लसण शिल्पयोगे। [८५]. [सू. १६२] - १५९।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (१११) १८०३ युणि जुगुप्सायाम् ।। १८२५ भूणिण आशंसायाम् । १८०४ गृणि विज्ञाने । । २१॥ १८०५ वश्चित प्रलम्भने ।। १८२६ चितिग संवेदने ।२२। १८०६ कुटिण प्रतापने ।।४। १८२७ बस्ति १८२८ गन्धिग १८०७ मदिण तृप्तियोगे ।५। अर्दने ।२३। १८०८ विदिग् वेतना १८२९ डषि १८३० डिपि . ऽऽख्याननिवासेषु ।। १८३१ डम्पि १८३२ डिम्पि १८०९ मनिण स्तम्मे । ७ १८३३ डम्भि १८३४ डिम्भिण १८१० बलि १८११ मलिण संघाते ।२४। १८३५ स्यमिग वितर्के ।२५। __आभण्डने ८ १८३६ शमिग आलोचने ।२६। १८१२ दिविण् परिकूजने ।९। १८१३ वृषिण शक्तिबन्धे।१०। १८३७ कुस्मिण कुस्मयने ।२७) १८१४ कुत्सिगू अवक्षेपे ॥११॥ १८३८ गुरिण उद्यमे २८ १८१५ लक्षिण आलोचने।१२। १८३९ तन्त्रिण कुटुम्बधा रणे ।२९॥ १८१६ हिष्कि १८४० मन्त्रिण गुप्तभाषणे । १८१७ किष्किण हिंसायाम् । १३॥ १८४१ ललिण ईप्सायाम्॥३१॥ १८१८ निष्किण परिमाणे। १८४२ स्पशिण ग्रहणे१४॥ श्लेषणयोः।३२॥ १८१९ तर्जिण् संतर्जने ।१५। १८४३ दंशिण दंशने ॥३३॥ १८२० कूटिण् अप्रमादे ॥१६॥ १८४४ दंसिण् दर्शने च ॥३४॥ १८२१ त्रुटिण छेदने । ।१७। १८४५ भसिण संतर्जने ।३५। १८२२ शठिण् श्लाघायाम् ।। १८४६ यक्षिण पूजायाम् ।३६। . १८। ॥ इति आत्मनेमाषाः ॥ १८२३ कृणिण संकोचने ।१९। (४४) (सू. ३६) १८२४ तूणिण पूरणे । ।२०।।, ३० - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) परिशिष्टेषु १८४७ अश्ण लक्षणे । १।। १८६९ व्रणण गात्रविचूर्णने । १८४८ ब्लेकण दर्शने ।। ।१९। १८४९ सुख १८७० वर्णण वर्णक्रिया१८५० दुःखण तरिक्रयायाम् ___ विस्तार-गुणवचनेषु।२०। १८७१ पर्णण हरितभावे ॥२१॥ १८५१ अङ्गणू पद लक्षणयोः १८७२ कर्णण मेदे। ।२२॥ १८५२ अषण पापकरणे ॥५॥ १८७३ तूणण संकोचने ।२१॥ १८५३ रचण् प्रतियत्ने ।६। १८७४ गणण सङ्ख्याने ।२४। १८५४ सूचण पैशुन्ये । । १८७५ कुण १८७६ गुण १८५५ भाजण पृथकर्मणि र १८७७ केतण आमन्त्रणे।२५। १८५६ समाजण प्रीति १८७८ पतण गतौ वा ॥२६॥ सेवनयोः । १८७९ वातज गति-सुखसे१८५७ लज १८५८ लजुण . वनयोः ॥२७॥ प्रकाशने ॥१०॥ १८८० कथण वाक्यप्रबन्धे । १८५९ कूटण दाहे। ११॥ २८॥ १८६० पट १८६१ वद्वण । १८८१ अथण दौर्बल्ये ॥२९॥ ग्रन्थे।१२। १८८२ छेदण द्वैधीकरणे ॥३०॥ १८६२ खेटण भक्षणे । ।१३॥ १८८३ गदण् गर्ने । ॥३॥ १८६३ खोटण क्षेपे। ।१४॥ १८८४ अन्धण दृष्टयुपसंहारे । १८६४ पुटण संसगे। १५॥ ।३२॥ १८६५ वटुप विभाजने ।१६।। १८८५ स्तनण गर्ने । ॥३३॥ १८६६ शठ १८६७ श्वठणू १८८६ वनम् अम्दे । ।३४॥ सम्यग्भाषणे ।१७। । १८८७ स्तेनण् चौर्ये । ।३५। १८६८ दण्डण् दण्डनिपातने। १८८८ ऊनम् परिहाणे ॥३६॥ ।१८। १८८९ कृपा दौर्बल्ये। ।३७॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातुपाठः (११३) १८९० रूपण रूपक्रियायाम् । १९११ कुमारण क्रीडायाम् । ३८) ५६॥ १८९१ क्षपण् १८९२ लाभण १९१२ कलण संख्यानप्रेरणे।३९। गत्योः ।५७ १८९३ भामण क्रोधे ।।४०॥ १९१३ शीलण उपधारणे।५८। १८९४ गोमण उपलेपने ॥४१॥ १९१४ वेल १९१५ कालण १८९५ सामणू सान्त्वने ॥४२॥ उपदेशे ।५९॥ १८९६ श्रामण् आमन्त्रणे।४३।। १९१६ पल्यूलण्-लवन१८९७ स्तोमण श्लाघायाम् । पवनयोः ।६०॥ ४४।। १९१७ अंशण समाघाते ।६१॥ १८९८ व्ययण वित्तसमुत्सर्गे।। १९१८ पषण अनुपसर्गः ॥६२। १४५ | (पषी बाधन-स्पर्शनयोः, १८९९ सूत्रण विमोचने ४६॥ पषणू बन्धने) १९०० मूत्रण प्रखवणे ॥४७॥ | १९१९ गवेषण मार्गणे ।६३॥ १९०१ पार १९०२ तीरण : १९२० मृषण क्षान्तौ ।।६४ कर्मसमाप्तौ ॥४८॥ १९२१ रसण आस्वादन. १९०३ कत्र १९०४ गात्रण स्नेहनयोः ॥६५॥ शैथिल्ये ४९। | १९२२ वासण उपसेवायाम् । १९०५ चित्रण चित्रक्रिया कदाचिदृष्ट्योः ।५०।। १९२३ निवासण आच्छादने । १९०६ छिद्रण मेदे। ५१॥ ।६७ १९०७ मिश्रण संपर्चने ।५२।। १९२४ चहण कल्कने १६८। १९०८ वरण ईप्सायाम् ।५३।। १९२५ महण पूजायाम् ।६९। १९०९ स्वरण आक्षेपे। ५४।। १९२६ रहण त्यागे। १७०। १९१० शारण दौर्बल्ये ५५। । १९२७ रहुण् गतौ। ७१। १५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) परिशिष्टेषु १९२८ स्पृहण ईप्सायाम् ।७२।। १९५० मार्गण् अन्वेषणे ।९। १९२९ रुक्षण पारुष्ये । ।७३।। १९५१ पृचण् संपर्चने ।१०। ॥ इति परस्मैभाषाः ॥ | १९५२ रिचण् वियोजने च । ११॥ १९३० मृगणि अन्वेषणे ।१। १९५३ वचण भाषणे। ॥१२॥ १९३१ अर्थणि उपयाचने ।२। १९५४ अचिंण् पूजायाम्।१३। १९३२ पदणि गतौ। ।३। १९५५ घृजैण् वर्जने। ।१४। १९३३ संग्रामणि युद्धे । ।४। १९५६ मृजौण शौचा-ऽलङ्का१९३४ शुर १९३५ वीरणि रयोः ॥१५॥ विक्रान्तौ ॥५॥ १९५७ कठुण शोके। ।१६। १९३६ सत्रणि सन्दानक्रिया १८५८ श्रन्थ १९५९ ग्रन्थ याम् । १९३७ स्थूलणि परिबृंहणे ।। .. सन्दर्भ ।१७) १९३८ गर्वणि माने । १९६० क्रथ १९६१ अर्दिण् । हिंसायाम् ॥१८॥ १९३९ गृहणि ग्रहणे । ।९। १९६२ श्रथण बन्धने च।१९। १९४० कुहणि विस्मापने।१०। १९६३ वदिण् भाषणे।।२०। ॥ इति आत्मनेभाषा ॥ (संदेशने इत्यन्ये ।) १९४१ युजण् संपर्चने। ।। १९६४ छदण् अपवारणे ॥२१॥ १९४२ लीण द्रवीकरणे । ।२। १९६५ आङसदण् गतौ।२२। १९४३ मीण मतौ। ३। १९६६ मृदण् संदीपने ॥२३॥ १९४४ प्रीग्ण तर्पणे। ।।। १९६७ शुन्धिण् शुद्धौ ।२४। १९४५ धूगूण कम्पने। ।५। १९६८ तनूण श्रद्धाघाते ।२५। १९४६ वृग्ण आवरणे ।।६। ___(उपसर्गाद् दैर्ये । )।२६। १९४७ जण वयोहानौ । ७॥ १९६९ मानण पूजायाम् ॥२७॥ १९४८ चीक १९४९ शीकण् १९७० तपिण् दाहे। ।२८। ___ आमर्षणे ।। १९७१ तृपण पृणने। ।२९। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (११५) १९७२ आप्लुण् लम्भने।३०। १९७८ जुषण परितर्कणे ॥३६॥ १९७३ भैण् भये । ।३१।। १९७९ धृषण प्रसहने । ।३७॥ १९७४ ईरण क्षेपे। ।३२॥ १९८० हिसुण हिंसायाम् ॥३८॥ १९७५ मृषिण तितिक्षायाम् । १९८१ गर्हण विनिन्दने।३९। ३३॥ १९८२ षहण मर्षणे । ।४। १९७६ शिषण असर्वोपयोगे। बहुलमेतनिदर्शनम् । ॥३४॥ धृत् युजादिः परस्मैभाषाः। १९७७ [विपूर्वो (४१५) सू. ३२१] अतिशये।] ॥३५॥ ॥ इत्याचार्यहेमचन्द्रानुस्मृता चुरादयो णितो धातवः ॥ •५८५ २९७ श्री-हैम-धातु-संख्या-समुच्चयः । भूवादि-गण:. परस्मैपदिन: सू. ३०५ आत्मनेपदिन: सू. १९० उभयपदिनः ५४ सू. ४९ ९३६ सू. ५४४ द्युतादयः-१८ द्युतादयः आत्मनेपदिनः वृतादयः-५ ) २३ . सू. १८ ___९५९ सू. ५६२ ज्वालादयः- । परस्मैपदिनः २९ ।३१ आत्मनेपदिनः २ सू. २७ ९९० सू. ५८९ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) परिशिष्टेषु यजादया-उभयपदिनः- परस्मैपदिन:- ६ ३ सू. ५९८ ९९९ . घटादयः-आत्मनेपदिनः-१३ परस्मैपदिनः-४६ ४१ *s १०६८ ५५ अदादि-गण: परस्मैपदिन:यङ्लुक्च आत्मनेपदिन:उभयपदिन: हाधन्तर-गणिनाः परस्मैपदिन:आत्मनेपदिन:उभयपदिन: 9 * wwe | sis ११४३ सु. ७१९ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुपाठः (११७) दिवादि-गण: ३१ दिवादयः- पुषादय:[सामान्याः शमादय: परस्मैपदिनः मुहादय: ९८ स. ८२ .] स्यत्यादयः आत्मनेपदिनः- अन्ये चः- २९ . उभयपदिनः- . . १४२ स. १२४ १२८५ सू. ८४३ स्वादि-गण: उभयपदिन:परस्मैपदिन:आत्मनेपदिन: स. १५ स. २ स. २६ सू. ८५९ १३१४ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) परिशिष्टेषु तुदादि-गण: ... तुदादयः- ५। उभयपदिनः ८ । मुश्चादया- ५, १० सू. १० मुश्चादय:- मुश्चादयः- ३) परस्मैपदिनः सू. ३ परस्मैपदिनः ९८ . १०१ सू. .७९ कुटादय:- छुटादयः- ३६) . ३६ सू. २८ ३९ । कुटादयः . ३॥ १३७ सू १२० आत्मनेपदिन:- ८Jआत्मनेपदिन: १५४ सू. १२९ १४७२ सू. ९९८ रुधादि-गण: उभयपदिन:परस्मैपदिन:आत्मनेपदिन: १४, सू. १२ ___ २५ _. सू. २४ १४९८ . सू. १०२२ तनादि-गण: उभयपदिन:आत्मनेपदिन: १५०७ सू. १०३० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९) धातुपाठः क्रयादि-गण: यादयः १० । प्वादयः २२ (३२ । | उभयपदिनः [-परशु १ खादयः २१] [उभयपदिनः ५ ( परस्मैपदिनः १६] । परस्मैपदिनः परस्मैपदिनः २७ ४३ आत्मनेपदी १. - १ सू. ३९ सू. १ . १५६७ सू. १०८६ चुरादि-गण: परस्मैपदिन:उभयपदिन: १५१ मू. १२१ सू. ४१ ९७ अर्थविशेषे __परस्मैपदिनः-८४ । ९७ ४४ । आत्मनेपदिनः १३ ॥ सू.. ३६ । आत्मनेपदिनः ३१ अर्थान्तरेऽपि १२८ - २८० सू. २४ सू. १९८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) अकारान्ता:परस्मैपदिनः ૮) आत्मनेपदिनः ११ स. १० सू. ७३ ३७४ युजादय: परस्मैपदिनः आत्मनेपदिनः उभयपदिनः परिशिष्टेषु एवम् - चुरादि-गणः परस्मैपदिनः आत्मनेपदिनः उभयपदिनः ३२. | ewam ४१ ४१५ ३५० ६१ ४१५ ९४ सू.. ८३ २८१ ४० सू. ३२१ पू. ३२१ १९८२ सू. १४०७ धातुपाठे पठिता अपि प्रयोगगम्या धातवः ४०१ ते चैवं - सौत्राघातवः १३९, लौकिकाः ७, वाक्यकरणीयाः ७, आगमिकाः ५, शेषाः २४३, एवं सर्वे धातवः २३८३. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् ॥ धातु प्रत्ययानुबन्धफलप्रतिपादिकाः कारिकाः ॥ उच्चारणेऽस्त्यवर्णाद्य आः क्तयोरिनिषेधने । इकारादात्मनेपदभीकाराचोभयं भवेत् ।। १ ।। उदितः स्वरान्नोऽन्तश्चोः, क्त्वादाविटो विकल्पनं । रुपान्त्ये डे परेऽहस्व प्रकारादविकल्पकः ॥२॥ लकारादङ् समायात्येः सिचि वृद्धिनिषेधकः । ऐस्क्तयोरिनिषेधः स्यादोस्क्तयोस्तस्य नो भवेत् ॥ ३ ॥ औकार इइविकल्पार्थेऽनुस्वारोऽनिइविशेषणे । लकारश्च विसर्गश्चाऽनुबन्धे भवतो नहि ॥ ४ ॥ कोऽदादिर्न गुणी प्रोक्तः, खे पूर्वस्य मुमागमः । गेनोभयपदी प्रोक्तो, घश्च चजोः कगौ कृतौ ॥५॥ आत्मने गुणरोधे, ङथो दिवादिगणो भवेत् । औ वृद्धौ वर्तमाने क्तः, टः स्वादिष्ठाकारकः ॥ ६ ॥ त्रिमगर्थो डकारः स्याण णचुरादिश्च वृद्धिकृत । तस्तुदादौ नकारश्चेच्चापुंसीति विशेषणे ।। ७ ॥ रुधादौं नागमे पो हि, मो दामः संप्रदानके । यस्तनादौ रकारः स्यात् पुंवद्भावार्थसूचकः ॥ ८॥ स्त्रीलिंगाथै लकारो हि उत औविति वो भवेत् । शः क्रयादिः क्यः शिति प्रोक्तः पापितोऽङविशेषणे ॥९॥ पदत्वार्थे सकारो हि नोक्ता अत्र न सन्ति च । धातूनां प्रत्ययानां चाऽनुबन्धः कथितो मया ॥ १० ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु वृतगणफलम् तादेरद्यतन्यां चाकान्मनेपदमिष्यते । वृदादिपञ्चकेऽन्यो वा स्यसनोरात्मनेपदम् ॥ १ ॥ ज्वलादिण भवेद्वद्भिर्यजादेः संप्रसारणं । ( १२२ ) घटादिनां भवेद्ह्रस्वो णौ परेऽजीघटत् सदा ॥ २॥ .. अद्यतन्यां पुषादित्वादङ् परस्मैपदे भवेत् । स्वादित्वाच्च क्तयोस्तस्य नकारः प्रकटो भवेत् ॥ ३ ॥ वादीनां गदितो ह्रस्वो ल्वादेरक्तक्तयोश्च नो भवेत् । युजादयो विकल्पेन ज्ञेयाश्चुरादिके गणे ॥ ४ ॥ मुचादेनगिमोरो च कुटादित्वात् सिचि परे । गुणवृद्धेरभावश्च कथितो हेमसूरिणा ॥ ५ ॥ अदन्तानां गुणो वृद्धिर्यचुरादिश्व ना भवेत् ॥ संक्षेपेण फलं चैतदीपितं वानरेण हि ॥ ६ ॥ अनिकारिका श्वि- श्रि - डी -शी-यु-रु - क्षु - क्ष्णु, - णु - स्नुभ्यश्च वृगो वृङः । ऊदुदन्त - युजादिभ्यः, स्वरान्ता धातवः परे ॥ १ ॥ पाठ एकस्वराः स्यु, र्येऽनुस्वारेत इमे स्मृताः । द्विविधोऽपि शकिचैवं वचि-विंचि - रिची पंचिः ॥ २ ॥ सिश्चतिर्मुचिरतोऽपि पृच्छति - स्जि-मस्जि-भुजयोर्युजि - जिः । वञ्ज- रञ्जि - रुजयोणिजिर्विज़: षञ्जि - भञ्जि-मजयः सृजि-त्यजी ॥ ३ ॥ स्कन्द - विद्य-विल- विन्तयो नुदिः स्विद्यतिः शदि - सदी भिदि - छिदी । तुद्यदी पदि-हूदी खिदी - क्षुदी | राधि- साधि-शुयोधि-व्यधी ॥ ४ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिट्कारिकाः [१२३] बन्धि-बुध्य-रुधयः क्रुधि-क्षुधी। सिध्यतिस्तदनु हन्ति-मन्यती। आपिना तपि-शपि-क्षिपि-च्छुपो। लुम्पतिः सृपि-लिपी वपि- स्वपीः ॥५॥ यभि-भि-लभि-यमि-रमि-नमि-गमयः कुशि-लिशि-रुशि रिशि-दिशति दशयः। स्पृशि-मृशति-विशति-दृशि-शिष्लू-शुषय-स्त्विषि-पिषि विष्लु-कृषि-तुषि-दुषि-पुषयः ॥६॥ श्लिष्यति-विषिरतो घसि-वसती रोहति-लुहि-रिही अनिड्गदितौ । देग्धि-दोग्धि-लिहयोमिहि-वहती . नातिदेहिरिति स्फुटमनिटः ॥७॥ । धातुगणज्ञापकानुषन्धश्लोकद्वयम् । अदादयः कानुबन्धाश्चानुबन्धा दिवादयः; स्वादयष्टानुवन्धा-स्तानुबन्धास्तुदादयः ॥ ॥१॥ . रुदादयः पानुबन्धा यानुबन्धास्तनादयः; ... त्र्यादयः शानुबन्धा णानुबन्धाधुरादयः ॥ २ ॥ >< Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ ॥ श्री हैमलिङ्गानुशासनम् ॥ पुंल्लिङ्गं कटणथपभमयर षसस्न्वन्तमिमनलौ किश्ति । ननङौ घघको दः किर भावे खोऽकर्तरि च का स्यात् ॥ १ ॥ हस्तस्तनौष्ठनखदन्तकपोलगुल्फकेशान्धुगुच्छदिनसर्तुपतद्ग्रहाणाम् । निर्यासनाकरसकण्ठकुठारकोष्ठहैमारिवर्षविषबोलरथाशनीनाम् ॥ २ ॥ श्वेतप्लवात्ममुरजासिकफाभ्रपङ्कमन्थत्विषां जलधिशेवधिदेहभाजाम् । मानद्रुमाद्रिविषयाशुगशोणमासधान्याध्वराग्निमरुतां सभिदां तु नाम ॥३॥ बोऽच्छदेऽहिर्वप्रे व्रीह्यग्न्योहायनबर्हिषौ । मस्तुः सक्तौस्फटिकेऽच्छो नीलमित्रौ मणीनयोः ॥४॥ कोणेऽस्रश्चषके कोशस्तलस्तालचपेटयोः । अनातोये घनो भूम्नि दारप्राणासुवल्वजाः॥५॥ कान्तश्चन्द्रार्कनामायः परो यानार्थतो युगः।। यश्च स्यादसमाहारे द्वन्द्वोऽश्ववडवाविति ॥ ६ ॥ वाकोत्तरा नक्तकरल्लकाङ्का न्युह्वोत्तरासङ्गतरङ्गरङ्गाः । परागपूगौ मृगमस्तुलुङ्ग कुडङ्गकालिङ्गतमङ्गमङ्गाः ॥७॥ वेगसमुद्गावपाङ्गवर्गीघार्घा मञ्चसपुच्छपिच्छगच्छाः। वाजौजकिलिञ्जपुञ्जमुञ्जाअवटा पट्टहठप्रकोष्ठकोष्ठाः ॥८॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लिङ्गानुशासनम्ः (१२५) अङ्गुष्ठगण्डौ लगुडप्रगण्डकरण्डकूष्माण्डगुडाः शिखण्डः । वरण्डरुण्डौ च पिचण्डनाडी वणौ गुणभ्रूणमलक्तकुन्तौ ॥९॥ पोतः पिष्टातः पृषतश्चोत्पातवातावर्थकपदों। बुद्बुदगदमगदो मकरन्दो जनपदगन्धस्कन्धमगाधः .. ॥१०॥ अर्धसुदर्शनदेवनमहाभिजनजनाः परिघातनफेनौ । पूपापूपौ सूपकलापौ रेफः शोफः स्तम्बनितम्बो॥११॥ शम्याम्बो पाञ्चजन्यतिष्यो पुष्यः सिचयनिकाय्यरात्रवृत्राः ।। मन्त्रामित्रो कट्रप्रपुण्ड्राराः कल्लोलोल्लौ च खल्लतल्लौ ॥ १२ ॥ कण्डोल पोटगल पुद्गल काल वाला वेलागलो जगल हिङ्गुल गोल फालाः ॥ स्याद्देवलो बहुल तण्डुल पत्रपाल वातूल ताल जडुला भृमलो निचोलः ॥ १३ ॥ कामलकुदालावयवस्वाः सुवरौरवयावाः शिवदावो। माधवपणवादीनवहावध्रुवकोटीशांशाः स्पशवंशो ॥१४॥ कुशोड्डीशपुरोडाशवृषकुल्मासनिष्कुहाः अहनियूहकलहाः पक्षराशिवराश्यृषिः ॥१५॥ दुन्दुभिर्वमतिवृष्णिपाण्यवि ज्ञातिरालिकलयोञ्जलिणिः। अग्निवह्निकृमयोऽघ्रिदीदिवि ग्रन्थिकुक्षितयोऽर्दनिध्वनिः ॥१६॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) परिशिष्टेषु गिरिशिश्रुजायुकवा हाहाहूहूश्च नग्नहूर्गमुत् । पादश्मानावात्मा पाप्मस्थेमोष्मयक्ष्माणः ॥ १७ ॥ ॥ अथ स्त्रीलिङ्गः ॥ स्त्रीलिङ्ग योनिमम्रीसेनावल्लितडिन्निशाम् ॥ वीचितन्द्रावटुग्रीवाजिह्वाशस्त्रीदयादिशाम् ॥१॥ शिंशपाद्या नदीवीणाज्योत्स्नाचीरीतिथीधियाम् । अङ्गुलीकलशीकङ्गुहिङ्गुपत्रीसुरानसाम् ॥ २ ॥ रास्नाशिलावचालालाशिम्बाकृष्णोष्णिकाश्रियाम् । स्पृकापण्यातसीधाय्यासरघारोचनाभुवाम् ॥ ३ ॥ हरिद्रामांसिदूर्वाऽऽलूबलाकाकृष्णलागिराम् । इत्तु प्राण्यङ्गवाचि स्यादीदूदेकस्वरं कृतः ॥ ४ ॥ पात्रादिवर्जितादन्तोत्तरपदः समाहारे । द्विगुरन्नाबन्तान्तो वाऽन्यस्तु सर्वो नपुंसकः ॥५॥ लिन्मिन्यनिण्यणिस्युक्ताः, क्वचित्तिंगल्पह्रस्वे का । विंशत्याद्याशताद्वन्द्वे सा चैक्ये द्वन्द्वमेययोः ॥६॥ सुग्गीतिलताभिदि ध्रुवा विडनरि वारिघटीभवन्धयोः। शल्यध्वनिवाद्यमित्सु तु वेडा दुन्दुभिरक्षविन्दुषु॥७॥ गृह्या शाखापुरेऽइमन्तेऽन्तिका कीला रताहतौ । रज्जो रश्मिर्यवादिर्दोषादौ गञ्जा सुरागृहे ॥८॥ अहंपूर्विकादिवर्षामघा अकृत्तिका बहौ । वा तु जलौकाप्सरसः सिकता सुमनः समाः ॥९॥ गायत्र्यादय इष्टका बृहतिका संवर्तिका सर्जिकादूषीके अपि पादुका झिरुकया पर्यस्तिका मानिका ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लिङ्गानुशासनम्। (१२७) नीका कञ्चूलिकाऽऽल्लुका कलिकया राका पताकान्धिका, शका पूपलिका त्रिकाचविकयोल्का पश्चिका पिण्डिका॥१०॥ ध्रुवका क्षिपका कनीनिका शब्बूका शिबिका गवेधुका । कणिका केका विपादिका मिहिका यूका मक्षिकाऽष्टका कृर्चिका कृचिका टीका कोशिका केणिकोर्मिका। जलौका प्राचिका धूका कालिका दीर्घिकोष्ट्रिका ॥ १२ ॥ शलाका वालुकेषीका विहङ्गिकेषिके उखा। परिखा विशिखा शाखा शिखा भङ्गा सुरङ्गया ।। १३ ॥ जङ्घा चश्चा कच्छा पिच्छा पिञ्जा गुञ्जा खजा प्रजा। झञ्झा घण्टा जटा घोण्टा पोटा भिस्सटया छटा ॥१४॥ विष्ठा मञ्जिष्ठया काष्ठा पाठा शुण्डा गुडा जडा । बेडा वितण्डया दाढा राढा रीढावलीढया ॥ १५ ॥ घृणोर्णा वर्वणा स्थूणा दक्षिणा लिखिता लता। तृणता त्रिवृता त्रेता गीता सीता सिता चिता ॥ १६ ॥ मुक्ता वार्ता लूताऽनन्ता प्रमृता मार्जिताऽमृता। कन्था मर्यादागदेक्षुगन्धागोधा स्वधा सुधा ॥ १७ ॥ सास्ना सूना धाना पम्पा झम्पा रम्पा प्रपा शिफा । कम्बा भम्भा सभा हम्भा सीमा पामारुमे उमा ॥ १८ ।। चित्या पद्या पर्या योग्या छाया माया पेया कक्ष्या। दूष्या नस्या शम्या सन्ध्या रथ्या कुल्या ज्या मङ्गल्या ॥१९॥ उपकार्या जलानॆरा प्रतिसीरा परम्परा ॥ कण्डराऽसृग्धरा होरा वागुरा शर्करा शिरा ॥ २० ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८) परिशिष्टेषु गुन्द्रा मुद्रा क्षुद्रा भद्रा भस्त्रा छत्रा यात्रा मात्रा ।. दंष्ट्र फेला वेला मेला गोला दोला शाला माला ॥ २१ ॥ मेखला सिध्मला लीला रसाला सर्वला बला । कुहाला शङ्कुला हेला शिला सुवर्चला कला ॥ २२ ॥ उपला शारिवा मूर्खा लट्वा खट्वा शिवा दशा । कशा कुशेशा मञ्जूषा शेषा मूषेषया स्नसा ॥ २३ ॥ वस्नसा विस्रसाभिस्सा नासा बाहा गुहा स्वाहा । कक्षाssमिक्षा रिक्षा राक्षा भङ्गयावल्यायतिस्त्रौटि | ॥२४॥ पेशिसिर्व सतिविपणीनाभिनाल्यालिपालि भिल्लिः पल्लिभ्रुकुटिशकटी चर्च (च) रिः शाटिभाटी । खादिर्वर्तिर्व्रततिवमिशुण्ठीति रीतिर्वितर्दि, - दर्विनच्छविलिविशदि (ठिः)श्रेदि जात्याजिराजिः ॥२५॥ रुचिः सूचिमाची खनिः खानिखारी खलिः कीलितुली कमिर्वापिधूली । कृषिः स्थालिहिण्डी त्रुटिर्वेदिनान्दी किकि: कुकुकुटिः काकलिः शुक्तिपक्ती ॥ २६ ॥ किखस्ताडिकम्बी द्युतिः शारिरा तिस्तटिः कोटिविष्टी वटिगृष्टिवीथी । दरिर्वल्लरिर्मञ्जरि पुञ्जिमेरी शरारिस्तुरः पिण्डिमाढी मुषुण्ढिः ॥ २७ ॥ राटिराटिरटविः परिपाटिः फालिगा लिजनिका किनिकानि । चारिहानिवलभि प्रधिकम्पी चुल्लिण्टितरयोंऽहतिशाणी ॥ २८ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् [१२९] सनिः सानिमेनी मरिर्मारिरश्योषधी विद्रधिझल्लरिः पारिरभ्रिः । शिरोधिः कविः कीर्तिगन्त्रीकबर्यः कुमार्याढकी स्वेदनी हादिनीली ॥ २९ ॥ हरिण्यश्मरी कर्तनीस्थग्यपट्यः करीर्येकपद्यक्षवत्यः प्रतोली । कृपाणीकदल्यौ पलालीहसन्यौ वृसी गृध्रसी घर्घरी कर्परी च ॥ ३० ॥ काण्डी खल्ली मदी घटी गोणी षण्डोल्येषणी गुणी । तिलपर्णी केवली खटी नध्रीरसवत्यौ च पातली ॥ ३१ ॥ वाली गन्धोली काकली गोष्ठ्यजाजीन्द्राणी मत्स्यण्डी दामनी शिञ्जिनी च । श्रृङ्गी कस्तूरी देहली मौर्व्यतिभ्यासन्दीक्षैरेय्यः शष्कुली दर्दूपः ॥ ३२ ॥ कर्णान्दुकच्छू तनूरज्जुचञ्चू स्नायुर्जुहूः सीमधुरौ स्फिगर्वाक् । द्वाोदिवौ सत्त्वगृचः शरद्वाश्छ. दिर्दरत्पामषद्दशो नौः ॥ ३३ ॥ अथ नपुंसकलिङ्गः । नलस्तुतत्तसंयुक्तररुयान्तं नपुंसकम् । वेधआदीन् विना सन्तं द्विस्वरं मन्न कर्तरि ॥१॥ धनरत्ननभोऽन्नहृषीकतमो घुसृणाङ्गणशुक्तशुभाम्बुरुहाम् । १७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) परिशिष्टेषु अघगूथजलांशुकदारुमनो बिलपिच्छधनुर्दलतालुहृदाम् ॥ २॥ हलदुःखसुखागुरुहिङ्गुरुचः । स्वचमेषजतुत्थकुसुम्भदृशाम् । मरिचास्थिशिलाभवसृक्कयकृन्न .... लदान्तिकवल्कलसिध्मयुधाम् ॥ ३॥ सौवीरस्थानकद्वारक्लोमधौतेयकासृजाम् । लवणव्यञ्जनफलप्रसूनद्रवतां सभित् ॥ ४ ॥ पुरं सद्याङ्गयोशूछत्रशीर्षयोः पुण्डरीकके । मधु द्रवे ध्रुवं शश्वतकयोः खपुरं घटे ॥ ५ ॥ अयूपे देवेऽकार्यादौ युगं दिष्टं तथा कटु । असे द्वन्द्वं स्थले धन्वारिष्टमद्रुमपक्षिणोः ।। ६ ।। धर्म दानादिके तुल्यभागेऽर्ध ब्राह्मणं श्रुतौ । न्याय्ये सारं पद्ममिभविन्दो काममनुमतौ ।। ७ ॥ खलं भुवि तथा लक्ष वेध्येऽहः सुदिनैकतः। भूमोऽसङ्ख्यात एकार्थे पथः सङ्ख्याव्ययोत्तरः॥८॥ द्वन्द्वैकत्वाव्ययीभावी क्रियाव्ययविशेषणे । कृत्याःक्तानाःखलानिन् भावे आत्त्वात्त्वादि समूहजः ॥९॥ गायत्र्यायण स्वार्थेऽव्यक्तमथानकर्मधारयः । सत्पुरुषो बहूनां चेच्छाया शालां विना सभा ॥१०॥ राजवर्जितराजार्थराक्षसादेः पराऽपि च । आवावुपक्रमोपज्ञे कन्थोशीनरनामनि ॥ ११ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् (१३१) सेना शाला सुरा च्छाया निशं वोर्णा शशात्परा। भाद्गंणो गृहतः स्थूणा सङ्ख्याऽदन्ता शतादिका ॥१२॥ मौक्तिक माक्षिकं सौप्तिकं क्लीतकं, नाणकं नाटकं खेटकं तोटकम् । आसिकं रूपकं जापकं जालकं, वेणुकं गैरिकं कारकं वास्तुकम् ॥ १३ ॥ रुचकं धान्याकनिःशलाकाऽली कालिकशल्कोपसूर्यकाल्कम् । कवककिवुकतोकतिन्तिडीकै डूकं, छत्राकत्रिकोल्मुकानि ॥ १४ ॥ मार्दीककदम्बके बुकं, चिवुकं कुतुकमनूकचित्रके। कुहुकं मधुपर्कशीर्षके, शालूकं कुलकं प्रकीर्णकम् ॥ १५ ॥ हल्लीसकपुष्पके खलिङ्गं - स्फिगमङ्गप्रगचोचबीजपिञ्जम् । रिष्टं फाण्टं ललाटमिष्टव्युष्टं करोटकृपीटचीनपिष्टम् ॥ १६ ॥ श्रृङ्गाटमोरटपिटान्यथपृष्ठगोष्ठभाण्डाण्डतुण्डशरणग्रहणेरिणानि । पिङ्गाणतीक्ष्णलवणद्रविणं पुराणं,त्राणं शणं हिरणकारणकार्मणानि ॥ १७ ॥ पर्याणर्णघ्राणपारायणानि श्रीपर्णोष्णे धोरणझूणभूतम् । प्रादेशान्ताश्मन्तशीतं निशान्तं वृन्तं तूस्तं वार्त्तवात्थिमुक्थम् ॥ १८ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) परिशिष्टेषु अच्छोदगोदकुसिदानि कुसीदतुन्दवृन्दास्पदं दपदनिम्नसशिल्पतल्पम् । कूर्पत्रिपिष्टपपरीपवदन्तरीपरूपं च पुष्पनिकुरम्बकुटुम्बशुल्बम् ॥ १९ ॥ प्रसभतलभशुष्माध्यात्मधामेर्मसूक्ष्म .. किलिमतलिमतोक्मं युग्मतिग्मं त्रिसन्ध्यम् । किसलयशयनीये सायखेयेन्द्रियाणि द्रुवयभयकलत्रद्वापरक्षेत्रसत्रम् ॥ २० ॥ श्रृङ्गबेरमजिराभ्रपुष्करं तीरमुत्तरमगारनागरे। स्फारमक्षरकुकुन्दरोदरप्रान्तराणि शिबिरं कलेवरम् ॥२१॥ सिन्दूरमण्डरटीरचामरक्रूराणि दूराररवैरचत्वरम् । औशीरपातालमुलूखलातवे सत्त्वं च सान्त्वं दिवकिण्वपौतवम् ॥ २२ ॥ विश्वं वृशपलिशमर्पिशकिल्बिषानुतर्षार्षिषं मिषमृचीषमृजीषशीर्षे । पीयूषसाध्वसमहानससाहसानि कासीसमत्सतरसं यवसं बिसं च ॥ २३ ॥ मन्दाक्षवीक्षमथ सक्थि शयातु यातु. . स्वाद्वाशु तुम्बुरु कशेरु शलालु चालु। . संयत्ककुन्महदहानि पृषत्पुरीतत्... पर्वाणि रोम च भसच जगल्ललामं ॥ २४ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् (१३३) . ॥ अथ स्त्रीपुंसलिङ्गाः॥ पुंस्त्रीलिङ्गश्चतुर्दशेऽङ्के शङ्कुर्निरये च दुर्गतिः। दोमूले कक्ष आकारे गजो भूरुहि बाणपिप्पलौ ॥१॥ नाभिः प्राण्यङ्गके प्रधिर्नेमौ वचन बलिहे कुटः । श्रोण्योषध्योः कटो भ्रमो, मोहे पिण्डोवृन्दगोलयोः ॥२॥ भकनीनिकयोस्तारो भेऽश्लेषहस्तश्रवणाः । कणः स्फुलिङ्गे लेशे च वराटो रज्जुशस्त्रयोः॥३॥ कुम्भः कलशे तरणिः समुद्राकांशुयष्टिषु । भागधेयो राजदेये मेरुजम्ब्वां सुदर्शनः ॥ ४ ॥ करेणुर्गजहस्तिन्योरल्याख्यापत्यतद्धितः। लाजवस्त्रदशौ भूम्नीहाद्याः प्रत्ययभेदतः ॥५॥ शुण्डिकचर्मप्रसेवको सल्लकमल्लकवृश्चिका अपि । शल्यकघुटिको पिपीलिकश्चुलुकहुड्डुक्कतुरुष्कतिन्दुकाः शुङ्गोऽथ लश्चभुजशाटसटाः सृपाट: कीटः किटस्फटघटा वरटः किलाटः। चोटश्चपटेफटशुण्डगुडाः सशाणाः स्युरिपर्णफणगर्तरथाजमोदाः ॥७॥ विधकूपकलम्बजित्यवर्धाः सहचरमुद्गरनालिकेरहाराः। बहुकरकृमरौ कुठारशारौ वल्लरशफरमसूरकीलरालाः ॥८॥ पटोलः कम्बलो भल्लो दशो गण्डूषवेतसौ। लालसो रभसो वर्तिवितस्तिकुटयस्त्रुटिः ॥९॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) परिशिष्टेषु ऊौशम्यौ रत्न्यरत्नी अवीचिल. व्यण्याणिश्रेणयः श्रोण्यरण्यौ । पाणीशल्यौ शाल्मलिर्यष्टिमुष्टी योनीमुन्यौ स्वातिगव्यूतिबस्त्या ॥१०॥ मेथिर्मेधिमशी मषीषुधी ऋष्टिः पाटलिजाटली अहिः । प्रश्निस्तिथ्यशनी मणिः सृणि मौलिः केलिहलिमरीचयः ॥ ११॥ हन्वाखूकर्कन्धुः सिन्धुर्मुत्युमन्वावट्वेरुः । ऊरुः कन्दुः काकुः किष्कुर्बाहुर्गवेधूरा गौर्भाः ॥१२॥ __ अथ पुनपुंसकलिङ्गाः॥ नपुंसकलिङ्गोऽब्जः शङ्ख पद्मोऽब्जसङ्ख्ययोः। कंसोऽपुंसि कुशो बर्हिः बालो हृीबेरकेशयोः॥१॥ द्वापरः संशये छेदे पिप्पलो विष्टरोऽतरौ । अब्दो वर्षे दरस्त्रासे कुकूलस्तुषपावके ॥२॥ परीवादपर्ययोजन्यतल्पौ . तपोधर्मवत्सानि माघोष्णहृत्सु । वटस्तुल्यतागोलभक्ष्येषु वर्णः . सितादि स्वराधोरणे संपरायः ॥ ३॥ सैन्धवो लवणे भूतः प्रेते तमो विधुतुदे । स्वदायो कस्वरे कृच्छं व्रते शुक्रोग्निमासयोः ॥ ४ ॥ कर्पूरस्वर्णयोश्चन्द्र उडावृक्षं छदे दलः। धमः स्वभावे रुचको भूषाभिन्मातुलुङ्गयोः ॥५॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् (१३५) पाताले वाडवो धर्धः सीस आमलकः फले । पिटजङ्गलसत्त्वानि पिटकामांसजन्तुषु ॥ ६ ॥ मधुपिण्डौ सुरातन्वोर्नाम शेवालमध्ययोः । एकाद्रात्रः समाहारे तथा सूतककूलको । ७॥ वैनीतकभ्रमरको मरको वलीकवल्मीकवल्कपुलकाः फरकव्यलीको । किञ्जल्ककल्कमणिकस्तबका वितङ्क वर्चस्कचूचुकतडाकतटाकतङ्काः ।। ८ ॥ बालकः फलकमालकालकमूलकस्तिलकपङ्कपातकाः । कोरकः करककन्दुकान्दुकानीकनिष्कचषका विशेषकः ॥९॥ शाटककण्टकटङ्कविटङ्का मञ्चकमेचकनाकपिनाकाः । पुस्तकमस्तकमुस्तकशाका वर्णकमोदकमूषिकमुष्काः ॥१०॥ चण्डातकश्चरकरोचककञ्चुकानि, मस्तिष्कयावककरण्डकतण्डकानि । आतङ्कशकसरकाः कटकः सशुल्कः, पिण्याकझर्झरकहंसकशङ्खपुङ्खाः ॥ ११ ॥ नखमुखमधिकाङ्गः संयुगः पद्मरागो भगयुगमथ टङ्गोद्योगश्रृङ्गा निदाघः । क्रकचकवचकूर्चाधर्चपुच्छोञ्छकच्छा व्रजमुटजनिकुञ्जौ कुञ्जभूर्जाम्बुजाश्च ॥ १२ ॥ ध्वजमलयजकूटाः कालकूटारकूटौ कवटकपटखेटाः कर्पटः पिष्टलोष्टौ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) परिशिष्टेषु नटनिकटकिरीटाः कर्षटः कुक्कुटादौ, कुटजकुटविटानि व्यङ्गटः कोदृकुष्ठौ ॥ १३ ॥ कमठो वारुण्डखण्डषण्डा। . निगडाक्रीडनडप्रकाण्डकाण्डाः ॥ कोदण्डतरण्डमण्डमुण्डा ... दण्डाण्डौ दृढवारवाणवाणाः ॥ १४ ॥ कर्षापणः श्रवणपक्कणकङ्कणानि, द्रोणापराहचरणानि तृणं सुवर्णम् ।। स्वर्णव्रणौ वृषणभूषणदूषणानि, भाणस्तथा किणरणप्रवणानि चूर्णः ॥ १५ ॥ तोरणपूर्तनिकेतनिवाताः, पारतमन्तयुतप्रयुतानि । श्वेडितमक्षतदैवतवृत्तैरावनलोहितहस्तशतानि ॥ १६ ॥ व्रतोपवीतौ पलितो वसन्तध्वान्तायुततघृतानि पुस्तः । शुद्धान्तबुस्तौ रजतो मुहूर्त द्वियूथयूथानि वरूथगूथौ ॥ १७ ॥ प्रस्थं तीर्थ प्रोथमलिन्द, ककुदः कुकुदाष्टापदकुन्दाः । गुददोहवकुमुदच्छदकन्दाबुंदसौधमथोत्सेधकबन्धौ॥१८॥ श्राद्धायुधान्धौषधगन्धमादन प्रस्फोटना लग्नपिधानचन्दनाः। वितानराजादनशिश्नयौवना पीनोदपानासनकेतनाशनम् ॥ १९ ॥ नलिनपुलिनमौना वर्धमानः समानौ. दनदिनशतमाना हायनस्थानमानाः। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् (१३७) धननिधनविमानास्ताडनस्तेनवस्ना भवनभुवनयानोद्यानवातायनानि ॥ २० ॥ अभिधानद्वीपिनो निपानं शयनं लशुनरसोनगृञ्जनानि । खलिन खलीनानुमानदीपाः, कुणपः कुतपावापचापशूर्पाः ॥ २१ ॥ स्तूपोडुपौ विटपमण्डप शष्पबाष्पद्वीपानि विष्टपनिपौ शफडिम्बबिम्बाः । जम्भः कुसुम्भककुभौ कलभो निभार्म संक्रामसंक्रमललामहिमानि हेमः ॥ २२ ॥ उद्यमकामोद्यामाश्रमकुटिमकुसुमसंगमा गुल्मः । क्षेमक्षौमौ कम्बलिबाह्मो मैरेयतू? च ॥ २३ ॥ पूयाऽजन्यप्रमयसमया राजसूयो हिरण्यारण्ये संख्यं मलयलयौ वाजपेयः कषायः। · शल्यं कुल्याव्ययकवियवद्गोमयं पारिहार्यः पारावारातिखरशिखरक्षत्त्रवस्त्रोपवस्त्राः ॥२४॥ अलिञ्जरः कूबरः कूरबेरनीहारहिञ्जीरसहस्रमेदाः संसारसीरौ तुबरश्च सूत्रशृङ्गारपद्रान्तरकर्णपूराः ॥२५॥ नेत्रं वक्त्रपवित्रपत्रसमरोशीरान्धकारा वरः केदारप्रवरौ कुलीरशिशिरावाडम्बरो गह्वरः। क्षीरं कोटरचक्रचुक्रतिमिराङ्गारास्तुषारः शरभ्राष्ट्रोपहरराष्ट्रतक्रजठरार्द्राः कुञ्जरः पञ्जरः ॥ २६ ॥ कर्पूरनूपुरकुटीरविहारवार कान्तारतोमरदुरोदरवासराणि । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) परिशिष्टेषु कासारकेसरकरीरशरीरजीर मञ्जीरशेखरयुगंधरवज्रवप्राः॥२७॥ आलवालपलभालपलाला: पल्वलः खलचषालविशालाः । शूलमूलमुकुलास्तलतैलो ... तूलकुड्मलतमालकपालाः ॥ २८ ॥ . कवलप्रवालवलशम्बलोत्पलोपलशीलशैलशकलाङ्गुलाञ्चलाः। . कमलं मलं मुशलशालकुण्डलाः __ कललं नलं निगलनीलमङ्गलाः ॥ २९ ॥ : काकोलहलाहलौ हलं कोलाहलकङ्कालवल्कलाः । सौवर्चलधूमले फलं हालाहलजम्बालखण्डलाः॥३०॥ लाशूलगरलाविन्द्रनीलगाण्डीवगाण्डिवाः। उल्वः पारशवः पार्धापूर्वत्रिदिवताण्डवाः ।। ३१ ॥ निष्ठेवः प्रग्रीवः शरावरावौ भावक्लीवशवानि । देवः पूर्वः पल्लवनल्वौ पाशं कुलिशं कर्कशकोशौ ॥३२॥ आकाशकाशकणिशाङ्कशशेषवेषो. ष्णीषाम्बरीषविषरौहिषमाषमेषाः। प्रत्यूषयूषमथ कोषकरीषकर्षवर्षामिषा रसवुसेत्थुसचिकसाश्च ॥ ३३ ॥ कांस आसो दिवसावतंसवीतंसमांसाः पनसोपवासौ. निर्यासमासौ चमसांसकांसस्नेहानि ब) गृहगेहलोहाः ॥ ३४ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् [१३९] पुण्याहदेही पटहस्तनूरुहो लक्षाररिस्थाणुकमण्डलूनि च । चाटुश्चटुर्जन्तुकशिप्वणुस्तथा जीवातुकुस्तुम्बुरु जानु सानु च ॥ ३५ ॥ कम्वुः सक्तुर्वगुरुर्वास्तु पलाण्डुर्हिाः शिग्रुर्दोस्तितउः शीध्वथ भूमा। वेमप्रेमब्रह्मगरुल्लोमविहायः .. कर्माष्टीवत्पक्ष्म धनुर्नाममहिम्नी ॥ ३६ ॥ अथ स्त्रीक्लीबलिङ्गाः॥ स्त्रीक्लीवयोनखं शुक्तौ विश्वं मधुकमौषधे । माने लक्षं मधौ कल्पं क्रोडोऽके तिन्दुकं फले ॥१॥ तरलं यवाग्वां पुष्पे पाटल पटलं चये। वसन्ततिलकं वृत्ते कपालं भिक्षुभाजने ॥ २ ॥ अर्धपूर्वपदो नावष्टयणकत्रनटौ क्वचित्.। चोराद्यमनोज्ञाद्यकञ् कथानककशेरुके ॥३॥ वंशिकवक्रोष्ठिककन्यकुब्जपीठानि नक्तमवहित्थम् । रशनं रसनाच्छोटन शुम्ब तुम्बं महोदयं कांस्यम् ॥४॥ मृगव्यचव्ये च वणिज्यवीर्यनासीरगात्रापरमन्दिराणि । तमिस्रशस्त्रे नगरं मसूरत्वक्क्षीरकादम्बरकाहलानि ॥५॥ स्थालीकदल्यौ स्थलजालपित्तला गोलायुगल्यो बडिशं च छर्दि च । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) परिशिष्टेषु अलावू जम्बूडुरुषः सरः सदो रोदोऽर्चिपी दामगुणे त्वयट तयट् ॥ ६॥ अथ स्वतस्त्रिलिङ्गाः। स्वतस्त्रीलिङ्गः सरकोऽनुतर्षे शललः शले। करकोऽब्दोपले कोशः शिम्बा खड्गपिधानयोः ॥१॥ जीवः प्राणेषु केदारे वलजः पवने खलः। बहुलं वृत्तनक्षत्रपुरायाभरणाभिधाः ॥२॥ भल्लातक आमलको हरीतकविभीतको। .. तारकाढकपिटकस्फुलिङ्गा विडङ्गतटौ ॥३॥ पटः पुटो वटो वाटः कपाटशकटौ कटः पेटो मठः कुण्डनीडविषाणास्तूणकङ्कतौ ॥४॥ मस्तकुथेङ्गुदजृम्भदाडिमाः पिठरप्रतिसरपात्रकन्दराः । नखरो वल्लूरो दरः पुरछत्र कुवलमृणालमण्डलाः ॥५॥. नाल प्रणालपटलार्गलशृङ्खलकन्दलाः। पूलावहेलो कलशकटाहो षष्टिरेण्विषु ॥६॥ अथ परलिगाः। परलिङ्गो द्वंद्वोऽशी डेऽर्थो वाच्यवदपत्यमिति नियताः । अस्यारोपाभावे गुणवृत्तेराश्रयाद्वचनलिङ्गे ॥१॥ प्रकृतर्लिङ्गवचने बाधन्ते स्वार्थिकाः क्वचित् । प्रकृतिहरीतक्यादिर्न लिङ्गमतिवर्तते ॥२॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् (१४१) वचनं तु खलतिकादिर्बह्वर्थात्येति पूर्वपदभूता स्त्रीपुंनपुंसकानां सहवचने स्यात् परं लिङ्गम् ॥ ३॥ नन्ता संख्या डतियुष्मदस्मच स्युरलिङ्गकाः। पदं वाक्यमव्ययं चेत्यसंख्यं च तद्बहुलम् ॥ ४॥ निःशेषनामलिङ्गानुशासनान्यभिसमीक्ष्य संक्षेपात् । आचार्यहेमचन्द्रः समभदनुशासनानि लिङ्गानाम् ॥ ५॥ ॥ इति चतुर्थ परिशिष्टं ॥ .. -- पञ्चमम् परिशिष्टम् ॥ अथ हैम-परिभाषापाठः॥ १ स्वरूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा। २ सुसद्धिदिक्शब्देभ्यो जनपदस्य । ३ ऋतोवृद्धिमद्विधाववयवेभ्यः । ४ स्वरस्य हृस्वदीर्घप्लुताः। ५ आद्यन्तवदेकस्मिन् । ६ प्रकृतिवदनुकरणम् । ७ एकदेशविकृतमनन्यवत् । ८ भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः। ९ भाविनि भूतवदुपचारः । १० यथासंख्यमनुदेश:समानानाम् ।११ विवक्षातःकारकाणि। १२ अपेक्षातोऽधिकारः।१३ अर्थवशाद विभक्तिपरिणामः। १४ अर्थवग्रहणे नानर्थकस्य । १५ लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् । १६ नामग्रहणे लिङ्गविशि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) परिशिष्टेषु ष्टस्यापि । १७ प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि । १८ तिवा शवाऽनुबन्धेन निर्दिष्टं यद् गणेन च । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यलपि। १९ सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य ।२० असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे । २१ न स्वरान. न्तये। २२ गोणमुख्ययोमुख्य कार्यसंप्रत्ययः। २३ कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे । २४ क्वचिदुभयगतिः।२५ सिद्धे सत्यारंभो नियमार्थः।२६धातोः स्वरूपग्रहणे तत्प्रत्यये कार्यविज्ञानम्। २७ नजुक्तं तत्सदृशे। २८ उक्तार्थानामप्रयोगः। २९ निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः।३० सन्नियोगशिष्टानामेकापायेऽन्यतरस्याप्यपायः। ३१ नान्वाचीयमाननिवृत्तौ प्रधानस्य । ३२ निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य। एकानुबन्धग्रहणे न दृयनुबन्धकस्य । ३४ नानुबन्धकृतान्यसारूप्यानेकस्वरत्वानेकवर्णत्वानि । ३५ समासान्तागमसंज्ञाज्ञापकगणननिर्दिष्टान्यनित्यानि।३६ पूर्वेऽपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् । ३७ मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्। ३८ यं विधिं प्रत्युपदेशोऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते । ३९ यस्य तु विधेनिमित्तमस्ति नासौ विधिर्बाध्यते । ४० येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधकः। ४१ बलवनित्यमनित्यात् । ४२ अन्तरङ्ग बहिरङ्गात् । ४३ निरवकाशं सावकाशात् । ४४ वात्प्राकृतम् । ४५ वृद् वृदाश्रयं च । ४६ उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिः। ४७ लुबन्तरङ्गेभ्यः। ४८ सर्वेभ्यो लोपः। ४९ लोपात्स्वरादेशः। ५० आदेशादागमः। ५१ आगमात् सर्वादेशः । ५२ परान्नित्यम् । ५३ निक्ष्यादन्तरङ्गम् । ५४ अन्तरङ्गाचानवकाशम् । ५५ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैभपरिमाषा (१४३) उत्सर्गादपवादः। ५६ अपवादान् कचिदुत्सर्गोऽपि । ५७ नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः । ५८ प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानामपि ग्रहणम् । ५९ प्रत्ययाप्रत्ययोः प्रत्यय. स्यैव । ६० अदाद्यनदाद्योरनदादेरेव । ६१ प्राकरणिकाप्राकरणिकयो प्राकरणिकस्यैव । ६२ निरनुन्धग्रहणे सामान्येन । ६३ साहचर्यात् सदृशस्यैव । ६४ वर्णग्रहणे जातिग्रहणम् । ६५ वर्णेकदेशोऽपि वर्णग्रहणेन गृह्यते। ६६ तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते। ६७ आगमा यद्गुणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते। ६८ स्वाङ्गामव्यवधायि । ६९ उपसा न व्यवधायी। ७० येन नाव्यवधा तेन व्यवहितेऽपि स्यात् । ७१ ककारापदिष्टं कार्य लुकारस्यापि । ७३ सकारापदिष्टं तदादेशस्य शकारस्यापि । ७३ हस्वदीर्घापदिष्टं कार्य न प्लुतस्य । ७४ संज्ञोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न तदन्तस्य । ७५ ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः। ७६ अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवताऽनर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति । ७७ गामादाग्रहणेष्वविशेषः । ७८ श्रुतानुमितयोः श्रौतो विधिबलीयान् । ७९ अन्तरङ्गानपि विधीन् यबादेशो बाधते । ८० सकृद्गते स्पर्द्ध यद् बाधितं तद् बाधितमेव । ८१ द्वित्वे सति पूर्वस्य विकारेषु बाधको न बाधकः । ८२ कृतेऽन्यस्मिन् धातुप्रत्ययकार्ये पश्चाद् वृद्धिस्तद्वाध्योऽट् च। ८३ पूर्व पूर्वोत्तरपदयोः कार्य कार्य पश्चात् सन्धिकार्यम् । ८४ संज्ञान संज्ञान्तरबाधिका । ८५ सापेक्षमसमर्थम् । ८६प्रधानस्य तु सापेक्षत्वेऽपि समासः। ८७ तद्धितीयो भावप्रत्ययः सापेक्षादपि । ८८ गतिकारक Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) परिशिष्टेषु डस्युक्तानां विभक्त्यन्तानामेव कृदन्तैर्विभक्त्युत्पत्तेः प्रागेव समासः। ८९ समासतद्धितानां वृत्तिर्विकल्पेन वृत्तिविषये च नित्यैवापवादवृत्तिः। ९० आदशभ्यः संख्या संख्येये वर्तते न संख्याने। ९१ एकशब्दस्यासं. ख्यात्वं क्वचित् । ९२ णौ यत्कृतं कार्य तत्सर्व स्थानिवद् भवति । ९३ द्विबद्धं सुबद्धं भवति । ९४ आत्मनेपदमनित्यम् । ९५ क्विपि व्यञ्जनकार्यमनित्यम् । ९६ स्थानिवद्भा वपुंवद्भावैकशेषद्वन्द्वैकत्वदीर्घत्वान्यनित्यानि । ९७ अनित्यो णिच्चुरादीनाम् । ९८ णिलोपोऽप्यनित्यः। ९९ णिच्संनियोगे एव चुरादीनामदन्तता । १०० धातवोऽनेकार्थाः । १०१ गत्यर्था ज्ञानार्थाः । १०२ नाम्नां व्युत्पत्तिरव्यवस्थिता। १०३ उणदयोऽव्युत्पन्नानि नामानि । १०४ शुद्धधातूनामकृत्रिम रूपम् । १०५ किवन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्ते । १०६ उभयस्थाननिष्पन्नोऽन्यतरव्यपदेशभाकू । १०७ अवयवे कृतं लिङ्गं समुदायमपि विशिनष्टि चेत्तं समुदायं सोऽवयवो न व्यभिचरति । १०८ येन धातुना युक्ताः प्रादयस्तं प्रत्ये. वोपसर्गसंज्ञाः । १०९ यत्रोपसर्गत्वं न संभवति तत्रोपसगवशादेव प्रादयो लक्ष्यन्ते न तु संभवत्युपसर्गत्वे । ११० शीलादिप्रत्ययेषु नासरूपोत्सर्गविधिः। ११९ त्यादिष्व. न्योन्यं नासरूपोत्सर्गविधिः। ११२ स्त्रीखलना अलो बाधका स्त्रियाः खलनौ । ११३ यावत् सभवस्तावद्विधिः । ११४ संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवत् । ११५ सर्व वाक्यं सावधारणम् । ११६ परार्थे प्रयुज्यमानः शब्दो वतमन्तरेणापि वर्थं गमयति । ११७ द्वौ नौ प्रकृतमर्थ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमपरिभाषा ( १४५ ) बोधयतः । ११८ चकारो यस्मात्परस्तत्सजातीयमेव समुचिनोति । ११९ चानुकृष्टं नानुवर्त्तते । १२० चानुकृष्टेन न यथासंख्यम् । १२१ व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः । १२२ यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते । १२३ यदुपाधेर्विभाषा तदुपाधेः प्रतिषेधः । १२४ यस्य येनाभिसंबन्धो दूरस्थस्यापि तेन सः । १२५ येन विना यन्न भवति तत्तस्यानिमित्तस्यापि निमित्तम् । १२६ । नामग्रहणे प्रायेणोपसर्गस्य न ग्रहणम् । १२७ सामान्यातिदेशे विशेषस्य नातिदेशः । १२८ सर्वत्रापि विशेषेण सामान्यं बाध्यते न तु सामान्येन विशेषः । १२९ डित्वेन कित्वं बाध्यते । १३० परादन्तरङ्गं बलीयः । १६१ प्रत्ययलोपेsपि प्रत्ययलक्षणं कार्य विज्ञायते । १३२ विधिनियमयोर्विधिरेव ज्यायान् । १३३ अनन्तरस्यैव विधिर्निषेधो वा । १३४ पर्जन्यवलक्षण प्रवृत्तिः । १३५ न केवला प्रकृत्तिः प्रयोक्तव्या । १३६ क्विर्थ प्रकृतिरेवाह । १६७ द्वन्द्वात्परः प्रत्येकमभिसंबध्यते । १३८ विचित्रा: शब्दशक्तस्यः । १३९ किं हि वचनान्न भवति । १४० न्याया: स्थविरयष्टि प्रायाः ॥ १९ षष्ठं परिशिष्टम् उणादि प्रकरणम् कृवापाजिस्वदिसाध्य शौदृस्नासनिजानिरहीणुभ्य उन् ।। १ ।। अः ।। २ ।। म्लेच्छीडेर्हस्वश्व वा ॥ ३ ॥ नञः मिगमिशमिमिवन्याकमिभ्यो डित् ॥ ४ ॥ तुदादिवि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) परिशिष्टेषु षिगुहिभ्यः कित ॥५॥ विन्देनलुक् च ॥ ६॥ कृगो द्वे च ॥ ७॥ कनिगदिमनेः मरूपे ।। ८॥ ऋतष्टित् ॥९॥ किच ॥ १०॥ पृपलिभ्यां टित् पिप् च पूर्वस्य ।। ११ ॥ ऋमिमथिभ्यां चन्मनौ च ॥ १२ ॥गमेर्जम् च वा ।। १३ ।। अदुपान्त्यऋभ्यामश्चान्तः॥ १४ ।। मषिमसेर्वा ।। १५ ।। हृसुफलिकषेरा च ॥ १६ ॥ इदुदुपात्याभ्यां किदिंदुतो च ॥ १७ ।। जजलतितलकाकोलीसरीसृपादयः ॥ १८ ॥ बहुलं गुणवृद्धी चादेः ॥ १९ ॥णेलप् ॥ २० ॥ भीणशलिवलिकल्यतिमर्च्यर्चिमृजिकुतुस्तुदाधारात्राकापानिहानबशुभ्यः कः॥२१ । विचिपुषिमुषिशुष्यविसृवृशुसुभूधूमूनीवीभ्यः कित् ॥ २२ ॥ कुगो वा ॥ २३ ॥ घुयुहिपितुशोर्दीर्घश्च ॥२४॥ हियो रश्च लो वा ॥ २५ ॥ निष्कतुरुष्कोदर्कालकेशुल्कश्वफल्ककिञ्जल्कोल्कावृक्कच्छेककेकायस्कादयः॥२६॥ दृकृनृमृशृधृवृमृस्तुकुक्षुलचिचरिचटिकटिकण्टिचणिचषिफलिवमितम्यविदेविबन्धिकनिजनिमशिक्षारिकूरिवृतिवल्लिमल्लिसल्लयलिभ्योऽकः ॥२७॥ कोरुरुण्टिरण्टिभ्यः॥२८॥ धूधून्दिरुचितिलिपुलिकुलिक्षिपिक्षुपिक्षुभिलिखिभ्यः कित् ॥२९॥ छिदिभिदिपिटेर्वा ॥३०॥ कृषेर्गुणवृद्धी च वा ॥३१॥ नञः पुंसेः ॥३२॥ कीचकपेचकमेनकार्भकधमकवध कलघकजहकैरकैडकाश्मकलमकक्षुल्लकवट्वकाढकादय : ॥ ३३ ॥ शलिबलिपतिवृतिनभिपटितटितडिगडिभन्दिव. न्दिमन्दिनमिकुदुपूमनिखजिभ्य आकः ॥३४ । शुभिगृहिविविपुलिगुभ्यः कित् ॥३५।। पिषेः पिनपिण्यौ च ॥३६।। मवाकश्यामाकवार्ताकवृन्ताकज्योन्ताकगूवाकभद्राकादयः ॥३७॥क्रीकल्यलिदलिस्फटिदूषिभ्य इकः ॥३८॥ अङाः Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादिप्रकरणम् ( १४७ ) पणिपनिपदिपतिभ्यः ॥ ३९ ॥ नसिवसिकसिभ्यो णित ॥ ४० ॥ पापुलिकृषिकुशिवचिभ्यः कित् ॥ ४१ ॥ प्राङ: पणिपनिकषिभ्यः ॥ ४२ ॥ मुषेर्दीर्घश्च ॥ ४३ ॥ स्यमेः सीम् च ॥ ४४ ॥ कुशिक हृदिकमक्षिकेतिक पिपीलिकादयः || ४५|| स्यमिकषिदृष्यनिमनिमलिवल्य लिपालिकणिभ्य ईकः ॥ ४६ ॥ शृवृमृभ्यो द्वेरश्चादौ ॥ ४७ ॥ ऋच्यूजिहृषीषिदृशिमृडिशिलिनिभ्यः कित् ॥ ४८ ॥ मृदेर्वोऽन्तश्च वा ॥ ४९ ॥ सृणीकास्तीकप्रतीकपूतीक समीकवाही कवाहीकवाह्लीकवल्मी ककल्मलीकतिन्तिडीककङ्कणीक किङ्किणीकपुण्डरीकचञ्चरीकफर्फरीकझर्झरीकर्घ घरीकादयः ॥ ५० ॥ मिवमिकटिभलिकु हेरुकः ॥ ५१ ॥ संविभ्यां कसेः ॥ ५२ ॥ क्रमेः कृम् च वा ॥ ५३ ॥ कमिति मेर्दोऽन्तश्च ॥ ५४ ॥ मण्डेर्मड्ड् च ॥ ५५ ॥ कण्यणेर्णित् ॥ ५६ ॥ कञ्चुकांशुकशुकपाकुकहिबुकचिबुकजम्बुकचुलुकचू चुकोल्मुक भावुकपृथुकमधुकादयः ॥ ५७ ॥ म्रुमन्यञ्जिजलिवलितलिमलिमल्लि भालिमडिबन्धिभ्य कः ॥ ५८ ॥ शल्यणेर्णित् ॥ ५९ ॥ कणिभल्लेर्दीर्घश्च वा ॥ ६० ॥ शम्बूकशाम्बुकवृधूकमधूकोलूकोस्वूकवरुकादयः ॥ ६१ ॥ किरोऽङ्को रो लश्च वा ॥ ६२ ॥ रालापाकाभ्यः कित् ॥ ६३ ॥ कुलिचिरिभ्यामिङ्कक् ॥ ६४ ॥ कलेरविङ्कः ॥ ६५ ॥ क्रमेरेलकः ॥ ६६ ॥ जीवेरातृको जैव च ॥६७॥ हृभूलाभ्य आणकः ॥ ६८ ॥ प्रियः कित् ॥ ६९ ॥ घालूशिङ्गिभ्यः ॥ ७० ॥ शीभीराजेश्वानकः ॥ ७१ ॥ अणे. र्डित् ॥ ७२ ॥ कनेरीनकः ॥ ७३ ॥ गुङ ईधुकैधुकौ ॥ ७४ ॥ वृतेस्तिकः ॥ ७५ ॥ कृतिपुतिलतिभिदिभ्यः कित् ॥ ७६ ॥ इष्यशिमसिभ्यस्तकक्रू ॥ ७७ ॥ भियो द्वे च ॥ ७८ ॥ ६६ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) परिशिष्टेषु हरुहिपिण्डिभ्य ईतकः ॥ ७९ ॥ कुषेः कित् ॥ ८० ॥ बलिविलिशलिमिभ्य आहकः ॥ ८१ ॥ चण्डिभल्लिभ्यामातकः ॥ ८२ ॥ श्लेष्मातकाम्रातकामिलातकपिष्टातकादयः ॥ ८३ ॥ शमिमनिभ्यां खः ॥ ८४ ॥ श्यतेरिच्च चा॥ ८५॥ पूमुहोः पुन्मूरौ च ॥ ८६ ॥ अशेर्डित् ॥ ८७ ॥ उषेः किल् लुक् च ।। ८८ ॥ महेरुच्चास्य वा ॥८९ ॥ न्युङ्खादयः॥९०॥ मयेधिभ्यामूखेखौ ॥९१ ॥गम्यमिरम्यजिगद्यदिछागडिखडिगृभृवृस्वृभ्यो गः ॥९२ ॥ पूमुदिभ्यां कित ॥ ९३ ॥ भृवृभ्यां नोऽन्तश्च ॥९४ ॥ दुमो णिद्वा ॥९५॥ शृङ्गशादियः ॥९६॥ तडेरागः ॥९७॥ पतितमितृपकृशल्वा देरङ्गः ॥९८॥ सृवृनृभ्यो णित् ॥९९॥ मनेर्मन्मातौ च ॥१००॥ विडिविलिकुरिमृदीपिशिभ्यः कित ॥॥१०१॥ स्फुलिकलिपल्याभ्य इङ्गक ॥१०२ ॥ भलेरिदुतौ चातः ॥१०३॥ अदेर्णित् ॥१०४ ॥ उचिलिङ्गादयः ॥१०५॥ माङस्तुलेरुङ्गकू ॥१०६॥ कमितमिशमिभ्यो डित् ॥१०७॥ सर्तेः सुर्च॥१०८ ॥ स्थार्तिजनिभ्यो घः ॥१०९॥ मघाघडाघदीर्घादयः ॥ ११० ॥ सर्तेरघः ॥१११॥ कूपूसमिणभ्यश्चट दीर्घश्च ॥ ११२ ॥ कूर्चचूर्चादयः ॥११३॥ कल्यविमदिमणिकुकणिकुटिकृभ्योऽचः ॥ ११४ ॥ क्रकचादयः ॥११५॥ पिशेराचक् ॥११६॥ मृत्रपिभ्यामिचः॥११७॥ म्रियतेरीचण् ॥ ११८ ॥ लषेरुचः कश्च ॥११९॥ गुडेरूचट ॥१२०॥ सिवेर्डित् ॥ १२१॥ चिमेझैचडश्चौ ॥१२२ ॥ कुटिकुलिकल्युदिभ्य इञ्चकू ॥१२३॥ तुदिमदिपद्यदिगुगमिकचिभ्यश्छकू ॥१२४॥ पीपूडो हस्वश्च ॥ १२५ ॥ गुलुछपिलिपिञ्छैधिच्छादयः॥१२६॥ वियो जक्॥१२७॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् (१४९) पुवः पुन च॥१२८॥कुवः कुकुनौ च ॥१२९॥ कुटेरजः॥१३०॥ भिषेभिषभिष्णौ च वा ॥१३१ ॥ मुर्वेर्मुर च ॥१३२ ॥ बलेोऽन्तश्च वा ॥ १३३ ॥ उटजादयः ॥ १३४ ॥ कुलेरिजक ॥१३५॥ कृगोऽनः ॥१३६ ॥ झमेझः ।। १३७॥ लुषेष्टः ॥१३८ ॥ नमितनिजनिवनिसनो लुक् च ॥१३९ ॥जनिपणिकिजुभ्यो दीर्घश्च ॥१४१घटाघाटाघण्टादयः॥१४१॥ दिव्यविश्रुकुर्विशकिकङ्किकृपिचपिचमिकम्येधिकर्किमर्किकक्खितृकृमृभृभ्योऽटः ॥१४२ ॥ कुलिविलिभ्यां कित् ॥१४३ ॥ कपटकीकटादयः॥ १४४ ॥ अनिशृपदृवृललिम्य आटः ॥१४५ ॥ सूसृपेः कित् ॥१४६॥ किरो लश्च वा कपाटविराटशृङ्गाटप्रपुन्नाटादयः ॥१४८॥ चिरेरिटो भ् च ॥१४९ ॥ टिण्टश्चर् च वा॥१५०॥ तृपिकम्पिकृषिभ्यः कीटः ।। १५१ ॥ खञ्जररीटः ॥ १५२ ॥ गृजदृवृभृभ्य उट उडश्च ॥ १५३ ॥ मधेर्मकमुकौं च ॥ १५४ ॥ नर्कुटकुक्कुटोत्कुरुटमुरुटपुरुटादयः ॥ १५५ ॥ दुरो द्रः कूटश्च दुर् च ॥१५६॥ धन्धेः ॥१५७॥ चपेरेटः ॥१५८॥ ग्रो णित् कृशक्शाखेरोटः ॥ १३० ॥ कपोटवकोटाक्षोटकर्कोटादयः ॥१६१ ॥ वनिकणिकाश्युषिभ्यष्ठः॥१६२॥पीविशिकुणिपृषिभ्यः कित् ॥१६३ ।। कुषेर्वा ॥ १६४ ॥ शमेलृक् च वा ॥१६५ ॥ पठेधिटादयः ।। १६६ ॥ मृजशृकम्यमिरमिरपिभ्योऽठः ॥ १६७ ॥ पश्चमात् डः ॥१६८॥ कण्यणिखनिम्योणिद्वा॥१६९॥कुगुहुनीकुणितुणिपुणिमुणिशुन्यादिभ्यः कित् ॥ १७० ॥ अमृतृव्यालियविचमिवमियमिचुरिकुहेरड॥१७१॥ विहडकहोडकुरडकेरडक्रोडादयः॥१७२॥जकृत Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) परिशिष्टेषु शृसभृवृभ्योऽण्डः ॥१७३॥ पूगो गादिः ॥१७४ ॥ बनेस्त च ॥ १७५ ॥ विचण्डैरण्डखरण्डादयः ॥१७६॥ लगेरुडः ॥१७७ ॥ कुशेरुण्डकू ॥१७८॥ शमिषणिभ्यां डः ॥१७९॥ कुणेः कित् ॥ १८० ॥ नञः सहेः षा च ॥१८१ ॥ इणुर्विशावेणिपृकृवृतज़सृपिपणिभ्यो णः ।।१८२॥ धृवीह्वाशुष्युषितृषिकृष्यतिभ्यः कित् ॥१८३।। द्रोर्वा ॥१८४॥ स्थाक्षुतोरूच ॥ १८५ ॥ भ्रूणतृणगुणकाक्र्णतीक्ष्णश्लक्ष्णा. भीक्ष्णादयः॥ १८६ ॥ तृकृटभृवृश्रुरुरुहिलक्षिविचक्षिचुक्किबुकितयडिमङ्किकङ्किचरिसमीरेरणः ॥ १८७ ॥ कृगृप्रकृपिवृषिभ्यः कित् ॥१८८ ॥ धृषिवहेरिच्चोपान्त्यस्य ॥१८९॥ चिक्कणकुक्कणकुंकणकुणत्रवणोल्वणोरणलवणवसणादयः ॥ १९० ॥ कृपिविषिवृषिधृषिमृषियुषिदुहिग्रहेराणक् ॥ १९१ ॥ पषो णित् ॥१९२ ॥ कल्याणपर्याणादयः ॥ १९३॥ द्रुहृवृहिदक्षिभ्य इणः ॥ १९४ ॥ ऋद्रुहेः कित् ऋकृवृधृदारिभ्य उणः ॥ १९६ ॥ क्षः कित् ॥१९७ ॥ भिक्षुणी ॥ १९८ ॥ गादाभ्यामेष्णक् ॥ १९९ ॥ दम्यमित. मिमावापूधूगृहसिवस्यसिवितसिमसीणभ्यस्तः ॥२०॥ शीरीभूदूमूपाधाचित्यहँजिपसिमुसिबुसिबिसिरमि. धुर्विपूर्विभ्यः कित् ॥ २०१॥ लूम्रो वा ॥ २०२ ॥ सुसित. नितुसेदर्दीर्घश्च वा ॥ २०३ ॥ पुतपित्तनिमित्तोतशुक्ततिक्त. लिप्तसूरतमुहूर्तादयः ॥ २०४ ॥ कृगो यङः ॥ २०५ ॥ इव दिलपि ॥ २०६ ॥ प्रभृमशीयजिखलिवलिपर्विपच्य. मिनमितमिशिहर्यिकङ्किभ्योऽतः ॥२०७॥ पृपिरञ्जिसि किकालावृभ्यः कित् ॥२०८ ॥ कृवृकल्यलिंचिलिविलीलि Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादिप्रकरणम् लानाथस्य आत ॥ २०९ ॥ हृश्यारुहिशोणिपलिभ्य इतः || २१० ।। नत्र आपेः ॥ २१९ ॥ क्रुशिपिशिपृषिकृषिकुस्युचिभ्यः कित् ॥ २१२ ॥ हृग ईतण ॥ २१३ ॥ अदो भुवो डुतः ॥ २१४ ॥ कुलिमयिभ्यामूतक् ॥ २१५ ॥ जीवेमश्च ॥ २१६ ॥ कबेरोतः प् च ॥ २९७ ॥ आस्फायेर्डित् विशिभ्यामन्तः ।। २९९ ।। रुहिनन्दिजीविप्राणिभ्यष्टिदाशिषि ॥ २२० ॥ तृजभूवदिवहिवसि भास्यदि साधिमदिगडिगण्डिनन्दिरेविभ्यः ॥ २२९ ॥ सीमन्तहेमन्त भदन्तदुष्यन्तादयः ॥ २२२ ॥ शकेरुन्तः ॥ २२३ ॥ कषेर्डित् ॥ २२४ ॥ कमिनुगार्तिभ्यस्थः || २२५ ।। अवाद् गोऽच वा ||२२६॥ नीनूरमितृतुविचिरिचिसि विश्विहनिपागोपावोद्वाभ्या कित् ॥ २२७ ॥ न्युद्भ्यां शीङः ॥ २२८ ॥ अवभृनिर्ऋसमिणुभ्यः ।। २२९ ॥ सप्तर्णित ॥ २३० ॥ पथयूथगूथकुथतिथनिथसूरथादयः ॥ २३१ ॥ भृशीशपिशमिगमिरमिवन्दिवञ्चिजीविप्राणिभ्योऽथः ॥ २३२ ॥ उपसर्गाद् वसः || २३३ || विदिभिदिरुदिहिभ्यः कित् ॥ २३४ ॥ रोर्वा ॥ २३५ ॥ जृवृभ्यामूथः ॥ २३६ ॥ शाशपिमनिकनिभ्यो दः ॥ २३७ ॥ आपोऽप् च ।। २३८ ॥ गोः कित् वृतुकुसुभ्यो नोऽन्तश्च ॥ २४० ॥ कुसेरिदेदौ ॥ २४१ ॥ इङ्ग्ग्यर्बिभ्यामुदः ॥ २४२ ॥ कर्णद्वा ॥ २४३ ॥ कुमुदबु बुदादयः ॥ २४४ ॥ ककिमकिभ्यामन्दः || २४५ ॥ कल्यलिपुलिकुरिकुणिमणिभ्य इन्दक् ॥ २४६ ॥ कुपेर्व च वा ॥ २४७ ॥ पृपलिभ्यां णित् ॥ २४८ ॥ यमेरुन्दः || २४९ ॥ मुचेर्षुकुन्दकुकुन्दौ || २५० || स्कन्द्यमिभ्यां धः ॥ २५१ ॥ नेः स्यतेरधक ॥ २५२ ॥ मङ्गेर्नलुकू च ।। २५३ ॥ आरगे (१५१) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) परिशिष्टेषु र्वधः ॥ २५४ ॥ पराच्छो डित् ॥ २५५ ॥ इषेरुधक् ॥२५६॥ कोरन्धः ॥ २५७ ॥ प्याधापन्यनिस्वदिस्वपिवस्यज्यतिसिविभ्यो नः ॥ २५८ ।। षसेर्णित् ॥ २५९ ॥ रसेर्वा ॥२६० ॥ जीणशीदीवुध्यविमीभ्यः कित् ॥ २६१ ॥ सेर्वा ॥ २६२ ॥ सोरू च ॥ २६३ ॥ रमेस्त च ॥ २६४ क्रुशेवृद्धिश्च ।।२६५।। युसुनिभ्यो माङो डित् ॥ २६६ ॥ शीङः सन्वत ॥२६७ ।। दिननग्नफेनचिन्हबध्नधेनस्तेनच्यौनादयः ॥ २६८॥ य्वसिरसिरुचिजिमस्जिदेविस्यन्दिचन्दिमन्दिमण्डिमदिदहि. वह्यादेरनः ॥ २६९ ।। अशो रश्चादौ ॥ २७० ॥ उन्देर्नलुक्च ।। २७१ ॥ हनेर्घतजघौ च ॥२७२॥ तुदादिवृजिरञ्जिनिधाभ्यः कित् ॥ २७३ ।। सूधूभृभ्रस्जिभ्यो वा ॥ २७४ ॥ विदनगगनगहनादयः ॥ २७५ ।। संस्तुस्पृशिमन्थेरानः युयुजियुधिबुधिमृशिशीशिभ्यः कित् ।। २७७ ॥ मुमुचानयुयुधानशिश्विदानजुहुराणजिहियाणाः ॥ २७८ ।। ऋजि. रञ्जिमन्दिसह्यहिभ्योऽसानः ॥ २७९ ॥ रुहियजेः कित ॥ २८० ॥ वृधेर्वा ॥ २८१ ॥ श्याक ठिखलिनल्यविकुण्डिभ्य इनः ॥ २८२ ॥ वृजितुहिपुलिपुटिभ्यः कित् ॥ २८३ ।। विपिनाजिनादयः ॥ २८४ ॥ महेर्णिद्धा ॥ २८५ ॥ खलिहिंसिभ्यामीनः ॥ २८६ ॥ पठेर्णित् ॥ २८७ ॥ यम्यजिशक्यर्जिशीयजितृभ्य उनः ॥ २८८ ॥ लषेः श च ॥ २८९ ॥ पिशिमिथिक्षुधिभ्यः कित् ॥२९०।। फलेगोऽन्तश्च ॥२९१॥ वीपतिपटिभ्यस्तनः ॥ २९२ ॥ पृपूभ्यां कित् ॥ २९२ ॥ कृत्यशोभ्यां स्नक् ॥ २९४ ॥ अर्तेः शसानः ॥ २९५ ॥ भापाचणिचमिविषिसपतृशीतल्यलिशमिरमिवंपिभ्य: पः ॥ २९६ ॥ युसुकुरुतुच्युस्त्वादेरुच्च ॥२९७ ॥ कृशृसृभ्य Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् (१५३) उर् चान्तस्य ॥ २९८ ॥ शदिवाधिखनिहनेः ष च ॥२९९॥ पम्पाशिल्पादयः॥ ३०० ॥ क्षुचुपिपूभ्यः कित् ॥ ३०१॥ नियो वा ।। ३०२ ॥ उभ्यवेलक् च ॥ ३०३ ॥ दलिवलितलिखजिध्वजिकचिभ्योऽपः ॥ ३०४ ॥ भुजिकुतिकुटिविटिकुणिकुष्युषिभ्यः कित् ॥ ३०५ ॥ शंसेःश इचातः॥३०६॥ विष्टपोलपवातपादयः ॥३०७॥ कलेरापः ॥३०८॥ विशेरिपक् ॥ ३०९॥ दलेरीपो दिलू च ॥ ३१० ॥ उडेरुपक् ॥ ३११ ॥ अश ऊपः पश्च ॥ ३१२ ॥ सर्तेः षपः॥३१३॥ रीशीभ्यां फः ॥ ३१४ ॥ कलिगलेरस्योच ॥ ३१५ ॥ शफकफशिफाशोफादयः ॥३१६॥ वलिनितनिभ्यां वः॥३१७॥ शम्यमेर्णिद्वा ॥ ३१८ ॥ शल्यलेरुचातः॥ ३१९ ॥ तुम्बस्तम्बादयः ॥ ३२०॥ कृकडिकटिवटेरम्बः ॥ ३२१ ॥ कदेर्णिद्वा ॥ ३२२ ॥ शिलविलादेः कित् ॥३२३॥ हिण्डिविलेः किम्बो नलुक् च ॥ ३२४ ॥ डीनीबन्धिशृधिचलिभ्यो डिम्बः ॥ ३२५ ॥ कुटयुन्दिचुरितुरिपुरिमुरिकुरिभ्यः कुम्वः ॥३२६॥ गृदृरमिह निजन्यर्तिदलिभ्यो भः॥३२७॥ इणः कित् ॥ ३२८ ॥ कृशगृशलिकलिकडिगर्दिरा. सिरमिवडिवल्लेरभः ॥३२९ ॥ सनेर्डित् ॥ ३३० ॥ ऋषिघृषिलुसिभ्याः कित् ॥ ३३१ ॥ सिटिकिभ्यामिभः सैरट्टिौ च ॥ ३२२ ॥ करुभः ॥ ३३३॥ कुके कोऽन्तश्च ॥ ३३४ ॥ दमो दुण्डू च ॥ ३३५ ॥ कृकलेरम्भः ॥ ३३६ ॥ काकुसिभ्यां कुम्भः ॥३३७॥ अर्तीरिस्तुसुमधुसृक्षियक्षिभावाव्याधापायावलिपदिनीम्योमः ॥ ३३८ ॥ ग्रसिहाग्भ्यां ग्राजिहौ च ॥ ३३९ ॥ विलिभिलिसिधीन्धिधूसूशाध्यारुसिविशुषिमुषीषिमुहियुधिदसि. २० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) परिशिष्टेषु कित् ॥ ३४० ॥ क्षुहिभ्यां वा ॥ ३४१ ॥ अवेर्हस्वश्च ॥ ३४२ ॥ सेरी च वा ॥ ३४३ ॥ भियः षोऽन्तश्च वा ॥ ३४४ ॥ तिजियुजे च ॥ ३४५ ॥ रुक्मग्रीष्मकूर्मसूर्मजा ल्मगुल्म घोमपरिस्तोमसूक्ष्मादयः ॥ ३४६ ॥ सृपृप्रथिचरिकडिकर्देरमः ॥ ३४७ ॥ अबेच वा ॥ ३४८ ॥ कुर्दिवेष्टिरिपिषिसिचि - गण्यर्पिवृमहिभ्य इमः || ३४९ ॥ वमिखचिमादयः ॥ ३५० ॥ उद्वटिकुल्य लिकुथिकुरिकुटिकुडिकुसिभ्यः कुमः ॥ ३५१ ॥ कुन्दुमलिन्दु मकुङ्कुम विद्रुमपट्टुमादयः ॥ ३५२ ॥ कुथिगुरुमः || ३५३ ॥ विहाविशाचिभिद्यादेः केलिमः ॥ ३५४ ॥ दो डिमः || ३५५ || डिमेः कित् ॥ ३५६ ॥ स्थाछामा सासूमन्यनिकनिषसिपलिक लिशलिशकीर्षिय सहिबन्धिभ्यो यः ॥ ३५७ ।। नञो हलिपतेः ।। ३५८ ॥ सञ्जेर्ध च ।। ३५९ ।। मृशी सिवस्यनिभ्यस्तादिः ॥ ३६० ॥ ऋशिजनिपुणिकृतिभ्यः कित् ॥ ३६१ ॥ कुले च वा ॥ २६२ ॥ अगपुलाभ्यां स्तम्भेर्डित || ३६३ ॥ शिक्यास्यादयमध्य विन्ध्यधिsoयाघ्न्य हर्म्यसत्यनित्यादयः ॥ ३६४ ॥ कुगुवलिमलिकतिन्याम्यक्षेरयः ॥ ३६५ ॥ चायेः केक् च ॥ ३६६ ॥ लादिभ्यः कित् ॥ ३६७ || कसेरलादिरिचास्य ॥ ३६८ ॥ वृङः शषौ चान्तौ ॥ ३६९ ॥ गयहृदयादयः ॥ ३७० ॥ मुचेर्घौ ॥ ३७१ ॥ कुलिलुलि कलिकषिभ्यः कायः ॥ ३७२ ॥ श्रदक्षिगृहिस्पृहिमहेराय्यः ॥ ३७३ ॥ दधिषाय्य दीधीषा ॥ ३७४ ॥ कौतेरियः ॥ ३७५ ॥ कृगः कित् ॥ ३७६ ॥ मृजेर्णालीयः ॥ ३७७ || वेस्तादिः || ३७८ ॥ धाग्राजिशृरमियाज्यर्तेरन्यः ॥ ३७९ || हिरण्यपर्जन्यादयः ॥ ३८० ॥ वदिसहिभ्यामान्यः ॥ ३८१ ॥ वृङ एण्यः ॥ ३८२ ॥ मदेः Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् (१५५ ) : स्यः ॥ ३८३ ॥ रुचिभुजिभ्यां किष्यः ॥ ३८४ ॥ वच्यर्थिभ्यामुष्यः ॥ ३८५ ॥ वचोऽथ्य उत् च ॥ ३८६ ॥ भीवृधिरुधिवज्यगिरमिवमिवपिजपिश किस्फायिवन्दीन्दिपदिमदिमन्दिवन्दिदसिघसिन सिहस्यसिवासिदहिसहिभ्यो रः ॥३८७॥ ऋज्यजितश्चिरिपिसृपितृपिद्यपिचुपिक्षिपिक्षुपिक्षुदि सु मुदिरुदिछिदिभिदिखिद्युन्दिदम्भिशुभ्युम्भिदं शिचिसिवहिविसिवासशुचिचिसिधि गृधिवन्धिश्वितिवृतिनीशी सूभ्यः कित् ॥ ३८८ ॥ इण्धाभ्यां वा ॥ ३८९ ॥ चुम्बिकुम्बितुम्बेर्न लुक् च ॥ ३९० ॥ भन्देर्वा ॥ ३९९ ॥ चिज - शुसिमितम्यर्वेदीर्घश्च ॥ ३९२ ॥ चकिरमिविकसेरुच्चास्य ॥ ३९३ ॥ शदेरूच्च ॥ ३९४ ॥ कृतेः कृच्छ्रौ च ॥ ३१५ ॥ खुरक्षुरदूरगौरविप्रकुप्रश्वभ्राभ्रधूम्रान्धरन्ध्र शिलिन्धौड्रपुण्ड्र - तीव्रनीव शीवोग्रतुग्रभुग्रनिद्रातन्द्रासान्द्रगुन्द्रारिज्रादयः । ॥ ३९६ ॥ ऋच्छचटिव टिकुटिकठिवठिमव्यडिशी कृशी भृकदिबदिकन्दिमन्दिसुन्दिमन्धिमञ्जिपञ्जिपिञ्जिकमिसमिचभिवमिभ्रम्यमिदेविवासिकास्यर्तिजीविवर्धिकुशुदोररः ||३९७|| अवेधूं च वा ॥ ३९८ ॥ मृद्युदिपिठिकुरिकुहिभ्यः कित् ॥ ३९९ ॥ शाखेरिदेतौ चातः ॥ ४०० ॥ शपेः फ् च ॥४०१ ॥ दमेर्णिद्वादश्च डः ॥ ४०२ ॥ जठरऋकरमकरशंकरकर्परकूर्परतोमरपामरप्रामरप्राझरस गरनगरत गरोदरा दरशूदरहदरकुकर कुकुन्दर गोर्वराम्बर मुखर खरड ह र कुञ्जराजगरादयः ||४०३ || मुदिगृरिभ्यां दिद गजौ चान्तौ ॥ ४०४ ॥ अग्यहिमदिमन्दिकडिकसिकासिमृजिकञ्जिकलिमलिक चिभ्यआरः ॥ ४०५ ॥ त्रः कादिः ॥ ४०६ ॥ कृगो मादिश्च ॥ ४०७ ॥ तुषिकुठिभ्यां कित् ॥ ४०८ || कमेरत उच्च ॥ ४०९ ॥ कनेः Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) परिशिष्टेषु कोविदकर्बुदकाश्चनाश्च ॥ ४१० ॥ द्वारशृङ्गारभृङ्गारकल्हारकान्तारकेदारखारडादयः ॥४११॥ मदिमन्दिचन्दिपदिखदिसहिवहिकृसृभ्य इरः ॥४१२॥ शवशरिचातः॥ ४१३॥ अन्थे। शिथ् च॥४१४॥ अशेर्णित् ॥४१५॥ शुषीषिबन्धिरुधिरुचिमुचिमुहिमिहितिमिमुदिखिदिच्छिदिभिदिस्थाभ्यः कित् ॥ ४१६॥ स्थविरपिठिरस्फिराजिरादयः ॥ ४१७ ॥ कृशृपृपूगमञ्जिकुटिकटिपटिकण्डिशौण्डिहिंसिभ्य ईरः ॥ ४१८ ॥ घसिवशिपुटिकुरिकुलिकाभ्यः कित् ॥ ४१९ ॥ कशेर्मोऽन्तश्च ॥४२०॥ वनिवपिभ्यां णित् ॥४२१॥ जम्बीरा. भीरगभीरगम्भीरकुम्भीरभडीरभण्डीरडिण्डीरकिर्मीरा. दयः ॥ ४२२ ॥ वाश्यसिपासिमसिमथ्युन्दिमन्दिचतिच. ङ्क्यङ्किकर्षिचकिबन्धिभ्य उरः ॥४२३॥मके लुक् वोच्चा. स्य ॥४२४॥ विधेः कित् ॥४२५॥ श्वशुरकुकुन्दुरदर्दुरनिचुरप्रचुरचिकुरकुकुरकुक्कुरकुकुरशर्कुरनूपुरनिष्ठुरविथुरमद्गुरवागुरादयः ॥४२६॥ मीमसिपशिखटिखडिखर्जिकर्जि सर्जिकृपिवल्लिमण्डिभ्य ऊरः॥ ४२७ ॥ महिक णिचण्यणिपल्यलितलिमलिशलिभ्यो णित् ॥ ४२८ ॥ स्थाविडेः कित् ॥ ४२९ ॥ सिन्दूरकचूंरपत्तूरधुत्तूरादयः ॥ ४३० ॥ कुगुपतिकथिकुथिकठिकठिकुटिगडिगुडिमुदिमूलिदंशिभ्यः केरः ॥ ४३१ ॥ शतेरादयः ॥ ४३२ ॥ कठिचकिसहिभ्य ओरः ॥ ४३३॥ कोरचोरमोरकिशोरघोरहोरादोरादयः ॥४३४ ॥ किशृवृभ्यः करः ॥ ४३५ ॥ सूपुषिभ्यां कित् ॥४३६ ॥ अनिकाभ्यां तरः ॥ ४३७ ॥ इणपूभ्यां तरः मीज्यजिमामद्यशोवसिकिभ्यः सरः॥ ४३९ ॥ कृधूतन्य. षिभ्यां कित् ॥ ४४० ॥ कृगृशृगूचतिखटिकटिनिषदि. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् (१५७ ) भ्यो वरट् ॥ ४४१ ॥ अश्नोतेरीचादेः ॥ ४४३ ॥ नीमीकुतु. चेर्दीर्घश्च ॥ ४४३ ॥ तीवरधीवरपीवरछित्वरछत्वरगह्वरोपहरसंयद्वरोदुम्बरादयः॥ ४४४ ॥ कडेरेवराङ्गरौ ॥४४५॥ ब्रट् ।। ४४६ ॥ जिभृसृभ्रस्जिगमिनमिनश्यसिहनिविषेवद्धिश्च ॥ ७४७ ॥ दिवे? च ॥ ४४८॥ सूमूखन्युषिभ्यः कित् ॥ ४४९ ॥ स्त्री ॥ ४५० ॥ हुयामाश्रुवसिभसिगुवीपचिवचिधृयम्यमिमनितनिस दिछादिक्षिक्षदिलुपिपतिधूभ्यस्त्रः ॥ ४५१ ॥ श्वितेर्वश्च मो वा ॥ ४५२॥ गमेरा च ॥ ४५३ ॥ चिमिदिशंसिभ्यः कित् ॥ ४५४ ॥ पुत्रादयः ॥ ४५५ ॥ वृगनक्षिपचिवच्यमिनमिवपिवधियजिपतिक. डिभ्योऽत्रः ॥ ४५६ ॥ सोर्विदः कित् ॥ ४५७ ॥ कृतेः कृन्त च ॥ ४५८ ॥ बन्धिवहिकट्यश्यादिभ्य इत्रः ॥ ४५९ ॥ भूगृवदिचरिभ्यो णित् ॥ ४६० ॥ तनितलापात्रादिभ्य उत्रः ॥ ४६१ ॥ शामाश्याशक्यम्ब्यमिभ्यो ल: ॥ ४६२ ॥ शुकशीमूभ्यः कित् ॥ ४६३॥ भिल्लाच्छभल्लसौविदल्लादयः ॥ ४६४ ॥मृदिकन्दिकुण्डिमण्डिमङ्गिपटिपाटिशकिकेवृदेवृकमियमिशलिकलिपलिगुध्वश्चिचश्चिचपिवहिदिहिकुहितसृपिशितुसिकुस्यनिद्रमेरलः ॥ ४६५ ॥ नहिलङ्गेर्दीर्घश्च ॥ ४६६ ॥ ऋजनेर्गोऽन्तश्च ॥ ४६७ ॥ तृपिवपिकुपिकुशिकुटिवृषिमुसिभ्यः कित् ॥४६८॥ कोर्वा ॥ ४६९ ॥ शमेव च वा ॥ ४७० ॥ छोडग्गादिर्वा ॥४७१॥ मृजिखन्याहनिभ्यो डित् ॥ ४७२ ॥ स्थो वा ॥ ४७३ ॥ मुरलोरलविरलकेरलकपिञ्जलकज्जलेजलकोमलभृमलसिंहलकाहलशूकलपाकलयुगलभगलविदलकुन्तलोत्पलादयः ॥ ४७४ ॥ऋकृमृवृतनितमिचषिचपिकपिकीलिपलिबलिप Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) परिशिष्टेषु श्चिमनिगण्डिमण्डिचण्डितण्डिपिण्डिनन्दिनदिशकिभ्य आलः ॥४७५॥ कूलिपिलिविशिबिडिमृडिकुणिपीप्रीभ्यः कित् ॥४७६॥ भजे कगौ च ॥४७७॥ सर्तेर्गोऽन्तश्च ॥४७८॥ पतिकृलूभ्यो णित् ॥ ४७९ ॥ चात्वालककालहिन्तालवेतालजम्बालशब्दालममाप्तालादयः ॥ ४८० ॥ कल्यनिम. हिदमिजटिभटिकुटिचण्डिशण्डितुण्डिपिण्डिभूकुकिभ्य इलः ॥ ४८१ ॥ भण्डे लुक् च वा ॥ ४८२ ॥ गुपिमिथिध्रुभ्यः कित् ॥४८३॥ स्थण्डिलकपिलविचकिलादयः॥४८४॥ हृषिवृतिचटिपटिशकिशङ्कितण्डिमङ्ग्युत्कण्ठिभ्य उल: ॥ ४८५ ॥ स्थावङ्किबंहिबिन्दिभ्यः किन्नलुक् च ॥ ४८६ ॥ कुमुलतुमुलनिचुलवजुलमजुलपृथुलविशंस्थुलाङ्गुलमुकुलशष्कुलादयः॥४८७ ।। पिञ्जिमञ्जिकण्डिगण्डिबलिवधिवश्विभ्य ऊलः ॥ ४८८ ॥ तमेोऽन्तो दीर्घस्तु वा ॥ ४८९ ॥ कुलिपुलिकुशिभ्यः कित् ॥ ४९० ॥ दुकूलकुकूलवम्बूलला. ङ्गुलशार्दूलादयः ॥ ४९१ ॥ महेरेलः ॥ ४९२ ॥ कटिपटिकण्डिगण्डिशकिकपिचहिभ्य ओलः ॥ ४९३ ॥ ग्रह्याद्भयः कित् ॥४९४॥ पिच्छोलकल्लोलककोलमकोलादयः॥४९५॥ वलिपुषेः कलक् ॥ ४९६ ॥ मिगः खलश्चैच ॥ ४९७ ॥ श्नो नोऽन्तो ह्रस्वश्च ॥ ४९८ ॥शमिकमिपलिभ्यो बलः॥४९९॥ तुल्वलेल्वलादयः ॥५००॥ शीङस्तलक्पालवालणूवलण्वलाः ॥ ५०१ ॥ रुचिकुटिकुषिकशिशालिद्रुभ्यो मला ॥ ५०२ ॥ कुशिकमिभ्यां कुल्कुमौ च ॥५०३॥ पतेः सल: ॥५०४ ॥ लटिखटिखलिनलिकण्यशौसृशृकृगृदृपृशपिश्याशालापदिहसीणभ्यो वः ॥५०५ ॥ शीडापो हस्वश्च वा ॥५०६ ॥ उर्ध च ॥ ५०७॥ गन्धेरर्चान्तः ॥५०८ ॥ ट , Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् ( १५९ ) लषेर्लिषु च वा ॥ ५०९ ॥ सलेर्णिद्वा ॥ ५१० ॥ निघृषीष्यृपिश्रुपुषिकिणिविशिविल्यविभ्यः कित ।। ५११ ॥ नत्रो भुवो डित् ॥ ५९२ ॥ लिहेर्जिह च ॥ ५९३ ॥ प्रवाद्द्वायहवा स्वच्छेवाग्रीवामीवान्वादयः || ५१४ ॥ वडिवटिपेलचणिपणिपल्लवल्लेरवः || ५१५ || मणिव सेर्णित् ॥५१६ ॥ मलेव ॥ ५१७ ॥ कितिकुडिकुरिमुरिस्थाभ्यः कित् ॥ ५१८|| कैरव भैरवमुतवकारण्डवादीनवादयः ॥ ५१९ ॥ शृणातेरावः ॥ ५२० ॥ प्रथेरिवट् पृथ् च ॥ ५२१ ॥ पलिस चेरिवः ॥ ५२२ ॥ स्पृशेः श्वः पारू च ॥ ५२३ ॥ कुडितुड्य डेरुवः ॥५२४ ॥ नीविध्यै प्यापादामाभ्यस्त्वः ||५२५॥ कृजन्येधिपाभ्यः इत्वः || ५२६ ॥ पादावस्यमिभ्यः शः ॥५२७॥ कृभृवृवनिभ्यः कित् ॥ ५२८ ॥ कोर्वा ।। ५२९ ।। क्लिशः के च ।। ५३० ।। उरेस्श ॥ ५३१ ॥ कलेष्टित् ॥ ५३२ ॥ पलेराशः ॥ ५३३ ॥ कनेरीश्चातः ॥ ५३४ ॥ कुलिकनिकणिपलिवडिभ्यः किशः ॥ ५३५ || बलेर्णिद्वा ॥ ५३६ ॥ तिनिशेतिशादयः || ५३७ ॥ मस्ज्यङ्किभ्यामुशः ॥ ५३८ ॥ अर्तीशुभ्यां पिशतशौ ॥ ५३९ ॥ वृकृमीमाभ्यः षः || ५४०॥ यो वा ॥ ५४१ ॥ नुपूसूम्बर्कलूभ्यः कित् ॥ ५४२ ॥ श्लिषेः शे च ।। ५४३ ॥ कोरषः || ५४४ ॥ युजलेराषः अपैरिषः ||५४६ || मह्यविभ्यां टित् ॥ ५४७ ॥ रुहेर्वृद्धिश्च ॥ ५४८ ॥ अमिमृभ्यां णित् ॥ ५४९ ॥ तवेर्वा ॥ ५५० ॥ कले| किल्य् च ।। ५५१ ।। नञो व्यथेः ।। ५५२ ।। कृतृभ्या मीषः ॥ ५५३ ॥ ऋजिशृपृभ्यः कित् ।। ५५४ || अमेर्वरादिः ||५५५ || उर्णोऽन्तश्च ॥ ५५६ ॥ ऋनहिहनिकलिचलिचपिपिपिहयिभ्य उषः || ५५७ || विविम्यां कित् ||५५८ ॥ ८८ ८ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) परिशिष्टेषु अपुषधनुषादयः ।। ५५९ ॥ खलफलिवृटकुलम्बिमञ्जिपीविहन्यङ्गिमङ्गिगण्ड्यर्तिभ्य ऊषः ॥ ५६० ॥ कोरदूषाटरूषकारूष शैलूषपिञ्जूषादयः ॥ ५६१ ॥ कलेर्मषः ॥५६२ ॥ कुलेश्च माषक || ५६३ || माववयमिकमिह निमानिकष्य शिपचिमुचियजिद्दृदृभ्यः सः || ५६४ ॥ व्यवाभ्यां तनेरीच्च वेः ॥ ५६५ ।। प्लुषेः प्लप् च ।। ५६६ ॥ ऋजिरिषिकुषिकतित्रश्युन्दिशृभ्यः कित ॥ ५६७ ॥ गुधिगृधेस्त च ॥५६८ ॥ तप्यणिपन्यस्यविरधिन भिनम्यमिचमितमिचव्यतिपतेरसः ॥ ५६९ ।। स्वयिभ्यां णित् ॥ ५७० ॥ वहियुभ्यां वा ॥ ५७१ ।। दिवादिरभिलभ्युरिभ्यः कित् ।। ५७२ ।। फनसतामरसादयः ॥ ५७३ || युबलिभ्यामासः ॥ ५७४ ॥ किलेः कित् ।। ५७५ ॥ तलिकसिभ्यामीस ॥ ५७६ ॥ सेर्डित् ।। ५७७ ॥ त्रपेरुसः ॥ ५७८ ॥ पटिवीभ्यां टिसडिसौ ॥ ५७९ ।। तसः || ५८० ॥ इणः ॥ ५८१ ॥ पीड़ो नसक् || ५८२ ।। क्रुकुरिभ्यां पासः ॥ ५८३ ॥ कलिकुलिभ्यां मास || ५८४ | अलेरम्बुसः || ५८५ || लूगो हः ॥ ५८६ ॥ कितो गे च ॥ ५८७ ॥ हिंसेः सिम् च ॥ ५८८ ॥ कृपृकटिपटिमटिलटिललि पलिकल्यनिरगिलगेरहः ॥५८९ ॥ पुले कित् ।। ५९० ॥ वृकटिशयिभ्य आहः ॥ ५९१ ॥ विलेः कित् ॥ ५९२ ॥ निर इण ऊहशू ॥ ५९३ दस्त्यूहः ।। ५९४ ।। अनेरोकहः ॥ ५९५ ॥ वलेरक्षः ||५९६ ॥ लाक्षाद्राक्षामिक्षादयः ॥ ५९७ ।। समिनिकषिभ्यामाः ।। ५९८ ।। दिविपुरिवृषमृषिभ्यः कित् ॥ ५९९ ॥ वेः साहाभ्याम् ॥ ६०० ॥ वृमिपिदिशिभ्यस्थपव्याश्रान्ताः ॥ ६०१ ॥ मुचिस्वदे Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् (१६१) च ॥ ६०२ ॥ सोढुंग आह च ॥ ६०३ ॥ सनिक्षमिदुषेः ॥६०४ ॥डित् ॥ ६०५ ॥ स्वरेभ्य इः॥६०६ ॥ पदिपठिपचिस्थलिहलिकलिबलिवलिवल्लिपल्लिकटिचटिवटिबधिगाध्यर्चिवन्दिनन्द्यविवशिवाशिकाशिछर्दितन्त्रिमन्त्रिखण्डिमण्डिचण्डियत्यञ्जिमस्यसिवनिध्वनिसनिगमितमिग्रन्थिअन्थिजनिमण्यादिभ्यः॥६०७॥ किलिपिलिपिशिचिटित्रुटिशुण्ठितुण्डिकुण्डिभण्डिहुण्डिपिण्डिचुल्लिबुधिमिथि. रुहिदिविकीर्यादिभ्यः ॥६०८॥ नाम्युपान्त्यकृगृशृपपूम्यः कित् ॥ ६०९ ॥ विदिवृतेर्वा ॥ ६१० ॥ तृभ्रम्यद्यापिदम्भिभ्यस्तित्तिरभृमाधापदेभाश्च ॥ ६११ ॥ मनेरुदेतौ चास्य वा ॥ ६१२ ॥ क्रमितमिस्तम्भेरिच नमेस्तु वा ॥ ६१३ ॥ अम्भिकुण्ठिकम्प्यंहृिभ्यो नलुक् च ॥ ६१४ ॥ उभेदैत्री च ।। ६१५ ॥ नीवीप्रहृभ्यो डित् ॥ ६१६॥ वो रिचे स्वरानोऽन्तश्च ॥६१७. कमिवमिजमिघसिलिफलितलितडिवजिवजिध्वजिराजिपणिवणिवदिसदिहदिहनिसहिवहित. पिवपिभटिकश्चिसंपतिभ्यो णित् ।। ६१८ ॥ कृशृकुटिग्र. हिखन्यणिकष्यलिपलिचरिवसिगण्डिभ्यो वा ॥ ६१९ ॥ पादाचात्यजिभ्याम् ॥६२०॥ नहेर्भ च ॥६२१।। अशोरश्वादिः ॥६२२॥ कायः किरिच वा ॥६२३॥ वढेरकिः ॥६२४॥ सनेडेखिः ६२५॥ कोर्डिखिः॥६२६।। मृश्चिकण्यणिध्यविम्य ईचिः ॥ ६२७ ॥ वेगो डित् ॥ ६२८ ॥ वर्णित् ॥ ६२९ ॥ कृपिशकिभ्यामटिः ॥ ६३० ॥ श्रेर्हिः ॥६३१ ॥ चमेरुचातः ॥ ६३२ ॥ मुषेरुण चान्तः ॥ ६३३ ॥ कावावीक्रीश्रिश्रुक्षुज्वरितूरिचूरिपूरिभ्यो णिः ॥ ६३४ ॥ ऋघसृकुवृषिभ्यः कित् ॥ ६३५ ।। पृषिहृषिभ्यां वृद्धिश्च ॥६३६ ॥ हर्णिधूर्णि Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु ( १६२ ) भूर्णिघूर्ण्यादयः॥६३७॥ ऋहृसृसृधृभृकृतॄग्रहेरणिः ॥६३८॥ करिश्चास्य वां ॥ ६३९ ॥ ककेर्णित् ॥ ६४० ॥ कृषेश्व चादेः ॥ ६४१ ॥ क्षिपेः कित् ॥ ६४२ ॥ आङः कृहृशुषेः सनः || ६४३ ॥ वारिसदेरिणि ॥ ६४४ ॥ अदेस्त्रीणिः ॥ ६४५ ॥ ज्ञायजिपपिपदिवसित सिभ्यस्तिः ||६४६ ॥ प्रथेर्लुक् च वा ।। ६४७ || कोर्यषादिः ॥ ६४८ ॥ ग्रो प् च ॥ ६४९ ॥ सोरस्तेः शित् ॥ ६५० ॥ मुषिकृषिरिषिविषिशोशुच्यसि पूयीणप्रभृतिभ्यः कित् ।। ६५१ ॥ कुच्योनऽन्तश्च ।। ६५२ ।। खल्यमिरमिव हिवस्यर्तेरतिः ॥ ६५३ ॥ हन्तेरंहू च ।। ६५४ ॥ वृगो व्रत् च ।। ६५५ ।। अचेः कच वा ॥ ६५६ ।। वातेर्णिद्वा ॥ ६५७ || योः कित् ॥ ६५८ ॥ पाते ।। ६५९ ॥ अगिविलिपुलिक्षिपेरस्ति ॥ ६६० ॥ गृधेर्ग च ॥ ६६१ ॥ वस्यर्तिभ्यामातिः || ६६२ ॥ अभे मायाम् || ६६३ ॥ यजो य च ॥ ६६४ ॥ वद्यविच्छदिभूभ्योऽन्तिः ॥ ६६५ | शकेरुन्तिः ॥ ६६६ ॥ नवो दागो डितिः ||६६७|| देङः ||६६८ || वीसञ्ज्यसिभ्यस्थिक् ||६६९ || सारेरथिः ॥६७०॥ निषले र्धित || ६७१ ॥ उदर्त्तेर्णिद्वा ॥६७२ ॥ अतेरिथिः ॥ ६७३ || तनेति ॥ ६७४ ॥ उषेरधिः ।। ६७५ ।। विदोरधिक् ॥६७६ ॥ वीयुसुवत्यगिभ्यो निः ||६७७॥ धूशाशीडो ह्रस्वश्च ॥ ६७८ ॥ लुधूप्रच्छिभ्यः कित् ॥ ६७९ ॥ सदिवृत्यमिधम्यश्यटिकट्यवेरनिः ॥ ६८० ॥ रजेः कित ॥ ६८१ ॥ अरत्नि : || ६८२ ॥ एधेरिनिः ॥ ६८३ ॥ शकेरुनिः ।। ६८४ ।। अदेर्मनिः || ६८५ || दमेर्दुभिर्दुम् च ॥ ६८६ ॥ नीसाष्टयुशृवलिदलिभ्यो मिः || ६८७ ॥ अशो रचादिः ॥ ६८८ ॥ वर्तेरूच्चातः ॥ ६८९ ॥ कृभूभ्यां कित् Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् (१६३) कणेर्डयिः ॥६९१॥ तङ्किवझ्यङ्किमक्यं हिशयविसद्याशौवपिवशिभ्योरिः ॥६९२ ॥ भूसूकुशिविशिशुभिभ्यः किन ॥६९३॥जपोरश्च वः॥६९४।। कुन्द्रिकुयादयः ॥६९५॥ राशदिशाकिकद्यदिभ्यस्त्रिः॥ ६९६ ॥ पतेरात्रिः ॥ ६९७ ॥ नदिवल्ल्यर्तिकृतेरारिः॥ ६९८ ॥ मस्यसिघसिजस्थगिसहिन्य उरिः ॥ ६९९ ।। मुहेः कित् ॥ ७०० ॥ धूमूभ्यां लिलिणौ ॥ ७०१ ॥ पायञ्जिभ्यामलिः ॥ ७०२ ॥ मासालिभ्यामोकुलिमली ॥ ७०३ ॥ दृपृवृभ्यो विः ॥ ७०४ ॥ ज़शृस्तृजागृकृनीषिभ्यो डिन्त् ॥ ७०५ ॥ छविछिविस्फविस्फिविस्थविस्थिविदविदीविकिकिविदिदिविदीदिविकिकीदिविकिकिदीविशिव्यटव्यादयः ॥ ७०६ ॥ प्रषिप्लुषिशुषिकुष्यसिभ्यः सिक् ।।७०७॥ गोपादेरनेरसिः॥७०८॥ वृधपत्साभ्यो नसिः ॥ ७०९ ॥ बियो हिक् ॥ ७१० ॥ तृस्तृतन्द्रितन्त्र्यविभ्य ईः ॥ ७११ ॥ नडेर्णित् ॥ ७१२ ॥ वातात् प्रमः कित् ।। ७१३ ॥ यापाभ्यां द्वे च ।। ७१४ ॥ लक्षेर्मोऽन्तश्च ॥ ७१५ ॥ भृमृतृत्सरितनिधन्यनिमनिमस्जिशीवटिकटिपटिगडिचच्यसिवसित्रपिशृस्कृस्निहिक्लिदिकन्दीन्दिविन्द्यन्धिबन्ध्यणिलोष्टिकुन्धिभ्य उः ॥ ७१६ ॥ स्यन्दिसृजिम्यां सिन्धूरजौ च ॥ ७१७ ॥ पंसेदीर्घश्च ।। ७१८ ॥ अशेरानोऽन्तश्च ।। ७१९ ॥ नमे व च ॥ ७२० ॥ मनिजनिभ्यां धतौ च ॥ ७२१ ॥ अर्जेजू च ॥ ७२२ ॥ कृतेस्त• च ॥ ७२३ ॥ नेरचेः ॥ ७२४ ॥ किमः श्रो णित् ॥ ७२५ ॥ मिवहिचरिचटिभ्यो वा ॥ ७२६ ॥ ऋतशृमृभ्रादिभ्यो रो लश्च ॥ ७२७ ॥ कृकस्थूराद्वचः क् च ॥ ७२८ ॥ पृकाहृषिधृषीषिकुहिभिदिविदिमृदिव्यघिगृ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) परिशिष्टेषु ध्यादिभ्यः कित् ॥ ७२९ ॥ रभिपृथिभ्यामृच्च रस्य ॥७३०॥ स्पशिभ्रस्जेः स्लुक् च ॥ ७३१ ॥ दुःस्वपवनिभ्य स्थः ॥ ७३२ ॥ हनियाकृभृतृत्रो द्वे च ।। ७३३ ॥ कृन ऋत उर् च ॥ ७३४ ॥ पचेरिचातः ॥ ७३५ ॥ अर्तेर्च ॥७३६॥ महत्युर्च ॥ ७३७ ॥ उइ च भे ॥ ७३८ ॥ श्लिषेः क.च ॥ ७३९ ॥ रविलचिलिङ्गे लुक् च ॥ ७४० ॥ पीमृगमित्र. देवकुमारलोकधर्मविश्वसुम्नाश्मावेभ्यो युः ॥ ७४१ ॥ परा भ्यां शृखनिभ्यां डित् ॥ ७४२ ॥ शुभेः स च वा ॥ ७४३ ॥ शुद्रुभ्याम् ॥ ७४४ ॥ हरिपीतमितशतविकुकदुभ्यो दूधः ॥ ७४५ ॥ केवयुभुरण्यवध्वर्वादयः॥ ७४६ ॥ शः सन्वच ॥ ७४७ ।। तनेर्डः ॥ ७४८ ॥ कैशीशमिरमिभ्यः कुः ॥ ७४९ ॥ ह्रियः किद्रो लश्च वा॥ ७५० ॥ किरः ष च ॥ ७५१ ॥ चटिकठिपर्दिभ्य आकुः ॥ ७५२ ॥ सिवि. कुटिकुठिकुकुषिकृषिभ्यः कित् ।।७५३॥ उपसर्गाचेर्डित् ।। ७५४ ॥ शलेरकुः ॥ ७५५ ॥ सृपृभ्यां दाकुक ॥७५६॥ इषेः स्वाकुकू च ॥ ७५७ ॥ फलिवल्यमेगुः ॥ ७५८ ॥ दमे क् च ॥ ७५९ ॥ हेर्हिन् च ।। ७६० ॥ प्रीकैपैनीलेर शुक् ॥ ७६१ ॥ अव्यर्तिगृभ्योऽटुः ॥ ७६२ ॥ शलेराटुः १७६३। अङ्ग्यवेरिष्टुः।७६४ांतनिमनिकणिभ्योडुः ॥७६५॥ पनेदीर्घश्च ।। ७६६ ॥ पलिमृभ्यामाण्डुकण्डुको ॥ ७६७ ॥ अजिस्थावरीम्यो णुः ॥ ७६८ ॥ विषेः कित् ॥ ७६९ ॥ क्षिपेरणुक् ॥ ७७० ॥ अञ्जेरिष्णुः ॥ ७७१ ॥ कृहृभूजीविगम्यादिभ्य एणुः ॥ ७७२ ॥ कृसिकम्यमिगमितनिमनिजन्यसिमसिसच्यविभाधागाग्लाम्लाहनिहायाहि क्रुशिपू. भ्यस्तुन् ॥ ७७३ ॥ वसेर्णिद्वा ॥ ७७४ ॥ प. पीप्यो च वा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादिप्रकरणम् ( १६५ ) 1 ॥ ७७५ ॥ आपोऽपू च ॥ ७७६ ॥ अञ्ज्यतेः कित् ॥७७७|| चायः के च ॥ ७७८ ॥ वहिमहिगुह्येनिभ्योऽतुः ॥ ७७९ ॥ कृलाभ्यां कित् ॥ ७८० ॥ तनेर्यतुः ॥ ७८१ ॥ जीवेरातुः ॥ ७८२ ॥ यमेर्बुक् ॥ ७८३ || शीङने धुक् ॥ ७८४ ॥ धूगो धुन् च ॥ ७८५ ॥ दाभाभ्यां नुः ॥ ७८६ ॥ धेः शित् ॥ ७८७ ॥ ङः कित् ॥ ७८८ || हो जह च ॥ ७८९ ॥ वचेः कगौ च ॥ ७९० ॥ कुहनेस्तुक्नुकौ ॥ ७९१ ॥ गमेः सन्वच्च ॥ ७९२ ॥ दाभूक्षण्युन्दिनदिवदिपत्यादेरनुकू ॥ ७९३ ॥ कृशेरानुक् ॥ ७९४ ॥ जीवे रदानुक् ॥ ७९५ ॥ वचेरतुः ॥ ७९६ ॥ हृषिपुषिधुषिगदिमदिनन्दिगण्डिमण्डिजनिस्तनिभ्यो णेरित्नुः ॥ ७९७ ॥ कस्यर्तिभ्यामिपुक् ॥ ७९८ । कम्यमिभ्यां बुः ॥ ७९९ ॥ अभ्ररमुः ॥ ८०० ॥ यजिशुन्धिदहिदसिजनिमनिभ्यो युः ॥ ८०१ ॥ भुजेः कित् ॥ ८०२ ॥ सर्तेरय्खन्यू || ८०३ || भूक्षिपिचरेरन्युक् ॥ ८०४ ॥ मुस्त्युंकू ॥। ८०५ ॥ चिनीपीम्यशिभ्यो रुः ॥ ८०६ ॥ रुभ्यां कित् ॥ ८०७ जनिहनिशद्यस्त च ॥ ८०९ ॥ श्मनः शीडो हित ॥ ८१० ॥ शिग्रुगेरुन मेर्वादयः ॥ ८११ ॥ कटिकटयर्तेररुः ।। ८१२ ।। कर्केरारुः ।। ८१३ ॥ उवैरादेरूदेतौ च ॥ ८१४ ॥ कृपिक्षुधिपीकुणिभ्यः कित् ॥ ८१५ ॥ इयः शीत च || ८१६ || तुम्बेरुरुः ।। ८१७ ॥ कन्देः कुन्दु च ॥ ८१८ ॥ चमेरूरुः ||८१९ ॥ शीङो लुः ॥ ८२० || पीडः कित् ॥ ८२१ ॥ लस्जीशिलेरालुः ॥ ८२२ ॥ आपोऽप् च ॥ ८२३ ॥ गूहलुगुग्गुलुकमण्डलवः ॥ ८२४ ॥ प्रः शुः ॥ ८२५ ।। मस्जीष्यशिभ्यः सुकू ।। ८२६ ॥ तृपलिमलेरक्षुः ॥ ८२७॥ ॥ खनो लुक् च । ८०८ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) परिशिष्टेषु उले कित् ॥ ८२८ ॥ कृषिचमितनिधन्यन्दिसर्जिखर्जिभर्जिलस्जीयिभ्य ऊः ॥ ८२९ ॥ फले फेल् च ॥ ८३० ॥ कषेण्र्डच्छौ च षः ॥ ८३१ ॥ वहेर्ध च ॥ ८३२ ॥ मृजेणु: णश्च ॥ ८३३ ॥ अजेोऽन्तश्च ॥ ८३४ ॥ कसिपद्यादिभ्यो णित् ।। ८३५ ॥ अणे?ऽन्तश्च ॥ ८३६ ॥ अडो ल च वा ॥ ८३७ ॥ नजो लम्बेर्नलुक् च ॥ ८३८ ॥ कफा. दीरेल च ॥ ८३९ ॥ ऋतो रत च ॥ ८४० ॥ दभिचपेः स्वरान्नोऽन्तश्च ॥ ८४१ ॥ धृषेर्दिधिषदिधीषौ च ॥ ८४२ ॥ भ्रमिगमितनिभ्यो डित् ।। ८४३ ॥ नृतिगृधिरुषिकुहिभ्यः कित् ॥ ८४४ ॥ तृखण्डिभ्यां डूः॥ ८४५ ॥ तृदृभ्यां दूः ॥ ८४६ । कमिजनिभ्यां बूः ॥ ८४७ ॥ शकेरन्धू।।८४८॥ कुगः कादिः॥८४९ ।। योरागूः ।। ८५० ॥ काच्छीडो डेरू: ॥ ८५१ ॥ दिव ऋः ॥ ८५२ ॥ सोरसेः ॥ ८५३ ॥ नियो डित् ॥ ८५४ ॥ सव्यात् स्थः ॥ ८५५ ॥ यतिननन्दिभ्यां दीर्घश्च ॥ ८५६ ॥ शासिशंसिनीरुक्षुहृभृधमन्यादिभ्यस्तः ॥ ८५७ ॥ पातेरिच ॥ ८५८ ॥ मानिभ्राजेनुक् च ।।८५९॥ जाया मिगः ॥ ८६० ॥ आपोऽप् च ॥ ८६१ ॥ नमेः पच ॥ ८६२ ॥ हुपूग्गोन्नीप्रस्तुप्रतिप्रस्थाभ्य ऋत्विजि ॥८६३॥ नियः षादिः ॥ ८६४ ॥ त्वष्टक्षत्तृदुहित्रादयः ॥ ८६५ ॥ रातेडैः ॥ ८६६ ॥ धुगमिभ्यां डोः॥ ८६७ ॥ ग्लानुदिभ्यां डौः ॥ ८६८ ॥ तो किक् ॥ ८६९ ॥ द्राग्रादयः ॥ ८७० ॥ स्रोश्चिक् ॥ ८७१ ॥ तने वच् ॥ ८७२ ॥ पारेरजू ॥ ८७३॥ ऋधिपृथिभिषिभ्यः कित् ॥ ८७४ ॥ भृपणिभ्यामिजू भुरवणौ च ॥ ८७५ ॥ वशेः कित् ॥ ८७६ ॥ लङ्घरेट नलुक च ॥ ८७७ ॥ सर्तेरडू ।। ८७८ ॥ ईडेरविड् हस्वश्च ॥८७९॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादि प्रकरणम् (१६७) किपि म्लेच्छश्च वा ॥ ८८० ॥ तृपेः कत् ॥ ८८१ ॥ संश्चदेहत्साक्षादादयः ॥ ८८२ ॥ पटच्छपदादयोऽनुकरणाः ॥ ८८३ ॥ द्रुहिवृहिमहिपृषिभ्यः कतः॥ ८८४ ॥ गमेर्डिद् द्वे च ॥ ८८५ ॥ भातेर्डवतुः ॥८८६॥ हृसूरुहियुषितडिभ्य इत् ॥ ८८७ ॥ उदकाच्छ्वे र्डित् ॥८८८॥ न उत् ॥८८९॥ ग्रो मादिर्वा ॥ ८९० ।। शकेत् ॥ ८९१ ॥ यजेः क च ॥ ८९२ ॥ पातेः कुथ् ॥ ८९३ ॥ शुभसेरद् ॥ ८९४ ॥ तनित्यजियजिभ्यो डद् ॥ ८९५ ॥ इणस्तद् । ८९६ ॥ प्रः सद् ॥ ८९७ ॥ द्रो ह्रस्वश्च ॥८९८॥ युष्यसिम्यांक्मद् ॥८९९॥ उक्षितक्ष्यक्षीशिराजिधन्विपश्चिपूषिक्लिदिस्निहि. नुमस्जेरन् ॥ ९०० ॥ लूपूयुवृषिशिद्युदिविप्रतिदिविभ्यः कित् ॥ ९०१ ॥श्वन्मातरिश्वनमूर्धनप्लीहनअर्थमन्विश्वप्सनपरिज्वन्महाहनमघवन्नथर्वन्निति ॥९०२ ॥ षप्यशौ. भ्यां तन् ॥९०३॥ स्नामदिपद्यर्तिपृशकिभ्यो वन ॥९०४।। ग्रहेरा च ॥९०५॥ ऋशीक्रुशिरुहिजिक्षिहृमृधृभ्यः क्वनिप् ॥९०६ ॥ सृजेः सजूसको च ॥ ९०७ । ध्याप्यो( पी च ॥९०८ ।। अतेर्ध च ॥ ९०९ ॥ प्रात्सदिरीरिणस्तोऽन्तश्च ॥ ९१० ॥ मन् ॥ ९११ ॥ कुष्युषिसृपिभ्यः कित ॥ ९१२ ॥ बुंहेर्नोऽच्च ॥ ९१३ ॥ व्येग एदोतो च वा ॥ ९१४ ॥स्यतेरी च वा ॥ ९१५ ॥ सात्मन्नात्मन्वेमनोमन्क्लोमन्ललामन्नामन्पाप्मन्पक्ष्मन्यक्ष्मन्निति ॥ ९१६ ॥ हृजनिभ्यामिमन् ॥९१७।। सृहृभृस्तृसूभ्य ईमन् ॥९१८॥गमेरिन् ।।९१९॥ आङश्च णित् ।। ९२० ॥ सुवः ॥ ९२१ ॥ भुवो वा ॥९२२॥ प्रप्रतेबुधिभ्याम् ॥ ९२३ ॥ प्रात् स्थः ॥९२४॥ परमात् कित् ॥ ९२५ ॥ पथिमन्थिभ्याम् ॥ ९२६ ॥ होर्मिन् Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) परिशिष्टेषु ॥ ९२७ ॥ अर्ते क्षिनक् ॥ ९२८ ॥ अदेस्त्रिन् ॥ ९२९ ॥ पतेरत्रिन् ॥ ९३० ॥ आपः किए हस्वश्च ॥ ९३१ ॥ ककु. पत्रिष्टुषनुष्टुभः ॥ ९३२ ॥ अवेमः ॥ ९३३ ॥ सोरेतेरम् ॥९३४ ॥ नशिनूभ्यां नक्तनूनी च ॥ ९३५ ॥ स्यतेर्णित् ॥ ९३६ ॥ गमिजमिक्षमिकमिशमिसमिभ्योडित् ॥९३७॥ इणो दमक् ॥ ९३८ ॥ कोर्डिम् ॥९३९॥ तूपेरीम् णोऽन्तश्च ॥ ९४० ॥ ईकमिशमिसमिभ्यो डित् ॥ ९४१ ॥ ऋमिगमिक्षमेस्तुमाचातः ॥९४२॥ गृपृदुर्विधुर्विभ्यः किम्॥९४३॥ बाारौ ॥ ९४४ ॥ प्रादतेर ।। ९४५ ॥ सोरते क् च ॥ ९४६ ॥ पूसन्यमिभ्यः पुनसनुतान्ताश्च ॥९४७ ॥ चतेरुर् ॥ ९४८ ॥ दिवेर्डिव् ॥ ९४९ ।। विशिविपाशिभ्यां किए ॥ ९५० ॥ सहेः षष् च ॥ ९५१ ।। अस् ॥ ९५२ ॥ पाहाभ्यां पयह्यौ च ॥ ९५३ ॥ छदिवहिभ्यां छन्दोधौ च ॥ ९५४ ॥ श्वेः शव च वा ॥ ९५५ ॥ विश्वाद् विदि. भुजिभ्याम् ॥ ९५६ ॥ चायी ह्रस्वश्च वा ॥९५७ ॥ अशेयश्चादिः ॥९५८ ॥ उषे च ॥९५९॥ स्कन्देधं च ॥९६०॥ अवेर्वा ॥ ९६१ ॥ अमेमही चान्तौ ॥ ९६२ ॥ अदेरन्ध च वा ॥९६३॥ आपोऽपाताप्सराब्जाश्च ॥९६४॥ उच्यश्चेः क च ॥ ९६५ ॥ अज्यजियुजिभृजेर्ग च ॥ ९६६ ॥ अर्तेरुराशी च ॥ ९६७ ॥ येन्धिभ्यां यादेधौ च ॥ ९६८ ॥ चक्षः शिवा ॥ ९६९ ॥ वस्त्यगिभ्यां णित् ॥ ९७० । मिथिर ज्युषितपशृभूवष्टिभ्यः कित् ॥ ९७१ ॥ विधेयं ॥९७२॥ नुवो धथादिः ॥ ९७३ ॥ वयः पयः पुरोरेतोभ्यो धागः ॥९७४ ॥ नत्र ईहेरेहेधौ च ॥ ९७५ ॥ विहायस्सुमनस्पु. रुशस्पुरुरवोऽङ्गिरसः ॥ ९७७॥ पातेजस्थसौं ॥ ९७७ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादिप्रकरणम् (१६९) सुरीभ्यां तस् ।। ९७८ ॥ अर्तीणभ्यां नम् ॥ ९७९ ॥ रिचेः क च ॥९८० ॥रीभ्यां पस् ॥ ९८१ ॥ शीङः फस् च पचिवचिभ्यां सस् ॥ ९८३ ॥ इणस्तशम् ॥ ९८४ ॥ वष्टेः कनस् ॥ ९८५॥ चन्दो रमस् ॥ ९८६ ॥ दमेरुमसूनसौ ॥ ९८७ ॥ इण आस् ॥ ९८८ ॥ रुचिशुचिहुरुपिछादि. कृदिभ्य इस ॥९८९॥ बंहिबृंहेर्नलुक् च ॥९९०॥ द्युतेरादेश्व जः ॥९९१॥ सहेर्ध च ॥९९२॥ पस्थोऽन्तश्च ॥९९३॥ नियो डित् ॥९९४॥ अवेर्णित् ॥९९५॥ तुभूस्तुभ्यः कित् ॥९९६॥ रुचर्तिजनितनिधनिमनिग्रन्थिपूतपित्रपिवपियजिप्रादिवे. पिभ्य उम् ॥ ९९७ ॥ इणों णित् ॥ ९९८ ॥ दुषेर्डित् ॥ ९९९ ॥ मुहिमिथ्यादेः कित ॥ १००० ॥ चक्षेः शिद्वा ।। १००१ ॥ पातेईम्सुः॥१००२ ॥ न्युभ्यामश्वेः कका. कैसष्टावच ॥१००३॥ शमो नियो डैस् मलुक् च ॥१००४॥ यमिदमिभ्यां डोस् ॥ १००५ ॥ अनसी वहेः किप सच डः॥१००६॥ ) ॥ इति उणादि प्रकरणम् ॥ नर HOM - - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २॥ m ___॥ सप्तमम् परिशिष्टम् ॥ श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासनप्रशस्तिः। हरिवि बलिवन्धकरत्रिशक्तियुक्तः पिनाकपाणिरिव । कमलाऽऽश्रयश्च विधिरिव जयति श्रीमूलराजनृपः ॥१॥ पूर्वभवदारगोपी-हरणस्मरणादिव ज्वलितमन्युः । श्रीमूलराजपुरुषोत्तमोऽवधी दर्मदाऽऽभीरान् चक्रे श्रीमूलराजेन नवः कोऽपि यशोऽर्णवः । परकीर्तिस्रवन्तीनां न प्रवेशमदत्त यः ॥३॥ सोत्कण्ठमङ्गलगतैः कचकर्षणैश्च वस्त्राब्जचुम्बननखक्षतकर्मभिश्च । श्रीमूलराजहतभूपतिमिविलेसुः सङ्ख्येऽपि खेऽपि च शिवाश्च सुरत्रियश्च ॥४॥ प्रावृड् जातेति हे ! भूपा मा म त्यजत काननम् । हरिः शेतेऽत्र न त्वेषो मूलराजमहीपतिः । मूलार्कः श्रूयते शास्त्रसर्वकल्याणकारणम् । अधुना मूलराजस्तु चित्रं लोकेषु गीयते ॥६॥ मूलराजासिधारायां निमग्ना ये महीभुजः । उन्मज्जन्तो विलोक्यन्ते स्वर्गगङ्गाजलेषु ते ॥७॥ श्रीमूलराजक्षितिपस्य बाहुबिभर्ति पूर्वाचलश्रृङ्गशोभाम् । संकोचयन् वैरिमुखाम्बुजानि यस्मिन्नयं स्फूर्जति चन्द्रहासः॥८॥ असंरब्धा अपि चिरं दुःसहा वैरिभूभृताम् । चण्डाचामुण्डराजस्य प्रतापशिखिनः कणाः ॥९॥ श्रीमदल्लभराजस्य प्रतापः कोऽपि दुःसहः। . प्रसरन् वैरिभूपेषु दीर्घनिद्रामकल्पयत् ॥१०॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनप्रशस्तिः । १७१ श्रीदुर्लभेशयुमणेः पादास्तुष्टुविरे न कै । लुलद्भिर्मेदिनीपालैर्वा लिखिल्यैरिवाग्रतः ॥११॥ प्रतापतपनः कोऽपि मौलराजेनवोऽऽभवत् । रिपुत्रीमुखपद्मानां न सेहे. यः किल श्रियम् ॥ १२ ॥ कुर्वन् कुन्तलशैथिल्यं मध्यदेशं निपीडयन् ।। अङ्गेषु विलसन् भूमेर्भाऽभृद् भीमपार्थिवः ॥१३॥ श्रीभीमपृतनोत्खातरजोभिरिभूभुजाम् । अहो ! चित्रमवर्धन्त ललाटे जलबिन्दुवः ॥ १४ ॥ कर्ण च सिन्धुराजं च निर्जित्य युधि दुर्जयम् । . श्रीभीमेनाधुना चक्रे महाभारतमन्यथा ॥ १५ ॥ दुर्योधनोर्वीपतिजैत्रबाहु-गृहीतचेदीशकरोऽवतीर्णः। .. अनुग्रहीतुं पुनरिन्दुवंशं श्रीभीमदेवः किल भीम एव ।। १६ ॥ अगणितपञ्चपुत्रलः पुरुषोत्तमचित्तविस्मयं जनयन् । रामोल्लासनमूर्तिः श्रीकर्णः कर्ण इव जयति ॥ १७ ॥ अकृत्वासननिर्बन्धमभित्त्वा पावनी -गतिम् । .. सिद्धराजः परपुरप्रवेशवशितां ययौः -- ॥१८॥ मात्रयाऽप्यधिक किचिन्न सहन्ते जिमीषवः । इतीव त्वं धरानाथ ! धारानाथमपाकथाः ... ॥१९॥ क्षुण्णाः क्षोणिभृतामनेककटका भग्नाऽथ धारा ततः कुण्ठः सिद्धपतेः कृपाण इति रे ! मा मंसत क्षत्रियाः !। आरूढप्रबलप्रतापदहनः संप्राप्तधारश्चिरात् .. पीत्वा मालवयोषिदश्रुसलिलं हन्ताऽयमेधिष्यते ॥२०॥ श्रीविक्रमदित्यनरेश्वरस्य विया न किश्चित् प्रकृतं नरेन्द्र ! । यशस्यहार्षीः प्रथमं समन्तात् क्षणादभाजीरथ राजधानीम् ॥२१॥ मृदित्वा दोःकडूं समरभुवि वैरिथितिभुजा . . . भुजादण्डे दधुः कति न नवखण्डां वसुमतीम् । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ परिशिष्टेषु । यदेवं सामाज्ये विजयिनि वितृष्णेन मनसा .. यशो योगीशानां पिबसि नृप ! सस् कस्य सदृशम् ? ।। २२ ॥ जयस्तम्भान सीमन्यनुजलधिलं निहितवान् वितानैर्ब्रह्माण्डं शुचिमुणगरिष्ठैः पिहितवान् । यशस्तेजोरूपैरलिपत जगन्त्यर्धघुसृणैः कृतो यात्राऽऽनन्दो विस्मति न कि सिद्धनृपतिः ? ॥ २३ ॥ भूमि कामगवि ! स्वगोमयरसैरासिञ्च, रत्नाकरा ! मुक्तात्वस्तिकमातनुध्वमुडुप ! त्वं पूर्णकुम्भीभवः । धृत्वा कल्पफ्तरोदलानि सरलैदिग्वारणास्तोरणा न्याधत्त स्वकरैर्विजित्य जमती नन्वेवि सिद्धाधिपः ॥ २४ ॥ लब्धलक्षा विपक्षेषु विलक्षास्वपि मार्गणाः । तथापि तव सिद्धेन्द्र ! दातेल्युस्तिकं यशः ॥२५॥ उत्साहसाहसवता भवता नरेन्द्र ! धाराव्रतं किमपि तद्विषमं सिषेवे । यस्मात् फलं न खलु मालवमावमेव . श्रीपर्वतोऽपि तव कन्दुककेलिपात्रम् ॥२६॥ अयमवनिपतीन्दो ! मालवेन्द्रावरोध- . स्तनकलशपवित्रां पत्रवल्लीं. लुनातु । कथमखिलमहीभृन्मौलिमाणिक्यभेदे घटयति पटिमानं भग्नधारस्तवासिः ? ॥२७॥ क्षितिधव ! भवदीयः क्षीरधारावल? रिपुविजययशोभिः श्वेत एवासिदण्डः। किमुत कयलितैस्तैः कजलैमालयीनां परिणतमहिमाऽसौ नीलिमानं विति ? ॥२८॥ यद् दोर्मन्डलाडलीकृतधनुर्दण्डेन सिद्धाधिन ! क्रीतं वैरिकुलात् त्वया किल दलत्कुन्दावदावं यशः। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टेषु । प्रान्त्वा श्रीणि जगन्ति खेदविवशं तद् मालवीनां व्यघा दापाण्डौ स्तनमण्डले च धवले गण्डस्थले च स्थितिम् ॥ २९ ॥ द्विषत्पुरक्षोदविनोदहेतो-भवादवामस्य भवद्भुजस्य । अयं विशेषो भुवनैकवीर ! परं न यत्काममपाकरोति ॥ ३० ॥ ऊवं स्वर्गनिकेतनादपि तले पातालमूलादपि त्वत्कीर्तिभ्रमति क्षितीश्वरमणे ! पारे पयोधेरपि । तेनास्याः प्रमदास्वभावसुलभैरुच्चावचैश्वापलै स्ते वाचंयमकृतयोपि मुनयो मौनव्रतं त्याजिताः ॥३१॥ आसीद् विशां पतिरसुद्रचतुम्समुद्र मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमबाहुदण्डः । श्रीमूलराज इति दुर्घरवैरिकुम्भि कण्ठीरवः शुचिचुलुक्यकुलावंतसः ॥ ३२॥ वस्यान्वये समजनि प्रबलप्रतापतिग्मयुतिः क्षितिपतिजयसिंहदेवः येन स्ववंशसवितर्यपरं सुधांशी श्रीसिद्धराज इति नाम निजं व्यलेखि ॥३३॥ सम्यग् निषेव्य चतुरश्चतुरोऽप्युपायान् जित्वोपभुज्य च भुवं चतुरब्धिकाश्चीम् । विधाचतुष्टयविनीतमतिर्जिताऽऽत्मा . काष्ठामबाप पुरुषार्थचतुष्टये यः ॥३४॥ तेनातिविस्तृतदुरागमविप्रकीर्ण शब्दानुशासनसमूहकर्थितेन । अभ्यर्थितो निरवमं विधिवद् व्यधन शादानुशासनमिदं मुनिहेमचन्द्रः Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कलिकालपर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिप्रणीतस्वोपज्ञ लघुवृत्ति संवलित षड्भाषा-व्याकरणरूपश्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनस्य विषयाणामनुक्रमणिका विषयः पृष्ठ | विषयः . पृष्ठ संस्कृतव्याकरणं १-६१६ / स्वार्थिकाऽऽयादिः . संज्ञाविधिः १ । प्रत्ययविधिः २१३ स्वरसंधिः यविधिः २१४ असन्धिविधिः णिविधिः २१६ व्यञ्जनसंधिः इच्छार्थसन्विधिः २१७ पइलिङ्गविधिः नामधातुप्रत्ययविधिःकारकप्रकरणम् आम्प्रत्ययविधिः २२१ पत्वविधिः अद्यतन्यां सिच-सक् डादि "विधिः णत्वविधिः १०० २२४ स्त्रीप्रत्ययविधिः भावकर्मणोचिंचविधिः २२६ गतिसंज्ञाविधिः १२९ , शिति क्यविधिः२२७ समासप्रकरणम् १३२ वादिभ्यः शवादिप्रत्ययः । समासे विभक्तिलु विधिः १६४ विधिः -२२८ अलुब्समासविधिः १६४ जिक्यादिविधिः .. २३० समासाश्रयविधिः १६९ । परोक्षादौ द्वित्वविधिः २३३ , एकत्वविधि २३६ आख्यातप्रकरणम्। " , धात्वादेशाः .. २३८ वृद्धिगुणसंज्ञाविधिः १९० यजोदर्वृद्विधिः .. २४५ आख्यातप्रत्ययविधिः १९१ । संध्यक्षराणामाकारविधिः २५३ आत्मनेपरस्मैपदविधिः १९४ । नकारादिलुग्विधिः . २६१ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ विषयणामनुक्रम । विषयः पृष्ठ विषयः क्त्यादेस्तस्य नवविधिः २६४ इकण-यप्रत्ययविधिः ४७५ क्तस्य नत्वनिषेधः ईयाधिकारः ५०६ हेर्लुगादिविधिः २६७ भावकर्मार्थप्रत्ययाः ५१० गुणवृद्धिनिषेधः २७५ क्षेत्राद्यर्थप्रत्ययाः वृद्रिविधिप्रतिषेधः २८२ स्वार्थिकप्रत्ययाः ५४५ सिब्लुविधिः २८४ समासान्ता: ५७२ सकादिलुविधिः २८६ तद्धिते वृद्धयादिविधिः ५९० आदन्तस्य एवादिविधिः २८७ द्विरुक्तविधिः ६०२ चौ ईविधिः २९२ प्लुतविधिः क्यनि ईत्यादिविधिः २९२ परिभाषाप्रकरणम् . ६०९ स्सविधिः प्राकृतव्याकरणम् नान्तविधिः ६१७-७९५ कृत्प्रकरणम् । शौरसेनीब्याकरणम् कर्तृकृत्यप्रत्ययाः ३१५ ७९५-८०० क्तप्रत्ययविधिः मागधीव्याकरणम् भावादी कृत्यविधिः ३१७ ... ८००-८०५ कर्तरि कृद्विधिः पैशाचीव्याकरणम् विभक्त्यर्थाः ३४१ ८०५-८०९ क्त्वाख्णमादिविधिः ३८९ चूलिका पैशाचिकभाषा तद्धितप्रकरणम् । व्याकरणम् ८०९-८१० अपत्यार्थप्रत्ययविधिः ४०० रक्तार्थप्रत्ययविधिः ४२३ ८१०-८४७ शेषार्थप्रत्ययविधिः ४४४ । प्रशस्तिः ८४८ ३१६ करणम् Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहेमचन्द्रः कषिकालिदास - सर्वज्ञकल्पः कविचक्रवर्ती। । । योगे च पातञ्जलयोगसूत्रं ज्ञानात् मुनीन्द्रोऽप्यधरीचकार ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं स्वो प ज ल घु वृत्ति सं व लि तं श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् । प्रणम्य परमात्मानं श्रेयःशब्दानुशासनम् । आचार्यहेमचन्द्रेण स्मृत्वा किञ्चित् प्रकाश्यते ॥१॥ अहे । १।१।१। अहमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकम् , मङ्गलार्थ शास्त्रस्याऽऽदौ प्रणिदध्महे ॥ १ ॥ सिद्धिः स्यादादात् । १ । १।२। स्याद्वादादनेकान्तवादात् प्रकृतानां शब्दानां सिद्धिनिष्पत्तिज्ञप्तिश्च वेदितव्या ॥२॥ . ओं अहं नमः । १ ग्रस्तुतहैमव्याकरणबृहवृत्तावपीदमेवाद्यं पद्यमस्ति । 'श्रेयः' इति शब्दानामनुशासनस्य परस्याऽऽत्मनो वा विशेषणम् । शब्दानामनुशासनं शब्दानुशासनं व्याकरणशास्त्रमित्यन्वर्थ नामास्ति। आचार्यः शास्त्राणां ज्ञाता उपदेष्टा वा। हेमः स्वार्थे, चन्द्रश्च हिमांश्वर्थकः शब्दः, तद्गुणतत्समत्वाभ्यां मयूरव्यंसकादितः कर्मधारये हेमचन्द्रेति सिध्यति । आचार्येत्यस्य विशेषणत्वेन पूर्वनिपाते. आचार्यहेमचन्द्र इति, तेन । तृतीया च षष्ठीपक्षे ज्ञेया । 'किञ्चित्' इति क्रियाविशेषणम् । अत्र साधवः शब्दा अभिधेयाः। प्रयोजनं च तेषां सम्यग्ज्ञानमिति श्रेयःशब्दाद् वेद्यम् । . २'अहँ" इति सानुनासिकं मान्तं वाऽव्ययं सकलागमरहस्यभूतं योगिजनाङ्गोकृतं महाप्रभावकं मन्त्राक्षरमिति तद्विद आहुः (योगशास्त्रम् ८)। अत एवात्रान्यत्र चाऽऽचार्यो मङ्गलस्वेनेदमाद्यमुल्लिखति । विष्णुब्रह्मशिवोनामप्ययं वाचक इति कनकप्रभः ग्राह। 'प्रणिदध्महे' इत्यत्र बहुवचनं ध्येयगुणबाहुल्यात् कर्तुस्तदभेदेन, " अविशेषणे द्वौ चास्मदः ” ( पृ० ८८) इति सूत्रेण वा निर्दोषमस्ति, नाऽऽचार्यगर्वद्योतकमिति वेद्यम् । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] हैमशब्दानुशासनस्य । लोकात् । १ । १।३।। अनुक्तानां संज्ञानां न्यायानांच लोकाद् वैयाकरणादेः सिद्धिप्तिश्च वेदितव्या, वर्णसमानायस्य चतंत्र औदन्ताः स्वराः । १ । १ । ४ । - औकारावसाना वर्णाः स्वरसंज्ञाः स्युः। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ ॥ ४ ॥ एक-द्वि-त्रिमात्रा हस्व-दीर्घ-प्लुताः ।१।१।५। - मात्रा कालविशेषः। एकद्विव्युचारणमात्रा औदन्ता वर्णा यथासङ्खयं हस्वदीर्घप्लुतसंज्ञाः स्युः। अ इ उ . ल आ ई ऊ ऋ लू ए ऐ ओ औ, आ ३ ई ३ ऊ ३ इत्यादि ॥५॥ अनवर्णा नामी । १ । १।६। - अवर्णवळ औदन्ता वर्णा नामिसंज्ञाः स्युः। इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ॥ ६॥ लृदन्ताः समानाः । १।१ । ७। लकारावसाना वर्णाः समानाः स्युः। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लु लू ॥ ७॥ ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षरम् । १ । १।८। ए ऐ ओ औ इत्येते सन्ध्यक्षराणि स्युः ॥ ८॥ अं-अः अनुस्वार-विसगौं । १ । १।९। अकाराबुच्चारणार्थो। 'अं' इति नासिक्यो वर्णः। 'अ' इति च कण्ठ्यः। एतौ यथासङ्घयमनुस्वारविसर्गों स्याताम् ॥९॥ "कादिय॑ञ्जनम् । १ । १ । १० । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः . कादिर्वर्णो हपर्यन्तो व्यञ्जनं स्यात् । क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ म, य र ल व श ष स ह ॥१०॥ अपञ्चमान्तस्थो धुट् । १ । १ । ११ । वर्गपञ्चमान्तस्थावर्जः कादिवर्णो धुट् स्यात् । क ख ग घ, च छ ज झ, ट ठ ड ढ, त थ द ध, प फ ब भ, श ष स ह ॥११॥ पञ्चको वर्गः । १ । १ । १२ । कादिषु (वर्णेषु यो यः पञ्चसङ्खयापरिमाणो वर्णः स वर्गः स्यात् । क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ म ॥ १२॥ . आद्य-दितीय-श-ष-सा अघोषाः । १।१।१३ । वर्गाणामाद्यद्वितीया वर्णाः शषसाश्चाऽघोषाः स्युः । क ख, च छ, ट ठ, त थ, प फ, श ष स ॥१३॥ अन्यो घोषवान् । १।१।१४। अघोषेभ्योऽन्यः कादिर्वर्णो घोषवान् स्यात्। ग घ ङ, ज झ ञ, ड ढ ण, द ध न, ब भ म य र ल व, ह॥१४॥ य-रलचा अन्तस्थाः ।१।१।१५। एते अन्तस्थाः स्युः ॥ १५ ॥ अं-अ-क- प-श-ष-साः शिद । १।१।१६ । . अकपा उच्चारणार्थाः, अनुस्वारविस! बज्रगजकुम्भाऽऽकृती च वर्णी, शषसाश्च शिटः स्युः ॥ १६ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] हैमशब्दानुशासनस्य तुल्यस्थानाऽऽस्यप्रयत्नः स्वः । १ । १ । १७। स्थानं कण्ठादि। "अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा। जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकौष्ठौ च तालु च ॥१॥ - आस्ये प्रयत्नः आस्यप्रयत्नः स्पृष्टतादिः, तुल्यौ वर्णान्तरेण सहशौ स्थानाऽऽस्यप्रयत्नौ यस्य स. वर्णस्तं प्रति स्वः स्यात् । तत्र त्रयोऽकारा उदात्तानुदात्तस्वरिताः प्रत्येकं सानुनासिक-निरनुनासिकभेदात् षट्। एवं दीर्घप्लुतावित्यष्टादश भेदा अवर्णस्य, ते सर्वे कण्ठस्थाना विवृतकरणाः परस्परं स्वाः। एवमिवर्णास्तावन्तस्तालव्या विवृतकरणाः स्वाः। उवर्णा औष्ठया विवृतकरणाः स्वाः। ऋवर्णा मूर्द्धन्या विवृतकरणाः परस्परं स्वाः। लुवर्णा दन्त्या विवृतकरणाः परस्परं स्वाः। सन्ध्यक्षराणां ह्रस्वा न सन्ति इति तानि प्रत्येकं द्वादशभेदानि । तत्र एकारास्तालव्या विवृततराः स्वाः। ऐकारास्तालव्या अतिविवृततराः स्वाः । ओकारा औष्ठया विवृततराः स्वाः। औकारा ओष्ठया अतिविवृततराः स्वाः। वाः पञ्च पश्च परस्परं स्वाः। यलवानामनुनासिकोऽननुनासिकश्च द्वौ भेदौ परस्परं स्वौ ॥ १७॥ स्यौ-जसमौ-शस-टा-भ्यां-भिस्-डे-भ्यां-भ्यस्-डसि-भ्यांभ्यस-ङसोसाम्-योस्-सुपां त्रयी त्रयी प्रथमाऽऽदिः । १ । १ । १८। स्यादीनां प्रत्ययानां त्रयीत्रयी यथासङ्घ प्रथमा-द्वितीया-तृतीया-चतुर्थी-पञ्चमी-षष्ठी-सप्तमी च स्यात् ॥१८॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः स्त्यादिर्विभक्तिः । १ । १ । १९ । 'स्' इति च 'ति' इति च उत्सृष्टानुबन्धस्य सेस्तिवश्व ग्रहणम् । स्यादयस्तिवादयश्च सुप्-स्यामही पर्यन्ता विभक्तयः स्युः ॥ १९ ॥ तदन्तं पदम् । १ । १ । २० । स्याद्यन्तं त्याद्यन्तं च पदं स्यात् । धर्मो वः स्वं, ददाति नः शास्त्रम् ॥ २० ॥ नाम सिदय्व्यञ्जने । १ । १ । २१ । [५] सिति प्रत्यये, यवजव्यञ्जनादौ च परे पूर्व नाम पदं स्यात् । भवदीयः, पयोभ्याम् । अयिति किम् ? वाच्यति ॥ २१ ॥ नं क्ये | १ | १ | २२ | 'क्ये' इति क्यन् क्यङ् क्यषां ग्रहणम् । नान्तं नाम क्ये परे पदं स्यात् । राजीयति, राजायते, चर्मायति ॥ २२ ॥ न स्तं मत्वर्थे | १ | १ | २३ | सान्तं तान्तं च नाम मत्वर्थे परे पदं न स्यात् । यशस्वी, तडित्वान् ॥ २३ ॥ मनुर्नभोऽङ्गिरो वति । १ । १ । २४ १ एतानि वति परे पदं न स्युः । मनुष्वत्, नभखत् अङ्गिरस्वत् ।। २४ ।। वृत्त्यन्तोऽसषे । १ । १ । २५ । परार्थाभिधायी समासादिवृत्तिः । तस्या अन्तः - अवसानं पदं न स्यात्, असषे-सस्य तु षत्वे पदमेव । परमदिवौ, बहुदण्डिनौ असष इति किम् ? दधिसेक् ॥ २५ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] हैमशब्दानुशासनस्य सविशेषणमाख्यातं वाक्यम् । १ । १ । २६ । . प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा विशेषणैः सहितं प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमानं वा आख्यातं वाक्यं स्यात्। धर्मो वो रक्षतु, लुनीहि३ पृथुकाँश्च खाद, शीलं ते स्वम् ॥ २६ ॥ 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम । १ । १ ।२७। . . धातुविभक्त्यन्तवाक्यवर्जमर्थवच्छब्दरूपं नाम स्यात्। वृक्षः, स्वः, धवश्च। अधातुविभक्तिवाक्यमिति किम् ? अहन् , वृक्षान् , साधुर्धर्म ब्रूते ॥ २७ ॥ शिघुट् । १ । १ ॥ २८ __ जस्शसादेशः शिघुट् स्यात् । पद्मानि तिष्ठन्ति पश्य वा ॥२८॥ पुं-स्त्रियोः स्वमो-जस् । १ । १ । २९ । स्यादयः पुंस्त्रीलिङ्ग योर्युटः स्युः। राजा, राजानौ, राजानः, राजानम्, राजानौ, सीमा, सीमानौ, सीमानः, सीमानम् ॥ २९॥ स्वराऽऽदयोऽव्ययम् । १ । १ । ३० । स्वरादयोऽव्ययानि स्युः। स्वर्, अन्तर्, प्रातर् इत्यादि ॥ ३० ॥ चाऽऽदयोऽऽसत्वे । १ । १ । ३१ । अद्रव्ये वर्तमानाश्चादयोऽव्ययानि स्युः। वृक्षश्चेत्यादि ॥ ३१॥ १ अधात्वितिविशेषणात् “नाम्नो नोऽमहः" (पृ. ६.) इत्यादिसूत्रैर्नलोपाऽऽदिकार्य न स्यात् । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [७] . अधणतस्वाद्या शसः । १ । १ । ३२ । धण्वर्जास्तस्वादयः शस्पर्यन्ता ये प्रत्ययास्तदन्तं नामाव्ययं स्यात्। देवा अर्जुनतोऽभवन् , ततः, तत्र, बहुशः। अधणिति किम् ? पथिद्वैधानि ॥ ३२ ॥ विभक्तिथमन्ततसाद्याभाः। १ । १ । ३३ । विभक्तयन्ताभाः, थमवसानतसादिप्रत्ययान्ताभाश्वाऽव्ययानि स्युः। अहंयुः, अस्तिक्षीरा गौः, कथम् , कुतः ॥ ३३ ॥ वत्-तस्याम् । १ । १ । ३४ । वत्-तसि-आम्प्रत्ययान्तमव्ययं स्यात्। मुनिवद् वृत्तम् , उरस्तः, उच्चैस्तराम् ॥ ३४ ॥ ___ क्त्वा-तुमम् । १ । १ । ३५। क्त्वा-तुम्-अम्प्रत्ययान्तमव्ययं स्यात्। कृत्वा, कर्तुम् , यावजीवमदात् ॥ ३५ ॥ । गतिः । १।१।३६। । गतिसंज्ञमव्ययं स्यात् । अदाकृत्य। “अतः कृ कमि... ... (२-३-५ पृ. ८९)" इत्यादिना रः सो न स्यात् ॥ ३६॥ अप्रयोगीत् । १ । १ । ३७। इह शास्त्रे उपदिश्यमानो वर्णस्तत्समुदायो वा प्रयोगेऽदृश्यमान इत् स्यात् । एधते, यजते, चित्रीयते ॥३७॥ १ अत्र “व्याश्रये तसुः" (पृ० ५४५) सूत्रेण तसुः । 'ततः' इतीह तु "किमद्वयादि..." (पृ. ५४६) सूत्रात् तस् । “तद्वति धण्” (पृ० ५४९) सूत्रेण यो धण् स्यात्तनिषेधः । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] हैमशब्दानुशासनस्य अनन्तः पञ्चम्याः प्रत्ययः। १ । १ । ३८।। पञ्चम्याद विहितोऽन्तशब्दानिर्दिष्टः प्रत्ययः स्यात्। "नाम्नः प्रथमैक-द्वि-बहौ” (२-२-३१ पृ. ७०)। वृक्षः। अनन्त इति किम् ? आगमः प्रत्ययो मा भूत् ॥३८॥ डत्यतु संख्यावत् । १ । १। ३९ । । डत्यन्तमत्वन्तं च संख्याकार्यभाक् स्यात् । कतिकः, यावत्कः ॥ ३९॥ बहु-गणं भेदे । १ । १ । ४० । बहुगणशब्दो भेदवृत्ती सङ्घयावत् स्याताम् । बहुका, गणकः। भेद इति किम् ? वैपुल्ये सङ्घ च मा भूत् ॥४०॥ क-समासेऽध्यर्द्वः । १ । १ । ४१ । अध्यर्द्धशब्द के प्रत्यये समासे च विधेये सङ्घयावत् स्यात् । अध्यर्द्धकम् , अध्यर्द्धशूर्पम् ॥ ४१ ॥ अर्द्धपूर्वपद पूरणः । १ । १ । ४२ । अर्द्धपूर्वपदः पूरणप्रत्ययान्तः के प्रत्यये समासे च कार्ये सङ्घयावत् स्यात्। अर्द्धपश्चमकम् , अर्द्धपञ्चमशूर्पम् ॥४२॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः॥१।१॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः समानानां तेन दीर्घः। १ । २।१। समानानां तेन समानेन परेण सह दीर्घः स्यात् । दण्डाग्रम् , दधीदम् , नदीन्द्रः ॥ १॥ . - ऋलति ह्रस्वो वा । १ । २।२। ऋति लृति च परे समानानां ह्रस्वो वा स्यात् । बाल ऋश्यः, लु ऋषभः, होतृ लुकारः। पक्षे बालयः ॥२॥ लत र अलभ्यां वा। १ ।२।३ । लुन ऋना लुना च सह यथासङ्ख्यं रत्न इत्येतो वा स्याताम् । ऋता रकारः, पक्षे लृ ऋकारः, ऋकारः । तृता ल्कारः, पक्षे लू लृकारः लकारः ॥३॥ - ऋतो वा तौ च।१।२।४।। __ ऋत ऋतृभ्यां सह यथासङ्ख्यं रल्व इत्येतो वा स्यातां, तौ च ऋकारलकारी ऋलभ्यां सह वा स्याताम् । ऋतापिवृषभः, पक्षे पितृ ऋषभः, पितृषभः । लता-होत् त्रकारः, पक्षे होत लकारः, होतृकारः। तो च पितृषभः होत्लकारः, पक्षे पूर्ववत् ॥ ४ ॥ ऋस्तयोः। १।२।५। ... तयोः पूर्वस्थानिनोलकारऋकारयोर्यथासङ्घयं लभ्यां सह ऋ इति दीर्घः स्यात् । ऋषभः, होतृकारः ॥५॥ अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल् ।१।२।६। ____ अवर्णस्य इ उ कल वर्णैः सह यथासङ्ग्रथं एत् ओत् Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] हैमशब्दानुशासनस्य अर् अल् इत्येते स्युः। देवेन्द्रः, तवेहा, मालेयम् , सेक्षते, तवोदकम् , तवोढा, तवर्षिः, तवारः, महर्षिः, सर्कारः, तवल्कारः, सल्कारेण ॥ ६ ॥ ऋणे प्रदशाणवसनकम्बस्वत्सरवत्सतरस्यार् ।१।२७) प्रादीनामवर्णस्य ऋणे परे ऋता सह आर् स्यात् । प्राणम् , दशार्णम् , ऋणार्णम्, वसनाणम् , कम्बलार्णम् , वत्सरार्णम् , वत्सतरार्णम् ॥ ७ ॥ ऋते तृतीयासमासे । १।२।८1 .. अवर्णस्य ऋते परे तृतीयासमासे ऋता सह आर् स्यात् । शीतातः। तृतीयासमास इति किम् ? परमर्तः। समास इति किम् ? दुखेनतः ॥ ८॥ . ऋत्यारुपसर्गस्य । १।२।९। उपसर्गस्थस्यावर्णस्य ऋकारादौ धातौ परे ऋता सह आर् स्यात् । प्रार्छति, परार्च्छति ॥९॥ नाम्नि वा । १ । २।१०। उपसर्गस्थस्यावर्णस्य ऋकारादौ नामावयवे धातौ परे ऋता सह आर्वा स्यात्। प्रार्षभीयति, प्रर्षभीयति ॥१०॥ लत्याल्वा । १।२।११। उपसर्गावर्णस्य लकारादौ नामावयवे धातौ परे लता सह आल्वा स्यात्। उपाल्कारीयति, उपल्कारीयति॥११।। ऐदौत् सन्ध्यक्षरैः । १।२।१२। अवर्णस्य सन्ध्यक्षः परैः सह ऐ औ इत्येतो स्याताम् । तवैषा, खट्वैषा, तवैन्द्री, सैन्द्री, तवौदनः, तवीपगवः॥१२॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [११] __ऊटा । १।२।१३। अवर्णस्य परेण ऊटा सह औः स्यात् । धौतः, धौतवान् ॥१३॥ . प्रस्यैषैष्योढोढ्युहे खरेण ।।१।२।१४।। प्रावर्णस्य एषादिषु परेषु परेण स्वरेण सह ऐ औ स्याताम् ॥ प्रैषः, प्रेष्यः, प्रौढः, प्रौढिः, प्रौहः ॥ १४ ॥ स्वैरस्वैर्यक्षौहिण्याम् । १ ।२।१५। . स्वैरादिष्वऽवर्णस्य परेण स्वरेण सह ऐ औ स्याताम्। स्वैरः, स्वैरी, अक्षौहिणी सेना ॥ १५ ॥ अनियोगे लुगेवे । १ ।२।१६। अनियोगो अनवधारणं तद्विषये एवे परेऽवर्णस्य लुक् स्यात् । इहेव तिष्ठ, अद्येव गच्छ, नियोगे तु, इहैव तिष्ठ मागाः॥१६॥ ___वौष्ठौतौ समासे । १।२।१७। ओष्ठौत्वोः परयोः समासेऽवर्णस्य लुग्वा स्यात् । बिम्बोष्टी, विम्बौष्ठी, स्थूलोतुः, स्थूलौतुः। समास इति किम् ? हे पुत्रौष्ठं पश्य ॥ १७ ॥ ओमाङि । १।२।१८। . अवर्णस्य ओमि आङादेशे च परे लुक् स्यात् । अधोम् , सोम् , आ ऊढा, ओढा, अद्योढा, सोढा ॥१८॥ उपसर्गस्यानिणेघेदोति । १।२।१९। . . उपसर्गावर्णस्य इणेधिवजे एदादावोदादौ च धातौ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [१२] हैमशब्दानुशासनस्य परे लुक् स्यात् । प्रेलयति, परेलयति, प्रोषति, परोषति, अनिधिति किम् ? उपैति, प्रैधते ॥ १९ ॥ वा, नाग्नि । १।२।२०।। नामावयवे एदादावोदादौ च धातौ परे उपसर्गावर्णस्य लुग् वा स्यात् । उपेकीयति, उपैकीयति। प्रोषधी यति, प्रौषधीयति ॥ २०॥ इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम् । १।२।२१।। इ उ ऋ लु वर्णानामस्वे स्वरे परे यथासङ्घयं य व र ल इत्येते स्युः। दध्यत्र, नयेषा, मध्वत्र, वध्वासनं, पित्रर्थः, क्रादिः, लित्, लाकृतिः ॥ २१॥ इस्वोऽपदे वा । १।२।२२। इवर्णादीनामस्वे स्वरे परे ह्रस्वो वा स्यात् । नचेत्तौ निमित्तनिमित्तिनावेकत्र पदे स्याताम्। नदी एषा, नयेषा। मधु अत्र, मध्वत्र । अपद इति किम् ? नद्यौ, नद्यर्थः ॥ २२ ॥ एदेतोऽयाय । १ । २२३। एदेतोः स्वरे परे यथासङ्घयं अय् आर् इत्येतौ स्याताम् । नयनम् , वृक्षयेव, नायकः, रायैन्द्री ॥२३॥ ओदौतोऽवात् । १ । २।२४। ओदौतोः स्वरे परे यथासङ्घयं अव आव् इत्येतो स्याताम् । लवनम् . पटवोतुः, लावकः गावौ ॥ २४ ॥ . व्यक्ये । १।२।२५। . ओदौतोः क्यवर्जे यादौ प्रत्यये परे यथासक्यमव Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१३] - आवौ स्याताम् । गव्यति, गव्यते, नाव्यति, नाव्यते, लव्यम्, लाव्यम्, अक्य इति किम् ? उपोयते । औयत ॥ २५ ॥ ऋतो रस्तद्धिते । १ । २ । २६ । ऋकारस्य यादौ तद्धिते परे रः स्यात् । पित्र्यम् । तद्धित इति किम् ? कार्यम् ॥ २६ ॥ दोतः पदान्तेऽस्य लुक् | १ । २।२७। एदोद्भयां पदान्तस्याभ्यां परस्याकारस्य लुक् स्यात् । तेऽत्र, पटोऽत्र । पदान्त इति किम् ? नयनम् ॥ २७ ॥ गोर्नाम्न्यवोऽक्षे | १ | २ | २८| गोरोतः पदान्तस्थस्य अक्षे परे संज्ञायां अव इति स्यात् । गवाक्षः । नाम्नीति किम् ? गोऽक्षाणि ॥ २८ ॥ स्वरे वा नक्षे | १ | २ | २९| गोरोतः पदान्तस्थस्य स्वरे परे अव इति वा स्यात् । स चेत् स्वरोऽक्षस्थो न स्यात् । गवाग्रम्, गोऽग्रम् । गवेशः, गवीशः । अनक्ष इति किम् ? गोक्षम् । ओत इति किम् ? चित्रग्वर्थः ।। २९ ।। इन्द्रे । १ । २ । ३० । गोरोतः पदान्तस्थस्य इन्द्रस्थे स्वरे परे अव इति स्यात् । गवेन्द्रः ॥ ३० ॥ वात्यसन्धिः | १ | २ | ३१ । गोरोतः पदान्तस्थस्याकारे परेऽसन्धिभावो वा Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] हैमशब्दानुशासनस्य स्यात् । गो अग्रम् , गवाग्रम् , गोऽयम् । अतीति किम् गवेङ्गितम् ॥३१॥ प्लुतोऽनितौ १ । २ । ३२ । इतिवर्ने स्वरे परे प्लुतः सन्धिभाग् न स्यात् । देवदत्त ३ अनन्वसि। अनिताविति किम् ? सुश्लोकेति॥३२॥ इ ३ वा। १ । २ । ३३ । इ स्थानः प्लुतः स्वरे परेऽसन्धिर्वा स्यात् । लुनीहि ३ इति । लुनीहिति ॥ ३३ ॥ . ईदेद्विवचनम् । १ । २ । ३४ ॥ ई ऊ ए इत्येवमन्तं द्विवचनं स्वरे परेऽसन्धिः स्यात्। मुनी इह, साधू एतौ, माले इमे, पचेते इति । इदूदेदिति किम् ? वृक्षावत्र। द्विवचनमिति किम् ? कुमार्यत्र ॥ ३४॥ अदो मुमी। १ । २ । ३५। अदसः सम्बन्धिनौ मुमी इत्येतौ स्वरे परे ऽसन्धी स्याताम् । अमुमु ईचा । अमी अश्वाः ॥ ३५॥ चादिः स्वरो ऽनाङ्। १ । २ । ३६ । आवर्जश्चादिः स्वरः स्वरे परे ऽसन्धिः स्यात्। अ अपेहि, इ इन्द्रम् पश्य, उ उत्तिष्ठ, आ एवं किल मन्यसे, आ एवं नु तत् । अनाडिति किम् ? आ इहि एहि॥३६॥. ओदन्तः। १।२ । ३७। . ओदन्तश्चादिः स्वरे परेऽसन्धिः स्यात् । अहो अत्र॥३७॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१५] सो नवेतो। १।२ । ३८। सिनिमित्त ओदन्त इतौ परेऽसन्धिर्वा स्यात् । पटो इति, पटविति ॥ ३८ ॥ ॐ चोञ् । १।२। ३९। उञ् चादिरितो परेऽसन्धिर्वा स्यात् । असन्धौ च उञ् ॐ इति दीर्घोऽनुनासिको वा स्यात्। उ इति. ॐ इति, विति ॥ ३९ ॥ अवर्गात् स्वरे वो ऽसन्। १ । २। ४०। अवर्जवर्गेभ्यः परःउञ् स्वरे परे वो वा स्यात्, सचासन्। क्रुङ्वास्ते, क्रुडु आस्ते। असत्वाद्वित्वम्॥४०॥ अ इ उ वर्णस्यान्तेऽनुनासिकोऽनीनादेः। १।२।४१। . अ इ उ वर्णानामन्ते विरामेऽनुनासिको वा स्यात् । नचेदेते 'ईदूदे द्विवचनम्' इत्यादि सूत्रसम्बन्धिनः स्युः। साम, साम । खट्वाँ, खट्वा । दधि, दधि। कुमारी, कुमारी । मधु, मधु । अनीदादेरिति किम् । अग्नी, अमी, किमु ॥ ४१॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयपादः समाप्तः ।१।२।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः तृतीयश्च पञ्चमे । १ । ३ । १। वेति पदान्त इति अनुनासिक इति च अनुवर्तते। वर्गतृतीयस्य पदान्तस्थस्य पञ्चमे परेऽनुनासिको वास्यात्। वाङवते, वाग्ङवते । ककुम्मण्डलम् , ककुमण्डलम् ॥१॥ प्रत्यये च। १।३।२। पदान्तस्थस्य तृतीयस्य प्रत्यये पश्चमे परेनुनासिको नित्यं स्यात् । वाङ्मयम्, षण्णाम् । च उत्तरत्र वा अनुवृत्त्यर्थः ॥२॥ ततो हश्चतुर्थः । १ । ३ । ३ । पदान्तस्थात् ततस्तृतीयात् परस्य हस्य पूर्वसवर्गश्चतुर्थो वा स्यात्। वाग्घीनः, वागहीनः। ककुम्भासः, ककुब्हासः ॥३॥ प्रथमादधुटि शश्छः। १ । ३।४। पदान्तस्थात् प्रथमात् परस्य शस्याधुटि परे छो वा स्यात् । वाक् छूरः वाक्शरः। त्रिष्टुप्छूतम् , त्रिष्टुप्श्रुतम् । अधुटीति किम् ? वाइच्योतति ॥ ४॥ रः कखपफयोः कापौ। १ । ३।५। पदान्तस्थस्य रस्य कखे पफे च परे यथासङ्घयं क ८पौ वा स्याताम् । क : करोति, काकरोति । क खनति, काखनति। कल्पचति, कापचति। कफलति, काफलति Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्योपशलघुवृत्तिः [१७] शषसे शषसं वा । १।३।६। पदान्तस्थस्य रस्य शषसेषु परेषु यथासङ्खयं शपसा वा स्युः। करशेते, काशेते। कष्षण्डः, कापण्डः । कस्साधुः, कःसाधुः॥६॥ चटते सद्वितीये। १।३।७। पदान्तस्थस्य रस्य चटतेषु सद्वितीयेषु परेषु यथासङ्घयं शषसा नित्यं स्युः। कश्वर, कश्छन्नः, कष्टः, कष्ठः, कस्तः, कस्थः ॥ ७॥ नोप्रशानोऽनुस्वरानुनासिकौ च पूर्वस्याधुट्परे । १।३।८। - पदान्तस्थस्य प्रशान्वर्जशब्दसम्बन्धिनो नस्य चटतेषु सद्वितीयेषु अधुट्परेषु शषसा यथासङ्घयं स्युः। अनुस्वारानुनासिकौ चागमादेशौ पूर्वस्य क्रमेण स्याताम् । भवांश्चरः, भवाँश्चरः। भवांछथति, भवांछयति। भवांष्टका, भवाष्टकः। भवांष्ठकारः, भवाँष्ठकारः। भवांस्तनुः, भवाँस्तनुः। भवास्थुडति, भवास्थुडति । अप्रशान् इति किम् ? प्रशाश्वरः। अघुट्परः इति किम् ? मवान्त्सरुकः ॥८॥ . पुमोशिट्यघोषेऽरव्यागि रः। १।३।९। - पुमिति पुंसः संयोगलुक्यऽनुकरणं अधुट्परे अघोषे शियागिवर्जे परे पुमित्येतस्य रः स्यात् । अनुस्वारानुमासिकौ च पूर्वस्य। पुंस्कामा, पुंस्कामा। अशिटीति किम् ? पुंशिरः। अघोषे इति किम् ? पुंदासः। अख्यागीति किम् ? पुंख्यातः। अधुट्पर इत्येव पुंक्षारः ॥९॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य नूनः पेषु वा । १ । ३ । १० । निति सन्तस्यानुकरणम् । नृनः पे परे रो वा स्यात् । अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य । नृत्पाहि नृपाहि, नृन्पाहि नृःपाहि नृः पाहि ॥ १० ॥ द्विः कानः कानि सः । १ । ३ । ११ । [१८] कानः किमः शसन्तस्यानुकरणम् । द्विरुक्तस्य कानः कानि परे सः स्यात् । अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य । कस्कान, काँस्कान् । द्विरिति किम् ? कान्कान् पश्यति । ११ । सटि समः । १ । ३ । १२ । समः स्सटि परे सः स्यात् । अनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्य । संस्कर्त्ता, सँस्स्कती । स्सटीति किम् ? संकृतिः ॥ १२ ॥ लुकू । १ । १ । १३ । · समः स्सटि परे लुक् स्यात् । संस्कर्ता ॥ १३ ॥ तौ मुमो व्यंजने स्वौ । १ । ३ । १४ । मोम्गमस्य पदान्तस्थस्य च मस्य व्यञ्जने परे तस्यैव स्वौ तावनुस्वाराऽनुनासिको क्रमेण स्याताम् । चंक्रम्यते, चङ्क्रम्यते । ववम्यते, वब्वँम्यते । त्वंकरोषि, त्वङ्करोषि । कंवः, कवः ॥ १४ ॥ मनयवलपरे हे | १ | ३ । १५ । मनयवलपरे हे पदान्तस्थस्य मस्याऽनुखाराऽनुनासिकौ क्रमात्स्याताम् । किं मलयति किम्ालयति । किंनुते, किन्नुते । किंाः किंयाँ: । किंहलयति, किव्हॅलयति । किंहादयते, किल्हादयते ॥ १५ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१९] सम्राट् । १ । ३ । १६। । समो मस्य राजौ किवन्तेऽनुस्वाराभावः स्यात् । सम्राट्, सम्राजौ ॥ १६॥ णोः कटावन्तौ शिटि नवा । १ । ३ । १७ । .. पदान्तस्थयोर्डणयोः शिटि परे यथासङ्खथं कटावन्तौ पा स्याताम् । प्राङ्छेते, प्राङ्कशेते, प्राशेते। सुगण्ट्: छेते, सुगण्टशेते, सूगणशेते ॥ १७ ॥ ... इनः सः त्सोऽश्वः। १।३।१८। । - पदान्तस्थाभ्यां डनाभ्यां परस्य सस्य त्स इति तादिः सो वा स्यात् । अश्च-श्वाऽवयवश्चेत् सो न स्यात् । षड्त्सीदन्ति, षट्सीदन्ति । भवान्त्साधुः, भवानसाधुः। अश्व इति किम् ? षश्च्योतति ॥ १८ ॥ नः शि च । १ । ३ । १९। .. पदान्तस्थस्य नस्य शे परे ञ्च् वा स्यात् । अश्वः । भवाञ्च्छूरः, भवाञ्चशूरः, भवाञ्शूरः। *अश्व इत्येव ? . भवाञ्च्योतति ॥१९॥ अतोऽति रोरुः। १ । ३ । २० । आत्परस्य पदान्तस्थस्य रोरति परे उर्नित्यं स्यात् । कोऽर्थः ॥२०॥ . * “धुटो धुटि स्वे वा" ॥ १-३-४८ ॥ इति सूत्रेण भवाछूर इति चतुर्थ रूपमपि भवति ॥ सं० Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] हैमशब्दानुशासनस्य घोषवति । १ । ३ । २१ । आत्परस्य पदान्तस्थस्य रो?षवति परे उः स्यात् । धम्मो जेता ॥ २१ ॥ अवर्णभोभगोऽघोलुंगसन्धिः । १ । ३ । २२ । अवर्णागोभगोअघोभ्यश्च परस्य पदान्तस्थस्य रो?षवति परे लुक् स्यात् । स च न सन्धिहेतुः। देवा यान्ति, भी याति, भगो हस, अघो वद ॥२२॥ . व्योः । १।३ । २३ । अवर्णात्परयोः पदान्तस्थयोर्वययो?षवति परे लुक स्यात्। स चासन्धिः । वृक्षवृश्चमव्ययश्चाचक्षाणो वृक्ष । अव्यय, वृक्षयाति, अव्ययाति ॥ २३ ॥.. स्वरे वा । १।३ । २४ । अवर्णभोभगोअघोभ्यः परयोः पदान्तस्थयोर्वययोः स्वरे परे लुग्वा स्यात् । स चासन्धिः। पट इह, पटविह। वृक्षा इह, वृक्षाविह। त आहुः, तयाहुः । तस्मा इदम् , तस्मायिदम् । भो अत्र, भोयत्र । भगो अत्र, भगोयत्र । अघो अत्र, अघोपत्र ॥ २४ ॥ अस्पष्टाववर्णात्त्वनुत्रि वा। १ । ३ । २५ । अवर्णभोभगोअघोभ्यः परयोः पदान्तस्थयोर्वययोरस्पष्टावीषत्स्पृष्टतरौ वयौ स्वरे परे स्याताम् । अवर्णात्तु परयोोरजवर्जे खरेऽस्पष्टौ वा स्याताम् । पटवु, असावे, कयु, देवायें, भोपॅत्र, भगोयेंत्र, अघोयत्र । अवर्णास्वनुत्रि वा। पटविह, पटविह २। असाविन्दुः असाविन्दुः, तयिह तहि, तस्मायिदम् तस्मादिम् ॥ २५ ।। . Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः रोर्यः १ । ३ । २६ । अवर्णभो भगोअघोभ्यः परस्य पदान्तस्थस्य रोः स्वरे परे यः स्यात् । कयास्ते, देवायासते, भोयत्र, भगोत्र, अघोत्र ॥ २६ ॥ स्वादुङणनो द्वे । १ । ३ । २७ । स्वास्परेषां पदान्तस्थानाम् ङणनानाम् स्वरे परे रूपे स्याताम् । क्रुङ्ङास्ते, सुगण्णिह, कृषन्नास्ते ||२७|| अनाङ्माङो दीर्घाद्वाच्छः | १ | ३ | २८ | आङ् माङ् वर्जदीर्घास्पदान्तस्थास्परस्य छस्य द्वेरूपे वा स्याताम् । कन्याच्छत्रम्, कन्याछत्रम् | अनामाङिति किम् ? आच्छाया, माच्छिदत् ॥ २८ ॥ प्लुताद्वा । १ । ३ । २९ । पदान्तस्थादीर्घाप्लुतात्परस्य छस्य द्वे रूपे वा स्याताम् । आगच्छ भी इन्द्रभूते ३ च्छत्रमानय, पक्षे छत्र. मानय ।। २९ । स्वरेभ्यः | १ | ३ | ३० ॥ स्वरात् परस्य छस्य द्वे रूपे स्याताम् । इच्छति, गच्छति ॥ ३० ॥ स्वरस्यानु नवा । १ । ३ । ३१ । स्वरात्पराभ्याम् रहाभ्यां परस्य रहस्वरवर्जस्य वर्णस्य द्वे रूपे वा स्याताम् । अनु कार्यान्तरात्पश्चात् । अर्कः, अर्कः । ब्रम, ब्रह्म । अर्हस्वरस्येति किम् ? पद्महृदः, अर्हः, करः । स्वरेभ्य इत्येव ? अभ्रयते । अन्विति किम् ? प्रोणुनाव ।। ३१ ।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] हैमशब्दानुशासनस्य अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने । १ । ३ । ३२ । अदीर्घात्स्वरात्परस्य रहस्वरवर्जस्य वर्णस्य विरामे असंयुक्तव्यञ्जने च परेऽनु द्वेरूपे वा स्याताम् । त्वक्छ, त्वक् । दध्यत्र, दध्यत्र । गोइत्रात, गोश्त्रात । अर्हस्वरस्थेत्येव ? वर्या, वा, तितउ ॥ ३२ ॥ . अवर्गस्यान्तस्थातः १ । ३ । ३३ । 'अन्तस्थातः परस्य वर्जवर्गस्य अनु द्वे रूपे वा स्याताम् । उल्का, उल्का । अत्रितिकिम् ? हल्ली ॥३३॥ ततोऽस्याः । १ । ३ । ३४। ततोऽञ्वर्गात्परस्या अस्या अन्तस्थाया द्वे रूपे वा । स्याताम् । दध्य्यत्र, दध्यत्र ॥ ३४ ॥ शिटः प्रथमद्वितीयस्य । १ । ३ । ३५। शिटः परयोः प्रथमद्वितीययोर्द्व रुपे वा स्याताम् त्वं करोषि, त्वं करोषि। त्वं क्खनसि, त्वं खनसि ॥३५॥ ततः शिटः । १ । ३ । ३६ । ततः प्रथमद्वितीयाभ्यां परस्य शिटो द्वे रूपे वा म्याताम् । तचश्शेते, तच्शेते ॥ ३६॥ न रात्स्वरे। १।३ । ३७ । रात्परस्य शिटः स्वरे परे द्वे रूपे न स्याताम् । दर्शनम् ॥ ३७॥ पुत्रस्यादिन् पुत्रादिन्याक्रोशे । १ । ३ । ३८ । __ आदिनि पुत्रादिनि च परे पुत्रस्थस्य तस्य आक्रोशविषये द्वे रूपे न स्याताम् । पुत्रादिनी त्वमसि पापे, पुत्रपुत्रादिनी भव। आक्रोश इति किम् ? पुत्त्रादिनी शि Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२३] - शुमारी, पुत्रादिनीति वा। पुत्त्रपुत्रादिनी नागी, पुत्रपुत्रादिनीति वा ॥ ३८॥ नां धुट्वर्गेऽन्त्यो पदान्ते। १ । ३ । ३९।। __ अपदान्तस्थानाम् मनानाम् धुटि वर्गे परे निमित्तस्यैवान्त्योऽनु स्यात्। गन्ता, शङ्किता, कम्पिता। धुडितिकिम् ? आहन्महे । धुवर्ग इति किम् ? गम्यते। अपदा- . न्त इति किम् ? भवान् करोति ॥ ३९ ॥ शिड्हेऽनुस्वारः। १।३ । ४०। अपदान्तस्थानाम् नाम् शिटि हे च परेऽनुस्वारोऽनु स्यात् । पुंसि, दंशः, बृंहणम् ॥ ४० ॥ - रो रे लुग्दीघश्वादिदुतः। १।३। ४१। रस्य रे परेऽनु लुक् स्यात् । अइऊनाश्च दीर्घः। पुना रात्रिः, अग्नीरथेन, पटूराजा। अनु इत्येव ? अहोरूपम् ढस्तड्ढे । १ । ३ । ४२ । तन्निमित्ते ढे परे ढस्यानु लुक् स्यात्। दीर्घश्चादिदुतः। माढिः, लीढम् , गूढम् , तड्ढ इति किम् ? मधुलिड्डौकते .॥४२॥ सहिवहेरोचाऽवर्णस्य । १ । ३ । ४३ । सहिवह्योर्दस्य तड्ढे परेऽनु लुक् स्यात् । ओचाऽवर्णस्य । सोढा, उदवोढाम् ॥ ४३॥ उदः स्थास्तम्भाःसः १ । ३ । ४४ । ... उदः परयोः स्थास्तम्भोः सस्य लुक् स्यात् । उत्थाता, उत्तम्भिता ॥४४॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य तदः सेः स्वरे पदार्था । १ । ३ । ४५ । तद परस्य सेः स्वरे परे लुकू स्यात् । सा चेत्पादपूरणी स्यात् । सैष दाशरथी रामः, सैष राजा युधिष्ठिरः । पादार्था इति किम् ? स एष भरतो राजा ॥ ४५ ॥ एतदश्च व्यञ्जने नमञ्समासे । १ । ३ । ४६ । [ २४ ] एतदस्तदश्च परस्य सेर्व्यञ्जने परे लुक् स्यात् । अकि नञ्समासेन । एप दत्ते । स लाति । अनग्नञ्समास इति किम् ? एषक: कृती । सको याति । अनेषो यांति असो वाति ॥ ४६ ॥ व्यञ्जनात् पञ्चमान्तस्थायाः सरूपे वा । १ । ३ । ४७ । 1 व्यञ्जनात् परस्य पंचमस्यान्तस्थायाश्च सरूपे वर्णे परे लुग्वा स्यात् । कुत्रो ड्डौ, क्रुड्डौ, क्रुड्डौ । आदित्यो देवतास्य आदित्यः, आदित्य्यः । सरूप इति किम् ? वर्ण्यते ॥ ४७ ॥ टो टि स्वे वा । १ । ३ । ४८ । व्यञ्जनात्परस्य धुटो धुटि स्वे परे लुग्वा स्यात् । शिण्टि, शिण्ड्टि । स्व इति किम् ? तप्त, दर्ता ॥४८॥ तृतीयस्तृतीयचतुर्थे । १ । ३ । ४९ । तृतीये चतुर्थे च परे घुटस्तृतीयः स्यात् । मजति, दोग्धा । ४९ अघोषे प्रथमोऽशिटः । १ । ३ । ५० । अघोषे परे शिट् वर्जस्य घुटः प्रथमः स्यात् । बाक्पूता । अशिद इति किम् ? पयस्सु ॥ ५० ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः । [२५] विरामे वा। १।३। ५१ । विरामस्थस्याशिटो धुटः प्रथमो वा स्यात् । वाक्, घाग् ॥५१॥ . न सन्धिः । १।३। ५२ । उक्तो वक्ष्यमाणश्च सन्धिविरामे न स्यात् । दधि अत्र, तद् लुनाति ॥ ५२ ॥ .. रः पदान्ते विसर्गस्तयोः । १ । ३ । ५३ । पदान्तस्थस्य रस्य तयोविरामाघोषयोर्विसर्गः स्यात्। वृक्षः, स्वः, काकृती । पदान्त इति किम् ? इर्ते ॥५३ ॥ . ख्यागि । १।३ । ५४ । पदान्तस्थस्य रस्य ख्यागि परे विसर्ग एव स्यात् । का ख्यातः । नमः ख्याने ॥ ५४॥ शिट्यघोषात् । १।३। ५५ । .. अघोषात्परे शिटि परतः पदान्तस्थस्य रस्य विसर्ग एव स्यात् । पुरुषः सरुकः, सर्पिः प्साति, वासः क्षौमम् , अद्भिः प्सातम् ॥ ५५॥ व्यत्यये लुग्खा। १।३। ५६ । शिटः परोऽघोष इति व्यत्ययस्तस्मिन्सति पदान्तस्थस्य रस्य लुग्वा स्यात् । चक्षुश्च्योतति, चक्षुः श्च्योतति चक्षुश्श्चोतति ॥ ५६ ॥ . अरोः सुपि रः । १।३ । ५७ । रोरन्यस्य रस्य सुपि र एव स्यात् । गीर्षु, धूर्षु, . अरोरिति किम् ? पयस्सु ।। ५७॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है मशब्दानुशासनस्य वाहर्पत्यादयः | १ | ३ | ५८ । अहर्पत्यादयो यथायोगमकृतविसर्गाः कृतोत्वाभा वाचवा स्युः । अहर्पतिः, अहः पतिः । गीपतिः, गीः पतिः । प्रचेता राजन्, प्रचेतोराजन् ॥ ५८ ॥ [२६] शिव्याद्यस्य द्वितीयो वा । १ । ३ । ५९ । प्रथमस्य शिटि परे द्वितीयो वा स्यात् । रुषीरम्, क्षीरम् | अफ्सराः, अप्सराः ॥ ५९ ॥ तवर्गस्य ववष्टवर्गाभ्यां योगे चटवर्गौ । १ । ३ । ६० । तवर्गस्य शचवर्गाभ्यां पदवर्गाभ्यां च योगे यथासंख्यं चवर्गटवर्गौ स्याताम् । तच्शेते, भवाञ्शेते, तच्चारु तज्जकारण, पेष्टा, पूष्णः, तदृकारः, तण्णकारेण, ईट्टे ॥ ६० ॥ सस्य शषौ | १ | ३ | ६१ ॥ सस्य चवर्गष्टवर्गाभ्यां योगे यथासंख्यं शषौ स्याताम् । चवर्गेण - इच्योतनि, वृश्चति । पेण-दोष्षु । टवर्गेणपापट् ि॥ ६१ ॥ न शात् । १ । ३ । ६२ । शात्परस्य तवर्गस्य चत्रर्गो न स्यात् । अश्नाति, प्रश्न: ॥ ६२ ॥ पदान्ताट्टवर्गादिनाम्नगरीनवतेः । १ । ३ । ६३ । पदान्तस्थावर्गात्परस्य नाम्नगरीनवतिवर्जस्य तवर्गस्य सस्य च टवर्गषौ न स्याताम् । षण्मयं, षण्नयाः, षट्सु । अनाम्नगरीनवतेरिति किम् ? षण्णाम्, षण्णगरी, षण्णवतिः ॥ ६३ ॥ 1 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२७] पि तवर्गस्य । १।३।६४। पदान्तस्थस्य तवर्गस्य षे परे टवर्गों न स्यात् । तीर्थकृत्षोडशः शान्तिः ॥ ६४ ॥ लि लौ । १ । ३ । ६५ । पदान्तस्थस्य तवर्गस्य ले परे लौस्याताम् । तल्लूनम्, भवाल्लूनाति ॥६५॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ प्रथमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ॥१॥३॥ . Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः अत आः स्यादौ जस्भ्याम्ये। १।४।१। स्यादौ जसि भ्यामि ये च परेऽकारस्य आः स्यात् । देवाः, आभ्याम् , सुखाय । स्यादाविति किम् ? बाणान् जस्यतीति क्विप्-बाणजः ॥१॥ भिस् ऐस । १।४।२। आत्परस्य स्यादेर्भिस ऐस् स्यात् । देवैः। ऐस्करणा दतिजरसैः ॥२॥ इदमदसोऽक्येव । १ । ४ । ३ । इदमदसोरक्येव सति आत्परस्य भिस ऐस् स्यात् । इमकैः, अमुकैः। अक्येवेति किम् ? एभिः, अमीभिः॥३॥ एबहस्भोसि।१।४।४। । बह्वर्थे स्यादौ सादौ भादौ ओसि च परे अत एतस्यात् एषु, एभिः, देवयोः ॥ ४॥ . टाङसोरिनस्यौ । १ । ४ । ५। आत्परयोष्टाङसोर्यथासंख्यं इन स्यौ स्याताम् । तेन, यस्य ॥५॥ डेङस्योर्यातौ १ । ४।६। आत्परस्य डेड सेश्च यथासंख्यं य आच स्याताम् । देवाय, देवात् ॥ ६॥ . सर्वादेः स्मैस्मातौ । १।४ । ७। सादरदन्तस्य सम्बन्धिनो ङस्योर्यथासंख्यं स्मै Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः स्मातौ स्याताम् । सर्वस्मै, सर्वस्मात् । सर्व, विश्व, उभ, उभयट् , अन्य,अन्यतर,इतर, डतर, डतम,त्व, त्वत्, नेम, समसिमौ-सर्वार्थों, पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायाम् , स्वमज्ञातिधनाख्यायाम्, अन्तरम्बहिर्योगोपसंव्यानयोरपुरि, त्यद्, तद्, यद्, अदस्, इदम् एतद्, एक, द्वि, युष्मद्, अस्मद्, भवतु, किम् ; इत्यसंज्ञायां सर्वादिः ॥ ७॥ डेः स्मिन् । १।४।८। मादेरदन्तस्य : स्मिन् स्यात् । सर्वस्मिन् ॥ ८॥ जस इः । १।४।९। सर्वादेरदन्तस्य जस इः स्यात् । सर्वे ॥९॥ नेमा प्रथमचरमतयाऽयाऽल्पकतिपयस्य वा ।१।४।१० __नेमादीनि नामानि तयायौ प्रत्ययौ तेषामदन्तानां जस इर्वा स्यात् । नेमे, नेमाः। अर्द्ध, अर्धाः। प्रथमे, प्रथमाः। चरमे, चरमाः । द्वितये, द्वितयाः। त्रये, त्रयाः । अल्पे, अल्पाः । कतिपये, कतिपयाः ॥१०॥ द्वन्द्वे वा। १।४।११। .. द्वन्द्वसमासस्थस्यादन्तस्य सर्वादेर्जस इर्वा स्यात् । पूर्वोत्तरे पूर्वोत्तराः ॥ ११ ॥ न सर्वादिः। १ । ४ । १२ । द्वन्द्वे सर्वादिः सर्वादिर्न स्यात् । पूर्वापराय, पूर्वापरात्, पूर्वापरे । कतरकतमानाम् , कतरकतमकाः ॥१२॥ . तृतीयान्तात् पूर्वावरं योगे । १।४।१३। तृतीयान्तात्परौ पूर्वावरौ योगे सम्बन्धे सति सर्वादी Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] हैमशब्दानुशासनस्य न स्याताम् । मासेन पूर्वाय मासपूर्वाय । दिनेनावराय दिनावराय । दिनेनावराः दिनावराः । तृतीयान्तादितिकिम् ? पूर्वस्मै मासेन ॥ १३ ॥ तीर्य डिकार्ये वा । १।४ । १४। । तीयान्तम् नाम ङे ङसि-उस्-डीनां कार्ये सर्वादिर्वा स्यात् । द्वितीयस्मै, द्वितीयाय । द्वितीयस्यै, द्वितीयायै। डिस्कार्य इति किम् ? द्वितीयंकाय ॥ १४ ॥ अवस्यामः साम् । १ । ४ । १५ । अवर्णान्तस्य सर्वादेरामः साम् स्यात् । सर्वेषाम् , विश्वासाम् ॥ १५॥ . नवभ्यः पूर्वेभ्य इस्मास्मिन्वा । १ । ४ । १६ । पूर्वादिभ्यो नवभ्यो ये इस्मास्मिनो यथास्थानमुक्तास्ते वा स्युः । पूर्वे, पूर्वाः। पूर्वस्मात्, पूर्वात् । पूर्वस्मिन्, पूर्वे । इत्यादि । नवभ्य इति किम् ? त्ये ॥१६॥ आपो डि.तां ये-यास्-यास-याम् । १।४।१७। आवन्तस्य डिताम्-डेङसिङस्डीनां यथासंख्यं यैयाम्-यास्-यामः स्युः । खट्वाय, खट्वायाः, खट्वायाः, खट्वायाम् ॥ १७॥ सर्वादेर्डसपूर्वाः । १।४।१८। .. सर्वादेराबन्तस्य ङिताम् यै-यास्-यास्-यामस्ते डस् पूर्वाः स्युः । सर्वस्यै, सर्वस्याः, सर्वस्थाः, सर्वस्याम् ॥ १८॥ टोस्येत् । १ । ४ । १९ । आवन्तस्व टोसोः परयोरेकारः स्यात् । बहुराजया, बहुराजयोः ॥१९॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३१] औता । १ । ४ । २० । ___ आवन्तस्य औता सहैकारः स्थात् । माले स्तः पश्य वा ॥२०॥ इदुतोऽस्नेरीदूत् । १४।२१। स्त्रेरन्यस्येदन्तस्योदन्तस्य च औता सह यथासंख्यम् इंदूतौ स्याताम् । मुनी, साधू । अस्त्रेरिति किम् ? अतिस्त्रियौ नरौ ॥ २१ ॥ जस्येदोत् । १।४।२२। इदुदन्तयोर्जसि परे यथासंख्यमेदोतौ स्याताम् । मुनय साधवः ॥ २२ ॥ डि त्यदिति । १ । ४ । २३ । अदिति डिंति स्यादौ परे इदुदन्तयोर्यथासंख्यमेदोतो स्याताम् । अतिस्त्रये, साधवे, अतिस्त्रेः साधोरागतं स्वम् वा । अदितीति किम् ? बुद्ध्याः, धेन्वाः । स्यादावित्येव ? शुची स्त्री ॥ २३ ॥ टः पुंसि ना। १। ४ । २४ । इदुदन्तात्परस्याः पुंविषयायाष्टाया ना स्यात् । अति'स्त्रिणा, अमुना । पुंसीति किम् ? बुद्धया ।। २४ ॥ डि डौं । १ । ४ । २५ ।। - इवुदन्तात्परो डिडौंः स्यात् । मुनौ, धेनौ । अदिदित्येव ? बुद्ध्याम् ॥ २५॥ केवलसखिपतेरौः। १ । ४ । २६ । . केवलसखिपतिभ्यामिदन्ताभ्यां परो डिरौः स्यात् । सख्यौ, पत्यौ। इत इत्येव ? सखायमिच्छति, पतिमिच्छ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] हैमशब्दानुशासनस्य ति, सख्यि, पत्यि । केवलेति किम् ? प्रियसखौ, नरपतौ न ना डि देत् । १ । ४ । २७। केवलसखिपतेर्यष्टाया ना डिति परे एचोक्तः स न स्यात् । सख्या, पत्या, सख्ये, पत्ये, सख्युः, पत्युः आगतं स्वं वा । सख्यौ, पत्यौ । डिदिति किम् ? पतयः ॥२७॥ स्त्रिया डि-तां वा दैदासदासुदाम् । १ । ४ । २८॥ स्त्रीलिङ्गादिदुदन्तात्परेषाम् हिताम् डे-डसि-उसडीनाम् यथासंख्यं दै दास् दास् दामो वा स्युः । बुद्धयै, बुद्धये । बुद्ध्याः , बुद्धेः आगतम् स्वम् वा.। बुद्धयाम् बुद्धौ । धेन्वै, धेनवे । धेन्वाः, धेनोः । धेन्वाम्, धेनौ । प्रियबुद्ध्यै, प्रियबुद्धये पुंसे स्त्रियै वा ॥ २८ ॥ स्त्रीदूतः । १। ४ । २९ । नित्य स्त्रीलिङ्गादीदूदन्ताच्च परेषां स्यादेर्डिताम् यथासंख्यं दै-दास्-दास्-दामः स्युः। नये, नद्याः, नद्याः, नद्याम् । कुवै, कुर्वाः, कुर्वाः, कुर्ताम् । अतिलक्ष्म्यै पुंसे स्त्रियैवा। स्त्रीति किम्? ग्रामण्ये, खलप्वे पुंसे स्त्रिये ॥२९।। वेयुवोऽस्त्रियाः। १।४।३०। इयुवस्थानिनौ यो स्त्रीदूतौ तदन्तात् स्त्रीवर्जात्परेषाम् स्यादेर्डिताम् यथासंख्यम् दै-दाम-दाम-दामो वा स्युः। श्रियै, श्रिये । श्रियाः, श्रियः २ । श्रियाम् , श्रियि। अतिश्रियै, अतिश्रिये । पुंसे स्त्रियै वा । भूवै, ध्रुवे । भ्रुवाः, ध्रुवः। भ्रवाः ध्रुवः । भ्रुवाम् श्रुवि । अति वै, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३३] अतिभ्रुवे । पुंसे स्त्रियै वा । इयुव इति किम् ? आध्यै । अस्त्रिया इति किम् ? स्त्रियै ।। ३० ॥ आमो नाम् वा । १।४।३१। इयुवोः स्थांनिभ्यां स्त्रीदूदन्ताभ्यां परस्य आमो नाम् वा स्यात् । न तु स्त्रियाः। श्रीणाम्, श्रियाम् । भ्रूणाम्, भ्रुवाम् । अतिश्रीणाम्, अतिश्रियाम् । अतिभ्रूणाम्, अतिभ्रुवाम् नृणाम् स्त्रीणाम् वा। इयुव इत्येव ? । प्रधीनाम् ॥ ३१ ॥ हस्वापश्च । १।४।३२। ह्रस्वान्तादावन्तात् स्त्रीदूदन्ताच परस्यामो नाम् स्यात्। देवानाम्, मालानाम्, स्त्रीणाम्. वधूनाम् ॥ ३२ ॥ संख्यानां र्णाम् । १ । ४।३३। रषनान्तानां संख्यांवाचिनामामो नाम् स्यात् । चतुर्णाम, षण्णाम्, पञ्चानाम्, अष्टानाम् ॥३३॥ स्त्रयः । १ । ४ । ३४। आमः सम्बन्धिनस्त्रेस्त्रयः स्यात्। त्रयाणाम्, परमत्रयाणाम् ॥ ३४ ॥ एदोद्भयां ङसिङसो रः । १ । ४।३५/ एदोद्भ्यां परयो प्रत्येकं ङसि-ङसो र स्यात् । मुनेः, मुनेः । धेनोः, धेनोः। गोः, गोः । द्योः, द्योः॥३५॥ .. खिति-खीतीय उर् | १ । ४ । ३६ । खि-ति-खी-तीसम्बन्धिनोर्यात्परयोसिङसोरुर् स्यात्। सख्युः, सख्युः । पत्युः, पत्युः । मखायं पतिं चेच्छतः Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] हैमशब्दानुशासनस्य सख्युः २, पत्युः २।य इति किम् ? अतिसखेः, अधिपतेः ॥३६ ॥ ऋतो डुर । १ । ४।३७। ऋतः परयोः ङसिङसोडुर् स्यात् । पितुः, पितुः॥३७॥ तृ-स्वसृ-नप्त-नेट-त्वष्ट–क्षत्त-होतृ-पोतृ-प्रशास्त्रो घुट्यार । १ । ४।३८ । तृच् तन्नन्तस्य स्वस्रादीनां च ऋतो घुटि परे आर् स्यात्। कर्तारम्, कत्तारौ २, कर्तारः। स्वसारम्, नप्तारम्, नेष्टारम्, त्वष्टारम्, क्षत्तारम्, होतारम्, पोतारम्, प्रशास्तारम् । घुटीति किम् ? कर्तृ कुलम् पश्य ॥३८॥ - अझै च । १ । ४ । ३९ । ऋतो ङौ घुटि च परे अर् स्यात् । नरि । नरम् ॥ ३९॥ मातुर्मातः पुत्रेऽर्हे सिनाऽऽमन्त्र्ये। १ । ४।४०। मातुरामध्ये पुत्रे वर्तमानस्य सिना सह मातः स्यात् अर्ह-प्रशंसायाम्। हे गार्गीमात!| पुत्र इति किम् ? हे मातः! हेगार्गीमातृके वत्से! । अर्ह इति किम् । अरे गार्गीमातृक! ॥४०॥ हस्वस्य गुणः । १।४।४१ । . आमच्यार्थवृत्तेईस्वान्तस्य सिना सह गुणः स्यात् । हे पितः !, हे मुने ! ॥४१॥ एदापः । १।४। ४२ । आमन्न्यार्थवृत्तेरावन्तस्य सिना सहकारः स्यात् । हे माले !, हे बहुराजे ! ॥ ४२ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिा [३५] नित्यदिद्धिस्वराम्बार्थस्य ह्रस्वः। १ । ४ । ४३ । नित्य दिद्-द-दाम-दास्-दामादेशा येभ्यस्तेषां द्विस्वराम्बार्थानां चाबन्तानामामन्यवृत्तीनां सिना सह ह्रस्व: स्यात्।हे स्त्रि., हे लक्ष्मि!,हे श्वश्रु!,हेवधु',हे अम्बा,हे अका, नित्यदिदिति किम्? हे हूहूः। द्विस्वरेति किम्? हे अम्बाडे! । भाप इत्येव ? हे मातः!॥४३॥ अदेतः स्यमोलृक् । १ । ४ । १४ । अदन्तादेवन्ताच आमन्त्र्यवृत्तेः परस्य सेरमश्च लुक् स्यात् । हे देव:, हे उपकुम्भ !, हे अतिहे। ॥४४॥ दीर्घङयाव्यञ्जनात्सेः । १ । ४ । ४५। दीर्वक्य । बन्ताभ्यां व्यञ्जनाच परस्य सेलुक् स्यात् । नदी, माला, “राजा । दीति किम् ? निष्कौशाम्बिः, . अतिखट्वः ॥ ४५ ॥ .. समानादमोऽतः । १ । ४ । ४६ . समानात्परस्यामोऽस्य लुक् स्यात् । देवम्, मालाम्, मनिम् , नदीम, साधुम् , वधूम् ॥ ४६॥. दीर्घो नाम्यतिसृचतसृषः। १।४।४७। . ..' तिस चतसृ षरान्तवर्जस्य समानस्यनामि परे दीर्घः । स्यात् । वनानाम् , मुनीनाम्, साधूनाम्, पितृणाम् । अतिसृचतसृष इति किम् ? तिसुणाम् ,चतसृणाम्,षण्णाम, चतुर्णाम् ॥ ४७॥ नुर्वा । १ । ४ । ४८। .. नुः समानस्य नामि परे दी? वा स्यात् । भृणाम्, ॥ नृणाम् ४८॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] हेमशब्दानुशासनस्य शसोऽता सश्च नः पुंसि । १ । ४ । ४९ । शसोऽता सह पूर्वसमानस्य दीर्घः स्यात् । तत्सन्नियोगे च पुंसि शसः सो नः। देवान, मुनीन्, वातप्रमीन्, साधून , हूहून् , पितृन् । पुंसीति किम् ? शालाः ॥ ४९ ॥ संख्यासायवरह्नस्याहन को वा । १ । ४ । ५० __संख्यावाचिभ्यः साय-विभ्यां च परस्याह्नस्य डो परेऽहन्वा स्यात् । यहनि, द्वयह्नि, त्यहने । सायाहनि, सायानि, सायाह्ने । व्यहनि, व्यनि, व्यड्ने ॥ ५० ॥ निय आम् । १।४। ५१ । । नियः परस्य डेराम् स्यात्। नियाम् । ग्रामण्याम् ॥५१॥ वाटन आः स्यादौ । १ । ४ । ५२। । अष्टनः स्यादौ परे आ वा स्यात् । अष्टाभिः अष्टभिः। प्रियाष्टाः, प्रियाष्टा ॥ ५२ ॥ अष्ट औजस्शसोः। १ । ४ । ५३ । अष्टनः कृतात्वस्य जस्शसोरौः स्यात् । अष्टौ, अष्टौ डतिष्णः संख्यया लुप् । १ । ४ । ५४ । डति-ष-नान्तानां संख्यानां जस्शसोलुंगू स्यात् । कति, कति । षट्, षट् । पञ्च, पञ्च ॥ ५४ ॥ नपुंसकस्य शिः।१।४। ५५। . नपुंसकस्य जस्शसोशिःस्यात् । कुण्डानि, पयांसि Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - स्वोपज्ञलघुतिः [३७] औरोः। १ । ४ । ५६ । ... नपुंसकस्य औरीः स्यात् । कुण्डे । पयसी ॥५६ ।। . .. .. अतः स्यमोऽम् । १ । ४ । ५७ । _ अदन्तस्य नपुंसकस्य स्यमोरम् स्यात् । कुण्डम्, हे कुण्ड ! ।। ५७ ॥ .. पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः । १ । ४ । ५८। पश्चपरिमाणस्य नपुंसकस्यान्यादेः स्यमोदः स्यात् । एकतरवर्जम् । अन्यत्, अन्यतरत्, इतरत्, कतरत्, कतमत् । अनेकतरस्येति किम् ? एकतरम् ॥ ५८ ॥ अनतो लुप् । १ । ४ । ५९। अनकारान्तस्य नपुंसकस्य स्यमोर्लए स्यात् । कर्तृ, पयः ॥५९ ॥ जरसो वा । १।४।६०। जरसन्तस्य नपुंसकस्य स्यमो ब्वा स्यात्। अतिजरः, अतिजरसम्, अतिजरम् ॥६०॥ नामिनो लुग्वा । १।४ । ६१ । नाम्यन्तस्य नपुंसकस्य स्यमोटुंग्वा स्यात् । हे वारे, हे वारि! । प्रियतिस, प्रियत्रि कुलम् ॥ ६१ ॥ वाऽन्यतः पुमांष्टादौ स्वरे । १।४ । ६२। . अन्यतो विशेष्यवशानपुंसको नाम्यन्तष्टादौ स्वरे परे पुंवद्वा स्यात् । ग्रामण्या ग्रामणिना कुलेन, कत्रों कर्तृणोः कुलयोः। अन्यत इति किम् ? पीलुने फलाय । टादाविति किम्? शुचिनी कुले, नपुंसक इत्येव?, कल्याण्यै स्त्रियै ॥ ६२॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] . हैमशब्दानुशासनस्य दध्यस्थिसक्थ्यक्ष्णोऽन्तस्याऽन् । १ । ४ । ६३ । एषां नपुंसकानां नाम्यन्तानामन्तस्य टादौ स्वरे परे अन् स्यात् दना, अतिदन्ना। अस्था, अत्यस्थ्नासक्थ्ना, अतिसक्थ्ना । अक्ष्णा, अत्यक्ष्णा ।। ६३ ।। अनामस्वरे नोऽन्तः। १ । ४ । ६४ । नाम्यन्तस्य नपुंसकस्याऽऽम्वः स्यादौ स्वरे परेनोऽन्तः स्यात् । वारिणी, वारिणः । कर्तृणी, कर्तृणः । प्रियतिसृणः अनामिति किम् ? वारीणाम् । स्वर इति किम् ? हे बारे! स्यादावित्येव ? तौम्बुरवं चूर्णम् ॥ ६४ ॥ स्वराच्छौ। १.४ । ६५। शौ परे स्वरान्तानपुंसकात्परो नोऽन्तः स्यात् । कुण्डानि । स्वरादिति किम् ? चत्वारि ॥ ६५ ।। धुटां प्राक् । १ । ४ । ६६ । स्वरात्परा या धुटजातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य शो परे धुड्भ्य एव प्राग नोऽन्तः स्यात् । पयांसि, अतिजरांसि, काष्टतक्षि । स्वरादित्येव ? 'गोमन्ति ॥ ६६ ॥ लोवा। १ । ४ । ६७ । रलाभ्याम् परा या धुटजातिस्तदन्तस्य नपुंसकस्य शो परे धुड्भ्य एव प्राक् नोऽन्तो वा स्यात् । यहञ्जि, यहूर्जि । सुवल्ङ्गि, सुवल्गि । ल इति किम् ? काष्टतक्षि । धुटामित्येव ? सुफुल्लि ।। ६७॥ घुटि । १ । ४ । ६८। निमित्तविशेषोपादानं विना आपादपरिसमाप्तेर्य१ अत्र "ऋदुदितः" इत्यनेन सूत्रेण नोऽन्तो भवति । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३९] त्कार्य वक्ष्यते तद् घुटि वेदितव्यम् ॥ ६८॥ अचः।१।४।६९। अञ्चतेर्धातोवुडन्तस्य धुटा प्राक् नोऽन्तो घुटि स्यात् । प्राक, अतिप्राङ्, प्राञ्चौ । प्राश्चि कुलानि ॥ ६९ ॥ . ऋदुदितः । १।४।६०। ऋदुदितो धुडन्तस्य घुटि परे धुटः प्राक् स्वरात्परो नोऽन्तः स्यात् । कुर्वन् , विद्वान्, गोमान् । घुटीत्येव ? गोमता ॥ ७० ॥ युज्रोऽसमासे । १।४।७१। _ "युजूंपी योगे" इत्यस्यासमासे धुडन्तस्य धुटः प्राक् नोऽन्तः स्यात् । युङ, युञ्जौ। युञ्जि कुलानि । बहुयुङ् । असमास इति किम् ? अश्वयुक् । युज्र इति किम् ? "युजिंच समाधौ" । युजमापन्ना मुनयः॥ ७१ ॥ अनडुहः सौ । १।४ ७२ । अनडुहो धुडन्तस्य धुरः प्राक् सौ परेनोऽन्तः स्यात् । अनड्वान् , प्रियानड्वान् ॥ ७२ ॥ _पुंसोः पुमन्स् । १। ४।७३ । पुंसोः पुमन्म घुटि स्यात् । पुमान, पुमांसो, पुमांसः। प्रियपुमान्, प्रियपुमांसि ॥ ७३ ॥ ओत औः । १।४।७४। ओतो घुटि परे औः स्यात् । गौः, गावी । द्यौः, द्यावौ। प्रियद्यावी । ओत इति किम् ? चित्रगुः ॥७४॥ - आ अम्शसोऽता । १।४।७५ । ओतोम्-शसोरता सह आः स्यात् । गाम्, सुगाम् , Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] हैमशब्दानुशासनस्य गाः । द्याम्, अतिद्याम्, द्याः, सुद्याः ।। ७५ ॥ पथिन्मथिनृभुक्षः सौ । १४।७६ । एषां नान्तानामन्तस्य सौ परे आः स्यात् । पन्थाः, हे पन्थाः|मन्थाः, हेमन्थाः! ऋभुक्षाः,हे ऋभुक्षानान्तनिर्देशादिह न स्यात्-पन्थानमैच्छत् पथीः ।। ७६ ॥ . एः । १ । ४ । ७७।। पथ्यादीनां नान्तानामितो घुटि परे आः स्यात् । पन्थाः पन्थानौ, पन्थानः, पन्थानम् , सुपन्थानि कुलानि । मन्थाः ऋभुक्षाः । नान्तनिर्देशादिह न स्यात्-पथ्यौ, पथ्यः।।७७॥ थोन्थ् । १।४ । ७८। पथिन्मथिनोन्तियोस्थस्य घुटि परे न्थ्स्यात् । तथैवोदाहृतम् ॥ ७८॥ इन डीस्वरे लुक् । १ । ४ । ७९॥ पथ्यादीनां नान्तानां ड्यामधुस्वरादौ च स्यादौ परे इन लुक् स्यात् । सुपथी स्त्री कुले वा, पथः । सुमथी स्त्री कुले वा, मथः । अनुभुक्षी सेना कुले वा, ऋभुक्षः ॥७९॥ वोशनसो नश्चामन्त्र्ये सौ । १ । ४ । ८०। आमन्त्र्यवृत्तेरुशनसो नलुको सौ परे वा स्याताम् । हे उशनन् !, हे उशन!, हे उशनः। आमात्र्य इति किम् ? उशना ॥ ८॥ उतोऽनडुच्चतुरो कः । १।४।८१। . आमन्त्र्यवृत्त्योरनडुच्चतुरोरुतः सौ परे. वः स्यात् । हे अनड्वन् ! । हे प्रियचत्वः ।। हे अतिचत्वः ! ॥८१॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुतिः . [१] वाः शेषे । १।४।०२। आमच्यविहितात्सेरन्यो घुटशेषस्तस्मिन्पर अनडुच्चतुरोरुतो वाः स्यात् । अनड्वान् , अनड्वाही प्रिया त्वाः, प्रियचत्वारो। शेष इति किम् ? हे अनड्बन् । हे प्रियचत्वः ! ॥ ८२ ॥ सख्युरितोऽशावेत् । २ । ४ । ८३। सख्युरिदन्तस्य शिवर्जे शेषे घुटि परे ऐत् स्यात् । सखायौ, सखायः, सवायम् । इत इति किम् ? सख्यो स्त्रियो । अशाविति किम् ? अतिसखीनि । शेष इत्येव ? हे सखे ! ॥ ८३ ॥ ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेहसश्च से । १ । ४ । ८४ । ऋदन्तादुशनसादेः सख्युरितश्च परस्य शेषस्य सेट स्यात् । पिता, अतिपिता, कर्ता, उशना, पुरुदंशा, अनेहा सखा ॥ ८४ ॥ ___नि दीर्घः । १ । ४ । ८५। - शेषे घुटि परे यो नस्तस्मिन् परे स्वरस्य दीर्घः स्यात् । राजा, राजानौ, राजानः, राजानम् । वनानि, कर्तृणि । शेष इत्येव ? हे राजन् ! ।। ८५ ॥ स्महतोः। १ । ४ । ८६ । · सन्तस्य महतश्च स्वरस्य शेषे घुटि परे दीर्थः स्यात्। श्रेयान् , श्रयांसो। महान् , महान्तौ ॥ ८६ ॥ ६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२] . हैमशब्दानुशासनस्य इन्हन्पूषार्यम्णः शिस्योः । १ । ४ । ८७॥ इन्नन्तस्य हनादेश्च स्वरस्य शिस्योरेव परयोर्दीर्घः स्यात् । दण्डीनि, स्रग्वीणि, दण्डी, स्रग्वी, भ्रूणहानि, भ्रूणहा, बहुपूषाणि, पूषा, स्वर्यमाणि, अर्यमा। शिस्यो. रेवेति किम् ? दण्डिनौ, वृत्रहणौ, पूषणो, अर्यमणौ ।८७॥ अपः । १।४।८८। अपः स्वरस्य शेषे घुटि परे दीर्घः स्यात् । आपः, स्वापौ ।। ८८॥ नि वा । १।४।०९।। अपः स्वरस्य नागमे सतिं घुटि परे दीर्थो वा स्यात् । स्वाम्पि, स्वम्पि । बह्वाम्पि, बह्वम्पि ॥ ८९ ।। अभ्वादेरत्वसः सौ । १ । ४ ।९०॥ अत्वन्तस्यासन्तस्य च भ्वादिवर्जस्य शेषेसो परेदीर्घः स्यात् । भवान् , यवमान् , अप्सराः।गोमन्तम् स्थूलशिरसम् वेच्छन् गोमान् स्थूलशिराः । अभ्वादेरिति किम् ? पिण्डग्रः॥९॥ क्रुशस्तुनस्तृच पुंसि । १ । ४ । ९१ । क्रुशो यस्तुन् तस्य शेषे घुटि परे तृच् स्यात्, पुंसि। कोष्टा, क्रोष्टारौ । पुंसीति किम् ? कृशकोप्टूनि वनानि ॥ ९१॥ टादौ स्वरे वा । १।४ । ९२ । टादौ स्वरादौ परे क्रुशस्तुनस्तृज् वा स्यात् पुंसि । क्रोष्ट्रा, कोष्टुना क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्वोः ॥ ९२ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः .... [४३] स्त्रियाम् । १ । ४ । ९३ । कुशः परस्य तुनः स्त्रीवृत्तेस्तृच् स्यात्, निनिमित्त एव । क्रोष्ट्री, क्रोष्ट्रयौ, क्रोष्ट्रीभ्याम् । पञ्चक्रोष्टभी रथैः॥९३॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ प्रथमस्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ १॥ ४ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहं॥ ॥ अथ द्वितीयाध्याये प्रथमपादः ॥ त्रि-चतुरस्तिसृ-चतसृ स्यादौ । २ । १ । १ । स्त्रियामिति वर्तते । स्यादौ परे स्त्रीवृत्त्योस्त्रिचतुरोर्यथासंख्यं तिसू चतस इत्येतौ स्याताम् । तिस्रा, चतस्रः, तिसृषु, चनसुषु, प्रियतिसा, प्रियचतसा ना। प्रियतिस् कुलम् , प्रियत्रि कुलम् । स्थादाविति किम् ? प्रियत्रिका, प्रियचतुष्कः ॥१॥ ऋतो रः स्वरेऽनि । २।१।२। । तिसृचतसृस्थस्य ऋतः स्वरादौ स्यादौ परे रः स्यात् । अनि, नविषयादन्यत्र । तिस्रः, चतस्रः, प्रियतिस्रो, प्रिय. चतस्रो स्वर इति किम् ? तिसृभिः, चतसृभिः । अनीति किम् ? तिसृणाम् , चतसृणाम् ॥ २॥ , जराया जरस् वा । २।१।३। स्वरादौ स्यादौ परे जराया जरम् वा स्यात् । जरसौ जरसः। जरे, जराः । अतिजरसौ, अतिजरौ । अतिजरसम् , अतिजरम् कुलम् ॥३॥ अपोऽभे । २।१।४। भादौ स्यादौ परे अपो अत् स्यात्। अद्भिः, स्वद्भयाम्। भ इति किम् ? अप्सु ॥ ४ ॥ आ रायो व्यञ्जने । २ । १।५। व्यञ्जनादौ स्यादौ परे रैशब्दस्य आः स्यात्। राम, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपालपुतिः [४५] रासुः अतिराभ्याम् कुलाभ्याम् । व्यञ्जन इति किम् ? रायः ॥५॥ युष्मदस्मदोः।२।१।६। व्यञ्जनादौ स्यादौ परे युष्मदस्मदोराः स्यात् । त्वाम्, माम्, अतित्वाम् , अतिमाम् , युष्मासु, अस्मासु ॥६॥ टाउ-योसि यः।१।१।६। टायोस्सु परेषु युष्मदस्मदोर्यः स्यात्। त्वया, मया, अतियुवया, अत्यावया, त्वयि, मयि, युवयोः, आवयोः। टायोसीति किम् ? त्वत्। मत् ॥ ७ ॥ शेषे लुछ । २ । १।७। यस्मिन्नायौ कृतौ ततोऽन्यः शेषः,तस्मिन् स्यादौ परे युष्मदस्मदोलक् स्यात्।युष्मभ्यम् ,अस्मभ्यम् ,अतित्वत् अतिमत्, शेष इति किम् ? त्वयि । मयि ॥ ८॥ मोर्वा । २।१।९। शेषे स्यादौ परे युष्मदस्मदोर्मोलग् वा स्यात् । युवाम् युष्मान्वा आवाम् अस्मान्वा आचक्षाणेभ्यो णिचि विपि च लुकि च।युष्मभ्यम् , युषभ्यम् । अस्मभ्यम् , असभ्यम् __मन्तस्य युवावौ द्वयोः।२।१।१०। द्वयर्थवृत्त्योयुष्मदस्मदोर्मान्तावयवस्य स्यादौ परे यथासंख्यं युव आव इत्येतौ स्याताम् । युवाम् , आवाम् , अतियुवाम् , अत्यावाम् , अतियुवासु, अत्यावासु, मन्तस्येति किम् ? युवयोः। आवयोरित्यत्र दस्य यत्वं यथा स्यात् । स्यादावित्येव ? युवयोः पुत्रो युष्मत्पुत्रः ॥१०॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] हैमशब्दानुशासनस्य . त्वमौ प्रत्ययात्तरपदे चैकस्मिन् । २ । १ । ११ । स्यादौ प्रत्ययोत्तरपदयोश्च परयोरेकार्थवृत्त्योयुष्मदस्मदोर्मान्तावयवस्य यथासंख्यं त्व म इत्येतौ स्याताम् । त्वाम् , माम् , अतित्वाम् , अतिमाम् , अतित्वासु, अतिमासु, त्वदीया, मदीयः, त्वत्पुत्रः, मत्पुत्रः । प्रत्ययोत्तरपदे चेति किम् ? अधियुष्मद्, अध्यस्मद् । एकस्मिन्निति किम् ? युष्माकम्, अस्माकम् ॥ ११ ॥ त्वमहं सिना प्राक्चाकः । २ । १ । १२ । सिनासहयुष्मदस्मदोर्यथासंख्यं त्वमहमौ स्याताम्। तो चाक्प्रसङ्गेऽकः प्रागेव । त्वम्, अहम्, अतित्वम्, अत्यहम् । प्राक्चाक इति किम् ? त्वकम्, अहकम् ॥१२॥ यूयं वयं जसा । २।१।१३ । जसा सह युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं यूयम्वयमौ स्याताम् । यूयम् , वयम् , प्रिययूयम्, प्रियवयम् । प्राक्चाक इत्येव ? यूयकम् । वयकम् ॥१३॥ तुभ्यं मह्यं ड्या । २ । १ । १४ । ड्या सह युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं तुभ्यम्-मयमौ स्याताम् । तुभ्यम् , मह्यम् , प्रियतुभ्यम्, प्रियमह्यम् ।प्राक्चाक इत्येव ? तुभ्यकम् , मह्यकम् ॥ १४ ॥ तव मम डसा । २।१ । १५ ॥ ङसा सह युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं तव ममौ स्याताम्। तव, मम, प्रियतव, प्रियमम, प्राक्चाक इत्येव ? तवक, ममक॥१५॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४७] अमौ मः ।२।१ । १६ । युष्मदस्मद्भयाम् परयोरम् औ इत्येतयोर्म इति स्यात्। त्वाम् , माम् , अतित्वाम् , अतिमाम् , युवाम् , आवाम् , अतियुवाम् , अत्यावाम् ॥ १६ ॥ शसो नः । २ । १ । १७ । ___ युष्मदस्मद्भ्यां परस्य शसोनइति स्यात्। युष्मान् , अस्मान् , प्रियत्वान् , प्रियमान् ॥ १७ ॥ अभ्यम् भ्यसः । २ । १ । १८ । युष्मदस्मद्भ्यां परस्य चतुर्थीभ्यसोऽभ्यं स्यात्। युष्मभ्यम् , अस्मभ्यम् , अतियुवभ्यम् । अत्यावभ्यम् ॥ १८ ॥ डासेश्चाद् । २ । १ । १९ । युष्मदस्मद्भ्यां परस्य डसेः पञ्चमीभ्यसाच अद् इति स्यात् । त्वद् ,मद् ,अतियुवद्, अत्यावद् , युष्मद्, अस्मद्, अतित्वद्, अतिमद् ॥ १९॥ . आम आकम् । २ । १ । २० । युष्मदस्मद्भ्यां परस्य आम आकं स्यात् । युष्माकम् . अस्माकम्, अतियुवाकम्, अत्यावाकम्, युष्मानस्मान् वाऽऽचक्षाणानां युष्माकम् , अस्माकम् ॥ २० ॥ पदायुविभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहुत्वे । २।१।२१ । बहुत्वविषयया समविभक्त्या सह पदात् परयोयुमदस्मदोर्यथासंख्यं वस्नसो वा स्याताम् । तच्चत्पदं युष्मदस्मदी चैकस्मिन् वाक्ये स्तः । अन्वादेशे नित्यं विधानादिह विकल्पः । एवमुत्तरसूत्रत्रयेऽपि । धर्मो वो रक्षतु, धर्मो नो रक्षतु, धर्मो युष्मान् रक्षतु, धर्मोऽस्मान् रक्षतु । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] हैमशब्दानुशासनस्य एवं चतुर्थी-षष्ठीभ्यामपि । पदादिति किम् ? युष्मान पातु। युग्विभक्त्येति किम् ? तीर्थे यूयं यात। एकवाक्य इति किम् ? आतियुष्मान् पश्य, ओदनं पचत, युष्माकं भविध्यति ॥ २१॥ दित्वे वाम्नौ । २ । १ । २२ । पदात् परयोयुन्मदस्मदोर्द्वित्वाविषयया युग्विभत्त्या सह यथासंख्यं वाम् नौ इत्येतौ वा स्याताम् । एकवाक्ये । धर्मो वां पातु, धर्मो युवां पातु, धर्मो नौ पातु, धर्म आवां पातु, एवं चतुर्थीषष्ठीभ्यामपि ॥ २२ ॥ डेङसा ते मे । २ । १ । २३ । डेङस्भ्यां सह पदात् परयोर्युष्मदस्मदोर्यथासंख्यं ते मे इत्येतौ वा स्याताम् । एकवाक्ये । धर्मस्ते दीयते, धर्मस्तुभ्यं दीयते, धर्मो मे दीयते, धर्मो मां दीयते, धर्मस्ते स्वम् , धर्मस्तव स्वम्, धम्मो मे स्वम् , धम्मो मम स्वम् ॥ २३॥ अमा त्वा मा । २ । ९ । २४ । अमा सह पदात् परयोयुष्मदस्मदोर्यथासंख्य त्वामा इत्येतो वा स्याताम् । एकवाक्ये । धर्मस्त्वा पातु, धर्मस्त्वां पातु, धर्मो मा पातु, धर्मो मां पातु ॥ २४ ॥ असदिवामन्त्र्यं पूर्वम् । २ । १ | २५। आमन्त्र्यार्थ पदं युष्मदस्मद्भ्यां पूर्वमसादिव स्यात् । जना! युष्मान् पातु धर्मः, साधू! युवां पातु धमः, साधो! त्वां पातु तपः । पूर्वमिति किम् । मयैतत्सर्वमाख्यातं युष्माकं मुनिपुङ्गवाः ॥२५॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४९] जस्विशेष्यं वाऽऽमन्त्र्ये । २ । १ । २६ । युष्मदस्मद्भयां पूर्व जसन्तमामन्याथै विशेष्यवाच्यामध्ये पदेऽर्थात् तद्विशेषणे परेऽसदिव वा स्यात् । जिनाः! शरण्या युष्मान् शरणं प्रपद्ये, जिनाः!शरण्या वः शरणं प्रपद्ये । जिनाः! शरण्या अस्मान् रक्षत, जिनाः ! शरण्या नो रक्षत । जसिति किम् ? साधो ! सुविहित ! वोऽथो शरणं प्रपद्ये, साधो ! सुविहित ! नोऽथो रक्ष । विशष्यमिति किम् ? शरण्याः साधवो! युष्मान् शरणं प्रपद्ये । आमन्त्र्य इति किम् ? आचार्या युष्मान् शरण्याः शरणं प्रपद्ये। अर्थात्तद्विशेषणभूत इति किम् ? आचार्या उपाध्याया युष्मान् शरणं प्रपद्ये ॥ २६ ॥ नान्यत् । २ । १ । २७ । युष्मदस्मद्भयाम् पूर्व जसन्तादन्यदामन्त्र्यं विशेष्यमामन्ये तद्विशेषणे परेऽसदिव न स्यात् । साधो! सुविहित! त्वा शरणं प्रपद्ये । साधो सुविहित !मा रक्ष॥२७॥ पादाद्योः।२।१ | २८।। नियतपरिमाणमात्राक्षरपिण्डः पादः। पदात् परयोः पादस्यादिस्थयोयुष्मदस्मदोर्वस्नसादिन स्यात् । . . “वीरो विश्वेश्वरो देवो, युस्माकं कुलदेवता। स एव नाथो भगवानस्माकं पापनाशनः ॥१॥" पादाद्योरिति किम् ? "पान्तु वो देशनाकाले, जैनेन्द्रा दशनांशवः । भवकूपपतजन्तु-जातोद्धरणरज्जवः॥ २॥ ॥ २८ ।। चाहहवैवयोगे । २ । १ । २९। । एभिर्योगे पदात्परयोर्युष्मदस्मदोर्वस्नसादिर्न स्यात् । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] हैमशब्दानुशासनस्य ज्ञानं युष्मांश्च रक्षतु। एवं अह-ह-वा-एवैरप्युदाहार्यम् । योग इति किम् ? ज्ञानश्च शीलश्च ते स्वम् ॥ २९ ॥ दृश्यर्थश्चिन्तायाम् । २।१ । ३०।। दृशिनासमानार्थैश्चिन्तार्थैर्धातुभिर्योंगे युष्मदस्मदोर्वस्नसादिनस्यात्।जनो युष्मान् सन्दृश्यागतः,जनोऽस्मान् सन्दृश्यागतः। जनो युवां समीक्ष्यागतः, जन आवां समीक्ष्यागतः। जनस्त्वामपेक्षते, जनो मामपेक्षते। सर्वत्र मनसा चिन्तनं दृश्यर्थानामर्थः । दृश्यर्थैरिति किम् ? जनो वो मन्यते । चिन्तायामिति किम् ? जनो वः पश्यति ॥३०॥ नित्यमन्वादेशे । २ । १ । ३१ । किञ्चिद्विधातुं कथितस्य पुनरन्यद्विधातुं कथनमन्वादेशः, तस्मिन् विषये पदात् परयोयुष्मदस्मदोर्वस्नसादिनित्यं स्यात् । यूयं विनीतास्तद्वो गुरवो मानयन्ति, वयं विनीतास्तन्नो गुरवो मानयन्ति । धनवांस्त्वमथो त्वा लोको मानयति, धनवानहमथोमा लोकोमानयति ॥३१॥ सपूर्वात् प्रथमान्तादा । २ । १ । ३२। । विद्यमानपूर्वपदात् प्रथमान्तात् पदात् परयोर्युष्मद स्मदोरन्वादेशे वस्नसादिर्वा स्यात् । यूयं विनीतास्तद् गुरवो वोमानयन्ति, तद् गुरवो युष्मान मानयन्ति। वयं विनीतास्तद् गुरवो नो मानयन्ति, तद् गुरवोऽस्मान् मानयन्ति । युवांसुशीलौ तज्ज्ञानं वां दीयते, तज्ज्ञानं युवाभ्यां दीयते । आवां सुशीलौ तज्ज्ञानं नौ दीयते, तज्ज्ञानमावाभ्यां दीयते ॥ ३२ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५१] त्यदामेनदेतदो द्वितीया-टौस्यवृत्त्यन्ते । २।१।३३। त्यदादीनामेतदो द्वितीयायां टायामोसि च परेडन्वादेशेएनद् स्यात्, न तु वृत्त्यन्ते। उद्दिष्टमेतदध्ययनमथो एनदनुजानीत, एतकंसाधुमावश्यकमध्यापय अथो एनमेव सूत्राणि । अत्र साकः । एतेन रात्रिरधीता अथो एनेनाहरप्यधीतम् । एतयोः शोभनं शीलमथो एनयोर्महती कीर्तिः। त्यदामिति किम् ? संज्ञायामेतदं संगृहाण अथो एतदमध्यापय । अवृत्त्यन्त इति किम् ? अथो परमैतं पश्य ॥ ३३ ॥ इदमः । २ । १ । ३४। त्यदादेरिदमो द्वितीया-टौसि परेऽन्वादेशे एनत् स्यात्, अवृत्त्यन्ते । उद्दिष्टमिदमध्ययनमथो एनदनुजानीत । अनेन रात्रिरधीता अथो एनेनाहरप्यधीतम् । अनयोः शोभनं शीलं अथो एनयोर्महती कीर्तिः ॥ ३४ ॥ - अदयञ्जने । २ । १ । ३५। त्यदादेरिदमो व्यञ्जनादौ स्यादौ परेऽन्वादेशे अः स्यात्, अवृत्त्यन्ते । इमकाभ्यां शैक्षकाभ्यां रात्रिरधीता अथो आभ्यामहरप्यधीतम् । इमकेषु अथो एषु । अनगिति वक्ष्यमाणादिह साकोऽपि विधिः ॥३५॥ अनक् । २ । १ । ३६ । त्यदादेव्यञ्जनादौ स्यादौ परेऽग्वर्ज इदम् अः स्यात् । आभ्याम्, आभिः, एषु, आसु । अनगिति किम् ? इमकाभ्याम् । त्यदामित्येव ? अतीदंभ्याम् ॥ ३६ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२] हैमशब्दानुशासनस्य टौस्यनः ।२।१।३७ । त्यवां टायामोसि च परेऽनक इदमोऽनः स्यात् । अनेन, अनया, अनयोः, अनयोः । त्यदामित्येव ? प्रियेदमा । अनक इत्येव ? इमकेन ॥ ३७॥ अयमियम पुस्त्रियोः सौ । २१३८1. ___त्यदां सौ परे इदमः पुंस्त्रियोर्यथासंख्यमयमियमौ स्याताम् । अयं ना, इयं स्त्री। त्यदामित्येव ? अतीदं ना स्त्री वा ॥ ३८ ॥ दो मः स्यादौ । २ । १।३९। त्यदां स्यादौ परे इदमो दो म: स्यात् । इमो, परमेमौ इमकाभ्याम् । त्यदामित्येव ? प्रियेदमौ ॥ ४० ॥ किमः कस्तसादौ च । २ । १.। ४० । त्यदां स्यादौ तसादौ च प्रत्यये परे किमः कः स्यात् । कः, साकोऽपि कः। कदा, कर्हि । तसादौ चेति किम् ? किंपश्य, किन्तराम् । त्यदामित्येव ? प्रियकिमौ ॥४०॥ आदेरः । २।१ । ४१ । द्विशब्दमभिव्याप्य त्यदां स्यादौ तसादौ च परे अः स्यात् । स्या, त्यौ, द्वौ, ततः । त्यदामित्येव ? अतितदौ ॥४१॥ तः सौ सः । २ । १ । ४२ । आद्वेस्त्यदां सौ परे तः सः स्यात् । स्यः, स्या, सः, सा, एषा । त्यदामित्येव ? प्रियत्यत् ॥ ४२ ॥ ___अदसो दः सेस्तु डौ।२।१ । ४३।। त्यदां सौ परे अदसो दः सः स्यात् । सेस्तुडौ । असो, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [५३] असकौ, हे असौ! हे असकौ । त्यदामित्येव ? अत्यदाः ॥४३॥ असुको वाकि । २ । १।४४ । त्यदां सौ परे अदसोऽकि सत्यमुको वा स्यात् । असुकः असकौ, हे असुक ! हे असको ! ॥ ४४ ॥ मोऽवर्णस्य । २ । १ । ४५। अवर्णान्तस्य त्यदामदसो दो मः स्यात् । अमू नरौ स्त्रियो कुले वा । अमी, अमूदृशः । अवर्णस्येति किम् ? अदः कुलम् ॥ ४५ ॥ . वादौ । २ । १ । ४६। . अदसोऽद्रावन्ते सति दोर्वा स्यात् । अदमुयडू, अमुद्रयङ्, अमुमुयङ्, अदद्रयङ् ॥ ४६॥ __ मादुवर्णोऽनु । २ । १ । ४७। __ अदसो मः परस्य वर्णस्य उवर्णः स्यात् । अनु-पश्चाकार्यान्तरेभ्यः । अमुम्, अमू, अमुमुयङ् । अन्विति किम् ? अमुष्मै, अमुष्मिन् ॥ ४७ ॥ .. प्रागिनात् । २ । १ । ४८॥ '' अदसो मः परस्य वर्णस्येनादेशात् प्राक् उवर्णः स्यात् अमुना । इनादिति किम् ? अमुया ॥४८॥ बहुष्वेरीः । २ । १ । ४९ । बह्वर्थवृत्तेरदसो मः परस्य एत ई: स्यात् । अमी, अमीषु । एरिति किम् ? अमूः स्त्रियः । मादित्येव ? अमुके ॥ १९ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४] हैमशब्दानुशासनस्य धातोरिवर्णोवर्णस्येयुत् स्वरे प्रत्यये । २ । १ । ५० । ___ धातोरिवर्णोवर्णयोः स्वरादौ प्रत्यये परे यथासंख्यमियुवौ स्याताम् । नियो, लुवो, अधीयते, लुलवुः । प्रत्यये इति किम् ? न्यर्थः, ल्वर्थः, नयनम् , नायक इत्यादौ परत्वाद् गुण-वृद्धी ॥ ५० ॥ .. इणः ।२।१ । ५१। . इणो धातोः स्वरादीप्रत्यये परे इय् स्यात्। यापवादः। ईयतुः ईयुः ।। ५१ ॥ संयोगात् । २१ । ५२। धातोरिवर्णोवर्णयोः संयोगात्परयोः स्वरादौ प्रत्यये परे इयुवौ स्याताम् । यवक्रियौ, कटावौ, शिश्रियुः॥५२॥ भूश्नोः । २। १ । ५३। भ्रश्नोरुवर्णस्य संयोगात् परस्य स्वरादौ प्रत्यये परे उक् स्यात् । ध्रुवौ, आप्नुवन्ति । संयोगादित्येव? चिन्व. न्ति ।। ५३ ।। स्त्रियाः। २ । १ । ५४ । स्त्रिया इवर्णस्य स्वरादौ प्रत्यये परे इय् स्यात् । स्त्रियौ । अतिस्त्रियौ ॥५४ ॥ ___ वाऽम्शसि । २ । १ । ५५। स्त्रिया इवर्णस्याम्शसोः परयोरिय् वा स्यात् । स्त्रियं, स्त्रीम् । स्त्रियः, स्त्रीः ॥ ५५ ॥ योऽनेकस्वरस्य । २ । १ । ५६ ॥ अनेकस्वरस्य धातोरिवर्णस्य स्वरादौ प्रत्यये परे यः स्यात् । चिच्युः, निन्युः। पतिमिच्छति पत्यिं ॥५६॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५५] स्यादौ वः । २ । १ । ५७ । अनेकस्वरस्य धातोरुवर्णस्य स्वरादौ स्यादौ परे वः स्यात् । वसुमिच्छन्तौ वस्वो। स्यादाविति किम् ? लुलवुः ॥५७।। क्विवृत्तेरसुधियस्तौ । २ । १ । ५८ । क्विवन्तेनैव या वृत्तिः समासस्तस्याः सुधीशब्दादन्यस्याः सम्बन्धिनो धातोरिवर्णोवर्णस्य स्वरादौ स्यादौ परे तो य व इत्येतौ स्याताम् । उन्न्यौ, ग्रामण्यो, सुल्वः, खलप्वः । क्विविति किम् ? परमौ नियो परमनियो । वृत्तेरिति किम् ? नियो कुलस्य । असुधिय इति किम् ? सुधियः ॥ ५८ ॥ . हन्पुनवर्षाकारैर्भुवः । २ । १ । ५९। ___हनादिभिः सह या क्वृित्तिस्तत्सम्बन्धिन एव भुवोधातोरुवर्णस्य स्वरादौ स्यादौ परे वः स्यात् । इन्भ्वौ, पुनभ्चों, वर्षाभ्वः, कारभ्वः । दृनादिभिरिति किम् ? प्रतिभुवौ ॥ ५९॥ - ण-षमसत्परे स्यादिविधौ च । २।१ । ६० । इतः सूत्रादारम्य यत्परं कार्य विधास्यते तस्मिन् स्याद्यधिकारविहिते च पूवस्मिन्नपि कर्तव्ये णत्वं षत्वं चासदसिद्ध स्यात् । एतत्सूत्रनिर्दिष्टयोश्च ण-षयोः परे घे णोऽसन् । पूष्णः, तक्ष्णः, पिपठीः, अर्वाणो, सप्पीषि। असत्पर इत्यधिकारो "रात्सः" इति यावत्। स्यादिविधौ चेति तु "नोादिभ्य" इति ॥६॥ तादेशोऽपि । २ । १ । ६१ । केनोपलक्षितस्य तस्यादेशःषादन्यस्मिन् परेपूर्वस्मिंश्च Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६] हैमशब्दानुशासनस्य स्यादिविधावसन् स्यात् । क्षामिमान् , लून्युः । अषीति किम् ? वृक्णः ॥ ६१ ॥ -दोः कस्सि । २।१ । ६२ । से परे ष-ढोः कः स्यात् । पेक्ष्यति, लेक्ष्यति ॥ ६२ ॥ भ्वादे मिनो दीर्ण ऊर्व्यञ्जने । २ । १६३। भ्वादेर्धातोर्यो र-वौ तयोः परयोस्तस्यैव नामिनो दीर्घः स्याद् व्यञ्जने । हा, आस्तीर्णम् , दीव्यति । भ्वादेरिति किम् ? कुकुरीयति, दिव्यति ॥ ६३ ॥ पदान्ते । २ । १ । ६४।। पदान्तस्थयो|देोः परयोदे मिनो दीर्घःस्यात्। गीः, गीरथः। पदान्त इति किम् ? गिरः। लुवः ॥६४॥ न यि तद्धिते । २ । १ । ६५ । यादौ तद्धिते परे यो ौ तयोः परयो मिनो दी? न स्यात् । धुर्यः। यीति किम् ? गीर्वत्। तद्धित इति किम् ? गीर्यति, गीयते ॥६५॥ कुरुच्छरः । २।१।६६ । । कुरुच्छुरो मिनो रे परे दीर्थो न स्यात् । कुर्यात्, छुर्यात् । कुवित्युकारः किम् ? कुरत्शन्दे-कूर्यात् ॥ ६६ ॥ मो नो म्वोश्च । २।१ । ६७ । मन्तस्य धातोरन्तस्य पदान्तस्थस्य म्वोश्च परयोन: स्यात् । प्रशान्, प्रशान्भ्याम् , जङ्गन्मि, जङ्गवः॥ ६७ ॥ संस्-ध्वंस-क्वस्सनडुहो दः। २ । १ । ६८। स्रम्-ध्वंसोः क्वस्प्रत्ययान्तस्य च सन्तस्य अनडुहश्च पदान्तस्थस्य दास्यात्। उखासद्, पर्णध्वद्, विद्वत्कुलम् । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५७] स्वनडु । क्वस्सिति द्विसकारपाठादिह माभूत्विद्वान् ॥ ६८॥ ऋत्विज-दिश-दृश्-स्पृश्-सज-दधृषुष्णिहोगः।२।१।६९/ एषां पदान्तस्थानां गः स्यात् । ऋत्विग् , दिग्, दृग, अन्याहर, घृतस्पृग, स्रग्, दधृग्, उष्णिग्, ॥ ६९ ॥ नशो वा ।२।१। ७०। नशः पदान्ते ग् वा स्यात। जीवनग्, जीवनड् ॥७०॥ युजञ्च-क्रुञ्चो नो ङः । २।१ । ७१ । एषां नस्य पदान्ते ङ् स्यात् । युङ्, प्राङ्, क्रुङ् ॥७१॥ सोरुः । २।१।७२। पदान्ते सोरुः स्यात् । आशीः, वायुः ॥७२॥ संजुषः । २ । १ । ७३ । पदान्ते सजुषोः रुः स्यात् । सजूः, सर्वत् ॥ ७३ ॥ अह्नः। २।१।७४ । अहः पदान्तेहास्यात्। हे दीर्घाहो निदाथ ! दीर्घाहा निदाघः ॥ ७४॥ रो लुप्यरि । २ । १। ७५। । ... अरेफे परे पदान्ते अनोलुपि सत्यांर: स्यात् । अहरधीते, अहर्दत्ते । लुपीति किम् ? हे दीर्घाहोऽत्र । अरीति किम् ? अहोरूपम् ॥ ७५ ॥ धुटस्तृतीयः । २ । १ । ७६ । ___ पदान्ते धुटां तृतीयः स्यात् । वाग्, वाग्भिः, अभिः ॥ ७६ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८] हैमशब्दानुशासनस्य ग-ड-द-बादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्यादेश्चतुर्थः स्वोश्च प्रत्यये । २।१ । ७७ । गडदबादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्य धातुरूपशब्दावयवस्यादेश्चतुर्थः स्यात् । पदान्ते सादौ ध्वादौ च प्रत्यये । पर्णघुट्, तुण्डिभमाचक्षाणः तुण्ढिप् । एवं गड़प, धर्मभुत्, निघोक्ष्यते, न्यघूढ्वम्, धोक्ष्यते, अधुग्ध्वम् , भोत्स्यते, अभूद्ध्वम् । गडदबादेरिति किम् ? अजञ्ज । एकस्वरस्येति किम् ? दामलिट् ॥ ७७ ॥ धागस्त-थोश्च । २ । १ । ७८। धागश्चतुर्थान्तस्य दादेरादेर्दस्य तथोः मध्वोश्च प्रत्यययोः परयोश्चतुर्थः स्यात्। धत्ता, धत्थः, धत्से, धध्वे। तथोश्चेति किम् ? दध्वः। चतुर्थान्तस्येत्येव ? दधाति ॥७८॥ अधश्चतुर्थात् तथोर्धः । २ । १ । ७९ । चतुर्थात्परयोर्धारूपवर्जाद्धातोर्विहितयोस्तथोधः स्यात्। अदुग्ध, अदुग्धाः। अलब्ध, अलब्धाः । अध इति किम् ? धत्तः, धत्थः। विहितविशेषणं किम् ? ज्ञानभुत्त्वम् ॥७९॥ नाम्यन्तात् परोक्षाद्यतन्याशिषो धो ढः ।२।१।८०। रान्तानाम्यन्ताच धातोः परासां परोक्षाद्यतन्याशिषां धोढः स्यात् । तुष्टुवे, अतीम्, चेषीवम्, तीषर्षीढ्वत्। र्नाम्यन्तादिति किम् ? अपरध्वम् , आसिध्वम् ॥ ८० ॥ हान्तस्थाचोड्भ्यां वा । २ । ९ । ८१ । हादन्तस्थायाश्च पराओरिटश्च परासां परोक्षाद्यतन्याशिषां धो द् वा स्यात् । अग्राहिद्वम् , अग्राहिध्वम् , Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५९] ग्राहिषीढ्वम् , ग्राहिषीध्वम् । अनायित्वम् अनायिध्वम् । नायिषीढ्वम् , नायिषीध्वम् । अकारिद्वम् , अकारिध्वम् । अलाविढ्वम् , अलाविध्वम् । जगृहिध्वे, जगृहिवे । आयित्वम् , आयिध्वम्। हान्तस्थादिति किम् ? घानिषीध्वम् , आमिषीध्वम् ॥ ८१॥ हो धु.-पदान्ते । २ । १ । ८२ । धुटि प्रत्यये पदान्ते च हो ढ् स्यात् । लेढा, मधुलिद गुडलिण्मान् । धुट्पदान्त इति किम् ? मधुलिहौ ॥ ८२ ॥ भ्वादेर्दादेर्घः । २ । १ । ८३ । भ्वादेर्धातोर्यो दादिरवयवस्तस्य हो धुटि प्रत्यये परे पदान्ते च घः स्यात् । दोग्धा, धोक्ष्यति, अधोक्, गोधुक् । भ्वादेरिति किम् ? दामलिट् ॥ ८३ ॥ : मुह-द्रुह-ष्णुह-ष्णिहो वा । २ । १ । ८४ । एषां हो धुटि प्रत्यये पदान्ते च घ् वा स्यात् । मोग्धा मोढा । उन्मुक् उन्मुट्। द्रोग्धा द्रोढा। मित्रध्रुक्। मित्रधुन् । स्नोग्धा स्नोढा। उत्स्नु उत्स्नुक् । स्नेग्धास्नेढा । चेलस्निक् चेलस्निट् ॥ ८४ ॥ नहाहोर्द्ध-तौ । २ । १ । ८५ । नहेग्रस्थानाहश्च धातो) धुटि प्रत्यये पदान्ते च यथासंख्यं ध-तौ स्यताम् । नद्धा, उपानभ्याम् आत्थ ।।८५॥ च-जःक-गम् । २ । १ । ८६ । . धुटि प्रत्यये पदान्ते च च-जोः क-गौ स्याताम्। वक्ता वाक्, त्यक्ता, अर्द्धभाक् ॥८६॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०] हैमशब्दानुशासनस्य यज-सृज-मृज-राज-भ्राज-भ्रस्ज-वश्व-परिवाजः शः षः। २ । १ । ८७ । यजादीनां धातूनां च-जो शस्य च धुटि प्रत्यये पदान्ते च षः स्यात्। यष्टा, देवेट, स्रष्टा, तीर्थसृट, माष्टी, कंसपरिमृद्, राष्टिः, सम्राट्, भ्राष्टिः, विभ्राट्, भ्रष्टा, धानाभृट् ,ब्रष्टा, मूलवृद्, परिवाद, लेष्टा,प्रष्टा, शब्दप्राट् । यजादिसाहचर्याच्छोऽपि धातोरेव स्यात् । इह मा भूत्, निजभ्याम् । चज इत्येव ? वृक्षवृश्चमाचष्टे वृक्षव् ॥ ८७ ॥ संयोगस्यादौ स्कोर्लक् । २ । १ । ८८ । धुप्रत्यये पदान्ते च संयोगादिस्थयोःस्कोलक् स्यात् । लग्नः, साधुलक, वृक्णः, मूलवृद्, तष्टा, काष्ठतट् ॥८८॥ पदस्य । २ । १ । ८९ । पदस्य संयोगान्तस्य लुक् स्यात् । पुमान् , पुंभिः, महान् । पदस्येति किम् ? स्कन्त्त्वा ॥ ८९ ॥ रात्सः । २ । १ । ९०। पदस्य संयोगान्तस्य योरस्ततःपरस्य सस्यैव लुक्स्यात्।चिकीः, कटचिकीः। स एवेति किम् ?ऊ, न्यमार्ट ।।९०॥ नाम्नो नोऽनहः। २ । १ । ९१ । पदान्तेनाम्नो नस्य लुक् स्यात्। स चेदह्नो न स्यात् । राजा, राजपुरुषः । अनह्न इति किम् ? अहरेति ॥ ९१॥ नाऽऽमन्त्र्ये । २ । १ । ९२ । आमच्यार्थस्य नाम्नोनस्य लुक् न स्यात्। हे राजन्! ॥१२॥ क्लीबे वा । २ । १ । ९३ ।. आमच्यार्थस्य नाम्नः क्लीबे नस्य लुग्वा स्यात् । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [६१] हे दाम !, हे दामन् ! ॥ ९३ ॥ मावर्णान्तोपान्तापञ्चमवर्गान मतोर्मो वः ।२।११९४ । __मावर्णी प्रत्येकमन्तोपान्तौ यस्य तस्मात् पञ्चमवर्जवर्गान्ताच नाम्नः परस्य मतोर्मो वः स्यात् । किंवान् , शमीवान् , वृक्षवान् , मालावान , अहर्वान , भास्वान्, मरुत्वान् ॥ ९४॥ . नाम्नि । २।१ । ९५ । संज्ञायां मतोर्मोवः स्यात् । अहीवती मुनीवती नद्यौ ॥ ९५ ॥ . चर्मण्वत्यष्ठीवचक्रीवतकक्षीवद्रुमण्वत् । २ । १।९६ । . एते मत्वन्ताः संज्ञायां निपात्यन्ते । चर्मण्वती नाम नदी। अष्ठीवान जानुः, चक्रीवान् खरः, कक्षीवान् ऋषिः, रुमण्वान् गिरिः ॥ ९६ ॥ उदन्वानब्धौ च । २ । १ । ९७ । अब्धौ जलाधार नाम्नि च मतो उदन्वान्निपात्यते । उदन्वान घटः, उदन्वान् समुद्रः, ऋषिः आश्रमश्च ।।९७।। राजन्वान सुराज्ञि । २ । १ । ९८ । .' सुराजकेऽर्थे राजन्वान् मतौ निपात्यते । राजन्वान् देशः, राजन्वत्यः प्रजाः ॥९८ ॥ नोादिभ्यः। २।१ । ९९ । जादिभ्यो मतोर्मो वो न स्यात् । ऊर्मिम्मान् , दल्मिमान इत्यादि ॥ ९९ ॥ मास-निशासनस्य शासादौ लुग्वा । २।१।१०० शसादौ स्यादावेषां लुग्वा स्यात् । मासः मासान् । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२] हैमशब्दानुशासनस्य निशः निशाः । आसनि आसने ॥ १०॥ दन्तपादनासिकाहृदयासृगयुषोदकदोर्यकृच्छकृतो दत्पन्नसहृदसन्यूषन्नुदन्दोषन् यकञ्छकन् वा । २। १ । १०१ । - शसादौ स्यादौ दन्तादीनां यथासंख्यं दत् इत्यादयो वा स्युः। दतः, दन्तान् । पदः, पादान् । नसा, नासिकया। हृदि, हृदये, अस्ना,असृजा।यूष्णा, यूषेण । उदूना,उदकेन। दोष्णा, दोषा। यक्ना, यकृता । शक्ना, शकृता ॥१०१॥ यस्वरे पादः पदणि-क्य-घुटि । २ । १ । १०२ । णि-क्य-घुट्वले यादौ स्वरादौ च प्रत्यये पादन्तस्य पद् स्यात् ।वैयाघ्रपद्यः, द्विपदः पश्य । पादयतेः क्विपि? पाद् । पदी कुले। यस्वर इति किम् ? द्विपाभ्याम् । अणिक्यघुटीति किम् । पादयति । व्याघ्रपाद्यति, द्विपादौ । उदच उदीच । २ । १ । १०३ । अणिक्यघुटि यस्वरे उदच उदीच् स्यात् उदीच्यः,उदीची। अणिक्यघुटीत्येव ? उदयति, उदच्यति, उदश्चः, उदच इति किम् ? नि मा भूत्, उदश्चा, उदश्च ।। १०३ ॥ ___ अच्च् प्रागदीर्घश्व । २ । १ । १०४ । . ___ अणिक्यघुटि यस्वरादौ प्रत्ययेऽच् चः स्यात्, प्राक्स्वरस्य दीर्घः। प्राच्यः, दधीचा। अणिक्यघुटीत्येव ? दध्ययति, दध्यच्यति, दध्यश्चः । अचिति किम् ? नि मा भूतः, साध्वश्चा ॥ १०४॥ क्वसुष्मतौ च । २ । १ । १०५।. अणिक्यघुटि यस्वरे मतौ च प्रत्ययेक्वसू उष् स्यात्। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [६३] . विदुष्यः, विदुषा, विदुष्मान् । अणिक्यघुटीत्येव ? विद्वयति, विद्वस्यति, विद्वांसः ॥ १०५ ॥ श्वन-युवन-मघोनो टीस्याद्यघुटस्वरे व उः।२।१।१०६। ___ इयां स्याद्यघुटूस्वरे च श्वनादीनां व उः स्थात्। शुनी, शुनः । अतियूनी, यूनः । मघोनी, मघोनः । ङीस्थाद्य बुट्स्वर इति किम् ? शौवनम् , यौवनम् , माघवनम् ॥१०६॥ लुगातोऽनापः । २ । १ । १०७ । आवर्जस्यातोडीस्यायघुटस्वरेलुक् स्यात्। कीलालपः। हाहे देहि। अनाप इति किम् ? शालाः ॥ १०७॥ अनोऽस्य । २ । १ । १०८ । ङीस्याद्यघुट्स्वरेऽनोऽस्य लुक् स्यात् । राज्ञी, राज्ञः। ॥१०८॥ ईडौ वा । २ । १ । १०९ । ईकारे डौ च परेऽनोऽस्य लुग्वा स्यात् । साम्नी, सामनी । राज्ञि, राजनि ।। १०९ ॥ षादि-हन-धृतराजोऽणि । २ । १ । ११०। षादेरनो हनो धृतराज्ञश्चातोऽणि प्रत्यये लुक् स्यात् । औक्ष्णः, ताक्ष्णः, भ्रौणघ्नः, धार्तराज्ञः ॥ ११ ॥ नव-मन्तसंयोगात् । २ । १ । १११ । वान्तान्मान्ताच संयोगात्परस्यानोऽस्य लुग्न स्यात्। .. पर्वणा, कर्मणी ॥ १११ ॥ हनो नो नः । २ । १ । ११२ । हन्तेईनो नः स्यात् । भ्रूणघ्नी, घ्नन्ति । न इति किम् ? वृत्रहणौ ॥ ११२ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४] हैमशब्दानुशासनस्य लुगस्यादेत्यपदे । २ । १ । ११३ । , अपदादावकारे एकारे च परेऽस्य लुक् स्यात् । सः, पचन्ति, पचे । अपद इति किम् ? दण्डानम् ॥ ११३॥ डित्यन्त्यस्वरादेः । २ । १ । ११४ । . स्वराणां योऽन्त्यस्वरस्तदादेः शब्दस्य डिति परे लुक स्यात् । मुनौ, साधौ, पितुः ॥ ११४॥ .. अवर्णादश्नोऽन्तो वाऽतुरीङयोः । २।१। ११५। . सावर्जादवर्णात् परस्यातुः स्थानेऽन्तो वा स्यात्, ई-योः । तुदन्ती, तुदती कुले स्त्री वा । एवं-भान्ती, भाती। अवर्णादिति किम् ? अदती । अश्न इति किम् ? लुनती ॥ ११५ ॥ यशवः । २ । १। ११६ । श्याच्छवश्च परस्याऽतुरीङयोः परयोरन्त इत्यादेशः स्यात् ।। दीव्यन्ती, पचन्ती ॥ ११६॥ दिव औः सौ । २। १ । ११७। दिवः सौ परे औः स्यात् । द्यौः ॥ ११७ ॥ उः पदान्तेऽनूत् । २ । १ । ११८ । पदान्तस्य दिवउ स्यात् । अनूत्, स तुदी? न स्यात्। युभ्याम्, धुषु । पदान्त इति किम् ? दिवि । अनूदिति किम् ? धुभवति ॥ ११८ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ द्वितीय- . स्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ॥२॥ १॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः क्रियाहेतुः कारकम् । २ । २ । १ । क्रियाया निमित्तं कर्नादि कारकं स्यात् । करोतीति कारकमिति अन्वर्थाश्रयणाच निमित्तत्वमात्रेण अनाश्रितव्यापारस्य हेत्वादेः कारकसंज्ञा न स्यात् ॥ १ ॥ स्वतन्त्रः कर्ता । २ । २ । २ । क्रियाहेतुःक्रियासिद्धौ स्वप्रधानो यः स कर्ता स्यात्। मैत्रेण कृतः ॥ २ ॥ कत्तुर्व्याप्यं कर्म । २ । २ । ३ । का क्रियया यद्विशेषेणाप्तुमिष्यते तत्कारकं व्याप्यं कर्म च स्यात् । तत् त्रेधा-निर्वयं, विकार्य, प्राप्यश्च । कटं करोति, काष्ठं दहति, ग्रामं याति ॥ ३ ।। . वाकर्मणामणिकर्ता णौ । २ । २ । ४।। ___ अविवक्षितकर्मणां धातूनां णिगः प्राग यः कर्ता स णिगि सति कर्म वा स्यात् । पचति चैत्रः, पाचयति चैत्रं चैत्रेण वा ॥४॥ गति-बोधाऽऽहारार्थ-शब्दकर्म-नित्याऽकर्मणामनीखाद्यदि हा-शब्दाय-क्रन्दाम् । २ । २।५।। गतिर्देशान्तरप्राप्तिः। शब्दः कर्म क्रिया व्याप्यश्च येषां ते शब्दकर्माणः । नित्य न विद्यते कर्म येषां ते नित्याकम्र्माणः। गत्यर्थबोधार्थाहारार्थानां शब्दकर्मणां नित्याक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६] हैमशब्दानुशासनस्य मणाच नीखाद्यदिहाशब्दापक्रन्द्रिवर्जानां धातूनामणिकर्ता स णौ सति कर्म स्यात् । गमयति चैत्रं ग्रामम्, बोधयति शिष्यं धर्मम् , भोजयति बटुमोदनम् , जल्पयति मैत्रं द्रव्यम् , अध्यापयति बटुं वेदम् , शाययति मैत्रं चैत्रः। गत्यर्थादीनामिति किम् ? पाचयत्योदनं चैत्रेण मैत्रः न्यादिवर्जनं किम् ? नाययति भारं चैत्रेण, खादयत्यपूपं मैत्रेण, आदयत्योदनं सुतेन, हाययति चैत्र मैत्रेण, शब्दा ययति बटुं मैत्रेण, क्रन्दयति मैत्रं चैत्रेण ॥ ५॥ . भक्षेर्हिसायाम् । २ । २।६। भक्षेहिसार्थस्यैवाणिकर्ता णौ कर्म स्यात्। भक्षयति सस्यं बलीवान मैत्रः। हिंसायामिति किम् ? भक्षयति पिण्डी शिशुना ॥६॥ वहेः प्रवेयः । २ । २ । ७। - वहेरणिक्कर्ता प्रवेयो णौ कर्म स्यात् । वाहयति भारं बलीवर्दान् मैत्रः। प्रवेय इति किम् ?, वाहयति भारं मैत्रेण ॥७॥ ह-क्रोनवा । २ । २।८।। हृक्रोणिकर्ता णौ कर्म वा स्यात् । विहारयति देशं गुरुं गुरुणा वा, आहारयत्योदनं बालं बालेन वा, कारयति कटं चैत्रं चैत्रेण वा ॥ ८॥ दृश्यभिवदोरात्मने । २ । २ । ९ । दृश्यभिवदोरात्मनेपदविषयेऽणिक्कर्ता णो कर्म वा स्यात्। दर्शयते राजा भृत्यान् भृत्यैर्वा, अभिवादयते गुरुः शिष्यं शिष्येण वा। आत्मन इति किम् ? दर्शयति रूपतकर्क रूपम् ॥९॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [६७] नाथः । २ । २ । १०। __आत्मनेपदविषयस्य नाथो व्याप्यं कर्म वा स्यात् । सर्पिषो नाथते, सपि थते । आत्मन इत्येव ? पुत्रमुप. नाथति पाठाय ॥ १०॥ ... स्मृत्यर्थ-दयेशः । २ । २ । ११ । स्मृत्यर्थानां दयेशोश्च व्याप्यं कर्म वा स्यात् । मातुः स्मरति, मातरं स्मरति, मातुः स्मर्यते, माता स्मर्यते, सप्पिषः सपिर्वा दयते, लोकानामीष्टे, लोकानीष्टे ॥११॥ कृगः प्रतियत्ने । २ । २ । १२ । पुनर्यत्नःप्रतियत्नस्तवृत्तेः कृगो व्याप्यं कर्म वा स्यात् । एधोदकस्यैधोदकं वोपस्कुरुते ॥ १२ ॥ रुजाऽर्थस्याऽज्वरि-सन्तापेर्भावे कर्तरि । . २ | २ । १३ । __रुजा पीडा, तदर्थस्य ज्वरिसन्तापिवर्जस्य धातोर्व्याप्यं कर्म वा स्यात् । भावश्चेद्रुजायाः कर्ता । चौरस्य चौरं वा रुजति रोगः । अज्वरिसन्तापेरिति किम् ? आधूनं ज्वरयति सन्तापयति वा। भाव इति किम् ? मैत्रं रुजति श्लेष्मा ॥ १३ ॥ जास-नाट-नाथ-पिषो हिंसायाम् । २ । २ । १४ । हिंसार्थानामेषां व्याप्यं कर्म वा स्यात् । चौरस्य चौरं वोजासयति, चौरस्य चौरं वोन्नाटयति, चौरस्य चौरं वोत्क्राथयति, चौरस्य चौरं वा पिनष्टि । हिंसायामिति किम् ? चौरं बन्धनाजासयति ॥ १४ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८] हैमशब्दानुशासनस्य निप्रेभ्यो नः । २ । २ । १५ । समस्तव्यस्तविपर्यस्ताभ्यां निप्राभ्यां परस्य हिंसार्थस्य हन्तेाप्यं कर्म वा स्यात् । चौरस्य चौरं वा निप्रहन्ति। हिंसायामित्येव ? रागादीनिहन्ति ॥ १५॥ विनिमेय-द्यूतपणं पणि-व्यवहोः।२।२।१६ | विनिमेयः क्रयविक्रयोऽर्थः, द्यूतपणो द्यूतजेयं, तो पणिव्यवहोर्व्याप्यो वा कर्म स्याताम् । शतस्य शतं वा पणायति, दशानां दश वा व्यवहरति। विनिमेयवृतपणमिति किम् ? साधून पणायति ॥ १६ ॥ . उपसर्गादिवः । २ । २ । १७ ॥ उपसर्गात् परस्य दिवो व्याप्यो विनिमेयद्यूतपणौ वा कर्म स्याताम् । शतस्य शतं वा प्रदीव्यति। उपसर्गादिति किम् ? शतस्य दीव्यति ॥ १७ ॥ न । २ । १८। अनुपसर्गस्य दिवो. व्याप्यो विनमेयद्यूतपणौ कर्म न स्याताम् । शतस्य दीव्यति ॥ १८ ॥ ४ करणं च । २ । २ ॥१९॥ दिवः करणं कर्म करणं च युगपत् स्यात् । अक्षान् दीव्यति, अक्षर्दीव्यति, अक्षैर्देवयते मैत्रश्चैत्रेण ॥१९॥ अधेः शीङ्-स्थाऽऽस आधारः । २।२।२०। अधेः संबद्धानां शीस्थाऽऽसामाधारः कर्म स्यात् । ग्राममधिशेते, अधितिष्ठति, अध्यास्ते वा ॥ २०॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ६९ ] उपान्वध्याङ् - वसः | २ | २ | २१ | उपादिविशिष्टस्य वसतेराधारः कर्म्म स्यात् । ग्राममुपवसति, अनुवसति, अधिवसति आवसति ॥ २१ ॥ वाऽभिनिविशः | २ | २ | २२ | " अभिनिभ्यामुपसृष्टस्य विशेराधारः कर्म वा स्यात् । ग्राममभिनिविशते, कल्याणे अभिनिविशते ॥ २२ ॥ कालाsध्व-भाव- देशं वाऽकर्म्म चाकर्मणाम् । २ । २ । २३ । कालादिराधारोऽकर्मणां धातूनां योगे कम्मकर्म च युगपद्वा स्यात् । मासमास्ते, क्रोशं शेते, गोदो हमास्ते, कुरूनास्ते । पक्षे-मासे आस्ते इत्यादि । अकर्म चेति किम् ? मासमास्यते । अकर्मणामिति किम् ? रात्रावुद्देशोऽधीतः ॥ २३ ॥ साधकतमं करणम् | २ | २ | २४ | । क्रियायां प्रकृष्टोपकारकं करणं स्यात् । दानेन भोगानाप्नोति ॥ २४ ॥ कम्मभिप्रेयः संप्रदानम् | २ | २ | २५ | कर्मणा व्याप्येन क्रियया वा यमभिप्रेयते स सम्प्रदानं स्यात् । देवाय बलिं दत्ते, राज्ञे कार्यमाचष्टे, पत्ये शेते ॥ २५ ॥ स्पृहेर्व्याप्यं वा | २ | २ | २६ ॥ स्पृर्व्याप्यं वा संप्रदानं स्यात् । पुष्पेभ्यः पुष्पाणि वा स्पृहयति ॥ २६ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०] हैमशब्दानुशासनस्य क्रुद्-दुहेाऽसूयाथैर्य प्रतिकोपः । २।२ । २७ । क्रुधाद्यर्थे तुभिर्योगेयं प्रति कोपस्तत् सम्प्रदानं स्यात् । मैत्राय क्रुध्यंति, द्रुह्यति, ईयति, असूयति वा । यं प्रतीति किम् ? मनसा क्रुध्यति । कोप इति किम् ? शिप्यस्य कुप्यति विनयार्थम् ॥ २७ ॥ नोपसर्गात् क्रुद्-द्रुहा । २।२।२८।। सोपसर्गाभ्यां क्रुद्रुहिभ्यां योगे यंप्रतिकोपस्तत्संप्रदानं न स्यात् । मैत्रमभिक्रुध्यति, अभिद्रुह्यति । उपसर्गादिति किम् ? मैत्राय क्रुध्यति द्रुह्यति ॥ २८ ॥ .. अपायेऽवधिरपादानम् । २ । २ । २९ । अपाये विश्लेषे योऽवधिस्तदपादानं स्यात् । वृक्षात् पर्ण पतति, व्याघ्राद् बिभेति, अधर्माज्जुगुप्सते विरमति वा,धर्मात्प्रमाद्यति, चौरेभ्यस्त्रायते, अध्ययनात् पराजयते, यवेभ्यो गांरक्षति,उपाध्यायादन्तर्द्धत्ते,श्रृङ्गाच्छरोजायते, हिमवतोगङ्गा प्रभवति, वलभ्याः श्रीशत्रुञ्जयः षड् योजनानि, कार्तिक्या आग्रहायणी मासे, चैत्रान्मैत्रः पटुः, माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्य आढयतराः ॥ २९ ॥ क्रियाऽऽश्रयस्याऽऽधारोऽधिकरणम् । २।२।३०। क्रियाऽऽश्रयस्य कत्तुः कर्मणो वाऽऽधारोऽधिकरणं स्यात् । कटे आस्ते, स्थाल्या तण्डुलान् पचति ॥ ३०॥ नाम्नः प्रथमैक-दि-बहौ । २।२ । ३१ । एकद्विबहावर्थमात्रे वर्तमानानाम्नः परा यथासंख्यं सि-औ-जस्लक्षणा प्रथमा स्यात् । डित्थः, गौः, शुक्ल: कारकः, दण्डी ॥३१॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [७१] आमन्त्र्ये । २ । २।३२ ।। आमन्यार्थवृत्तेर्नाम्नः प्रथमा स्यात् । हे देव!। आमव्य इति किम् ? राजा भव ॥ ३२ ।। गौणात्समया-निकषा-हा-धिगन्तराऽन्तरेणाति-ये नतेनै-द्वितीया । २ । २ । ३३ । समयादिभिर्युक्ताद् गौणानाम्न एकद्विवहौ यथासंख्यममौ-शसिति द्वितीयास्यात्।समया ग्रामम् । निकषा गिरि नदी। हा! मैत्रं व्याधिः। घिर जाल्मम् ।अन्तराऽन्तरेण च निषधं निलं च विदेहाः । अन्तरेण धम्म सुखं न स्यात् । अतिवृद्धं कुरुन् महबलम् । येन पश्चिमां गतः तेन पश्चिमां नीतः ।। ३३ ॥ द्वित्वेऽधोऽध्युपरिभिः । २ । २ । ३४ । द्विरुक्तैरेभियुक्तानाम्नो द्वितीया स्यात् । अधोऽधो ग्रामम् । अध्यऽधिग्रामम् । उपर्युपरि ग्रामं ग्रामाः। द्वित्व इति किम् ? अधो गृहस्य ॥ ३४॥ सर्वोभयाभिपरिणा तसा। २।२।३५। सर्वादिभिस्तसन्तैर्युक्तानाम्नो द्वितीया स्यात् । सर्वतः। उभयतः। अभितः, परितो वा ग्रामं वनानि ॥३५॥ लक्षण--वीप्स्येत्थम्भूतेष्वभिना । २ । २।३६ । लक्षणं चिह्नम् , वीप्साकर्म वीप्स्यम् , इत्थम्भूतः किश्चित्प्रकारमापन्नः, एषु वर्तमानादभिनायुक्ताद् द्वितीया स्यात् । वृक्षमभिविद्युत्, वृक्षं वृक्षमाभसेकः, साधुमैत्रो मातरमभि। लक्षणादिष्विति किम् ? यदत्र ममभि स्यात् तहीयताम् ॥ ३६॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२] हैमशब्दानुशासनस्य भागिनि च प्रतिपर्यनुभिः । २।२।३७। स्वीकार्याऽशो भागस्तत्स्वामी भागी, तत्र लक्षणादिषु च वर्तमानात् प्रत्यादिभिर्युक्ताद् द्वितीया स्यात् । यदत्र मांप्रति,मां परि, मामनु स्यात् तद्दीयताम् । वृक्षं प्रति परि अनु वा विद्युत् । वृक्षं वृक्षं प्रति परि अनु वा सेकः। साधुमैत्रो मातरं प्रति परि अनु वा। एतेष्विति किम् ? अनु वनस्याऽशनिर्गता ॥ ३७॥ ___ हेतु-सहार्थेऽनुना । २ । २ । १८ । हेतुर्जनकः। सहार्थस्तुल्ययोगो विद्यमानता च, तद्विषयोऽप्युपचारात् । तयोर्वर्तमानादनुना युक्ताद् द्वितीया स्यात् । जिनजन्मोत्सवमन्वागच्छन् सुराः गिरिमन्वा. सिता सेना ॥ ३८ ॥ . उत्कृष्टेऽनूपेन । २ । २ । ३९।। उत्कृष्टार्थादनूपाभ्यां युक्ताद् द्वितीया स्यात् । अनु. सिद्धसेनं कवयः । उपोमास्वाति सङ्ग्रहीतारः ॥ ३९ ।। कर्मणि । २।२।४०॥ . नानः कर्मणि द्वितीया स्यात् । कटं करोति, तण्डुलान् पचति, रविं पश्यति, अजां नयति ग्रामम्, गां दोग्धि पयः ॥ ४॥ क्रियाविशेषणात् । २।२। ४१ । क्रियाया यद्विशेषणं तद्वाचिनो द्वितीया स्यात् । स्तोकं पचति । सुखं स्थाता ॥४१॥ कालाध्वनोाप्तौ । २।२।४२ । व्याप्तिरत्यन्तसंयोगः । व्याप्तौ द्योत्यायां कालाध्व Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [७३] वाचिभ्यां द्वितीया स्यात् । मासं गुडधानाः, कल्याणी अधीते वा । क्रोशं गिरिः, कुटिला नदी,क्रोशमधीते वा। व्याप्ताविति किम् ? मासस्य मासे वा द्वयहं गुडधानाः । क्रोशस्य क्रोशे वा एकदेशे कुटिला नदी ॥ ४२ ॥ सिद्धौ तृतीया । २ । २ । ४३ । सिद्धौ फलनिष्पत्ती, द्योत्यायां कालाधवाचिभ्यां टा-भ्यां-भिस्लक्षणा तृतीया यथासंख्यमेक-द्वि-बहौस्यात्। मासेन मासाभ्यां मासै आवश्यकमधीतम् । क्रोशेन कोशाभ्यां क्रोशैर्वा प्राभृतमधीतम् । सिद्धाविति किम् ? मासमधीत आचारो नाऽनेन गृहीतः ॥ ४३ ॥ हेतु-कर्तृ-करणेत्थम्भूतलक्षणे । २ । २।४४ । फलसाधनयोग्यो हेतुः । किश्चित्प्रकारमापन्नस्य चिह्न इत्थम्भूतलक्षणं । हेत्वादिवृत्ते म्नस्तृतीया स्यात् । धनेन कुलम् । चैत्रेण कृतम् । दांत्रेण लुनाति । अपि त्वं कमण्डलुना च्छात्रमद्राक्षीः १ ॥४४॥ सहार्थे । २ । २।४५ । सहार्थे तुल्ययोगे विद्यमानतायां च गम्यमाने नाम्नस्तृतीया स्यात् । पुत्रेण सहागतः। स्थूलो गोमान् ब्राह्मणो वा। . . एकेनापि सुपुत्रेण, सिंही स्वपिति निर्भयम् । सहैव दशभिः पुत्रै रं वहति गर्दभी॥१॥ ४५ ॥ यद्भेदैस्तद्वदाख्या । २।२। ४६ । यस्य भेदिनो भेदैः प्रकारैस्तद्वतोऽर्थस्याऽऽख्या निर्देशः स्यात् तद्वाचिनस्तृतीया स्यात् । अक्ष्णा काणः, पादेन १० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४] हैमशब्दानुशासनस्य खञ्जः प्रकृत्या दर्शनीयः, तद्वद्ग्रहणं किम् ? अक्षिकाणं पश्य । आख्येति प्रसिद्धिपरिग्रहार्थम्, तेनाक्ष्णा दीर्घ इति न स्यात् ॥ ४६॥ कृताऽऽद्यैः २।२।४७। - कृताऽऽद्यनिषेधार्थैर्युक्तात्तृतीया स्यात् । कृतं तेन, किं गतेन ॥ ४७॥ काले भान्नवाऽऽधारे । २ । २ । ४८।। कालवृत्तेर्नक्षत्रार्थादाधारे तृतीया वा स्यात् । पुष्येण पुष्ये वा पायसमश्नीयात् । काल इति किम् ? पुष्येऽर्कः । भादिति किम् । तिलपुष्पेषु यत्क्षीरम् । आधार इति किम् ? अद्य पुष्यं विद्धि ॥४८॥ प्रसितोत्सुकाऽवबद्वैः । २ । २ । ४९ । एतैर्युक्तादाधारवृत्तेस्तृतीया वा स्यात् । केशैः, केशेषु वा प्रसितः। गृहेण, गृहे वा उत्सुकः, केशैः, केशेषु वाऽवबद्धः॥४९॥ . व्याप्ये द्विद्रोणादिभ्यो वीप्सायाम् । २ । २ । ५० । __ व्याप्यवृत्तिभ्यो द्विद्रोणादिभ्यो वीप्सायां तृतीया था स्यात् । द्विद्रोणेन, द्विद्रोणं द्विद्रोणं वा धान्यं क्रीणाति, पञ्चकेन पञ्चकं पञ्चकं वा पशून् क्रीणाति ॥५०॥ समो ज्ञोऽस्मृतौ वा । २ । २ । ५१ । अस्मृत्यर्थस्य सञ्जानातेर्यद्वयाप्यं तवृत्तेस्तृतीया वा स्यात् । मात्रा मातरं वा सञ्जानीते। अस्मृताविति किम् ? मातरं सञ्जानाति ॥५१॥ दामः संप्रदानेऽधर्म्य आत्मने च । २ । २ । ५२ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [७५] सम्पूर्वस्य दामः सम्प्रदानेऽधम्र्ये वर्तमानात्तृतीया स्यात् । तत्सन्नियोगे च दाम आत्मनेपदम् । दास्या सम्प्रयच्छते कामुकः । अधर्म्य इति किम् ? पत्न्य संप्रयच्छति ॥५२॥ चतुर्थी । २ । २।५३ । संप्रदाने वर्तमानादेक-द्वि-बही यथासंख्यं डे-भ्या-भ्यम्लक्षणा चतुर्थी स्यात् । द्विजाय गां दत्ते, पत्ये शेते॥५३॥ तादर्थे । २ । २ । ५४ । तस्मा इदं तदर्थम् । तद्भावे सम्बन्धविशेषे द्योत्ये चतुर्थी स्यात् । यूपाय दारु, रन्धनाय स्थाली ।। ५४ ॥ रुचिकृप्यर्थ-धारिभिः प्रेय-विकारोत्तमणेषु ।२।२।५४) रुच्यथैः कृप्यर्थैर्धारिणाच योगेयथासंख्यं प्रेय-विकारोत्तमर्णवृत्तेश्चतुर्थी स्थात् । मैत्राय रोचते धर्मः, मूत्राय कल्पते यवागूः, चैत्राय शतं धारयति ॥ ५५॥ प्रत्याङः श्रुवार्थिनि । २ । २ । ५६ । प्रत्याभ्यां परेण श्रुवा युक्तादर्थिन्यभिलाषुके वर्त्तमानाचतुर्थी स्यात्। द्विजाय गांप्रतिशृणोति, आशृणोति वा ॥५६॥ .. प्रत्यनोगणाऽऽख्यातरि।२।२। ५७ । प्रत्यनुभ्यांपरेण गृणायोगे आख्यातृवृत्तेश्चतुर्थी स्यात्। गुरवे प्रतिगृणाति अनुगृणाति ॥ ५७ ॥ यदीक्ष्ये राधीक्षी । २ । २ । ५८ । वीक्ष्यं 'विमतिपूर्वकं निरूप्य तद्विषया क्रियापि। यस्य १ विविधा विशेषानुपलम्मादेकस्मिन् वस्तुनि सादृश्यादिनिमित्तादनेकपक्षाऽऽलम्बनानवधारणाऽऽत्मिका मतिविमतिः -संदेहज्ञानमित्यर्थः । सं० Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६] हैमशब्दानुशासनस्य वीक्ष्ये राधीक्षी वर्त्तते तवृत्तेश्चतुर्थी स्यात् । मैत्राय राध्यति ईक्षते वा, ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्यः। वीक्ष्य इति किम् ? मैत्रमीक्षते ॥ ५८॥ उत्पातेन ज्ञाप्ये । २ । २ । ५९ । उत्पात आकस्मिकं निमित्तम्। तेन ज्ञाप्ये वर्तमानाचतुर्थी स्यात् । वाताय कपिला विद्युत् , आतपायातिलोहिनी । पीता वर्षाय विज्ञेया, दुर्भिक्षाय सिता भवेत् ॥१॥ उत्पातेनेति किम् ? राज्ञ इदं छत्रमायान्तं विद्धि राजानम् ॥५९ ॥ श्लाघलु-स्था-शपा प्रयोज्ये ।२।२। ६० । इलाघादिभिर्द्धातुभिर्युक्ताद् ज्ञाप्ये प्रयोज्ये वर्तमानाचतुर्थी स्यात् । मैत्राय श्लाघते, हनुते, तिष्ठते, शपते, प्रयोज्य इति किम् ? मैत्रायाऽऽत्मानं श्लाघते, आत्मनो मा भूत् ॥ ६॥ तुमोऽर्थे भाववचनात् । २ । २ । ६१ । क्रियायां क्रियायामुपपदे तुम् वक्ष्यते तस्यार्थे ये भाववाचिनो घनादयस्तदन्तात् स्वार्थे चतुर्थी स्यात् । पाकाय इज्यायै वा व्रजति, तुमोऽर्थ इति किम् ? पाकस्य । भाववचनादिति किम् ? पक्ष्यतीति पाचकस्य व्रज्या॥६१॥ गम्यस्याऽऽप्ये । २ । २ । ६२ । यस्यार्थो गम्यते नचाऽसौ प्रयुज्यते स गम्यः। गम्यस्य तुमो व्याप्ये वर्तमानाचतुर्थी स्यात् । एधेभ्यः फलेभ्यो वा व्रजति । गम्यस्येति किम् ? एधानाहतु याति ॥ ६२ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [७७] गतेनवाऽनाप्ते । २ । २ । ६३ । गतिः पादविहरणं। तस्या आप्येऽनाप्ते वर्तमानाचतुर्थी वा स्यात् । ग्रामंग्रामाय वा याति, विप्रनष्टः पन्थानं पथे वा याति।गतेरिति किम् ? स्त्रियं गच्छति,मनसा मेरुं गच्छति। अनाप्त इति किम् ? संप्राप्ते मा भूत्। पन्थानं याति ॥६३॥ मन्यस्याऽनावादिभ्योतिकुत्सने । २ । २ । ६४ । ___ अतीव कुत्स्यते येन तदतिकुत्सनं तस्मिन् , मन्यते ाप्ये वर्तमानान्नावादिवर्जाचतुर्थी वा स्यात् । न त्वा तृणाय तृणं वा मन्ये। मन्यस्येति किम् ? न त्वा तृणं मन्वे। अनावादिभ्य इति किम् ? नत्वा नावं, अन्नं, शुकं, शृंगालं, काकं वा मन्ये । कुत्सन इति किम् ? न त्वा रत्नं मन्ये । करणाऽऽश्रयणं किम् ? न त्वा तृणाय मन्ये । युष्मदो मा भूत् । अतीति किम् ? त्वां तृणं मन्ये ॥६४॥ हित-सुखाभ्याम् । २ । २ । ६५ । आभ्यां युक्ताच्चतुर्थी वा स्यात् । आमयाविने आमयाविनो वा हितम् । चैत्राय चैत्रस्य वा सुखम् ॥६५॥ तद्भद्राऽऽयुष्य-क्षेमार्थाऽर्थेनाऽऽशिषि । २ । २। ६६ । .. तदिति हितसुखयोः परामर्शः। हिताद्यर्थैर्युक्तादाशिषि गम्यायां चतुर्थी वा स्यात् । हितं पथ्यं वा जीवेभ्यो जीवानां वा भूयात् । सुखं शं शर्म वा प्रजाभ्यः प्रजानां वा भूयात्, भद्रमस्तु श्रीजिनशासनाय श्रीजिनशासनस्य वा । आयुष्यमस्तु चैत्राय चैत्रस्य वा। क्षेम भूयात् कुशलं निरामयं वा श्रीसङ्घाय श्रीसङ्घस्य वा । अर्थः कार्य प्रयोजनं वा भूयान्मैत्राय मैत्रस्य वा ॥ ६६ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८] हैमशब्दानुशासनस्य परिक्रयणे । २ । २ । ६७ । परिक्रीयते नियतकालं स्वीक्रियते येन तस्मिन् वर्तमानाचतुर्थी वा स्यात् । शताय शतेन वा परिक्रीतः ॥६७॥ शक्तार्थ चषड्-नमः स्वस्ति-स्वाहा-स्वधाभिः।२।२।६८ ___ शक्तार्वषडादिभिध युक्ताचतुर्थी नित्यं स्यात् । शक्तः प्रभुर्वा मल्लो मल्लाय, वषडग्नये, नमोऽर्हद्भ्यः, स्वस्ति प्रजाभ्यः, स्वाहेन्द्राय, स्वधा पितृभ्यः ॥ ६८ ॥ • पञ्चम्यपादाने । २ । २ । ६९ । अपादाने एक-द्वि-बहौयथासंख्यं डसि-भ्यां-भ्यस्लक्षणा पश्चमी स्यात् । ग्रामाद् गोदोहाभ्यां वनेभ्यो वा आगच्छति ॥ ६९ ॥ आङाऽवधौ । २ । २ । ७० । अवधिर्मर्यादा अभिविधिश्च । तवृत्तेराङा युक्तात् पश्चमी स्यात् । आपाटलिपुत्राद् वृष्टो मेघः॥ ७० ॥ पर्यपाभ्यां वये । २ । २ । ७१ ।। वय वर्जनीयेऽर्थे वर्तमानात् पर्यपाभ्यां युक्तात् पश्चमी स्यात् । परि अप वा पाटलिपुत्राद वृष्टो मेघः । वर्ण्य इति किम् ? अपशब्दो मैत्रस्य ॥ ७१ ॥ यतः प्रतिनिधि-प्रतिदाने प्रतिना । २ । २ । ७२ । प्रतिनिधिमुख्यसदृशोऽर्थः । प्रतिदानं गृहीतस्य विशोधनं । ते यतः स्यातां तद्वाचिनः प्रतिना योगे पश्चमी स्यात् । प्रद्युम्नो वासुदेवात् प्रति । तिलेभ्यः प्रतिमाषानस्मै प्रयच्छति ॥ ७२॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [७९] आख्यातयुपयोगे । २ । २ । ७३ । आख्याता प्रतिपादयिता तद्वाचिनः पञ्चमी स्यात् । उपयोगे नियमपूर्वकविद्याग्रहणविषये। उपाध्यायादधीते आगमयति वा। उपयोग इति किम् ? नटस्य शृणोति ॥७३॥ गम्ययपः कर्माऽधारे। २।२।७४ । गम्यस्याप्रयुज्यमानस्य यबन्तस्य कर्माऽऽधारवाचिनः पश्चमी स्यात्। प्रासादादासनाद्वा प्रेक्षते। गम्यग्रहणं किम् ? प्रासादमारुह्य शेते । आसने उपविश्य भुङ्क्ते ॥७॥ प्रभृत्यन्यार्थ-दिक्शब्द-बहिरारादितरैः ।२।२७५/ प्रभृत्यर्थैरन्याथैदिक्शब्दैवहिरादिभिश्च युक्तात् पश्चमी स्यात् । ततः प्रभृति, ग्रीष्मादारभ्य, अन्यो भिन्नो वा मैत्रात्, ग्रामात् पूर्वस्यां दिशि वसति, उत्तरो विन्ध्यात् पारियात्रः, पश्चिमो रामाद् युधिष्ठिरः, बहिः आरात् इतरो वा ग्रामात् ॥ ७५ ॥ ऋणाद्धेतोः। २ । २ । ७६ । हेतुभूतऋणवाचिनः पश्चमी स्यात् । शताद् बद्धः। हेतोरिति किम् ? शतेन बद्धः ।। ७६ ॥ - गुणोदस्त्रियां नवा । २ । २ । ७७ । अस्त्रीवृत्तेर्हेतुभूतगुणवाचिनः पञ्चमी वा स्यात् । जाड्यात् जाडयेन वा बद्धः, ज्ञानात् ज्ञानेन वा मुक्तः, अत्रियामिति किम् ? बुद्धया मुक्तः ॥ ७ ॥ आरादर्थैः । २ । २ । ७८ । आराद्दूरमन्तिकं च तदर्थैर्युक्तात् पञ्चमी वा स्यात्। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०] हैमशब्दानुशासनस्य दूरं विप्रकृष्टं वा ग्रामाद् ग्रामस्य वा । अन्तिकमभ्यासंवा ग्रामाद ग्रामस्य वा ॥ ७८ ॥ स्तोकाऽल्प-कृच्छ्र-कतिपयादसत्त्वे करणे।२।२७९/ यतो द्रव्ये शब्दप्रवृत्तिः सगुणोऽसत्त्वं, तेनैव वा रूपे. णाभिधीयमानं द्रव्यादि, तस्मिन् करणे वर्तमानेभ्यः स्तोकादिभ्यः पञ्चमी वा स्यात् । स्तोकात् स्तोकेन वा, अल्पादल्पेन वा, कृच्छ्रात् कृच्छ्रेण वा, कतिपयात्कतिपयेन वा मुक्तः । असत्त्व इति किम् ? स्तोकेन विषेण हतः ॥ ७९ ॥ अज्ञाने ज्ञः षष्ठी । २।२।८०। अज्ञानार्थस्य ज्ञो यत्करणं तद्वाचिन एकद्वि-बही यथासंख्यं ङसोसाम् लक्षणा षष्ठी नित्यं स्यात् । सर्पिषः सर्पिषोः सप्पिषां वा जानीते । अज्ञान इति किम् ? स्वरेण पुत्रं जानाति । करण इत्येव तैलं सर्पिषो जानाति ॥ ८०॥ शेषे । २ । २ । ८१ ।' कादिभ्योऽन्यस्तदविवक्षारूपः स्वस्वामिभावादिसम्बन्धः विशेषः शेषस्तत्र षष्ठी स्यात् । राज्ञः पुरुषः, उपगोरपत्यम्, माषाणामश्नीयात् ।। ८१ ॥ रि-रिष्टात्-स्तादस्तादसतसाता । २ । २८२) एतत्प्रत्ययान्तैर्युक्तात् षष्ठी स्यात् । उपरि ग्रामस्य, उपरिष्टात्, परस्तात् ,पुरस्तात्, पुरः,दक्षिणतः, उत्तराद्वा ग्रामस्य ॥ ८२ ॥ कम्मेणि कृतः। २।२। ८३। कृदन्तस्य कर्मणि षष्ठी स्यात् । अपां स्रष्टा, गवां Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१] दोहः। कर्मणीति किम् ? शस्त्रेण भेत्ता, स्तोकं पक्ता। कृत इति किम् ? भुक्तपूर्वी ओदनम् ॥ ८३ ॥ द्विषो वाऽतृशः । २।२ । ८४ । अतृशन्तस्य द्विषः कर्मणि षष्ठी वा स्यात् । चौरस्य चौरं वा द्विषन् ॥ ८४ ॥ वैकत्र द्वयोः। २।२।८५। . द्विकर्मकेषु धातुषु कृत्प्रत्ययान्तेषु द्वयोः कर्मणोरेकतरस्मिन् षष्ठी वा स्यात् । अजाया नेता सुघ्नं सुन्नस्य वा। अथवा अजां अजाया वा नेता स्रुघ्नस्य ।। ८५॥ कर्तरि । २ । २ । ८६ । कृदन्तस्य धातोः कर्तरि षष्ठी स्यात् । भवत आसिका। कर्तरीति किम् ? गृहें शायिका ॥ ८६ ॥ दिहेतोरस्त्र्यणकस्य वा । २ । २ । ८७ । स्त्यधिकारविहिताभ्यामणकाभ्यामन्यस्य द्वयोः कतृकर्मषष्ठयोर्हेतोः कृतः कर्तरि षष्ठी वा स्यात् । विचित्रा सूत्राणां कृतिराचार्यस्य आचार्येण वा । द्विहेतोरित्येकव. चनं किम् ? आश्चर्यमोदनस्य पाकोऽतिथीनां च प्रादुर्भावः । अस्त्र्यणकस्येति किम् ? चिकीर्षा मैत्रस्य काव्यानाम् , भेदिका चैत्रस्य काष्ठानाम् ॥ ८७ ॥ कृत्यस्य वा । २ । २ । ८८। कृत्यस्य कर्तरि षष्ठी वा स्यात् । त्वया तव वा कृत्यः कटः॥८८॥ 9 . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [८२] हैमशब्दानुशासनस्य नोभयोर्हेतोः । २ । २ । ८९ । उभयो कर्तृ-कर्मणोः षष्ठीहेतोः कृत्यस्योभयोरेव षष्ठी न स्यात् । नेतव्या ग्राममजा मैत्रेण ॥ ८९ ॥ तृन्नुदन्ताऽव्यय क्वस्वानातृश्शतृ-ङि-णकच ___ खलर्थस्य । २ । २ । ९० । तृन्नादीनां कृतां कर्मकोंः षष्ठी न स्यात् । तृन्वदिता जनापवादान् । उदन्तः-कन्यामलङ्करिष्णुः, श्रद्धालुस्तत्त्वम् । अव्ययम्-कटं कृत्वा, ओदनं भोक्तुं व्रजति । क्वसुः-ओदनं पेचिवान् । आनः कटं चक्राणः, मलयं पचमानः, चैत्रेण पच्यमानः। अतृश-अधीयस्तत्त्वार्थम् । शत-कटं कुर्वन् । डि-परीषहान् सासहिः । णकच-कटं कारको व्रजति । खलर्थः-ईषत्करः कटो भवता, सुज्ञानं तत्त्वं त्वया ॥९॥ क्तयोरसदाधारे । २।२। ९१ । सतो वर्तमानादाधाराचान्यत्रार्थे यो क्त-क्तवतू तयोः कर्मकोंः षष्ठी न स्यात् । कटः कृतो मैत्रेण, ग्रामं गतवान् असदाधार इति किम् ? राज्ञां पूजितः । इदं सक्तूनां पीतम् ॥ ९१ ॥ वा क्लीबे । २ । २ । ९२ । क्लीबे विहितस्य क्तस्य कर्तरि षष्ठी वा स्यात् । मयूरस्य मयूरेण वा नृत्तम् ॥ ९२ ॥ अकमेरुकस्य । २ । २ । ९३ । 'कमेरन्यस्योकप्रत्ययान्तस्य कर्मणि षष्ठी न स्यात् । भोगानभिलाषुकः। अकमेरिति किम् ? दास्याः कामुकः॥१३॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [८३] एष्यहणेनः । २ । २ । ९४ । - एष्यत्यर्थे ऋणेच विहितस्येनः कर्मणि षष्ठी न स्यात् ग्रामं गमी आगामी वा, शतं दायी । एष्यणेति किम् ? साधुदायी वित्तस्य ॥ ९४ ॥ सप्तम्यधिकरणे । २।२।९५ । अधिकरणे एक-द्वि-बहौ यथासंख्यं ङ्योस्-सुपरूपा सप्तमी स्यात् ।कटे आस्ते, दिवि देवाः, तिलेषु तैलम्॥१५॥ नवा सुजथैः काले । २ । २ । ९६ । सुचोऽर्थो वारो येषां तत्प्रत्ययान्तैर्युक्तात् कालेऽधिकरणे वर्तमानात् सप्तमी वा स्यात् । द्विरहि अहो वा भु ङ्क्ते, पञ्चकृत्वो मासे मासस्य वा भुङ्क्ते । काल इति किम् ? द्विः कांस्यपात्र्यां भुङ्क्ते ॥ ९६ ॥ कुशलाऽऽयुक्तेनाऽऽसेवायाम् । २ । २ । ९७। आभ्यां युक्तादाधारवाचिन: सप्तमी वा स्यात्, आसेवायां तात्पर्ये । कुशलोविद्यायांविद्याया वा, आयुक्तस्तपसि तपसो वा । आसेवायामिति किम् ? कुशलश्चित्रे,न तु करोति, आयुक्तो गौः शकटे, आकृष्य युक्त इत्यर्थः॥९७।। स्वामीश्वराधिपति-दायाद-साक्षि-प्रतिभू प्रसूतैः । २ । २ । ९०। एभिर्युक्तात् सप्तमी वा स्यात् । गोषु गवां वा स्वामी, ईश्वरः, अधिपतिः, दायादः, साक्षी, प्रतिभूः, प्रसूतो वा ॥ ९८॥ व्याप्ये तेनः । २।२। ९९ । क्ताद्य इन् तदन्तस्य व्याप्ये सप्तमी नित्यं स्यात् । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य अधीतमनेन अधीती व्याकरणे, इष्टी यज्ञे।क्तेनेति किम् ? कृतपूवीं कटम् ॥ ९९ ॥ तयुक्त हेतौ । २ । २ । १०० । तेन व्याप्येन युक्ते हेतौ वर्तमानात् सप्तमी स्यात् । चर्मणि द्वीपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम् । केशेषु चमरी हन्ति, सीम्नि पुष्कलको हतः ॥१॥ तयुक्त इति किम् ? वेतनेन धान्यं लुनाति ॥ १० ॥ अप्रत्यादावसाधुना। २ । २ । १०१ । प्रत्यादेरप्रयोगे असाधुशब्देन युक्तात् सप्तमी स्यात् । असाधुमैत्रो मातरि । अप्रत्यादाविति किम् ? असाधुमत्रो मातरं प्रति परि अनु अभि वा ।। १०१॥ साधुना । २।२।१०२ । अप्रत्यादौ साधुशब्देन युक्तात् सप्तमी स्यात् । साधुर्मेत्रो मातरि। अप्रत्यादावित्येव? साधुर्मातरं प्रति परि अनु अभि वा ॥ १०२ ॥ . निपुणेन चार्चायाम् । २ । २। १०३ । निपुण-साधुशब्दाभ्यांयुक्तादप्रत्यादौ सप्तमी स्यात्, अायाम् ।मातरिनिपुणः साधुर्वा । अर्चायामिति किम् ? निपुणो मैत्रो मातुः, मातैवैनं निपुणं मन्यत इत्यर्थः । अप्रत्यादावित्येव ? निपुणो मैत्रो मातरं प्रति परि अनु अभि वा ॥ १०३ ॥ स्वेशेऽधिना । २।२ । १०४ । स्वे ईशितव्ये ईशे च वर्तमानादधिना युक्तात् सप्तमी स्यात् । आधिमगधेषु श्रेणिकः, अधिश्रेणिके मगधाः Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः उपेनाधिकिनि । २ । २ । १०५ । - उपेन युक्तादधिकिनि वाचिनः सप्तमी स्यात् । उपखायर्या द्रोणः ॥ १०५॥ यद्भावो भावलक्षणम् । २ । २ । १०६ । भावः क्रिया, यस्य भावेन अन्योभावो लक्ष्यते तद्वाचिनः सप्तमी स्यात् । गोवु दुयमानासु गतः ॥ १०६ ॥ गते गम्येऽध्वनोऽन्तेनैकाथ्ये वा । २ । २ । १०७ । __कुतश्चिदवधेर्विवक्षितस्याध्वनोऽवसानमन्तः, यद्भावो भावलक्षणं तस्याध्वनोऽध्वन एव, अन्तेनान्तवाचिना सहकार्य सामानाधिकरण्यं वा स्यात्, तद्विभक्तिस्तस्मात् स्यादित्यर्थः, गते गम्येऽप्रयुज्यमाने । गवीधुमतः सांकाश्यं चत्वारि योजनानि चतुषु वा योजनेषु । गत इति किम् ? दग्धेषु लुप्तेष्विति वा प्रतीतौ मा भूत् । गम्य इति किम् १ गतप्रयोगे माभूत् । अध्वन इति किम् ? कार्तिक्या आग्रहायणी मासे। अन्तेनेति किम् ? अद्य नश्चतुर्पु गव्यूतेषु भोजनम् ।। १०७ ॥ ___षष्ठी वाऽनादरे । २।२। १०८ । यद्भावो भावलक्षणं तवृत्तेरनादरे षष्ठी वा स्यात् । रुदतो लोकस्य, रुदति लोके वा प्रावाजीत् ॥ १०८ ॥ सप्तमी चाऽविभागे निर्धारणे ।२।२।१०९ । जाति-गुण-क्रियादिभिः समुदायादेकदेशस्य बुद्धया पृथकरणं निर्धारणम् , तस्मिन् गम्ये षष्ठी-सप्तम्यौ स्याताम् , अविभागे निर्यमाणैकदेशस्य समुदायेन सह कथश्चिदैक्ये शब्दाद्गम्यमाने। क्षत्रियो नृणां नृषु वा शूरः, Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८६ ] हैमशब्दानुशासनस्य कृष्णा गव गोषु वा बहुक्षीरा, धावन्तो यातां यात्सु वा शीघ्रतमाः, युधिष्ठिरः श्रेष्ठतमः कुरूणां कुरुषु वा । अविभाग इति किम् ? मैत्रश्चैत्रात् पटुः ॥ १०९ ॥ क्रियामध्येऽध्व-काले पञ्चमी च । २ । २ । ११० । क्रिययोर्मध्ये याavaकालौ तद्वाचिभ्यां पञ्चमीसप्तम्यौ स्याताम् । इहस्थोऽयमिष्वासः क्रोशात् क्रोशे वा लक्ष्यं विध्यति, अद्य भुक्त्वा मुनिर्द्वयहात् द्वयहे वा भोक्ता ॥ ११० ॥ अधिकेन भूयसस्ते | २ | २ | १११ । अधिकेनाऽल्पीयोवाचिना योगे भूयोवाचिनस्ते ससमीपञ्चम्यौ स्याताम् । अधिको द्रोणः खार्या खार्या वा ॥ १११ ॥ तृतीयाऽल्पीयसः । २ । २ । ११२ । अधिकेन भूयोवाचिना योगेऽल्पीयोवाचिनस्तृतीया स्यात् । अधिका खारी द्रोणेन ॥ ११२ ॥ 'पृथग्- नाना पञ्चमी च । २ । २ । ११३ । आभ्यां युक्तात् पञ्चमी तृतीया च स्यात् । पृथगू मैत्रात् मैत्रेण वा । नाना चैत्रात्, चैत्रेण वा ॥ ११३ ॥ ऋते द्वितीया च । २ । २ | ११४ | ऋते शब्देन युक्ताद् द्वितीया पञ्चमी च स्यात् । ऋते धर्मं धर्मात् कुतः सुखम् ॥ ११४ ॥ विना ते तृतीया च । २ | २ | ११५ । विना शब्देन युक्तात् ते द्वितीयापञ्चम्यौ तृतीया च स्यात् । विना वातं वातात् वातेन वा ॥ ११५ ॥ १ यदा त्वसहायार्थी पृथ्डू- नानाशब्दौ तदाऽऽभ्यां पञ्चमी तृतीया च विधीयते । स० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [८७] तुल्याईस्तृतीया-षष्ठ्यौ । २ । २ ।११६॥ तुल्यार्थैर्युक्तात्तृतीयाषष्ठयौ स्याताम् । मात्रा मातुर्वा तुल्यः समो वा ॥ ११६ ॥ द्वितीया-षष्ठयावेनेनाऽनञ्चेः ।२।२।११६। · एनप्रत्ययान्तेन युक्ताद् द्वितीयाषष्ठयौ स्याताम् । न चेत् सोऽञ्चेः परः स्यात् । पूर्वेण ग्रामं ग्रामस्य वा। अननेरिति किम् ? प्राग् ग्रामात् ॥ ११७ ॥ हेत्वथैस्तृतीयाद्याः। २।२।११८। हेतुनिमित्तं तद्वाचिभिर्युक्तात् तृतीयाद्याः स्युः धनेन हेतुना, धनाय हेतवे, धनादतोः, धनस्य हेतोः, धने हेतौ वा वसति । एवं निमित्तादिभिरपि ॥ ११८ ॥ सर्वादेः सर्वाः । २ । २ । ११९ । हेत्वथैर्युक्तात् सर्वादेः सर्वा विभक्तयः स्युः । को हेतुः, कं हेतुम् , केन हेतुना, कस्मै हेतवे, कस्माद्धेतोः, कस्य हेतोः, कस्मिन् हेतौ वा याति ॥ ११९ ॥ असत्त्वारादर्थात् टा-उसि-उयम् । २।२।१२०॥ __ असत्त्ववाचिनो दूरादिन्तिकार्थाच टा-उसि-यमः स्युः । गौणादिति निवृत्तं । दूरेण दूरात् दूरे दूरं वा ग्रामस्य ग्रामाद्वा वसति । एवं विप्रकृष्टेनेत्यादि। अन्तिकेन अन्तिकात् अन्तिके अन्तिकं वा ग्रामस्य ग्रामादा वसति, एवमभ्यासेनेत्यादि । असत्त्व इति किम् ? दूरोन्तिको वा पन्थाः ॥ १२० ॥ जात्याख्यायां नवैकोऽसंख्यो बहुवत् । २ । २।१२१| जातेराख्याऽभिधा तस्यामेकोऽर्थोऽसंख्यः संख्यावाचिवि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८८] हैमशब्दानुशासनस्य शेषणरहितो बहुवद्वा स्यात् । सम्पन्ना यवाः सम्पन्नो यवः। . जातीति किम् ? चैत्रः। आख्यायामिति किम् ? काश्यपप्रतिकृतिः काश्यपः। असंख्य इति किम् ? एको व्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति ॥ १२१ ॥ . अविशेषणे द्वौ चास्मदः । २।२।१२२। .. अस्मदो द्वावेकश्चार्थो बहुवद्वा स्यात् , अविशेषणे न चेत् तस्य विशेषणं स्यात् । आवां ब्रूवः, वयं ब्रूमः । अहं ब्रवीमि, वयं ब्रूमः । अविशेषण इति किम् ? आवां गा. ग्यौ ब्रूवः । अहं चैत्रो ब्रवीमि ॥ १२२॥ फल्गुनी-प्रोष्ठपदस्य भे।.२।२।१२३। । फल्गुनीप्रोष्ठपदयो नक्षत्रेवर्तमानयोबीवर्थों बहुबद्वा स्याताम् । कदा पूर्वे फल्गुन्यो, कदा पूर्वाः फल्गुन्यः। कदा पूर्वे प्रोष्ठपदे, कदा पूर्वाः प्रोष्ठपदा। भइति किम् ? फल्गुनीषु जाते फाल्गुन्यौ कन्ये ॥ १२३ ॥ गुरावेकश्च । २।२१२४ । गुरौ गौरवाहें वर्तमानस्य द्वावेकश्चार्थों बहुवद्वा स्यात् । युवां गुरू । यूयं गुरवः । एष मे पिता । एते मे पितरः ॥ १२४ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य द्वितीयपादः समाप्तः ॥ २ ॥ १॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयः पादः ॥ नमस्पुरसो गतेः क-ख-प-फि रः सः । २ । ३ । १ । गतिसंज्ञयोर्नमस्पुरसो कखपफि रः सः स्यात् । नमस्कृत्य, पुरस्कृत्य । गतेरिति किम् ? नमः कृत्वा, तिस्रः पुरः करोति ॥१॥ .. तिरसो वा । २।३।२। गतेस्तिरसो रस्य कखपफि स् वा स्यात् । तिरस्कृत्य, तिरस्कृत्य । गतेरित्येव ? तिरः कृत्वा काष्ठं गतः ॥ २ ॥ पुंसः । २ । ३ । ३ । पुंसः सम्बन्धिनो रस्य कखपफि स् स्यात् । पुंस्कोकिलः, पुंस्खातः पुंस्पाकः, पुंस्फलम् ॥ ३॥ शिरोऽधसः पदे समासैक्ये । २।३।४। अनयो रेफस्य पदशब्दे परेः स् स्यात् समासैक्ये । शिरस्पदम्, अधस्पदम् । समासेति किम् ? शिरः पदम् । ऐक्य इति किम् ? परमशिरःपदम् ।। ४ ॥ अतः कृ-कमि-कंस-कुम्भ-कुशा-कर्णी-पात्रेऽनव्ययस्य .... ।२।३ । ५। आत् परस्यानव्ययस्थ रस्य क्रादिस्थे कखपफिस्स्यात्, समासैक्ये । अयस्कृत, यशस्कामः, पयस्कंसः, अयस्कुम्भः, अयस्कुशा, अयस्कर्णी, अयस्पात्रम् । अत इति किम् ? 'वाःपात्रम् । अनव्ययस्येति किम् ? स्वाकारः । समासैक्य इत्येव ? उपपयाकारः॥५॥ १ वार जलं तस्य पात्रम् । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९०] हैमशब्दानुशासनस्य प्रत्यये । २।३।६। अनव्ययस्य रस्य प्रत्ययविषये कखपफि स् स्यात् । पयस्पाशम् , पयस्कल्पम् । पयस्कम् । अनव्ययस्येत्येव ? स्वःपाशम् ॥ ६॥ रोः काम्ये । २ । ३ । ७। अनव्ययस्य रस्य रोरेव काम्ये प्रत्यये स् स्यात् । पय स्काम्यति । रोरिति किम् ? अहाकाम्यति ॥ ७॥ नामिनस्तयोः षः । २।३।८। तयोः प्रत्ययस्थे कखपफि रोरेव काम्ये नामिनः परस्य रस्य ष् स्यात् । सपिपाशम् , धनुष्कल्पम् ,धानुष्का, सप्पिष्काम्यति । नामिन इति किम् ? अयस्कल्पम् । रोः काम्य इत्येव ? गी:काम्यति ॥ ८॥ . निदुबेहिराविष्प्रादुश्चतुराम् । २ । ३ । ९। निरादीनां रस्य कखपफि ष स्यात् । निष्कृतम्, दुष्कृतम् , बहिष्पीतम्, आविष्कृतम्, प्रादुष्कृतम्, चतुपात्रम् ॥ ९॥ सुचो वा । २ । ३ । १०। सुजन्तस्थस्य रस्य कखपफि ष् वा स्यात् । द्विष्करोति, द्वि ४ करोति, द्विःकरोति।चतुष्फलति, चतु) फलति, चतुःफलति । कखपफि इति किम् ? । द्विश्चरति ॥ १० ।। वेसुसोऽपेक्षायाम् । २।३ । ११ । इसुस्प्रत्ययान्तस्य रस्य कखपफि वा स्यात्, स्थानिनिमित्तयोरपेक्षा चेत् । सर्पिष्करोति, सर्पि-करोति।धनुष्खादति । धनु ४खादति। अपेक्षायामिति किम् ? Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [९१] परमसर्पि - कुण्डम् ॥ ११ ॥ नैकार्थेऽक्रिये । २ । ३ । १२ । न विद्यते क्रियाप्रवृत्तिनिमित्तं यस्य तस्मिन्नेकार्थे तुल्याधिकरणे पदे यत् कखपर्फ तस्मिन् परे इसुस्प्रत्ययान्तस्य रस्य प न स्यात्। सपि कालकम् । यजु, फीतकम्। एकार्थ इति किम् ? सर्पिष्कुम्भे, सर्पिकुम्मे । अक्रिय इति किम् ? सर्पिष्क्रियते, सर्पि ४ क्रियते ॥१२॥ समासेऽसमस्तस्य । २ । ३ । १३ । पूर्वेणाऽसंमस्तस्य इसुस्प्रत्ययान्तस्य रस्य कखपफि स्यात्, निमित्तनिमित्तिनौ चेदेकन समासे स्तः। सर्पिष्कुम्भा, धनुष्फलम् । समास इति किम् ? तिष्ठतु सपिः, पिब त्वमुदकम् । असमस्तस्येति किम् ? परमसर्पिः कुण्डम् ॥१३॥ भ्रातुष्पुत्र कस्कादयः । २।३ । १४ । .. भ्रातुष्पुत्रादयः कस्कादयश्च कखपफि रस्य यथासंख्यं कृतषत्वसत्वाःसाधवः स्युः। भ्रातुष्पुत्रः,परमयजुष्पात्रम्, कस्का, कौतस्कुतः ॥ १४ ॥ नाम्यन्तस्थाकवर्गात् पदान्तः कृतस्य सः शि ड-नान्तरेऽपि । २ । ३ । १५ । एभ्यः परस्य पदस्यान्तमध्ये कृतस्य कृतस्थस्य वासस्य ष् स्यात्, शिटा नकारेण चान्तरेऽपि । आशिषा, नदीषु, वायुषु, वधूषु, पितृषु, एषा, गोषु, नौषु, सिषेच, गीर्षु, हल्षु। शक्ष्यति, क्रुषु। शिड्नान्तरेऽपि, सार्पःषु, यजूंषि। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९२] हैमशब्दानुशासनस्य पदान्तरिति किम् ? दधिसेकू । कृतस्येति किम् ? बिसम् ॥ १५ ॥ समासेऽग्नेः स्तुतः । २ । ३ । १६ । अग्नेः परस्य स्तुतः सस्य समासे ष् स्यात् । अग्निष्टुत् ॥ १६ ॥ ज्योतिरायुर्भ्यां च स्तोमस्य । २ । ३ । १७ । आभ्यामग्नेश्च परस्य स्तोमस्य सस्य समासे षू स्यात् । ज्योतिष्टोमः, आयुष्टोमः, अग्निष्टोमः । समास इत्येव ? ज्योतिः स्तोमं याति ॥ १७ ॥ मातृ-पितुः स्वसुः । २ । ३ | १८ | आभ्यां परस्य स्वसुः सस्य समासे षू स्यात् । मातृवसा, पितृष्वसा ॥ १८ ॥ अलुपि वा । २ । ३ । १९ । मातृपितुः परस्य स्वसुः सस्यालुपि समासे वा बू स्यात् । मातुःष्वसा, मातुःस्वसा, पितुःष्वसा पितुःस्वसा ॥ १९ ॥ निनद्याः स्नातेः कौशले | २ | ३ | २० | । आभ्यां परस्य स्नातेः सस्य समासे षू स्यात्, कौशले गम्यमाने । निष्णो निष्णातो वा पाके, नदीष्णो नदीष्णातो वा प्रतरणे | कौशल इति किम् ? निस्नातः, नदीस्नः यः श्रोतसा हियते ॥ २० ॥ प्रतेः स्नातस्य सूत्रे | २ | ३ | २१ | प्रतेः परस्य स्नातस्य सः समासे प् स्यात्, सूत्रे वाच्ये । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ९३ ] प्रतिष्णातं सूत्रम् । प्रत्ययान्तोपादानं किम् ? प्रतिस्नात् सूत्रम् ॥ २१ ॥ स्नानस्य नाम्नि | २ | ३ | २२ । प्रतेः परस्य स्नानस्य सः समासेप् स्यात्, सूत्रविषये नाम्नि । प्रतिष्णानं सूत्रमित्यर्थः ॥ २२ ॥ वैः स्त्रः । २ । ३ । २३ । वेः परस्य स्तृसस्य समासे ष् स्यात्, नाम्नि । विष्टरो वृक्षः, विष्टरं पीठम् ॥ २३ ॥ अभि- निःष्टानः । २ । ३ । २४ । अभिनिय स्तानः समासे कृतषत्वो निपात्यते नाम्नि | अभिनिःष्टानो वर्णः ॥ २४ ॥ गक्-ियुधेः स्थिरस्य । २ । ३ । २५ । आभ्यां परस्य स्थिरस्य सः समासे प् स्यात्, विष्ठिरः, युधिष्ठिरः ॥ २५ ॥ नाम्नि | एत्यकः । २ । ३ । २६ । कवर्जानाम्यादेः परस्य स एति परे समासे प् स्यात्, नाम्नि | हरिषेणः, श्रीषेणः । अक इति किम् ? विष्वक्सेनः ॥ २६ ॥ भादितो वा । २ । ३ । २७ । नक्षत्रवाचिन इदन्तात् परस्य स एति परे समासे ष् वा स्यात्, नाम्नि । रोहिणिषेणः, रोहिणिसेनः । इत इति किम् ? पुनर्वसुषेणः ॥ २७ ॥ वि-कु-शमि परेः स्थलस्य । २ । ३ । २८ । एभ्यः परस्य स्थलस्य सः समासे षू स्यात् । विष्टलम्, Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९४ ] हैमशब्दानुशासनस्य कुष्ठलम्, शमिष्ठलम्, परिष्टलम् ॥ २८ ॥ कपेर्गोत्रे । २ । ३ । २९ ॥ कपेः परस्य स्थलस्य सः समासे ष् स्यात्, गोत्रे वाच्ये । कपिष्ठल ऋषिः ॥ २९ ॥ गोऽम्बाऽऽम्ब-सव्याप-द्वि-त्रि-भूम्यमि-शेकु शङ्कु-क्वङ्गु मञ्जि-पुञ्ज बर्हिः परमे दिवेः स्थस्य |२|३|३०| एभ्यः परस्य स्थस्य सः समासे प् स्यात् । गोष्ठम्, अम्बष्ठः, आम्बष्ठः, सव्यष्ठः, अपष्ठः, द्विष्ठः, त्रिष्ठः, भूमिष्ठः, अग्निष्ठः, शेकुष्ठः, शङ्कष्ठः, कुष्ठः, अङ्गष्टः, मजिष्टः पुष्टिः, बर्हिष्ठः, परमेष्ठ, दिविष्ठः ॥ ३० ॥ " निर्दुस्सोः सेध सन्धि-साम्नाम् | २|३|३१| एभ्यः परेषां सेधादीनां सः समासे षू स्यात् । निःषेधः, दुःषेधः, सुषेधः निःषन्धिः, दुःषन्धिः, सुषन्धिः । निःषाम, दुःषाम, सुषाम ॥ ३१ ॥ प्रष्ठोऽगे । २ । ३ । ३२ ॥ प्रात् स्थस्य सः षू स्यात्, अग्रगामिन्यर्थे । प्रष्ठोऽग्रगः ॥ ३२ ॥ भीरुष्ठानादयः । २ । ३ । ३३ । एते समासे कृतपत्वाः साधवः स्युः । भीरुष्ठानम्, अङ्गलिषङ्गः ॥ ३३ ॥ स्वान्नाम्नस्ति । २ | ३ | ३४ | न विहितादौ प्रत्यये ह्रस्वान्नामिनः परस्य सः पू स्यात् । सर्पिपष्टा, वपुष्टमम् । नामिन इत्येव १ तेजस्ता ॥ ३४ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [९५] . निसस्तपेऽनासेवायाम् । २ । ३ । ३५ । निसः सस्तादौ तपतौ परे ष् स्यात्, पुनःपुनःकरणाsभावे। निष्टपति स्वर्ण-सकृदग्निं स्पर्शयतीत्यर्थः। तीत्येव ? निरतपत् ॥ ३५ ॥ घस्-वसः। २।३ । ३६ । नाम्यादेः परस्य घस्वसोःसः स्यात् । जक्षुः. उषितः ॥ ३६॥ णि-स्तोरेवाऽस्वद-स्विद-सहः पणि । २ । ३ । ३७ । स्वदादिवर्जानां ण्यन्तानां स्तोरेव च सो नाम्यादेः परस्य षत्वभूते सनि ष् स्यात् । सिषेवयिषति,तुष्टूपति। स्वदादिवर्जनं किम् ? सिस्वादयिषति, सिस्वेदयिषति, सिसाहयिषति। एवेति किम् ? सुसूषति। षणीति किम् ? सिषेव । षत्वं किम् ? सुषुप्सति ॥३७ ॥ - सजेर्वा । २।३।३०। .... ण्यन्तस्य सजेन म्यादेः परस्य सः षणि ष् वा स्यात्। सिषञ्जयिषति, सिसञ्जयिषति ॥ ३८ ॥ - उपसर्गात् सुग-सुव-सो-स्तु-स्तुभोऽट्यप्यदित्वे ।२।३ । ३९। द्व्युक्ताभावे सुनोत्यादेः स उपसर्गस्थान्नाम्यादेः परस्य ष् स्यात्, अड्व्यवधानेऽपि । सुम्, अभिषुणोति, नि:षुणोति, पर्यषुणोत् । सुव, अभिषुवति, पर्यषुवत् । सो, अभिष्यति, पर्यष्यत् । स्तु, अभिष्टौति, दुष्टवम्, पयष्टौत् । स्तुभ, अभिष्टोभते, पर्यष्टोभत । अद्वित्व इति किम् ? अभिमुसूषति ॥ ३९ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९६] हैमशब्दानुशासनस्य स्था-सेनि-सिध-सिच-सञ्जां द्वित्वेऽपि।२।३।४० । उपसर्गस्थानाम्यादेः परेषांस्थादीनांसः स्यात्, द्वित्वेऽप्यस्यापि । अधिष्ठास्यति, अधितष्ठी, अध्यष्ठात् । अभिषेणयति, अभिषिषेणयिषति, अभ्यषेणयत् । प्रतिषेधति, प्रतिषिषेधिषति, प्रत्यषेधत् ।अभिषिञ्चति, अभिपिषिक्षति, अभ्यषिश्चत् । अभिषजति, अभिषषञ्ज, अभ्यषजत् ॥ ४०॥ अङ-प्रतिस्तब्ध-निस्तब्धे स्तम्भः ।२।३।४१। उपसर्गानाम्यादेः परस्य स्तम्भस्सो द्वित्वेऽप्यटयपिष् स्यात्, न चेत् स्तम्भिर्डे प्रतिस्तब्धनिस्तब्धयोश्च स्यात् । विष्टभ्नाति, वितष्टम्भ, प्रत्यष्टभ्नात् । डादिवर्जनं किम् ? व्यतस्तम्भत्, प्रतिस्तब्धः निस्तब्धः ॥४१॥ अवाचाऽऽश्रयोर्जा विदूरे । २ । ३ । ४२। अवादुपसर्गात् परस्य स्तम्भः स आश्रयादिषु गम्यमानेषु द्वित्वेऽप्यट्यपि ष् स्यात्, उविषयश्चेत् स्तम्भिर्न स्यात् । आश्रय आलम्बनम् । दुर्गमवष्टभ्नाति, अवतष्टः म्भ, अवाष्टभ्नाद्वा । ऊर्ज औजित्यम् । अहो! वृषभस्यावष्टम्भः। अविदूरमासन्नमदूरासन्नं च । अवष्टब्धा शरत्, अवष्टब्धा सेना। चोऽनुक्तसमुच्चये, तेन उपष्टम्भः। अङ इत्येव ? अवातस्तम्भत् ॥ ४२ ॥ व्यवात् स्वनोऽशने । २।३ । ४३ । . वेरवाचोपसर्गात् परस्य स्वनः सोऽशने भोजने द्वि त्वेऽप्यट्यपि ष् स्यात् । विष्वणाति, अवष्वणति, विषष्वाण, अवषष्वाण, व्यवणत्, अवाष्वणत्, व्यषिवणत्, अवाषिष्वणत् । अशन इति किम् ? विस्वनति मृदङ्गः ॥४३॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [९७] . सदोऽप्रतेः परोक्षायां त्वादेः । २।३ । ४४। प्रतिव|पसर्गस्थानाम्यादेः परस्य सदःसो द्वित्वेऽप्यट्यपि स्यात्, परोक्षायांतुव्युक्तौ सत्यामादेः पूर्वस्यैव। निषीदति, विषापद्यते, व्यपीदत्। परोक्षायां त्वादेरेव ? निषसाद । अप्रतेरिति किम् ? प्रतिसीदति ॥ ४४ ॥ स्वञ्जश्च । २।३।४५। उपसर्गस्थानाम्यादेः परस्य स्वञ्जः सो द्वित्वेऽप्यट्यपिष् स्यात्, परोक्षायां त्वादेरेव । अभिष्वजते,अभिषिष्वक्षते, प्रत्यष्यजत् , परिषस्वधजे ॥ ४५ ॥ ... परि-नि-वेः सेवः । २३ । ४६।। पर्याधुपसर्गस्थानाम्यादेः परस्य सेवतेः सो द्वित्वेऽप्यट्यपि ष् स्यात् । परिघेवते, परिषिषेवे, परिषिषेविषते, पर्यघेवत, निषेवते, विषिषेवे ॥ ४६॥ सय-सितस्य । २ । ३ । ४७ । परि-नि-वे परस्य सय-सितयोः सः स्यात् । परिषयः, निषयः, विषयः। परिषितः, निषितः, विषितः ॥ ४७ ॥ असोङसिवू-सह-स्सटाम् । २।३।४८ परि-नि-विभ्यः परस्य सिवू-सहोः 'स्सटश्च सः स्यात्, .न चेत् सिवूसही सोडविषयौ स्याताम् । परिषीव्यति, निषीव्यति, विषीव्यति । परिषहते, निषहते, विषहते। परिष्करोति, विष्किरः। असोडेति किम् ? परिसोढः । मा परिसीषिवत् । मा परिसीषहत् ॥४८॥ स्तु-स्व.श्चाटि नवा । १ । ३ । ४९। परि-निवेः परस्य स्तु-स्वोरसोङसिवू-सह-स्सटांचसो१ सम्परेः कृगः स्सद् ॥ ४-४-९१ ॥ इति सूत्रविहितस्य स्सदः । सं० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९८ ] हैमशब्दानुशासनस्य sटि सति प् वा स्यात् । पयष्टोत् पयस्तौत् । न्यष्टौत्, न्यस्तौत् । व्यष्टौत्, व्यस्तौत् । पर्यष्वजत, पर्यस्वजत् । न्यध्वजत्, न्यस्वजत् । व्यष्वजत्, व्यस्वजत् । पर्यषीव्यत्, पर्यसीव्यत्, न्यषीव्यत्, न्यसीव्यत् । व्यषीव्यत्, व्यसीव्यत् । पर्यषहत, पर्यसहत । न्यषहत, न्यसहत । व्यषहत, व्यसहत । पर्यष्करोत् पयस्करोत् । असोङसिवू सहेत्येव ! पर्यसोढयत् । पर्यसीषीवत् । पर्यसीषहत् ॥ ४८ ॥ निरभ्यनोश्च स्यन्दस्याऽप्राणिनि । २ । ३ । ५० । एभ्यः परिनिवेश्च परस्याप्राणिकर्तृकार्थवृत्तेः स्यन्दः सः घ् वा स्यात् । निःष्यन्दते, निःस्यन्दते । अभिष्यन्दते, अभिस्यन्दते । अनुष्यन्दते, अनुस्यन्दते । परिष्यन्दते, परिस्यन्दते । निष्यन्दते निस्यन्दते । विष्यन्दते, विस्यन्दते तैलम् । अप्राणिनीति किम् ? परिस्यन्दते मत्स्यः ॥५०॥ वैः स्कन्दोऽक्तयोः | २ | ३ | ५१ | विपूर्वस्य स्कन्दः सः ष् वा स्यात्, न चेत्, क्तक्तवतू स्याताम् । विष्कन्ता, विस्कन्ता । अक्तयोरिति किम् ? विस्कन्नः, विस्कन्नवान् ॥ ५१ ॥ परेः । २ । ३ । ५२ । परेः स्कन्दः सः प् वा स्यात् । परिष्कन्ता, परिस्कन्ता । परिष्कन्नः, परिस्कन्नः ॥ ५२ ॥ निर्नेः स्फुर - स्फुलोः | २ | ३ | ५३ | आभ्यां परयोः स्फुर-स्फुलोः सः ष्वा स्यात् । निःष्फुरति, निःस्फुरति निष्फुरति निस्फुरति । निःष्फुलति, निःस्फुलति, निष्फुलति, निस्फुलति ॥ ५३ ॥ " Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९ ] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः वेः । २ । ३ । ५४ । वेः परयोः स्फुर-स्फुलोः सः षू वा स्यात् । विष्फुरति, विस्फुरति । विष्फलति विस्फुलति ॥ ५४ ॥ स्कम्नः । २ । ३ । ५५ । वेः स्वभ्नः सः षू नित्यं स्यात् । विष्कभ्नाति ॥ ५५ ॥ निर्दुः-सु-वेः सम-सूतेः । २ । ३ ॥ ५६ ॥ | | एभ्यः परयोः समः सूत्योः सः पू स्यात् । निःषमः, दुःषमः सुषमः, विषमः । निःषूति, दुःषूति, सुषूतिः, विषूतिः ॥५६॥ अवः स्वपः । २ । ३ | ५७ | निर्दुः-सु-विपूर्वस्य वहीनस्य स्वपेः सः ष् स्यात् । निःषुषुपतुः, दुःषुषुपतुः, सुषुषुपतुः, विषुषुपतुः । अव इति किम् ? दुःस्वनः || ५७ ॥ प्रादुरुपसर्गाद्यस्वरेऽस्तेः । २ । ३ । ५८ । प्रादुरुर्गस्थाच नाम्यादेः परस्यास्तेः सो यादौ स्वरादौ च परे ष् स्यात् । प्रादुःष्यात्, विष्यात्, निष्यात् । प्रादुःषन्ति, विषन्ति, निषन्ति । यस्वर इति किम् ? प्रादुःस्तः ॥ ५८ ॥ नस्सः । २ । ३ । ५९ । कृतद्वित्वस्य सस्य ष् न स्यात् । सुपिस्स्यते ॥ ५९ ॥ सिचो यङि । २ । ३ । ६० । सिचः सो यङि प् न स्यात् । सेसिच्यते ॥ ६० ॥ गतौ सेधः । २ । ३ । ६१ । गत्यर्थस्य सेधः सः प् न स्यात् अभिसेधति गाः ताविति किम् ? निषेधति ॥ ६१ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१००] हैमशब्दानुशासनस्य सुगः स्य-सनि । २ । ३ । ६२ । सुनोतेः सः स्ये सनि च ष् न स्यात् । अभिसोष्यति । सुसूषतेः क्विा सुसूः ॥ ६२॥ रघुवर्णाद् नो ण एकपदेऽनन्त्यस्याऽल-च-ट-त वर्ग-शसाऽन्तरे । २ । ३ । ६३ । एभ्यः परस्यैभिःसहकस्मिन्नेव पदे स्थितस्यानन्त्यस्यनो णः स्यात्, लचटतवर्गान् शसौ च मुक्त्वाऽन्यस्मिन्निमित्तकार्यिणोरन्तरेऽपि । तीर्णम् । पुष्णाति । नृणाम्, नृणाम् । करणम् । वृंहणम् । अर्केण । एकपद इति किम् ? अग्निर्नयति, चर्मनासिकः । अनन्त्यस्येति किम् ? वृक्षान्। लादिवर्जनं किम् ? विरलेन, भूर्च्छनम् , दृढेन, तीर्थेन , रशना, रसना ॥ ६३ ॥ पूर्वपदस्थाद् नाम्न्यगः । २ । ३ । ६४ । गन्तवजपूर्वपदस्थाद्र-वर्णात् परस्योत्तरपदस्थस्य नो ण् स्यात्, संज्ञायाम् । गुणसः, स्वरणाः, शूर्पणखा । नाम्नीति किम् ? मेषनासिकः । अग इति किम् ? ऋगयनम् ॥६४॥ नसस्य । २ । ३।६५। पूर्वपदस्थाद्र-वर्णात् परस्य नसस्य नो ण् स्यात् । प्रणसः ॥ ६५ ॥ निष्पाऽग्रेऽन्तः-खदिर कार्याऽऽम्र-शरेक्षु-प्लक्ष पीयूक्षाभ्यो वनस्य । २ । ३ । ६६ । . निरादिभ्यः परस्य वनस्य नो ण् स्यात् । निर्वणम्, प्रवणम्, अग्रवणम्, अन्तर्वणम्, खदिरवणम्, कार्यव Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१०१] णम्, आम्रवणम् , शरवणम्, इक्षुवणम्, प्लक्षवणम् , पीयूक्षावणम् ॥ ६६॥ दि-त्रिस्वरौषधि-वृक्षेभ्यो नवानिरिका दिभ्यः । २।३ । ६७ ।। द्विस्वरेभ्यस्त्रिस्वरेभ्यश्चेरिकादिवर्जेभ्य ओषधि-वृक्षवाचिभ्यः परस्य वनस्य नो ण् वा स्यात् । दुर्वावणम् , दुर्वा: वनम् ।माषवणम् , माषवनम् । नीवारवणम्, नीवारवनम् । वृक्षः- शिवणम् , शिग्रुवनम् । शिरीषवणम्, शिरीषवनम् । इरिकादिवर्जनं किम् ? इरिकावनम् ॥ ६७ ॥ गिरि-नद्यादीनाम् । २ । ३ । ६८। एषां नो.ण वा स्यात् । गिरिणदी, गिरिनदी । तुर्यमाणः, तुर्यमानः॥ ६८॥ पानस्य भावकरणे । २ । ३ । ६९ । पूर्वपदस्थाद्रादेः परस्य भावकरणार्थस्य पानस्य नो ण् वा स्यात्। क्षीरपाणं, क्षीरपानं स्यात् । कषायपाणः, कषायपानः कंसः॥ ६९ ॥ ... देशे । २ । ३ । ७०। पूर्वपदस्थाद्रादेः परस्य देशविषयस्य पानस्य नो ण् नित्यं स्यात् । क्षीरपाणा उशीनराः। देश इति किम् ?. क्षीरपाना गोदुहः ॥ ७० ॥ ग्रामानान्नियः । २।३।७१ । . आभ्यां परस्य नियो ण् स्यात्।ग्रामणी, अग्रणीः॥७१॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०२] हैमशब्दानुशासनस्य वाह्याद्वाहनस्य । २ । ३ । ७२ । वाह्यवाचिनो रादिमतः पूर्वपदात् परस्य वाहनस्य नोण स्यात्। इक्षुवाहणम्। वाह्यादिति किम् ? सुरवाहनम्॥७२॥ अतोऽह्नस्य । २।३ । ७४ । रादिमतोऽदन्तात् पूर्वपदात् परस्याहस्य नोण स्यात् । पूर्वाह्नः । अत इति किम् ? दुरह्नः । अह्नस्येति किम् ? दीघोही शरत् ॥ ७३॥ चतुस्नेहायनस्य वयसि । २ । ३ । ७४ । आभ्यां पूर्वपदाभ्यां परस्य हायनस्य नोण् स्यात्, वयसि गम्ये । चतुर्हायणो वत्सः । त्रिहायणी वडवा । वयसीति किम् ? चतुहायना शाला ॥ ७४॥ वोत्तरपदान्तनस्यादेरयुव-पकाह्नः । २।३।७५। पूर्वपदस्थाद्रादेः परस्य उत्तरपदान्तभूतस्य नागमस्य स्यादेश्व नो ण् वा स्यात्, चेद् युवन् पक्वाहनसम्बन्धी न स्यात् । व्रीहिवापिणी,व्रीहिवापिनौ। माषवापाणि, मा. पवापानि। व्रीहिवापेण व्रीहिवापेन। युवादिवर्जनं किम् ? आर्ययूना, प्रपक्वानि । दीर्घाही शरत् ।। ७५॥ . कवगैकस्वरवति । २।३।७६ । पूर्वपदस्थाद्रादेः परस्य कवर्गवत्येकस्वरवति चोत्तरपदे सति, उत्तरपदान्तस्य नागमस्य स्यादेश्व नो ण् स्यात् , न चेदसौ पक्वस्य । स्वर्गकामिणौ, वृषगामिणौ। ब्रह्महणौ। यूषपाणि । अपक्वस्येत्येव, क्षीरपक्वेन ।। ७६ ॥ अदुरुपसर्गान्तरो ण-हिनु-मीनाऽऽनेः' ।२।३१७७ . दुर्व|पसर्गस्थादन्तःशब्दस्थाच रादेः परस्यैषां नोण् १ सप्तम्यर्थविहितस्य ‘आनिव्' इति प्रत्ययस्य । सं० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१०३ ] स्यात् । णेति णोपदेशा धातवः-प्रणमति, परिणायकः, अ. न्तर्णयति । हिनुः-प्रहिणुतः। मीना-प्रमीणीतः । आनिप्रयाणि । अदुरिति, किम् ? दुनयः ॥ ७७ ।। नशःशः । २ । ३ । ७८ । · अदुरुपसान्तःस्थाद्रादेः परस्य नशः शन्तस्य नोण् स्यात् । प्रणश्यति, अन्तर्णश्यति । श इति किम् ? प्रनक्ष्यति ॥ ७८॥ ने--दा-पत-पद-नद-गद-चपी वही-शमू-चिग्याति-चाति-द्राति-प्साति-स्यति-हन्ति-देग्धौ ।२।३।७९) अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्योपसर्गस्य ने! माङादिषु परेषु ण् स्यात् । प्रणिमिमीते । परिणिमयते। प्रणिददाति।परिणिदयते। प्रणिदधाति।प्रणिपतति। परिणिपद्यते।प्रणिनदति।प्रणिगदति प्रणिवपति।प्रणिवहति।मणिशाम्यति। प्रणिचिनोति।प्रणियाति।प्रणिवाति । प्रणिद्राति।प्रणिप्साति। प्रणिष्यति।प्रणिहन्तिप्रणिदेग्धि । अ. न्तर्णिमिमीते ॥ ७९ ॥ अक-खाद्यपान्ते पाठे वा । २।३। ८०। धातुपाठे क-खादिः षान्तश्च यो धातुपाठस्ताभ्यामन्य. स्मिन् धातौ परेऽदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य ने! ण् वा स्यात् । प्रणिपचति, प्रनिपचति । अकखादीति किम् ? पनिकरोति। प्रनिखनति। अषान्त इति किम् ? प्रनिद्वेष्टि। पाठ इति किम् ? प्रनिचकार ॥ ८॥ १ कारोपलक्षितो मा, ङ्मा, तेन माड्-मेडोर्ग्रहणं कर्तव्यम् । सं० २ घातुपाठे कुंग करणे इतिपठनाद्धातुः कादिर्जातः। 'प्रनिचकार' इत्येतादृशेषु Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [१०४] हैमशब्दानुशासनस्य द्वित्वेऽप्यन्तेऽप्यनितेः, परेऽस्तु वा । २ ।३ । ८१। अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्याऽनिते! द्वित्वाद्वित्वयोरन्तानन्तयोश्च ण् स्यात् , परिपूर्वस्य वा स्यात् । प्राणिणिषति, पराणिति, हे प्राण । पर्यणिणिषति,पर्यनिनिषति, पर्यणिति, पर्यनिति, हे पर्यण, हे पर्यन् ॥ ८१॥ .. हनः । २ । ३ । ८२ । अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य हन्ते! ण् स्यात् । पाहण्यत, प्रहण्यते, अन्तर्हण्यते ॥ ८२॥ वमि वा । २ । ३ । ८३ । अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य हन्ते!मोः परपोर्ण वा स्यात् । प्रहण्वः, प्रहन्वः। प्रहण्मि, प्रहन्मि । अन्तहण्वः, अन्तर्हन्वः । अन्तर्हण्मः, अन्तर्हन्मः ॥ ८३ ॥ निस-निक्ष-निन्दः कृति वा । २।३ । ८४ । अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य निसादिधातो! ' वा स्यात् , कृत्प्रत्यये। प्रणिंसनम्, प्रनिसनम् । प्रणिक्षणम्, प्रनिक्षणम् । प्रणिन्दनम्, प्रनिन्दनम् । कृतीति किम् ? प्रणिस्ते ॥ ८४ ॥ स्वरात् । २ । ३ । ८५। अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य स्वरादुत्तरस्य कृतो नो ण् स्यात् । प्रहाणः, प्रहीणः ॥ ८५ ।। धातुपाठापेक्षया कादित्वान्न णत्वम् , एवं खाद्-खन्-पिषादीनामपि प्रनिचखाद, प्रनिचखान, प्रनिपेक्ष्यतीत्यादिष्वपि नकारस्य न णकारत्वम् । उपर्युक्तसूत्रनिर्दिष्टमालादीनां नित्यं णत्वं, प्रस्तुतसूत्रोककवादिषान्तान्तरधातूनां च विकल्पेनेति भावः । सं० Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१०५] नाम्यादेरेव ने । २ । ३ । ८६ । । अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य नाऽऽगमे सति नाम्यादेरेव धातोः परस्य स्वरादुत्तरस्य कृतस्य नो ण् वास्यात् । प्रेतणम् , प्रेङ्गणम् , प्रेङ्गणीयम् । नाम्यादेरिति किम् ? प्रमङ्गनम् ॥८६॥ व्यञ्जनादेर्नाम्युपान्त्याद्वा । २ । ३ । ८७ । अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परो यो व्यञ्जनादि म्युपान्त्यो धातुस्ततः परस्य कृतः स्वरात्परस्य नो ण् वा स्यात् । प्रमेहणम्, प्रमेहनम् । व्यञ्जनाऽऽदेरेति किम् ? प्रोहणम् । नाम्युपान्त्यादिति किम्? प्रवपणम् , प्रवहणम् । स्वरादित्ये. व ? प्रभुनः। अदुरित्येव ? दुर्मोहनः, लचटादिवर्जनं, किम् ? प्रभेदनम् , प्रभोजनम् । स्वरादित्यनेन नित्यप्राप्त विभाषेयम् ।। ८७ ॥ णेर्वा । २ । ३ । ८८। . अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परस्य ण्यन्तस्य धातोविहितस्य स्वरात्परस्य नो ण् वा स्यात् । प्रमङ्गणा, प्रमङ्गना। विहितविशेषणं किम् ? प्रयाप्यमाणः, प्रयाप्यमानः। इति क्यान्तरेऽपि स्यात् ॥८८॥ . निविण्णः । २।३।८९। निर्विदेः सत्तालाभविचारणार्थात परस्य क्तस्य नो णत्वं स्यात् । निर्विष्णः ॥ ८९॥ . न ख्या-पूग्-भू-भा-कम-गम-प्याय-वेपो णेश्च ।२।३।९०) अदुरुपसर्गान्तःस्थाद्रादेः परेभ्यः ख्यादिभ्योऽण्यन्तण्यन्तेभ्यः परस्य कृतो नोन स्यात् । प्रख्यानम्, प्रख्या १ कृदन्तस्य नस्य । सं० Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .[१०६] हैमशब्दानुशासनस्य पनम् ।प्रपवनम् ,प्रपावनम्। प्रभवनम् ,प्रभावनम्। प्रभायमानम्,प्रभायना प्रकामिनौ,प्रकामना। अप्रगमनिः',प्रगमना । प्रप्याना, प्रप्यायना। प्रवेपनीयम् , प्रवेपना ॥१०॥ देशेऽन्तरोऽयनहनः । २ । ३ । ९१ । अन्तःशब्दात्परस्याऽयनस्य हन्तेश्च नो देशेऽर्थे ण न स्यात् । अन्तरयनोऽन्तहननो वा देशः। देश इति किम् ? अन्तरयणम् , अन्तर्हण्यते ॥ ९१ ॥ पात्पदे । २ । ३ । ९२। पदे परतो यः षस्ततः परस्य नो ण् न स्यात् । सपिप्पानम् । पद इति किम् ? सर्पिष्केण ॥ ९२ ॥ - पदेऽन्तरेऽनाऽऽङ्यतद्धिते । २.३ । ९३ । ___आङन्तं तद्धितान्तं च मुक्त्वाऽन्यस्मिन् पदे निमित्तकार्यिणोरन्तरे नो ण् न स्यात् । प्रावनद्धम् रोषभीममु. खेन । अनाडीति किम् ? प्राणद्धम् । अतद्धित इति किम् ? आर्द्रगोमयेण ॥ ९३ ॥ . हनो घि। २ । ३ । ९४ । हन्तेनों घिनिमित्तकार्यिणोरन्तरे सति ण् न स्यात् । शत्रुघ्नः ॥ ९४ ॥ नृतेर्यङि । २ । ३ । २५ । नृते! यविषये ण् न स्यात्। नरीनृत्यते, नरिनर्ति । पीति किम् ? हरिणी नाम कश्चित् ॥ ९५॥ क्षुम्नादीनाम् । २ । ३ । ९६ । । एषां नो ण् न स्यात् । क्षुभ्नाति, आचार्यानी ॥१६॥ १ अत्र 'नोऽनिः शापे' ॥ ५-३-११७ ॥ इति सूत्रेण अनिप्रत्ययः । सं० Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१०७] :: पाठे धात्वादेर्णो नः । २ । ३ । ९७ । ___ पाठे धात्वादों नः स्यात् । नयति। पाठ इति किम् ? णकारीयति । आदेरिति किम् ? रणति ॥ ९७ ॥ षः सोऽष्टयै-ष्ठिव-ध्वष्कः ।२।३ । ९८॥ पाठे धात्वादेः षः सःस्यात्, नतुष्ट्यैष्ठिवष्वष्का सम्बन्धी स्यात् । सहते । आदेरित्येव ? लषति । ष्टयादिवर्जनं किम् ? ष्टयायति, ठीव्यति, ध्वष्कते ॥ ९८ ॥ ... ऋ-रल-लं कृपोऽकृपीटादिषु । २।३ । ९९। कृपेत लत्, रस्य च ल् स्यात्, न तु कृपीटादिविषयस्य । क्लृप्यते, क्लप्तः, कल्पते, कल्पयति । अकृपीटादिविति किम् ? कृपीटा, कृपाणः ॥ ९९ ॥ उपसर्गस्यायो । २ । ३ । १०० ... उपसर्गस्थस्य रस्याऽऽयौ धातौ परे ल् स्यात् । प्लायते, प्लत्ययते ॥ १० ॥ __ो यङि । २ । ३। १०१ । यडि परे गिरते रो र स्यात् । निजेगिल्यते ॥१०१॥ नवा स्वरे । २।३ । १०२ । - यो रः स्वरादौ प्रत्यये परे विहितस्य ल वा स्यात् । गिलति, गिरति, निगाल्यते, निगार्यते। विहितविशेषणं किम् ? गिरः ॥ १०२॥ परेोऽक-योगे । २ । ३ । १०३ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०८] शब्दानुशासनस्य परिस्थस्य रो घादौ परे लू वा स्यात् । पालघः, परिघः। पल्यङ्कः पर्यङ्कः, पलियोगः, परियोगः ॥ १०३ ॥ ऋफिडादीनां श्चलः | २ | ३ | १०४ | एषामृ-र लृ-लौ डस्य च ल् वा स्यात् । ऋफिङः, लृफिलः । ऋतकः, लृतकः । कपरिका, कपलिका ॥१०४॥.. जपादीनां पो वः | २ | ३ | १०५ | एषां पो वो वा स्यात् । जवा, जपां । पारावतः, पारापतः ।। १०५ ।। इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य तृतीयपादः समाप्तः ॥ २ । ३ ॥ [ इति षत्व - णत्व प्रकरणम् समाप्तम् ] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थः पादः ॥ स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेर्डीः । २ ४ । १ । स्त्रीवृत्तेर्नान्तादृदन्ताच स्वस्रादिवर्जाद् डीः स्यात् । राज्ञी, अतिराज्ञी कीं। स्त्रियामिति किम् ? पञ्चनद्यः । अस्वस्रादेरिति किम् ? स्वसा, दुहिता ॥१॥ __अधातूदृदितः । २ । ४ । २ । अधातुर्य उदिदिच्चतदन्तात् स्त्रीवृत्तेडीं स्यात् । भवती, अतिमहती, पचन्ती । अधात्विति किम् ? सुकन् स्त्री ॥२॥ अञ्चः । २।४।३। अश्चन्तात् स्त्रियां डीः स्यात् । प्राची, उदीची ॥३॥ णस्वराऽघोषादनो रश्च । २।४।४। एतदन्ताद् विहितो यो वन्, तदन्तात् स्त्रियां डी. स्यात्, तद्योगे वनोऽन्तस्य रश्च । अवावरी, धीवरी, मेरुदृश्वरी। णस्वराज्योषादिति किम् ? सहयुध्वा स्त्री। विहितविशेषणं किम् ? शर्वरी ॥४॥ वा बहुव्रीहेः । २।४।५।। णस्वराघोषाद्विहितोयो वन्,तदन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां कीर्वा स्यात्, रश्वाऽन्तस्य । प्रियावावरी, प्रियावावा। बहुधीवरी, बहुधीवा । बहुमेरुहश्वरी, बहुमेरुहश्वा ॥५॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [११०] हैमशब्दानुशासनस्य वा पादः । २ । ४।६। बहुव्रीहेस्तद्धेतुकपाच्छब्दान्तात् स्त्रियां कीर्वा स्यात् । द्विपदी, द्वीपात्। बहुव्रीहिनिमित्तो यः पाद् इतिविशेषणादिह न स्यात् । पादमाचष्टे क्विपि पाद्, त्रयः पादोऽस्याः सा त्रिपात् ॥ ६॥ ऊनः । २।४।७। . .. ऊधन्नन्ताहहुव्रीहे. स्त्रियां ङीः स्यात् । कुण्डोधी ॥७॥ अशिशोः । २।४।८। अशिशु इति बहुव्रीहे स्त्रियांडी स्थात् । अशिश्वी॥८॥ संख्यादेहायनाद्वयसि । २।४।९। संख्यादेहायनान्ताद्वहुव्रीहेः स्त्रियांडी: स्यात्, क्यसि गम्ये । त्रिहायणी, चतुर्हायणी वडवा । वयसीति किम् ? चतुर्हायना शाला ॥९॥ दाम्नः । २।४।१०। संख्यादेमन्नन्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां डी: स्यात् । द्विदाम्नी । संख्यादेरित्येव ? उद्दामानं पश्य ॥१०॥ अनोवा। २.४ । ११ ।। अनन्तादबहुव्रीहे. स्त्रियां कीर्वा स्यात् । बहुराज्यो, बहुराजे, बहुराजानौ ॥११॥ नाम्नि । २।४।१२। अन्नन्ताद् बहुव्रीहे. स्त्रियां संज्ञायां नित्यं डीः स्यात् । अधिराज्ञी, सुराज्ञी नाम ग्रामः ॥ १२॥ नोपान्त्यवतः।२।४ । १३ । यस्योपान्त्यलग नास्ति तस्मादन्नन्तादू बहुव्रीहेः Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनलघुवृत्तिः [१११] स्त्रियां डीन स्यात् । सुपर्वा, सुशर्मा । उपान्त्यवत इति किम् ? बहुराज्ञी ॥ १३ ॥ मनः । २।४ । १४ । मन्नन्तात् स्त्रियां ङीन स्यात् । सीमानौ ॥ १४ ॥ ताभ्यां वाए डित् । २।४।१५ । मन्नन्ताद् बहुव्रीहेश्वान्नन्तात् स्त्रियामा वा स्यात्, स च डित्। सीमे, सुपर्वे । पक्षे, सीमानौ, सुपर्वाणौ ॥१५॥ अजादेः। २ । ४ । १६ । अजादेस्तस्यैव स्त्रियामाप स्यात् । अजा, बाला, ज्येछा, क्रुश्चा ॥ १६ ॥ ऋचि पादः पात्पदे । २ । ४ । १७ । कृतपाद्भावपादस्य ऋच्यर्थे पात्पदेति निपात्यते। त्रिपदा, त्रिपाद् गायत्री । ऋचीति किम् ? द्विपात्, द्विपदी ॥१७॥ आत् । २।४ । १८। अकारान्तात् स्त्रियामाप् स्यात् । खट्वा, या, सा॥१८॥ गौरादिभ्यो मुख्याद् डीः । २ । ४ । १९ । गौरादिगणान्मुख्यात् स्त्रियां डीः स्यात् । गौरी, शबली। मुख्यादिति किम् ? बहुनदा भूमिः ॥ १९ ॥ अणयेकण-नञ्-स्नञ्-टिताम् । २ । ४ । २० । अणादीनां योऽत् , तदन्तात्तेषामेव स्त्रियां डीः स्यात् । औपगवी, वैदी, सौपर्णेयी, आक्षिकी, स्त्रैणी, पौंस्नी, जानुदघ्नी ॥ २०॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११२] हैमशब्दानुशासनस्य वयस्यनन्त्ये । २ । ४ । २१ । कालकृता शरीरावस्था वयस्तस्मिन्नचरमे वर्तमानादकारान्तात् स्त्रियां डीः स्यात् । कुमारी, किशोरी, वधूटी। अनन्त्य इति किम् ? वृद्धा ॥२१॥ दिगोः समाहारात् । २ । ४ । २२ । समाहारद्विगोरदन्तात् स्त्रियां डीः स्यात् । पञ्चपूली, दशराजी ॥ २२ ॥ परिमाणात् तद्धितलुक्यविस्ताऽऽचितकम्बल्यात् ।२।४।२३। परितः सर्वतो मानं परिमाणं, रूढः प्रस्थादिविस्तादिवर्जपरिमाणान्ताद द्विगोरदन्तात् तद्धितलुकि स्त्रियां डीः स्यात् । द्वाभ्यां कुडवाभ्यां क्रीता द्विकुडवी । परिमाणादिति किम् ? पञ्चभिरश्वैः क्रीता पश्चाश्वा । तद्धितलुकीति किम् ? द्विपण्या । बिस्तादिवर्जनं किम् ? द्विबिस्ता, द्वयाचिता, द्विकम्बल्या ॥ २३ ॥ काण्डात् प्रमाणादक्षेत्रे । ४ । २४ । प्रमाणवाचिकाण्डान्तादक्षेत्रविषयाद् द्विगोस्तद्धितलुकि स्त्रियां ङीः स्यात् । आयामः प्रमाणम्, द्वे काण्डे प्रमाणमस्याः द्विकाण्डी रज्जुः । प्रमाणादिति किम् ? द्विकाण्डा शाटी । अक्षेत्र इति किम् ? द्विकाण्डा क्षेत्रभक्तिः ॥२४॥ पुरुषाद्वा ।२ । ४ । २५ । प्रमाणवाचिपुरुषान्ताद द्विगोस्तद्धितलुकि स्त्रियां.डीर्वा स्यात् । द्विपुरुषी द्विपुरुषा परिखा। तद्धितलुकीत्येव ? पञ्चपुरुषाः समाहृताः पञ्चपुरुषी ॥ २५ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [११] रेवतो रोहिणाझे । २ । ४ । २६ । आभ्यां नक्षत्रवृत्तिभ्यां स्त्रियों की स्यात् । रेवती,रो. हिणी, रेवत्या जाता रेवती। भ इति किम् ? रेवता ॥२६॥ नीलाप्राण्योषध्योः । २।३ । २७ । प्राणिन्यौषधौ च नीलात् स्त्रियां डीः स्यात् । नीली गौः, नीली औषधिः । नीलाऽन्या ॥ २७ ॥ ‘क्ताच नाम्नि वा। २।४।२८। नीलात् क्तान्ताच स्त्रियां संज्ञायां डीर्वा स्यात् । नीली प्रवृद्धविलूनी । नीला, प्रवृद्धविलूना ॥२८॥ केवल-मामक-भागधेय-पापाऽपर-समानाऽऽर्यकृत-सु मङ्गल-भेषजात् । २।४।२९ । एभ्यो नाम्नि स्त्रियां डीः स्यात् । केवली ज्योतिः, मामकी, भागधेयी, पापी, अपरी, समानी, आर्यकृती, सुमङ्गली, भेषजी । नाम्नीत्येष ? केवला ॥ २९ ॥ भाज-गोण-नाग-स्थल-कुण्ड-काल-कुश कामुक कटकबरात् पक्वाऽऽवपन-स्थूलाकृत्रिमाऽमत्र-कृष्णाऽऽय सी-रिरंसु-श्रोणि-केशपाशे । २ । ४ ॥३०॥ एभ्यो यथासंख्यं पक्वादिष्वर्थषु स्त्रियां नाम्नि कीः स्यात् । भाजी पक्वा चेत्, भाजाऽन्या । गोणी आवपनम्, गोणाऽभ्या। नागी स्थूला, नागाऽन्या । स्थली अकृत्रिमा, स्थलाऽन्या। कुण्डी अमत्रम् , रुण्डाऽन्या । काली कृष्णा, कालान्या। कुशी आयसी, कुशाग्न्या । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . [११४] .. हैमशब्दानुशासनस्य कामुकी रिरंसुः, कामुकाऽन्या । कटी श्रोणिः, कटाऽन्या। 'कबरी केशपाशः, कबराऽन्या ॥ ३० ॥ नवा शोणादेः । २।४ । ३१ । शोणादेः स्त्रियां डीर्वा स्यात् । शोणी, शोणा । च*ण्डी, चण्डा ॥ ३१ ॥ इतोऽक्त्यर्थात् । २ । ४ । ३२ । क्त्यर्थप्रत्ययान्तवर्जादिदन्तात् स्त्रियां डीर्वा स्यात् । भूमी, भूमिः। धूली, धूलिः । अक्त्यर्थादिति किम् ? कृतिः, अकरणिः, हानिः ॥ ३२ ॥ पद्धतेः । २.४ । ३३ । -- अस्मात् स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । पद्धती, पद्धतिः ॥३३॥ शक्तेः शस्त्रे । २ । ४ । ३४। .: अस्माच्छस्त्रे स्त्रियां ङीर्वा स्यात् । शक्ती, शक्तिः। शस्त्र इति किम् ? शक्तिः सामर्थ्यम् ॥ ३४ ।।। ___ स्वरादुतो गुणादखरोः । २ । ४ । ३५।। स्वरात्परो य उत् तदन्ताद् गुणवचनात् खरुवर्जात् स्त्रियां कीर्वा स्यात् । पदवी, पटुः । विभ्वी, विभुः । स्वरादिति किम् ? पाण्डुभूमिः । गुणादिति किम् ? आखुः स्त्री । अखरोरिति किम् ? खरुरियम् ॥ ३५ ॥ श्येतैत-हरित-भरित-रोहितावर्णात्तो नश्च ।२।४।३६। एभ्यो वर्णवाचिभ्यः स्त्रियां डीर्वा स्यात् , तद्योगे तो न च । श्येनी, श्येता । एनी, एता। हरिणी, हरिता। भरिणी, भरिता । रोहिणी, रोहिता। वर्णादिति किम् ? श्येता, एता ॥ ३६॥ .. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [११५] ! .. कः पलितासितात् । २ । ४ । ३७। __ त इति चेति चानुवर्तते, आभ्यां स्त्रियां डीर्वा स्यात् तद्योगे तः क्नः। पलिक्नी पलिता । असिक्नी, असिता ॥ ३७॥ असह-न-विद्यमानपूर्वपदात् स्वाङ्गादकोडादिभ्यः ।२।४ । ३८।। सहादिवर्जपूर्वपदं यत् स्वाङ्गं तदन्तात् क्रोडादिवर्जा ददन्तात् स्त्रियां डीर्वा स्यात् । पीनस्तनी, पीनस्तना । अतिकेशी, अतिकेशा माला । सहादिवर्जनं किम् ? सहकेशा, अकेशा, विद्यमानकेशा । क्रोडादिवर्जनं किम् ? कल्याणक्रोडा, बहुगुदा, दीर्घवाला । स्वाङ्गादिति किम् ? बहुशोफा, बहुज्ञाना, बहुयवा ॥ ३८॥ नासिकोदरोष्ठ-जवा-दन्त-कर्ण-शृङ्गाङ्ग-गात्र कण्ठात् ।२।४ । ३९। ... ... सहादिवर्जपूर्वपदेभ्य एभ्यः स्वाङ्गेभ्यः स्त्रियां डीर्वा स्यात् । तुङ्गनासिकी, तुङ्गनासिका। कृशोदरी कृशोदरा । बिम्बोष्ठी, बिम्बोष्ठा । दीर्घजङ्घी, दीर्घजङ्घा । समदन्ती, समदन्ता । चारुकर्णी, चारुकर्णा। तीक्ष्णशृङ्गी, तीक्ष्णशृङ्गा । मृदङ्गी, मृदङ्गा । सुगात्री, सुगात्रा । सुक ष्ठी, सुकण्ठा । पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमिदम् । तेन बहु. स्वरसंयोगोपान्तेभ्योऽन्येभ्यो मा भूत्, सुललाटा, सुपाची ॥ ३९ ॥ नख-मुखादनाम्नि ।२।४।४०१ सहादिवर्जपूर्वपदाभ्यां स्वागाभ्यामाभ्यामसंज्ञाया Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य मेव स्त्रियां डीर्वा स्यात् । शूर्पनखी, शूर्पनखा । चन्द्रमुखी, चन्द्रमुखा। अनाम्नीति किम् ? शुर्पणखा, कालमुखा॥४०॥ पुच्छात् । २।४ । ४१ । सहादिवर्जपूर्वपदात् स्वाङ्गात् पुच्छात् स्त्रियां डी स्यात् । दीर्घपुच्छी, दीर्घपुच्छा ॥ ४१ ।। कबर-मणि-विष-शरादेः। २।४ । ४२ । एतत्पूर्वपदात् पुच्छात् स्त्रियां डीनित्यं स्यात् । कषरपुच्छी, मणिपुच्छी, विषपुच्छी, शरपुच्छी ।। ४२ ।। पक्षाचोपमानादेः । २ । ४ । ४३ ॥ उपमानपूर्वात् पक्षात् पुच्छाच स्त्रियां हीः स्यात् । उलूकपक्षी शाला, उलूकपुच्छी सेना ॥ ४३ ॥ क्रीतात् करणादेः । २ । ४ । ४४। करणादेः क्रीतान्ताददन्तात् स्त्रियां डीः स्यात् । अश्वक्रीती, मनसाक्रीती। आदेरिति किम् ? अश्वेन क्रीता ॥४५॥ तादल्पे । २।४।४५। क्तान्तात् करणादेरल्पेऽर्थे स्त्रियां डीः स्यात् । अभ्रविलिप्ती यौः, अल्पाभ्रेत्यर्थः । अल्प इति किम् ? चन्दनानुलिप्ता स्त्री ॥ ४५॥ स्वाङ्गादेरकृत-मित-जात-प्रतिपन्नाद् बहुव्रीहे।।४।४६। ___ म्वाङ्गादेः कृतादिवर्जात् क्तान्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां डी: स्यात् । शङ्कभिन्नी, उरुभिन्नी । कृतादिवर्जनं किम् ? दन्तकृता, दन्तमिता, दन्तजाता, दन्तप्रतिपन्ना ॥ ४६ ।। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [११७] अनाच्छादजात्यादेनेवा । २।४ । ४७। ___ आच्छादवर्जा या जातिस्तदवयवात् कृतादिवर्जात् तान्ताद् बहुव्रीहेः स्त्रियां डीर्वा स्यात् । शाङ्गरजग्धी, शाङ्गरजग्धा । आच्छादवर्जनं किम् ? बस्त्रछन्ना । जात्यादेरिति किम् ? मासयाता । अकृताद्यन्तादित्येव ? कुण्डकृता ॥ ४७॥ पत्युनः।२।४ । ४८।। पत्यन्ताद् पहुव्रीहेः स्त्रियां डीर्वा स्यात् । तद्योगेऽन्तस्य न च । दृढपत्नी, दृढपतिः। मुख्यादित्येष? बहुस्थूलपतिः पुरी ॥४८॥ सादेः । २ । ४ । ४९। सपूर्वपदात्पत्यन्तात् स्त्रियां डीर्वा स्यात् , तयोगेऽन्तस्य न च । ग्रामस्य पतिः, ग्रामपत्नी, ग्रामपतिः। सादेरिति किम् ? पतिरियम , ग्रामस्य पतिरियम् ॥ १९ ॥ सपल्यादौ । २।४। ५०। - एषु पतिशब्दात् स्त्रियां डीः स्यात, अन्तस्य न च । सपत्नी, एकपत्नी ॥५०॥ ... ऊढायाम् । २।४।५१ । __ पत्युः परिणीतायां स्त्रियां डीः स्यात्, न चान्तस्य । पत्नी, वृषलस्य पत्नी ॥५१॥ पाणिगृहीतीति । २ । ४ । ५२ । . पाणिगृहीतीतिप्रकाराःशब्दा ऊढायां स्त्रियां ड्यन्ता निपात्यन्ते। पाणिगृहीती, करगृहीती। ऊढायामित्व ? पाणिगृहीताऽन्या ॥ ५२ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११८] हैमशब्दानुशासनस्य पतिवल्यन्तर्वल्यौ भार्या गर्भिण्योः ।३।४।५३। भार्या अविधवा स्त्री, तस्यां गर्भिण्यां च यथासंख्यमेतौ निपात्येते । पतिवत्नी, अन्तर्वत्नी ॥ ५३ ॥ जातेश्यान्त-नित्य-स्त्री-शूद्रात् । २ । ४ । ५४ । "जातिवाचिनोऽदन्तात् स्त्रियां डीः स्यात्, न तु यान्तनित्यस्त्रीशूद्रात् । कुक्कुटी, वृषली, नाडायनी, कठी। जातेरिति किम् ? मुण्डा। यान्तवर्जनं किम् ? क्षत्रिया नित्यस्त्रीवर्जनमिति किम् ? खट्वा । शूद्रवर्जनं किम् ? शूद्रा । आदित्येव ? आखुः ॥५४॥ पाक-कर्ण-पर्ण-चालान्तात् । २ । ४।५५।। पाकाद्यन्ताया जाते. स्त्रियां डीः स्यात् । ओदनपाकी, आखुकर्णी, मुद्गपर्णी, गोवाली । जातेरित्येव ? बहुपाका यवागूः ॥ ५५॥ . असत्काण्ड-प्रान्त-शतकाचः पुष्पात् । २।४ । ५६ । सदादिवर्जेभ्यः परोयः पुष्पशब्दस्तदन्ताजातेः स्त्रियां डीः स्यात् । शङ्खपुष्पी । सदादिवर्जनं किम् ? सत्पुष्पा, काण्डपुष्पा, प्रान्तपुष्पा, शतपुष्पा, एकपुष्पा, प्राक्पुष्पा ॥५६॥ असम्-भस्त्राजिनैक-शण-पिण्डात्फलात् ।३।४।५७/ समादिवर्जेभ्यो यः फलशब्दस्तदन्ताज्जातेः स्त्रियां डीः स्यात्। दासीफली । समादिप्रतिषेधः किम् ? संफला, भस्त्रफला, अजिनफला, एकफला, शणफला, पिण्डफला ओषधिः ॥ ५७ ॥ १ अकारादित्येव । सं० Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [११९] . अनत्रो मूलात् । २ । ४ । ५८ । नवर्जात्परो यो मूलशब्दस्तदन्ताजातेः स्त्रियां ङीः स्यात् । दर्भमूली, शीर्षमूली । अनञ इति किम् ? अमूला ॥ ५८॥ धवाद्योगादपालकान्तात् । २ । ४ । ५९ । धवो भर्ता, तद्वाचिनः सम्बन्धात् स्त्रीवृत्तेः पालकान्तशब्दवर्जात् ङी: स्यात् । प्रष्ठी, गणकी । धवादिति किकिम् ? प्रसूता । योगादिति किम् ? देवदत्तो धवः, देवदत्ता स्त्री स्वतः । अपालकान्तादिति किम् ? गोपालकस्य स्त्री गोपालिका । आदित्येव ? सहिष्णोः स्त्री सहिष्णुः ॥ ५९॥ पूतक्रतु-वृषाकप्यनि-कुसित-कुसिदादै च ।२।४।६० _एभ्यो धववाचिभ्यस्तयोगात् स्त्रीवृत्तिभ्यो डीः स्यात् , ङीयोगे चैषामैरन्तस्य । पूतक्रतायी, वृषाकपायी, अग्नायी, कुसितायी, कुसीदायी ॥६॥ मनोरौ च वा। २ । ४ । ६१ । धववृत्तमनोर्योगात् स्त्रीवृत्तेर्डीर्वा स्यात्, ङीयोगे चास्य औरैश्चान्तस्य । मनावी, मनायी, मनुः ॥६१।। वरुणेन्द्र-रुद्र-भव-शर्व-मृडादान चान्तः।२।४।६२] एभ्यो धववाचिभ्यो योगात् स्त्रीवृत्तिभ्यो डीः स्यात्, ङीयोगे आन् चान्तः । वरुणानी, इन्द्राणी, रुद्राणी, भवानी, शर्वाणी, मृडानी ॥ ६२ ॥ मातुलाऽऽचार्योपाध्यायादा । २ । ४ । ६३ । एभ्यो धववाचिभ्यो योगात्स्त्रीवृत्तिभ्यो ङीः स्यात्, Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२०] हैमशब्दानुशासनस्य डीयोगे चानन्तोषा। मातुलानी, मातुली । आचार्यानी आचायौं । उपाध्यायानी, उपाध्यायी ॥ ६३ ॥ सूर्यादेवतायां वा । २ । ४ । ६४ । सूर्याद्धववाचिनो योगाद्देवतास्त्रीवृत्तेडींवा स्यात्, ङीयोगे चानन्तः । सूर्याणी, सूर्या । देवतायामिति किम् ? मानुषी सूरी ॥६४॥ यव-यवनारण्य-हिमादोष-लिप्युरु-महत्त्वे ।२।४।६५। ___एभ्यो यथासंख्यं दोषादौ गम्ये स्त्रियां डीः स्यात्, डीयोगे चान् अन्तः। यवानी, यवनानी लिपिः, अरण्यानी, हिमानी ॥६५॥ अयक्षत्रियाद्वा । २।४ । ६६ । आभ्यां स्त्रियां डीवा स्यात्, ‘डीयोगे चानन्तः। अर्याणी, अर्या । क्षत्रियाणी, क्षत्रिया ॥ ६६ ।। यत्रो डायन च वा । २।४ । ६७ । यजन्तात् स्त्रियां डी: स्यात्, ङीयोगे च डायनन्तो वा स्यात् । गार्गी, गाायणी ॥ ६७ ॥ लोहितादिशकलान्तात् । २ । ४ । ६८ । लोहितादेः शकलान्तात्यजन्तात् स्त्रियां डीः स्यात्, तयोगे च डायनन्तः। लौहित्यायनी, शाकल्यायनी॥६८॥ . पावटाद्वा । २ । ४ । ६९। . बान्तादवटाच्च यजन्तात् स्त्रियां डीर्वा स्यात्, डीयोगे च डायनन्तः। पौतिमाघ्यायणी, पौतिमाष्या। आवटयायनी, आवटया ॥६९ ॥ १ "बुभ्नादीनाम्" (३-३-९६) इत्यनेन क्षुम्नादौ पाठात् न णत्वम् । सं० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१२१] . कौरव्य-माण्डूकाऽऽसुरेः । २ । ४ । ७०। । एभ्यः स्त्रियां ङीः स्यात् । ङीयोगे च डायनन्तः । कौरव्यायणी, माण्डूकायनी, आसुरायणी ॥७॥ इत्र इतः । २ । ४ । ७१ । इनन्तादिदन्तात् स्त्रियां ङीः स्यात् । सौतङ्गमी, इत इति किम् ? कारीषगन्ध्या ॥ ७१ ॥ नुर्जातेः । २ । ४ । ७२ । मनुष्यजातिवाचिन इदन्तात् स्त्रियां डीः स्यात् । कुन्ती, दाक्षी । इत इत्येव ? दरत् । नुरिति किम् ? तित्तिरिः। जातेरिति किम् ? निष्कौशाम्बिः ॥ ७२ ॥ उतोऽप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्यः ऊङ् । २ । ४ । ७३ । ___ उदन्तान्नृजातेः अप्राणिजातिवाचिनः स्त्रियामूङ् स्यात् , न तु यवन्ताद्रज्ज्वादिभ्यश्च । कुरूः ब्रह्मबन्धूः, अलावूः,कर्कन्धूः । उत इति किम् ? वधूः । अप्राणिनश्चेति किम् ? आखुः। जातेरित्येव ? पटुः स्त्री । युरज्ज्वादिवर्जन किम् ? अध्वर्युः स्त्री, रज्जुः, हनुः ॥ ७३॥ . बाह्वन्तकद्रुकमण्डलोर्नाम्नि । २।४ । ७४ । • बाह्वन्तात् कद्रुकमण्डलुभ्यां च संज्ञायां स्त्रियामूङ् स्यात् । भद्रबाहूः, कद्रूः, कमण्डलूः । नाम्नीति किम् ? वृत्तबाहुः ॥७४॥ उपमान सहित-संहित-सह-शफचाम-लक्ष्मणायूरोः ।२।४ । ७५ । एतत्पूर्वपदादूरोः स्त्रियामूङ् स्यात् । करभोरू । १६ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२२] हैमशब्दानुशासनस्य सहितोरू, संहितोरूः, सहोरूः, शफोरूः, वामोरूः, लक्ष्मणोरू: । उपमानादेरिति किम् ? पीनोरूः ॥७५॥ नारी-सखी-पञ्जू-श्वश्रू । २ । ४ । ७६ । एते ङयन्ता ऊन्ताश्च निपात्यन्ते ॥ ७६ ॥ यूनस्तिः । २ । ४ । ७७। यूनः स्त्रियां तिः स्यात् । युवतिः। मुख्यादित्येव ! नि!नी ॥७७॥ अनार्षे वृद्धेऽणित्रौ बहुस्वरगुरूपान्त्यस्यान्तस्य ष्यः ।२।४.७८ । अनार्षे वृद्धे विहितो यावणिौ तदन्तस्य सतो बहुस्वरस्य गुरूपान्त्यस्य नाम्नोऽन्तस्य ष्यः स्यात् । कारी षगन्ध्या, बालाक्या । अनार्ष इति किम् ? वासिष्ठी। वृद्ध इति किम् ? आहिच्छत्री । अणिज इति किम् ? आतभा. गी। बहुस्वरेति किम् ? दाक्षी । गुरूपान्त्यस्येति किम् ? औपगवी । अणिअन्तस्य सतो बहुस्वरादिविशेषणं किम् ? दौवार्या, औडुलोम्या ॥ ७८ ॥ कुलाख्यानाम् । २ । ४ । ७९ । कुलमाख्यायते यकाभिः तासामनार्षवृद्धाणिजन्तानामन्तस्य स्त्रियां ष्यः स्यात् । पौणिक्या, गौप्त्या । अना. र्ष इत्येव ? गौतमी ॥ ८९ ॥ क्रौडयादीनाम् । २ । ४ । ८० । क्रौडि इत्यादीनामणिअन्तानामन्तस्य स्त्रियां ष्यः स्यात् । क्रौडया, लाझ्या ॥ ८ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१२३] 'भोज - सूतयोः क्षत्रिया- युक्त्योः । २ । ४ । ८१ । अनयोरन्तस्य यथासंख्यं क्षत्रियायुवत्योः स्त्रियां ष्यः स्यात् । भोज्या क्षत्रिया, सूत्या युवतिः । अन्यातु भोजा, सुता ॥ ८१ ॥ दैवयज्ञि-शौचि वृक्षि-सात्यमुग्रि-काण्ठेविडेव | २१४१८२ ॥ referrari स्त्रियामन्तस्य ष्यो वा स्यात् । बैंकयज्ञ्या, देवयज्ञी | शौचिवृक्ष्या, शौचिवृक्षी । सात्यमुग्रया, सात्यमुग्री । काण्ठेविया, काण्ठेविद्धी ॥ ८२ ॥ ष्या पुत्र- पत्योः केवलयोरीच् तत्पुरुषे । २ । ४ । ८३ । मुख्याssवन्तस्य यः पुत्र- पत्योः केवलयोः परयोस्तत्पुरुषे समासे ईच् स्यात् । कारीषगन्धीपुत्रः, कारीषगन्धीपतिः । ष्येति किम् ? इभ्यापुत्रः । केवलयोरिति किम् ? कारीषगन्ध्यापुत्र कुलम् ॥ ८३ ॥ बन्धौ बहुव्रीहौ । २ । ४ । ८४ । मुख्याssवन्तस्य यो बन्धौ केवले परें बहुव्रीहावीच् स्यात् । कारीषगन्धीबन्धुः । केवल इत्येव ? कारीषगन्ध्याबन्धुकुलम् । मुख्य इत्येव ? अतिकारीषगन्ध्या बन्धुः॥८४॥ मातमातृमातृ के वा । २ । ४ । ८५ | मुख्याssवन्तस्य ष्यो मातादिषु केवलेषु परेषु बहुव्रीहावीज वा स्यात् । कारीषगन्धीमातः, कारीषगन्ध्यामातः । कारीषगन्धीमाता । कारीषगन्ध्यामाता । कारीषगन्धीमातृकः, कारिषगन्ध्यामातृकः ।। ८५ ।। अस्य ङ्घां लुक् | २ | ४ | ८६ | ड्यां परे ऽस्य लुक् स्यात् । मद्रचरी ॥ ८६ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य मत्स्यस्य यः । २ । ४ । ८७ । मत्स्यस्य यो ड्यां लुकू स्यात् । मत्सी || ८७ ॥ व्यञ्जनात्तद्धितस्य | २ | ४ | ८८ | व्यञ्जनात्परस्य तद्धितस्य यो झ्यां लुक् स्यात् । मनुषी । व्यञ्जनादिति किम् ? कारिकेयी । तद्धितस्येति किम् ? वैश्यी ॥ ८८ ॥ [ १२४] सूर्यागस्त्ययोरीये च । २ । ४ । ८९ । अनयोर्यो यामीये च प्रत्यये लुक् स्यात् । सूरी, आगस्ती, सौरीयः, आगस्तीयः ॥ ८९ ॥ तिष्य - पुष्ययोर्भाणि । २ । ४ । ९१ । भं नक्षत्रं तस्याणि परेऽनयोर्यो लुक् स्यात् । तैषी रात्रिः, पौषमहः । भाणीति किम् ? तैष्यश्वरुः ॥ ९० ॥ आपत्यस्य क्यच्योः । २ । ४ । ९१ । व्यञ्जनात्परस्यापत्यस्य यः क्ये च्वौ च परे लुक् स्यात् । गार्गीयति, गार्गीयते, गार्गीभूतः । आपत्यस्येति किम् ? साङ्काश्यीयति । व्यञ्जनादित्येव ? कारिकेयीयति ॥ ९१ ॥ तद्वितयस्वरेऽनाति । २ । ४ । ९२ । व्यञ्जनात्परस्यापत्यस्य यो यादावादादिवर्जस्वरादौ च तद्धिते लुक् स्यात् । गार्ग्यः, गार्गकम् । आपत्यस्येत्येव ? काम्पील्यकः । तद्धितेति किम्? वात्स्येन । अनातीति किम् ? गार्ग्यायणः ।। ९२ बिल्वकीयादेरीयस्य । २ । ४ । ९३ । नडादिस्था बिल्वादयः तेषां कीयप्रत्ययान्तानामी " Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१२५] यस्य तद्धितयस्वरे लुक् स्यात् । बैल्वकाः । वैणुकाः। बिल्वकीयादेरिति किम् ? नाडकीयः ॥ ९३ ॥ न राजन्य-मनुष्ययोरके । २।४ । ९४ । अनयोर्योऽके परे लुग न स्यात् । राजन्यानां समूहो राजन्यकम् , एवं मानुष्यकम् ॥ ९४ ॥ ड्यादेगौणस्याक्विपस्तद्धितलुक्यगोणीसूच्योः ।२।४ । ९५ । ड्यादेः प्रत्ययस्य गौणस्याक्विवन्तस्य तद्धितलुकि लुक स्यात्, नतु गोणीसूच्योः। सप्तकुमारः, पश्चन्द्रः, पञ्चयुवा, द्विपशुः, । गौणस्येति किम् ? अवन्ती । अक्विप इति किम् ? पञ्चकुमारी । अगोणीसूच्योरिति किम् ? पश्चगोणिः, दशसूचिः॥ ९५ ॥ गोश्चान्ते ह्रस्वोऽनंशिसमासेयोबहुव्रीहौ ।२।१।९६) गौणस्याक्विपो गोङाद्यन्तस्य चान्ते वर्तमानस्य हृस्वः स्यात् , न चेदसावंशिसमासान्त-इयस्वन्त-बहुव्रीह्यन्तो वा। चित्रगुः, निष्कौशाम्बिः अतिखट्वः, अतिब्रह्मबन्धुः। गौणस्येत्येव सुगौः, राजकुमारी । अक्विप इत्येव? प्रियगौः, प्रियकुमारी चैत्रः गोश्चेति किम् ? अतितिन्त्री, अन्त इति किम् ? गोकुलम्, कुमारीप्रियः, कन्यापुरम् । अंशिसमासादिवर्जनं किम् ? अर्द्धपिप्पली, बहुश्रेयसी ना ॥ ९६ ॥ क्लीबे । २ । ४ । ९७। नपुंसकवृत्तेः स्वरान्तस्य नानो इस्वः स्यात् । कीलालपम्, अतिनु कुलम् ॥ ९७॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२६] हैमशब्दानुशासनस्य वेदूतोऽनव्ययवृदीच्ङीयुवः पदे । २ । ४ । ९८ । ईदूतोरुत्तरपदे परे हृस्वो वा स्यात्, न चेत्तावव्ययो वृतौ ईचौड्यौ इयुस्थानौ च स्याताम् । लक्ष्मीपुत्रः, लक्ष्मिपुत्रः । खलपूपुत्रः खलपुपुत्रः। अव्ययादिवर्जनं किम्? काण्डीभूतम्, इन्द्रहपुत्रः, कारीषगन्धीपुत्रः, गार्गीपुत्रः श्रीकुलम्, भ्रूकुलम् ।। ९८ ॥ ड्यापो बहुलं नाम्नि । २।४ । ९९। ड्यन्तस्थाबन्तस्य चोत्तरपदे संज्ञायां हृस्वास्याद्, बहुलम्। भरणिमुप्तः, भरणीगुप्तः। रेवतिमित्रा, रेवतीमित्रः । शिलवहम्, शिलावहम् । गङ्गामहः, ॥९९।। त्वे । २।४ | १००1 ड्यावन्तस्य त्वे परे बहुलं हृस्वः स्यात्। रोहिणित्वम्, रोहिणीत्वम् । अजत्वम्, अजात्वम् ॥१०० ॥ भुवोऽच कुंसकुट्योः । २ । ४ । १०१ । । ___ अनयोः परयो वो हस्वोच्च स्यात् । अकुंसः, भ्रुकुंसः । भ्रकुटिः, श्रुकुटिः ॥१०१॥ .. मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि भारितूलचिते ।२।४।१०२। एषां केवलानामन्तस्थानां च भार्यादिषु परेषु यथासंख्यं हस्का स्यात् । मालभारी, उत्पलमालभारी, इषीकतूलम्, इष्टकचितम् ॥ १०२॥ गोण्या मेये । २ । ४ । १०३ । गोण्या मानवृत्तेरुपाचारान्मेयवृत्तेहस्वः स्यात् । गोण्या मितो गोणिः ॥ १०३॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१२७] उयादीदूतः के । २ । ४ । १०४ । ड्यादीदूदन्तानां च के प्रत्यये हृस्वः स्यात् । पद्विका, सोमपका, लक्ष्मिका, वधुका ॥ १०४ ॥ न कचि । २ । ४ । १०५ । · यादीदूतां कचि परे ह्रस्वो न स्यात् । बहुकुमारीकः, बहुकीलालपाकः, बहुलक्ष्मीकः, बहुब्रह्मवन्धूकः ॥ १०५॥ - नवाऽऽपः । २।४ । १०६। आपः कचि परे हस्वो वा स्यात् । प्रियखट्वका प्रियखवाकः ॥ १०६ ॥ इचापुंसोनिक्याप्परे । २ । ४ ।१०७) आबेव.परो यस्मान्न विभक्तिस्तस्मिन्ननितःप्रत्ययस्या:वयवे के परेऽपुल्लिङ्गार्थाद्विहितस्यापस्स्थाने इ-हस्वी वा स्याताम् । खविका, खट्वका, खट्वाका । अपुंस इति किम् ? सर्विका । अनिदिति किम् ? दुर्गका । आप्पर इति किम् ? प्रियखवाको ना, अतिप्रियखट्वाका स्त्री। आप इत्येव ? मातृका ॥ १०७ ।। स्वज्ञाऽजभत्राऽधातुत्ययकात् । २ । ४।१०८) स्वज्ञाजभस्त्रेभ्यो धातुत्यवर्जस्य यौ यको ताभ्यां च परस्यापः स्थाने नित्क्याप्परे परत इकारो वा स्यात् । स्विका, स्वका। शिका, ज्ञका। अजिका, अजका । भस्त्रिका, भस्त्रका। इभ्यिका, इम्यका । चटकिका, चटकका। धातुत्यवर्जनं किम् ? सुनयिका, सुपाकिका, इहत्यिका । आप इत्येव ? काम्पील्यिका ॥ १०८ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२८] हैमशब्दानुशासनस्य दयेष-सूत-पुत्र-वृन्दारकस्य । २।४।१०९/ एषामन्तस्यानित्क्याप्परे इर्वा स्यात् । द्विके, द्वके । एषिका, एषका । सूतिका, सूतका। पुत्रिका, पुत्रका । वृन्दारिका, वृन्दारका ॥ १०९ ॥ वौ वर्तिका । २।४ । ११०। शकुनावर्थे वर्तिकाया इत्वं वा स्यात् । वर्तिका, वर्तका । वाविति किम् ? वर्तिका भागुरीः ॥ ११० ॥ अस्यायत्-तत्-क्षिपकादीनाम् । २ । ४ । १११ । यदादिवर्जस्यातोऽनित्क्याप्परे इः स्यात् । पाचिका, मद्रिका । अनित्कीत्येव ? जीवका, आप्पर इत्येव ? बहुपरिव्राजका। यदादिवर्जनं किम् ? यका, सका, क्षिपका, ध्रुवका ॥ १११॥ नरिका-मामिका । २ । ४ । ११२ । नरिकामामिकयोरित्वं निपात्यते । नरिका, मामिका ॥ ११२ ॥ तारका-वर्णकाऽष्टका ज्योतिस्तान्तव-पितृ-दैवत्ये ।२।४ । ११३ । एतेष्वर्थेषु यथासंख्यमेते इवर्जा निपात्यन्ते । तारका ज्योतिः, वर्णका प्रावरणविशेषः, अष्टका पितृदेवत्यं कर्म ॥११३॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ द्वितीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ २ ॥ इति स्त्रीलिङ्गप्रकरणम् Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ तृतीयाध्यायस्य प्रथमपादः ॥ धातोः पूजार्थस्वतिगतार्थाधिपर्यतिक्रमार्थाऽतिवर्जः प्रादिरुपसर्गः प्राक् च । ३। १ । १। धातोः सम्बन्धी तदर्थद्योती प्रादिरुपसर्गः स्यात्, स च धातो प्राक् न परो न व्यवहितः। पूजार्थी स्वती, गता वधिपरी, अतिक्रमार्थमतिश्च वर्जयित्वा । प्रणयति, परिणयति। धातोरिति किम् ? वृक्षं वृक्षमभिसेकः । पूजार्थस्वत्यादिवर्जनं किम् ? सुसिक्तम्, अतिसिक्तम् भवता, अध्यागच्छति, आगच्छत्यधि, पर्यागच्छति, आगच्छति परि, अतिसिक्त्वा । धातोरिति प्राक् चेति च गतिसंज्ञां यावत् ॥१॥ - ऊर्याद्यनुकरणच्चिडाचश्च गतिः। ३ । १।२। एते उपसर्गाश्च धातोः सम्बन्धिनो गतयः स्युस्ते च प्राग् धातोः। ऊर्यादिः-ऊरीकृत्य, उररीकृत्य। अनुकरणम् खाकृत्य । च्च्यन्तः- शुक्लीकृत्य।डाजन्तः-पटपटाकृत्य। उपसर्गः-प्रकृत्य ॥ २ ॥ कारिका स्थित्यादौ । ३ । १ । ३ । स्थित्यादावर्थे कारिका गतिः स्यात् । स्थितिमर्यादा वृत्तिर्वा। कारिकाकृत्य ॥३॥ १ अत्रोपसर्गसंज्ञाऽभावाद्गतिसंज्ञाऽभावस्तेन च समासाभावाद "अनमः क्त्वो. यप् (३-२-१५४) इति सूत्रेण न यप् । सं० Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३०] हैमशब्दानुशासनस्य भूषाऽऽदर-क्षेपेऽलं-सदसत् । ३ । १ । ४ । . एष्वर्थेष्वेते यथासंख्यं गतयः स्युः। अलकृत्य, स. स्कृत्य, असत्कृत्य। भूषादिष्विति किम् ? अलङ्कृत्वा मा कारीत्यर्थः ॥ ४॥ अग्रहाऽनुपदेशेऽन्तरदः । ३ । १ । ५। .. अनयोरर्थयोरेतौ यथासंख्यं गती स्याताम् । अन्तर्हत्य, अदाकृत्यैतत्कर्तेति ध्यायति ॥५॥ कणे-मनस्तृप्तौ । ३ । १।६। एतावव्ययौ तृप्तौ गम्यमानायां गती स्याताम् । कणेहत्य,मनोहत्य पयः पिबति । तृप्ताविति किम् ? तण्डुलावयवे कणे हत्वा ॥६॥ पुरोऽस्तमव्ययम् । ३ । १ । ७। एतावव्ययौ गती स्याताम् । पुरस्कृत्य, अस्तङ्गत्य । अव्ययमिति किम् ? पुरः कृत्वा नगरीरित्यर्थः ॥ ७॥ गत्यर्थचदोऽच्छः । ३ । १।८। अच्छेत्यव्ययं गत्यर्थानां वदश्च धातोः सम्बन्धि गतिः स्यात् । अच्छगत्य, अच्छोद्य ॥ ८॥ तिरोऽन्तद्धौं । ३ । १ । ९ तिरोऽन्तौ गतिः स्यात् । तिरोभूय ॥ ९॥ कृगो नवा । ३।१।१०। तिरोऽन्तौ कृगः सम्बन्धि गतिर्वा स्यात् । तिरस्कृत्य, तिरस्कृत्य, पक्षे तिरः कृत्वा ॥१०॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१३१] .मध्ये-पदे-निवचने मनस्युरस्यनत्याधाने ।३।१।११। अनत्याधानमनुपश्लेषोऽनाश्चर्य वा, तवृत्तय एते ऽव्ययाः कृग्योगे गतयो वा स्युः। मध्येकृत्य मध्येकृत्वा । पदेकृत्य, पदेकृत्वा । निवचनेकृत्य, निवचनेकृत्वा। मनसिकृत्य, मनसिकृत्वा । उरसिकृत्य, उरसिकृत्वा ॥११॥ . उपाजेऽन्वाजे । ३ । १ । १२ । एतावव्ययौदुर्बलस्य भग्नस्य वा बलाधानार्थो कृग्योगे गती वा स्याताम् । उपाजेकृत्य, उपाजेकृत्वा । अन्वाजेकृत्य, अन्वाजेकृत्वा ॥ १२ ॥ स्वाम्येऽधिः । ३ । १ । १३ । स्वाम्ये गम्येऽधीत्यव्ययं कुग्योगे गतिर्वा स्यात् । चैत्रं ग्रामे ऽधिकृत्य, अधिकृत्वा वा गतः। स्वाम्य इति किम् ? ग्राममधिकृत्वा उद्दिश्येत्यर्थः ॥ १३ ॥ साक्षादादिश्व्य र्थे । ३ । १ । १४ । - एते च्यर्थवृत्तयः कृग्योगे गतयो वा स्युः। साक्षात्कृत्य, साक्षात्कृत्वा । मिथ्याकृत्या मिथ्याकृत्वा ॥ १४ ॥ नित्यं हस्ते-पाणावुद्धाहे । ३ । १ । १५ । एतावव्ययावुद्वाहे गम्ये नित्यं कृग्योगे गती स्याताम्। हस्तेकृत्य, पाणौकृत्य । उद्वाह इति किम् ? हस्तेकत्वा काण्डं गतः ॥१५॥ प्राध्वं बन्धे । ३ । १ । १६ । प्राध्वमित्यव्ययं बन्धार्थ कुग्योगे गतिः स्यात्। प्राध्वंकृत्य । बन्ध इति किम् ? प्राध्वंकृत्वा शकटं गतः॥ १६ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य जीविकोपनिषदौपम्ये । ३ । १ । १७ । एतावौपम्ये गम्ये कृग्योगे गती स्याताम् । जीविकाकृत्य, उपनिषत्कृत्य ॥ १७ ॥ [१३२] नाम नाम्नैका समासो बहुलम् । ३ । १ । १८ । नाम नाम्ना सहैकार्थ्यं सामर्थ्यविशेषे सति समासो बहुलं स्यात्, लक्षणमिदमधिकारश्च तेन बहुव्रीह्यादिसंमाभावे यत्रैकार्थता तत्राऽनेनैव समासः । विस्पष्टपटुः, दारुणाध्यायकः, सार्वचमणो रथः, कन्ये इव । श्रुतपूर्वः । नामेति किम् ? चरन्ति गावो धनमस्य । नाम्नेति किम् ? चैत्रः पचति ॥ १८ ॥ सुज्वाऽर्थे सङ्ख्या सङ्ख्येये सख्यया बहुव्रीहिः । ३ । १ । १९ । सुजsर्थो वारो, वाऽर्थो विकल्पः संशयो वा, तद्वृत्तिसङ्ख्यावाचिनाम सङ्ख्येयार्थेन सङ्ख्यानाम्ना सहैकार्थ्ये समासो बहुव्रीहिश्च स्यात् । द्विदशाः, द्वित्राः । सख्येति किम् ? गावो वा दश वा । सख्ययेति किम् ? दश वा गावो वा । सङ्ख्येय इति किम् ? द्विविंशतिर्गवाम् ॥ १९ ॥ १ “आदशभ्यः सङ्ख्या सङ्ख्येये वर्तते, न सङ्ख्याने " ( न्याय संग्रहन्यायः ३४) इति न्यायेनैकतोऽष्टादशान्ता सङ्ख्या सङ्ख्येयेन सह वर्तते, ययैको द्वौ बाsष्टादश वा घटो । एकीन विंशत्यादिसङ्ख्या तु संख्येये सङ्ख्याने च वर्तते, यथा एकोनविंशतिर्नवनवति शतं सहस्र वा घटा घटानां वा । सं० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३३] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः आसन्नाऽदूराधिकाऽध्यर्द्धार्द्धादिपूरणं द्वितीयायन्यार्थे । ३ । १ । २० । आसन्नादि अर्द्धपूर्वपदं च पूरणप्रत्ययान्तं नाम सङ्ख्यानाम्नैकार्थ्यं समासः स्यात्, द्वितीयाद्यन्तस्यान्यपदस्यार्थे सङ्ख्येये वाच्ये, स च बहुव्रीहिः । आसन्नदशाः, अदूरदशाः, अधिकदशाः अध्यर्द्धविंशाः अर्द्धपश्चमविं शाः ।। २० ।। अव्ययम् | ३ | १ | २१ | अव्ययं नाम सङ्ख्यानाम्नैकायै समस्यते, द्वितीयाद्यन्यार्थे सख्येये वाच्ये स च बहुव्रीहिः । उपदशाः२१ एकार्थे चानेकं च । ३ । १ । २२ । एकमनेकं चैकार्थं समानाधिकरणमव्ययं च नाम्ना द्वितीयाद्यन्तान्यपदस्यार्थे समस्यते स च बहुव्रीहिः । आरूढवानरो वृक्षः सुसूक्ष्मजटकेशः, उच्चैर्मुखः ॥ २२ ॥ उष्ट्रमुखादयः । ३ । १ । २३ । एते बहुव्रीहिसमासा निपात्यन्ते । उष्ट्रमुखमिवमुखमस्य उष्ट्रमुखः, वृषस्कन्धः ॥ २३ ॥ सहस्तेन | ३ | १ | २४ । 9 तेनेति तृतीयान्तेन सहोऽन्यपदार्थे समस्यते स च बहुव्रीहिः । सपुत्र आगतः सकर्मकः ॥ २४ ॥ दिशो रूढ्याऽन्तराले । ३ । १ । २५ । रूठ्या दिग्दाचिनाम रुट्यैव दिग्वाचिना सहान्तराSन्य पदार्थे वाच्ये समासो बहुव्रीहिः स्यात् । दक्षिणपू र्वा दिक् । रूख्येति किम् ? ऐन्द्रयाश्च कौबेर्याश्च दिशो Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य [१३४ ] र्यदन्तरालमिति ॥ २५ ॥ तत्राऽऽदायमिथस्तेन प्रहृत्येति सरूपेण युद्धेऽव्ययीभावः | ३ | १ | २६ ॥ तत्रेति सप्तम्यन्तं मिथ आदायेति क्रियाव्यतिहारे, तेनेति तृतीयान्तं मिथः प्रहृत्येति क्रियाव्यतिहारे समानरूपेण नाम्ना युद्धेविषयेऽन्यपदार्थे वाच्ये समासोऽव्ययीभावः स्यात् । 'केशाकेशि, दण्डादण्डि । तत्रेति तेनेति किम् ? केशांश्च केशांश्च गृहीत्वा मुखं च मुखं प्रहृत्य कृतं युद्धम् । आदायेति प्रहृत्येति च किम् ? केशेषु च केशेषु च स्थित्वा दण्डैश्च दण्डैश्वागत्य कृतं युद्धम् गृहकोकिलाभ्याम् । सरूपेणेति किम् ? हस्ते च पादे च गृहीत्वा कृतं युद्धम् । युद्ध इति किम् ? हस्ते च हस्ते चादाय सख्यं कृतम् ॥ २६ ॥ नदीभिर्नाम्नि | ३ | १ | २७ | नाम नदीवाचिना संज्ञायामन्यपदार्थे समासोऽव्ययीभावश्च स्यात् । उन्मत्तगङ्गं देशः, तूष्णीगङ्गम् । नाम्नीति किम ? शीघ्रगङ्गो देशः ॥ २७ ॥ सङ्ख्या समाहारे । ३ । १ । २८ । सङ्ख्यावाचि नदीवाचिभिः सहः समाहारे गम्ये समासोऽव्ययीभावः स्यात् । द्वियमुनम्, पञ्चनदम् । स १ केशेषु केशेषु मिथ आदाय कृतं युद्धमिति केश । केशि । दण्डैश्च दण्डैश्च मिथः प्रहृत्य कृतं युद्धमिति दण्डादण्डि; इति विग्रहः । २ उन्मत्ता गङ्गा यत्र देशे स उन्मत्तगङ्गे देशः । अव्ययीभावत्वात् क्लीवत्वं ह्रस्वत्वं च । एवमन्यत्राऽपि । ३ पञ्चानां नदानां समाहारः पञ्चनदम् । सं० Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुकृत्तिः [१३५] माहारेति किम् ? एकनदी। द्विगुवाधनार्थ वचनम् ॥२८॥ वंश्येन पूर्वार्थे । ३ । १ । २९ । विद्यया जन्मना वा एकसन्तानो वंशः । तत्र भवो वंश्यः, तद्वाचिना नाम्ना सङ्ख्यावाचिसमासोऽव्ययी. भावः स्यात्, पूर्वपदस्यार्थे वाच्ये । एकमुनि व्याकरणस्य, सप्तकाशि राज्यस्य । पूर्वार्थ इति किम्? द्विमुनिकं व्याकरणम् ॥ २९ ॥ पारे-मध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठया वा । ३ । १ । ३० । एतानि षष्ठयन्तेन पूर्वपदार्थे समासोऽव्ययीभावो वा स्युः । पारेगङ्गम् , मध्येगङ्गम् , अग्रेवणम् , अन्तर्गिरि, पक्षे गङ्गापारम् , गङ्गामध्यम् , वनाग्रम्, गिर्यन्तः ॥३०॥ यावदियत्त्वे । ३ । १ । ३१ ।। __ इयत्त्वेऽवधारणे गम्बे यावदिति नाम नाम्ना पूर्वपदार्थे वाच्ये समासोऽव्ययीभावः स्यात् । यावदमत्रं भोजय । इयत्त्व इति किम् ? यावद्दत्तम् तावद्भुक्तम् ॥३१॥ .. पर्यपाऽऽङ्-बहिरच् पञ्चम्या । ३।१।३२। एतानि पञ्चम्यन्तेन पूर्वपदार्थे वाच्ये समासोऽव्ययीभावः। परित्रिगतम् , अपत्रिगतम् , आग्रामम् , बहिर्गामम् , प्राग्रामम् । पञ्चम्येति किम् ? परिवृक्षं विद्युत्॥३२॥ __ लक्षणेनाभि-प्रत्याभिमुख्ये ।३।११३३। ___लक्षणं चिह्नम् । तद्वाचिनाऽऽभिमुख्यार्थावभिप्रती पूर्वपदार्थेऽर्थे समासोऽव्ययीभावः स्यात् । अभ्यग्नि, प्रत्यग्नि शलभाः पतन्ति। लक्षणेनेति किम् ? श्रुघ्नं प्रतिगतः । पूर्वपदार्थ इत्येव ? अभ्यङ्कागावः ॥ ३३ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३६] हैमशब्दानुशासनस्य दैर्येऽनुः । ३ । १ । ३४ । दैर्ये आयामविषये यल्लक्षणं तद्वाचिना पूर्वपदार्थेऽनुः समासोऽव्ययीभावः स्यात्। अनुगङ्गं वाराणसी। दैर्घ्य इति किम् ? वृक्षमनुविद्युत् ।। ३४ ॥ समीपे । ३ । १ । ३५। समीपार्थेऽनुः, समीपिवाचिनाम्ना पूर्वपदार्थे समा. सोऽव्ययीभावः स्यात् । अनुवनमशनिर्गता ॥ ३५ ॥. तिष्ठग्वित्यादयः । ३ । १ । ३६ । एते समासा अव्ययीभावाः स्युः, यथायोगमन्यस्य पूर्वस्य वा पदस्यार्थे । 'तिष्ठद्गु कालः, अधोनाभं हतः।।३६॥ नित्यं प्रतिनाऽल्पे । ३ । १ । ३७। अल्पार्थेन प्रतिना नाम नित्यं समासोऽव्ययीभावः स्यात् । शाकप्रति । अल्प इति किम् ? वृक्षं प्रति विद्युत् ॥ ३७॥ सङ्ख्याऽक्ष-शलाकं परिणा द्यूतेऽन्यथावृत्तौ ।३।१॥३०॥ . सङ्ख्यावाच्यक्षशलाके च द्यूतविषयायामन्यथावृत्ती वर्तमानेन परिणा सह नित्यं समासोऽव्ययीभावः स्यात्। एकपरि, अक्षपरि, शलाकापरि, एकेनाक्षेण शलाकया वा न तथावृत्तं यथापूर्व जय इत्पर्थः। सङ्ख्यादीति किम् ? पाशकेन न तथावृत्तम् । द्यूत इति किम् ? रथस्याक्षेण न तथावृत्तम् ॥ ३८ ॥ १ तिष्ठन्त्यो गावो यस्मिनकाले स कालस्तिष्ठद्गु । सं० . Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१३७] | .. विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्वृद्धयर्थाभावाऽत्ययाऽसं प्रति पश्चात्-क्रम-ख्याति-युगपत्-सदृक्-सम्पत्-सा कल्यान्तेऽव्ययम् । ३ । १ । ३९ । एवर्थेषु वर्तमानमव्ययं नाम्ना सह पूर्वपदार्थे वाच्ये नित्यं समासोऽव्ययीभावः स्यात् । विभक्तिः-विभत्यर्थः कारकम्, अधिस्त्रि। समीपम्-उपकुम्भम् । समृद्धिः-सुमद्रम् । विगता ऋद्धिय॒द्धिः-दुर्यवनम् । अर्थाभावः-निर्मक्षिकम् । अत्ययोऽतीतत्वम्-अतिवर्षम् । असम्प्रतीति सम्प्रत्युपभोगाद्यभावः-अतिकम्बलम् । पश्चात्अनुरथम् । क्रमः-अनुज्येष्ठं । ख्यातिः-इतिभद्रबाहुः । युगपत्-सचक्र धेहि । सदृक्-सव्रतम् । सम्पत्-सब्रह्म साधूनाम् । साकल्यम्-सतृणमभ्यवहरति । अन्तः-सपिण्डैषणमधीते ॥ ३९॥ . योग्यता चीप्सार्थानतिवृत्ति सादृश्ये । ३ । १ । ४० । एष्वर्थेष्वऽव्ययं नाम्ना सह पूर्वपदार्थे समासोऽव्ययीभावः स्यात् । अनुरूपम्, प्रत्यर्थम्, यथाशक्ति, सशीलमनयोः ॥ ४० ॥ यथाऽथा । ३ । १।४१ । थाप्रत्ययवर्ज यथेत्यव्ययं नाम्ना सह पूर्वपदार्थे समा १ आधारार्थकसप्तम्यन्तेनाधिशब्देन समासः स्यात् स्त्रियामित्यर्थे स्त्रियामधि, अधिस्त्रि । यबनानामृद्धयभावो दुर्यवनम् । अर्थानां पदार्थांनामभावः शून्यता, मक्षिकाणामभावो निर्माक्षिकं स्थानं देशो वा, शून्यं भूतलमित्यर्थः । वर्षाणामत्ययोऽतिवर्षम् । रथस्य पश्चादनुरथम् । रूपस्य योग्यमित्यनुरूपम् । सं० Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३८] हैमशब्दानुशासनस्य सोऽव्ययीभावः स्यात् । यथारूपं चेष्टते, यथावृद्धमर्चय, यथासूत्रम् । अथेति किम् ? यथा चैत्रस्तथा मैत्रः ॥४१॥ गति वन्यस्तत्पुरुषः । ३ । १ । ४२ । . गतयः कुश्च नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात्, अन्यो बहुव्रीह्यादिलक्षणहीनः । ऊरीकृत्य, खाटकृत्य, प्रकृत्य, कारिकाकृत्य, कुब्राह्मणः, कोष्णम् । अन्य इति किम् ? कुपुरुषकः ॥ ४२ ॥ दुर्निन्दा कृच्छ्रे । १ । ४३ । दुरव्ययं निन्दाकृच्छ्रवृत्ति नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । दुष्पुरुषः, दुष्कृतम् । अन्य इति किम् ? दुष्पुरुषकः ॥ ४३ ॥ सुः पूजायाम् । ३ । १ । ४४ । स्वित्यव्ययं पूजार्थं नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पु. रुषः स्यात् । सुराजा । अन्य इति किम् ? सुमद्रम् ॥४४॥ अतिरतिक्रमे च । ३ । १ । ४५। . अतिक्रमे पूजायां चार्थे अतीत्यव्ययं नाम्ना सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अतिस्तुत्य। अतिराजा ।।४५।। आङ् अल्पे । ३ । १ । ४६ । आङित्यव्ययमल्पार्थ नाम्ना सह समासस्तत्पुरुषः स्यात् । आकडारः ॥४६॥ १ ईपदुष्णं कोणम् । कुत्सितः पुरुषो यस्य स कुपुरुषक इति बहुव्रीहिः । २ निन्दितः पुरुषो दुष्पुरुषः । कृच्छ्रेण दुःखेन कृतं दुष्कृतम् । ३ मद्राणां समृद्धिः । सं० Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१३९] . प्रात्यव-परि-निरादयो गत-कान्त-क्रुष्ट-ग्लान-का न्ताधर्थाः प्रथमाद्यन्तैः । ३ । १ । ४७। प्रादयोगताद्यर्थाः प्रथमान्तैः, अत्यादयः कान्ताद्यर्थी द्वितीयान्तैः, अवादयः क्रुष्टाद्यर्थास्तृतीयान्तैः, पर्यादयो ग्लानाद्यर्थाश्चतुर्थ्यन्तैः, निरादयःक्रान्ताद्यर्थाः पञ्चम्यन्तैनित्यं समासस्तत्पुरुषः स्युः। प्राचार्यः, समर्थः। अतिखट्वः, उद्वेलः। अवकोकिलः। परिवीरुत् पर्यध्ययनः। उत्सङ्ग्रामः, निष्कौशाम्बिः, अपशाखः । बाहुलकात् षष्ठयाऽपि, अन्तर्गार्ग्यः । गताद्यर्थी इति किम् ? वृक्षम्परिविद्युत् । अन्य इत्येव ? प्राचार्यको देशः ॥ ४७॥ अव्ययं प्रवृद्धादिभिः । ३ । १। ४८। अव्ययं प्रवृद्धादिभिस्सह नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । पुनःप्रवृद्धम् , अन्तर्भूतः ॥ ४८ ॥ . उस्युक्तं कृता । ३ । १ । ४९। · कृत्प्रत्ययविधायके सूत्रे डस्यन्तनाम्नोक्तं कृदन्तेन नाम्ना नित्यं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । कुम्भकारः। उस्युक्तमिति किम् ? अलङ्कृत्वा । कृतेति किम् ? धर्मों वो रक्षतु ॥ ४९ ॥ तृतीयोक्तं वा । ३ । १ । ५०। दंशेस्तृतीययेत्यतो यत्तृतीयोक्तं नाम तत्कृदन्तेन वा १ प्रगत आचार्यः प्राचार्यः, संगतोऽर्थः समर्थ इति प्रथमा । भतिक्रान्तः खट्वामतिखटव इति द्वितीया । अवक्रुष्टः कोकिलयाऽवकोकिल इति तृतीया। परिग्लानोऽध्ययनायेति पर्यध्ययन इतिचतुर्थी। निष्क्रान्तः कौशाम्ब्य्या निष्कौशाम्बिरिति पश्चमी । अन्तर्गतो गार्ग्यस्य अन्तर्गाग्य इति षष्ठीतिविप्रहः । सं० Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४०] हैमशब्दानुशासनस्य समासस्तत्पुरुषः स्यात् । मूलकोपदंशम् , मूलकेनोपदंश भुङ्क्ते ॥५०॥ नञ् । ३।१ । ५१ । नञ् नाम नाम्ना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अगौः, न सूर्य पश्यन्ति, असूर्यम्पश्या राजदाराः ॥ ५१ ॥ पूर्वापराधरोत्तरमभिन्ननाशिना ।।१।५२। पूवादयोऽशार्था अंशवद्वाचिना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । नचेत्सोंऽशी भिन्नः। पूर्वकायः, अपरकायः, उत्तरकायः, अधरकायः। अभिन्नेनेति किम् ? पूर्व छात्राणामामन्त्रयस्व । अंशिनेति किम् ? पूर्वो नाभेः कायस्य ॥५२॥ : सायानादयः । ३ । १ । ५३ । एतेऽशितत्पुरुषाः साधवः स्युः। सायाह्ना, मध्यन्दिनम् ॥ ५३॥ समेंऽशेऽर्द्ध नवा । ३ । १ । ५४ । समांशार्थमर्द्धमंशिना अभिन्नेन वा समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अर्द्धपिप्पली, पिप्पल्यर्द्धम् । समेंश इति किम् ? ग्रामार्द्धः ॥५४॥ जरत्यादिभिः । ३ । १ । ५५। . एभिरंशिभिरभिन्नरो वा समासस्तत्पुरुषः स्यात् । अर्द्धजरती, जरत्यर्द्धः । अोक्तम्, उक्तार्द्धः ॥५५॥ द्वि-त्रि-चतुष्पूरणाग्रादयः । ३।१ । ५६ । पूरणप्रत्ययान्ता द्वित्रिचत्वारोऽग्रादयश्चाभिन्नेनांशि१ कायस्थ पूर्वः पूर्वकायः । २ अहः सायं दिनस्य -मध्यम् । ३ पिप्पल्या अर्द्धम् । ४ उकस्यार्द्धमोक्तम् । सं० Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१४१] ना वा समासस्तत्पुरुषः स्यात् । 'द्वितीयभिक्षा, भिक्षाद्वितीयम् । तृतायभिक्षा, भिक्षातृतीयम् । तुर्यभिक्षा, भिक्षातुर्यम् । अग्रहस्तः, हस्ताग्रम् । तलपादः, पादतलम् कालो दिगौ च मेयैः । ३ । १ । ५७ । कालवाच्येकवचनान्तं द्विगौ च विषये मेयवाचिना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । मासजातः । द्विगौ, एकमासजातः, द्वयहसुप्तः । काल इति किम् ? द्रोणो धान्यस्य ॥५७।। स्वयं-सामी क्तेन । ३।१। ५८ । एते अव्यये क्तान्तेन सहकार्ये समासस्तत्पुरुषः स्याताम् । स्वयंधौतम्, सामिकृतम् । क्तेनेति किम् ? स्वयं कृत्वा ॥ ५८॥ द्वितीया खट्वा क्षेपे । ३ । १ । ५९ । खट्वेति द्वितीयान्तं क्षेपे निन्दायां क्तान्तेन सहकाये समासस्तत्पुरुषः स्यात् । खट्वारूढो जाल्मः । क्षेप इति किम् ? खट्वामारूढः पिताऽध्यापयति ॥ ५९॥ कालः ।३।१।६०। कालवाचिद्वितीयान्तं क्तान्तेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । रात्र्यारूढाः, अहरतिमृताः ॥६॥ व्याप्तौ । ३ । १ । ६१ । गुणक्रियाद्रव्यैरत्यन्तसंयोगे या द्वितीया, तदन्तं का१ मिक्षाया द्वितीयम् । हस्तस्याग्रं हस्ताग्रम् । २ मासो जातस्येति मासजातः । एको . मासो जातस्येति एकमास. जातः । द्वेऽणी सुप्तस्येति द्वयहसुप्तः । ३ रात्रिमारूढा रात्र्यारूढाः । स० Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४२] हैमशब्दानुशासनस्य लवाचि व्यापकार्थेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । मुहूर्तसुखं, क्षणपाठः, दिनगुडः । व्याप्ताविति किम् ? मासं पूरको याति ॥ ६१॥ श्रितादिभिः । ३ । १ । ६२ । द्वितीयान्तं श्रितादिभिः समासस्तत्पुरुषः स्यात् । . धर्मश्रितः, शिवगतः ॥ ६२ ॥ प्राप्ताऽऽपन्नौ तयाच । ३ । १ । ६३ । एतौ प्रथमान्तौ द्वितीयान्तेन समासस्तत्पुरुषः स्याताम्, तद्योगे चानयोरत् स्यात् । प्राप्तजीविका, आपन्नजीविका ॥६३॥ ईषद्गुणवचनैः । ३ । १ । ६४। ईषदव्ययं गुणवचनैः समासस्तत्पुरुषः स्यात् , ये गुणे वर्तित्वा तद्योगाद् गुणिनि वर्तन्ते ते गुणवचनाः । ईषपिङ्गला, ईषद्क्तः। गुणवचनैरिति किम्? ईषद्गार्ग्यः॥६४॥ तृतीया तत्कृतैः । ३ । १ । ६५ । तृतीयान्तं तदर्थकृतैर्गुणवचनैरेकायें समासस्तत्पुरुषः स्यात् । शड्डुलाखण्डः, मदपटुः । तत्कृतैरिति किम् ? अक्षणा काणः । गुणवचनैरित्येव ? दना पटुः पाटवमित्यर्थः ॥६५॥ चतस्रार्द्धम् । ३ । १ । ६६ । अर्द्धस्तृतीयान्तस्तस्कृतार्थेन चतसृशब्देन समासस्तत्पु१ मुहूर्त सुखमिति मुहूर्तसुखमेवं शिवं गतो निर्वाणं गत इत्यादि । २ जीविका प्राप्त इति प्राप्तजीविका । ३ शङ्कलया कृत : खण्ड इति शड्कुलाखण्ड: । सं० Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१४३] रुषः स्यात् । अर्द्धचतस्रो मात्राः। चतस्रति किम् ? अर्द्धन चत्वारो द्रोणाः ॥ ६६ ॥ ऊनार्थपूर्वाद्यैः । ३ । १ । ६७ । तृतीयान्तं ऊनार्थेः पूर्वाद्यैश्च समासस्तत्पुरुषः स्यात् । माषोनं माषविकलं । मासपूर्वः, मासावरः ॥७॥ . कारकं कृता । ३ । १ । ६८ । कारकवाचितृतीयान्तं कृदन्तेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । आत्मकृतम्, नवनिर्भिन्नः, काकपेया नदी, बाष्पच्छेद्यानि तृणानि । कारकमिति किम् ? विद्ययोषितः ॥६८॥ न विंशत्यादिनकोऽच्चान्तः ।३। १६९ । एकशब्दस्तृतीयान्तो न विंशत्यादिना समासस्तत्पुरुषः स्यात्, एकस्य चादन्तः। एकान्न विंशतिः एकाद् नविंशतिः, एकान्नत्रिंशत् एकाद् न त्रिंशत् ॥ ६९ ॥ . चतुर्थी प्रकृत्या । ३ । १ । ७०। .. प्रकृतिः परिणामिकारणम् , एतद्वाचिनैकार्ये चतुर्थ्यन्तं विकारार्थ समासस्तत्पुरुषः स्यात् । यूपदारु । प्रकृत्येति किम् ? रन्धनाय स्थाली ॥ ७० ॥ हितादिभिः । ३ । १ । ७१ । चतुर्थ्यन्तं हितायैः समासस्तत्पुरुषः स्यात् । गोहितम् , गोमुखम् ॥ ७१ ॥ १ अर्धेन कृताश्चतस्रोऽर्धचतस्रः । २ मासेन अवरो मासावरः । ३ एकेन न विंशतिः एकानविंशतिः । ४ गोभ्यः सुखम् । सं. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [१४४] हैमशब्दानुशासनस्य तदर्थार्थेन । ३ । १ । ७२ ।। चतुर्थ्यर्थो यस्य तेनार्थेन चतुर्थ्यन्तं समासस्तत्पुरुषः स्यात् । पित्रर्थ पयः, आतुरा यवागूः। तदर्थार्थनेति किम् ? पित्रेऽर्थः ॥७२॥ पञ्चमी भयाथैः । ३ । १ । ७३ । पञ्चम्यन्तं भयाद्यैरैकार्थे समासस्तत्पुरुषः स्यात् । वृकभयम्, वृकभीरूः ॥७३॥ क्तेनासत्त्वे । ३ । १ । ७४ । असत्त्ववृत्तेर्या पश्चमी तदन्तं क्तान्तेन समासस्तत्पुरुषः स्यात् । स्तोकान्मुक्तः, अल्पान्मुक्तः। असत्त्व इति किम् ? स्तोकाद् बद्धः ॥७४॥ परःशतादि । ३ । १ । ७५ । अयं पञ्चमीतत्पुरुषः साधुः स्यात् । परःशताः, परःसहस्राः ॥७॥ षष्ठ्ययत्नाच्छेषे । ३ । १ । ७६ ।। " शेषे" (है. सू०२-२-८१ पृ० ८०) या षष्ठी तदन्तं नाम नाम्नैकार्ये समासस्तत्पुरुषः स्यात् । न चेत्स शेषो “नाथ" (है० सू०२-२-१० पृ० ६७) इत्यादेयत्नात्।राजपुरुषः । अयत्नादिति किम् ? सर्पिषो नाथितम् । शेष इति किम् ? गवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरा ॥७६ ॥ १ अत्र "असत्त्वे उसेः (३-२-१०) इति सूत्रेणालप् समासः । २ शतात् परे परःशताः, एवं परोलक्षा इत्यादयः । अत्र पखाब्दस्य पूर्व .. निपातः स इत्यागमश्च निपातनाद् ज्ञेयः, सकारान्तो वा परः शब्दोऽपि । सं. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१४५] कृति । ३ । १।७७ "कर्मणि कृतः" (२-२-८३ पृ० ८०) "कर्त्तरि" (२-२-८६ पृ०८१) इति या निमित्ता षष्ठी, तदन्तं नाम नाम्ना समासस्तत्पुरुषः स्यात् । सर्पिर्ज्ञानं, गणधरोक्तिः ॥७७॥ याजकादिभिः । ३ । १ । ७८ । षष्ठयन्तं याजकाद्यैः समासस्तत्पुरुषः स्यात्। ब्राह्मणयाजकः, गुरुपूजकः ॥ ७८ ॥ . पत्ति-रथो गणकेन । ३ । १ । ७९ । एतौ षष्ठयन्तौ गणकेन समासस्तत्पुरुषः स्याताम् । पत्तिगणकः, रथगणकः । पत्तिरथाविति किम् ? धनस्य गणकः ॥ ७९ ॥ सर्वपश्चादादयः । ३ । १। ८० . एते षष्ठीतत्पुरुषाः साधवः स्युः । सर्वपश्चात्, सर्वचिरम् ।। ८० ॥ अकेन कोडाऽऽजीवे । ३ । १ । ८१ । षष्ठयन्तमकप्रत्ययान्तेन क्रीडाजीविकयोर्गम्ययोः स. मासस्तत्पुरुषः स्यात् । उद्दालपुष्पभञ्जिका, नखलेखकः । क्रीडाजीव इति किम् ? पयसः पायकः ।। ८१ ॥ न कर्तरि । ३ । १ । ८२ । कर्तरि या षष्ठी तदन्तमकान्तेन समासो न स्यात् । तव शायिका । कर्तरीति किम् ? इक्षुभक्षिका ।। ८२॥ १ पत्तीनां गणकः । २ सर्वेषां पश्चात् । सं० Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४६] हैमशब्दानुशासनस्य कर्मजा तृचा च । ३ । १ । ८३।। कर्मणि या षष्ठी तदन्तं कर्तृविहिताकान्तेन तृजन्तेन च न समासः स्यात् । भक्तस्य भोजकः, अपांस्रष्टा । कर्मजेति किम् ? गुणो गुणिविशेषकः, सम्बन्धेऽत्र षष्ठी । कतरीत्येव? पयःपायिका ॥ ८३॥ तृतीयायाम् । ३ । १ । ८४ । कर्तरि तृतीयायां सत्यां कमजा षष्ठी न समस्यते । आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालेन । तृतीयायामिति किम् ? शब्दानुशासनं गुरोः ॥ ८४॥ तृप्तार्थ-पूरणाव्ययाऽतृश्-शत्रानशा । ३ । १ । ८५ । - तृप्ताथैः पूरणप्रत्ययान्तैरव्ययैरतृशन्तैः शत्रन्तैरानशन्तश्च पष्ठयन्तं न समस्यते । फलानां तृप्तः, तीर्थकृतां षोडशः, राज्ञः साक्षात्, रामस्य द्विषन् , चैत्रस्य पचन्, मैत्रस्य पचमानः ॥ ८५॥ ज्ञानेच्छार्चार्थाऽऽधारक्तेन । ३।१ । ८६ । ज्ञानेच्छाार्थेभ्यो यो वर्तमाने तो यश्चाद्यर्थाचाधार इत्याधारे क्तस्तदन्तेन षष्ठयन्तं न समस्यते। राज्ञां ज्ञातः, राज्ञामिष्टः, राज्ञां पूजितः, इदमेषां यातम् ।। ८६ ॥ अस्वस्थगुणैः । ३ । १ । ८७ ॥ . ये गुणाः स्वात्मन्येव तिष्ठन्ति न द्रव्ये, ते स्वस्थारतत्प्रतिषेधेनास्वस्थगुणवाचिभिः षष्ठयन्तंन समस्यते। पटस्य शुक्लः, गुडस्य मधुरः । अस्वस्थगुणैरिति किम् ? घटवणेः चन्दनगन्धः ॥ ८७॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१४७] __ सप्तमी शौण्डायैः । ३ । १ । ८८ । एभिः सहैकार्थे सप्तम्यन्तं समासस्तत्पुरुषःस्यात् । पानशौण्डः, अक्षधूर्तः ॥ ८८ ॥ सिंहाद्यैः पूजायाम् । ३ । १ । ८९ । एभिः सप्तम्यन्तंसमासस्तत्पुरुषः स्यात् । पूजायांगम्यमानायां । समरसिंहः, भूमिवासवः ॥ ८९ ॥ __काकाद्यैः क्षेपे । ३ । १ । ९० । एभिः सप्तम्यन्तं निन्दायां गम्यमानायां समासस्तत्पुरुषः स्यात् । तीर्थकाकः, तीर्थश्वा । क्षेप इति किम् ? तीर्थे काकोऽस्ति ॥ ९० ॥ पात्रे समितेत्यादयः।३।१ । ९१ । .. एते सप्तमीतत्पुरुषाः क्षेपेनिपात्यन्ते। पात्रे समिताः, गेहे शूरः ।। ९१ ॥ क्तेन । ३ । १ । ९२ । सप्तम्यन्तं क्तान्तेन क्षेपे समासस्तत्पुरुषश्च स्यात् । भस्मनिहुतं, अवतप्तेनकुलस्थितम् ॥ ९२ ॥ तत्राहोरात्रांशम् । ३ । १ । ९३ । तत्रेति सप्तम्यन्तं अहरवयवा रात्र्यवयवाश्च सप्तम्यन्ताः क्तान्तेन समासस्तत्पुरुषः स्यात्। तत्रकृतम्, पूर्वाह्नकृतम्, पूर्वरात्रकृतम्। तत्राहोरात्रांशमिति किम् ? घटे कृतम् । अहोरात्रग्रहणं किम् ? शुक्लपक्षे कृतम् । अंशमिति किम् ? अनि भुक्तं, रात्रौ नृत्तम् ॥ ९३ ॥ नाम्नि । ३।१ । ९४ । सप्तम्यन्तं नाम्ना संज्ञाविषये समासस्तत्पुरुषश्च स्या Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४८] हैमशब्दानुशासनस्य त्। अरण्येतिलकाः, अरण्येमाषकाः ॥ ९४ ॥ कृद्यनावश्यके । ३ । १ । ९५ । सप्तम्यन्तं नाम “य एचातः" (५-१-२८) इति यान्तेनावश्यम्भावे गम्ये समासस्तत्पुरुषश्च स्यात्। मासदेयम् । कृदिति किम् ? मासे पित्र्यम् ॥ ९५ ।। विशेषणं विशेष्येणैकार्थ कर्मधारयश्च ।३।१।९६ । भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोः शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिरैकाय, तद्विशेषणवाचि विशेष्यवाचिनकाN समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । नीलोत्पलम् , खञ्जकुण्टः, कुण्टः खञ्जः । एकार्थमिति किम् ? वृद्धस्योक्षा वृद्धोक्षा ॥ ९६ ।। पूर्वकालैक-सर्व-जरत-पुराण-नव-केवलम् ।। १ ।९७। पूर्वकालो यस्य तद्वाच्येकादीनि चैकार्थानि परेण ना. म्ना समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात्। स्नातानुलिप्तः, एकशाटी, सर्वान्नम् , जरद्वः, पुराणकविः, नवोक्तिः, केवलज्ञानम् । एकार्थमित्येव स्नात्वाऽनुलिप्तः ॥९७॥ दिगधिकं संज्ञा-तद्धितोत्तरपदे । ३ । १ । ९८॥ दिग्वाच्यधिकंचैकार्थ नाम्ना समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् , संज्ञायां तद्धिते च विषयभूते उत्तरपदे च परतः। दक्षिणकोशला, पूर्वेषुकामशमी, दक्षिणशालः । अधिक पाष्टिकः, उत्तरगवधनः, अधिकगवप्रियः ॥ ९८ ॥ संख्या समाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम् । ३ । १ १९९॥ संख्यावाचि परेण नाम्ना समासस्तत्पुरुषः कम्मधार१ पूर्व स्नातः पश्चादनुलिप्तः स्नालानुलिप्तः। केवलमसहायं ज्ञानं केवलज्ञानम्। २ तत्पुरुषः सत् कर्मधारयश्च समासः। सं० Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ १४९ ] . यश्च स्यात् संज्ञातद्वितयोर्विषये, उत्तरपदे च परे समाहारे चार्थे, अयमेव चासंज्ञायां द्विगुश्च । पञ्चम्राः । सप्तर्षयः । द्वैमातुरः, अध्यर्द्धकंसः । पञ्चगवधनः, पञ्चनावप्रियः । पञ्चराजी । समाहारे चेति किम् ? अष्टौ प्रवचनमातरः । अनानीति किम् ? पाञ्चर्षम् ॥ ९९ ॥ निन्द्यं कुत्सनैरपापाद्यैः । ३ । १ । १०० | निन्द्यवाचि निन्दाहेतुभिः पापादिवजैः सह समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । वैयाकरणखसूची, मीमांसकदुर्दुरूटः । निन्यमिति किम् ? वैयाकरणश्चौरः अपापाद्यैरिति किम् ? पापवैयाकरणः हतविधिः ॥ १०० ।। उपमानं सामान्यैः । ३ । १ । १०१ । उपमानवाच्येकार्थमुपमानोपमेयसाधारणधर्म्मवाचिभिरेव समासस्तत्पुरुषः कर्म्मधारयश्च स्यात् । शस्त्रीश्यामा, मृगचपला । उपमानमिति किम् ? देवदत्ता श्यामा । सामान्यैरिति किम् ? अग्निर्माणवकः ॥ १०१ ॥ उपमेयं व्याघ्राद्यैः साम्यानुक्तौ । ३ । १ । १०२ । ४ उपमेयवाच्येकार्थमुपमानवाचिभिर्व्याघ्राद्यैः साधार'धर्मानुक्तौ समासस्तत्पुरुषः कर्म्मधारयश्च स्यात् । पुरुषव्याघ्रः, श्वसिंही । साम्यानुक्ताविति किम् ? पुरुषव्याघ्रः, शूरः इति मा भूत् ॥ १०२ ॥ १ पञ्च च ते आम्नाश्च पञ्च । म्रा इति सञ्ज्ञाविषयोदाहरणं, द्वैमातुर इति तद्धिते । २ वैयाकरणश्चासौ खसूची च वैयाकरणखसूची । ३ शस्त्रीव शस्त्री, शस्त्री चासौ श्यामा च शस्त्रीश्यामा | ४ व्याघ्र इव व्याघ्रः पुरुषः, पुरुषश्चासौ व्याघ्रश्च पुरुषव्याघ्रः । सं Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५०] हैमशब्दानुशासनस्य पूर्वोपर-प्रथम-चरम-जघन्य-समान-मध्य-मध्यम वीरम् । ३ । १ । १०३ । एतान्येकार्थानि नाम्ना परेण समासस्तत्पुरुषः कर्म धारयश्च स्युः । पूर्वपुरुषः, अपरपुरुषः, प्रथमपुरुषः, चरमपुरुषः, जघन्यपुरुषः, समानपुरुषः, मध्यपुरुषः, मध्यमपुरुषः, वीरपुरुषः ॥ १०३॥ श्रेण्यादि कृताद्यैश्च्व्यर्थे । ३ । १ । १०४ । श्रेण्याघेकार्थ कृताद्यैः सह व्यर्थे गम्ये समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात्। श्रेणिकृताः, ऊककृताः। व्यर्थइति किम् ? श्रेणयः कृताः केचित् ।। १०४ ॥ क्तं नत्रादिभिन्नः । ३ । १ । १०५ । . क्तान्तमेकाथै नप्रकारैरेव यानि भिन्नानि तैः सहसमासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । कृताकृतम्, पीताऽवपीतम् । क्तमिति किम् ? कर्तव्यमकर्तव्यं च। नत्रादिभिन्नरिति किम् ? कृतं प्रकृतं, कृतश्चाविहितं च ॥ १०५ ॥ सेट्नाऽनिटा । ३ । १ । १०६ । सेट् क्तान्तं नमादिभिन्ननानिटा सह न समस्यते । क्लिशितमक्लिष्टम्, शितमशातम् । सेडिति किम् ? कृताकृतम् । अनिटेति किम् ? अशितानशितम् ॥ १०॥ सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टं पूजायाम् । ३ । १ । १०७। एतान्येकार्थानि पूजायां गम्यमानायां पूज्यवचनैः सह समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । सत्पुरुषः, , अश्रेणयः नेणयः कृताः श्रेणिकृताः । अत्र च्चिप्रत्ययाभावान दीर्घत्वम् ।सं. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१५१] महापुरुषः, परमपुरुषः, उत्तमपुरुषः, उत्कृष्टपुरुषः । पूजायामिति किम् ? सन् घटोऽस्तीत्यर्थः ॥ १०७॥ वृन्दारक-नागकुञ्जरैः । ३ । १ । १०८।। पूजायां गम्यायामेभिः सह पूज्यवाच्येकार्थ समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । गोवृन्दारकः, गोनागः, गोकुञ्जरः । पूजायामिति किम् ? सुसीमो नागः ॥१०८॥ कतर-कतमौ जातिप्रश्ने । ३ । १ । १०९ । एतावेकार्थो जातिप्रश्ने गम्ये जात्यर्थेन नाम्ना समा. सस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात्। कतरकठः, कतमगार्ग्यः। जातिप्रश्न इति किम् ? कतरः शुक्लः, कतमो गन्ता॥१०९॥ किंक्षेपे । ३ । १।११० । निन्दायां गम्यमानायां किमित्येकार्थ कुत्स्यवाचिना समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात्। किंराजा, किंगौः । क्षेप इति किम् ? को राजा तत्र? ॥ ११० ॥ पोटा-युवति-स्तोक-कतिपय गृष्टि-धेनु-चशा वेहद्-बकयणी-प्रवक्तृ-श्रोत्रियाध्यायक-धूर्त-प्रशंसा ___ रूदैर्जातिः । ३ । १ । १११ । पोटादिभिः प्रशंसारूढैश्च सह जातिवाच्येकार्थ समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । इभ्यपोटा, नागयुवतिः, अग्निस्तोकम् , दधिकतिपयम् , गोगृष्टिः, गोधेनुः, गोवशा, गोवेहत , गोबष्कयणी, कठप्रवक्ता, कठश्रोत्रियः, कठाध्यायकः, मृगधूर्तः, गोमतल्लिका, गोप्रकाण्डम् ।।१११।। १ वृन्दारक इव वृन्दारकः, गोश्चासौं वृन्दारकश्च गोवृन्दारकः । सं० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य चतुष्पाद्गर्भिण्या | ३ | १ | ११२ । चत्वारः पादा यस्या जातेस्तद्वाच्येकार्थ गर्भिण्या समासस्तत्पुरुषः कर्म्मधारयश्च स्यात् । गोगर्भिणी, महिषगर्भिणी । जातिरित्येव ? कालाक्षी गर्भिणी ॥ ११२ ॥ युवा-खलति-पलित-जरबलिनैः । ३ । १ । ११३ ॥ युवन्नित्येकार्थमेभिः समासस्तत्पुरुषः कर्म्मधारयश्च स्यात् । युवखलतिः युवपलितः युवजरन्, युवबलिनः ॥ ११३ ॥ [ १५२ ] कृत्य- तुल्याऽऽख्यमजात्या । ३ । १ । ११४ । कृत्यान्तं तुल्यपर्यायं चैकार्थ्यमजात्येन सह समासtrayoषः कर्मधारयश्च स्यात् । भोज्योष्णम्, स्तुत्यपटुः । तुल्यसन, सदृशमहान् । अजात्येति किम् ? भौज्य ओदनः ॥ ११४ ॥ कुमारः श्रमणादिना । ३ । १ । ११५ । कुमारेत्येकार्थं श्रमणादिना समासस्तत्पुरुषः कर्मधारयश्च स्यात् । कुमारश्रमणा, कुमारप्रव्रजिता ॥ ११५ ।। मयूरव्यंसकेत्यादयः | ३ | १ | ११६ ॥ एते तत्पुरुषसमासा निपात्यन्ते । मयूरव्यंसकः, कबोजमुण्डः, एहीडं कर्म, अनीतपिवता क्रिया, कुरुकटो वक्ता, गतप्रत्यागतं, क्रयक्रयिका, शांकपार्थिवः त्रिभासर्वश्वेतः ।। ११६ ।। ग„ १ कुमारी चासौ श्रमणा च कुमारश्रमणा । २ व्यंसयति छलयतीति व्यंसकः । शाकप्रियः पार्थिवः शाकापर्थिवः । सं० Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१५३] • चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तौ । ३ । १ । ११७ । नाम नाम्ना सहोक्तिविषये चार्थवृत्तिःसमासो द्वन्द्वः स्यात्। प्लक्षन्यग्रोधी, वाक्त्वचम् । नाम नाम्नेत्यनुवृत्तावपि 'लघ्वक्षरादि सूत्रे एकग्रहणाद् बहूनामपि। धवखदिरपलाशा। चार्थ इति किम् ? वीप्सा सहोक्तौ मा भूत्, ग्रामो ग्रामो रमणीयः। सहोक्ताविति किम् ? प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च वीक्ष्यताम् ॥ ११७ ॥ समानामथैनैकः शेषः । ३ । १ । ११८ अर्थेन समानां समानार्थानां सहोक्तो गम्यायामेका शिष्यते, अर्थादन्ये निवर्तन्ते । वक्रश्च कुटिलश्च वक्रो कुटिलौ वा । सितश्च शुक्लश्च श्वेतश्च सिताः शुक्लाः श्वेता वा । अर्थेन समानामिति किम् , ? प्लक्षन्यग्रोधौ । सहोतावित्येव ? वक्रश्च कुटिलश्च दृश्यः ॥ ११८ ॥ स्यादावसंख्येयः । ३ । १ । ११९ । - सर्वस्मिन् स्यादौ विभक्तौ समानानां तुल्यरूपाणां सहोक्तावेकाशिष्यते, न तु संख्येयवाची। अक्षश्च शकटस्य, अक्षश्च देवनः, अक्षश्च बिभीतकः अक्षाः। स्यादाविति किम् ? माता च जननी, माता च धान्यस्य, मातृमातरौ । असंख्येय इति किम् ? एकश्चैकश्च ॥ ११९ ॥ त्यदादिः । ३ । १ । १२० । त्यदायैरन्येन च सहोक्तौ त्यदादिरेवैकः शिष्यते । स च चैत्रश्च तो, स च यश्च यौ, अहं च स च त्वं च वयम् ॥ १२० ॥ १ धवश्च खदिरश्च पलाश चेति धवखदिरपलाशाः, इति द्वन्द्वपद्धतिः। सं. २० Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५४ ] हैमशब्दानुशासनस्य भ्रातृ-पुत्राः स्वसृ-दुहितृभिः | ३ | १ | १२१ | स्वर्थे सो र्थो, दुहित्रर्थेन च पुत्रार्थ एकः शिष्यते । भ्राता च स्वसा च भ्रातरौ पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ ॥ १२१ ॥ , पिता मात्रा वा । ३ | १ | १२२ | मातृशब्देन सहोक्तौ पितृशब्द एको वा शिष्यते । पिता च माता च पितरौ मातापितरौ ॥ १२२ ॥ श्वशुरः श्वश्रूभ्यां वा । ३ । १ । १२३ । श्वशब्देन सहोक्तौ श्वशुर एको वा शिष्यते । श्वशुरौ, श्वश्रूश्वशुरौ ॥ १२३ ॥ वृद्धो यूना तन्मात्रमे । ३ । १ ।१२४। यूना सहोक्तौ वृद्धवाच्येकः शिष्यते तन्मात्रभेदे, न चेत् प्रकृतिभेदोऽर्थभेदो वाऽन्यः स्यात् । गार्ग्यश्च गार्ग्यायणच गाग्यौं । वृद्ध इति किम् ? गर्गग्रायणौ । यूनेति किम् ? गार्ग्यगर्गौ । तन्मात्रभेद इति किम् ? गार्ग्य वात्स्यानौ ॥ १२४ ॥ स्त्री पुंवच्च | ३ | १ | १२५ | वृद्धस्त्रीवाची यूना सहोक्तौ एकः शिष्यते, पुल्लिङ्गश्रयं तन्मात्रमेदे । गार्गी च गार्ग्यायणश्च गाग्र्यो, गार्गी च गाययणौ च गर्गान् ।। १२५ ।। पुरुषः स्त्रिया । ३ । १ । १२६ । पुरुषशब्दः प्राणिनि पुंसि रूढः स्त्रीवाचिना सहोक्तौ " १ गार्गी च गार्ग्यायणौ च गर्गाः, अत्र पुंवद्भावाद डीवृित्तौ यत्रो लुप् गर्गानिति " शस्रोता सश्चनः पुंसि ” (१ - ४-४९, पृ० ३६ ) इति नत्वं च । सं० Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१५५] पुरुषः एकः शिष्यते, स्त्रीपुरुषमात्रभेदश्चेत् । ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणौ । पुरुष इति किम् ? तीरं नदनदीपतेः। तन्मात्रभेद इत्येव ? स्त्रीपुंसौ ॥ १२६ ॥ ग्राम्याऽशिशुदिशफसङ्घ स्त्री प्रायः। ३।१।१२७ । ग्राम्या अशिशवो ये द्विशफा द्विखुरा अर्थात् पशवस्तेषां सङ्घ स्त्रीपुरुषसहोक्तौ प्रायः स्त्रीवाच्येकः शिष्यते, स्त्रीपुरुषमात्रभेदश्चेत्। गावश्च स्त्रियः,गावश्च नरा, इमा गावः। ग्राम्येति किम् ? रुरवश्चमे रुरवश्चेमा इमे रुरवः । अशिश्चिति किम् ? बर्यश्च बकराश्च बर्कराः । द्विशफ इति किम् ? गर्दभाश्च गर्दभ्यश्च गर्दभाः। सङ्घ इति किम्? गौवायं गौश्चयं इमौ गावौ । प्राय इति किम् ? उष्ट्राश्च उष्ट्रयश्च उष्ट्राः ॥ १२७॥ क्लीबमन्येनैकं च वा । ३ । १ । १२८॥ क्लीबं नपुंसकमन्येनालीबेन सहोक्तावेकः शिष्यते, क्लीवाक्लीवमात्रभेदे, तच्च शिष्यमाणं एकमेकार्थ च वा स्यात् । शुक्लं च शुक्लश्च शुक्लं, शुक्ले वा । शुक्लं च शुक्लश्च शुक्लाश्च शुक्लं, शुक्लानि वा । अन्येनेति किम् ? शुक्लं च शुक्लं च शुक्ले। तन्मात्रभेद इत्येव हिमहिमान्यौ ॥ १२८॥ पुष्यार्थाद् भे पुनर्वसुः । ३ । १ । १२९ । पुष्यार्थान्नक्षत्रवृत्तेः परो नक्षत्रवृत्तिः पुनर्वसुः सहोक्तौ द्वयर्थः सन् एकार्थः स्यात् । उदितौ पुष्यपुनर्वसू , उदितौ तिष्यपुनर्वसू । पुष्यार्थादिति किम् ? आर्द्रापुनर्व- १ हिमं च हिमानी चेति हिमाहिमान्यौ, अत्र तन्मात्रभेदाऽभावः । सं० Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५६] हैमशब्दानुशासनस्य सवः। पुनर्वसुरिति किम् ? पुष्यमघाः । भ इति किम् ? तिष्यपुनर्वसवो बालाः ॥ १२९ ॥ विरोधिनाम्-अद्रव्याणां नवा बन्दः स्वैः ।३।१।१३० __द्रव्यं गुणाद्याश्रयः, विरोधिवाचिनामतदाश्रयवृत्तीनां द्वन्द्वो वैकार्थः स्यात् । स्वैः स्वजातीयैरेवाऽऽरब्धश्चेत् । सुखदुःखम्, सुखदुःखे। लाभालाभम्,लाभालाभौ। विरोधिनामिति किम् ? कामक्रोधौ । अद्रव्याणामिति किम् ? शीतोष्णे जले । स्वैरिति किम् ? बुद्धिसुखदुःखानि ॥१३०॥ अश्ववडव-पूर्वापराऽधरोत्तराः। ३।१ । १३१ । । एते त्रयोऽपि द्वन्द्वा एकार्था वा स्युः स्वैश्चेत् । अश्ववडवं । अश्ववडवौ । पूर्वापरम्, पूर्वापरे। अधरोत्तरं, अधरोत्तरे ॥ १३१॥ पशुव्यञ्जनानाम् । ३ । १ । १३२ । पशूनां व्यञ्जनानां च स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो वा स्यात् । गो. महिषम्, गोमहिषौ । दधिघृतम्, दधिघृते ॥ १३२ ॥ तरु-तृण-धान्य-मृग-पक्षिणां बहुत्वे । ३ । १ । १३३ । एतद्वाचिनां बह्वर्थानां प्रत्येकं स्वर्द्वन्द्व एकार्थो वा स्यात् । प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यग्रोधाः कुशकाशम् , कुश. काशाः। तिलमाषम् , तिलमाषाः । ऋश्यणम्, ऋश्येणाः । हंसचक्रवाकम्, हंसचक्रवाकाः ॥ १३३ ॥ सेनाङ्ग-क्षुद्रजन्तूनाम् । ३ । १ । १३४ । सेनाङ्गानां क्षुद्रजन्तूनां च बह्वर्थानां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो ३ क्षुद्रजन्तवोऽप्काया जीवाः । एषामस्थि शोणितं च न विद्यते. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१५७] नित्यं स्यात् । अश्वरथम्, युकालिक्षम् ॥ १३४ ॥ फलस्य जातौ । ३ । १ । १३५। फलवाचिनां बह्वर्थानां जातौ स्वैर्द्वन्द्व एकार्थो नित्य स्यात् । बदामलकम् । जाताविति किम् ? एतानि बद्रामलकानि सन्ति ॥ १३५॥ अप्राणि पश्चादेः । ३ । १ । १३६ । प्राणिभ्यः पश्वादिसूत्रोक्तेभ्यश्च येऽन्यद्रव्यवाचिनस्तेषां जात्यर्थानां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । आराशस्त्रि । जातावित्येव? सह्यविन्ध्यो । प्राण्यादिवर्जनं किम् ? ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः, ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रम् । गोमहिषौ, गोमहिषम् । प्लक्षन्यग्रोधौ, प्लक्षन्यग्रोधम् । अश्वरथी, अश्वरथम् । बदरामलके, बदामलकम् ॥ १३६ ॥ प्राणितूर्याङ्गाणाम् । ३ । १ । १३७ । ___ प्राणितूर्ययोरङ्गार्थानां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । कर्णनासिकम्, मार्दङ्गिकपाणविकम् । स्वैरित्येव ? पाणिगृध्रौ ॥ १३७ ॥ चरणस्य स्थेणोऽद्यतन्यामनुवादे । ३ । १ । १३८ । चरणाः कठादयः, तद्वाचिनामद्यतन्यां यौ स्थेणी तयोः कर्तृत्वेन सम्वन्धिनां स्वैर्द्वन्द्वोऽनुवादविषये एकार्थः स्यातादृशा जन्तवः क्षुद्राः । नकुलपर्यन्तं हीनकायाः सर्वेऽपि क्षुद्रा इति केचित् , इति सिद्धहैमलघुन्यासकारमतम् । १ "पशुव्यन्जनानां" [३-१-१३२] सूत्रेण एकार्थो वा द्वन्द्वः स्यात् , एवं दधिधृते स्थलेऽपि । सं० Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५८] हैमशब्दानुशासनस्य त् । प्रत्यष्ठात् कठकालापम्, उदगात् कठकौथुमम् । अनुवाद इति किम् ? उदगुः कठकालापाः । अप्रसिद्धं कथयन्ति ॥१३८ ॥ अक्लीबेऽवयुक्रतोः । ३ । १ । १३९ । ___ अध्वर्युः-यजुर्वेदः, तद्विहितक्रतुवाचिनां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात्, न चेदेते क्लीबवृत्तयः । अाश्वमेघम् । अक्लीव इति किम् ? गवामयनादित्यानामयने । अध्वविति किम् ? इषुवज्रौ । क्रतोरिति किम् ? दर्शपौर्णमासौ ॥१३९ ॥ निकटपाठस्य । ३ । १ । १४०। निकटः पाठो येषामध्येतृणां तेषां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात्। पेदकक्रमकम् ।। १४०॥ नित्यवरस्य । ३ । १ । १४१ । नित्यं जातिनिबद्धं वैरं येषां तेषां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । अहिनकुलम् । नित्यवरस्येति किम् ? देवासुराः, देवासुरम् ॥१४१ ॥ नदी-देश-पुरां विलिङ्गानाम् । ३ । १ । १४२ । एषां विविधलिङ्गानां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । गङ्गाशोणम् , कुरुकुरुक्षेत्रं, मथुरापाटलिपुत्रम् । विलिङ्गानामिति किम् ? गङ्गायमुने ॥१४२ ॥ १ पदमधीते पदकः । क्रममधीते क्रमकः । पदकश्च क्रमकश्च पदकक्रमकम् । कुरवश्व कुरुक्षेत्रं चेति कुरुकुरुक्षेत्रम् । सं० Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१५९] पात्र्यशूद्रस्य । ३ । १ । १४३ । पात्राहशूद्रवाचिनां स्वैर्द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । तक्षायस्कारम् । पाव्यति किम् ? जनङ्गमबुकसाः ॥ १४३ ॥ गवाश्वादिः । ३ । १ । १४४ । अयं द्वन्द्व एकार्थः स्यात् । गवाश्वम्, गवा विकम् ॥ १४४ ॥ न दधिपयआदिः । ३ । १ । १४५ । दधिपय आयो द्वन्द्व एकार्थो न स्यात् । दधिपयसी, सपिर्मधुनी ॥ १४५॥ संख्याने । ३ । १ । १४६ । वर्तिपदार्थानां गणने गम्ये द्वन्द्व एकार्थों न स्यात् । दश गोमहिषाः, बहवः पाणिपादाः ॥ १४६ ॥ वान्तिके । ३ । १ । १४७ । वर्तिपदार्थानां संख्यानस्य समीपे गम्ये द्वन्द्व एकार्थो वा स्यात् । उपदशं गोमहिषम् , उपदशा गोमहिषाः ॥ १४७॥ . प्रथमोक्तं प्राक् । ३ । १ । १४८ । • अत्र समासप्रकरणे प्रथमान्तेन यनिर्दिष्टं तत् प्राक् स्यात् । आसन्नदशाः. सप्तगङ्गम् ॥ १४८ ॥ राजदन्ताऽऽदिषु । ३ । १ । १४९ । एतेषु समासेष्वप्राप्तप्राग्निपातं प्राक् स्यात् । राजदेन्तः, लिप्तवासितम् ॥ १४९ ॥ १ उपगता दश यस्य येषां वेति उपदशं उपदशो वा गोमहिषाः। : २ दन्तानां राजा। पूर्व वासितं पश्चालिप्तमिति लिप्तवासितम् । सं० Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६० ] हैमशब्दानुशासनस्य विशेषण - सर्व्वादि-सख्यं बहुव्रीहौ । ३ । १ । १५० । विशेषणं सर्वादि संख्यावाचि च बहुव्रीहौ प्राकू स्यात् । चित्रगुः सर्वशुक्ला, द्विकृष्णः ॥ १५० ॥ क्ताः । ३ । १ । १५१ । तं सर्व बहुव्रीहौ प्राक् स्यात् । कृतकटः ॥ १५१ ॥ जातिकाल सुखादेर्नवा । ३ । १ । १५२ । जातेः कालात् सुखादिभ्यश्च बहुव्रीहौ क्तान्तं वा प्राक् स्यात् । शाङ्गरजग्धी, जग्धशाङ्गरा । मासजाता जातमासा। सुखजाता, जातसुखा । दुःखहीना, हीनदुःखा ॥ १५२ ॥ आहिताग्न्यादिषु । ३ । १ । १५३ । एषु बहुव्रीहिषु क्तान्तं वा प्राक् स्यात् । आहिताग्निः, अग्न्याहितः । जातदन्तः, दन्तजातः ॥ १५३ ॥ प्रहरणात् । ३ । १ । १५४ । प्रहरणार्थात् क्तान्तं बहुव्रीहौ वा प्राक् स्यात् । उद्यतोसि:, अस्युद्यतः ॥ १५४ ॥ न सप्तमन्द्रादिभ्यश्च | ३ | १ | १५५ । इन्द्रादेः प्रहरणार्थाच प्राक् सप्तम्यन्तं बहुव्रीहौ न स्यात् । इन्दुमौलिः, पद्मनाभः, असिपाणिः ॥ १५५ ॥ गड्वादिभ्यः | ३ | १ | १५६ | गवादिभ्यो बहुव्रीहौ सप्तम्यन्तं प्राक् वा स्यात् कण्ठेगडुः, गडुकण्ठः । मध्येगुरुः, गुरुमध्यः ॥। १५६ ।। १ उद्यतोSसिरनेनेति उद्यतासिः । २ इन्दुमौलौं यस्येति इन्दुमौलिः । सं० Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१६१] प्रियः। ३।१ । १५७। अयं बहुव्रीही प्राक् वा स्यात्। प्रियगुडः, गुडप्रियः ॥ १५७ ॥ कडारादयः कर्मधारये । ३ । १ ।१५८। एते कर्मधारये प्राक् वा स्युः। कडारजैमिनिः, जैमिनिकडारः । काणद्रोण द्रोणकाणः ॥ १५८ ॥ धर्मार्थादिषु द्धन्द्धे । ३ । १ । १५९ । एषु द्वन्द्वेष्वप्राप्तप्राक्त्वं वा प्राक् स्यात् । धर्मार्थों, अर्थधम्ौं । शब्दार्थों, अर्थशब्दौ ॥ १५९ ॥ लवक्षराऽसखीदुत्स्वराद्यदल्पस्वराय॑मेकम् ।३।१।१६०। लघ्वक्षरं सखिवर्जेदुदन्तं स्वराद्यकारान्तमल्पस्वरं पूज्यवाचि चैक द्वन्द्वे प्राक् स्यात् । शरशीर्षम् , अग्नीषोमो, वायुतोयम् । असखीति किम् ? सुतसखायौ। अस्त्रशस्त्रम् , प्लक्षन्यग्रोधौ, श्रद्धामेधे। लघ्वादिति किम् ? कुक्कुटमयूरो, मयूरकुक्कुटौ। एकमिति किम् ? शङ्खदुन्दुभिवी णाः। द्वन्द्व इत्येव ? विस्पष्टपटुः ॥ १६० ॥ 'मास-वर्ण-भ्रात्रऽनुपूर्वम् । ३ । १ ।१६१। एतद्वाचि द्वन्द्वेऽनुपूर्व प्राक् स्यात् फाल्गुनचैत्रौ, ब्राह्मणक्षत्रियौ, ब्राह्मणक्षत्रियवैश्याः, बलदेववासुदेवो ॥ १६१ ॥ भ-ऋतुतुल्यस्वरम् । ३ । १ । १६२ । नक्षत्रतुवाचि तुल्यस्वरं द्वन्द्वेऽनुपूर्व प्राक् स्यात् । अ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६२] हैमशब्दानुशासनस्य श्विनीभरणीकृत्तिकाः, हेमन्तशिशिरवसन्ताः, तुल्यस्वर इति किम् ? आर्द्रामृगशिरसी, ग्रीष्मवसन्तौ ॥१६२॥ संख्या समासे । ३ ।१ । १६३ ।। समासमात्रे संख्यावाच्यनुपूर्व प्राक् स्यात् । द्वित्राः, द्विशती, एकादशः ।। १६३ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ॥३॥१॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयः पादः ॥ परस्परा-न्योऽन्येतरेतरस्याम् स्यादेर्वा ऽपुंसि | ३ |२| १ | एषामपुंवृत्तीनां स्यादेराम् वा स्यात् । इमे सख्यौ कुले वा परस्परां परस्परं, अन्योऽन्यां अन्योऽन्यं, इतरेतरां इतरेतरं भोजयतः । आभिः सखीभिः कुलैर्वा परस्परां परस्परेण, अन्योऽन्यां अन्योऽन्येन, इतरेतरां इतरेतरेण भो ज्यते । अपुंसीति किम् ? इमे नराः परस्परं भोजयन्ति 11 2 11 अम् अव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः । ३ । २ । २ । अदन्तस्याव्ययीभावस्य स्यादेरम् स्यात्, न तु पञ्चम्याः। उपकुम्भमस्ति, उपकुम्भं देहि । अव्ययीभावस्येति किम् ? प्रियोपकुम्भोऽयम् । अत इति किम् ? अधिस्त्रि । अपञ्चम्या इति किम् ? उपकुम्भात् ॥ २ ॥ वा तृतीयायाः । ३ । २ । ३ । अदन्तस्याव्ययीभावस्य तृतीयाया अम् वा स्यात् । किन्न उपकुम्भम्, किन्न उपकुम्मेन । अव्ययीभावस्येति किम् ? प्रियोपकुम्भेन ॥ ३ ॥ सप्तम्या वा । ३ । २ । ४। अदन्तस्याव्ययीभावस्य सप्तम्या अम् वा स्यात् । उपकुम्भम्, उपकुम्भे निधेहि । अव्ययीभावस्येत्येव ? प्रियोपकुम्भे ॥ ४ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१६४ ] ऋद्ध-नदी-वंश्यस्य । ३ । २ । ५। एतदन्तस्याव्ययीभावस्यादन्तस्य सप्तम्या अम् नित्यं स्यात् । सुमगधम्, उन्मत्तगङ्गम् , एकविंशतिभारद्वाज वसति ॥५॥ अनतो लुप् । ३ । २।६। अदन्तवर्जस्याव्ययीभावस्य स्यादेलप् स्यात्। उपवधु, उपकर्तृ । अनत इति किम् ? उपकुम्भात् । अव्ययीभावस्येत्येव ? प्रियोपवधुः ॥ ६॥ अव्ययस्य । ३ । २।७। अव्ययस्य स्यादेर्लुप् स्यात् । स्वः, प्रातः। अव्ययस्येति किम् ? अत्युच्चैसः ॥७॥ ऐकायें । ३ । २ । । ऐकार्थ्यमैकपद्यं तन्निमित्तस्य स्यादेर्लुप् स्यात् । चित्रगुः, पुत्रीयति, औपगवः । अत एव लुविधानाद नाम नाम्नेत्युक्तावपि स्याद्यन्तानां समासः स्यात्। ऐकार्य इति किम् ? चित्रा गावो यस्येत्यादिवाक्ये मा भूत् ॥ ८॥ न नाम्येकस्वरात् खित्युत्तरपदेऽमः । ३ । २।९। समासारम्भकमन्त्यं पदमुत्तरपदं तस्मिन् खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे परे नाम्यन्तादेकस्वरात् पूर्वपदात् परस्या मो लुब् न स्यात् । स्त्रियंमन्यः, नावंमन्यः । नामीति किम् ? क्ष्मंमन्यः । एकस्वरादिति किम् ? स्त्रीमानी ॥९॥ असत्त्वे उसेः । ३ । २ । १० । असत्त्वे विहितस्य ङसेरुत्तरपदे परे लुब् न स्यात् । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१६५] स्तोकान्मुक्तः। असत्त्व इति किम् ? स्तोकभयम् । उत्तरपद इत्येव ? निःस्तोकः ॥ १०॥ ब्राह्मणाच्छंसी । ३ । २ । ११ । अत्र समासे उसेलबभावो निपात्यते। ब्राह्मणाच्छंसिनौ । निपातनादृत्विग्विशेषादन्यत्र लुबेव । ब्राह्मणशंसिनी स्त्री ॥ ११ ॥ ओजो-इजः-सहो-ऽम्भस्-तमस-तपसः टः ।३।२।१२। एभ्यः परस्य टावचनस्योत्तरपदे परे लुब् न स्यात् । ओजसाकृतम् , अञ्जसाकृतम्, सहसाकृतम्, अम्भसाकृतम्, तमसाकृतम्, तपसाकृतम् । द इति किम् ? ओजोभावः ॥ १२॥ पुम्-जनुषोऽनुजान्धे । ३ । २ । १३ । पुञ्जनुभ्या परस्य टो यथासंख्यमनुजेऽन्धे चोत्तरपदे लुब् न स्यात् , पुंसाऽनुजः, जनुषाऽन्यः । ट इत्येव ? पुमनुजा ॥ १३ ॥ आत्मनः पूरणे । ३ । २ । १४ । अस्मात् परस्य टः पूरणप्रत्ययान्ते उत्तरपदे लुब् न स्यात् । आत्मनाद्वितीयः, आत्मनाषष्ठः ॥ १४ ॥ मनसश्वाऽऽज्ञायिनि । ३ । २ । १५ । मनस आत्मनश्च परस्य ट आज्ञायिन्युत्तरपदे लबू न स्यात् । मनसाऽऽज्ञायी, आत्मनाऽऽज्ञायी ॥ १५ ॥ नाम्नि । ३ । २।१६। मनसः परस्य टः संज्ञाविषये उत्तरपदे परे लुबू न स्यात्। मनसादेवी । नानीति किम् ? मनोदत्ता कन्या ॥१६॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६६] हैमशब्दानुशासनस्य पराऽऽत्मभ्यां । ३ । २ । १७। आभ्यां परस्य डेवचनस्योत्तरपदे परे नाम्नि लुब् न स्यात् । परस्मैपदम् , आत्मनेपदम् । नाम्नीत्येव ? परहितम् ॥१७॥ अद्-व्यन्जनात् सप्तम्या बहुलम् । ३ । २।१८। अदन्ताद्वयञ्जनान्ताच परस्याः सप्तम्या बहुलं नाम्नि लुब् न स्यात् । अरण्येतिलकाः, युधिष्ठिरः। अद्वयञ्जनादिति किम् ? भूमिपाशः । नाम्नीत्येव ? तीर्थकाकः ॥१८॥ प्राक्कारस्य व्यञ्जने । ३ । २ । १९ । राजलभ्यो रक्षानिर्वेशः कारः। प्राचां देशे यः कारः तस्य संज्ञायां गम्यमानायामद्वयञ्जनात् परस्याः सप्तम्या व्यञ्जनादाबुत्तरपदे लुब् न स्यात् । मुकुटेकापिणः, समिधिमाषकः। प्रागिति किम्?यूथपशुः। उदीचामयं न प्राचां। कार इति किम् ? अभ्यर्हितपशुः । व्यञ्जन इति किम् ? अविकटोरणः ॥ १९ ॥ तत्पुरुषे कृति । ३ । २ । २० । अद्वयञ्जनात् परस्याः सप्तम्याः कृदन्ते उत्तरपदे तत्पुरुषे लुब् न स्यात् । स्तम्बेरमः, भस्मनिहुतम् । तत्पुरुष इति किम् ? धन्वकारकः । अद्वयञ्जनादित्येव ? कुरुचरः ॥२०॥ मध्यान्ताद् गुरौ । ३। ३ । २१ । आभ्यां परस्याःसप्तम्या गुराबुत्तरपदेलुब् न स्यात्। मध्येगुरुः, अन्तेगुरुः ॥ २१ ॥ अमूर्द्ध-मस्तकात् स्वाङ्गादकामे । ३ । २।२२ । मूर्द्धमस्तकवर्जात् स्वाङ्गवाचिनोऽव्यञ्जनात् परस्याः १ युधिष्टिर इति व्यन्जनान्तस्योदाहरणम् , युध् इत्यस्य धकारान्तत्वात् । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१६७ ] सप्तम्या कामवर्जे उत्तरपदे लुब् न स्यात् । कण्ठेकालः । अमूर्द्धमस्तकादिति किम् ? मूशिखः, मस्तकशिखः । अकाम इति किम् ? मुखकामः ॥ २२॥ बन्धे घत्रि नवा । ३ । २ । २३ । बन्धे घान्ते उत्तरपदे अव्यञ्जनात् परस्याः सप्तम्या लुब् वा न स्यात् । हस्तेबन्धः हस्तबन्धः चक्रेबन्धः चक्रवन्धः । घनीति किम् ? अजन्ते, हस्तवन्धः ॥२३॥ कालात् तन-तर-तम-काले । ३ । २ । २४ । अव्यञ्जनान्तात् कालवाचिनः परस्याः सप्तम्यास्तना. दिप्रत्ययेषु काले चोत्तरपदे वा लुब् न स्यात्। पूर्वाणैतनः, पूर्वाहणतनः । पूर्वाह्नतराम्, पूर्वाह्नतरे । पूर्वाह्नतमाम्, पूर्वागतमे । पूर्वाणेकाले, पूर्वाणकाले । कालादिति किम् ? शुक्लतरे, शुक्लतमे । अद्वयञ्जनादित्येव ? रात्रितरायाम् ॥ २४ ॥ शय-वासिचासेष्वकालात् । ३ । २।२५ । - अकालवाचिनोऽव्यञ्जनात् परस्याः सप्तम्या एषूत्तरपदेषु लुब् वा न स्यात् । बिलेशयः, बिलशयः। वनेवासी, वनवासी। ग्रामेवासः, ग्रामवासः । अकालादिति किम् ? पूर्वाह्नशयः ॥२५॥ वर्ष-क्षर-वराप्सरः-शरोरस-मनसो जे । ३ । २ । २६ । एभ्यः परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे लुब् वा न स्यात्। वर्षेजः, वर्षजः। क्षरेजः, क्षरजः। वरेजः, वरजः । अप्सुजम्, अब्जम् । सरसिजम् , सरोजम्, । शरेजम्, शरजम् । उरसिजः, उरोजः । मनसिजा, मनोजः ॥२६॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. [१६८] हैमशब्दानुशासनस्य यु-प्रावट्-वर्षा-शरत् कालात् । ३ । २ । २७ । एभ्यः परस्याः सप्तम्या ये उत्तरपदे लुब् न स्यात्, दिविजः,प्रावृषिजः, वर्षासुजः, शरदिजः कालेजः ॥२७।। अपो य-योनि-मति-चरे । ३ । २ । २८ । अपः परस्याः सप्तम्या ये प्रत्यये योन्यादौ च उत्तरपदे लुब् न स्यात् । अप्सव्यः, अप्सुयोनिः, अपसुमतिः, अप्सुचरः ।। २८ ॥ . नेन-सिद्ध-स्थे । ३।२ । २९ । इन्प्रत्ययान्ते सिद्धस्थयोश्चोत्तरपदयोनं लुब् न स्यात्, भवत्येवेत्यर्थः । स्थण्डिलवत्तौ, साङ्काश्यसिद्धः समस्थः ॥२९॥ षष्ट्याः क्षेपे । ३ । २।३०। उत्तरपदे परे क्षेपे गम्ये षष्ठया लुब् न स्यात् । चौरस्यकुलम् ॥३०॥ पुत्रे वा । ३ । २ । ३१ । पुत्रे उत्तरपदे क्षेपे षष्ठया लुब् वा न स्यात् । दास्याः पुत्रः, दासीपुत्रः ॥३१॥ पश्यत्वाग्-दिशा हर-युक्ति-दण्डे । ३।२।३२। एभ्यः परस्याः षष्ठया यथासंख्यं हरादावुत्तरपदे लुब् न स्यात् । पश्यतोहरः, वाचोयुक्तिः, दिशोदण्डः ॥३२॥ अदसोऽकलायनणोः । ३ । २ । ३३ । अदसः परस्याः षष्ठया अकविषये उत्तरपदे आयनणि च परे लुब् न स्यात् । आमुष्यपुत्रिका, आमुष्यायणः ॥३३॥ १ अपमु भब इति “ दिगादिदेहांशाद् यः" इति सूत्राद् यः । उकार.स्य च यः। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिा .... [१६९] 'देवानांप्रियः । ३ । २ । ३४ । अत्र षष्ठथा लुध न स्यात् । देवानांप्रियः ॥३४॥ शेप-पुच्छ-लाङ्ग्रलेषु नाम्नि शुनः । ३।२।३५। शुनः परस्याः पष्ठयाः पादावुत्तरपदे संज्ञायां लु न स्यात् । शुनःशेषः, शुनःपुच्छः, शुनोल शूलकः ॥३५ ।। वाचस्पति-वास्तोष्पति-दिवस्पति-दिवो दासम् । ३।२।३६ । एते समासाः षष्ठयपि निपात्यन्ते नाम्नि । वाव. स्पतिः, वास्तोष्पतिः, दिवस्पतिः, दिवोदासः ॥ ३६ ।। ऋतां विद्या-योनिसम्बन्धे । ३।२३७ । ऋदन्तानां विद्यया योन्या वा कृते सम्बन्धे हेतौ सति प्रवृत्तानां षष्ठयास्तत्रैव हेतौ सति प्रवृत्ते उत्तरपदे लुब् न स्यात् । होतुःपुत्रः, पितुःपुत्रः, पितुरन्तेवासी। ऋतामिति किम् ? आचार्यपुत्रः। विद्यायोनिसम्बन्ध इति किम् ? भर्तृगृहम् ॥ ३७॥ - स्वसृ-पत्योर्वा । ३ । २ । ३८। विद्ययोनिसम्बन्धनिमित्तानामृदन्तानां षष्ठयाः स्वसृपत्योरुत्तरपदयोर्योनिसम्बन्धनिमित्तयोलुब्वान स्यात्। होतुःस्वसा, होतृस्वसा । स्वसुःपतिः, स्वसृपतिः । विचायोनिसम्बन्ध इत्येव ? भर्तृस्वसा, होतृपतिः ॥३८॥ आ द्वन्द्वे । ३।२।३९।। विद्यायोनिसम्बन्धनिमित्तानामृदन्तानां यो द्वन्द्वस्तस्मिन् सत्युत्तरपदे पूर्वपदस्याऽऽत् स्यात् । होतापोतारो, १ देवानांप्रियो-मूर्खः सरलश्च । व्याकरणान्तरेषु तु मूर्खार्थ एव निपात्यते । २ शुनः शेपमिव शेषमस्येति शुनशेपः । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७०] हैमशब्दानुशासनस्य मातापितरौ । ऋतामित्येव ? गुरुशिष्यो । विद्यायोनिसम्बन्ध इत्येव ? कर्तृकारयितारौ ॥ ३९ ॥ पुत्रे । ३ । २ । ४० पुत्रे उत्तरपदे विद्यायोनिसम्बन्धानामृदन्तानां द्वन्द्वे आः स्यात् । मातापुत्रौ, होतापुत्रौ ॥४०॥ .. वेदसहश्रुताऽवायुदेवतानाम् । ३।२ । ४१ । एषां द्वन्द्वे पूर्वपदस्योत्तरपदे आः स्यात्। इन्द्रासोमौ। वेदेति किम् ? ब्रह्मप्रजापती । सहेति किम् ? विष्णुशक्रौ । श्रुतेति किम् ? चन्द्रसूर्यो । वायुवर्जनं किम् ? वायवनी । देवतानामिति किम् यूपचषालौ ॥४१॥ ई: पोमचरुणेऽग्नेः । ३ । २ । ४२ । वेदसहश्रुतावायुदेवतानां द्वन्द्वे षोमे वरुणे चोत्तरपदेऽग्नेरीः स्यात् । षोमेति निर्देशाद् ईयोगे षत्वं च । अग्नी. षोमो, अग्नीवरुणौ । देवताद्वन्द्व इत्येव ? अग्निसोमो घटू ॥४२॥ इवृद्धिमत्यविष्णौ । ३।२।४३ । विष्णुवर्जे वृद्धिमत्युत्तरपदे देवताद्वन्द्वे अग्नेरिः स्यात् । आग्निवारुणीमनड्वाहीमालभेत । वृद्धिमतीति किम् ? अग्नीवरुणौ । अविष्णाविति किम् ? आग्नावैष्णवं चरुं निर्वपेत् ॥ ४३ ॥ दिवो द्यावा। ३ । २ । ४४ । देवताद्वन्द्वे दिव उत्तरपदे द्यावेति स्यात् । द्यावाभुमी ॥४४॥ ४ बटुः पुनर्माणवकः (३-४७७) इति हैमः। वट वेष्टने धातोर्निष्पन्नः । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ १७१ ] दिवस-दिवः पृथिव्यां वा । ३ । २ । ४५ । देवताद्वन्द्वे दिवः पृथिव्यामुत्तरपदे एतौ वा स्याताम् । दिवस्पृथिव्यौ, दिवःपृथिव्यौ यावापृथिव्यौ ॥ ४५ ॥ उषासोषसः । ३ । २ । ४६ । देवताद्वन्द्वे उबस उत्तरपदे उषासा स्यात् । उवासासूर्यम् ॥ ४६ ॥ मातरपितरं वा । ३ । २ । ४७ । मातृपित्रोः पूर्वोत्तरपदयोर्द्वन्द्वे ऋतोऽरो वा निपात्यते । मातरपितरयोः मातापित्रोः ॥ ४७ ॥ वर्चस्कादिष्ववस्करादयः । ३ । २ । ४८ । एष्वर्थेष्वेते कृतशषसाद्युत्तरपदाः साधवः स्युः । अवस्करोsन्नमलम्, अवकारोऽन्यः । अपस्करो रथाङ्गम्, अपकरोऽन्यः ॥ ४८ परतः स्त्री पुम्वत् रूयेकार्थेऽनूङ् । ३ । २ । ४९ । परतो विशेष्यवशात् स्त्रीलिङ्गः स्त्रीवृत्तावेकार्थे उत्त रपदे पुम्वत् स्यात्, न तुङन्तः । दर्शनीय भार्यः । परत इति किम् ? द्रोणीभार्यः । स्त्रीति किम् ? खलपुदृष्टिः । स्त्र्येकार्थ इति किम् ? गृहिणीनेत्रः कल्याणीमाता । अनूङिति किम् ? करभोरुभार्यः ॥ ४९ ॥ क्यङ्-मानिपित्तद्धिते । ३ | २ | ५० | क्यङि मानिनि चोत्तरपदे पित्तद्धित्ते च परतः स्त्रीलिङ्गोऽनू पुम्वत् स्यात् । श्येतायते, दर्शनीयमानी अयमस्याः, अजथ्यं यूथम् ॥ ५० ॥ १ पकरेति तद्धितप्रत्यये परेsपि पुम्वत् स्यादित्यर्थः । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७२] हैमशब्दानुशासनस्य जातिश्च णि-तद्धितय-स्वरे । ३ । २ । ५१ । अन्या परतः स्त्रीजातिश्च णौ प्रत्यये यादौ स्वरादौ च तद्धिते विषयभूते पुम्वत् स्याद् अनूङ । पटयति, एत्यः, भावत्कम् । जातिः, दारयः, गार्गः । तद्धितति किम् ? हस्तिनीयति, हस्तिन्यः ॥५१॥ . एयेऽग्नायी । ३ । २ । ५२ । एयप्रत्ययेऽग्नाय्येव परतः स्त्री पुम्वत् स्यात् । आग्नेयः। पूर्वेण सिद्धे नियमार्थमिदम् । श्यैनेयः ॥ ५२ ॥ नाए प्रियाऽऽदौ । ३ । २ । ५३ । अप्प्रत्ययान्ते स्त्र्येकार्थे उत्तरपदे प्रियादौ च परतः स्त्री पुम्वन्न स्यात् । कल्याणीपश्चमा रात्रयः, कल्याणीप्रियः। अप्रियादाविति किम् ? कल्याणपञ्चमीकः पक्षः ॥५३ ।। - तद्धिताऽककोपान्त्यपूरण्याख्याः। ३ । २ । ५४ । तद्धितस्याकप्रत्ययस्य च क उपान्त्यो यासां ताः पूरणप्रत्ययान्ताः संज्ञाश्च परतः स्त्री पुम्वन्न स्युः । मद्रिकाभार्यः, कारिकाभार्यः, पञ्चमीभार्यः, दत्ताभार्यः, । तद्धिताकेति किम् ? पाकभार्यः ॥५४॥ तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुररक्त-विकारे । ३ । २ । ५५ । ___ रक्तविकाराभ्यामन्यार्थः स्वरवृद्धिहेतुर्यस्तद्धितस्तदन्तः परतः स्त्री पुम्वन्न स्यात् । माथुरीभार्यः । स्वरेति किम् ? वैयाकरणभार्यः । वृद्धिहेतुरिति किम् ? अर्द्धप्रस्थ. भार्यः । अरक्तविकार इति किम् ? काषायबृहतिकः, लोहेयः ॥ ५५॥ १ णौ परे पटयति। एन्यां साघुरेत्य इति तद्धितयकारे परे सिध्यति । भावत्कमिति तद्धितस्वरपरस्य निदर्शनम् । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१७३] . स्वाङ्गाद् डीऑतिश्चाऽमानिनि । ३ । २ । ५६ । स्वाङ्गाद्यो ङीस्तदन्तो जातिवाची च परतः स्त्री पुम्बन्न स्यात्, न तु मानिनि। दीर्घकेशीभार्यः, कठीभार्यः, शूद्राभार्यः। स्वाङ्गादिति किम् ? पटुभार्यः। अमानिनीति किम् ? दीर्घकेशमानिनी ॥ ५६ ॥ पुम्वत् कर्मधारये । ३।२। ५७ । परतः स्त्री अनूङ् कर्मधारये सति स्न्येकार्थे उत्तरपदे परे पुम्वत् स्यात्। कल्याणप्रिया, मद्रकभार्या, माथुरवृन्दारिका, चन्द्रमुखवृन्दारिका । अनूङित्येव ? ब्रह्मबन्धूवृन्दारिका ॥ ५७ ॥.. रिति । ३ । २ । ५८। परतः स्त्री अनूङ् रिति प्रत्यये पुम्वत् स्यात् । पटुजातीया, कठदेशीया ॥ ५८॥ त्व-ते गुणः । ३।२। ५९ । . ... परतः स्न्यनूङ् गुणवचनस्त्वतयोः प्रत्ययोः पुम्वत् स्यात्। पटुत्वम्, पटुता। गुण इति किम् ? कठीत्वम् ।।५९॥ त्वौ कचित् । ३ । २ । ६० । परतः ज्यनूङ् च्चो क्वचित् पुम्वत् स्यात् । महद्भूता कन्या । क्वचिदिति किम् ? गोमतीभूता ॥ ६ ॥ सर्वादयोऽस्यादौ । ३ । २ १६१। . सर्वादिः परतः, स्त्री पुम्वत् स्यात्, न तु स्यादौ । सर्वस्त्रियः, भवत्पुत्रः । अस्यादाविति किम् ? सर्वस्यै ॥६१॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७४] हैमशब्दानुशासनस्य मृगक्षीराऽऽदिषु वा । ३ । २ । ६२ । एषु समासेषु परतः स्त्री उत्तरपदे पुम्बद्वा स्यात् । मृगक्षीरम् , मृगीक्षीरम् । काकशावः, काकीशावः ॥६२।। ऋदुदित तर-तम-रूप-कल्प-त्रुव-चेलगोत्र मत-हते वा हस्वश्च । ३ । २ । ६३ । ऋदुदीत्परतः स्त्री तरादिषु प्रत्ययेषु ब्रुवादौ च स्न्ये. कार्थे उत्तरपदे हस्वान्तः पुम्वच्च वा स्यात् । पचन्तितरापचत्तरा, पचन्तीतरा। श्रेयसितरा, श्रेयस्तरा, श्रेयसीतरा । पचन्तितमा, पचत्तमा, पचन्तीतमा । श्रेयसितमा, श्रेयस्तमा, श्रेयसीतमा। पचन्तिरूपा, पचद्रूपा, पचन्तीरूपा। विदुषिरूपा, विद्वद्रूपा, विदुषीरूपा । पचन्तिकल्पा, पचत्कल्पा, पचन्तीकल्पा। विदुषिकल्पा, विद्वत्कल्पा, विदुषीकल्पा। श्रेयसिकल्पा, श्रेयस्कल्पा, श्रेयसीकल्पा। पचन्तिब्रुवा, पचब्रुवा, पचन्तीबुवा । श्रेयसिब्रुवा, श्रेयोब्रुवा, श्रेयसीबुवा । पचन्तिचेली, पचचेली, पचन्तीचेली। श्रेयसिचेली, श्रेयश्चेली, श्रेयसीचेली । पचन्तिगोत्रा, पचदगोत्रा, पचन्तीगोत्रा । श्रेयसिगोत्रा, श्रेयोगोत्रा, श्रेयसीगोत्रा । पचन्तिमता, पचन्मता, पचन्तीमता। श्रेयसि. मता, श्रेयोमता, श्रेयसीमता। पचन्तिहता, पचद्धता, पचन्तीहता । श्रेयसिहता, श्रेयोहता, श्रेयसीहता ॥३॥ यः । ३। २ । ६४। यन्तायाः परतः स्त्रियास्तरादिषु प्रत्ययेषु बुवादिषु चोत्तरपदेषु एकार्थे हृस्वः स्यात् । गौरितरा, गौरितमा, नर्तकिरूपा, कुमारिकल्पा, ब्राह्मणिब्रुवा, गार्गिचेली, ब्रा Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१७५] ह्मणिगोत्रा, गार्गिमता, गौरिहता ।। ६४ ॥ . __ भोगवत्-गौरिमतो म्नि। ३ । २ । ६५ । अनयोयन्तयोः संज्ञायां तरादिषु प्रत्ययेषु बुवादौ चोत्तरपदे एकार्थे ह्रस्वः स्यात् । भोगवतितरा, गौरिमतितमा, भौगवतिरूपा, गौरिमतिकल्पा, भोगवतिब्रुवा, गौरिमतिचेली, भोगवतिगोत्रा, गौरिमतिमता, भोगवतिहता । नाम्नीति किम् ? भोगवतितरा, भोगवत्तरा, भोगवतीतरा ॥६५॥ नवकस्वराणाम् । ३ । २। ६६ । एकस्वरस्य ड्यन्तस्य तरादौ प्रत्यये ब्रुवादौ चोत्तरपदे ध्येकार्थे वा हृस्वः स्यात् । स्त्रितरा, स्त्रीतरा । ज्ञितरा, ज्ञीतरा । ज्ञितमा, ज्ञीतमा । जिब्रवा, ज्ञीबुवा । एकस्वराणामिति किम् ? कुटीतराः ॥ ६६ ॥ ऊड: । ३।२।६७। । ऊङन्तस्य तरादौ चोत्तरपदे ख्येकार्थे वा हृस्वः स्यात्। ब्रह्मबन्धुतरा, ब्रह्मबन्धूतरा । कद्रुब्रुवा, कद्रूब्रुवा ॥६७ ।। महतः कर-घास-विशिष्टे डाः । ३। २ । ६८ ॥ करादावुत्तरपदे महतोडा वा स्यात् । महाकरः, महकरः। महाघासः, महद्घासः। महाविशिष्टः, महद्विशिष्टः॥६८ ॥ स्त्रियाम् । ३ । २ । ६९ । स्त्रीवृत्तेर्महतः करादावुत्तरपदे नित्यंडाः स्यात्। महाकरः, महाघासः, महाविशिष्टः ॥६९ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ [१७६] हैमशब्दानुशासनस्य जोतीयेकार्थेऽच्वेः।३।२७०। महतोऽच्च्यन्तस्य जातीयरि ऐकायें चोत्तदपदे डाः स्यात् । महाजातीयः, महावीरः। जातीयैकार्थ्य इति किम् ? महत्तरः । अच्वेरिति किम् ? महद्भता कन्या ॥ ७० ॥ न पुम्वनिषेधे । ३।२ । ७१ । महतः पुम्वनिषेधविषये उत्तरपदे डानस्यात्। महतीप्रियः ॥७१॥ इच्यस्वरे दीर्घआच्च । ३।२। ७२। .. इजन्तेऽस्वरादावुत्तरपदे पूर्वपदस्य दीर्घत्वं आच्च स्यात्। मुष्टीमुष्टि, मुष्टामुष्टि। अस्वर इति किम् ? अस्यसि ॥७२॥ हविष्यष्टनः कपाले। ३।२।७३। . हविष्यर्थे कपाले उत्तरपदेऽष्टनो दीर्घः स्यात् । अष्टाकपालं हविः। हविषीति किम् ? अष्टकपालम् । कपाल इति किम् ? अष्टपात्रं हविः ।। ७३॥ , गवि युक्ते । ३ । २ । ७४। युक्तेऽर्थे गव्युत्तरपदेऽष्टनो दीर्घः स्यात् । अष्टागवं शकटम् । युक्त इति किम् ? अष्टगुश्चैत्रः ॥ ७४ ।। नाम्नि । ३ । २ । ७५। अष्टन उत्तरपदे संज्ञायां दीर्घः स्यात् । अष्टापदः कैलाशः। नाम्नीति किम् ? अष्टदंष्ट्रः ॥ ७५ ॥ १ "प्रकारे जातीयर् " (.-२-७५) इति सूत्रेण जातीयरप्रत्ययः । महान् प्रकारोऽस्य स महाजातीयः, स्त्रियां तु महाजातीया । एवं पटुजातीयः । महाश्चासौ वीरश्च महावीर इत्येकार्थस्योदाहरणम् । महती कीर्तिरस्य स महाकीर्तिरित्याद्यपि वेद्यम् । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ १७७] कोटर मिश्रक-सिक-पुर-सारिकस्य वणे | ३|२|७६ | एषां कृतणत्वे वने उत्तरपदे संज्ञायां दीर्घः स्यात् । कोटरावणम्, मिश्रकावणम्, सिध्रकावणम्, पुरगावणम्, सारिकावणम् ।। ७६ ।। अञ्जनादीनां गिरौ । ३ । २ | ७७ | एषां गिरावुत्तरपदे नाम्नि दीर्घः स्यात् । अञ्जनागिरिः, कुक्कुटागिरिः ॥ ७७ ॥ अनजिरादिबहुस्वर - शरादीनां मतौ | ३ | २|७८| अजिरादिवर्जबहुस्वराणां शरादीनां च मतौ प्रत्यये नाम्नि दीर्घः स्यात् । उदुम्बरावती, शरावती, वंशावती । अनजिरादीति किम् ? अजिरवती, हिरण्यवती ॥ ७८ ॥ ऋषौ विश्वस्य मित्रे | ३ | २ | ७९ । ऋषावर्षे मित्रे उत्तरपदे विश्वस्य नाम्नि दीर्घः स्यात् । विश्वामित्रः ॥ ७९ ॥ नरे । ३ । २ । ८० | नरे उत्तरपदे नाम्नि विश्वस्य दीर्घः स्यात् । विश्वानरः कश्चित् ॥ ८० ॥ वसु-राटोः | ३ | २ | ८१ । अनयोरुत्तरपदयोर्विश्वस्य दीर्घः स्यात् । विश्वावसुः, विश्वराट् ॥ ८१ ॥ वलव्यपित्रादेः । ३ । २ । ८२ । वलच्प्रत्यये पित्रादिवर्णानां दीर्घः स्यात् । आसुतीवलः । अपित्रादेरिति किम् ? पितृवलः, मातृवलः ॥८२॥ २३ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य चितेः कचि । ३ । २ । ८३ | चितेः कचि दीर्घः स्यात् । एकचितीकः ॥ ८३ ॥ [१७८] स्वामिचिह्नस्याऽविष्टाऽष्ट-पञ्च-भिन्न-छिन्न-च्छिद्रस्रुव-स्वस्तिकस्य कर्णे । ३ । २ । ८४ | स्वामी चिह्नयते येन तद्वाचिनो विष्टादिवर्जस्य कर्णे उत्तरपदे दीर्घः स्यात् । दांत्राकर्णः पशुः । स्वामिचिह्नस्येति किम् ? लम्बकर्णः । विष्टादिवर्जनं किम् ? विष्टकर्णः, अष्टकर्णः ॥ ८४ ॥ गतिकारकस्य नहि वृति वृषि-व्याधि-रुचि -सहिनौ क्वौ । ३ । २ । ८५ । गतिकारकयोर्नद्यादौ क्कियन्ते उत्तरपदे दीर्घः स्यात् । उपानत्, नीवृत्, प्रावृ, श्वावित्, नीरुक्, ऋतीषट्, जलासद्, परीतत् ॥ ८५ ॥ घन्युपसर्गस्य बहुलम् । ३ । २ । ८६ । घञन्ते उत्तरपदे उपसर्गस्य बहुलं दीर्घः स्यात् । नीक्लेदः, नीवारः । बाहुलकात् क्वचिद्वा, प्रतीवेशः, प्रतिवेशः । क्वचिन्न, विषादः, निषादः ॥ ८६ ॥ नामिनः काशे । ३ । २ । ८७ । नाम्यन्तस्योपसर्गस्याजन्ते काशे उत्तरपदे दीर्घः स्यात् । नीकाशः, वीकाशः । नामिन इति किम् ? प्रकाशः 112011 १ दात्रं चिह्न कर्णे यस्य स पशुर्दात्राकर्णः । पञ्चकर्ण इत्यादिषु न दीर्घत्वं, तेषां विष्टादिमध्यगत्वात् । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१७९ ] दस्ति । ३ । २१८८। - दो यस्तादिरादेशस्तस्मिन् परे नाम्यन्तस्योपसर्गस्य दीर्घः स्यात् । नीतम्, वीतम् । द इति किम् ? वितीर्णम् । तीति किम् ? सुदत्तम् ।। ८८॥ अपील्वादेवहे । ३ । २ । ८९ । पील्वादिवर्जस्य नाम्यन्तस्य वहे उत्तदपदे दीर्घः स्यात् । ऋषीवहम्, मुनीवहम् । अपील्वादेरिति किम् ? पीलुबहम्, दारुवहम् ॥ ८९ ॥ शुनः । ३ । २ । ९०। अस्योत्तरपदे दीर्घः स्यात् । श्वादन्तः, श्वावराहम् ॥१०॥ एकादश-षोडश-षोडन-घोढा-षड्ढा । ३ । २ । ९१ । एकादयो दशादिषु कतदीर्घत्वादयो निपात्यन्ते । एकादश, षोडश, षदन्ता.अस्य षोडन् , षोढा, षडढा : ॥९१ ।। दियष्टानां दा-त्रयोऽष्टाः प्राक्शताद्, अनशीति बहुव्रीहौ । ३ । २ । ९२ । एषां यथासंख्यमेते प्राक्शतात् संख्यायामुत्तरपदे स्युः, नत्वशीती बहुव्रीहिविषये च। द्वादश, त्रयोविंशतिः, अष्टात्रिंशत् । प्राक्शतादिति किम् ? द्विशतम्, त्रिशतम्, अष्टसहस्रम् । अनशीतिबहुव्रीहाविति किम् ? द्वयशीतिः, द्वित्राः ॥९२ ॥ १ तकारादिरादेशः । २ षोडन्शब्दस्य षोडत् षोडन्तौ षोडन्तः । षोडता षोडद्भय-मिति पचद्वद्रूपाणि स्युः । स्त्रियां षोडतीत्यत्यस्य नदीवत् । धाप्रत्यये षोढा । षड्ढा इति तु षड् दधातीति ढे प्रत्यये सिध्यति । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८०] हैमशब्दानुशासनस्य चत्वारिंशदादौ वा । ३ । २ । ९३ । द्वित्यष्टानां प्राक्शताचत्वारिंशदादावुत्तरपदे यथासंख्यं द्वात्रयोऽष्टा वा स्युः, अनशीतिबहुव्रीहौ । द्वाच. त्वारिंशत्, द्विचत्वारिंशत् । त्रयश्चत्वारिंशत्, त्रिच. त्वारिंशत् । अष्टाचत्वारिंशत् , अष्टचत्वारिंशत् ॥ ९३ ॥ हृदयस्य हृत्, लास-लेखाऽण-ये । ३।२। ९४ । अस्य लासलेखयोरुत्तरपद्योरणि ये च प्रत्यये हृत् स्यात् । हृल्लासः, हृल्लेखः, हाईम्, हृद्यः ॥ ९४ ॥ .. पदः पादस्याऽज्याऽति-गोपहते । ३ । २।९५। पादस्याज्यादावुत्तरपदे पदः स्यात् । पदाजिः, पदातिः, पदगः, पदोपहतः ॥९५ ॥ हिम-हति-काषि-ये पद् । ३ । २ १९६। हिमादावुत्तरपदे ये च प्रत्यये पादस्य पद् स्यात् । पद्धिमम्, पद्धतिः, पत्काषी, पद्याः शर्कराः ॥ ९६ ॥ ऋचः शसि । ३ । ९७। ऋचां पादस्य शादौ शस्प्रत्यये पद स्यात् । पच्छो गायत्री शंसति । ऋच इति किम् ? पादशः श्लोकं वक्ति । द्विःशपाठात् स्यादिशसि न स्यात्, ऋचः पादान् पश्य ॥९७॥ शब्द-निष्क-घोष-मिश्रे वा । ३ । २ । ९८ । शब्दादावुत्तरपदे पादस्य पद् वा स्यात् । पच्छब्दः, १ पादाभ्यामजति, अतति, गच्छति, उपहत इति पदाजिः, पदातिः, पदगः पदोपहतः । २ पादौ विध्यन्ति पद्याः शर्कराः । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८१] हैमशब्दानुशासनस्य पादशब्दः । पन्निष्कः, पादनिष्कः। पद्घोषः, पादघोषः। पन्मिश्रः, पादमिश्रः ॥ ९८॥ नस नासिकायाः तः -क्षुद्रे । ३ । २ । ९९ । नासिकायास्तस्प्रत्यये क्षुद्रे चोत्तरपदे नस् स्यात् । नस्तः, नाक्षुद्रः ॥ ९९ ॥ . येऽवणे । ३ । २ । १००। नासिकाया ये प्रत्यये वर्णादन्यत्रार्थे नस् स्यात् । नस्यम् । य इति किम् ? नासिक्यं पुरम् । अवर्ण इति किम् ? नासिक्यो वर्णः ॥१०० ॥ शिरसः शीर्षन । ३ । २ । १०१। शिरसो ये प्रत्यये शीर्षन् स्यात् । शीर्षण्यः स्वरः, शीर्षण्यं तैलम् । य इत्येव ? शिरस्तः, शिरस्यति ॥१०१॥ __केशे वा।३ । २ । १०२ । शिरसः केशविषये ये प्रत्यये शीर्षन वा स्यात् । शीर्षण्याः, शिरस्याः केशाः ॥१०२ ।। शीर्षः स्वरे तद्धिते । ३ । २ । १०३ । शिरसः स्वरादौ तद्धिते शीर्षः स्यात् । हास्तिशीर्षिः शीर्षिकः ॥ १०३॥ उदकस्योदः पेषं-धि-वास-वाहने । ३ । २ । १०४ । उदकस्य पेषमादावुत्तरपदे उदः स्यात् । उदपेषं पिनष्टि, उदधिर्घटः, उदवासः उदवाहनः ॥१०४॥ वैकव्यञ्जने पूर्ये । ३ । २ । १०५ । उदकस्यासंयुक्तव्यञ्जनादौ पूर्यमाणार्थे उत्तरपदे उदो Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१८२] वा स्यात् । उदकुम्भः, उदककुम्भः। व्यञ्जन इति किम् ? उदकामत्रम् । एकेति किम् ? उदकस्थालम् । पूर्य इति किम् ? उदकदेशः ॥ १०५ ॥ मन्थौदन-सक्तु-बिन्दु-वज्र-भार-हार-वीवध गाहे वा।३ । २। १०६ । एत्तरपदेषु उदकस्योदो वा स्यात् । उदमन्थः, उदकमन्थः । उदौदनः, उदकोदनः । उदसक्तः, उदकसक्तुः । उदबिन्दुः, उदकविन्दुः । उदवज्रः, उदकवत्रः, । उदभारः, उदकभारः । उदहारः, उदकहारः । उदवीवधः, उदकवीवधः । उदगाहः, उदकगाहः ॥ १०६॥ नाम्न्युत्तरपदस्य च । ३ । २ । १०७ । उदकस्य पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च संज्ञायामुदः स्यात् । उदमेघः, उदवाहः, उदपानम्, उदधिः, लवणोदः, का. लोदः ॥ १०७॥ तेलुग्वा । ३ । २ । १०८।। संज्ञाविषये पूर्वोत्तरपदे लुग् वा स्यात् । देवदत्तः, देवः, दत्तः ॥ १०८ ॥ व्यन्तरनवर्णोपसर्गादप ईए । ३ । २ । १०९ । द्वयन्तभ्यामवर्णान्तव|पसर्गेभ्यश्च परस्याप उत्तरपदस्य ईपू स्यात् ।द्वीपम्, अन्तरीपम्, नीपम्, समीपम् । १ नाम्नि पूर्वोत्तरपदे लुग् वा स्तः । यथा देवदत्त इत्यस्य ‘देव इत्युक्ते, दत्त इन्युस्ते वा देवदत्तविषयकप्रकरगादर्थविशेषस्य बोधो भवति । एवं भर्तृ वा हरिर्वा भर्तृहरिर्वा, सत्या वा भाना वेत्युक्तेऽपि भर्तृहरि-सत्यभामार्थबोधः स्यात् । २ द्विधा गता आगोऽस्तित् इति द्वोपम् । एवमन्तरीपम् जलमध्यस्थलम् । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१८३] उपसर्गादिति किम् ? स्वापः । अनवर्णेति किम् ? प्रापम्, परापम् ॥ १०९॥ अनोर्देशे उए । ३ । २ । ११०। अनोः परस्यापो देशेऽर्थे उप् स्यात् । अनूपो देशः। देश इति किम् ? अन्वीपं वनम् ॥ ११० ॥ खित्यनव्ययाऽरुषो मोऽन्तो हस्वश्च ।३।२।१११। स्वरान्तस्यानव्ययस्यारुषश्च खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे मोऽन्तो यथासम्भवं हस्वादेशश्च स्यात् । शंमन्यः, कालिंमन्या, अरुन्तुदः । खितीति किम् ? ज्ञमानी । अनव्ययस्येति किम् ? दोषामन्यमहः ॥ १११॥.... सत्यागदाऽस्तोः कारे।३ । २ ११२। एभ्यः कारे उत्तरपदे मोऽन्तः स्यात् । सत्यङ्कारः, अगदङ्कारः, अस्तुङ्कारः ॥ ११२ ॥ लोकम्पृण-मध्यन्दिनाऽनभ्याशमित्यम् ।३।२।११३। एते कृतपूर्वपदमोऽन्ता निपात्यन्ते । लोकम्पृणः मध्यन्दिनम्, अनभ्याशमित्यः ॥ ११३ ॥ ... भ्राष्ट्राग्नेरिन्धे । ३ । २ । ११४ । - आभ्यामिन्धे उत्तरपदे मोऽन्तः स्यात् । भ्राट्मिन्धः अग्निमिन्धः॥ ११४ ॥ - अगिलाद गिल-गिलगिलयोः।३।२।११५। . गिलान्तवर्जात् पूर्वपदात् परे गिले गिलगिले चोत्तरपदे मोऽन्तः स्यात् । तिमिङ्गिलः, तिमिङ्गिलगिलः । अ. गिलादिति किम् ? तिमिङ्गिलगिलः ॥ ११५॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८४] हैमशब्दानुशासनस्य भद्रोष्णात करणे । ३ । २ । ११६ । आभ्यां परः करणे उत्तरपदे मोऽन्तः स्यात । भद्रंकरणम्, उष्णंकरणम् ॥ ११६ ॥ नवाखित् कृदन्ते रात्रे | ३ | २ | ११७ । खिर्जे कृदन्ते उत्तरपदे परे रार्मोऽन्तो वा स्यात् । रात्रिश्चरः, रात्रिचरः । खिद्वर्जनमिति किम् ? रात्रिमन्यमहः । कृदन्त इति किम् ? रात्रिसुखम् । अन्तग्रहणं किम् ? रात्रयिता ॥ ११७॥ धेनोमव्यायाम । ३ । २ । ११८।। धेनो व्यायामुत्तरपदे मोऽन्तो वा स्यात् । धेनुम्भव्या, धेनुभव्या ॥ ११८ ॥ अषष्ठीतृतीयादन्याद् दोऽर्थे । ३ । २ । ११९ । __ अषष्ठयन्ताद् अतृतीयान्ताचान्यादर्थे उत्तरपदे दू अन्तो वा स्यात् । अन्यदर्थः अन्याः । षष्ठयादिवर्जनं किम् ? अन्यस्यान्येन वाऽर्थोऽन्यार्थः ।। ११९ ॥ आशाराशाऽऽस्थिताऽऽस्थात्सुकोतिरागे ।३।२।१२०॥ एषूत्तरपदेषु अषष्ठीतृतीयादन्याद् द् अन्तः स्यात् । अन्यदाशीः, अन्यदाशा, अन्यदास्थितः, अन्यदास्था, अन्यदुत्सुकः, अन्यदूतिः, अन्यद्रागः । अषष्ठीतृतीयादित्येव ? अन्यस्य अन्येन वा आशीः अन्याशीः ।।१२० ॥ ईयकारके । ३ । २ । १२१ । __ अन्याद ईये प्रत्यये कारके चोत्तरपदे दोऽन्तः स्यात् । अन्यदीयः अन्यत्कारकः ॥१२१॥ . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१८५] सर्वादि-विश्वग्-देवाद् डदिःकयञ्चौ । ३ । २ । १२२ । सर्वादेर्विष्वग्देवाभ्यां च परतः क्विषन्ते अश्वावुत्तरपदे डदिरन्तः स्यात् । सर्वद्रीचः, द्वयद्रयङ्, कद्रयङ्, विष्वद्रयङ्, देवद्रयङ्, । क्वीति किम् ? विष्वगंचनम् ॥१२२ ॥ सह-समः सध्रि-समि । ३ । २ । १२३ । अनयोः स्थाने क्विषन्ते अश्चाबुत्तरपदे यथासंख्यं सधिसमी स्याताम् । सध्यङ्, सम्यङ् । क्वयश्चावित्येव ? सहाश्चनम् ॥ १२३ ॥ तिरसस्तियति । ३ । २ । १२४ । अकारादौ क्विवन्तेऽश्चावुत्तरपदे तिरसस्तिरिः स्यात् । तिर्य । अतीति किम् ? तिरथः ॥ १२४ ॥ नञ् अत् । ३ । २ । १२५ । उत्तरपदेपरेनञ् अस्यात्। अचौरः पन्थाः। उत्तरपद इत्येव ? न भुङ्क्ते ॥ १२५॥ त्यादौ क्षेपे । ३ । २ । १२६ । त्याद्यन्ते पदे परे निन्दायां गम्यमानायां नञ् अः स्यात् । अपचसि त्वं जाल्म ! ।क्षेप इति किम् ? न पचति चैत्रः ॥ १२६ ॥ नगोऽप्राणिनि वा । ३ । २ । १२७ । अप्राणिन्यर्थे नगो वा निपात्यते । नगः, अगो गिरिः। अप्राणिनीति किम् ? अगोऽयं शीतेन ॥१२७॥ १ सर्वमञ्चतीति सर्वव्यङ्, द्वितीयाबहुवचनं सर्वदीचः तिर्यङ्घदूपाणि स्युः। डित्वादिलोपः। स्त्रीयां तु सर्वद्रोची, रूपाणि तु तिरश्चीवत् । २४ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८६] हैमशब्दानुशासनस्य _ नखादयः । ३।२। १२८ एते अकृताकाराद्यादेशा निपात्यन्ते । नखः, नासत्यः ॥१२८॥ अन् स्वरे । ३ । २ । १२९ । स्वरादावुत्तरपदे नञोऽन् स्यात् । अनन्तो जिनः ॥ १२९॥ कोः कत्तत्पुरुषे । ३।२।१३०। .. स्वरादाबुत्तरपदे कोस्तत्पुरुषे कद् स्यात् । कदश्वः । तत्पुरुष इति किम् ? कूष्ट्रो देशः। स्वर इत्येव ? कुब्राह्मण ॥१३०॥ स्थ वदे । ३ । २ । १३१॥ रथे वदे चोत्तरपदे कोः कद् स्यात् । कद्रथः, कद्वदः ॥१३१॥ तृणे जातौ । ३ । २ । १३२॥ जातावर्थे तृणे उत्तरपदे कोः कद् स्यात् । कत्तृणा रोहिषाख्या तृणजातिः ॥ १३२ ॥ कत्त्रिः । ३।२ । १३३।। कोः किमो वा त्राबुत्तरपदे कद् स्यात्। कत्त्रयः॥१३३॥ काऽक्ष-पथोः । ३ । २ । १३४ । अनयोरुत्तरपदयोः कोः का स्यात् । काऽक्षः, कापथम् ॥१३४॥ पुरुषे वा । ३ । २ । १३५। पुरुषे उत्तरपदे कोः का वास्यात्। कापुरुषः, कुपुरुषः॥१३५॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१८७] अल्पे । ३ । २ । १३६ । ईषदर्थस्य कोरुत्तरपदे का स्यात्। कामधुरम्, काऽच्छम् ॥ १३६ ॥ का-कवौ वोष्णे । ३ । २ । १३७ । उष्णे उत्तरपदे कोः काकवौ वा स्याताम् । कोष्णम्, कवोष्णम् । पक्षे यथाप्राप्तमिति । तत्पुरुषे, कदुष्णम् । बहुव्रीही, कूष्णो देशः ।। १३७ ॥ कृत्येऽवश्यमो लुक् । ३ । २ । १३८ । कृत्यान्ते उत्तरपदेऽवश्यमो लुक् स्यात् । अवश्यकार्यम् । कृत्य इति किम् ? अवश्यं लावकः ।। १३८॥ समः तत-हिते वा । ३ । २ । १३९ । तते हिते चोत्तरपदे समो लुग् वा स्यात् । सततम्, सन्ततम् । सहितम्, संहितम् ॥ १३९ ॥ - तुमश्च मनः कामे । ३ । २ । १४०। तुम्समोर्मनसि कामे चोत्तरपदे लुक् स्यात् । भोक्तु. मनाः, गन्तुकामः समनाः, सकामः ॥ १४० ॥ मांसस्यानड्-घत्रि पचि नवा । ३ । २।१४१ । अनड्घजन्ते पचावुत्तरपदे मांसस्य लुग् वा स्यात् । मांस्पचनम् , मांसपचनम् । मांस्पाकः, मांसपाकः ॥१४१॥ दिक्शब्दात् तीरस्य तारः । ३ । २ । १४२ । अस्मात् परस्य तीरस्योत्तरपदस्य तारो वा स्यात् । दक्षिणतारम्, दक्षिणतीरम् ॥ १४२ ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८८] हैमशब्दानुशासनस्य सहस्य सोऽन्यार्थे । ३ । २ । १४३ । उत्तरपदे परे बहुव्रीही सहस्य सो वा स्यात् । सपुत्रः, सहपुत्रः । अन्यार्थ इति किम् ? सहजः ॥ १४३ ॥ नाम्नि । ३ । २ । १४४ । उत्तरपदे परे बहुव्रीही सहस्य सः संज्ञायां स्यात् । साश्वत्थं वनम् । अन्यार्थ इत्येव ? सहदेवः कुरुः ॥१४४॥ अदृश्याधिके । ३ । २ । १४५। अदृश्यं परोक्षम् , अधिकमधिरूढं तदर्थयोरुत्तरपदयो बहुव्रीही सहस्य सः स्यात् । साग्निः कपोतः, सद्रोणा खारी ॥ १४५ ॥ अकालेऽव्ययीभावे । ३।२ । १४६ । अकालवाचिन्युत्तरपदे सहस्याव्ययीभावे सः स्यात्। सब्रह्म साधूनाम् । अकाल इति किम् ? सहपूर्वाणं शेते। अव्ययीभाव इति किम् ? सहयुध्वा ।। १४६ ॥ ग्रन्थाऽन्ते । ३।२।१४७ एतद्वाच्युत्तरपदे सहस्याव्ययीभावेसः स्यात्। सकलं ज्योतिषमधीते ॥ १४७ ॥ नाऽऽशिष्यगो-वत्स-हले । ३ ।२।१४८/ गवादिवर्जे उत्तरपदे आशिषि गम्यायां सहस्य सो न स्यात्। स्वस्ति गुरवे सहशिष्याय। आशिषीति किम् ? सपुत्रः।गवादिवर्जनं किम् ?स्वस्ति तुभ्यं सगवे, सहगवे। सवत्माय, सहवत्साय। सहलाय, सहहलाय ॥१४८॥ समानस्य धर्माऽऽदिषु । ३ । २ । १४९।। धमादीवुत्तरपदे समानस्य सः स्यात् । सधर्मा, सनामा ॥ १४९ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१८९] सब्रह्मचारी । ३ । २ । १५०। अयं निपात्यते ॥ १५० ॥ हक-दृश-दक्षे ।३।२।१५१ एषत्तरपदेषु समानस्य सः स्यात् । सहक् सहशः, सहक्षः ॥ १५१॥ अन्य-त्यदादेराः । ३।२।१५२ । अन्यस्य त्यदादेश्व दृगादावुत्तरपदे आः स्यात् । अन्या दृक्, अन्यादृशः, अन्यादृक्षः। त्याहा, त्यादृशः, त्यादृक्षः। अस्माकू, अस्मादृशः, अस्माक्षः ॥१५२ ॥ इदम्-किम इत्-की।३। २ । १५३ । दृगादावुत्तरपदे इदम्-किमो यथासङ्ख्यमीत्कीरूपी स्याताम् । ईदृक्,ईदृशः ईदृक्षः। कीदृक् कीदृशः,कीहक्ष।१५३। ___ अनः क्त्वो यम् । ३।२। १५४ । नमोऽन्यस्मादव्ययात् पूर्वपदात् परं यदुत्तरपदंतवयवस्य क्त्वो यप् स्यात् ।प्रकृत्य। अनज इति किम् ?अकृत्वा, परमकृत्वा । उत्तरपदस्येत्येव ? अलंकृत्वा ॥१५४ ॥ __ पृषोदरादयः। ३ । २ । १५५।। एते साधवः स्युः । पृषोदरः, बलाहकः ॥ १५५ ॥ वा-अवाऽप्योः तनि-क्रीधाग्-नहोर्व-पी।३।२।१५६) अवस्योपसर्गस्य तनिक्रियोरपेश्च धाग्नहोर्यथासङ्ख्यं व-पी वा स्याताम् । वतंसः, अवतंसः।वक्रयः, अवक्रयः। पिहितम्, अपिहितम् । पिनद्धम्, अपिनद्धम् ॥ १५६॥ . इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ॥३॥२॥ ॥ इति समास प्रकरणम् ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयः पादः॥ [अथाऽख्यात प्रकरणम् ] वृद्धिराऽऽरैदौत् । ३ । ३ । १ । आ आर् ऐ औ एते प्रत्येकं वृद्धिः स्युः । मार्टि, कार्यम्, नायकः औपगवः ॥ १ ॥ गुणोऽरेदोत् । ३ । ३ । २। आर् एत् ओत् एते प्रत्येकं गुणः स्युः । कर्ता, चेता, स्तोता ॥२॥ क्रियाऽर्थो धातुः । ३॥ ३ ॥३॥ कृतिः क्रिया पूर्वापरीभूता, सार्थो यस्य स धातुः स्यात् । भवति, अत्ति, गोपायति, जुगुप्सते, पोपच्यते, पुत्रकाम्यति, मुण्डयति, जवनः ॥३॥ , न प्रादिरप्रत्ययः । ३ । ३ । ४ । प्रादिर्धातोरवयवो न स्यात्, ततःपर एव धातुरित्यर्थः, न चेत्ततः परः प्रत्ययः । अभ्यमनायत, प्रासादीयत् । प्रादिरिति किम् ? अमहापुत्रीयत् । अप्रत्यय इति किम् ? ओत्सुकायत ॥४॥ अवौ दा-धौ दा । ३ । ३ । ५। दाधारूपौ धातू अवितौ दो स्याताम् । दाम्, प्रणि इदं यङन्तोदाहरणम् पुत्रकाम्यतीति नामधातोः. जवन इति कृदन्तस्योदाहरणम्, भ्वादीनां गणानां, णिगन्तादिप्रक्रियान्तानामपि च धातुत्वमस्ति । २ 'व्' इत्यनुबन्धवन्तौ धातू वितौ स्तः, तौ वर्जयित्वा दासज्ञौ भवतः। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१९१] दाता । देङ्, प्रणिदयते । डुदांग्, प्रणिददाति । दो प्रणिद्यति । धे, प्रणिधयति । डुधांग् प्रणिदधाति । अवाविति किम् ? दांव, दातं बर्हिः । देव , अवदातं मुखम् ॥५॥ वर्तमाना 'ति-तम-अन्ति, सिव्-थर-थ, मित्वस्-मस् । ते-आते-अन्ते, से-आथेवे, ए-वहे महे . ।३ । ३ । ६। इमानि वचनानि वर्तमाना स्युः ॥ ६ ॥ *सप्तमी-यात्-याताम्-युस्, यास्-यातम्-यात, याम-याव-याम । इत-इयाताम्-इरन् , इथास-ईयाथाम् ईध्वम्, ईय-ईवहि-ईमहि। ३।३।७। इमानि वचनानि सप्तमी स्युः ॥ ७॥ 'पञ्चमी-तु-ताम्-अन्तु, हि-तम्-त, आनिव-आवद्आमव् । ताम-आताम्-अन्ताम्, स्व-आथाम्-ध्वम् , ऐव-आवहैव्-आमहैन् । ३ । ३ । ८ । - इमानि वचनानि पञ्चमी स्युः ॥ ८॥ १ तिवादिषु वित्करणं शि दवित् " (है० ४-३-२० ) इत्यत्र विशेषणार्थम् । "स्मे घ वर्तमाना" (५-२-१६) इत्येवमादीनि वर्तमानास्थानानि स्युः। ... २ तिवादिप्रत्ययानां वर्तमाना इति सज्ञाऽत्र क्रियते, एवं यादादीनां सप्तमी, इत्येवमन्यत्राऽपि । पाणिनीयसिद्धान्तचन्द्रिकासारस्वतसिद्धान्तरनिकादिव्याकरणेषु तु वर्तमानाया लट, सप्तम्या लिङ्, पञ्चम्या लोट, ह्यस्तन्यो लङ्, अद्यतन्या लुङ्, परोक्षाया लिट्, जाशिषो लिङ्, श्वस्तन्या लुट् , भविष्यन्त्या लूट, क्रियातिपत्तेर्लुङ् इति सञ्ज्ञा वर्तन्ते । ३ "इच्छाथै कर्मणः सप्तमी" इति सप्तमीप्रदेशाः । विधिसंभावनयोः। ४ "स्मे पञ्चमी" (५-४-३१) इत्यादयोऽस्याः प्रदेशाः सन्ति । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९२] हैमशब्दानुशासनस्य 'ह्यस्तनी-दिव्-ताम्-अन् , सिव्-तम्-त, अम्व्-व-म । त-आताम्-अन्त,थासू-आथाम्-ध्वम्, इ-वहि महि ।३ । ३।९। इमानि वचनाजि यस्तनी स्युः॥९॥ एताः शितः । ३।३।१०। एताश्चतस्राशितो ज्ञेयाः। भवति,भवेत् ,भवतु, अभवत्।१०। अद्यतनी-दि-ताम्-अन्, सि-तम्-त, अम्-व-म । त-आताम्-अन्त, थासू-आथाम्-ध्वम्, इ-चहि महि । ३।३।११।। इमानि वचनानि अद्यतनी स्यु ॥११॥.. परोक्षा-गव-अतुस्-उम् , थवू-अथुस-अ, ण-व-म । ए-आते-इरे, से-आथे-श्वे,एचहे-महे । ३ । ३ । १२ । इमानि वचनानि परोक्षा स्युः ॥१२॥ आशीः-क्यात् क्यास्ताम-क्यासुस्,क्यास्-क्यास्तम् क्यास्त, क्यासम् क्यास्व-क्यास्म । सीष्ट-सीयास्ताम्सीरन्, सीष्ठासू-सीयास्थाम-सीध्वम् , सीय-सीवहि भस्याः प्रदेशास्तु "अनद्यतने ह्यस्तनी" (५-२-७) इत्येवमादयः । एवं " अद्यतनी " (५-२-४) इत्यद्यतन्याः, "श्रुपदवस्भ्यः परोक्षा वा" (५-२-१ ) इति परोक्षायाः “ आशिष्याशीःपञ्चम्यौ " (५-४-३८ ) इत्याशिषः, “ अनयतने श्वस्तनी" (५-३-५) इति श्वस्तन्याः, “मविष्यन्ती" (५-३-४) इति भविष्यन्त्याः। क्रियातिपत्तेः "सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तौ क्रियासिपत्तिः" (५-४-९) इत्यादयः प्रदेशा ज्ञेयाः । २ मत्र किरकरणं " नामिनो गुणोऽक्छिति " (४-३-१) इत्यादिषु विशेषणार्थम् । कित्त्वाद् वृद्धिगुणौ न भवतः । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनलघुत्तिः [१९३] सीमहि । ३ । ३ । १३ । इमानि वचनानि आशीः स्युः ॥ १३ ॥ श्वस्तनी-ता-तारौ-तारस्, तासि-तास्थस्-तास्थ, तास्मित्तास्वस्न्तास्मस् । ता-तारौ तारम्, तासेतासाथे-ताध्ये, ताहे-तास्वहे-तास्महे ।३।३।१४। इमानि वचनानि श्वस्तनी स्युः ॥ १४ ॥ भविष्यन्ती-स्यति-स्यतस्-स्यन्ति, स्यसि स्यथस् स्यथ, स्यामि-स्यावस्-स्यामस् । स्यते-स्येतेस्यन्ते, स्यसे स्येथे-स्यध्वे, स्ये-स्यावहे-स्या . महे । ३ । ३ । १५। इमानि क्चनानि भविष्यन्ती स्युः ॥१५॥ क्रियातिपत्तिः-स्यत्-स्याताम्-स्यन, स्यस-स्यतम्-स्यत, स्यम्-स्याव-स्याम । स्यत-स्येताम्-स्यन्त, स्यथास् स्येथाम-स्यध्वम्, स्ये-स्यावहि-स्यामहि ।३।३।१६। इमानि वचनानि क्रियातिपत्तिः स्युः ॥ १६ ॥ त्रीणि त्रीण्यन्य'-युष्मदस्मदि ।३।३।१७) १ पाणिनीयादिसज्ञया प्रथमपुरुषे तच्छन्दवाच्ये इत्यर्थः, यथा स गच्छतीत्यादि । अन्यार्थादीनां द्वयोस्त्रयाणां वा यदा युगपत् प्रयोगस्तदा परार्थमपेक्ष्यैव प्रत्ययाः प्रयोक्तव्याः, यथा त्वं च स च पचवः, इत्यत्र सूत्रोक्तमतो युष्मदर्थः परः (पश्चाद्भूतः) अस्ति, अत एव थस्प्रत्ययः, एवं त्वं चाहं च स च पचामः इत्यादिषु सूत्रोतक्रमापेक्षयैव प्रयोगः कार्यः, न तु प्रयोगक्रमतः, अन्यथात्वं च स च भवतः, इतिप्रयोगो भवेत् , स च दुष्टः। यत्र भवच्छब्दस्त्वमर्थे स्यात्तदाऽन्यार्थक प्रथमं प्रत्ययत्रिकं प्रयोकव्यम् , यथा-भवान् गच्छति पचति भवति वेति । स्त्रियां तु भवती गच्छति इत्यादि । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९४] हैमशब्दानुशासनस्य सर्वासां विभक्तीनां त्रीणि त्रीणि वचनानि अन्यस्मिन्नर्थे युष्मदर्थेऽस्मदर्थे च वाच्ये यथाक्रमं स्युः । स पचति, तौ पचतः ते पचन्ति । पचते, पचेते, पचन्ते । त्वं पचसि, युवां पचथः, यूयं पचथ । पचसे, पचेथे, पचध्वे । अहं पचामि, आवां पचावः, वयं पचामः । पचे, पचावहे, पचामहे । एवं सर्वासु द्वययोगे त्रययोगे च पराश्रयमेव वचनम् । स च त्वं च पचथः, स च त्वं च अहंच पचामः ॥ १७॥ एक द्वि- बहुषु | ३ | ३ | १८ | अन्यादिषु यानि त्रीणि त्रीण्युक्तानि तान्येकद्विबहुष्वर्थेषु यथासङ्ख्यं स्युः । स पचति, तौ पचतः ते पचन्तीत्यादि ॥ १८ ॥ नवाऽऽद्यानि 'शतृ-क्वसू च परस्मैपदम् | ३ | ३|१९| सर्वविभक्तीनामाद्यानि नव नव वचनानि शतृक्वसू च परस्मैपदानि स्युः । तिव्, तस्, अन्ति । सिव् थ। मिवू, वसू, मस् । एवं सर्वासु ॥ १९ ॥ पराणि कानानशौ चाऽऽत्मनेपदम् | ३ | ३ | २० | थस्, सर्वविभक्तीनां पराणि नव नव वचनानि कानानशौ चाऽऽत्मनेपद (नि स्युः । ते, आते, अन्ते । से, आथे, ध्वे । ए, वहे, महे । एवं सर्वासु ॥ २० ॥ तत् साप्यानाप्यात् कर्मभावे, कृत्य-क्त - खलर्थाश्च । ३ । ३ । २१ । तत् आत्मनेपदं कृत्यक्तखलर्थाश्च प्रत्ययाः सकर्मकाद्धातोः कर्म्मणि अकर्मकादविवक्षितकर्मकाच्च भावे स्युः । क्रियते १ शतृक्वसू, कानानशौ च कृत्प्रत्ययाः सन्ति । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१९५] कटश्चैत्रेण, चक्राणः, क्रियमाणः, भूयते त्वया, भूयमानम्, क्रियते, मृदु पच्यते, कार्यः, कर्तव्यः, करणीयः, देया, कृत्यः कटस्त्वया, शयितव्यम्, शयनीयम्, शेयम्, का. र्यम्, कर्तव्यम्, करणीयम्, देयम्, कृत्यम्, त्वया कृतः कटः, शयितम्, कृतं त्वया, सुकरः कटस्त्वया, सुशयं, सुकरं त्वया, सुकटंकराणि वीरणानि, ईषदाढ्यम्भवं भवता, सुज्ञानं तत्त्वं मुनिना, सुग्लानं दीनेन, मास आस्यते, मासमास्यते ॥२१॥ ____ इङितः कर्तरि । ३ । ३ । २२। इदितो ङितश्च धातोः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । एधते, एधमाना, शेते,शयानः ॥२२॥ क्रियाव्यतिहारेऽगति-हिंसा-शब्दार्थ-हसो हु-बह श्वाऽनन्योऽन्यार्थे । ३ । ३ । २३ । अन्यचिकीर्षितायाः क्रियाया अन्येन हरणं करणं क्रियाव्यतिहारः, तदर्थाद् गतिहिंसाशब्दार्थहस्वर्जाधातोहवहिभ्यां च कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । न त्वन्योऽन्येतरेतर-परस्परशब्दयोगे । व्यतिलुनते, व्यतिहरन्ते, व्यतिवह'न्ते भारम् । क्रियेति किम् ? द्रव्यव्यतिहारे मा भूत् , चैत्रस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति। गत्यर्थादिवर्जनं किम् ? व्यतिसर्पन्ति, व्यतिहिंसन्ति, व्यतिजल्पन्ति, व्यतिहसन्ति । अनन्योऽन्यार्थ इति किम् ? परस्परस्य व्यतिलुनन्ति । कर्तरीत्येव ? तेन भावकर्मणोः पूर्वेणैव गत्यर्थादिभ्योऽपि स्यात्, व्यतिगम्यन्ते ग्रामाः ॥२३॥ . १ एधते इति इदित एधिधातोः शयते इति डकारेतः शीधातोरुदाहरणम्। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९६] हेमशब्दानुशासनस्य निविशः । ३ । ३ । २४ । नेर्विशः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । निविशते ॥ २४ ॥ उपसर्गाद् अस्योहो वा | ३ | ३ | २५ | उपसर्गात् पराभ्यामस्यत्यहिभ्यां कर्त्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । विपर्यस्य विपर्यस्यति । समूहते, समूहति ॥ २५॥ - उत्-स्वराद् युजेरयज्ञतत्पात्रे | ३ | ३ । २६ । उदः स्वरान्ताचोपसर्गात् पराद् युनक्तेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात्, न चेद् यज्ञे यत्तत्पात्रं तद्विषयो युज्यर्थः स्यात् । उद्युक्ते, उपयुङ्क्ते । उत्स्वरादिति किम् ? संयुनक्ति । अयज्ञतत्पात्र इति किम् ? द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति • ॥ २६ ॥ परि व्यवात् क्रियः | ३ | ३ | २७ | एभ्य उपसर्गेभ्यः परात् क्रीणातेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । परिक्रीणीते, विक्रीणीते, अवक्रीणीते । उपसर्गादित्येव ? उपरिक्रीणाति ॥ २७ ॥ परा-वेर्जेः | ३ | ३ | २८| आभ्यां परादू जयतेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । पराजयते, विजयते । उपसर्गाभ्यामित्येव : बहुवि जयति वनम् ॥ २८ ॥ समः क्ष्णोः | ३ | ३ । २९ । समः परात् क्ष्णौतेः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संक्ष्णुते शस्त्रम् । सम इति किम् १ क्ष्णौति । उपसर्गादित्येव ? आयसं क्ष्णौति ॥ २९ ॥ १ बहवो वयः - पक्षिणो यत्र तक बहुवि बनम् । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१९७] अपस्किरः । ३ । ३ । ३० । अपात् किरतेः सस्सद्कात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अपस्किरते वृषभो हृष्टः। सस्सनिर्देशः किम् ? अप किरति । अपेति किम् ? उपस्किरति ॥३०॥ ... उदश्वरः साऽऽप्यात् । ३ । ३ । ३१ ।। उत्पूर्वाचरेः सकर्मकात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्।मार्गमु. चरते । साऽऽप्यादिति किम् ? धूम उच्चरति ॥३१॥ समस्तृतीयया । ३ । ३ । ३२ । सम्पूर्वाच्चरेस्तृतीयान्तेन योगेकर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अश्वने सञ्चरते । तृतीययेति किम् ? उभौ लोको सञ्चरसि ॥३२॥ . क्रीडोऽकूजने । ३ । ३ । ३३ । कूजनमव्यक्तः शब्दः, ततोऽन्यार्थात् संपूर्वात् क्रीडतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संक्रीडते । सम इत्येव ? क्रीडति। अकूजन इति किम् ? संक्रीडन्त्यनांसि ॥ ३३ ॥ अन्वाङ्-परेः । ३ । ३ । ३४ । एभ्यः परात् क्रीडतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अनुक्रीडते, आक्रीडते, परिक्रीडते ॥ ३४ ॥ शप उपलम्भने । ३।३।३५ । . उपलम्भनं प्रकाशनं शपथो वा, तदर्थाच्छपतेः कर्तत्मिनेपदं स्यात् । मैत्राय शपते। उपलम्भन इति किम् ? मैत्रं शपति ॥ ३५॥ १ अपात् चतुष्पातपक्षि.. .......” (है• ४-४-९५) सूत्रात् स्वत्प्रत्ययः, तासहितात् किरवेरात्मनेपदं स्यात् । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९८] हैमशब्दानुशासनस्य ___ आशिषि नाथः । ३ । ३ । ३६ । ___ आशीरादेव नाथेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । सपिषो नाथते । आशिषीति किम् ? मधु नाथति ॥ ३६॥ भुनजोत्राणे ।३।३।३७। पालनादन्यार्थाद् भुनक्तेः कर्तर्यात्मनेपदंस्यात्। ओदनं भुङ्क्ते । भुनज इति किम् ? ओष्ठौ निर्भुजति । अत्राण इति किम् ? पृथ्वीं भुनक्ति ॥ ३७॥ हगों गतताच्छील्ये । ३ । ३ । ३८ । गतं सादृश्य, हृगोगतताच्छील्यार्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। पैत्रकमश्वा अनुहरन्ते, पितुरनुहरन्ते । गत इति किम् ? पितुर्हरति चोरयतीत्यर्थः। ताच्छील्यादिति किम् ? नटो राममनुहरति ॥ ३८ ॥ पूजाऽऽचार्यक-भृत्युत्क्षेप ज्ञान-विगणन-व्यये नियः । ३ । ३ । ३९। पूजादिषु गम्येषु नियः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। नयते विद्वान् स्याद्वादे, माणवकमुपनयते, कर्मकरानुपयते, शिशुमुदानयते,नयते तत्त्वार्थे, मद्राः कारं विनयन्ते, शतं १नाङ धातुरुपतापैश्वर्याऽऽशीर्याचनार्थेषु वर्तते तत्राऽऽशिष्येवार्थे आत्मनेपदं भवति । 'सप्पिषो नाथते' सर्पिर्मे भूयादित्याशास्ते इत्यर्थः । २ 'भुजीत्' कोटिल्ये ( हैमधातुपाटः ) इत्यस्य रूपम् । ३ पूजा-सन्मानः । 'नयते विद्वान् स्याद्वादे' ' पण्डितः स्याद्वादे. जीवादीन् पदार्थान् युक्तिभिर्निश्चित्य शिष्यबुद्धिं प्रापयति, ते च बोधिताः सन्तो भुवि पूजिता भवन्तीत्यस्य तात्पर्यम् । आचार्यस्य भावः कर्म वाऽऽचार्यकम् । भतिवेतनम् । विगणनमृणादेः शोधनम् । व्ययो धर्मादिपु विनियोगः। . Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [१९९] विनयते । एष्विति किम् ? अजां नयति ग्रामम् ॥ ३९ ॥ कर्तृस्थामूर्ताऽऽप्यात् । ३ । ३ । ४०। कतृस्थममूर्त कर्म यस्य तस्मानिया कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । श्रमं विनयते । कर्तृस्थेति किम् ? चैत्रो मैत्रस्य मन्यु विनयति । अमूर्तेति किम् ? गडं विनयति । आप्येति किम् ? बुद्धया विनयति ॥ ४० ॥ शदेः शिति । ३ । ३ । ४१ । शिद्विषयात् शदेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शीयते । शितीति किम्.१ शत्स्यति ॥ ४१॥ म्रियतेद्यतन्याशिषि च । ३ । ३ ४२| अतोऽद्यतन्याशीविषयाच्छिद्विषयाच कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अमृत, मृषीष्ट, म्रियते । अद्यतन्याशिषि चेति किम् ? ममार ॥ ४२ ॥ क्यषो नवा । ३ । ३ । ४३ । । क्यअन्तात् कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । निद्रायति, निद्रायते ॥४३॥ छुट्योऽद्यतन्याम् । ३।३। ४४ । घुतादिभ्योऽद्यतनीविषये कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । गद्युतत्, व्यद्योतिष्ट । अरुचत् , अरोचिष्ट । अद्यतन्या. मिति किम् ? द्योतते ॥ ४४ ॥ वृद्भयः स्य-सनोः । ३ । ३ । ४५ । ___ वृदादेः पञ्चतः स्यादौ प्रत्यये सनि च विषये कर्तर्या १ वर्तमानादयश्चतस्रो विभक्तयः शितः, तद्विषयात् "श्रौति-कृवु...... " (४-२-१०८) सूत्रेण शदेः शीयाऽऽदेशः । - २ बहुवचनं गणार्थम् । वृतूङ, स्यन्दौङ्, वृधू, शृङ्, कृपौड़ इत्येते पञ्च वृतादयः सन्ति । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२००] हैमशब्दानुशासनस्य त्मनेपदं वा स्यात् । वय॑ति, वर्तिष्यते । विवृत्सति, विवर्तिषते । स्यसनोरिति किम् ? वर्तते ॥ ४५ ।। कृपः श्वस्तन्याम् । ३ । ३ । ४६ । कृपः श्वस्तनीविषये कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । कल्प्तासि, कल्पितासे ॥ ४६॥ ___ क्रमोऽनुपसर्गात् । ३ । ३ । ४७। अविद्यमानोपसर्गात् क्रमतेः कर्त्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । क्रमते, कामति । अनुपसर्गादिति किम् ? अनुक्रामति ॥४७॥ वृत्ति-सर्ग-तायने । ३ । ३ ॥४८॥ वृत्तिरप्रतिबन्धः, सर्ग उत्साहः, तायनं स्फीतता, एतवृत्तेः क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शास्त्रेऽस्य क्रमते बुद्धिः, सूत्राय क्रमन्तेऽस्मिन् योगाः॥४८॥ परोपात् । ३ । ३ । ४९। आभ्यामेव परात् क्रमेवृत्त्याद्यर्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । पराक्रमते, उपक्रमते । परोपादिति किम् ? अनुक्रामति वृत्त्यादावित्येव ? पराक्रामति ।। ४९ ॥ वेः स्वार्थे । ३ । ३ । ५० । स्वार्थः पादविक्षेपः, तदर्थाद् विपूर्वात् क्रमे कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। साधु विक्रमते गजः। स्वार्थ इति किम् ? गजेन विक्रामति ॥ ५० ॥ प्रोपाद् आरम्भे । ३।३ । ५१ । आरम्भार्थात् प्रोपाभ्यां परात् क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। प्रक्रमते, उपक्रमते भोक्तुम्, आरम्भ इति किम् ? प्रक्रामति यातीत्यर्थः ॥ ५१ ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२०१] . आडो ज्योतिरुद्गमे । ३ । ३ । ५२ । आङः परात् क्रमेश्चन्द्रायुद्गमार्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । आक्रमते चन्द्रः सूर्यो वा । ज्योतिरुद्गम इति किम् ! आक्रामति बटुः कुतुपम्, धूम आक्रामति ॥५२॥ दागोऽखाऽऽस्यप्रसार-विकाशे । ३।३ । ५३ । स्वाऽऽस्यप्रसारविकाशाभ्यामन्यार्थाद् आपूर्वाद् दागः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । विद्यामादत्ते। स्वास्यादिवर्जन किम् ? उष्ट्रो मुखं व्याददाति, कूलं व्याददाति ॥ ५३॥ . नु-प्रच्छः । ३ । ३ । ५४ । । आपूर्वाद नीतेः प्रच्छेश्च कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । आनुते शृगालः, आपृच्छते गुरुन् ॥ ५४ ॥ गमेः क्षान्तौ । ३ । ३ । ५५ । कालहरणार्थाद् गमयतेरापूर्वोत्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। आगमयते गुरुम् ? कश्चित् कालं प्रतीक्षते । क्षान्ताविति किम् ? विद्यामागमयति ॥ ५५ ॥ हः स्पर्द्ध । ३ । ३ । ५६ । __आयूर्वाद् ह्वयतेः स्पर्द्ध गम्ये कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। मल्लो मल्लमाह्वयते । स्पर्द्ध इति किम्? गामाह्वयति ॥५६ ॥ सं-नि-चेः। ३ । ३ । ५७।। __एभ्यो ह्वयतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संवयते, निह्वयते, विह्वयते ॥ ५७ ॥ उपात् । ३ । ३ । ५८। उपात् वयतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । उपहयते ॥५०॥ २६ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०२] हैमशब्दानुशासनस्य यमः स्वीकारे।३ । ३ । ५९ । उपाद्यमेः स्वीकारार्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । कन्यामुपयच्छते, उपायंस्त महास्त्राणि । चिनिर्देश इति किम् ? शाटकानुपयच्छति ॥ ५९ ॥ देवाऽर्चा-मैत्री-सङ्गम-पथिकर्तृक मन्त्रकरणे स्थः ।३।३।६।। एतदर्थादुपपूर्वात् तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । देवार्चा, जिनेन्द्रमुपतिष्ठते । मैत्री, रथिकानुपतिष्ठते । सङ्गमः, यमुना गङ्गामुपतिष्ठते । पन्थाः कर्ता यस्य तत्र, श्रुघ्नमुपतिष्ठते पन्थाः। मन्त्रः करणं यस्म, ऐन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठते ॥६॥ वा लिप्सायाम् । ३ । ३ । ६१ । उपात् स्थो लिप्सायां गम्यमानायां कर्तर्यात्मनेपदं स्याद् वा । भिक्षुर्दातृकुलमुपतिष्ठते, उपतिष्ठति वा ॥३१॥ उदोऽनूवेहे । ३ । ३ । ६२ । अनूभं या चेष्टा तदर्थाद् उत्पूर्वात् स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । मुक्तावुत्तिष्ठते । अनूर्वेति किम् ? आसनादुत्तिष्ठति । ईहेति किम् ? ग्रामात शतमुत्तिष्ठति ॥ ६२॥ सं-वि-प्राऽवात् । ३ । ३ । ६३ । एभ्यः परात् स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । सतिष्ठते, वितिष्ठते, प्रतिष्ठते, अवतिष्ठते ॥६३ ॥ ज्ञीप्सा-स्थेये । ३ । ३ । ६४ । ज्ञीप्सा आत्मप्रकाशनम् । स्थेयः सभ्यः । ज्ञीप्सायां १ यस्यार्यस्य स पथिकर्तृक इति शेषः तत्र । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२०३] स्थेयविषयार्थे च वर्तमानात् स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । तिष्ठते कन्या च्छात्रेभ्यः, त्वयि तिष्ठते विवादः ॥६४॥ प्रतिज्ञायाम् । ३ । ३ । ६५ । अभ्युपगमार्थात् स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । नित्यं शब्दमातिष्ठते ॥ ६५ ॥ समों गिरः। ३ । ३ । ६६ । संपूर्वाद गिरः प्रतिज्ञार्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । स्याद्वादं सङ्गिरते ॥ ६६ ॥ अवात् । ३ । ३। ६६ । अवाद्गिरः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अवगिरते ॥६॥ निनवे ज्ञः । ३ । ३ । ६८ । निह्नवोऽपलापः, तवृत्तेजः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शतमपजानीते ॥ ६८ ॥ सं-प्रतेरस्मृतौ । ३ । ३ । ६९।। स्मृतेरन्यार्थात् संप्रतिभ्यां पराद् ज्ञः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शतं संजानीते, प्रतिजानीते । अस्मृताविति किम् ? मातुः संजानाति ॥ ६९ ॥ अननोः सनः । ३ । ३ । ७०। सन्नन्ताद ज्ञः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्, नत्वनोः परात्। १ मीमांसकाः शब्दस्य नित्यत्वमेवाभिमन्यन्ते । २ गिर इति सूत्रे वचनाद् गृणाते त्मनेपदं स्यात्, किन्तु गृत् निगरणे' इत्यस्य । स्थाद्वादं संगिरते-प्रतिजानीते इति भाव। ३ प्रतिज्ञायामिति निवृत्तं वेदितव्यं, पृथक्सूत्रकरणात् । ४ अनुपूर्वकजिज्ञासधातो त्मनेपदमिति तत्त्वम् । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] हैमशब्दानुशासनस्य धर्म जिज्ञासते। अननोरिति किम् ? धर्ममनु जिज्ञासति ॥ ७० ॥ श्रुवोऽनाइ.-प्रतेः। ३ । ३ । ७१ । सन्नन्तात् शृणोतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्, न त्वाप्रतिभ्यां परात् । शुश्रूषते गुरून् । अनामतेरिति किम् ? आशुश्रषति, प्रतिशुश्रूषति ॥ ७१ ॥ स्मृ-दृशः। ३।३ । ७२ । आभ्यां सन्नन्ताभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। सुस्मूर्षते, दिक्षते ॥ ७२ ॥ शको जिज्ञासायाम् । ३।३। ७३ । शको ज्ञानानुसंहितार्थात् सन्नन्तात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । विद्यां शिक्षते । जिज्ञासायामिति किम् ? शिक्षति ॥७३॥ 'प्राग्वत् । ३ । ३।७४ सनः पूर्वो यो धातुस्तस्मादिव सन्नन्तात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शिशयिषते, अश्वेन संचिचरिषते ॥४॥ आमः कृगः । ३।३। ७५ । १ यो धातुरनुबन्धोपपदार्थविशेषादिहेतभिः पर्वमात्मनेपदी स इच्छार्थके सनि परेऽपि पूर्ववत् ताडगेव आत्मनेपदी भवति । 'शिशयिषते' इत्यनुबन्धादाहरणं उकारानुबन्धत्वात्। द्वितीयं तूपपदस्योदाहरणं, समस्तृतीयया' (३-३-३२,) इति सूत्रेण संपू. र्वकवरधातोरात्मने पद विधानात् आचिकंसते चन्द्र इत्यर्थविशेषो: दाहरणम् । एवं अनुबन्धादि निमित्तैर्यो धातुः सन्नन्तात् प्राक परस्मैपदी स्यात् , सोऽपि सनि परे पूर्ववत् परस्मैपदी तिष्ठति यथा बुभूषति, रुरुदिषति, विरमेः-विरिरंसति, प्रवहेः प्रविवक्षति । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [२०५] - आमः परादनुप्रयुक्तात् कृग आम एव प्राग् यो धातुस्तस्मादिव कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । भवति न भवति चेति विधिनिषेधावतिदिश्यते । ईहाश्चक्रे, विभराञ्चकार । कुग इति किम् ? ईक्षामास ।। ७५॥ गन्धनाऽवक्षेप-सेवा-साहस-प्रतियत्न प्रकथनोपयोगे ।३।३ । ७६ । एतदर्थात् कृगः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् , गन्धनं द्रोहेण परदोषोद्घाटनम् , उत्कुरुते। अवक्षेपः कुत्सनम् , दुवृत्तान वकुरुते। सेवा, महामात्रानुपकुरुते।साहसमविमृश्य प्रवृत्तिः, परदारान् प्रकृरुते । प्रतियत्नो गुणान्तराऽऽधानम् , एधोदकस्योपस्कुरुते । प्रकथनम्, जनापवादान् प्रकुरुते । उपयोगो धर्मादौ विनियोगः, शतं प्रकुरुते ॥ ७६ ॥ अधेः प्रसहने । ३ । ३ ७७ । _ अधेः परात् कृगः प्रसहनार्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । प्रसहनं पराभिभवः परेणपराजयो वा । तं हाधिचक्रे। प्रसहन इति किम् ? तमधिकरोति ॥ ७७ ॥ दीप्ति-ज्ञान-यत्न-विमति-उपसंभाषा-उपमन्त्रणे वदः ।३।३ । ७८ । एष्वर्थेषु गम्येषु वदः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । दीप्तिभासनम् वदते विद्वान् स्याद्वादे । ज्ञाने, वदते धीमांस्तस्वार्थे । यत्ने, तपसि वदते । नानामतिर्विमतिः , धर्मे १ तमभिभूतवान् इत्यर्थः, तेन परेण नाऽभिभूतो वा । अथवा सहनमुपेक्षा तत्र यथा-'भवादृशाश्चेदधिकुर्वते रतिम्' इति किरातार्जुनीये १-४३। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०६] हैमशब्दानुशासनस्य विवदन्ते । उपसंभाषा उपसान्त्वनेम् । कर्म्मकरानुपवदते । उपमन्त्रणं रहस्युपच्छन्दनम् । कुलभार्यामुपवदते ॥७८॥ व्यक्तवाचां सहोक्तौ | ३ | ३ | ७९ | व्यक्तवाचो रूढ्या मनुष्यादयस्तेषां संभूयोच्चारणार्थाद् वदः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संप्रवदन्ते ग्राम्याः । व्यक्तवाचामिति किम् ? संप्रवदन्ति शुकाः । सहोक्ताविति किम् ? चैत्रेणोक्ते मैत्रो वदति ।। ७९ ।। विवादे वा | ३ | ३ | ८० | विरुद्धार्थी वादो विवादः, व्यक्तवाचां विवादरूपसोयर्थाद वदः कर्त्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । विप्रवदन्ते faraदन्ति वा मौर्त्ताः । विवाद इति किम् ? संप्रवदन्ते वैयाकरणाः । सहोतावित्येव ! मोहत्तों मौहूर्त्तेन क्रमाद् विप्रवदति ॥ ८० ॥ अनोः कर्म्मण्यसति । ३ । ३ । ८१ । व्यक्तवाचामर्थे वर्त्तमानादनुपूर्वाद् वदः कर्मण्यसति कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अनुवदते चैत्रो मैत्रस्य । कर्मण्यसतीति किम् ? उक्तमनुवदति । व्यक्तवाचामित्येव १ अनुवदति वीणा ॥ ८१ ॥ ज्ञः । ३ । ३ । ८२ । जानातेः कर्म्मण्यसति कर्त्तयत्मनेपदं स्यात् । सर्पि १ उपालम्भो वेति बृहद्वृत्तौ । २ आनातेः सकर्मकत्वेऽपि नात्र सर्पिर्धाकर्मत्वेन विवक्षितं, किन्तु प्रवृत्त करणत्वेन तेन सर्पिषो जानीते' इत्यस्य सर्पिषा करम भोक्तुं प्रवर्तते इत्यर्थे “अशाने ज्ञः षष्ठी” (२-२-८०, पृ० ८०) इति षष्ठी विभक्तिः । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२०७] षो जानीते । कर्मण्यसतीत्येव ? तैलं सर्पिषो जानाति ॥ ८२॥ उपात् स्थः । ३।३ । ८३। अतः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । योगे योगे उपतिष्ठते । कर्मण्यसतीत्येव ? राजानमुपतिष्ठति ॥८३॥ समो गम्-ऋच्छि-प्रच्छि-श्रु-विद्-स्वरति-अर्ति-दृशः। ।३।३ । ८४ । संपूभ्य एभ्यः कर्मण्यमति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। सङ्गच्छते, समृच्छिष्यते, संपृच्छते, संशृणुते, संवित्ते, संस्वरते, समृच्छते, समियते, संपश्यते। कर्मण्यसतीत्येव? सङ्गच्छति मैत्रम् ।। ८४॥ वेः कृगः शब्दे चाऽनाशे। ३ । ३ ।८५। अनाशार्थाद् विपूर्वात् कृगः कर्मण्यसति, शब्दे च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । विकुर्वते सैन्धवाः। क्रोष्टा विकुरुते स्वरान् । शब्दे चेति किम् ? विकरोति मृदम् । अनाश इति किम् ? विकरोत्यध्यायम् ॥ ८५॥ आङो यम-हनः, स्वेऽङ्गे च ।३।३ । ८६ । आङः पराभ्यां यम्हन्भ्यां कर्मण्यसति कर्तुः, स्वेऽङ्गे च कर्मणि कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । आयच्छते, आहते वा। १ “अर्तीति सामान्यनिर्देशाद् भ्वादिरदादिश्च ( ऋधातुः) गृह्यते' इति वृहवृत्तौ स्पष्टीकरणमस्ति 'समृच्छिष्यते' इति तौदादिकस्य ऋच्छत् धातो रूपं भ्वादिकस्य तु ऋधातोः 'श्रौतिकृवु" (४-२-१०८) इति सूत्रेण ऋच्छादेशः । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०८] हैमशब्दानुशासनस्य स्वेऽङ्गे, आयच्छते, आहते वा पादम् । स्वेऽङ्गे चेति किम् ? आयच्छति रज्जुम् ।। ८६ ॥ व्युदस्तपः । ३ । ३ । ८७ । आभ्यां परात्तपेः कर्मण्यसति, स्वेऽङ्गे च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। वितपते। उत्तपते रविः। वितपते। उत्तपते पाणिम् ॥ ८७ ।। अणिकर्मणिकर्तृकाद् णिगोऽस्मृतौ । ३।३ । ८८ । अणिगवस्थायां यत्कर्म तदेव णिगवस्थायां कर्ता यस्य तस्माद् णिगन्तादस्मृत्यर्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। आरोहयते हस्ती हस्तिपकान् । अणिगिति किम् ? आरोहयति हस्तिपकान् महामात्रः, आरोहयन्ति महामात्रेण हस्तिपकाः। गित् किम् ? गणयते गणो गोपालकम् । कर्मेति किम् ? दर्शयति प्रदीपो भृत्यान् । णिगिति किम् ? लुनाति केदारं चैत्रः, लूयते केदारः स्वयमेव, तं प्रयुङ्क्ते लावयति केदारं चैत्रः । कर्तेति किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः । तानेनमारोहयति महामात्रः । णिग इति किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः । तानारोहयते हस्तीत्यणिगि मा भूत् । अस्मृताविति किम् ? स्मर. यति वनगुल्मः कोकिलम् ॥ ८८॥ प्रलम्मे गृधि-वञ्चेः । ३ । ३ । ८९ । आभ्यां णिगन्ताभ्यां प्रलम्भनाभ्यां कतर्यात्मनेपदं स्यात् । बटुं गर्द्धयते वञ्चयते वा । प्रलम्भ इति किम् ? श्वान गर्द्धयति ॥ ८९॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [२०९] लीड-लिनोर्चाऽभिभवे चाऽऽत् चाकर्तर्यपि ।३।३ । ९०। आभ्यां णिगन्ताभ्यामर्चाऽभिभवप्रलम्भार्थाभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं स्याद् , आत् चानयोरकर्त्तर्यपि। अर्चा, जटाभिरालापयते । अभिभवः, श्येनो वर्तिकामपलापयते । प्रलम्भः, कस्त्वामुल्लापयते ?, अकर्त्तर्यपीति किम् ? जटाभिरालाप्यते जटिलेन ॥ ९ ॥ स्मिड प्रयोक्तुः स्वार्थे । ३ । ३ । ९१ । प्रयोक्तृतोयःस्वार्थः स्मयस्तदर्थात् णिगन्तात् स्मिङः कतर्यात्मनेपदं स्याद्, आचास्याकर्तर्यपि । जटिलो विस्मापयते।प्रयोक्तुःस्वार्थ इति किम् ? रूपेण विस्मापयति । अकर्त्तर्यपीत्येव ? विस्मापनम् ॥ ९१ ॥ बिमेतेर्भीष् च । ३ । ३ । ९२ । प्रयोक्तृतःस्वार्थवृत्तय॑न्ताद् भियः कर्तर्यात्मनेपदं स्याद, अस्य च भीष्, पक्षे आचाकर्तर्यपि। मुण्डो भीषयते, भापयते वा । प्रयोक्तुः स्वार्थ इत्येव ? कुश्चिकया भापयति । अकर्त्तर्यपीत्येव ? भीषा, भापनम् ॥ ९२ ॥ __ मिथ्याकृगोऽभ्यासे । ३।३ । ९३ । - मिथ्यायुक्तात् कृगो ण्यन्तात् क्रियाभ्यासवृत्त्यर्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । पदं मिथ्या कारयते । मिथ्येति किम् ? पदं साधु कारयति। अभ्यास इति किम् ? सकृत् पंदं मिथ्या कारयति ॥ ९३ ॥ १लीयति लिनात्योरिवर्णस्यऽऽत्त्वं स्यात् । सानुबन्धग्रहणाद् यौजादिकधातुप्रतिषेधः । अर्चा पूजा । प्रलम्भो वञ्चनम् । ... २ पदं स्वरादिदोषयुतं पुनः पुनः पाठयतीत्यर्थः । सकृत्-एकवारम् । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१०] हैमशब्दानुशासनस्य परिमुहाऽऽयमाऽऽयस-पाधे-चद-वस-दमाऽद-रुचनृतः फलवति । ३ । ३ । ९४ । प्रधानफलवति कर्तरि एभ्यो विवक्षितेभ्यो णिगन्तेभ्य आत्मनेपदं स्यात् । परिमोहयते चैत्रम् , आयामयते सर्पम् , आयासयते मैत्रम् , पाययते बटुम् , धापयते शिशुम्, वादयते बटुम् , वासयते पान्थम् , दमयते अश्वम्, आदयते चैत्रेण, रोचयते मैत्रम् , नर्तयते नटम् ॥ ९४ ॥ ई-गितः। ३ । ३ । ९५।। ईदितो गितश्च धातोः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात्। यजते कुरुते। फलवतीत्येव ? यजन्ति कुर्वन्ति ॥ ९५ ॥ ज्ञोऽनुपसर्गात् ।३।३। ९६ ।। अतः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । गां जानीते। फलवतीत्येव ? परस्य गां जानाति ॥ ९६ ॥ वदोऽपात् । ३ । ३ । ९७ । अतः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । एकान्तमपवदते । फलवतीत्येव ? अपवदति परं स्वभावात् ॥९७॥ समुदाडो यमेरग्रन्थे । ३ । ३ । ९८ । एभ्यः पराद् यमेरग्रन्थविषये फलवत्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संयच्छते व्रीहीन्, उद्यच्छते भारम् , आयच्छते भारम् । अग्रन्थ इति किम् ? 'चिकित्सामुद्यच्छति । फलवतीत्येव ? संयच्छति ॥ ९८॥ १ अदं भक्षणे इत्यस्य णिगन्तं रूपम् । केचिद् ‘अदधातोर्न मन्यन्ते आत्मनेपदम्। २ बैद्यकान्थे उद्यमं करोति । चिकित्साग्रन्थमवबोद्भुमिच्छतीत्यर्थः । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [११] . पदान्तरगम्ये वा । ३।३।९९ । प्रकान्तसूत्रपश्चके यदात्मनेपदमुक्तं तत् पदान्तरगम्ये फलवकर्तरि वा स्यात् । स्वं शg परिमोहयते, परिमोहयति वा । स्वं यज्ञं यजते, यजति वा । स्वां गां जानीते, जानाति वा । स्वं शत्रुमपवदते, अपवति वा । स्वान् व्रीहीन संयच्छते, संयच्छति वा ॥ ९९ ॥ शेषात् परस्मै । ३ । ३ । १००। - येभ्यो धातुभ्यो येन विशेषेणाऽऽत्मनेपदमुक्तं ततोऽन्यस्मात् कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । भवति, अत्ति ॥१०॥ परानोः कृगः । ३।३ । १०१। _परानुपूर्वात् कृगः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । पराक रोति, अनुकरोति ॥१०१॥ . प्रत्यभ्यतेः क्षिपः । ३ । ३ । १०२ । एभ्यः परात् क्षिपः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । प्रतिक्षिपति, अभिक्षिपति, अतिक्षिपति ॥१०२ ॥ प्रादु वहः । ३।३ । १०३ । - अतः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । प्रवहति ॥ १०३ ॥ ... परेर्मेषश्च । ३ । ३ । १०४ । परेः परान्मृषेर्वहेश्च कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । परिमृ. प्यति, परिवहति ॥१०४॥ व्याङ्-परे रमः । ३ । ३ । १०५ । एभ्यः पराद् रमेकर्तरि परस्मैपदं स्यात् । विरमति, ... परस्मैपदविधियंत्र न नियामकस्तत्र तु यथाप्राप्तमात्मनेपदं वा द्वयं वा भवति । यथा करोति कुरुते, प्रकरोति प्रकुरुते, रमते संरमते, वहति वहते । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [२१२] हैमशब्दानुशासनस्य औरंमति, परिरमति ॥ १०५ ॥ वोपात् । ३।३ । १०६ । उपाद् रमेः कर्तरि परस्मैपदं वास्यात् ।भार्यामुपरमति, . उपरमते वा ॥ १०६ ॥ अणिगि प्राणिकर्तृकानाप्यात् 'णिगः। ३ । ३ । १०७। ___ अणिगवस्थायां यः प्राणिकर्तृकोऽकर्मकश्च धातुस्तस्मात् णिगन्तात् कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । आसयति चैत्रम् । अणिगीति किम् ? स्वयमेवारोहयमाणं गजं प्रयु ङ्क्ते आरोहयते । अणिगिति गकारः किम् ? चेतयमानं प्रयुङ्क्ते चेतयते । प्राणिकर्तृकादिति किम् ? शोषयते वीहीन आतपः। अनाप्यादिति किम् ? कटं कारयते ॥१०७॥ चल्याहारार्थेङ्-बुध युध-गु-द्रु-सु-नश जनः।३३।१०८। चल्याहारार्थेभ्य इडादिभ्यश्च णिगन्तेभ्यः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । चलयति, कम्पयति, भोजयति, आशयति चैत्रमन्नम्, सूत्रमध्यापयति शिष्यम्, बोधयति पद्म रविः, योधयति काष्ठानि, प्रावयति राज्यम्, द्रावयत्ययः, स्रावयति तैलम्, नाशयति पापम् ,जनयति पुण्यम् ॥१०८॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ तृतीय__ स्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ॥३॥३॥ १ “ ईगितः" (३-३-९५ पृ० २१० ) इति सूत्रोफाऽऽत्मनेपदस्य बोधकमदिम् । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थः पादः॥ गुपौ-धूप-विच्छि-पणि-पनेरायः । ३ । ४ । १ । .. एभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे आय: स्यात् । गोपायति, धूपायति, विच्छायति, पणायति, पनायति ॥ १॥ कमेर्णिङ् । ३ । ४ । २ । कमेः स्वार्थे णिङ् स्यात् । कामयते ॥ २ ॥ ऋतेडीयः।३।४।३। ऋतेः स्वार्थे डीयः स्यात् । ऋतीयते ॥ ३ ॥ अशवि ते 'वा।३।४।४। गुपादिभ्योऽशविषये ते आयादयो वा स्युः । गोपायिता, गोप्ता । कामयिता, कमिता । ऋतीयिता, भर्तिता ।।४ ॥ .. गुप्-तिजो गहऱ्या-क्षान्तौ सन् । ३।४।५/ - गुपो गोंयां तिजःक्षान्तौ वर्तमानात् स्वार्थे सन् स्यात् । जुगुप्सते, तितिक्षते । गहक्षिान्ताविति किम् ? 'गोपनम् , तेजनम् ॥५॥ कितः संशय-प्रतीकारे । ३ । ४।६। कितः संशयप्रतीकारार्थात् स्वार्थे सन् स्यात् । वि. चिकित्सति मे मनः, व्याधि चिकित्सति । संशयप्रती १ माद्य-णि-डीयप्रत्ययाः । २ औषधोपचारेण रोग दूरीकरोतीत्यर्थः । इदं प्रतीकारस्योदाहरणम् । विप्रहविनाशयोः प्रतीकारार्थत्वात्तत्राऽप्यनेनैव सन् भवति । विचिकित्सति संदग्धि । - - - Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१४] हैमशब्दानुशासनस्य कारार्थ इति किम् ? केतयति ॥ ६ ॥ शान-दान-मान्-वधानिशानाऽऽर्जव-विचार वैरूप्ये दीघश्चेतः । ३ । ४ । ७। एभ्यो यथासङ्ख्यं निशानाद्यर्थेभ्यः स्वार्थे सन् स्यात् , दीर्घश्ववैषां द्वित्वे पूर्वस्येतः। शीशांसति, दीदासति, मीमांसते, बीभत्सते । अर्थोक्तिः किम् ? अर्थान्तरे मा भूत् ? निशानम्, अवदानम्, मानयति, बाधयति ॥७॥ धातोः कण्ड्वादेर्यक् । ३ । ४।८। एभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे यक्. स्यात् । कण्डूयति, कण्डूयते, महीयते । धातोरिति किम् ? कण्डूः॥८॥ व्यञ्जनादेरेकस्वराद् भृशाऽऽभीक्ष्ये यङ् वा। ३।४।९। गुणक्रियाणामधिश्रयणादीनां क्रियान्तराव्यवधानेन साकल्येन संपत्तिः फलातिरेको वा भृशत्वं। प्रधानक्रियाया विक्लेदोंदेः क्रियान्तराव्यवधानेनाऽऽवृतिराभीक्ष्ण्यं । तद्विशिष्टार्थवृत्तेर्धातोर्व्यञ्जनादेरेकस्वराद् यङ् वा स्यात् । पापच्यते । व्यञ्जनादेरिति किम् ? भृशमीक्षते । एकस्वरादिति किम् ?, भृशं चकास्ति । वेति किम् ? लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनातीत्यादि यथा स्यात् ॥९॥ अट्यनि-सूत्रिमूत्रि-सूच्यशूर्णोः । ३ । ४ । १० । एभ्यो भृशाऽऽभीक्ष्ण्यार्थवृत्तिभ्यो यङ् स्यात् । अटा. ट्यते, अरायते, सोसूत्र्यते, मोमूत्र्यते, सोसूच्यते, अशा. १ पचनादेः । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२१५] श्यते, प्रोर्णोनूयते ॥१०॥ गत्यर्थात् 'कुटिले । ३ । ४ । ११ । व्यञ्जनादेरेकस्वराद् गत्यर्थात् कुटिले एवार्थे वर्तमानाद् धातोर्यङ् स्यात् । चक्रम्यते। कुटिल इति किम् ? भृशं कामति ॥११॥ गृ-लुप-सद-चर-जप-जभ-दश-दहो गये ।३।४।१२। गार्थेभ्य एव एभ्यो यङ् स्यात् । निजेगिल्यते, लोलुप्यते, सासद्यते, चञ्चूर्यते, जञ्जयते, जञ्जभ्यते,दन्दश्यते, दन्दयते । गद्य इति किम् ? साधु जपति, भृशं निगिरति ॥ १२॥ न गृणा-शुभ-रुचः । ३ । ४ । १३ । ____ एभ्यो यङ्न स्यात् । निन्द्यं गृणाति, भृशं शोभते, भृशं रोचते ॥१३॥ बहुलं लुप् । ३ । ४ । १४ । यडो लुप् बहुलं स्यात् । बोभूयते, बोभवीति । बहुलवचनात् क्वचिन्न भवति, लोलूया, पोपूया ॥१४॥ १ कुटिलगत्यर्थानामेव धातूनां यङ् प्रत्ययविधानार्थमिद सूत्रम् । सरलगत्यर्थे तु न यङ्, तत्र तु भृशं पुनः पुनर्वा कामति गच्छतीत्येवं प्रयोगः । कुटिलं कामतीति चक्रम्यते, । चंक्रम्यते। मुः अतोऽनुनासिकस्य ॥ (४-१) ५१ ) "तौ मुमोर्व्यञ्जने स्वौ” (१-३-१४ पृ० १८) इति सूत्राभ्यां वाऽनुनासिको भवति । । २. 'चरफलाम्' (४-१-५३) "जपजम०" (४-१-५२) इति सूत्राभ्यां चरजपादीनामुरन्तो. भवति, "तिचोपान्त्वातोनादुः” (४-१-५४ ) इति सूत्रात् चञ्चूर्यते सिध्यति । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१६] हैमशब्दानुशासनस्य अचि । ३।४।१५। यडोचि परे लुपू स्यात्। चेच्यः, नेन्यः ॥ १५ ॥ नोतः । ३ । ४ । १६ । उदन्ताद् विहितस्य योऽचि परेलुब्न स्यात्। रोख्यः॥१६॥ चुरादिभ्यो णिच'। ३ । ४ । १७। . एभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे णिच् स्यात् । चोरयति । पदयते ॥१७॥ युजार्नवा । ३ । ४ । १०। एभ्यः स्वार्थ णिच् वा स्यात् । योजयति, योजति। साहयति, सहति ॥ १८॥ भूड प्राप्तौ णिडू । ३ । ४ । १९ । भुवः प्राप्त्यर्थात् णिङ् वा स्यात् । भावयते, भवते । प्राप्ताविति किम् ? भवति ॥ १९॥ . णिचो गित्त्वाऽभावेन "ईगितः" (३-३-१०५) सूत्रेण फलवत्कर्त्तरि नाऽऽत्मनेपदं भवति । पाणिनीये व्याकरणे तु..."णिचश्च' (पा. ३-१-१५) इति सूत्रेणाऽऽत्मनेपदमपि भवति । एवं सारस्वतचन्द्रिका चान्द्रमतेऽपि भवति । "शेषात् परस्मै" (पृ० २११)इति सूत्रेण परस्मैपदस । “लघोरुपान्त्यस्य" (४-३.४) सूत्रेण गुणे “एदैतोऽयाय" (१-२-२३ पृ. १२) इति तिप्रत्यये चोरयति सिध्यति । केचित् चुरादेर्विकल्पेन णिगिच्छन्ति । तन्मते चोरति चिन्ततीति रूपमपि भवति । चोरयेत् , चोरयतु, अचोरयत् , धातोर...(३-४-४६) इति चोरयावकार, “णेरनिटि" (४-३-८३) इति सूत्रेण गेलुंग्मवनात् आशिषि चोर्यात् , तादौ चोरयिता, अद्यतन्यां "णिश्रि...(३-४-५८), "मायोंश..."(४-१-२) "उपान्त्यस्यासमान......"(४-२-३५) "लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः" (४-१-६४) इति सूत्रः, अचूचुरत् अचूचुरतां अचूचुरनिति रूपाणि वेद्यानि। आत्मनेपदिनि,तुमचूचुरत इत्यनया रीत्या रूपाणि ग्राह्याणि । एवं "प्रयोक्तृव्यापारे" ऽपि रूपपतिर्बोद्धया। णिचि णकारो वृद्धयर्थः । चुरादिराकृतिगणः । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२१७] 'प्रयोक्तव्यापारे णिम् । ३ । ४ । २० । कुर्वन्तं यः प्रयुङ्क्ते तद्वयापारे वाच्ये धातोर्णिग् वा स्यात् । कारयति, भिक्षा वासयति, राजानमांगमयति, कंसं घातयति, पुष्येण चन्द्रं योजयति, उज्जयिन्याः प्र. स्थितो माहिष्मत्यां सूर्यमुद्गमयति ।। २०॥ तुमर्हाद इच्छायां सन् अतत्सनः। ३ । ४ । २१ । यो धातुरिषेः कर्म, इषिणैव च समानकर्तृकः स तुमहः, तस्मादिच्छायामर्थे सन् वा स्यात्, न त्विच्छासन्नन्तात् ।चिकीर्षति, जिगमिषति । तुमर्हादिति किम् ? यानेनेच्छति, भुक्तिमिच्छति मैत्रस्य । इच्छायामिति किम् ? भोक्तुं याति । अतत्सन इति किम् ? चिकीर्षितुमिच्छति । तदिति किम् ? जुगुप्सिषते ।। २१ ॥ द्वितीयायाः काम्यः । ३।४ । २२ । द्वितीयान्तादिच्छायां काम्यो वा स्यात् । इदंकाम्यति । द्वितीयाया इति किम् ? इष्टः पुत्रः ॥ २२ ॥ अमाव्ययात् क्यन च । ३ । ४ । २३ । मान्ताव्ययाभ्यामन्यस्माद् द्वितीयान्तादिच्छायां १ कुर्वन्तं प्रेरयतीति कारयति, एवमन्यत्राऽपि । अन्न प्रक्रियायां सकमकधातोर्द्विकर्मकत्वम् , अकर्मकस्य च सकर्मकत्वं भवति । यथा तन्दुलं पवति जिनदत्तः तं प्रेरयतीति पाचयति देवदतः । भिक्षुर्वसति, वसन्तं तं प्रेरयतीति वासयति भिक्षा । चुरादेरस्मिन् णिगि परे णिचो लोप: स्यात्, तेन चोरयतीत्येव प्रयोक्तृव्यापारेऽपि भवति । " ननु च कर्ताऽपि करणादीनां प्रयोजक इति तद्वयापारेऽपि णिग् प्राप्रोति इत्याशङ्कय बृहवृत्ति-तन्न्यासकर्तृभ्यां समाहितं यत् प्रयोक्तृग्रहणसामर्थ्यान्न करणव्यापारे णिग् स्यादित्यर्थः । यदि च व्यापारसामान्ये णिग् स्यात्तदा सूत्रकारः 'व्या गरे णिग् ‘इत्येव सूत्रं कुर्यात्, न चैवं कृतमित्यलं चर्चया॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१८] हेमशब्दानुशासनस्य क्यन् काम्यश्च वा स्यात् । पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति । अ. माव्ययादिति किम् ? इदमिच्छति, स्वरिच्छति ॥२३॥ आधाराचोपमानाद् आचारे । ३ । ४ । २४ । अमाव्ययादुपमानाद्, द्वितीयान्तादाधाराचाऽऽचारार्थे क्यन् वा स्यात् । पुत्रीयति च्छात्रम्, प्रासादीयति कुट्याम् ॥ २४ ॥ कर्तुः क्विए, गल्भ-क्लीब-होडात्तु ङित् ।३।४।२५/ - कर्तरुपमानाद् नाम्न आचाराऽर्थे विप् वा स्यात् , गल्भक्लीबहोडेभ्यस्तु स एव ङित् । अश्वति, गल्भते, क्लीवते, होडते ॥२५॥ क्यङ् । ३ । ४ । २६। कर्तरुपमानादाचारेऽर्थे क्यङ् वा स्यात् । हंसायते ॥२६॥ सो वा लुक् च । ३ । ४ । २७ । सन्तात् कर्तरुपमानादाचारेऽर्थे क्यङ् वा स्याद्, अन्तस्य च सोधा लुक् । पयायते, पयस्यते ॥२७॥ ओजोऽप्सरसः। ३ । ४ । २८ । आभ्यां कर्तुरुपमानाभ्यामाचारे क्यङ् वा स्यात्, सश्च लुक् । ओजायते, अप्सरायते ॥ २८ ॥ १ पुत्रमिवाचरति पुत्रीयति गुरुः च्छात्रम् । प्रासादे इवाचरति तिष्ठतीति प्रासादीयति कुट्यां भिक्षुः । अयं नाम्नो निष्पन्नो धातूभवति । धातुसंज्ञानन्तरं पुत्रीय धातोस्तिवादिप्रत्ययाः, णिगादिप्रक्रियाप्रत्ययाश्च यथाशाप्तं भवन्ति । एवं सर्वेषां नामधातूनाम् । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः व्यर्थे भृशादेः स्तोः | ३ | ४ । २९ । भृशादेः कर्तुश्च्व्यर्थे क्यङ् वा स्यात्, यथासम्भवं स्तोलुकू च । भृशायते, उन्मनायते, वेहायते । कर्तुरित्येव ? अभृशम्भृशं करोति । च्व्यर्थ इति किम् भृशो भवति ॥ २९ ॥ [ २१९] TM डाच् - लोहितादिभ्यः षित् | ३ | ४ | ३० । डाजन्तेभ्यो लोहितादिभ्यश्च कर्तृभ्यश्च्व्यर्थे क्य 'चित् स्यात् । पटपटायति, पटपटायते । लोहितायति, लोहितायते । कर्तुरित्येव ? अपटपटा पटपटा करोति । व्यर्थ इत्येव ! लोहितो भवति ॥ ३० ॥ कष्ट कक्ष- कृच्छ्र-सत्र- गहनाय पापे क्रमणे । ३ । ४ । ३१ । एभ्यश्चतुर्थ्यन्तेभ्यः पापवृत्तिभ्यः क्रमणेऽर्थे क्य स्यात् । कष्टायते, कक्षायते, कृच्छ्रायते, सत्रायते गहनायते । चतुर्थीति किम् ? रिपुः कष्टं क्रामति । पाप इति किम् ? कष्टाय तपसे क्रामति ॥ ३१ ॥ रोमन्थाद् व्याप्याद् उच्चर्वणे । ३ । ४ । ३२ । अभ्यवहृतं द्रव्यं रोमन्थः, उद्गीर्य चर्वणमुच्चर्वणम्, अस्मिन्नर्थे रोमन्थात् कर्मणः क्यङ् वा स्यात् । रोमन्थायते गौः । उच्चर्वण इति किम् ? कीटो रोमन्थं वर्त्तयति ॥ ३२ ॥ फेनोष्म वाष्प - धूमाद् उदमने | ३ | ४ | ३३ | एभ्यः कर्मभ्य उद्बमनेऽर्थे क्यङ् वा स्यात् । फेनायते, १ क्यक्ष् प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । " क्यषो नवा” ( ३-३-४३ पृ० १९९) इतिविशेषणार्थ षकारो ज्ञेयः । लोहितादिराकृतिगणः । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२१] हैमशब्दानुशासनस्य उष्मायते, बाष्प्लायते, धूमायते ॥ ३३ ॥ सुखादेरनुभवे । ३ । ४।३।। साक्षात्कारेऽर्थे सुखादेः कर्मणः क्यङ् वा स्यात् । सुखासते. हुम्बासते ।। ३४ ।। शब्दादेः कृतौ का। ३ | ४|३५| एभ्यः कर्मस्या कृवावर्थे क्यक् वा स्यात् । शम्शयते, वैगमने पले णिच्, शन्दुप्रति, वैश्यति ॥३६॥ तपसः क्यन् । ३ । ४ । ३६ । अस्मात् कर्मणः कृतावर्थे कयन् वा स्यात् । तपस्यति ॥ ३६॥ नमोचखिस-चित्रोऽर्ग-सेवाऽऽश्चर्ये । ३।४।३७) प्रभ्यूः कर्मभ्यो अभासंरूपमर्चाविष्वर्येषु कमत् वा स्पात् । नमस्पति, वरिवस्यति, चित्रीयते ।। ३७ ॥ .. अङ्गात् निरसने पिङ् । ३।१३८ । अङ्गवाचिनः कर्मणो निरसनेऽर्थे गिङ् का स्वात् । हस्तयते, पादयते ॥ ३८ ॥ ....: . पुछाद् उत्-परि-व्यसने । ३।४।३९ । पुचछात् कर्मण उसनेपर्यसने व्यसनेसने चार्थे पिक वा स्यात् । उत्पुछपते, परिपुच्छयते, त्रिपुच्छयते, पुच्छयते ॥ ३९ ॥ भाण्डात् समाचितौ । ३ । ४।४०। . भाण्डात् कर्मणः समाचितावर्थे णिङ् वा स्यात् । सम्भाण्डयते परिभाएडयते ॥ ४०॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ २२१] चीवरात परिधानार्जने । ३ । ४ । ४१ । अस्मात् कर्मणः परिधानेऽर्जने चार्थे णिङ् वा स्यात् । परिचीवरयते, संचीवर घते ॥ ४१ ॥ णिच बहुलं नाम्नः कृगादिषु । ३ । ४ । ४२ । कुगादीनां धातूनामर्थे माम्नी णिज् बहुलं स्यात् । मुण्डं करोति मुण्डयति च्छात्रम्, पटुमाचष्टे पटयति, वृक्षं रोपयति वृक्षपति, कृतं गृह्णाति कृतयति ॥ ४२ ॥ व्रताद् भुज- सन्निवृत्त्योः । ३ । ४ । ४३ । वर्त शास्त्रविहितो नियमः, व्रताद् भुज्यर्थात् तन्निवृत्त्यfe कृगादिष्वर्थेषु णिज् बहुलं स्यात । पयो व्रतयति, सावधानं व्रतयति ॥ ४३ ॥ सत्यार्थ - वेदस्य आः । ३ । ४ । ४४ । एषां णिच्सन्नियोगे आः स्यात् । सत्यापयति, अर्थापयति, वेदापयति ॥ ४४ ॥ श्वेताश्व-अश्वतर-गालोडिताऽऽह्वरकस्याऽश्व-तर-इ त- 'कलुकू । ३ । ४ । ४५ । एषां णिजयोगे यथा सख्यमश्वादेः शब्दस्य लुक् स्वात् । श्वेतयति, अश्वयति, गालोडयति, आह्रस्यति ॥ ४५ ॥। धातोरनेकस्वरादाम् परोक्षायाः, कृभ्वस्ति चानु-तदन्तम् । ३ । ४ । ४६ । १ प्रथमे 'अश्व' इत्यस्य लुक् द्वितीये 'तर' इत्यस्य तृतीये 'इत' इत्यस्म, तुर्ये 'क' इत्यस्य लुग् भवति क्रमशः । २ धातोः कृ-स्वस्तयः पृथग् पृथग् प्रयुज्यन्ते न युगपद् यत्रैकस्यानु Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२२] हैमशब्दानुशासनस्य अनेकस्वराद्धातोः परस्याः परोक्षायाः स्थाने आम् स्यात्, आमन्ताच परेकृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनु पश्चादनन्तरं प्रयुज्यन्ते । चकासाश्चकार, चकासाम्बभूव, चकासामास । अनेकस्वरादिति किम् ? पपाच, अनु विपर्यासव्यवहितिनिवृत्त्यर्थः, तेन चकार चकासाम्, ई. हां चैत्रश्चक्रे इत्यादि न स्यात् ॥४६॥ दयाऽयाऽऽसू-कासः । ३ । ४ । ४७ ॥ एभ्यो धातुभ्यः परस्याः परोक्षाया आम् स्यात् , आ. मन्ताच परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते । दयाश्वके, दयाम्बभूव, दयामास । पलायाश्चक्रे, आसाञ्चक्रे, कासाञ्चक्रे ॥४७॥ गुरुनाम्यादेरनृच्छ्र्णोः । ३ । ४.४८ । गुरु म्यादिर्यस्य तस्माद्धातोः, ऋच्छ-ऊणुवर्जात् परस्याः प्रयोगः तत्रापरस्यापरयोर्वा न प्रयोगः, एकेनैव कार्यसिद्धनिरर्थकत्वात् । अनुप्रयु- १ ताः कृभ्वस्तयः स्वस्य वाच्यार्थ न बोधयन्ति, गौणीभूतत्वात्तेषां, येनानुप्रयुक्ताः स धातुरेव स्वार्थ बोधयति, यदा जागराञ्चकार जागरामास जागराम्बभूव इत्यस्य जजागार-जागृतवान् इत्येवार्थः चोरयाञ्चकार इत्यस्य चोरितवान् इत्येवार्थः । आत्मनेपदे कर्तृप्रयोगे आंमः अस्-भूधात्वोरनुप्रयुक्तयो त्मनेपदं भवति, आत्मनेपदिधातोरनुप्रयुक्तयोरपि तयोः परस्मैपदत्वमेव स्यादित्याशयः, यथा एधामास, एधाम्बभूव । कृगस्तु यथाप्राप्तमुभयमपि भवति, यथा एधाञ्च के, विदाञ्चकार । अनु विपर्यासव्यवहितनिवृत्त्यर्थः । अर्थाद् ‘आमः पूर्वो व्यवहितो वा कृभ्वस्तीनां प्रयोगो न कार्यः किन्त्वनन्तरोऽग्रे एव च कार्य इति । 1 ननु तर्हि "उक्षाम्प्रचक्रुर्नगरस्य मार्गान्” (सर्गः ३-५) इति भट्टिबिरचितकाव्यप्रयोगो वितथः स्याद्, प्रेण व्यवधानात्,मैवं वादीः, 'उपसर्गोन व्यवधायी' इति न्यायेन सवृत्तिन्यायसंग्रहे 'आमन्तस्य कृगश्च प्रेण न व्यवधानम् । अयं भावः-कृभ्वस्ति चानु तदन्तम् (है ३-४-४६) इत्यत्रानुशब्दस्य तावदयमर्थःव्यवहितो विपर्यस्तो वा कृभ्वस्तीनां प्रयोगो न कार्यः, किन्त्वनन्तर एवाग्रे च कार्य इति हेमहंसगणिनैव समाहितम् । भट्टिकाव्यटीकाकर्ता जयमङ्गलेन Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [२२३] परोक्षाया आम् स्यात् , आमन्ताच परे कृभ्वस्तयः परो. क्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते । ईहाश्चक्रे, ईहाम्बभूव, ईहामास । गुर्विति किम् ? इयेष । नामीति किम् ? आनर्च । आदीति किम् ? निनाय । अनुच्छ्रोरिति किम् ? आनर्छ, प्रोणुनाव ॥४८॥ जागृउप-समिन्धेनवा । ३ । ४ । ४९। एभ्यो धातुभ्यः परस्या परोक्षाया आम् वा स्यात्, आमन्ताच परे भ्वस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते। जागराञ्चकार, जागराम्बभूव, जागरामास, जजागार । ओषाञ्चकार, उवोष । समिन्धाश्चक्रे, समीधे॥ ४९ ॥ भी-ही-भृ-होस्तिव्वत् । ३ । ४ । ५० । एभ्यः परस्याः परोक्षाया आम् वा स्यात्, स च तिव्वत्, आमन्ताच परे कृम्वस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते । बिभयाश्चकार, विभयाम्बभूव, बिभयामास, बिभाय । जिह्वयाञ्चकार, जिह्वाय । विभराञ्चकार, बभार। जुहवाञ्चकार, जुहाव ॥ ५० ॥ वेत्तेः 'कित् । ३। ४ । ५१ । वेत्तेः परस्याः परोक्षाया आम् किद् वा स्यात्, आम• तु उक्षाम्प्रचारित्यत्र प्रस्य व्यवधानाद् दुष्टप्रयोगाऽऽशङ्कया नगरस्य मार्गान् पथ उक्षान् सेकवंतः प्रचक्रुः” इत्यर्थो घटितः । उपसर्गस्य क्रियाविशेषकत्वेन तस्य प्रादेरुपवर्गस्य व्यवधानं न मन्यते मनीषिभिः । "तं पातयां प्रथममास' इति प्रयोगस्यापि कथमपि सत्यत्वं घटते, 'प्रथमम्' इत्यस्य क्रियाविशेषणत्वादिति लघुन्यासकारमतम् । यच्च कालिदासेन कविना रघुवंशे "प्रमंशयां यो नहुषं चकार" (रघु० १३-३६) इत्याम्प्रत्ययाद् ब्यवहितः कृगः प्रयोगो लिखितः स तु व्याकरणदृष्टया प्रामादिक एव प्रतिभाति । ऋच्छत् तौदादिकः, ऊर्णग् आदादिको धातुः। १ कित्त्वाद् गुणप्रतिषेधः, तेनाऽऽमि परेऽपि विदो न गुणः । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२४] हैमशब्दानुशासनस्य ताच कृम्बस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते । विदाञ्चकारें, विवेद ।। ५१ ॥ पञ्चाम्याः कम् । ३ । ४ । ५२ । वेतः परस्याः पञ्चम्या किदाम्बा स्यात् , आमन्तचि परः पञ्चम्यन्तः कृगनुप्रयुज्यते । विदाङ्करोतु, वैत्तु ।।५२।.. सिच अद्यतन्याम । ३ । ४ । ५३ । . अद्यतन्यां परस्यां धातोः परः सिन् नित्यं स्यात् । अनैषीत् ।। ५३ ॥ स्पृश-मुश-तृप-कृष-दृपो वा । ३ । ४ । ५४ । एभ्योऽद्यतन्यां सिज् वा स्यात.। अस्माक्षीत्, अ. स्पाक्षीत्, अस्पृक्षत् । अम्राक्षीत् , अमाक्षीत्, अमृक्षत् । अक्राक्षोत्, अकार्धात्, अक्षत् । अत्राप्सीत् , अताप्सीत्, अतृपत् । अद्राप्सी, अदासीत् , अपत् ।।५।। ह-शिटों नाम्युपान्त्याद् अदृशोऽनिटः सक् । ३ । ४ । ५५। ' हशिडन्ताद् नाम्युपान्त्याद् अदृशोनिटोऽद्यतन्यां सक् स्यात् । अधुक्षत्, अविक्षत् । हशिंट इति किम् ? अभैत्सीत् । नाम्युपान्त्यादिति किम् ? अधाक्षीत् । अदृश इति किम् ? अद्राक्षीत् । अनिट इति किम् ? अकोषीत ॥ ५५ ॥ श्लिषः । ३ । ४ । ५६ । "श्लिषोऽनिटोऽद्यतन्या सक् स्यात् । आश्लिक्ष केन्याँ मैत्र। अनिट इत्येव १ अश्लेषीत् ॥ ५६ ।। १ तृप्-दृपोः पुषादित्वात् “लुदिद्-द्युतादिपुष्यादेः परस्मै" (३-४-६४) इत्यङिप्रत्यये अनुमत्ता Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२२५] नासत्त्वाऽऽश्लेषे । ३ । ४ । ५७ । श्लिषोऽप्राण्याश्लेषार्थात् सक् न स्यात् । उपाश्लिषत् जतु च काष्ठं च । असत्त्वाऽऽश्लेष इति किम् ? व्यत्यशिलक्षन्त मिथुनानि ॥ ५७॥ णि-श्रि-द्रु-सु-कमः कर्तरि डः।३।४ । ५८ । ण्यन्तात् अयादिभ्यश्च कर्तर्यद्यतन्यांङ स्यात्। अची. करत् , अशिश्रियत् , अदुद्रुवत्, असुनुवत् , अचकमत्। कर्तरीति किम् ? अकारयिषातां कटौ मैत्रेण ॥ ५८॥ ट्धे-श्वर्वा । ३।४। ५९। आभ्यां कर्तर्यद्यतन्यां डो वा स्यात् । अदधत् , अधात् । अशिश्वियत्, अश्वत् । कत्तरीत्येव ? अधिपातां गावौ वत्सेन ॥ ५९॥ शास्त्यसू-चक्ति-ख्यातेरङ् । ३ । ४।६।। एभ्यः कत्तर्यद्यतन्यामङ् स्यात् अशिषत् , अपास्थत्, अवोचत् , आख्यत् । कर्तरीत्येव ? अशासिषातां शिष्यो गुरुणा ॥ ६॥ . सत्यतैर्वा । ३।४।६१ । । आभ्यां कर्तर्यद्यतन्याम वा स्यात्। असरत् , असापौत् । आरत् , आर्षात् ।। ६१॥ हा-लिप-सिचः। ३ । ४ । ६२ । एभ्यः कर्तर्यद्यतन्यामङ् स्यात् । आह्वत्, अलिपत्, असिचत् ॥ ६२ ॥ . ' द Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२६] हैमशब्दानुशासनस्य वाऽऽत्मने । ३।४ । ६३ हादेः कर्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे वाऽङ् स्यात् । आह्वत, आह्वास्त । अलिपत, अलिप्त । असिचत, असिक्त ॥६३॥ लदिद्-गुतादि-पुष्यादेः परस्मै । २ । ४ । ६४ । लदितो झुतादेः पुष्यादेश्च कर्तर्यद्यतन्यां परस्मैपदेऽङ् स्यात् । अगमत् , अद्युतत्, अरुचत् , अपुषत् , औचत् । परस्मैपद इति किम् ? समगस्त ॥६४ ॥ . ऋदित्-श्वि-स्तम्भू-म्रचू-म्लुचू-ग्रुचू-ग्लुचू-ग्लुञ्च ज्रो वा । ३।४।६५। ऋदितः श्व्यादेश्चकर्तर्यद्यतन्यां परस्मैपदेऽङ् वा स्या त् । अरुधत् , अरौत्सीत् । अश्वत्, अश्वयीत् । अस्तभत, अस्तम्भीत् । अनुचत् , अम्रोचीत् । अम्लुचत् , अम्लोचीत् । अग्रुचत् , अग्रोचीत् । अग्लुचत् , अग्लोचीत् । अग्लुचत, अग्लुश्चीत् । अजरत, अजारीत् ॥६५।। .. त्रिच ते पदः, तलुक् च । ३ । ४ । ६६ । " पद्यतेः कर्तर्यद्यतन्याःते परे त्रिच स्याद्, निमित्ततस्य च लुक् । उदपादि । त इति किम् ? उदपत्साताम् ॥६६॥ दीप-जन-बुधि-पूरिस्तायि-प्यायो वा । ३ । ४।६७। .. एभ्यः कर्तर्यद्यतन्याः ते परे त्रिच वा स्यात्, तलुक्च, १ परस्मैपदाऽभावे अद्योतिष्ट । अरोचिष्ट उचच् समवाये पुषादिगतः । तस्य 'औचत् इति रूपम्'। ___ २ को डिस्वाद् वृद्धिगुणाऽभावः तेन अरुधदित्यादिषु न वृद्धिगुणौ। अग्लुचदित्यन “नो व्यञ्जनस्यानुदितः" (४-२-४५) इतिसूत्रेण नकारलोपः । अजरदित्यत्र 'ऋवर्णदृशोऽङि,' (४-३-७) इति सूत्रेण गुणप्राप्तिर्जाता । जुषो देवादिकस्य रूपम् । रुधृपी आवरणे ऋदित् । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२२७] अदीपि, अदीपिष्ट । अजनि, अजनिष्ट । अघोधि, अबुछ। अपूरि, अपूरिष्ट । अतायि, अतायिष्ट । अप्यायि अप्यायिष्ट ॥ ६७ ॥ भाव-कर्मणोः । ३ । ४ । ६८।। सर्वस्माद् धातो वकर्मविहितेऽद्यतन्याः ते जिच् स्यात् , तलुक् च । आसि त्वया, अकारि कटः ॥६॥ स्वर-ग्रह-दृश-हन्भ्यः स्य-सिच-आशीः-श्वस्तन्यां .जिट्वा । ३ । ४ । ६९।। स्वरान्ताद् ग्रहादेव विहितासु भावकर्मजासु स्यसिजाशीश्वस्तनीषु जिट वा स्यात् । दायिष्यते, दास्यते । अदायिषाताम् , अदिषाताम् । दापिषीष्ट, दासीष्ट । दायिता, दाता । ग्राहिष्यते, ग्रहीष्यते। अग्राहिषाताम् , अग्रहीपाताम् । ग्राहिषीष्ट, ग्रहीषीष्ट । ग्राहिता, ग्रहीता। दर्शिष्यते, द्रक्ष्यते । अदर्शिपाताम् , अदृक्षाताम् । दर्शिषीष्ट, दृक्षीष्ट । दर्शिता, द्रष्टा। घानिष्यते, हनिप्यते । अघानिषाताम् , अवधिषाताम् । घानिषीष्ट, वधिषीष्ट । घानिता, हन्ता ॥ ६९ ॥ .. . क्यः शिति । ३ । ४ । ७०। सर्वस्माद् धातोर्भावकर्मविहिते शिति क्यः स्यात् । शय्यते त्वया, क्रियते कटः। शितीति किम् ? बभूवे ॥ ७० ॥ १ "न जनवधः" (४-३-५४) इति निषेघसूत्रान्न वृद्धिः। २ जि-णवि घन्" (४-३-१०१) इति हनो घनादेशः। “अद्यतन्यां वा त्वात्मने " (४-४-२२) इति विकल्पतो वधादेशः। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२८] हैमशब्दानुशासनस्य कर्यनद्यः शत् । ३।४।७१ । अदादिवर्जाद् धातोः कर्तरि विहिते शिति शव स्यात् । भवति । कर्तरीति किम् ? पच्यते । अनद्भय इति किम् ? अत्ति ॥ ७१॥ दिवादेः श्यः । ३।४ । ७२ । दिवादेः कर्तृविहिते शिति श्यः स्यात् । दीव्यति, जीयति ॥७२॥ भ्रास-भ्लास-भ्रम क्रम-क्लम त्रसि-त्रुटि-लषि-यसि संयसेर्वा । ३।४।७३। एभ्यः कर्तरि विहिते शिति श्यो वा स्यात्। भ्रास्यते, भ्रासते । भ्लास्यते, भ्लासते। भ्राम्यति, भ्रमति । का. म्यति, कामति । क्लाम्यति, क्लामति । त्रस्यति, स. ति। त्रुटयति, त्रुटति। लष्यति, लषति । यस्यति, यसति। संयस्यति, संयसति ॥ ७३ ॥ कुषि रजेाप्ये वा परस्मै च ।३।४।७४। आभ्यां व्याप्ये कर्तरि शिद्विषये परस्मैपदं वा स्यात्, तद्योगे च श्यः। कुष्यति, कुष्यते वा पादः स्वयमेव । रज्यति, रज्यतेवा वस्त्रं स्वयमेव । व्याप्ये कर्तरीति किम् ? कुष्णाति पादं रोगः। शितीत्येव ? अकोषि ॥ ७४ ॥ स्वादेः श्नुः । ३।४।७५ । . स्वादेः कर्तृविहिते शिति श्नुः स्यात्.। सुनोति, सिनोति ॥ ७५॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२२९] वाऽक्षः । ३।४ । ७६ । अक्षः कर्तृविहिते शिति इनुर्वा स्यात् । अक्ष्णोति, अक्षति ॥७६॥ तक्षः स्वार्थे वा । ३ । ४ । ७७। . स्वार्थस्तनुत्वं, तवृत्तेस्तक्षः कर्तृविहिते शिति इनुर्वा स्यात् । तक्ष्णोति, तक्षति । स्वार्थ इति किम् ? संतक्षति शिष्यम् ॥७॥ स्तम्भू-स्तम्भू-स्कम्भू-स्कुम्भू-स्कोःश्ना • च।३।४ । ७८। स्तम्भ्वादेः सौत्राद् धातोः, स्कुङ्गश्च कर्तृविहिते शिति इना इनुश्च स्यात् । स्तम्नाति, स्तन्नोति । स्तुभ्नाति, स्तुम्नोति। स्कम्नाति, स्कम्नोति । स्कुम्नाति, स्कुम्नोति। स्कुनाति, स्कुनोति ॥ ७८॥ क्रयादेः । ३ । ४ १७९ । क्रयादेः कर्तृविहिते शिति इना स्यात् । क्रीणाति, प्रीणाति ॥ ७९ ॥ - व्यञ्जनात् नाहेरानः । ३।४।८०। व्यञ्जनात् परस्य नायुक्तस्य हे आनः स्यात् । पुषाण, मुषाण । व्यञ्जनादिति किम् ? लुनीहि ।। ८०॥ तुदादेःशः।३।४।८१ । एभ्या कर्तृविहिते शिति शः स्यात् । तुदति, तुदते ॥८१॥ रुषां स्वरात् श्नो, नलुक् च । ३।४ । ८२ । __ रुधादीनां स्वरात् परः कर्तृविहिते शिति नः स्यात्, तद्योगे प्रकृते! लुक् च यथासम्भवम्।रुणद्धि,हिनस्तिा८२। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३०] हैमशब्दानुशासनस्य कृग्-तनादेरुः । ३ । ४ । ८३ ।। कृगस्तनादिभ्यश्च कर्तृविहिते शिति उः स्यात् । करोति, तनोति ॥ ८३ ॥ सृजः श्राद्धे जिक्यात्मने तथा । ३ । ४ । ८४ । सृजः पराणि श्रद्धावति कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि स्युस्तथा यथा पूर्व विहितानि । असर्जि, सृज्यते, स्रक्ष्यते वा मालां धार्मिकः । श्राद्ध इति किम् ?: व्यत्यसृष्ट माले मिथुनम् ॥ ८४ ॥ तपेस्तपःकर्मकात् । ३ । ४ । ८५ । तपेस्तपःकर्मकात् कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि स्युस्तथा। तप्यते तेपे वा तपः साधुः । तप इति किम् ? उत्तपति स्वर्ण स्वर्णकारः । कर्मेति किम् ? तपः साधु तपति ॥ ८५ ।। एकधातौ कर्मक्रिययैकाऽकर्म क्रिये । ३।४ ८६ । , एकस्मिन् धातौ कर्मस्थक्रियया पूर्वदृष्टया एका अ. भिन्ना सम्प्रत्यकर्मिका क्रिया यस्य,तस्मिन् कर्तरि कर्मकर्तृरूपे धातोर्जिक्यात्मनेपदानि स्युः। अकारि क्रियते करिष्यते वा कटः स्वयमेव । एकधाताविति किम् ? पचति ओदनं चैत्रः, सिध्यत्योदनः स्वयमेव ।कर्मक्रिययेति किम् ? साध्वसिः छिनत्ति । एकक्रिय इति किम् ? स्रवत्युदकं कुण्डिका, स्रवत्युदकं कुण्डिकायाः। अकमक्रिय इति किम् ? भिद्यमानः कुशूला पात्राणि भिनत्ति ॥८६॥ . पचि-दुहेः । ३ । ४ । ८७। . एकधातौ कर्मस्थक्रियया पूर्वदृष्टया अकर्मिकया स Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२३१] कर्मिकया वा, एकक्रिये कर्तरि कर्मकर्तृरूपे, आभ्यां जि. क्यात्मनेपदानि स्युः। अपाचि पच्यते पक्ष्यते वा ओदनः स्वयमेव, अदोहि दुग्धे धोक्ष्यते वा गौः स्वयमेव, उदुम्बरः फलं पच्यते, अपक्त पक्ष्यते वा स्वयमेव, दुग्धे अदुग्ध धोक्ष्यते वा पयो गौः स्वयमेव ॥ ८७ ॥ न कर्मणा त्रिच् । ३ । ४ । ८८ । पचिदुहिभ्यां कर्मणा योगे अनन्तरोक्ते कर्तरि जिच् न स्यात् । अपक्त उदुम्बरः फलं स्वयमेव, अदुग्ध गौः पयः स्वयमेव । कर्मणेति किम् ? अपाचि ओदनः स्वयमेव । अनन्तरोक्त कर्तरीत्येव ? अपाच्युदुम्बरः फलं वायुना ॥ ८८ ॥ • रुधः । ३ । ४ । ८९ । रुधोऽनन्तरोक्ते कर्तरि जिच् न स्यात् । अरुद्ध गौः स्वयमेव ॥ ८९॥ स्वर-दुहो वा । ३ । ४ । ९०। स्वरान्ताद् दुहेश्चानन्तरोक्ते कर्तरि बिच् वा स्यात् । अकृत, अकारि वा कटः स्वयमेव । अदुग्ध अदोहि वा गौः स्वयमेव ॥ ९ ॥ तपः कर्चनुतापे च । ३ । ४ । ९१ । तपेः कर्मकर्तरि, कर्तर्यनुतापे चार्थे जिच् न स्यात् । अन्ववातप्त कितवः स्वयमेव, अतप्त तपांसि साधुः, अन्वतप्त चैत्रेण, अन्ववातप्त पापः स्वकर्मणा। कर्चनुतापे चेति किम् ? अतापि पृथिवी राज्ञा ॥ ९१ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३२] हैमशब्दानुशासनस्य णि-स्नु-श्रयात्मने पदाऽकर्मकात् । ३ । ४ ।९२। ण्यन्तात्, स्नुश्रिभ्यामात्मनेपदविधावकर्मकेभ्यश्च कर्मकर्तरि बिच् न स्यात् । अपीपचदोदनं चैत्रेण मैत्रः, अपीपचतौदनः स्वयमेव । प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेव, उदशिश्रियत दण्डः स्वयमेव, व्यकृत सैन्धवः स्वयमेव ॥१२॥. भूषार्थ-सन्-किरादिभ्यश्च जिक्यौ । ३ । ४।९३ । भूषार्थेभ्यः, सन्नन्तेभ्यः, किरादिभ्यो ण्यादिभ्यश्च कर्मकर्तरि जिक्यो न स्याताम्। भूषार्थ, अलमकृत कन्या स्वयमेध, अलंकुरुते कन्या स्वयमेव । सन् , अचिकीर्षिष्ट, चिकीपते वा कटः स्वयमेव । किरादिः, अकीट, किरते वा पांशुः स्वयमेव, अगीट गिरते वा ग्रासः स्वयमेव । णि, कारयते कटः स्वयमेव, चोरयते गौः स्वयमेव, प्रस्नुते गौः स्वयमेव । श्रि, उच्छ्रयते दण्डः स्वयमेव । आत्मनेपदाकमकात्, विकुर्वते सैन्धवाः स्वयमेव ॥ ९३ ॥ करणक्रियया क्वचित् । ३ । ४ । ९४ । एकधातौ पूर्वदृष्टया करणस्थया क्रियया एकाकर्मक्रिये कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि स्युः, क्वचित् । परिवारयन्ते कण्टका वृक्षं स्वयमेव । क्वचिदिति किम् ? साध्वसिः छिनत्ति ॥ ९४ ॥ इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ तृतीयोऽध्यायः समाप्तः॥३॥४॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् ॥ अथ चतुर्थाध्याये प्रथमः पादः॥ द्विर्धातुः परोक्षा-डे, प्राक् तु स्वरे स्वरविधेः ।४।१।१। परोक्षायां के च परे धातुर्द्विः स्यात् , स्वरादौ तु द्वित्वनिमित्ते स्वरस्य कार्यात् प्रागेव । पपाच, अबकमत। धातुरिति किम् ? प्राशिश्रियत्। प्रागिति किम् ? चक्रतुः। स्वर इति किम् ? जेधीयते । स्वरविधेरिति किम् ? शुशाव ।प्राक् तु स्वरे स्वरविधेरिति आद्विवचनमधिकारः ॥१॥ आद्योऽश एकस्वरः । ४ । १ ।२। __ अनेकस्वरस्य धातोराद्य एकस्वरोऽवयवः परोक्षा डे. परे द्विः स्यात् । जजागार । अचीकणत्, अचकाणत् । अचीकरत् ॥ २ ॥ सन्-यड श्च । ४।१।३। .. सनन्तस्य यङन्तस्य चाऽऽद्य एकस्वरोंऽशो द्विः स्यात् । तितिक्षते, पापच्यते ॥३॥ . स्वराऽऽदेर्दितीयः । ४ । १।४।। स्वरादेयुक्तिभाजो द्वितीयोंश एकस्वरो द्विः स्यात् । अटिटिषति, अशाश्यते । प्राक् तु स्वरे स्वरविषे. रित्येव ? आटिटत् ॥ ४॥ दुओश्विधातोः परोक्षारूपम् । स्वरस्य कार्य वृद्धिगुणादेशादि । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३४] हैमशब्दानुशासनस्य न ब-द-नं संयोगाऽऽदिः। ४ । १ । ५। स्वरादेर्धातोर्द्वितीयस्यांशस्यैकस्वरस्य बदनाः संयोग स्याऽऽद्या न द्विः स्युः । उब्जिजिपति, अहिटिषति, उन्दि. दिपति । संयोगादिरिति किम् ? प्राणिणिषति ॥ ५ ॥ अयि रः । ४ । १ । ६। .. स्वरादेर्धातोर्द्वितीयस्यांशस्यैकस्वरस्य संयोगादी रो द्विर्न स्यात्, न तु राद् अनन्तरे यि । अर्चिचिषति । अ. यीति किम् ? अरायते ॥ ६ ॥ नाम्नो द्वितीयाद् यथेष्टम् । ४ । १।७। . स्वरादेर्नामधातोत्विभाजो द्वितीयादारभ्यैकस्वरोंऽशो यथेष्टं द्विः स्यात् । अशिश्वीयिषति,, अश्वीयियिषति, अश्वीयिषिषति ॥ ७॥ __ अन्यस्य । ४ । १।८। स्वरादेन मधातोरन्यस्य द्वित्वभाज एकस्वरोंऽशो यथेष्टं प्रथमादिर्द्विः स्यात् । पुपुत्रीयिषति, पुतित्रीयिषति, पुत्रीयियिषति, पुत्रियिषिषति ॥८॥ कण्डवादेस्तृतीयः । ४ । १।९। :: कण्ड्वादेर्द्वित्वभाज एकस्वरोंऽशस्तृतीय एव द्विः स्यात् । कण्डूयियिषति, असूयियिषति ॥ ९॥ पुनरेकेषाम् । ४ । १ । १०। एकेषां मते द्वित्वे कृते पुनर्द्वित्वं स्यात् । सुमोषुपिषते । एकेषामिति किम् ? सोषुपिषते ॥१०॥ . यिः सन् वेयः । ४ । १ । ११ । ई? द्वित्वभाजो यि सन् वा द्विः स्यात् । ईष्यि Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः ____ [२३५] यिषति, ईयिपिषति ॥ ११॥ __ हवः शिति । ४ । १ । १२ । जुहोत्यादयः शिति द्विः स्युः । जुहोति ॥१२॥ चराचर-चलाचल-पतापत-वदावद-घनाघन पाटूपटं वा। ४ । १ । १३ । एतेचि कृतद्वित्वादयो वा निपात्यन्ते । चराचरः, चलाचलः, पतापतः, वदावदः, घनाघनः, पाटूपटः । पक्षे, चरः, चलः, पतः, वदः, हनः, पटः ॥ १३ ॥ चिक्लिद-चक्नसम् । ४ । १ । १४ । ... एतौ केचि च कृतद्वित्वौ निपात्येते। चिक्लिदः, . चक्नसः ॥ १४ ॥ -दा-स्वत्-साहत्-मीदवत् । ४ । १।१५। . . एतेक्वसावद्वित्वादयो निपात्यन्ते । दास्वांसो, साहांसी, मीढ्वांसौ ॥ १५ ॥ ज्ञप्यापो जीपीए, न च द्विः सि सनि । ४ | १ | १६ । ज्ञपेरापेश्च सादौ सनि परे यथासंख्यं ज्ञीप्-इपौ स्यातां, नचाऽनयोरेकस्वरोंऽशो द्विः स्यात् । ज्ञीप्सति, ईप्सति । सीति किम् ? जिज्ञपयिषति ॥ १६ ॥ ऋध इत् । ४।१।१७। ऋधः सादौ सनि परे ईात्, न चास्य द्विः। ईसति । सीत्येव ? अदिधिषति ॥ १७॥ .... Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३६ ] हैमशब्दानुशासनस्य दम्भोधि धीप् । ४ । १ । १८ । दम्भेः सनिधीपौ स्यातां न चास्य द्विः । धिप्सति । सीत्येव । दिदिम्भिषति ॥ १८ ॥ अव्याप्यस्य मुचेर्मोक् वा । ४ । १ । १९ । मुचेरकर्मणः सि सनि मोक् वा स्यात्, न चास्य द्विः । मोक्षति, मुमुक्षति चैत्रः । अव्याप्यस्येति किम् ? मुमुक्षति वत्सम् ॥ १९ ॥ मि-मी-मा-दामित् स्वरस्य । ४ । १ । २० । मिमीमादासंज्ञानां स्वरस्य सि सनि इत् स्यात्, न च द्वि । मित्सति, मित्सते, मित्सते, दित्सति, धित्सति ॥ २० ॥ रभ-लभ-शक-पत-पदामिः । ४ । १ । २१ । एषां स्वरस्य सिसनि इः स्यात् न च द्विः । आरिप्सते, लिप्सते, शिक्षति, पित्सति, पित्सते । सीत्येव ? पिपतिषति ॥ २१ ॥ राधेवेधे । ४ । १ । २२ । राधे हिंसार्थस्य सि सनि स्वरस्य इः स्यात्, न च द्विः । प्रतिरित्सति । वध इति किम् ? आरिरात्सति ॥ २२ ॥ अबित्परोक्षा - सेवोरेः । ४ । १ । २३ । राधेहिसार्थस्याविति परोक्षायां धवि च सेटि स्वरस्य एः स्यात्, न च द्विः । रेधुः, रेधिथ । अविदिति किम् ? अपरराध । बध इत्येव १ आरराधतुः ॥ २३॥ अनादेशाऽऽदे रेकव्यञ्जनमध्येऽतः । ४ । १ । २४ । अवित्परोक्षासेदूथवोः परयोर्योऽनादेशाऽऽदिस्तत्सम्ब w Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२३७] न्धिनः स्वरस्यातोऽसहायव्यञ्जनयोर्मध्यगतस्य एः स्यात्, न च द्विः । पेचुः, पेचिथ, नेमुः, नेमिथ । अनादेशादेरिति किम् ? बभणतुः । एकव्यञ्जनमध्य इति किम् ? ततक्षिथ । अत इति किम् ? दिदिवतुः । सेथवीत्येव, पपक्थ ||२४|| तृ त्रप-फल- भजाम् | ४ | १ | २५ | एषामवित्परोक्षासेट्र्थवोः स्वरस्यैः स्यात् न च द्विः । तेरुः, तेरिथ, श्रेपे, फेलुः, फेलिथ, भेजुः, भेजिथ ॥ २५ ॥ ܙ भ्रम-वमन्त्रस- फणस्यम-स्वन-राज-भ्राजभ्रासभ्लासो वा । ४ । १ । २६ । " एषां स्वरस्याऽवित्परोक्षासेटूथवोरेर्वा स्यात् न च द्विः । जेरुः, जजरुः । जेरिथ, जजरिथ । भ्रमुः बभ्रमुः । मिथ, बभ्रमिथ । वेमुः ववमुः । वेमिथ ववमिथ । त्रेसुः, तसुः । सिथ, तत्रसिथ । फेणुः, पफणुः । फेणिथ, पफणिथ । स्येमुः, सस्यमुः । स्येमिथ, सस्यमिव । स्वेनुः, सस्वतुः । स्वनिध, सस्वनिथ । रेजुः रराजुः । रेजिथ, रराजिथ । भेजे, बभ्राजे | से, बभ्रासे । भ्लेसे, बम्लासे ॥ २६ ॥ वा श्रन्थ-ग्रन्थो नलुक् च | ४ | १| २७ । अनयोः स्वरस्यावित्परोक्षासेट्थवोरेर्वा स्यात्, त द्योगे च नो लुक्, न च द्विः । श्रेयुः शश्रन्धुः । श्रथिथ । शश्रन्थि । ग्रेथुः जग्रन्थुः । ग्रेथिथ, जग्रन्थि ॥ २७ ॥ दम्भः । ४ । १ । २८ । दम्भेः स्वरस्यावित्परोक्षायामेः स्यात् न च द्विः, त Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३८ ] हैमशब्दानुशासनस्य द्योगे च नो लुक् । देभुः ॥ २८ ॥ थे वा । ४ । १ । २९ । दम्भेः स्वरस्य थवि एव स्यात्, तद्योगे च नो लुक्, न च द्विः । देभिथ, ददम्भथ ॥ २९ ॥ न शस-ददि-वादि-गुणिनः । ४ । १ । ३०| शसिदयोर्वादीनां गुणिनां च स्वरस्यैर्न स्यात् । विशशसुः विशशसिथ, दददे, बबले, विशशरुः, विशशरिथ ॥ ३० ॥ हौ दः । ४ । १ । ३१ । दासंज्ञस्य हौ परे एः स्यात् न च द्विः । देहि, धेहि ॥ ३१ ॥ देर्दिगि: परोक्षायाम् । ४ । १ । ३२ । देङः परोक्षायां दिगिः स्यात्, नच द्विः । दिग्ये ॥३२॥ ङे पिबः पीप्यू । ४ । १ । ३३ । यन्तस्य पिबतेर्डे परे पीप्य् स्यात् न च द्विः । अपीव्यत् ॥ ३३ ॥ अङ हि-हनो हो घः पूर्वात् |४| २|३४| हिनोर्डवर्जे प्रत्यये परे द्वित्वे सति पूर्वस्मात् परस्य हो घः स्यात् । प्रजिघाय, जघन्यते । अङ इति किम् ? प्राजीहयत् ॥ ३४ ॥ जेर्गिः सन्- परोक्षयोः । ४ । १ । ३५ । सन्परोक्षयोर्द्वित्वे सति पूर्वात् परस्य जेर्गि: स्यात् । जिगीषति, विजिग्ये ॥ ३५ ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः चेः किर्वा । ४ । १ । ३६ । सन्परोक्षयोर्द्वित्वे सति पूर्वस्मात् परस्य चेः किव स्यात् । चिकीषति, चिचीषति । चिक्ये, चिच्ये ॥ ३६ ॥ पूर्वस्यास्वे स्वरे खोर व् । ४ । १ । ३७ । द्वित्वे सति यः पूर्वस्तत्सम्बन्धिनोरिवर्णो वर्णयोरस्बे स्वरे परे इयुवा स्याताम् । इयेष, अरियर्त्ति उवोष । अस्व इति किम् ? ईषतुः । स्वर इति किम् ? इयाज ॥ ३७ ॥ ऋतोऽत् । ४ । १ । ३८ | [२३९] द्वित्वे सति पूर्वस्य ऋतोऽत् स्यात् । चकार ॥ ३८ ॥ ह्रस्वः | ४ | १ | ३९ । द्वित्वे सति पूर्वस्य ह्रस्वः स्यात् । पपौ ।। ३९ ।। ग- होर्जः । ४ । १ । ४० । द्वित्वे सति पूर्वयोर्गहोर्जः स्यात् । जगाम, जहास 1180 11 द्युतेरिः । ४ । १ । ४१ । तेर्द्वित्वे सति पूर्वस्य इः स्यात् । दिद्युते ॥ ४१ ॥ द्वितीय - तुर्ययोः पूर्वौ । ४ । १ । ४२ । । द्वित्वे पूर्वयोर्द्वितीयतुर्ययोर्यथासङ्ख्यं पूर्वौ आद्यतृतीयौ स्याताम् । चखान, जझाम ॥ ४२ ॥ तिर्वा ष्ठिवः । ४ । १ । ४३ । ठिवेर्द्वित्वे सति पूर्वस्य तिर्वा स्यात् । तिष्ठेव, टिष्ठेव ॥ ४३ ॥ १ यङ्लुपि रूपम् । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४०] हैमशब्दानुशासनस्य व्यञ्जनस्याऽनादेर्लुक् । ४ । १ । ४४। द्वित्वे पूर्वस्य व्यञ्जनस्यानादेलक् स्यात् । जग्ले । अनादेरिति किम् ? आदेर्मा भूत् , पपाच ॥४४ ।। अघोषे शिटः । ४।१।४५। - द्वित्वे पूर्वस्य शिटस्तत्सम्बन्धिन्येवाघोषे लुक् स्यात् । चुइच्योत । अघोष इति किम् ? सस्नौ ॥ ४५ ॥ क-उश्च-ञ् । ४ । १ । ४६ । द्वित्वे पूर्वयोः कडोर्यथासङ्ख्यं चजौ स्याताम् । चकार, बुडुवे ।। ४६॥ न कवतेयेङः। ४ । १।४७ । यङन्तस्य कवतेर्द्वित्वे सति पूर्वस्य कश्चो न स्यात् । कोकूयते खरः। कवतेरिति किम् ? कौति-कुवत्योर्मा भूत् । चोकूयते । यङ इति किम् ? चुकुवे ॥ ४७ ॥ आ-गुणावन्यादेः। ४ । १ । ४८ । यङन्तस्य द्वित्वे पूर्वस्य न्याद्यागमवर्जस्य आगुणौ स्याताम् । पापच्यते, लोलूयते । अन्यादेरिति किम् ? व. नीवच्यते, जञ्जप्यते, यंयम्यते ॥ ४८॥ नहाको लुपि । ४ । १ । ४९ । हाको द्वित्वे पूर्वस्य यको लुपि आन स्यात्। जहेति ॥४९॥ वञ्च-स्रंस-ध्वंस-भंस-कस-पत-पद-स्कन्दोऽन्तो नीः ४।१ । ५०। एषां यङन्तानां द्वित्वे पूर्वस्य नीरन्तः स्यात् । वनी१ सू० १-१-१६ पृ. ३ शिट् संज्ञा । सू० १-१-२३ पृ. ३ अघोष सञ्ज्ञा द्रष्टव्या । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ २४१ ] वच्यते, सनीस्रस्यते, दनीध्वस्यते, बनीभ्रस्यते, चनीकस्यते, पनीपत्यते, पनीपद्यते, चनीस्कद्यते ॥ ५० ॥ मुरतोऽनुनासिकस्य । ४ । १ । ५१ । आत् परो योऽनुनासिकः, तदन्तस्य यङन्तस्य द्वित्वे पूर्वस्य मुरन्तः स्यात् । बम्भण्यते । अत इति किम् ? तेतिम्यते । अनुनासिकस्येति किम् ? पापच्यते ॥ ५१ ॥ जपजभ-दह-दश-भञ्ज- पशः । ४ । १ । ५२ | एषां तानां द्वित्वे पूर्वस्य मुरन्तः स्यात् । जञ्जप्यते, जञ्जभ्यते, दन्दह्यते, दन्दश्यते, बम्भज्यते, पम्पश्यते ॥ ५२ ॥ चर-फलाम | ४ | १ | ५३ | एषां तानां द्वित्वे पूर्वस्य मुरन्तः स्यात् । चञ्चूर्यते, पम्फुल्यते ॥ ५३ ॥ ति चोपान्त्याऽतोऽनोद् उः । ४ । १ । ५४ । यङन्तानां चरफलां तादौ च प्रत्यये उपान्त्यस्यात उः स्यात्, न च तस्योत् । चञ्चूर्यते, पम्फुल्यते, चूर्त्तिः, प्रफुल्लिः । अत इति किम् ? चञ्श्चार्यते, पम्फाल्यते । अनोदिति किम् ? चंचूर्ति, पम्फुल्लि ॥ ५४ ॥ ऋमतां रीः । ४ । १ । ५५ । ऋमतां यङन्तानां द्वित्वे पूर्वस्य रीरन्तः स्यात् । ननृत्यते ॥ ५५ ॥ रि-रौ च लुपि । ४ । १ । ५६ । ऋमतां यहो लुपि द्वित्वे पूर्वस्य रिरौ, रीश्चान्तः १ इमं धातुं दस्यवन्तं न्यासकारादयों मेनिरे इति लघुन्यासे प्रतिपादितम् । ३१ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४२ ] हैमशब्दानुशासनस्य स्यात् । चरिकर्त्ति, चकर्त्त, चरीकर्त्ति ॥ ५६ ॥ निजां शित्येत् । ४ । १ । ५७ । निजिविजिविषां शिति द्वित्वे पूर्वस्यैत् स्यात् । नेनेक्ति, वेवेक्ति, वेवेष्टि । शितीति किम् ? निनेज ॥ ५७ ॥ पृ-ऋ- भू-मा- हाङामिः । ४ । १ । ५८ । एषां शिति द्वित्वे पूर्वस्य इः स्यात् । पिपर्त्ति इयर्त्ति, विभर्त्ति मिमीते, जिहीते । हाङिति किम् ? जहाति । शितीत्येव ? पपार ॥ ५८ ॥ सनि अस्य । ४ । १ । ५९ । • द्वित्वे पूर्वस्यातः सनि परे इः स्यात् । पिपक्षति । अस्येति किम् ? पापचिपते ।। ५९ ।। ओर्जाऽन्तस्था-पवर्गेऽवर्णे । ४ । १ । ६० । द्वित्वे पूर्वस्यतोऽवर्णान्ते जान्तस्थापवर्गे परे सनि इः स्यात् । जिजावयिषति, यियविषति, यियावयिषति, रिरावयिषति, लिलावयिषति, पिपविषते, पिपावयिषते मिमावयिषते । जान्तस्थापवर्ग इति किम् ? जुहावयिषति । अवर्ण इति किम् ? बुभूषति ॥ ६० ॥ श्रु- स्रु-दु-पु-प्लु च्योर्वा । ४ । १ । ६१ । एषां सनि द्वित्वे पूर्वस्योतोऽवर्णान्तायामन्तस्थायां परस्याम् इव स्यात् । शिश्रावयिषति, शुश्रावयिषति । सिस्रावयिषति, सुस्रावयिषति दिद्रावयिषति, दुद्रावयिपति । पिप्रावयिषति, पुप्रावयिषति । पिप्लावयिषति, पुप्लावयिषति । चिच्यावयिषति, चुच्यावयिषति ॥ ६१ ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपवलपुतिः [२४३] स्वपो णावुः । ४ । १ । ६२ स्वपेो सति द्वित्वे पूर्वस्योत् स्यात् । सुष्वापयिषति । णाविति किम् ? सिष्वापकीयिषति । स्वपो णाविति किम् ? स्वापं चिकीर्षति, सिष्वापयिषति । स्वपो णौ सति द्वित्व इति किम् ? सोषोपयिषति ॥ ६२ ॥ असमानलोपे सन्वत् लगुनि डे । ४ । १ । ६३ । न विद्यते समानस्य लोपो यस्मिन् , तस्मिन् उपरे णौ द्वित्वे पूर्वस्य लघुनि धात्वक्षरे परे सनोव कार्य स्यात् । अचीकरत् , अजीजवत् , अशिश्रवत् , । लघुनीति किम् ? अततक्षत् । णावित्येव ? अचकमत । असमानलोप इति किम् ? अचकथत् ॥ ६३ ॥ .. लघोर्दीघोऽस्वरादेः। ४ । १ । ६४। अस्वरादेरसमानलोपे उपरे णौ द्वित्वे पूर्वस्य लघोलघुनि धात्वक्षरे परे दीर्घः स्यात् । अचीकरत् । लघोरिति किम् ? अचिक्वणत् । अस्वरादेरिति किम् ? औण्णुनवत् ।। ६४ ॥ स्मृद-स्वर-प्रथ-प्रद-स्तृ-स्पशेरः । ४ । १ । ६५ । एषामसमानलोपे उपरे णौ द्वित्वे पूर्वस्याऽत् स्यात्। असस्मरतु, अददरत् , अतत्वरत्, अपप्रथत् , अमम्रदत्, अतस्तरत् , अपस्पशत् ।। ६५॥ वा वेष्ट-चेष्टः । ४ । १ । ६६ । अनयोरसमानलोपे ङपरे णौ द्वित्वे पूर्वस्याद्वा स्यात् । १ बहुषु मुद्रितपुस्तकेषु व्याकरणान्तरेषु च विलोकितेषु दृ-स्तृ धातोः कुत्रचिदीर्घत्वं कुत्रचन ह्रस्वत्वं च दृश्यते । परीक्षान्तेऽस्माभिस्तु द्वयोर्दीर्धऋकारान्तत्वमेव साधु मन्यतेऽतोऽत्र दीर्घान्त एव (ऋकारान्तः) पाठोऽङ्गीकृतः । . Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४४] हेमशब्दानुशासनस्य अववेष्टत् , अविवेष्टत् । अचचेष्टत्, अविचेष्टत्॥६६॥ ईच गणः । ४ । १ । ६७। ___ गणेईपरे णौ द्वित्वे पूर्वस्य ईः, अश्व स्यात् । अजीगणत् , अजगणत् ।। ६७॥ अस्याऽऽदेराः परोक्षायाम् । ४ । १।६८.. अस्यां द्वित्वे पूर्वस्याऽऽदेरत आः स्यात् । आदुः,आरतुः । अस्येति किम् ? ईयुः । आदेरिनि किम्? पपाच ॥ ६८॥ अनातो नश्वान्त ऋदाद्यशौ-संयोगस्य । ४ ।१। ६९ । ऋदादेरश्नोतेः संयोगान्तस्य च परोक्षायां द्वित्वे पूर्वस्याऽऽदेरात्स्थानादन्यस्याऽस्यं आः स्यात्, कृताऽऽतो नोऽन्तश्च । आनृधुः, आनशे, आनञ्ज । अदादीति किम् ? और ? अमात इति किम् ? आञ्छ ।। ६९ ॥ भू-स्वपोरदुतौ । ४ । १ । ७० । __ भूस्वपोः परोक्षायां द्वित्वे पूर्वस्य यथासंख्यमदुतो स्याताम् । बभूव, सुष्वाप ॥ ७० ॥ ज्याव्ये व्यधि-व्यचि-व्यथेरिः । ४।१।७१ । एषां परोक्षायां द्वित्वे पूर्वस्य इः स्यात् । जिज्यौ, संविव्याय, विव्याध, विव्याच, विव्यथे ।। ७१॥ १ एकस्यैत्र शब्दत्वादाद्यन्तविभागोऽत्र नास्ति, ततः “अस्यादेशः......” इति सूत्रेणाऽऽकारः। आग्छ इति आछु व्यायामार्थधातोः परोक्षायां रूपम् । सिद्धान्तचन्द्रिका-रत्निकामते तु आछोर्विकल्येन नोऽन्तत्वं भवति । तेन अनाञ्छ इत्यपि. रूप भवति लन्मते । अशौनिर्देशाद् ' अयश् भोजने इत्यस्मै नेदं सूत्रमुपयुज्यते । .. . ... ... ... ... ... . . ... . Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४५ ] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः यजादि-वश्वयः सस्वरान्तस्था इ उ ऋत् |४|१।७२ ॥ यजादेर्वश्वचोश्च परोक्षायां द्वित्वे पूर्वस्य सस्वरान्तस्था इ-उ-ऋरूपा प्रत्यासत्त्या स्यात् । इयाज, उवाय, उवाश, उवाच ॥ ७२ ॥ न वयो य् । ४ । १ । ७३ । वेगो वो यूपरोक्षायां वृत् न स्यात् । ऊयुः ॥ ७३॥ वेरयः । ४ | १ | ७४ | वेगोऽयन्तस्य पूर्वस्य परस्य च परोक्षायां वृन्न स्या त् । ववौ । अय इति किम् ? उवाय ॥ ७४ ॥ अविति वा । ४ । १ । ७५ । वेगोऽयन्तस्याविति परोक्षायां वृद्वा न स्यात् । ववुः ऊचुः ।। ७५ ।। ज्यश्च यपि । ४ । १ । ७६ । ज्यो वेगश्च यपि वृन्न स्यात् । प्रज्याय, प्रवाय ॥ ७६ ॥ व्यः । 8 । १ । ७७ । व्यो यपि वृन्न स्यात् । प्रव्याय ॥ ७७ ॥ संपर्वा | ४ | १ | ७८ । आभ्यां परस्य व्यो यपि वृद्वा न स्यात् । संव्याय, संवीय | परिव्याय । परिव्याय । परिवीय ॥ ७८ ॥ 1 यजादि-वचेः किति । ४ । १ । ७९ । यजादेवचेश्च सस्वरान्तस्था किति परे वृत् स्यात् :, ऊयुः, ऊचुः । कितीति किम् ? यक्षीष्ट ॥ ७९ ॥ ईजुः, Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४६] हैमशब्दानुशासनस्य स्वपेयङ्-डे: च। ४ । १।८०। .. स्वपेर्यङि डे किति च परे सस्वरान्तस्था यवृत् स्यात्। सोषुप्यते, असूषुपत् , सुषुप्सति ॥ ८ ॥ ... ज्या व्यधः क्छिति । ४ । १ । ८१ । - ज्याव्यधोः सस्वरान्तस्था किति डिति यवृत् स्यात् । जीयात् , जिनाति, विध्यात् , विध्यति ॥ ८१ ॥ .. व्यचोऽनसि । ४ । १।८२ । व्यचेः सस्वरान्तस्था अस्वर्जे क्ङिति वृत् स्यात् । विचति । अनसीति किम् ? उरुव्यचाः ।। ८२ ॥ शेरयडिः । ४ १। ८३ । वशेः सस्वरान्तस्था अयङि क्ङिति स्वृत् स्यात् । उष्टः, उशन्ति । अयडीति किम् ? वावश्यते ॥ ८३॥ ग्रह-वश्व-भस्ज-प्रच्छः । ४ । १ । ८४ । एषां सस्वरान्तस्था क्ङिति वृत् स्यात् । जगृहुः, गृ. हाति, वृक्णः, वृश्चति, भृष्टः, भृजति, पृष्टः, पृच्छा ।।८४॥ व्ये-स्यमोयडि ।४।१।८५। व्येग्स्यमोः सस्वरान्तस्था यङि वृत् स्यात् । वेवीयते, सेसिमीति ॥८५ ॥ चायः कीः।४।१।८६। .. चायो यडि की: स्यात् । चेकीतः ॥ ८६ ॥ दिवे हः।४।१।८७ हवेगो द्वित्वविषये सस्वरान्तस्था यवृत् स्यात् । जुहू, पति ।। ८७ ॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुकृत्तिः [२४७] णौ ङ-सनि । ४ । १ । ८८ । । वेगः सस्वरान्तस्था ङपरे सन्परे च णौ विषये वृत् स्यात् । अजूहवत्, जुहावयिषति ॥ ८८ ॥ श्वेर्वा । ४ । १ । ८९। श्वेः सस्वरान्तस्था ङपरे, सन्परे णौ विषये वृद्वा स्यात् । अशूशवत् , अशिश्वयत्। शुशावयिषति, शिश्वाययिषति ॥ ८९ ॥ वा परोक्षा-यङि । ४ । १ । ९० । श्वः सस्वरान्तस्था परोक्षायडोद्वा स्यात्। शुशाव, शिश्वाय । शोशूयते, शेश्वीयते ॥९० ॥ __प्यायः पीः। ४ । १ । ९१ । प्यायः परोक्षायडोः पीः स्यात् । आपिप्ये, आपेपीतः ॥९१॥ क्तयोरनुपसर्गस्य । ४ । १ । ९२ । अनुपसर्गस्य प्यायेः क्तक्तवतोः पीः स्यात् । पीनम् , पीनवन्मुखम् । अनुपसर्गस्येति किम् ? प्रप्यानो मेघः ॥ ९२ ॥.. आङोऽन्धूधसोः । ४ । १ । ९३ । आङः परस्य प्यायेरन्धौ, ऊधसि चार्थे क्तयोः परतः पीः स्यात् । आपीनोऽन्धुः, अपीनमूधः । अन्धूधसोरिति किम् ? आप्यानश्चन्द्रः। आङ एवेति नियमात्, प्राप्यानमूधः ॥ ९३॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४८] हैमशब्दानुशासनस्य स्फायः स्फीर्वा । ४ । १ । ९४ । स्फायतेः क्तयोः परयोः स्फीर्वा स्यात् । स्फीतः, स्फी. तवान् । स्फातः, स्फातवान् ॥ ९४ ।। प्रसमः स्त्यः स्तीः। ४ । १ । ९५ । प्रसमसमुदायपूर्वस्य स्त्यः क्तयोः परयोः स्तीः स्यात्। प्रसंस्तीतः, प्रसंस्तीतवान् । प्रसम इति किम् ? संप्रस्त्या. नः॥ ९५ ।। प्रात् तश्च मो वा । ४ । १। ९६ । प्रात् केवलात् परस्य स्त्यः क्तयोः परयोःस्तीः स्यात् , क्तयोस्तो मश्च वा । प्रस्तीतः प्रस्तीतवान्।प्रस्तीमः, प्रस्ती. मवान् ॥९६ ॥ श्यः शीवमूर्ति-स्पर्शे नश्वाऽस्पर्शे । ४ । १।९७। 'मूर्तिः काठिन्यम् , द्रवमूर्तिस्पर्शार्थस्य श्यः क्तयोः परयोः शीः स्यात् , तद्योगे च क्तयोस्तोऽस्पर्शविषये नश्च । शीनम् , शीनवद् घृतम् , शीतं वर्तते, शीतो वायुः ॥९७॥ प्रतेः। ४ । १।९८। । प्रतेः परस्य श्यः क्तयोः परयोः शीः स्यात् , तद्योगे क्तयोः तो न च । प्रतिशीनः, प्रतिशीनवान् ॥९८ ॥ वाऽभ्यवाभ्याम्। ४ ।। ९९ । आभ्यां परस्य श्यः क्तयोः परयोः शीर्वा स्यात् , तद्योगे च क्तयोः तोऽस्पर्श नश्च । अभिशीनः, अभिशीनवान् । अभिश्यानः, अभिश्यानवान् । अवशीनम् , अवश्यानं हिमम् । अवशीनवान् , अवश्यानवान् ॥ ९९ ।। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२४९] . श्रः शृतं हविः-क्षीरे । ४ । १ । १०० । __ातेः श्रायतेश्च ते हविषि क्षीरे चार्थे शर्निपात्यते । शृतं हविः, शृतं क्षीरं स्वयमेव । हविक्षीर इति किम् ? श्राणा यवागूः ॥ १०० ॥ श्रपेः प्रयोक्त्रेक्ये । ४ । १ । १०१।। भातेः श्रायतेर्वा ण्यन्तस्यैकस्मिन् प्रयोक्तरिक्ते परे हविक्षीरयोः श्रनिपात्यते । शृतं हविः क्षीरं वा चैत्रेण । हविक्षीर इत्येव ? अपिता यवागूः । प्रयोक्नैक्य इति किम् १ अपितं हविश्चैत्रेण मैत्रेण ॥ १.१॥ __ स्वृत् सकृत् ४ । १ । १०२ । अन्तस्थास्थानामि उ-ऋत्सकदेव स्यात् । संवीयते ॥ १०२ ॥ दीर्घमवोऽन्त्यम् । ४ । १ । १०३ । वेग्वर्जस्य य्वृदन्त्यं दीर्घ स्यात् । जीनः । अव इति किम् ? उतः। अन्त्यमिति किम् ? सुप्तः ॥ १०३ ॥ स्वस्हनगमोः सनि 'धुटि । ४ । १ । १०४ । .. स्वरान्तस्य हन्गमोश्च धुडादौ सनि दीर्घः स्यात् । चिचीपति, जिघांसति, संजिगांसते । धुटीति किम् ? यियविषति ॥१०४ ॥ तनो वा । ४ । १ । १०५ । तनेधुंडादौ सनि दीर्घो वा स्यात् । तितांसति, तितंसति । धुटीत्येव ? तितनिषति ॥ १०५ ॥ १ "अपञ्चमान्तस्थो धु” (१-१-११ पृ० ३) ३२ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५०] हेमशब्दानुशासनस्य क्रमः क्वि वा । ४।१ । १०६ । क्रमो धुडादौ क्त्वि दीयों वा स्यात् । क्रान्त्वा, क्रन्त्वा । धुटीत्येव ? ऋभित्वा ॥ १०६॥ अहन-पञ्चास्य किस-किडति । ४।१।१०७। हवनस्य पश्चमान्नस्य क्यो, धुडादौ च विति दीर्घः स्यात् । प्रशान् , शालः, शंशान्तः । पञ्चमस्येति किम् ? पक्त्वा । अहन्निति किम् ? वृत्रहणि । धुटीत्येव ? यम्यते ॥ १०७॥ अनुनासिकेच च्छ्वः शूद् । ४ । १ । १०८ । अनुनासिकादौ क्वौ धुडादौ च धातोः च्छ्वोर्यथास ङ्ख्यं श्-ऊटौ स्याताम् । प्रश्ना, शब्दप्राशो, पृष्टः,स्योमा, अक्षयूः, द्यूतः ॥ १०८॥ मव्यवि-श्रिवि-ज्वरि-त्वरेरुपान्त्येन । ४।१। १०९ । एषामनुनासिकादौ क्वौ धुडादौ च प्रत्यये उपान्त्येन सह ऊट् स्यात् । मोमा, मूः, मूतिः, ओमा, ओम् , ऊ, अतिः श्रोमा, श्रूः, धृतिः, जूर्मा, जून, जूर्तिः, सूर्मा, तूः, तूर्णः ॥ १०९ ॥ रात् लुक् । ४ । १ । ११० । रात् परयोः छ्वोरनुनासिकादो क्वौ, धुडादौ च प्रत्यये लुक् स्यात्। मोर्मा, मूः, मूर्तिः। तोर्मा, तूः, तूर्णः ॥११०॥ १ क्रीडाद्यर्थस्य दिवूच धातोनिण्पन्नोऽयम् । वकारस्य उद संजातः । २ मूर्छाधातोरिदं रूपत्रयम् । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२५१] क्तनिटश्च जोः कगौ घिति । ४।१।१११ । • तेनिटो धातोश्चजोर्घिति यथासंख्यं कगो स्याताम् । पाकः, भोग्यम् । क्तेऽनिट इति किम् ? सङ्कोचा, कूजा ॥१११॥ न्यड्.कूद-मेघाऽऽदयः । ४ । १ । ११२। न्यवादयः कत्वे, उद्गादयो गत्वे, मेघादयो घत्वे कृते निपात्यन्ते । न्यड्डः, शोकः, उद्गः, न्युद्गः, मेघः ओघः ॥ ११२॥ न वञ्चेर्गतौ । ४।१ । ११३ । गत्यर्थस्य वञ्चेः कत्वं न स्यात् । वञ्चं वश्चन्ति । गताविति किम् ? वङ्क काष्ठम् ॥ ११३ ॥ यजेयज्ञाले।४।१। ११४ । यज्ञानवृत्तेर्यजेर्गत्वं न स्यात् । पञ्च प्रयाजाः । यज्ञान . इति किम् ? प्रयागः ॥ ११४ ॥ . ध्यण्यावश्यके । ४ । १ । ११५ । आवश्यकोपाधिके ध्यणि चजोः कगौ न स्याताम् । अवश्यपाच्यम्, अवश्यरज्यम् । आवश्यक इति किम् ? पाक्यम् ॥ ११५॥ नि-प्रादु युजः शक्ये । ४ । १ । ११६ । आभ्यां युजः शक्ये गम्ये घ्याण गो न स्यात् । नियो. ज्यः, प्रयोज्यः । शक्य इति किम् ? नियोग्यः ॥ ११६ ॥ भुजो भक्ष्ये । ४।१। ११७ । भुजो भक्ष्यार्थे ध्यणि गो न स्यात् । भोज्यं पयः। भक्ष्य इति किम् ? भोग्या भूः ॥ ११७ ॥ १ गन्तव्यं गच्छन्तीति भावः। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५२] हैमशब्दानुशासनस्य त्यज-यज-प्रवचः । ४ । १ । ११८ । एषां घ्यणि कगौ न स्याताम् । त्याज्यम् , याज्यम् , प्रवाच्यः ॥ ११८ ॥ वचोऽशब्दनाम्नि । ४ । १ । ११९ । अशब्दसंज्ञायां वचेय॑णि को न स्यात् । वाच्यम् । अशब्दनाम्नीति किम् ? वाक्यम् ॥ ११९॥ . भुज-न्युजं पाणि-रोगे। ४ । १ । १२० । भुजेन्युन्जेश्च घअन्तस्य पाणौ रोगे चार्थे यथासंख्यं भुजन्युजौ निपात्येते।भुजः पाणिः,न्युजोरोगः॥१२०॥ वीरुध्-न्यग्रोधौ । ४११ । १२१ । विपूर्वस्य रुहेः विपि,न्यपूर्वस्य चाचि वीरुन्न्यग्रोधौ एतौ धान्तौ निपात्येते । वीरुत्, न्यग्रोधः ॥ १२१ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः॥४।१॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयः पादः॥ आत् सन्ध्यक्षरस्य । ४ । २ । १ । धातोः सन्ध्यक्षरान्तस्याऽऽत् स्यात् । संव्याता, सुग्लः। धातोरित्येव ? गोभ्याम् ॥ १॥ न शिति । ४ । २।२। सन्ध्यक्षरान्तस्य शिति विषयभूते आत् न स्यात् । संध्ययति ॥ २॥ ___ व्यः थव-णवि । ४ । २।३ । व्यः थवि णवि च विषये आन्न स्यात् । संविव्याय, संविव्ययिथ ॥३॥ स्फुर-स्फुलोर्घत्रि । ४ । २ । ४ । अनयोः सन्ध्यक्षरस्य पनि आत् स्यात् । विस्फारः, विस्फालः॥ ४ ॥ 'वाऽपगुरो णमि । ४ । २ । ५। ___ अपपूर्वस्य गुरेः सन्ध्यक्षरस्य णम्याद्वा स्यात् । अपगारमपगारम् , अपगोरमपगोरम् ॥ ५॥ दीङः सनि वा । ४ । २ । ६ । दीङः सन्याद्वा स्यात् । दिदासते, दिदीषते ॥ ६॥ यपक्डिति । ४।२।७। .. दोडो यपि, अक्डिति चविषये आत् स्यात् । उपदाय, . उपदाता, उपदायो वर्त्तते ॥७॥ १ तोदादिकस्योद्यमार्थस्य गुरतिधातोः । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५४] हैमशब्दानुशासनस्य मिग-मीगोऽखल-अच्-अलि । ४।२।८।. अनयोर्यपि खल-अच्-अल्वर्जेक्ङिति च विषये आत् स्यात् । निमाय, निमाता, प्रमाय, प्रमाता, अखलचलीति किम् ? ईषन्निमयः, दुःप्रमयः, मयः, आमयः, निमयः, प्रमयः॥ ८॥ लीड्-लिनोर्वा । ४ । २ । ९ । अनयोर्यपि खल्-अ-अल्वर्जेऽक्ङिति च विषये आद्वा स्यात् । विलाय, विलीय । विलाता, विलेता। अखलचलीति किम् ? ईषद्विलयः, विलयः, विलयोऽस्ति ॥९॥ णौ क्री-जि-इडः। ४।२।१०। एषां णौ आत् स्यात् । क्रापयति, जापयति, अध्यापयति ॥ १० ॥ सिध्यतेरज्ञाने । ४ । २ । ११ । अज्ञानार्थस्य सिध्यते! स्वरस्याऽऽत् स्यात् । मन्त्रं साधयति । अज्ञान इति किम् ? तपस्तापसं सेधयति । ॥११॥ चि-स्फुरोर्नवा । ४ । २ । १२ । चिस्फुरोो स्वरस्याऽऽद्वा स्यात् । चापयति, चाययति । स्फारयति, स्फोरयति ॥ १२ ॥ वियः प्रजने। ४ । २ । १३ । गर्भाऽऽधानार्थस्य वियो णौ वा आत् स्यात् । पुरा वातो गाः प्रवापयति, प्रवाययति ॥ १३ ॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२५५] रुहः पः। ४ । २ ॥ १४ रुहेरें प्वा स्यात् । रोपयति, रोहयति वा तरुम् ॥१४॥ लियो नोऽन्तः स्नेहदवे । ४ । २।१५। लियः स्नेहद्रवे गम्ये णौ नोऽन्तो वा स्यात् । घृतं विलीनयति, विलाययति । स्नेहव इति किम् ? अयो विलाययति ॥ १५ ॥ लोलः । ४ । २ । १६ । __लारूपस्य णौ स्नेहद्रवे गम्ये लोऽन्तो वा स्यात्। घृतं विलालयति, विलापयति या। स्नेहद्रव इत्येव ? जटाभिरालापयते ॥ १६ ॥ पातेः । ४ । २ ॥ १७॥ पातेो लोऽन्तः स्यात् । पालयति ।। १७ ॥ धूग्-प्रीगोन । ४ । २ । १८ । . धूम्प्रीगोो नोऽन्तः स्यात्। धूनयति, प्रीणयति ॥१८॥ वो विधुनने जः।४।२। १९ । .. वा इत्यस्य विधूननेऽर्थे णौ जोऽन्तः स्यात् । पक्षण उपवाजयति । विधूनन इति किम् ? उच्चैः केशानावापयति ॥ १९॥ पा-शा-छा-सा-वेच्या हो यः।४।२ । २० । एषां णौ योऽन्तः स्यात् । पाययति, शाययति, अवच्छाययति, अवसाययति, वाययति, व्याययति, हाययति ॥२०॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५६] हेमशब्दानुशासनस्य अर्तिरी-ब्ली-ही-क्नूयि-क्ष्मायि-आतां पुः .... ।४।२।२१ । __ एषामादन्तानां च णौ पुरन्तः स्यात् । अर्पयति, रेपयति, उलेपयति, हेपयति, क्नोपयति, मापयति, दापय ति, सत्यापयति, ॥ २१ ॥ स्फायः स्फात् । ४ । २ । २२। णौ स्फायः स्फाव् स्यात् । स्फावयति ॥ २२ ॥ शदिरगतौ शात् । ४ । २ । २३ । शदिरगत्यर्थे णौ शात् स्यात् । पुष्पाणि शातयति । अगताविति किम् ? गाः शादयति ॥२३॥ घटादेर्हस्वो, दीर्घस्तु वा त्रि-णम्परे । ४।२।२४ । . घटादीनां णौ ह्रस्वः स्यात् , नि-णम्परे तु णौ वा दीर्घः । घटयति । अघाटि, अघटि। घाटं घाटम् , घटं घटम् । व्यथयति अव्याथि, अव्यथि । व्याथं व्याथम्, व्यथं व्यथम् ॥ २४ ॥ कगे चनू-जन-जष्-कनस-रक्षः । ४ । २ । २५। एषां णौ हृस्वः स्यात, जि-णम्परे तु वा णो दीर्घः । कगयति । अकागि, अकगि । कागं कागम्, कगं कगम् । उपवनयति । उपावानि, उपावनि । उपवानमुपवानम् , उपवनमुपवनम् । जनयति। अजानि, अजनि। जानं जानम्, जनं जनम् । जरयति । अजारि, अजरि । जारं जारम्, जरं जरम् । क्नसयति । अक्नासि, अक्नसि । क्नासं क्नासम्, क्नसं क्नसम् । रजयति.। अराजि, अरजि । राजं राजम्, रज रजम् ॥ २५ ॥ . Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपशलघुवृत्तिः [२५७] अमोऽकमि-अमि-चमः। ४।२।२६ । कम्यमिचमिवजस्यामन्तस्य णौ हृस्वः स्यात् , त्रिणम्परे तु वा णो दीर्घः। रमयति । अरामि, अरमि । रामं रामम्, रमं रमम् । अकम्यमियम इति किम् ? कामयते, अकामि, कामं कामम्, आमयति, आचामयति ॥ २६ ॥ पर्यपात् स्खदः । ४ । २ । २७ । . आभ्यामेव परस्य स्खदेणौं हृस्वः स्यात्, जिणम्परे तु वा दीर्घः । परिस्खदयति । पर्यस्खादि, पर्यस्खदि । परिम्खादं परिस्खादम्, परिस्खदं परिस्खदम् । अपस्खदयति । अपास्खादि, अपास्खदि । अपस्खादमपस्वादम्, अपस्खदमपस्खदम् । पर्यपादिति किम् १ प्रस्खादयति ॥२७॥ शमोऽदर्शने । ४ । २ । २८॥ : अदर्शनार्थस्य शमेौँ ह्रस्वः स्यात् , जिणम्परे तु वा दीर्घः । शमयति रोगम् । अशामि, अशमि । शाम शामम्, शमं शमम् । अदर्शन इति किम् ? निशामयति रूपम् ॥ २८॥ यमोऽपरिवेषणे णिचि च । ४ । २ । २९ । - अपरिवेषणार्थस्य यमो णिचि अणिचि च णौ हस्थः स्यात्, जिणम्परेतु वा दीर्घः। यमयति । अयामि, अयमि। यामं यामम् , यम यमम् । अपरिवेषण इति किम् ? यामयत्यतिथिम् ॥२९॥ ___मारण-तोषण-निशाने ज्ञश्च । ४ । २ । ३०। एष्वर्थेषु ज्ञो णिचि अणिचि च णौ हृस्वः स्यात् , ३३. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५८ ] हैमशब्दानुशासनस्य ञिणम्परे तु वा दीर्घः । संज्ञपयति पशुम्, विज्ञपयति राजानम्, प्रज्ञपयति शस्त्रम् । अज्ञापि, अज्ञपि । ज्ञापं ज्ञापम्, ज्ञपं ज्ञपम् ॥ ३० ॥ चहणः शाठ्ये । ४ । २ । ३१ । चचुरादेः शाठयार्थस्य णिचि णौ ह्रस्वः स्यात्, ञिणम्परे तु वा दीर्घः । चहयति । अचाहि, अचहि । चाहं चाहम्, चहं चहम् । शाठय इति किम् ? अचहि ॥ ३१ ॥ ज्वल-ह्वल-ह्यल-ग्ला-स्ना-वनू-वम- नमोऽनुपसर्गस्य वा । ४ । २ । ३२ । एषामनुपसर्गाणां णौ ह्रस्वो वा स्यात् । ज्वलयति, ज्वालयति । हृलयति, ह्वालयति । ह्मलयति, ह्यालयति । ग्लपयति, ग्लापयति । स्नपयति, स्नापयति । वनयति, वानयति । वमयति, वामयति । नमयति, नामयति । अनुपसर्गस्येति किम् ? प्रज्वलयति, प्रवलंयति, प्रह्मलयति, प्रलापयति, प्रस्नापयति, प्रवनयति । प्रवमयति, प्रणमयति ॥ ३२ ॥ छदेरिस-मन् त्रट्-क्वौ । ४ । २ । ३३ । छरिस्मन्त्रपिरे णौ ह्रस्वः स्यात् । छदिः, छद्म, छत्री, उपच्छत् ॥ ३३ ॥ एकोपसर्गस्य च वे । ४ । २ । ३४ । एकोपसर्गस्यानुपसर्गस्य च छदेर्घपरे णौ ह्रस्वः स्यात् । प्रच्छदः, छदः । एकोपसर्गस्य चेति किम् ? समुपच्छाद ः ॥ ३४ ॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२५९] • उपान्त्यस्यासमानलोपि-शासु-ऋदितो डे 1४।२।३५। ., समानलोपिशास्वृदिद्वर्जस्य धातोरुपान्त्यस्य ङपरे णो हृस्वः स्यात् । अपीपचत् , मा भवान् अटिटत् । असमानलोपिशास्वृदित इति किम् ? अत्यरराजत् , अशशासत् , मा भवान् ओणिणत् ॥ ३५ ॥ .. भ्राज-भास-भाष-दीप-पीड-जीव-मील-कण-रण-वण भण-श्रण-हवे हेठ-लुट-लुप-लपां-नवा.. ... । ४ । २ । ३६ । एषां उपरे णावुपान्त्यस्य हृस्वो वा स्यात् । अबिभ्रजत् , अवभ्राजत् । अबीभसत्, अबभासत् । अभीभषत्, अबभाषत् । अदीदिपत् । अदिदीपत् । अपीपिडत् , अपिपीडत् । अजीजिवत् , अजिजीवत् , अमीमिलत्, अमिमीलत् । अचीकणत् , अचकाणत् । अरीरणत् , अरराणत् । अवीवणत् , अववाणत् । अबीभणत्, अबभाणत् । अशिश्रणत् , अशाणत् । अजूहवत् , अजुहावत् । अजिहिठत् अजिहेठत् । अलूलुटत् , अलुलोटत् । अलूलुपत् , अलुलोपत् । अलीलपत्, अललापत् ॥ ३६॥ . ऋद्-ऋवर्णस्य । ४ । २।३७। उपान्त्यस्य वर्णस्य ङपरे णौ वा ऋः स्यात् । अवीधृतत् , अववर्त्तत् । अचीकृतत्, अचिकीर्तत् ॥ ३७॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६०] हैमशब्दानुशासनस्य जिघ्रतेरिः । ४ । २ । ३८ । घउपान्त्यस्य ङपरे णौ इर्वा स्यात् । अजिघ्रिपत् , अजिघ्रपत् ॥ ३८ ॥ तिष्ठतेः । ४ । २ । ३९। स्थउपान्त्यस्य ङपरे णो इः स्यात् । अतिष्ठिपत् ॥३९॥ ऊद् दुषो णौ । ४ । २।४०। दुरुपान्त्यस्य णौ ऊत् स्यात् । दूषयति ॥ ४०॥ चित्ते वा । ४ । २ । ४१ । चित्तकर्तृकस्य दुषेरुपान्त्यस्य णौ परे ऊद् वा स्यात् । मनो दूषयति, मनो दोषयति मैत्रः ॥४१॥ गोहः स्वरे । ४ । २ । ४२ । कृतगुणस्य गुहेः स्वरादाबुपान्त्यस्योत् स्यात् । निगू. हति । गोह इति किम् ? निजुगुहुः ॥ ४२ ॥ भुवो वः परोक्षाऽद्यतन्योः ।४।२।४३ । भुवो पन्तस्योपान्त्यस्य परोक्षाऽद्यतन्योरुत् स्यात् । बभूव, अभूवन । व इति किम् ? बभूवान् , अभूत् ॥४३॥ गम-हन-जन-खन-घसः स्वरेऽनङि क्ङिति लुक् ।४।२।४४। एषामुपान्त्यस्याङ्वर्जे स्वरादौ क्ङिति परे लुक् स्यात् । जग्मुः, जघ्नुः, जज्ञे, चख्नुः, जक्षुः । स्वर इति किम् ? गम्यते । अनीति किम् ? अगमत् । क्छिति किम् १ गमनम् ॥४४॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षलघुवृत्तिः [२६१] . नो व्यञ्जनस्यानुदितः । ४ । २ । ४५ । व्यञ्जनान्तस्यानुदितो धातोरुपान्त्यस्य नः क्ङिति परे लुक् स्यात् । स्रस्तः, सनीस्त्रस्यते । व्यञ्जनस्येति किम् ? नीयते । अनुदित इति किम् ? नानन्द्यते ॥ ४५ ॥ अयोऽनर्वायाम् । ४ । २ । ४६ । अनार्थस्यैषाश्चरुपान्त्यनः क्रुिति परे लुक् स्यात् । उदक्तमुक्कं कूपात् । अनर्थायामिति किम् ? अश्चिता गुरवः ॥४६॥ लङ्गि कम्प्योरुपतापाङ्गविकृत्योः । ४।२।४७। अनयोरुपान्त्यनो यथासङ्ख्यमुपतापेऽङ्गविकारे चार्थे विकति परे लुक् स्यात् । विलगिता, विकपितः। उपतापाङ्गविकृत्योरिति किम् ? विलङ्गितः, विकम्पितः ॥४७॥ भञ्जीवां। ४ । २।४८। भञ्जरुपान्त्यनो औ परे लुग् वा स्यात् । अभाजि, अभाजि ॥४८॥ दंश-सञ्जः शवि । ४ । ३। ४९ । अनयोरुपान्त्यनः शवि लुक् स्यात् । दशति, सजति ॥४९॥ अकट-घिनोश्च रजेः। ४ । २ । ५० । रञ्जरकटि घिनणि शवि चोपान्त्यनो लुक् स्यात् । रजकः, रागी, रजति ॥ ५० ॥ - गौ मृगरमणे । ४ । २ । ५१ । रओरुपान्स्यनो णौ मृगाणां रमणेऽर्थे लुक् स्यात् । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६२] हैमशब्दानुशासनस्य रजयति मृगं व्याधः। मृगरमण इति किम् ? रञ्जयति रजको वस्त्रम् ।। ५१ ॥ घत्रि भाव-करणे । ४ । २ । ५२ । रञ्जरुपान्त्यनो भावकरणार्थे घनि लुक् स्यात् । रोगः । भावकरण इति किम् ? आधारे, रङ्गः ॥ ५२ ॥.. स्यदो जवे । ४ । २ । ५३ । स्यन्देपनि नलुक्वृद्ध्यभावौ निपात्येते, वेगेऽर्थे । गोस्यदः । जव इति किम् ? घृतस्यन्दः ॥ ५३॥ दशनाऽवोद-एध-उद्म-प्रश्रय-हिमश्रथम ।४।२। ५४ । एते नलुगादौ कृते निपात्यन्ते । दशनम् , अयोदः, एधा, उद्मः, प्रश्रयः, हिमश्रथः ॥ ५४॥ यमि-रमि-नमि-गमि-हनि-मनि चनति-तनादेधुटि क्ङिति । ४।२।५५।' एषां तनादीनां च धुडादौ क्ङिति लुक् स्यात् । यतः, रत्वा, नतिः, गतः, हतः, मतः, वतिः, ततः, क्षतः । धुटीति किम् ? यम्यते । क्ङितीति किम् ? यन्ता ॥ ५५ ॥.... यपि । ४ । २ । ५६ । यम्यादीनां यपि लुक् स्यात् । प्रहत्य, प्रमत्य, प्रवत्य, प्रतत्य, प्रसत्य ॥ ५६ ॥ वा मः।४।२।५७। यम्यादीनां मान्तानां यपि वा लुक् स्यात् । प्रयत्य, १ रजनं, रज्यते वाऽनेनेति भावकरणोभयस्येदमुदाहरणम् । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२६३] प्रयम्य । विरत्य, विरम्य । प्रणत्य, प्रणम्य । आगत्य, आगम्य ॥ ५७ ॥ गमां क्वौ । ४ । २ । ५८ । एषां गमादीनां यथादर्शनं क्वौ किङति लुक् स्यात् । जनगत्, संयत्, परीतत्, सुमत्, सुवत् ॥ ५८ ॥ न तिकिदीर्घश्च । ४ । २ । ५९ । एषां तकि लुकू, दीर्घश्च न स्यात् । यन्तिः, रन्तिः, नन्तिः, गन्तिः, हन्तिः, मन्तिः, वन्तिः, तन्तिः ॥ ५९ ॥ आः खनि सनि-जनः । ४ । २ । ६० । एषां धुडादौ क्ङिति आः स्यात् । खातः सातः, जातः, जातिः । क्ङितीत्येव ? चखन्ति । धुटीत्येव ? जनित्वा ।। ६० ।। सनि | ४ | २ | ६१ | एषां धुडादौ सनि आः स्यात् । सिषासति । धुटीत्येव ? सिसनिषति ॥ ६१ ॥ ये नवा | ४ | २ | ६२ | एषां ये क्ङिति आ वा स्यात् । खायते, खन्यते । चाखायते, चजन्यते । सायते । सन्यते । प्रजाय, प्रजन्य । कितीत्येव ? सान्यम्, जन्यम् ॥ ६२ ॥ तनः क्ये । ४ । २ । ६३ | " तनः क्ये आ वा स्यात् । तायते तन्यते । क्य इति किम् ? तन्तन्यते ॥ ६३ ॥ १ जनं गच्छतीति जनङ्गत् । मन्धातोः सुमत् । वनश्च सुवत् क्विपि परे - " ह्रस्वस्य तः पित्कृति" ( ४-४- ११३ ) इति सूत्रेण तकाराग़मो बोद्धव्यः। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ras01 [२६४] हैमशब्दानुशासनस्य तौ सनस्तिकि । ४।२। ६४ । सनस्तिकि तो लुगातौ वा स्याताम् । सतिः, सातिः, सन्तिः ॥ ६४॥ वन्याङ् पञ्चमस्य । ४।२। ६५। । पञ्चमस्य वनि आङ् स्यात् । विजावा, यावा ॥६५॥ अपात् चायश्चिः क्तो। ४।२।६६। " अपपूर्वस्य चायतेः क्तौ चि इलद् स्यात् । अपचितिः ॥६६॥ ह्लादो ह्रद् क्तयोश्च । ४ । २ । ६७ । इलादेः क्तक्तवतोः, क्तौ च लद् स्यात् । इलन्नः, हलन्नवान् , इलत्तिः ॥ ६७ ॥ . ऋ-वादेरेषां तो नोपः। ४.२ ६८। पृवर्जात् ऋदन्ताद्, ल्वादिभ्यश्च परेषां तिक्तक्तवतूनां तो नः स्यात् । तीणिः, तीर्णः, तीर्णवान् । लूनिः, लूनः, लूनवान् । धूनिः, धूनः, धूनवान् । अप इति किम् ? पूर्तिः, पूर्तः, पूर्त्तवान् ॥ ६८॥ रदाद्-अमूर्छ-मदः क्तयोर्दस्य च । ४ । २ ६९) मूछिमदिवोद रदन्तात् परस्य क्तयोस्तस्य तद्योगे धातुदश्च नः स्यात् । पूर्णः, पूर्णवान् , भिन्नः, भिन्नवान् । अमूर्च्छमद इति किम् ? मूर्तः, मत्तः। रदान्तस्येति किम् ? चरितम् मुदितम् ॥ ६९ ॥ सूयत्याद्योदितः। ४ । २ । ७० । सूयत्यादिभ्यो नवभ्यः ओदिभ्यश्च परस्यक्तयोस्तो नः स्यात् । सूनः, सूनवान्, दूनः, दूनवान् , लग्ना, लग्नवान् ॥ ७०॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुकृत्तिः [२६५] व्यञ्जनान्तस्थातोऽऽख्या-ध्यः। ४ । २ । ७१ । ख्याध्यावर्जस्य धातोर्यद्वयञ्जनं, तस्मात् परा यान्तस्था, तस्याः परो य आः, तस्मात् परस्य क्तयोस्तो नः स्यात् । स्त्यानः, स्त्यानवान् । व्यञ्जन इति किम् ? यातः। अन्तस्था इति किम् ? स्नातः। आत इति किम् । च्युतः। धातोर्व्यञ्जनेति किम् ? निर्यातः। अख्याध्य इति किम् ? ख्यातः ध्यातः । आतः परस्येति किम् ? देरिद्रितः ॥७१॥ पू-दिवि-अञ्चे शाऽहाताऽनपादाने । ४।२।७२। एभ्यो यथासङ्ख्यं नाशाद्यर्थेभ्यः परस्यक्तयोस्तो नः स्यात् । पूनायवाः, आनः, समक्नो पक्षो । नाशाद्यूतानपादान इति किम् ? पूतम्, चूतम्, उदक्तं जलम् ॥७२॥ सेपासे कर्मकर्तरि । ४ । २ । ७३ । सेः परस्य क्तयोस्तो ग्रासे कर्मकर्तरि नः स्यात् । सिनो ग्रासः स्वयमेव । कर्मकर्तरीति किम् ? सितो ग्रासो मैत्रेण ॥ ७३ ॥ क्षेःक्षी चाऽध्यार्थे। ४ । २ ७४ । घ्यणोऽर्थो भावकर्मणी, ततोऽन्यस्मिन्नर्थे क्तयोस्तः क्षेः परस्य नः स्यात्, तद्योगे क्षेःक्षीश्च । क्षीणा,क्षीणवान् मैत्रः। अध्यार्थे इति किम् ? क्षितमस्य ।। ७४ ॥ वाऽऽक्रोश-दैन्ये । ४ । २ । ७५ । आक्रोशे दैन्ये च गम्ये क्षेः परस्याऽध्यार्थे क्तयोस्तो न वा स्यात् , तद्योगे क्षीश्च। क्षीणाऽऽयुः, क्षिताऽऽयुर्जाल्मः । , “इर्दरिद्रः" (४-२-९८) इति सूत्रेणेकारः । २ पत्र मावे कः । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६६] हैमशब्दानुशासनस्य क्षीणकः. क्षितकस्तपस्वी ॥ ७५ ॥ -ही-घ्रा-धा-त्रा-उन्द-नुद-विन्तेर्वा । ४ । २१७६ । एभ्यः परस्य क्तयोस्तो न् वा स्यात् । ऋणम्, ऋतम् । हीणः ह्रीतः। हीणवान्, हीतवान् । घ्राणः, घ्रातः। ध्राणः. ध्रातः ।त्राणः, त्रातः । समुन्नः, समुत्तः । नुन्नः, नुत्तः । विन्नः वित्तः ॥७६ ॥ दु-गोरू च । ४ । २ । ७७।। दुगुभ्यां परस्य क्तयोस्तो नः स्यात्, तद्योगे दुगोरुव । दूनः दूनवान् । गूनः गूनवान् ॥ ७७ ॥ क्षे-शुषि-पचो म-क-वम् । ४ । २ । ७८। । एभ्यः परस्य क्तयोस्तो यथासङ्ख्यं मकवाः स्युः । क्षामः क्षामवान् । शुष्कः शुष्कवान् । पक्वः, पक्ववान् ॥ ७८॥ निर्वाणमवाते । ४ । २ । ७९ । अवाते कर्तरि निपूर्वाद् वातेः परस्य क्तयोस्तो नो निपात्यते । निर्वाणो मुनिः । अवात इति किम् ? निवातो वातः ॥ ७९ ॥ अनुपसर्गाः क्षीबोल्लाघकृश-परिकृश-फुल्लो स्फुल्ल-संफुल्लाः । ४ । २ । ८० । अनुपसर्गाः क्तान्ता एते निपात्यन्ते।क्षीवा, उल्लाघः कृशः, परिकृशः, फुल्लः,उत्फुल्लः, संफुल्ला। अनुपसर्गा इति किम् ? प्रक्षीवितः ।। ८० ॥ भित्तःशकलम् । ४ । २। ८१ ॥ भिदेः परस्यक्तस्य नत्वाभावो निपात्यते,शकलपर्या Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः _ [२६७] यश्चेत् । भित्तं शकलमित्यर्थः । शकलमिति किम् ? भिन्नम् ॥ ८१ ॥ वित्तं धन-प्रतीतम् । ४ । २ । ८२ । विन्दतेः परस्य क्तस्य नत्वाभावो निपात्यते, धनप्रतीतयोः पर्यायश्चेत् । वित्तं धनन् , वित्तः प्रतीतः, धनप्र. तीतमिति किम् ? विन्नः ॥ ८२ ॥ ह-धुटो हेधिः। ४ । २ । ८३ । हो(डन्ताच परस्य हेधिः स्यात्। जुहुधि, विद्धि।।८३॥ शासू-असू-हनः शाधि-एधि जहि। ४।२।०४। शास्अस्हनां ह्यन्तानां यथासंख्यं शाधिएधिजहयः स्युः । शाधि, एधि, जहि ॥ ८४ ॥ अतः प्रत्ययात् लुक् । ४।२।८५ । धातोः परो योऽदन्तःप्रत्ययस्ततः परस्य हेर्लक् स्यात्। दीव्य । अत इति किम् ? राध्नुहि । प्रत्ययादिति किम् ? पापहि ॥ ८५ ॥ . . असंयोगाद् ओः। ४ । २ । ८६ । असंयोगात् परो य उः, तदन्तात् प्रत्ययात् परस्य · हेर्लक् स्यात् । सुनु। असंयोगादिति किम् ? अक्ष्णुहि । उरिति किम् ? क्रीणीहि ॥ ८६ ॥ व-मि अविति' वा । ४ । २ । ८७। असंयोगात परो य उः, तदन्तस्य प्रत्ययस्य लुग् वा • स्यात्, वमादौ अविति परे । सुन्वः, सुनुवः। सुन्मा, १ वकार इत्-अनुबन्धो यस्यासौ वित्, यथा तिव्-मित्-तुव्-आनिव इत्यादि, तादृशवितो भिन्ने प्रत्यये परे । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [२६८] हैमशब्दानुशासनस्य सुनुमः । अवितीति किम् ? सुनोमि । असंयोगादित्येव ? तक्ष्णुवः॥ ८७ ॥ . कृगो यि च । ४ । २ । ८८ । कृगः परस्योतो यादौ वमि चाविति लुक् स्यात् । कुर्युः, कुर्वः, कुर्मः ॥ ८८॥ अतः शित्युत् । ४ । २। ८९ । शिति अविति य उः, तन्निमित्तस्य कृगोऽत उ स्यात् । कुरु । अवितीत्येव १ करोति ॥ ८९ ॥ ३ श्नास्त्योलक् । ४ । २।९। श्रस्य अस्तेश्चातः शित्यविति लुक् स्यात् । रुन्द्धः, स्तः । अत इत्येव । आस्ताम् ॥ ९० ॥ . वा दिषातोऽनः 'पुस । ४ । २। ९१ । - द्विष आदन्ताच परस्य शितोवतोऽनः स्थाने पुस् वा स्यात् । अद्विषुः, अद्विषन् । अयुः, अयान् ॥ ९१ ॥ सिज-विदोऽभुवः। ४ । २ । ९२ । सिच्प्रत्यययाद विदश्च धातोः परस्य अनः पुम् स्यात्, न चेद भुवः परः सिन् स्यात् । अकार्षः, अविदुः। अभुव इति किम् ? अभूवन् ॥ ९२ ॥ दयुक्तजक्षपञ्चतः । ४ । २ । ९३ । कृतद्वित्वाद् जक्षपञ्चकाच परस्य शितोवितोऽन: पुस् स्यात्। अजुहवुः, अजक्षुः, अदरिद्रुः, अजागरुः, अधकासुः, अशासुः ॥ ९३ ॥ . १ पुस् इति पकारानुबन्धः "पुस्-पौ (४-३-३) इत्यत्र विशेषणार्थः । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ २६९ ] : अन्तो नो लुक् । ४ । २ । ९४ । द्वथुक्तजक्षपञ्चकात् परस्य शितोऽवितोऽन्तो नो लुक् स्यात् । जुह्वति, जुह्वत्, जक्षति, जक्षत्, दरिद्रति, दरिद्रत् ॥ ९४ ॥ 'शौ वा । ४ । २ । ९५ । द्वयुक्तजक्षपञ्चकात् परस्यान्तो नः शिविषये लुगू वा स्यात् । ददति, ददन्ति कुलानि । जक्षति, जक्षन्ति । दरिद्रति दरिद्रन्ति ॥ ९५ ॥ श्नश्चाऽऽतः । ४ । २ । ९६ | द्वयुक्तजक्षपञ्चतः श्नश्च शित्यवित्यातो लुक् स्यात् मिमते, दरिद्रति क्रीणन्ति । अवितीत्येव ? अजहाम्, अक्रीणाम् ॥ ९६ ॥ एषामीर्व्यञ्जनेऽदः । ४ । २ । ९७ । द्वयुक्तजक्षपञ्चतः श्रश्वातः शित्यविति व्यञ्जनादावी: स्यात्, न तु दासंज्ञस्य । मिमीते, लुनीतः । व्यञ्जन इति किम् ? मिमते । अद इति किम् ? दत्तः, धत्तः ॥९७॥ इर्दरिद्रः । ४ । २ । ९८ । दरिद्रो व्यञ्जनादौ शित्यवित्यात इः स्यात् । दरिद्रितः । व्यञ्जन इत्येव । दरिद्रति ॥ ९८ ॥ भियो नवा । ४ । २ । ९९ । मियो व्यञ्जनादौ शित्यविति इर्वा स्यात् । विभितः, बिभीतः ।। ९९ ।। १ " नपुंसकस्य शि. " (१-४-५५ पृष्ठ ३६ ) इति सूत्रोक्ते शिप्रत्यये परे तेन ददति, ददन्ति इत्यादि रूपद्वयं क्लीबे जसि शसि च वेद्यम् । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७० ] हैमशब्दानुशासनस्य हाकः | ४ | २ | १०० | हाको व्यञ्जनादौ शित्यविति आत हर्वा स्यात् । जहितः, जहीतः ॥ १०० ॥ आच हौ । ४ । २ । १०१ । हाको हौ आत् इश्व वा स्यात् । जहाहि जहिहि, जहीहि ॥ १०१ ॥ यि लुक् | ४ | २ | १०२ । यादौ शिति हाक आ लुक् स्यात् । जह्यात् ॥ १०२ ॥ ओतः श्ये । ४ । २ । १०३ | धातोरोतः श्ये लुक् स्यात् । अवद्यति । श्य इति किम् ? गौरिवाचरति गवति ॥ १०३ ॥ जा ज्ञा- जनोत्यादौ । ४ । २ । १०४ । 1 ज्ञाजनोः शिति जाः स्यात्, नत्वनन्तरे तिवादौ । जानाति, जायते । अत्यादाविति किम् ? जोज्ञाति । जञ्जन्ति ॥ १०४ ॥ प्वोदेर्हस्वः । ४ । २ । १०५ । वादेः शिति अत्यादौ ह्रस्वः स्यात् । पुनाति, लुनाति । प्वादेरिति किम् ? व्रीणाति ॥ १०५ ॥ गम् - इषद्-यमः छः । ४ । २ । १०६ । एषां शित्यत्यादौ छः स्यात् । गच्छति, इच्छति, यच्छति, आयच्छते । अत्यादाविति किम् ? जङ्गन्ति ॥ १०५ ॥ १ जाज्ञाति जञ्जन्ति इति रूपयुग्मं ज्ञा· जनोर्यङ्कलपि वेद्यम् । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलधुवृत्तिः [२७१] वेगे सर्धा । ४ । २ । १०७ । सर्तेर्वेगे गम्ये शिति धात् स्यात् , अत्यादौ । धावति। वेग इति किम् ? धर्ममनुसरति ॥ १०७॥ श्रौति-कृवु-धिवु-पा-घा-ध्मा-स्था-म्ना-दाम-दृशिअतिशद-सदः श-कृ-धि-पिब-जिघ-धम-तिष्ठ-मन-यच्छ-पश्य-ऋच्छ-शीय-सीदम् । ४।२।१०८ । एषां शित्यत्यादौ यथासंख्यं श्रादयः स्युः शृणु, कृणु, धिनु, पिब, जिघ्र, धम, तिष्ठ, मन, यच्छ, पश्य, ऋच्छ, शीयते, सीद ॥ १०८ ॥ क्रमो दीर्घः परस्मै । ४ । २ । १०९ । क्रमे परस्मैपदनिमित्त शिति दीर्घः स्यात् , अत्यादौ । काम, क्राम्यति । परस्मैपद् इति किम् ? आक्रमते सूर्यः ॥१०९॥ . ष्ठिवु-क्लमु-आचमः । ४।२। ११०। ___ एषां शित्यत्यादौ दीर्घः स्यात् । ष्ठीव, क्लाम, आ चाम । आङिति किम् ? चम ॥ ११० ॥ .. . शमसप्तकस्य श्ये । ४ । २ । १११ । शमादीनां सप्तानां श्ये दीर्घः स्यात् । शाम्य, दाम्य, ताम्य, भ्राम्य, श्राम्य, क्षाम्य, माद्य । इये इति किम् ? भ्रमति । अत्यादावित्येव ? शंशन्ति ॥ १११ ॥ प्टिव्-सिवोऽनटि वा । ४।२ । ११२ । ष्ठिसिवोरनटि दीर्घो वा स्यात् । निष्ठीवनम्, निप्ठेवनम् । सीवनम् , सेवनम् ॥ ११२ ॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७२] हैमशब्दानुशासनस्य म-वि अस्याः । ४ । २ । ११३ । धातोर्विहिते मादौ वादौ चाऽत आ दीर्घः स्यात् , पचामि, पचावः, पचामः ॥ ११३ ॥ अनतोऽन्तोऽद् आत्मने।४।२।११४ । अनतः परस्याऽऽत्मनेपदस्थस्यान्तोऽत् स्पात् । चिन्वते । आत्मनेपद इति किम् ? चिन्वति । अनत इति किम् ? पचन्ते ॥ ११४॥ शीडो रत् । ४ । २ ॥११५।। शीङः परस्याऽऽत्मनेपदस्थस्यान्तो रत् स्यात् । शेरते ॥ ११५ ॥ वेत्तेर्नवा । ४ । २ । ११६ । __वेत्तेः परस्यात्मनेपदस्थस्यान्तो रद् वा स्यात् । संविद्रते, संविदते ॥ ११६॥ तिवां णवः परस्मै। ४।२।११७ । वेत्तेः परेषां परस्मैपदानां तिवादीनां परस्मैपदान्येव णवादयो नव यथासंख्यं वा स्युः । वेद, विदतुः, विदुः, वेत्थ, विदथुः, विद, वेद, विद्व, विद्म । पले, वेत्तीत्यादि ब्रूगः पञ्चानां पञ्चाऽऽहश्च । ४ । २ । ११८। गः परेषां तिवादीनां पञ्चानां यथासंख्यं पञ्च णवा दयो वा स्युः, तद्योगे बेग आहश्च । आह, आहतुः, आहुः, आत्थ, आहथुः। पक्षे, ब्रवीतीत्यादि ॥११८॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२७३] आशिषि तु-योस्तातङ् । ४।२।११९ । आशीरर्थयोस्तुयोस्तात वा स्यात्। जीवतात् , जीवतु भवान् । जीवतात् , जीव त्वम् । नन्दतात्, नन्द त्वम् । आशिषीति किम् ? जीवतु ॥ ११९॥ . आतो णव औः । ४.२ । १२० । आतः परस्य णव औः स्यात् । पपौ ।। १२० ॥ आतामाते-आथामाथे आद इः । ४।२।१२१॥ आत् परेषामेषामात स्यात् । पचेता, पोते, पचेथाम्, पचेथे । आदिति किम् ? मिमाताम् ॥ १२१॥ . . यः सप्तम्याः । ४ । २ । १२२ । ___ आत् परस्य सप्तम्या याशब्दस्येः स्यात्। पचेत्, पचेः ॥ १२२ ॥ याम्-युसोः इयम् इयुसौ । ४ । २ १२३। आत् परयोर्याम्युसोर्यथासंख्पमियमियुसौ स्याताम् । पचेयम् , पचेयुः ।। १२३ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ॥ ४ ॥२॥ water १कारो गुणप्रतिषेधार्थः । माशिपोऽभावे प्रेरणार्थे तात न भवति, तेनान्यत्र जीवतु इत्येवैकं रूपं भवति । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् ॥ तृतीयः पादः॥ नामिनो गुणोऽक्ङिति । ४ । ३ । १ । नाम्यन्तस्य धातोः क्ङिदर्जे प्रत्यये गुणः स्यात् । चेता। अडितीति किम् ? युतः ॥ १॥ उ-श्नोः । ४।३।२। धातोश्नोः प्रत्यययोरक्ङिति गुणः स्यात्। तनोति, सुनोति ॥२॥ पुस्-पौ । ४।३ । ३। नाम्यन्तस्य धातोः पुसि पौ च गुणः स्यात् । ऐयर, अर्पयति ॥ ३॥ लघोरुपान्त्यस्य । ४ । ३ । ४ । धातोरुपान्त्यस्य नामिनो लघोरक्ङिति गुणः स्यात् । मेत्ता । लघोरिति किम् ? ईहते। उपान्त्यस्येति किम् ? भिनत्ति ॥४॥ मिदः श्ये । ४ । ३।५। मिदेरुपान्त्यस्य श्ये गुणः स्यात् । मेद्यति ॥ ५ ॥ जागुः किति । ४।३।६। जागुः किति गुणः स्यात् । जागरितः ॥ ६॥ . १ कृग-तनादेः स्वादेश्च कर्तरि शिति विहतयोः उ-नुप्रत्यययोः गुणः। १ ऋक् गतौ इत्यस्य ह्यस्तन्यामनिपरे इदं रूपम् । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२७५] . ऋवर्ण-दृशोऽडिः । ४ । ३ । ७ । ऋवर्णान्तानां दृशेश्चाऽङि परे गुणः स्यात् । आरत्, असरत्, अजरत् , अदर्शत् ।। ७॥ स्कृ-ऋच्छृतोऽकि परीक्षायाम् । ४ । ३।८। स्कृऋच्छोः ऋदन्तानां च नामिनः परोक्षायां गुणः स्यात्, न तु कोपलक्षितायां क्वसुकानोः । सञ्चस्का, आनछु, तेरुः । अकीति किम् ? सञ्चस्कृवान् ॥ ८॥ संयोगाद् ऋदर्तेः । ४ । ३ । ९ । संयोगात् परो य ऋत् , तदन्तस्वासेश्च परोक्षायामकि गुणः स्यात् । सस्मरुः, सस्वरुः, आरुः। संयोगादिति किम् ? चक्रुः ॥९॥ क्य-यङाशीर्ये । ४।३।१०। संयोगात् य ऋत्, तदन्तस्यार्तेश्च क्ये यड्याशीर्य च गुणः स्यात् ।स्मयते, स्वयंते, अयंते, सास्मयंते, सास्वर्यते, अरायते, स्मर्यात, अर्यात् ॥ १०॥ न वृद्धिश्चाविति क्डि ल्लोपे । ४।३ । ११ । अविति प्रत्यये यः कितो कितश्च लोपः, तस्मिन् . सति गुणो वृद्धिश्च न स्यात् । चेच्यः, मरीमृजः ॥ ११ ॥ . भवतेः सिज्लुपि । ४ । ३ । १२। ___ भुवः सिज्लुपि गुणो न स्यात्। अभूत्। सिज्लुपीति किम् ? व्यत्यभविष्ट ॥ १२ ॥ सूतेः पञ्चम्याम् । ४ । ३ । १३ । सूतेः पञ्चम्यां गुणो न स्यात् । सुवै ॥१३॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७६ ] हैमशब्दानुशासनस्य दयुक्तोपान्त्यस्य शिति स्वरे। ४ । ३ । १४ । . .. धुक्तस्य धातोरुपान्त्यस्य नामिनः स्वरादौ शिति गुणो न स्यात् । नेनिजानि । उपान्त्यस्येति किम् ? जुहवानि । शितीति किम् ? निनेज ॥ १४ ॥ हइशोरविति व्-यौ । ४ । ३ । १५। .. .... होरिणश्च नामिनः स्वरादावपिति अविति च शिति यथासंख्यं व्यौ स्याताम् । जुह्वति, यन्तु । अग्वितीति किम् ? अजुहवुः । अयानि ॥ १५ ॥ इको वा। ४।३।१६। इका स्वरादावविति शिति वा स्यात् । अधियः न्ति, अधीयन्ति ॥ १६ ॥ __कुटादेर्डिद्धद् अणित् । ४ । ३ । १७ । ... कुटादेः परो णिदर्जप्रत्ययो डिद्वत् स्यात् । कुटिता, गुता। अणिदिति किम् ? उत्कोटः, उच्चुकोट ॥ १७ ॥ विजेस्ट् ि । ४ ।३।१८। विजेरिट जिद्वत् स्यात् । उद्विजिता । इडिति किम् ? उद्रेजनम् ॥ १८ ॥ वोर्णोः । ४ । ३ । १९ । ऊपोरिड् वा विद्वत् स्यात् । प्रोणुविता, प्रोणविता ॥ १९॥ शिदवित् । ४।३ । २० । धातोर्विदर्जः शित् प्रत्ययो डिद्वत् स्यात् । इतः, क्री १ पकारवकारानुवन्धवति प्रत्यये न भवतीत्यर्थः । अजुहारेत्यत्र पुस् प्रत्ययः । अयानीत्यत्राऽऽनिव् प्रत्ययः । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२७७] . णाति । अविदिति किम् ? एति । शिदिति किम् ? चे. षीष्ट ॥२०॥ इन्ध्यसंयोगात् परोक्षा किद्धत् । ४ । ३ । २१। इन्धेरसंयोगान्ताच परा अवित्परोक्षा किद्वत् स्यात् । समीधे, निन्युः । इन्ध्यसंयोगादिति किम् ? सस्रंसे ॥२१॥ . स्वजेनेवा । ४ । ३ । २२ । स्वोः परोक्षा वा किद्वत् स्यात् । सस्वजे, सस्वले ॥ २२ ॥ ज-नशो न्युपान्त्ये तादिः क्त्वा । ४।३। २३ । जन्तात् नशेश्च न्युपान्त्ये सति तादिः क्त्वा किद्वद्वा स्यात् । रक्त्वा, रङ्क्त्वा । नष्ट्वा । नंष्ट्वा । नीति किम् ? भुक्त्वा । उपान्त्य इति किम् ? निक्त्वा । तादिरिति किम् ? विभज्य ॥ २३ ।। ऋत्-तृष-मृष-कृश-वञ्च-लुञ्च-थ-फः सेट् । ४।३ ।२४। न्युपान्त्ये सत्येभ्यो वा क्त्वा सेट किद्वत् स्यात् । ऋतित्वा, अर्तित्वा । तृषित्वा, तर्षित्वा । मृषित्वा, मपित्वा । कृशित्वा, कर्शित्वा । वचित्वा, वश्चित्वा । लुचित्वा, लुश्चित्वा । श्रथित्वा, श्रन्थित्वा । गुफित्वा, गुम्फित्वा । न्युपान्त्य इति किम् ? कोथित्वा, रेफित्वा । सेडिति किम् ? वक्त्वा ॥ २४ ॥ वो व्यञ्जनाऽऽदेः सन् चाऽयचः । ४।३। २५ । वो उदित्युपान्त्ये सति व्यञ्जनादेर्धातोः परः क्त्वा १ अत्र किकरण गुणादिप्रतिषेधार्थम् , यजादिवचिस्वपीनां वृदर्थ जागर्तेश्च गुवार्थम् । डिति तन्न स्यात् । स्रंशः संयोगान्तत्वात् अकित्त्वं, तेन नस्य लुय् न जातः । __२ उश्च इश्व विः, तस्मिन् वौ सतीति सन्धिपदम्। उकारइकारोपान्त्यवतो धातो. -रित्यर्थः । अकिद्वत्पक्षे-"घोरूपान्त्यस्य" (पृ. २७४) सूत्रेण गुणः । एवमन्यत्रापि । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७८] हैमशब्दानुशासनस्य सन् च सेटौ किद्वद्वा स्यातां, न तु यवन्तात् । द्युतित्वा, द्योतित्वा । दिद्युतिपते, दिद्योनिषते । लिखित्वा, लेखित्वा । लिलिखिपति, लिलेखिषति । वाविति किम् ? वार्तिस्वा । व्यञ्जनादेरिति किम् । ओषित्वा । अय्व इति किम् ? देवित्वा ॥ २५ ॥ उति शवोऽद्भयः क्तौ भावाऽऽरम्भ। ४।३ । २६ । __ उति उपान्त्ये सति शवहेभ्यो अदादिभ्यश्च परौ भा. वाऽऽरम्भयोः क्तक्तवतू सेटौ वा किद्वत् स्याताम् । कुचितम् , कोचितमनेन । प्रकुचितः, प्रकोचितः । प्रकुचि. तवान् , प्रकोचितवान् । रुदितम्, रोदितमेभिः । प्ररुदितः, प्ररोदितः। प्ररुदितवान्, प्ररोदितवान् । उतीति कि. म् ? वितितमेभिः । शवोद्भय इति किम् ? प्रगुधितः । भावारम्भ इति किम् ? रुचितः ।। २६॥ न डीङ्-शीङ्-पूङ्-धृषि-क्ष्विदि-स्विदि मिदः । ४ । ३ । २७ । एभ्यः परौ सेटौ क्तक्तवतू किद्वन्न स्याताम् । डयितः, डयितवान् । शयितः, शयितवान् । पवितः, पवितवान् । प्रधर्षितः प्रधर्षितवान् । प्रश्वेदितः,प्रक्ष्वेदितवान् । प्रस्वे. दितः, प्रस्वेदितवान् । प्रमेदितः प्रमेदितवान् । सेटावित्येव? डीनः, डीनवान् ॥ २७ ॥ मृषः क्षान्तौ । ४।३।२८। क्षमाऽर्थात् मृपः सेटौ तक्तवतू किद्वन्न स्याताम् ।। मर्षितः, मर्षितवान् । क्षान्ताविति किम् ? अपमृषितं वाक्यम् ॥ २८ ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः क्त्त्वा । ४ । ३ । २९ । धातोः क्त्वा सेट् किन्न स्यात् । देवित्वा । सेडित्येव, कृत्वा ।। २९ ।। [ २७९ ] स्कन्द-स्यन्दः । ४ । ३ । ३० । आभ्यां क्त्वा किन्न स्यात् । स्कन्त्वा, स्यन्त्वा ॥ ३० ॥ क्षुध-क्लिश-कुप-गुध-मृडमृद-वदवसः । ४।३।३१ | एभ्यः क्त्वा सेंटू द्वित् स्यात् । क्षुधित्वा, क्लिशित्वा, कुषित्वा गुधित्वा, मृडित्वा, मृदित्वा, उदित्वा, उषित्वा ॥ ३१ ॥ रुदविद-मुप-ग्रह- स्वपप्रच्छः सन् च | ४ | ३ | ३२ | एभ्यः क्त्वा सन्च किद्वत् स्यात् । रुदित्वा, रुरुदिपति, विदित्वा विविदिपति, मुषित्वा मुमुषिषति, गृहीत्वा, जिघृक्षति, सुप्त्वा सुषुप्सति, पृष्ट्वा, पिष्ट च्छिति ।। ३२ ।। " नामिनोऽनिट् | ४ | ३ | ३३ | नाम्यन्ताद्धातोरनिट् सन् द्वित् स्यात् । चिचीषति । अनिडिति किम् ? शिशयिषते ॥ ३३ ॥ उपान्त्ये | ४ | ३ | ३४ । नामिन्युपान्त्ये सति धातोः सन् अनिट् किद्वत् स्यात् । बिभित्सति ॥ ३४ ॥ सिजाशिषावात्मने । ४ । ३ । ३५ । नामिन्युपान्त्ये सति धातोरात्मनेपदविषयावनिटयै Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८०] हैमशब्दानुशासनस्य · सिजाशिषौ किद्वत् स्याताम्। अभित्त, भित्सीष्ट। आत्मने इति किम् ? अस्राक्षीत् ॥ ३५ ।। ऋवर्णात् । ४ । ३ । ३६ । ___ऋवर्णान्ताद् धातोरनिटावात्मनेपदविषयौ सिजाशिषौ किद्वत् स्याताम् । अकृत, कृषीष्ट, अतीष्ट, तीर्पोष्ट ॥ ३६॥ गमो वा । ४।३। ३७ । गमेरात्मनेपदविषयौ सिजाशिषौ किद्वा स्याताम् । समगत, समगस्त । संगसीष्ट, संगंसीष्ट ॥ ३७॥ हनः सिच । ४ । ३ । ३८ । हन्तेरात्मनेपदविषयः सिन् किद्वत् स्यात् । आहत ॥३८॥ यमः सूचने । ४ । ३ । ३९ । सूचनार्थाद् यमेरात्मनेपदविषयः सिच् किद्वत् स्यात्। उदायत । सूचन इति किम् ? आयस्त रज्जुम् ॥ ३९ ॥ वा स्वीकृतौ । ४।३।४०। स्वीकारार्थाद् यमेरात्मनेपदविषयः सिन् किद्वद्वा स्यात् । उपायत, उपायंस्त महास्त्राणि । स्वीकृताविति किम् ? आयंस्त पाणिम् ॥४०॥ इश्च स्था-दः। ४।३। ४१ । स्थो दासंज्ञकाचऽऽत्मनेपदविषयः सिन् किद्वत स्यात् , तद्योगे स्था-दोरिश्च । उपास्थित, आदित, व्यधित ॥ ४१ ॥ मृजोऽस्य वृद्धिः। ४।३। ४२ । ___ मृजेगुणे सत्यस्य वृद्धिः स्यात्। मार्टि । अत इति किम् ? मृष्टः ॥ ४२ ॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः । [२८१] . ऋतः स्वरे वा । ४ । ३ । ४३ । मृजे ऋतःस्वरादौ प्रत्यये वृद्धिर्वा स्यात्। परिमार्जन्ति, परिमृजन्ति । ऋत इति किम् ? ममार्ज । स्वर इति किम् । मृज्वः ॥४३॥ सिचि परस्मै समानस्याडिति ।४।३।४४। समानान्तस्य धातोः परस्मैपदविषये सिच्यङिति वृद्धिः स्यात् । अचैषीत् । परस्मैपद इति किम् ? अच्योष्ट। समानस्येति किम् ? अगवीत् । अङितीति किम् ? न्यनुवीत् ॥ ४४ ॥ व्यञ्जनानामनिटि । ४।३।४५। व्यञ्जनान्तस्य धातोः परस्मैपदविषये अनिटि सिचि समानस्य वृद्धिः स्यात् । अराङ्क्षीत् । समानस्येत्येव ? उदवोढाम् । अनिटीति किम् ? अतक्षीत् ॥ ४५ ॥ वोर्गुगः सेटि । ४ । ३ । ४६ ।। ऊण्णाः सेटि सिचि परस्मैपदे वृद्धिर्वा स्यात् । प्रौर्णावीत् , प्रोणवीत् प्रौण्णुवीत् ॥ ४६॥ व्यञ्जनादेवोपान्त्यस्याऽतः । ४ । ३ । ४७।। व्यञ्जनादेर्धातोरुपान्त्यस्यातः सेटि सित्रि परस्मैपदे वृद्धिर्वा स्यात् । अकाणीत्, अकणीत् । व्यञ्जनादेरिति किम् १ मा भवान् अटीत् । उपान्त्यस्येति किम् ? अवधीत्। अत इति किम् ? अदेवीत्। सेटीत्येव ? अधाक्षीत् ॥४७॥ वद-व्रज-लः । ४ | ३ | ४८। वदव्रजोर्लन्तरन्तयोश्योपान्तस्याऽस्य परस्मैपदे सेटि Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८२] हेमशब्दानुशासनस्य सिचि वृद्धिः स्यात् । अवादीत्, अब्राजीत् , अज्वालीत् , अक्षारीत् ॥ ४८ ॥ न श्वि-जागृ-शस-क्षण-इ-म्-येदितः । ४ ।३ । ४९ । - एषां मयन्तानामेदितां च परस्मैपदे सेटि सिचि वृद्धिनं स्यात् । अश्वयीत् , अजागरीत् , अशसीत् , अक्षणीत्, अग्रहीत्, अवमीत्, अहयीत्, अकगीत् ॥ ४९ ॥ . णिति । ४।३।५०। मिति णिति च परे धातोरुपान्त्यस्यातो वृद्धिः स्यात्। पाकः, पपाच ॥ ५० ॥ नामिनोऽकलि-हलेः । ४ । ३ । ५१ । नाम्यन्तस्य धातोनाम्नो वा कलिहलिवर्जस्य णिति वृद्धिः स्यात् । अचायि, कारकः, अपीपटत् । कलिहलिवर्जनं किम् ? अचकलत् , अजहलत् ॥ ५१ ॥ जागुर्बिणवि । ४ । ३ । ५२ । जागुौ णव्येव च णिति वृद्धिः स्यात्। अजागारि, जजागार । जिणवीति किम् ? जागरयति ।। ५२ ॥ आत ऐः कृऔ। ४।३। ५३ । आदनतस्य धातोणिति कृति नौ च ऐः स्यात् ।दायः, दायका, मदायि । कृदिति किम् ? ददौ ॥ ५३॥ न जन-वधः । ४।३ । ५४ । अनयोः कृति णिति औ च वृद्धिर्न स्यात् । प्रजनः, जन्या, अजनि, वधा, वध्या, अवधि ॥ ५४॥ . Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनलघुवृत्तिः २८३] मोऽकमि-यमि-रमि-नमि-गमि चम् आचमः । ४ । ३ । ५५। मन्तस्य धातोः कम्यादिवर्जस्य णिति कति जो च वृद्धिर्न स्यात् । शमः, शमकः, अशमि । कम्यादिवर्जनं किम् ? कामः, कामुकः अकामि, यामः, रामः, नामः, अ. गामि, वामः, आचामकः ॥५५॥ विश्रमेा । ४ । ३ । ५६ । विश्रमेणिति कृति औ च वृद्धिर्वा स्यात् । विश्रामः, विश्रमः विश्रामकः, विश्रमकः । व्यामि, व्यश्रमि ।। ५६॥ उद्यमोपरमौ । ४।३। ५७ । उदुपाभ्यां यमिरम्योपनि वृद्धयमावो निपात्यते। उद्यमः, उपरमः ।। ५७ ॥ : _णिद्वाऽन्त्यो णव् । ४ । ३ । ५८ । - परोक्षाया अन्त्यो ण णिद्वा स्यात् । अहं चिचय, चिचाय । चुकुट, चुकोट । अन्त्य इति किम् ? स पपाच ॥५८॥ .. उत और्विति व्यञ्जनेद्धः । ४।३। ५९। अद्वयुक्तस्योदन्तस्य धातोय॑ञ्जनादौ विति और स्यात् । यौति । उत इति किम् ? एति । धातोरित्येव ? सुनोति । वितीति किम् ? रुतः । न्यान इति किम्। स्तवानि । अद्वेरिति किम् ? जुहोति ॥ ५९ ।। वार्णोः। ४ । ३ । ६०। ऊपोरद्वयुक्तस्य व्यञ्जनादौ विति और्वा स्यात् । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हैमशब्दानुशासनस्य प्रोणीति, प्रोणोति । अद्वेरित्येव ? प्रोनोति ॥६॥ न दि-स्योः । ४ । ३ । ६१ । ऊोंदिस्योः परयोरौन स्यात् । प्रौर्णोत्, प्रौणोंः तृहः श्नाद् इत् । ४ । ३ । ६२ । तृहेः श्नात् परो व्यञ्जनादौ विति परे ईत् स्यात् । तृढि ॥ ६२ ॥ ब्रूतः परादिः) ४ | ३ ) ६३ ब्रुव ऊतः परो व्यञ्जनादौ विति परादिरीत् स्यात् । ब्रवीति । ऊत इति किम् ? आत्थ ।। ६३ ॥ । यङ्न्तु-रु-स्तोबहुलम् । ४।३।६४ । - यलुबन्तात्-तुरुस्तुभ्यश्च परो व्यञ्जनादौ विति ईत् बहुलं परादिः स्यात् , क्वचिद्वा । बोभवीति, बोभोति । क्वचिन्न, वर्ति । तवीति, तौति । 'रवीति, रौति । स्तवीति, स्तौति । अद्वेरित्येव ? तुतोथ, तुष्टोथ ॥ ६४ ॥ सः सिजस्तेर्दि-स्योः । ४ । ३ । ६५। सिजन्ताद् धातोरस्तेश्च सन्तात् परो दिस्योः परयोः परादिरीत् स्यात् । अकार्षीत् , अकार्षीः, आसीत् , आसीः । स इति किम् ? अदात् ॥ ६५ ॥ पिब-एति-दा-भू-स्थः सिचो लुप् परस्मै, न चेट् । ४।३ । ६६ । एभ्य परस्य सिचः परस्मैपदे लुप् स्यात् , लुब्योगे न चेट । अपात् , अगात , अध्यगात , अदात् , अधात् , Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२८५] अभूत् , अस्थात् । परस्मैपदइति किम् ? अपासत पयांसि तैः ॥६६॥ धे-घा-शा-च्छा-सो वा । ४ । ३ । ६७। । एभ्यः परस्य सिचः परस्मैपदे लुब् वा स्यात् , लुब्योगे च नेट् । अधात् , अधासीत् । अघ्रात् , अघासीत् । अशात् , अशासीत् । अच्छात् , अच्छासीत् । असात् , असासीत् ॥ ६७॥ तन्भ्यो वा त-थासि न-णोश्च । ४ । ३ । ६८ । तनादिभ्यः परस्य सिचस्ते थासि च लुप् वा स्यात्, तद्योगे नणोश्च लुप, न चेद् । अतत, अतनिष्ट । अतथाः, अतनिष्ठा असत, असनिष्ट । असथाः, असनिष्ठाः ॥ ६८॥ . सनस्तत्राऽऽवा । ४।३ । ६९। सनो लुपि सत्याम् आ वा स्यात् । असात, असत । असाथाः, असथाः। तत्रेति किम् ? असनिष्ट ।। ६९ ॥ धुटू-हस्वात् लुगनिटस्त-थोः।४ । ३ । ७० । धुडन्तात् ह्रस्वान्ताच धातोः परस्यानिटः सिचस्तादो थादौ च लुक् स्यात् । अभित्त, अभित्थाः, अकृत, अकृथाः अनिट इति किम् ? व्यद्योतिष्ट ॥ ७० ॥ इट ईति । ४ । ३ । ७१ । इटः परस्य सिच ईति लुक् स्यात् । अलावीत् । इट इति किम् ? अकार्षीत् । ईतीति किम् ? अभणिषम् ॥७१॥ १ तत्र इत्यस्य लुपि, इत्यर्थः, तच्छन्दस्य सप्तमीनिपातोऽयम् । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८६] हैमशब्दानुशासनस्य सोधि वो। ४।३ । ७२। धातो(दो प्रत्यये सो लुग् वा स्यात् । चकाधि, चकाद्धि । 'अलविध्वम्, अलविढ्वम् ॥ ७२ ॥ अस्तेः सि हस्त्वेति । ४।३ । ७३ । अस्तेः सः सादौ प्रत्यये लुक् स्यात्, एति तु सो हः । असि, ब्यतिसे, व्यतिहे, भावयामाहे ॥ ७३ ॥ दुह-दिह-लिह-गुहोदन्त्यात्मने वा सकः । ४ ।३ । ७४ । एभ्यः परस्य सको दन्त्यादौ आत्मनेपदे लुग् वा स्यात् । अदुग्ध, अधुक्षत। अदिग्ध, अधिक्षत । अलीढाः, अलिक्षथाः । न्यगुह्वहि, न्यघुक्षावहि । दन्त्य इति किम् ? अधुक्षामहि ॥ ७४ ॥ स्वरेऽतः । ४।३ । ७५। सकोऽस्य स्वरादौ प्रत्यये लुक् स्यात् । अधुक्षाताम् ॥ ७५ ॥ दरिद्रोऽद्यतन्यां वा । ४।३ । ७६ । दरिद्रोऽद्यतन्यां विषये लुग् वा स्यात् । अदरिद्रीत्, अरिद्रासीत् ।। ७६ ॥ अशित्यस-सन्-णकच-णकाऽनटि । ४।३। ७७ । सादिसन्नादिवर्जे अशिति विषये दरिद्रो लुक् स्यात् । दुर्दरिद्रम् । अशितीति किम् ? दरिद्राति । स. १ इदं रूपयुग्मं लूधातोः । २ एकारे परे । अकारसकारलोपे व्यतिसे, इति से परे रूपम् । एकारे परे तु सस्य हकारे व्यतिहे इत्यादि । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२८७] नादिवर्जनं किम् ? दिदरिद्रासति, दरिद्रायको याति, दरिद्रायकः, दरिद्राणम् ॥ ७७ ॥ - व्यञ्जनाद् देः सश्च दः । ४।३।७८ । धातोर्व्यञ्जनान्तात् परस्य दे क् स्याद्, यथासम्भवं धातोः सो दश्च । अचकात् , अजागः, अविभः, अन्धशात् । व्यञ्जनादिति किम् ? अयात् ॥ ७८ ॥ सेः सू-द-धां च हो । ४ । ३ । ७९ । व्यञ्जनान्ताद् धातोः परस्य सेलक् स्यात् , यथासम्भवं सदधा वा रुश्च। अचकास्त्वम् , अचकात् त्वम्। अभिनस्त्वम् , अभिनत् त्वम् । अरुणस्त्वम् , अरुणत् त्वम् ॥ ७९॥ . _.. योऽशिति । ४।३। ८० । धातोर्व्यञ्जनान्तात् परस्य योऽशिति प्रत्यये लुक् स्यात् । जङ्गमिता। व्यञ्जनादित्येव ? लोलूयिता । अशितीति किम् ? बेभिद्यते ।। ८० ॥ क्यो वा । ४।३।८१ । धातोय॑ञ्जनात् परस्य क्योऽशिति प्रत्यये लुग् वा स्यात् । समिधिष्यति, समिध्यिष्यति । दृषदिष्यते, दृषविष्यते ॥ ८१ ॥ . अतः । ४।३। ८२ । अदन्ताद् धातोर्विहितेऽशिति प्रत्यये धातोरतो लुक् स्यात् । कथयति । विहितविशेषणं किम् ? गतः॥८२॥ णेरनिटि । ४ । ३ । ८३। अनिटपशिति प्रत्यये णे क् स्यात् । अततक्षत् , चेतनः । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८८] हैमशब्दानुशासनस्य अनिटीति किम् ? कारयिता ॥ ८३ ।। सेटूक्तयोः । ४।३। ८४ । सेटोः क्तयोः परयोर्णलक स्यात् । कारितः, गणितवान् ॥ ८४॥ आम-अन्ताऽऽल्वाऽऽय्येनौ अय् । ४ । ३ । ८५ । एषु परेषु णेरय् स्यात् । कारयाञ्चकार, गण्डयन्तः, स्पृहयालुः, महयाय्या, स्तनयित्नुः ।। ८५॥ . लघोर्यपि । ४ । ३ । ८६ । लघोः परस्य णेर्यपि अय स्यात् । प्रशमय्य । लघोरिति किम् ? प्रतिपाद्य ॥ ८६॥ . वाऽऽनोः । ४ । ३ । ८७ । आमोः परस्य णेर्यप्यय वा स्यात् । प्रापय्य, प्राप्य । आमोरिति किम् ? अध्याप्य ।। ८७ ॥ मेडो वा मित् । ४ । ३। ८८।। मेडो यपि मिद्वा स्यात् ।अपमित्य, अपमाय ।। ८८॥ क्षेःक्षीः ।४।३।८९। क्षेर्यपि क्षीः स्यात् । प्रक्षीय ॥ ८९ ।। क्षय्य-जय्यौ शक्तौ । ४ । ३ । ९० । क्षिज्योरन्तस्य शक्तो गम्यायां ये प्रत्ययेऽय् निपात्यते । क्षय्यो व्याधिः, जय्यः शत्रुः। शक्ताविति किम् ? क्षेयं पापम् , जेयं मनः ॥ ९०॥ क्रय्यः क्रयार्थे । ४ । ३ । ९१ । . क्रियोऽन्तस्य ये प्रत्ययेऽय् निपात्यते , ऋयाय चेत् प्रसारितोऽर्थः । क्रय्यो गौः । क्रयार्थ इति किम् ? क्रेयं ते Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२८९] धान्यं न चास्ति प्रसारितम् ॥ ९१ ॥ सस्तः सि। ४ । ३ । ९२ । धातोः सन्तस्याऽशिति सादौ प्रत्यये विषयमूते ता स्यात्। वत्स्यति । स इति किम् ? यक्षीष्ट । सीति किम् ? वसिषीष्ट ॥ ९२ ॥ दीय दीङः क्डि.ति स्वरे । ४।३।९३॥ दीङा ङिति अशिति स्वरे दीय् स्यात् । उपदिदीयाते। वित्तीति किम् ? उपदानम् । स्वर इति किम् ? उपदेदीयते ॥ ९३ ॥ इट्-एत-पुसि चाऽऽतो लुक् । ४।३।९४ . ङित्यशिति स्वरे, इटि, एति, पुसि च परे आदन्तस्य धातोर्मुक् स्यात् । पपुः, अदधत् , पपिथ, व्यतिरे, अदुः ॥ ९४ ॥ संयोगाऽऽदेवाऽऽशिष्येः । ४।३।९५।। धातोः संयोगादेरादन्तस्य जित्याशिषि एर्वा स्यात् । ग्लेयात् , ग्लायात् । संयोगादेरिति किम् ? यायात्। क्तिीत्येव १ ग्लासीष्ट ॥ ९५ ॥ 'गा-पा-स्था-सा-दा-मा-हाकः । ४ । ३ । ९६ । __एषां क्ङित्याशिष्यः स्यात्। गेयात् . पेयात्, स्यात्, अवसेयात्, देयात्, धेयात् , मेयात्, हेयात् ।। ९६ ॥ ईर्व्यञ्जनेऽयपि ।४।३। ९७ । गादेर्यध्वजे जित्यशिति व्यञ्जनादावीः स्यात् । 1 इदं वस्थातोभविष्यन्त्यां रूपम् । २ दा इत्यनेन दासंज्ञका पातवो ग्राह्याः । ३७ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९० ] हेमशब्दानुशासनस्य गीयते, जेगीयते, पीयते, स्थीयते, अवसीयते, दीयते, धीयते, मीयते, हीनः । व्यञ्जन इति किम् ? तस्थुः । अयपीति किम् ? प्रगाय ॥ ९७ ॥ घ्रा-ध्मोर्यडि. । ४ । ३ । ९८ । घामोर्यङ ईः स्यात् । जेधीयते, देध्मीयते ॥ ९८ ॥ नो नीर्वधे | ४ | ३ | ९९ । हन्तेर्वधार्थस्य यङि घ्नीः स्यात् । जेध्नीयते । वध इति किम् ? गतौ जन्यते ॥ ९९ ॥ ञ्णिति घात् । ४ । ३ । १०० । ञिति णिति च परे हन्तेर्घात् स्यात् । घातः, घातयति 11 200 11 ञि-गवि घन् । ४ । ३ । १०१ । औ णवि च परे हन्तेर्धन् स्यात् । अघानि, जघान ॥ १०१ ॥ नशेनेंश् वाऽडि | ४ | ३ | १०२ | २ नशेरङि नेश् वा स्यात् । अनेशत्, अनशत् ॥ १०२ ॥ श्वयति असू वचपतः श्वाऽऽस्थ- वोच पप्तम् | ४ | ३ | १०३ | एषामङि यथासङ्ख्यं श्वादयः स्युः । अश्वत्, आस्थत्, अवोचत्, अपप्तत् ॥ १०३ ।। शीड. एः शिति । ४ । ३ । १०४ । शीङः शित्येः स्यात् । शेते ॥ १०४ ॥ 1 १. अत्र न व्यञ्जनप्रत्ययः परः, किन्तु स्वरः ( उस् ) परोऽस्ति, अत ईकारो न जातः । २ नशः पुष्यादित्वात् 'लृदिद् युतादिपुष्यादेः परस्मै”- ( ३-४-६४ ) सूत्रेणाऽप्रत्ययः । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः किर्डातीय शय् | ४ | ३ | १०५ | शीङ: क्ङिति यादौ शय् स्यात् । शय्यते, शाशय्यते । तीति किम् १ शेयम् ॥ १०५ ॥ [ २९१ ] उपसर्गाद् ऊहो ह्रस्वः । ४ । १ । १०६ । उपसर्गात् परस्योहतेरूतः क्ङिति यादौ परे ह्रस्वः स्यात् । समुह्यते । उपसर्गादिति किम् ? ऊह्यते । यीत्येव ? समूहितम् । ऊ ऊह इति प्रश्लेषः किम् ? आ उद्यते ओह्यते, समोह्यते ॥ १०६ ॥ आशिषीणः । ५ । ४ | ३ | १०७ । उपसर्गात् परस्येण ईतः क्ङिति यादावाशिषि हस्वः स्यात् । उदियात् । ई इण इति प्रश्लेषः किम् ? आ ईयात् एयात्, समेयात् ॥ १०७ ॥ दीर्घश्व्वि-यङ्- यक्-क्येषु च । ४ । ३ । १०८ । एषु यादवाशिषि च दीर्घः स्यात् । शुचीकरोति, तोष्ट्रयते, मन्तूयति, दधीयति, भृशायते, लोहितायते, स्तूयते, ईयात् ॥ १०८ ॥ ऋतोरीः । ४ । ३ । १०९ । व्याद् ऋदन्तस्य ऋतः स्थाने रीः स्यात् । पित्री - स्यात्, चेक्रीयते, मात्रीयते पित्रीयते । ऋत इति किम् ? चेकीर्यते ॥ १०९ ॥ १ अत्र “लघुम्यासकार एवमाह - ऊकारात् षष्ठयाः सूत्रत्वात् लुप् उहश्व षष्ठी, एवं प्रश्लेषः । एवमुत्तरसूत्रेऽपि इण इत्यत्र " । ( ४-३ - १०८ ) सूत्रेण दीर्घस्य " आशिषीणः " सूत्राद् 'उदियात्' इत्यत्र इणो ह्रस्वत्वम् । २ स्तूयते इति क्यान्तस्य, ईत्मादित्याशिष उदाहरणमस्ति । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९२] हैमशब्दानुशासनस्य रिश-क्याऽऽशीयें। ४ । ४ । ११०। फादन्तस्य धातोः ऋतः शे क्ये आशीर्ये च परे रिः स्यात् । व्याप्रियते, क्रियते, हियात् ॥ ११० ॥ ईः च्चाववर्णस्याऽनव्ययस्य । ४।३ । १११ ॥ अनव्ययस्यावर्णान्तस्य च्चावीः स्यात् । शुक्लीस्यात् , मालीस्यात् । अनव्ययस्येति किम् ? दिवाभूतारात्रिः॥१११॥ . क्यनि । ४ । ३ । ११२ । अवर्णान्तस्य क्यनि ईः स्यात् । पुत्रीयति । मालीयति ॥ ११२ ॥ क्षुत्-तृ-गद्धेऽशनायोदन्य-धनायम् । ४।४।११३ । एष्वर्थेषु यथासंख्यमशनादयः क्यन्नन्ता निपात्यन्ते । अशनायति, उदन्यति, धनायति । क्षुदादाविति किम् ? अशनीयति, उदकीयति, धनीयति दातुम् ॥ ११३ ॥ वृषाऽश्वाद मैथुने स्सोऽन्तः । ४ । ३ । ११४ । आभ्यां मैथुनार्थाभ्यां क्यनि स्सोऽन्तः स्यात् । वृषस्यति गौः, अश्वस्यति वडवा । मैथुने इति किम् ? वृषीयति, अश्वीयति ब्राह्मणी ॥ ११४ ॥ अस् च लौल्ये। ४ । ३ । ११५। भोगेछातिरेको लौल्यं । तत्र गम्ये क्यनि परे नाम्ना स्सोऽम् चान्तः स्यात् । दधिस्यति, दध्यस्यति । लौल्य इति किम् ? क्षीरीयति दातुम् ॥ ११५ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलपुवृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ॥ ४।३॥ . Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थः पादः॥ अस्ति-ब्रुवोर्भूचचावशिति । ४ । ४।१। आस्तिब्रुवोर्यथासंख्य भूवचौ स्याता, अशिति विषये। भव्यम् , अवोचत् । अशितीति किम् ? स्यात्, भूते ॥१॥ अघञ्-क्यप-अलच्यजेवी।४।४।२। अघनादावशिति विषये अजे: स्यात्। प्रवेयम्। अधवक्यषलचीति किम् ? समाजः, समन्या, उदजः, भजः पशुः ॥२॥ ..तृ-अने वा । ४।४।३। बनयोर्विषयभूतयोरजेर्वी वा स्यात् । प्रवेता, प्राजिता, प्रवयणः, प्राजनो दण्डः ॥३॥ .. चक्षो वाचि कशांग्-ख्यांग । ४।४।४। चक्षो वागर्थस्याशिति विषये शांगल्यांगो स्याताम् । आक्शास्यति, आक्शास्यते । आख्यास्पति, 'आख्यास्यते । आक्शेयम् , आख्येयम् । वाचीति किम् ? पोधे विचक्षणः ॥ ४ ॥ नवा परोक्षायाम् । ४ । ४ । ५। चक्षो वाचि क्शांग्ख्यांगो परोक्षायां वा स्याताम् । आचक्शो, आचख्यो, भाचचक्षे ॥५॥ १ मत्रानुस्वारेद् इडभावार्य इति बृहद्वृत्तिकारः । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९४] हैमशब्दानुशासनस्य भृज्जो भ“ । ४ । ४।६। भृजतेरशिति भर्ज वा स्यात् भष्टी, भ्रष्टा ॥ ६ ॥ प्राद दागस्त आरम्भे क्ते।४ । ४ । ७। आरम्भार्थस्य प्रपूर्वस्य दागः क्ते परे त्तो वा स्यात्। प्रत्तः प्रदत्तः । प्रादिति किम् ? पेरीत्तम् ॥ ७॥ .. नि-वि-सु-अनु-अवात् । ४ । ४।८। एभ्यः परस्य दागः क्ते त्तो वा स्यात् । नीत्तम् , निदत्तम् । बीत्तम् , विदत्तम् । सूत्तम्, सुदत्तम् । अनूत्तम् , अनुदत्तम् । अवत्तम् , अवदत्तम् ॥ ८॥ स्वरादुपसर्गाद् दः ति कित्यधः ।४।४९॥ स्वरान्तादुपसर्गात् परस्य धावर्जस्य दासंज्ञस्य तादौ किति त्तो नित्यं स्यात् । प्रत्तः, परीत्रिमम् । उपसगोंदिति किम् ? दधि दत्तम् । स्वरादिति किम् ? निर्दत्तम् । द इति किम् ? प्रदाता व्रीहयः। तीति किम् ? प्रदाय । अध इति किम् ? निधीतः ॥९॥ दत् । ४।४।१०। अधो दासंज्ञस्य तादौ किति दत् स्यात् । दत्तः, दत्तिः । अध इत्येव ? धीतः ॥ १० ॥ दो-सोमा-स्थ इः । ४ । ४ । ११ । एषां तादौ किति इः स्यात् । निर्दितः, सित्वा, मितिः, स्थितवान् ॥ ११ ॥ १ अत्र "स्वरादुप........."(४-४-९) सूत्रान्नित्यं तः। २ अत्र नाम्यन्तस्योपसर्गस्य "दस्ति" (पृ. १७९) सूत्रेण दीर्घत्वम् । एवमन्यत्राऽपि । निदत्तं प्रदत्तमित्यादिषु दासंज्ञस्य “दत्" (४-४-१०) सूत्रेण 'दत्' इत्यादेशः । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः . [२९५] छा-शोर्वा । ४ । ४ । १२ । छाशोस्तादौ किति इर्वा स्यात् । अवच्छितः, अवच्छातः । निशितः, निशातः ॥ १२ ॥ शो व्रते । ४।४ । १३ । । श्यतेः व्रते-व्रतविषये प्रयोगे नित्यमिः स्यात् । संशितंव्रतम् , संशितः साधुः ॥ १३ ॥ हाका हिः क्त्वि । ४ । ४ । १४ । हाकस्तादो किति क्त्वायां हिः स्यात् । हित्वा । क्त्वीति किम् ? हीनः । तीत्येव ? प्रहाय ॥ १४ ॥ धागः । ४ । ४ । १५ । धागस्तादो किति हिः स्यात्। विहितः, हित्वा ॥१५॥ यपि चाऽदो जग्ध् । ४ । ४ । १६ । तादौ किति यपि चाऽदेग्ध् स्यात् । जग्धिः, प्रजग्ध्य ॥१६॥ घस्ल सनद्यतनी-घाचलि । ४।४।१७) एष्वदेस्लिः स्यात् । जिघत्सति, अघसत्, घासः, प्रात्तीति प्रघसः, प्रादनं प्रघसः ॥ १७ ॥ परोक्षायां नवा । ४ । ४ । १८ । __ अदेः परोक्षायां घस्लरादेशो वा स्यात् । जक्षुः, आदुः . ॥ १८॥ वेर्वय । ४।४ । १९ । वेगः परोक्षायां वय् वा स्यात् । अयुः, ववुः ॥१९॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९६ ] हैमशब्दानुशासनस्य ऋः शृ-दृ-प्रः । ४ । ४ । २० । एषां परोक्षायामृर्वा स्यात् । विशश्रतुः, विशशरतुः । विदद्रतुः, विददरतुः । निपप्रतुः, निपपरतुः ॥ २० ॥ eat as आशिषि अत्र । ४ । ४ । २१ | आशीर्विषये हन्तेर्वधः स्यात्, न तु निटि । बध्यात् । अञाविति किम् ? घानिषीष्ट ॥ २१ ॥ अद्यतन्यां वा त्वात्मने । ४ । ४ । २२ । अद्यतन्यां विषये हनो वधः स्यात्, आत्मनेपदे तु वा । अवधीत् । अवधिष्ट, आहत ॥ २२ ॥ इण्-इकेोर्गा । ४ । ४ । २३ | इणिकोरचतन्यां गाः स्यात् । अगात्, अध्यगात् ||२३|| णावज्ञाने गमुः । ४ । ४ । २४ । इणिकोरज्ञनार्थयोर्णी गमुः स्यात् । गमयति, अधिगमयति । अज्ञान इति किम् ? अर्थान् प्रत्याययति ||२४|| सनि इङश्च । ४ । ४ । २५ ।. इङ इणिकोश्चाज्ञानार्थयोः सनि गमुः स्यात् । अधि जिगांसते, जिगमिषति ग्रामम्, मातुरधिजिगमिषति ।। २५ ।। गाः परोक्षायाम् । ४ । ४ । २६ । इङः परोक्षाविषये गाः स्यात् । अधिजगे ॥ २६ ॥ णौ सन् - डे वा । ४ । ४ । २७ । • सन्डे परे णौ इडो गा वा स्यात् । अधिजिगापथिपति, अध्यापिपयिषति । अध्यजीगपत्, अध्यापिपत् । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२९७] णाविति किम् ? अधिजिगांसते । सनङ इति किम् ? अध्यापयति ॥ २७॥ वाऽद्यतनी-क्रियातिपत्त्योर्गीङ् । ४ । ४ । २८ । अनयोरिडोगीङ् वा स्यात् । अध्यगीष्ट, अध्यैष्ट । अध्यगीष्यत, अध्यैष्यत ॥ २८ ॥ अट् धातोरादिस्तिन्यां चाऽमाङा । ४।४ । २९ । यस्तन्यामद्यतनीक्रियातिपत्योश्च विषये धातोरादिरट् स्यात् , न तु माङ्योगे । अयात् , अयासीत् , अयास्यत् । अमाळेति किम् ? मा स्म कार्षीत । धातोरिति किम् ? प्रायाः ॥ २९ ॥ एत्यस्तेवृद्धिः । ४।४।३०। . इणिकोरस्तेश्चाऽऽदेर्खास्तन्यां विषये वृद्धिः स्यात् , न तु माङा । आयन्, अध्यायन , आस्ताम् । अमात्येव ? मा स्म ते यन् ॥ ३० ॥ ____ स्वरादेस्तासु । ४ । ४ । ३१ । स्वरार्धातोरादेरद्यतन्यां क्रियातिपत्तियस्तनीषु विषये वृद्धिः स्यात, अमाङा । आटीत्, ऐषिष्यत् , औज्झत् । अमाडेत्येव ? मा सोऽटीत् ॥ ३१ ॥ - स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिद । ४।४ । ३२।. धातोः परस्य सादेस्तादेश्वाशित आदिरिट् स्यात् , न तु त्रोणाद्योः । लविष्यति, लविता । स्तादीति किम् ? भूयात् । अशित इति किम् ? आस्से । अत्रोणादेरिति किम् ? शस्त्रम् , वत्सः, हस्तः ॥ ३२ ॥ .१ त्रप्रत्यये उणादिषु चेट् न भवतीति भावः । “शस्त्रम्" इति त्रस्य, "वत्सः, हस्तः" इति उणादेरुदाहरणानि सन्ति । "त्रोणाद्योः" इत्यत्र षष्ठीद्विवचनम् । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९४] हेमशम्दानुशासनस्य तेहादिभ्यः । ४ । ४ । ३३ । एभ्य एव परस्य स्ताशितः तेरादिरिद स्यात् । निगृहीतिः, अपस्निहितिः । ग्रहादिभ्य इति किम् ? शान्तिः ॥ ३३ ॥ गृह्णोऽपरोक्षायां दीर्घः । ४ । ४।३४ । अहेर्यो विहित इट्, तस्य दीर्घः स्यात् , न तु परोक्षा याम् । ग्रहीता। अपरोक्षायामिति किम् ? जगृहिक ॥ ३४॥ कृतो नवाऽनाशीः-सिच्परस्मै च । ४ । ४ । ३५। वृभ्यामृदन्तेभ्यश्च परस्पेटो दीर्घो वा स्यात् , नतु परोंक्षाऽऽशिषोः, सिचि च परस्मैपदे । प्रावरीता, प्रावरिता। वरीता, वरिता । तितरीपति, तितरिषति । परोक्षाऽऽदिवर्जनं किम् ? ववरिथ, तेरिथ, प्रावरिषीष्ट, आस्तरिषीष्ट, प्रावारिषुः, आस्तारिषुः ॥ ३५ ॥ इद सिजाशिषोरात्मने । ४ । ४ । ३६।बृतः परयोरात्मनेपदविषये सिजाशिषोरादिरिट्वा स्यात् । प्रावृत, प्रावरिष्ट । अवृत, अवरीष्ट । आस्तीर्ट, आस्तरिष्ट । प्रावृषीष्ट, प्रावरिषीष्ट । वृषीष्ट, वरिषीष्ट । आस्तीर्षीष्ट, आस्तरिषीष्ट । आत्मने इति किम् ? प्रावा. रीत् ॥ ३६॥ संयोगाद् ऋतः। ४ । ४ | ३७ । धातोः संयोगात् परो य ऋत् तदन्तात् पस्योरात्मनेपदविषयसिजाशिषोरादिस्ट् िवा स्यात् । अस्मरिषाताम् , अस्मृषाताम् । स्मरिषीष्ट, स्मृषीष्ट । संयोगादिति किम् ? अकृतः॥ ३७॥ १ वृगट् वृश। इत्याभ्यां धातुभ्याम् । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [२९९] धूगौदितः । ४।४।३८ । धूग औदितश्च परस्य स्ताशित आदिरिद् वा स्यात् । धोता, धविता । रद्धा, रधिता ॥ ३८॥ निष्कुषः । ४ । ४ । ३९ । निष्पूर्वात् कुषः परस्य स्ताद्यशित आदिरिट् वा स्यात् । निष्कोष्टा, निष्कोषिता ॥ ३९ ॥ क्तयोः ।४।४।४०। निष्कुषः परयोः क्तयोरादिरिट नित्यं स्यात् । निष्कुषितः, निष्कुषितवान् ॥ ४० ॥ ज-व्रश्चः क्त्वः । ४ । ४ । ४१ । आभ्यां परस्य क्त्व आदिरिट् स्यात् । जरीत्वा, व्रश्चित्वा ॥४१॥ ___ उदितो वा । ४ । ४ । ४२ । ऊदितः परस्य क्त्व आदिरिट् वा स्यात्। दान्त्वा, दमित्वा ॥ ४२ ॥ क्षुध-चसस्तेषाम् । ४ । ४ । ४३ । आभ्यां परेषां क्तक्तवतुक्त्वामादिरिट् स्यात् । क्षुधिता, क्षुधितवान्, क्षुधित्वा, उषितः, उषितवान् , उषित्वा ॥ ४३॥ लुभ्यञ्चविमोहाऽर्चे । ४ । ४ । ४४ ।। आभ्यां यथासंख्यं विमोहनपूजार्थाभ्यां परेषां क्तक्तवतुक्त्वामादिरिट् स्यात् । विलुभितः, विलुभितवान् , लुभित्वा, अश्चितः, आश्चितवान् , अश्चित्वा। विमोहार्च इति किम् ? लुब्धो जाल्मः, उदक्तं जलम् ॥ ४४ ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] हैमशब्दानुशासनस्य - पू-क्लिशिभ्यो नवा । ४ । ४ । ४५ । पूङ क्लिशिभ्या च परेषां क्तक्तवतुक्त्वामादिरिड् वा स्यात् । पूतः, पूतवान् , पूत्वा । पवितः, पवितवान् , पवित्वा। क्लिष्टः, क्लिष्टवान् , क्लिष्ट्वा । क्लिशितः, क्लिशितवान् , क्लिशित्वा ॥ ४५ ॥ . .. सह-लुभेच्छ-रुष-रिषस्तादेः । ४ । ४ । ४६ । । ___एभ्यः परस्य स्ताशितस्तादेरिद वा स्यात् । सोढा, सहिता । लोब्धा, लोभिता । एष्टा, एषिता । रोष्टा रोषिता । रेष्टुम् , रेषितुम् ॥ ४६॥ इव्-ऋध-भ्रस्ज-दम्भ-श्रि-यु-ऊण्णु-भर-ज्ञपि-सनि-तनि पति-वृ-ऋद्-दरिद्रः सनः । ४ । ४।४७ । - इवन्ताद् ऋधादिम्य ऋदन्तेभ्यो दरिद्रश्च परस्य सन आदिरिदै वा स्यात् । दुयूषति, दिदेविषति । ईसति, अदिधिषति । विभःति, विभर्जिपति । धिप्सति, धीप्सति, दिदम्भिपति । शिश्रीपति शिश्रयिषति । १ अत्र क्लिशिशब्देन क्लिश्यति-क्लिश्नातीत्यनयोर्धात्वोHहणं कर्तव्यम्। तेन सूत्रे बहुवचनं न दोषाय। पूङि ङकारग्रहणं पूगो निवृत्तये । तेन पूछ पवने धातोर्ग्रहणम् । २ यत्र इट् न भवति तत्र पक्षे गुणाऽभावः । “सन्यङश्च" सूत्रेण द्वित्वम्। "स्तायशितो..." इतीड्। '-ऋध इत्" इति ईत् । 'दम्भो धिप् धीप्" इत्यादेशौ "भृजो भ" इति विभक्षति । "स्वरहन्गमोः सनि धुटि" (४-१-१०४ ) सूत्रेण सनि परे दीर्घः। “ओन्तिस्थाप......” (४-१-६०) सूत्रेण सनि इकारे यियविषति । "नामिनोऽनिट" (४-३-३३) सूत्रेण किवद्भावेगुणाऽभावस्तेन पक्षे युयूषति शिश्रीषतीत्यादिषु न गुणः । “ज्ञप्यापो..."सूत्रात् ज्ञीप् “सनि" " तनो वा" सूत्राभ्यामाकारः। तनो विकल्पेन दीर्घत्वे च तितांसति इति तृतीयमपि रूपं भवति । "वृतो नवा..." सूत्रेण वा वीर्घत्वम् । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३०१] युयूषति, यियविषति । प्रोणुनूपति, प्रोणुनविपति । बुभूति, विभरिषति । ज्ञीप्सति, जिज्ञपयिषति । सिपासति, सिसनिषति । तितंसति, तितनिषति । पित्सति, पिपतिषति । प्रावुर्षति, प्रविवरिषति । वुवर्षते, विवरीपते । तितर्षति, तितरीपति । दिदरिद्रासति, दिदरिद्रिषति ॥ ४७ ॥ ऋ-स्मि-पूड्-अञ्ज-शो-कृ-गृ-दृ-धृ-प्रच्छः।४।४।४८। ___ एभ्यः परस्य सन आदिरिट् स्यात् । अरिरिषति, सिस्मयिषति, पिपविषते, अञ्जिजिषति, अशिशिषते, चिकरीपति, जिगरीपति, आदिदरिषते, आदिधरिषते, पिच्छिषति ॥४८॥ हनृतः स्यस्य । ४।४ । ४९। __ हन्तेः ऋदन्ताच परस्य स्यस्याऽऽदिरिट् स्यात् । हनिष्यति, करिष्यति ॥४९॥ कृत-चूत-नृत-च्छ्रदत्तृदोऽसिचः सादेर्वा । ४।४।५०। ... एभ्यः परस्यासिचः सादेस्ताद्यशित आदिरिट् वा स्यात् । कर्त्यति, कर्तिष्यति । चिनृत्सति, चिचतिषति । नय॑ति, नतिष्यति । अच्छय॑त्, अच्छर्दिष्यत् । तितत्सति,तितर्दिषति । असिच इति किम् ? अकर्तीत् ॥५०॥ गमोऽनात्मने । ४ । ४ । ५१ । गमः परस्य स्ताशितः सादेरिट् स्यात् , नत्वात्मनेपदे । गमिष्यति । अधिजिगमिषिता शास्त्रस्य । अनात्मने इति किम् ? संगसीष्ट ॥५१॥ स्नोः । ४।४। ५२ । स्नोः परस्य स्तायशितः अनात्मनेपदे आदिरिद Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०२ ] हैमशब्दानुशासनस्य स्यात् । प्रस्नविष्यति । अनात्मन इत्येव । प्रास्नोष्ट ॥५२॥ क्रमः । ४ । ४ । ५३ । क्रमः परस्य स्ताद्यशित आदिरिट् स्यात्, अनात्मनेपदे । क्रमिष्यति, प्रक्रमितुम् । अनात्मन इत्येव ? प्रस्यते 11-43 11 'तुः । ४ । ४ । ५४ । अनात्मनेपद विषयात् क्रमः परस्य तुस्ताद्यशित आदिरिट् स्यात् । क्रमिता । अनात्मन इत्येव ? प्रक्रन्ता ||५४ || न वृद्भयः । ४ । ४ । ५५ । वृदादिपञ्चकात् परस्य स्ताद्यशित आदिरिट्न स्यात्, नचेदसावात्मनेपदनिमित्तम् । वत्र्त्स्यति, विवृत्सति, स्यन्त्यस्यति, सिस्यन्त्सति ॥ ५५ ॥ एकस्वरादनुस्वारेतः । ४ । ४ । ५६ । एकस्वरादनुस्वारेतो धातोविहितस्य स्ताद्यशित आदिरिट् न स्यात् । पाता । एकस्वरादिति किम् ? अवधीत् ॥५६॥ ऋवर्ण- श्रि-ऊर्णुः कितः । ४ । ४ । ५७ । ऋवर्णान्ताद् धातोः श्रेरुपर्णोश्च एकस्वराट् विहितस्य कित आदिरिट् न स्यात् । वृतः, तीर्त्वा, श्रितः, ऊर्णुत्वा । एकस्वरादित्येव ? जागरितः । कित इति किम् ? वरिता ॥५७॥ उवर्णात् । ४ । ४ । ५८ । वर्णान्तादेकस्वराद् विहितस्य कित आदिरिट् न स्यात् । युतः, लूनः । कित इत्येव ? यविता लविता ||१८|| १ तृचः, तृनश्च प्रत्ययादादिरिद् स्याद् । २ अत्र क्तप्रत्ययः " ऋल्वादेरेषां तोनोऽग्रः ( ४ - २ - ६८ ) सूत्राद् नः Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः ग्रह-गुहश्च सनः । ४।४ । ५९ । आभ्यामुवर्णान्ताच विहितस्य सन आविरिट न स्यात् । जिघृक्षति, जुघुक्षति, रुरुषति ॥ ५९ ॥ स्वार्थे । ४ । ४ । ६०। स्वार्थार्थस्य सन आदिरिट् न स्यात् । जुगुप्सते॥६०॥ डीय-व्यैदितः क्तयोः । ४ । ४ । ६१ । डीयतेः श्वेरैदियश्च धातुभ्यः परयोः क्तक्तवत्वोरादिरिट् न स्यात् । डीनः, डीनवान् , शूनः शूनवान् , त्रस्तः, त्रस्तवान् ॥ ६१ ॥ वेटोऽपतः । ४ । ४ । ६२ । अपतो विकल्पितेटो धातोरेकस्वरात् परयोः क्तयोरादिरिट न स्यात् । रद्धः, रद्धवान् । अपत इति किम् ? पतितः ॥ ६२ ॥ . सं-नि-वेरर्दः । ४ । ४ । ६३ । एभ्यः पराद् अर्दैः परयोः क्तयोरादिरिट् न स्यात् । समपर्णः, समर्णवान् , न्यर्णः, न्यर्णवान् , व्यर्णः, व्यर्णवान् । संनिवेरिति किम् ? अर्दितः ॥ ६३ ॥ अविदूरेऽभेः । ४ । ४ । ६४ । अमेः पराद् अः परयोः क्तयोरविदूरेऽर्थे आदिरिट् न स्यात् । अभ्यर्णः, अभ्यर्णवान् । अविदूर इति किम् ? अभ्यर्दितो दीनः शीतेन ॥ ६४ ॥ १ क्तक्तवत्वोरित्यर्थः, एवमन्यत्राऽपि द्विवचनप्रयोगे बोध्यम् । डीङः सूयत्यादित्वात् , श्वयतेश्च ओदित्त्वात् "सूयत्याद्योदितः' (४-२-७०) सूत्रात् तस्य नः। सैन् भये इत्येदिद्धातोः 'त्रस्तः" इत्यादि स्यात् । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०४] हैमशब्दानुशासनस्य वृतेर्वृत्तं ग्रन्थे । ४ । ४ । ६५ । वृतेर्ण्यन्तात् क्ते वृत्तं ग्रन्थविषये निपात्यते । वृत्तो गुणइछात्रेण । ग्रन्थ इति किम् ? वार्ततं कुङ्कुमम् ॥६५॥ धृष-शसः प्रगल्मे । ४ । ४ । ६६ । आभ्यां परयोः क्तयोरादिः प्रगल्भ एवार्थ इट न स्यात् । धृष्ठः, विशस्तः । प्रगल्भ इति किम् ? धर्षितः, विशसितः॥ ६६ ॥ कषः कृच्छ्रगहने । ४ । ४ । ६७ । अनयोरर्थयोः कषेः परयोः क्तयोरादिरिट् न स्यात् । कष्टं दुःखम्, कष्टोऽग्निः, कष्टं वनं दुरवगाहम् । कृच्छ. गहन इति किम् ? कषितं स्वर्णम् ॥ ६७ ॥ .. .. घुषेरविशब्दे । ४ । ४ । ६८ । अविशब्दार्थाद् घुसेः परयोः क्तयोरादिरिट् न स्यात् । घुष्टा रज्जुः, घुष्टवान् । अविशब्द इति किम् ? अवघुषितं वाक्यम् ॥ ६८ ॥ बलिस्थूले दृढः । ४।४। ६९।। बलिनि स्थूले चार्थे हे हेर्वा क्तान्तस्य दृढो निपात्यते । दृढः । बलिस्थूल इति किम् ? दृहितम् , इंहितम् ॥ ६९॥ क्षुब्ध-विरिब्ध-स्वान्त-ध्वान्त लग्न-म्लिष्ट फाण्टबाढ-परिवृद्ध मन्थ-स्वर-मनसू-तमस्-सत्ताऽस्पष्टाऽ नायास-भृश-प्रभौ । ४।४।७। एते क्तान्ता मन्थादिष्वर्थेषु यथासङ्ख्यमनिटो निपात्यन्ते । क्षुब्धः समुद्रः, क्षुब्धं वल्लवैः, विरिब्धः स्वरः, Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोरजलघुतिः [३०५] स्मन्तं मनः, ध्वान्तं तमः, लनं सक्तम, म्लिष्टमस्पटम् फाण्टमनापाससाध्यम् , वाढं भृशम्, परिवृतः प्रभुः॥७॥ आदितः। ४।४।७१। आदितो धातोः परयोः क्तयोरादिरिट् न स्वात् । मिशः मित्रवान् ॥ ७१ ॥ नवा भावाऽऽस्म्भे । ४।४।७२। आदितो धातोभावाऽऽरम्भार्थषोः क्तबोरादिरिद वा न स्यात् । मिन्नम्, मेदितम् । प्रमिन, मितवान् । प्रमे दितः, प्रमेदितवान् ।।७२ ॥ शकः कर्मणि ।४ । ४।७३। शकेः कर्मणि क्तयोरादिरिद वा न स्यात् । शत्ता, शक्तिो वा घटः कर्तुम् ॥७३॥ णौ दान्त-शान्त-पूर्ण-दस्त-स्पष्ट-च्छन्न ज्ञप्तम् । ४।४।७४ । ... दमादीनां णौ क्तान्तानामेते वा निपात्यने । दान्ता, दमितः। शान्तः, शमितः । पूर्णः, पूरितः । दस्ता, दासितः । स्पष्टः, स्पाशितः । छन्त्रः, छादितः । शमा, ज्ञापितः ॥ ७४ ॥ श्वस-जप-वेम-रुष-त्वर-संधुषाऽऽस्वनाऽमः ।।७५ एभ्यः क्तयोरादिरिट् वा न स्यात् । श्वस्तः, श्वसितः। विश्वस्तवान् , विश्वसितवान् । जप्तः, जप्तवान् । जपितः, जपितवान् । वान्तः, वान्तवान् । वमितः, वमितवान् । रुष्टः, रुष्टवान् । रुषितः, रुषितवान् । तूर्णः, तूर्णवान् । । दम्-शम्-पूरै-उस-सर-छद-ज्ञा-धातूनाम् । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०६ ] हैमशब्दानुशासनस्य त्वरितः, त्वरितवान् । संघुष्टौ संघुषितौ दम्यौ । संघुष्टवान् संघुषितवान् | आस्वान्तः, आस्वनितः । आस्वान्तवान्, आस्वनितवान् | अभ्यान्तः, अभ्यान्तवान् | अभ्यमितः, अभ्यमितवान् ॥ ७५ ॥ हृषेः केश-लोम-विस्मय-प्रतिघाते । ४ । ४ । ७६ । हृषेः केशाद्यर्थेषु क्तयोरादिरिट् वा न स्यात् । हृष्टाः, हृषिताः केशाः । हृष्टं, हृषितं लोमभिः । हृष्टो, हृषितचैत्रः । हृष्टाः, हृषिता दन्ताः ॥ ७६ ॥ अपचितः । ४ । ४ । ७७ । अपात् चायेः क्तान्तस्य इडभावः, चिश्च निपात्यते वा । अपचितः, अपचायितः ॥ ७७ ॥ · · सृजि - दृशि - स्- स्वरात्वतः तृनित्याऽनिटस्थवः । ४ । ४ । ७८ । सृजिदृशिभ्यां स्कृगः स्वरान्तादत्वतश्च तृचि नित्यानिटो विहितस्य थव आदिरिट् वा न स्यात् । सस्रष्ठ, ससर्जिथ । दद्रष्ट, ददर्शिथ । सञ्चस्कर्थ, सञ्चस्करिथ । ययाथ, ययिथ । पपक्थ, पेचिथ । तृनित्यानिट इति किम् ? ररन्धिथ, शिश्रयिथ । विहितविशेषणं किम् ? चकर्षिथ ॥ ७८ ॥ ऋतः । ४ । ४ । ७९ । ऋदन्तात् तृनित्यानिटो विहितस्य थव आदिरिद् न स्यात् । जहर्थ । तृनित्यानिट् इत्येव १ सस्वरिथ ॥ ७९ ॥ १ अभि-आङ्पूर्वोऽम्, अभिपूर्वश्चाऽम् इत्युदाहरणयुगलम् । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३०७] | ऋ-वृ-व्येऽद इट् । ४ । ४ । ८० । एभ्यः परस्य थव आदिरिट् स्यात् । आरिथ, ववरिथ, संविव्यायथ, आदिथ ॥ ८॥ स्कृ असू-च-भृ-स्तु-द्रु-श्रु-स्रोळजनादेः परोक्षायाः ।४।४। ८१ । 'स्कृगः नादिवर्जेभ्यश्च सर्वधातुभ्यः परस्याः परोक्षायाः व्यञ्जनादेरिट् स्यात् । संचस्करिव, ददिव चिच्यिवहे । स्क्रिति किम् ? चकृव । नादिवर्जनं किम् ? समृव, ववृव, ववृवहे, बभर्थ, तुष्टोथ, दुद्रोथ, शुश्रोथ, सुस्रोथ ॥८१॥ . घसेकस्वराऽऽतः कसोः। ४।४। ८२। घसेरेकस्वराद् आदन्ताच धातोः परस्य कसोः परो. क्षाया आदिरिट् स्यात् । जक्षिवान् , आदिवान् , ययिवान् । परोक्षाया इत्येव ? विद्वान् ॥ ८२ ॥ गम-हन-विदुल-विश-दृशो वा । ४।४।८३। - एभ्यः परस्य क्वसोरादिरिटू वा स्यात् । जग्मिवान् , जगन्वान् । जनिवान् , जघन्वान् । विविदिवान् , वि. विद्वान् । विविशिवान् , विविश्वान् । दशिवान् । दहश्वान् ॥ ८३॥ सिचोऽजेः। ४ । ४ । ८४ । अजेः सिच आदिरिट् स्यात् । आजीत् ।। ८४ ॥ १ सस्पटः कृगो धातोरिद् भवति, स्सट्शून्यस्य तु नेत्यर्थः । स्सट तु "संपरेः कृगः स्सट्" (४-४-९१) इति सूत्रेण भवति । '' स्कृ-ऋच्छृतोः " (४-३-८) सूत्रेण संचस्करिव इत्यत्र गुणः । “ इन्ध्यसंयोगात्..." सूत्रात् किद्वत्त्वाद् ददिय चिच्यिवहे इत्यादिषु आतो लक् गुणाऽभावध। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८] हैमशब्दानुशासनस्य धू-सुस्तोः परस्मै । ४।४।८५। एभ्यः परस्मैपदे सिच आदिरिट् स्यात् । अधावीत् , असावीत्, अस्तावीत् । परस्मै इति किम् ? अघोष्ट ॥८५। यमि-रमि-नम्यातः सोऽन्तश्व । ४ । ४ । ८६ । . ' एभ्य आदन्तेभ्यश्च परस्मैपदे सिच आदिरिट्स्यात्। एषां च म अन्तः । अयंसीत्, व्यरंसीत् , अनंसीत् , अयासिष्टाम् ॥ ८६ ॥ ईशीडः से-वे-स्व-ध्वमोः । ४ । ४ । ८७ । __ आभ्यां वर्तमानासेध्वयोः; पञ्चमीस्वध्वमोश्चादिरिद् स्यात् । ईशिषे, ईशिध्ये, ईशिष्व, ईशिध्वम्, ईडिओ, ईडिवे, ईडिप्व, ईडिध्वम् ।। ८७ ॥ . रुत्पञ्चकात् शिदयः । ४ । ४ । ८८ । रुदादेः पञ्चतः परस्य व्यञ्जनादेः शितोऽयादेशादिरिट स्यात् । रोदिषि, स्वपिपि, प्राणिति, श्वसिति, जक्षिति । अपिति किन ? रुद्यात् । शित इति किम् ? रोत्स्यति, स्नप्स्यति ॥ ८८॥ दि-स्योरीटू । ४ । ४ । ८९ । रुत्पञ्चकात् दिस्योः शितोरादिरीट् स्यात् । अरोदीत्, अरोदीः ॥ ८९॥ अदश्वाऽट् । ४ । ४ । ९० । अत्ते रुत्पञ्चकाच दिस्योः शितोरादिरट् स्यात् । आदद , आदः, अरोदत् , अरोदः ॥ ९ ॥ १ "सिचि परस्मैः" (४-३-४४) सूचात् वृद्धिः। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपालपुतिः [३०९] . संपरेः कृगःस्सट् । ४ । ४ । ९१ । आभ्यां परस्य कृग आदिः स्सट् स्यात् । संस्करोति कन्याम् , परिष्करोति ॥ ९१ ।। उपादु भूषा-समवाय-प्रतियत्न-विकारचाक्या ___ऽध्याहारे । ४ । ४ । ९२ । उपात् परस्य कृगो भूषादिष्वर्थेष्वादिः सट् स्यात् । कन्यामुपस्करोति, सत्र न उपस्कृतम् , एयोदकमुपस्कुरुते, उपस्कृतं भुङ्क्ते, सोपस्कारं सूत्रम् ॥ ९२ ।। किरो लवने । ४ । ४ । ९३ । . उपात् किरतेः सडादिः स्थात्, लपविषयार्थश्वेत्। उपरकीर्य मद्रका लुनन्ति। लवन इति किम् ? उपकिरति, पुष्पम् ॥ ९३ ॥ .. . प्रतेश्च वधे । ४।४।९४ । प्रतेपाच किरतेहिसायां विषऽर्थे स्सडादिः स्यात् । प्रतिस्कीर्णम् , उपस्कीर्णम् , वा ह ते वृषल भूयात् , प्रतिचस्करे नखैः । वध इति किम् ? प्रतिकीर्ण बीजम् .॥९४॥ अपात् चतुष्पात्-पक्षि-शुनि हृष्टाऽन्नाऽऽश्रयाऽर्थे ।४।४।९५। अपात् किरतेः चतुष्पदि पक्षिणि शुनि च कर्तरि , भूषा लारः । समवायः समुदायः। प्रतियरमा पुनर्वनः। प्रकृतेरन्यथाभावो विहारः । गम्यमानस्य वाक्यैकदेशस्त्र स्परूपेणोपादा वाक्याबाहार इति वृहदवृत्तिकारः। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१०] हैमशब्दानुशासनस्य यथासङ्ख्यं हृष्टेऽन्नार्थिनि आश्रयार्थिनि त्सडादिः स्यात् । अपस्किरते गौहृष्टः, कुक्कुटो भक्ष्यार्थी, आश्रयार्थी वा श्वा ॥ ९५ ॥ वौ विष्किरो वा । ४ । ४ । ९६ । पक्षिणि वाच्ये विकिरतेः स्सड् वाऽऽदिः स्यात् । विष्किरः, विकिरो वा पक्षी ॥ ९६ ॥ .. प्रात् तुम्पतेर्गवि । ४ । ४ । ९७। प्रात् तुम्पतेर्गवि कर्तरि स्सडादिः स्यात् । प्रस्तुम्पति गौः । गवीति किम् ? प्रतुम्पति तरुः ॥ ९७ ॥ उदितः स्वराद् नोऽन्तः । ४ । ४ । ९८ । . उदितो धातोः स्वरात् परोन अन्तः स्यात् । नन्दति, कुण्डा ।। ९८॥ 'मुचादि-तृफ-टफ गुफ शुभोभः शे।४।४।९९/ एषां शे परे स्वराद् नोऽन्तः स्यात् । मुञ्चति, पिंशति, तृम्फति, दृम्फति, गुम्फति, शुम्भति, उम्भति॥१९॥ जभः स्वरे। ४ । ४ । १००। जमेः स्वरात् परः स्वरादी प्रत्यये नोऽन्तः स्यात् । जम्भः ॥१०० ॥ १ विः पक्षी, तत्र । शकुन्तिः शकुनिश्चेिति धनञ्जयः। २ एवे तौदादिकाः सन्ति । " तुदादेः शः” (३-४-८१) इत्यस्मिन् शे परे मुचादीनां स्वरात् नोऽन्तः स्यात् । तृफादीनां नोऽन्तविधानसामर्थात्शे परे नस्य लुग न भवति, तृम्फादीनां तु नोऽन्तविधानाऽभावाद् लुग् भवति । तेन नळुाके तृफति, दृफति, उभतीत्यादीनि रूपाणि स्युः । सनकारां, अनकारा एते पृथगेव धातवः सन्तीति । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३११] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः रथ इटि तु परोक्षायामेव । ४ । ४ । १०१ । रधः स्वरात् परः स्वरादौ प्रत्यये नोऽन्तः स्यात्, हडादौ तु परोक्षायामेव । रन्धः, ररन्धिव । परोक्षायामेवेति किम् ? रधिता ॥ १०१ ॥ trisपरोक्षा शवि । ४ । ४ । १०२ | रमेः स्वरात् परः परोक्षाशन्वर्जे स्वरादौ प्रत्यये न् अन्तः स्यात् । आरम्भः अपरोक्षाशवीति किम् ? आरेमे, आरभते ॥ १०२ ॥ लभः । ४ । ४ । १०३ | लभः स्वरात् परः परोक्षाशव्वर्जे स्वरादौ प्रत्यये न् अन्तः स्यात् । लम्भकः ।। १०३ ।। आङो यि । ४ । ४ । १०४ । आङः परस्य लभः'स्वरात् परो यादौ प्रत्यये न् अन्तः स्यात् । आलम्भ्या गौः । यीति किम् ? आलब्धाः ॥१०४॥ उपात् स्तुतौ । ४ । ४ । १०५ | उपात् परस्य लभः स्वरात् परो यादौ प्रत्यये स्तुतौ गम्यायां न् अन्तः स्यात् । उपलम्भ्या विद्या । स्तुताविति किम् ? उपलभ्या वार्त्ता ॥ १०५ ॥ त्रि ख्णमोर्वा । ४ । ४ । १०६ । औौ रूणमि च लभः स्वरात् परो न् अन्तो वा स्यात् । अलाभि, अलम्भि । लम्भं लम्भम्, लाभ लाभम् ॥१०६ ॥ उपसर्गात् खल्घञोश्च । ४ । ४ । १०७ । उपसर्गाद् लभः, स्वरात् परः स्वल्घत्रोर्निरुणमोश्च Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१२] हेमशब्दानुशासनस्य परयोन अन्तः स्यात् । दुष्प्रलम्भम् , प्रलम्भः, मालम्भि, प्रलम्भं प्रलम्भम् । उपसर्गादिति किम् ? लाभः ॥१०७॥ ... सु-दुर्व्यः । ४ । ४ । १०८ । आभ्यां समस्तव्यस्ताभ्यां उपसर्गात् पराभ्यां परस्य स्वरात् फरः खल्घजोर्नोऽन्तः स्यात्। अतिसुलम्भम् , अतिदुर्लम्भम् , अतिसुलम्भः, अतिदुर्लम्भः, अतिसुदु. लम्भम् , अतिसुदुर्लम्भः । उपसर्गादित्येव ? सुलभम् ॥ १०८ ॥ नशो धुटि । ४ । ४ । १०९।। नशेः स्वरात् परो धुडादौ प्रत्यये न अन्तः स्यात् । नंष्टा । धुटीति किम् ? नशिता ॥ १०९ ॥ . मस्जेः सः।४।४।११०। मस्जेः स्वरात् परस्य सस्य धुडादौ प्रत्यये न अन्तः स्यात् । मक्ता ॥ ११ ॥ अः स्मृजि-दृशोकिति । ४।४।१११ । अनयोः स्वरात् परो धुडादौ प्रत्यये अदन्तः स्यात् , न तु किति । स्रष्टा, द्रष्टुम् । अकितीति किम् ? सृष्टः ॥ १११॥ स्पृशादि-सृपो वा । ४ । ४ । ११२ । स्पृशमृशकृषतृपषां सुपश्च स्वरात् परो धुडादौ प्रत्यये अदन्तो वा स्यात् , अकिति । स्पष्टा, स्पा । म्रष्टा, मष्टी। ऋष्टा, की। त्रप्ता, ता। द्रप्ता, दर्ता । सप्ता, सप्र्ता ॥ ११२ ॥ इई सतन्तसमस्तस्योदाहरणं । द्वितीयं तु पअन्तसमस्तस्य । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षलघुति [३१३] हृस्वस्य तः पित्कृति । ४।४।११३ । ... ह्रस्वान्तस्य धातोः पिति कृति त् अन्तः स्यात् । जगत् । ह्रस्वस्येति किम् ? ग्रामणीः । कृतीति किम् ? अजुहवुः ॥११३ ॥ अतो म आने ।४।४।११४। । पातोर्विहिते आने अतो मोऽन्तः स्यात् । पचमानः । अत इति किम् ? शयानः ॥११४ ॥ आसीनः । ४ । ४ । ११५। आस्तेः परस्य आनस्यादेरीनिपात्यते । आसीना, उदासीनः ॥ ११५॥ ऋतां क्डि तीर । ४ । ४ । ११६ । ऋदन्तस्य धातोः क्ङिति प्रत्यये ऋत् इर् स्यात् । तीर्णम् , किरति ॥ ११६॥ ओष्ठयादुर् । ४।४ । ११७ । - धातोरोष्ठयात् परस्य ऋतः विडत्युर् स्यात् । पू:, बुभूर्षति, वुवूर्षते ॥ ११७ ॥ इस आसः शासोऽङ्-व्यञ्जने । ४ । २ । ११८। .. शास्तेरासोऽङि क्ङिति व्यञ्जनादौ च परे इस् स्यात्। अशिषत् , शिष्टः । अव्यञ्जन इति किम् ? शासति ॥ ११८ ॥ क्यौ । ४।४।११९ । शास आसः क्वो इस् स्यात् । मित्रशीः ॥ ११९ ॥ आड: । ४।४।१२०। आङः परस्य शास आसः क्वावेव इस् स्यात् । आ. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१४] हैमशब्दानुशासनस्य शीः । क्वावित्येव ? आशास्ते ॥ १२०॥ योः प्वव्यञ्जने लुक् । ४ । ४ । १२१ । पौ वर्जव्यञ्जनादौ च परे य्वोर्लक् स्यात् । क्नोपयति, क्ष्मातम्, देदिवः कण्डूः । य्वर्जनं किम् ? क्नूय्यते ॥ १२१ ॥ कृतः कीर्तिः। ४ । ४ । १२२। कृतणः कीर्तिः स्यात् । कीर्तयति ॥ १२२ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः। ४।४। , S HARI YOOOOOOOOOOOOOOOOO ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ आख्यातवृत्तिः समाप्ता &00000000000000003 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ (कृत्प्रकरणम् ) आ तुमोऽत्यादिः कृत् । ५ । १ । १ । धातोर्विधीयमानस्त्यादिवों वक्ष्यमाणः प्रत्ययस्तुमभिव्याप्य कृत् स्यात् । घनघात्यः । अत्याविरिति किम् ? प्रणिस्ते ॥ १॥ बहुलम् । ५ । १।२। कृन्निर्दिष्टादाद् अन्यत्रापि बहुलं स्यात्। पोदहारकः, मोहनीयं कर्म, संप्रदानम् ॥ २॥ कर्तरि । ५। १।३। कृवर्थविशेषोक्तिं विना कर्तरि स्यात् । कर्ता ॥ ३ ॥ .. व्याप्ये घुर-केलिम-कृष्टपच्यम् । ५। १।४ । घुरकेलिमो प्रत्ययौ कृष्टपच्यश्च व्याप्ये कर्तरि स्युः । भङ्गरं काष्ठम्, पचेलिमा माषाः कृष्टपच्याः शालयः॥४॥ ... संगतेऽजर्यम् । ५ । १ । ५। ___ संगमनं संगतम् । तस्मिन् कर्तरि नपूर्वात् जृपो यो निपात्यते। अजय आर्यसंगतम् । संगत इति किम् ? अजरः पटः ॥५॥ १ पादाभ्यां ह्रियते इति पादहारकः । मुह्यत्यनेनेति मोहनीयं, करणेऽनीयः। अनेनैव नियमेन " येन प्रणम्रौ त्वत्पादौ " इति श्री यशोवि० कृतशमीनपार्श्वस्तोत्रप्रयोगस्य कर्मणि वर्तमानेऽपि. रः प्रत्ययः सिध्यति । एवं कम्रादिष्वपि । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१६] हैमशब्दानुशासनस्य रुच्याऽव्यथ्य-वास्तव्यम् । ५ । १। ६ । एते कर्तरि निपात्यन्ते । रुच्यः, अव्यथ्यः, वास्तव्यः॥६॥ . भव्य-गेय-जन्यरम्याऽऽपात्याऽऽप्लाव्यं नवा । ५। १ । ७। एते कर्तरि वा निपात्यन्ते । भव्यः, गेयः सानाम्, जन्यः, रम्यः, आपात्यः, आप्लाव्या पेक्षे, भव्यम्, गेयानि, सामानि, जन्यम्, रम्यम्, आपात्यम्, आप्लाव्यम् ॥७॥ प्रवचनीयाऽऽदयः।५।१।। एते. अनीयप्रत्ययान्ताः कर्तरि वा निपात्यन्ते । प्रवचनीयो गुरुः शास्त्रस्य, प्रवचनीयं गुरुणा शास्त्रम्, उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः, उपस्थानीयः शिष्येण गुरुः ॥८॥ श्लिष-शी.-स्थाऽऽसचस-जनरुह-जू-भजेः क्तः । ५। १ । ९। एभ्यः क्तो यो विहितः, स कर्तरि वा स्यात् । आश्लिछः कान्तां चैत्रः, आश्लिष्टा कान्ता चैत्रेण । अतिशयितो गुरुं शिष्यः, अतिशयितो गुरुः शिष्यैः । उपस्थितो गुरुं शिष्या उपस्थितोगुरु शिष्यैः । उपासिता गुरुं ते, उपासितो गुरुस्तैः। अनूपिता गुरुं ते, अनूषितो गुरुस्तैः । अनुजातास्तां ते, अनुजाता सातैः। आरूढोऽश्वं सः, आरूढोऽश्वस्तैः । अनुजीर्णास्तां ते, अनुजीर्णा सा तैः। विभक्ता स्वं ते, विभक्तं स्वं तैः ॥९॥ आरम्भे ।५।१ । १०। आरम्भार्थाद् धातो तादौ या तो विहितः, स कर्तरि वा स्यात् । प्रकृताः कटं ते । प्रकृतः कटस्तैः ॥ १० ॥ . १ पक्षे भावकर्मणोः स्यात् कर्तरि वा विधानार्थमिदं सूत्रम् । २ शानं दर्शनं वाऽऽणोतीति ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयमित्यायपि । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोपज्ञलघुवृत्तिः [३१७] | गत्यर्थाऽकर्मक-पिव-भुजेः।५।१।११ । भूतादौ यः क्तो विहितः स एभ्यः कर्तरि वा स्यात्। गतोऽसौ ग्रामम् , गतोऽसौ तैः । आसितोऽसौ, आसितं तः। पीताः पयः, पीतं पयः। भुक्तास्ते, इदं तैर्भुक्तम् ॥११॥ . अद्यर्थात् चाऽऽधारे । ५। १ । १२ । आहारार्थात् धातोर्गत्यर्थादेव यः क्तः स आधारे वा स्यात् । इदमेषां जग्धम् , तैर्जग्धम् । इदं तेषां यातम् , तैर्यातम् । इदमेषां शयितम्, तैः शयितम् । इदं गवां पीतम्, गोभिः पीतम् । इदं तेषां भुक्तम् , तैर्भुक्तम् ॥ १२ ॥ क्वान्तुम्-अम् भावे । ५। १ । १३ । एते धात्वर्थमात्रे स्युः। कृत्वा, कर्तुम् , कारंकारं याति भीमादयोऽपादाने । ५। १ । १४ । एतेऽपादाने स्युः । भीमः, भयानकः ॥ १४ ॥ . संप्रदानात् चाऽन्यत्रोणादयः । ५। १ । १५/ संप्रदानादपादानात् चान्यत्रार्थे उणादयः स्युः। कारुः, कषिः ॥१५॥ .' असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक क्तेः ।५।१।१६। इतः सूत्रादारभ्य "स्त्रियां क्ति" (५-३-९१) इत्यतः प्राक् योऽपवादः, तद्विषयेऽपवादेनाऽसमानरूप औत्सर्गिकः प्रत्ययो वा स्यात् । अवश्यलाव्यम् , अवश्यलवितव्यम् । असरूप इति किम् ? घ्यणि यो न स्यात् । कार्यम् । प्राक्तेरिति किम् ? कतिः, चिकीर्षा ॥ १६ ॥ १ पक्षे कर्मणि कर्तरि भावे च भवति । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१८] हैमशब्दानुशासनस्य ऋवर्ण-व्यञ्जनाद् घ्यण् । ५ । १।१७। ऋवर्णान्ताद् व्यञ्जनान्ताच धातोय॑ण् स्यात्। कार्यम् , पाक्यम् ॥ १७ ॥ पाणि-समवाभ्यां सृजः । ५।१।१८। आभ्यां परात् सृजेय॑ण् स्यात् । पाणिसा , समव: सो रज्जुः ॥१८॥ उवर्णादावश्यके । ५। १ । १९।। अवश्यम्भावे द्योत्ये धातोरुवर्णान्ताद् घ्यण स्यात् । लाव्यम्, अवश्यपाव्यम् ॥ १९ ॥ 'आसु-युचपि-रपि-लपि-त्रपि-डिपि-दभि-चम्यानमः । ।५।१। २०। . आपूर्वाभ्यां सुग्नम्भ्यां यौत्यादेश्व ध्यण् स्यात् । आसाव्यम् , याव्यम् , वाप्यम्, राप्यम्, लाप्यम् , अपत्रा. प्यम् , डेप्यम्, दाभ्यम्, आचाम्यम्, आनाम्यम् ॥२०॥ वाऽऽधारेऽमावस्या । ५। १ । २१ । अमापूर्वाद् वसतेराधारे ध्यण, धातोर्वा हृस्वश्व निपात्यते । अमावस्या, अमावास्या ॥ २१ ॥ संचाय्य-कुण्डपाय्य-राजसूयं क्रतो ।५।१।२२। एते ऋतावर्थे ध्यणन्ता निपात्यन्ते। संचारयः, कुण्डपाय्यः, राजसूयः क्रतुः ॥२२॥ प्रणाय्यो निष्कामाऽसंमते । ५। १ ॥२३॥ प्रात् नियो ध्यण्-आयादेशौ स्याता, निष्कामेऽसंमते १ आसु इति आपूर्वः सुनोतेः, आनम इति आनमेर्धातोर्ग्रहणम् । आसाव्यम् , आनाम्यमित्यनयोरुदाहरणे स्तः। दभि बन्धने सौत्रो थातुर्गायः । न तु स्वादिकः तौदादिको वा। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३१९] चार्थे । प्रणाय्यः शिष्यश्चौरो वा ॥ २३ ॥ धाय्या-पाय्य-सान्नाय्य-निकाय्यम् ऋक्-मान-हवि. -निवासे । ५। १ । २४ । एते ऋगादिषु यथासङ्ख्यं ध्यणन्ता निपात्यन्ते । धाग्या ऋक्, पाय्यं मानम्, सान्नाय्यं हविः, निकाय्यो निवासः ॥२४॥ परिचाय्योपचाय्याऽऽनाय्य-समूह्य-चित्यमग्नौ ।५।१ । २५ । एतेऽनौ निपात्यन्ते । परिचाय्यः, उपचाय्या, आनाय्यः, समूह्यः, चित्यो वाऽग्निः ॥ २५ ॥ याज्या दानर्चि। ५। १ । २६ । यजेः करणदानर्चि ध्यण् स्यात् । योज्या ॥२६॥ तव्याऽनीयौ। ५। १ । २७ । एतौ धातोः स्याताम् । कर्त्तव्यः, करणीयः ॥ २७ ॥ ... य एत् चाऽऽतः। ५।१ । २८ । स्वरान्ताद् धातोर्यः स्यात् , आत एच्च । चेयम् , नेयम् , देयम्, धेयम् ॥ २८॥ शकि-तकि-चति-यति-शसि सहि-याज-भजि पवर्गात् । ५ । १ । २९ । एभ्यः पवर्गान्ताच यः स्यात् । शक्यम् , तक्यम् , १ पत्र "क्तेऽनिटश्चजोः कगौ धिति" इति प्राप्तस्य गकारस्य "त्यज्यज्प्रवचः" (४-१-११८) इति सूत्रेण बाघो भवति । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२०] हैमशब्दानुशासनस्य चत्यम् यत्यम् , शस्यम्, सह्यम्, यज्यम्, भज्यम्, तप्यम्, गम्यम् ॥ २९ ॥ यमि-मदि-गदोऽनुपसर्गात् । ५। १ । ३० । एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो या स्यात् । यम्यम्, मद्यम् ,गद्यम् । अनुपसर्गादिति किम् ? आयाम्यम् ॥ ३० ॥ .. चरेः, आड.स्त्वगुरौ ।५।१ । ३१ । अनुपसर्गात् चरेः आपूर्वात् तु अगुरौ य: स्यात् । चर्यः, आचर्यो देशः। अगुराविति किम् ? आचार्यः ॥३१॥ वर्योपसर्याऽवद्य-पण्यमुपेय-ऋतुमती-गी विक्रये । ५।१ । ३२ । एते उपेयादिषु यथासङ्ख्यं यान्ता निपात्यन्ते । वर्या कन्या, उपसर्या गौः, अवयं गद्यम्, पण्या गौः ।। ३२ ॥ स्वामिवैश्ययः। ५। १ । ३३।। अतः स्वामिवैश्ययोर्यः स्यात् । अर्यः स्वामी वैश्यो वा । आर्योऽन्यः ॥ ३३॥ वयं करणे । ५ | १ । ३४ । वहेः करणे यः स्यात् । वा शकटम् ।। ३४ ।। नाम्नो वदः क्यप् च । ५ । १ । ३५ । अनुपसर्गान्नाम्नः पराद् यादेः क्यप्यो स्याताम् । ब्रह्मोद्यम्, ब्रह्मवद्यम् । नाम्न इति किम् ? वाद्यम् । अनुपसर्गादित्येव ? प्रवाद्यम् ॥ ३५॥ हत्या भूयं भावे । ५। १ । ३६ । अनुपसर्गाद् नाम्नः परौ हत्याभूयो भावे क्यवन्तौ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ३२१] साधू स्तः । ब्रह्महत्या, देवभूयं गतः । भाव इति किम् ? श्वघात्या सा ॥ ३६ ॥ अग्निचित्या । ५ । १ । ३७ ॥ अग्नेः पराचेः स्त्रीभावे क्यप् स्यात् । अग्निचित्या ३७ खेय - मृषोये | ५ | १ | ३८ । एतौ तौ साधू स्तः । विखेयम्, सुपोचम् ॥३८॥ कुप्यमिद्योग्य-सिध्यतिष्य-पुष्य-युम्पाऽऽज्य-सूर्य नाग्नि । ५ । १ । ३९ । एते क्यबन्ताः संज्ञायां निपात्यन्ते । कुप्यं धनम्, भिद्यम्, ऊध्यो नदः, सिष्यः, तिष्यः, पुण्यः, युग्यं वाहनम्, आज्यं घृतम्, सूर्यो रविः ॥ ३९ ॥ दु-वग्-स्तु- जुषेति-शासः । ५ । १ । ४० । एभ्यः क्यप् स्यात् । आहत्यः, प्रावृत्यः, अवश्यस्तुत्यः । जुष्यः, इत्यः, शिष्यः ॥ ४० ॥ ऋदुपान्त्याद् अकृपि वृदु-ऋचः | ५ | १ | ४१ | । ऋदुपान्त्याद् धातोः कृपिवृतिऋचिवजत् कयप् स्यात् । नृत्यम् | अकृपिचदृच इति किम् ? कल्प्यम्, चर्त्यम्, अर्च्यम् ॥ ४१ ॥ कृ-वृषि- मृजि-शंसि - गुहि-दुहि- जपो वा । ५ । १ । ४२| एभ्यः क्यप् वा स्यात् । कृत्यम्, कार्यम् । वृष्यम्, वयम् । मृज्यम्, मोर्ग्यम् । शस्यम्, शंस्यम् । मुह्यम्, गोह्यम् । दुह्यम्, दोह्यम् । जय्यम्, जाप्यम् ॥ ४२ ॥ १ पक्षे ध्यण, जस्य गत्वं वृधि । ४१ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२२] हैमशब्दानुशासनस्य जि-विपू-न्यो हलि-मुज-कल्के । ५। १ । ४३ । जेर्विपूर्वाभ्यां च पूनीभ्यां यथासङ्ख्यं हलिमुञ्जकल्केषु कर्मसु क्यप् स्यात् । जित्यो हलिः विपूयो मुञ्जः, विनीय कल्कः। हलिमुञ्जकल्क इति किम् ? जेयम्, विपव्यम् , विनेयम् ॥ ४३॥ पदाऽस्वैरि-बाह्या-पक्ष्ये-ग्रहः । ५। १। ४४ । एष्वर्थेषु ग्रहेः क्यप् स्यात् । प्रगृह्यं पदम्, गृह्याः परतन्त्राः, ग्रामगृह्या बाह्येत्यर्थः, गुणगृह्या गुणपक्ष्याः॥४४॥ __ भृगोऽसंज्ञायाम् । ५। १ । ४५ । भृगोऽसंज्ञायां क्यप् स्यात्। भृत्यः पोष्यः । असंज्ञायामिति किम् ? भार्या पत्नी ॥४५॥ सुमो वा । ५। १ । ४६ । संपूर्वाद् भृगःक्या वास्यात्। संभृत्यः, संभार्यः ॥४६॥ ते कृत्याः । ५। १ । ४७। ध्यण्तव्याऽनीय-य-क्यप्प्रत्ययाः कृत्याः स्युः ॥४७॥ णक-तृचौ। ५।१।४८। धातोरेतौ कर्तरि स्याताम् । पाचकः, पक्ता ॥४८॥ अच । ५। १ । ४९ । धातोरच स्यात् । करः, हरः ।। ४९ ॥ लिहादिभ्यः। ५। १ । ५० । एभ्योऽच् स्यात् । लेहः, शेषः ॥ ५० ॥ 'ब्रुवः। ५। १ । ५१ । १ ब्राह्मणमात्मानं ब्रूते इति ब्राह्मणब्रुवः, अण्वचादेशगुणबाधनार्थ निपातः । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३२३] बेगोचि ब्रूवः स्यात् । ब्राह्मणब्रुवः ॥ ५१ ॥ नन्यादिभ्योऽनः।५।१ । ५२ । एभ्यो नामगणदृष्टेभ्योऽनः स्यात् । नन्दना, वासना, सहनः, संक्रन्दनः, सर्वदमनः, नर्दनः ॥ ५२ ॥ ग्रहादिभ्यो णिन् । ५ । १ । ५३ । एभ्यो णिन् स्यात् । ग्राही, स्थायी ॥ ५३ ॥ नाम्युपान्त्य-प्री-कृग्र-ज्ञः कः । ५। १ । ५४ । नाम्युपान्त्येभ्यो धातुभ्यः प्रधादिभ्यश्च कः स्यात् । विक्षिपः, प्रियः, किरः, गिरः, ज्ञः ॥ ५४॥ गेहे ग्रहः । ५। १ । ५५ । । गेहेऽर्थे ग्रहः कः स्यात् । गृहम्, गृहाः ॥ ५५ ॥ उपसर्गाद् आतो डेोऽश्यः । ५। १ । ५६ । ' उपसर्गात् परात् श्यैङ्वर्जादाकारान्ताद्धातोर्डः स्यात्। आह्वः । उपसर्गादिति किम् ? दायः। अश्य इति किम् ? अवश्यायः ॥५६॥ व्याघाऽऽऽ प्राणि-नसाः।५।१। ५७। एतौ यथासङ्ख्यं प्राणिनि नासिकायां चार्थे घो डे निपात्यते । व्याघः, आघ्रा ॥ ५७ ॥ घा-मा-पा-दधे-दृशःशः। ५। १ । ५८ । एभ्यः शः स्यात् । जिघ्रः, उद्धमः, पिवः, उद्धयः, उत्पश्यः ॥ ५८॥ साहि-साति-वेद्युदेजि-धारिपारि-चेतेरनुपसर्गात ।५।१ । ५९ । १ पुंसि तु बहुवचनान्त एव दारार्थे । दारार्थश्च गृहशब्द उपचारात् । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f३२४] हैमशब्दानुशासनस्य एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो ण्यन्तेभ्यः श: स्यात् । साहयः, सातयः वेदना, उदेजयः, धारयः, पारयः, येतयः । अनुप. सर्यादिति किम् ? प्रसाहयिता ॥ ५९ ।। लिम्प विन्दः ।५।१ । ६० । आभ्यामनुपसर्गाभ्यांशः स्यात् । लिम्पा, विन्दः॥६०॥ निगवादेनाम्नि।५।१।६१ । यथासङ्ख्यं निपूर्वाल्लिम्पेर्गवादिपूर्वाञ्च विन्देः संशासः स्यात् । निलिम्पा देवाः, गोविन्दा, कुविन्दः । नाम्नीति किम् ? विलिपः ॥ ६१ ॥ वा ज्वलादि-दुनी-भू-ग्रहाऽऽस्रोमः। ५। १। ६२ । ___ ज्वलन्देर्धातोवुनोत्पादेरास्नोबानुपसर्गात् गो वा स्यात् । ज्वला, ज्वालः । चलः, पालः । दवा, दावः । नयः, नायः। भवः, भावः। ग्राहो मकरादिः । ग्रहः सूर्यादिः । भास्रकः बास्त्रावः । अनुपसर्गादिति किम्, प्रज्वलः ॥ ६२॥ अवट्ट-सा-संस्रोः । ५। १ । ६३ । अवपूर्वाभ्यां हसाभ्यां, संपूर्वाच्च स्रोणः स्यात् । अवहारः, अवसायः, संस्रावः ॥ ६३॥ तन-व्यधि-इण-खसातः । ५। १ । ६४ । एभ्य आदन्तेभ्यश्च धातुभ्योणःस्यात् । तानः, व्याधः, प्रत्यायः, श्वासः, अवश्यायः ॥ ६४ ॥ नृतसर-जः शिल्पिन्यकटू । ५। १। ६५ । , “णिति" (४-३-५०) " सूत्रेण णकारेति प्रत्यये परे वृद्धिः । समन्यत्राऽपि । १ टित्वाद् “भणमेयेकणूननष्टिताम्" (पृ० १११) सूत्रेण त्रियां गः । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपजलघुवृत्तिः [३२५] एभ्यः सिल्पिनि कर्तर्यकट् स्यात् । नर्तकी, वनका, रजकः । शिल्पिनीति किम् ? नर्तिका ॥ ६५ ॥ गस्थकः । ५। १ । ६६ । गः शिल्पिनि कर्तरि थकाः स्यात् । गायकः ॥ ६६ ॥ टनण् । ५।१।६७।। गः शिल्पिनि टनण् स्यात् । गायनी ॥ ६७ ॥ हः कालत्रीह्योः। ५११।६८ । हाको हाडो वा कालबीथोष्टनण् स्यात् । हायनो वर्षम् , हायना व्रीहयः, हाताऽन्यः ।। ६८ ॥ प्र-सल्वोऽकः साधौ । ५। १ । ६९ । एभ्यः साध्वर्थेभ्योऽकास्यात्। प्रवकः, सरकः, लवक। साधाविति किम् ? प्रावकः ॥ ६९ ॥ आशिष्यकन् । ५ । १।७० । आशिषि गम्यायां धातोरकन् स्यात् । जीवकः। आशिषीति किम् ? जीविका ॥ ७० ॥ तिक्कृतौ नाम्नि । ५ । १ । ७१ । आशीविषये संज्ञायां गम्यमानायां धातोस्तिक कृतश्च स्युः । शान्तिः, वीरभूः, वर्द्धमानः ॥ ७१ ॥ कर्मणोऽण् । ५ । १ । ७२ । कर्मणः परात् धातोरण स्यात् । कुम्भकारः ॥७२॥ शीलि-कामि-भक्ष्याचरीक्षि-क्षमा णः ।५।१।७३। १ अन्येऽपि कृतः प्रत्ययाः स्युरित्यर्थः । सम्यादित्यायास्यमानः शान्तिः । वीरो भूयादित्याशंसितो वीरभूरित्यत्र क्विम्। वर्धिषीष्टेति वर्धमान इत्यत्रानट् । एषमग्निभूतियशदत्तकुमारनीत्यादयः । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२६] हैमशब्दानुशासनस्य - कर्मणः परेभ्यः एभ्यो णः स्यात् । धर्मशीला, धर्मकामा, वायुभक्षा, कल्याणाऽऽचारा । सुखप्रतीक्षा । बहुक्षमा ॥७३॥ गायोऽनुपसर्गात् टक् । ५। १ । ७४ । कर्मणः परादनुपसर्गाद् गायतेष्टक् स्यात् । वक्रगी अनुपसर्गादिति किम् ? खरुसंगायः ॥ ७४ ॥ सुरा-सीधाः पिवः । ५। १ । ७५ । आभ्यां कर्मभ्यां परादनुपसर्गात् पिषतेष्टक् स्यात् । सुरापी, सीधुपी ॥ ७५ ॥ आता डेोऽह्वाचा-मः । ५। १ । ७६ । कर्मणः परादनुपसर्गाद् हावामावर्जाद आदन्ताद्धातोर्डः स्यात् । गोदः । अहावाम इति किम् ? स्वर्गहायः, तन्तुवायः, धान्यमायः ॥ ७६ ॥ समः ख्यः । ५। १ । ७७। कर्मणः परात् संपूर्वात् रव्यो डः स्यात्। गोसङ्ख्यः ॥ ७७॥ दश्वाऽङः । ५। १ । ७८ । कर्मणः परादाङ्पूर्वाद दागः ख्यश्च डः स्यात् । दायादः। स्त्र्याख्यः ॥ ७८॥ प्राद् ज्ञश्च । ५। १ । ७९ । कर्मणः परात् प्रपूर्वाद् ज्ञो दागश्च डः स्यात् । पथिप्रज्ञः, प्रपाप्रदः ॥ ७९ ॥ .. .. आशिषि हनः। ५। १ । ८०॥ कर्मणः परात् हन्तेराशिषि डः स्यात्। शत्रुहः ॥८०॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुकृत्तिः [३२७] । क्लेशाऽऽदिभ्योऽपात् । ५ । १ । ८१ । क्लेशादिकर्मणः परादपाद् हन्तेः स्यात् । क्लेशापहः, तमोऽपहः ॥ ८१ ॥ - कुमार-शीर्षात् णिन् । ५। १ । ८२ ॥ - आम्यां कर्मभ्यां पराद् हन्तेर्णिन् स्यात् । कुमारघाती, शीर्षघाती ॥ ८२ ॥ ___ अचित्ते टक् । ५। १ । ८३ । कर्मणः पराद् हन्तेरचित्तवति कर्तरि टक् स्यात् । वातघ्नं तैलम्। अचित्त इति किम् ? पापघातो यतिः॥८३॥ जाया-पतेश्चिह्नवति । ५। १ । ८४ । आभ्यां कर्मभ्यां पराद् हन्तेश्चिह्नवति कर्तरि टक् स्यात् । जायाघ्नो ब्राह्मणः, पतिघ्नी कन्या ॥ ८४ ॥ " ब्रह्माऽऽदिभ्यः । ५।१ । ८५। । - एभ्यः कर्मभ्यः पराद्धन्तेष्टक् स्यात् । ब्रह्मनः। गोघ्नः पापी ॥ ८५ ॥ हस्ति-बाह-कपाटात् शक्तौ । ५।१।८६ । 'एभ्यः कर्मभ्यः पराद् हन्तेः शक्ती गम्यायां टक् स्यात् । हस्तिनः, बाहुघ्ना, कपाटनः । शक्ताविति किम्? हस्तिघातो विपदः ॥ ८६ ॥ - नगराद् अगजे । ५। १ । ८७ । - नगरात् कर्मणः पराद्धन्तेरगजे कर्तरि टक् स्यात् । नगरघ्नो व्याघ्रः । अगज इति किम् ? नगरघातो हस्ती ॥ ८७॥ राजघः । ५।१।८८. Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२८ ] हैमशब्दानुशासनस्य राज्ञः कर्मणः पराद् हन्तेष्टक्, घाऽऽदेशच निपात्यते । राजघः ॥ ८८ ॥ पाणिघताडघौ शिल्पिनि । ५ | १ १८९ | एतौ शिल्पिनि गन्तौ निपात्येते । पाणिघः, लाडघः शिल्पिनीति किम् ? पाणिघातः, ताडघातः ॥ ८९ ॥ कुक्ष्यात्मोदरात् भृगः खिः । ५ । १ । ९५ एभ्यः कर्मभ्यः पराद् भृगः स्विः स्यात् । कुक्षिम्भरिः आत्मम्भरिः, उदरम्भरिः ॥ ९० ॥ अर्होऽच् | ५ | १ | ९१ । कर्मणः पराद् अहेरच स्यात् । पूजा साध्वी ॥ ९१ ॥ धनुष्- दण्ड-सरु-लाङ्गलाऽद्· कुश ऋष्टि-यष्टि-शक्ति-तोमर-घटादुग्रहः । ५ । १ । ९२ । एभ्यः कर्मभ्यः पराद् ग्रहोऽच् स्यात् । धनुर्ग्रहः, दण्डग्रहः, त्सरुग्रहः, लाङ्गलग्रहः, अङ्कुशग्रहः, ऋष्टिग्रहः, यष्टिग्रहः, शक्तिग्रहः, तोमरग्रहः, घटग्रहः ॥ ९२ ॥ सूत्राद धारणे । ५ । १ । ९३ । सुत्रात् कर्मणः पराद् ग्रहो ग्रहणपूर्वक धारणार्थाद् अच् स्यात् । सूत्रग्रहः प्राज्ञः, सूत्रधारो वा । धारण इति किम् सूत्रग्राहः || ९३ ॥ आयुधाऽऽदिभ्यो गोदण्डादेः । ५ । १ । ९४ । दण्डादिकर्जाद् आयुधादेः कर्मणः पराद् धृगोऽनू स्यात् । धनुर्द्धरः, भूधरः । अदण्डादेरिति किम् ? दण्डधारः । कुण्डधारः ॥ ९४ ॥ हो वो नुद्यमे । ५ । १ । ९६ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३२९] . कर्मणः पराद् हृगो वयस्यनुद्यमे च गम्येऽच् स्यात् । अस्थिहरः श्वशिशुः । उद्यम उत्क्षेपणमाकाशे धारणं वा, तद्भावे । अंशहरो दायादः, मनोहरा माला । वयोऽनुद्यम इति किम् ? भारहारः ॥ ९५ ॥ .. आङः शीले । ५।१ । ९६ । कर्मणः परादावाद दृगेः शीले गम्येऽच् स्यात् । पुष्पाहरः । शील इति किम् ? पुष्पाहारः ॥ ९६ ॥ दृति-नाथात् पशौ इः । ५। १ । ९७ । आभ्यां कर्मभ्यां परात् हृगः पशो कर्तरि हः स्यात् । दृतिहरिः श्वा, नाथहरिः सिंहः ॥ ९७ ॥ __रजस्-फले-मलादु ग्रहः । ५ । १ । ९८। एभ्यः कर्मभ्यः पराद् ग्रहेरि स्यात्। रजोग्रहिः, फलेअहिः, मलग्रहिः ॥ ९८ ॥ - देव-वाताद् आपः। ५। १ । ९९ । आभ्यां कर्मभ्यां पराद् आपेरिः स्यात् । देवाऽऽपिः, वाताऽपिः ॥ ९९ ॥ शकृत्-स्तम्बाद वत्स-वीही कृगः । ५। १ । १००। आभ्यां कर्मभ्यां परात् कृगो यथासङ्ख्यं वत्सबीयोः कोरिः स्यात्। शकृत्करिवत्सः, स्तम्बकरिवीहिः ॥१०॥ किम्-यत्-तद्-बहोरः । ५। १ । १०१ । - एभ्यः कर्मभ्यः परात् कृगः अः स्यात् । किंकरा, यत्करा, तत्करा, बहुकरा ॥ १०१ ॥ . . . . . . .. १ पुंखि तु किंकरः, यत्कर इत्यादि Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३०] हैमशब्दानुशासनस्य सङ्ख्याऽहर्दिवा-विभा-निशा-प्रभा-भास्-चित्रकर्तृआदि-अन्ताऽनन्त-कारबाह-अरुष्-धनुष-नान्दीलिपि-लिवि-बलि-भक्ति-क्षेत्र-जङ्घा-क्षपाक्षणदारजनि-दोषा-दिन-दिवसात् टः ।५।१ । १०२। सङ्रूयेत्यर्थप्रधानमपि एभ्यः कर्मभ्यः परात् कगः टः स्यात् । सङ्ख्याकरः, द्विकरः अहस्करः, दिवाकरः विभाकरः, निशाकरः, प्रभाकरः, भास्करः चित्रकरः, कर्तृकरः, आदिकरः, अन्तकरः अनन्तकरः, कारकरः, बाहुकरः, अरुष्करः, धनुष्करः, नान्दीकरः, लिपिकरः लिविकरः, बलिकरः, भक्तिकरः, क्षेत्रकरः, जवाकरः, क्षपाकरः, क्षणदाकर, रजनिकरः, दोपाकरः, दिनकरः, दिवसकरः।१०२। हेतु-तच्छीलाऽनुकूलेऽशब्द-श्लोक कलह-गाथा वैर-चाटु-सूत्र-मन्त्र-पदात् । ५।१ । १०३ । एषु कर्तृषु शब्दादिवोत्कर्मणः परात्कृगःटःस्यात् । यशस्करी विद्या, श्राद्धकरः, प्रेषणकरः । शब्दादिनिषेधः किम् ? शब्दकार इत्यादि । १०३ ।। भृतौ कर्मणः । ५। १ । १०४। कर्मशब्दात् कर्मणः परात् कृगो भृतौ गम्यायां टः स्यात् । कर्मकरी दासी ॥१०४॥ क्षेम-प्रिय-मद्र-भद्रात् खाऽण् ।५।१।१०५।। १ अनकूल आराध्यचित्तानुवर्ती-आज्ञापालक इत्यर्थः । ... . Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ३३१] एभ्यः कर्मभ्यः परात् कृगः खाऽणौ स्याताम् । क्षेमकुर, क्षेमकारः, प्रियङ्करः, प्रियकारः, मद्रङ्करः, मद्रकारः, भद्रङ्करः, भद्रकाः ॥ १०५ ॥ मेघर्त्ति भयाभयात् खः । ५ । १ । १०६ । . एभ्यः कर्मभ्यः : परात् कृगः खः स्यात् । मेघङ्करः, ऋतिङ्करः, भयङ्करः, अभयङ्करः ॥ १०६ ॥ प्रिय-वशाद् वदः । ५ । १ । १०७ । आभ्यां कर्मभ्यां पराद् वदः खः स्यात् । प्रियम्वदः, बशम्वदः ॥ १०७ ॥ द्विषन्त परन्तप । ५ । १ । १०८ । द्विपराभ्यां कर्मभ्यां परात् ण्यन्ताद् तपेः खो हस्बो द्विषतोऽच्च निपात्यते । द्विषन्तपः, परन्तपः ॥ १०८ ॥ परिमाणार्थ- मित: नखात् पचः | ५|१|१०९ | प्रस्थादिमितनखेभ्यः कर्मभ्यः परात् पचे खः स्यात् । प्रस्थम्पचः, मितम्पचः, नखम्पचः ॥ १०९ ॥ कूलाऽभ्र - करपात् कषः । ५ । १ । ११० । एभ्यः कर्मभ्यः कषेः खः स्यात् । कूलङ्कषा, अभ्रङ्कषा, · करीषङ्कषा ॥ ११० ॥ सर्वात् सहश्च । ५ । १ । १११ | सर्वात् कर्मणः परात् सहेः कषेश्च खः स्यात् । सर्वसहः, सर्वङ्कषाः ॥ १११ ॥ भृ-वृ-जि-तृ-तप-दमेश्च नाम्नि ( ५ | १ | ११२ | १ हेत्वाद तीर्थंकर : तिर्थकार इत्यपि कश्चिदिति श्रीमेघ विजयोपाध्यायाश्चन्द्रप्रभायाम् । सूत्रे खो बेत्यनेनैव सिद्धे अण्ग्रहणं टप्रत्ययबाधनार्थम् । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३२] हैमशब्दानुशासनस्य - कर्मणः परेभ्यः एभ्यः, सहेश्च संज्ञायां खः स्यात् । विश्वम्भरा भूः, पतिम्वरा कन्या, शत्रुञ्जयोऽद्रिः, रथन्तरं साम, शत्रुन्तपो राजा, बलिन्दमः कृष्णः, शर्बुसहो राजा । नाम्नीति किम् ? कुटुम्बभारः ॥ ११२॥ धारेधर्च । ५। १ । ११३ । कर्मणः पराद् धारेः संज्ञायां खः स्यात् , धारेश्व धर। वसुन्धरा भूः ।। ११३ ॥ पुरन्दर-भगन्दरौ । ५। १ । ११४ । एतौ संज्ञायां खान्तौ निपात्येते । पुरन्दरः शक्रः, भगन्दरो व्याधिः ॥ ११४ ॥ . . वाचंयमो व्रते । ५।१।११५। व्रते गम्यमाने वाचः कर्मणः पराद् यमे खो, वाचो ऽमन्तश्च स्यात् वाचंयमो व्रती ॥ १९५ ।। __ मन्यात् णिन् । ५ । १ । ११६ । कर्मणः पराद् मन्यतेर्णिन् स्यात् । पण्डितमानी बन्धोः ॥ ११६॥ कर्तुः खश् । ५ । १ । ११७ । प्रत्ययार्थात् कर्तुः कर्मणः पराद मन्यतेः खशू स्यात् । पण्डितम्मन्यः। कर्तुरिति किम् ? पटुमानी चैत्रस्य ॥ ११७ ॥ एजेः। ५ । १ । ११८। कर्मणः परादेजयतेः खश् स्यात्। अरिमेजयः॥११॥ शुनी-स्तन-मुज-कूलाऽऽस्य-पुष्पात दृधेः । ५ । १ । ११९ । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३३३] एभ्यः कर्मभ्य धेः खश् स्यात् । शुनिन्धया, स्तनन्धयः, मुअन्धयः, कूलन्धयः, आस्यन्धयः, पुष्पन्धयः ।। नाडी-घटी-खरी-मुष्टि-नासिका-वाताद् ध्मश्च । ५।१ । १२० । एभ्यः कर्मभ्यः पराद् ध्मः धेश्च खा स्थात् । नाडिन्धमः नाडिन्धयः । घटिन्धमः, घटिन्धयः । खरिन्धमः, खरिन्धयः। मुष्टिन्धमा, मुष्टिन्धयः। नासिकन्धमः, नासिकन्धयः वातन्धमः, वातन्धयः ॥ १२० ॥ पाणि-करात् । ५। १ । १२१ । ___आभ्यां कर्मभ्यां परात् ध्मः खश् स्यात् । पाणिन्धमः करन्धमः ॥ १२१ ॥ कूलाद्-उद्रुजोदहः । ५। १ । १२२ । कूलात् कर्मणः पराभ्यामाभ्यां खश् स्यात् । कूलमुद्रुजः, कूलमुद्वहः ॥ १२२ ॥ वहाऽभ्रात् लिहः । ५ । १ । १२३ । आभ्यां कर्मभ्यां परात् लिहः खश् स्यात् । वहंलिहा, अभ्रंलिहः ॥ १२३ ॥ .. बहु-विध्वरुष-तिलात् तुदः।५।१ । १२४ । एभ्यः कर्मभ्यः परात् तुदेः खश् स्यात् । बहुन्तुदः, विधुन्तुदः, अरुन्तुदः, तिलन्तुदः ॥ १२४ ॥ ललाट चात-शात् तपाऽज-हाकः।५।१ । १२५। . एभ्यः कर्मभ्यः परेभ्यो यथासङ्ख्यं तपाऽजहाग्भ्यः खश् स्यात् । ललाटन्तपः, वातमजः शाहः ॥ १२५ ॥ असूर्योगाद् दृशः । ५। १ । १२६ । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३४] हैमशब्दानुशासनस्य __ आभ्यां कर्मभ्यां पराद् दृशेः खश त्यात् । असूर्यम्पइयः उग्रम्पश्यः ॥ १२६ ॥ इरम्मदः । ५। १ । १२७ । इरापूर्वाद् मदेः खश् स्यात् । इरम्मदः ॥ १२७॥ नग्न-पलित-प्रियाऽन्ध-स्थूल-सुभगाऽऽढय-तदन्ताऽव्यर्थेऽन्वे वः खिष्णु खुकत्रौ। ५। १ । १२८॥ नमादिभ्या केवलेभ्यस्तदन्तेभ्यश्चाऽच्च्यन्तेभ्यः व्यर्थ वृत्तिभ्यः पराद् भुकखिष्णुखुको स्याताम्।नग्नम्भविष्णुः, नग्नम्भावुकः, पलितम्भविष्णुः, पलितम्भावुकः, प्रियम्भविष्णुः, प्रियम्भावुकः, अन्धम्भविष्णुः, अन्धम्भावुका, स्थूलम्भविष्णुः, स्थूलम्भावुकः, सुभगम्भविष्णुः, सुभगम्भावुकः, आत्यम्भविष्णुः, आव्यम्भावुकः तदन्तः, सुनग्नम्भविष्णुः, सुनग्नम्भावुक इत्यादि । अच्वेरिति किम् ? आढ्यो भविता ।। १२८ ॥ कृगः खनट् करणे । ५। १ । १२९ । नमादिभ्योऽच्च्यन्तेभ्यः व्यर्थवृत्तिभ्यः परात् कृगः करणे खनट् स्यात् । नग्नकरणं द्यूतम्, पलितङ्करणम्, प्रियकरणम्, अन्धङ्करणम् स्थूलङ्करणम्, सुभगङ्करणम्,आत्यङ्करणम्, सुनग्नङ्करणम् । व्यर्थ इति किम् ? नग्नं करोति चूतेन ॥ १२९॥ भावे चाऽऽशिताद् भुवः स्वः। ५। १ । १३० । आशितात् पराद्भुवो भावकरणयोः स्वः स्यात् । माशिसम्मका ते, आशितम्भव ओदनः ॥ १३०॥ . नाम्नो गमः खड्-डौ च, विहायसस्तु विहः । ५।। १ । १३१ । . Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ३३५ ] नाम्नः पराद् गमेः खड्डखाः स्युः, विहायसो विहश्च । तुरङ्गः, तुरगः । विहङ्गः, विहगः। तुरङ्गमः, विहङ्गमः, सुतङ्गमो मुनिः ॥ १३१ ॥ सुग- दुर्गमाऽऽधारे । ५ । १ । १३२ । सुदुर्भ्यां पराद् गमेराधारे डः स्यात् । सुगः, दुर्गः पन्थाः ।। १३२ ।। निर्गो देशे । ५ । १ । १३३ । निस्पूर्वाद् गमेराधारे देशे ङः ॥ १३३ ॥ स्यात् । निर्गो देशः शमो नाम्नि अः | ५ | १ | १३४ | शमो नाम्नः पराद्धातोः संज्ञायामः स्यात् । शम्भवो ऽर्हन् । नाम्नीति किम् १ शङ्करी दीक्षा ॥ १३४ ॥ पार्श्वाssदिभ्यः शीङः | ५ | १ | १३५ | एभ्यो नामभ्यः परात् शीङः अः स्यात् । पार्श्वशयः ।। १३५ ।। ऊर्ध्वाऽऽदिभ्यः कर्तुः । ५ । १ । १३६ । एभ्यः कर्तृवाचिभ्यः परात् शीङः अः स्यात् । ऊर्ध्वशयः, उत्तानशयः ।। १३६ ।। आधारात् । ५ । १ । १३७ । आधारादू नाम्नः परात् शीङः अः स्यात् । स्वशयः ॥ १३७ ॥ चरेष्टः । ५ । १ । १३८ । आधारात् परात् चरेः टः स्यात् । कुरुचरी ॥ १३८ ॥ भिक्षा - सेनाऽऽदायात् । ५ । १ । १३९ । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३६] हेमशब्दानुशासनस्य एभ्यः परात् चरेष्टः स्यात्। भिक्षाचरी, सेनाचरः, आदायचरः ॥ १३९ ॥ पुरोऽग्रतोऽग्रे सर्तेः । ५। १ । १४०। एभ्यः परात् सर्तेष्टः स्यात् । पुरःसरी, अग्रतः सरः, अग्रेसरः ॥ १४०॥ पूर्वात् कर्तुः । ५। १ । १४१ । पूर्वात् कर्तृवृत्तेः परात् सर्तेष्टः स्यात् । पूर्वसरः। कर्तुरिति किम् ? पूर्वसारः ॥ १४१ ॥ स्थापा-स्ना-त्रः कः । ५। १ । १४२ । नाम्नः परेभ्य एभ्यः कः स्यात् । समस्थः, कच्छपः, नदीष्णः, धर्मत्रम् ॥ १३२ ॥ शोकापनुद-तुन्दपरिमृज-स्तम्बेरम-कर्णेजपं प्रियाऽ लस-हस्ति-सूचके। ५। १ । १४३ । एते यथासङ्ख्यं प्रियादिष्वर्थेषु कान्ता निपात्यन्ते । शोकापनुदः प्रियः, तुन्दपरिमृजोऽलसः, स्तम्बेरमो हस्ती, कर्णेजपोऽतिखलः। एध्विति किम् ? शोकापनोदो धर्माचार्यः ॥ १४३॥ मूलविभुजाऽऽदयः । ५। १ । १४४ । एते कान्ता यथादर्शनं निपात्यन्ते । मूलविभुजो रथः, कुमुदं कैरवम् ॥ १४४ ॥ दुहे डुघः। ५। १ । १४५। नाम्नः पराद् दुहेर्डघः स्यात् । कामदुघा ॥ १४५ ॥ भजो विण् ।४।१ । १४६ ।. १ डकारेत्त्वात् टेः (अन्त्यस्वरादेः) लोपः Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपालघुपतिः [३३७] नाम्नः पराद् भजेविण स्यात् । अर्द्धमा ।। १४६ ॥ मन्चन-क्वनिए-विच क्वचित् । ५। १ । १४७१ नाम्नः पराद् धातोरेते यथालक्ष्यं स्युः । मन्-इन्द्रशर्मा । वन्-विजावा । क्वनिए-सुधीवर । विचशुभंयाः ॥ १४७॥ क्विा ।५।१।१४८। नाम्नः पराद् धातोर्यथालक्ष्यं क्विा स्यात् । उखासत् ॥ १४८॥ स्पृशोऽनुदकात् । ५। १ । १४९ । - उदकवर्जाद् नाम्नः परात् स्पृशेः क्विप् स्यात् । घृतस्पृक् । अनुदकादिति किम् ? उदकस्पर्शः॥ १४९ ॥ अदोऽनन्नात् । ५।१।१५० । अन्नवर्जाद् नाम्नः पादः क्विा स्यात् । आमात्। अनन्नादिति किम् ? अन्नादः ॥ १५०॥ क्रव्यात्-क्रव्यादावाम-पक्वाऽऽदौ । ५। १ । १५१ । एतौ यथासङ्ख्यमामात् पक्वादों क्विणन्तौ साधू स्तः । कव्यात् आममांसभक्षः क्रव्यादः पवमांसभक्षः ॥ १५१॥ त्यदायन्यसमानादुपमानाद् व्याप्ये दृशः टक सकौ च । ५।१ । १५२ । एभ्य उपमानेभ्योव्याप्येभ्यः पराद् दृशेाय एबटकसको क्विप् च स्युः त्यादृशः, त्यादृक्षा, त्याहा, अन्यादृशः अन्याहक्षा, अन्यारक, सहशा, सहक्षा, सहा । व्याप्य इति किम् ? तेनेव दृश्यते ॥ १५२ ॥ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य कर्तुर्णिन् | ५ | १ | १५३ ॥ कर्त्रर्थादुपमानात् पराद् धातोर्णिन् स्यात् । उष्ट्रकोशी ॥ १५३ ॥ अजातेः शीले । ५ । १ । १५४ । अजात्यर्थात नाम्नः पराच्छीलार्थार्द्धातोर्णिन् स्यात् । उष्णभोजी, प्रस्थायी । अजातेरिति किम् ? शालीन भोक्ता । शील इति किम् ? उष्ण भोजो मन्दः ॥ १५४ ॥ साधौ | ५ | १ | १५५ [ ३३८ ] नाम्नः परात् साध्वर्थाद्धातोर्णिन् स्यात् । साधुकारी ॥ १५५ ॥ ब्रह्मणो वदः | ५ | १ | १५६ | ब्रह्मणः पराद् वदेर्णिन् स्यात् । ब्रह्मवादी || १५६ ॥ assive | ५ | १ | १५७ | अनयोर्गम्यमानयोर्नाम्नः पराद्धातोर्णिन् स्यात् । स्थ fuडलवर्त्ती, क्षीरपायिण उशीनराः ॥ १५७ ॥ करणाद जो भूते । ५ । १ । १५८ | करणार्थाद् नाम्नः पराद् भूतार्थात् यजेर्णिन् स्यात् । अग्निष्टोमयाजी ॥ १५८ ॥ निन्द्ये व्याप्यादिन विक्रियः । ५ । १ । १५९ । व्याप्याद् नाम्नः परात् भूतार्थाद् विक्रियः कुत्से कर्त्तरीन् स्यात् । सोमविक्रयी । निन्द्य इति किम् ? धान्य विक्रयः ॥ १५९ ॥ हनो णिन् । ५ । १ । १६० । व्याप्यात् पराद् भूतार्थाद् हन्तेर्निन्ये कर्त्तरि णिन् स्यात् । पितृघाती ॥ १६० ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३३९] ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रात् क्वि । ५। १ । १६१। ___ एभ्यः कर्मभ्यः पराद् भूतार्थाद्धन्तेः क्विा स्यात् । ब्रह्महा, भ्रूणहा, वृत्रहा ।। १६१॥ कृगः सु-पुण्य-पापकर्म-मन्त्र-पदात् । ५। १ ।१६२॥ सोः पुण्यादेश्व कर्मणः परात् भूतार्थात् कृगः क्विप् स्यात्। सुकृत् , पुण्यकृत् , पापकृत् , कर्मकृत् , मन्त्रकृत् , पदकृत् ॥ १६२॥ सोमात् सुगः । ५ । १ । १६३ ।। सोमायाप्यात् पराद् भूतार्थात् सुगः क्विा स्यात् । सोमसुत् ॥ १६३ ॥ अग्नेश्ः।५।१ । १६४ । अग्नाप्यात् पराद् भूतार्थात् चे क्विप् स्यात् । अग्निचित् ॥ १६४ ॥ कर्मण्यग्न्यर्थे । ५। १ । १६५। कर्मणः पराद् भूतार्थात् चेःकर्मण्यग्न्यर्थे क्विप् स्यात्। श्येनचित् ॥ १६५ ॥ दृशः कनिप् । ५। १ । १६६। व्याप्यात् पराद् भूतार्थाद् दृशेः क्वनिप् स्यात् । बहुश्वा ॥ १६६॥ सहराजभ्यां कृग्-युधेः। ५। १ । १६७। आभ्यां कर्मभ्यां पराद् भूतार्थात् कुगो युधेश्च क्वनिप् स्यात् । सहकृत्वा, सहयुध्वा, राजकृत्वा, राजयुध्वा॥१६७॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४०] हैमशब्दानुशासनस्य अनोजेनेडः । ५। १ । १६८ । कर्मणः परावनुपूर्वात् भूतार्थाद् जनेर्डः स्यात् । पुमनुजः ॥ १६८ ॥ सप्तम्याः । ५।१।१६९। सप्तम्यन्ताद् भूतार्थात् जनेर्डः स्यात् । मन्दुरजः॥१६९॥ अजातेः पञ्चम्याः।५।१। १७० । पश्चम्यन्तादजात्यर्थाद् भूतार्थाद् जनेर्डः स्यात् । बुद्विजः। अजातेरिति किम् ? गजात् जातः ॥ १७० ।। क्वचित् । ५। १ । १७१ । उक्तादन्यत्रापि यथालक्ष्यं डः स्यात् । किञ्जः, अनुजः, अजः, स्त्रीजा, ब्रह्मज्या, वराहः, आखः ॥ १७१ ।। सु-यजोङ्वनि प् | ५। १ । १७२ । आम्यां भूतार्थान्यां वनिप् स्यात् । सुत्वानो, यज्वा ॥ १७२ ॥ जुषोऽतः ।५।१ । १७३ । जुषेर्भूतार्थादतः स्यात् । जरती ॥ १७३ ॥ क्त-क्तवतू । ५। १ । १७४ । भूतार्थाद् धातोरेतौ स्याताम् । कृतः, कृतवान् ॥१७४॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुकृत्ती पश्चमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः॥५।१॥ १ ब्रह्मणि जीनवान् इति ज्याधातोर्डः । परमाहतवानिति. वराहः । २ पकारः पिकावेतकारायः। सकारो गुणनिषेधार्थः । इदुचारार्थः । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४१] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः ॥ द्वितीयः पादः॥ श्रु-सद-वस्भ्यः परोक्षा वा । ५। २।१। एम्यो भूतार्थेभ्यः परोक्षा वा स्यात् । उपशुश्राव, उपससाद, अनूवास । पक्षे, उपाश्रौषीत्, उपाशृणोत्, उपासदत् , उपासीदत् । अन्वात्सीत् , अन्ववसत् ॥१॥ ___ तत्र क्वसु-कानौ तद्वत् । ५। २।२। परोक्षामात्रविषये धातोः परौ क्षसुकानौ स्यातां, तौ च परोक्षेव । शुश्रुवान् , सेदिवान् , षिवान् , पेचिपान , पेचानः ॥२॥ वा ईयिवत्:अनाश्वत्-अनूचानम् । ५ । २ । ३ । एते भूतेऽर्थे क्वसुकानान्ताः कर्तरि वा निपात्यन्ते। समीयिवान् , अनाश्वान , अनूचानः। पक्षे, अगात् , उपैत् उपेयाय, नाशीत् , नाश्नात् , नाश, अन्ववोचत् , अन्ववक् , अन्वब्रवीत् , अनूवाच ॥३॥ __अद्यतनी । ५। २।४ । ... भूतार्थाद्धातोरद्यतनी स्यात् । अकार्षीत् ॥४॥ विशेषाऽविवक्षाव्यामिश्रे। ५।२।५। अनद्यतनादिविशेषाऽविवक्षां व्यामिश्रणे च सति भूतार्थाद् धातोरद्यतनी स्यात् । रामो वनमगमत् । अय यो वाऽभुक्ष्महि ॥५॥ १ वा वचनात् पक्षे यथा स्वकालमद्यतनी ह्यस्तनी च भवतीत्याचार्यः । परोक्षाऽद्यतनीवर्तमानादीनां णमादयः प्रत्ययाः तृतीयाध्यायतृतीयपारे द्रष्टव्याः Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४२] हैमशब्दानुशासनस्य रात्रौ वसोऽन्त्ययामाऽस्वप्तर्यद्य ।५।२।६। रात्रौ भूतार्थवृत्तेर्वसतेरद्यतनी स्यात् , स चेदर्थो यस्यां रात्रौ भूतस्तस्या एवान्त्ययामं व्याप्त्याऽस्वप्तरि कर्त्तरि स्यात् । अद्यतनेनैवान्त्ययामेनावच्छिन्ने अद्यतने चेत् प्रयोगोऽस्ति नाद्यतनान्तरे। अमुत्रावात्सम् । राज्यऽन्त्ययामे तु मुहूर्तमपि स्वापेऽमुत्रावसमिति ॥६॥ अनद्यतने ह्यस्तनी । ५। २ । ७। आन्याय्याद् उत्थानादान्याय्यात् च संवेशनादहरुभयतः, सार्द्धरात्रं वाऽद्यतना, तस्मिन्नसति भूतार्थाद् धातोयस्तनी स्यात् । अकरोत् ॥ ७॥ . ___ ख्याते दृश्ये । ५ । २ ।। लोकविज्ञाते प्रयोक्तुःशक्यदर्शने भूतानद्यतनेऽर्थे वर्तमानाद्धातोस्तिनी स्यात् । अरूणत् सिद्धराजोऽवन्तीम् । ख्यात इति किम् ? चकार कटम् । दृश्य इति किम् ? जघान कंसं किल वासुदेवः ॥ ८ ॥ अयदि स्मृत्यर्थे भविष्यन्ती ।५।२।९। स्मृत्यर्थे धातावुपपदे भूतानद्यतनार्थवृत्तेधातोर्भविष्यन्ती स्यात्, अयद्योगे। स्मरसि साधो! स्वर्गे स्थास्यामः। अयदीति किम् ? अभिजानासि मित्र ! यत् कलिङ्गेष्ववसाम ? ॥९॥ १ अनन्तरं गताया रात्रेर्यामद्वयादर्वाग् यावदागामिन्या रात्रेः प्रथमं यामद्वयम् , दिवसश्च सकलः सोऽद्यतनः काल इति तात्पर्यम् । २ यच्छब्दे उपपदे भविष्यन्ती न स्यादित्यर्थः । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३४३] , वाकाङ्क्षायाम्। ५। २।१०। स्मृत्यर्थे धातावुपपदे प्रयोक्तुः क्रियान्तराज्ञायां सत्यां भूतानद्यतनार्थाद् धातोभविष्यन्ती वा स्यात् । स्मरसि मित्र ! कश्मीरेषु वत्स्यामोऽवसाम वा। तत्रौदनं भोक्ष्यामहे, अभुञ्जमहि वा ? ॥ १० ॥ कृताऽस्मरणाऽतिनिन्हवे परोक्षा । ५। २ । ११ । ___ कृतस्यापि चित्तविक्षेपादिनाऽस्मरणेऽत्यन्तनिह्नवे वा गम्ये भूतानद्यतनार्थाद् धातोः परोक्षा स्यात् । सुप्तोऽहं किल विललाप । कलिङ्गेषु ब्राह्मणो हतस्त्वया, नाऽहं कलिङ्गान् जगाम ॥ ११ ॥ परोक्षे । ५। २ । १२ । भूतानद्यतने परोक्षार्थाद् धातोः परोक्षा स्यात् । धर्म दिदेश तीर्थङ्करः ॥ १२ ॥ ह-शश्वद्-युगान्तःप्रच्छये ह्यस्तनी च । ५।२।१३ । हे शश्वति च प्रयुक्ते पञ्चवर्षमध्यप्रच्छये च भूतानद्यतने परोक्षेऽर्थे वर्तमानाद् धातोह्यस्तनीपरोक्षे स्याताम् । इति हाकरोत् , इति ह चकार, शश्वदकरोत्, शश्वच्च कार, किमगच्छस्त्वं मथुराम् ? किं जगन्थ त्वं मथुराम् ॥ १३ ॥ __ अविवक्षिते । ५। २ । १४ । भूतानद्यतने परोक्षे परोक्षत्वेनाविवक्षितेऽर्थे वर्तमानाद् धातोहस्तनी स्यात् । अहन कंसं किल वासुदेवः ॥१४॥ १ चक्रे सुबन्धुः सुजनैकबन्धु। (वासवदत्ता) इत्यत्र "अनवधानेऽपि स्वस्येदृशान्यनिर्माणं सुशकामति'' तट्टोका कारः समादधे । आदिपदात् भेदोपेक्षातिहदिनाऽस्मयपि परोक्षा स्यादिति भावः । नाऽहं कलिङ्गान् जगाने ते निहवः । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४४ ] हैमशब्दानुशासनस्य वाऽद्यतनी पुराssदौ । ५ | २ | १५ | भूतानद्यतने परोक्षे परोक्षत्वेनाऽविवक्षितेऽर्थे वर्त्तमानाद्वातोः पुरादावुपपदे अद्यतनी वा स्यात् । अवात्सुरिह पुरा छात्राः । पक्षे, अवमन् ऊषुर्वा । तदाऽभाषिष्ट राघवः पक्षे, अभाषत, बभाषेवा ॥ १५ ॥ 7 स्मे च वर्त्तमाना । ५ । २ । १६ । भूतानद्यतनेऽर्थे वर्त्तमानाद्धातोः स्मे पुराऽऽदौ चोपपदे वर्त्तमाना स्यात् । पृच्छति स्म पुरोधसम्, वसन्तीह पुरा छात्राः, अथाऽऽह वर्णी ॥ १६ ॥ पृष्टोक्तौ सत् । ५ । २ । १७ । ननाबुपपदे पृच्छतिवचने भूतेऽर्थे वर्त्तमानाद धातोवर्त्तमानेव वर्त्तमाना स्यात् । किमकार्षीः कटं चैत्रः । ननु करोमि भोः । ननु कुर्वन्तं मां पश्य ॥ १७ ॥ नवोर्वा | ५ | २ | १८ । नवोरुपपदयोः पृष्टोक्तौ भूतेऽर्थे वर्त्तमानाद् धातोर्वा वर्त्तमाना स्यात्, सा च सद्वत् । किमकार्षीः कटं चैत्र १ न करोमि भोः, न कुर्वन्तं मां पश्य, नाकार्षम् । नु करोमि भो ? नु कुर्वाणं मां पश्य, न्वकार्षम् ॥ १८ ॥ सति | ५ | २ | १९ । वर्त्तमानार्थाद् धातोर्वर्त्तमाना स्यात् । अस्ति कूरं पचति, मांसं न भक्षयति, इहाघीमहे, तिष्ठन्ति पर्वताः ॥ १ सद् वर्त्तमाना तद्वत् | Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोषज्ञलघुवृत्तिः [३४५] . शत्रानशावेष्यति' तु सस्यौ। ५।२।२०। __ सदर्थाद्धातोः शत्रानशौ स्थाता, भविष्यन्तीविषयेऽर्थे स्ययुक्तौ। यान् , शयाना, यास्यन् , शविष्यमाणः ॥२०॥ तो माडयाक्रोशेषु । ५।२।२१।। माङ्युपपदे आक्रोशेगम्ये तौशत्रानशादेवस्मताम्। मा पचन् कृषलो ज्ञास्यति।मा पचमानोऽसौ मर्नुकालः२१॥ वा वेत्तेः क्वसुः। ५। २ | २२॥ सदद्वत्तेः क्वसुर्वा स्यात् । तत्त्वं विद्वान्, क्दिन।।२।। पूड.-यजः शानः।५।२ । २३ । आभ्यां सदाभ्यां परः शानः स्यात्। पवमानः, यजमानः ॥ २३॥ वयः-शक्ति-शीले । ५। २ | २४ । एषु गम्येषु सदर्थाद्धातोः शानः स्यात्। स्त्रियं गच्छमानाः, समश्नानाः, परान्निन्दमानाः ॥ २४ ॥ धारीङोऽकृच्छ्रेऽतृश् । ५ । २ । २५ । सुखसाध्ये सत्यर्थे वर्तमानाद् धारेरिङश्च परोऽतश् स्यात् । धारयन् आंचाराङ्गम् , अधीयन् द्रुमपुष्पीयम् ॥२५॥ सुग-द्विषार्हः सत्रि-शत्रु-स्तुत्ये।५।२२६ सदर्थेभ्य एभ्यो यथासङ्ख्यं सत्रिणि शत्रौ स्तुत्ये च कर्त्तर्यतृश् स्यात् । सर्वे सुन्वन्तः, चौरं द्विषन् , पूजामईन् । एष्विति किम् ? सुरां सुनोति ॥ २६ ॥ १ भविष्यति काले तु स्यसहितौ शत-आनशौ भक्त इति भवः । २ जनानां प्रथममागमम् । दशवकालिकनाम्नः सूत्रस्य प्रथममध्ययनं दुमपुष्पीयम्। ३ रात्री यजमानस्तत्र । चौरं द्विषनित्यत्र चौरस्य भानुः, पूजामहमित्यत्र स्तुत्य इत्यर्थः। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४६] हैमशब्दानुशासनस्य तृन शील-धर्म-साधुषु । ५। २ । २७। . शीलादिषु सदर्थाद् धातोस्तृन् स्यात् । कर्ता कटम् , वधूमूढां मुण्डयितारः श्राविष्टायनाः, गन्ता खेलः ॥२७॥ भ्राजि-अलङकृग्-निराकग्-भू-सहि-रुचि-वृति-वृधि चरि-प्रजनाऽपत्रप इष्णुः । ५। २ ॥ २८। .. एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य इष्णुः स्यात् । भ्राजिष्णुः, अलकरिष्णुः, निराकरिष्णुः, भविष्णुः, सहिष्णुः, रोचिष्णु, वर्तिष्णुः, वर्द्धिष्णुः, चरिष्णुः, प्रजनिष्णुः, अपत्रपिष्णुः ॥ २८ ॥ उदः पचि-पति-पदि-मदेः। ५ । २॥२९॥ उत्पूर्वेभ्य एभ्यः शीलादिसंदर्थभ्य इष्णुः स्यात् । उत्पचिष्णुः, उत्पतिष्णुः, उन्मदिष्णुः ॥ २९ ॥ ____भू-जेः ष्णुकू । ५ । २ । ३० । आभ्यां शीलादिसदाभ्यां ष्णुक् स्यात्। भूष्णुः, जिष्णुः ॥ ३० ॥ स्था ग्ला-म्ला-पचि परिमृजि-क्षेः स्नुः ।५।२।३१। एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यः स्नुः स्यात् । स्थास्नुः, ग्लास्नुः, म्लास्नुः, पक्ष्णुः, परिमाणुः, क्षेष्णुः ॥ ३१ ॥ सि-गृधि-धृषि-क्षिपः क्नुः । ५। २ । ३२ । ___एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यः क्नुः स्यात् । त्रस्नुः, गृध्नुः, धृष्णुः, क्षिप्नुः ॥ ३२॥ सन-भिक्षाऽऽशंसेरुः । ५। २ । ३३ । शीलादिसर्थात् सन्नन्ताद भिक्षाऽऽशंसिभ्यां च उः स्यात् । लिप्सुः, भिक्षुः, आशंसुः ॥ ३३ ॥ . १ ऊढवध्वा मुण्डनं श्राविष्ठावनानां कुलधर्मः । गन्ता साधु गच्छतीत्यर्थः। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ३४७ ] विन्दु-इच्छू । ५ । २ । ३४ । शीलादिसदर्थाभ्यां वेत्तीच्छतिभ्यामुः यथासङ्ख्यं नुपान्त्यच्छान्तादेशौ च निपात्येते । विन्दुः इच्छुः ||३४|| शृचन्देरारुः । ५ । २ । ३५ । आभ्यां शीलादिसदर्थाभ्यां आरुः स्यात् । विशरारुः, वन्दारुः ।। ३५ ।। the दा-वे-सि-शद-सदो रुः । ५ । २ । ३६ । शीलादिसदर्थेभ्यो दारूपधेसिशद सद्भयो रुः स्यात् । दारुः, धारुः सेरुः, शत्रुः, सद्रुः ॥ ३६ ॥ शीड्-श्रद्धा-निद्रा तन्द्रा-दय-पति-गृहि-स्पृहेऱालुः | ५ | २ | ३७ । एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य आलुः स्यात् । शयालुः, श्रद्धालुः, निद्रालुः दयालुः तन्द्रालुः पतयालुः, गृहयालुः, स्पृहयालुः ॥ ३७ ॥ ङौ सासहि-वावहि-चाच लि-पापतिः | ५ | २ | ३८ । शीलादिसदर्थानां सहिवहिचलिपतां यङन्तानां कौ सति यथासङ्ख्यमेते निपात्यन्ते । सासहिः, बाबहिः, चाचलिः पापतिः ॥ ३८ ॥ सस्त्रि-चक्र-दधि-जज्ञि - नेमिः । ५ । २ । ३९ । एते शीलादौ सदर्थाद् द्वयुक्तमन्तो यन्ता निंपात्यन्ते । सस्त्रिः चत्रिः, दधिः, जज्ञिः, नेमिः ॥ ३९ ॥ १ सृ-कृ-टू- जन्- नमां धातूनां स्थाने । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [३४८] हैमशब्दानुशासनस्य शु-कम-गम-हन ऋषभू-स्थ उकश् । ५॥ २।४० । सीकाविसदर्थेभ्य एभ्य उकण् स्यात् । शारुका, कामुक आगामुक, घातुक वार्षुकः, भावुक, स्थायुकमा४०॥ लष-पत-पदः। ५ । २॥ ४१ । शीतादिसर्थेभ्य एभ्य उकण् स्यात् । अभिलाषुकः, प्रपातुक, उपपादुकः ॥ ४१ ॥ . भूषा-क्रोधार्थ जु-मृ-गृधि-ज्वल-शुच चाऽनः।५।२। ४२ । भूषार्थेभ्यः क्रोधार्थेम्योज्वादेर्लषादेश्च शीलादिसदथेभ्योऽनः स्यात् । मूषणः, क्रोधनः, कोपनः, जवनः, सरण, मना, ज्वलबा, शोचनः, अभितषणः पतनः, अर्थस्य पदनः ॥ ४२ ॥ ___ चल-शब्दार्थादकमकात् । ५।२।४३ । चलार्थात् शब्दार्थाच, धातोः शीलादिसदर्थादकर्मकादनः स्यात् । चलनः, रवणः । अकर्मकादिति किम् ? पठिता विद्याम् ॥ १३॥ इ-डिता व्यञ्जनाऽऽद्यन्तात् । ५।२।। ४४ । __ व्यञ्जनमादिरन्तश्च यस्य तस्मादिदितो डितश्च धातोः शीलादिसदांदनः स्यात् । स्पर्द्धनः, वर्तनः । व्यञ्जनाद्यतादिति किम्? एपिता, शयिता। व्यञ्जनाद्यन्तादिति किम् एधिता, शयिता। अकर्मकादित्येव ? वसिता वस्त्रम् ॥४४॥ न मिङ्य-सूद-दीप दीक्षः। ५ । २।४५। णिडन्ताद् यन्तात् सूदादिभ्यश्च शोलादिसदर्थेभ्योऽनो न स्यात् । भावविता, क्षमायिता, सूदिता, दीपिता दीक्षिता ॥४५॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनलघुवृत्तिः [३४९] द्रम-क्रमो यडः। ५ । २।४६ । शीलादिसदाभ्यां पङन्ताभ्यामाभ्यामनः स्यात् । दन्द्रमणः, चङ्क्रमणः ॥ ४६ ॥ यजि-जपि-दंशि-वदादकः । ५। २।४७ । एभ्यो यङन्तेभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य अकः स्यात् । यायजूकः, जलपूकः, दन्दशूका, वावदूकः ॥ १७ ॥ जागुः । ५।२] ४८ । शीलादिसदर्थाद् जागुरूकः स्यात् । जागरूकः ॥४८॥ शमष्टका घिनण् । ५। २ 1 ४९ । शीलादिसदर्थेभ्यः शमादिभ्योऽष्टभ्यो घिनण् स्यात् । शमी, दमी, तमी, श्रमी, भ्रमी, क्षमी, प्रमादी, क्लमी॥४९॥ युज-भुज-मज-त्यज-रज-द्विष-दुषह-दुहाऽभ्या हनः । ५। २ । ५० । ... शीलादिसदर्थेभ्य एभ्योधिनण् स्यात् । योमी, भोगी भागी, त्यागी, रागी, द्वेषी, दोषी द्रोही,दोही, अभ्याघाती। अकर्मकादित्येव ? गां दोग्धा ॥ ५० ॥ आडः क्रीड-मुषः।५।२१५१। शीलादिसदाभ्यामाभ्यां आधुवाम्यां घिनण् स्थात् । आक्रीडी, आमोषी ॥ ५१॥ प्रात् च यम-यसः । ५॥ २ ॥५२॥ शालादिसदर्थाभ्यामा प्राच पराभ्यामाभ्यां घिनण् स्यात् । प्रयामी, आयामी, प्रयासी, आयासी ॥५२॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५० ] हेमशब्दानुशासनस्य मथ-लपः । ५ । २ । ५३ । प्रात् पराभ्यामाभ्यां शीलादिसदर्थाभ्यां घिनणू स्यात् । प्रमाथी, प्रलापी ॥ ५३ ॥ वश्व द्रोः । ५ । २ । ५४ । वेः प्राच्च पराद् द्रोः शीलादिसदर्थाद् घिनण् स्यात् । विद्रावी, प्रद्रावी ॥ ५४ ॥ वि-परि- प्रात् सः | ५ | २ | ५५ | एभ्यः पराच्छीलादिसदर्थात् सत्र्त्तर्धिनण् स्यात् । विसारी, परिसारी, प्रसारी ॥ ५५ ॥ समः पृचैपू-ज्वरेः । ५ । २ । ५६ । शीलादिसदर्थाभ्यां समः पराभ्यां पृणक्तिज्वरिभ्यां घिनणू स्यात् । संपर्क, संज्वरी ॥ ५६ ॥ सं- वेः सृजः | ५ | २ | ५७ १ शीलादिसदर्थात् संविभ्यां परात् सृजेर्धिनण् स्यात । संसर्गी विसर्गी ॥ ५७ ॥ सं-परि-व्यनु- प्राद् वदः | ५ | २ | ५८ | शीलादिसदर्थादेभ्यः पराद्वदेर्धिनण् स्यात् । संवादी, परिवादी, विवादी, अनुवादी, प्रवादी ॥ ५८ ॥ वेोविच - कत्थ-स्रम्भ-कप- कस-लस- हनः । ५ । २ । ५९ । शीलादिसदर्थेभ्यो विपूर्वेभ्य एभ्यो घिनणू स्यात् । विवेकी, विकत्थी, विस्रम्भी, विकाषी, विकासी विलासी विघाती ॥ ५९ ॥ व्यपाऽभेषः । ५ । १ । ६० । एभ्यः परात् लषेः शीलादिसदर्थाद् घिनण् स्यात् । 'विलाषी, अपलाषी, अभिलाषी ॥ ६० ॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ३५१] सम-प्राद् वसात् । ५ । २ । ६१ । आभ्यां पराद् वसतेः शीलादिसदर्थाद् घिनणू स्यात् । संवासी प्रवासी ॥ ६१ ॥ समत्यपाऽभिव्यभेश्वरः | ५ | २ | ६२ | एभ्यः परात् चरेः शीलादिसदर्थाद् घिनण् स्यात् । सञ्चारी, अतिचारी, अपचारी, अभिचारी, व्यभिचारी ॥ ६२ ॥ समनुः व्यवाद् रुधः । ५ | २ | ६३ | एभ्यः पराच्छीलादिसदर्थाद् रुधो धिनण् स्यात् । संरोधी, अनुरोधी, विरोधी, अवरोधी ॥ ६३ ॥ वेर्दहः | ५ | २ | ६४ ॥ विपूर्वात् शीलादिसदर्थाद् दहेर्धिनण् स्यात् । विदाही ॥ ६४ ॥ पर्देवि -मुहश्व | ५ | २ | ६५ ॥ | परिपूर्वाभ्यां शीलादिसदर्थाभ्यामाभ्यां दहेश्च घिन‍ स्यात् । परिदेवी, परिमोही, परिदाही ॥ ६५ ॥ क्षिप-रटः | ५ | २ | ६६ | परिपूर्वाभ्यामाभ्यां शीलादिसदर्थाभ्यां घिनण् स्यात् परिक्षेपी, परिराटी ॥ ६६ ॥ वादेश्च णकः | ५ | २ | ६७ । परिपूर्वात् शीलादिसदर्थाद् वादयतेः, क्षिपरदिभ्यां च कः स्यात् । परिवादकः, परिक्षेपकः, परिराटकः ||६७|| Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५२] हेमशब्दानुशासनस्य निन्द-हिंस-क्लिश-खाद-विनाशि-व्याभाषाऽसूयाऽ नेकस्वरात् । ५।२।६८। एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो णकः स्यात् । निन्दकः, हिंसकः, क्लेशकः, खादकः, विनाशकः, ब्याभाषका, असूयकः, चकासकः ॥ ६८ ॥ उपसर्गाद् देव-देवि-कुशः । ५।२।६९। उपसर्गात् परेभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य एभ्यो णकः स्यात् । आदेवकः, परिदेवका, आक्रोशकः ॥ ६९ ॥ . वृड्-भिक्षि-लुण्टि-जल्पि-कुट्टात् टाकः ।५।२।७०) एभ्याशीलादिसदर्थेभ्यष्टाकः स्यात्। वराकी, भिक्षाकः, लुण्टाकः, जल्पाकः, कुट्टाकः ॥ ७० ॥ , प्रात् सू-जोरिन् । ५ । २ । ७१ । ... आभ्यां प्रात् पराभ्यां शीलादिसदाभ्यांइन् स्यात् । प्रसवी, प्रजवी ॥ ७१ ॥ जि-इण-दृ-क्षि-विश्रि-परिभू चमाऽभ्यमऽ व्यथः । ५१२ । ७२ । एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य इन् स्यात् । जयी, अत्यपी, आदरी, क्षयी, विश्रयी, परिभवी, वमी, अभ्यमी, अव्यथी ॥ ७२ ॥ सृ-घस्यदो मरक् । ५। २ । ७३ । एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो मरक् स्यात्। समरः, घस्मरः, अमरः ॥७३॥ देव देवने । देवीत्पनेन दीन्यतेदेखते ण्यन्तस्य ग्रहणम् । लक्षणप्रतिपदेल्यस्य न्यायस्यानित्यत्वात् । अथका भिन्नदेवृप्रहणादिति न्यासकारः। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३५३] - भासि - मिदो घुरः | ५ | २ | ७४ ॥ एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो घुरः स्यात् । भगुरम्, भासुरम्, मेदुरम् ॥ ७४ ॥ वेत्तिच्छिद-भिदः कित् । ५ । २ । ७५ | एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यः किद् घुरः स्यात् । विदुरः, छिदुरः, भिदुरः ॥ ७५ ॥ भियो रु रुक-लुकम् । ५ । २ । ७६ । शीलादिसदर्थाद भियः कित एते स्युः । भीरुः, भीरुकः, भीलुकः ॥ ७६ ॥ सृ-जि- इण्-नशः ट्वरप् । ५ । ३ । ७७ । एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यः कित् दूद्वरप् स्यात् । सुत्वरी, जित्वरी, इत्वरः, नश्वरः ॥ ७७ ॥ गत्वरः । ५ । २ | ७८ | गमेष्ट्वरपू मश्च त् निपात्यते । गत्वरी ॥ ७८ ॥ स्मि-अजस हिंस-दीप- कंम्प-कम-नमो रः | ५ | २|७९| एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो रः स्यात् । स्मेरम्, अजस्रम्, हिंस्रः, दीपः, कम्प्रः, कम्रः, नम्रः ॥ ७९ ॥ तृषि - धृषि - स्वपो नजि· | ५ | २ | ८० । एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो नजिङ् स्यात् । तृष्णक्, धृष्णक, स्वप्नजौ ॥ ८० ॥ स्थेश भास- पिस कसो वरः । ५ । २ । ८१ । एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो वरः स्यात् । स्थावरः, ईश्वरः, भास्वरः, पेस्वरः, विकस्वरः ॥ ८१ ॥ यायावारः । ५ । २ । ८२ । यातेर्यङन्तात् शीलादिसदर्थाद् वरः यायावरः ।। ८२ ॥ ४५ स्यात् । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५४] हैमशब्दानुशासनस्य दिद्युद्-ददृद्-जगद्-जुहू चाक्-प्राट्-धी-श्री-द्रु-स्त्र• ज्वायतस्तू-कटपू-परिवाट्-भ्राजादयः ... क्विप् । ५। २। ८३ । ... एते क्विवन्ताः शीलादौ सत्यर्थे निपात्यन्ते । विद्युत् , दहत् , जगत् , जुहूः, वाक् , तत्त्वप्राट्, धीः, श्रीः, शतद्रू, सूः, जूः, आयतस्तूः, कटपूः, परिव्राट्, विभ्राट्, भाः ॥८३॥ शं-सं-स्वयं-वि-प्रादु भुवो डुः । ५।२।०४।.. एभ्यः, पराद् भुवः सदाद् डुः स्यात् । शम्भुः, सम्भुः, स्वयम्भुः, विभुः, प्रभुः ॥ ८४ ॥ ३ पुव इत्रो दैवते ।.५। २ । ८५। । सदर्थात् पुवो दैवते कर्तरि इत्रः स्यात् । पवित्रोऽहंन् ॥८५॥ ऋषिनाम्नोः करणे । ५। २ । ८६ । ऋषिसंज्ञयोः सदर्थात् पुवः करणे इत्रः स्यात् । पविप्रोऽयमृषिः, दर्भः पवित्रः ॥ ८६ ॥ लू-धू-सू-खनि-चर-सहाऽर्तेः । ५। २८७) एभ्यः सदर्थेभ्यः करणे इत्रः स्यात् । लवित्रम् , धवित्रम्, सवित्रम् , खनित्रम् , चरित्रम् , सहित्रम् , अरित्रम् ॥८७॥ नी-दाव-शसू-यु-युज-स्तु-तुद-सि-सिच-मिह-पत-पा नहस्त्रट् । ५। २ । ८८।। पूयतेऽनेनेति पवित्रम् । एवमुत्तरत्राऽपि लुनात्यनेन लवित्रम् , नयनत्यनेन नेत्रम् , शस्यतेऽनेन शस्त्रमिति बोध्यम् । २ दांधक् कवने आदादिकः । शस् हिंसायां भौवादिकः।। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपॉलघुवृत्तिः [३५५] : . एम्यः सदर्थेभ्यः करणे ब्रट् स्यात् । नेत्रम्, दात्रम्, शस्त्रम्, योत्रम्, योक्त्रम्, स्तोत्रम्, तोत्रम्, सेत्रम्, सेक्त्रम्, मेद्रम्, पत्त्रम् , पात्री, नधी ॥८८॥ हल-क्रीडाऽऽस्ये पुवः । ५। २ । ९८ । सदर्थात् पुवो हलक्रोडयोर्मुखे करणे ब्रट् स्यात् । पोत्रम् ॥ ८९ ॥ दंशेत्रः । ५।२।९।। सदर्थाद् देशेः करणे त्रः स्यात् । दंष्ट्रा ॥ ९॥ धात्री।५।२ । ९१ । धेर्धागो वा कर्मणि ब्रट् स्यात् । धात्री ॥ ९१ ॥ ज्ञानेच्छा ऽर्थ-जीत्-शील्यादिभ्यः क्तः । ५। २ । ९२ । ... ज्ञानेच्छाऽर्चाऽर्थेभ्यो जीद्भयः शील्यादिभ्यश्च सदर्थेभ्यः क्तः स्यात् । राज्ञां ज्ञाता, राज्ञामिष्टः, राज्ञां पूजितः, भिन्नः, शीलिता, रक्षितः ॥ ९२ ॥ उणादयः। ५।२ । ९३। .....सदर्थाद् धातोरुणादयो बहुलं स्युः। काला, ईडः ॥१३॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिषानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ पश्चमस्याध्यायस्य ... द्वितीयः पादः समाप्तः ॥५॥२॥ ... "उणादय" इत्यत्रैकमेव सूत्रं दत्तं प्रकरणज्ञापनार्थम् । सूत्रबाहुल्यात बृहद्वृत्तिसमेतं हेमचन्द्रोयं इदमुणादिप्रकरणं पृथगेव केनचिद् पाश्चात्यविदुषाऽन्यत्र प्रकाशित, बृहवृत्तौ चैतदविकलं मुद्रितम् । अस्मिन्नुणादौ १००६ सूत्राणि सन्ति Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमन्दानुशासनस्य ॥ तृतीयः पादः॥ वर्त्यति गम्यादिः ।५ । ३।१। गम्यादयो भविष्यत्यर्थे इन्नाद्यन्ताः साधवः स्युः। गमी ग्रामम्, आगामी ॥ १॥ वा हेतुसिद्धौ क्तः। ५।३।२ । वस्य॑दाद् धातोर्धात्वर्थहेतोः सिद्धौ सत्यां क्तोवा स्यात् । मेघश्चद् वृष्टः सम्पन्नाः सम्पत्स्यन्ते वा शालयः ॥२॥ कपोनिटः । ५।३।३। कषेः कृषगहनयोरनिद्धातोर्वत्र्यदर्थात् तस्यात्। कष्टम्, कष्टा दिशस्तमसा । अनिट इति किम् ? कषिताः .शात्रवः ॥३॥ . भविष्पन्ती । ५।३।४।। वर्यदर्थाद् धातोर्भविष्यन्ती स्वात् । भोल्यते ॥४॥ 'अनयतने श्वस्तनी।५।३।५। । मासस्वचतनो पत्र तस्मिन् वपत्यर्थे वर्तमानाद्धातोः सस्तकी स्मात्। कर्ता । अनयतन इति किम् । अद्य श्वो वा गमिम्पति ॥ ५॥ परिदेवने । ५।३।६। ___ अनुशोचने गम्ये क्रांदाद धातोः श्वस्तनी स्यात्। इमं तुबदा मन्ता, मैवं पादौ निपते ॥ ६ ॥ ... अनन्तरमामामिन्या रात्रेर्यामद्वयात् परे भविष्यति काले बस्तनी भवति, तभ्यन्तरकाले तु सामान्यतया भक्यिन्ती स्मादित्यर्थः 1 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ३५७ ] पुरा- याक्तोर्वर्त्तमाना । ५ । ३ । ७ । अनयोरुपपदयोर्वदर्थाद् धातोर्वर्तमाना स्थात् । पुरा भुङ्क्ते, यावद् मुङ्क्ते ॥ ७ ॥ कदा - कर्बोर्नवा | ५ |३|| अनयोरुपपदयोर्वदर्थाद्धातोर्वर्त्तमाना वा स्यात् । कदा भुङ्क्ते, कदा भोक्ष्यते, कदा भोक्ता, कर्हि भुङ्क्ते, कर्हि भोक्ष्यते, कर्हि भोक्ता ॥ ८ ॥ किंवृत्ते लिप्सायाम् । ५ । ३ । ९ । विभक्तिडतरडतमान्तस्य किमो वृत्तं किंवृत्तं । तस्मिन्नुपपदे प्रष्टुलिप्सायां गम्यमानायां वत्र्त्स्यदर्थाद् घातोर्त्तमाना वा स्यात् । को भवतां भिक्षां ददाति दास्यति, दाता वा । एवं कतरः कतमः । किंवृत्त इति किम् ? भिक्षां दास्यति । लिप्सायामिति किम् ? कः पुरं यास्यति ? ॥ ९ ॥ 9 लिप्स्यसिद्धौ । ५ । ३ । १० । लब्धुमिष्यमाणाद् भक्तादेः सिद्धौ फलावाप्तौ गम्यायां वत्स्याद्धातोर्वर्तमाना वा स्यात् । यो भिक्षां ददाति दास्यति, दाता वा स स्वर्गलोकं याति यास्यति, याता वा ॥ १० ॥ पञ्चम्यर्थतौ | ५ | ३ | ११ । पञ्चम्यर्थः त्रैषादिः, तस्य हेतुरुपाध्यायाऽऽगमनादिः । तस्मिन्नर्थे वत्स्यति वर्त्तमानाद् धातोर्वर्त्तमाना वा स्यात् । उपाध्यायश्चेद् आगच्छति, आगमिष्यति, आयन्ता वा, अथ त्वं सूत्रमधीष्व ॥ ११ ॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५८] हैमशब्दानुशासनस्य सप्तमी चोर्धमौहर्तिके ।५।। १ । १२ । ऊर्ध्वमुहूर्ताद्भव ऊर्ध्वमौहर्तिकः तस्मिन् पञ्चम्यर्थहेतो वय॑त्यर्थे वर्तमानादु धातोः सप्तमी वर्तमाना च वा स्यात् । अव मुहूर्तादुपाध्यायश्वेदागच्छेत्, आगच्छति, आगन्ता वा, अथ त्वं तर्कमधीष्व ॥ १२ ॥ . . क्रियायां क्रियार्थायां तुम् णकच भविष्यन्ती ॥ ५। ३ । १३ । यस्माद् धातोस्तुमादिविधिस्तद्वाच्या क्रियाऽर्थः प्रयोजनं यस्यास्तस्यां क्रियायामुपपदे वत्स्यदर्थाद्धातोस्तुमादयः स्युः । कर्तुम्, कारकः, करिष्यामीति वा याति । क्रियायामिति किम् ? भिक्षिष्ये इत्यस्य जटाः । क्रियायामिति किम् ? धावतस्ते पतिष्यति वासः ॥ १३ ॥ कर्मणोऽण् । ५।३।१४। क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे कर्मणः पराद् वयदर्थाद्धातोरण स्यात् । कुम्भकारो याति ॥ १४ ॥ भाववचनाः।५।३।१५। भाववचना घअक्त्यादयः, ते क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे वर्त्यदर्थाद्धातोः स्युः। पाकाय, पक्तये, पचनाय वा याति ॥१५॥ पद-रुज-विश-स्पृशो पत्र । ५। ३।१६ । एभ्यो घञ् स्यात्। पादा, रोगः, वेशः, स्पर्शः ॥१६॥ सर्तेः स्थिर-व्याधि-बल-मत्स्ये । ५। ३ । १७ । . सर्तेरेषु कर्तृषु घञ् स्यात् । सारः स्थिरः, अतीसारो व्याधिः, सारो बलम्, विसारो मत्स्यः ॥ १७ ॥ ... Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षलघुवृत्तिः [३५९] | भावाऽकोंः । ५।३ । १८॥ भावे कर्तृवर्जे च कारके धातोर्घञ् स्यात्। पाकः, प्राकारः, दायो, दत्तः ॥ १८॥ इंडोऽपादाने तु टिदा ।५।३।१९।.. इडो भावाकोंर्घञ् स्यात्, स चापादाने वा टित् । अध्यायः, उपाध्यायी, उपाध्यायः ॥ १९ ॥ श्रो वायुचर्ण-निवृत्ते । ५ । ३ । २० । __ श्री भावाकोंरेष्वर्थेषु घञ् स्यात् । शारो वायुवर्णो वा, नीशारः प्रावरणम् ॥ २० ॥ निरभेः पू.ल्वः । ५। ३ । २१ । निरभिभ्यां यथासङ्ख्यमाभ्यां भावकोंर्घ स्यात् । निष्पावः, अभिलावः ॥ २१॥ - रोरुपसर्गात् । ५। ३ । २२ । उपसर्गपूर्वाद् रौतेर्भावाकोंर्घ स्यात् । संरावः ॥२२॥ भूश्र-य-दोऽल् । ५ । ३ । २३ । .. एभ्य उपसर्गपूर्वेभ्यो भावाकोरल् स्यात् । प्रभवः, संश्रयः, विघसः। उपसर्गादित्येव ? भावः, श्रायः, घासः ॥ २३ ॥ न्यादा नवा। ५।३ । २४ । निपूर्वाददेरलि घस्लभावोऽतो दीर्घश्च वा स्यात् । न्यादा, निघसः॥२४॥ १ घस्लू इत्यस्यऽभावः। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य सं-नि-व्युपाद् यमः | ५ | ३ | २५ | . एभ्य उपसर्गेभ्यः पराद् यमेर्भार्वाकरल् वा स्यात् । संयमः संयामः । नियमः, नियामः । वियमः, वियामः । उपयमः, उपयामः ॥ २५ ॥ नेर्नद-गद -पठ-स्वन-कणः | ५|३| २६। · निरुपसर्गात् परेभ्य एभ्यो भावाकरल् वा स्यात् । निनदः, निनादः । निगवः, निगादः । निपठः, निपाठः । निस्वनः, निस्वानः । निक्वणः, निक्वाणः ॥ २६ ॥ वैणे स्वणः । ५ । ३ । २७ | [ ३६० ] वीणायां भवो वैणः । तदर्थादुपसर्गपूर्वात् क्वणेभीवाकरल् वा स्यात् । प्रक्वणः, प्रक्वाणो वीणायाः । वैण इति किम् १ प्रक्वाणः शृङ्खलस्य ॥ २७ ॥ युवर्ण-वृ-दृ-वश-रण- गम्-ऋग्रहः । ५ । ३ । ३८। वर्णो वर्णान्तेभ्यो वादेर्ऋदन्तेभ्यो ग्रहेश्व भावकरल् स्यात् । चयः, ऋयः, स्वः, लवः, वरः, आदरः, वशः, रणः, गमः, करः, ग्रहः ॥ २८ ॥ वर्षादयः क्लीबे । ५ । ३ । २९ । : एतेऽलन्ताः क्लीवे यथादर्शनं भावाकर्निपात्यन्ते । वर्षम्, भयम् ॥ २९ ॥ समुदाऽजः पशौ | ५ | ३ | ३० । आभ्यां परादजः पशुविषयार्थवृत्ते भावाकरल् स्यात् । समजः पशूनाम्, उदजः पशूनाम् । पशाविति किम् ? समाजो नृणाम् ॥ ३० ॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] स्वोपज्ञलघुवृतिः सृ-ग्लहः प्रजनाऽक्षे । ५।३।३११ आभ्यां यथासङ्ख्यं प्रजनाक्षविषयार्थवृत्तिभ्यां भावाकरल् स्यात् । गवामुपसरः, अक्षाणां ग्लहः । प्रजानाक्ष इति किम् ? उपमारो भृत्यै राज्ञाम् ॥ ३१ ॥ पणेर्माने । ५ । २ । ३२ । पणेनार्थाद् भावाकरल् स्यात् । मूलकपणः । मान इति किम् ? पाणः ॥ ३२ ॥ संमद-प्रमदौ हर्षे । ५ । ३ । ३३ । प्रमदो " एतौ भावाकर्षेऽर्थेऽलन्तौ स्याताम् । संमदः, 'वा स्त्रीणाम् । हर्ष इति किम् ? संमादः प्रमादः ॥ sa saण देशे । ५ । ३ । ३४ । अन्तःपूर्वाद हन्तेरल घनघणादेशौ च निपात्येते, देशेse भावाकः । अन्तर्धनः अन्तर्घणो वा देशः । अन्तघातोऽन्यः || ३४ ॥ प्रघण- प्रघाणौ गृहांशे । ५ । ३ । ३५ । पूर्वाद् हन्तेर्गृहांशेऽथेंडल घणघाणादेशौ च निपात्येते । प्रघणः, प्रघाणो वा द्वारालिन्दकः प्रघातोs न्यः ॥ ३५ ॥ निघोघ सङ्घोघनाऽपघनोपघ्नं निमित-प्रश स्त - गणाऽत्याधानाऽङ्गाऽऽसन्नम् | ५ | ३ | ३६ | हन्तेर्निघादयो यथासङ्ख्यं निमिताद्यर्थेषु कृतघत्वादयोsन्ता निपात्यन्ते । समन्ततो मितं निमितम् । निधा वृक्षाः, उदूधः प्रशस्तः, सङ्घः प्राणिसमूहः । अत्याधीयन्ते च्छेदनार्थी कुट्टनार्थे वा काष्ठादीनि यत्र तदत्याधानम् । उद्घनः, अपघनः शरीररावयवः, उपन्न आसन्नः ॥ ३६ ॥ ४६ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] हेमशब्दानुशासनस्य मूर्ति-निचिताऽभ्रे घनः ५ । ३ । ३७। हन्तेर्मूयोदावर्थेऽल्, घनादेशश्च निपात्यते । मूर्तिः काठिन्यम् । अभ्रस्य घनः। निचितं निरन्तरम् । घनाः केशाः । अभ्रं मेघः। घनः ॥३७॥ व्ययो-द्रोः करणे। ५ । ३ । ३८ । एभ्यः पराद् हन्तेः करणेऽल घनादेशश्च निपात्यते। विघनः, अयोधना, द्रुघनः॥ ३८॥ स्तम्बाद् घनश्च । ५। ३ । ३९ । । स्तम्बात् पराद्धन्तेरल,मघनादेशौचनिपात्येते,करणे। स्तम्बघ्नो दण्डः, स्तम्बघनो यष्टिः ॥ ३९ ॥ परेघः । ५ । ३ । १०। - परिपूर्वाद्धन्तेरल्, घादेशश्च करणे निपात्यते । परिघोऽर्गला ॥ ४०॥ हुः समाह्वयाऽऽहयौ द्यूत-नाम्नोः। ५ । ३ । ४१ । यूते नाग्नि चार्थे यथासङ्ख्यं समाङ्पूर्वाद् आङ् पूर्वाव होऽल् हयादेशश्च निपात्यते । समाह्वयः प्राणियुतम् , आयः संज्ञा ॥४१॥ न्यभ्युप-वेवा श्चोत् । ५ । ३ । ४२ । ।। एभ्यः पराद् हो भावाकोरल् स्यात, तद्योगे वा उश्च । निहवः, अभिहवः उपहवः, विहवः ॥ ४२ ॥ ..... 'या' इति ह्वा धातोरवयव उकारो भवतीति भावः, एवमुत्तस्त्रापि। “चादपोऽसत्वे" इति सूत्राद् वेत्यस्याम्ययत्वेऽपि प्रथमादिविभक्तौ न दोषः .. . Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [३६३] . आडो युद्धे । ५ । ३ । ४३ । - आङो हो युद्धेऽर्थे भावाकोरल् स्यात्, वा उइच । आहवो युद्धम् । युद्ध इति किम् ? आवायः ॥ ४३ ॥ आहावो निपानम् । ५ । ३ । ४४ । निपानं पश्वादिपानार्थो जलाधारः। तस्मिन्नर्थे आङ्पूर्वाद् ह्वो भावाकोरल, आहावादेशश्च निपात्यते । आहावो वीनाम् ॥ ४४ ॥ भावेऽनुपसर्गात् ।५।३ । ४५ । अनुपसर्गाद् भावे द्वोऽल स्यात् , वा उश्च । हवः । भाव इति किम् ? व्याप्ये वायः। अनुपसर्गादिति किम् ? आवायः॥ ४५ ॥ हनो वा वध् च । ५। ३ । ४६ । अनुपसर्गाद् हन्तेर्भावेऽल् वा स्यात् , तद्योगे च हनो वधू । वधः, घातः॥४६॥ व्यध-जप-मद्भयः। ५।३ । ४७ । एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो भावाकोरल् स्यात् । व्यधः जपा, मदः ॥ ४७॥ नवा क्वण-यम-हस स्वनः । ५।३।४८ अनुपसर्गेभ्य एभ्यो भावाकोरल् वा स्यात् । स्वणः, क्वाणः । यम यामः। हसः, हासः। स्वनः । स्वानः ॥४९॥ आङो रु-प्लाः । ५ । ३ । ४९ । . आङः पराभ्यां रुप्लुभ्यां भानाकोरल् वा स्यात् । आरवः, आरावः । आप्लवः, आप्लावः ॥ ४९॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... . . ... . [] मशब्दानुशासनस्य वर्षविघ्नेऽवाद ग्रहः । ५।३। ५०। जवपूर्वाद प्रहर्षविघ्नेऽर्थे भाषाकोरल् वा स्यात्। अवग्रहः, अवग्राहः। वर्षविघ्ने इति किम् ? अवग्रहोऽर्थस्य ॥५०॥ माद रश्मि-तुलासूत्रे । ५। ३ । ५१ । " पूर्वाद ग्रहे रश्मी तुलासूत्रे चार्थे भावाकोरल् वा स्यात् । प्रग्रहः, प्रग्राहः॥ ५१ ॥ चगो वस्त्रे । ५।३। ५२ । अपूर्वा गो वस्त्रविशेषेऽर्थे भावाकोरल वा स्यात्। प्रबर, प्रावारः। वस्त्र इति किम् ? प्रवरो यतिः ॥ ५२ ॥ . उदः श्रेः। ५। ३ । ५३ । उत्पूर्वात् श्रेर्भावाकोरल् वा स्यात् । उच्छ्रया, उपायः ॥ ५३॥ .. . यु-पू-द्रोर्घञ् । ५। ३ । ५४ । उत्पूर्वेभ्य एभ्यो भावाकोंर्घ स्यात् । उद्यावा, उत्पाय: उद्रायः ॥ ५४॥ ग्रहः। ५।३ । ५५ । उत्पति ग्रहे वाकोंर्घ स्यात् । उग्राहः न्य वात् शापे । ५।१। ५६ । आभ्यां पराद् अहेराक्रोशे गम्ये भावाकोंर्घञ् स्यात्। मिनाहा, अपग्राहो वा ते जाल्म भूयात् । शाप इति किम् । निग्रहश्चौरस्य ।। ५६ ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृतिः [ ६५ ] प्रात लिप्सायाम् । ५ । ३ । ५७ । पूर्वाद्यहेलिप्सायां गम्यायां भावाकर्घव् स्यात् । पात्रप्रग्राहेण चरति पिण्डपानार्थी भिक्षुः । लिप्सायामिति किम् ? स्रुवः प्रग्रहः शिष्यस्य ॥ ५७ ॥ समो मुष्टौ । ५ । ३ । ५८ ॥ संपूर्वाद् ग्रहेर्मुष्टिविषये धात्वर्थे भावाकर्घ स्यात् । संग्राहो मल्लस्य । मुष्टाविति किम् ? संग्रहः शिष्यस्य ।। ५८ ।। यु-दु-द्रोः । ५ । ३ । ५९ । संपूर्वेभ्य एभ्यो भावाकर्घञ् स्यात् । संयावः, संदायः, संद्रावः ॥ ५९ ॥ 9 नियश्वाऽनुपसर्गाद् वा । ५ । ३ । ६० । अनुपसर्गात् नियो युदुद्रोश्च भावाकर्घव् वा स्यात् । नयः, नायः । यवः, यावः । दवः, दावः । द्रवः, द्रायः । अनुपसर्गादिति किम् ? प्रणयः ॥ ६० ॥ बोदः । ५ । ३ । ६१ । उत्पूर्वात् नियो भावाकर्घम् स्यात् धा । उन्नायः, . उन्नयः ॥ ६१ ॥ अवात् । ५। ३ । ६२ । अवपूर्वात् नियो भावाकर्घव् स्यात् । अवनायः ॥ ६२॥ परेर्वृते । ५ । ३ । ६३ । परिपूर्वात् नियो ब्रूतविषयार्थाद्भावाकर्घञ् स्यात् । परिणायेन शारीन् हन्ति । द्यूत इति किम् ? परिणयोऽस्याः ॥ ६३ ॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [३६६] हैमशब्दानुशासनस्य भुवोऽवज्ञाने वा । ५ । ३ । ६४ । _ परिपूर्वाद् भुवोऽवज्ञानार्थाद् भावाकोंर्घ स्यात् वा। परिभावः, परिभवः। अवज्ञान इति किम् ? समन्ताद भूतिः परिभवः ॥ ६४॥ यज्ञे ग्रहः। ५। ३ । ६५। परिपूर्वाद् अहेर्यज्ञविषये भावाकोंर्घञ् स्यात् । पूर्व परिग्राहः । यज्ञ इति किम् ? परिग्रहोऽर्थस्य ॥ ६५ ॥ - संस्तोः । ५। ३ । ६६ । संपूर्वात् स्तोते वाकोंर्घ स्यात् , यज्ञविषये । संस्तावः छन्दोगानाम् ॥ ६६ ॥ प्रात् स्नु-द्रु-स्ताः । ५। ३ । ६७ । - प्रात् परेभ्य एभ्यो भावाकोंर्घञ् स्यात् । प्रस्नावः, प्रद्रावः, प्रस्तावः ॥६॥ अयज्ञे स्त्रः । ५ । ३ । ६८। प्रपूर्वात् स्त्रो भावाकोंर्घस्यात् , न चेद् यज्ञविषयः। प्रस्तारः। अयज्ञ इति किम् ? बर्हिष्प्रस्तरः॥६८॥ वशब्दे प्रथने । ५। ३ । ६९। वेः परात् स्त्रोऽशब्दविषये विस्तीर्णत्वेऽर्थे घञ् स्यात् । विस्तारः पटस्य । प्रथन इति किम ? तृणस्य विस्तरः। अशब्द इति किम् ? वाक्यविस्तरः ॥ ६९ ॥ छन्दानाम्नि । ५। ३ । ७०।.. . विपूर्वा स्त्री गायत्र्यादिसंज्ञाविषये भावाकोंर्घ स्यात् । विष्टारपङ्क्तिः ॥ ७० ॥ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षलघुतिः [३६७]. क्षु-श्रोः। ५।३ । ७१ । विपूर्वाभ्यामाभ्यां भावाकोंर्घञ् स्यात् । विक्षावः, विश्रावः ॥ ७१ ॥ न्युदो प्रः । ५। ३ । ७२। आभ्यां पराद् ग्रो भावाकोंर्घञ् स्यात । निगारः, उद्गारः ॥७२॥ किरो धान्ये । ५। ३ । ७३ । न्युत्पूर्वात् किरते/न्यविषयार्थात् भावाकोंपञ् स्यात् । निकारः, उत्कारो धान्यस्य । धान्य इति किम् ? फलनिकरः॥७३॥ नेवुः । ५।३।७४। निपूर्वाद् (कृणोतेषणातेर्वा) धान्यविशेषेऽर्थे भावाकोंर्घञ् स्यात्। नीवारा व्रीहयः ॥ ७४ ॥ . इणोऽभ्रेषे ।५।३।७५। । स्थितेरचलनमभ्रेषः, तद्विषयार्थात् निपूर्वाविणो भावाकोंर्घ स्यात् । न्यायः। अभ्रेष इति किम् ? न्ययं गतचौरः ॥ ७५ ॥ . परेः क्रमे । ५।३।७६ । .' क्रमः परिपाटिः, तद्विषयार्थात् परिपूर्वादिणो भावाकोंर्घञ् स्यात् । तव पर्यायो भोक्तुम् । क्रम इति किम् ? पर्ययो गुरोः॥ ७६ ॥ व्युपात् शीङः।५।३।७७ । आभ्यां परात् क्रमविषयार्थात् शीडो भावाकों धञ् स्यात् । तव राजविशायः, मम राजोपशायः । क्रम इति किम् ? विशयः॥ ७७॥ ... Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] हैमशब्दानुशासनस्य हस्तप्राप्ये चेरस्तेये । ५।३।७८। हस्तेन प्राप्तुं शक्यं हस्तप्राप्यम्, तद्विषयात् चिगो भाषाकोंर्घ स्यात् , न चेत् चेरर्थश्चौर्येण। पुष्पप्रचायः । हस्तप्राप्य इति किम् ? पुष्पप्रचयं करोति वृक्षाग्रे । अस्तेय इति किम् ? स्तेयेन पुष्पप्रचयं करोति ॥७८ ॥ - चिति-देहाऽऽवासोपसमाधाने कश्चाऽऽदेः।५/३१७९/ ___ एड्वर्थेषु चे वाकोंर्घञ् स्यात् , तद्योगे च चेरादेः कः । चीयत इति चितिर्यज्ञेऽग्निविशेषस्तदाधारो वा। आकायमग्निं चिन्धीत, कायो देहा, ऋषिनिकायः । उप. समाधानमुपर्युपरि राशीकरणम् । गोमयनिकायः ॥७९॥ सधेनूचे । ५।३ । ८०।। नास्ति कुतश्चिद् ऊर्ध्वमुपरि किश्चिद् यस्मिन् सोऽनूर्वः तस्मिन् प्राणिसमुदायेऽर्थे भावकोंर्घञ् स्यात् , तद्योगे चेरादेः कः । तार्किकनिकायः । सङ्घ इति किम् ? सारसमुच्चयः । अनूर्व इति किम् ? शुकरनिचयः ।।८०॥ माने । ५। ३। ८१। । ___ माने गम्ये धातोर्भावाकोंर्घञ् स्यात् । एको निपावः, समित्संग्राहः । मान इति किम् ? निश्चयः ॥८॥ स्थाऽऽदिभ्यः कः।५।३। ८२ । एभ्यो भावाकोंः कः स्यात् । आखूत्थो वर्तते, प्रस्था, प्रपा ॥ ८२ ॥ ट्रिवतोऽथुः। ५ । ३ । ८३ । दिवतो धातो वाकोरथुः स्यात् । वेपथुः ॥ ८३ ।। टुवेर चलने । एवं टुभ्राज टुमस्जोंत् हुवर्षी टुषम् टुनदादीनामपि वेद्यम् । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपवलपुचिः [३६९] वितस्बिमक् तत्कृतम्। ५। ३ । ८४ । डिवतो धातोर्भावाकोंस्त्रिमक् स्यात् , तेन धात्वथेन कृतमित्यर्थे । पक्तिमम् ।। ८४ ॥ यजि-स्वपि-रक्षि-यति-प्रच्छो नः । ५ । ३ । ८५ । एभ्यो भावाकोंर्नः स्यात् । यज्ञः, स्वमः, रक्ष्णः, यत्नः, प्रश्नः ॥ ८५॥ विच्छो 'नङ् । ५। ३। ८६ । विच्छे र्भावाकोंर्नङ् स्यात् । विश्नः ॥ ८६ ॥ उपसर्गाद् दः किः ।५।३ । ८७ ॥ उपसर्गपूर्वाद दासंज्ञाद् भावाकोः किः स्यात् । आदिः, निधिः ॥ ८७॥ ___ व्याप्यादाधारे । ५। ३ । ८८॥ व्याप्यात् पराद् दासंज्ञादाधारे कि: स्यात् । जलधिः ॥ ८८॥ - अन्तर्द्धिः । ५। ३ । ८९। .. अन्तःपूर्वाद् धागो भावाकोंः किः स्यात् । अन्तर्द्धिः ॥ ८९ ॥ ..अभिव्याप्तौ भावेऽन- जिन् । ५। ३ । ९०। अभिव्याप्ती गम्यायां धातो वेनजिनौ स्याताम् । सरवणम् , सांराविणम् । अभिव्याप्तौ इति किम् ? संरावः ॥९॥ १ डुपची पाके । एवं डुदांग्कडुधांगडयाचगानाम् । पचेनेन कृतम्। २ ठित्वाद् गुणनिषेधः। न-नप्रत्ययान्तस्य पुंलिङ्गत्वम् । एवं घ-घञ्-कि-खान्त. स्यापि नाम्नः पुंलिङ्गता । अकर्तरि कान्तस्यापि च । यथा आखूत्थः । शन्इलिङ्गाविषये विस्तरस्त हैमलिङ्गानुशासनाद् ज्ञातम्यः । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७० ] हैमशब्दानुशासनस्य स्त्रियां क्तिः । ५ । ३ । ९१ । धातोर्भावाकत्रः स्त्रियां क्तिः स्यात् । कृतिः । स्त्रियामिति किम् ? कारः ॥ ९१ ॥ श्रवादिभ्यः | ५ | ३ | ९२ ॥ एम्यो धातुभ्यो भावmaal: स्त्रियां 'तिः स्यात् । श्रुतिः प्रतिश्रुत्, संपत्ति, संपत् ॥ ९२ ॥ समिणासुराः । ५ । ३ । ९३ । संपूर्वादिणः, आङ्पूर्वात् सुगश्च भावाकर्त्रीः स्त्रियां क्तिः स्यात् । समितिः, आसुतिः ॥ ९३ ॥ साति-ति-यति-ति-ज्ञप्ति - कीर्त्तिः । ५ । ३ । ९४ । ऐते भावाकः क्त्यन्ता निपात्यन्ते । सातिः, हेतिः, यूतिः, जूतिः, ज्ञप्तिः कीर्त्तिः ॥ ९४ ॥ " गा-पा-पची - भावे । ५ । ३ । ९५ । एभ्यो भावे स्त्रियां क्तिः स्यात् । सङ्गीतिः प्रपीतिः, पंक्तिः ।। ९५ ।। स्थो वा । ५ । ३ । ९६ । स्थो भावे स्त्रियां तिर्वा स्यात् । प्रस्थितिः, आस्था ॥ ९६ ॥ आस्यटि- व्रज्-यजः क्यप् । ५ । ३ । ९७ । एभ्यो भावे स्त्रियां क्यप् स्यात् । आस्या, अट्या, व्रज्या, इज्या ॥ ९७ ॥ १ उपसर्गाणामतन्त्रत्वात् विवादयोऽपि स्युः तेन प्रतिश्रुत् सम्पदित्यवि । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३७१] : . भृगो नाम्नि । ५। ३ । ९८ । भृगो भावे स्त्रियां संज्ञायां क्यप् स्यात् । भृत्या । नाम्नीति किम् ? भृतिः ॥९८ ॥ समज-निपत्-निषद्-शीइ.सुग्-विदि-चरिमनीणः ।५।३ । ९९ । एभ्यो भावाकोंः स्त्रियां नाम्नि क्यप् स्यात् । समज्या, निपत्या, निषद्या, शय्या, सुत्या, विद्या, चर्या, मन्या, इत्या । नाम्नीत्येव ? संवीतिः ॥ ९९ ॥ कृगः शच वा । ५।३ । १००। कृगो भावाकोंः स्त्रियां शो वा स्यात्, क्या चं। क्रिया, कृत्या, कृतिः ॥ १० ॥ मृगयेच्छा-याचा-तृष्णा-कृपा-भा-श्रद्धाऽन्तर्दा ।५।३ । १०१। एते स्त्रियां निपात्यन्ते ॥ १०१॥ परेः सृ-चरेयः । ५।३ । १०२ । परिपूर्वाभ्यामाभ्यां भावाकोः स्त्रिां यः स्यात् । पंरिसर्या, परिचर्या ॥ १०२॥ वाऽटाट्यात् । ५।३ । १०३ । अटेर्यङन्तात् स्त्रियां भावाकोंर्यो वा स्यात् । अटाट्या, अटाटा ॥ १०३ ॥ १ करणं, क्रियतेऽनया वेति क्रिया। एवं सर्वत्रापि भावाकोरित्थं वचनप्रकारो वेद्यः । क्रियेति यदा मावकर्मणोः शस्तदा मध्ये क्यः । यदा त्वपादानादौ शस्तदा क्यो नास्तीति रे रिकारस्येयादेश इत्याचार्यः। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७२] हैमशब्दानुशासनस्य जागुरश्च । ५ । ३ । १०४ । जागुः स्त्रियां भावाकोंः अः, यश्च स्यात् । जागरा, जागर्या ॥ १०४ ॥ शंसि-प्रत्ययात् । ५। ३ । १०५ । - शंसेः प्रत्ययान्तात् च भावाकोंः स्त्रियामा स्यात् । प्रशंसा, गोपाया ॥ १०५॥ क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात् । ५।३।१०६। क्तस्येट यस्मात् ततो गुरुमतो व्यञ्जनान्ताद् धातो - वाकोंः स्त्रियामः स्यात् । ईहा । क्तेट इति किम् ? स्रस्तिः । गुरोरिति किम् ? स्फूर्तिः । व्यञ्जनादिति किम् ? संशीतिः॥ १०६ ॥ षितोऽङ् । ५। ३ । १०७ । पितो धातोर्भावाकोः स्त्रियामङ् स्यात् । पचा, जरा ॥ १०७॥ भिदादयः । ५। ३ । १०८ । एते भावाकोंः स्त्रियामङन्ता यथालक्ष्यं निपात्यन्ते। भिदा, छिदा ॥ १०८ ॥ भीषि-भूषि-चिन्ति-पूजि-कथि-कुम्बि-चर्चि-स्पृहि-तोलि दोलिभ्यः । ५ । ३ । १०९ । एभ्यो ण्यन्तेभ्यः स्त्रियां भावाकोरङ् स्यात् । भीषा, भूषा, चिन्ता, पूजा, कथा, कुम्बा, चर्चा, स्पृहा, तोला, दोला ।। १०९॥ १ भाय-पक-अनादिप्रत्ययेभ्यः। “आत् " (२-४-१८) सूत्रेणाऽऽप् प्रत्यवात् स्त्रियां प्रशंसादयः सिध्यन्ति । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपझलघुवृत्तिः [३७३) उपसर्गादातः । ५। ३ । ११०। उपसर्गपूर्वाद् आदन्तात् स्त्रियां भावाकोरङ् स्यात् । उपदा । उपसर्गादिति किम् ? दत्तिः॥ ११० ॥ णि-वेत्त्यास-श्रन्थ-घट्ट-वन्देश्नः । ५। ३।१११ । ण्यन्ताद् वेत्यादिभ्यश्च स्त्रियां भावाकोरन: स्यात् । कारणा, वेदना, आसना, श्रन्थना, घना, वन्दना ॥ १११ ॥ इषोऽनिच्छायाम् । ५।३। ११२ । अनिच्छार्थादिधेः स्त्रियां भावाकोरन: स्यात् । अन्वेषणा । अनिच्छायामिति किम् ? इष्टिः ॥ ११२ ॥ पर्यधेर्वा । ५। ३ । ११३ । आभ्यां परादनिच्छादि इषेर्भावाकोः स्त्रियामनो था स्यात् । पर्येषणा, परीष्टिः । अध्यषणा, अधीष्टिः ॥११३ ॥ क्रुध्-संपदादिभ्यः विप् । ५। ३।११४। क्रुधादिभ्योऽनुपसर्गेभ्यः, पदादिभ्यश्च समादिपूर्वेभ्यः स्त्रियां भावाकों क्विप् स्यात् । क्रुक् युत्, संपत्, विपत् ॥ ११४ ॥ भ्यादिभ्यो वा। ५।३ । ११५॥ एभ्यः स्त्रियां भावाकोः क्विप् वा स्यात् । भीः, भीतिः । ह्री:, हीतिः ॥ ११५ ।। व्यतिहारेऽनीहादिभ्यो ञः। ५। ३ । ११६। व्यतीहारविषयेभ्य ईहादिवर्जेम्यो धातुभ्यः स्त्रियां Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७४ ] हैमशब्दानुशासनस्य ञः स्यात्, बाहुलकाद् भावे । व्यावक्रोशी । अनी हादि - भ्य इति किम् ? व्यतीहा, व्यतीक्षा ॥ ११६ ॥ नञोऽनिः शापे । ५ । ३ । ११७ । नञः पराद्धातोः शापे गम्ये भावाकत्रः स्त्रियामनिः स्यात् । अजननिस्ते भूयात् । शाप इति किम् ? अकृतिः पटस्य ।। ११७ ।। ग्ला-हा-ज्यः । ५ । ३ । ११८ । एभ्यः स्त्रियां भावाकरनिः स्यात् । ग्लानिः हानिः ज्यानिः ॥ ११८ ॥ प्रश्नाऽख्याने वेञ् । ५ | ३ | ११९ । प्रश्ने आख्याने च गम्ये स्त्रियां भावाकर्धातोरिञ वा स्यात् । कां कारिं, कारिकां, क्रियां, कृत्यां कृतिं वा अकार्षीः १ सर्वां कारि, कारिकां, क्रियां, कृत्यां कृतिं वा अकार्षम् ॥ ११९ ॥ पर्यायाऽर्हर्णेात्पत्तौ च णकः । ५ । ३ । १२० । एष्वर्थेषु प्रश्नाऽऽख्यानयोश्च गम्ययोः स्त्रियां भावाकर्धातोर्णकः स्यात् । भवतः आसिका, भवतः शायिका, अर्हसि त्वभिक्षुभक्षिकाम, क्षणे इक्षुभक्षिकां मे धारयसि, इक्षुभक्षिका उदपादि, कां कारिकाम कार्षीः ? सर्वा कारिकामकार्षम् ॥ १२० ॥ नाम्नि पुंसि च । ५ । ३ । १२१ ॥ धातोः परो भावाकर्त्रीः स्त्रियां संज्ञायां णकः Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३५] स्यात् , यथालश्यं पुंसि च । प्रच्छईिका, शालभलिका, अरोचकः ॥ १२१ ॥ भावे ।५।३ । १२२। धात्वर्थनिर्देशे स्त्रियां धातोर्णकः स्यात् । शायिका ॥ १२२ ॥ क्लीबे क्तः । ५। ३ । १२३ । नपुंसके भावे धातोः क्तः स्यात् । हसितं तव । क्लीवे इति किम् ? हासः ॥ १२३ ॥ अनद । ५। ३। १२४ । क्लीवे भावेऽर्थे धातोरनट् स्यात्। गमनम् ॥१२४॥ यत्कर्मस्पर्शात् कर्बङ्गसुखं ततः । ५। ३ । १२५ । येन कर्मणा संस्पृष्टस्य कर्तुरङ्गस्य सुखं स्यात् ततः पराद् धातोः क्लीवे भावेऽनट् स्यात् । पयःपानं सुखम् । कर्मेति किम् ? तूलिकाया उत्थानं सुरवम् । स्पर्शादिति किम् ? अग्निकुण्डस्योपासनं सुखम् । कत्रिति किम् ? शिष्यण गुरोः स्थापनं सुखम् । अङ्गेति किम् ? पुत्रस्य परिष्वञ्जनं सुखम् । सुखमिति किम् ? कण्टकानां मर्दनम् । नित्य‘समासार्थमिदम् ।। १२५॥ रम्यादिभ्यः कर्तरि ५।३। १२६ । एभ्यः कर्तरि अनट् स्यात् । रमणी, कमनी ॥१२६॥ कारणम् ।५।३। १२७ । कृगः कर्तर्यनट, वृद्धिश्च स्यात् । कारणम् ॥१२७॥ १ पबसः पीति, पयःपानम् । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७६] हैमशब्दानुशासनस्य भुजि-पत्यादिभ्यः कर्माऽपादाने । ५। ३ । १२८ । - भुज्यादेः कर्मणि, पत्यादेश्चापादानेऽनट् स्यात् । भोजनम्, निरदनम्, प्रपतनः, अपादानम् ॥ १२८ ॥ करणाऽऽधारे । ५। ३ । १२९॥ अनयोरर्थयोर्धातोरनेट् स्याद् । एषणी, सक्तुधानी ॥१२९ ॥ पुन्नाम्नि घः । ५।३। १३० । पुंसः संज्ञायां गम्यायां धातोः करणाऽऽधारयोर्घः स्यात् । दन्तच्छदः, आकरः । पुमिति किम् ? विचयनी। नाम्नीति किम् ? प्रहरणो दण्डः ॥ १३०॥ गोचर-संचर वह-व्रज-व्यज-खलाऽऽपण-निगम-बकभगकषाऽऽकष-निकषम् । ५।३ । १३१ । एते करणाऽऽधारयोः पुन्नाम्नि घान्ता निपात्यन्ते । गोचरः, संचरः, वहः, व्रजः, व्यजा, खलः, आपणः, निगमः, बकः । बाहुलकात् कर्तरि भगः, बाहुलकाद् भगम्, कषः, आकषः, निकषः ॥ १३१ ॥ व्यञ्जनाद् घम् । ५।३ । १३२ । व्यञ्जनान्ताद्धातोः पुन्नाम्नि करणाऽऽधारयोर्घञ् स्यात् । वेदः ॥ १३२ ॥ अवात् तृ-स्तृभ्याम् । ५।३ । १३३॥ आभ्यामवपूर्वाभ्यां करणाऽऽधारयोः पुनानि घञ् स्यात् । अवतारः, अवस्तारः॥ १३३॥ १ भुज्यते इति भोजनम् । प्रपतत्यस्मादित्यपादाने प्रपतनः। २ घआदिवाधकमिदम् । इष्यते ऽनयति एषणी। सक्तुर्थीयतेऽस्यामिल्याधारे। ३ भज्यतेऽनेनास्मिन्निति वा भगः । भगमित्यत्र क्लीबे घः । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३७७] - न्यायाऽवायाऽध्यायोद्याव-संहाराऽवहाराऽऽधार-दार जारम् । ५ । ३ । १३४ । एते पुन्नाम्नि करणाऽऽधारयोर्घजन्ता निपात्यन्ते । न्यायः, अवायः, अध्यायः, उद्यावः, संहारः, अवहारः, आधारः, दाराः, जारः ॥ १३४ ॥ उदकोऽतोये । ५ । ३ । १३५। उत्पूर्वादञ्चेः पुन्नाम्नि करणाऽऽधारयोर्घञ् स्यात् , न चेत् तोयविषयो धात्वर्थः । तैलोदैङ्कः। अतोय इति किम् ? उदकोदश्चनः ॥ १३५ ॥ आनायो जालम् । ५। ३ । १३६। आपूर्वात् नियः करणाऽऽधारे पुन्नाम्नि जालेऽर्थे घब् स्यात् । अनायो मत्स्यानाम् ॥ १३६ ॥ खनोंड-डर-इक-इकवक-धं च । ५।३।१३७। खनेः पुन्नाम्नि करणाऽऽधारयोरेते घञ् च स्युः। आखः, आखरः, आखनिकः, आखनिकवका, आखनः, आखानः ॥ १३७॥ इ-कि-श्तिव स्वरूपाऽर्थे । ५। ३ ॥१३८ धातोः स्वरूपेऽर्थे च वाच्ये एते स्युः। भञ्जिः, क्रुधिः, वेत्तिः । अर्थे, यजेरङ्गानि, भुजिः क्रियते, पचतिः परिवर्तते ॥१३८ ॥ १ दाराशब्दः स्त्रीवाचकः पुंसि बहुवचने च प्रयुज्यते । “भूम्नि दारप्राणासुवल्वजाः" इत्युक्तेः । २ तैलमुदच्यतेऽनेनेति, "व्यञ्जनाद् घञ्" इति सिद्धे तोये बाधमार्थमिदं सूत्रितम् । समानरूपत्वात् “पुन्नाम्नि घः, इति घप्रत्ययोऽपि न स्यात् । ३ डकारोऽन्लोपार्थः। चाद् घन, वित्त्वाद् वृद्धिः । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७८] हैमशब्दानुशासनस्य दुर-स्वीपतः कृच्छ्राकृड्रार्थात् खल् । ५ । ३ । १३९ । कृच्छ्रवृत्ते?रोऽर्थात् , अकृच्छ्रवृत्तिभ्यां च स्वीपद्भयां पराद्धातोः खल् स्यात् । दुःशयम् , दुष्करः, सुशयम् , सुकरा, ईपच्छयम् , ईषत्करः । कृच्छ्रार्थ इति किम् ? ईषल्लभ्यं धनम् ॥ १३९ ॥ च्व्यर्थे क प्याद् भू-कृगः । ५। ३ । १४०। कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेभ्यो दुःस्वीषद्भ्यः पराभ्यां व्यर्थवृत्तिकर्तृकर्मवाचिभ्यां यथासङ्ख्यं भूकृग्भ्यां परः खल् स्यात् । दुराढयंभवम् , स्वायंभवम्, ईषदाढ्यंभवं भवता, दुराख्यंकरः, स्वायंकरः, ईषंदाढयंकरश्चैत्रस्त्वया । व्यर्थ इति किम् ? दुराढथेन भूयते ॥ १४० ॥ शासू-युधि-दृशि-धृषि-मृषातोऽनः । ५।३ । १४१ । कृच्छाकृच्छ्रार्थदुःस्वीषत्पूर्वेभ्य एभ्यः, आदन्ताच धातोरनः स्यात् । दुःशासनः, सुशासनः, ईषच्छासनः, एवं दुर्योधनः, सुयोधनः, ईषद्योधनः, दुर्दर्शनः, दुर्धर्षणः, दुर्मर्षणः, दुरुत्थानम् ॥ १४१॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ पञ्चमस्याध्यायस्य ___ तृतीयः पादः समाप्तः ॥ ५। ३॥ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७९) स्वोपज्ञलघुवृत्तिः ॥ चतुर्थः पादः॥ सत्सामीप्ये सद्धत् वा। ५।४।१।। समीपमेव सामीप्यम् । वर्तमानस्य सामीप्ये भूते भवित ष्यति चार्थे वर्तमानाद्धातोर्वर्त्तमाना इव प्रत्यया वास्युः। कदा चैत्र ! आगतोऽसि ? अयमागच्छामि, आगच्छन्तमेव मां विद्धि । पक्षे, अयमागमम्, एषोऽस्म्यागतः, कदा चैत्र ! गमिष्यास ? एष गच्छामि, गच्छन्तमेव मां विद्धि । पक्षे, एष गमिष्यामि, गन्ताऽस्मि, गमिष्यन्तमेव मा विद्धि ॥१॥ भूतवत् चाऽऽशंस्ये वा।५।४।२। अनागतस्यार्थस्य प्राप्तुमिच्छा आशंसा, तद्विषय आशंस्यः । तदर्थाद्धातोभूतवत् सद्वच्च प्रत्यया वा स्युः। उपाध्यायश्चेदागमत् एते तर्कमध्यगीष्महि, उपाध्यायः श्रेदागच्छति, एते तर्कमधीमहे । पक्षे, उपाध्यायश्चेदागमिष्यन्ति, आगन्तावा,एते तर्कमध्येष्यामहे,अध्येतास्महे वा। आशंस्य इति किम् ? उपाध्याय आगमिष्यति, तर्कमध्येष्यते मैत्रः ॥ २ ॥ क्षिप्राऽऽशंसाऽर्थयोर्भविष्यन्ती-सप्त ___ म्यौ । ५। ४।३। क्षिप्रार्थाऽऽशंसायोरुपपदयोराशंस्यार्थाद् धातोर्यः थासङ्ख्यं भविष्यन्तीसप्तम्यौ स्याताम् । उपाध्यायश्चेक्षा गच्छति, आगमत् , आगमिष्यति, आगन्ता क्षिपमाशु एते सिद्धान्तमध्येष्यामहे, उपाध्यायश्चेदागच्छति, आगमका Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [३८०] हैमशब्दानुशासनस्य आगमिष्यति, आगन्ता वा आशंसे संभावये युक्तोऽधीयीय ॥३॥ सम्भावने सिद्धवत् । ५। ४।४। हेतोः शक्तिश्रद्धानं सम्भावनम् , तस्मिन् विषयेऽसिद्धेऽपि वस्तुनि सिद्धवत् प्रत्ययाः स्युः।समये चेत्प्रयनोऽभूद् उदभूवन विभूतयः ॥ ४ ॥ 'नाऽनद्यतनः प्रबन्धाऽऽसत्त्योः । ५। ४ । ५ । धात्वर्थस्य प्रबन्धे आसत्तौ च गम्यायां धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात् । यावज्जीवं भृशमन्नमदात् , दास्यति वा, येयं पौर्णमास्यतिक्रान्ता एतस्यां जिनमहः प्रावर्तिष्ट, येयं पौर्णमास्यागामिन्येतस्यां जिनमहः प्रवतिष्यते ॥५॥ - एष्यत्यवधौ देशस्याग्भिागे। ५। ४ । ६ । देशस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे देशस्यैवार्वाग्भागे य एष्यन्नर्थः तद्वृत्तातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात् । योऽयमध्वा गन्तव्य आ शत्रुञ्जयात्,तस्य यद्वरं वलम्या. स्तत्र द्विरोदनं भोत्यामहे । एष्यतीति किम् ? योऽयमध्वा अतिक्रान्त आ शत्रुञ्जयात्, तस्य यदवरं वलभ्यास्तत्र युक्ताद् द्विरध्यैमहि । अवधाविति किम् ? योऽयमध्वा निरवधिको गन्तव्यः, तस्य यदवरं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे । अर्वाग्भाग इति किम् ? योऽयमध्वा गन्तव्य आ शत्रुञ्जयात् , तस्य यत् परं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे ॥६॥ १ अनेन भूतानद्यतने यस्तनी, भविष्यदनद्यतने च श्वस्तनी पूर्व विहिते ते बाधिते भवतः । जिनमहो जिनोत्सवः । मह उत्सवे । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वौपज्ञलघुवृत्तिः [३८१] : कालस्याऽनहोरात्राणाम् । ५।४।७। कालस्य योऽवधिःतद्वाचिन्युपपदे कालस्यैवार्वाग्भागे यएष्यन्नर्थस्तवृत्तेर्धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात्, न चेत् सोर्वाग्भागोऽहोरात्राणाम् । योऽयमागामी संवत्सरः, तस्य यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र जिनपूजां करिष्यामः। अनहोरात्राणामिति किम् ? योऽयं मास आगामी, तस्य योऽवरः पश्चदशरात्रस्तत्र युक्ताद् द्विरध्येतास्महे ॥७॥ परे वा । ५।४।८। कालस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे, कालस्यैव परेभागेऽनहोरात्रसम्बन्धिनि य एष्यन्नर्थस्तवृत्तेर्धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो वा न स्यात् । आगामिनो वत्सरस्याऽऽग्रहायण्याः परस्ताद् द्विः सूत्रमध्येष्यामहे, अध्येतास्महे वा ॥८॥ सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तौ क्रियाति-पत्तिः पर १ सप्तम्या अर्थो निमित्तं हेतुफलकथनादिसामग्री कुतश्विद् वैगुण्यात् क्रियाया अनभिनिवृत्तौ क्रियातिपत्तो सत्यामेष्यदर्थाद् धातोः सप्तम्यर्थे क्रियाऽतिपत्तिः स्यात् । दक्षिणेन चेद् अयास्यत् न शकटं पर्या भविष्यत् ॥९॥ भृते । ५। ४ । १०। भूतार्थाद्धातोःक्रियाऽतिपत्तौ सत्यां सप्तम्यर्थे क्रियाऽतिपत्तिः स्यात्। दृष्टो मया तव पुत्रोऽन्नार्थी चक्रम्यमाणः, अपरश्चातिथ्यर्थी, यदि स तेन दृष्टोऽभविष्यदुताभोक्ष्यत, अप्यभोक्ष्यत ॥ १०॥ .. Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - [३८१] हेमशब्दानुशासनस्य वोतात् प्राक् । ५।४ । ११ । .. "सप्तम्युताऽप्योर्बाढे" (५-४-२१) इत्यत्र यदुतशब्दसंकीर्तनं ततःप्राक् सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तो भूतार्थाद्धातोर्वा क्रियाऽतिपत्तिः स्यात् । कथं नाम संयतः सन्ननागाढे तत्रभवान् आधायकृतमसेविष्यत, धिग् गर्हामहे । पक्षे, कथं सेवेत ? कथं सेवते ? धिग् गर्हामहे । उतात प्रागिति किम् ? कालो यदभोक्ष्यत भवान् ॥ ११ ॥ क्षेपेऽपि-जावोर्वर्तमाना । ५। ४ । १२। क्षेपे गम्येऽपिजात्वोरुपपदयोर्धातोर्वर्तमाना स्यात् । अपि तत्रभवान् जन्तून् हिनस्ति ? जातु तत्रभवान् भू- . तानि हिनस्ति ? धिग् गर्हामहे ॥ १२ ॥ कथमि सप्तमी च वा। ५।४ । १३ । - कथं शब्दे उपपदे क्षेपे गम्ये धातोः सप्तमी वर्तमाना च वा स्यात् । कथं नाम तत्र भवान् मांस भक्षयेत्? भक्ष. यति वा?, गर्हामहे अन्याय्यमेतत् । पक्षे, अबभक्षत्, अभक्षयत्, भक्षयाञ्चकार, भक्षयिता, भक्षयिष्यति । अत्र सप्तमी निमित्तमस्तीति भूते क्रियाऽतिपतने वा क्रियाsतिपत्तिः । कथं नाम तत्रभवान् मांसमभक्षयिष्यत् ।। पक्षे, यथाप्राप्तम् । भविष्यति तु क्रियातिपतने नित्यमेव सा । कथं नाम तत्रभवान् मांसमभक्षयिष्यत् ॥ १३ ॥ किंवृत्ते सप्तमी-भविष्यन्त्यौ । ५ । ४ । १४ । किंवृत्ते उपपदे क्षेपे गम्ये धातोः सप्तमीभविष्यन्त्यौ स्याताम् । किं तत्रभवाननृतं ब्रूयाद्, वक्ष्यति वा ?, को , अत्रभवत् तत्रभवच्छन्दौ पूज्यवाचको स्तः । भवच्छब्दवदनयोरूपविधिः, अन्यस्मिन्नर्थकं तिवादिप्रत्ययत्रयं च भवति । अपिः प्रश्नेऽत्र । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३८३] नाम, कतरो नाम, कतमो नाम यस्मै सत्रभवान् अनृतं ब्रूयाद्, वक्ष्यति वा ? ॥ १४ ॥ अश्रद्धाऽमर्षेऽन्यत्रापि । ५। ४ । १५ । अकिंवृत्ते किंवृत्ते चोपपदे अश्रद्धाऽमर्षयोर्गम्ययोः सप्तमीभविष्यन्त्यो स्याताम् । न श्रद्दधे, न सम्भावयामि तत्रभवान् नामाऽदत्तं गृह्णीयात् , ग्रहीष्यति वा, न श्रद्दधे किं तत्रभवान् अदत्तमाददीत, आदास्यते वा ?, न मर्षयामि, नक्षमे तत्रभवान् नामादत्तं गृह्णीयात् , ग्रहीष्यति वा॥१५॥ किंकिलाऽस्त्यर्थयोर्भविष्यन्ती । ५ । ४ । १६ । किंकिलेऽस्त्यर्थे चोपापदेऽश्रद्धाऽमर्षयोर्गम्ययोभविष्यन्ती स्यात् । न श्रद्दधे, न मर्षयामि किंकिल नाम तत्रभवान् परदारानुपकरिष्यते, न श्रद्दधे, न मर्षयामि अस्ति नाम भवति, नाम तत्रभवान् परदारानुपकरिष्यते ॥ १६ ॥ जातु-यद्-यदा-यदौ सप्तमी। ५। ४ । १७ । ___ एखूपपदेवश्रद्धामर्षयोः सप्तमी स्यात् । न श्रहधे, न क्षमे जातु तत्रभवान सुरां पिवेत् , एवं यत् , यदा, यदि सुरां पिबेत् ॥ १७ ॥ क्षेपे च यच्च-यो। ५ । ४ । १८ । यञ्चयत्रयोरुपपदयोः क्षेपेऽश्रद्धामर्षयोच गम्ययो सप्तमी स्यात् । धिग् गर्हामहे यच्च यत्र वा तत्रभवानस्मान आक्रोशेत्, न श्रधे, न क्षमे यच्च यत्र वा तत्रभवान् परिवादं कथयेत् ॥ १८ ॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८४] हैमशब्दानुशासनस्य . चित्रे। ५। ४ । १९ । आश्चर्ये गम्ये यच्चयत्रयोरुपपदयोः सप्तमी स्यात् । चित्रमाश्चर्य यच यत्र वा तत्रभवान् अकल्प्यं सेवेत ॥१९॥ शेषे भविष्यन्ती, अयदौ ।५।४।२०। यच्चयत्राभ्यामन्यस्मिन्नुपपदे चित्रे गम्ये भविष्यन्ती स्यात् , न तु यदिशब्दे । चित्रमाश्चर्यमन्धो नाम गिरिमारोक्ष्यति । शेष इति किम् ? यच्चयत्रयोः पूर्वेण सप्तम्येव । अयदाविति किम् ? चित्रं यदि स भुञ्जीत ॥ २० ॥ सप्तम्युताऽप्योर्बाढे । ५। ४ । २१ । __ बाढार्थयोरुताप्योरुपपदयोः सप्तमी स्यात्। उत अपि वा कुर्यात् । बाढे इति किम् ? उत दण्डः पतिष्यति, अपि धास्यति द्वारम् ॥ २१॥ - सम्भावनेऽलमर्थे तदर्थानुक्तौ । ५।४।२२। अलमोऽर्थे शक्तौ यत् सम्भावनं, तस्मिन् गम्येऽलमर्थार्थस्याऽप्रयोगे सप्तमी स्यात् । अपि मासमुपवसेत् । अलमर्थ इति किम् ? निदेशस्थायी मे चैत्रः प्रायेण यास्यति । तदर्थानुक्ताविति किम् ? शक्तश्चत्रो धर्म करिष्यति ॥२२॥ ___ अयदि श्रद्धाधातौ नवा । ५। ४ । २३ । संभावनाऽर्थे धातावुपपदेऽलमर्थविषये संभावने गम्ये सप्तमी वा स्यात्, न तु यच्छन्दे । श्रद्दधे, संभावयामि भुञ्जीत भवान् । पक्षे, भोक्ष्यते, अभुङ्क्त, अभुक्त वा। अयदीति किम् ? सम्भावयामि यद् भुञ्जीत भवान् । श्रद्धाधाताविति किम् १ अपि शिरसा पर्वतं भिन्द्यात् ॥ २३ ॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपडलघुतिः [३८५] सतीच्छाऽर्थात् । ५ । ४ । २४ । सदादिच्छार्थात् सप्तमी वा स्यात् । इच्छेत् , इच्छति ॥ २४ ॥ वर्त्यति हेतु-फले । ५। ४ । २५ । हेतुभूते फलभूते च वत्स्य॑त्यर्थे वर्तमानात् सप्तमी वा स्यात् । यदि गुरूनुपासीत शास्त्रान्तं गच्छेत् , यदि गुस्नुपासिष्यते शास्त्रान्तं सङ्गमिष्यते । वय॑तीति किम् ? दक्षिणेन चेद् याति न शकटं पर्याभवति ॥ २५ ॥ कामोक्तावकचिति । ५। ४ । २६। इच्छाप्रवेदनगम्ये सप्तमी स्यात् , न तुकश्चित्प्रयोग। कामो मे भुञ्जीत भवान् । अकचितीति किम् ? कश्चित् जीवति मे माता ? ॥ २६ ॥ इच्छाऽर्थे सप्तमी-पञ्चम्या । ५।४।२७) इच्छाऽर्थे धातावुपपदे कामोक्तो गम्यायां सप्तमी पञ्चम्यौ स्याताम् । इच्छामि भुञ्जीत, भुतां वा भवान् ॥२७॥ विधि-निमन्त्रणाऽऽमन्त्रणाऽधीष्ट-सम्प्रश्न प्रार्थने । ५। ४ । २८ । विध्यादिविशिष्टेषु कतृकर्मभावेषु प्रत्ययार्थेषु सप्तमीपञ्चम्यो स्याताम् । विधिः क्रियायां प्रेरणा । कर कुर्यात् , करोतु भवान्। प्रेरणायामेव यस्यां प्रत्याख्याने प्रत्यवायस्तनिमन्त्रणम् । द्विसन्ध्यमावश्यकं कुर्यात् , अवश्यं कर्तुमर्हमावश्यकम् , साम्प्रतं तु योगरूढितः प्रतिक्रमणशब्द प्रसिद्धं श्रावकसाधूनां सन्ध्येत्यर्थः। तच्च सामायिकादिमेदैः षोढा । विशेषस्तु आवश्यकवृत्तौ विशेषावश्यकभाष्यादौ च द्रष्टव्यः। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८६] हेमशब्दानुशासनस्य करोतु। यत्र प्रेरणायामेव प्रत्याख्याने कामचारस्तदामन्त्रणम् । इहासीत, आस्ताम् । प्रेरणैव सत्कारपूर्विका अधीष्टम्। व्रतं रक्षेत्, रक्षतु। संप्रश्नः संप्रधारणा। किं नु खलु भो! व्याकरणमधीपीय, अध्ययै, उत सिद्धान्तमधीयीय, अध्ययै १। प्रार्थनं याचा । प्रार्थना मे तर्कमधीयीय, अध्ययै ॥२८॥ प्रैषाऽनुज्ञाऽवसरे कृत्य-पञ्चम्यौ । ५। ४ । २९ । प्रैषादिविशिष्टे कर्नादावर्थे कृत्याः पञ्चमी च स्युः । न्यत्कारपूर्विका प्रेरणा प्रैषः। भवता खलु कटः कार्यः, भवान् कटं करोतु, भवान् हि.प्रेषितः अनुज्ञातः, भवतोऽवसरः कटकरणे ॥ २९॥. . सप्तमी चोर्ध्वमौहर्तिके । ५। ४ । ३० । प्रैषादिषु गम्येषु ऊर्ध्वमौहर्तिकेऽर्थे वर्तमानात् सप्तमी, कृत्यपञ्चम्यौ च स्युः। ऊर्ध्व मुहूर्तात् कटं कुर्यात् भवान् , भवता कटः कार्यः, कटं करोतु भवान् , भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातः, भवतोऽवसरः कटकरणे ॥३०॥ स्मे पञ्चमी । ५। ४ । ३१ । स्मे उपपदे प्रैषादिषु गम्येषु ऊर्ध्वमौहूर्तिकार्थाद् धातोः पञ्चमी स्यात्।ऊर्व मुहूर्ताद् भवान् कटं करोतु स्म, भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातः, भवतोऽवसरः कटकरणे ॥ ३१॥ अधीष्टौ । ५। ४ । ३२ । स्मे उपपदेऽध्येषणायां गम्यायां पञ्चमी स्यात् । अङ्ग ! स्म विद्वन् ! अणुव्रतानि रक्ष ॥ ३२ ॥ १ अहिंसासत्यादिनामानि जैनश्रावकाणां देशतः पालनीयानि पञ्च. प्रतानि । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३८७] . काल-वेला-समये तुम्वाऽवसरे । ५। ४ । ३३ । एषूपपदेष्ववसरे गम्ये धातोस्तुम् वा स्यात् । कालो भोक्तुम् , वेला भोक्तुम्, समयो भोक्तुम् । पक्षे, कालो भोक्तव्यस्य । अवसर इति किम् ? कालः पर्चात भूतानि ॥ ३३॥ सप्तमी यदि । ५। ४ । ३४ । यच्छब्दप्रयोगे कालादिषूपपदेषु सप्तमी स्यात् । कालो यदधीयीत भवान, वेला यद् भुजीत, समयो यत् शयीत ॥ शक्तार्हे कृत्याश्च । ५। ४ । ३५। - शक्तेऽ] च कर्तरि गम्ये कृत्याः सप्तमी च स्युः। भवता खलु भारो वाह्यः, उद्येत, भवान् भारं वहेत्, भवान् हि शक्तः, भवता खलु कन्या वोढव्या, उद्येत, भवान् खलु कन्यां वहेत् , भवानेतदर्हति ॥ ३५ ॥ णिन् चाऽऽवश्यकाऽधमये । ५।४।३६। अनयोर्गम्ययोः कर्तरि वाच्ये णिन् कृत्याश्च स्युः, अवश्यंकारी, अवश्यंहारी, अवश्यं गेयो गीतस्य, शतं दायी, गेयो गाथानाम् ॥३६ ॥ _ अर्हे तृच । ५। ४ । ३७। • अहे कर्तरि वाच्ये तृञ् स्यात् । भवान् कन्याया वोढा ॥३७॥ आशिष्याशी-पञ्चम्यौ । ५।४ । ३८ । आशीविशिष्टार्थादाशीःपञ्चम्यौ स्याताम् । जीयात् , जयतात् । आशिषीति किम् ? चिरं जीवति मैत्रः ॥३८॥ मायद्यतनी । ५। ४ । ३९ । माडि उपपदेऽद्यतनी स्यात् । मा कार्षीत् ॥३९ ।। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८८] हैमशब्दानुशासनस्य सस्मे ह्यस्तनी च । ५।४।१०। स्मयुक्ते माङ्युपपदे ह्यस्तन्यद्यतनी चस्यात् । मा स्म करोत् , मा स्म कार्षीत् ॥ ४० ॥ धातोः सम्बन्धे प्रत्ययाः। ५। ४ । ४१ । . धात्वर्थानां संबन्धेविशेषणविशेष्यभावे सतिअयथाकालमपि प्रत्ययाः साधवः स्युः । विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो भविता, भावि कृत्यमासीत् , गोमानासीत् ॥४१॥ भृशाऽऽभीक्ष्ण्ये हि-स्वा यथाविधि त-ध्वमौ च ताष्मदि। ५। ४ । ४२ । मृशाऽऽभीषण्ये सर्वकालेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः सर्वविभक्तिवचनविषये हिस्वौ स्याताम् , यथाविधि धातोः संबन्धे, यत एव धातोर्यस्मिन्नेव कारके हिस्वौ तस्यैव धातोस्तस्कारकविशिष्टस्यैव सम्बन्धे अनुप्रयोगे सति, तथा पञ्चम्याएव तध्वमौ , तयोः सम्बन्धिनि बहुत्वविशिष्टे युष्मद्यर्थे हिस्वौ च स्यातां यथाविधि धातोः सम्बन्धे । लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनातीत्यादि, अधीष्वाधीष्वेत्ये. काममधीते इत्यादि, लुनीत लुनीतेत्येवं यूयं लुनीथ, लुनीहि लुनीहीत्येवं यूयं लुनीथ, अधीध्वमधीध्वमित्येवं यूयमधीध्वे, अधीष्वाधीष्वेत्येवं यूयमधीध्वे । यथाविधीति किम् ? लुनीही लुनीहीत्येवायं लुनाति, छिनत्ति, लूयते वेति धातोः संबन्धे मा भूत् ।। ४२ ॥ , “अष्ट धातोरादि..." इत्यत्र 'अमाअ, इत्युक्तत्वात् माङि नाट् स्यात् । १ अत्र विश्वचा आसीत् इत्यत्र भूतकालः, भविता भावीति म भविष्यत् । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __.. स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३८९] · प्रचये नवा सामान्यार्थस्य । ५ । ४ । ४३ । __ धात्वर्थानां समुच्चये गम्ये सामान्यार्थस्य धातोः सम्बन्धे सति धातोः परौ हिस्वी तध्वमौ च तद्युष्मदि वा स्याताम् । व्रीहीन वप लुनीहि पुनीहि इत्येवं यतते, यत्यते वा । पक्षे, बीहीन वपति लुनाति पुनाति इत्येवं यतते, यत्यते वा, सूत्रमधीष्व नियुक्तिमधीष्व भाष्यमधीष्वेत्येवमधीते, पठ्यते वा। पक्षे, सूत्रमधीते नियुक्ति मधीते भाष्यमधीते इत्येवमधीते, पठयते वा, व्रीहीन वपत लुनीत पुनीतेत्येवं यतध्वे, व्रीहीन वप लुनीहि पुनीहीत्येवं चेष्टध्वे । पक्षे, व्रीहीन वपथ लुनीथ पुनीथेत्येवं यतध्वे, सूत्रमधीष्व नियुक्तिमधीष्व भाष्यमधीध्वमित्येवमधीध्वे, सूत्रमधीष्व नियुक्तिमधीष्व भाष्यमधीष्वेत्येवमधीध्वे । पक्षे, सूत्रमधीध्वे नियुक्तिमधीध्वे भाष्यमधीध्वे इत्येवमधीध्वे । सामान्यार्थस्येति किम् ? व्रीहीन वप लुनीहि पुनीहि इत्येवं बपति लुनाति पुनातीति मा भूत् ।। ४३ ॥ निषेधेऽलं-खल्वोः क्त्वा । ५ । ४।४४। - निषेधार्थयोरलंखल्वोरुपपदयोर्धातोः क्त्वा वा स्यात्। अलंकृत्वा, खलुकृत्वा । पक्षे, अलं रुदितेन ॥ ४४ ॥ परावरे । ५।४ । १५ । परे अवरे च गम्ये क्त्वा वा स्यात्। अतिक्रम्य नदी गिरिः, अप्राप्य नदी गिरिः । नद्यतिक्रमणे गिरिः, नद्यमाप्त्या गिरिः॥४५॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९०] हैमशब्दानुशासनस्य निमील्याऽदि-मेङस्तुल्यकर्तृके । ५ । ४ । ४६। तुल्यो धात्वर्थान्तरेण कर्ता यस्य तवृत्तिभ्यो निमील्यादिभ्यः, मेडश्च धातोः सम्बन्धे क्त्वा वा स्यात् । अक्षिणी निमील्य हसति, मुखं व्यादाय स्वपिति, अपमित्य याचते । पक्षे, अपमातुं याचते । तुल्यकर्तृक इति किम् ? चैत्रस्याक्षिनिमीलने मैत्रो हसति ॥ ४६ ॥ प्राक्काले । ५। ४ । ४७। परकालेन धात्वर्थेन तुल्यकर्तृके प्राकालेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः सम्बन्धे त्तवा वा स्यात् । आसित्वा भुक्ते, आ. स्यते भोक्तुम् । प्राकाल इति किम् ? भुज्यते, पीयते वा ॥४७॥ ख्णम् चाऽऽभीषण्ये । ५ । ४ । ४८ । ... आभीक्ष्ण्ये परकालेन तुल्यकर्तृके प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानाद्धातोः सम्बन्धे रुणम् , क्त्वा च स्यात् । भोज भोज याति, भुत्त्वा भुक्त्वा याति ॥ ४८॥ , पूर्वाऽग्रे-प्रथमे । ५। ४ । ४९। एखूपपदेषु परकालेन तुल्यकर्तृके प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानाद्धातोः सम्बन्धे रुणम् वा स्यात् । पूर्व भोज याति, पूर्व भुक्त्वा याति । एवमग्रे भोजम् , अग्रे भुक्त्वा । प्रथम भोजम् , प्रथमं भुक्त्वा । पूर्व भुज्यते ततो याति ॥४९॥ 'अन्यथैवं कथमित्थमः कृगोऽनर्थ कात् एभ्यः परात् तुल्यकर्तृकार्थात् कृगोऽनर्थकाद् धातोः १ अन्यथाकारमित्यत्र कृगोऽर्थो नास्ति, किन्त्वन्यथेत्येवार्थः । एवमन्यत्राऽपि एवंकारादिषु। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३९१] सम्बन्धे रुणम् वास्यात् । अन्यथाकारम्, एवङ्कारम्, कथङ्कारम्, इत्थङ्कारं भुक्ते । पक्षे, अन्यथा कृत्वा । अनर्थकादिति किम् ? अन्यथा कृत्वा शिरो भुङ्क्ते ॥ ५० ॥ यथा-तथाद् ईर्योत्तरे। ५। ४ । ५१। आभ्यां तुल्यकर्तृकार्थादनर्थकात् कृगोधातोः सम्बन्धे रुणम् वा स्यात् , ईय॑श्चेदुत्तरयति । कथं त्वं भोक्ष्यसे ? इति पृष्टोऽसूयया तं प्रत्याह-यथाकारमहं भोक्ष्ये तथाकारमहं भोक्ष्ये किं तवानेन ?। ईर्योत्तर इति किम् ? यथाकृत्वाऽहं भोक्ष्ये तथा द्रक्ष्यसि ॥५१॥ शापे व्याप्यात् । ५। ४ । ५२ । कर्मणः परात् तुस्यकर्तृकार्थात् कृगो धातोः सम्बन्ध रुणम् वा स्यात् , आक्रोशे गम्ये । चोरङ्कारमाक्रोशति शाप इति किम् ? चोरं कृत्वा हेतुभिः कथयति ॥५२॥ स्वादर्थाद अदीर्घात् । ५। ४ । ५३। __स्वार्थाददीर्घान्ताद् व्याप्यात् परात् तुल्यकर्तृकार्थात् कृगो धातोः सम्बन्धे ख्णम् वा स्यात् । स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते, मिष्टङ्कारं भुङ्क्ते । पक्षे, खादं कृत्वा । अदीर्घादिति किम् ? स्वाद्वी कृत्वा यवागू भुङ्क्ते ॥ ५३ ॥ विद्-दृग्भ्यः कात्स्न्ये णम् । ५। ४ । ५४ । कात्स्य॑वतोव्याप्यात् परेभ्यस्तुल्यकर्तृके प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानेभ्यो विदिभ्यो दृशश्च धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । अतिथिवेदं भोजयति, कन्यादर्श वरयति । कायं इति किन ? अतिथिं विदित्वा भोजयति ॥ ५४॥ १ बहुवचनाद् विद्यतिवर्जाः सर्वेऽपि विदो धातवो ग्राह्याः । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दानुशासनस्य A (३९२] हेमशब्दानुशासनस्य यावतो विन्द-जीवः । ५।४। ५५ । कात्यवतो व्याच्या यावतः पराभ्यां तुल्यकर्तृकाम्यां विन्दतिजीविभ्यां धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । यावद्वेदं भुङ्क्ते, यावज्जीवमधीते ॥ ५५ ॥ चर्मोदरात् पूरेः। ५। ४ । ५६ । आभ्यां व्याप्याभ्यां परात् तुल्यकर्तृकार्थात् पूरयते. धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । चर्मपूरमास्ते, उदरपूरं शेते ॥ ५६ ॥ वृष्टिमोने ऊलुक् चास्य वा । ५। १।५७। व्याप्यात् परात् पूरयतेर्धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् , पूरयतेस्तेलुक् च वा, समुदायेन चेद् वृष्टीयत्ता गम्यते। गोष्पदप्रम्, गोष्पदपूरं वृष्टो मेघः ।। ५७ ॥ . चेलार्थात् क्नोपेः ।५।४। ५८।। चेलार्थाद् व्याप्यात् परात् क्रोपपयतेस्तुल्यकर्तृकार्थाद् वृष्टिमाने गम्ये धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । चेलनोपं वृष्टो मेघः ॥ ५८॥ गात्र-पुरुषात् स्नः। ५। ४ । ५९ । - आभ्यां व्याप्याभ्यां परात तुल्यकर्तृकार्थात्स्नातेवृष्टिमाने गम्ये धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । गात्रस्नायं वृष्टः, पुरुषस्नायं वृष्टः ॥ ५९॥ शुष्क-चूर्ण-रूक्षात् पिषस्तस्यैव ।५।४।६०। एभ्यो व्याप्येभ्यः परात् पिपेर्णम् वास्यात् , तस्यैव धातोः सम्बन्धे । शुष्कपेषं पिनष्टि, एवं चूर्णपेषम् , रूक्षपेपम् १ पूरयतेधातोः । यावता जलेन गोष्पदं पूर्यते तावद् बष्टो मेघ इत्यर्थः । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३९३] कृग्-ग्रहोऽकृत-जावात् ।५।४।६१। आभ्यां व्याप्याभ्यां पराद् यथासङ्ख्यं कृगो ग्रहेश्व तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । अकृनकारं करोति, जीवग्राहं गृह्णाति ॥ ६१ ॥ निमूलात् कषः । ५।४ । ६२ । निमूला व्याप्यात् परात् कषेस्तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । निमूल काषं काति, निमूलस्य कार्य कषति ॥६२॥ हनश्च समूलात् । ५। ४ । ६३ । समूला व्याप्यात् परात् हन्तेः कषेश्च तस्यैव सम्बन्धे णम्बा स्यात् । समूलघातं हन्ति, समूलकाषं कषति॥६३॥ करणेभ्यः । ५। ४ । ६४ । करणार्थात् पराद् हन्तेस्तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । पाणिघातं कुड्यमाहन्ति ॥ ६४ ॥ स्व-स्नेहनार्थात् पुष-पिषः। ५। ४६५) स्वशब्दार्थात् स्नेहनार्थीच करणार्थात् पराद् यथासङ्ख्यं पुषः पिषश्च तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । स्व. पोषं पुष्णाति, एवमात्मपोषम् , उदपेषं पिनष्टि, एवं क्षीरपेषम् ॥ ६५॥ हस्तार्थाद ग्रह-वर्ति-वृतः । ५।४।६६। हस्तार्थात् करणवाचिनः परेभ्य एभ्यस्तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । हस्तग्राहं गृह्णाति, एवं करग्राहम् , हस्तवः वर्तयति, पाणिवतं वर्तते ॥ ६६ ॥ १ 'वर्ति' इति ण्यन्तः, 'वृत्' इति अण्यन्तो वृत्धातुर्बोध्यः । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य बर्नाम्नि | ५ | ४ | ६७ । बन्धः प्रकृतिर्नाम विशेषणं च । बन्धेर्बन्धनस्य यन्नाम संज्ञा, तद्विषयात् करणार्थात् पराद् बन्धेस्तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । क्रौञ्श्चबन्धम्बद्धः ॥ ६७ ॥ [ ३९४ ] आधारात् । ५ । ४ । ६८ । आधारर्थात् पराद् बन्धेस्तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । चारकबन्धम्बद्धः ॥ ६८ ॥ कर्तुर्जीव -पुरुषात् नश्-वहः । ५ । ४ । ६९ । आभ्यां कर्तृभ्यां पराद् यथासङ्ख्यं नशेर्वहेव तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । जीवनाशं नश्यति, पुरुषवाहं वहति । कर्तुरिति किम् ? जीवेन नश्यति ॥ ६९ ॥ उर्ध्वात् पूर्-शुषः । ५ । ४ । ७० ॥ कर्तुरूर्ध्वात् परात् पूरः शुपच तस्यैव संबन्धे णम् वा स्यात् । ऊर्ध्वपूरं पूर्यते, ऊर्ध्वशोषं शुष्यतिं ॥ ७० ॥ व्याप्याच्चेवात्' । । ५ । ४ । ७१ । व्याप्यात् कर्तुम्श्वोपमानात् पराद्धातोस्तस्यैव सम्बन्धे णम् वा स्यात् । सुवर्णनिधायं निहितः, काकनाशं नष्टः ॥ ७१ ॥ उपात किरो लवने | ५ | ४ । ७२ । उपपूर्वात् किरतेलवनार्थस्य धातोः सम्बन्धे णम् बा स्यात् । उपस्कारं मद्रका लुनन्ति । लवन इति किम् ? उपकीर्य याति ॥ ७२ ॥ १ इवार्थादुपमानात् परातू सुवर्णमित्र निहितः । काकवन्नष्ट इति भावः । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३९५] . दंशेस्तृतीयया । ५ । ४ । ७३ । तृतीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृकार्थादुपपूर्वाद् दंशेर्धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात्। मूलकेनोपदंशं मूलकोपदंशम् , मूलकेनोपदश्य भुङ्क्ते ॥ ७३ ॥ हिंसाऽर्थाद् एकाऽऽप्यात् । ५ । ४ । ७४। हिंसार्थाद्धातोर्धात्वन्तरेणैकाऽऽप्यात् तुल्यकर्तृकार्थात् तृतीयान्तेन योगे णम् वा स्यात् । दण्डेनोपघातं दण्डोपघातम् , दण्डेनोपहत्य च गाः सादयति । एकाप्यादिति किम् ? दण्डेनोपहत्य चौरं गोपालको गाः खेटयति ॥७४॥ उपपीड-रुध-कर्षः तत्सप्तम्या । ५।४ । ७५। तया तृतीयया युक्ता सप्तमी तत्सप्तमी । तदन्तेन योगे उपपूर्वेभ्य एभ्यः तुल्यकर्तृकार्थेभ्यो धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । पार्धाभ्यामुपपीडं पाश्वोपपीडं शेते, पाचपोरुपपीडं पार्थोपपीडं शेते। व्रजेनोपरोधं व्रजोपरो. धम् , बजे उपरोधं व्रजोपरोधं गाः स्थापयति । पाणिनोपकर्ष पाण्युपकर्षम्, पाणावुपकर्ष पाण्युपकर्ष गृह्णाति ॥ ७५ ॥ - प्रमाण-समासत्त्योः । ५। ४ । ७६।। आयाममानं प्रमाणम् । समासत्तिः संरम्भपूर्वकः सन्निकर्षः। तयोर्गम्ययोस्तृतीयान्तेन सप्तम्यन्तेन च योगे तुल्यकर्तृकार्थाद् धातोः संबन्धे णम् वा स्यात्। ब्यङ्गुलेनोत्कर्ष द्वयङ्गुलोत्कर्षम्, व्यङ्गुले उत्कर्ष बङ्गुलोत्कर्ष गण्डिकाश्छि. नत्ति, केशैहिं कैशग्राहं, केशेषु ग्राहं केशग्राहं युध्यन्ते । पक्षे, द्वयङ्गुलेनोत्कृष्य गण्डिकाश्छिनत्ति ॥ ७६ ॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९६] हैमशब्दानुशासनस्य पञ्चम्या त्वरायाम् । ५।४।७७। त्वरायां गम्यायां पञ्चम्यन्तेन योगे तुल्यकर्तृकार्थाद्वातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात्। शय्याया उत्थायं शय्योस्थाय धावति । पक्षे, शय्याया उत्थाय धावति । त्वराया. मिति किम् ? आसनादुत्थाय याति ॥ ७७ ॥ . द्वितीयया। ५।४।७८। द्वितीयान्तेन योगे त्वरायां गम्यायां तुल्यकर्तृकार्थाद् धातोः सम्बन्धे णम्वा स्यात् । लोष्टान् ग्राहं लोष्टग्राहम्, लोष्टान् गृहीत्वा युध्यन्ते ।। ७८॥ स्वाङ्गेनाऽध्रुवेण ।५। ४ । ७९। यस्मिन्नङ्गेच्छिन्ने भिन्ने वा प्राणी न म्रियते तदध्रुवं । तेन स्वाङ्गेन द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृकार्थाद् धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । भ्रुवौ विक्षेपं भ्रूविक्षेपम् , भ्रुवो. विक्षप्य वा जल्पति । स्वाङ्गेनेति किम् ? कफमुन्मूल्य जल्पति । अध्रुवेणेति किम् ? शिर उत्क्षिप्य वक्ति ॥७९॥ परिक्लेश्यन । ५। ४ । ८० । परिक्लेश्येन स्वाङ्गेन द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृकार्थाद धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । उरांसि प्रतिपेषं उरःप्रतिपेयम्, उरांसि प्रतिपेष्य वा युध्धन्ते ।।८०॥ विश-पत-पद-स्कन्दो वीप्साऽऽभीक्ष्ण्ये । ५।३।८१। द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृकार्थाद् विशादेवीप्साऽऽभीक्ष्ण्ययोर्गम्ययोर्धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात्। गेहं गेहमनुप्रवेशं गेहानुप्रवेशमास्ते, गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशं “विद्-दृग्भ्यः..." सूत्रात् णमोऽनुवृत्तिः। स णम्प्रत्ययः पूर्वकाले वीप्सायां पौनःपुन्ये च गम्ये भवति । णमन्ते च पदे यत्र "...तस्यैव” (५-४-६०) इत्यस्यानुवृत्तिस्तत्र यथाविधि तस्यैव धातोरनुप्रयोगः कार्यः. यथा शुष्कपेषं पिनष्टि, काकनाशं नष्ट इति, नान्यत्र । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वापस स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३९७] गेहानुप्रवेशमास्ते । गेहं गेहमनुप्रपातं गेहानुप्रपातमास्ते गेहमनुप्रपातमनुप्रपातं गेहानुपातमास्ते । गेहं गेहमनुप्रपादं गेहानुप्रपादमास्ते, गेहमनुप्रपादमनुप्रपादं गेहानुप्रपादमास्ते। गेहंगेहमवस्कन्दं गेहावस्कन्दमास्ते,गेहमवस्कदमवस्कन्दंगेहावस्कन्दमास्ते। पक्षे गेहं गेहम नुप्रविश्याऽऽस्ते, गेहमनुप्रविश्यानुप्रविश्याऽऽस्ते इत्यादि ।। ८१ ।। कालेन तृष्यस्वः क्रियाऽन्तरे । ५ । ४ । ८२ । क्रियाव्यवधायकार्थाभ्यां तृष्यसूभ्यां द्वितीयान्तेन कालार्थेन योगे धातोः सम्बन्धेणम् वा स्यात् । द्वयहं तर्ष द्वयहतर्ष गावः पिबन्ति । द्वन्यहमत्यासं द्वयहात्यासं गावः पिबन्ति । क्रियान्तर इति किम् ? अहरत्यस्येषून् गतः ॥ ८२ ॥ नाम्ना ग्रहाऽऽदिशः । ५। ४ । ८३ । - नामशब्देन द्वितायान्तेन योगे तुल्यककार्थात् ग्रहेरादिशेश्च धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् । नामानि ग्राहं नामग्राहमाह्वयति, नामान्यादेशं नामाऽऽदेशं दत्ते । पक्षे, नाम गृहीत्वा दत्ते ॥ ८३ ।। कृगोऽव्ययेनाऽनिष्टोक्तौ क्त्वा-णमौ।५।४।८४ । '' अव्ययेन योगे तुल्यकर्तृकार्थात् कृगोऽनिष्टोक्ती गम्यायां धातोः सम्बन्धे क्त्वाणमौ स्याताम् । ब्राह्मण पुत्रस्ते जातः किं तर्हि वृषल नीचैः कृत्वा, नीचैः कृत्य, नीचैःकारं कथयसि ? उच्चै म प्रियमाख्येयम् । अनिष्टोताविति किम् ? उच्चैः कृत्वाऽऽचष्टे ब्राह्मण पुत्रस्ते जात इति । अव्ययेनेति किम् ? ब्राह्यण पुत्रस्ते जातः किं तर्हि वृषल मन्दं कृत्वा कथयसि ?॥ ८४ ॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य तिर्यचाऽपवर्गे | ५ | ४ | ८५ । क्रियासमाप्तौ गम्यायां तिर्यचाऽव्ययेन योगे तुल्यकर्तृकार्थात गो धातोः संबन्धे क्त्वाणमौ स्याताम | तिर्यक्कृत्वा, तिर्यक्कृत्य, तिर्यक्कारमास्ते । अपवर्ग इति किम् ? तिर्यक्कृत्वा काष्ठं गतः ॥ ८५ ॥ स्वाङ्गतस्र-च्व्यर्थ-नाना-विना-धाऽर्थेन [३९८ ] भुवश्च । ५ । ४ । ८६ । तसन्तेन स्वाङ्गेन, च्व्यर्थ वृत्तिभिर्नानाविनाभ्यां धाऽर्थप्रत्ययान्तैश्च योगे तुल्यकर्तृकार्थाद् भुवः कृगश्च धातोः संबन्धे क्त्वाणमौ स्याताम् । मूखत्तो भूत्वा मूखतोभूय, मूखतो भावमास्ते । नाना भूत्वा नानाभूय, नाना भावं गतः, विनाभूत्वा, विनाभूय, विनाभावं गतः, द्विधा भूत्वा, द्विधाभूय, द्विधाभावमास्ते, एवं पाश्र्वतः कृत्वा, पाइर्वतः कृत्य, पार्श्वतःकारं शेते इत्यादि । व्यर्थ इति किम् ? नाना कृत्वा भक्ष्याणि भुङ्क्ते ॥ ८६ ॥ तूष्णीमा । ५ । ४ । ८७ । तृष्णयोगे तुल्यकर्तृकार्थात् भुवो धातोः सम्बन्धे क्वाणमौ स्याताम् । तूष्णीं भूत्वा, तूष्णींभूय, तूष्णींभावमास्ते ॥ ८७ ॥ आनुलोम्येऽन्वचा । ५ । ४ । ८८ । अन्यचाsssयेन योगे तुल्यकर्तृकार्थाद् भुव आनु लोम्ये गम्ये धातोः सम्बन्धे क्त्वाणमौ स्याताम् । अन्वगूभूत्वा, अन्वग्भूय, अन्वग्भावमास्ते । आनुलोम्य इति किम् ? अन्वग्भूत्वा विजयते, पश्चाद्भूत्वेत्यर्थः ॥ ८८ ॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [३९९] . इच्छाऽर्थे कर्मणः सप्तमी। ५ । ४ । ८९। इच्छाऽर्थे धातावुपपदे तुल्यकर्तृकार्थात् कर्मभूताद्धातोः सप्तमी स्यात् । भुञ्जीयेति इच्छति । इच्छार्थ इति किम् ? भोजको याति । कर्मण इति किम् ? इच्छन् करोति ॥८९।। शक धृष-ज्ञा-रभ-लभ-सहाऽर्ह-ग्ला-घटाऽस्ति-स___मर्थाऽर्थे च तुम् । ५।३। १३७ । शक्याद्यर्थेषु इच्छाऽर्थेषु च धातुषु, समर्थार्थेषु नामसूपपदेषु कर्मभूताद्धातोस्तुम् स्यात् । शक्नोति पारयति वा भोक्तुम् , एवं धृष्णोति, जानाति, आरभते, लभते, सहते, अर्हति, ग्लायति, घटते, अस्ति, समर्थ इच्छति वा भोक्तुम् ॥९॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधा. ___नस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ पञ्चमाध्यायः समाप्तः॥५॥४॥ ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ इति कृतप्रकरणम् १ शकादिधातुसदृशार्थेषु पार्यादिषु-धातुषु, समर्थादिनामतुल्येषु च अलमादिषु नामसु मध्ये कस्मिन्चनापि उपपदे कर्मभूतात् तुम् स्यादिति तात्पर्यम् । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् ॥ अथ षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ (अथ तद्धितप्रकरणम्) तद्वितोऽणादिः । ६ । १ । १ । वक्ष्यमाणोऽणादिस्तद्धितः स्यात् । औपगवः ॥ १ ॥ पौत्रादि वृद्धम् । ६ । १ । २ । । परमप्रकृतेर्यत् पौत्रादि अपत्यं तद् वृद्धं स्यात् । गार्ग्यः, गार्गिः ॥ २ ॥ पुत्रस्तु वंश्य - ज्यायोभ्रात्रोर्जीवति प्रपौत्राद्यस्त्री युवा । ६ । १ । ३ । यः पित्राssदिः स्वस्य हेतुः । वंश्ये, ज्येष्ठभ्रातरि च जीवति प्रपौत्रादि अपत्यं स्त्रीवर्ज युवा स्यात् । गार्ग्ययणः ॥ ३ ॥ सपिण्डे वयः स्थानाधिके जीवत् वा | ६ |१| ४ | समानः पिण्डः सप्तमः पुरुषो यस्य तस्मिन् वयः, स्थानाभ्यामधिके जीवति प्रपौत्राद्यस्त्री जीवद् युवा वा स्यात् । गार्ग्यायणः, गायों वा ॥ ४ ॥ युव-वृद्धं कुत्साऽर्चे वा । ६ । १ । ५ । १ तस्मै लौकिकवैदिकशब्दसन्दर्भाय, ताभ्यः प्रकृतिभ्यो वा हितः तद्धितः । आद्यं मतं जैनेन्द्रस्य, द्वितीयं तूत्पलस्येति न्यासकारः । “हितसुखाभ्याम्” (२-२-६५) सूत्रेण चतुर्थी "हितादिभिः " ( पृ० १४३ ) सूत्रेण समासश्च । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वोपजलघुवृत्तिः . [४०१] युवा वृद्धं चापत्यं यथासङ्ख्यं कुत्सार्चयोर्विषये युवा वा स्यात् । गायः, गार्यायणो वा जाल्मः । वृद्धमर्चितम् । गाायणः, गार्यो वा ॥५॥ संज्ञा 'दुर्वा । ६ । १ । ६। हठात् संज्ञादुर्वा स्यात् । देवदत्तीयाः। देवदत्ताः ॥६॥ त्यदादिः । ६ । १ । ७। असौ दुः स्यात् । त्यदीयम् । तदीयम् ॥ ७ ॥ वृद्धिर्यस्य स्वरेष्वादिः। ६।१।८। यस्य स्वराणामादिः स्वरो वृद्धिः, स दुः स्यात् । आम्रगुप्तायनिः॥ ८॥ एदोद् देश एवेयादौ । ६ । १ । ९ । देशार्थस्यैव यस्य स्वराणामादिरेदोच स ईयादौ विधेये दुः स्यात् । सैपुरिका, सैपुरिकी। स्कौनगरिका, स्कौनगरिकी ॥९॥ प्राग्देशे। ६ । १ । १०। प्राग्देशार्थस्य स्वरेष्वादिरेदौच स ईयादौ कार्ये दुः स्यात् । एणीपचनीयः । गोनर्दीयः ॥ १० ॥ • वाऽऽद्यात् । ६ । १।११। ... वेति, आधादिति च द्वयमधिकृतं स्यात् । तेन तद्धि१ अयं त्यदादिदुसज्ञकः स्यात् । वृद्धयुवेति सज्ञाद्वयम् । एवं दुः। २ एणीपचने भवः, गोनर्दे देशविशेषे भव इति एणीपचनीयः, गोनर्दीयः पतञ्जलिः, पतञ्जलिस्तत्रोत्पन्नः । “दोरीयः" (६-३-३२) सूत्रादीयः। कालेऽतिव्याप्तिवारणाय देशप्रहणम् । पूर्वोत्तरेण वहन्त्याः शरावत्या नद्या पूर्वतो दक्षिणतो वा देशः प्रागदेश उच्यते। प्राङ् चासौ देशः, प्राचां वा देश इति समासः कार्यः । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०२] हेमशब्दानुशासनस्य तप्रसङ्गे पक्षे वाक्यसमासावपि, सूत्रादौ च निर्विष्टात प्रत्ययः ॥११॥ गोत्रोत्तरपदाद गोत्रादिवाजिह्वाकात्य-हरित कात्यात् । ६।१।१२। गोत्रमपत्यं जिह्वाकात्यहरितकात्यवर्जाद गोत्रप्रत्ययान्तोत्तरपदाद् गोत्रप्रत्ययान्तादिव तद्धितः स्यात् । यथा चोरायणीयास्तथा कम्बलचारायणीयाः । अजिहेत्यादीति किम् । यथेह ईयः, कातीयाः, न तथा जैह्वाकाताः, हारितकाताः ॥ १२॥ प्राग जितादण् । ६ । १ । १३ । प्राग् जितोक्तः पादत्रयं यावदं येऽस्तेिष्वण वा स्यात् । औपगवः। माञ्जिष्ठम् ॥ १३ ॥ धनादेः पत्युः । ६ । १।१४। धनादेः परो यः पतिः, तदन्तात् प्राजितीयेऽर्थेऽणू स्यात् । धानपतः, आश्वपतः ॥ १४ ॥ , अनिदमि अणपवादे च दित्यदित्यादित्य-यम पत्युत्तरपदात् ज्य: । ६।१।१५ ॥ एभ्यः प्राजितीयेऽर्थे इदं वर्जेऽपत्याद्यर्थे योऽणोऽप. वादः, तद्विषये चन्यः स्यात् । दैत्यः, आदित्यः, आदित्य्यः, याम्यः, पार्हस्पत्यः । अनिदमीति किम् ? आदित्यस्येदं आदितीयं मण्डलम् ।। १५ ।। बहिषः टीकण च । ६।१ । १६ । बहिषः प्राग्जितीयेऽर्थे टीकण ज्यश्च स्यात् । बाहीका, बायः॥ १६॥ १ चरस्यापत्यं चारायणीयः। एवमन्यत्रापि बचनप्रकारो यथाई णेयकः । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः कल्यग्नेरेयम् । ६ । १ । १७ । आभ्यां प्राजितीयेऽर्थेऽनिदमि अणपवादे चैय‍ स्यात् । कालेयम्, आग्नेयम् ॥ १७ ॥ [ ४०३] पृथिव्या आऽञ् । ६ । १ । १८ । पृथिव्याः प्राजितीयेऽर्थेऽनिदस्यणपवादे च ञाञौ स्याताम् । पार्थिवा, पार्थिवी ॥ १८ ॥ उत्सादेर । ६ । १ । १९ । अस्मात् प्राजितीयेऽर्थेऽनिदम्यणपवादे चाऽञ् स्यात् । औत्सः, औदपानम् ॥ १९ ॥ यादसमासे । ६ । १ । २० । असमासवृत्तेर्वष्कयात् प्रागूजितीयेऽर्थेऽनिदम्यणपवादे चाऽञ् स्यात् । वाष्कयः । असमास इति किम् ? सौबष्कयिः ॥ २० ॥ देवाद् यञ् च । ६ । १ । २१ । देवात् प्रागूजितीयेऽर्थेऽनिदम्यणपवादे च यत्र - अनौ स्याताम् । वैष्यम्, देवम् ॥ २१ ॥ अः स्थाम्नः । ६ । १ । २२ । स्थानः प्राजितीयेऽर्थे अः स्यात् । अश्वत्थामः ॥२२॥ लोम्नोऽपत्येषु । ६ । १ । २३ ॥ लोम्नः प्राग्जिनीयेऽर्थे बहुपत्याऽर्थे अः स्यात् । उडुलोमाः । बहुवचनं किम् ? औडलोमिः ॥ २३ ॥ १ उलोम्नोऽपत्यानि पुमांस इत्युडुलोमा; । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०४] हेमशब्दानुशासनस्य द्विगोरनपत्ये य-स्वराऽऽदेर्लुबदिः । ६ । १ ।२४ । . अपत्यादन्यस्मिन् प्राग्जितीयेर्थे भूतस्य द्विगोः परस्य यादेः स्वरादेश्च प्रत्ययस्य लुप् स्यात्, न तु द्विः। द्विरथः, पञ्चकपालः । अनपत्य इति किम् ? द्वैमातुरः। अद्विरिति किम् ? पाश्चकपालम् ॥ २४॥. .. प्रागवतः स्त्री-पुंसात् नञ्-स्नञ् ।६।१।२५। वतोऽर्वागर्थेष्वनिदम्यणपवादे चाभ्यां यथासङ्ख्यं नञ् स्नञ् च स्यात् । स्त्रैणः, पौंस्नः । प्राग्वत इति किम् ? स्त्रीवत् ॥ २५ ॥ त्वे वा । ६ । १. । २६ । स्त्रीपुंसाभ्यां त्वेविषये (?) यथासङ्ख्यं नस्नो वा स्याताम् । स्त्रैणम् , स्त्रीत्वम् । पौंस्नम्, पुंस्त्वम् ॥ २६ ॥ - गोः स्वरे यः । ६।१ । २७ । गोः स्वरादितद्धितप्राप्तौ यः स्यात् । गव्यम् । स्वर इति किम् ? गोमयम् ।। २७॥ उसोऽपत्ये । ६ । १।२ । २८ । षष्ठयन्तादपत्येऽर्थे यथाविहितमणादयः स्युः औपगवः, दैत्यः ॥ २८ ॥ आद्यात् । ६ । १ । २९ । अपत्ये यस्तद्धितः स परमप्रकृतेरेव स्यात् । उपगोरपत्यमोपगवः, तस्याप्यौपगविः, औपगवेरप्यौपगवः॥२९॥ वृद्धाद् यूनि । ६।१।३०। यूनि अपत्ये या प्रत्ययः स आधाद् वृद्धाद. यो वृद्धप्रत्ययस्तदन्तात्स्यात्। गार्यस्थापत्यं युवा गायिणः ॥ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४०५] ___ अत इन् । ६ । १।३१ । अदन्तात् षष्ठयन्तादपत्ये इञ् स्यात् । दाक्षिः ॥३१॥ बाहादिभ्यो गोत्र । ६ । १ । ३२। स्वापत्यसन्तानस्य स्वव्यपदेशहेतुर्य आयपुरुषस्तदपत्यं गोत्रम् । एभ्यः षष्ठ्यन्तेभ्यो गोत्रेऽर्थे इञ् स्यात् । बोहविः, औपबाहविः॥ ३२ ॥ वर्मणोऽचक्रात् । ६ । १ । ३३ । चक्रवर्जात् परो यो वर्मा तदन्तादपत्येऽर्थे इञ् स्यात्। ऐन्द्रवर्मिः। अचक्रादिति किम् ? चाक्रवर्मणः ॥ ३३ ॥ . अजादिभ्यो धेनोः। ६ । १ । ३४। । एभ्यः परों यो धेनुः तदन्तादपत्यार्थे इञ् स्यात् । आजधेनविः, बाष्कंधेनविः ॥ ३४ ॥ ब्राह्मणादा । ६ । १ । ३५। ब्राह्मणाद् धेनुस्तदन्तादपत्येऽर्थे इब् वा स्यात् । ब्राह्मणधेनविः, ब्राह्मणधेनवः ॥ ३५ ॥ भूयसू-सम्भूयोऽम्भोऽमितौजसः स्लुक् च ।६।१३६। एभ्योऽपत्ये इञ् स्यात् , सो लुक् च । भौयिः, साम्भूयिः, आम्भिा, आमितौजिः ॥ ३६ ॥ शालङ्क्यौदि-षाडि-वाइवलि।६।१।३७ । एतेऽपत्ये इअन्ता निपात्यन्ते । शालतिः, औदिः, षाडिः, वावलिः ॥ ३७॥ . व्यास-वरुट-सुधातृ-निषाद-बिम्ब-चण्डालाद् ... अन्तस्य चाऽक् । ६।१। ३८। १ अत्र "अस्वयम्भुवोऽव्' (७-४-७०) सूत्राद। ..... Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०६] हैमशब्दानुशासनस्य एभ्योऽपत्ये इञ् स्यात् , तद्योगे चैषामन्तस्याऽक् । वैयासकि, घाटकिः, सौवातकिः, नैपादकि, बैम्बकिः, चाण्डालकिः ॥ ३८॥ पुनर्भू-पुत्र दुहित-ननान्दुरनन्तरेऽञ् । ६।१।३९॥ एभ्यः षष्ठयन्तेभ्योऽनन्तरेऽपत्येऽञ् स्यात् । पौनर्भवः, पौत्रः, दौहित्रः, नानान्द्रः ॥ ३९॥ परस्त्रियाः परशुश्वाऽसावयें । ६ । ११४० परस्त्रिया अनन्तरेऽपत्येऽञ् स्यात् , तद्योगेऽस्य परशुश्च, न चेदसौ पुंसा सजातीया। पारशवः । असावर्य इति किम् ? पारस्त्रैणेयः ॥ ४० ॥ . विदादेवृद्ध । ६ । १ । ४१ । एभ्यो वृद्धेऽपत्येऽञ् स्यात् । वैदः, और्वः ॥ ४१ ॥ . गर्गादेयञ् । ६ । १ । १२ । ___ एम्यः षष्ठयन्तेभ्यो वृद्धेऽपत्ये यञ् स्यात् । गाग्र्यः। वात्स्यः ॥ ४२ ॥ मधु-भ्रोर्ब्राह्मण-कौशिके । ६ । १ ॥४३॥ आभ्यां यथासङ्ख्यं ब्राह्मणे कौशिके च वृद्धेऽपत्ये यञ् स्यात् । माधव्यो ब्राह्मणः, बाभ्रव्यः कौशिकः ॥४३॥ कपि-बोधाद् आङ्गिरसे । ६।१ । ४४ । . आभ्यामागिरले वृद्धेऽपत्ये या स्यात् । काप्यः, बौध्यः आङ्गिरसः॥४४॥ वतण्डात् । ६ । १ । १५ । अस्मादागिरसे वृद्धे यत्रेव स्यात् । वातण्डया आणि रसः॥ ४५ ॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुतिः [४०७] खियां लुप् । ६ । १ । ४६ । पतण्डादागिरसे वृद्ध स्त्रियां यत्रो लुप् स्यात् । वतण्डी आङ्गिरसी ॥ ४६॥ कुजादेायन्यः ।६।१।१७। कुञ्जादेः पष्ठयन्ताद् वृद्धे आयन्या स्यात् । कोजायन्यः, ब्रानायन्यः॥ ४७ ॥ स्त्रीबहुष्वायन । ६।१।४८ । कुजादेः षष्ठयन्ताद् बहुत्वविशिष्ठे वृद्ध स्त्रियां वा बहुत्वेऽप्यायनज्ञ स्यात् । कोजायनी, कोजायनाः ॥४८॥ ___ अश्वादेः। ६।११४९। अश्वादेवृद्ध आयनञ् स्यात् । आश्वायन:, शाडायनः ॥४९॥ . शप-भरदाजाद् आत्रेये । ६।१। ५० । आभ्यामात्रेये वृद्ध आयनब् स्यात् । शापायन, भारद्वाजायन आत्रेयः ॥ ५० ॥ __ भर्गात् त्रैगर्ते । ६ । १ । ५१ । भर्गात् त्रैगः वृद्ध आयनञ् स्यात्। भायणस्त्रैगतः ॥५१॥ आत्रेयाद् भारद्वाजे । ६ । १ । ५२।। अस्माद् भारद्वाजे यूनि आयन स्यात् । आत्रेयायणो भारद्वाजः ॥५२॥ नडादिभ्य आयनण । ६। १ । ५३ । एभ्यो वृद्ध आयनः स्यात् । नाडायनः, चारायणः ॥ ५३॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०८] हेमशब्दानुशासनस्य यत्रि-ञः।६।१। ५४। वृद्धे यो यजिओ तदन्ताद यूनि आयनण् स्यात् । गायिणः दाक्षायणः ।। ५४॥ हरितादेरञः। ६।१।५५ । वृद्धो योऽञ् तदन्तात् हरितादेऍन्यायनम् स्यात्। हारितायन:, कैन्दासायनः ॥ ५५ ॥ क्रोष्ट्र-शलङ्कोलक् च । ६ । १ । ५६। आभ्यां वृद्धे आयनण् स्यात,लुक् चान्तादेशः। कोष्टायनः, शालकायनः ॥ ५६ ॥ दर्भ-कृष्णाऽग्निशर्म-रण-शरदत-शुनकाद्-आग्रायण-ब्राह्मण-वार्षगण्य-वाशिष्ठ-भार्गव वात्स्य । ६ । १। ५७ । - एभ्यो यथासङ्ख्यमेषु वृद्धेष्वायनण् स्यात् दार्भायण आग्रायणश्चेत्, कार्णायनो ब्राह्मणः, आग्निशर्मायणो वार्षगण्यः, राणायनो वाशिष्ठः, शारद्वतायनो भार्गवः, शौनकायनो वात्स्यः ॥ ५७॥ जीवन्त-पर्वताद् वा । ६ । १। ५८ । आभ्यां वृद्ध आयनण् वा स्यात् । जैवन्तायन:, जैवन्तिः । पार्वतायनः पार्वतिः ॥ ५८ ।। का द्रोणाद वा । ६ । १ । ५९ । . द्रोणादपत्यमाने आयनण् वा स्यात् । द्रौणायनः, द्रौणिः ॥ ५९॥ शिवादेरण । ६ । १ । ६०। शिवादेरपत्येऽण स्यात् । शैवा, प्रौष्ठः ॥ ६॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपक्षलघुवृत्तिः [४०९] . ऋषि-वृष्ण्यन्धक कुरुभ्यः। ६। १।६१।। ___ ऋष्यादिवाचिभ्योऽपत्येऽण् स्यात् । वाशिष्ठः, वासुदेवः, श्वाफल्का, नाकुलः ॥ ६१ ॥ कन्या-त्रिवेण्याः कनीन-त्रिवणं च । ६ । १ । ६२ । आभ्यामपत्येऽण् स्याद् , यथासङ्ख्यं कनीनत्रिवणी चाऽऽदेशौ । कानीनः, त्रैवणः ॥ ६२ ॥ शुङ्गाभ्यां भारद्वाजे । ६ । १ । ६३ । शुङ्ग-शुङ्गाभ्यां पुंस्त्रीशब्दाभ्यां भारद्वाजेऽपत्येऽण् स्यात् । शौङ्गो भारद्वाजः ॥ ६३ ॥ विकणे-च्छगलादु वात्स्याऽऽत्रये । ६ । १ । ६४ । आभ्यां यथासङ्ख्यं वात्स्ये आत्रेये चापत्येऽण स्यात् । वैकर्णो वात्स्या, छागल आत्रेयः॥ ६४ ॥ णश्च विश्रवसो विश्लुक् च वा । ६ । १ । ६५। विश्रवसोऽपत्येऽण स्यात्, तद्योगे च णः, णयोगे च विशो लुक्च वा । वैश्रवणः, रावणः ॥ ६५ ॥ . सख्या-सं-भद्रात् मातुर्मातुर्च। ६ । १ । ६६ । संख्याऽर्थात् सम्भद्राभ्यां च परो यो माता, तदन्तादपत्येऽण स्यात् , मातुश्च मातुर् । द्वैमातुरा, सांमातुरः, भाद्रमातुरः ॥६६॥ अदोनदी-मानुषीनाम्नः। ६।१।६७।। अदुसंज्ञात् नदीनाम्नो मानुषीनाम्नश्वापत्येऽग् १ वासुदेव इति वृष्णेः, श्वाफल्क-नाकुलौ चान्धक-कुरुगोत्रयोरुदाहरणे स्तः । २ द्वयोर्मात्रोरपत्यं पुमान् द्वैमातुरः। एवं सम्यग्मातुः, भद्रमातुरपत्यमिति । अणि परे वृद्धिः, णित्वात् । एवं सर्वत्र तद्धिते "वृद्धिः स्वरेष्वादेगिति तद्धिते" (७-४-१) इति सूत्रेग बिति णिति प्रत्यये परे वृद्धिः कार्या । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१०] हैमशब्दानुशासनस्य स्यात् । यामुनः प्रणेता, देवदत्तः । अदोरिति किम् ? चान्द्रमागेयः ॥ ६७॥ पीला-साल्वा-मण्डूकाद् वा । ६ । १। ६८ । एभ्योऽप्रत्येऽण वा स्यात् । पैल: पैलेयः । साल्वः साल्वेयः । माण्डूकः, माण्डूकिः ॥ ६८ ॥ .. दितेश्चैयण् वा । ६ । १ । ६९ । दितेमडूकाचाऽपत्ये एयण वा स्यात् । दैतेयः, दैत्यः । माण्डूकेयः, माण्डूकिः ॥ ६९ ।। ड्याप-त्यूङः । ६ । १ । ७०।। जयन्ताद् आवन्तात् त्यन्ताद् ऊङताचापत्ये एयण स्यात् । सौपर्णेयः, वैनतेयः, यौवतेयः, कामण्डलेयः ॥७०॥ द्विस्वरात् अनयाः।६।१।७१ । द्विस्वराद डी-आप-ति-ऊङन्ताद् अनद्यर्थादपत्ये एयण स्यात् । दात्तेयः। अनया इति किम् ? सैमः ।।७१॥ इतोऽनित्रः। ६ । १ । ७२ ।। इन्वर्जेदन्ताद् द्विस्वरादपत्ये एयण् स्यात्। नाभेयः । अनित्र इति किम् ? दाक्षायणः । द्विस्वरादित्येव ? मारीचः ॥ ७२ ॥ शुभ्राऽऽदिभ्यः। ६। १ । ७३ । एभ्योऽपत्ये एयण स्यात् । शौभ्रेयः, वैष्टपुरेयः ॥७३॥ १ सिमानाम्नी नी, या उज्जयिन्यां वहति, तस्या अपत्यं सैप्रः । २ आयस्तीर्थंकर ऋषभनामा । एवमात्रेयादयः । शाकन्धेया आतिथेयादय उत्तरसूत्रात् सिध्यन्ति । मरीचेस्त्रिस्वरत्वात् एयण् न स्यात् ।। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृतिः श्याम-लक्षणाद् वाशिष्ठे । ६ । १ । ७४ । आभ्यां वाशिष्ठेऽपत्ये एयण् स्यात् । श्यामेयः, लाक्षणेयः, वाशिष्ठः ॥ ७४ ॥ विकर्ण कुपीतकात् काश्यपे । ६ । १ । ७५ । आभ्यां काश्यपेऽपत्ये यण् स्यात् । वैकर्णेयः, कौषीतकेयः काश्यपः ।। ७५ ।। भ्रुवो भ्रुव् च | ६ | १ । ७६ । [ ४११] भ्रुवोऽपत्ये एयण् स्यात् भ्रुवश्च भ्रुब् । नौवेयः ॥७६॥ कल्याण्यादेरिन चाऽन्तस्य । ६ । १ । ७७ । एम्योऽपत्ये यण् स्यात्, अन्तस्य चेन् । काल्याणिनेयः, सौभागिनेयः ॥ ७७ ॥ कुलटाया वा । ६ । १ । ७८ । अस्मादपत्ये एयण स्यात्, तद्योगे चान्तस्येन वा । कौलटिनेयः, कौलटेयः ॥ ७८ ॥ चटकात् गैरः, स्त्रियां तु लुप् ।६।१।७९। अस्मादपत्ये गैरः स्यात्, स्त्र्यर्थस्य च गैरस्य लुप् । चाटकैरः, चटकाः ॥ ७९ ॥ क्षुद्राभ्य एरण वा । ६ । १ । ८० । अङ्गहीना अनियतपुंस्का वा स्त्रियः क्षुद्राः । क्षुद्रार्थेभ्यः स्त्रीभ्य एरण वा स्यात् । काणेरः, काणेयः । दासेरः, दासेयः 11 60 11 'गोधाया दुष्टे णारश्च । ६ । १ । ८१ । गोधाया दुष्टेऽपत्ये णार परण च स्यात् । गौधारः, गौघेरो गोधायामहिजातः ॥ ८१ ॥ १ पाटलागो इति गूर्जर भाषाख्यातायां अहिना जनकेनोत्पन्न इत्यर्थः, शुभ्रादिगः । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१२] हैमशब्दानुशासनस्य जण्ट-पण्टात् । ६ । १ । ८२ । आभ्यामपत्ये णारः स्यात् ।जाण्टारः, पाण्टार ।।८२॥ चतुष्पाद्भय एयञ् । ६ । १। ८३। चतुष्पादूवाचिभ्योऽपत्ये एयञ् स्यात् । कामण्डलेयः . ॥ ८३ ॥ गृष्टयादेः । ६ । १ । ८४ । एम्योऽपत्ये एयञ् स्यात् । गार्टेयः, हार्टयः ॥ ८४ ॥ वाडवेयो वृषे । ६ । २ । ८५। वडवाया वृषेऽर्थे एयञ् एयण् वा निपात्यते। वाडवेयः ॥ ८५॥ रेवत्यादेरिकण्। ६ । १ । ८६। एभ्योपत्ये इकण स्यात् । रैवतिकः, आश्वपालिका ॥८६॥ वृद्धस्त्रियाः क्षेपे णश्च । ६ । १ । ८७। वृद्धप्रत्ययान्तात् स्त्रियामपत्ये णेकणौ स्याता, क्षेपे गम्ये । गार्या अपत्यं युवा गार्गः, गार्गिको वा जाल्मः ॥८७॥ भ्रातुर्यः । ६ । १ । ८८ । भ्रातुरपत्ये व्यः स्यात् । भ्रातृव्यः॥८८॥ ईयः स्वसुश्च । ६ । १ । ८९ । भ्रातुः स्वसुश्चापत्ये ईयः स्यात् । भ्रात्रीयः, स्वस्रीयः ॥८९॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४१३] . मातृ-पित्रादेयण-ईयणौ । ६ । २।९०| मातृपितृशब्दावादी यस्य स्वनन्तस्य तस्मादपत्ये डेयणीयणौ स्याताम् । मातृष्वसेयः, मातृष्वतीयः । पैतृध्वसेयः, पैतृष्वतीयः ॥ ९० ॥ श्वशुराद् यः । ६ । १ । ९१ । अस्मादपत्ये यः स्यात् । श्वशुर्यः ॥ ९१ ॥ जातौ राज्ञः।६।१।९२। राज्ञोऽपत्ये जातो गम्यायां यः स्यात् । राजन्यः, क्षत्रिया जातिश्चेत् ॥ ९२॥ क्षत्रादियः। ६ । १ । ९३। .. क्षत्रादपत्ये जातावियः स्यात् । क्षत्रियः, जातिश्चेत् ॥९३ ॥ मनोर्याऽणौ पश्चान्तः ।६।१।९४। मनोरपत्ये याऽणौ स्यातां, तद्योगे पश्चान्तः, जाती गम्यायाम् । मनुष्याः, मानुषाः ॥ ९४ ॥ . माणवः कुत्सायाम् । ६ ।१।९५ । मनोरपत्येऽणि कुत्सायां नो णः स्यात् । मनोरपत्यं मूढ माणवः ॥ ९५ ॥ कुलाद् ईनः । ६ । १ । ९६ । कुलान्तात् केवलकुलाचाऽपत्ये ईनः स्यात् । बहुकुलीन:, कुलीनः ॥ ९६ ॥ १ अत्र डेयण् , डित्त्वात् ‘डित्यन्त्यस्वरादेः " (२-1-11४) इति सूत्रेण स्वरादेर्लक् । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [४१४] हैमशब्दानुशासनस्य यैयकत्रावसमासे वा । ६।१।९७। कुलान्तात् कुलाचाऽपत्ये य एयकञ् वा स्यात् , न चेदसौ समासे । कुल्पः कौलेयकः, कुलीनः । बहुकुल्या, बाहुकुलेयकः, बहुकुलीनः । असमास इति किम् ? आढ्य. कुलीनः ॥९७॥ दुष्कुलाद् एयण वा । ६ । १ । ९८ । अस्मादपत्ये एयण् वा स्यात् । दौष्कुलेयः, दुष्कुलीना ॥९८॥ महाकुलाद् वाऽजीनौ । ६ । १ । ९९ ॥ अस्मादपत्ये ऽ ईनञ् च वा स्याताम् । माहाकुलः, माहाकुलीना, महाकुलीनः ॥ ९९ ॥ ' कुर्वादेर्व्यः । ६।१।१००। एभ्योऽपत्ये ज्या स्यात् । कौरव्या, शाङ्कव्याः॥१०॥ . सम्राजः क्षत्रिये ।६।१।१०१ । अस्मात् क्षत्रियेऽपत्ये ज्य: स्यात् । साम्राज्यः क्षत्रियः ॥१०१॥ सेनान्त-कारलक्ष्मणाद् इन च । ६ । १ । १०२। __ सेनान्तात् कार्वथात् लक्ष्मणाचाऽपत्ये इञ् ज्यश्व स्यात् । हारिणिः, हारिषेण्या, तान्तुवायिः, तान्तु. वाय्या, लाक्ष्मणिः, लाक्ष्मण्यः ॥ १०२॥ सुयाम्नः सौवीरेष्वायनिञ् । ६। १ । १०३ । । सुयाम्नः सौवीरेषु योर्थस्तवृत्तरपत्ये आयनिज स्यात् । सौयामायनिः ॥१०३ ॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपज्ञलघुचिः [४१५] . पाण्टाहति-मिमतात् णश्च । ६ । १ । १०४ । आभ्यां सौवीरेषु योऽर्थः तद्वृत्तिभ्यामपत्येऽण आयनिञ् च स्यात् । पाण्टाहृतः, पाण्टाहृतायनिः सौवीरगोत्र। एवं मैमतः, मैमतायनिर्वा ॥ १०४ ॥ भागवित्ति-तार्णविन्दवाऽऽकशापेयात् निन्दा यामिकण वा। ६ । १ । १०५ । एभ्यः सौवीरेषु यो वृद्धः तवृत्तिभ्यो यूनिइकम्वा स्यात्, निन्दायां गम्यायाम् । भागवित्तिकः भागवित्तायनो वा जाल्मः। तार्णविन्दविका, तार्णविन्दविर्वा । आकशापेयिका, आकशापेयिा ॥ १०५॥ सौयामायनि-यामुन्दायनि-वार्ष्यायणेरी यश्च वा । ६.१ ।१०६। एभ्यः सौवीरवृद्धवृत्तिभ्यो यूनि ईय-हकणौ वा स्याता, निन्दायाम् । सौयामायनीयः, सौयामायनिकः, सौयामायनिर्वा निन्द्यो युवा । एवं यामुन्दायनीया, यामुन्दायनिकः, यामुन्दायनिर्वा । बाायणीयः, वार्ष्यायणिकः, वार्ष्यायणिर्वां ॥१०६॥ .... तिकादेरायनिज । ६। १ । १०७। एभ्योऽपत्ये आयनिञ् स्यात् । तैकायनिः, कैतवायनिः॥१०॥ दगुकोशल-कार-च्छाग-वृषाद यादिः। ६ । १।१०८) - एभ्योऽपत्ये यादिरायनिञ् स्यात् । दागव्यायनि:, कौशल्यायनिः कार्य्याियणिः छाग्यायनिः, वाया यणिः ॥ १०८ ॥ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१६] हेमशब्दानुशासनस्य दिस्वरादणः । ६ । १ । १०९। द्विस्वरादणन्तादपत्ये आयनिञ् स्यात् । कार्तायणिः ॥१०९॥ अवृद्धाद् दोर्नवा । ६ । १ । ११० । अवृद्धार्थाद् दोरपत्ये आयनिञ् वा स्यात्। आम्रगुप्तायनिः, आम्रगुप्तिः॥ ११०॥ पुत्रान्तात् । ६ । १ । १११ । पुत्रान्ताद् दोरपत्ये आयनिज वा स्यात् । गार्गीपुत्रायणिः, गार्गीपुत्रिः॥ १११॥ . चर्मिचर्मि-गारेट कार्कटय काकलका चाकिनात् च कश्चान्तोऽन्त्यस्वरात् । ६।१।११२। एभ्यः पुत्रान्ताच दोरपत्ये आयनिक वा स्यात् , तद्योगे कश्चान्तोऽन्त्यस्वरात् । चार्मिकायणिः, चार्मिणः। वार्मिकायणिः, वार्मिणः । गारेटकायनिः, गारेटिः। कार्कट्यकायनिः, कार्कव्यायनः । काककायनिः, काकिः । लाङ्ककायनिः, लाङ्केयः । वाकिनकायनिः, वाकिनिः । गार्गीपुत्रकायणिः, गार्गीपुत्रिः॥ ११२ ॥ अदोरायनिः प्रायः । ६ । १ । ११३ । .. अदोरपत्ये आयनिर्वा स्यात् , प्रायः । ग्लुचुकायनिः, ग्लौचुकिः । प्रायः किम् ? दाक्षिः ॥ ११३॥ १ दुसंज्ञकात् । दुसंज्ञा च "वृद्धिर्यस्य स्वरेष्वादिः'' (६-1-८) सूत्रेण भवति। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनलघुवृत्तिः [४१७] .. राष्ट्र-क्षत्रियात् सरूपाद् राजाऽपत्ये द्वि स्ञ् । ६ । १ । ११४। राष्ट्रक्षत्रियाभ्यां सरूपाभ्यां यथासङ्ख्यं राजापत्य. योर स्यात् , स च द्रिः। विदेहा राजानः, अपत्यानि वा । सरूपादिति किम् ? सौराष्ट्रको राजा ॥ ११४॥ गान्धारिसाल्वेयाभ्याम्। ६ । १।११५। आभ्यां राष्ट्रक्षत्रियार्थाम्यां सरूपाभ्यां यथासङ्ख्यं राजापत्ये च दिरञ् स्यात् । गान्धारयः साल्मेवार राजानोऽपत्यानि वा ॥ ११५॥ पुरु-मगध-कलिङ्ग-सूरमस-दिस्वरा दण । ६।१ । ११६ । एम्यो द्विस्वरेभ्यश्च राष्ट्रक्षत्रियार्थेभ्यः सरूपेभ्यो यथासङ्ख्यं राजापत्ये च दिरण् स्यात् । पुरोरपत्यं पौरवः, मागधो राजाऽपत्यं वा, एवं कालिङ्गः, सौरमसा, आङ्गः ॥११६ ॥ साल्वांश-प्रत्यग्रथ-कलकूटाऽश्मकाद् इञ् । ६ । १ । ११७ । साल्वा जनपदः तदंशेभ्यः, प्रत्यग्रथादेव सरूपराष्ट्रक्षत्रियाउँम्यो यथासङ्ख्यं राजापत्ये च द्रिरि स्पात् । औदुम्बरिः राजाऽपत्यं वा, एवं प्रात्यप्रथिा, कालदिन, आश्मकिः ॥ ११७॥ दु-नादि-कुर्वित्-कोशलाज्जादात् ज्यः।६।१।१९८) Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१८] हेमशब्दानुशासनस्य दुम्यः, नादेः कुरोरिदन्तेभ्यः कोशलाऽजादाभ्यां च सरूपराष्ट्र क्षत्रियेभ्यो यथासङ्ख्यं राजापत्ये च द्वियः स्यात् । आम्बष्ठ्यो राजाऽपत्यं वा, एवं नैषध्यः, कौरव्यः, आवन्त्यः, कौशल्यः, आजाद्यः ॥ ११८ ॥ पाण्डोडण । ६ । १ । ११९ । पाण्डो राष्ट्र क्षत्रियार्थात् सरूपाद् यथासङ्ख्यं राजाऽपत्ये च द्विर्व्यण् स्यात् । पाण्ड्यो राजाऽपत्यं वा ॥ ११९ ॥ शकादिभ्यो द्रेर्लुप् । ६ । १ । १२० । एभ्यः परस्य द्विसंज्ञकस्य लुप् स्यात् । शको राजाऽपत्यं वा, एवं यवनः ॥ १२० ॥ कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम् | ६ | १ | १२१ | आभ्यां परस्य द्रेर्न्यस्य लुप् स्यात्, स्त्रियामर्थे । कुन्ती अपत्यम्, एवमवन्ती । स्त्रियामिति किम् ? कौन्त्यः ॥ १२१ ॥ कुरोर्वा | ६ | १ | १२२ ॥ कुरोद्रेर्न्यस्य स्त्रियां लुप् वा स्यात् । कुरुः अपत्यम्, कोरव्यायणी राजाऽपत्यं वा ॥ १२२ ॥ द्रेणोऽप्राच्य भर्गादेः | ६ | १ | १२३ | प्राच्यान् भर्गादींश्च मुक्तत्वाऽन्यस्मादनोऽणश्च द्रेः स्त्रियां लुप् स्यात् । शरसेनी अपत्यम्, एवं मद्री, प्राच्यादिवजैनं किम् ? पाञ्चाली, भार्गी ॥ १२३ ॥ १ दुसञ्ज्ञकेभ्यः । माभ्बष्ठय इति दुखज्ञकस्योदाहरणम् । आवन्त्य इति इदन्तस्य निदर्शनमस्ति । जित्वाद् आदेर्वृद्धिः । अयं भ्यो द्रिसञ्ज्ञकः स्यादित्यर्थः । २ तद्धितसूत्रे विहिताः प्रत्यया लुप्यन्ते, अर्थस्तु स एव तिष्ठति - 1 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ स्वौपज्ञलघुवृत्तिः [१९]_ बहुष्वस्त्रियाम् । ६ । १ । १२४। द्रयन्तस्य बह्वर्थस्य यो द्रिस्तस्यास्त्रियां लुप् स्यात् । पश्चाला राजानोऽपत्यानि वा । अस्त्रियामिति किम् ? पाश्चाल्या ॥ १२४ ॥ यस्कादेगेत्रेि । ६ । १ । १२५ । एभ्यो यः प्रत्ययस्तदन्तस्य बहुगोत्रार्थस्य यस्कादेयः प्रत्ययः, तस्याऽस्त्रियां लुप् स्यात् । यस्काः, लह्याः । गोत्र इति किम् ? यास्काः छात्राः ॥ १२५॥ यत्रोऽश्यापर्णान्त-गोपवनादेः । ६।१।१२६ । ___यअनन्तस्य. बहुगोत्रार्थस्य यः प्रत्ययस्तस्याऽस्त्रियां लुप् स्यात्, न तु श्यापर्णान्तेभ्यो गोपवनादिभ्यः । गर्गाः, विदाः । अश्यापर्णेत्यादीति किम् ? गौपवनाः ॥१२६॥ कौण्डिन्याऽगस्त्ययोः कुण्डिनाऽगस्ती च। ६ । १ । १२७। अनयोबहुगोत्रार्थयोयोऽणश्चाऽस्त्रियां लुप् स्यात्, कुण्डिनी-अगस्त्ययोः कुण्डिनाऽऽगस्ती चाऽऽदेशौ । कुण्डिनाः, अगस्तयः ॥ १२७ ॥ भृग्वाङ्गिरसू-कुत्स-वशिष्ठ-गौतमाऽत्रेः ।६।१।१२८) ___ एभ्यो यः प्रत्ययस्तदन्तस्य बहुगोत्रार्थस्य यः प्रत्ययः तस्याऽस्त्रियां लुप् स्यात् । भृगवा, अङ्गिरसः, कुत्साः, वशिष्ठाः गोतमाः, अत्रयः ॥ १२८ ॥ प्रागभरते बहुस्वराद् इत्रः ।६।१ । १२९ । , एकवचने द्विवचने च छप् न स्यात्। यथा पाचालः, एव यास्को लाह्य इति । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२०] हैमशब्दानुशासनस्य बहुस्वराद् य इज, तदन्तस्य बहुप्राग्भरतगोत्रार्थस्य यः प्रत्ययः तस्याऽस्त्रियां लुप् स्यात् । क्षीरकलम्भाः, उद्दालकाः । प्राग्भरत इति किम् ? बालाकया बहुस्वरादिति किम् ? चैकयः ॥ १२० ॥ वोपकादेः। ६।१ । १३० । एभ्यो यः प्रत्ययस्तदन्तस्य बहुगोत्रार्थस्य यः प्रत्ययः, तस्याऽस्त्रियां लुप् स्यात् वा । उपकाः, औपकायनाः । लमकाः, लामकायनाः ॥ १३० ॥ तिककितवाऽऽदौ द्वन्द्वे । ६ । १ । १३१ । एषु द्वन्द्वेषु बहुगोत्रार्थेषु यः स प्रत्ययस्तस्याऽस्त्रियां लुप् स्यात् । तिककितवाः, उब्जककुभाः ॥ १३१ ॥ 'व्यादेस्तथा । ६। १ । १३२ । द्रयादिप्रत्ययान्तानां द्वन्द्वे बह्वर्थे यः स द्रयादिः, तस्य लुप् स्यात्, तथा यथापूर्वम्। वृकलोहध्वजकुण्डीवृशाः तथेति किम् ? गार्गीवत्सवाजाः । तत्रास्त्रियामित्युक्ते गार्गीत्यत्र न स्यात् ॥ १३२ ।। वाऽन्येन । ६ । १ । १३३ । द्रयादेरन्येन सह द्रयादीनां द्वन्द्वे बह्वर्थे यः स द्रयादिस्तस्य तथा वा लुप् स्यात्, यथापूर्वम् । अङ्ग-वङ्ग-दाक्षयः आङ्ग-वाङ्ग-दाक्षयः॥ १३३॥ दयेकेषु षष्ठ्यास्तत्पुरुषे यजादेवा । ६ । १ । १३४ । १ "बहुध्वस्त्रियाम्” (६-१-१२४) इत्यारभ्य ये लोपनीया प्रत्ययास्ते यादयः सन्ति । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षावृत्तिः [४२१] षष्ठीतत्पुरुषे यत्पदं षष्ठया विपके द्वयोरेकस्मिंश्च स्पात्, तस्य यः स यादिः, तस्य तथा वा लपू स्यात् । गर्गकुलम् , गार्यकुलम् । बिदकुलम् , बैवकुलम् , येकेष्विति किम् ? गर्गाणां कुलं गर्गकुलम् ॥ १३४ ॥ न प्रागजितीये स्वरे । ६ । १ । १३५ । गोत्रे उत्पन्नस्य बहुष्वित्यादिना यालुबुक्ता सा प्राग्जितीयेऽर्थे यः स्वरादिस्तद्धितः तद्विषये नस्यात्। गार्गीयाः, आत्रेयीयाः। प्राजितीय इति किम् ? अत्रीयः । स्वर इति किम् ? गर्णमयम् ॥ १३५ ॥ . गर्गमाविका । ६ । १ । १३६ । . द्वन्द्वात् प्राजितीये विवाहे योऽकळू , तस्पिनको लुभावः स्यात् । गर्गभार्गविका ॥ १३६ ॥ यूनि लुए | ६ | १ | १३७। यून्युत्पमस्य प्रत्ययस्य माग्जितीयेऽर्थे स्वरापी प्रखये विषयभूते लुप् स्यात् , लुपि सत्यां यः प्राप्नोति स . स्यात् । पाण्टाहृतस्यापत्यं पाण्डाहृतिः, तस्यापत्यं युवा पापटाहता, तस्य च्छात्रा इति प्राजितीयेऽर्थे स्वरादौ विकीर्षिते णस्य लुप् , ततो "वृद्धेऽम् " (६-३-२८) इत्पन । पाण्याहृताः ।। १३७ ॥ . बायनणायनिमोः। ६ ॥ १ ॥१३८ । अनयोयुवायोः प्राग्जितीये स्वरादी विषये लुष षा स्यात् । गार्गीयाः, गायणीया वा । होत्रीया, हौत्रायणीया वा ॥ १३८ ॥ , "पाण्टाहति-मिमतात् ग" (-1-१०४) सूत्रेण णप्रत्ययः। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२२] हैमशब्दानुशासनस्य द्रीत्रो वा । ६ । १ । १३९। द्रीजन्तात् परस्य युवार्थस्य लुब् वास्यात्। औदुम्परिः, औदुम्बरायणो वा ॥ १३९ ॥ जिदार्षाद् अणिोः । ६ । १ । १४० । जिद् आर्षश्च योऽपत्यप्रत्ययः तदन्तात् परस्य यूनि अण इञश्च लुप् स्यात् । तैकायनिः पिता, तैकायनिः पुत्रः, वाशिष्ठः पिता, वाशिष्ठः पुत्रः ॥ १४० ॥ . अब्राह्मणात् । ६ । १ । १४१ । अब्राह्मणाद् वृद्धप्रत्ययान्ताद् युवार्थस्य लुप् स्यात् । आङ्गः पिता, आङ्गः पुत्रः। अब्राह्मणादिति किम् ? गार्ग्यः पिता, गाायणः पुत्रः ॥ १४१॥ पैलाऽऽदेः। ६ । १ । १४२ । एभ्यो यूनि प्रत्ययस्य लुप् स्यात् । पैलः पिता, पैलः पुत्रः, शालङ्किः पिता, शालङ्किः पुत्रः॥ १४२ ।। प्राच्यञोऽतौल्वल्यादेः। ६ । १ । १४३। प्राच्यगोत्रे इजन्तात् तौल्वल्यादिवर्जाद यूनि प्रत्ययस्य लुप् स्यात्। पानागारिः पिता, पानागारिः पुत्रः, मान्थरेषणिः पिता, मान्थरेषणिः पुत्रः। प्राच्य इति किम् ? दाक्षिः पिता, दाक्षायणः पुत्रः । तौल्वल्यादिवर्जनं किम् ? तौल्वलिः पिता, तौल्वलायनः पुत्रः ॥ १४३ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ षष्ठस्याध्यायस्य . प्रथमः पाद समाप्तः॥६।१॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः ॥ द्वितीयः पादः ॥ रागात् 'टो रक्ते । ६ । २ । १ । रज्यते येन कुसुम्भादिना तदर्थात् तृतीयान्ताद् रक्तमित्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । कौसुम्भं वासः ॥ १ ॥ [ ४२३] लाक्षा- रोचनाद् इण् । ६ । २ । २ | आभ्यां दान्ताभ्यां रक्तमित्यर्थे इकणू स्यात् । लाक्षिकम्, रौचनिकम् ॥ २ ॥ शकल कर्द्दमाद् वा । ६ । २ । ३ । • आभ्यां दान्ताभ्यां रक्तमित्यर्थे इकणू वा स्यात् । शाकलिकम्, शाकलम् । कामिकम्, काईमम् ॥ ३ ॥ नील-पीताद् अ-कम् । ६ । २ । ४ । आभ्यां दान्ताभ्यां रक्तमित्यर्थे यथासङ्ख्यमको स्याताम् । नीलम्, पीतकम् ॥ ४ ॥ उदितगुरोर्भाद्युक्ते । ६ । २ । ५ । उदितो बृहस्पतिर्यत्र नक्षत्रे तदर्थाद् यन्ताद् युक्तेऽन्ये यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । पौषं वर्षम् ॥ ५ ॥ चन्द्रयुक्तात् काले, लुप् तु अप्रयुक्ते | ६ | २|६| चन्द्रेण युक्तं यन्नक्षत्रं तदर्थात् टान्ताद् युक्ते कालेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात्, अप्रयुक्ते तु कालार्थे लुप् स्यात् । पौषमहः, अद्य पुष्यः ॥ ६ ॥ १ टः, इत्येकदेशेन समुदायोपलक्षणत्वात् तृतीयान्तादित्यर्थः । शुक्लादीनां वर्णानां वर्गान्तरकरणमिह रक्तार्थः । कुसुम्मेन रक्तं कौसुम्भम् । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२५] हैमशब्दानुशासनस्य द्वन्द्वाद् ईयः । ६ । २ । ७। चन्द्रयुक्तं यन्नक्षत्रं तदर्थाद् द्वन्द्वात् टान्ताद् युक्ते कालेऽर्थे ईयः स्यात् । राधानुराधीयमहः ॥ ७॥ श्रवणाऽश्वत्थात् नाम्नि अः । ६।२८ · चन्द्रयुक्तार्थात् श्रवणादश्वत्थाच्च टान्ताद् युक्ते काले ऽर्थे संज्ञायामः स्यात् । श्रवणा रात्रिः, अश्वत्था पौर्णमासी। नानीति किम् ? श्रावणमहः , आश्वत्थमहः ॥८॥ षष्ठ्याः समूहे। ६ । २।९। षष्ठयन्तात् समूहेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययाः स्युः। चापम् , स्त्रैणम् ॥९॥ भिक्षाऽऽदेः । ६ । २ । १०। एभ्यः षष्ठ्यन्तेभ्यः समूहे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात। भैक्षम् , गार्भिणम् ॥ १०॥ क्षुद्रकमालवात् सेनानाम्नि । ६।२।११। अस्मात् षष्ठयन्तात् समूहेऽण् स्यात् , सेनासंज्ञायाम् । क्षौद्रकमालवी सेना ॥ ११ ॥ गोत्रोक्ष-वत्सोष्ट्र-वृद्धाऽजोरभ्र-मनुष्य-राजराजन्य-राजपुत्रादकर । ६।३।१२। गोत्रप्रत्ययान्ताद् उक्षादेश्च समूहेऽकञ् स्यात् । गार्गकम् , औक्षकम् , वात्सकम् , : औष्ट्रकम् , वार्द्धकम् । आजकम् , औरभ्रकम् , मानुष्यकम् , राजकम् , राजन्यकम् , राजपुत्रकम् ॥ १२ ॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [४२५] केदारात् ण्यश्च । ६ । २ । १३ । केदारात् समूहे ण्योऽकञ् च स्यात् । कैदार्यम् , केदारकम् ।। १३ ।। कवचि-हस्त्यचित्तात् चेकण । ६ । २।१४ । कवचिहस्तिभ्यामचित्तार्थात् केदाराच समूहे इकण स्यात् । कावचिकम्, हास्तिकम्, आपूपिकम्, कैदारिकम् ॥ १४ ॥ धेनोरनत्रः । ६ । २।१५। धेनोरनअपूर्वात् समूहे इकण् स्यात् । धैनुकम् । अनन इति किम् ? आधैनवम् ॥ १५ ॥ . ब्राह्मण माणव-वाडवाद् यः। ६ । २ । १६ । एभ्यः समूहे यः स्यात्। ब्राह्मण्यम्, माणव्यम्, वाडव्यम् ॥१६॥ . . गणिकाया ण्यः। ६ । १ ॥१७॥ अस्मात् समूहे ण्यः स्यात् । गाणिक्यम् ॥ १७ ॥ केशाद् वा । ६।२।१८। केशात् समूहे ण्यो वा स्यात् । कैश्यम्, कैशिकम् ॥१८॥ वाऽश्वादीयः । ६ । २।१९ । अश्वात् समूहे इयो वा स्यात् अश्वीयम्, आइयम् ॥१९॥ पर्था वण । ६ । २ । २० । पर्धाः समूहे इवण् स्यात । पार्वम् ॥ २०॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२६] हेमशब्दानुशासनस्य ईनोऽह्नः क्रतौ । ६।२ । २१ । अहः समूहे क्रतावीनः स्यात् । अहीनः क्रतुः, आहूमन्यत् ॥ २१ ॥ * पृष्ठाद् यः। ६।२।२२। । पृष्ठात् समूहे क्रतो या स्यात् । पृष्ठ्यः क्रतुः ॥ २२ ॥ चरणाद् धर्मवत । ६ । २ । २३ । कठादेर्धमें इव समूहे प्रत्ययाः स्युः । यथा कठानां धर्मः काठकं, तथा समूहेऽपि ॥ २३ ॥ गोरथ-चातात् 'त्रल-कटयल ऊलम् । ६।२।२४। एभ्यः समूहे यथासङ्ख्यमेते स्युः । गोत्रा, रथकव्या, वातूलः ॥ २४ ॥ पाशाऽऽदेश्च ल्यः । ६ । २ । २५ । अस्माद् गवादेश्च समूहे ल्यः स्यात् । पाश्या, तृण्या, गव्या, रथ्या, वात्या ॥ २५ ॥ श्वादिभ्योऽन् । ६ । २।२६। एभ्यः समूहेऽन स्यात । शौवम्, आहम् ॥ २६ ॥ खलाऽऽदिभ्यो लिन् । ६।२।२७। एम्यः समूहे लिन् स्यात् । खलिनी, अकिनी ॥ २७ ॥ प्राम-जन-बन्धु गज-सहायात् तल्। ६ । २।२८। एभ्या समूहे तल् स्यात्। ग्रामता, जनता, बन्धुता, गजता, सहायता ॥२८॥ १ लकारी स्त्रीलिङ्गार्यो, एवं “पाशादेव ल्यः” इत्यादिसूत्रेष्वपि । तृण्या तृणसमूहः। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___स्वोपजलघुतिः ४२७] पुरुषात् कृत-हित-वध-विकारे चैयन । ६।१ । २९ । ___ एषु समूहे च पुरुषादेयञ् स्यात् । पौरुषेयो ग्रन्था, पौरुषेयं पथ्यम् , पौरुषेयो वधो विकारो वा, पौरपेया समूहः ॥ २९॥ विकारे । ६ । ३ । ३० । षष्ठयन्ताद् विकारे यथाविहितं प्रत्ययाः स्यु आश्मना, आश्मः ॥३०॥ प्राण्यौषधि वृक्षेभ्योऽवयवे च । ६।२।३१। एभ्यः षष्ठयन्तेभ्यो विकारेऽवयवे च यथाविहितं प्रत्ययाः स्युः । कापोतं सक्थि मांसं वा, वो काण्डं भस्म वा, एवं बैल्वम् , |॥ ३१॥ . तालाद् धनुषि । ६।२ । ३२।। ताला धनुपि विकारेण स्यात् । तालं धनुः । धनुपीति किम् ? तालमयं काण्डम् ॥ ३२॥ .. त्रपु-जतोः षोन्तश्च । ६ । २।३३ । आभ्यां विकारेऽण् स्यात्, पान्तः। पापुषम् जातु..षम् ॥ ३३ ॥ शम्या लः। ६ । २।३४। शम्या विकारेऽवयवे चाऽण स्यात् , सयोगे लान्तः। शामीलं भस्म, शामीली शाखा ॥ ३४ ॥ पयस-द्रोयः । ६२।३५ । आभ्यां विकारे यः स्यात् । पयस्यम् , द्रव्यम् ॥३५॥ १ पुरुषेण कृतः, पुरुषाय हितम् , पुरुषाणां वधः, विकारः समूहश्च पोकनेर इति । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य उष्ट्रादकञ् । ६ । २ । ३६ । उष्ट्राद् विकारेऽवयवे चाकञ् स्यात् । औष्ट्रकं मांसमङ्गं वा ॥ ३६ ॥ [ ४२८ ] उमोर्णाद् वा | ६ | २ | ३७ । आभ्यां विकारेऽवयवे चाsकव् वा स्यात् । औमकम्, औमम् । और्णकम् और्णः कम्बलः ॥ ३७ ॥ " एण्या एयञ् । ६ । २ । ३८ । roar विकारेऽवयवे चैयञ् स्यात् । ऐणेयं मांसमङ्ग वा ॥ ३८ ॥ कौशेयम् । ६ । २ । ३९ । कोशाद विकारे एयन् स्यात् । कौशेयं वस्त्रं सूत्रं वा ॥ ३९ ॥ परशव्याद् यलुकू च । ६ । २ । ४० । अस्माद् विकारेऽण् स्यात्, यस्य लुक् च । पारशवम् 1180 11 कंसीयात् ञ्यः । ६ अस्माद् विकारे यः स्यात, । २ । ४१ । तद्योगे यलुकू च । कांस्यम् ॥ ४१ ॥ हेमार्थात् माने । ६ । २ । ४२ । अस्मात् माने विकारेऽण् स्यात् । हाटको निष्कः । मान इति किम् ? हाटकमयी यष्टिः ॥ ४२ ॥ द्रोर्वयः । ६ । २ । ४३ । द्रोर्माने विकारे वयः स्यात् । द्रुवयं मानम् ॥ ४३ ॥ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४२९] मानात् क्रीतवत् । ६ । २ । १४ । मानं सङ्ख्यादि । तदर्थाद विकारे क्रीते इव प्रत्ययाः स्युः । यथा शतेन क्रीतः शत्यः, शतिको वा, तथा तद्विकारेऽपि ॥४४॥ . हेमाऽऽदिभ्योऽञ् । ६ । २।४५। एभ्यो यथायोगं विकारेऽवयवे चाऽञ् स्यात् । हैमी यष्टिः, राजतः ॥ ४५ ॥ अभक्ष्याऽऽच्छादने वा मयद।६।२।४६। षष्टयन्ताद् भक्ष्याच्छादनवर्जे यथायोगं विकारेऽवयवे च मयड् वा स्यात् । भस्ममयम् , भास्मनम् । अभक्ष्याच्छादन इति किम् ? मौद्गः सूपः, कार्पासः पटः, ॥४६॥ शर-दर्भ-कूदी तृण-सामचल्वजात् । ६।२।४७। एभ्योऽभक्ष्याच्छादने विकारेऽवयवे च नित्यं मयट् स्यात्। शरमयम् , दर्भमयम् , कूदीमयम् , तृणमयम् , सोममयम् , वल्वजमयम् ॥ ४७ ॥ एकस्वरात् । ६ । २।४८। अस्माद् भक्ष्याच्छादनवर्जे विकारेऽवयवे च नित्यं मयट् स्यात् । वाङ्मयम् ॥४८॥ दोरप्राणिनः । ६ । २।४९। अप्राण्यांद् दोरभक्ष्याच्छादने विकारेऽवयवेचमयट् स्यात् । आम्रमयम् । अप्राणिन इति किम् ? चाषम् , चापमयम् ॥४९॥ १ दुसंज्ञकाद् अप्राणिवाचिनः अत्राऽप्राणीति त्रसप्राणिभिन्नं ज्ञेयम् , इतरथाऽऽम्राऽऽदीनामपि मयट् न स्यात् । जनानामाचाराङ्गादिसूत्रेषु आम्रादिष्वपि जीवस्य प्रतिपादनाद्, विज्ञानसिद्धत्वाच टित्त्वात् स्त्रियां लीः । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३०] हैमशब्दानुशासनस्य गोः पुरीषे । ६।२।५० । गोः पुरीषेऽर्थे मयट् स्यात् । गोमयम्। पयस्तु गव्यम् ।।५०॥ वीहेः पुरोडाशे। ६ । २। ५१ । बीहेः पुरोडाशे विकारे नित्यं मयट् स्यात् । व्रीहिमयः पुरोडाशः । पुरोडाश इति किम् ? त्रैह औदनः, वैहं भस्म तिल-यवाद अनाम्नि । ६ । २ । ५२ । आभ्यां विकारेऽवयवे चाऽनाम्नि मयट् स्यात् । तिलमयम् , यवमयम् । अनाम्नीति किम् ? तैलम् , यावः ॥५२॥ षिष्टात् । ६।२। ५३ । पिष्टाद् विकारेऽनाम्नि मयट् स्यात् । पिष्टमयम् ॥५३॥ नाम्नि कः। ६।२ । ५४ । पिष्टाद् विकारे नाम्नि कः स्यात् । पिष्टिका ।। ५४ ।। योगोदोहाद् इन हियङ्गुश्वास्य । ६।२।५५ अस्माद् विकारे नाम्नीनञ् स्यात् , तद्योगे च प्रकृते हियाः। हैयङ्गवीनं नवनीतं घृतं वा । नाम्नीत्येव ? मोगोवोहं तक्रम् ॥ ५५ ॥ अपो यञ् वा । ६।२। ५६ । अपो विकारे यञ् वा स्यात् । आप्यम्, अम्मयम् ॥५६॥ लुप् बहुलं पुष्पमुले । ६ । २ । ५७ । विकारेऽवयवार्थस्य पुष्पे मूले चार्थे प्रत्ययस्य बहुलं लुप् स्यात् । मल्लिका पुष्पम्, विदारी मूलम् । बहुलमिति किम् ? वारणं पुष्पम् , ऐरण्डं मूलम् ॥ ५७ ।। मयटि परे पूर्वपकारस्य मकारो जातः । मयट् तु ६-२-४६ सूत्रात् स्यात् । “विकारे" (६-२-३०) सूत्रस्य चानुत्तिः । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४३१] फले । ६ । २ । ५८ । विकारेऽवयवे चार्थे प्रत्ययस्य लुप् स्यात् । आमलकम् ॥५०॥ ___ प्लक्षाऽऽदेरण । ६ । २ । ५९ । एभ्यो विकारेऽवयवे वा फलेऽण् स्यात् । प्लाक्षम्, आश्वत्थम् ।। ५९ ॥ जम्ब्बा वा । ६ । २ । ६०। जम्ब्बा विकारेऽवयवे वा फलेऽण वा स्यात् । जाम्बवम्, जम्बु, जम्बूः ॥ ६ ॥ न द्विरद्रुवय-गोमय-फलात् । ६ । २ । ६१ । द्रुवयगोमयो फलार्थ च मुक्त्वाऽन्यस्माद् विकारावयवयोर्द्विः प्रत्ययो न स्यात्, कापोतस्य विकारोऽवयवो वेति मयट् न स्यात् । अदुवयेत्यादीति किम् ? द्रौवयं खण्डम् , गोमयं भस्म, कापित्थो रसः ॥ ६१॥ पितृ-मातुर्य-डुलं भ्रातरि। ६ । २। ६२ । आभ्यां भ्रातर्यर्थे यथासङ्ख्यं व्यडुलो स्याताम् । पितृव्यः, मातुलः ॥ ६२॥ पित्रो महद । ६।२। ६३ । . ... पितृमातृभ्यां मातापित्रोर्डामहट् स्यात् । पितामहः, पितामही, मातामहः, मातामही ॥६३ ॥ अवेर्दुग्घे सोढ-दूस-मरीसम् । ६ । २ । ६४ । अवेर्दुग्धेऽर्थे एते स्युः । अविसोढम्, अविदूसम्, अविमरीसम् ॥ ६४॥ राष्ट्रेऽनङ्गाऽऽदिभ्यः । ६ । २ । ६५। . १ पक्षे प्रत्ययलुपि नपुंसकस्त्रीलिङ्गते भवतः, जम्बु इति नपुंसकािम् । Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३२] हैमशब्दानुशासनस्य अङ्गादिवर्जात षष्ठयन्ताद् राष्ट्रेऽर्थेऽण् स्यात् । शैवम् । अङ्गादिवर्जनं किम् ? अङ्गानां वङ्गानां वा राष्ट्रमिति वाक्यमेव ॥ ६५ ॥ राजन्याऽऽदिभ्योऽकत्र । ६ । २ । ६६ । - एभ्यो राष्ट्रेऽकञ् स्यात् । राजन्यकम्, दैवयातवकम् ॥६६॥ वसातेर्वा । ६ । २ । ६७। अस्माद राष्ट्रऽकञ् वा स्यात् । वासातकम्, वासातं राष्ट्रम् ॥ ६७॥ भौरिक्यैषुकार्यादेविध-भक्तम् । ६ । २ । ६८ । . . भौरिक्यादे राष्ट्र विधः, एषुकार्यादेश भक्तः स्यात् । भौरिकिविधम् , भौलिकिविधम् । ऐषुकारिभक्तम्, सारस्यायनभक्तम् ॥ ६८॥ निवासाऽदूरभवे इति देशे नाम्नि। ६ । २ । ६९ । __षष्ठयन्तात् निवासाऽदूरभवयोर्यथाविहितं प्रत्ययः स्यात, तदन्तं चेद् रूढम् । देशनाम शैवम्, वैदिशं पुरम् ॥६९॥ तदत्रास्ति । ६ । २ । ७०।। तदिति प्रथमान्ताद्, अत्रेति सप्तम्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् , प्रथमान्तं चेदस्तीति प्रत्ययान्तं चेद् देशनाम । औदुम्बरं पुरम् ॥ ७० ॥ तेन निवृत्ते च । ६ । २ । ७१। तेनेति तृतीयान्तात् निवृत्तेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् , देशनाम्नि । कौशाम्बी ॥७१ ॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ३] नद्यां मतुः । ६।२।७२। निवासाद्यर्थचतुष्के यथायोगं मतुः स्यात्, नयां देशनाम्नि । उदुम्बरावती ॥७२॥ मध्वादेः । ६ । २ १७३। एभ्यश्चातुरर्थिको देशनाम्नि मतुः स्यात् । मधुमान् , विसवान् ॥ ७३॥ नड-कुमुद-वेतस-महिषात् डित् । ६ । २ । ७४ । एभ्यो डित् मतुश्चातुरार्थको देशनाम्नि स्यात् । नड्वान् , कुमुद्वान् , वेतस्वान् , महिष्मान् ॥ ७४ ॥ नड-शादाद वलः । ६।२७५ । आभ्यां चातुरार्थको डिद् वलो देशनाम्नि स्यात् । नड्वलम्, शाड्वलम् ॥ ७५ ॥ शिखायाः । ६ । २ । ७६। अस्मात् चातुरार्थिको देशनाम्नि वलः स्यात् । शिखावलं पुरम् ॥ ७६ ॥ शिरीषादिक-कणौ । ६ । २ । ७७ । अस्माद् देशनाम्नि चातुरर्थिकाविककणो स्याताम् शिरीषिका शरीषकः ॥ ७७॥ शर्कराया इकण-ईयाऽण् च । ६ । २ । ७८ । अस्माचातुरर्थिका देशनाम्नि इकणीयाण, चकारात् इक-कण इत्येते स्युः। शार्करिकः, शर्करीयः, शॉर्कर, शर्करिकः, शार्करकः ॥७८ ॥ , निवासाऽदूरभवयोः तदत्रास्ति-तेन निर्वृतमित्यत्रार्षचतुष्टये । ५५ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३४] हेमशब्दानुशासनस्य राऽश्माऽऽदेः। ६ । २।७९ । चातुरर्थिको देशनाम्नि रः स्यात् । अश्मरः यूषरः ॥७९॥ प्रेक्षाऽऽदेरिन् । ६ । २ । ८० । चातुरर्थिको देशनाम्नि इन् स्यात् । प्रेक्षी, फलकी॥८०॥ तृणाऽऽदेः सल् । ६।२ । ८१ । चातुरर्थिको देशनाम्नि सल स्यात् । तृणसा, नदसा ॥ ८१ ॥ काशाऽऽदेरिलः । ६।२ । ८२ । अस्मात् चातुरार्थको देशनाम्नि इलः स्यात् । काशिलम्, वाशिलम् ॥ ८२ ॥ अरीहणाऽऽदेरकण । ६।२ । ८३ । चातुरर्थिको देशनाम्न्यकण् स्यात् । आरीहणकम् , खाण्डवकम् ॥ ८३ ॥ सुपन्थ्यादयः । ६।२।८४। चातुरर्थिको देशनाम्नि ज्यः स्यात् । सौपन्थ्यम्, सौवन्भ्यम् ॥ ८४ ॥ सुतङ्गमाऽऽदेखि । ६ । २ । ८५। चातुरार्थको देशनाम्नि इब् स्यात् । सौतङ्गमिः, मौरिवित्तिः ॥ ५॥ बलाऽऽदेर्यः । ६ । २ । ८६ । चातुराको देशनाम्नि यः स्यात् । बल्यम्, चुल्यम् ॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [४३५] अहरादिभ्योऽजू । ६ । २। ८७ । चातुरर्थिको देशनाम्नि अञ्स्यात्। आक्षम्, लोमम् ।। सख्यादेरेयण । ६। २ । ८८ । चातुरर्थिको देशनाम्नि एयण् स्यात् । साखेया, साखिदत्तेयः ॥ ८८ ॥ पन्थ्यादेरायनण । ६ । २ । ८९ । चातुरर्थिको देशनाम्नि आयनण स्यात् । पान्थायनः, पाक्षायणः ॥ ८९ ॥ कर्णाऽऽदेरायनिने । ६ । २ । ९० । चातुरर्थिको देशनाम्नि आयनिज स्यात् । कार्णायनिः, वाशिष्ठायनिः ॥ ९० ॥ उत्काराऽऽदेरीयः । ६ । २ । ९१। चातुरर्थिको देशनाम्नि ईयः स्यात् । उत्करीयः सङ्करीयः ॥ ९१ ॥ नडाऽऽदेः कीयः। ६ । २ । ९२ । चातुरर्थिको देशनाम्नि कीयः स्यात् । नडकीयः, प्लक्षकीयः॥ ९२ ॥ कृशाश्वाऽऽदेरीयण । ६ । २ । ९३ । चातुरार्थको देशनाम्नि ईयण स्यात् । काश्विीयः, आरिष्टीयः ॥९३॥ ऋश्यादेः कः । ६ । २ । ९४ । चातुरर्थिको देशनाम्नि कः स्यात् । ऋश्यकः, न्यग्रो. धकः॥ ९४॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३६] हैमशब्दानुशासनस्य वराहाऽऽदेः कण । ६।२।९५। , चातुरर्थिको देशनाम्नि कण् स्यात् । वाराहकम्, पालाशकम् ॥९५॥ कुमुदाऽऽदेरिकः । ६ । २ । ९६ । . चातुरर्थिको देशनाम्नि इकः स्यात् । कुमुदिकम्, इकटिकम् ॥ ९६ ॥ अश्वत्थाऽऽदेरिकण ६ । २ । ९७ । चातुरर्थिको देशनाम्नि इकण् स्यात्। आश्वत्थिकम्, कौमुदिकम् ॥ ९७॥ साऽस्य पौर्णमासी । ६ । २ । ९८ । सेति प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे यथाविहितं नाम्नि प्रत्ययः स्यात् , प्रथमान्तं चेत् पौर्णमासी। पौषो मासोऽर्द्ध. मासो वा ॥ ९८॥ आग्रहायण्यश्वत्थाद् इकण । ६ ।२ । ९९ । आभ्यां प्रथमान्ताभ्यां षष्टयर्थे इकण स्यात् , तच्चेत् पौर्णमासी नाम्नि । आग्रहायणिको मासोऽर्द्धमासो वा, एवमाश्वस्थिकः ॥ ९९॥ चैत्री कार्तिकी-फाल्गुनी-श्रवणावा ।६।२।१००। एभ्यः साऽस्य पौर्णमासीतिविषये नाम्नि इकण वा, स्यात् । चैत्रिका, चैत्रो मासोऽर्द्धमासो वा । एवं कार्तिकिका, कार्तिकः । फाल्गुनिकः, फाल्गुनः। श्रावणिकः, श्रावणः ॥ १०॥ देवता। ६ । २।१०१। देवताऽर्थात् प्रथमान्तात् षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययः १ पौषी पौर्णमासी अस्य पौषो मासः । एवं माघादिष्वपि । २ जिना देवताऽस्य स जैन:, एक्माईतीवबौदवैष्णवाग्नेशऽऽदित्यादयः । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपज्ञलघुत्तिः [४३७] स्यात् । जैनः, आग्नेयः, आदित्यः ॥ १०१॥ पैगाक्षीपुत्राऽऽदेरीयः। ६ ।२।१०२। एभ्यः साऽस्य देवतेतिविषये ईयः स्यात् । पैङ्गाक्षीपुत्रीयम् , तार्णविन्दवीयं हविः ॥ १०२ ॥ शुक्राद् इयः । ६ । २ । १०३ । शुक्रात् साऽस्य देवतेतिविषये इयः स्यात् । शुक्रिय हविः ॥१०३॥ शतरुद्रात् तौ ।६।२।१०४ । .. अस्मात् सास्य देवतेतिविषये ईयः, इयश्च स्यात् । शतरुद्रीयम् , शतरुद्रियम् ॥ १०४ ॥ अपोनपात्-अपान्नपातस्तृचातः । ६ । २। १०५। आभ्यां साऽस्य देवतेतिविषये तो स्याताम् । तद्योगे चाऽऽतस्तृच् । अपोनप्त्रीयम् , अपोनस्त्रियम् । अपानप्त्री. यम् , अपान्नस्त्रियम् ॥१०५ ॥ महेन्द्रादु वा। ६ । २ । १०६ । अस्मात् साऽस्य देवतेतिविषये तो वा स्याताम् । महेन्द्रीयम् , महेन्द्रियम्, माहेन्द्रं वा हविः ॥१०६॥ कसोमात् टयण । ६ । २११०७। . आभ्यां साऽस्य देवतेतिविषये टयण स्यात् । कार्यम् , सौम्यं हविः ॥१०७॥ १ अपोनपात्-अपानपात् इत्याभ्या ईय-इयौ स्यातां, आत्-इत्यन्तस्य च तृच् भवतीत्यर्थः। २ को ब्रह्मा देवताऽस्येति कायम् । टित्त्वात् स्त्रियां कायीति स्यात् । णिस्वाद् वृद्धिः। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.४३८] हैमशब्दानुशासनस्य द्यावापृथिवी-शुनासीराऽमीषोम-मरुत्वत्-वास्तो. पति-गृहमेधाद् ईय-यो । ६ । २ । १०८ । एभ्यः साऽस्य देवतेतिविषये ईययौ स्याताम् । द्यावापृथिवीयम् , द्यावापृथिव्यम् । शुनासीरीयम् , शुना. सीर्यम् । अग्नीषोमीयम् , अग्नीपोम्यम् । मरुत्वतीयम् मरुत्वत्यम्। वास्तोपतीयम् , वास्तोष्पत्यम् । गृहमेधीयम्, गृहमेध्यम् ॥ १०८॥ वायु-ऋतु-पितृ उपसा यः । ६ । २ । १०९ । एभ्यः साऽस्य देवतेतिविषये य: स्यात्। वायव्यम् , मतव्यम् , पित्र्यम् , उषस्यम् ॥ १०९ ॥ - महाराज-प्रोष्ठपदाद् इकण् । ६।२१११० । आभ्यां साऽस्य देवतेतिविषये इकण् स्यात् । माहाराजिका, प्रौष्ठपदिकः ॥ ११० ॥ कालाद् भववत् । ६ ।२।१११॥ कालविशेषार्थेभ्यो यथा भवे प्रत्यया वक्ष्यन्ते, तया साऽस्य देवतेतिविषयेऽपि स्युः। यथा मासे भवं मासिकम्, प्रावृषि प्रावृषेण्यम् , तथा मासप्रावृदेवताकमपि ॥१११॥ आदेः छन्दसः प्रगाथे ।६।२।११२। प्रथमान्तादादेः छन्दसोऽस्येति षष्ठयथै यथाविहितं प्रत्ययः स्यात, प्रगाथे वाच्ये। पाङ्गतः प्रगाथः। आदेरिति किम् ? अनुष्टुब् मध्यमस्य प्रगाथस्य ॥ ११२ ॥ १ यत्र द्वे ऋचौ प्रग्रन्थनेन (प्रकृष्टरचनाविशेषण) प्रकर्षगानेन वा तिस्रः त्रिम स मन्त्रविशेषः प्रमाय इत्याचार्यः। पदिक्तरादिर्यस्य प्रगाथस्य स पारक्तः प्रगाथो वैदिकमन्त्रविशेष इत्यर्थः । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोशलघुति [1] योद-प्रयोजनाद् युद्धे । ६ । २ । ११३ । प्रथमान्ताद् योद्धर्थात् प्रयोजनार्थाच्च पध्यर्थे युद्ध यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । वैद्याधरं युद्धम्, सौभद्रं युद्धम् ॥ ११३ ॥ . भावघञोऽस्यां णः । ६।२।११४ । भावे घनन्तात् प्रथमान्तादस्यामित्यर्थे णः स्यात् । प्रापाता तिथिः । भावेति किम् ? प्राकारोऽस्याम् ॥११४॥ श्यैनम्पाता-तैलम्पाता। ६ । २ । ११५ । श्येनतिलयो वे घनन्ते पाते परे मोऽन्तः स्यात् । हमपाता, तैलम्पाता तिथिः कियाभूमिः क्रीडा बा ॥ - प्रहरणात् क्रीडायां णः। ६ । २ । ११६ । प्रहरणार्थात् प्रथमान्तावस्यामिति कीडायां णः स्यात् । दाण्डा क्रीडा । फ्रीडायामिति किम् ? खड्गः प्रहरणमस्यां सेनायाम् ॥ ११६ ॥ . तद् वेत्त्यधीते । ६ । २ । ११७। तदिति द्वितीयान्ताद् वेत्ति अधीते वा इत्यर्थयोर्यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । मौहूर्तः, छान्दसः ॥ ११७ ॥ 'न्यायादेरिकण् । ६ । २ । ११८ । एभ्यो वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण् स्यात् । नैयायिकः, नैयासिकः ॥ ११८ ॥ पद कल्प-लक्षणान्त-क्रत्वाख्यानाऽऽख्यायि कात् । ६।२। ११९ । १ न्यासं वेति अधीते वेति नैयासिकः । छन्दोऽधीते सदसः । । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४०] हेमशब्दानुशासनस्य - पदकल्पलक्षणान्तेभ्यः क्रत्वादेश्च वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण् स्यात् । पौर्वपदिकः, मातृकल्पिकः, गौलक्षणिकः, आग्निष्टोमिका, यावक्रीतिका, वासवदत्तिकः॥११९॥ अकल्पात् सूत्रात् । ६।२।१२० । कल्पवर्जात् परो यः सूत्रः तदन्ताद वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण् स्यात् । वार्तिकसूत्रिकः। अकल्पादिति किम् ? सौत्रा, काल्पसौत्रः ॥ १२०॥ अधर्म-क्षत्र-त्रि-संसर्गाऽङ्गाद् विद्यायाः ।६।२।१२१॥ धर्मादिवर्जात् परो यो विद्याशब्दः तदन्ताद् वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण् स्यात् । वायसविधिकः । अधर्मादेरिति किम् ? वैद्यः, धार्मविद्यः, क्षात्रविद्यः, त्रैविद्यः, सांसर्गविद्यः, आङ्गविद्यः ॥ १२१ ॥ याज्ञिकौकुत्थिक-लौकायितिकम् । ६ । २।१२२ । एते वेत्यधीते वेत्त्यर्थे इकणन्ता निपात्यन्ते । याज्ञिकः, औकत्थिकः, लोकायितिकः ॥ १२२ ॥ अनुब्राह्मणादिन् । ६।२।१२३ । अस्माद् वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इन स्यात् । अनुब्राह्मणी ॥ शत-षष्टेः-पथ इकट् । ६ । २।१२४ । आभ्यां परो यः पन्थास्तदन्ताद् वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकट् स्यात् । शतपथिकी, पष्टिपथिकः ॥ १२४ ॥ पदोत्तरपदेभ्य इकः।६।२। १२५ ॥ पदशब्द उत्तरपदं यस्य तस्मात् पदात् , पदोत्तरपदाच १ वायसस्य विद्यां वेत्तीति । त्र्यवयवा विद्या त्रिविद्या तां वेत्यधीते वा इति त्रैविद्यः। आचाराङ्गाऽऽपनि द्वादशाङ्गानि गणधरब्धानि जैनानां मूलसूत्राणि वेत्त्यधीते वेति भाजविद्यादिषु इकण् न स्यात् ।। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४४१] वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकः स्यात् , । पूर्वपदिका, पदिकः, पदोत्तरपदिकः ॥ १२५ ॥ पद-क्रम-शिक्षा-मीमांसा-साम्नोऽकः । ६ । २।१२६ । एभ्यो वेत्त्यधीते वेत्यर्थेऽकः स्यात् । पदकः, क्रमका, शिक्षकः, मीमांसक, सामकः ॥ १२६ ॥ स-सर्वपूर्वात् लुप् । ६ । २ । १२७ । सपूर्वात सर्वपूर्वाच्च वेत्त्यधीते वेत्यर्थे प्रत्ययस्य लुप् स्याद् । सवार्तिकः, सर्ववेदः ॥ १२७॥ सङ्ख्याकात् सूत्रे । ६ । २ । १२८ । सङ्ख्यायाः परो यः का, तदन्तात् सूत्रार्थाद् वेत्त्यधीते वेत्यर्थे प्रत्ययस्य लुपू स्यात्। अष्टकाः पाणिनीयाः॥ प्रोक्तात् । ६ ।२।१२९ । प्रोक्तार्थप्रत्ययान्ताद् वेत्त्यधीते वेत्यर्थे प्रत्ययस्य लुप् स्यात् । गोतमेन प्रोक्तं गौतमम्, तद्वेत्त्यधीते वा गौतमः ॥ वेदेनब्राह्मणमत्रैव । ६ । २ । १३० । प्रोक्तप्रत्ययान्तं वेदवाचि, इन्नन्तं ब्राह्मणवाचि चाsत्रैव वेत्त्यधीते वेति विषये एव प्रयुज्यते । कठेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा कठाः ताण्डयन प्रोक्तं ब्राह्मणं विदन्त्यधीयते वा ताण्डिनः ॥ १३० ॥ तेन च्छन्ने रथे । ६ । २ । १३१ । तेनेति तृतीयान्तात् छन्नेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । वास्त्रो रथः ॥ १३१ ॥ पाण्डुकम्बलाद् इन् । ६ । २ । १३२ । १ अष्टावध्यायाः परिमाणमस्य अष्टकं सूत्रम्, तद् विदन्त्यधीयते वेति अष्टका पाणिनीयाः, एवं दशाध्यायमुमास्वातिब्धं तत्त्वार्थसूत्रं विदन्तीति दशका उमास्वातीयाः। ५६ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [४४२] हेमशब्दानुशासनस्य अस्मात् टान्तात् छन्ने रथे इन् स्यात । पाण्डुकम्बली रथः ॥ १३२॥ .. दृष्टे साम्नि नाम्नि १६ । २ । १३३ । तेनेति टान्तात, दृष्टं सामेत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । संज्ञायाम् । क्रोचं साम, कालेयम् ॥ १३३॥ .. गोत्राद् अङ्कवत् । ६।२। १३४। गोत्रवाचिनः टान्ताद् दृष्टं सामेत्यर्थेऽङ्क इव प्रत्ययः स्यात् । औपगवकं साम ॥ १३४ ॥ वामदेवाद् यः। ६ । २।१३५। अस्मात् टान्ताद् दृष्टे साम्नि यः स्यात् । वामदेव्यं साम ॥१३५ ॥ डिद वाऽण।६।२। १३६ । - दृष्टं सामेत्यर्थेऽण् डिद् वा स्यात् । औशनम् , औशनसम् ॥ १३६ ॥ वा जाते दिः। ६ । २।१३७। जातेऽर्थे योष्ण द्विर्विहितः स डिद्वा स्यात् । शात. मिषः, । शातभिषजः। द्विरिति किम् ? हैमवतः ॥३७॥ तत्रोधृते पात्रेभ्यः । ६ । २ । १३८ । तत्रेति सप्तम्यन्तात् पात्रार्थाद् उद्धृतेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । शारावः ओदनः ।। १३८ । स्थण्डिलात् शेते व्रती । ६ ।२ ११३९ । स्थण्डिलात् सप्तम्यन्तात् शेते व्रतीत्यर्थे यथाविहितं प्रत्यय: स्यात् । स्थाण्डिलो भिक्षुः ॥ १३९ ॥ . कुञ्चेन दृष्टं साम क्रौञ्चम् , सामविशेषनामेदम् । एवं काळेयम् । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४४३] . संस्कृते भक्ष्ये । ६।२।१४०। सप्तम्यन्तात् संस्कृते भक्ष्ये यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । भ्राष्ट्रा अपूपाः ॥ १४ ॥ शूलोखाद् यः। ६ । २ । १४१ । आभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां संस्कृते भक्ष्ये या स्वात्। शूल्यम् , उख्यं मांसम् ॥ १४१॥ क्षीरादेयण । ६ । २ । १४२ । क्षीरात् सप्तम्यन्तात् संस्कृते भक्ष्ये एयण् स्यात् । क्षैरेयी यवागूः ॥ १४२ ॥ दन इकण | ६ । २।१४३ । दनः सप्तम्यन्तात् संस्कृते भक्ष्ये इकण् स्यात् । दाधिकम् ॥ १.४३ ॥ वादश्चितः। ६ । २। १४४ । अस्मात् सप्तम्यन्तात् संस्कृते भक्ष्येऽर्थे इकन वा स्यात् । औदश्विकम् , औदश्वितम् ॥ १४४ ॥ कचित् । ६।२।१४५। अपत्यादिभ्योऽन्यत्रार्थे क्वचिद् यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । चाक्षुष रूपम् , आश्वो रथः ॥ १४५ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुकृत्तौ षष्ठस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः॥६॥२॥ १ अन्यत्राऽप्यर्थे । यथा चक्षुषा गृहयते चाक्षुषं रूपम् , श्रावणः भन्या, यानो रखः, स्पार्शनः स्पर्शः, अश्वैरहयते आश्वः। एवं दृषदि पिष्टा दार्षदा., उदूखले धुण्यः मौदूखलः, चतुमिरहयते चातुरम् , सम्प्रति युज्यते साम्प्रतमित्यायपि बेयम् । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयः पादः ॥ 'शेषे । ६ । ३ । १ । अपत्यादिभ्योऽन्यस्मिन् प्राग्जितीयेऽर्थे इतोऽनुक्रम्यमाणं वेदितव्यम् ॥ १ ॥ नद्यादेरेयण | ६ | ३ | २। एभ्यः प्राग्जितीये शेषेऽर्थे एयणं स्यात् । नादेयः, वानेयः । शेष इत्येव ! समूहे नादिकम् ॥ २ ॥ १ राष्ट्राद् इयः । ६ । ३ । ३ । राष्ट्रशब्दात् शेषप्राग्जितीयेऽर्थे इयः स्यात् राष्ट्रियः ॥ ३ ॥ दूराद् एत्यः । ६ । ३ । ४ । दूरात् शेषेऽर्थे एत्यः स्यात् । दूरेत्यः ॥ ४ ॥ उत्तराद् आहञ् । ६ । ३ । ५ । उत्तरशब्दात् शेषेऽर्थे आहञ् स्यात् । औत्तराहः ॥५॥ पारावाराद् ईनः | ६ | ३ |६| पारावारशब्दात् शेषेऽर्थे ईनः स्यात् । पारावारीणः ॥ ६ ॥ व्यस्त-व्यत्यस्तात् । ६।३।७। पारावारात् शेषे ईनः स्यात् । पारीणः, अवारीणः, अवारपारीणः ॥ ७ ॥ १ उपयुक्तादन्यः शेषः । अपत्यादिभ्यः संस्कृतभक्ष्यान्तेभ्योऽन्योऽर्थः शेष उच्यते । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५] . यु-प्राग्-अपार उदक्-प्रतीचो यः।६।३।। दिवशब्दात् प्राच अपाचे उदच् प्रत्यच् इत्येतेभ्यश्चाव्ययानव्येभ्यः शेषेऽर्थे यः स्यात् । दिव्यम्, प्राच्यम्, अपाच्यम्, उदीच्यम्, प्रतीच्यम् ॥८॥ ग्रामाद ईना च । ६ । ३ । ९। ग्रामात् शेषऽर्थे ईनञ् यश्च स्यात् । ग्रामीणः, ग्राम्यः॥ कन्यादेश्चैयक ।६।३।१०। कठ्यादिभ्यो ग्रामाच शेषे एयकञ् स्यात् । कात्रेयका, पौष्करेयका ग्रामेयकः॥१०॥ कुण्ड्यादिभ्यो यलुक् च । ६।३।११ । कुण्ड्यादिभ्यः शेषेऽर्थे एयकञ् स्यात् , तद्योगे च यो लुक् । कोण्डेयकः, कोणेयकः ॥ ११ ॥ कुल-कुक्षि-ग्रीवात् श्वाऽस्यलङ्कारे ।६।३।१२। एभ्यः शेषेऽर्थे यथासङ्ख्यमेयकञ् स्यात् । कौलेयकः श्वा, कौक्षेयकोसिः, ग्रेवेयकोऽलङ्कारः ॥ १२ ॥ दक्षिणा-पश्चात् पुरसस्त्यण । ६।३।१३। ____ एभ्यः शेषेऽर्थे त्यण् स्यात् । दाक्षिणात्यः, पाश्चात्या, पौरस्त्यः ।। १३ ॥ वह्नि-ऊर्दि-पदि कापिश्याः टायनण् । ६।३ । १४ । __ एभ्यः शेषेऽर्थे टायनण स्यात् । वाहायनः, औयना, पार्दायनः, कापिशायनी द्राक्षा ॥ १४॥ रङ्कोः प्राणिनि वा । ६।३।१५। रङ्कुशब्दात् प्राणिनि विशिष्टे शेषेऽर्थे टायन वा स्यात् ।राङ्कवायणः, राङ्कयो गौः। कम्बलस्तु राङ्कवः॥१५॥ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४६] हैमशब्दानुशासनस्य कोहामात्र तसः त्यच् । ६।३। १६। . क्व-इह-अमा-इत्येतेभ्यः ऋतस्प्रत्ययान्तेभ्यश्च शेषेऽर्थे स्यन् स्यात् । क्वत्यः, इहत्यः, अमात्यः, तत्रत्यः कुतस्त्यः ॥ १६॥ नेध्रुवे । ६।३ । १७ । निशब्दाद् भुवेऽर्थे त्यच् स्यात् । नित्यं ध्रुवम् ॥१७॥ निसो गते । ६ । ३ । १८। निसशब्दाद् गतेऽर्थे त्यच स्यात् । निष्टयश्चण्डालः ॥ ऐषमस ह्यसू-श्वसो वा। ६ । ३ । १९ । एभ्यः शेषेर्थे त्यच् वास्यात्।ऐषमस्त्यम्, ऐषमस्तनम् । बस्त्यम्, स्तनम् । श्वस्त्यम् , श्वस्तनम् ॥ १९ ॥ कन्थाया इकण् । ६।३।२०। कन्या ग्रामविशेषः । कन्याशब्दात् शेषेऽर्थे इकण स्यात् । कान्थिकः ॥ २० ॥ वर्णावका । ६।३।२१। वणुदेशे या कन्था ततः शेषेऽर्थेऽका स्यात । कान्थकः ॥ रूप्योत्तरपदाऽरण्यात् णः। ६।३।२२।। रूप्योत्तरपदाद् अरण्याच शेषेऽर्थे णः स्यात् । वार्करूप्या, आरण्याः सुमनसः ॥ २२ ॥ दिक्पूर्वाद् अनाम्नः।६।३।२३ । दिक्पूर्वपदादनानोऽसंज्ञाविषयात् शेषेऽर्थे णः स्यात् । पौर्वशालः। अनान इति किम् ? पूर्वकार्णमृत्तिका ॥२३॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुतिः [४४७] मद्राद । ६।३।२४।। मद्रान्ताद् दिक्पूर्वपदात् शेषेऽर्थेऽञ् स्यात् । पौर्वमद्री ॥ उदग्ग्रामाद् यकल्लोम्नः । ६ । ३।२५। उदग्ग्रामवाचिनो यकृल्लोमनशब्दाच्छेषेऽर्थेऽञ् स्यात्। याकुल्लोमः । उदग्ग्रामादिति किम् ? अन्यस्मादण , याकृल्लोमनः ॥ २५ ॥ गोष्ठी-तैकी नकेती-गोमती-शूरसेन-वाहीक-रोमक पटचरात् । ६ । ३ । २६ । एभ्यः शेषेऽर्थेऽञ् स्यात्। गौष्ठा, तैकः, नैकेतः, गौमतः, शौरसेना, वाहीका, रोमकः, पाटच्चरः ॥ २६॥ शकलादेर्यत्रः । ६ । ३ । २७ । अस्माद् यजन्तात् शेषेऽर्थेऽञ् स्यात् । शाकला:, काण्वाः ॥ २७॥ वृद्धभः। ६ । ३।२८ । वृद्धजन्तात् शेषेऽर्थेऽञ् स्यात् । दाक्षाः । वृद्धेति किम् ? सौतङ्गमीयः ॥ २८॥ न दिस्वरात् प्राग-भरतात् । ६।३।२९। प्राग्गोत्रार्थाद् भरतगोत्रार्थाच द्विस्वराद् वृद्धजन्ताद न स्यात् । चैकीयाः, काशीयाः । द्विस्वरादिति किम् ? पानागाराः॥ २९ ॥ भवतोरिकणीयसौ।६।३।३०। भवच्छब्दात् शेषेऽर्थे इकण-ईयसौ स्याताम् । भावकम् , भवदीयम् ॥ ३०॥ १ वृद्ध इञ्प्रत्ययान्तात् अत्र स्यात् । ___२ भवतुशब्दात् । उकाराऽनुबन्धः। भवत इदं मावस्क, भवदीयम् । एवं पर-जनराज तदादिभ्योऽपि अकीयादय इदमाद्यर्थेषु यथाप्राप्तं प्रत्ययाः स्युः । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४८] हैमशब्दानुशासनस्य पर-जन-राज्ञोऽकोयः । ६।३। ३१ । एभ्यः शेषेऽर्थेऽकीयः स्यात् । परकीयः, जनकीयः, राजकीयः ॥ ३१ ॥ दोरीयः। ६ । ३ । ३२ । दुसंज्ञकात् शेषेऽर्थे ईयः स्यात् । देवदत्तीयः, तदीयः ॥३२॥ उष्णाऽऽदिभ्यः कालात् । ६ । ३। ३३ । उष्णादिपूर्वपदात् कालान्ताच्छेषेऽर्थे ईयः स्यात् । उष्णकालीयम् ॥ ३३॥ व्यादिभ्यो णिकेकणौ । ६ । ३ । ३४ । एभ्यो यः कालस्तदन्ताच्छेषेऽर्थे णिक इकण च स्यात् । वैकालिका, वैकालिकी, आनुकालिका, आनुकालिकी ॥३४॥ काश्यादेः । ६ । ३ । ३५। एभ्यो दुभ्यः शेषेऽर्थे णिक-इकणौ स्याताम् । काशिका, काशिकी, चैदिका, चैदिकी ॥ ३५ ॥ , वाहीकेषु ग्रामात् । ६ । ३ । ३६ । एषु ग्रामाद दोः शेषेऽर्थे णिकेकणौ स्याताम् । कारन्तपिका, कारन्तपिकी ॥ ३६ ॥ वोशीनरेषु । ६।३। ३७ । एषु ग्रामार्थाद् दोः शेषेऽर्थे णिकेकणौ वा स्याताम् । आह्वजालिका, आह्वजालिकी, आह्वजालीयः ॥ ३७॥ वृजि-मद्राद् देशात् कः । ६ । ३ । ३४ । वृजिमद्रशब्दाभ्यां देशवाचिभ्यां शेषेऽर्थे कः स्यात् । वृजिकः, मद्रकः ॥ ३८॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षलघुवृत्तिः [४४९] - उवर्णाद् इकण् । ६।३।३९ । उवर्णान्ताद् देशार्थाच्छेषेऽर्थे इकण् स्यात् । शाबरजम्बुकः ॥ ३९॥ दोरेव प्राचः।६।३ । ४० । माग्देशार्थांदुवर्णान्ताद् दोरेवेकण् स्यात् । आषाढजम्बुकः ॥ ४० ॥ ईतोऽकञ् ।६।३। ४१ । ईदन्तात् प्राग्देशार्थाद् दोः शेषेऽकञ् स्यात् । काकन्दकः ॥ ४१ ॥ रोपान्त्यात् । ६।३ । ४२। रोपान्त्यात् प्राचो दोः शेषेऽकञ् स्यात् । पाटलिपुत्रकः ॥ ४२ ॥ प्रस्थ-पुरचहान्त-योपान्त्य-धन्वार्थात् ।६। ३४३॥ प्रस्थपुरवहान्तेभ्यः योपान्त्याद् धत्वार्थाच देशवृत्तेर्दोः शेषेऽकञ् स्यात् । मालाप्रस्थकः, नान्दीपुरकः, पैलुवहका, साङ्काश्यकः, पारेधन्वकः ॥ ४३ ॥ ... , . . राष्ट्रभ्यः। ६।३।४४।... राष्ट्राऽर्थेभ्यो दुभ्यः शेषेऽकञ् स्यात् । आभिसारकः॥४४॥ बहुविषयेभ्यः । ६।३।४५। राष्ट्रेभ्यो बहुविषयेभ्यः शेषेऽकञ् स्यात् । आजकः॥५॥ धूमाऽऽदेः । ६।३।४६।। अस्माद् देशवृत्तेः शेषेऽकञ् स्यात् । धौमका, पाडण्डकः ॥४६॥ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५०] हैमशब्दानुशासनस्य सौवीरेषु कूलात् । ६।३। ४७॥ सौवीरदेशार्थात् कूलात् शेषेऽकञ् स्यात् । कोलकः ॥ समुद्रात् ननावोः । ६।३ । ४८। समुद्राद् देशार्थाच्छषेऽकञ् स्यात्, नरि नावि चार्थे । सातुद्रको ना, सामुद्रिका नौः । सामुद्रमन्यत् ॥४८॥ नगरात् कुत्सा-दाक्ष्ये । ६ । ३ । ४९ । नगराद् देशार्थाच्छेषेऽकञ् स्यात्, कुत्सायां दाक्ष्ये च गम्ये । चौरा हि नागरकाः, दक्षा हि नागरकाः ॥४९॥ कच्छाग्निचकत्र चत्तॊत्तरपदात् ।६।३।५०| कच्छाद्युत्तरपदाद् देशार्थाच्छेषेऽकञ् स्यात् । भारुककछका, काण्डाग्नकः, ऐन्दुवक्त्रका, पाहुवर्तकः ॥५०॥ अरण्यात् पथि-न्यायाऽध्यायेम-नर-वि हारे । ६।३। ५१ । अरण्याद् देशार्थात् पथ्यादौ शेषेऽकञ् स्यात् । आर. ण्यकः पन्था न्यायोऽध्याय इभो नरो विहारो वा ॥५१॥ गोमये वा । ६ । ३ । ५२ । अरण्याद् देशाच्छेचे गोमयेऽर्थेऽक वा स्यात् । आर. ण्यका गोमया, आरण्या वा ॥ ५२ ॥ कुरु-युगन्धराद् वा। ६ । ३ । ५३ । । - आभ्या देशार्थाम्यां शेषेऽकश् वा स्यात् । कौरवका, कौरवः । यौगन्धरका, यौगन्धरः ॥ ५३॥ . Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४५१] . साल्वाद् गो-यवाग्वपत्तौ । ६ ।३ । ५४॥ - साल्वाद् देशार्थाद् गवि, यवाग्वां पत्तिवले च मनुष्ये शेषेऽर्थेऽकञ् स्यात् । साल्वको गौः, साल्विका यवागर, साल्वको ना ॥५४॥ __कच्छाऽऽदे नृस्थे । ६ । ३ । ५५॥ देशार्थात् नरि नृस्थे च शेषेऽर्थेऽकन् स्यात् । काञ्छको ना, काच्छकमस्य स्मितम् ॥ ५५ ॥ कोपान्त्यात् चाऽण् ।६।३।५६ । कोपान्त्यात् कच्छादेव देशार्थाच्छेऽण् स्यात् । आर्षिक, काच्छ, सैन्धवः ॥ ५६ ॥ गोत्तरपदाद् ईयः । ६।३। ५७ ॥ अस्माद् देशार्थाच्छेषे ईयः स्यात् । श्वाविद्गीयः॥ कटपूर्वात प्राचः। ६।३ । ५८। कटपूर्वपदात् प्राग्देशार्थाच्छेषे ईयः स्यात् । कटग्रा. मीयः ॥ ५८॥ क-खोपान्त्य-कन्था-पलद नगर-ग्राम-हृदोत्तर पदाद दौः । ६।३।५९। कुपान्त्यात्, खुपान्त्यात् कन्थायुत्तरपदाच देशार्थाद दो। शेषेऽथे ईयः स्यात् । आरोहणकीयः, कोउशिखीयः, दाक्षिकन्धीयः, दाक्षिपलदीयः, दाक्षिनगरीयः, माहकिग्रामीयः, दाक्षिदीयः ॥ ५९ ।। पर्वतात् । ६ । ३ । ६०। अस्माद् देर्शार्थाच्छेषे ईयः स्यात् । पर्वतीयो राजा॥ १ ऋषिकाऽऽख्यो देशेस्तेषु जात आर्षिक इति कोपान्त्योदाहरणम् । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५३ ] हैमशब्दानुशासनस्य अरे वा | ६ | ३ | ६१ । पर्वताद् देशार्थात् नृवर्जे ईग्रो वा स्यात् । पर्वतीयानि, पार्वतानि फलानि ॥ ६१ ॥ पर्ण-कृकणाद भारद्वाजात् । ६ । ३ । ६२ ! आभ्यां भारद्वाजदेशार्थाभ्यां शेषे ईयः स्यात् । पर्णीयः, कृकणीयः ॥ ६२ ॥ गहाऽऽदिभ्यः । ६ । ३ । ६३ । एभ्यो यथासम्भवं देशार्थेभ्यः शेषे ईयः स्यात् । गहीयः, अन्तस्थीयः ॥ ६३ ॥ पृथिवीमध्यात् मध्यमश्चास्य । ६ । ३ । ६४ । अस्मात् देशार्थाच्छेषे ईयः स्यात, प्रकृतेश्व मध्यमादेशः । मध्यमीयः ॥ ६४ ॥ निवासात चरणेऽणु । ६ । ३ । ६५ । पृथिवीमध्यात् निवास देशार्थात् चरणे निवस्तरि शेषे - ऽर्थेऽण् स्यात्, मध्यमाऽस्य । माध्यमाश्ररणाः ||६५ ॥ वेणुकाऽऽदिभ्य ईयण् । ६ । ३ । ६६ । एभ्यो यथायोगं देशार्थेभ्यः शेषेऽर्थे ईयण स्थात | वैणुकीयः, वैत्रकीयः ॥ ६६ ॥ वा युष्मदस्मदोऽञ्-ईनौ युष्माकाऽस्माकं चास्य, एकत्वे तु तवक-ममकम् । ६ । ३ । ६७ । आभ्यां शेषेऽर्थेऽञ्-ईनञौ वा स्याताम्, तद्योगे च यथासङ्ख्यं युष्माकम कौ, एकार्थयोस्तु तवकममकौ । यौsurat, यौष्माकीणः, आस्माकी, आस्माकीनः । १ पृथिवीमध्यज्ञब्दस्य मध्यम इत्यादेशः, ईयश्चानेन विधीयेते । Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४५३] युष्मदीयः, अस्मदीयः । तावकः, तावकीनः मामका, मामकीनः । त्वदीयः, मदीयः॥ ६७ ॥ दीपादनुसमुद्रं ण्यः । ६ । ३ । ६८॥ समुद्रसमीपे यो द्वीपः तदर्थात् शेषेऽर्थे ण्यः स्यात् । द्वैप्यो ना तद्वासो वा ॥ ६८॥ ___ अर्द्धाद् यः । ६ । ३।६९ । अर्द्धशब्दाच्छेषे यः स्यात् । अर्द्धयम् ॥ ६९॥ सपूर्वाद् इकण । ६।३।७। सपूर्वपदाद् अर्द्धाच्छेषेऽर्थे इकण् स्यात् । पौष्कराकिः ।। दिक्पूर्वात् तौ ।६।३।७१। दिकपूर्वपदादात् शेषेऽथै य-इकणौ स्याताम् । पूर्वायम्, पौर्वार्चिकम् ॥७१॥ ग्राम-राष्ट्रांऽशाद् अण-इकणौ । ६ । ३।७२ । ग्रामराष्ट्रयोर्भागार्थादौद् दिक्पूर्वांच्छेषेऽणिकणौ स्याताम् । ग्रामस्य राष्ट्रस्य वा पौर्वार्द्धः, पौर्द्धिकः ॥७२॥ पराऽवराऽधमोत्तमादेयः । ६ । ३ । ७३ । परादिपूर्वाद‘त् शेषऽथै यः स्यात् । परायम्, अवरायम् , अधमाय॑म् उत्तमाय॑म् ॥ ७३ ॥ 'अमोऽन्ताऽवोऽधसः । ६। ३ । ७४ । अन्तादेः शेषेऽर्थेऽमः स्यात् । अन्तमः, अवमः, अधमः॥ पश्चादाद्यन्ताबाद् इमः। ६ । ३ । ७५। एभ्यः शेषऽर्थे इमः स्यात् । पश्चिमः, आदिमः, अन्तिमः, अग्रिमः ॥७५ ॥ १ अन्त-भवस-अधस् इति शब्देभ्यः, अन्तस्य तु भवादन्यत्रार्थेऽम: स्यात् । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५४] हैमशब्दानुशासनस्य मध्यात् मः । ६ । ३ । ७६ । मध्यशब्दाच्छेषेऽर्थे म: स्यात् । मध्ये जातो मध्यमः ॥ मध्ये उत्कर्षाऽपकर्षयोरः। ६ । ३ । ७७। अनयोर्मध्यार्थयोर्मध्यात् शेषेऽर्थे अः स्यात् । नात्यु. स्कृष्टो नात्यपकृष्टो मध्यपरिमाणो मध्यो विद्वान् ।। ७७ ॥ .. अध्यात्माऽऽदिभ्य इकण । ६।२७८। एभ्यः शेषेऽर्थे इकण् स्यात् । आध्यात्मिकम्, आधिदैविकम् ।। ७८ ॥ समानपूर्व-लोकोत्तरपदात् । ६।३ । ७९ । समानशब्दपूर्वपदेभ्यो लोकशब्दोत्तरपदेभ्यश्च शेषेऽर्थे इकण् स्यात् । सामानग्रामिकः ऐहलौकिकः ॥ ७९ ॥ .. वर्षाकालेभ्यः ।६।३ । ८०। वर्षायाः कालविशेषार्थाच शेषेऽर्थे इकण् स्यात् । वार्षिकः, मासिकः ॥८॥ शरदः श्राद्ध कर्मणि । ६ । ३ । ८१ । अस्मात् पितृकार्य शेषेऽर्थे इकण् स्यात् । शारदिकं श्राद्धम् ॥ ८१॥ नवा रोगाऽऽतपे। ६ । ३ । ८२ । शरदो रोगे आतपे च शेषेऽर्थे इकण वा स्यात् । शारदिकः, शारदो रोग आतपो वा ॥ ८२ ॥ निशा-प्रदोषात् । ६ । ३ । ८३ । . आभ्यां शेषेऽर्थे इकण् वा स्यात् । नैशिका, नैशः। प्रादोषिका, प्रादोषः ॥८३ ॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४५५] ___श्वसस्ताऽऽदिः। ६ । ३ । ८४ । श्वसः कालार्थात् शेषेऽर्थे तादिरिकण वा स्यात् । शौवस्तिकः, श्वस्त्यः ॥ ८४ ॥ चिर-परुत्-परारेः नः।६।३। ८५ । एभ्यः शेषेऽर्थे त्नो वा स्यात् । चिरत्नम् , परुत्नम् , परारित्नम् । चिरंतनम् , परुत्तनम् , परारितनम् ॥८५॥ पुरा नः। ६ । ३ । ८६ । पुराशब्दात् कालार्थाच्छेषेऽर्थे नो वा स्यात् । पुराणम् , पुरातनम् ॥ ८६ ॥ पूर्वाह्नाऽपराहणात् तनद । ६।३। ८७। आभ्यां शेषेऽर्थे तन वा स्यात् । पूर्वाह्नेतनः, अपरावेतनः । पौर्वाह्निकः, आपराह्निकः ॥ ८७ ॥ सायं-चिरं प्राहे-प्रगेऽव्ययात् । ६ । ३ । ८८ । एभ्योऽव्ययाच कालार्थात् शेषेऽर्थे तनड् नित्यं स्यात् । सायंतनम् , चिरन्तनम्, प्राढेतनम् , प्रगेतनम् , दिवातनम् ॥ ८८॥ · भऋतु-सन्ध्याऽऽदेरण । ६ । ३ । ८९ । भं नक्षत्रम् । तदर्थांद, ऋत्वर्थात् सन्भ्याऽऽदेश्च कालार्थाच्छेषेऽर्थेऽण् स्यात् । पौषः, गृष्मः सान्ध्या, आमावास्यः ॥ ८९ ॥ संवत्सरात् फल-पर्वणाः । ६।३ । ९० । अस्मात् फले पर्वणि च शेषेऽर्थेऽण् स्यात् । सांवत्सरं फलं पर्व वा ॥९॥ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५६] मशब्दानुशासनस्य । हेमन्ताद् वा, तलुक् च । ६ ।३।९१ । अस्माच्छेषेऽर्थेऽण वा स्यात् , तद्योगे च तो वा लुक् । हैमनम् , हैमन्तम् , हैमन्तिकम् ॥९१ ॥ प्रावृष एण्यः । ६ । ३ । ९२ ।.. अस्मात् शेषेऽर्थे एण्यः स्यात् । प्रावृषेण्यः ॥ ९२॥ स्थामा जिनान्तात् लुप् । ६ । ३ । ९३ । स्थामान्तादजिनान्ताच परस्य शैषिकस्य लुप् स्यात् । अश्वत्थामा, सिंहाजिनः ॥ ९३ ॥ . तत्र कृत-लब्ध-क्रीत-सम्भूते । ६ ।३।९५/ तत्रेति सप्तम्यान्तादेष्वर्थेषु यथायोगमणादय एयणा. दयश्च स्युः । सौघ्नः, औत्सः, बाह्या, नादेयः, राष्ट्रियः ॥ __कुशले । ६।३।९५ । सप्तम्यन्तात् कुशलेऽर्थे यथाविहितमण-एयणादयः स्युः। माथुरः, नादेयः ।। ९५ ॥ पथोऽकः । ६।३।९६ । सप्तम्यन्तात् पथः कुशलेऽक: स्यात् । पथकः ॥१६॥ कोऽश्मादेः । ६।३। ९७ । . अस्मात् सप्तम्यन्तात् कुशले कः स्यात् । अश्मकः, अशनिकः ॥ ९७॥ जाते ।६।३।९।। सप्तम्यन्तात् जातेऽर्थे यथाविहितमणेयणादयः स्युः। माथुरः, औत्सः, पायः, नादेयः, राष्ट्रियः ॥ ९८॥ १ "अः स्थाम्नः' (६-१-२२) इति प्रारिजतीयेऽर्य कृतस्य अस्य छप् जातः। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ४५७ ] प्रावृष इकः । ६ । ३ । ९९ । अस्मात् सप्तम्यन्तात् जाते इकः स्यात् । प्रावृषिकः ॥ नाम्नि शरदोऽकञ् । ६ । ३ । १०० । शरदः सप्तम्यन्तात् जातेऽकञ् स्यात्, नाम्नि । शारदका दर्भाः । नाम्नीनि किम् ? शारदं सस्यम् ॥ १००॥ सिन्ध्वपकरात काणौ । ६ । ३ । १०१ । आभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां जाते कोऽण् च स्यात्, नाम्नि | सिन्धुकः, सैन्धवः, अपकरकः, आपकरः ॥ १०१ ॥ पूर्वाणाऽपराहणाऽऽर्द्रा-मूल-प्रदोषावस्कराद् अकः । ६ । ३ । १०२ । एभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो जातेऽको नाम्नि स्यात् । पूर्वाह्नकः, अपराह्नकः, आर्द्रकः, मूलकः, प्रदोषकः अवस्करकः ।। पथः पन्थ च । ६ । ३ । १०३ । पथः सप्तम्यन्तात् जाते को नाम्नि स्यात्, तद्योगे पन्थः । पन्थकः ॥ १०३ ॥ अश्व वाऽमावास्यायाः । ६ । २ । १०४ । , अस्मात् सप्तम्यन्तात् जाते अः, अकश्च नाम्नि वा स्यात् । अमावास्यः, अमावास्यका, आमावास्यः ॥ १०४ ॥ श्रविष्ठाषाढा ईयण च । ६ । २ । १०५ | आभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां जाते ईयणू अश्च नाम्नि स्यात् । श्राविष्ठीयः, श्रविष्ठः, आषाढीयः, अषाढः ॥ फल्गुन्याष्टः । ६ । ३ । १०६ । अस्मात् सप्तम्यन्तात् जाते दो नाम्नि स्यात् । फल्गुनः ॥ १०६ ॥ १ सन्ध्यादित्वात् पक्षे "भ-ऋतु - अन्ध्यादेरणू" (६-३-८९) सूत्रादग् । ५८ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५८] हेमशब्दानुशासनस्य बहुलाऽनुराधा-पुष्पार्थ-पुनर्वसु-हस्त-विशाखा स्वातेल्प् ।६।३।१०७। एम्यः सप्तम्यन्तेभ्यः परस्य माऽणो जातेऽर्थे लुप् स्यात्, नाम्नि । बहुलः , अनुराधः, पुष्यः, पुनर्वसुः, इस्तः, विशाखा, स्वातिः शिशुः॥ १०७ ।। चित्रा-रेवती-रोहिण्याः स्त्रियाम् ।६।३।१०८) एभ्यः सप्तम्यन्तेम्यो भाषणो जाते स्त्रियां नाम्नि लुप स्यात । चित्रा स्त्री, रेवती, रोहिणी ॥ १०८॥ बहुलमन्येभ्यः।६।२।१०९ । श्रविष्ठादिभ्योऽन्येभ्यो भाऽर्थेभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो भाऽणो जातेऽर्थे लुब् बहुलं नाम्नि स्यात् । आभिजित् , आभिजितः, अश्वयुक्, आश्वयुजः । कचिन्नित्यम् , अश्विनः । क्वचिन्न स्यात् , माघः ॥ १०९ ॥ स्थानान्त-गोशाल-खरशालात् ।६।३ । ११०। एभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यः परस्य जाने प्रत्ययस्य नाम्नि लुप् स्यात् ।गोस्थानः, गोशाला, खरशालःशिशुः॥११०॥ वत्सशालादा । ६।३।१११ । अस्मात् सप्तम्यन्ताजाते प्रत्ययस्य नाम्नि लुब् वा स्यात् । वत्सशालः, वात्सशालः ॥ १११ ॥ सोदर्य-समानोदयौँ ।६।३।११२ । एतो जातेऽर्थे यान्तौ निपात्येते । सोदयः, समानोदर्यो माता ॥ ११२ ॥ १ बहुलासु कृत्तिकामु जातो बहुलः। अत्राणो लुपि ड्यादे!णस्या...'(२-४-१५) सूत्रेणापोऽपि लुप् । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४५९] कालादु देये ऋणे। ६।३ । ११३ । सप्तम्यन्तात कालार्थाद् देये ऋणेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । मासिकमृणम् ॥ ११३ ॥ कलाप्यश्वत्थ-यवबुसोमाव्यासैपमसो. ____ऽकः । ६। ३ । ११४ । एभ्यःसप्तम्यन्तेभ्यो देये ऋणेऽक: स्यात् । कलापकम् , अश्वत्थकम् , यवबुसकम् , उमाव्यासकम् एषेमकरणम्। ग्रीष्माऽवरसमादकत्र । ६ । २ । ११५। आभ्यां कालार्थाभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां देये ऋणेऽकञ् स्यात् । श्रेष्मकम् , आवरसमकमृणम् ॥ ११५ ॥ संवत्सराऽऽग्रहायण्या इकण च । ६ ।३।११६ । . आभ्यां सप्तम्यन्ताम्यां देये ऋणे इक , अकव च स्यात् । सांवत्सरिकम् , सांवत्सरकं फलं पर्व वा, आग्र. हायणिकम् , आग्रहायणकम् ॥ ११६ ॥ साधु-पुष्यत्-पच्यमाने । ६।३। १९७। - सप्तम्यन्तात् कालविशेषार्थाद एषु यथाविहितं प्रत्ययाः स्युः। हैमनं, हैमन्तमनुलेपनम् , वासन्त्यः कुन्दलताः, शारदाः शालयः ॥ ११७ ॥ . . उप्ते । ६।२ । ११८ । सप्तम्यन्तात् कालार्थादुप्तेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययाः स्युः। शारदा यवाः, हैमनाः ॥ ११८ ॥ आश्वयुज्या अकञ् । ६।३ । ११९ । अस्मात् सप्तम्यन्तादुप्तेऽर्थेऽकञ् स्यात् । आश्वयुजका माषाः॥ ११९ ॥ १ माघौ पुष्यति पच्यमाने चार्थ हैमन्तादीनि क्रमशः त्रीण्युदाहरणानि बन्ति । Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६० ] हेमशब्दानुशासनस्य ग्रीष्म वसन्ताद् वा । ६ । ३ । १२० । आभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यामुप्तेऽर्थेऽकञ् वा स्यात् । ग्रैष्मग्रैष्मं सस्यम् । वासन्तकम्, वासन्तम् ॥ १२० ॥ व्याहरति मृगे | ६ | ३ | १२१ | कम्, सप्तम्यन्तात् कालार्थाद् व्याहरति मृगेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । नैशिको नैशो वा शृगालः, प्रादोषिकः, प्रादोषो वा । मृग इति किम् ? वसन्ते व्याहरति कोकिला ॥ १२१ ॥ जयिनि च । ६ । ३ । १२२ । सप्तम्यन्तात् कालार्थात् जयिन्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्थात् । निशाभवमध्ययनं निशा, तत्र जयी नैशिकः नैशः, प्रादोषिकः, प्रादोषः, वार्षिकः ॥ १२२ ॥ भवे । ६ । ३ । १२३ । सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्थे यथाविहितमणेपणादयः स्युः । स्त्रौघ्नः, औत्सः, नादेयः, ग्राम्यः ॥ १२३ ॥ दिगादिदेहांशाद् यः । ६ । २ । १२४ । दिगादेर्देहावयवार्थाच्च सप्तम्यन्ताद् भवे यः स्यात् । दिश्यः, अप्सन्यः, मूर्द्धन्यः ॥ १२४ ॥ नाम्न्युदकात् । ६ । ३ | १३५ । | उदकात् सप्तम्यन्ताद् भवेऽर्थे यो नाम्नि स्यात् । उदक्या रजस्वला ।। १२५ ।। मध्याद दिन - ईया मोऽन्तश्च | ६ | ३ | १२६ । मध्यात् सप्तम्यन्तात् भवे एते स्युः, तद्योगे च मोऽन्तः । माध्यन्दिनाः, माध्यमः, मध्यमीयः ॥ १२६ ॥ । Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४६१] .. जिह्वामूलाऽङ्गुलेश्चेयः । ६ । ३ । १२७ । आभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां मध्याच भवे ईयः स्यात् । जिह्वामूलीयः, मध्यीयः ॥ १२७॥ वर्गान्तात् । ६।३।१२८ । अस्मात् सप्तम्यन्ताद् भवे ईयः स्यात् । कवर्गीयो वर्णः ॥ १२८ ॥ ईन-यौ चाऽशब्दे । ६ । ३ । १२९ । वर्गान्तात् सप्तम्यन्ताद् भवे एतावीयश्च स्युः, न तु शब्दे । भरतवर्गीणः, भरतवर्यः । शब्दे तु कवर्गीयः॥ दृति-कुक्षि कलशि-वस्त्यहेरेय'। ६।३।१३०। एभ्यः सप्तभ्यन्तेभ्यो भवे एयण स्यात् । दार्तयं जलम्, कौक्षेयो व्याधिः, कालशेयं तक्रम्, वास्तेयं पुरीषम्, आहेयं विषम् ॥ १३०॥ . आस्तेयम् । ६।३ । १३१ । अस्तेर्धन-विद्यमानार्थात् तत्र भवे एयण स्यात् , असृजो वा अस्त्यादेशश्च । आस्तेयम् ।। १३१ ॥ ग्रीवातोऽण च । ६ । ३ । १३२ । अतो भवेऽण्-एयणौ स्याताम् । ग्रैवम्, अवेयम् ॥१३२॥ चतुर्मासात् नाम्नि । ६।३ । १३३ । अस्मात् तत्र भवेऽण् स्यात् , नाम्नि । चातुर्मासी १ काशिर्मन्यनी, तत्र भवं तक्रं कालशेयम् । बस्तिमूत्राशयः । वसत्यस्या मूत्रं बस्तिः "प्लुज्ञा..." (उणादि. ६४६) सूत्रेण तिप्रत्ययः । तत्र भवं वास्तेयम् । बृहवृत्तौ वस्तिः पुरीषनिर्गमरन्ध्रार्थकोऽस्ति । अहिः सर्पः तत्र भबमाहेयम् । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६२] हैमशब्दानुशासनस्य आषाढ्यादिपौर्णमासी ।। १३३ ॥ यज्ञे ञ्य-। ६।३।१३४। चतुर्मासात् तत्र भवे यज्ञे ञ्यः स्यात् । चातुर्मास्या यज्ञाः ॥ १३४ ॥ गम्भीर-पञ्चजन-बहिष-देवात् । ६ । ३ । १३५ । एभ्यस्तत्र भवे ज्यः स्यात् । गाम्भीर्यः, पाश्चजन्यः, बाधः, दैव्यः ॥ १३५ ॥ परिमुखाऽऽदेख्ययीभावात् । ६ । ३ । १३६ । अस्मात् तत भवे ज्यः स्यात् । पारिमुख्यः, पारिहनव्यः।। अन्तःपूर्वाद् इकण । ६.। ३ । १३७ । अन्तःपूर्वपदाव्ययीभावात् तत्र भवे इकण् स्यात् । आन्तरगारिकः ॥ १३७ ॥ पयेनोर्गामात् । ६।३ । १३८ । आभ्यां परो यो ग्रामः, तदन्तादव्ययीभावात् भवे इकण् स्यात् । पारिवामिका, आनुग्रामिकः ॥ १३८ ॥ उपात जानु-नीवि-कर्णात् प्रायेण । ६।३।१३९ । उपाद ये जान्वादयः तदन्तादव्ययीभावादिकण् स्यात् । प्रायेण तत्र भवे । औपजानुका सेवकः, औपनीविकं ग्रीवादाम, औपकर्णिकः सूचकः ॥ १३९ ॥ आषाढी कात्तिको फाल्गुनी च पौर्णमासी चातुर्मासीपौर्णमासी नाम्ना भण्वते, धर्मपर्वतया च मन्यते स्म जैनशास्त्रेषु । साम्प्रतं च चतुर्दशीदिनं तादृग् पर्व मन्यते तत्र जैनैर्विशेषतया पौषधादिधर्मकृत्यं विधीयते । अत्र "द्विगोरनपत्ये, (पृ. ४०३) इति लप् न भवति, विधानबलात् । २ अगारस्यान्तर्मध्ये अन्तरगार तत्र भव आन्तरगारिका, णित्त्वाद् वृद्धिः। एवमुत्तरसूत्रे प्रामात् पनि, तत्र भवः पारिग्रामिकः । ग्रामस्य समीपमनुप्राम तत्र भर भानुप्रामिक इत्यादि बोध्यम् । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ४६३] रूढावन्तः पुराद् इकः । ६ । ३ । १४० । अस्मात् तत्रभवे इकः स्यात, रूदौ गम्यायाम् । अन्तःपुरिका । रूढाविति किम् ? आन्तःपुरः || १४० ॥ कर्ण- ललाटात कल | ६ | ३ | १४१ | आभ्यां तत्रभवे कल् स्यात्, तदन्तस्य रूढौ । कर्णिका कर्णाssभरणम्, ललाटिका ललाटमण्डनम् ॥ १४१ ॥ तस्य व्याख्याने च ' ग्रन्थात् | ६ |३ | १४२ । तस्येति षष्ठयन्ताद् व्याख्यानेऽर्थे, सप्तम्यन्ताच भवे ग्रन्थार्थाद् यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । कार्त्तम् प्रातिपदिकीयं व्याख्यानं, भवं वा ॥ १४२ ॥ प्रायो बहुस्वराद् इकण | ६ | ३ | १४३ । | बहुस्वराद् ग्रन्थार्थात् तस्य व्याख्याने, तत्र भवे च प्राय इकण स्यात् । पात्वणत्विकम् । प्रायोग्रहणात् सांहितम् ॥ १४३ ॥ , ऋच्-ऋद्-द्विस्वर-यागेभ्यः । ६ । ३ । १४४ । ऋचन्ताद्, ऋदन्ताद्, द्विस्वराद् यागार्थेभ्यश्च ग्रन्थवृत्तिभ्यस्तस्य व्याख्याने तत्र भवे चेकणू स्यात् । आर्चिकम्, चातुर्होतुकम्, आङ्गिकम्, राजसूयकम् ॥ १४४ ॥ ऋषेरध्याये | ६ | ३ | १४५ | ऋष्यर्थाद् ग्रन्थवृत्तेस्तस्य व्याख्याने तत्र भवे चाध्याये इण् स्यात् । वाशिष्ठिकोऽध्यायः । अध्याय इति किम् ? वाशिष्ठी ऋक् ॥ १४५ ॥ १ ग्रन्थः शब्दसन्दर्भः । स व्याख्यायते येन तद् व्याख्यानम् । चकारेण तत्र भव इत्यनुवृत्तिः, वाक्यार्थसमीपे चकारः श्रूयमाणः पूर्ववाक्यार्थमेव समुच्चिनोतीति वचनात् । कृता व्याख्यानं कृत्सु भवं वा कार्तम् । › Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमशब्दानुशासनस्य [४६४] हैमशब्दानुशासनस्य पुरोडाश-पौरोडाशाद् इकेकटौ । ६ । ३ । १४६ । आभ्यां ग्रन्थार्थाभ्यां तस्य व्याख्याने तत्र भवे इक् इकट् च स्यात् । पुरोडाशिका, पुरोडाशिकी, पौरोडाशिका, पौरोडाशिकी ॥ १४६ ॥ छन्दसो यः।६।३। १४७।। अस्माद् ग्रन्थार्थात् तस्य व्याख्याने तत्र भवे च यः स्यात् । छन्दस्यः॥ १४७ ॥ शिक्षाऽऽदेश्चाण। ६ । ३ । १४८ । एभ्यो ग्रन्थार्थेभ्यः छन्दसश्च तस्य व्याख्याने तत्र भवे चाऽण् स्यात् । शैक्षः, आर्गयनः, छान्दसः ॥ १४८ ॥ तत आगते । ६।३। १४९ । . तत इति पञ्चम्यन्ताद् आगतेऽर्थे यथाविहितमणएयणादयः स्युः । स्रोतः, गव्यः, नादेयः, ग्राभ्यः ॥ १४९ ॥ विद्या-योनिसम्बन्धादक । ६ । ३ । १५० । विद्यायोनिकृतश्च सम्बन्धो येषां तदर्थात् पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थेऽका स्यात् । आचार्यकम् , पैतामहकम् ॥१५०॥ पितुर्यों वा । ६ । ३ । १५१। पितुर्योनिसम्बन्धार्थात् पञ्चम्यन्तादागते यो वा स्यात् । पित्र्यम्, पैतृकम् ॥ १५१॥ ऋत इकण् । ६ । ३। १५२ ॥ ऋदन्ताद् विद्यायोनिसम्बन्धार्थात् तत आगते इकण् स्यात् । होतकम् , मातृकम् ॥ १५२ ॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४६५] 'आयस्थानात् । ६ । ३ । १५३। स्वामिग्राह्यो भागो यत्रोत्पद्यते तदर्थात् तत आगने इका स्यात् । आतरिकम् ॥ १५३ ॥ शुण्डिकाऽऽदेरण । ६ । ३ । १५४ । एभ्यस्तत आगतेऽण् स्यात् । शौण्डिकम् , औदपानम् ॥ १५४॥ गोत्रादङ्कवत् । ६ । ३। १५५ । गोत्रार्थात् तत आगतेऽङ्के इव प्रत्ययः स्यात । वैदम् , औपगवकम् ॥ १५५ ॥ नृ-हेतुभ्यो रूप्य-मयटौ वा । ६ । ३ । १५६ । पुमर्थाद हेत्वांच तत आगते एतौ वा स्याताम् । चैत्ररूप्यम्, चैत्रमयम्, चैत्रीयम् । समरूप्यम्, सममयम् , समीयम् ॥ १५६ ॥ . ___प्रभवति । ६ । २ । १५७ । पञ्चम्यन्तात् प्रागुपलभ्ये यथाविहितं प्रत्ययाः स्युः। हैमवती गङ्गा ॥ १५७ ॥ वैडूर्यः। ६।३।१५८ ।। विरात् ततः प्रभवति व्यः स्यात् । वैडूर्यों मणिः॥ - । त्यदादेमैयद । ६ । ३।१५९। १ स्वामिग्राह्यो माग आयः, तस्य स्थानात् । एत्य तरन्त्यस्मिन्निति आतरर, नदीतीर्थमित्यर्थः, तत आगतम् आतरिकम् । अणोऽपवादः । २ वैडूर्य विडूराख्यः । वैडूर्य पर्वतः, तस्मात् प्रभवति वैडुर्य रत्नविशेषः। अथवा विडुरग्रामे हि संस्कृतं सत् मणितया ततः प्रथमः प्रभवति इति । नैर्यशन्दो. ऽपि दृश्यते पाणिनीये । एतत् नवमेवयन्दात् विदूरपर्वतभूमेः प्रभपतीति केपाश्चिन् मतम् । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .[४६६] हैमशब्दानुशासनस्य एभ्यस्ततः प्रभवति मयट् स्यात् । तन्मयम्, भवन्मयी ॥१५९ ॥ तस्येदम् ।६।३ । १६०। तस्येति षष्ठयन्ताद् इदमित्यर्थे ययाविहितं प्रत्ययाः स्युः। माथुरम् , दैत्यम् , कालेयम्, नादेयम् , पारीणः, भानवीयः ॥ १६० ॥ हल-सीराद् इकण् । ६ । ३ । १६१।। आम्यां तस्येदमर्थे इकम् स्यात् । हालिका , सैरिकम् ॥ १६१ ॥ समिध आधाने टेन्यण । ६।३ । १६२ । समिधस्तस्येदमाधानमित्यर्थे टेन्यण स्यात्। सामि धेन्यो मन्त्रः ॥ १६२ ॥ विवाहे द्वन्द्वाद् अकल् । ६ । ३ । १६३ । द्वन्द्वात् तस्पेदमर्थे विवाहेऽकल् स्यात् । अत्रिभरशाजिका ॥ १६३ ॥ अदेवासुराऽऽदिभ्यो वैरे।६। ३।१६४ । देवासुरादिवर्जाद् द्वन्द्वात् तस्येदमर्थे वैरे अकलू स्यात् । बाभ्रवशालकायनिका । अदेवादीति किम् ? दैवाऽसुरम् , राक्षोऽसुरम् ॥ १६४ ॥ नटात् नृत्ते यः । ६ । ३ । १६५। नटात् तस्येदमर्थे नृत्ते ज्यः स्यात् । नाट्यम् ॥ १६५ ॥ छन्दोगौक्त्थिक-याज्ञिक चबूचाच धर्माऽऽम्ना. य-संधे । ६।३। १६६ । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपझलघुवृत्तिः [४६७] . एभ्यो नटाच तस्येदमर्थे धर्माऽऽदौ ज्यः स्यात् । छान्दोग्यं धर्मादि, औक्त्थिक्यम् , याज्ञिक्यम् , बाच्यम् , नाटयम् ॥ १६६ ॥ आथर्वणिकादण, इकलुक् च । ६ । ३ । १६७ । अस्मात् तस्येदमर्थे धर्मादौ अण् स्यात, इकलुक् च । आथर्वणः ॥ १६७॥ चरणादकञ् । ६ । ३ । १६८ । चरणः कठादिः । तदर्थात् तस्येदमर्थे धर्मादायक स्यात् । काठको धर्मादिः, चारककः ॥ १६८ ॥ गात्राद् अदण्डमाणव-शिष्ये । ६ । ३ । १६९ । ____ गोत्रार्थात् तस्येदमर्थे दण्डमाणवशिष्यवर्जेऽकञ् स्यात् । औपगवकम् । अदण्डेत्यादीति किम् ? काण्वा दण्डमाणवाः शिष्या वा ॥ १३९ ॥ रैवतिकाऽऽदेरीयः। ६ । ३ । १७० । एभ्यो गोत्राऽर्थेभ्यस्तस्पेदमर्थे ईयः त्यात् । रैवतिकीयाः, शिव्याः, गौरग्रीवीयं शकटम् ॥ १७० ॥ कौपिजल-हास्तिपदादण् । ६।३। १७१। _ आभ्यां गोत्रार्थाभ्यां तस्येदमित्यर्थेऽण स्यात् । कौपिञ्जलाः शिष्याः, हास्तिपदाः ॥ १७१ ॥ सङ्घ-घोषाऽङ्ग-लक्षणेऽज्ञ-यञ्-इत्रः ।६।३।१७२ । एतदन्ताद् गोत्रार्थात् तस्येदमर्थे सङ्घादावण् स्यात् । वैदः सङ्घादिः, बैदं लक्षणम्, एवं गार्गः, गार्गम्, दाक्षः, दाक्षम् ॥ १७२ ॥ शाकलादकर च । ६।३।१७३। । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६८] हैमशब्दानुशासनस्य - अस्मात् तस्येदमर्थे सङ्घादावक अण् च स्यात् । शाकलका, शाकलः सङ्घादिः, शाकलकम् , शाकलं लक्षणम् ॥ १७३॥ गृहेऽग्नीधो रण. घश्च । ६।३ । १७४ । ... अग्नीधस्तस्येदमर्थे गृहे रग् स्यात्, धश्च । आग्नीध्रम् ॥ १७४ ॥ स्थात् साऽऽदेश्च वोद्रङ्गे । ६।३।१७५। रथात् केवलात् सपूर्वाञ्च तस्येदमर्थे रथस्य वोढरि अङ्गे एव च प्रत्ययः स्यात् । रथ्योऽश्वः, रथ्यं चक्रम् , द्विरथोऽश्वः, आश्वरथं चक्रम् ॥ १७५ ॥ यः। ६ । ३।१७६ । रथात केवलात् सादेश्च तस्येदमर्थे या त्यात् । रथ्या, द्विरथ्यः ॥ १७६ ॥ पत्रपूर्वोदऽ । ६।३ । १७७। वाहनपूर्वाद रथात् तस्येदमर्थेऽञ् स्यात् । आश्वरथं चक्रम् ॥ १७७॥ वाहनोत् । ६ । ३ । १७८। वाहनार्थात् तस्येदमर्थेऽञ् स्यात् । औष्ट्रो रथः, हास्तः ॥ १७८ ॥ वाह्य-पथ्युपकरणे । ६।३ । १७९ । वाहनादुक्तः प्रत्ययो वाह्यादावेव स्यात् । आश्वो रथः पन्था वा, आश्वं पल्ययनम् , आश्वी कशा। अन्यत्र तु वाक्यमेव, अश्वानां घासः ॥ १७९ ॥ . १ अग्निमिन्धे अग्नीध् ऋत्विग्विशेषः, तस्येदमामीध्रम् । धादेशबलान्न दकारः । २ केवळाद रथात रवान्तात् च शब्दाद् वहनकर्तरि, भगेच,यप्रत्ययः स्यात् ।ऋतो रस Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ४६९ ] वहेः 'तुरिश्चाऽऽदिः । ६ । ३ । १८० | वहेर्यस्तृशब्दः तदन्तात् तस्येदमर्थेऽञ् स्यात्, तुरादिरिश्व | सांवहित्रम् ॥ १८० ॥ तेन प्रोक्ते । ६ । ३ । १८१ । तेनेति दान्तात् प्रोक्ते यथाविहितं प्रत्ययाः स्युः । भाद्रबाहवं शास्त्रम्, पाणिनीयम्, बार्हस्पत्यम् ॥ १८१ ॥ मौदाऽऽदिभ्यः । ६ । ३ । १८२ । एभ्यस्तेन प्रोक्ते यथाविहितमग् स्यात् । मौदेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा मौदा, पैप्पलादाः ॥ कठादिभ्यो वेदे लुप् । ६ | ३ | १८३ | एभ्यः प्रोक्ते वेदे प्रत्ययस्य लुप् स्यात् । कठाः, चरकाः ॥ १८३॥ तित्तिरिवरतन्तु खण्डको खाद ईयण् । ६ । ३ । १८४ | grade प्रोक्ते वेदे ईयण् स्यात् । तैत्तिरीयाः, वारतन्तवीयाः, खाण्डिकीयाः, औखीयाः ॥ १८४ ॥ छगलिनो यिन । ६ । ३ | १८५ | तेन प्रोक्ते येदे णेयिन् स्यात् । छागलेयिनः ॥ १८५ ॥ शौनकाऽऽदिभ्यो णिन् । ६ । ३ । १८६ | तेन प्रोक्ते वेदे णिन् स्यात् । शौनकिनः, शाङ्गरविणः ॥ ९८६ ॥ पुराणे कल्पे । ६ । ३ । १८७ । टान्तात् प्रोक्ते पुराणे कल्पे णिन् स्यात् । पैङ्गी कल्पः ॥ १ तृचः तृनो वा तृशब्दान्तात् तस्येदमर्थेऽन, तृशब्दात् पूर्व इकारश्च स्यादिति भावः । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७०] हेमशब्दानुशासनस्य काश्यप कौशिकाद् वेदवच । ६ ।३ । १८८। ... आभ्यां तेन प्रोके पुराणे कल्पे णिन् स्यात् , वेदवच कार्यमस्मिन् । काश्यपिना, कौशिकिना, काश्यपको धर्मः ॥ १८८ ॥ शिलालिपाराशर्यात् नट-भिक्षुसूत्रे । ६ । ३ । १८९ । आम्यां तेन प्रोके यथासङ्ख्यं नटसूत्रे भिक्षुसूत्रे चणिन् स्यात् , वेदवच्च कार्यमस्मिन् । शैलालिनो नटा, पाराशरिणो भिक्षवः ॥ १८९॥ कृशाश्वकर्मन्दाद् इन् । ६।३ । १९०।। आभ्यां तेन प्रोक्ते यथासङ्ख्यं नटसूत्रे भिक्षु सूत्रे चेन स्यात् , वेदवच कार्यमस्मिन् । कुशाश्विनो नटाः, कर्मन्दिनो भिक्षवः ॥ १९०॥ . उपज्ञाते । ६।३ । १९१ ।, - प्रागुपदेशाद् विनाज्ञाते टान्ताद् यथाविहितं प्रत्ययः स्वात् । पाणिनीयं शास्त्रम् ॥ १९१ ॥ कृते । ६ । ३ । १९२ । टान्ताव कृतेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययाः स्युः। शैवो ग्रन्थः, सिद्धसेनीयः स्तवः ॥ १९२ ॥ नाम्नि मक्षिकाऽऽदिभ्यः॥६।३ । १९३ । एभ्यष्टान्तेभ्यो यथाविहितं कृते प्रत्ययः स्यात् । माक्षिकं मधु, सारघम् ॥ १९३ ॥ कुलालाऽऽऽदेरका।६।३। १९४ । पाणिनेन पाणिनिना वा प्रथमतो ज्ञातं पागिनीय शास्त्रं व्याकरणम् । एवं प्रोक्ते कृतेऽपि चार्थे वेदितव्यम् । पाणिनिना प्रोक्तं कृतं वा शास्त्रं पाणिनीयमित्युच्यते Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ४७१] एभ्यस्तेन कृतेऽकञ् स्यात्, नानि । कौलालकं घटादिभाण्डम्, वारुटकं शूर्पपिटकादि ॥ १९४ ॥ सर्वचर्मण ईन ईन । ६ । ३ । १९५ । तेन कृते नाम्नि स्याताम् । सर्वचमिणः, सार्वचमणः ॥ १९५ ॥ उरसो याणौ । ६ । ३ । १९६ ॥ औरसः ॥ तेन कृते स्याताम्, नाम्नि । उरस्यः, छन्दस्यः । ६ । ३ । १९७ । छन्दसस्तेन कृते यो नाम्नि निपात्यः ॥ १९७ ॥ अमोsधिकृत्य ग्रन्थे । ६ | ३ | १९८ | द्वितीयान्तादधिकृत्य कृते ग्रन्थे यथाविहितं प्रत्ययः स्यात् । भाद्रः ॥ १९८ ॥ 'ज्योतिषम् । ६ । ३ । १९९ । ज्योतिषोऽमोऽधिकृत्य कृते ग्रन्थेऽणू, वृद्धधभावश्च निपात्यः ।। १९९ ॥ शिशुक्रन्दाऽऽदिभ्य ईयः | ६ | ३ | २०० | एम्योsusधकृत्य कृते ग्रन्थे ईयः स्यात् । शिशुऋन्दीयः यमसभीयो ग्रन्थः ॥ २०० ॥ द्वन्द्वात् प्रायः | ६ | ३ | २०१ | द्वन्द्वादमधिकृत्य कृते ग्रन्थे प्राय ईयः स्यात् । वाक्यपदीयम्। प्राय इति किम् । देवासुरम् ॥ २०१ ॥ अभिनिष्क्रामति द्वारे | ६ | ३ | २०२ | अमन्ताद् द्वारे निर्गच्छत्यर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । माथुरम्, नादेयम्, राष्ट्रिय द्वारम् ॥ २०२ ॥ १ ज्योतोयधिकृत्य कृतो ग्रन्थो ज्योतिषमित्युच्यते । सूत्रमेवोदाहरणम् । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७२] हैमशब्दानुशासनस्य गच्छति पथि दूते। ६ । ३ । २०३ । अमन्तात् पथि दूते च गच्छत्यर्थे यथोक् प्रत्ययः स्यात् । स्रोप्नः पन्था दूतो वा, ग्राम्यः॥ २०३ ॥ भजति । ६।३। २०४ । अमो भजत्यर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । स्रोमः, . राष्ट्रियः ॥ २०४॥ __ महाराजाद् इकण् । ६।३।२०५। अतोऽमो भजतीकण स्यात् । माहाराजिकः ॥ २०५।। अचित्ताद् अदेशकालात् । ६।३ । २०६ । - देशकालवर्जे यदचेतनं तदर्थादमो भजतीकण् स्यात् । आपूपिकः । अचित्तादिति किम् ? देवदत्तः अदेशेत्यादि किम् ? स्रोमः, हैमनः ॥ २०६ ॥ वासुदेवाऽर्जुनाद् अकः । ६ । ३ । २०७। आभ्याममन्ताभ्यां भजत्यर्थेऽकः स्यात् । वासुदेवकः, अर्जुनकः ॥२०७॥ गोत्र-क्षत्रियेभ्योऽक प्रायः। ६ । ३ । २०८ । गोत्रार्थात् क्षत्रियार्थाचाऽमन्ताद् भजत्यकञ् प्रायः स्यात् । औपगवकः, नाकुलकः । प्रायः किम् ? पाणिनीयः।। सरूपाद् द्रेः सर्व राष्ट्रवत् । ६ । ३।२०९ । राष्ट्रक्षत्रियार्थात् सरूपाद् यो द्विरुक्तः तदन्तस्याऽमो भजत्यर्थे सर्व प्रकृतिः प्रत्ययश्च राष्ट्रस्येव स्यात । वाय, माद्र, पाण्ड्यं वा भजति वृजिकः मद्रका, पाण्डवकः । सरूपादिति किम् ? पौरवीयम् ॥२०९॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [४७३] टस्तुल्यदिशि। ६।३। २१०। ट इति तृतीयान्तात् तुल्यदिश्यर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । सौदामनी विद्युत् ॥ २१०॥ तसिः । ६।३ । २११ । टाऽन्तात् तुल्यदिक्के तसिः स्यात् । सुदामतो विद्युत् ॥२११ ॥ यश्चोरसः । ६।३।२१२ । अतः टाऽन्तात् तुल्यदिक्के य-तसी स्याताम् । उरस्या, उरस्तः ॥ २१२ ॥ सेर्निवासादस्य । ६ । ३ । २१३ ।। सेरिति प्रथमान्तानिवासार्थाद, अस्येति षष्ठयर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । स्रोघ्नः, नादेयः ॥ २१३ ॥ . आभिजनात् । ६।३ । २१४ । : अभिजनाः पूर्वबान्धवाः । तन्निवासार्थात् स्यन्तात् षष्ठयर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । सौनः, राष्ट्रियः ॥२१॥ . शण्डिकाऽऽदेण्यैः ॥६ । ३। २१५ । अस्मात् स्यन्तादाभिजननिवासार्थाद् अस्येत्यर्थे ण्यः स्यात् । शाण्डिक्यः, कोचवार्यः ॥ २१५॥ सिन्ध्वादेन । ६ । ३।२१६ । अस्मात् स्यन्तादाभिजननिवासार्थात् षष्ठयर्थेऽञ् स्यात् । सैन्धवः, वार्णवः ॥ २१६ ॥ १ सुदाम्ना पर्वतेनैकदिग् विद्युत् , एवं तसि परेऽपि । उरसा एकदिग् इत्यादि। २ सुघ्न आभिजनो निवासोऽस्य स्रौनः । एवं शाण्डिक्य-सैन्धवसालातुरीयादिषु । सालैस्ततं सालततं तच्च तत् पुरं च सालतत्पुरम् , पृषोदरादित्वात् सालातुरः, "सालातुराद् ईयग्" सूत्रगेपणि प्रत्यये परे सालातुरीयः सिध्यति । Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७४ ] हैमशब्दानुशासनस्य सलातुराद् ईयण् | ६ | ३ | २१७ । अस्मात् स्पन्तादाभिजननिवासार्थात् षष्ठयर्थे ईय स्वात । सालातुरीयः पाणिनिः ॥ २१७ ॥ तूदी वर्मत्या एयण । ६ । ३ | २१८ | आभ्यां स्यन्ताभ्यामाभिजननिवासार्थाम्यां षष्ठयर्थे एयण् स्यात् । तौदेयः, वार्मतेयः ॥ २९८ ॥ गिरेरीयोऽस्त्राऽऽजीवे । ६ । ३ । २१९ । 1 गिरिर्य आभिजनो निवासः, तदर्थात् स्यन्तात् षष्ठ्यर्थे ऽस्त्राऽऽजीवे ईयः स्यात् । हृद्गोलीयः ॥ २१९ ॥ इत्याचार्यश्री हेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधा नस्वोपज्ञ शब्दानुशासनलघुवृत्तौ षष्ठस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ॥ ६ ॥ ३ ॥ 1 फ्र Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थः पादः ॥ इकण । ६ । ४ । १ । आ पादान्ताद् यदनुक्तं स्यात् तत्रायमधिकृतो ज्ञेयः ॥ तेन जित-जयद् - दीव्य - खनत्सु । ६ । ४ । २ । सेनेति टाऽन्तादेष्वर्येष्विक‍ स्यात् । आधिकम्, आक्षिकः, आम्रिकः । । २ ॥ संस्कृते । ६ । ४ । ३ । टान्तात् संस्कृते इकणं स्यात् दाक्षिकम् वैधिकम् ॥ ३ ॥ कुलत्थ- कोपान्त्यादण । ६ । ४ । ४। कुलस्थात् कोपान्त्याच्च तेन संस्कृतेऽण् स्यात् । कौलत्थम्, तैत्ति डीकम् ॥ ४ ॥ संसृष्टें । ६ । ४ । ५ । तात् संसृष्टेऽर्थे इण् स्यात् । दाधिकम् ॥ ५ ॥ लवणादः । ६ । ४ । ६ । अस्मात् तेन संसृष्टेऽर्थे अः स्यात् । लवणः सूपः ॥६॥ चूर्ण मुद्गाभ्यामिनणौ । ६ । ४।७। आभ्यां तेन संसृष्ठे यथासरूपमिन् भणौ स्याताम् । चूर्णिनोऽपूपाः, मौदूगी यवागूः ॥ ७ ॥ व्यञ्जनेभ्य उपसिक्ते । ६ । ४।८। · १ अस्य चतुर्थपादस्य पूर्ति गावद्, अपवादं परित्यज्यायमिकण प्रत्ययः स्यात् । २ अक्षैतिमाक्षिकम् | अक्षैर्जयति दीव्यति वा आक्षिकः । अत्रमा काठमय्या खनति भात्रिकः । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७६] हैमशब्दानुशासनस्य • व्यञ्जनं सूपादि , तदर्थात् टान्तादुपसिक्ते इकण् स्यात्। तैलिकं शाकम् ॥८॥ तरति । ६।४।९। रान्तात् तरत्यर्थे इकण् स्यात्। औडुपिकः ॥९॥ नो-द्विस्वराद् इकः । ६।४।१०। नावो द्विस्वराच टान्तात्तरत्यर्थे इकः स्यात् ।नाविका, बाहुका ॥१०॥ चरति । ६।४।११। टान्तात् चरतीकम् स्यात्। हास्तिकः, दाधिकः ॥११ ॥ पऽऽदेरिकट । ६ । ४ । १२ । अस्मात् टान्तात् चरतीकट् स्यात्। पर्पिको, अश्विको॥ पदिकः । ६।४ । १३ । . पादात चरतीकट् स्यात् , पञ्चाऽस्य । पदिकः ॥१३॥ श्वगणाद् वा । ६।४।१४। अस्मात् चरतीकट् वा स्यात् । श्वगणिकी, इवा. गणिकः ॥ १४ ॥ वेतनाऽऽदेर्जीवति । ६।४ । १५ । अस्मात् : टान्ताजीवतीकण् स्यात् । वैतनिका, वाहिकः ॥१५॥ व्यस्ताच क्रय-विक्रयाद् इकः । ६। ४ । १६ । अस्मात् समस्ताद व्यस्ताच तेन जीवतीकः स्यात् । क्रयविक्रयिकः, ऋयिकः, विक्रयिकः ॥ १६ ॥ वस्नात् । ६।४।१७। श्वगणेन चरति श्वगणिकी, टित्त्वात् स्त्रियां होः । पुंसि श्वगणिकः । पक्षे इकणि परे श्वागणिकः, णित्त्वेऽपि “श्वादेरिति" इति सूत्रेण षकारात् प्राग् औन जातः । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षलघुवृत्तिः [४७७] ___ वस्नात् तेन जीवतीकः स्यात् । वस्निकः ॥ १७॥ आयुधात् ईयश्च । ६।४।१०। अस्मात् तेन जीवति ईय इकश्च स्यात् । आयुधीयः, आयुधिकः ॥ १८॥ वाताद् ईनन । ६ । ४ । १९ । वातात् तेन जीवति ईनञ् स्यात् । वातीनाभार्यः॥ निवृत्तेऽक्ष-यूताऽऽदेः। ६ । ४ । २० । अस्मात् टान्तात् निवृत्ते इकण् स्यात् । आक्षतिकम् , जाड्यापहतिकं वैरम् ॥ २० ॥ भावाद् इमः। ६ । ४ । २१ । भावार्थात् तेन निवृत्ते इम: स्यात् । पाकिमम् ॥२१॥ याचिताऽपमित्यात् कण् । ६ । ४ । २२ । आभ्यां तेन निवृत्ते कण् स्यात् । याचितकम् , आप. मित्यकम् ॥२२॥ हरत्युत्सङ्गाऽऽदेः ।६।४ । २३ । अस्मात् टान्तात् हरति इकण स्यात् । औत्सङ्गिका औत्तुपिकः ॥२३॥ भस्त्राऽऽदेरिकट् । ६ । ४ । २४ । अस्मात् टान्ताद् हरति इकट् स्यात् । भस्त्रिकी, भरटिकी ॥ २४॥ विवधचीवधाद् वा । ६ । ४ । २५ । आभ्यां तेन हरतीकट् वा स्यात् । विवधिकी, वीवधिकी, वैवधिकः ॥ २५॥ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७८] हेमशब्दानुशासनस्य कुटिलिकाया अण । ६ । ४ । २६ । । अस्मात् टान्ताद् हरति अण् स्यात । कौटिलिकः कर्मारादिः ॥२६॥ 'ओजसू-सहोऽम्भसो वर्तते । ६ । ४ । २७ । एभ्यः टान्तेभ्यो वर्त्तते इत्यर्थे इकण् स्यात् । औजसिक, साहसिका, आम्भसिकः ॥ २७॥ तं प्रत्यनोलीमेपकूलात् । ६।४। २८।। तमिति द्वितीयान्तात् प्रति-अनुपूर्वलोमन-ईपकूलान्ताद् वर्तते इत्यर्थे इकण स्यात्। प्रातिलोमिकः, आनुलोमिकः, प्रातीपिका, आन्वीपिका, प्रातिकूलिका, आनुकूलिकः ।। परेर्मुख-पार्वात् ।।६।४।२१।। परिपूर्वमुखपाश्र्वान्ताद् द्वितीयान्ताद् वर्तते इत्यर्थे इकण् स्यात् । पारिमुखिकः, पारिपार्विकः ॥ २९ ॥ रक्ष छतोः। ६।४।३०। द्वितीयान्तादनयोरिकण् स्यात् । नागरिका, बादरिका ॥३०॥ पक्षि-मत्स्य-मृगार्थाद् ध्नति । ६।४।३१। पक्ष्याद्यर्थात् द्वितीयान्ताद् घनत्यर्थे इकण् स्यात् । पाक्षिकः, मात्स्यिका, मार्गिकः ॥ ३१॥ परिपन्थात् तिष्ठति च ।६। ४ । ३२ । अस्माद् द्वितीयान्तात् तिष्ठति घ्नति, चेकण् स्यात् । पारिपन्थिकचौरः ॥३२॥ १औजस् सहस् सम्भस् इति त्रिभ्यः। भोजमा सहसाऽम्भसा वर्तते इति विप्रहः। २ रक्षति उच्छति चार्थे। नगर रक्षतीति नागरिकः । बदराण्युम्छतीति बादरिकः। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [४७९] परिपथात् । ६ । ४ । ३३ । अस्माद् द्वितीयान्तात् तिष्ठत्यर्थे इकण् स्यात् । पारि पथिकः ॥ ३३ ॥ अवृद्धगृह्णति गर्यो । ६।४ । ३४ । द्वितीयान्ताद् वृद्धिवर्जात् निन्ये गृह्णति हकग् स्यात्। द्वैगुणिकः ॥ ३४ ॥ . कुसीदाद् इकट् । ६।४।३५ । अस्माद् द्वितीयान्तात् निन्ये गृहति इकट् स्यात । कुसीदिकी ॥ ३५ ॥ दशैकादशाद् इकश्च । ६ । ४।३६ । अस्माद् द्वितीयान्तात् निन्द्ये गृहति इक इकट च स्यात् । दशैकादशिका दशैकादशिकी ॥३६॥ अर्थ-पद-पदोत्तर-ललाम-प्रतिकण्ठात् । ६ । ४ । ३७। अर्थात् , पदात, पदशब्द उत्तरपदं यस्य तस्मात् ,ललामप्रतिकण्ठाभ्यां च द्वितीयान्ताभ्यां गृह्णति इकण् स्यात् । आर्थिकः, पादिकः, पौर्वपदिकः, लालामिका, प्रातिकण्ठिकः ॥ ३७॥ परदाराऽऽदिभ्यो गच्छति। ६।४।३८ । एभ्यो द्वितीयान्तेम्यो गच्छत्यर्थे इकण स्यात् । पारिवारिका, गौरुदारिकः ॥ ३८ ॥ प्रतिपथाद् इकश्च । ६।४ । ३९ । अस्माद् द्वितीयान्ताद् गच्छतीक इकण च स्यात् । प्रतिपथिकः, प्रातिपथिकः ॥ ३९ ॥ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८०] हैमशब्दानुशासनस्य माथोत्तरपद-पद-व्याक्रन्दाद् धावति ।६।४।४०| मोथ उत्तरपदं यस्य तस्मात् , पदव्याक्रन्दाभ्यां च द्वितीयान्ताभ्यां च धावत्यर्थे इकण् स्यात् । दाण्डमाथिका, पादविका, आक्रन्दिकः ॥ ४०॥ पश्चात्यनुपदात् ।६।४। ४१ पश्चादर्थाद् अनुपदाद् द्वितीयान्तात् धावति इकण स्यात् । आनुपदिकः ॥ ४१॥ सुस्नाताऽऽदिभ्यः पृच्छति । ६ । ४ । ४२ । एभ्यो द्वितीयान्तेभ्यः पृच्छत्यर्थे इकण् स्यात् । सौस्नातिका, सौखरात्रिकः ॥ ४२ ॥ . प्रभूताऽदिभ्यो ब्रुवति । ६ । ४ । ४३ । एभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो ब्रुवत्यर्थे इकण् स्यात् । प्राभू. तिकः, पार्याप्तिकः ।। ४३॥ . माशब्द इत्यादिभ्यः । ६।४।४४। - एभ्यो ब्रुवति इकण् स्यात् । माशब्दिकः, कार्यशब्दिकः ।। ४४॥ शाब्दिक-दादरिक लालाटिक कौक्कुटि कम् । ६ । ४ । ४५ १ माथशब्दो मार्गार्थकः । दण्ड इव सरलो माथो मार्गः,तं धावतीति दाण्डमाथिकः। २ अत्र इतिशब्दः वाक्याकारपरिदर्शनार्थः । माशब्द इति, कार्यशब्द इति ब्रूते इति माशब्दिकः, कार्यशब्दिकः । माशन्द कार्यशब्द वा करोति इति वाचक इत्यर्थः । Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४८१] एते इकणन्ता निपात्यन्ते । शान्दिको वैयाकरणः, दादरिको वादित्रकृत्, लालाटिकः प्रमत्तः सेवाकृत् , कौक्कुटिको भिक्षुः॥ ४५ ॥ समूहार्थात् समवेते । ६ । ४ । ४६ । अस्माद् द्वितीयान्तात् समवेतेऽर्थे इकण् स्यात् । सामूहिकः, सामाजिकः ॥ ४६ ॥ पर्षदो ण्यः। ६ । ४ । ४७। अस्माद् द्वितीयान्तात समवेते ण्यः स्यात् । पार्षयः॥ सेनाया वा । ६ । ४।४८ । अस्माद् द्वितीयान्तात् समवेते ण्यो वास्यात् । सैन्यः, सैनिकः ॥४८॥ धर्माऽधर्मात् चरति । ६ । ४ । १९ । आभ्यां द्वितायान्तांम्यां चरत्यर्थे इकण् स्यात् । धार्मिक, आधर्मिकः ॥ ४९ ॥ षष्ठया धर्ये । ६ । ४। ५०॥ षष्ठ्यन्ताद धर्मादनपेते इकण् स्यात । शौल्कशालिकम् ॥ ५० ॥ ऋत्-नराऽऽदेरण । ६ । ४ । ५१ । ऋदन्ताद् नराऽऽदेश्च षष्ठयन्तादू धर्येऽण् स्यात। नारं, नरस्य धर्म्यम् नारं माहिषम् ॥५१॥ १ प्रथम नारमिति ऋदन्तस्योदाहरणम् । नुर्धर्म्यमिति विग्रहः। एवं पितुधर्म्य पैत्रम् , शास्तुः शास्त्रमित्यादि । ऋतो १-२-२१ सूत्रेण रः। णित्वादादे वृदिः । स्त्रियामुभयत्रापि नारीति । इकण्वाधनार्थ नरशब्दस्य पृथग् ग्रहणं कृतम्।' नारं माहिषमिति नरादेरुदाहरणे स्तः। . Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४२] हैमशब्दानुशासनस्य विभाजयितृ-विशसितुर्णि-इलुकू च। ६ । ४ । ५२ ॥ आम्यां षष्ठयन्ताभ्यां धर्येऽण् स्यात् , तद्योगे विमा. जयितुर्णिलुक, विशसितुश्चेड्लुक् च । वैभाजित्रम् , वैशरणम् ॥५२॥ __अवक्रये । ६। ४ । ५३ । षष्ठयन्तादबक्रये भाटकेऽर्थे इकण् स्यात् । आपणिकः ॥ ५३॥ तदस्य पण्यम् । ६।४। ५४ । तदिति प्रथमान्ताद् विक्रेयार्थाद् अस्येति षष्ठयर्थे इकण् स्यात् , तत्प्रथमान्तं पण्यं चेत् । आपूपिकः ॥५४॥ किशराऽऽदेरिकट् । ६ । ४ । ५५ । 'एभ्यस्तदस्य पण्यमिति विषये इकट् स्यात् । किशरिकी, तगरिकः ॥ ५५ ॥ शलालुनो वा । ६। ४ । ५६ । अस्मात् तदस्य पण्यमिति विषये इकट् वा स्यात् । शलालकी, शालालुकी ॥ ५६ ॥ शिल्पम् । ६ । ४ । ५७। प्रथमान्तावस्येत्यर्थे इकण् स्यात, तच्छिल्पं चेत् । नार्तिकः ॥ ५७॥ मड्डुक-झझराद् वाऽण । ६ । ४ । ५८ । आभ्यां तदस्य शिल्पमितिविषयेऽण् वा स्यात् । माइका, माइडकिकः । झाझरः, झाझरिकः ॥ ५८ ॥ १ विपूर्वभजपातोणिच्, तस्य णिचो लुक् । विशसितरि चेटो मुक् Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृचिः [ ४८३ ] शीलम् । ६ । ४ । ५९ । प्रथमान्तात् शीलार्थात् षष्ठयर्थे इक स्पात् । आपूपिकः ॥ ५९ ॥ अङस्थाच्छत्राऽऽदेरञ् । ६ । ४१६० । अदन्तात् स्थः छत्रादेव तदस्य शीलमितिविषयेऽन स्यात् । आस्थः, छात्रः, तापसः ॥ ६० ॥ तूष्णीकः । ६ । ४ । ६१ । तूष्णीमः तदस्य शीलमितिविषये कः मुलुकू च स्वात । सूष्णीकः ॥ ६१ ॥ प्रहरणम् । ६ । ४ । ६२ । प्रथमान्तात् षष्ठर्थे इकणू स्यात्, तत् प्रहरणं चेत् । आसिकः ॥ ६२ ॥ परश्वधाद् वाऽण् । ६ । ४ । ६३ । अस्मात् तदस्य प्रहरणमितिविषयेऽणू वा स्वात् । पारश्वधः, पारश्वधिकः ।। ६३ ।। शक्ति-यष्टेः टीकण । ६ । ४ । ६४ । आभ्यां तदस्य प्रहरणमितिविषये टीकण् स्यात् । शाक्तनकी, याष्टीकी ॥ ६४ ॥ वेष्ट्यादिभ्यः । ६ । ४ । ६५ । एभ्यस्तदस्य प्रहरणमित्यर्थे टीकण् वा स्यात् । ऐष्टीकी, ऐष्टिकी । ऐषीक, ऐषिकः ॥ ६५ ॥ १ आस्था शीलमस्य आस्थः । “उपसर्गादातः” (५ -३ - ११० ) इत्य प्रत्ययः २ असिः प्रहरणमस्य आसिकः । अनया रीत्या पारश्वधशाक्तिक्यैष्टिक्यादीनां निमहः । Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८४] हेमशब्दानुशासनस्य 'नास्तिकाऽऽस्तिक दैष्टिकम् । ६ । ४ । ६६ । एते तदस्येत्यर्थे इकणन्ता निपात्यन्ते । नास्तिकः, आस्तिकः, दैष्टिकः ॥ ६६ ॥ • वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे । ६ । ४ । ६७ । प्रथमान्तात् षष्ठयर्थे इकणू स्यात्, तच्चेदनुयोगविषये वृत्तोsपपाठ: । ऐकान्यिकः ॥ ६७ ॥ बहुस्वरपूर्वाद् इकः । ६ । ४ । ६८ । बहुस्वरं पूर्वपदं यस्य तस्मात् प्रथमान्तात् षष्ठ्यर्थे इकः स्यात्, तचेत् परीक्षायां वृत्तोऽपपाठः । एकादशान्यिकः ॥ ६८ ॥ भक्ष्यं हितमस्मै | ६ | ४ | ६९ | प्रथमान्ताद् अस्मै इति चतुर्थ्यर्थे इकण् स्यात् तचेत् भक्ष्यं हितम् । आपूपिकः ॥ ६९ ॥ नियुक्तं दीयते । ६ । ४ । ७० । प्रथमान्तात् चतुर्थ्यर्थे इकण् स्यात्, तच्चेत् नियुक्तमव्यभिचारेण नित्यं वा दीयते । आग्रभोजनिकः ॥ ७० ॥ श्राणा- मांसौदना इको वा । ६ । ४ । ७१ । आभ्यां तदस्मै नियुक्तं दीयते इतिविषये इकः प्रत्ययो वा स्यात् । श्राणिका, श्राणिकी। मांसौदनिका, मांसौदनिकी ॥ ७१ ॥ १ नास्ति परलोकः पुण्यपापमोक्षादिर्वेति मतिरस्यासौ नास्तिकः । नास्तिको वेदनिन्दक इत्यादिवाक्यानि तु प्रमाणयुक्तिशून्यानि । नास्तिको जैननिन्दकः, नास्तिक: कुराननिन्दकः, नास्तिको बौद्धशास्त्रादिनिन्दक इत्यपि कश्चिद् वदेत्; तथा च समग्रं जगत् नास्तिकं स्यात् एवं च मोक्षाभावः प्रभूतकलहं चोत्पद्येत अस्तिनास्ती अव्यये स्तः । दिष्टं भाग्यम् । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः भक्तौदनाद्वाऽणिक | ६ । ४ । ७२ । आभ्यां यथासङ्ख्यमण् - इकटौ वा स्याताम्, तदस्मै नियुक्तं दीयते इतिविषये । भाक्तः, औदनिकी । भाक्तिकः, औदनिकः ॥ ७२ ॥ नवयज्ञाऽऽदयोऽस्मिन् वर्त्तन्ते । ६ । ४ । ७३ । एभ्यः प्रथमान्तेभ्यो वर्त्तन्ते इत्युपाधिभ्योऽस्मिन्निति सप्तम्यर्थे इकण् स्यात् । नावयज्ञिकः पाकयज्ञिकः ॥ ७३ ॥ तत्र नियुक्ते । ६ । ४ । ७४ । " तत्रेति सप्तम्यन्ताद् नियुक्तेऽर्थे इकण् स्यात् । शौल्कशालिकः ॥ ७४ ॥ [ ४८५ ] अगारान्ताद् इकः । ६ । ४ । ७५ । अस्मात् तत्र नियुक्ते इकः स्यात । देवागारिकः ॥ अदेश - कालादध्यायिनि । ६ । ४ । ७६ । अध्ययनस्य यौ प्रतिषिद्धौ देशकालौ, तदर्थात् सप्तम्यन्ताद् अध्यायिन्यर्थे इकण् स्यात् । आशुचिका, सान्ध्यकः ॥ निकटाऽऽदिषु वसति । ६ । ४ । ७७ । एभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो वसत्यर्थे इकण् स्यात् । नैकटिकः, आरण्यको भिक्षुः, वार्क्षमूलिकः ॥ ७७ ॥ सतीर्थ्यः । ६ । ४ । ७८ । समानतीर्थात् तत्र वसत्यर्थे यो निपात्यते, समानस्य च स भावः । सतीर्थ्यः ॥ ७८ ॥ प्रस्तार-संस्थान-तदन्त कठिनान्तेभ्यो व्यवहरति । ६ । ४ । ७९ । १ वृक्षमूळे वसतीति वार्क्ष मूलिकः । समानतीर्थे गुरौ वसतीति सवर्ध्यः । Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८६] हैमशब्दानुशासनस्य प्रस्तारसंस्थानाभ्यां तदन्तेभ्यः, कठिनान्ताच व्यवहरत्यर्थे इकण् स्यात् । प्रास्तारिका, सांस्थानिका, कांस्यप्रस्तारिका, गौसंस्थानिकः वांशकठिनिकः ॥७९॥ सङ्ख्याऽऽदेश्चाईदलुचः । ६ । ४ । ८० । अहं दर्थमभिष्याप्य याप्रकृतिर्वक्ष्यते तस्याः केवलायाः . सख्यापूर्वायाश्च वक्ष्यमाणः प्रत्ययः स्यादिति ज्ञेयम् , न चेत् सा लुगन्ता। चान्द्रायणिका, द्वैचन्द्रायणिकः । अलुच इति किम् ? द्विशूर्पण क्रीतेन क्रीतं द्विशौर्पिकम् ।। गोदानाऽऽदीनां ब्रह्मचर्य । ६ । ४ । ८१ । एभ्यः षष्ठयन्तेभ्यो ब्रह्मचर्येऽर्थे इकण् स्यात् । गौदा. निकम्, आदित्यवतिकम् ॥ ८१॥ चद्रायणं च चरति ।६। ४ । ८२ । अस्माद् द्वितीयान्तादू गोदानाऽऽदेश्च परत्यर्थे इकण स्यात् । चान्द्रायणिकः गौदानिकः ॥ ८ ॥ देवव्रताऽऽदीन डिन् । ६ । ४ । ८३ । एभ्यो निर्देशादेव द्वितीयान्तेभ्यश्चरत्यर्थे डिन् स्यात् । देवव्रती, महाप्रती ।। ८३ ॥ उकश्वाऽष्टाचत्वारिंशतं वर्षाणाम् । ६।४ । ८४ । वर्षाणामष्टाचत्वारिंशतो द्वितीयान्तात् चरत्यर्थे डको डिन् च स्यात् । अष्टाचत्वारिंशका, अष्टाच. त्वारिंशी ॥ ८४ ॥ चातुर्मास्यतो यलुक् च ।६। ४।०५। . अस्माद् द्वितीयान्तात् चरत्यय डक-डिनौ स्याताम् , यस च । चातुर्मासकः, चातुर्मासी ॥ ८५ ॥ . Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपालपुवृत्तिः [४८७] .. क्रोश-योजनपूर्वात् शताद् योजनाच्चामि गमाहें । ६ । ४।८६। क्रोशपूर्वाद् योजनपूर्वाच्च, शतात् योजनाच्च पश्चम्यन्तादभिगमाहेऽर्थे इकण् स्यात् । क्रौशशतिको मुनिः, यौजनशतिकः, यौजनिकः ॥ ८६ ॥ तद् यात्येभ्यः । ६।४।८७। तदिति द्वितीयान्तेभ्य एभ्यः क्रोशशत-योजनशतयोजनेभ्यः, याति गच्छत्यर्थे इकण् स्यात् । क्रौशशतिक, यौजनशतिकः यौजनिको दूतः ।। ८७ ॥ पथ इकट्। ६ । ४।८८। पथो द्वितीयान्ताद यात्यर्थे इकट् स्यात् । पथिकी ॥८॥ नित्यं णः पन्थंश्च । ६।४। ८९। पथो द्वितीयान्ताद् नित्यं यात्यर्थे णः स्यात् , पन्थश्वास्य । पान्थः॥ ८९॥ शङ्क्त्तर-कान्ताराऽज-वारि-स्थलाजङ्गलाऽऽदेस्ते. .. नाऽऽहते च । ६ । ४ । ९०। . __शंकादिपूर्वपदात् पथिनन्तात् , तेनेति तृतीयान्तादाहृते याति चार्थे इकण् स्यात् । शाडुपथिकः औत्तर पथिका, कान्तारपथिकः, आजपथिका, वारिपथिका, स्थालपथिकः, जागलपथिकः ॥ ९०॥ १ पथिन्शब्दात् । पन्थानं याति पथिकः, स्त्रियां तु टित्वात् पथिकी । पन्थान नित्यं याति पान्थः । स्त्री पान्था । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८८] हेमशब्दानुशासनस्य स्थलाऽऽदेर्मधुक-मरिचेऽण् । ६ । ४ । ९१ । स्थलपूर्वपदात् पथिनन्तादाहृते मधुके मरिचे चार्थेऽगू स्यात् । स्थालपथं मधुकम्, मरिचं वा ॥ ९१ ॥ तुरायण-पारायणं यजमानाऽधीयाने । ६ । ४ । ९२ । आभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां यथासङ्ख्यं यजमानाधीयानयोरिकण स्यात् । तौरायणिकः, पारायणिकः ॥ ९२ ॥ संशयं प्राप्ते ज्ञेये । ६ । ४ । ९३ । संशयमिति द्वितियान्तात् प्राप्ते ज्ञेयेऽर्थे इकण् स्यात् । सांशयिकोऽर्थः ॥ ९३ ॥ तस्मै योगाऽऽदेः शक्ते । ६ । ४ । ९४ । एभ्यस्तस्मै इति चतुर्थ्यन्तेभ्यः शक्तेऽर्थे इकण् स्यात् । यौगिकः, सान्तापिकः ॥ ९४ ॥ योग- कर्मभ्यां योaat | ६ । ४ । ९५ । आभ्यां चतुर्थ्यन्ताभ्यां शक्तेऽर्थे यथासङ्ख्यं य उ कञौ स्याताम् । योग्यः, कार्मुकम् ॥ ९५ ॥ यज्ञानां दक्षिणायाम् । ६ । ४ । ९६ । एभ्यः षष्ठ्यन्तेभ्यो दक्षिणायामर्थे इकण् स्यात् । आग्निष्टोमिकी ॥ ९६ ॥ तेषु देये । ६ । ४ । ९७ । यज्ञार्थभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो देयेऽर्थे इकणू स्यात् । वाजपेयिकं भक्तम् ॥ ९७ ॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीपज्ञलघुवृत्तिः _ [४८९]. काले कार्ये च भववत् ।६।४।९८। कालार्थात् सप्तम्यन्ताद् देये कार्ये चार्थे , भवे इव प्रत्ययाः स्युः । यथा वर्षासु भवं वार्षिकम् , तथा कार्य देयं च ॥९८॥ व्युष्टाऽऽदिष्वः । ६।४ । ९९ । एभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो देये कार्ये चाग स्यात् । वैयुष्ठम् , . नैत्यम् ॥९९ ॥ यथाकथाचात् णः । ६।४।१००। अस्माद् देये कार्ये चार्थे णः स्यात् । याथाकथाचम् ॥ तेन हस्ताद् यः। ६।४ । १०१ । तेनेति तृतीयान्ताद् हस्ताद् देये कार्ये च यः स्यात् । हस्त्यम् ॥ १०१ ॥ शोभमाने । ६ । ४ । १०२ । ' टान्तात् शोभमाने इकण् स्यात् । कार्णवेष्टकिकं मुखम् ॥ १०२॥ कर्म-वेषाद् यः। ६ । ४ । १०३ । आभ्यां टान्ताभ्यां शोभमानेऽर्थे यः स्यात् । कर्मण्यं शौर्यम् , वेष्यो नटः॥ १०३॥ कालात् परिजय्य-लभ्य-कार्य-सुकरे।६।४।१०४॥ कालविशेषार्थात् टान्तात् परिजय्याऽऽदाव) इकण्. स्यात् । मासिको व्याधिः, पटा, चान्द्रायणं, प्रासादो वा ॥ १०४॥ १ अनादरेणेत्यर्थे यथाकथाच इत्यव्ययोऽस्ति । यथाकथाच दीयते इति विग्रहः । २ कर्णवेष्टकाभ्यां कुण्डलाभ्यां शोभते इति । एवं कर्मण्यवेष्यावपि । Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९०] हैमशब्दानुशासनस्य ।४।१०५ । कालार्थात टान्तात् निवृत्तेऽर्थे इकग् स्यात् । आह्निकम् ॥ १०५॥ ... तं भावि-भूते । ६ । ४ । १०६ । .. तमिति द्वितीयान्तात् कालार्थाद् भाविनि भूते चार्थे इकण् स्यात् । मासिक उत्सवः ॥ १०६ ॥ तस्मै भृताधीष्टे च । ६ । ४ । १०७ । तस्मै इति चतुर्थ्यन्तात् कालार्थाद् भृतेऽधीष्टे चार्थे इकण् स्यात् । मासिका कर्मकरः, उपाध्यायो वा ॥ षण्मासादवयसि भयेको । ६ । ४ । १०८ । अस्मात् कालार्थात् तेन निवृत्त, तं भाविनि भूते, तस्मै भृताधीष्टे चेतिविषये ण्य इकश्व स्यात् , अवयसि गम्यमाने । पाण्मास्यः, षण्मासिकः ॥१०८॥ समायो ईनः। ६ । ४ । १०९ । अस्मात् तेन निवृत्त इत्यादिपश्चकविषये ईनः स्यात् । समीनः॥१०९॥ राज्यहः-संवत्सराच्च द्विगोर्वा । ६ । ४ । ११० । राज्याचन्तात् समान्ताच्च द्विगोस्तेन निवृत्त इत्यादि पञ्चकविषये ईनो वा स्यात् । द्विरात्रीणः, द्वैरात्रिका यहीना, द्वयह्निकः। द्विसंवत्सरीणः, द्विसांवत्सरिकः । द्विसमीनः, द्वैसमिकः ॥ ११० ॥ १ अत्र तेन, कालादित्यनयोरनुवृत्तिः । अल्ला निर्वृत्तमाह्निकम् , एवं मासिकादि । २ नित-मावि-भूत-अधीछेतिपञ्चविषयेषु । समया निवृत्तः, समां भूतो भावी वा, समायै मृतोऽसीटो वा समीतः। ए द्विरामी-द्विसंमती द्वैस मेछादिष्वपि । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः . [४९१] वर्षादश्च वा । ६ । ४ । १११ । कालवाचिवर्षान्ताद् द्विगोस्तेन निवृत्ते इत्यादिपश्चकविषये ईनोऽश्व वा स्यात् । द्विवर्षः, द्विवर्षीणः, द्विवार्षिकः ॥ १११ ॥ . प्राणिनि भूते । ६।४।११२। कालार्थवर्षान्ताद् द्विगोभूते प्राणिन्यर्थे अः स्यात् । द्विवर्षों वत्सः। प्राणिनीति किम् ? द्विवर्षः द्विवर्षीणः, द्विवर्षिकः सरकः ॥ ११२ ॥ मासाद् वयसि यः।६। ४ । ११३ । मासान्ताद् द्विगोभूतेऽथै यः स्यात् , वयसि गम्ये । द्विमास्यः शिशुः । वयसीति किम् ? द्वैमासिको व्याधिः ॥ ११३ ॥ ईन च । ६।४ । ११४ । मासाद् भूतेऽर्थे इनञ् यश्च स्यात , वयसि गम्ये । मासीनः, मास्यः शिशुः ॥११४ ॥ षण्मासाद्य-यण-इकण । ६।४।११५। अस्मात् कालार्थाद् भूतेऽर्थे एते स्युः, वयसि गम्ये । षण्मास्यः, पाण्मास्यः, पाण्मासिकः शिशुः ॥११५ ॥.. सोऽस्य ब्रह्मचर्य तदताः। ६ । ४ । ११६। स इति प्रथमान्तात् कालादिस्येति षष्ठयर्थे, ब्रह्मचर्ये, ब्रह्मचारिण चेकण स्यात् । मासिकं ब्रह्मचर्यम्, मासिकस्तद्वान् ॥ ११६ ॥ प्रयोजनम् । ६ । ४ । ११७ । प्रथमान्तात् षष्ट्यर्थे इकण स्यात् , प्रथमान्तं चेत् Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९२] हैमशब्दानुशासनस्य प्रयोजनम् । जैनमहिकं देवागमनम् ॥ ११७ ॥ एकागारात् चौरे । ६ । ४ । ११८। अस्मात् तदस्य प्रयोजनमितिविषये चौरेऽर्थे इकण् स्यात् । ऐकागारिकः ॥ ११८ ॥ चूडाऽऽदिभ्योऽण् । ६ । ४ । ११९ ॥ एभ्यस्तदस्य प्रयोजनमितिविषयेऽण स्यात् । चौर्ड श्राद्धम् ॥ ११९ ॥ विशाखाऽऽषाढात् मन्थ-दण्डे ।६।४।१२० . आभ्यां तदस्य प्रयोजन मितिविषये यथासङ्ख्यं मन्ये दण्डे चाऽर्थेऽण स्यात् । वैशाखो मन्थः, आषाढो दण्डः ॥ उत्थापनाऽऽदेरीयः । ६ । ४ । १२१ । एभ्यस्तदस्य प्रयोजनमितिविषये ईयः स्यात् । उत्थापनीयः, उपस्थापनीयः ॥ १२१ ॥ विशि-रहि-पदि-पूरि-समापेरनात् सपूर्व पदात् । ६ । ४ । १२२ । एभ्योऽनान्तेभ्यः सपूर्वपदेभ्यस्तदस्य प्रयोजनमित्यर्थे ईयः स्यात्। गृहप्रवेशनीयम् , आरोहणीयम् , गोप्रपदनीयम् , प्रपापूरणीयम् , अङ्गसमापनीयम् ॥ १२२ ॥ स्वर्ग-स्वतिवाचनाऽऽदिभ्यो य-लुपौ ।६।४।१२३। - स्वर्गादेः स्वस्तिवाचनादेश्च तदस्य प्रयोजनमित्यर्थे यथासंख्यं यो लुप् च स्यात् । स्वय॑म् , आयुष्यम् , स्वस्तिवाचनम् , शान्तिवाचनम् ॥ १२३ ॥ .. १ जिनमहः प्रयोजनमस्य जैनमहिकम् । जिनजन्मादिषु देवां आगच्छन्तीत्याचारः । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [४९३] समयात् प्राप्तः । ६।४।१२४ । समयात् प्रथमान्तात् षष्ठयर्थे इकण स्यात् , चेत् समयः प्राप्तः । सामयिकं कार्यम् ॥ १२४ ॥ ऋत्वादिभ्योऽण् । ६ । ४ । १२५। - एभ्यः प्रथमान्तेभ्यः सोऽस्य प्राप्त इत्यर्थेऽण् स्यात् । आर्तवं फलम् , औपवस्त्रम् ॥ १२५ ।। .. कालाद् यः । ६।४ । १२६ । कालात् सोऽस्य प्राप्त इत्यर्थे यः स्यात् । काल्या मेघाः ॥ १२६ ॥ दीर्घः । ६ । ४ । १२७ । कालात् प्रथमान्तादस्येत्यर्थे इकण स्यात् , प्रथमान्त. वेद दीर्घः । कालिकमृणम् ॥१२७ ॥ ___ आकालिकमिकश्चाऽऽद्यन्ते । ६।४ । १२८ । आकालिकाद् इक इकण् च भवत्यर्थे स्यात्, आदि. रेव यदि अन्तः । आकालिकोऽनध्यायः, पूर्वेयुर्यस्मिन् काले प्रवृत्तोऽपरेधुरपि आ तस्मात् कालाद् भवतीत्यर्थः । आकालिकी, आकालिका वा विद्युत् , आजन्मकालंमेव स्यात्, जन्मानन्तरनाशिनीत्यर्थः ॥ १२८॥ ... त्रिंशत्-विंशतेर्डकोऽसंज्ञायामाऽर्ह दर्थे । ६ । ४ । १२८ । आभ्यामा अहंद●द् योऽर्थों वक्ष्यते तस्मिन् डकः १ आदिरेव यदि अन्ततया बोध्यते, यथा यस्मिन् क्षणे विद्युदुत्पन्ना तस्मिन्नेव क्षणे विनष्टा, विद्युतो जन्मलक्षणादिकालो विनाशलक्षणान्तकालादभिन्न इति भावः आकालिकोऽनध्याय इत्यत्र यद्यपि गतः कालोऽपरेयुर्न प्रत्यावर्ततें, तथापि सामान्येन घटिकायामादिवेलाऽपेक्षया तुल्य उच्यते । Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९४ ] हैमशब्दानुशासनस्य , स्यात्, असंज्ञाविषये । त्रिंशकम् विंशकम् त्रिंशकः, विंशकः । असंज्ञायामिति किम् ? त्रिंशत्कम्, विंशतिकम् ॥ १२९ ॥ सङ्ख्या- डतेश्चाऽशत्-ति- टेः कः । ६ । ४ । १३० । शदन्त-त्यन्त-ष्टयन्तवर्जसइख्याया इत्यन्तात त्रिंशद्विंशतिभ्यां चाऽऽहृदर्थे कः स्यात् । द्विकम्, कतिकम्, त्रिंशत्कम्, विंशतिकम् । अशत्तिष्ठेरिति किम् ? चात्वारिंशत्कम्, साप्ततिकम्, षाष्टिकम् ॥ १३० ॥ शतात् केवलादतस्मिन् येकौ । ६ । ४ । १३१ । शतात् केवलादाऽर्हदर्थे य-इको स्थाताम् स चेदर्थः प्रकृत्यर्थात् नाऽभिन्नः । शत्यम्, शतिकम् । केवलादिति किम् । द्विशतकम् । अतस्मिन्निति किम् ? शतकं स्तोत्रम् ॥ १३१ ॥ वाऽतोरिकः । ६ । ४ । १३२ । अत्वन्तसङ्ख्याया आर्हदर्थे इको वा स्तात् । याव - तिकम्, यावत्कम् ॥ १३२ ॥ कार्षापणाद् इकट् प्रतिश्चास्य वा । ६ । ४ । १३३ । अस्मादादिर्थे इकटू स्यात्, अस्य च प्रतिर्वा । कार्पापणिकी, प्रतिकी ॥ १३३ ॥ अर्द्धात् पल कंस-कर्षात् । ६ । ४ । १३४ | अर्द्धपूर्वात् पलाद्यन्तादाहृदर्थे इकट् स्यात् । अर्द्धपलिकम्, अर्द्धकंसिकम्, अर्द्धकर्षिकी ॥ १३४ ॥ १ कार्षापणशब्दस्य प्रति इत्यादेशो वा स्यात् । कार्षापणेन क्रीतं कार्षापणिकं, पक्षे, प्रतिकं, टित्त्वाद् स्त्रियां ङीः। एवमुपरि अधश्च बोध्यमा अईदर्थाद् । आ अभिविधावस्ति । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुत्तिः [४९५] कंसाऽर्द्धात् । ६ । ४ । १३५ । आभ्यामाऽहंदर्थे इकट् स्यात्। कंसिकी, अर्द्धिकी ॥ सहस्र-शतमानादण । ६ । ४ । १३६ । आभ्यामाऽर्हदर्थेऽण् स्यात् । साहस्रा, शातमानः ॥ शूपद् वाऽञ्। ६।४। १३७ । आहँदथैवाऽञ् स्यात् । शौर्पम् शौर्पिकम् ॥१३७॥ वसनात् । ६।४ । १३८ । आऽहंदर्थेऽञ् स्यात् । वासनम् ॥ १३८ ॥ विंशतिकात् । ६।४ । १३९ । आऽहंदर्थेऽञ् स्यात् । बैंशतिकम् ॥ १३९ ॥ - द्विगोरीनः। ६।४।१४०। विंशतिकान्ताद द्विगोराऽहंदर्थे ईनः स्यात। द्विवि. शतिकीनम् ॥ १४ ॥ . अनादिः 'प्लुप । ६ । ४ । १४१ । द्विगोराऽहंदर्थे जातस्य प्रत्ययस्य पित् लुप् स्यात् , न तु द्विः, अनाम्नि । द्विकंसम् । अनाम्नीति किम् ? पाश्चलोहितिकम् । अद्विरिति किम् ? द्विशूर्पण क्रीतं द्विशौपिकम् ॥ १४१॥ नवाऽणः । ६ । ४ । १४२ । द्विगोः परस्याऽऽर्हदर्थेऽणः पित् लुब् वा स्यात् , न तु द्विः। द्विसहस्रम् , द्विसाहस्रम् ॥ १४२ ॥ १ लुपः पित्करणात् “क्या-मानि-पित्तद्धिते' इति सूत्रेण पञ्चगर्ग इत्यादिषु पुंवद्भावः । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९६] हैमशब्दानुशासनस्य 'सुवर्ण कार्षापणात् । ६ । ४ । १४३ | एतदन्ताद् द्विगोः परस्याऽऽर्हदर्थे प्रत्ययस्य लुब्बा स्यात्, न तु द्विः । द्विसुवर्णम्, द्विसौवर्णिकम् । द्विकार्षापणम्, द्विकार्षापणिकम् ॥ १४३ ॥ द्वि-त्रि- बहोर्निष्क-विस्तात् । ६ । ४ । १४४ । एभ्यः परो यौ frostaस्तौ तदन्ताद् द्विगोरार्हदर्थे प्रत्ययस्य लुब् वा स्यात्, अद्विः । द्विनिष्कम्, द्विनैष्कि कम् । त्रिनिष्कम्, त्रिनैष्किकम् । बहुनिष्कम्, बहुनै किकम् । द्विविस्तम् द्विवैस्तिकम् । त्रिविस्तम्, त्रिवैस्तिकम् । बहुविस्तम्, बहुवैस्तिकम् ॥ १४४ ॥ " 1 शतात् यः । ६ । ४ । १४५ । . शतान्ताद् द्विगोराऽर्हृदर्थे यो वा स्यात् । द्विशत्यम्, द्विशतकम् ॥ १४५ ॥ शाणात । ६ । ४ । १४६ ।. शाणान्ताद् द्विगोरा हृदर्थे यो वा स्यात् । पञ्चशाण्यम्, पञ्चशाणम् ॥ १४६ ॥ द्वित्र्यादेर्याऽण वा । ६ । ४ । १४७ । द्वित्रिपूर्वो यः शाणः तदन्ताद् द्विगोराऽर्हदर्थे याऽणौ वा स्याताम् । द्विशाण्यम्, द्वैशाणम् । द्विशाणम्, त्रिशाण्यम् । वैशाणम्, त्रिशाणम् ॥ १४७ ॥ १ तुल्या यवाभ्यां कथिताऽत्र गुञ्जा, वल्लस्त्रिगुञ्ज धरणं च तेऽष्टौ । नद्यास्तद्द्वयमिन्द्रतुल्यैर्वलैस्तथैको घटकः प्रदिष्टः ॥ २ दशार्धगुजं प्रवदन्ति माषं, माषाऽऽह्वयैः षोडशभिश्च कर्षम् कर्षैश्चतुर्भिश्च पलं तुलाज्ञाः कर्ष सुवर्णस्य सुवर्णशम् ३ ॥ इति श्रीभास्कराचार्यो लीलवतीनाम्नि गणितप्रभ्थे प्रा एवं निष्कवितकार्षापणादीनां लक्षगानि लीलावती महावीर गणितादिषु दृश्यानि । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ५९७ ] पण-पाद-माषाद् यः । ६ । ४ । १४८ । पणाऽऽयन्ताद् द्विगोरार्हदर्थे यः स्यात् । द्विपण्यम्, द्विपाद्यम्, अध्यर्द्धमाध्यम् ॥ १४८ ॥ खारी - काकणीभ्यः कच् । ६ । ४ । १४९| एतदन्ताद् द्विगोराभ्यां चाऽऽर्हदर्थे कच स्यात् । द्विखारीकम्, द्विकाकणीकम्, खारीकम्, काकणीकम् ॥ मूल्यैः क्रीते । ६ । ४ । १५० । मूल्यार्थात् दान्तात् क्रीतेऽर्थे यथोक्तं प्रत्ययाः स्युः । प्रास्थिकम् त्रिंशकम् ॥ १५० ॥ " तस्य वापे । ६ । ४ । १५१ । तस्येति षष्ठयन्ताद् वापेऽर्थे यथोक्तं प्रत्ययाः स्युः । प्रास्थिकम्, खारीकम् ॥ १५१ ॥ वात-पित्त - श्लेष्म-सन्निपातात् शमन को - पने । ६ । ४ । १५२ । एभ्यः षष्ठयन्तेभ्यः शमने कोपने चार्थे यथोक्तमिक‍ स्यात् । वातिकम्, पैत्तिकम्, इलैष्मिकम्, सान्निपाति कम् ॥ १५२ ॥ sal संयोगात्पते । ६ । ४ । १५३ | षष्ठयन्ताद् हेतावर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात्, चेद् हेतुः संयोग उत्पातो वा । शत्यः, शतिको दातृसंयोगः, सोम ग्रहणिको भूमिकम्पः ॥ १५३ ॥ पुत्राद् येयौ । ६ । ४ । १५४ । पुत्रात् षष्ठ्यन्ताद् तावर्थे य- इयौ स्याताम्, संयोग उत्पातो वा । पुरुषः, पुत्रीयः ॥ १५४ ॥ " ६३ चेद्वेतुः Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९८] हैमशब्दानुशासनस्य । द्विस्वर-ब्रह्मवर्चसाद योऽसङ्ख्या परिमाणा श्वाऽऽदेः । ६ । ४ । १५५। सङ्ख्यापरिमाणाऽश्वादिवर्जात् द्विस्वराद् ब्रह्मवर्च साच षष्ठयन्ताद् हेतौ संयोगे उत्पाते वा य: स्यात् । धन्या, ब्रह्मवर्चस्यः। सङ्ख्यादिवर्जनं किम् ? पञ्चकः, . . प्रास्थिका, आश्विकः ॥१५५ ॥ 'पृथिवी-सर्वभूमेरीश ज्ञातयोश्वाञ् । ६ । ४ । १५६ । आभ्यां षष्ठयन्ताभ्यामीशज्ञातयोस्तस्य हेतुः संयोग उत्पात इति विषये चाऽञ् स्यात् । पार्थिवः, सार्वभौम ईशो ज्ञातः संयोगोत्पातरूपो हेतुळ ॥ १५६ ॥ लोक-सर्वलोकाद् ज्ञाते । ६ । ४ ।१५७ आभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां ज्ञातेऽर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात। लौकिकः, सार्वलौकिकः ॥ १५७ ॥ तदत्राऽस्मै वा वृद्धयाय-लाभापदा-शुल्क देयम् । ६।४ । १४८ । तदिति प्रथमान्ताद् अत्रेति सप्तम्यर्थेऽस्मै इति चतुर्थ्यथे वा यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् , तचेत् प्रथमान्तं वृद्धयादि देयं च स्यात् । वृद्धिः, पञ्चकं शतम् । आयः पञ्चको प्रामः । लाभः पञ्चकः पटः। उपदा लश्चा। पञ्चको व्यवहारः । शुल्क, पञ्चकं शतम् , एवं शत्यं, शतिकम् ।। १५८ ॥ पूरणाऽौद् इकः । ६ । ४ । १५९ । पूरणप्रत्ययान्ताद‘च प्रथमान्ताद् अस्मिन् अस्मै वा । धनस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा धन्यः । गव्यस्तु “गोः स्वरे यः" (पृ० ४०४) सूत्रात् स्यात् । २ पृथिव्या ईशः, जातः, हेतुः संयोग उत्पातो वा पार्थिवः । एवं सार्वभौमः । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुपत्तिः [४९९) दीयते इत्यर्थयोरिकः स्यात् , प्रथमान्तं वेदू वृद्धयादि। द्वितीपिका, अर्द्धिकः ॥१५९ ॥ भागाद येकौ । ६ । ४ । १६० । भागात् तदस्मिन्नस्मै वा वृद्धयाचन्यतमं देयमितिविषये य-इको स्याताम् । भाग्यः, भागिका ॥१६॥ तं पचति द्रोणाद् वाऽन ।६।४।१६१ । तमिति द्वितीयान्ताद द्रोणात् पचत्यर्थे वाऽ स्यात् । द्रौणी, द्रौणिकी स्थाली ॥ १६१ ॥ सम्भवदवहरतोश्च । ६ । ४।१६२ ।। द्वितीयान्तात् पचत्-सम्भवद्-अवहरत्सु यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । आधेयस्य प्रमाणानतिरेकेण धारणं सम्भवः । अतिरेकेणावहारः । प्रास्थिकी स्थाली ॥ १६२॥ : पात्राऽऽचिताऽऽढकादुईनो वा ।६।४ । १६३ । .. एभ्यो द्वितीयान्तेभ्यः पचदाद्यर्थे ईनो वा स्यात् । पात्रीणा, पात्रिकी, आचितीना, आचितिकी । आढ. कीना, आदकिकी ।। १६३ ॥ द्विगोरीनेकटौ वा । ६।४।१६४ । - पात्राऽऽचिताऽऽहकान्ताद् द्विगोवितीयान्तात् पचदाद्यर्थे ईन-इकटौ वा स्याताम्, पक्षे इकण, तस्य चानाम्नी त्यादिना प्लुप, नानयोर्विधानबलात् । द्विपात्रीणा, द्विपात्रिकी, द्विपात्री । याचितीना, द्वयाचितिकी, याचिता । व्याढकीना, व्याढकिकी, याढकी ॥ १६४॥ १ “अनाम्म्यद्विः प्लुप् " (६-४-१४१) इत्यनेन । द्वे पात्रे पचति संभबत्यवहरति वा स्नो द्विपात्रीणा । आचितशब्दान्तात् स्त्रियां गर्न भवति लकि निषेधात् । Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०० ] हेमशब्दानुशासनस्य कुलिजाद् वा लुप् च । ६ । ४ । १६५ ॥ कुलिजान्ताद् द्विगोर्द्वितीयान्तात् पचदाद्यर्थे ईने कटौ वा स्याताम्, पक्षे इकणू, तस्य च वा लुप् । द्विकुलिजीना, द्विकुलिजिकी, द्विकुलिजी द्वैकुलिजिकी ।। १६५ ॥ वंशाऽऽदेर्भाराद हरदु वहदावहत्सु | ६ | ४ | १६६ । एभ्यः परो यो भारस्तदन्ताद् द्वितीयान्तात् एष्वर्थेषु यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । वांशभारिकः, कौट भारिकः ॥ द्रव्य स्नात् केकम् । ६ । ४ । १६७ | आभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां हरदाद्यर्थे यथासङ्ख्यं क इकश्च स्यात् । द्रव्यकः, वस्निकः ॥ १६७ ॥ सोऽस्य 'भृति चस्नांशम् । ६ । ४ । १६८ । स इति प्रथमान्ताद् भृत्याद्यर्थाद अस्येति षष्ठ्यर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । पञ्चकः कर्मकृत् पटो ग्रामो वा, साहस्रः ॥ १६८ ॥ मानम् | ६ | ४ | १६९ । स्यन्तं 1 प्रथमान्तात षष्ठ्यर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात्, चेद् मानम् । द्रौणिकः, खारीको राशिः ॥ १६९ ॥ जीवितस्य सन् । ६ । ४ । १७० । जीवितमानार्थात् स्यन्तात् षष्ठयर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात, तस्य च नै लुप् । द्विषाष्टिको ना ॥ १७० ॥ सङ्ख्यायाः संघ-सूत्रपाठे । ६ । ४ । १७१ । अस्मात् स्यन्ताद् अस्य मानमित्यर्थे यथोक्तं प्रत्ययः १ मृतिर्वेतनम् | वस्नो नियतकालक्रयमूल्यम् । पञ्चास्य भृतिर्वस्नं वा पञ्चकः । २ " अनाम्न्यद्विः" इति लुप् न स्यात् । द्वे षष्ठी जीवितमानमस्य द्विषाष्टिकः । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५०१] स्यात् , षष्ठयर्थश्चेत सङ्घः, सूत्रं, पाठो वा। पञ्चकः सङ्घ, अष्टकं पाणिनीयं सूत्रम् , अष्टकः पाठः ॥ १७१ ॥ नाम्नि । ६।४। १७२। सङ्ख्यार्थात् तदस्य मानमित्यर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् , नाम्नि । पञ्चकाः शकुनयः ॥ १७२ ॥ विशत्यादयः।६।४। १७३ । एते तदस्य मानमित्यर्थे साधवः स्युः, नाम्नि । द्वौ दशती माममेषां विंशतिः, त्रिंशत् ॥ १७३ ॥ त्रैश-चात्वारिंशम् । ६ । ४ । १७४ ।। त्रिंशत्चत्वारिंशद्भयां तदस्य मानमित्यर्थे डण् स्यात् , नाम्नि । _शानि, चात्वारिंशानि ब्राह्मणानि ॥ पञ्चद्-दश वर्गे वा । ६।४।१७५ । __एतौ तदस्य मानमितिविषये वर्गेऽर्थेऽदन्तौ वा निपात्यौ । पश्चत् , दशत्, पंञ्चका, दशको वर्गः ॥ १७५ ।। - स्तोमे डट् । ६।४।१७६। - सङ्ख्यार्थात् तदस्य मानमितिविषये स्तोमेऽर्थे डट् स्यात्। विंशः स्तोमः ॥ १७६ ॥ तमहेति ॥ ६।४। १७७। . तमिति द्वितीयान्तादहदर्थे यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् । वैषिका, साहस्रः॥ १७७॥ __दण्डाऽऽदेर्यः । ६।४।१७८ । एभ्यो द्वितीयान्तेभ्योऽहंदर्थे या स्यात् । दण्ड्यः, अर्थ्यः॥ यज्ञाद् इयः । ६ । ४ । १७९ । द्वितीयान्ताद् यज्ञादर्हति इयः स्यात्। यज्ञियो देशः॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५०२] हेमशब्दानुशासनस्य ___ पात्रात् तो ।६। ४ । १८० । द्वितीयान्तात् पात्राद् अर्हति य-इयौ स्याताम् । पात्र्यः, पात्रियः ॥ १८०॥ दक्षिणा-कडङ्गर-स्थालीविलाद ईय-यो । ६ । ४।१८१ । एभ्यो द्वितीयान्तेभ्योऽहत्यर्थे ईययौ स्याताम् । दक्षिणीयो, दक्षिण्यो गुरुः, कडङ्गरीयः, कडङ्गर्यो गौः, स्थालीबिलीयाः, स्थालीविल्यास्तण्डुलाः ॥१८१ ॥ लेदाऽऽदेर्नित्यम् । ६ । ४ । १८२ । अस्माद् द्वितीयान्तान्नित्यमर्हति यथोक्तं प्रत्ययः स्यात्, छैदिकः भैदिकः ॥ १८२ ॥ विरागाद् विरङ्गश्च । ६ । ४ । १८३ । .. अस्माद् द्वितीयान्तानित्यमर्हति यथोक्तं प्रत्ययः स्यात् , तयोगे चास्य विरङ्गः । वैरङ्गिकः ॥ १८३ ॥ शीर्षच्छेदाद् यो वा । ६ ॥ ४ ॥१८४ । अस्माद् द्वितीयान्सान्नित्यमर्हति यो वा स्यात् । शीर्षच्छेद्या, शीर्षच्छेदिकौरः ॥१८४॥ शालीन कौपीनाऽऽर्विजीनम् । ६।४।१८५। एते तमहतीत्यर्थे ईनअन्ता निपात्याः । शालीनोऽधृष्टः, कौपीनं पापकर्मादिः, आर्वजीनो यजमान ऋस्विग्वा ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधा. मस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ षष्ठस्याध्यायस्य . षष्ठोध्यायः समाप्तः॥६॥ ४ ॥ ॥ इति षष्ठोऽध्यायः॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपजलघुवृत्तिः [५०३] अर्हम् ॥ अथ सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः॥ यः।७।१।१। यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्र ईयोदर्वाग् य इत्यधिकृतं ज्ञेयम् ॥ १॥ वहति रथ-युग-प्रासङ्गात् । ७।१ ।२। तमिति वर्तते । एभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो वहत्यर्थे यः स्यात् । द्विरथ्यः, युग्यः। प्रासको वत्सवमनस्कन्धकाष्ठम् । प्रासङ्ग्यः ॥२॥ धुरो यैयण । ७।१।३। धुरो द्वितीयान्ताद् वहत्यर्थे एतौ स्याताम् । धुर्यः, धौरेयः ॥३॥ 'वामाऽऽद्यादेरीनः । ७ । १।४। वामादिपूर्वाद् धुरन्तादमन्ताद वहत्यर्षे ईमः स्यात वामधुरीणः, सर्वधुरीणः ॥ ४ ॥ अश्चैकाऽऽदेः । ७। १।५। एकपूर्वाद् धुरन्तादमन्ताद वहत्यर्थे अ ईनश्च स्यात। एकधुरः, एकधुरीणः ॥ ५॥ हल-सीराद् इकण । ७।१।६। - आभ्यां तं वहत्यर्थे इकण् स्यात् । हालिकः, सैरिकः।। . १ "ईयः” (७-१-२८) इति सूत्रेण ईयः प्रत्ययः, तस्मात् पूर्वमपवाद परित्यज्य याधिकारो वर्तते । २ वामा चासौ धृश्चेति समासान्तत्वादापि वामधुरा, तां वहतीति वामधुरीणः, केवलादपीति कश्चित् , धुरीणः । एवमेकधुर-हालिकशाकटादिश्यपि पद्धतिः। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५०४] हैमशब्दानुशासनस्य शकटादण् । ७। १।७। अस्मात् नं वहत्यर्थेऽण् स्यात् । शाकटो गौः ॥७॥ विध्यत्यनन्येन।७।१।८। द्वितीयान्ताद विध्यत्यर्थे यः स्यात्, न चेदात्मनोऽन्येन करणेन विध्येत् । पद्याः शर्कराः। अनन्येनेति किम् ? . . चौरं विध्यति चैत्रः॥८॥ धनगणात् लब्धरि ।७।१।९। आम्याममन्ताभ्यां लब्धयर्थेयःस्यात्।धन्या, गण्यः।। __ णोऽन्नात् । ७ । १ । १०। अन्नाद् अमन्तात् लब्धरि णः स्यात । आन्नः॥१०॥ हृद्य-पद्य-तुल्य-मूल्य-वश्य-पथ्य वयस्य-धेनुष्या गार्हपत्य-जन्य धर्म्यम् । ७।१।११। एतेऽर्थविशेषेषु यान्ता निपात्या। हृद्यमौषधम् , पद्यः पङ्कः, तुल्यं भाण्डं सदृक्षम्, मूल्यं धान्यं पटादिविक्र. याल्लभ्यं च, वश्यो गौः, पथ्यमोदनादि, वंयस्यः सखा, धेनुष्या पीतदुग्धा गौः, गार्हपत्यो नामाग्निः, जन्या वरवयस्याः, धम्य सुखम् ॥ ११ ॥ नौ-विषेण ताय-वध्ये । ७।१। १२ । आभ्यां निर्देशादेव तृतीयान्ताभ्यां यथासङ्खधं तार्ये वध्ये चार्थे यः स्यात् । नाव्या नदी, विष्यो गज ॥ १२ ॥ १ पादौ विध्यन्तीति पद्याः। "हिमहतिकाषिये पद्” इति पदादेशः । २ अमन्ताद् द्वितीयाप्रत्ययान्ताद् । एवं टान्तात् इति तृतीयाप्रत्ययान्तादित्यर्थः । ३ हृदयस्य प्रियं हृद्यम् । पदमस्मिन् दृश्यं पद्यः पङ्कः । तुलया संमितं तुल्य भाष्डम् , मूलमेषासुत्पाट्यं मूल्यं धान्यम् , मूलैनाऽऽनम्यं मूल्यम् । वशं गतो वश्यः । पथो मार्गादनपेतं, पथ्यम् । वयसा तुल्यो वयस्यो मित्रार्थे: अन्यत्र तु नैवं स्यात् । गृहपतिना संयुक्तो गार्हपत्यो । Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५०५] न्यायाऽर्थादनपेते ।७।१।१३। आभ्यां पञ्चम्यन्ताभ्यामनपेतेऽर्थे यः स्यात् । न्या. य्यम् , अर्थ्यम् ॥ १३ ॥ मत-मदस्य करणे । ७ । १ । १४ । आभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां करणे यः स्यात् । मत्यम् , मद्यम् ॥ १४ ॥ तत्र साधौ । ७।१।१५। तत्रेति सप्तम्यन्तात् साधावर्थे यः स्यात् । सभ्यः ।। पथ्यतिथिचसति-स्वपतेरेयण । ७।१।१६। एभ्यस्तत्र साधावेयण् स्यात् । पाथेयम्, आतिथ्यम् , वासतेयम् , स्वापतेयम् ॥१६॥ भक्तात् णः ।७।१ । १७। भक्तात् तत्र साधौ णः स्यात् । भाक्तः शालिः ॥१७॥ पर्षदो ण्य-गी।७।१।१८। तत्र साधौ स्याताम् । पार्षद्यः, पार्षदः ॥ १८॥ सर्वजनात् ण्येनौ । ७।१ । १९ । तत्र साधौ स्याताम् । सार्वजन्यः सार्वजनीनः॥ . प्रतिजनादेरीनन् । ७।१।२०। तत्र साधौ स्यात् । पातिजनीनः, आनुजनीनः ॥२०॥ कथाऽदेरिकण । ७।१।२१ । तत्र साधौ स्यात् । काथिकः, वैकथिकः ॥ २१ ॥... देवतान्तात् तदर्थे । ७।१ । २२ । देवताऽन्तात् तदर्थे यः स्यात् । अग्निदेवत्यं हविः ॥ . 1 ण्य-ईनञ् इत्येतौ स्वः । सर्वजनेषु साधुरेति विग्रहः । एवमन्यत्रापि । Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य पाद्याऽर्ये । ७ । १ । २३ । एतौ तदर्थे यान्तौ निपात्यौ । पाद्यं जलम्, अर्ध्य रत्नम् ।। २३ ।। [ ५०६ ] ण्योऽतिथेः । ७ । १ । २४ । २४ ॥ तदर्थेऽर्थे स्यात | आतिथ्यम् ॥ साऽऽदेश्वा 'तदः । ७ । १ । २५ । " तद्" ( ७-१-५० ) इति सूत्रं यावत् केवलस्य साऽऽदेध वक्ष्यमाणो विधिर्ज्ञेयः ॥ २५ ॥ हलस्य कर्षे । ७ । १ । २६ | हलात् षष्ठयन्ताद् कर्षेऽर्थे यः स्यात् । हल्या, द्विहल्या ॥ सीतया संगते । ७ । १ । २७ । अस्मात् टान्तात् सङ्गतेऽर्थे यः स्यात् । सीत्यम्, त्रिसीत्यम् ॥ २७ ॥ ईयः | ७ | १ | २८ | आ तो वक्ष्यमाणार्थेषु ईयोऽधिकृतो ज्ञेयः ॥ २८ ॥ हविरन्नभेदाऽपूषाऽऽदेर्यो वा । ७ । १ । २९ । 1 हविर्भेदाद्, अन्नमेदाद् अपूपादेवाऽऽतदोऽर्थेषु वा योऽधिक्रियते । आमिक्ष्यम्, आमिक्षयम् । ओदन्याः, ओदनीयास्तण्डुलाः । अपूप्यम्, अपूपीयम् । यवापूप्यम् वापीयम् ।। २९ ।। १ " तद्” इति सूत्रे यावत् ये प्रत्यया वक्ष्यन्ते ते केवलात् निर्दिष्टशब्दात् तदन्ताच्च यथाप्रयोगं भवन्तीत्यर्थः । यथा हलस्य कर्षो हल्येति केवलात् द्विहलय त सादेरुदाहरणम् । अधिकारोऽयम् । एवं सीत्यत्रिसीत्यादि । Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः ५ ०७ उवर्ण-युगाऽऽदेयः । ७ । १ ॥ ३० । - उवर्णान्ताद् युगाऽऽदेवाऽऽतदोऽर्थेषु यः स्यात् । शङ्कव्यं दारु, युग्यं, हविष्यम् ॥ ३० ॥ नामेने चाऽदेहांशात् । ७।१।३१ । अदेहांशार्थात् नामेरा तदोऽर्थेषु यः स्यात,नभू चाऽस्य। नभ्योऽक्षः। अदेहांशादिति किम् ? नाभ्यं तैलम् ॥३१॥ न्चोधसः ।७।१ । ३२ । आ तदोऽर्थेषु ऊधसो यः स्थात्, न्चान्तस्य। औधन्यम्॥ शुनो वश्वोदृत् । ७ । १ । ३३ । आ तदोऽर्थेषु शुनो यः स्यात् , वश्च उद्रूपः। शुन्यम् , शून्यम् ॥ ३३॥ __ कम्बलात् नाम्नि । ७।१ । ३४ । अस्मादा तदोऽर्थेषु नाम्नि यः स्यात् । 'कम्बल्यम् ऊर्णापलशतम् । नाम्नीति किम् ? कम्बलीया ऊर्णा॥३४॥ तस्मै हिते।७।१।३५। तस्मै इति चतुर्थ्यन्तात हितेऽर्थे यथाऽधिकृतं प्रत्ययः स्यात् । वत्सीयः, आमिक्ष्यः, आमिक्षीयः, युग्यः ॥३५॥ न राजाऽऽचार्य-ब्राह्मण-वृष्णः । ७।१।३६ । एभ्यश्चतुर्थ्यन्तेभ्यो हितेऽधिकृतः प्रत्ययो न स्यात् । राज्ञे, आचार्याय, ब्राह्मणाय, वृष्णे वा हित इति वाक्य मेव ॥ ३६॥ १-पस्सेभ्यो हितो-वत्सीयः। आमिक्षायै हित आमिक्ष्य इत्यत्र "हविरन्नमेदा..." (७-१-२९) सूत्रात् यः, पक्षे ईयः । एवं शुने हितं शुन्यं शून्यमिति "शुनो वश्वोदूतू " सूत्रात् सिष्यति । Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य प्राण्यङ्ग-रथ-खल-तिल-यव-वृष-ब्रह्म-मा षाद् यः | ७ | १ | ३७ । प्राण्यङ्गार्थेभ्यो रथादिभ्यश्चतुर्थ्यन्तेभ्यो हिते यः स्यात् । दन्त्यम्, रथ्या भूमिः, खल्यम्, तिल्यम्, यव्यम्, वृष्यं क्षारम्, ब्रह्मण्यो देशः, माध्यः, राजमाष्यः ॥ ३७ ॥ [५०८ ] अव्यजात् ध्यप् । ७ । १ । ३८ । आभ्यां तस्मै हिते थ्यप् स्यात् । अविध्यम्, अजथ्या यूतिः ॥ ३८ ॥ चरक - माणवाद् ईनञ् । ७ । १ । ३९ । आभ्यां तस्मै हिते इनञ् स्यात् । चारकीणः, माणवीनः ॥ ३९ ॥ भोगोत्तरपदाऽऽत्मभ्यामीनः । ७ । १ । ४० । भोग उत्तरपदं यस्य तस्माद्, आत्मनश्च तस्मै हिते ईनः स्यात् । मातृभोगीणः, आत्मनीनः ॥ ४० ॥ पञ्च सर्व-विश्वात् जनात् कर्मधारये । ७ । १ । ४१ । पञ्चादेः परात् जनात् कर्मधारयवृत्तेः तस्मै हिते ईनः स्यात् । पञ्चजनीनः, सर्वजनीनः, विश्वजनीनः। कर्म्मधारय इति किम् १ पञ्चानां जनाय हितः पञ्चजनीयः ॥ महत्-सर्वाद् इक । ७ । १ । ४२ | आभ्यां परात् जनात् कर्मधारयवृत्तेस्तस्मै हिते इकण् स्यात् । माहाजनिकः सार्वजनिकः ॥ ४२ ॥ १ पञ्चानां जनः तस्मै जनाय हित इति वाच्यम् । अत्र कर्मधारया भावान ईनः । पञ्चजनेभ्यो हितः पञ्चजनीन इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रादीनप्रत्ययः । Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः सर्वात् णो वा । ७।१ । ४३। अस्मात् तस्मै हिते णो वा स्यात् । सार्वः, सर्वीयः॥ परिणामिनि तदर्थे । ७ । १ । ४४ । चतुर्थ्यन्तात् चतुर्थ्यर्थे परिणामिनि हेतावर्थे यथाऽधिकृतं प्रत्ययः स्यात् । अङ्गारीयाणि काष्ठानि, शङ्कव्यं दारुः ॥४४॥ चर्मण्यञ् । ७।१। ४५। चतुर्थ्यन्तात् तदर्थे परिणामिनि चर्मण्यर्थेऽञ् स्यात् । वार्ध चर्म ॥४५॥ ऋषभोपानहात् ज्यः । ७।१ । ४६। आभ्यां चतुर्थ्यन्ताभ्यां परिणामिनि तदर्थे ज्यः स्यात। आर्षभ्यो वत्सा, औपनह्यो मुञ्जः ॥४६॥ छदिसूचलेरेयण । ७।१।४७ । आभ्यां चतुर्थ्यन्ताम्यां परिणामिनि तदर्थे एयण् स्यात् । छादिषेयं तृणम् , बालेयास्तण्डुलाः ॥ ४७॥ परिखाऽस्य स्यात् । ७।१ । ४८। अस्मात् स्यन्तादस्येति षष्ठयर्थे परिणामिन्येयण स्यात्, सा चेत् स्यादितिसम्भाव्या । पारिखेय्य इष्टकामा - अत्र च । ७।१ । ४९ । परिखायाः स्यादितिसम्भाव्यायाः स्यन्तायाः, अत्रेति सप्तम्यर्थे एयण् स्यात । पारिखेयी भूमिः ॥ ४९ ॥ १ परिणामि द्रव्यमुपादानकारणम् , तस्मिन्नभिधेये। अजारेभ्य इमानि अङ्गारीयाणि काष्ठानि, अत्र काष्ठानि परिणामोनि । एवं प्राकारीया इष्टकाः, बार्धादि। ___ २ प्रथमान्तात् । सा चेद् अनेनोपादानकारणेन कृतास्पादिति संभाव्यतेऽनुमीयते इत्यर्थः । यथा 'इष्टकानां परिखा स्यात् ' इत्यनुमीयते इति पारिखेय्यः इष्ठकाः, णित्त्वाद् जीप वृद्धिश्च । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [420] हैमशब्दानुशासनस्य तद् | ७ | १ | ५० । तदिति स्यन्तात्, स्यादिति सम्भाव्यात्, षष्ठयर्थे परिणामिनि सप्तम्यर्थे च यथाऽधिकृतं प्रत्ययः स्यात् । प्राकारीया इष्टकाः परशब्यमयः, प्रासादीयो देशः ॥ ५० ॥ तस्याऽहें क्रियायां वत् । ७ । १ । ५१ । तस्येति षष्ठयन्तात् क्रियारूपेऽर्हेऽर्थे वत् स्यात । राजबद् वृत्तं राज्ञः । क्रियायामिति किम् ? राज्ञोऽर्हो मणिः ॥ ५१ ॥ 'स्यादेखि | ७ | १ | ५२ ॥ • स्याद्यन्ताद् इवार्थे सादृश्ये क्रियाऽर्थे वत् स्यात् । अश्ववद् याति चैत्रः, देववत् पश्यन्ति मुनिम् ॥ ५२ ॥ तत्र । ७ । १ । ५३ । तत्रेति सप्तम्यन्ताद् इवार्थे वत्स्यात् सुम्नवत् साकेते परिखा ।। ५३ ।। तस्य । ७ । १ । ५४ । तस्येति षष्ठयन्तादिवार्थे वत् स्यात् । चैत्रवत् मैत्रस्य भूः ।। ५४ ।। १ प्रथमाद्वितीया तृतीयचतुर्थी पञ्चम्याद्यन्तादित्यर्थः । बन्धुनैव बन्धुत्रत् स्नियति, सज्ञे ईव राजवत् स्वराज्याय दत्तं धनम्, पर्वतादिव पर्वतवत् पतति वृक्षाद् इति शेषाः प्रयोगाः । षष्ठी सप्तम्योस्त्वक्रियायामपि स्यात्, यथोत्तरत्र सूत्रे, राजवद् वृत्तं राजा वृत्तमित्यर्थः । पञ्चाशत्तमसूत्रे ईयाधिकारः समाप्तः । सादृश्यं नाम गुण. क्रियादिरूपं साधर्म्यम् । उपमायामिवस्थाने वत् प्रयुज्यते । उपमायाश्च उपमानोपमेयसाधारणधर्मा उपमावा व कश्चेषादिशब्दइति चत्वारि अङ्गानि सन्ति । साधारणधर्मवरवेन विख्यातं वस्तु उपमानम् । तद्धर्मवत्त्वेन कविबुद्धिगोचरं विधीयमानं वस्तु उपमेयम् । उपमानोपमेययोः खाधारणतया वर्तमानौ गुणक्रियादिरूपो धर्मः साधारणधर्मः यथा चन्द्रवत् प्रकाशते मुखम् । इववद् यथावानिभतुल्यादयः शब्दा उपमावाचकाः । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५११] भावे त्व-तल । ७ । १ । ५५ । षष्ठयन्ताद् भावे एतौ स्याताम् । शब्दस्य प्रवृत्तिहेतुगुणो भावः । गोत्वम्, गोता, शुक्लत्वम्, शुक्लता ॥ प्राक् त्वादगडुलादेः | ७ । १ । ५६ । “ब्रह्मणस्त्वः” (७-१-७७) इत्यतोऽर्वाक् त्वतलावधिकृतौ ज्ञेयौ, न तु गडुलादेः, तत्रैवोदाहरिष्येते । गडुलादि वर्जनं किम ? गाडुल्यम्, कामण्डलवम् ॥ ५६ ॥ नंतर पुरुषादबुधाऽऽदेः १७ । १ । ५७ । प्राक् त्वात् नञ् पूर्वात् तत्पुरुषाद् बुधाऽऽद्यन्तवर्जात् त्वः तलावेव स्याताम् इत्यधिकृतं ज्ञेयम् । अशुक्लत्वम्, अशुक्लता, अपतित्वम् अपतिता । अबुधादेरिति किम् ? आबुध्यम्, आचतुर्यम् ॥ ५७ ॥ पृथ्वादेरिमन् वा । ७ । १ । ५८ । एम्यो भावे वा इमन् स्यात् । प्रथिमा, पृथुत्वम्, पृथुता, पार्थवम् । श्रदिमा, मृदुता, मार्दवम् ॥ ५८ ॥ वर्णाऽऽदिभ्यः च वां । ७ । १ । ५९ । वर्णविशेषार्थेभ्यो ढाऽऽदेव तस्य भावे टयण इमन् च १ अत्र भावस्य जात्याद्यर्थः । जातिचं नित्यैकानेकगता सामान्यपदाभिधेया द्रव्यगुणकर्मवृत्त वायिकमतेन । नित्यत्वे सति अनेक व्यक्तिसमवेतत्वं जातेर्लक्षणमिति, यथा गोत्वशुक्लत्वमनुष्यत्वादि । सा च मुख्यावान्तरमेदाभ्यां द्विधा । २ “ब्रह्मणस्त्वः” इति सूत्रस्थितत्वशब्दात् पूर्वं गडुलादीन् वर्जयित्वा स्वताधिकार इत्यर्थः । केचिद् गडुलाssदेरपीच्छन्ति, तन्मते गडुलत्वं गडुलतेति स्तः । "" ३ अत्रैवकारात् "वर्णदृढादिभ्यः व्यण् च वा" इति व्यण् बाधितो भवति न शुक्लोऽशुक्लः, तस्य भावोऽशुक्लत्वमित्यत्र व्यणू न स्यात् । एवं “पति राजान्त...' ( ७-१-६० ) इति पतिराजान्तादिभ्यो विहितः व्यणु बाध्यते, तेनः नञ्पूर्वतत्पुरुषे: अपतित्वं अपतितेत्येव स्तः । Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५१२] स्याद् वा। शौक्ल्यम् , शुक्लिमा, शुक्लत्वम्, शुक्लता, शैत्यम् , शितिमा, शितित्वम्, शितिता, शैतम् । दाढयम् , दृढिमा, दृढत्वम् , दृढता, वैमत्यम् , विमतिमा, विमतित्वम् , विमतिता, वैमतम् ॥ ५९ ॥ . पति-राजान्तगुणाङ्ग-राजादिभ्यः कर्म-... णि च । ७॥ १ ॥ ६०। पत्यन्तराजान्तेभ्यो गुणोऽङ्गं प्रवृत्तौ हेतुर्येषां तेभ्यो, राजादेश्व, तस्य भावे क्रियायां च ट्यण् स्यात् । आधिपत्यम् , अधिपतित्वम् , अधिपतिता, अधिराज्यम् , अधिराजत्वम् , अधिराजता, मौढ्यम् , मूढत्वम् , मूढता , राज्यम् , राजत्वम् , राजता, काव्यम् कवित्वम् , कविता ॥ ६ ॥ . अर्हतस्तान्त् च । ७।१ । ६१। अस्मात् तस्य भावे कर्माणि च व्यण् स्यात, तद्योगे च तस्य न्तादेशः। आर्हन्त्यम्, अर्हत्त्वम् , अर्हत्ता ॥३१॥ सहायाद वा । ७।१ । ६२ । । अस्मात् तस्य भावे कर्मणि च ट्यण् स्याद् वा । साहाय्यम् , साहायकम् , सहायत्वम् , सहायता ॥६२॥ १ आन्तरारिहननाद् रजोहननात् रहस्याभावाच्च तीर्थंकरादिवाचकोऽर्हन् शब्दः पृषोदरादेः सिध्यति । तस्याऽर्हतो भावः कर्म वा आर्हन्त्यम् । व्याकरणपूर्णतत्त्वाऽ. वेदिन आर्हन्त्यमिति प्रयोगमशुद्ध विकल्प्य सकलाहत्प्रतिष्ठानमितिपद्ये आर्हन्त्यमिति प्रयोग प्रामादिकं शङ्कन्ते, तत् तेषामेतत्सूत्रानवबोधात् स्खलितमेव विज्ञेयम् , व्याकरणब्रह्मणो हेमचन्द्राचार्यस्य प्रयोगे प्रमादाऽसम्भवात् । णित्त्वात् स्त्रियां डीप्रत्यये आन्तिी इति स्यात् । प्रयोगद्वयेऽपि एतेन सूत्रेणाऽर्हतः टयण् प्रत्ययः न्तादेशश्च विधायेते । पक्षे त्वादि । अणि परे आहेतम् । Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः सखि-वणिग्-दूताद् यः । ७ । १ । ६३ । एभ्यस्तस्य भावे कर्मणि च यः स्यात् । सख्यम्, सखित्वम्, सखिता, वणिज्या, वणिकत्वम्, वणिक्ता, वाणिज्यम्, दूत्यम्, दूतत्वम्, दूतता, दौत्यम् ॥ ६३ ॥ स्तेनात् नलुक् च । ७ । १ । ६४ । स्तेनात् तस्य भावे कर्मणि च यः स्यात्, तद्योगे च नस्य लुक् । स्तेयम्, स्तेनत्वम्, स्तेनता, स्तैन्यम् ॥ कपि ज्ञातेरेयण् । ७ । १ । ६५ | आभ्यां तस्य भावे कर्मणि चैयण् स्यात् । कापेयम्, कपित्वम्, कपिता, ज्ञातेयम्, ज्ञातित्वम्, ज्ञातिता ॥ प्राणिजाति-वयोऽर्थाद | ७ | १ | ६६ | प्राणिजात्यर्थात् बयोsर्थाच्च तस्य भावे कर्मणि चाव् स्यात् । आश्वम्, अश्वत्वम्, अश्वता, कौमारम्, कुमारत्वम्, कुमारता ॥ ६६ ॥ [५१३] युवादेरण । ७ । १ । ६७ । एतस्य भावे कर्मणि चाण् स्यात् । यौवनम् युवत्वम्, युवता, स्थाविरम्, स्थविरत्वम्, स्थविरता ॥ हायनान्तात् । ७ । १ । ६८ । I अस्मात् तस्य भावे कर्मणि चाण् स्यात् । द्वैहायनम् द्विहायनत्वम्, द्विहायनता ॥ ३८ ॥ य्वृवर्णात् लघ्वादेः । ७ । १ । ६९ । लघुरादिः समीपो येषां इ उ ऋवर्णानां तदन्तेभ्यस्तस्य भावे कर्म्मणि चाणू स्यात् । शौचम्, शुचित्वम्, शुचिता, ६५ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१४] हेमशब्दानुशासनस्य एवं हारीतकम्, पाटवम्, बाघवम्, पैत्रम् । लध्यादेरिति किम् १ पाण्डुत्वम् ॥ ६९ ॥ पुरुष हृदयादसमासे । ७ । १ । ७० । आभ्यामसमासविषयाभ्यां तस्य भावे कर्मणि चान् स्यात् । पौरुषम्, पुरुषत्वम्, पुरुषता, एवं हार्दम् । असमास इति किम् ? परमपुरुषत्वम्, परमपौरुषमिति मा भूत् ॥ ७० ॥ श्रोत्रियाद लुकू च । ७ । १ । ७१ । अस्मात् तस्य भावे कर्मणि चाण् स्यात्, तद्योगे च यस्य लुक् च । श्रोत्रम्, श्रोत्रियत्वम्, श्रोत्रियता, श्रौत्रियकम् ॥ ७१ ॥ योपान्त्याद् गुरूपोत्तमादसुप्रख्याद कञ् । ७ । १ । ७२ । श्यादीनामन्त्यमुत्तमम्, तत्समीपमुपोत्तमम्, तद्गुरुर्यस्य तस्माद् युपान्त्यात् सुप्रख्यवत् तस्य भाषे कर्म्मणि चाकञ् स्यात् । रामणीयकम्, रमणीयत्वम्, रमणीयता, एवमाचार्यकम् । गुरुपोत्तमादिति किम् ? क्षत्रियत्वम् कायस्वम् । असुप्रख्यादिति किम् ? सुप्र रूयत्वम्, सौप्रख्यम् ॥ ७२ ॥ 9 चोराऽऽदेः । ७ । १ । ७३ । एभ्यस्तस्य भावे कर्मणि चाकञ् स्यात् । चौरिका, चोरत्वम्, चोरता, एवं धौर्त्तिका ॥ ७३ ॥ १ श्रोत्रियस्य चौरादिकत्वात् "चौरादेः" इतिसूत्राद् अकन्प्रत्ययोऽपि पक्षे भवति । २ दीर्घो विसर्गानुस्वारसंयोगान्तश्च वर्णो गुरुरुच्यते, तेना ने कव्यञ्जनव्यवधाने ऽपि भाचार्यस्य भाग आचार्यकमित्यपि स्यात् । Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुति [५१५] द्वन्दात् लित् । ७ । १ । ७४ । द्वन्द्वात् तस्य भावे कर्मणि च लिद अकञ् स्वात् । 'वैत्रिरका, विनृत्वम् , विनृता ॥ ७४ ॥ गोत्र-चरणात् श्लाघाऽत्याकार प्राप्त्यव. गम । ७।१ । ७५ । ...... गोत्रार्थचरणार्याम्यां तस्य भावे कर्मणि च लिदक स्यात्, श्लाघाऽऽदिविषये । गार्गिकया इलाघते, अत्याकुरुते वा, गार्गिकां प्राप्तोऽवगतोवा, एवं काठिकपेत्यादि। श्लाघाऽऽविष्विति किम् ? गार्गम् , काठम् ॥ ७५ ॥ होत्राभ्य ईयः । ७।१।७६ । होत्रा ऋत्विग्विशेषः। तदर्थात् तस्य भावे कर्मणि चेयः स्यात् । मैत्रावरुणीयम् । त्वतलावपि ॥ ७६ ॥ . ब्रह्मणस्त्वः । ७।१ । ७७। अस्माद् ऋत्विगर्थात् तस्य भावे कर्मणि त्वः स्यात्। ब्रह्मत्वम् ।। ७७॥ शाकट-शाकिनौ क्षेत्रे । ७।१। ७८ । षष्ठयन्तात् क्षेत्रेऽर्थे एतौ स्याताम् । इक्षुशाकटम् , शाकशाकिनम् ॥ ७८॥ ... धान्येभ्य ईन । ७।१।७९। . धान्यार्थेभ्यः षष्ठयन्तेभ्यः क्षेत्रेऽर्थे इनञ् स्यात् । मौद्गीनम् , कौद्रवीणम् ॥ ७९ ॥ विश्च ना चेति वि-नरौ तयोविनोर्मावः कर्म वा वैत्रिका-पमिपुरुषत्वमित्यर्थः । लित्त्वात् स्त्रीलिङ्गे भवति । लिदकाः परत्वात् "प्युवर्णात्..." इतिसूत्रात् प्राप्तोऽण बाध्यते । परेण पूर्वबाध इति वचनात् । त्वतलौ च भवतः। २ चरण शाखानिमित्त कठादि । मोत्रमपत्यं प्रवराण्यायपठित च । गार्य-स्य भावः कर्म वा गार्गिका तया गागिंकया । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५१६] हैमशब्दानुशासनस्य व्रीहि-शालेरेयण् । ७ । १ । ८० । आभ्यां तस्य क्षेत्रे एयण स्यात् । त्रैहेयम्, शालेयम् ॥ यव-यवक - षष्टिकाद् यः । ७ । १ । ८१ । यवक्यम्, एभ्यस्तस्य क्षेत्रे यः स्यात् । यव्यम् षष्टिक्यम् ॥ ८१ ॥ वाऽणु-भाषात् । ७ । १ । ८२ । आभ्यां तस्य क्षेत्रे यो वा स्यात् । अणव्यम्, आणवीनम् । माष्यम्, माषीणम् ॥ ८२ ॥ वोमा भङ्गा-तिलात् । ७ । १ । ८३ । एभ्यस्तस्य क्षेत्रेऽर्थे यो वा स्यात् । उम्यम्, ओमीनम् । भङ्ग्यम्, भाङ्गीनम् । तिल्यम्, तैलीनम् ॥ ८३ ॥ अलाब्वाश्च कटा रजसि । ७ । १ । ८४ । अस्माद् उमाssदेश्च तस्य रजस्यर्थे कटः स्यात् । अलाबूकटम्, उमाकटम्, भङ्गाकटम्, तिलकटम् ॥ ८४ ॥ अह्ना गम्येऽश्वाद् ईनञ् । ७ । १८५ । षष्ठ्यन्तादश्वात् एकेनाह्ना गम्येऽर्थे ईनञ् स्यात् । आश्वीनोऽध्वा || ८५ ॥ कुलात् जल्पे । ७ । १ । ८६ । षष्ठयन्तात् कुलात् जल्पेऽर्थे ईनञ् स्यात् । कौलीनः ॥ पील्वादेः कुणः पाके । । १ । ८७ । एभ्यस्तस्य पाके कुणः स्यात् । पीलुकुणः, शमीकुणः ।। कर्णादेर्मूले जाहः । ७ । १ । ८८ । एभ्यस्तस्य मूलेऽर्थे जाहः स्यात् । कर्णजाहम्, अक्षिजाहम् ॥ ८८ ॥ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीपक्षलघुवृत्तिः [५१७) पक्षात् तिः।७।१।८९। पक्षात् तस्य मूलेऽर्थे तिः स्यात् । पक्षतिः ॥ ८९ ॥ हिमाद् एलुः सहे । ७।१ । ९० । हिमात् तस्य सहमानेऽर्थे एलु: स्यात् । हिमेलुः ॥ बलचातादूलः।७।१। ९१ । आभ्यां तस्य सहेऽर्थे ऊला स्यात्। बलूलः, वातूलः॥ शीतोष्ण-तृषाद् [प्राद् !] आलुरसहे। ७ । १ । ९२ । एभ्यस्तस्यासहेऽर्थे आलुः स्यात् । शीतालु:, उष्णालु:, तृषालु, [तृपालुः १] ॥ ९२॥ यथामुख-संमुखाद् ईनः तद् दृश्यते .ऽस्मिन् । ७।१ । ९३ । आभ्यां तदिति स्यन्ताभ्यां, अस्मिन्निति ड्यर्थे ईन: स्यात्, स्यन्तं चेद् दृश्यते । यथामुखं प्रतिबिम्बम् , यथामुखीन आदर्शः एवं संमुखीनः ॥ ९३ ॥ सर्वाऽऽदेः पथ्यङ्ग-कर्म-पत्र पात्र-शरावं व्या प्नोति ।७।१।९४। सर्वशब्दपूर्वेभ्य एभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो व्याप्नोतीत्यर्थे ईनः स्यात् । सर्वपथीनो रथः, सर्वाङ्गीणस्तापा, सर्वकमीणो ना, सर्वपत्रीणो यन्ता, सर्वपात्रीणं भक्तम् , सर्वशरावीणं ओदनम् ॥ ९४ ॥ आप्रपदम् । ७।१।९५ । आ पदाग्राद् आमपदम् , अस्मादमन्ताद् व्याप्नोतीत्यर्थे ईन: स्यात् । आप्रपदीनः पटः ॥ ९५ ॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५१८] हेमशब्दानुशासनस्थ अनुपदं बद्धा ।। १ । ९६ । अस्मादमन्तात् बद्धेत्यर्थे ईमः स्यात् । अनुपदीनोपानत् ॥९६॥ अयानयं नेयः । ७।१ । ९७ । अस्माद् द्वितीयान्तात् नेयेऽर्थे ईनः स्यात् । अयान.. यीनः शारः ॥ ९७ ॥ सर्वाऽन्नमत्ति । ७।१ । ९८।। अस्मादन्नन्ताद् अत्त्यर्थे ईनः स्यात् । सर्वान्नीनो मिक्षुः ।। ९८ ॥ परोवरीण-परम्परीण-पुत्रपौत्रीणम् ।७।१ । ९९।। एतेऽनुभवत्यर्थे ईनान्ता निपात्याः । परोवरीणः, परम्परीणः, पुत्रपौत्रीणः ॥ ९९ ॥ यथाकामाऽनुकामाऽत्यन्तं गामिनि ।७।१।१०। एभ्योऽमन्तेभ्यो गामिन्यर्थे ईनः स्यात् । यथाकामीनः, अनुकामीनः, अत्यन्तीमः ॥१०॥ पारावारं व्यस्त व्यत्यस्तं च । ७।१ । १०१ । अस्मात् समस्तादू व्यस्ता व्यत्यस्ताचामन्ताद गामि. नीना, स्यात् । पारावारीणा, पारीणा, अवारीणा, अवारपारीणः ॥ १०१॥ अनुग्वलम् ।७।१।१०२। अस्मादमन्ताद् अलङ्गामिनि ईन: स्यात। अनुगवीनो गोपः॥ १०२॥ अध्वानं येनौ ।७।१।१०३। . अस्मादमन्तादू अलङ्गामिनि यईनौ स्याताम् । Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपालघुधि [५१९] अध्वन्यः, अश्वनीनः ॥१०३॥ अभ्यमित्रमीयश्च । ७।१।१०४। अस्मादमन्ताद अलङ्गामिनि ईयो य ईनौ च स्याताम् । अभ्यमित्रीयः, अभ्यमित्र्यः, अभ्यमित्रीणः ॥ १०४ ॥ 'समांसमीनाऽद्यश्वीनाऽधपातीनाऽऽगवीनसा . प्तपदीनम् । ७ । १ । १०५ । एते ईनान्ता निपात्याः, साप्तपदीनस्त्वीनअन्तः । समांसमीना गौः, अद्यश्वीना गौः, अद्यप्रातीनो लाभ: आगवीनः कर्मकृत् , साप्तपदीनं सख्यम् ॥ १०५ ॥ अषडक्षाऽऽशितंग्खलङ्कर्माऽलंपुरुषाद् ईनः ७१।१०६। ____ एभ्यः स्वार्थे ईन: स्यात् । अषडक्षीणो मन्त्रः, आशितंगवीनं अरण्यम् , अलङ्कर्मीणा अलंपुरुषीणः ॥१०६॥ __ अदिस्त्रियां वाऽञ्चः।७।१।१०७। अञ्चत्यन्तात् स्वार्थे ईनो वा स्यात् , न द स दिशि स्त्रियाम् । प्राचीनम् , प्राक । प्राचीमा शाखा, प्राची। अदिस्त्रियामिति किम् ? प्राची दिक् ॥१०७॥ . १ अभ्यमित्रं अलङ्गामी अभ्यमित्रीयः । २ समा समामिति वीप्सया द्वितीयाम्ताद् गर्भ धारयतीत्यर्थे निपाते समां समीना गौः । अद्य श्वो वा विजनिष्यमाणा अद्यश्वीना गौः, प्रत्यासन्नप्रसवकालेत्यर्थः । एवमद्यश्वीनो मृत्युलाभो भोगो वेत्यादि । अद्य प्रातर्वा भविष्यति अद्यप्रातीनो लामः । भागोप्रतिदानं कारी आगवीनः । सप्तभिः पदैरवाप्यते साप्तपदीनं सख्यं मैत्री मित्रं च । अित्वाद् वृद्धिः । ३ अविद्यमानानि षट् लक्षीणि अस्मिन् बमंत्रः कंदुको वा । स्त्रियां अषडक्षीणा कोडेति, सामान्येन्द्रियार्थे वाऽक्षशब्दः । आशिता गावोऽस्मिनिति । अलं कर्मणे पुरुषाय वाऽलमिति अलकर्मीणेत्यादि, "प्रात्यव..." (पृ० १३९) इति समासः । Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२०] हेमशब्दानुशासनस्य तस्य तुल्ये कः संज्ञा प्रतिकृत्योः । ७ । १ । १०८। __तस्येति षष्ठयन्तात तुल्येऽर्थे कः स्यात् , संज्ञायां प्रतिकृतौ च विषये । अश्वकः, अश्वकं रूपम् ॥ १०८ ॥ न नृ-पूजाऽर्थ-ध्वज-चित्रे । ७।१ । १०९। नरि, पूजार्थे, ध्वजे, चित्रकर्मणि चार्थे को न स्यात् ।.. चश्चा ना, अर्हन् , ध्वजे सिंहः, चित्रे भीमः ॥१०९॥ अपण्ये जीवने । ७।१ । ११०। जीव्यते येन तस्मिन् पण्यवर्जे को न स्यात् । शिवः। अपण्य इति किम् ? हस्तिकान् विक्रीणीते ॥११० ॥ देव-पथाऽऽदिभ्यः । ७ । १ । १११ । एभ्यस्तुल्ये संज्ञाप्रतिकृत्यो को न स्यात् । देवपथः, हंसपथः ॥ १११॥ 'बस्तेरेयञ् । ७।१ । ११२॥ बस्तेस्तस्य तुल्येऽर्थे एयज स्यात् । षास्तेपी प्रणा. लिका ॥ ११२॥ शिलाया एयच्च । ७।१।११३ । अस्मात् तस्य तुल्येऽथे एयच् एयञ् च स्यात् । शिले. यम् , शैलेयं दधि ॥ ११३॥ शाखाऽऽदेयः। ७।१। १२४ । एभ्यस्तस्य तुल्ये या स्यात् ।शाख्यः, मुख्यः ।। ११४ ॥ १ शिवप्रतिकृत्या देवलोको जीवतीत्यर्थे । शिवस्य तुल्यः शिवः । पण्यं विक्रेतव्यम् , तद्भिन्ने जीवने । २ देवपथेन तुल्यो देवपथ इत्यादि । देवपयादिराकृतिगणः । ३ अत्र सूत्रे तस्य तुल्य इत्यनुवर्तते, न संज्ञाप्रतिकृत्योरिति । बस्तिरिति वादि. दृश्यतेऽन्यत्र । Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५२१] द्रोभव्ये । ७। १ । ११५। .... दोस्तस्य तुल्ये भव्येऽर्थे यः स्यात् । द्रव्यमयं ना, स्वर्णादि च ॥ ११५ ॥ कुशाग्राद ईयः । ७। १ । ११६ । अस्मात् तस्य तुल्ये ईयः स्यात् । कुशाग्रीया बुद्धिः।। काकतालीयाऽऽदयः ।७।१ । ११७ । एते तस्य तुल्ये ईयान्ताः साधवः स्युः । काकताली. यम् , खलतिबिल्वीयम् ॥ ११७ ॥ शर्कराऽऽदेरण । ७ । १ । ११८॥ एभ्यस्तस्य तुल्येऽण् स्यात्। शार्करं दधि, कापालिकम् ॥ ११८ ॥ अः सपल्याः । ७।१। ११९ । अस्मात् तस्य तुल्ये अः स्यात् । सपत्नः ॥ ११९ ।। एकशालाया इकः । ७।१। १२० अस्मात् तस्य तुल्ये इकः स्यात् । एकशालिकम् ॥ गोण्यादेश्वेकण । ७।१ । १२१ । एभ्य एकशालायाश्च तस्य तुल्ये इकण स्यात् । गौणिकम् , आङ्गुलिकम् , एकशालिकम् ॥ १२१ ॥ कर्कलोहितात् टीकण च । ७ । १ । १२२ । आभ्यां तस्य तुल्ये टीकम् इकम् च स्यातः। कार्कीकः, कार्किकः, लौहितीका, लौहितिकः ॥ १२२ ॥ वेविस्तृते शाल-शङ्कटौ । ७।१।१२३॥ वेर्विस्तृतेऽर्थे शालशङ्कटौ स्याताम् । विशाल, ६६ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H TC इमान्दानुशासनस्य [५२२] मशब्दानुशासनस्य विराटः ॥ १२३ ॥ कटः । ७ । १ । १२४ । रेसितृतेऽर्थे कटः स्यात् । विकटः ॥ १२४ ॥ संत्रोत-नेः संकीर्ण-प्रकाशाऽधिक-स मीपे । ७।१ । १२५ । एभ्यो यथासकरूयमेष्वर्येषु कटः स्यात् । सङ्कटः, प्रकटः, उत्कटः, निकटः ॥ १२५ ॥ . अवात् कुटारश्चावनते ।७।१।१२६ । अवाद् अवनतेऽर्थे कुटारः कटश्च स्यात् । अवकुटारः, अवकटः ॥ १२६ ॥ 'नासानति-तद्धताः टीट-नाट-भ्रटम् ।७१।१२७) अवात् नासानतो तद्वति चार्थे एते स्युः। अवटीटम् , भवनाटम् , अवभ्रटं नासानमनम् , तद्वद् वा नासादि ।। मेरिन-पिट-काः चिक्-चि-चिकश्चाऽ स्य । ७।१ । १२८ । मेन सानतो तति चार्थे एते स्युः, तद्योगे च नेर्यः थासायं चिचिचिकः । चिकिनम् , चिपिटम् , चिक्कं नासानमन नासादि च ॥ १२८ ॥ विड-बिरीसौ नीरन्धे च । ७।१ । १२९ । मनी रन्ध्र, नासानतितद्वतोब एतौ स्याताम्। निबिडाः, भवटीटमित्यादेर्नासानमनमित्यर्थः । नासाममनवती नासिकाऽपि अवटीटा इत्युच्यते । पुरुषोऽवटीटः । अप्रिय गर्व वा वस्तु विलोक्य या नासिकाऽऽनतिपति, सत्रावटीटावबाटापटशब्दाः प्रयुज्यन्ते। me Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनलघुचिः [५२३] निबिरीसाः केशाः, निविडम् । निविरीसं नासानमनं नासादि च ॥ १२९ ॥ क्लिन्नात् लश्चक्षुषि, चिल्-पिल-चुल चास्य । ७ । १ । १३० । क्लिन्नात् चक्षुष्यर्थे लः स्यात् . तयोगे चास्य बिल पिल्चुलः । चिल्लम् , पिल्लम् , चुल्लं चक्षुः ।। १३० ॥ उपत्यकाऽधित्यके । ७।१ । १३१ । एतौ निपात्येते । उपत्यका गिर्यासमा भा, अपित्यका पर्वताऽधिरूढा भूः ॥ १३१ ॥ अवः संघात-विस्तारे कट-पटम् । ७।११३२॥ अवेरर्थात षष्ठयन्तात् संघाते विस्तारे चार्य यथासरख्यं कटपटौ स्याताम् । अविकटः संघातः, अविपटो विस्तारः ॥ १३२ ॥ पशुभ्यः स्थाने गोष्ठः । ७।१।१३३ । पश्वर्थेभ्यः षष्ठयन्तभ्यः स्थानेऽर्थे गोष्टः स्यात् । गोगोष्ठम् , अश्वगोष्ठम् ॥ १३३ ॥ द्वित्वे गायुगः। ७।१।१३४ । पश्वर्थेभ्यस्तस्य द्वित्वेऽर्थेऽयं स्यात् । गोगोयुगम् ॥ षट्त्वे षड्गवः । ७ । १ । १३५ । पश्वर्थेभ्यस्तस्य षत्वेऽयं स्यात् । इस्तिषड्गवम् ॥१३५॥ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२४ ] हैमशब्दानुशासनस्य frerssदिभ्यः स्नेहे तैलः | ७ | १ | १३६ । एभ्यस्तस्य स्नेहेऽर्थे तैलः स्यात् । तिलतैलम्, सर्षपतैलम् ।। १३६ । तत्र घटते कर्म्मणः | ७ | १ | १३७ । तत्रेति ङयन्तात् कर्मशब्दाद् घटते इत्यर्थे ठः स्यात् । कर्म्मठः ॥ १३७ ॥ तदस्य सञ्जातं तारकाऽऽदिभ्य इतः | ७ | १ | १३८ । तदिति स्यन्तेभ्य एभ्योऽस्येति षष्ठ्यर्थे इतः स्यात्, स्यन्तं सञ्जातं चेत् । तारकितं नभः, पुष्पितस्तरुः ॥ १३८ ॥ गर्भादप्राणिनि । ७ । १ । १३९ । गर्भात् तदस्य सञ्जातमित्यर्थे इतः स्यात्, न तु प्राणिनि । गर्भितो व्रीहिः ।। १३९ ॥ प्रमाणात् मात्र | ७ | १ | १४० । स्यन्तात् प्रमाणार्थात् षष्ठ्यर्थे मात्रद् स्यात् । आयामः प्रमाणम्' । जानुमात्रं जलम् तन्मात्री भूः ॥ १४० ॥ हस्ति-पुरुषाद वाऽण् | ७ | १ | १४१ | स्यन्ताभ्यां प्रमाणार्थाभ्यामाभ्यां षष्ठयर्थेऽणू वा स्यात् । हास्तिनम्, हस्तिमात्रम्, हस्तिदन्नम, हस्तिद्वयसं जलम् एवं पौरुषम् ॥ १४१ ॥ 9 १ प्रमाणं द्विधा ऊर्ध्वतिर्यग्भेदात् । आयमूर्ध्वस्य, द्वितीयं च तिर्यग्मानस्योदाहरणम् । जानुनी प्रमाणमस्य जानुमात्रम् । टित्त्वात् " अणजेये..." सूत्राद् ङीप्रत्यये परे तन्मात्री । एवं दध्नटादावपि विग्रहः कार्यः । स्यन्तात् प्रथमान्तादित्यर्थः । हस्ती प्रमाणमस्य हास्तिनं जलम् । Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२५] स्वोपज्ञलघुवृत्तिः वो दनद- दयसद् | ७ | १ | १४२ | ऊर्ध्व यत्प्रमाणं तदर्थात् स्यन्तात् षष्ठ्यर्थे वैतो स्याताम् । ऊरुदघ्नम्, ऊरुद्वयसम्, ऊरुमात्रं जलम् । ऊर्ध्वमिति किम् ? रज्जुमात्री भूः ॥ १४२ ॥ मानादसंशये लुप् । ७ । १ । १४३ । मानार्थ एव साक्षादयः प्रमाणशब्दो हस्तवितस्त्या. दिर्नतु रज्वादिः, तस्मात् प्रस्तुतस्य मात्रडादेर संशये गये लुप् स्यात् । हस्तः, वितस्तिः । मानादिति किम् ? ऊरुमात्रं 'जलम् | असंशय इति किम् ? शममात्रं स्यात् ॥ द्विगोः संशये च । ७ | १ | १४४ | मानान्तात् द्विगोः संशयेऽसंशये च प्रस्तुतमात्रडादेर्लुप् स्यात् । द्विवितस्तिः, द्विप्रस्थः स्यात् ॥ १४४ ॥ मात्रट् । ७ । १ । १४५। स्वन्तात् मानार्थात् षष्ठ्यर्थे मात्र स्थात, संशये । प्रस्थमात्रं स्यात ॥ १४५ ॥ शन्-शत् विंशतेः । ७ । १ । १४६ । " शन्नन्तात्, शदन्ताच्च, सङ्ख्याऽर्थाद् विंशतेश्च मानवृत्तेः स्यन्तात् षष्ठ्यर्थे मात्रट् स्यात् संशये । दशमात्राः स्युः, एवं त्रिंशन्मात्राः, विंशतिमात्राः ॥ १४६ ॥ डिन् । ७ | १ | १४७। शन्शविंशतिभ्यः स्यन्तेभ्यो मानार्थेभ्य: षष्ठयर्थे डिन् स्यात् । पञ्चदशी अधमासः, त्रिंशी मासः, विशिनो भवनेन्द्राः ॥ १४७ ॥ १ शमः चतुर्विंशतिरङ्गुलानि । शमः प्रमाणमस्य स्यात् शममात्रम् । २ डिश्वाद् "डित्यन्त स्वररादेः' इतिसूत्रात् रबरादेर्लुक् । दविद रूपाणि रयुः । ,, Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२६] हैमशब्दानुशासनस्य इंद-किमोऽतुः, इय-किय चास्य ।७।१ । १४८ । आभ्यां मानार्थाभ्यां षष्ठयर्थे मेयेऽतुः स्यात् , तद्योगे पानयोपैथासख्यमियकियौ स्याताम् । इयान , कियान पटः ॥१४८ ॥ यत्-तत्-एतदो डावादिः । ७।१।१४९। एभ्या स्यन्तेभ्यो मानार्थेभ्यः षष्ठयर्थे मेयेऽतुर्डीवादिः स्वात् । यावान् , तावान्, एतावान् धान्यराशिः ॥१४९।। पत-तत्-किमास-ख्याया डतिर्वा ।११।१५०) सहपारूपं यत् मानं तदर्थेभ्य एभ्यः स्यन्तेभ्यः पष्ठयथे सख्येये डतिर्वा स्यात् । यति, यावन्तः । एवं तति, तावन्तः । कति, कियन्तः ॥ १५० ॥ अवयवात् तयद । ७।१।१५१ । अवयववृत्तेः सख्यार्थात् स्यन्तात् षष्ठयर्थेऽवयविनि तयत् स्यात् ।पश्चतयो यमः ॥ १५१ ॥ दि-त्रिभ्यामयट् वा । ७।१ ।१५२ । आभ्यामवयवार्थाम्यां स्यन्ताभ्यां षष्ठयर्थेऽयट् वा स्पाद । द्वयम् , द्वितयम् । त्रयम् , त्रितयम् ॥ १५२ ।। दयादेर्गुणात् मुल्य-केये मयत् । ७।१।१५३ । मादेर्गुणवृत्तेः स्यन्तात् षष्ठयर्थे मयट् स्यात् , यादि. वेत् मूल्यार्थः ऋयार्थो वा । द्विमयमुदश्विद्यवानाम् , एवं त्रिमयं द्विमया यवा उदश्चितः, एवं त्रिमयाः । गुणादिति किम् ? द्वौ ब्रीहियवौ मूल्यमस्य ॥ १५३ ॥ १ रतिप्रत्ययान्तानां " इतिष्णः संख्याया लुप्" (पृ. ३६) सूत्रेण जस्शयोलम् स्यात् , तेन यति, तति, इत्येवावतिष्ठते प्रथमाद्वितीयावहुवचने । डत्यन्ता नित्य सुखचनाम्ताः, त्रिषु सरशरूपाथ स्युः । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुतिः [५२७) - अधिकं तत्सङ्ख्यमस्मिन् शत-सहले शति-शत दशान्ताया ः।७।१ । १५४ । स्यन्तात् शत्याद्यन्तात् सङ्ख्यार्थादस्मिन्निति क्य, शतसहस्रे च डः स्यात् , स्यन्तं चेदधिकं शतादिसरूप च वस्तु स्यात् । विशं योजनशतं, योजनसहस्रं वा, एवं त्रिंशम् , एकादशम् । तत्संख्यमिति किम् ? विंशतिर्दण्डा अधिका अस्मिन् योजनशते ॥ १५४ ॥ सङ्ख्यापूरणे डट् । ७ । १ । १५५ । सङ्ख्या पूर्यते येन तत्रार्थे सङ्कल्याया डट् स्यात् । एकादशी। सङ्ख्येति किम् ? एकादशानामुष्ट्रिकाणां पूरणो घटः ॥ १५५॥ विशत्यादेवा तमट् । ७।१।१५६ । अस्याः सङ्ख्यायाः सङ्ख्यापूरणे तमद् का स्यात। विंशतितमः, विंशः । त्रिशत्तमः, त्रिंशः ॥ १५६ ॥ शताऽऽदिमासाऽद्धमास-संवत्सरात् । ७।१।१५७) ___ शतादेः सङ्ख्याया मासादेश्च सङ्ख्यापूरणे तमट् स्यात् । शततमी, सहस्रतमी, मासतमः, अर्द्धमासतमा, संवत्सरतमो दिनः ॥ १५७ ॥ षष्ट्यादेरसङ्ख्याऽऽदेः । ७।१ । १५८ । सङ्ख्यादिरवयवो यस्य तर्जात् षष्टयादेः सङ्ख्या पूरणे तमट् स्यात् । षष्टितमः, सप्ततितमः । असङ्ख्याऽऽदेरिति किम् ? एकषष्टः ॥ १५८ ॥ नो मट् । ७।१ । १५९ । असङ्ख्यादेर्नान्तायाः सङ्ख्यायाःसङ्ख्यापूरणे मट् Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२८] हैमशब्दानुशासनस्य स्यात् । पञ्चमी। असङ्ख्यादेरित्येव ? द्वादशः ॥१५९॥ पित् तिथट् बहु-गण-पूग-संघात् । ७।१ । १६०॥ एभ्यः संख्यापूरणे तिथट् स्यात् , पित। बहुतिथी, गण तिथः, पूगतिथः, सङ्घतिथः ॥ १६० ॥ _ अतोरिथट । ७।१ । १६१ । अत्वन्तात् संख्यापूरणे इथट् स्यात, पित् । इयतिथः, तावतिथी ॥ १६१ ।। , षट्-कति कतिपयात् थट् । ७ । १।१६२। ..... एभ्यः संख्यापूरणे थट् स्यात् । षष्ठी, कतिथः, कति. पयथीः ॥ १६२ ॥ चतुरः । ७।१ । १६३ । - अस्मात् संख्यापूरणे थट् स्यात् । चतुर्थी ॥ १६३ ।। येयौ च लुक् च । ७।१ । १६४ । चतुरः संख्यापूरणे एतौ स्याताम् , चस्य लुक् च । तुर्यः, तुरीयः ॥ १६४ ॥ वस्तीयः । ७।१।१६५। द्वेः संख्यापूरणे तीयः स्यात् । द्वितीयः ॥ १६५ ॥ त्रेस्तृ च । ७।१ । १६६ । त्रेः संख्यापूरणे तीयः स्यात् , तद्योगे च त । तृतीया ॥ पूर्वमनेन साऽऽदेश्चेन् । ७।१।१६७। पूर्वमित्यमन्तात् केवलात् सपूर्वाचाऽनेनेति टाऽर्थे ... १ बहोनां पूरणी बहुतिथी । टित्त्वाद् छी । पित्त्वात् पुंस्यपि, बहुतियः। Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपशलघुवृत्तिः [५२९] कर्तरि इन् स्यात् । कृतपूर्वी कटम्, पीतपूर्वी पयः ॥१६७॥ इष्टाऽऽदेः।७।१ । १६८ । एभ्योऽर्थात् स्यन्तेभ्यष्टाऽर्थे कर्तरीन् स्यात् । इष्टी यज्ञे, पूर्ती श्राद्धे ॥ १६८ ॥ ... श्राद्धमद्यभुक्तमिकेनौ। ७।१।१६९। श्राद्धात् स्यन्तादद्यभुक्ताद्यर्थे कर्तर्येतो स्याताम् । प्राधिकः, श्राद्धी ॥ १६९॥ . अनुपद्यन्वेष्टा ।७।१।१७०। एष इन्नन्तो निपात्यते, अन्वेष्टा चेत् । अनुपदी गवाम् ॥ १७० ।। दाण्डाजिनिकाऽऽयः-शूलिक-पार्थ कम् । ७।१ । १७१ । एते यथायोगमिकण्-कान्ता निपात्याः, अन्वेष्टयर्थे । दाण्डाजिनिको दाम्भिकः, आयाशलिकः तीक्ष्णोपायो. ऽर्थान्वेष्टा, पार्श्वकः अजूपायः स एव ॥ १७१ ॥ क्षेत्रेऽन्यस्मिन् नाश्ये इयः । ७।१ । १७२ । । क्षेत्रानिर्देशात् उयन्तादन्योपाधिकात् नाश्येय इका स्यात। क्षेत्रियो व्याधिः, जारश्च ।। १७२ ।। • छन्दोऽधीते, श्रोत्रश्च वा ।७।१ । १७३ । अस्मादमन्तादधीतेऽर्थे इयो वा स्यात् , तद्योगे चास्य श्रोत्रः । श्रोत्रियः, छान्दसः ॥ १७३॥ इन्द्रियम् ।७।१ । १७४ । अत्र "व्याप्ये क्तेनः" (२-२-९९) सूत्रात् सप्तमी । इष्टमनेन इष्टी २ क्षेत्रं शरीरदाराविषक्षेत्रार्थकम् । अन्यस्मिन् क्षेत्रे नाश्यः क्षेत्रियः । ६७ यज्ञे इति विग्रहः । . Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३० ] हैमशब्दानुशासनस्य इन्द्राद इयो निपात्यः । इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् ॥ तेन वित्ते चञ्चु चणौ । ७ । १ । १७५ । तेनेति दान्ताद् वित्ते एतौ स्याताम् । विद्याचञ्चुः, केशचणः ॥ १७५ ॥ पूरणाद् ग्रन्थस्य ग्राहके को लुक्वाऽस्य । ७ । १ । १७६ | पूरणप्रत्ययान्तात् दान्ताद् ग्रन्थस्य ग्राहकेऽर्थे कः स्यात्, तद्योगे च पूरणार्थस्य लुक । द्विकः शिष्यः ॥ ग्रहणाद वा । ७ । १ । १७७ । गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणम् । रूपादिग्रन्थस्य ग्रहणार्थात् पूरणप्रत्ययान्तात् कः स्वार्थे स्यात्, तद्योगे च पूरणार्थस्य लुगू वा । द्विकं द्वितीयकं वा ग्रन्थग्रहणम् ॥ ९७७ ॥ सस्याद् गुणात् परिजाते । ७ । १ । १७८ । सस्याद् गुणार्थात टान्तात् परिजातेऽर्थे कः स्यात् । सस्यकः शालिर्देशो वा । गुणादिति किम् ? सस्येन परिजातं क्षेत्रम् ॥ १७८ ॥ धन - हिरण्ये कामे | ७ | १ | १७९ | आभ्यां डेयन्ताभ्यां कामेऽर्थे कः स्यात् । धनकः, हिरण्यको मैत्रस्य ।। १७९ ॥ स्वाङ्गेषु सक्ते । ७ । १ । १८० । स्वाङ्गार्थेभ्यो ङयतेभ्यः सक्तेऽर्थे कः स्यात् । नखकः, केशनखकः दन्तोष्ठकः ॥ १८० ॥ १ सप्तम्यन्ताभ्याम् । एवमुत्तरत्राऽपि धने कामो धनको मैत्रस्य । कामोऽभिलाषः । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५३१] उदरे विकण आयुने । ७।१ । १८१ । अस्माद् ड्यन्तात् सक्ते आनेऽर्थे इकग् स्यात् । औदरिकः, उदरकोऽन्यः ॥ १८१ ॥ अंशं हारिणि । ७।१ । १८२।। अंशादमन्तात् हारिण्यर्थेकः स्यात्। अंशको दायादः ॥ १८२ ॥ तन्त्राद् अचिरोद्धृते ।७।१ । १८३ । तन्त्रात् पञ्चम्यन्ताद् अचिरोद्धृतेऽर्थे कास्यात् । तन्त्रका पटः॥ १८३॥ . ब्राह्मणात् नाम्नि । ७।१ । १८४ । अस्मात् उस्यन्तादचिरोधृतेऽर्थे कः स्यात, नाम्नि । ब्राह्मणको नाम देशः ॥ १८४ ॥ उष्णात् । ७.१ । १८५। -: उष्णात् डस्यन्तादचिरोद्धृतेऽर्थे का स्यात् , नाम्नि । उष्णिका यवागूः ॥ १८५ ॥ शीताच्च कारिणि । ७।१ । १८६ ।। शीतोष्णाम्यामांदमन्ताभ्यां कारिण्यर्थे का स्यात् , नाम्नि । शीतकोऽलसः, उष्णको दक्षः ॥ १८६ ॥ ... . अधेरारूढे ।७।१।१८७।। अधेरारूढार्थात् स्वार्थे क: स्यात् । अधिको द्रोणः खार्याः, अधिका खारी द्रोणेन ॥ १८७ ॥ __ अनोः कमितरि । ७।१।१८८। अनोः का स्यात् , तदन्तश्चेत् कमितरि । अनुके॥ . . अनुकामयतेऽनुकः । एवमुत्तरसूत्रे अभिकामयतेऽमीक इतिविग्रहः । दीपेकारश्च । Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३२] हेमशब्दानुशासनस्य अमेरीश्च वा । ७।१ । १८९ । अमेका स्यात् , ईश्वाऽस्य वा, तदन्तश्चेत् कमितरि । अभिकः, अभीकः ॥ १८९॥ सोऽस्य मुख्यः । ७।१ । १९० । स इति स्यन्ताद् अस्येति षष्ठयर्थे कः स्यात् , स्यन्तं चेत् मुख्यार्थम् । देवदत्तकः सङ्घः ॥ १९ ॥ · शृहलकः करमे।७।१ । १९१ । कान्तो निपात्यः। शृङ्खलकः करभ उष्ट्रशिशुः॥१९१॥ उत्सोरुन्मनसि । ७।१ । १९२।। आभ्यामस्वेति उन्मनस्यर्थे का स्यात्। उत्का, उत्सुकेः॥ काल-हेतु-फलादु रोगे । ७।१ । १९३ । कालविशेषार्थेभ्यो, हेत्वर्थेभ्यः, फलार्थेभ्यश्च स्यन्तेभ्योऽस्येति रोगेऽर्थे कः स्यात् । द्वितीयको ज्वरः, पर्वतको रोगः, शीतको ज्वरः ॥ १९३ ॥ प्रायोऽन्नमस्मिन नाम्नि । ७।१।१९४ । स्यन्तादस्मिमिति उवर्षे संज्ञाविषये का स्यात् , स्यन्तं चेदन्नं पाषेण । गुडापूपिका पौर्णमासी ॥१९॥ कुल्माषादग । ७।१ । १९५ । अस्मात् स्यन्तात् प्रायोऽनमस्मिन्नित्यर्थेऽम् स्यात् , नाम्नि । कोल्माषी, पौर्णमासी ॥ १९५ ॥ १ उद्ग मनोऽस्य स उत्कः । उत्सुगतं मनोऽस्य स उत्सुक उत्कण्ठित इत्यर्थः । १ द्वितीयो दिवस उत्पत्तिकालोऽस्य द्वितीयको ज्वरः । भरोगे तु वाक्यमेव । हेतुः प्रयोजनम् । फलं परिणामः । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वौपज्ञलघुवृत्तिः [५३३) वटकादिन । ७।१ । १९६ । __ अस्मात् स्यन्तात् प्रायोऽन्नमस्मिन्नित्यर्थे इन् स्यात। षटकिनी पौर्णमासी ॥ १९६ ।। साक्षाद् द्रष्टा । ७।१ । १९७। साक्षातो द्रष्टेश्यस्मिार्थे इन् नानि स्यात् । साक्षी ।। इत्याचार्यभीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधा. नस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुकृत्तौ सप्तमस्यास्याध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः॥७॥१॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयः पादः॥ तदस्याऽस्त्यस्मिन्निति मतुः ।७।२।१।। तदिति स्यन्ताद्, अस्येति षष्ठयर्थेऽस्मिन्निति ड्यर्थे वा मतुः स्यात् , चेत् स्यन्तमस्तीति । गोमान् , वृक्षवान गिरिः। अस्तीति किम् ? गावोऽस्याऽऽसन् । इतः प्रायो मत्वादयः ॥१॥ आ यात् । ७।२।२। "रूपात् प्रशस्ताऽऽहतात्" (७-२-५४) इति आ य. विधेर्वक्ष्यमाणप्रकृतिभ्यो मतुः स्यात्, तदस्यास्ति तदस्मिनस्तीति विषये । कुमारीमान् , बीहिमान् ॥ २॥ नावादेरिकः । ७।२।३। ___एभ्यो मत्वर्थे इकः स्यात् । नाविकः, नौमान् । एवं कुमारिका, कुमारीमान् ॥ ३॥ शिखाऽऽदिभ्य इन् । ७।२।४ । एभ्यो मत्वर्थे इन् स्यात् । शिखी, शिखावान्। माली, मालावान् ॥ ४॥ वीह्यादिभ्यस्तौ । ७।२।५। एभ्यो मत्वर्थे इकेनौ स्याताम् । व्रीहिकः, बीही, बीहिमान , मायिका, मायी, मायावान् ॥५॥ १ अस्तिकथना वर्तमानसत्तायामेव प्रत्ययो भवति. न भूतभविष्यत्सत्तायाम् । गौर्गावौ गावो वाऽस्यास्ति स्तः सन्तीति वा गोमान् इति षष्ट्यर्थस्म, वृक्षवान् गिरिरिति च अस्मिनिति व्यर्थस्योदाहरणम् । भूमादिष्वर्थेषु मतु इक-इनादयस्त दस्याऽस्त्यस्मिन्नित्यर्थे स्युः । यथोक्तम् भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने । .. संसर्गेऽस्तिविवक्षायां प्रायो मत्वादयो मता ॥.. Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ५३५ ] अतोऽनेकस्वरात् । ७ । २ । ६ । अदन्तादनेकस्वरात् मत्वर्थे इकेनौ स्थाताम् । दण्डिकः, दण्डी, दण्डवान्, छत्रिकः, छत्री, छत्रवान् । अनेकस्वरादिति किम् ? खवान ॥ ६ ॥ अशिरसोऽशीर्षश्च । ७ | २|७| अस्मात् मत्वर्थे इकेनौ स्याताम्, मतुश्च, तद्योगे चास्याशीर्षः । अशीर्षिकः, अशीर्षी, अशीर्षवान् ॥ ७ ॥ 'अर्थाऽर्थाऽन्तादभावात् । ७ । २ । ८ । अर्थादर्थान्ताच्च भावार्थादेव मत्वर्थे इकेनावेव स्थाताम् । अर्थिकः, अर्थी, प्रत्यर्थिकः, प्रत्यर्थी । मतुर्न स्यात् । भावादिति किम् ? धनार्थात मतुरेव, अर्थवान् ॥ ८ ॥ - तुन्दाऽऽदेरिलश्च । ७ । २ । ९ । आभ्यां मत्वर्थे इल इकेनौ च स्युः । शालिल:, शालिकः, शाली, शालिंमान्, तुन्दिलः, तुन्दिकः, तुन्दो, तुन्दिवान्, उदरिलः, उदरिकः, उदरी, उदरवान् ॥९॥ स्वाङ्गाद विवृद्धात् । ७ । २ । १० । अस्मात् मत्वर्थे इलेकेनाः स्युः । कर्णिलः, कर्णिकः, कर्णी, कर्णवान् ॥ १० ॥ वृन्दादारकः । ७ । २ । ११ । १ भावार्थ प्रत्ययान्तादर्थ शब्दात् तदन्ताच्च शब्दात् इक - इनौ स्तः, न मतुः । अर्थमर्थ इति भावप्रत्ययान्तो ऽर्थशब्दः । ततोऽर्थोऽस्यास्ति सोऽर्थी उपयाचनावान् इत्यर्थः । प्रत्यर्थी इत्यर्थान्तस्योदाहरणम् । धनादिवाचकाद् अर्थशब्दात नेतौ स्तः, किन्तु मतुरेव स्यात्, अर्थवान् इति । मत्वन्तात् पुनर्न मतुर्भवति । उक्तं च-शैषिकात शैषिको नेष्टः सरूपः प्रत्यन: क्वचित्, समानवत्तौ मत्वर्थात् मत्वर्थीयोऽपि नेष्यते ॥ २ विवृद्धात् महतः । ते पूर्वोक्ता इल-इक-इन-मतवः प्रत्ययाः । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३६] हेमशब्दानुशासनस्य मत्वर्थे स्यात् । वृन्दारका, वृन्दवान् ॥ ११ ॥ शङ्गात् । ७।२।१२।। मत्वर्थे आरकः स्यात् । शृङ्गारकः, शृङ्गवान् ॥१२॥ . फल-बात् चेनः । ७।२। १३ । आभ्यां शृङ्गाच मत्वर्थे इनः स्यात् । फलिनः, फल. . ' वान् , बर्हिणः, शुङ्गिणः ॥ १३ ॥ मलाद् ईमसश्च । ७ । २ । १४ । मलात मत्वर्थे ईमस इनश्च स्यात् । मलीमसः,मलिना, मलवान् ॥ १४ ॥ मस्त पर्वणस्तः । ७।२ । १५ । । आभ्यां मत्वर्थे तः स्यात् । मरुत्तः मरुत्त्वान्, पर्वतः, पर्ववान् ॥१५॥ वलि-वटि-तण्डेभः ।७।२।१६। एभ्यो मत्वर्थे भः स्यात्। वलिमा, बटिमा, तुण्डिमा, वलिवान् ॥ १६ ॥ ऊर्णाऽहं-शुभभो युस । ७।२।१७। एभ्यो मत्वेऽर्थे युः स्यात् । ऊर्णायुः, अहंयुः, शुभंयुः॥ केशंभ्यां युस-ति-यसू-तु-त-व-मम् ।७।२।१८ आभ्यां मत्वर्थे एते स्युः। कंयुः, शंयुः, कंतिः, शंतिः, कंया, शंयः, कंतुः, शंतुः, कंतः, शंतः, कंवर, शंका, कंभः, शंभः ॥ १८॥ १ सिद्धान्तकौमुद्यां वकारस्थाने बहारो लिखितः । विकल्पतः परसवर्णो भवति । तेन कंतिः, कन्तिरित्यादि स्यात् । स्वान्तस्य च कंयुः कय्युः कंत्रः, कम्य इत्यनुस्वारस्थाने क्रपयो नो भातः "ता मुमौ..." इति सूत्रात् । Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५३७] बल-वात-दन्त-ललाटादूलः । ७।२ । १९ । एभ्यो मत्वर्थे ऊलः स्यात् । बलूलः, वातूल, दन्तूलः ललाटूलः, बलवान् ।। १९ ।। प्राण्यङ्गादातो लः। ७।२ । २० । प्राण्यङ्गार्थाद् आदन्तात् मत्वर्थे लः स्यात् । चूडाला, चूडावान् । प्राण्यङ्गादिति किम् ? जङ्घावान् प्रासादः ॥२०॥ सिध्माऽऽदि-क्षुद्रजन्तु-रुग्भ्यः । ७।२ । २१ । सिधमादेः, क्षुद्रजन्त्वर्थाद् हार्थाच्च मत्वर्थे लः स्यात् । सिध्मलः, सिध्मवान्, वर्मला यूकालः, मूछालः ॥२१॥ प्रज्ञा-पर्णोदक-फेनार लेलौ ।७।२। २२ । एभ्यो मत्यर्थे लेलो स्याताम् । प्रज्ञाला, प्रज्ञिला, पर्णः लः, पर्णिला, उदकलः, उदकिला, फेनला, फेनिला फेन वान् ॥ १२ ॥ . . . काला-जटा-घात् क्षेपे । ७।२।१३ । एभ्यो मत्वर्थे लेली स्वाताम्, क्षेपे गम्ये । कालासा, कालिलः, जटालः, जटिला, घाटाला, घाटिलः । क्षेप इति किम् ? कालावान् ॥ २३ ॥ वाचे आलाऽऽटौ ।७।२।२४। मत्वर्थे स्याताम्,क्षेपे गम्ये। पाचालः, वाचाटः॥ २४ ॥ ग्मिन् । ७।२।। २५। वाचो मत्वर्थे ग्मिन् स्यात् । वाग्मी, वाग्वान् ॥ २५ ॥' १ कुत्सितमाषिणि एतौ स्माता, प्रशंसायां तु "ग्मिन्" सूत्राद् वाग्मी, वाग्वान् का स्यादित्यर्थः। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३८] हैमशब्दानुशासनस्य मधादिभ्यो रः । ७१२ | २६ । मत्वथे रः स्यात् । मधुरो रसः, खरो गदर्भः॥ २६॥ . 'कृष्यादिभ्यो वलच । ७ । २ । २७ । मत्वर्थे स्यात् । कृषीवलः कुटुम्बी, आलुती बलः कलयपालः, आसुतिमान् ॥ २७॥ लोम-पिच्छाऽऽदेः शेलम् । ७।२।२८।. लोमादेः पिच्छादेश्च मत्वर्थे यथासङ्ख्यं श इलश्च स्यात् । लोमशः, लोमवान् गिरिशः, पिच्छिलः, पिच्छवान् , उरसिलः ॥ २८ ॥ - नोऽङ्गाऽऽदेः । ७।२।२९। ... एम्यो मत्वर्थे नः स्यात् । अङ्गना चावडी स्त्री, पामनः , पामवान् ॥ २९ ॥ . , .. शाकी-पलालीदर्दुर्वा हस्वश्च । ७ । २ । ३० एभ्यो मत्वर्थे न स्यात् तद्योगे चैषां ह्रस्वः । महेच्छाकं पलालं च शाकी, पलाली , दाधिः, शाकिनः, शाकीमान् , पलालिनः, दद्रुणः ॥ ३० ॥ ... . विष्वचा विषुश्च । ७।२।३१।।.. अस्मात् मत्वर्थे नः स्यात् , विषुश्वास्य । विषुणः रविर्वायुर्वा, विष्वग्वान् ॥ ३१॥ लभ्या अनः । ७१२॥३२॥ .. मत्वर्थे स्यात् । लक्ष्मणः, लक्ष्मीवान् ।। ३२ ।। १ "बलच्यपित्रादे:" सूत्राद् दीर्घः स्यात् । एवं दन्तावलरजस्वलादयः । "ऊर्जस्वलस्तु "ऊर्जा विनवला..." (७-२-५,१) सूत्राद् भवति । २ महच्छाकं शाकी इत्युच्यते । महत्पलालं च पलालीति भण्यते ।। Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५३९) प्रज्ञा-श्रद्धाऽचर्चा-वृत्तेगः । ७ । २ । ३३ ।। एभ्यो मत्वर्थे णः स्यात् । प्राज्ञः, प्रज्ञावान् , श्राद्धः, श्रद्धावान् , आर्चः, अर्चावान , वार्तः, वृत्तिमान् ॥३३॥ ज्योत्स्नाऽऽदिभ्योऽण । ७।२। ३४ । . मत्वर्थेऽम् स्यात् । ज्योत्स्नी रात्रिः, तामिस्त्री ॥ ३४ ॥ सिकता-शकरात् । ७।२ । ३५ । आभ्यां मत्वर्थेऽण् स्यात् । सैकतः, सिकतावान् , शार्करः ॥ ३५ ॥ ... इलश्च देशे। ७। २ । ३६ । सिकताशर्कराभ्यां देशे मत्वर्थे इलागौ स्याता। सिकतिलः, सैकतः, सिकतावान , शर्करिलः, शार्करो देशः, शर्करावान् ॥ ३६ ॥ यु-द्रोमः। ७ । २ । ३७ । ___आभ्यां मत्वर्थे मः स्यात् । युमः, द्रुमः ॥ ३७ ।। काण्डाऽऽण्ड-भाण्डाद् इरः।७। २ । ३८ । एभ्यो मत्वर्थे ईरः स्यात् । काण्डीरः, काण्डवान् , आण्डीरः, भाण्डीरः ॥ ३८॥ कच्छवा डुरः । ७ । २ । ३९ । - मत्वर्थे स्यात । कच्छुरः, कच्छू मान् ॥ ३९ ॥ दन्तादुन्नतात् । ७ । २ । ४० । .... उन्नत्युपाधेर्दन्तात् मत्वर्थे डुरः स्यात् । दन्तुरः। उन्नतादिति किन ? दन्तवान् ।। ४०॥ .. .. मेधा-रथात् नवरः।७।२।४१ । आभ्यां मत्वर्थे इरो वा स्यात् । मेधिरः, मेधावान् , Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४०] हैमशब्दानुशासनस्य मेधावी । रथिरः, रथिकः, रथी ।। ४१ ।। कृपा-हृदयादालुः । ७। २ । ४२ । आभ्यां मत्वर्थे वाऽऽलुः स्यात् । कृपालुः, कृपावान् । हृदयालु, हृदयी ॥ ४२ ॥ केशादः । ७।२। ४३ । .. मत्वर्थे वो वा स्यात् । केशवः, केशवान , केशी॥ मण्यादिभ्यः । ७ । २ । ४४ । एभ्यो मत्वर्थे वः स्यात् । मणिवा, मणिमान् , हिरण्यवः, हिरण्यवान् ॥ ४४ ॥ हीनात् स्वाङ्गादः। ७।२।४५। - हीनत्वोपाधेः स्वाङ्गार्थात् मत्वर्थे अस्यात् । कर्णः। हीनादिति किम् । कर्णवान् ॥ ४५ ॥ अभ्राऽऽदिभ्यः। ७।२।४६ । एभ्यो मत्वर्थे : स्यात् । अभ्रं नमः, अशी मैत्रः॥ अस-तपस-माया-मेधा-स्रजो विन् ।७।२।४७। असन्तात् , तपसादेश्व मत्वर्थे विन् स्यात् । यशस्वी, यशस्वान् , तपस्वी, मायावी, मायावान् , मेधावी, स्रग्वी ॥ ४७॥ आमयाद् दीर्घश्च । ७।२।४८ । अस्मात् मत्वर्थे विन् स्यात् , दीर्घश्चास्य । आमयावी, आमयवान् ॥ ४८॥ १ असन्तत्वेन विनि सिद्धेऽपि ज्योत्स्नादिभ्योऽण् प्राप्नोतु इव्यर्थः तपसः पृथगग्रहणं कृतम् , तेनागि परे तापस इत्यपि स्यात् । Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५४१] सात मिन ईशे । ७।२। ४९ । स्वात् मत्वर्थे ईशे मिन् स्यात् , दीर्घश्चास्य स्वामी। स्ववान् अन्यः ॥ ४९ ॥ गोः। ७।१ । ५०। गोमत्वर्थे मिन् स्यात् । गोमी, गोमान् ॥ ५० ॥ · ऊओ विन-वलावस चान्तः । ७।२।५१ । ऊों मत्वर्थे विन्य लौ स्याताम् , तद्योगे वो|ऽस. न्तः। ऊर्जस्वी ऊर्जस्वलः, ऊर्वान् ॥५१॥ तमिसाऽर्णव-ज्योत्स्नाः |७।२। ५२ । एते मत्वर्थे निपात्याः । तमिस्रा रात्रिः, तमिस्राणि गुहामुखानि , तमस्वान् . अर्णवः, समुद्र, ज्योत्स्ना चन्द्रप्रभा ।। ५२ ॥ गुणाऽऽदिभ्यो यः। ७।२।५३ । एभ्यो मत्वर्थे यः स्यात् । गुण्यो ना, हिम्यो गिरिः, हिमवान् ॥५३॥ रूपात् प्रशस्ताऽऽहतात् ।७।२। ५४। .. प्रशस्तोपाधेराहतोपाधेश्व रूपात् मत्वर्थे यः स्यात् । रूप्यो गौः, रूप्यं कार्षापणम् , रूपवान् अन्यः ॥५४॥ - पूर्णमासोऽण । ७.। २।५५। मत्यर्थे स्यात् । पौर्णमासी ॥५५॥ गोपूर्वादत इकण । ७।२१५६ । गोपूर्वाददन्तात् मत्वर्थे इकण् स्यात् । गौशतिकः । १ गुणीत्यत्र "शाखादिभ्य इन् ' सूत्रेण इन् भवति । गुणादिराकृतिगणः । । २ पूर्णी मा:-चन्द्रोऽस्यामिति पौर्णमासी । अगन्तत्वाद् गद्धिश्च ।। tantrwas Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४२] हैमशब्दानुशासनस्य अत इति किम् ? गोविंशतिमान् ।। ५६ ।। । निष्काऽऽदेः शतसहस्रात् । ७।२ । ५७ । निष्कायवयवात् परं यत् शतं सहस्रं च तदन्तात् मत्वर्थे इकण् स्यात् । नैष्कशतिकः, नैष्कमहत्रिकः । आदेरिति किम् ? स्वर्णनिष्कशतमस्यास्ति ॥५७॥ . । एकाऽऽदेः कर्मधारयात् । ७।२ । ५८। । । अस्माददन्तात् मत्वर्थे इकण् स्यात् । ऐकगविकः ॥ सर्वाऽऽदेरिन् । ७ । २ । ५९ ।। सर्वाऽऽदेरदन्तात् कर्मधारयाद् इन् स्यात् । सर्वधनी ॥ ५९॥ प्राणिस्थादस्वाङ्गाद् द्वन्द्व रुग-नि. न्यात् । ७।२।६०। ... प्राणिस्थोऽस्वाङ्गार्थोऽदन्तो यो द्वन्द्वो, यश्च रुग्वाची, निन्द्यार्थश्च तस्मात् मत्वर्थे इन् स्यात् । कटकवलयिनी, कुष्टी, ककुदावर्ती प्राणिस्थादिति किम् ? पुष्पफल. वान् वृक्षः । अस्वाङ्गादिति किम् ? स्तनकेशवती।।६० ॥ वाताऽतीसार-पिशाचात् कश्चान्तः। ७ | १ । ६१. एभ्यो मत्वर्थे इन् स्यात् , कश्चान्तः । वातकी, अतिसारकी, पिशाचकी ६१॥ ___ पूरणाद् वयसि । ७। २ । ६२ । १. पूरगप्रत्ययान्ताद् वयसि गम्ये मत्वर्थे इन्नेव स्यात्। . पश्चमी बालः॥३२॥ १ चमो मासो वर्षो वाऽस्यास्तीति पञ्चमी बालः। इन्नन्तस्य दण्डिवद्रूपाणि स्युः । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५४३] सुखाऽऽदेः। ७ । २ । ६३ । एभ्यो मत्वर्थे इन् एव स्यात् । सुखी, दुःखी ॥६३।। __मालायाः क्षेपे । ७।२।६४। मत्वर्थे इन्नेव स्यात् । माली । क्षेप इति किम् ? मालांवान् ॥ ६४॥ धर्म-शील-वर्णान्तात् । ७।२ । ६५। ___धर्माद्यन्तात् मत्वर्थे इन्नेव स्यात । मुनिधर्मी, यतिशीली, ब्राह्मणवर्णी ॥ ६५ ॥ .. बाहर्चादेबलात् । ७।२।६६ । २. बाहरुपूर्वाद् बलात् मत्वर्थे इन्नेव स्यात् । बाहुबली, . ऊरुबली ॥ ६६ ॥ मन-माजाऽऽदेनाम्नि । ७।२।६७। मन्नन्ताद मानतेभ्योऽब्जादेश्च मत्वर्थ इन्नेव स्थात, नाम्नि । दामिनी, सोमिनी, अब्जिनी, कमलिनी ॥ . हस्त-दन्त-करातू जातौ ।७।२।६८। " एभ्यो मत्वर्थे इन्नेव स्यात् , एतदन्तस्य जातावर्थे । हस्ती, दन्ती, करी ।। ६८ ॥ सवर्णात् ब्रह्मवारिणि । ७ । २ । ६९ । वर्णात मत्वर्थे इन्नेव स्यात् , चेद् ब्रह्मचार्यर्थः । वर्णी ब्रह्मचारीत्यर्थः । वर्णवानन्यः ॥ ६९ ॥ .. पुष्कराऽदेर्देशे। ७ । २ । ७०। पेभ्यो मत्वर्थे इन्नेव स्यात् , देशेऽर्थे । पुष्करिणि, पद्मिनी । देश इति किम् ? पुष्करवान् हस्ती ॥ ७० ॥ १TA . ... ... Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - [५४४] हैमशब्दानुशासनस्य सूक्त-साम्नोरीयः । ७।२। ७१ । सूक्ते साम्नि चाथै मत्वर्थे ईयः स्यात् । अच्छावा. कीयं सूक्तम् , यज्ञायज्ञीयं साम ॥ ७१ ॥ लुप् वाऽध्यायाऽनुवाके ७ । २ । ७२ । अनयोर्मत्वर्थे ईयस्य लुप् वा स्यात् , लुविधेरेवेयः । गर्दभाण्डः, गर्दभाण्डीयोऽध्यायोऽनुवाको वा ।। ७२ ।। विमुक्ताऽऽदेरण । ७।२।७३ । एभ्यो मत्वर्थेऽध्यायानुवाकयोरण स्यात् । वैमुक्तः, - दैवासुरः अध्यायोऽनुवाको वा ॥ ७३ ॥ घोषदादेरकः। ७२।७४ । .. एम्यो मत्वर्थेऽध्यायानुवाकेऽकः स्यात् । घोषदकः, .. गोषदकोऽध्यायादिः ।। ७४ ॥ . प्रकारे जातीयर् । ७ । २।७५। स्यन्तात् षष्ट्यर्थेऽयं स्यात् , चेत् स्वन्तं प्रकारार्थम् । सामान्यस्य विशेषोऽविशेषान्तरानुयायी. प्रकारः । पटुजातीयः ॥ ७५॥ कोऽण्वादेः । ७।२ । ७६ । एभ्यस्तदस्य प्रकार इतिविषये कः स्यात । अणुका, स्थूलकः पटः ।। ७६ ॥ जीणे-गोमूत्राऽवदात-सुरा-यव-कृष्णात् शाल्या. च्छादन-सुराऽहिब्रीहि-तिले । ७।२।७७। एभ्यो यथासङ्ख्यमेष्वर्थेषु तदस्य प्रकार इतिविषये कः स्यात् । जीर्णकः शालिः, गोमूत्रकमाच्छादनम् , अवदालिका सुरा, सुरफोहि।, यवको व्रीहिः, कृष्णाकास्तिला ॥ ७७ ।। Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सोपालधुति [५४५] भूतपूर्वे 'चस्ट । ७।२।७। भूतपूर्वार्थात् स्वार्थे चरट् स्यात् । आख्यचरी ॥७॥ गोठादु ईनन। ७२|७९ । भूतपूर्वे स्यात् । गोष्ठीनो देशः ॥ ७९ ॥ . षष्ठ्या रूप्य-चरद । ७।२।८०। .. भूतपूर्वेऽर्थे एतौ स्याताम् । मैत्ररूप्यो गौः, मैत्रचरः॥ . व्याश्रये तसुः । ७।२। ८१ । षष्ठयन्तात् नानापक्षाश्रये गम्ये तसुः स्यात् । देवा अर्जुनतोऽभवन , रविः कर्णतोऽभवत् ॥ ८१ ॥ रोगात् प्रतीकारे । ७।२।२। षष्ठ्यन्ताद रोगार्थादपनयनेतसुःस्यात् ।प्रवाहिकातः कुरु ॥ ८२ ॥ पर्यभः सर्वोभये । ७।२। ८३ । आभ्यां यथासङ्कथं सर्वोभयार्थाभ्यां तसुः स्यात् । परितः, अभितः । सर्वोभय इति किम् ? वृक्षं परि, अभि वा ॥ ८३॥ आद्यादिभ्यः।७।२। ८४ । .. एम्यः सम्भवत्स्यायन्तेभ्यस्तसुः स्यात् । आदिता, मध्यतः ॥ ८४॥ क्षेपाऽतिग्रहाऽव्यथेष्वकर्त्त स्तृतीया याः । ७।२। ८५। - दान्तादकत्रर्थात् क्षेपादिविषये तसुः स्यात् । वृत्ततः १ अत पर प्रायः स्वार्थि ः प्रत्यवाः सन्ति । पूर्व भूतो भूतपूर्वः । भूतपूर्वाss. च्या आन्यवरी । पकारानुबन्धः पुंल्लिङ्गार्थः, टित्त्वात् स्त्रियां डीः । Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४६] हेमशब्दानुशासनस्य क्षिप्रोऽतिग्रायो न व्यथते वा । अकर्तुरिति किम् ? मैत्रेण क्षिप्तः ॥ ८५ ॥ पाप-हीयमानेन । ७।२ । ८६ । आभ्यां योगे टान्तादकर्तुस्तसुः स्यात । वृत्ततः पापो हीयते वा ॥ ८६ ॥ प्रतिना पञ्चम्याः। ७।३ । ८७ । . प्रतिना योगे जातपश्चम्यन्तात् तप्सुर्वा स्यात् । अभिमन्युरर्जुनाद् , अर्जुनतो वा प्रति ।। ८७ ।। अहीय-रुहोऽपादाने ।७। २ । ८८ । अपादानपञ्चम्यन्तात सुर्वा स्यात , न चेत् तत् हीय. रुहोः। ग्रामाद् ग्रामतो वैति । अहीयरुह. इति किम् ? सार्थाद् हीनोः गिरेरवरोहति ॥ ८८ ॥ 'किमयादिसर्वायवैपुल्यबहोः पित् तस् । ७ । २ । ८९ । किमोऽद्वयादिवर्जसर्वादिभ्योऽवैपुल्यार्थबहोश्च ङस्यन्तात् तस् पित् स्यात् । कुतः, सर्वतः. यतः, बहुतः। द्वयादिवर्जनं किम् ? द्वाभ्याम् , त्वत् । अवैपुल्येति किम् ? बहोः सूपात् ।। ८९ ॥ , द्वि-युष्मद्-भवतु-अस्मद्-किम् इतिद्वयादयः। किमो द्वयादिगत्वात् पृथग्रहणं कृतम् । त्वत् इति युष्मदः पञ्चमीरूपम् । एवं मत् , भवत इत्यत्र तस् न स्यात् । द्वितो, युष्मत्तो मत्त इति प्रयोगास्तु "अहीयरुहो..."सूत्रात स्युः। तसि "आ देरः" (पृ. ५२) इत्यत्त्वम् । स्त्रीपुनपुंसकइति त्रिष्वपि लिङ्गेषु तस्त्रपौ भवतः । Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिा [५४७] इतोऽतः कुतः।७।२।९। । एते तसन्ता निपात्याः ।। ९० ।। भवत्वायुष्मद्-दीर्घाऽऽयुष्-देवानांप्रियका र्थात् । ७।२ । ९१ । भवत्वाद्यस्तुल्याधिकरणात किमद्वयादिसर्वाधवैपुल्यबहोः सर्वस्याद्यन्तात् पित् तस् वा स्यात् । म भवान् , ततो भवान् । ते भवन्तः, ततो भवन्तः। स आयुष्मान्, तत आयुष्मान् । स दीर्घायुः, ततो दीर्घायुः। तं देवानां. प्रियम् , ततो देवानांप्रियम् । ९१ ॥ त्रप च । ७ । २ । ९२ ॥ , भवत्वाचैरेकार्थात् किमद्वयादिसर्वायवैपुल्यबहोः सर्वस्याद्यन्तात् त्रप् च वा स्यात् । स भवान् , तत्र भवान् , ततो भवान् । तस्मिन् भवति, तत्र भवति, ततो भवति । आयुष्मदादिनाऽप्येवम् ॥ ९२॥ क-कुत्राऽत्रेह । ७।२।९३। . एते त्रयन्ता निपात्याः ॥ ९३ ॥ . सप्तम्याः ।। २ । ९४ । - सप्तम्यन्तात् किमयादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोः त्रपू स्यात् । कुत्र, सर्वत्र, तत्र, बहुत्र ॥ ९४ ॥ किम्-यत्-तत्-सर्वैकाऽन्यात काले दा।७।२।९५/ एभ्यो ड्यन्तेभ्यः कालेऽर्थे दा स्यात् । कदा, यदा, १ अयं तस प्रथमाऽऽदिसप्तविभक्त्यन्तेभ्यः नामभ्यः स्यात् । एवं प्रवपि । तेन तत्र भवता ततो भवता, तस्य भवतः, तत्र भवतः, ततो भवंत इति सप्तमपि । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४८] हेमशब्दानुशासनस्य सदा, सर्वदा, पकदा, अन्यथा ॥९५ ॥ सदाऽधुनेदानी-तदानीमेतर्हि । ७।१।९६ । एते काले निपात्याः ॥९॥ सद्योऽद्य-परेद्यव्यहि । ७ । । । ९७ । । एतेऽद्धि काले निपात्याः ॥९७ ॥ .. पूर्वाऽपराऽधरोत्तराऽन्याऽन्यतरेतराद् .... एस् । ७।२।९८। एभ्यो ड्यन्तेभ्योऽह्नि कालेऽर्थे एद्युस् स्यात् । पूर्वद्यः, अपरेयुः, अधरेयुः, उत्तरेयुः, अन्येयुः, अन्यतरेयुः, इतरेयुः। उभयाद् धुस् च । ७।२ १९९ । अतोऽङ्ख्यर्थे यस्-एयुसो स्याताम् । उभयद्युः, उभयेयुः ॥१९॥ 'ऐषमा-पर-परारि वर्षे । ७ ।२१००। एते वत्सरेऽर्थे निपात्याः। ऐषमः, परुत् , परारि॥ अनद्यतने हिः।७।२ । १०१ । ड्यन्तादनद्यतनकालार्थाद् यथासम्भवं किमद्वयादि. सर्वाग्वैपुल्यबहोः हिः स्यात् । कर्हि, यहि, अमुर्हि, बहुईि ॥ १०१॥ प्रकारे था । ७।२। १०२। १ सप्तम्यन्तात् इत्यनुवर्तते । अस्मिन् वर्षे ऐषमः । पूर्वस्मिन् परस्मिन् वा वर्षे परुत् । पूर्वतरात् परारि स्यात् । Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षलघुवृत्तिः [५४९] प्रकारार्थात् सम्भवत्स्यायन्तात किमयादिसर्वा वैपुल्यबहोर्था स्यात । सर्वथा, अन्यथा ॥ १०२ ॥ कथमित्थम् । ७।२। १०३। एतौ प्रकारे निपात्यो ।। १०३ ॥ सङ्ख्याया धा। ७। २ । १०४ । सङ्खथाऽर्थात् प्रकारवृत्तेर्धा वा स्यात् । एकधा। कतिधा ॥ १०४॥ विचाले च । ७।२।१०५ । __एकस्याऽनेकीभावोऽनेकस्य चैकीभावो विचालः । तस्मिन् गम्ये सङ्ख्यार्थाद् धा वा स्यात् । एको राशिौँ द्विधा वा क्रियते, अनेकमेकमेकधा वा करोति ॥१०५॥ . वैका ध्यमञ् । ७ । २ । १०६ । एकेतिसयार्थात् प्रकारवृत्तेर्विचाले च गम्ये ध्यमञ् वा स्यात् । ऐकभ्यम् , ऐकधा भुङ्क्ते, अनेकमेकं करोति ऐकध्यं, एकधा वा करोति ॥ १०६ ॥ दि-धमत्रेधौ वा । ७।२ । १०७ ।। ___ आभ्यां प्रकारार्थाभ्यां, विचाले च गम्ये एतौ वा स्याताम् । द्वैधम् , त्रैधम् । द्वेधा, त्रेधा। द्विधा, विधाभुङ्क्ते। एकराशि द्वौ करोति द्वैधम् , त्रैधम् । द्वेधा, त्रेधा । द्विधा; त्रिधा करोति ॥ १०७॥ तद्धांत धण् । ७ । २ । १०८ । द्वित्रिभ्यां प्रकारवति विचालवति चार्थे धण् स्यात् । द्वैधानि, त्रैधानि ॥ १०८ ॥ 1 धमन-एधाइत्येतौ प्रत्ययो वा स्तः । द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां द्वैधं द्वधा । वा वचनाद धाऽपि, द्विधेत्यादि । Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५० ] हैमशब्दानुशासनस्य वारे कृत्वस् । ७ । २ । १०९ । वारवृत्तः सख्यार्थाद् वारवति धात्वर्थे कृत्वस् स्यात् । पञ्चकृत्वो भुङ्क्ते ॥ १०९ ॥ द्वि-त्रि- चतुरः सुच् । ७ । २ । ११० 1 एभ्यो वारार्थेभ्यस्तद्वति सुच् स्यात् । द्विः, त्रिः, चतुः भुङ्क्ते ॥ ११० ॥ एकात् सकृच्चास्य । ७ । ३ । १११ । अस्माद् वारार्थात् तद्वति सुच् स्यात्, सकृच्चाऽस्य । सकृद् भुङ्क्ते ॥ १११ ॥ बहोर्धाssसने । ७ । २ । ११२ । बहोः सङ्ख्यार्थाददूरवारार्थात तद्वति धा स्यात् । बहुधा भुङ्क्ते ॥ ११२ ॥ दिक्शब्दाद दिग्- देश - कालेषु प्रथमा-पञ्चमीसप्तम्याः । ७ । २ । ११३ । दिशि दृष्टाद् दिगाद्यर्थात् सिङसिङयन्तात् स्वार्थे धा स्यात् । प्राची दिग् रम्या प्राग्रम्यर्स्, प्राग् देशः कालो वा रम्यः प्राग्रम्यम्, प्राच्या दिशो देशकालाभ्यां वा आगतः प्रागागतः, प्राच्यां दिशि देशकालयोर्वा वासः प्राग्वासः ॥ ॥ ११३ ॥ ऊर्ध्वाद् रि-रिष्टातौ उपश्चास्य । ७ । २ । ११४ । ऊर्ध्वाद दिग्देशकालार्थात् सि·ङसिङयन्तादेतौ स्याताम्, उपश्चोर्ध्वस्य । उपरि, उपरिष्टात् रम्यं आगतो वासो वा ॥ ११४ ॥ १ अत्र “लुत्रञ्चेः " सूत्राद् धाप्रत्ययस्य लुन् स्यात् । लुपि ङीलुक् च । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः पूर्वाऽवराऽधरेभ्योऽसस्तातौ, पुर्-अव्-अधचैषाम् । ७ । २ । ११५ । एभ्यो दिग्देशकालार्थेभ्यः सिङसिङयन्तेभ्योऽस्, अस्तात् च स्यात्, एषां च यथासङ्ख्यं पुर, अव्, अधू च । पुरः, अवः, अधः, पुरस्तात्, अवस्तात्, अधस्तात् रम्यमागतो वासो वा ।। ११५ ।। परोऽवरात् स्तात् । ७ | २ | ११६ । आभ्यां दिगाद्यर्थाभ्यां प्रथमाद्यन्ताभ्यां स्वार्थे स्तात् स्यान् । परस्तात्, अवरस्तात् रम्यमागतो वासो वा ॥११३॥ दक्षिणोत्तरात् चातम् । ७ | २ | ११७ | आभ्यां परावराभ्यां च दिगाद्यर्थाभ्यां प्रथमाद्यन्ताभ्यां स्वार्थेऽतस् स्यात् । दक्षिणतः, उत्तरतः परतः, अवरतो रम्यमागतो वासो वा ॥ ११७ ॥ [५५१] अधराऽपरात् चाऽऽत् । ७ । २ । ११८| आभ्यां दक्षिणोत्तराभ्यां च दिगाद्यर्थाभ्यां प्रथमायन्ताभ्यामात् स्यात् । अधरात, पश्चात्, दक्षिणात्, उत्तरात् रम्यमागतो वासो वा ।। ११८ ।। वा दक्षिणात प्रथमा-सप्तम्या आः । ७ । २ । ११९ । अस्माद् दिग्देशार्थात् सिज्यन्ताद् आ वा स्यात् । दक्षिणा, दक्षिणतः, दक्षिणाद्रम्यं वासो वा ॥ ११९ ॥ आहो दूरे । ७ । २ । १२० । दूरदिग्देशार्थात् सिङयन्ताद् दक्षिणादा, आहिश्च स्यात् । ग्रामाद् दक्षिणा, दक्षिणाहि रम्यं वासोवा ॥ १२० ॥ वोत्तरात् । ७ । २ । १२१ | दिगाद्यर्थादस्मात सिङयन्तादा, आहिश्च वा स्यात् । Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५५२] हेमशब्दानुशासनस्य उत्तरा, उत्तराहि, उत्तरतः, उत्तराद् रम्यं वासो वा ॥ १२१ ॥ अदूरे एनः | ७ | २ | १२२ | दिगशब्दाददूरदिगाद्यर्थात् सिडयन्तादेनः स्यात् । पूर्वेणास्य रम्यं वसति वा ॥ १२२ ॥ लुबञ्चेः | ७ | २ | १२३ ॥ अञ्चत्यन्ताद् दिक्शब्दाद् दिगादिवृत्तेः सिङसिङन्ताद् विहितो यो धा, एनो वा, तस्य लुप् स्यात् । प्राग्रम्यमागतो वासो वा ॥ १२३ ॥ पश्चोऽपरस्य दिक्पूर्वस्य चाऽऽति । ७ । २ । १३४ । अपरस्य केवलस्य, दिगर्थपूर्वपदस्य चाति परे पश्चः स्यात् पश्चात्, दक्षिणपश्चात् रम्यमागतो वासो वा ॥ वोत्तरपदे ऽर्धे | ७ | २ | १२५ | अपरस्य केवलस्य, दिक्पूर्वस्य च अर्द्ध उत्तरपदे पश्चो वा स्यात् । पश्चार्धम् अपरार्धम् । दक्षिणपश्चार्द्ध:, दक्षिणापरार्द्धः ।। १२५ ॥ " कृ-भ्वस्तिभ्यां कर्म-कर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे त्रिः | ७ | २ | १२६ । कर्मार्थात कुगा योगे, कर्त्रर्थाच स्वस्तियोगे प्रागभूततद्भावे गम्येच्विः स्यात् । शुक्लीकरोति पटं, शुक्लीभवति, शुक्लीस्यात् पटः । प्रागिति किम् ? अशुक्लं शुक्लं करोत्येकदा ।। १२६ ॥ १ "अधरापरात् चात् ” सूत्राद् आत् तस्मिन् परे । अपरा दिकू-पश्चात्, द्वितीयं तु दिक्पूर्वस्योदाहरणम् । २ प्राक् पूर्वम्, अतत्तत्त्वे - अतस्य तत्त्वे-तद्भावे, अभूततद्भावे गम्ये इति भावः । Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीपक्षलघुवृत्तिः [३] अर्मनश्चक्षुश्चेतोरहोरजसा लुक चौ । ७।२ । १२७ । एषां चौ अन्तस्य लुक् स्यात् । अरूस्यात् , महाऽह. स्यात् , चक्षूस्यात, चेतीस्यात् , रहीस्यात् , रजीस्यात् ।। इसुसोबहुलम् । ७ । २। १२८ । इस् उसन्तस्य च्वौ बहुलं लुक् स्यात् । सप्पीकरोति नवनीतम् , धनूस्याद् वंशः । न च भवति सपिर्भवति, धनुर्भवति ॥ १२८॥ व्यञ्जनस्यान्त ईः । ७ । २ । १२९ । व्यञ्जनान्तस्य च्वौ बहुलमीरन्तः स्यात्। हपदीभवति शिला। न च भवति दृषद्भवति शिला ॥ १२९ ॥ व्याप्तौ स्सात् । ७।२। १३० । कृभ्वस्तिभ्यां कमकर्तृभ्यां प्रागततस्वइतिविषये सादिः सात् स्यात् , व्याप्ती प्रागतत्तत्त्वस्य सर्वात्मना द्रव्येण सम्बन्धे गम्ये । अग्निसात् काष्ठं करोति, अग्निसाद्भवति, अग्निसात् स्यात् ।। १३० ॥ जाते: सम्पदा च । ७। २ । १३१ । कृभ्वस्तिभिः, सम्पदा च योगे कगकर्मणः, म्वस्तिसम्पत्कर्तुश्च प्रागत्तत्त्वेन सामान्यस्य व्याप्तौ स्सात् स्यात् । अस्यां सेनाय सर्व शस्त्रममिसात् करोति वैषम् , एम. मनिसाद् भवति , अग्निसात् स्यात् , अनिसात् सम्पयते ॥१३१ ॥ १ सर्व काष्ठं पूर्वमनग्निमग्नि करोति अग्निसात् करोति । एवं जलादीना. मपि । सर्व लवणं प्राग अजलं जलं करोति भवते स्यादेति जलसात् करोति भवति स्याद् वा । चिरपि भवति । द्विपकारकरगं पवनेषेधार्थम् । Go Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य तत्राऽधीने । ७ । २ । १३२ ॥ तत्रेति इयन्ताद आयत्तेऽथं कृस्वस्तिसम्पयोगे सात् स्यात् । राजसात्करोति, राजसाद्भवति, राजसात् स्यात् । राजसात् सम्पद्यते ॥ १३२ ॥ देये त्रा च । ७ । २ । १३३ । [५५४] यता देये आयत्तेऽर्थं कृम्बस्तिसम्पयोगे त्रा स्यात् । देवत्रा करोति द्रव्यम्, देवत्रा भवेत स्यात् सम्पद्यते वा । देय इति किम् ? राजसात स्यात् राष्ट्रम् ॥ १३३ ॥ सप्तमी - द्वितीयाद देवाऽऽदिभ्यः । ७ । २ । १३४ । एभ्यो ज्धमन्तेभ्यः स्वार्थे त्रा स्यात् । देवन्ना वसेत, भवेत्, स्यात, करोति वा, एवं मनुष्यत्रा ॥ १३४ ॥ तीय शम्ब - बीजात कृगा कृषौ डा | ७ | २ | १३५ ॥ तीयान्तात शम्बबीजाभ्यां च कृग्योगे कृषि विषये डाच स्यात् । द्वितीया करोति शम्बा करोति, बीजा करोति क्षेत्रम् । कृषात्रिति किम् १ द्वितीयं पटं करोति ॥ सङ्ख्याऽऽदेर्गुणात् । ७ । २ । १३६ । सङ्ख्याया आद्यवयवात् परो यो गुणः तदन्तात कृग्योगे कृषि विषये डाच् स्यात् । द्विगुणा करोति क्षेत्रम् ॥ १३६ ॥ समयाद् यापनायाम् | ७ | २ | १३७ | अस्मात् कालक्षेपे गम्ये कृग्योगे डाच् स्यात् । समया करोति कालं क्षिपतीत्यर्थः ॥ १३७ ॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R स्वीपज्ञलघुवृत्तिः . [५५५] . सपत्र-निष्पत्राद् अतिव्यथने ।७।२। १३८ __ आभ्यां कुग्योगेऽतिपीडने गम्येडाच स्यात् । सपत्राकरोति मृगम् , निष्पत्रा करोति । अतिव्यथन इति किम् ? सपत्रं करोति तरं सेकः ॥ १३८ ॥ निष्कुलात् निष्कोषणे । ७ । २ । १३९। अस्मात कृग्योगे निष्कोषणेऽर्थे डाच् स्यात् । निष्कुला करोति दाडिमम् । निष्कोषण इति किम् ? निष्कुलं करोति शत्रुम् ॥ १३९ ॥ प्रिय-सुखादानुकूल्ये । ७ । २ । १४०।। - आभ्यां करयोगे आनुकूल्ये गम्ये डान् स्यात् । प्रिया करोति, सुखा करोति गुरुम् । आनुकूल्य इति किम् ? प्रियं करोति साम, सुखं करोति पौषधव्रतम् ॥ १४ ॥ दुःखात् प्रातिकूल्ये ।७।२।१४१ । दुःखात् प्रातिकूल्ये गम्ये कृग्योगे डाच् स्यात् । दुःखा करोति शत्रुम् । प्रातिकूल्य इति किम् ? दुःखं करोति रोगः । १४१ ॥ शलात् पाके।७।२१४२। शुलात् पाके गम्ये कुग्योगे डाच् स्यात् । शूला करोति मांसम् ॥१४२ ॥ सत्यादशपथे। ७।२ । १४३। अशपथात् सत्यात् कृपयोगे डान् स्यात् । सत्या करोति वणिग् भाण्डम् । अशपथ इति किन ? सत्यं करोति शपथमित्यर्थः।। १४३॥ मद्र-भद्रादु वपने । ७।२।१४४ । आभ्यां मुण्डने गम्ये कृग्योगेडान्स्यात्। मद्रा करोति Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५५६] हैमशब्दानुशासनस्य भद्रा कसेति नापितः । वपन इति किम् ? मद्रं करोति, भद्रं करोति साधुः ॥१४४॥ अव्यक्ताऽनुकरणाद् अनेकस्वरात् कृम्वस्तिना अनितौ द्विश्च | ७।२। १४५ । यस्मिन् ध्वनौ वर्णा विशेषरूपेण नाऽभिव्यज्यन्ते सोऽव्यक्तः । तदनुकरणार्थादनेकस्वराद् अनितिपरात् कम्वस्तियोगेडाच् वा स्यात् , द्विश्चास्य प्रकृतिः । पटपटा करोति भवेत् स्याद्वा । अनेकस्वरादिति किम् ? खाद करोति ।अनिताविति किम् ? पटिति करोति ॥१४५॥ इतावतो लुक् । ७.।२।१४६ । अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य योऽदिति, तस्येति शब्दे लुक् स्यात्। पटिति ॥ १४६॥ न द्वित्वे ।७।२।१४७ अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य द्वित्वे सति इतौ परेऽतो लुक् न स्यात् । पटत्पटदिति ॥१४७॥ . तोवा । ७।२।१४८। द्वित्वेऽव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्यातस्तो लुग्वा स्यात् । पटत्पटेति करोति, पटत्पटदिति वा ॥ १४८॥ ___डाच्यादौ । ७।२। १४९ । अध्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्याच्छब्दान्तस्य द्वित्वे सालि आवतस्तो डाचि लुक् स्यात् । पेटपटा करोति। आदाविति किम् ? पतपता करोति॥१४९ ॥ "अव्यक्ताऽनु..." इति द्वित्वम् । डाबो उित्त्वात् "डित्यन्त..." देतो हुन्छ । Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५५७] 'बह्वल्पार्थात् कारकादिष्टानिष्टे शम् |७१२।१५० बह्वल्पार्थाभ्यां कारकवाचिभ्यां यथासङ्ख्यमिष्टेऽनिष्टे च विषये शस् पिद्वा स्यात् । इष्टं प्राशिवादि । अनिष्टं श्राद्धादि । ग्रामे बहवो बहुशो वा ददाति, एवं भूरिशः । अल्पमल्पशो वा धनं दते श्राद्धे, एवं स्तोकशः। इष्टानिष्ट इति किम् ? वहु दत्ते श्राद्धे, अल्पं प्राशिने ॥ १५ ॥ संख्यैकार्थाद वीप्सायां शस् ।७।२।१५१ । सङ्ख्यैकार्थाभ्यां कारकार्थाभ्यां वोप्सायां द्योत्यनानायां शस् वा स्यात् । एकैकमेकशो वा दत्ते, मा माष माषशो वा देहि । संख्यैकार्थादिति किम् ? माषौ माषौ दत्ते । वीप्सायामिति किम् ? द्वौ दत्ते ॥ १५१ ॥ सङ्ख्याऽऽदेः पादादिभ्यो दानदण्डे चाकल लुक च । ७.।२।१५२ । सङ्ख्यार्थादवयवात् परे ये पादादयः, तदन्ताद् दाने , षष्टीव बह्वार्थानां प्रथमाऽऽदिसर्व विभक्तिवाचिभ्याम शस स्यात् , षष्ठयाः सम्बन्धजत्वेन कारकत्वाभावात् निषेधः । प्रभूतान् स्तोकान् वा अन्यान् पठतीति प्रभूतशः, स्तोडशो वा ग्रन्थान् पठ.ते । बहुभिदृष्टं बहुशो दृष्टम् । बहुभ्यो ददाति बहुशो ददाति । बहुभ्यो वृक्षेभ्यः पतति बहुशो क्षेभ्यः प्रतति । बहुषु गृहेषु वर्तते इति बहुशो गृहेषु वर्तते । षष्ठया निषेधाद् बहूनामल्लानां वा स्वामीति बाक्यमेव स्यात् । एवं बह्वर्थेभ्योऽल्पार्थेभ्यश्च प्रभूतस्तोकादेभ्यः षट्सु विभक्तिषु प्रयोगा भवन्ति । पित्वात् स्त्रीलिङ्गेभ्योऽपि । २ एफस्य संख्यागत्वेऽपि एकत्ववि शष्टवस्तुपहणाय सूत्रे पृथक् पाठः। “एकैकमेकशो वा दते' इ संख्योदाहरगम् , एकत्वस्य संख्यात्वाद् 'माषशो देहि, इति तु एकत्वविशिष्टवस्तुन उदाहरणम् । एवं द्विश., पञ्चशः, तावच्छः, कतिशः, गगशः, पगश इति संख्याथै कार्योदाहरगानि । शताऽभावे "वीप्सायाम्" (७-४-८०) इति द्वित्वम् । “प्लुम् चाहावे कस्य स्यादेः' (७-४-८१) इत्यनेन एकस्य स्यादेः पित्लर स्यात् तेनैकैमिति सिध्यति । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [१५८] हेमशब्दानुशासनस्य दण्डे वीप्सायां च विषयेऽकल स्यात् , तद्योगे च प्रकृतेर. न्तस्य लुक् । द्विपदिकां दत्ते दण्डिनो भुङ्क्ते वा । एवं द्विशतिकाम् ॥ १५२ ॥ तीयात् टीकण न विद्या चेत् । ७।२।१५३ । तीयान्तादविद्यार्थात् स्वार्थे टीकण वा स्यात् । द्वितीयम्, द्वैतीयीकम् । विद्या तु द्वितीया ॥ १५३ ॥ निष्फले तिलात् पिञ्ज-पेजौ। ७।२ । १५४ । निष्फलार्थात् तिलादेतौ स्याताम् । तिलपिञ्जः, तिलपेजः ॥ १५४ ॥ प्रायोऽतोयसट्-मात्रट् । ७ । २१५५/ अत्वन्तात् स्वार्थे एतौ स्याताम् , यथालक्ष्यम् । यावद वयसम् , यावन्मात्रम् ॥ १५५ ॥ वर्णाऽव्ययात् स्वरूपे कारः ।७।२।१५६। एभ्यः स्वरूपार्थेभ्यः कारो वा स्यात् । अकारः, ॐकारः। स्वरूप इति किम् ? अविष्णुः ॥ १५६ ॥ राद् एफः । ७।२।१५७।। वा स्यात् । रेफः । प्रायोऽधिकाराद् रकारः ॥१५७॥ नाम-रूप-भागाद् धेयः । ७।२।१५८। एभ्यः स्वार्थ धेयो वा स्यात् । नामधेयम् , रूषधेयम् , भागधेयम् ॥ १५८ ॥ मर्ताऽऽदिभ्यो यः । ७ । २ । १५९ । एम्यो यः स्यात् । मर्त्यः, सूर्यः ॥ १५९ ।। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपशलघुति [५५९] नवा इन-तन-नं च नू चास्य । ७।२।१६०। नवात स्वार्थ एते यश्च वा स्युः, तद्योगे च नवस्य नूः। नवीनम् , नूतनम् , नूत्नम् , नव्यम् ॥ १६० ॥ प्रात् पुराणे नश्च । ७ । २ । १६१ । पुरागार्थात् प्रात न ईन-नाश्च स्युः। प्रगन , प्रीणम् , प्रतनम् , प्रत्न पुराणम् ॥ १६१ ॥ देवात् तल । ७ । २ । १६२ । स्वार्थे वा स्यात् । देवता ॥ १६२ ।। होत्राया ईयः।७। २ । १६३ । स्वार्थे वा स्यात् । होत्रीयम् ॥ १६३ ॥ भेषजादिभ्यः ट्यग। ७।२।१६४ । स्वार्थे वा स्यात् । भैषज्यम् , आनन्त्यम् ।।१६४॥ प्रज्ञाऽऽदिभ्योऽश | ७।२।१६५। स्वार्थेऽण् वा स्यात् । प्राज्ञः, वाणिजः ॥१६५ ॥ श्रोत्रौषधि-कृष्णात् शरीस्भेषज - मृगे । ७ । २ । १६६ ॥ एभ्यो यथासङ्ख्यं शरीराद्यर्थेभ्यः स्वार्थेऽण् वा स्यात् । श्रोत्रं वपुः, औषधं भैषजम् , काष्र्णो मृगः ॥ १६६॥ कर्मणः सन्दिष्टे । ७।२ । १६७ । सन्दिष्टार्थात् कर्मणः स्वार्थेऽण् वा स्यात् । अन्येना. न्योन्यस्मै यदाह त्वयेदं कार्यमिति तत्सन्दिष्टम् । कार्मणम् ॥ १६७ ॥ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशदानुशासनस्य वाच इकण । ७।२।१६८॥ सन्विष्टार्थात् स्यात् । वाचिकं वक्ति ॥ १६८ ॥ विनयाऽऽदिभ्यः । ७।२ । १६९ । स्वर्थे इकर वा स्यात् । वैनयिकम् , सामयिकम् ॥ उपायाद हस्तश्च । ७।२ । १७०।। स्वार्थे इकश वा स्यात् , तद्योगे च ह्रस्वः। औपयि. कम् ॥ १७० ॥ मृदस्तिकः । ७।२।। १७१ । स्वार्थे वा स्यात् । मृतिका, मृत् ॥ १७१ ॥ सस्नौ प्रशस्ते । ७ । २ । १७२ । प्रशस्तार्थात् मृदा सस्नो वा स्याताम् । मृत्सा, मृत्स्ना ॥ १७३॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधा. नस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ सप्तमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ॥७॥२॥ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयः पादः॥ प्रकृते मयट् । ७।३।१। प्राचुर्येण प्राधान्येन वा कृतं प्रकृतम् । तदर्थात् साथै मयट् स्यात् । अन्नमयम्, पूजामयम् ॥१॥ स्मिन् । ७।३।२। प्रकृतार्थादस्मिन्निति च विषये मयट् स्यात् । अपूपमा पर्व ॥२॥ तयोः समूहवच्च बहुषु ।७।३ । ३ । प्रकृतेऽस्मिन्निति च विषययोर्षह्वात् समूह इस प्रत्ययः स्यात् , मयद च । आपूपिकम् , अपूपमयम् आपूपास्तपर्व वा ॥३॥ निन्ये पाशप् । ७।३।४। निन्द्यार्थात स्वार्थे पाशप्स्यात् । छान्वसपाश: ॥४॥ . प्रकृष्टे तमप् । ७।३।५। प्रकृष्टार्थात् तमप् स्यात् । शुक्लतमा, कारकतमः॥५॥ द्वयोर्विभज्ये च तरप् । ७।३।६। द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टे विभज्ये च वर्तमानात् तरप स्यात्। पटुतरास्त्री, साइश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका आव्यतराः॥ क्वचित् स्वार्थे । ७।३।७। - यथालक्ष्यं स्वार्थे तरप् स्यात् । अभिन्नतरकम् , उच्चस्तराम् ॥७॥ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६२] हैमशब्दानुशासनस्य किम्-त्याचे ज्ययादसत्वे तयोरन्त स्याम् । ७।३।। किमस्त्यायन्ताद् एकारान्तादव्ययाच परयोस्तमप्तरपारन्तस्याम् स्यात, न चेत् तो सत्त्वे द्रव्ये वर्तेते किन्त. राम, किन्तमाम् , पचतितराम , पचतितमाम् , पूर्वाहेतराम, पूर्वाह्नतमा भुङ्क्त, अतितराम, अतितमाम, असत्व इति किम् ? किन्तरं दारु ॥८॥ गुणाङ्गाद् वेष्ठेयसू । ७।३।९। गुणप्रवृत्तिहेतुकात् तमप्तरपोर्निपये यथासङ्ख्यमेतौ का स्याताय । पटिष्ठः, पटुतमः। गरीयान् , गुरुत्तरः॥९॥ त्यादेश्च प्रशस्ते रूप । ७।३।१०। त्याद्यन्तात नाम्नश्च प्रशस्ताथाई रूपपू स्यात् । पच. तिरूपम् , दस्युरूपम् ॥१०॥ अत्तमबादेरीषदसमाप्ते कल्पा-देश्यप्-देशी यर | ७|३ | ११ । १ तिवाद्याख्यातप्रत्ययान्तेभ्यः । द्वयधिकविभज्ये प्रकृष्टे तमप् , योर्मध्ये विभज्ये प्रकृष्टेऽये तु तरप् स्यात् । पित्वात् स्त्रियामपि । इदमनयोरतिशयेन किं पचति किंतरां पचति । इदमेषामतिशयेन किं पचति किन्तमा पचति । एवं पचतितरी, पचतितमाम् । तयोः तरप्-तमपोरिस्यर्थः । • तिवाभ्यो रूपप्कल्पपटेश्वदेशीयप्रत्ययेषु नपुंसकलिजमेकापन म भवतः, तिवाद्यन्तानां क्रियाप्रधानत्वात् तस्याश्च साध्यत्वेन लिङ्गसंख्याऽसंभवात यथा प्रशस्तं पचति पचतिरूपम् , द्वित्वे पचतोरूपम् , बहुत्वे पचन्तिरूपम् । गाजार सदसमाप्तं गच्छन्ति इति गच्छन्तिकल्पम् । एवं बेश्यादिष्वपि । नाम्नस्तु प्रकृतिलिङ्गं द्विबहुवचनेऽपि च भवतः, यथा पटुदेशीयः पुरुषः, पदवेशीया स्त्री च । एवं पटुदेशीयौ पुरुषावित्यादि। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपजलपात्तिः ५६३] . किश्चिदसमातार्थात् त्यायन्तात् तमयान्यन्तव देते स्य । पचतिकल्पम् , पचतिदेश्यम् , पचतिदेशीयम, पटुकल्पा, पटुदेश्या, पटुदेशीया ॥ ११ ॥ नाम्नः प्राग् बहु । ७।३।१२।। ईश्वपरिसमाप्तार्थात् नाम्नः प्राग् बहुर्वा स्यात् । बहुपटुः, पटुकल्पः ॥ १२ ॥ नतमबादिः कपोऽच्छिन्नाऽऽदिभ्यः । ७॥ ३ ॥ १३ छिन्नादिवोद यः कः , तदन्तात् तमवादिन स्यात् । अयमेषामनयोवा प्रकृष्टः पटुकः। अच्छिवादिभ्य इति किम् ? छिन्नकतमः॥१३॥ .. अनत्यन्ते । ७ । ३ । १४ । अनत्यन्तार्थात् कबन्तात् तमवादिन स्यात् । इदमे. षामनयोवा प्रकृष्टं छिन्नकम् , भिन्नकम् ॥ १४ ॥ यावाऽऽदिभ्यः कः।७। ३ । १५ स्वार्थ का स्यात् । यावका, मणिकः ॥ १५ ॥ कुमारीकीडनेयसोः। ७ । ३ । १६॥ - कुमारीणां यत क्रीडनं तदर्थाद, ईयस्वन्ताच स्वार्थे का स्यात् । कन्दुकः, श्रेयस्कः ॥ १६ ॥ लोहितात् मणौ । ७।३।१७॥ अस्मात् मण्यर्थात् स्वार्थ को वा स्यात् । लोहितको मणिः, लोहितो मणिः ॥ १७ ॥ रक्तानित्यवर्णयोः।७।३।१८॥ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६४] हैमशब्दानुशासनस्य लाक्षादिरक्तार्थाद्, अनित्यवार्थाच्च लोहितात् को बा.स्यातः। लोहितकः पटा, लोहितकमक्षि कोपेन ॥१८॥ कालात् । ७।३।१९। । • कज्जलादिरक्ते नित्यवणे व वर्तमानात् कालात को वा स्यात् । काल एव कालकः पटा, कालकं मुखं शोकेन ॥ १९ ॥ शीतोष्णाद् ऋतौ । ७।३ ॥२०॥ ... आभ्यामृत्वर्थाम्यां को वा स्यात् । शीतकः, उष्णक ऋतुः ॥२०॥ लून-वियातात् पशो। ७।३ । २१ । आभ्यां पश्वर्थाभ्यां को वा स्यात् । लूनकः वियातका पशुः ॥ २१ ॥ स्नातादु वेदसमाप्तौ । ७ । ३ । २२ । अस्यां गम्यायां स्नातात् कः स्यात् । वेदं समाप्य स्नातः स्नातकः ॥ २२ ॥ तनु-पुत्राऽणु-बृहती शून्यात सूत्र-कृत्रिम-निपुणा ऽच्छादनःरिक्ते । ७।३ । २३ । तन्वादिभ्यो यथासंख्यं सूत्राद्यर्थेभ्यः कः स्यात् । तनुकं सूत्रम्, पुत्रकः कृत्रिमः, अणुको निपुणः, बृहतिका आच्छादनम् , शुन्यको रिक्तः ॥ २३ ॥ .... भागेऽष्टमात् नः । ७।३। २४ । . भागाोंदस्मात मओवास्यात् । आष्टमो भागः ॥२४॥ - षष्ठात् । ७।३।२५। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीपज्ञलघुत्तिः [५६५] . अस्माद् भागार्थात् जो वा स्यात् । पाठो भागः । - माने कश्च । ७॥ ३ ॥ २६॥ मीयते येन तद्रूपभागार्थात् षष्ठात् को अश्व वा स्यात् । षष्ठकः पाष्ठः भागो मानं चेत् ॥ २६ ॥ एकादाकिन् चाऽसहाये । ७३ । २७। असहायार्थादेकाद् आकिन कश्च स्यात् । एकाकी, एककः ॥ २७॥ प्रान नित्यात् कम् । ७।३ । २८। नित्यसङ्कीर्तनात् प्राग येऽर्थास्तेषु द्योत्येषु का अधिकृतो ज्ञेयः । कुत्सितोऽल्पोऽज्ञातो वाऽश्व:-अश्वकः ॥ २८॥ त्यादि सर्वाऽऽदेः स्वरेष्वन्त्यात् पूर्वो ___ऽक । ७।३।२९। त्याद्यन्तस्य, सर्वादेश्च स्वराणां मध्ये योऽन्त्यस्वरः तस्मात् पूर्वोऽक स्यात् , प्राग् नित्यात् । कुत्सितमल्प. मज्ञातं वा पति पचतकि, मवेके, विश्वके ।। २९ ॥ 'युष्मदस्मदोऽसोभादिस्यादेः । ७।३।३०। अनयोः स ओ भादिवर्जस्याचन्तयोः स्वरेप्वन्त्यात् पूर्वोऽक स्यात् । त्वयका, मयका । असोभादिस्यादेरिति किम् ? युष्मकासु, युवकयोः युवकाभ्याम् ॥ ३० ॥ .. अव्ययस्य को द् च । ७।३ । ३१ । १ युष्मकासु इति सादेः, द्वितीयमोकारादेः, अन्त्यं तु भावेः प्रत्युदाहरण हेयम् , नानेनेति । Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य प्राक् नित्याद्येऽस्तेिषु द्योत्येष्वन्ययस्य स्वरात पूर्वोऽक् स्यात् , तद्योगे, चाऽस्य को । कुत्सितायुचैः उच्चकः, एवं धिक्, धकिदू ॥ ३१ ॥ . तूष्णीकाम् । ७।३ । ३२ । तूष्णीमो माप्राक् का इत्यन्तो निपात्या, प्राक् नित्यात्। . कुत्सितादि तूष्णीं तूष्णीकामास्ते ॥ ३२ ॥ कुत्सिताऽल्पाऽज्ञाते । ७।३। ३३ । कुत्सिताधुपाधिकार्थात् यथायोगं कबाइयः स्युः। अश्वका, पचतकि, उच्चकैः ॥ ३३ ॥ अनुकम्पा-तद्युक्तानीत्योः । ७।३ । ३४ । अनुकम्पायां तयुक्तायां च नीतो गम्यायां यथायोगं कबादयः स्युः । पुत्रका स्वपिषकि, पुत्रकः एहकि, उत्सङ्गके उपविश, कईमकेनाऽसि दिग्धकः ॥ ३४ ॥ अजातेनाम्नो बहुस्वरात इयेकेलं वा । ७॥ ३ ॥ ३५॥ मनुष्यनाम्नो बहुस्वरादनुकम्पायां एते वा स्युः, न चेत् नामजात्यर्थन् । देवियः, देविका, देविला, देव. दत्तकः । अजातेरिति किम् ? महिषः ॥ ३५॥ १ ककारान्तस्याव्ययस्य दकारान्तादेशो भवतीत्यर्थः । यथा विक इत्यस्य अकि स्कारे च जाते पकिद्, पृथकहिरुकइत्यनयोः पृथकद हिरकुदिति स्यात् , कपोऽपवादः । कुत्सितमल्पम् ज्ञातमुचरित्यर्थ कुत्सितायुच्चरित्युक्तम् । १ भनुकम्पितो देवदत्तो देविय इत्यादि । “ द्वितीयात् स्वरार्ध्वम" (७-३-४१) इत्यकारलुक । एवं इक-इल-अड-अकादिष्वपि । . Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... स्वोपज्ञलघुतिः [५६७ ] . वोपादेरडाकौ च । ७ । ३ । ३६ । उपपूर्वादजात्यर्थाद् बहुवरात् नृनानोऽनुकम्पाया मडाको, इय इक इलाश्च वा स्युः। उपडः, उपका, उपियः, उपिकः, उपिलः, उपेन्द्रवत्तकः ॥ ३६ ॥ · ऋवर्णोवर्णात् स्वरादेरादेलुक प्रकृत्या च। ७।३ । ३७ । ऋवर्णान्तोवर्णान्ताभ्यां परस्यानुकम्पोत्पन्नस्य स्वरादेः प्रत्ययस्याऽऽदेलक स्यात् , लुकि तु सति प्रकृतेः प्रकृतिः। मातृयः, मातृकः, मातृलः, वायुयः, वायुकः, वायुलः। स्वरादेरिति किम् ? मद्रबाहुकः ॥ ३७॥ लुक्युत्तरपदस्य कपन् । ७।३। ३८॥ नाम्नो यंदुत्तरपदं तस्य, "ते लग् वा” (पृ० १८२) इति लुकि सनि ततः कपन् स्यात् , अनुकम्पायां गम्यायाम् । देवदत्ता । लुकि, देवी । अनुकम्पिताऽसौ देवका। उत्तरपदस्पति किम् ? दत्तिका ॥ ३८॥ लुक चाऽजिनान्तात् । ७।३ । ३९ । __अजिनान्तात् नृनाम्नोऽनुकम्पायां कपन स्यात् , तद्योगे च लुगुत्तरपदस्य । व्याघ्रकः ॥ ३९ ॥ षड्व कस्वरपूर्वपदस्य स्वरे । ७ । ३ । ४० । षड्वर्जमेकस्वरं पूर्वपदं यस्य, तस्योत्तरपदस्यानुकम्पाऽथे स्वरादौ प्रत्यये लुक् स्यात् । अनुकम्पितो वागाशीः वाचियः । षड्वर्जेत्यादीति किम् ? उपेन्द्रेण दत्तः उपेन्द्र १ कप्त इति प्रत्यये पकारानुबन्धः पुंवद्भावार्थः । नकारः "इच्चा..." (२-४-१०७) इत्यत्र पयुंदासार्थः । Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६८ ] हेमशब्दानुशासनस्य दत्तः सोऽनुकम्पित उपडः, षडङ्गुलिस्तु षडियः । स्वर इति किम ? वागाशीदत्तकः ॥ ४० ॥ द्वितीयात् स्वरादृर्ध्वम् । ७ । ३ । ४१ । अनुकम्पार्थे स्वरादौ प्रत्यये प्रकृतेर्द्वितीयात् स्वरादूर्ध्वं लुक् स्यात् । देवियः ॥ ४१ ॥ सन्ध्यक्षरात् तेन । ७ । ३ । ४२ । अनुकम्पार्थे स्वरादौ प्रत्यये प्रकृतेर्द्वितीयात् सन्ध्यक्षरस्वरार्ध्वं तेन सन्ध्यक्षरेण सह लुक् स्यात् । कुबियः, कुहिकः ॥ ४२ ॥ शेवलाद्यादेस्तृतीयात् । ७ । ३ । ४३ । शेवलादिपूर्वपदस्य नृनाम्नोऽनुकम्पार्थे स्वरादौ प्रत्यये तृतीयात् स्वरादूर्ध्व लुक् स्यात् । शेवलियः, सुपरियः ॥ ४३ ॥ क्वचित् तुर्यात् । ७ । ३ । ४४ । अनुकम्पोत्पन्ने स्वरादौ प्रत्यये यथालक्ष्यं चतुर्थात स्वरादूर्ध्व लुकस्यात् । वृहस्पतियः । क्वचिदिति किम् १ उपडः ।। ४४ । पूर्वपदस्य वा । ७ । ३ । ४५ ॥ अनुकम्पाऽर्थे स्वरादौ प्रत्यये पूर्वपदस्य लुग वा स्यात् । दत्तियः, देवियः ॥ ४५ ॥ स्वे | ७ | ३ | ४६ | १ आदितो गणनया यस्तृतीयः स्वरस्ततः परे एकोऽनेके वा वर्णास्तेषां लुक् स्यात् । अनुकम्पितः शेवलदत्तः इति शेत्रलिय इत्यत्र इये प्रत्यये परे तृतीयात् स्वरादूर्भस्थस्य दत्तइत्यस्य लुग्जातः । Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___स्वोपनलघुवृत्तिः [५६९] हस्वार्थात् यथायोगं कवादिः स्यात् । पटक: पचतकि॥ ४६॥ कुटी-शुण्डाद्रः । ७।३। ४७। आम्यां हूस्वार्थाम्यां ः स्यात् । कुटीरः, शुण्डारः ।। - शम्या रु-रौ। ७।३।४८। अस्माद् हस्वार्थादेतो स्ताताम् । शमीरः, शमीरः ॥ कुत्ता डुपः । ७।३। ४९ । अस्मात् हृस्वार्थात् डुपः स्यात् । कुतुपः॥४९॥ कासू-गोणीभ्यां तरद |७।३। ५० आभ्यां ह्रस्वार्थाम्यां तरट् स्यात् । कासूतरी, गोणीतरी ॥५०॥ वत्सोक्षाऽश्वर्षभाद् हासे पित् । ७।३ । ५१ । एभ्यः स्वप्रवृत्तिहेतोहसे गम्ये तर पित् स्यात् । वत्सतरः, उक्षतर, अश्वतरः, ऋषभतरः ॥५१॥ वैकाद् द्वयोर्निर्धायें उतरः। ७।३ । ५२ । एकाद् द्वयोरेकस्मिन् निर्येिऽर्थे इतरो वा स्यात् । एकतरः, एकको वा भवतोः कठा पडुर्गन्ता क्षेत्रो दण्डी वा ॥५२॥ - यत्-तत्-किमन्यात् । ७।३ । ५३ ।। एभ्यो द्वयोरेकस्मिनिर्येऽथें वर्तमानेभ्यो इतरः स्यात्। यतरो भवतोः कठादिस्ततर आगच्छेत् , एवं कतरः, अन्यतरः ॥ ५३॥ बहुना प्रश्ने डतमश्च वा । ७।३।५४।। ७२ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७०] हैमशब्दानुशासनस्य यदादिभ्यो बहूनां मध्ये नियर्थेिभ्यः प्रश्ने डतमो इतरश्च वा स्यात् । यतमो यतरो वा भवतां कठस्ततर. स्ततमो वा यातू । एवं कनमः, कतरा । अन्यतमः, अन्यतरः। पक्षे, यको यो वा। सका, स वा भवतां कठ इत्यादि ॥ ५४॥ ....: वैकात् । ७।३ । ५५।. एकाद् बहूनां मध्ये नियर्थाित् डतमो वा स्यात् । एकतमः, एककः, एको वा भवतां कठः ॥ ५५ ॥ .. क्तात तमबादेचानत्यन्ते ।७।३ । ५६ । क्तान्तात् केवलात् तमवाद्यन्ताच्चानत्यन्तार्थात कपू स्यात् । अनत्यन्तं भिन्न भिन्नकम् , भिन्नतमकम् , भिन्नतरकम् ॥ ५६ ॥ न सामिवचने । ७।३। ५७। अर्द्धवचने उपपदे अनत्यन्तार्थात् क्तानात् केवलात् तमबाघन्ताच्च का न स्यात् । सामि अनत्यन्तं भिन्नम्, अर्द्धमनत्यन्तं भिन्नम् ॥ ५७ ॥ अ. नित्यं ज-जिनोऽण । ७।३ । ५८ । अभिनन्तात् स्वार्थे नित्यमण् स्यात् । व्यावक्रोशी, साङ्कोटिनम् ॥ ५८॥ विसारिणो मत्स्ये ।७।३ । ५९।। अस्मात् मत्स्यार्थात् स्वार्थेऽण् स्यात् । वैसारिणो सामि अर्धपर्यायम् । वचनपाठात् पर्यायशब्दानामपि नेमार्यादीनों ग्रहण स्यात् । अर्धमनन्त्यन्त भिन्चतमं भिन्नतरम् । अन्ये तु समास एव मन्यन्ते खामिकृतमित्यादि । Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५७१] मत्स्यः ॥ ५९॥ पूगादमुख्यकात् ज्यो दिः । ७ । ३।६० नानाजातीया अनियतवृत्तयोऽर्थकामप्रधानाः सञ्चाः पूगाः। तदर्थात् स्वार्थे यो द्रिः स्यात्, न चेत् पूगार्थ मुख्यार्थकान्तम् लौहध्वज्यः लोहध्वजाः । अमुख्यका. दिति किम् ? देवदत्तकः पूगः ।। ६०॥ वातादस्त्रियाम् । ७।३। ६१। । नानाजातीया अनियतवृत्तयः शरीरायासजीविनः सङ्घा वाताः। तदर्थादस्त्रियां स्वार्थे ज्यो द्रिः स्यात् । कापोतपाक्या, स्त्री तु कपोतपाका ॥ ६१ ॥ शस्त्रजीविसङ्घात् ज्यद्वा। ७ । ३ । ६२ । एतदर्थात् स्वार्थे दिय॑ड् वा स्यात् । शावर्यः । शबराः, पुलिन्दाः। पक्षे, शबरः। सङ्घादिति किम् ? वागुरः ॥ ६२॥ वाही केष्वब्राह्मण-राजन्येभ्यः । ७।३। ६३ । ___ एषु यः शस्त्र जीविसङ्घो ब्राह्मणराजन्यवर्ज: तदर्थाव स्वार्थे दियट् स्यात् । कौण्डीविश्या, कुण्डीविशाः । अब्राह्मणेत्यादीति किम् ? गौपालिः, राजन्यः ॥ ६३ ॥ वृकात् टेण्यण । ७।३। ६४ । वृकात् शस्त्रजीविसङ्घार्थात् स्वार्थे टेण्यण् द्रिः स्यात् । वार्कण्यः ॥ ६४॥ १ द्रिकरणातू वहुत्वेऽस्त्रियां प्रत्ययलुप् स्यात् । यथा लोहवजा इति । Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७२] . हैमशब्दानुशासनस्य यौधेयाऽऽदेर । ७ । ३ । ६५। एभ्या शस्त्रजीविसंघार्थेभ्योऽञ् द्रिः स्यात् । यौधेयः, घार्तेयः ॥६५॥ पर्खादेरण । ७।३ । ६६ । एभ्यः शस्त्रजीविसंघार्थेभ्यः स्वार्थेऽण् द्रिः स्यात् । पार्शवः, राक्षसः ॥ ६६ ॥ दामन्यादेरीयः । ७।३।६७। ...एभ्यः शस्त्रजीविसंघार्थेभ्यः स्वार्थे ईयो दिः स्यात् । दामनीया, औलपीयः ॥ ६७ ॥ श्रुमत्-शमीवत्-शिखावत्-शालावदृर्णावत-विदभृदभिजितो गोत्रेऽणो यम् ।७।३ । ६८। एभ्यो गोत्राऽणन्तेभ्यः स्वार्थे यञ् द्रिः स्यात् । श्रीमत्यः, शामीवत्यः, शैखावत्यः, शालावत्यः, और्णाः वत्यः, वैदभृत्यः, आभिजित्यः ॥ ६८ ॥ - 'समासान्तः । ७।३ । ६९ । अतः परं विधास्यमानं समासस्यावयवः स्यात् , ततस्तस्यतत्तत्समाससंज्ञा। सुजम्भे सुजम्मानौ स्त्रियो, उपधुरम् , द्विधुरी, सक्त्वचिनी ॥ ६९ ।। न किमः क्षेपे । ७।३ । ७०।। निन्दार्थात् किमः परं यद् ऋगादिस्तदन्तात् समासात् १ इदमधिकारसूत्रम् । पादपरिसमाप्तिं यावदस्यानुवृत्तिः । अतःपर ये प्रत्या बक्ष्यन्ते ते समासस्यान्ता अवयवा भवन्ति तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते। प्रयोजन बाल बाबीहि-अम्बयीभाव-द्विगु-द्वन्द-कर्मधारयादिखमाससंज्ञाः। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५७३) समासान्तो न स्यात् । किंः , किसखा । क्षेप इति किम् ? के राजा किंराजः ।। ७० ॥ नञ्तत्पुरुषात् । ७।३ । ७१ । अस्मात् समानान्तो न स्यात् । अनुक्, अराजा। तत्पुरुषादिति किन ? न विद्यते धूः अस्याधुरं शकटम् ॥ पूजा-स्वतेः प्राक् टात् ।। ३ । ७२ । पूजार्थस्वतिम्यां परं यऋगादितदन्तात् टात् प्राग्यः समासान्तः, स न स्यात् । सुधूः, अतिधूरियम् । पूजेति किम् ? अतिराजोऽरिः। प्राग् टादिति किम् ? स्वङ्गुलं काष्ठम् ॥ ७२ ॥ बहोर्डः । ७ । ३ । ७३ । डस्य प्राप्तियेंतस्ततः समासान्तो ङः कच्च न स्यात् । उपबहवो घटाः। ड इति किम् ? प्रियवहुकः ॥ ७३ ॥ इच युद्धे । ७।३ । ७४ । युद्धे यः समास उक्तस्तस्मादिच् समासान्तः स्यात् । केशाकेशि ।। ७४ ॥ दिदण्ड्यादिः। ७ । ३ । ७५ । एते इजन्ताः साधवः स्युः । द्विदण्डि हन्ति, उमा. दन्ति ॥ ७५ ॥ ऋक्-पूः-पथ्यपोऽत् । ७।३।७६ । ऋगायन्तात् समासादत समासान्तः स्यात् । कुत्सिताऽर्थोऽत्र किंशब्दः कुत्सितः सखा किसखा, एवं किंराजेत्यादिषु क्षेगर्थत्वात् समासान्तत्वं न किं तु " किं क्षेपे" (पृ. १५१) सूत्रेण तत्पुरुषः कर्मधारयः समासः । वं समासान्तत्वे तु कस्य केषां वा राजा किंराजः इत्यत्र " राजन् सोः (.-३-१०६) सूत्रादद् स्यात् । Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७४] हेमशब्दानुशासनस्य अर्द्धचः त्रिपुरम् , जलपथः द्वीपम् ॥ ७६ ॥ धुरोऽनक्षस्य । ७।३ । ७७। धुरन्तात् समासादत् समासान्तः स्यात् , चेद् धूर्नाक्षस्य । राजधुरा । अनक्षस्येति किम् ? अक्षः ।। ७७ ।। सङ्ख्या पाण्डूदक्-कृष्णाद् भूमेः।७।३ । ७८। .. सङ्ख्यार्थात् पाण्डूवादेश्च परो यो भूमिस्तदन्तादत् समासान्तःस्यात् । द्विभूमम् , पाण्डुभूमम् , उदग्भूमम्, कृष्णभूमम् ॥ ७८॥ उपसर्गादध्वनः । ७।३ । ७९।। उपसर्गाद् धातुयोग्यात् प्रादः परदध्वनो अः समा. सान्तः स्यात् । प्राध्यो रथः ॥७९॥ . समवाऽन्धात् तमसः। ७।३ । ८० । एभ्यः परो यस्तमस् तदन्तादत् समासान्तः स्यात्। सन्तमसम् , अवतमसं, अन्धतमसम् ॥ ८० ॥ तप्तान्ववाद् रहसः।७।३।८१। तप्तादिपूर्वो यो रहस् तदन्तादः समासान्तः स्यात् । तसरहसम् , अनुरहसम् , अवरहसम् ॥ ८१ ॥ प्रत्यन्ववात् साम-लोम्नः । ७।३ । ८२ । एभ्यः परौ यो सामलोमानौ, तदन्तादः समासान्तः स्यात् । प्रतिसामम् , अनुसामम्, अवसामम्, प्रतिलोमः, अनुलोमः, अवलोमः ।। ८२ ॥ ब्रह्म-हस्ति-राजपल्या वर्चसः । ७।३ । ८३। ब्रह्मादिपूर्वाद वर्चसन्तादत समासान्तः स्यात्। ब्रह्म Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५७५] वर्चसम् , हस्तिवर्चसम्, राजवर्चसम् , पल्यवर्चसम् ।। प्रतेरुरसः सप्तम्याः ।७।३ । ८४ । प्रतिपूर्वात् सप्तम्यन्तोरसन्ताददन्तःस्यात् । प्रत्युरसम् । सप्तम्या इति किम् ? पत्युरः ॥ ८४ ॥ __ अक्ष्णोऽप्राण्यङ्गे । ७।३।। ८५। अप्राण्यङ्गार्थादक्ष्यन्ताददन्तः स्यात् । लवणाक्षम् । अप्राण्यङ्ग इति किम् ? अजाक्षि ॥ ८५॥ सम्कटाभ्याम् । ७।३। ८६ । __ आभ्यां परादश्यन्तावदन्तः स्यात् । समक्षम् , कटाक्षः॥ ८६.॥ प्रति-परोऽनोव्ययीभावात् । ७।३। ८७ । प्रत्यादिपूर्गदक्ष्यन्तादव्ययीभावादत् स्यात् । प्रत्यक्षम् , परोक्षम् , अन्वक्षम् ॥ ८७ ॥ अनः। ७।३।८८ । अन्नन्तादव्ययीभावादः स्यात् । उपतक्षम् ॥ ८८॥ नपुंसकादा । ७।३। ८९ । अन्नन्तं यत् कलीयं तदन्तादव्ययीभावादद् वा स्यात् । उपचर्मम् , उपचर्म ॥ ८९ ॥ गिरि-नदी-पौर्णमास्याग्रहायण्यपञ्चम वाद् वा । ७ । ३ । ९०। एतदन्तात पञ्चमवर्गवर्जवर्गान्ताचाव्ययीभावादद् वा स्यात् । अन्तर्गिरम् , अन्तर्गिरि। उपनदम् , उपनदि । Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७६] हेमशब्दानुशासनस्य उपपौर्णमासम्, उपपौर्णमासि । उपाग्रहायणम् , उपा ग्रहायणि । उपसुचम् उपसुक ॥ ९० ॥ संख्याया नदी गोदावरीभ्याम् ।७।३ । ९१ । सङ्ख्यार्थात् परौ यावेतौ तदन्तादव्ययीभावादः स्यात् । पञ्चनदम् , द्विगोदावरम् ।। ९१ ।। शरदादेः । ७।३ । ९२ । शरदाद्यन्तादव्ययीभावादत् स्यात् । उपशरवम् , प्रतित्यदम् ॥ ९२॥ जराया जरस् च । ७।३ । ९३ । जरान्तादव्ययीभावादत् स्यात् , तद्योगे च जराया जरस् । उपजरसम् ।। ९३ ॥ - सरजसोपशुनाऽनुगवम् ।७।३।९४ । एतेऽव्ययीभावा अदन्ता निपात्या। सरजसं भुङ्क्ते, उपशुनमास्ते, अनुगवमनः ॥ ९४ ॥ जात-महद्-वृद्धादुक्ष्णः कर्मधारयात् ।७।३।९५। एभ्यः परो य उक्षा, तदन्तात् कर्मधारयादत् स्यात् । जातोक्षः, महोक्षः, वृद्धोक्षः, । कर्मधारयादिति किम् ? जातस्योक्षा जातोक्षा ॥ ९५ ॥ स्त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च ।७।३।९६ । स्त्रियाः परो यः पुमान् , तदन्तात् द्वन्द्वात् कर्मधार. याचाऽत् स्यात् । स्त्रीपुंसौ, स्त्रीपुंसः शिखण्डी ।। ९६॥ . , गामन्वायतमनुगवम् । “ दैयेऽनुः" (पृ. १३६) सूत्रात् समासः बना सटमित्यर्थः । . Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . स्वोपक्षलघुवृत्तिः [५७७] - ऋक्साम-ऋग्यजुष-धेन्वनड्डह-वाङ्मनसाऽ होरात्र-रात्रिंदिव-नक्तंदिवाऽहर्दि वोर्वष्ठीव-पदष्ठीवाऽक्षिभ्रव-दारग. वम् । ७।३। ९७। एते द्वन्द्वा अदन्ता निपात्याः । ऋक्सामे, ऋग्यजुषम् , धेन्वनडुहौ, वाङ्मनसे, अहोरात्रः, रात्रिंदिवम् , नक्तंदिवम् , अहर्दिवम् , ऊर्वष्ठीवम् , पदष्ठीवम् , अक्षिध्रुवम् , दारगवम् ॥ ९७ ॥ चवर्ग-द-ष-हः समाहारे ।७।३ १९८ । एतदन्तात् द्वन्द्वात् समाहारादित् स्यात् । वाक्त्व. चम् , संपद्विपदम् , वाक्त्विषम् , छत्रोपानहम् । समाहार इति किम् ? प्रावृट्शरभ्याम् ॥ ९८ ॥ - दिगोरन्नहनोऽट् ७।३। ९९ । अन्नन्तादहन्नन्ताच समाहारार्थाद द्विगोर स्यात् । पश्चतक्षी, पश्चतक्षम्. यहः । द्विगोरिति किम् ? ममतः ।। दि-रायुषः । ७।३ । १०० । ... आभ्यां परो य आयुष्, तदन्तात् समाहारार्थाद् द्विगोरट् स्यात् । द्वयायुषम् , व्यायुषम् ।। १०० ॥ वाऽञ्जलेरलुकः ।७।३ । १०१। द्वित्रिभ्यां परो योऽञ्जलिः, तदन्ताद् द्विगोरट् व स्यात् , न चेद् द्विगुस्तद्धितलुगन्तः। द्वथञ्जलम्, द्वयञ्जलि । व्यञ्जलमयम् , व्यञ्जलिमयम् । अलुक इति किम् ? द्वयञ्जलिर्घटः ।। १०१॥ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य खार्या वा । ७ । ३ । १०२ । खार्यन्ताद् द्विगोरलकोऽद् वा स्पात । द्विखारम्, द्विखारि । पञ्चखारधनः, पञ्चखारीधनः ॥ १०२ ।। वाऽर्द्धाच्च । ७ । ३ । १०३ । अर्द्धात् परा या खारी, तदन्तात् समासादलुकोट् वा स्यात् । अर्द्धखारम् . अर्द्धखारी ॥ १०३ ॥ [५७८ ] नावः । ७ । ३ । १०४ । अर्थात् परो यो नौः, तदन्ताद् समासाद् द्विगोश्चाऽलुकोट् स्यात् । अर्द्धनावम्, अर्द्धनावी, पञ्चनावम् । अलुक इत्येव ? द्विनौः ॥ १०४ ॥ गोस्तत्पुरुषात् । ७ । ३ । १०५ । गवन्तात् तत्पुरुषादलुकोsट् स्यात् । राजगवी । तत्पुरुषादिति किम् ? चित्रगुः । अलुक इत्येव ! पञ्चगुः पटः ॥ १०५ ॥ राजन्-सखेः । ७ । ३ । १०६ । एतदन्तात् तत्पुरुषाद्द् स्यात् । पञ्चराजी, राजसखः॥ राष्ट्राSSख्याद् ब्रह्मणः । ७ । ३ । १०७ । राष्ट्रात परो यो ब्रह्मा, तदन्तात् तत्पुरुषादद् स्यात् । सुराष्ट्रब्रह्मः । राष्ट्राऽऽख्यादिति किम् ? देवब्रह्मा नारदः ॥ कु-महद्भ्यां वा । ७ । ३ । १०८ । आर्भ्यां परो यो ब्रह्मा, तदन्तात् तत्पुरुषादट् वा स्यात् । कुब्रह्मः, कुब्रह्मा । महाब्रह्मः, महाब्रह्मा ॥ १०८ ॥ ग्राम- कौटात् तक्ष्णः । ७ । ३ । १०९ । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५७९ ] आभ्यां परो यस्तक्षा, तदन्तात् त:पुरुषादद् स्यात् । ग्रामतक्षः, कौटतक्षः ॥ १०९ ।। गोष्ठाऽतेः शुनः। ७ । ३ । ११० । आभ्यां परो यः इवा, तदन्तात् तत्पुरुषादट् स्यात्। गोष्ठश्वः, अतिश्वो वराहः ।। ११० ।। प्राणिन उपमानात् । ७।३ । १११ । प्राण्यर्थादुपमानात् परो यः श्वा, तदन्तात् तत्पुरुषादद स्यात् । आकर्षश्वः। प्राणिन इति किम् ? फलकश्वा॥१११॥ _ अंपाणिनि । ७१३ । ११२। अपाण्यर्थ उपमानवाची यः श्वा, तदन्तात् तत्पुरुषाद स्यात। व्याघ्रश्वः । अप्राणिनीति किम् ? वानरश्वा ॥ पूर्वोत्तर-मृगाच्च सक्थ्नः । ७।३।११३ । एभ्य उपमानार्थाच परो यः सक्थिः , तदन्तात् तत्पुरुषादट् स्यात् । पूर्वसक्थम् , उत्तरसक्थम् , मृगसक्थम् , फलकसक्थम् ॥ ११३॥ उरसोऽग्र । ७।३ । ११४ । .. अगं मुखं प्रधानं वा। तदर्थो य उरम् तदन्तात् तत्पुरुषादट् स्यात् । अश्वोरसं सेनायाः, अश्वोरसं कविकम् ॥ ११४ ॥ सराऽनोऽश्मायसो जाति-नाम्नोः।७।३।११५। एतदन्तात् तत्पुरुषादट् स्यात् , यथासम्भवं जातावर्थे संज्ञाविषये च। जालसरसम् , उपानसम् , स्थूलाइमः, कालायसम् । जातिनाम्नोरिति किम् ? परमसरः ।। ११५ ॥ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८०] हेमशब्दानुशासनस्य अह्नः । ७।३।११६ । अहन्नन्तात् तत्पुरुषादद् स्यात् । परमाहः ॥ ११६ ।। स.ख्यातादहनश्व वा ।७३।११७॥ सङ्घयातात् परो योऽहा, तदन्तात् तत्पुरुषादटू स्यात् , असश्च वाह्नः। सङ्ख्याताह्नः, सङ्ख्याताहः ।। ११७ ॥ . सोश-सङख्याव्ययात् । ७।३।११८। सदिशार्थात् संख्यार्थादव्ययाच परो योऽहा, तदन्तात् तत्पुरुषादट् स्यात् , अहश्चातः । सर्वाह्नः, पूर्वाल, व्यतः पटः अत्यही कथा ॥ ११८॥ सङयातैक-पुण्य-वर्षा-दीर्घाच्च रात्रे रत् । ७।३। ११९ । . .. एभ्यः, सर्वांशादेश्च परो यो रात्रिः, तदन्तात् तत्पुरुषादत् स्यात् । सङ्ख्यातरात्रः, एकरात्रः, पुण्यरात्रः, वर्षारात्रः दीर्घरात्रः, सर्वरात्रः, पूर्वरात्रः, द्विरात्रः, त्रिरात्रः, अतिरात्रः ।। ११९ ॥ पुरुषायुष-दिस्ताव-त्रिस्ताबम् । ७।३ । १२० । एते तत्पुरुषा अदन्ता निपात्याः । पुरुषायुषम् , द्विस्तावा, त्रिस्तावा वेदिः ॥ १२० ॥ श्वसो वसीयसः । ७।३ । १२१ । श्वसः परो यो वसीयान् , तदन्तात् तत्पुरुषादत् स्यात् । श्वोवसीयसम् ॥ १२१ ॥ निसश्च श्चेयसः १७।३।१२२ । निसः श्वसश्च परो यः श्रेयान् , तदन्तात् तत्पुरुषा. दव स्यात् । निःश्रेयसम् , श्वाश्रेयसम् ॥ ११२ ॥ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५८१) नव्ययात् सङ्ख्याया डः।७।३ । १२३ । आभ्यां परो यः सङ्ख्यार्थः, तदन्तात् तत्पुरुषात डः स्यात् । अदशाः, निस्त्रिंशः खड्गः ॥ १२३ ॥ सङ्ख्याऽव्ययादइगुलेः। ७।३ । १२४ । .. आभ्यां परो योऽङ्गुलिः, तदन्तात् त-पुरुषात् डास्यात्। द्वयङ्गुलम् , निरङ्गुलम् ॥ १२४ ॥ बहुव्रीहेः काष्ठे टः । ७।३ । १२५ । काष्ठार्थादङ्गल्यन्ताद् बहुव्रीहेः टः स्यात् । द्वयङ्गलं काष्ठम् । काष्ठ इति किम् ? पश्चाङ्गुलिहस्तः ॥ १२५ ॥ सकत्थ्यक्ष्णः स्वाथे । ७।३ । १२६ । स्वाङ्गाथौँ यो सक्थ्यक्षी, तदन्ताद् बहुव्रीहेः टः स्यात् । दीर्घसक्थी, स्वक्षी। स्वाङ्ग इति किम् ? दीर्घसक्थि अनः ॥ १२६ ॥ . दिनों वा ७ । ३ । १२७ । आभ्यां परो यो मूर्द्धा, तदन्ताद् बहुव्रीहेः टो वा स्यात् । द्विमूर्द्धः, द्विमूर्दा । त्रिमूर्द्धः, त्रिमूर्दा ॥ १२७ ॥ प्रमाणी-सङ्ख्यात् डः । ७।३।१२८ । .. प्रमाण्यन्तात्, सङ्खयार्थाच्च बहुव्रीहेडः स्यात् । स्त्रीप्रमाणाः कुम्बिनः, द्वित्राः ॥ १२८ ॥ सुप्रात-सुश्व सुदिव-शारिकुक्ष--चतुरस्त्रैणीपदाऽजपद-प्रोष्ठपद-भद्रपदम् । ७।३ । १२९ । एते बहुव्रीहयो डान्तानिपात्याः ।सुप्रातो ना सुश्वः, सुदिवः, शारिकुक्षः, चतुरस्रः एणीपदः, अजपदः, प्रोष्ठपदः, भद्रपदः ॥ १२९ ॥ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८२] हैमशब्दानुशासनस्य पूरणीभ्यस्तत्प्राधान्येऽप् | ७ । ३ । १३० । पूरणप्रत्ययान्ता या स्त्री, तदन्ताद् बहुव्रीहेरप् स्यात्, पूरण्याः प्राधान्ये समासार्थत्वे सति । कल्याणीपश्चमा रात्रयः । तत्प्राधान्य इति किम् ? कल्याणपञ्चमीक: पक्षः ॥ १३०॥ नसु-व्युप त्रेश्चतुरः । ७।३ । १३१ । एभ्यो यश्चत्त्वाः, तदन्ताइ बहुव्रीहेरपू स्यात् । अचतुरः, सुचतुरः, विचतुरः, उपचतुराः, त्रिचतुराः ॥१३१॥ अन्तर-बहिभ्यो लोम्नः । ७।३।१३२ । आभ्यां परो यो लोमा, तदन्ताद् बहुव्रीहेरप् स्यात्। अन्तर्लोमः, बहिर्लोमः प्रावारः ।। १३२ ।। । भात् नेतुः । ७।३ । १३३ । __ नक्षत्रार्थात् परो यो नेता, तदन्ताद् बहुव्रोहेरपू स्यात् । मृगनेत्रा निशा ॥ १३३ ।। नाभेर्नाम्नि । ७।३।१३४ । नाभ्यन्ताद् बहुव्रीहेर्नाम्न्यप् स्यात् । पद्मनाभः । नानीति किम् ? विकसितनारिजनाभिः ॥ १३४॥ नम् बहोमचो माणव-चरणे । ७ । ३ । १३५ । आभ्यां परो य ऋक्, तदन्ताद् बहुव्रीहेरपु स्यात् । यथासङ्ख्यं माणवे चरणे चार्थे । अनुचो मागवः बह. चश्चरणः । मागवचरण इति किम् ? अन साम, बहवृकं सूक्तम् ॥ १३५ ॥ नज-स-दुर्यः सक्ति-सक्त्यि-हलेवा। ७ । ३ । १३६ । Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ५८३ ] नत्रादेः परो यः सक्त्थ्यादिः तदन्ताद् बहुव्रीहेर‍ (वा ?) स्यात् । असक्तः, असक्तिः । सुसक्तः सुसक्तिः । दुःसक्तः, दुःसक्तिः । एवमसक्त्थः, असक्त्थिः । अहलः, अहलिः ॥ १३६ ॥ प्रजाया अस् । ७ | ३ | १३७ | नजादिपूर्वपदात् प्रजान्ताद्बहुव्रीहेरम् स्यात् । अप्रजाः, सुप्रजाः, दुःप्रजाः ॥ १३६ ॥ मन्दाऽल्पाच्च मेधायाः । ७ । ३ । १३८ । आभ्यां नजादिभ्यश्च परो यो मेधाशब्दः, तदन्ताद् बहुव्रीहेरस स्थात | मन्दमेधाः अल्पमेधाः अमेधाः, सुमेधाः, दुर्मेधा ना ॥ १३८ ॥ जातेरीयः सामान्यवति । ७ । ३ । १३९ । जात्यन्ताद्बहुव्रीहेरीयः स्यात् सामान्याश्रयेऽन्यपदार्थे । ब्राह्मणजातीयः । सामान्यवतीति किम् ? बहुजातिर्ग्रामः ॥ ३९ ॥ भृतिप्रत्ययात् मासाद इकः | ७ | ३ | १४० | भृत्यर्थाद् यः प्रत्ययस्तदन्तात् परो यो मासः, तदन्ताद् बहुव्रीहेरिकः स्यात् । पञ्चको मासोऽस्य पञ्चकमासिकः । मासादिति किम् ? पञ्चकदिवसकः ॥ १४० ॥ द्विपदाद् धर्मादन् । ७ । ३ । १४१ | धर्मान्ताद् द्विपदाद्बहुव्रीहेरन् स्यात् । साधुधर्मा । द्विपदादिति किम् ? परमस्वधर्मः ॥ १४१ ॥ सु- हरित तृण-सोमात् जम्भात् | ७ | ३ | १४२ | Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८४] हेमशब्दानुशासनस्य एभ्यः परो यो जम्भस्तदन्ताद् बहुव्रीहेरन् स्यात् । सुजम्मा, हरितजम्मा, तृणजम्भा, सोमजम्भा ना ॥ दक्षिणेर्मा व्याधयोगे ।७। ३ । १४३ । अयं बहुव्रीहिरनन्तो निपात्यः, व्याधेन योगे सति । ईम बहु व्रणं वा । दक्षिणेर्मा मृगः। व्याधयोग इति किम् ? दक्षिणेमः पशुः॥ १४३॥ सु-पूत्युत्-सुरभेर्गन्धाद् इद् गुणे । ७।३। १४४ । एभ्यः परो गुणार्थो यो गन्धः तदन्ताद् बहुव्रीहेरिद स्यात् । सुगन्धि, पूतिगन्धि उद्गन्धि, सुरभिगन्धि द्रव्यम् । गुण इति किम् ? द्रव्ये, सुगन्ध आपणिकः ॥ वाऽऽगन्तौ । ७ । ३ । १४५ । ____ स्वादिभ्यः पर आहार्यगुणार्थो यो गन्धः तदन्ताद् व. हुवीहेरिद् वा स्यात् । सुगन्धिः, सुगन्धो वा कायः । एवं पूतिगन्धिः पूतिगन्धः । उद्गन्धिः उद्गन्धः । सुरभिगन्धिः सुरभिगन्धः ।। १४५ ।। वाऽल्पे । ७।३।१४६ । । अल्पार्थो यो गन्धः, तदन्ताद बहुव्रीहेरिद् वा स्यात् । सूपगन्धि, सूपगन्धं भोजनम् ।। १४६ ॥ वोपमानात् । ७।३। १४७। उपमानात् परो यो गन्धः, तदन्ताद् बहुव्रीहेरिद वा स्यात् । उत्पलगन्धि, उत्पलगन्धं मुखम् ॥ १४६ ॥ पात् पादस्याऽहस्त्यादेः । ७ । ३ । १४८ । Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८५] स्त्रोपज्ञलघुवृत्तिः . हस्त्यादिवर्जादुपमानात् परस्य बहुव्रीहो पादस्य पाद स्यात् । व्याघ्रपात । अहस्स्यादेरिति किम् ? हस्तिपादा, अश्वपादः ॥ १४८ ॥ कुम्भपद्यादिः । ७।३ । १४९ । . एते कृतपदन्ता यन्ता एव बहुव्रीहयो निपात्याः। कुम्भपदी, जालपदी ॥ १४९ ।। सु-सङ्ख्यात् । ७।३ । १५० । सो सङ्ख्यायाश्च परस्य पादस्य बहुव्रीहो पात् स्यात। सुपाद् , द्विपात् ॥ १५० ॥ .. वयसि दन्तस्य दतः। ७।३ । १५१ । सुपूर्वस्य सख्यापूर्वस्य च दन्तस्य बहुव्रीही वयसि गम्ये दतः स्यात् । सुदन कुमारः, द्विदन् बालः। वयसीति किम् ? सुदन्तः॥ १५१ ॥ . स्त्रियां नाम्नि । ७।३ । १५२ । बहुव्रीहौ स्त्रियां नाम्नि दन्तस्य दतः स्यात् । अयो. दती । स्त्रियामिति किम् ? वज्रदन्तः ॥ १५२ ॥ श्याचारोकादा। ७।३ । १५३ । .. आभ्यां परस्य दन्तस्य बहुव्रीहौ दतृ स्यात, नाम्नि। श्यावदन् , श्यावदन्तः । अरोकदन् , अरोकदन्तः ॥१५३॥ वाध्यान्त-शुद्ध-शुभ्र वृष-वराहा हि-मूषिक-शिख रात् । ७।३। १५४ । अग्रान्तात , शुद्धादिभ्यश्च परस्य दन्तस्य बहुव्रीही दतर्वा स्यात् । कुड्मलाग्रदन , कुड्मलाग्रदन्तः । शुद्धदन, Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८६] हेमशब्दानुशासनस्य शुद्धदन्तः । शुभ्रदन् , शुम्रदन्नः । वृषदन , वृषदन्तः । वराहदन , वराहदन्तः । अहिदन् , अहिदन्तः। मूषि. कदन् , मूषिकदन्तः। शिखरदन , शिखरदन्तः ॥ १५४॥ सं-प्रात् जानोर्ड-ज्ञौ । ७।३।१५५ । आभ्यां परस्य जानोरहुवोही जुज्ञो स्याताम् । संजुः, संज्ञः। प्रजुः, प्रज्ञः ॥ १५५ ।। वोति । ७।३ । १५६ । ऊर्ध्वात् परस्य जानोर्यहुव्रीही जुज्ञौ वा स्याताम् । ऊर्ध्वचः, ऊर्ध्वज्ञः, ऊर्ध्वजानुः ॥ १५६ ॥ . सुहृद्-दुई मित्राऽमित्रे ।७।३ । १५७ । ___सुदुा परस्य हृदयस्य बहुव्रीही यथासंख्यं मित्रेऽ. मित्रे चार्थे हृद् निपात्यः। सुहृन मित्रम् । दुईद् अमित्रः । मित्रामित्र इति किम् ? सुहृदयो मुनिः, दुहृदयो व्याधः॥ __ धनुषो धन्वन् । ७।३ | १५८ । बहुव्रीहौ स्यात् । शार्ङ्गधन्वा ॥ १५८॥ . वा नाम्नि । ७।३।१५९ । धनुषो बहुव्रीहौ धन्वन् वा स्यात् , नाम्नि । पुष्पधन्वा, पुष्पधनुः ॥ १५९ ॥ खर-खुरात् नासिकाया नम् । ७।३ । १६० । आभ्यां परस्या नासिकाया बहुव्रीही नस् स्यात् , नाम्नि । खरणाः, खुरणाः ॥ १६०॥ अस्थूलाच नसः।७।३ । १६१ । Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५८७) स्थूलवर्जात् खरखुराभ्यां च परस्या नासिकाया बहु. ब्रीही नसःस्यात्, नाम्नि गुणसः, खरणसः, खुरणसः। अस्थूलादिति किम ? स्थूलनासिकः ॥ १६१ ॥ उपसर्गात् । ७।३।१६२ । अस्मात् परस्या नासिकाया बहुव्रीही नसः स्यात् । प्रणसं मुखम् ॥ १६२ ॥ वेः खु-ख-अम् ७।३ । १६३ । वेरुपसर्गात् परस्या नासिकाया पहुव्रीहावेते स्युः। विखुः, विरवः, विग्रः ॥ १६३ ॥ जायाया जानिः। ७।३ । १६४ । जायाशब्दस्य जानिहुव्रीहो स्यात् । युवजानिः ।। व्युदः काकुदस्य लुक । ७ । ३ । १६५ । आभ्यां परस्यास्य बहुव्रीहो लुक् स्यात् । विकाकुत्, उत्काकुत् ॥ १६५ ॥ पूर्णाद् वा । ७ । ३ । १६६ । पूर्णात परस्य काकुदस्य बहुबी हो लुग् वा स्यात । पूर्णकाकुत , पूर्णकाकुदः ।। १६६ ।। ककुदस्याऽवस्थायाम् । ७।३ । १६७। अस्य बहुव्रीही वयसो गम्ये लुक् स्यात् । पूर्णककुद् युवा, अककुद् बालः ॥ १६७ ॥ 'त्रिककुद् गिरौ । ७ । ३ । १६८। १ त्रिणि ककुदाकाराणि शिखराण्यस्य त्रिककुद्, पर्वतविशेषः यो दक्षिणदेशेऽस्ति, उत्तररामचरित्रेऽपि वर्णितः । Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८८] हैमशब्दानुशासनस्य - गिरावर्थे त्रेः परस्य ककुदस्य बहुव्रीही ककुन्निपात्यः। . त्रिककुद् गिरिः ॥ १६८ ॥ . स्त्रियामधसो न् । ७।३ । १६९।। स्यर्थस्योधसो बहुव्रीही न स्यात् । कुण्डोनी गौः॥ इनः कच् । ७।३ । १७०। .. इन्नन्ताद् बहुव्रीहेः स्यर्थात् कच् स्यात् । बहुदण्डिका सेना ।। १७० ॥ ... . . ऋत्-नित्यदितः।७।३।१७१।..... ऋदन्तात्, नित्यं दिदादेशो यस्मात् , तदन्ताच्च बहुव्रीहेः कञ् स्यात्। बहुकर्तृकः। बहुनदीको देशः । नित्येति किम् ? पृथुश्रीः ॥ १७१ ॥ दध्युरस-सर्पिष्-मधूपानत्-शालेः ।७।३।१७२। एतदन्ताद् बहुव्रीहे. कच् स्यात् । प्रियदर्धिकः, प्रियो रस्कः, बहुसपिकः, अमधुकः, बहूपानत्कः, अशालिकः।। पुमनडुत्-नौ-पयो-लक्ष्म्या एकत्वे |७३।१७३। एकार्थी येऽमी, तदन्ताद् बहुबोहे: कच् स्यात् । अपुंस्कः, प्रियानडुत्कः, अनौकः, अपयस्कः, सुलक्ष्मीकः । एकत्व इति किम् ? द्विपुमान् ।। १७३ ॥ नत्रोऽर्थात् । ७।३ । १७४ । नञः परो योऽर्थः तदन्ताद् बहुव्रीहेः कच् स्यात् । अनर्थकं वचः ॥ १७४ ।। शेषादा । ७।३ । १७५ । उपर्युक्तातिरिक्ताद् बहुव्रीहेः कच् वा स्यात् । बहुखट्वकः, बहुखट्वः। शेषादिति किम् ? प्रियपथः ॥१७५।। Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५८९] न नाम्नि । ७।३।१७६ । नाम्नि विषये कच् न स्यात् । बहुदेवदत्तो नाम ग्रामः ॥ १७६ ॥ ईयसोः । ७ । ३ । १७७। . ईयस्वन्नात् समासात् कच् न स्यात् । बहुश्रेयसी सेना ॥ १७७ ॥ - सहात तुल्ययोगे । ७।३ । १७८ । तुल्ययोगार्थात् सहाद् बहुव्रीहेः कच् न स्यात् । सपुत्रो याति । तुल्ययोग इति किम् ? सकर्मकः ॥१७८॥ भ्रातुः स्तुतौ । ७।३ । १७९ । भ्रान्तात् समासात् कच् न स्यात्, स्तुतौ गम्यायाम् । सुभ्राता ॥ १७९ ॥ नाडी-तन्त्रीभ्यां स्वाङ्गे । ७।३ । १८० । . स्वाङ्गार्थात नाडीतन्त्र्यन्तात् समासात् कच् न स्यात। बहुनातिः कायः, बहुतन्त्री ग्रीवा। स्वाङ्ग इति किम् ? बहुनाडीक स्तम्बः ॥ १८० ॥ निष्प्रवाणिः । ७।३। १८१ । 'अस्मिन् कजभावो निपात्यः । निष्प्रवाणिः पटः॥१८१।। सुभ्रवादिभ्यः । ७ । ४ । १८२ । एभ्यः कच् न स्यात् । सुभ्रूः, वरोरूः ॥ १८२ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभि. धानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ सप्तमस्या. ध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ॥७॥३॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थः पादः ॥ वृद्धिः स्वरेष्वादेति तद्धिते | ७|४|१| ञिति णिति च तद्धिते परे प्रकृतेः स्वराणां मध्ये आयस्वरस्य वृद्धिः स्यात् । दाक्षिः, भार्गवः । तद्धित इति किम १ चिकीर्षकः ॥ १ ॥ केकय मित्रयु प्रलयस्य यादेरि च |७|४| २ | एषां तद्वि स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिः, यादेयांशस्येय् स्यात् । कैकेयः, मैत्रेयिकया इलाघते, प्रालेयं हिमम् ॥ २ ॥ देविका शिशपा-दीर्घसत्र-श्रेयसस्तंत् प्राप्ता वाः । ७ । ४ । ३ । एषां स्वरेष्वादेः स्वरस्य णिति तद्धिते वृद्धिप्राप्तावाः स्यात् । दाविकं जलम्, शशिपः स्तम्भः दार्घसत्रम्, श्रायसं द्वादशाङ्गम् । तत्प्राप्ताविति किम् ? सौदेविकः ॥ वेहीनरस्यैत् । ७ । ४ । ४। अस्य निति तद्धिते स्वरेष्वादेः स्वरस्यैः स्यात् । हरिः ॥ ४ ॥ खः पदान्तात् प्रागैौत् । ७ । ४ । ५ । णिति तद्धिते इवर्णो वर्णयोर्बुद्धिप्राप्तौ तयोरेव स्थाने यो वौ पदान्तौ ताभ्यां पाक् यथासङ्घयमैशैतौ १' वृद्धिः स्वरेष्वादेगिति तद्धिते" इति साधारणसूत्रावहितां यादिस्वरस्य वृद्धि वावित्वात्र ऐर्विहितः अपत्याद्यर्थे इञ् प्रत्ययः । Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५९१] स्याताम, नैयायिकः, सौवश्वः । पदान्तादिति किम् ? यत इमे याताः ॥ ५॥ दारादेः । ७।४।६। एषां यो य्वौ तयोः समीपस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिप्राप्तो ताभ्यामेव प्रांगदोतो स्याता, णिति तद्धिते । दौवारिका, सौवरो ग्रन्थः ॥ ६ !! न्यग्रोधस्य केवलस्य । ७ । ४ । ७। अस्य केवलस्य यो यः, तत्सम्बन्धिनः स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिप्रासो तस्मादेव यः, प्रागैत् स्यात् , णिति तद्धिते । नैयग्रोधो दण्डः । केवलस्येति किम् । न्यानो धमूलाः शालयः ॥ ७॥ न्यकोर्वा । ७।४।८। न्यङ्कोस्तद्धित णिति यः प्रागैद्वा स्यात् । नैयतवम् , न्याङ्कवम् ॥ ८॥ नज-स्वाङ्गाऽऽदेः । ७।४।९।। ... बान्तस्य स्वाङ्गादेश्च मिति तद्धिते स्वः प्रागैदौती न स्याताम् । व्यावक्रोशी, स्वाङ्गिः, व्याङ्गिः ॥ ९ ॥ ... वादेरिति । ७।४।१०। श्वादिरवयवो यस्य, तस्येदादौ णिति तद्धिते वः प्रागौर्न स्यात्। श्वाभस्त्रिः। इतीति किम् ? शौवहानम् ॥ इनः । ७ । ४ । ११ । इअन्तस्य इवादेफ्रिति तद्धिते वः प्रागौर्न स्यात् । श्वाभस्त्रम् ॥११॥ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५९२] हेमशब्दानुशासनस्य पदस्यानिति वा । ७।४ । १२ । पदशब्दान्तस्य श्वादेरिदादिवर्जे णिति तद्धिते वः प्रागौद् वा स्यात् । श्वापदन , शौवापदम् । अनितीति किम् ? श्वापदिकः ॥ १२ ॥ प्रोष्ठ-भद्राज्जाते । ७।४।१३। । आभ्यां परस्य पदस्योत्तरपदस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य जातेऽर्थे णिति तद्धिते वृद्धिः स्यात् । प्रोष्ठपादः, भद्र. पादो घटुः ॥ १३ ॥ ... अंशाद् ऋतोः । ७।४ । १४ । __ अंशार्थात परस्य ऋत्वर्थस्योत्तरपदस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य णिति तद्धिते वृद्धिः स्यात् । पूर्ववार्षिकः । अंशादिति किम् ? सौत्रर्षिकः ॥ १४ ॥ ... सु-सर्वादि राष्ट्रस्य । ७।४।१५। एभ्यः परस्य राष्ट्रार्थोत्तरपदस्य किंगति तद्धिते स्वरेः ध्वादेः स्वरस्य वृद्धिः स्यात् । सुपाचालका, सर्वपाश्चालकः, अर्धपाश्चालकः ॥ १५ ॥ अमद्रस्य दिशः। ७१४ । १६ । . दिगर्थात् परस्य मद्रवर्जराष्ट्रार्थस्य णिति तद्धिते स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिः स्यात् । पूर्वपाश्चालिकः। अमद्र स्येति किम् ? पौर्वमद्रः ॥ १६ ॥ प्राग्ग्रामाणाम् । ७ । ४ । १७ । प्राग्देशे ग्रामार्थानां यः अंशो दिगर्थस्ततः परस्यांशस्य, दिशः परेषां च प्राग्ग्रामार्थानां गिति तद्धिते स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिः स्यात् । पूर्वकार्ण मृतकः । पूर्वकान्यकुब्जः॥ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५९३] . सख्याधिकाभ्यां वर्षस्याऽभा विनि । ७।४।१८॥ सङ्ख्यार्थाद् अधिकाच्च परस्य वर्णस्य णिति तद्धिते स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिः स्यात्, न चेत् तद्धिती भाविन्यर्थे। द्विवार्षिकः। अधिकवार्षिकः। अभाविनीति किम् ? द्वैवार्षिकं धान्यम् ॥ १८ ॥ मान-संवत्सरस्याऽशाण-कुलिजस्याऽ नाम्नि । ७। ४ । १९ । सङ्ख्यार्थाधिकाभ्यां परस्य शाणकुलिजवर्जस्य मानार्थस्य, संवत्सरस्य च णिति तद्धिते स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिः स्यात्, अनाम्नि । द्विकौडविका, अधिककौडविकः, द्विसांवत्सरिकः । अशाणकुलिजस्येति किम् ? द्वैशाणम् , द्वैकुलिजिकः। अनाम्नीति किम् ? पाश्चलोहितिकम् ॥ १९ ॥ अर्द्धात् परिमाणस्याऽनतो वा'लादेः।७।४।२०। अर्धात् परस्य परिमाणार्थस्य स्वरेष्वादेरवर्जस्वरस्थ जिणति तद्धिते वृद्धिः स्यात, वा त्वर्द्धस्य । अर्द्धकौडवि. कम्, आर्द्धकौडविकम् । अनत इति किम् ? अर्द्धप्रस्थिकम् , आर्द्धप्रस्थिकम् ॥ २०॥ . ___पाद् वाहणस्यैये । ७ । ४ २१ । प्रात् परस्य वाहणस्य एये णिति तद्धिते स्वरेष्वादेवृद्धिः स्यात्, प्रस्य तु वा । प्रवाहणेयः, प्रावाहणेयः॥२१॥ १ परिमाणवाचिशब्दात् पूर्वस्थस्यार्धशब्दस्य तु बिकल्पतो वृद्धिरित्यर्थः। Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५९४] हैमशब्दानुशासनस्य एयस्य । ७। ४ । २२ । एयान्तांशात प्रात् परस्य वाहणस्य णिति तद्विते स्वरेष्वादेर्वृद्धिः स्यात् , प्रस्य तु वा। प्रवाहणेयिः, प्रावा. हणेयिः ॥ २२ ॥ नञः क्षेत्रज्ञेश्वर-कुशल-चपल-निपुण शुचेः । ७।४। २३ । नत्रः परेषां एषां णिति तद्धिते स्वरेष्वादेवृद्धिः स्यात् , नअस्तु वा । अक्षैत्रज्ञम् , आक्षेत्रज्ञम् । अनैश्वरम्, आनैश्वरम्। अकौशलम् , आकौशलम्। अचापलम् , आचापलम् । अनैपुणम् , आनैपुणम् । अशौचम् , आशौचम् ॥ २३॥ जङ्गल-धेनु-वलजस्योत्तरपदस्य तु वा ७ । ४ । २४ । एतदुत्तरपदानामादेः पूर्वपदस्य स्वरेष्वादेनित्यं वृद्धिः स्यात् , वा तूत्तरपदस्य णिति तद्विते । कौरुजङ्गाला, कौरुजाङ्गलः । वैश्वधेनवः, वैश्वधैनवः। सौवर्णवलजः, सौवर्णवालजः ॥ २४ ॥ हृद्-भग-सिन्धोः । ७ । ४ । २५ । हृदाद्यन्तानां पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च स्वरेष्वादेवृद्धिः स्यात्, णिति तद्धिते। सौहाईम् सौभाग्यम् , साक्तुसन्धवः ॥ २५ ॥ प्राचां नगरस्य । ७ । ४ । २६ । ___ प्राग्देशार्थस्य नगरान्तस्य णिति तद्धिते पूर्वोत्तरपदयोः स्वरेष्वादेवृद्धिः स्यात् । सौह्मनागरः। प्राचामिति Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५९५] किम् ? माडनगरः ॥ २६ ॥ अनुशतिकाऽऽदीनाम् । ७।४।२७। एषां णिति तद्विते पूर्वोत्तरपदयोः स्वरेष्वादेर्वृद्धिः स्यात् । आनुशातिकम् , आनुहौडिकम् ॥ २७ ॥ देवतानामात्वाऽऽदौ । ७ । ४ । २८ । आत्वविषये देवतार्थानां पूर्वोत्तरपदयोः स्वरेष्वादेवृद्धिः स्यात, णिति तद्धिते। आग्नावैष्णवं सूक्तम् । आत्वादाविति किम् ? ब्राह्मप्रजापत्यम् ।। २८ ॥ आतो नेन्द्र-वरुणस्य । ७।४ । २९ । आदन्तात् पूर्वपदात् परस्येन्द्रस्य वरुणस्य चोत्तरपदस्य स्वरेष्वादेर्वृद्धिन स्यात् । आग्नेन्द्रं सूक्तम् , ऐन्द्रावरुणम् । आत इति किम् ? आग्निवारुणम् ॥ २९ ॥ सारपेक्ष्वाक-मैत्रेय-भ्रौणहत्य-धैवत्य-हि रण्मयम् । ७।४।३०। एतेऽणाद्यान्ता अय्लोपादौ निपात्याः। सारवं जलम् , ऐक्ष्वाकः, मैत्रेयः, भ्रौणहत्यम् , धैवत्यम् , हिरण्मयम् ॥ ३० ॥ 'वाऽन्तमाऽन्तितमाऽन्तितस्--अन्तियाऽन्ति षत् । ७ । ४ । ३१ । एते तमबाद्यन्ताः कृततिकादिलुको वा निपात्याः । अन्तमः, अन्तिकतमः। अन्तितमः, अन्तिकतमः। अन्ति. तः, अन्तिकतः । अन्तियः, अन्तिक्यः। अन्तिषद्, अ. न्तिकसद् ॥ ३१॥ १ एते सर्वेऽन्तिकशब्दस्यैव रूपाणि पृथक्पृथगर्थप्रत्ययेषु भवन्ति । Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५९६] हैमशब्दानुशासनस्य 'विन-मतोर्णीष्ठेयसौ लुप् । ७ । ४ । ३२ ।। विन्मस्वोरेषु लुप् स्यात् । स्त्रजयति, रजिष्टा, स्रजी. यान, स्वचयति, त्वचीष्टः, त्वचीयान् ॥ ३२ ॥ अल्प-यूनोः कन् वा । ७।४ । ३३ । अनयोर्णीष्ठेयसुषु कन् वा स्यात् । कनयति, कनिष्ठः,. कनीयान् । अल्पयति, अल्पिष्टः, अल्पीयान् । यवयति, यविष्ठा, यकीयान् ॥ ३३ ॥ प्रशस्यस्य श्रः।७।४।३४। अस्य ण्यादौश्रः स्यात्।श्रयति,श्रेष्ठः, श्रेयान् ॥३४॥ वृद्धस्य च ज्यः । ७।४।३५॥ अस्य प्रशस्यस्य च ण्यादी ज्या स्यात् । ज्ययति, ज्येष्ठः ॥ ३५॥ ___ ज्यायान। ७।४।३६ । ज्यादेशात् परस्येयसोरीत आ. निपात्यः । ज्यायान् ॥ ३६ ॥ बादान्तिकयोः साधनदौ ।७।४ । ३७ । - अनयोादी यथासङ्ख्यमेतौ स्याताम् । साधायति, साधिष्ठा, साधीयान् । नेदयति, नेदिष्ठ नेदीया ॥३७॥ प्रिय-स्थिर-स्फिरोरु-गुरु-बहुल-तृप्र-दीर्घवृद्ध-वृन्दारकस्येमनि च प्रा-स्था-स्फा-वर-गरबंह-त्रप द्राघवर्षे वृन्दम् । ७।४ । ३८ । . , " अस-तपस-माया-मेधा-स्रजो विन् " (७-२-४७) सूत्राद् विन् , मतुश्चास्त्यर्थे भवति । तयो, णि-इष्ठ-ईयसुप्रत्ययेषु परेषु लुप् स्यात् । स्रग्विणमाचष्टे सूजयति, अत्र णौ परे विनो लुप् । स्रजिष्ठः, सजीयान् इत्यत्र क्रमश इष्ठे ईयसौ च परे क्लिो लुप जातः । त्वचयतीत्यादिषु च मतोलप् सम्पन्नः। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ५९७ ] प्रियादीनां यथासंभव मिमनि ण्यादौ च यथासङ्ख्यमेते स्युः । प्रेमा, प्रापयति, प्रेष्ठः, प्रेयान्, स्थेमा, स्थापयति, स्थेष्ठः, स्थेयान् स्फापयति, वरिमा, गरिमा, बंहिमा, पिमा, द्राधिमा, वर्षिमा, वृन्दिमा ॥ ३८ ॥ पृथु-मृदु-भृश- कृश-दृढ- परिवृढस्य तो रः । ७ । ४ । ३९ । एषामृत इम्नि ण्यादौ च रः स्यात् । प्रथिमा, प्रथयति, प्रथिष्ठः, प्रधीयान् । एवं प्रदिमा, मा, द्रढिमा, परिवढिमा ॥ ३९ ॥ अशिमा, ऋशि बहोर्णोष्ठे भूय् । ७ । ४ । ४० । भूययति, भूयिष्ठः ॥ ४० ॥ भूर्लुक्वेवर्णस्य | ७ | ४ | ४१ । बहोरीयसाविनि च भूः स्यात्, लुक् चाग्नयोरिवर्णस्य । भूयान् भूमा ॥ ४१ ॥ 1 स्थूल- दूर- युव-हस्व - क्षिप्रक्षुद्रस्यान्तस्थाऽऽदेर्गुणश्च नामिनः । ७ । ४ । ४२ । एषामिनि ण्यादौ चान्तस्थादेरंशस्य लुक् स्यात्, नामिनश्च गुणः । स्थवयति, स्थविष्ठः स्थवीयान् । एवं दवयति, यवयति, यविष्ठः, हसिमा क्षेपिमा, क्षोदिमा ॥ ४२ ॥ 1 त्रन्त्य- स्वराऽऽदेः । ७ । ४ । ४३ । तुरन्त्यस्वरादेश्चांशस्येम्नि ण्यादौ च लुक् स्यात् । केरयति, करिष्ठः, करीयान् पटिमा, पटयति, पटिष्ठः, १ कर्तृमम्तमाचष्टे इति णौ परे करयति, 'तृ' इत्यस्य लुक् । .. Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _[५९८] हैमशब्दानुशासनस्य पटीयान् ॥ ४३॥ नैकस्वरस्य । ७ । ४ । ४४ । एकस्वरस्य योऽन्त्यस्वरादिरंशः तस्येम्नि ण्यादौ च लुक् न स्यात् । स्रजयति, रजिष्ठः, सजीयान् ॥ ४४ ॥ दण्डि-हस्तिनोरायने । ७।४।४५ । अनयोरायनप्रत्ययेऽन्त्यस्वरादेलुगू न स्यात । दाण्डिनायना, हास्तिनायनः ॥ ४५ ॥ वाशिन आयनौ । ७।४।४६ । . . अन्स्यस्वरादेलुंग् न स्यात् । वाशिनायनिः ॥४६॥ एये जिह्माशिनः। ७।४ । ४७ । अन्त्यस्वरादे ग न स्यात् । जैमाशिनेयः ॥ ४७ ॥ इनेऽध्याऽऽत्मनोः।७। ४ । ४८ । अन्त्यस्वरादेलंग न स्यात् । अध्वनीना, आत्मनीन: ॥४८॥ इकण्यथर्वणः । ७ । ४ । ४९। अन्त्यस्वरादेलग् न स्यात् । आथर्वणिकः ॥ ४९ ॥ यूनोऽके । ७।४ । ५०। अन्तगस्वरादेर्लंग न स्यात् । यौवनिका ॥ ५० ॥ अनोष्ट्ये ये । ७।४। ५१ । अन्नन्तस्य टयवर्जे यादावन्त्यस्वरादे ग न स्यात् । सामन्यः, वैमन्यः, मूद्धन्यः। अव्य इति किम् ? राज्यम् ॥५१॥ . अणि । ७ । ४ । ५२ । अन्नन्तस्याऽणि अन्त्यस्वरादे ग् न स्यात् । सौत्वनः॥५२।। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [५९९) ___संयोगाद् इनः । ७। ४ । ५३ । संयोगात् परो य इन् , तदन्तत्स्याऽण्यन्त्यस्वरादेलुंग् न स्यात् । शाखिनः ॥ ५३॥ गाथि-विदथि-केशि-पणि-गणिनः । ७।४।५४ । एषामण्यन्त्यस्वरादे ग न स्यात् । गाथिनः, वैदथि. नः, कैशिनः, पाणिनः, गाणिनः पुत्रः ॥ ५४ ॥ अनपत्ये । ७।४। ५५ । .. इन्नन्तस्याऽनपत्यार्थेऽण्यन्त्यस्वरादे ग न स्यात् । सांराविणम् ॥ ५५ ॥ उक्ष्णो लुक् । ७।४।५६ । उक्ष्णोऽनपत्येऽण्यन्त्यस्वरादेर्लुक् स्यात् । औक्षं पदम् । अनपत्य इत्येव ? औक्षणः ॥ ५६ ॥ ब्रह्मणः । ७।४।५७ । . अस्याऽनपत्येऽण्यन्त्यस्वरादेर्लक् स्यात् । ब्राह्ममस्त्रम् ॥५७ ॥ जातौ । ७।४।५८। ब्रह्मणो जातावर्थेऽनपत्येऽण्यन्त्यस्वरादे क् स्यात् । ब्राह्मी औषधिः । अपत्ये तु ब्राह्मणः । जाताविति किम् ? ब्राह्मो नारदः॥ ५८॥ अचर्मणो मनोऽपत्ये । ७।४ । ५९ । चर्मन्वर्जमन्नन्तस्याऽपत्यार्थेऽण्यन्यस्वरादे क् स्यात्। सौषामः । अचर्मण इति किम् ? चाक्रवर्मणः ॥ ५९॥ हितनाम्नो वा । ७।४।६।। अस्याऽपत्यार्थेऽपयन्त्यस्वरदेिलुंग वा स्यात् । हैतना. Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमशब्दानुशासनस्य नोऽपदस्य तद्धिते । ७ । ४ । ६१ । नन्तस्याऽपदस्य तद्विते परेऽन्त्यस्वरादेर्लुक् स्यात् । मैधावः । अपदस्येति किम् ? मेधाविरूप्यम् ॥ ६१ ॥ कलापि कुथु मि-तैतलि-जाजलि - लाङ्गलि- शिखण्डि - शिलालि-सब्रह्मचारि-पीठसर्पि- सूकरसद्य; सुपर्वणः । ७ । ४ । ६२ । [ ६०० ] मः, हैतनामनः ॥ ६० ॥ 1 एषामपदानां तद्धितेऽन्त्यस्वरादेर्लुक् स्यात् । कालापाः, कौथुमाः, तैतलाः, जाजला:, लाङ्गलाः, शैखण्डाः, शैलालाः । साम्रह्मचाराः, पैठसपः सौकरसद्माः, सौपर्वाः ॥ ६२ ॥ वाऽश्मनो विकारे । ७ । ४ । ६३ । अस्यापदस्य विकारार्थे तद्वितेऽन्त्यस्वरादेर्लुक् स्यात् वा । चश्मः, आश्मनः ॥ ६३ ॥ चर्म - शुनः कोश- सङ्कोचे । ७ । ४ । ६४ । अनयोरपदयोर्यथासङ्ख्यं कोशे सङ्कोचे चार्थे तद्वितेऽन्त्यस्वरादेर्लुक् स्यात् । चार्म्मः कोशः, शौवः सङ्कोचः ॥ ६४ ॥ प्रायो ऽव्ययस्य । ७ । ४ । ६५ । अपदस्यास्य तद्वितेऽन्त्यस्वरादेः प्रायो लुक् स्यात् । सौवः । प्रायः किम् ? आरातीयः ॥ ६५ ॥ अनीनादयोऽतः । ७ । ४ । ६७। ईन-अत्-अटूवर्जे तद्धितेऽपदस्याऽहोतो K लुक् Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्बोपनलघुत्तिः [६०१] स्यात् । आह्नम् । अनीनादटीति किम् ? यहीनः, प्रत्य हम, यहः ॥ ६६ ॥ विशतेस्तेर्डिति । ७। ४ । ६७ । अस्यापदस्य तेर्डिति तद्धिते लुक् स्यात् । विशकः पटः॥ ६७ ॥ अवर्णवर्णस्य । ७। ४ । ६८। एतदन्तस्यापदस्य तद्धिते लुक् स्यात् । दाक्षिा, चौडिः, नाभेयः, दौलेयः । अपदस्येति किम् ? अपर्णायुः॥ ॥ ६८॥ - अकद्रु-पाण्ड्वोरुवर्णस्यये । ७।४ । ६९ । एतद्व|वर्णान्तस्य एये तद्धिते लुक् स्यात्। जाम्बे. यः। कवादिवर्जनं किम् ? काद्रवेयः, पाण्डवेयः ॥६९॥ अस्वयम्भुवोऽव् । ७।४। ७०। - स्वयंभूव|वर्णान्तस्यापदस्य तद्धितेव् स्यात् । औपगवः । अस्वयम्भुव इति किम् ? स्वायम्भुवः ॥७॥ ऋवर्णोवर्ण-दोसिसुसू-अंशश्वदकस्मात्त इक स्येतो लुक । ७।४ । ७१ । दाक्षिः चौडिरित्यत्राऽवर्णस्य, नामेय इत्यत्र पूर्वकारस्य लग् जासः । एवमुत्तरसूत्रैः औपगवादिषूवर्णादीनामपि यथाप्राप्तं वेद्यम् । ___ २ शश्वदकस्मातौ तकारान्तौ स्तः, तौ मुक्त्वा तकारान्तात् ऋवर्णादिभ्यश्च परस्य तद्धितस्य इकप्रत्ययस्व लुक् स्यादित्यर्थः मातुरामतं मातृकमित्यत्र "ऋत इकण" (६-३-१५२) सूत्रादिकण इलोपः। निषादकष्वं भवो नैषादकर्षकः। दो तरति दौष्कः। मातृकमिति ऋवर्णान्तस्य, द्वितीयमुवर्णान्तस्य, तृतीयं दोसः, तुर्य इसन्तस्य, धानुष्क इति उसन्तस्य, औदश्वित्क इति च तान्तस्योदाहरणानि क्रमशः सन्ति । इकणो णित्त्वादादिस्वरस्य वृद्धिः । Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०२] हेमशब्दानुशासनस्य ऋवर्णोवर्णान्ताभ्यां दोसइस-उसन्ताम्यां शश्वदकस्मा दूर्जतान्ताच परस्येकस्थस्येतो लुक् स्यात्। मातृकम् , नैषादक कः, दौष्कः, सार्षिक धानुष्का, औदश्चिकः। शश्वदकस्मार्जनं किम्? शाश्वतिकम्, आकस्मिकम् ॥ असकृत् संभ्रमे । ७।४।७२। .. भयादिभिः प्रयोक्तुस्त्वरणे द्योत्ये पदं वाक्यं वाऽस. कृत् प्रयोज्यम् । अहिरहिरहिः, हस्त्यागच्छति हस्त्याग च्छति, लघु पलायध्वं लघु पलायध्वम् ॥ ७२ ॥ भृशाऽऽभीषण्याऽविच्छेदे दिः प्राक् तम बादेः । ७।४ ७३ । क्रियाया अवयवक्रियाणां कात्स्न्य भृशार्थः। पौनः पुन्य माभीक्ष्ण्यम्। क्रियान्तराव्यवधानमविच्छेदः । एषु द्योत्येषु पदं वाक्यं वा तमवादेः प्राग द्विः स्यात् । लुनीहि लुनीहीत्येवाज्यं लुनाति, भोजं भोज याति, प्रपचति प्रपचति ॥ ७३ ॥ नानाऽवधारणे । ७ । ४ । ७४ । . नानाभूतानामियत्तापरिच्छेदे गम्ये शब्दोद्विःस्यात। अस्मात् कार्षापणादिह भवद्भ्यां मार्षमापं देहि ।।७४॥ ___ आधिक्याऽऽनुपूर्ये । ७ । ४ । ७५। . एतदृत्ति द्विः स्यात् । नमो नमः, मूले मूले स्थूलाः॥ डतर-उतमौ समानां स्त्रीभावप्रश्ने ।७।४।७६ । केनचिद् गुगेन तुल्यानां स्त्रीलिङ्गभावस्य प्रश्ने वर्त.. मामो इतरडतमान्तो द्विः स्यात्। उभाविमावाढयो कतरा कतरा अनयोराढयता?, कतमा कतमा एषामा Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज़लघुवृत्तिः [६०३] ढयता। भावेति किम् ? उभाविमौ लक्ष्मीवन्तौ कतरानयोर्लक्ष्मीः १ ॥ ७६ ॥ पूर्व-प्रथमावन्यतोऽतिशये । ७ । ४ । ७७।। ____एतौ स्वार्थस्यान्यतः प्रकर्षे द्योत्ये द्विः स्याताम् । पूर्व पूर्व पुष्पन्ति, प्रथमं प्रथमं पच्यन्ते ॥ ७७ ॥ प्रोपोत्-सम् पादपूरणे । ७। ४ । ७८ । एते द्विः स्युश्चेत् पादः पूर्यः।। प्रप्रशान्तकषायाग्नेरुपोपप्लववर्जितम्। उदुज्ज्वलं तपो यस्य संसंश्रयत तं जिनम् ॥७८ सामीप्येऽधोऽध्युपरि । ७ । ४ । ७९ । . एते सामीप्येऽर्थे द्विः स्यात्। अघोऽधः, अध्यधि, उपर्युपरि ग्रामम् ॥ ७९ ॥ वोप्सायाम् । ७।४।८। अस्यां वर्तमानं द्विःस्यात् । वृक्षं वृक्षं सिञ्चति, ग्रामो ग्रामो रम्यः ॥ ८ ॥ .. प्लुप् चादावेकस्य स्यादेः । ७।४ । ८१ । ऐकस्य वीप्सायां द्वयुक्तस्याऽऽद्यस्य स्यादेः पित् लुप् स्यात् । एकैकस्याः ॥ ८१ ॥ एकशब्दस्य वीप्सायां द्विर्भूतस्य पूर्वेषामेकशब्दस्थानां त्यादीनां प्रत्ययानां पित्लुप् स्यात् । यथा-एकैकः, एकैकम् , एकैकाम् , एकैकस्य, एकैकस्या इति सर्वविभक्तिषु लुप् वा स्यात् । पित्त्वात् , पुंस्यपि स्यात् । विरामश्चेद् विवक्षितः पूर्वस्य पुंवद्भावे स्वरसंधिकार्य न, यथा-एकएका, एकएकस्याः, अग्रे अग्रे सूक्ष्माः। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०४] हेमशब्दानुशासनस्य द्वन्द्वं वा । ७। ४ । ८२। वीप्सायां द्वयक्तस्य द्वेरादेः स्यादेः पिल्लुप् स्यात् , एश्चाम, उत्तरत्रेतोऽत्वं स्यादेश्वाऽम् वा निपात्यः। द्वन्द्वं, द्वौ द्वौ वा लिष्ठतः ॥ ८२ ॥ रहस्य-मर्यादोक्ति-व्युत्क्रान्ति-यज्ञपात्रा प्रयोगे । ७।४ । ८३ । एषु गम्येषु द्वेर्विचनं शेषं च पूंवन्निपात्यम् । द्वन्द्वं मन्त्रयन्ते, पशवो द्वन्द्वं मिथुनायन्ते, द्वन्द्वं व्युत्क्रा न्ताः, द्वन्दं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति ।। ८३ ॥ लोकज्ञातेऽत्यन्तसाहचर्ये । ७। ४ । ८४ । अत्र द्योत्ये द्वेः पूर्ववत् द्वन्द्वमिति निपात्यम् , द्वन्द्वं रामलक्ष्मणौ ॥ ८४॥ आवाधे । ७।४। ८५। मनःपीडाविषये शब्दो द्विः स्यात् , आदौ स्यादेश्व पित् लुप् । ऋक् ऋक् ॥ ८५ ॥ नवा गुणः सदृशे रित् । ७।४ । ८६ । गुणशब्दो मुख्यसदृशे गुणे गुणिनि वा वर्तमानो द्विवा स्वात, आदौ स्यादेः पित् लुप् च, सा च रित् । शु. क्लशुक्लं रूपम् , कालककालिका । पक्षे शुक्लजातीयः ।। प्रियसुखं चाकृच्छ्रे । ७ । ४ । ८७ । १ पूर्वस्य द्विशब्दस्य स्यादिप्रत्ययानां प्लुप् स्यात् । पूर्वद्वेरिकारस्य च अम् उत्तरद्वेरिकारस्य अकारः, स्यादिप्रत्ययानां च अम् इति निपात्यते अतो द्वौ द्वौ . इत्यादिसप्तविभक्तिप्रयोगानां द्वन्द्वमिति सिध्यति। सप्तविभक्तिषु लिङ्गत्रये चैवं वा विज्ञेयं, पक्षे द्वौ द्वौ, द्वाभ्यां द्वाभ्यामित्यादि स्यात् । एवमुत्तरसूत्रेषु द्वन्द्वमनेनैव सूत्रेण साध्यम्। Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [६०५] . एतावक्लेशार्थों वा द्विः स्याताम् , आदौ स्यादेः पिल्लुप् च। प्रियप्रियेण, प्रियेण वा दत्ते। सुखसुखेन, सुखेन वाऽधीते ॥ ८७ ॥ . वाक्यस्य परिवर्जने । ७।४।८८ । वर्जनाओं वाक्यांशः परिवा द्विः स्यात्। परि परि परि वा त्रिगर्तेभ्यो वृष्टौ मेघः। वाक्यस्येति किम् ? परित्रिगर्त वृष्टो मेघः ॥ ८८ ॥ .. सम्मत्यसूया कोप-कुत्सनेष्वाद्यामन्त्र्यमादौ, स्वरेष्वन्त्यश्च प्लुतः । ७।४।८९। एतवृत्तेर्वाक्यस्याऽऽदिभूतमामन्त्र्यार्थ पदं द्विः स्यात् , द्वित्वे चाऽऽदौ स्वराणां मध्येऽन्त्यस्वरः प्लुतो वा स्यात् । माणवक ३ माणवक! , माणवक माणवक! आर्यः खल्वसि। 'रिक्तं ते आभिरूप्यम् , इदानीं ज्ञास्य. सि जाल्म!, रिक्ता ते शक्तिरिति वा । आदीति किम् ? भव्यः खल्वसि माणवक ! ॥ ८९॥ भर्त्सने पर्यायेण । ७ । ४ । ९० । कोपेन दण्डाऽविष्क्रिया भर्सनम् । तवृत्तेर्वाक्य. स्य यदामन्यं पदं तद् द्विः स्यात्, द्वित्वे च क्रमेण पूर्वोत्तरपदयोः स्वरेष्वन्त्यः प्लुतो वा स्यात् । चौर ३ चौ. र!, चौर चौर ३!, चौर चौर ! घातयिष्यामि त्वाम् ॥ ९० ॥ त्यादेः साऽऽकाङ्क्षस्याङ्गेन । ७।४ । ९१ । १ अत्रासूयार्थः । माणवक ३ इत्यादीह योज्यं पूर्ववत् । इदानीमित्वत्र कोपार्थः। रिक्ता इत्यत्र कुत्सनार्थः । एषु सर्वेषु पूर्ववत् माणवक ३ माणवक इत्यादि वा पुनर्वाच्यम् । त्रिमात्रः प्लुतः। संधिरोधायर्थं प्लुतकरणम् । ३ इदं त्रिमात्रविहम् । Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०६] हैमशब्दानुशासनस्य भर्त्सनार्थस्य वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः, त्याद्यन्तस्य पदस्य वाक्यान्तराऽऽकाङ्क्षस्य अङ्गेन युक्तस्यांशः प्लुतो वा स्यात् । अङ्ग ! कूज ३, अङ्ग कूज, इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म! । साऽऽकाङ्क्षस्येति किम् ? अङ्ग ! पच ॥ ९१॥ क्षियाऽऽशी-प्रेषे । ७।४ । ९२। .. क्षिया आचारभ्रेषः।[आशीः प्रार्थनाविशेषः । प्रैषोऽ. सत्कारपूर्विकाव्यापारणा] एतवृत्तेर्वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः, त्याद्यन्तस्य वाक्यान्तराऽऽकाङ्क्षस्यांशः प्लुतो वा स्यात् । स्वयं ह रथेन याति ३, याति वा, उपाध्या. अयं पदातिं गमयति । सिद्धान्तमध्येषीष्ठाः ३, अध्येषीष्ठा वा, तक्कैःच तात!, कटं च कुरु ३, कुरु वा, ग्रामं च गच्छ ॥९२॥ चितीवार्थे । ७। ४ । ९३ । . सादृश्यार्थे चिति प्रयुक्ते वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतो वा स्यात् । अग्निश्चिद्भायो३त् , भायाद् वा। इवार्थे इति किम् ? कर्णवेष्टकांश्चित्कारय ।। ९३॥ प्रतिश्रवण-निगृह्यानुयोगे । ७।४ । ९४ । एतवृत्तेर्वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतोवास्यात्। गां मे देहि भोः। हन्त ते ददामि ३, ददामि वा। अद्य श्राद्धमित्यात्थ ३, आत्थ वा ॥९४ ॥ विचारे पूर्वस्य । ७।४ । ९५ । विचारः संशयः । तद्विषये संशय्यमानस्य यत्पूर्व तस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतो वा स्यात् । अहिर्नु ३ अ. हिर्नु वा रज्नुर्नु ॥ ९५॥ १ अत्राऽऽकारस्यान्त्यस्वरत्वादस्यैव प्लुतत्वम् , स्वरस्यैव प्लुतभेदत्वात् । Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [६०७] . ओमः प्रारम्भे । ७।४ । ९६ । ओमः प्रणामाद्यभ्यादानार्थस्य स्वरेष्वन्त्यःस्वरः प्लुतो वा स्यात् । ओ३म् , ओम् वा, ऋषभमृषभगामिनं प्रणमत ॥ ९६ ॥ हेः प्रश्नाऽऽख्याने। ७ । ४ । ९७ । पृष्टप्रतिवचनार्थ वाक्यस्य हेः स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतो वा स्यात् । अकार्षीः कटं मैत्र ? अकार्ष हि ३, [अकार्ष ] हि वा ।। ९७ ।। . प्रश्ने च प्रतिपदम् । ७ । ४ । ९८ । - प्रश्नार्थस्य प्रश्नाऽऽख्यानार्थस्य च वाक्यस्य यत् पदं. तस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतो वा स्यात् । अगमः३ पूर्वा३न् ग्रामाश्न मैत्र३१, अगमः पूर्वान् ग्रामान् मैत्र?। अग. म३म् पूर्वा३न् ग्रामा३न् मैत्र ३, अगमं पूर्वान् ग्रामान् मैत्र! ।। ९८ ॥ दूरादामन्त्र्यस्य गुरुर्वकोऽनन्त्योऽपि लनृत् । ७ । ४ । ९९ । .. वाक्यस्य यः स्वरेष्वन्त्यस्वरो दूरादामन्यार्थपदस्थो गुरुर्वाऽनन्त्योऽपि ऋद्वर्जस्वरलकारश्चैकोऽसौ प्लुतो वा स्यात् । आगच्छ भो देवदत्त३ !, देवदत्त ! वा। सक्तून् पिब दे३वदत्त, देवद३त्त, देवदत्त वा । आगच्छ भोः क्लू३प्तशिख, क्लप्तशिख वा। अदिति किम् ? कृष्णमित्र!, कृष्णमित्र ! [३] ॥ ९९ ॥ हे-हैप्वेषामेव । ७ । ४ । १००। Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रनाम्ना... [६०८] हेमशब्दानुशासनस्य दूरादामन्त्र्यस्य यो हेहैशब्दो तयोः प्रयुक्तयोरेव वा. क्ये यत्र तत्रस्थयोरन्त्यस्वरः प्लुतो वा स्यात् । हे३मैत्र ! आगच्छ, आगच्छ हे३मैत्र!, आगच्छ मैत्र हे ३! । हे३मै. त्राऽऽगच्छ, आगच्छ हे३मैत्र!, आगच्छ मैत्र है ३ ॥ ' अस्त्री-शूद्रे प्रत्यभिवादे भो-गोत्रनाम्नो वा। ७।४।१०१। यदभिवादितो गुरुः कुशलानुयोगादिमद्वाक्यं प्रयुङ्क्ते, तत्रास्त्रीशूद्रविषये वर्तमानस्य वाक्यस्य स्वरेष्व त्यस्वरो भोसो गोत्रस्य नाम्नो वाऽऽमन्त्र्यस्यांशः प्लुतो वा स्यात् । अभिवादये भैत्रोऽहं भोः ३., [आभिवादये मैत्रोऽहं भो..] आयुष्मानेधि भोः३! [आयुष्मान एधि] भो! वा । अभिवादये गार्योऽहं भो!, कुशल्यसि गा. र्य ३!, गार्ग्य वा। अभिवादये मैत्रोऽहं भोः, आयुष्मन्नेधि मैत्र ३!, मैत्र वा । स्त्रीशूद्रवर्जनं किम् ? अभि. वादये गार्यहं भोः! आयुष्मती त्वं भव गार्गि!, अभि. वादय तुषजकोऽहं भोः!, कुशल्यसि तुषजक! ॥१०१॥ प्रश्नाऽर्चा-विचारे च सन्धेयसन्ध्यक्षरस्याऽऽ इदुत्परः । ७।४।१०२। १ भोस् इतिशब्दस्य कश्यपगर्गादिगोत्रस्य संज्ञायाश्च सम्बोधनांशो वा प्लुतो भवति । प्रथमे भोस इत्यस्य, द्वितीये गोत्रस्य गार्य इत्यस्य, तृतीये मैत्र इति नाम्नो वा प्लुतविधानं जातम् । एधि-भवेत्यर्थः, अस्तेहिंप्रत्यये " शास असहनः शाधि-एधि-जहि" (४-२-८४ ) इति एधि आदेझः । कुशल्यसि गाये ! इत्यादि विकल्पवचनं पूर्ववदावर्तनीयं गौरवभयानात्र लिख्यते। प्लुतविषये सोदाहरणं स्फुटत्वं सिद्धहेमबृहवृत्तितो वेद्यम् । Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [६०९] . एषु प्रत्यभिवादे च वर्तमानस्य वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः सन्धियोग्यसन्ध्यक्षरान्तस्य प्लुतो भवन् इदु. त्पर आत् स्यात् । अगमः ३ पूर्वा३न् ग्रामां३न्, अग्रिभूता३हे, पटा३३ । अर्चा, शोमनः खल्वसि अग्निभूता३ इ, पटा३ उ । विचारे, वस्तव्यं किं निग्रन्थस्य सागारिका३ इ, उतानागारिके। प्रत्यभिवादे, आयुष्मानेधि अग्निभूता ३ इ । सन्धेयेति किम् ? कच्चि३त् कुशल३म् भवत्योः ३ कन्ये३ १ ॥ १०२ । तयोग्बौं स्वरे संहितायाम् ।७।४ । १०३ । - तयोः प्लुताऽऽकारात् परयोरिदुतोः स्वरे परे संहिताविषये यथासङ्ख्यं वो स्याताम् । अगमः ३ अग्निभूता ३ यत्रागच्छ, अगमः ३ पटा ३ वत्रागच्छ । संहितायामिति किम् ? अग्ना ३.इ इन्द्रम् । पटा ३ उ उद. कम् ॥१०३॥ पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य ।७।४।१०४ । पञ्चम्या निर्दिष्टे यत् कार्यमुक्तं तत् परस्याऽव्यवः स्यात् । अतः, "भिस् ऐस्" [१-४-२ ] वृक्षः । इह मा भूत, मालाभिरत्र दृषद्भिः॥१०४ ॥ संप्तम्या पूर्वस्य । ७।४ । १०५ । १ अत्र इतर भात् संजातः । 'पटा ३ उ' इतीह उत्तर भात् । २ अनेकारस्य यकारी भूतः । उत्तरोदाहरणे च उकारस्व वकारो जातः। ३ यथा “इवर्णादरस्वे स्वरे यवरलम्" (पृ.१२) इतिसूत्रे स्वरे इत्यत्र सप्तमीत्वात् पूर्वाव्यवहितस्थानामेवेवर्णादीनां क्वरलाः स्युः । अस्योदाहरणानि यथा दध्यत्र, मध्विह, पित्रर्थः, लित् इति । 'समिदत्र' इत्यत्र धकारस्य व्यवधानादिकारस्य न यकारः । एवं "स्वरे वा" इत्यादिसूत्राणि अस्य लक्ष्याणि सन्ति । Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१० ] हेमशब्दानुशासनस्य सप्तम्या निर्दिष्टं यत् कार्यमुक्तं तत् पूर्वस्याऽव्यवधेः स्यात् । दध्यत्र । इह मा भूत्, समित्र ॥ १०५ ॥ षष्ठ्या ऽन्त्यस्य । ७ । ४ । १०६ । षष्ठया निर्दिष्टं यदुक्तं तत् षष्ठ्युक्तस्य योऽन्त्यस्तस्य स्यात् । अष्टाभिः ॥ १०६ ॥ अनेकवर्णः सर्वस्य । ७ । ४ । १०७ । अयं विधिः षष्ठयोक्तस्य सर्वस्यैव स्यात् । तिसृभिः ॥ १०७ ॥ प्रत्ययस्य । ७ । ४ । १०८ । प्रत्ययस्थानिंनो विधिः सर्वस्य स्यात् । सर्वे ॥ १०८ ॥ स्थानीवाऽवर्णविधौ । ७ । ४ । १०९ । आदेश आदेशीव स्यात्, न चेत् स्थानिवर्णाऽऽश्रयं कार्यम् । भव्यम्, कस्मै, राजा, प्रकृत्य, प्रस्तुत्य, धर्मो वो रक्षतु । अवर्णविधाविति किम् ? द्योः क इष्टः, प्रदीव्य ॥ १०९ ॥ स्वरस्य परे प्राविधौ । ७ । ४ । ११० । स्वरस्यादेशः परनिमित्तकः पूर्वविधौ विधेये स्थानीव स्यात् । कथयति, पादिकः स्रंस्यते । पर इति किम् ? द्विपदिकां दत्ते । प्राविधाविति किम् ? नैधेयः ॥ ११० ॥ १ अष्टासु इत्यन्त्र “वाऽष्टन आः स्यादौ " सूत्रेणान्त्यस्यैवाऽऽकारः सम्पद्यते । २ तिसृभिरित्यत्र “त्रिचतुरस्तिसृचतसृ स्यादौ” (२–१–१) इत्यत्र समस्यस्य त्रेः स्यात् । एवं “भिस ऐस्” (१-४-२) इत्यत्रापि सर्वस्यैव भिस; स्थाने आदेशः स्यात्, अनेकवर्णा देशत्वात् । Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ६११] न सन्धि--- -द्वि-दीर्घाऽसद्विधावस्कू लुकि । ७ । ४ । १११ । 66 सन्धिविधीविधौ यविधौ क्विविधौ द्वित्वविधौ दीर्घविधौ " संयोगस्याऽऽदौ स्कोर्लुक् " ( २-१-८८ ) इति स्कूलुग्बर्जे चाऽसद्विधौ स्वरस्याऽऽदेशः स्थानीव न स्यात् । सन्धिः, वियन्ति । ङी, बिम्बम् । यः कण्डूतिः । क्वि:, दयूः । द्विः, दध्यत्र । दीर्घः, शामंशामम् । असद्विधिः यायष्टिः । अस्कलुकीति किम् ? सूक्तः, काष्ठ तक् ॥ १११ ॥ लुप्यय्वृल्लेनत् । ७ । ४ । ११२ । प्रत्ययस्य लुपि सत्यां लुग्भूतपरनिमित्तकं पूर्व कार्य न स्यात, वृत् ले एनच्च मुक्त्वा । तद्, गर्गाः । लुपीत्यक्ते लुकि स्यादेव, गोमान् । अय्वृल्लेनदिति किम् ? जरीगृहीति, निजागलीति, एनत् पश्य ॥ ११२ ॥ विशेषणमन्तः । ७ । ४ । ११३ । अभेदेनोक्तोsarat विशेषणं विशेषस्य समुदायस्यान्तः स्यात् । "अतः स्यमोम्” (१-४-५७ पृ० ३७ ) कुण्डम् । इह न स्यात, तद् ॥ ११३ ॥ सप्तम्या आदिः । ७ । ४ । ११४ । सप्तम्यन्तस्य विशेष्यस्य यद् विशेषण तत् तस्याऽऽदिः स्यात् । "इन् ङीस्वरे लुक्" । (१-४-७९ पृ० ४०) पथः । इह मा भूत्, पथिषु ॥ ११४ ॥ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१२] हैमशब्दानुशासनस्य प्रत्ययः प्रकृत्यादेः।७।४ । ११५। यस्माद् यः प्रत्ययो विधीयते सा तस्य प्रकृतिः। प्रत्ययः प्रकृत्यादेः समुदायस्य विशेषणं स्यात् , नोना. धिकस्य । मातृभोगीणः ॥ ११५॥ गौणो ड्यादिः । ७।४ । ११६ । डीमारभ्य व्यं यावत ड्यादिःप्रत्ययः। स गौणः सन् प्रकृत्यादेः समुदायस्य विशेषणं स्यात् । अतिकारीषगन्ध्य बन्धुः । गौण इति किम् ? मुख्योऽधिकस्यापि विशेषणं स्यात , परमकारीषगन्धीबन्धुः ।। ११६ ॥ कृत्सगतिकारकस्यापि । ७।४। ११७। कृत्प्रत्ययः प्रकृत्यादेः सनुदायस्य गतिकारकरस्य, केवलस्य च विशेषणं स्यात् । यथेह समासो भस्मनिहुँतं, तथा उदकेविशीर्णम्, अवतप्तनकुलस्थिततम् ॥ ११७ ॥ परः। ७।४।११८ । प्रत्ययःप्रकृते पर एव स्यात् । अजा,वृक्षः, जुगुप्सते॥ स्पर्द्ध । ७।४।११९। द्वयोर्विध्योरन्यत्र सावकाशयोस्तुल्यबलयोरेकत्राऽ. नेकत्रचोपनिपातःस्पर्द्धः। तत्र यः सूत्रपाठे परः स विधिः स्यात् । वनानि, अत्र "शसोऽना सश्च नः पुंसि" [१४-४९ ] इत्यतो नपुंसकस्य शिरित्येव स्यात् ।। ११९ ॥ आसन्नः ।७।४।१२०। यथास्वं स्थानार्थप्रमाणादिभिरासन्न एक विधिःस्यात्। दण्डानम् अत्र कण्ठययोरतोः कण्ठ्य एव आ दीर्घः। न न्यूमस्य नाधिकस्य चेत्यर्थः । २ एषु "क्तेन" (पृ० १४७) सूत्रेण सप्तम्यन्तं तत्पुरुषसमासः स्यात् । Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनलघुवृत्तिः वातण्डययुवतिः । वतण्डया, मुंबद्भावार्थत आसन्नः, वातण्ड्यः , अमुष्मै । "मादुवर्णोऽनु” (२-१-४७, पृ०५३) इति मात्रिकस्य मात्रिकः ॥ १२० ॥ सम्बन्धिना सम्बन्धे । ७।४ । १२१ । सम्बन्धिशब्दानां यत् कार्यमुक्तं तत सम्बन्ध एव सति स्यात् । श्वशुर्यः। संज्ञायास्तु इञव, श्वाशुरिः ॥ ॥१२१ ॥ . सेमर्थः पदविधिः । ७। ४ । १२२ । समर्थपदाश्रयत्वात् समर्थः, पदसम्बन्धी विधिः पदविधिः, सर्वपदविधिः समर्थो ज्ञेयः। सामर्थ्य च व्यपेक्षा एकाथर्थीभावश्च । पदविधिस्तु समास नामधातु-कृत्-तद्वितोपपदविभक्ति-युष्मदस्मदादेश-प्लुतरूप।धर्मश्रितः, पुत्रीयति, कुम्भकारः, औपगवः, नमो देवेभ्यः, धर्मस्ते स्वम्, धर्मो मे स्वम्, अङ्गकूज ३ इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म!। समर्थ इति किम्? पश्य धर्मे श्रितो मैत्रो गुरुकुलम्, पश्यति पुत्रमिच्छति सुखम्, पश्य कुम्भं करोति कटम् , गृहमुपगोरपत्यं तव, इदं नमो देवाः! शृणुत, ओदनं पच तव मम वा भविष्यति । अङ्ग! कूजत्ययमिदानी ज्ञास्यति जाल्म । पदोक्तवर्णविधिरसामर्थेऽपि स्यात् । तिष्ठतु दध्यशान त्वं शाकेन । एवं समासनामधातुकृत्तद्धितेषु . १ पदविषयको विधिः पदविधिः। पदात् पदे पदयोः, पदानां वा विधिः स सर्वपदविधिरेवोच्यते । तादृशः पदविधिः समर्थो भवतीत्यर्थः । समर्थत्वं नाम पर. Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१४] हेमशब्दानुशासनस्य स्पराकाङ्क्षास्वरूपत्वमेकाथीभावरूपत्वं वा। आयं वाक्ये भवति । एकार्थीभावस्तु समासे स्यात् । धर्म श्रितो धर्मश्रित इत्यत्र "श्रितादिभिः" (पृ. १४२) सूत्रेण तत्पुरुषसमासस्य, पुमिच्छति पुत्रीयतीति नामधातोः, कुम्भकार इति कृतः, औपगवं इत्यत्र “अस्वयम्भुवोऽ' (७-४७०) सूत्रेणऽणि परेऽव इति तद्धि. तस्य, नमो देवेभ्यः इत्युपपदविभक्तेः, धर्मस्ते स्वम् , धर्मो मे स्वमिति युष्मदम्मदादेशयोः, अङ्ग! कुज ३..... इति च प्लुतस्य क्रनश उदाहरणानि सन्ति । पश्य धर्म श्रितो मैत्रो गुरुकुलमित्यादीनि समासादीनां प्रत्युदाहरणानि सन्ति । राज्ञः पुरुषमानयेत्यत्र वाक्ये योऽर्थो भवति, राजपुरुषमानायेत्यने. नाऽपि समासे स एवार्थे आविभवति, तत् कः खलु व्यपे बैकार्थीभावयोः प्रतिविशेष इत्यारेकामाचार्य ( हेमचन्दाचार्यः ) एव स्वोपज्ञबृहदवृत्तौ (यद्यपि महदर्थको वृहत् शब्दो वृह वृद्वौ धातोर्वकारादियेव ८८४ उणादिसूत्रतो निष्पद्यते. तथाऽपि बवयोरैक्यात् शतश'ऽम्माभिरीश्च बकारादिवृहत् इति लिख्यते । कोशकाव्यादिष्वपि प्रायो वकारादिरेव दृश्यतेऽतो बृहृतौ इति बकारादिलेखनेऽपि न कश्चिद् दोषो भाव्यो दोषः । ) निराकार, जिज्ञामुभिस्तत एव ज्ञातव्यं, गौरवभिया नात्र लिख्यतेऽस्माभिः । "समर्थः पदविधिः' सूत्रं समासे मुख्यतयोपयुज्यतेऽतोनिपुणं ज्ञातव्यं छात्रैः । मूलरूपेण सप्तपञ्चाशत् न्याया (परिभाषाः) इदंशब्दानुशासनकाss. चार्येण बृहद्वृत्ती प्रतिपा देताः । शास्त्रे सूचना लोकसिद्धाश्च तद्भिन्ना ये व्याकरणोपयुक्ता न्यायाः सन्ति तान् , बृहदवृत्तिसूचिताश्च स्र्वान् १४० संख्याकान् न्य यान् संगृह्य महावैयाकरणेन हेमहंसगणिना स्वोपज्ञवृत्तिन्याससमलकृते न्यायसंग्रहे ग्रन्थे स्फुटतया विवृताः सन्ति । अत्र सप्तमाधाये संस्कृतभाषा या व्याकरणं पूर्ण भवति । अतः परं समग्रेऽ. टमाध्याये प्राकृत-शौरसेनी-मागधी पैशाची-चुलिकापैशाची-अपभ्रंशइतिभाषाषट्कस्य १११९ संस्कृतसूत्रैः सरलमनोहारिण्या पद्धत्या सोदाहरणमनुशासनं ( व्याकरणम् ) विरचितमार्यधुर्येण श्रीहेमचन्द्राचार्येणे.ते विदाकुर्वन्तु कोविदवृन्दानि । Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञलघुवृत्तिः [ ६१५ ] वाक्ये व्यपेक्षावृत्तावेकार्थीभावः । शेषेषु पुनव्यंपेक्षव सामर्थ्यम् ॥ १२२ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्तौ सप्तमस्याध्या समाप्तः ॥ यस्य चतुर्थः पादः ॥ सम्पूर्णा चासौ लघुवृतिः ॥ ( सम्पूर्णमेतत् लघुवृत्तिभूषितं संस्कृत हैमव्याकरणम् । ) श्रीहेमचन्द्र प्रभुमानमाम्यहं वृर्ति तदीयां महती च लक्षणे । तत्सन्निध्प्रेरेष मयाऽल्पमेधली बाल्योचितं चेष्टितमेतद लोकम् ॥१॥ सीनि स्थितोऽहं खलु मन्द मेधसां सूरिः स धुर्यस्तु सुमेधसां स्मृतः। तथाऽपिं मोहाद् विषम प्रचेष्टितं तत् क्षाम्यत क्षाम्यत साधबो बुधाः ॥ २ ॥ यथाऽऽयासं हि सङ्कुच्य मया सारांशतो लघु । हब्धं छात्रोपकाराय क्वचित् श्रीबालटिप्पणम् ॥ ३ ॥ पूज्यविद्याविजेतृणां प्रसत्तेस्नत्पुरे स्थितः । 'खनिध्यङ्कमिवन्दे हिमांसुः टिप्पणं व्यधात् ॥ ४ ॥ इति श्रीसिद्धहेमचन्द्रनाम्नि व्याकरणे टिप्पणं पूर्णम् । Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aeeeeeeeeeee "O"""""""OU+0000 8 इतिश्री स्वोपज्ञ लघुवृत्ति पंवलितं श्री सिद्धहेमचन्द्रानुशासनमः 2 सप्ताध्यायात्मकं संस्कृतव्याकणं १ समाप्तम् । கேமகாலைலருமகன் Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम प्राकृतव्याकरणम् अथ प्राकृतम् । ८।१।१। अथशब्द आनन्तर्यार्थोऽधिकारार्थश्च ॥प्रकृतिः संस्था तम्, तत्र भवं तत आगतं प्राकृतम् । संस्कृतानन्तरं प्राकृतमधिक्रियते॥संस्कृतानन्तरं च प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्थ इति ज्ञापनार्थम् । संस्कृतसमं तु संस्कृतलक्षणेनैव गता. र्थम् । प्राकृते च प्रकृतिप्रत्ययलिङ्गकारकसमाससंज्ञादयः संस्कृतवद्वेदितव्याः ॥ लोकाद् इति च वर्तते । तेन ऋऋ-ल-ल-ऐ-औ-ङ-अ-श-ष-विसर्जनीय-प्लुतवों वर्णसमानायो लोकादवगन्तव्यः। ङौ स्ववर्यसंयुक्तो भवत एव । ऐदौतौ च केषांचित् । कैतवम्, कैअवं । सौ. न्दर्यम् , सौंअरिअं। कौरवाः कौरवा ॥ तथा अस्वरं व्यजनं द्विवचनं चतुर्थीबहुवचनं च न भवति ॥१॥ बहुलम् । ८।१।२। बहुलम् इत्यधिकृतं वेदितव्यम् आशास्त्रपरिसमाप्तेः॥ ततश्च । 'कचित् प्रवृत्तिः कचिदप्रवृत्तिः, कचिद् विभाषा कचिद् अन्यदेव' भवति । तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः ॥२॥ ७८ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१८) प्राकृतव्याकरणम् आर्षम् । ८।१ । ३ । ऋषीणाम् इदम् आर्षम् । आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति। तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः । आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते ॥ ३॥ दीर्घ-हृस्त्रौ मिथो वृत्तौ । ८।१।४। वृत्तौ-समासे स्वराणां दीर्घहस्वौ बहुलं भवतः। मियः परस्परम् ॥ तत्र हस्त्रस्य दीर्घः। अन्तर्वेदिः । अन्ता वेई ॥ सप्तविंशतिः । सत्तावीसावचिन्न भवति । जुवइ-अगो॥ कचिद् विकल्पः। वारी-मई । वारिमई ॥ भुजयन्त्रम् । मुआ-यन्तं भुअ-यन्तं ॥ पतिगृहम् । पई-हरं पह-हरं । : वेलू-वणं वेलवणं ॥ दीर्घस्य हस्वः। निअम्ब-सिल खलिअ वीई-मालस्त ॥ क्वचिद् विकल्पः। जउण-यडं जंउणा यडं। नइ-सोत्तं नई सोत्तं । गोरि-हरं गोरी हरं । वहु-मुहं वहूमुहं ॥४॥ - पदयोः संधिर्वा । ८।१।५। . संस्कृतोक्तः संधिः सर्व प्राकृते पदयोर्व्यवस्थितवि. भाषया भवति ॥ वासेसी वासइसी । विसमायवो विसम-आयवो । दहिईसरो दहीसरो। साऊअयं साउ. उअयं । पदयोरिति किम् । पाओ । पई । वत्थाओ। मुद्धाइ । मुद्धाए । महइ । महए ॥ बहुलाधिकारात् कचिद् एकपदेऽपि काहिइ काही। बिइओ वीओ॥५॥ १. न युवर्णस्यास्वे । ८ । १।६। ...इवर्णस्य उवर्णस्य च अस्वे वर्णे परे संधिर्न भवति ॥ न वेरिवग्गे वि अवयासो। वन्दामि अज्ज-वरं। Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .स्वौपज्ञवृत्तिसहितम् ...... [६१९] - दणुइन्द-रुहिर-लित्तो सहइ उइन्दो नहप्पहावलिअरुणो। संझा-बहु-अवऊढो णव-वारिहरो व्व विज्जुलापडिभिन्नो॥ युवर्णस्येति किम् । गूढोअर तामरसाणुसारिणी भमर पन्ति व्य॥ अस्व इति किम् । पुहवीसो॥६॥ .एदोतोः स्वरे। ८।१।७। । एकारओकारयोः स्वरे परे संधिर्न भवति ॥ बहुआइ नहुल्लिहणे आवन्धन्तीऍ कञ्चुअं अङ्गे । मयरद्धय सर-धोरणि-धारा-छेअ व्व दीसन्ति । उबमासु अपजत्तेभ-कळभ-दन्तावहामूजुअं . तंव मलिअ-विस-दण्ड-विरसमालक्खिमो एहि ।। - अहो अच्छरिअं ॥ एदोतोरिति किम् । ' अत्थालोअण-तरला इयर कईणं भमन्ति बुद्धीओ। अत्थ चेअ निरारम्भमेन्ति हिअयं कइन्दाणं ॥७॥ - स्वरस्योवृत्ते । ८।१।। ___ व्यञ्जनसंपृक्तः स्वरो व्यञ्जने लुप्ते योऽवशिष्यते स उदृवृत्त इहोच्यते। स्वरस्य उद्वृत्तेस्वरे परे सधिन भवति॥ विससिज्जन्त-महा-पदसण संभम परोपरारूढा । गयणे चिय गन्धउडिं कुणन्ति तुह कउलणारीओ। निसा-अरो । निसि अरो रयणी अरो। मणुअत्तं ॥ बहुलाधिकारात् कचिद् विकल्पः। कुम्भ-आरो कुम्भारो। Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२०] प्राकृतव्याकरणम् सु-उरिसो सूरिसो॥ क्वचित् संधिरेव । सालाहणो। चक्काओ॥ अत एव प्रतिषेधात् समासेऽपि स्वरस्य संधी भिन्नपदत्वम् ॥ ८॥ त्यादेः । ८।१।९। तिबादीनां स्वरस्य स्वरे परे सन्धिर्न भवति ॥ भवति इह । होइ इह ॥९॥ लुक् । ८।१ । १०। स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लुग् भवति ॥ त्रिदशेशः । तिअसीसो ॥ निःश्वासोच्छ्वासौ। नीसासूसासा ॥१०॥ अन्त्यव्यञ्जनस्य । ८।१ । ११ । शब्दानां यद् अन्त्यब्यञ्जनं तस्य लुग् भवति ॥जाव । ताव । जसो । तमो । जम्मो॥समासे तु वाक्यविभक्त्यः पेक्षायाम् अन्त्यत्वम् अनन्त्यत्वं च । तेनोभयमपि भवति । सद्भिक्षुः। सभिक्खू । सजनः। सजणो॥ एतद्गुणाः। एभ-गुणा ॥ तद्गुणाः । तरगुणा ॥ ११ ॥ न श्रदुदोः । ८ । १ । १२ । श्रद् उद् इत्येतयारेन्त्यव्यञ्जनस्य लग् न भवति ॥ सहहि । सद्धा। उग्गयं । उन्नयं ॥ १२ ॥ निदुरोर्वा । ८।१ । १३ । निर दुर् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य वालग् न भवति॥ निस्सहं नीसहं दुस्सहो दूसहो । दुक्खिओ दुहिओ ॥१३॥ स्वरेऽन्तरश्च । ८ । १।१४। Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपशचिसहितम् ः [६२१] अन्तरो त्रियुरोश्चान्त्यव्यञ्जनस्य स्वरे परे लुम् न भ वति ॥ अन्तरप्पा ॥ निरन्तरं । निरवसेसं ॥ दुरुत्तरं । दुरवगाहं ॥ क्वचिद् भवत्यपि । अन्तोवरि ॥ १४ ॥ त्रियामादविद्युतः । ८ । १ । १५ । स्त्रियां वर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य आत्वं भवति विधुच्छन्दं वर्जयित्वा । लुगपवादः ॥ सरित । सरिआ । प्रतिपद् । पाडिवआ || संपत् । संपआ ॥ बहुलाधिकाराद् ईषत्स्पृष्टतरयश्रुतिरपि । सरिया । पाडिक्या । संपया ॥ अविद्युत इति किम् । विज्जू ॥ १५ ॥ रोरा । ८ । १ । १६ । स्त्रियां वर्तमानस्यान्त्यस्य रेफस्य रा इत्यादेशो भवति । आत्त्वापवादः ॥ गिरा । धुरा । पुरा ॥ १६ ॥ क्षुधो हा | ८ | १ | १७ | क्षुधशब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हादेशो भवति ॥ छुहा ॥ १७ ॥ शरदादेत् | ८ | १ | १८ | शरदादेरन्त्यव्यञ्जनस्य अत् भवति ॥ शरद् । सरओ ॥ भिषक् । भिसओ ॥ १८ ॥ दिक्- प्रावृषोः सः ॥ ८ । १ । १९ । एतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य सो भवति दिसा । पाउस ॥ १९ ॥ आयुरप्सरसोर्वा । ८ । १ । २० । Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२२] प्राकृतव्याकरणम् एतयोरन्त्यञ्जनस्य सोवा भवति॥दीहाउसो दीहाऊ। अच्छरसा अच्छरा ॥२०॥ ककुभो हः । ८ १ १ । २१ । ककुभूशब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हो भवति॥ कउहा ॥२१॥ धनुषो वा । ८ । १ । २२ । धनुःशब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हो वा भवति ॥ धणुहं घण् ॥ २२॥ मोनुस्वारः।८।१।२३ । अन्त्यमकारस्यानुस्वारो भवति ॥ जलं फलं वच्छ गिीरं पेच्छ । कचिद् अनन्यस्यापि । वणम्मि । वर्णमि ॥ २३ ॥ वा स्वरे मश्च । ८।१।२४। अन्त्यमकारस्य स्वरे परेऽनुस्वारो वा भवति । पक्षे लुगपवादो मस्य मकारश्च भवति ।। वन्दे उसभं अजि। उसममजिअं च वन्दे ।। बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यः अनस्य मकारः। साक्षात् । सक्खं ॥ यत्। ज॥ तत् । तं। विष्वक् । वीसुं॥ पृथक् ॥ पिहं ॥ सम्यक् । सम्मं ॥ इहं। इहयं । आले/अं इत्यादि ॥ २४ ॥ ङ--ण-नो व्यन्जने । ८।१ । २५ । इन ण न इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भ.. वति ॥ छ । पक्तिः । पंती ।। पराङ्मुखः। परंमुहो।। कन्चुकः। कंचुओ। लाञ्छनम् । लंछणं ॥ण । षण्मुखः। Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... स्वोपज्ञवृत्तिसहितम्ः [६२३] छंमुहो ॥ उत्कण्ठा। उत्कंठा ॥ न। सन्ध्या । संझा॥ विन्ध्यः विंझो ॥ २५ ॥ वक्रादावन्तः। ८।१ । २६ । वक्रादिषु यथादर्शनं प्रथमादेः स्वरस्य अन्त आगम. रूपोऽनुस्वारो भवति ॥ वंकं । तंसं । अंसुं । मंसं । पुंछ । गुंछ । मुंढा। पंतूं। बुंध। कंकोडो। कुंपलं । दंसणं । विछिओ। गिंठी । मंजारो । एष्वाद्यस्य ॥ वयंसो। मणंसी । मणंसिणी । मणसिला पडंसुआ। एषु द्वितीयस्य । अवरि। अणिउतयं । अइमुंतयं । अनयोस्तृतीयस्य । वक्र । व्यस्र। अथु। श्मश्रु । पुच्छ । गुच्छ । मूर्द्धन् । पशुं । बुघ्न । कर्कोट । कुट्मल । दर्शन । वृश्चिक । गृष्टि। मार्जार । वयस्य । मनस्विन् । मनस्विनी। मनःशिला। प्रतिश्रुत् । उपरि । अतिमुक्तक । इत्यादि । कचिच्छन्दःपू. रणेऽपि । देवं-नाग-सुवण्ण ॥ क्वचिन्न भवति । गिट्ठी। मजारो। मणसिला । मणासिला ।। आर्षे मणोसिला । अइमुत्तयं ॥ २६ ॥ क्वा-स्यादेर्ण-स्वोर्वा । ८।१ । २७ । - करवायाः स्यादीनां च यौ णसू तयोरनुस्वारोन्तो वा भवति ॥ क्त्वा । काऊणं । काऊण। काउआणं काउआण॥ स्यादि। वच्छेणं वच्छेण । वच्छेसु वच्छेसु ॥ णस्वोरिति किम् । करिअ । अग्गिणो॥ २७ ॥ विंशत्यादेर्लुक् । ८।१ । २८ । विंशत्यादीनाम् अनुस्वारस्य लुगू भवति । विंशतिः) Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२४ ] प्राकृतव्याकरणम् वीसा ॥ त्रिंशत् । तीसा ॥ संस्कृतम् । सकयं ॥ संस्कारः । सकारो इत्यादि ॥ २८ ॥ मांसादेर्वा | ८ | १ | २९ । मांसादीनामनुस्वारस्य लुग् वा भवति मासं मंसं । मासलं मंसलं । कासं । कंसं । पासू पंसू । कह कहं । एव एवं । नूण नूणं । इआणि इआणिं । दाणि दाणिं । कि करेमि किं करेमि । समुहं समुहं । केसुअं किसु । सीहो सिंधो। मांस । मांसल | कांस्य । पांसु । कथम् । एवम् । नूनम् । इदानीम् । किम् । संमुख । किंशुक । सिंह इत्यादि ॥ २९ ॥ वर्गेन्त्यो वा । ८ । १ । ३० अनुस्वारस्य वर्गे परे प्रत्यासत्तेस्तस्यैव वर्गस्यान्त्यो का भवति ॥ पङ्को पंको । सङ्घो संखो । अङ्गणं अंगणं । लवणं लंघणं । कञ्चुओ कंचुओ। लञ्छणं लंछणं । अञ्जिअं अंजिअं सञ्झा संझा । कण्टओ कंटओ । उक्कण्ठा उक्कंठा । कण्ड कंड | सण्ढो मंढो । अन्तरं अंतरं । पन्थो पंथो । चन्दो चंदो । बन्धवो बंधवो । कम्पइ कंपइ । वम्फइ फइ । कलम्बो कलंबो । आरम्भो आरंभो ॥ वर्ग इति किम् । संसओ । संहरइ । नित्यमिच्छन्त्यन्ये ॥ ३० ॥ प्रावृट् - शरत्तरणयः पुंसि । ८ । १ । ३१ । प्रावृष् शरत तरणि इत्येते शब्दाः पुंसि पुल्लिङ्गे प्रयोक्तव्याः ॥ पाउसो । सरओ। एस तरणी ॥ तरणिशब्दस्य पुंस्त्रीलिङ्गत्वेन नियमार्थमुपादानम् ॥ ३ ॥ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् स्नमदाम - शिरो - नमः | ८ | १ | ३२ | दामन शिरस्नभस्वर्जितं सकारान्तं नकारान्तं च शब्दरूपं पुंसि प्रयोक्तव्यम् ॥ सान्नम् । जसो। पओ । तमो | तेओ । उरो ॥ नान्तम् । जम्मो । नम्मो । मम्मो ॥ अदामशिरोनभ इति किम् । दामं । सिरं । नहं । यच्च सेयं वयं सुमणं सम्मं चम्ममिति दृश्यते तद् बहुलाधिकारात् 1 ॥ ३२ ॥ [६२५] वाक्ष्यर्थ - वचनाद्याः । ८ । १ । ३३ । अक्षिपर्याया वचनादयश्च शब्दाः पुंसि वा प्रयोक्तव्याः॥ अक्ष्यर्थाः | अज्जवि सा सवइ ते अच्छी । नच्चावियाई तेणम्ह अच्छी ॥ अञ्जल्यादिपाठादक्षिशब्दः स्त्रीलि ङ्गेपि । एसा अच्छी । चक्खू चक्खूइं । नयणा नयणाई । लोअणा लोअणाई || वचनादि । वयणा वयणाई ॥ विज्जुणा विज्जूए । कुलो कुलं । छन्दो छन्दं । माहप्पो माहप्पं । दुक्खा दुक्खाई ॥ भायणा भायणाइं । इत्यादि । इति वचनादयः ॥ नेत्ता नेत्ताई । कमला कमलाई इत्यादि तु संस्कृतवदेव सिद्धम् ॥ ३३ ॥ गुणाद्याः क्लीवे वा | ८ | १ | ३४ | गुणादयः क्लीबे वा प्रयोक्तव्याः ॥ गुणाई गुणा । विहवेहिँ गुणा मग्गन्ति । देवाणि देवा । बिन्दूई बिन्दुणो । खरगं खग्गो । मण्डलग्गं मण्डलग्गो । कररुहं कररुहो । रुक्खाईं रुक्खा । इत्यादि । इति गुणादयः ॥ ३४ ॥ वेमा ल्यायाः स्त्रियाम् । ८ । १ । ३५ । ७८ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... प्राकृतव्याकरणम इमान्ता अजल्यादयश्च शब्दाः स्त्रियां वा प्रयो क्तव्याः॥ एसा गरिमा एस गरिमा । एसा महिमा एस महिमा। एसा निल्लजिमा एस निल्लजिमा । एसा धुत्तिमा एस धुत्तिमा । अजल्यादि । एसाअञ्जली एस अञ्जली। पिट्ठी पिढे। पृष्ठमित्वे कृते स्त्रियामेवेत्यन्ये । अच्छी अच्छि । पण्हा पाहो । चोरिआ चोरि । एवं कुच्छी। बली। निही विही । रस्सी। गण्ठी । इत्यञ्जल्यावयः ॥ गड्डा गड्डो इति तु संस्कृतवदेव सिद्धम् । इमेति तात्रेण स्वादेशस्य डिमा इत्यस्य पृथ्वादीनश्च संग्रहः । त्वादेशस्य स्त्रीत्वमेवेच्छन्त्येके ॥ ३५ ॥ । बाहोरात् । ८।। ३६ । पाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारोन्तादेशो भवति ॥ बाहाए जेण धरिओ एकाए। स्त्रियामित्येव। वामेअरो बाहू ॥३६॥ अतो डो विसर्गस्य । ८।१।३७। संस्कृतलक्षणोत्पन्नस्यातः परस्य विसर्गस्य स्थाने डो इत्यादेशो भवति ॥ सर्वतः । सबओ। पुरतः। पुरओ॥ अग्रतः । अग्गओ ॥ मार्गतः। मग्गओ॥ एवं सिद्धावस्था. पेक्षया। भवतः। भवओ॥ भवन्तः। भवन्तो। सन्तः। सन्तो॥ कुतः। कुदो ॥ ३७॥ निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थोर्वा । ८।१।३८ । निर् प्रति इत्येतो माल्यशब्दे स्थाधातौ च परे यथा. संख्यं ओत् परि इत्येवंरूपौ वा भवतः। अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः ॥ ओमालं। निम्मल्लं । ओमालयं बहइ । परिट्टा पड़ा। परिहि । पइहि ॥ ३८॥ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६३७] . आदेः । ८।१ । ३९ । .. आदेरित्यधिकारः कगचज'[८-१-१७७] इत्यादि सूत्रात् प्रागविशेषे वेदितव्यः ॥ ३९ ॥ त्यदायव्ययात् तत्स्वरस्य लुक ।८।१।४॥ त्यादादेरव्ययाच परस्य तयोरेव त्यदायव्यययोरादेः स्वरस्य बहुलं लग् भवति ॥ अम्हेत्थ अम्हे एत्थ । जइमा जइ इमा । जइहं जइ अहं ॥ ४० ॥ पदादपेर्वा । ८ । १ । ४२ । पदात् परस्य अपेरव्ययस्यादे ग् वा भवति ॥ तं पि तमवि । किं पि किमवि । केण वि केणावि । कहं पि कहमवि ।। ४१॥ इतेः स्वरात् तश्च दिः । ८ । १ । ४२ । पदात् परस्य इतेरादे ग् भवति स्वरात् परश्च तकारो द्विर्भवति ॥ किं ति । जे ति । दिट्ट ति। न जुत्तं ति ॥ स्वरात् । तह त्ति। झति । पिओ ति । पुरिसो ति ।। पदादित्येव । इअ विज्ञ गुहा निलयाए ॥ ४२ ॥ लुप्त-यस्व-श-ष-सां श-ष-सां दीर्घः । ८।१।४३। प्राकृतलक्षणवशाल्लुप्ता याद्या . उपर्यधो वा येषां शकारषकारसकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीपों भवति ।। शस्य यलोपे। पश्यति । पासइ॥ कश्यपः। कासवो।। आवश्यकं । आवासयं ॥ रलोपे। विश्राम्यति। वीसमा॥ विश्रामः । वीसामो ॥ मिश्रम् । मीसं ॥ संस्पर्शः। Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] - प्राकृत व्याकरणम् संफासो ॥ वलोपे । अश्वः आसो ॥ विश्वसिति । वीससइ ॥ विश्वासः । वीसासो ॥ शलोपे । दुइशासनः । दूसासणो ॥ मनःशिला । मणाशिला ॥ षस्य यलोपे । शिष्यः । सीसो ॥ पुष्यः । पूसो ॥ मनुष्यः । मणूसो ॥ रलोपे । कर्षकः । कासओ । वर्षाः । वासा ॥ वर्षः । वासो ॥ वलोपे । विष्वाणः । वीसाणो ॥ विष्वक् । वीसुं ॥ षलोपे । निष्पक्तः । नीसत्तो ॥ सस्य यलोपे । सस्यम् । सासं ॥ कस्यचित् । कासइ ॥ रलोपे । उस्रः ऊसो ॥ विस्रम्भः वीसम्भो ॥ वलोपे । विकस्वरः । विकासरो ॥ निःस्वः । नीसो ॥ सलोपे । निस्सहः । नीसहो । 'न दीर्घानुस्वारात' (८-२-९२) इति प्रतिषेधात् सर्वत्र 'अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् ' . (८-२-८९ ) इति द्वित्वाभावः ॥ ४३ ॥ अतः समृद्ध्यादौ वा । ८ । १ । ४४ । समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देष्वादेरकारस्य दीर्घा या भवति ॥ सामिद्धी समिद्धी । पासिद्धी पसिद्धी । पापहं पयडं । पाडिवआ पंडिवआ । पासुत्तो पत्तो । पारिसिद्धी पडिसिद्धी । सारिच्छो सरिच्छो । माणंसी मणसी । माणसिणी मणसिणी । आहिआई अहिआई । पारोहो परोहो । पावासू पवासू । पाडिप्फद्धी पडिप्फद्धी ॥ समृद्धि । प्रसिद्धि | प्रकट । प्रतिपत् । प्रसुप्त । प्रतिसिद्धि । सदृक्ष । मनस्विन् मनस्विनी । अभियाति । प्ररोह । प्रवासिन् । प्रतिस्पर्द्धिन् । आकृतिगणोऽयम् । तेन । अस्पर्शः । आसो ॥ परकीयम् । पारकेरं । पारक्कं । प्रवचनम् । पाचवणं ॥ चतुरन्तम् । चाउरन्तम् । इत्याद्यपि भवति ।। ॥ ४४ ॥ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----..-... स्वीपज्ञप्तिसहितम् ... [१९] - दक्षिणे हे। ८।१ । ४५ । दक्षिणशन्दे आदेरतो हे परे दीर्घो भवति ॥दाहिणो। ह इति किम् । दक्षिणो ॥ ४५ ॥ इ. स्वजादौ । ८।१ । ४६। स्वप्न इत्येवमादिषु आदेरस्य इत्वं भवति ॥ सिविणो। सिमिणो । आर्षे उकारोपि । सुमिणो ईसि । वेडिसो। विलिअं। विअणं। मुइङ्गो। किविणो । उत्तिमो । मिरि। दिण्णं ॥ बहुलाधिकाराण्णत्वाभावे न भवति । दत्तं । देव. दत्तो ॥ स्वम । ईषत् । वेतस । व्यलीकं । व्यजन । मृदङ्ग । कृपण । उत्तम । मरिच । दत्त । इत्यादि । ४६ ॥ ... पक्याऽङ्गार-ललाटे वा।८१।४७। एष्वादेरत इत्वं वा भवति ॥ पिकं पकं । इङ्गालो अगारो । णिडालं णडालं ।। ४७ ॥ . मध्यम-कतमे द्वितीयस्य । ८।१।४८ । - सध्यमशब्दे कतमशब्दे च द्वितीयस्यात इत्वं भवति ॥ मझिमो । कइमो ॥४८॥ सप्तपणे वा । ०। १ । ४९।। .. सप्तपर्णे द्वितीयस्यात इत्वं वा भवति ॥ छत्तिवण्णो छत्तवण्णो॥ ४९ ॥ मयट्यइर्वा । ८।१ । ५० । मयट्प्रत्यये आदेरतः स्थाने अइ इत्यादेशो भवति षा ॥ विषमयः। विसमइओ विसमओ॥ ५० ॥ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३०] .... प्राकृतव्याकरणम् ईहरे वा।८।१। ५१ । हरशब्दे आदेरत ईर्वा भवति ॥ हीरो हरो ॥५१॥ ध्वनि-विधचोरुः । ८ । १ । ५२ । । अनयोरादेरस्य उत्वं भवति ॥ झुणी । वीसुं॥ कथं . सुणओ। शुनक इति प्रकृत्यन्तरस्य ॥ श्वनशब्दस्य तु सा साणो इति प्रयोगौ भवतः ।। ५२ ॥ चण्ड-खण्डिते णा वा । ८ । १ । ५३ । अनयोरादेरस्य णकारेण सहितस्य उत्वं वा भवति॥ घुडं चण्डं । खुडिओ खण्डिओ ॥५३॥ गवये वः । ८।१ । ५४ । गवयशब्दे वकाराकारस्य उत्व भवति ॥ गउओ। गउआ ॥ ५४ ॥ प्रथमे प-थोवा । ८ । १ । ५५ । प्रथमशब्दे पकारथकारयोरकारस्य युगपत् क्रमेण च उकारो वा भवति ।। पुदुमं पुढमं पदुमं पढमं ॥५५॥ ज्ञो णत्वेभिज्ञादौ । ८।१ । ५६ । अभिज्ञ एवंप्रकारेषु ज्ञस्य णत्वे कृते ज्ञस्यैव अत उत्वं भवति ॥ अहिण्णू । सव्वण्णू । कयण्णू। आगमण्णू ।। णत्व इति किम् । अहिजो । सव्वजो॥ अभिज्ञादाविति किम् । प्राज्ञः। पण्णो ॥ येषां ज्ञस्य णत्वे उत्वं दृश्यते ते अभिज्ञादयः ॥५६॥ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. स्वोपज्ञचिसहितम् [६३१] एच्छय्यादौ । ८ । १ । ५७। शय्यादिषु आदेरस्य एत्वं भवति ।। सेना। सुन्दरं । गेन्दुअं। एस्थ ॥ शय्या। सौन्दर्य । कन्दुक । अत्र ॥ आर्षे पुरेकम्मं ॥ ५७ ॥ वल्ल्युत्कर-पर्यन्ताऽऽश्चर्ये वा । ८ । १ । ५८ । एषु आदेरस्य एत्वं वा भवति ॥ वेल्ली वल्ली। उक्केरो उकरो । पेरन्तो पजन्तो।। अच्छेरं अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरिजं अच्छरीअं ।। ५८ ॥ ब्रह्मचर्ये चः। ८।१। ५९।। ब्रह्मचर्यशब्दे चम्य अत एत्वं भवति ॥ ब्रह्मचेरं ॥५९॥ तोन्तरि । ८।१।६०। - अन्तरशन्दे तस्य अत एवं भवति ॥ अन्तःपुरम् । अन्तेउरं ॥ अन्तश्चारी । अन्तेआरी ॥ कचिन्न भवति । अ. न्तग्गयं । अन्तो वीसम्भनिवेसिआणं॥६०॥ ओत्पने। ८।१ । ६१ । पद्मशब्दे आदेरत ओत्वं भवति ॥ पोम्म ॥ 'पद्मछाना' [८-२-११२ ] इति विश्लेषे न भवति । पउमं ॥६१॥ नमस्कार-परस्परे दितीयस्य । ८ ।। ६२ । . अनयोद्वितीयस्य अत ओत्वं भवति ॥ नमोकारो।परो. . परं ॥ ६२॥ वापौ । ८।१ । ६३ । अर्पयतो धातो आदेरस्य ओत्वं वा भवति ॥ ओप्पेह Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३२] प्रारुतम्याकरणम् अप्पेइ । ओप्पि अप्पिअं॥६३ ॥ . स्वपावुच्च 1८।१।६४ । . . स्वपित्ती धातो आदेरस्य औत् उत् च भवति ॥सो. वइ । सुवह ॥६४॥ - नात्पुनर्यादाइ वा । ८ । १ । ६५ । मा परे पुनःशब्दे आदेरस्य आ आइ. इत्यावेशी वा भवतः॥न उण न उणाइ। पक्षे। न उण। न उणो। केवल स्यापि दृश्यते । पुणाइ ॥६५॥ वालावरण्ये लुक । ८।१ । ६६ । - अलाब्बरण्यशब्दयोरादेस्य लुग् वा भवति ॥ लाउं अ. लाउं । लाऊ अलाऊ । रणं अरणं । अत इत्येव । आरपण-कुञ्जरो व्व वेल्लंतो॥६६॥ ‘वाव्ययोरखातादावदातः । ८।१।६७। अव्ययेषु उत्खातादिषु च शब्देषु आदेराकारस्य अद् वा भवति ॥ अव्यय । जह जहा । तह तहा। अहवा। वा॥ह हा । इत्यादि । उत्खातादि। उक्खयं उक्खायं। चमरो चामरो। कलओ कालओ। ठविओठाविओ। परिहविओ परिहाविओ। संठविओ संठाविओ। पययं पाययं । तलवोण्टं तालवेण्टं । हलिओ हालिओ। नराओ। नाराओ। वलया वलाया । कुमरो कुमारो। खइरंखाइरं ॥ उत्खात । चामर । कालक । स्थापित । प्राकृत । तालवृन्त । हालिक । नाराच । बलाका । कुमार । खादिर इत्यादि । कवि प्राणपूर्वाह्नयोरपीच्छन्ति । ब्रह्मणो ब्राणो। Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षवृत्तिसहितम् [६३३] पुठ्वण्हो पुवाण्हो॥ दवग्गी । दावग्गी । चहू चाहू। इति शब्दमेदात् सिद्धम् ॥ ६७ ॥ घवृद्धा । ८ । १ । ६८ । घनिमित्तो यो वृद्धिरूप आकारस्तस्यादिभूतस्य अद् वा भवति ॥ पवहो पवाहो । पहरो पहारो। पयरो पयारो । प्रकारः प्रचारो वा । पत्थवो पत्थावो ॥ कचिन्न भवति । रागः । राओ ॥ ६८॥ महाराष्ट्रे । ८।१ । ६९ । महाराष्ट्रशब्दे आदेराकारस्य अद् भवति॥ मरहट्ठ। मरहट्ठो ॥ ६९ ॥ मांसादिष्वनुस्वारे । ८।१।७। ... मांसप्रकारेषु अनुस्वारे सतिआदेरातः अद् भवति॥ मंसं । पंसू । पंसणो । कसं । कंसिओ। वंसिओ पंडवो संसिद्धिओ। संजत्तिओ॥ अनुस्वार इति किम् । मासं । पासू ॥ मांस । पांसु। पांसन । कांस्य । कांसिक। वांशिक । पाण्डव । सांसिद्धिक । सांयात्रिक । इत्यादि ।। ७० ॥ श्यामाके मः। ८।१ । ७१।। श्यामाके मस्य आतः अद् भवति ॥ सामओ॥७॥ इ. सदादौ बा । ८ । १। ७२।. . , सदादिषु शब्देषु आत इत्वंवा भवति ।। सह सया। निसि-अरो निसा अरो। कुप्पिसो कुप्पासो ॥७२ ॥ आचार्य चेच । ८।१ । ७३ । . आचार्यशब्दे चस्य आत इत्वम् अत्वं च भवतिः।। ८ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ea४] हरियो । आयरियो ॥ ७३ ॥ ईः सत्यान - खल्वाटे । ८ । १ । ७४ । | स्त्यान खल्वादयोरादेरात ईर्भवति ।। ठीणं । धीणं । थिपणं । खक्लीडो ॥ संखायाम् इति तु 'समः स्त्यः खा ' (८. ४.१५ ) इति खादेशे सिद्धम् ॥ ७४ ॥ उः सास्ना - स्तावके । ८ । १ । ७५ । अनयोरादेरात उत्वं भवति ॥ सुरहा । थुवओ ||७५ || उद्धासारे । ८ । १ । ७६ । आसारशब्दे आदेरात ऊबू वा भवति ॥ ऊसारो । आसारो ॥ ७६ ॥ आर्यायां यः श्वश्वाम् । ८ । १ । ७७ । T वार्याशब्देव वाच्यायां र्यस्यात ऊर्भवति ॥ अबजू || श्ववामिति किम् । अज्जा ॥ ७७ ॥ एद ग्राह्ये | ८ | १ | ७८ । ब्राह्मशब्दे आदेरात एद् भवति ॥ गेज्झं ॥ ७८ ॥ द्वारे वा । ८ । १ । ७९ । प्राकृतव्याकरण्यम् द्वारशब्दे आत एद् वा भवति ॥ देरें । पक्षे । दुआरं दारं वारं ॥ कथं नेरहओ नारइओ । नैरयिक-नार किंकशब्दयोर्भविष्यति || आर्षे अन्यत्रापि । पच्छेकम्मं । असहे देवासुरा ॥ ७९ ॥ पारापते रो वा । ८ । १ । ८० । पारापतशब्दे रस्थस्यात एद् वा भवति ॥ पारेवओ ॥ ८० ॥ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञचिसहितम् [१५] मात्रटि वा । ८।१ । ८१ ॥ मात्रट्प्रत्यये आत एद् वा मवति ॥ एत्तिअमेत्त । ए. त्तिअमत्तं ॥बहुलाधिकारात् क्वचिन्मानशब्देपि । भोअण. मेतं ॥ ८१॥ उदोदा । ८।१। ८२ । ___ आर्द्रशब्दे आदेरात उद् ओच वा भवतः॥ उल्लं । ओल्लं । पक्षे । अल्लं । अहं । बाह-सलिल-पवहेण उल्लेइ ॥ ८२॥ _ ओदाल्यां पङ्क्तौ । ८ । १ । ८३ । । __आलीशन्दे पङ्क्तिवाचिनि आत ओत्वं भवति ॥ ओली । पङ्क्ताविति किम् । आली सखी ॥ ८३ ॥ हृस्वः संयोगे । ८ । १ । ८४ । दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे -हस्वो भवति मात्। आम्रम् । अम्बं । ताम्रम् । तम्बं । विरहानिः। विरहग्गी॥ आस्यम् । अस्सं ॥ ईत् । मुनीन्द्रः । मुणिन्दो। तीर्थम् । तित्थं ॥ ऊत् । गुरुल्लापाः । गुरुल्लावा ।। चूर्णः। पुण्णो । एत् । नरेन्द्रः । नरिन्दो॥ म्लेच्छः। मिलिच्छो । विहिक घण-वह ॥ ओत् । अधरोष्ठः। अहरुहं । नीलोत्पलम् । नीलुप्पलं। संयोग इति किम् । आयासं । ईसरो । जसको ॥८४॥ इत एखा।८ । १।८५। संयोग इति वर्तते । आदेरिकारस्य संयोगे परे एकारो वा भवति । पेण्ड पिण्डं । धम्मेलं धम्मिलं । सेयूर सि. Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३६] प्राकृतव्याकरणम् न्दूरं । वेण्हू विण्हू । पेटुंपिटुं। बेल्लं विल्लं। कचिन्न भवति । चिन्ता ॥ ८५ ॥ किंशुक वा । ८ । १ । ८६ । किंशुकशब्दे आदेरित एकारो वा भवति ॥ केसुअं किंसुअं ॥ ८६ ॥ मिरायाम् । ८ । १ । ८७ । मिराशब्दे इत एकारो भवति ॥ मेरा ॥ ८७ ॥ पथि-पृथिवि-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्रा-बिभीतकेष्वत् ।।१ । ८८। - एषु आदेरितोकारो भवति ॥ पहो । मुहई । पुढवी। पडंसुआ । मूसओ। हलद्दी। हलहा । बहेडओ॥ पन्थं किर देसित्तेति तुपथिशब्दसमानार्थस्य पन्थशब्दस्य भवि. ध्यति॥हरिद्रायां विकल्प इत्यन्ये । हलिद्दी हलिहा ॥४८॥ ... शिथिलेङ्गदे वा । ८।१ । ८९ । :: अनयोरादेरितोद् वा भवति । सढिलं । पसढिलं। सिढिलं । पसिढिलं । अङ्गुअं। इगु॥ निर्मितशब्दे तु, वा आत्वं न विधेयम् । निर्मातनिर्मितशब्दाभ्यामेव सिद्धेः ॥ ८९ ॥ तित्तिरौ रः । ८ । १ । ९०। तित्तिरिशब्दे स्स्येतोद् भवति ॥ तित्तिरो॥९० ॥ - इतो तो वाक्यादौ । ८।१ । ९१ । वाक्याविभूते इतिशब्दे यस्तस्तत्संपन्धिन इकारस्य Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [६३७] अकारो भवति ॥ इअ जम्पिआवसाणे । इअ विअसिअ. कुसुम सरो॥ वाक्यादाविति किम् । पिओ त्ति । पुरिसो त्ति ॥ ९१ ॥ ईर्जिबा-सिंह-त्रिशदिशती त्या । ८।१।९२। जिह्वादिषु इकारस्य तिशब्देन सह ईर्भवति। जीहा। सीहो । तीसा । वीसा ।। बहुलाधिकारात् कचिन्न भवति । सिंह-दत्तो । सिंह-राओ॥ ९२॥ - लुकि निरः । ८ । १ । ९३ । निर उपसर्गस्य रेफलोपे सति इत ईकारो भवति ।। नीसरह । नीसासो॥ लुकीति किम् । निण्णओ। निस्सहाई अङ्गाई ॥ ९३.॥ बिन्योरुत् । ८ । १ । ९४ । द्विशब्दे नावुपसर्गे च इत उद् भवति॥ द्वि। दु:मत्तो। दु-आई । दुःविहो । दु-रेहो । दुःवयणं । बहुलाधिकारात् कचिद् विकल्पः दु-उणो । बि-उणो। दुइओ विहओ॥ कचिन्न भवति । द्विजः। दिओ ॥ द्विरदः । दिरओ। कचिद् ओत्वमपि । दो-वयणं । नि । णुमजइ । णुमन्नो। कचिन्न भवति । निवडइ ॥ ९४ ॥ - प्रवासीक्षौ । ८।१ । ९५ । अनयोरादेरित उत्वं भवति ॥ पावासुओ। उच्छू ॥९५॥ युधिष्ठिरे वा । ८ । १ । ९६ । युधिष्ठिरशब्दे आदेरित उत्वं वाभवति ॥जहुटिलो। जहिहिलो ॥९६ ॥ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३८] प्राकृतव्याकरणम् ओच्च विधाकृगः। ८।१ । ९७। . द्विधाशब्दे कृग्धातोः प्रयोगे इत ओत्वं चकारावुत्वं च भवति ॥ दोहाकिज्जइ । दुहा-किज्जइ ॥ दोहा इअं। दुहाइ । कृग इति किम् । दिहा-गयं ।। क्वचित् केवल. स्यापि । दुहावि सो सुर-बहू सत्थो ।। ९७ ॥ .. वा निझरे ना । ८।१ । ९८ । निर्झरशब्दे नकारेण सह इत ओकारो वा भवति॥ ओझरो निझरो ॥९८॥ हरीतक्यामीतोत् । ८।१ । ९९। हरीतकीशब्दे आदेरीकारस्य अद् भवति॥हरडई।९९॥ आकश्मीरे । ८।१।१००। कश्मीरशन्दे ईत आद् भवति ॥ कम्हारा ॥ १० ॥ पानीयादिवित् । ८ । १ । १०१ । पानीयादिषु शब्देषु ईत इद् भवति ॥ पाणिवे। अलिअं। जिअइ । जिअउ । विलिअं । करिसो। सिरिसो दुइ।तइ । गहिरं । उवणि। आणि। पलिवि। ओसिअन्तं । पसिअ । गहिरं। वम्मिओ। तयाणि ॥ पानीय । अलीक । जीवति । जीवतु। वीडित । करीष । शिरीष । द्वितीय । तृतीय । गभीर । उपनीत । आनीत । प्रदीपित । अवसीदत् । प्रसीद । गृहीत । वल्मीक । तदा. नीम् । इति पानीयादयः ॥ बहुलाधिकारादेषु कचिन्नित्यं कचिद् विकल्पः। तेन पाणी। अलीअं। जीअइ। करीसो। उवणीओ । इत्यादि सिद्धम् ॥ १०१ ॥ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वपतिसहितम् उज्जीर्णे । ८ । १ । १०२ । जीर्णशब्दे ईत उद् भवति ॥ जुण्ण-सुरा ॥ क्वचिन्न भवति । जिणे भोअणमत्ते ॥ १०२ ॥ ऊन - विहीने वा | ८ | १ | १०३ | अनयोरीत ऊत्वं वा भवति ।। हूणो हीणो । बिहूणो विहीणो ॥ विहीन इति किम् । पहीण जर मरणा ॥ १०३ ॥ तीर्थे हे । ८ । १ । १०४ ॥ [ ६३९ ] तीर्थशब्दे हे सति त ऊत्वं भवति ॥ तूहं ॥ ह इति किम् | तित्थं ॥ १०४ ॥ एत्पीयूषापीड- विभीतक कीदृशेदृशे । ८ । १ । १०५ | एषु इत एत्वं भवति ॥ पेऊसं । आमेलो । बहेडओ । रिसो । एरिसो ॥ १०५ ॥ नीड - पीठे वा । ८ । १ । १०६ | अनयोरीत एत्वं वा भवति । नेडं नीडं । पेढं पीढं ॥ १०६ ॥ उतो मुकुलादिष्वत् । ८ । १ । १०७ । मुकुल इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरुतोत्वं भवति ॥ मउलं । मउलो । मउरं । मउडं । अगरुं । गरुई । जहुट्ठिलो जहिहिलो । सोअमलं । गलोई ॥ मुकुल | मुकुर । मुकुट । अगुरु । गुर्वी । युधिष्ठिर। सौकुमार्य। गुडूची। इति मुकुलादयः ॥ क्वचिदाकारोपि । विद्रुतः । विद्दाओ ॥ १०७ ॥ बोपरौ । ८ । १ । १०८ । उपरावुतोद् वा भवति ।। अवरिं । उबरिं ॥ १०८ ॥ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४.] प्राकृतव्याकरणम् गुरौ के वा । ८।१ । १०९। गुरौ स्वार्थे के सति आदेरुतोद् वा भवति ॥ गुरुओ गुरुओ॥ क इति किम् । गुरू ॥१०९॥ इ(कुटौ । ८।१।११०। भृकुटावादेरुत इर्भवति ॥ भिउडी ॥ ११०॥ पुरुषे रोः । ८ । १ । १११ । पुरुषशब्दे शेरुत इर्भवति॥ पुरिसो। पउरिसं ॥१११॥ ई. क्षुते । ८ । १ । ११२। क्षुतशब्दे आदेरुत ईत्वं भवति ॥ छी॥ ११२ ॥ उत्सुभग-मुसले वा । ८ । १ । ११३ अनयोरादेरुत ऊद् वा भवति ॥ सहवो सुहओ। मूसलं मुसलं ॥ ११३॥ .. अनुत्साहोत्सन्ने सच्छे । ८ । १ । ११४ । उत्साहोत्सन्नवर्जिते शब्दे यौ त्सच्छौ तयोः परयो. रादेरुत ऊद् भवति ॥ स । ऊसुओ। ऊसवो। ऊसित्तो। ऊसरइ ॥ छ । उद्गताः शुका यस्मात् सः ऊसुओ। ऊससह ।। अनुत्साहोत्सन्न इति किम् । उच्छाहो । उच्छन्नो ॥११४॥ लुकि दुरो वा । ८ । १ । ११५ । दुपसर्गस्य रेफस्य लोपे सति उत ऊत्वं वा भवति ॥ दूसहो दुसहो । दूहवो दुहवो ॥ लकीति किम् । दुस्सहो विरहो ॥११५॥. . . Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६४१] .. ओत्संयोगे। ८ । १ । ११६ । संयोगे परे आदेरुत ओत्वं भवति ॥ तोण्डं । मोण्डं । पोक्खरं । कोहिम। पोत्थओ । लोद्धओ।मोत्था । मोग्गरो। पोग्गलं । कोण्ढो । कान्तो । वोकन्तं ॥ ११६ ॥ कुतूहले वा हस्वश्च । ८ । १ । ११७ । कुतूहलशब्दे उत ओद् वा भवति तत्संनियोगे ह. स्वश्च वा ॥ कोऊहलं कुऊहलं कोउहल्लं ॥ ११७ ॥ अदूतः सूक्ष्मे वा । ८।१ । ११८ । सूक्ष्मशब्दे ऊतोद् वा भवति ॥ सण्हं सुण्हं ॥ आर्षे । सुहुमं ॥ ११८ ॥ दुकूले वा लश्च दिः । ८ । १ । ११९ । दुकूलशब्दे ऊकारस्य अत्वं वा भवति, तत्संनियोगेच लकारो द्विर्भवति ॥ दुअल्लं दुऊलं ॥ आर्षे दुगुलं ॥११९।। ईर्वोदयूढे । ८ । १ । १२० । उद्वयूढ शब्दे ऊत ईत्वं वा भवति ॥ उव्वीढं । उब्यूट ॥.१२०॥ उर्भू-हनूमत्कण्डूय-चातूले । ८।१ । १२१ । एषु ऊत उत्वं भवति ॥ भुमया । हणुमन्तो। कण्डअइ । वाउलो ॥ १२१ ।। मधूके वा । ८।१ । १२२ । मधूकशब्दे ऊत उद् वा भवति ॥ महु मह अं॥१२२॥ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४२] पाछत्तण्याकरणम् इदेतौ नूपुरे वा । ८ । १ । १२३ । रपुरशन्दे ऊत एत् इत्येतो वा भवतः । निउरं नेउरं। पसे बरं ॥ १२३॥ ओत्कूष्माण्डी तूणीर-कूपर-स्थूल-ताम्बूल-गुडूची-मूल्ये ।८।१ । १२४ । बलु ऊत ओह भवति ॥ कोहण्डी कोहली। तोणीरं । कोपरं । थोरं । तम्बोलं । गलोई । मोल्लं ॥ १२४ ॥ स्थूणा-तुणे वा । ८।१ । १२५ । अनयोरूत ओत्वं वा भरति ॥थोणाथूणा। तोणतूणं॥ ॥ १३५॥ ऋतोत् । ८।१ । १२६ । . आवर्मकारस्य अत्वं भवति ॥ घृतम् । घयं । तृणम् ॥ तणं ॥ कृतम् । कयं ॥ वृषभः । वसहो ॥ मृगः । मओ ।। पृष्टः । घट्टो ॥ दुहाइअमिति कृपादिपाठात् ॥ १२६ ॥ आत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा । ८।१ । १२७ । एषु आदेत आद् वा भवति ॥ कासा किसा। मा. उक्कं मउ। माउकं मउत्तणं ॥ १२७ ॥ इलपादौ । ८ । १ । १२८ । कृपा इत्यादिषु शब्देषु आदेत इत्त्वं भवति ॥ किवा । हिययं । मिटुं रसे एव। अन्यत्र मटुं। दिदं । दिट्ठी। सिट्ठ। सिट्ठी। गिण्टी । पिच्छी । भिऊ । भिङ्गो। भिङ्गारो । सि. गारो सिआली । धिणा | धुसिणं । विद्धकई । समिद्धी । Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वोपनवृत्तिसहितम् [६४३] इद्धी । गिद्धी। किसो। किसाणू। किसरा । किच्छं। तिप्प। किसिओ । निवो। किच्चा। किई । धिई । किवो। किविणो । किवाणं । विचुओ। वित्तं । वित्ती। हिवाहितं । वि. हिओ। विसी । इसी । विइगहो । छिहा । सइ । उछिट। निसंसो॥ कचिन्न भवति । रिद्धी ॥ कृपा । हृदय । मृष्ट । दृष्ट । दृष्टि । सृष्ट । सृष्टि । गृष्टि । पृथ्वी । भृगु । भृङ्ग । भृङ्गार। शृङ्गार। शृगाल । घृणा । घुसूण । वृद्धकवि । समृद्धि । ऋद्धि । गृद्धि । कृश । कृशानु । कसरा । कृच्छ्र। तृप्त । कृषित । नृप । कृत्या । कृति । धृति । कृप । कृपण। कृपाण।वृश्चिका वृत्त। वृत्ति। हृत।व्याहृत।हित। वृसी। ऋषि। वितृष्ण। स्पृहा । सकृत् । उत्कृष्ट । नृशंस ॥१२८॥ पृष्ठे वानुत्तरपदे । ८।१।१२९ । पृष्ठशब्देऽनुत्तरपदे ऋत इद् भवति वा ।। पिट्ठी पट्टी। पिहि-परिद्वविअं॥ अनुत्तरपद इति किम् । महि-बटुं ॥१२९॥ मस्टण-मृगाङ्क-मृत्यु-शृङ्ग-धृष्टे वा । ८।१।१३०। एषु ऋत इद् वा भवति ॥ मसिणं मसणं। मिअङ्को मयको । मिच्चू मच्चू । सिङ्गं सङ्गं । धिट्टो धट्ठो ॥१३० ॥ ..उहत्वादौ । ८।१।१३१ । ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आदेत उद् भवति ॥ उऊ । परामुट्ठो। पुट्ठो। पउहो। पुहई। पउत्ती । पाउसो। पा. उओ । भुई । पहुडि । पाहुडं । परहुओ। निहु। निउअं। विउ । संव्वुअं । वुत्तन्तो। निव्वुअं निव्वुई । बुन्दं । वुन्दावणो । वुड्ढो । वुड्ढी । उसहो। मुणालं। उज्जू । जामाउओ । माउओ । माउआ । भाउओ। पिउओ। Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४४) प्राकृतव्याकरणम् पुहुनी ॥ ऋतु । परामृष्ट । स्पष्ट। प्रवृष्ट । पृथिवी । प्रवृत्ति। प्रावृष । प्रावृत । भृति । प्रभृति । प्राभूत । परभृत निभृत । निवृत । विवृत । संवृत । वृत्तान्त।निर्वृत। निवृति। वृन्द। वृन्दावन । वृद्ध । वृद्धि । ऋषभ । मृणाल । ऋजु । जामा. तुका मातृक। मातृका। भ्रातृक । पितृक । पृथ्वी । इत्यादि ॥ १३१॥ निवृत्त-वृन्दारके वा । ८।१ । १३२। " अनयोर्मत उद् वा भवति ॥ निवृत्तं निअत्तं । बुन्दा. रया वन्दारया ॥ १३२ ॥ वृषमे वा वा । ८।१ । १३३ । . वृषमे ऋतो वेन सह उद् वा भवति ॥ उसहो वसहो ॥ १३३॥ .... गौणान्त्यस्य । ८।१ । १३४। गौणशब्दस्य यौन्त्य ऋत तस्य उद् भवति ॥ माउ. मण्डलं। माउहरं । पिउ-हरं। माउ-सिआ। पिउ-सिआ। पिउ-वणं । पिउ-वई ॥ १३४ ।। . मातुरिदा । ८ । १ । १३५।। मातृशब्दस्य गौणस्य ऋत इद् वा भवति ॥ माइहरं । माउ हरं ॥ कचिद्गौणस्यापि ।माईणं ॥ १३५ ॥ ...., उदोन्मृषि । ८ । १। १३६ । • मृषाशब्दे ऋत उत् ऊत् ओच्च भवति ॥ मुसा। मूसा । मोसा । मुसा-वाओ । मूसा-वाओ। मोसा वाओ ॥ १३६ ।। ..... Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ६४५ ] इदुतौ वृष्ट-वृष्टि- पृथङ्- मृदङ् नप्तृके । ८ । १ । १३७ । एषु ऋत इकारोकारौ भवतः ॥ विट्ठो वुट्ठो । विट्ठी बुट्टी । पिहं पुहं । मिहङ्गो मुइङ्गो । नत्तिओ नत्तुओ ॥१३७॥ वा बृहस्पतौ | ८ | १ | १३८ । बृहस्पतिश ऋत इदुतौ वा भवतः ॥ बिहफई हई | पक्षे । बफई ॥ १३८ ॥ इदेदोवृन्ते । ८ । १ । १३९ । वृन्तशब्दे ऋत इत् एत् ओच्च भवन्ति ॥ विष्टं वेष्टं वोटं ॥ १३९ ॥ रिः केवलस्य । ८ । १ । १४० । केवलस्य व्यञ्जनेनासंपृक्तस्य ऋतो रिरादेशो भवति ।। रिद्धी रिच्छो ॥ १४० ॥ • ऋणर्वृषभर्वृषौ वा । ८ । १ । १४१ । ऋणऋजुऋषभ ऋतुऋषिषु ऋतो रिर्वा भवति ॥ रिणं अणं । रिज्जू उज्जू । रिसहो उसहो । रिऊ उऊ । रिसी इसी ॥ १४१ ॥ दृशः किपू-टक्सकः | ८ | १ | १४२ । किए टक् सक् इत्येतदन्तस्य दृशेर्धातोर्ऋतो रिरादेशो भवति ॥ सदृक् । सरि-वण्णो । सरि-रूवो। सरि-बन्दीणं ॥ सदृशः । सरिसो ॥ सदृक्षः । सरिच्छो || एवम् एआरिसो । भवारिसो। जारिसो। तारिसो। केरिसो । एरिसो । अन्नारिसी । अम्हारिसी । तुम्हारिसी । टक्सक्साहच Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४६] प्राकतव्याकरणम् र्यात् 'त्यदायन्या'दि (हे० ५-१-१५२.) सूत्रविहितः किविह गृह्यते ॥ १४२ ॥ आइते दिः । ८ । १ । १४३ । आतशब्दे ऋतो दिरादेशो ॥ आढिओ ॥ १४३ ॥ अप्तेि । ८।१ । १४४ । दृप्तशब्दे ऋतोरिरादेशो भवति ॥ दरिओं। दरिअ. सीहेण ॥ १४४ ॥ लत इलिःक्लप्त-क्लन्ने । ८।१।१४५। अनयोलत इलिरादेशो भवति ॥ किलित्त-कुसुमोव. यारेसु । धाराकिलिन्न-वत्तं ॥ १४५ ॥ एत इदा वेदना-चपेटा-देवर-केसरे।८।१।१४६। वेदनादिषु एत इत्त्वं भवति ॥ विअणा वेआगा। चविडा। विअड-चवेडा-विणोआ। दिअरो देवरो ॥ महमहिअ-दसण-किसरं । केसरं ॥ महिला महेला इति दु महिलामहेलाभ्यां शब्दाभ्यां सिद्धम् ॥ १४६ ॥ ऊ स्तेने वा । ८ । १ । १४७। स्तेने एत उद् वा भवति ॥ थूणो थेणो ॥१४७ ॥ ऐत एत् । ८।१।१४८। ऐकारस्यादौ वर्तमानस्य एत्त्वं भवति ॥ सेला। तेलक। एरावणो ॥ केलासो। वेजो। केढवो । वेहध्वं ॥ १४८ ॥ इसैन्धव-शनैश्चरे । ८।१ । १४९ । एतयोरैत इत्वं भवति । सिन्धवं । सणिच्छरो॥१९॥ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___स्वोपज्ञवृतिसहितम् [६४७] सैन्ये वा । ८१ । १५०। सैन्यशब्दे ऐत इद वा भवति ॥ सिन्नं सेन्नं ॥१५०॥ अइदैत्यादौ । ८ । १ । १५१ । सैन्यशब्दे दैत्य इत्येवमादिषु च ऐतो अइ इत्यादेशो भवति। एत्वापवादः॥ सइन्न । दइयो। दइन्नं । अइसरि। भइरवो । वइजवणो । दइवरं । वइआलीअं। वइएसो । वहएहो । वइदम्भो। वइस्साणरो। कइअवं । वइसाहो। वइसालो । सहरं । चइत्तं ॥ दैत्य । दैन्य । ऐश्वर्य । भैरव । वैजवन । दैवत । वैतालीय । वैदेश । वैदेह। वैदर्भ । वैश्वानर । कैतव । वैशाख । वैशाल । स्वैर । चैत्य । इत्यादि। विश्लेषे न भवति । चैत्यम्। चेइअं॥ आफैं। चैत्यवन्दनम् । ची-वन्दणं ॥ १५१ ॥ वैरादौवा । ८।१ । १५२। वैरादिषु ऐतः अइरादेशो वा भवति । वइरं वरं । कइलासो केलासो। कहरवं केरवं । वइसवणो वेसवणो। वइसम्पायणो। वेसम्पायणो । वइआलिओ वेआलिओ। वइसि वेसि । चइत्तो चेत्तो ।। वैर । कैलास । कैरव । वैश्रवण। वैशम्पायन। वैतालिक । वैशिक । चैत्र ॥ इत्यादि ॥१५२ ॥ एच देव । ८ । १ । १५३ । - दैवशब्दे ऐत एत् अइश्चादेशो भवति । देव्वं दहव्वं दइवं ॥ १५३ ॥ उच्चैर्नीचैस्यअः। ८ । १ । १५४ । । अनयोरैतः अअ इत्यादेशो भवति ॥ उच्चनीच। Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.६४८] प्राकृतव्याकरणम् उच्चनीचाभ्यां के सिद्धम् । उच्चैनी वैसोस्तु रूपान्मरनिवृत्यर्थ वचनम् ॥ १५४ ॥ ई.यें । ८ । १ । १५५ । धैर्यशब्दे ऐत इद् भवति॥धीर हरइ विसाओ॥१५५॥ ओतोदान्योन्य-प्रकोष्ठातोद्य-शिरोवेदना-मनोहर .. सरोरुहे क्तोश्व कः। ८।१।१५६ । एषु ओतोत्त्वं वा भवति तत्संनियोगे च यथासंभवं ककारतकारयोर्वादेशः ॥ अन्ननं अन्नुन्नं । पवट्ठो पउहो । आवजं आउज्न । सिर-विअणा सिरो-विअणा। मणहर मणोहरं । सररुहं सरोरुहं ॥ १५६ ॥ ऊत्सोच्छासे । ८।१ । १५७। सोच्छ्वासशब्दे ओत उद् भवति ॥ सोच्छ्वास । सूसासो ॥ १५७ ॥ गव्यउ-आअः । ८।१ । १५८ । . गोशब्दे ओतः अउ आअ इत्यादेशौ भवतः॥गउओ। गउआ । गाओ। हरस्प्त एसा गाई ॥ १५८ ।। औत ओत । ८।१। १५९ । औकारस्थादेरोद् भवति ॥ कौमुदी ॥ कोमुई यौवनम् जोवणं ॥ कौस्तुभः कोत्थुहो ॥ कौशाम्बी कोसम्बी॥ क्रौञ्चः कोचो ॥ कौशिकः कोसिओ॥ १५९ ॥ उत्सौन्दर्यादौ। ८।१ । १६०। सौन्दर्यादिषु शब्देषु औत उद् भवति ॥ सुन्दरं सुन्द Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६४९] रिअं । मुञ्जायणो सुण्डो । सुद्धोमणी। दुवारिभो। सुग. न्धत्तणं । पुलोमी । सुवण्णिओ ॥ सौन्दर्य । मौञ्जायन । शौण्ड । शौद्धोदनि । दौवारिक। सौगन्ध्य । पौलोमी। सौवर्णिकः ॥ १६० ॥ कौक्षेयके वा । ८ । १ । १६१ । __ कौक्षेयकशब्दे औत उद् वा भवति ॥ कुच्छेअयं । कोच्छेअयं ॥ १६१॥ अउः पौरादौ च । ८।१ । १.६२ ।। कौक्षेयके पौरादिषु च औत अउरादेशो भवति ॥ कउच्छेअयं ॥ पौरः। पउरो। पउर-जणो॥ कौरवः । कउरवो ॥ कौशलम् । कउसलं ॥ पौरुषम् । पउरिसं ॥ सौधम् । सउहं ॥ गौडः । गउडो॥ मौलिः। मउली ॥ मौनम्। मउणं॥ सौराः। सउरा। कौलाः। कउला॥१६२॥ आच गौखे । ८ । १ । १६३ । गौरवशब्दे औत आत्वम् अउश्च भवति ॥ गारवं । गउरवं ।। १६३ ॥ नाव्यावः । ८ । १ । १६४ । नौशब्दे औत आवादेशो भवति ॥ नावा ॥ १६४ ॥ एत्त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन ।।१।१६५॥ त्रयोदश इत्येवंप्रकारेषु संख्याशब्देषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरेण व्यञ्जनेन सह एद् भवति ॥ तेरह । तेवीसा। तेतीसा ॥ १६५॥ ८२ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५०] प्राकृतव्याकरणम् स्थविर-विचकिलायस्कारे । ८ । १ । १६६ । । एषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह एद् भवति ॥ थेरो। वेइल्लं । मुद्ध-विअइल्ल-पसूणपुञ्जा इत्यपि दृश्यते । एकारो ॥१६६॥ वा कदले । ८।१ । १६७ । कदलशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह एद् वा भवति ॥ केलं कयलं । केली कयली ॥ १६७ ॥ वेतः कर्णिकारे । ८।१ । १६८।... कर्णिकारे इतः सस्वरव्यञ्जनेन सह एद् वा भवति ॥ कण्णेरो कण्णिआरो ॥ १६८ ॥ अयौ वैत् । ८।१ । १६९ । . अयिशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ऐद् वा भवति ॥ ऐ बोहेमि । अइ उम्मत्तिए । वचनादैकारस्यापि प्राकृते प्रयोगः ॥ १६९ ॥ ओत्पूतरचदर नवमालिका-नवफलिका-गफले ।८।१ । १७० । पूतरादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ओद् भवति ॥ पोरो । बोरं । बोरी। नोमालिआ। नोहलिआ पोष्फलं । पोप्फली ॥ १७० ॥ नवा मयूख लवण चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार-सुकु मार-कुतूहलोदूखलोलूखले ।८।१।१७१। मयूखादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६५१] ओवा भवति॥ मोहो मऊहो। लोणं। इअलवणुग्गमा । चौग्गुणो चउग्गुणो। चोत्थो चउत्थो। चोत्थी चउत्थी। चोद्दह चउद्दह । चोदसी चउद्दसी । चोव्वारो चउब्वारो। सोमालोसुकुमालो। कोहलं कोउहल्लं। तहमन्ने कोहलिए। ओहलो उऊहलो। ओक्खलं उलूहलं । मोरो मऊरो इति तु मोरमयूरशब्दाभ्यां सिद्धम् ॥ १७१ ॥ अवापोते । ८ । १ । १७२ । अवापयोरुपसर्गयोरुत इति विकल्पार्थनिपाते च आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ओद् वा भवति ।। अव । ओअरइ अवयरइ । ओआसो अवयासो॥ अप । ओसरइ । अवसरइ । ओसारिअं अवसारिअं॥ उत । ओ वणं । ओ घणो। उअ वणं । उअ घणो ॥ कचिन्न भवति । अवगयं । अवसहो । उअ रवी ॥ १७२ ॥ ऊचोपे ।। १ । १७३ । . उपशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ऊत् ओचादेशौ वा भवतः ॥ ऊहसि ओहसि उवहसि। ऊज्झाओ ओज्झाओ उवज्झाओ। ऊआसो ओआ. सो उववासो ॥ १७३॥ उमो निषण्णे। ८।१ । १७४ । निषण्णशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह उम आदेशो वा भवति ॥ णुमण्णो । णिसपणो ॥१७४ ॥ प्रावरणे अङ्ग्वाऊ । ८ । १ । १७५। । प्रावरणशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५२] प्राकृतव्याकरणम् अङ्गु आउ' इत्येतावादेशौ वा भवतः ॥ पङ्गुरणं पाउरणं पावरणं ॥ १७५॥ स्वरादसंयुक्तस्यानादेः । ८। १ । १७६ । अधिकारोऽयम् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्स्वरा त्परस्यासंयुक्तस्यानादेर्भवतीति वेदितव्यम् ॥ १७६ ॥ . क-ग-च-ज-त-द-य-य-वां प्रायो लुक।८१।१७७/ स्वरात्परेषामनाविभूतानामसंयुक्तानां कगचजतद परवानां प्रायो लुगू भवति ॥ क। तित्थयरो। लोओ। सस्यढं । म । नओ। नयरं । मयको ॥ च । सई। कय. म्यहो ॥ ज। रययं । पयावई। गओ ॥ त। विआणं । स्सा-यलं । जई ॥ द । गया। मयणो ॥ ५। रिऊ । सुउरिसो॥ य । दयालू । नयणं । विओओ॥ व । लायणं । विउहो। वलयाणलो ॥ प्रायोग्रहणात्क्वचिन्न भवति । सुकुसुमं । पयागजलं । सुगओ । अगरू । सचावं । विजणं । सुतारं । विदुरो। सपावं । समवाओ। देवो । दाणवो ॥ स्वरादित्येव । संकरो । संगमो नकचरो। धर्णजओ । विसंतको। पुरंदरो। संवुडो। संवरो ॥ असं. युक्तस्यत्येव । अको। वग्गो। अच्चो । वजं । धुत्तो। उद्दामो। विष्पो। कजं । सव्वं ।। क्वचित्संयुक्तस्यापि । नक्तंचरः नकंचरो ॥ अनादेरित्येवा कालो।गन्धो । चोरो। जारो । तरू । दवो। पावं । वण्णो। यकारस्य तु जत्वम् आदी वक्ष्यते । समासे तु वाक्यविभक्त्यपेक्षया भिन्नपदत्वमपि विवक्ष्यते । तेन तत्र यथादर्शनमुभयमपि भवति । सुहकरो सहयरो। आगमिओ आयमिओ। जलचरो जलयरो। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ६५३ ] बहुतरो बहुअरो । सुहदो | सुहओ । इत्यादि ॥ क्वचिदादेरपि । स पुनः । स उण । स च। सो अ । चिह्न । इन्धं ॥ कचिचस्य जः । पिशाची । पिसाजी ॥ एकत्वम् । एगतं ॥ एकः । एगो ॥ अमुकः । अमुगो ॥ असुकः । असुगो ।। श्रावकः । सावगो | आकारः । आगारो ॥ तीर्थकरः तित्थगरो || आकर्षः । आगरिसो || लोगस्सुज्जोअगरा । इत्यादिषु तु 'व्यत्ययश्च' ( ८-४-४४७) इत्येव कस्य गत्वम् ॥ आर्षे अन्यदपि दृश्यते । आकुञ्चनं । आउण्टणं । अत्र चस्य त्वम् ॥ १७७ ॥ यमुना-चामुण्डा कामुकातिमुक्तके मोऽनुनासिकश्च । ८ । १ । १७८ । एषु मस्य लुग् भवति लुकि च सति मस्य स्थाने अनुनासिको भवति । जँउणां । चाँउण्डा । काँउओ । अणि उतयं ॥ कचिन्न भवति । अइमुन्तयं । अइमुत्तयं ॥ १७८ ॥ नावर्णात्पः | ८ | १ | १७९ । अवर्णात्परस्यानादेः पस्य लुग् न भवति ॥ सबहो । सावो || अनादेरित्येव । परउट्ठो ॥ १७९ ॥ अवर्णो यश्रुतिः । ८ । १ । १८० । का गचजेत्यादिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात्परो लघुप्रयत्न तर यकारश्रुतिर्भवति ॥ तित्थयरो । सयढं । नयरं । मयो । कग्गहो । काय मणी । रययं । पयावई । रसायलं । पायालं । मयणो । गया । नयणं । दयालू । लायण्णं ॥ अवर्ण इति किम् । सउणो । पउणो । पउरं । राईवं । Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५४] प्राकृतव्याकरणम् निहओ। निनओ। वाऊ । कई । अवर्णादित्येव ॥ लोअ. स्स । देअरो । कचिद् भवति । पियइ ॥ १८० ॥ कुब्ज-कर्पर-कीले कः खोपुष्पे । ८ । १ । १८१ । एषु कस्य खो भवति पुष्पं चेत् कुब्जाभिधेयं न भवति ॥ खुज्जो । खप्परं । खीलओ॥ अपुप्प इति किम् । बंधे कुजय-पसूणं । आर्षेऽन्यत्रापि । कासितं । खासि। कसितं । खसि ।। १८१॥ मरकत-मदकले गः कन्दुके वादेः ।८।१।१८२। अनयोः कस्य गो भवति, कन्दुके त्वाद्यस्य कस्य । मरगयं । मयगलो । गेन्दुअं ॥ १४२ ॥ . किराते चः। ८।१ । १८३। - किराते कस्य चो भवति ॥ चिलाओ। पुलिन्द एवायं विधिः । कामरूपिणि तु नेष्यते । नमिमो हर-किरायं । ॥१८३॥ शीकरे भ-हौ वा । ८ । १ । १८४ । शीकरे कस्य भहो वा भवतः । सीभरोसीहरो। पले। सीअरो॥ १८४॥ चन्द्रिकायां मः । ८।१ । १८५ । चन्द्रिकाशब्दे कस्य मो भवति ॥ चन्दिमा ॥ १८५ ॥ निकष-स्फटिक-चिकुरे हः । ८।१ । १८६ । एषु कस्य हो भवति ॥ निहसो। फलिहो । चिहुरो। चिहुरशब्दः संस्कृतेपि इति दुर्गः ॥ १८६ ॥ .. Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५५ ] स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् ख-घ-थ-ध-भाम् । ८ | १ | १८७ । 1 स्वरात्परेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां व घ थ ध भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति ॥ ख । साहा | मुहं मेहला | लिहइ || घ | मेहो । जहणं । माहो । लाहइ || थ । नाहो । आवसहो । मिहुणं । कहइ ॥ ध । साहू । वाहो बहिरो । बाहइ । इन्द-हणू ॥ भ | सहा । सहावो । नहं । थणहरो | सोहर || स्वरादित्येव । संखो । संघो । कंथा । बंधो । खंभो ॥ असंयुक्तस्येत्येव । अक्खइ । अग्घइ | कथइ | सिद्ध । बन्धइ | लग्भइ || अनादेरित्येव । ग. जन्ते खे मेहा ॥ गच्छइ घणो ॥ प्राय इत्येव । सरिसवखलो | पलय-घणो । अथिरो । जिण धम्मो । पण भओ ॥ ॥ नभं ॥ १८७ ॥ । 1 पृथक धो वा । ८ । १ । १८८ | पृथक् शब्दे थस्य धो वा भवति ।। पिधं पुधं । पिहं पुहं ॥ १८८ ॥ शृङ्खले खः कः | ८ | १ । १८९ । शृङ्खले खस्य को भवति ॥ सङ्कलं ॥ १८९ ॥ पुन्नाग - भागिन्योगों मः । ८ । १ । १९० । अनयोर्गस्य मो भवति । पुन्नामाई वसन्ते । भामिणी ॥ १९० ॥ छागे लः । ८ । १ । १९१ । छागे गस्य लो भवति || छालो । छाली ॥ १९९ ॥ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणम् ऊत्वे दुर्भग-सुभगे वः । ८ । १ । १९२।। अनयोरुत्वेगस्य वोभवति ॥ दूहवो। सूहवो ॥ ऊत्व इति किम् । दुहओ । सुहओ ॥ १९२ ।। खचित-पिशाचयोश्चः स-लौ वा । ८ । १ । १९३ । ___अनयोश्चस्य यथासंख्यं स ल्ल इत्यादेशौ वा भवतः ॥ खसिओ खइओ। पिसल्लो पिसाओ ॥ १९३ ॥ जटिले जो झोवा । ८।१ । १९४ । जटिले जस्य झोवा भवति ।झडिलो जडिलो॥१९४॥ टो डः।८।१ । १९५।। स्वरात्परस्यासंयुक्तानादेष्टस्य डो भवति ॥नडो। भडो। घडो । घडइ ॥ स्वरादित्येव । घंटा ॥ असंयुक्तस्येत्येव । खट्टा । अनादेरित्येव । टक्को । कचिन्न भवति । अटति । अटइ ॥१९५ ॥ . सटा-शकट-कैटभे ढः । ८ । १ । १९६ । एषु टस्य ढो भवति ॥ सढा । सयढो। केढवो ॥१९६॥ स्फटिके लः। ८।१ । १९७ । स्फटिके टस्य लो भवति ॥ फलिहो ॥ १९७ ॥ . चपेटा-पाटौ वा । ८।१ । १९८ । चपेटाशब्दे ण्यन्ते च पटिधातौ टस्य लो वा भवति ॥ चविला चविडा । फालेइ फाडेह ॥ १९८ ॥ ठो ढः।८।१ । १९९ । स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानादेष्ठस्य ढो भवति ।। मढो । Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ स्वोपत्रवृत्तिसहितम् [६५७) सढो । कमढो । कुढारो । पढइ ॥ स्वरादित्येव । वैकुंठो ॥ असंयुक्तस्येत्येव । चिट्ठइ ॥ अनादेरित्येव । हिअए ठाइ ॥ १९९ ॥ अकोठे लः । ८।१ । २०० । अङ्कोठे ठस्य द्विरुक्तो लो भवति ॥ अङ्कोल्लतेल-तुप्पं ॥ २० ॥ पिठरे हो वा रश्च डः । ८।१ । २०१।। पिठरे ठस्य हो वा भवति, तत्सन्नियोगे च रस्य डो भवति ॥ पिहडो पिढरो ॥ २०१॥ डोलः । ८ । १ । २०२ । स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानादेर्डस्य प्रायो लो भवति ॥ वडवामुखम् । वलयामुहं ॥ गरुलो। तलावं । कीलह ॥ स्वरादित्येव । मोंडं । कोंडं॥ असंयुक्तस्येत्येव । खग्गो॥ अनादेरित्येव । रमइ डिम्भो।। प्रायोग्रहगात् क्वचिद् विकल्पः । वलिसं वडिसं । दालिमं दाडिमं। गुलो गुडो । णाली णाडी । णलं णडं । आमेलो आवेडो ॥ क्वचिन्न भवत्येव । निबिडं । गउडो। पीडिनीडं । उडू। तडी ।। ॥ २०२॥ वेणौ णो वा । ८।१ । २०३ । वेणौ णस्थ लो वा भवति ॥ वेलू वेणू ॥ २०३ ॥ तुच्छे तश्च-छौ वा । ८ । १ । २०४ ।. __ तुच्छशब्दे तस्य च छ इत्यादेशौ वा भवतः ॥ चुच्छं छच्छं । तुच्छं ॥२०४॥ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५८] प्राकृतव्याकरणम् तगरत्रसर-तूबरे टः। ८।१।२०५ । एषु तस्य टो भवति ॥ टगरो। टसरो। टूवरो॥२०५॥ प्रत्यादौ डः । ८।१ । २०६। · प्रत्यादिषु तस्य डो भवति ॥ पडिवन्नं । पडिहासो। पडिहारो। पाडिप्फद्धी। पडिसारो। पडिनिअत्तं । पडिमा। पडिवया। पडंसुआ। पडिकरह। पहुडि।पाहुडं । वावडो। पडाया । बहेडओ । हरडई । मडयं ।। आर्षे । दुष्कृतम् । दुकाडं ॥ सुकृतम् । सुकडं ॥ आहृतम् । आहडं ॥ अवहतम् । अवहडं । इत्यादि ॥ प्राय इत्येव । प्रतिसमयम् । पइसमयं । प्रतीपम् । पईवं ॥ संप्रति।संपइ॥प्रतिष्ठानम् । पइहाणं ॥ प्रतिष्ठा । पइट्ठा ॥ प्रतिज्ञा । पहण्णा॥ प्रति । प्रभृति । प्राभूत । व्याप्त । पताका । विभीतक । हरीतकी। मृतक । इत्यादि । २०६॥ . . इत्वे वेतसे । ८।१ । २०७। वेतसे तस्य डो भवति इत्वे सति ॥ वेडिसो। इत्व इति किम् । वेअसो ॥ 'इस्वमादी' (८-१-४६) इति इकारो न भवति इत्व इति व्यावृत्तिबलात् ।।२०७॥ गर्भितातिमुक्तके णः ।८।१ । २०८ । ___ अनयोस्तस्य णो भवति ॥ गम्भिणो। अणिउँतयं ॥ कचिन्न भवत्यपि । अइमुत्तयं । कथम् एरावणो। ऐराव. णशब्दस्य । एरावओ इति तु ऐरावतस्यः ॥ २०८ ॥ .. रुदिते दिना ण्णः । ८।१ । २०९ । रुदिते दिना सह तस्य द्विरुक्तोणो भवति ।। रुण्णं ॥ 19 Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६५९] अत्र केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि । ऋतुः। रिऊ उऊ ॥ रजतम् ।रययं ॥एतद्। एअंगतः। गाओ। आगतः । आगओ॥ सांप्रतम् । संपयं ॥ यतः । जओ ॥ ततः। तओ॥ कृतम् । कयं ॥ हतम् । हयं ॥ हताशः। हयासो॥ श्रुतः । सुओ॥ आकृतिः। आकिई ॥ निर्वृतः। निव्वुओ ॥ तातः। ताओ॥कतरः। कयरो। द्वितीयः। दुइ ओ । इत्यादयः प्रयोगा भवन्ति । न पुनः उदू रयदमित्यादि ॥ कचित् भावेपि 'व्यत्ययश्च' (८-४-४४७) इत्येव सिद्धम्॥दिही इत्येतदर्थ तु 'धृतेर्दिहिः' (२-१३१) इति वक्ष्यामः ॥ २०९॥ सप्ततौरः।८।१ । २१० । सप्ततो तस्य रो भवति ॥ सत्तरी ॥२१॥ अतसीसातवाहने लः । ८ । १ । २११ । अनयोस्तस्य लो भवति ॥ अलसी । सालाहणो । सालवाहणो । सालाहणी भासा ॥ २११॥ . पलिते वा । ८ । १ । २१२ । .. · पलिते तस्य लो वा भवति॥पलिलं। पलि।।२१२॥ पीते वो ले वा । ८ । १ । २१३ । पीते तस्य वो वा भवति स्वार्थलकारे परे ॥ पीवलं । पीअलं ॥ ल इति किम् । पीअं ॥ २१३ ॥ वितस्ति चसति-भरत-कातर-मातुलिङ्गे हः ।८।१।२१४। एषु तस्य हो भवति ॥ विहत्थी। वसही ॥ बहुला Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६०] प्राकृतव्याकरणम् धिकारात् क्वचिन्न भवति । वसई । भरहो । काहलो । मा. . हुलिङ्गं । मातुलुङ्गशब्दस्य तु माउलुङ्गं ।। २१४ ॥ भेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमे-थस्य ढः ।८।१२१५) एषु थस्य ढो भवति । हापवादः ॥ मेढी । सिढिलो। सिढिलो । पढमो ।। २१५॥ निशीथ-पृथिव्यो । ८ । १ । २१६ । अनयोस्थस्य ढो वा भवति ।। निसीढो। निसीहो । पुढवी । पुहवी ॥ २१६ ॥ दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्भ-दर्भ कदन दोहदे दो वा डः । ८ । १ । २१७ । एषु दस्य डो वा भवति। डसणं दसणं । इट्ठो दह्रो। डडढो दड्ढो । डोला दोला । डण्डो दण्डो। डरो दरो। डाहो दाहो । डम्मो दम्भो । ढब्भो दब्भो। कडणं कयणं। डोहलो दोहलो। दरशब्दस्य च भयार्थवृत्तेरेव भवति । अन्यत्र दर-दलिअ ॥ २१७॥ दंश-दहोः । ८ । १ । २१८ । अनयोर्धात्वोर्दस्य डो भवति ।। डसह । डहह ।।२१८॥ संख्या-गद्दे रः । ८।१ । २१९ । संख्यावाचिनि गद्गदशब्दे च दस्य रो भवति ॥ एआ. रह । बारह । तेरह । गग्गरं ॥ अनादेरित्येव । ते दस ॥ असंयुक्तस्येत्येव ॥ चउद्दह ॥ २१९ ।। कदल्यामद्रुमे । ८ । १ । २२० । कदलीशन्दे अद्रुमवाचिनि दस्य रो भवति ॥ करली । अद्रुम इति किम् । कयली । केली ॥ २२० ॥ . Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६६१] _ . प्रदीपि-दोहदे लः ।।१।२२१।। प्रपूर्व दीप्यतो धातौ दोहदशब्दे च दस्य लो भवति ॥ पलीवेइ । पलितं । दोहलो ॥ २२१ ॥ कदम्बे वा ।। ८।१ । १२२ । कदम्बशब्दे दस्य लो वा भवति ॥ कलम्बो कयम्बो ॥ २२२ ॥ दीपौ धो वा । ८।१ । २२३ । दीप्यतो दस्य धो वा भवति॥ धिप्पइ। दिप्पइ ॥२२३॥ कदर्थिते वः । ८।१। २२४ । कर्थिते दस्य वो भवति ॥ कवडिओ॥ २२४ ॥ . ककुदे हः। ८ । १ । २२५ । ककुदे दस्य हो भवति ।। कउहं ॥ २२५ ।। निषधे धो ढः । ८।१।२२६ । निषधे धस्य ढो भवति ॥ निसढो॥ २२६ ॥ वौषधे । ८।१ । २२७ । औषधे धस्य ढोवा भवति। ओसढं। ओसहं ॥२२७॥ नो णः।८।१ । २२८ । स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानादेर्नस्य णो भवति ॥ कणवं । मयणो । वयणं । नयणं । माणइ । आर्षे । आरनालं । अनिलो । अनलो। इत्याद्यपि ॥ २२८ ॥ .' वादौ । ८।१ । २२९ । असंयुक्तस्यादौ वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति ॥ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६२ ] प्राकृतव्याकरणम् णरो नरो । नई नई | णेइ नेइ ॥ असंयुक्तस्येत्येव ॥ न्यायः । नाओ ॥ २२९ ॥ निम्ब - नापिते ल - हं वा | ८|१ | २३० | अनयोर्नस्य ल ह इत्येतौ वा भवतः ॥ लिम्बो नि. म्बो । पहाविओ नाविओ ॥ २३० ॥ पो वः | ८ | १ | २३१ | स्वरात्परस्यासंयुक्तस्थानादेः पस्य प्रायो वो भवति ।। सवहो । सावो । उवसग्गो । पईवो । कासबो । पावं । उवमा | कविलं । कुणवं । कलावो । कबालं । महि-वालो | गो - वइ । तव । स्वरादित्येव । कम्पई || असंयुक्तस्ये. त्येव । अप्पमत्तो ॥ अनादेरित्येवं । सुहेण पढह ॥ प्राय इत्येव । कई । रिऊ ॥ एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपकारयो स्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः ॥ २३१ ॥ पाटि - परुष-परिघ- परिखा-पनस पारिभद्रे फः | ८|१| २३२ | ण्यन्ते पटिधातौ परुषादिषु च पस्य को भवति ॥ फाले फाडेर । फरुसो । फलिहो । फलिहा । फणसो । फालिहद्दो ।। २३२ ।। प्रभूते वः | ८ | १ | २३३ । ૧ प्रभूते पस्य षो भवति ॥ वहुत्तं ॥ २३३ ॥ नीपापीडे मो वा । ८ । १ । २३४ | अनयोः पस्य मो वा भवति ॥ नीमो नीवो । आमेलो आवेडो ।। २३४ ।। पाप रः । ८ । १ । २३५ । पापद्धविपदादौ पकारस्य से भवति ॥ पारद्धी ॥ २३५ ॥ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ६६३ ] फो भ - हौ । ८ । १ । २३६ | स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानादे: फस्य भहौ भवतः । कचिद् भः । रेफः । रेभो शिफा । सिभा ॥ कचित्तु हः मुत्ताहलं ॥ कचिदुभावपि । सभलं सहलं । सेभालिआ सेहालिआ । सभरी सहरी । गुभइ गुहइ || स्वरादित्येव । गुंफइ || असंयुक्तस्येत्येव । पुष्कं || अनादेरित्येव । चिट्ठह फणी ॥ प्राय इत्येव । कसण- फणी ।। २३६ ॥ बो वः | ८ | १ | २३७ । स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानादेर्बस्य वो भवति ॥ अलाबू । अलावू । अलाऊ || शबलः । सवलो ॥ २३७ ॥ बिसिन्यां भः | ८ | १ | २३८ । बिसिन्यां बस्य भो भवति ॥ भिसिणी ॥ स्त्रीलिङ्गनिर्देशादिह न भवति । बिस-तन्तु - पेलवाणं ॥ २३८ ॥ Tera H - यौः । ८ । १ । २३९ । कन्धे वस्य मयौ भवतः ॥ कमन्धो कयन्धो ॥ २३९ ॥ कैटभे भो वः । ८ । १ । २४० | her भस्य वो भवति || केढवो ॥ २४० ।। विषमे मो ढोवा | ८ | १ । २४१ | विषमे मस्य ढोवा भवति ॥ विसढो । विसमो ॥ २४९ ॥ मन्मथे वः | ८ | १ | २४२ | मन्मथे मस्य वो भवति ॥ वम्महो ॥ २४२ ॥ वाभिमन्यौ । ८ । १ । २४३ । अभिमन्युशब्दे मो वो वा भवति ॥ अहिवन्नू अहिमन्नू ।। २४३ ।। Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६४] प्राकृतव्याकरणम् भ्रमरे सो वा । ८।१ । २४४ । भ्रमरे मस्य सो वा भवति ॥ भमलो भमरो ॥२४४॥ आदेयों जः।८।१ । २४५ । पदार्यस्य जो भवति ॥ जसो । जमो । जाइ ॥ आदेरिति किम् । अवयवो । विणओ ॥ बहुलाधिकारात् सो.. पसर्गस्यानादेरपि । संजमो। संजोगो । अवजसो ॥ क्वचि. न भवति । पओओ॥ आर्षे लोपोऽपि । यथाख्यातम् । अहक्खायं ॥ यथाजातम् । अहाजायं ।। २४५ ॥ युष्मद्यर्थपरे तः । ८।१ । २४६ । युष्मच्छन्देऽर्थपरे यस्य तो भवति ॥ तुम्हारिसो।तु. म्हकेरो॥अर्थपर इति किम् । जुम्हदम्ह-पयरणं ॥२४६।। यष्टयां लः । ८।१। २४७ । ___ यष्टयां यस्य लो भवति ॥लट्ठी । वेणु-लट्ठी। उच्छु - लट्ठी। महु-लट्ठी ॥२४७॥ वोत्तरीयानीय-तीन-कृद्ये ज्जः ।।१।२४० ___ उत्तरीयशब्दे अनीयतीयकृद्यप्रत्ययेषुच यस्य द्विरुक्तो जो वा भवति ॥ उत्तरिजं उत्तरीअं॥ अनीय । करणिलं करणी। विम्हयणिज्जं विम्हयणीअं। जवणिज्जं जव. णी॥तीय। बिइज्जो बीओ॥ कृद्य । पेज्जा पेआ॥ ॥२४८॥ छायायां होकान्तौ वा। ८।१ । २४९ । अकान्तौ वर्तमाने छायाशब्दे यस्य हो वा भवति ॥ वच्छस्स छाही वच्छस्स छाया। आतपाभावः सच्छाहं Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६६५] सच्छा | अकान्ताविति किम् || मुह-छाया । कान्तिरि 1 त्यर्थः ॥ २४९ ॥ डाह - aौ कतिपये | ८ | १ | २५० | कतिपये यस्य डाह व इत्येतौ पर्यायेण भवतः ॥ कइवाहं | कहअवं || २५० ॥ किरि - भेरे रो डः | ८ | १ | २५१ | अनयो रस्य डो भवति ॥ किडी । भेडो ॥ २५१ ॥ 1 पर्या डावा | ८ | १ | २५२ | पर्याने रस्य डा इत्यादेशो वा भवति ॥ पडायाणं पलाणं ।। २५२ ।। करवीरे णः । ८ । १ । २५३ | करवीरे प्रथमस्य रस्य णो भवति ॥ कणबीरो ॥ २५३॥ हरिद्रादौ लः | ८ | १ | २५४ | हरिद्रादिषु शब्देषु असंयुक्तस्य रस्य लोभवति ॥ ह लिद्दी | दलिद्दाइ | दलिहो । दालिदं । हलिद्दो । जहुट्ठिलो । सिढिलो | मुहलो । चलणो । वलुणौ । कलुणो । इङ्गालो । सक्कालो | सोमालो । चिलाओ । फलिहा । फलिहो । फा लिहो । काहलो | लुको । अवद्दालं । भसलो । जढलें । बढलो । निठुलो || बहुलाधिकाराच्चरणशब्दस्य पादार्थवृत्तेरेव । अन्यत्र चरण-करणं ॥ भ्रमरे ससंनियोगे एव । अन्यत्र भ्रमरो || तथा । जढरं । बढरो । निडुरो इत्यायपि । हरिद्रा । दरिद्राति । दरिद्र । दारिद्र्य । हरिद्र । युधिष्ठिर । शिथिर । मुखर । चरण । वरुण । करुण । अङ्गार | ८४ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६६ ] प्राकृतव्याकरणम् सत्कार । सकुमार । किरात । परिखा । परिघ । पारिभद्र । कातर । रुग्ण । अपद्वार । भ्रमर । जठर । बठर । निष्ठुर । इत्यादि || आर्षे दुबालसङ्गे इत्याद्यपि ॥ २५४ ॥ स्थूले लो रः । ८ । १ । २५५ । स्थूले लस्य रो भवति ॥ थोरं ॥ कथं थूलभद्दो । स्थूरस्य हरिद्रादिलत्वे भविष्यति ।। २५५ ।। लाहल – लाङ्गल – लाङ्गूले वादेर्णः | ८|१| २५६ | एषु आदेर्लस्य णो वा भवति ॥ णाहलो । लाहलो । णङ्गलं । लङ्गलं । णङ्गूलं । लङ्गूलं ॥ २५६ ॥ ललाटे च | ८ | १ | २५७ । ललाटे च आदेर्लस्य णो भवति ॥ चकार आदेरनुटयर्थः ॥ णिडालं । णडालं ।। २५७ ।। शबरे बो मः | ८ | १ | २५८ | शबरे बस्य मो भवति ॥ समरो ॥ २५८ ॥ स्वप्न - नीव्योर्वा । ८ । १ । २५९ । अनर्योर्वस्य मो वा भवति ॥ सिमिणो । सिविणो । नीमी नीवी ।। २५९ ।। श - षोः सः । ८ । १ । २६० | शकारवकारयोः सो भवति ॥ श । सहो । कुसो । निसंसो । सो । सामा । सुद्धं । दस । सोहह । विसह ॥ ष । सण्डो । निहसो । कसाओ । घोसइ ॥ उभयोरपि । सेसो । विसेसो ॥ २६० ॥ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६७] स्वोपनवृत्तिसहितम् . स्नुषायां हो न वा।८।१ । २६१ । स्नुषाशब्दे षस्य पहः णकाराकान्तो हो वा भवति । सुण्हा सुसा ॥ २६१॥ दश-पाषाणे हः । ८ । १ । २६२ । दशनशब्दे पाषाणशब्दे च शषोर्यथादर्शनं हो वा भवति ॥ दहमुहो दस-मुहो। दहबलो दस-बलो । दहरहो दस-रहो । दह दस । एआरह बारह । तेरह । पा. हाणो पासाणो ॥ २६२ ॥ . दिवसे सः । ८।१ । २६३ । दिवसे सस्य हो वा भवति॥दिवहो।दिवसो ॥२६३।। हो घोऽनुस्वारात् । ८।१। २६४। अनुस्वारात्परस्य हस्य घो वा भवति ॥ सिंघो। सीहो ॥ संघारो । संहारों । कचिदननुस्वारावपि । दाह। दाधो ॥ २६४ ॥ षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपणेष्वादे छः ।८।१।२६५। ___ एषु आदेर्वर्णस्य छो भवति॥ छट्ठो। छट्ठी। छप्पओ। छंमुहो । छमी । छावो । छुवो ।छुहा ।छत्तिवण्णो ॥२६५॥ . शिरायां वा । ८।१।२६६ । शिराशब्दे आदेश्कोवा भवति॥ छिरा शिरा ॥२६६॥ लुग भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य नवा ।८।१ । २६७ । एषु सस्वरजकारस्य लग् वा भवति॥ भाणं । भाय. Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणम् णं । दणु-वहो। दणुअ-वहो।रा-उलं । राय-उलं ॥२६७।। व्याकरण-प्राकारागते कगोः । ८।१ । २६८। । एषु को गश्च सस्वरस्य लुग वा भवति ॥वारणं वायरणं । पारो पायारो॥आओ आगओ ॥ २६८ ॥ " . .. किसलय-कालापस-हृदये यः।८।१।२६९।। एषु सस्वरयकारस्य लुग् वा भवति॥ किसलं किसलयं । कालासं। कालायसं । महण्णव-समा सहिआ। जाला ते सहिअएहि घेप्पन्ति । निसमणुप्पिअ-हिअस्स हिअयं ॥ २६९ ॥ दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पीदपीठेन्तर्दः।८।१।२७०। एषु सस्वरस्य दकारस्य अन्तमध्ये वर्तमानस्य लुग्वा भवति ॥ दुग्गा-वी॥ दुग्गा एकी । उम्बरो उउम्मरो। पा-वडणं पाय-वडणं । पा-वीढं ॥ पाय-वीदं ॥ अन्त. रिति किम् । दुर्गादेव्यामादौ मा भूत् ॥ २७० ॥ यावत्तावज्जीवितावर्तमानावट प्रावारक-देवकुलैवमेवे 1135531वः । ८।१ । २७१ । यविदादिषु सस्वरवकारस्यान्तर्वर्तमानस्य लुग्. वा भवति ॥ जा जाव । ता ताप । जीजीवि। अत्तमाणो आवतमाणो अडो अवडो । पारओ पावरओ। दे-उलं AA ।। Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६६९] देव-उलं । एमेव एवमेव ॥ अन्तरित्येव । एव-मेवन्त्यस्य न भवति ॥ २७१॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानखोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य - प्रथमः पादः ।। यद् दोर्मण्डलकुण्डलीकृतधनुर्दण्डेन सिद्धाधिप कीतं वैरिकुलात् त्वया किल दलस्कुन्तापपातं यशः। भ्रान्त्या त्रीणि जगन्ति खेदविवशं तन्मालवीनां व्यधादापाण्डो स्तनमण्डलेच धवले गण्डस्थले चस्थितिम् ॥१॥ H IN0000000000000000000000000mmomepage - - - .... .. . । इति प्रथमपादः समाप्तः । .000000000000000000000000000000000am. P .. Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्ह द्वितीय पादः संयुक्तस्य | ८ | २ | १ | अधिकारोयं " ज्यायामीत् " ( ८- २ - ११५ ) इति यावत् । यदित् । यदित उर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्संयुक्तस्येति बेदितव्यम् ॥ १ ॥ शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण-मृदुत्वे को वा । ८ । २ । २ । एषु संयुक्तस्य को वा भवति ॥ सक्को सत्तो । मुक्को मुत्तो को दट्ठो । लुको लुग्गो । माउकं माउत्तणं ॥ २ ॥ क्षः खः कचित्तु छ - झौ । ८ । २ । ३ । क्षस्य खो भवति । कचित्तु छझावपि ॥ खओ । लक्खणं । कचित्तु छझावपि । खीणं । छीणं । झीणं । झिजइ ॥ ३ ॥ ष्क - स्कयोर्नाम्नि | ८ | २ । ४ । अनयोर्नानि संज्ञायां खो भवति ।। ष्क । पोक्खरं । पोक्खरिणी । निक्खं ॥ स्क । खन्धो । खन्धावारो । अवक्खन्दो | नाम्नीति किम् । दुकरं । निकम्पं । निकओ । नमोकारो । सक्कयं । सक्कारो । तक्कारो ॥ ४॥ शुष्क - स्कन्दे वा । ८ । २ । ५। अनयोः ष्कस्कयोः खो वा भवति ॥ सुक्खं सुकं । खन्दो कन्दो ॥ ५ ॥ क्ष्वेटका दौ । ८ । २ । ६ । क्ष्टकादिषु संयुक्तस्य खो भवति ॥ खेडओ | क्ष्वेट Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६७१) कशब्दो विषपर्यायः ॥ वोटकः। खोडओ॥ स्फोटकः । खोडओ ॥ स्फेटकः । खेडओ ॥ स्फेटिकः खेडिओ॥६॥ स्थाणावहरे। ८।२।७। स्थाणी संयुक्तस्य खो भवति हरश्चेद् वाच्यो न भवति ॥ खाणू ॥ अहर इति किम् । थाणुणो रेहा ॥७॥ स्तम्भ स्तो वा । ८ । २।८। स्तम्भशब्दे स्तस्य खो वा भवति खम्भो। थम्भो। काष्ठादिमयः ॥ ८॥ थ-गवस्पन्दे । ८ । २।९। स्पन्दाभाववृत्तौस्तम्मे स्तस्य थठौ भवतः॥ थम्भो। उम्भो । स्तभ्यते । थम्भिन्नइ । ठम्भिन्नइ ॥९॥ रक्ते गोवा । ८।२।१०। रक्तशब्दे संयुक्तस्य गो वा भवति ॥ रग्गो रत्तो॥१०॥ शुल्के ङ्गो वा । ८।२।११। .. शुल्कशब्दे संयुक्तस्य गोवा भवति॥सुझसुकं॥११॥ कृति-चत्वरे चः । ८।२ । १२ । . अनयोः संयुक्तस्य चो भवति ।। किची। पचरं ॥१२॥ त्योचैत्ये । ८ । २ । १३ । चैत्यवर्जिते त्यस्य चो भवति ॥ सचं पचओ॥ अवै. त्य इति किम् । चइत्तं ॥ १३ ॥ . प्रत्यूषे षश्व हो वा । ८।२।१४। ... प्रत्यूषे त्यस्य चो भवति तत्संनियोगे च षस्य हो वा भवति ॥ पच्चूहो । पच्चूसो ॥ १४ ॥ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७२] प्राकृतव्याकरणम् त्व-ध्व-द-चांच-छ-ज-शाः कचित् ।८।२।१५) एषां यथासंख्यमेते कचित् भवन्ति ॥ भुक्त्वा। भोचा।। ज्ञात्वा । णचा ॥ श्रुत्वा । सोचा ॥ पृथ्वी । पिच्छी ॥ वि. द्वान् । विरं ॥ बुद्धधा । बुज्झा ॥ भोच्चा सयलं पिच्छि विजं बुज्झा अणण्णय-ग्गामि। चहऊण तवं काउंसन्ती पत्तो सिवं परमं ॥१५॥ वृश्चिके श्वेचुर्वा । ८ । २ । १६ । वृश्चिके श्वेः सस्वरस्य स्थाने चुरादेशो वा भवति । छापवादः ॥ विञ्चुओ विंचुओ। पक्षे । विञ्छिओ॥१६॥ छोक्ष्यादौ । ८।२।१७।। ____ अक्ष्यादिषु संयुक्तस्य छो भवति । वस्यापवादः ॥ अच्छि । उच्छ् । लच्छी। कच्छो । छी।छीरं। सरिच्छो। वच्छो। मच्छिआ। छत्तं । छुहा। दच्छो। कुच्छी। वच्छं। छुण्णो । कच्छा । छारो । कुच्छेअयं । छुरो । उच्छा। छयं । सारिच्छे । अक्षि । इक्षु । लक्ष्मी । कक्ष। क्षुत । क्षीर । स. हक्ष । वृक्ष । मक्षिका । क्षेत्र । क्षु । दक्ष । कुक्षि । पक्षम् । क्षुण्ण । कक्षा । धार । कौशेयकाक्षुर । उक्षन् ।क्षत । सादृश्य । कचित् स्थगितशन्देपि । छइअं॥आर्षे । इक्खू । खीरं । सारिक्वमित्याद्यपि दृश्यते ॥ १७ ॥ क्षमायां कौ । ८।२।१८। कौ पृषिश्यां वर्तमाने क्षमाशब्दे संयुक्तस्य छो भवति। छमा पृथिवी । लाक्षणिकस्यापि । क्ष्मादेशस्य भवति । क्ष्मा । छमा॥ काविती किम् । खमा क्षान्ति ॥ १८ ॥ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञचिसहितम् [६७३] ऋक्षे वा । ८।२ । १९।। ऋक्षशन्दे संयुक्तस्य छो वाभवति॥ रिच्छं। रिक्खें। रिच्छो । रिक्खो॥ कथं छुढं क्षिप्तं । “वृक्ष-क्षिप्तयो रुक्ख-छूढो" (८-२-१२७) इति भविष्यति ॥१९॥ क्षण उत्सवे । ८।२।२० । क्षणशब्दे उत्सवाभिधायिनि संयुक्तस्य छो भवति ॥ छणो ॥ उत्सव इति किम् । खणो॥२०॥ हृस्वात् थ्य-श्च-स-सामनिश्चले । ८।२।२१ ॥ - हृस्वात्परेषां थ्यश्चत्सप्सां छो भवति, निश्चले तुन भवति ॥ थ्य । पच्छं । पच्छा। मिच्छा ॥श्च। पच्छिमं । अच्छेरं । पच्छा ।। स । उच्छाहो । मच्छलो। मच्छरो। संवच्छलो।चिइच्छह ॥ प्स । लिच्छह । जुगुच्छह । अच्छरा ॥ ह्रस्वादिति किम् । ऊसारिओ ॥ अनिश्चल इति किम् । निचलो॥ आर्षे तथ्ये चोऽपि । तचं ॥ २१ ॥ सामोत्सुकोत्सवे वा। ८।२। २२ । एषु संयुक्तस्य छो वा भवति ॥ सामच्छं सामत्थं। उच्छुओ ऊसुओ । उच्छवो ऊसवो ॥ २२॥ स्पृहायाम् । ८ । २।२३ । स्पृहाशब्दे संयुक्तस्य छो भवति । फस्यापवादः॥ छिहा ॥ बहुलाधिकारात्वचिदन्यदपि । निप्पिहो ॥२३॥ द्य-व्य-यो जः। ८।२।२४। एषां संयुक्तानां जो भवति ॥ छ । मज्जं । अवलं । वेज्जो । जुई। जोओ ॥ यय जज्जो । सेज्जा। ये । मज्जा। Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७४] प्राकृतव्याकरणम् चौर्यसमत्वात् । भारिआ। कज्ज । वज्ज। पज्जाओ। . पज्जत । मजाया ॥ २४ ॥ , अमिमन्यौ ज-जौ वा । ८।२।२५। अभिमन्यौ संयुक्तस्य जो जश्च वा भवति । अहिमज्जू । अहिमञ्जू । पक्षे । अहिमन्नू । अभिग्रहणादिह न भवति मन्नू ॥ २५ ॥ साध्वस-ध्य-ह्यां झः।८।२ । २६ । साध्वसे संयुक्तस्य ध्यधयोश्च झोभवति ॥ सशसं ।। ध्या वापझाणं । उवज्झाओ। सझाओ। सज्झं । विसोय। सज्झो। मज्झं। गुज्झं । णज्झइ ॥ २६ ॥ ध्वजे वा । ८१२ । २७ । . ध्वजशग्दे संयुक्तस्य झो वा भवति ॥झओ धओ॥ ॥ २७ ॥ .. इन्धौ झा। ८।२।२८। इन्धौ धातौ संयुक्तस्य झा इत्यादेशो भवति । समिजशाह । विझाइ ॥ २८ ॥ वृत्त प्रवृत्त-मृत्तिका-पत्तन कदर्थिते टः ।।२।२९॥ एषु संयुक्तस्य टो भवति ॥ वहो । पयहो । महिआ। पट्टणं । कवष्टिओ॥२९॥ स्याधूर्तादौ । ८।२।३०। तस्य टो भवति-धूर्तादीन वर्जयित्वा ॥ केवट्टो । वट्टी। जहो। पयट्टह ॥ वटुल । रायपट्टयं । नहई। सेवहि ॥ अधूर्तादाविति किम् । धुत्तो। कित्ती । वत्ता । आवत्तणं । Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कित्तरी भूत बातां । निवर्तक । . स्वोपवाचिसहितम् [६७५] पवत्तणं । संवत्तणं। आवत्तओ। निवत्तओ।निव्वत्तओ। पवत्तओ। संवत्तओ। वत्तिआ । वात्तिआ। कत्तिओ। उक्कत्तिओ । कत्तरी । मुत्ती । मुत्तो । मुहुत्तो ॥ बहुलाधिकारा पहा ॥ धूर्त । कीर्ति । वार्ता | आवर्तन । निवर्तन । प्रवर्तन । संवर्तक । आवर्तक । निवर्तक। निवर्तक । बतक । संवर्तक । वर्तिका । वार्तिका । कार्तिक । उत्कर्तित । कर्तरी । मूर्ति । मूर्त । मुहूर्त । इत्यादि ॥ ३० ॥ वृन्ते ण्टः । ८।२।३१ ।। वृन्ते संयुक्तस्य ण्टो भवति ॥ वेण्टं । तालवेण्ट ॥३१॥ ठोस्थि-विसंस्थुले । ८ । २ ॥३२॥ अनयोः संयुक्तस्य ठो भवति ॥ अट्ठी। विसंठुलं । ॥३२॥ स्त्यानचतुर्थार्थे वा । ८ । २ । ३३ । एषु संयुक्तस्य ठो वा भवति । ठीणं । वीर्ण । चउहो। पठत्यो । अट्ठो प्रयोजनम् । अस्थो धनम् ।। ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्टे । ८।२ । ३४ । .. उष्ट्रादिवर्जिते ष्टस्य ठो मवति ॥ लट्ठी। मुट्ठी। दिडी। सिट्ठी । फुहो। कटं । सुरहा। इहो। बणिटुं ॥ अ. नुदेष्टासंदष्ट इति किम् । उहो। इट्टाचुण्णं व। संदहो। ॥३४॥ ... गर्ते डः।८।२।३५। गर्तशब्दे संयुक्तस्य डो भवति । टापबादः॥ गो। गड्डा ॥३५ ।। .. . Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७६ ] प्राकृतव्याकरणम् संमर्द - वितर्दि-विच्छर्द-च्छर्दि - कपर्द - मर्दिते-र्दस्य | ८ | २ | ३६ | एषु र्वस्य त्वं भवति ॥ सम्मड़ो । विअड्डी । विच्छडो । छड्डुइ । छड्डी । कवड्डो । मडिओ | सम्मडिओ ॥ ३६ ॥ गर्दभे वा | ८ | २ | ३७ । गर्दमेर्दस्य डो वा भवति ॥ गइहो । गद्दहो ॥ ३७ ॥ कन्दरिका - भिन्दिपाले ण्डः | ८ | २ | ३८ | अनयोः संयुक्तस्य ण्डो भवति ॥ कण्डलिआ । मिण्डिवालो ॥ ३८ ॥ स्तब्धे ठ–दौ । ८ । २ । ३९॥ स्तब्धे संयुक्तयोर्यथाक्रमं ठढौ भवतः ॥ ठड्ढो ॥ ३९ ॥ दग्ध - विदग्ध - वृद्धि - वृद्धे ढः । ८ । २ । ४० । एषु संयुक्तस्य ढो भवति ।। दड्ढो । विअड्ढो । वुड्ढी । बुड्ढो । कचिन भवति । विद्ध-कह-निरूविअं ॥ ४० ॥ श्रद्धर्द्धि - मूर्धन्ते वा । ८ । २ । ४१ । एषु अन्ते वर्तमानस्य संयुक्तस्य ढो वा भवति ॥ सड्ढा सद्धा । इड्ढी रिद्धी । मुण्डा मुद्धा | अहं अद्धं ॥ ॥ ४१ ॥ म्नज्ञोर्णः । ८ । २ । ४२ | अनयोर्णो भवति ॥ न । निष्णं । पज्जुण्णो ॥ ज्ञ । गाणं | सण्णा । पण्णा । विण्णाणं ॥ ४२ ॥ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षवृत्तिसहितम् [६७७ ] - पंचाशत्पंचदश-दत्ते । ८।२ । ४३ । . . एषु संयुक्तस्य णो भवति ॥ पण्णासा। पण्णरह । दिण्णं ।। ४३॥ मन्यौ न्तो वा । ८ । २ । ४४ । मन्युशब्दे संयुक्तस्य न्तो वा भवति ॥ मन्तू भन्नू ॥ ॥४४॥ स्तस्य थोसमस्त-स्तम्बे । ८।२।४५। समस्तस्तम्बवर्जिते स्तस्य थो भवति ।। हत्थो । थुई । धोतं । थोअं। पत्थरो । पसत्थो । सत्थि ।। असमस्तस्तम्ब इति किम् । समत्तो तम्बो ॥ ४५ ॥ . स्तवे । ८ । २।४६ ।। स्तवशब्दे स्तस्य थो वा भवति ॥ थवो तवो ॥ ४६ ॥ . पर्यस्ते थ-टौ । ८ । २ । ४७ । पर्यस्ते स्तस्य पर्यायेण थटौ भवतः ।। पल्लत्यो पल्लष्टो ॥४७॥ वोत्साहे थौ हश्च ।।८।२। ४८ । . . उत्साहशब्दे संयुक्तस्य थो वा भवति, तत्सन्नियोगे च हस्य रः॥ उत्थारो। उच्छाहो ॥४८॥ आश्लिष्टे ल-धौ। ८ । २ । १९ । आश्लिष्टे संयुक्तयोर्यथासंख्यं ल ध इत्येतो भवतः॥ आलिद्धो॥४९॥ चिन्हे न्धो वा । ८।२। ५० ।। बिहे संयुक्तस्य धो वा भवति । ण्हापवावः ॥ पक्षे Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७८] प्राकतव्याकरणम् सोपि ॥ चिन्धं इन्धं चिण्हं ॥५०॥ भस्मात्मनोः पो वा ।।२। ५१ । अनयोः संयुक्तस्य पो वा भवति ॥ भप्पो भस्सो। अप्पा अप्पाणो । पक्षे । अत्ता ॥५१॥ इम-कमोः । ८।२ । ५२ । .. ड्मक्मोः पो भवति ॥ कुइमलम् । कुम्पलं । रुक्मि. णी। रुप्पिणी ॥ कचित् च्मोपि । रुच्मी रुप्पी ॥५२ ॥ प-स्पयोः फः । ८ । २ । ५३ । पस्सयोः फो भवति ॥ पुष्पम् । पुष्पं ॥ शष्पम् । सप्फ ॥ निष्पेषः । निप्फेसो ॥ निष्पावः। निफावो। स्पन्दनम् । फन्दणं ॥ प्रतिस्पर्धिन् । पाडिप्फद्धी ॥ बहुला. धिकारात् चिद् विकल्पः । बुहप्फई बुहप्पई । कचिन्न भवति । निप्पहो । णिप्पुंसणं । परोप्परम् ॥ ५३॥ भीष्मे ष्मः । ८ । २।५४ ।। भीष्मे ष्मस्य फो भवति । भिष्फो ॥५४॥ श्लेष्मणि वा । ८।२। ५५ । श्लेष्मशब्द ष्मस्य फो वा भवति ॥ सेफो सिलिम्हो ॥ ५५॥ ताम्राने म्बः । ८ । २ । ५६ । अनयोः संयुक्तस्य मयुक्तो बोभवति॥ तम्बं । अम्बं॥ अम्बिर तम्बिर इति देश्यौ ॥ ५६ ॥ हो भो वा । ८।२। ५७ । हस्य भो वा भवति ॥ जिम्मा जीहा ॥ ५७॥ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपवाचिसहितम् [६७९] वा विह्वले वौ वश्च । ८ । २।५८ । विह्वले ह्रस्य भो वा भवति, तत्सपियोगे च विशब्दे वस्य वा भो भवति ॥ विन्भलो बिन्भलो विहलो ॥१८॥ वोर्चे । ८ । २ । ५९ । अवंशब्दे संयुक्तस्य भो वा भवति ॥ उन्म उद्धं ॥ . कश्मीरे म्भो वा । ८ । २।६।। कश्मीरशन्दे संयुक्तस्यम्भोवा भवति॥ कम्भारा कम्हारा ॥ ६ ॥ न्मो मः। ८।२।६१ । न्मस्य मो भवति । अधोलोपापवादः ।। जम्मो। ब. म्महो । मम्मणं ॥ ६१॥ . ग्मो वा । ८।२ । ६२ । - ग्मस्य मो वा भवति ॥ युग्मम् । जुम्म जुग्गं ॥ तिग्मम् । तिम्मं तिग्गं ॥ ६२॥ ब्रह्मचर्य तूर्य सौन्दर्य-शौण्डीयें यों रा२।६३। .. पषु यस्य रो भवति । जापवादः ॥ ब्रह्मचेरं । पौर्यसमत्वाद् ब्रह्मचरिअं । तूरं । सुन्दरं । सोण्डीरं ॥ ६३ ॥ धैर्य वा । ८।२।६४ । धैर्य यस्य रो वा भवति ॥ धीरं धिज्जं। सूरो सुज्जो इति तु सूरसूर्यप्रकृतिभेदात् ।। ६४ ॥ एतः पर्यन्ते । ८।२।६५ । पर्यन्ते एकारात्परस्य यस्य रो भवति ॥ पेरन्तो ॥ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८०] प्राकृतव्याकरणम् एत इति किम् । पज्जन्तो ॥ ६५ ॥ आश्चये। ८।२।६६ । : आश्चर्ये एतः परस्य यस्य रो भवति ॥ अच्छेरं ॥ एत इत्येव । अच्छरिअं॥६६॥ अतो रिआर-रिज्ज-रीअं। ८।२।६७। .. __ आश्चर्ये अकारात्परस्य यस्य रिअ अर रिज्ज रीज इत्येते आदेशा भवन्ति । अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरि. ज्जं अच्छरीअं ॥ अत इति किम् । अच्छेरं ॥ ६७ ॥ पर्यस्त--पर्याण-सौकुमार्ये लः ।२।६८। एषु यस्य ल्लो भवति ॥ पर्यस्तं पल्टं पल्लत्थं। पल्लाणं। सोअमल्लं ।। पल्लको इति च पल्यङ्कशब्दस्य यलोपे द्वित्वे च॥ पलिअङ्को इत्यपि चौर्यसमत्वात् ॥ ६८ ॥ बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा ।।२।६९॥ अनयोः संयुक्तस्य सो वा भवति ॥ बहस्सई। बहफई। भयस्सई भयप्फई । वणस्सई वणप्फई ॥ ६९ ॥ बाष्पे होश्रुणि । ८।२।७। बाष्पशब्दे संयुक्तस्य हो भवति, अश्रुण्यभिधेये । बाहो नेत्रजलम् ॥ अश्रुणीति किम् ॥ बप्फो ऊष्मा ॥७॥ कार्षापणे । ८ । २ । ७१। कार्षापणे संयुक्तस्य हो भवति ॥ काहावणो॥ कथं कहावणो । 'हस्वः संयोगे' (८-१-८४ ) इति पूर्वमेव हस्वत्वे पश्चादादेशे। कर्षापणशब्दस्य वा भविष्यति ॥ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपशाचिसहितम् [६८१] • दुःख-दक्षिण-तीर्थे वा ।८ । २ । ७२ । एषु संयुक्तस्य हो वा भवति ॥ दुहं दुक्खं । पर दु. क्खे दुक्खिआ विरला । दाहिणो दक्षिणी । तूहं तित्य ॥७२॥ कूष्माण्डयां ष्मो लस्तु ण्डो वा । ८।२।७३। कूष्माण्ड्यां ष्मा इत्येतस्य हो भवति ण्ड इत्यस्य तु वा लो भवति ॥ कोहली कोहण्डी ।। ७३॥ पक्ष्म-म-म-स्म-मां-म्हः । ८।२।७४ । पक्ष्मशब्दसंबन्धिनः संयुक्तस्य श्मष्मस्मनां च मकाराक्रान्तो हकार आदेशो भवति॥पक्ष्मम्। पम्हाइं। पम्हललोअणा ॥ श्म । कुश्मान कुम्हाणो।कश्मीराः।कम्हारा॥ धम । ग्रीष्मः । गिम्हो । ऊष्मा। उम्हा ॥ स्म। अस्मा. दृशः। अम्हारिसो । विस्मयः । विम्हओ । म । ब्रह्मा । बम्हा ॥ सुमाः ।सुम्हा ॥ बम्हणो। बम्हचेरं ॥ कचित् म्भोपि दृश्यते । बम्भणो । बम्भचेरं । सिम्भो । वचित्र भवति । रश्मिः रस्सी। स्मरः सरो ॥ ७४ ॥ .. सूक्ष्म-न-ष्ण-स्व-ह-ह-क्ष्णां-बहः । ८ । २ । ७५ । सूक्ष्मशब्दसंबन्धिनः संयुक्तस्य इनष्णस्नहलक्ष्णां च णकाराकान्तो हकार आदेशो भवति ।। सूक्ष्मं । सहं॥ भ। पण्हो । सिण्हो ।। ष्ण । विण्डू । जिण्ड् । कण्हो । उण्हीसं ॥ स्न । जोण्हा । पहाओ। पण्हुओ ॥ हु । वण्ही। जण्ह ॥ छ । पुव्वण्हो । अवरोहो ॥ण । सोह। तिण्हं॥ विप्रकर्षे तु कृष्णकृस्नशब्दयोः कसणो । कसिणो ॥७॥ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८२] प्राकृतव्याकरणम् - होल्हः । ८।२। ७६ । . - स्थाने लकाराकान्तो हकारो भवति ॥ कल्हारं । पलहाओ ॥ ७६ ॥ . कगट-ड-त-द-प-श-ष-स- क- पामूलुकाबा२७७) एषांसंयुक्तवर्णसंबन्धिनामूचं स्थितानां लुग् भवति । क। भुत्तं । सित्वं॥ ग। बुद्धं । मुद्धं ॥ ट। षट्पदः । छप्प. ओ॥ कट्फलम् । कप्फलं ॥ड । खङ्गः। खग्गो॥षडजा। सज्जो ॥त । उप्पलं । उप्पाओ ॥द । मदुगुः । मग्गू । मोग्गरो॥प। सुत्तो। गुत्तो॥ श। लण्हं । निचलो। चुअइ ॥ष । गोही । छट्ठो । निठुरो ॥ स । खलिओ। नेहो ।कदु:खम् । दुक्खं ॥ प । अंत पातः। अंतप्पाओ ॥ ७७ ॥ अधो मन-याम्। ८ । २ । ७८ । मनयां संयुक्तस्याधो वर्तमानानां लुग् भवति ॥म। जुग्गं । रस्सी । सरो। सेरं ॥ न । नग्गो । लग्गो ॥ य । सामा। कुडं। वाहो ॥ ७८॥ सर्वत्र लबरामवन्द्रे । ८ । २ । ७९ । चन्द्रशब्दादन्यत्र लवरां सर्वत्र संयुक्तस्योर्वमधश्च स्थितानां लुग भवति ॥ अवै ॥ ल। उल्का । उक्का ॥ व. ल्कलम् । वक्कलं ॥ष। शब्दः । सहो ॥ अन्दः । अहो । लुब्धकः । लोद्धओ॥र । अर्कः । अक्को ॥ वर्गः । वग्गो॥ अधः। लक्षणम् । सोहं ॥ विक्लवः । विकवो ॥ पक्वम् । पर्क पिकं ॥ ध्वस्तः। धत्थो ॥ चक्रम् । चकं ॥ ग्रहः । गहो। Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपवृषिसहितम् [६८३] रात्रिः। रत्ती ॥ अत्र दू इत्यादिसंयुक्तानामुभयप्राप्ती य. थादर्शनं लोपः ॥ कचिदूर्ध्वम् । उद्विग्नः। उब्विग्गो । द्वि. गुणः । वि-उणो । द्वितीयः। बीओ ॥ कल्मषम् ।कम्मसं॥ सर्वम् । सव्वं ।। शुव्यम् । सुब्बं ॥ कचित्त्वधः। काव्यम् । कव्वं ॥ कुल्या । कुल्ला ॥ माल्यम् । मल्लं । द्विपः। दिओ। द्विजातिः । दुआई ।।कचित्पर्यायेण । द्वारम् । बारं । दारं ।। उद्विग्नः । उव्विग्गो । उविण्णो॥ अवन्द्र इति किम् । वन्द्रं । संस्कृतसमोऽयं प्राकृतशब्दः। अत्रोत्तरेण विकल्पो. ऽपि न भवति निषेधसामर्थ्यात् ॥ ७९ ॥ दूरो न वा। ८।२। ८०। द्रशब्दे रेफस्य वा लुग् भवति ॥ चन्दो चन्द्रो । रुहो रुद्रो। भई भद्रं । समुद्दो समुद्रो ॥ हृदशब्दस्य स्थितिप. रिवृत्तौ द्रह इति रूपम् । तत्र द्रहो दहो। केचिद् रलोपं नेच्छन्ति । द्रहशब्दमपि कश्चित् संस्कृतं मन्यते ॥ बोद्रहादयस्तु तरुणपुरुषादिवाचका नित्यं रेफसयुक्ता देच्या एव । सिक्खन्तु बोद्रहीओ। वोद्रह-द्रहम्मि पडिआ ॥८॥ धात्र्याम् । ८।२। ८१ । .. धात्रीशन्दे रस्य लुग् वा भवति॥धत्ती । ह्रस्वात्मागेव रलोपे धाई । पक्षे धारी ॥ ८१॥ तीक्ष्णे णः।८।२। ८२ । तीक्ष्णशब्दे णस्य लुग् वा भवति ॥ तिक्वंतिण्हं । . ॥८२॥ ज्ञो ञः । ८।२। ८३ । ज्ञा सम्बन्धिनो मस्य लुग वा भवति । जागाणं । Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८४] प्रांकृतव्याकरणम् सव्वजोसवण्णू। अप्पज्जोअप्पण्णू। दइवजोवइवण्णू। इजिअजोइनिअण्णू । मणोज्जमणोण्णं।अहिजो अहिण्णू । पला पण्णा । अजा आणा । संज्ञा सण्णा ॥ कचिन्न भवति । विण्णाणं ॥ ८३ ॥ मध्याह्ने हः । ८१२। ८४।... मध्याहे हस्य लुग् वा भवति ॥ मण्झनो मन्मण्हो॥ ॥८४॥ दशाहे । ८ । २ । ८५ । पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम् । दशाई हस्य लुर भवति । इसारो ॥ ८५॥ आदेः “मश्रु-श्मशाने । ८ । २ । ८६ । अनयोरादेढुंग भवति ॥ मासू मंसू मस्सू ॥थसाणं। आर्षे श्मशानशब्दस्य सीआणं सुसाणमित्यपि भवति ॥ ॥ ८६ ॥ श्वो हरिश्चन्द्रे । ८ । २ । ८७। । हरिश्चन्द्रशब्दे श्च इत्यस्य लुग भवति ॥ हरिअन्दो। ॥८७॥ रात्रौ वा । ८ । २। ८८ । रात्रिशब्दे संयुक्तस्य लुगू वा भवति॥राई रत्ती।।८।। अनादौ शेषादेशयोर्डित्वम् । ८ । २ । ८९ । पवस्यानादौ वर्तमानस्य शेषस्यादेशस्य च द्वित्वं भवति ।। शेष । कप्पतरू। भुत्तं । दुद्धं । नग्गो। उक्का । अको। मुक्खो॥ आदेश । डको। जक्खो । रग्गो। किसी। Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपत्रवृत्तिसहितम् [६८५]. रुप्पी॥ क्वचिन्न भवति। कसिणो ॥ अनादाविति किम् । खलि। थेरो । खम्भो॥ द्वयोस्तु द्वित्वमस्त्येवेति न भवति विञ्चुओ। भिण्डिवालो॥ ८९ ॥ द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः । ८ । २ । ९० । द्वितीयतुर्ययोर्द्वित्वप्रसङ्गे उपरि पूर्वी भवतः ।। द्वितीयस्योपरि प्रथमश्चतुर्थस्योपरि तृतीय इत्यर्थः ॥ शेष। व. क्खाणं । वग्यो । मुच्छा । निज्झरो ॥कडं । तित्थं । निद्धः णो । गुप्फं। निन्भरो॥आदेश । जक्खो ॥ घस्य नास्ति। अच्छी। मज्झं। पट्टी वुड्ढो। हत्थो आलिद्धो। पुप्फं। भि. भलो॥ 'तैलादौ' (८-२-९८) द्वित्वे ओक्खलं॥ से. वादी (८-२-९९) नक्खा । नहा ॥ समासे । कइ-द्धओ कह-धओ॥ द्वित्व इत्येव । खाओ॥९॥ दीर्घ वा। ८ । २ । ९१ । दीर्घशब्दे शेषस्य घस्य उपरि पूर्वोवा भवति ॥ दिग्धो दीहो ॥ ९१ ॥ न दीर्घानुस्वारात् । ८।२ । ९२ । दीर्घानुस्वाराभ्यां लाक्षणिकाम्यामलाक्षणिकाभ्यां च परयोः शेषादेशयोर्द्वित्वं न भवति ॥ छूढो। नीसासो। फासो ॥ अलाक्षणिक । पार्श्वम् । पासं ॥शीर्षम् । सीसं॥ ईश्वरः। ईसरो ॥ द्वेष्यः । वेसो ॥ लास्यम् । लासं ॥ आस्यम् । आसं॥ प्रेष्यः पेसो॥अवमाल्यम् । ओमालं॥ आज्ञा। आणा । आज्ञप्तिः। आणत्ती ॥ आज्ञपनं । आण. वणं ॥ अनुस्वारात् । व्यस्रम् । तंसं ॥ अलाक्षणिक । संझा । विझो। कंसालो॥९२ ॥ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८aj प्राकृतव्याकरणम् स-होः । ८।२।९३ । रेफहकारयोदित्वं न भवति ॥ रेफः शेषो नास्ति । आदेश। सुन्देरं। बह्मचेरं । परन्तं ॥ शेषस्य हस्य । विहलो॥ आदेशस्य । कहावणो ।। ९३ ॥ धृष्टद्युम्ने णः । ८।२।९४ । धृष्टद्युम्नशब्दे आदेशस्य णस्य द्वित्वं न भवति ॥ पहज्जुणो ॥ ९४॥ कर्णिकारे वा । ८।२ । ९५ । कर्णिकारशब्दे शेषस्य णस्य द्वित्वं वा न भवति ॥ कणिआरो कण्णिआरो ॥ ९५ ॥ दृप्ते । ८ । २ । ९६ । । हप्तशब्दे शेषस्य द्वित्वं न भवति ॥ दरिअ-सीहेण ॥९६ ॥ समासे वा । ८।२। ९७।' शेषादेशयोःसमासे द्वित्वं वा भवति ॥ नइ-ग्गामो नइ. गामो। कुसुम पयरो कुसुम-पयरो। देव-त्थुई। देव थुई। हर-क्लन्दाहरखन्दा।आणाल-क्खम्भो आणाल-खम्भो। पहुलाधिकारादशेषादेशयोरपि। स-पिवासो स-पिवासो। पद्ध-फलो बद्ध-प्फलो। मलय सिहर क्खण्डं मलय सिहरखण्ड । पम्मुकं पमुकं । अइंसणं असणं । पडिक्कूलं परिकूलं । तेल्लोकं तेलोकं इत्यादि ॥ ९७ ॥ तैलादौ । ८।२। ९८ । तैलादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्यस्य च व्यञ्जनस्य द्वित्वं भवति। तेल्लं । मण्डको। वेहलं । Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वापशचिसहितम् [६८७] • उज्जू । विडा। बहुत्तं ॥ अनन्यस्य । सोतं । पेम्म । जुब्वणं ॥ आर्षे । पडिसोओ। विस्सोअसिआ॥ तैलं । मंडूक। विचकिल । ऋजु । ब्रीडा । प्रभूत । स्रोतम् । प्रेमन् । यौवन । इत्यादि ॥ ९८॥ - सेवादौ वा । ८।२। ९९ । सेवादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च द्वित्वं वा भवति ॥ सेव्वा सेवा॥ नेहुं नीडं । नक्खा नहा। निहित्तोनिहिओ।वाहित्तो वाहिओ। माउकं माउआएको एओ। कोउहलं कोउहलं । वाउल्लो वाउलो । थुल्लो थोरो। हुत्तं हूआदइव्वं दइवं। तुहिक्को तुहिओ । मुक्को मूओ। खण्णू खाणू। थिणं थीणं ॥ अनन्त्यस्य । अम्हकेरं अम्हकेरं । तंच्चेअतं चेअ। सोच्चिअसो चिअ॥ सेवा । नीड । नख । निहित । व्याहृत। मृदुक । एकाकुतूहल। व्याकुल । स्थूल । हूत । दैव । तूष्णीक । मूक । स्थाणु । स्त्यान । अस्मदीय । चेअ । चिअ इत्यादि ॥ ९९ ॥ शा. ङ्गात्पूर्वात् । ८ । २ । १००। शाङे ङात्पूर्व अकारो भवति ॥ सारङ्गं ।। १०० ॥ क्ष्मा-श्लाधा-रत्नेन्त्यव्यञ्जनात् ।।२।१०१। एषु संयुक्तस्य यदन्त्यव्यञ्जनं तस्मात्पूर्वोद् भवति ॥ छमा । सलाहा। रयणं । आर्षे सूक्ष्मेऽपि। सुहमं ॥१०१॥ स्नेहाग्न्योर्वा । ८।२।१०२। अनयोः संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्वोकारोवा भवति॥ सणेहो नेहो । अगणी अग्गी ॥१०२॥ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमन्दानुशासनस्य प्लक्षे लात् | ८ | २ | १०३ । लक्षशब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनाल्लात्पूर्वोद् भवति ॥ पलक्खो ॥ १०३ ॥ [ ६८८ ] - श्री ही कृत्स्न-क्रिया दिष्ट्यास्वित् । ८ । २ । १०४ । एषु संयुक्तस्यात्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारो भवति ॥ है । अरिहइ । अरिहा । गरिहा । बरिहो || श्री । सिरी । ही। हिरी ॥ हृीतः हिरीओ || अह्वीकः । अहिरीओ ॥ कृत्स्नः । कसिणो ॥ क्रिया । किरिआ || आर्षे तु हयं नाणं कियाहीणं ॥ दिष्टया । दिट्टिआ ॥ १०४ ॥ र्श-र्ष-तप्त-वज्रे । ८ । २ । १०५ । शर्षयोस्तप्तवज्रयोश्च संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारो वा भवति ॥ र्श । आयरिसो आयंसो । सुदरिसणो सुदंसणो । दरिसणं दंसणं । र्ष । वरिसं वासं । वरिसा वासा । वरिस-सयं वाससयं ॥ व्यवस्थितविभाषया क्वचिन्नित्यम् । परामरिसो । हरिसो । अमरिसो ॥ तप्त । तविओ तत्तो ॥ वज्र । वरं वज्जं ॥ १०५ ॥ लात् । ८ । २ । १०६ । संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनाल्लात्पूर्व इद् भवति ॥ किलिनं । किलि । सिलिङ्कं । पिलुङ्कं । पिलोसो । सिलिम्हो । सिलेसो । सुकिलं । सुइलं । सिलोओ । किलेसो । अम्बिलं । गिलाइ | गिलाणं । मिलाइ । मिलाणं । किलम्मइ । किल. न्तं । क्वचिन्न भवति ॥ कमो । पवो । पिप्पयो । सुक्क-पक्खो ॥ उत्प्लावयति । उपावे ॥ १०६ ॥ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६८९] स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात् ।८।२।१०७) - स्यादादिषु चौर्यशब्देन समेषु च संयुक्तस्य यात्पूर्व इद् भवति ॥ मिआ । सिआ-वाओ । भविओ। इअं॥ चौर्यसम । चोरिअं। थेरिअं। भारिआ। गम्भीरि। गहीरिअं। आयरिओ। सुन्दरिअं। सोरिअं। धीरिअं। वरिअं । सूरिओ। धीरि। बह्मचरिअं ॥ १०७ ॥ ....... स्वप्ने नात् । ८ । २ । १०८ । स्वपशब्दे नकारात्पूर्व इद् भवति ॥ सिविणो ॥१०॥ स्निग्धे वादितौ । ८।२।१०९ । स्निग्धे संयुक्तस्य नात्पूर्वी अदितौ वा भवतः ॥ सणिद्धं सिणिद्धं । पले निद्धं ॥ १०९ ॥ कृष्णे वर्णे वा । ८।२।११०। कृष्णे वर्णवाचिनि संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्वी अदितौ वा भवतः । कसणो कसिणो कण्हो ॥ वर्ण इति किम् ॥ विष्णौ कण्हो ॥ ११० ॥ - उच्चाहतः । ८।२।१११ । . . अर्हत-शब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उत् अदिती च भवतः ॥ अदितौ च भवतः ॥ अरुहो अरहो अरिहो। अरहन्तो अरहन्तो अरिहन्तो ॥ १११ ।। पद्म-छद्म-मूर्ख-द्वारे वा । ८ । २ । ११२ । एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उद् वा भवति॥पउम पोम्मं । छउमं छम्मं । मुरुक्खो मुक्खो। दुवारं। पक्षे। वारं । देरं । दारं ॥ ११२ ॥ ८७ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९० ] प्राकृतव्याकरणम् तन्वीतुल्येषु । ८ । २ | ११३ | उकारान्ता डीप्रत्ययान्तास्तन्वीतुल्याः । तेषु संयुक्तस्यान्त्यव्यजनात् पूर्व उकारो भवति ॥ तणुवी । लहुवी । गुरुषी । बहुवी । पुहुवी । मउबी ॥ कचिदन्यत्रापि । सुधनम् । सुरूधं || आर्षे । सूक्ष्मम् । सुहुमं ॥ ११३ ॥ एकस्वरे श्वः - स्वे | ८ | २ | ११४ | एकस्वरे पदे यौ श्वस् स्व इत्येतौ तयोरन्त्यव्यञ्जनापूर्व उद् भवति ॥ श्वः कृतम् । सुवे कथं ॥ स्वे जनाः । सुवे जणा । एकस्वर इति किम् । स्व-जनः । स यणो ॥ ॥ ११४ ॥ ज्यायामीत् | ८ | २ | ११५ । ज्याशब्दे अन्स्यव्यञ्जनात्पूर्व ईद् भवति || जीआ ॥ ॥ ११५ ॥ करेणू - वाराणस्यो र - गोर्व्यत्ययः | ८ | २ | ११६ | अनयो रेफणकारयोर्व्यत्ययः स्थितिपरिवृत्तिर्भवति ॥ कणेरू । वाणारसी ॥ स्त्रीलिङ्गनिर्देशात्पुंसि न भवति । एसो करेणू ॥ ११६ ॥ आलाने लनोः । ८ । २ । ११७ । आलानशब्दे लनोर्व्यत्ययो भवति ॥ आणाली । आणाल - क्खम्भो ॥ ११७ ॥ अचलपुरे च - लोः | ८ | २ | ११८ | अचलपुरशब्दे चकार लकारयोर्व्यत्ययो भवति ॥ अल पुरं ॥ ११८ ॥ } Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञचिसहितम् [६९१] . महाराष्ट्रे ह-रोः। ८।२ । ११९।। महाराष्ट्रशब्दे हरोयत्ययो भवति॥ मरहट्ठे ॥११९॥ — हदे ह-दोः। ८ । २ । १२० । हृदशब्दे हकारदकारयोर्व्यत्ययो भवति॥द्रहो। आर्षे । हरए महपुण्डरिए ॥ १२० ॥ हरिताले र-लोन वा । ८ । २ । १२१ । हरितालशन्दे रकारलकारयोर्व्यत्ययो वा भवति । हलिआरो हरिआलो ॥ १२१ ॥ लघुके ल-होः । ८।२।१२२ । लघुकशब्दे घस्य हत्वे कृते लहोर्व्यत्ययो वा भवति॥ हलुअं। लहुअं॥ घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वात् हो न प्रामोतीति हकरणम् ॥१२२ ॥ . ललाटे ल-डोः। ८ । २ । १२३ । - ललाटशब्दे लकारडकारयोर्व्यत्ययो भवति वा॥ णडालं । णलाडं । ललाटे च' (८-१-२५७) इति आदे. लस्य णत्वविधानादिह द्वितीयो लः स्थानी ॥ १२३ ॥ . ह्ये ह्योः। ८।२।१२४ । यशब्दे हकारयकारयोर्व्यत्ययो वा भवति ॥गुह्यम् । गुय्हं । गुज्झं ॥ सह्यः । सय्हो सज्झो ॥ १२४ ॥ . स्तोकस्य थोक-थोव-थेवाः । ८ ।।२।१२५ । स्तोकशब्दस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति वा ॥ थोकं थोवं थेवं । पक्षे । थोरं ॥ १२५ ॥ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९२] प्राकृतव्याकरणम् दुहित-भगिन्योधूआ-बहिण्यो। ८१२।१२६ । . अनयोरेतावादेशौ वा भवतः ॥ धूआ दुहिआ। यहिणी भइणी ॥ १२६ ॥ .... वृक्ष-विप्तयो रुख--छूटी। ८।२ । १२७ । वृक्ष-क्षिप्तयोर्यथासंख्यं रुक्ख छूढ इत्यादेशो वा.. भवतः ॥ रुक्खो वच्छो । छूई खित्तं । उच्छूढ़ । उक्खित्तं ॥१२७॥ वनिताया विलया। ८ । २ । १२८। वनिताशब्दस्य विलया इत्यादशो वा भवति ॥ विलया वणिआ॥ विलयेतिसंस्कृतेऽपीति केचित् ॥ १२८॥ गौणस्येषतः कूरः । ८।२ । १३९ । । ईषच्छदस्य गौणस्य कूर इत्यादेशोवा भवति॥पिंच व्व कूर-पिक्का । पक्षे । ईसि ॥ १२९ ॥ लिया इत्थी । ८ । २ । १३० । स्त्रीशब्दस्य इत्थी इत्यादेशो वा भवति ॥ इत्थी थी॥ ॥ १३०॥ धृतेर्दिहिः । ८ । १३१ । , भूतिशन्दस्य विहिरित्यादेशो वा भवति ॥ विही घिई ।। १३१ ॥ मार्जारस्य मञ्जर-वजरौ । ८।२।१३२) - मारिशब्दस्य मञ्जर बञ्जर इत्यादेशौवा भवतः॥ मजरो वञ्जरो। पक्षे । मजारो॥ १३२ ॥ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनपचिसहितम् [६९३] . वैडूर्यस्य वेरुलिअं।८।२ । १३३ । वैडूर्यशब्दस्य वेरुलिअ इत्यादेशो वा भवति ॥ वेरुलिअं। वेडुलं ॥ १३३ ॥ एहि एत्ताहे इदानीमः । ८ । २ । १३४ । अस्य एतावादेशौ वा भवतः ॥ एहिं । एताहे । इआणिं ॥ १३४ ॥ पूर्वस्य पुरिमः। ८।२ । १३५।। : पूर्वस्य स्थाने पुरिम इत्यादेशो वा भवति ॥ पुरिमं पुव्वं ॥ १३५ ॥ त्रस्तस्य हित्य-तडौ।८।२। १३६ । प्रस्तशब्दस्य हित्थ तह इत्यादेशौ वा भवतः॥हित्थं तह तत्थं ॥ १३६ ॥ . बृहस्पतौ बहो भयः । ८ । २ । १३७ । .. बृहस्पतिशब्दे वह इत्यस्यावयवस्य भय इत्यादेशो वा भवति ॥ भयस्सई भयप्फई भयप्पई ।। पक्षे। बहस्सई । बहप्फई । बहप्पई ॥ 'वा बृहस्पतौ' (८-१-१३८) इति इकारे उकारे च बिहस्सई । विहप्फई बिहप्पई । बुहस्सई । बुहप्फई । बुहप्पई ॥ १३७॥ मलिनोमय-शुक्ति छुप्तारब्ध-पदातेर्मइलावह-सिप्पि रिका-दत्त-पाइकं । ८ । २ । १३८ । - मलिनादीनां यथासंख्यं मइलादय आदेशा वा भवः न्ति ॥ मलिन । मइलं मलिणं ॥ उभय । अवई । उवह Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९४] प्राकृतव्याकरणम् मित्यपि केचित् । अवहोआसं। उभयवलं । आर्षे । उभयोकालं ॥ शुक्ति । सिप्पी सुत्ती ॥ छुप्त । छिक्को छुत्तो॥ आरब्ध।आढत्तो आरद्धो॥ पदाति।पाइकोपयाई ॥१३८ ॥ दंष्ट्राया दाढा। ८ । २ । १३९ ।। पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम् । दंष्ट्राशब्दस्य दाढा इत्यादेशो भवति ॥ दाढा । अयं संस्कृतेऽपि ॥ १३९ ॥ बहिसो बार्हि-बाहिरौ । ८ । २ । १४०। 1 वहिः शब्दस्य बाहिं बाहिर इत्यादेशौ भवतः। बाहिं बाहिरं ॥ १४०॥ अधसो हेढें । ८ । २ । १४१ । । ... अधसूशब्दस्य हेह इत्ययमादेशो भवति ॥ हेहूँ॥१४१॥ मातृ-पितुः स्वसुः सिआछौ । ८।२।१४२ । मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृशब्दस्य सिआ छा इत्यादेशौ भवतः॥ माउसिआ। माउ-च्छा। पिउ-सिआ। पिउ-च्छा ॥ १४२ ॥ तिर्यचस्तिरिच्छिः । ८।२।१४३ । तिर्यचशब्दस्य तिरिच्छिरित्यादेशो भवति ॥ तिरिच्छि पेच्छह ॥आर्षे तिरिआइत्यादेशोपि।तिरिआ ॥१४३॥ - गृहस्य धरोपतौ। ८ । २ । १४४। । गृहशब्दस्य घर इत्यादेशोपतिशब्दश्चेत् परोन भवति॥ घरो। घर-सामी । राय-हरं ॥ अपताविति किम् । गहबई॥१४४ ॥ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वपिज्ञवृत्तिसहितम् [६९५ ] . शीलाद्यर्थस्येरः । ८।२।१४५। शीलधर्मसाध्वर्थे विहितस्य प्रत्यस्य इर इत्यादेशो भवति॥हसनशील हसिरो।रोविरो। लजिरो । जम्पिरो। वेविरो। भमिरो । ऊससिरो। केचित् तृन एव इरमाहुस्तेषां नमिरगमिरादयोन सिध्यान्त । तुनोत्र रादिना बाधितत्वात् ॥ १४५ ॥ क्त्वस्तुमतूण-तुआणाः । ८ । २ । १४६ । । क्त्वाप्रत्ययस्य तुम् अत् तूण तुआण इत्येते आदेशा भवन्ति ॥ तुम् । दट्टुं । मोत्तुं ॥अत् । भमिअ। रमि।। तूण । घेत्तूण । काऊण ॥तुआण । मेत्तुआण॥ सोउआण॥ वन्दित्तु इत्यनुस्वारलोपात् ॥ वन्दित्ता इति सिद्धसंस्कृतस्यैव वलोपेन । कटु इति तु आर्षे ॥ १४६ ॥ इदमर्थस्य केरः । ८ । २ । १४७। इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केर इत्यादेशो भवति ॥ युष्मदीयः । तुम्हकेरो ॥ अस्मदीयः। अम्हकेरो॥ न च भवति। मईअ-पक्खे । पाणिणीआ॥ १४७ ॥ ... पर-राजभ्यां क-डिको च । ८।२।१४८। ___ पर राजन् इत्येताम्यां परस्येदमर्थस्य प्रत्ययस्य यथासं. ख्यं संयुक्तो को डित् इक्कश्चादेशौ भवतः। चकारात्केरश्च ॥ परकीयम् । पारकं । परकं । पारकेरं ॥राजकीयम् । राइक। रायकेरं ॥ १४८॥ युष्मदस्मदोत्र एचयः । ८।२। १४९ । आभ्यां परस्येदमर्थस्थान एचय इत्यादेशो भवति ॥ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणम् युष्माकमिदं मौष्माकम् । तुम्हेच्चयं । एवम् अम्हेच्चयं ।। ॥ १४९ ॥ वतेवः । ८२ | १५०।... - वतेः प्रत्ययस्य द्विरुक्तो वो भवति ॥ महुरव्व पाडलिंउत्ते पासाया ॥ १५० ॥ सर्वाङ्गादीनस्येकः । ८।२ । १५१ । सर्वाङ्गात् सर्वादेः पथ्यङ्ग (हे० १७-९० ) इत्यादिना विहितस्येनस्य स्थाने इक इत्यादेशो भवति ॥ सर्वाङ्गीणः। सव्वगिओ॥ १५१ ॥ पथो णस्येकट् । ८ | २ | १५२ । 'नित्यं णः पन्थश्च' (हे० ६-८९) इति यः पयो को विहितस्तस्य इकट् भवति ॥ पान्थः । पहिओ ॥ १५२ ॥ ईयस्यात्मनो णयः । ८ । २।१५३ । आत्मनः परस्य ईयस्य णय इत्यादेशो भवति ॥ आ. त्मीयम् । अप्पणवं ॥१५३॥ त्वस्य डिमा-तणौ वा । ८।२ । १५४ । । त्वप्रत्ययस्य डिमा त्तण इत्यादेशो वा भवतः॥ पी. णिमा। पुप्फिमा । पीणत्तणं । पुप्फत्तणं । पले। पीणत्तं । पुष्फत्तं ॥ इम्नः पृथ्वादिषु नियतत्वात् तदन्यप्रत्ययान्तेषु अस्य विधिः॥ पीनता इत्यस्य प्राकृते पीणया इति भवति । पीणदा इति तु भाषान्तरे । तेनेह तलो वा न क्रियते ॥ ॥१५४॥ अनोगत्तैलस्य डेलः । ८।२।१५५। ' होठवर्जिताच्छब्दात्परस्य तैलप्रत्ययस्य डेल हत्या. Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६९७] देशो भवति ॥ सुरहि-जलेण कडुएल्लं ॥ अनङ्कोठादिति किम् । अकोल्लतल्लं ॥ १५५ ॥ यत्तदेतदोतोरित्तिअ एतल्लुक च । ८ ।२।१५६ । एभ्यः परस्य डावादेरतोः परिणामार्थस्य इत्ति इत्यादेशो भवति, एतदो लुक् च ॥ यावत् । जित्तिअं॥ तावत् । तित्ति ॥ एतावत् । इत्तिअं ॥ १५६ ॥ इदंकिमश्च डेत्तिअ-डेदहाः । ८ । २ । १५७ । इदंकिंभ्यां यत्तदेतद्भयश्च परस्यातोर्डावतोर्वा डित एत्तिअ एत्तिल एग्रह इत्यादेशा भवन्ति एतल्लुक् च ॥ इयत् । एत्तिअं । एत्तिलं । एदहं ॥ कियत् । केत्तिअं। के. त्तिलं ॥ केद्दहं ॥ यावत् । जेत्ति। जेत्तिलं । जेद्दहं ।। तावत् । तेत्ति। तेत्तिलं । तेद्दहं ।। एतावत् । एति। एत्तिलं । एदहं ।। १५७॥ - कृत्वसो हुत्तं । ८ । २ । १५८ । 'वारे कृत्वम्' (हे० ७-२-१०९) इति या कृत्वस् विहितस्तस्य हुत्तमित्यादेशो भवति ॥ सयहुत्तं । सहस्स. हुतं । कथं प्रियाभिमुखं पियहुत्तं । अभिमुखार्थेन हुत्तशब्देन भविष्यति ॥ १५८ ॥ आल्विल्लोल्लाल-चन्त-मन्तेत्तेर-मणामतोः।८२।१५९/ आलु इत्यादयो नव आदेशा मतोः स्थाने यथाप्रयोग भवन्ति ॥ आलु । नेहालू । दयालू । ईसालू । लजालुआ। इल्ल । सोहिल्लो । छाइल्लो । जामइल्लो॥ उल्ल । विआरुल्लो। मंसुल्लो । दप्पुल्लो ॥ आल । सद्दालो । जडालो । फडालो। Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९८] प्राकृतव्याकरणम् रसालो। जोण्हालो ॥ वन्त ॥ धणवन्तो। भत्तिवन्तो । मन्त । हणुमन्तो। सिरिमन्तो। पुण्णमन्तो।। इत्त । कव्वइत्तो । माणइत्तो ॥ इर । गम्विरो। रेहिरो।। मण । घणमणो॥ केचिन्मादेशमपीच्छन्ति । हणुमा ॥ मतोरि. लि किम् । धणी । अथिओ ॥ १५९ ॥ . __ तो दो तसो वा । ८।२। १६० । तसः प्रत्ययस्य स्थाने तो दो इत्यादेशौ वा भवतः ॥ सव्वत्तो सव्वदो । एकत्तो एकदा। अन्नत्तो अन्नदो । कत्तो कदो । जत्तो जदो । तत्तो तदो। इत्तो इदो । पक्षे । सव. ओ । इत्यादि ॥ १६० ॥ त्रपो हि-ह-त्याः। ८ । २ । १६१ । अप्प्रत्ययस्य एते भवन्ति ॥यत्र । जहि । जह । जत्थ।। तत्र । तहि । तह । तत्थ ॥ कुत्र । कहि । कह । कस्थ ॥ अन्यत्र । अन्नहि। अन्नह । अन्नत्थ ॥१६१॥ वैकादः सि सि इआ। ८।२।१६२ । एकशब्दात्परस्य दाप्रत्ययस्य सि सि इआ इत्या देशा वा भवन्ति ॥ एकदा । एकसि।एकसि।एकइआ। पक्षे । एगया ॥ १६२ ॥ डिल्ल-डुल्लौ भवे । ८।२ । १६३ । भवेथे नानः परौ इल्ल उल्ल इत्येतो तितो प्रत्ययो भवतः ।। गामिल्लिआ । पुरिल्लं । हेहिलं । उवरिल्लं । अप्पु. लं ॥ आल्वालावपीच्छन्त्यन्ये । १६३ ॥ स्वार्थे कश्च वा । ८।२। १६४ । स्वार्थे कश्चकाराविल्लोल्लो डितौ प्रत्ययौ वा भवतः ॥ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [६९९] क । कुङ्कमपिञ्जरयं । चन्दओ। गयणयम्मि। धरणीहरपक्खुम्भन्तयं । दुहिअए राम-हि अयए । इहयं । आले. टूटु । आश्लेष्टुमित्यर्थः ॥ द्विरपि भवति । बहुअयं ॥ ककारोचारणं पैशाचिकभाषार्थम् । यथा । वतनके वतनकं समप्पेत्तून ॥ इल्ल । निजिआसोअ-पल्लविल्लेण । पुरिल्लो। पुरा पुरो वा ॥ उल्ल । मह पिउल्लओ। मुहल्लं । हत्थुल्ला । पक्षे । चन्दो। गयणं । इह । आलेटुं । बहु । बहुअं। मुहं । हत्था ॥ कुत्सादिविशिष्टे तु संस्कृतवदेव कप सिद्धः ॥ यावादिलक्षणः कः प्रतिनियतविषय एवेति वचनम् ॥ १६४ ॥ ल्लो नवैकादा । ८ । २ । १६५ । आभ्यां स्वार्थे संयुक्तो ल्लो वा भवति ॥ नवल्लो । ए. कल्लो ॥ सेवादित्वात् कस्य द्वित्वे एकल्लो ॥ पक्षे। नवो। एक्को । एओ ॥ १६५ ॥ उपरेः संव्याने । ८॥२॥ १६६। . _ संव्यानेथै वर्तमानादुपरिशब्दात् स्वार्थे ल्लो भवति ॥ अवरिल्लो ॥ संव्यान इति किम् । अवरिं ॥ १६६ ॥ ... भ्रुवो मया डमया। ८ । २ । १६७। . भ्रूशब्दात्स्वाथै मया डमया इत्येतौ प्रत्ययो भवतः॥ भुमया। भमया ॥ १६७ ॥ शनैसो डिअम् । ८ । २।१६८ । शनैसुशब्दात्स्वार्थे डिअम् भवति ॥ सणिभमब. गूढो ॥१६॥ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७००] प्राकृतव्याकरणम् मनाको न वा डयं च । ८।२ । १६९ । मनाशब्दात्स्वार्थे डयम् डिअम् च प्रत्ययो वा भवति ॥ मणयं । मणियं । पक्षे । मणा ॥ १६९ ॥ . मिश्राड्डालिअः । ८।२ । १७० । मिश्रशब्दात्स्वार्थे डालि प्रत्ययो वा भवति ॥ मी सालिअं। पक्षे । मीसं ॥ १७० ॥ रो दीर्घात् । ८।२ । १७१ । ... दीर्घशब्दात्परः स्वार्थे रो वा भवति ॥ दीहरं दीहं॥ ॥ १७१ ॥ त्वादेः सः। ८ । २ । १७२ । - 'भावे त्व-तल' (हे०७-१-५५) इत्यादिना विहि. तात्त्वादेः परः स्वार्थे स एव त्वादिभिवति ॥ मृदुकत्वेन। मउअत्तयाइ ।। आतिशायिकावातिशायिकः संस्कृतवदेव सिद्धः। जिट्टयरो । कणिट्टयरो॥ १७२ ॥ विद्युत्पत्र-पीतान्धालः। ८।२११७३ । .. एभ्यः स्वार्थे लो वा भवति ॥ विज्जुला । पत्तलं । पीवलं । पीअलं । अन्धलो । पक्षे । विज्जू । पत्तं । पी। अन्धो॥ कथं जमलं । यमलमिति संस्कृतशब्दादु भविष्यति ॥ १७३ ॥ - गोणादयः । ८ । २ । १७४ । गोणादयः शब्दा अनुक्तप्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते ॥ गौः । गोणो। गावी ॥ गावः। गावीओ।। बलीवः । बइल्लो ॥ आपः। आऊ ॥ पंञ्चपचाशत् । पश्चावण्णा । पणपन्ना । त्रिपश्चाशत् । तेवण्णा। Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७०१] त्रिचत्वारिंशत् । तेआलीसा ॥ व्युत्सर्गः। विउसग्गो। व्युत्सर्जनम् । वोसिरणं ॥ बहिर्मैथुनं वा। बहिद्धा। कार्यम् । णामुक्कसि । कचित् । कत्थइ ॥ उद्वहति । मुव्वहइ । अपस्मारः । वम्हलो ।। उत्पलम् । कन्दुहूं ॥ धिकधिक् । छिछि। द्विद्धि ॥धिगस्तु । धिरत्यु। प्रतिस्पर्धा । पडिसिद्धी पाडिसिद्धी॥स्थासकाचच्चिकं ॥ निलयः निहेलणं ॥मघ. वान् । मघोणो ॥ साक्षी । सक्खिणो ॥ जन्म । जम्मणं ॥ महान् । महन्तो ॥ भवान् । भवन्तो॥आशीः। आसीसा। कचित् । हस्य । डभौ। बृहत्तरम् । वड्डयरं ॥ हिमोरः । भिमोरो ॥ लस्यड्डः। क्षुल्लकः । खुड्डओ॥ घोषाणामग्रेतनो गायनः । घायणो ॥ वडः। वढो ॥ ककुदम् । ककुधं ॥ अकाण्डम् । अत्थकं ॥ लज्जावती । लज्जालुइणी ॥ कुतू. हलम् । कु९॥ चूतः। मायन्दो। माकन्दशब्दः संस्कृते. पीत्यन्ये ॥ विष्णुः। भटिओ ॥ श्मशानम् । करसी ॥ असुराः । अगया। खेलम् ।खेड्डु॥पौष्पं रजः।तिङ्गिच्छि॥ दिनम् ।। अल्लं ॥ समर्थः । पक्कलो ॥ पण्डकः । णेलच्छो॥ कांसः। पलही । बली । उज्जल्लो॥ ताम्बूलम् । झसुरं । पुंश्चली। छिछई ॥ शाखा । साहुली। इत्यादि ॥ वाधि. कारात्पक्षे यथादर्शनं गउओ इत्याद्यपि भवति ।। गोला गोआवरी इति तु गोलागोदावरीभ्यां सिद्धम् ॥ भाषाशब्दाश्च । आहित्थ । लल्लक । विड्डिर । पञ्चडिअ । उप्पेहड । मडप्फर । पड्डिच्छिर । अहमट्ट । विहडप्फड। उज्जल्ल । हल्लप्फल इत्यादयो महाराष्ट्रविदर्भादिदेशप्रसि. द्वालोकतोऽवगन्तव्याः॥क्रियाशब्दाश्च। अवयासहाफुम्फुलइ । उप्फालेइ इत्यादयः । अत एव च कृष्ट-घृष्ट-वाक्य Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०२] हैमशब्दानुशासनस्य विद्धस-बावस्पति-विष्टरश्रवसू-प्रचेतस-प्रोक्त-प्रोता. दीनां किवादिप्रत्ययान्तानांच अग्निचित्सोमसुत्सुग्लसुम्लेत्यादीनां पूर्वैः कविभिरप्रयुक्तानांप्रतीतिवैषम्यपरःप्रयोगो न कर्तव्यः शब्दान्तरैरेव तु तदर्थोभिधेयः। यथा कृष्टः कुशलः । वाचस्पतिर्गुरुः। विष्टरश्रवा हरिरित्यादि घृष्टः शब्दस्य तु सोपसर्गस्य प्रयोग इष्यत एव । मन्दर-यडपरिघटुं । तहिअस-निहट्ठाणङ्ग इत्यादि । आर्षे तु यथादर्शनं सर्वमविरुद्धम् । यथा । घट्ठा। महा। विउसा । सुअ-लक्खणाणुसारेण । वक्वन्तरेसु अ पुणो इत्यादि ॥ १७४ ॥ अव्ययम् । ८।२ । १७५। अधिकारोऽयम् । इतः परं ये वक्ष्यन्ते आपादसमाप्तेस्तेऽव्ययसंज्ञा ज्ञातव्याः ॥ १७५ ॥ तं वाक्योपन्यासे । ८।२ । १७६ । तमिति वाक्योपन्यासे प्रयोक्तव्यम् ॥ तं तिअसपन्दि-मोक्खं ॥ १७६ ॥ आम अभ्युपगमे । ८।२। १७७ । आमेत्यभ्युपगमे प्रयोक्तव्यम् ॥ आम बहला वणोली ॥ १७७॥ णवि वैपरीत्ये । ८।२। १७८ । णवीति वैपरीत्ये प्रयोक्तव्यम्॥णवि हा वणे॥१७८॥ पुणरत्तं कृतकरणे।८।२।१७९ । पुणरूत्तमिति कृतकरणे प्रयोक्तव्यम् ॥ अहसुप्पइपंसुलिणीसहेहि अङ्गेहि पुर्णरुतं ॥१७९।। Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [७०३] . हन्दि विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये ।८।२।१८० । हन्दि इति विषादादिषु प्रयोक्तव्यम् ॥ हन्दि चलणे णओ सोनमाणिओहन्दिहुज्ज एताहे। हन्दि न होही भणिरी सा सिज्जइ हन्दि तुह कज्जे॥ हन्दि । सत्यमित्यर्थः ॥ १८० ॥ हन्द च गृहाणार्थे । ८।२ । १८१ । हन्द हन्दि च गृहाणार्थे प्रयोक्तव्यम् हन्द फ्लोएसु इमं । हन्दि । गृहाणेत्यर्थः ॥ १८१ ॥ मिव पिव विव व्व व विअ इवार्थे वा ८१२१८२। एते इवार्थे अव्ययसंज्ञकाः प्राकृते वा प्रयुज्यन्ते ॥ कुमु मिव । चन्दणं पिक । हंसो विव । सारो व्व खीरोओ। सेसस्स व निम्मोओ। कमलं विज । पक्षे। नीलुप्पल-माला इव ॥ १८२ ॥ जेण तेण लक्षणे । ८ । २ । १८३ । जेण तेण इत्येतो लक्षणे प्रयोक्तव्यो॥ भमर-रु जेण कमल वणं ॥ भमर-रुअं तेण कमल-वणं ॥ १८३॥ मइ चेअ चिअ च अवधारणे । ८ । २ । १८४ । __एतेऽवधारणे प्रयोक्तव्याः । गईए णइ । जचे मऊलणं लोअणाणं । अणुबद्धं तं चिअ कामिणीणं ॥ सेवा. दित्वाद् द्वित्वमपि । ते चि धन्ना । ते चेअ सुपुरिसा। छ । स च य स्वेण । स च सीलेण ॥ १८४ ।। Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०४] प्राकृतव्याकरणम् बले निर्धारण-निश्चययोः । ८।२ । १८५। . - बले इति निर्धारणे निश्चये च प्रयोक्तव्यम् ॥ निर्धारणे । बले पुरिसो धणंजओ रवत्तिआणं । निश्चये । बले सीहो । सिंह एवायम् ॥ १८५ ॥ . किरेर हिर किलार्थे वा । ८।२।१८६ ।... किर इर हिर इत्येते किलार्थ वा प्रयोक्तव्याः ॥ कल्लं किर खरहिअओ। तस्स इर । पिअ-वयंसो हिर । पक्षे । एवं किल तेण सिविणए भणिआ ॥१८६ ॥ __णवर केवले । ८।२।१८७। केवलार्थे णवर इति प्रयोक्तव्यम् ॥णवर पिआइं चित्र णिब्बडन्ति ।। १८७ ॥ आनन्तर्ये णवरि । ८ । २ । १८८ । आनन्तर्ये गवरीति प्रयोक्तव्यम् ॥णवरि असे रहुवइणा ॥ केचित्तु केवलानन्तर्यार्थयोर्णवरणवरि इत्येकमेव सूत्रं कुर्वते तन्मते उभावप्युभयार्थौ ॥ १८८ ॥ अलाहि निवारणे । ८।२ । १८९ । __ अलाहीति निवारणे प्रयोक्तव्यम् ॥ अलाहि किं वाइएण लेहेण ॥ १८९ ॥ अण णाई नार्थे । ८ । २ । १९० । अण णाई इत्येतो नोर्थे प्रयोक्तव्यौ ॥ अणचिन्तिअममुणन्ती । णाई करेमि रोसं ॥ १९० ॥ माई मार्थे । ८।२. १९१ । माइं इति मार्थे प्रयोक्तव्यम् ॥ माइं काहीअ रोसं । मा कार्षीद् रोषम् ॥ १९१ ॥ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७०५] हद्धी निवेदे । ८ । २ । १९२ । हद्धी इत्यव्ययमतएव निर्देशात् हाधिकशब्दादेशो वा निदे प्रयोक्तव्यम् ॥ हद्धीहद्धी ।हाधाहधाह ॥१९२॥ वेवे भय-वारण-विषादे। ८ । २ । १९३ । भयवारणविषादेषु वेव्वे इति प्रयोक्तव्यम् ॥ वेवेत्ति भये वेव्वेत्ति वारणे जूरणे अ वेव्वेत्ति । उल्लाविरीइ वि तुहं वेव्वेत्ति मयच्छि किं णेअं॥ किं उल्लावेन्तीए उअ जूरन्तीऍ किं तु भीआए। उब्वाडिरीऍवेवेत्तितीऍ भणिन विम्हरिमो॥१९३॥ वेव च आमन्त्रणे । ८।२ । १९४ । वेव्व वेव्वे च आमन्त्रणे प्रयोक्तव्ये ॥ वेव्वे गोले। वेवे मुरन्दले वहसि पाणिशं ॥ १९४ ।। मामि हलाहले सख्या वा । ८ । २ । १९५। एते सरव्या आमन्त्रणे वाप्रयोक्तव्याः॥ मामि सरि. सक्खराण वि ॥ पणवह माणस्स हला । हले हयासस्स । पक्षे । सहि एरिसि चिअ गई ॥ १९५ ॥ दे संमुखीकरणे च । ८।२ । १९६ । ... संमुखीकरणे सख्या आमन्त्रणे च दे इति प्रयोक्तव्यम् ॥ दे पसिअ ताव सुन्दरि ॥ दे आ पसिअ निअत्तसु॥ ॥ १९६॥ हं दान-पृच्छा-निवारणे । ८।२ । १९७ । · हुं इति दानादिषु प्रयुज्यते ॥ दाने । हुं गेण्ह अप्पणो चिअ॥ पृच्छायाम् । हुं साहसु सम्भावं ॥ निवारणे। हुं निल्लज्ज समोसर ॥ १९७ ॥ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०६] हुखु निश्चय-वितर्क-संभावन विस्मये |८|२| १९८ | हु खु इत्येतौ निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यौ ॥ निश्चये । तंपि हु अछिन्निसरी । तं खु सिरीए रहस्सं ॥ वितर्कः ऊहः संशयो वा । ऊहे । न हु णवरं संगहिआ । एअं खु हसइ ॥ संशये । जलहरो खु धूमवडलो खु ॥ संभावने । तरीउं ण हु णवर इमं । एअं खु हसइ ॥ विस्मये । को खु एसो सहस्ससिरो। बहुलाधिकारादनुस्वारात्परो हुर्न प्रयो क्तव्यः ।। १९८ ॥ प्राकृतव्याकरणम् ऊ गक्षेप - विस्मय सूचने । ८ । २ । १९९ । ऊ इति गर्ह्रादिषु प्रयोक्तव्यम् ॥ गर्दा । ऊ णिल्लज ॥ प्रक्रान्तस्य वाक्यस्य विपर्यासाशङ्काया विनिवर्तनलक्षण आक्षेपः ॥ ऊ किं मए भणिअं ॥ विस्मये । ऊ कह मुणिआ अहयं ॥ सूचने । ऊ केण न विण्णायं ॥ १९९ ॥ थू कुत्सायाम् | ८ | २ | २०० | थू इति कुत्सायां प्रयोक्तव्यम् ॥ थू निल्लज्जो लोओ ॥ २०० ॥ रे अरे संभाषण - रतिकलहे | ८ | २ | २०१ | • अनयोरर्थयोर्यथासंख्यमेतौ प्रयोक्तव्यौ ॥ रे संभाषणे । रे हिअह मडहसरिआ ।। अरे रतिकलहे । अरे मए समं मा करेसु उवहासं ॥ २०१ ॥ हरे क्षेपे च | ८ | २ | २०२ | क्षेपे संभाषणरतिकलहयोश्च हरे इति प्रयोक्तव्यम् ॥ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०७] स्वोपनवृत्तिसहितम् क्षेपे । हरे णिल्लज्ज ॥ संभाषणे। हरे पुरिसा ॥ रतिकलहे। हरे बहु-वल्लह ॥ २०२॥ ओ सूचना-पश्चात्तापे । ८ । २ । २०३ । ___ओ इति सूचनापश्चात्तापयोः प्रयोक्तव्यम् ॥ सूचनायाम् । ओ अविणय-तत्तिल्ले ॥ पश्चात्तापे। ओ न भए छाया इत्तिआए॥ विकल्पे तु उतादेशेनैवीकारेण सिद्धम्॥ ओ विरएमि नहयले ॥ २०३ ॥ अवो सूचना दुःख-संभाषणापराध-विस्मयानन्दादर भय-खेद-विषाद-पश्चात्तापे ।८।२।२०४। अव्वो इति सूचनादिषु प्रयोक्तव्यम् ॥ सूचनायाम् । अव्वो दुक्करयारय । दुःखे । अवो दलन्ति हिययं ॥ संभाषणे ।अव्वो किमिणं । किमिणं ॥ अपराधविस्मययोः। अव्वो हरन्ति हिअयं तहवि न वेसा हवन्ति जुवईण । अव्वो किंपि रहस्सं मुणन्ति धुत्ता जणब्भहिआ ॥ आनन्दादरभयेषु । अव्वो सुपहायमिणं अव्वो अजम्ह सप्फलं जी। अव्वो अइअम्मि तुमे नवरं जइ सा न जूरिहिह ॥ खेदे । अव्वो न जामि छेत्तं । विषादे। अव्वो नासेन्ति दिहिं पुलयं वड्ढेन्ति देन्ति रणरणयं । एम्हि तस्सेअ गुणा ते चिअ अब्वो कह णु एअं॥ पश्चात्तापे। अव्वो तह तेण कया अहयं जह कस्य साहेमि ॥ २०४ ॥ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०८] प्राकृतव्याकरणम् अइ संभावने । ८ । २ । २०५ । संभावने अइ इति प्रयोक्तव्यम् ॥ अइ दिअर किं न पेच्छसि ॥ २०५॥ वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ।।२।२०६। वणे इति निश्चयादौ संभावने च प्रयोक्तव्यम् ॥वणे देमि । निश्चयं ददामि ॥ विकल्पे । होई वणे न होइ । भवति वा न भवति ॥ अनुकम्प्ये । दासो वणे न मुच्चइ । दासोनुकम्प्यो न त्यज्यते ॥संभावने । नस्थि वणे जं न देह विहि-परिणामो । संभाव्यते एतदित्यर्थः ॥ २०६ ॥ मणे विमर्श । ८ । २ । २०७ । मणे इति विमर्श प्रयोक्तव्यम् ॥मणे सूरो। किं स्वि• त्सूर्यः ।। अन्ये मन्ये इत्यर्थमपीच्छन्ति ॥ २०७॥ अम्मो आश्चर्ये । ८ । २ । २०८ । अम्मो इत्याश्चर्ये प्रयोक्तव्यम् । अम्मो कह पारिजइ ॥२०८ ॥ स्वयमोथै अप्पण्णो न वा।८।२ । २०९ । स्वयमित्यस्यार्थे अप्पणो वा प्रयोक्तव्यम् ॥ विसयं विसअन्ति अप्पणो कमल-सरा । पक्षे । सयं चेअ मुणसि करणिज्जं ॥ २०९॥ प्रत्येकमः पाडिकं पाडिएकं । ८।२। २१०।। प्रत्येकमित्यस्यार्थे पाडिकं पाडिएकं इति च प्रयोक्तव्यं वा ॥ पाडिकं । पाडिएकं । पक्षे । पत्तेअं॥२१॥ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [७०९] . उअ पश्य । ८।२ । २११। . उअ इति पश्येत्यस्यार्थे प्रयोक्तव्यं वा ॥ . उअ निचलनिप्फंदा भिसिणीपत्तमि रेहइ बलाया। निम्मल-मरगय-भायण परिट्ठिआ संख-सुत्ति व्व । पक्षे पुलआदयः॥ २११ ॥ इहरा इतरथा । ८ । २ । २१२ । इहरा इति इतरथार्थे प्रयोक्तव्यं वा ॥ इहरा नीसामन्नेहिं । पक्षे । इअरहा ।। २१२ ॥ एकसरि झगिति संप्रति ।८।२।२१३। एकसरि झगित्यर्थे संप्रत्यर्थे च प्रयोक्तव्यम् ॥ एकसरिकं । झगिति सांप्रतं वा ॥२१३ ॥ मोरउल्ला मुधा । ८ । २।२१४ । मोरउल्ला इति मुधार्थे प्रयोक्तव्यम् ॥ मोरउल्ला। मुधेत्यर्थः ॥ २१४ ॥ . दरार्धाल्पे । ८ । २ । २१५।। दर इत्यव्ययमर्धार्थे ईषदर्थे च प्रयोक्तव्यम् ॥ दर-वि. असि । अर्धेनेषद्वा विकसितमित्यर्थः ।। २१५ ॥ किणो प्रश्ने । ८ । २ । २१६ । किणो इति प्रश्ने प्रयोक्तव्यम्॥ किणो धुवसि ॥२१६॥ इ-जे-राः पाद-पूरणे । ८ । २ । २१७ । इ जे र इत्येते पादपूरणे प्रयोक्तव्याः ॥ नउणा इ अच्छीई । अणुकूलं वोत्तुं जे । गेण्हइ र कलम-गोवी ॥ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१० ] प्राकृतव्याकरणम् अहो । हंहो । हेहो । हा । नाम । अहह । हीसि । अपि । अहाह । अरिरिहो इत्यादयस्तु संस्कृतसमत्वेन सिद्धाः ॥ २१७ ॥ प्यादयः । ८ । २ । २१८ | प्यादयो नियतार्थवृत्तयः प्राकृते प्रयोक्तव्याः ॥ पिवि अप्यर्थे ॥। २१८ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधान - स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ॥ द्विषत्पुरक्षोद विनोद हेतोर्भवादवामस्य भवद्भुजस्य । अयं विशेषो भुवनैकवीर ! परं न यत्काममपाकरोति ॥ १ ॥ Q. ........................... ............on ●●●●●● अष्टमाध्यायस्य द्वितीयपादः समाप्तः *****........................................................ .............. Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्ह तृतीय पादः वीस्यात्स्यादेवस्ये स्वरे मो वा । ८ । ३ । १ । वीसार्थात्पदात्परस्य स्यादेः स्थाने स्वरादौ वीप्सार्थे पदे परे मो वा भवति ॥ एकैकम् । एकमेकं । एकमेकेण । अ अ । अङ्गमङ्गम्मि । पक्षे । एक्केकमित्यादि ॥ १ ॥ अतः सेर्डोः । ८ । ३ । २ । अकारान्तान्नाम्नः परस्य स्यादेः सेः स्थाने डो भवति ॥ बच्छो ॥ २ ॥ वैतत्तदः । ८ । ३ । ३ । एतत्तदकारात्परस्य स्यादेः सेड वा भवति ॥ एसो एस । सो णरो । स णुरो ॥ ३ ॥ जस्-शसोलुक | ८ | ३ | ४ । अकारान्तान्नाम्नः परयोः स्यादिसंबन्धिनोर्जस् - शसोलुगू भवति ॥ वच्छा । एए । वच्छे पेच्छ ॥ ४॥ अमोस्य । ८ । ३ । ५ । अतः परस्य मोकारस्य लुग् भवति ॥ वच्छं पेच्छ ॥ 114 11 टा-आमोर्णः । ८ । ३ । ६ । अतः परस्य टा इत्येतस्य षष्ठीबहुवचनस्य च आमो णो भवति ॥ वच्छेण । वच्छाण ॥ ६ ॥ भिसो हि हि हिं । ८ । ३ । ७ । अतः परस्य भिसः स्थाने केवलः सानुनासिकः सा Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१२ ] प्राकृतव्याकरणम् नुस्वारश्च हिर्भवति ।। वच्छेहि । वच्छेहिँ । वच्छेहिं कया छाही ॥७॥ ङसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः। ८।३ । ८। अतः परस्य उसेः त्तो दो दु हि हिन्तो लुक् इत्येते षडादेशा भवन्ति ॥ वच्छत्तो। वच्छाओ। वच्छाउ । वच्छाहि । वच्छाहिन्तो । वच्छा। दकारकरणं भाषान्तरार्थम् ॥ ८॥ भ्यससू तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो ।।३।९।। अतः परस्य भ्यसः स्थाने तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो इत्यादेशा भवन्ति ॥ वृक्षेभ्यः। वच्छत्तो। वच्छाओ। बच्छाउ। वच्छाहि। वच्छेहि । वच्छाहिन्तो। वच्छेहिन्तो। बच्छासुन्तो । वच्छेसुन्तो॥९॥ उसः स्सः । ८ । ३ । १० । अतः परस्य उसः संयुक्तः सो भवति ॥ पियस्स। पेम्मस्स । उपकुम्भं शैत्यम् । उपकुम्भस्स सीअलत्तणं ॥ ॥१०॥ 3 म्मि उः । ८ । ३ । ११ । अतः परस्य अॅर्डित् एकारः संयुक्तो मिश्च भवति ॥ वच्छे । वच्छम्मि ॥ देवम् । देवम्मि । तम् । तम्मि । अत्र 'द्वितीयातृतीययोः सप्तमी' (८-३-१३५ ) इत्यमो ङिः ॥११॥ जसु-शसू-ङसि-तो-दो-दामि दीघः। ८।३ । १२। एषु अतो दी? भवति ॥ जसि शसि च । बच्छा। उसि । वच्छाओ। बच्छाउ। वच्छाहि । वच्छाहिन्तो। Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ७१३] वच्छा || तोदोदुषु । वृक्षेभ्यः । वच्छत्तो । 'हस्वः संयोगे' (८-१-८४) इति ह्रस्वः ॥ वच्छाओ । वच्छाउ ॥ आमि । वच्छाण ॥ ङसिनैव सिद्धे त्तोदोदुग्रहणं स्यसि एल्वाधनार्थम् ॥ १२ ॥ भ्यसि वा । ८ । ३ | १३ भ्यसादेशे परे अतो दीर्घो वा भवति ॥ वच्छाहिन्तो वच्छे हिन्तो । वच्छासुन्तो वच्छे सुन्तो । वच्छाहि वच्छेहि ॥ १३ ॥ टाणशंस्येत् । ८ । ३ | १४ | टादेशे णे शसि च परे अस्य एकारो भवति ॥ टाण । वच्छेण ॥ णेति किम् । अप्पणा । अप्पणिआ । अपनेइआ ॥ शस् । वच्छे पेच्छ ॥ १४ ॥ 1 भिरभ्यस्सुप | ८ | ३ | १५ | एषु अत एर्भवति ॥ भिस् । वच्छेहि । वच्छेहि । बच्छेहिं ॥ भ्यस् । वच्छेहि । वच्छेहिन्तो । वच्छे सुन्तो ॥ सुपू । बच्छेसु ॥ १५ ॥ इदुतो दीर्घः | ८ | ३ | १६ | इकारस्य उकारस्य च भिसभ्यस्सुप्सु परेषु दीर्घो भवति ॥ भिस् । गिरिहिं । बुद्धीहिं । दहीहिं । तहिं । हि । महूहिं कथं ॥ भ्यस् । गिरीओ । बुद्धीओ । दहीओ । तरुओ । घेणूओ । महूओ आगओ ॥ एवं गिरीहिन्तो । गिरीसुन्तो आगओ इत्याद्यपि ॥ सुप् । गिरीसु । बुद्धीसु दहीसु । तरुसु । घेणूसु । महूसु ठिअं ॥ कचिन्न भवति । विअ - भूमिसु दाणजलोल्लिआई । इदुत इति किम् । वच्छे Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] हैमशब्दानुशासनस्य हिं। बच्लेसुन्तो । वच्छे सु ॥ भिसभ्यस्सुपीत्येव । गिरि तर्क पेच्छ ॥ १६ ॥ - चतुरो वा । ८।३। १७ । चतुर उदन्तस्य भिसभ्यस्सुप्सु परेषु दीर्थो वा भ. कति ॥ चऊहि । चउहि। चऊओ चउओ। चऊसु । चउसु ॥ १७॥ लुप्ते शसि । ८।३ । १८ । इदुतोः शसि लुप्ते दीर्घो भवति ॥ गिरी। बुद्धी।तरू । घेणू पेच्छ ॥ लुप्त इति किम् । गिरिणो। तरुणो पेच्छ॥ हवत इत्येवः । वच्छे पेच्छ । 'जस्-शस्' (८.३.१२) इत्यादिन शसि दीर्घस्य लक्ष्यांनुरोधार्थो योगः। लुप्त इति तु णवि प्रतिप्रसवार्थशङ्कानिवृत्त्यर्थम् ॥ १८ ॥ __ अक्लीबे सौ । ८ । ३ । १९ । इदुतोक्लीबे नपुंसकादन्यत्र सौ दीपो भवतिः॥ गिरी। बुद्धी । तरू । धेणू ।। अक्लीव इति किम् । दहिं । महुं ।। साविति किम् । गिरिं । बुद्धिं । तरूं । घेणुं॥ केचित्तु दीर्घत्वं विकल्प्य तदभावपक्षे सेर्मादेशमपीच्छन्ति । अग्गि। लिहिं । वाउं । विहुं॥ १९॥ पुंसि जसो डउ डआ वा । ८।३ । २० । इदुत इतीह पञ्चम्यन्तं संबध्यते ॥ इदुतः परस्य जसः पुंलि अउ अओ इत्यादेशौ डितो वा भवतः ॥ अग्गउ अग्गयो । वायउ वायओ चिट्ठन्ति । पक्षे । अग्गिणो। गाइयो। शेष अवन्तद्भावाद् अग्गी । वाऊ ॥ पुंसीति शिम् । कुद्धीओ। घेणूओ । दहीहं। महूई।जस इति किम्। Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् ___ [७१५] .. अग्गी । अग्गिणो । वाऊ। वाउणो पेच्छइ ॥ इदुत इत्येवों वच्छा ॥ २० ॥ वोतो डवो । ८।३ । २१ । उदन्तात्परस्य जसः पुंसि डित् अवो इत्यादेशी वा भवति ॥ साहवो । पक्षे । साहओ। साहउ । साहू । साहुणो ॥ उत इति किम् । वच्छा ॥ पुंसीत्येव । घेणू । महूइं॥ जस इत्येव । साहू । साहुणो पेच्छ ॥ २१॥ ... जस-शसोर्णो वा । ८ । ३ । २२।। इदुतः परयोर्जस्-शसोः पुंसि णो इत्यादेशो वा भवः ति ॥ गिरिणो । तरुणो रेहन्ति पेच्छ वा । पक्ष। गिरी। तरू ॥ पुंसीत्येव । दहीहं । महूइं ।। जस्-शसोरिति किम् । गिरि । तरं ॥ इदुत इत्येव । वच्छा। वच्छे॥ जस्-शसो. रिति द्वित्वमिदुत इत्यनेन यथासंख्याभावार्थम् । एवमु. त्तरसूत्रेऽपि ॥ २२ ॥ . ___ उसि-उसोः पुं-क्लीबेवा । ८।३ । २३ ।। पुंसि क्लीबे च वर्तमानादिदुतः परयोर्डसिङसोर्णो वा भवति ॥ गिरियो । तरुणो। दहिणो। महुणो आगओ विआरो वा । पक्षे । ङसेः । गिरीओ। गिरीउ । गिरीहिन्तो। तरूओ। तरूउ । तरूहिन्तो। हिलको निषेत्स्येते ।। ङसः। गिरिस्स । तरुस्स ॥ ङसिङसोरिति किम् । गिरिणा । तरुणा कयं ॥ पुंक्लीव इति किम् । बुद्धी । घेणूअ लद्धं समिद्धी वा ॥ इदुत इत्येव । कमलाओ कमलस्स ॥ २३ ॥ . टोणा । ८।३ । २४ । पुंक्लीवे वर्तमानादिदुतः परस्य टा इत्यस्य णा भवति ।। Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 (७१६] प्राकृतव्याकरणमें मिरिणा। गामणिणा । खलपुणा । तरुणा । दहिणा । महुणा | ट इति किम् । गिरी। तरू । दहिं । महुं॥ पुंक्लीव इत्येव । बुद्धी । घेणूअ कयं ।। इदुत इत्येव । कमलेण ।। ॥२४॥ क्लीबे स्वरान्म सेः। ८।३। २५ । ३. क्लीवे वर्तमानात्स्वरान्तानाम्नः सेः स्थाने म् भवति । वणं । पेम्मं । दहिं । महुं॥ दहि महु इति तु सिद्धापेक्षया ॥ केचिदनुनासिकमपीच्छन्ति। दहिँ महुँ ॥ क्लीव इति किम् । बालो । बाला । स्वरादिति इदुतो निवृत्त्यर्थम् जस्-शस-इ-ई-णयः सपाग्दीर्घाः ।८।३।२६। "क्लीबे वर्तमानान्नाम्नः परयोजस्-शसो स्थाने सानुनासिकसानुस्वाराविकारौ णिश्चादेशा भवन्ति समागदीर्घाः। एषु सत्सु पूर्वस्वरस्य दीर्घत्वं विधीयते इत्यर्थः ॥ है। जाइ वयणाइँ अम्हे ॥ इं। उम्मीलन्ति पङ्कयाई पेच्छ वा चिट्ठन्ति । दहीइं जेम वा हुन्ति महूई मुश्च वा ॥ णि । फुलन्ति पङ्कयाणि गेण्ह वा । हुन्ति दहीणि जेम वा । एवं मणि ॥ क्लीव इत्येव । वच्छा वच्छे ॥जस्-शस इति किम्। सुहं ॥ २६॥ स्त्रियामुदोतौ वा । ८।३। २७ । स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परयोर्जस्-शसो स्थाने प्रत्ये. कम् उत् ओत् इत्येतौ सप्राग्दी! वा भवतः ॥ वचनमेवो यथासंख्यनिवृत्यर्थः । मालाउ मालाओ।बुद्धीउ बुद्धीओ। सहीउ सहीओ। घेणूउ घेणुओ। वहूउ वहओ । पक्षे। Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वीपज्ञवृत्तिसहितम् [७१७] माला । बुद्धी । सही । घेणू । बहू ॥ स्त्रियामिति किम् । बच्छा । जस्-शस इत्येव । मालाए कयं ॥२७॥ इतः सेवा वा । ८।३ । २८। स्त्रियां वर्तमानादीकारान्तात् सेर्जस्-शसोश्च स्थाने आकारो वा भवति ॥ एसा हसन्तीआ।गोरीआचिट्ठन्ति पेच्छ वा । पक्षे ॥ हसन्ती। गोरीओ ॥ २८॥ टा-स्-डेरदादिदेवा तु डसेः । ८ । ३ । २९ । . स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परेषां टाङसूङीनां स्थाने प्रत्ये. कम् अत् आत् इत् एत् इत्येते चत्वार आदेशाः सप्रागदीर्घा भवन्ति । उसेः पुनरेते समाग्दीर्घा वा भवन्ति॥ मुद्धा । मुखाइ मुद्धाए कयं मुहं ठिअंवा ॥ कप्रत्यये तु मुद्धिआ. अ । मुद्धिआडू । मुद्धिआए ॥ कमलिआअ । कमलिआइ । कमलिआए ॥ बुद्धीअ । बुद्धीआ । बुद्धीइ । बुद्धीए कयं विहओ ठिअंवा ॥ संहीअ । सहीआ। सहीइ । सहीए कयं वयणं ठिअंवा ॥ घेणूअ । धेणूआ। घेणूइ । घेणूए । कयं दुद्धं ठिअं वा ॥ वहूअ । वहूआ । वहूइ । वहूए कयं भवणं ठिअंवा ।। उसेस्तु वा । मुद्धाअ । मुद्धाइ। मुद्धाए। बुद्धीअ । बुद्धीआ । बुद्धीइ । बुद्धीए ॥ सहीअ । सहीआ। • सहीइ । सहीए ॥ घेणूअ । घेणूआ। घेणूइ। घेणूए ॥ वहू। वहूआ । वहा । वहूए आगओ। पक्षे । मुद्धाओ। मुद्धाउ। मुद्धाहिन्तो॥रईओ। रईउ । रईहिन्तो। घेणूओ। धेणूउ । घेणुहिन्तो। इत्यादि । 'शेषेदन्तवत्' (८-३-१२४ ) अतिदेशात् 'जस्-शस्-सित्तो-दो-द्वामि-दीर्घ (८-३-१२) इति दीर्घत्वं पक्षेपि भवति । स्त्रियामित्येव । वच्छेण । वच्छस्स । वच्छम्मि । वच्छाओ॥ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१८] प्राकृतव्याकरणम् टादीनामिति किम् । मुद्धा । बुद्धी । सही । घेणू । वह ॥२९॥ नात आत् । ८ ।३।३०। स्त्रियां वर्तमानादादन्तानाम्नः परेषां टाङडिङसी. नामादादेशो न भवति॥ मालाअ मालाइ । मालाएं कयं सुहं ठिअं आगओ वा ॥ ३० ॥ प्रत्यये डीन वा । ८।३ । ३.१ । अणादिसूत्रेण (हे० २-४-२०) प्रत्ययनिमित्तो यो डीरुक्तः स स्त्रियां वर्तमानानाम्नो वा भवति ॥ साहणी। कुरुचरी। पक्षे । आत् (हे० २-४-१८) इत्याप् । साहणा। कुरुचरा ॥ ३१ ॥ . अजातेः पुंसः। ८।३।३२ . अजातिवाचिनः पुल्लिङ्गात् स्त्रियां वर्तमानात् डीर्वा भवति ।। नीली नीला । काली काला । हसमाणीहसमाणा। सुप्पणही सुप्पणहा । इमीए इमाए । इमीणं इमाणं । एईए एआए । एईणं एआणं॥अजातेरिति किम् । करिणी। अया। एलया । अप्राप्ते विभाषेयम् । तेन गोरी कुमारी इत्यादौ संस्कृतवन्नित्यमेव डीः ॥ ३२ ॥ . किं-यत्तदोस्यमामि । ८ । ३ । ३३ । सिअम्आम्वर्जिते स्यादौ परे एभ्यः स्त्रियां मेर्वा भवति ॥ कीओ। काओ । कीए । काए। कीसु। कासु । एवं । जीओ। जाओ । तीओ । ताओ । इत्यादि ॥ अस्य. मामीति किम् । का । जा। सा । कं । जं । तं । काण-। जाण । ताण ॥ ३३॥ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७१९] - छाया-हरिद्रयोः । ८।३ । ३४ ।। अनयोराप्रसङ्गे नाम्नः स्त्रियां डीयं भवति ॥ छाही छाया । हलद्दी हलहा ॥ ३४ ॥ स्वस्रादेडर्डी । ८ । ३ । ३५। स्वस्रादेः स्त्रियां वर्तमानात् डा प्रत्ययो भवति ॥ ससा नणन्दा । दुहिआ। दुहिआहिं । दुहिआसु । दुहिआ-सुओ । गउआ ॥ ३५ ॥ हस्वोमि । ८।३ । ३६ । स्त्रीलिङ्गस्य नाम्नोमि परे हृस्वो भवति ॥ मालं । नई। वहुं । हसमाणि। हसमाणं पेच्छ ॥ अमीति किम् । माला। सही । वहू ॥३६ ॥ नामन्त्र्यात्सौ मः । ८ । ३ । ३७ । आमच्यार्थात्परे सौ सति 'क्लीबे स्वरान्म् से:' (८-३-२५) इति यो म् उक्तः स न भवति ॥ हे तण । हे दहि । हे महु ॥ ३७॥ .. डो दी? वा । ८ । ३ । ३८ । .' आमच्यार्थात्परे सौ सति । अतः से?' (३-२) इति यो नित्यं डोः प्राप्तो यश्च 'अक्लीवे.सौ' (३-१९) इति इदुतोरकारान्तस्य च प्राप्तो दीर्घ स वा भवति । हे देव हे देवो ॥ हे खमा-समण हे खमासमणो। हे अन्न हे अज्जो । दीर्घः । हे हरी हे हरि । हे गुरू हे गुरु । जाइ-बिसुद्धेण पहू । हे प्रभो इत्यर्थः । एवं दोण्णि पह जिअ-लोओ । पक्षे। हे पहु । एषु प्राप्ते विकल्या ॥ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२०] प्राकृतव्याकरणम् इह त्वप्राप्ते हे गोअमा हे गोअम । हे कासवा हे कासव । रेरे चप्फलया। रे रे निग्घिणया ॥ ३८ ॥ ऋतोदा । ८ । ३ । ३९ । ऋकारान्तस्यामन्त्रणे सौ परे अकारोन्तादेशो वा भवति ॥ हे पितः । हे पिअ॥ हे दातः । हे दाय । पक्षे । हे पिअर । हे दायार ॥ ३९॥ नाम्न्यरं वा । ८ । ३ । ४० । ऋदन्तस्यामन्त्रणे सौ परे नाम्नि संज्ञायां विषये अरं इति अन्तादेशो वा भवति ।। हे पितः । हे पिअरं । पक्षे । हे पिअ॥ नाम्नीति किम् । हे कर्तः । हे कर्तार ।। ४० ॥ : वाप ए । ८।३ । ४१.। . आमन्त्रणे सो परे आप एत्वं व भवति ।। हे माले। हे महिले। अज्जिए । पन्जिए । पक्षे । हेमाला । इत्यादि। आप इति किम् । हे पिउच्छा । हे माउच्छा ॥ बहुलाधिकारात् कचिदोत्वमपि । अम्मो भणामि भणिए ॥४१॥ ईदतोईस्वः। ८ । ३ । ४२ ॥ आमन्त्रणे सौ परे ईदूदन्तयोर्हस्वो भवति ॥ हे नह। हे गामाणि । हे समणि । हे वहु । हे खलपु ॥ ४२ ॥ - क्विपः।८।३। ४३ । . विवन्तस्येदूदन्तस्य हृस्वो भवति ॥ गामणिणा । स्व. लपुणा । गामणिणो । खलपुणो ॥४३॥ - ऋतामुदस्यमौसु वा । ८।३ । ४४। . सिअम्औवर्जिते अर्थात् स्यादौ परे ऋदन्तानामुदन्तादेशो वा भवति ॥ जस् । भत्तू । भत्तुणो । भत्तउ । Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " N . स्वोपचिसहितम् [७२१] भत्तओ। पक्षे। भत्तारा || शस। अत्तु । भत्तुणो । पक्षे। भत्तारे ॥ टा । भस्तुणा । पक्षे। भत्तारेण ॥ भिस्। मत्तू हिं । पक्षे। भत्तारेहिं ।। उसि । भत्तुणों । भत्तुओ। भत्तूउ । भत्तूहि । भत्तूहिन्तो । पक्षे । भत्ताराओ। भताराउ । भत्ताराहि । भत्ताराहिन्तो। भत्तारा । उस् । भत्तुणो। भत्तुस्स । पक्षे भत्तारस्स। सुप् । मत्तूसु । पक्षे भत्तारेसु॥ बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वात् यथादर्शन नाम्न्यपि उद् वा भवति जमशस्ङसिहस्सु । पिउणो। जामाउणो । भाउणो॥ टायाम् । पिउणा ॥ भिसि । पिऊहिं ॥ सुपि । पिऊसु। पक्षे। पिअरा। इत्यादि । अस्यमौस्विति किम् । सि । पिआ॥ अम् । पिभरं ॥ो। पिअरा ॥४४॥ आरः स्यादौ । ८।३ । १५ । स्यादौ परे त आर इत्यादेशो भवति ॥ भत्तारो। भत्तारा । भत्तारं। भत्तारे । भत्तारेण । भत्तारेहिं ॥ एवं उस्यादिषूवाहार्यम् ॥ लुप्तस्याद्यपेक्षया । भत्तार-विहि ॥ ॥४५॥ आ अरा मातुः । ८ । ३ । ४६ । मातृसम्बन्धिन ऋतः स्यादौ परे आ अरा इत्यादेशो भवतः ॥ माआ। माअरा । माआउ। माआओ। माअराउ। माअराओ । मा। माअरं । इत्यादि ।। बाहुलका. जनन्यर्थस्य आ देवतार्यस्य तु अरा इत्यादेश। माआए कुच्छीए । नमो माअराण || 'मातुरिद्वा' (८-१-१३५ ) इतीत्त्वे माईण इति भवति ॥ 'ऋतामुद' (८-३-४४) + Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२२] प्राकतव्याकरणम् इत्यादिना उत्त्वे तु माऊए समन्नि वन्दे इति ॥ स्यादा: वित्येव । माइदेवो । माइ-गणो ॥४६॥ .. नाम्न्यरः । ८।३ । ४७। । ..१ ऋदन्तस्य नाम्निः संज्ञायां स्यादौ परे अर इत्यन्तादेशो भवति ॥ पिअरा । पिअरं। पिअरे । पिअरेण । पिअरेहिं ॥ जामायरा । जामायरं ।जामायरे । जामाय. रेण । जामायरोहिं। भायरा। भायरं । भायरे । भायरेण । भावरोहिं ॥४७॥ आ सौ न वा। ८ । ३ । ४८। - ऋदन्तस्य सौ परे आकारो वा भवति ॥ पिआ। जा. माया । माया । कत्ता । पक्षेपिअरो। जामायरों। भा. यरो । कत्तारो॥४८॥ . राज्ञः।८।३। ४९ । __ राज्ञो नलोपेन्त्यस्य आत्त्वं वा भवति सौ परे ॥राया। हे राया । पक्षे । आणादेशे । रायाणो ॥ हे राया। हे राय. मिति तु शौरसेन्याम् । एवं हे अप्पं । हे अप्प ॥४९॥ जस-शस्-सि-उसांणो । ८।३। ५० . राजनशब्दात्परेषां णो इत्यादेशो वा भवति ।। जम्। रायाणो चिट्ठन्ति । पक्ष। राया ॥ शस् । रायाणो पेच्छ । पक्षे। राया। राए॥ ङसि। राइणोरणो। आगओ । पक्षे। सयाओ। रायाउ । रायाहि । रायाहिन्तो । राया । उस् । राइणो रण्णो धणं ! पक्षे । रायस्स ॥ ५० ॥ . टोणा । ८ । ३। ५१ । .. राजनशब्दात्परस्य । इत्यस्य णा इत्यादेशो वा भवति ॥ राइणा । रण्णा पक्षे । रायेण करं ॥५१॥ . Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् इर्जस्य णो णा - डौ । ८ । ३ । ५२ । राजन शब्द संबन्धिनो जकारस्य स्थाने णोणाडिषु परेषु इकारो वा भवति ॥ राहणो चिट्ठन्ति पेच्छ आगओ धणं वा ॥ राइणा कयं । राइम्म | पक्षे । रायाणो । रण्णो । रायणा । राएण | रायम्मि ।। ५२ ।। [ ७२३] इणममामा । ८ । ३ । ५३ । राजन् शब्दसंबन्धिनो जकारस्य अमाम्भ्यां सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति ।। राइणं पेच्छ । राइणं धणं । पक्षे । रायं । राईणं ॥ ५३ ॥ ईभिरभ्यसाम्सुपि । ८ । ३ । ५४ । राजनशब्दसम्बन्धिनो जकारस्य भिसादिषु परतो वा ईकारो भवति ॥ भिस् । राईहि ॥ भ्यस् । राईहि । राई हिन्तो राईसुन्तो ॥ 'आम् । राईणं ॥ सु । राईसु । पक्षे । रायाणेहि । इत्यादि ॥ ५४ ॥ आजस्य टाङसिङस्सु सणणोष्वण् | ८ | ३ | ५५ । राजन् शब्दसंबन्धिन आज इत्यवयवस्य टाङसिङस्सु ण णो इत्यादेशापन्नेषु परेषु अणू वा भवति ॥ रण्णा राणा कयं । रण्णो राइणो आगओ धणं वा ॥ टाङसिङस्विति किम् । रायाणो चिट्ठन्ति पेच्छ वा ॥ सणाणे. ष्विति किम् । राएण । रायाओ । रायस्स ।। ५५ ।। पुंस्यन आणो राजवच्च । ८ । ३ । ५६ । पुंल्लिङ्गे वर्तमानस्यान्नन्तस्य स्थाने आण इत्यादेशो वा भवति । पक्षे । यथादर्शनं राजवत् कार्ये भवति ॥ आणा. Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२४) प्राकृतम्याकरणम् देशे च 'अतः सेोः' (८-३-२) इत्यादया प्रवर्तन्ते । पक्षे तु 'राज्ञः' 'जस्-शम-डसि-सां णो' (८-३५०) 'टोणा ' (८-३-२४) 'इणमभामा' (८-३-५३) इति प्रवर्तन्ते । अप्पाणो । अप्पाणा। अप्पाणं। अप्पाणे। अप्पाणेण । अप्पाणेहि । अप्पाणाओ। अप्पाणासुन्तो। अप्पाणस्स । अप्पाणाण । अप्पाणम्मि । अप्पाणेसु । अप्पाण-कयं । पक्षे । राजवत् । अप्पा । अप्पो। हे अप्पा । हे अप्प । अप्पाणो चिट्ठन्ति । अप्पाणो पेच्छ । अपणा । अप्पोहिं । अप्पाणो। अप्पाओ। अप्पाउ । अप्पाहि । अप्पाहिन्तो । अप्पा । अप्पासुन्तो॥ अप्पणी धणं । अप्पाणं । अप्पे । अप्पेसु ॥ रायाणो। रायाणा । रायाणं । रायाणे । रायाणेण । रायाणेहिं । रायाणाहिन्तो। रायाणस्स । रायाणाणं । रायाणम्मि । रायाणेसु । पक्षे। राया । इत्यादि। एवं जुवाणो । जुवाण-जणो। जुआ। षम्हाणो । बम्हा ॥अद्धाणो । अद्धा ॥ उक्षन् । उच्छाणो। उच्छा। गावाणो । गावा ॥ पूसाणो । पूसा ॥ तक्खाणो। तक्खा ॥ मुद्धाणो । मुद्धा ॥ इवन् । साणो । सा॥ सुकर्मजाः पश्य । सुकम्माणे पेच्छ । निएह कह सो सुकम्माणे। पश्पति कथं स सुकर्मण इत्यर्थः ॥ पुंसीति किम् । शर्म । 3) आत्मनष्टो णिआ णइआ। ८।३। ५७। आत्मनः परस्याष्टायाः स्थाने णिआणइआ इत्यादेशी वा भवतः॥ अप्पणिआ पाउसे उवगयम्मि । अप्पणिआ य. विहिखाणिआ । अप्पणहआ। पक्षे । अप्पाणेण ।। Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७२५] . अतः सर्वादेर्डेजसः । ८।३ । ५८। __ सर्वांदेरदन्तात्परस्य जसः डित् एइत्यादेशो भवति । सव्वे । अन्ने । जे । ते । के । एक्के । कयरे । इयरे। एए । अत इति किम् । सव्वाओ रिद्धीओ ॥ जस इति किम् । सव्वस्स ॥ ५८ ॥ ____ उस्सि -म्मि-स्थाः ।।३। ५९ । सादरकारात्परस्य के स्थाने स्सिं म्मि स्थ एते आदेशा भवन्ति ।। सव्वस्सि । सव्वम्मि । सव्वत्थ । अन्नस्सिं । अनम्मि । अन्नत्थ ।। एवं सर्वत्र ॥ अत इत्येव । अमुम्मि ॥ ५९॥ न वानिदमेतदो हिं। ८।३ । ६०। इदम्-एतद्वर्जितात्सर्वांदेरदन्तात्परस्य डेहिमादेशो वा भवति ॥ सव्वहिं । अन्नहिं । कहिं । जहिं । तहिं ॥ बहुलाधिकारात् किंयत्तयः स्त्रियामपि । काहिं । जाहिं । ताहिं । बाहुलकादेव 'किंयत्तदोस्यमामि' (८-३-३३) इति की स्ति ॥ पक्षे । सव्वस्ति । सव्वम्मि । सव्वत्थ । इत्यादि ॥ स्त्रियां तु पक्षे । काए। कीए । जाए। जीए । ताए । तीए ॥ इदमेतर्जनं किम् । इमस्सि । एअस्सिं ॥ आमो डेसिं । ८।३ । ६१ । सर्वादेरकारान्तात्परस्यामो डेसिमित्यादेशो वा भवति ।। सव्वेसिं । अन्नसिं । अवरेसिं । इमेसिं। एएसिं। जेर्सि । तेसिं । केसिं । पक्षे । सव्वाण । अनाण । अवरा. ण । इमाण । एआण। जाण । ताण । काण ॥षाहुलकात् Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..[७२६] प्राकृतव्याकरणम् स्त्रियामपि । सर्वासाम् । सव्वेसिं ॥ एवम् अन्नेसिं । तेसिं ॥६१॥ कितदुभ्यां डासः। ८।३ । ६२ । किंतड्यांपरस्यामः स्थाने डास इत्यादेशो वा भवति॥ कास । तास । पक्षे । केसिं । तेसिं ॥ ६२ ॥ किंयत्तभ्यो डसः । ८।३। ६३। । एभ्यः परस्य सः स्थाने डास इत्यादेशो वा भवति। 'ङसः स्सः' (३-१०) इत्यस्यापवादः। पक्षे सोपि भवति ॥ कास । कस्स । जास । जस्स । तास । तस्स ।। बहुलाधिकारात् किंतद्भयामाकारान्ताभ्यामपि डासादेशो वा। कस्या धनम् । कास धण ॥ तस्याधनम् । तास घणं। पक्षे । काए । ताए ॥ ६३ ॥ ईदभ्यः स्सा से । ८।३। ६४।... किमादिभ्य ईदन्तेभ्यः परस्य उसः स्थाने स्सा से इत्यादेशौ वा भवतः। 'टा-स्-डेरदादिदेवा तु उसेः' (८-३-२९) इत्यस्यापवादः। पक्षे अदादयोऽपि ।। कि. स्सा । कीसे । की। कीआ । कीइ । कीए ॥ जिस्सा। जीसे । जीअ । जीआ। जीइ । जीए ॥ तिस्सा । तीसे । तीअ तीआ। तीइ तीए ॥ ६४ ॥ डेड हे डाला इआ काले । ८।३ । ६५। किंयत्तद्भ्यः कालेऽभिधेये स्थाने आहे आला इति डितो इआ इति च आदेशा वा भवन्ति । हिंसिम्मि. स्थानामपवादः । पक्षे तेऽपि भवन्ति ॥ काहे । काला ।कइआ। जाहे । जाला । जहआ ॥ ताहे । ताला । तइआ॥ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७२७] ताला जाअन्ति गुणा जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति । पक्षे । कहिं । कस्सि | कम्मि | कत्थ ॥ ६५ ॥ 1 1 ङसेम्ह | ८ | ३ | ६६ ॥ किंयत्तद्भयः परस्य ङसे: स्थाने म्हा इत्यादेशो वा भ वति ॥ कम्हा | जम्हा । तम्हा | पक्षे । काओ । जाओ । ताओ ॥ ६६ ॥ तदो डोः । ८ । ३ । ६७ । तदः परस्य ङसेर्डी इत्यादेशो वा भवति ॥ तो । तम्हा ॥ ६७ ॥ किमो डिणो - डीसौ | ८ | ३ | ६८ | किमः परस्य ङसेर्डिगो डीस इत्यादेशौ वा भवतः ॥ किणो । कीस । कम्हा ॥ ६८ ॥ इदमेतत्किं - यत्तदभ्यष्टो डिणा । ८ । ३ । ६९ । एभ्यः सर्वादिभ्योकारान्तेभ्यः परस्याष्टायाः स्थाने डित्हणा इत्यादेशो वा भवति ॥ इमिणा । इमेण ॥ एदिणा । एदेण ॥ किणा । केण ॥ जिणा । जेण ॥ तिणा । . तेण ॥ ६९ ॥ तदो णः स्यादौ कचित् । ८ । ३ । ७० । तदः स्थाने स्यादौ परे ण आदेशो भवति क्वचित लक्ष्यानुसारेण ॥ णं पेच्छ । तं पश्येत्यर्थः । सोअइ अ णं रहुवई । तमित्यर्थः ॥ स्त्रियामपि । हत्थुन्नामिअ-मुहीणं तिअडा । तां त्रिजटेत्यर्थः ॥ णेण भणिअं तेन भणितमित्यर्थः ॥ तो णेण कर - पल - डिआ । तेनेत्यर्थः भणिअं च - Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२८] प्राकृतव्याकरणम् णाए । तयेत्यर्थः ॥ णेहिं कयं । तैः कृतमित्यर्थः ॥ णाहिं कथं । ताभिः कृतमित्यर्थः ॥ ७० ॥ किमः क-तसोच । ८ । ३ । ७१ । किम को भवति स्यादौ त्रतसोश्च परयोः ॥ को। के। कं । के । केण ॥ त्र कत्थ ॥ तस् । कओ । कत्तो । कदो । ॥ ७१ ॥ इदम इमः । । ३ । ७२ । इदमः स्यादौ परे इम आदेशो भवति ॥ इमो । इमे । इमं । इमे । इमेण ॥ स्त्रियामपि । इमा ॥ ७२ ॥ पुं- स्त्रियाने वायमिमिआ सौ । ८ । ३ । ७३ । इदमशब्दस्य सौ परे अयमिति पुल्लिङ्गे इमिआ इति स्त्रीलिङ्गे आदेशौ वा भवतः ॥ अहवायं कय-कज्जो । हमिआ वाणिअ-धूआ । पक्षे । इमो । इमा ॥ ७३ ॥ स्सि स्सयोरत् । ८ । ३ । ७४ । इदमः स्सि स्स इत्येतयोः परयोरद् भवति वा ॥ अस्सि । अस्स | पक्षे । इमादेशोपि । इमस्सि । इमस्स ॥ बहुलाधिकारादन्यत्रापि भवति । एहि । एसु । आहि । एभिः एषु आभिरित्यर्थः ॥ ७४ ॥ डेर्मेन हः । ८ । ३ । ७५ । इदमः कृतेमादेशात परस्य डे: स्थाने मेन सह ह आदेशो वा भवति ।। इह | पक्षे । इमस्सिं । इमम्मि ॥७५॥ न त्थः । ८ । ३ । ७६ । इदमः परस्य 'डे: स्सिं - म्मि-स्थाः ' ( ३-५९ ) इति प्राप्तः स्थो न भवति ॥ इह । इमस्सिं । इमम्मि ॥ ७६ ॥ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् णोम् - शस्टा - भिसि |८|३|७७| 1 इदमः स्थाने अम्शस्टाभिस्सु परेषु ण आदेशो वा भवति ॥ णं पेच्छ । णे पेच्छ । णेण । णेहिं कयं । पक्षे । इमं । इमे । इमेण । इमेहि ॥ ७७ ॥ अमेणम् । ८ । ३ । ७८ । इदमोमा सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति ॥ इणं पेच्छ । पक्षे । इमं ॥ ७८ ॥ tata स्यमेदमिणमोच । ८ । ३ । ७९ । नपुंसकलिङ्गे वर्तमानस्येदमः स्यम्भ्यां सहितस्य इदम् च इणमो इणम् च नित्यमादेशा भवन्ति ॥ इदं इणमो इण धणं चिट्ठइ पेच्छ वा ॥ ७९ ॥ [ ७२९ ] किमः किं । ८ । ३ । ८० । किमः क्लीवे वर्तमानस्य स्यम्भ्यां सह किं भवति ।। किं कुलं तुह । किं किं ते पडिहाइ ॥ ८० ॥ वेद- तदेतदो सामभ्यां से - सिमौ । ८ । ३ । ८१ । इदम् तद् एतद् इत्येतेषां स्थाने ङस् आम् इत्येताभ्यां सह यथासंख्यं से, सिम इत्यादेशौ वा भवतः ॥ इदम् । से सीलम् । से गुणा । अस्य शीलं गुणा वेत्यर्थः ॥ सिं उच्छाहो । एषाम् उत्साह इत्यर्थः ॥ तद् । से सीलं । तस्य तस्या वेत्यर्थः ॥ सिं गुणा । तेषां तासां वेत्यर्थः ॥ एतत् । से अहिअं । एतस्याहितमित्यर्थः ॥ सिं गुणा । सिं सीलं । एतेषां गुणाः शीलं वेत्यर्थः । पक्षे । इमस्स । इमेसि । इमा ॥ तस् । तेसिं । ताण ॥ एअस्स । एएसि । एजाण । इदं तदोरामापि से आदेशं कश्चिदिच्छति ॥ ८१ ॥ ९२ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैमशब्दानुशासनस्य वैतदो सेतो नाहे । ८ । ३ । ८२ । एतदः परस्य उसेः स्थाने त्तो त्ताहे इत्येतावादेशौ वा भवतः । एन्तो । एत्ताहे । पक्षे । एआओ । एआउ । एआ हि । एआहित्तो । एआ ॥ ८२ ॥ त्थे च तस्य लुक | ८ | ३ । ८३ । - एतदस्स्थे परे चकारात तो ताहे इत्येतयोश्च परयोस्तस्य लुगू भवति ॥ एत्थ । एतो एताहे ॥ ८३ ॥ एरदीतौ म्मौ वा । ८ । ३ । ८४ । एतद एकारस्य ज्यादेशो म्मौ परे अदीतौ वा भवतः ॥ अयस्मि । ईग्रस्मि । पक्षे । एअम्मि ॥ ८४ ॥ वैसेणमिणमो सिना । ८ । ३ । ८५ । एतदः सिना सह एस इणम् इणमो इत्यादेशा वा भवन्ति । सव्वस्स वि एस गई ॥ सव्वाण वि पत्थिवाण एस मही । एस सहाओ चिअ ससहरस्स ।। एस सिरं । इणं । इणमो । पक्षे । एअं । एसा । एसो ॥ ८५ ॥ तदश्व तः सो क्लबे | ८ | ३ | ८६ | [ ७३०] तद एतदच तकारस्य सौ परे अक्कीबे सो भवति ॥ सो पुरिसो। सा महिला । एसो पिओ । एसा मुद्धा | सावित्येव । ते एए धन्ना । ताओ एआओ महिलाओ || अक्लीब इति किम् । तं एअं वणं ॥ ८६ ॥ वादसदस्य होनेादाम् । ८ । ३ । ८७ । अदसो दकारस्य सौ परे ह आदेशो वा भवति तस्मिंच कृते 'अतः सेर्डोः ' ( ८-३-२ ) इत्योत्वं ' शेषं संस्कृतवत् ' ( ८-४-४४८) इत्यतिदेशाद् 'आत्' (हे०-२ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७३१] ४१८ ) इत्याप् ‘क्लीवे स्वरान्म सेः' (८-३-२५) इति मश्च न भवति । अह पुरिसो। अह महिला । अह वणं। अह मोहो परगुण-लहुअयाइ । अह णे हिअएण हसइ मारुय-तणओ । असावस्मान् हसतीत्यर्थः । अह कमलमुही । पक्षे । उत्तरेण मुरादेशः। अमू पुरिसो। अम् महिला । अमुं वणं ।। ८७ ॥ . ... मुः स्यादौ। ८।३ । ८८। ___ अदसो दस्य स्यादौ परे मुरादेशो भवति ॥ अमू पुरिसो । अमुणो पुस्सिा । अमुंवणं । अमूई वणाई । अमूणि वणाणि । अमू माला । अमूउ अमूओ मालाओ। अमु. णा। अमूहिं ॥ उसि । अमूओ । अमूउ । अमूहिन्तो। अमूसुन्तो ॥ उस । अमुणो । अमुस्स ।। आम् । अमूण ।। ङि । अमुम्मि ।। सुप् । अमूसु ॥ ८८ ॥ . . . . . म्मावयेऔ वा । ८ । ३ । ८९। अदसोन्त्यव्यञ्जनलुकि दकारान्तस्य स्थाने ज्यादेशे म्मो परतः अय इअ इत्यादेशौ वा भवतः ॥ अयम्मि । इअम्मि । पक्षे । अमुम्मि ॥ ८९ ॥ युष्मदस्तं तु तुवं तुह तुमं सिना। ८।३। ९०।... युष्मदः सिना सह तं तु तुवं तुह तुम इत्येते पत्रादेशा भवन्ति ।। तं तुं तुवं तुह तुमं दिट्ठो ॥ ९० ॥ .. भे तुम्भे तुल्झ तुम्ह तुम्हे उव्हे जस ।।३।९१ ॥ . युष्मदो जसा सह भे तुम्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उरहे इत्येते षडादेशा भवन्ति ॥ मे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उरहे Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७३२] प्राकृतव्याकरणम् 1 चिट्ठह | 'भो म्हज्झौ वा (३ - १०४ ) इति वचनात् तुम्हे । तुज्झे । एवं चाष्टरूप्यम् ॥ ९१ ॥ तं तुं तुमं तुवं तुह तुभे तुए अमा ||३|१२| युष्मदोमा सह एते सप्तादेशा भवन्ति ॥ तं तुं तुमं तुषं तुह तुमे तुए वन्दामि ।। ९२ ।। वो तुज्झ तुम्भे तुम्हे उन्हे भे शसा | ८|३|१३| युष्मदः शखा सह एते षडादेशा भवन्ति ॥ वो तुज्झ तुम्मे । 'भो म्हज्झौ वा' इति वचनात् तुम्हे तुज्झे तुम्हे उन्हे मे पेच्छामि ॥ ९३ ॥ मेदिदे ते त तर तुमं तुमइ तुम तुमे तुमाइ टा । ८ । ३ । ९४ । युष्मदष्टा इत्यनेन सह एते एकादशादेशा भवन्ति ॥ भेदि दे ते तइ तए तुमं तुमइ तुमए तुमे तुमाइ जम्पिअं ॥ ९४ ॥ में तुमेहिं उज्झेहिं उम्हेहिं तुम्हेहिं उम्हेहिं भिसा । ८ । ३ । ९५ । युष्मदो भिसा मह एते षडादशा भवन्ति ॥ भे । तुमेहिं । ' =भो म्हज्झौ वा ' इति वचनात् तुम्हेहिं तुज्योहिं उज्झेहिं उम्हेहिं तुम्हेहिं उरहेहिं भुत्तं । एवं चाष्टरूप्यम् ।। ९५ ।। तुइ तुव - तुम - तुह-तुम्भा ङसौ | ८ | ३ । ९६ । युष्मदो सौ पञ्चम्येकवचने परत एते पञ्चादेशा भ वन्ति । उसेस्तु त्तोदोदुहिद्दिन्तोलको यथाप्राप्तमेव ॥ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञचिसहितम् [ ७३३ ] 'भो तइतो । तुवत्तो | तुमत्तो । तुहत्तो । तुग्भत्तो । म्हझौवा' इति वचनात् तुह्मत्तो । तुज्झत्तो ॥ एवं दोदुहिहिन्तोलुक्ष्वप्युदाहार्यम् । तत्तो इति तु त्वत्त इत्यस्य वलोपे सति ॥ ९६ ॥ तुम्ह तुम्भ तहिन्तो ङसिना | ८ | ३ | ९७ | युष्मदो ङसिनासहितस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति ॥ तुम्ह तुम्भ तहिन्तो आगओ । 'भो म्हज्झौ वा ' इति वचनात् तुह्म । तुज्झ । एवं च पञ्च रूपाणि ॥ ९७ ॥ तुम्भ – तुम्हो होम्हा भ्यसि । ८ । ३ । ९८ । युष्मदो भ्यसि परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ भ्यस्तु यथाप्राप्तमेव ॥ तुम्भत्तो । तुम्हत्तो । उच्हत्तो । उह्मत्तो 'भो. म्हज्झौ वा' इति वचनात् तुम्हन्तो । तु. ज्झत्तो ॥ एवं दोदुहिहिन्तेष्वप्युदाहार्यम् ॥ ९८ ॥ तइ-तु-ते- तुम्हं तुह- तुर्ह-तव-तुम-तुमे तुमो- तु माइ-दि-देइ-ए-त-भोभोहाङसा | ८|३|१९| युष्मदो ङसा षष्ठयेकवचनेन सहितस्य एते अष्टादशादेशा भवन्ति ॥ तह । तु । ते । तुम्हं । तुह । तुहं । तुव । तुम । तुम । तुमे । तुमो । तुमाइ । दि । दे । इ । ए| तुब्भ । उब्भ । उय्ह धणं ।। ' उभो म्ह-ज्झौ वा' इति वचनात् तुम्ह । तुज्झ । उम्ह । उज्झ । एवं च द्वाविंशती रूपाणि ॥ ९९ ॥ तु वो भे तुब्भ तुब्भं नुब्भाण तुवाण तुमाण तुहाण उम्हाण आमा | ८|३ | १०० | युष्मद आमा सहितस्य एते दशादेशा भवन्ति ॥ Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३४] प्राकृतव्याकरणम् तु । वो । भे । तुम्भ । तुम्भं । तुब्भाण । तुवाण। तुमाण । तुहाण । उम्हाण । 'क्त्वा-स्यादेर्ण-स्वोर्वा (८-१-२७) इत्यनुस्वारे तुब्भाणं । तुवाणं । तुमाणं । तुहाणं। उम्हाणं॥ 'भो म्ह-ज्झो वा' इति वचनात तुम्ह । तुज्झ । तुम्हं। तुज्झं । तुम्हाण तुम्हाणं । तुज्झाण तुज्झाणं धणं । एवं च त्रयोविंशती रूपाणि ॥१०० ॥ तुमे तुमए तमाइ तइ तए डिना ।८।३।१०१। युष्मदो डिना सप्तम्येकवचनेन सहितस्य एते पञ्चा. देशा भवन्ति ॥ तुमे तुमए तुमाइ तह तए ठिअं॥१०१ ॥ तु-तव-तुम-तुह-तुब्मा. ङौ ।८।३।१०२। - युष्मदो ङौ परत एते पञ्चादेशा भवन्ति । स्तु यथाप्राप्तमेव । तुम्मि । तुवम्मि । तुमम्मि। तुहम्मि । तुब्भम्मि । 'भोम्ह-ज्झौवा' इति वचनात् तुम्हभिम। तुज्झम्मि । इत्यादि ।। १०२॥ . सुपि । ८ । ३ । १०३ । । युष्मदः सुपि परतः तु-तुव-तुम-तुह-तुम्भा भवन्ति । तुसु । तुवेसु । तुमेसु । तुहेसु । तुब्भेसु । 'भो म्ह-ज्झौ वा' इति वचनात् तुम्हेसु । तुज्झेसु ।। केचित्तु सुप्येत्ववि. कल्पमिच्छन्ति । तन्मते तुवसु । तुमसु । तुहसु। तुब्भसु। तुम्हसु । तुज्झसु ॥ तुब्भस्थात्वमपीच्छत्यन्यः । तुम्भासु । तुम्हासु । तुज्झासु ॥ १०३ ॥ ब्भो म्ह-ज्झौ वा । ८।३।१०४ । युष्मदादेशेषु यो द्विरुक्तो भस्तस्य म्ह ज्झ इत्येतावादेशौ वा भवतः ॥ पक्षे स एवास्ते। तथैव चोदाहृतम् ।। ॥ १०४॥ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३५] स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् . अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना ।८।३ । १०५। अस्मादः सिना सह एते षडादेशा भवन्ति ॥ अज्ज म्मि हासिआ मामि तेण ॥ उन्नम न अम्मि कुविआ। अम्हि करेमि । जेण हं विद्धा । किं पम्हुहम्मि अहं । अहयं कय-प्पणामो ॥ १०५ ।। अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं मे जसा ।८।३।१०६। - अस्मदो जसा सह एते षडादेशा भवन्ति ॥ अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं मे भणामो ॥ १०६ ॥ णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा । ८।३ । १०७ । - अस्मादोमा सह एते दशादेशा भवन्ति ॥णे मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं पेच्छ॥ १०७॥ - अम्हे अम्हो अम्ह णे शसा । ८।३ । १०८। । - अस्मदः शसा सह एते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ अम्हे अम्हो अम्ह णे पेच्छ ॥ १०८ ॥ .मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा ।८।३ । १०९ । अस्मदष्टा सह एते नवादेशा भवन्ति ॥ मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे कयं ॥ १०९ ॥ अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे भिसा ।।३।११० ... अस्मदो भिसा सह एते पश्चादेशा भवन्ति ।। अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे कयं ॥ ११० ॥ .... Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३६] प्राकृतव्याकरणम मइ-मम-मह-मज्झा सौ।८।३।१११। अस्मदो डसौ पञ्चम्येकवचने परत एते चत्वार आदे. शा भवन्ति । ङसेस्तु यथाप्राप्तमेव ॥ महत्तो ममत्तो म. ज्झत्तो आगओ॥ मत्तो इति तु मत्त इत्यस्य ॥ एवं दो दु-हि-हिन्तो-लुक्ष्वप्युदाहार्यम् ॥ १११ ॥ .. ममाम्हौ भ्यसि । ८ । ३ । ११२ । अस्मदो भ्यसि परतो मम अम्ह इत्यादेशौ भवतः । भ्यसस्तु यथाप्राप्तम् ॥ ममत्तो। अम्हत्तो। ममाहिंन्तो । अम्हाहिन्तो। ममासुन्तो। अम्हासुन्तो। ममेसुन्तो। अम्हेसुन्तो ॥ ११२॥ मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं उसा । ८ । ३ । ११३ । अस्मदो डसा षष्टयेकवचनेन सहितस्य एते नवादेशा भवन्ति ॥ मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं धणं ॥ ११३ ॥ णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण . महाण मज्झाण आमा । ८।२।११४ । अस्मद आमा सहितस्य एत एकादशादेशा भवन्ति। णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाणं धणं ॥ ‘क्त्वास्यादेर्ण स्वोर्वा' (८-१२७) इत्यनुस्वारे । अम्हाणं। ममाणं। महाणं । मज्झाणं । एवं च पञ्चदश रूपाणि ॥ ११४ ॥ मि मइ ममाइ मए मे डिना । ८।३ । ११५ । अस्मदो डिना सहितस्य एते पश्चादेशा भवन्ति ॥मि मइ ममाइ मए म ठिअं ॥ ११५ ॥ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७३७] · अम्ह-मम-मह-मज्झा डौ । ८।३ । ११६ ।। अस्मदो डौ परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति । डेस्तु यथाप्राप्तम् ॥ अम्हम्मि ममम्मि महम्मि मज्झम्मि ठिअं॥ ११६ ॥ - सुपि । ८।३। ११७। अस्मदः सुपि परे अम्हादयश्चत्वार आदेशा भवन्ति। अम्हेसु । ममेसु । महेसु मज्झेसु । एत्वविकल्पमते तु। अम्हसु । ममसु । महसु । मज्झसु ।। अम्हस्यात्वमपीच्छत्यन्यः । अम्हासु ॥ ११७॥ स्ती तृतीयादौ । ८।३ । ११८ । ने स्थाने ती इत्यादेशो भवति तृतीयादौ॥ तीहिं कयं । तीहिन्तो आगओ। तिण्हं धणं । तीसु ठिभं ।। ॥ ११८ ॥ देदों वे । ८ । ३ । ११९ । . द्विशब्दस्य तृतीयादौ दो वे इत्यादेशो भवतः । दोहि. वेहि कयं । दोहिन्तो वेहिन्तो आगओ। दोण्हं वेण्हं धणं। दोसु वेसु ठिअं ॥ ११९ ॥ दुवे दोण्णि वेण्णि च जस-शसा ।८।३ । १२० ___ जस्-शसुभ्यां सहितस्य द्वे स्थाने दुबे वोणि वेणि इत्येते दो वे इत्येतौ च आदेशा भवन्ति । दुवे बोण्णि वेण्णि दो वे ठिआ पेच्छ वा । 'हृस्वः संयोगे' (८-१८४ ) इति हृस्वत्वे दुणि विणि ॥ १२० ॥ स्तिण्णिः । ८।३ । १२१ । जस-शसभ्यां सहितस्य त्रे स्थाने तिणि इत्यादेशो Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३८] प्राकृतव्याकरणम् भवति ॥ तिणि ठिआ पेच्छ वा ॥ १२१ ॥ चतुरश्चत्तारो चउरो चत्तारि । ८ । ३ । १२२ । 3. चतुरशब्दस्य जस्-शस्भ्यां सह चत्तारो चउरो चत्तारि इत्येते आदेशा भवन्ति ॥ चत्तारो। चउरो। च. त्तारि चिट्ठन्ति पेच्छ वा ॥ १२२॥ संख्यायो आमो ग्रह ण्हं । ८ । ३ । १२३ । * संख्याशब्दात्परस्यामो पह पहं इत्यादेशौ भवतः ॥ दोण्ह । तिण्ह । चउण्ह । पञ्चण्ह । छण्ह । सत्तण्ह। अट्ठण्ह ।। एवं दोण्हं । तिण्हं। चउण्हं। पंचण्हं । छण्हं । सत्तपहं । अट्ठण्हं । नवण्हं । दसह । पण्णरसण्हं दिवसाणं । अट्ठारसण्डं समण-साहस्सीणं ॥ कतीनाम् । कइण्हं ।। बहुलाधिकाराद् विंशत्यादेनं भवति ॥ १२३ ॥ शेषे दन्तवत् । ८ । ३ । १२४ । - उपयुक्तादन्यः शेषस्तत्र स्यादिविधिरदन्तवदतिदि. श्यते । येष्वाकाराद्यन्तेषु पूर्व कार्याणि नोक्तानि तेषु 'जस्-शसोलक' (८-३-४) इत्यादीनि अदन्ताधिकारविहितानि कार्याणि भवन्तीत्यर्थः । तत्र 'जसूशसोलुक' इत्येतत्कार्यातिदेशः । माला गिरी गुरू सही वहू रेहन्ति पेंच्छ वा ॥ ' अमोस्य' (८-३-५) इत्येतत्कातिदेशः । गिरि गुरुं सहिं वहुं गामणि खलपुं पेच्छ । 'टा-आमो. णः' (८-३-६) इत्येतत्कार्यातिदेशः। हाहाण कयं । मालाण गिरीण गुरूण सहीण वहूण धणं । टायास्तु । 'टा णा' (८-३-२४ ) ॥ 'टा-ङस्-डेरदादिदेवा तु उसेः' (६-३-२९) इति विधिरुक्तः ॥ 'भिसो हि. हिँ हिं' Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७३९] (८-३-७) इत्येतत्कातिदेशः । मालाहि गिरीहि गुरूहि सहीहि वहूहि कयं । एवं सानुनासिकानुस्वारयोरपि ॥ 'ङसेस त्तो-दो-हि-हिन्तो-लुकः' (८-३-८) इत्येत. कार्यातिदेशः । मालाओ । मालाउ। मालाहिन्तो ।। बुद्धीओ। बुद्धीउ । बुद्धीहिन्तो। धेगूओ । घेणूउ । धे]हिन्तो आगओ। हिलुको तु प्रतिषेत्स्येते (८-३-१२७; १२६.) 'भ्यससू तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो' (८-३-९) इत्ये तत्कार्यातिदेशः । मालाहिन्तो। मालासुन्तो । हिस्तु निषे त्स्यते (८-३-१२७ ) एवं गिरीहिन्तो । इत्यादि । 'उसः स्सः' (८-३-१०) इत्येतत्कार्यातिदेशः । गिरिस्स । गुरुस्स । दहिस्स । महुस्स ॥ स्त्रियां तु 'टा-उस-डे० ' (८-३-२९ ) इत्याधुक्तम् ॥ 'डे म्मि ' (८-३-११) इत्येतत्कार्यातिदेशः । गिरिम्मि । गुरुम्मि । दहिम्मि । महुम्मि । डेस्तु निषेत्स्यते (८-३-१२८ )। स्त्रियां तु 'टा-उस-डे' (-३-२९) इत्यायुक्तम् । 'जस्शस्-ङसि-तो-दो-द्वामि दीर्घः' (८-३-१२) इत्येत. कार्यातिदेशः। गिरी गुरू चिट्ठन्ति । गिरीओ गुरूओ आगओ। गिरीण गुरूण धणं ॥ 'भ्यसि वा' (८-३-१३) इत्येतत्कार्यातिदेशो न प्रवर्तते ' इदुतो दीर्घः' (८-३-१६) इति नित्यं विधानात् ।। 'टाण-शस्येत्' (८.३-१४) 'भिस्भ्यस्सुपि' (८-३-१५) इत्येतत्कार्यातिदेशस्तु निषेत्स्यते (८-३-१२९) ॥ १२४ ॥ न दी? णो। ८।३ । १२५ । इदुदन्तयोराजस्-शसङस्यादेशे णो इत्यस्मिन् परतो Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४०] प्राकृतव्याकरणम् दीर्थो न भवति ॥ अग्गिणो । वाउणो॥ णो इति किम् । अगी। बग्गीओ ॥ १२५ ॥ . ङसेलुक । ८ । ३ । १२६ । . . आकारान्तादिभ्योदन्तवत्प्राप्तो उसेढुंग न भवति॥ मालत्तो। मालाओ। मालाउ। मालाहिन्तो आगओ ॥. एवं अग्गीओ । वाऊओ । इत्यादि ॥ १२६ ।। भ्यसश्च हिः । ८ । ३ । १२७। ___ आकारान्तादिभ्योदन्तवत्प्राप्तो भ्यसो उसेश्च हिने भवति ॥ मालाहिन्तो । मालासुन्तो। एवं अग्गीहिन्तो। इत्यादि ॥ मालाओ। मालाउ । मालाहिन्तो ॥ एवम् अ. : ग्गीओ । इत्यादि ॥ १२ ॥ ः । ८।३ । १२८ । आकारान्तादिभ्योदन्तवत्प्राप्तो डेढे न भवति ॥ अग्गिमि । वाउम्मि । दहिम्मि । महुम्मि ।। १२८ ॥ एत् । ८।३ । १२९ । आकारान्तादीनामर्थात् टाशभिस्भ्यस्सुप्सु. परतोदन्तबद् एत्वं न भवति ।। हाहाण कयं ॥ मालाओ पेच्छ ।। मालाहि कयं ॥ मालाहिन्तो । मालासुन्तो आगओ । मालासु ठिअं॥ एवं अग्गिणो । वाउणो । इत्यादि ॥१२९।। दिवचनस्य बहुवचनम् । ८।३ । १३० । सर्वांसां विभक्तीनां स्यादीनां त्यादीनां च द्विवचनस्य स्थाने बहुवचनं भवति ॥ दोणि कुणन्ति । दुवे कुण. न्ति । दोहिं । दोहिन्तो। दोसुन्तो । दोसु । हत्था । पाया। पणया। नयणा ॥ १३० ।। .. Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ७४१] चतुर्थ्याः षष्ठी । ८ । ३ । १३१ । चतुर्थ्याः स्थाने षष्ठो भवति ।। मुणिस्स । मुणीण देइ || नमो देवरस | देवाण ॥ १३१ ॥ तादर्थ्येव । ८ । ३ । १३२ । तादविहितस्य चतुर्थ्येकवचनस्य स्थाने षष्ठी वा भवति ॥ देवस्स देवाय । देवार्थमित्यर्थः ॥ ङेरिति किम् । देवा ॥ १३२ ॥ वधाड्डाइश्च वा | ८ | ३ | १३३ । वधशब्दात्परस्य तादर्ध्यङेडिंदू आइः षष्ठी च वा भवति || वहाइ वहस्स वहाय । वधार्थमित्यर्थः ॥ १३३ ॥ | क्वचिद द्वितीयादेः | ८ | ३ | १३४ । I द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित् ॥ सीमाधरस्स वन्दे । तिस्सा मुहस्स भरिमो | अत्र द्वितीयायाः षष्ठी ॥ धणस्स लद्धो । धनेन लब्ध इत्यर्थः । चिरस्स मुक्का । चिरेण मुक्तेत्यर्थः तेसिमेअमणाइण्णं तैरेतदनाचरितम् । अत्र तृतीयायाः । चोरस्स बीहइ । चोराबिभेतीत्यर्थः । इअराई जाण लहुअख्खराई पायन्ति मिल्ल - सहि. . आण । पादान्तेन सहितेभ्य इतराणीति । अत्र पञ्चम्याः ॥ पिट्ठीए केस - भारो। अत्र सप्तम्याः ॥ १३४ ॥ द्वितीया - तृतीययोः सप्तमी ||३|१३५ | द्वितीयतृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवति ॥ गामे वसामि । नयरे न जामि । अत्र द्वितीयायाः ॥ मइ वेविरीए मलिआई | तिसु तेसु अलंकिआ पुहवी । अत्र तृतीयायाः ।। १३५ ।। Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४२] प्राकृतव्याकरणम् पञ्चम्यास्तृतीया च । ८।३। १३६ । पञ्चम्याः स्थाने कचित् तृतीयासप्तम्यौ भवतः ।। चोरेण बीहइ । चोराद्विमेतीत्यर्थः । अन्तेउरे रमिउमाग ओ राया। अन्तःपुराद् रन्त्वागत इत्यर्थ ॥ १३६ ॥ .. सप्तम्या द्वितीया । ८।३ । १३७। ... - सप्तम्याः स्थाने कचिद् द्वितीया भवति ॥ विज्जुज्जोयं भरइ रत्तिं ॥ आर्षे तृतीयापि दृश्यते । तेणं कालेणं । तेणं समएणं। तस्मिन् काले। तस्मिन् समये इत्यर्थः । प्रथमाया अपि द्वितीया दृश्यते । चउवीसं पि जिणवरा । चतुर्विशः तिरपि जिनवरा इत्यर्थः ॥ १३७ ॥ . क्यडोर्यलुक । ८ । ३ । १३८ । . क्यङन्तस्य क्यअन्तस्य वा सम्बन्धिनो यस्य लुग् भात ।। गरुआइ । गरुआअइ। अगुरुगुरुर्भवति गुरुरिवा. चरति वेत्यर्थः ॥ क्यङ्ग । दमदमाइ । दमदमाअइ ॥ लो. हिआइ । लोहिआअइ ॥ १३८ ॥ त्यादीनामाद्यत्रयस्याद्यस्येचेचौ । ८ । ३ । १३९ । त्यादीनां विभक्तीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च संवन्धिनः प्रथमत्रयस्य यदायं वचनं तस्य स्थाने इच् एच इत्येतावादेशौ भवतः ॥ हसइ । हसए । वेवइ । वेवए । चकारौ 'इचेचः' (८-४-३१८ ) इत्यत्र विशेषणार्थौ ।। ॥ १३९ ॥ -.-दितीयस्य सि से । ८।३ । १४०। त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च द्वितीयस्य Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७४३] त्रयस्य सम्बन्धिन आद्यवचनस्य स्थाने सि से इत्येतावादेशौ भवतः ॥ हससि । हससे । वेवसि । वेवसे ॥१४०॥ तृतीयस्य मिः । ८ । ३ । १४१ । त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च तृतीयस्य त्रयस्याद्यस्य वचनस्य स्थाने मिरादेशो भवति॥ हसामि। वेवामि ॥ बहुलाधिकाराद् मिवेः स्थानीयस्थ मेरिकारलो. पश्च ॥ बहु-जाणय रूसिउं सकं । शक्नोमीत्यर्थः । न मरं। न भ्रिये इत्यर्थः ॥ १४१॥ . बहुष्वाद्यस्य न्ति न्तेि इरे । ८ । ३ । १४२ । त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानामात्रयसम्बन्धिनो बहुषु वर्तमानस्य वचनस्य स्थाने न्ति न्ते इरे इत्या. देशा भवन्ति ॥ हसन्ति । वेवन्ति । हसिजन्ति । रमिजन्तिा गज्जन्ते खे मेहा ॥ बीहन्ते रक्खमाणं च॥उप्पजन्ते कइ-हिअय-सायरे कव्व-रयणाइं ॥ दोणि वि न पहुप्पिरे बाहू । न प्रभवत इत्यर्थः ॥ विच्छुहिरे। विक्षुभ्यन्ती. त्यर्थः ॥ कचिद् रे एकत्वेऽपि । सूसहरे गाम-चिक्खल्लो । शुष्यतीत्यर्थः ॥१४२॥ .' मध्यमस्येत्था हचौ । ८।३ । १४३ । त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां मध्यमस्य त्रयस्य बहुषु वर्तमानस्य स्थाने इत्था हच् इत्येतावादेशौ भवतः॥ हसित्था । हसह । वेवित्था । वेवह ॥ बाहुलकादित्थान्य. त्रापि । यद्यत्त रोचते । जे जते रोहत्था । हच् इति चकार 'इह-हचोर्हस्य' (८-४-२६८) इत्यत्र विशेषणार्थः ॥ ॥ १४३ ॥ Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४४] प्राकृतव्याकरणम् - तृतीयस्य मो-मु-माः । ८।३ । १४४। . त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां तृतीयस्य त्रयस्य स. म्बन्धिनो बहुषु वर्तमानस्य वचनस्य स्थाने मो मु म इत्येते आदेशा भवन्ति ॥ हसामो। हसामु । हसाम । तुवरामो । तुवरामु । तुवराम ।। १४४ ॥ . .. अत एवच से । ८।३। १४५ । त्यादेः स्थाने यो एच से इत्येतावादेशावुक्ती सावकारान्तादेव भवतो नान्यस्मात् ॥ हसए । हससे । तुवरए । तुवरसे ॥ करए । करसे ॥ अत इति किम् । ठाइ । ठासि ॥ वसुआइ । वसुआसि ॥ होइ । होसि । एवकारोकारान्ताद् एच् से एव भवत इति विपरीतावधारणनिषेधार्थः। तेनाs कारान्ताद् इच् सि इत्येतावपि सिद्धौ ॥ हसइ ॥ वेवइ । वेवसि ॥१४५ ॥ सिनास्तेः सिः। ८।३।१४६ । . सिना द्वितीयत्रिकादेशेन सह अस्ते सिरादेशो भवति ॥ निठुरोज सि ॥ सिनेति किम् । सेआदेशे सति अत्थि तुमं ॥ १४६ ॥ मि-मो-मैम्हि-म्हो-म्हा वा । ८।३।१४७ । अस्तेर्धातोः स्थाने मि मोम इत्यादेशैः सह यथासंख्यं म्हि म्हो म्ह इत्यादेशा वा भवन्ति । एस म्हि । एषोस्मीत्यर्थः ॥ गय म्हो । गय म्ह । मुकारस्याग्रहणादप्रयोग एव तस्येत्यवसीयते । पले अस्थि अहं । अत्थि असे ॥ अस्थि अम्हो ॥ ननु च सिद्धावस्थायां 'पक्ष्म-म-म-स्म-म्हां म्हः' (८-२-७४) इत्यनेन म्हादेशे म्हो इति सिध्यति । Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७४५] सत्यम् । किं तु विभक्तिविधौ प्रायः साध्यमानावस्थाङ्गीक्रियते । अन्यथा वच्छेण । वच्छेसु । सव्वे । जे । ते । के इत्याद्यर्थं सूत्राण्यनारम्भणीयानि स्युः ॥ १४७ ।। अस्थिस्त्यादिना । ८ । ३ । १४८ । । अस्तेः स्थाने त्यादिभिः सह अस्थि इत्यादेशो भवति॥ अस्थि सो । अत्थि ते। अस्थि तुम। अत्थितुम्हे । अस्थि अहं । अस्थि अम्हे ॥ १४८ ॥ ___णेरदेदावावे । ८ । ३ । १४९ । णेः स्थाने अत् एत् आव आवे एते चत्वार आवेशा भवन्ति ॥ दरिसइ । कारेइ । करावइ । करावेद ॥ हासेह। हसावइ । हसावेइ ॥ उवसामेइ । उवसमावइ। उवसमावेइ ॥ बहुलाधिकारात् क्वचिदेन्नास्ति । जाणावेइ ॥ कचिद् आवे नास्ति । पाएइ । भावेइ ॥ १४९ ॥ गुर्वादेवि । ८।३। १५०। गुदेणैः स्थाने अवि इस्लादेशो वा भवति ।। शोषि. तम् । मोसविरं । सीसि । तोषितम् । तोसवितो . सिरं ॥ १५०॥ भ्रमेराडो वा । ८।३ । १५१ । र भ्रमेः परस्य राड आदेशो वा भवति ॥ भमाह । भमाडेइ । पक्षे । भामेइ । भमावइ । भमाबेइ ॥ १५१ ॥ - लुगावी क्त-भाव-कर्मसु । ८१३ । १५२ ॥ णे स्थाने लुक् आवि इत्यादेशो भवतः ते मावकमविहिते च प्रत्यये परतः ।। कारिअं कराविअं॥ हासि। Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४६] प्राकृतव्याकरणम् हसाविअं॥ खामिअं । खमावि ॥ भावकर्मणोः। का.. रीअइ । करावीअइ । कारिजइ । कराविजह । हासीअइ । हसावीअइ । हासिज्जइ । हसाविजह ॥ १५२ ॥ अदेल्लुक्यादेरत आः । ८ । ३ । १५३ । ... णेरदेल्लोपेषु कृतेषु आदेरकारस्थ आ भवति ॥ अति । पाडइ । मारइ । एति । कारेइ । खामेइ । लुकि । कारि। खामि। कारीअइ । खामीअइ । कारिजई । खामिबह॥ अदेल्लुकीति किम् । कराविअं। करावीअइ । कराविजई ।। आदेरिति किम् । संगामेइ । इह व्यवहितस्य मा भूत् ॥ कारिअं । इहान्त्यस्य मा भूत् । अत इति किम् । दूसेह ।। केचित्तु आवेआव्यादेशयोरप्यादेरत आत्वमिच्छन्ति । कारावेइ । हासाविओ जणो सामलीए ॥ १५३ ॥ मौ वा । ८।३ । १५४ । अत आइति वर्तते । अदन्ताद्धातोमौं परे अत आ. त्वं वा भवति ॥ हसामि । हसमि ॥जाणामि ॥ जाणमि। लिहामि लिहमि ॥ अत इत्येव । होमि ॥ १५४ ॥ इच मो-मु-मे वा । ८।३ । १५५। अकारान्ताद्धातोः परेषु मोमुमेषु अत इत्वं चकाराद् आत्थं च वा भवतः ॥ भणिमो भणामो। भणिमु भणामु । भणिम भणाम । पक्षे । भणमो । भणमु । भणम ।। 'वर्तमाना-पञ्चमी-शतृषु वा' (८-३-१५८) इत्येत्वे तु भणेमो । भणेमु । भणेम ॥ अत इत्येव । ठामो । होमो॥ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपज्ञपत्तिसहितम् [७४७] ते। ८।३ । १५६ । . ते परतोत इत्त्वं भवति॥ हसि। पढि । नविअं। हासिकं । पाढिअं ॥ गयं नयमित्यादि तु सिद्धावस्थापेक्षणात् ।। अत इत्येव । झायं । लु । हूअं ॥ १५६ ॥ एच्च क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु । ८।३ । १५७.। . क्त्वातुम्तव्येषु भविष्यत्कालविहिते च प्रत्यये परतोत एकारचकारादिकारश्च भवति ॥ क्त्वा । हसेऊण । हसिऊण ॥ तुम् । हसेउं । हसिउं । तव्य । हसेअव्वं । हसिअव्वं ॥ भविष्यत । हसेहिइ हसिहिह ॥ अत इत्येव । काऊण ॥१५७ ॥ वर्तमाना-पञ्चमी-शतषु वा । ८ । ३ । १५८ । वर्तमानापश्चमीशतृषु परत अकारस्य स्थाने एकारो वा भवति । वर्तमाना । हसेइ हसइ । हसेम हाँसम। हसेमु हसिमु ॥ पञ्चमी । हसेउ हसउ । सुणेउ सुणउ ।। शतृ । हसेन्तो हसन्तो॥ कचिन्न भवति । जयइ ॥ कचिदात्वमा पि । सुणाउ ॥ १५८ ॥ ज्जा-ज्जे । ८।३ । १५९ । जाज इत्यादेशयोः परयोरकारस्य एकारो भवति ॥ हसेज्जा । इसेज्ज॥ अत इत्येव । होज्जा। होज्ज ॥१५९॥ ईअ-इज्जौ क्यस्य । ८।३ । १६० । चिजिप्रभृतीनां भावकर्मविधि वक्ष्यामः । येषां तु न वक्ष्यते तेषां संस्कृतातिदेशात्प्राप्तस्य क्यस्य स्थाने ईअ इज्ज इत्येतावादेशौ भवतः। इसीअइ। हसिज्जह । हसीअन्तो। हसिज्जन्तो। हसीअमाणो। हसिज्जमाणों। Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४८] प्राकृतव्याकरणम् पढीअइ । पढिज्जइ । होईअइ । होइज्जइ ॥ बहुलाधिकारात् कचित् क्योपि विकल्पेन भवति । मए नवेज्ज मए नविज्जेज्ज । तेण लहेज्ज । तेण लहिज्जेज्ज। तेण अ. च्छेज्ज । तेण अच्छिज्जेज्ज । तेण अच्छीअइ ॥ १६० । शि-वचे स-डुच्चं ।। ८ । ३ । १६१ । । शेवचेश्च परस्य क्यस्य स्थाने यथासंख्यं डीस डुच्च इत्यादेशौ भवतः। ईअइज्जापवादः॥ दीसइ वुच्चइ ।। सौ ही हीअ भूतार्थस्य । ८ । ३ । १६२। भूतेर्थे विहितोद्यतन्यादिः प्रत्ययो भूतार्थः तस्य स्थाने सी ही हीअ इत्यादेशा भवन्ति ।। उत्तरत्र व्यञ्जनादीअविधानात् स्वरान्तादेवायं विधिः । कासी। काही । काही। अकार्षीत् । अकरोत् । चकार वेत्यर्थः । एवं ठासी । ठाही । ठाही ॥ आर्षे । देविन्दो इणमब्बवी इत्यादी सिद्धावस्थाश्रवणात् घस्त्यन्याः प्रयोगः ॥ १६२॥ व्यञ्जनादीअः। ८।३ । १६३ । । व्यञ्जनाद्धातोः परस्य भूतार्थस्याद्यतन्यादिप्रत्ययस्य ईअ इत्यादेशो भवति॥ हुवीअ । अभूत् । अभवत् । बभूवेत्यर्थः।। एवं अच्छी। आसिष्ट। आस्त । आसांचक्रे वा ॥ गेण्ही । अग्रहीत् । अगृण्हात् । जग्राह वा ॥ १६३ ॥ तेनास्तेरास्यहेसी । ८१३ । १६४।. अस्तेर्धातोस्तेन भूतार्थेन प्रत्ययेन सह, आसि अहेसि इत्यादेशो भवतः ॥ आसे सो तुमं अहं वा । जे आसि । य आसन्नित्यर्थः । एवं अहसि ॥ १६४॥ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपचिसहितम् [७४९) ज्जात्सप्तम्या इर्वा । ८ । ३ । १६५। ससम्यादेशात ज्जात्पर इर्वा प्रयोक्तव्यः ॥ भवेत् । होज्जङ् । होज्ज ॥ १६५ ॥ भविष्यति हिरादिः । ८१३ । १६६ । भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे तस्यैवादिहिः प्रयोक्तब्य होहिह । भविष्यति भविता वेत्यर्थः ॥ एवं हो हिन्ति । होहिसि । होहित्था । हसिहिह । काहिइ ॥१६६॥ मि-मो-मु-मे स्सा हा न वा । ८ ।३ । ९६७। भविष्यत्यर्थे मिमोमुमेषु तृतीयत्रिकादेशेषु परेषु तेषा. मेवादी स्सा हा इत्येतो वा प्रयोक्तव्यो । हेरपवादौ ॥ पक्षे हिरपि । होस्सामि होहामि । होस्सामो होहामो । होस्सा. मु होहामु । होस्साम होहाम ॥ पक्षे । होहिमि । होहिमो। होहिमु । होहिम ॥ क्वचित्तु हा न भवति । हसिस्सामो। हसिहिमो ॥१६७॥ मो-मु-मानां हिस्सा हित्था । ८।३।१६८ । भावो परौ भविष्यति काले मोमुमानां स्थाने हिस्सा हिस्सा इत्येतोया प्रयोक्तव्यो। होहिस्सा। होहित्था । हसि. हिस्सा । पक्षे । होहिमो । होस्सामो। होहामो । इत्यादि । ॥१६८ ॥ मेस्सं । ८] ३ । १६९। धातोः परो भविष्यति काले म्यादेशस्य स्थाने स्तं वा प्रयोक्तव्यः ।। होस् । इसिस्सं । कित्ताइस्सं। पक्षे । होहिमि । झस्सामि । होहामि । कत्तइहिति ।। १६९ ॥ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५०] प्राकृतव्याकरणम् कृ-दो हैं। ८।३ । १७०। करोतेर्ददातेश्च परो भविप्यति विहितस्य म्यादेशस्य स्थाने हं वा प्रयोक्तव्यः॥ काहं । दाहं। करिष्यामि दास्यामीत्यर्थः ॥ पक्षे । काहिमि । दाहिमि । इत्यादि ।। १७० ॥ श्र-गमि-रुदि-विदि-दृशि-मुचिचचि-छिदि-भिदि-भुजां सोच्छं गच्छं रोच्छं बेच्छं दच्छं मोच्छं वोच्छं छेच्छं भेच्छं भोच्छं । ८।३ । १७१ । श्वादीनां धातूनां भविष्याद्विहितम्यन्तानां स्थाने सोच्छमित्यादयो निपात्यन्ते ॥ सोच्छं। श्रोष्यामि ।। गच्छं । गमिष्यामि ॥ संगच्छं । संगस्ये ॥ रोच्छं । रोदिष्यामि ।। विद ज्ञाने । वेच्छं । वेदिष्यामि ॥ दच्छं द्रक्ष्या मि ॥ मोच्छं । मोक्ष्यामि । वोच्छं । वक्ष्यामि ॥ छेच्छं । छत्स्यामि ॥ भेच्छं । भेत्स्यामि ॥ भोच्छं । भोक्ष्ये ॥१७॥ सोच्छादय इजादिषु हिलुक् च वा । ८।३।१७२ । वादीनां स्थाने इजादिषु भविष्यदादेशेषु यथासंख्यं सोच्छादयो भवन्ति । ते एवादेशा अन्त्यस्वराद्यवयववर्जा इत्यर्थः। हिलुक् च वा भवति ॥ सोच्छिइ । पक्षे। सोच्छि हिइ । एवं सोच्छिन्ति । सोच्छिहिन्ति । सोच्छिसि । सो. छिहिसि । सोच्छित्था । सोच्छिहित्था । सोच्छिह । सो. च्छिहिह । सोच्छिाम । सोच्छिहिमि । सोच्छिस्सामि । सोच्छिहामि । सोच्छिस्सं । सोच्छं। सोच्छिमो । सोच्छिहिमो । सोच्छिस्सामो। सोच्छिहामो। सोच्छिहिस्सा। सोच्छिहित्था । एवं मुमयोरपि ॥ गच्छिइ । गच्छिहिइ । गच्छिन्ति । गच्छिहिन्ति । गच्छिसि । गच्छिहिसि। गच्छित्था । गच्छिहित्था।गच्छिह । गच्छिहिह।गच्छिमि । Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपत्तिसहितम् [७५१ ] गच्छिहिमि।गच्छिस्सामि।गच्छिहामि।गच्छिस्सं।गच्छं। गच्छिमो । गच्छिहिमो। गच्छिस्सामो। गच्छिहामो । गच्छिहिस्सा । गच्छिहित्था । एवं मुमयोरपि ॥ एवं रुदादीनामप्युदाहार्यम् ॥ १७२ ॥ दुसु मु विध्यादिवेकस्मिंस्त्रयाणाम् ।८।३।१७३। विध्याविष्वर्थेषुत्पन्नानामेकत्वेर्थे वर्तमानानां त्रयाणामपि त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं दु सु मु इत्येते आदेशा भवन्ति ॥ हसउ सा ॥ हससु तुमं। हसामु अहं । पेच्छउ । पेच्छम् । पेच्छामु ॥ दकारोचारणं भाषान्तरार्थम् ।।१७३॥ सोर्हिवा । ८।३ । १७४ । पूर्वसूत्रविहितस्य सो स्थाने हिरादेशो वा भवति ॥ देहि देसु ॥ १७४ ॥. अत इज्जस्विज्जहीजे-लुको वा । ८।३।१७५। .. अकारात्परस्य सोः इज्झसुइज्जहि इज्जे इत्येते लुक च आदेशा वा भवन्ति ।। हसेज्जसु । हसेज्जहि । हसेज्जे। हस । पक्षे । हससु ॥ अत इति किम् । होसु । ठाहि ॥ ॥ १७५॥ बहुषु न्तु ह मो। ८।३। १७६ । विध्याविषूत्पनानां बहुष्वर्थेषु वर्तमानानां त्रयाणां त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं न्तु ह मो इत्येते आदेशा भवन्ति। न्तु । हसन्तु । हसन्तु हसेयुर्वा ॥ ह । हसह। हसत । हसेत वा ॥ मो। हसामो । हसाम । हसेम वा॥ एवं तुवरन्तु । . तुबरह । तुवरामो ॥१७६ ॥ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५२] हेमशब्दानुशासनस्य वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा वा ।८।३।१७७। . वर्तमानाया भविष्यन्त्याश्च विध्यादिषु च विहितस्य प्रत्ययस्य स्थाने ज्ज ज्जा इत्येतावादेशौ का भवतः । पर्छ यथाप्राप्तम् ॥ वर्तमाना। इसेज्ज । हसेज्जा। पढेज्ज । पढेज्जा । सुणेज्ज । सुणेज्जा ।। पक्षे । पढिहिइ ॥ विध्यादिषु। हसेन्ज । हसिजा। इसतु । हसेद्धा इत्यर्थः । पक्षे । हसउ ।। एवं मर्वत्र । यथा तृतीयत्रये । अइवाएज्जा । अइवाया. वेज्जा ।न समणुजाणामि। नसमणुजाणेज्जा वा ।। अन्ये त्वन्यासामपीच्छन्ति । होज । भवति । भवेत । भवतु । अभवत्। अभूत् । बभूव । भूयात् । मक्तिा । भविष्यति। अभविष्यद्वेत्यर्थः ॥ १७७ ॥ मध्ये च स्वरान्तादा। ८ । ३ । १७८ । स्वरान्ताद्धातोः प्रकृतिप्रत्ययोर्मध्ये चकारात्प्रत्ययानां च स्थाने ज्ज ज्जा इत्येतो वा भवतः वर्तमानाभविष्यन्त्योविध्यादिषु च ॥ वर्तमाना । होज्जइ । होज्जाइ । होज्ज । होज्जा । पक्षे । होइ ॥ एवं होज्जसि । होज्ज । होज्जा। होसि । इत्यादि ॥ भविष्यन्ती। होज्जहिइ । होज्जाहिइ । होज्ज । होज्जा । पक्षे । होहिइ ॥ एवं होज्जहिसि । होज्जा. हिसि ! होज्ज । होज्जा । होहिसि । होज्जहिमि । होज्जाहिमि। होज्जस्सामि । होज्जहामि । होज्जस्सं होजाहोन्जा। इत्यादि । विध्यादिषु । होजउ । होबाउ । होज । होना। मवतु भवेद्वेत्यर्थः । पक्षे । होउ ॥ स्वरान्तादिति किम् । हसेन । हसेज्जा । तुवरेज्ज । तुवरेज्जा ॥ १७८ ।। ... Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [७५३] क्रियातिपत्तेः । ८ । ३ । १७९ । क्रियातिपत्तेः स्थाने ज्जज्जावादशौ भवतः॥ होज्ज । होना। अभविष्यदित्यर्थः । जइ होज्ज वण्णणिज्जो ॥ ॥१७९॥ न्त-माणौ । ८।३ । १८०। क्रियातिपत्तेः स्थाने न्तमाणो आदेशौ भवतः ॥ हो. न्ती । होमाणो । अभविष्यदित्यर्थः ॥ हरिण ठाणे हरिणङ्क जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो। न सहन्तो चिअ तो राहुपरिहवं से जिअन्तस्स ॥१८०॥ शत्रानशः । ८।३ । १८१ । शतृआनश इत्येतयोः प्रत्येकं न्त माण इत्येतावादेशी भवतः। शतृ । हसन्तो हसमाणो ॥ आनश् । वेवन्तो वे. बमाणो ॥ १८१ ॥ ईच स्त्रियाम् । ८।३ । १८२ । स्त्रियां वर्तमानयोः शत्रानशोः स्थाने ई चकारात् न्तमाणौ च भवन्ति ।। हसई । हसन्ती । हसमाणी । वेवइ । वेवन्ती । वेवमाणी ॥ १८२ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधा नस्वापेज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य .. तृतीयः पादः॥ ऊवं स्वर्गनिकेतनादपि तले पातालमूलादपि * त्वत्कीर्तिर्धमति क्षितीश्वरमणे पारे पयोधेरपि । तेनास्याः प्रमदास्वभावसुलभैरुचावचैश्चापलैस्ते वाचंयमवृत्तयोपि मुनयो मौनव्रतं त्याजिताः॥१॥ सर्वविदे नमः॥ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पादः इदितो वा । ८।४।१। सूत्रे ये इदितो धातवो वक्ष्यन्ते तेषां ये आदेशास्ले विकल्पेन भवन्तीति वेदितव्यम् । तत्रैव चोदाहरिष्यते ॥ ॥१॥ कथैर्वज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-सङ्घ-बोल्ल-चव-जम्प. सीस-साहाः । ८।४।२। कथेर्धातोर्वज्जरादयो दशादेशा वा भवन्ति ॥ वज्जरह। पज्जरह । उप्पालइ । पिसुणइ । सञ्चइ । बोल्लइ । चवह । जम्पइ । सीसइ । साहह ॥ उब्बुक्कइ इति तत्पूर्वस्य बुक्क भाषणे इत्यस्य । पक्षे । कहइ ॥ एते चान्यैर्वेशीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्ठन्तामिति ॥तथा च । बजरिओ कथितः वज्जरिऊण कथयित्वा । बजरणं कथनम् । बज़रन्तो कथयन् । बजरिमव्वं कथयितव्यमिति रूपसहस्राणि सिध्यन्ति । संस्कृतधातुवञ्च प्रत्ययलोपागमादिविधिः ॥ २॥ दुःखे णिन्वरः । ८ । ४ । ३ । दुःखविषयस्य कर्णिव्वर इत्यादेशोवा भवति ।। णिव्वरइ । दु:खं कथयतीत्यर्थः ॥ ३ ॥ जुगुप्सेझुण-दुगुच्छ दुगुञ्छाः । ८ । ४ । ४ । जुगुप्सेरेते त्रय आदेशा का भवन्ति ॥ झुणई । दुगु Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपतिसहितम् [७५५) मण्ड । दुगुब्छह । पक्षे । जुगुच्छह ॥ गलोपे। दुउछ।। दुउञ्छ । जुउच्छइ ॥४॥ बुभुति-चीज्याणीख वोज्जौ। ८१४।५।। बुभुक्षेराचारशिवन्तस्य च वीजेर्यथासंख्यमेतावादेशी वा भवतः॥णीरवइ । घुहुक्खइ । बोजा । वीजइ ॥ ५ ॥ ___ ध्या-गोह-गौ । ८।४।६। । अनयोर्यथासंख्यं झा गा इत्यादेशौ भवतः । झाइ । साबइ। णिज्झाइ। णिज्झाइ । निपूर्वो दर्शनार्थः । गाह । गायइ । झाणं । गाणं ॥६॥ ज्ञो जाण-मुणौ । ८ । ४।७। । जानातेर्जाण मुण इत्यादेशौ भवतः ॥ जाणइ । मुणइ॥ बहुलाधिकारात्क्वचिद्विकल्पः । जाणिणायं। जाणिउण। णाऊण । जाणणं । णाणं । मणइ इति तु मन्यतेः ॥७॥ उदो मो धुमा । ८।४।८। उदः परस्य मो धातोर्बुमा इत्यादेशो भवति । उध्धुमाइ ॥८॥ .. . श्रदो धो दहः । ८४।९। श्रदः परस्य दधातेदह इत्यादेशो भवति ॥ सहहह । सरहमाणो जीवो ॥ ९॥ पिबेः पिज्ज-उल्ल-पट्ट-घोड़ाः । ८।४।१०। पिषतेरेते चत्वार आदेशावा भवन्ति॥ पिज्जइ । बल्लइ। पहह । घोहह । पिअह ॥ १० ॥ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५६] प्राकृतव्याकरणम् उदातेरोरुम्मा वसुआ। ८।४। ११ ।। उत्पूर्वस्य वातेः ओरुम्मा वसुआ इत्येतावादेशी वा भवतः ॥ ओरुम्माइ । वसुआइ । उव्वाइ ॥ ११ ॥ निदातेरोहीरोडौ । ८।४ । १२ । निपूर्वस्य द्रातेः ओहीर उङ्घ इत्यादेशो वा भवतः ॥ ओहीरइ । उघड । निहाइ ॥ १२ ॥ आधेराइग्धः । ८ । ४ । १३ । आजिघ्रतेराइग्ध इत्यादेशो वा भवति ॥ आइग्घइ । अपघाइ ॥ १३ ॥ स्नातेरभुत्तः।८।४। १४ । स्नातेरन्भुत्त इत्यादेशो वा भवति ॥.अब्भुत्तइ । पहाइ ॥ १४ ॥ ___ समः स्त्यः खाः। ८।४ । १५। संपूर्वस्य स्त्यायतेः खा इत्यादेशो भवति ॥ संखाइ । संखायं ॥१५॥ स्थष्ठा-थक-चिट्ट-निरप्पाः । ८ । ४ । १६ । तिष्ठतेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ ठाइ । 'ठाअइ । ठाणं । पटिओ। उहिओ। पहाविओ। उहाविओ। थक्कह। चिट्ठइ । चिहिऊण । निरप्पइ बहुलाधिकारात् कचिन्न भवति । थि। थाणं । पत्थिओ । उत्थिओ थाऊण ॥ ॥१६॥ उदष्ठ कुकुरौ । ८।४।१७।। - उदः परस्य तिष्ठतेः ठ कुक्कुर इत्यादेशौ भवतः ॥ उहइ । उक्कुक्कुरइ ॥ १७ ॥ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपजाषिसहितम् [७५७] म्लेवा-पव्वायौ। ८।४।१८। म्लायतेर्वा पव्वाय इत्यादेशौ वा भवतः ॥ वाइ। पव्वायइ । मिलाइ ॥ १८ ॥ निर्मो निम्माण-निम्मवौ ।८।४।१९। । निरपूर्वस्य मिमीतेरेतावादेशौ भवतः ॥ निम्माणइ। निम्मवइ ॥ १९ ॥ क्षेणिज्झरो वा । ८।४।२०।। · । क्षयतेणिज्झर इत्यादेशो वा भवति ॥ णिज्झरह । पक्षे । झिज्जइ ॥ २०॥... छदेणेणुम-नूम-सन्नुम ढकौम्बाल-पव्वालाः ८४।२१। । छदेय॑न्तस्य एते षडादेशावा भवन्ति।। णुमहानूमइ । णत्वे णूमह । सन्नुमइ । कह । ओम्बालइ । पव्वालइ । छायइ ।। २१ ॥ .. निविपत्योर्णिहोडः । ८।४।२२। निवृगः पतेश्च ण्यन्तस्य णिहोड इत्यादेशो वा भव. ति ॥ णिहोडइ । पक्षे । निवारेइ । पाडेह ॥ २२ ॥ ... दूङो दूमः । ८।४। २३ । दूडो ण्यन्तस्य दूम इत्यादेशो भवति ॥ दूमेह मज्ज्ञ हिअयं ।। २३ ॥ :- धवलेदुमः । ८।४।२४। । ::: धवलयतेय॑न्तस्य दुमादेशो वा भवति ॥ दुमइ । धवला ॥ 'स्वराणस्वरा' (बहुलम् ) (८-४-२३८) इति दीर्घत्वमपि । दूमिअं। धवलितमित्यर्थः ॥ २४ ॥ Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५८] तुलेरोहामः !८१४|१५ तुलेयेन्तस्य ओहाम इलादेशो का भवति ॥ मोहामह । तुलइ ॥ २५ ॥ विरिचेरोलुण्डोल्लुण्ड-पलहत्याः । ८।४।२६ । विरचयतेय॑न्तस्य प्रोतुण्डायला भाशा वा भवन्ति ॥ ओलण्डइ । उल्लण्डइ । पल्हत्थइ । विरेअइ ॥२६॥ तडेराहोर-विहोडौ । ८ । ४ ॥ २७॥ तरेपर्यन्तस्य एतावादेशो का भवता ॥ बाद । विहोडइ पक्षे । ताडेइ ।। २७ ॥ . . मिश्रेर्वी साल-मेलवौ।८।४२८।। मिश्रयतेय॑न्तस्य वीसाल मेलव इत्यादेशमा भवतः॥ बीसालइ । मेलबह । मिस्सह ॥ २८ ॥ . ... ___उध्दुलेगुण्ठः । ८ । ४ । २९ । उध्दूलेण्यन्तस्य गुण्ठ इत्यादेशो वा भवति ।। गुण्ठा। पक्षे । उन्ले इ ॥ २९ ॥ भ्रमेस्तालिअण्ट-तमाडौ । ८।४।३०।। भ्रमयतेय॑न्तस्य तालिअण्ट तमाड इत्पादेशो वा भवतः ॥ तालिअण्टइ। तमाडइ । मामेह । भमादेई । भमावे ॥३०॥ नशेविउड-नासव-होरकविप्पगाल-पलाया।४।३१॥ नशेय॑न्तस्य एते फादेवा वा भवन्ति । विउडा। नासबह । हमाचइ । विप्पगालइ । पतावइ । पक्षे । नासह । ॥३१॥ .... ....... . Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वोमाचिसहिन्द . दशेर्दाव-इंस दक्खवाः । ८।४ । ३२ । दशेय॑न्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ दावइ । वंसह । दक्खबइ । दरिसइ ॥ ३२॥ उद्धटेरुग्गः। ८ । ४ । ३३ । । ऊत्पूर्वस्य घटेर्ण्यन्तस्य उम्ग इत्यादेशो वा भवति ॥ उग्गइ । उग्घाडइ ॥ ३३॥ . - स्पृहः सिहः। ८।४।३४ । स्पृहो ण्यन्तस्य सिह इत्यादेशो भवति॥सिहद॥३४॥ __ संभावेरासङ्घः । ८ । ४ । ३५ । संभावयतेरासङ्घ इत्यादेशो वा भवति ॥ आसघइ । संभावइ ॥ ३५ ॥ उन्नमेरुत्थचोल्लाल-गुलुगुञ्छोप्पेला1८।४।३६। उत्पूर्वस्य नमेर्णन्तस्य एते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ उत्थचइ । उल्लालइ । गुलुगुञ्छइ । उप्पेलइ । उन्नावइ ॥ ३६ ॥ प्रस्थापेः पछ्य पेण्डवौ । ८।४।३७ । प्रपूर्वस्य तिष्ठतेर्ण्यन्तस्य पट्टव पेण्डक इत्यादेशो का भवतः ॥ पट्टवइ । पेण्डवइ । पहावइ ॥ ३७॥ विज्ञपेोकाबुको । ८।४।३०॥ विपूर्वस्य जानातेय॑न्तस्य वोक्क अवुक इत्यादेशमा भवतः ॥ वोकइ । अबुकइ । विण्णवइ ।। ३८॥ अल्लिन-चच्चुप्प-पणामाः । ८।४।३९ । . अर्ण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति ।। अलि Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६०] प्राकृतव्याकरणम् । वइ । चच्चुप्पड़ । पणामइ । पले । अप्पेह ॥ ३९॥ . यापेर्जवः । ८।४।४। । यातेर्ण्यन्तस्य जव इत्यादेशो वा भवति ॥ जवइ जावेइ ॥ ४०॥ प्लावरोम्वाल-पब्वालौ । ८।४।४१ । .. प्लवतेय॑न्तस्य एतावादेशो वा भवतः ॥ ओम्वालइ । पव्वालइ । पावेइ ॥४१॥ विकोशेः पक्खोडः । ८।४।१२।। विकोशयते मधातोर्ण्यन्तस्य पक्खोड इत्यादेशो वा भवति ॥ पक्खोडइ । विकोसई ॥ ४२ ॥ रोमन्थे रोग्गाल-वग्गोलो। ८।४।१३।। रोमन्थेन मधातोर्ण्यन्तस्य एतावादेशौ वा. भवतः॥ ओग्गालइ । वग्गोलइ । रोमन्थइ ॥४३॥ कमेणिहुवः । ८।४।४४ । कमेः स्वार्थण्यन्तस्य णिहुव इत्यादेशो या भवति। णि. हुवइ । कामेइ ॥ ४४ ॥ . प्रकाशेणुव्वः।८।४।४५। प्रकाशेय॑न्तस्य गुब्ब इत्यादेशो का भवति ॥ युवइ । पथासंद ॥ ४५ ॥ कम्पेविछोलः । ८ । ४ । ४६। कम्पर्यन्तस्य विच्छोल इत्यादेशोवा भावलिच्छो . लइ । कम्पेह ॥ ४६॥ रान 77 Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७६१] आरोपेर्वलः । ८ । ४ । ४७। आरुहेर्ण्यन्तस्य वल इत्यादेशो वा भवति ॥ वलइ । आरोवेइ ॥ ४७॥ दोले रढोलः । ८।४।४८। दुलेः स्वार्थे ण्यन्तस्य रखोल इत्यादेशो वा भवति ॥ रखोलइ । दोलइ ॥ ४८ ॥. रञ्जेरावः । ८।४। ४९ । रञ्जय॑न्तस्य राव इत्यादेशो वा भवति ॥ रावेह । रञ्जह ॥ ४९ ॥ . घटेः पखिाडः । ८।४ । ५०। घटेय॑न्तस्य परिवाड इत्यादेशो वा भवति ॥ परिवाडेइ । घडेइ ॥ ५० ॥ .. . वेष्टेः परिआलः । ८।४ । ५१ । .. वेष्टर्ण्यन्तस्य परिआल इत्यादेशो वा भवति ॥ परि. आलेह । वेढेइ ॥ ५१ ॥ क्रियः किणो वस्तु के च । ८।४।५२ । __णेरिति निवृत्तम् । क्रीणातेः किण इत्यादेशो भवति । वेः परस्य तु द्विरुक्तः क्वेश्चकारात्किणश्च भवति ॥ किणइ। विक्के । विकिणइ ॥ ५२ ॥ . मियो भा-बीहौ । ८।४ । ५३ । बिमेतेरेतावादेशौ भवतः ॥ भाइ । भाइअं। बीहह । बीहि ॥ बहुलाधिकाराद् भीओ ॥ ५३ ॥ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलीकोली । ८ । ४ । ५४ । आलीयते अल्ली इत्यादेशो भवति ॥ अल्लिया । अ. ल्लीणो॥५४॥ निलौर्णिलीब-णिलुक-णिरिग्घ लुक-लिक-ल्हिक्काः ।८।४। ५५। निलीङ एते षडादेशा वा भवन्ति ॥ णिलीअइ । णिलुकइ । णिरिग्घइ । लुकइ । लिक्कइ । हिकइ । निलिज्जइ विलीविरी । ८ । ४ । ५६ । विलीविरा इत्यादेशो वा भवति ॥ विराइ । विलि५६ रुते रुज-रुण्टौ । ८ । ४ । ५७ । रौतेरेताकादेशौ वा भवतः ॥ रुखाइ । रुण्टइ । रवइ ॥ ॥५७॥ । ८।४ । ५८। । शृणोतेईण इत्यादेशो वा भवति ॥ हणइ । सुणइ ॥ धूगेधुवः । ८ । ४ । ५९ । धुनोतेधुंव इत्यादेशो वा भवति ॥ धुवइ धुणह ॥५९॥ भुवेहों-हुष-हवाः । ८।४ । ६० । वोगातोहुष हव इत्येते आवेशा वा भवन्ति ॥ होइ । होन्ति । हुबइ । हुवन्ति । हबह । हवन्ति ॥ पक्षे । Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --- स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७६३] • भवइ । परिहीण-विहवो । भविउं । पभवइ । परिभवइ । संभवइ ।। कचिदन्यदपि । उन्मुअइ । भत्तं ॥ ६० ॥ अविति हुः । ८।४।६१ । .. विदर्जे प्रत्यये भुवो हु इत्यादेशो वा भवति। हुन्ति। भवन् । हुन्तो । अवितीति किम् । होइ ॥ ६१ । । पृथक्-स्पष्टे णिव्वडः । ८ । ४ । ६२ । पृथक्भूते स्पष्टे च कर्तरि भुवो णिव्बड इत्यादेशो भवति ॥णिव्वडइ । पृथक् स्पष्टो वा भवतीत्यर्थः ॥६२।। प्रभौ हुप्पो वा । ८।४ । ६३ । प्रभुकर्तृकस्य भुवो हुप्प इत्यादेशो वा भवति । प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्यैवार्थः । अङ्गे चिअ न पहुप्पइ । पक्षे । पमवेइ ॥ ६३॥ . . . क्ते हः । ८।४।६४। ... भुवः क्तप्रत्यये हरादेशो भवति ॥ इदं । अपहभं । पहरं ॥ ६४ ॥ कृगेः कुणः । ८।४। ६५ । कृगः कुण इत्यादेशो भवति ॥ कुणइ । करह॥६५॥ . काणेक्षिते णिमारः। ८।४।६६ ।। काणेक्षितविषयस्य कुगो णिआर इत्यादेशो वा मवर ति ॥ णिआरइ । काणेक्षितं करोति ।। ६६ ॥ निष्टम्मावष्टम्मे पिछह-संदाणं । ८।४।६७। निष्टम्भविषयस्यावष्टम्भविषयस्य च कृगो यथार्स Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६४] प्राकृतव्याकरणम् ख्यं णिछुह संदाण इत्यादेशौ वा भवतः॥ णिहइ । निष्टम्भं करोति । संदाणइ । अवष्टम्भं करोति ॥६७ ॥ श्रमे वावम्फः । ८।४।६८। श्रमविषयस्य कृगो वावम्फ इत्यादेशो वा भवति । वावम्फइ । श्रमं करोति ॥ ६८॥ मन्युनौष्ठमालिन्ये णिव्वोलः । ८।४।६९। .. मन्युना करणेन यदोष्ठमालिन्यं तद्विषयस्य कुगो णिव्वोल इत्यादेशो वा भवति । णिव्वोलह । मन्युना ओष्ठं मलिनं करोति ॥ ६९ ॥ शैथिल्य-लम्बने पयल्लः ।८।४ । ७०।। शैथिल्यविषयस्य लम्बनविषयस्य च कृगः पयल्ल इत्यादेशो वा भवति । पयल्लइ । शिथिलीभवति लम्बते वा ॥ ॥७०॥ निष्पताच्छोटे णीलुञ्छः । ८ । ४.७१ निप्पतनविषयस्य आच्छोटन विषयस्य च कृगो णीलुछ इत्यादेशो भवति वा ॥णीलुञ्छइ । निष्पतति । आ. च्छोटयति वा ॥ ७१॥ क्षुरे कम्मः । ८।४।७२। .. क्षुरविषयस्य कृगः कम्म इत्यादेशो वा भवति ॥ कम्मइ । क्षुरं करोतीत्यर्थः ॥७२॥ चाटौ गुललः । ८।४ । ७३ । चाटुविषयस्य कृगो गुलल इत्यादेशो वा भवति ॥ गुललइ । चाटुकरोतीत्यर्थः ॥ ७३ ॥ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७६५] .. स्मरेझर झूर-भर-भल-लढ-विम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः ।८।४।७४ । स्मरेरेते नवादेशा वा भवन्ति ॥ झरह ।झूरह । भरइ। भलइ । लढइ विम्हरइ । सुमरइ । पयरइ । पम्हुहइ । सरइ ॥ ७४ ॥ विस्मुः पम्हस-विम्हरचीसराः । ८ । ४ । ७५ । विस्मरतेरेते आदेशा भवन्ति ॥ पम्हुसइ । विम्हरह। वीसरह ॥ ७५ ॥ व्याहगेः कोक-पोकौ । ८।४ । ७६ ।। व्याहरतेरेतावादेशौ वा भवतः॥ कोकइ । हृस्वत्वे तु कुक्का । पोकइ । पक्षे । वाहरइ ॥ ७६ ॥ प्रसरेः पयल्लोवेल्लो। ८ । ४ । ७७ । प्रसरतेः पयल्ल उवेल्ल इत्येतावादेशौ वा भवतः। पयल्लइ । उवेल्लइ । पसरह ॥ ७७ ॥ महमहो गन्धे । ८।४। ७८ । प्रसरतेर्गन्धविषये महमह इत्यादेशो वा भवति ॥ महमहइ मालई ।मालई-गन्धो पसरह ॥गन्ध इति किम् । पसरह ॥७८ ॥ निस्सरेणीहर-नील-धाड-वरहाडाः।८।४ । ७९ । निस्सरते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ णीहरइ । नीलइ । धाडइ वरहाडइ । नीसरह ॥ ७९ ॥ जाग्रजग्गः । ८।४।८०। जाग्रतेर्जग्ग इत्यादेशो वा भवति ॥ जग्गइ । पक्षे । जागरह ॥८॥ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६६ ] प्राकृतव्याकरणं व्याप्रेराअड्डः । ८ । ४ । ८१ । व्याप्रियतेराअड्ड इस्यादेशो वा भवति ।। आअड्डे | वाबरेइ ।। ८१ ।। संवृगेः साहर -साहट्टौ । ८ । ४ । ८२ । संवृणोतेः साहर साहह इत्यादेशौ वा भवतः साहरइ | साहट्टइ || संवरइ ॥ ८२ ॥ आहडे: सन्नामः | ८ । ४ । ८३ । आद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति ॥ सन्नामह । आदरइ ।। ८३ । प्रहृगेः सारः । ८ । ४ । ८४. प्रहरतेः सार इत्यादेशो वा भवति ॥ सारइ । पहरइ । ॥ ८४ ॥ अवतरेरोह - ओरसौ । ८ । ४ । ८५ । अवतरतेः ओह ओरस इत्यादेशौ वा भवतः ॥ ओहह । ओरसइ | ओअरइ || ८५ ॥ शकेश्वय-तर- तीर - पाराः । ८ । ४ । ८६ । शक्नोतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ चथइ । तरह। तीरइ । पारइ | सकाइ ॥ त्यजतेरषि चया । हानिं करोति ॥ तरतेरपि तरइ ॥ तीरयतेरपि तीरइ ।। पारयतेरपि पारे । कर्म समानोति ॥ ८६ ॥ फकस्थकः । ८ । ४८७। फक्कतस्थक्क इत्यादेशो भवति ॥ थक्कइ ॥ ८७ ॥ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञचिसहितम् [ ७६७ ] श्लाघः सलहः । ८ । ४ १८८१ श्लाघतेः सलह इत्यादेशो भवति । सलहइ ॥ ८८ ॥ खर्चेवेंअडः । ८ । ४ । ८९। खचतेर्वेअड इत्यादेशो वा भवति ॥ वेअडइ । खचइ ॥ ॥ ८९ ॥ पचेः सोल्ल - पउलौ । ८ । ४ । ९० । पचतेः सोल्ल पउल इत्यादेशौ वा भवतः ॥ सोल्ला । पडलइ । पयइ ॥ ९० ॥ मुचेश्छड्डावहेड- मेल्लोस्सिक-रेअव-पिल्लुञ्छ-धंसाड़ाः । ८ । ४ । ९१ । मुञ्चतेरेते सप्तादेशा वा भवन्ति ॥ छडुइ । अवहेडा | मेक्कर । उस्सिका । रेअवइ । णिलुञ्छइ । घंसाडह । पक्षे । मुअइ ॥ ९१ ॥ दुःखे णिव्वलः । ८ । ४ । ९२ । दुःस्वविषयस्य मुचेः णिव्वल इत्यादेशो वा भवति ॥ णिव्वलेइ । दुःखं मुञ्चतीत्यर्थः ॥ ९२ ॥ वञ्चैर्वेहव-वेलव-जूखोमच्छाः । ८ । ४ । ९३ । वञ्चतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ बेहवइ । वेलवइ । जूरवइ । उंमच्छइ । वञ्श्वइ ॥ ९३ ॥ 1 रचेरुग्गहावह - विडविड्डाः । ८ । ४ । ९४ । रवेर्धातोरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ उग्गहह । अवइ । विsविडुइ । रयइ ॥ ९४ ॥ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६८] प्राकृतव्याकरणम् समारचेरुवहत्य-सारख-समार-केलायाः ।।४।९५ । समारचेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ।। उवहत्थइ । सारवइ । समारइ । केलायइ । समारयइ ॥ ९५ ॥ . सिचेः सिञ्च-सिम्पौ। ८ । ४ । ९६ । सिञ्चतेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ सिञ्चइ । सिम्पइ । सेअइ ॥ ९६ ॥ प्रच्छः पुच्छः । ८ । ४ । ९७ । । पृच्छेः पुच्छादेशो भवति ॥ पुच्छइ ।। ९७ ॥ गर्जेबुकः । ८.४ । ९८ । गर्जतेर्बुक्क इत्यादेशो वा भवति ॥ बुक्कइ । गज्जइ ॥९८॥ वृषे ठिकः । ८।४ । ९९ । वृषकर्तृकस्य गर्जेटिक्क इत्यादेशो वा भवति ॥ ढिक्का। वृषभो गर्जति ॥ ९९ ॥ राजेरग्घ-छज्ज-सह-रीर-रेहाः । ८ । ४ । १००। राजेरेते पश्चादेशा वा भवन्ति ॥ अग्घह । छज्जइ । सहइ । रीरइ । रेहइ । रायइ ॥१०० ॥ मस्जेराउड्ड-णिउड्ड-बुड्ड-खुप्पाः । ८।४ । १०१ । मञ्जतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ आउडुइ। णि उड्इ । बुड्डइ । खुप्पइ । मज्जइ ॥ १०१॥ पुञ्जरारोल-चमालौ। ८।४। १०२। . - पु रेतावादेशौ वा भवतः॥ आरोलइ। वमालइ । पुञ्जइ ॥ १०२ ॥ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७६९] लस्जेर्जीहः । ८ । ४ । १०३ । लज्जतेर्जीह इत्यादेशो वा भवति ॥ जीहइ । लजइ॥ ॥ १०३॥ तिजेरोसुकः । ८ । ४ । १०४ । तिजेरोसुक्क इत्यादेशो वा भवति ॥ ओसुक्का । तेअणं ॥१०४॥ मृजेरुग्घुस्-लुन्छ-पुञ्छ-पुंस-फुस-पुस लुह हुल-रोसाणाः ।८।४।१०५। मृजेरेते नवादेशा वा भवन्ति ॥ उग्घुसइ। लुञ्छइ । पुञ्छइ । पुंसइ । फुसइ । पुसइ । लुहइ । हुलइ । रोसाणइ । पक्षे । मजइ । १०५॥ . भञ्जर्वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरज करा नीरजाः । ८।४ । १०६ । .. भञ्जरेते नवादेशा वा भवन्ति ॥ वेमयइ । मुसुमूरइ। मूरह । सूरइ । सूडइ । विरइ । पविरञ्जइ। कराइ । नीरञ्जइ। भञ्जइ ॥ १०६ ॥ अनुव्रजेः पडिअग्गः । ८।४ । १०७ । अनुव्रजेः पडिअग्ग इत्यादेशो वा भवति ॥पडिअग्ग इ । अणुवच्चइ ॥ १०७॥ __ अर्जेविढवः । ८।४।१०८ । अर्जेबिढव इत्यादेशो वा भवति ॥ विढवइ । अबई ।। ॥१०८॥ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७०] प्राकृतव्याकरणम् युजो जुञ्ज-जुज्ज-जुप्पाः । ८ । ४ १०९ । युजो जुञ्ज जुन जुप्प इत्यादेशा भवन्ति ॥ जुञ्जइ । जुज्जइ । जुप्पइ ॥ १०९ ॥ भुजो भुञ्ज-जिम-जेम-कम्माण्ह-समाण-चमढ चड्डाः । ८।४ । ११०। भुज एतेऽष्टादेशा भवन्ति ॥ भुञ्जइ । जिमइ । जेमइ । कम्मेइ । अण्हइ । समाणइ । चमढइ । चड्डुइ ॥ ११० ।। वोपेन कम्मवः । ८।४ । १११ ।। उपेन युक्तस्य भुजेः कम्मव इत्यादेशो वा भवति ॥ कम्मवइ । उवहुअइ ॥ १११ ॥ घटेगढः । ८ । ४ । ११२। घटतेर्गढ इत्यादेशो वा भवति । गढइ घडइ॥११२॥ समो गल।८।४। १.१३ । सम्पूर्वस्य घटतेर्गल इत्यादेशो वा भवति ॥ संगलइ। सघडइ ॥ ११३॥ हासेन स्फुटेर्मुरः । ८ । ४ । ११४ । हासेन करणेन यः स्फुटिस्तस्य मुरादेशो वा भवति॥ मुरइ । हासेन स्फुटति ॥ ११४ ॥ मण्डेश्चिञ्च चिञ्चअ-चिञ्चिल्ल-डि-टिविडिकाः ।८।४ । ११५। मण्डेरेते पश्चादेशा वा भवन्ति ॥ चिश्चइ । चिश्चअइ। चिञ्चिल्लइ । रीडइ । टिविडिक्कइ । मण्डइ ॥ ११५॥ Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७७१] तुडेस्तोड-तुट्ट-खुट्ट-खुडोक्खुडोल्लुक्क णिलुक लुकोल्लूराः । ८।४ । ११६ तुडेरेते नवादेशा वा भवन्ति । तोडइ । तुट्टइ। खु. दृइ । खुडइ । उक्खुडइ । उल्लुकह । णिलुक्कइ । लुकइ । उल्लूरइ । तुडइ ।। ११६ ॥ घूर्णो घूल-घोलो-घुम्म--पहल्लाः । ८।४ । ११७। घूर्णेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ घुलइ । घोलइ । घुम्मइ । पहल्लइ ॥ ११७॥ विवृतेर्टसः । ८ । ४ । ११८ ॥ विवृतेढस इत्यादेशो वा भवति ॥ ढंसह । विवहह ।। ॥ ११८ ॥ कथेरहः । ८ । ४ । ११९ । कथेरह इत्यादेशो वा भवति ॥ अदृइ । कढइ ॥११९॥ अन्थो गण्ठः । ८।४ । १२० । ग्रन्थेर्गण्ठ इत्यादेशो भवति ।। गण्ठइ । गण्ठी॥१२०॥ मन्थेघुसल-विरोलौ । ८।४ । १२१ । मन्थेघुसल विरोल इत्यादेशौ वा भवतः ।। घुसलह। विरोलइ । मन्थइ ।। १२१ ॥ ह्लादेखअच्छः । ८ । ४ । १२२ । हलादतेय॑न्तस्याण्यन्तस्य च अवअच्छ इत्यादेशो " भवति ॥ अवअच्छइ । हलादते । हलादयति वा । इकारो ण्यन्तस्यापि परिग्रहार्थः ॥ १२२ ॥ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७२] प्राकृतव्याकरणम् नेः सदो मज्जः । ८ । ४ । १२३ । निपूर्वस्य सदो मज्ज इत्यादेशो भवति ॥ अत्ता एत्थ णुमबह ॥ १२३ ॥ छिदेर्दुहाव णिच्छल्ल-णिज्झोड-णिब्वर-णिल्लूर-लराः ।८ । ४ । १२४ । छिदेरेते षडादेशा वा भवन्ति ॥ दुहावइ । णिच्छल्लइ । णिज्झोडइ । णिव्वरइ । णिल्लूरइ । लूरइ । पक्षे । छिन्दइ ॥ १२४ ॥ आङा ओअन्दोदालौ। ८।४ । १२५ ।। आङा युक्तस्य छिदेरोअन्द उद्दाल इत्यादेशौ वा भवतः ॥ ओअन्दइ । उद्दालइ । अच्छिन्दह ॥ १२५ ॥ मृदो मल-मढ-परिहट्ट--खड्ड-चड्ड-मड्ड-पन्नाडाः ।८।४ । १२६ । मृद्गातेरेते सप्तादेशा भवन्ति ॥ मलइ। मढइ । परिहहह । खड्डा। चड्डइ । मड्डइ । पन्नाडइ ॥ १२६ ॥ स्पन्दे चुलुचुलः । ८ । ४ । १२७ । स्पन्देश्चुलुचुल इत्यादेशो वा भवति ॥ चुलुचुलइ । फन्दइ ॥ १२७ ॥ निरः पर्वलः । ८ । ४ । १२८ । निर्वस्य पदेवल इत्यादेशो वा भवति ॥ निव्वलइ । निप्पजइ ॥ १२८ ॥ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् विसंवदेर्वि अट्ट - विलोड-फंसाः | ८ | १ विसंपूर्वस्य वदेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ विअहह । विलोहह । फंसह । विसंवयइ ॥ १२९ ॥ शदो झडपक्खोडौ । ८ । ४ । १३० । शीयते रेतावादेशौ भवतः ॥ झडइ । पक्खोडइ ॥१३०॥ आक्रन्देण हरः । ८ । ४ । १३१ । आक्रन्देर्णीहर इत्यादेशो वा भवति । णीहरइ । अकन्दइ ।। १३१ ॥ [ ७७३] | १२९ । जाइ ।। १३२ खिदेर्जूर-विसूरौ । ८ । ४ । १३२ । खिदेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ जूरइ । विसूरइ । खि - रुंघेरुत्थङ्घः | ८ | ४ | १३३ | रुधेरुत्थङ्घ इत्यादेशो वा भवति । उत्थङ्घइ । रुन्धइ ।। १३३ ।। निषेघेर्हकः | ८ | ४ | १३४ | निषेधतेर्हक इत्यादेशो वा भवति ।। हकइ । निसेहर -१३४ ॥ कुधेर्जूरः | ८ | ४ | १३५ ॥ क्रुधैर्जूर इत्यादेशो वा भवति ॥ जूरः । कुज्झइ ।। ॥ १३५ ॥ जनो जा - जम्मौ । ८ | ४ | १३६ | जायतेर्जा जम्म इत्यादेशौ भवतः । जाअइ जम्मइ ॥ ॥ १३६ ॥ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७४] प्राकृतव्याकरणम् तनेस्तड-तड्ड-तड्रडव-विरल्लाः । ८ । ४ । १३७ । तनेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ तडइ । ताइ । तडवइ । विरल्लइ । तणइ ॥ १३७ ।। तृपस्थिप्पः । ८।४ । १३८ । तृप्यतेस्थिप्प इत्यादेशो भवति ॥ थिप्पइ ॥ १३८ ॥ उपसरल्लिअः। ८ । ४ । १३९ । उपपूर्वस्य सुपेः कृतगुणस्य अल्लिअ इत्यादेशो वा भवति ॥ अल्लिअइ । उवसप्पइ । १३९ ॥ संतेपेङ्खः । ८ । ४.। १४०। संतपेझख इत्यादेशो वा भवति ।। झलइ । पक्षे। संतप्पइ ॥ १४०॥ व्यापेरोअग्गः । ८।४ । १४१ । ब्यामोतेरोअग्ग इत्यादेशो वा भवति ॥ ओअग्गइ । वावेइ ॥ १४१ ॥ ... समापेः समाणः । ८ । ४ । १४२ । समामोतेः समाण इत्यादेशो वा भवति ॥ समाजइ। समावेइ ॥ १४२॥ क्षिपेर्गलत्थाड्डक्ख-सोल्ल-पेल्ल-गोल्ल-छुह-हुल-परी-घत्ताः ।८।४ । १४३ । क्षिपेरेते नवादेशा वा भवन्ति ॥ गलत्थइ । अडक्खइ। सोल्लइ । पेल्लइ । णोल्लइ। हृस्वत्वे तुणुल्लइ ।छुहइ। हुलइ। परीइ । घत्तइ । खिवइ ॥ १४३॥ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ७७५] उत्क्षेपर्गुगुञ्छोत्थङ्गाल्लत्थोन्भुत्तो| स्सक-हक्खुवाः | ८ | ४ | १४४ । उत्पूर्वस्य क्षिपेरेते षडादेशा वा भवन्ति ॥ गुलगुञ्छइ । उत्थङ्घइ । अल्लत्थइ । उब्भुत्तइ । उस्सिक्का | हक्खुवह । उक्खिव || १४४ ॥ आक्षिपेर्णीखः । ८ । ४ । १४५ । आङ्पूर्वस्य क्षिपेणरव इत्यादेशो वा भवति ॥ णीरवइ । अक्खिवइ ॥ १४५ ॥ स्वपेः कमवस- लिस- लोट्टाः । ८ । ४ । १४६ । स्वपेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ कमवसह । लिसह । लोहइ । सुअइ ॥ १४६ ॥ वेपेरायम्बायज्झौ । ८ । ४ । १४७ | वेपेरायम्ब आयज्झ इत्यादेशौ वा भवतः ॥ आयम्बई | आयज्झइ । वेवइ ॥ १४७ ॥ विलपेर्झङ्ख-वडवडौ । ८ । ४ । १४८ । विलपेर्झङ्ख वडवड इत्यादेशौ वा भवतः ॥ शङ्खइ । वडवडइ । विलवह ॥ १४८ ॥ लिपो लिम्पः । ८ । ४ । १४९ । लिम्पतेर्लिम्प इत्यादेशो भवति । लिम्प ॥ १४९ ॥ गुप्येविर - डौ । ८ । ४ । १५० । गुप्यतेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ विरह । णडइ । पक्षे । गुप्पइ ॥ १५० ॥ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७६ ] प्राकृतव्याकरणम् .. क्रपोवहो णिः । ८।४ । १५१ । क्रपेः अवह इत्यादेशो ण्यन्तो भवति । अवहावेइ। कृपां करोतीत्यर्थः ॥ १५१ ॥ प्रदीपेस्तेअव--सन्दुम--सन्धुकाब्भुत्ताः 1८१४१५२।। प्रदीप्यतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ तेअवइ । सन्दुमइ । सन्धुक्कइ । अब्भुत्तइ । पलीवइ ॥ १५२ ॥ लुमेः संभावः । ८ । ४ । १५३ । लुभ्यतेः संभाव इत्यादेशो वा भवति ॥ संभावइ । लुब्भइ ॥ १५३ ॥ क्षुमे खउरपड्डुहौ। ८ । ४ । १५४ । क्षुभेः खउर पड्डुह इत्यादेशौ वा भवतः ॥ खउरइ । पड्डहइ । खुडभइ ।। १५४ ॥ आङो रमे रम्भ-ढवौ।।४।१५५। । आङः परस्य रमे रम्भ ढव इत्यादेशौ वा भवतः॥ आरम्भइ । आढवइ । आरभइ ।। १५५ ॥ उपालम्भेझङ्क-पच्चार-वेलवाः। ८।४।१५६।। उपालम्भेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ झङ्खइ । प. चारइ । वेलवइ । उवालम्भइ ॥ १५६ ।। अवेर्जुम्भो जम्मा । ८ । ४ । १५७ । जम्भेम्भा इत्यादेशो भवति वेस्तु न भवति ॥ जम्भाइ । जम्भाअइ ॥ अवेरिति किम् । केलि-पसरो विअम्भइ ॥ १९७॥ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७७७] भाराकान्ते नमेर्णिसुढः । ८ । ४ । १५८ । भाराकान्ते कर्तरि नमेर्णिसुढ इत्यादेशो भवति ॥ णिसुढइ । पक्षे । णवइ । भाराक्रन्तो नमतीत्यर्थः ॥ १५८ ॥ विश्रमेणिव्वा । ८।४ । १५९ । विश्राम्यतेर्णिव्वा इत्यादेशो वा भवति ॥ णिवाइ। वीसमइ ॥ १५९ ॥ आक्रमेरोहावोत्थारच्छन्दाः । ८ । ४ । १६० । आक्रमतेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ ओहावइ । उत्थारइ । छुन्दइ । अक्कमइ ॥ १६० ॥ भ्रमेष्टिारटिल्ल-दण्ढल्ल-ढण्ढल्ल-चकम्म-भम्मड-भमडभमाड-तलअण्ट-झण्ट-झम्प भुम-गुम-फुम-फुस-टुम-दुस परी-पराः । ८ । ४ । १६१ । भ्रमेरेतेष्टादशादेशा वा भवन्ति ॥ टिरिटिल्लइ । दुण्दुलाइ । ढण्ढल्लइ । चकम्मइ । भम्मडइ। भमडइ । भमाडइ। तलअण्टइ । झण्टइ। झम्पइ । भुमइ। गुमइ । फुमइ । फुसइ । दुमइ । दुसइ । परीइ । परइ । भमइ ॥ १६१ ॥ गमेरई-अइच्छाणुवज्जावज्जसोकुसाकुस-पच्चड्ड-पच्छन्दणम्मह-णी-णीण-णीलुक-पदअ-रम्भ-परिअल्लवोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहावहराः ८।४ । १६२ । गमेरेते एकविंशतिरादेशा वा भवन्ति ॥ अईई । Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७८] हेमशब्दानुशासनस्य अइच्छइ । अणुवज्जइ । अवज्जसइ । उक्कुसइ। अक्कु सइ । पच्चड्डइ । पच्छन्दइ । णिम्महइ । णीइ । णीणइ । णीलुक्कई । पदअइ । रम्भइ । परिअल्लइ । वोलइ । परिअलइ। णिरिणासइ । णिवहइ । अवसेहइ। अवहरइ। पक्षे । गच्छइ ॥ हम्मइ । णिहम्मइ । णीहम्मइ । आहम्मइ । पहम्मद इत्येते तु हम्म गतावित्यस्यैव भविष्यन्ति॥१६२॥ आङा अहिपच्चुअः । ८।४ । १६३ । आङा सहितस्य गमेः अहिपच्चुअ इत्यादेशो वा भवति ।। अहिपच्चुअइ । पक्षे । आगच्छइ ॥ १६३ ॥ समा अभिडः । ८ । ४ । १६४ । समा युक्तस्य गमे अभिड इत्यादिशो वा भवति ॥ अभिडा। संगच्छइ ॥ १६४ ॥ ___ अभ्याडोम्मत्थः । ८।४ । १६५ । अग्याङ्मयां युक्तस्य गमेः उम्मथ इत्यादेशो वा भवति ॥ उम्मथइ । अब्भागच्छइ । अभिमुखमागच्छतीस्वर्यः ॥ १६५॥ पत्याला पलोट्टः । ८।४ । १६६ । प्रत्याभ्यां युक्तस्य गमेः पलोदृ इत्यादेशो वा भवति॥ पलोहह । पञ्चागच्छइ ॥ १६६ ॥ शमेः पडिसा-परिसामौ । ८ । ४ । १६७ । . शमेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ पडिसाइ । परिसामह। समइ ॥ १६७॥ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ७७९] रमेः संखुड्ड - खेड्डो-भाव- किलिकिञ्च कोट्टुम-मोट्टायणीसर - वेल्लाः | ८ | ४ । १६८ । रमतेरेतेष्टादेशा वा भवन्ति ॥ संखुड्डूइ खेडइ । उभावइ । किलिकिञ्चइ । कोट्टमइ । मोहाय । णीसरइ । वेल्लइ | रमइ ॥ १६८ ॥ पूरेरग्घाडाग्धवोऽदुमाधुमा गुमाहिरेमाः | ८ |४| १६९ | पूरेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति । अग्घाडइ । अग्घवइ । उध्दुमाइ । अङ्गुमइ । अहिरेमइ । पूरइ ॥ १६९ ॥ त्वरस्तुवर - जअडौ । ८ । ४ । १७० | त्वरतेरेतावादेशौ भवतः ॥ तुवरइ । जअडई । तुवरन्तो । जअडन्तो ॥ १७० ॥ • त्यादिशत्रोस्तूरः । ८ । ४ । १७१ । त्वरतेत्यादौ शतरि च तूर इत्यादेशो भवति । तूरः । तुरन्तो ॥ १७१ ॥ तुरोत्यादौ । ८ । ४ । १७२ | स्वरोत्यादौ तुर आदेशो भवति ।। तुरिओ। तुरन्तो ॥ ॥ १७२ ॥ क्षरः खिर-झर-पज्झर-पञ्चड - णिच्चळ -पिटुआः । ८ । ४ । १७३ । क्षरेरेते षड् आदेशा भवन्ति ॥ खिरह। झरइ । पज्झरद्द | पञ्चडइ । णिच्चलइ । णिट्टुअहं ॥ १७३ ॥ Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८०] प्राकृतव्याकरणम् उच्छल उत्थल्लः । ८ । ४ । १७४ । उच्छलतेरुत्थल्ल इत्यादेशो भवति ।। उत्थल्लइ ।। १७४॥ विगलोस्थप्प-णिटुहौ । ८ । ४ । १७५ । विगलतेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ थिप्पइ । णिटुहइ । विगलइ ।। १७५ ॥ दलि-वल्योर्विसट-वम्फो । ८ । ४ । १७६ । दलेर्वलेश्च यथासंख्यं विसट्ट वम्फ इत्यादेशौ वा भवतः।। सिट्टइ। वम्फइ । पक्षे दलइ । वलइ ।। १७६ ।। भ्रंशेः फिड-फिट-फुड--फुट्ट--चुक- भुल्लाः ।८।४। १७७ । भ्रंशेरेते षडादेशा वा भवन्ति ॥ फिडइ । फिट्टइ। फुडह फुट्टइ । चुक्कइ । भुल्लइ । पक्षे भंसइ । १७७॥ नशेर्णिरणास-णिवहावसंह-पडिसा-सेहावहराः ।८।४। १७८ । नशेरेते षडादेशा वा भवन्ति ॥ णिरणासइ । णिवहा । अवसेहइ । पडिसाइ । सेहइ । अवहरइ । पक्षे । नस्मा । ॥ १७८ ॥ अवात्काशो वासः । ८ । ४ । १७९ । अवात्परस्य काशो वास इत्यादेशो भवति ।। ओवासइ ।। १७९॥ संदिशेरप्पाहः । ८ । ४ | १८० । संदिशतेरप्पाह इत्यादेशो वा भवति ॥ अप्पाहा । संदिसइ ॥ १८० ॥ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कोपनवृत्तिसहितम् [७८१] · दृशो निअच्छ-पेच्छाक्यच्छावयज्ञ-वज्ज-सव्वव देक्सौअक्खावक्खावअक्ख-पुलोअ-पुलअ-निआवआस पासाः । ८। ४ । १८१ ।। दृशेरेते पञ्चदशादेशा भवन्ति । निअच्छह । पेच्छइ । अवयछइ । अवधज्झइ । वनइ । सव्ववड । देक्खइ । ओजक्खइ । अवक्खइ । अवअक्खा । पुलोएइ पुलएइ । निअइ । अवआसइ । पासइ ॥ निज्झाअइ इति तु निध्यायतेः स्वरादत्यन्ते भविष्यति ।। १८१ ।।. - स्पृशः फासफंसफस्सि-छिप-छिहालुङ्खालिहाः । । ८ । ४ । १८२ | स्पृशतेरेते सन आदेशा भवन्ति । फासइ । फंसह । फरिसर । छिवह । छिहई । बालुवइ । आलिहइ॥१८२।। प्रविशे रिअः।८।४ । १८३ । विशेः रिभ इत्यादेशो चा भवति । रिअह । पकिसइ ॥ १८३॥ प्रान्मृश-मुषोईसः। ८।४। १८४ । प्रात्परयोर्मशतिमुष्णात्योईस इत्यादेशो भवति ॥ पम्हुसइ । प्रमशति । प्रमुष्णाति वा । १८४ ॥ पिषेर्णिवह-णिरिणास-णिरिणज्ज-रोञ्च-चड्डाः . ८1१1१८५१ पिरेते पश्चादेशा भवन्ति था । णिवहइ । णिरिणा सइ ।मिरिणबाइ । रोचह । छह । पक्षे। पीसा ॥ १८५॥ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८२] प्राकृतव्याकरणम् भषे कः । ८।४ । १८६ । . भषेर्भुक्क इत्यादेशो वा भवति ॥ भुक्कइ । भसइ । ॥ १८६॥ कृषःकड-साअड्डाञ्चाणञ्छायच्छाइञ्छाः ।।४।१८७॥ कृषरते षडादेशा वा भवन्ति ॥ कड्ढइ । साअड्ढई। अश्वइ । अणच्छइ । अयञ्छ। आइञ्छइ । पक्षे । करिसइ ॥१८७ ॥ - असावक्खोडः। ८ । ४ । १८८ । असिविषयस्य कृषेरक्खोड इत्यादेशो भवति ।। अक्खोडेइ । असि कोशात्कर्षतीत्यर्थः ॥ १८८ ॥ गवेषुद्धण्दुल्ल-ढण्ढोल-गमेस-घत्ताः ।८।४।१८९। - गवेषेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ ढुण्डल्लइ ढण्ढोलइ । गमेसह । घत्तह । गवसेइ ॥ १८९ ॥ श्लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः । ८।४ १९० । श्लिष्यतेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ सामग्गइ । अवसायइ । परिअन्तइ । सिलेसइ ॥ १९० ॥ प्रक्षेश्वोप्पडः । ८।४ । १९१ । । ब्रक्षेश्चोप्पड इत्यादेशो वा भवति ॥ चोप्पडइ । म. क्खइ ।। १९१ ।। काङ्क्षराहाहिलढाहिलङ्क-वच्च-वम्फ-मह-सिह-विलुम्पाः ।८।४ । १९२ । काक्षतेरेतेष्टादेशा वा भवन्ति ॥ आहइ । अहिलङ्ग Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [७८३) घइ । अहिलङ्खइ । वच्चइ ।वम्फइ । महइ। सिहइ। विलुम्पइ। कङ्खइ ॥ १९२॥ प्रतीक्षेः सामय-विहोर-विरमालाः । ८।४। १९३ । . प्रतीक्षेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ सामयइ । वि. हीरइ । विरमालइ । पडिक्खइ ।। १९३ ॥ तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फाः । ८।४ । १९४ । तक्षेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ तच्छइ । चउछइ । रम्पइ । रम्फइ । तक्खइ ॥ १९४ ॥ - विकसेः कोआस-चोसहौ। ८ । ४ । १९५ । विकसेरेतावादेशौ वा भवतः॥ कोआसइ । वोस। विअसइ ॥ १९५ ॥ . हसेर्गुञ्जः । ८ । ४ । १९६ । हसेर्गुञ्ज हत्यादेशो वा भवति ।गुञ्जइ । हसइ ॥१९६॥ संसेहँस-डिम्भौ । ८।४ । १९७ । स्रंसेरेतावादेशो वा भवतः ॥ ल्हसइ । परिल्हसइ सलिल-वसणं । डिम्भइ । संसइ ॥ १९७ ॥ त्रसेडर-बोज्ज-वज्जाः । ८।४। १९८ । प्रसेरेते त्रय आदेशा वा भवति ।। डरइ । बोजह । वजह । तसइ ॥ १९८ ॥ न्यसो णिम-णुमौ । ८ । ४ १९९। न्यस्यतेरेतावादेशौ भवतः ॥ णिमइ । णुमइ ॥१९९॥ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [vcs] प्राकृतथ्याकरणम पर्यसः पलोट्ट-पलट-पल्हत्याः। ८।४ । २०० पर्यस्यतेरेते त्रय आदेशा भवन्ति ॥ पलोइ । पल्लट्टइ। पलहत्यइ ॥ २० ॥ निःश्वसेजङ्खः । ८ । ४ । २०१ । निःश्वसेझङ्ख इत्यादेशो वा भवति ।। झसइ । नीससह ॥ २०१॥ उल्लसेरूसलोसुम्भ-णिल्लस-पुलआअ-गुओलोरोआः ८।४।२०२। उल्लसेरेते षाडादेशा वा भवन्ति । असलहा असुम्भ इ। पिल्लसह । पुलआअइ । गुजोल्लइ । हस्वत्वे तु । गुजुल्लइ । आरोअइ । उल्लसइ ।। २०२ ।। । भासेर्भिसः । ८।४ । २०३ । भासेर्मिस इत्यादेशो वा भवति । मिसह । भासह ॥ २०३॥ प्रसेर्षिसः । ८४ २०४ ग्रसेर्धिस इत्यादेशो में भवति ॥ घिसइ । गसइ । ॥२०४॥ अपाझार्लाहः । ८. ४ । २०५ । अवात्परस्य गाहेर्वाह इत्यादेशो वा भवति । ओवाहइ । ओगाहइ ॥ २०५ ॥ आरुहेश्चड-चलग्गौ। ८ । ४ । २०६ । आरुहेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ घडइ। वलग्गइ । आरहइ । २०६॥ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपक्षवृत्तिसहितम् [७८५) मुहेर्गुम्म-गुम्मडौ । ८ । ४ । २०७। मुहेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ गुम्मइ । गुम्मडा । मुज्झइ ॥२०७॥ दहेरहिऊलालुङ्खौ। ८ । ४ । २०८ । दहेरेतावादेशो वा भवतः ॥ अहिऊलइ । आला। इहइ ॥ २०८ ॥ ग्रहो वल-गेण्ह-हर-पङ्ग-निरुवाराहिपच्चुआः ।८।४।२०९। ग्रहेरेते षडादेशा भवन्ति ॥ वलइ । गेण्हह । हरइ । पङ्गा । निरुवारइ । अहिपच्चुअइ ॥२०९ ॥ क्वा-तुम्-तव्येषु-चेत् ।।४।२१०। ग्रहः क्त्वातुम्तव्येषु घेतइत्यादेशो भवति ॥ क्वा। घेत्तूण । घेत्तुआण ॥ चिन्न भवति । गेण्हिा ॥ तुम् । घेत्तुं ॥ तव्य । घेत्तव्वं ॥ २१० ॥ . वचो वोत् । ८।४। २११ । ___ वक्तेर्वोत् इत्यादेशो भवति क्त्वातुम्तव्येषु॥वोतूण। वोत्तुं । वोत्तव्वं ॥ २११ ॥ रुद-भुज-मुचां तोन्त्यस्य । ८।४।२१२ । एषामन्त्यस्य क्त्वातुम्तव्येषु तो भवति ॥ रोतुण । रोत्तं । रोत्तव्वं ॥ भोत्तूण । भोत्तुं । भोत्तव्वं । मोतूण । मोतुं । मोत्तव्वं ॥ २१२ ॥ ९९ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८६] प्रकृतव्याकरणम् दृशस्तेन ट्ठः । ८ । ४ । २१३ । दृशोन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुक्तष्ठकारो भवति ॥ ददण । दटुं । दट्टव्वं ।। २१३ ॥ आः कृगो भूत-भविष्यतोश्च । ८ । ४ । २१४ । कूगोऽन्त्यस्य आ इत्यादेशो भवति भूतभविष्यकालयोश्चकारात् क्त्वातुम्तव्येषु च ॥ काहीअ । अकापौत । अकरोत् । चकार वा ॥ काहिअ। करिष्यति । कर्ता वाक्या । काऊण ॥ तुम् । काउं ॥ तव्य । कायव्वं ॥ २१४ ॥ गमिष्यमासां छः । ८ । ४ । २१५ । एषामन्त्यस्य छो भवति॥गच्छह । इच्छइ । जच्छइ । अच्छइ ॥ २१५ ।। छिदि-मिदो न्दः । ८ । ४ । २१६ । समयोरमस्वस्थ नकाराकान्तो दकारो भवति ॥ छिन्दह । भिन्दइ ॥ २१६ ॥ युध-बुध-गृध-क्रुध-सिध-मुहां ज्झः ।८।४।२१७) एषामन्त्यस्थ द्विरुक्तो भो भवति ।। जुज्झइ । बुज्झइ। गिजाइ । कुनझह । सिज्झाइ। मुज्झइ ॥ २१७॥ । रुधो न्ध-म्भौ च । ८ । ४ । २१८ । रुधोन्स्यस्य ग्ध म्भ इत्येतौ चकारात ज्ञश्च भवति । रुन्धह। रुम्भइ । रुज्झइ ॥ २१८ ॥ सद-पताः । ८ । ४ । २१९। अनयोरन्त्यस्य डो भवति ॥ सडइ । पच्छ । २१९ ।। Next Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् ७८७] - क्वथ-वर्धा ढः । ८ । ४ । २२० । अनयोरन्त्यस्य ढो भवति । कढइ । वद्ह पवय कलयलो ॥ परिअदुइ लायण्णं ॥ बहुवचनाद् वृधेः कृतगुणस्य वर्धेश्व'विशेषेण ग्रहणम् ॥ २२० ॥ . वेष्टः । ८ । ४ । २२१ । वेष्ट वेष्टने इत्यस्य धातोः कगटड (८-२-७७) इत्याः दिना षलोपेन्त्यस्य ढो भवति ॥ वेढइ । वेदिजह ॥२२१५ समोल्लः । ८।४ । २२२। । संपूर्वस्य वेष्टतेरन्त्यस्य द्विरुक्तो लो भवति ।। संवेल्लह ।। २२२ ॥ वोदः । ८।४ । २२३॥ . उदः परस्य वेष्टतेरन्त्यस्य ल्लो वा भवति वेल्लइ उन्वेढह ॥ २२३ ॥ स्विदां ज्जः । ८ । ४ । २२४ ।। स्विदिप्रकाराणामन्त्यस्य द्विरुको जो भवतिभा सव्वा-सिज्जिरीए । संपन्नइ । खिजइ।बहुवचनं प्रयोगा नुसरणार्थम् ॥ २२४ ॥ व्रज-नृत-मदां चः। ८ । ४ । २२५ । एषामन्त्यस्य द्विरुक्तश्चो भवति ॥ वच्चइ । नच्चइ । मच्चइ ॥ २२५ ॥ रुद-नमोर्वः । ८।४।२२६ । अनयोरन्त्यस्य वो भवति॥ रुवइ । रोवइ । नवह ॥२२६॥ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८८] प्राकृतव्याकरणम् उदिजः।८।४ । २२७ । उद्विजतेरन्त्यस्य वो भवति ॥ उव्विवह। उन्वेवो ॥ २२७ ॥ खाद-धावोर्लक् । ८ । ४ । २२८ । अनयोरन्त्यस्य लुग् भवति ॥ खाइ । खाइ। खाहिह । खाउ । धाइ। धाहिइ । धाउ ॥ बहुलाधिकारा. द्वर्तमानाभविष्यद्विघ्यायेकवचन एव भवति । तेनेह न भवति । खावन्ति । धावन्ति ॥ कचिन्न भवति । धावइ पुरओ ॥ २२८ ॥ सृजो सः । ८ । ४ । २२९ । सजो धातोरन्त्यस्य रोभवति॥निसिरइ । वोसिरह। वोसिरामि ॥ २२९ ॥ शकादीनां दित्वम् । ८ । ४ । २३० । शकादीनामन्त्यस्य द्वित्वं भवति ।। शक् । सका ।। जिम । जिम्मइ ॥ लग् । लग्गइ ॥ मग । मग्गइ ।। कुप । कुप्पा । नश । नस्सइ ।। अत् । परिअहह । कुट् । पको छ । तुद् । तुहह ।। नट् । नइ । सिन् । सिव्वइ इत्यादि ॥ २३०॥ स्फुटि-चलेः। ८ । ४ । २३१ । अनयोरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति ।। फुडइ फुडइ । च. लइ चलइ ॥ २३१ ॥ प्रादेमीलेः । ८।४ । २३२ । प्रादेः परस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति । पमिल्ला Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [७८९] पमीलइ । निमिल्लइ निमीलइ। समिल्लइ समीलइ। उम्मि. लइ उम्मीलइ ॥ प्रादेरिति किम् । मीलइ ॥ २३२ ।। उवर्णस्यावः । ८ । ४ । २३३ । धातोरन्त्यस्योवर्णस्य अवादेशो भवति ॥ हनुछ । निण्हवह ॥ हु । निहवइ ॥ च्युङ्। चवइ ।। रु । रवइ । कु। कवह ॥ सू । सवइ । पसवइ ॥ २३३ ॥ ऋवर्णस्यारः। ८।४ । २३४।। धातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्य अरादेशो भवति ॥ करइ ॥ धरइ । मरइ । वरइ । सरह । हरइ । तरइ । जरइ ॥२३४॥ वृषादीनामरिः । ८ । ४ । २३५। वृष इत्येवंप्रकाराणां धातूनाम् ऋवर्णस्य अरिः इत्यादेशो भवति ॥ वृष् । वरिसइ ॥ कृष् । करिसइ ॥ मृष् । मरिसइ ॥ हृष् । हरिसइ ॥ येषामरिरादेशो दृश्यते ते वृषादयः ॥ २३५ ॥ रुषादीनां दीर्घः । ८।४ । २३६ । ___ रुष इत्येवंप्रकाराणां धातूनां स्वरस्य दीर्घो भवति ॥ रूसइ । तूसइ । सूसइ । दूसइ । पूसइ । सीसइ । इत्यादि ॥२३६॥ युवर्णस्य गुणः । ८ । ४ । २३७ । धातोरिवर्णस्योवर्णस्य च कित्यपि गुणो भवति । जेऊण । नेऊण । नेइ । नेन्ति । उड्डेइ । उडेन्ति । मोत्तूण । सोऊण ॥ कचिन्न भवति ॥ नीओ। उडीणो ।। २३७ ।। स्वराणां स्वराः । ८ । ४ । २३८ । धातुषु स्वराणां स्थाने स्वरा बहुलं भवन्ति ॥ हवइ । Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणम् हिवइ । चिणइ । चुणइ ॥ सद्दहणं । सद्दहाणं ॥ धावइ । धुवइ ॥ रुबइ । रोवह ।। कचिभित्यम् । देइ । लेइ । विहेइ । नासह ॥ आर्षे । बेमि । २३८ ॥ व्यञ्जनाददन्ते । ८।४। २३९ । व्यञ्जनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति ॥ भमइ । हसइ । कुणइ । चुम्बइ । भणइ । उपसमइ । पावइ । सि. श्वइ । रुन्धइ । मुसइ । हरइ । करइ ।। शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥ २३९ ॥ स्वरादनतो वा । ८।४ । २४० । अकारान्तबर्जितास्वरान्ताद्धातोरन्ते अकारागमो वा भवति ॥ पाइ पाअइ । धाइ धाअइ । जाइ जाअइ । झाइ झाअइ । जम्भाइ जम्भाअइ । उव्बाइ उव्वाअइ । मिलाइ मिलाअइ । विकेह विकेअइ। होऊण होइऊण ।। अनत इति किम् । चिहच्छइ । दुगुच्छइ ॥ २४० ॥ चि-जि-श्रू-हु-स्तु-ल-पू-धूगां णोन्हस्वश्च 1418/२४१॥ च्यादीनां धातूनामन्ते णकारागमो भवति एषां स्व. रस्य च हृस्वो भवति ॥ चि । चिणइ ।। जि । जिणइ ।। श्रु । सुणइ ॥ हु । हुणइ ।। स्तु । थुणइ ॥ लू । लुणइ ॥ पू। पुणइ ॥ धूम् । धुणइ ॥ बहुलाधिकारसत्वचिद्विकल्पः । उचिंचणइ । उच्चेइ ॥ जेऊण । जिणिऊण ॥ जयइ जिण ॥ सोऊण | सुणिऊण ।। २४१ ॥ न वा कम-भावे वः क्यस्य च लुक् 1८1४।२४२। च्यादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानानामन्ते द्विरुक्तो वकाराममो वा भवति तत्सन्नियोगे च क्यस्य लुक् ॥ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [७९१] चिवह चिणिज्जइ । जिब्बइ जिणिज्जइ । सुब्बा सुणिज्जइ । हुव्वइ हुणिज्जइ । थुब्बइ थुणिजइ । लुव्वइ लुणिजइ । पुम्बइ पुणिजइ । धुम्बइ धुणिजइ ॥ एवं भविष्यति । चिबिहिइ । इत्यादि ॥ २४२ ॥ म्मश्वेः । ८ । ४ । २४३ । चिगः कर्मणि भावे च अन्ते संयुक्तो मोका भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ चिम्मइ । चिवइ । चिण्णि. जइ । भविष्यति । चिम्मिहिइ । चिबिहिइ । चिणिहिइ ॥२४३॥ . हन्खनोन्तयस्य । ८ । ४ । २४४ । अनयोः कर्मभावेन्त्यस्य द्विरुक्तो मो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ हम्मइ हणिज्जइ ॥ खम्मह खणिजइ । भविष्यति । हम्मिहिइ हणिहिह । खम्मिहिइ खणिहिइ ॥ बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्तर्यपि ॥ हम्मइ । हन्तीत्यर्थः ।। कचिन्न भवति ॥ हन्तव्वं । हन्तूण । हओ॥ २४४॥ ब्भो दुह-लिह-वह-रुधामुच्चातः । ८।४।२४५। ... दुहादीनामन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो भो वा भवति तत्सबियोगे क्यस्य च लुग बहेरकारस्य च उकारः॥ दुब्भइ दुहिज्जइ । लिब्भइ । लिहिज्जइ ।बुब्भइ वहिज्जइ। रुभइ रुन्धिज्जइ । भविष्यति । दुन्भिहिद दुहिहिइ इत्यादि ॥ २४५॥ दहो ज्झः। ८।४ । २४६ । दहोन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो झो वा भवति तत्स. Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९२] प्राकृतव्याकरणम् नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ उज्झइ । डहिज्झइ । भविष्यति । डन्झिहिह । डहिहिइ ॥ २४६ ॥ बन्धो न्धः । ८ । ४ । २४७ । बन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥वज्झइ। बन्धिज्जइ । भविष्यति । बज्झिहिह । बन्धिहिइ ॥ २४७ ॥ समनूपादुधेः। ८।४।२४८ । समनूपेभ्यः परस्य रुधेरन्त्यस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ संरुज्जइ । अणुर ज्झइ । उवरुज्झइ । पक्षे । संरुन्धिज्जइ । अणुरुन्धिजइ । उवरुन्धिज्जइ । भविष्यति । संरुज्झिहिइ । संरुन्धिहिइ। इत्यादि ॥२४८॥ गमादीनों दित्वम् । ८ । ४ । २४९ । गमादीनामन्त्यस्य कर्मभावे द्वित्वं वा भवति तत्सनियोगे क्यस्य च लुक् ।। गम् ।गम्मइ । गमिजह ॥ हस्। हस्सइ । हसिज्जइ ॥ भण् । भण्णइ । भणिजह । छुप् । छुप्पइ । छुविजइ ॥ 'रुद-नमोर्व' (८-४-२२६ ) इति कृतवकारादेशो रुदिरत्र पठ्यते । रुव । रुव्वइ । विजइ । लभ् । लब्भह । लहिज्जइ ॥ कथ् । कत्थइ। कहिज्जइ ।। भुज् ॥ भुज्जइ ।। भुजिजइ ।। भविष्यति । गम्मिहिइ । गमिहिए। इत्यादि ॥ २४९॥ हृ-कृ-त-जामीरः। ८।४ । २५०।। एषामन्त्यस्य ईर इत्यादेशो वा भवति तत्सन्नियोगे च क्यलुक् ॥ हीरइ । हरिजह । कीरइ करिज्जइ । तीरइ. तरिबह । जीरइ जरिजइ ॥ २५० ॥ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [७९३ ] - अर्जेविढप्पः । ८।४ । २५१ । अन्त्यस्येति निवृत्तम् । अर्जेविढप्प इत्यादेशो वा भवति तत्सन्नियोगे कयस्य च लुक् ॥ विढप्पइ । पक्षे । विढविज्जइ । अज्जिज्जइ ॥ २५१ ।। ज्ञो णव्व-णज्जौ । ८।४ । २५२ । जानातेः कर्मभावे णव्व णज्ज इत्यादेशौ वा भवतः तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ णव्वइ णज्जइ । पक्षे। जाणिज्जइ । मुणिज्जइ ।। न ज्ञोणः' (८-२-४२) इति णादेशे तु । णाइज्जइ ॥ नपूर्वकस्य । अणाइज्जइ ॥२५२॥ व्याहगेाहिप्पः । ८।४ । २५३ । व्याहरतेः कर्मभावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ वाहिप्पइ। वाहरिज्जइ ॥ २५३ ॥ - आरमेराढप्पः । ८ । ४ । २५४ । आपूर्वस्य रमेः कर्मभावे आढप्प इत्यादेशो वा भवति क्यस्य च लुक् ॥ आढप्पइ । पक्षे। आढवीअइ । ॥ २५४॥ स्निह-सिचोः सिप्पः । ८।४।२५५। अनयोः कर्मभावे सिप्प इत्यादेशो भवति क्यस्य च लुक् ॥ सिप्पइ । स्निह्यते । सिच्यते वा ॥ २५५ ॥ अहेर्धेप्पः । ८।४ । २५६ । ... ग्रहः कर्मभावे घेप्प इत्यादेशो वा भवति क्यस्य च लुक् ॥ घेप्पइ । गिहिज्जइ । २५६ ॥ १०० Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९४ ] प्राकृतव्याकरणम् स्पृशेश्छिप्पः । ८ । ४ । २५७ | स्पृशतेः कर्म्मभावे छिप्पादेशो वा भवति क्यलुक् च ॥ छिप्पर । छिविज्जइ ॥ २५७ ॥ क्तेनाप्पुणादयः । ८ । ४ । २५८ | अप्फुणादयः शब्दा आक्रमिप्रभृतीनां धातूनां स्थाने तेन सह वा निपात्यन्ते ॥ अप्फुणो । आक्रान्तः ॥ उक्कोसं । उत्कृष्टम् ॥ फुडं । स्पष्टम् || वोलीणो । अतिक्रान्तः ॥ बोसट्टो । विकसितः ॥ निसुट्टो । निपातितः ॥ लुग्गो । रुग्णः ॥ ल्हिक्को । नष्टः । पम्हुट्ठो । प्रसृष्टः प्रमुषितो वा ॥ विदत्तं अर्जितम् || छित्तं । स्पृष्ठम् ॥ निमिअं । स्थापितम् ॥ चक्खिअं | आस्वादितम् ॥ लुंअं | लूनम् ॥ जढं । त्यक्तम् ॥ ज्झोसिअं । क्षिप्तम् ॥ निच्छूढं । उद्वृत्तम् ॥ पल्हत्थं पलोहं च पर्यस्तम् ॥ हीसमणं । हेषितम् । इत्यादि ॥ २५८|| धातवोर्थान्तरेपि । ८ । ४ । २५९ ॥ उक्तादर्थादर्थान्तरेपि धातवो वर्तन्ते ॥ बलिः प्राणने पठितः खादनेपि वर्तते । बलइ । खादति प्राणनं करोति वा ॥ एवं कलिः संख्याने संज्ञानेपि । कलइ । जानाति संख्यानं करोति वा ॥ रिगिर्गतौ प्रवेशेपि ।। रिगइ । प्रविशति गच्छति वा ॥ कांक्षतेर्वम्फ आदेशः प्राकृते । वम्फइ । अस्यार्थः । इच्छति खादति वा ॥ फकतेस्थक आदेशः । थक्कइ । नीचां गतिं करोति विलम्बयति वा । विलप्युपालम्भ्योर्झङ्ग आदेशः । झखइ | विलपति उपालभते भाषते वा ।। एवं पड़िवाखे। प्रतीक्षते रक्षति वा ॥ केचित् कैश्चिदुपसर्गैर्नित्यम् । पहरइ । युध्यते ॥ संहरइ । संवृणोति ॥ अणुहरइ | सह Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [७९५] शीभवति ॥ नीहरइ । पुरीपोत्सर्ग करोति ॥ विहरइ । क्रीडति ॥ आहरइ । खादति ॥ पडिहरइ । पुनः पूरयति । परिहरइ । त्यजति । उवहरह । पूजयति ।। वाहरइ । आह्वयति ॥ पवसइ। देशान्तरं गच्छति ।। उरुचुपइ। चटति ॥ उल्लुहइ । निःसरति ॥ २५९ ॥ [अथ शौरसेनी] : तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ।८।४।२६०। शौरसेन्य भाषायामनादावपदादौ बर्तमानस्य तका.. रस्य दकारो भवति न चेदसौ वर्णान्तरेण संयुक्तो भवति॥ तदो पूरिद-पदिशेन मारुदिना मन्तिदो॥ एतस्मात् । एदाहि । एदाओ । अनादाविति किम् । तथा करेध जधातस्स राइणो अणुकम्पणीआ भोमि ।। अयुक्तस्येति किम् । मत्तो । अय्यउत्तो । असंभाविद-सकारं । हला सउन्तले . ॥ २६० ॥ . . अधः क्वचित् । ८ । ४ । २६१ । - वर्णान्तरस्याधोवर्तमानस्य तस्य शौरसेन्यां दो भवति। कचिल्लक्ष्यानुसारेण ॥ महन्दो। निच्चिन्दो । अन्देउर ॥ २६१ ॥ वादेस्तावति । ८ । ४ । २६२ । शौरसेन्या तावच्छब्दे आदेस्तकारस्य दो वा भवति ।। दाव । ताव ॥ २६२ ॥ . आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नः। ८।४।२६३ । शौरसेन्यामिनो नकारस्य आमन्ये सौ परे आकारो वा भवति ॥ भो कञ्चुइआ। सुहिआ । पक्षे । भी तव. सि । भो मणस्सि ॥ २६३ ॥ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७९६] प्राकृतव्याकरणम् मो वा । ८ । ४ । २६४ । शौरसेन्यामामव्ये सौ परे नकारस्य मो वा भवति॥ भो रायं । भो विअयवम्मं । सुकम्म। भयवं कुसुमाउह। भयवं तित्थं पवत्तेह । पक्षे । सयल-लोअ-अन्तेआरि भयव हुदवह ॥ २६४ ॥ .. भवद्भगवतोः। ८ । ४ । २६५ । आमन्त्र्य इति निवृत्तम् । शौरसेन्यामनयोः सौ परे नस्य मो भवति ॥ किं एत्थभवं हिदएण चिन्तेदि। एदु भवं । समणे भगवं महावीरे। पज्जलिदो भयवंहुदासणो॥ कचिदन्यत्रापि । मघवं पागसासणे । संपाइअवं सीसो । कयवं । करेमि काहं च ॥ २६५ ।। न वा यो य्यः । ८।४ । २६६ ।। - शौरसेन्यां यस्य स्थाने त्यो वा भवति ॥ अय्यउत्त पय्याकुलीकदम्हि । सुय्यो । पक्षे । अज्जो। पज्जाउलो। कज्ज-परवसो ॥ २६६ ॥ .. थो धः । ८ । ४ । २६७ । . शौरसेन्यां थस्य धो वा भवति ॥ कधेदि कहेदि । णाधो णाहो । कधं कहं । राज-पधो राज-पहो ॥ अपदा. दावित्येव । थामं । थेओ ॥ २६७ ॥ __ इह-होर्हस्य । ८ । ४ । २६८ । इहशब्दसम्बन्धिनो 'मध्यमस्येत्था-हचौ' (८.३-१४३) इति विहितस्य हचश्च हकारस्य शौरसेन्यां धो वा भवति॥ इध । होध। परित्तायध ॥ पक्षे । इह । होह । परित्तायह ॥ २६८॥ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् भुवो भः । ८ । ४ । २६९ । भवतेर्हकारस्य शौरसेन्यां भो वा भवति ॥ भोदि । होदि । भुवदि । हवदि । भवदि । हवदि ॥ २६९ ॥ पूर्वस्य पुखः | ८ | ४ | २७० | शौरसेन्यां पूर्व शब्दस्य पुरव इत्यादेशो वा भवति ॥ अपुरवं नाडयं । अपुरवागदं । पक्षे । अपुब्वं पदं । अपुव्वागदं ॥ २७० ॥ क्त्व इय - दूणौ । ८ । ४ | २७१ | शौरसेन्यां क्त्वाप्रत्ययस्य इय दूण इत्यादेशौ वा भवतः ॥ भविय भोतॄण । हविय होढूण । पढिय पढिदूण । रमियरन्दू | पक्षे भोत्ता । होत्ता । पढित्ता । रन्ता ॥ २७१ ॥ कृ-गमो डडुअः | ८ | ४ | २७२ | आभ्यां परस्य क्वाप्रत्ययस्य डित् अड्डअ इत्यादेशो वा भवति || कडुअ । गडुअ । पक्षे । करिय । करिदूण | गच्छिय । गच्छिदूण ॥ २७२ ॥ दिरिचेचोः | ८ | ४ | २७३ | [ ७९७ ] 'त्यादीनामाद्यत्रयस्याद्यस्यैचेचौ ' ( ८-३-१३९ ) इति विहितयो रिचेचोः स्थाने दिर्भवति ॥ वेति निवृत्तम् । दि । देदि । भोदि । होदि ॥ २७३ ॥ अतो देश्च । ८ । ४ । २७४ | अकारात्परयोरिचेचोः स्थाने देश्चकाराद् दिश्च भवति ।। अच्छदे | अच्छदि ॥ गच्छदे । गच्छदि ॥ रमदे । रमदि ॥ किज्जदे । किज्जदि ॥ अत इति किम् । वसुआदि । नेदि । भोदि ॥ २७४ ॥ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७९८] प्राकृतव्याकरणम् भविष्यति स्सिः । ८ । ४ । २७५ । । शौरसेन्यां भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे सिर्भ वति ॥ हिस्साहामपवादः। भविस्सिदि। करिस्सिदि । गच्छिस्सिदि ॥ २७५ ॥ __अतो उसेडर्डादो-डादू । ८ । ४ । २७६ । .. अतः परस्य ङसेः शौरसेन्या आदो आदु इत्यादेशी डितो भवतः ॥ दूरादो य्येव । दूरादु ॥ २७६ ।। इदानीमो दाणि । ८।४ । २७७। । शौरसेन्यामिदानीमा स्थाने वाणिमित्यादेशो भवति॥ अनन्तरकरणीयं दाणिं आणवेदु अय्यो॥ व्यत्ययात्प्राकृ. तेपि । अनं दाणिं बोहि ॥ २७७ ॥ ___ तस्मात्ताः । ८ । ४ । २७८ । शौरसेन्यां तस्माच्छब्दस्य ता इत्ययादेशो भवति ॥ ता जाव पविसामि । ता अलं एदिणा माणेण ।। २७८ ।। मोन्त्याण्णो वेदेतोः । ८।४ । २७९ । . शौरसेन्यामन्त्यान्मकारात्पर इदेतोः परयोर्णका. रागमो वा भवति ।। इकारे।जुत्तं णिमं जुत्तमिणं । सरिसं णिमं सरिसमिणं । एकारे । किं णेदं किमेवं । एवं णेदं एवमेदं ॥ २७९ ॥ एवार्थे य्येव । ८ । ४ । २८० । एवार्थे य्येव इति निपातः शौरसेन्यां प्रयोक्तव्यः ।। मम य्येव बम्भणस्स । सो व्येव एसो ॥२८॥ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपत्तिसहितम् [७९९] हजे चेटयाहाने । ८।४।२८१ । शौरसेन्या चेट्याह्वाने हल्ले इति निपातः प्रयोक्तव्यः॥ हले चदुरिके ॥ २८१ ॥ हीमाणहे विस्मय-निवेदे । ८ । ४ । २८२ । शौरसेन्या हीमाणहे इत्ययं निपातो विस्मये निर्वेदे च प्रयोक्तव्यः॥ विस्मये । हीमाणहे जीवन्त-वच्छा मे ज. गणी ॥ निदे। हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण नियविधिणो दुव्ववसिदेण ॥ २८२ ॥ __णं नन्वर्थे । ८।४। २८३ । शौरसेन्यां नन्वर्थे णमिति निपातः प्रयोक्तव्यः ॥णं अफलोदया। णं अय्यमिस्सेहिं पुढमं य्येव आणत्तं । णं भवं मे अग्गदो चलदि । आर्षे वाक्यालङ्कारपि दृश्यते नमोत्थु णं । जया णं । तया णं ॥ २८३ ॥ . अम्महे हर्षे । ८ । ४ । २०४।. शौरसेन्या अम्महे इति निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः॥ अम्महे एआए सुम्मिलाए सुपमिलाए सुपलिगढिदो भवं ॥ २८४ ॥ हीही विदुषकस्य । ८।४।२८५ । शौरसेन्यां हीही इति निपातो विदूषकाणां हर्षे द्योत्ये प्रयोत्तव्यः॥ ही ही भो संपन्ना मणोरधा पिय-वयस्सस्स ॥ २८५॥ । शेषं प्राकृतवत् । ८ । ४ । २८६ । शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्तं ततोन्यच्छौर Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८०० ] प्राकृतव्याकरणम् सेन्यां प्राकृतवदेव भवति || ' दीर्घ ह्रस्वौ मिथो वृत्तौ ' ( ८-१-४ ) इत्यारभ्य ' तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य' ( ८ -४ - २६० ) एतस्मात्सूत्रात्प्राग् यानि सूत्राणि एषु यान्युदाहरणानि तेषु मध्ये अमूनि तदवस्थान्येव शौरसे न्यां भवन्ति अमूनि पुनरेवंविधानि भवन्तीति विभागः प्रतिसूत्रं स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः ॥ यथा । अन्दावेदी । जुवदि-जणो । मणसिला । इत्यादि ।। २८६ ॥ [ अथ मागधी ] अत एत्सौ पुंसि मागध्याम् | ८ | ४ | २८७ | मागध्यां भाषायां सौ परे अकारस्य एकारो भवति पुंसि पुल्लिङ्गे । एष मेषः । एशे मेशे । एशे पुलिशे ॥ करोमि भदन्त | करेमि भन्ते ॥ अत इति किम् । णिही । कली । गिली | पुंसीति किम् । जलं ॥ यदपि " पोराणमद्धमागह- भासा - निययं हवइ सुत्तं " इत्यादिनार्षस्य अर्द्धमागधभाषानियतत्वमाम्नायि वृद्धैस्तदपि प्रायोस्यैव विधानान्न वक्ष्यमाणलक्षणस्य ॥ कयरे आगच्छइ ॥ से तारि से दुक्खसहे जिइन्दिए | इत्यादि ॥ २८७ ॥ र - सोर्ल - शौ । ८ । ४ । २८८ | मागध्यां रेफस्य दन्त्यसकारस्य च स्थाने यथासंख्यं लकारस्तालव्यशकारश्च भवति ॥ र ॥ नले । कले ॥ स | हंशे । शुदं । शोभणं ॥ उभयोः । शालशे । पुलिशे ॥ - शिल- विअलिद - मन्दाल- नामल - शुल लहश--वश--: लादिहियुगे । बील - यिणे पक्खालदु मम शयलमवय्य-यम्बाल ||२८८ || Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८०१] म-पोः संयोगे सोग्रीष्मे । ८।४ । २८९ । मागध्यां मकारषकारयोः संयोगे वर्तमानयोः सो भवति ग्रीष्मशब्दे तु न भवति । ऊध्वलोपाद्यपवादः ।। स । पस्वलदि हस्ती। बृहस्पदी । मस्कली। विस्मये ॥ष। शुस्क-दाहुँ । कस्टं। विस्नु । शस्प-कवले । उस्मा। निस्फलं । धनुस्खण्डं ॥ अग्रीष्म इति किम् । गिम्ह-धाशले ।। २८९ ॥ ट्र-ष्ठयोस्टः । ८।४ । २९० । द्विरुक्तस्य टस्य षकाराकान्तस्य च ठकारस्य मागध्यां सकाराकान्तः टकारो भवति ।। दृ । पस्टे । भस्टालिका। भस्टिणी ॥ ष्ठ । शुस्टु कदं । कोस्टागालं . २९० ॥ स्थ-थेयोस्तः । ८ । ४ । २९१ । स्थ र्थ इत्येतयोः स्थाने मागध्यां सकाराक्रान्तः तो भवति ॥ स्थ । उवस्तिदे। शुस्तिदे ॥ र्थ । अस्त-वदी। शस्तवाहे ।। २९१ ॥ ज-द्य-यां-यः । ८ । ४ । २९२ । मागध्यां जद्ययां स्थाने यो भवति ॥ ज । याणदि । यणवदे। अय्युणे । दुय्यणे । गय्यदि । गुण-वय्यिदे । छ । मय्यं । अय्य किल विय्याहले आगदे ॥ य । यादि । गधाशलवं । याण-वत्तं । यदि ॥ यस्य यत्वविधानम् 'आदेयों जः' (८-१-२४५) इति बाधनार्थम् ॥ २९२ ।। न्य-ण्य-ज्ञ-जां जः । ८ । ४ ।२९३ । मागध्यां न्य ण्य ज्ञ ञ्ज इत्येतेषां द्विरुक्तो वो भवति ॥ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०२] प्राकृतव्याकरणम् न्य ॥ अहिमञ्जु कुमाले । अञ्ज-दिशं । शामञ्ज-गुणे। कञका-वलणं ॥ ण्य । पुजवन्ते । अबह्मजं । पुहं । पुजं ॥ ज्ञ। पाविशाले । शव्वले । अवज्ञा ॥ ज । अञ्जली । धणञ्जए । पञ्चले ॥ २९३ ॥ व्रजो जः। ८ । ४ । २९४ । .. - मागध्यां व्रजेजकारस्य बो भवति । यापवादः वअदि ॥ २९४ ॥ - छस्य श्चोनादौ । ८।४ । २९५ । मागध्यामनादौ वर्तमानस्य छस्य तालव्यशकारा. क्रान्तश्चो भवति ॥ गश्च गश्च । उचलदि । पिश्चिले। पुश्चदि लाक्षणिकस्यापि। आपन्नवत्सलः। आवन्नवश्चले। तिर्यक् प्रेक्षते । तिरिच्छि पेच्छह। तिरिश्चि पेस्कदि । अनादाविति किम् ॥ छाले ॥ २९५ ॥ क्षस्य :कः । ८।४ । २९६ । मागध्यामनादौ वर्तमानस्य क्षस्य को जिह्वामूलीयो भवति ॥ य के । ल कशे ॥ अनादावित्येव । खय-यलहला । क्षयजलधरा इत्यर्थः ॥ २९६ ॥ . स्कः प्रेक्षराचक्षोः । ८।४ । २९७ । मागध्यां प्रेक्षेराचक्षेश्च क्षस्य सकाराक्रान्तः को भवति ॥ जिह्वामूलीयापवादः ॥ पेस्कदि । आचस्कदि ॥ २९७ ॥ तिष्ठश्चिष्ठः । ८ । ४ । २९८ । मागध्यां स्थाधातोर्यस्तिष्ठ इत्यादेशस्तस्य चिष्ठ इत्यादेशो भवति ॥ चिष्ठदि ।। २९८ ।। Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८०३] . अवर्णादा उसो डोहः । ८ । ४ । २९९ । मागध्यामवर्णात्परस्य ङसो डित् आह इत्यादेशो वा भवति ॥ हगे न एलिशाह कम्माह काली । भगदत्तशोणिदाह कुम्भे। पक्षे। भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि। हिडिम्बाए घड्डक्कय-शोके ण उवशमदि ॥ २९९ ॥ आमो डाहँ वा । ८ । ४ । ३०० । मागध्यामवर्णात्परस्य आमोनुनासिकान्तो डित आहादेशो वा भवति॥शय्यणाहँ सुहं। पक्षे । नलिन्दाणं। व्यत्ययात्प्राकृतेपि।ताहँ। तुम्हाहँ। अम्हाहँ । सरिआहँ। कम्माह ॥३०० ॥ अहं वयमोर्हगे । ८।४ । ३०१ । मागध्यामहंवयमोः स्थाने हगे इत्यादेशो भवति ॥ हगे शकावदालतिस्त णिवाशी धीवले । हगे शंपत्ता ॥३०१॥ शेषं शौरसेनीवत् । ८ । ४ । ३०२ । _ मागध्यां यदुक्तं ततोन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम् ॥ तत्र 'तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य' (८-४-२६०)। पविशदु आयुत्ते शामि-पशादाय ॥ 'अधः कचित्' (८-४-२६१ ) अले किं एशे महन्दे कलयले ॥ 'वादेस्तावति' (८-४-२६२)॥ मालेध वा धलेध वा ॥ अयं दाव शे आगमे ॥ ' आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नः' (८-४-२६३ ) भो कञ्चुइआ ॥ 'मो वा' (८-४-२६४) ॥ भो रायं ॥ 'भवद्भगवतोः' (८-४-२६५)। एदु भवं शमणे भयवं महावीले। भयवं कदन्ते ये अप्पणो पकं उज्झिय Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०४] प्राकृतव्याकरणम् पलस्य फरक पमाणीकलेशि ॥ 'न वा यो ग्यः' (८-४-२६६) अय्य एशे खु कुमाले मलयकेदू । 'थो धा (८-४-२६७ ) ॥ अले कुम्भिला कधेहि ॥ 'इहहचोर्हस्य' (८-४-२६८) ओशलध अय्या ओशलध ॥ 'मुंवी भः (८-४-२६९)। भोदि ॥ 'पूर्वस्य पुरवः' (८-४-२७०) ॥ अपुरवें । 'क्त्व इयंदूणौ' (८-४-२७१)। किं खु शोभणे बम्हणे शि तिं कलिय लेआ पलिग्गहे दिणे ॥ 'कु-गमो डुडु' (८-४-२७२ ) ॥ कष्टुअ । गड्डेच 'दिरिचेचो' (८-४-२७३) ॥ अमच्च-ल कशं। पिंक्खि इदो य्येव आगश्चदि ॥' अतो देश्च (८-५२७४) अले किं एशे महन्दे कलयले झुणीअदे । 'भविष्यति स्सिः ' (८-४-२७५) ता कहिं नु गदे लुहिलप्पिए भविस्सदि ॥ ' अतो उसेर्डादो-डादू ' (८-४-२७६ )। अहं पि भागुलायंणांदो मुहं पावेमि ।। ' इदानीमो दाणिं' (४-४-२७७ ) ॥ शुणध दाणि हंगे शकावयाल तिस्त णिवाशी धीवले ॥ 'तस्मात्ताः' (८-४-२७८ ) । ता यावं पविशामि । 'मान्त्वाणो वेदेतोः' (८-४-२७९ )। युत्तं णिमं। शलिशं णिमं ।। 'एवार्थे य्येव' (८-४-२४०)। मम व्येवं ।। ह0 चेटयाइवाने (८-४-२८१ ) ॥ हजे चहुलिके ॥ हिणामहे विस्मय-निदे (८-४-२८२ )। विस्मये । यथा उदात्तराघवे । राक्षसः। हीमाणहे जीवन्त वश मे जणणी ॥ निर्वेदे । यथा विक्रान्तभीमे रासस । हीमोगहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय. विधिणी दुवधशिदेण ।। ' नन्वर्थे ' (८-४-२८३).॥ णे अवशलोपशप्पणीया लायाणो ॥ 'अम्महे हर्षे' (८-४-२८४) अम्महे एआए शुम्मिलाएं शुपलि Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीपक्षपतिसहितम् [८०५) गढिदे भवे ॥ 'हीही विदुषकस्य' (८-४-२८५) ।। हीही संपना मे मणोलधा पियवयस्सस्स ।। 'शेष प्राकतवत्' (८-४-२८६) मागध्यामपि दीर्घहस्वो मियो वृत्तौ' (८-१-४) इत्यारभ्य ' तो दोनादौ शौर सेन्यामयुक्तस्य' (८-४-२६० ) इत्यस्मात् प्राग् यानि सूत्राणि तेषु यान्युदाहरणानि सन्ति तेषु मध्ये अमूनि तदवस्थान्येव मागध्याममूनि पुनरेवंविधानि भवन्तीति विभागः स्वयमभ्यूत्य दर्शनीयः ॥ ३०२ ॥ [अथ पैशाची] ज्ञो नः पैशाच्याम् । ८।४।३०३ । पैशाच्यां भाषायां ज्ञस्य स्थाने जो भवति ॥ पञ्जा।। . . सना । सव्वो । आनं । विज्ञानं ॥ ३०३ ॥ राज्ञो वा चित्र । ८।४ । ३०४ । पैशाच्यां राज्ञ इति शन्दे यो ज्ञकारस्तस्य चित्र आदेशो वा भवति ॥राचिना लपितं । रजा लपितं । राचि. बो धनं । रजओ धनं । ज्ञ इत्येव । राजा ।। ३०४ ।। न्य-ज्योः । ८ । ४ । ३०५। पैशाच्यां न्यण्योः स्थाने ओ भवति । कञका । अभिमञ्जू । पुञकम्मो । पुजाहं ।। ३०५॥ णो नः।८।४ । ३०६। पैशाच्या कारस्य नो भवति । गुन-गन-युत्तो। गुनेन ॥ ३०६ ॥ तदोस्तः । ८ । ४ । ३०७ । पैशाच्यां सकारदकारयोस्तो भवति । तस्य । भगव ती। पव्वती । सतं । दस्य । मतन-परवसो। सतनं । Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०६] प्राकृतव्याकरणम् तामोतरो । पतेसो । वतनकं। होतु । रमतु ॥ तकारस्यापि तकारविधानमादेशान्तरवाधनार्थम् । तेन पताका वेतिसो इत्याद्यपि सिद्धं भवति ॥ ३०७ ॥ लोळः । ८।४ । ३०८ । पैशाच्या लकारस्य ळकारो भवति ॥ सीळं । कुळं। . जळं । सळिळं । कमळं ।। ३०८ ॥ श-षोः सः । ८।४ । ३०९ । पैशाच्यां शषोः सो भवति । श । सोभति। सोभनं। ससी । सक्को। सङ्को ॥ष। विसमो। किसानो। 'न कगचजादिषदशम्यन्तसूत्रोक्तम्' (८-४-३२४ ) इत्यस्य .. बाधकस्य बाधनार्थोऽयं योगः ॥ ३०९ ॥ हृदये यस्य पः । ८ । ४ | ३१० ॥ - पैशाच्यां हृदयशब्दे यस्य पो भवति । हितपकं । किंपि किंपि हितपके अत्थं चिन्तयमानी ॥ ३१० ॥ टोस्तुर्वा । ८ । ४।३११ ।' पैशाच्या टोः स्थाने तुर्वा भवति । कुतुम्बकं । कुटुम्बकं ॥ ३११ ॥ कत्वस्तनः। ८।४ । ३१२ । पैशाच्यां क्त्वाप्रत्ययस्य स्थाने तून इत्यादेशो भवति॥ गन्तून । रन्तून । हसितून । पठितून । कधितून ॥३१२॥ ध्दून-स्थूनौ ष्ट्वः। ८।४ । ३१३ । पैशाच्यां ष्टवा इत्यस्य स्थाने दून त्थून इत्यादेशो. भवतः । पूर्वस्यापवादः । नदून । नत्थून । तदून । त. स्थून ॥ ३१३ ॥ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८०७) र्य-स्न-टां रिय-सिन-सटाः क्वचित् । ८।४ । ३१४। पैशाच्यां यस्नष्टां स्थाने यथासंख्यं रिय सिन सट इत्यादेशाः कचित् भवन्ति । भार्या । भारिया स्नातम् । सिनातं । कष्टम् । कसट । कचिदिति किम् । सुजो। सु. नुसा। तिट्ठो॥ ३१४ ।। . क्यस्येय्यः । ८ । ४ । ३१५ । पैशाच्यां क्यप्रत्ययस्यं इय्य इत्यादेशो भवति । गिय्यते । दिय्यते । रमिय्यते । पठिय्यते ॥ ३१५ ॥ कृगो डीरः । ८ । ४ । ३१६ । पैशाच्यां कृगः परस्य क्यस्य स्थाने डीर इत्यादेशो भवति । पुधुमतंसने सव्वस्स य्येव सम्मान कीरते ॥ ॥३१६ ॥ यादृशादेर्दुस्तिः । ८ । ४ । ३१७ । पैशाच्यां यादृश इत्येवमादीनां दृ इत्यस्थ स्थाने तिः इत्यादेशो भवति । यातिसो। तातिसो । केतिसो। एति. सो । भवातिसो। अनातिसो। युम्हातिसो। अम्हातिसो ॥३१७ ॥ इचेचः। ८ । ४ । ३१८ । पैशाच्यामिचेचोः स्थाने तिरादेशो भवति ॥ वसुआ. ति । भोति । नेति । तेति ॥ ३१८॥ आत्तेश्च । ८।४ । ३१९ । पैशाच्यामकारात्परयोः इचेचोः स्थाने तेश्चकारात् तिश्चादेशो भवति ॥ लपते। लपति। अच्छते । अच्छति । Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०८] प्राकतण्याकरणम् गच्छते । गच्छति । रमते । रमति । आदिति किम् । होति । नेति ॥ ३१९ ॥ __ भविष्यत्येय्य एव । ८ । ४ । ३२० । ___ पैशाच्यामिन्धेचोः स्थाने भविष्यति एय्य एव भवति न तु स्सिः॥ तं तधून चिंतित रआ का एसा हुवेय्य । ॥ ३२०॥ अतो उसेडर्डाता-डातू । ८ । ४ । ३२१ । पैशाच्यामकारात्परस्य डसेर्डितो आतो आतु इत्यादेशौ भवतः ॥ ताव च तीए तूरातो ध्येच तिहो। तूरातु। तुमातो। तुमातु । ममालो । ममातु ॥ ३२१ ॥ तदिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए ।८।४।३२२/ पैशाच्यां तदिदसोः स्थाने टानत्यग्रेन सह नेन इत्यादेशो भवति । स्त्रीलिंग तु नाए इत्यादेशो भवति ॥ तत्थ च नेन कत-सिनामेन ॥ स्त्रियाम । पूजितो च नाए पातग्ग-कुसुम-पतानेन ॥ टेति किम् । एवं चिन्तयन्तो गतो सो ताए समीपं ॥ ३२१ ॥ शेषं शौरसेनीवत् । ८।४ । ३२३ । .. पैशाच्यां यदुक्तं ततोन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति ॥ अध ससरीरो भगवं मकर-धजो। एत्थ परिन्भमन्तो हुवेय्य । एवंविधाए भगवतीए कधं तापस-वेसगहनं कतं ॥ एतिसं अतिष्ट-पुरवं महाधनं तळून । सावं यदि म घरं पचच्छसि राजं च द्रास लोक । ताव च तीए सूरालो य्येव तिहो सो आगमानो राजा ॥ ३२३ ॥ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८०९] न क-ग-च-जादि-षट्-शम्यन्त-सूत्रोक्तम् ।।४।३२४॥ पैशाच्यां 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' (८-१-१७७ ) इत्यारभ्य 'षट्-शभी-शाव-सुधा-सप्तपर्णेप्वदुश्छेः' (८-१-२६५) इति यावद्यानि सूत्राणि तैर्यदुक्तं कार्य तन्न भवति ॥ मकरकेतू । सगर-पुत्त-वचनं । विजयसेनेन लपितं । मतनं । पापं । आयुधं । तेवरो॥ एवमन्यसूत्राणामप्युदाहरणानि द्रष्टव्यानि ।। ३२४ ॥ [अथ चूलिका पैशाचिक भाषा] चूलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ ।८।४ । ३२५। चूलिकापैशाचिके वर्गाणां तृतीयतुर्ययोः स्थाने आद्यद्वितीयो यथासंख्यौ भवतः ॥ नगरम् । आद्यद्वितीयौ नकरं ॥ मार्गणः । मक्कनो ॥ गिरि-तटम् । किरि--तटं ॥ मेघः । मेखो ॥ व्याघ्रः॥ वक्खो॥धर्मः । खम्मो॥राजा। राचा ॥ जर्जरम् चच्चरं ॥ जीमूतः । चीमूतो॥ निर्झरः । निच्छरो॥झर्झरः। छच्छरो॥ तडागम् । तटाकं॥ मण्डलम् मण्टलम् ॥ डमरुकः । टमरुको ॥ गाढम् । काठं ॥ षण्डः । सण्ठो ॥ ढक्का । ठका ॥ मदनः । मतनो॥ कन्दर्पः। कन्तप्पो ॥ दामोदरः। तामोतरो॥ मधुरम् । मथुरं ।। बान्धवः । पन्थवो ॥ धूली । थूली ॥ बालकः। पालको। रभसः। रफसो॥ रम्भा । रम्फा । भगवती । फकवती॥ नियोजितम् । नियोचित ॥ क्वचिल्लाक्षणिकस्यापि । पडिमा इत्यस्य स्थाने पटिमा । दाढा इत्यस्य स्थाने ताठा ॥३२५॥ रस्य लो वा । ८।४ । ३२६ । चलिकापैशाचिके रस्य स्थाने लो वा भवति ॥ Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८१० ] प्राकृतव्याकरणम् पनमथ पनय-पकुपित - गोली चलनग्ग- लग्ग-पति-बिम्बं । तससु नख-तप्पनेसुं एकातस-तनु-थलं लुद्दं ॥ नच्चन्तस्स य लीला- पातुक्खेवेन कम्पिता वसुधा । उच्छल्लन्ति समुद्दा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥ ३२६ ॥ नादि - युज्योरन्येषाम् | ८ | ४ | ३२७ | चूलिका पैशाचिकेsपि अन्येषामाचार्याणां मतेन तृतीयतुर्ययोरादौ वर्तमानयोर्युजिधातौ च आयद्वितीयौ न भवतः ॥ गतिः । गती ॥ धर्मः । घम्मो ॥ जीमूतः । जीमूतो ॥ झर्झरः । झच्छेरो ॥ डमरुकः । डमरुको ॥ ढका । ढक्का ॥ दामोदरः दामोतरो || बालकः । बालको । भगवती । भकवती ॥ नियोजितम् । नियोजितं ॥ ३२७॥ शेषं प्राग्वत् । ८ | ४ | ३२८ | चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोरित्यादि यदुक्तं ततोन्यच्छेषं प्राक्तन पैशाचिकवद् भवति ॥ नकरं । मक्कनो । अनयोर्नो णत्वं न भवति ॥ णस्य च नत्वं स्यात् । एवमन्यदपि ॥ ३२८ ॥ [ अथ अपभ्रंश भाषा ] स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे । ८ । ४ । ३२९ / अपभ्रंशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वरा भवन्ति ॥ कच्चु | काच्च ॥ वेण । वीण ॥ बाह । बाहा ॥ पट्टि । पिट्ठि | पुहि ॥ तणु । तिणु । तृणु ॥ सुकिदु । सुकिओ । सुकृदु ॥ किन्नओ । किलिन्नओ || लिह । लीह । लेह ॥ गउरि । गोरि ॥ प्रायोग्रहणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि कचित्प्राकृतवत् शौरसेनीवच्च कार्य भवति ॥ ३२९ ॥ ★ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८११] - स्यादौ दीर्घ-हस्वौ। ८।४। ३३० । अपभ्रंशे नानोन्त्यस्वरत्य दीर्घहस्वौ स्यादौ प्रायो भवतः ॥ सौ॥ ढोल्ला सामला घण चम्पा-वण्णी । णाइ सुवण्ण-रेह कस-वट्टर दिण्णी ॥ आमव्ये। ढोल्ला मई तुहुं वारिया मा कुरु दीहा माणु । निदए गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु । स्त्रियाम् ॥ बिट्टीए मइ भणिय तुहुं मा कर वङ्की दिहि। पुत्ति सकण्णी भल्लि जिव मारइ हिअइ पइहि ॥ जसि ॥ .. . एइ ति घोडा एह थलि.एई ति निसिआ खग्ग । एत्थु मुणीसिम जाणीअइ जो नवि वालइ वग्ग । एवं विभक्त्यन्तरेष्वप्युदाहार्यम् ॥ ३३० ॥ . स्यमोरस्योत् । ८।४ । ३३१ । अपभ्रंशे अकारस्य स्यमोः परयोः उकारो भवति । ' 'दहमुहु भुवण-भयंकर तोसिअ-संकर णिग्गउ रह-वरि - चडिअउ। चउमुहु छंमुहु झाइवि एकहिं लाइवि णावइ दइवें घडिअउ ॥ ३३१ ॥ सौ पुंस्योदा । ८ । ४ । ३३२ । अपभ्रंशे पुल्लिङ्गे वर्तमानस्य नाम्नोकारस्य सौ परे ओकारो वा भवति । Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१२] प्राकृतव्याकरणम् अगलिअ-नेह-निवहाहं जोअण--लक्खुवि जाउ । परिस--सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ । पुंसीति किम् । अङ्गहिं अङ्गु न मिलिउ हलि अहरें अहरु न पत्तु । पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्बइ सुरउ समत्तु ॥३३२॥ एट्टि। ८ । ४ । ३३३ । अपभ्रंशे अकारस्य टायामेकारो भवति । जे महु दिण्मा दिअहडा दहएं पवसन्तेण । ताण गणन्तिए अङ्गुलिउ जजरिआउ नहेण ॥ ३३३॥ डिनेच्च । ८।४ । ३३४ । अपभ्रंशे अकारस्य डिना सह इकार एकारश्च भवतः। सायरु उप्परि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई । सामि सुभिच्चु वि परिहरइ सम्माणेइ खलाई ॥ तले घल्लई। ३३४॥ मिस्येदा । ८ । ४ । ३३५ । अपभ्रंशे अकारस्य भिसि परे एकारो वा भवति । गुणहिं न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुञ्जन्ति । फैसरि न लहइ बोडिअधिगय लक्खेहिं घेप्पन्ति ॥३३५॥ उसे हैं-हू । ८।४।३३६ । अस्पैति पश्चम्यन्तं विपरिणम्यते । अपभ्रंशे अकारास्परस्य उसे हु इत्यादेशौ भवतः । वच्छहे गृहह फलई जणु कडु-पल्लव वज्जेइ । . तोवि महहुमु सुअणु जिव ते उच्छनि धरेई । वच्छहु गृण्हइ ॥ ३३६ ॥ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपचिसहितम् [८१३] भ्यसो हुँ। ८।४ । ३३७ । अपभ्रंशे अकारात्परस्य भ्यसः पञ्चमीबहुवचनस्य हुँ इत्यादेशो भवति । दुरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेह। जिह गिरि-सिगडं पडिअ सिल अन्तु वि चूरु करेइ ॥ ३३७ ॥ ड्सः सु-हो-स्सवः । ८।४।३३८ । अपग्रंशे अकारान्परस्य सः स्थाने सु हो स्सु इति त्रय आदेशा भवन्ति। जो गुण गोवह अप्पणा पयडा करह परस्सु। तसु हउं कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किजउं सुअणस्सु ॥ ॥३३८॥ . आमो हैं । ८.1४ । ३३९ । । । अपभ्रंशे अकारात्परस्यामो हमित्यादेशो भवति । तणहं सइबी भङ्गि नवि में अधड-पडि पसन्ति । अह जणु लाग्गे वि उत्तरइ अहसह सई भजन्ति । हुं चेदुद्भयाम् । ८॥ ४ । ३४०१ अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्यामो हुं हं चादेशौ भवतः। दइबु घडावह वणि तरुहुँ सउणिहं पक्क फलाई ।। सो वरि सुक्खु पट्ट गवि कण्णहिं खल-वयणाई। प्रायोधिकारात् क्वचित्सुपोपि हुँ। धवलु धिसूरइ सामिअहो गहना भरु पिक्खेधि । हउं कि न जुत्तउ दुई दिसिहि खण्डहं दोषिण करेवि ॥ ३४०॥ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१४] प्राकृतव्याकरणम् उसि-भ्यम्-डीनां हे-हुं-हयः । ८।४ । ३४१ । अपभ्रंशे इदुद्यां परेषां ङसि भ्यस ङि इत्येतेषां यथासंख्यं हे हुं हि इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । ङसेहैं । गिरिहे सिलायलु तरुहे फलु घेप्पइ नीसावन्नु ॥ घर मेल्लेप्पिणु माणुसहं तो वि न रुचइ रन्नु ॥ .. भ्यसो हुँ। तरुहुँ वि वक्कलु फलु मुणिवि परिहणु असणु लहन्ति । सामिहुं एत्तिउ अग्गलडं आयरु भिच्चु गृहन्ति ॥ .. डेहि । अह विरल-पहाउ जि कलिहि धम्मु ॥ ३४१ ॥ आट्टो णानुस्वारौ। ८।४ । ३४२। अपभ्रंशे अकारात्परस्य टावचनस्य णानुस्वारावादेशी भवतः ॥ दइएं पवसन्तेण ॥ ३४२ ॥ एं चेदुतः। ८ । ४ । ३४३ । अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्य टावचनस्य एंचकारात् णानुस्वारौ च भवन्ति ॥ एं। अग्गिए उण्हउ होइ जगु वाएं सीअलु तेव। जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उण्हत्तणु केव ॥ णानुस्वारौ। विप्पिअ-आरउ जइ वि पिउ तो वितं आणहि अज्जु । अग्गिण दड्ढा जइवि घर तो तें अग्गि कज्जु ॥ एवमुकारादप्युदाहाः ॥ ३४३ ॥ स्यम्-जसू-शसां लुक् । ८ । ४ । ३४४ । । अपभ्रंशे सि अम् जसू शसु इत्येतेषां लोपो-भवति ।। एइ ति घोडा एह थलि। इत्यादि। अत्र स्यम् जसा लोपः ॥ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृचिसहितम् [८१५] जिव जिव बंकिम लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइ । तिवँ तिवँ वम्महु निअय-सरु खर- पत्थरि तिक्खेइ || अत्र स्यम्शसां लोपः ॥ ३४४ ॥ षष्ठ्याः । ८ । ४ । ३४५ । अपभ्रंशे षष्ठया विभक्त्याः प्रायो लुग् भवति ॥ संगर-सएहिं जु वणिअह देक्खु अम्हारा कन्तु । अहमत्तहं चत्तङ्कुसहं गय कुम्भई दारन्तु ॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसारार्थः ॥ ३४५ ॥ आमन्त्र्ये जसो होः । ८ । ४ । ३४६ । अपभ्रंशे आमन्त्र्येर्थे वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसो हो इत्यादेशो भवति । लोपापवादः ॥ तरुणहो तरुणिहो मुणिउं मई करहु म अप्पहो घाउ ॥ ३४६ ॥ भिस्सुपोहिं । ८ । ४ । ३४७ । अपभ्रंशे भिस्सुपोः स्थाने र्हि इत्यादेशो भवति ॥ गुणहिं न संपइ कित्ति पर ।। सुप् । भाईरहि जिव भार मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टइ ॥ ३४७ ॥ स्त्रियां जस-शसोरुदोत् | ८ | ४ | ३४८ | अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसः शसश्च प्रत्येकमुदोतावादेशौ भवतः । लोपापवादौ ॥ जसः । अंगुलिउ जज्जरियाओ नहेण ॥ शसः । सुन्दर - सव्वङ्गाउ वि लासिणीओ पेच्छन्ताण ॥ वचनभेदान्न यथासंख्यम् ॥ ३४८ ॥ ट ए । ८ । ४ । ३४९ । अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्याष्टायाः स्थाने ए इत्यादेशो भवति ॥ Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१६] प्राकृतव्याकरणम् निअ-मुह करहिं वि मुद्ध कर अन्धारह पडिपेक्खइ । ससि मण्डल चन्दिमए पुणु काह न दूरे देक्खा ॥ जहिं मरगय-कन्तिए संवलिअं ॥ ३४९ ॥ ङस-उस्योहे । ८। ४ । ३५०। _____ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परयोस् उसि इत्या. तयोर्हे इत्यादेशो भवति ॥ उसः। तुच्छ-मझ्झहे तुच्छ-जम्पिरहे। तुच्छच्छ-रोमावलिहे तुच्छ-राय तुच्छयर-हासहे। पिय--वयणु अलहन्तिअहे तुच्छकाय-वम्मह-निवासहे॥ अन्नु जु तुच्छउं तहे घणहे तं अक्खणह न जाइ। कटरि थणंतरु मुद्धडहे जे मणु विचि ण माइ ॥ उसेः। फोडेन्ति जे हियडउं अप्पणउं ताहं पराई कवण घण। रक्लेजहु लोअहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण ॥३५०॥ भ्यसामोर्तुः । ८।४ । ३५१ । अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परस्य भ्यस आमच हु इत्यादेशो भवति ॥ भल्ला हुआ जु मारिआ बाहिणि महारा कन्तु । ' लज्जेवं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घर एन्तु । वयस्याभ्यो वयस्यानां वेत्यर्थः ॥ ३५१ ॥ हि । ८।४।३५२ । अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परस्य के सप्तम्येकवचनस्य हि इत्यादेशो भवति ॥ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ८१७ ] वायसु उड्डावन्तिए पिउ दिउ सहसन्ति । अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट तडति ॥ ३५२ ॥ जस - सोरिं । ८ | ४ | ३५३ | अपभ्रंशे क्लीबे वर्तमानान्नाम्नः परयोर्जस्· शसोः इं इत्यादेशो भवति ॥ कमलई मेल्लवि अलि· उलई करि- गण्डाई महन्ति । असुलहमेच्छण जाहं भलि ते गवि दूर गणन्ति ॥ ३५३ ॥ कान्तस्यात उं स्यमोः | ८ | ४ | ३५४ | ... " अपभ्रंशे क्लीवे वर्तमानस्य ककारान्तस्य नाम्नो योकारस्तस्य स्यमोः परयोः उं इत्यादेशो भवति ॥ अन्नु जु तुज्छ त धण || भग्गउं देक्खिवि निअय बलु बलु पसरिअउं परस्सु । उम्मिल्ल ससि - रेह जिवें करि करवालु पियस्सु || ३५४ || सर्वादेर्बसे । ८ । ४ । ३५५ | अपभ्रंशे सर्वादेरकारान्तात्परस्य ङसेह इत्यादेशो भवति ॥ जहां होन्तउ आगदो । तहां होन्तउ आगदो । कहाँ होन्तउ आगो ।। ३५५ ॥ किमो डि वा । ८ । ४ । ३५६ | अपभ्रंशे किमोकारान्तात्परस्य सेर्डिहे इत्यादेशो वा भवति ॥ जह तो तु नेहडा महं सहुं नवि तिल-तार । तं कि वङ्केहिं लोअणेहिं जोइज्जउं सय-वार ॥ ३५६ ॥ २०३ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१८] प्राकृतव्याकरणम् डेहि । ८ । ४ । ३५७ । अपभ्रंशे सर्वादेरकारान्तात्परस्य ः सप्तम्येकवचनस्य हिं इत्यादेशो भवति ॥ जहिं कपिजह सरिण सरु छिन्जइ खग्गिण खग्गु । तहिं तेहइ भड-घड़-निवहि कन्तु पयासइ मग्गु ।। एक्कहिं अक्विहिं सावणु अन्नहिं भद्दवउ । माहउ महिअल-सत्थरि गण्ड-स्थले सरउ ।। अङ्गिहिं गिम्ह सुहच्छी-तिल-वणि मग्गमिक । तहे मुद्धहे मुह-पङ्कइ आवामिउ सिसिरु । हिअडा फुदि तडत्ति करि कालक्खेवें काई । देक्ख हय-विहि कहिं ठवह पई विणु दुग्व-मगाई॥ ॥३५७ ॥ यत्तत्किभ्यो ङसो डासुन वा । ८ । ४ । ३५८ । अपभ्रंशे यत्तत्किम इत्येतेभ्योकारेन्तेभ्यः परस्य कुमो डासु इत्यादेशो वा भवति ॥ कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छई रूसइ जासु । अथिहिं सस्थिहिं हथिहिं वि ठाउवि फेडइ तासु ।। जीविउ कासु न वल्लहउं धणु पुणु कासु न इटु । दोणि वि अवसर-निवडिआई तिण-सम गणइ वि. सिटु ॥ ३५८ ॥ स्त्रियां डहे । ८ । ४ । ३५९ । अपभ्रंशे स्त्रीलिङ्गे वर्तमानेभ्यो यत्तत्किभ्यः परस्य उसो डहे इत्यादेशो वा भवति ।। जहे केरउ। नहे केरउ। कहे केरउ ॥ ३५९ ॥ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् १८१९] यत्तदः स्यमोंर्छ । ८ । ४ । ३६०। अपभ्रंशे यत्तदोः स्थाने स्यमोः परयोर्यथासंख्यं धुं त्रं इत्यादेशो वा भवतः ।। प्रगणि चिट्ठदि नाहु | त्रं रणि करदि न भ्रन्त्रि ।। पक्षे । तं बोल्लिअइ जु निव्वहइ ।। ३६० ।। इदम इमुः क्लीबे | ८ | ४ | ३६१ । अपभ्रंशे नपुंसकलिङ्गे वर्तमानस्येदमः स्यमोः परयो इमु इत्यादेशो भवति ॥ इमु कुलु तुह तणउं । इमु कुलु देवखु ॥ ३६१ ॥ एतदः स्त्री-पुं-क्लीबे एह एहो एहु ।८।४।३६२। अपभ्रंशे स्त्रियां पुंसि नपुंसके वर्तमानस्यैतदः स्थाने स्यमोः परयोर्यथासंख्यम् एह एहो एहु इत्यादेशा भवन्ति ।। एह कुमारी एहो नरु एहु मणोरह-ठाणु । एहउं वढ चिन्तन्ताहं पच्छइ होइ विहाणु ॥ ३६२ ॥ एइजेस-शसोः । ८ । ४ । ३६३ । अपभ्रंशे एतदो जसु-शसोः परयोः एइ इत्यादेशो भवति ॥ एइ ति घोडा एह थलि । एइ पेच्छ ॥ ३६३ ।। __ अदस ओइ । ८ । ४ । ३६४ । अपभ्रंशे अदसः स्थाने जसु-शसोः परयोः ओइ इत्यादेशो भवति ॥ जइ पुच्छह घर वड्डाई तो वड्डा घर ओइ। विहलिअ-जण अब्भुद्धरणु कन्तु कुडीरइ जोइ ॥ . अमूनि वर्तन्ते पृच्छ वा ॥ ३६४ ।। Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८२०] प्राकृतव्याकरणम् इदम आयः । ८।४ । ३६५ । अपनशे इदम्शवस्य स्यादौ अय इत्यादेशो भवति ॥ आयई लोअहो लोअणई जाई सरई न भन्ति। अप्पिए विदुई मलिअहिं पिए दिइ विहसन्ति । सोसउ म सोसउ चिअ उअही वडवानलस्स किं तेण । जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पजतं ॥ आयहो बड़-कलेवरहो जं वाहिउ तं सारु । उन्मइ तो कुहह अह डज्झइ तो छारु ॥ ३६५ ॥ सर्वस्य साहो वा । ८॥ ४ ॥ ३६६ । अपभ्रंशे सर्वशब्दस्य साह इत्यादेशो वा भवति ॥ साहु वि लोउ तडफडइ वडुत्तणहो तणेण। . वरपणु परिपाविअइ हथिं मोकलडेण । पक्षे । सन् वि ॥ ३६६ ॥ किमः काई-कवणौ वा । ८।४ । ३६७ । अपभ्रंशे किमा स्थाने काइं कवण इत्यादेशौ वा भवतः॥ जह न सु आवद दूइ घरु काई अहो-मुहु तुज्झु । वयणु जु खण्डह तउ सहि एसो पिउ होइ न मज्झु ॥ . काई न दूरे देक्खइ॥ फोडिन्ति जे हिअडङ अप्पणउं ताहं पराई कवण घण। रक्खेबहु लोअहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण ॥ सुपरिस करगुहे अणुहरहि भण कज्जे कवणेण। । जिव जिवं महत्तणु लहहिं तिव तिव नवहिं सिरेण.॥ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [ ८२१] जह. ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह | विहिं वि पयारेहिं गइअ धण किं गज्जहि खल मेह ॥ ३६७ ॥ युष्मदः सा तुहुं । ८ । ४ । ३६८ । अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तुहुं इत्यादेशो भवति ॥ भमरु म रुणझुण रण्णडइ सा दिसि जोइ म रोइ । सा मालइ देसन्तरिअ जसु तुहुं मरहि विओह ॥ ३६८|| जम् - शसोस्तुम्हे तुम्हई । ८ । ४ । ३६९ । अपभ्रंशे युष्मदो जसि शसि च प्रत्येकं तुम्हे तुम्हई इत्यादेशौ भवतः ॥ तुम्हे तुम्हई जाणह । तुम्हे तुम्हइं पेच्छइ ॥ वचनमेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ॥ ३६९ ॥ टाङमा पई तई । ८ । ४ । ३७० । अपभ्रंशे युष्मदः टा ङि अम इत्येतैः सह पई तई इत्यादेशौ भवतः ॥ टा । ' परं मुकावि वर-तरु फिल्इ पत्तत्तणं न पत्ताणं । तुह पुणु छाया जइ होज्ज कहवि ता तेहिं पत्तेहिं ॥ मुहु हिउं तई ताए तुहुं सवि अन्नं विनडिज्जइ । पिअ काई करउं हउं काई तुहुं मच्छें मच्छु गिलिजइ ॥ ङिना । परं महं बेहिं विरण-गयहिं को जयसिरि तक्केइ । सहिं लेप्णुि जम-घरिणि भण सुद्द को थक्केह ॥ एवं तई ॥ अमा । प मेलन्ति महु मरणु मई मेल्लन्तहो तुज्झु । सारस जसु जो वेग्गला सोवि कृदन्तहो सज्ज्ञु ॥ एवं तङ्कं ॥ ३७० ॥ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८२२] प्राकृतव्याकरणम् भिसा तुम्हेहिं । ८ । ४ । ३७१। अपभ्रंशे युष्मदो भिसासह तुम्हेहिं इत्यादेशो भवति॥ तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किअउं दिट्ठउं बहुअ-जणेण । तं तेवडउं समर-भरु निजिउ एक-खणेण ॥ ३७१ ॥ उसि-उस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र । ८।४ । ३७२ । अपभ्रंशे युष्मदो ङसिङस्भ्यां सह तउ तुज्झ तुध्र इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । तउ होन्तउ आगदो। तु. ज्झ होन्तउ आगदो । तुध्र होन्तउ आगदो ॥ ङसा। तउ गुण-संपइ तुझ मदि तुभ्र अणुत्तर खन्ति । जइ उप्पत्तिं अन जण महि-मंडलि सिक्खन्ति ॥३७२।। भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं । ८।४।३७३ । - अपभ्रंशे युष्मदो भ्यम् आम् इत्येताभ्यां सह तुम्हहं इत्यादेशो भवति ।। तुम्हहं होन्तउ आगदो। तुम्हहं केरउं घणु ॥ ३७३ ॥ तुम्हासु सुपा । ८।४ । ३७४ । अपभ्रंशे युष्मदः सुपा सह तुम्हासु इत्यादेशो भव. ति ॥ तुम्हासु ठिअं ।। ३७४ ॥ सावस्मदो हउँ। ८ । ४ । ३७५ । अपभ्रशे अस्मदा सौ परे हउं इत्यादेशो भवति । तसु हउं कलिजुगि दुल्लहहो ॥ ३७५ ॥ जस-शसोरम्हे अम्हई । ८।४।३७६ । । अपभ्रंशे अस्मदो जसि शसि च परे प्रत्येकम् अम्हे अम्हई इत्यादेशौ भवतः॥ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृतिसहितम् [ ८२३ ] अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम्ब भणन्ति । मुद्धि निहालहि गगण-यलु कइ जण जोण्ह करन्ति ॥ अम्बणु लाइव जे गया पहिअ पराया केवि । अवस न सुअहिं सुहच्छिअहिं जिवँ अम्हई तिवँ तेवि ॥ अम्हे देख | अम्हई देक्ख । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्यर्थः ॥ ३७६ ॥ टा-थमा मई | ८ | ४ | ३७७ । अपभ्रंशे अस्मदः दाङि अम् इत्येतैः सह मई इत्यादेशो भवति ॥ टा | मई जाणिउं पिअ विरहिअहं कवि घर होह विआलि । णवर मिअङ्कुवि हि तवह जिह दिणयरु खय-गालि ॥ डिना । परं मई बेहिं वि रण-गथाहिं ॥ अमा । मई मेल्लतो तुज् ॥ ३७७ ॥ अहिं भिसा | ८ | ४ | ३७८ । अपभ्रंशे अस्मदो भिसा सह अम्हेहिं इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किअउं ॥ ३७८ ॥ महु मज्झु ङसि - ङस्भ्याम् । ८ । ४ । ३७९ । अपभ्रंशे अस्मदो ङसिना इसा च सह प्रत्येकं महु मज्ज्ञु इत्यादेशौ भवतः ॥ महु होन्तउ गदो । मज्झु होत. उगो ॥ उसा । महु कन्तहो बे दोसडा हेल्लि म झङ्खहि आलु । देतहो हउं पर उब्वरिअ जुज्झन्तहो करवालु ॥ जह भग्गा पारक्कडां तो सहि मज्यु पिएण । अह भग्गा अम्हहं तणा तो तें मारिअडेण ॥। ३७९ ।। Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • [८२४] प्राकृतव्याकरणम् अम्हहं भ्यसाम्भ्याम् । ८ । ४ । ३८० । अपभ्रंशे अस्मदोभ्यसा अमा च सह अम्हहं इत्यादेशो भवति ॥ अम्हहं होन्तउ आगदो ॥ आमा ॥ अह भग्गा अम्हहं तणा ॥ ३८० ॥ सुपा अम्हासु । ८ । ४ । ३८१ । अपभ्रंशे अस्मदः सुपासह अम्हासु इत्यादेशो भवति । अम्हासु ठिअं॥ ३८१ ॥ त्यादेराद्य-त्रयस्य बहुत्वे हि न वा ।८।४।३८२। त्यादीनामाद्यत्रयस्य सम्बन्धिनो बहुष्वर्थेषु वर्तमानस्य वचनस्यापभ्रंशे हिं इत्यादेशो वा भवति ॥ मुह-कबरि-बन्ध तहे सोह धरहिं नं मल्ल-जमु ससि . . राहु करहिं । तहे सहहिं कुरल भमर-उल-तुलिअ नं तिमिर-डिम्भ खेल्लन्ति मिलिअ ॥ ३८२ ॥ मध्य-त्रयस्याद्यस्य हिः ।।४।३८३। त्यादीनां मध्यत्रयस्य यदायं वचनं तस्यापभ्रंशे हि इत्यादेशो वा भवति ॥ बप्पीहा पिउ पिउ भणवि कित्तिउ अहि हयास। तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुं वि न पूरिअ आस ॥ आत्मनेपदे। बप्पीहा कई बोल्लिओण निग्धिण वार इ वार ।। सायरि भरिअह विमल-जलि लहहि न एकइ धार । सप्तम्याम् । Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [८२५] आयहिं जम्महि अगर्हि वि गोरि सुदिजहि कन्तु । गय मत्तहं चत्तंकुसहं जो अभिडइ हसन्तु ॥ पक्षे । रुअसि । इत्यादि ॥ ३८३ ॥ बहुत्वे हुः। ८।४ । ३८४ । . त्यादीनां मध्यमत्रयस्य संबन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमान यद्वचनं तस्यापभ्रंशे हु इत्यादेशो वा भवति ॥ बलि अन्भत्थणि महु-महणु लहुईहूआ सोह। जइ इच्छहु वहुत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ ॥ पक्षे। इच्छह । इत्यादि ॥ ३८४ ॥ अन्त्य-त्रयस्याद्यस्य उं। ८।४। ३८५। त्यादीनामन्त्यत्रयस्य यदाचं वचनं तस्यापभ्रंशे उं इत्यादेशो वा भवति ॥ विहि विनडउ पीडन्तु गह मं धणि करहि विसाउ। संपइ कड्ढउं वेसं जिवं छुड्डु अग्घह ववसाउ ॥ पलि किजउं सुअणस्सु ॥ पक्षे । कड्ढामि । इत्यादि । बहुत्वे हुँ । ८।४ । ३८६ । त्यादीनामन्त्यत्रयस्य संवन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं तस्य .हुं इत्यादेशो वा भवति ॥ खग्ग-विसाहिउ जहिं लहुं पिय तहिं देसहिं जाहुं। रण-दुभिक्खें मग्गाई विणु जुज्झें न वलाहुं ॥ पक्षे । लहिमु । इत्यादि । ३८६ ॥ हि-स्वयोरिददेत् । ८।४ । ३८७ । पञ्चम्या हिस्वयोरपनशे इ उ ए इत्येते त्रय आदेशा घा भवति ॥ इत्। १०४ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८२६] प्राकृतव्याकरणम् कुञ्जर सुमरि म सल्लइउ सरला सास म मेल्लि। कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरिमाणु म मेल्लि॥ . उत्। भमरा एत्थु विलिम्बडइ केवि दियहडा विलम्बु । घण-पत्तल छाया-बहुल फुल्लइ जाम कयम्बु ॥ प्रिय एम्बहिं करे सेल्लु करि छड्डहि तुहुं करवालु । जं कावालिय बप्पुडा लेहिं अभग्गु कवालु । पक्षे। सुमरहि । इत्यादि ॥ ३८७ ॥ वय॑ति-स्यस्य सः। ८।४ । ३८८। अपभ्रंशे भविष्यदर्थविषयस्य त्यादेःस्यस्य सोवा भवति॥ दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि । जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि ॥ पक्षे। होहिइ ॥ ३८८ ।। .. क्रियेः कीसु । ८ । ४ । ३८९ । क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्यापभ्रंशे कीसु इत्यादेशो वा भवति॥ सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कन्तहो बलि कीसु। तसु दइवेण वि मुण्डियउं जसु खल्लिहडउं सीसु.॥ पक्षे। साध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृतशब्दादेष प्रयोगः । बलि किजउं सुअणस्सु ॥ ३८९ ॥ भुवः पर्याप्तो हच्चः। ८।४ । ३९० । - अपग्रंशे भुवो धातोः पर्याप्तावर्थे वर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशो भवति ॥ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपत्रवृत्तिसहितम् [८२७] • आत्तुंगत्तणु जं थणहं सो च्छेयउ न हु लाहु। .. सहि जइ केवइ तुडि-वसेण अहरि पहुच्चइ नाहु ॥३९०॥ बगो ब्रा वा । ८।४ । ३९१ । अपभ्रंशे गो धातोर्बुव इत्यादेशो वा भवति ॥ ब्रुवह सुहासिउ कि पि ॥ पक्षे। इत्तउं ब्रोप्पिणु सउणि हिउ पुण दूसासणु ब्रोप्पि । तो हउं जाणउंएहो हरि जइ महु अग्गइब्रोप्पि ॥३९१॥ बजेषुञः। ८।४ । ३९२ । अपभ्रंशे बजतेर्धातोवुन इत्यादेशो भवति ॥ बुझाइ । बुजेप्पि । वुप्पिणु ॥ ३९२ ।। दृशेः प्रस्सः । ८।४ । ३९३ । - अपभ्रंशे शेर्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति ।। प्रस्सवि ॥ ३९३॥ - ग्रहेण्हः । ८।४। ३९४ ।..... .. अपभ्रंशे ग्रहे(तोगुण्ह इत्यादेशो भवति॥पढ गण्हे. पिणु व्रतु ॥ ३९४ ॥ ... तक्ष्यादीनां छोल्लादयः । ८।४ | ३९५। . अपभ्रंशे तक्षिप्रभृतीनां धातूनां छोल्ल इत्यादय आ. देशा भवन्ति ॥ जिय तिव तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोल्लिज्जन्तु। .. तो जइ गोरिहे मुह-कमलि सरिसिम कावि लहन्तु ॥ आदिग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलभ्यन्ते ते उदाहार्याः॥ Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२८] प्राकृतव्याकरणम् चूडल्लड चुपणीहोइसह मुद्धि कवोलि निहित्तउ। सासानल-जाल झलक्किअउ वाह-सलिल-संसित्तउ ॥ . अन्भडवंचिउ बे पयहं पेम्मु निअत्तइ जावें । सव्वासण-रिउ-संभवहो कर परिअत्ता ताव ॥ हिअइ खुडुक्कइ गोरडी गयणि घुडुका मेहु । वासा-रत्ति-पवासुअहं विसमा संकडु एहु ॥ . अम्मि पओहर वजमा निच्चु जे संमुह थन्ति । महु कन्तहो समरङ्गणइ गय-घड भजिउ जन्ति । पुत्तें जाएं कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुएण। ..या बप्पीकी मुंहडी चम्पिजइ अवरेण ॥ तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवडु विस्थार। तिसहे निवारणु पलुवि नविपर धुडुअइ असारु ॥ ... ॥ ३९५॥ अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां ग-च-द-ध-ब-भाः । ८ । ४ | ३९६ । अपभ्रंशेऽपदादौ वर्तमानानां स्वरात्परेषामसंयुक्तानां कखतथपफां स्थाने यथासंख्यं गघदघवभाः प्रायो भवन्ति ॥ कस्य गः। जं दिवढं सोम रगहणु असइहिं हसिउ निसङ्कु । पिअ-माणुस-विच्छोह-गरु गिलिगिलि राहु मयफू॥ खस्य घः। अम्मीएं सत्थावत्थेहिं सुघि चिन्तिबह माणु । पिए विढे हलोहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ तथपफानां दधषभाः। Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपचिसहितम् [८२९] सवधु करेप्पिणु कधिदु मइंतसुपर सभलउं जम्मु । जासु न चाउ न चारहडि न य पम्हहउ धम्मु॥ अनादाविति किम् । सवधु करेप्पिणु। अत्र कस्य गत्वं न भवति ॥ स्वरादिति किम् । गिलिगिलि राहु मया ॥ असंयुक्तानामिति किम् । एकहिं अक्खिहि सा. बणु ॥ प्रायोधिकारात्कचिन्न भवति । जइ केवइ पावीसु पिउ अकिआ कुड करीसु। पाणीउ नवइ सरावि जिव सव्वले पइसीसु ।। उअ कणिआरु पफुल्लिअउ कञ्चण कन्ति-पयासु। गोरी-वयण-विणिजिअउ नं सेवइ वण वासु ॥३९६॥ मोनुनासिको वो वा । ८।४ । ३९७ । । अपभ्रंशेऽनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य मकारस्य अनु. नासिको वकारो वा भवति ॥ कवलु कमलु । भवरु भमरु ।। लाक्षणिकस्यापि । जिव । तिव । जे । ते ॥ अनादावि त्येव । मयषु ।। असंयुक्तस्येत्येव । तमु पर सभलउ जम्मु ॥ ३९७॥ वाघो रो लुक् । ८।४ । ३९८ । अपभ्रंशे संयोगादधो वर्तमानो रेफोलुम्वा भवति ।। जइ केवइ पावीसु पिउ ॥ पक्षे । जइ भग्गा पारकडा तो सहि मज्य प्रियेण ॥ ३९८ ॥ .. अभूतोपि क्वचित् । ८।४ । ३९९ । अपभ्रंशे कचिदविद्यमानोपि रेफो भवति ॥ बासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइ-सत्थु पमाणु । मायहं चलण नवन्ताहं दिवि दिनि गङ्गा-हाणु ॥ Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३०] प्राकतव्याकरणम् कचिदिति किम् । वासेण वि भारह खम्भि बद्ध ॥ ३९९ ॥ आपदिपत्पंपदां द इः। ८।४ । ४००। अपभ्रंशे आपद् विपद् संपद् इत्येतेषां दकारस्य इकारो भवति ॥ अनउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ । विवइ । संपइ ।। प्रायोधिकारात् । गुणहिं न संपय कित्ति पर ॥ ४०० ॥ कथं यथा-तयां थादेरेमेमेहेधा डित ।८।४।१०१। __ अपभ्रंशे कथं यथा तथा इत्येतेषां थादेवयवस्य प्रत्येकम् एम इम इह इध इत्येते डितश्चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ केम समप्पउ दुटु दिशु किध रयणी छुडु होइ । नव-वहु-दसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ ॥ ओ गोरी-मुह-निजिअउ वदलि लुक्कुमियङ्क । अन्नु वि जो परिहविय-तणु सो किव भवइ निसङ्ख ॥ बिम्बाहरि तणु रयण-चणु किह ठिउ सिरिआणन्द । निरुवम-रसु पिएं पिअवि जणु सेसहो दिण्णी मुद्द ।। भण सहि निहुअउं तेवं मई जइ पिउ विठु सदोस्। जे न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअंतासु॥ जिव जिव वकिम लोअणहं ॥ तिव तिवँ वम्महु नि. अय-सर ॥ मई जाणिउ प्रिय विरहिअहं कवि घर होइ विआलि । नवर मिअमुवि तिह तवह जिह दिणयह खय-गालि ॥ एवं तिध-जिधावुदाहायौँ । ४०१ ॥ Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८३१] . याहक्ताहकोहगीदृशां दादेहः ।।४।४०२। अपभ्रंशे याहगादीनां दादेरवयवस्य डित एह इत्यादेशो भवति ॥ महं भणिअउ बलिराय तुहं केहउ मग्गण एहु॥ — जेहु तेहु नवि होइ वढ सहं नारायणु एहु ।। ४०२ ॥ अतां डइसः । ८।४। ४०३ । अपभ्रंशे याहगादीनामदन्तानां याहशताहशकीदृशेदृशानां दादेरवयवस्य डित् अइस इत्यादेशो भवति । जइसो । तहसो । कइसो । अइसो ॥ ४०३ ॥ यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेत्यत्तु । ८।४। ४०४ । अपभ्रंशे यत्रतत्रशब्दयोस्त्रस्य एत्थु अत्तु इत्येतो डितो भवतः॥ .. जह सो घडदि प्रयावदी केत्थु पि लेप्पिणु सिक्खु। जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सारिक्खु ॥ जत्तु ठिदो । तत्तु ठिदो ।। ४०४ ॥ एत्थु कुत्रात्रे । ८।४।४०५। . अपभ्रंशे कुत्र अत्र इत्येतयोस्त्रशब्दस्य डित् एत्यु इत्यादेशो भवति ॥ - केत्थु वि लेपिणु सिक्खु । जेत्थु वि तेत्थु वि एत्यु जगि ॥ ४०५॥ यावत्तावतोर्वादेर्म उं महि। ८ । ४।४०६ । अपभ्रंशे यावत्तावदित्यव्यययोर्वकारादेरवयवस्य म ७ महिं इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति ॥ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३२] प्राकृतव्याकरणम् जाम न निवडइ कुम्भ-पडि सीह-चवेड-बडक । ताम समत्तहं मयगलहं पह-पइ वजह ढक ॥ तिलहं तिलत्तणु ताउं पर जाउं न नेह गलन्ति । नेहि पणइ तेजि तिल तिल फिवि खल होन्ति । जामहिं विसमी काज-गई जीवहं मज्झे एइ । तामहिं अच्छउइयरुजणु सु-अणुवि अन्तर देइ ॥४०६॥.. वा यत्तदोतोवडः । ८।४ । ४०७ । अपभ्रंशे यद् तद् इत्येतयोरत्वन्तयोर्यांवत्तावतोर्वकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति ।। जेवडु अन्तर रावण-रामहं तेवडु अन्तरु पट्टण-गामहं ॥ पक्षे । जेत्तुलो । तेत्तुलो ॥ ४०७ ॥ वेदं-किमोर्यादेः । ८।४।४०८।। अपभ्रंशे इदम् किम् इत्येतयोरत्वन्तयोरियत्कियतोर्य. कारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति ॥ एवडु अन्तरु । केवडु अन्तरु ॥ पक्षे । एत्तुलो। केत्तुलो ॥४०॥ परस्परस्यादिरः । ८।४ । ४०९ । अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति । ते मुग्गडा हराविआ जे परिविटा ताई। अवरोप्परु जोअन्ताहं सामिउ गजिउ जाहं ॥४०९॥ कादि-स्थैदोतोरुचार-लाघवम् । ८ । ४ । ४१०। अपभ्रंशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयोरे ओ इत्येतयोरु. च्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति ॥ ..सुघे चिन्तिब्रहमाणु॥तसु हउं कलि-जुगि दुलहहो ॥४१०॥ Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपनवृत्तिसहितम् [८३३) पदान्ते उ-हुं-हि-हंकाराणाम् । ८ । ४।४११ । अपभ्रंशे पदान्ते वर्तमानानां उं हुं हिं हं इत्येतेषां उच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति ॥ अन्नु जु तुच्छउं तहे घणहे। बलि किजउं सुअणस्सु ॥ दइउ घडावइ वणि तरुहुं॥ तरहुं वि वकलु । खग्ग-विसाहिउ जहिं लहहुं॥ तणहं तइज्जी भङ्गि नवि ॥ ४११ ।। म्हो म्भो वा । ८।४।४१२ । अपभ्रंशे म्ह. इत्यस्य स्थाने म्भ इति मकाराकान्तो भकारो वा भवति ॥ म्ह इति "पक्ष्म-श्म-हम-स्म-मां म्हः " (८-२-७४) इति प्राकृतलक्षणविहितोत्र गृह्यते। संस्कृते तदसंभवात् । गिम्भो । सिम्भो॥ वम्भ ते विरला के वि नर जे सव्वङ्ग-छइल्ल । जे वडा ते वञ्चयर जे उज्जुअ ते बइल्ल ॥ ४१२ ॥ .. . अन्याहशोन्नाइसावराइसौ । ८।४ । ४१३ । अपभ्रंशे अन्याशशब्दस्य अन्नाइस अवराइस इत्या. देशौ भवतः ॥ अन्नाइसो। अवराइसो ॥ ४१३ ॥ प्रायसःप्राउ-प्राइव-प्राइम्व-पग्गिम्वाः ४४१४ । अपभ्रंशे प्रायस् इत्येतस्य प्राउ प्राइव प्राइम्व पग्गि. म्ब इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति । अन्ने ते दीहर लोअण अन्नु तं भुअ-जुअलु । अन्नु सु घण-हारु तं अन्नु जि मुह-कमलु ॥ अन्नु जि केस कलावु सु अन्नु जि प्राउ विहि । जेण णिअम्बिणि घडिअ स गुण लायण्ण-णिहि ।। १०५ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८३४ ] प्राकृतव्याकरणम् प्राइव मुणिहं वि भन्तडी तें मणिअडा गणन्ति । अवर निरामइ परम पर अज्ज वि लउ न लहन्ति ॥ अंसु-जलें प्राइम्ब गोरिअहे सहि उब्बत्ता नयण सर । तें सम्मुह संपेसिआ देन्ति तिरिच्छी घत्त पर एसी पिउ रूसेसु हउं रुट्ठी महं अणुणे । परिगम्व एह मणोरहई दुक्करु दहउ करेह || ४१४ ॥ वान्यथोनुः | ८ | ४ | ४१५ । अपभ्रंशे अन्यथाशब्दस्य अनु इत्यादेशो वा भवति ॥ विरहानल - जाल - करालिअउ पहिउ कोवि बुडिवि ठिअओ । अनु सिसिर-कालि सअल - जलहु मु कहन्तिहु उट्ठिअओ ॥ पक्षे । अन्नह ॥ ४१५ ॥ कुतः कउ कहन्तिहु । ८ । ४ । ४१६ । अपभ्रंशे कृतशब्दस्य कउ कहन्तिहु इत्यादेशौ भवतः ॥ महु कन्तहो गुट्ठ-ट्ठिअहो कउ झुपड़ा बलन्ति 1 अह रिउ - रुहिरें उल्हवइ अह अप्पर्णे न भन्ति ॥ धूमु कहन्तिहु उट्ठिअओ ॥ ४१६ ॥ ततस्तदोस्तोः । ८ । ४ । ४१७ । अपभ्रंशे ततस् तदा इत्येतयोस्तो इत्यादेशो भवति ॥ जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पियेण । अह भग्गा अम्हहं तणा तो तें मारिअडेण ॥ ४१७ ।। एवं - परं - समं - ध्रुवं - मा-मनाक एम्व पर समाणु भ्रुवु मं मणाउं | ८ | ४ | ४१८ | । अपभ्रंशे एबमादीनां एम्वादय आदेशा भवन्ति ॥ एवम एव । Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपशवृत्तिसहितम् [८३५] पिय-संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व । मई विनि वि विनासिआ निद्द न एम्ब न तेस्त्र । परमः परः । गुणहि न संपय कित्ति पर ।। सममः . समाणुः। कन्तु जु सीहहो उवमिअइ सं महु खण्डिउ माणु। सीहु निरक्खय गय हणइ पिउ पय-रक्ख-समाणु ॥ ध्रुवमो ध्रुवुः। चश्चलु जीविउ ध्रुवु मरणु पिअरूसिजइ काई। होसई दिअहा रूतणा दिव्वई वरिस-सयाई । मी मं। मं धणि करहि विसाउ॥ प्रायोग्रहणात्। माणि पणइ जह न तणु तो देसडा चइज । .. मा दुजणं-कर-पल्लवेहि देसिज्जन्तु भमिज ॥ लोणु विलिज्जइ पाणिएण अरि खल मेह म गज्जु ।। बालिउ गलह सुझुम्पडा गोरी तिम्मइ अज्जु ॥ मनाको मणाउं॥ विहवि पणहह वङ्गुडउ रिद्धिहि जण-सामन्नु । कि पि मणाउं महुपिअहो ससि अणुहरइ न अन्नु ॥४१८॥ किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवे सई . नाहिं। ८।४। ४१९ । . अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति । किलस्य किरः॥ किर खाइ न पिअह न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअउउ । इह किवणु न जाणइ जइ जमहो खणेण पहुचइ अडउ ।। अथवोहवइ । अहवह न सुवंसहं एह खोडि ।। मायोधि. . Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३६] प्राकृतव्याकरणम् जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु । जह आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु ॥ दिवो दिवे । दिविदिवि गङ्गा प्रहाणु। सहस्य सहुं। जउ पवसन्ते सहुं न गयअ न मुअ विओएं तस्सु । लज्जिज्जह संदेसडा दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु ॥ नहेर्नाहीं। एत्तहे मेह पिअन्ति जलु एत्तहे वडवानल आवइ । पेक्खु गहीरिम सायरहो एकवि कणि नाहिं ओहद्दइ॥ ॥४१९॥ पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतमः पच्छइ एम्बइ जि एम्वहिं पञ्चलिउ एत्तहे। ८ । ४ । ४२० । अपभ्रंशे पश्चादादीनां पच्छह इत्यादय आदेशा भवन्ति ॥ पश्चातः पच्छई। पच्छइ होइ विहाणु। एवमेवस्य एम्वइ । एम्वइ सुरउ समत्तु ॥ एवस्य जिः। जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खडं कइ पय देइ । हिअइ तिरिच्छी हर्ष जि पर पिउ डम्बरई करेइ ॥ इदानीम एम्वहिं। हरि नचाविउ पङ्गणइ विम्हइ पाडिउ लोउ । एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ। प्रत्युतस्य पञ्चलिउ। साव-सलोणी गोरडी नक्खी कवि विस-गण्ठि । भडु पचलिउ सो मरइ जासु न लग्गइ कण्ठि ॥ इतस एत्तहे । एत्तहे मेह पिअन्ति जल ॥ ४२० ॥ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८३७] विषण्णोक्तवर्मनो वुन्न-वुत्त-विचं।८।४। ४२१ । ___अपभ्रंशे विषण्णादीनां वुन्नादय आदेशा भवन्ति ॥ विषण्णस्य वुन्नः। मई वुत्तउं तुहुं धुरु धरहि कसरेहिं विगुत्ताई। पई विणु धवल न चडइ भरु एम्बइ उन्नउ काई ॥ उक्तस्य वुत्तः। मई वुत्तउं। वमनो विचः। जमणु विचि न माइ ॥ ४२१ ।। शीघ्रादीनां वहिल्लादयः। ८।४ । ४२२ । अपभ्रंशे शीघ्रादीनां वहिल्लादय आदेशा भवन्ति ॥ एक्कु कइअ ह वि न आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि । मई मित्तडा प्रमाणिअउ पई जेहउ खलु नाहिं ॥ झकटस्य घडलः। जिव सुपुरिस तिव घालई जिव नइ तिव वलणाई । जिव डोगर तिव कोहरई हिआ विसूरहि काई । अस्पृश्यसंसर्गस्य विद्यालः। जे छडेविणु रयणनिहि अप्पउं तडि घल्लन्ति । तहं सङ्घहं विद्यालु परु फुक्किनन्त भमन्ति । भयस्य द्रवकः। दिवेहि विढत्तउं खाहि वढ संचि म एक्कु वि द्रम्मु । कोवि द्रवकउ सो पडह जेण समप्पड जम्मु ॥ आत्मीयस्य अप्पणः । फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं॥ हष्टेट्टैहिः । एकमेकउं जइ विजोएदिह रिसुठु सब्वायरेण । तो वि जहिं कहिंवि राही । को सका संवरेवि दडूढ-नयणा नेहि पलुहा॥ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३८] प्राकृतव्याकरणम् गाढस्य निचहः । विहवे कस्सु थिरत्तणउं जोव्वणि कस्सु मरट्टु । सो लेखडउ पगविअइ जो लग्गइ निच्च१ ॥ असाधारणस्य सड्ढलः। कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहि परिहिणु कहिं मेहु। . दूर ठिआहं वि सज्जणहं होइ असलु नेहु ॥ कौतुकस्य कोडुः। कुञ्जरु अनहं तरु-अरहं कुडेण घल्लइ हत्यु। मणु पुणु एकहि सल्लहहिं जइ पुच्छह परमत्थु ॥ क्रीडायाः खेडः। खेड्यं कयमम्हेहिं निच्छयं किं पयम्पह । अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामि ॥ रम्यस्य रवण्णः। सरिहिं न सरेहि न सरवरेहि नवि उजाण-वणेहिं । देस रवण्णा होन्ति वढ निवसन्तेहिं सु-अणेहि ॥ अद्भुतस्य ढक्करिः। हिअडा पइ एहु बोल्लिअओ महु अग्गइ सय-वार । फुट्टिसु पिए पवसन्ति हउँ भण्डय ढकरि-सार ॥ __ हेसखीत्यस्य हेल्लिः । हेल्लि म झसहि आलु ॥ पृथ. क्पृथगित्यस्य जुअंजुः॥ एक कुडुल्ली पञ्चहिं रुद्धी तहं पञ्चहं वि जुअंजुअ बुद्धी । बहिणुए तं घरु कहि किव नन्दउ जेत्थु कुडुम्बड अ. प्पण-छन्दउं । मूढस्य नालिअ-वढौ ॥ जो पुणु मणि जि खसफसिहूअउ चिन्ता देई न दम्म न अउ। Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृचिसहितम् [ ८३९ ] रहवस- भमिरु करग्गुल्लालिउ घरहि जि कोन्तु गुणइ सो नालिउ ॥ दिवेहिं वित्तउं खाहि वढ || नवस्य नवखः । नवखी कवि विसगण्ठि || अवस्कन्दस्य दडवडः । चलेहिं चलन्तेहिं लोअणेहिं जे तई दिट्ठा बालि । तर्हि मयरद्धय - दडवडउ पडइ अपूरइ कालि ॥ यदेश्छुडुः । छुडु अग्घइ ववसाउ | सम्बन्धिनः केर-तणौ ॥ उ केसरि पिअहु जलु निच्चिन्तरं हरिणाई || सु जसु केरएं - हुंकारडएं मुहुं पडन्ति तृणाई || अह भग्गा अम्हहं तणा ॥ मा भैषीरित्यस्य मन्भीसेति स्त्रीलिङ्गम् । A सत्थावत्थं आलवणु साहु वि लोउ करेइ । आदन्नहं मन्भीसडी जो सज्जणु सो देइ || यच दृष्टं तत्तदित्यस्य जाइंट्ठआ । जइ रचसि जाइट्टिए हिअडा मुद्ध-सहाव ! लोहें फुणएण जिवँ घणा सहेसइ ताव ।। ४२२ ॥ हुहरु - घुग्घादय शब्द - चेष्टानुकरणयोः | ८|४ |४२३ ॥ अपभ्रंशे हुहुर्वादयः शब्दानुकरणे घुग्घादद्यश्रेष्ठानुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः ॥ महं जाणिउं बुडीसु हउं पेम्म-द्रहि हुहुरु त्ति । नवर अचिन्तिय संपडिय विप्पिय नाव झडत्ति ॥ आदिग्रहणात् । खज्जइ नउ कसरकेहिं पिज्जा नउ घुण्टेहिं । एम्बर होइ सुहच्छडी पिएं दिट्ठे नयणेहिं ॥ इत्यादि ॥ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४०] प्राकृतव्याकरणम् अववि नाहु महुजि घरि सिद्धत्था वन्देइ । ताउंजि विरहु गवक्खेहि मकड-घुग्घिउ देइ ॥.. आदिग्रहणात् । सिरि जर-खण्डी लोअडी गलि मणियडा न वीस । तोवि गोहडा कराविआ मुद्धए उहबईस । इत्यादि ॥ ४२३ ॥ घइमादयोनर्थकाः । ८।४ । ४२४ । अपभ्रंशे घइमित्यादयो निपाता अनर्थकाः प्रयुज्यन्ते॥ अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि । घई विवरीरी बुद्धडी होई विणासहो कालि ॥ आदिग्रहणात खाई इत्यादयः ॥ ४२४ ॥ तादर्थे केहि-तेहिं रेसि-रेसिं-तणेणाः ।।४।४२५। __ अपभ्रंशे तादर्से द्योत्ये केहि रेसि रेसिं तणेण इत्येते पश्च निपाताः प्रयोक्तव्याः॥ . ढोल्ला एह परिहासडी अइभ न कवणहिं देसि। हउं झिज्जउं तउ केहि पिअ तुहं पुणु अनहि रेसि ।। एवं तेहिं रेसिमावुदाहायौँ । वहुत्तणहो तणेण ॥ ४२५ ।। पुनर्विनः स्वार्थे डुः । ८।४। ४२६ । । अपभ्रंशे पुनर्विना इत्येताभ्यां परः स्वार्थे डुः प्रत्ययो भवति ॥ सुमरिजइ तं वल्लहउ जं वीसरइ मणाउं । जहिं पुणु सुमरणु जाउं गउं तहो नेहहो कई नाउं॥ विणु जुज्झें न बलाहुं ॥ ४२६ ॥ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञचिसहितम् [८४१] अवश्यमो डें-डौ। ८ । ४ । ४२७ । अपभ्रंशेऽवश्यमः स्वार्थे डें ड इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः ।। जिन्भिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिनई अन्नई। मूलि विणइ तुंबिणिहे अवसे सुक्कई पण्णई ॥ अवस न सुअहिं सुहच्छिअहिं ॥ ४२७ ॥ . एकशसो डिः । ८।४ । ४२८ । अपभ्रंशे एकशश्शब्दात्स्वार्थे डिर्भवति ॥ एकसि सील-कलंकिअहं देजहिं पच्छित्ताई । जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु तसु पच्छित्ते काई ॥४२८॥ अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक क लुक् च । ८।४ । ४२९ । अपभ्रंशे नाम्नः परतः स्वार्थे अ डड डल्ल इत्येते त्रयः प्रत्यया भवन्ति तत्सन्नियोगे स्वार्थे कप्रत्ययस्य लोपश्च । विरहानल-जाल-करांलिअउ पहिउ पन्थि जे दिवउ । तं मेलवि सव्वहिं पन्धिअहिं सोजि किअउ अग्गिट्ठ॥ डड । महु कन्तहो बे दोसडा ॥डुल्ल । एक कुडल्ली पश्चहिं . रुद्धी ॥ ४२९ ॥ योगजाश्चैषाम् । ८ । ४ । ४३० । __अपभ्रंशे अडडडुल्लानां योगमेदेभ्यो पे जायन्ते डड इत्यादयः प्रत्ययास्तेपि स्वार्थे प्रायो भवन्ति ॥ डडअ । फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं । अत्र “किसलय". (८-१-२६९) इत्यादिना यलुकू । डल्लअ । चुडुल्लड धुन्नीहोइसइ ॥ डुल्लडड। सामि-पसाउ सलज्जु पिउ सीमा-संधिहि वासु। पेक्खिवि बाह-बलुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु ॥ १०६ Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४२] प्राकृतव्याकरणम् अत्रामि "स्यादौ दीर्घ--हस्वौ” (८-४-३३० ) इति दीर्घः ॥ एवं बाहुषलुल्लडउ । अत्र त्रयाणां योगः ॥४३०॥ स्त्रियां तदन्ताडीः । ८ । ४ । ४३१ । अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानेभ्यः प्राक्तनसूत्रद्वयोक्तप्रत्यः यान्तेभ्यो डी प्रत्ययो भवति ॥ पहिआ दिट्ठी गोरडी दिही मग्गु निअन्त । अंसूसासेहिं कञ्चुआ तितुव्वाण करन्त ॥ एक कुडल्ली पञ्चहि रुद्धी ॥ ४३१ ॥ आन्तान्ताड्डाः । ८ । ४ । ४३२ । अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानादप्रत्ययान्तप्रत्ययान्तात् डाप्रत्ययो भवति । डयपवादः ॥ पिउ आइंउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठ । तहो विरहहो नासन्तअहो धूलडिआ वि न विट्ठ ॥४३२॥ अस्येदे । ८ । ४ । ४३३ । __ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानस्य नानो योकारस्तस्य आकारे प्रत्यये परे इकारो भवति ॥ धूलडिआ वि न दिछ । लियामित्येव । झुणि कन्नडइ पइट्ट ।। ४३३ ॥ युष्मदादेरीयस्य डारः । ८ । ४ । ४३४ । __ अपभ्रंशे युष्मदादिभ्यः परस्य ईयप्रत्ययस्य डार इत्यादेशो भवति ॥ संदेसें काई तुहारेण जं सङ्गहो न मिलिजइ। सुइणन्तरि पिएं पाणिएण पिअ पिआस किं छिज्जइ ॥ विक्खि अम्हारा कन्तु । बहिणि महारा कन्तु ॥४३४॥ Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JI स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् [८४३] अतोतुलः । ८ । ४ । ४३५। अपभ्रंशे इदंकिंयत्तदेतद्भयः परस्य अतोः प्रत्ययस्य उत्तुल इत्यादेशो भवति ॥ एत्तुलो। केत्तुलो। जेत्तुलो। तेत्तुलो । एत्तुलो ॥ ४३५ ॥ त्रस्य उत्तहे। ८ । ४ । ४३६ । अपभशे सर्वादेः सप्तम्यन्तात्परस्य प्रत्ययस्य डेतहे इत्यादेशो भवति ॥ एत्तहे तेत्तहे वारि घरि लच्छि निसण्ठुल धाइ । पिअ-पन्भट्ट व गोरडी निच्चल कहिं वि न ठाइ ॥४३६।। त्व-तलोः प्पणः । ८।४। ४३७ । अपभ्रंशे त्वतलोः प्रत्यययोः पण इत्यादेशो भवति॥ वहुप्पणु परिपाविअइ ॥ प्रायोऽधिकारात् । वहत्तमहो तणेण ॥ ४३७॥ तव्यस्य इएव्वउं एठवडे एवा । ८ । ४ । ४३८ । अपभ्रंशे तव्यप्रत्ययस्य इएव्वउं एव्वउं एवा इत्येते प्रय आदेशा भवन्ति ॥ एउ गृहेप्पिणु धुं मई जइ प्रिउ उब्वारिजइ । महु करिएव्वउं किं पि णवि मरिएव्वउं पर देजइ ॥ देसुच्चाडणु सिहि-कढणु घण-कट्टणु जं लोइ । मंजिट्ठए अइरत्तिए सव्वु सहेव्य होइ॥ .. सोएवा पर वारिआ पुष्फबईहिं समाणु । जग्गेवा पुणु को धरइ जइ सो वेउ पमाणु ॥ ४३८ ॥ क्व इ-इउ-इवि-अवयः । ८ । ४ । ४३९ । अपभ्रंशे क्त्वाप्रत्ययस्य इ इउ इवि अवि इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥इ। .. ........ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४४] प्राकृतव्याकरणम् हिअडा जइ वेरिअ घणा तो कि अग्भि चडाई । अम्हाहिं थे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं । इल।गय-घड भजिउ जन्ति ।। इति । रक्खह सा विस-हारिणी बे कर चुम्बिवि जीउ । पडिविम्बिअ-मुंजालु जलु जेहिं अहोडिउ पीउ। अवि। बाह विछोडवि जाहि तुहं हडं तेवइ को दोसु । हिअय-ट्ठिउ जइ नीसरहि जाणउं मुञ्ज स रोसु ॥३९॥ एप्प्येप्पिण्वेव्येविणवः । ८ । ४ । ४४०। - अपभ्रंशे क्त्वाप्रत्ययस्य एप्पि एप्पिणु एवि एविषु इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ।। जेप्पि असेसु कसाय-बलु देप्पिणु अभउ जयस्सु । लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविणु तत्तस्सु ॥ पृथग्योग उत्तरार्थः ।। ४४० ॥ तुम एवमणाणहमणहिंच । ८।४।४४१ । अपभ्रंशे तुमः प्रत्ययस्य एवम् अण अणहम् अणहिं इत्येते चत्वारः । चकारात् एप्पि एप्पिणु एवि एविणु इत्येते। एवं चाष्टावादेशा भवन्ति ॥ देवं दुक्कर निअय-धणु करण न तउ पडिहाइ । एम्वइ सुहु भुञ्जणहं मणु पर भुञ्जणहिं न जाइ । जेप्पि चएप्पिणु सयल धर लेविणु तवु पालेवि । विणु सन्ते तित्थेसरेण खो सकइ भुवणे वि ॥ ४४१ ॥ गमेरेप्पिण्वेप्प्योरेलग वा। ८।४। ४४२ । अपभ्रंशे गमेर्धातोः परयोरेप्पिणु एप्पि इत्यादेशयोरेकारस्य लग् भवति वा ॥ Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वोपनवृत्तिसहितम् [८४५] गम्प्पिणु वाणारसिहिं नर अह उज्जेणिहिं गम्प्पि । मुआ परावहिं परम-पउ दिव्वन्तरई म जम्पि ॥ पक्षे। गङ्ग गमेप्पिणु जो मुअइ जो सिव-तित्थ गमेपि । कीलादितिदसावास-गउ सो जम लोउ जिणेप्पि ॥४४२॥ तृनोणः । ८।४ । ४४३ । अपभ्रंशे तृन: प्रत्ययस्य अणअ इत्यादेशो भवति ।। हत्थि मारणउ लोउ बोल्लणउ पडहु वज्जणउ सुणउ भसणउ ॥ ४४३ ॥. इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः ।।४।४४४। ____ अपभ्रंशे इवशब्दस्यार्थे नं नउ नाइ नावइ जणि जणु इत्येते षट् भवन्ति ॥नं। नं मल्ल-जुज्झु ससि-राहु करहिं ॥ नउ। - रवि अत्थमणि समाउलेण कण्ठि विइण्णु न छिण्णु । चक्के खण्ड मुणालि अहे नउ जीवग्गलु दिण्णु ॥ नाइ। वलयावलि-निवडण-भण्ण धण उद्धन्भुअ जाइ । बल्लह-विरह-महादहहो थाह गवेसइ नाइ ॥ नाव। . पेक्खेविणु मुहु जिण-वरहो दीहर-नयण सलोणु ॥ नाव गुरु-मच्छर-भरिउ जलणि पवीसह लोणु ॥ . अणि । चम्पय-कुसुमहो मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ । सोहा इन्दनीलु जणि कणइ बइडउ ॥ जणु । निरुवम-रसु पिएं पिएवि जणु ॥ ४४४ ॥ Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४६] प्राकृतव्याकरणम् . लिङ्गमतन्त्रम् । ८ । ४ । ४४५। अपभ्रंशे लिङ्गमतन्त्रं व्यभिचारि प्रायो भवति । गयकुम्भई दारन्तु ।। अत्र पुंलिङ्गस्य नपुंसकत्वम् । .. अम्मा लग्गा डुङ्गरिहिं पहिउ रडन्तउ जाइ। जो एहा गिरि गिलण-मणु सो किं घणहे धणाइ।। अत्र अन्भा इति नपुंसकस्य पुंस्त्वम् ॥ पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिंङ खन्धस्सु। तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किजउं कन्तस्सु॥ अत्र अन्त्रडी इति नपुंसकस्य स्त्रीत्वम् ॥ सिरि चडिआ खन्ति फलई पुणु डालई मोडन्ति । तोवि महद्दम सउणाहं अवराहिउ न करन्ति ॥ अत्र डालई इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्य नपुंसकत्वम् ॥ ४४५ ।। शौरसेनीवत् । ८ । ४ । ४४६ । अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत कार्य भवति ॥ सीसि सेहरु खणु विणिम्मविदु खणु कण्ठि पालंबु किदु रदिए विहिदु खणु मुण्डमालिए जं पणएण तं नमहु कुसुम-दामकोदण्डु कामहो ॥ ४४६ ॥ . व्यत्ययश्च । ८।४ । ४४७ । प्राकृतादिभाषालक्षणानां व्यत्ययश्च भवति ॥ यथा मागध्यां " तिष्ठश्चिष्ठ" (८-४-२९८ ) इत्युक्तं तथा प्रा. कृतपैशाचीशौरसेनीष्वपि भवति । चिष्ठदि ॥ अपभ्रंशे रेफस्याधो वा लुगुक्तो मागध्यामपि भवति । शद-माणुश-मंशभालके कुम्भ-शहश्र-वशाहे शंचिदे इत्यायन्य दपि द्रष्टव्यम् ॥ न केवलं भाषालक्षणानां त्याचादेशाना Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृचिसहितम् [ ८४७ ] -मपि व्यत्ययो भवति । ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भृतेपि भवन्ति । अह पेच्छइ रहु-तणओ ॥ अथ प्रेक्षां चक्रे इत्यर्थः || आभासह रयणीअरे । आबभाषे रजनीच. रानित्यर्थः ॥ भूते प्रसिद्धा वर्तमानेपि । सोहीअ एस aण्ठो । शृणोत्येष वण्ठ इत्यर्थः ॥ ४४७ ॥ शेषं संस्कृतवत्सिद्धम् | ८ | ४ | ४४८ | शेषं यदत्र प्राकृतादिभासामु अष्टमे नोक्तं तत्सप्ताध्यायी निबद्ध संस्कृतव देव सिद्धम् ॥ - द्विय-सूर - निवारणाय छत्तं अहो इव वहन्ती । जयह संसेसा वराह- सास दूरुक्खुया पुहवी || .. अत्र चतुर्थ्या आदेशो नोक्तः स च संस्कृतवदेव सिद्धः । उक्तमपि कचित्संस्कृतवदेव भवति । यथा प्राकृते उरसशब्दस्य सप्तम्येकवचनान्तस्य उरे उरम्मि इति प्रयोगौ भक्तस्तथा कचिदुरसीत्यपि भवति । एवं सिरे । सिरम्मि । सिरसि ॥ सरे । सरम्मि । सरसि । सिद्धग्रहणं मङ्गलार्थम् । ततो द्यायुष्मच्छ्रोतृकताभ्युदयश्चेति ॥ ४४८ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधान स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ ॥ अष्टमोऽध्यायः ॥ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४८] प्राकृतव्याकरणम् समाप्ताचेयं सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनवृत्तिः प्रका. शिका नामेति ॥ आसीद्विशां पतिरमुद्रचतुःसमुद्र- मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमबाहुदण्डः। श्रीमूलराज इति दुर्धरवैरिकुम्भि - .... कण्ठीरवः शुचिचुलुक्यकुलावतंसः॥१॥ तस्यान्वये समजनि प्रबलप्रताप. तिग्मातिः क्षितिपतिर्जयसिंहदेवः ।। येन स्ववंशसवितर्यपरं सुधांशी __ श्रीसिद्धराज इति नाम निजं व्यलेखि ॥२॥ सम्यग् निषेव्य चतुरश्चतुरोप्युपायान् जित्वोपभुज्य च भुवं चतुरब्धिकाचीम् । विद्याचतुष्टयविनीतमतिर्जितात्मा काष्ठामवाप पुरुषार्थचतुष्टये यः ॥३॥ तेनातिविस्तृतदुरागमविप्रकीर्ण शब्दानुशासनसमूहकदर्थितेन । अभ्यर्थितो निरवमं विधिवव्यधत्त. शब्दानुशासनमिदं मुनिहेमचन्द्रः॥ ४ ॥ ग्रंथानं २१८५ श्लोकाः॥ श्रीः ।। शुभं भवतु॥ ॥ इति संपूर्ण प्राकृतव्याकरणम् ॥ - 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