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[८३६] प्राकृतव्याकरणम् जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु । जह आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु ॥ दिवो दिवे । दिविदिवि गङ्गा प्रहाणु। सहस्य सहुं। जउ पवसन्ते सहुं न गयअ न मुअ विओएं तस्सु । लज्जिज्जह संदेसडा दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु ॥ नहेर्नाहीं। एत्तहे मेह पिअन्ति जलु एत्तहे वडवानल आवइ । पेक्खु गहीरिम सायरहो एकवि कणि नाहिं ओहद्दइ॥
॥४१९॥ पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतमः पच्छइ एम्बइ जि
एम्वहिं पञ्चलिउ एत्तहे। ८ । ४ । ४२० ।
अपभ्रंशे पश्चादादीनां पच्छह इत्यादय आदेशा भवन्ति ॥ पश्चातः पच्छई। पच्छइ होइ विहाणु। एवमेवस्य एम्वइ । एम्वइ सुरउ समत्तु ॥ एवस्य जिः। जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खडं कइ पय देइ । हिअइ तिरिच्छी हर्ष जि पर पिउ डम्बरई करेइ ॥ इदानीम एम्वहिं। हरि नचाविउ पङ्गणइ विम्हइ पाडिउ लोउ । एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ। प्रत्युतस्य पञ्चलिउ। साव-सलोणी गोरडी नक्खी कवि विस-गण्ठि । भडु पचलिउ सो मरइ जासु न लग्गइ कण्ठि ॥ इतस एत्तहे । एत्तहे मेह पिअन्ति जल ॥ ४२० ॥