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स्वोपज्ञवृचिसहितम्
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रहवस- भमिरु करग्गुल्लालिउ घरहि जि कोन्तु गुणइ
सो नालिउ ॥ दिवेहिं वित्तउं खाहि वढ || नवस्य नवखः । नवखी कवि विसगण्ठि || अवस्कन्दस्य दडवडः । चलेहिं चलन्तेहिं लोअणेहिं जे तई दिट्ठा बालि । तर्हि मयरद्धय - दडवडउ पडइ अपूरइ कालि ॥ यदेश्छुडुः । छुडु अग्घइ ववसाउ | सम्बन्धिनः केर-तणौ ॥ उ केसरि पिअहु जलु निच्चिन्तरं हरिणाई ||
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जसु केरएं - हुंकारडएं मुहुं पडन्ति तृणाई || अह भग्गा अम्हहं तणा ॥ मा भैषीरित्यस्य मन्भीसेति
स्त्रीलिङ्गम् ।
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सत्थावत्थं आलवणु साहु वि लोउ करेइ । आदन्नहं मन्भीसडी जो सज्जणु सो देइ || यच दृष्टं तत्तदित्यस्य जाइंट्ठआ ।
जइ रचसि जाइट्टिए हिअडा मुद्ध-सहाव ! लोहें फुणएण जिवँ घणा सहेसइ ताव ।। ४२२ ॥
हुहरु - घुग्घादय शब्द - चेष्टानुकरणयोः | ८|४ |४२३ ॥ अपभ्रंशे हुहुर्वादयः शब्दानुकरणे घुग्घादद्यश्रेष्ठानुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः ॥
महं जाणिउं बुडीसु हउं पेम्म-द्रहि हुहुरु त्ति । नवर अचिन्तिय संपडिय विप्पिय नाव झडत्ति ॥ आदिग्रहणात् ।
खज्जइ नउ कसरकेहिं पिज्जा नउ घुण्टेहिं । एम्बर होइ सुहच्छडी पिएं दिट्ठे नयणेहिं ॥
इत्यादि ॥