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. स्वोपनवृत्तिसहितम् [८४५] गम्प्पिणु वाणारसिहिं नर अह उज्जेणिहिं गम्प्पि । मुआ परावहिं परम-पउ दिव्वन्तरई म जम्पि ॥ पक्षे। गङ्ग गमेप्पिणु जो मुअइ जो सिव-तित्थ गमेपि । कीलादितिदसावास-गउ सो जम लोउ जिणेप्पि ॥४४२॥
तृनोणः । ८।४ । ४४३ । अपभ्रंशे तृन: प्रत्ययस्य अणअ इत्यादेशो भवति ।। हत्थि मारणउ लोउ बोल्लणउ पडहु वज्जणउ सुणउ भसणउ ॥ ४४३ ॥. इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः ।।४।४४४। ____ अपभ्रंशे इवशब्दस्यार्थे नं नउ नाइ नावइ जणि जणु इत्येते षट् भवन्ति ॥नं। नं मल्ल-जुज्झु ससि-राहु करहिं ॥ नउ। - रवि अत्थमणि समाउलेण कण्ठि विइण्णु न छिण्णु ।
चक्के खण्ड मुणालि अहे नउ जीवग्गलु दिण्णु ॥ नाइ। वलयावलि-निवडण-भण्ण धण उद्धन्भुअ जाइ । बल्लह-विरह-महादहहो थाह गवेसइ नाइ ॥ नाव। . पेक्खेविणु मुहु जिण-वरहो दीहर-नयण सलोणु ॥ नाव गुरु-मच्छर-भरिउ जलणि पवीसह लोणु ॥ . अणि ।
चम्पय-कुसुमहो मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ ।
सोहा इन्दनीलु जणि कणइ बइडउ ॥ जणु । निरुवम-रसु पिएं पिएवि जणु ॥ ४४४ ॥