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[८३८] प्राकृतव्याकरणम् गाढस्य निचहः । विहवे कस्सु थिरत्तणउं जोव्वणि कस्सु मरट्टु । सो लेखडउ पगविअइ जो लग्गइ निच्च१ ॥ असाधारणस्य सड्ढलः। कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहि परिहिणु कहिं मेहु। .
दूर ठिआहं वि सज्जणहं होइ असलु नेहु ॥ कौतुकस्य कोडुः। कुञ्जरु अनहं तरु-अरहं कुडेण घल्लइ हत्यु। मणु पुणु एकहि सल्लहहिं जइ पुच्छह परमत्थु ॥ क्रीडायाः खेडः। खेड्यं कयमम्हेहिं निच्छयं किं पयम्पह । अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामि ॥ रम्यस्य रवण्णः। सरिहिं न सरेहि न सरवरेहि नवि उजाण-वणेहिं । देस रवण्णा होन्ति वढ निवसन्तेहिं सु-अणेहि ॥ अद्भुतस्य ढक्करिः। हिअडा पइ एहु बोल्लिअओ महु अग्गइ सय-वार । फुट्टिसु पिए पवसन्ति हउँ भण्डय ढकरि-सार ॥ __ हेसखीत्यस्य हेल्लिः । हेल्लि म झसहि आलु ॥ पृथ. क्पृथगित्यस्य जुअंजुः॥ एक कुडुल्ली पञ्चहिं रुद्धी तहं पञ्चहं वि जुअंजुअ बुद्धी ।
बहिणुए तं घरु कहि किव नन्दउ जेत्थु कुडुम्बड अ. प्पण-छन्दउं । मूढस्य नालिअ-वढौ ॥ जो पुणु मणि जि खसफसिहूअउ चिन्ता देई न दम्म
न अउ।