________________
प्राकृतव्याकरणम् हिवइ । चिणइ । चुणइ ॥ सद्दहणं । सद्दहाणं ॥ धावइ । धुवइ ॥ रुबइ । रोवह ।। कचिभित्यम् । देइ । लेइ । विहेइ । नासह ॥ आर्षे । बेमि । २३८ ॥
व्यञ्जनाददन्ते । ८।४। २३९ । व्यञ्जनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति ॥ भमइ । हसइ । कुणइ । चुम्बइ । भणइ । उपसमइ । पावइ । सि. श्वइ । रुन्धइ । मुसइ । हरइ । करइ ।। शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥ २३९ ॥
स्वरादनतो वा । ८।४ । २४० । अकारान्तबर्जितास्वरान्ताद्धातोरन्ते अकारागमो वा भवति ॥ पाइ पाअइ । धाइ धाअइ । जाइ जाअइ । झाइ झाअइ । जम्भाइ जम्भाअइ । उव्बाइ उव्वाअइ । मिलाइ मिलाअइ । विकेह विकेअइ। होऊण होइऊण ।। अनत इति किम् । चिहच्छइ । दुगुच्छइ ॥ २४० ॥ चि-जि-श्रू-हु-स्तु-ल-पू-धूगां णोन्हस्वश्च 1418/२४१॥
च्यादीनां धातूनामन्ते णकारागमो भवति एषां स्व. रस्य च हृस्वो भवति ॥ चि । चिणइ ।। जि । जिणइ ।। श्रु । सुणइ ॥ हु । हुणइ ।। स्तु । थुणइ ॥ लू । लुणइ ॥ पू। पुणइ ॥ धूम् । धुणइ ॥ बहुलाधिकारसत्वचिद्विकल्पः । उचिंचणइ । उच्चेइ ॥ जेऊण । जिणिऊण ॥ जयइ जिण ॥ सोऊण | सुणिऊण ।। २४१ ॥ न वा कम-भावे वः क्यस्य च लुक् 1८1४।२४२।
च्यादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानानामन्ते द्विरुक्तो वकाराममो वा भवति तत्सन्नियोगे च क्यस्य लुक् ॥