________________
[८३०] प्राकतव्याकरणम् कचिदिति किम् । वासेण वि भारह खम्भि बद्ध ॥ ३९९ ॥
आपदिपत्पंपदां द इः। ८।४ । ४००। अपभ्रंशे आपद् विपद् संपद् इत्येतेषां दकारस्य इकारो
भवति ॥ अनउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ । विवइ । संपइ ।। प्रायोधिकारात् । गुणहिं न संपय कित्ति पर ॥ ४०० ॥ कथं यथा-तयां थादेरेमेमेहेधा डित ।८।४।१०१। __ अपभ्रंशे कथं यथा तथा इत्येतेषां थादेवयवस्य प्रत्येकम् एम इम इह इध इत्येते डितश्चत्वार आदेशा भवन्ति ॥
केम समप्पउ दुटु दिशु किध रयणी छुडु होइ । नव-वहु-दसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ ॥ ओ गोरी-मुह-निजिअउ वदलि लुक्कुमियङ्क । अन्नु वि जो परिहविय-तणु सो किव भवइ निसङ्ख ॥ बिम्बाहरि तणु रयण-चणु किह ठिउ सिरिआणन्द । निरुवम-रसु पिएं पिअवि जणु सेसहो दिण्णी मुद्द ।। भण सहि निहुअउं तेवं मई जइ पिउ विठु सदोस्। जे न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअंतासु॥ जिव जिव वकिम लोअणहं ॥ तिव तिवँ वम्महु नि.
अय-सर ॥ मई जाणिउ प्रिय विरहिअहं कवि घर होइ विआलि ।
नवर मिअमुवि तिह तवह जिह दिणयह खय-गालि ॥ एवं तिध-जिधावुदाहायौँ । ४०१ ॥