Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन (जैन धर्म : तत्त्व और आचार) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन (जैनधर्म : तत्त्व और आचार) PHILOSOPHY OF SOUL (JAINISM : METAPHYSICS AND ETHICS) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक जैन विश्व भारती, लाडनूं-३४१३०६ (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन (जैनधर्म : तत्त्व और आचार) PHILOSOPHY OF SOUL (JAINISM : METAPHYSICS AND ETHICS) (TEXT AND HINDI TRANSLATION) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं - ३४१ ३०६ (राज.) © जैन विश्व भारती, लाडनूं ISBN: 81-7195-119-8 सौजन्य : श्रीमती शारदा झुनझुनवाला धर्मपत्नी श्री अंबिका प्रसाद, सुपुत्र आशीष द्वारा राम स्वरूप इन्डस्ट्रीज लिमिटेड (कोलकाता) द्वितीय संस्करण : अप्रैल, २००८ पृष्ठ संख्या : ७६६+१४ = ७८०. मूल्य : ६००/- (छह सौ रुपया मात्र) टाईप सेटिंग : सर्वोत्तम प्रिंट एण्ड आर्ट मुद्रक : श्री वर्द्धमान प्रैस, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन दर्शन ने सत्य की खोज का द्वार कभी बंद नहीं किया और किसी व्यक्ति विशेष को उसका अधिकार भी नहीं दिया। महावीर का प्रसिद्ध घोष है-'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' स्वयं सत्य की खोज करो। इस घोषणा ने जैन दर्शन को वैज्ञानिक होने का श्रेय दिया है और वह वैज्ञानिक युग में अधिक प्रासंगिक बना है। वैज्ञानिक जगत में भी सत्य की खोज के अधिकार की स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता ने वैज्ञानिक को अणु और परमाणु की खोज तक पहुंचा दिया। उसकी निष्पत्ति का एक आयाम है-अणु-अस्वों का निर्माण। महावीर ने इस त्रासदी पर भी अंकुश लगाया। उनका अग्रिम घोष है-मेत्तिं भूएसु कप्पए-सब जीवों के साथ मैत्री करो। सत्य की खोज को सर्वजीव-मैत्री में बाधक मत बनने दो। यदि सत्य की खोज के साथ मैत्री की अनिवार्य प्रकल्पना होती तो विज्ञान संहार की भूमिका पर आरोहण नहीं करता। सत्य की खोज और मैत्री की प्रकल्पना का युगपत् प्रत्यय होने पर ही मानवीय शक्ति सृजनात्मक हो सकती है। उसी अवस्था में विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण की कल्पना साकार हो सकती है। - दार्शनिक दृष्टि से जैन-धर्म/दर्शन का प्रतिपाद्य है अनेकांत। आचारशास्त्रीय दृष्टि से इसका प्रतिपाद्य है : समता। महावीर के सारे अनुभवों और वक्तव्यों को इन दो शब्दों की परिधि में समेटा जा सकता है। वीतरागता के दो महान् फल हैं-अनेकांत और समता। वीतराग व्यक्ति में न आग्रह होता है और न पक्षपात। वह सत्य को स्वीकार करता है, फिर चाहे वह किसी व्यक्ति में हो, अथवा सम्प्रदाय में हो। दार्शनिकों में खंडन-मंडन की परंपरा एकांतवादी दृष्टिकोण के आधार पर चली। अपने मत और सम्प्रदाय का समर्थन, दूसरे मत और सम्प्रदाय का खंडन। यह है दर्शन जगत की करुण कहानी। जो दर्शन सत्य की खोज में एकांगी दृष्टिकोण अपनाते हैं, वे दूसरे के विचारों के खंडन में अधिक रस लेते हैं। सत्य की खोज का लक्ष्य गौण हो जाता है। महावीर ने अनेकांत का दर्शन प्रस्तुत कर सब दर्शनों में समन्वय खोजने की दृष्टि दी। उसका पुनरुच्चारण सिद्धसेन के शब्दों में हुआ है ___जावझ्या वयणपहा तावइया चेव हॉति णयवाया। जावड्या णयवाया तावड्या चेव परसमया॥ यह माना जाता है कि महावीर अहिंसा के पुरस्कर्ता हैं। इस मान्यता में सत्यांश नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता किन्तु पहली सचाई यह है कि महावीर समता के पुरस्कर्ता हैं। उन्होंने समता को अनेक रूपों में जीया और उसके अनेक रूपों का प्रतिपादन किया। समता का एक दृष्टिकोण है-सब जीवों को अपनी आत्मा के समान समझना। समता का दूसरा दृष्टिकोण है-अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहना, संतुलन न खोना। समता का तीसरा दृष्टिकोण है-उच्चता के मद अथवा अहंकार से मुक्त रहना। समता का चौथा दृष्टिकोण है-राग-द्वेष मुक्त क्षण में जीना। समता एक सुरतरु है। उसकी अनेक शाखाएं हैं। उसकी एक महान शाखा है-अपरिग्रह और दूसरी महत्तर शाखा है-अहिंसा। प्रस्तुत ग्रंथ में समता के सुरतरु और उसकी शाखाओं के द्रष्टा का साक्षात् दर्शन होगा। विषमता की उर्वरा में संकल्प-विकल्प के बीजों की बुवाई होती है। राग और द्वेष जागृत होते हैं। पक्षपात में इधर या उधर झुकाव होता है, तब संकल्प-विकल्प को पनपने का मौका मिलता है। समता का वातावरण राग-द्वेष और पक्षपात से Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (छह) मुक्त होता है, इसलिए संकल्प-विकल्प अपने आप समाप्त हो जाते हैं। उन्हें जन्म देने वाली तृष्णा भी नाम शेष हो जाती है। उत्तराध्ययन का सूक्त है _____एवं ससंकप्पविकप्पणासो संजायई समयमुवट्ठियस्स। उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग बतलाया। प्रस्तुत ग्रंथ में समता को पहला और सम्यग्दर्शन को दूसरा स्थान दिया गया। समता आचरण भी है और दृष्टिकोण को सम्यक् बनाने का साधन भी। सम्यग्दर्शन होने पर समता फलित होती है। यह सिद्धांत अबाधित है, किन्तु इस सिद्धांत को भी कम महत्त्व नहीं दिया जा सकता कि समता की प्रतिष्ठा होने पर दृष्टिकोण अपने आप सम्यक् बन जाता है। पच्चीस सौ वर्ष पुरानी बात है। मगध सम्राट श्रेणिक की यशोगाथा दिग्-दिगंत में व्याप्त थी। उनकी पट्टरानी का नाम धारिणी था। एक बार वह अपने सुसज्जित शयनागार में सो रही थी। अपररात्रि की वेला में उसको एक स्वप्न आया। उसने देखा-'एक विशालकाय हाथी लीला करता हुआ उसके मुख में प्रवेश कर रहा है।' स्वप्न को देख वह उठी। महाराज श्रेणिक को निवेदन कर बोली-प्रभो! इसका क्या फल होगा ? 'महराज श्रेणिक ने स्वप्नपाठकों को बुलाकर स्वप्न पूछा। उन्होंने कहा-'राजन्! रानी ने उत्तम स्वप्न देखा है। फलस्वरूप आपको अर्थलाभ होगा, पुत्रलाभ होगा, राज्यलाभ होगा और भोगसामग्री की प्राप्ति होगी। राजा और रानी बहुत प्रसन्न हुए। समय बीता। महारानी ने गर्भ धारण किया। दो महीने व्यतीत हुए। तीसरा महीना चल रहा था। रानी के मन में अकाल में मेघों के उमड़ने और उनमें क्रीड़ा करने का दोहद उत्पन्न हुआ। उसने सोचा-वे माता-पिता धन्य हैं, जो मेघ ऋतु में, बरसती हुई वर्षा में, यत्र-तत्र घूमकर आनंदित होते हैं। क्या ही अच्छा होता, यदि मैं भी हाथी पर बैठकर झीनी-झीनी वर्षा में जंगल की सैर कर अपना दोहद पूरा करती?' रानी ने इस दोहद की चर्चा राजा श्रेणिक से की। उस समय वर्षा ऋतु नहीं थी। मेघ के बरसने की बात अत्यंत दुरूह थी। राजा चिंतित हो उठा। उसने अपने महामात्य अभयकुमार को सारी बात कही। महामात्य राजा-रानी को आश्वस्त कर दोहदपूर्ति की योजना बनाने लगा। अभयकुमार ने देवता की आराधना करने के लिए एक अनुष्ठान प्रारंभ किया। तेले की तपस्या कर, वह मंत्र विशेष की आराधना में लग गया। तीन दिन परे हए। देवता ने प्रत्यक्ष होकर आराधना का प्रयोजन जानना चाहा। अभयकुमार ने धारिणी के मन में उत्पन्न अकालमेघवर्षा में भ्रमण की बात कह सुनाई। देवता ने कहा-'अभय! तुम विश्वस्त रहो। मैं दोहदपूर्ति कर दूंगा। कुछ समय बीता। एक दिन अचानक आकाश में मेघ उमड़ आए। सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया। बिजलियां चमकने लगीं। मेघ का भयंकर गरिव होने लगा। वर्षा होने लगी। मेघ ऋतु का आभास होने लगा। रानी धारिणी अपने परिवारजनों से परिवृत होकर, हाथी पर आरूढ़ हो वन-क्रीड़ा करने निकली। अपनी इच्छा के अनुसार क्रीड़ा सम्पन्न कर वह महलों में लौट आयी। उसका दोहद पूरा हो गया। नौ मास और नौ दिन बीते। रानी ने एक पुत्र रत्न का प्रसव किया। गर्भकाल में मेघ का दोहद उत्पन्न होने के कारण सद्यःजात शिशु का नाम मेघकुमार रखा गया। वैभवपूर्ण लालन-पालन से बढ़ते हुए शिशु मेघकुमार ने आठ वर्ष पूरे कर नौवें वर्ष में प्रवेश किया। माता-पिता ने उसको सर्वकलानिपुण बनाने के उद्देश्य से कलाचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। वह धीरे-धीरे बहत्तर कलाओं में पारंगत हो गया। मेघकुमार ने यौवन में प्रवेश किया। आठ सुंदर राजकन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। एक बार भगवान महावीर राजगृह नगर में आए। मेघकुमार गवाक्ष में बैठा-बैठा नगर की शोभा देख रहा था। उसने देखा-नगर के हजारों नर-नारी एक ही दिशा की ओर जा रहे हैं। उसके मन में जिज्ञासा हुई। उसने अपने Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सात) परिचारकों से पूछा। उन्होंने भगवान के समवसरण की बात कही। मेघ का मन भगवान् के उपपात में जाने के लिए उत्सुक हो उठा। अश्व रथ पर आरूढ़ होकर वह भगवान के समवसरण में गया। भगवान की अमोघ वाणी सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसका वैराग्य-बीज अंकुरित हो गया । पूर्वसंचित कर्मों की लघुता से उसके मन में प्रव्रज्या की भावना उत्पन्न हुई। वह घर आया। माता-पिता से कहा- 'मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उत्सुक हूं।' यह विचार सुन महारानी धारिणी आकुल व्याकुल हो गई। वह अपने प्रिय पुत्र का वियोग नहीं चाहती थीं। माता धारिणी और पुत्र मेघ के बीच लंबा संवाद चला। माता ने उसे समझाने का पूरा प्रयत्न किया । मेघ का मन मोक्षाभिमुख हो चुका था। माता की बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ । उसने माता को संसार की असारता और दुःख प्रचुरता से अवगत कराया। माता अंत में कहा - 'पुत्र ! तुम प्रव्रजित होना ही चाहते हो, हम सबसे बिछुड़ना ही चाहते हो तो जाओ, सुखपूर्वक प्रव्रजित हो जाओ। किंतु वत्स ! एक बात हमारी भी मानो हम तुम्हें अपनी आंखों से एक बार राजा के रूप में देखना चाहते हैं। तुम एक दिन के लिए ही राजा बन जाओ। फिर जैसा चाहो, वैसा कर लेना ।' मेघकुमार ने एक दिन के लिए राजा बनना स्वीकार कर लिया। मेघकुमार के राज्याभिषेक की तैयारियां हुई। शुभ मुहूर्त में राज्याभिषेक की विधि संपन्न हुई। मेधकुमार राजा बन गया। सभी ने उसे बधाइयों से वर्धापित किया । राज्य-संपदा मेघकुमार को लुभा नहीं पाई। एक दिन बीत गया। मेघकुमार की दीक्षा की तैयारियां होने लगीं। आवश्यक उपकरण लाये गए। परिवार और नगरजनों से परिवृत होकर मेघकुमार भगवान् महावीर के पास आया। माता-पिता ने भगवान् से निवेदन करते हुए : कहा-‘देव! हमारा यह पुत्र मेघ आपके चरणों में प्रव्रजित होना चाहता है। यह नवनीत सा कोमल है। यह प्रचुर कामभोगों के बीच पला-सा है, फिर भी काम-रजों से स्पृष्ट नहीं है, भोगों में आसक्त नहीं है। पंक में उत्पन्न होने वाला पंकज पंक से लिप्त नहीं होता, वैसे ही यह कुमार भोगों से निर्लिप्त है। आप इसे अपना शिष्य बनाकर हमें कृतार्थ करें ।' भगवान् ने मेघ को प्रव्रजित होने की आज्ञा दी। मेघकुमार अपने आभूषण उतारने लगा। यह दृश्य देख मां का मन विह्वल हो उठा। वह अपने पुत्र को एक अकिंचन भिक्षु के रूप में घर-घर भिक्षा के लिए भटकता देखना नहीं चाहती थी । उसका मन रोने लगा। हृदय फटने लगा, पर........... । भगवान् महावीर ने स्वयं मेघकुमार को प्रव्रजित किया, उसका केशलुंचन किया। भगवान् ने स्वयं उसे साधुचर्या की जानकारी देते हुए कहा- 'वत्स ! अब तुम मुनि बन गए हो । अब तुम्हारे जीवन की दिशा बदल गई है। अब तुम्हें यतनापूर्वक चलना है, यतनापूर्वक बैठना है, यतनापूर्वक सोना है, यतनापूर्वक खड़े रहना है, यतनापूर्वक बोलना है और यतनापूर्वक ही भोजन करना है। इस चर्या में लेशमात्र भी प्रमाद न हो । यतना संयम है, मोक्ष है । अयतना असंयम है, बंधन है। पहला दिन बीता। रात आई । विधि के अनुसार सभी श्रमणों का शयन स्थान निश्चित हुआ। मुनि मेघकुमार एक दिन का दीक्षित था। उसका शयन-स्थान सबसे अंत में आया । वह स्थान द्वार के पास था। शताधिक मु स्वाध्याय आदि के लिए रात्रि में बाहर आने-जाने लगे। कुछ मुनि प्रस्रवण के लिए बाहर निकले। उस समय द्वार के पास सोये मुनि मेघकुमार की नींद उचट गई। सर्वत्र अंधकार व्याप्त था । स्पष्ट कुछ भी नहीं दीख रहा था। बाहर आते-जाते मुनियों के पैर-स्पर्श से मुनि मेघ विचलित हो गया । शरीर धूलिमय हो गया। उसने नींद लेने का बहु प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ। उसने सोचा- 'मैं राजकुमार था। कितने सुख में पला-पुसा ! सब प्रकार की सुविधाएं मुझे उपलब्ध थीं। सारे श्रमण मुझसे बात करते, मेरा आदर-सम्मान करते । मुझसे मीठी-मीठी बातें करते और मुझे नाना Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आठ) प्रकार के रहस्य समझाते। आज मैं प्रव्रजित हो गया। उनकी मंडली में आ मिला। अब कोई भी श्रमण न मुझसे बात करता है और न मेरा आदर-सम्मान ही करता है। वे सब मुझे ठोकरें लगा रहे हैं। नींद भी नहीं ले पा रहा हूं। इस अनपेक्षित मुनि जीवन से अच्छा है कि मैं पुनः गृहवास में चला जाऊं। वहां मेरा पूर्ववत् ठाटबाट रहेगा। सूर्योदय होते ही मैं भगवान महावीर को पूछकर घर चला जाऊंगा।' इस मानसिक दुविधा के जाल में फंसे हुए मुनि मेघकुमार की रात बहुत लंबी हो गई। ज्यों-त्यों रात बीती। . सूर्योदय हुआ। मुनि मेघकुमार भगवान के पास आया, वंदना-नमस्कार कर मौन होकर बैठ गया। ___ भगवान ने उसकी मनःस्थिति को ताड़ते हुए कहा-'मेघ! तुम रात्रि के इन स्वल्प कष्टों से विचलित होकर घर जाने की तैयारी कर रहे हो?' मुनि मेघ ने कहा-'भंते! आप यथार्थ कह रहे हैं। मेरा मन विचलित हो गया है।' भगवान अतीन्द्रिय-द्रष्टा थे। वे सब-कुछ जानते थे-जो घटित हो चुका है, घटित हो रहा है और घटित होगा। उनका ज्ञान निरावरण था; कालातीत और क्षेत्रातीत था। मेघकुमार को पूर्वभव का वृत्तांत बताते हुए भगवान बोले-'मेघ! सुनो, मैं तुम्हारे पूर्वभव का वृत्तांत बता रहा हूं। आज के इस राजकुमार के भव से तीन जन्म पूर्व तुम वैताढ्य पर्वत की तलहटी के सघन जंगल में हाथी थे। तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' था। तुम यूथपति थे। तुम्हारे परिवार में अनेक हाथी और अनेक हथिनियां थीं। तुम आनंदपूर्वक अपने दिन बिता रहे थे। सर्व तुम निर्भयता से घूमते थे। एक बार ग्रीष्म ऋतु का समय था। जेठ का महीना। चिलचिलाती धूप। वेगवान तूफान। वृक्षों के संघट्टन से जंगल में दावानल सुलभ गया। चारों ओर पशु दौड़-धूप करने लगे। तुम उस समय बूढ़े हो गये। थे। तुम्हारा शरीर जर्जरित था। बल क्षीण हो चुका था। सारा यूथ इधर-उधर बिखर गया। तुम अकेले रह गएं। प्यास के कारण पानी की खोज में जा रहे थे। एक सरोवर देखा। उसमें पानी कम और कीचड़ अधिक था। तुम पानी पीने की तृष्णा से उसमें घुसे और कीचड़ में धंस गए। उस समय एक युवा हाथी ने तुम्हें देखा। उसको पूर्व वैर की स्मृति हो आयी। वह क्रोध से अरुण होकर चीत्कार करता हुआ तुम्हारे पास आया और अपने दंत मूसल से तुम पर प्रहार करने लगा। तुम शक्तिहीन थे। प्रतिरोध नहीं कर सके। तुम्हें मरणासन्न कर वह युवा हाथी बहुत प्रसन्न हुआ। वैर का प्रतिशोध ले सकने की प्रसन्नता से वह फूला नहीं समाया। चिंतातुर अवस्था में तुम्हारी मृत्यु हो गई। वहां से तुम विध्यांचल पर्वत की तलहटी में गंगा नदी के दक्षिण तट पर फिर हाथी के रूप में उत्पन्न हए। तम युवा हए। हस्तियथ के स्वामी बने। तम्हारा युथ बहत विशाल था। एक बार तमने दावाग्नि को देखा। मन एकाग्र हआ। पर्वभव की स्मति हो आई। दावाग्नि से उत्पन्न कष्ट साक्षात् हो गए। तुमने अपनी सुरक्षा के लिए एक योजन भूमि को समतल बनाया जिससे कि दावानल की आपत्ति से बचा जा सके। एक बार अचानक वन में आग लगी। सभी वन्य-पशु भयभीत होकर जीवन की सुरक्षा के लिए इधरउधर दौड़ने लगे। तुम भी अपने परिवार के साथ सुरक्षित मंडल में आ गए। और भी अनेक वन्य पशु वहां पहुंच गए थे। वहां अग्नि का भय नहीं था, क्योंकि वहां घास-फूस, वृक्ष-लताएं थीं ही नहीं। सारा समतल मैदान था। तुमने शरीर को खुजलाने के लिए अपना पैर उठाया। शरीर को खुजलाकर तुमने अपना पैर नीचे रखना चाहा। तुमने देखा कि पैर के उस भू-भाग पर एक खरगोश प्राण-रक्षा के लिए बैठा है। पैर रखने पर वह मर न जाये, इस आशंका से तुमने अपने एक पैर को अधर आकाश में लटकाये रखा। एक दिन बीता। दो दिन बीते। अभी भी दावानल सुलग रहा था। तीसरे दिन का पूर्वाह्न भी बीत गया। अब आग शांत हुई। सब पशु अपने-अपने सुरक्षित स्थान को लौट गए। तुम्हारा हस्ति परिवार भी चला गया। वह खरगोश भी भाग गया। तुमने पैर नीचे रखना चाहा। पैर अकड़ गया था। वह नीचे नहीं सरका। तुम्हारा भारी-भरकम शरीर लड़खड़ा गया। तीन दिन के भूखे-प्यासे और तीन पैरों पर इतने लंबे समय तक खड़े रहने के कारण तुम्हारी शक्ति क्षीण हो गई थी। तुम धड़ाम से नीचे गिर पड़े। उस समय तुम्हारा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (नौ) आयुष्य सौ वर्ष का था। तुम्हारी तत्काल मृत्यु हो गई। वहां से तुम श्रेणिक के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। पशु की उस योनि में तुम सम्यक् दर्शन से समन्वित नहीं थे, फिर भी तुमने उस विकराल और असामान्य वेदना को समभावपूर्वक सहा । उस अपूर्व तितिक्षा से ही तुम्हें मनुष्य जन्म मिला है। आज तुम सम्यक्-दर्शन संपन्न मुनि हो । आज एक रात के इन तुच्छ शारीरिक कष्टों से विचलित हो गए ? तुम इतने अधीर हो गए ? घर जाने की मनःस्थिति बना ली। तुम अपने पूर्व जन्म की स्मृति करो और देखो कि उन कष्टों की तुलना में ये क्या कष्ट हैं? कहां मेरु ? कहां राई ? मेघ का सोया हुआ चैतन्य जाग गया। उसके मन में एक नई सिहरन दौड़ गई। चित्त एकाग्र हो गया । पूर्वजन्म की स्मृति ताजा हुई और उसके सामने चलचित्र की भांति अतीत का सारा दृश्य आने लगा। उसने पूरी घटना का साक्षात्कार किया। भगवान् महावीर ने जैसा कहा, वैसा अक्षरशः सामने आ गया। पूर्वजन्म की घटना को साक्षात् कर वह गद्गद हो उठा। उसका संवेग दुगुना हो गया। आंखों से आनंद के आंसू टपकने लगे। हृदय, हर्षान्वित हो उठा। सारा शरीर रोमांचित हो गया। वह तत्काल भगवान् को वंदना - नमस्कार कर बोला- 'भगवन्! आज से दो आंखें मेरी अपनी रहेंगी, शेष सारा शरीर इन निर्ग्रथों के लिए समर्पित रहेगा। भंते! आपने मुझे पुनः संयम में स्थिर किया है। आप मुझे पुनः संयम जीवन दें और कृतार्थ करें । ' [ ने उसे पुनः संयम में आरूढ़ किया। भगवान् प्रागैतिहासिक काल की घटना है। जैन धर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ इस धरती पर थे। एक दिन उनके अट्ठानवें पुत्र मिलकर आए। उन्होंनें भगवान् से प्रार्थना की- 'भरत ने हम सबके राज्य छीन लिए हैं हम अपना राज्य पाने की आशा लिए आपकी शरण में आए हैं। ' भगवान् ने कहा- 'मैं तुम्हें वह राज्य तो नहीं दे सकता किंतु ऐसा राज्य दे सकता हूं, जिसे कोई छीन न सके।' पुत्रों ने पूछा- 'वह राज्य क्या है ?' भगवान् ने कहा- 'वह राज्य है- आत्मा की उपलब्धि ।' पुत्रों ने पूछा- 'वह कैसे हो सकती है ?" तब भगवान् ने कहा 'संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा । वणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥' नो हू - 'सबोधि को प्राप्त करो। तुम सबोधि को प्राप्त क्यों नहीं कर रहे हो ? बीती रात लौटकर नहीं आती। यह मनुष्य जीवन भी बार-बार सुलभ नहीं है । ' इस प्रकार जैन-धर्म के साथ संबोधि का प्रागैतिहासिक संबंध है। संबोधि क्या है ? वह है-आत्म- मुक्ति का मार्ग। वे सब मार्ग जो हमें आत्मा की संपूर्ण स्वाधीनता की ओर ले जाते हैं। एक शब्द में 'सबोधि' कहलाते हैं। बोधि के तीन प्रकार हैं-ज्ञान-बोधि, दर्शन-बोधि, चारित्र—बोधि । तीन प्रकार के बुद्ध होते हैं-ज्ञान-बुद्ध, दर्शन-बुद्ध, चारित्र - बुद्ध । जैन दर्शन का यह अभिमत है कि हम कोरे ज्ञान से आत्म-मुक्ति को नहीं पा सकते, कोरे दर्शन और कोरे चारित्र से भी उसे नहीं पा सकते। उसकी प्राप्ति तीनों के समवाय से अर्थात् अविकल संबोधि से हो सकती है। जैनधर्म वस्तुतः प्राचीन धर्म है। उसके बाईस तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल में हुए हैं। पार्श्व और महावीर ऐतिहासिक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति हैं। जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत हैं १. आत्मा है। २. उसका पुनर्जन्म होता है। ३. वह कर्म की कर्त्ता है। (दस) ४. वह कृतकर्म के फल का भोक्ता है। ५. बंधन है और उसके हेतु हैं । ६. मोक्ष है और उसके हेतु हैं। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त जीव ही परमात्मा होते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार हर आत्मा में परमात्मा होने की क्षमता है। काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि का उचित योग मिलने पर आत्मा परमात्मा हो जाती है, बंधन से मुक्त होकर अपने विशुद्ध रूप में प्रकट हो जाती है। जैन दर्शन आदि से अंत तक आध्यात्मिक दर्शन है। उसका समग्र चित्र आत्म-कर्तृत्व की रेखाओं से निर्मित है। ईश्वर - कर्तृत्व की अपेक्षा आत्म-कर्तृत्व से हमारा निकट का संबंध हैं। हम अपने कर्तृत्व को इष्ट दिशा की ओर मोड़ सकते हैं किंतु उसके कर्तृत्व को इष्ट दिशा की ओर नहीं मोड़ सकते, जिसका हमसे सीधा संबंध नहीं है। इसलिए जीवन के निर्माण और विकास में आत्म-कर्तृत्व के सिद्धांत का बहुत बड़ा योग है। 'संबोधि' में आदि से अंत तक उसी का व्यावहारिक संकलन है। विश्व के समस्त धर्मों का मूल आधार है-आत्मा और परमात्मा । इन्हीं दो तत्त्वरूपं स्तंभों पर धर्म का भव्य भवन खड़ा हुआ है। विश्व की कुछ धर्म-परंपराएं आत्मवादी होने के साथ-साथ ईश्वरवादी हैं और कुछ अनीश्वरवादी है । ईश्वरवादी परंपरा वह है जिसमें सृष्टि का कर्त्ता धर्त्ता या नियामक एक सर्व शक्तिमान ईश्वर या परमात्मा माना जाता है। सृष्टि का सब कुछ उसी पर निर्भर है। उसे ब्रह्मा, विधाता, परमपिता आदि कहा जाता है। इस परम्परा की मान्यता के अनुसार भूमंडल पर जब जब अधर्म बढ़ता है, धर्म का ह्रास होता है, तब-तब भगवान अवतार लेते हैं। और दुष्टों का दमन करके सृष्टि की रचना करते हैं, उसमें सदाचार का बीज - वपन करते हैं। अनीश्वरवादी परम्परा दूसरी परम्परा आत्मवादी होने के साथ-साथ अनीश्वरवादी है, जो व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में विश्वास करती है। प्रत्येक व्यक्ति या जीव अपना संपूर्ण विकास कर सकता है। अपने में राग-द्वेष विहीनता या वीतरागता का सर्वोच्च विकास करके वह परमपद को प्राप्त करता है। वह स्वयं ही अपना नियामक या संचालक है। वह स्वयं ही अपना मित्र है, शत्रु है। जैन धर्म इसी परंपरा का अनुयायी स्वतंत्र तथा वैज्ञानिक धर्म है। यह परम्परा संक्षेप में 'श्रमण संस्कृति' के नाम से पहचानी जाती है। इस आध्यात्मिक परम्परा में बौद्ध आदि अन्य धर्म भी आते हैं। ईश्वरवादी भारतीय परम्परा 'ब्राह्मण संस्कृति' के नाम से जानी जाती है। परमात्मा दोनों परम्पराओं में मान्य है इतना सा अंतर है कि एक परंपरा में परमात्मा सर्वज्ञ है और सृष्टिकर्ता भी जैन धर्म के सिद्धांतानुसार परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। जैन धर्म का लक्ष्य है मनुष्य वीतराग बने और वीतराग बनकर परमात्म- पद को प्राप्त करे। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय दर्शन के क्षेत्र में 'अध्यात्म' के रूप में सत्य का जो निरूपण हुआ है, उसमें भगवान महावीर द्वारा प्रदत्त दर्शन अपने आपमें कुछ वैशिष्ट्य लिए हुए हैं। भगवान् महावीर की उपलब्ध वाणी में इसके सूत्र विकीर्ण रूप में देखे जा सकते हैं। एक ऐसी अपेक्षा महसूस हुई कि महावीर के अध्यात्म-दर्शन (अथवा जैन धर्म के अध्यात्म-दर्शन) के विषय में कोई समग्र किन्तु सारभूत अध्ययन करना चाहे, तो उसे कौन-सा ग्रंथ पढ़ना चाहिए? वैसे अब तक ऐसे अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। जिनमें उक्त अपेक्षा की पूर्ति का प्रयत्न हुआ है। फिर भी जैसे ईसाइयों का 'बाईबल' या वैदिकों का 'गीता' या मुस्लिमों का 'कुरान' अपने-अपने धर्मों के नवनीत-रूप एक-एक ग्रंथ हैं वैसे ही भगवान् महावीर (या जैनों) का एक ऐसा ग्रंथ उपलब्ध हो जो युगीन मांग की मूर्ति कर सके। इस आधार पर जैन विश्व भारती ने निम्नांकित ग्रंथों* के समाकलन के आधार पर यह 'आत्मा का दर्शन' (जैनधर्म : तत्त्व और आचार) नामक एक ग्रंथ प्रकाशित करने का निर्णय किया और आज इसे पाठकों के हाथों में अर्पित करते हुए हम सात्त्विक मनःप्रसत्ति की अनुभूति कर रहे हैं। इसके भी दो संस्करण प्रकाशित दो रहे हैं १. मूल गाथा/श्लोक जो प्राकृत या संस्कृत में हैं, उनके साथ अनुवाद (हिन्दी) दिया गया है। २. केवल हिन्दी अनुवाद ही दिया गया है। दिनांक ३-३-२००५ जैन विश्व भारती (लाडनूं) *१. गाथा २. समण-सुत्तं ३. संबोधि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम ३५१ ३७१ ३८७ ४१७ ४३५ ४४५ ४७९ .४८९ ५०३ ५१५ प्रथम खण्ड • उद्भव और विकास. अध्याय १. सृष्टिवाद २. कालचक्र ३. आदिम युग : अर्हत् ऋषभ ४. अर्हत् पार्श्व द्वितीय खण्ड .महावीर का जीवन वृत्त. १. महावीर और उनका परिवार २. साधना और निष्पत्ति ३. तीर्थकर और तीर्थ प्रवर्तन ४. जीवन प्रसंग तृतीय खण्ड • सम्बोधि. आमुख १. स्थिरीकरण २. सुख-दुःख मीमांसा ३. आत्मकर्तृत्ववाद ४. सहजानंद-मीमांसा मोक्ष-साधन-मीमांसा क्रियाक्रियावाद ७. आज्ञावाद ८. बंध-मोक्षवाद ९. मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा १०. संयतचर्या ११. आत्ममूलक धर्म-प्रतिपादन १२. ज्ञेय-हेय-उपादेय १३. साध्य-साधन संज्ञान १४. गृहस्थ-धर्म प्रबोधन अध्याय १५. गृहिधर्मचर्या पृष्ठ १६: मनःप्रसाद चतुर्थ खण्ड • प्रायोगिक दर्शन. २१ १. समत्व - ३५ २. सम्यक्दर्शन ३. सम्यक्ज्ञान ४. सम्यक्चारित्र ४१ ५. ज्ञान-क्रिया-समन्वय . ५१ ६. धर्मसंघ ८९ ७. जिनशासन १०५ ८. शिक्षा ९. धर्म .. १०. वीतराग साधना १२३ ११. विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण १२७ १२. आत्मवाद १३७ १३. कर्मवाद १५९ १४. नयवाद १७५ १५. अनेकांतवाद १८५ पंचम खण्ड २०१ •समणसुत्त २११ १. ज्योतिर्मुख २२७ २. मोक्षमार्ग २३९ ३. तत्वदर्शन . २५३ ४. स्याद्वाद २६७ • परिशिष्ट २८७ १. पारिभाषिक शब्द कोष ३१९ २. प्रयुक्त ग्रंथ सूची ५६७ ५७७ ६०५ ६२५ ६३७ ६७५ ७२५ ७३७ ७५५ ७५७ ७६६ ३३७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड- १ उद्भव और विकास Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-१ सृष्टिवाद Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. सं. ११८ ११९ प्रथम अध्याय १२० १२१ पृ. सं. पृ. सं. १२१ १२१ १२२ १.रोह के प्रश्न २. स्कंदक के प्रश्न ३. लोक-अलोक ४.जीवों के छह निकाय ५. द्रव्यवाद ६.लोकस्थिति के दस प्रकार ७. लोकस्थिति के आठ नियम Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृष्टिवाद जैनदर्शन ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। वह विश्व की व्याख्या नियम के आधार पर करता है, नियंता के आधार पर नहीं। सृष्टि का निर्माण किसी अलौकिक सत्ता ने नहीं किया है। उसके निर्माता दो हैं-जीव और पुद्गल। जैनदर्शन के अनुसार लोक और सृष्टि दोनों को समझना आवश्यक है। लोक का अर्थ है-मूल तत्त्वों का समवाय। सृष्टि का अर्थ है-जीव और पुद्गल का रूपांतरण, नाना रूपों में परिणमन अथवा परिवर्तन। लोक शब्द में मूल द्रव्यवाद और सृष्टिवाद दोनों समाहित हैं। जिसे हम सृष्टि अथवा दृश्य जगत् कहते हैं, उसका निर्माण जीव और पुद्गल के संयोग से होता है। जीवों के छह निकाय हैं। जीव पुद्गलों को ग्रहण कर अपने-अपने शरीर का निर्माण करते हैं। वह निर्माण ही सृष्टि बन जाता है। कुछ जीवों के शरीर से पृथ्वी का निर्माण होता है। कुछ जीवों के शरीर से जल का निर्माण होता है। इस प्रकार जीवों के शरीर से अनेक तत्त्वों का निर्माण होता है। जीव ही सूक्ष्म पुद्गलों को स्थूल बनाते हैं और वह स्थूल जगत ही हमारा दृश्य जगत् अथवा सृष्टि है। ' प्रस्तुत अध्याय में लोक और सृष्टि का जो स्वरूप विवेचित हुआ है, वह बहुत उपयोगी है। १. लोगो अकिट्टिमो खलु ... अणाइणिहणो सहावणिव्वत्ता। जीवाजीवहिं फुडो सव्वागासावयवो णिच्चो॥ लोक किसी का बनाया हुआ नहीं है। अनादिनिधन है। उसका आदि और अंत नहीं है। वह स्वाभाविक परिणति से परिणत है। जीव व अजीव द्रव्यों से परिव्याप्त है। सम्पूर्ण आकाश का ही एक भाग है। नित्य है। २. सएहिं परियाएहिं लोगं बूया कडे ति य। लोक अपने पर्यायों से कृत है। कुछ व्यक्ति लोक तत्तं ते ण वियाणंति णायं णाऽऽसी कयाइ वि॥ किसी कर्ता की कृति है, ऐसा मानते हैं। यह उनका अपना अभिमत है। पर सही नहीं है। लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है। ३. अणते णितिए लोए सासए ण विणस्सई। कुछ व्यक्ति मानते हैं कि लोक नित्य, शाश्वत और अंतवं णितिए लोए इइ धीरोऽतिपासई॥ अविनाशी है, इसलिए अनन्त है। किन्तु धीर पुरुष देखता ... है कि लोक नित्य होने पर भी सांत है। ४. अपरिमाणं वियाणाइ इहमेगेसि आहियं। लोक अपरिमित है-ऐसा कुछ व्यक्ति मानते हैं। . सव्वत्थ सपरिमाणं इइ धीरोऽतिपासई॥ किन्तु धीर पुरुष उसे सर्वत्र परिमित देखता है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-१ ५. दुपदेसादी खंधा, सुहमा वा बादरा ससंठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायते॥ द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि सभी सूक्ष्म और बादर स्कंध अपने परिणमन के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के रूप में विविध आकारवाले बन जाते हैं। ६. ओराल विउव्वाहारतेय-भासाणपाणमणकम्मे। द्रव्य वर्गणा के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैंअह दव्ववग्गणाणं कमो..........॥ १. औदारिकवर्गणा २. वैक्रियवर्गणा ३. आहारकवर्गणा ४. तैजसवर्गणा ५. भाषावर्गणा ६. आनपानवर्गणा ७. मनोवर्गणा ८. कार्मणवर्गणा। रोह के प्रश्न ७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा- श्रमण भगवान महावीर का अंतेवासी/शिष्य रोह नाम वीरस्स अंतेवासी रोहे णाम अणगारे। समणस्स का अनगार। वह भगवान की उपासना में बैठा था। भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह। ८. ततेणं से रोहे अणगारे जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी उसके मन में श्रद्धा-जिज्ञासा हुई और बद्धांजलि हो उसने पूछा- . ९. पुब्बिं भंते! लोए, पच्छा अलोए? पुब्बिं अलोए, पच्छा लोए? रोहा! लोए य अलोए य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा! १०.पुब्बिं भंते! जीवा, पच्छा अजीवा? पुव् िअजीवा, पच्छा जीवा? रोहा! जीवा य अजीवा य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा! भंते! पहले लोक और फिर अलोक बना अथवा पहले अलोक और फिर लोक बना? रोह ! लोक और अलोक पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का कोई क्रम नहीं है। . भंते! पहले जीव हुए और फिर अजीव अथवा पहले अजीव और फिर जीव बने? रोह! जीव और अजीव पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का कोई क्रम नहीं है। ११.पुव्विं भंते! भवसिद्धिया, पच्छा अभवसिद्धिया? पुब्बिं अभवसिद्धिया, पच्छा भवसिद्धिया? भंते! पहले भवसिद्धिक/भव्य और फिर अभवसिद्धिक/अभव्य बने अथवा पहले अभवसिद्धिक और फिर भवसिद्धिक बने? रोह! भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का कोई क्रम नहीं है। रोहा! भवसिद्धिया य अभवसिद्धिया य पुट्विं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा! Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास १२.पुब्बिं भंते! सिखी, पच्छा असिद्धी? पुब्बिं असिटी, पच्छा सिखी। रोहा। सिद्धी य असिद्धी य पुव्विं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा, अणाणपव्वी एसा रो अ. १ : सृष्टिवाद भंते! सिद्धि (मोक्ष) और फिर असिद्धि (संसार) बनी अथवा पहले असिद्धि और फिर सिद्धि बनी? रोह! पहले सिद्धि और असिद्धि पहले भी थी और आगे भी होगी। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का कोई क्रम नहीं है। १३.पुब्बिं भंते! सिद्धा, पच्छा असिद्धा? पुव्विं असिया, पच्छा सिद्धा। रोह! सिखा य असिद्धा य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रो- भंते! पहले सिद्ध और फिर असिद्ध बने अथवा पहले असिद्ध और फिर सिद्ध बने? रोह! सिद्ध और असिद्ध दोनों पहले भी थे और बाद में भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का कोई क्रम नहीं है। १४.पुब्बिं भंते! अंडए, पच्छा कुक्कुडी? पुव्विं कुक्कुडी, पच्छा अंडए। रोहा! सेणं अंडए कओ? भयवं! कुक्कुडीओ। साणं कुक्कुडी कओ? .. भंते! अंडयाओ। एकामेव रोह! से य अंडए, सां य कुक्कुडी पुब्बिं पेते, पच्छा पेते-दो बेते सासया भावा, अणाणुपुब्बी एसा रोश! भंते! पहले अंडा और फिर मुर्गी पैदा हुई अथवा पहले मुर्गी और फिर अंडा पैदा हुआ? रोह! वह अंडा कहां से पैदा हुआ? भंते! मुर्गी से। रोह! मुर्गी कहां से पैदा हुई भंते! अंडे से। रोह! इस प्रकार वही अंडा है। वहीं मुर्गी है। यह पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का कोई क्रम नहीं है। स्कंदक के प्रश्न १५.जे वि य ते खंदया। अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए.पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्थाकिंसते लोए? अणंते लोए? तस्स वि य णं अयमठे-एवं खलु मए खंदया! चउबिहे पण्णत्ते, तं तहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सअंते। खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडा- कोडीओ आयामविक्खंभेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अत्थि 'पुण से अंते। कालओ णं लोए न कयाइ न आसी, न कयाइन स्कन्दक परिव्राजक के मन में लोक के विषय में संदेह था। वह अपना संदेह ले भगवान महावीर के समक्ष उपस्थित हुआ। उसे संबोधित करते हुए महावीर ने कहा-स्कंदक! तुमने ऐसा सोचा, विचारा, चाहा और यह मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-लोक सांत है या अनंत? स्कंदक! उसका अर्थ इस प्रकार है-मैंने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से लोक का चार प्रकारों से प्रज्ञापन किया है। द्रव्य की दृष्टि से लोक एक है, सांत है। क्षेत्र की दृष्टि से लोक असंख्येय कोटाकोटि योजन की लंबाई-चौड़ाई वाला है। उसकी परिधि भी असंख्येय कोटाकोटि योजन की है। उसका अंत है-वह सांत है। काल की दृष्टि से लोक कभी नहीं था, कभी नहीं है Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-१ भवइ, न कयाइ न भविस्सइ-भविंस य, भवति य, और कभी नहीं होगा-ऐसा नहीं है। वह था, है और होगा। भविस्सह य-धवे नियए सासए अक्खए अव्वए वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और अवट्ठिए निच्चे, नत्थि पुण से अंते। नित्य है। उसका अंत नहीं है-वह अनन्त है। भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा, अणंता भाव की दृष्टि से लोक अनन्त वर्ण पर्यव, अनंत गंध गंधपज्जवा, अणंता रसपज्जवा, अणंता पर्यव, अनन्त रस पर्यव, अनन्त स्पर्श पर्यव, अनन्त फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणंता संस्थान पर्यव, अनन्त गुरु-लघु पर्यव और अनन्त . गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, अगुरु-लघु पर्यव से युक्त है। उसका अन्त नहीं है वह नत्थि पुण से अंते। अनन्त है। सेत्तं खंदगा! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए स्कंदक! इसलिए द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से लोक सअंते, कालओ अणंते, भावओ लोए अणंते। सांत है एवं काल व भाव की दृष्टि से वह अनन्त है। लोक-अलोक १६.जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए। जिसमें जीव और अजीव दोनों होते हैं, उसे लोक अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए। कहते हैं और जिसमें अजीव का एक देश केवल आकाश होता है, उसे अलोक कहते हैं। जीवों के छह निकाय १७.पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता पृथ्वी चित्तवती/सजीव होती है। उसमें अनेक जीव अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। हैं। प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है। शस्त्रपरिणति (विरोधी द्रव्य का प्रयोग) के बाद पृथ्वी अचित्त/निर्जीव हो जाती है। १८.आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। जल सचित्त होता है। उसमें अनेक जीव हैं। प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है। शस्त्र परिणति के बाद जल अचित्त हो जाता है। १९.तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। अग्नि सचित्त होती है। उसमें अनेक जीव हैं। प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है। शस्त्र परिणति के बाद अग्नि अचित्त हो जाती है। २०.वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। वायु सचित्त होती है। उसमें अनेक जीव हैं। प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है। शस्त्र परिणति के बाद वायु अचित्त हो जाती है। २१.वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तं जहा-अग्गबीया मूल- बीया पोरबीया खंधबीया बीयरुहा सम्मच्छिमा तणलया। वनस्पति सचित्त होती है। उसमें अनेक जीव हैं। प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है। शस्त्र परिणति के बाद वनस्पति अचित्त हो जाती है। वनस्पति के अनेक प्रकार हैं। जैसे-अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज, स्कंधबीज, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. १ : सृष्टिवाद बीजरुह, संमूर्छिम, तृण और लता। २२.से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तं जहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेइमा सम्मुच्छिमा उब्भिया उववाइया। जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिक्कंतं पडिक्कंतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइ. गइ-विन्नाया त्रस जीवों के अनेक प्रकार हैं। जैसे-अंडज, पोतज. जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्च्छनज, उद्भिज, औपपातिक। जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना-ये क्रियाएं हैं, जो आगति एवं गति को जानते हैं वे त्रस हैं। जो कीट, पतंग, कुंथु, पिपीलिका आदि सब द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव हैं, सब तिर्यंच, सब नैरयिक, सब मनुष्य और सब देव हैं वे सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं। यह छट्ठा जीवनिकाय त्रसकाय कहलाता है। जे य कीडपयंगा, जा य कुंथुपिवीलिया, सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सव्वे चउरिंदिया सव्वे पंचिंदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरइया सव्वे मणुया सव्वे देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिया- एसो खलु छट्ठो जीवनिकाओ तसकाओ ति पवुच्चई। द्रव्यवाद २३.धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं॥ धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये । छह द्रव्य हैं। यह षद्रव्यात्मक विस्तार ही लोक है, ऐसा वरदर्शी अर्हतों ने प्ररूपित किया है। २४.भंते त्ति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-जीवा णं भंते! किं चड्ढंति ? हायंति? अवट्ठिया? गोयमा! जीवा नो वड्ढंति, नो हायंति, अवदिया। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया और पूछा-भंते! जीव बढ़ते हैं? घटते हैं? अथवा जितने हैं उतने ही रहते हैं? गौतम! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं। वे जितने हैं उतने ही रहते हैं। २५.सिद्धा णं भंते! पुच्छा! गोयमा! सिद्धा वड्ढंति, नो हायंति, अवट्ठिया वि। भंते! सिद्ध जीव बढ़ते हैं? घटते हैं ? अथवा जितने हैं उतने ही रहते हैं? गौतम! सिद्ध जीव बढ़ते हैं, घटते नहीं हैं। वे एक अपेक्षा (विरहकाल की अपेक्षा) से अवस्थित रहते हैं। २६.जीवा णं भंते! केवतियं कालं अवट्ठिया? भंते! जीव कितने समय तक अवस्थित रहते हैं? गोयमा! सव्वद्धं। गौतम! सर्वकाल में। लोकस्थिति के दस प्रकार । २७.दसविधा लोगठिती पण्णत्ता, तं जहा लोकस्थिति सार्वभौम नियम के दस प्रकार प्रज्ञाप्त हैं१. जणं जीवा उदाइत्ता-उहाइत्ता तत्थेव-तत्थेव जीव बार-बार मरते हैं और वहीं लोक में पुनः पुनः Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-१ जन्म लेते हैं। यह एक प्रकार की लोक-स्थिति है। .. भुज्जो-भुज्जो पच्चायंति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। २. जणं जीवाणं सया समितं पावे कम्मे कज्जति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ३. जण्णं जीवाणं सया समितं मोहणिज्जे पावे कम्मे कज्जति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ४. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ५. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं तसा पाणा वोच्छिज्जिस्संति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वोच्छिज्जिस्संति तसा पाणा भविस्संति-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। जीवों के प्रतिदिन-प्रतिक्षण पापकर्म-ज्ञानावरण आदि का बंध होता रहता है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। जीवों के प्रतिदिन-प्रतिक्षण मोहनीय पापकर्म का बंध होता रहता है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। जीव-अजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए ऐसा न कभी हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। स जीवों का सर्वथा लोप हो जाए और सब जीव स्थावर हो जाए अथवा स्थावर जीवों का सर्वथा लोप हो जाए और सब जीव त्रस हो जाए, ऐसा न कभी हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। लोक अलोक हो जाए और अलोक लोक हो जाए-ऐसा न कभी हआ है, न हो रहा है और न कभी होगा-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। लोक अलोक में प्रविष्ट हो जाए और अलोक लोक में प्रविष्ट हो जाए-ऐसा न कभी हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। जहां लोक है, वहां जीव है और जहां जीव है, वहां लोक है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। ६. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोगे अलोगे भविस्सति, अलोगे वा लोगे भविस्सतिएवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ७. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोए अलोए पविस्सति, अलोए वा लोए पविस्संति- एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता। ८. जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा, जाव ताव जीवा ताव ताव लोए-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। ९. जाव ताव जीवाण य पोग्गलाण य गतिपरियाए ताव ताव लोए, जाव ताव लोगे ताव ताव जीवाण य पोग्गलाण य गतिपरियाए- एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता। १०. सव्वेसु वि णं लोगतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोग्गला लुक्खत्ताए कज्जंति, जेणं जीवा य पोग्गला य णो संचायंति बहिया लोगंता गमणयाए-एवंप्पेगा लोगठिती पण्णत्ता।' जहां जीव और पुद्गलों की गति होती है, वहां लोक है और जहां लोक है वहां जीव और पुद्गलों की गति है-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। समस्त लोकांतों में होने वाले अबद्ध-पार्श्वस्पृष्ट (परस्पर स्कंध रूप में परिणत नहीं होने वाले) पुद्गल स्वभाव से ही रूक्ष होते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते-यह एक प्रकार की लोकस्थिति है। ग्राह्य-ग्राहक भाव मुख्य रूप से विवक्षित है। १. नोकस्थिति के कस प्रकार विश्व व्यवस्था के साबधीय १. लोकस्थिति के दस प्रकार विश्व व्यवस्था के सार्वभौम नियम हैं। इसके अन्य आठ प्रकारों में आधार-आधेय, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. १ : सृष्टिवाद लोकस्थिति के आठ नियम गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न कियाभंते! लोकस्थिति के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? २८.भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी-कतिविहा णं भंते! लोयदिठती पण्णत्ता? गोयमा ! अट्ठविहा लोयदिठती पण्णत्ता, तं जहा१. आगासपइट्ठिए वाए। २. वायपइदिठए उदही। ३. उदहिपइट्ठिया पुढवी। ४. पुढविपइट्ठिया तस-थावरा पाणा। ५. अजीवा जीवपइट्ठिया। ६. जीवा कम्मपइदिया। ७. अजीवा जीवसंगहिया। ८. जीवा कम्मसंगहिया। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ-अट्ठविहा लोयदिठती...... गोयमा! से जहाणामए केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेइ, वत्थिमाडोवेत्ता उप्पिंसितं 'बंधइ, बंधित्ता मज्झे गंठिं बंधइ, बंधित्ता उवरिल्लं गंठिं मुयइ, मुइत्ता उवरिल्लं देसं वामेइ, वामेत्ता उवरिल्लं देसं आउयायस्स पूरेइ, पुरेत्ता उप्पिंसितं बंधई, बंधित्ता मज्झिल्ल इ। से नूणं गोयमा! से आउयाए तस्स वाउयायस्स उप्पिं उवरिमतले चिट्ठइ? गौतम! लोक-स्थिति के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. वायु आकाश पर टिकी हुई है। २. समुद्र वायु पर टिका हुआ है। ३. पृथ्वी समुद्र पर टिकी हुई है। ४. त्रस-स्थावर प्राणी पृथ्वी पर टिके हुए हैं। ५. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। ६. जीव कर्म प्रतिष्ठित हैं। ७. अजीव जीव द्वारा संगृहीत हैं। ८. जीव कर्म द्वारा संगृहीत हैं। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कि लोकस्थिति के आठ प्रकार हैं? गौतम ! जैसे कोई पुरुष किसी मशक में हवा भरता है। उसमें हवा भरकर ऊपर (मुंह के स्थान पर) गांठ देता है। फिर मशक के मध्य भाग में गांठ लगाता है। गांठ लगाकर ऊपर की गांठ को खोलता है। उसे खोलकर ऊपर के भाग की हवा बाहर निकाल देता है। उसे निकालकर ऊपर के भाग को जल से भरता है। उसे जल से भरकर ऊपर गांठ देता है। वहां गांठ देकर फिर मध्य भाग की गांठ खोलता है। गौतम! क्या वह पानी उस वायु के ऊपर-ऊपर ठहरता है? हां ठहरता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-लोकस्थिति के आठ प्रकार हैं। जैसे कोई पुरुष मशक में हवा भरता है। उसमें हवा भरकर उसे अपने कटि प्रदेश में बांधता है। बांधकर अथाह, अतर तथा अपौरुषेय जल में अवगाहन करता है। गौतम! क्या वह पुरुष जल के ऊपर-ऊपर ठहरता हंता चिट्ठ।। से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-अट्ठविहा लोयदिठती...... . से जहा वा केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेइ, वत्थिमाडोवेत्ता कडीए बंधइ, बंधित्ता अत्थाहमतारमपोरुसियंसि उदगंसि ओगाहेज्जा। से नूणं गोयमा! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिट्ठइ? - हंता चिट्ठइ। एवं वा अट्ठविहा लोयदिठई जाव जीवा कम्मसंगहिया। हां ठहरता है। इस प्रकार लोकस्थिति के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं। Page #25 --------------------------------------------------------------------------  Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-२ कालचक्र Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय पृ. सं. १. अवसर्पिणी के प्रकार २. उत्सर्पिणी के प्रकार ३. अवसर्पिणी का कालमान ४. उत्सर्पिणी का कालमान ५. अवसर्पिणी काल ६. प्रथम अर ७. द्वितीय अर ८. तृतीय अर ९. चतुर्थ अर १०. पंचम अर ११. षष्ठम अर १२. विश्वविनाश का एक चित्र १३. उत्सर्पिणी काल १४. प्रथम अर १५. द्वितीय अर १६. तृतीय अर १७. चतुर्थ अर १८. पंचम अर १९. षष्ठम अर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालचक्र १. दो समाओ पण्णत्ताओ, तं जहा ओसप्पिणी समा चेव। उस्सप्पिणी समा चेव। समा कालचक्र के दो अंग प्रज्ञप्त हैं१. अवसर्पिणी काल। २. उत्सर्पिणी काल। अवसर्पिणी के प्रकार २. ओसप्पिणी काले णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! छब्बिहे पण्णत्ते, तं जहा१. सुसमसुसमाकाले २. सुसमाकाले ३. सुसमदुस्समाकाले ४. दुस्समसुसमाकाले ५. दुस्समाकाले . ६. दुस्समदुस्समाकाले। भंते! अवसर्पिणी काल के कितने प्रकार हैं? गौतम! उसके छह प्रकार हैं१. सुषम-सुषमा २. सुषमा ३. सुषम-दुःषमा ४. दुःषम-सुषमा ५. दुःषमा ६. दुःषम-दुःषमा उत्सर्पिणी के प्रकार ३. उस्सप्पिणीकाले णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? भंते! उत्सर्पिणी काल के कितने प्रकार हैंगोयमा! छब्बिहे पण्णत्ते, तं जहा गौतम! उसके छह प्रकार हैंदुस्समदुस्समाकाले. १. दुःषम-दुःषमा दुस्समाकाले २. दुःषमा दुस्समसुसमाकाले ३. दुःषम-सुषमा सुसमदुस्समाकाले ४. सुषम-दुःषमा सुसमाकाले ५. सुषमा सुसमसुसमाकाले। ६. सुषम-सुषमा अवसर्पिणी का कालमान ४. चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम- १. सुषम-सुषमा का कालमान–४ कोड़ाकोड़ी सुसमा। सागरोपम। तिणि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा। २. सुषमा का कालमान-३ कोड़ाकोड़ी सागरोपम। दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमदूसमा। ३.. सुषम-दुःषमा का कालमान-२ कोड़ाकोड़ी सागरोपम। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसमसुसमा । एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसमा । एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसमदूसमा । ५. उस्सप्पिणीए एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसमदूसमा । एक्कवीसं वाससहस्साइं कालो दूसमा । एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसमसुसमा । दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमदूसमा । उत्सर्पिणी का कालमान तिण्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा । तिण्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम - सुसमा । ६. दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी, दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणी, वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी उस्सप्पिणी य । प्रथम अर ७. जंबूहीवे णं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसम - सुसमा समाए उत्तिमट्ठपत्ताए, भरहस्स वासस्स रिस आगारभाव - पडोयारे होत्था ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था । तत्थ णं बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओ य आसयंति सयंति चिट्ठेति निसीयंति तुयति हसंति रमंति ललंति। तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ-तत्थ देसे - देसे तहिं तहिं बहवे उद्दाला कोहाला जाव कुस - विकुस - विसुद्धरुक्ख मूला...... । ८. छव्विहा मणुस्सा अणुसज्जित्था, तं जहा१. पम्हगंधा २. मियगंधा ४. तेतली ५. सहा १४ खण्ड - १ ४. दुःषम- सुषमा का कालमान- ४२ हजार वर्ष कम १ कोड़ाकोड़ी सागरोपम । ५. दुःषमा का कालमान- २१ हजार वर्ष । ६. दुःषम - दुःषमा का कालमान-२१ हजार वर्ष । ३. अममा ६. सणिचारी १. दुःषम - दुःषमा का कालमान- २१ हजार वर्ष । २. दुःषमा का कालमान- २१ हजार वर्ष । ३. दुःषम- सुषमा का कालमान-४२ हजार वर्ष कम १ कोड़ाकोड़ी सागरोपम। ४. सुषम दुःषमा का कालमान-२ कोड़ाकोड़ी सागरोपम । अवसर्पिणी काल ५. सुषमा का कालमान- ३ कोड़ाकोड़ी सागरोपम । ६. सुषम- सुषमा का कालमान-४ कोड़ाकोड़ी सागरोपम। अवसर्पिणी का कालमान दस कोड़ाकोड़ी सागरोपमः । उत्सर्पिणी का कालमान दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम। इस प्रकार कालचक्र' का कालमान है बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम भंते! जंबूद्वीप नामक द्वीप में अवसर्पिणी काल का सुषम-सुषमा नामक प्रथम अर जब अपने उत्कर्ष में था, उस समय भरतक्षेत्र का आकारभावप्रत्यावतार - स्वरूप और पर्यावरण कैसा था ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग मृदंग की तरह प्रायः समतल और रमणीय था। वहां के स्त्री-पुरुष बैठते थे, सोते थे, खड़े रहते थे। हास्य और क्रीड़ा करते थे। उस समय भरतक्षेत्र में कहीं-कहीं अनेक उद्दाल, कोद्दाल आदि वृक्ष थे। उनके मूल में घास-फूस नहीं थे। दूब, तृण आदि वहां छह प्रकार के मनुष्य निवास करते थे१. पक्ष्मगंध २. मृगगंध ४. तेतली ५. सह ३. अमम ६. सणिचारी । " Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास द्व ९. तीसे णं समाए चउहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अणंतेहिं गंधपज्जवेहिं अणतेहिं रसपज्जवेहिं अणंतेहिं फासपज्जवेहिं अणंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अणंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अणंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अणंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयल हुयपज्जवेहिं अणंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अणंतेहिं उट्ठाणकम्म-बल-वीरिय- पुरिसक्कार- परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणी परिहायमाणे- परिहायमाणे एत्थ णं सुसमा णामं समा काले पडिवज्जिंसु समणाउसो ! १५ तृतीय अर १०. तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं..... अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे- परिहायमाणे एत्थ णं सुसमदुस्समा णामं समा काले पडिवज्जिसु समणाउसो ! चतुर्थ अर ११. तीसे णं समाए दोहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं..... अणंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे- परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमसुसमा णामं समा काले पडिवज्जिसु समणाउसो ! पंचम अर १२. तीसे णं समाए भरहे वासे एक्काए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणियाए का वीsrid अणतेहिं aणपज्जवे हिं .... अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे- परिहायमाणे, तत्थ णं दूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सह समणाउसो ! १३. तीसे णं समाए पच्छिमे तिभागे गणधम्मे पासंडधम्मे रायधम्मे जायते वोच्छिज्जिस्सइ । धम्मचरणे य अ. २ : कालचक्र चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति वाले प्रथम अर के बीतने पर वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संहनन, संस्थान, ऊंचाई, आयु, गुरुलघुपर्यव, अगुरुलघुपर्यव, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम में क्रमशः अनन्तगुण हानि हो गई। आयुष्मन् ! उस हीयमान स्थिति में अवसर्पिणी काल का सुषमा नामक दूसरा अर प्रारंभ हुआ । तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थितिवाले दूसरे अर के बीतने पर वर्ण आदि में क्रमशः अनन्तगुण हानि हो गई। आयुष्मन् ! उस हीयमान स्थिति में अवसर्पिणी काल का सुषम-दुःषमा नामक तीसरा अर प्रारंभ हुआ। दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थितिवाले तीसरे अर के बीतने पर वर्ण आदि में क्रमशः अनन्तगुण हानि हो गई। आयुष्मन् ! उस हीयमान स्थिति में अवसर्पिणी काल का दुःषम-सुषमा नामक चतुर्थ अर प्रारंभ हुआ। बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति वाले चतुर्थ अर के बीतने पर वर्ण आदि में क्रमशः अनंतगुण हानि हो जाएगी। आयुष्मन् ! उस हीयमान स्थिति में अवसर्पिणी काल का दुःषमा नामक पांचवां अर प्रारंभ होगा। दुःषमा नाम के पंचम अर का एक-तिहाई भाग जब शेष रहेगा, तब गणधर्म, पाषंडधर्म, राजधर्म, अग्नि और धर्माचरण का विच्छेद हो जाएगा। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-१ षष्ठ अर १४. तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले इक्कीस हजार वर्ष की स्थिति वाले दुःषमा नामक वीइक्कते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं.....अणंतगुण- पंचम अर के बीतने पर वर्ण आदि में अनन्तगुण हानि हो परिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे एत्थ णं जाएगी। आयुष्मन् ! उस हीयमान स्थिति में अवसर्पिणी दूसमदूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ काल का दुःषम-दुःषमा नामक छट्ठा अर प्रारंभ होगा। समणाउसो! विश्वविनाश का एक चित्र १५.तीसे णं भंते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स भंते! जब अवसर्पिणी काल का छट्ठा अर दुःषमवासस्स केरिसए आगारभाव-पडोयारे भविस्सइ? दुःषमा पराकाष्ठा पर होगा, तब भरतक्षेत्र का स्वरूप व पर्यावरण कैसा होगा? गोयमा! काले भविस्सई हाहाभूए भंभाभूए गौतम! वह काल हाहाकारमय होगा। उसमें सांयकोलाहलभूए समाणुभावेण य णं खरफरुस- सांय की आवाजें होंगी। खर, परुष, धूलिमय, दुस्सह, धूलिमइला दुविसहा वाउला भयंकरा य वाया चक्राकार हवाएं चलेंगी। भयंकर प्रलयंकारी हवाएं चलेंगी। संवट्टगा य वाहिति। इह अभिक्खणं धूमाहिति य दिशाएं धूमिल, रजकणों से व्याप्त तथा धूलभरी आंधियों दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुस-तमपडल- से अंधकारमय होंगी। चांद अधिक ठंडा हो जाएगा। सूरज णिरालोया। समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा और अधिक तपेगा। सीयं मोच्छिहिति, अहियं सूरिया तविस्संति। अदुत्तरं च णं गोयमा! अभिक्खणं अरसमेहा गौतम! उस समय मेघ बार-बार बरसेंगे। उन मेघों विरसमेहा खारमेहा खत्तमहा अग्गिमेहा विज्जुमेहा का जल अरस और विरस होगा। वे मेघ क्षारमय विसमेहा असणिमेहा अजवणिज्जोदगा वाहिरोग- (तेजाबी), अधिक विद्युत वाले, विषमय और उल्कामय वेदणोदीरणपरिणामसलिला - अमणुण्णपाणियगा होंगे। उनका जल यापनीय (जीवन-निर्वाह के लिए चंडानिलपहत-तिक्खधारा-णिवातपउरं वासं उपयोगी) नहीं होगा। वे मेघ व्याधि, रोग और वेदना को वासिहिति। जेणं भरहे वासे गामागरणगर-खेड- उदय में लाने वाले होंगे, अमनोज्ञ जलवाले होंगे। उनकी कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासमगयं जणवयं, धारा प्रचंड वायु से प्रहत तीव्र वेगवाली होंगी। उससे चउप्पयगवेलए, खहयरे पक्खिसंघे गामा- भरतक्षेत्र के ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, रण्णप्पयारणिरए तसे य पाणे बहुप्पयारे रुक्ख- द्रोणमुख, आश्रम और जनपद विनष्ट हो जाएंगे। गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-पवालंकुरमादीए तण- चतुष्पद-गाय, भैंस, भेड़ आदि पशु, नभचर-पक्षी समूह वणस्सइकाइए ओसहीओ य विद्धंसेहिंति पव्वय एवं ग्राम व जंगल में घूमने वाले विविध त्रस प्राणी विनष्ट गिरि-डोंगरुत्थलभट्ठिमादीए य वेयड्ढगिरिवज्जे । हो जाएंगे। वृक्ष, गृच्छ, गुल्म, लता, बेल, कोपल, अंकुर विरावेहिंति, सलिलबिलविसम-गड्डणिण्णुण्ण- आदि सब प्रकार की तृण-वनस्पतियां एवं फसलें लुप्त हो याणि य गंगासिंधुवज्जाइं समीकरोहिंति।' जाएंगी। वैताढ्य (हिमालय) पर्वत को छोड़ शेष सभी पर्वत, गिरि, डूंगर, स्थल, पठार आदि विदीर्ण हो जाएंगे। गंगा और सिंधु नदी को छोड़ कर शेष सभी झरने, तालाब, गड्ढे आदि सूख जाएंगे। समतल हो जाएंगे। १. प्रस्तुत वर्णन में विश्वविनाश का जो चित्र खींचा गया है, उसकी संपुष्टि आज के वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत अणुयुद्ध से होनेवाले पर्यावरणीय परिवर्तन से की जा सकती है। इटली के वैज्ञानिक प्रो. टॉरी की भविष्यवाणी इस संदर्भ में तुलनीय है। इसका विस्तृत वर्णन भगवती ७/११८-१२३ के सूत्र में देखें। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. २: कालचक्र उत्सर्पिणी काल प्रथम अर १६.तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले इक्कीस हजार वर्ष की स्थितिवाले दुःषम-दुःषमा वीइक्कंते आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सावण- नामक छठे अर के बीतने पर आगामी उत्सर्पिणी काल बहुलपडिवए बालवकरणंसि अभीइणक्खत्ते का प्रारंभ होगा। श्रावण मास की कृष्ण प्रतिपदा, बालव चोइसपढमसमये अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अणंतेहिं करण, अभिजित् नक्षत्र तथा काल गणना के चवदह गंधपज्जवेहिं अणंतेहिं रसपज्जवेहिं अणंतेहिं विभागों के प्रथम समय में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संहनन, फासपज्जवेहिं अणंतेहिं संघयणपज्जवेहि अणंतेहिं संस्थान, ऊंचाई, आयु, गुरुलघुपर्यव, अगुरुलघुपर्यव, संठाणपज्जवेहि अणंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अणंतेहिं उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम में अनंत आउपज्जवेहिं अणंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं गुण वृद्धि होने लगेगी। आयुष्मन् ! उस वर्द्धमान स्थिति में अणंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अणंतेहिं उट्ठाण- उत्सर्पिणी काल का दुःषम-दुःषमा नामक प्रथम अर प्रारंभ कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं होगा। अणंतगुणपरिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! द्वितीय अर १७.तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं....अणंतगुणपरिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं दूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! इक्कीस हजार वर्ष की स्थितिवाले दुःषम-दुःषमा नामक प्रथम अर के बीतने पर वर्ण आदि में अनंतगुण वृद्धि होने लगेगी। आयुष्मन्! उस वर्द्धमान स्थिति में उत्सर्पिणी काल का दुःषमा नामक दूसरा अर प्रारंभ होगा। तृतीय अर १८.तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं....अणंतगुणपरिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं दूसमसुसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! इक्कीस हजार वर्ष की स्थितिवाले दुःषमा नामक दूसरे अर के बीतने पर वर्ण आदि में अनंतगुण वृद्धि होने लगेगी। आयुष्मन् ! उस वर्द्धमान स्थिति में उत्सर्पिणी काल का दुःषम-सुषमा नामक तीसरा अर प्रारंभ होगा। चतुर्थ अर १९.तीसे णं समाए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणियाए काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं....अणंतगुण- परिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं सुसमदूसमा णामं समा काले पडिवन्जिस्सइ समणाउसो! बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थितिवाले दुःषम-सुषमा नामक तृतीय अर के बीतने पर वर्ण आदि में अनंतगुण वृद्धि होने लगेगी। आयुष्मन् ! उस वर्द्धमान स्थिति में उत्सर्पिणी काल का सुषम-दुःषमा नामक चतुर्थ अर प्रारंभ होगा। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-१ पंचम अर २०.तीसे णं समाए दोहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले दो कोडाकोड़ी सागरोपम की स्थितिवाले सुषम वीइक्कते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं....अणंतगुण- दुःषमा नामक चतुर्थ अर के बीतने पर वर्ण आदि में परिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं अनंतगुण वृद्धि होने लगेगी। आयुष्मन् ! उस वर्द्धमान सुसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ । स्थिति में उत्सर्पिणी काल का सुषमा नामक पंचम अर समणाउसो! प्रारंभ होगा। षष्ठ अर २१.तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं....अणंतगुण- परिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं सुसमसुसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थितिवाले सुषमा नामक पंचम अर के बीतने पर वर्ण आदि में अनंतगुण वृद्धि होने लगेगी। आयुष्मन् ! उस वर्द्धमान स्थिति में उत्सर्पिणी काल का सुषम-सुषमा नामक छंठा अर प्रारंभ होगा। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-३ आदिम युग : अर्हत् ऋषभ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय पृ. सं. २२ पृ. सं.. २७ १. कल्पवृक्ष के प्रकार २. सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश ३. कुलकर व्यवस्था : अर्हत् ऋषभ ४. कर्मयुग का प्रवर्तन २७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिम युग : अर्हत् ऋषभ १. तीसे णं भंते! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहाणामए गुलेइ वा खंडेइ वा सक्कराइ वा....... भवे एयारूवे ? णो इट्ठे समट्ठे । सा णं पुढवी इत्तो इट्ठतरिया चेव कंततरिया चैव पियतरिया चेव । २. तेसि णं भंते! पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहाणामए रण्णो चाउरंतचक्कटिस्स कल्लाणे भोयणजाए सयसहस्सनिप्फन्ने वणेणुववेए गंधेणुववेए रसेणुववेए फासेणुववेए आसायणिज्जे विसायणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिंहणिज्जे सव्विंदिअगायपल्हाय णिज्जे । भवे एयारूवे ? णो इणट्ठे समट्ठे । तेसि णं पुप्फफलाणं एत्तो इट्ठतराए चेव कंततराए चेव पियतराए चेव मण्णतराए चेव मणामतराए चेव आसाए पण्णत्ते । ३. ते णं भंते! मणुया तमाहारमाहारेत्ता कहिं वसहिं उवेंति ? गोयमा ! रुक्खगेहालया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो ! ४. तेसि णं भंते! रुक्खाणं केरिसए आगारभाव - पडोयारे पण्णत्ते ? भंते! अवसर्पिणी काल के सुषमा नाम के प्रथम अर पृथ्वी का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! जैसे गुड़, खांड, शक्कर आदि पदार्थों का आस्वाद होता है। भंते! क्या उस पृथ्वी का आस्वाद ऐसा ही होता है ? नहीं । गौतम ! उस पृथ्वी का आस्वाद इनसे भी अधिक इष्ट, कांत और प्रिय होता है। भंते! पुष्पों और फलों का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! जैसे चक्रवर्ती का कल्याण भोजन एक लाख गायों की दुग्धपानविधि से निष्पन्न, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से युक्त, स्वादिष्ट, भूखवर्धक, बलवर्धक, कामोत्तेजक, पुष्टिकारक और शरीर के प्रत्येक अवयव को आह्लादित 'करने वाला होता है। भंते! क्या पुष्पों फलों का आस्वाद ऐसा ही होता है ? नहीं। गौतम ! पुष्पों और फलों का आस्वाद उससे भी अधिक इष्ट, कांत और प्रिय होता है। भंते! उस आहार को करने वाले मनुष्यों के आवास कहां होते हैं ? गौतम! वे मनुष्य वृक्ष - गृहों में रहते हैं। भंते! उन वृक्षों का आकार - प्रत्यवतार कैसा होता है ? Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ૨૨ खण्ड-१ गोयमा! कूडागारसंठिया पेच्छा-च्छत्त-झय-थूभतोरण - गोपुर - वेड्या - चोप्पालग - अट्टालग- पासाय - हम्मिय - गवक्ख . वालग्गपोइया- वलभीघरसंठिया, अण्णे इत्थ बहवे वरभवण- विसिट्ठसंठाणसंठिया दुमगणा सुहसीयलच्छाया पण्णत्ता समणाउसो! गौतम! वे वृक्ष कूटाकार, दर्शकदीर्घा, छत्र, ध्वजा, स्तूप, तोरण, गोपुर, वेदिका, बरामदा, अटारी, प्रासाद, हर्म्य, गवाक्ष, जलमंदिर और छप्पर के संस्थानवाले होते हैं। और भी अनेक वृक्षगण भवनों के विशिष्ट संस्थानवाले, शीतल तथा सुखद छायावाले होते हैं। कल्पवृक्ष के प्रकार५. सुसमसुसमाए णं समाए दसविहा रुक्खा सुषम-सुषमाकाल में दस प्रकार के वृक्ष उपभोग में उवभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, तं जहा आते हैंमतंगया य भिंगा, तुडितंगा दीव जोति चित्तंगा। १. मृदांगक' २. भृग ३. त्रुटितांग चित्तरसा मणियंगा, गेहागारा अणियणा य॥ ४. दीपांगर्ष ५. ज्योतिअंग' ६. चित्रांग ७. चित्ररस ८. मणिअंग ९. गेहाकार १०. अनग्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश ६. अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गेहाइ वा भंते! उस समय भरतक्षेत्र में घर, दुकान आदि होते गेहावणाइ वा? गोयमा! णो इणढे समठे। रुक्खगेहालया णं ते गौतम! नहीं। वे मनुष्य वृक्षगृहों में रहते हैं, आयुष्मन् मणुया पण्णत्ता समणाउसो! श्रमण! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, खान, आश्रम, संबाध और सन्निवेश होते हैं ? ७. अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा णगराइ वा णिगमाइ वा रायहाणीइ वा खेडाइ वा कब्बडाइ व मडंबाइ वा दोणमुहाइ वा पट्टणाइ वा आगराइ वा आसमाइ वा संबाहाइ वा सण्णिवेसाइ वा? गोयमा! णो इणठे समठे, जहिच्छियकामगामिणो णं ते मणुया पण्णत्ता। गौतम! नहीं। वे इच्छानुसार विचरण करते हैं। ८. अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा मसीइ वा किसीइ वा वणिएत्ति वा पणिएत्ति वा वाणिज्जेइ वा? भंते! उस समय भरतक्षेत्र में असि, मसि, कृषि, व्यापार. लेन-देन और व्यवसाय होते हैं? १. मादक रसवाले। २. पात्राकार पत्तोंवाले। ३. वाद्यध्वनि उत्पन्न करनेवाले। ४. प्रकाश करनेवाले। ५. अग्नि की भांति उष्मा सहित प्रकाश करनेवाले। ६. मालाकार पुष्पों से लदे हुए। ७. विविध प्रकार के मनोज्ञ रसवाले। ८. आभरणाकार फूल-पत्रवाले। ९. घर के आकारवाले। १०. नग्नत्व को ढांकने के उपयोग में आनेवाले। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ अ. ३ : आदिम युग : अर्हत् ऋषभ उद्भव और विकास गोयमा! णो इणढे समठे, ववगयअसि-मसि- किसि-वणिय-पणिय-वाणिज्जा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! गौतम! नहीं। वे मनुष्य असि, मसि, कृषि, व्यापार, लेने-देन और व्यवसाय नहीं करते हैं, आयुष्मन् श्रमण! ९. अस्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे हिरण्णेइ वा सुवण्णेइ वा कंसेइ वा दूसेइ वा मणिमोत्तिय-संख- सिल-प्पवाल-रत्तरयण-सावज्जेइ वा? हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छइ। . भंते! उस समय भरतक्षेत्र में हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र, मणि, मुक्ता, शंख, मैनसिल, मूंगा, माणक और स्वापतेय (धन) होते हैं? होते हैं। पर मनुष्य उनका उपभोग नहीं करते। १०.अस्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे रायाइ वा जुवरायाइ वा ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय- इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहाइ वा? गोयमा! णो इणढे समठे, ववगयइड्ढिसक्कारा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में राजा, युवराज, अमात्य, नगररक्षक, सीमावर्ती राजा, कौटुंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह होते हैं? गौतम! नहीं। वे मनुष्य ऋद्धि और सत्कार से मुक्त होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! ११.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे दासेइ वा भंते! उस समय भरतक्षेत्र में दास, नौकर, शिष्य, . । पेसेइ वा सिस्सेइ वा भयगेइ वा भाइल्लएइ वा भूतक, भागीदार और कर्मकर होते हैं ? .. कम्मारएइ वा? ... णो इणढे समठे, ववगयआभिओगा णं ते मणुया . नहीं। वे मनुष्य आभिओग-स्वामी-सेवक संबंध से __पण्णत्ता समणाउसो! मुक्त होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में माता-पिता, भाईबहिन, पत्नी, पुत्र-पुत्री और पुत्रवधू होते हैं? १२.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा पियाइ वा भाया-भगिणि-भज्जा-पुत्त-धूया-सुण्हाइ वा? हंता अत्थि, णो चेव णं तिव्वे पेम्मबंधणे समुप्पज्जा । होते हैं। पर उनमें तीव्र प्रेम का बंधन नहीं होता। १३.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे अरीइ वा वेरिएइ वा घायएइ वा वहएइ वा पडिणीयएइ वा पच्चामित्तेइ वा? जो इणठे समठे, ववगयवेराणुसया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में अरि, बैरी, घातक, वधक. प्रत्यनीक और प्रत्यमित्र (वह अमित्र जो पहले मित्र रह चुका है) होते हैं? नहीं। वे मनुष्य वैर-विरोध से रहित होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! . १४.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे मित्ताइ वा वयंसाइ वा णायएइ वा घाडिएइ वा सहाइ वा सुहीइ वा संगइएति वा? भंते! उस समय भरतक्षेत्र में मित्र, वयस्क, ज्ञातक (अपनी ज्ञातिवाला) सहचारी, सखा, सुहृद् और सांगतिक (साथी) होते हैं? Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-१ होते हैं। पर उनमें राग का तीव्र बंधन नहीं होता। हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं तिव्वे. रागबंधणे समुप्पज्जइ। १५.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे आवाहाइ वा वीवाहाइ वा जण्णाइ वा सद्धाइ वा थालीपागाइ वा पितिपिंडनिवेदणाइ वा? णो इणठे समठे, ववगयआवाह-विवाहजण्णसद्ध-थालीपाग-पितिपिंडनिवेदणा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में सगाई, विवाह, यज्ञ (इष्टदेव की पूजा) श्राद्ध, स्थालीपाक और पितृपिंडदान होते हैं? "नहीं। वे मनुष्य सगाई आदि से मुक्त होते हैं। " १६.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे इंदमहाति वा खंद-णाग-जक्ख-भूय-अगड-तलाग-दह-णदि- रुक्ख-पव्वय-थूभ-चेइयमहाइ वा? णो इणठे समठे, ववगयमहिमा णं ते मण्या पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में इन्द्र, स्कन्द, नाग, यक्ष, भूत, कूप, तालाब, द्रह, नदी, वृक्ष, पर्वत, स्तूप, चैत्य आदि के महोत्सव होते हैं? ... नहीं। वे मनुष्य महोत्सव नहीं मनाते हैं, आयुष्मन् श्रमण! १७.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे णड पेच्छाइ वा णट्ट-जल्ल-मल्ल-मुठिय-वेलंबगकहग-पवग-लासगपेच्छाइ वा? भंते! उस समय भरतक्षेत्र में नाटक, नृत्य, रस्सीकूद, मल्लकुश्ती, मुक्केबाज, विदूषक, कथक, धावक, रास : इनके प्रेक्षास्थल और इन्हें देखने के लिए लोगों का मिलन होता है? ____नहीं। वे मनुष्य कुतूहल रहित होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! णो इणठे समठे, ववगयकोउहल्ला णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! १८.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे सगडाइ वा रहाइ वा....? भंते! उस समय भरतक्षेत्र में शकट, रथ, यान, वाहन, डोली, बग्घी, शिविका और स्यन्दमानिका होते णो इणढे समठे, पायचारविहारा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! नहीं। वे मनुष्य पादचारी होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! १९.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गावीइ वा महिसीइ वा अयाइ वा एलगाइ वा.....? हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। . भंते! उस समय भरतक्षेत्र में गाय, भैंस, बकरी और भेड़ होते हैं? होते हैं। पर वे मनुष्य के परिभोग में नहीं आते। २०.अस्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे आसाइ वा हत्थि-उट्ट-गोण-गवय-अय-एलग-पसय-मियवराह- रुरु-सरभ-चमर-कुरंग-गोकण्णमाइया? भंते! उस समय भरतक्षेत्र में घोड़ा, हाथी, ऊंट, बैल, रोझ, बकरा, भेड़, मृग, सूअर, रुरु, शरभ, चमर, कुरंग और गोकर्ण आदि होते हैं? पा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास झंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं . परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। अ. ३ : आदिम युग : अर्हत् ऋषभ होते हैं। पर वे मनुष्य के परिभोग में नहीं आते हैं। २१.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे सीहाइ वा वग्याइ वा विग-दोविग-अच्छ-तच्छ-सियाल- विडाल-सुणग-कोकंतिय-कोल-सुणगाइ वा? हंता अत्थि, णो चेव णं ते अण्णमण्णस्स तेसिं वा मणुयाणं आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेयं वा उप्पाएंति। पगहभइया णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो? भंते! उस समय भरतक्षेत्र में सिंह, बाघ, भेड़िया, गेंडा, भालू, तेंदुआ, सियाल, बिडाल, कुत्ता, लोमड़ी और जंगली सूअर होते हैं? होते हैं। पर वे मनुष्यों को न बाधा पहुंचाते हैं और न काटते हैं। वे हिंस्र पशु प्रकृति से भद्र होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! २२.अत्यि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे सालीति वा वीहि-गोहूम-जव-जवजवाइ वा कल-मसूर-मुग्ग- मास - तिल-कुलत्थ - णिप्फावग - आलिसंदग- अयसि - कसंभ - कोइव -कंग-वरग-रालग-सणसरिसव-मूलाबीआइ वा? . हूंता अत्यि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। भंते! उस समय भरतक्षेत्र में शालि, ब्रीहि, गेहूं, जौ, जवजव, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, कुलत्थी, राजमाष, चवला, अतसी, कुसुम्भ, कोद्रव, कंगु, वरक, मालकांगणी, सण, सरसों, मला नाम के शाक विशेष के बीज होते हैं? होते हैं। पर मनुष्य उनका परिभोग नहीं करते। २३.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गड्ढाइ वा .. दरी-ओवाय-पवाय-विसम-विज्जलाइ वा? . - भंते! उस समय भरतक्षेत्र में गड्ढा, गुफा, अवपात, प्रपात (जहां से मनुष्य नीचे गिर जाता है) उबड़-खाबड़ भूमि और पंकिल भूमि होती है? नहीं। उस समय का भूमिभाग मृदंग की तरह बहुत रमणीय और समतल होता है। जो इणठे समढे, भरहे वासे बहुसमरमणिज्जे • भूमिभागे पणत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेह वा। २४.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे खाणूह वा कंटग-तणय-कयवराइ वा पत्तकयवराइ वा? ___णो इणठे समठे, ववगयखाणुकंटगतण-कयवर- पत्सकयवरा णं सा समा पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में ढूंठ, कांटे, तृण-घास का कचरा, पत्तों का कचरा होता है? नहीं। उस समय ढूंठ आदि नहीं होते, आयुष्मन् श्रमण! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में डांस, मच्छर, जूं, लीख, खटमल और चीचड़ होते हैं ? २५, अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे डंसाइ वा मसगाइ वा जूआइ वा लिक्खाइ वा ढिंकुणाइ वा पिसुआइ वा? .. णो इणढे समढे, ववगय डंस-मसग-जूअ- लिक्ख-ढिंकुण-पिसुआ उवद्दवविरहिया णं सा समा पण्णत्ता समणाउसो! नहीं। उस समय डांस आदि का उपद्रव नहीं होता, आयुष्मन् श्रमण ! Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २६ खण्ड-१ भंते! उस समय भरतक्षेत्र में सर्प और अजगर होते २६.अस्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे अहीइ वा अयगराइ वा? हंता अस्थि, णो चेव णं ते अण्णमण्णस्स तेसिं वा मणुयाणं आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेयं वा उप्पाएंति। पगइभदया णं ते वालगगणा पण्णत्ता समणाउसो! होते हैं। पर वे मनुष्यों को न बाधा पहुंचाते हैं और न काटते हैं। वे प्रकृति से भद्र होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! २७.अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे डिंबाइ वा डमराइ वा कलह-बोल-खार-वेर-महाजुहाइ वा महासंगामाइ वा महासत्थपडणाइ वा महापुरिस- पडणाइ वा महारुधिरपडणाति वा? गोयमा! णो इणढे समठे, ववगयवेराणुबंधा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में विप्लव, युद्ध, कलह, कोलाहल, कटुता, वैर, महायुद्ध, महासंग्राम, महाशस्त्र का प्रयोग, महापुरुषों-राजा, सेनापति आदि का अकाल निधन, महान रक्तपात होते हैं? नहीं। वे मनुष्य वैर-विरोध से रहित होते हैं आयुष्मन् श्रमण! २८.अत्थि णं भंते तीसे समाए भरहे वासे दुब्भूयाति वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा मंडलरोगाइ वा पोट्ट-सीसवेयणाइ वा कण्णोठ-अच्छि-णह- दंतवेयणाइ वा कासाइ वा सासाइ वा सोसाइ वा जराइ वा दाहाइ वा अरिसाइ वा अजीरगाइ वा दओदराइ वा पंडुरोगाइ वा भगंदराइ वा एगाहियाइ वा बेयाहियाइ वा तेयाहियाइ वा चउत्थाहियाइ वा धनुग्गहाइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारम्गहाइ वा जक्खम्गहाइ वा भूयग्गहाइ वा मत्थगसूलाइ वा हिययसूलाइ वा पोट्टकुच्छि- जोणिसूलाइ वा गाममारीइ वा जाव सण्णिवेस- मारीइ वा पाणक्खया जणक्खया कुलक्खया वसणब्भूय-मणारिया? णो इणठे समठे, ववगयरोगायंका णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते! उस समय भरतक्षेत्र में टिड्डी आदि क्षुद्र जन्तुओं के उपद्रव, कुलरोग, ग्रामरोग, मंडलरोग, उदरपीड़ा, शिरोवेदना, कान, होठ, आंख, नख और दांत की पीड़ा, खांसी, दमा, क्षयरोग, ज्वर, दाह, बवासीर, अजीर्ण, जलोदर, पीलिया, भगंदर, एकान्तर ज्वर, दो दिन के अंतराल से आनेवाला ज्वरं, तीन दिन के अंतराल से आनेवाला ज्वर, चार दिन के अंतराल से आनेवाला ज्वर, धनुर्ग्रह, इन्द्रग्रह, स्कंदग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, मस्तकशूल, हृदयशूल, उदरशूल, कुक्षिशूल, योनिशूल, ग्राममारी यावत् सन्निवेशमारी, प्राणक्षयपशुक्षय, जनक्षय, कुलक्षय-जनता को पीड़ित करने वाले ये व्याघात होते हैं? नहीं। वे मनुष्य रोग और आतंक से रहित होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! २९.ते णं भंते! मणुया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति? कहिं उववज्जंति? गोयमा! छम्मासावसेसाउया जुयलगं पसवंति, एगूणवण्णं राइंदियाइं सारक्खंति संगोवेंति, सारक्खित्ता संगोवेत्ता कासित्ता छीइत्ता जंभाइत्ता अक्किट्ठा अव्वहिया अपरिताविया कालमासे कालं किच्चा देवलोएस उववज्जंति, देवलोग- भंते! उस समय के मनुष्य आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हो कहां जाते हैं. कहां उत्पन्न होते हैं? गौतम ! जब छह मास का आयुष्य शेष रहता है, तब वे मनुष्य एक युगल को जन्म देते हैं। ४९ रात्रिपर्यंत उस युगल का संरक्षण करते हैं, संगोपन करते हैं। अंत में बिना किसी कष्ट, पीड़ा एवं संताप का अनुभव किए वे खांसी, छींक अथवा जंभाई के साथ मृत्यु को प्राप्त कर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास परिग्गाणं ते मणुया पण्णत्ता, समणाउसो! अ. ३ : आदिम युग : अर्हत् ऋषभ देवलोक में उत्पन्न होते हैं। वे मनुष्य निश्चित रूप से देवलोकगामी होते हैं, आयुष्मन् श्रमण! कुलकर व्यवस्था : अर्हत् ऋषभ ३०.तीसे णं समाए पच्छिमे तिभाए पलिओवमठभागावसेसे, एत्थ णं इमे पण्णरस कुलगरा समुप्पज्जित्था, तं जहा सम्मुती पडिस्सुई सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे, खेमंधरे विमलवाहणे चक्खुमं जसमं अभिचदे चंदाभे पसेणई मरुदेवे णाभी उसमे । अवसर्पिणी कालचक्र का तीसरा अर। उसके अंतिम तीसरे भाग के एक पल्योपम का आठवां भाग, इतना समय शेष रहा तब पंद्रह कुलकर उत्पन्न हुए १. स्मृति २. प्रतिश्रुति ३. सीमंकर ४. सीमंधर ५. खेमंकर ६. खेमंधर ७. विमलवाहन ८. चक्षुष्मान् ९. यशस्वान् १०. अभिचंद्र ११. चन्द्राभ १२. प्रसेनजित १३. मरुदेव १४. नाभि १५. ऋषभ। त्ति। ३१.तत्थ णं सम्मुति-पडिस्सुइ-सीमंकर-सीमंधर- खेमंकराणं-एतेसिं पंचण्हं कुलगराणं हक्कारे णामं दंडणीई होत्था। ते णं मणुया हक्कारेणं दंडेणं हया समाणा लज्जिया विलिया वेड्डा भीया तुसिणीया विणओणया चिट्ठति। स्मृति, प्रतिश्रुति, सीमंकर, सीमंधर और खेमंकरइन पांच कुलकरों के समय में हाकार नामक दंडनीति प्रचलित थी। उस समय के मनुष्य 'हा! तू ने यह क्या किया'-इतना कहने मात्र से लज्जित, वीडित, अपमानित, भीत, मौन और नतमस्तक हो जाते। ३२.तत्थ णं खेमंधर-विमलवाहण-चक्खुम-जसम अभिचंदाणं-एतेसिं णं पंचण्हं कुलगराणं मक्कारे जाम दंडणीई होत्था। ते णं मणुया मक्कारेणं दंडेण हया समाणा लज्जिया विलिया वेड्डा भीया तुसिणीया विणओणया चिट्ठति। ___ खेमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वान् और अभिचन्द्र-इन पांच कुलकरों के समय में माकार नामक दंडनीति प्रचलित थी। उस समय के मनुष्य 'ऐसा मत करो'-इतना कहने मात्र से लज्जित, वीडित, अपमानित, भीत, मौन और नतमस्तक हो जाते। ३३.तत्य णं चंदाम-पसेणइ-मरुदेव-णाभि-उसभाणं चन्द्राभ, प्रसेनजित, मरुदेव, नाभि और ऋषभ इन एतेसि णं पंचण्हं कुलगराणं धिक्कारे णामं दंडणीई पांच कुलकरों के समय धिक्कार नामक दंडनीति प्रचलित होत्था। तेणं मणुया धिक्कारेणं दंडेणं हया समाणा थी। उस समय के मनुष्य 'धिक्कार है तुझे'- इतना कहने लज्जिया विलिया वेड्डा भीया तुसिणीया मात्र से लज्जित, वीडित, अपमानित, भीत, मौन और विणओणया चिळंति। नतमस्तक हो जाते। ३४.णाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए कुच्छिंसि, एत्थ णं उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था। नाभि कुलकर की पत्नी मरुदेवा की कुक्षि से ऋषभ नाम के अर्हत् का जन्म हुआ। वे अयोध्यावासी थे। वे प्रथम राजा, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती हुए। , कर्मयुग का प्रवर्तन ३५. तए णं उसभे अरहा कोसालिए वीसं पुव्वसय- अर्हत् ऋषभ २० लाख पूर्व वर्षों तक कुमार अवस्था Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २८ खण्ड-१ सहस्साइं कुमारवासमझावसइ, अज्झावसित्ता तेवदिळं पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमज्झावसइ, तेवढिं पुव्वसयसहस्साई महारायवासमज्झावसमाणे लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ, चोसदिठं महिलागुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिण्णि वि पयाहियाए उवदिसइ। में रहे। ६३ लाख पूर्व वर्षों तक राज्य का संचालन किया। ६३ लाख पूर्व वर्षों की अवधि में ऋषभ ने प्रजाहित के लिए लिपिविधान, गणित और पक्षीशब्दविज्ञान पर्यंत पुरुषोचित ७२ कलाओं, स्त्रीजनोचित.६४ कलाओं और व्यवसायोचित १०० शिल्पों-इन तीनों का प्रवर्तन किया। ३६. तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे अरहा अर्हत ऋषभ तेयासी लाख पूर्व वर्ष तक गृहस्थ कोसलिए........., तेसीई पुव्वसयसहस्साई अगार- अवस्था में रहे। एक हजार वर्ष तक छद्मस्थ 'संयम' वासमज्झाव-सित्ताणं, एगं वाससहस्सं छउमत्थ- पर्याय में रहे। एक हजार वर्ष न्यून-एक लाख पूर्व तक परियागं पाउ-णित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं वास- केवली अवस्था में रहे। श्रमण पर्याय एक लाख वर्ष का सहस्सूणं केवलि-परियागं पाउणित्ता, पडिपुण्णं रहा। चोरासी लाख पूर्व का पूर्ण आयुष्य भोगकर इसी पुव्वसय-सहस्सं सामण्ण-परियागं पाउणित्ता, अवसर्पिणी काल के सुषम-दुःषमा नाम के तीसरे अर के चउरासीइं पुव्वसय-सहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता बहुत समय बीत जाने पर तथा साढे आठ मास शेष रहने खीणे वेयणिज्जा-उयनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए पर हेमन्त ऋतु के तीसरे मास, पांचवें पक्ष-माह कृष्णा सुसम-दूसमाए समाए बहु-विइक्कंताए तिहिं वासे- त्रयोदशी के दिन, अष्टापद पर्वत के शिखर पर अर्हत् हिं अक्षणवमेहि य मासेहिं सेसेहिं जे से हेमंताणं ऋषभ अन्य दस हजार मुनियों के साथ चतुर्दश भक्त तच्चे मासे पंचमे पक्खे-माहबहले तस्स णं 'छह का तपस्या' का चौविहार तप करते हुए, अभिजित माहबहुलस्स तेरसी-पक्खेणं उप्पिं अट्ठावय- नक्षत्र का योग प्राप्त कर पूर्वार्द्ध में पर्यकासन में वेदनीय सेल-सिहरंसि दसहिं अणगार-सहस्सेहिं सद्धिं कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म क्षीण होते ही चोइसमेणं भत्तेणं अपाणएणं अभीइणा नक्खत्तेणं । कालगत हुए यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए, निर्वाण प्राप्त जोगमुवागएणं पुव्वण्हकाल-समयंसि पलियंक- किया। निसन्ने कालगए विइक्कंते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे॥ ३७.आसी य कंदहारा मूलाहारा य पत्तहारा य। पुप्फफलभोइणोऽवि य जइया किर कलगरो उसभो॥ ऋषभ के प्रारंभिक समय तक मनुष्य कंद, मूल, पत्र, फल और फल का आहार करते थे। ३८.आसी य इक्खुभोई इक्खागा तेण खत्तिया होति। सणसत्तरसं धन्नं आमं ओमं च भंजीया॥ इक्षु का भोजन करने के कारण क्षत्रिय इक्ष्वाकु कहलाए। उस समय के लोग सण प्रमुख सतरह प्रकार के धान्य का भोजन करते थे। वे कच्चा धान्य खाते और बहुत कम मात्रा में खाते। ३९.ओमंऽपाहारेता अजीरमाणंमि ते जिणमुवेति। हत्थेहिं घंसिऊणं आहारेहत्ति ते भणिया॥ कम मात्रा में किया गया भोजन भी कच्चा होने के कारण जीर्ण नहीं होता था-पचता नहीं था। इस समस्या को लेकर लोग ऋषभ के पास आए। ऋषभ ने उन्हें हाथों Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास २९ अ. ३ : आदिम युग : अर्हत् ऋषभ से मर्दन कर खाने के लिए कहा। ४०.आसी य पाणिघंसी तिम्मिय तंदुलपवालपुडभोई। हत्थयलपुडाहारा जइया किर कुलगरो उसभो॥ कुछ समय के बाद मर्दन कर खाया जाने वाला धान्य जीर्ण नहीं होता था। ऋषभ ने उन्हें चावल आदि सब प्रकार के धान्यों को भिगोकर खाने का निर्देश दिया। जब वह भी दुष्प्राच्य हो गया तो भिगोये हुए धान्य को मुहूर्त भर हाथ में रखकर खाने की बात कही। ४१........कक्ख सेए य। जब भिगोया हुआ धान्य हाथ में रखकर खाने पर भी दुष्पाच्य हो गया तो उसे कक्षा की उष्मा में रखकर खाने की बात कही। ४२.अगणिस्स य उठाणं वणसंघा दलु भीय परिकहणं। पासेसुं परिछिंदह गेण्हह पागं ततो कुणह॥ एकांत स्निग्ध और एकांत रूक्ष काल में अग्नि की उत्पत्ति नहीं होती। एकांत स्निग्ध काल के बीत जाने पर वृक्षों के घर्षण से एक दिन अग्नि की उत्पत्ति हुई। लोग उसे देख भयभीत हो गए और ऋषभ को उसकी सूचना दी। ऋषभ ने उन्हें आस-पास के घासपात को काटकर अग्नि में धान्य पकाने का निर्देश दिया। १३.पक्खेवडहणमोसहि कहणं निम्गमण हत्थिसीसम्मि। पयणारंभपवित्ती . ताहे कासी य ते मणुया॥ . अग्नि में डाला गया धान्य जल गया। वे ऋषभ के पास आए और सारी बात बताई। ऋषभ हाथी पर आरूढ़ हो उन सबको साथ ले नगर के बाहर आए। मिट्टी का पिंड लिया। हाथी के कुम्भ पर एक बर्तन बनाया, कहा-इस प्रकार बर्तन बनाओ और धान्य बर्तन में पकाकर खाओ। तब से पाकविद्या का प्रारंभ हुआ। ४४.पंचेव य सिप्पाइं घड लोहे चित्तऽणंत कासवए। एक्केक्कस्स य एसो वीसं वीसं भवे भेया॥ अग्नि का आविष्कार होने के बाद पांच प्रकार के शिल्प-कुंभकार शिल्प, लोहकार शिल्प, चित्रकार शिल्प, सौचिक शिल्प (जुलाहा) और नापित शिल्प का प्रवर्तन हुआ। प्रत्येक शिल्प की बीस-बीस विधाओं का विकास हो गया। मामणा जा ४५. कम्म किसिवाणिज्जाइ मामणा जा परिग्गहे ममता। __ पुव्वं देवेहिं कया विभूसणा मंडणा गुरुणो॥ __ कृषि, वाणिज्य आदि कर्म का प्रवर्तन हुआ। कुटुम्ब एवं पदार्थ संग्रह के प्रति ममत्व का विस्तार हुआ। देवों ने ऋषभ के शरीर को विभूषित एवं परिमंडित किया। फलतः सौंदर्य कला विकसित हुई। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४६. लेहं लिवीविहाणं जिणेण बंभीए दाहिणकरेणं । भणियं संखाणं सुंदरीए वामेण उवइछं | ४७. भरहस्स रूवकम्मं नराइलक्खण महोइयं बलिणो । माम्माणवमाणप्पमाणगणिमाइ वत्थूणं ॥ ४८. मणियाई दोराइसु पोता तह सागरंमि वहणाई । ववहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेयणत्थं वा ॥ ४९. नीई हक्काराई सत्तविहा अहव सामभेयाई । जुखाई बाहुजुदाइयाइं वट्टाइयाणं च ॥ ५०. ईसत्थं धणुवेदो उवासणा मंसुकम्ममाईया | गुरुरायाईणं वा उवासणा पज्जुवासणया ॥ ५१. रोगहरणं चिकिच्छा अत्थागम - सत्थमत्थसत्थत्ति । घातो दंडादितालणया ॥ ५२. मारणया जीववहो जन्ना नागाइयाण पूयातो । इंदा महा पायं पइनियया ऊसवा होंति ॥ निगडाइजमो बन्धो ५३. समवाओ गोट्ठीणं गामाईणं व संपसारो वा । तह मंगलाई सोत्थियसुवण्णसिद्धत्थगाईणि ॥ ५४. पुव्वं कयाइं पहुणोसुरेहिं रक्खादि कोउयाई च। वत्थगंधमल्लालंकारा- केसभूसाई ॥ तह ३० खण्ड - १ ऋषभ ने अपनी ज्येष्ठपुत्री ब्राह्मी को दाएं हाथ - दायीं ओर से लिपि विन्यास करना सिखाया । कनिष्ठपुत्री सुन्दरी को बाएं हाथ - बायीं ओर से गणित सिखाई । भरत को चित्रकला, बाहुबली को स्त्री-पुरुष के लक्षण तथा वस्तु के मान, उन्मान, अवमान, प्रमाण, संख्यान आदि का प्रशिक्षण दिया। धागे में मणि आदि पिरोने की कला, जलपोत निर्माण और वाहन, व्यवहार - दंडविधान, कार्य परिच्छेद के लिए लिखित प्रमाण- इन सबका प्रवर्तन किया । हाकार, माकार, धिक्कार, परिभाषित-अल्पकालीन कारावास, मंडलिबंध-सीमा से बाहर जाने का निषेध, गृहबंध, दंडप्रहार अथवा चार प्रकार की नीतियां - साम, दाम, दंड और भेद, बाहुयुद्ध आदि युद्ध - इन सबका प्रवर्तन किया । बाण अस्त्र, धनुर्वेद और दाड़ी-मूंछ आदि कटाना, पर्युपासना - गुरु, राजा आदि की उपासना करना - इन सबका प्रवर्तन किया। रोगहरण के लिए चिकित्साशास्त्र, अर्थार्जन के लिए अर्थशास्त्र, बंध-निगड़ आदि से बांधना, घात-दंड आदि से ताड़ना देना- इन सबका प्रवर्तन हुआ । मारण- जीववध, यज्ञ - नाग आदि की पूजा, प्रतिनियत समय पर होने वाले इन्द्र आदि महोत्सव - इन सबका प्रवर्तन हुआ । समवाय-गोष्ठियों का मिलन, संप्रसार-ग्राम आदि का विस्तार, मंगल- स्वस्तिक, स्वर्ण, सर्षप आदि भी उसी समय प्रवर्तित हुए। देवों ने ऋषभ के रक्षा आदि कौतुक कर्म किए। वस्त्र, गंध, माल्य, अलंकार आदि धारण करवाए। केश विन्यास किया। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ५५.तं दळूण पवत्तोऽलंकारेउं जणोऽवि सेसोऽवि। - विहिणा चूलाकम्मं बालाणं चोलयं नाम॥ ३१ अ. ३ : आदिम युग : अर्हत् ऋषभ उसे देखकर लोगों में भी अलंकार की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई। बच्चों के चूलाकर्म का भी उसी समय में प्रवर्तन हुआ। ५६. दटुं कयं विवाह जिणस्स लोगोऽवि काउमारयो।। गुरुदत्तिया य कन्ना परिणिज्जते ततो पायं॥ सर्वप्रथम ऋषभ का विवाह हुआ। उस पद्धति के आधार पर प्रजा में भी विवाह का प्रचलन हो गया। प्रायः गुरुजनों द्वारा प्रदत्त कन्या के साथ ही विवाह किया जाता। ५७.मइयं मयस्स देहो तं मरुदेवीए पढमसिद्धोत्ति। देवेहि पुरा महियं झावणया अग्गिसक्कारो॥ मरुदेवा प्रथम सिद्ध हुई। देवों ने सबसे पहले उनकी देह का दाहसंस्कार किया। फिर वह मृतककर्मदाहसंस्कार विधि प्रजा में प्रचलित हो गई। ५८.सो जिणदेहाई णं देवेहिं कतो चिआसु थूभा य। . सहो य रुण्णसहो लोगोवि ततो तहा पकतो॥ भगवान् की देह को सिद्ध होने पर देवों ने चिता में जलाया और उनकी स्मृति में वहां स्तूप बनाकर रुदन करने लगे। तब से लोगों में मृतक के पीछे रोने की प्रवृत्ति प्रारंभ हो गई। नैमित्तिकों से सुख-दुःख के विषय में पृच्छा भी ऋषभ के समय में की जाने लगी। ५९. अहव निमित्ताईणं सुहसझ्याइ सुहदुक्खपुच्छा वा। इच्चेवमाझ्याए उप्पन्नं उसमकालम्मि॥ ६०.किंचिंच भरकाले कुलगरकालेऽवि किंचि उप्पन्न। पहुणा उ देसिया सव्वकलासिप्पकम्माई॥ इनमें से कुछ बातों का प्रवर्तन भरत के समय में हुआ और कुछ का कुलकर के समय में। इस प्रकार सभी प्रकार की कला, शिल्प और कर्म का उपदेश ऋषभ ने दिया। Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- ४ अर्हत् पार्श्व Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अर्हत् पार्श्व: पंच कल्याणक २. अर्हत् पार्श्व का जन्म ३. प्रव्रज्या और साधना की निष्पत्ति चतुर्थ अध्याय पृ. सं. ३५ ३५ ३६ ४. अर्हत् पार्श्व : उत्कृष्ट संपदा ५. पार्श्व का परिनिर्वाण पू. सं.. ३७ ३८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् पार्श्व अर्हत् पार्श्व : पंच कल्याणक १. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए उस काल उस समय पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व पांच पंचविंसाहे होत्था, तं जहा-विसाहाहिं चुए, चुइत्ता विशाखा वाले थे। पंच कल्याणक विशाखा नक्षत्र में हुए गब्भं वक्कते। विसाहाहिं जाए। विसाहाहिं मुंडे थे। १. विशाखा नक्षत्र में देवलोक से च्युत होकर गर्भ में भवित्ता अगारांओ अणगारियं पव्वइए। विसाहाहिं। आए। २. विशाखा नक्षत्र में जन्मे। ३. विशाखा नक्षत्र में अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे मुंड होकर अगारता (गृहस्थ) से अनगारता (साधुत्व) पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने। विसाहाहिं को स्वीकार किया। ४. विशाखा नक्षत्र में अनंत, अनुत्तर, परिनिव्वुए॥ निर्व्याघात, निरावरण सम्पूर्ण केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त किया। ५. विशाखा नक्षत्र में परिनिर्वाण को प्राप्त किया। अर्हत् पार्श्व का जन्म २. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए उस काल उस समय पुरुषादानीय अर्हत् ग्रीष्म ऋतु जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे-चित्तबहुले, में चैत्र कृष्णा चतुर्थी को बीस सागरोपम की आयुवाले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थी-पक्खेणं पाणयाओ। प्राणत नामक कल्प से आयुष्य पूर्णकर वहां से च्यवन कप्पाओ वीसं सागरोवमदिठतीयाओ अणंतरं चयं ___कर इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र की वाराणसी नगरी में चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वाणारसीए अश्वसेन राजा की रानी वामादेवी की कुक्षि में रात्रि के नयरीए आससेणस्स रण्णो वामाए देवीए पुव्वरत्ता- पश्चिमभाग के प्रारंभ होने पर मध्यरात्रि में विशाखा वरत्त-कालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोग- नक्षत्र का योग होने पर गर्भ में आए। मुवाएणं आहारवक्कंतीए भववक्कंतीए सरीरवक्कंतीए कुच्छिंसि गब्भत्ताए वक्कंते॥ ३. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तिण्णाणोवगए यावि होत्था-चइस्सामि त्ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ, चुएमित्ति जाणइ। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व तीन ज्ञान युक्त थे वे च्युत होऊंगा ऐसा जानते हैं, च्युत हो रहा हूं नहीं जानते हैं, च्युत हो गया ऐसा जानते हैं। . ४. तेण कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए उस काल उस समय पोषकृष्णा दशमी को रात्रि के • जे से हेमंताणं दोच्चे मासे तच्चे पक्खे-पोसबहुले, पश्चिम भाग के प्रारंभ में मध्यरात्रि में विशाखा नक्षत्र का तस्स गं पोसबहुलस्स दसमी-पक्खेणं नवण्हं योग होते ही आरोग्यवती माता 'वामा' ने आरोग्यपूर्वक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-१ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व को जन्म दिया। आत्मा का दर्शन मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विइक्कंताणं पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमवाएणं 'आरोगा आरोग' दारयं पयाया। जम्मणं सव्वं पासाभिलावेणं भाणियव्वं जाव तं होउणं कुमारे पासे नामेणं॥ ५. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइण्णे पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व दक्ष थे, दक्षप्रतिज्ञ थे, भद्र व पडिरूवे अल्लीणे भइए विणीए वीसं वासाइं विनीत थे। तीस वर्ष तक घर में रहे। लोकान्तिक देवों ने अगारवासमझे वसित्ता पुणरवि लोयंतिएहिं अपनी परंपरा के अनुसार इष्ट, कान्त शब्दों में कहा-'हे जयकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इट्ठाहिं जाव एवं नन्द! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे भद्र! तुम्हारी जय हो, वयासी-जय-जय नंदा! जय-जय भहा! भई ते जय हो।' इस प्रकार जय जय शब्द का प्रयोग किया। जाव जय-जय सई पउंजंति॥ प्रव्रज्या और साधना की निष्पत्ति ६. पुब्विं पिणं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व गृहस्थ अवस्था में माणस्सगाओ निहत्थधम्माओ अणत्तरे आहोहिए तं अवधिज्ञान सम्पन्न थे। अभिनिष्क्रमण से पूर्व वर्षीदान चेव सव्वं जाव दायं दाइयाणं परिभाएत्ता जे से दिया। पोष कृष्णा ग्यारस को दिन के पूर्व भाग में विशाल हेमंताणं दोच्चे मासे तच्चे पक्खे-पोसबहुले, तस्स शिविका में बैठे। देव, मनुष्य और असुरों के विशाल समूह णं पोसबहुलस्स एक्कारसी-पक्खेणं पुव्वण्हकाल से वाराणसी नमरी के मध्य से निकले। उत्तम अशोक वृक्ष समयंसि 'विसालाए सिवियाए' सदेवमणुयासुराए वाले आश्रमपद उद्यान के निकट पहुंचे। शिविका से नीचे परिसाए तं चेव सव्वं, नवरं-'वाणारसिं नगरिं उतरे। हाथों से आभूषण, मालाएं और अलंकार उतारे। मझमज्झेणं' निग्गच्छइ, निम्गच्छित्ता जेणेव स्वयं ने अपने हाथ में पंचमुष्टिक लुंचन किया। लोच के आसमपए उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव बाद निराहार अष्टम भक्त (चौविहार तेला) किया। उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे। विशाखा नक्षत्र का योग आते ही देवदूष्य वस्त्र धारण सीयं ठावेइ, ठावेत्ता सीयाओ पच्चोरुहह, किया। अन्य तीन सौ पुरुषों के साथ मुंडित होकर पच्चोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं अगारता से अनगारता को स्वीकार किया। ओमुयति, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुठियं लोयं करेइ, करेत्ता अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमायाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए॥ ७. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाई निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्प- ज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्ख- जोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने । सम्म सहइ 'खमइ तितिक्खइ' अहियासेइ।। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ८३ दिन नित्य शरीर का व्युत्सर्ग व त्याग करते रहे। संयम जीवन में जो कोई दैविक, मानुषिक व तिर्यंचजनित अनुकूल व प्रतिकूल उपसर्ग उत्पन्न हुए, उन्हें निर्भय होकर सम्यक प्रकार से सहन किया। तितिक्षा भाव रखा। क्षमा भाव रखा। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ३७ अ. ४ : अर्हत् पार्श्व ८. तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए' अणगारे जाए- पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने संयमपूर्वक ईर्यासमिति इरियासमिए जाव अप्पाणं भावमाणस्स तेसीइं यावत् कायगुप्तियुक्त होकर अपनी आत्मा को भावित - राइंदियाइं विइक्कंताई चउरासीइमस्स राइंदियस्स करते हुए ८३ दिन-रात व्यतीत हो गए। चौरासीवें दिन अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं पढमे मासे चैत्र कृष्णा चतुर्थी को दिन के पूर्वार्ध में आंवले के वृक्ष के पढमे पक्खे-चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स नीचे षष्ठ भक्त (बेले का तप) में शुक्लध्यान की चउत्थी-पक्खेणं पुव्वण्हकालसमयंसि धायइ- अवस्था में विशाखा नक्षत्र में अनंत अनुत्तर निर्व्याघात, पायवस्स अहे छठेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं निरावरण केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ और सम्पूर्ण नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्ट- लोकालोक के भावों को जानते हुए देखते हुए विचरण माणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे करने लगे। कसिणे पडिपण्णे केवलवरनाणदंसणे समप्पन्ने जाव सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ॥ अर्हत् पार्श्व : उत्कृष्ट संपदा ९. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गण- हरा होत्था, तं जहा संभे य अज्जघोसे य. वसिटठे बंभयारि य। . सोमे सिरिहरे चेव, वीरंभहे जसे वि य॥ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के आठ गण तथा आठ गणधर हुए १. शंभ २. अज्जघोष-आर्यघोष ३. वसिष्ठ ४. ब्रह्मचारी ५. सोम ६. श्रीधर ७. वीरभद्र ८. यश। १०. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अज्ज- . पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के आर्यदत्त आदि १६००० दिण्णपामोक्खाओ सोलस समणसाहस्सीओ श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमण संपदा थी। उक्कोसिया समणसंपया होत्था॥ .११. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स पुप्फ चूलापामोक्खाओ अद्रुतीसं अज्जिया-साहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था॥ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के पुष्पचूला आदि ३८००० आर्यिकाओं (श्रमणियों) की उत्कृष्ट श्रमणी सम्पदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के सुनन्द आदि १६४००० श्रमणोपासकों की उत्कृष्ट श्रमणोपासक संपदा थी। १२. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुनंदपामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी चउसदिठं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगसंपया होत्था॥ १३. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुनंदा- पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के सुनन्दा आदि ३२७००० पामोक्खाणं समणोवासिगाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ श्रमणोपासिकाओं की उत्कृष्ट श्रमणोपासिका संपदा थी। सत्तावीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १४. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अछुट्ठसया चोइसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर सन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिया चोइसपुव्वीणं संपया होत्था ॥ १५. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स चोइस सया ओहिनाणीणं, दस सया केवलनाणीणं, एक्कारस सया वेउव्वियाणं, अछट्ठमसया विउलमईणं, छस्सया वाईणं छ सया रिउमईणं बारस सया अणुत्तरोववाइयाणं संपया होत्था ॥ ३८ १६. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए तीसं वासाई अगारवासमज्झेवसित्ता तेसीतिं राइंदियाइं छउमत्थपरियायं पाउणित्ता, देसूणाई सत्तरं वासाहं केवलिपरियायं पाउणित्ता, बहुपडि - पुण्णाई सत्तरिं वासाइं सामण्णपरियायं पाउणित्ता, एक्कं वाससयं सव्वाउयं पालित्ता खीणे वेयणिज्जाउयनामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसम - सूसमाए समाए बहुवीहक्कंताए जे से वासाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे -सावणसुद्धे, तस्स णं सावण-सुद्धस्स अट्ठमी पक्खेणं उप्पिं सम्मेयसेलसिहरंसि अप्प - चोत्तीसइमे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुव्वण्हकालसमयंसि वग्घारियपाणी कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ खण्ड - १ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के अजिन किन्तु जिनतुल्य ३५० सर्वाक्षर संयोग के ज्ञाता यावत् चतुर्दश पूर्वधरों की उत्कृष्ट संपदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के १४०० अवधिज्ञानी, १००० केवलज्ञानी, ११०० वैक्रियलब्धिसंपन्न, ७५० विपुलमतिमनः पर्यवज्ञानी, ६०० वादी, ६०० ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी, १२०० अनुत्तरौपपातिक अनुत्तर विमान को प्राप्त करने वालों की उत्कृष्ट संपदा थी। पार्श्व का परिनिर्वाण उस काल उस समय पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ३० वर्ष तक गृहवास में रहकर तत्पश्चात् संयमी बने । ८३ दिन-रात छद्मस्थ पर्याय में रहकर कुछ न्यून ६० वर्ष तक केवली पर्याय में रहे । १०० वर्ष पर्यंत अपना आयुष्य भोगकर अवसर्पिणी काल के दुःषम- सुषमा नामक आरे के प्रायः व्यतीत होने पर वर्षाऋतु में श्रावण शुक्ला अष्टमी को सम्मेद शिखर पर्वत पर स्वयं को मिलाकर ३४० पुरुषों के साथ एक मास का अनशन कर दिन के पूर्वार्ध समय में विशाखा नक्षत्र का योग होने पर ध्यान मुद्रा में अवस्थित रहकर वेदनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म क्षीण होते ही कालगत हुए यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए, निर्वाण प्राप्त किया। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड-२ महावीर का जीवनवृत्त Page #55 --------------------------------------------------------------------------  Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-१ महावीर और उनका परिवार Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय पृ. सं. १. त्रिशला का स्वप्न-दर्शन २. गर्भकाल में संकल्प ३. जन्मोत्सव . ४. आमलकी क्रीडा ५. विद्यार्थी जीवन ६. महावीर के तीन नाम ७. महावीर का परिवार ८. महावीर के माता-पिता का देहत्याग ९. वैराग्य और प्रव्रज्या १०. अचेलकत्व Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और उनका परिवार त्रिशला का स्वप्न दर्शन १. तिसला खत्तियाणी.. . पुव्वरत्तावरत्त-काल समयंसि सुत्तजागरा ओहीरंमाणी - ओहीरमाणी इमेयारूवे ओराले जाव चोइस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा । तं जहा गयवसहसी अभिसेय दामससिदिणयरं झयं कुंभं । पउमसरसाग़रविमाण-भवण रयणुच्चय सिहिं च ॥ तर णं सा तिसला ख़त्तियाणी.. . जेणेव सयनिज्जे जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छइ । ...... सिद्धत्वं खत्तियं ताहिं इट्ठाहिं... गिराहिं संलवाणी-संलवमाणी पडिबोहेर । तए णं सा तिसला खत्तियाणी....... सिद्धत्थं । खत्तियं....एवं ववासी एवं खलु अहं सामी !...... चोदसमहासुमिणे पासित्ताणं पडिबुछा, तं जहा - गयवसह...... । तं एतेसिं सामी । ओरालाणं चोइसन्हं महासुमिणाणं के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्स ? २. तए णं से सिद्धत्थे राया तिसलाए खत्तियाणीए अंतिए एयमठ्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्ते आनंदिए । सिं सुमिणाणं अत्थोग्गहं करेइ, करेत्ता तिसलं खत्तियाणिं.... एवं वयासी-आरोला णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणा दिट्ठा। कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणा दिट्ठा ।......तं अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाप्पिए! सोक्खलाभो देवाणुप्पिए! रज्जलाभो देवाप्पिए! त्रिशला क्षत्रियाणी एक दिन मध्यरात्रि के समय अर्द्ध निद्रावस्था में चवदह महास्वप्न देखकर जागृत हुई। यथा-हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, फूलों की माला, चांद, सूर्य, ध्वजा, कुम्भ, पद्मसरोवर, सागर, देवविमान, रत्नराशि और अग्नि । त्रिशला क्षत्रियाणी हृष्ट, तुष्ट और आनंदित चित्त हो राजा सिद्धार्थ की शय्या के पास गई। इष्ट, कांत, प्रिय और मनोज्ञ शब्दों से सिद्धार्थ को जगाया। त्रिशला ने राजा सिद्धार्थ से कहा - स्वामिन्! मैं आज गज, वृषभ आदि चवदह महास्वप्न देखकर जागृत हुई हूं । स्वामिन्! इन उदार चवदह महास्वप्नों का क्या कल्याणकारी फल विशेष होने वाला है ? राजा सिद्धार्थ त्रिशला क्षत्रियाणी की इस बात को सुनकर हृष्ट, तुष्ट और आनंदित हुए। सिद्धार्थ ने स्वप्नों का अर्थावग्रह किया और त्रिशला क्षत्रियाणी से कहा–देवानुप्रिये ! तुमने उदार स्वप्न देखे हैं। कल्याणकारी स्वप्न देखे हैं। इन सपनों के अनुसार अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ, सौख्यलाभ और राज्यलाभ होगा। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन एवं खलु तुमं देवाप्पिए! नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्टमाणं इंदियाणं विइक्कंताणं अम्हं कुलकेउं अम्हं कुलदीवं .......कंतं पियं सुदंसणं दारयं पयाहिसि ।.... से वि य णं दारए.... जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कंते विच्छिन्नविउलबलवाहणे रज्जवई राया भविस्स ।.... ३. तए णं सिद्धत्थे खत्तिए ...... ते सुमिणलक्खणपाढए एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! अज्ज तिसला खत्तियाणी..... इमेयारूवे ओराले चोइस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं जहागयवसह... । तं एतेसिं देवाणुप्पिया ! ओरालाणं चोदसमहासुमिणा के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? तए णं ते सुमिणलक्खणपाढगा...... सिद्धत्थं खत्तियं एवं वयासी..... तिसला खत्तियाणी....... कंतं पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाहि ..... से वि य णं दारए.....जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे....... चाउरंतचक्कवट्टी रज्जवई राया भविस्सर । जिणे वा तेलोक्कनायए धम्मवरचक्कवट्टी । तणं से सिद्धत्थे राया तेसिं सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए..... ते सुमिणलक्खणपाढए .... विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयति, दलइत्ता पडिविसज्जेइ । ४. तए णं भगवं सण्णिगब्भे माउअणुकंपणट्ठाए णिच्चले णिक्कंपे णिप्फंदे णीरेए अल्लीणपलीणगुत्ते यावि होत्था। ४२ ५. तए णं सा तिसला एवं वयासी-हडे मे गब्भे, एवं चुए गलिए। एस मे गब्भे पुव्विं एयइ इयाणिं णो एयइत्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागरप्पविट्ठा करतलपल्लत्थमुही अट्टज्झागोवगया भूमिगयदिट्ठीया झियाइ । खण्ड - २ देवानुप्रिये! नौमास और साढ़े सात अहोरात्र बीतने पर तुम हमारे कुलकेतु, कलदीप, कांत, प्रिय और सुदर्शन पुत्र को जन्म दोगी। वह बालक युवावस्था में पराक्रमी राजा होगा। राजा सिद्धार्थ ने स्वप्न पाठकों से कहा- देवानुप्रिय ! आज त्रिशला क्षत्रियाणी ने गज, वृषभ आदि चवदह महास्वप्न देखे हैं। देवानुप्रिय ! उन उदार चवदह महास्वप्नों का क्या फल विशेष होगा ? स्वप्नपाठकों ने राजा सिद्धार्थ से कहा-इन स्वप्नों के अनुसार त्रिशला क्षत्रियाणी अर्थलाभ आदि के साथ कांत, प्रियदर्शन वाले सुन्दर बालक को जन्म देगी। वह बालक युवावस्था को प्राप्त कर पराक्रमी, चातुरन्त चक्रवर्ती राजा बनेगा अथवा त्रिलोकनायक श्रेष्ठ धर्मचक्रवर्ती जिन होगा। गर्भकाल में संकल्प राजा सिद्धार्थ स्वप्न पाठकों से स्वप्नों का यह अर्थ सुनकर हृष्ट, तुष्ट और आनंदित हुआ और स्वप्नपाठकों को जीवनयापन योग्य विपुल प्रीतिदान देकर विसर्जित किया। महावीर जब गर्भ में थे उस समय 'मेरे हलन चलन से माता को कष्ट न हो' यह सोच निश्चल, निष्कंप, निःस्पंद और सर्वथा गुप्त हो गए। त्रिशला ने उस स्थिति का अनुभव कर कहा-मेरे गर्भ का हरण हो गया है अथवा गर्भच्युत और गलित हो गया है । मेरा गर्भ पहले हलन चलन कर रहा था। अब हलनचलन नहीं कर रहा है। इन विचारों के साथ त्रिशला उदास हो गई। चिंतित हो गई और शोक - सागर में निमज्जित हो गई। वह हथेली पर मुंह टिका आर्तध्यान में Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास तंपि य सिद्धत्थरायवरभवणं उवरयमुइंगतंती तलतालनाडइज्जं दीणविमणदुम्मणं चावि विहरइ | ६. तए णं भगवं एतं वियाणित्ता एगदेसेणं एजति । ७. तए णं सा हट्ठतुट्ठा जाव रोमकूवा एवं वयासीखलु मे ह ग जाव णो गलिते ।...... तंपि य णं सिद्धत्थरायभवणं अणुवरयमुइंगतंतीतलतालणाडइज्ज-आइन्नजणमणुस्से सपमुइय पकीलितं विहरति । तणं भगवं मातुपितु अणुकंपणट्ठाए गब्भत्थो अभिग गेहति - णाहं समणे होक्खामि जाव एतानि एत्थ जीवंतित्ति । ४३ तेन कालेनं तेणं समएणं तिसला खत्तियाणी अह अष्णया कयाइ नवहं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं, अट्टमाणं राइंदियाणं वीतिक्कंताणं, जे से गिम्हाणं पढमे मासे, दोच्चे पक्खे-चेत्तसुळे, तस्स णं चेत्तसुखस्स तेरसीपक्खेणं, हत्थुत्तराइं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पसूया । १०. जण्णं राई तिसला खत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पसूया, तण्णं राहं भवणवइवाणमंतर - जोइसिय विमाणवासिदेवेहि य देवीहि य ओवयंतेहि य उप्पयंतेहि य एगे महं दिव्वे देवुज्जोए देवसण्णिवाते देवकहकहक्क हे उप्पिंजलभूए यावि होत्था। जन्मोत्सव ११. जणं यणि तिला खत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पसूया, तण्णं रयणिं बहवे देवा य देवीओ य एगं महं अमयवासं च, गंधवासं च चुण्णवासं च, हिरण्णवासं च, रयणवासं च वासिंसु । अ. १ : महावीर और उनका परिवार भूमि पर दृष्टि को गड़ा सोचने लगी । राजा सिद्धार्थ के भवन में वाद्य ध्वनि मंद हो गई। महावीर ने अपने ज्ञान बल से यह स्थिति जानकर एक ओर से हलन चलन किया। त्रिशला हृष्ट-तुष्ट हो गई और रोमांचित हो बोली- मेरा गर्भ सुरक्षित है। राजा सिद्धार्थ के भवन में पुनः वाद्यध्वनि होने लगी । वह जनाकीर्ण हो गया । विविध प्रकार से आमोद-प्रमोद होने लगा । उस समय गर्भस्थ महावीर ने माता-पिता पर अनुकंपा कर यह अभिग्रह ग्रहण कर लिया- जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं श्रमण नहीं बनूंगा । त्रिशला क्षत्रियाणी के गर्भ के नौ माह और साढ़े सात रात पूर्ण हुए। ग्रीष्म का पहला महीना। दूसरा पक्ष - चैत्रमास का शुक्लपक्ष । त्रयोदशी तिथि । हस्तोत्तरा नक्षत्र का योग । उस समय त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्वस्थ अवस्था में स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया। जिस रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी ने श्रमण भगवान महावीर को जन्म दिया, उस रात्रि में भवनवासी, वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-देवियों के नीचे आने और ऊपर जाने से एक दिव्य उद्योत हो गया। उस रात्रि में देवोंका सन्निपात -समागम और उनकी ध्वनियों से वातावरण गुंजित हो गया । जिस रात्रि को त्रिशला क्षत्रियाणी ने श्रमण भगवान महावीर को जन्म दिया, उस रात्रि को बहुत से देव - देवियों अमृत, गंध, चूर्ण, हिरण्य और रत्नों की विपुल वर्षा की। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४४ खण्ड-२ १२.जण्णं रयणिं तिसला खत्तियाणी समणं भगवं जिस रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी ने श्रमण भगवान महावीरं अरोया अरोयं पसूया, तण्णं रयणिं महावीर को जन्म दिया, उस रात्रि में भवनवासी, भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासिणो देवा वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-देवियों ने कौतुक, य देवीओ य समणस्स महावीरस्स भूतिकर्म तथा तीर्थंकराभिषेक किया। कोउगभूयकम्माइं तित्थयराभिसेयं च करिसु। आमलकी क्रीड़ा १३.तए णं एवं वड्ढमाणे भगवं ऊणअट्ठवासे जाते। महावीर आठ वर्ष के हो रहे थे। उस समय में भी वे से य अल्लीणे भइए विणीए सूरे वीरे विक्कते। स्थिर, भद्र, विनम्र और पराक्रमी थे। तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविदे....... एक बार देवसभा के मध्य स्थित देवराज इन्द्र ने भगवतो संतगुणकित्तणयं करेति-अहो भगवं! बाले भगवान महावीर का गुणोत्कीर्तन करते हुए कहा-महावीर अबालभावे बाले अबालपरक्कमे अवुड्ढे बालक हैं फिर भी उनमें बचपन का भाव नहीं है। बालक वुड्ढसीले। महावीरे ण सक्का देवेण वा दाणवेण हैं फिर भी उनका पराक्रम प्रौढ़ है। वे वृद्ध नहीं हैं फिर भी वा जाव इंदेहिं वा भेसेउं परक्कमेण वा पराजिणितं । वृद्ध जैसे शीलवाले हैं। कोई भी देव, दानव, इन्द्र उन्हें छलेउं वा। भयभीत नहीं कर सकता। अपनी शक्ति से उन्हें परास्त नहीं कर सकता। छल नहीं सकता। तत्थ एगे देवे सक्कस्स एयमठं असहहते जेणेव एक देव ने इन्द्र के इस कथन पर श्रद्धा नहीं की। वह भगवं तेणेव उवागते। भगवं च पमदवणे चेडरूवेहिं महावीर के पास आया। महावीर उस समय प्रमदवन में समं सुंकलिकडएण अभिरमति। तस्स तेसु बच्चों के साथ आमलकी क्रीड़ा कर रहे थे। इस क्रीड़ा में रुक्खेसु जो पढमं विलग्गति जो पढमं ओलुभति जो वृक्ष पर सर्वप्रथम चढ़कर उतर जाता, वह विजयी सो चेडरूवाणि वाहेति। होता और पराजित बच्चों के कंधों पर चढ़कर आता। सो य देवो आगंतूण हेट्ठतो रुक्खस्स। देव वृक्ष के नीचे आया। महावीर को भयभीत करने के सामिभेसणढं एगं महं उम्गविसं चंडविसं घोरविसं लिए एक भयंकर, उग्रविष, घोरविष और चंडविष वाले महाविसं.....दिव्वं दिट्ठीविससप्परूवं विउव्वित्ता सर्प का निर्माण किया। सर्प वृक्ष पर चढ़ा। उप्पराहुत्तो अच्छति। ताहे सामिणा अमूढेणं वामहत्थेणं सत्ततले ___महावीर ने उसे देखा और जागरूकतापूर्वक अपने उच्छूढी। बाएं हाथ से सात तल तक फेंक दिया। ताहे देवो चिंतेति-एत्थ ताव ण छलिओ। देव ने सोचा-मैं इसे छल नहीं सका हूं। अह पुणरवि सामी तंदूसएणं अभिरमति। सो य महावीर गेंद से खेल रहे थे। देव ने बच्चे का रूप देवो चेडरूवं विउविऊणं सामिणा समं बनाया और महावीर के साथ खेलने लगा। अभिरमति। तत्थ सामिणा सो जितो। तस्स य उवरिं विलग्गो महावीर ने उसे पराजित कर दिया और उसके कंधों सामी। ...... पर चढ़ गए। तए णं से देवे सामि-भेसणठें एगं महं देव ने महावीर को भयभीत करने के लिए एक भयंकर तालपिसायरूवं विउव्वित्ता पव्वडिढउं पवत्तो....एवं ताड़ पिशाच का रूप बनाया और बढ़ता ही चला गया। सामिणा दठूण अभीतेणं तलप्पहारेणं आहत जहा महावीर ने उसे देखा और बिना डरे एडी से प्रहार किया। तत्थेव णिवुड्डे। वह वहीं भूमि में धंस गया। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ.१: महावीर और उनका परिवार ताहे भीते देवे चिंतेति-पत्थवि ण चलितो • छलेउंति। पच्छा सामिं वंदित्ता णट्ठो। देव ने भयभीत होकर सोचा-मैं इसे छलने में समर्थ नहीं है। वह महावीर को वंदन कर चला गया। विद्यार्थी जीवन १४.अन्नया अधितअट्ठवासजाते भगवं...... महावीर ने आठ वर्ष पूरे कर नौंवे वर्ष में प्रवेश किया। अम्मापिऊहिं लेहायरियस्स उवणीते। माता-पिता ने उन्हें लेखाचार्य (उपाध्याय) के पास भेजा। · इमस्स य लेहायरियस्स महतिमहालयं आसणं लेखाचार्य के लिए एक विशाल आसन का निर्माण रतियं। किया गया। सक्कस्स य आसणचलणं। सिग्घं आगमणं। ताहे इन्द्र का आसन चलित हुआ। वह शीघ्र वहां आया। सक्को तत्थ सामि निवेसति। इन्द्र ने लेखाचार्य के आसन पर महावीर को बिठाया। सोऽवि लेहायरियो तत्थेव अच्छति। ताहे सक्को लेखाचार्य भी वहीं बैठे थे। इन्द्र ने बद्धाञ्जलि हो करतलकतंजलिपुडो पुच्छति.......अकारादीण य । पूछा-अकार आदि अक्षरों के पर्याय कितने हैं? भंग पज्जाए भंगे गमे य पुच्छति। कितने हैं और गमा-सदृश पर्याय कितने हैं? ताहे सामी वागरेति अणेगप्पगारं। महावीर ने उनका अनेक प्रकार से व्याकरण किया। इमोडविं आयरियो सुणति। तस्स तत्थ केति लेखाचार्य ने इसे सुना। उन्हें अनेक नए पदों के पयत्या लग्गा। तप्पभितिं च णं ऐंद्रं व्याकरणं अर्थों का ज्ञान हुआ। उन प्रश्नों से ऐन्द्र नामक व्याकरण सवृत्तं। का निर्माण हुआ। ते य विम्हिता। लेखाचार्य आदि सभी आश्चर्यचकित हुए। सक्केण से सिलें-जहा भगवं सव्वं जाणति इन्द्र ने कहा-महावीर सब कुछ जानते हैं। इन्हें जातिसरो, तिणाणोवगतोत्ति। • जाति-स्मृति है। ये तीन ज्ञान से युक्त हैं। ताहे ताणि परितुट्ठाणि। इन्द्र द्वारा यह सुन सब संतुष्ट हुए। महावीर का अध्ययनकाल सम्पन्न हो गया। महावीर के तीन नाम . १५.समंणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते। तस्स णं इमे श्रमण भगवान महावीर का गोत्र काश्यप था। वे तीन तिण्णि णामधेज्जा एवमाहिज्जति, तं जहा- नामों से संबोधित किए जाते थे१. अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे। ..१. उनका माता-पिता के द्वारा प्रदत्त नाम था वर्द्धमान। २. सहसम्मुइए समणे। २. उन्हें सहज ज्ञान प्राप्त था, इसलिए वे समण कहलाए। ३. भीमं भयभेरवं उरालं अचेलयं परिसहं सहइ ३. भीम, अतिभयंकर और मुख्य अचेल परीषह को त्ति कटु देवेंहिं से णामं कयं समणे भगवं सहने के कारण देवों ने उनका नाम श्रमण भगवान महावीरे। महावीर रखा। महावीर का परिवार । १६.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिआ कासव- श्रमण भगवान महावीर के पिता काश्यपगोत्रीय थे। वे गोत्तेणं। तस्स णं तिण्णि णामधेज्जा तीन नामों से संबोधित किए जाते थेएवमाहिज्जंति, तं जहा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४६ खण्ड-२ २. श्रेयांस १. सिद्धत्थे ति वा। २. सेज्जंसे ति वा। ३. जसंसे ति वा। १. सिद्धार्थ ३. यशस्वी श्रमण भगवान महावीर की माता वाशिष्ठगोत्रीय थी। वह तीन नामों से संबोधित की जाती थी १७.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मा वासिट्ठ-सगोत्ता। तीसे णं तिण्णि णामधेज्जा एवमाहिज्जति तं जहा१. तिसला ति वा। २. विदेहदिण्णा ति वा। ३. पियकारिणी ति वा। २. विदेहदत्ता १. त्रिशला ३. प्रियकारिणी १८.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पित्तियए सुपासे कासवगोत्तेणं। श्रमण भगवान महावीर के चाचा का नाम सुपार्श्व था। १९.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जेठे भाया णंदिवद्धणे कासवगोत्तेणं। श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ भ्राता का नाम नंदीवर्धन था। २०.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जेठाभइणी सुदंसणा कासवगोत्तेणं। श्रमण भगवान महावीर की ज्येष्ठ भगिनी का नाम सुदर्शना था। ये सभी काश्यपगोत्रीय थे। २१.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स भज्जा जसोया कोडिण्णगोत्तेणं। श्रमण भगवान महावीर की पत्नी का नाम यशोदा था। वह कौडिन्यगोत्रीय थी। २२.समणस्स णं भगवओ धूया कासवगोत्तेणं। तीसे णं दो णामधेज्जा एवमाहिज्जंति१. अणोज्जा ति वा। २. पियदसणा ति वा। श्रमण भगवान महावीर की पुत्री काश्यपगोत्रीय थी। उसे दो नामों से संबोधित किया जाता-था १. अनवद्या । २. प्रियदर्शना श्रमण भगवान महावीर की दौहित्री कौशिकगोत्रीय थी। उसे दो नामों से संबोधित किया जाता था २३.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स णत्तई कोसियगोत्तेणं। तीसे णं दो नामधेज्जा एवमाहिज्जति, तं जहा१.सेसवती ति वा। २. जसवती तिवा। १. शेषवती २. यशस्वी महावीर के माता-पिता का देहत्याग २४.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था। ते णं बहुइं वासाइंसमणोवासगपरियागं पालइत्ता.... भत्तं पच्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीर- संलेहणाए सोसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। श्रमण भगवान महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्व की परंपरा के श्रमणोपासक थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक धर्म का पालन कर अंतिम समय में अनशन पूर्वक शरीर का त्याग किया और अच्युत कल्प में देवरूप में उत्पन्न हए। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ उद्भव और विकास अ.१: महावीर और उनका परिवार भगवं अट्ठावीसतिवरिसो जातो, एत्थंतरे भगवान महावीर अट्ठाईस वर्ष के हुए तब उनके अम्मापियरा कालगता। माता-पिता कालधर्म को प्राप्त हो गए। वैराग्य और प्रव्रज्या २५.पच्छा सामी णदिवद्धणसुपासपमुहं सयणं भगवान महावीर ने गर्भावस्था में प्रतिज्ञा की थी आपुच्छति, समत्ता पतिन्नत्ति। ताहे ताणि 'माता-पिता के जीवनकाल में दीक्षा नहीं लूंगा।' माताविगुणसोगाणि भणंति-मा भट्टारगा! सव्वजगद- पिता के स्वर्गवास होने पर प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। महावीर ने पिता परमबंधू एक्कसराए चेव अणाहाणि होमुत्ति, नंदिवर्धन, सुपार्श्व आदि स्वजन वर्ग से कहा-मैं अब इमेहिं कालगतेहिं तुम्भेहिं विणिक्खमवन्ति खते दीक्षा लेना चाहता हूं। दीक्षा की बात सुनकर उनका शोक खारं पक्खेव। ता अच्छह कंचि कालं जाव अम्हे द्विगुणित हो गया। उन्होंने कहा-हे स्वामिन् ! हे परमेश्वर! विसोगाणि जाताणि। हे परमबन्धु ! क्या हम एक साथ ही अनाथ हो जाएंगे? इधर माता-पिता के दिवंगत होने का शोक और उधर तुम्हारी दीक्षा की बात। यह घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। तुम तब तक हमारे साथ रहो, जब तक हम शोक मुक्त न हो जाएं। अपरं विहिं संवच्छरेहिं रायदेविसोगोणस्सेज्जति। हमारा राजकीय शोक दो वर्ष के बाद समाप्त होगा। ताहे पडिस्सुतं तो गवरं अच्छामि जति महावीर ने स्वीकार किया-मैं घर में रह सकता है, पर अप्पच्छदेण भोवणादि किरियं करेमि। ताहे इस शर्त के साथ मैं भोजन आदि समस्त क्रियाएं अपनी सममिती असिसयल्यपि ताव से कंचि कालं इच्छानुसार करूंगा। उन्होंने महावीर की बात का समर्थन पासामो। किया। उन्होंने सोचा-महावीर के विशिष्ट साधना रूप को भी हम कुछ समय तक देख लें। , २६.एवं सयं निक्खमणकालं गच्चा अवि साहिए दुवे महावीर ने स्वयं अपने अभिनिष्क्रमण काल के बारे में वासे सीतोदगमभोच्या णिक्खते। अप्फासुगं निर्णय किया और दो वर्ष से अधिक समय तक गृहस्थ आहारं राहभत्तं च अणाहारेंतो बंभयारी । जीवन में रहे। इस अवधि में उन्होंने सचित्त जल का असंजमवावाररहितो ठिओ। ण य फासुगेण वि सेवन नहीं किया। अप्रासुक भोजन का वर्जन किया। रात्रि पहातो, हत्यपादसोयणं तु फासुगेणं आयमणं च। भोजन नहीं किया। ब्रह्मचर्य की साधना की। असंयमपूर्ण परं णिक्खमणमहाभिसेगे अप्फासुगेणं ण्हाणितो, प्रवृत्ति का वर्जन किया। अचित्त जल से भी स्नान नहीं ण य बंधवेहिवि अतिणेहं कतवं। किया। केवल हाथ-पैर की शुद्धि की और आचमन किया। निष्क्रमण-महाभिषेक के समय सचित्त जल से स्नान कराया गया। बन्धुजनों के साथ अतिस्नेह नहीं किया। २७.ताहे सेणियपज्जोयादयो कुमारा पडिगता, न एस चक्किति। - - - . . 'महावीर चक्रवर्ती होंगे'-ज्योतिर्विदों की इस भविष्यवाणी के आधार पर श्रेणिक, प्रद्योत आदि कुमार उनके पास रहते थे। मुनि बनने का निर्णय हुआ, तब वे अपने-अपने स्थान पर चले गए। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४८ खण्ड-२ २८.एत्थंतरे भगवं संवच्छरावसाणे णिक्खमिस्सामिति मणं पधारेति। भगवान ने 'एक वर्ष के बाद अभिनिष्क्रमण करूंगा' यह मानसिक धारणा कर ली। २९.तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुठ्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ, करेत्ता-सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं ति कटु सामाइयं चरित्तं पडिवज्जइ। भगवान महावीर ने दीक्षा से पूर्व दायें हाथ से दायीं ओर का तथा बाएं हाथ से बायीं ओर का लोच (केशों का अपनयन) किया। सिद्धों को नमस्कार किया। उसके पश्चात् 'मेरे लिए सब पाप कर्म अकरणीय हैं'-इस संकल्प के साथ सामायिक चारित्र स्वीकार किया। ३०.तओ णं समणे भगवं महावीरे....., एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-'बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे। जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसम्गे समुप्पण्णे समाणे अणाइले अव्वहिते अहीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि अहियासइस्सामि।' श्रमण महावीर ने इस प्रकार अभिग्रह ग्रहण किया-मैं बारह वर्ष पर्यंत शरीर का व्युत्सर्ग और देह का त्याग करूंगा-शरीर की सार-संभाल नहीं करूंगा। इस अवधि में देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन्हें मैं अनाकुल, अव्यथित्त और अदीनभाव से मन, वचन और काया-इन तीनों से गुप्त रहकर सम्यक् प्रकार से सहन करूंगा। अचेलकत्व ३१.णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते। से पारए आवकहाए दीक्षा के समय भगवान महावीर एक शाटक थे। कंधे पर एक वस्त्र धारण किए हुए थे। भगवान ने संकल्प किया-'मैं हेमन्त ऋतु में इस वस्त्र से शरीर को . आच्छादित नहीं करूंगा।' वे जीवनपर्यंत सर्दी के कष्ट को सहने का निश्चय कर चुके थे। यह उनकी अनुधर्मिता है-परंपरा का निर्वाह किया गया है।' एयं खु अणुधम्मियं तस्स॥ ३२.संवच्छरं साहियं मासं भगवान ने तेरह महीनों तक उस वस्त्र को नहीं छोड़ा जंण रिक्कासि वत्थगं भगवं। फिर अनगार और त्यागी महावीर उस वस्त्र को छोड़ अचेलए ततो चाई अचेलक हो गए। तं वोसज्ज वत्थमणगारे॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-२ साधना और निष्पत्ति Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. साधना का प्रथम वर्ष संकल्पों का सुमेरु : उपसर्ग की आंधी स्वतंत्रता का संकल्प कुलपति का आश्रम २. साधना का दूसरा वर्ष तांत्रिक अच्छंदक दक्षिणवाचाला उत्तरवाचाला नौका विहार सामुद्रिक पुष्य की घोषणा गोशालक का मिलन ३. साधना का तीसरा वर्ष ग्वाला और खीर नंद और उपनंद ४. साधना का चौथा वर्ष स्थविर मुनिचन्द्र जिनकल्प की पांच तुलाएं ५. साधना का पांचवां वर्ष स्थविर दरिद्र महावीर के पैरों का झुलसना मेघ और कालहस्ती अनार्य देश में जनपद विहार ६. साधना का छठा वर्ष विजया पगल्भा बाणमंत कपूतना ७. साधना का सातवां वर्ष मगध जनपद में निरुपसर्ग विहार द्वितीय अध्याय पृ. सं. ५१ ५१ ५२ ५२ ५४ ५४ ५५. ५६ ५७ ५८ ५८ ५८ ५९ ५९ ५९ ६० ६० ६१ ६१ દૂર ६४ ६४ ६५ ६६ ६६ ८. साधना का आठवां वर्ष बाणमंतरी सालज्जा ९. साधना का नौवां वर्ष लाढ देश में बिहार १०. साधना का दसवां वर्ष तिल का पौधा बालतपस्वी वैश्यायन तेजोलेश्या की विधि वनस्पति का पोट्ट्परिहार ११. साधना का ग्यारहवां वर्ष प्रतिमा के विशेष प्रयोग दास्यकर्म से मुक्ति ध्यानमुद्रा इन्द्र द्वारा स्तुति संगमकृत उपसर्ग महावीर फांसी के फंदे पर संगम द्वारा क्षमायाचना इन्द्रों द्वारा कुशलपृच्छा १२. साधना का बारहवां वर्ष चमरेन्द्र का उत्पात महावीर पर तलवार का वार स्वातिदत्त के प्रश्न १३. साधना का तेरहवां वर्ष कैवल्य धर्मोपदेश पू. सं. ६६ ६६ ६७. ६८ ६८ ६८ ६९ ६९ ७० ७१ ७१ कु तु तु लु छु ggg ७३ ८४ ८४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना और निष्पत्ति साधना का प्रथम वर्ष तए णं सामी अहासंनिहिए सव्वे नायए महावीर मुनि बन गए। उपस्थित सभी ज्ञातिजनों से आपुच्छित्ता णायसंडबहिया चउभागऽवसेसाए पूछ ज्ञातखंड उद्यान से विहार किया। एक मुहूर्त दिन शेष पोरुसीए कम्मारम्गामं पहावितो।...... रहा तब वे कर्मारग्राम में पहुंचे। तत्थ य दो पंथा एगो पाणिएणं एगो पालीए। कारग्राम में जाने के दो मार्ग थे-एक जल मार्ग और . सामी पालीए जा वच्चति ताव पोरुसी मुहुत्तावसेसा दूसरा सेतु मार्ग। महावीर सेतु मार्ग से चले और गांव जाता, संपत्तो य तं गामं। तस्स बाहिं सामी पडिमं बाहर जाकर प्रतिमा में स्थित हो गए। ठितो। संकल्पों का सुमेरू : उपसर्गों की आंधी , चत्तारि साहिए मासे : . महावीर के शरीर में विद्यमान सुगंध आकर्षित होकर ण-जाइया आगम्म। भ्रमर आदि प्राणी भगवान के शरीर पर बैठ रसपान का अमिरुना का विरिंसु प्रयत्न करते। रस प्राप्त न होने पर क्रुद्ध हो भगवान के आरुसियाणं तत्थ हिंसिंसु॥ । शरीर पर डंक लगाते। यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा। स हि भगवान् दिव्वेहिं गोसीसातीएहिं चंदणेहिं महावीर का शरीर दिव्य गोशीर्ष चंदन, सुगंधित चुन्नेहिं तहा वासेहि य पुप्फेहि य वासियदेहो। चूर्ण, पटवास और पुष्पों से वासित था। अभिनिष्क्रमण निक्खमणाभिसेगेण य अभिसित्तो विसेसेणं इंदएहिं । के समय इन्द्रों द्वारा चंदन आदि से उन्हें वासित किया चंदणादिगंधेहिं वासितो। गया था। अतो तस्स पव्वइयस्स विसेसओ चत्तारि साहिए प्रवजित होने के चार महीने से अधिक समय तक मासे सो दिव्वो गंधोण फिडितो। उनके शरीर से दिव्य सुगंध नहीं मिटी। अतो से सुरभिगंघेणं भमरा मधुकरा य पाण- उस दिव्य गंध से दूर से ही आकृष्ट हो भ्रमर, जातीया बहवे दूराओवि पुष्फितेवि लोचकुंदादि- मधुकर लोध्र, कुंद आदि के पुष्पित वनखंडों को छोड़ वणसंडे चतिन्ति। दिव्वेहिं गंधेहिं आगरिसिता तं महावीर के पास आते। उनके चारों ओर मंडराते। शरीर तस्स देहमागम्म आरुज्झ कायं विहरंति विंधति को बींधते। पृष्ठभाग की ओर गुजारव करते। मकरंद न य। केह. मग्गतो गुगुममेंता समन्नेति। जदा पुण मिलने पर वे क्रुद्ध हो नख और मुख से काटने लगते। किंचिविण साएंति तदा आरुसिया णहेहि य मुहेहि य खायंति। वसंतकालेवि किर जं किंचि रोमकूवेसु सिणेहं बसन्तऋतु में रोमकूपों में जब तक स्नेह होता, तब Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन भवति तदा विलग्गितुं तं पिबत्ता आरुसिताण तत्थ हिंसिंसु । • मुइंगादीवि पाणजातीतो आरुज्झ कायं विहरंति जाव गाते वत्थे वा चंदणादिविलेवणाणं चुन्नाईणं च केति अवयवा धरिता ताव ते खाइंसु । तेहिं निट्ठिएहिं पच्छा ते ठितस्स वा चंकमंतस्स वा आरुट्ठा समाणा कायं विहिंसिंसु । जे वा अजितिंदिया ते गंधे अग्घात तरुणइत्ता तम्गंधमुच्छिता भगवंतं भिक्खायरियाए हिंडतं गामानुग्गामं दूइज्जतं अणुगच्छंता अणुलोमं जायंति - देहि अम्हवि एतं गंधजुत्तिं । तुसिणीए अच्छमाणे पडिलोमे उवसग्गे करेंति । एयं पडिमं ठियंपि उवसग्गेंति । ३. एवं इत्थियाओऽवि तस्स भगवतो गातं रयस्वेदमलेहि विरहितं । निस्साससुगंधं च मुहं अच्छीणि य निसग्गेण चेव नीलुप्पलपलासोवमाणि सुविरहियाणि दठ्ठे भांति सामि कहिं तुभे वसहिं उवेह ? पुच्छंति भांति अन्नमन्नाणि । ४. तए णं भगवतो कम्मारग्गामे बाहिं पडिमं ठियस्स...... ५. ततो बीयदिवसे छट्ठपारणए कोल्लाए संनिवेसे घतमधुसंजुत्तेणं परमन्त्रेणं बहुलेण माहणेण पडिलाभितो । पंच दिव्वा । ५२ खण्ड - २ तक भ्रमर उसका पान करते । स्नेह न मिलने पर और अधिक रुष्ट हो महावीर को काटते। कुलपति का आश्रम ६. ताहे सामी विहरमाणो गतो मोरागं संनिवेसं । तत्थ दूइज्जतगा णाम पासंडत्था । तेसिं तत्थ आवासा । तेसिं च कुलवती भगवतो पितुमित्तो। ताहे सो सामिस्स सागतेणं अवगतो । ताहे सामिणा पुव्वपतोगेण तस्स सागतं दिनं । चींटियां उनके शरीर को घेर लेतीं। जब तक शरीर एवं वस्त्र पर सुगंधित चूर्ण का अवयव शेष रहा, तब तक वे उसे खाती रहीं। जब वह समाप्त हो गया तो वे महावीर को काटतीं, चाहे वे खड़े हों अथवा बैठे हों। अजितेन्द्रिय युवक महावीर के शरीर से आनेवाली गंध में आसक्त हो जाते। जब वे भिक्षा के लिए ग्रामानुग्राम जाते तो वे उनके पीछे-पीछे घूमते । महावीर से कहते - हमें भी इस गंध का योग ( नुस्खा) दो। महावीर मौन रहते। वे प्रतिकूल उपसर्ग करते । प्रतिमा में स्थित महावीर को भी वे उपसर्ग करते । महावीर का गात्र रज, मैल और पसीने से रहित था । उनका मुख निःश्वास से निकलने वाली सुरभि से सुवासित था। आंखें निसर्ग से ही नीलोत्पल के समान विकस्वर, पलाश कुसुम के समान रक्ताभ, मैल और अश्रु विरहित थीं। उन्हें दैखकर स्त्रियां कहतीं - स्वामिन्! आप कहां रहते हैं ? फिर परस्पर बात करने लग जातीं। महावीर कर्मारग्राम के बाहर प्रतिमा में स्थित थे। दूसरे दिन कर्मारग्राम से विहार कर महावीर कोल्लाक सन्निवेश में आए। वहां बहुल ब्राह्मण के घर घृत और शर्करायुक्त खीर से षष्ठभक्त (दो दिन का उपवास) का पारणा किया। पांच दिव्य प्रकट हुए। स्वतंत्रता का संकल्प कोल्लाक सन्निवेश से महावीर मोराक सन्निवेश गए । वहां तापसों का आश्रम था। आश्रम का कुलपति महावीर के पिता का मित्र था । उसने महावीर का स्वागत किया। महावीर ने भी पूर्व संबंध के कारण उसका स्वागत किया। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ अ. २ : साधना और निष्पत्ति उद्भव और विकास सो भणति-अत्थि घरं। एत्थ कुमारवर! अच्छाहि। तत्थ सामी एगंतराइं वसिऊण पच्छा गतो विहरति। तेण भणियं-विवित्ताओ वसहीओ। जदि वासारत्तो कीरति तो आगमज्जाह। ताहे सामी अट्ठ उउवद्धिए मासे विहरित्ता वासावासे उबग्गे तं चेव दुइज्जंतगगाम एति। तत्थेगंमि मढे वासावासं ठितो। पढमपाउसे य गोरूवाणि चारिं अलभंताणि जुण्णाणि तणाणि खायंति। ताणि य घराणि उव्वेल्लेंति। पच्छा ते वारेति। सामी ण वारेइ। कुलपति ने कहा कुमारप्रवर! यह तुम्हारा ही घर है। तुम यहां रहो। महावीर एक रात वहां रहकर आगे विहार करने लगे। कुलपति ने कहा-यह एकांत स्थान है। यदि आप वर्षावास बिताना चाहें तो पुनः आ जाएं। महावीर ऋतुबद्ध काल के आठ महीनों तक विहरण कर, वर्षावास को निकट जान पुनः उसी स्थान पर आ गए। एक मढ़ (कुटीर) में वर्षावास के लिए ठहरे। प्रथम प्रावृट्काल में चारा न मिलने पर गाय, बछड़े आदि पुराने तृणों को खाने लगे। वे तापसों की झोंपड़ियों की ओर लपके। तापसों ने उन्हें रोका। महावीर ने उन्हें नहीं रोका। तापसों ने कुलपति से कहा-महावीर इन गायों को रोक नहीं रहे हैं। कुलपति ने अनुशासन की भाषा में कहा-कुमारप्रवर! पक्षी भी अपने घोंसले की सुरक्षा करता है। तुम भी उन गायों को रोको। कुलपति ने यह बात बड़ी मृदुता के साथ . कही। पच्छा ते दूइज्जंतगा तस्स कुलवइस्स साहेति। जहा एस एताणि ण वारेति। ताहे. सो कुलवती तं अणुसासेति, भणति- कुमारवरा! सउणीवि ताव णेड्डं रक्खति। तुमंपि वारेज्जासित्ति सप्पिवासं भणति। ७. ताहे सामी अचितत्तोग्गहोत्ति निम्गतो। इमे य तेण पंच अभिग्गहा गहिता, तं जहा अचियत्तोगहे ण वसितव्वं। निच्चं वोसढे काए। मोणं च। पाणीसु भोत्तव्वं।........ गिहत्थी न वंदियव्वो न अब्भुट्टेयव्वोत्ति। यह अप्रीतिकर स्थान है, मुझे यहां नहीं रहना चाहिए-यह सोच महावीर ने वहां से प्रस्थान कर दिया। उसी दिन से महावीर ने पांच अभिग्रह धारण किएमैं अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूंगा। शरीर की सार-संभाल नहीं करूंगा। मौन रहूंगा। कर पात्र रहूंगा-हाथ में भोजन करूंगा। गृहस्थ का अभिवादन और अभ्युत्थान नहीं करूंगा। ८. गोसालेण किर तंतुवायसालाए भणियं-अहं तव भोयणं आणामि गिहिपत्ते काउं। तं पि भगवया नेच्छियं। भगवान महावीर के संकल्प-'मैं कर पात्र रहूंगा' की साधनाकाल में कसौटी हुई। गोशालक में तंतुवायशाला में महावीर से पूछा-मैं आपके लिए भोजन लाऊं? महावीर ने यह कहकर निषेध कर दिया कि मैं गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करूंगा। यह संकल्प साधनाकाल तक था। कैवल्य होने के बाद महावीर लोहार्य (आर्य सुधर्मा) के द्वारा लाया गया भोजन करते थे, इसलिए कहा गया है उप्पन्नणाणस्स उ लोहज्जो आणेति। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५४ खण्ड-२ ९. धन्नो सो लोहज्जो धन्य है वह स्वर्णाभ शरीरवाला लोहार्य श्रमण ___ खंतिखमो पवरलोहसरिवन्नो। जिसके पात्र में लाया हुआ भोजन महावीर अपने हाथ में जस्स जिणो पत्ताओ लेकर करते हैं। इच्छइ पाणीहिं भोत्तुं जे॥ १०.तत्थ अद्धमासं अच्छित्ता ततो पच्छा मोराक सन्निवेश में पन्द्रह दिन रहकर महावीर अट्ठियग्गामं वच्चति। तस्स पुण अठ्यिगामस्स अस्थिग्राम गए। अस्थिग्राम का पूर्व नाम वर्धमान था। पढमं वद्धमाणयं णाम होत्था। तत्थ सामी चत्तारि भगवान ने पहला चातुर्मास अस्थिग्राम में किया। उस मासे अद्धमासं खममाणो एतं पढमं समोसरणं चातुर्मास में उन्होंने पन्द्रह-पन्द्रह दिन की तपस्या का पारणा किया। साधना का दूसरा वर्ष ११.पच्छा सरदे निग्गओ मोरायं नाम सन्निवेसं गओ। शरद् ऋतु का समय। भगवान अस्थिग्राम से मोराक तत्थ सामी बहिं उज्जाणे ठिओ। सन्निवेश गए। बाहर उद्यान में ठहरे। वुच्छो । तांत्रिक अच्छंदक १२.तत्थ य मोरागए सन्निवेसे अच्छंदगा नाम पासंडत्था। तत्थ एगो अच्छंदओ तत्थ गामे अच्छइ। सो पुण तत्थ गामे कोंटलवेंटलेण जीवति। सिद्धत्थगो एकल्लओ अच्छंदओ अद्धिति करेति बहुसंमोइतो, य भगवतो पूर्य अपेच्छंतो। ताहे सो बोलेंतं गोहं सहावेत्ता वागरेति-जहिं पधावितो जंजिमितो जं पंथे दिळं जेय सविणगा दिट्ठा। ताहे सो आउट्टो गामं गंतं मित्तपरिजिताण परिकहेति। सव्वहिं गामे फुसितं। एस देवज्जतो उज्जाणे अतीतवट्टमाणाणागतं जाणति। ताहे अन्नोऽवि लाओ आगतो। सव्वस्स वागरेति। लोगो तहेव आउट्टो महिमं करेति। सो लोगेण अविरहितो अच्छति। ताहे सो लोगो भणइ-एत्थ अच्छंदओ णाम जाणंतओ। मोराक सन्निवेश में अच्छंदक श्रमण रहते थे। एक अच्छंदक गांव में रहता था। वह मंत्र-तंत्र, जादू-टोने आदि के द्वारा जीवन यापन करता था। सिद्धार्थ उद्यान में अकेला रहता था। उसे अकेले रहना अच्छा नहीं लगा। उसने देखा-लोग भगवान की पूजा नहीं कर रहे हैं। उसने गांव के मुखिया को बुलाकर कहा-कौन कहां गया? क्या खाया? क्या मार्ग में देखा? क्या स्वप्न देखा-महावीर इन सबको जानते हैं। मुखिया ने यह बात अपने मित्रों और परिचितों से कही। पूरे ग्राम में यह चर्चा हो गई कि उद्यान में ठहरा हुआ देवार्य अतीत, वर्तमान एवं अनागत का ज्ञाता है। चर्चा सुन दूसरे लोग भी उद्यान में आने लगे। महावीर की महिमा करने लगे। सिद्धार्थ लोगों से घिर गया। लोगों ने कहा-अच्छंदक भी अच्छा जानकार है। १. सिद्धार्थ यक्ष महावीर के प्रति श्रद्धालु था। वह उनकी उपासना में रहा। उसने समय-समय पर आनेवाली स्थितियों का समाधान किया। वह प्रच्छन्न रहकर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दे देता। प्रश्न करने वालों को प्रतीति करवा देता कि ये उत्तर महावीर के द्वारा दिए जा रहे हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. २ : साधना और निष्पत्ति .. सिद्धत्यो भणति-से ण किंचि जाणति। सिद्धार्थ ने कहा-वह कुछ नहीं जानता। . ताहे लोगो गंतुं भणति-तुमं ण किंचि जाणसि, लोग अच्छंदक के पास गए और बोले-तुम कुछ नहीं देवज्जतो जाणति। जानते हो, देवार्य जानता है। सो लोगमज्झे अप्पाणं ठाविउकामो भणति-एह अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए उसने लोगों से जामो। जदि मज्झ जाणति तो जाणति। कहा-आओ, हम चलें। यदि वह मेरे मन की बात जानता है तो जानकार है। ताहे लोगेण परिवारितो एति। भगवतो पुरतो लोगों को साथ ले वह महावीर के सम्मुख उपस्थित दिठतो। तणं गहाय भणति-किं एतं छिज्जिहिति? हुआ। अच्छंदक हाथ में तिनका ले महावीर से जइ भणिहिइ छिन्जिहिइ, तो ण च्छिंदिस्स। अह । बोला-क्या यह टूटेगा? उसने मन ही मन सोचा यदि यह भणिहिति णवि, तो छिंदिस्सामि। . देवार्य कहेगा कि तिनका टूटेगा तो मैं इसे नहीं तोडूंगा और नहीं टूटने का कहेगा तो मैं इसे तोड़ दूंगा। . सिद्धत्येण भणितं-ण छिन्जिहिति। आढत्तो सिद्धार्थ ने कहा नहीं टूटेगा। अच्छंदक तिनका छिंदितुं। सक्केण य उवओगो दिन्नो। ताहे तोड़ने लगा। उसी समय इन्द्र एकचित्त हुआ। वह अच्छंदगस्स कुवितो। अच्छंदक पर कुपित हो गया। तिनका नहीं टूटा। ताहे सो अप्पसागारियं आगतो भणति-भगवं! एक दिन अच्छंदक एकांत प्राप्त कर महावीर के पास • तुम्मे अण्णत्थवि जुज्जह, अहं कहिं जामि? आया और बोला-भगवान्। आप तो अन्यत्र भी पूज्य हो सकते हैं। मैं कहां जाऊं? ताहे अचियत्तोम्गहोत्ति काऊण सामी निम्गतो। ___ यह स्थान अप्रीतिकर है, ऐसा सोच महावीर ने आगे प्रस्थान कर दिया। दक्षिण वाचाला : उत्तर वाचाला १३.ताहे ततो निग्गतो समाणो दो वाचालातो महावीर वहां से वाचाला की ओर जा रहे थे। वाचाला दाहिणवाचाला य उत्तरवाचाला य। तासिं दोण्हं के दो भाग थे-उत्तर और दक्षिण। दोनों वाचाला के मध्य अंतरा दो णदीओ-सवन्नकला य रुप्पकूला य। दो नदियां बहती थीं-सुवर्णकूला और रूप्यकूला। महावीर ताहे सामी दक्खिणवाचालाओ उत्तरवाचालं ने दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला की ओर प्रस्थान वच्चति।......... किया। (तत्य अंतरा कणकखलं णाम आसमपदं। मार्ग में कनकखल नाम का आश्रम था। पच्छा सामी उत्तरवाचालं गतो। तत्थ पक्ख- महावीर उत्तर वाचाला पहुंचे। पन्द्रह दिन की तपस्या खमणपारणए अतिगतो। तत्थ णागसेणेण का पारणा किया। नागसेन गृहपति ने खीर का दान दिया। गाहावतिणा खीरभोयणेण पडिलाभितो। तत्थ पंच पांच दिव्य प्रकट हुए। दिव्वाणि। १४.पच्छा सेयवियं गतो। तत्थ पएसी राया समणोवासए। सो महेति, सक्कारेति। महावीर श्वेतविका नगरी में गए। वहां का राजा था प्रदेशी। वह अर्हत् पार्श्व की परम्परा का श्रमणोपासक था। उसने महावीर की अर्चा की और सत्कार किया। '१५.ततो सुरभिपुरं वच्चति। तत्थ अंतराए णेज्जगा रायाणो पंचहिं रहेहिं एंति पएसिस्स रन्नो पासं। महावीर ने सुरभिपुर की ओर विहार किया। मार्ग में ' पांच रथारूढ़ नैयक (न्यायविशारद) राजे मिले। वे राजा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ तेहिं तत्थ गतेहिं सामी प्रतितो य वंदितो य।...... प्रदेशी के पास जा रहे थे। उन्होंने महावीर की अर्चा और वंदना की। नौका विहार १६.ततो सुरभिपुरं गतो। तत्थ गंगा उत्तरियब्विया। महावीर सुरभिपुर गए। बीच में गंगा नदी आ गई। तत्थ सिद्धदत्तो णाम णाविओ। खेमिलो उन्हें गंगा को पार करना था। वहां एक नाविक था। नेमित्तिओ। तत्थ य णावाए लोगो विलग्गति। तत्थ उसका नाम था सिद्धदत्त। एक खेमिल नाम का नैमित्तिक य कोसिएण महासउणेण वासितं। तत्थ सो भी वहां उपस्थित था। ज्योंही नौका चलने लगी कि उल्लू नेमित्तिओ वागरेति-जारिसं सउणेण भणियं तारिसं की आवाज का शकुन हुआ। उसे सुन नैमित्तिक ने अम्हेहि मारणंतियं पावियव्वं, किं पुण? इमस्स कहा-शकुन का जो स्वर है उसका फल है कि नौका पर . महरिसिस्स पभावेण मुच्चीहामो। पमावण मुच्चाहामो। चढ़े हुए लोग मरणांत स्थिति में पहुंच सकते हैं। पर इस महाऋषि के प्रभाव से हम अवश्य बच जाएंगे। .. . सा य णावा पहाविता। एत्थंतरा सदाढेण नौका आगे बढ़ी। उस समय सुदाढ़ नागकुमार ने णागकुमारेणाभोइतं। तेण विट्ठो सामी। तं वेरं अवधिज्ञान का प्रयोग किया और महावीर को देखा। , सरित्ता कोवो जातो। सो य किर सीहो। पूर्वजन्म की स्मृति हुई। वह कुपित हो गया। पूर्वजन्म में वासुदेवत्तणे मारितेल्लओ। सो तं संसारं चिरं वह सिंह था और महावीर उस समय त्रिपृष्ठ वासुदेव थे। भमित्ता सुदाढो णागो जातो। सो संवट्टगवातं वासुदेव ने सिंह को मारा था। वह संसार भ्रमण करते हुए विउव्वित्ता णावं उब्बोलेतुं इच्छति। सुदाढ़ नाम का नागकुमार हो गया। उसने तूफान उत्पन्न किया और नौका.को डूबोना चाहा। इतो य कंबल-संबला दो नागकुमारा तं इधर कंबल और संबल दो नागकुमारों ने भी . आभोएंति।......एगेण णावा गहिता। एगो सुदाढेण अवधिज्ञान का प्रयोग किया। डगमगाती नौका और उसमें समं जुज्झति। महावीर को देखा। दोनों वहां आए। एक ने नौका को हाथ में थामा और दूसरा सुदाढ़ के साथ लड़ने लगा। सो महिछीओ। तस्स पुण चयणकालो। इमे य सुदाढ़ अधिक ऋद्धि एवं शक्तिसम्पन्न था। किन्तु अहणोववन्नगा। सो तेहिं पराजितो। उसका च्यवनकाल (मरणकाल) आसन्न था। कंबल और संबल दोनों अभी-अभी देव बने थे। उन्होंने सुदाढ़ को पराजित कर दिया। सब लोग कुशलक्षेम नदी के पार पहुंच गए। सामुद्रिक पुष्य की घोषणा १७.ततो भगवं उदगतीराए पडिक्कमितं पत्थिओ। भगवान गंगा के किनारे से होकर गुजरे। चिकनी . गंगामट्टियाए य तेण मधुसित्थेण लक्खणा मिट्टी में उनके पदचिह्न हो गए। वहां पुष्य नाम का एक दीसंति। तत्थ पूसो णाम सामुद्दो। सो ताणि सामुद्रिक रहता था। उसने पदचिह्नों को देखकर सोचा, सोचिते लक्खणाणि पासति। ताहे एस चक्कवट्टी यह चक्रवर्ती होगा। यह अकेला कैसे? मैं इसके पास जाऊं एगागी गतो। बच्चामिणं वागरेमि तो मम एत्तो और इसे चक्रवर्ती होने की बात बताऊं। मुझे इससे अच्छी भोगवत्ती भविस्सति। सेवामि णं कुमारत्ते। __ आजीविका मिलेगी। अभी यह कुमार है। मैं सेवा में रहूं। सामीवि थुणागसंनिवेसस्स बाहिं पडिमं ठितो। महावीर ने स्थूनाक सन्निवेश के बाहरी भाग में प्रतिमा की साधना की। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उद्भव और विकास अ. २ : साधना और निष्पत्ति गोशालक का मिलन १८.ततो सामी रायगिहं गतो। तत्थ णालंदाए महावीर राजगृह गए। राजगृह की बाहिरिका नालंदा बाहिरियाए तंतुवायसालाए एगदेसंसि अहापडिरूवं में पहुंचे। तंतुवाय शाला में यथायोग्य स्थान की याचना उम्गहं अणुन्नवेत्ता पढमं मासक्खमणं विहरति। कर उसके एक भाग में ठहरे। एक मास की तपस्या. एत्थंतरा मंखली' एति। जत्थ सामी ठिओ तत्थ ___प्रारम्भ की। इस बीच मंखलीपुत्र गोशालक वहां आ एगदेसंमि वासावासं उवगतो। गया। जहां महावीर ठहरे थे वहीं वह चातुर्मास के लिए एक भाग में ठहर गया। १९. भगवं मासखमणपारणए अभिंतरियाए विजयस्स घरे विपुलाए भोयणविहीए पडिलाभितो। तत्थ पंच दिव्वाणि। महावीर के एक मास की तपस्या का पारणा विजय के घर विविध भोजन सामग्री से हुआ। पांच दिव्य प्रकट २०.भणति य वंदित्ता-अहं तुम्भं सीसोत्ति। सामी तुसिणीओ णिम्गतो। गोशालक ने महावीर को वंदन कर कहा-मैं आपका शिष्य हूं। आप मुझे स्वीकार करें। महावीर मौन रहे। २१.वितियं मासक्खणं ठितो। बितिय पारणए आणंक्स्स घरे खज्जगविधीए। महावीर ने दूसरी बार एक मास की तपस्या प्रारम्भ । की। दूसरे मासखमण का पारणा आनन्द के घर खाद्य मिष्टान्न से किया। . २२.ततिए सुदंसणस्स घरे सव्वकामगुणिएणन्ति। तीसरे मासखमण का पारणा सुनंद के घर अनेक द्रव्यों से किया। २३.भगवं चउत्थं मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं चतुर्थ मासखमण चल रहा था। कार्तिक पूर्णिका के विहरति। गोसालो य कत्तियपण्णिमाए दिवसओ दिन भिक्षा के लिए जाते हुए गोशालक ने पूछा-आज मुझे पछति-किमहं अज्ज भत्तं लभेज्ज ति? क्या भोजन मिलेगा? सिद्धार्थ ने कहा कोदो धान, सिळत्येण भणितं-कोहवअंबिलसित्थाणि कडग- अम्लसीथ (खट्टी छाछ) और दक्षिणा में खोटा रुपया। रूवगं च दक्षिणं। ताहे सो सव्वादरेण हिंडति.... ण गोशालक भिक्षा के लिए घूमने लगा। उसे कहीं भी भिक्षा कहिंवि संभाइयं। नहीं मिली। ताहे अवरण्हे एगेण से कम्मारएण दिन्नं, ताहे घूमते-घूमते अपराह्न को एक लुहार ने उसे भोजन जिमितो। रूवओ य से दक्खिणं दिनो। तेण दिया और दक्षिणा में रुपया दिया। जब रुपये का परीक्षण परिक्खावितो जाव कूडओ। करवाया तब वह खोटा निकला। ताहे भणति-जेण जहा भवियव्वं ण तं भवइ गोशालक ने कहा-जो जैसा होना है, वह वैसे ही १.मंखली नाम का मंख (डाकोत) था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। एक बार वे एक ब्राह्मण की गोशाला में ठहरे। भद्र ने वहां पुत्र को जन्म दिया इसलिए बच्चे का नाम गोशालक रखा गया। मंख का पुत्र होने के कारण उसका दूसरा नाम मंखली था। (आवचू. १ पृ. २८२) २. भगवती सूत्र में सुदंसण के स्थान पर सुनंद नाम है। इसलिए अनुवाद में सुनंद रखा गया है। . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन अन्ना' । लज्जिओ आगतो। २४. चउत्थे मासक्खमणे भगवं णालंदाओ निग्गतो कोल्लागं गतो । तत्थ बहुलो माहणो माहणे भोजावेति । भगवं च अणेण मधुघयसंजुत्तेण परमन्त्रेण पडिलाभितो। पंच दिव्वाई। ग्वाला और खीर २५. तासामी ते समं वासावगमाओ सुवन्नखलयं वच्चति । तत्थंतरा गोवालगा वइयाहिंतो खीरं गहाय महल्लीए थालीए णवएहिं चाउलेहिं पायसं उवक्खडेंति । ता गोसालो भणति - एह एत्थ भुंजामो । ताहे सिद्धत्थो भणति - एस निम्माणं चेव ण गच्छति । एस उरु भज्जिहिति । ताहे सो असदहंतो ते गोवए भणइ एस देवज्जतो तीताणागतजाणतो, भणति - एस थाली भज्जिहिति । तो पयत्तेण सारवेह । ताहे पयत्तं करेंति । वंसविदलेहि य थाली बद्धा । साधना का तीसरा वर्ष तेहिं अतिबहुया तंदुला छूढ़ा । सा फुट्टा । पच्छा गोवा जं जेण कभल्लं आसाइतं सो तत्थ चेव पजिमितो | तेण ण लब्द्धं । ताहे सुठुतरं नियती गहिता । खण्ड - २ होता है, अन्यथा नहीं होता। वह अपने स्थान पर लौट आया । नंद और उपनंद २६. ताहे सामी बंभणागामं पत्तो । तत्थ णंदो उवणंदो य दोन्नि भातरो । गामस्स दो पाडगा । तत्थ एगस्स एगो इतरस्सवि एगो । तत्थ सामी णंदस्स पाडगं पविट्ठो णंदघरं च । तत्थ दवि दोसीणेण य पडिलाभितो णदेण । गोसालो उवणंदस्स । तेण उवर्णदेण संदिट्ठ- देह भिक्खत्ति, तत्थ अदेसकाले सीतकूरो णिणितो । सो तं ण इच्छति । ५८ चतुर्थ मासखमण में नालंदा से विहार कर महावीर कोल्लाक सन्निवेश में आए। वहां बहुल नाम का ब्रह्म था। वह ब्राह्मणों को भोजन करवा रहा था। उसने महावीर को शर्करा और घृत युक्त खीर का दान दिया। पांच दिव्य प्रकट हुए। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् महावीर ने कोल्लाक सन्निवेश से सुवर्णखल की ओर विहार किया। रास्ते में ग्वाले गोकुल से दूध लेकर आए। एक बड़ी हांडी में नए चावलों से खीर पकाने लगे। गोशालक ने कहा- आओ, यहां भोजन करके चलें । सिद्धार्थ ने कहा- यह खीर बनेगी ही नहीं। इस हांडी का पैंदा फूट जाएगा। गोशालक ने इस वचन पर अश्रद्धा करते हुए वालों से कहा- यह देवार्य अतीत और अनागत का ज्ञाता है। यह कह रहा है हांडी फूट जाएगी। इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा करना। ग्वाले सावधान हो गए। हांडी को बांस की खपचियों से बांध दिया। ग्वालों ने हांडी में चावल अधिक डाल दिए। हांडी फूट गई। हांडी के टुकड़ों में जो खीर बची थी, उसे ग्वालों ने खा लिया। गोशालक को कुछ नहीं मिला। उस दिन से उसे नियतिवाद पर और अधिक विश्वास हो गया। महावीर ब्राह्मण ग्राम में गए। वहां नंद और उपनंद दो भाई थे। गांव के दो पाड़े (मुहल्ले ) थे। एक का नाम नंद पड़ा और दूसरे का नाम उपनंद पड़ा । महावीर नंद पाड़ा में नंद के घर गए । नंद ने दधिमिश्रित चावलों की भिक्षा दी। गोशालक उपनंद के घर गया। उपनंद ने अपनी दासी को भिक्षा देने का आदेश दिया। दासी उसके लिए ठंडे Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास २७. ततो सामी णिग्गतो चंपं गतो । तत्थ वासावासं ठाति । तत्थ दूमासक्खमणेण ठाति । चत्तारिवि मासे विचित्तं तवोकम्मं ठाणादिए पडिमं ठाइ । ठाणुक्कुडुए एवमादीणि करेति । तत्थ चत्तारि मासे वसित्ता चरिमं दोमासियापारणयं तं बाहि पारेति । २८. ताहे कालायं णाम संनिवेसं तत्थ वच्चति । ...... भगवं सुन्नघरे पडिमं ठितो । २९. ततो निम्तो सामी पत्तकालयं नामं गामो तत्थ गतो। तत्थवि तहेव सुन्नघरे ठितो । स्थविर मुनिचन्द्र ३०. ततो कुमारायं संनिवेंखं गता । तस्स बहिया चंपरमणिज्जं नाम उज्जाणं । तत्थ भगवं पडिमं ठितो। तत्थ कुमाराए संनिवेसे कूवणओ णाम कुंभकारो । तस्स कुंभारावणे पासावच्चिज्जा मुणिचंदा णाम थेरा बहुसुता बहुपरिवारा। ते तत्थ परिवसंति। ते य जिणकप्पपरिकम्मं करेंति सीसं गच्छे ठवेत्ता । ते सत्तभावणाए अप्पाणं भावेंति । साधना का चौथा वर्ष जिनकल्प की पांच तुलाएं ३१. तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य । तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवज्जतो ॥ ताओ भावणाओ, ते पुण सत्तभावनाए भावेंति ३२.पढमा उवसयंमि बितिया बाहिं ततिया चतुक्कम्मी । तह पंचमिया मसाणंमि ॥ सुन्नघरंमि चउत्थी ५९ अ. २ : साधना और निष्पत्ति भात लेकर आई। गोशालक ने लेने से इन्कार कर दिया। महावीर चंपा में गए। वहां चातुर्मास किया । दोमासी तप (दो महीने का उपवास) किया। चार ही महीने विचित्र तप चला। प्रतिमा और उत्कटुक आदि आसनों का प्रयोग किया। चार मास वहां रहकर दूसरे दो मासी तप का पारणा नगर के बाहर किया। महावीर चंपा से विहार कर कालाय सन्निवेश में गए। शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित हो गए। महावीर पत्रकालय नाम के ग्राम में गए शून्यगृह में ठहरे। पत्रकालय ग्राम से विहार कर महावीर कुमाराक सन्निवेश में ठहरे। उसके बाहर चंपक रमणीय उद्यान था। महावीर वहां प्रतिमा में स्थित हो गए। कुमाराक सन्निवेश में कूपनय नाम का कुम्भकार था । उसकी कुम्भकारशाला में पार्श्वपत्यीय बहुश्रुत स्थविर मुनिचन्द्र अपने शिष्य परिवार के साथ ठहरे हुए थे। वे अपने शिष्य को गच्छाधिपति बनाकर जिनकल्प की • साधना कर रहे थे । वे सत्त्व भावना से अपने आपको भावित कर रहे थे। तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल- जिनकल्प स्वीकार करनेवालों के लिए ये पांच तुला (भावना ) होती हैं। इन भावनाओं में से मुनिचन्द्र के सत्त्व भावना का अभ्यास चल रहा था। सत्त्व भावना के पांच प्रकार हैं। पहली का अभ्यास रात्रि के समय उपाश्रय के भीतर, दूसरी का उपाश्रय के बाहर, तीसरी का चौराहे पर, चौथी का शून्यगृह में और पांचवीं का श्मशान में किया जाता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन . सो य बितियाए भावेति । गोसालो य भगवं भणति - एह देसकालो हिंडामो। सिद्धत्थो भणति - अज्ज अम्हं अंतरं । सो हिंडतो ते पासावच्चिज्जे थेरे पेच्छति । भणति के तुब्भे ? भति-समण णिग्गंथा । सो भणति - अहो निम्गंथा ! इमो भे एत्तिओ गंथो । कहिं तुब्भे निम्गंथा ? सो अप्पणो आयरियं वन्नेति, एरिसो महप्पा । तुब्भेत्थ के ? ३३. ताहे तेहिं भन्नति - जारिसओ तुमं तारिसओ धम्मायरियओऽवि सयंगिहितलिंगो । ताहे सो रुट्ठो । ताहे सो गतो सामिस्स साहतिअज्जम सारंभा सपरिग्गहा दिट्ठा । ३४. ताहे सामी ततो चोरागसन्निवेसं गता । ३५. ततो भगवं पिट्ठीचंपं गतो । तत्थ वासावासं पज्जोसवेइ । चउम्मासियखमणं च वयं विचित्तं पडिमादीहिं । स्थविर दरिद्र ३६. बाहिं पारेत्ता कतंगलं गतो । तत्थ दरिद्दथेरा णाम पासंडत्था सारंभा समहिला । ताण वाडगस्स मज्झे देउलं । तत्थ सामी पडिमं ठितो । तद्दिवसं च सफुसितं सीतं पडति । ताणं च तद्दिवसं जागरओ । ते समहिला जागरओ गायंति । ६० खण्ड - २ स्थविर मुनिचन्द्र सत्त्व भावना के दूसरे प्रकार का उपाश्रय के बाहर रहकर अभ्यास कर रहे थे। सूर्योदय होने पर गोशालक ने महावीर से कहा- चलो, हम भिक्षा के लिए चलें । सिद्धार्थ ने कहा- आज तपस्या है। गोशालक ने भिक्षा में घूमते हुए पार्श्वापत्यीय श्रमणों को देखा और पूछा- तुम कौन हो ? उन्होंने कहा- हम श्रमण निर्ग्रथ हैं। गोशालक ने साश्चर्य कहा - अहो ! तुम निग्रंथ हो ! तुम्हारे पास तो इतना परिग्रह है। तुम निर्ग्रथ कैसे हुए ? महावीर का गुणानुवाद करते हुए उसने कहा-निर्ग्रथ तो वे महात्मा हैं। | तुम कौन हो निग्रंथ ? तत्थ गोसालो भणति - एसोऽवि णाम पासंडो भवति सारंभो समहिलो य सव्वाणि य एगट्ठाणि गायंति य ? ता सो तेहिं बाहिं णिच्छूढो । साधना का पांचवा वर्ष स्थविरों ने कहा- जैसा तू है, वैसा ही तेरा धर्माचार्य है, जो अपने आप मुनि बन गया । गोशालक यह सुन रुष्ट हो गया। उसने श्रमणों के साथ हुई वार्ता महावीर को सुना दी। महावीर कुमाराक सन्निवेश से चोराक सन्निवेश में गए। महावीर पृष्ठचंपा गए। वहां वर्षावास किया । चातुर्मासिक तप किया- पूरे चातुर्मास में आहार नहीं किया । नाना प्रकार की प्रतिमाओं का प्रयोग किया। नगर के बाहर पारणा कर महावीर ने कृतांगला की ओर विहार किया। कृतांगला में दरिद्र स्थविर नाम के श्रमण रहते थे। वे खेती आदि करते थे। स्त्रियां रखते थे। उनके बाड़े में एक देवस्थान था। महावीर वहां प्रतिमा में स्थित हो गए। उस दिन ठंडक थी। पाला पड़ रहा था । श्रमणों के रात्रि जागरण था। वे महिलाओं सहित जागरण गीत गा रहे थे। उन्हें देख गोशालक ने कहा- ऐसे भी कोई श्रमण होते हैं जो आरम्भ करते हैं, स्त्रियों को रखते हैं और एक साथ मिलकर गाते हैं। गोशालक के ऐसा कहने पर श्रमणों ने उसे बाहर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. २ : साधना और निष्पत्ति पच्छा पभाए सामी सावत्थिं गतो। तत्थ सामी बाहिं पडिमं ठितो। निकाल दिया। प्रातःकाल वहां से प्रस्थान कर महावीर श्रावस्ती गए। नगर के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। महावीर के पैरों का झुलसना ३७.ताहे सामी हलेदुता णाम गामो तं गतो। तत्थ श्रावस्ती से महावीर हलेदुता ग्राम में गए। वहां बहुत महतिमहप्पमाणो हलेदुगरुक्खो। तत्थ सावत्थिओ बड़ा हलेदुक नाम का वृक्ष था। श्रावस्ती नगरी से जाने गरीओ अन्नो लोगो एंतो तत्थ वसति वाला एक सार्थ उस वृक्ष के पास ठहरा। महावीर वहां सत्थनिवेसो। तत्थ सामी पडिमं ठितो। प्रतिमा में स्थित थे। तेहिं सत्थिएहिं रत्तिं सीयकाले अग्गी जालिओ। ते सार्थ ने रात्रि के समय सर्दी से बचने के लिए अग्नि पभाए संते उठेत्ता गया। सो अग्गी तेहिं न जलाई। प्रातःकाल होते ही सार्थ वहां से चला गया। विज्झाविओ। उन्होंने अग्नि को नहीं बुझाया। सो डहंतो-डहंतो सामिस्स पासं गतो। सो भगवं ___ अग्नि प्रज्वलित होती हुई महावीर के निकट पहुंच परितावेति। गोसालो भणति-भगवं णासह नासह। गई। महावीर तक ताप पहुंचने लगा। गोशालक ने एस अग्गी एइ। कहा-भगवान् ! यहां से चलें, चलें। इधर अग्नि आ रही सामिस्स पावा डड्ढा। गोसांलो गट्ठो। ___महावीर वहीं खड़े रहे। उनके पैर झुलस गए। ' - गोशालक चला गया। . ३८.ततो गंगला गाम गामो। तत्थ गतो सामी वासुदेवघरे पडिमं ठितो। महावीर नंगला ग्राम गए। वासुदेवगृह में प्रतिमा में स्थित हो गए। . ३९.ततो पच्छा आवत्ता णाम गामो। तत्थवि सामी इमं ठितो बलदेवस्स घरे। नंगला से विहार कर महावीर आवर्त ग्राम में आए। बलदेवगृह में प्रतिमा में स्थित हो गए। ४०.ततो पच्छा चोरायनामं संनिवेसं गतो। तत्थ घडाभोज्जं तहिवसं रज्झति य पच्चति य। सामी य एगते पडिमं ठितो। महावीर चोराक सन्निवेश में गए। उस दिन वहां गोठ थी। स्थान-स्थान पर खाद्य सामग्री रांधी और पकाई जा रही थी। महावीर एकांत में जा प्रतिमा में स्थित हो गए। मेघ और कालहस्ती ४१.पच्छा ते कलंबुगं गता। तत्थ दो पच्चंतिया भायरो 'मेहो य कालहत्थी य। सो कालहत्थी चोरेहिं समं उद्धाइओ। इमे य दुयगे पेच्छति। ते भणंति के तुब्भे ? सामी तुसिणीओ अच्छति। ते तत्थ हम्मंति, ण य साहेतित्ति। तेण ते बंधिऊण महावीर कलंबुक ग्राम में पहुंचे। वहां सीमांत पर रहनेवाले दो भाई थे। उनका नाम था मेघ और कालहस्ती। कालहस्ती चोरों के साथ जा रहा था। उसने मार्ग में महावीर और गोशालक को देखा। उन्हें पूछा-तुम कौन हो? महावीर मौन रहे। महावीर के मौन से उत्तेजित हो वह उन्हें पीटने लगा। उसने उन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ महल्लस्स भातुगस्स पेसिया। दोनों को बंदी बना बड़े भाई के पास भेज दिया। तेण जं चेव भगवं दिवो तं चेव उठेत्ता पूतितो। मेघ ने ज्योंही भगवान को देखा, उठकर अभिवादन खामितो य। तेण सामी कंडग्गामे दिठेल्लओ। किया और इस अपराध के लिए उनसे क्षमा मांगी। उसने कुंडग्राम में पहले महावीर को देखा था, इसलिए इन्हें पहचान कर मुक्त कर दिया। अनार्य देश में जनपद विहार ४२.भगवं चिंतेति-बहुं कम्मं निज्जरेयव्वं लाढाविसयं वच्चामि। ते अणारिया। तत्थ णिज्जरेमि। महावीर ने सोचा-मुझे विपुल कर्मों की निर्जरा करनी है, अतः लाढ़ देश में जाऊं। वहां अनार्य-आदिवासी लोग रहते हैं। निर्जरा का विशेष अवसर प्राप्त होगा। महावीर ने किसान के दृष्टांत को सामने रखा। वहां से विहार कर वे लाढ़ प्रदेश में पहुंचे। तत्थ भगवं अत्थारिय दिठंतं हिदए करेति। ततो भगवं निम्गतो लाढाविसयं पविठो। ४३.अह दुच्चर-लाढमचारी वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च। पंतं सेनं सेविंसु आसणगाणि चेव पंताइं॥ _दुर्गम लाढ़देश के वज्रभूमि और सूम्हभूमि प्रदेशों में भगवान ने विहार किया। वहां उन्होंने तुच्छ बस्ती और तुच्छ आसनों का सेवन किया। ४४.अणगर-जणवओ पायं सो विसओ।......लूसगेहिं उस देश में नगर, जनपद आदि नहीं के बराबर थे। सो कट्ठमुदिठप्पहारादिएहिं अणेगेहिं य लूसंति। हिंसक व्यक्ति काष्ठ, मुष्टि आदि से उन पर प्रहार करते। एगे आहु-दंतेहि खायंतेति, किंच-अहा लूहदेसिए कुछ कहते इन्हें दांतों से काट लो। इसका हेतु था-वहां भत्ते, तसे पाएण रुक्खाहारा तैलघृत-विवर्जिता का रूखा खान-पान। वे तैल, घृत से रहित भोजन करते। रूक्षाः ।..... रूक्षं गोवालहलवाहादीणं सीतकूरो, आमंतेणऊणं वाले, खेतिहर आदि लोग आम्लरस के साथ ठंडा अंबिलेण अलोणेण एए दिज्जंति। मज्झण्हे __ भोजन करते। उनका भोजन नमक रहित होता था। लुक्खएहिं माससहाएहिं तं पिणाति प्रकाम। मध्याह्न के भोजन में उड़द सहित सूखे चावल खाते थे। ण तत्थ तिला संति। ण गावीतो बहुगीतो, वहां तिलों की खेती नहीं होती थी। वहां बहुत गाएं कप्पासो वा। नहीं थीं और रूई भी नहीं थी। तणपाउरणातो ते। परुक्खाहारत्ता अतीव कोहणा, वे घास से अधोभाग को ढकते थे। अत्यधिक रुस्सिता अक्कोसादी य उवसग्गे करेंति। रूक्षभोजी होने के कारण वे स्वभावतः अतिक्रोधी थे। बात-बात में लड़ पड़ते। अपने इस चंड स्वभाव के कारण वे रुष्ट होकर भगवान को गाली देते और नाना प्रकार के उपसर्ग करते। ४५. कारणेण गाममणियंतियं गामब्भासते लाढा लाढ़देश के एक गांव में भगवान जा रहे थे, उन्हें पडिणिक्खमेत्तु लूसेंति। णग्गा! तुमं किं अम्हं गामं देख कुछ लोग कर्कश भाषा में बोले ओ नग्न ! तुम हमारे पविससि? गांव में क्यों आ रहे हो? यहां से चले जाओ। १. देखें, आवश्यक चूर्णि १, पृ. २९६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास . गया कदायि गामि पविट्ठेण णिवासी ण लपुव्वो । जेण उवस्सतो ण लद्धो तेण गामो ण लखो चैव भवति । केह खलयंति आयावणभूमीतो जत्थ वा अन्नत्थ ठिओ सिणो वा । केति पुण एवं वेवमाणो हणेत्ता आसणातो वा खलित्ता पच्छा पाए पडितुं खमिति । ४६. लाढेहिं तस्सुवसम्गा अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवतिंसु ॥ ४७. अप्पे जणे णिवारेड छुछुरंत हं ४८. एलिक्खए जणे भुज्जो लट्ठ गाय णालीयं ४९. एवं पि तत्थ विहरंता संलुंचमाणा सुणएहिं बहवे जाणवया लूसिंसु । ५१. मंसाणि छिन्नपुव्वाई, परीसहाई लुंचिसु लूसणए सुणए दसमाणे । • समणं कुक्कुरा डसंतुत्ति ॥ बहवे वज्जभूमि फरुसासी । समणा तत्थ एव विहरिंसु ॥ पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणएहिं । दुच्चरगाणि तत्थ लाढेहिं ॥ ५०. हयपुव्वो तत्थ दंडेण अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ-फलेणं । अदु लुणा कवाणं हंता - हंता बहवे कंदिंसु ॥ उभंति एगया कार्य । अहवा पंसुणा अवकिरिंसु ॥ अ. २ : साधना और निष्पत्ति एक बार भगवान एक गांव में गए। वहां ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं मिला। अतः उनके लिए गांव में जाना न जाने के समान हो गया। ६३ कुछ लोग भगवान को आतापन भूमि से हटा देते जहां कहीं बैठे हों अथवा खड़े हों। कुछ लोग भगवान को पीटकर, आसन से विचलित कर बाद में उनके चरणों में गिर क्षमा मांगते । लाद के जनपदों में भगवान ने अनेक उपसर्गों का • सामना किया। उन जनपदों के लोगों ने भगवान पर अनेक प्रहार किए। वहां का भोजन प्रायः रूखा था । कुत्ते भगवान को काट खाते और आक्रमण करते । कुत्ते काटने आते या भौंकते तब कोई-कोई व्यक्ति उन्हें रोकता, किन्तु बहुत से लोग श्रमण को कुत्ते काट खाएं, इस भावना से छू-छू कर कुत्तों को बुलाते और भगवान के पीछे लगाते । ऐसे जनपद में भगवान ने छह मास तक विहार किया । वज्रभूमि के बहुत से लोग रुक्षभोजी होने के कारण कठोर स्वभाववाले थे। उस जनपद में कुछ श्रमण लाठी और नालिका पास में रख कर विहार करते थे । इस प्रकार विहार करनेवाले श्रमणों को भी कुत्ते काट 'खाते और नोच डालते। लाढ़ देश के गांवों में विहार करना सचमुच कठिन था । वहां कुछ लोग दंड, मुष्टि, भाला आदि शस्त्र, चपेटा, 'मिट्टी के ढेले और कपाल (खप्पर) से भगवान पर प्रहार कह हंत! हंत! कहकर चिल्लाते। कुछ लोग मांस काट लेते। कभी-कभी शरीर पर थूक देते। प्रतिकूल परीषह देते। कभी-कभी उन पर धूल डाल देते। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-२ आत्मा का दर्शन ५२.उच्चालइय णिहणिंसु अदुवा आसणाओ खलइंसु। वोसट्ठकाए पणयासी दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे॥ कुछ लोग ध्यानस्थ भगवान को ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते। कुछ लोग आसन से स्खलित कर देते। किंतु भगवान शरीर को विसर्जन किए हए, आत्मा के लिए समर्पित, कष्ट सहिष्णु और सुख प्राप्ति के संकल्प से मुक्त थे। ५३.एवं विहरता भद्दियं णगरी गता। तत्थ वासारत्ते चउम्मासक्खमणेण अच्छति. विचित्तं तवोकम्म ठाणादीहिं। अनार्य देश में विहरण कर महावीर भद्दिया नगरी में आए। वहां वर्षावास किया। चातुर्मासिक तप और नाना प्रकार के आसनों का प्रयोग किया। . ५४.ताहे बाहिं पारेत्ता विहरंतो कदली नाम गामो। नगरी के बाहर पारणा कर महावीर कदली ग्राम गए। साधना का छट्ठा वर्ष महावीर कदलीग्राम से जंबूषण्ड ग्राम में गए। ५५.ततो भगवं जंबुसंडं णामं गामं गतो। ५६.पच्छा तंबायं णाम गामं एंति। तत्थ णंदिसेणा जंबूषण्ड से तंबाय ग्राम में गए। वहां नंदिषेण नाम के णाम थेरा बहुस्सुया बहुपरिवारा। ते तत्थ पापित्यीय बहुश्रुत स्थविर थे। उनका विशाल शिष्य जिणकप्पस्स पडिकम्मं करेंति पासावच्चिज्जा। परिवार था। वे जिनकल्प की साधना कर रहे थे। इमेवि बाहिं पडिमं ठिता। महावीर ग्राम के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गये। विजया-प्रगल्भा ५७.ततो पच्छा कूविया णाम संनिवेसो। तत्थ गता। तेहिं चारियत्तिकाऊण घेप्पंति। तत्थ बज्झंति पिटिजंति य। तत्थ लोगसमुल्लावो अपडिरूवो देवज्जतो रूवेण य जोव्वणेण य चारिओत्ति गहियो। तत्थ विजया पगब्भा य दोन्नि पासंतेवासिणीओ परिव्वाइया सोऊण लोगस्स तित्थगरो इतो वच्चामो, ता पुलएमो। तंबाय सन्निवेश से महावीर कपिय सन्निवेश में गए। वहां उन्हें गुप्तचर समझ पकड़ लिया गया। बांधा और पीटा गया। ___ लोग परस्पर कहने लगे यह देवार्य रूप और यौवन से अद्वितीय है, फिर भी यह गुप्तचर के रूप में पकड़ा गया है। उसी सन्निवेश में दो परिखाजिकाएं थीं। उनका नाम था-विजया और प्रगल्भा। वे पहले पार्श्वनाथ की परम्परा में साध्वियां रह चुकी थीं। लोगों के मुंह से तीर्थंकर महावीर के आगमन की बात सुन वे हर्षित हुईं। वे वहां गईं। महावीर को जानकर आरक्षकों से कहा-दुरात्मन! क्या तुम लोग नहीं जानते ये चरम तीर्थंकर हैं. सिद्धार्थराज के पुत्र हैं। उन्होंने तत्काल महावीर को मुक्त कर दिया और क्षमायाचना की। को जाणति होज्जा? ताहिं मोतितो। दुरप्पा! ण जाणह चरिमतित्थकरं सिद्धत्थ-रायसुतं।....... ताहे मुक्का खामिया य। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. २ : साधना और निष्पत्ति ५८.ततो मुक्का समाणा निम्गता। तत्थ वच्चंताण दुवे पंथा। ___ताहे गोसालो भणति-तुब्भे ममं हम्ममाणं ण बारेह। अवि य-तुब्भेहिं समं बहूवसग्गं अन्नं च अहं चेव पढम हम्मामि। तो वरं एगल्लो विहरिस्सं। कूपिका सन्निवेश से मुक्त होकर महावीर आगे चले। रास्ते में दो मार्ग थे। गोशालक ने कहा-आप मुझे पीटे जाने पर नहीं छुड़ाते हैं। मुझे आपके साथ बहुत से उपसर्ग सहने पड़ते हैं। और दूसरी बात यह है कि मैं ही पहले मारा जाता हूं। इसलिए अच्छा है मैं अकेला विहार करूं। सिद्धार्थ ने कहा तुम जैसा चाहो, वैसा करो। महावीर ने वैशाली की ओर विहार कर दिया। गोशालक महावीर से अलग हो गया और अकेला विहरण करने लगा। महावीर वैशाली गए। वहां कारशाला (लोहे का कारखाना) में ठहरे। सिद्धत्थो भणति-तुमं जाणसि। 'ताहे सामी वेसालीमुखो पधावितो। इमो य भगवतो फिडितो एगल्लओ वच्चति। ५९.सामीवि वेसालिं गतो। तत्थ कम्मारसालाए अणुन्नवेत्ता पडिमं ठितो। . ६०.सामी गामायं संनिवेसं एति। तत्थ उज्जाणे _ बिभेलओ णाम जक्खो। सो भगवतो पडिमं ठितस्स पूयं करेति। वैशाली से विहार कर महावीर ग्रामाक सन्निवेश में गए। वहां उद्यान में बिभेलक नाम का यक्ष था। उसने प्रतिमा में स्थित महावीर की पूजा की। वाणमंतरी कटपूतना ६१.ततो सामी सालीसीसयं णाम गामो तहिं गतो। महावीर शालिशीर्ष ग्राम में गए। उद्यान में प्रतिमा में तत्य उज्जाणे पडिमं ठितो। माहमासो य वटति। . स्थित हो गए। माघ का महीना था। तत्व कडपूयणा वाणमंतरी। सामी दठ्ठणं तेयं । कटपूतना नाम की बाणमंतरी वहां आई। महावीर के - असहमाणी पच्छा तावसरूवं विउब्वित्ता वक्कल- तेज को न सहने के कारण उसने तापस का रूप बनाया। नियत्था जडाभारेण य सव्वं सरीरं पाणिएण वल्कल पहना। बिखरी हुई जटाओं में पानी भरकर ओल्लेत्ता दहमि उवरिं ठिता। महावीर के शरीर पर छिड़कने लगी। । सामिस्स अंगाणि धुणति। वायं च विउव्वति। द्रह पर स्थित हो उनके अंगों को प्रकंपित करने लगी। तेज हवाएं चलाने लगी। जदि पागतो सो फुटितो होन्तो। यदि साधारण व्यक्ति होता तो वह विचलित हो जाता। सा य किल तिविठुकाले अंतेपुरिया आसि। ण य त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में वह उनके अंतःपुर की एक .. तदा पडियरियत्ति पदोसं वहति। रानी थी। उस समय सम्यक् प्रकार से परिचर्या न होने के कारण वह त्रिपृष्ठ के प्रति द्वेष से भर गई। तं दिव्वं वेयणं अहियासंतस्स भगवतो ओही कटपूतना द्वारा दी गई वेदना महावीर सहन कर रहे विगसिओ। सव्वं लोगं पासितुमारखो। सेसं कालं थे। ऐसा करते-करते महावीर का अवधिज्ञान अधिक गब्भातो आढवेत्ता जाव सालिसीसं ताव विकसित हो गया। उसमें वे सम्पूर्ण लोक को देखने लगे। सुरलोगप्पमाणो ओही। एक्कारस य अंगा। गर्भकाल से लेकर शालिशीर्ष ग्राम तक महावीर का सुरलोगप्पमाणमेत्ता, जावतियं देवलोगेसु अवधिज्ञान देवलोक तक जान सके उतना ही था। पेच्छिताइता। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ सावि वंतरी पराजिता संता ताव उवसंता पूयं करेति। कटपूतना पराजित हो गई और उसने महावीर की अभ्यर्थना की। ६२.ततो भगवं भहियं नाम णगरिं गओ। तत्थ छठें वासावासं उवगतं। तत्थ वरिसारत्ते गोसालेण समं समागओ। छठे मासे भगवतो गोसालो मिलितो। तत्थ चतुमासखमणं। विचित्ते य अभिग्गहे कुणति भगवं ठाणादीहिं। महावीर भद्रिका नगरी में गए। वहां छट्ठा वर्षावास आ गया। इस वर्षावास में महावीर के साथ गोशालक था। वह महावीर से अलग होने के छठे माह पुनः मिल. गया। इस वर्षावास में महावीर ने चातुर्मासिक तप किया। विविध अभिग्रह किए। आसनों का प्रयोग किया। साधना का सातवां वर्ष मगध जनपद में निरुपसर्ग विहार ६३.बाहिं पारेत्ता ततो पच्छा मगहविसए विहरति। नगरी के बाहर पारणा कर महावीर ने मगध जनपद निरुवसग्गं अट्ठमासे उदुबद्धिए। की ओर विहार किया। ऋतुबद्धकाल (शेषकाल) के आठ महीने निरुपसर्ग बीते। कोई उपसर्ग नहीं हुआ। ६४.एवं विहरिऊणं आलभितं एति। तत्थ सत्तम महावीर विहार करते-करते आलभिका नगरी में वासावासं उवगतो चाउम्मासखमणेण। आए। वहां सातवां वर्षावास किया और उसमें चातुर्मासिक तप किया। साधना का आठवां वर्ष ६५.ततो बाहिं पारेत्ता कंडगं नाम संनिवेसं तत्थ एति। नगरी के बाहर पारणा कर महावीर कण्डक सन्निवेश तत्थ वासुदेवघरे सामी कोणे ठितो पडिमं। गए। वहां वासुदेवगृह के एक कोने में प्रतिमा में स्थित हो । गए। ६६.ताहे निम्गया समाणा महणा णामं गामो। तत्थ बलदेवघरे सामी अंतो कोणे पडिमं ठितो। कण्डक सन्निवेश से महावीर मद्दन ग्राम गए। वहां बलदेवगृह के एक कोने में प्रतिमा स्थित हो गए। वाणमंतरी सालज्जा ६७.तत्तो निम्गता बहूसालगं णाम गामो तत्थ गता। तत्थ बहिं सालवणं णाम उज्जाणं। तत्थ ठितो। तत्थ य सालज्जा णाम वाणमंतरी। सा भगवतो पूर्व करेति। महावीर बहुशालक ग्राम में गए। ग्राम के बाहर शालवन नाम का उद्यान था। महावीर उस उद्यान में ठहरे। वहां सालज्जा नाम की बाणमंतरी थी। उसने महावीर की अभ्यर्थना की। ६८.ततो निग्गतो गता लोहम्गलं रायहाणिं। तत्थ जियसत्तू राया। सोय अन्नेण राइणा समं विरुद्धो। महावीर लोहार्गला राजधानी पहुंचे। वहां का राजा था जितशत्रु। उसका किसी दूसरे राजा के साथ वैर चल रहा था। उसने चारों ओर गुप्तचर छोड़ रखे थे। महावीर के मौन ने गुप्तचरों के मन में संदेह पैदा कर तस्स चारपुरिसेहिं गहिता पुच्छिज्जंता ण Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ उद्भव और विकास अ. २ : साधना और निष्पत्ति साहति। तत्थ य चारियत्ति रन्नो अत्थाणी-वर- दिया। उन्होंने महावीर को गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया गतस्स उवट्ठाविता। और राजा के सम्मुख उपस्थित किया। सत्थ उप्पलो अट्ठियग्गामतो सो य पुव्वामेव वहां अस्थिकग्राम से उत्पल नैमित्तिक आया हुआ अतिगतो। था। उसका भगवान महावीर के साथ पहले से ही परिचय था। सो य ते आणिज्जते दळूण उठितो तिक्खुत्तो महावीर को देखते ही उत्पल ने उठकर तीन बार बंदति। पच्छा सो भणति-ण एस चारित्तो। एस । वंदना की और राजा से कहा-महाराज! ये गुप्तचर नहीं सिखत्थरायसुतो धम्मवरचक्कवट्टी। एस भगवं। हैं। सिद्धार्थ राजा के पुत्र हैं। धर्म चक्रवर्ती हैं। भगवान हैं। लक्खणाणि से पेच्छह। आप इनके लक्षण तो देखें। तत्थ सक्कारेऊण मुक्को। . राजा ने सारी बात जानकर उन्हें सत्कार सहित मुक्त कर दिया। ६९.ततो पुरिमतालं एति। महावीर पुरिमताल गए। ७०.ततो सामी उण्णागं वच्चति।. पुरिमताल से महावीर उन्नाग सन्निवेश में गए। ७१.ततो विहरंतो सामी गोभूमी' वच्चति। उन्नाग सन्निवेश से विहार कर महावीर गोभूमि गए। ७२. ततो विहरंता रायगिहं गता। तत्थ अट्ठमं गोभूमि से महावीर राजगृह नगर गए। वहां आठवां । वासारत्तं। चउम्मासखमणं। विचित्ते य अभिग्गहे। वर्षावास किया। चातुर्मासिक तप किया। विचित्र अभिग्रह . किए। साधना का नौवां वर्ष ७३. बाहिं पारेत्ता सरदे समतीए दिह्रतं करेति। सामी नगर के बाहर पारणा किया। शरदकाल का समय। चिंतेति-बहुं कम्मं ण सक्का णिज्जरेउं, ताहे महावीर ने चिंतन किया-मेरे बहुत से कर्म हैं। उनकी __सतमेव अत्यारियादिळंतं पडिकप्पेति। निर्जरा सहज संभव नहीं है। ऐसे सोच महावीर ने स्वयं दृष्टांत का अनुचिंतन किया| जहा एगस्स कुटुंबियस्स साली जाता। ताहे सो एक कृषक के खेत में चावल हुए। उसने राह गुजरते कप्पडियपंथए भणति-तुब्धं हि इच्छितं भत्तं देमि, कार्पटिकों से कहा-मैं तुम्हें इच्छित पारिश्रमिक दूंगा तुम मम लुणह। पच्छा भे जहासुहं वच्चह। इस खेत को काट दो फिर तुम्हारी इच्छा हो वहां चले जाना। एवं सो ओवातेण लुणावेति। इस उपाय से उसने राह चलते कार्पटिकों से खेत कटवा लिया। एवं चेव ममवि बहुं कम्मं अच्छति। एतं इसी प्रकार मेरे भी बहुत से कर्म हैं। मुझे भी अनार्य तऽच्छारिएहिं णिज्जरावेयव्वंति य अणारियदेसेसु। देश में जाकर दूसरे लोगों के निमित्त से अपने कर्मों का निर्जरण करना चाहिए। १. वहां सघन जंगल था। सदा गाएं चरती थीं। इसलिए उसे गोभूमि कहा गया। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन लाढदेश में विहार ता लाढावज्जभूमिं सुद्धभूमिं च वच्चति । ते णिरणुकंपा णिया य । तत्थ विहरितो । तत्थ सो अणारिओ जो हीलति निंदति । तदा य किर वासारत्तो। तंमि जणवए केणइ दइवनिओगेण लेहट्ठो आसी । वसहीवि न लब्भति । तत्थ य छम्मासे अणिच्चजागरियं विहरति । एस नवमो वासारत्तो । तिल का पौधा ७४. ततो निम्गता पढमसरयदे | सिद्धत्थपुरं गता । ६८ सिद्धत्थपुराओ य कुंमागामं संपत्थिया । तत्थ अंतरा एगो तिलथंभओ । तं दद्रूणं गोसालो भणति - भगवं । किं एस तिलथंभओ निप्फज्जिहिति नवत्ति ? सामी भइ - निप्फज्जिही । एते य सत्तपुप्फजीवा ओद्दात्ता एतस्सेव तिलथंभस्स एगाए सिंबलियाए पच्चायाहिंति । तेण असहहंतेण अवक्कमित्ता सलेठुओ उप्पाडितो । एगंते य एडिओ। ........ तक्खणमेत्तं ....... दिव्वे अब्भवद्दले पाउब्भूए । तए णं से दिव्वे अब्भवद्दले खिप्पामेव पतणतणाति, खिप्पामेव पविज्जुयाति, खिप्पामेव नच्चोदगं णातिमटियं पविरलप्फुसिय रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासति । जे से तिलथंभ आसत्थे पच्चायते बद्धमूले, तत्थेव पतिट्ठिए। ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता- उद्दाइत्ता तस्सेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता । यह सोच महावीर लाढ़देश की वज्रभूमि और सुम्ह भूमि में गए। वहां के लोग निरनुकंप और निर्दयी थे। महावीर वहां विहार करते। अनार्य लोग उनकी हेलना - निंदा करते । साधना का दसवां वर्ष वहां चातुर्मास का समय आ गया। उस जनपद में उन्हें रहने का कहीं स्थान नहीं मिला । वृक्षों के नीचे रहे। वहां छह महीने तक अनित्य जागरिका का प्रयोग किया। यह महावीर का नवां वर्षावास था। खण्ड - २ लादेश से निकल कर प्रथम शरदकाल में महावीर सिद्धार्थपुर में आए। सिद्धार्थपुर से कुर्मग्राम की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में एक तिल का पौधा था। गोशालक ने उसे देख पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं ? • महावीर ने कहा- यह निष्पन्न होगा। इस पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मरकर इसी पौधे की एक फली में पैदा होंगे। महावीर के वचनों पर अश्रद्धा करते हुए गोशालक ने जड़ सहित पौधे को उखाड़ा और एकान्त में फेंक दिया। उसी समय आकाश में दिव्य बादल आए। बादल गरजे । बिजलियां कौंधीं। शीघ्र ही वर्षा शुरू हो गई। न अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ । रजों और धूलिकणों को जमाने वाली बूंद बूंदी हुई। उससे तिलस्तंभ का रोपण हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया । तिलपुष्प के वे सात जीव मरकर उसी तिलस्तंभ की एक फली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न हो गए । १. आचारांग सूत्र में सुद्धभूमि के स्थान पर सुब्भभूमि पाठ मिलता है, इसलिए अनुवाद में सुम्हभूमि रखा गया है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FO अ. २ : साधना और निष्पत्ति उद्भव और विकास बालतपस्वी वैश्यायन ७५.ताहे कुंमागाम संपत्ता। तस्स बाहिं वेसियायणो बालतवस्सी आतावेति। तस्स छप्पदीओ जडाहिंतो आइच्चताविता पडंति। जीवहियाए पडियाओ सीसे छुभति। तं गोसालो दटूण ओसरित्ता तत्थ गतो भणति-किं भवं मुणी मुणितो उयाहु जयासेज्जातरो? ज्ञात्वा प्रव्रजितो नेति? अहवा किं इत्यी पुरिसे? एक्कसिं दो तिन्नि वारे। ताहे वेसियायणो रुट्ठो तेयं निसिरति। महावीर कूर्मग्राम पहुंचे। ग्राम के बाहर बालतपस्वी वैश्यायन आतापना ले रहा था। सूर्य के ताप से तप्त होकर जूएं उसकी जटाओं से निकलकर नीचे गिर रही थीं। जूंओं का वध न हो जाए, यह सोच वह उन्हें पुनः सिर में डाल रहा था। गोशालक ने यह देखा। उसके पास जाकर बोला-तुम मुनि हो अथवा जूओं के शय्यातर-जूओं को आश्रय देने वाले ?तुमने ज्ञानपूर्वक दीक्षा ली है अथवा ऐसे ही ले ली ? तुम स्त्री हो अथवा पुरुष ? ____ एक बार कहा, दूसरी बार कहा, तीसरी बार कहा। वैश्यायन ने रुष्ट हो गोशालक को भस्म करने के लिए तेजोलेश्या का निसर्जन किया। महावीर ने गोशालक पर अनुकंपा कर वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या को प्रतिसंहृत करने के लिए शीतल तेजोलेश्या का निसर्जन किया। ताहे सामिणा तस्स अणुकंपणट्ठाए वेसियाय- णस्स तस्स अणुकंपणट्ठाए वेसियायणस्स उसिणतेयपडिसाहरणट्ठाए एत्यंतरा सीतलिता लेस्सा णिसिरिया। सा जंबुद्दीवं बाहिरओ वेढेति उसिणा तेयलेस्सा। . भगवतो सीतलिता तेयल्लेसा अब्भंतराओ :. वेदेति। इतरा तं . परिचयंति सा तत्थेव सीतलाए विज्झाविता। ताहे सो भगवतो ललिं पासित्ता भणति से गतमेतं भगवं! गतमेतं भगवं! ण जाणामि जहा तुब्भं सीसो, खमह। ताहे गोसालो पुच्छति सामी! किं एस जूयासेज्जातरो पलवति? सामिणो कहितं। वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या जंबूद्वीप को बाहर से ' वेष्टित कर रही थी। महावीर की शीतल तेजोलेश्या ने जंबूद्वीप के भीतरी - भाग का वेष्टन प्रारम्भ कर दिया। उष्ण तेजोलेश्या गोशालक तक पहुंचे उससे पहले ही वह शीतल तेजोलेश्या से बुझ गई। महावीर की यह लब्धि देख बालतपस्वी बोला-भगवन् ! मैंने जान लिया, जान लिया। मुझे यह ज्ञात नहीं था यह आपका शिष्य है। आप मुझे क्षमा करें। गोशालक पूछने लगा-भंते! यह जूओं का शय्यातर क्या प्रलाप कर रहा है? महावीर ने सारा वृत्तान्त सुनाया। तेजोलेश्या की विधि ७६. ताहि भीतो पुच्छति-भगवं! किह संखित्तविउल- गोशालक ने भयभीत हो पूछा-भगवन्! संक्षिप्ततेयलेस्सो भवति? विपुल तेजोलेश्या क्या होती है ? भगवं भणति-जे णं गोसाला! छठंछठेणं महावीर ने कहा-गोशालक! जो छह महीने तक अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं आयावेति. पारणए लगातार बेले-बेले दो-दो दिन का उपवास) की तपस्या सणहाए कम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं करता है. आतापना लेता है. पारणा में छिलके सहित जावेति जाव छम्मासा। से णं संखित्तविउल- मुट्ठीभर कुल्माष और एक चुल्लू पानी लेता है, उसे यह Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७० खण्ड-२ तेयलेस्से भवतित्ति। संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है। वनस्पति का पोट्ट-परिहार ७७. अन्नदा सामी कुंमग्गामओ सिद्धत्थपुरं संपत्थितो। पणरवि तिलथंभस्स अदरसामंतेण जाव वतिवयति ताहे पुच्छइ-भगवं! जहा न निष्फण्णो। भगवता कहितं-जहा निप्फण्णो। तं एवं वणप्फईण पउट्टपरिहारो।' सो असहहतो गंतूणं तिलसेंगलियं हत्थे पप्फोडेत्ता ते तिले गणेमाणो भणति-एवं सव्वजीवावि पयोट्टपरिहारंति। महावीर ने कूर्मग्राम से सिद्धार्थपुर की ओर प्रस्थान किया। तिल के पौधे के ज्योंही पास से गुजरे कि गोशालक ने पूछा-भगवन्! तिल का पौधा निष्पन्न नहीं हुआ है। महावीर ने कहा-तिल का पौधा निष्पन्न हो गया है। इस प्रकार वनस्पति का पोट्ट-परिहार होता है। ___ महावीर के वचन पर श्रद्धा न करते हुए उसने तिल की फली को अपने हाथ में लिया और फोडा। उसके तिलों को गिनता हुआ बोला-इस प्रकार सभी जीवों का पोट्ट-परिहार होता है। नियतिवाद का उसने और अधिक अवलंबन ले लिया। महावीर ने संक्षिप्त विपुल-तेजोलेश्या के विषय में जो बताया, वह जान लिया। वह महावीर से अलग हो गया। णितितवादं धणितमवलंबित्ता तं करेति जं भगवता उवदिळं। जहा संखित्तविपुलतेयलेस्सो भवति। ताहे सो सामिस्स मूलाओ ओप्फिट्ठो। ७८.भगवंपि वेसालिं णगरि संपत्तो। तत्थ संखो णाम गणराया। सिद्धत्थरन्नो मितो सो तं पूजेति। महावीर वैशाली गए। वहां शंख नाम का गणराजा था। वह राजा सिद्धार्थ का मित्र था। उसने महावीर की स्तवना की। ७९.पच्छा वाणियग्गामं पधावितो। तत्थंतरा गंडइता णदी। तं सामी णावाए उत्तिन्नो। ते णाविया सामि भणंति-देहि मोल्लं। एवं वाहति। महावीर ने वाणिज्यग्राम की ओर प्रस्थान किया। वैशाली और वाणिज्यग्राम के मध्य गंडकी नदी बहती थी। महावीर ने उसे नौका से पार किया। नाविकों ने महावीर से कहा-हमारा मूल्य चुकाओ। महावीर मौन थे। नाविकों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। उसी समय राजा शंख का भानेज चित्र दूतकार्य से कहीं गया हुआ था। वह नौका द्वारा आया। उसने महावीर को छुड़ाया और उनकी महिमा की। ___महावीर वाणिज्यग्राम में पहुंचे और गांव के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। तत्थ संखरन्नो भाइणेज्जो चित्तो णाम दुइक्काए गएल्लओ णावाकडएण एति। ताहे तेण मोइतो महितो य। ताहे वाणियग्गामं गतो। तस्स बाहिं पडिमं ठितो। ८०.पच्छा सामी सावत्थिं गतो तत्थ दसमं वासारत्तं महावीर श्रावस्ती गए। वहां दसवां वर्षावास किया। विचित्तं तवोकम्मं ठाणादीहिं। विविध तप किए। कायोत्सर्ग और आसन की साधना की। १. पोट्टपरिहार--पुनः-पुनः उसी शरीर में उत्पन्न होना। आवश्यक चूर्णि १, पृ. २९९ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ७१ अ.२: साधना और निष्पत्ति साधना का ग्यारहवां वर्ष प्रतिमा के विशेष प्रयोग ८१.ततो साणुलठितं णाम गामं गतो। तत्थ भई चातुर्मास पूर्ण कर महावीर सानुलष्टि ग्राम में गए। पडिमं ठाति। वहां भद्र प्रतिमा की। केरिसिया भद्दा? भद्र प्रतिमा का स्वरूपपुव्वाहत्तो दिवसं अच्छति। पच्छा रतिं दाहिणहत्तो दिन में पूर्व की ओर खड़े रहकर ध्यान करते, रात अवरेण दिवसं उत्तरेण रत्तिं, एवं छठेण भत्तेण को दक्षिण दिशा की ओर खड़े रहकर ध्यान करते, दूसरे णिठित्ता। दिन पश्चिम की ओर खड़े रहकर ध्यान करते और रात्रि में उत्तर दिशा की ओर खड़े रहकर ध्यान करते। इस प्रकार भद्र प्रतिमा में दो दिन और दो रात का ध्यान तथा बेले की तपस्या की। तहवि ण नेव पारेति, अपारिता चेव महाभई उसे संपन्न करने से पूर्व ही महावीर महाभद्र प्रतिमा में ठाति। सा पुण पुव्वाए दिसाए अहोरत्तं, एवं स्थित हो गए। महाभद्र प्रतिमा में चार दिन-रात का ध्यान चउसुवि चत्तारि अहोरत्ता। एवं दसमेण णिठिता। और चौले (चार दिन का उपवास) की तपस्या की। ताहे अपारितो चेव सव्वतोभदं पडिमं ठाति। सा महाभद्र प्रतिमा को पूर्ण करने से पूर्व ही महावीर पुण सव्वतोभहा। इंदाए अहोरत्तं, पच्छा अग्गेयाए, सर्वतोभद्र प्रतिमा में स्थित हो गए। सर्वतोभद्र प्रतिमा में एवं दससुवि दिसासु सव्वासु। दस दिन-रात का ध्यान और दस दिन की तपस्या की। विमलाए जाइं उड्ढलोतियाणि दव्वाणि ताणि महावीर विमला-ऊर्ध्वदिशा में ध्यान करते तब झाति। ऊर्ध्वलोकवर्ती द्रव्यों का ध्यान करते। तमाए हिठिल्लाइं। तमा अधोदिशा में ध्यान करते तो अधोलोकवर्ती द्रव्यों का ध्यान करते। दास्यकर्म से मुक्ति ८२.पच्छा तासु सम्मत्तासु आणंदस्स गाहावतिस्स प्रतिमाओं को पूर्ण कर महावीर आनन्द गृहपति के घरे बहुलियाए दासीए महाणसिणीए भायणाणि घर गए। वहां बहुला दासी रसोईघर के बर्तनों को साफ खणीकरेंतीए दोसीणं छड्डेउकामाए सामी कर रही थी। बासी अन्न को फेंकने के लिए वह बाहर पविट्ठो। आई। उसी समय महावीर ने घर में प्रवेश किया। ताए भन्नति-किं भगवं! एतेण अट्ठो? दासी ने पूछा-भंते! क्या आपको यह चाहिए? सामिणा पाणी पसारितो। महावीर ने हाथ फैलाए। ताए परमाए सखाए दिन्नं, पंच दिव्वाणि, मत्थओ दासी ने परम श्रद्धा के साथ भिक्षा दी। पांच दिव्य सर्वतोभद्र प्रतिमा में ध्यान का क्रम१. पूर्वदिशा में एक दिन-रात का ध्यान। २. आग्नेय दिशा-पूर्व-दक्षिण कोण में एक दिन-रात का ध्यान। ३. दक्षिण दिशा में एक दिन-रात का ध्यान। ४. नैऋत्यदिशा-दक्षिण-पश्चिम कोण में एक दिन-रात का ध्यान। ५. पश्चिम दिशा में एक दिन-रात का ध्यान। ६. वायव्य दिशा-पश्चिम-उत्तर कोण में एक दिन-रात का ध्यान। ७. उत्तर दिशा में एक दिन-रात का ध्यान। ८. ईशान दिशा-उत्तर-पूर्व कोण में एक दिन-रात का ध्यान। ९.विमला-ऊर्ध्वदिशा में एक दिन-रात का ध्यान। १०. तमा-अधोदिशा में एक दिन-रात का ध्यान। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७२ खण्ड-२ धोओ अदासीकता। प्रकट हुए। दासीपन सिर से उतर गया। वह सदा के लिए दासवृत्ति से मुक्त हो गई। ध्यान मुद्रा ८३. ततो सामी दढभूमीं गतो। तीसे बाहिं पेढालं नाम महावीर दृढभूमि गए। दृढभूमि के बाहरी भूभाग में उज्जाणं। तत्थ पोलासं चेतियं। तत्थ अट्ठमेणं पेढ़ाल नाम का उद्यान था। वहां पोलाश नाम का चैत्य भत्तेण अप्पाणएण ईसिंपब्भारगतेण। ईसिपब्भार- था। वहां महावीर ने तेले की निर्जल तपस्या की। ध्यान गतो नाम ईसिं ओणओ काओ। एगपोग्गल- की मुद्रा में खड़े हुए। थोड़ा झुका हुआ शरीर। एक पुद्गल निरुद्धविट्ठी' अणिमिसणयणो। अहापणिहितेहिं (वस्तु) पर टिकी हुई दृष्टि। अनिमिष नयन (अनिमेष गत्तेहिं सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं दोवि पादे साहटु प्रेक्षा/त्राटक)। सब अवयव अपने स्थान पर अवस्थित, वग्धारियपाणी एगराइयं महापडिमं ठितो। सब इन्द्रियां गुप्त, दोनों पैर सटे हुए, दोनों हाथ घुटनों की . ओर फैले हुए-इस मुद्रा में महावीर एकरात्रिकी महाप्रतिमा में स्थित थे। इन्द्र द्वारा स्तुति ८४.तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्केदेविदे देवराया..... देवराज इन्द्र उस समय बहुत से देवी-देवताओं से बहूहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडे विहरति। परिवृत हो यात्रा कर रहा था। उसने अपने अवधिज्ञान से जाव सामिं च तहागतं ओहिणा आभोएति, महावीर को देखा। हृष्ट और तुष्ट हुआ। वह आभोएत्ता हट्ठतुट्ठचित्ते आणदिए जाव सिरसा- प्रदक्षिणापूर्वक अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर बोलावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासीणमोत्थुणं अरहंताणं जाव सिद्धिगतिणामधेयं ठाणं सिद्धिगति प्राप्त अर्हत् भगवान को मेरा नमस्कार हो संपत्ताणं। णमोत्थुणं समणस्स भगवतो महति और नमस्कार हो महान पराक्रमी वर्धमान स्वामी को। वे. महावीरवद्धमाणसामिस्स णातकुलवरवडेंसयस्स महावीर णायकुल (नागकुल, णातकुल) के अवतंस हैं। तित्थगरस्स सहसंबुद्धस्स पुरिसोत्तमस्स पुरिस- तीर्थंकर हैं। स्वयंसंबुद्ध हैं। पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, सीहस्स पुरिसवरपुंडरियस्स पुरिसवरगंधहत्थिस्स, पुरुषवरपुण्डरीक और पुरुषवरगंधहस्ति हैं। वे अभयदाता अभयदयस्स जाव ठाणं संपावितुकामस्स। हैं। यावत् सिद्धिगति प्राप्त करने के इच्छुक हैं। वंदामि णं भगवंतं तिलोगवीरं। तत्थ गतं इहगते।। ___मैं मनुष्यलोक में विराजमान त्रिलोक में वीर भगवान पासतु मे भगवं तत्थगए इहगतंतिकटु वंदति- महावीर को वंदना करता हूं। महावीर वहां से मुझे देखें। नमंसति, नमंसित्ता जाव सीहासणवरंसि ऐसा कह उसने वंदना की, नमस्कार किया और पूर्व दिशा पुरत्थाभिमुहे संन्निसन्ने। की ओर मुंह कर सिंहासन पर बैठ गया। तए णं से सक्के देविदे......बहवे सामाणियता- सामानिक और वायस्त्रिंश देवी-देवताओं को यत्तिसगादयो देवा य देवीओ य आमंतेत्ता एवं संबोधित कर कहावयासीहं भो देवा! समणे भगवं महावीरे तिलोगमहावीरे हे देवो! श्रमण भगवान तीनों लोक में महावीर हैं। वे निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केति उवसग्गा अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करते हैं। देव, मनुष्य समुप्पज्जति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा अथवा तिर्यंचकृत कोई भी अनुकूल अथवा प्रतिकूल तिरिक्खजोणिया वा पडिलोमा वा अणलोमा उपसर्ग होता है, उसे वे सम्यक प्रकार से सहन करते हैं। १.महावीर की दृष्टि अचित्त पुदगल पर टिकी थी। वे सचित्त वस्तु पर दृष्टि नहीं टिकाते। यथा-दूर्वा आदि (आवश्यक पूर्णि १, पृ. ३०१)। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ७३ अ. २ : साधना और निष्पत्ति वा....ते सव्वे सम्म सहति जाव अहियासेति। तं अहो भगवं तिलोगवीरे-ण सक्का केणइ देवेण दाणवेण वा जाव तेलोक्केण वा झाणाओ मणागमवि चालेउंति कटु वंदति णमंसति। उन महावीर को कोई भी देव अथवा दानव ध्यान से किंचित् भी विचलित नहीं कर सकता। ऐसा कह इन्द्र ने महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। संगमकृत उपसर्ग ८५.इतो य संगमको सोधम्मकप्पवासी देवो सक्क- उस सौधर्मकल्प सभा में संगम नाम का एक सामाणिओ अभवसिद्धीओ। सो भणति-अहो सामानिक देवता था। वह अभव्य था। उसने कहा-देवराज देवराया रागेण उल्लावेति। को नाम माणुसमेत्तो इन्द्र रागवश ऐसा कथन कर रहे हैं। ऐसा कौन मनुष्य है देवेणं न चालिज्जति? अज्जेव णं अहं चालेमित्ति।। जिसे देवता विचलित न कर सके। मैं उसे आज ही विचलित कर दूं। ताहे सक्को न वारति। माजाणिहिति परनिस्साए इन्द्र ने सोचा-मैं अगर रोकंगा तो उसका अर्थ होगा, भगवं तवोकम्मं करेतित्ति। एवं सो आगतो। महावीर दूसरों के सहारे तपस्या कर रहे हैं। इन्द्र मौन रहा। संगम.महावीर के पास आया। ताहे सामिस्स उवरिं वज्जधूलीवरिसं च वरिसेति संगम ने सर्वप्रथम महावीर पर वज्रधूलि की वर्षा की। जाव अच्छीणि कन्ना य सव्वसोत्ताणि पूरियाणि। आंख, कान आदि सब इन्द्रिय-स्रोत धूल से भर गए। निरुस्सासो जातो। तेण 'सामी तिलतुसति- श्वास लेना भी कठिन हो गया। पर महावीर अपने ध्यान • भागमेत्तंपि झाणाओ ण चलितो। से तिल-तुष भाग मात्र भी विचलित नहीं हुए। ताहे संतो तं साहरित्ता ताहे कीडियाओ . जब वह थक गया तो उस माया को समेट चींटियों :: विउव्वति। वज्जतुंडाओ समंततो विलम्गतो का निर्माण किया। वे वज्रमुखीं थीं। वे शरीर के चारों ओर .. खायंति। चढ़कर महावीर को खाने लगीं। अन्नाओ सोत्तेहिं अंतोसरीरगं अणुपविसित्ता वे शरीर के एक स्रोत से प्रविष्ट हो, दूसरे स्रोत से अण्णेण सोत्तेण अतिति अन्नेण णिति। चालणी बाहर आतीं। उन्होंने महावीर के शरीर को चलनी बना जारिसो कओ। तहवि भगवं न चलिओ। दिया। पर महावीर विचलित नहीं हुए। ताहे उसे विजव्यति बज्जतुंडे। जे लोहितं एगेण . खटमल का निर्माण किया। वे वज्रमुखी थे। वे एक ही पहारेण णीणिति। प्रहार में शरीर से खून निकाल देते। जाहे तहवि ण सक्का ताहे उण्हेलाओ विउव्वति। महावीर विचलित नहीं हुए। उसने तिलचट्टों का तातो तिक्खेहिं तुडेहिं अतीव दसंति। निर्माण किया। वे तीखे मुख से महावीर के गहरा डंक लगाते। जहा जहा उवसग्गं करेंति तहा तहा सामी अतीव जैसे-जैसे उपसर्ग होते महावीर वैसे-वैसे ध्यान में .. झाणेण अप्पाणं भावेति, जहा और अधिक आत्मलीन होते। उन्होंने चिंतन किया यह 'तुमए चेव कतमिणं सब तुमने ही किया है। शुद्ध आत्मा के लिए कोई दंड नहीं ण सुद्धचारिस्स दिस्सए दंडो' होता। जाहे ण सक्का ताहे विच्चुए विउव्वति। ते संगम ने बिच्छओं का निर्माण किया। वे डंक लगाने खायंति। लगे। १. इसका एक अर्थ दीमक भी है। २. उण्होला-तेल्लपातियाओ आवचू. १. पृ.३०४ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७४ खण्ड-२ तहवि ण सक्का ताहे णउले विउव्वति। ते नेवलों का निर्माण किया। वे तीक्ष्ण दाढों से महावीर तिक्खाहिं दाढाहि दसति। खंडखंडाइं च अवणेति। को काटते और मांस के टुकड़े ले जाते।। पच्छा सप्पे विसरोससंपुन्ने. उम्गविसे । विषैले और क्रोधी सर्यों का निर्माण किया। वे उग्र डाहजरकारए। विष थे। शरीर में दाहज्वर पैदा करने वाले थे। तेहिवि ण सक्का पच्छा मूसए विउव्वइ, ते चूहों का निर्माण किया। वे अपनी तीक्ष्ण दाढ़ों से तिक्खाहिं दाढाहिं दसंति। खंडाणि य अवणेत्ता । महावीर को काटते। मांस निकाल देते और शरीर पर तत्थेव वोसिरंति मुत्तपुरिसं। तो अतुला वेयणा। मल-मूत्र विसर्जित कर देते। महावीर को इससे अतुल वेदना हुई। जाहे ण सक्का ताहे हत्थिरूवं विउव्वति। तेण हाथी का निर्माण किया। हाथी ने सूंड में पकड़ कर हत्थिरूवेण सोंडाए गहाय सत्तट्ठतले आगासे महावीर को आकाश में सात-आठ तल ऊपर उछाला, उविहित्ता पच्छा दंतमुसलेहिं पडिच्छति। पुणोऽवि दंतमूसल से पकड़ा और फिर भूमि पर गिराया। पहाड़ से भूमीए ओविंधति। चलणतलेहिं मंदरगरुएहिं भारी-भरकम पांवों से रौंदा। मलेति। जाहे ण सक्का ताहे हत्थिणियारूवं विउव्वति। हथिनी का रूप बनाया। हथिनी ने सूंड और दांतों से ताहे हत्थिणिया सुंडएहिं दंतेहिं विंधति फालेति य। महावीर को बींधा, चीरा, मूत्र विसर्जित किया और उस पच्छा कातितेण सिंचति। तंमि य मुत्तचिक्खल्ले मूत्र कीचड़ में पांवों से रौंदा। खारे पाडेत्ता चलणेहिं मलेति। जाहे ण सक्का ताहे पिसायरूवं विउव्वति.....तेण पिशाच का रूप बनाया। उपसर्ग करने लगा। उवसग्गं करेति। जाहे ण सक्का ताहे वग्घरूवं विउव्वति। सो व्याघ्र का रूप बनाया। दाढ़ों और नखों से महावीर दाढाहि य नक्खेहि य फालेति, खारकाइएण य को विदारित करने लगा और फिर क्षारयुक्त मूत्र विसर्जित सिंचति। कर दिया। जाहे ण सक्का ताहे सिद्धत्थरायरूवं विउव्वति। अपने लक्ष्य में सफल न होने पर उसने राजा सिद्धार्थ सो कट्ठाणि कलुणाणि विलवति-एहि पुत्तगा! का रूप बनाया और हृदयविदारक रुदन करने लगा-पुत्र! विभासा, मा उज्झाहि। आओ! हमारा रुदन सुनो। हमें मत छोड़ो। ताहे तिसला विभासा। फिर त्रिशला का रूप बनाकर निवेदन किया। जाहे ण सक्का ताहे सूतं। किह? सो ततो रसोइए का रूप बनाया। शिविर की रचना की। खंधावारे विउव्वति। सो परिपेरंतेसु आवासितो। महावीर के चारों ओर अपना आवास बना लिया। तत्थ सूतो पत्थरे अलभंतो दोण्हवि पादाण मज्झे । रसोइए को खाना बनाने के लिए इधर-उधर पत्थर वज्जग्गिं जालेत्ता पायाण उवरि उक्खलियं काउं नहीं मिला तो उसने महावीर के दोनों पैरों के मध्य तीव्र पयइओ। अग्नि जलाई। उस पर पात्र रखकर भोजन पकाने लगा। जाहे एएणऽवि ण सक्का तओ पक्कणं विउव्वति। चंडाल का रूप बनाया। महावीर की भुजाओं, गले सो ताणि पंजरगाणि वाहासु गलए य कन्नेसु य एवं कानों में पक्षियों के पिंजरे लटका दिए। पक्षी चोंचों से ओलएति। ते सउणा गातं तुंडेहिं खायंति विधंति य महावीर के शरीर को काटते, बींधते और वहीं मलमूत्र सन्नं काइयं च वोसिरंति। विसर्जित कर देते। पच्छा खरवायं विउव्वति। जेण सक्को मंदरोवि प्रचंडवात का निर्माण किया। ऐसी प्रचंडवात जो मेरु चालेउंन पुण सामी चलइ तेणुविहित्ता उव्विहित्ता पर्वत को हिला सके। पर महावीर विचलित नहीं हुए तो Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. २ : साधना और निष्पत्ति पाडेति। पच्छा कलंकलितावायं विउव्वति। तेण जहा चक्काइखओ तहा भमाडिज्जइ, णत्तिआवेत्तं वा। एवंपि ण सक्का ताहे कालचक्कं विउव्वति। तं विउव्विऊण उड्ढं गगणगतलं गतो एत्ताहेणं मारेमित्ति मयति वज्जासणि संनिभं। जं मंदरंपि चुरेज्जा। तेण पहारेण भगवं ताव निब्बुड्डो जाव अम्गणहा हत्थाणं। जाहे तेणवि ण सक्को ताहे चिंतेति-न सक्को एस मारेउंति अणुलोमे करेमि। ताहे सामाणियदेविड्ढिं देवो दाएति। सो विमाणगतो भणति य-वरेह महरिसि? निष्फत्ती सम्गमोक्खाणं। उन्हें उठा-उठाकर नीचे गिराया। चक्राकार हवा चलाई। उसमें महावीर का शरीर बेंत की तरह कंपित होने लगा। कालचक्र का निर्माण कर संगम आकाश में स्थित हुआ और सोचा यह चक्र मेरु पर्वत को भी चूर-चूर कर सकता है। मैं इस चक्र को महावीर पर फेंकू। कालचक्र के प्रहार से महावीर हाथों के नख तक भूमि में धंस गए। ताहे पभायं विउव्वति। लोगो सव्वो चंकमितुं . पयत्तो। भणति-देवज्जगा। अज्जवि अच्छसि? भगवंपि कालमाणेण जाणति जहा ण ताव पभायंति जाव सभावपहायंति। एस बीसतिमो। इन उपायों से महावीर को मारा नहीं जा सकता, यह सोच संगम अनुकूल उपसर्ग करने लगा। उसने सामानिक देवता की ऋद्धि दिखाई और देवविमान में स्थित होकर बोला-महर्षि! आपकी तपस्या सिद्ध हो गई है। आप स्वर्ग और मोक्ष की ऋद्धि का वरण करें। प्रभात का निर्माण किया। सब लोग इधर-उधर घूमने लगे। उसने महावीर को संबोधित कर कहा-अब तक आप यहीं ठहरे हुए हैं। महावीर काल को जानते थे। उन्होंने जान लिया कि वह प्रभात स्वाभाविक नहीं, कृत्रिम है। यह संगम कृत बीसवां उपसर्ग था। जब संगम महावीर को विचलित न कर सका तो लौट गया और सोचा कल फिर उपसर्ग करूंगा। दूसरे दिन संगम पुनः उपसर्ग करने लगा। जाहे ण तरति ताहे सुठुतरं पडिनिवेसं गतो कल्ले काहंति। पुणोवि अणुकड्ढति। .. ८५.ताहे पभाते सामी वालुयानामग्गामो तं पहावितो। तत्व अंतरा पंचचोरसता विगुव्वति। प्रभात होने पर महावीर बालुका ग्राम की ओर गए। संगम ने ५०० चोरों का निर्माण कर महावीर को उपसर्ग दिए। ८७.ताहे बालुगं गतो। सामी मिक्खं हिंडति। महावीर बालुका ग्राम में गए। वहां भिक्षा के लिए घूमने लगे। ८८.निम्गतो भगवं सुभोमं वच्चति। बालुका ग्राम से सुभूम गए। इन सभी ग्रामों में संगम ने उपसर्ग किए। ८९.पच्छा सुच्छेत्ता णामं गामो तहिं वच्चति। जाहे सुभूम से महावीर सुक्षेत्र ग्राम में गए। जब वे वहां अतिगतो सामी भिक्खाए ताहे इमो आवरेत्ताविड- भिक्षा के लिए गए तो संगम बहुरूपिए का रूप बना जोररूवं विउव्वति। तत्थ हसति य अट्टहासे य जोर से हंसने और गाने लगा। अशिष्ट भाषा बोलने मंचति गायति य। असिट्ठाणि य भणति। तत्थवि लगा। पीटने लगा। हम्मति। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७६ खण्ड-२ ९०.ततो मलयं गामं गतो तत्थ पिसायरूवं विउव्वति। महावीर मलय ग्राम में गए। संगम ने पिशाच का रूप बना उपसर्ग किए। ९१.ततो विनिग्गतो हत्थिसीसं नाम गामो तहिं गतो। तत्थ वि भगवं भिक्खायरियाए अइगतो......। महावीर हस्तिशीर्ष ग्राम में गए। वहां भिक्षा के समय संगम ने उपसर्ग किए। ९२.ताहे सामी तोसलिं गतो। बाहिं पडिमं ठितो। ताहे सो देवो चिंतेति-एस ण पविसति, तो एत्थवि से ठियस्स करेमि। ताहे खड्डगरूवं विउविता......। महावीर तोसलि गए और ग्राम के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। संगम ने सोचा-यह ग्राम में नहीं जाता तो मैं यहीं बैठे-बैठे उपसर्ग करूं। संगम ने बाल साधु का रूप बना उपसर्ग किया। ९३. ततो भगवं मोसलिं गतो, बाहिं पडिमं ठितो। इमो खड्डगरूवं विउव्वित्ता.......। महावीर मोसलि गए। ग्राम के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। संगम ने बाल साधु का रूप बना यहां भी उपसर्ग किया। महावीर फांसी के फंदे पर ९४.ततो भगवं तोसलिं गतो तत्थवि बाहिं पडिमं ठितो। तत्थवि देवो खुड्डगरूवं विउव्वित्ता संधिमग्गं सोहेति। पडिलेहेति य। सामिस्स पासे सव्वाणि खत्तोवकरणाणि विगुव्वति। ताहे सो खुड्डओ गहितो। तुमं कीस एत्थ सोहेसि? सो साहति-मम धम्मायरियो रतिं मा कंटए भज्जावेहिंति, सो रतिं खणओ णीहिति। महावीर पुनः तोसलि आए। ग्राम के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। संगम ने बालसाधु का रूप बनाया। गांव के घरों में सेंध लगाई। इधर-उधर देखा और सेंध लगाने के उपकरण महावीर के पास लाकर रख दिए। लोगों ने बाल साधु को पकड़ा और पूछा-तुम यहां क्या खोज रहे हो। वह बोला-मेरे धर्माचार्य के पैरों में रात को कांटा न लग जाए, क्योंकि वे रात को सेंध लगाने के लिए आते सो कहिं? कहितो। गता। विट्ठो सामी। ताणि य परिपेरंतेण पासति। गहितो, अणीतो, ताहे उक्कलंबितो। लोगों ने पूछा-कहां हैं तुम्हारे धर्माचार्य ? उसने बताया। लोग गए। महावीर को देखा। चारों ओर रखे शस्त्र देखे। महावीर को बंदी बनाया, ग्रामाधिपति के पास लाए और फांसी के फंदे पर चढ़ाया। __एक ओर से फंदे की रस्सी टूट गई। इस प्रकार सात बार फंदा बांधा और हर बार फंदे की रस्सी एक सिरे से एक्कसिं रज्जू छिन्नो । एवं सत्त वारा छिन्नो। टूट गई। ताहे सिटें तस्स तोसलियस्स खत्तियस्स। लोगों ने यह बात तोसलि ग्राम के अधिपति क्षत्रिय से कही। ग्राम के अधिपति ने कहा-छोड़ो इसे। यह निर्दोष है। सो भणति-मुयह। एस अचोरो, निहोसो। ९५.ततो सिद्धत्थपुरं नाम गामो, तत्थ भगवं गतो। महावीर सिद्धार्थपुर ग्राम में गए। वहां भी संगम ने Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ९६. ततो सामी वयग्गामं गोउलं पत्तो । तत्थ य सहिवसं छणो । सव्वत्थ परमन्नं उवक्खडियं । चिरं 'कालं तस्स देवस्स ठितगस्स उवसग्गं काउं । सामी चिंतेति-गता छम्मासा, मा गतो होज्जत्ति अंतिगतो जाव अणेसणातो करेति । सामी उवउत्तो पासति । ताहे अद्धहिंडितो चेंव नियत्तो, बाहिं पडिमं ठितो । ९७. सो य सामीं ओहिणा आभोएइ - किं भग्गपरिणामो नवत्ति ? ताहे सामी तहेव विसुद्धपरिणामो छज्जीवहितं झायति । ताहे व आउट्टो । णं तीरेति चालेउति । जो एच्चिरेणवि कालेणं छम्मासेहिं ण चलिओ एस दीहेणावि कालेणं ण सक्को चालेउं । संगम द्वारा क्षमायाचना तापादे पडित भणति - सच्चं सच्चं जं सक्को | भजति । सव्यं खामि। भगवं अहं भग्गपश्नो। तुज्झे समत्तपइन्ना। जहा एताहे अतीह पारेह, ण करेमि उवसग्गं भगवं । सामी भणति - भो संगमया! णाहं कस्सति य बत्तव्वो । इच्छाए अतीमि वा ण वा । ९८. ता बीयदिवसे तत्थेव गामे भगवं हिंडमाणो वत्थवालथेरीए दोसीणेण पायसेण पडिलाभितो । पंच दिव्वाणि । ७७ ९९. इतो य सोहम्मे सव्वे देवा तद्दिवसं उव्विग्गमणा अच्छंति । संगमतो सोहम्मं गतो । उपसर्ग किया। अ. २ : साधना और निष्पत्ति महावीर व्रजग्राम के गोकुल में गए। उस दिन गांव में उत्सव था। सब घरों में खीर बनाई गई थी। संगम देव को उपसर्ग करते हुए लम्बा समय हो गया। महावीर ने सोचा- छह महीने बीत गए हैं। वह कहीं चला नहीं गया है। उसी समय संगम आया और उसने भोजन को अनेषणीय बना दिया । महावीर ने अपने ज्ञानबल से देखा और भिक्षा किए बिना ही लौट आए। प्रतिमा में स्थित हो गए। संगम ने अपने अवधिज्ञान से देखा कि महावीर के परिणाम कुछ भग्न हुए हैं या नहीं ? महावीर के परिणाम उतने ही विशुद्ध थे, जितने छह मास पूर्व। वे छह जीवनिकाय के सभी जीवों का हित चिंतन कर रहे थे। संगम यह देख अपने कार्य से निवृत्त हुआ। वह महावीर को विचलित करने में समर्थ नहीं हुआ। उसने सोचा- जो महावीर छह माह तक उपसर्ग करने पर भी विचलित नहीं हुए, उन्हें दीर्घकाल में भी विचलित नहीं किया जा सकता। संगम महावीर के पैरों में गिरा और बोला- वह सत्य है, वह सत्य है । इन्द्र ने जो कहा, वह सत्य है। भंते! मैंने जो कुछ किया, उस सबके लिए क्षमायाचना करता हूं। भगवन्! मैं भग्नप्रतिज्ञ हूं, आप यथार्थप्रतिज्ञ हैं। आप पधारें और पारणा करें। भगवन्! मैं अब उपसर्ग नहीं करूंगा। महावीर ने कहा- हे संगम! मैं किसी के वक्तव्य की अपेक्षा नहीं रखता। मैं अपनी इच्छा से ही आता हूं और हूं। दूसरे दिन महावीर गांव में भिक्षा के लिए गए। एक वृद्धा ग्वालिन ने बासी खीर का दान दिया। पांच दिव्य प्रकट हुए। उस दिन सौधर्म देवलोक के सभी देव उद्विग्न-से बैठे थे। संगम सौधर्म देवलोक में गया। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-२ आत्मा का दर्शन तत्थ सक्को तं दतॄण परंमुहो भणति देवे-भो सणह! एस दरप्पो। ण एतेण अम्हं चित्तरक्खा कता अन्नेसिं च देवाणं। पुणो य तित्थगर पडिणीओ। ण एतेण अम्हं कज्ज। असंभासो । निव्विसओ य कीरतु। उसे देख शक्र पराङ्मुख हो देवों से बोला-हे देवो! सनो, यह दुरात्मा है। इसने न तो मेरी और न दूसरे देवों के चित्त की अनुपालना की है। यह तीर्थंकर का प्रत्यनीक-विरोधी है। यह हमारे किसी काम का नहीं है। यह बातचीत करने योग्य भी नहीं है। इसे देश निकाला दे. ताहे पाएण निच्छूढो। संगम को पैर से लताड़ कर निकाल दिया गया। इन्द्रों द्वारा कुशल पृच्छा १००. ततो आलभियं गतो। तत्थ हरिविज्जुकुमारिंदो एति। ताहे सो वंदित्ता भगवतो महिमं काऊण भणति-भगवं! पियं पुच्छामि। णिच्छिन्ना उवसग्गा। बहुं गतं थोवयं अवसेसं। अचिरेण ते कालेण केवलणाणं उप्पन्जिहिति। महावीर आलभिका नगरी में गए। वहां विद्युत्कुमार का इन्द्र हरि आया। उसने महावीर की वेदना की, महिमा की और बोला-भगवन्! आपका कुशल पूछ रहा हूं। आपने उपसर्गों का पार पा लिया है। बहुत बीत गया है। थोड़ा बचा है। अब शीघ्र आपको केवलज्ञान उपलब्ध होगा। १०१. ततो सेयवियं गतो। तत्थ हरिस्सहो पियं पुच्छओ एति। महावीर श्वेतविक नगरी में गए। वहां विद्युत्कुमार के इन्द्र हरिस्सह ने, वंदना की, महिमा की और कुशल पूछकर चला गया। ' महावीर श्रीवस्ती गए। नगरी के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। १०२. ततो सावत्थिं गतो। बाहिं पडिमं ठितो। १०३. ताहे सामी कोसंबिं गतो। तत्थ चंदसूरा सविमाणा महिमं करेंति। पियं च पुच्छंति। महावीर कौशंबी गए। वहां चन्द्र और सूर्य ने विमान सहित आकर वन्दना की, महिमा की और कुशल पूछा। १०४. वाणारसीय सक्को पियं च पुच्छति। महावीर वाराणसी गए। शक ने वंदना की, महिमा की और कुशल पूछा। १०५. रायगिहे ईसाणो पियं पुच्छति। राजगृह में ईशानेन्द्र ने वंदना की. महिमा की और कुशल पूछा। १०६. महिलाए वासारत्तो एक्कारसमो। चाउम्मास- महावीर मिथिला आए। वहां ग्यारहवां वर्षावास खमणं करेति। तत्थ धरणो आगतो पियं पुच्छओ किया। वर्षावास में चातुर्मासिक तप किया। वहां धरणेन्द्र महिमं करेति। आया। वन्दना की, महिमा की और कुशल पूछा। साधना का बारहवां वर्ष . १०७. ततो निग्गतो वेसालिं एति। तत्थ भूताणंदो पियं महावीर वैशाली गए। नागकुमार के इन्द्र भूतानंद ने Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास पुच्छति। णाणं च वागरेति । ७९ १०८. पच्छा सुंसुमारपुरं एति । तत्थ चमरो उप्पतति । चमरेन्द्र का उत्पात तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गए समाणे उड्ढं वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव सोहम्मो कप्पो, पासइ य तत्थ - दाहिणड्ढलोग़ाहिव ....... सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंस विमाणे सभाए सुहम्माए सक्कंसि सीहासांसि जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणं पासइ । इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए समुपज्जा - स णं एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हिरिसिरिपरिवज्जिए हीणपुण्णचाउइसे जं णं ममं इमाए एयारूवाए दिव्वाए देविड्ढीए...... लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए उप्पिं अप्पुस्सुए दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरs - एवं संपेes | सामाणियपरिसोववण्णए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-केस णं एस देवाणुप्पिया ! अपत्थियपत्थर जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ? अ. २ : साधना और निष्पत्ति वन्दना की, महिमा की, कुशल पूछा और अपने ज्ञान के आधार पर बताया कि आपको शीघ्र कैवल्य होगा । महावीर सुंसुमार गए। वहां चमरेन्द्र आया। असुरेन्द्र, असुरराज चमर ने पांच पर्यप्तियों से पर्याप्त हो, अपने स्वाभाविक अवधिज्ञान से ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक देखा । सौधर्मकल्प में उसने देवेन्द्र, देवराज शक्र को देखा। वह सौधर्मकल्प के सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा के शक्र नाम के सिंहासन पर दिव्य भोगों को भोग रहा था। तणं. से सामाणियपरिसोववण्णगा देवा चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया ।.... करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अजलिं कटु जएणं विजएणं वद्भावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी एस णं देवाप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । तर ण से चमरे असुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमठ्ठे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते.....ते सामाणियपरिसोववण्णगे देवे एवं वयासी- अण्णे खलु भो ! से सक्के देविंदे देवराया, अण्णे खलु भो ! से चमरे असुरिंदे असुरराया। महिड्ढीए खलु भो ! से सक्के देविंदे देवराया, अप्पिढिए खलु भो ! से चमरे उसे देख असुरेन्द्र चमर के मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ यह कौन है अप्रार्थनीय को चाहने वाला, दुःखद अंत और अमनोज्ञ लक्षण वाला, लज्जा और शोभा से रहित, हीन पुण्य चतुर्दशी को जन्मा हुआ जो इस प्रकार की दिव्य ऋद्धि के प्राप्त होने पर भी मेरे सिर पर बैठा हुआ बड़े धैर्य के साथ दिव्य भोग भोग रहा है। असुरेन्द्र ने सामानिक परिषद् में उपपन्न देवों को आमन्त्रित किया और कहा- देवानुप्रिय ! यह कौन है अप्रार्थनीय को चाहने वाला जो इस प्रकार दिव्य भोगों को भोग रहा है ? असुरेन्द्र, असुरराज के ऐसा कहने पर सामानिक परिषद् में उपपन्न देव हृष्ट, तुष्ट और आनंदित चित्त हुए । वे बद्धाञ्जलि को मस्तक पर टिका कर असुरेन्द्र का जय-विजय ध्वनि से वर्धापन कर बोले- देवानुप्रिय ! यह देवेन्द्र, देवराज शक्र है जो दिव्य भोग भोग रहा है। असुरराज चमर सामानिक देवों की बात सुन आवेश में आ गया। सामानिक देवों से बोला- देवानुप्रिय ! वह देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य है। हमारा विरोधी है। यह असुरराज चमर अन्य है, उसका विरोधी है। देवराज शक्र महर्द्धिक और यह असुरराज चमर अल्प ऋद्धिवाला है। इसलिए मैं देवेन्द्र, देवराज शक्र को हीन करना चाहता हूं, ऐसा कह चमर तप्त हो गया । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और उस अवधिज्ञान से मुझे (महावीर) देखा। चमर के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ-महावीर की शरण लेकर देवेन्द्र, देवराज शक्र की मेरे लिए आशातना करना श्रेयस्कर है। चमर शय्या से उठा देवदूष्य धारण किया। सुधर्मासभा में चोपाल नाम के शस्त्रागार में आया। परिघरत्न (मुद्गर) को हाथ में लिया। अकेला ही अमर्ष से भरा हुआ चमरचंचा राजधानी से निकला। असुरिंदे असुरराया। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कटु उसिणे उसिणब्भूए जाए यावि होत्था। तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ। इमेयारूवे...... मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्थाते सेयं खल मे समणं भगवं महावीरं णीसाए सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ। सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, अब्भुठेत्ता देवदूसं परिहेइ, परिहत्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता फलिहरयणं परामुसइ, एगे अबीए फलिहरयणमायाए महया अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ। जेणेव तिगिछिकूडे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता वेउब्वियसमुग्याएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता जाव उत्तरखेउब्वियं रूवं विकुव्वइ विकुव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए....... दिव्वाए देवगईए..... जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ। ममं तिक्खुत्तो आयाणि-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता-नमंसित्ता एवं वयासीइच्छामि णं भंते। तुम्भं नीसाए सक्कं देविंद देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कटु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमेइ। वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ....एगं महं घोरं घोरागार......जोयणसयसाहस्सीयं महाबोंदिं विउव्वइ, विउव्वित्ता अप्फोडेइ वग्गइ गज्जइ.... तिगिच्छकूट नाम के उत्पाद पर्वत पर आया। वैक्रिय समुद्घात किया। उत्तरवैक्रिय रूप का निर्माण किया। तीव्र दिव्य देव गति से मेरे पास आया। दायीं से दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन-नमस्कार किया और बोला-, भंते ! मैं आपकी शरण लेकर देवेन्द्र, देवराज शक्र को हीन करना चाहता हूं। ऐसा कह असुरराज चमर ईशानकोण में गया। वैक्रिय समुद्घात किया और घोर आकार वाले, एक लाख योजन की अवगाहना वाले महाशरीर का निर्माण किया। हाथों को आकाश में उछालता हुआ कूदा, गर्जन किया। महया-महया सहेण कलकलवं करेइ एगे अबीए फलिहरयणमायाए उड्ढे वेहासं उप्पइए-खोभंते चेव अहेलोयं कंपेमाणे व मेइणीतलं साकड्ढंते व तिरियलोयं, फोडेमाणे व अंबरतलं..... ___जोर-जोर से आवाज करते हुए, परिघरत्न को हाथ में ले अकेले ही आकाश की उड़ान भरी। ऐसा लग रहा था, मानो अधोलोक को क्षुब्ध कर रहा है। भूमितल को कंपित कर रहा है। तिरछे लोक को खींच रहा है, और अंबरतल का स्फोटन कर रहा है। परिघरत्न को उछालता हुआ वह सौधर्मकल्प के सौधर्मावतंसक विमान में जहां सुधर्मा सभा है, वहां गया। फलिहरयणं अंबरतलंसि वियट्टमाणेवियट्टमाणे......दिव्वाए देवगईए.....जेणेव सोहम्मे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ.२: साधना और निष्पत्ति एक पांव को पद्मवर वेदिका पर रखा। दूसरे पांव को सुधर्मा सभा में रखा और उच्चस्वर के साथ तीन बार परिघरत्न से इन्द्रकील पर प्रहार करता हुआ बोला कहां है वह देवेन्द्र, देवराज शक्र ? वे चोरासी हजार सामानिक देव? वे तेतीस त्रायश्त्रिंशक देव ? वे चार लोकपाल ? वे सपरिवार आठ पटरानियां ? वे तीन परिषद् ? वे सात सेनाएं ? वे सात सेनापति? तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव? वे करोड़ों अप्सराएं? . कप्पे, जेणेव सोम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ। एगं पायं पउमवरवेझ्याए करेइ, एगं पायं सभाए सुहम्माए करेइ, फलिहरयणेणं महया-महया सहेणं तिक्खुत्तो इंदकीलं आउडेइ, आउडेत्ता एवं वयासी कहि णं भो! सक्के देविंदे देवराया? कहि णं ताओ चउरासीइसामाणियसाहस्सीओ? कहि णं ते तायत्तीसयतावत्तीसगा? कहि णं ते चत्तारि लोगपाला? कहि णं. ताओ अट्ठ अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ? कहि णं ताओ तिण्णि परिसाओ? कहि णं ते सत्त अणिया? कहि णं ते सत्त अणियाहिवई? कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ? कहि णं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ? . अज्ज हणामि, अज्ज महेमि, अज्ज वहेमि, अज्ज ममं अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु त्ति कटु तं अणिठं अकंतं अम्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं फरुसं गिरं निसिरइ। 'तए णं से सक्के देविदे देवराया तं अणिळं अकंतं :: अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं अस्सुयपुव्वं फरुसं गिरं सोचा निसम्म आसुरुत्ते....तिलवयं भिउडिं निडाले साहटु चमरं असुरिंद असुररायं एवं वदासिहं. भो! चमरा! असुरिंदा! असुरराया! अपत्थियपत्थया! अज्ज न भवसि, नाहि ते सुहमत्वीति कटु तत्व सीहासणवरगए वज्जं परामुसइ, परामुसित्ता तं जलंतं फुडतं....चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जं निसिरइ। - तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया तं जलंतं जाव भयंकरं वज्जमभिमुहं आवयमाणं पासइ, ......तहेव उड्ढपाए अहोसिरे.... ताए उक्किट्ठाए....जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ। भीए भयगम्गरसरे भगवं सरणं इति वुयमाणे मम दोण्ह वि पायाणं अंतरंसि झत्ति वेगेणं समोवडिए। आज मैं उनको मारूंगा, मधुंगा, व्यथित करूंगा और जो अप्सराएं मेरे अधीन नहीं हैं, उन्हें मेरे वश में कर लूंगा। इस प्रकार अनिष्ट और अप्रिय वचन बोला। देवेन्द्र, देवराज शक्र उस अनिष्ट, अकांत, अप्रिय और अश्रुतपूर्व कठोर वचन को सुन आवेश में आ गया। ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि को चढ़ाकर असुरराज चमर से बोला हे अप्रार्थनीय को चाहने वाला चमर! आज तू नहीं बचेगा। अब तुझे सुख नहीं होगा। ऐसा कह वहीं सिंहासन पर बैठे-बैठे वज्र को हाथ में उठाया और जाज्वल्यमान, विस्फोटक वज्र को चमर का वध करने के लिए फेंका। असुरराज चमर ने जाज्वल्यमान वज्र को सामने आते हुए देखा। देखते ही ऊपर पांव और नीचे सिर किए दौड़ा। तीव्र दिव्य देवगति से जहां बैठा था, वहां आया। भयाक्रांत स्वर से 'भगवन् ! आप शरण हैं'-ऐसा कह सूक्ष्म रूप बनाकर मेरे दोनों पांवों के बीच शीघ्र ही अतिवेग से गिर गया। देवेन्द्र, देवराज शक्र को ऐसा मनोगत संकल्प उत्पन्न तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-२ आत्मा का दर्शन इमेयारूवे.....मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था नो खुल पभू चमरे असुरिंदे असुरराया.....अप्पणो निस्साए उड्ढे उप्पइत्ता जावे सोहम्मो कप्पो। नण्णत्थ अरहते वा अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भाविअप्पाणो नीसाए उड्ढे उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो। तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए त्ति कटु ओहिं पउंजइ, ममं ओहिणा आभोएहि। हुआ असुरराज चमर समर्थ नहीं है कि अपनी निश्रा से ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक आए। वह अर्हत् अर्हत् चैत्य अथवा भावितात्मा अनगार की शरण लिए बिना ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक नहीं आ सकता। अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने तथारूप अर्हत् भगवान् और अनगारों की अति आशातना की है। यह सोच देवराज शक्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और मुझे देखा। मुझे देखते ही हा! हा! हतोऽस्मि-अहो ! मैं मारा गया ऐसा कहकर तीव्र दिव्य देव गति से वज्र की वीथि का अनुगमन करता हुआ मेरे पास आया। मुझ से चार अंगुल की दूरी पर रहे वज्र को पकड़ा। गौतम! इन्द्र की मुट्ठी से उठी हुई हवा के कारण मेरे केशाग्र प्रकंपित हो गए। देवराज शक्र ने वज्र को पकड़ कर दायीं से दायीं ओर तक तीन बार मेरी प्रदक्षिणा की। वंदन-नमस्कार किया और बोला हा! हा! अहो! हतो अहमंसित्ति कटु ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्वाए देवगईए वज्जस्स वीहिं अणुवगच्छमाणे-अणुगच्छमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलम- संपत्तं वज्जं पडिसाहरइ। अवि याइं मे गोयमा! मुठिवाएणं केसग्गे वीइत्था। तए णं से सक्के देविदे देवराया वजं पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीएवं खलु भंते! अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निसठे। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरिहति णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवं करणयाए त्ति कटु ममं वंदइ-नमसइ। वंदित्ता-नमंसित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ। वामेणं पादेणं तिक्खुत्तो भूमिं विदलेइ, विदलेत्ता चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वदासिमुक्कोसि णं भो चमरा! असुरिंदा! असुरराया! समणस्स भगवओ महावीरस्स पंभावेणं-नाहि ते दाणिं ममातो भयमत्थि त्ति कटु जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। भंते! चमर ने आपकी शरण से स्वयं ही मेरी अति आशातना की, तब मैंने कुपित होकर चमर का वध करने के लिए वज्र फेंका। देवानुप्रिय! मैं आपसे क्षमा चाहता हूं। आप मुझे क्षमा करें। ऐसा कह मुझे वंदन-नमस्कार कर शक्र ईशानकोण में गया। वहां दायें पांव से तीन बार भूमि का विदलन कर असुरराज चमर से बोला हे असुरराज चमर! श्रमण भगवान महावीर के प्रभाव से अब तुम मुक्त हो गए हो। इस समय तुमको मुझ से भय नहीं है। ऐसा कह देवराज शक जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। १०९. पच्छा भोगपुरं एति। तत्थ माहिंदो णाम महावीर भोजपुर गए। वहां महेन्द्र नाम का क्षत्रिय था। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ८३ अ. २ : साधना और निष्पत्ति वह महावीर को देख खजूर के तने से पीटने लगा। खत्तिओ। सामि दळूण सिंदिकंदएण आहणामित्ति पधाइतो। एत्थंतरा सणंकुमारो एति। तेण धाडितो तासितो य, पियं च पुच्छति। अकस्मात् सनत्कुमार वहां आया। उसने उसे प्रताड़ना दी। महावीर की वंदना की, महिमा की और कुशल पूछा। ११०. ततो गंदिग्गामं गतो। तत्थ गंदी नाम भगवतो पितुमित्तो। सो महेति। ___ महावीर नंदिग्राम में गए। वहां नन्दि नाम का व्यक्ति सिद्धार्थराज का मित्र था, उसने महावीर की वंदना की, महिमा की और कुशल पूछा। १११. ततो मेंढियं एति। महावीर मेंढियग्राम गए। ११२, ततो कोसैबिगतो। मेंढियग्राम से कौशंबी गए। महावीर पर तलवार का वार ११३. ततो सामी निम्गतो सुमंगला णाम गामो तहिं गतो। तत्थं सणंकुमारो एति वंदति पियं च पुच्छति। महावीर कौशंबी से सुमंगला ग्राम गए। वहां सनत्कुमार ने वंदना की, महिमा की और कुशल पूछा। . ११४. ततो सामी पालयं नाम गामं गतो। तत्थ वाइलो . नाम वाणिययो जत्ताए पहावितो। सामीं पेच्छति। ..सो अमंगलं ति काऊण असिं गहाय पधातिओ। महावीर पालक ग्राम में गए। वहां वाइल नाम का वणिक यात्रा के लिए जा रहा था। उसने महावीर को देखा। उनको अमंगल समझ तलवार ले उनके पीछे दौड़ा। किन्तु प्रहार सफल नहीं हुआ। स्वातिदत्त के प्रश्न . ११५. ततो सामी चंपं नगरिं गतो। तत्थ सातिदत्तमाहणस्स अग्निहोत्तवसहिं उवगतो। तत्थ चाउम्मासं खमति। तत्थ पुण्णमह-माणिभदा दुवे जक्खा रत्तिं पज्जुवासंति। चत्तारि वि मासे रत्तिं रतिं पूयं करंति। ताहे सो माहणो चिंतेति-किं एस जाणति तो णं देवा महेंति? ताहे विन्नासणनिमित्तं पुच्छति महावीर चंपा नगरी गए। स्वातिदत्त ब्राह्मण के अग्निहोत्र भवन में ठहरे। वहां वर्षावास किया। चातुर्मासिक तप किया। उस भवन में पूर्णभद्र और माणिभद्र यक्ष रात्रि के समय महावीर की उपासना करते थे। उनकी उपासना का यह क्रम चार महीने तक चलता रहा। स्वातिंदत्त ब्राह्मण ने सोचा-यह ऐसा क्या जानता है, जिससे देवता इसकी सेवा करता है। उसने विश्वास के लिए महावीर से पूछा आत्मा क्या है? महावीर-जो मैं हूं वही आत्मा है। स्वातिदत्त-आत्मा कैसी है? महावीर-वह सूक्ष्म है। को ह्यात्मा? भगवानाह-योहमित्याभिमन्यते। स कीदृक् ? सूक्ष्मोऽसौ। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ किं तत्सूक्ष्म? स्वातिदत्त-सूक्ष्म क्या है? यन्न गृह्णीमः। महावीर-जिसे हम ग्रहण न कर सकें। ननु शब्दगंधानिलाः किम्? स्वातिदत्त-क्या शब्द, गंध, हवा सूक्ष्म हैं ? न, ते इंद्रियगाह्याः, तेन ग्रहणमात्मा। ननु महावीर-नहीं, वे इन्द्रियग्राह्य-इन्द्रियों द्वारा ग्रहण ग्राहयिता हि सः। किए जाते हैं। आत्मा इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य नहीं है। वह ग्राहक-ज्ञाता है। कतिविहे णं भंते! पएसणए? कइविहे गं स्वातिदत्त-प्रदेशन-देशना के कितने प्रकार हैं? पच्चक्खाणे? प्रत्याख्यान के कितने प्रकार हैं। भगवानाह-सातिदत्ता! दुविहे पदेसणये-धम्मियं महावीर-प्रदेशन के दो प्रकार हैं-धार्मिक, अधार्मिक। अधम्मियं च। पच्चक्खाणे दुविहे मूलगुण- प्रत्याख्यान के दो प्रकार हैं-मूलगुण प्रत्याख्यान, पच्चक्खाणे य उत्तरगुणपच्चक्खाणे य। उत्तरगुण प्रत्याख्यान। एतेहिं पदेहिं सव्वं तस्स उवागतं । स्वातिदत्त ने इन पदों से महावीर के विषय में समग्रता से जान लिया। साधना का तेरहवां वर्ष | ११६. ततो भगवं निग्गतो, जंभियगामं गतो। तत्थ महावीर जूंभिका ग्राम में गए। वहां इन्द्र आया वंदना सक्को आगतो। वंदित्ता पूयं करेत्ता णट्टविहिं की, महिमा की, नाट्यविधि का उपदर्शन किया और उवदंसेत्ता णं वागरेति जहा एत्तिएहिं दिवसेहिं बोला-आपको इतने दिनों बाद केवलज्ञान उत्पन्न होगा। केवलणाणं उप्पज्जिहिति। ११७. ततो मेंढियग्गामं वच्चति। तत्थ चमरो वंदयो पियपुच्छओ य आगच्छति, वंदितुं पुच्छति। वंदितुं पुच्छितुं च पडिगतो। महावीर मेंढियग्राम गए। वहां चमरेन्द्र वंदना करने और कुशल पूछने को आया। वह वंदना कर, महिमा कर और कुशल पूछ कर चला गया। ११८. ततो सामी छंमाणिं णाम गामो तहिं गतो। तस्स बाहिं पडिमं ठितो। महावीर छम्माणी ग्राम में गए। ग्राम के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। . कैवल्य ११९. ताहे सामी जंभियगामं णाम णगरं गतो। वहां से महावीर पुनः भिका ग्राम में गए। १२०. तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स बारसवासा विइक्कंता, तेरसमस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे-वइसाहसुद्धे तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वए णं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं १. पएसणयं नाम उवदेसो। आवचू. १, पृ. ३२१ श्रमण भगवान महावीर को साधना पथ पर विहरण करते हुए बारह वर्ष बीत गए। तेरहवां वर्ष चल रहा था। ग्रीष्मकाल का दूसरा महीना। चौथा पक्ष। वैशाख मास का शुक्ल पक्ष। दसवीं तिथि। सुव्रत दिवस। विजय मुहूर्त। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग। पूर्वगामिनी छाया। व्यक्त (चतुर्थ) प्रहर। जृम्भिकग्राम - नगर के बाहर। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ अ. २ : साधना और निष्पत्ति उद्भव और विकास जोगोवगतेणं, पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए, जंभियगामस्स णगरस्स बहिया णईए उजुवालिया उत्तरे कूले, सामागस्स गाहावइस्स कट्ठकरणंसि, वेयावत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, सालरुक्खस्स अदूरसामंते, उक्कुड्यस्स, गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स, छठेणं भत्तेणं अपाणएणं, उड्ढंजाणुअहोसिरस्स, धम्मज्झाणोवगयस्स झाणकोट्ठोवगयस्स, सुक्कज्झाणंतरियाए' वट्टमाणस्स, निव्वाणे, कसिणे, पडिपुण्णे, अव्वाहए, णिरावरणे, अणंते, अणुत्तरे, केवलवरणाण-दसणे समुप्पण्णे। से भगवं अरिहं जिणे जाए, केवली सव्वण्णू ... सव्वभावदरिसी, सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स - पज्जाए जाणइ, तं जहा-आगतिं गतिं ठितिं चयणं .. उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आवीकम्म रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे, एवं : चणं विहरह। .. ऋजुबालिका नदी का उत्तरी तट। श्यामाक गृहपति का खेत। व्यावृत्त चैत्य का ईशानकोण। शालवृक्ष से न अति दूर न अति निकट। महावीर पहले उत्कटुक आसन में बैठे, फिर गोदोहिका मुद्रा में आतापन। दो दिन का निर्जल उपवास। ऊपर की ओर उठे हुए घुटने। नीचे की ओर झुका हुआ मस्तक। धर्मध्यान में लीन। ध्यानकोष्ठक में प्रविष्ट। शुक्ल ध्यान की अंतरिका में वर्तमानएकत्ववितर्क ध्यान में लीन। उस स्थिति में भगवान महावीर को निर्वाणदायी, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, निरावरण, अनन्त, अनुत्तर, केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। ___भगवान अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी हो गए। वे देव, मनुष्य और असुरलोक की सब पर्यायों को जानने लगे, जैसे-आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, खान-पान, कृत, प्रतिसेवित, प्रकटकर्म, रहस्यकर्म, आलाप, कथन, अंतर्मन के भाव। संपूर्ण लोक में विद्यमान सब जीवों के सब भावों को जानते-देखते हुए विहरण करने लगे। धर्मोपदेश १२१. तओ णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्ण णाणसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमेक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खति, तओ पच्छा मणुस्साणं। केवलज्ञान और केवल दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञान के आलोक में अपने आपको एवं जगत को भलीभांति देखा। उन्होंने पहले समवसरण में धर्म का निरूपण किया। उस परिषद् में केवल देव विद्यमान थे। दूसरे समवसरण में मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। ___ केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निग्रंथों के मध्य पांच महाव्रतों, उनकी पच्चीस भावनाओं तथा छह जीवनिकाय का आख्यान किया। - तो गं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाण दंसणधरे गोयमाईणं समणाणं णिग्थाणं पंच महत्वयाइं सभावणाई छज्जीवनिकायाई आइक्खइ . भासइ परूवेइ। १२२. सव्व जगजीव-रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं। जगत् के सब जीवों की रक्षा और दया के लिए भगवान महावीर ने प्रवचन किया। १. एकत्तवितक्कं वोलीणस्स, आवचू. १, पृ. ३२३ Page #103 --------------------------------------------------------------------------  Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-३ ਹੀਦ ਵ ਰੀਪਿਕ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय पृ. सं. १. गणधर इन्द्रभूति २. गणधर अग्निभूति ३. गणधर वायुभूति ४. गणधर व्यक्त ५. गणधर सुधर्मा ६. गणधर मंडित ७. गणधर मौर्यपुत्र ८. गणधर अकम्पित ९. गणधर अचलभ्राता १०. गणधर मेतार्य ११. गणधर प्रभास १२. गणधरावलि १३. धर्मदेशना १४. आगम रचना और त्रिपदी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर और तीर्थप्रवर्तन वैशाख शुक्ला एकादशी। मध्यमा के बाहर समवसरण। जनसमूह का एक दिशा में गमन। दूसरी ओर सोमिल ब्राह्मण द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान। यज्ञ में समागत इन्द्रभूमि के मन में कुतूहल पूर्ण जिज्ञासा-सब लोग यज्ञ को छोड़ कहां जा रहे हैं? महावीर के प्रभाव को कम करने की भावना। अपने शिष्य परिवार के साथ समवसरण में आगमन। महावीर द्वारा रहस्य का उद्घाटन। गणधर इन्द्रभूति १. जीवे तुह सदेहो । इन्द्रभूति! तुम्हें जीव के अस्तित्व में संदेह है। तुम पच्चक्खं जण्ण घेप्पति घडो व्व। मानतो हो कि घट की भांति उसका प्रत्यक्ष ग्रहण नहीं अच्छतापच्चक्खंच होता। जो अत्यन्त परोक्ष है उसका आकाश कुसुम की . . पत्थि लोए खपुष्पं व॥ भांति अस्तित्व नहीं होता। २. जय सोऽणुमाणगम्मो जम्हा पच्चक्खुपुब्बयं तं पि। - पुव्योवलखसंबंध सरणतो लिंगलिंगीणं॥ जीव का अस्तित्व अनुमान-गम्य भी नहीं है। क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है। पहले से जाने हुए सांध्य और साधन की स्मृति व्याप्ति के ज्ञान से होती है। . ३. जयजीवलिंगसंबंध-.. ... परिसिणमयू जतो पुणो सरतो। सल्लिंगपरितमातो जोबो संपचो होजा॥ जीव को प्रमाणित करने वाले हेतु की व्याप्ति पूर्वदृष्ट नहीं है, जिससे कि उसकी स्मृति हो सके। उसके हेतु को देखकर जीव का संप्रत्यय-प्रतीति हो सके। नाममगम्मो वि ततो ! मिज्जति जंणागमोऽणुमाणातो। गय कासह पचक्यो जीवो जस्सागमो वयणं॥ आगम प्रमाण से भी जीव की सिद्धि नहीं हो सकती। आगम प्रमाण अनुमान प्रमाण से भिन्न नहीं है। ऐसा कोई आप्त पुरुष नहीं है, जिसने जीव का साक्षात्कार किया हो जिसके आधार पर उसके वचन को आगम माना जा सके। ५. जं चागमा विरुद्धा परोप्परमतो वि संसओ जुत्तो। . सव्वप्पमाणविसया तीतो जीवो त्ति तो बच्ची॥ आगम परस्पर विरुद्ध मत का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए तुम्हारा जीव के अस्तित्व में संशय होना संभव है। तुम्हारा मत है कि जीव सब प्रमाणों-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से अतीत है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६. गोतम ! पच्चक्खोच्चिय पच्चक्खं च ण सज्झ ७. जं च ण लिंगेहिं समं संगं ससेण व समं ८. सोऽणेगंतो जम्हा • जीवो जं संसयातिविण्णाणं । गहलिंग दरिसणातो ९. छिण्णम्मि संसयम्मी १०. तं पव्वतं सोतुं सो समणो पव्वतो सिलिंगी जो पुरा गहितो । लिंगेहिं समं ण दिट्ठपुव्वो वि । गेोऽणुयो सरीरम्मि ॥ वच्चामि णमाणेमि १३. कम्मे तुह संदेहो ज सुदुक्खं सदेहम्मि ॥ ण लिंगतो तोऽणुमेयो सो ॥ जिणेण जरमरणविप्पमुक्केण । पंचहिं सह खण्डियस एहिं ॥ बितिओ आगच्छति अमरिसेणं । परायिणित्ताण तं समणं ॥ ११. आभट्ठो य जिणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं ॥ १२. किं मण्णे अत्थि कम्मं उदाहुत्थि त्ति संसयो तुज्झं । मण्णसि तं णाणगोयरातीतं । तुह तमणुमाणसाधण भूतमयं फलं जस्स ॥ ९० खण्ड - २ गौतम ! तुम्हें संशयात्मक विज्ञान होता है, इसलिए जीव प्रत्यक्ष है। जो प्रत्यक्ष है वह साध्य नहीं होता जैसे शरीर में होने वाला सुख - दुःख का संवेदन | तुम मानते हो कि जीव को सिद्ध करने वाले हेतु का संबंध (व्यास) प्रत्यक्ष प्रमाण से पूर्व गृहीत नहीं है जैसे खरगोश के साथ सींग का संबंध। इसलिए जीव हेतु के द्वारा अनुमेय नहीं है। पूर्व दृष्ट हेतु के साथ साध्य को देखा हो तभी उस हेतु से साध्य की सिद्धि होती है, यह एकांत नियम नहीं है। हमने ग्रह को हास्य, रुदन आदि हेतुओं के साथ नहीं देखा फिर भी व्यक्ति के शरीर में इन लक्षणों को देख उसका अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार साधन के अभाव में भी जीव का अनुमान हो सकता है। जरा और मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी सुनइन्द्रभूति का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। अग्निभू इन्द्रभूति की प्रव्रज्या की बात सुन दूसरा विद्वान अग्निभूति अमर्ष से भर गया । उसने सोचा- मैं जाऊं और महावीर को पराजित कर उन्हें झुका इन्द्रभूति को वापस आऊं । वह महावीर के पास पहुंचा। जन्म, जरा और मरण से मुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी महावीर ने उसे नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा अग्निभूति ! तुम्हारे मन में यह संदेह है कि कर्म है अथवा नहीं? कर्म के विषय में तुम्हें संदेह है। तुम यह मानते हो कि कर्म प्रत्यक्ष आदि किसी ज्ञान का विषय नहीं होता । पर उसका फल अनुभूति का विषय है, इसलिए तुम अनुमान से उसे जान सकते हो। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ९१ . अ. ३ : तीर्थकर और तीर्थप्रवर्तन १४. अत्थि सुह-दुक्खहेतू अग्निभूति-सुख-दुःख कार्य हैं। उनके हेतु-कारण कज्जातो बीयमंकुरस्सेव। दृष्ट हैं। जैसे अंकुर का हेतु बीज। फिर अदृष्ट कर्म को • सो विट्ठो चेव मती मानने की क्या आवश्यकता है? महावीर-दृष्टकारण यदि वभिचारातो ण तं जुत्तं॥ अनेकांतिक हो तो अदृष्ट कारण मानना अपेक्षित है। १५. जो तुल्लसाधणाणं फले विसेसो ण सो विणा हेतुं। कज्जत्तणतो गोतम! घडो व्व हेतू य सो कम्मं॥ जिसके साधन समान हों और फल में वैषम्य हो तो वह अहेतुक नहीं है। घट कार्य है। कार्य का कारण अवश्य होता है। तुल्य साधन होने पर भेद नहीं होता। तुल्य साधन होने पर भी कार्य में भेद होता है, उसका हेतु है-कर्म। १६. बालसरीरं देहेतर पुव्वं इंदियातिमत्तातो। बालक का शरीर अन्य शरीर पूर्वक होता है। क्योंकि वह इन्द्रिय आदि से युक्त है। जैसे युवक शरीर बालशरीर पूर्वक होता है, वैसे ही बालक शरीर जिस शरीर पूर्वक होता है. वही है कर्म-कार्मण शरीर। ____ जय बालदेहपुग्यो पव्वमिह कम्मं॥ १७. छिण्णम्मि संसयम्मी . जरा और मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी . . जिणेणं जरमरणविप्पमुक्केण। सुन अग्निभूति का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने सो समणो पव्वइतो ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या पंचहिं सह खंडियसतेहिं॥ स्वीकार कर ली। गणधर वायुभूति १८. ते पव्वइते सोतुं ततियो आगच्छति जिणसयासे। इन्द्रभूति और अग्निभूति प्रव्रजित हो गए । यह .. वच्चामि गं वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि॥ सुनकर तीसरे पंडित वायुभूति ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं, वंदना करूं एवं उनकी पर्युपासना करूं। १५. आभट्ठोय जिणेणंजाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं।। जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी ___णामेय य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा २० तज्जीवतस्सरीरं ति संसओ ण वि य पुच्छसे किंची। वायुभूति! तुम्हारे में यह संशय है कि जो जीव है, वही शरीर है। तुम चाहने पर भी इस संबंध में कुछ पूछ नहीं रहे हो। . २१. वसुधातिभूतसमुदय-संभूता चेतण त्ति ते संका। पत्तेयमविट्ठा वि हु मज्जंगमदो व्व समुदाये॥ तुम्हारा यह संशय है कि पृथ्वी, पानी आदि भूत समुदाय से चेतना उत्पन्न होती है। जैसे मद्य के प्रत्येक अवयव-फूल, गुड, पानी आदि से मदशक्ति दिखाई नहीं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ देती, परन्तु उनके समुदय में मदशक्ति प्रकट हो जाती है। इसी प्रकार पृथ्वी, पानी आदि अलग-अलग भूतों में चैतन्य शक्ति दिखाई नहीं देती, उनके समुदाय में वह दृष्ट हो जाती है। २२. जध मज्जंगेसु मदो वीसुमदिट्ठो वि समुदये होतुं। कालंतरे विणस्सति तध भूतगणम्मि चेतण्णं॥ मद्य के प्रत्येक अवयव में मदशक्ति नहीं होती,समुदाय में वह हो जाती है और कालान्तर में विनष्ट हो जाती है। उसी प्रकार प्रत्येक भूत में अदृष्ट चैतन्य भूतसमुदाय में दृष्ट होता है और कालांतर में वह विनष्ट हो जाता है। २३. पत्तेयमभावातो ण रेणुतेल्लं वा समुदये चेता। मज्जंगेसुं तु मतो - मद्य के प्रत्येक अवयव में मदशक्ति नहीं है तो वह । उनके समुदित होने पर भी नहीं हो सकती जैसे बालू के एक-एक कण में तैल नहीं होता, वैसे ही उनका समुदाय होने पर भी वह नहीं होता। वीसुं पि ण सव्वसो णत्थि॥ २४. छिण्णम्मि संसयम्मी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं। सो समणो पव्वइतो पंचहि सह खंडियसएहिं॥ जरा और मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन वायुभूति का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। गणधर व्यक्त २५. ते पव्वइते सोतुं वियत्तो आगच्छति जिणसगासं। इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति प्रव्रजित हो गए, वच्चामि णं वंदामि वंदित्ता पन्जुवासामि॥ यह सुनकर चतुर्थ पंडित व्यक्त ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं, वंदना करूं औरउमकी पर्युपासना करूं। २६. आभट्ठो य जिणेणं जातिजरामरणविप्पमुक्केणं। णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा २७. किं मण्णे पंचभूता अत्थि व णत्थि त्ति संसयो तुज्झ। व्यक्त! तुम्हारे मन में यह संशय है कि पांच भूतों का अस्तित्व है या नहीं? २८. भूतातिसंसयातो __ जीवातिसु का कध त्ति ते बुद्धी। तं सव्वसुण्णसंकी मण्णसि मायोवमं लोयं॥ भूत आदि प्रत्यक्ष पदार्थों के विषय में भी जब तुम संदिग्ध हो तो फिर जीव आदि परोक्ष पदार्थों का ज्ञान तुम्हें कैसे होगा? इसीलिए ही तुम शून्यवाद को स्वीकार कर विश्व को इन्द्रजाल के समान मानते हो। . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन २९. मा कुण वियत्त! संसय मसत्ति ण संसयसमुब्भवो जुत्तो। - खकुसुम-खरसिंगेसु व जुत्तो सो थाणु-परिसेसु॥ व्यक्त! तुम ऐसा संशय मत करो। पदार्थ का अस्तित्व नहीं है तो संशय उत्पन्न ही नहीं होगा। आकाश-कुसुम और गधे के सींग के विषय में क्या कभी संशय होता है? यह स्तंभ है या पुरुष ?-ऐसा संशय हो सकता है, क्योंकि स्तंभ और पुरुष दोनों का अस्तित्व है। ३०. को वा विसेसहेतू सव्वाभावे वि थाणु-पुरिसेसु। संका ण खपुप्फादिसु विवज्जयो वा कधचण्ण भवे॥ ऐसा कौन-सा विशेष हेतु है जिसके कारण सब पदार्थों का अभाव होने पर भी स्तंभ और पुरुष के विषय में संदेह होता है, आकश-कुसुम और गधे के सींग के विषय में नहीं होता, इससे स्पष्ट है कि आकाश-कुसुम की भांति सब कुछ शून्य नहीं है। ३१. छिण्णम्मि संसयम्मी। जिणेणं जरामरणविप्पमुक्केणं। सो समणो पव्वइतो पंचहिं सह खंडियसतेहिं॥ जरा और मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पंडित व्यक्त का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की। गणधर सुधर्मा ३२. ते पव्वइते सोतुं सुधम्मो आगच्छती जिणसगासं। इन्द्रभूति आदि प्रवृजित हो गए, यह सुनकर पंडित वच्चामि णं वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि॥ . सुधर्मा ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं। वंदना करूं और उनकी पर्युपासना करूं। ३३. आभट्ठो य जिणेणंजाति-जरा-मरणविप्पमुक्केणं। - णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मुत्यु से मुक्त सर्वज्ञ और सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा ३४. किं मण्णे जारिसो इध भवम्मि सो तारिसो परभवे वि। सुधर्मा! तुम्हारा मानना है कि जीव जैसा इस भव में होता है वैसा ही पर भव में होता है। ३५. कारणसरिसं कज्जं बीयस्सेवंकरो त्ति मण्णंतो। इध भवसरिसं सव्वं जमवेसि परे वि तदजुत्तं॥ तुम यह मानते हो कि कारण जैसा ही कार्य होता है जैसा बीज वैसा अंकुर। इसी प्रकार इस जन्म जैसा ही अगला जन्म होता है, किन्तु तुम्हारा यह मत संगत नहीं है। ३६. जाति सरो संगातो भूतणओ सरिसवाणुलित्तातो। संजायति गोलोमा ऽविलोमसंजोगतो दुव्वा॥ सींग के सर वनस्पति उत्पन्न होती है। उस वनस्पति पर यदि सरसों का लेप कर दिया जाए तो उससे भूतृण-एक प्रकार की घास उत्पन्न होती है। गाय एवं बकरी के बालों से दूब उत्पन्न होती है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-२ आत्मा का दर्शन ३७. इति रुक्खायुव्वेते ___ जोणिविधाणे य विसरिसेहितो। दीसति जम्हा जम्म सुधम्म! तं णायमेगंतो॥ वृक्षायुर्वेद और योनिप्राभृत में यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि कार्य कारण से विलक्षण भी हो सकता है। इसलिए सुधर्मा! तुम्हारी उपर्युक्त मान्यता एकांततः सम्यक् नहीं है। ३८. अधव जतो च्चियबीया णुरूवजम्मं मतं ततो चेव। जीव गेण्ह भवातो भवंतरे चित्तपरिणामं॥ यदि तुम कारण के अनुरूप कार्य मानते हो तो भी तुम्हें जीव को वर्तमान जन्म से अगले जन्म में भिन्न मानना होगा। क्योंकि भवांकुर का बीज मनुष्य नहीं, कर्म है। वह विचित्र प्रकार का होता है। ३९. छिण्णम्मि संसयम्मि जरा और मृत्यु से मुक्त महावीर की. वाणी सुन पंडित जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। सुधर्मा का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने ५०० सो समणो पव्वइतो शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार पंचहिं सह खंडियसएहिं॥ कर ली। गणधर मण्डित ४०. ते पव्वइत्ते सोतुं मंडिओ आगच्छती जिणसगासं। इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पंडित वच्चामि णं वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि॥ मंडित ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं। वंदना करूं और उनकी पर्युपासना करूं। ४१. आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं। णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मुत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा ४२. किं मण्णे बंध-मोक्खा संति त्ति संसयो तुझं। मंडित! बंध और मोक्ष है या नहीं तुम्हारे मन में यह संदेह है ? ४३. तं मण्णसि जति बंधो जोगो जीवस्स कम्मणा समय। पुव्वं पच्छा जीवो कम्मं व समं व ते होज्जा॥ तुम्हारा मानना है कि जीव के साथ कर्म का संयोग ही यदि बंध है तो पहले जीव और पश्चात् कर्म उत्पन्न हुआ अथवा पहले कर्म और पश्चात् जीव उत्पन्न हुआ अथवा दोनों एक साथ उत्पन्न हुए यह प्रश्न अनुत्तरित है इसलिए न बंध है न मोक्ष। ४४. संताणोऽणातीओ परोप्परं हेतुहेतुभावातो। मंडित। शरीर और कर्म की संतति अनादि है। क्योंकि इनमें बीज और अंकुर के समान परस्पर कार्यकारण भाव है। देहस्सय कम्मस्स य मंडिय! बीयंकुराणं व॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन उद्भव और विकास ४५. अत्थि स देहो जो कम्मकारणं जो य कज्जमण्णस्स। कम्मं च देहकारण मत्थि य जं कज्जमण्णस्स॥ शरीर से कर्म और कर्म से शरीर की उत्पत्ति का क्रम भी अनादि काल से चला आ रहा है। इसलिए शरीर और कर्म की संतति भी अनादि है। १६. तो किं जीवणभाणं व जोगो अध कंचणोवलाणं व? जीवस्स य कम्मस्स य भण्णति दुविहो वि ण विरुद्धो॥ क्या जीव और कर्म का संयोग जीव और आकाश के समान अनादि अनन्त है अथवा सोने और मिट्टी के समान अनादि सांत है? जीव में दोनों प्रकार का संयोग घटित हो सकता है। इसमें कोई विरोध नहीं है। अनादि सांत संयोग की अवस्था में ही मोक्ष संभव बनता है। ४७. छिण्णम्मि संसयम्मि - जरा व मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी सुन . जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। पंडित मंडित का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३५० सो समणो पव्वइतो शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार - अछुढेहिं सह खंडियसतेहिं॥ की। गणधर मौर्यपुत्र ४८. ते पव्वइते सोतुं . इन्द्रभूति आदि प्रवजित हो गए, यह सुनकर पंडित : मोरिओ आगच्छती जिणसगासं। मौर्य ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं, उन्हें वंदन ... वच्चामि णं वंदामि करूं व उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पज्जवासामि॥ १९. आभट्ठो य जिणेणं जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं। . णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम व गोत्र से सम्बोधित कर कहा ५०. किं मण्णो अत्थि देवा . उदाहु णत्थि त्ति संसयो तुज्झं। मौर्यपुत्र! देवता है अथवा नहीं ? तुम्हारे मन में यह संदेह है ? ५१. जति णारगा पवण्णा पकिट्ठपावफलभोतिणो तेणं। । सुबहुगपुण्णफलभुजो पवज्जितव्वा सुरगणा वि॥ यदि तुम प्रकृष्ट पाप का फल भोगने वाले नारकों को स्वीकार करते हो तो तुम्हें प्रकृष्ट पुण्य का भोग करने वाले देवों को भी स्वीकार करना चाहिए। ५२. छिण्णम्मि संसयम्मि जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। ' , सो समणो पव्वइतो अछुढेहिं सह खंडियसतेहिं॥ जरा व मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पंडित मौर्य का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३५० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ गणधर अकम्पित ५३. ते पव्वइते सोतुं इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पंडित अकंपिओ आगच्छती जिणसगासं। अकम्पित ने सोचा-मैं महावीर के पास जाऊं, उन्हें वंदना वच्चामि णं बंदामि करूं और उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पज्जुवासामि॥ ५४. आभट्ठो य जिणेणं-जाइ-जरा मरणविप्पमुक्केणं। नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम व गोत्र से सम्बोधित कर कहा ५५. किं मण्णे णेरइया अस्थि णत्थि त्ति संसयो तुज्झं। अकम्पित! नारक है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है ? ५६. पावफलस्स पकिट्ठस्स भोइणो कम्मतोऽवसेस व्व। संति धुवं तेभिमता णेरड्या अध मती होज्जा॥ शेष कर्मों की भांति प्रकृष्ट पाप फल को भोगने वाले नैरयिक होते हैं, यह तुम्हारा अभिमत है। ५७. अच्चत्थ दुक्खिता ते तिरियणराणारग त्ति तेऽभिमता। तंण जतो सुरसोक्ख प्पगरिससरिसं ण तं दुक्खं॥ तुम्हारे इस मत के अनुसार अत्यंत दुःखी जो मनुष्य और तिर्यंच हैं, वे ही नारक हैं। परन्तु यह अभिमत समीचीन नहीं है। जैसे देवों में प्रकृष्ट सुख होता है, वैसे ही नरक में प्रकृष्ट दुःख होता है। यदि तुम प्रकृष्ट सुख वाले देवों को स्वीकार करते हो तो प्रकृष्ट दुःख वाले नैरयिकों को क्यों नहीं स्वीकार करते हो? ५८. छिण्णम्मि संसयम्मि जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। सो समणो पव्वइतो तिहिं समं खंडियसतेहिं॥ जरा, मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पंडित अकम्पित का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की। गणधर अचलभ्राता ५९. ते पव्वइते सोतुं इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पण्डित ___ अयलभाता आगच्छती जिणसगासं। अचलभ्राता ने सोचा-मैं महावीर के पास जाऊं, उन्हें वच्चामि णं वंदामि वंदन करूं व उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पज्जुवासामि॥ ६०. आभट्ठो य जिणेणं . जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं। *णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से सम्बोधित कर कहा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन उद्भव और विकास ६१. किं मण्णे पुण्ण-पावं अत्थि व णत्थि त्ति संसयो तज्झं। अचलभ्राता! पुण्य और पाप है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है? ६२. मण्णसि पुण्णं पावं साधारणमधव दो वि भिण्णाई। ___ होज्ज ण वा कम्मं चिय सभावतो भवपपंचोऽयं॥ १. केवल पुण्य है, पाप नहीं है। २. केवल पाप है, पुण्य नहीं है। ३. पुण्य और पाप साधारण है-एक ही है। ४. पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र हैं। ५. पुण्य जैसा कोई कर्म नहीं है। सुख और दुःख सब स्वभाव से ही होता है। । ६३. सुह दुक्खाणं कारण-मणुरूवं कज्जभावतोऽवस्सं। ____ परमाणवो घडस्स व कारणमिह पुण्णपावाई॥ सुख और दुःख दोनों कार्य हैं। वे कारण के अनुरूप ही होते हैं। जैसे घट का कारण परमाणु स्कंध है, वैसे ही सुख-दुःख के कारण पुण्य-पाप हैं। ... ६४. छिण्णंमि संसयम्मि जरा, मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पण्डित जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। अचलभ्राता का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३०० ... सो समणो पव्वइतो शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार . तिहिं तु सह खंडियसतेहिं॥ की। गणधर मेतार्य ६५. ते पव्वइते सोतुं. इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पण्डित मेतज्जो आगच्छती जिणसगासं। मेतार्य ने सोचा-मैं महावीर के पास जाऊं, उन्हें वंदन बच्चामि गं वंदामि करूं व उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पन्जुवासामि॥ . . ६६. आभट्ठो य जिणेण जातिजरामरणविप्पमुक्केणं। णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम व गौत्र से सम्बोधित कर कहा ६७. किं मण्णे परलोगो अत्थि ण अस्थि त्ति संसयो तज्झं। मेतार्य! परलोक है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है? ६८. मण्णसि विणासि चेतो उप्पत्तिमदादितो जधा कुंभो। णणु एतं चिय साधण मविणासित्ते वि से सोम्म!॥ मेतार्य! तुम आत्मा को अनित्य मानते हो। तुम्हारा मत है जो उत्पत्तिधर्मा होता है, वह अनित्य होता है। जैसे घट। तुम अनित्य होने का जो साधन बता रहे हो, वही साधन नित्य होने का है। उत्पत्ति धर्म है। धर्म धर्मी में रहता है। इसलिए उत्पत्तिधर्म का जो आधार है, वह नित्य है। नित्य होता है, उसका पुनर्जन्म अवश्य होगा। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ९८ खण्ड-२ ६९. छिण्णम्मि संसयम्मि जरा-मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पण्डित जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। मेतार्य का संशय छिन्न हआ। उसने अपने ३०० शिष्यों सो समणो पव्वइतो के साथ महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की। तिहिं तु सह खंडियसतेहिं॥ गणधर प्रभास ७०. ते पव्वइते सोतुं पभासो आगच्छई जिणसगासं। इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पण्डित वच्चामि णं वंदामि वंदित्ता पन्जुवासामि॥ प्रभास ने सोचा-मैं महावीर के पास जाऊं, उन्हें वन्दन करूं और उनकी पर्युपासना करूं। ७१. आभट्ठोय जिणेणं जाति-जरा-मरणविप्पमुक्केणं। ___णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त महावीर ने उसे आया देख नाम व गौत्र से सम्बोधित कर कहा- . .. ७२. किं मण्णे णेव्वाणं अस्थि णत्थि त्ति संसयो तुज्झं। प्रभास! निर्वाण है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है? ७३. पडिवज्ज मंडियो इव विजोगमिह जीवकम्मजोगस्स। तमणातिणो वि कंचण धातूण व णाणकिरियाहिं। मंडितपुत्र की तरह तुम इस बात को स्वीकार करो कि जीव और कर्म का संयोग अनादि है, फिर भी . सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा उसका अंत हो सकता है जैसे सोने और धातु के चिरकालिक संयोग का वियोग होता है। ७४. छिण्णम्मि संसयम्मि जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। सो समणो पव्वइतो तिहिं तु सह खंडियसतेहिं॥ जरा और मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पण्डित प्रभास का संशय छिन्न हआ। उसने अपने तीन सौ शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की। . गणधरावलि ७५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ-समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था? समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे इंदेभूई अणगारे गोयमे गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ। श्रमण भगवान महावीर के ९ गण और ११ गणधर थे। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कि श्रमण भगवान महावीर के ९ गण और ११ गणधर थे? श्रमण भगवान महावीर के पहले गणधर गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति अनगार थे। वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे। दूसरे गणधर गौतमगोत्रीय अग्निभूति अनगार थे। वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे। मज्झिमे अग्गिभूई अणगारे गोयमे गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ९९ 'कणीक्से वाउभूई अणगारे गोयमे गोत्तेणं पंच समणसयाई वाएइ । थेरे अज्जवियत्ते भारद्दाए गोत्तेणं पंच समणसयाइं वाएइ । थेरे अज्जसुहम्मे अग्गिवेसायणे गोत्तेणं पंच समणसयाइं वाएइ । मेरे मंडियपुत्तेवासिट्ठे गोत्तेणं अट्ठाई समणसयाइं वाएइ । थेरेमोरियपुत्ते कासवे गोत्तेणं अद्धट्ठाई समणस्रयाइं वाएइ । थेरे अकंपिए गोय गोत्तेणं । थेरे अयलभाया हारियायणे गोत्तेंणं । ते दुन्निवि थेरा तिन्नि तिन्नि समणसयाइं वाएंति । थेरे मेयज्जे थेरे य पभासे एए दोत्रि वि थेरा कोडिन्ना गोत्तेणं तिन्न-तिनि समणसयाइं वाएंति । से एतेणं अट्ठेणं अज्जो ! एवं बुच्चइ- समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्या । सव्वे वि णं एते समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दसपुव्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा । थे इंदभूई, थेरे अज्जसुहम्मे सिद्धिं गए महावीरे - पच्छा दोन्नि वि परिनिव्वुया । जे इमे अज्जत्ताते समणा णिग्गंथा विहरंति, एए णं सव्वे अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा । अवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना । अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन तीसरे गणधर गौतमगोत्रीय वायुभूति अनगार थे । वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे। चौथे गणधर भारद्वाजगोत्रीय स्थविर आर्य व्यक्त थे। वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे । पांचवें गणधर अग्निवेश्यायनगोत्रीय स्थविर आर्य सुधर्मा थे। वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे। छट्ठे गणधर वाशिष्ठगोत्रीय स्थविर मंडितपुत्र थे । वे ३५० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे। ७६. तए णं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रण्णो भिंभसारपुत्तस्स सुभद्दापमुहाण य देवीणं तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिया सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ । सातवें गणधर काश्यपगोत्रीय स्थविर मौर्यपुत्र थे । वे ३५० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे । आठवें गणधर गौतमगौत्रीय स्थविर अकंपित थे । नौवें गणधर हारितायनगोत्रीय स्थविर अचलभ्राता थे। ये दोनों स्थविर ३००-३०० श्रमणों को वाचना देतेपढ़ाते थे। दसवें गणधर स्थविर मेतार्य और ग्यारहवें गणधर स्थविर प्रभास - दोनों कौडिन्यगोत्रीय थे । ये दोनों स्थविर ३००-३०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे । इस अपेक्षा से यह कहा गया कि श्रमण भगवान महावीर के ९ गण और ११ गणधर थे । श्रमण भगवान महावीर के ये ११ गणधर द्वादशांगी के ज्ञाता थे। वे चतुर्दशपूर्वी और संपूर्ण गणिपिटक के धारक थे। राजगृह नगर में एकमास के चौविहार उपवास कालधर्म को प्राप्त हुए। सब दुःखों का क्षय किया। स्थविरं इन्द्रभूति और स्थविर आर्य सुधर्मा दोनों भगवान के सिद्ध होने के पश्चात् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । वर्तमान में जो श्रमण निर्ग्रन्थ हैं वे सब आर्य सुधर्मा की सन्तान - पारंपरिक शिष्य हैं। शेष गणधर निरपत्य-शिष्य परम्परा से रहित हैं। धर्मदेशना श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर में आए। उनकी धर्म-सभा में बिंबसार पुत्र राजा कोणिक और सुभद्रा आदि रानियां उपस्थित थीं। भगवान ने विशाल ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद्, यतिपरिषद् और देवपरिषद् के मध्य अर्द्धमागधी भाषा में प्रवचन किया। उनकी भाषा सर्वभाषानुगामिनी - सब लोग अपनी-अपनी भाषा में Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-२ समझ सकें वैसी थी। उनका स्वर एक यो वाला था। अरिहा धम्म परिकहेइ-अत्थि लोए अत्थि अलोए, भगवान महावीर ने धर्म का आख्यान इस रूप में अत्थि जीवा अत्थि अजीवा, अत्थि बंधे अस्थि किया हैमोक्खे, अत्थि पुण्णे अत्थि पावे, अत्थि आसवे अत्थि लोक है। अलोक है। जीव है। अजीव है। संवरे, अत्थि वेयणा अत्थि निज्जरा। __बंध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना और निर्जरा-ये सब वास्तविक तत्त्व हैं। अत्थि अरहंता, अत्थि चक्कवट्टी, अत्थि बलदेवा, अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, अत्थि वासुदेवा, अत्थि नारगा, अत्थि नेरइया, अत्थि तिर्यक्योनिक-इन सबका अस्तित्व है। तिरिक्खजोणिया, अत्थि तिरिक्खजोणिणीओ। अत्थि माया, अत्थि पिया, अत्थि रिसओ, अस्थि माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्ध, सिद्धि, देवा, अत्थि देवलोया, अत्थि सिद्धा, अत्थि सिद्धी, परिनिर्वाण और परिनिर्वृत्त-ये सब विद्यमान है। .. अत्थि परिणिव्वाणे, अत्थि परिणिव्वुया। अत्थि पाणाइवाए मुसावाए अदत्तादाणे मेहुणे प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, परिग्गहे, अत्थि कोहे माणे माया लोभे, अत्थि पेज्जे क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, दोष, कलह, अभ्याख्यान, दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरई पैशुन्य, परपरिवाद, रतिअरति, माया-मृषा, मिथ्यादर्शनमायामोसे मिच्छादसणसल्ले। शल्य-ये अठारह पाप हैं। अत्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण अदत्तादान अदत्तादाणवेरमणे मेहणवेरमणे परिग्गहवेरमणे अत्थि विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण, क्रोध विवेक, कोहविवेगे माणविवेगे मायाविवेगे लोभविवेगे। मान विवेक, माया विवेक, लोभ विवेक, प्रेय विवेक, दोष पेज्जविवेगे दोसविवेगे कलहविवेगे अब्भक्खाण- विवेक, कलह विवेक, अभ्याख्यान विवेक, पैशुन्य विवेक, विवेगे पेसुण्णविवेगे परपरिवायविवेगे अरतिरतिविवेगे । परपरिवाद विवेक, अरति-रति विवेक, मायामृषा विवेक, मायामोसविवेगे मिच्छादसणसल्लविवेगे। मिथ्यादर्शन शल्य विवेक-ये १८ पापों के प्रतिपक्ष हैं। सव्वं अत्थिभावं अत्थि त्ति वयइ। सव्वं णत्थिभावं भगवान महावीर ने सर्व अस्तित्व का अस्तित्व के णत्थि त्ति वयइ। सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला रूप में प्रतिपादन किया। सर्व नास्तित्व का नास्तित्व के भवंति। दुचिण्णा कम्मा दचिण्णफला भवंति। रूप में प्रतिपादन किया। सुचीर्ण कर्मों का फल सुचीर्ण होता है। दुश्चीर्ण कर्मों का फल दुश्चीर्ण होता है। फुसइ पुण्णपावे, पच्चायंति जीवा सफले प्राणी पुण्य और पाप का बंधन करता है। उनके कल्लाणपावए। अनुसार उनका पुनर्जन्म होता है। पुण्य और पाप सफलफलसहित होते हैं। ७७. जह णरगा गम्मंती जे णरगा जा य वेयणा णरए। सारीरमाणसाइं दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए॥ जिन आचरणों से जीव नरक में जाता है। नरक में जैसी वेदना है। तिर्यंचयोनि में शारीरिक और मानसिक ७८. माणुस्संच अणिच्चं वाहि-जरा-मरण-वेयणा-पउर। देवे य देवलोए देविड्ढिं देवसोक्खाई॥ मनुष्य का जीवन अनित्य है। वह व्याधि, जरा, मृत्यु और वेदना से भरा हुआ है। देवलोक में देव दिव्य ऋद्धि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास १०१ अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन और सुख का अनुभव करते हैं। ७९. णरगं तिरिक्खजोणिं माणुसभावं च देवलोगं च। सिद्धे य सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ॥ नरक, तिर्यंचयोनि, मनुष्यत्व, देवलोक, सिद्ध, सिद्धशिला और छह जीवनिकाय-महावीर ने इन सबका प्रतिपादन किया। ८०. जह जीवा बझंती ___ मुच्चंती जह य संकिलिस्संति। जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा॥ जिन आचरणों से जीव कर्म का बंधन करते हैं, जिन आचरणों से मुक्त होते हैं, जिस प्रवृत्ति से संक्लेश को प्राप्त होते हैं, जिससे अप्रतिबद्ध होकर दुःख का अंत ८१. अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेति। जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेति॥ आतं, आर्त चित्तवाले जीव दुःख-सागर में निमग्न हो जाते हैं और वैराग्य को प्राप्त कर कर्मग्रंथि का विखंडन कर देते हैं। ८२. जह रागेण कडाणं राग से किए गए कर्मों का फलविपाक पापकारी होता कम्माणं पावगो फलविवागो। है। जो व्यक्ति कर्मों का क्षय करते हैं वे सिद्ध होकर जह य परिहीणकम्मा . सिद्धालय में चले जाते हैं-महावीर ने इन सबका सिद्धा सिद्धालयमुवेति॥ प्रतिपादन किया। ८३. तमेव धम्म दुविहं आइक्खइ, तं जहा- . भगवान महावीर ने दो प्रकार के धर्म का निरूपण किया अगार धर्म और अनगार धर्म। अगारधम्म। अणगारधम्मं च। ८४. अणगारधम्मो सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय अदत्तादाण-मेहुण-परिग्गह-राईभोयणाओ वेरमणं। अनगार धर्म सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व अदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण, सर्व परिग्रह विरमण, सर्व रात्रिभोजन विरमण। आयुष्मन्! यह अनगार सामायिक नाम का धर्म है। अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते। ८५. अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा-पंच अगारधर्म बारह प्रकार का है-पांच अणुव्रत, तीन अणुव्वयाई, तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत। सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाई, तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ पांच अणुव्रत-स्थूल प्राणातिपात विरमण, स्थूल वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ मृषावाद विरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्वदारसंतोष, आदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छा- इच्छा परिमाण परिमाणे। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-२ आत्मा का दर्शन तिण्णि गुणव्वयाई, तं जहा-दिसिव्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं, अणत्थदंडवेरमणं। चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं, देसा. वयासियं पोसहोववासे. अतिहि-संविभागे। अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाझूसणाराहणा। अयमाउसो! अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते। तीन गुणव्रत-दिखत, उपभोग-परिभोग परिमाण, अनर्थ-दंडविरमण। चार शिक्षाव्रत-सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास. अतिथिसंविभाग अपश्चिम मारणांतिक संलेखना। आयुष्मन् ! यह अगार सामायिक नाम का धर्म है। आगम रचना और त्रिपदी ८६. अत्थं भासति अरहा सुत्तं गंथन्ति गणधरा णिउणं। सासणस्स हितट्ठाए ततो सुत्तं पवत्तती॥ अर्हत अर्थ का प्ररूपण करते हैं। गणधर शासन हित के लिए निपुणता के साथ उनका गुंफन करते हैं। उससे सूत्र का प्रवर्तन होता है। ८७. तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी। तो मुयइ नाणवुढिं भवियजणविबोहणट्ठाए॥ अमितज्ञानी केवली तप, संयम और ज्ञानरूपी वृक्ष पर आरूढ़ होकर भव्य जनों को. जागृत करने के लिए ज्ञान की वृष्टि करते हैं। ८८. तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं। तित्थयरभासियाइं गंथंति तओ पवयणट्ठा॥ गणधर उसी वृष्टि को बुद्धिमय वस्त्रखंड में समग्रता से ग्रहण करते हैं। तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित वाणी को वे शासनहित के लिए गुंफित करते हैं। ८९. तं कहं गहितं गोयम सामिणा? गौतम स्वामी ने महावीर की वाणी को किस प्रकार : ग्रहण किया? उन्होंने तीन निषद्याओं से महावीर वाणी को ग्रहण कर चवदह पूर्वो का निर्माण किया। तिविहं निसेज्जहिं चोदसपुव्वाणि उप्पादिताणि। ९०. किं च वागरेति भगवं? भगवान ने क्या व्याकरण किया? उप्पन्ने विगते धुवे-एताओ तिन्नि निसेज्जाओ। भगवान ने तीन निषद्याओं में तीन पदों का व्याकरण किया-उत्पन्न, विगत और ध्रुव। उप्पन्नेत्ति जे उप्पन्निमा भावा से उवागच्छंति। उत्पन्न-जिन पदार्थों का स्वभाव उत्पन्न होना है। विगतेत्ति जे विगतिस्सभावा ते विगच्छंति। विगत-जिन पदार्थों का स्वभाव नष्ट होना है। धुवा जे अविणासधम्मिणो। ध्रुव-जिन पदार्थों का स्वभाव स्थिर रहना है। सेसाणं अणियता णिसेज्जा। ते य ताणि शेष निषद्याएं अनियत थीं। इन्द्रभूति गौतम उन पुच्छिऊण एगतमं ते सुत्तं करेति, जारिसं जहा। निषद्याओं में प्रश्न पूछकर किसी एक सूत्र का निर्माण भणितं। करते, जैसा भगवान बतलाते। १. प्रणिपातपूर्वक की गई पृच्छा का नाम निषद्या है। आवचू. १, पृ. ३७० Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-४ जीवन-प्रसंग Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय य १. प्रतिमा और ध्यान-साधना २. तपस्या और आतापना ३. जागरिका ४.गौतम ५. स्कन्दक ६. अतिमुक्तक ७. देवानंदा ८. सोमिल पृ. सं. १०५ १०५ १०७ १०७ १०८ ९. महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग १०. मुनि सिंह का मानसिक दुःख ११. भगवान महावीर के वर्षावास १२. महावीर का परिनिर्वाण १३. गौतम को कैवल्य १४. दीपावली पर्व १५. भस्मराशि महाग्रह ११४ ११६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-प्रसंग प्रतिमा और ध्यान साधना १. इसिपब्भारगतो नाम ईसिं · ओणओ काओ। एगपोग्गल-निरुखविट्ठी' अणिमिसणयणो। अहा- पणिहितेहिं गत्तेहिं सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं दोवि पादे साहटु वग्धारियपाणी एगराइयं महापडिमं ठितो। भगवान ध्यान करते समय शरीर को कुछ आगे की ओर झुकाकर रखते। वे पुद्गल अथवा शरीर के किसी एक केन्द्र पर दृष्टि टिकाते। उनके नेत्र अनिमिष रहते। शरीर सब अवयवों को यथास्थान नियोजित कर, सब इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थित कर, दोनों पांवों को परस्पर सटाकर, हाथों को घुटनों की ओर प्रलंब कर एकरात्रिकी महाप्रतिमा में स्थित हो जाते। तिर्यक् भित्ति पर दृष्टि टिकाकर भगवान कई प्रहर . तक ध्यान करते। अदु पोरिसिं तिरियं भित्ति चक्खुमासज्ज अंतसो साहा . २. अवि झाति से महावीरे भगवान उकडू आदि आसनों की मुद्रा में निश्चल आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। होकर ध्यान करते। वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में उड्ढमहेतिरियं च . होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्म पेहमाणो समाहिमपडिण्णे॥' समाधि पर टिकी हुई थी। वे सकंल्प मुक्त थे। तपस्या और आतापना ३. नव किर चाउम्मासे भगवान ने नौ बार चार मास तक उपवास किया। छक्किर दोमासिए उवासीय। छह बार दो मास का उपवास किया। बारह बार एक मास बारस य मासिमाई का उपवास किया। बहत्तर बार पन्द्रह दिन का उपवास बावत्तरि अद्धमासाइं॥ किया। १. तत्य विजे अचित्तपोग्गला तेसु दिहिं निवेसेति। सचित्तेहिं दिट्ठी अप्पाइज्जति, जहा दुव्वाए। आवचू. १,पृ. ३०१ २. पुणतो तिरियं पुणं भित्तिं, सण्णित्ता दिट्ठी, को अत्यो? पुरतो संकुडा अंतो वित्थडा सा तिरियभित्तिसंठिता वुच्चति, सगडुछिसंठिता वा, जतिवि ओहिणा वा पासति तहावि सीसाणं उद्देसतो तहा करेति जेण निरंभति दिद्धिं,णय णिच्चकालमेव ओधीणाणोवओगो अस्थि,.......यदुक्तं भवति-पुरओ अंतो मझे यातीति पश्यति, तदेव तस्स ज्झाणं जं रिउवयोगो अणिमिसाए दिट्ठीए बदहिं अच्छीहिं, तं एवं बदअच्छी जुगंतरणिरिक्खणं दटुं। आचारांगचूर्णि, पृ. ३००, ३०१ ३. उड्ढं अहेयं तिरियंच, सव्वलोए झायति समितं, उड्ढलोए जे भावा, अहेवि तिरिएवि। जेहिं वा कम्मादाणेहिं उड्ढं गंमति एवं अहे तिरियं च, अहे संसारं संसारहेउं च कम्मविपागं च ज्झायति। एवं मोक्खं मोक्खहेऊ मोक्खसुहं च ज्झायति। पेच्छमाणो आयसगाहिं परसमाहिंच अहवा नाणादिसमाहिं। आचारांगचूर्णि, पृ. ३२४ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १०६ खण्ड-२ ४. एगं किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासीय। एक बार छह मास का उपवास किया। दो बार. तीन अड्ढाइज्जा दुवे, दो चेव दिवड्ढमासाइं॥ मास का उपवास किया। दो बार ढाई मास का उपवास किया। दो बार डेढ़ मास का उपवास किया। ५. भदं च महाभई पडिमं तत्तो असव्वओभई। ___ दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासी य अणुबद्धं॥ भद्र प्रतिमा (दो दिन की), महाभद्र प्रतिमा (चार दिन की), सर्वतोभद्र प्रतिमा (दस दिन की) एक-एक बार की। ६. गोयरमभिग्गहजुयं खमणं छम्मासियं च कासी य। पंचदिवसेहिं ऊणं अव्वहियो वच्छनयरीए॥ एक बार भगवान ने आहार प्राप्ति के लिए अभिग्रह किया। वह अभिग्रह पांच मास और पच्चीस दिन तक पूरा नहीं हुआ। भगवान विचलित नहीं हुए। आखिर वह कौशंबी नगरी में पूर्ण हुआ। आग ७. दस दोय किर महप्पा ठाइ मणी एगराइए पडिमे। अट्ठमभत्तेण जई एक्केक्कं चरमराईयं॥ भगवान ने बारह तेले (तीन दिन का उपवास) किए। प्रत्येक तेले के अंत में एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा की आराधना की। ८. दो चेव य छट्ठ सए अउणातीसे उवासिया भगवं। न कयाइ निच्चभत्तं चउत्थभत्तं च से आसि॥ भगवान ने २२९ बेले (दो दिन का उपवास) किए। साधनाकाल में भगवान ने भोजन नित्य नहीं किया और न चतुर्थभक्त (एक दिन का उपवास) ही किया। ९. बारस वासे अहिए छठें भत्तं जहण्णयं आसि। सव्वं च तवोकम्मं अपाणयं आसि वीरस्स॥ साधिक बारह वर्षों की अवधि में भगवान का न्यूनतम तप बेला था। उनकी सारी तपस्या चौविहार परित्यागवाली (निर्जल) थी। १०.तिण्णि सए दिवसाणं भगवान ने साढ़े बारह वर्ष की अवधि में केवल ३४९ __ अउणावण्णं तु पारणाकालो। दिन आहार किया। उन्होंने उकडू निषद्या और खड़े-खड़े उक्कुडुयनिसेज्जाणं प्रतिमा करने का सैकड़ों बार प्रयोग किया। ठियपडिमाणं सए बहुए॥ ११.आयावई य गिम्हाणं अच्छइ उक्कुडुए अभिवाते। अदु जावइत्थं लूहेणं ओयण-मंथु-कुम्मासेणं॥ भगवान ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की आतापना लेते थे। उकडू आसन में लू के सामने मुंहकर बैठते। वे कभी-कभी रूखे कोदो, सत्तू और उड़द से जीवनयापन करते थे। १२. एयाणि तिण्णि पडिसेवे अळ मासे य जावए भगवं। अपिइत्थ' एगया भगवंअरमासं अदुवा मासं पि॥ भगवान ने इन तीनों (कोदो, सत्तू और उड़द) का सेवन कर आठ महीने तक जीवनयापन किया। कभी-कभी अर्धमास और एक मास तक पानी नहीं पीया। १. आवश्यक नियुक्तिकार का अभिमत आचारांग से भिन्न है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास १०७ अ.४:जीवन प्रसंग १३.अनि सूइयं व सुक्कं वा सीयपिंडं पुराणकुम्मासं। भोजन व्यञ्जन सहित हो या व्यञ्जन रहित, ठंडा . अदु बुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धए दविए॥ भात हो या बासी उड़द, सत्तू हो या चना, रूक्ष भोजन प्राप्त हो अथवा नहीं-इन सब स्थितियों में भगवान राग अथवा द्वेष नहीं करते। १४. अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा अपिबित्ता। __रायोवरायं अपडिण्णे अन्नगिलायमेगया भुंजे॥ उन्होंने कभी-कभी दो मास से अधिक और छह मास तक भी पानी नहीं पिया। उनके मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। वे रात भर जागृत रहते थे। कभीकभी वे बासी भोजन भी करते थे। १५.छद्रेण एगया भुंजे अदुवा अट्टमेण दसमेणं। वे कभी दो दिन, तीन दिन, चार दिन या पांच दिन के दुवालसमेण एगया भुंजे पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे॥ उपवास के बाद भोजन करते थे। उनकी दृष्टि तप समाधि पर टिकी हुई थी। भोजन के प्रति उनके मन में कोई संकल्प नहीं था। जागरिका . १६.णिहंपिं जो पगामाए सेवइ भगवं उट्ठाए। - जम्गावती य अप्पाणं ईसिं साई या सी अपडिण्णे॥ भगवान शरीर सुख के लिए नींद नहीं लेते थे। जब नींद आने लगती तो वे खड़े होकर अपने आपको जागृत कर लेते थे। वे चिर जागरण के बाद शरीर धारण के लिए कभी-कभी थोड़ी नींद लेते थे। उनके मन में निद्रा सुख की आकांक्षा नहीं थी। गीला १७.गिम्हे अतिणिहा भवति हेमंते वा. ततो पव्वरत्ते - अवरत्ते वा पुवपडिलेहिय उवासयगतो, तत्थ 'णिहाविमोयणहेतु मुहुत्तागं चंकमिओ, णिहं पविणेत्ता पुणो अंतो पविस्स पडिमागतो ज्झाइवान्। ग्रीष्म ऋतु और हेमंत ऋतु में नींद अधिक आती है। ऐसी स्थिति में वे पूर्वरात्रि में मध्यरात्रि के समय पूर्व प्रतिलेखित उपाश्रय में जाते और वहां नींद उड़ाने के लिए मुहूर्त्तभर चंक्रमण करते। जब नींद उड़ जाती तो पुनः ध्यान प्रतिमा में स्थित हो जाते। गौतम १८.गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-चिर संसिट्ठोसि मे गोयमा! चिरसंथुओसि मे गोयमा! चिरपरिचि- ओसि मे गोयमा! चिरजुसिओसि मे गोयमा! चिराणुगओसि मे गोयमा! चिराणुवत्तीसि मे गोयमा! अणंतरं देवलोए अणंतरं माणुस्सए भवे। किं परं मरणा कायस्स भेदा इओ चुता दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो। श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित कर कहा-गौतम! तुम चिरकाल से मेरे संसर्ग में रहे हो। गौतम! तुम चिर संस्तुत रहे हो। गौतम! तुम मुझसे चिरकाल में प्रीतिपरायण रहे हो। गौतम! तुम चिरकाल से मेरा अनुगमन करते रहे हो। गौतम! तुम चिरकाल से मेरा अनुवर्तन करते रहे हो, देवलोक और मनुष्य जन्म में भी। आगे और क्या, मरने के पश्चात् हम दोनों तुल्य, एकार्थक, अभिन्न और नानात्व से रहित होंगे। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १०८ खण्ड-२ स्कंदक १९.गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित कर वयासी-दच्छिसि णं गोयमा! पुव्वसंगइयं। कहा-गौतम! तुम आज अपने पूर्व मित्र को देखोगे। कं भंते? भंते! किसे? खंदयं नाम। स्कंदक को। से काहे वा? किह वा? केवच्चिरेण वा? भंते ! मैं उसे कब, कैसे और कितने समय के पश्चात देखूगा? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं सा- गौतम! श्रावस्ती नगरी। गर्दभाल का शिष्य वत्थी नाम नगरी होत्था। तत्थ णं सावत्थीए कात्यायनगोत्रीय स्कंदक नाम का परिव्राजक। उसने मेरे नयरीए गहभालस्स अंतेवासी खंदए नाम पास आने का संकल्प किया है। वह आ ही रहा है। कच्चायणसगोत्ते परिव्वायए परिवसइ। तं चेव जाव निकट आ गया है। थोड़ी दूरी पर है। मार्ग में चल रहा है। जेणेव ममं अंतिए, तेणेव पहारेत्थ गमणाए। से गौतम! तुम उसे आज ही देखोगे। अदूरागते बहुसंपत्ते अद्धाणपडिवण्णे अंतरापहे वट्टइ। अज्जेव णं दच्छिसि गोयमा! भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-पहू णं भंते! किया और पूछा-भंते! क्या स्कंदक गृहवास छोड़कर खंदए कच्चायणसगोत्ते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे आपके पास गृहत्यागी बनने में समर्थ है ? भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए? हंता पभू। हां, समर्थ है। जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ श्रमण भगवान महावीर गौतम को यह कह ही रहे थे। गोयमस्स एयमढें परिकहेइ, तावं च णं से खदए कि उसी समय स्कंदक उस स्थान पर पहुंच गया। कच्चायणसगोत्ते तं देसं हव्वमागए। तए णं भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं स्कंदक को निकट आया हुआ जानकर गौतम शीघ्र अदूरागतं जाणित्ता खिप्पामेव अब्भुढेति, ही खड़े हुए। सामने गए। स्कंदक के पास पहुंचकर अब्भुठेत्ता खिप्पामेव पच्चुवगच्छइ। जेणेव खंदए बोले- स्वागत है स्कंदक! सुस्वागत है स्कंदक! कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी हे खंदया! सागयं खंदया! सुसागयं खंदया! अणुरागयं खंदया! सागयमणुरागयं खंदया! • से नूणं तुमं खंदया! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं स्कंदक! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक निग्रंथ नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए- पिंगल ने तुम से यह प्रश्न पूछा-मागध! लोक सांत है मागहा! किं सअंते लोगे? अणंते लोगे? एवं तं या अनन्त? इस प्रश्न को तुम उत्तरित नहीं कर सके, तब चेव जाव जेणेव इहं, तेणेव हव्वमागए। से नूणं । तुमने यहां आने का निश्चय किया और शीघ्र ही यहां खंदया! अठे समठे ? पहुंच गए। स्कंदक क्या यह सही है? हंता अत्थि। हां, सही है। तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयम एवं स्कंदक ने गौतम से कहा- गौतम! यहां कौन ऐसा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास १०९ अ. ४ : जीवन प्रसंग वयासी-से केस णं गोयमा! तहारूवे नाणी वा यथार्थ ज्ञानी और तपस्वी है, जिसने मेरा यह रहस्यपूर्ण तवस्सी वा, जेणं तव एस अट्ठे मम ताव अर्थ तुम्हें बताया है और जिससे तुम यह जानते हो? रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ णं तुमं जाणसि? तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं गौतम ने कहा-स्कंदक! श्रमण भगवान महावीर मेरे वयासी-एवं खलु खंदया! ममं धम्मायरिए धर्माचार्य, धर्मोपदेशक हैं। वे उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक धम्मोवपदेसए समणे भगवं महावीरे उप्पण्ण- हैं। वे अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, वर्तमान और भविष्य नाणदसणधरे अरहा जिणे केवली तीयपच्चुप्पन्न- के ज्ञाता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। उन्होंने मुझे तुम्हारा मणागयवियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी जेणं मम यह रहस्यपूर्ण अर्थ बतलाया है। स्कंदक! इसी से मैं यह एस अढे तव ताव रहस्सकडे हव्वक्खाए, जओ णं जानता हूं। अहं जाणामि खंदया! तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं स्कंदक ने कहा-गौतम! हम चलें। तुम्हारे धर्माचार्य, वयासी-गच्छामो णं गोयमा! तव धम्मायरियं धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो नमंसामो करें। उनकी पर्युपासना करें। .......पज्जुवासामो। • अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध। . देवानुप्रिय! जैसा चाहो, विलम्ब न करो। - तए णं से भगवं गोयमे खंदएणं कच्चायणसगोत्तेणं गौतम ने स्कंदक के साथ जहां श्रमण भगवान सधि जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्थ महावीर थे, वहां जाने का संकल्प किया। गमणाए। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे श्रमण भगवान महावीर उस समय प्रतिदिन भोजी थे। वियट्टभोई यावि होत्था। तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स विअट्ट- प्रतिदिन भोजन करने के कारण श्रमण भगवान भोइस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं कल्लाणं सिवं महावीर का शरीर पुष्ट, अतिशय शोभित, कल्याण, धन्नं मंगल्लं अणलंकियविभूसियं लक्खण-वंजण- शिव, धन्य और मंगलमय था। अलंकृत न होने पर भी गुणोववेयं सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणं विभूषित था। लक्षण, व्यञ्जन, गुण से युक्त तथा श्री से चिट्ठइ। अतीव-अतीव उपशोभायमान था। तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स स्कंदक ने श्रमण भगवान महावीर को देखा। वह भगवओ महावीरस्स विअट्टभोइस्स सरीरयं सिरीए अत्यंत हृष्ट-तुष्ट हुआ। महावीर के पास आया। दायीं अतीव-अतीव उवसोभेमाणं पासइ, पासित्ता ओर से दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदनहठ्ठतुट्ठ-चित्तमाणदिए......जेणेव समणे भगवं । नमस्कार किया और विनयपूर्वक उचित दूरी पर महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं प्राञ्जलिपुट बैठ पर्युपासना करने लगा। भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ। जे वि य ते खंदया! इमेयारूवे.......मणोगए श्रमण भगवान महावीर ने स्कंदक से कहा-स्कंदक! संकप्पे समुप्पज्जित्था केण वा मरणेणं मरमाणे तुम्हें यह मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-किस मरण से जीवे वड्ढति वा हायति वा? मरता हुआ जीव बढ़ता है? किस मरण से मरता हुआ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन तस्स वि य णं अयमट्ठे - एवं खलु खंदया ! मए दुविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा - बालमरणे य, पंडियमरणे य से किं तं बालमरणे ? बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहावलयमरणे वसट्ठमरणे अंतोसल्लमरणे तब्भवमरणे' गिरिपडणे तरुपडणे जलप्पवेसे जलणप्पवेसे विसभक्खणे सत्थोवाडणे वेहाणसे गिद्धपिट्ठे इच्चेतेणं खंदया ! दुवालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे ....... अणाइयं च णं अणवदग्गं चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टइ। सेत्तं मरमाणे वड्ढइ - वड्ढइ | से किं तं पंडियमरणे ? पंडियमरणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पाओवगमणे य ११० भत्तपच्चक्खाणे य इच्चेतेणं खंदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे ..... अणाइयं च णं अणवदग्गं चाउरंतं संसारकंतारं वीईवयइ । सेत्तं मरमाणे हायइहाय ।...... तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स, तीसे य महझ्महालियाए परिसाए धम्मं १. मोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अनेरइए । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥ उत्तरा. नि. गा. २२१ जीव घटता है ? स्कंदक उसका यह अर्थ है- मैंने दो प्रकार के मरण बतलाए हैं - बालमरण, पंडित करण । बालमरण क्या है ? बालमरण के बारह प्रकार हैंवलयमरण-संयम जीवन से च्युत होकर मरना। वशार्तमरण - इन्द्रियों के वशवर्ती होकर मरना । निदान आदि आंतरिक शल्यों अंतः शल्यमरण - माया, खण्ड - २ की स्थिति में मरना। तद्भवमरण - वर्तमान भव से होने वाली मृत्यु । गिरिपतन - पर्वत से गिरकर मरना । तरुपतन-वृक्ष से गिरकर मरना । जलप्रवेश - जल में डूबकर मरना । ज्वलन प्रवेश - अग्नि में प्रवेश कर मरना । विषभक्षण - जहर खाकर मरना । शस्त्रावपातन-छुरी आदि शस्त्रों से शरीर को विदीर्ण कर मरना । वैहानश - फांसी लगा वृक्ष की शाखा से लटककर मरना । गृद्धस्पृष्ट- गीध द्वारा मांस नोचे जाने पर मरना । स्कंदक! इस बारह प्रकार के बालमरण से मरता हुआ जीव अनादि - अनन्त, चतुर्गत्यात्मक संसार कान्तार में अनुपर्यटन करता है। इस बालमरण से मरता हुआजीव बढ़ता है। पंडित मरण क्या है ? पंडित मरण के दो प्रकार हैंप्रायोपगमन-परिचर्या विरहित अनशनपूर्वक मरण । भक्त प्रत्याख्यान मरण-अनशनपूर्वक मरण स्कंदक! इस द्विविध पंडित मरण से मरता हुआ जीव अनादि-अनन्त, चतुर्गत्यात्मक संसार कान्तार का व्यतिक्रमण करता है। इस पंडित मरण से मरता हुआ जीव घटता है। विशाल परिषद् के मध्य स्थित श्रमण भगवान महावीर ने स्कंदक को धर्म का संबोध दिया। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास परिकहेइ । धम्मका भाणियव्वा । तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिए...... समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो याहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसह, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीसहामि णं भंते! निम्गंथं पावयणं....... तं इच्छामि देवाणुप्पिया ! सयमेव पव्वावियं । तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं सयमेव पव्वावे । १११ अतिमुक्तक २०. तए णं भगवं गोयमे पोलासपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खारिए अमाणे इंदट्ठाणस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ । तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागए, भगवं गोयमं एवं वयासी के णं भंते! तुब्भे ? किं वा अडह ? तए णं भगवं गोयमे अइमुत्तं कुमारं एवं वयासी - अम्हे णं देवाणुप्पिया ! समणा निग्गंथा इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारी उच्च-नीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरिए अडामो।.. तए णं अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं एवं वयासी - एह णं भंते! तुब्भे जा णं अहं तुब्भं भिक्खं दवावेमी त कट्टु भगवं गोयमं अंगुलीए गेण्हइ, हित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए। तए णं सा सिरिदेवी भगवं गोयमं एज्जमाणं पास, पासित्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भुट्ठेइ, अम्भुट्ठेत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागया । भगवं गोयमं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता विउलेणं असण- पाणखाइम साइमेणं पडिलाभेइ, पडिलाभेत्ता पडिविसज्जेइ । तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं एवं वयासी - कहिं णं भंते! तुब्भे परिवसह ? अ. ४ : जीवन प्रसंग स्कंदक श्रमण भगवान महावीर से धर्म सुनकर हृष्टतुष्ट हुआ । श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन नमस्कार किया और बोला भंते! मेरी निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है। देवानुप्रिय ! मैं प्रव्रजित होना चाहता हूं। श्रमण भगवान महावीर ने स्कंदक को प्रव्रजित किया। भगवान गौतम पोलासपुर नगर में उच्च, निम्न और मध्यम कुलों की सामुदायिक भिक्षा कर रहे थे। वे भिक्षाचर्या करते हुए इन्द्र-स्थान के पास से निकले। * कुमार अतिमुक्तक ने भगवान गौतम को अपने निकट से जाते हुए देखा। देखते ही वह भगवान गौतम के पास आया और बोला- भंते! आप कौन हैं ? क्यों घूमते हैं ? गौतम ने कुमार अतिमुक्तक से कहा- देवानुप्रिय ! हम श्रमण निर्ग्रन्थ हैं। देखकर चलते हैं। यावत् गुप्ति युक्त ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। उच्च, निम्न और मध्यम कुलों से सामुदायिक भिक्षा लाने के लिए घूमते हैं। कुमार अतिमुक्तक ने कहा- भंते! चलो, मैं आपको भिक्षा दिलाता हूं। कुमार अतिमुक्तक ने ऐसा कह गौतम का हाथ पकड़ा और उन्हें अपने घर ले आया । कुमार अतिमुक्तक की माता श्रीदेवी ने भगवान गौतम को आ हुए देखा। वह हृष्ट-तुष्ट हो आसन से उठी । गौतम के पास आई । दायीं ओर से दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन - नमस्कार किया । विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य का दान दिया। गौतम भिक्षा लेकर चले गए। कुमार अतिमुक्तक ने भगवान गौतम से पूछा- भंते ! आप कहां रहते हैं ? Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ११२ खण्ड-२. तए णं से भगवं गोयमे अइमुत्तं कुमार एवं भगवान गौतम ने कुमार अतिमुक्तक से कहा-श्रमण वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम धम्मायरिए भगवान महावीर मेरे धर्माचार्य हैं, धर्मोपदेशक हैं। वे इसी धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे....इहेव पोलास- पोलाशपुर नगर के बाहर श्रीवन नाम के उद्यान में संयम पुरस्स नगरस्स बहिया सिरिवणे और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। उज्जाणे....संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे हम वहां रहते हैं। विहरइ। तत्थ णं अम्हे परिवसामो। तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयम एवं कुमार अतिमुक्तक ने गौतम से कहा-भंते! मैं भी वयासी-गच्छामि णं भंते! अहं तुब्भेहिं सद्धिं समणं आपके साथ चलता हूं श्रमण भगवान महावीर के चरणों भगवं महावीरं पायवंदए। में वंदन करने के लिए। अहासुहं देवाणुप्पिया! देवानुप्रिय! जैसी तुम्हारी इच्छा। तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवया गोयमेणं सद्धिं कुमार अतिमुक्तक गौतम के साथ श्रमण भगवान . जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, महावीर के पास पहुंचा। दायीं ओर से दायीं ओर तक उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो तीन बार प्रदक्षिणा की और पर्युपासना करने लगा। आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ जाव पज्जुवासइ। तए णं समणे भगवं महावीरे अइमुत्तस्स कुमारस्स उस विशाल परिषद् के मध्यस्थित भगवान महावीर तीसे य महइमहालियाए परिसाए मज्झगए विचित्तं ने कुमार अतिमुक्तक को विचित्र प्रकार का धर्म धम्ममाइक्खइ। बतलाया। तए णं से अइमुत्ते कुमारे समणस्स भगवओ महा- कुमार अतिमुक्तक श्रमण भगवान महावीर के पास वीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे एवं धर्म सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ और बोला-भंते ! मैं निग्रंथ वयासी-सहहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव...... प्रवचन में श्रद्धा करता हूं। मैं अपने माता-पिता को अम्मापियरो आपुच्छामि तए णं अहं देवाणुप्पियाणं । पूछकर आपके पास दीक्षित होना चाहता हूं। अंतिए जाव पव्वयामि। अहासुहं देवाणुप्पिया! देवानुप्रिय! जैसी तुम्हारी इच्छा। तए णं से अइमुत्ते कुमारे जेणेव अम्मापियरो तेणेव कुमार अतिमुक्तक माता-पिता के पास आया और उवागए जाव इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं बोला-माता-पिता! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर मुंड हो अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महा- श्रमण भगवान महावीर के पास गृहवांस को छोड़ वीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं गृहत्यागी होना चाहता हूं। पव्वइत्तए। तए णं तं अइमुत्तं कुमारं अम्मापियरो एवं माता-पिता बोले-पुत्र ! अभी तुम बालक हो। तुम्हारी वयासी-बाले सि ताव तुमं पुत्ता! असंबुद्धे, किं णं समझ अपरिपक्व है। तुम धर्म को क्या जानते हो? तुमं जाणसि धम्मं? तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापियरो एवं माता-पिता! मैं जिसे जानता हूं, उसे नहीं जानता वयासी-एवं खलु अहं अम्मयाओ! जं चेव और जिसे नहीं जानता, उसे जानता हूं। जाणामि तं चेव न जाणामि, जं चेव न जाणामि तं चेव जाणामि। तए णं तं अइमुत्तं कुमारं अम्मापियरो एवं पुत्र! यह कैसे? तुम जिसे जानते हो, उसे नहीं Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अ.४: जीवन प्रसंग जानते और जिसे नहीं जानते, उसे जानते हो। माता-पिता! मैं जानता हूं जो जन्म लेता है, वह अवश्य मरता है। पर मैं नहीं जानता कि वह कब, कहां, कैसे और कितनी अवस्था में मरता है ? वयासी-कहं णं तुमं पुत्ता! जं चेव जाणसि तं चेव न जाणसि? जंचेव न जाणसि तं चेव जाणसि? तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-जाणामि अहं अम्मयाओ! जहा जाएणं अवस्स मरियव्वं, न जाणामि अहं अम्मयाओ! काहे वा कहिं वा कहं वा कियच्चिरेण वा? न जाणामि णं अम्मयाओ! केहिं कम्माययणेहिं जीवा नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवेसु- उववज्जंति, जाणामि णं अम्मयाओ! जहा सएहिं कम्माययणेहिं जीवा नेरइय-तिरिक्खजोणिय- मणुस्स-देवेसु उववज्जंति। एवं खलु अहं.अम्मयाओ! जं चेव जाणामि तं चेव न जाणामि, जं चेव न जाणामि तं चेव जाणामि। माता-पिता! मैं नहीं जानता कि किन कर्मायतनों से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवयोनि में उत्पन्न होता है। मैं जानता हूं कि जीव अपने ही कर्यायतनों से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवयोनि में उत्पन्न होता है। माता-पिता! इसलिए मैंने कहा-मैं जिसे जानता हूं, उसे नहीं जानता और जिसे नहीं जानता हूं, उसे जानता - तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए माता-पिता! मैं अब आपकी अनुमति प्राप्त कर जाव पव्वइत्तए। प्रवजित होना चाहता हूं। तए णं तं अमुत्तं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो ___ माता-पिता जब कुमार अतिमुक्तक. को अनेक । संचाएंति बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य । युक्तियों द्वारा अपने निश्चय से विचलित नहीं कर सके सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा । तब अनिच्छा से मुनि बनने की स्वीकृति दी और पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे कहा-पुत्र! हम एक दिन के लिए तुम्हारी राज्य श्री देखना अकामकाई चेव अझ्मुत्तं कुमारं एवं वयासी-तं चाहते हैं। इच्छामो ते जाया! एगदिवसमवि रायसिरिं पासेत्तए। तए णं से अहमुत्ते कुमारे अम्मापिउवयणमणुयत्त- कुमार अतिमुक्तक ने माता-पिता के इस कथन को माणे तुसिणीए संचिट्ठइ। अभिसेओ..... मौनभाव से स्वीकृत किया। उसका राज्याभिषेक हुआ। निक्खमणं..... एक दिन का राज्य कर कुमार अतिमुक्तक भगवान महावीर के पास दीक्षित हो गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा- श्रमण भगवान महावीर का शिष्य कुमारश्रमण वीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते नाम कुमारसमणे अतिमुक्तक प्रकृति से भद्र और उपशांत था। पगइभइए पगइउवसंते। पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमहवसंपन्ने उसके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु थे। वह अल्लीणे विणीए। कोमल व्यवहार वाला, आत्मलीन और विनम्र था। तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे अण्णया कयाइ ___ एक दिन भारी वर्षा हुई। वर्षा समाप्त होने पर कुमार महावुाठकायसि निवयमाणसि कक्खपडिग्गह- श्रमण अतिमुक्तक रजोहरण और पात्र लेकर शौच के रयहरणमायाए बहिया संपठिए विहाराए। लए बाहर गया। तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे वाहयं वहमाणं कुमारश्रमण अतिमुक्तक ने पानी के प्रवाह को देखा। पासइ, पासित्ता मट्टियाए पालिं बंधइ, बंधित्ता उसने मिट्टी की पाल बांधी। पात्र को नौका बनाया। स्वयं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ११४ खण्ड-२ 'णाविया मे, णाविया मे नाविओ विव णावमयं नाविक बना। नौकामय पात्र को जल में प्रवाहित कर पडिग्गहणं उदगंसि पव्वाहमाणे पव्वाहमाणे क्रीड़ा करने लगा। अभिरमइ। तं च थेरा अहक्ख। जेणेव समणे भगवं महावीरे स्थविरों ने उसे देखा। वे श्रमण भगवान महावीर के तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वदासी-एवं पास आए और व्यंग्य में बोले-भंते! आपका यह शिष्य खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते नाम कुमारश्रमण अतिमुक्तक कितने भवों में सिद्ध होगा? कुमारसमणे, से णं भंते! अइमुत्ते कुमारसमणे प्रशांत होगा? मुक्त होगा? परिनिर्वत होगा एवं सब दुःखों कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति बुज्झिहिति का अंत करेगा? मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिति? अज्जोति! समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं श्रमण भगवान महावीर ने स्थविरों से कहा-आर्यो! वयासी-एवं खलु अज्जो! ममं अंतेवासी अइमुत्ते मेरा शिष्य कुमारश्रमण प्रकृति से भद्र और विनम्र है। यह नाम कुमारसमणे पगइभइए जाव विणीए। से णं इसी भव में सिद्ध होगा। सभी दुःखों का अंत करेगा। अइमुत्ते कुमारसमणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिन्झिहिति जाव अंतं करेहिति। तं मा णं अज्जो! तुब्भे अइमत्तं कुमारसमणं हीलेह ___ आर्यों! तुम इस कुमारश्रमण अतिमुक्तक की निंदह खिंसह गरहह अवमण्णह। अवेहलना मत करो। निन्दा मत करो। तुब्भे णं देवाणुप्पिया! अइमुत्तं कुमारसमणं देवानुप्रिय! तुम . कुमारश्रमण अतिमुक्तक का अगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवगिण्हह, अग्लानभाव से संरक्षण करो, सार-संभाल करो। अगिलाए भत्तेणं पाणणं विणएणं वेयावडियं करेह। भक्तपान के द्वारा अग्लानभाव से, विनीतभाव से सेवा शुश्रूषा करो। अइमुत्ते णं कुमारसमणे अंतकरे चेव, अंतिम- यह कुमारश्रमण अतिमुक्तक इसी भव में संसारचक्र सरीरिए चेव। का अंत करने वाला है। अंतिम शरीरी है। तए णं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावीरेणं श्रमण भगवान महावीर से ऐंसा सुन स्थविरों ने एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदंति महावीर को वंदन-नमस्कार किया। नमसंति। अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति, स्थविर कुमारश्रमण अतिमुक्तक की अग्लानभाव से अगिलाए उवगिण्हंति, अगिलाए भत्तेणं पाणेणं सेवा-शुश्रूषा करने लगे। विणएणं वेयावडियं करेंति। देवानंदा माहनकुंडग्राम। वहां ऋषभदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। २१.तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकंडग्गामे नयरे होत्था।.......तत्थ णं माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्ते नामं माहणे परिवसइ। तस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदा नाम माहणी होत्था। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। ऋषभदत्त की पत्नी का नाम था-देवानंदा। एक बार भगवान महावीर माहनकुंडग्राम पधारे। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ११५ अ. ४ : जीवन प्रसंग तए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए लढे ऋषभदत्त ने महावीर के आगमन की बात सुनी। उसने . समाणे.....देवाणंदं माहणिं एवं वयासी-एवं खलु देवानंदा से कहा-देवानुप्रिय! सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे.......सव्वण्णू भगवान महावीर पधारे हैं। बहुशालक चैत्य में ठहरे हैं। सव्वदरिसी सुहंसुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेहए....विहरइ। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए! समणं भगवं महावीर देवानुप्रिय! हम उन्हें वंदन-नमस्कार करने तथा वंदामो नमसामो........पज्जुवासामो। उनकी पर्युपासना करने चलें। तए णं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तेणं माहणेणं देवानंदा ब्राह्मणी ऋषभदत्त का यह कथन सुनकर एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठ......उसभदत्तस्स हृष्ट-तुष्ट हुई। उसने ऋषभदत्त ब्राह्मण के कथन को माहणस्स एयमढं विणएणं पडिसुणइ। विनय पूर्वक स्वीकार किया। तए णं से उसभदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणी के साथ श्रेष्ठ यान सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे.....जेणेव पर आरूढ़ होकर बहुशालक चैत्य में आया। श्रमण बहुसालए चेइए.....जेणेव समणे भगवं महावीरे भगवान महावीर के पास पहुंचा। दायीं ओर से दायीं ओर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन-नमस्कार किया और आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ-नमंसइ, पर्युपासना करने लगा। बंदित्ता-नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ। . तए गं' सा- देवाणंदा माहणी आगयपण्या पप्पुयलोयणा संवरियवलयबाहा कंचुय- परिक्खित्तिया धाराहयकलंबगं पिव समूसविय- रोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठ। भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-किं णं भंते! एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्या पप्पुयलोयणा संवरियवलयबाहा कंचुयपरिक्खित्तिया धारा- हयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए दिठिए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ? श्रमण भगवान महावीर को देखते ही देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की धारा फूट पड़ी। आंखों से आनन्द की अश्रुधारा बहने लगी। वह हर्ष के कारण इतनी स्थूल हो गई कि भुजबंध छोटे पड़ गए। कंचुकी के बंधन टूट गए। मेघ की धारा से आहत कदंब पुष्प की तरह उसके रोम-कूप विकस्वर हो गए। वह अनिमेष दृष्टि से भगवान महावीर को देखने लगी। देवानंदा की यह स्थिति देखकर गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया और बोले-भंते! इस देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की धारा क्यों फूट रही है? आंखों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? किस हर्ष के कारण यह इतनी स्थूलकाय बन गयी है, जिससे इसके भुजवलय छोटे पड़ रहे हैं ? इसके कंचुकी के बंधन क्यों टूट गए हैं? मेघ धारा से आहत कदंब पुष्प की तरह इसके रोमकूप विकस्वर क्यों हो रहे हैं? यह अनिमेष दृष्टि से प्रभु को क्यों निहार रही है ? श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करते हुए कहा-गौतम! यह देवानंदा ब्राह्मणी मेरी माता है। मैं देवानंदा ब्राह्मणी का आत्मज हूं। उस पूर्व पुत्र स्नेह के कारण इसकी यह स्थिति बनी है। - गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहण्णं देवाणंदाए माहणीए अत्तए। तण्णं एसा देवाणंदा माहणी तेणं पुव्वपुत्तसिणेहरागेणं Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन पप्पुयलोयणा......अणिमिसाए आगयपण्या दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठा । य तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवानंदा माहणीए तीसे महतिमहालियाए परिसाए...... धम्मं परिकहेइ । तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे उट्ठाए उट्ठेह, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं एवं वदासी..... इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सयमेव पव्वावियं । तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तं माहणं सयमेव पव्वावे | तए णं सा देवाणंदा माहणी....... एवं जहा उसभदत्तो तहेव......सयमेव पव्वावेइ । ११६ २२. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नगरे होत्था ।..... तत्थ णं वाणियगामे नगरे सोमिले नामं माहणे परिवसति । अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए । रिव्वेद जाव सुपरिनिट्ठिए। पंचण्हं खंडियसयाणं..... विहरइ । सोमिल तणं समणे भगवं महावीरे समोसढे । तणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे......मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - एवं खलु समणे नायपुत्ते पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामा गामं दूइज्माणे इहेव वाणियगामे नगरे दूतिपलासए चेइए..... विहरइ । तं गच्छामि गं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि । इमाई च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाहं वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जइ मे से इमाइं एयारूवाइं अट्ठाई जाव वागरणाई वागरेहिति ततो णं वंदीहामि नमसीहामि जाव पज्जुवासीहामि, अह मे से इमाइं अट्ठाई जाव वागरणाई नो वागरेहिति ततो णं एएहिं चेव अट्ठेहिं य जाव वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करेस्सामि । खण्ड - २ विशाल परिषद् के मध्य स्थित श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानंदा ब्राह्मणी को धर्म सुनाया। ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवान महावीर से धर्म सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ। उसने कहा- भंते! मैं आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूं। श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त को प्रव्रजित किया । देवानंदा ब्राह्मणी भी श्रमण भगवान महावीर से धर्म सुनकर ऋषभदत्त की तरह दीक्षित हो गई। वाणिज्यग्राम नाम का नगर । वहां सोमिल नाम का ब्राह्मण रहता था। वह समृद्ध और प्रभावशाली था । ऋग्वेद आदि में निष्णात था। उसके ५०० छात्र थे। श्रमण भगवान महावीर वाणिज्यग्राम नगर में आए। सोमिल ब्राह्मण ने महावीर के आगमन का संवाद सुना। उसे मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए वाणिज्य ग्राम नगर के दूतिपलाश चैत्य में आए हैं। मैं उनके पास जाऊं। इन अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण के विषय में पूछूं। यदि वे इनका सही उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वंदननमस्कार करूंगा एवं पर्युपासना करूंगा। यदि वे इन अर्थ आदि का उत्तर नहीं देंगे तो मैं उन्हें अपने अर्थ आदि से निरुत्तर कर दूंगा। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास ११७ अ.४ : जीवन प्रसंग इति कटु.....साओ गिहाओ पडिणिक्खमति, ऐसा सोच सोमिल ब्राह्मण अपने घर से निकला। पडिणिक्खमित्ता पायविहारचारेणं एगेणं पैदल ही चला। सौ विद्यार्थी उसके साथ थे। दूतिपलाश "खंडियसएणं सद्धिं संपरिखुडे....जेणेव दूतिपलासए चैत्य में वह श्रमण भगवान महावीर के पास पहुंचा और चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव बोलाउवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीर एवं वयासीजत्ता ते भंते? जवणिज्जं ते भंते? अव्वाबाहं ते ___भंते! क्या आपके यात्रा है? भंते! क्या आपके भंते? फासुयविहारं ते भंते? यमनीय है ? भंते! क्या आपके अव्याबाध है? भंते! क्या आपके प्रासुक विहार है? सोमिला! जत्ता वि मे, जवणिज्जं पि मे, सोमिल! मेरे यात्रा भी है। मेरे यमनीय भी है। मेरे अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे। अव्याबाध भी है। मेरे प्रासुक विहार भी है। किं ते भंते! जत्ता? भंते! आपकी यात्रा क्या है? सोमिला! जं मे तव-नियम-संजमसज्झाय- सोमिल! तप, नियम, स्वाध्याय, ध्यान, आवश्यक झाणावस्सगमावीएसु जोगेसु जयणा, सेत्तं जत्ता। आदि योगों में मेरी जो यतना-जागरूकता है, वह मेरी यात्रा है। किंते भंते! जवणिज्ज? . भंते! आपके यमनीय क्या है? सोमिला! जवणिज्जे दुविहे षण्णत्ते, तं जहा सोमिल! यमनीय के दो प्रकार हैंइंदियजवणिज्जे व इन्द्रिय यमनीय नोइंदियजवणिज्जे य। नोइन्द्रिय यमनीय। • से किं तं इंदियजवणिज्जे? वह इन्द्रिय यमनीय क्या है ? इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंदिय-चक्खिंदिय- जो मेरी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई निरुवहयाइं और स्पर्शनेन्द्रिय निरुपहत हैं-किसी विषय से आहत वसे वटंति, सेत्तं इंदियजवणिज्जे। नहीं होतीं, मेरे वश में हैं, वह मेरा इन्द्रिय यमनीय है। से किं तं नोइंदियजवणिज्जे? वह नोइन्द्रिय यमनीय क्या है? नोइंदियजवणिज्जे-जं मे कोह-माण-माया-लोभा मेरे क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो गए हैं, वोच्छिण्णा नो उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिज्जे। इनकी उदीरणा नहीं होती, वह मेरा नोइंद्रिय यमनीय है। किं ते भंते! अव्वाबाहं? भंते! आपके अव्याबाध क्या है? सोमिला! जं मे वातिय-पित्तिय-सेंभिय- सोमिल! मेरे वात पित्त व श्लेष्म जनित तथा सन्निवाइया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा सान्निपातिक विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा उवसंता नो उदीरेंति, सेत्तं अव्वाबाह। शरीरगत दोष उपशांत हो गए हैं, उनकी उदीरणा नहीं होती, वह मेरा अव्याबाध है। किं ते भंते! फासुयविहारं? भंते ! आपके प्रासुक विहार क्या है ? सोमिला! जण्णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सोमिल! मैं प्रासुक एषणीय पीढ, फलक, शय्या, सभासु पवासु इत्थी-पसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु संस्तारक स्वीकार कर विहार करता हूं, वह मेरा प्रासुक फासु-एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं विहार है। उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, सेत्तं फासुयविहारं। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन एगे भवं ? दुवे भवं ? अक्खए भवं ? अव्वए भवं ? अवट्ठिए भवं? अगभूय-भाव-भविए भवं ? सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूय-भावभवि वि अहं । सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ सोमिला ! दव्वट्टयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ट्याए दुविहे अहं, पएसट्ट्याए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवयोगट्ठए अणेगभूय भाव - भविए वि अहं । से ट्ठे जाव अगभूय-भाव-भविए वि अहं । एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ ।.......दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जति, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। ११८ खण्ड - २ भंते! आप एक हैं ? दो हैं ? अक्षय हैं ? अव्यय हैं ? अवस्थित हैं ? अनेक भूतभावभविक हैं ? सोमिल! मैं एक भी हूं यावत् अनेक भूतभावभविक भी हूं। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? सोमिल! मैं द्रव्य की अपेक्षा एक हूं। ज्ञान-दर्शन की अपेक्षा दो हूं। प्रदेश-असंख्य चैतन्यमय परमाणुओं की अपेक्षा मैं अक्षय, अव्यय और अवस्थित हूं। उपयोग की अपेक्षा मैं अनेक भूतभावभविक अनेक पर्यायों से युक्त हूं। इस अपेक्षा से कहा जा रहा है मैं एक यावत् भूतभावभविक हूं। सोमिल ब्रह्मण ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया। बारह प्रकार का श्रावक धर्म स्वीकार किया । पुनः महावीर को वंदन - नमस्कार कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग २३. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था । तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए। एत्थ णं साणकोट्ठए नाम चेइ होत्था ।....... तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नामं गाहावइणी परिवसति । तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदायि पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव मेंढियगामे नगरे जेणेव साणकोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ । तणं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउब्भूए.......तिव्वे दुरहियासे, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए यावि विहरति, अवि याइं लोहिय- वच्चाई पि पकरेइ । चाउवण्णं च णं वागरेति एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं श्रमण भगवान महावीर ने श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक चैत्य से प्रस्थान किया और जनपद विहार करने लगे। मेंढयग्राम नाम का नगर । ईशानकोण में शाणकोष्ठक नाम का चैत्य । उस मेंढियग्राम नगर में रेवती नाम की गृहस्वामिनी रहती थी । श्रमण भगवान महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मेंढियग्राम नगर में शाणकोष्ठक चैत्य में आए। वहां श्रमण भगवान महावीर के शरीर में अत्यधिक रोग और आतंक हुआ। असह्य वेदना हुई। शरीर दाहज्वर से आक्रान्त हो गया। खून की दस्तें लगने लगीं । उस समय जनता में यह बात फैलाई गई कि श्रमण भगवान महावीर मंखलिपुत्र गोशालक के तप और तेज से Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास अण्णाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए छउमत्थे चेव कालं करिस्सति । १९९ मुनि सिंह का मानसिक दुःख २४. तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - एवं खलु ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउम्भूए । उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सति, वदिस्संति य णं अण्णतित्थिया-छउमत्थे चेव आविष्ट होकर छह महीने के कालधर्म को प्राप्त होंगे। कालगए। इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उबागच्छइ, उवागच्छित्ता मालुया कच्छगं अंतोअंतो अणुपविसर, अणुपविसित्ता महया - महया सणं कुहुकुहुस्स परुणे। अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं वयासी पच्चोरुभइ, एवं खलु अज्जो ममं अंतेवासी सीहे नामं अणगारे....आयावणभूमीओ पच्चोरुभित्ता... .... मालुया - कच्छगं अंतो- अंतो अणुपविसह, अणुपविसित्ता महया महया सहेणं कुहुकुहुस्स परुण्णे । तं गच्छह णं अज्जो! तुब्भे सीहं अणगारं सद्दाह । तए णं से सीहे अणगारे समणेहिं निग्गंथेहिं सद्धिं.... जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो याहिण-पयाहिणं जाव पज्जुवासति । सीहादि । समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं बयासी से नूणं ते सीहा ! झाणंतरिया वट्टमाणस्स अयमेयारूवे.......मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - एवं खलु मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेगस्स अ. ४ : जीवन प्रसंग भीतर छद्मस्थ अवस्था में सिंह अणगार को ध्यानावस्था में इस प्रकार का मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे धमाचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के शरीर में विपुल रोगातंक उत्पन्न हो गया। वे उस तीव्र वेदना से अभिभूत हो छद्मस्थ अवस्था में काल कर जाएंगे। अन्यतीर्थिक कहेंगे-महावीर छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गए। इस अत्यधिक मानसिक दुःख से दुःखी बना वह आतापन भूमि से निकला । मालुकाकच्छ में प्रविष्ट हुआ और उसके मध्य में विलाप करता हुआ जोर-जोर से रोने लगा। श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित कर कहा आर्यो ! मेरा शिष्य सिंह अणगार आतापनभूमि से निकलकर मालुकाकच्छ के भीतर गया है। वहां विलाप करता हुआ जोर-जोर से रो रहा है। आर्यो! तुम जाओ और उसको बुलाकर लाओ । सिंह अणगार श्रमण निर्ग्रन्थों के साथ श्रमण भगवान महावीर के पास आया। दायीं ओर से दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा कर उपासना करने लगा। सिंह अणगार को संबोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने कहा सिंह! ध्यानावस्था में तुझे इस प्रकार मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ- मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के शरीर में चिपुल रोगातंक उत्पन्न हुआ है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १२० खण्ड-२ समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायके पाउन्भूए। उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सति, वे उस तीव्र वेदना से अभिभूत हो छद्मस्थ अवस्था वदिस्संति य णं अण्णतित्थिया-छउमत्थे चेव में ही काल कर जाएंगे। अन्यतीर्थिक कहेंगे-महावीर कालगए। छद्मस्थ अवस्था में ही काल धर्म को प्राप्त हो गए हैं। .. इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं इस अत्यधिक मानसिक दुःख से दुःखी हो तू अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभित्ता मालुकाकच्छ के भीतर जा विलाप करता हआ जोर-जोर । जेणेव मालयाकच्छए तेणेव उवागच्छित्ता से रोने लगा। मालुयाकच्छगं अंतो-अंतो अणुपविसित्ता महयामहया सहेणं कुहुकुहुस्स परुण्णे। से नूणं ते सीहा! अढे समठे ? सिंह! क्या यह सही है? हंता अत्थि। हां, सही है। तं नो खलु अहं सीहा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सिंह! मैं मंखलिपुत्र गोशालक के तप और तेज से तवेणं तेएणं अण्णाइढे समाणे अंतो छण्डं मासाणं अप्रभावित रहता हुआ छह महीने के भीतर मृत्यु को प्राप्त पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए छउमत्थे चेव नहीं होऊंगा। कालं करेस्सं। अहण्णं अद्धसोलसवासाइं जिणे सुहत्थी मैं अभी साढ़े पन्द्रह वर्ष तक केवली अवस्था में श्रेष्ठ विहरिस्सामि। हस्ती की तरह जनपद विहार करूंगा। भगवान महावीर के वर्षावास २५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे अट्ठियगामं नीसाए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए। श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्षावास अस्थिग्राम में किया। दो वर्षावास चंपा और पृष्ठचंपा में किए। चंपं च पिठिचंपं च नीसाए तओ अंतरावासे वासावासं उवागए। वेसालिं नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावासं उवागए। रायगिहं नगरं नालंदं च बाहिरियं नीसाए चोदस अंतरावासे वासावासं उवागए। छ मिहिलाए, दो भदियाए, एगं आलभियाए, एगं सावत्थीए, एगं पणियभूमीए। बारह वर्षावास वैशाली नगरी तथा वाणिज्यग्राम में किए। चवदह वर्षावास राजगृह नगर और उसके उपनगर नालंदा में किए। ___ छह वर्षावास मिथिला में, दो भद्रिका में, एक आलभिका में, एक श्रावस्ती में और एक पण्यभूमि (अनार्यदश) में किया। श्रमण भगवान महावीर ने अन्तिम वर्षावास मध्यम अपापा नगरी में हस्तिपालक राजा की रज्जुक सभा में किया। एगं पावाए मज्झिमाए हत्थिपालगस्स रण्णो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भव और विकास १२१ अ. ४ : जीवन प्रसंग महावीर का परिनिर्वाण श्रमण भगवान महावीर ने चरम वर्षावास मध्यम अपापा नगरी में हस्तिपालक राजा की रज्जुक सभा में किया। उस वर्षावास का चौथा महीना। सातवां पक्ष। २६. तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए अस्थिपालगस्स रण्णो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए। तस्स णं अंतरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहुले, तस्स णं कत्तियबहुलस्स पन्नरसी- पक्खेणं जा सा चरिमा रयणी तं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए विइक्कंते समुज्जाए। छिन्न-जाइ-जरा-मरण बंधणे. सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खपहीणे। कार्तिक का कृष्ण पक्ष। अमावस्या। रात्रि का पश्चिम भाग। उस समय श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ। उनके जन्म, जरा, मृत्यु के बंधन टूट गए। वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अंतकृत, परिनिर्वृत्त और सब दुःखों से मुक्त हो गए। जिस समय श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ उस समय चन्द्र नाम का दूसरा संवत्सर, प्रीतिवर्द्धन मास, नंदिवर्धन पक्ष, अग्निवेश दिन-जिसे उपशम कहा जाता है, देवानंदारात्रि-जिसे निर्ऋति भी कहा जाता है, अर्चि लव, मुहूर्त प्राण, स्तोक सिद्ध, नाग करण, सर्वार्थसिद्धि मुहूर्त और स्वातिनक्षत्र का योग था। चंदे नाम से दोच्चे संवच्छरे, पीतिवद्धणे मासे नंदिवखणे पक्खें अग्गिवेसे नाम से दिवसे उवसमेत्ति पवुच्चइ, देवाणंदा नाम सा रयणी निरातात्त पवच्च निरनिनि सिद्धे, नागे करणे, सव्वट्ठसिद्धे मुहुत्ते, साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएण कालगए विइक्कंते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। २७. जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए.... सा णं रयणी बहूहिं देवेहि य देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमाणेहि य उज्जोविया यावि होत्था। जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, वह रात्रि नीचे उतर रहे और ऊपर जा रहे बहुतसे देव-देवियों के विमानों के प्रकाश से उद्योतमय हो गई। २८. जं. रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण कालगए....सा णं रयणी बहूहिं देवेहि य देवीहि य हुआ, वह रात्रि नीचे उतर रहे और ऊपर जा रहे बहुत-से ओवयमाणेहि य उप्पयमाणेहि य उप्पिंजलमाणभूया देव-देवियों के विमानों से रजोमय तथा शब्दायमान हो कहकहभूया यावि होत्था। गई। गौतम को कैवल्य २९. जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण कालगए....तं रयणिं च णं जेट्ठस्स गोयमस्स हुआ, उस रात्रि को उनके ज्येष्ठ अंतेवासी/शिष्य इंदभूइस्स अणगारस्स अंतेवासिस्स नायए, इन्द्रभूति गौतम का रागबन्धन विच्छिन्न हो गया। उन्हें पेज्जबंधणे वोच्छिन्ने अणंते अणुत्तरे.....केवल- अनन्त, अनुत्तर केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। वरनाणदंसणे समुप्पन्ने। दीपावली पर्व ३०. जं रयणिं च णं समणं भगवं महावीरे जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १२२ खण्ड-२ कालगए.....तं रयणिं च णं नव मल्लई नव लिच्छई हुआ, उस अमावस्या की रात्रि को नवमल्लवी और कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो नवलिच्छवी-काशी-कौशल के अठारह गणराजाओं ने अमावसाए पाराभोयं पोसहोववासं पट्ठविंसु। गते प्रतिपूर्ण पौषध किया। से भावुज्जोए दव्बुज्जोयं करिस्सामो। __भाव उद्योत चला गया, यह सोच उन्होंने द्रव्यउद्योत करने का संकल्प किया। भस्माराशि महाग्रह ३१. जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए.... जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण तं रयणिं च णं खुदाए भासरासी महग्गहे दोवास- हुआ, उस रात्रि में क्षुद्र स्वभाव वाला, दो हजार वर्ष की सहस्सट्ठिई समणस्स भगवओ महावीरस्स स्थिति का भस्मराशि नाम का महाग्रह उनके जन्म नक्षत्र जम्मनक्खत्तं सकते। पर संक्रांत हुआ। जप्पभिई च णं से खुद्दाए भासरासी महग्गहे जब से क्षुद्र स्वभाववाला, दो हजार वर्ष की स्थिति । दोवाससहस्सट्ठिई समणस्स भगवओ महावीरस्स का भस्मराशि नाम का महाग्रह श्रमण भगवान महावीर के जम्मनक्खत्तं संकंते तप्पभिई च णं समणाणं जन्म नक्षत्र पर संक्रांत हुआ, तब से श्रमण निर्ग्रन्थ और निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो उदिए-उदिए निर्ग्रन्थियों का उदितोदित रूप में पूजा-सत्कार नहीं रहा। पूयासक्कारे पवत्तति। जया णं से खुद्दाए भासरासी महग्गहे दोवास- क्षुद्र स्वभाव वाले, दो हजार वर्ष की स्थिति वाले सहस्सठिई समणस्स भगवओ महावीरस्स भस्मराशि नाम के महाग्रह के श्रमण भगवान महावीर के जम्मनक्खत्ताओ वीतिक्कंते भविस्सइ तया णं । जन्म नक्षत्र से व्यतिक्रांत होने पर पुनः श्रमण निर्ग्रन्थसमणाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य उदिए-उदिए निर्ग्रन्थिकों का उदितोदित रूप में पूजा सत्कार होगा। . पूयासक्कारे पवत्तिस्सति। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड-३ संबोधि Page #141 --------------------------------------------------------------------------  Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख पच्चीस सौ वर्ष पुरानी बात है। मगध सम्राट् श्रेणिक की यशोगाथा दिग्-दिगंत में व्याप्त थी। उनकी पट्टरानी का नाम धारिणी था। एक बार वह अपने सुसज्जित शयनागार में सो रही थी। अपररात्रि की वेला में उसको एक स्वप्न आया। उसने देखा-'एक विशालकाय हाथी लीला करता हुआ उसके मुख में प्रवेश कर रहा है।' स्वप्न को देख वह उठी। महाराज श्रेणिक को निवेदन कर बोली-'प्रभो! इसका क्या फल होगा?' महाराज श्रेणिक ने स्वप्नपाठकों को बुलाकर स्वप्नफल पूछा। उन्होंने कहा-'राजन्! रानी ने उत्तम स्वप्न देखा है। इसके फलस्वरूर आपको अर्थलाभ होगा, पुत्रलाभ होगा, राज्यलाभ होगा और भोगसामग्री की प्राप्ति होगी।' राजा और रानी बहुत प्रसन्न हुए। समय बीता। महारानी ने गर्भ धारण किया। दो महीने व्यतीत हुए। तीसरा महीना चल रहा था। रानी के मन में अकाल में मेघों के उमड़ने और उनमें क्रीड़ा करने का दोहद उत्पन्न हुआ। उसने सोचा-'वे माता-पिता धन्य हैं जो मेघ ऋतु में बरसती हुई वर्षा में, यत्र-तत्र घूमकर आनंदित होते हैं। क्या ही अच्छा होता, यदि मैं भी हाथी पर बैठकर झीनी-झीनी वर्षा में जंगल की सैर कर अपना दोहद पूरा करती?' रानी ने इस दोहद की चर्चा राजा श्रेणिक से की। उस संतय वर्षा ऋत नहीं थी। मेघ के बरसने की बात अत्यंत दुरूह थी। राजा चिंतित हो उठा। उसने अपने महामात्य अभयकुमार को सारी बात कही। महामात्य राजा-रानी को आश्वस्त कर दोहदपूर्ति की योजना बनाने लगा। __ अभयकुमार ने देवता की आराधना करने के लिए एक अनुष्ठान प्रारंभ किया। तेले की तपस्या कर, वह मंत्रविशेष की आराधना में लग गया। तीन दिन पूरे हुए। देवता ने प्रत्यक्ष होकर आराधना का प्रयोजन जानना चाहा। अभयकुमार ने धारिणी के मन में उत्पन्न अकालमेघवर्षा में भ्रमण की बात कह सुनाई। देवता ने कहा-'अभय ! तुम विश्वस्त रहो। मैं दोहदपूर्ति कर दूंगा।' .. कुछ समय बीता। एक दिन अचानक आकाश में मेघ उमड़ आये। सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया। बिजलियां चमकने लगीं। मेघ का भयंकर गर्जारव होने लगा। वर्षा होने लगी। मेघ ऋतु का आभास होने लगा। रानी धारिणी अपने परिवारजनों से परिवृत होकर, हाथी पर आरूढ़ हो वन-क्रीड़ा करने निकली। अपनी इच्छा के अनुसार क्रीड़ा सम्पन्न कर वह महलों में लौट आयी। उसका दोहद पूरा हो गया। . नौ मास और नौ दिन बीते। रानी ने एक पुत्र-रत्न का प्रसव किया। गर्भकाल में मेघ का दोहद उत्पन्न होने के कारण सद्यःजात शिशु का नाम मेघकुमार रखा गया। वैभवपूर्ण लालन-पालन से बढ़ते हुए शिशु मेघकुमार ने आठ वर्ष पूरे कर नौवें वर्ष में प्रवेश किया। माता-पिता ने उसको सर्वकला निपुण बनाने के उद्देश्य से कलाचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। वह धीरे-धीरे बहत्तर कलाओं में पारंगत हो गया। मेघकुमार ने यौवन में प्रवेश किया। आठ सुन्दर राजकन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। एक बार भगवान् महावीर राजगृह नगर में आए। मेघकुमार गवाक्ष में बैठा-बैठा नगर की शोभा देख रहा था। उसने देखा-नगर के हजारों नर-नारी एक ही दिशा की ओर जा रहे हैं। उसके मन में जिज्ञासा हुई। उसने अपने परिचायकों से पूछा। उन्होंने भगवान के समवसरण की बात कही। मेघ का मन भगवान के उपपात में जाने के लिए Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १२४ खण्ड-३ उत्सुक हो उठा। अश्व पर आरुढ़ होकर वह भगवान् के समवसरण में गया। भगवान् की अमोघ वाणी सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसका वैराग्य-बीज अंकुरित हो गया। पूर्वसंचित कर्मों की लघुता से उसके मन में प्रव्रज्या की भावना उत्पन्न हुई। वह घर आया। माता-पिता से कहा-'मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उत्सुक हूं।' यह विचार सुन महारानी धारिणी आकुल-व्याकुल हो गईं। वह अपने पुत्र का वियोग नहीं चाहती थीं। माता धारिणी और पुत्र मेघ के बीच लंबा संवाद चला। माता ने उसे समझाने का पूरा प्रयत्न किया। मेघ का मन मोक्षाभिमुख हो चुका था। माता की बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसने माता को संसार की असारता और दुःखप्रचुरता से अवगत कराया। माता ने अंत में कहा-'पुत्र! तुम प्रव्रजित होना ही चाहते हो, हम सब से बिछुड़ना ही चाहते हो तो जाओ, सुखपूर्वक प्रव्रजित हो जाओ। किन्तु वत्स! एक बात हमारी भी मानो। हम तुम्हें अपनी आंखों से एक बार राजा के रूप में देखना चाहते हैं। तुम एक दिन के लिए ही राजा बन जाओ। फिर जैसा तुम चाहो, वैसा कर लेना।' मेघकुमार ने एक दिन के लिए राजा बनना स्वीकार कर लिया। ___मेघकुमार के राज्याभिषेक की तैयारियां हुई। शुभ मुहूर्त में राज्याभिषेक की विधि संपन्न हुई। मेघकुमार राजा बन गया। सभी ने उसे बधाइयों से वर्धापित किया। राज्य-संपदा मेघकुमार को लुभा नहीं पाई। ___एक दिन बीत गया। मेघकुमार की दीक्षा की तैयारियां होने लगीं। आवश्यक उपकरण लाये गए। परिवार और नगरजनों से परिवृत होकर मेघकुमार भगवान् महावीर के पास आया। माता-पिता ने भगवान् से निवेदन करते हुए कहा-'देव! हमारा यह पुत्र मेघ आपके चरणों में प्रव्रजित होना चाहता है। यह नवनीत-सा कोमल है। यह प्रचुर काम-भोगों के बीच पला-पुसा है, फिर भी काम-रजों से स्पृष्ट नहीं है, भोगों में आसक्त नहीं है। पंक में उत्पन्न होने वाला पंकज पंक से लिप्त नहीं होता, वैसे ही यह कुमार भोगों से निर्लिप्त है। आप इसे अपना शिष्य बनाकर हमें कृतार्थ करें।' भगवान् ने मेघ को प्रव्रजित होने की आज्ञा दी। मेघकुमार अपने आभूषण उतारने लगा। भगवान् महावीर ने स्वयं मेघकुमार को प्रव्रजित किया, उसका केश लुंचन किया। भगवान् ने स्वयं उसे साधुचर्या की जानकारी देते हुए कहा-'वत्स! अब तुम मुनि बन गए हो। अब तुम्हारे जीवन की दिशा बदल गयी है। अब तुम्हें यतनापूर्वक चलना है, यतनापूर्वक बैठना है, यतनापूर्वक सोना है, यतनापूर्वक खड़े रहना है, यतनापूर्वक बोलना है और यतनापूर्वक ही भोजन करना है। इस चर्या में लेशमात्र भी प्रमाद न हो। यतना संयम है, मोक्ष है। अयतना असंयम है, बंधन है।' ___ पहला दिन बीता। रात आयी। विधि के अनुसार सभी श्रमणों का शयन-स्थान निश्चित हुआ। मुनि मेघकुमार एक दिन का दीक्षित मुनि था। उसका शयन-स्थान सबसे अंत में आया। वह स्थान द्वार के पास था। शताधिक मुनि स्वाध्याय आदि के लिए रात्रि में बाहर आने-जाने लगे। कुछ मुनि प्रस्रवण के लिए बाहर निकले। उस समय द्वार के पास सोये मुनि मेघकुमार की नींद उचट गयी। सर्वत्र अंधकार व्याप्त था। स्पष्ट कुछ भी नहीं दिख रहा था। बाहर आते-जाते मुनियों के पैर-स्पर्श से मुनि मेघ विचलित हो गया। शरीर धूलिमय हो गया। उसने नींद लेने का बहुत प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ। उसने सोचा-मैं राजकुमार था। कितने सुख में पलापुषा! सब प्रकार की सुविधाएं मुझे उपलब्ध थीं। सारे श्रमण मुझसे बात करते, मेरा आदर-सम्मान करते। मुझसे मीठी-मीठी बातें करते और मुझे नाना प्रकार के रहस्य समझाते। आज मैं प्रव्रजित हो गया। उनकी मंडली में आ मिला। अब कोई भी श्रमण न मुझसे बात करता है और न मेरा आदर-सम्मान ही करता है। वे सब मुझे ठोकरें लगा रहे हैं, नींद भी नहीं ले पा रहा हूं। इस अनपेक्षित मुनि जीवन से अच्छा है कि मैं पुनः Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १२५ आमुख गृहवास में चला जाऊं। वहां मेरा पूर्ववत् ठाटबाट रहेगा। सूर्योदय होते ही मैं भगवान् महावीर को पूछकर घर चला जाऊंगा।' - इस मानसिक दुविधा के जाल में फंसे हुए मुनि मेघकुमार की रात बहुत लंबी हो गयी। ज्यों-त्यों रात बीती। सूर्योदय हुआ। मुनि मेघकुमार भगवान् के पास आया, वंदना-नमस्कार कर मौन होकर बैठ गया। ___ भगवान् ने उसकी मनःस्थिति को ताड़ते हुए कहा-'मेघ! तुम रात्रि के इन स्वल्प कष्टों से विचलित होकर घर जाने की तैयार कर रहे हो?' मुनि मेघ ने कहा-'भंते! आप यथार्थ कह रहे हैं। मेरा मन विचलित हो गया है।' भगवान् अतीन्द्रिय-द्रष्टा थे। वे सब-कुछ जानते थे-जो घटित हो चुका है, घटित हो रहा है और घटित होगा। उनका ज्ञान निरावरण था; कालातीत और क्षेत्रातीत था। मेघकुमार को पूर्वभव का वृत्तांत बताते हुए भगवान् बोले-'मेघ! सुनो, मैं तुम्हारे पूर्वभव का वृत्तांत बता रहा हूं। आज के इस राजकुमार के भव से तीन जन्म पूर्व तुम वैताढ्य पर्वत की तलहटी के सघन जंगल में हाथी थे। तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' था। तुम यूथपति थे। तुम्हारे परिवार में अनेक हाथी और अनेक हथिनियां थीं। तुम आनंदपूर्वक अपने दिन बिता रहे थे। सर्वत्र तुम निर्भयता से घूमते थे। एक बार ग्रीष्म ऋतु का समय था। जेठ का महीना। चिलचिलाती धूप। वेगवान तूफान। वृक्षों के संघट्टन से जंगल में दावानल सुलग गया। चारों ओर पशु दौड़-धूप करने लगे। तुम उस समय बूढ़े हो गये थे। तुम्हारा शरीर जर्जरित था। बल क्षीण हो चुका था। सारा यूथ इधर-उधर बिखर गया। तुम अकेले रह गए। प्यास के कारण पानी की खोज में जा रहे थे। एक सरोवर देखा। उसमें पानी कम और कीचड़ अधिक था। तुम पानी पीने की तृष्णा से उसमें घुसे और कीचड़ में धंस गए। उस समय एक युवा हाथी ने तुम्हें देखा। उसको पूर्व वैर की स्मृति हो आयी। वह क्रोध से अरुण होकर चीत्कार करता हुआ तुम्हारे पास आया और ... अपने दंत-मूसल से तुम पर प्रहार करने लगा। तुम शक्तिहीन थे। प्रतिरोध नहीं कर सके। तुम्हें मरणासन्न कर .... वह युवा हाथी बहुत प्रसन्न हुआ। वैर का प्रतिशोध ले सकने की प्रसन्नता से वह फूला नहीं समाया। चिंतातुर अवस्था में तुम्हारी मृत्यु हो गयी। वहां से तुम विंध्याचल पर्वत की तलहटी में गंगा नदी के दक्षिण तट पर फिर हाथी के रूप में उत्पन्न हुए। तुम युवा हुए। हस्तियूथ के स्वामी बने। तुम्हारा यूथ बहुत विशाल था। एक बार • तुमने दावाग्नि को देखा। मन एकाग्र हुआ। पूर्व की स्मृति हो आयी। दावाग्नि से उत्पन्न कष्ट साक्षात् हो गए। • तुमने अपनी सुरक्षा के लिए एक योजन भूमि को समतल बनाया जिससे कि दावानल की आपत्ति से बचा जा सके। एक बार अचानक वन में आग लगी। सभी वन्य-पशु भयभीत होकर जीवन की सुरक्षा के लिए इधर-उधर दौड़ने लगे। तुम भी अपने परिवार के साथ सुरक्षित मंडल में आ गए। और भी अनेक वन्य- पशु वहां पहुंच गए थे। वहां अग्नि का भय नहीं था, क्योंकि वहां घास-फूस, वृक्ष-लताएं थी ही नहीं। सारा समतल मैदान था। तुमने शरीर को खुजलाने के लिए अपना एक पैर उठाया। शरीर को खुजलाकर तुमने अपना पैर नीचे रखना चाहा। तुमने देखा कि पैर के उस भू-भाग पर एक खरगोश प्राण-रक्षा के लिए बैठा है। पैर रखने पर वह मर न जाये, इस आशंका से तुमने अपने एक पैर को अधर आकाश में लटकाये रखा। एक दिन बीता। दो दिन बीते। अभी भी दावानल सुलग रहा था। तीसरे दिन का पूर्वाह्न भी बीत गया। अब आग शांत हुई। सब पशु अपने-अपने सुरक्षित स्थान को लौट गए। तुम्हारा हस्ति-परिवार भी चला गया। वह खरगोश भी भाग गया। तुमने पैर नीचे रखना चाहा। पैर अकड़ गया था। वह नीचे नहीं सरका। तुम्हारा भारी-भरकम शरीर लड़खड़ा गया। तीन दिन के भूखे-प्यासे और तीन पैरों पर इतने लंबे समय तक खड़े रहने के कारण तुम्हारी शक्ति क्षीण हो गयी थी। तुम धड़ाम से नीचे गिर पड़े। उस समय तुम्हारा आयुष्य सौ वर्ष का था। तुम्हारी तत्काल मृत्यु हो गयी। वहां से तुम श्रेणिक के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १२६ खण्ड-३, पशु की उस योनि में तुम सम्यक् दर्शन से समन्वित नहीं थे, फिर भी तुमने उस विकराल और असामान्य वेदना को समभावपूर्वक सहा। उस अपूर्व तितिक्षा से ही तुम्हें मनुष्य-जन्म मिला है। आज तुम सम्यक्-दर्शन संपन्न मुनि हो। आज एक रात के इन तुच्छ शारीरिक कष्टों से विचलित हो गए? तुम इतने अधीर हो गए? घर जाने की मनःस्थिति बना ली? तुम अपने पूर्व-जन्म की स्मृति करो और देखो कि उन कष्टों की तुलना में ये क्या कष्ट है? कहां मेरु कहां राई? मेघ का सोया हुआ चैतन्य जाग गया। उसके मन में एक नयी सिहरन दौड़ गयी। चित्त एकाग्र हो गया। पूर्वजन्म की स्मृति ताजा हुई और उसके सामने चलचित्र की भांति अतीत का सारा दृश्य आने लगा। उसने पूरी घटना का साक्षात्कार किया। भगवान् महावीर ने जैसा कहा, वैसा अक्षरशः सामने आ गया। पूर्वजन्म की घटना को साक्षात् कर वह गद्गद हो उठा। उसका संवेग दुगुना हो गया। आंखों से आनंद के आंसू टपकने लगे। हृदय हर्षान्वित हो उठा। सारा शरीर रोमांचित हो गया। वह तत्काल भगवान् को वंदना-नमस्कार कर बोला-'भगवन् ! आज से दो आंखें मेरी अपनी रहेंगी, शेष सारा शरीर इन निग्रंथों के लिए समर्पित रहेगा। भंते! आपने मुझे पुनः संयम में स्थिर किया है। आप मुझे पुनः संयम जीवन दें और कृतार्थ करें।' भगवान् ने उसे पुनः संयम में आरूढ़ किया। अब निग्रंथ मेघ मुनिचर्या का अप्रमत्तभाव से पालन करता हुआ विहरण करने लगा। उसने पांच समितियों और तीन गुप्तियों को जीवनगत कर लिया। सारी लेश्याएं आत्माभिमुख कर वह जनपद-विहार करने लगा। संवेग वृद्धिंगत होता गया। उसने अपने आपको संयम के लिए समर्पित कर तपोयोग की साधना में लीन कर डाला। भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर उसने भिक्षु की बारह प्रतिमाओं की एक-एक कर आराधना की। ‘गुणरत्न संवत्सर' नामक तपायोग से आत्मा को भावित करता हुआ वह एक बार राजगृह नगर में आया। वहां गुणशील नामक उद्यान में ठहरा। रात्रि में वह धर्मजागरिका कर रहा था। उसके मन में एक विकल्प उठा-'मेरा तपोयोग सानंद चल रहा है। मेरा सारा शरीर तपस्या से कृश हो चुका है। मुझमें अभी से शक्ति अवशिष्ट है। जब तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम विद्यमान है, तब तक मुझे संयम शेष पराक्रम करना है। प्रातःकाल होते ही मैं भगवान् महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर, गणधर गौतम आदि श्रमणों तथा श्रमणियों से क्षमायाचना कर विपुल पर्वत पर धीरे-धीरे आरोहण कर, वहां पृथ्वी शिलापट्ट पर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लूंगा।' प्रातःकाल हुआ। वह भगवान महावीर के पास आया। वंदना-नमस्कार कर. हाथ जोड़ एक ओर मौन रूप से उपासना में बैठ गया। भगवान् ने उसके मन की बात अभिव्यक्त करते हुए कहा-'मेघ! जो तुमने सोचा है, वैसा करना ही श्रेयस्कर है। विलंब मत करो।' मेघ ने अनशन स्वीकार कर लिया। अनेक निग्रंथ अग्लानभाव से उसकी परिचर्या करने लगे। ___ मुनि मेघ ग्यारह अंग पढ़ चुका था। उसके संयम-पर्याय का बारहवां वर्ष पूरा हो रहा था। एक मास का अनशन पूरा कर मुनि मेघकुमार मृत्यु को प्राप्त हो गया। परिचर्या में नियुक्त श्रमण उसके भंडोपकरण लेकर भगवान् के पास आये और बोले-'भंते! ये भंडोपकरण अनगार मेघ के हैं। भंते! मेघ यहां से मरकर कहां उत्पन्न हुआ है? भगवान ने कहा-'वह यहां से मरकर 'विजय' नामक महाविमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। उसका आयुष्य तेतीस सागर का है। आयुष्य पूरा होने पर वह महाविदेह में उत्पन्न होगा और वहां समस्त कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जायेगा। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १ स्थिरीकरण Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरीकरण भगवान् महावीर राजगृह में पधारे। परिषद् वंदना के लिए गई। भगवान् ने प्रवचन किया। सबने सुना। सम्राट् श्रेणिक का पुत्र मेघकुमार समवसरण में उपस्थित था। उसने केवल सुना नहीं, प्रवचन को हृदयंगम कर लिया। उसके अंतर्मन में वैराग्य का अंकुर फूट पड़ा। माता-पिता से अनुमति प्राप्त की और भगवान के पास दीक्षित हुआ। श्रमण बना। दीक्षा की प्रथम रात्रि में जो कुछ बीता, उससे वह विचलित हो गया। उस विचलन को मिटाने के लिए भगवान् ने अतीन्द्रिय शैली का प्रयोग किया। उसे पूर्वजन्म की स्मृति का गुर दें दिया। ऐसे प्रसंगों में भगवान् इस शैली का बहुत उपयोग करते थे। वह शैली इस प्रसंग में भी बहुत सार्थक हुई। मेघकुमार की संबोधि दृढ़ हो गई। आदिनाथ भगवान् ऋषभ ने अपने अछानवें पुत्रों को संबोधि का उपदेश दिया था संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। वे संबुद्ध हो गए। मेघकुमार की घटना उसी संबोधि की पुनरावृत्ति जैसी प्रतीत हो रही है। १. ऐं ॐ स्वर्भूर्भुवस्त्रय्यास्त्राता तीर्थकरो महान्। त्रिलोकी' के त्राता महान् तीर्थंकर वर्धमान अहिंसातीर्थ की ___ वर्धमानो वर्धमानो, ज्ञान-दर्शन-सम्पदा॥ स्थापना कर जन-जन को तारते हुए, एक गांव से दूसरे गांव में २. अहिंसामाचरन् धर्म, सहमानः परीषहान्। विहार करते हुए, राजगृह में आए। वे ज्ञान और दर्शन की सम्पदा वीर इत्याख्यया ख्यातः, परान् सत्त्वानपीडयन्॥ से वर्धमान हो रहे थे। उनका आचार था अहिंसा धर्म। वे किसी ३. अहिंसातीर्थमास्थाप्य, तारयन् जनमण्डलम्। भी प्राणी को पीडित नहीं करते थे और अहिंसा की अनुपालना के चरन् ग्रामामनुग्राम, राजगृहमुपेयिवान्॥ लिए परीषहों को सहन करते थे, इसलिए वे 'वीर' नाम से (त्रिभिर्विशेषकम्) प्रख्यात हुए। ॥ व्याख्या ॥ . ऐं ओं-ये बीजाक्षर हैं, विद्या और आत्म-ऐश्वर्य के प्रतीक हैं। वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा भी आज अक्षरों की शक्ति सिद्ध है। अक्षरों के पुनः-पुनः उच्चारण से उठने वाली तरंगों से मानस अप्रत्याशित रूप से प्रभावित होता है। तीर्थकर-साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका-इस चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करने वाले धर्म-संस्थापक, धर्म-प्रचारक और आगामों के उपदेष्टा तीर्थंकर कहलाते हैं। वर्धमान-यह महावीर का जन्मकालीन नाम है। भगवान् जब गर्भ में आए, तब सब प्रकार से ऋद्धि की वृद्धि होती गई। अतः एव वे वर्धमान कहलाए। वीर-यह भगवान् महावीर की अनन्त आत्म-शक्ति का द्योतक है। देवकृत, मनुष्यकृत और पशुकृत कष्टों में वे सदा पर्वत की भांति अटल रहे। उन्होंने अहिंसा पर कहीं भी आंच नहीं आने दी। इसलिए वे वीर और महावीर नाम से प्रसिद्ध हुए। संबोधि के व्याख्याता भगवान् महावीर ही हैं। १. स्वर्ग, भूमि और रसातल। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १२९ अ. १ : स्थिरीकरण चरन् ग्राममनुग्रामम् एक गांव से दूसरे गांव की ओर विहार करते हुए - यह साधु जीवन की चर्या का प्रतीक है। मुनि पादचारी और अनियतवासी होते हैं। वे वर्षाकाल में चार मास तक एक स्थान में रहते हैं और शेष आठ महीनों में सदा विहार रहते हैं। राजगृह - यह मगध देश की राजधानी थी। इसकी गणना दस प्रमुख राजधानियों में की जाती थी । वर्तमान बिहार में स्थित राजगिर नाम से प्रसिद्ध स्थान प्राचीन काल का राजगृह है। यह भगवान् महावीर का प्रमुख विहार-स्थल था। यहां भगवान् ने चौदह चतुर्मास बिताए थे। एक बार भगवान् महावीर अपने श्वेत संघ के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यहां आए। ४. नानासंतापसंतप्ताः, तमाजग्मुर्जना भूयः तापोन्मूलनतत्पराः । सुचिरां शांतिमिच्छवः ॥ ॥ व्याख्या ॥ दुःख के तीन रूप हैं : शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख और आध्यात्मिक दुःख । शारीरिक और मानसिक दुःखों से कोई भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है। जीवन के साथ ये गहरे संयुक्त हैं। मन शरीर का सूक्ष्म तत्त्व है। उसकी रुग्णता शरीर पर उतरती है। अधिकांश बीमारियां मानसिक होती हैं, ऐसा आधुनिक मनो-विश्लेषक स्वीकार करते हैं। मन की स्वस्थता अत्यंत अपेक्षित है। मन में जैसे ही बीमारी का भाव उठता है, शरीर उसे तत्काल स्वीकार कर लेता है। किन्तु साधक के लिए शरीर और मन ही सब कुछ नहीं है। वह और भीतर गहराई में उतरकर उसके कारणों की खोज करता है तब उसे दिखाई देता है कि दुःखों का कारण है-कार्मण शरीर जो आत्मा के साथ अनादिकालीन है। क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, राग, द्वेष, मोह, लोभ आदि समस्त वृत्तियों का वह मूल- केन्द्र है। साधक उसे पकड़ला है और उससे मुक्त होने की दिशा में प्रयत्नशील होता है। भगवान् कुशल चिकित्सक थे। उनकी दृष्टि में शारीरिक और मानसिक दुःख की जड़ आध्यात्मिक दुःख था । वे चाहते थे • दुःख का मूलोच्छेद करना। उनके मार्गदर्शन से लाखों व्यक्ति दुःख से मुक्त हुए । आध्यात्मिक दुःख के उन्मूलन से शारीरिक और मानसिक दुःखों का भी उन्मूलन हुआ। वे मुक्त बने। इसलिए भगवान् जहां जाते, वहीं लोगों का तांता बंध जाता। राजगृह जनता भी दुःख - मुक्ति के लिए भगवान् के चरणों में उपस्थित हुई। श्रेणिकस्यात्मजो मेघो, भव्यात्माल्परजोमलः । श्रुत्वा भगवतो भाषां, विरक्तो दीक्षितः क्रमात् ॥ ६. कठोरो भूतलस्पर्शः, मध्येमार्ग शयानस्य, जो विभिन्न प्रकार के शारीरिक, मानसिक और भावात्मक संतापों से संतप्त थे, उनका उन्मूलन करना चाहते थे, चिरशांति के इच्छुक थे, वे मनुष्य बडी संख्या में भगवान् के पास आए। स्थानं निर्ग्रन्थसंकुलम् । विक्षेपं निन्यतुर्मनः ॥ ७. त्रियामा शतयामाऽभूत्, नानासंकल्पशालिनः । निस्पृहत्वं मुनीनां तं, प्रतिक्षणमपीडयत् ॥ महाराज श्रेणिक का पुत्र 'मेघ' भगवान् के पास आया। उसके कर्म और आश्रव स्वल्प थे। वह भव्य (मोक्षगामी) था। उसने भगवान् की वाणी सुनी, विरक्त हुआ और अपने माता-पिता की स्वीकृति पाकर दीक्षित हो गया। पहली रात की घटना है। तीन बातों ने उसके मन को चंचल बना दिया- पहली बात - भूमि का स्पर्श कठोर था । दूसरी बात उस स्थान में बहुत बड़ी संख्या में निर्ग्रथ थे। तीसरी बात-वह मार्ग के बीच में सो रहा था। आते-जाते हुए निग्रंथों के स्पर्श से उसकी नींद में बाधा पड़ रही थी। उसके मन में भांति-भांति के संकल्प उत्पन्न होने लगे। उसके लिए वह त्रियामा - तीन प्रहर की रात शतयामा-सौ प्रहर जितनी हो गई। विशेषतः साधुओं का निस्पृह भाव उसे प्रतिक्षण अखरने लगा। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १३० खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ मेघ के लिए प्रव्रज्या का पथ बिलकुल नया था। उसकी दृष्टि अभी तक बाहर से पूर्णतया हटी नहीं थी। बाह्य । असुविधाएं खड़ी होते ही वह विचलित हो उठा। 'दुःख-सुख का कारण मैं स्वयं हूं, और कोई नहीं' यह शाश्वत स्वर स्मृति से ओझल हो चला। दूसरों की उपेक्षा उसे खलने लगी। ८. चिरं प्रतीक्षितो रश्मिः खेरुदयमासदत्। महावीरस्य सान्निध्यमभजत् सोऽपि चञ्चलः॥ चिर प्रतीक्षित सूर्य की पहली किरण प्रकट हुई। वह अस्थिर . विचारों को लेकर भगवान् महावीर के पास पहुंचा। ९. विधाय वन्दनां नम्रः, विदधत् पर्युपासनाम्। विनयावनतस्तस्थौ, विवक्षुरपि मौनभाक्॥ वह विनयावनत हो भगवान् को वंदना कर उनकी पर्युपासना में बैठ गया। वह बोलना चाहता था, फिर भी संकोचवश मौन रहा। १०.कोमलं भगवान् प्राह, मेघ! वैराग्यवानपि। इयता स्वल्पकष्टेन, कातरस्त्वमियानभूः॥ भगवान् ने कोमल स्वर में कहा-मेघ! तू विरक्त होते हुए भी इतने थोड़े से कष्ट से इतना अधीर हो गया? ११.पश्य स्तिमितया दृष्ट्या, कष्टं तत्पौर्वदेहिकम्। असम्यक्त्वदशायाञ्च, वत्स! सोढं त्वया हि यत्॥ वत्स! तू अपने मन को एकाग्र बना और स्थिर-शांत दृष्टि से अपने पूर्वजन्म के कष्ट को देख। उस समय तू सम्यक्-दृष्टि नहीं था, फिर भी तूने अपार कष्ट सहा था। ॥ व्याख्या ॥ असम्यक्त्व-दशा ऐसी है जिस में शरीर और चेतना की भेद-बुद्धि अभिव्यक्त नहीं होती। 'मैं शरीर हूं' यह अनंत जन्मों का गहरा संस्कार है। प्राणी इससे जकड़ा हुआ है। जब तक व्यक्ति इस संस्कार से मुक्त नहीं होता तब तक सत्य का दर्शन कठिन है। 'मैं शरीर नहीं, आत्मा हूं'- इसकी अनुभूति से उस संस्कार की नामशेषता स्वतः ही हो जाती है या इस नए संस्कार का निर्माण कर पुराने संस्कार की व्यर्थता का बोध कर लिया जाता है। मेघः प्राह १२. कथं मयाऽथ किं कष्टं, स्वीकृतं ब्रूहि तत् प्रभो! न स्मरामि न जानामीत्यस्मि बोर्बु समुत्सुकः॥ मेघ बोला-प्रभो! मैंने क्या कष्ट सहा और कैसे सहा? वह न मुझे याद है और न मैं उसे जानता ही हं। प्रभो! मैं उसे जानने को उत्सुक हूं। आप मुझे बताएं। भगवान् प्राह १३.भगवान् प्राह सत्योधं, घटना पौवदहिकी। भगवान् ने कहा-वत्स! तू सच कहता है। जाति-स्मृति के जातिस्मृति विना वत्स!बोधुं शक्या न जन्तुभिः॥ बिना कोई भी प्राणी पूर्वजन्म की घटना जान नहीं सकता। १४. ईहापोहं तथैकाग्रयं, विना सा नैव जायते। संस्काराः सञ्चिता गूढाः,प्रादुःस्युर्यत् प्रयत्नतः॥ ईहा, अपोह और मन की एकाग्रता के बिना जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। जो संस्कार गहरे में संचित होते हैं, वे गहन प्रयत्न से ही प्रकट होते हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि अ.१ : स्थिरीकरण ॥ व्याख्या ॥ जातिस्मृति-ज्ञान का अर्थ है-अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान। यहां 'जाति' शब्द का अर्थ जन्म है। यह जैन दर्शन द्वारा सम्मत पांच ज्ञानों के अंतर्गत मतिज्ञान में समाविष्ट होता है। यह प्रत्येक प्राणी को नहीं होता। जो व्यक्ति मन को अत्यंत एकाग्र कर वस्तु की तह तक पहुंचता है, उसे ही यह प्राप्त होता है। सर्वप्रथम किसी एक दृश्य, घटना, व्यक्ति या वस्तु को देखकर दर्शक के मन में ईहा उत्पन्न होती है। उसका मन आंदोलित हो उठता है कि यह क्या है ? क्यों है ? कैसे है? मेरा इससे क्या संबंध है? आदि आदि तर्क उसके मन में उत्पन्न होते हैं और वह एक-एक कर सबको समाहित करता हुआ और गहराई में जाता है। अब वह अपोह-निर्णय की स्थिति पर पहुंचता है। फिर वह मार्गणा और गवेषणा करता है-उसी विषय की अंतिम गहराई तक पहुंचने का प्रयत्न करता है। उसके तर्क प्रबल होते जाते हैं और जब वह उस वस्तु में अत्यंत एकाग्र बन जाता है, तब उसे पूर्वजन्म का ज्ञान प्राप्त होता है और उस जन्म की सारी घटनाएं एक-एक कर सामने आने लगती हैं। जैन दर्शन में इसे जातिस्मृति-ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान के बल से व्यक्ति अपने नौ पूर्वजन्मों को जान जाता है। ____जाति-स्मरण के और भी अनेक कारण हैं-मन और बुद्धि की निर्मलता, शास्त्र-बोध, धार्मिक विचार, ऋजुता, पूर्वजन्म में संसेवित विषयों का श्रवण और दर्शन, स्वप्न, आश्चर्य और तत्सदृश अनुमान आदि। मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? आदि सूत्रों के मनन और ध्यान से भी जाति-स्मरण की प्राप्ति होती है। ध्यान की गहराई में जब व्यक्ति मननपूर्वक पीछे लौटता है तो स्वयं के पूर्वजन्म को देख लेता है। १५.मेरुप्रभाऽभिदो हस्ती, त्वमासीः पूर्वजन्मनि। विन्ध्यस्योपत्यकाचारी, विहारी स्वेच्छया बने॥ मेघ! तू पूर्वजन्म में मेरुप्रभ' नाम का हाथी था। तू विन्ध्य पर्वत की तलहटी के वन में स्वच्छन्दता से विहार करता था। १६.व्यधा भयाद् वनवढेः, मण्डलं योजनप्रमम्। उस समय तू समनस्क था। तुझे पूर्वजन्म की स्मृति हुई। तूने । लब्धपूर्वानुभूतिस्त्वं, दीर्घकालिकसंज्ञितः॥ . दावानल से बचने के लिए चार कोस का स्थल बनाया। १७. घासा उत्पाटिताः सर्वे, लता वृक्षाश्च गुल्मकाः। ... अकारीभैः सप्तशतैः, स्थलं हस्ततलोपमम्॥ तूने सात सौ हाथियों का सहयोग पाकर सब घास, लता, पेड़ और पौधे उखाड़ डाले और उस स्थल को हथेली के तल जैसा साफ बना दिया। १८.एकदा वह्निरुद्भूत, आरण्या पशवस्तदा। निर्वैराः प्राविशंस्तत्र, हिंस्रास्तदितरे तथा॥ एक बार वहां दावानल सुलगा। उस समय जंगल के हिंस और अहिंस्र'-सभी पशु आपस में वैर भूलकर उस स्थल में घुस आए। १९, यथैकस्मिन् बिले शान्ता, निवसन्ति पिपीलिकाः। . अवात्सुः सकलास्तत्र, तथा वर्भयद्रुताः॥ जैसे एक ही बिल में चींटियां शांतभाव से रहती हैं, वैसे ही दावानल से डरे हुए पशु शांतरूप से उस स्थल में रहने लगे। २०.मण्डलं स्वल्पकालेन, जातं जन्तुसमाकुलम्। वितस्तिमात्रमप्यासीत. न स्थानं रिक्तमद्भुतम्॥ थोडे समय में वह स्थल वन्य पशुओं से खचाखच भर गया। यह आश्चर्य था कि वहां वितस्ति जितना भी स्थान खाली नहीं रहा। ३. हिरण आदि शांत पशु।. १. दीर्घकालिकसंज्ञी-समनस्क, मन वाला। २. खूखार जंगली जानवर। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १३२ खण्ड-३ २१. विधातुं गात्रकण्डूतिं, त्वया पाद उदञ्चितः। स्थानं रिक्तं समालोक्य, शशकस्तत्र संस्थितः॥ तूने अपने शरीर को खुजलाने के लिए एक पांव को ऊंचा किया। तेरे उस पांव के स्थान को खाली देखकर एक खरगोश वहां आ बैठा। २२. कृत्वा कण्डूयनं पादं, दधता भूतले पुनः। शशको निम्नगोत्रऽलोकि, त्वया तत्त्वं विजानता॥ खुजलाने के बाद जब तू पांव नीचे रखने लगा तब तूने वहां पांव से खाली हुए स्थान में खरगोश को बैठा देखा। तू तत्त्व को .. जानता था। २३. तदानुकम्पिना तत्र, न हतः स्यादसौ मया। इति चिन्तयता पादः, त्वया संधारितोऽन्तरा॥ (युग्मम्) तेरे चित्त में अनुकंपा-अहिंसा का भाव जागा। खरगोश मेरे. पैर से कुचला न जाए'-यह सोच तूने पांव को बीच में ही थाम लिया। २४.शुभेनाध्यवसायेन, लेश्यया च विशुद्धया। संसारः स्वल्पतां नीतो, मनुष्यायुस्त्वयार्जितम्॥ शुभ अध्यवसाय' और विशुद्ध लेश्या (भाव) से तूने संसारभ्रमण-जन्म-मरण की संख्या को परिमित कर दिया और मनुष्य के आयुष्य का अर्जन किया। २५. सार्द्धद्वयदिनेनाऽथ, दवः स्वयं शमं गतः। निधूमं जातमाकाशं, अभया जन्तवोऽभवन्॥ ढाई दिन के बाद दावानल अपने आप शांत हुआ। आकाश निधूम हो गया और वे वन्य-पश निर्भय हो गए। २६.स्वच्छन्दं गहने शान्ते, विजः पशवस्तदा। पलायितः शशकोऽपि, रिक्तं स्थानं त्वयेक्षितम्॥ तब वन्य-पशु उस शांत जंगल में स्वतंत्रतापूर्वक घूमनेफिरने लगे। वह खरगोश भी वहां से चला गया। पीछे तूने वह स्थान खाली देखा। २७. पादं न्यस्तुं पुनर्भूमौ, सार्द्धद्वयदिनान्तरम्। स्तम्भीभूतं जडीभूतं, त्वया प्रयतितं तदा॥ ढाई दिन के पश्चात् तूने उस खंभे की तरह अकड़े हुए निष्क्रिय पांव को पनः भूमि पर रखने का प्रयत्न किया। २८.स्थूलकायः क्षुधाक्षामः, जरसा जीर्णविग्रहः। पादन्यासे न शक्तोऽभूः, भूतले पतितः स्वयम्॥ तेरा शरीर भारी-भरकम था। तू भूख से दुर्बल और बढापे से जर्जरित था। इसलिए तू पैर को फिर से नीचे रखने में समर्थ नहीं हो सका। तू लड़खड़ाकर भूमि पर गिर पड़ा। २९.विपुला वेदनोदीर्णा, घोरा घोरतमोज्ज्वला। सहित्वा समवृत्तिस्तां, तत्र यावद् दिनत्रयम्॥ उस समय तुझे विपुल, घोर, घोरतप और उज्ज्वल वेदना हुई। तीन दिन तक तूने उसे समभावपूर्वक सहन किया। ३०.आयुरन्ते पूरयित्वा, जातस्त्वं श्रेणिकाङ्गजः। अहिंसा साधिता सत्त्वे, कष्टे च समता श्रिता॥ तूने जीवों के प्रति अहिंसा की साधना की और कष्ट में समभाव रखा। अंत में आयुष्य पूरा कर तू श्रेणिक राजा का पुत्र हुआ। १. चेतना की सूक्ष्म परिणति। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १३३ अ.१: स्थिरीकरण ॥ व्याख्या ॥ . इस श्लोक में दो महत्त्वपूर्ण बातें दी गयी हैं-प्राणियों के प्रति अहिंसा का बर्ताव और कष्ट में समभाव। अहिंसक व्यक्ति के ये दो गुण सहज हैं। वह किसी भी प्राणी का उत्पीड़न नहीं करता, दुःख नहीं देता और न उन पर अनुशासन ही करता है। जिसके मन में आत्मौपम्य की भावना का विकास होता है, वही व्यक्ति दूसरों के उत्पीड़न आदि से बच सकता है। दूसरे को अपने तुल्य माने बिना अहिंसा का प्रयोग हो ही नहीं सकता। दसरी बात है-कष्टों में समभाव रहना। यह हर एक के लिए साध्य नहीं है। जो अहिंसक और अभय होता है, जो आत्मलीन होता है, जो कष्ट को साधना की कसौटी मानता है, वह समता का आचरण कर सकता है। जिसके मन में बन्द्रों-राग-द्वेष, मान-अपमान, सुख-दुःख के प्रति हर्ष और विषाद का भाव होता है, वह समता का आचरण नहीं - कर सकता। ३१.अवशा वेदयन्त्येके, कष्टमर्जितमात्मना। बिलपन्तो विषीदन्तः, समभावः सुदुर्लभः॥ कुछ व्यक्ति पहले कष्ट-कर्म का अर्जन करते हैं फिर उसे विवश होकर भुगतते हैं। उसके वेदन-काल में विलाप और विषाद करते हैं क्योंकि समभाव हर किसी के लिए सुलभ नहीं है। ३२.उदीर्णा वेदनां यश्च, सहते समभावतः। निर्जरा कुरुते काम, देहे. दुःखं महाफलम्॥ जो व्यक्ति कर्म के उदय से उत्पन्न वेदना समभाव से सहन करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है क्योंकि शरीर में उत्पन्न कष्ट को सहन करना महान् फल का हेतु है। ॥ व्याख्या ॥ सुख और दुःख आत्मा की कर्म-जन्य अवस्थाएं हैं। ये वैभाविक हैं। शुद्ध आत्मा में ये नहीं होतीं। शरीर भी - विकृति है। सुख और दुःख देह में उत्पन्न होते हैं। सुख सदा प्रिय है, दुःख सदा अप्रिय। सुख में हर्ष होता है और दुःख में विषाद, यह विषमता है। राग और द्वेष असंतुलित अवस्था में होते हैं। ये आत्मा के लिए बंधन हैं। समत्व मुक्ति है, निर्जरा है, आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता है। इसलिए इस पर बल दिया है कि शरीर में आने वाले सुख और दुःख दोनों को समभाव से सहन करो। यह महान् फल का हेतु है। ३३.असम्यक्त्वी तदा कष्टे, नाऽभवो वत्स! कातरः। सम्यक्त्वी संयमीदानी, क्लीवोऽभूः स्वल्पवेदने॥ • ३४. मुनीनां . कायसंस्पर्शप्रमिलानाशमात्रतः। ____ अधीरो मामुपेतोसि, सद्यो गन्तुं पुनर्गृहम्॥ वत्स! उस समय हाथी के भव में तू सम्यक्दृष्टि नहीं था, फिर भी कष्ट में कायर नहीं बना। इस समय तू सम्यक्दृष्टि और संयमी है फिर भी इतने थोड़े कष्ट में क्लीव-सत्त्वहीन बन गया? साधुओं के शरीर का स्पर्श होने से रात को तेरी नींद नष्ट हो गई। इतने मात्र से तू अधीर होकर घर लौट जाने के लिए सहसा मेरे पास आया है! तूने सोचा-मुक्ति का मार्ग सुदुश्चर है। उस पर चलने वाले को निरंतर नाना प्रकार के कष्ट सहन करने होते हैं। मैं उस पर चलने में समर्थ नहीं हूं। ३५.नाहं गन्तुं समर्थोस्मि, मुक्तिमार्ग सुदुश्चरम्। यत्र कष्टानि सह्यानि, नानारूपाणि सन्ततम्॥ ,३६.सर्वे स्वार्थवशा एते. मनयोऽन्यं न जानते। भीमः सदश्चरो घोरो. निर्ग्रन्थानां तपोविधिः॥ ये सब साधु स्वार्थी हैं, दूसरे की चिंता नहीं करते। निग्रंथों की तपस्या करने की विधि बड़ी भयंकर, सदश्चर और घोर है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १३४ खण्ड-३ ३७. युक्तोऽयं किमभिप्रायः, मोहमूलं विजानतः? मोह के मूल को जानने वाले के लिए क्या ऐसा सोचना देहे मुग्धा जना लोके, नानाकष्टेषु शेरते॥ उचित है? क्या तू नहीं जानता कि शरीर में आसक्ति रखने वाले (त्रिभिर्विशेषकम्) लोग नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं? ३८.युक्तं नैतत् तवायुष्मन्! तत्त्वं वेत्सि हिताहितम। पूर्वजन्मस्थितिं स्मृत्वा, निश्चलं कुरु मानसम्॥ आयुष्मन् ! तेरे लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है। क्या हित है और क्या अहित-इस तत्त्व को तू जानता है। तू पिछले जन्म की घटना को याद करके अपने मन को निश्चल बना। मेघः प्राह ३९.हन्त! हन्त! समर्थोऽयं, अर्थो यश्च त्वयोदितः। मदीयो मानसो भावो, बुद्धो बुद्धेन सर्वथा॥ मेघ बोला-भगवन् ! आपने जो कुछ कहा, वह बिलकुल . सही है। आपने मेरे मन के सारे भाव जान लिये। ४०.ईहापोहं मार्गणाञ्च, गवेषणाञ्च कुर्वता। तेन जातिस्मृतिर्लब्धा, पूर्वजन्म विलोकितम्॥ ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से मेघ को पूर्वजन्म की स्मृति हई और उसने अपना पिछला जन्म देखा। ४१.त्वदीया देशना सत्या, दृष्टा पूर्वस्थितिर्मया। सन्देहानां विनोदाय, जिज्ञासामि च किञ्चन॥ मेघ बोला-भगवन्! आपका कथन सत्य है। मैंने पूर्वभव की घटनाएं जान लीं। मेरे मन में कुछ संदेह हैं। उन्हें दूर करने के लिए आपसे कुछ जानना चाहता हूं। : ॥ व्याख्या ॥ मेघ का मन आलोक से भर गया। उसके पूर्वजन्म उसकी आंखों के सामने नाचने लगे। वह विस्मित-सा देखने लगा। 'मैं कहां चला गया ? प्रभो! मैं जगकर भी सोने जा रहा था। आपने मुझे बोध देकर पुनः जागृत कर दिया। मेरे विषम मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ चली। आप मार्ग-द्रष्टा हैं, जीवन-स्रष्टा और जीवन-निर्माता हैं।' 'अब मैं चाहता हूं तत्त्व-ज्ञान जिससे मेरा मन सदा संतुलित रहे, उतार-चढ़ाव की परेशानियों से उद्धेलित न हो। आप मेरी जिज्ञासा को शांत करें, मेरे संशय मिटाएं और मुझे अनंतशक्ति का साक्षात् कराएं।' संशय सत्य के निकट पहुंचने का द्वार है। लेकिन वह अज्ञान और अश्रद्धा से समन्वित नहीं होना चाहिए। 'न हि संशयमनारुह्य, नरो भद्राणि पश्यति' संशय पर आरूढ़ होने वाला व्यक्ति कल्याण को देख सकता है। गणधर गौतम के लिए 'जायसंसए, जायकोउहले' प्रयुक्त विशेषण इसी के द्योतक हैं। यह संशय ज्ञान की अनिर्णायकता का सूचक नहीं है। इसमें जिज्ञासा है। जहां जिज्ञासा है, वहां सत्य का दर्शन होता है। संदेह ज्ञान की अनिर्णायकता का सूचक है। संदेह होने पर व्यक्ति जो है उससे अन्यथा ही मानता है। जहां संदेह है वहां सत्य की उपलब्धि नहीं होती। संशय और संदेह में यही अंतर है। ४२.द्विगुणानीतसंवेगः, नीतः पूर्वभवस्मृतिम्। आनन्दाश्रुप्रपूर्णास्यः . हर्षप्रफुल्लमानसः॥ भगवान् ने मेघ को पूर्वजन्म की स्मृति दिलाकर उसके संवेग-मोक्षाभिलाषा को द्विगुणित कर दिया। मेघकुमार का मुख आनन्दाश्रुओं से आप्लावित हो गया। उसका मन हर्षोत्फुल्ल हो गया। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १३५ अ. १ : स्थिरीकरण ४३. उवाच मेघो देवार्य! मुक्त्वा द्वे चक्षुषी समः। मेघ बोला-इन दो चक्षुओं को छोड़कर मैं पूरा शरीर निग्रंथों कायो निर्ग्रन्थसेवायां, अर्पयामि यथोचितम्॥ कि सेवा के लिए समर्पित करता हूं। जैसा उचित समझें, वैसी सेवा मुझसे लें। ४४.कृतपुण्यः कृतज्ञोस्मि, दिशा मे दर्शिता नवा। दृष्टिर्मे सुस्थिरा भूयाद्, प्रशस्तो मे पथो भवेत्॥ वह विनम्र स्वर में बोला-देवार्य! मैं कृतपुण्य हूं, कृतज्ञ हूं। आपने मुझे नई दिशा दिखा दी। मैं चाहता हूं-मेरी दृष्टि सुस्थिर बने और मेरा पथ प्रशस्त रहे। ॥ व्याख्या ॥ जातिस्मृतिज्ञान किसी के लिए वैराग्य का निमित्त वन जाता है और किसी के लिए मोह-संस्कार वर्धन का हेतु भी बन जाता है। उपयुक्त पात्र हो और उपयुक्त संयोग हो तो सहज ही व्यक्ति संवेग को प्राप्त हो जाता है। मेघ को भगवान महावीर का योग मिला और उसकी चेतना ने अध्यात्म की दिशा में अंगड़ाई ले ली। श्रीमद् राजचन्द्र के लिए जातिस्मरण ज्ञान आत्म-विकास का आधार बन गया। उनका चित्त संसार से विमुख हो गया, अज्ञान का आवरण शिथिल हो गया। ऐसा अनेक व्यक्तियों के हुआ है। ऐसे भी अनेक बच्चे देखे गए हैं जिनका ज्ञान मोहवृद्धि के लिए भी बना है। एक परिवार से नहीं दूसरे परिवार के साथ भी ममता बढ़ गई। मेघ को अपने कृत्य पर पछतावा हुआ, मन में ग्लानि पैदा हुई। भविष्य में सावधान होते हुए उसने कहा-प्रभो! अब इस शरीर के प्रति मेरी कोई आसक्ति नहीं रही है। इस शरीर को जितना मैं धर्म में, सेवा में, सत्कर्म में लगा सकं वैसा ही संकल्प करना है। अब इस पर मेरा अधिकार नहीं है. यह आपका है. आप इसे जिस किर नियोजित करेंगे, मैं तत्पर हूं। ___मैं कृतपुण्य हूं, मुझे आपका सुयोग मिला है, जो कृत पुण्य-जिसका कर्म-मन पवित्र होता है वही व्यक्ति कृतज्ञ-उपकार को समझनेवाला हो सकता है। मैं आपके प्रति कृतज्ञ हूं। क्योंकि आपने मुझे दिव्यदृष्टि प्रदान की है, मेरी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाया है। बस, मुझे आप ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि मेरी दृष्टि सदा स्थिर रहे और मेरा पथ सदा प्रशस्त रहे। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे . मेषकुमारस्थिरीकरणाभिधः प्रथमोऽध्यायः। Page #155 --------------------------------------------------------------------------  Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-२ मुख-दुःश्व मीमांसा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख-दुःख मीमांसा . . जापानमहा सुख क्या है और दुःख क्या है-यह शाश्वत प्रश्न है। मनुष्य पदार्थों के उपभोग में सुख की कामना करता है, वह अवास्तविक है। वास्तविक यह है कि सुख पदार्थों के उपभोग में नहीं। उनके त्याग में है। __ मनुष्य प्रियता में सुख और अप्रियता में दुःख की कल्पना करता है। वह प्रियता और अप्रियता को .. पदार्थों से संबंधित मानता है। यह भ्रम है। प्रियता और अप्रियता पदार्थों में नहीं, मनुष्य के मन में होती है। जिन पदार्थों के प्रति मनुष्य का लगाव है, वहां वह प्रियता की और जहां लगाव नहीं है, वहां अप्रियता की. कल्पना करता है। यह सारा दुःख है। बाह्य पदार्थों के प्रति आसक्ति रहते हए बुद्धि का द्वार नहीं खुलता। विवेक वहीं जागृत होता है, जहां पदार्थासक्ति नहीं होती। मोह के रहते आसक्ति नहीं छूटती और इसका नाश हुए बिना वास्तविक सुख की अनुभूति नहीं होती। इस अध्याय में वास्तविक सुख के स्वरूप और साधनों की चर्चा की गई है। साधक पदार्थों से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता, किन्तु वह पदार्थों के प्रति होनेवाली आसक्ति से मुक्त हो सकता है। यह मुक्ति साधना-सापेक्ष होती है। इस विमुक्त अवस्था का अनुभव ही वास्तविक सुख और आनंद है। मेघः प्राह १. सुखानि पृष्ठतः कृत्वा, किमर्थं कष्टमुद्वहेत्। मेघ बोला-सुखों को पीठ दिखाकर कष्ट क्यों सहा जाए. जीवनं स्वल्पमेवैतत्, पुनर्लभ्यं न वाऽथवा॥ जबकि जीवन की अवधि स्वल्प है और कौन जाने, वह फिर प्राप्त होगा या नहीं? ॥ व्याख्या ॥ दो विचारधाराएं सदा से प्रचलित रही है-अनात्मवादी और आत्मवादी। अनात्मवादी विचारधारा के अनुसार जो कुछ दृश्य है, वही सब कुछ है। उसके आगे-पीछे कुछ भी नहीं है। जीवन दुर्लभ है, अतः इसमें जो कुछ सुख-भोग किया जाए वही सार है। इस विचारधारा ने मनुष्य को पौद्गलिक सुख की ओर प्रेरित किया और मनुष्य ने अपनी सारी शक्ति इसी को जुटाने में लगा दी। फलतः वह पौद्गलिक सुखों के उपभोग से जर्जर होता गया और अंत में उसने देखा कि उसकी अतृप्ति, जो वास्तव में ही दुःख-परंपरा की जननी है, बढ़ती ही चली जा रही है। एक अतृप्ति से अनेक अतृप्तियां बढ़ीं और मनुष्य उन्हीं में भटक गया। दूसरी विचारधारा ने मनुष्य को आत्म-केन्द्रित बनाया और उसे पौद्गलिक सुखों से होनेवाली दुःख-परंपरा का बोध दिया। उसने सोचा- 'खणमेत्त सोक्खा, बहुकाल दुक्खा'-इन्द्रियजन्य सुख क्षणमात्र स्थायी होता है। वह अनंत काल तक दुःखों को बढ़ाता रहता है। इस विवेकचक्षु ने उसमें पौद्गलिक सुखानुभूति के प्रति विराग पैदा किया और वास्तविक सुख जो आत्म-सापेक्ष है, की ओर प्रेरित किया। मेघ साधक था, सिद्ध नहीं। अभी उसमें इन्द्रियजन्य सुखों के प्रति आसक्ति थी। उसने सोचा-'प्राप्त का त्याग और अप्राप्त की आकांक्षा अवास्तविक है। जो प्रत्यक्ष है वह सत्य है, जो परोक्ष है उसमें सत्य का आरोप मृगमरीचिका मात्र है। इसलिए प्रत्यक्ष सुखों को छोड़कर, परोक्ष सुखों की ओर दौड़ते जाना बुद्धिमत्ता नहीं है। उसका 'संशयग्रस्त Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १३९ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा मन भगवान के चरणों में खुलता है। उसने कहा- 'भगवन् ! प्राप्त सुखों को छोड़कर अप्राप्त सुखों के लिए इतने कष्टों को सहन करने में कौन-कौन से साधक तत्त्व हैं ?' भगवान् प्राह २. सुखासक्तो मनुष्यो हि, कर्त्तव्याद् विमुखो भवेत् । धर्मे न रुचिमाधत्ते, विलासाबद्धमानसः ॥ ॥ व्याख्या ॥ भगवान् ने कहा- पौद्गलिक सुखों का उपभोग अतृप्ति को बढ़ाता है। अतृप्त मन कामनाओं के जाल बुनता है। कामनाएं मोह पैदा करती हैं। मूढ़ व्यक्ति में धर्म का निवास नहीं होता क्योंकि उसका मन कामनाओं से अपवित्र जाता है। अपवित्र व्यक्ति में धर्म नहीं ठहरता। 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ' - धर्म पवित्र व्यक्ति में ही ठहरता है। जहां धर्म नहीं रहता, वहां मोह की प्रबलता होती है। मूढ़ व्यक्ति कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं जानता । इस अविवेक से वह एक के बाद दूसरी मूढ़ता करता जाता है और अंत में विषादग्रस्त हो नष्ट हो जाता है। ३. कर्त्तव्यञ्चाप्यकर्त्तव्यं, भोगासक्तो न शोचति । कार्याकार्यमजानानो, लोकश्चान्ते विषीदति ॥ भोग में आसक्त रहने वाला व्यक्ति कर्त्तव्य और अकर्तव्य के बारे में सोच नहीं पाता । कर्त्तव्य और अकर्तव्य को नहीं जानने वाला व्यक्ति अंत में- परिणाम काल में विषाद को प्राप्त होता है। मेघः प्राह सुखं स्वाभाविकं भाति, दुःखमप्रियमङ्गिनाम् । तत् किं दुःखं हि सोढव्यं, विहाय सुखमात्मनः ॥ भगवान् प्राह ५. यद् सौख्यं पुद्गलैः सृष्टं, दुःखं तद् वस्तुतो भवेत् । मोहाविष्टो मनुष्यो हि, सद् तत्त्वं नहि विन्दति ॥ भगवान् ने कहा- जो मनुष्य सुख में आसक्ति रखता है और विलास में रचा- पचा रहता है, उसकी धर्म में रुचि नहीं होती, वह कर्तव्य से भी विमुख हो जाता है। मेघः प्राह ६. को मोहः किञ्च तन्मूलं, को विपाको हि देहिषु । इति विज्ञातुमिच्छामि, चक्षुरुन्मीलय प्रभो ! ॥ मेघ बोला - प्राणियों को सुख स्वाभाविक लगता है, प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय । तब सुख को ठुकराकर दुःख क्यों. सहा जाए ? भगवान् ने कहा- जो सुख पुद्गलजनित है, वह वस्तुतः दुःख है, किन्तु मोह से घिरा हुआ मनुष्य इस सही तत्त्व तक पहुंच नहीं पाता। ॥ व्याख्या ॥ वस्तु-जन्य सुख वास्तव में सुख नहीं, सुखाभास है। ज्यों-ज्यों उसका उपभोग किया जाता है, त्यों-त्यों उसके प्रति अनुराग बढ़ता है और उससे कामनाएं कभी तृप्त नहीं होतीं। इसलिए यह आपातभद्र है, परिणामभद्र नहीं। खुजली के रोगी को खुजलाने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु वह परिणाम में सुखावह नहीं होती । वस्तुतः वह दुःखों को जन्म देती है। साधक में पौद्गलिक सुख और आत्मिक सुख के पार्थक्य का स्पष्ट विवेक होना चाहिए। वह न इनकी आकांक्षा करे और न इसमें फंसे। ये दुर्गति के चक्रव्यूह की रचना करते हैं। जिस व्यक्ति में मोह प्रबल होता है, उसी में पौद्गलिक सुखों के प्रति आसक्ति रहती है। ज्यों-ज्यों मोह का विलय होता है, त्यों-त्यों आसक्ति भी विलीन होती जाती है। पदार्थों के प्रति आसक्ति से मोह बढ़ता है और मोह से पदार्थों के प्रति आसक्ति बढ़ती है, इस चक्रव्यूह को वही तोड़ सकता है, जो कामनाओं से विरत है। मेघ बोला-मोह क्या है ? उसका मूल स्रोत क्या है? वह प्राणियों को क्या फल देता है? मैं यह जानना चाहता हूं। प्रभो ! ज्ञानचक्षु को उद्घाटित करें। 'मेरे आप Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १४० खण्ड-३ भगवान् प्राह ७. चिद्विकारकरो मोहः, अज्ञानं मूलमिष्यते। सम्यक्त्वञ्चापि चारित्रं, विमोहयति संततम्॥ भगवान् ने कहा-मोह वह है, जो चेतना को विकृत बनाता है। उसका मूल है-अज्ञान। उसका विपाक है-सम्यक्त्व और चारित्र को सतत विमूढ बनाए रखना। . ॥ व्याख्या ॥ चेतना को विकृत करने वाला कर्म है-मोह। उससे व्यक्ति पागल की भांति चेष्टा करता है। जैसे पागल व्यक्ति संज्ञा-शून्य होता है वैसे ही मोह- ग्रस्त व्यक्ति भी विवेकशून्य होता है। अहंकार और ममत्व ये मोह की ही अवस्थाएं हैं। इस मोह ने जगत को अंधा बना रखा है। 'न मैं और न मेरा' यह मंत्र हाथ लग जाए तो मोह का संसार उजड़ सकता है। यथार्थ 'मैं' अहं को भूलकर नकली 'मैं' को पकड़कर अपने आपको धोखा दिये जा रहा है। जो अपना नहीं है उसे अपना मानकर व्यर्थ संताप और यातना उठा रहा है। संयोग और वियोग के दुश्चक्र में कभी हंसता है, कभी रोता है, कभी कुछ करता है और कभी कुछ। यह सब मोह का प्रतिफल है। अज्ञान-स्व-बोध के अभाव के कारण मोह की जड़े जमी हुई हैं। अज्ञान तम है। उसमें कुछ दिखाई नहीं देता। प्रकाश की किरण प्रस्फुटित होने पर ही तम का नाश होता है, वैसे ही ध्यान की प्रकाश रश्मियों से मोह का पर्दा हटता है। यथार्थ दृष्टि और यथार्थ आचरण-ये दोनों इसी मोह के कारण विकृत होते हैं। अज्ञान से यहां ज्ञान का अभाव अभिप्रेत नहीं है, आत्मबोध का अभाव अभिप्रेत है। ८. दृष्टिमोहेन मूढोऽयं, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते। दर्शनमोह से मूढ बना हुआ मनुष्य मिथ्यात्व को प्राप्त होता मिथ्यात्वी घोरकर्माणि, सृजन् भ्राम्यति संसृतौ॥ है। मिथ्यात्वी घोर कर्मों का उपार्जन करता हुआ संसार में : परिभ्रमण करता है। . ९. मूढश्चारित्रमोहेन, रज्यति द्वेष्टि च क्वचित्। चारित्र-मोह से मूढ बना हुआ मनुष्य किसी पर राग करता है रागद्वेषौ च कर्माणि, स्रवतस्तेन संसृतिः॥ और किसी पर द्वेष करता है। राग-द्वेष से कर्म का आत्मा में आस्रवण होता है और उससे संसार-जन्म-मरण की परंपरा चलती है। ॥ व्याख्या ॥ मोह-कर्म की वर्गणाएं आत्मा के सम्यग् दर्शन और सम्यग् चारित्र को प्रभावित करती हैं। उसकी प्रबल उदयावस्था में आत्मा में न सम्यग् दर्शन होता है और न सम्यग् चारित्र। अथवा मोह की सघनता में विचार और आचार पवित्र नहीं रह सकते। विचारों की अपवित्रता से असत्य के प्रति आग्रह बढ़ता है, सत्य में अविश्वास प्रबल हो उठता है। दुराग्रह से मिथ्यात्व प्रबल हो जाता है। उस व्यक्ति में अनेक प्रकार के मिथ्यात्व आविर्भूत होते हैं, जैसे १. एकांतिक मिथ्यात्व-आत्मा अनित्य ही है, आत्मा नित्य ही है, आदि-आदि। २. सांशयिक मिथ्यात्व-आत्मा है या नहीं, स्वर्ग है या नहीं। ३. वैनयिक मिथ्यात्व-सभी धर्म समान हैं, दूध-दूध एक है-चाहे फिर वह आक का हो या गाय का। ४. पूर्वव्युत्याहिक-जो स्वयं ने मान लिया, उसी को अंतिम सत्य मानना। ५. विपरीतता-चेतन को जड़ और जड़ को चेतन मानना। ६. निसर्ग मिथ्यात्व-जन्मान्ध की भांति तत्त्व-अतत्त्व से अपरिचित। ७. मूढ़ दृष्टि-सत्य और असत्य के निर्णय में असमर्थता। राग-द्वेष की विनिवृत्ति चारित्र का अर्थ अपने में स्थित होना है। जहां किंचित् मात्र भी राग-द्वेष की अभिव्यक्ति है, वहां विशुद्ध आत्मा का परिज्ञान नहीं होता। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १४१ अ. २: सुख-दुःख मीमांसा चारित्र मोह का उदय आत्म-स्थिति का बाधक है। आत्म-स्थित व्यक्ति बाहरी पदार्थों पर न अनुराग करता है। और न द्वेष । द्वेष का हेतु मोह है। मोहाविष्ट व्यक्ति सही तत्त्व को जानता हुआ भी उसका आचरण नहीं कर सकता । तथ्य ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की घटना से स्पष्ट होता है यह ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मुनि चित्त के पास आया। मुनि ने सोचा - 'यह भोगासक्त है। यह कर्तव्य अकर्तव्य से विमुख ही नहीं, कर्तव्य - भ्रष्ट भी है। मैं इसे जागृत करूं।' मुनि ने उसे भोग - विरक्ति की प्रेरणा दी। ब्रह्मदत्त ने कहा - 'प्रभो! मैं जानता हूं कि भोग अशाश्वत है। मनुष्य इनसे मुक्त नहीं हो सकता। वह इनको बढ़ाता है और दुःख का संग्रह करता है मेरा कैसा व्यामोह है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी काम भोगों में मूर्च्छित हो रहा हूं।' राग-द्वेष का प्रवाह कर्म की सृष्टि करता है। कर्म युक्त आत्मा जन्म-मरण की परंपरा को छिन्न नहीं कर पाती । १०. यथा च अण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च । एवञ्च मोहायतनं हि तृष्णा, मोहश्च तृष्णायतनं वदन्ति ॥ ११. रामश्च दोषोऽपि च कर्मबीजं, कर्माऽथ मोहप्रभवं वदन्ति । दुःखं च जातिं मरणं वदन्ति ॥ कर्माऽपि जातेर्मरणस्य मूलं, १२.दुःखं हतं यस्य न चास्ति मोहो, मोहो तो यस्य न चास्ति तृष्णा । तृष्णा हता यस्य न चास्ति लोभो, लोभो हतो यस्य न किञ्चनास्ति । जैसे बलाका अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म मरण को दुःख कहा गया है। जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया और जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया। || व्याख्या || 'मोहायतन' का अर्थ है - मोह की उत्पत्ति का स्थान । मोह की जड़ तृष्णा है। तृष्णा का अर्थ है - प्राप्त के प्रति असंतोष और अप्राप्त की आकांक्षा । तृष्णा मोह को सदा हरा-भरा रखती है। संसार के सभी पदार्थों पर काल का प्रभाव पड़ता है, किन्तु तृष्णा सदा तरुण रहती है। वह कभी जर्जर नहीं होती। जिसने तृष्णा को जीत लिया, वह सर्वजित् है । मोह बढ़ता है। जब मोह प्रबल होता है, तब मोह और तृष्णा का अविनाभाव संबंध है। तृष्णा बढती है, तब तृष्णा भी प्रबल होती है। इसके साथ-साथ राग और द्वेष भी बढ़ते हैं। राग और द्वेष इसी के बीज हैं। सारे दुःखों की उत्पत्ति इनसे होती है एक बार श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- 'पार्थिव विश्व के सभी प्राणी इच्छा-राग और द्वेषवश संसार के आवर्त में फंसे पड़े हैं।' राग-द्वेष कर्म को उत्पन्न करते हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं। कर्म ही जन्म-मरण की परंपरा के मूल हैं जन्म-मरण ही दुःख है दुःखोत्पत्ति के कारणों की विद्यमानता में दुःख का अंत नहीं होता । दुःखों का अंत मोह के मूलोच्छेद से ही संभव हो सकता है। मोह का सर्वथा नाश होने पर राग-द्वेष का मूलोच्छेद हो जाता है। तृष्णा नष्ट हो जाती है। तृष्णा के अभाव में दुःख नष्ट हो जाता है। तृष्णा का जन्मदाता लोभ है। लोभ सभी पापों का निमित्त और सद्गुणों का विनाशक है। अलोभ का अर्थ है आकिंचनता जिसका अपना कुछ भी नहीं वह अकिंचन है। आकिंचन्य की अवस्था में होनेवाला आनंद अनिर्वचनीय होता है वह आत्म-गम्य है। एक योगी ने कहा है अकिञ्चनोऽहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिभवत् । योगिगम्यमिदं प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १४२ खण्ड-३ अपने आपको अकिंचनता की अनुभूति में रख। तीन लोक का अधिपति हो जाएगा। यह परमात्मा का योगिगम्य रहस्य तुझे बताया गया है। मेघः प्राह १३.ज्ञातो मोहप्रपञ्चोऽयं, ज्ञातं दुःखस्य कारणम्। मेघ बोला-मैं मोह के प्रपंच को जान चुका हं और दुःख का कथमुन्मूलितं तत् स्याद्, ज्ञातुमिच्छामि संप्रति॥ मूल कारण मोह है, यह भी जान चुका हूं। प्रभो! उसका उन्मूलन कैसे हो? अब मैं यह जानना चाहता हूं। ॥ व्याख्या ॥ किसी वस्तु-विषय को जान लेना अलग बात है कितु उसका परिशोधन करना तथा व्यवहार में आचरण करना अलग बात है। ज्ञान और क्रिया दोनों की संगति होने पर ही कार्य की सिद्धि होती है। इसलिए कहा है-'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' बंधन मुक्ति का ज्ञान और उस दिशा में कर्म करना ही मुक्ति का उपाय है। मेघ को मोह के विषय में जानकारी हो गई, वह समझ गया कि मोह का कितना फैलाव है और वह अपने जीवन को कैसे प्रभावित करता है, किन्तु उसका उन्मूलन कैसे किया जाए ? इस प्रक्रिया से वह अनभिज्ञ है। अतः उसके नाश की प्रक्रिया के विषय में वह जानना चाहता है। भगवान् प्राह १४.रागंच दोषं च तथैव मोहं, भगवान् ने कहा-राग, द्वेष और मोह का मूलसहित उन्मूलन ___उद्धर्तुकामेन समूलंजालम्। चाहने वाले मनुष्य को जिन-जिन उपायों का आलंबन लेना ये येऽप्युपाया अभिसेवनीयाः, चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूंगा। तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्वम्॥ १५. रसाः प्रकामं न निषेवणीयाः, रसों का अधिक मात्रा में सेक्न नहीं करना चाहिए। वे प्रायः प्रायो रसा दृप्तिकरा नराणाम्। मनुष्य की धातुओं का उद्दीप्त करते हैं। जिसकी धातुएं उद्दीप्त दृप्तञ्च कामा समभिद्रवन्ति, होती हैं, उसे काम-भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष द्रुमं यथा स्वादुफलं विहङ्गाः॥ को पक्षी। ॥ व्याख्या ॥ मोह का उन्मूलन अनेक साधनों से होता है। उसमें पहला साधन है-आहार-विजय। स्वास्थ्य का संबंध मन और भोजन दोनों से है। कहा जाता है कि नब्बे-प्रतिशत बीमारियां मन में उत्पन्न होती हैं। चिंता, ईर्ष्या, भय, उद्वेग, क्रोध, अहंकार, प्रतिशोध आदि दूषणों से मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। इनसे आक्रांत मन दूषित रहता है। वह अनिष्ट कल्पनाओं का ताना-बाना बुनता रहता है। वह कहीं स्थिर नहीं रहता। मानसिक रोगी में विशुद्ध प्रेम और पवित्रता का अभाव रहता है। अस्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का विकास निषिद्ध नहीं है किन्तु उत्कृष्ट साधना के लिए शारीरिक संस्थान भी अपेक्षित है। अस्वस्थ शरीर मन को भी अस्वस्थ बना देता है। एकाग्रता की साधना में स्वस्थ मन जितना अपेक्षित है, उतना ही स्वस्थ शरीर भी अपेक्षित है। यह ऐकांतिक सत्य नहीं है, फिर भी शरीर की स्वस्थता के लिए आहारविवेक परम आवश्यक है। 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन'-इसमें बहुत कुछ सचाई है। आहार शरीर और मन दोनों को प्रभावित करता है। असात्त्विक आहार से उत्तेजना बढ़ती है और इससे मन भी प्रभावित होता है। खाद्य-संयम के तीन पहलू हैं : १. खाने के पदार्थों की संख्या में कमी करना। २. अति-आहार का वर्जन करना। ३. कामोद्दीपक पदार्थों के सेवन का वर्जन करना। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १४३ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा १६. यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने, जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में लगा समारुतो नोपशमं छुपैति। हुआ दावानल उपशांत नहीं होता, उसी प्रकार अतिमात्र खाने वाले एवं हृषीकाग्निरनल्पभुक्तेः, की इंद्रियाम्मि-कामाग्नि शांत नहीं होती। इसलिए प्रकामन शान्तिमाप्नोति कथञ्चनापि॥ अतिमात्र भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता। ॥ व्याख्या ॥ . इंद्रिय-संयम और आहार-संयम का घनिष्ठ संबंध है। आहार-संयम से इन्द्रिय-संयम फलित होता है। जिस व्यक्ति का आहार संयमित नहीं होता, उसे इन्द्रियों के विषय बहुत सताते हैं। अनियमित आहार, अति आहार या अत्यल्प आहार-ये तीनों शरीर के लिए हानिकारक हैं। अति आहार से सारे धातु विषम हो जाते हैं। इस विषम स्थिति में अनेक रोग शरीर को आक्रांत कर देते हैं। व्यक्ति अति आहार करता है, इसके कई कारण हैं : १. रसगृद्धि। ३. भोजन संबंधी नियमों की अजानकारी। २. आहार-संज्ञा की प्रबलता। ४. झूठी भूख। अति-आहार करनेवाला योग में प्रवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें चंचलता का आधिक्य रहता है। गीता में लिखा है-'नात्यर्थमश्नतो योगः'-जो अधिक खाता है, वह योग की साधना नहीं कर सकता। योगी को सदा सूक्ष्म आहार करना चाहिए। सूक्ष्म आहार से इन्द्रियां शांत रहती हैं। इन्द्रियों की प्रशांत अवस्था में मन की एकाग्रता सधती है। आचार्य भिक्षु ने पेटू व्यक्ति की अवस्था का सुन्दर चित्र खींचा है-'जो ढूंस-ठूसकर आहार करता है, वह प्यास लगने पर पानी भी नहीं पी सकता। पानी के अभाव में उसका खाया हुआ अन्न पचता नहीं। पेट फटने लगता है। उस व्यक्ति को क्षण-भर भी चैन नहीं होता, उसे नींद नहीं आती और वह पलभर भी शांत नहीं रह सकता। धीरे-धीरे - अनेक रोग उसे घेर लेते हैं और अंत में वह बुरी तरह से मृत्यु को प्राप्त होता है।' . १७.विविक्तशय्यासनयन्त्रितानां, जो एकांत बस्ती और एकांत आसन से नियंत्रित हैं, जो कम अल्पाशनानं दमितेन्द्रियाणाम्। खाते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं, उनके मन को राग-शत्रु वैसे ही रागो न वा धर्षयते हि चित्तं, आक्रांत नहीं कर सकता जैसे औषध से पराजित रोग देह को। पराजितो व्याधिरिवौषधेन॥ ॥ व्याख्या ॥ एकांतवास-मन की एकांतता में एकांत है और अनेकांतता में अनेकांत। सब जगत् एकांत है और एकांत कहीं भी नहीं है। मन को एकांत करने के लिए भी निमित्तों का महत्त्व गौण नहीं होता। निमित्त की प्रतिकूलता में एकांत मन द्वैध में चला जाता है। अव्यक्त अवस्था में वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसा कहना कठिन है। प्रबुद्ध मन पर उसका असर नहीं होता, यह कहा जा सकता है। मन की प्रबुद्धता के लिए वातावरण भी वैसा प्रस्तुत करना अपेक्षित है। जो अतीत की असत् प्रवृत्तियों की शुद्धि कर चुका है, वर्तमान में उनसे विरत है और भविष्य में असत् प्रवृत्ति न करने का जिसका संकल्प है, उस व्यक्ति के लिए सर्वत्र एकांत है। चाहे वह गांव में रहे या जंगल में, प्रगट में रहे या अप्रगट में, वह असत् चिंतन कर ही नहीं सकता। साधना का यह उत्कर्ष रूप है। साधक सीधा वहां नहीं पहुंच सकता। इसलिए प्रारंभ में एकांत वातावरण में मन को साधे और इन्द्रियों को साधे। मन और इन्द्रियों का साध लेने पर स्वप्न में भी उसका मन चलित नहीं हो सकता। एकांतवास का यह भी अर्थ है कि साधक समूह में रहता हुआ भी अकेला रहे, एकांत में रहे। इसका तात्पर्य यह है कि वह बाह्य वातावरण से प्रभावित न हो और ‘एकोऽहम्' इस मंत्र को आत्मसात् करता हुआ चले। स्थान की एकांतता से भी मन की एकांतता का अधिक महत्त्व है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १८. कामानुगृद्धिप्रभवं हि दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवतस्य । यत् कायिक मानसिकञ्च किञ्चित्, १४४ तस्यान्तमाप्नोति च वीतरागः ॥ || व्याख्या || कामना से जो मुक्त है, वह दुःख से मुक्त है। जो उससे अछूता नहीं है वह दुःख से भी अछूता नहीं है। यह समूचा विश्व उसी से पीड़ित हैं-'काम कामी खलु अयं पुरिसे जो इच्छाओं के वशवर्ती है वह शोक करता है, परिताप करता है और सदा बेचैन रहता है। इससे मुक्त न देवता हैं, न मनुष्य और न पशु मुक्त है केवल वीतराग । राग इच्छा का अभिन्न साथी है। कामना का फंदा स्वतः टूट जाता है जब हम राग से विमुक्त हो जाते हैं। अशाश्वत पदार्थों. में जो अनुराग - प्रेम है वही राग है। शाश्वत सत्य में रति होने पर संसार विनश्वर प्रतीत होने लगता है । फिर साधक किससे प्रेम करे और किससे अप्रेम वह मध्यस्थ हो जाता है। यह मध्यस्थता ही वीतरागता है। १९. मनोज्ञेष्वमनोज्ञेषु, स्रोतसां विषयेषु यः । न रज्यति न च द्वेष्टि, समाधिं सोऽधिगच्छति ॥ २०. अमनोज्ञा द्वेषबीजं, रागबीजं मनोरमाः । द्वयोरपि समः यः स्याद् वीतरागः स उच्यते ॥ मेघः प्राह २१. कानि स्रोतांसि के वा स्युः, कथं तेषां निरोधः स्याद्, विषयाश्च प्रियाप्रियाः ? इति श्रोतुं समुत्सुकः ॥ खण्ड - ३ और जीवों के क्या, देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतराग उस दुःख का अंत पा जाता है। - २२. स्पर्शा रसास्तथा गन्धा, रूपाणि निनदा इमे । विषया ग्राहकान्येषां इन्द्रियाणि यथाक्रमम् ॥ २३. स्पर्शनं रसनं घ्राणं, घ्राणं चक्षुः श्रोत्रञ्चपञ्चम् । एषां प्रवर्तकं प्राहुः, प्राहुः, सर्वार्थग्रहणं मनः ॥ ( युग्मम्) मनोश और अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों में जो राग और द्वेष नहीं करता, वह समाधि-मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होता है। अमनोज्ञ विषय द्वेष के बीज हैं और मनोज्ञ विषय राग के बीज हैं जो दोनों में सम रहता है, राग-द्वेष नहीं करता, वह वीतराग कहलाता है। मेघ बोला- खोत कौन से हैं? प्रिय और अप्रिय विषय क्या हैं? उनका निरोध कैसे हो सकता है? मेरे मन में इन्हें जानने की उत्कंठा है। ॥ व्याख्या || पांच इन्द्रियां स्रोत है। विषयों का प्रवेश इनके द्वारा होता है। विषय स्वयं न अच्छे हैं, न बुरे हैं। वे ग्राहक की मनःस्थिति के कारण अच्छे-बुरे, प्रिय या अप्रिय बनते हैं। प्रिय विषय प्राणी को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं और अप्रिय विषय अपने से दूर करते है। प्रियता राग है और अप्रियता द्वेष है। दोनों ही चित्त वृत्ति को चंचल करते हैं, मन को उद्विग्न करते हैं, आत्मा को अपने केन्द्र से विच्युत करते हैं। आत्मस्थ रहने के लिए साधक को कहा जाता है अपने मन को दोनों तरफ मत जाने दो, तटस्थ रहो। तटस्थता समता है, शांति है, और यही है वीतरागता । वीतरागता का अर्थ केवल राग से रहित होना ही नहीं है, द्वेष से भी मुक्त होना है। भगवान् प्राह स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द-ये पांच हैं और इनको ग्रहण करने वाली क्रमशः ये पांच इन्द्रियां हैं- स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों का प्रवर्तक और सब विषयों को ग्रहण करने वाला मन होता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १४५ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ॥ व्याख्या ॥ इन्द्रियों के विषय नियत हैं। इन्द्रियां अपने-अपने नियत विषयों को ग्रहण करती हैं। आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। कान सुन सकते हैं, देख नहीं सकते। मन भी इन्द्रिय है, किन्तु इसका विषय नियत नहीं है। वह पांचों इन्द्रियों का प्रवर्तक है, इसीलिए वह शक्तिशाली इन्द्रिय है। जैन आगमों में स्थान-स्थान पर मनोविजय पर अधिक बल दिया गया है। वह इसीलिए कि मन को जीत लेने पर पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। ब्राह्मण के वेश में आए हुए इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा-'आप अपने शत्रुओं को जीतकर प्रव्रजित हों तो अच्छा रहेगा।' नमि ने कहा-'बाह्य शत्रुओं को जीतने से क्या? जो एक मन को जीत लेता है, वह पांचों इन्द्रियों को जीत लेता है, वह समूचे विश्व पर विजय पा लेता है।' शंकराचार्य से पूछा गया-'जितं जगत् केन'-संसार को जीतनेवाला कौन है? उन्होंने कहा-'मनो हि येन'-जिसने मन को जीत लिया, उसने सारे संसार को जीत लिया। - कबीर ने कहा है- 'मन सागर मनसा लहरी, बूड़े बहुत अचेत। कहहि कबीर ते बांचि है, जिनके हृदय विवेक॥ मन गोरख मन गोविन्दो, मन ही औच्चड होइ। ___ जो मन राखे जतन करि, तो आपे करता होई॥' चंचल चित्त सागर की ऊर्मियां हैं तो शांत-मन अनंत सागर है। मन पर विजय पाने का एकमात्र सूत्र है-जागरूकता, विवेकी होना। मन जब जागरूक सावधान होता है, तब वह अपनी चंचलता पर नियंत्रण कर लेता है। चंचलता रुकती है, तब मन का चेतना में विलय हो जाता है। वह सचेतन हो उठता है। बाहर भी मनुष्य को मन ले जाता है तो भीतर भी वही ले आता है। हम मन के चंचल पक्ष को ही न पकड़ें, उसके शांत पक्ष पर भी ध्यान दें। साधना का उद्देश्य है मन को शून्य करना। मन पर विजय पाना कठिन अवश्य है किनतु असंभव नहीं। अभ्यास से यह सध सकता है। मन को इतना खुला भी मत छोड़ो कि वह नियंत्रण के बाहर हो जाए और उसका इतना दमन भी मत करो कि वह और अधिक चंचल बन जाए। उसका ठीक-ठीक नियंत्रण होना आवश्यक है। मन का नियंत्रण साधना-सापेक्ष होता है। प्रतिदिन उसका अभ्यास होना चाहिए। मन गतिशील है। उसको रोका नहीं जा सकता। उसकी गति बदली जा सकती है। जो मन असत् चिंतन या क्रिया में प्रवृत्त होता है, उसे साधना द्वारा सत् चिंतन या सत्क्रिया में प्रवृत्त किया जा सकता है। इसी का नाम है मन पर विजय। . कामनाओं का उत्स है मोह। मोह की सघनता से कामनाएं बढ़ती हैं। ज्यों-ज्यों मोह क्षीण होता है, कामनाएं क्षीण होती जाती हैं। वीतराग में मोह का पूर्ण विलय हो जाता है। अतः वे कामनाओं से मुक्त होते हैं। २४.न रोर्बु विषयाः शक्याः, इन्द्रिय-स्रोतों में आने वाले शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श विशन्तो विषयिव्रजे, आदि विषयों को नहीं रोका जा सकता, किन्तु उनमें होने वाले सङ्गो व्यक्तोऽथवाऽव्यक्तो, व्यक्त या अव्यक्त संग-मूर्छा अथवा आसक्ति को रोका जा रोधं शक्योस्ति तद्गतः॥ सकता है। ॥ व्याख्या ॥ इन्द्रियां केवल विषयों को ग्रहण करती हैं। विषयों के प्रति मनोजता या अमनोज्ञता पदार्थों में नहीं, मन की आसक्ति में निहित है। जिस व्यक्ति में आसक्ति कम है वह पदार्थों का भोग करता हुआ भी चिकने कर्मों से नहीं, जब तक शरीर है तब तक इन्द्रियों के विषयों को रोका नहीं जा सकता। कान न सुने, आंख न देखे-यह नहीं होता। सुनकर या देखकर उस पदार्थ के प्रति राग-द्वेष न लाना, यह व्यक्ति की साधना पर निर्भर है। साधना करतेकरते पदार्थों के प्रति आसक्ति मिटाई जा सकती है। साधना का यह फलित है। मन आसक्ति का उत्स है। वह ज्योंज्यों बहिर्मुख होता है, त्यों-त्यों आसक्ति बढ़ती जाती है। अंतर्मुख मन आसक्ति का पार पा लेता है। जब मन आत्मा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १४६ खण्ड-३ से सम्पर्क साध लेता है, तब बाह्य विषयों के प्रति आसक्ति मिट जाती है। इसलिए साधक विषयों को रोकने का प्रयत्न न करे, किन्तु मन को इतना साधे कि उसमें राग-द्वेष आए ही नहीं। मन को साधने का एक मार्ग है-पर्व मान्यताओं का त्याग। मान्यता का संसार बड़ा विचित्र है। प्रियता और अप्रियता मन की मान्यता ही है। मान्यता को छोड़े बिना यथार्थ ज्ञान नहीं होता। दो चींटियां थीं। एक चीनी के ढेर पर रहती और दूसरी नमक के ढेर पर। एक बार नमक के ढेर पर रहनेवाली चींटी, दूसरी चींटी से मिलने गई। चीनी के ढेर पर रहनेवाली चींटी ने उसका स्वागत किया और चीनी का एक दाना खाने के लिए आग्रह किया। उसने एक दाना खाया और तत्काल बोल उठी-'अरे, यह भी खारा है। चींटी ने कहा-'नहीं, चीनी मीठी होती है, खारी नहीं।' उसने कहा-'नहीं, मेरा मुंह खारा होता जा रहा है।' चीनी के ढेर पर रहनेवाली चींटी ने उसका मुंह देखा तो उसमें नमक का एक छोटा-सा कण दीखा। वह रहस्य को ताड़ गई। उसने कहा-'बहन! पहले इसको बाहर फेंक, तब तुझे चीनी मीठी लगेगी, अन्यथा नहीं। मान्यताओं को छोड़े बिना यथार्थ का ज्ञान नहीं होता। स्व और पर के यथार्थ ज्ञान के अनन्तर जो आचरण होता है वह मान्यता नहीं रहती। मान्यता के अभाव में प्रियता और अप्रियता की कल्पना ही टूट जाती है। २५.विषयेषु यतो मोहस्तेषामुत्पादनं ततः। ततो रक्षणचिन्ता च, सन्नियोगस्ततो भवेत्॥ संग से शब्द आदि विषयों में मोह होता है। मोह के कारण मनुष्य विषयों का उत्पादन करता है, फिर उनके संरक्षण की चिन्ता करता है, फिर उनका उपभोग करता है। २६.भुजतो विषयान् पुंसः प्रतिमोहोऽपि जायते। ततो विषयसंप्राप्तः, महेच्छा प्रस्फुटा भवेत्॥ २७.ततो द्रव्याजन शुद्धेः, विवेकोऽपि विलीयते। विवेके विलयं याते. मनःशान्तिर्विलीयते॥ (युग्मम्) विषयों का उपभोग करने वाले मनुष्य में प्रतिमोह- उनके प्रति फिर मोह पैदा होता है। उससे विषयों को पाने की उत्कट लालसा उत्पन्न हो जाती है। उससे धन के अर्जन में साधन-शुद्धि का विवेक विलीन हो जाता है। विवेक के विलीन होने पर मन की शांति विलीन हो जाती है। ॥ व्याख्या ॥ मृग शब्द-संगान की आसक्ति के कारण, पतंग-शलभ रूपासक्ति के कारण, भंवरां गंधासक्ति के कारण, मछली रसासक्ति के कारण और हाथी स्पर्शासक्ति के कारण बंधन, मृत्यु और पीड़ा को प्राप्त होते हैं। यह सब एक-एक इन्द्रिय की आसक्ति का फल है। जो व्यक्ति पांच इन्द्रियों के उपभोग में लीन होता है उसकी दशा का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। मनुष्य के पास इन्द्रियों का विकास है। इस विकास का उपयोग यदि वह विषय-संग में करता है तो वह अभिशाप बन जाता है और यही विकास यदि परम तत्त्व के साथ जुड़ जाता है तो वह अमरत्व प्रदान करने वाला बन जाता है। उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास मनुष्य की विषयासक्ति की तृप्ति के लिए न होकर उसकी अभिवृद्धि के लिए हो रहा है। विषयों का संग मोह-मूढ़ता को बढ़ाता है। मूढ़ता के कारण मनुष्य विषयों के उत्पादन, संग्रह, संरक्षण और उपभोग में डूबता है। इतना ही नहीं वह उपभोग में तन्मय बनकर मोह की नई श्रृंखला को निर्मित करता है। अपने हाथों उसमें आबद्ध हो जाता है। पदार्थों-विषयों की महेच्छा उसे धर्म से विमुख कर देती है। अर्थार्जन में शुचिता नहीं रहती। पदार्थ के लिए धन अपेक्षित रहता है। विशुद्ध अर्जन से उनकी पूर्ति नहीं होती तब निन्दनीय, अनाचरणीय, अनैतिक आदि अनेक दूषित वृत्तियों से अर्थ-संग्रह के प्रति प्रेरित होता है। विवेक चेतना विलुप्त हो जाती है और वह आगे-से-आगे तनाव, अशांति का शिकार बनता चला जाता है। मानसिक शांति उससे कोशों दूर चली जाती है। आदमी देख रहा है, अनुभव कर रहा है, फिर भी उस पथ से पीछे नहीं हटता, इससे बड़ी विमूढ़ता ओर क्या हो सकती है? विषयों का संग अशांति का ही जनक है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १४७ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा २८.विषयेष्वनुरक्तो हि, तदुत्पादनमिच्छति। विषयों में जो अनुरक्त है, वह उनका उत्पादन चाहता है। उनके रक्षणं विनियोगङ्च, भुजंस्तान् प्रति मुह्यति॥ उत्पन्न होने के बाद वह उनकी सुरक्षा चाहता है और सुरक्षित विषयों का उपभोग करता है। इस प्रकार उनका भोग करने वाला एक मूढता के बाद दूसरी मूढता का अर्जन कर लेता है। ॥ व्याख्या ॥ व्यक्ति में पहले पदार्थों के प्रति आकर्षण होता है। आकर्षण से प्रेरित होकर वह उन पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। ज्यों-त्यों उन्हें प्राप्त कर वह उन्हें सरक्षित रखना चाहता है और लंबे समय तक उनका उपभोग की इच्छा करता है। उपभोग से आसक्ति बढ़ती है और पुनः वह इसी प्राप्ति, संरक्षण और उपभोग के आवर्त में फंस जाता है। यह आवर्त तब तक समाप्त नहीं होता जब तक कि व्यक्ति मोह के पाश से छूट नहीं जाता। एक मूढ़ता दूसरी मूढ़ता को जन्म देती है। इस क्रम में व्यक्ति अनंत मूढ़ताओं का शिकार बनकर नष्ट हो जाता है। अर्थ के अर्जन में दुःख है और अर्जित के संरक्षण में और भी अधिक दुःख है। अर्थ आता है तब भी दुःख देता है और जाता है तब भी कष्ट देता है। २९.उत्पादं प्रति नाशो हि. निधिं प्रति तथा व्ययः। उत्पादन के पीछे नाश, संग्रह के पीछे व्यय, क्रिया के पीछे क्रियां प्रतिक्रिया नाम, साशयं लघु धावति॥ अक्रिया-ये प्राकृतिक नियम से जुड़े हुए हैं। ॥ व्याख्या ॥ इस सचाई को समझे बिना व्यक्ति सत्य के प्रति समर्पित नहीं हो सकता। केवल ज्ञान से जान लेना एक बात है और अनुभूति के आधार पर उसे परखना भिन्न बात है। जो केवल जानता है, अनुभूति नहीं रखता, वह सत्य का आस्वादन नहीं कर पाता और न स्वयं को सुरक्षित भी रख पाता है। हमने सुनी है एक घटना। एक घर में चोर घुसे। कुछ आहट से श्रेष्ठी-पत्नी की नींद टूट गई। उसने पति से कहा-'कुछ आवाज आ रही है। लगता है, चोर घर में घुस आये हैं।' श्रेष्ठी ने कहा-'मैं जानता हूं।' चोर जहां खजाना था, वहां पहुंच गये। पत्नी के कहने पर श्रेष्ठी ने 'मैं जानता हूं' कह कर टाल दिया। धन की थैलियां बांध ली और चलने लगे, तब फिर पत्नी ने संकेत किया तो वही उत्तर मिला कि 'मैं जानता हूं'। परिणाम जो आना था वही आया। चोर सबकुछ लेकर चले गए। . उत्पत्ति विनाश से मुक्त नहीं हैं, संग्रह व्यय से शून्य नहीं है और क्रिया विश्राम से खाली नहीं है। केवल जान लेना बंधन से मुक्त नहीं करता। मुक्ति के लिए अंतर्बोध अपेक्षित है। जिस दिन मनुष्य के अंतःकरण में यह बोध हो जाता है, उस दिन उसके कदम शाश्वत की दिशा में स्वतः उठने लग जाते हैं। ३०.अतृप्तो नाम भोगाना, विगमेन विषीदति। अतृप्त व्यक्ति भोगों के विलय से विषाद को प्राप्त होता है ___ अतृप्त्या पीडितो लोक, आदत्तेऽदत्तमुच्छ्रयम्॥ और अतृप्ति से पीड़ित मनुष्य उन्मुक्त भाव से चोरी करता है। ॥ व्याख्या ॥ - व्यक्ति स्वभावतः वर्तमान-द्रष्टा होता है, परिणाम-द्रष्टा नहीं। वह वर्तमान के आधार पर अपने विचार या कार्य को तोलता है, उसके परिणाम को नहीं देखता। जो व्यक्ति परिणाम-द्रष्टा होता है, उसे क्षणिक सुख लुभावने नहीं लगते। उसकी प्रत्येक क्रिया आत्माभिमुखी होती है। उसका प्रत्येक चरण शाश्वत सुख की उपलब्धि की ओर बढ़ता है। ____जो व्यक्ति वर्तमानदर्शी है उसे इन्द्रियजन्य सुख तृप्तिकर लगते हैं। वह उनमें इतना रचा-पचा रहता है कि वे उसे आगे से आगे आकर्षक लगने लगते हैं। इन्द्रियजन्य सुख से तृप्ति नहीं होती, अतृप्ति बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों विषयों का उपभोग होता है, अतृप्ति की वृद्धि होती है और व्यक्ति उसी में फंसा रह जाता है। तृप्ति वस्तुओं के उपभोग में नहीं, उनके त्याग में है। पदार्थ-त्याग से आसक्ति घटती है और आसक्ति की हानि से अतृप्ति सिमटती जाती है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १४८ खण्ड-३ el ज्यों-ज्यों त्याग बढ़ता है, त्यों-त्यों तृप्ति बढ़ती है। ज्यों-ज्यों भोग बढ़ता है, अतृप्ति भी उसी अनुपात से बढ़ती जाती है। अतृप्ति अनेक दोषों को उत्पन्न करती है। अतृप्त व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और येनकेन प्रकारेण पदार्थप्रापित के लिए प्रयत्नशील रहता है। इस प्रवृत्ति-बहुलता का कहीं अंत नहीं होता। व्यक्ति इसी आवर्त में प्राण खो बैठता है। 'अतृप्त व्यक्ति चोरी करता है' यह अतृप्ति का परिणाम है। डाका डालना ही चोरी नहीं है, किन्तु शोषण करना, मिलावट करना, दूसरों को ठगना-ये सब चोरी के प्रकार हैं। अतप्त व्यक्ति इन सब दोषों का शिकार बन जाता है। संतुष्ट व्यक्ति इन सबसे अछूता रहता है। तृप्ति और अतृप्ति का केन्द्र मन है। मन संतुष्ट होने पर धनवान् और गरीब का भेद नहीं रहता। भर्तृहरि ने कहा है-'मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।' एक कवि ने कहा है...... 'गोधन गजधन वाजिधन, और रतन धन खान। जब आवे संतोष धन, सब धन धूलि समान। सबसे बड़ा धन संतोष है-तृप्ति है। ३१.तृष्णया ह्यभिभूतस्य, अतृप्तस्य परिग्रहे। माया मृषा च वर्धते, तत्र दुःखान्न मुच्यते॥ जो तृष्णा से अभिभूत और परिग्रह से अतृप्त होता है, उसके माया और मृषा-दोनों बढ़ते हैं। माया और मृषा के जाल में फंसा हुआ व्यक्ति दुःख से मुक्त नहीं होता। ३२.पूर्व चिन्ता प्रयोगस्य, समये जायते भयम्। पश्चात्तापो विपाके च, मायया अनृतस्य च॥ जो माया और असत्य का आचरण करता है, उसे उनका प्रयोग करने से पहले चिन्ता होती है। प्रयोग करते समय भय और प्रयोग करने के बाद विपाक काल में पश्चात्ताप होता है। ॥ व्याख्या ॥ माया और असत्य-ये दो बड़े दोष हैं। इनके आचरण में साहस और चातुर्य की अपेक्षा रहती है। हर कोई इनका आचरण नहीं कर सकता। जो व्यक्ति इनका आचरण करता है, उसके मन में पहले चिंता उत्पन्न होती है। वह अपने मन में सुनियोजित योजना तैयार करता है कि मुझे वहां किस प्रकार से माया और असत्य का कथन या आचरण करना है। फिर किस प्रकार उन्हें आगे बढ़ाना है; सामने वाले व्यक्ति का कैसे निग्रह करना है, माया और असत्य के कथन को सत्य साबित करने के लिए मुझे कौन-कौन-सी दूसरी माया और असत्य का सहारा लेना है'-आदि-आदि चिंताओं से वह ग्रस्त हो जाता है। जब वह इनका आचरण कर चुकता है तब उसका मन भय से आक्रांत हो जाता है। उसमें यह भय रहता है कि कहीं मेरी माया और असत्य प्रकट न हो जाएं; कहीं मेरी प्रतिष्ठा नष्ट न हो जाए; कहीं मेरा बना-बनाया महल ढह न जाए। इस भय के कारण उसका मन अशांत हो जाता है और वह सुख की नींद सो नहीं सकता। इस प्रकार वह अशांति का शिकार हो जाता है। जब वह अपने आचरण के परिणामों पर दृष्टिपात करता है तब उसका आंतरिक मन, दूसरे के दुःख के कारण, रो पड़ता है और कभी-कभी पश्चात्ताप की आग उसमें भड़क उठती है और वह उसमें तिल-तिल कर जलता है। माया और असत्य मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के परम शत्रु हैं। एक माया और एक असत्य को सिद्ध करने के लिए प्रयोक्ता को हजार माया और हजार असत्य का सहारा लेना होता है। ३३.विषयेषु गतो द्वेष, दुःखमाप्नोति शोकवान्। द्विष्टचित्तो हि दुःखानां, कारणं चिनुते नवम्॥ जो विषयों से द्वेष करता है, वह शोकाकुल होकर दुःखी बन जाता है। द्वेषयुक्त चित्त वाला व्यक्ति दुःख के नए कारणों का संचय करता है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १४९ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ३४.विषयेषु विरक्तो यः, स शोकं नाधिगच्छति। जो विषयों से विरक्त होता है, वह शोक को प्राप्त नहीं ___ न लिप्यते भवस्थोपि, भोगैश्च पद्मवज्जलैः॥ होता। वह संसार में रहता हुआ भी पानी में कमल की तरह भोगों से लिप्त नहीं होता। ३५.इन्द्रियार्था मनोर्थाश्च, रागिणो दुःखकारणम्। रागयुक्त मनुष्य के लिए इन्द्रिय और मन के विषय दःख के न ते दुःखं वितन्वन्ति, वीतरागस्य किञ्चन॥ कारण बनते हैं। किन्तु वीतराग को वे किंचित् मात्र भी दुःख नहीं दे सकते। ३६.विकारमविकारञ्च, न भोगा जनयन्त्यमी। तेष्वासक्तो मनुष्यो हि, विकारमधिगच्छति॥ ये भोग-शब्द आदि विषय विकार या अविकार उत्पन्न नहीं करते, किन्तु जो मनुष्य उनमें आसक्त होता है, वह विकार को प्राप्त होता है। जिसका ज्ञान मोह से आच्छन्न है और जिसकी आत्माचेतना विकृत है, वह पढ़ा-लिखा होने पर भी बार-बार क्रोध, मान, माया, लोभ और घृणा के आवेश में चला जाता है। ३७. मोहेन प्रावतो लोको, विकतात्मापि शिक्षितः। क्रोधं मानं तथा मायां, लोभं घृणां मुहुर्ब्रजेत्॥ ॥ व्याख्या ॥ ... मोह के मूल और उत्तर भेद अनेक हैं। मोह के मूल चार हैं १. क्रोध २. मान ३. माया ३. लोभ। प्रत्येक के चार-चार स्तर हैं। क्रोध के चार स्तर१. चिरतम-पत्थर की रेखा के समान। २. चिरतर-मिट्टी की रेखा के समान। ३. चिर-बालू की रेखा के समान। ४. क्षिप्र-पानी की रेखा के समान। मान के चार स्तर१. कठोरतम-पत्थर के स्तंभ के समान। २. कठोरतर-अस्थि के स्तंभ के समान। . ३. कठोर-काष्ठ के स्तंभ के समान। . ४. मदु-लता के स्तंभ के समान। माया के चार स्तर१. वक्रतम-बांस की जड़ के समान। २. वक्रतर-मेंढे के सींग के समान। ३. वक्र चलते बैल की मूत्रधारा के समान। ४. प्रायःऋजु-छिलते बांस की छाल के समान। लोभ के चार स्तर१. गाढ़तर-कृमि-रेशम के समान। २. गाढ़तर-कीचड़ के समान। ३. गाढ़-खंजन के समान। ४. प्रतनु-हल्दी के रंग के समान। मोह के उत्तर भेद-हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा आदि। ३८.अरतिञ्च रतिं हास्यं, भयं शोकञ्च मैथुनम्। स्पृशन् भूयोऽपि मूढात्मा, भवेत् कारुण्यभाजनम्॥ जो मूढ़ अरति', रति', हास्य, भय, शोक और मैथुन का पुनः पुनः स्पर्श करता है, वह दया का पात्र बन जाता है। ३९. प्रयोजनानि जायन्ते स्रोतसां वशवर्तिनः। अनिच्छन्नपि दुःखानि, प्रार्थी तत्र निमज्जति॥ ___ जो इन्द्रियों का वशवर्ती है, उसके सामने विभिन्न प्रकार के प्रयोजन-आवश्यकताएं और अपेक्षाएं उत्पन्न होती हैं। वह इन्द्रिय-विषयों का प्रार्थी दुःख को न चाहता हआ भी दुःख में निमग्न हो जाता है। २. असंयम में रमण करना। १.संयम में रमण न करना। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १५० ४०. सुखानां लब्धये भूयो, दुःखानां विलयाय च । संगृह्णन् विषयान् प्राज्यान्, सुखैषी दुःखमश्नुते ॥ ४१. इन्द्रियार्या इमे सर्वे विरक्तस्य च देहिनः । मनोज्ञत्वाऽमनोज्ञत्वं जनयन्ति न किञ्चन ॥ ४२. कामान् संकल्पमानस्य सङ्गो हि तानऽसंकल्पमानस्य, तस्य मूलं बलवत्तरः । प्रणश्यति ॥ खण्ड - ३ मनुष्य सुख पाने और दुःख से मुक्त होने के लिए प्रचुर विषयों का संग्रह करता है। वह सुख की इच्छा करता है किन्तु विषय-भोग की अति उसे दुःखी बना देती है। ४३. कृतकृत्यो वीतरागः, क्षीणावरणमोहनः । निरन्तरायः शुद्धात्मा, सर्व जानाति पश्यति ॥ इन्द्रियों के ये सारे विषय वीतराग पुरुष में मनोज्ञता वा अमनोज्ञता का भाव किंचित् भी उत्पन्न नहीं करते। ॥ व्याख्या ॥ 'सर्वेन्द्रियप्रीतिः कामः ' -जो समस्त इन्द्रियों को आह्लादित करता है वह काम है। मानसिक संकल्प काम (इच्छा) का उत्पादक है। मनु का कथन है कि सब इच्छाएं संकल्प से उत्पन्न होती हैं संकल्प को रोक दो काम रुक जाएगा। कामना का संकल्प न हो इसलिए उसे जानो और संकल्प करो काम! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । नाहं संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ काम! मैं तेरे स्वरूप को जानता हूं। तू संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा । तब तू मेरे कैसे हो सकेगा ? क्षये । ४४. भवोपग्राहिकं कर्म, क्षपयित्वायुषः सर्वदुःखप्रमोक्षं हि मोक्षमेत्यव्ययं शिवम् ॥ जो काम भोगों का संकल्प-विकल्प करता है, उस व्यक्ति की कामासक्ति बलवान् बन जाती है जो काम भोगों का संकल्प-विकल्प नहीं करता, उसकी कामासक्ति का मूल नष्ट हो जाता है। काम की जड़ को कुरेदने के लिए कितना स्वस्थ संकल्प है। विष और विषय में अधिक अंतर न होते हुए भी विषय से भी विष अधिक भयंकर है। विष खाने पर व्यक्ति का विनाश करता है और विषय दर्शन से ही विषय का चिंतन संक्रामक रोग है उसका ध्यान करते ही वह चित्त को ग्रसित कर लेता है। आगे बढ़ता बढ़ता वह इतना हानिकारक हो जाता है कि व्यक्तित्व का संपूर्ण विनाश कर देता है। गीता में कहा है- 'हे अर्जुन! मन सहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिंतन होता है। विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है। कामना में विघ्न पढ़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ भाव उत्पन्न होता है। अविवेक से स्मरण-शक्ति भ्रमित होती जाती है। स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है। बुद्धि के नाश होने से पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है । ' जिसके ज्ञान, दर्शन के आवरण तथा मोह और अंतराय क्षीण जाते हैं, वह वीतराग कृतकृत्य हो जाता है उसके करणीय शेष नहीं रहते। वह शुद्धात्मा होने के कारण सब तत्त्वों को जानता देखता है। वह आयुष्य-क्षय के साथ शेष भवोपग्राही कर्मों को क्षीण मोक्ष को प्राप्त होता है, जो सब दुःखों से मुक्त, अव्यय और शिव है। १. भवोपग्राही कर्म-वर्तमान जीवन को टिकाने में सहायक कर्म वे चार हैं-वेदनीय नाम गोत्र और आयुष्य । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १५१ ॥ व्याख्या ॥ आत्मा के मूल गुण आठ हैं- केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक आनंद, क्षायिक सम्यक्त्व, अटल अवगाहन, अमूर्तत्त्व, अगुरुलघुपर्याय, निराबाध सुख । इनको आवृत करने वाले कर्म क्रमशः ये हैं १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७ गोत्र ८. अंतराय । इन कर्मों का सम्पूर्ण विलय होने पर आत्मा के मूल गुण प्रकट होते हैं जब तक ये कर्म रहते हैं, आत्मा जन्ममरण के आवर्त में घूमता रहता है। इनका सर्वधा नाश होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है मुक्ति अर्थात् स्वतंत्रता पूर्ण स्वतंत्र अवस्था की अनुभूति विभाव में नहीं होती, वह स्वभाव में होती है। आत्मा स्वभाव से कभी छूटता किन्तु कर्मों के आवरण के कारण वह विभाव में फंसा रहता है। साधना के द्वारा उसके विभाव को नष्ट किया जा सकता है। 4 अ. २: सुख-दुःख मीमांसा ऐसे तो आत्मा के मूल गुण चार हैं : १. अनंत ज्ञान ३. अनंत चरित्र ४. अनंत बल २. अनंत दर्शन इस अनंत चतुष्टयी को आवृत करने वाले कर्मों को घातिकर्म कहा जाता है। वे भी चार हैं : : १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. मोहनीय ४. अंतराय इनके संपूर्ण विलय से व्यक्ति वीतराग हो जाता है। उसमें राग-द्वेष आदि दोष नहीं होते। उसका ज्ञान और दर्शन निरावृत हो जाता है। वह तब शुक्ल ध्यान का अधिकारी होता है और अपने आयुष्य कर्म का क्षय होने पर वह पांचों भौतिक शरीरों, से मुक्त होकर सिद्ध और परिनिर्वृत हो जाता है। यही परमात्मा दशा है। यही मोक्ष है। मेघः प्राह ४५. धार्मिको धर्ममाचिन्वन् सुखमाप्नोति सर्वदा । दुष्कृती दुष्कृतं कुर्वन् दुःखमाप्नोति सर्वदा ॥ ४६. न चैष कर्मसिद्धान्तः, लोके संगच्छते क्वचित् । धार्मिकाः दुःखमापन्नाः सुखिनो दुष्कृते रताः ॥ ( युग्मम्) 3 मेघ बोला- भगवन्! धार्मिक धर्म करता हुआ सदा सुख पाता है और अधार्मिक अधर्म करता हुआ सदा दुःख पाता है - कर्म का यह सिद्धांत लोक में संगत नहीं है, क्योंकि कहींकहीं धर्म का आचरण करने वाले दुःखी और अधर्म का आचरण करने वाले सुखी देखे जाते हैं। || व्याख्या ॥ मेघ का यह तर्क नया नहीं है और व्यावहारिक धरातल पर असंगत भी नहीं है। किन्तु व्यवहार ही सब कुछ नहीं होता। इस दृष्टि से उसकी समझ सही नहीं है और उसको वास्तविक धर्म का अनुभव भी नहीं है। चीन के महान् संत लाओत्से के तीन सूत्र यहां मननीय हैं पहला सूत्र है - 'सज्जन दुर्जन का गुरु है और दुर्जन सज्जन के लिए सबक है। ' दूसरा सूत्र है - 'जो 'ताओ (धर्म) का परित्याग करता है वह ताओ के अभाव से एकात्मक हो जाता है।' तीसरा सूत्र है जो सद्गुण आपको आनंद न देता हो वह आपके लिए फोड़ा हो जाता है।' धर्म और अधर्म के परिणामों की सूक्ष्म झांकी है इनमें । 'सज्जन दुर्जन का गुरु है पहले सूत्र का यह आधा भाग स्पष्ट बुद्धिगम्य है किन्तु अगला नहीं अगले को समझाने के लिए आपको दुर्जन के भीतर झांकने की जरूरत होगी। दुर्जन व्यक्ति ऊपर से कितना ही हरा-भरा फलाफूला दिखाई दे किन्तु भीतर उसके करुण क्रंदन, व्यथा और पीड़ा का स्वर गूंजता मिलेगा। क्योंकि वह अधर्म के पथ पर है। जो अधर्म में रत है उसे सुख कैसे मिलेगा ? सुख स्वभाव में है, विभाव में नहीं । अनीति भय मुक्त नहीं होती । जहां भय है वहां निःसंदेह संताप है। २. दूसरे सूत्र में स्पष्ट है कि जो धर्म को छोड़ अधर्म के साथ एक होता है वह कैसे अधर्म के परिणाम से मुक्त हो सकेगा ? अशांति की वर्षा उस पर अनिवार्य है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १५२ खण्ड-३ ३. तीसरे सूत्र की तुलना हम महावीर के इस सूत्र 'ऐसोऽवि धम्मो विसओवमो'-धर्म भी विष तुल्य हो जाता है-से कर सकते हैं। जो सद्गुण-धर्म का आचरण स्वयं के आनंद के लिए न कर, कुछ पाने के लिए करता है तो वह . 'फोड़ा' (विष) हो जाता है। ___'मलिक बिन दीवान' नाम का एक महान् साधक हुआ है। वह संपन्न था। इच्छा हुई कि मस्जिद का व्यवस्थापक बनूं। सब कुछ छोड़कर मस्जिद में बैठ गया। लोग कहने लगे-'कितना धार्मिक व्यक्ति है। दिन-रात यहीं रहता है। खुदा का दीवाना हो गया है।' एक वर्ष बीत गया, किन्तु किसी ने मस्जिद के व्यवस्थापक बनाने की बात नहीं की। आखिर सोचा-व्यर्थ एक वर्ष खोया। यदि एक वर्ष खुदा के लिए देता तो न मालूम आज कहां होता। मस्जिद छोड़ जैसे ही वह बाहर आने लगा, लोगों ने सर्व सम्मति से व्यवस्थापक बनाने का निर्णय सुनाया। मलिक ने हंसते हुए कहा-'जब मैं बनने को तैयार था तुम नहीं बना रहे थे और अब मैं बनने की इच्छा त्याग चुका हूं तब तुम बनाने को तैयार हो। जाओ, मैं अब वासना छोड़ चुका हूं। जैसे ही उसने वासना छोड़ी वह स्वधर्म में प्रतिष्ठित हो गया। जो सद्गुण फोड़ा था वही अब आनंद बन गया। मनुष्य धर्म नहीं चाहता। वह चाहता है फल। धर्म का फल वस्तुतः भौतिक प्राप्ति नहीं है। उसका वास्तविक परिणाम है-स्वभाव में स्थिति। स्वभाव की स्थापना के लिए धर्म का जहां अभ्यास होता है वहां दीनता, दुःख, असंतोष जैसी वृत्तियों को जीवित रहने का अवकाश कहां रहता है? ____ आत्मा का स्वभाव धर्म है-इस मूल मंत्र को कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए। जो स्वभाव के लिए जीता है. मरता है, चलता है, बोलता है, सब क्रियाएं करता है वह कैसे स्वयं में दुःखी हो सकता है ? दूसरों की दृष्टि में बाह्य अभाव से वह पीड़ित हो सकता है, किंतु स्वयं में वह कभी पीड़ित नहीं हो सकता। उसके लिए तो वह अभाव भी धन्यवादाह है। वह किसी भी स्थिति में अप्रसन्न नहीं रहता। उसकी दृष्टि प्रतिक्षण स्वयं के अंतर्दर्शन में निहित रहती है। भगवान् प्राह ४७.धर्माधर्मी पुण्यपापे, अजानन् तत्र मुह्यति। धर्माधर्मों पुण्यपापे, विजानन् नात्र मुह्यति॥ भगवान् ने कहा-जो व्यक्ति धर्म-अधर्म तथा पुण्य-पाप को नहीं जानता, वही इस विषय में भ्रांत होता है। जो इनको जानता है, वह इस विषय में भ्रांत नहीं होता। ४८.द्विधा निरूपितो धर्मः, संवरो निर्जरा तथा। निरोधः संवरस्यात्मा, निर्जरा तु विशोधनम्॥ धर्म की प्रज्ञापना के दो प्रकार हैं-संवर और निर्जरा। संवर का स्वरूप है-असत् और सत् प्रवृत्ति का निरोध। निर्जरा का स्वरूप है-विशोधन, कर्म का क्षय। . ४९.सन्तोसन्तश्च संस्काराः, निरुद्धयन्ते हि सर्वथा। क्षीयन्ते संचिताः पूर्व, धर्मेणैतच्च तत्फलम्॥ संवर धर्म से असत् और सत् संस्कार सर्वथा निरुद्ध होते हैं तथा निर्जरा धर्म से पूर्व संचित संस्कार क्षीण होते हैं। धर्म का यही फल है। ५०.असन्तो नाम संस्काराः, संचीयन्ते नवाः नवाः। अधर्मेणैतदेवास्ति, तत्फलं तत्त्वसम्मतम्॥ अधर्म से नए-नए असत् संस्कारों का संचय होता है। अधर्म का यही तत्त्वसम्मत फल है। ५१.संस्कारान् विलयं नीत्वा, चित्वा तानन्तरात्मनि। क्रियामेतौ प्रकुवति, धर्माधर्मों निरन्तरम्॥ धर्म और अधर्म अंतरात्मा में संस्कारों का विलय और संचय निरंतर करते रहते हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ५२.पुण्यपापें प्रजायेते, हेतुभूते प्रमुख्यतः। पुण्य मुख्यतः सुख-प्रिय संवेदन की अनुभूति का हेतु बनता . सुखदुःखानुभूत्योश्च, सामग्रयां नैव निश्चितिः॥ है और पाप मुख्यतः दुःख-अप्रिय संवेदन की अनुभूति का हेतु बनता है। पुण्य और पाप सुख-दुःख की साधन-सामग्री में हेतु बनें, यह निश्चित नियम नहीं है। ५३.द्रव्यं क्षेत्र तथा कालः, व्यवस्था बुद्धिपौरुषे। एतानि हेतुतां यान्ति, पुण्यपापोदये ध्रुवम्॥ पुण्य और पाप के उदय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यवस्था, बुद्धि और पौरुष-ये निश्चित हेतु बनते हैं। ५४. धार्मिको नार्थसंपन्नः, धनाढ्यः स्यादधार्मिकः। नेति धर्मस्य वैफल्यं, फलं तस्यात्मनि स्थितम्॥ धर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति अर्थ-संपन्न नहीं है और धर्म का आचरण न करने वाला अर्थ-संपन्न है, इसमें धर्म की विफलता नहीं है। धर्म का फल है आत्मोदय। वह आत्मा में ही स्थित है। ५५.अनावृतं भवेद् ज्ञानं, दर्शनं स्यादनावृतम्। - प्रस्फुरेद् सहजानंदः, वीर्य स्यादपराजितम्॥ धर्म से ज्ञान और दर्शन अनावृत होते हैं, सहज आनंद स्फुरित होता है और वीर्य अपराजेय होता है। ५६.प्रवर्धते परा शान्तिः , धृतिः संतुलनं क्षमा। धर्म से परम शांति, धृति, संतुलन और क्षमा-ये गुण बढ़ते - फलान्यमूनि धर्मस्य, फलं नस्यास्ति नो धनम्॥ हैं। ये सब धर्म के फल हैं। धन मिलना धर्म का फल नहीं है। (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ . जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द क्रिया वाचक नहीं है। वह आत्मा पर लगे सूक्ष्म पौद्गलिक द्रव्य का वाचक है। आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति से कर्म का आकर्षण होता है। इसके बाद स्वीकरण और निर्झरण। जब आत्मा समस्त कर्मों से मुक्त हो जाती है, तब वह परम आत्मा बन जाती है। • ' कर्म विषयक पारंपरिक धारणाओं के आधार पर यह माना जाता है कि आत्मिक या पौद्गलिक सभी पदार्थों की प्रामि कर्मों के द्वारा ही होती है। यह धारणा एकांततः सत्य नहीं है। - कर्म आठ हैं : १. ज्ञानावरणकर्म-ज्ञान के आवारक कर्म पुद्गल। २. दर्शनावरणकर्म-सामान्य बोध के आवारक कर्म पुद्गल। ३. वेदनीयकर्म-सुख-दुःख की अनुभूति के निमित्त कर्म पुद्गल । ४. मोहनीयकर्म-आत्मा को मूढ़ या विकृत बनाने वाले कर्म पुद्गल। ५. आयुष्यकर्म-जीवन के निमित्तभूत कर्म पुद्गल। ६. नामकर्म-शरीर संबंधी विविध सामग्री के हेतुभूत कर्म पुद्गल। ७. गोत्रकर्म-सम्मान-असम्मान के हेतुभूत कर्म पुद्गल। ८. अंतरायकर्म-क्रियात्मक शक्ति पर प्रभाव डालने वाले कर्म पुद्गल। इनमें-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय-ये चार कर्म आत्मा के मूल गुणों के आवारक, विकारक और प्रतिरोधक हैं। शेष चार कर्म शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा के निमित्त बनते हैं। ___ सुख-सुविधा की सामग्री की प्राप्ति केवल कर्म से नहीं होती। उनकी प्राप्ति में देश, काल, निमित्त, पुरुषार्थ आदि का भी पूरा योग रहता है। अमुक देश के वासी अशिक्षित हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि उनमें ज्ञानावरण कर्म का Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १५४ खण्ड-३ क्षय-क्षयोपशम नहीं है। किन्तु कुछ बाह्य परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि वे उनके ज्ञान में बाधक बनती हैं। जब वे स्थितियां दूर हो जाती हैं, तब शिक्षा के लिए अनुकूल वातावरण पैदा होता है और शत-प्रतिशत व्यक्ति शिक्षित हो जाते हैं। अतः उनकी शिक्षा में बाह्य निमित्तों का भी पूरा-पूरा महत्त्व है। साम्यवादी देशों में अमुक-अमुक व्यवस्थाओं के कारण समाज की रचना एक भिन्न प्रकार से होती है। वहां उसकी रचना का कारण कर्म-जन्य नहीं हो सकता। वह व्यवस्था जन्य है। धन की प्राप्ति किसी कर्म से होती है, ऐसा नहीं है। सम्मान, असम्मान की अनुभूति कर्म से हो सकती है और उसमें धन का भाव और अभाव भी निमित्त बन सकता है । हम चिलचिलाती धूप में चलते हैं। दुःख का अनुभव होता है। चलते-चलते मार्ग में वृक्ष की छांह में बैठ जाते हैं। वहां सुख का अनुभव होता है दुःख का अनुभव होना असातावेदनीय कर्म का कार्य है और सुख का अनुभव होना सातवेदनीय कर्म का । किन्तु चिलचिलाती धूप या छांह की प्राप्ति किसी कर्म से नहीं होती । फलित यह है कि आत्मा की आंतरिक योग्यता के तारतम्य का कारण कर्म है। कर्म के संयोग से आंतरिक योग्यता आवृत या विकृत होती है। बाह्य व्यवस्थाएं या परिस्थितियां कर्म के उदय में निमित्त बन सकती हैं किन्तु वे आत्मा पर सीधा प्रभाव नहीं डाल सकतीं। कर्मों का परिपाक और उदय अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी; सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी । द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यवस्था, बुद्धि, पौरुष आदि उदयानुकूल सामग्री को पाकर कर्म अपना फल देता है इसीलिए कर्मफल की प्राप्ति में इतनी विविधताएं देखी जाती हैं। प्रस्तुत श्लोकों में ये प्रश्न उपस्थित किए गए हैं कि १. धार्मिक दुःखी देखा जाता है और अधार्मिक सुखी । २. धार्मिक दरिद्र देखा जाता है और अधार्मिक धनवान् । इनका कारण कर्म है या और कोई ? इन प्रश्नों के समाधान में बताया गया है कि धर्म आत्म- गुणों का पोषक है और अधर्म उनका विघातक । उनसे सुख-दुःख की अनुभूति देनेवाले पदार्थों की प्राप्ति नहीं होती। इनकी प्राप्ति में द्रव्य, क्षेत्र आदि की अनुकूलता अपेक्षित होती है। दारिद्र्य और धनाढ्यता का धर्म से कोई संबंध नहीं है। एक अत्यंत दरिद्र रहते हुए भी महान् धार्मिक हो सकता है और एक धनाढ्य होकर भी महान् अधार्मिक हो सकता है धन के अर्जन में धर्म की तरतमता काम नहीं करती। उसके अर्जन में बुद्धि, कौशल, काल, अवसर आदि प्रमुख रहते हैं। धर्म के फल ये हैं-ज्ञान का अनावरण, दर्शन का अनावरण, सहज आनंद की प्राप्ति, अपराजित शक्ति की प्राप्ति, शांति, धृति, संतुलन, क्षमा आदि गुणों की प्राप्ति । मेघः प्राह ५७. कथमात्मतुलावादः, भगवंस्तव सम्मतः । भिन्नानि सन्ति कर्माणि कृतानि प्राणिनामिह । मेघ ने पूछा-भगवन्! प्राणियों के अपने कृत कर्म भिन्न-भिन्न होते हैं ऐसी स्थिति में आत्मतुलावाद आत्मोपम्यवाद का सिद्धांत आपको सम्मत क्यों है ? ॥ व्याख्या ॥ शुकदेव स्वयं में संदिग्ध थे कि उन्हें आत्मबोध हुआ है या नहीं। वे महाराज जनक के पास पहुंचे। जनक उस समय के बोधि प्राप्त व्यक्तियों में से एक थे। जनक ने पूछा- 'आपने मार्ग में आते हुए क्या देखा ? द्वार पर क्या देखा और यहां क्या देख रहे हैं?' शुकदेव का एक ही उत्तर था मिट्टी के खिलौने।' जनक ने कहा- 'आप अप्राप्स को प्राप्त कर चुके हैं। भेद बाहर है, आकृतियों का है, चेतना में कोई भेद नहीं है। - महावीर जिस शिखर से मेघ से बात कर रहे हैं, वह मेघ की बुद्धि का स्पर्श कैसे करे? मेघ खड़ा है तलहटी में उसे आत्मतुला का कोई अनुभव नहीं है। जो भेद ही देखता है और भेद में ही जीता है उसे अभेद का दर्शन कैसे हो? जिन्होंने भी शिखर का स्पर्श किया है उन्होंने शिखर की बात की है 'सजा का हाल सुनाये, जजा की बात करे खुदा जिसे मिला हो, वह खुदा की बात करे।' Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. १५५ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ___ महावीर ने जो देखा उसका प्रतिपादन किया। वे जानते हैं-भिन्नता क्यों है? लेकिन भिन्नता के पीछे खड़े उस अभिन्न से वे पूर्णतया परिचित हैं। इसलिए वे कहते हैं-प्रत्येक आत्मा स्वरूपतः एक है। स्वभाव में कोई अनेकत्व नहीं है। जिस दिन जो भी आत्मा स्वरूप को उपलब्ध होगी, उसे वही अनुभव होगा जो कि उसका धर्म-स्वभाव है। भिन्नता कर्मकृत है, सूक्ष्म-शरीर (कारण शरीर) कृत है। इसका जिसे स्पष्टतया बोध हो जाता है, वह फिर भेद-कृत अवस्थाओं के कारण बड़ा-छोटा, नीच-ऊंच, धनी-निर्धन आदि परिवर्तनों में उलझेगा नहीं और न उन्हें शाश्वत भी समझेगा। तत्त्वज्ञान की कमी, तत्त्वज्ञान का न होना, अथवा उसके प्रति प्रमत्त होनेवाला व्यक्ति ही विषयों में भ्रांत होता है। जो जागृत है और तत्वज्ञ है वह भ्रांत नहीं होता है। पुण्य और पाप ये नव तत्त्वों में से दो है। पुण्य का साधन धर्म है सतोगुण है और पाप का हेतु अधर्म-रजोगुण, तमोगुण है। धर्म चेतना का स्वभाव है। उसके जितने भी साधन हैं वे धर्म ही हैं। अधर्म स्वभाव नहीं है, वह चेतना की बहिर्भावों में गति है। जब चेतना अपने से हटकर बाह्य पदार्थों, विषयों में लीन होती है तब उसके साथ असत् कर्म का उपचय होता है, यह असत् कर्म अधर्म है। धर्म चेतना की विकासोन्मुख अवस्था है। उसके साथ आनेवाला कर्म समूह पुण्य है। पुण्य का फल अच्छा है और पाप का फल बुरा। जिसे इस सचाई का ज्ञान है और उसके प्रति सचेत है वह सहज ही अधर्म मार्ग की ओर नहीं जाता। अज्ञानी व्यक्ति ही अधर्म, वासना, विषयों का मार्ग पकड़ता है। चित्त शुद्धि या चेतना की निर्मलता के दो मार्ग हैं-संवर और निर्जरा। ये दोनों शब्द जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। नव तत्त्वों में इन दोनों का समावेश है। ये दोनों चेतना के निर्मलीकरण और पूर्ण विकास में अपनी विशिष्ट भूमिका रखते हैं। संवर का कार्य है आत्मा में आने वाले विजातीय तत्त्व के मार्ग का निरोध करना। संवर यानी द्वार को बंद कर देना। निर्जरा वह तत्त्व है जिससे आत्मा के साथ संपृक्त विजातीय तत्त्व को विलग करना, कर्म को आत्मा से पृथक् करना। जैसे-जैसे कर्म विलग होते जाते है वैसे-वैसे चेतना विशद होती जाती है। विशद चेतना में ही चेतन तत्त्व का स्फुरण होता है। संवर से नये कर्म का आगमन निरुद्ध होता है और निर्जरा से पुराने कर्मों का क्षय होता है। चेतना की विशुद्धि में इन दोनों का प्रधान दायित्व है। ., धर्म का मुख्य फल न धन-वैभव है और न पद-प्रतिष्ठा है, न राज्य-प्राप्ति और न स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति है। ये सब प्रासंगिक फल हैं। मुख्य फल है-सत्, असत् आदि समस्त संस्कारों को क्षीण कर आत्मा को अपने मूलरूप में स्थापित करना। अधर्म की गति उल्टी है। वह नये-नये संस्कारों का संचय करता है और आत्मा को अपने स्वभाव से दूर ले जाता है। धर्म-अधर्म की यह क्रिया सतत चलती रहती है। • धर्म और अधर्म के बोध में व्यक्ति का विवेक स्पष्ट हो तो सहज ही अनेक प्रश्नों का समाधान हो जाता है। जा स्पष्ट बोध नहीं होता है वहां प्रश्न खड़े होते हैं। धार्मिक दुःखी देखा जाता है, अधार्मिक सुखी, अधार्मिक वैभववान है और धार्मिक वैभवहीन, धार्मिक के पास सुख-साधनों का अभाव है और अधार्मिक के पास प्रचुर साधन है आदि। यह सारा अस्वाभाविक चिंतन है। धर्म का वास्तविक संबंध चेतना से है। वह चेतना पर पड़े हुए अज्ञान और अदर्शन के पर्दे को दूर करता है। . आत्मा में निहित अतुल शक्ति और अमाप्य आनंद का प्रकटीकरण करना ही उसका कार्य है। धर्म से उत्कृष्ट शांति, धृति, क्षमा, सहजता, विनम्रता, सरलता, आत्मतोष आदि गुणों की प्राप्ति होती है। यह सब धर्म की ही देन है। अधर्म इस कार्य को नहीं कर सकता, अपितु वह तो इन पर पड़े हुए आवरण को और अधिक सघन बनाता है। जिसका जो कार्य है वह निश्चित रूप से करता है। इसलिए दोनों की अलग-अलग भूमिका को सदा सामने रखना चाहिए जिससे चित्त अभ्रांत बना रहे। भगवान् प्राह ५८.वत्स! तत्त्वं न विज्ञातं, साम्प्रतं तन्मयः शृणु। समस्त्यात्मतुलावादः, सम्मतो मे स्वरूपतः॥ तुमने अभी तत्त्व को नहीं जाना। तन्मय होकर सुनो। मैंने आत्मा के मूल स्वरूप-निश्चय नय की दृष्टि से आत्मतुलावाद का प्रतिपादन किया है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १५६ खण्ड-३ ५९.अनन्तं नाम चैतन्यं, आनन्दश्चाप्यबाधितः। प्राणी मात्र में अनंत चैतन्य, अनाबाध आनंद और अप्रतिहत अस्त्यप्रतिहता शक्तिः जीवमात्रे स्वरूपतः॥ शक्ति है। यह प्रत्येक आत्मा का स्वरूप है। ६०.कर्मभि व जीवेषु, कृतो भेदः स्वरूपतः। स्वरूपावरणे भेदः, मात्राभेदेन तैः कृतः॥ कर्म जीवों के स्वरूप में भेद नहीं कर पाते। उनके द्वारा जीव के स्वरूपावरण में भेद होता है। वह भेद सबमें समान नहीं होता किन्तु मात्राभेद से होता है। ६१.अस्तित्वं भिद्यते नैव, तेनात्मौपम्यमर्हति। व्यक्तावसौ भेदः नासौ भेदोस्ति वस्ततः॥ कर्म आत्मा के अस्तित्व में भेद नहीं कर पाते, अतः आत्मौपम्य वास्तविक है। अस्तित्व की अभिव्यक्ति में भेद होता है। इसलिए यह भेद वास्तविक नहीं है। मेघः प्राह ६२.कथं त्वयाऽहमिन्द्राणां, सिद्धान्तः प्रतिपादितः? यद्येष घटते तर्हि, कर्मवादो विलीयते॥ मेघ ने कहा-भगवन्! आपने अहमिन्द्र के सिद्धांत का प्रतिपादन कैसे किया? यदि यह सही है तो कर्मवाद विघटित हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ अहमिन्द्र-यह जैन परिभाषिक शब्द है। इसका शब्दार्थ है-मैं इन्द्र हूं। इसका तात्पर्य है-ऐसी व्यवस्था जहां सब समान हों, कोई छोटा-बड़ा न हो। सब अपने आपको एक-दूसरे के समान समझते हों। जैन सिद्धांत में सबसे ऊंचे देवलोक का नाम है-'सर्वार्थसिद्ध'। वहां के सभी देव 'अहमिन्द्र' होते हैं। उनमें स्वामी-सेवक की व्यवस्था नहीं होती। भगवान् प्राह ६३.स्वामिसेवकसंबंधः, व्यवस्थापादितो ध्रुवम्। सामुदायिकसंबंधाः, सर्वे नो कर्मभिः कृताः॥ भगवान् ने कहा-मेघ! स्वामी-सेवक का संबंध व्यवस्था पर आधारित है। सभी सामुदायिक संबंध कर्मकृत नहीं होते। ६४.राजतंत्रे भवेद् राजा, गणतंत्रे गणाधिपः। व्यवस्थामनुवर्तेत, विधिरेष न कर्मणः॥ राजतंत्र में राजा होता है और गणतंत्र में गणनायक। यह विधि कर्म के अनुसार नहीं, किन्तु व्यवस्था के अनुसार चलती ६५. दासप्रथा प्रवृत्तासौ, यदि कर्मकृता भवेत्। तदा तस्या विरोधोऽपि, कथं कार्यो मया भवेत्॥ वत्स! यदि वर्तमान में प्रचलित दासप्रथा कर्मकृत हो तो मैं उसका विरोध कैसे कर सकता हूं? ६६.नासौ कर्मकृता वत्स!, व्यवस्थापादिता ध्रुवम्। सामाजिक्या व्यवस्थायाः, परिवर्तोऽपि मे मतः॥ वत्स! यह दासप्रथा कर्मकृत नहीं है, किन्तु व्यवस्था-कृत है। सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन भी मझे मान्य है। ६७. देहधारणसामग्री, मीनानां सुलभा जले। न तत्र बाधते कर्म, किं बाधेत तदा नरान् ?॥ मछलियों को अपने शरीर को धारण करने में सहायक सामग्री जल में सुलभ होती है। वहां कोई कर्म किसी को बाधित नहीं करता तो फिर मनुष्य के देह धारण की सामग्री मिलने में कर्म बाधक कैसे होगा? Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . १५७ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा ६८. सर्वेषां च मनुष्याणां, सुलभा जीविका भवेत्। उचित व्यवस्था होने पर सभी मनुष्यों को आजीविका सुलभ औचित्येन व्यवस्थायाः, कर्मवादो न दुष्यति॥ हो, तो इससे कर्मवाद के सिद्धांत में कोई दोष नहीं आता। ६९.दुर्वृत्तायां व्यवस्थायां, लोकः कष्टानि गच्छति। दुष्प्रवृत्त व्यवस्था में लोग दुःखी होते हैं और सत्प्रवृत्त सद्वृत्तायां व्यवस्थायां, लोको हि सुखमृच्छति॥ व्यवस्था में वे सुखी होते हैं। ७०.सुखदुःखे व्यवस्थाप्ये', नारोप्ये कर्मसु क्वचित्। सुखदुःखे च कर्माप्ये, व्यवस्थायाः शिरस्यपि॥ व्यवस्था से प्राप्त होने वाले सुख-दुःख को कर्म पर आरोपित नहीं करना चाहिए और कर्म से प्राप्त होने वाले सुखदुःख का भार व्यवस्था के सिर पर नहीं डालना चाहिए। ७१.प्रतिव्यक्तिविभिन्नास्ति, योग्यता स्वगुणात्मिका। ___ कर्मावरणमात्रायाः, तारतम्यविभेदतः॥ ७२. उपशान्तो भवेत् क्रोधः, मानं माया प्रलोभनम्। समीचीना व्यवस्था स्याद्, स्वातंत्र्यं स्यादबाधितम्॥ जैसे आत्मौपम्य का सिद्धांत मान्य है, वैसे ही व्यक्तिव्यक्ति में स्वगुणात्मक योग्यता की भिन्नता का सिद्धांत भी मान्य है। उसका आधार है कर्म के आवरण की मात्रा का तारतम्य। जब क्रोध, मान, माया और लोभ उपशांत होते हैं, तब व्यवस्था अच्छी होती है और सबकी स्वतंत्रता अबाधित रहती है। जब क्रोध, मान, माया और लोभ उत्तेजित होते हैं, तब व्यवस्था अच्छी नहीं रहती और परतंत्रता बढ़ती है। ७३. उत्तेजितो भवेत् क्रोधः, मानं माया प्रलोभनम्। व्यवस्थाप्यसमीचीना, पारतंत्र्यं प्रवर्धत॥ मेघः प्राह ७४.धन्योस्म्यहं कृतार्थोऽस्मि, संशयो मे निराकृतः। कर्मणश्च व्यवस्थायाः, स्पष्टो बोधोप्यजायत॥ मेघ बोला-भगवन् ! मैं धन्य हो गया हूं, कृतार्थ हो गया हूं। आपने मेरे संशय का निवारण किया है। कर्मवाद और व्यवस्था का बोध भी मुझे स्पष्ट हुआ है। ॥ व्याख्या ॥ कुछ स्थितियां व्यवस्थाजन्य होती हैं और कुछ कर्मजन्य होती हैं। इनका विवेक होना आवश्यक है। आज का व्यक्ति व्यवस्थाजन्य परिस्थितियों को कर्मजन्य मानकर उलझ जाता है, हताश होकर पुरुषार्थ से मुंह मोड़ लेता है। ऐसी स्थिति में वह अपने लिए नई समस्याएं पैदा कर लेता है। कुछ सुख-दुःख कर्म-जन्य होते हैं और कुछ व्यवस्थाजन्य। इनको एक-दूसरे पर आरोपित नहीं करना चाहिए। - जब सामाजिक व्यवस्था अच्छी नहीं होती तब प्रत्येक व्यक्ति दुःख पाता है और जब वह सुधर जाती है तब सब हैं। यह व्यवस्थापादित सख दःख की बात है। इसी प्रकार जब व्यक्ति-व्यक्ति का आत्म-विकास प्रगति पर होता है, क्रोध आदि दुर्गुणों का ह्रास होता है तब वे अच्छे समाज की रचना कर सकते हैं। दुर्गुणों के नाश की बात कर्मजन्य है। जब आंतरिक दोष कम होते हैं तब सामाजिक व्यवस्था अच्छी होती है और जब वे प्रबल होते हैं तब सामाजिक - व्यवस्था बुरी हो जाती है। यह स्पष्ट विवेक होना चाहिए कि क्रोध, मान, राग, द्वेष आदि कर्मजन्य दोष हैं। किन्तु उनकी अभिव्यक्ति Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १५८ खण्ड:३ स्थिति-सापेक्ष होती है, बाह्य परिस्थिति के आधार पर होती है। यदि अनुकूल स्थिति नहीं मिलती तो वे कर्मजन्य दोष व्यक्त नहीं होते, अव्यक्त रहकर ही टूट जाते हैं। अतः हम सब कुछ कर्मजन्य न मानकर व्यवस्थाजन्य दोषों का परिहार करने के लिए उचित पुरुषार्थ करें। समाहित मन और असमाहित मन दोनों की भिन्न-भिन्न स्थितियां होती हैं। असमाहित मन उद्विग्न, अशांत और उदास रहता है। समाहित मन शांत, प्रसन्न और स्थिर होता है। मेघ की आशंका दूर हुई। वह अपने आपमें धन्य हो . गया उसे स्पष्ट बोध हो गया कि सबकुछ कर्मकृत नहीं है। व्यवस्थाओं का भी अपना बड़ा हाथ होता है। अनेक व्यक्तियों की जन्मकुंडली में राजयोग होता है, किंतु सब प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति नहीं बन सकते, बनते एक-एक ही है। परिस्थितियां किस समय कौन-सी करवट लेती है, पता नहीं चलता। जिसकी कल्पना नहीं होती, वह बन जाता है और जिसकी कल्पना होती है वह नहीं बन पाता। इन सब के पीछे व्यवस्था परिवर्तन का दर्शन स्पष्ट है। व्यवस्थाएं नियत नहीं होती। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे सुखदुःखमीमांसाऽभिधः द्वितीयः अध्यायः। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-३ आत्मकर्तृत्ववाद Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मकर्तृत्ववाद सुख और दुःख जीवन के सहचारी हैं। सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय। दुःख नहीं चाहने पर भी होता है। कुछ उसमें खिन्न होते हैं और कुछ नहीं। ऐसा क्यों ? दुःख कर्म-कृत है। वह कर्म का भोग है। जो यह जानता है, वह न दूसरों पर इसका आरोपण करता है और न खिन्न ही होता है। कर्म के बीज हैं-राग और द्वेष। ये दोनों मोह-कर्म की शाखाएं हैं। मोह को जीत लेने पर दोनों विजित हो जाते हैं। मोह के द्वारा होने वाली आत्म-विमूढता का इस अध्याय में स्पष्ट दिग्दर्शन है। मोह का उन्मूलन करने पर अन्य कर्मों की शक्ति स्वतः ही जर्जर हो जाती है। भगवान महावीर इसीलिए मेघ को उस निर्द्वन्द्व आनंद की प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे कहते हैं-सारा संसार पौद्गलिक है-भौतिक है। सुख साबाध और क्षणिक है। आत्मा शाश्वत है। उसके लिए शाश्वत सुख ही अभीष्ट है। मोह से मूढ मनुष्य उस शाश्वत सुख से मुंह मोड़ बैठा है। वह अपने से अपरिचित है और अपरिचित है वास्तविक सुख से। मोह दुःख है और मोह-मुक्ति सुख। सुख-दुःख और कुछ नहीं, मोह-आसक्ति का विलय सुख है और उसकी अवस्थिति दुःख है। मेघः प्राह १. कष्टानि सहमानोऽपि, घोरं नैको विषीदति। एकस्तल्लेशतो दीनस्तत्त्ववित्! तत्त्वमत्र किम्॥ मेरो मेघ बोला-एक व्यक्ति घोर कष्टों को सहन करता हुआ भी खिन्न नहीं होता और दूसरा व्यक्ति थोड़े से कष्ट में भी अधीर हो . जाता है। हे महान् तत्त्ववेत्ता! इसका क्या कारण है? भगवान् प्राह भगवान् ने कहा-जो व्यक्ति कष्ट को निश्चित रूप से अपने २. कष्टं यो मन्यते स्पष्टं, परिणाम स्वकर्मणः। किए हए कर्म का परिणाम मानता है और यह श्रद्धा रखता है कि ___ श्रद्धते यो विना भोगं, स्वकृतं नान्यथा भवेत्॥ किए हुए कर्म को भोगे बिना उससे मुक्ति नहीं मिल सकती और ३. स्वकृतं नाम भोक्तव्यं, अत्राऽमुत्र न संशयः। जो यह निश्चित रूप से जानता है कि अपने किए हुए इस कर्म इस आयातेष्वपि कष्टेषु, इति जानन् न खिद्यते॥ जन्म में या अगले जन्म में भुगतने ही पड़ते हैं, वह कष्ट के आ (युग्मम्) पड़ने पर भी खिन्न नहीं होता। ४. कष्टान्यामंत्रयेत् सोऽत्र, कृतशुद्धयै यथाबलम्। स्वीकृतस्याऽप्रच्यवार्थ, मोक्षमार्गस्य संततम्॥ कष्ट के रहस्य को जानने वाला व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार कष्टों को आमंत्रित भी करता है। उसके दो हेतु हैं१. पूर्व-कृत कर्मों की शुद्धि-निर्जरा के लिए। २. स्वीकृत मोक्षमार्ग में सतत संलग्न रहने के लिए। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १६१ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद ५. अकष्टासादितो मार्गः, कष्टापाते प्रणश्यति। कष्ट सहे बिना जो मार्ग मिलता है, वह कष्ट आ पड़ने पर । कण्टेनापादितो मार्गः, कष्टेष्वपि न नश्यति॥ विनष्ट हो जाता है और कष्ट सहकर जो मार्ग प्राप्त किया जाता है, वह कष्टों के आ पड़ने पर भी विनष्ट नहीं होता। ॥ व्याख्या ॥ आस्तिक या अध्यात्मवादी व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रारंभ से ही सत्य का स्पर्श किए चलता है। वह भौतिकवाद छ नहीं है, यह नहीं मानता। वह यह मानता है कि यह जीवन का साध्य नहीं है। सत्योन्मुखी दृष्टि के होने पर भौतिकवाद आत्मविकास का बाधक नहीं होता। अन्यथा व्यक्ति उसी के पीछे पागल बन जाता है, कष्टों से उकताकर धैर्य खो देता है और नये-नये दुःखों का अर्जन कर लेता है। धार्मिक व्यक्ति दुःखों से कतराता नहीं। वह यह मानकर चलता है कि मैं हल्का-निर्भार हो रहा हूं। कष्टों में उसके धैर्य का बोध और अधिक सुदृढ़ होता है। 'विपदि धैर्यम्'-विपत्ति में धीरज का होना महान् पुरुषों का लक्षण है। सोने की शुद्धि के लिए अग्निस्नान अपेक्षित है, वैसे ही आत्म-शुद्धि के लिए कष्टाग्नि की अपेक्षा है। अध्यात्मवादी समागत कष्टों को केवल झेलता ही नहीं किंतु अनागत दुःखों को निमंत्रित भी करता है। वह साधना में निखार लाने के लिए विविध तपों का अवलंबन लेता है। ६. बलं वीर्य च संप्रेक्ष्य, श्रद्धामारोग्यमात्मनः। - क्षेत्रं कालञ्च विज्ञाय, तथात्मानं नियोजयेत्॥ अपने बल-शारीरिक सामर्थ्य, वीर्य-आत्मिक सामर्थ्य, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर तथा क्षेत्र और काल को जानकर व्यक्ति उसी के अनुसार अपनी आत्मा को नियोजित करे। " ७. तपस्तथा विधातव्यं, चित्तं नातं भजेद् यथा। तप वैसा ही करना चाहिए, जिससे मन आर्त्त-ध्यान में न : विवेकः प्रमुखो धर्मो, नाऽविवेको हि शुद्ध्यति॥ फंसे। क्योंकि सब धर्मों में विवेक प्रमुख धर्म है। विवेकशून्य - व्यक्ति अपने को शुद्ध नहीं बना पाता। ॥ व्याख्या ॥ श्रमण परंपरा में तप की मुख्यता रही है। 'तप ब्रह्मा है। तपं स्व-धर्म में प्रवृत्ति है। तप इन्द्रिय और मन का वशीकरण है। इन्द्रिय-विषय और कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) का निग्रह कर स्वाध्याय और ध्यान के द्वारा आत्मसंपर्क साधने का नाम तप है। केवल आहार-त्याग का ही नाम तप नहीं है। उसके साथ विषय और कषायों का परित्याग भी अपेक्षित है। . जैन धर्म का झुकाव तप की ओर अधिक रहा है। भगवान् महावीर ने स्वयं विविध कठिन तपों का अवलंबन लिया था। वे सत्य-साक्षात्कार के लिए व्यग्र थे। उनकी दैहिक, मानसिक और आत्मिक क्षमता भी अनन्य थी। . बहुत से विद्वानों की यह धारणा है कि महात्मा बुद्ध की तरह भगवान् महावीर मध्यममार्गी नहीं थे। वे शारीरिक उत्पीड़न पर बल देते थे। किंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है। भगवान महावीर का विवेकवाद मध्यम मार्ग का ही एक रूप है। उन्होंने अविवेक को खतरनाक कहा है। उनका दर्शन था-प्रत्येक क्रिया विवेकयुक्त हो। अविवेकपूर्ण तप उनकी दृष्टि में सम्यक् नहीं था। जिस तप के द्वारा चित्त क्लिष्ट होता है, भावना की विशुद्धि नहीं रहती, वस्तुतः वह केवल काय-क्लेश है। वे कहते है-अपने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल को पहले तोलो, अपनी क्षमता को क्रमशः बढ़ाओ, उसे वहीं तक सीमत मत रखो। जहां देखो कि तप से चित्त आर्त हो रहा है, वहीं रुक जाओ, चित्त को शांत करो और फिर आगे बढो। तप के प्रति यह उनका विवेकवाद था। (तप के विशेष विवरण के लिए देखें अध्याय १२) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ खण्ड-३ आत्मा का दर्शन ८. स्वकृतं नाम भोक्तव्यं, श्रद्धत्ते नेति यो जनः। श्रद्दधानोपि यो नैव, स्वात्मवीर्य समन्नयेत॥ ९. स कष्टाद् भयमाप्नोति, कष्टापाते विसीदति। आशज्ञ प्राप्य कष्टानां, स्वीकृतं.मार्गमुज्झति॥ (युग्मम्) जो मनुष्य इस बात में श्रद्धा नहीं रखता कि अपना किया हआ कर्म भगतना पड़ता है या इसमें श्रद्धा रखता हआ भी अपनी आत्मशक्ति को सत्कार्य में नहीं लगाता, वह कष्ट से कतराता है। वह कष्ट आ पड़ने पर खिन्न होता है और कष्टों के आने की आशंका से अपने स्वीकृत मार्ग को त्याग देता है। ॥ व्याख्या ॥ नास्तिक-भौतिकवादी व्यक्ति कष्ट सहने में समर्थ नहीं होते। किए हुए कर्मों को भोगना होता है-इसमें उनका विश्वास नहीं होता। इसलिए सत्कार्यों में उनकी अभिरुचि नहीं होती और न इसे वास्तविक भी मानते हैं। वे कष्टों में अधीर बन अपने सत्त्व को गंवा बैठते हैं। नास्तिकों में अध्यात्म का सर्वथा अभाव रहता है, यह एकांततः नहीं कह सकते। आस्तिकता की मात्रा उनमें दबी रहती है। समय पाकर किसी-किसी में वह उबुद्ध भी हो जाती है। बहुत से व्यक्ति सुख में नास्तिक होते हैं, और दुःख में आस्तिकता की ओर झुक जाते है। उन्हें यह लगने लगता है कि दुःख भी एक तत्त्व है। व्यक्ति जैसा करता है, उसे उसका फल भी भोगना होता है। ‘कृतस्य कर्मणो नूनं, परिणामो भविष्यति'-किए हुए कर्म का फल अवश्य भुगतना होता है।' मैं कर्म करने में स्वतंत्र हूं किंतु भोगने में परतंत्र हूं। फल अवश्य भुगतना पड़ता है। ये विचार आस्तिकता की ओर ले जानेवाले हैं। १०.मार्गोयं वीर्यहीनानां, वत्स! नैष हितावहः। धीरः कष्टमकष्टञ्च, समं कृत्वा हितं व्रजेत॥ वत्स! यह वीर्यहीन व्यक्तियों का मार्ग है। यह मुमुक्षु के लिए हितकर नहीं है। धीर पुरुष सुख-दुःख को समान मानकर अपने हित की ओर जाता है। ॥ व्याख्या ॥ द्वंद्वों (सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान आदि) में अधीरता का होना यह प्रकट करता है कि अभी हम अविद्या और अज्ञान के घेरे में हैं। धीर व्यक्ति बाधाओं को चीरता हुआ निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है। स्वहित के अतिरिक्त वह और कुछ नहीं देखता। मेघः प्राह ११.सुखास्वादाः समे जीवाः, सर्वे सन्ति प्रियायुषः। मेघ बोला-सब जीव सुख चाहते हैं। सबको जीवन प्रिय है। अनिच्छंतोऽसुखं यान्ति, न यान्ति सुखमीप्सितम्॥ वे दुःख नहीं चाहते, फिर भी वह मिलता है और वे सुख चाहते हैं, १२.कः कर्ता सुखदुःखानां, को भोक्ता कश्च घातकः। फिर भी वह नहीं मिलता। सुख-दुःख का कर्ता कौन है? भोक्ता सुखदो दुःखदः कोस्ति, स्याद्वादीश! प्रसाधि माम्॥ कौन है? कौन है इनका अंत करने वाला? सुख-दुःख देनेवाला (युग्मम्) कौन है? हे स्यादवादीश! आप मझे समाधान दें। | व्याख्या ॥ मेघ ने यहां चार प्रश्न प्रस्तुत किए हैं : १. सुख-दुःख का कर्ता कौन है? २. सुख-दुःख का भोक्ता कौन है? ३. सुख-दुःख का नाश करने वाला कौन है? ४. सुख-दुःख देने वाला कौन है ? ये चार प्रश्न प्रायः सभी दार्शनिकों के समाने आते रहे हैं। सभी दर्शन इन्हीं की परिक्रमा लिए चलते हैं। ऋषि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १६३ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद मुनियों ने इन्हीं प्रश्नों को समाहित करने के लिए साधना की और अपने दिव्य ज्ञान और अनुभूति से लोक-मानस को आलोकित किया। दार्शनिक जगत् में मूलतः दो मुख्य धाराएं रही हैं - ईश्वरवादी धारा और आत्मवादी धारा । कुछ दर्शन ईश्वर को जगत् का कर्ता स्वीकार कर सारी व्यवस्था को ईश्वराधीन मानते हैं। उनके अनुसार ईश्वर ही सुख-दुःख का कर्ता और हर्ता है। सुख-दुःख का भोग व्यक्ति करता है। वह भी ईश्वर की इच्छा से, अन्यथा नहीं । इस ईश्वरवादी मान्यता ने व्यक्ति के स्वतंत्र पुरुषार्थ को कुछ भी महत्त्व नहीं दिया । व्यक्ति एक सर्वशक्तिमान् प्रभु के हाथ का खिलौना मात्र रह गया । आत्मवादी परंपरा ने ईश्वर को सर्वशक्ति- संपन्न मानकर भी उसे केवल द्रष्टा मात्र स्वीकार किया है। प्रवृत्ति का हेतु कर्म है। ईश्वर निष्कर्म होते हैं। कारण के अभाव में कार्य की निष्पत्ति नहीं होती । आत्मा सकर्मा होता है। सभी प्रवृत्तियां का कर्ता वही है । इस परंपरा ने चारों प्रश्नों का उत्तर इस भाषा में दिया १. सुख-दुःख का कर्ता आत्मा है। २. सुख-दुःख का भोक्ता आत्मा है। ३. सुख-दुःख का नाश करनेवाला आत्मा है। ४. सुख-दुःख का दाता आत्मा है। जैन दर्शन - आत्म-कर्तृत्व का पोषक है। उसके अनुसार आत्मा सद्-असद् प्रवृत्ति के द्वारा पुद्गलों को आकृष्ट करती है। आकर्षण, कषाय- सापेक्ष होता है। मंदता और तीव्रता का आधार भी यही है। ये आकृष्ट पुद्गल कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों के उदय से आत्मा वैभाविक प्रवृत्तियों में जाती है और इनके क्षय से आत्मा स्वभाव की ओर अग्रसर होती है। जब इनका संपूर्ण विलय हो जाता है तब आत्मा निर्वाण को प्राप्त होती है, परमात्मा बन जाती है। भगवान् प्राह १३. आत्मा कर्ता स एवास्ति, भोक्ता सोऽपि च घातकः । सुखदो दुःखदः सैष, निश्चयाभिमतं स्फुटम् ॥ . १४. शरीरप्रतिबद्धोऽसौ, आत्मा चरति संततम् । सकर्मा क्वापि सत्कर्मा, निष्कर्मा क्वापि संवृतः ॥ १५. कुर्वन् कर्माणि मोहेन, सकर्मात्मा निगद्यते । अर्जयेदशुभं कर्म, ज्ञानमाव्रियते ततः ॥ १६. आवृतं दर्शनं चापि वीर्यं भवति बाधितम् । पौद्गलिकाश्च संयोगाः, प्रतिकूलाः प्रसृत्वराः ॥ १. कर्म के दो अर्थ हैं-प्रवृत्ति और कर्म वर्गणा के पुद्गल । सुख-दुःख का कर्ता आत्मा है। वही भोक्ता है। वही सुखदुःख का अंत करने वाला है और वही सुख-दुःख को देने वाला है। यह निश्चय नय का अभिमत है। यह आत्मा शरीर में आबद्ध है-कर्म शरीर के द्वारा नियंत्रित है । कर्मों के द्वारा ही यह सतत भव-भ्रमण करता है। यह कर्मवर्गणा का आकर्षण करता है, इसलिए सकर्मा है। यह क्वचित् पुण्यकर्म भी करता है, इसलिए सत्कर्मा है। यह क्वचित् कर्म का निरोध भी करता है, इसलिए निष्कर्मा है। मोह के उदय से जो व्यक्ति कर्म-प्रवृत्ति करता है, वह सकर्मात्मा कहलाता है। सकर्मात्मा अशुभ कर्म का बंधन करता है और उससे ज्ञान आवृत होता है। शुभ कर्म के बंधन से दर्शन आवृत होता है, वीर्य का हनन होता है और प्रसरणशील पौद्गलिक संयोगों की अनुकूलता नहीं रहती । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १६४ १७. उदयेन च तीव्रेण, ज्ञानावरणकर्मणः । उदयो जायते तीव्रो, दर्शनावरणस्य च ॥ १८. तस्य तीव्रोदयेन स्यात्, मिथ्यात्वमुदितं ततः । अशुभानां पुद्गलानां संग्रहो जायते महान् ॥ ( युग्मम्) १९. मिथ्यात्वं मोह एवास्ति, तेनात्मा विकृतो भवेत् । सुचिरं बद्ध्यते सैष, स्वल्पं चारित्रमोहतः ॥ २०. अज्ञानञ्चादर्शनञ्च विकुवति न वा जनम् । विकाराणां च सर्वेषां, बीजं मोहोस्ति केवलम् ॥ २१. ते च तस्योत्तेजनाय हेतुभूते परिकरत्वं मोहस्य, कर्माणि दधते पराण्यपि । ततः ॥ खण्ड - ३ ज्ञानावरण कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरण कर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरण के तीव्र उदय से मिथ्यात्व - दृष्टि की विपरीतता का उदय होता है और उससे अशुभ कर्म वर्गणा का महान् संग्रह होता है। २२. मस्तकेषु यथा सूच्यां, हतायां हन्यते तलः । एवं कर्माणि हन्यन्ते, मोहनीये क्षयं गते ॥ २३. सेनापतौ विनिहते, यथा सेना एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये मोह का ही एक प्रकार है मिथ्यात्व । उससे आत्मा विकृत होता है। मिथ्यात्व - मोह-दर्शनमोह से आत्मा दीर्घकाल तक बद्ध होता है और चारित्रमोह से मिथ्यात्व -मोह की अपेक्षा अल्पकाल तक बद्ध होता है। ॥ व्याख्या ॥ संसारी आत्मा शरीर में आबद्ध है। उसकी बहुमुखी प्रवृत्तियां हैं। उन सबका वर्गीकरण दो भागों किया जा सकता है–बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और अंतर्मुखी प्रवृत्तियां । बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का कर्ती आत्मा - बहिरात्मा या सकर्मात्मा है। अंतर्मुखी प्रवृत्तियां दो धारा में प्रवाहित होती हैं। एक धारा सर्वथा निष्कर्मात्मा की है और दूसरी सत्कर्मात्मा की । सत्कर्म की तीव्र परिणति ही निष्कर्म अवस्था है, जिसे परमात्मा कहते हैं। इस प्रकार एक ही आत्मा के तीन रूप बन जाते हैं-बहिरात्मा (सकर्मा), अंतरात्मा (सत्कर्मा) और परमात्मा (पूर्ण निष्कर्मा) । मोहाच्छन्न आत्मा सकर्मा है। उसका देहाभ्यास नहीं छूटता । पर - पदार्थों में वह स्व-दर्शन करता है। उन्हें अपना समझता है, इसे अविद्या कहते हैं। सैद्धांतिक भाषा में यह मिथ्यात्व है। मोह के दो रूप हैं। एक दर्शन-मोह और दूसरा चरित्र - मोह | अज्ञान और दर्शन - ज्ञानावरण और दर्शनावरण आत्मा को विकृत नहीं बनाते। जितने विकार हैं, उन सबका बीज केवल मोह है।. दर्शन - मोह मिथ्यात्व है। अ-स्व में स्वबुद्धि का होना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्वी का संसार भ्रमण कभी उच्छिन्न नहीं होता । वह मोहासक्त होकर अशुभ कर्मों का अर्जन करता है। उनसे दर्शन और ज्ञान आवृत होते हैं, आत्म-शक्ति ह्रास होता है और आत्मा अनुकूल पदार्थों से वियुक्त होती है। ज्ञान के तीव्र उदय से दर्शन का भी तीव्र उदय होता है। दर्शन के तीव्र उदय से दृष्टि का मोह प्रबल होता है। उससे फिर अशुभ कर्म की ओर प्राणी प्रवृत्त होता है । इस प्रकार : यह संसार-चक्र क्रमशः बढ़ता रहता है। विनश्यति । क्षयं गते ॥ ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म तथा शेष सभी कर्म मोहकर्म को उत्तेजित करने में निमित्त बनते हैं। इसलिए मोहकर्म सबमें प्रधान है और शेष सब कर्म उसी के परिवार हैं। आत्म-अहित का मूल मिथ्यात्व है । चरित्र - मोह भी अहितकारी है, लेकिन इतना नहीं जितना कि दर्शन-मोह | यह विपरीत मान्यताओं का घर है। अज्ञान और अदर्शन आत्मा को विकृत नहीं करते। विकृत केवल मोह ही करता है। अन्य कर्म मोह की उत्तेजना में सहायक हो सकते हैं, लेकिन स्वयं वे आत्मा को विकृत नहीं बनाते । जिस प्रकार ताड़ की सूची- अग्रभाग नष्ट होने पर ताड़ नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं। जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सेना पलायन कर जाती है, उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १६५ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद २४. धूमहीनो यथा वह्निः, क्षीयतेऽसौ निरिन्धनः। जिस प्रकार धूम-हीन और इंधन-हीन अग्नि बुझ जाती है, . एवं कर्माणि क्षीयन्ते, मोहनीये क्षये गते॥ उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं। २५.शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिच्यमानो न रोहति। जिसकी जड़ सूख गई हो वह वृक्ष सींचने पर भी अंकुरित नैवं कर्माणि रोहन्ति, मोहनीये क्षयं गते॥ नहीं होता, उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर कर्म अंकुरित नहीं होते। २६.न यथा दग्धबीजानां, जायन्ते पुनरंकुराः। जिस प्रकार जले हुए बीजों से अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः॥ प्रकार कर्म-बीजों के जल जाने पर जन्म-मरण रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते। ॥ व्याख्या ॥ कबीर ने कहा है- 'जो मरने से जग डरे, मो मन में आनंद। . कब मरिहो कब भेटि हों, पूरण परमानंद॥' 'जगत् मरने से डरता है किन्तु मैं मरने में आनंद मानता हूं। मैं कब मरूं और कब उस पूर्ण परमानंद का साक्षात् करूं। वहां कोई विजातीय तत्त्व नहीं है। वहां न शरीर है, न मन है, न इन्द्रियां और न बुद्धि। बस सिर्फ चैतन्य है। उपरोक्त श्लोकों (२० से. २६) में यह स्पष्ट किया है जिसका जो मूल है उसका नाश होने पर शेष विनष्ट हो जाता है। आत्मा के पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में बाधक हैं-कर्म। मोह कर्म उनमें मूल है। मोह के क्षीण होने पर शेष कर्म अवशेष हो जाते हैं। आठों ही कर्मों के क्लिय होने पर आत्मा के लिए कोई पारतंत्र्य नहीं रहता। वह विकृति से सर्वथा मुक्त होकर प्रकृति में अवस्थित हो जाती है। २७.विशुद्धया प्रतिमया, मोहनीये क्षयं गते। . सर्वलोकमलोकं च, वीक्षते सुसमाहितः॥ २८.सुसमाहितलेश्यस्य, · अवितर्कस्य संयतेः। सर्वतो विप्रमुक्तस्य, आत्मा जानाति पर्यवान्॥ विशुद्ध प्रतिमा के द्वारा मोह-कर्म के क्षीण होने पर समाहित आत्मा समस्त लोक और अलोक को देख लेता है। जिसकी लेश्या-भावधारा समाहित होती है, जो सुख-सुविधा की तर्कणा-ताक में नहीं रहता और जो बाह्य और आभ्यन्तर संयोगों अथवा संबंधों से सर्वथा मुक्त है, उस संयमी की आत्मा लोक-अलोक के नाना पर्यवों-अवस्थाओं को जान लेती है। तपस्या के द्वारा जो कर्महेतुक लेश्याओं का विलय करता है, उसका दर्शन परिशुद्ध हो जाता है। शुद्ध दर्शन वाला व्यक्ति उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में अवस्थित सब पदार्थों को देखता है। २९. तपोपहतलेश्यस्य, काममूर्ध्वमधस्तिर्यक्, दर्शनं स परिशुद्ध्यति। सर्वमनुपश्यति॥ ॥ व्याख्या ॥ योग का अंतिम अंग समाधि है। उसका अर्थ है-आत्मनिष्ठा, बहिर्भाव से सर्वथा विलग होना। यहां परमात्मा और स्वात्मा का पूर्ण सादृश्य प्रतीत ही नहीं, अनुभूत होने लगता है। आत्मा की मौन ध्वनि मुखरित हो उठती है। 'जो परमात्मा है वह मैं हूं और जो मैं हूं वह परमात्मा है' यह सत्य समाधि की नीची अवस्थाओं में भी उसे प्रतीत होने लगता है। वस्तुतः परम सत्य की दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का स्वरूप अभिन्न है। भिन्नता व्यवहार में है। अभेद का उपासक भिन्नता के घेरे को लांघकर अभेद में चला जाता है। समाधि परमात्मस्थता का सर्वोच्च सोपान है। योगी वहां बहिःस्थता को सर्वथा भूल जाता है। वह क्या है ? किसका है ? कैसा है? कहां है? इन विकल्पों से अतीत हो जाता है ? उसे अपने शरीर १. प्रतिमा जैन आगम सम्मत तपस्या और ध्यान साधना का विशेष प्रयोग। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-३ का भी ज्ञान नहीं रहता। वह आत्म-चैतन्य और आत्मानंद में इतना खो जाता है कि बाहर उसे कुछ दिखाई नहीं देता। समाधि अभेददृष्टि से परमात्मा के साथ एकीकरण है और भेद-दृष्टि से आत्मा का स्वयं परमात्मा होना है। अभेदद्रष्टा आत्मा का परमात्मा के साथ विलीनीकरण में व्यग्र रहते हैं। आत्मा का स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रकरान्तर से वहां स्वतः प्रस्फुट हो जाता है। आत्मा के एकत्व और अनेकत्व की दो दृष्टियों का समन्वय ही हमें पूर्णता का अनुभव करा सकता है। समाधि कर्म-क्षय की सर्वोत्तम दशा है। मोह का आवरण यहां हट जाता है और आत्मा का स्वभाव प्रकट हो जाता है। शंकराचार्य का कथन है कि समाहित व्यक्ति को प्रबोध-ज्ञान की उपलब्धि होती है। जैन दर्शन की भाषा में यह केवल-ज्ञान दशा है। आत्मा इस अवस्था में सर्व पदार्थों की विविध दशाओं का साक्षात् ज्ञान कर लेती है। उसके लिए कोई अज्ञेय नहीं रहता। ३०.ओज'श्चित्तं समादाय, ध्यानं यस्य प्रजायते। जो निर्मल अथवा राग-द्वेष मुक्त चेतना का आलंबन लेकर धर्मे स्थितः स्थिरचित्तो, निर्वाणमधिगच्छति॥ ध्यान करता है, वह धर्म में स्थित हो जाता है। वह स्थिरचित्त होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। ॥ व्याख्या ॥ ध्यान का अर्थ है-मन का आत्मा के साथ संयोजन। उसका पहला हेतु है मन की पवित्रता। मन की तह में छिपी हुई जो वासनाएं हैं उन्हें एक-एक कर बाहर निकालना मन को पवित्र करना है। मन में असंख्य संस्कार हैं। राग, द्वेष, मद, मोह, ईर्ष्या, लोभ, ममत्व आदि विकार मन को मलिन करते हैं। साधना के द्वारा इन दोषों को उखाड़कर मैत्री, प्रमोद, सरलता, सद्भावना, अनाशंसा, विनम्रता, निर्ममत्व, आकिंचन्य आदि गुणों को स्थान देना सिद्धि की ओर अग्रसर होना है। मन को पवित्र करने का यही अर्थ है। चेतना सतत प्रवहमान है। जो चेतना बाहर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व मन है। शरीर का अस्तित्व जैसे निरंतर है, वैसे मन का अस्तित्व निरंतर नहीं रहता। मन केवल मनन-काल में होता है। वास्तव में मानसिक समता ही मनःशुद्धि है। सामान्यतः यह लोक-भाषा है कि मन चंचल हैं, उसमें विक्षेप होता है। परंतु यह तब तक होता है जब तक कि मन का इन्द्रियों के साथ गाढ़ संपर्क होता है। जब मन इनसे संबंध-विच्छेद कर आत्माभिमुख होता है, तब वह चंचल नहीं होता, धीरे-धीरे एकाग्र बन जाता है। ___ जिस व्यक्ति की चेतना का प्रवाह बाह्याभिमुख है, वह ध्यान नहीं कर सकता। जो अपनी चेतना को आत्माभिमुख करता है, वही ध्यान का अधिकारी होता है। मनः शुद्धिः और मनःएकाग्रता से आत्मा निर्वाण, को प्राप्त करती है। ३१. नेदं चित्तं समादाय, भूयो लोके स जायते। निर्मल चित्तवाला व्यक्ति बार-बार संसार में जन्म नहीं लेता। संज्ञिज्ञानेन जानाति, विशुद्धं स्थानमात्मनः॥ वह संज्ञिज्ञान-जाति-स्मृति के द्वारा आत्मा के विशुद्ध स्थान को जानता है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने कहा-'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ'-धर्म मानसिक विशुद्धि में निवास करता है। शुद्धि उसकी होती है जो सरल है। सरलता का अर्थ है-कथनी और करनी की समानता। 'सरलता वह प्रकाश-पुंज है, जिसे हम चारों ओर से देख सकते है।' सरलता चित्तशृद्धि का अनन्य उपाय है। जब तक मन पर अज्ञान, संदेह, माया और स्वार्थ का आवरण रहता है तब तक वह सरल नहीं होता। इन दोषों को दूर करने पर ही व्यक्ति का मन खुली पोथी जैसा हो सकता है, चाहे कोई भी व्यक्ति किसी भी समय में उसके मन को पढ़ सकता है। जब तक मन में छिपाव, घुमाव और अंधकार रहते हैं, तब तक मन की सरलता प्राप्त नहीं होती। असरल मन सदा मलिन रहता है। मलिन मन से विचार और आचार भी मलिन हो जाते हैं। अतः चित्त की निर्मलता से आत्म-स्वरूप का सहज परिज्ञान हो सकता है। १. ओज-राग-द्वेष मुक्त अथवा निर्मल। २.न+इदम्। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १६७ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद ३२.प्रान्तानि भजमानस्य, विविक्तं शयनासनम्। जो निस्सार भोजन, एकांत वसति, एकांत आसन और अल्पाहारस्य दान्तस्य, दर्शयन्ति सुरा निजम्॥ अल्पाहार का सेवन करता है, जो इंद्रियों का दमन करता है, उसके सम्मुख देव अपने आप को प्रकट करते हैं। ॥ व्याख्या ॥ स्थानांग सूत्र में बताया गया है कि देव मनुष्यलोक में चार कारणों से आते हैं। वे कारण ये हैं : १. मुमुक्षु के दर्शन करने के लिए। २. तपस्वी के दर्शन करने के लिए। ३. कुटुम्बियों से मिलने के लिए। ४. अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने मित्रों को प्रतिबोध देने के लिए। इन कारणों में एक कारण है-मुमुक्षु के दर्शन करना। यह अन्यान्य कारणों में एक प्रमुख कारण है। देव स्वभावतः विलासप्रिय होते हैं। वहां का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विलास की ओर प्रेरित करता है। उनकी अपार ऋद्धि, वैभव और सुख-सुविधायें उन्हें विरति की ओर जाने के लिए कभी प्रेरित नहीं करतीं। ज्यों-ज्यों उपभोग सामग्री की अधिकता होती है, त्यों-त्यों लालसा भी बढ़ती है। पदार्थों के भोग से लालसा तृप्त नहीं होती, वह निरंतर बढ़ती है। यह एक सामान्य तथ्य है। परंतु ज्यों-ज्यों ऊपर जाते हैं, देव वितृष्ण और निष्कषाय होते हैं। अपार संपत्ति, अटूटवैभव भी उन्हें अपने पाश में नहीं बांध सकता। जो व्यक्ति निःसार भोजन करता है, एकांतवास का सेवन करता है, मिताहारी और दांत है, वह वास्तव में महान् तपस्वी है। तपस्या से आत्म-शक्ति को पोषण मिलता है और उसका तेज सारे वातावरण को प्रभावित करता है। तपस्या का अर्थ शरीर को तपाना ही नहीं, मन, वाणी और इन्द्रियों को तपाना है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है-कोरा शरीर तपता है, तब अंहं बढ़ता है। शरीर और इन्द्रियां-दोनों तपते हैं, तब संयम बढ़ता है। शरीर, इन्द्रिय और मन-तीनों तपते हैं, तब आत्मा का द्वार खुलता है। शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि-चारों तपते हैं, तब आत्मा का साक्षात् होता है। जो व्यक्ति ऐसी तपस्या में लीन है, वह देवों द्वारा नमस्कृत होता है। इस श्लोक में बताया गया है कि-'तपस्वी के पास देव अपने आपको प्रकट करते हैं'-इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक तो यह कि तपस्वीजीवन जीनेवाला व्यक्ति निःस्पृह और निस्तृष्ण होता है। उसका आत्म-तेज स्वयं-स्फूर्त हो जाता है। देव भी उस व्यक्ति की निःस्पृहता और निस्तृष्णा से प्रभावित होकर उसका सान्निध्य पाने का प्रयत्न करते हैं। । दूसरी बात है कि तप आसक्ति-निवारण और वैराग्य-वृद्धि का महान् हेतु है। ज्यों-ज्यों आसक्ति घटती है, वैराग्य बढ़ता है और ज्यों-ज्यों वैराग्य बढ़ता है मन, वाणी और इन्द्रियां पवित्र बनती हैं। इससे आत्माभिमुखता बढ़ती है और आवरण क्षीण होता जाता है। ऐसी स्थिति में आत्म-देव का साक्षात् होता है और तब तपस्वी अपूर्व आनंद का अनुभव करता है। उसमें देवत्व-आत्मत्व जाग उठता है और तब उनकी सारी क्रिया आत्मा की परिक्रमा किए चलती है। इस देवत्व को पाना ही मुमुक्ष का चरम लक्ष्य है। ३३. अथो यथास्थितं स्वप्नं, क्षिप्रं पश्यति संवृतः। - सर्व वा प्रतरत्योघं, दुःखाच्चापि विमुच्यते॥ संवृत आत्मा यथार्थ स्वप्न को देखता है, संसार के प्रवाह को तर जाता है और दुःख से मुक्त हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ _इस श्लोक में संवृत आत्मा के गुणों का दिग्दर्शन कराया है। आत्म-क्रिया में सतत प्रयत्नशील और सावधान आत्मा को संवृत-आत्मा कहा जाता है। उसकी प्रत्येक क्रिया संयम से अनुस्यूत होती है। वह वास्तव में आत्म-द्रष्टा होता है। उसमें मोहजन्य दोष नहीं होते। वह जो कुछ देखता है, करता है, सुनता है, चखता है या चलता है-इन सब क्रियाओं में आत्माभिमुखता होती है। उसके लिए आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञेय है, ध्याता और ध्येय है। उसका देखना, सुनना या कहना अयथार्थ नहीं होता। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन .. १६८ खण्ड-३ स्वप्न एक मानसिक क्रिया है। वह दृष्ट, श्रुत या अनुभूत वस्तु का ही आता है। जो कभी देखा, सुमा या अनुभव नहीं किया, उसका कभी स्वप्न नहीं आता। स्वप्न संकलनात्मक ज्ञान है। वह सबका यथार्थ नहीं होता। जिसके मन, वाणी और अध्यवसाय पवित्र हैं, जो संवृत आत्मा है, उसके स्वप्न सदा यथार्थ होते हैं। स्वप्न की अयथार्थता के अनेक हेतु हैं। उनमें प्रमुख ये हैं: दुश्चिन्ता, अनिद्रा, मानसिक मलिनता, आसक्ति, अस्वस्थता आदि। पंचतंत्र में बताया है : व्याधितेन सशोकेन, चिन्ताग्रस्तेन जन्तुना। कामार्तेनाथ मत्तेन, दृष्टः स्वप्नो निरर्थकः॥ -रोगी, शोकाकुल, चिंताग्रस्त, कामार्त्त और मत्त व्यक्तियों के स्वप्न अयथार्थ होते हैं। ३४.सर्वकामविरक्तस्य, अवधिर्जायते ज्ञानं, क्षमतो संयतस्य भयभैरवम्। तपस्विनः॥ जो सब कामनाओं से विरक्त है, जो भयानक शब्दों, अट्टहासों और परीषहों को सहन करता है, जो संयत और तपस्वी है, उसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। ॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान पांच हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इनमें पहले दो ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष हैं और शेष तीन आत्मसापेक्ष। इनको परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान भी कहा जाता है। अवधिज्ञान आत्मसापेक्ष है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसका अर्थ है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन मर्यादाओं से रूपी द्रव्यों का ज्ञान करना। प्रज्ञापना सूत्र में इसके विविध प्रकारों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। मेघः प्राह ३५. दृश्यते जीवलोकोऽयं, नानारूपे विभक्तिमान्। मेघ बोला-भगवान् ! यह जीव-जगत् विभिन्न रूपों में नानाप्रवृत्तिं कुर्वाणः, कर्तत्वं कस्य विद्यते॥ विभाजित दिखाई दे रहा है और यह नाना प्रकार की प्रवृत्तियां करता है। इन सबके पीछे किसका कर्तत्व है? यह मैं जानना चाहता हूं। भगवान् प्राह ३६. विभक्तिः कर्मणा लोके, कर्मास्ति चेतनाकृतम्। भगवान् ने कहा-यह सारा विभाजन कर्म के द्वारा निष्पन्न होता चेतना सासवा तेन, कर्माकर्षति संततम्॥ है। कर्म करने वाली है चेतना। यह आसवयुक्त होती है इसलिए कर्मों का आकर्षण सतत करती रहती है। ३७.यथा भावस्तथा कर्म, यथा कर्म तथा रसः। विचारस्तादृगाचारो, व्यवहारोऽपि तादृशः॥ व्यक्ति का जैसा भाव–अंतश्चेतना का परिणाम होता है, वैसा कर्म होता है। कर्म के अनुसार उसका रस-विपाक होता है। रस के अनुसार विचार पैदा होते हैं। जैसे विचार होते हैं, वैसा ही आचार होता है। आचार के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार फलित होता है। ३८. कर्माणि क्षीणतां यान्ति. विकासो जायते चिदः। तानि प्रबलतां यान्ति, हासस्तस्याः प्रजायते॥ कों के क्षय होने से चेतना का विकास होता है और उनके प्रबल हो जाने से चेतना का ह्रास हो जाता है। ३९.सुचीर्णैः कर्मभिर्जीवाः, विकासं यान्ति बाह्यतः। दुश्चीर्णैः कर्मभिर्जीवाः ह्रासं यान्ति बहिस्तनम॥ सदाचरण से निष्पन्न कर्मों के द्वारा जीव का भौतिक विकास होता है और दुराचरण से निष्पन्न कर्मों के द्वारा उसका भौतिक ह्रास होता है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १६९ ॥ व्याख्या ॥ यह जीव-जगत बहुत विविधता को लिए हुए हैं। इसे देखकर एक जिज्ञासु व्यक्ति के मन में जिज्ञासा होना असहज नहीं है। वह देखता है एक जीव कीट है, पतंग, चूहा, ऊंट है, गधा है, मनुष्य है, पशु-पक्षी, वनस्पति है - यह ऐसा विभाजन क्यों है ? कौन इनको बनाने वाला ? इस सबका कारण क्या है ? किसी के पास भौतिक संसाधनों की प्रचुरता है, किसी के पास नहीं है ? मेघ की आशंका का निर्मूलन करने के लिए भगवान् महावीर ने बड़े तथ्यपूर्ण और वास्तविक स्थिति का चित्रण करते हुए कहा - मेघ ! इस सबका कारण कर्म है। आस्रव कर्म आगमन का मार्ग है। कर्म को आत्मा के साथ जोड़ने बाली कड़ी आस्रव है। आत्मा के शुभाशुभ भाव बाहर स्थित कर्म परमाणुओं को भीतर खींचते हैं। उन कर्मों के कारण ही यह सारी विविधता है। यह स्वयं जीवकृत है। जीव का जैसा भाव होता है वैसा ही कर्म का आकर्षण होता है। वे कर्म विपाक - फल रूप जब प्रकट होते तब गति, चिंतन, क्रिया-कलाप वैसा ही बन जाता है। कर्मों के क्षीण होने से चेतना का विकास होता है और कर्मों के उपचय से ह्रास होता है। सद्गति, दुर्गति का कारण कर्म ही है। अच्छे कर्मों का अच्छा फल हैं, उनके उदयकाल में व्यक्ति - जीव को अनुकूल सामग्री मिलती है। असत् कर्म के उदय काल में भौतिक ह्रास होता है। अन्य भी अनेक जटिलताएं, कुरूपता, सुरूपता, अनादेयता के पीछे भी शुभाशुभ कर्म का हाथ है। ४०. आवारका अंतरायकारकाश्च विकारकाः । पुद्गलाः • कर्मसंज्ञिताः ॥ प्रियाप्रियनिदानानि, ४९. जीवस्य परिणमेन, अशुभेन शुभेन च । संगृहीताः पुद्गला हि, कर्मरूपं भजन्त्यलम् ॥ ४२. तेषामेव विपाकेन, जीवस्तथा प्रवर्तते। नैष्कर्म्येण विना नैष, क्रमः क्वापि निरुद्ध्यते ॥ ४३. पूर्ण नैष्कर्म्ययोगस्तु, शैलश्यामेव जायते । तं गतो कर्मभिर्जीवः क्षणादेव विमुच्यते ॥ ४४. अपूर्ण नाम नैष्कर्म्य, तदधोपि प्रवर्तते । नैष्कर्म्येण विना क्वापि, प्रवृत्तिर्न भवेच्छुभा ॥ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद १. पूर्ण निरोध की अवस्था । ज्ञान, - पुद्गल आत्मा के कुछ कर्मदर्शन के आवारक हैं, कुछ आत्मशक्ति को प्रतिहत करते हैं, कुछ विकारक हैं-आत्मचेतना में विकृति उत्पन्न करते हैं और कुछ प्रिय-अप्रिय संवेदन के निमित्त बनते हैं। जीव के शुभ और अशुभ परिणाम से संगृहीत पुद्गल 'कर्म' रूप में परिणत होते हैं। कर्म कहलाते हैं। उन्हीं कर्मों के विपाक से जीव वैसे ही प्रवृत्त होता है जैसे उनका संग्रह करता है। नैष्कर्म्य के बिना यह क्रम कभी भी नहीं रुकता। पूर्ण नैष्कर्म्य - योग शैलेशी' अवस्था में होता है। यह अवस्था चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है। इसमें जीव मन, वाणी और शरीर से कर्म का निरोध कर शैलेश - मेरु पर्वत की भांति अकंप बन जाता है, इसलिए इसको शैलेशी अवस्था कहते हैं। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव क्षण में कर्म-मुक्त हो जाता है। पूर्ण योग शैलेशी अवस्था से पहले भी होता है, क्योंकि नैष्कर्म्य के बिना कोई भी प्रवृत्ति शुभ नहीं होती। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-३ हाता ॥ व्याख्या ॥ अर्थक्रियाकारित्व पदार्थ का लक्षण है। यदि अक्रिया को हम स्वीकार करें तो फिर वस्तु का उपरोक्त लक्षण कैसे घटित हो सकता है ? गीता का कर्मयोग अनासक्त क्रिया-प्रवृत्ति को भी अकर्म का रूप देता है। शायद उसे भय है कि आत्मा फिर सर्वदा निष्क्रिय न हो जाए। लेकिन थोड़ी गहराई पर उतरने से ऐसा नहीं होता। प्रवृत्तियां द्विमुखी होती हैं-बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। अंतर्मुखी क्रिया का प्रवर्तन प्रतिक्षण चालू रहता है। वह आत्मा की पूर्ण शुद्धावस्था में भी रुकता नहीं। आत्मा बाहरी क्रियाओं से निष्क्रिय हो, अंतरंग में सक्रिय हो जाती है। वहां मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाता है। आनंद, ज्ञान, दर्शन और चरित्रात्मक क्रियाओं का द्वार खुल जाता है। संन्यास शब्द की भावना ही बहिर्भाव का परिवर्जन है। एक क्रिया से निवृत्त होने का अर्थ है दूसरी में प्रवृत्त होना। राग, द्वेष और मोह की निवृत्ति ही समत्व या अनासक्तता की प्रवृत्ति है। पूर्ण अनासक्ति राग-द्वेष के अभाव के बिना संभव नहीं होती। उसकी मात्रा में तारतम्य हो सकता है। अनासक्ति और मोह का मेल नहीं होता। जैन दर्शन की भाषा में वीतराग-दशा अनासक्त दशा है। वहां राग, द्वेष और मोहात्मक प्रवृत्ति नहीं होती, इसीलिए वह एकांततः सत्कर्म अवस्था है, अशुभ कर्म की सर्वथा निरोधात्मक स्थिति है। लेकिन सत्कर्म की क्रिया से पुण्य कर्म का बंधन वहां भी रहता है। अंतर इतना ही है कि वह बंधन द्वि-सामयिक होता है। सत्कर्म की निवृत्ति की स्थिति में आत्मा पूर्ण अकर्मा होती है। वहां किसी प्रकार का बंधन नहीं रहता। उस स्थिति की क्रिया चिदात्म-स्वरूप है। उस दशा में आत्मा शरीर से सर्वथा विमुक्त हो जाती है। पूर्ण या अपूर्ण निष्क्रियता के बिना कर्म का प्रवाह विच्छिन्न नहीं होता। कर्म-निरोध के लिए सबसे पहले अशुद्ध भावों का निरोध नहीं चाहिए। अशुभ की निवृत्ति, शुभ की प्रवृत्ति-उससे पाप कर्म का. बंधन नहीं होता। जितना भी दुःख है वह सब अशुभ भावों का है। महात्मा बुद्ध की दृष्टि में दुःखों की जनयित्री तृष्णा है। तृष्णा का उच्छेद दुःख का . उच्छेद है। तृष्णा अशुभ संकल्पों को पैदा करती है। अशुभ संकल्प से कर्म का प्रवेश होता है और कर्म से दुःख। इस प्रकार ग्रंथिभेद नहीं होता। अशुभ प्रवृत्तियों के अनन्तर शुभ प्रवृत्तियों का निरोध अपेक्षित है। उसका साधन है ध्यान। स्व-द्रव्य (चैतन्य) के अतिरिक्त 'पर' का स्पर्श नहीं करना ध्यान है। इसमें आत्मा के सिवाय और कुछ प्रतिभासित नहीं होता। कर्म-क्षय की यह उच्चतम अवस्था है। इसमें शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों की प्रबल मात्रा में क्षीणता होती है। कर्मों के सर्वथा क्षय होने पर आत्मा स्वभावस्थ हो जाती है। वह पूर्ण निष्कर्मा बन जाती है। लाओत्से कहता है-जो निष्क्रिय है उसे तुम सक्रियता के द्वारा कैसे पा सकोगे? सक्रियता सिर्फ थकाती है, जिससे कि व्यक्ति विश्राम में चला जाए। अंततोगत्वा व्यक्ति को अकर्म होना पड़ता है। वह कहता है-'कुछ मत करो, रुक जाओ।' जो खोजेगा वह खो देगा। अगर पाना है तो पाने की कोशिश मत करो, और जो भीतर ही है उसे पाने के लिए रुक जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। लेकिन सामान्यतया यह बात प्राथमिक साधक के हृदय में नहीं उतरती। वह 'न करने' की कल्पना भी नहीं कर सकता। मनुष्य का संस्कार कुछ न कुछ करने का है। निकम्मा रहना व्यावहारिक जगत् नहीं सिखाता। आध्यात्मिक जगत् में निकम्मा-निष्कर्मा होना महान् दुश्चर तप है। यह अपने आप में महान् सक्रियता है। योग के जितने प्रकार और जितनी विधियां हैं उनका अंतिम परिणाम निष्क्रियता-समाधि है, जहां स्वरूप के अतिरिक्त कुछ अनुभूत नहीं होता। निष्क्रियता का पहला चरण है-मन और इन्द्रियों की सक्रियता को देखो। उन्हें रोको मत। उनके साथ मत बहो। जैसे ही गति शुरू कर दोगे, अपने को भूल जाओगे, होश खो बैठोगे। वह आप पर सवार हो जाएगा, आप उस पर नहीं। समग्र साधना का सार है-स्वयं का मालिक स्वयं होना। । दूसरे चरण में सीखना है-तटस्थ होना। मन में उठने वाले अच्छे-बुरे विचारों-भावों के प्रति प्रतिक्रिया न कर तटस्थ (राग-द्वेष मुक्त) भाव से देखते रहना। सामान्यतया व्यक्ति तटस्थ नहीं रहता। जैसे ही इन्द्रिय विषय प्रतिबिम्बित होते हैं, शब्द, कल्पना या मन का कार्य प्रारंभ हो जाता है। शान्ति-तटस्थता नहीं रहतीं। प्रतिक्रिया की मुक्ति के बिना निवृत्ति संभव नहीं है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ४५. सत्प्रवृत्तिं बध्यमानं १७१ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद प्रकुर्वाणः, कर्म निर्जरयत्यघम्। जो जीव सत्प्रवृत्ति करता है, उसके पाप-कर्म की निर्जरा शुभं तेन, सत्कर्मेत्यभिधीयते॥ होती है और शुभ-कर्म का संग्रह होता है, इसलिए वह 'सत्कर्मा' कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ शुभ विकल्प-दशा में प्रवर्तमान आत्मा सत्कर्मा है। इसमें शुभ कर्म का संग्रह भी होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरण भी होता है। कर्म का प्रवाह उसी रूप में प्रवाहित रहे तो कर्म आत्मा से पृथक् नहीं होते। कर्मों की अपृथक्ता से भव-परंपरा का भी अंत नहीं होता। लेकिन सत्प्रवृत्ति में आत्मा की अपूर्व स्थिति बनती है। वहां बद्ध कर्म पृथक् होते हैं, नए कर्मों का प्रगाढ़ बंधन नहीं होता और न उनका लेप ही तीव्र होता है। ज्यों-ज्यों आत्मा उन्नति की ओर अग्रसर होती है त्यों-त्यों कर्म-क्षीणता अधिक होती है और संग्रह कम। इस प्रकार वह सर्वथा कर्म से छूट जाती है। ४६.शुभं नाम शुभं गोत्रं, शुभमायुश्च लभ्यते। ... वेदनीयं शुभं जीवः, शुभकर्मोदये सति॥ शुभ-कर्मों का उदय होने पर जीव को शुभ नाम, शुभ गोत्र, शुभ आयुष्य और शुभ वेदनीय की प्राप्ति होती है। ४७. अशुभं वा शुभं वापि, कर्म जीवस्य बन्धनम्। __आत्मस्वरूपसंप्राप्तिः, बन्धे सति न जायते॥ कर्म शुभ हो या अशुभ, आत्मा के लिए दोनों ही बंधन हैं। जब तक कोई भी बंधन रहता है तब तक आत्मा को अपने स्वरूप की संप्राप्ति नहीं होती। ४८. सुखानुगामि यद् दुःखं सुखमन्वेषयन् जनः। दुःखमन्वेषयत्येव, , पुण्यं तन्न' विमुक्तये॥ क्योंकि सुख के पीछे दुःख लगा हुआ है। अतः जो जीव पौद्गलिक सुख की खोज करता है, वह वस्तुतः दुःख की भी खोज करता है इसलिए पुण्य से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। ॥ व्याख्या ॥ पुण्य मुक्ति का साधन नहीं है। पुण्य का अर्जन करनेवाला छिपे रूप में सुख की चाह रखता है। उसे आत्मसुख प्रिय नहीं है। वह चाहता है भोग। भोग की प्राप्ति बंधनों से विमुक्त नहीं कर सकती। 'पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मतिमूढ़ता और मतिमूढ़ता से व्यक्ति पाप में अवलिप्त हो जाता है। इस प्रकार पुण्य की परंपरा दुःख से आकीर्ण है। अंतः आचार्य कहते हैं कि हमें पुण्य भी नहीं चाहिए।' जिसके द्वारा संसार परंपरा बढ़ती है, वह पुण्य कैसे पवित्र हो सकता है? पुण्य की इच्छा वे ही करते हैं जो परमार्थ से अनभिज्ञ हैं। - आचार्य भिक्षु की लेखनी ने इस विषय को बहुत स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-'जो पुण्य की इच्छा से तप करते - हैं, वे अपनी क्रिया को गवांकर मनुष्य जीवन को हार जाते हैं। पुण्य तो चतुःस्पर्शी कर्म पुद्गल हैं। जो उसकी इच्छा करते हैं वे मूढ हैं। उन्होंने न धर्म को जाना है, न कर्म को। पुण्योदय से होनेवाले सुखों में जो प्रसन्न होता है, वह कर्म का संग्रह करता है, अनेक प्रकार के दुःखों में प्रवेश करता है और मुक्ति से दूर हटता है। पुण्य की इच्छा करनेवाला . भोग की इच्छा करता है और भोगासक्त व्यक्ति अप्रकट रूप में नारकीय यातनाओं को ही चाहता है। श्रीमद् जयाचार्य प्रारंभ ये यह प्रतिबोध देते हैं कि पुण्य की कामना मत करो। वह खुजली के रोग जैसा है, जो प्रारंभ में सुखद और परिणाम में भयावह है। स्वर्ग, चक्रवर्ती आदि के सुख भी नश्वर हैं। साधक की दृष्टि सदा मोक्ष या आत्म-सुख की ओर रहे। ____ आगम कहते हैं-इहलोक, परलोक, पूजा-श्लाघा आदि के लिए धर्म मत करो। यही बात वेदांत के आचार्यों ने कही हैं-'मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।' पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति मिलती - है। गीता कहती है-बुद्धिमान् व्यक्ति को सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप)- दोनों का त्याग करना चाहिए। १. यत् यस्मात्। ३. तत् तस्मात्। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १७२ खण्ड-३ ४९.पुद्गलानां प्रवाहो हि, नैष्कर्येण निरुक्ष्यते। त्रुट्यन्ति पापकर्माणि, नवं कर्म न कुर्वतः॥ कर्म पदगलों का जो प्रवाह आत्मा में प्रवाहित हो रहा है, वह नैष्कर्म्य-संवर से रुकता है। जो नए कर्म का संग्रह नहीं करता, उसके पूर्व संचित पाप-कर्म का बंधन टूट जाता है। ५०.अकुर्वतो नवं नास्ति, कर्मबन्धनकारणम्। नोत्पद्यते न म्रियते, यस्य नास्ति. पुराकृतम्॥ जो क्रिया नहीं करता, संवृत हो जाता है, उसके नए कर्मों के बंधन का कारण शेष नहीं रहता। जिसके पहले किए हुए कर्म नहीं हैं, वह न जन्म लेता है और न मरता है। ५१.शरीरं जायते बद्धजीवाद् वीर्य ततः स्फुरेत्। ततो योगो हि योगाच्च, प्रमादो नाम जायते॥ कर्म-बद्ध जीव के शरीर होता है। शरीर में वीर्य स्फुरित होता है। वीर्य से योग-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति होती है और योग से प्रमाद उत्पन्न होता है। ५२. प्रमादेन च योगेन, जीवोऽसौ बध्यते पुनः। बद्धकर्मोदयेनैव, सुखं दुःखञ्च लभ्यते॥ प्रमाद और योग से जीव पुनः कर्म से आबद्ध होता है और बंधे हुए कर्मों के उदय से ही वह सुख-दुःख पाता है। ॥ व्याख्या ॥ अकर्म से कर्म का ग्रहण नहीं होता। कर्म ही कर्म का संग्राहक है। तत्त्वतः आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है। कर्मजन्य परिणामों से आत्मा की प्रवृत्ति राग-द्वेष-मोहात्मक होती है। तब कर्म का प्रवेश होता है। राग, द्वेष और मोह-ये आत्मा की वैभाविक दशा हैं। स्वाभाविक दशा है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। इनसे आत्मा बद्ध नहीं होती। विभाव ही विभाव को आकृष्ट करता हैं और फिर विभाव रूप में परिणत होता है। व्यवहार-दृष्टि से राग-द्वेष और मोह-ये जड़ नहीं हैं, चेतना की अशुद्ध परिणति है। चेतना आत्मा का धर्म है। अतः आत्मा कर्म का कर्ता है। अज्ञानसिक्त आत्मा सुखदुःख या जन्म और मृत्यु का जाल अपने ही हाथों से फैलाती है और उसी में फंस जाती है। ५३. अनुभवन् स्वकर्माणि, जायते म्रियते जनः। प्राणी अपने कर्मों का भोग करता हआ जन्मता है, मरता है। प्राधान्यं नेच्छितानां यत्, कृतं प्रधानमिष्यते॥ कर्म-सिद्धांत के अनुसार इच्छा की प्रधानता नहीं है किन्तु कृत की प्रधानता है। अर्थात् मनुष्य जो चाहता है, वही नहीं होता, किन्तु उसे उसका फल भी भुगतना पड़ता है, जो उसने पहले किया है। ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य क्या, छोटे-से-छोटे प्राणी में भी जिजीविषा है। सभी प्राणी अपनी स्थिति में संतुष्ट हैं। वे वहां से 'अन्यत्र रमण करना नहीं चाहते। इन्द्र और सूअर का वार्तालाप इसका प्रमाण है। इन्द्र ने सूअर से कहा-'देखो, तुम कितने दुःखी हो। कितना निकृष्ट भोजन करते हो। चलो, मैं तुम्हें स्वर्ग के महान् सुखों में ले चलूं। वहां सुख ही सुख है।' सूअर के मन में इन्द्र की बात जंच गई। वह जाने को भी प्रस्तुत हो गया। उसने पूछा-'अच्छा, एक बात मुझे आप बताएं कि स्वर्ग में मुझे कैसा भोजन मिलेगा? जो मैं यहां खा रहा हूं वह मुझे वहां उपलब्ध होगा या नहीं?' इन्द्र ने कहा, 'नहीं।' तब वह बोला-'तो आपके स्वर्ग से मुझे क्या प्रयोजन ?' यदि इच्छा की प्रधानता होती तो संसार का कोई प्राणी न मरता, न दुःखी होता, न अस्वस्थ होता और न दीन होता। कर्म का कोई अस्तित्व नहीं रहता। लेकिन ऐसा होता नहीं। इच्छा की प्रधानता नहीं है, प्रधानता है अपने किए हुए कर्मों की। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, परंतु उसका फल भोगने में परतंत्र है। उसे अपने कर्मों के अनुरूप ही फल उपलब्धि होती है। कर्म से मुक्त होने का एक ही उपाय है-भेद-विज्ञान। भेद-विज्ञान को जाननेवाला व्यक्ति कर्म की Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . १७३ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद श्रृंखला को तोड़ फेंकता है। इसलिए आचार्य कहते हैं : विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद् भिन्नधाम्नो, ननु किमनुपलब्धि ति किञ्चोपलब्धिः॥ वत्स! शांत रह, व्यर्थ के कोलाहल से क्या होगा? तू अपने आप में शांत रहकर छह महीने तक लीन रह और हृदय-रूपी सरोवर में पुद्गल से भिन्न चेतना को देख। तुझे तब ज्ञात होगा कि तुझे क्या उपलब्ध नहीं हुआ है और अभी क्या उपलब्ध है।' ५४. सुखानामपि दुःखानां, क्षयाय प्रयतो भव। मेघ! तू सुख और दुःख को क्षीण करने के लिए प्रयत्न लप्स्यसे तेन निर्द्वन्द्वं, महानन्दमनुत्तरम्॥ कर। तू सब द्वंद्वों से मुक्त, सबसे प्रधान महान् आनंद-मोक्ष को प्राप्त होगा। ॥ व्याख्या ॥ मोक्ष समस्त द्वंद्वों से रहित है। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जन्म-मृत्यु, मान-अपमान आदि-आदि द्वंद्व हैं। इनमें मन का संतुलन नहीं रहता। संतुलन के अभाव में आनंद की अनुभूति भी सहज और निर्विकार नहीं रहती। मोक्ष का अर्थ है-बंधन-मुक्ति। बंधनों का सम्पूर्ण विलय चौदहवें गुणस्थान में होता है, किन्तु उनका आंशिक विलय दूसरे गुणस्थानों में भी होता है। ज्यों-ज्यों विलय होता है, आनंद की अनुभूति स्पष्ट, स्पष्टतर और स्पष्टतम होती जाती है। संपर्ण आनंद की अनुभति को मोक्ष कहा जाता है। वह सिद्धावस्था में तो होती ही है, किन्तु उसका आंशिक अनुभव यहां भी सुलभ है। आचार्य कहते हैं : निर्जितमदममदनानां, मनोवाक्कायविकाररहितानाम्। विनिवृत्तपराशानां, इहैव मोक्षः सुविहितानाम्॥ 'जिन्होंने अहंकार और काम पर विजय प्राप्त कर ली है, जिनकी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां पवित्र हैं, जो बाह्य पदार्थों की आकांक्षाओं से निवृत्त हो चुके हैं, उन व्यक्तियों के लिए यहां मोक्ष है-अर्थात वे इसी जीवन में अपूर्व आनंद की अनुभूति करने लगते है।' ५५.मननं जल्पनं नास्ति, कर्म किञ्चिन्न विद्यते। मोक्ष में मन, वाणी और कर्म नहीं होते-न मनन किया जाता - विरज्यमानोऽकर्मात्मा, भवितुं प्रयतो भव॥ है, न भाषण किया जाता है और न किंचित् मात्र प्रवृत्ति की जाती है। वहां आत्मा 'अकर्मा' होती है। मेघ! तू विरक्त होकर 'अकर्मात्मा' बनने का प्रयत्न कर। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे आत्मकर्तृत्ववादनामा तृतीयोऽध्यायः। Page #193 --------------------------------------------------------------------------  Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-४ सहजानंद-मीमांसा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजानंद-मीमांसा सुख मनुष्य का प्रथम या चरम लक्ष्य है। वह जो कुछ करता है उसके अग्र और पृष्ठ में सुख का चित्र अंकित रहता है। इंद्रियों को मनोज्ञ विषय मिलते हैं, सुख का संवेदन होता है। मन भी अपने मनोज्ञ विषयों को पाकर सुख की अनुभूति करता है। अमनोज्ञ का योग मिलते ही सुख दुःख में बदल जाता है। उस दुःखानुभूति के क्षण में एक नई प्रेरणा जागती है-क्या सुख क्षणिक ही है? क्या सुख के बाद दुःख का आना उतना ही जरूरी है, जितना दिन के बाद रात का आना है? क्या सुख स्थायी भी हो सकता है? क्या ऐसे भूखंड की कल्पना की जा सकती है, जहां केवल दिन हो, रात न हो? इस खोज में मानवीय चेतना आगे बढी और उसे इस सत्य का साक्षात्कार हआ अतीन्द्रिय चेतना के स्तर पर सहज और निरपेक्ष सख उपलब्ध है। वह स्थायी है, शाश्वत है। प्रस्तुत अध्याय में क्षणिक और शाश्वत-दो सुखानुभूतियों के बीच भेद-रेखा खींचने का एक विनम्र प्रयत्न है। मेघः प्राह १. सुखानां नाम सर्वेषां, शरीरं साधनं प्रभो! विद्यते तन्न निर्वाणे, तत्रानन्दः कथं स्फुरेत्॥ मेघ बोला-प्रभो! सब सुखों का साधन है शरीर। निर्वाण में वह नहीं रहता, फिर आनंद की अनुभूति कैसे होगी? । २. मानसानाञ्च भावानां. प्रकाशो वचसा भवेत। अवाचां कथमानन्दः, प्रोल्लसेद् ब्रूहि देव! मे॥ मन के भावों का प्रकाशन वाणी के द्वारा होता है। जहां वाणी न हो, वहां आनंद कैसे विकसित होगा? देव! आप बताएं। ३. चिन्तनेन नवीनानां, कल्पनानां समुद्भवः। सदा चिन्तनशून्यानां, परितृप्तिः कथं भवेत् ? चिंतन से नई-नई कल्पनाएं उदभूत होती हैं। जो सदा चिंतन से शून्य हैं, उन्हें परितृप्ति कैसे मिलेगी? ४. इन्द्रियाणि प्रवृत्तानि, जनयन्ति मनःप्रियम। इन्द्रियेण विहीनानां, · अनुभूतिसुखं कथम्? इन्द्रियां जब अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं तब वे मानसिक प्रियता उत्पन्न करती हैं। जो इंद्रियों से विहीन हैं, उन्हें अनुभवजन्य सुख कैसे मिलेगा? ५. साधनेन विहीनेस्मिन्, पथि प्रेरयसि प्रजाः। किमत्र कारणं ब्रूहि, देव! जिज्ञासुरस्म्यहम्॥ यह पथ साधन-विहीन है, जहां मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति को रोकने का यत्न किया जाता है। आप उस पथ पर लोगों को चलने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रेरणा का कारण क्या है? देव! मैं यह जानना चाहता हूं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १७७ . अ. ४ : सहजानंद-मीमांसा ॥ व्याख्या ॥ । मेघ ने सुख का एक पक्ष देखा, वह विनश्वर सुख का पक्ष था। किन्तु उस विनश्वरता से भी वह सीख नहीं सका कि सुख का एक ऐसा भी पक्ष है जो विनश्वर नहीं है। इस सत्य की खोज में उसने चरणन्यास अवश्य किया किन्तु गहन अभीप्सा के साथ नहीं। अन्यथा वह महावीर के शब्दों में सशंकित नहीं होता। महावीर जिस आनन्द-सुख में निमज्जित हो रहे हैं, वह सुख और दुःख दोनों सापेक्ष शब्दों से भिन्न है। वे कोई तीसरे सुख की बात कर रहे हैं जो पदार्थ-निरपेक्ष है। साधारणतया मनुष्य का मन तरंगों की तरह है। लहर को सागर का कभी अनुभव नहीं होता, क्योंकि वह सिर्फ आती है, जाती है, रुकती नहीं। इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है कि 'मनुष्य का मन घड़ी के 'पेंडुलम्' की भांति है।' मन को निर्विचार करना जिसे आ जाता है, वह इस आनंद का अनुभव कर सकता है। । आचार्य विनयविजय जी कहते हैं 'सकृदपि यदि समतालवं, हृदयेन लिहन्ति। . विदितरसास्तत इह रति, स्वत एव वहन्ति॥' जिसने संतुलन, समता या माध्यस्थ्य रस का हृदय से एक छोटा-सा कण भी चख लिया है, फिर वह स्वयं ही उस ओर अग्रसर होता जाएगा। उसे किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं रहेगी। मेघ ने जो प्रश्न उपस्थित किए हैं, वे सब मन, वाणी, शरीर और कल्पना से संबंधित हैं। उसके लिए यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि वह उससे आगे कुछ देख ही नहीं सका। ये प्रश्न मेघ के ही नहीं हैं, मेघ जैसे अनेक लोगों के हैं। यह प्रश्न-परंपरा प्राचीन ही नहीं, अर्वाचीन भी है। आज भी ये प्रश्न उत्तरित होकर भी अनुत्तरित हैं। आगे भी बुद्धि उसका उत्तर खोज सके यह संभव नहीं है। क्योंकि बुद्धि की अपनी सीमा है। असीम के सामने बुद्धि निरुत्तर हो जाती है। उसके लिए सिर्फ अनुभूति पर्याप्त है। मोक्ष आत्मा की विशुद्ध दशा है; विभाव की विमुक्ति और स्वभाव की प्राप्ति आत्म-रमणता है। वहां शरीर, मोह, द्वेष, मद, विस्मय, पीड़ा, भौतिक सुख-दुःख, जन्म-मरण आदि क्लेशों का सर्वथा अंत है तथा मन, वाणी और इन्द्रियों का अभाव है। मेघ का मनं इसलिए सशंक है कि सुख-दुःखात्मक अनुभूति के साधन हैं-मन, वाणी और इन्द्रियां। निर्वाण में झका अभाव है। व्यक्ति बिना किसी माध्यम के सुखानुभव कैसे कर सकता है? ऊपर से यह तर्क असंगत भी नहीं लगता। बहुत से व्यक्तियों की यह धारणा भी है कि मोक्ष में है ही क्या? हम क्यों उसके लिए प्रयत्नशील रहें ? कौन आनंद का अनुभव करता है और वह कैसा है, उसे कैसे पहचाना जाए? वर्तमान सुख प्रत्यक्ष है, अनुभूतिगम्य भी है। इसको छोड़ अप्राप्त आनंद की ओर जनता को प्रेरित कर रहे हैं। जो सुख परोक्ष या अनुभूति का विषय है, उसे प्राप्त करने की विधि बताते हैं। मेघ यही जानना चाहता है कि आखिर उसका हेतु क्या है? क्या वह सुख वास्तविक और बुद्धिगम्य है? भगवान् प्राह ६. यत्सुखं कायिकं वत्स! वाचिकं मानसं तथा। भगवान् ने कहा-वत्स! जो-जो कायिक, वाचिक और । अनुभूतं तदस्माभिः, अतः सुखमितीष्यते॥ मानसिक सुख है, उसका हमने अनुभव किया है, इसीलिए वह सुख है-ऐसा हमें प्रतीत होता है। .७: नानुभूतश्चिदानन्द, इन्द्रियाणामगोचरः। 'वितों मनसा नापि, स्वात्मदर्शनसंभवः॥ हमने चिद् के आनंद का अभी अनुभव नहीं किया है, क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं है, मन की वितर्कणा से परे है। आत्मसाक्षात्कार से ही उसका प्रादुर्भाव होता है। ८. इन्द्रियाणि निवर्तन्ते, मनस्ततो निवर्तते। तत्रात्मदर्शनं पुण्यं, ध्यानलीनस्य जायते॥ इन्द्रियां अपने विषयों से निवृत्त होती हैं, तब मन अपने विषय से निवृत्त होता है। जहां इन्द्रिय और मन की अपने-अपने विषयों से निवृत्ति होती है, वहां ध्यान-लीन व्यक्ति को पवित्र आत्मदर्शन की प्राप्ति होती है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १७८ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ आत्म-सुख की उपलब्धि का साधन ध्यान है। इससे शरीर, वाणी और मन की स्थिरता होती है। इन्द्रियों की स्वविषयों से उपरति होती है, तब वे अंतर्मुखी बन जाती हैं। इन्द्रियों की अंतर्लीनता से मन का बहिर्विहार भी रुक जाता है। उस समय केवल चेतना का व्यापार चालू रहता है। शरीर और इन्द्रियां जड़ हैं। वे अनुभूतिशून्य हैं। अनुभूति चेतना का धर्म है। चेतना आत्मा का गुण है, आत्मा की आत्मलीनता है; आत्म-दर्शन है। जब आत्म-दर्शन का स्पर्श होता है, तब आत्म-सुख की प्रतीति होने लगती है। वह अनुभूति इन्द्रिय, शरीर और मानसिक तर्क का विषय नहीं बनती। ९. सहज-निरपेक्षञ्च, निर्विकारमतीन्द्रियम्। आनंदं लभते योगी, बहिरव्यापृतेन्द्रियः॥ जिसकी इन्द्रियों का बाह्य पदार्थों में व्यापार नहीं होता, वह योगी सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय आनंद को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ आनंद के चार रूप हैं-सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय। भौतिक सुख असहज, सापेक्ष, विकृत और इन्द्रियजन्य होता है, इसलिए वह कृत्रिम है। उसमें सतत अतृप्ति बनी रहती है। ___ आत्म-आनंद इसका सर्वथा विरोधी है। उसका स्पर्श ही ऐसा है कि व्यक्ति फिर उससे विमुख हो ही नहीं सकता। वह बिना किसी प्रेरणा के स्वतः ही अग्रसर होता रहता है। वह आनंद स्वाभाविक होता है। वहां आकांक्षा का स्रोत सूख जाता है। उसमें बाहरी पदार्थों की अपेक्षा नहीं रहती। उनके न रहने पर आनंद का अभाव नहीं होता। वही पवित्र और शुद्ध होता है जिसका किसी के साथ कुछ लगाव नहीं रहता और जो इन्द्रिगम्य नहीं है। पदार्थ-सापेक्ष सुख ठीक इससे उल्टा है। वह सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय नहीं होता। पदार्थ के परिवर्तित होते ही सुख में परिवर्तन हो जाता है। यह सबका अनुभव है कि जो पहले प्रिय था, वही बाद में अप्रिय हो जाता है। प्रेम घृणा में, राग विराग में और सुख दुःख में बदल जाता है। वसतुतः इस जगत् में 'है' जैसी कोई चीज नहीं है। प्रतिक्षण सब बदल रहा है। सन्त सहजो ने कहा है-सुखी केवल इस संसार में संत हैं, जो नित्य-शाश्वत में विचरण कर रहे हैं। शेष सब दुःखी हैं, चाहे किसी को देखो। ___'मुए दुःखी जीवित दुःखी, दुखिया भूख अहार। साध सुखी सहजो कहे, पायो नित्य विहार॥' . अनित्य से नित्य का अनुभव कैसे संभव है? नित्य की अनुभूति के लिए नित्य का दर्शन अपेक्षित है। नित्य में समस्त अपेक्षाएं हट जाती हैं। वहां जैसा जो है, वह प्रत्यक्ष हो जाता है। . १०.आत्मलीनो महायोगी, वर्षमात्रेण संयमी। जो संयमी आत्मा में लीन और महान योगी है, वह वर्षभर में अतिक्रामति सर्वेषां तेजोलेश्यां सुपर्वणाम्॥ दीक्षा-पर्याय में समस्त देवों की तेजोलेश्या-सुखासिका अथवा सुख को लांघ जाता है अर्थात् उनसे अधिक सुखी बन जाता है। ॥ व्याख्या ॥ बहुत लोगों के मानस में यह जिज्ञासा उठती है कि ध्यान की निष्पत्ति क्या है? वे प्रत्यक्षतः कोई उपलब्धि नहीं देखते। वे चाहते हैं कोई चमत्कार या कोई विशेष विभूति दृष्टिगत हो। उनकी दृष्टि में ध्यान यहीं समाप्त हो जाता है। यदि कुछ उपलब्धि हो गई तो ध्यान की सार्थकता है, अन्यथा व्यर्थ। सामान्य लोगों का यह तर्क असहज नहीं है। जो जहां तक देखते हैं, सुनते हैं वहां से आगे की कल्पना उनके लिए अशक्य है। ध्यान का यही फल होता तो यह अन्य तरीकों से भी साधा जा सकता है, और साधा जाता भी है। किन्तु ध्यान के मुख्य उद्देश्य के लिए यह बाधक है, इसे स्मृति से ओझल नहीं करना चाहिए। कबीर ने कहा है 'मोटी माया सब तजी, झीणी तजी न जाय। पीर पैगम्बर ओलिया, झीणी सबको खाय॥' Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १७९ अ. ४ : सहजानंद-मीमांसा यह सूक्ष्म माया चमत्कारों और विभूतियों की है। इनकी पकड़ में आ जाने के बाद छूटना सहज नहीं होता। 'आत्मलीनो महायोगी'-यह पद ध्यान की विशेष उपलब्धि की ओर संकेत करता है। ध्यान का सतत, सविधि और श्रद्धा से जो अभ्यास करता है, उसके फल से वंचित नहीं रहता। ध्यान का बीज बोओ और काटो, उसमें विलंब नहीं होता। एक वर्षीय ध्यान साधक किस प्रकार सुखों की सीमा का अतिक्रमण कर जाता है, आगम के आधार पर इसका चित्रण प्रस्तुत किया गया है। गोरक्षसंहिता भी उपरोक्त तथ्य को अभिव्यक्त करती है। कहा है-'दृढ़ संकल्प वाला साधक ब्रह्मचर्यवान, परिमितभोजी. समस्त आकर्षणों से मुक्त और योग में दत्त-चित्त होकर एक वर्ष की स्थिति में सिद्धत्व (योग-सिद्धि) को प्राप्त कर लेता है। इसमें कुद भी तर्कणीय, विचारणीय नहीं है। मानवीय जीवन में सुखों की कल्पना देवताओं से की जाती है। इसलिए यहां बतलाया गया है कि साधक क्रमशः एक महीने यावत् वर्ष भर में साधना के तीव्र अभ्यास से देवताओं के सुखों को पीछे छोड़ सकता है। 'आत्मलीनो महायोगी'-ये दो शब्द साधक की महत्ता के विशेष द्योतक हैं। वह महायोगी है इसलिए कि संपूर्ण शक्ति को आत्मा के अतिरिक्त कहीं नियोजित नहीं कर रहा है। ऐसा साधक तुच्छ और भौतिक सुखों के अभिमुख नहीं हो सकता?' कबीर ने ठीक कहा है कबीर मारग कठिन है, ऋषि मुनि बैठे थाक। . तहां कबीर चढ़ गया, गह सतगुरु का हाथ॥ ऋषि मुनि जहां थक जाते हैं, कबीर पहुंच जाते हैं तो निःसन्देह इसमें कुछ रहस्य है और वह है-सम्यग् गुरु द्वारा सम्यग् मार्ग-दर्शन। .. ११.ऐन्द्रियं मानसं सौख्यं, साबाधं क्षणिकं तथा। इंद्रिय तथा मन के सुख बाधासहित और क्षणिक होते हैं। . आत्मसौख्यमनाबाधं, शाश्वतञ्चापि विद्यते॥ आत्म-सुख बाधारहित और स्थायी होता है। १२.सर्वकर्मविमुक्तानां, जानतां पश्यतां समम्। सवपिक्षाविमुक्तानां, सर्वसङ्गापसारिणाम्॥ १३. मुक्तानां यादृशं सौख्यं, तादृशं नैव विद्यते। संपन्नसर्वकामानां, नृणामपि सुपर्वणाम्॥ (युग्मम्) जो सब कर्मों से विमुक्त हैं, जो सब कुछ जानते-देखते हैं, जो सब प्रकार की अपेक्षाओं से रहित हैं और जो सब प्रकार की. आसक्तियों से मुक्त हैं, उन मुक्त आत्माओं को जैसा सुख प्राप्त होता है वैसा सुख काम-भोगों से सम्पन्न मनुष्यों और देवताओं को भी प्राप्त नहीं होता। १५.सुखराशिर्विमुक्तानां, सर्वाद्धापिण्डितो भवेत्। यदि मुक्त आत्माओं की सर्वकालीन सुख-राशि एकत्रित हो सोऽनन्तवर्गभक्तः सन्, सर्वाकाशेऽपि माति न॥ ___ जाए, उसे हम अनंत वर्गों में विभक्त करें और एक-एक वर्ग को आकाश के एक-एक प्रदेश पर रखें तो वे इतने वर्ग होंगे कि सारे आकाश में भी नहीं समायेंगे। ॥ व्याख्या ॥ '.. अर्हत् और सिद्ध दोनों के आनंदानुभव में कोई भेद नहीं है। आनंद का स्रोत दोनों का एक है। जिसे स्वयं में आनंद का सागर लहराता दृष्टिगत हो गया, वह अन्यत्र क्या आनंद की खोज करेगा? आनंद स्वयं के भीतर है, वह बाहर कैसे समुपलब्ध होगा? उस आनंद को किसी के द्वारा मापा भी नहीं जा सकता। जो माप्य है वह कभी अनंत नहीं हो सकता और न सदा समान हो सकता है। फिर भी कल्पना के द्वारा उसका निदर्शन कराया जा सकता है। लेकिन वह काल्पनिक है, यथार्थ नहीं। अनंत को मापने के लिए हमारे समक्ष कोई अनंत वस्तु ही होनी चाहिए। वह है आकाश। आकाश के दो विभाग कल्पित हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश। लोकाकाश लोक तक सीमित है और अलोकाकाश असीम। १. देखें अ. ९, श्लोक २४ से ३५। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १८० खण्ड-३ अलोकाकाश अनंत है। किन्तु अनंत आत्मिक आनंद के लिए वह भी छोटा पड़ता है। यही इस श्लोक का प्रतिपाद्य है। ईशावास्योपनिषद् का निम्नोक्त श्लोक इसका साक्ष्य है ___ 'ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमवावशिष्यते॥' 'जो पूर्ण है, जिससे उत्पन्न हुआ है वह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण कम नहीं होता। प्रत्युत जितना है उतना ही रहता है। १५.यथा मूकः सितास्वादं, काममनुभवन्नपि। मानधातमापनो न वाचा वनमाईति॥ जैसे मूक व्यक्ति चीनी की मिठास का भलीभांति अनुभव काता हुआ भी वाणी रूपी साधन के अभाव में उसे बोलकर बता इन्द्रिय और मन के द्वारा जो पदार्थ जाने जाते हैं, उन्हें समझने के लिए तर्क का प्रयोग किया जाता है, उससे आगे तर्क की गति २०.इन्द्रियाणां मनसश्च, भावा ये सन्ति गोचराः। तत्र तर्कः प्रयोक्तव्यः, तर्को नेतः प्रधावति॥ नहीं है। ॥ व्याख्या ॥ आज विज्ञान भी इस सत्य को स्वीकार करने लगा है कि दृश्य जगत् के परे भी कुछ और है। दृश्य भी अभी तक पूरा दृश्य नहीं बना है। यदि सब कुछ दृश्य देख लिया जाता तो विज्ञान का एक कार्य सम्पन्न हो जाता, किन्तु वह भी बहुत अवशेष है और रहेगा। लेकिन दृश्य के पीछे एक अदृश्य की सत्ता को स्वीकार करना बुद्धि की ससीमता का द्योतक है। महावीर इसी ओर संकेत कर रहे हैं-तर्क के परे भी एक चीज है, उसे तुम तर्क से कभी प्राप्त नहीं कर सकोगे। दार्शनिक परमात्मा के इतना निकट नहीं होता जितना कि एक संत। दर्शनिक अपनी पहेलियों के अंतिम क्षण तक सुलझा नहीं पाता। पश्चिम के इस सदी के महान् दशनिक 'वर्टेण्ड रसल' ने यहां तक कहा है-'अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि मेरा एक भी सवाल हल नहीं हुआ बल्कि नये सवाल खड़े हो गए।' तर्क से अतर्क्स कैसे हाथ लग सकता है ? महावीर ने कहा है-'तक्का तत्थ न बिज्जई'-तर्क की वहां पहुंच नहीं है। तर्क लचीला होता है। जिसके पास बौद्धिक क्षमता अधिक होती है, वह अपने तर्क-बल से संगत को असंगत और असंगत को संगत कर सकता है। आस्तिकों और नास्तिकों के तर्क-जाल से न तो आज तक 'आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो पाया है और न नास्तित्व। आज भी 'आत्मा है' और आत्म नहीं है'-दोनों वाद वैसे ही खड़े हैं, जैसे सहस्राब्दियों पहले खड़े थे। नेपोलियन के सामने वैज्ञानिक लापलेस ने पांच भागों में लिखी विश्व की पूरी व्यवस्था के संबंध में पुस्तक प्रस्तुत आज विज्ञान भी इस सत्य को स्वीकार करने लगा है कि दृश्य जगत् क पर भा कुछ आर ह। दृश्य भा अभा तक पूरा दृश्य नहीं बना है। यदि सब कुछ दृश्य देख लिया जाता तो विज्ञान का एक कार्य सम्पन्न हो जाता, किन्तु वह भी बहुत अवशेष है और रहेगा। लेकिन दृश्य के पीछे एक अदृश्य की सत्ता को स्वीकार करना बुद्धि की ससीमता का द्योतक है। महावीर इसी ओर संकेत कर रहे हैं-तर्क के परे भी एक चीज है, उसे तुम तर्क से कभी प्राप्त नहीं कर सकोगे। दार्शनिक परमात्मा के इतना निकट नहीं होता जितना कि एक संत। दर्शनिक अपनी पहेलियों के अंतिम क्षण तक सुलझा नहीं पाता। पश्चिम के इस सदी के महान् दशनिक 'वर्टेण्ड रसल' ने यहां तक कहा है-'अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि मेरा एक भी सवाल हल नहीं हुआ बल्कि नये सवाल खड़े हो गए।' तर्क से अतर्क्स कैसे हाथ लग सकता है ? महावीर ने कहा है-'तक्का तत्थ न बिज्जइ'-तर्क की वहां पहुंच नहीं है। तर्क लचीला होता है। जिसके पास बौद्धिक क्षमता अधिक होती है, वह अपने तर्क-बल से संगत को असंगत और असंगत को संगत कर सकता है। आस्तिकों और नास्तिकों के तर्क-जाल से न तो आज तक 'आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो पाया है और न नास्तित्व। आज भी 'आत्मा है' और आत्म नहीं है'-दोनों वाद वैसे ही खड़े हैं, जैसे सहस्राब्दियों पहले खड़े थे। नेपोलियन के सामने वैज्ञानिक लापलेस ने पांच भागों में लिखी विश्व की पूरी व्यवस्था के संबंध में पुस्तक प्रस्तुत Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १८१ अ. ४: सहजानंद-मीमांसा की । नेपोलियन ने देखा उसमें ईश्वर का नाम नहीं है। नेपोलियन के मंत्री ने कहा- 'वह तो होना चाहिए, क्योंकि मैं मानता हूं कि ईश्वर है । लेखक ने कहा- 'मैं मानता हूं कि ईश्वर नहीं है।' नेपोलियन ने विवाद को शांत ढंग से समेटते हुए कहा- 'तुम दोनों ठीक हो । न तुमने देखा है कि ईश्वर है और न लेखक ने देखा है कि वह नहीं है। तुम दोनों सिर्फ मानते हो । मानने का क्या मूल्य होता है ?' जबलपुर के महान् ख्याति प्राप्त वकील हरिसिंह की घटना तर्क की सार्थकता और निरर्थकता का स्पष्ट बोध कराती है। एक बार वे कोर्ट में अपने पक्ष की और से बोलने खड़े हुए, किन्तु भूल गए और बोलने लगे प्रतिपक्ष की ओर से। इतने अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए कि सभी हतप्रभ रह गए। प्रतिपक्षी वकील बड़ा प्रसन्न हो रहा था। सेक्रेटरी का साहस नहीं हुआ बीच में कह दे । जब बीच में पानी पीने लगे तब संकेत किया कि यह आपने क्या किया ? हमें प्रतिपक्ष के लिए नहीं बोलना था । हरिसिंह ने कहा- ठीक है। फिर बोलने लगे और कहा - अभी तक मैंने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं वे विरोधी की ओर से थे। वह क्या कहने वाला है, यह आपके समक्ष रखा, अब मैं अपने तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं। बस, उसी सचोट भाषा में उनके उत्तर दिए और अपने पक्ष की सत्यता प्रमाणित की । वे जीत गए। यह है तर्क का चक्र । आप घुमाने में कुशल हैं तो चाहे जिस ओर घुमा सकते हैं। महावीर कहते हैं - मैं तर्क को बुरा नहीं मानता। बुद्धिवाद व्यर्थ नहीं है । किन्तु वह सर्वत्र सार्थ भी नहीं है। उसकी . सीमा पहचाननी चाहिए । तर्क से ज्ञात होने वाले पदार्थों में ही तर्क काम कर सकता है। उसके आगे नहीं। पदार्थों की अपनी-अपनी परिधि है । पदार्थ तर्कगम्य और श्रद्धागम्य दोनों हैं। इनका विवेक अपेक्षित है। श्रद्धा - विश्वास की सुस्थिरता हमें ज्ञान के अंतिम चरण तक पहुंचा देती है। अज्ञान विलीन हो जाता है। ज्ञान के एक-एक रहस्य खुलकर हमारे सामने आने लगते हैं। तर्क उन रहस्यों का पता अनेक जन्म तक भी नहीं पा सकता, क्योंकि जो विषय अंतर्कणीय है, उसके लिए तर्क का जाल बिछाना अर्कित्किर हैं। पदार्थों की यह स्वयं मर्यादा है। कुछ तर्क से पकड़े जा सकते हैं, कुछ नहीं। ' श्रद्धा और तर्क का समन्वय समुचित है। सत्य तक पहुंचने के लिए दोनों का आलंबन आवश्यक है, किन्तु उनकी सीमाओं का ज्ञान अपेक्षित होता है। २१. तुम् भावेषु, युञ्जानस्तर्कपद्धतिम् । अहेतुगम्ये श्रद्धावान्, सम्यग्दृष्टिर्भवेज्जनः ॥ २२. आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्णं दृष्टिकारणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥ २३. इन्द्रियाणां मनसश्च रज्यन्ति विषयेषु ये । तेषां तु सहजानन्द - स्फुरणा चैव जायते ॥ २४. सुस्वादाश्चः केचित् गन्धाश्च केचन प्रियाः । सन्तोऽपि हि न लभ्यन्ते, विना यत्नेन मानवैः ॥ २५. तथाऽस्मिन् महान् राशिः, आनन्दस्य च विद्यते । इन्द्रियाणां मनसश्च, चापलेन तिरोहितः ॥ ( युग्मम् ) बहिर्व्यापारवर्जनम् । तावत्तस्य न चांशोऽपि प्रादुर्भावं समश्नुते ॥ २६. यावन्नान्तर्मुखी वृत्तिः, जो हेतुगम्य पदार्थों में हेतु का प्रयोग करता है और अगम्य पदार्थों में श्रद्धा रखता है, वह सम्यग्दृष्टि है। अतीन्द्रिय पदार्थों का अस्तित्व जानने के लिए आगम-श्रद्धा और उपपति-तर्क दोनों अपेक्षित हैं। ये मिलकर ही दृष्टि को पूर्ण बनाते हैं। : इन्द्रिय और मन के विषयों में जिनकी आसक्ति बनी रहती है, उन्हें सहज आनंद का अनुभव नहीं होता। कुछ रस बहुत स्वादपूर्ण हैं और कुछ गंध बहुत प्रिय हैं, किन्तु वे सब तक प्राप्त नहीं होते जब तक उनकी प्राप्ति के लिए यत्न नहीं किया जाता। वैसे ही आत्मा में आनंद की विशाल राशि विद्यमान है, किन्तु वह मन और इंद्रियों की चपलता से ढंकी हुई है। जब तक वृत्तियां अंतर्मुखी नहीं बनतीं और उनका बहिर्मुखो व्यापार नहीं रुकता, तब तक आत्मिक आनंद का अंश भी प्रकट नहीं होता। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १८२ खण्ड-३ २७.कायिके वाचिके सौख्ये, तथा मानसिकेऽपि च। जो मनुष्य कायिक, वाचिक और मानसिक सुख में ही रज्यमानस्ततश्चोवं, न लोको द्रष्टुमर्हति॥ अनुरक्त रहता है वह उससे आगे देख नहीं सकता। ॥ व्याख्या ॥ आनंद के बाधक तत्वों और उसके उद्घाटन की प्रक्रिया दोनों का उपरोक्त पद्यों में स्पष्ट दर्शन है। मानवीय जीवन इन्द्रिय, मन और शरीर की परिक्रमा किये चलता है। मनुष्य केन्द्र की ओर नहीं मुड़ता। तेली का बैल कितना ही चले, पर पहुंचता कहीं नहीं है। व्यक्ति भी यदि शरीर, मन और इन्द्रियों की दिशा में कितना ही भ्रमण करता रहे, वह कभी अपने केन्द्र का स्पर्श नहीं कर सकता। परिधि का मुख कभी केन्द्र की ओर नहीं होता। परिधि पर आनंद नहीं है। जैसे ही कोई व्यक्ति परिधि से हटकर केन्द्र की तरफ उन्मुख होता है, उसकी गति बदल जाती है। बाहर से वह भीतर की तरफ मुड़ जाता है। प्रत्याहार प्रतिसंलीनता योग का जो एक अंग है, वह दिशा का परिवर्तन है। जैसे-जैसे वह केन्द्र के सन्निकट बढ़ता है, वह आनंद की महान् राशि को अपने भीतर देखने लगता है। उसकी वाणी मौन होने लगती है, शरीर स्थिर होने लगता है और चित्त निर्विचार। तीनों की चंचलता ही स्वयं को स्वयं से दूर किए हुए है। उनके स्थिर होते ही आनंद का उत्स फूट पड़ता है। कबीर ने इस बात को इस प्रकार कहा है 'तन थिर, मन थिर, वचन थिर, सुरति निरत थिर होय। कहे कबीर उस पलक को, कलप न पावे कोय॥' २८. विहाय वत्स! संकल्पान्, नैष्कर्मण्यं प्रतीरितान्। संयम्येन्द्रियसंघातं, आत्मनि स्थितिमाचर॥ वत्स! नैष्कर्म्य-योग के प्रति तेरे मन में जो संकल्प-विकल्प हुए हैं, उन्हें छोड़ और इन्द्रिय-समूह को संयत बनाकर आत्मा में अवस्थित बन। . ॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में संकल्प-विकल्प के त्याग और संयम की बात कही गई है। संकल्प का अर्थ है-बाह्य द्रव्यों में 'यह मेरा है'-इस प्रकार का ममत्व करना। 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं'-इस प्रकार के हर्ष और विषादगत परिणामों को विकल्प कहा जाता है। संकल्प और विकल्प से आत्मा का सान्निध्य प्राप्त नहीं होता। उसके लिए निर्विकल्प होने की अपेक्षा होती है। निर्विकल्प अवस्था तक पहुंचने के लिए सर्वप्रथम इन्द्रिय-संयम अपेक्षित होता है। असंयम हमारी शक्तियों को कुंठित करता है, उनमें जड़ता उत्पन्न करता है। संयम 'स्व' की ओर ले जाने वाला तत्त्व है। वह उपास्य है। वह अध्यात्म का प्राण है। भगवान महावीर ने साधक के लिए मन, वचन और काया के संयम का उपदेश दिया है। संयम साधना का आदि-बिन्दु है। ज्यों-ज्यों साधना बढ़ती जाती है, संयम पुष्ट होता जाता है। बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग और क्या है? वह संयम की ओर प्रयाण है। समस्त पापों का न करना ही कुशल की उपसंपदा है, यही बुद्ध-शासन है। गीता में कहा है-'असंयत व्यक्तियों के लिए 'योग' दुर्लभ है। संयत व्यक्ति अपने दृढ़ संकल्प और समुचित साधनों से 'योग' को प्राप्त कर सकते हैं।' २९.न चेयं तार्किकी वाणी, न चेदं मानसं श्रुतम्। अनुभूतिरियं साक्षात्, संशयं कुरु माऽनघ! पुण्यात्मन् ! मैं जो कह रहा हूं वह कोरी तार्किक वाणी नहीं है, काल्पनिक या सुनी हुई बात भी नहीं है। यह मेरी साक्षात् अनुभूति है, इसमें सन्देह मत कर। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १८३ ॥ व्याख्या ॥ भगवान् ने यहां साक्षात् अनुभूति पर बल दिया है। तार्किक, काल्पनिक और सुनी हुई बातें सत्य होती हैं और नहीं भी किन्तु अनुभूति सदा सत्य होती है। तार्किक और काल्पनिक बातों से व्यक्ति मानने की ओर अग्रसर होता है और अनुभूति से वह जानने लगता है। मानना और जानना दो बातें हैं। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने लिखा है- मानने के नीचे वैसे ही अंधकार होता है, जैसे दीपक के तल में अंधकार। जानना वैसे ही सर्वतः प्रकाशमय होता है, जैसे सूर्य । सूय बादलों से घिरा होता है, प्रकाश मंद हो जाता है। ज्ञान आवरण और व्यवधान से घिरा होता है जानना मानने में बदल जाता है। सूर्य को मैं जानता हूं किन्तु मानता नहीं हूं। सुमेरु को मैं मानता हूं किन्तु जानता नहीं हूं। अस्तित्व के साथ मैं सीधा सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा जानना - प्रत्यक्षानुभूति है अस्तित्व के साथ मैं किसी माध्यम से सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा मानना है-परोक्षानुभूति है। प्रकाश जैसे-जैसे आवृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं जानने से मानने की ओर झुकता जाता हूं। प्रकाश जैसे-जैसे अनावृत . होता जाता है, वैसे-वैसे मैं मानने से जानने की ओर बढ़ता जाता हूं। मानने से जानने तक पहुंचना भारतीय दर्शन का ध्येय है, और पहुंच जाना अस्तित्व का प्रत्यक्ष- बोध है। मैं सूर्य को जानता हूं, उससे सूर्य का अस्तित्व नहीं है। बीहड़ जंगलों में विकसित फूल को मैं नहीं जानता, उससे फूल का अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व अपनी गुणात्मक सत्ता है। वह न जाननेमानने से बनती है और न जानने से विघटित होती है। फूल की उपयोगिता न मेरे जानने से नहीं होती और न जानने से उसकी उपयोगिता विघटित नहीं हो जाती । उपयोगिता मेरा और अस्तित्व का योग है। अस्तित्व दो का योग नहीं है किन्तु वह निरपेक्ष है। मैं हूं यह निरपेक्ष अस्तित्व है। दूसरे मुझे अनुभव करते हैं, इसलिए मैं नहीं हूं किन्तु मैं हूं, इसलिए मुझे दूसरे अनुभव करते हैं। मैं अपने आप में अपना अनुभव करता हूं, इसलिए मैं हूं'। अ. ४ सहजानंद मीमांसा संशय के बादलों को छिन्न-भिन्न करते हुए बड़े मधुर शब्दों में महावीर कहते हैं - मेघ ! उस आनंद का मैं प्रमाण मुझे देख। यह जो कुछ मैंने कहा है वह मेरा अनुभव है, प्रत्यक्ष दर्शन है। इसमें तर्क का कोई अवकाश नहीं है और न इसमें किसी शाब्दिक प्रमाण की आवश्यकता है। पराया पराया है और अपना अपना । तू समस्याओं से मुक्त हो और स्वयं प्रत्यक्षीकरण का पथिक बन अनुभव सदा सत्य होता है। ३०. आगमानामधिष्ठानं उपादिदेश भगवान्, वेदानां वेद उत्तमः । आत्मानन्दमनुत्तरम् ॥ भगवान् ने अनुत्तर आत्मानंद का उपदेश दिया। वे आगमों के अधिष्ठान-आधार और वेदों शास्त्रों में उत्तम शास्त्र हैं।' इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे सहजानन्दमीमांसानामा चतुर्थोऽध्यायः । Page #203 --------------------------------------------------------------------------  Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय - ५ मोक्ष-साधन-मीमांसा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-साधन-मीमांसा साध्य की उपलब्धि साधन से होती है। आत्म-सुख साध्य है और उसके साधन हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि। अहिंसा सबकी रीढ़ है। अन्य सब उसी के सहारे पलते हैं। अहिंसा को समझे बिना साध्य भी समझा नहीं जा सकता। उसकी स्वीकृति के बिना साध्य का स्वीकार भी नहीं हो सकता। श्रद्धा, ज्ञान और आचार की समन्विति ही साध्य है। साध्य की पूर्णता साधन के अभाव में नहीं हो सकती इसलिए साधन का बोध और आचरण । अपेक्षित है। सुख की प्राप्ति के लिए साधनों का अवलंबन लेना आवश्यक है। इस अध्याय में अहिंसा का स्थूल और सूक्ष्म विवेचन है। दोनों पक्षों का बोध सिद्धि के लिए अपेक्षित है। अहिंसा के सिद्ध हो .. . जाने पर समता की ऊर्मियां सर्वत्र उछलने लगती है। मेघः प्राह १. प्रभो! तवोपदेशेन, ज्ञातं मोक्षसुखं मया। मेघ बोला-प्रभो! आपके उपदेश से मैंने मोक्ष-सख का व्यासेन साधनान्यस्य, ज्ञातुमिच्छामि साम्प्रतम्॥ तात्पर्य जान लिया। अब मैं विस्तार के साथ उसके साधनों को जानना चाहता हूं। ॥ व्याख्या ॥ मेघ ने कहा-संदिग्ध अवस्था में लक्ष्य का चुनाव नहीं होता। उसके लिए स्थिरता की अपेक्षा है। अस्थिर मन असफलता का प्रतीक है। मन में श्रेय और अश्रेय की विभाजन-रेखा तब ही खींची जा सकती है, जब कि मन स्वस्थ और असंदिग्ध हो। मेघ के मन पर पड़ा आशंका का पर्दा हटा तब उसने साध्य का चुनाव किया कि मेरा साध्य मोक्ष है। जन्म और मृत्यु दुःख है। उसके बीच होने वाली सुखानुभूति भी भ्रमात्मक है, दुःख-रूप है। दुःख की नामशेषता मुक्ति है। दुःख-जिहीर्षा ही हमें उसके निकट ले जाती है। मेघ ने दुःख को जाना और मुक्ति को भी जाना। अब वह उनके उपायों को जानने के लिए व्यग्र होता है और भगवान् से अनेक प्रश्न पूछता है। भगवान् प्राह २. ज्ञानदर्शनचारित्र-त्रयी, तस्यास्ति साधनम्। भगवान् ने कहा-धीमन् ! ज्ञान, दर्शन और चारित्र- यह त्रयी स धर्मः प्रोच्यते धीमन! विस्तरं शृणु साशयम्॥ मोक्ष का साधन है। उसे धर्म कहा गया है। तुम उसे विस्तार से सुनो और उसका आशय समझने का प्रयत्न करो। ॥ व्याख्या ॥ बंधन प्रिय नहीं है, फिर भी बंधन में जीते हैं और बंधन में ही सुख मानते हैं। यह अज्ञान है। ज्ञान की रश्मि प्रकट होती है तब बंधन और स्वतंत्रता की प्रतीति होती है कि क्या बंधन है और क्या स्वतंत्रता है? वास्तव में वही यथार्थ स्वतंत्रता-मुक्ति है जिसमें किसी बाहरी पदार्थ या व्यक्ति का हस्तक्षेप नहीं है। वह स्वतंत्रता निराबाध है, निरपेक्ष है, पूर्ण है और आत्मलीनता है। उस स्वतंत्रता का सुख-आनंद भी असीम है। मेघ का मन उस पूर्ण आनंद के Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. १८७ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा लिए व्याकुल हो उठा। उसने यह दृढ़ निश्चय किया कि उसी पूर्ण सुख को प्राप्त करना है। उसे यह ज्ञात नहीं है कि उसके उपाय क्या हैं ? उसकी जिज्ञासा की शांति के लिए भगवान ने कहा-सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र-यह रत्नत्रयी उसके साधन हैं। 'सदर्शन-ज्ञानवृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः' तीर्थंकरों ने इन को ही धर्म कहा है। स्वयं को जानना ही यथार्थ ज्ञान है। वह ज्ञान वस्तुतः ज्ञान नहीं है जिसके द्वारा अपना ज्ञान नहीं होता है। पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥ कबीर की दृष्टि में तथा अन्य सभी ऋषियों की दृष्टि में वही पंडित है, ज्ञानी है जिसने अपने भीतर के खुदा खुद को जान लिया है। यह ज्ञान पुस्तकों, शास्त्रों में प्राप्त नहीं होता। इसके लिए खुद साधक को ही खपना होता है, तपना . होता है और मरना होता है। यही ज्ञान व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करता है और वह आत्मज्ञाता बन जाता है। आत्मा को जानना ही ज्ञान है और आत्मा में दृढ़ निश्चय हो जाना ही दर्शन है। आत्मज्ञान और आत्मश्रद्धा के बाद सभी संशय निराकृत हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को कोई भी शक्ति पथ से विचलित नहीं कर सकती। ___ चारित्र का अर्थ है-जो विजातीय लत्त्व आत्मा के साथ संलग्न हैं, उनका निष्कासन करना। आत्मा को पूर्णरूपेण __ खाली कर देना। जब कर्म का संग आत्मा से छूट जाता है या वैसे कर्मों का चय नहीं होता है, वह स्थिति आत्मस्थता की है। आत्मा आत्मा में ही स्थित हो जाता है। यही चारित्र है। कर्मों के निष्कासन के अनेक साधन हैं। वे सभी साधन चारित्र के ही अंतर्गत हैं। वे साधन मोक्ष के प्रयोग बनते हैं। . ३. अहिंसालक्षणो • धर्मः, तितिक्षालक्षणस्तथा। .. यस्य कष्टे धृतिर्नास्ति, नाऽहिंसा तत्र सम्भवेत्॥ धर्म का पहला लक्षण है अहिंसा और दूसरा लक्षण है तितिक्षा। जो कष्ट में धैर्य नहीं रख पाता, वह अहिंसा की साधना नहीं कर पाता। ॥ व्याख्या ॥ मोक्ष साध्य है। धर्म साधन है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र धर्म है। आहेसा सम्यक् चारित्र की एक कड़ी है। दर्शन आत्मा का निश्चय कराता है। ज्ञान आत्म-स्वरूप का प्रतिभास कराता है और चारित्र उसमें रमण कराता है। अहिंसा और आत्मरमण दो नहीं हैं। अहिंसा के बिना चारित्र भी सम्यक् नहीं होता। .. अहिंसा अध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका है। उसी के आधार पर सब क्रियाएं फलवती बनती हैं। सभी धार्मिकों ने अहिंसा को परम धर्म कहा है। जिसने अहिंसा का परिज्ञान नहीं किया, उसने कुछ भी नहीं जाना है। ज्ञानी का सार यही है कि किसी की भी हिंसा न करे। दूसरों की हिंसा अपनी हिंसा है। उसके कंठस्थ किये हुए करोड़ों पद्य भूसे के समान निस्सार हैं, जो इतना भी नहीं जानता कि दूसरों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। स्मृति भी कहती है-किसी की हिंसा मत करो। ईसा कहते हैं-'धन्य हैं वे जो दयालु हैं क्योंकि वे ईश्वर की दया प्राप्त करेंगे।' कुरान शरीफ में लिखा है-'क्या इन्सान, क्या हैवान सबके साथ रहम का व्यवहार करो।' इस प्रकार अहिंसा सभी का मूल मंत्र रहा है। .. अहिंसा क्या है ? अहिंसा का शब्दार्थ है-हिंसा का निषेध। यह उसका निषेध रूप है। उसका विधिरूप .. है-प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, राग, द्वेष और मोह आदि का अभाव। राग-द्वेष हिंसा है, भले वह सूक्ष्म या स्थूल रूप .. में हो। अहिंसा वहां निखार नहीं पाती। अहिंसा की भूमिका को ओजस्वी बनाने के लिए आत्मा को पवित्र बनाना होता है। अपनी पवित्रता में अहिंसा सहज जगमगा उठती है। वहां सर्वत्र अपना ही दर्शन होता है। अहिंसक जैसे अपने को जानता है वैसे ही सबको जानता है। भगवान ने इसलिए कहा-'सब प्राणी दुःख से घबराते हैं अतः सभी अहि धर्म-मोक्ष की आधार-शिला अहिंसा है। अहिंसा धर्म का पहला लक्षण है और तितिक्षा दूसरा। . अहिंसा और तितिक्षा धर्म को अपूर्ण नहीं रहने देते। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। अहिंसा के अभाव में ' तितिक्षा-सहनशीलता नहीं होती और तितिक्षा के अभाव में अहिंसा नहीं होती। अधीरता हिंसा-प्रतिकार को जन्म देती है। हिंसा से भय, उद्वेग, विरोध, उत्तेजना आदि को बल मिलता है। इस प्रकार हिंसा की परंपरा लंबी हो चलती Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन . १८८ खण्ड-३ है जिससे व्यक्ति का मनोबल गिर जाता है। वह छोटी बातों में या सामान्य कष्टों में अपना संतुलन बनाए नहीं रख सकता। अधीर व्यक्ति अहिंसा की साधना के योग्य नहीं होता। भय हमारी अध्यात्म-शक्ति की क्षीणता का प्रतीक है। चिंता. क्रोध. ईर्ष्या और द्वेष इसके सहचारी हैं। इससे मनुष्य में नैतिकबल का स्फुटन नहीं होता। भय मन और शरीर-दोनों को प्रभावित करता है। मानसिक अस्वास्थ्य से शरीर अस्वस्थ होता है। डॉ. डोवर. का कहना है-'भय से चिंता होती है और चिंता व्यक्ति को उद्विग्न और हताश बना देती है। यह अपने पेट की नसों को प्रभावित करती है, पेट के अन्दर के पदार्थों को विषम कर देती है। फलस्वरूप उदरवण की उत्पत्ति हो जाती है।' योगशास्त्र में लिखा है-'भय, चिंता, क्रोध, मद आदि मानसिक आवेगों से पुरुष का वीर्य पतला हो जाता है और स्त्री के रजो-विकार का रोग उत्पन्न हो जाता है।' चरक कहता है-'चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि की अवस्था में किया हुआ पथ्य भोजन भी जीर्ण नहीं होता।' अध्यात्मक-दृष्टि से देखें तो भय आत्म-पतन का बहुत बड़ा कारण है। भीत व्यक्ति को आत्म-दर्शन नही होता। वह हर स्थिति में सशंक रहता है। सर्वत्र उसे भूत ही भूत दिखाई देते हैं। शरीर और बाह्य पदार्थों पर उसका मोह बढ़ता जाता है। मूढ़ मनुष्य हिंसा का अवलंबन लेते हैं। इस प्रकार एक मूढ़ता से दूसरी मूढ़ता बढ़ती जाती है। आत्मस्थ व्यक्ति सदा सावधान रहता है। वह न दूसरों को डराता है और न स्वयं डरता है। अभय दो और अभय बनो-यह उसका नारा है। अध्यात्म-विकास का प्रथम चरण है-अभय। अभय के बिना अहिंसा का अवतरण नहीं होता। अहिंसक बनने की शर्त है-अभय बनना। .४. सत्त्वान् स एव हन्याद् यः, स्याद् भीरुः सत्त्ववर्जितः। अहिंसाशौर्यसम्पन्नो, न हन्ति स्वं परांस्तथा।। जीवों का हनन वही करता है जो भीरु और निवीर्य है। जिसमें अहिंसा का तेज है, वह स्वयं का और दूसरों का हनन नहीं करता। ५. नानाविधानि कष्टानि, प्रसन्नात्मा सहेत यः। परानपीडयन् सोऽयं, अहिंसां वेत्ति नापरः॥ जो दूसरों को कष्ट न पहुंचाता हुआ प्रसन्नतापूर्वक नाना प्रकार के कष्टों को सहन करता है, वही व्यक्ति अहिंसा को जानता है, दूसरा नहीं। ६. अपि शात्रवमापन्नान्, मनुते सुहृदः प्रियान्। अपि कष्टप्रदायिभ्यो, न च क्रुध्येन्मनागपि॥ अहिंसक अपने से शत्रुता रखने वालों को प्रिय मित्र मानता है और कष्ट देने वालों पर तनिक भी क्रुद्ध नहीं होता। ७. अप्रियेषु पदार्थेषु, द्वेषं कुर्यान्न किञ्चन। प्रियेषु च पदार्थेषु, रागभावं न चोद्वहेत्॥ वह अप्रिय पदार्थों में किचित् भी द्वेष नहीं करता और प्रिय पदार्थों में अनुरक्त नहीं होता। ८. अप्रियां सहते वाणी, सहते कर्म चाप्रियम्। प्रियाप्रिये निर्विशेषः, समदृष्टिरहिंसकः॥ वह अप्रिय वचन को सहन करता है और अप्रिय प्रवृत्ति को भी सहन करता है। जो प्रिय और अप्रिय में समान रहता है, वह समदृष्टि होता है। जो समदृष्टि होता है, वही अहिंसक है। ९. भयं नास्त्यप्रमत्तस्य, स एव स्यादहिंसकः। अहिंसायाश्च भीतेश्च, दिगप्येका न विद्यते॥ अप्रमत्त को भय नहीं होता और जो अप्रमत्त होता है, वही अहिंसक है। अहिंसा और भय की दिशा एक नहीं होती-जो अभय नहीं होता, वह अहिंसक भी नहीं हो सकता। अहिंसक के लिए अभय होना आवश्यक है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ संबोधि १०. स्वगुणे - स्वत्वधीर्यस्य, भयं तस्य न जायते । परवस्तुषु यस्यास्ति, स्वत्वधीः स भयं नयेत् ॥ ॥ व्याख्या ॥ आत्म-गुणों में विचरण करने वाला साधक अभय बन जाता है। उसका अपनापन आत्मा में ही होता है, बाहर नहीं। वह देखता है - मैं ज्ञानस्वरूप हूं, मैं दर्शनस्वरूप हूं, मैं आनंद-स्वरूप हूं और मैं सम्पूर्ण शक्ति सम्पन्न हूं। मेरी निधि यही है, इसे छीननेवाला कोई नहीं है। शरीर, परिजन, अर्थ आदि ये सब मेरे से भिन्न हैं। ऐसा सोचने वाला मृत्यु से भी अभय रहता है। वह गा उठता है - मेरी मृत्यु नहीं है, मैं अमर हूं। मुझे भय किसका है। मैं नीरोग हूं ! रोग शरीर का धर्म है। फिर मैं क्यों व्यथित बनूं ! बचपन, यौवन और वृद्धत्व भी शरीर धर्म हैं। मैं आत्मा हूं। वह न वृद्ध है, न युवा है और न बालक है। जो व्यक्ति ऐसा चिंतन करता उसे कभी किसी से भय नहीं होता। जो व्यक्ति बाह्य पदार्थों को अपना मानता है, बाह्य संबंधों को अपना मानता है, उसे पग-पग पर भय रहता है। बाह्य पदार्थों के अर्जन और संरक्षण में उसे अनेक प्रकार के भय सताते रहते हैं। मेघः प्राह ११. न भेतव्यं न भेतव्यं, भीतो भूतेन गृह्यते । किमर्थमुपदेशोऽसौ भगवंस्तव विद्यते ॥ भगवान् प्राह १२. अभयं याति संसिद्धिं, अहिंसा तत्र सिद्ध्यति । अहिंसकोऽपि भीतोऽपि नैतद् भूतं भविष्यति ॥ १३. यथा सहाऽनवस्थानं, आलोकतमसोस्तथा । अहिंसाया भयस्यापि न सहाऽवस्थितिर्भवेत् ॥ १४. यो नाप्नोति भयं मृत्योः, न बिभेति तथा रुजः । जरसोर्नापवादेभ्यः, स एव स्यादहिंसकः ॥ अ. ५ : मोक्ष- साधन-मीमांसा जो आत्मीय गुणों में स्वत्व की बुद्धि रखता है, उसे भय नहीं होता। जो पर-पदार्थ में स्वत्व की बुद्धि रखता है, उसे भय होता है। १५. यस्यात्मनि परा प्रीतिः, यः सत्यं तत्र पश्यति । अस्तित्वं शाश्वतं जानन्, अभयं लभते ध्रुवम् ॥ १६.यः पश्यत्यात्मनात्मानं, सर्वात्मसदृशं निजम् । भिन्नं सदप्यभिन्नं च तस्याऽहिंसा प्रसिद्ध्यति ॥ मेघ ने कहा- भगवन्! आपने यह क्यों कहा- मत डरो, मत डरो। जो डरता है उसे भूत पकड़ लेते हैं। भगवान् ने कहा- जहां अभय सिद्ध होता है, वहां अहिंसा सिद्ध हो जाती है। एक व्यक्ति अहिंसक भी हो और भयभीत भी हो, ऐसा न कभी हुआ है और न होगा। जैसे प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही अहिंसा और भय एक साथ नहीं रह सकते। जो व्यक्ति मृत्यु, रोग, बुढापा और अपवादों से नहीं डरता, वही वास्तव में अहिंसक है। जिसकी आत्मा में परम प्रीति है, जो आत्मा में ही सत्य को देखता है, जो आत्मा के शाश्वत अस्तित्व को जानता है, वह निश्चित ही अभय हो जाता है। जो आत्मा से आत्मा को देखता है, सभी आत्माओं को अपनी आत्मा के समान देखता है, जो सभी आत्माओं को देहदृष्टि से भिन्न होने पर भी चैतन्य के सादृश्य की दृष्टि से अपनी आत्मा से अभिन्न मानता है, उसके अहिंसा सिद्ध हो जाती है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १९० ॥ व्याख्या ॥ 1 भय का प्रमुख कारण है-जिजीविषा शरीर के प्रति अनंत जन्मों का मेरेपन का भाव बना हुआ है 'देहोहमिति या बुद्धिरविद्या सा निगद्यते ' - मैं शरीर हूं' - यह भाव अविद्या है। अहिंसा की वास्तविक अनुभूति और आचरण अविद्या के नष्ट होने पर ही होता है जब तक अविद्या बनी रहती है तब तक भय का सर्वधा निःशेष होना कठिन है अहिंसा को साधने के लिए अभय होना आवश्यक है। अभ्यास काल में साधना का लक्ष्य है-अभय और सिद्ध हो जाने पर वह स्वयं तदात्मस्वरूप हो जाता है। अभय के सिद्ध हो जाने पर अहिंसा को पृथक् रूप से साधने की अपेक्षा नहीं रहती । मृत्यु, बुढापा, रोग आदि का भय यह व्यक्त करता है कि प्राणी जीना चाहते हैं। मरना सबसे बड़ा भय है, किन्तु वस्तुवृत्त्या हम उसके अंतस्तल में प्रविष्ट होंगे तो वहां भी जीवनेच्छा ही दृष्टिगत होगी। क्योंकि उस मरने की मांग के पीछे भी कष्ट है, यथार्थता नहीं है। महावीर ने कहा है- जब तुम मृत्यु और जीवन की एषणा से मुक्त हो जाओ तब तुम चाहे जीओ या मरो, तुम्हारे लिए कोई महत्वपूर्ण नहीं है। प्रस्तुत पद्यों में अहिंसा और अभय की सिद्धि की प्रक्रिया प्रस्तुत की है। उसे साध लेने पर अभय और अहिंसा स्वतः सिद्ध हो जाती है। कोई भी व्यक्ति बिना केन्द्र को पकड़े सर्वथा अभय नहीं होता। बाहर से सब कुछ छोड़ता जाए, भीतर कुछ उपलब्ध न हो तो व्यक्ति निराश होकर उसे ही छोड़ देता है। 'डेविड ह्यूम' ने डेल्फी के पवित्र मंदिर पर लिखा देखा - Know the Self- अपने को जानो। वह भीतर गया अपने को जानने के लिए। उसे भीतर सिवाय क्रोध, घृणा, प्रेम, द्वेष, राग आदि के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। भीतर प्रवेश करना उसने छोड़ दिया। इसलिए यहां कहा है-'बाहर की पकड़ ढीली करो, बाहर कुछ भी मत पकड़ो। जितनी सुरक्षा बाहर खोजोगे उतना ही भय, दुःख, अशांति अधिक होगी । भय से मुक्त होने के लिए भीतर उतरो । उस केन्द्र को खोजो जो शाश्वत है। उस केन्द्र से परम प्रीति जब स्थापित होती है तब जो है उसका अनुभव होता है और उसी अनुभूति के साथ भय विलीन हो जाता है। 'मैं अजन्मा हूं', 'मैं अभय हूं' सिर्फ ऐसा चिंतन ही नहीं करना है, अनुभूति के जगत् में भी प्रवेश करना है। जैसे ही व्यक्ति आत्मवान् बनता है वैसे ही वह देखता है जो मैं हूं वही सर्वत्र है, भेद तो सिर्फ देह का है। पानी की विविधता से सूर्य के प्रतिबिंब में क्या फर्क पड़ सकता है? वह वैसा ही है जैसा निर्मल आकाश आत्मा की एकत्व अनुभूति में हिंसा का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। उसका अंतःकरण कलुषता, घृणा, राग, द्वेष, मोह, ममत्व से विमुक्त हो जाता है। स्वगुणों का प्रवाह प्रतिक्षण प्रवाहित होने लगता है। १७. स्वं वस्तु स्वगुणा एव तस्य संरक्षणक्षमाम् । अहिंसां वत्स ! जानीहि तत्र हिंसाऽस्त्यकञ्चना ॥ खण्ड-३ १८. ममत्वं रागसम्भूतं वस्तुमात्रेषु यद् भवेत् । सा हिंसाऽऽसक्तिरेचैव जीवोऽसौ बध्यतेऽनया ।। १९. ग्रहणे परवस्तूनां, रक्षणे परिवर्धने । अहिंसा क्षमतां नैति सात्मस्थितिरनुत्तरा ॥ || व्याख्या || हिंसा मनुष्य का स्वधर्म नहीं है, विधर्म है। अहिंसा स्वधर्म है। पर धर्म में प्रवेश करने की अपेक्षा स्वधर्म में मृत्यु भी अच्छी है। यह आलोक स्वरूप है। जो जिसका गुण है, वह उसी की सुरक्षा कर सकता है, दूसरा नहीं । हिंसा हिंसा को बढ़ावा देती है और हिंसा की ही रक्षा करती है। उसके शस्त्र एक से एक बढ़कर उत्पन्न होते रहते हैं। अहिंसा में यह नहीं है। उससे आत्मगुण को पोषण मिलता है। वह उसे बढ़ाती है और रक्षा भी करती है। , अपना गुणात्मक स्वरूप ही अपनी वस्तु है। वत्स अहिंसा उसका संरक्षण करने में समर्थ है। आत्म-गुण का संरक्षण करने में हिंसा अकिंचित्कर है, व्यर्थ है। वस्तु मात्र के प्रति मत्वराग से उत्पन्न होता है, वह हिंसा है और वही आसक्ति है। उसी से यह आत्मा आबद्ध होती हैं। पर वस्तु- पौद्गलिक पदार्थ के ग्रहण, रक्षण और संवर्धन करने में अहिंसा समर्थ नहीं है क्योंकि वे सब आत्मा से भिन्न अवस्थाएं हैं और अहिंसा आत्मा की अनुत्तर अवस्था है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. १९१ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा ॥ व्याख्या ॥ . अहिंसा का अपना गुण है, अपना कार्य है और हिंसा का अपना। हिंसा और अहिंसा-दोनों के दो मार्ग हैं। अहिंसा स्वभाव-स्वगुण की संरक्षिका है, पर पदार्थों की नहीं। पर का स्वीकरण, संवर्धन और संरक्षण अहिंसा से संभव नहीं। अहिंसक अपनी सुरक्षा का प्रमाण प्रस्तुत कर सकता है। वह जानता है कि मेरी रक्षा बाहर से नहीं होती। बाहर से शरीर को और पदार्थों को बचाया जा सकता है, किन्तु चेतना को नहीं। और जिसे हम बाहर से सुरक्षित करते हैं वह भी सदा के लिए नहीं। यह सब जानते हैं कि जो कुछ है वह एक दिन विनष्ट होने वाला है। यूनान के सम्राट ने एक महान् साधक से पूछा-आप कहते हैं-'आत्मा अमर हैं। इसका प्रमाण क्या है ?' साधक ने कहा-'मैं स्वयं उपस्थित हूं।' सम्राट् समझा नहीं। फिर पूछा। साधक ने कहा-'और प्रमाण मैं क्या दे सकता हूं?' सम्राट् ने उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करवाए और साधक प्रत्येक टुकड़े के साथ यह प्रमाण प्रस्तुत करता रहा कि शरीर खंडित हो रहा है, किन्तु मैं अब भी पूर्ण हूं। मेरा कुछ भी नष्ट नहीं हो रहा है। नमि राजर्षि के सामने मिथिला नगरी अग्नि की लपटों में जल रही है। वे कहते हैं-'मेरा जो कुछ है वह मेरे पास है, सुरक्षित है। न उसे अग्नि जला सकती है, न पानी बहा सकता है और न शस्त्र छेद सकते हैं। जो मेरा नहीं है उसे अग्नि जला सकती है, पानी गला सकता है। मिथिला के जलने पर मेरा कुछ नहीं जलता। • यह है 'पर' पदार्थों से अपने को पृथक् देख लेना। __जहां अपनापन है, ममत्व है, वहीं आसक्ति है, बंधन है। ममत्व-मुक्ति के पश्चात् चिंता का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। पदार्थ विद्यमान है तो प्रसन्नता है और न है तब भी प्रसन्नता है। प्रसन्नता पदार्थों की जहां सहगामिनी होती है वहां उनके विनष्ट होने पर दुःख की सहगामिनी भी हो जाएगी। किन्तु जो निरपेक्ष प्रसन्नता है उसे कोई नहीं छीन सकता। अहिंसा और हिंसा के गुण-धर्मों से परिचित होना अत्यंत आवश्यक है। २०.अतीतै विभिश्चापि, वर्तमानैः समैजिनैः। जो तीर्थंकर हो चुके, होंगे या हैं, उन सबने इसी अहिंसा धर्म सर्वे जीवा न हन्तव्या, एष धर्मो निरूपितः॥ का निरूपण किया है। उनका उपदेश है-किसी भी जीव का हनन मत करो। ॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में कहा गया है कि अहिंसा धर्म का प्रतिपादन अनादिकाल से होता रहा है और उसके प्रणेता आत्म-साक्षात्कारी रहे हैं। धर्म के प्रणेता अमुक ही हैं-ऐसा ही हैं-ऐसा कथन करने वाले धर्म की शाश्वतता और सार्वकालिकता का खंडन करते हैं। अहिंसा धर्म का स्रोत है। वह अनेक रूपों में प्रवाहित होता आया है और रहेगा। वह अनादि है, ध्रुव है, नित्य है। धर्म का आलोक जब क्षीण होने लगता है, तब कोई विशिष्ट महापुरुष उसको फिर से प्रज्वलित करता है, इतिहास इसका प्रमाण है। मिलिन्द कहता है कि बुद्ध ने उस प्राचीन मार्ग को ही फिर खोजा है, जो बीच में लुप्त हो गया था। जब बुद्ध भिक्षु के वेश में हाथ में भिक्षा-पात्र लिए भिक्षा मांगते हुए अपने पिता की राजधानी में वापस लौटते हैं तो उनका पिता पूछता है-यह सब क्यों? उत्तर मिलता है-पिताजी! यह मेरी जाति की प्रथा है। राजा आश्चर्य से पूछता है-कौन-सी जाति? तब भिक्षु उत्तर देते हैं-बुद्ध जो हो चुके हैं और जो होंगे, मैं उन्हीं में से हूं। और जो उन्होंने किया, और यह जो अब हो रहा है पहले भी हुआ था कि इस द्वार पर एक कवचधारी राजा अपने पुत्र से मिले, राजकुमार से, जो तपस्वी वेश में हो। इस बात को समझ लो कि समय-समय पर ऐसा तथागत संसार में जन्म लेता है जो पूरी तरह ज्ञान से प्रकाशित होता है। वह पवित्र और योग्य होता है। उसमें ज्ञान और अच्छाई प्रचुर मात्रा में भरी होती है। वह लोकों के ज्ञान के कारण प्रसन्न रहता है। पथ-भ्रष्ट मयों के लिए वह अद्वितीय मार्गदर्शक होता है। वह देवताओं और मनुष्यों का गुरु होता है। जैन परंपरा भी यही मानती है कि तीर्थकर किसी एक काल या एक देश में नहीं होते। वे समय-समय पर आते हैं और सत्य का उद्घाटन कर जन-मानस को उस ओर प्रेरित करते हैं। उनका आदि, मध्य और अंत सुन्दर होता है। सभी अहिंसा आदि शाश्वत तथ्यों का अपने-अपने वातावरण के अनुसार जन-भोग्य पद्धति में उपदेश देते हैं। उसमें शब्द-भेद होते हुए भी अर्थ का अभेद होता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १९२ खण्ड - ३ भागवत में कहा है - सर्वव्यापी भगवान् केवल दानवीय शक्तियों का विनाश करने के लिए ही नहीं अपितु मयों मनुष्यों को शिक्षा देने के लिए भी प्रकट होते हैं। २१. मुक्तेरयमुपायोऽस्ति, योगस्तेनाभिधीयते । अहिंसाऽऽत्मविहारो वा, स चैकाङ्गः प्रजायते ॥ यह धर्म मुक्ति का उपाय है, इसलिए यह योग कहलाता है। भिन्न-भिन्न दृष्टियों से धर्म के अनेक विभाग होते हैं। जहां उसके और विभाग नहीं किए जाते, वहां अहिंसा या आत्म-विहार को ही धर्म कहा जाता है। यह एक अंग वाला धर्म है। ॥ व्याख्या ॥ योग शब्द यहां उस साधना पद्धति का प्रतीक है जिसके माध्यम से व्यक्ति चेतना के सर्वोच्च शिखर को छू लेता है। योग का अर्थ है-भेद से अभेद में प्रवेश करना, द्वैत से अद्वैत का साक्षात्कार करना, विजातीय से सजातीय का अनुभव करना । योग के आठ अंग हैं ९. यम २. नियम ३. आसन ४ प्राणायाम ५ प्रत्याहार ६. धारणा ७. ध्यान और. ८. समाधि । इस व्यवस्था क्रम में शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य का सम्यग् अवबोध है। शरीर और मन की स्थिति पर व्यक्ति खड़ा है। इसलिए साधना का प्रवेश द्वार शरीर है। शरीर की रोगग्रस्त स्थिति में आत्मा की स्मृति संभव नहीं है । सारा ध्यान बीमारी अपनी तरफ खींचती रहती है, इस स्थिति में मन आत्मा का स्मरण कैसे कर सकता है ? अतः आसन, प्राणायाम आदि के द्वारा शरीर को ध्यान, समाधि के योग्य रखना अपेक्षित है मुख्य बात इतनी ही है। कि चाहे किसी भी योग पद्धति को हम स्वीकार करें किन्तु येन-केन प्रकारेण शरीर का स्वास्थ्य नितांत उपादेय है। उसके साथ-साथ या पश्चात् चित्त का निर्माण आवश्यक है । चित्त में जो वासना, संस्कार, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि का कूड़ा जमा है उसे निकाल फेंकना होता है चित्तशुद्धि के अभाव में परमात्मा का अवतरण प्रकटीकरण असंभव है। एक बहिन ने एक दिन संन्यासी से पूछा- 'महात्माजी परमात्मा का दर्शन कैसे हो? बहुत प्रयत्न करती हूं कि शांति मिले, प्रभु का दर्शन हो।' संत ने कहा- 'अच्छा, कभी समय आने पर बताऊंगा।' एक दिन संत भिक्षा के लिए पुनः आये। बहिन भिक्षा देने लगी तब देखा पात्र गंदा है। वह बोली- 'भिक्षा गंदी हो जाएगी, पात्र गंदा है' संत ने कहा- 'उस प्रश्न का उत्तर है यह । तुम देखो, पात्र गंदा हो तब कैसे शांति मिले और कैसे परमात्मा का अवतरण हो ? बस, पात्र शुद्ध कर लो परमात्मा की झांकी स्वतः ही मिल जाएगी।' चित्त पात्र को परमात्मा के अवतरण के लिए पूर्णतया शुद्ध करना होता है। स्वभाव-धर्म शुद्ध चित्त में प्रतिबिंबित होता है। - योग की अनेक शाखाएं हैं, जैसे-हठयोग, राजयोग मंत्रयोग, लययोग आदि। इनकी अनेक अवान्तर शाखाएं भी हैं। सभी का ध्येय है- आत्मा का पूर्ण विकास। अहिंसा यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का एक अंग है। संक्षेप में शेष सब अहिंसा की परिक्रमा करते हैं, इसलिए मुख्यतया इसे ही मुक्ति का अनन्य अंग माना है। ऐसे तो जितने ही साधन हों वे सब सत्य से अनुस्यूत हो तो सब मुक्ति के ही अवयव हैं। अहिंसा में शेष विभागों का इसलिए समावेश हो जाता है कि अहिंसा पूर्ण जागरूकता की स्थिति है। अहिंसा का साधक बेहोशी को स्वीकार नहीं कर सकता। होश की लौ उसे प्रतिक्षण जलाए रखनी होती है जहां होश है वहां हिंसा, असत्य को कैसे अवकाश मिल सकता है ? होश से ही स्व-स्मृति का दीप जल उठता है। होश ही प्रार्थना है। उर्दू के किसी शायर की वाणी है 'माइले दैरो हरम तूने यह सोचा भी कभी जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे । ' ‘ओ मंदिर मस्जिद की तरफ झुकने वाले ! क्या तूने इस पर कभी विचार किया है कि अगर होश- सावधनता हो तो जिंदगी खुद ही प्रभु की प्रार्थना है। आचार्य हरिभद्र उसी अप्रमत्तता - जागरूकता को ध्यान में रखते हुए कहते हैं-'संयत - सोपयुक्त साधकों का समस्त व्यापार योग है, क्योंकि वह मोक्ष से योग कराता है। १. विस्तार के लिए देखें १२वां अध्याय तथा परिशिष्ट । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . १९३ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा २२. श्रुतं चारित्रमेतच्च, व्यङ्गः त्र्यङ्गः सदर्शनः। धर्म के दो, तीन, चार और पांच अंग-विभाग भी किए जाते सतपश्चतुरङ्गः स्यात्, पञ्चाङ्गो वीर्यसंयुतः॥ हैं- १. श्रुत-ज्ञान और चारित्र-यह दो अंग वाला धर्म है। २. ज्ञान, चारित्र और दर्शन-यह तीन अंग वाला धर्म है। ३. ज्ञान, चारित्र, दर्शन और तप-यह चार अंग वाला धर्म है। ४. ज्ञान, चारित्र, दर्शन, तप और वीर्य-यह पांच अंग वाला धर्म है। ॥ व्याख्या ॥ ज्ञान-ज्ञान का अर्थ यहां आत्म-बोध है, इन्द्रिय-ज्ञान नहीं। चारित्र-हेय का परित्याग कर उपादेय का आचरण करना। विजातीय संग्रह से स्वयं को पूर्णतया रिक्त करना। दर्शन-तत्त्वों के प्रति दृढ़ आस्था, सत्य का साक्षात्कार। तप-आत्मा से विजातीय पदार्थ का बहिष्कार करने के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, उस धर्म का नाम तप है। वीर्य-आत्म-साक्षात्कार के लिए शक्ति का विशुद्ध प्रयोग करना। २३.हिंसैव विषमा वृत्तिः, दुष्प्रवृत्तिस्तथोच्यते। जितनी हिंसा है उतनी ही विषम वृत्ति या दुष्प्रवृत्ति है। जितनी .. अहिंसा साम्यमेतद्धि, चारित्रं बहुभूमिकम्॥ अहिंसा है, उतना ही साम्य है और जो साम्य है, वही चारित्र है। उसकी अनेक भूमिकाएं हैं। ॥ व्याख्या ॥ हिंसा प्राणों का वियोजन करना ही नहीं है, राग और द्वेषात्मक प्रवृत्ति भी हिंसा है। प्राणों के वियोजन को ही यदि हिंसा मानें तो कोई भी व्यक्ति पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता। संयत अवस्था में भी हिंसा संभव है। आज के युग में तो अहिंसा और भी कठिन है, जबकि विश्व कीटाणुओं से आक्रांत है। वे हमारे शरीर में प्रविष्ट होते हैं। उनकी हिंसा से कौन कैसे बच सकता है ? इसलिए पूर्ण अहिंसक की केवल कल्पना ही रह जाती है। गति और स्थिति मनुष्य का धर्म है। इनके कारण वह न चाहता हुआ भी कभी-कभी प्राणों के अतिपात का निमित्त बन जाता है। उस दशा में हम उसे हिंसक कहें या अहिंसक? जैन आचार्यों ने इस जिज्ञासा का समाधान बड़े यौक्तिक ढंग से दिया है। स्वयं भगवान् महावीर के सामने जब यह प्रश्न आया तब उन्होंने हिंसा और अहिंसा के चार विकल्प कर समाधान प्रस्तुत किया१. द्रव्यतः हिंसा और भावतः अहिंसा। २. भावतः हिंसा और द्रव्यतः अहिंसा। .... ३. द्रव्यतः हिंसा और भावतः हिंसा। ४. द्रव्यतः अहिंसा और भावतः अहिंसा। . इसमें प्रथम और चतुर्थ दो विकल्प अहिंसा की श्रेणी में चले आते है, और शेष दो हिंसा की। परवर्ती साहित्य में भी इसका स्पष्टीकरण है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि केवल प्राण-वियोजन ही हिंसा नहीं है। हिंसा है-प्रमाद, कषाय, राग आदि। इनके अभाव में प्राण-वियोजन हिंसा नहीं है। प्रमाद आदि की विद्यमानता में प्राण वियुक्त न होने पर भी हिंसा है। निष्कर्ष की भाषा में यह है कि प्रमाद हिंसा है और अप्रमाद अहिंसा है। प्रमाद विषमता है, दुष्प्रवृत्ति है, अनुपयोगात्मक दशा है और अप्रमाद समता है, सत्-प्रवृत्ति है और उपयोगात्मक दशा है। साधना का मुख्य लक्ष्य कर्म-प्रकृति को बदलना नहीं, किन्तु कर्म के स्रोत को बदलना है। जागरूकता का संवर्द्धन कर्म-आवरण को स्वतः ही बदल देता है, आचरण स्वतः बदल जाते हैं। जैसे-जैसे साधक शरीर के प्रति जागरूक होता है वैसे-वैसे क्रमशः शरीर और मन की वृत्तियों के प्रति भी सजगता बढ़ती जाती है। आचरण से पहले ही वह सचेत हो जाता है कि मैं क्या कर रहा है? क्या सोच रहा हं? क्या बोल रहा हं आदि-आदि। सत्य, अस्तेय आदि आचरण हैं। इन्हें अलग से साधने में बड़ी कठिनाइयां हैं। व्यक्ति के बदलने के साथ ही इनमें परिवर्तन आ जाता है। सजगता का अभ्यासी साधक असत्य ही नहीं बोलता, किंतु असत्य के आस-पास की सभी सीमाओं को पार कर देता है। वह संयत, प्रिय, सत्य, यथार्थ और हितैषी भाषण से युक्त हो जाता है। इसके साथ-साथ कहां नहीं बोलना-मौन रहना यह भी वह जान लेता है। वस्तुओं के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण नहीं रहता। वह वस्तुओं की उपादेयता स्वीकार करता है, किन्तु उन्हें Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-३ जीवन का ध्येय नहीं मानता। जहां पदार्थ जीवन का साध्य होता है वहां संग्रह, चोरी आदि का प्रश्न खड़ा होता है। साधक-धार्मिक व्यक्ति के लिए वे अकिंचित्कर हो जाते हैं। भोग शरीर की पूर्ति है। जागरूक साधक शनैः शनै आत्मा की ओर आरोहण करता है। वह आत्म-भोग में डूबने लगता है। उसी में सतत विहार करने लगता है। तब ब्रह्मचर्य का फूल स्वतः खिल उठता है। ब्रह्म जैसी चर्या या ब्रह्म में गतिशीलता हो जाती है। ब्रह्मचर्य का वास्तविक आनंद ब्रह्म-बिहार के बिना कैसे संभव हो सकता है ? केवल संयोग से मुक्त हो जाना ब्रह्मचर्य नहीं है। वह सिर्फ बाह्य है। ब्रह्मचर्य तब सुगंधित होता है जबकि अंतर आनंद का कोई प्रसून प्रस्फुटित हुआ हो। अब्रह्मचर्य हेय है और ब्रह्मचर्य उपादेय है-इतना जान लेने मात्र से न अब्रह्मचर्य छूटता है और न ब्रह्मचर्य अवतरित होता है। जीवन विकास के समस्त सूत्रों की सारभूत प्रक्रिया है-जीवन का प्रत्येक चरण सजगता से शून्य न हो। सजगता जीवन में मूर्तिमती हो। साधक का यही प्रथम कदम है और यही अंतिम। महावीर ने कहा है___-होशपूर्वक गति, स्थिति, बैठना, शयन, भोजन, भाषण आदि क्रियाएं करने वाला साधक पाप कर्म का बंधन नहीं करता। २४.सत्यमस्तेय ब्रह्मचर्यमेवमसंग्रहः। अहिंसाया हि रूपाणि, संविहितान्यपेक्षया॥ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये अहिंसा के ही रूप हैं। ये विभाग अपेक्षा दृष्टि से किए गए हैं। २५.अहिंसापयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत्। सापेक्षं वचनं गम्यं, यदक्तं परमर्षिभिः॥ सत्य आदि व्रत अहिंसा-जल की सुरक्षा के लिए पालि या सेतु के समान हैं। महर्षियों की यह उक्ति सापेक्ष है। अपेक्षा की दृष्टि से सत्य, अपरिग्रह आदि से भी सब व्रतों का समावेश किया जा सकता है। २६.अहिंसा परमो धर्मः, नयापेक्षमिदं वचः। कारणापेक्षया मूलं, हिंसायाः स्यात् परिग्रहः॥ 'अहिंसा परम धर्म है'-यह नयसापेक्ष वचन है-अहिंसा का महत्त्व प्रदर्शित करने के लिए इसका प्रयोग किया गया है। हिंसा का मूल कारण परिग्रह है। २७. वस्तुतः परमो धर्मः अपरिग्रह इष्यते। यत्राऽपरिग्रहस्तत्र, स्यादहिंसा निसर्गजा॥ वास्तव में अपरिग्रह परम धर्म है।,जहां अपरिग्रह है-ममत्व का विसर्जन है वहां अहिंसा निसर्ग से है। २८.ममत्वं येन व्युत्सृष्टं, दृष्टोऽध्वा तेन निश्चितम्। भेदविज्ञानमाद्यं स्याद्, सोपानं धर्मसन्ततेः॥ जिसने ममत्व को छोड़ दिया, उसने अवश्य ही पथ को देखा है। भेद-विज्ञान-आत्मा और पदार्थ की भिन्नता का बोध-धर्म की परंपरा का प्रथम सोपान है। ॥ व्याख्या ॥ धर्म के विविध भेद अपेक्षा से है। कहीं तीन भेद हैं, कहीं पांच भेद हैं, कहीं चार हैं, कहीं दस हैं और कहीं उससे भी अधिक हैं। इनमें कहीं विरोध नहीं है, ये सब सापेक्ष हैं। एक में सब हैं और सबमें एक है। जैसे-जैसे चित्त की निर्मलता बढ़ती है, भीतर का ज्ञान प्रस्फुटित होता है तब विषमता स्वतः ही निर्मूल हो जाती है। एक की सुरक्षा के लिए अन्य सब व्रत हैं। एक खंडित होता है तो अन्य भी खंडित हो जाते हैं। सब परस्पर अनुस्यूत हैं। . भगवान महावीर ने अहिंसा को प्रधानता दी महात्मा बुद्ध ने करुणा को प्रधान माना। गीता ने अनासक्ति को महत्ता दी। गांधीजी ने सत्य को आधार बनाया। ईसा ने प्रेम की बात कही आदि आदि। ये सब नय दृष्टि के आधार पर है। जिसको मुख्यता-महत्ता देनी है उस पर हमारा ध्यान विशेष आकृष्ट होता है, अन्य पर नहीं। अहिंसा पर बल देने के कारण ही 'अहिंसा परमोधर्मः' की सूक्ति प्रचारित हो गई। वस्तुतः देखा जाए तो अपरिग्रह परम धर्म है। हिंसा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा का मूल कारण. परिग्रह है। परिग्रह शब्द के संकीर्ण बोध के कारण वह महान नहीं बना; किन्तु गहराई से देखा जाए तो 'परिग्रह का अर्थ है-मूर्छा, ममत्व।' हिंसा ममत्व के कारण ही होती है। एक संपन्न व्यक्ति भी मूर्छा-ममत्व के अभाव में अकिंचन हो सकता है और ममता के कारण एक अकिंचन भी परिग्रही हो सकता है। 'मुल्ला नसरुद्दीन का तीन चार चोरों से मुकाबला हो गया। चोरों ने कहा-तुम्हारे पास जो कुछ भी है वह सब रख दो, वरना मुश्किल होगी। मुल्ला भी हट्टा-कट्टा था वह हार मानने वाला नहीं था। काफी देर तक हाथापाई होती रही। आखिर चोरों ने उसकी जेब से पंच-दस- पैसे जो थे निकाल लिए। चोरों ने कहा-इतने से पैसों के लिए क्यों मारा-मारी पर उतरा ? मुल्ला ने कहा-तुम्हारे लिए ये इतने ही है, मेरे लिए तो बहुत हैं। ममत्व अर्थात् मूर्छा उसका दायरा बड़ा विस्तृत है। वह शरीर, वस्त्र, मकान, धन-संपत्ति, परिवार आदि सब पर फैली हुई है। शरीर मूर्छा-ममत्व का मूल केन्द्र है। इसको स्पष्ट बोध सबको है। शरीर की सुरक्षा के लिए सब गौण हो जाते हैं। भगवान महावीर ने कहा-'से ह दिट्ठपहे मुणी' उसी मुनि ने मार्ग का देखा है जिसने ममत्व का विसर्जन कर दिया है। बुद्ध कहते हैं-जो तृष्णा से मुक्त हो जाता है वह मुक्त हो जाता है। जहां ममत्व नहीं है वहीं अहिंसा है। 'देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता। नाहं देहश्चिदात्मेति, बुद्धिर्विद्येति भण्यते॥' ... "मैं शरीर हूं' इस प्रकार की बुद्धि को अविद्या कहा है। मैं शरीर नहीं, चित्स्वरूप आत्मा हूं-इस भेदविज्ञान को विद्या कहा है। भेदविज्ञान धर्म का प्रथम चरण है और यही अंतिम चरण। जब इसका स्पष्ट बोध हो जाता है तब ममत्व की सघन ग्रंथि शिथिल हो जाती है। देह के उस पार जो परम तत्त्व अवस्थित है, उसका दर्शन हो जाता है। उसके दर्शन से हृदय ग्रंथि का भेदन हो जाता है, संशयों का उच्छेद हो जाता है। कहा है-'भिद्यते हृदयग्रंथि श्च्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।' हिंसा का कारण भी समाप्त हो जाता है। . भेदविज्ञान का अर्थ है-शरीर तथा पदार्थ को अपनी आत्मा से अलग अनुभव करना। आत्मा चेतन है, शरीर आदि पदार्थ पौद्गलिक है, भौतिक है, जड़ है। आत्मा से इनका संबंध क्षणिक है, अस्थायी है। आत्मा अमृत है, शरीर आदि मरणशील है। शरीरजनित बाल, युवा वृद्ध आदि दशाएं चेतन की नहीं, शरीर की हैं। यह भेदविज्ञान ही आसक्ति के बंधन को तोड़ता है, धर्म को मूर्तिमान करता है और चेतन आत्मा को आत्मा में प्रस्थापित करता है। मेघ यह आशंका करता है कि 'शरीर अलग है और आत्मा भिन्न है' इस तथ्य को सब जानते हैं, किन्तु मैं देखता हूं, उनकी आसक्ति कम नहीं होती है, वे उसी में अनुरक्त रहते हैं। ऐसा क्यों होता है ? .. प्रश्न सटीक है। देखने में ऐसा ही आता है। लेकिन इसके पीछे जो दृष्टि है, वह साफ नहीं है। ज्ञान के दो स्तर हैं-एक बौद्धिक और दूसरा चैतसिक, आत्मिक। बौद्धिक स्तर का ज्ञान केवल सूचनापरक या जानकारी- परक होता है। उससे रूपांतरण घटित नहीं होता। चेतनास्तरीय ज्ञान से ही परिवर्तन घटित होता है। वह सीधा हृदय में उतरता है। शब्द का बाण जब हृदय को बींध देता है तब व्यक्ति परिवर्तित हुए बिना नहीं रहता। भेदविज्ञान चेतना के स्तर पर होता है तब वह सार्थक होता है। सम्यक् आचरण का अर्थ भी यही है कि जो ज्ञान आचार-व्यवहार में आ जाए। सम्यग् ज्ञान की लौ जब प्रज्वलित होती है तब वह आचार-व्यवहार को भी प्रकाशित कर देती है। ज्ञान, दर्शन और आचार की समन्वित अवस्था में ही चेतना का विकास होता है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इस सूत्र में ज्ञान और कर्म की एकात्मकता की सूचना है। बौद्धिक ज्ञान की पहुंच बुद्धि तक सीमित रहती है, आत्मिक ज्ञान वहीं नहीं रुकता, वह समग्र जीवन पर छा जाता है, समग्र जीवन को प्रभावित करता है। मेघः प्राह २९.पुद्गलान् आत्मनो भिन्नान्, जानन्नप्येषु रज्यति। स्वामिन् ! आत्मा से पुद्गल भिन्न हैं, यह जानते हए भी , किमत्र कारणं स्वामिन्! दृष्टिं मे निर्मलां कुरु॥ ___मनुष्य पुद्गलों में आसक्त होता है। इसका क्या कारण है? आप मेरी दृष्टि को निर्मल बनाएं। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन भगवान् प्राह ३०. अवैराग्यञ्च मोहश्च नात्र भेदोऽस्ति कश्चन । विषयाग्रहणं तस्मात्, ततश्चेन्द्रियवर्तनम् ॥ ३१. मनसश्चापलं तस्मात् संकल्पाः प्रचुरास्ततः । प्राबल्यं तत इच्छाया विषयासेवनं ततः ॥ ३२. वासनायास्ततो दादयं ततो मोहप्रवर्तनम् । मुक्तिर्भवति दुर्लभा ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) मोहव्यूहे प्रविष्टानां ॥ + १९६ ३३. अवैराग्यञ्च सर्वेषां, भोगानां वैराग्यं नाम सर्वेषां योगानां ॥ व्याख्या || जीवन-धारण का लक्ष्य है-बंधन मुक्ति । बंधन मोह है। मोह व्यूह को बिना तोड़े कोई भी व्यक्ति साध्य तक पहुंच नहीं सकता। यह हमारी प्रगति में बाधक है। अज्ञान अंधकार की ओर ढकेलता है। इसलिए भक्त पुकारता है- हे प्रभो! तू मुझे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चल, मृत्यु से अमरता की ओर ले चल, असत्य से सत्य की ओर ले चल । मोह से विषयों में आकर्षण होता है। आकर्षण अविरक्ति है। मोह और अवैराग्य में शब्द-भेद है। अवैराग्य या मोह का क्रम हमें फिर से मोह में जकड़ लेता है। मोह का एक चक्रव्यूह है। पहले मोह से इन्द्रियों के विषय का ग्रहण होता है, उससे इन्द्रियां अपने-अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं, मन चपल होता है और उससे अनेक संकल्प विकल्प उत्पन्न होते हैं। इनसे इच्छा तीव्र होती है और फिर विषय का आसेवन प्रबल होता है। बार-बार या निरंतर विषयों के आसेवन से वासना दृढ होती जाती है और इससे मोह तीव्र होता जाता है व्यक्ति मोह से प्रवृत्त होता है और मोह की सघन अवस्था को पैदा कर पुनः उसी चक्र में फंसता जाता है। धीरे-धीरे मोह अत्यंत सघन होता जाता है और अंत में व्यक्ति को इतना मूढ़ बना देता है कि वह उसी में आनंद मानने लग जाता है। गीता में कहा गया है : ध्यायतो विषयान्पुंसः, संगस्तेषूपजायते । संगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ क्रोधाद् भवति सम्मोहः, सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशादबुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ -विषयों के चिंतन से आसक्ति, आसक्ति से कामवासना, कामवासना से क्रोध, क्रोध से संमोह (अविवेक), संमोह से स्मृतिविभ्रम, स्मृतिविभ्रम से बुद्धि-नाश और बुद्धिनाश से सर्वनाश होता है। मूलमिष्यते । मूलमिष्यते ॥ खण्ड - ३ जो अवैराग्य है, वही मोह है। इनमें कोई भेद नहीं है। मोह से विषयों का ग्रहण होता है और उससे इंद्रियों की प्रवृत्ति होती है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति से मन चपल बनता है और मन की चपलता से अनेक संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्पों से इच्छा प्रबल बनती है और प्रबल इच्छा से विषयों का सेवन होता है। विषयों के सेवन से वासना. दृढ़ होती है और दृढ़ वासना से मोह बढ़ता है। मोह के चक्रव्यूह में प्रवेश करने वालों के लिए मुक्ति दुर्लभ हो जाती है। ३४. विषयाणां परित्यागो, बैराम्येणाशु जायते । अग्रहश्च भवेत्तस्माद् इन्द्रियाणां शमस्ततः ॥ सब भोगों का मूल है अवैराग्य और सब योगों का मूल है वैराग्य । ॥ व्याख्या || विरक्ति के बिना त्याग का केवल शाब्दिक आरोपण किया जाता है। वह त्याग आत्मा को विशुद्ध नहीं बनाता। उसमें आसक्ति बनी रहती है। स्वाधीन भोगों का जो विसर्जन है, वही वस्तुतः सच्चा त्याग है। वहां व्यक्ति का आकर्षण समाप्त हो जाता है भोगों के प्रति जो सहज अनाकर्षण है, वही वैराग्य है समाधि का अधिकारी विरक्त व्यक्ति है। इसीलिए इसे योग का मूल कहा है। भोग बंधन है और योग मुक्ति । बंधन अवैराग्य है। इससे आत्मा का संपर्क साधा नहीं जाता। यह योग का सर्वथा विपक्षी है। विषयों का त्याग वैराग्य से ही होता है। जो विषयों का त्याग कर देता है, उसके विषयों का ग्रहण नहीं होता और उनका ग्रहण न होने पर इन्द्रियां शांत हो जाती हैं। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. १९७ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा ३५.मनः स्थैर्य ततस्तस्माद्, विकाराणां परिक्षयः। इन्द्रियों की शांति से मन स्थिर बनता है और मन की क्षीणेषु च विकारेषु, त्यक्ता भवति वासना॥ स्थिरता से विकार क्षीण होते हैं। विकारों के क्षीण होने पर वासना नष्ट हो जाती है। ॥ व्याख्या ॥ विरक्त व्यक्ति का आकर्षण केन्द्र आत्मा है। उसके मनन, भाषण, चिंतन आदि कर्म आत्म-हित के लिए होते हैं। आत्म-भूमिका ज्यों-ज्यों दृढ़ होती है त्यों-त्यों विषयों की ओर से परामखता होती जाती है। व्यक्ति रक्त-दृष्टि वहीं होता है, जहां विषयों से उसका संपर्क होता है। इन्द्रियों को भी फलने-फूलने का अवसर वहीं उपलब्ध होता है। जहां विषयविमुखता है, वहां इन्द्रियां भी शांत हो जाती हैं। मन चपल नहीं है, चपल है श्वास और शरीर। इनकी चपलता के कारण ही मन पर चपलता का आरोप किया जाता है। जो व्यक्ति श्वास और शरीर पर नियंत्रण पा लेता है, वह सदा शांत रह सकता है। यह स्थितप्रज्ञता की ओर प्रयाण है। .. __'मन चेतना का एक अंश है। वह भला कैसे चंचल हो सकता है। वह वृत्तियों के चाप से चंचल होता है। वृत्तियां का जितना चाप होता है उतना ही वह चंचल होता है और वृत्तियां जितनी शांत या क्षीण होती हैं उतना ही वह स्थिर होता है, ध्यानस्थ होता है। तालाब का जल स्थिर पड़ा है। उसमें एक ढेला फेंका और वह चंचल हो गया। यह चंचलता स्वाभाविक नहीं, किन्तु बाह्य के संपर्क से उत्पन्न है। ठीक इसी प्रकार मन की चंचलता भी स्वाभाविक नहीं किन्तु वृत्तियों के संपर्क से उत्पन्न होती है। मन की चंचलता एक परिणाम है। वह हेतु नहीं है। उसका हेतु है-वृत्तियों का जागरण।' ३६.स्वाध्यायश्च तथा ध्यानं, विशुद्धेः स्थैर्यकारणम्। आभ्यां सम्प्रतिपन्नाभ्यां, परमात्मा प्रकाशते॥ स्वाध्याय और ध्यान-ये विशद्धि की स्थिरता के हेत हैं। इनकी उपलब्धि होने पर परमात्मा प्रकाशित हो जाता है। ३७.श्रद्धया स्थिरयाऽऽपन्नो, जयोऽपि चिरकालिकः। सुस्थिरां कुरुते वृत्तिं, वीतरागत्वभावितः॥ सुस्थिर श्रद्धा से कषाय, वासना आदि पर होने वाली विजय स्थायी हो जाती है। वह श्रद्धावान् व्यक्ति वीतरागता की भावना से भावित होकर आत्मा की वृत्तियों को एकाग्र बनाता है। ॥ व्याख्या ॥ श्रद्धा का अर्थ है-आत्म-स्वरूप की दृढ़ निश्चिति। आत्मा प्रतिक्षण अनेक प्रवृत्तियों में प्रत्यावर्तन करती रहती है। उसका झुकाव स्व की ओर कम होता है। हम देखते हैं, वह कषाय, राग, द्वेष, मोह, ममत्व, वासना, अहं आदि की ओर अधिक प्रवृत्त रहती है। उसे बहिर्भाव में जितना आनंद आता है, उतना स्वभाव में नहीं। स्वभाव की ओर झुकाव के लिए दृढ़ श्रद्धा की अपेक्षा रहती है इसलिए यहां श्रद्धा के लचीलेपन की ओर संकेत किया गया है। बहिर्भाव हमें आत्मोन्मुख होने नहीं देता। अगर हम जैसे-तैसे उस ओर चरण बढ़ा देते हैं तो फिर वह हमें बहिर्मुखता की ओर घसीट लाता है। . आत्म-मंदिर का प्रवेशद्वार श्रद्धा का स्थिरीकरण है। श्रद्धा जब आत्मा में केन्द्रित हो जाती है तब साधक पीछे की ओर नहीं देखता। वह आगे बढ़ता है। कषाय आदि पर-भाव हैं। वह उनमें उपलिप्त नहीं होता। वह देखता है-मैं शुद्ध हूं, बुद्ध हूं, निर्विकल्प हूं, ज्ञानमय हूं और वीतराग हूं। इस विशुद्ध भावना से वह अपनी समस्त आत्म-प्रवृत्तियों को एकाग्र बना लेता है। .. ३८.भावनानाञ्च सातत्यं, श्रद्धां स्वात्मनि सुस्थिराम्। चित्त को स्थिर रखने वाला और परिमितभोजी योगी अनित्य लब्ध्वा स्वं लभते योगी. स्थिरचित्तो मिताशनः॥ आदि भावनाओं की निरंतरता और सस्थिर श्रद्धा को प्राप्त कर अपने स्वरूप को पा लेता है। ३९.पर्यशासनमासीनः, कायगुप्तः ऋजुस्थितिः। नासाग्रे पुद्गलेऽन्यत्र, न्यस्तदृष्टिः स्वमश्नुते॥ वह शरीर को स्थिर बनाकर तथा पर्यंकासन की मुद्रा से सीधा-सरल बैठकर नाक के अग्रभाग में यह किसी दूसरी पौद्गलिक वस्तु में दृष्टि को स्थापित कर अपने स्वरूप को पा लेता है। १. पर्यकासन-पद्मासन। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १९८ . खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ व्यक्ति अपने प्राप्य के प्रति प्रतिपल प्रयत्नशील रहे तो वह अवश्य प्राप्त होता है। गति की शिथिलता चरणों को कमजोर बना देती हैं। अथक प्रयत्न से कुछ भी असाध्य नहीं है। साधक आत्मोन्मुख होकर बढ़ता है। वह चाहता है, लक्ष्य को हस्तगत करना, लेकिन बाधाएं उसे प्रताड़ित करती हैं। बाधाएं हैं-मोह, ममत्व, घृणा, राग, मानसिक चपलता, विषयप्रवृत्ति आदि-आदि। साधक इन्हें परास्त किए बिना सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। आत्म-स्वरूप की प्राप्ति में ये विघ्न । डालते हैं। आत्म-साक्षात्कार की एक छोटी-सी प्रक्रिया है। उसके सहारे हम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। प्रत्येक साधक में निम्न गुण आवश्यक हैं : १. लक्ष्य में दृढ़ आस्था। २. लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण। ३. सतत प्रयत्न और दीर्घकालीन अभ्यास। ४. आसन का अभ्यास, शरीर-स्थैर्य। ५. वाक्-संयम। ६. सत् संकल्पों से मन को भावित करना। ७. चित्त-निरोध। ४०.आत्मा वशीकृतो येन, तेनात्मा विदितो धूवम्। अजितात्मा विदन् सर्व, अपि नात्मानमृच्छति॥ जिसने आत्मा को वश में कर लिया, उसने वास्तव में आत्मा को जान लिया। जिसने आत्मा को नहीं जीता, वह सब कुछ जानता हुआ भी आत्मा को नहीं पा सकता। ॥ व्याख्या ॥ प्रस्तुत श्लोक में ज्ञान और क्रिया के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। वह संसार दशा में आवृत रहता है। उसकी शुद्धि के लिए चारित्र की अपेक्षा होती है। चारित्र साधन है, साध्य है आत्म-स्वरूप का प्रादुर्भाव। साध्य की दृष्टि से ज्ञान का स्थान पहला है और चारित्र का दूसरा। साधन की दृष्टि से चारित्र का स्थान पहला है और ज्ञान का दूसरा। . जैन दर्शन का सारा चिंतन आत्मा की परिक्रमा किए चलता है। आत्मा का ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान है। आत्मा पर आस्था ही सम्यग् दर्शन है। आत्म-प्राप्ति की प्रवृत्ति ही सम्यग् चारित्र हैं। आचारांग सूत्र में कहा है-'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई'-जो एक को (आत्मा को) जानता है, वह सबको जानता है। आत्म-विजय ही परम विजय है। आत्मा को रखते हुए देह की रक्षा की जाए, वह देह-रक्षा भी संयम है। आत्मा को गंवाकर देह-रक्षा करना साधक के लिए इष्ट नहीं होता। आत्मा की रक्षा और अरक्षा सुख और दुःख का हेतु हैं। इसलिए आत्मा को जानो, आत्मा को वश में करो, यही धर्म का सार है। भगवान् महावीर ने कहा है : अप्पा खलु संययं रक्खियव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं। अरक्खिओ जाइपहं उबेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ॥ -सभी इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करो; अरक्षित आत्मा जन्म-मरण को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा दुःखों से मुक्त हो जाता है। ४१.मोक्षाभिलाषः संवेगो, धर्मश्रद्धाऽस्ति तत्फलम्। वैराग्यञ्च ततस्तस्माद्, ग्रन्थिभेदः प्रजायते॥ व्यक्ति में पहले मोक्ष की अभिलाषा-संवेग होता है। संवेग का फल है-धर्म-श्रद्धा। जब तक व्यक्ति में मुमुक्षाभाव नहीं होता, तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म-श्रद्धा का फल है-वैराग्य। वैराग्य का फल है-ग्रंथि-भेद। आसक्ति से जो मोह की गांठ घुलती है, वह वैराग्य से खुल जाती है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. १९९ ___ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा ४२.भिन्ने ग्रन्थौ दृढाऽऽबद्धे, दृष्टिमोहो विशुद्ध्यति। दृढ़ता से आबद्ध ग्रंथि का भेद होने पर 'दर्शनमोह' की . चारित्रञ्च ततस्तस्मात्, शीघ्र मोक्षो हि जायते॥ विशुद्धि होती है-दृष्टिकोण सम्यक् बन जाता है। इसके पश्चात् चारित्र की प्राप्ति होती है। पूर्ण चारित्र की प्राप्ति होने पर मोक्ष की . उपलब्धि होती है। ॥ व्याख्या ॥ मोह संसार है और निर्मोह मुक्ति। मूढ़ व्यक्ति कहता है, 'यह मेरा है, यह मेरा नहीं है। यह मैंने पा लिया है, यह मुझे पाना है। यह काम मैंने कर लिया है और यह करना शेष है।' वह इसी में व्यस्त रहता है। वास्तविक प्राप्य क्या है इसे नहीं जान पाता। वह बंधनों का जाल बना उसी में फंसा रहता है। ___ अनादि-अनंत संसार में घूमते हुए जब कभी आत्म-सामीप्य प्राप्त होता है तब सत्य का दर्शन होता है। आलोक की एक किरण भीतर को प्रकाशित करना चाहती है, मोह बंधन प्रतीत होने लगता है। यहीं से मनुष्य में मुमुक्षा-भाव की अभीप्सा होती है, जिसे संवेग कहते हैं। संवेग का फल है-धर्म-श्रद्धा। जब तक व्यक्ति में मोक्ष की अभिलाषा नहीं होती तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म-श्रद्धा का फल है-वैराग्य। कोई भी व्यक्ति पौद्गलिक पदार्थों से तब तक चिपका रहता है जब तक उसकी धर्म में श्रद्धा नहीं होती। वह सुखाभास में ही सत्य-सुख की कल्पना मान सुख मानने लगता है। वैराग्य के उदय होने पर यथार्थ आनंद का अनुभव करने लगता है। स्व में श्रद्धा स्थिर हो जाती है। व्यक्ति अनासक्त बन जाता है। मोह की गांठ वहीं घुलती है जहां आसक्ति है। वैराग्य से वह खुल जाती है। ग्रंथि-भेद वैराग्य का फल है। जब दीर्घकालीन मोह की गांठ शिथिल हो जाती है, तब मोह का आवरण हटने लगता है। आवरण-विलय के तीन रूप हैं : १. पूर्ण विलय होना। २. सर्वथा उपशांत होना-दब जाना। ३. कुछ क्षीण और कुछ उपशांत होना। . इसके आधार पर पहली अवस्था क्षायिक सम्यक्त्व है। दूसरी उपशम सम्यक्त्व और तीसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद चारित्र की प्राप्ति होती है। कोरा चारित्र आत्म-शून्य शरीर का श्रृंगार है। चारित्र का अर्थ है-आत्मा को विजातीय तत्त्वों से सर्वथा रिक्त करना। इससे आत्मा अपने स्वरूप में अधिष्ठित हो जाती है। साध्यसिद्धि का मूल सम्यक्त्व है। जितनी भी आत्माएं परमात्म-पद में अधिष्ठित हुई है; होंगी, और होती हैं, वह सब सम्यग् दर्शन का प्रभाव है। चारित्र उस मूल को पोषण देकर पल्लवित और पुष्पित कर देता है। उसकी चरम परिणति है-मुक्ति। ४३. धर्मश्रद्धा जनयति, विरक्तिं क्षणिके सुखे। .. गृहं त्यक्त्वाऽनगारत्वं, विरक्तः प्रतिपद्यते॥ धर्म-श्रद्धा से क्षणिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और विरक्त मनुष्य गृहत्यागी अनगार बनता है-मुनि-धर्म को स्वीकार करता है। ॥ व्याख्या ॥ संन्यास का आधार है-निस्पृहता। निस्पृहता का अर्थ है-वैराग्य। इस लिए वैराग्य को समस्त तपों का मूल कहा गया है। विशुद्धि के बिना तप का समाचरण नहीं होता। कष्टों की स्वीकृति वही कर सकता है जो विरक्त है। विरक्त के - तीन रूप हैं.......दुःखात्मक, मोहात्मक और ज्ञानात्मक। आचार्य हेमचंद्र महावीर की स्तुति करते हुए कहते हैं.....'हे प्रभो! अन्य व्यक्ति दुःख और मोहमूलक वैराग्य में प्रतिष्ठित रहते हैं, जबकि आप केवल ज्ञानमूलक वैराग्य में हैं। दुःखमूलक वैराग्य स्थायी नहीं होता। दुःख की निवृत्ति के बाद वह समाप्त हो जाता है। ___तुलसीदासजी ऐसे व्यक्तियों के लिए कहते हैं 'नारी मई गृह सम्पति नासी, मंड मंडाय भये संन्यासी।' Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २०० खण्ड - ३, बाहरी दुःखों से ऊबकर अनगार बननेवाले रोटी, पानी, वस्त्र, मकान, आदि से प्रसन्न हो अध्यात्म को खो बैठते हैं। वे फिर बहिर्दशा में लौट आते हैं। मोह-मूलक वैराग्य में भी कामनाएं अंतर में सुप्त रहती हैं। कामनाओं का उचित योग पाकर व्यक्ति विशेष रूप में उन्हीं में आसक्त हो जाते हैं। कामना का दौर इतना उग्र होता है कि हर एक व्यक्ति उससे मुक्त नहीं हो सकता। शंकराचार्य कहते हैं- 'ज्ञानमूलक वैराम्य परिपक्व होता है। साधक आत्मस्थ और अनासक्त हो जाता है। त्याग की परिपक्वता स्थायी वैराग्य में आती है। स्त्री परिजन अर्थ, गृह और स्वशरीर के प्रति भी वह ममत्व का विसर्जन कर देता है वह वितृष्ण बन यथार्थ सुख का अनुभव करता है। ४४. विरज्यमानः साबाधे नाबाधे प्रयतः सुखे । अनाबाधसुखं मोक्षं शाश्वतं लभते यतिः ॥ , ॥ व्याख्या || क्षेत्र चेतना के आनंद में विचरण करने वालों का दूसरा होता है वे बाधाओं से आकीर्ण और अध्रुव सुख में संतुष्ट नहीं होते। उनका सुख अनाबाध और ध्रुव है। क्षणिक सुख में तृप्त होना और उसी के पीछे पागल होना यह उन्हीं के लिए है, जो शरीर के आगे कुछ नहीं देखते चेतन जगत् में चलने वाले सच्चे सुख को पा लेते हैं वे फिर कभी दुःख के दर्शन नहीं करते और न कभी जन्म-मरण के चक्कर में फंसते हैं। अध्रुव और विनश्वर सुख की ओर बढ़ने वाले उस सुख को पा भी सकते हैं और नहीं भी । सुख पाने पर भी वह उनसे वियुक्त हो जाता है। आखिर उन्हें दुःख देखना होता है और दुःख के आवर्त में फंसना होता है। ४५. अध्रुवेषु विरक्तात्मा, ध्रुवाण्याप्तुं सोऽध्रुवाणि परित्यज्य, ध्रुवं प्राप्नोति जो मुनि बाधाओं से परिपूर्ण सुख से विरक्त होकर निर्वाध सुख को पाने का यत्न करता है वह अनाबाध सुख से सम्पन्न शाश्वत मोक्ष को प्राप्त होता है। प्रचेष्टते । सत्वरम् ॥ जो व्यक्ति अध्रुव - अशाश्वत, तत्त्व से विरक्त होकर ध्रुव तत्व को प्राप्त करने में प्रयत्नशील बनता है, वह अध्रुव तत्त्व - पौद्गलिक पदार्थ को छोड़कर शीघ्र ही ध्रुव तत्त्व - परमात्मभाव को प्राप्त कर लेता है। ॥ व्याख्या ॥ जो कृत होता है, वह शाश्वत नहीं होता जो शाश्वत होता है, वह कृत नहीं होता। आत्मा ध्रुव है, शाश्वत है जो पौद्गलिक संयोग-वियोग हैं, वे सब अध्रुव हैं, अशाश्वत हैं जो व्यक्ति पौद्गलिक संबंधों में आसक्त होता है, वह संसार चक्र को बढ़ाता है और जो आत्म-तत्त्व की खोज में चल पढ़ता है, अपने-आपको उसमें लगा देता है, उसे पाने के लिए पागल हो जाता है वह संसार-चक्र को सीमित करते-करते ध्रुव-तत्त्व (मोक्ष) को पा लेता है, आत्मा को पा लेता है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे मोक्षसाधनमीमांसानाभा पंचमोऽध्यायः । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय - ६ क्रिया- अक्रियाबाद Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - अक्रियावाद अहिंसा सत्कर्म है। उसकी आराधना वे ही कर सकते हैं जो पुनर्जन्म को मानते हैं, जिनका विश्वस है कि सत्कर्म का सत् फल होता है और असत्कर्म का असत् फल होता है। कुछ व्यक्ति सत्कर्म में विश्वास करते हैं और अल्प मात्रा में उसका आचरण भी करते हैं। कुछ सत्कर्म में विश्वास नहीं करते और आचरण भी नहीं करते। इसके आधार पर व्यक्ति के तीन रूप बनते हैं : • धर्म की पूर्ण आराधना करने वाला मुनि-पूर्ण धार्मिक | • धर्म की अपूर्ण आराधना करने वाला सद् गृहस्थ - अपूर्ण धार्मिक | • धर्म की आराधना नहीं करने वाला - अधार्मिक | इस अध्याय में तीनों ही व्यक्तियों के कर्म और कर्मफल की मीमांसा व्यवस्थित ढंग से की गई है। १. पृथक् छन्दाः प्रजा अत्र, पृथग्वादं समाश्रिताः । क्रियां श्रद्दधते केचिद् अक्रियामपि केचन ॥ संसार में विभिन्न रुचि वाले लोग हैं। उनमें पृथक्-पृथक् वाद, जैसे- क्रियावाद - आत्मवाद और अक्रियावाद- अनात्मवाद आदि प्रचलित हैं। कुछ व्यक्ति आत्मा, कर्म आदि में श्रद्धा रखते हैं और कुछ व्यक्ति नहीं रखते। · ॥ व्याख्या ॥ संसार विविध वादों से भरा हैं। पुराने वाद नया रूप लेते हैं और नये पुराने बनते हैं। काल का यह क्रम अजस्र प्रवाहित रहता है। पुरानी मान्यता के वाद थे-क्रियावाद, अक्रियावाद, ज्ञानवाद और विनयवाद। इनकी अवान्तर शाखाएं सैंकड़ों रूपों में प्रसारित हुई थीं। आज भी अनेक वाद प्रचलित हैं। वाद बौद्धिक व्यायाम है। तथ्यों की सचाई का परीक्षण तर्क से किया जाता है, जबकि तर्क स्वयं संदिग्ध होता है । वह सत्य के द्वार तक पहुंचने का सीधा माध्यम नहीं है। सीधा माध्यम हैं, तर्क-शून्य - निर्विकल्प होना । वाक् प्रपंच केवल पांडित्य मात्र है। शंकराचार्य का कथन है २. हिंसासूतानि दुःखानि, भयवैरकराणि च। पश्य' व्याकरणे शंका, पश्यन्त्यपश्यदर्शनाः ॥ १. पश्यति इति पश्यः - द्रष्टा । वाग्वैखरी शब्दझरी, शास्त्रव्याख्यानकौशलम् । वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ॥ वचन की विदग्धता, शब्द-सौन्दर्य और शास्त्र - व्याख्यान की कुशलता - ये विद्वानों की विद्वत्ता के भोग के लिए हैं, मोक्ष के लिए नहीं । 'दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं। उनसे भय और वैर बढता है, आत्म-द्रष्टा के इस निरूपण में वे ही लोग शंका करते हैं, जो साक्षात्दर्शी नहीं हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २०३ अ.६:क्रिया-अक्रियावाद ॥ व्याख्या ॥ पूज्यपाद देवनंदी ने कहा है-'सम वही हो सकता है जो जगत् की चेष्टाओं को स्पंदन-रहित होकर देखता है, विकल्प और क्रिया के भोग से जो दूर रहता है।' यह आत्म-सुख में रमण करने की स्थिति है। स्पन्दन शरीर और शरीरजन्य धर्म है। उसे देखकर जो शांत रहता है वही आनंद का अनुभव कर सकता है। आत्म-दर्शन में वादों की परिसमाप्ति हो जाती है। वहां केवल एक आत्मवाद ही रहता है। अभेद और वितर्क मलिनदशा के परिणाम हैं। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के सम्मिश्रण से पानी बनता है। इसे आप चाहे जहां देख सकते हैं। आत्म-दर्शन की अनुभूति भी देश, क्षेत्र और काल की सीमाओं से बाधित नहीं होती। . विविध मान्यताओं का वर्गीकरण दो भागों में किया जा सकता है: क्रियावाद-आत्मवाद और अक्रियावाद-अनात्मवाद। आत्मवादी आत्मा को केन्द्र मानकर चलता है। वह आत्मा के साथ कर्म-विजातीय तत्त्व का योग देखता है। आत्मा उसके लिए स्वरूपतः शुद्ध और कर्म-बंधन से अशुद्ध भी है। कर्म है, कर्म-बंधन है तो उसका फल भी है। उसका इनमें विश्वास होता है। कर्म से होने वाली स्वर्ग और नरक गति भी उसे स्वीकार्य है। कर्म-मुक्ति से आत्मस्वातन्त्र्य-मोक्ष भी उसके लिए अस्वीकार्य नहीं है। . कर्म-मुक्ति का साधन जो धर्म है, उसमें भी उसकी पूर्ण आस्था होती है। बाहरी संबंध अवास्तविक हैं। वास्तविक संबंध आत्मा से आत्मा का है। आत्मा को देखने वाला आत्म-स्वार्थ के अतिरिक्त अन्य स्वार्थों से आत्मा का अहित नहीं करता। आत्महित ही उसकी दृष्टि में प्रधान होता है। . - अनात्मवादी की मान्यता उससे उल्टी होती है। शारीरिक सुख को वह प्रधानता देता है। इन्द्रिय-जगत् में ही वह अधिक जीता है। इसी का यहां निरूपण है। . ३. सुकृतानां दुष्कृतानां, निर्विशेष फलं खलु। अनात्मदर्शी लोग सुकृत और दुष्कृत के फल में अंतर नहीं ... मन्यन्ते विफलं कर्म, कल्याणं पापकं तथा॥ , मानते और कर्म को विफल मानते हैं-भले-बुरे कर्म का भला बुरा फल भी नहीं मानते। ॥ व्याख्या ॥ चार्वाक दर्शन के प्रणेता आचार्य वृहस्पति की मान्यता में यही तत्त्व है। वे कहते हैं-न आत्मा है, न मोक्ष है, न धर्म है, न अधर्म है, न पुण्य है, न पाप है और न उसका फल भी है। संसार के संबंध में वे वर्तमान जगत् को ही प्रमुखता देते हैं। खाओ, पीओ और आराम करो-इतना ही है जीवन का लक्ष्य उनकी दृष्टि में। पंचभूतों से आत्मा नाम का तत्त्व उत्पन्न होता है और पंचभूतों में ही वह विलीन हो जाता है। पंचभूतों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, इसलिए वर्तमान जीवन ही उनके लिए सब कुछ है। स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आदि न होने से केवल वर्तमान सुख की उपलब्धि ही वास्तविक है। यदि पुण्य, पाप आदि की सत्ता वास्तविक है तो नास्तिकों का क्या होगा? उनका भविष्य कितना अंधकारमय और दुःखपूर्ण होगा! क्षणिक वासना-तृप्ति के लिए क्रूर होना समाज, परिवार और राष्ट्र के लिए भी हितकारक नहीं है। नास्तिकों की क्रूरता को देख आचार्य सोमदेव ने राजा के लिए कहा है कि उसे नास्तिक दर्शन का विद्वान - होना चाहिए। जो राजा उसे जानता है वह राष्ट्र के कष्टों का उन्मूलन कर सकता है। नेता यदि मृदु होता है तो उस पर अनेक व्यक्ति चढ़ आते हैं, जब तब उसे दबा देते हैं। अन्यायों को कुचलने के लिए बिना कठोरता के काम नहीं चलता.। गीता के सोलहवें अध्याय में जो आसुरी स्वभाव का वर्णन है, वह नास्तिकों का ही स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। १. प्रत्यायान्ति न जीवाश्च, न भोगः कर्मणां ध्रुवः। जीव मरकर वापस नहीं आते, फिर से जन्म धारण नहीं करते प्रत्यास्थातो महेच्छाः स्युः महारंभपरिग्रहाः॥ और किए हुए कर्मों को भोगना आवश्यक नहीं होता-इस आस्था से उनमें महत्त्वाकांक्षाएं पनपती हैं। वे महा-आरंभ करते हैं और परिग्रह का महान् संचय करते हैं। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २०४ खण्ड-३ ५. निःशीलाः पापिकां वृत्तिं, कल्पयन्तः प्रवंचनाः। उत्कोचना विमर्यादा, मिथ्यादंडं प्रयुञ्जते॥ वे शील रहित होते हैं, पापपूर्ण आजीविका करते हैं, दूसरों को ठगते हैं, रिश्वत लेते हैं, मर्यादा-विहीन होते हैं और मिथ्यादंड का प्रयोग करते हैं-अनावश्यक हिंसा करते हैं। ६. क्रोधं मानञ्च मायाञ्च, लोभञ्च कलहं तथा। अभ्याख्यानञ्च पैशुन्यं, श्रयन्ते मोहसंवृताः॥ वे मोह से आच्छन्न होने के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह, अभ्याख्यान-दोषारोपण और चुगली का आश्रय लेते हैं। ७. गर्भान्ते गर्भमायान्ति, लभन्ते जन्म जन्मनः। मृत्योः मृत्युञ्च गच्छन्ति, दुःखाद् दुःखं व्रजन्ति च॥ वे गर्भ के बाद गर्भ, जन्म के बाद जन्म, मुत्यु के बाद मृत्यु और दुःख के बाद दुःख को प्राप्त होते हैं। ॥ व्याख्या ॥ समस्त मानव जगत् को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- १. आत्मवादी (आस्तिक), २. अनात्मवादी (नास्तिक) और ३. आत्मगवैषी या आत्मोपलब्ध। आत्मोपलब्ध व्यक्ति के लिए 'आत्मा है' यह मान्यता का विषय नहीं रहता। उसके लिए आत्मानुभव अन्य पदार्थों की भांति प्रत्यक्ष है। जो आत्म-खोजी हैं वे भी मानकर संतुष्ट नहीं होते। वे उसकी प्राप्ति के लिए कटिबद्ध होते हैं। आत्मा उनके लिए छुई-मुई की तरह कभी प्रत्यक्ष होती है और कभी अप्रत्यक्ष। जलराशि पर पड़ी सेवाल को हटाने पर आकाश की नीलिमा अपत्यक्ष नहीं रहती, लेकिन पुनः सेवाल के फैल जाने पर वह गायब हो जाती है। ठीक साधनाशील व्यक्ति के जीवन में यही क्रम चलता है, जब तक सर्वथा विजातीय अणुओं का निर्मूलन नहीं होता। जैसे ही वे हटते हैं, आत्मा का सूर्य अपनी प्रकाश-गोद में उसे आवेष्टित कर लेता है। __ आस्तिक सिर्फ आत्म-प्राप्त व्यक्ति की वाणी में आश्वस्त हो जाता है। वह कहता है-'आत्मा है' किन्तु स्वाद नहीं चखता। वह धर्म को अच्छा मानता है। धर्म के फल के प्रति आकर्षण होता है और धार्मिक विधि-विधानों का अनुसरण भी करता है। लेकिन धर्म के प्रत्यक्ष दर्शन की कठोरतम साधना पद्धति का अनुगमन नहीं करता और न वह इन्द्रियविषयों से भी परामख होता है। इन्द्रिय-विषय भी उसे अपनी ओर खींचते हैं और धर्म का आकर्षण भी। धार्मिक जीवन का अर्थ होता है-विषयों के प्रति सर्वथा अनाकर्षण। विषयों का संबंध-विच्छेद नहीं किन्तु आसक्ति का विच्छेद। धार्मिक व्यक्ति केवल विषयों से ही विमुख नहीं होता, अपितु कर्म-बंध के स्रोतों के प्रति भी उदासीन होता है। राग-द्वेष और कषाय-चतुष्टय भी उसके तनुतम होते चले जाते हैं। उसके जीवन में अनुकंपा, सहिष्णुता, सौहार्द, सत्यता, सरलता, संतोष, विनम्रता आदि गुण सहज उद्भावित होने लगते हैं। जहां जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता, वहां उपरोक्त स्थितियों का दर्शन नहीं होता। इससे स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि धर्म का अभी अंतस्तल से स्पर्श नहीं हुआ है। फिर भी वह धर्म-विहीन नास्तिक व्यक्ति की भांति क्रूर नहीं होता। धर्म-अधर्म के फल के प्रति उसके मानस में आस्था होती है, लोक-भय होता है। नास्तिक के लिए आत्मा और धर्म का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। वह मानने और जानने-दोनों से दूर होता है। उसकी आस्था का केन्द्र केवल ऐहिक विषय होता है। अर्थ और काम-ये दो ही उसके जीवन के ध्येय होते हैं। वह इन्हीं की परिधि में जीता हैं और मरता है। ये कैसे संवर्द्धित हों, उसका जीवन इन्हीं के लिए है। इनके संरक्षण और संवर्द्धन में कौशल अर्जन करता है और इनके लिए कृत्य और अकृत्य की मर्यादा के अतिक्रमण में भी वह संकोच नहीं करता। ऐसे व्यक्ति धर्म की दृष्टि से तो अनुपादेय हैं ही किन्तु सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से भी कम गर्हणीय नहीं होते। उपरोक्त श्लोकों में उनकी जीवन-चर्या का ही प्रतिबिंब है। · आत्मा में विश्वास करने वाला व्यक्ति प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्रता में विश्वास करता है। उसे सुख प्रिय है तो वह यह भी मानता है कि औरों को भी सुख प्रिय है। इसलिए वह अपने सुख के लिए दूसरों का सुख छीनने में क्रूर नहीं बन सकता। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २०५ अ. ६ : क्रिया-अक्रियावाद आजीविका आदि में भी उसका ध्येय रहता है- धर्म - पूर्वक व्यवसाय करना । हिंसा, असत्य आदि का प्रयोग वह जीवन में कम से कम करना चाहेगा। अनात्मवादी की दृष्टि में धर्म कुछ नहीं है, इसलिए सत्कर्म में उसका विश्वास नहीं होता। वह शरीर की भूख को ही शांत करने में व्यस्त रहता है, जिसका परिणाम वर्तमान में किंचित् सुखद हो सकता है किन्तु वर्तमान और भविष्य दोनों ही उसके लिए दुःखद बनते हैं। ८. क्रियावादिषु चामीभ्य स्तर्कणीयो विपर्ययः । अप्येके गृहवासाः स्युः, केचित् सुलभबोधिकाः ॥ ९. दर्शनश्रावकाः केचिद्, व्रतिनो नाम केचन । अगारमावसतोऽपि, धर्माराधनतत्पराः ॥ आत्मवादियों की स्थिति उनसे नितांत विपरीत होती है। कुछ लोग गृहवासी होते हुए भी सुलभबोधि-धर्मोन्मुख होते हैं। कुछ दर्शन-श्रावक-सम्यक्दृष्टि होते हैं, कुछ व्रती होते हैं। वे घर में रहते हुए भी धर्म की आराधना करने में तत्पर रहते हैं। ॥ व्याख्या ॥ इस प्रकार उपासक की चार कक्षाएं होती हैं : १. सुलभबोधि - धर्मप्रिय व्यक्ति । इनमें धर्म-कर्म संबंधी मान्यताओं का ज्ञान नहीं होता किन्तु धर्म के प्रति आकर्षण होता है। वे धर्म का आचरण नहीं भी करते फिर भी उन्हें धर्म प्रिय लगता है। २. सम्यग्दुष्टि - जिनका दृष्टिकोण सम्यग् होता है और जो सत्यान्वेषण के लिए चल पड़े हैं उनको सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इसकी व्यावहारिक परिभाषा यह है कि जो जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों को जानते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। ३. व्रती जो उपासक के बारह व्रतों का यथाशक्ति पालन करते हैं वैसे व्यक्ति । ४. प्रतिमाधारी - प्रतिमा का अर्थ है विशेष अभिग्रह-प्रतिज्ञा । जो व्यक्ति उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, वे प्रतिमाधारी कहलाते हैं। गृहस्थ की ये चार कक्षाएं हैं। ये उत्तरोत्तर विकसित अवस्थायें हैं। उपासक पहले सुलभबोधि होता है। वह धर्म के संपर्क में आता है। कुछ जानता है और जब उसे दृढ निश्चय हो जाता है कि धर्म-कर्म, पुण्य-पाप, आत्मा आदि हैं, कर्म है, उनका फल है, तब वह सम्यग्दृष्टि की कक्षा आता है। अब उसका मिथ्यात्व छूट जाता हैं और उसमें सत्य को जानने की उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है। सत्यान्वेषण के लिए वह चल पड़ता है। उसके मन में संयमित जीवन जीने की लालसा उत्पन्न होती है। गृह त्यागने में वह अपने आपको असमर्थ पाता है, तब वह अपनी शक्ति के अनुसार कुछेक व्रतों को स्वीकार करता है। धीरे-धीरे व्रत ग्रहण का विकास कर वह बारहव्रती श्रावक बन जाता है। वह तीसरी कक्षा में आ जाता है। अब उसका व्यवहार, वर्तन और आचरण बहुत संयमित और सीमित हो जाता है। उसका गमनागमन, उपभोग- परिभोग आदि सीमाबद्ध हो जातें हैं। उसकी आकांक्षाएं अल्प हो जाती हैं और वह सांसारिक प्रवृत्तियों से अपने आपको बहुत विलग किए चलता हैं। जब उसके आसक्ति की मात्रा अत्यंत क्षीण हो जाती है तब • वह चौथी कक्षा में प्रवेश करता है। वह ग्यारह प्रतिमाओं का वहनकर अपनी आत्मशक्ति को तोलता है। इन प्रतिमाओं के वहन काल में श्रमणभूत की-सी चर्या का पालन करता है, किन्तु अपने परिवार से उसका प्रेम विच्छिन्न नहीं होता, अतः वह श्रमण नहीं कहलाता। १०. अणुव्रतानि गृह्णन्ति, गुणशिक्षाव्रतानि च । विशिष्टां साधनां कर्तुं, प्रतिमाः श्रावकोचिताः ॥ उपासक की ये चार कक्षाएं हैं। इनमें धर्म का पूर्ण विकास होता है। जब वह उपासक गृहत्याग कर मुनि बनना चाहता है तब उसे पांचवी कक्षा -मुनि की कक्षा में प्रवेश करना होता है। वे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा विशिष्ट साधना करने के लिए श्रावकोचित ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करते हैं। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ व्याख्या ॥ अहिंसा अणुव्रत गृहस्थ के लिए आरंभज कृषि, वाणिज्य आदि में होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है। गृहस्थ पर कुटुम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इस लिए सापराध या विरोधी हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। गृहस्थ को घर आदि चलाने के लिए वध, बंध आदि का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। वह सामाजिक जीवन के मोह का भार वहन करते हुए केवल संकल्पपूर्वक निरपराध जीवों की निरपेक्ष हिंसा से बचता है, यही उसका अहिंसा अणुव्रत है। सत्य अणुव्रत गृहस्थ संपूर्ण असत्य का त्याग करने में असमर्थ होता है परंतु वह ऐसे असत्य का त्याग कर सकता है जिससे किसी निर्दोष प्राणी को बहुत बड़ा संकट का सामना न करना पड़े। यह सत्य अणुव्रत है। अस्तेय अणुव्रत गृहस्थ छोटी-बड़ी सभी प्रकार की चोरी छोड़ने में अपने आपको असमर्थ पाता है। किन्तु वह सामान्यतः ऐसी चोरी छोड़ सकता है, जिसके लिए उसे राज्य दंड मिले और लोक निंदा करे। डाका डालना, ताला तोड़कर, लूटखसोटकर दूसरों के धन का अपहरण करना-ये सब सद्गृहस्थ के लिए वर्जनीय हैं। ब्रह्मचर्य अणुव्रत गृहस्थ पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं बन सकता किन्तु वह अब्रह्मचर्य के सेवन की सीमा कर सकता है। परस्त्रीगमन, वैश्यागमन आदि अवांछनीय प्रवृत्तियां हैं। सद्गृहस्थ इनसे बचकर 'स्वदारसंतोष' व्रत अपना सकता है। वह अपनी परिणीता स्त्री में ही संतुष्ट रहता है तथा अब्रह्मचर्य की मर्यादा करता है। यह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। अपरिग्रह अणुव्रत गृहस्थ समस्त परिग्रह त्याग नहीं कर सकता किन्तु वह अपनी लालसा को सीमाबद्ध कर सकता है। यही अपरिग्रह अणुव्रत है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह सब कुछ छोड़कर संन्यासी बन जाए, किन्तु इसका प्रतिपाद्य इतना ही है कि वह अतिलालसा में फंसकर अपनी मर्यादाओं को न भूल बैठे। जिसमें लालसा की तीव्रता होती है, वह दोषों से आक्रांत हो जाता है। गुणव्रत जो व्रत उपासक की बाह्य-चर्या को संयमित करते हैं, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। वे तीन हैं : १. दिविरति-पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित कर उसके बाहर न जाने का व्रत। २. उपभोग-परिभोग परिमाण-अपने उपयोग में आनेवाली वस्तुओं का परिमाण करना। ३. अनर्थदंड विरति-बिना प्रयोजन हिंसा करने का त्याग करना। शिक्षाव्रत जो व्रत अभ्यास-साध्य होते हैं और आंतरिक पवित्रता बढाते हैं, उन्हें शिक्षाव्रत कहा जाता है। वे चार हैं : १. सामायिक-जिससे पापमय प्रवृत्तियों से विरत होने का विकास होता है उसे सामायिक व्रत कहते हैं। . २. देशावकाशिक-एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक हिंसा का परित्याग करना। ३. पौषध-उपवासपूर्वक असत् प्रवृत्ति की विरति करना। ४. अतिथिसंविभाग अपना विसर्जन कर पात्र (मुनि) को दान देना। (गुणव्रत और शिक्षाव्रत के विवरण के लिए देखें-१४/३१-३७) इस प्रकार पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों-बारह व्रतों को धारण करने वाला बारहव्रती श्रावक होता है। जब वह व्रती की कक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है और संयम का उत्कर्ष तथा मन का निग्रह करने के लिए तत्पर होता है तब वह उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। (प्रतिमाओं के विवरण के लिए देखें १४/४०-४२) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २०७ अ.६ : क्रिया-अक्रियावाद ११.एकेभ्यः सन्ति साधुभ्यः गृहस्थाः संयमोत्तराः। कुछ साधुओं से गृहस्थों का संयम श्रेष्ठ होता है, परंतु सभी गृहस्थेभ्यश्च सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः॥ गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है। ॥ व्याख्या ॥ संयम के अभाव में साधना नहीं निखरती। व्यक्ति का विकास संयम में होता है। संयम का अर्थ है-स्व में प्रवृत्त होना, बहिर्व्यापार से मुक्त होना। वहां इन्द्रिय, शरीर और मन का संपर्क छूट जाता है। साधना वहीं साकार होती है। साधना के वेश में यदि संयम का उद्दीपन नहीं है तो उस प्रकार के मुनि से एक संयमयुक्त गृहस्थ भी श्रेष्ठ होता है। किन्तु जिस साधना में संयम की प्रमुखता है वहां गृहस्थ का स्थान साधनारत साधकों से ऊंचा नहीं होता। १२.भिक्षादा वा गृहस्था बा, ये सन्ति परिनिर्वृताः। जो भिक्षु या गृहस्थ शांत और सुव्रत होते हैं, वे तप और तपःसंयममभ्यस्य, दिवं गच्छन्ति सुव्रताः॥ संयम का अभ्यास कर स्वर्ग में जाते हैं। . १३.गृही सामायिकाङ्गानि, श्रद्धी कायेन संस्पृशेत्। -- पौषधं पक्षयोर्मध्येऽप्येकरात्रं न हापयेत्॥ श्रद्धावान् गृहस्थ काया से सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात भी न छोड़े-कभी न छोड़े। १४.एवं शिक्षासमापन्नो, गृहवासेऽपि सुव्रतः। . अमेध्यं देहमुज्झित्वा, देवलोकं च गच्छति॥ इस प्रकार शिक्षा से संपन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में भी अशुचि शरीर को छोड़कर देवलोक में जाता है। १५.दीर्घायुष ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः। जो गृहस्थ या साधु धर्म की आराधना करते हैं, वे स्वर्ग में अधुनोत्पन्नसंकाशाः, · अर्चिमालिसमप्रभाः॥ दीर्घायु, ऋद्धिमान, समृद्ध, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, १६.देवा दिवि भवन्त्येते, धर्म स्पृशन्ति ये जनाः। अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले और सूर्य के जैसी दीप्ति अगारिणोऽनगारा वा, संयमस्तत्र कारणम्॥ वाले देव होते हैं। उसका कारण संयम है। (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ . 'संयम का मुख्य फल है-कर्म-निर्जरण, आत्म पवित्रता। उसका गौण फल है-देवलोक आदि की प्राप्ति। संयम आत्म-जागरण है। उसके आत्म-गुणों का उपबृंहण होता है। आत्मा के मूल गुण हैं-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, सहज आनंद आदि-आदि। संयम इन सब की प्राप्ति का साधन है। देवलोक आदि पौद्गलिक स्थितियों की प्राप्ति उसका सहचारी फल है। प्रस्तुत श्लोकों में उसी का प्रतिपादन है। १७.सर्वथा संवृतो भिक्षुः, द्वयोरन्यतरो भवेत्। जो भिक्षु सर्वथा संवृत है-कर्म-आगमन के हेतुओं का . कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्तो, देवो वापि महर्द्धिकः॥ निरोध किए हुए है, वह इन दोनों में से किसी एक अवस्था को प्राप्त होता है-सब कर्मों का क्षय हो जाए तो वह मुक्त हो जाता है, अन्यथा समृद्धिशली देव बनता है। ॥ व्याख्या ॥ कारण के बिना कार्य की उपलब्धि नहीं होती। परिदृश्यमान जगत् कार्य है तो निस्संदेह उसका अदृश्य कारण भी होना चाहिए। तृष्णा, वासना, या कर्म कारण है। कारण की परंपरा का निर्मूलन करना साधना का वास्तविक ध्येय है। कर्म से प्रवृत्ति-चंचलता पैदा होती है और चंचलता से पुनः कर्म का सर्जन होता है। कर्म का यह क्रम टूटता नहीं है। साधना उस क्रम को तोड़ने का शस्त्र है। साधक की साधना यदि प्रवृत्तिशून्यता की चरम सीमा का स्पर्श कर १. उत्तराध्ययन ५/२३॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २०८ खण्ड-३ लेती है तो वह अयोगी (प्रवृत्ति-मुक्त) सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है। यदि प्रवृत्ति का क्रम पूर्णतया निरुद्ध नहीं हुआ है तो पुनः जन्म लेना उसके लिए अनिवार्य है। किंतु इस बीच वह अपने असीम पुण्य-बल से एक बार स्वर्ग में जन्म ले पुनः वहां से मनुष्य जीवन में अवतरित होता है। साधना का पुनः अवसर प्राप्त कर जीवन के सर्वोच्च विकास-शिखर को छू लेता है। गीता में वर्णित योग-भ्रष्ट व्यक्ति के साथ इसका यत् किचित् सामंजस्य किया जा सकता है। योग-भ्रष्ट शब्द का अभिप्राय यह हो कि वह योग-मार्ग को पूर्णतया साध नहीं सका, तो यहां कोई भिन्नता जैसी बात नहीं रहती। यदि इसका अर्थ-योग-मार्ग से च्युत हो या बीच में ही छोड़ दिया हो तो फिर दूसरी बात है। किंतु आगे के वर्णन से स्पष्ट है कि वह व्यक्ति किसी योनि में योग-कुल में आकर जन्म ग्रहण करता है और अपने अवशेष योग की साधना में संलग्न होकर उसे परिपूर्णतया साध लेता है। १८.यथा त्रयो हि वणिजो, मूलमादाय निर्गताः। एकोऽत्र लभते लाभं, एको मूलेन आगतः॥ १९.हारयित्वा मूलमेकः, आगतस्तत्र वाणिजः। उपमा व्यवहारेऽसौ, एवं धर्मेऽपि बुद्ध्यताम्॥ (युग्मम्) जिस प्रकार तीन वणिक् मूल पूंजी लेकर व्यापार के लिए चले। एक ने लाभ कमाया, एक मूल पूंजी लेकर लौट आया और एक ने सब कुछ खो डाला। यह व्यापार विषयक उदाहरण है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना चाहिए। २०.मनुष्यत्वं भवेन्मूलं, लाभः स्वर्गोऽमृतं तथा। मूलच्छेदेन जीवाः स्युः, तिर्यञ्चो नारकास्तथा॥ मनुष्य-जन्म मूल पूंजी है। स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति लाभ है। मूल पूंजी को खो डालने से जीव नरक या तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं। २१.विमात्राभिश्च शिक्षाभिः, ये नरा गृहसुव्रताः। .. आयान्ति मानुषीं योनि, कर्मसत्या हि प्राणिनः॥ जो लोग विविध प्रकार की शिक्षाओं से गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सुव्रती हैं, सदाचार का पालन करते हैं, वे मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं जैसे कर्म करते हैं वैसे ही फल को प्राप्त होते हैं। २२.येषां तु विपुला शिक्षा, ते च मूलमतिसृताः। सकर्माणो दिवं यान्ति, सिद्धिं यान्त्यरजोमलाः॥ जिनके पास विपुल ज्ञानात्मक और क्रियात्मक शिक्षा है, वे मूल पूंजी की वृद्धि करते हैं। वे कर्मयुक्त हों तो स्वर्ग को प्राप्त होते हैं और जब उनके रज और मल का (बंधन और बंधन के हेतु का) नाश हो जाता है तब वे मुक्त हो जाते हैं। २३. आगारमावसंल्लोकः, सर्वप्राणेषु संयतः। घर में निवास करने वाला व्यक्ति सब प्राणियों के प्रति समतां सुव्रतो गच्छन्, स्वर्ग गच्छति नाऽमृतम्॥ स्थूल रूप से संयत होता है। जो सुव्रत है और समभाव की आराधना करता है, वह स्वर्ग को प्राप्त होता है, किन्तु हिंसा और परिग्रह के बंधन से सर्वथा मुक्त न होने के कारण वह मोक्ष को नहीं पा सकता। ॥ व्याख्या ॥ जीवों की विविध योनियां है। उसमें मानव-जीवन सर्वश्रेष्ठ है। समस्त अध्यात्मद्रष्टा संतों ने एक स्वर से इस सत्य को स्वीकार किया है। मानवीय जीवन से नीचे स्तर के प्राणियों में विवेक की मात्रा इतनी विकसित नहीं है जितनी कि मनुष्य में। मनुष्य-जीवन द्वार है जिससे वह नीचे और ऊपर दोनों तरफ गति कर सकता है। नीचे और Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . २०९ अ.६ : क्रिया-अक्रियावाद ऊपर जाने का स्वातंत्र्य भी उसके हाथ में है। निर्णय यह करना है कि जाना कहा है? अनेक व्यक्ति जीवन की परिसमाप्ति तक निर्णय नहीं कर पाते। ये सरिता के प्रवाह में लुढ़कते हुए पत्थरों की तरह हैं। कर्म के प्रवाह में प्रवाहित होते हुए आए और वैसे ही चले गए। किन्तु जीवन उन्हीं के लिए हैं जो ऊपर उठने का निर्णय लेते हैं और उस दिशा में अनवरत गतिशील रहते हैं। मूल स्थिति मनुष्य जीवन है। मानव देह से पुनः मानव देह धारण करना, यह भी इतना सहज नहीं है। इसका सौभाग्य भी किसी-किसी को उपलब्ध होता है। अनेक लोग हैं और उनकी जीवन-पद्धतियां-संस्कार भी पृथक्-पृथक् हैं। सत्य क्या है ? अनेक लोगों से यह अविज्ञात है, तब फिर उसके साक्षात्कार की कल्पना तो कर ही नहीं सकते। आगम कहते हैं-मूल स्थिति उनके लिए पुनःशक्य है-जो सरल, विनम्र शांत और निश्छल व्यवहार युक्त हैं। मूलस्थिति से उत्थान का क्रम है-इन्द्रियों और मन का प्रत्याहार करना। उनके बहिर्गामी दौड़ को अंतर्गामी बनाना। मन को बिना एकाग्र किए और उसके स्वरूप से परिचित हुए बिना उस का नियमन कठिनतम है। संयत मन और संयत इन्द्रियां आत्म-दर्शन का द्वार उद्घाटित करती हैं। इनके द्वारा क्रमशः आरोहण के सोपानों का अतिक्रमण करते हुए व्यक्ति उच्च, उच्चतर और उच्चतम अवस्थिति को पा लेता है। २४.दुःखावह इहाऽमुत्र, धनादीनां परिग्रहः। धन आदि पदार्थों का संग्रह इहलोक और परलोक में मुमुक्षुः स्वं दिदृक्षुः को विद्वानगारमावसेत्॥ दुःखदायी होता है। अतः मुक्त होने की इच्छा रखने वाला और आत्म-साक्षात्कार की भावना रखने वाला कौन ऐसा विद्वान् व्यक्ति होगा जो घर में रहे? . ॥ व्याख्या ॥ गृहस्थ-जीवन क्लेशों से भरा है और संयम जीवन क्लेशों से मुक्त है। मनुष्य शांतिप्रिय है किन्तु वह शांति का दर्शन संयम में न करके असंयम में करता है। असंयम शांति का द्वार नहीं, अशांति का द्वार है। जो शांतिप्रिय है उसे संयम प्रिय होना चाहिए। वस्तुतः जिसे शांति प्रिय है वह धन, पुत्र आदि में उसे नहीं देखता। वह उनसे संपृक्त रहता हुआ भी धायमाता की तरह उन्हें अपना नहीं मानता। . २५. प्रमादं कर्म तत्राहुः, अप्रमादं तथापरम्। प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म। प्रमादयुक्त प्रवृत्ति बंध का ___ तद् भावादेशत स्तच्च, बालं पण्डितमेव वा॥ और अप्रमत्तता मुक्ति का हेतु है। प्रमाद और अप्रमाद की अपेक्षा से व्यक्ति के वीर्य-पराक्रम को बाल और पंडित कहा जाता है तथा अभेददृष्टि से वीर्यवान् व्यक्ति भी बाल और पंडित कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य प्रवृत्ति-प्रधान है। प्रवृत्ति के बिना वह एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रवृत्ति के दो रूप हैं-शुभ और अशुभ। अशुभ प्रवृत्ति राग-द्वेष और मोहमय होती है। इसलिए उसे प्रमाद कहा जाता है। प्रमाद से अशुभ कर्म का संग्रह होता है। इससे आत्मा की स्वतंत्रता छीनी जाती है। शुभ प्रवृत्ति संयम-प्रधान होने से प्रमाद रूप नहीं है। उससे पुण्य-कर्म का संग्रह होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरण भी। कर्म-क्षय की दशा में आत्मा कर्म-ग्रहण की दृष्टि से अकर्मा बन जाती है, किन्तु चेतना की क्रिया बंद नहीं होती। प्रमाद और अप्रमाद का प्रयोग जहां वीर्य-शक्ति के साथ होता है, वहां वह बाल-वीर्य और पंडित-वीर्य कहलाता है। बाल शब्द अबोधकता का सूचक है। पंडित की चेष्टाएं ज्ञानपूर्वक होती हैं। ज्ञान हिताहित का विवेक देता है। संयम हित है और असंयम अहित। असंयम का परिहार और संयम का स्वीकार ज्ञान से होता है। बाल-वीर्य की अवस्था में ज्ञान का स्रोत सम्यक दिशा-संयम की ओर नहीं होता। वहां असंयम की बहुलता रहती है। पंडित-वीर्य संयम-प्रधान होता है। उसमें अशुभ कर्म का स्रोत खुला नहीं रहता। आत्मा क्रमशः शुभ से भी मुक्त होकर अकर्मा बन जाती है। १. तद् भावादेशतः-प्रमाद और अप्रमाद की अपेक्षा से। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २१० खण्ड-३ . २६.प्रतीत्याऽविरतिं बालो, द्वयञ्च बालपण्डितः। अविरति की अपेक्षा से व्यक्ति को बाल, विरति-अविरतिविरतिञ्च प्रतीत्यापि, लोकः पण्डित उच्यते॥ दोनों की अपेक्षा से बाल-पंडित और विरति की अपेक्षा से पंडित कहा जाता है। ॥ व्याख्या ॥ शक्ति का केन्द्र आत्मा है। आत्मा की अक्रियाशीलता में वीर्य सजीव नहीं होता। वीर्य के तीन स्रोत हैं : १. जो सर्वथा संयम की ओर प्रवाहित होता है। २. जो संयम-असंयम की ओर प्रवहमान रहता है। ३. जो सर्वथा संयम की ओर उन्मुख रहता है। वीर्य के मार्गों के कारण व्यक्ति के तीन रूप बनते हैं-बाल, बाल-पंडित और पंडित। विरति का अर्थ है-पदार्थ के प्रति आसक्ति का परित्याग और अविरति का अर्थ है-पदार्थ के प्रति व्यक्त या अव्यक्त आसक्ति। विरति और अविरति की अपेक्षा से मनुष्यों के तीन प्रकार होते हैं : बाल-असंयमी, जिसमें कुछ भी विरति नहीं होती। बाल-पंडित-उपासक, जो यथाशक्ति विरति करता है। इसमें विरति और अविरति दोनों का अस्तित्व रहता है। पंडित–पूर्ण संयमी, मुनि। ये तीनों जैन पारिभाषिक शब्द हैं। . मेघः प्राह । २७.कर्माकर्मविभागोऽयं, सम्यग बद्धो मया प्रभो! साध्यसिद्धौ महत्तत्त्वं, अप्रमादः त्वयोच्यते॥ मेघ बोला-भगवन्! मैंने कर्म और अकर्म का यह विभाग, सम्यक् प्रकार से जान लिया है। आपने अप्रमाद को साध्य-सिद्धि का महान् तत्त्व बतलाया है। ॥ व्याख्या ॥ कर्म और अकर्म का यह विभाजन मेघ ने भगवान् महावीर के श्रीमुख से सुना। कर्म और अकर्म का बोध सचमुच कठिन है। गीता में कहा है-'कवयोप्यत्र मोहिताः' बड़े-बड़े विद्वान् भी इस विषय में विमुग्ध हो जाते हैं। गीता में इसका विवेचन कर्म, अकर्म और विकर्म के रूप में उपलब्ध होता है। भगवान महावीर ने कर्म और अकर्म इन दोनों में ही सब समाहित कर दिया। मेघ का मन इस विभाजन को सुन समाहित हो गया। वह कहता है "प्रभो! आप द्वारा विवेचित इस विषय को मैंने अच्छी तरह से जान लिया है।' 'सम्यग् बुद्धो' शब्द के द्वारा यह ध्वनित होता है कि मैंने केवल बुद्धि के स्तर पर नहीं जाना है, उपादेय बुद्धि के द्वारा जाना है, स्वीकार किया है। साधना का मूल तत्त्व है-अप्रमाद। जीवन का पूरा चक्र प्रमाद की धुरी पर चलता है। प्राणी-जगत् प्रमाद से अधिक परिचित है, अप्रमाद से नहीं। प्रमाद के व्यूह से बाहर निकलने के लिए अप्रमाद की साधना अपेक्षित है। उस । स्थिति में अप्रमाद होगा-जागरूकता, होश। भगवान् महावीर ने लक्ष्य के प्रति यत्नवान् रहो, इस पर अधिक है। जागरूकता के बिना की गई क्रिया केवल द्रव्य-क्रिया है, उससे साध्य की प्राप्ति नहीं होती। साध्य-सिद्धि में जागरूकता की महती भूमिका है। अप्रमाद जागरूकता है, वर्तमान का क्षण है, और वह चेतना की निकटता का क्षण है। भगवान् महावीर का जीवन इसका ज्वलंत प्रमाण है। अन्य संतों ने भी इसे मूल तत्त्व माना है, और इसका प्रयोग किया है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे क्रियाक्रियावादनामा षष्ठोऽध्यायः। . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय - ७ आज्ञावाद Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञावाद भगवान् महावीर ने कहा- 'आणाए मामगं धम्मं-आज्ञा में मेरा धर्म है आज्ञा का अर्थ है- वीतराग का कथन, प्रत्यक्षदर्शी का कथन । वही कथन यथार्थ और सत्य होता है। जो वीतराग द्वारा कथित है। वीतराग वह है जो राग-द्वेष और मोह से परे है। उसकी अनुभूति और ज्ञान यथार्थ होता है। वह आत्माभिमुख होता है, अतः उसकी समस्त प्रवृत्ति और उसका सारा कथन आत्मा की परिक्रमा किए चलता है, इसलिए वह सत्य है 'आज्ञा में मेरा धर्म है' इसका तात्पर्यार्थ है-वीतरागता ही आत्मधर्म है। इसके अतिरिक्त सारा बहिर्भाव है। जितना वीतरागभाव है, उतना ही आत्मधर्म है। हिंसा जीवन की अनिवार्यता है इसे प्रत्येक मननशील व्यक्ति स्वीकार करता है। अतः इससे सर्वथा बच पाना संभव नहीं है परंतु इसका विवेक जागृत होने पर अहिंसा के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ा जा सकता है। जैन दर्शन में गृहस्थ के लिए यथाशक्य हिंसा के त्याग का निर्देश है। गृहस्थ संपूर्ण हिंसा से बच नहीं सकता। परंतु अनर्थ हिंसा से वह सहज बच सकता है। यह उसका विवेक है। हिंसा के कितने प्रकार हैं। उनकी व्याख्याएं क्या हैं? अहिंसा की क्या परिभाषा है और उसकी उपासना कैसे संभव हो सकती है? इन सब प्रश्नों का समाधान इसमें किया गया है। भगवान् प्राह १. आज्ञायां मामको धर्म, आज्ञायां मामकं तपः । आज्ञामूढा न पश्यन्ति तत्त्वं मिथ्याग्रहोचताः ॥ भगवान् ने कहा- मेरा धर्म आज्ञा में है, मेरा तप आज्ञा में है, जो मिथ्या आग्रह से उद्धत है और आज्ञा का मर्म समझने में मूढ हैं, वे तत्त्व को नहीं देख सकते। ॥ व्याख्या ॥ आज्ञा शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है- 'आसमन्तात् जानाति विषय को पूर्णरूप से जानना । साधारणतया उसका प्रयोग आदेश देने के अर्थ में होता है। विषय का ज्ञान दो प्रकार से किया जाता है-आत्म-साक्षात्कार से और श्रुत से। दूसरे शब्दों में ज्ञान दो प्रकार का होता है - प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष ज्ञान अतीन्द्रिय और परोक्ष ज्ञान इन्द्रिय, मन और शास्त्रजन्य है। प्रत्यक्ष ज्ञान के अभाव में अवलंबन शास्त्र - आगम हैं। परोक्ष का स्वरूप - निरूपण आगम से होता है। बंधन और मुक्ति का विवेक भी वह देता है। आगम शास्ता की वाणी है। शास्ता वे होते हैं जो वीतराग हैं। राग-द्वेष- युक्त व्यक्ति की वाणी प्रमाण नहीं होती। उसमें पूर्वापर की संगति नहीं मिलती। शास्ता की वाणी में अविरोध होता है। वे सब जीवों के कल्याण के लिए प्रवचन करते हैं। वे प्रवचन आगम का रूप ले लेते हैं। शास्ता के अभाव में वे ही मार्ग-दर्शक होते हैं। इसलिए उनकी वाणी आज्ञा है वह आज्ञा यह है सबको समान समझो किसी का हनन उत्पीड़न मत करो। राग-द्वेष पर विजय करो। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . २१३ अ.७: आज्ञावाद कषायों का उपशमन और क्षय करो। इन्द्रिय और मन पर अनुशासन करो। * संयम का विकास करो। अहिंसा की परिधि में रहो। आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का चिंतन करो। भेद-दृष्टि से शास्ता और शास्त्र दो हैं और अभेददृष्टि से एक। आज्ञा का अनुसरण वीतराग का अनुसरण है और वीतराग का अनुसरण आज्ञा का अनुसरण है। 'मामेकं शरणं व्रज'-एक मेरी शरण में आ-गीता के इस वाक्य की भी यही ध्वनि है। भगवान् कहते हैं-आज्ञा की कसौटी पर खरा उतरने वाला ही मेरा धर्म है और मेरा तप है। यह अभेदोपचार है। आग्रह के दो रूप हैं-सत्य और मिथ्या। मिथ्या आग्रह बौद्धिक जड़ता है। मिथ्या आग्रही अपनी मान्यता के घेरे से मुक्त नहीं हो सकता। 'मेरा धर्म है वही सत्य है'-मिथ्या आग्रही व्यक्ति में इसकी अधिकता होती है। वह अपना ही राग आलापता है। सत्याग्राही में यह नहीं होता। वह नम्र होता है, सरल होता है, सत्य को देखता है, सुनता है, मस्तिष्क से तोलता है और सत्य को स्वीकार करता है। आत्मा का सान्निध्य उसे प्राप्त होता है। वह आग्रही नहीं होता। उसका घोष होता है-जो सत्य है वह मेरा है। २. वीतरागेण यद् दृष्टं उपदिष्टं समर्थितम्। वीतराग ने जो देखा, जिसका उपदेश किया और जिसका _. आज्ञा सा प्रोच्यते बुद्धैः, भव्यानामात्मसिद्धये॥ समर्थन किया, वह आज्ञा है-ऐसा तत्त्वज्ञ पुरुषों ने कहा है। आज्ञा भव्य जीवों की आत्मसिद्धि का हेत है। - ॥ व्याख्या ॥ - आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में भव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है-जो यह सोचता है कि मेरे लिए क्या सो दःख से बहत घबराता है. जो सख का गवेषक है. जो बद्धि के गणों से सम्पन्न है. जो श्रवण और चिंतन करता है, जो अनाग्रही होता है, जो धर्म-प्रिय होता है और जो शासन के योग्य होता है, वह भव्य है। जो भव्य होता है वही आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। ३. तदेव सत्यं निःशङ्ख, यज्जिनेन प्रवेदितम्। जो जिन-वीतराग ने कहा, वही सत्य और असंदिग्ध है। रागद्वेषविजेतृत्वाद, नान्यथा वादिनो जिनाः॥ वीतराग ने राग और द्वेष को जीत लिया इसलिए वे मिथ्यावादी नहीं होते, अयथार्थ निरूपण नहीं करते। ॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में सत्य की सुन्दरतम परिभाषा दी गई है। सत्य क्या है इसका स्वरूप-निर्णय पदार्थ के स्वरूप से नहीं हो सकता। वह वक्ता की. निष्कषाय वृत्ति से होता है। ‘सत्य वही है जो वीतराग द्वारा कथित है' यह परिभाषा सार्वजनिक है। इस परिभाषा को समझने के लिए वीतराग के स्वरूप को जानना आवश्यक होता है। वीतराग वह है जिसके चारों कषाय और मोह का आवरण नष्ट हो चुका है। ... अयथार्थ भाषण के हेतु हैं-राग, द्वेष और मोह। जिनका लक्ष्य आत्महित है, जो निःस्वार्थ हैं, वीतराग हैं और कृतकृत्य हैं, वे कभी अयथार्थ भाषण नहीं करते। परंपरा और मान्यता के मोह से मूढ़ व्यक्ति अयथार्थ भाषण भी करते हैं। उनमें अपनी प्रतिष्ठा और कीर्ति का मोह होता है। उन बाह्य उपाधियों से मूढ़ व्यक्ति अयथार्थ भाषणों और आचरणों में संलग्न हो जाते हैं। लेकिन जो यह मानते हैं कि मेरा उत्थान इनसे नहीं, स्व-आत्मा से है, वे प्राणों का बलिदान करके भी सत्य की रक्षा करते हैं। आयामरतियोगिन! अनाज्ञायां रतिस्तथा। हे योगिन! आज्ञा में तेरी अरति-अप्रसन्नता और अनाज्ञा में मा भूयात्ते क्वचिद् यस्माद, आज्ञाहीनो विषीदति॥ रति-प्रसन्नता कहीं भी न हो. क्योंकि आज्ञा-हीन साधक अंत में विषाद को प्राप्त होता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २१४ खण्ड-३ ५. अपरा तीर्थकृत् सेवा, तदाज्ञापालनं परम्। आज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय य॥ तीर्थंकर की पर्युपासना की अपेक्षा उनकी आज्ञा का पालन करना विशिष्ट है। आज्ञा की आराधना करने वाले मुक्ति को प्राप्त होते हैं और उससे विपरीत चलने वाले संसार में भटकते हैं। ६. आज्ञायाः परमं तत्त्वं, रागद्वेषविवर्जनम्। एताभ्यामेव संसारो, मोक्षस्तन्मुक्तिरेव च॥ आज्ञा का परम तत्त्व है-राग और द्वेष का वर्जन। ये रागद्वेष ही संसार या बंधन के हेतु हैं और इनसे मुक्त होना ही मोक्ष है। ॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन में राग-द्वेष को बंधन का हेतु माना है। भगवान् महावीर ने कहा है-'रागो य दोसो बिय कम्मबीयं'-सभी कर्मों के ये दो उपादान हैं। इनसे कर्मबंध होता है और कर्मबंध से जीव विभिन्न योनियों में चक्कर काटता है। जब ये दोनों नष्ट हो जाते हैं तब वीतराग-दशा की प्राप्ति होती है। यही मोक्ष है। .. तीर्थंकरों की आज्ञा है-अस्तित्व का बोध करना। मैं कौन हूं? इसे जानो। राग-द्वेष जब मेरे से अन्यथा हैं तब वे मुझे कैसे परिचालित कर सकेंगे? जब तक मैं इन्हें 'स्व' मानता हूं तब तक ही ये मुझे अपना क्रीडांगण बनाकर अठखेलियां करते रहते हैं। स्वयं के अस्तित्व की पहचान हो जाने पर इनका मन्दिर स्वतः उजड़ने लगता है। स्व-बोध की साधना में जो उतरता है वही तीर्थंकर की आज्ञा का सम्यग् आराधक है। बुद्ध के शिष्य आनंद ने पूछा-भगवन् ! हम आपके शरीर की पूजा-अर्चना कैसे कर सकते हैं? बुद्ध ने कहा-आनंद! मल-मूत्र से भरा जैसे तुम्हारा शरीर है, वैसा ही मेरा है। इस अशुचि-शरीर की पूजा से कोई फायदा नहीं। मेरी सेवा करनी है तो मेरे धर्म-शरीर की सेवा करो। 'जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है। मैंने जो मार्ग-दर्शन दिया है उसका अभ्यास, आचरण करो, यह मेरी सेवा है।' गौतम महावीर के प्रिय शिष्य थे। वे महावीर के शरीर से प्रतिबद्ध थे, व्यक्तित्व में अनुरक्त थे। अनेक साधक उनकी उपस्थिति में बुद्धत्व, सिद्धत्व, और कैवल्य को उपलब्ध हो गए, किंतु गौतम नहीं हुए। गौतम इस तथ्य को नहीं समझ सके कि इसका कारण मैं स्वयं हूं। मुझे जो राग-द्वेष की विमुक्ति का अभ्यास करना चाहिए वह मैं नहीं कर रहा हूं। महावीर के प्रति मेरा आसक्ति का भाव ही मेरे अवरोध का कारण है। जैसे ही उसे हटाया, गौतम केवल्य मन्दिर में प्रतिष्ठित हो गए। आज्ञा और अनाज्ञा के प्रति हमारा स्पष्ट विवेक होना चाहिए। आज्ञा धर्म है और अनाज्ञा अधर्म-ये शब्द ठीक हैं, तथ्ययुक्त हैं किंतु आचरण के अभाव में केवल शब्दों से सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। सत्य की आराधना के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतस्तल को प्रयोगशाला बनाए और स्वयं में प्रयोग करे, सचाई को समझे। अन्यथा तीर्थंकरों की उपासना कैसे की जा सकेगी? उनकी उपासना राग-द्वेष से मुक्ति के अतिरिक्त और है ही क्या? 'मेरा धर्म आज्ञा में है' इसके अभिप्राय को समझना होगा। आज्ञा की आराधना मुक्ति है और विराधना संसार। आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है-अर्हत् वाणी का सार सिर्फ इतना ही है कि आस्रव (वासना, चंचलता, प्रवृत्ति) संसार का हेतु है और संवर (निवृत्ति, निरोध, अक्रिया) मोक्ष का हेतु है। तीर्थंकर, बुद्ध तथा आत्मोपलब्ध व्यक्ति का एकमात्र यही उपदेश होता है कि संबोधि (स्वभाव) को प्राप्त करो। जीवन जा रहा है। मानव संबोधि को जाने, इसमें ही उसका कल्याण निहित है। तीर्थंकर की एक मात्र यही आज्ञा है और यह आज्ञा ही धर्म है। तत्त्वज्ञानतरंगिणी में कहा है-सद्गुरुओं का यही आदेश है, समग्र सिद्धांतों का यही रहस्य है और कर्तव्यों में मुख्य कर्त्तव्य भी यही है-अपने ज्ञान-स्वरूप में स्थिति करो। अन्य करणीय कार्यों की तालिका सिर्फ इसका ही विस्तार है। व्यक्ति का आनंद आज्ञा-स्वभाव को जागृत करने में है, विभावं में नहीं। विभाव दुःख है, बंधन है और स्वभाव सुख, स्वतंत्रता तथा मुक्ति है। जो विवेकी है, हिताहित का द्रष्टा है, उसे सोच-विचार कर अपने हित में प्रवृत्त होना चाहिए। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २१५ अ.७: आज्ञावाद ७. आराधको जिनाज्ञायाः, संसारं तरति ध्रुवम्। वीतराग की आज्ञा की आराधना करने वाला निश्चित रूप से तस्या विराधको भूत्वा, भवाम्भोधौ निमज्जति॥ भव-सागर को तर जाता है और उसकी विराधना करने वाला भव-सागर में डूब जाता है। जो ८. आज्ञाया यश्च श्रद्धालुः, मेधावी स इहोच्यते। ____ असंयमो जिनानाज्ञा, जिनाज्ञा संयमो ध्रुवम्॥ जो आज्ञा के प्रति श्रद्धावान् है, वह मेधावी है। असंयम की प्रवृत्ति में वीतराग की आज्ञा नहीं है। जहां संयम है वहीं वीतराग की आज्ञा है। ९. संयम जीवनं श्रेयः, संयमे मृत्युरुत्तमः। संयममय जीवन और संयममय मृत्य श्रेय है। असंयममय जीवनं मरणं मुक्त्यै, नैव स्यातामसंयमे॥ जीवन और असंयममय मरण मुक्ति के हेतु नहीं बनते। ॥ व्याख्या ॥ --- संसारी प्राणी की दो अवस्थाएं हैं-जीवन और मरण। ये दोनों अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं होते। जब ये दोनों संयम से अनुप्राणित होते हैं तब श्रेयस्कर बनते हैं और जब असंयम से ओत-प्रोत होते हैं तब ये अश्रेयस्कर हो जाते हैं। संयमी व्यक्ति का जीना भी अच्छा है और मरना भी। असंयमी व्यक्ति का न जीना अच्छा है और न मरना। संयमी व्यक्ति यहां जीता हुआ सत्क्रिया में प्रवृत्त रहता है, शांति और आनंद का अनुभव करता है और जब वह मरता है तो उसकी अच्छी गति होती है। असंयमी व्यक्ति का जीवन न यहां अच्छा होता है और न उसका परलोक ही सुधरता है। जिसका वर्तमान पवित्र नहीं है, उसका भविष्य पवित्र नहीं हो सकता। जिसका वर्तमान पवित्र है, उसका ___ भविष्य निश्चित रूप से सुन्दर होगा। .. जैन दर्शन में कामनाओं का निषेध किया गया है। किन्तु मुमुक्षु के लिए संयममय जीवन और संयममय मृत्यु की कामना का विधान मिलता है। श्रावक के तीन मनोरथों में एक यह भी है-कब मैं समाधिपूर्ण मरण को प्राप्त करूंगा। जीवन की यह अंतिम परिणति यदि समाधिमय होती है तो उसका फल श्रेयस्कर होता है। एक बार भगवान् महावीर समवसरण में बैठे थे। वहां राजा श्रेणिक, अमात्य अभयकुमार और कसाई । कालसौकरिक भी उपस्थित थे। एक ब्राह्मण वहां आया। उसने भगवान् महावीर से कहा-मरो। राजा श्रेणिक से कहा-मत मरो। अमात्य अभयकुमार से कहा-भले मरो, भले जीओ। कालसौकरिक से कहा-मत मरो, मत जीओ। ..'ब्राह्मण यह कहकर चला गया। राजा श्रेणिक का मन इन वाक्यों से आंदोलित हो उठा। उसने भगवान् से पूछा। भगवान् ने कहा-राजन्! वह ब्राह्मण के वेश में देव था। उसने जो कहा वह सत्य है। उसने मुझे कहा-मर जाओ। 'इसका तात्पर्य है कि मरते ही मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। उसने तुझे कहा-मत मरो। यह इसलिए कि तुझे मरने के बाद नरक मिलेगा। अमात्य से कहा-भले मरो, भले जीओ। क्योंकि वह मरने पर स्वर्ग प्राप्त करेगा जहां सुख ही सुख है और यहां भी उसे सुख ही है। कालसौकरिक से कहा-मत मरो, मत जीओ। क्योंकि उसका वर्तमान जीवन भी पापमय प्रवृत्तियों से आक्रांत है और मरने पर भी उसे नरक ही मिलेगा। . इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि जीना अच्छा भी है और बुरा भी; मरना अच्छा भी है और बुरा भी। जो शब्द जितना अधिक व्यवहृत हो जाता है, उतना ही अधिक वह रूद बन जाता है। संयम की जो गरिमा प्रारंभ में उपलब्ध थी वैसी आज नहीं है। वह रूढ़ हो गया। यह केवल संयम शब्द के साथ ही ऐसा हुआ हो यह नहीं, सबके साथ ही कालान्तर में ऐसा हो जाता है। जितने भी क्रियाकांड आज व्यवहृत हैं, उनके प्रवृत्ति-काल में एक सौंदर्य था, जीवंतता थी और चैतन्य था। कालचक्र के प्रवाह से वे शव बनकर रह गए, चैतन्य चला गया। संयम का अर्थ है-निष्क्रियता, क्रिया का सर्वथा निरोध हो जाना। इसका फलितार्थ होता है-शुद्धात्मा की उपलब्धिं, किंतु यह भी स्पष्ट है कि पूर्ण अक्रियत्व प्रथम चरण में ही उपलब्ध नहीं होता। उसके लिए क्रमशः आरोहण की अपेक्षा होती है। यद्यपि संयम का पूर्ण ध्येय वही है, किंतु प्राथमिक अभ्यास की दृष्टि से व्यक्ति को अपनी अशुभ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २१६ खण्ड-३ प्रवृत्तियों का संवरण करना होगा। महाव्रत, अणुव्रत आदि की साधना अशुभ-विरति की साधना है। जैसे-जैसे साधक आगे बढ़ता है सामायिक, समता, संवर आता है और इंद्रिय और मन का निरोध करने में कुशल होता चला जाता है। एक क्षण आता है कि वह बाहर से सर्वथा शून्य-बेहोश तथा अंतर् में पूर्ण सचेतन होता है। यही क्षण शुद्ध स्वात्मोपलब्धि का है। जहां बाह्य आकर्षणों का आधिपत्य स्वतः ध्वंस हो जाता है, वही वास्तविक संयम है। १०.हिंसाऽनृतं तथा ध्रुवं प्रवृत्तिरेतेषां, स्तेयाऽब्रह्मचर्यपरिग्रहाः। असंयम इहोच्यते॥ हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह की प्रवृत्ति असंयम कहलाती है। ११.ऐतेषां विरतिः प्रोक्तः, संयमस्तत्त्ववेदिना। पूर्णा सा पूर्ण एवासौ, अपूर्णायाञ्च सोंशतः॥ तत्त्वज्ञों ने हिंसा आदि की विरति को 'संयम' कहा है। पूर्ण विरति से पूर्ण संयम और अपूर्ण विरति से आंशिक संयम होता है। ॥ व्याख्या ॥ जो व्यक्ति हिंसा में रचा-पचा रहता है, वह असंयमी है, जो इनका आंशिक नियंत्रण करता है वह संयमासंयमी. है, श्रावक है और जो इनका पूर्ण त्याग करता है वह संयमी है, साधु है। जितने अंशों में उनका त्याग होता है, उतने अंशों में संयम की प्राप्ति होती है और जितना अत्याग-भाव है वह असंयम है। १२.पूर्णस्याराधकः प्रोक्तः, संयमी मुनिरुत्तमः। अपूर्णाराधकः प्रोक्तः, श्रावकोऽपूर्णसंयमी॥ पूर्ण संयम की आराधना करने वाला संयमी उत्तम मुनि कहलाता है और अपूर्ण संयम की आराधना करने वाला अपूर्ण संयमी या श्रावक कहलाता है।.. १३. रागद्वेषविनिर्मुक्त्यै, विहिता देशना जिनैः। अहिंसा स्यात्तयोर्मोक्षो, हिंसा तत्र प्रवर्तनम्॥ वीतराग ने राग और द्वेष से विमुक्त होने के लिए उपदेश दिया। राग और द्वेष से मुक्त होना अहिंसा है और उनमें प्रवृत्ति करना हिंसा है। ॥ व्याख्या ॥ जहां राग-द्वेष विद्यमान हैं, वहां अहिंसा नहीं हो सकती। जो क्रियाएं राग-द्वेष से प्रेरित हैं, वे अहिंसक नहीं हो सकतीं। जो क्रियाएं इनसे मुक्त हैं, वे अहिंसा की परिधि में आ सकती हैं। सामान्य गृहस्थ के लिए राग संपूर्ण मुक्त हो पाना संभव नहीं है, फिर भी वह अपने सामर्थ्य के अनुसार इनसे दूर रहता है, वह उसका अहिंसक भाव है। वीतराग व्यक्ति की प्रत्येक प्रवृत्ति अहिंसा की पोषक होती है और अवीतराग व्यक्ति की प्रवृत्ति में रागद्वेष का मिश्रण रहता है। इसे स्थूल बुद्धि से समझ पाना कठिन है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर कहीं एक कोने में छिपे हुए राग-द्वेष देखे जा सकते हैं। भगवान् का सारा प्रवचन राग-द्वेष की मुक्ति के लिए होता है। राग-द्वेष की मुक्ति हो जाने पर सारे दोष धुल जाते हैं। सब दोषों के ये दो उत्पादक तत्त्व हैं। सारे दोष इन्हीं की संतान हैं। १४.आरम्भाच्च विरोधाच्च, संकल्पाज्जायते खलु। तेन हिंसा त्रिधा प्रोक्ता, तत्त्वदर्शनकोविदः॥ हिंसा करने के तीन हेतु हैं-आरंभ, विरोध और संकल्प। अतः तत्त्वज्ञानी पंडितों ने हिंसा के तीन भेद बतलाए हैं• आरंभजा हिंसा-जीवनयापन हेतुक हिंसा। विरोधजा हिंसा-प्रतिरक्षात्मक हिंसा। •संकल्पजा हिंसा-आक्रामक हिंसा। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २१७ ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने आत्मा का विकास अहिंसा के मूल में देखा। उनका समस्त कार्य-कलाप अहिंसा की परिक्रमा किए चलता था । इसलिए उनका उपदेश अहिंसापरक था । अहिंसा की आवाज एक छोर से दूसरे छोर तक व्याप्त हो गई। वह सबके लिए थी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- 'जो धर्म में उठे हैं और जो नहीं उठे हैं उन सबको इस धर्म का उपदेश दो।' फलस्वरूप सहस्रों व्यक्ति पूर्ण अहिंसक (मुनि) बने। गृहस्थ जीवन में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है, इस प्रश्न के समाधान में भगवान् महावीर ने हिंसा के तीन भेद किए, जिनके स्वरूप का विवेचन अगले श्लोकों में स्पष्ट किया गया है। भगवान् ने तीन प्रकार की हिंसा का निरूपण करते हुए गृहस्थ को निरर्थक हिंसा और संकल्पजा हिंसा से दूर रहने की बात कही है, जो अत्यंत व्यवहार्य और सुखी जीवन की प्रेरणा देने वाली है। १५. कृषी रक्षा च वाणिज्यं, शिल्पं यद् यच्च वृत्तये । प्रोक्ता साऽऽरम्भजा हिंसा, दुर्वार्या गृहमेधिना ॥ अ. ७ : आज्ञावाद ॥ व्याख्या ॥ गृहस्थ अपने और अपने आश्रित व्यक्तियों के भरण-पोषण के लिए आजीविका करता है वह कर्म से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। जहां कर्म है वहां हिंसा है। कर्म ही आरंभ है। कर्म की दो धाराएं हैं - गर्ह्य और अगर्ह्य । मांस, शराब, अंडे, आदि का व्यापार गर्ह्य - निंद्य माना गया है। एक आत्म- द्रष्टा या धार्मिक वह नहीं कर सकता । -खेती, रक्षा, शिल्प आदि वृत्तियां गर्ह्य नहीं हैं। गृहस्थ इनका अवलंबन लेता है। १६. आक्रामतां प्रतिरोधः, प्रत्याक्रमणपूर्वकम् । आक्रमणकारियों का प्रत्याक्रमण के द्वारा बलपूर्वक प्रतिरोध क्रियते शक्तियोगेन, हिंसा स्यात् सा विरोधजा ॥ किया जाता है, वह विरोधजा-हिंसा है। १७. लोभो द्वेषः प्रमादश्च यस्या मुख्यं प्रयोजकम् । . हेतुः गौणो न वा वृत्तेः, हिंसा संकल्पजाऽस्ति सा ॥ कृषि, रक्षा, व्यापार, शिल्प और आजीविका के लिए जो हिंसा की जाती है, उसे आरंभजा हिंसा कहा जाता है। इस हिंसा से गृहस्थ बच नहीं पाता। ॥ व्याख्या ॥ यहां आक्रांता बनने का निषेध है। गृहस्थ अपने बचाव के लिए प्रत्याक्रमण करता है। सभी राष्ट्र स्व-सीमा में रहना सीख जाएं, कोई किसी पर आक्रमण करने की चाल न चले तो शांति सहज ही फलित हो जाती है। आक्रमण की प्रवृत्ति युद्ध को जन्म देती है, शांति को भंग करती है और अंतर्राष्ट्रीय मर्यादा का अतिक्रमण करती है। भगवान् महावीर ने ऐसा नहीं कहा कि देश की सीमा पर शत्रुओं का आक्रमण हो और तुम मौन बैठे रहो, लेकिन यह कहा कि आक्रांता मत बनो। आक्रमण के प्रति प्रत्याक्रमण करना अहिंसा नहीं, किन्तु विरोधना हिंसा है। १८. सर्वथा सर्वदा सर्वा, हिंसा वर्ज्या हि संयतैः । प्राणघातो न वा कार्यः, प्रमादाचरणं तथा ॥ १९. व्यर्थ कुर्वीत नारम्भं श्राद्धो नाक्रमको भवेत् । 'हिंसां संकल्पजां नूनं वर्जयेद् धर्ममर्मवित् ॥ जिस हिंसा के प्रयोजक-प्रेरक लोभ, द्वेष और प्रमाद होते हैं और जिसमें आजीविका का प्रश्न गौण होता है या नहीं होता, वह संकल्पजा - हिंसा है।. संयमी पुरुषों को सब काल में, सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए, न प्राणघात करना चाहिए और न प्रमाद का आचरण । धर्म के मर्म को जानने वाला श्रावक अनावश्यक आरंभजाहिंसा न करे, आक्रमणकारी न बने और संकल्पजा-हिंसा का अवश्य वर्जन करे। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २१८ ॥ व्याख्या || खण्ड - ३ तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं १. गृहस्थ, २. गृहस्थ-साधक ( उपासक श्रावक), ३. मुनि। यह भेद बाह्य आकृति या कार्य पर आधारित नहीं है। यह अंतरवृत्ति पर आधारित है। मुनि उसे कहते हैं जो अपने को जगाने, जानने में पूर्णतया समर्पित हो चुका है। आत्महित ही जिसका एकमात्र ध्येय है, जो अहर्निश उसी में निरतं रहता है, वह मुनि होता है। गृहस्थ साधक वह होता है जो गृहस्थ के उत्तरादायित्वों का निर्वाह करते हुए भी धर्म की दिशा में सतत गतिशील रहता है, धर्म को अपने सामने रखता है संत सहनो ने कहा है'जागृत में सुमिरन करो, सोवत में लौ लाय । सहजो एक रस ही रहे, तार टूट ना जाय ॥' गृहस्थ-उपासक और मुनि दोनों का लक्ष्य एक है इसलिए सतत स्मृति दोनों के लिए अपेक्षित है। अंतर केवल कर्त्तव्य का होता है। देखना सिर्फ इतना ही है कि कार्य व्यस्तता में स्मृति का तार कितना अविच्छिन्न रहता है। जिस गृह- साधक की स्मृति इतनी हो जाती है वह एक क्षण भी स्वयं से दूर नहीं होता। उसके कार्य एक स्तर पर चलते हैं और वह जीता किसी और स्तर पर है जीवन जीने की यह परम कला है। इससे ही उसकी समस्त प्रवृत्तियां सत्य की ओर उन्मुक्त हो जाती हैं उसका समग्र व्यवहार इसकी परिक्रमा किए चलता है विधिनिषेध का केन्द्र धर्म होता है। वह उसी के निर्णय को महत्त्व देता है। उसके आक्रांत होने या हिंसक होने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । गृहस्थ दोनों से विपरीत है वह जीवन जीता है किन्तु जीवन का वास्तविक ध्येय उसके सामने नहीं रहता । लक्ष्य के आधार पर ही जीवन की वृत्ति का पहिया घूमता है। यदि ध्येय स्पष्ट और शुद्ध होता है तो क्रिया को भी उसका अनुगमन करना होता है। शुद्ध-साध्य के लिए साधन-शुद्धि की बात गौण नहीं हो सकती। जीवन का लक्ष्य केवल बहिर्मुखी (भौतिक) होता है, तब वृत्तियां अंतर्मुखी कैसे हो सकेंगी?, गृहस्थं बहिर्मुखी होता है, इसलिए वह आक्रमण करने से भी चूकता नहीं। दुनियां के युद्धों के इतिहास के पीछे यही मनोवृत्ति काम कर रही है। पांच हजार वर्षों के इतिहास में पन्द्रह सौ बड़े युद्ध क्या बहिर्मुखता के द्योतक नहीं हैं? यह तो विश्व की स्थिति का दर्शन है। जीवन निर्वाह के निरंतर चलने वाले कलह-झगड़े, वे क्या हैं? क्या उनके पीछे कोई वास्तविक उद्देश्य होता है ! व्यर्थ के झंझटों में मनुष्य व्यर्थ उलझता है और दूसरों को भी उलझाता है। यह मानवीय स्वभाव की दुर्बलता है। सत्य, अहिंसा, नैतिकता आदि उसके लिए सिर्फ शब्द होते हैं। संकल्पज़ा हिंसा से भी यदि मनुष्य निरत हो सके तो सुख की सृष्टि संभव हो सकती है। २०. अहिंसैव विहितोस्ति, धर्मः संयमिनो ध्रुवम् । निषेधः सर्वहिंसाया, द्विविधा वृत्तिरस्य यत् ॥ संयमी पुरुष के लिए अहिंसा धर्म ही विहित है और सब प्रकार की हिंसा वर्जित है। संयमी की वृत्ति दो प्रकार की होती है-अहिंसा का आचरण, यह विधेयात्मक वृत्ति है। हिंसा का वर्जन, यह निषेधात्मक वृत्ति है। ॥ व्याख्या ॥ संयमी व्यक्ति की अहिंसा विधेयात्मक और निषेधात्मक दोनों है । विधेयात्मक अहिंसा को समिति कहते हैं और निषेधात्मक अहिंसा को गुप्ति अशुभ और शुभ योग के निरोध का नाम गुप्ति है और शुभ योग में प्रवृत्त होने का नाम समिति । है। गुप्ति तीन हैं - मनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और कायगुप्ति। मुनि क्रमशः मन के अप्रशस्त और प्रशस्त योग का विरोध करे । विधेयात्मक अहिंसा के पांच रूप हैं: १. ईय समिति देखकर चलना, विधिपूर्वक चलना। २. भाषा समिति- विचारपूर्वक संभाषण करना। ३. एषणा समिति—भोजन-पानी की गवेषणा में सतर्कता रखना । ४. आदान- निक्षेप समिति - वस्तु के लेने और रखने में सावधानी बरतना। ५. उत्सर्ग समिति उत्सर्ग करने में सावधानी बरतना, समिति में अशुभ का निरोध और शुभ में प्रवर्त्तन है । गुप्ति में शुभ का भी निरोध होता है। आत्मा का पूर्ण अभ्युदय निरोध से होता है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २१९ अ. ७: आज्ञावाद २१.अहिंसाया आचरणे, विधानञ्च यथास्थितिः। श्रावक के लिए मैंने यथाशक्ति अहिंसा के आचरण का संकल्पजा-निषेधश्च, श्रावकाय कृतो मया॥ विधान और संकल्पजा-हिंसा का निषेध किया है। २२. अविहिताऽनिषिद्धा च, तृतीया वृत्तिरस्य सा। गृहस्थ की तीसरी वृत्ति जो है, वह न विहित है और न सर्वहिंसापरित्यागी, नाऽसौ तेन प्रवर्तते॥ निषिद्ध है। वह सर्व-हिंसा का परित्यागी नहीं होता, इसलिए उस वृत्ति का अवलंबन लेता है। ॥ व्याख्या ॥ वृत्तियां तीन प्रकार की होती हैं : १. विहित-जिनका विधान किया गया है, जैसे-धर्म की उपासना करना, अहिंसा का आचरण करना। २. निषिद्ध-जिनका निषेध किया जाता है, जैसे-मांस का व्यापार न करना, व्यभिचार न करना आदि। ३. न विहित, न निषिद्ध-जिसका न विधान होता है और न निषेध, जैसे-विवाह करना , व्यापार करना आदि। इन प्रवृत्तियों के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता। इस श्लोक में यही समझाया गया है कि गृहस्थ संपूर्ण रूप से हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, क्योंकि एक गृहस्थ के नाते उसे अनेक जिम्मेदारियां निभानी होती हैं। वह भिक्षा से अपना जीवन नहीं चला सकता, अतः उसे व्यापार करना पड़ता है। व्यापार में हिंसा भी होती है। वह वाहनों का उपयोग करता है। आवश्यकतावश छह जीवों का समारंभ भी करता है। उसकी समस्त पापमय. प्रवृत्तियों का निषेध नहीं किया जा सकता। हिंसा हिंसा है, परन्तु क्षेत्र या अवस्था भेद से वह विहित आ अविहित होती है। २३. हिंसाविधानं नो शक्यं तेन साऽविहिता खल। हिंसा का विधान नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अनिवार्या जीविकाय, निरोढुं शक्यते न तत्॥ अविहित है और आजीविका के लिए जो अनिवार्य हिंसा हो तो उसका निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अनिषिद्ध है। || व्याख्या ॥ _ पूर्ण अहिंसक व्यक्ति की अपनी मर्यादा होती है। वह हिंसा का निषेध और अहिंसा के आचरण का उपदेश देता है। आवश्यक हिंसा का भी अनुमोदन या विधान उसके द्वारा नहीं हो सकता। अहिंसक के सामने आवश्यकता और अनावश्यकता का प्रश्न मुख्य नहीं होता। जीवन और मृत्यु का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण नहीं होता। उसके सामने मुख्य प्रश्न होता, है-अहिंसा की सुरक्षा। हिंसा उसे किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं होती। इसलिए वह हिंसा का विधान कर ही नहीं सकता। वह अहिंसा के पालन के लिए प्राणों का विसर्जन भी करने में तत्पर होता है, किन्तु न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों को उस ओर प्रेरित करता है। दूसरी बात यह है कि वह हिंसा न करने का सर्वथा निषेध भी नहीं कर सकता। क्योंकि गृहस्थ जीवन में अनिवार्य हिंसा से बचा नहीं जा सकता। यदि वह उसका निषेध करता है तो उसका कथन अव्यवहार्य बन जाता है। अतः उसे मध्यम-मार्ग का अवलंबन लेना पड़ता है। २४.द्विविधो गृहिणां धर्म, आत्मिको लौकिकस्तथा। .. संवरो निर्जरा पूर्वः, समाजाभिमतोऽपरः॥ गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का होता है-आत्मिक और लौकिक। आत्मिक-धर्म के दो प्रकार हैं-संवर और निर्जरा । समाज के द्वारा अभिमत धर्म को लौकिक धर्म कहा जाता है। || व्याख्या ॥ - धर्म दो प्रकार का है-आत्मिक और लौकिक। सामायिक, संवर, पौषध, त्याग, ध्यान, तपस्या आदि आत्मिक धर्म है। इसमें अहिंसा आदि धर्मों का विमर्श और आचरण मुख्य होता है। संक्षेप में आत्माभिमुखी सारी प्रवृत्तियां आत्मिक धर्म के अंतर्गत आती हैं। लौकिक धर्म का अर्थ है-समाज द्वारा अभिमत आचार। इसमें हिंसा-अहिंसा का विचार मुख्य नहीं होता, मुख्य होता है सामाजिक आचार, नीति। समाज धर्म समाज-सापेक्ष होता है। वह ध्रुव नहीं Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २२० खण्ड-३ होता, परिवर्तनशील होता है। लौकिक धर्म की विचारणा में मोक्ष का विमर्श गौण होता हैं, सामाजिक अभ्युदय का विचार मुख्य होता है। २५.आत्मशद्धयै भवेदाधो. देशितः स मया ध्रवम। आत्मिक-धर्म आत्मशद्धि के लिए होता है इसलिए मैंने समाजस्य प्रवृत्त्यर्थं, द्वितीयो वयत जनैः॥ उसका उपदेश किया है। लौकिक-धर्म समाज की प्रवृत्ति के लिए होता है। उसका प्रवर्तन सामाजिक जनों के द्वारा किया जाता है। २६.आत्मधर्मो मुमुक्षूणां, गृहिणाञ्च समो मतः। आत्म-धर्म साधु और गृहस्थ-दोनों के लिए समान है। धर्म पालनापेक्षया भेदो, भेदो नास्ति स्वरूपतः॥ के जो विभाग हैं, वे पालन करने की अपेक्षा से किए गए हैं। स्वरूप की दृष्टि से वह एक है, उसका कोई विभाग नहीं होता। २७. पाल्यते साधुभिः पूर्णः, श्रावकैश्च यथाक्षमम्। साधु आत्म-धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और श्रावक यत्र धर्मो हि साधूनां, तत्रैव गृहमेधिनाम्॥ उसका पालन यथाशक्ति करते हैं। संयममय आचरण साधु के लिए भी धर्म है, गृहस्थ के लिए भी धर्म है। असंयममय आचरण साधु के लिए भी धर्म नहीं है, गृहस्थ के लिए भी धर्म नहीं है। ॥ व्याख्या ॥ अहिंसा गृहस्थ के लिए धर्म हो और साधु के लिए अधर्म अथवा साधु के लिए धर्म हो और गृहस्थ के लिए अधर्म, ऐसा कभी नहीं होता। तात्पर्य यही है कि गृहस्थ का धर्म साधु के धर्म से भिन्न नहीं किन्तु उसी का एक अंश है। मुनि और गृहस्थ दोनों का धर्म एक है। अंतर इतना ही है कि मुनि धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और | उसका आंशिक रूप में। धर्म के विभाग व्यक्ति-व्यक्ति की पालन करने की शक्ति के आधार पर किए गए हैं। उनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्राभेद होता है। मुनि अहिंसा का पूर्ण व्रत स्वीकार करते हैं और गृहस्थ अपने सामर्थ्य के अनुसार उसका पालन करते हैं। यही धर्म के विभिन्न रूपों का आधार है। २८.तीर्थङ्करा अभूवन ये, विद्यन्ते ये च सम्प्रति। भविष्यन्ति च ते सर्वे, भाषन्ते धर्ममीदृशम्॥ जो तीर्थंकर अतीत में हुए, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, वे सब ऐसे ही धर्म का निरूपण,करते हैं। २९.सर्वे जीवा न हन्तव्याः, कार्या पीडापि नाल्पिका। उपद्रवो न कर्तव्यो, नाऽऽज्ञाप्या बलपूर्वकम्॥ कोई भी जीव हंतव्य नहीं है, न उन्हें किंचित् पीड़ित करना चाहिए, न उपद्रव करना चाहिए, न बलपूर्वक उन पर शासन करना चाहिए और न दास बनाने के लिए उन्हें अपने अधीन रखना चाहिए-यह अहिंसा-धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्वत और वीतराग के द्वारा निरूपित है। ३०.न वा परिगृहीतव्या, दासकर्मनियुक्तये। एष धर्मो ध्रुवो नित्यः, शाश्वतो जिनदेशितः॥ (युग्मम्) किसा ३१.न विरुध्येत केनापि, न बिभियान्न भाययेत्। अधिकारान्न मुष्णीयाद्, न कुर्याद् श्रमशोषणम्॥ किसी के साथ विरोध न करे, न किसी से डरे और न किसी को डराए, न किसी के अधिकारों का अपहरण करे और न किसी के श्रम का शोषण करे। ३२. जातेः कुलस्य रूपस्य, न बलस्य श्रुतस्य च। नैश्वर्यस्य न लाभस्य, न मदं तपसः सृजेत्॥ जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, ऐश्वर्य, लाभ और तप का मद न करे। . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २२१ ३३. न तुच्छान् भावयेज्जीवान्, न तुच्छं भावयेन्निजम् । सर्वभूतात्मभूतो हि स्यादहिंसापरायणः ॥ अ. ७: आज्ञावाद दूसरों को तुच्छ न समझे और अपने को भी तुच्छ न समझे। जो सब जीवों को आत्मभूत - अपने तुल्य समझता है, वह अहिंसा परायण है। || व्याख्या || उपरोक्त श्लोकों में अहिंसा का समग्र रूप प्रतिपादित हुआ है। जीव-घात ही हिंसा नहीं है, दूसरों पर अनुशासन करना, धोखा देना, अपने अधीन रखना, दुःख देना, दास बनाना, आदि प्रवृत्तियां भी हिंसा है जो अहिंसक होता है, वह ऐसा नहीं कर सकता। अहिंसा सभी व्रतों का सार है। कहा गया है कि अहिंसा ही व्रत है और दूसरे सारे व्रत के पोषक हैं। जो अहिंसा का सही अर्थ में पालन करता है, वह सत्य, ब्रह्मचर्य आदि सभी व्रतों का पालन करता है । डराना हिंसा है तो डरना भी हिंसा है अहिंसा डरना नहीं सिखाती वह व्यक्ति में अभय की शक्ति जगाती है। वास्तव में वही व्यक्ति अभय हो सकता है, जो अहिंसक है। अहिंसा की प्राप्ति के लिए हिंसा के कारणों का विसर्जन भी अपेक्षित है। हिंसा के हेतु हैं - विरोध, भय, दूसरों के अधिकारों को कुचलना, अभिमान, दूसरों को हीन मानना और स्वयं को भी हीन मानना । वैर से वैर बढ़ता है, प्रतिशोध की भावना प्रबल होती है। इसलिए अहिंसक सबके साथ मैत्री का संकल्प करता है। उसका घोष है- मेरी सबके साथ मैत्री है, किसी के साथ शत्रु भाव नहीं है। भय से भी हिंसा का विस्तार होता है। भयभीत व्यक्ति प्रतिक्षण आशंकाओं से घिरा रहता है अर्थ नाश का भय, मृत्यु का भय, अपयश का भय, रोग का भय आदि भयों से उसका चिंतन हिंसोन्मुख रहता है। भयभीत व्यक्ति हजारों बार मरता है। जो व्यक्ति अभय है, उसे ये भय नहीं सताते और न वह अपने जीवन में अनेक बार मरता है । इसलिए भगवान् ने कहा है-अहिंसक न स्वयं डरे और न दूसरों को डराये। डरना और डराना दोनों ही हिंसा है। दूसरों के अधिकारों का अपहरण करने से उनमें प्रतिशोध का भाव बढ़ता है। स्वयं में भय जगता है, प्रतिकार के उपायों से ध्यान आर्त बनता है, अतः किसी के अधिकारों को मत कुचलो। अभिमान हिंसा है। दूसरों को हीन और अपने को ऊंचा मानना वह उसका लक्षण है। यह असमानता की वृत्ति व्यक्ति के मन में हिंसा का ज्वार पैदा करती है और उनका प्रतिफल अनेक कटुरूपों में फलित होता है। इसे आज कौन नहीं जानता। अहिंसा की साधना का अर्थ है-सदा विनम्र रहना और सबको अपने जैसा मानना । भगवान महावीर ने कहा है- 'नो हीणे नो अइरिते' अपने आपको न हीन समझो और न ऊंचा समझो यह समता का मंत्र है और यह दूसरों के यथार्थ अस्तित्व का स्वीकरण है। दूसरों को तुच्छ मानना हिंसा है तो अपने आपको भी तुच्छ मानना हिंसा है। इससे आत्मा का शौर्य विलुप्त हो जाता है। व्यक्ति में घबराहट पैदा हो जाती है। वह अकाल में ही काल-कवलित हो जाता है हीन वृत्ति वाला मनुष्य अपना समाज, देश और राष्ट्र का भला नहीं कर सकता। अध्यात्म-क्षेत्र में प्रवेश करने से वह वंचित रह जाता है। हीन मनोवृत्ति वाले का मन सदा हीन भावना से घिरा रहता है। वह अपने ही हीन संकल्पों से हीनता की और बढ़ता रहता है। मैं दरिद्र हूं, मैं अस्वस्थ हूं, मैं अशक्त हूं, मैं अयोग्य 'हूं'–ये संकल्प व्यक्ति को वैसा ही बना देते हैं। आज के चिकित्सक यह मानते हैं कि मनुष्य के शरीर में कुछ ऐसी ग्रंथियां हैं, जिनसे वह अपने को हीन मानने लगता है। वे चिकित्सा कर उसे हीन भावना से मुक्त कर देते हैं। लेकिन मनोवैज्ञानिक और अध्यात्म द्रष्टाओं की विचारधारा में इसकी सफल चिकित्सा है हीन भावनाओं के स्थान पर उच्च संकल्पों को स्थान देना । मानसिक संकल्प के द्वारा अनेक रोगियों को आज रोग मुक्त किया जाता है। तब यह हीन - भावना का मानसिक रोग संकल्पों से दूर क्यों नहीं किया जा सकता? मनुष्य सदा पवित्र संकल्पों को दोहराए और कुछ क्षण उनका चिंतन करे तो उस पर इसका जादू का सा असर होता है, हीन भावनाएं स्वतः ही नष्ट हो जाती हैं। संकल्प यों हो सकते हैं मैं स्वस्थ हूं। मैं ऐश्वर्यशाली हूं। मैं शक्ति संपन्न हूं। मैं योग्य हूं। मैं शुद्ध, बुद्ध और परमात्मरूप हूं। - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २२२ ३४. अहिंसाऽऽराधिका येन, ममाज्ञा तेन साधिता । आराधितोस्मि तेनाहं, धर्मस्तेनात्मसात्कृतः॥ ३५. अहिंसा विद्यते यत्र, ममाज्ञा तत्र विद्यते। ममाज्ञायामहिंसायां न विशेषोस्ति कश्चन ॥ क्षुधितानामिवाशनम् । ३६. भीतानामिव शरणं, तृषितानामिव जलं, अहिंसा भगवत्यसौ ॥ ३७. शुद्धं शिवं सुकथितं, सुदृष्टं सुप्रतिष्ठितम् । सारभूतञ्च लोकेऽस्मिन्, सत्यमस्ति सनातनम् ॥ || व्याख्या || महावीर कहते हैं-मेरी आज्ञा और अहिंसा में कोई द्वैत नहीं है। जो आज्ञा है वही अहिंसा है और जो अहिंसा है। वही आज्ञा है। अहिंसा और आज्ञा में अंतर नहीं है। अहिंसा और प्रेम में भी अंतर नहीं है। जीसस ने कहा है- 'लव इज गोड' (Love is God) प्रेम परमात्मा है। परमात्मा को साध लो प्रेम सध जाएगा। प्रेम को साध लो परमात्मा संध जाएगा। परमात्मा प्रेम का पूर्ण रूप है। अनेक संत प्रेम की भाषा में बोले हैं। किंतु उनका प्रेम किसी में आबद्ध नहीं था। सीमाबद्ध प्रेम होता तो फिर वह प्रेम घृणा से अछूता नहीं होता, उसके पीछे मिश्रित रूप से घृणा की छाया होती । वह अस्थायी होता, स्थायी नहीं होता । अहिंसा की विधायक भाषा प्रेम है। जैसे-जैसे आत्मा का सर्वोच्च रूप निखरता जाएगा, अहिंसा-प्रेम भी विस्तृत और व्यापक बनता चला जाएगा। 'मैं और मेरे' की संकीर्णदृष्टि निर्मूल हो जाएगी । संकीर्णता, स्वार्थ, घृणा आदि का जहां अस्तित्व रहता है वहां अहिंसा की धारा कैसे प्रवाहमान रह सकती है ? अहिंसा के अभाव में मानव जगत् शांति से जीवित नहीं रह सकता। इसलिए अहिंसा को त्राण कहा हैं। ३८. महातृष्णाप्रतीकारं, उत्तमानामभिमतं खण्ड - ३ जिसने अहिंसा की आराधना की, उसने मेरी आज्ञा की आराधना की है, उसने मुझे आराध लिया है और उसने धर्म को आत्मसात् कर लिया है। निर्भयञ्च अस्तेयं जहां अहिंसा है वहां मेरी आज्ञा है। मेरी आज्ञा और अहिंसा में कोई भेद नहीं है। निरास्रवम् । प्रत्ययास्पदम् ॥ यह भगवती अहिंसा भयभीत व्यक्तियों के लिए शरण, भूखों के लिए भोजन और प्यासों के लिए पानी के समान है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने कहा-'सच्चं लोगम्मि सारभूयं ' - सत्य लोक में सारभूत है। 'सच्चं भयवं'व' -सत्य ही भगवान् है। यह सत्य की महिमा है। प्रश्न होता है कि सत्य क्या है ? इसका उत्तर है- 'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं' - सत्य वही है जो आप्तपुरुषों द्वारा कथित है। 'निग्गंथं पावयणं सच्चं ' -निर्ग्रथ व्यक्तियों का जो प्रवचन है, वह सत्य है। सत्य का यह स्वरूप व्यापक और सर्वग्राह्य है । यथार्थ द्रष्टाओं का दर्शन सत्य है । यथार्थ- द्रष्टा वे होते हैं, जिनके राग-द्वेष और मोह आदि दोष नष्ट हो जाते हैं और जिनका ज्ञान अबाधित होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान सत्य का घटक होता है। सत्य किसी सीमा में आबद्ध नहीं होता। वह व्यापक और सार्वजनिक होता है। स्वभाव सत्य है, विभाव असत्य । इस लोक में सत्य शुद्ध, शिव, सुभाषित, सुदृष्ट, सुप्रतिष्ठित, सारभूत और सनातन / शाश्वत है। अचौर्य बढ़ती हुई तृष्णा का प्रतिकार, भयमुक्त करने वाला, अनेक बुराइयों से बचाने वाला, उत्तम जनों द्वारा अभिमत और विश्वास का आस्थान है। ॥ व्याख्या ॥ अदत्त का शाब्दिक अर्थ है - बिना दिया हुआ ग्रहण करना । यह बहुत स्थूल है। यदि व्यक्ति स्थूल पर स्थिर हो जाए तो सूक्ष्म में प्रवेश नहीं हो पाता। महावीर जिस धरातल पर अदत्त की बात कहते हैं, वह बहुत सूक्ष्म है। इस जगत् में हमारा क्या है? अस्तित्व के अतिरिक्त सब कुछ पराया है। अस्तित्व की उपलब्धि के अभाव में चोरी से बचना कैसे संभव हो ? दूसरों का क्या मानव अनुकरण नहीं करता? उसके पास जो कुछ है वह सब अनुकृत है, उधार Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २२३ अ. ७ : आज्ञावाद लिया हुआ है। यदि ठीक से हम अपने पर दृष्टिपात करें तो पता चलेगा कि हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार आदि परम्परागत हैं। अचौर्य व्रत के अभ्यास के लिए साधक को बहुत सजग होने की आवश्यकता होगी। उसे प्रतिक्षण पै दृष्टि से देखना होगा कि मेरा अपना क्या है और पराया क्या ? मैं दूसरों की चीजों को अपनी कैसे मान रहा हूं। जब तक वह स्वयं में प्रवेश नहीं करे, तब तक वह उन वस्तुओं और संस्कारों का बहिष्कार करता जाए जो अपनी नहीं हैं, वह एक दिन अचौर्य को उपलब्ध हो जाएगा । संयमेन ३९. कृतध्यानकपाटञ्च, अध्यात्मदत्तपरिघं सुरक्षितम् । ब्रह्मचर्यमनुत्तरम् ॥ ब्रह्मचर्य अनुत्तर धर्म है। संयम - इन्द्रिय और मन के निग्रह द्वारा वह सुरक्षित है। उसकी सुरक्षा का कपाट है ध्यान और उसकी अर्गला है अध्यात्म | ॥ व्याख्या ॥ ब्रह्मचर्य भगवान् है, तपों में उत्तम तप है। ब्रह्मचर्य से देवता अमर बन जाते हैं। अर्थववेद में नेता के लिए ब्रह्मचारी होना आवश्यक माना है। ऐतरेय उपनिषद् में कहा है- शरीर के समस्त अंगों में जो यह तेजस्विता है वह वीर्य जन्य ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत व्यापक किया है। ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। कुंदकुंद कहते हैं - 'जो स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखते हुए भी विकार नहीं लाते वे ब्रह्मचारी हैं।' महात्मा गांधी कहते हैं-'ब्रह्मचर्य का अर्थ है समस्त इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण और मन, वचन, कृत्य द्वारा लोलुपता से मुक्ति । ' ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान देने से ये सारे अर्थ उसी में सन्निहित हो जाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है - आत्मा या परमात्मा । उसमें विचरण करने वाला ही वास्तविक ब्रह्मचारी है। जब आत्म-विहार से व्यक्ति बाहर चला जाता है तब नं ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहता है, न अहिंसा और न ध्यान । ४०. कृताकम्पमनोभावो, भावनानां विशोधकः । सम्यक्त्व शुद्धमूलोऽस्ति, धृतिकन्दोऽपरिग्रहः ॥ अपरिग्रह से मन की चपलता दूर हो जाती है, भावनाओं का शोधन होता है। उसका शुद्ध मूल है सम्यक्त्व और धैर्य उसका कन्द है। ॥ व्याख्या ॥ अनैतिकता का मुख्य हेतु है- अर्थ - लिप्सा । भीष्म पितामह ने इसी कटु सत्य को यों सामने रखा है - हे युधिष्ठिर ! तुम्हारा कहना अनुचित नहीं है कि आप धर्म को छोड़ अधर्म की ओर क्यों चले गए? मैं बताऊ तुम्हें, मनुष्य अर्थ का दास है, किंतु अर्थ किसी का दास नहीं है। अर्थ के प्रलोभन ने ही मुझे कौरवों का पक्षपाती बना दिया । परिग्रह अनर्थ की धुरा है। मानसिक मलिनता को परिग्रह में आसक्त व्यक्ति छोड़ नहीं सकता। सच्चाई यह है कि पवित्रता, स्थैर्य, शुद्धि और धैर्य का निवास अपरिग्रह में है। असंतुष्ट व्यक्ति बार-बार उत्पन्न होता है और मरता है, भले फिर वह इन्द्र भी क्यों न हो । सुख आवश्यकताओं को बढ़ाने में नहीं है। मनुष्य जितना स्व-सीमा में रहता है उतना ही वह सुखी और शांत रहता है। सीमा का अतिक्रमण अशांति को उत्पन्न करता है। परिग्रह स्व नहीं, पर है। वह सहायक है, किंतु सर्वेसर्वा नहीं। वह शरीर की भूख है न कि आत्म चेतना की । इस विवेक पर चलने वाला उससे चिपका नहीं रहता । न वह शोषण करता है और न अनावश्यक संग्रह। महाभारत में कहा है भ्रियते यावज्जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिकं योऽभिमन्येत से स्तेनो दंडमर्हति ॥ - जितना पेट भरने के लिए आवश्यक होता है, वही व्यक्ति का अपना है-व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए। जो इससे ज्यादा संग्रह करता है वह चोर है, दंड का भागी है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २२४ खण्ड-३. मेघः प्राह ४१.किं नाम भगवन्! धर्मः, कस्मै तस्याऽनिवार्यता। विद्यते तस्य को लाभः, जिज्ञासाऽसौ निसर्गजा॥ मेघ बोला-भगवन्! धर्म क्या है? उसकी अनिवार्यता क्यों है? उसका लाभ क्या है? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। भगवान् प्राह ४२. चैतन्यानभवो धर्मः सोपानं प्रथमं व्रतम्। तपसा संयमेनासौ, साध्योऽस्ति सकलैर्जनैः॥ भगवान् ने कहा-धर्म है चैतन्य का अनुभव। उसका प्रथम सोपान है व्रत। उसकी साधना के दो हेतु हैं-तप और संयम। ४३. आसक्तिं जनयत्याशु, वस्तुभोगो हि देहिनाम्। जीवनं वस्तुसापेक्षं, समस्या महती ध्रुवम्॥ पदार्थ का भोग आसक्ति उत्पन्न करता है और जीवन पदार्थ-सापेक्ष है, यह महान् समस्या है। ४४. आसक्तिर्यावती पुंसां तावान् भावात्मको ज्वरः। भावात्मको ज्वरो यावान्, तावान् तापो हि मानसः॥ जितनी आसक्ति उतना भावनात्मक तनाव। जितना भावात्मक तनाव, उतना मानसिक तनाव या मानसिक दुःख। ४५.चैतन्यानुभवो यावान्, अनासक्तिश्च तावती। यावती स्यादनासक्तिः, तावान् भावः प्रसादयुक्॥ जितनी चेतना की अनुभूति उतनी अनासक्ति, जितनी अनासक्ति उतनी भावात्मक प्रसन्नता। ४६.यावान् भावप्रसादः स्याद्, तावद् मनो हि निर्मलम्। नैर्मल्यं मनसो यावद्, तावत् स्याद् सहजं सुखम्॥ जितनी भावनात्मक प्रसन्नता है, उतनी मानसिक निर्मलता है। : जितनी मानसिक निर्मलता है, उतना सहज सुख है। ॥ व्याख्या ॥ धर्म का तत्त्व सहज, सुगम होते हुए भी जटिल बना हुआ है। इसका कारण है-उसे बुद्धि के द्वारा व्याख्यात किया जाता है, मन और बुद्धि के द्वारा ही सुना जाता है और ग्रहण किया जाता है। यह है अनुभूति द्वारा गम्य, या प्रज्ञा के द्वारा ज्ञेय है। बुद्धि स्वयं अस्थिर है-वह विकल्पों को पैदा करती है। धर्म है निर्विकल्प। धर्म को जानने के लिए सब बुद्धि के द्वारा प्रयत्न करते हैं। इसलिए उसका सही समाधान नहीं होता। मेघ की जिज्ञासा भी इसी की द्योतक है। धर्म क्या है ? धर्म की अनिवार्यता क्यों और धर्म का लाभ क्या है? धर्म क्या है? इसका उत्तर अलग-अलग रूपों में मिलता है। लौकिक धर्म की व्याख्या भिन्न है और अलौकिक-आध्यात्मिक धर्म की परिभाषा अलग है। फिर भी दोनों का सम्मिश्रण हो जाता है। सम्मिश्रण के कारण संशय उत्पन्न होता है। यदि दोनों के बीच का अंतर स्पष्ट हो तो यह भ्रांति नहीं रहती किन्तु यह भी कम संभव है। सामान्य लोगों के लिए यह अंतर् सहजगम्य होना भी मुश्किल है। भगवान् महावीर ने धर्म की संक्षेप परिभाषा देते हुए कहा-चैतन्य का अनुभव धर्म है। जिस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति स्वयं के अस्तित्व का अनुभव कर सके, वह धर्म है। अपना अनुभव, अपना बोध, अपना ज्ञान धर्म है। धर्म का समग्र बल इस पर है कि व्यक्ति अपने को जाने 'मैं कौन हूं?' इसका प्रथम चरण है-व्रत। व्रत का कार्य है-अपने भीतर आने वाले विजातीय तत्त्व के द्वार को रोकना। जैसे-जैसे विजातीय तत्त्व का द्वार बंद हो जाता है वैसे-वैसे व्यक्ति अपने निकट पहुंचता चला जाता है। विजातीय तत्त्व का आवागमन इतनी तीव्रता से होता रहता है कि साधारण-असाधारण व्यक्तियों की समझ से परे ही रहता है। आदमी के संस्कार उसे भीतर आने से दूर ही रखता है। वह राग और द्वेष इन दो प्रवृत्तियों में ही उलझा रहता है। चैतन्य के अनुभव में ये दोनों परम बाधक हैं। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २२५ अ. ७: आज्ञावाद व्रत-संयम और तप इन दोनों को नियंत्रित करते हैं राग का अर्थ है-आसक्ति और द्वेष का अर्थ है अप्रिय पदार्थों के प्रति घृणा, अरुचि । प्रिय विषयों में रुचि राग है। जीवन पदार्थों से मुक्त नहीं हो सकता है। वह पदार्थ सापेक्ष है। पदार्थों का भोग आसक्ति उत्पन्न करता है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने आसक्ति को और अधिक बद्धमूल करने में अपनी भूमिका निभाई है और निभा रही है। आकर्षक पदार्थों के निर्माण के पीछे व्यक्ति के भीतर छिपे राग- आसक्ति को उत्तेजित करना ही है। नये नये रूपों में जिस प्रकार पदार्थों की संयोजना हो रही है उसी प्रकार व्यक्ति का मन भी दूषित व प्रलुब्ध हो रहा है। इससे न शांति और न सुख हाथ लगता है। पदार्थों की सामग्री व उनके प्रति आकर्षण से शांति और सुख का कहीं वास्ता नहीं है पदार्थ सापेक्ष शांति व सुख का स्थायित्व भी कितना होता है? और उस सुख से मिलने वाला सुख भी कितना होता है? इससे यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि शाश्वत, स्थायी सुख का संबंध पदार्थों से नहीं है नश्वर पदार्थ स्थायी सुख का हेतु भी कैसे बन सकता है? इस अनुभूति ने ही अनासक्ति को जन्म दिया। भगवान ने इस समस्या के समाधान में कहा कि तुम पदार्थों से निरपेक्ष नहीं हो सकते, किन्तु आसक्ति से मुक्त हो सकते हो। पदार्थों के साथ जुड़ना-बंधना या न बंधना यह तुम्हारे हाथ में है। तुम इस कला में पारंगत हो जाओ कि पदार्थों का भोग करते हुए भी उनके साथ लगाव नहीं रखना दुःख पदार्थों के साथ लगाव का ही है जितना गहरा लगाव या अटेचमेंट - जुड़ना है उतना ही अधिक तनाव, ताप तथा ऊष्मा है। आसक्ति ही व्यक्ति को दुःखी बनाती है। वह आसक्ति चेतन पदार्थ के प्रति हो या अचेतन के प्रति । वर्तमान युग इसका ज्वलन्त उदाहरण है। तनाव समस्या सर्जन करता है। तनाव विविध रोग उत्पन्न करता है। इसका समाधान अनासक्ति है। भोग के साथ जो प्रियता अप्रियता का योग बनता है, उससे ही अपनी चेतना को दूर रखना है। इसका प्रयोग है - संयम तथा तप । चेतना को अलग रखना तपस्या है। यह कठिन नहीं, किन्तु अभ्यास साध्य होती है। अनासक्त रहने का संकल्प ही धीरे-धीरे भावना को पुष्ट करता है और जागृति को सशक्त बनाता है। उसकी परिणति चेतना की अनुभूति में होती है उसके बाद अनासक्ति स्वतः सिद्ध हो जाती है। एक चेतना की आसक्ति अन्य समस्त आसक्तियों को उखाड़ फेंकती है। गीता, भागवत आदि में जहां अनन्यचेता की बात कही है वही बात चेतना की अनुभूति की है। चेतना की अनुभूति अनासक्ति बढ़ाती है, अनासक्ति से भावधारा निर्मल होती है। मन प्रसन्न होता है और आनंद की धारा सहज ही प्रस्फुटित हो जाती है। धर्म क्यों अनिवार्य है ? . धर्म की प्रासंगिकता सदैव अपरिहार्य रही है। धर्म है तो व्यवस्था है, धर्म है तो स्वच्छता है। यह स्वर हमारे कानों में सदा टकराता रहा है कि 'धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।' धर्म से हीन जीवन पशु तुल्य है। अध्यात्म दृष्टि से धर्म की उपादेयता असंदिग्ध है तो व्यवहार दृष्टि से भी असंदिग्ध है। धर्म चेतना को रूपांतरित करता है। व्यक्ति की भावधारा को बदलता है, व्यक्ति का कर्म विशुद्ध बनता है उसका अंतःकरण निर्मल बन जाता है। उसके प्रत्येक कर्म में धर्म की झलक प्रतीत होने लगती है। सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक, वैयक्तिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। धर्म उन सब पर नियंत्रण करता है। एक धार्मिक व्यक्ति कभी अनैतिक, अप्रामाणिक, भ्रष्ट आचरण वाला, दूसरों का शोषण करने वाला, दूसरों को दुःख देने वाला, असत्य, मायावी, हिंसक, क्रूरकर्मा नहीं हो सकता है। इस दृष्टि से धर्म की अनिवार्यता को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। धर्म होगा तो मानव-मानव के मध्य न खाइ होगी, न घृणा और न ऊंच-नीच का भाव होगा । धर्म का क्या लाभ है ? धर्म का मौलिक लाभ है - आत्मशांति। सभी संतों, ऋषियों, अर्हतों ने शांति के लिए अपना जीवन समर्पित किया था, शास्त्रों की संरचना भी शांति के लिए है वह जिसमें है, उसे किसी बाह्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं है। धर्म का उद्देश्य बाह्य पदार्थों की पूर्ति करना नहीं है वह तो स्वभाव को उजागर करता है। शांति स्वभाव है। चेतना का धर्म है। इसलिए कहा है Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २२६ खण्ड-३ या देवी सर्वभूतेषु, शांतिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः॥ जो समस्त प्राणियों के भीतर शांति के रूप में संस्थित है मैं उस परम शक्ति को नमन करता हूं। अन्य लाभ ' हो या न हो उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। बाह्य लाभ के न होने पर भी एक शांत व्यक्ति के हृदय में कोई अंतर् नहीं पड़ता। ___ धर्म का बाह्य लाभ भी प्रत्यक्ष है। एक धार्मिक व्यक्ति तनाव से दूर रहता है, तनाव जनित, कषायजनित व्याधियां उसे ग्रस्त नहीं करतीं। वह सतत संतुलित जीवन जीता है। सामान्य व्यक्ति 'लाभ' शब्द के द्वारा केवल वस्तुनिष्ठ लाभ को ही महत्त्व देता है। उसकी दृष्टि वहीं केन्द्रित होती है किन्तु यह धर्म का मौलिक ध्येय नहीं है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे आज्ञावादनामा सप्तमोऽध्यायः। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ८ बंध-मोक्षवाद Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-मोक्षवाद बंधन आवरण है और मुक्ति निरावरण। ज्ञान का विकास, श्रद्धा का विकास और शक्ति का विकास आवृत दशा में नहीं होता। बंध और मोक्ष-दोनों एक-दूसरे के प्रतिपक्षी हैं। मोक्ष में बंधन नहीं है और बंधन में मुक्ति नहीं है। बंध क्या है और मुक्ति क्या है? इसी जिज्ञासा का समाधान यहां प्रस्तुत है। स्व-शासन मुक्ति है और पर-शासन बंधन। परतंत्रता को न चाहते हुए भी हम पर-शासन से नियंत्रित हैं। स्व-शासन को चाहते हुए भी उसे ला नहीं सकते। यही दिशा-भ्रम है। मिथ्यात्व-विपरीत मान्यता, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-यह पर-शासन है। पर-शासन का जुआ उतर जाता है तब स्व-शासन-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग का उदय होता है। यह मुक्ति का एक सुव्यवस्थित क्रम है। प्रवत्ति और निवत्ति बंध-मोक्ष के कारण हैं। जीव की प्रवृत्ति और निवृत्ति के पांच-पांच प्रकार हैं। प्रवृत्ति से बंध होता है और निवृत्ति से मोक्ष। प्रवृत्ति स्थूल और सूक्ष्म-दो प्रकार की होती है। योग स्थूल प्रवृत्ति है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-ये सूक्ष्म प्रवृत्तियां हैं। इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का संग्राहक शब्द है-'आस्रव'। इस अध्याय में आस्रव तथा बंध-मोक्ष की प्रक्रिया का विवेचन है। मेघः प्राह १. किं बंधः किं च मोक्षस्तौ, जायेते कथमात्मनाम्। मेघ बोला-हे सर्वदर्शिन् ! बंध किसे कहते हैं? मोक्ष किसे तदहं श्रोतुमिच्छामि, सर्वदर्शिन्! तवान्तिके॥ कहते हैं? आत्मा का बंधन कैसे होता है और मुक्ति कैसे होती है-यह मैं आपसे सुनना चाहता हूं। भगवान् प्राह २. स्वीकरणं पुद्गलानां, बन्धो जीवस्य भण्यते। अस्वीकारः प्रक्षयो वा, तेषां मोक्षो भवेद् ध्रुवम्॥ भगवान् ने कहा-आत्मा के द्वारा पुद्गलों का जो ग्रहण होता है, वह बन्ध कहलाता है। जिस अवस्था में पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता और गृहीत पुदगलों का क्षय हो जाता है, उस स्थिति का नाम मोक्ष है। ३. प्रवृत्त्या बळ्यते जीवो, निवृत्या च विमुच्यते। प्रवृत्तिर्बन्धहेतुः स्यात्, निवत्तिर्मोक्षकारणम्॥ प्रवृत्ति के द्वारा जीव कर्मों से आबद्ध होता है और निवृत्ति के द्वारा वह कर्मों से मुक्त होता है। प्रवृत्ति बंध.का हेतु है और निवृत्ति मोक्ष का। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २२९ अ.८ : बंध-मोक्षवाद ४. प्रवृत्तिरानवः प्रोक्तो, निवृत्तिः संवरस्तथा। प्रवृत्ति आस्रव है और निवृत्ति संवर। प्रवृत्ति के पांच प्रकार प्रवृत्तिः पञ्चधा ज्ञेया, निवृत्तिश्चापि पञ्चधा॥ हैं और निवृत्ति के भी पांच प्रकार हैं। ॥ व्याख्या ॥ महावीर दुःख और दुःख मुक्ति का छोटा सा सूत्र बता रहे हैं। वे कहते हैं-'कामना दुःख है। कामना के पार चले जाओ, दुःख से छूट जाओगे-'कामे कमाहि, कमियं खु दुक्खं।' प्रवृत्ति का जन्म इच्छा-राग-द्वेष से होता है। यही बंधन है। जब उन पुद्गलों की अवस्थिति संपन्न होती है तब वे सुख-दुःख के रूप में प्रकट होते हैं। और फिर मनुष्य तदनुरूप प्रवृत्ति में संलग्न हो जाते हैं। इस भवचक्र का उन्मूलन होता है अप्रवृत्ति-निवृत्ति से। जिसे दुःख-मुक्ति प्रिय है उसे निवृत्ति का प्रयोग भी सीखना चाहिए। प्रवृत्ति के पांच प्रकार हैं और निवृत्ति के भी पांच प्रकार हैं। प्रवृत्ति बांधती है और निवृत्तिमुक्त करती है। प्रवृत्ति मनुष्य की चिरसंगिनी है। उससे छूटना सहज नहीं है, किन्तु बिना छूटे बंधन-मुक्ति भी संभव नहीं है। साधना का लक्ष्य ही है-दुःख से मुक्त होना, निर्वाण को प्राप्त करना। उसमें बाधक हैं-ये पांच प्रवृत्तियां। ये पांचों ही तमोमयी हैं। इनसे जकड़ा हुआ व्यक्ति सत्य का दर्शन नहीं कर सकता। वह अनवरत बेहोशी का जीवन जीता है। जिसे कभी यह बोध भी नहीं होता कि मेरा जन्म क्यों है ? मैं कौन हूं? एक विचारक ने कहा है-'यदि विश्वविद्यालय लड़कों को मनुष्य नहीं बना सकते तो उनके अस्तित्व का कोई लाभ नहीं है। लड़के-लड़कियों को पहले यह मालूम होना चाहिए कि वे क्या हैं ? और किस उद्देश्य के लिए उनको जीना है ? और समझ लेनी चाहिए कि प्रवृत्ति मात्र बाधक नहीं है। निवृत्ति के पथ पर व्यक्ति जब आरूढ़ होता है तब उससे पहले भी प्रवृत्ति चलती है, किन्तु वह बाधक नहीं बनती क्योंकि उस प्रवृत्ति की दिशा भटकाब वाली नहीं है। वह निवृत्ति के अभिमुख है। उसकी अंतिम परिणति निवृत्ति है। जिस प्रवृत्ति का प्रवाह निवृत्ति के अभिमुख नहीं होता वह प्रवृत्ति मनुष्य को स्वयं से निरंतर दूर ले जाती है। स्वयं से दूर होना ' ही संसार है। ५. मिथ्यात्वमविरतिश्च, प्रमादश्च सकषायकः। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-ये चार सूक्ष्मात्माऽध्यवसायस्य, स्पन्दरूपाः प्रवृत्तयः॥ सूक्ष्म-अव्यक्त प्रवृत्तियां हैं। इनमें आत्मा के अध्यवसायों का सूक्ष्म स्पंदन होता है। ६. योगः स्थूला स्थूलबुद्धिगम्या प्रवृत्तिरिष्यते। . स्वतंत्रो व्यक्तिहेतुश्च, ह्यव्यक्तानां चतसृणाम्॥ योग स्थूल व्यक्त प्रवृत्ति है। वह स्थूल बुद्धि से जानी जा सकती है। वह स्वतंत्र भी है और पूर्वोक्त चारों अव्यक्त सूक्ष्म प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का हेतु भी है। ७. मिथ्यात्वमविरतिर्वा, प्रमादः सकषायकः। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-इन चार आस्रवों व्यक्तरूपो भवेद् योगो, मानसो वाचिकाउङ्गिकौ॥ को अभिव्यक्त करने वाला योग भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय कहलाता है, जैसे-योगरूप मिथ्यात्व, योगरूप अविरति, योगरूप प्रमाद और योगरूप कषाय। वह अभिव्यक्ति मानसिक, वाचिक और कायिक-तीनों प्रकार की होती है। ॥ व्याख्या ॥ मिथ्यात्व-विपरीत श्रद्धा, तत्व के प्रति अरुचि। अविरति-पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा। प्रमाद-धर्माचरण के प्रति अनुत्साह Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २३० कषाय - आत्मा की आंतरिक उत्तप्ति । योग - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । प्रवृत्ति के पांच प्रकार प्रवृत्ति का पहला प्रकार है-मिथ्यात्व यह सबसे खतरनाक है। इसमें व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता। 'स्व' और 'पर' का भेद नहीं होता । बुद्ध की भाषा में यह 'अविद्या' आस्रव है। पतंजलि इसे अविद्या कहते हैं। अविद्या या मिथ्यात्व का उन्मूलन करना ही साधना का लक्ष्य है। धर्म की दिशा में यह प्रथम पदन्यास है। मिथ्यात्व की विद्यमानता मैं न तो तत्वों के प्रति श्रद्धा जागृत होती है और न सत्य के प्रति आकर्षण । खण्ड-३ प्रवृत्ति का दूसरा प्रकार है - विरति । व्यक्ति का दर्शन सम्यग् नहीं होता है तब पदार्थों के प्रति आकर्षण न होने की बात कैसे फलित हो सकती है ? ऊपर-ऊपर विरति पल सकती है किंतु पदार्थों का मोह नहीं छूटता। एक पदार्थ या व्यक्ति से मोह छूटता है तो दूसरे के प्रति अधिक मोह जागृत हो जाता है अविरति आंतरिक लालसा है। सत्य की शोध में बाहर से विकर्षण भी अपेक्षित है। किन्तु इसके साथ-साथ आंतरिक आकर्षण का क्रम चलना नितांत स्पृहणीय है। अन्यथा वह विराग जीवन्त नहीं हो सकता। प्रवृत्ति का तीसरा प्रकार है-प्रमाद यह व्यक्ति को जागृत नहीं होने देता। स्व-विस्मृति में इसका बहुत बड़ा हाथ होता है। इसके बहुविध आवरण हैं। शराब, नींद, विकथा (जो बातें स्वयं से दूर ले जाती है), इन्द्रिय-विषय और कषाय-प्रमाद को पुष्ट करने में ये पांच महत्वपूर्ण सहयोगी हैं। इन अवस्थाओं में जीने का अर्थ है-स्वयं के प्रति अनुत्साह । सामान्यतया मनुष्य इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है। ये वृत्तियां आदमी को भीतर झांकने नहीं देती । प्रवृत्ति का चौथा प्रकार है- कषाय । कषाय प्रमाद के अंतर्गत होने पर भी प्रवृत्ति में उसका स्वतंत्र उल्लेख है। वह इसलिए कि आत्मा की क्रमिक अवस्थाओं में प्रमाद के छूट जाने पर भी वह आगे तक विद्यमान रहता है उसके सूक्ष्मांशों के प्रति सचेत हुए बिना साधक को पुनः नीचे लौटना पड़ता है। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये कषाय के मुख्य अंग हैं। आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि में ये बाधक हैं। प्रवृत्ति का पांचवां प्रकार है- योग। योग का अर्थ है- मन, वाणी और काया की चंचलता । मनुष्य का बाहरी रूप जो दिखाई देता है, वह सिर्फ बाहरी नहीं है, भीतर का प्रतिबिंब है। भीतर घटना घटती है और बाहर उसका विस्तार हो जाता है। मिथ्यात्व आदि आंतरिक और सूक्ष्म वृत्तियां हैं। सागर में बुदबुदे की भांति ये भीतरी मन में उठती हैं और बाहर आकर छूट जाती हैं। मन सूक्ष्म योग है, वाणी स्थूल और काया स्थूलतम । वाणी और शरीर कार्य है, मन कारण है और भी गहराई से देखा जाए तो मन भी कार्य है क्योंकि वह स्वतंत्र नहीं है। उसमें भी जो स्पंदन होता है, उसका स्रोत अन्यत्र है। समस्त प्रवृत्तियों का मूल कारण है- कार्मण शरीर-सूक्ष्म शरीर । मिथ्यात्व आदि प्रवृत्तियों का स्रोत है वह । कर्म से प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति से क्रिया, क्रिया से फिर कर्म-योग्य पुद्गलों का ग्रहण । इस दुश्चक्र से मुक्त होने के लिए निवृत्ति का दर्शन है। ८. अतत्त्वे तत्त्वसंज्ञानं, अमोक्षे मोक्षधीस्तथा । अधर्मे धर्मसंज्ञानं, मिथ्यात्वं द्विविधञ्च तत् ॥ ९. अभिग्रहिकमाख्यातं, असतत्त्वे दुराग्रहः । अनाभिग्रहिकं वत्स! अज्ञानाज्जायतेऽङ्गिनाम् ॥ तत्त्व में तत्त्व का संज्ञान करना, अमोक्ष में मोक्ष की बुद्धि करना और अधर्म में धर्म का संज्ञान करना मिथ्यात्व कहलाता है। उसके दो प्रकार हैं-आभिग्रहिक और अनाभिग्राहिक । वत्स! अयधार्थं तत्त्व में यथार्थता का मिथ्या आग्रह होना अभिग्रहिक मिध्यात्व कहलाता है और जो यथार्थ तत्त्व का ज्ञान नहीं होता, वह अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व कहलाता है। आभिग्रहिक आग्रहपूर्वक होता है और अनाभिग्राहिक अज्ञानवश होता है। . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २३१ अ.८: बंध-मोक्षवाद ॥ व्याख्या ॥ .. एक चक्षुष्मान् वह होता है, जो रूप और संस्थान को ज्ञेयदृष्टि से देखता है। दूसरा चक्षुष्मान् वह होता है, जो वस्तु की ज्ञेय, हेय और उपादेय दशा को विपरीत दृष्टि से देखता है। तीसरा उसे अविपरीत दृष्टि से देखता है। पहला स्थूलदर्शन है, दूसरा बहिर्दर्शन और तीसरा अंतर्-दर्शन। स्थूल-दर्शन जगत् का व्यवहार है, केवल वस्तु की ज्ञेय दशा से संबंधित है। अगले दोनों का आधार मुख्य रूप से वस्तु की हेय और उपादेय दशा है। अंतर्-दर्शन जब मोह के पुद्गलों से ढंका होता है तब वह मिथ्यादर्शन कहलाता है। जब मोह का आवरण टूट जाता है तब सम्यक्त्व का लाभ होता है। मिथ्यात्व का अभिव्यक्त रूप तत्त्व-श्रद्धा का विपर्यय है। विपरीत तत्त्व-श्रद्धा के दस रूप बनते हैं : १. अधर्म में धर्म संज्ञा। ६. जीव में अजीव संज्ञा। २. धर्म में अधर्म संज्ञा। ७. असाधु में साधु संज्ञा। ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा। . ८. साधु में असाधु संज्ञा। ४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा। ९. अमुक्त में मुक्त संज्ञा। ५. अजीव में जीव संज्ञा। १०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा। इसी प्रकार सम्यक्-तत्त्व-श्रद्धा के भी दस रूप बनते हैं : १. अधर्म में अधर्म संज्ञा। ६. जीव में जीव संज्ञा। २. धर्म में धर्म संज्ञा। ७. असाधु में असाधु संज्ञा। ३. अमार्ग में अमार्ग संज्ञा। ८. साधु में साधु संज्ञा। ४. मार्ग में मार्ग संज्ञा। ९. अमुक्त में अमुक्त संज्ञा। . . ५. अजीव में अजीव संज्ञा। . १०. मुक्त में मुक्त संज्ञा। - यह साधक, साधना और साध्य का विवेक है। जीव-अजीव की यथार्थ श्रद्धा के बिना साध्य की जिज्ञासा ही नहीं होती। आत्मवादी ही परमात्मा बनने का प्रयत्न करेगा, अनात्मवादी नहीं। इस दृष्टि से जीव-अजीव का संज्ञान साध्य के आधार का विवेक है। साधु-असाधु का संज्ञान साधक की दशा का विवेक है। धर्म-अधर्म, मार्ग-अमार्ग का संज्ञान साधना का विवेक है। मुक्त-अमुक्त का संज्ञान साध्य-असाध्य का विवेक है। सिद्धांत की भाषा में जब तक दर्शनमोह के तीन प्रकार-सम्यक्त्व-मोह, मिथ्यात्वमोह और सम्यक्-मिथ्यात्व-मोह और चारित्र-मोह के प्रथम चतुष्क-अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय रहता है तब तक मिथ्यात्व का अस्तित्व रहता है और जब इन सात कर्म-प्रकृत्तियों का क्षय-क्षयोपशम होता है, तब सम्यक्त्व (क्षायिक या क्षायोपशमिक) की प्राप्ति होती है। मिथ्यात्वी विपरीत मान्यता से दीर्घसंसारी हो जाता है। उसे प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती। वह जड़-जगत् को अपना आकर्षण केन्द्र बना लेता है। मिथ्यात्व की तुलना गीता (१८/३२) के तमोगुण से होती है। वहां कहा गया है कि वह बुद्धि तामसी है जो तम से व्याप्त होकर अधर्म को धर्म समझती है और सभी बातों को विपरीत समझती है। - बुद्ध की भाषा में वह दृष्टास्रव है जो यथार्थ में अयथार्थ का दर्शन करता है और अयथार्थ में यथार्थ का। .१०.आसक्तिश्च पदार्थेषु, व्यक्ताऽव्यक्ताव्रतात्मिका। पदार्थों में जो व्यक्त और अव्यक्त आसक्ति होती है, वह अनुत्साहः स्वात्मरूपे, प्रमादः कथितो मया॥ 'अविरति' कहलाती है। अपने आत्म-विकास के प्रति जो अनुत्साह होता है, उसको मैंने 'प्रमाद' कहा है। ॥ व्याख्या ॥ अविरति का क्षेत्र जैसे व्यापक है वैसे प्रमाद का भी व्यापक है। आत्म-स्वभाव को अपुष्ट करने वाली क्रिया का समावेश इसी में है। जब तक आत्मा की विस्मृति होती है और पर-पदार्थों की स्मृति होती है तब तक प्रमाद का हाथ बलवान् होता है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २३२ खण्ड - ३ संक्षेप में आत्म-विस्मृति प्रमाद है और आत्म-स्मृति अप्रमाद। जिस व्यक्ति को प्रत्येक क्रिया में अपनी आत्मा की स्मृति बनी रहती है, वह अप्रमाद की ओर बढ़ता जाता है। भगवान् महावीर ने कहा है- 'सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अपमत्तस्स णत्थि भयं' - जो प्रमत्त है उसे सर्वत्र भय ही भय है और जो अप्रमत्त है, वह भय मुक्त है। भय का मूल कारण प्रमाद है। अन्यत्र एक स्थान में भगवान् महावीर ने प्रमाद को दुःख का मूल माना है। एक बार श्रमणों को एकत्रित कर उन्होंने पूछा- आर्यो! जीव किससे डरते हैं? गौतम आदि श्रमण निकट आए, वंदना की, नमस्कार किया, विनम्र भाव से बोले भगवन्! हम नहीं जानते, इस प्रश्न का क्या तात्पर्य है देवानुप्रिय को कष्ट न हो तो भगवान् कहें हम भगवान् के पास से यह जानने को उत्सुक हैं। भगवान् बोले- आय! जीव दुःख से डरते हैं। गौतम ने पूछा- भगवन्, दुःख का कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ? भगवान् गौतम ! दुःख का कर्ता है जीव और उसका कारण है प्रमाद । गौतम! भगवन्। दुःख का अंत कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ? भगवान् गौतम दुःख का अंत कर्ता है जीव और उसका कारण है अप्रमाद ११. आत्मोत्तापकरा वृत्तिः कषायः परिकीर्तितः । कायवाङ्गनसां कर्म योगो भवति देहिनाम् ॥ जो वृत्ति आत्मा को उत्तप्त करती है, उसे 'कषाय' कहा जाता है । मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को 'योग' कहा जाता है। ॥ व्याख्या ॥ कषाय का अर्थ है-आत्मा की उत्तप्ति वे चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ इनके अवान्तर भेद सोलह होते हैं। १. अनंतानुबंधी (तीव्रतम ) - क्रोध, मान, माया और लोभ । २. अप्रत्याख्यानी (तीव्रतर ) - क्रोध, मान, माया और लोभ । ३. प्रत्याख्यानी (तीव्र) -क्रोध, मान, माया और लोभ । ४. संज्वलन (सत्तामात्र ) - क्रोध, मान, माया और लोभ । इनका विलय नौवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है और सम्पूर्ण विलय दसवें गुणस्थान में होता है। अनंतानुबंधी कषाय का प्रभुत्व दर्शन मोह के परमाणुओं से जुड़ा होता है। इनके उदयकाल में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती अप्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में व्रत का प्रवेश नहीं होता। इसके अधिकारी सम्यकुदृष्टि हो सकते हैं, पर व्रती नहीं होते। प्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में चारित्र विकारक पुद्गलों का पूर्ण निरोध नहीं होता। इसका अधिकारी महाव्रती नहीं बन सकता। संज्वलन कषाय का उदय वीतराग चारित्र का बाधक है। १२. योगः शुभोऽशुभो वापि चतस्रो शुभा ध्रुवम् । निवृत्तिवलिता वृत्तिः, शुभो योगस्तपोमयः ॥ योग शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है और शेष चार सूक्ष्म प्रवृत्तियां अशुभ ही होती हैं निवृत्ति युक्त वर्तन शुभ योग कहलाता है और वह उप-रूप होता है। || व्याख्या || आत्मा शरीर से मुक्त नहीं है इसलिए वह प्रवृत्ति करती है। स्वतंत्र आत्मा में शरीरजन्य प्रवृत्ति नहीं होती । जहां प्रवृत्ति है वहां बंध है। प्रवृत्ति के शुभ और अशुभ दो रूप हैं। दोनों ही प्रवृत्तियों से आत्मा पुद्गलों को ग्रहण करती है और अपने साथ एकीभूत करती है। वे पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। मोक्ष है पुद्गलों का सर्वथा क्षय । वह निवृत्त अवस्था है। आत्मा के सूक्ष्म स्पन्दन का अनुमान करना कठिन है। बाहरी चेष्टाओं से उसकी प्रतिक्रिया जानी जा सकती है। अंतर्मन की क्रिया आकार, प्रकार, संकेत, गति, चेष्टा, भाषण आदि से जानी जा सकती है तो सूक्ष्म अध्ययन से अवचेतन मन का परिज्ञान क्यों नहीं हो सकता? समस्त प्रवृत्ति के हेतु हैं- शरीर, वाणी और मन इनकी प्रवृत्ति को योग कहा जाता हैं। योग स्थूल है, स्पष्ट है और सूक्ष्म प्रवृत्तियों का परिचायक भी है। आत्मा अमूर्त है अतः इन स्थूल प्रवृत्तियों से परिज्ञात नहीं हो सकती। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. १३. अविरतिर्दुष्प्रवृत्तिः, सुप्रवृत्तिस्त्रिधासवः। यथाक्रमं निवृत्तिश्च, कर्माऽकर्मविभागतः॥ अविरति, दुष्प्रवृत्ति, सुप्रवृत्ति, निवृत्ति-इनका कर्म और . अकर्म के आधार पर इस प्रकार विभाग होता है-प्रथम तीन कर्म हैं इसलिए उनसे कर्म का आसवन होता है। निवृत्ति अकर्म है इसलिए निरोधात्मक है, संवर है। १४.अशुभैः पुद्गलैर्जीवं, बध्नीतः प्रथमे उभे। तृतीयं खलु बध्नाति, शुभैरेभिश्च संसृतिः॥ अविरति और दुष्प्रवृत्ति अशुभ पुद्गलों से और सुप्रवृत्ति शुभ पुद्गलों से जीव को आबद्ध करती है। शुभ और अशुभ पुद्गलों का बंधन ही संसार है। १५.अशुभांश्च शुभांश्चापि, पुद्गलांस्तत्फलानि च। जो स्थितात्मा शुभ-अशुभ पुद्गल और उनके द्वारा प्राप्त विजहाति स्थितात्माऽसौ, मोक्षं यात्यपुनर्भवम्॥ होने वाले फल का त्याग करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है। फिर वह कभी जन्म ग्रहण नहीं करता। __ प्रवृत्ति चंचलता है और निवृत्ति स्थिरता। निवृत्ति-दशा में आत्मा अपने स्वरूप में ठहर जाती है। वहां शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं का सर्वथा निरोध हो जाता है। उस स्थिति में पुद्गलों का प्रवेश और उनका फल छूट जाता है। आत्मा मुक्त हो जाती है। मुक्त आत्माओं का जन्म-मरण नहीं होता। १६.अशुभानां पुद्गलानां, प्रवृत्त्या शुभया क्षयः। शुभ प्रवृत्ति से पूर्व अर्जित-बद्ध अशुभ पुद्गलों- पाप-कमों ____ असंयोगः शुभानाञ्च, निवृत्त्या जायते ध्रुवम्॥ का क्षय होता है। निवृत्ति से शुभ-अशुभ-दोनों प्रकार के कर्म पुद्गलों का संयोग भी रुक जाता है। १७.निवृत्तिः पूर्णतामेति, शैलेशीञ्च दशां श्रितः। . अप्रकम्पस्तदा योगी, मुक्तो भवति पुद्गलैः॥ जब निवृत्ति पूर्णता को प्राप्त होती है तब योगी शैलेशी दशा को प्राप्त होकर अप्रकंप बनता है और पुद्गलों से मुक्त हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ पूर्ण-निवृत्त स्थिति में पुद्गलों का ग्रहण सर्वथा निरुद्ध हो जाता है। पूर्वबद्ध कर्मों के निर्जरण से आत्मा अपने मौलिक स्वरूप में अवस्थित हो जाती है। अब उसके पास संसार में रहने का कोई कारण नहीं है। इसलिए वह निर्वाण को प्राप्त हो जाती है। जो प्राणी प्रवृत्ति में संलग्न होते हैं उनके लिए शुभाशुभ प्रवृत्तियों का क्रम अविच्छिन्न चलता रहता है। दोनों के मूलोच्छेद के बिना आवागमन का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता। . कर्म के क्षीण होने की प्रक्रिया है-सबसे पहले अविरति और दुष्प्रवृत्ति से व्यक्ति मुक्त बने। बुद्ध की साधना-पद्धति में शील को प्रथम स्थान दिया है। योग में यम और नियम की प्रमुखता है। महावीर महाव्रत और अणुव्रत की बात कहते हैं। सबका सार-सूत्र इतना ही है कि इनके द्वारा असत् प्रवृत्ति के प्रवाह को सबसे पहले अवरुद्ध किया जाए। अशुभ से क्रिया का मुंह मोड़कर उसे शुभ कर्म-प्रवृत्ति से जोड़ा जाए। शुभ प्रवृत्ति का कार्य होगा-शुभ पुद्गलों का अर्जन और बद्ध अशुभ कर्मों का निर्जरण। जैसे कुछ औषधियां स्वास्थ्य लाभ करती हैं और बल-संवर्द्धन भी। ठीक इसी तरह शुभ प्रवृत्ति का कार्य है। शुभ प्रवृत्ति जब फलाकांक्षा और वासना से शून्य होती है तब क्रमशः उससे निवृत्ति का पथ प्रशस्त होता है। अंततोगत्वा पूर्ण निवृत्ति की स्थिति साधक के जीवन में घटित होती है। १८.सम्यक्त्वं विरतिस्तद्वद्, अप्रमादोऽकषायकः। सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग- मैंने अयोगः पंचरूपेयं, निवृत्तिः कथिता मया॥ पांच प्रकार की निवृत्ति का निरूपण किया है। . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २३४ खण्ड-३ १९.तत्त्वे मोक्षे च धर्मे च, यथार्थः प्रत्ययः स्फुटम्। तत्त्व-जीव, अजीव आदि पदार्थ, मोक्ष-जीव की परमात्म सम्यक्त्वं तच्च जायेत, निसर्गादुपदेशतः॥ अवस्था, धर्म-मोक्ष साधन विषयक जो यथार्थ प्रतीति/ यथार्थ श्रद्धा है। उसकी प्राप्ति निसर्ग और अधिगम-दोनों प्रकार से होती है। . ॥ व्याख्या ॥ सम्यग्दर्शन का सिद्धांत समुदायपरक नहीं, आत्मपरक है। आत्मा अमुक मर्यादा तक मोह के परमाणुओं से वियुक्त हो जाती है, तीव्र कषाय-रहित हो जाती है, तब उसमें आत्मदर्शन की प्रवृत्ति का भाव जागृत होता है। यथार्थ में आत्मदर्शन ही सम्यग दर्शन है। सम्यग् दर्शन का व्यावहारिक रूप तत्त्व श्रद्धान है। साधक में कषाय की मंदता होते ही सत्य के प्रति रुचि तीव्र हो जाती है। उसकी गति अतथ्य से तथ्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अबोधि से बोधि की ओर, अमार्ग से मार्ग की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अक्रिया से क्रिया । की ओर तथा मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर हो जाती है। उसका संकल्प ऊर्ध्वमुखी और आत्मलक्षी हो जाता है।'' उसका संकल्प-सूत्र होता है : मैं अरिहंत की शरण लेता हूं। मैं सिद्ध की शरण लेता हूं। मैं साधु की शरण लेता हूं। मैं केवलिभाषित धर्म की शरण लेता हूं। सम्यग् दर्शन के आचार (पोषण देने वाली प्रवृत्तियां) आठ हैं : १. निःशंकित-सत्य में निश्चित विश्वास। २. निःकांक्षित-मिथ्या विचार के स्वीकार की अरुचि। ३. निर्विचिकित्सा सत्याचरण के फल में विश्वास। ४. अमूढदृष्टि-असत्य और असत्याचरण की महिमा के प्रति अनाकर्षण, अव्यामोह। । ५. उपबृंहण-आत्म-गुण की वृद्धि। ६. स्थिरीकरण-जो सत्य से डगमगा जाएं, उन्हें फिर से सत्य में स्थापित करना। ७. वात्सल्य-सत्य-धर्मों के प्रति सम्मान-भावना, सत्याचरण का सहयोग। ८. प्रभावना-प्रभावक ढंग से सत्य के माहात्म्य का प्रकाशन। सम्यक्त्व के पांच लक्षण : १. शम-कषाय उपशमन। २. संवेग-मोक्ष की अभिलाषा। ३. निर्वेद-संसार से विरक्ति। ४. अनुकम्पा-प्राणीमात्र के प्रति कृपाभाव, सर्वभूत मैत्री, आत्मौपम्य-भाव। ५. आस्तिक्य-आत्मा में निष्ठा। सम्यग्दर्शन का फल : गौतम स्वामी ने पूछा-'भगवन् ! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है?' भगवान ने कहा-'गौतम! दर्शन-सम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अंत होता है। दर्शन सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं। वह अनुत्तर ज्ञानधारा से आत्मा को भावित किए रहता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . २३५ अ.८ : बंध-मोक्षवाद यह आध्यात्मिक है। व्यावहारिक फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयु-बंध नहीं करता। सम्यक्त्व मिथ्यात्व का प्रतिपक्षी है। इसमें आत्मा और सत्य के प्रति आकर्षण होता है। अयथार्थता यहां नहीं रहती। यह सम्यक् को सम्यक् और असम्यक् को असम्यक् देखता है। असम्यक् से यह लगाव नहीं रखता। गीता की सात्त्विक बुद्धि सम्यक्त्व का ही रूप है। जो बुद्धि प्रवृत्ति (कर्म) और निवृत्ति (अकर्म), कर्तव्य और अकर्तव्य, किससे डरना और किससे नहीं डरना; बंध और मोक्ष इनको समझती है वह सात्त्विक बुद्धि है। २०.अनासक्तिः पदार्थेषु, विरतिर्गदिता मया। जागरूका भवेद् वृत्तिः, अप्रमादस्तथात्मनि॥ पदार्थों में जो अनासक्ति होती है, उसे मैंने 'विरति' कहा है। आत्मोपलब्धि के प्रति जो जागरूक वृत्ति होती है, उसे मैं 'अप्रमाद' कहता हूं। २१.अशुभस्यापि योगस्य, त्यागो विरतिरिष्यते। अशुभ योग का त्याग करना भी विरति कहलाता है। वह देशतः सर्वतश्चापि, यथाबलमुरीकृता॥ विरति यथाशक्ति-अंशतः या पूर्णतः स्वीकार की जाती है। ॥ व्याख्या ॥ वैराग्य से व्यक्ति अनासक्त होता है। अनासक्त व्यक्ति का पदार्थों से आकर्षण सहज ही छूट जाता है। वह केवल तत्कालिक आसक्ति ही नहीं छोड़ता किन्तु उसके अंकुर को जला डालता है। त्याग उसका उपाय है। त्यागी व्यक्ति का मन निःस्पृह बन जाता है। वह भविष्य में भी आसक्ति का संकल्प नहीं करता। त्याग के बिना अविरति का मार्ग बन्द नहीं होता। पदार्थों के उपभोग व अनुपभोग का प्रश्न मुख्य नहीं है, मुख्य बात है अविरति की। अविरति उपभोग के बिना भी जीवित रहती है। त्याग उसे जीवित नहीं रहने देता। - मुनि अविरति का सर्वथा त्याग कर देते हैं। उन्हें जो मिले उसी में संतुष्ट रह जाते हैं। लेकिन सभी व्यक्ति मुनि नहीं होते। उनके लिए यथाशक्य अविरति के परिहार का विधान है। वे क्रमशः विरति की ओर बढ़े और अविरति को कम करें। २२. क्रोधो मानं तथा माया, लोभश्चेति कषायकः। . 'एषां निरोध आख्यातोऽकषायः शान्तिसाधनम्॥ क्रोध, मान, माया और लोभ-इन्हें कषाय कहा जाता है। इनके निरोध को मैंने 'अकषाय' कहा है। वह शांति का साधन है। २३. सर्वासाञ्च प्रवृत्तीनां, निरोधोऽयोग इष्यते। अयोगत्वं समापन्ना, विमुक्तिं यान्ति योगिनः॥ सब प्रकार की प्रवृत्तियों के निरोध को 'अयोग' कहता हूं। अयोग अवस्था को प्राप्त योगी मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। २४. पूर्व भवति सम्यक्त्वं, विरतिर्जायते ततः। - अप्रमादोऽकषायश्चाऽयोगो मुक्तिस्ततो ध्रुवम्॥ पहले सम्यक्त्व होता है, फिर विरति होती है। उसके पश्चात् क्रमशः अप्रमाद, अकषाय और अयोग होता है। अयोगावस्था प्राप्त होते ही आत्मा की मुक्ति हो जाती है। २५.आध्यात्मिकविकासस्य, कोटिद्वयमुदाहृतम्। सम्यक'व्रतमप्रमादः, प्रथमा कोटिरिष्यते॥ १. सम्यक्त्व। २. सम्यक्त्व को उपलब्ध होनेवाला चौथे गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है। व्रत को उपलब्ध होनेवाला पांचवें आध्यात्मिक विकास की दो कोटियां बतलाई गई हैं। पहली कोटि में तीन तत्त्व हैं-सम्यक्त्व, व्रत और अप्रमादार अथवा छठे गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है। अप्रमाद दशा को उपलब्ध होने वाला सातवें गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २३६ २६. ततश्चौपशमिकी श्रेणिर्वा क्षायिकी भवेत् । उपशान्तः कषायः स्याद्, क्षीणो वा कोटिरग्रिमा ।। खण्ड - ३ है आठवें गुणस्थान से विकास के दो मार्ग है। एक औपशमिक श्रेणी और दूसरी है क्षपक श्रेणी। जो कषायों का उपशमन करते हुए आगे बढ़ता है, उसकी श्रेणी औपशमिक होती है जो कषायों को क्षीण करता हुआ आगे बढ़ता है, उसकी श्रेणी क्षायिक होती है। ॥ व्याख्या || विकास के दो रूप हैं- आत्मिक व भौतिक । भौतिक विकास के विविध क्षेत्र है- शारीरिक, आर्थिक, शैक्षणिक, शासनात्मक आदि। आत्मिक विकास क्रमशः विकास के चरणों का स्पर्श करते हुए चरम विकास पूर्णता तक पहुंचना है। वहां पहुंचने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। आत्मा अपने मौलिक स्वरूप में अवस्थित होकर सदा-सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है फिर उसका आवागमन - संसार परिभ्रमण शांत हो जाता है। भौतिक विकास की कोई मर्यादा नहीं है, न पूर्णता है और न शांति है वह सदा अतृप्त रहता है इसलिए इस सचाई की अनुभूति के बाद आत्मा में एक सहज छटपटाहट होती है, अपने स्वरूप-दर्शन की। अनेक व्यक्ति संसार का सम्यक् निरीक्षण करने के बाद उससे मुक्त होने के लिए एक नये पथ का चुनाव कर उस पर चल पड़ते हैं। अतीत में भी अनेक साधकों ने सत्य का अनुभव किया है, विकास के चरम शिखर को छुआ है, वर्तमान में भी उस पर आरूढ़ होकर चल रहे हैं और भविष्य में भी चलते रहेंगे। । भगवान् महावीर ने मेघकुमार के सामने आध्यात्मिक विकास की दो कोटियों का निरूपण किया है। पहली कोटि में मिथ्यात्व अविरत और प्रमाद से मुक्ति है जब तक कोई व्यक्ति मिथ्यात्व मिथ्या धारणा से मुक्त नहीं होता तब तक वह संसार के कीचड़ से बाहर नहीं निकल सकता। यह मिथ्यात्व का संस्कार अनंत जन्मों से अर्जित है-अनित्य में नित्यत्व की बुद्धि, अशुचि में शुचित्व का बोध तथा अनात्मा में आत्मा का भाव। इस चक्र से बाहर निकलना कठिन ही नहीं अपितु कठिनतम है। अनंत आत्माओं का इसी में आदि और अंत होता रहता है। संत से शिष्य ने पूछा- मैं परमात्मा होना चाहता हूं, क्या मैं हो सकता हूं? गुरु ने कहा- 'मैं को छोड़ दो तो हो सकते हो, दूसरे-तीसरे एवं सभी ने यही प्रश्न किया और सबको यही उत्तर दिया। तब किसी ने पूछा- आप हो सकते हैं, गुरु ने कहा- मैं भी हो सकता हूं-'मैं' को छोड़कर । आखिर में गुरु ने कहा- 'मैं' का अर्थ तुम समझे नहीं। 'मैं का अर्थ है - मोह, अहंकार, मैं और मेरापन 1 बस, यही मिथ्यात्व है। इससे मुक्त होकर ही साधक व्रत-विरति की ओर अग्रसर होता है विरति का अर्थ है-बाह्य विषयों से विरक्त होना। जिसका सीधा अर्थ है - वैराग्य यानी पदार्थों के अति जो अनुरक्ति है, उससे दूर होना। पदार्थों का आकर्षण, सुखसुविधा का आकर्षण आत्मा के प्रति, परम तत्त्व के प्रति आकृष्ट नहीं होने देता। दोनों एक दूसरे के विरोधी है। विरत अवस्था में पदार्थों विषयों में आसक्ति छूट जाती है आत्मा की दिशा में बढ़ने का मार्ग खुल जाता है। लेकिन वह मार्ग पूर्ण नहीं खुलता। मन कभी पदार्थों की ओर तथा कभी आत्मा की ओर चलता रहता है। इसके लिए साधक को बड़ा कठोर साहसिक कदम उठाना होता है। अपने मन पर उसे प्रहरी बनकर खड़ा रहना होता है, प्रतिपल जागृत होकर आगे बढ़ने का प्रयास जारी रखना होता है। इस अस्थिरता का कारण होता है-प्रमाद। प्रमाद का आध्यात्मिक भाषा में अर्थ है - आत्मा के प्रति अनुत्साह, विषयों के प्रति उत्साह । प्रमाद की मुक्ति के लिए अप्रमाद का अवलंबन अपेक्षित है। अनन्य के प्रति आकर्षण इतना सघन होना शुरू हो जाता है, तब उसे अन्य किसी बात का ख्याल नहीं रहता। वह सतत उसी में डूबा रहने लगता है। यह धारा जब विकास की अग्रिम अवस्था को छूने लगती है तब वह दो भागों-दो श्रेणियों में विभक्त हो जाती है। विकास की दृष्टि से अप्रमाद का स्थान सातवां है। सातवें से दो पथ बनते हैं - एक उपशम श्रेणि का और दूसरा क्षायक श्रेणि का। उपशमन श्रेणि से जाने वाले ग्यारहवें में आकर रुक जाते हैं और कुछ काल के अनन्तर वे वहां से च्युत होकर पुनः नीचे चले आते हैं। जो साधक क्षायक श्रेणि के पथ से प्रयाण करते हैं वे सीधे दसवें से बारहवें में आरूढ़ हो जाते हैं। इसके बाद तेरहवें व चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सहजावस्था में अवस्थित हो जाते हैं। यह आत्मा के पूर्ण विकास की स्थिति है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २३७ अ. ८ : बंध- मोक्षवाद गुणस्थान' चौदह हैं। गुणस्थान है-आत्मा के क्रमिक विकास का पथ अविकास का कारण है-कर्म गीता की दृष्टि में प्रकृति । प्रकृति की तीन अवस्थाएं हैं-सत्त्व, रज और तम तीनों की अतीत अवस्था है गुणातीत । कारण शरीर मूल है। इसी के कारण स्थूल शरीर का निर्माण होता है। गुणातीत अवस्था में कारण शरीर की भी समाप्ति हो जाती है। जैसे-जैसे साधक साधना की उच्च अवस्था में या ध्यान की गहराई में आगे से आगे आरूढ होता रहता है वैसे-वैसे उसका मोह क्षय होता चला जाता है और वह पूर्ण विशुद्ध दशा में स्थित हो जाता है। मोह आत्मा को विकृत करता है उसके राग और द्वेष- ये दो रूप हैं। इन दोनों के चार रूप बनते हैं-क्रोध, अहंकार, माया और लोभ गुणस्थानों के आरोहण में क्रमशः ये शिथिल व नाम शेष होते चल जाते हैं ग्यारहवें गुणस्थान में इनका संपूर्ण उपशमन होता है, नाश नहीं होता। बारहवें में संपूर्ण विलय-क्षय हो जाता है। २७. अमनोज्ञसमुत्पादः, दुःखं भवति समुत्पादमजनाना, न हि जानन्ति देहिनाम् । संवरम् ॥ २८. रागो द्वेषश्च तद्धेतुः, वीतरागदशा सुखम् । रत्नत्रयी च तद्धेतुः एष योगः समासतः ॥ । अमनोज्ञ स्थिति का समुत्पाद/ उत्पत्ति दुःख है जो इस समुत्पाद को नहीं जानते, वे संवर दुःख निरोध को भी नहीं जानते। - २९. भद्रं भद्रं तीर्थनाथ ! तीर्थे नीतोऽस्म्यहं त्वया । भावितात्मा स्थितात्मा च त्वया जातोऽस्मि सम्प्रति ॥ दुःख के हेतु हैं - राग और द्वेष | वीतराग दशा सुख है और उसका हेतु है -रत्नत्रयी- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चारित्र । योग का यह मैंने संक्षिप्त निरूपण किया है। - || व्याख्या || भगवान् महावीर ने कहा- जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। यह संसार ही दुःख है, जहां प्राणी क्लेशों को प्राप्त होते हैं। जरा, रोग, मृत्यु और अप्रिय वस्तुओं का संयोग दुःख है। व्यक्ति दुःखों के कारणों को जान लेने पर ही दुःख मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। दुःख मुक्ति का उपाय है-संवर (निवृत्ति) अकर्म के बिना दुःख का निरोध नहीं होता । दुःखोत्पन्न करने वाली मूल प्रवृत्तियां हैं रागात्मक और द्वेषात्मक इनका न होना सुख है। सुख की प्राप्ति के लिए रत्नत्रयी का आलंबन अपेक्षित है। सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र - यह रत्नत्रयी है। तीनों आत्मा के गुण हैं और आत्मा के निकटतम सहचारी है। आत्मा का निश्चय सम्यग् दर्शन, आत्मा का बोध सम्यग् ज्ञान और आत्म-स्थिरता सम्यग् चारित्र है। । महात्मा बुद्ध के चार आर्य सत्य हैं-दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निरोध का उपाय। दुःख समुदाय में भगवान् बुद्ध ने बावश निदान बताये हैं। द्वादश निदान का निरोध दुःख निरोध है भगवान् महावीर की दृष्टि में राग और द्वेष का निरोध ही दुःख का अवसान है दुःख निरोध का उपाय भगवान् बुद्ध की दृष्टि में अष्टांगिक मार्ग है और भगवान् महावीर की दृष्टि में रत्नत्रयी है। बुद्ध कहते हैं-चार आर्य सत्यों के ज्ञान से निर्वाण होता है। भगवान् महावीर कहते हैं - रत्नत्रयी के ज्ञान और अनुसरण से मुक्ति होती है। मेघः प्राह मेघ बोला हे तीर्थनाथ! अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ। आपके प्रसाद से मैं तीर्थ में आ गया हूं और आपके अनुग्रह से मैं अब भावितात्मा और स्थितात्मा हो गया ॥ व्याख्या ॥ मोह का निरसन मोह से नहीं होता। अज्ञान का अंधकार ज्ञान की ज्योति के सामने क्षीण हो जाता है। खून से सना वस्त्र खून से शुद्ध नहीं होता। ममत्व का आवरण निर्ममत्व से हटता है। बंध से बंध का क्षय नहीं होता। भगवान् महावीर .से दुःख, दुःख - मुक्ति का उपाय, बंध, मोक्ष, अहिंसा आदि का विशद विवेचन सुन मेघ की निमीलित आंखें खुल गयीं। वह सचेतन हो गया। मोह का आवरण हटने लगा। ज्ञान के प्रकाश के सामने तम नष्ट हो गया। मेघ के लड़खड़ाते पैर पुनः स्थिर हो गए। उसने अपने हृदय की गांठ भगवान् के सामने खोल दी। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २३८ खण्ड:३ ३०. नष्टो मोहो गतं क्लैव्यं, शुद्धा बुद्धिः स्थिरं मनः। अब मेरा मोह नष्ट हो गया है, क्लैव्य चला गया है, बुद्धि पुनर्मोनं तवाभ्यर्णे, स्वीचिकीर्षामि साम्प्रतम्॥ शुद्ध हो गयी है और मन स्थिर बन गया है। अब मैं पुनः आपके पास श्रामण्य स्वीकार करना चाहता हूं। ३१.प्रायश्चित्तञ्च वाञ्छामि, पूर्वमालिन्यशद्धये। चेतः समाधये भूयः, कामये धर्मदेशनाम्॥ पहले जो मेरे मन में कलुष भाव आया, उसकी शुद्धि के लिए मैं प्रायश्चित्त करना चाहता हूं और चित्त की समाधि के लिए आपसे पुनः धर्म-देशना सुनना चाहता हूं। ॥ व्याख्या ॥ मेघकुमार का मन श्रामण्य के पहले ही दिन कुछेक तात्कालिक कारणों से अस्थिर हो गया। वह घर जाने के लिए तत्पर होकर भगवान् महावीर के पास आया और अपनी सारी भावना उनके सामने रखी। भगवान् महावीर ने उसके मानस को पढ़ा, उतार-चढ़ाव पर ध्यान दिया और उसे श्रामण्य में पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रतिबोध दिया। . भगवान् की वाणी सुन मेघकुमार का आत्म-चैतन्य जगमगा उठा। उसने दुःख, दुःख-हेतु, मोक्ष और मोक्ष-हेतु-इन चारों को सम्यक् जान लिया और पुनः श्रामण्य में स्थिर हो गया। अब उसकी आत्मा इतनी जागृत हो चुकी थी कि उसने अपने पूर्वकृत मनोमालिन्य की शुद्धि के लिए भगवान् से प्रायश्चित्त की याचना की। वह जान गया कि प्रायश्चित्त की आग में जले बिना सोना कंचन नहीं होता। उसने प्रायश्चित्त लिया और वह भगवान् के शासन में पुनः सम्मिलित हो गया। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे . बंध-मोक्षवादनामा अष्टोऽध्यायः। । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-९ मिथ्या-सम्यग-ज्ञान-मीमांसा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या - सम्यग् - ज्ञान-मीमांसा ज्ञेय अनंत है और ज्ञान भी अनंत है फिर भी हर व्यक्ति में अनंत ज्ञान का विकास नहीं है। जिसका ज्ञान सीमित है, उसके लिए ज्ञेय भी सीमित हो जाता है। यह सीमा करने वाला है आवरण। आवरण की तरतमता का अर्थ है ज्ञान के विकास की तरतमता जितना आवरण, उतना अज्ञान जितना आवरण का विलय, उतना ज्ञान का विकास। स्वरूप की दृष्टि से ज्ञान प्रमाण होता है। विषय ग्रहण की दृष्टि से वह प्रमाण भी होता है, अप्रमाण भी होता है, सम्यग् भी होता है, मिथ्या भी होता है। सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन मनुष्य को विकास के शिखर तक ले जाते हैं। ज्ञान विकास का आदि-बिन्दु है । वह क्रिया के साथ जुड़कर व्यक्ति को शिखर तक पहुंचा देता है। प्रस्तुत अध्याय में ज्ञान और अज्ञान की विविध अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। मेघः प्राह १. ज्ञानं प्रकाशकं तत्र, मिथ्यासम्यक्त्वकल्पना । क्रियते कोऽत्र हेतुः स्याद, बोद्धुमिच्छामि संप्रति ॥ मेघ बोला- ज्ञान प्रकाश करने वाला है। फिर मिथ्या ज्ञान और सम्यग्ज्ञान ऐसा जो विकल्प किया जाता है, उसका क्या कारण है? अब मैं यह जानना चाहता हूं। ॥ व्याख्या || डेल्फी के मोनूर में देववाणी हुई कि सुकरात महान् ज्ञानी है। एथेंस वासी इससे बहुत प्रसन्न हुए। वे सुकरात के पास आए। उन्होंने देववाणी के संबंध में बताया। सुकरात ने कहा- नहीं, मैं अज्ञानी हूं। मैं जब नहीं जानता था तब मैं अपने को ज्ञानी समझता था और जब से जानने लगा हूं तब से अपने को अज्ञानी समझता हूं।' एक यह अज्ञान है और एक अज्ञान ज्ञान के पूर्व का होता है। दोनों में बड़ा अन्तर है ज्ञान के पूर्व का अज्ञान ज्ञान का आवरण है, ज्ञान का अभाव है और ज्ञान के अनंतर का अज्ञान आवरण या अभाव नहीं है। किन्तु नहीं जानना है। जो देखा है, अनुभव किया है, जाना है वह इतना महान् है कि उसके संबंध में कहना कठिन है। जिस पर अज्ञान का आवरण अधिक होता है उसे विवेक नहीं होता। अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना उसके लिए अशक्य होता है। वह तमोमय जीवन जीता है। वह नारकीय जीवन है। इसलिए संतजनों ने मानव को आलोक की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा- जो उस परम सत्य को जान लेता है उसके हृदय की ग्रंथि भिन्न हो जाती है, संशय छिन्न हो जाते हैं और समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं। 'नाणं पयासकरं' ज्ञान प्रकाशक है, यह बहुत सारवान् सूत्र है। सम्यग्ज्ञान के आलोक में जन्म-जन्मान्तरों का संचित तम एक क्षण में नष्ट हो जाता है। भगवान् प्राह २. ज्ञानस्यावरणेन स्याद, अज्ञानं तत्प्रभावतः । अज्ञानी नैव जानाति, वितथं वा यथातथम् ॥ भगवान् ने कहा- ज्ञान पर आवरण आने से अज्ञान होता है। उसके प्रभाव से अज्ञानी जीव यथार्थ अथवा अयथार्थ - कुछ भी नहीं जान पाता। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. २४१ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा ३. नैतद् विकुरुते लोकान्, नापि संस्कुरुते क्वचित्। यह आवरण जीवों को न विकृत बनाता है और न संस्कृत। केवलं सहजालोकं, आवृणोति निजात्मनः॥ यह केवल अपनी आत्मा के सहज प्रकाश को ढकता है। १. ज्ञानस्यावरणं यावद्, भावशुद्ध्या विलीयते। भावों की विशुद्धि के द्वारा जितना ज्ञान का आवरण अव्यक्तो व्यक्ततामेति, प्रकाशस्तावदात्मनः॥ विलीन होता है, उतना ही आत्मा का अव्यक्त प्रकाश व्यक्त हो जाता है। ५. पदार्थास्तेन भासन्ते, स्फुटं देहभृताममी। ज्ञानमात्रमिदं नाम, विशेषस्याऽविवक्षया।। आत्मा के उस प्रकाश से संसार के ये पदार्थ स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होते हैं। यदि उसके विभाग न किए जाएं तो उस प्रकाश को केवलज्ञान ही कहा जा सकता है। . ॥ व्याख्या ॥ ज्ञान के स्वरूप को समग्र दृष्टिकोण से देखें तो वह एक है। उसके विभाग नहीं होते। जहां विभाग किये जाते हैं वहां उसका प्रकाश कुछ सीमाओं में बंध जाता है। बिजली का प्रकाश बल्ब की ही शक्ति पर निर्भर करता है। वैसे ही ज्ञान आवरण की तारतमता पर आधारित है। वह ज्ञान है लेकिन पूर्ण विशुद्ध नहीं। अविशुद्धि के आधार पर उसके पांच विभाग होते हैं। पांचवां विभाग पूर्ण शुद्ध है। १. मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान। २. श्रुतज्ञान-शब्द, संकेत और स्मृति से होने वाला ज्ञान। : ३. अवधिज्ञान-मूर्त द्रव्यों को साक्षात् करने वाला ज्ञान। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसकी अनेक अवधियां-मर्यादाएं हैं, इसलिए इसे अवधिज्ञान कहा जाता है। ४. मनःपर्यवज्ञान-मन की पर्यायों को साक्षात् जाननेवाला ज्ञान। इससे दूसरे के मन को पढ़ा जा सकता है। ५. केवलज्ञान-पूर्ण शुद्ध ज्ञान। ज्ञानावरणीय कर्म के पूर्ण क्षय होने पर पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जाता है। उस स्थिति में आत्मा के लिए कोई अज्ञेय नहीं रहता। आवत दशा में ज्ञान अपूर्ण रहता है। सूर्य के साथ इसकी तुलना घटित है। जैसे बादलों से ढके हुए सूर्य का प्रकाश स्पष्ट नहीं होता और बिना बादलों के प्रकाश स्पष्ट होता है, वैसे आवृत दशा. में आत्मा का ज्ञान स्पष्ट नहीं होता। ज्यों-ज्यों आवरण हटता है, त्यों-त्यों प्रकाश होता जाता है। - 'केवल' 'शब्द के पांच अर्थ हैं-असहाय, शुद्ध, सम्पूर्ण, असाधारण और अनंत। केवलज्ञान का विषय सब द्रव्य और पर्याय हैं। कुछ आचार्य इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि केवलज्ञानी वह है जो आत्मा को सर्वरूपेण जानता है। - उपर्युक्त पांच ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान परोक्ष और अंतिम तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष होता है, वह परोक्ष और जो आत्म-सापेक्ष होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है। वस्तुवृत्त्या ज्ञान एक ही है-केवलज्ञान। आवरणों की अपेक्षा से उसके पांच भेद होते हैं। जब आवरण पूर्ण रूप से टूट जाता है तब सम्पूर्ण ज्ञान- केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। ६. आत्मा ज्ञानमयोऽनन्तं, ज्ञानं नाम तदुच्यते। अनन्तान् गुणपर्यायान, तत्प्रकाशितुमर्हति॥ आत्मा ज्ञानमय है। उसका ज्ञान अनन्त है। वह अनन्त गुण और पर्यायों को जानने में समर्थ है। ॥ व्याख्या ॥ गुण-द्रव्य का सहभावी धर्म, अविच्छिन्न रूप से द्रव्य में रहने वाला धर्म। गुण द्रव्य से कभी पृथक् नहीं होता। पर्याय-द्रव्य की परिवर्तनशील अवस्थाएं। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २२२ खण्ड-३, ७. आवारकघनत्वस्य, तारतम्यानुसारतः। प्रकाशी चाऽप्रकाशी च, सवितेव भवत्यसौ॥ आवरण की सघनता के तारतम्य के अनुसार यह आत्मा सूर्य की भांति प्रकाशी और अप्रकाशी होता है। ८. उभयालम्बनं तत्तु, संशयज्ञानमुच्यते। वेदनं विपरीतं तु, मिथ्याज्ञानं विपर्ययः॥ ___ वह खंभा है या पुरुष-इस प्रकार का उभयालंबी ज्ञान 'संशयज्ञान' कहलाता है। जो पदार्थ जैसा है, उससे विपरीत जानना विपर्यय नामक मिथ्याज्ञान है। ९. तार्किकी दृष्टिरेषाऽस्ति, दृष्टिरागमिकी परा। यह तार्किक दृष्टि का निरूपण है। आगमिक दृष्टि का निरूपण मिथ्यादृष्टेभवज्ज्ञानं, अज्ञानं तदपेक्षया॥ उससे भिन्न है। उसके अनुसार मिथ्यादृष्टि अथवा असत्-पात्र की अपेक्षा से वह ज्ञान अज्ञान कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ आत्म-ज्ञान निर्धान्त होता है। वह परापेक्ष नहीं है। जहां दूसरों की अपेक्षा रहती है. वहां न्यूनता भी रहती है। साधन, क्षेत्र आदि की अनुकूलता में वस्तु का परिज्ञान सम्यक् हो सकता है। लेकिन जहां कुछ कमी रहती है, वहां वह सम्यक् नहीं होता। संशय और विपरीत ज्ञान इसलिए सम्यक् ज्ञान की कोटि में नहीं आते। यह निरूपण दार्शनिक है, आगमिक-शास्त्रीय नहीं। आगम की भाषा में जो मिथ्यादृष्टि है, वह सम्यग् ज्ञान का पात्र नहीं है; क्योंकि उसे स्व-भाव में आनंद नहीं आता। मिथ्यादृष्टि के ज्ञान-चेतना होने का निषेध पंचाध्यायी में मिलता है। ज्ञान अपने आप में न सम्यक् होता है और न असम्यक्। वह पात्र की अपेक्षा से वैसा बनता है। ___ जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होगा उसका ज्ञान भी मिथ्या होगा और जो सम्यक्दृष्टि होगा उसका ज्ञान भी सम्यक् होगा। ज्ञान व्यक्ति की पात्रता पर निर्भर करता है। आगमों में कहा है कि एक ही श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या और सम्यक्दृष्टि के लिए सम्यक् बनता है-परिणत होता है। इसीलिए जैन परंपरा में 'दर्शन' (दृष्टि) की विशुद्धि पर बहुत बल दिया है। जिसका दर्शन सही नहीं होता उसका ज्ञान भी सही नहीं होता। १०.आत्मीयेषु च भावेषु, नात्मानं यो हि पश्यति। जो आत्मीय भावों में आत्मा को नहीं देखता और तीव्र तीव्रमोहविमूढात्मा, मिथ्यादृष्टिः स उच्यते॥ मोह-अनंतानुबंधी कषाय के उदय से जिसकी आत्मा विमूढ है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ मोह-कर्म की सोलह मुख्य कर्म-प्रकृतियां हैंअनंतानुबंधी-क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ। प्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ। संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभ। मिथ्यादृष्टि में अनंतानुबंधी मोह का तीव्र उदय रहता है। मोह की अल्प मात्रा भी आत्म-विकास में बाधक है। जहां तीव्र मोह होता है, वहां आत्म-विकास का स्वप्न देखना भी असंभव है। मोह आत्मा को विमूढ़ किए रखता है। विमूढ़ व्यक्ति न सम्यक् देखता है, न सम्यक् जानता है और न सम्यक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २४३ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा आचरण करता है। वह विभाव को अपना मानता है और वहीं चिपका रहता है। स्वभाव की ओर उसकी दृष्टि स्फुरित नहीं होती। आचार्य यशोविजयजी कहते हैं कि मोह के इस मंत्र ने समग्र जगत् को अंधा बना रखा है। पर-भावों में यह मेरा है, मैं इसका हूं, इसी को उलटकर यों कह दिया जाए कि यह मेरा नहीं है और मैं इसका नहीं हूं तो वह व्यक्ति मोहजित् हो जाता है। . ११.यथार्थनिर्णयः सम्यग-ज्ञानं प्रमाणमिष्यते। वस्तु का यथार्थ निर्णय करने वाला सम्यग् ज्ञान 'प्रमाण' दृष्टिः प्रामाणिकी चैषा, दृष्टिरागमिकी परा॥ कहलाता है। यह प्रमाण-मीमांसा की दृष्टि है और आगमिक दृष्टि इससे भिन्न है। १२.सम्यग्दृष्टेरवबोधो, भवेज्ज्ञानं तदीक्षया। सम्यग-दृष्टि व्यक्ति का ज्ञान सत-पात्र की अपेक्षा से धुतमोहो निजं पश्यन्, सम्यग्दृष्टिरसौ भवेत्॥ सम्यग्-ज्ञान कहलाता है। जिसका दर्शनमोह विलीन हो गया है और जो आत्मा को देखता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है। ॥ व्याख्या ॥ अनंतानुबंधी मोह का अनुदय होने पर सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यक् दृष्टि में 'स्व' और 'पर' का विवेक जागृत हो जाता है। वह 'स्व' को जान लेता है, 'पर' में उसकी अभिरुचि नहीं होती। गृहस्थ जीवन में रहता हुआ भी वह निर्लिप्त-सा जीवन जीता है। सम्यक्दृष्टि जीवड़ा, करै कुटुम्ब प्रतिपाल। अंतर में न्यारा रहै, (जिम) धाय खिलावै बाल॥ सम्यक्दृष्टि अंतरात्मा है। वह बाहरी क्रिया की प्रतिक्रिया अपने ऊपर नहीं होने देता। वह कार्य करता हुआ भी मन से पृथक् रहता है। समाधिशतक में पूज्यपाद लिखते हैं-बुद्धि में आत्मा के अतिरिक्त किसी भी कार्य को चिरकाल तक टिकाए न रखें। आवश्यकतावश यदि कोई कार्य करना हो तो शरीर और वाणी से करें, किन्तु मन का संयोजन न करें। अपने कार्य के लिए कुछ कहना हो तो वह कहकर उसको भूल जाएं। सुखी और सरल जीवन जीने की इससे बढ़ कर और कोई कला नहीं है। मनुष्य इस संभव को असंभव मान परिस्थितियों के हाथों में अपना अस्तित्व सौंप देता है। मनुष्य स्वयं अपना निर्माता है। सम्यग्दर्शन और कुछ नहीं, स्व का निर्माण है, दर्शन है। १३.पदार्थज्ञानमात्रेण, न ज्ञानं सम्यगुच्यते। पदार्थों को जान लेने मात्र से ज्ञान को सम्यग्ज्ञान नहीं कहा आत्मलीनस्वभावं यत्, तज्ज्ञानं सम्यगुच्यते॥ जा सकता। जिस ज्ञान का स्वभाव आत्मा में लीन होना है, वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ . विभिन्न व्यक्तियों का विभाग किया जाए तो वे दो रूपों में विभक्त हो सकते हैं-बौद्धिक-ज्ञानी और आत्मज्ञानी। बौद्धिक ज्ञान की दृष्टि से एक साधक दुर्बल हो सकता है, और आत्मज्ञान की अपेक्षा से एक बुद्धिजीवी भी। बौद्धिक ज्ञान आत्मा की दृष्टि में हेय है। वह व्यक्ति को छोटे-छोटे घरौंदों में बांधता है; जबकि आत्मज्ञान मुक्त करता है। बौद्धिक ज्ञान एक प्रकार का आवरण है, जो आत्मा का स्पष्ट या अस्पष्ट दर्शन भी नहीं करा सकता। अज्ञान की कारा से मुक्त होने पर शिष्य गा उठता है-मैं इसलिए गुरु को नमस्कार करता हूं, जिन्होंने अज्ञान-तिमिर से अंधे 'व्यक्तियों की आंखों में ज्ञान-रूपी अंजन आंज कर दिव्य चक्षु प्रदान किए हैं। जो ज्ञान अज्ञान को नष्ट नहीं करता वह ज्ञान ही नहीं है। दवा रोग-नाश के लिए दी जाती है। यदि वह रोग को बढ़ाये तो उसका क्या प्रयोजन है? इसी प्रकार यदि ज्ञान मुक्त-स्वतंत्र नहीं करता है तो वह ज्ञान भी क्या है ? 'सा विद्या या विमुच्यते'-विद्या वही है जो व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करे। इसलिए वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान की कोटि में आता है, जो आत्मलीन होकर आत्मा को बंधन-मुक्त करता है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २४४ खण्ड-३ १४. अनन्तधर्मकं द्रव्यं, ज्ञेयं धर्मावुभौ स्फुटम्। अनन्त धर्मात्मक-अनन्त विरोधी युगलात्मक द्रव्य ज्ञेय होता सामान्यञ्च विशेषश्च, द्रव्यं तदुभयात्मकम्॥ है। अनन्त धर्मों में दो धर्म प्रमुख हैं-सामान्य और विशेष। द्रव्य केवल सामान्यात्मक अथवा केवल विशेषात्मक नहीं होता। वह उभयात्मक-सामान्य-विशेषात्मक होता है। १५.सामान्यग्राहकं विशेषग्राहकं ज्ञानं, संग्रहो नय ज्ञानं, व्यवहारनयो इष्यते। मतः॥ जो सामान्य को ग्रहण करता है, जानता है, वह संग्रह नय कहलाता है। जो विशेष को ग्रहण करता है, जानता है, वह व्यवहार नय कहलाता है। १६.उभयग्राहकं ज्ञानं, नैगमो नय इष्यते। सामान्यञ्च विशेषश्च, यतो भिन्नो न सर्वथा॥ जो सामान्य और विशेष-दोनों को ग्रहण करता है, जानता है, वह नैगम नय है। इसका तात्पर्य है-सामान्य और विशेष सर्वथा भिन्न नहीं हैं। जापा १७.वर्तमानक्षणग्राहि, ऋजुसूत्रं नयो भवेत्। शब्दाश्रयास्तु शब्दाद्याः, पर्यायमाश्रिताः नया॥ जो वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत-ये तीनों शब्दाश्नायी पर्यायार्थिक नय हैं। १८.पूर्व निक्षिप्यते वस्त. तन्नये नाधिगम्यते। प्रमाणेनाऽपि वीक्षा स्याद, सकलादेशमाश्रिता॥ पहले वस्तु का निक्षेप-पर्याय के अनुरूप बाह्य विन्यास किया जाता है। फिर उसे नय के द्वारा जाना जाता है। प्रमाण के द्वारा होने वाला वस्तु का ज्ञान सकलादेश' कहलाता है। १९.नयदृष्टिरनेकान्तः, स्याद्वादस्तत्प्रयोगकृत्। विभज्यवाद इत्येष, सापेक्षो. विदुषां मतः॥ वस्तु के एक धर्म-विशेष को जानने वाली नयदृष्टि का नाम है अनेकांत। उसका वचनात्मक प्रयोग स्यादवाद, विभज्यवाद अथवा सापेक्षवाद है। ॥ व्याख्या ॥ पदार्थ अपने में कितने तथ्यों को समेटे हुए हैं, यह जानना सहज नहीं है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी असफल रहे हैं। उसके विराट् दर्शन के सामने वे बौने साबित हुए हैं। भले, वे हार माने या न मानें किन्तु इतना स्पष्ट है कि वे उसकी पूर्ण थाह नहीं पा सकते। उसकी थाह पाने का एक ही मार्ग है कि हमारे पास पूर्ण ज्ञान हो। पूर्ण ज्ञान-कैवल्य ज्ञान में वस्तु का संपूर्ण रूप प्रतिभासित हो सकता है। आत्मद्रष्टाओं ने उसे जाना है, लेकिन उसके अनंत धर्मों को प्रतिपादन में वे भी समर्थ नहीं हुए है। इसका कारण बहुत स्पष्ट है कि वाणी सीमित है, शब्द सीमित है वह वस्तु में स्थित अनंत धर्मों का प्रतिपादन नहीं कर सकता है। प्रत्येक द्रव्य अपने में अनंत विरोधी-अविरोधी धर्मों-स्वभावों को लिए हुए हैं। उसमें सामान्य धर्म भी है और विशेष भी, वह नित्य भी है, अनित्य भी है। वह शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। वह है भी और नहीं भी है। इस प्रकार उसमें अनंत धर्म-स्वभाव हैं। लेकिन ये सब सापेक्षदृष्टि से यथार्थ हैं। जिस दृष्टि से 'सत्' है उस दृष्टि से असत् नहीं है, जिस दृष्टि से असत् है उस दृष्टि से सत् नहीं है। सत् की दृष्टि से सत् है और असत् की दृष्टि से असत् हैं। इसी प्रकार सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य, भेद-अभेद आदि जिज्ञासाओं का शमन किया जा सकता है। वृक्षत्व धर्म की अपेक्षा से सभी वृक्ष समान हैं, चेतन धर्म की अपेक्षा सभी जीव समान हैं, अचेतनत्व की दृष्टि से Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि - २४५ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा समस्त जड़ पदार्थ समान हैं। नीम, बबुल, आम, पीपल, बरगद आदि भेदों की दृष्टि से विशेष भी हैं। लेकिन दोनों धर्म हैं एक ही द्रव्य-पदार्थ में। एक व्यक्ति पिता है, पुत्र है, पति है, भाई है, चाचा है, दादा है, नाना है आदि। कितने विरोधी दिखलाई देने वाले बिन्दु एक में उपलब्ध हैं। यदि यहां अपेक्षा को ध्यान में न रखें तो उलझन आ सकती है और अपेक्षा रखकर चला जाए तो कहीं उलझन नहीं है। अनेकांतदृष्टि वस्तु के अनंत धर्मों में सामंजस्य बैठाने वाली दृष्टि है। न उसमें कहीं आग्रह है, न ऐकांतिकता है भगवान महावीर ने अनेक विरोधी विचारों का समन्वय इसी सापेक्षवाद, स्याद्वाद के द्वारा किया था। दर्शन के क्षेत्र में आगे चलकर यही दृष्टि दार्शनिकों का विषय बनी और उसी के आधार पर समन्वयदृष्टि का विकास हुआ। समग्र एकांतिक दर्शनों को एकत्रित करने पर जो सत्य बनता है वह है अनेकांत दर्शन-जैन दर्शन। द्रव्य-पदार्थ का संपूर्ण रूप ज्ञेय बन सकता है लेकिन वाच्य नहीं। स्याद्वाद वस्तु के एक धर्म का कथन करता है और अन्य धर्मों को अपने में समाहित रखता है। अपने स्वरूप-अस्तित्व की दृष्टि से वस्तु हैं और पर- द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है। घट पट आदि पदार्थ अपने स्वरूप की दृष्टि से हैं लेकिन अन्य पदार्थ की दृष्टि से नहीं हैं। पदार्थ में अस्ति और नास्ति दोनों धर्म न हों तो यथार्थ का आकलन होना भी कठिन हो जाता है। स्यात् शब्द के द्वारा पदार्थ का समग्र रूप वक्ता के सामने रहता है, वह पर सिर्फ उसके एक धर्म का प्रतिपादन करता है, अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता। अखंड वस्तु का यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। उसके एक धर्म का प्रतिपादन 'स्यात्' शब्द से होता है। नय भी वस्तु के - एक धर्म का कथन करना है, वह एकांगी है, किन्तु वस्तु के अन्य धर्मों से पृथक् नहीं है। इसलिए वह एकांगी होकर भी होकर एकांगी नहीं है। अन्यथा यथार्थ ज्ञान नहीं होता। विवादों की श्रृंखला एकांगी दृष्टि के कारण होती है। भले, वह विवाद धर्म, राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय आदि किसी भी क्षेत्र में हो। वक्ता के संपूर्ण अभिप्राय या आशय को एक शब्द स्पष्ट नहीं रख सकता। भाव या आशय को मूल से जुड़ा हुआ देखा जाए तो समस्या नहीं होती। 'नयवाद अभेद और भेद-इन दो वस्तु धर्मों पर टिका हुआ है। सत्य के दो रूप हैं, इसलिए परखने की दो दृष्टियां हैं-द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि। द्रव्यदृष्टि अभेद का स्वीकार है और पर्यायदृष्टि भेद का। दोनों की सापेक्षता भेदाभेदात्मक सत्य का स्वीकार है। वस्तु भेद और अभेद की समष्टि है। भेद और अभेद-दोनों सत्य हैं। जहां अभेद प्रधान होता है वहां भेद गौण और जहां भेद प्रधान होता है वहां अभेद गौण। इसके आधार पर नय दो प्रकार का हो जाता है-'द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय। नय का उद्देश्य यह है कि हम दूसरे के विचारों को उसी के अभिप्राय के अनुकूल समझने का प्रयत्न करें तभी -हमें उसके कथन की सापेक्षता का ज्ञान होगा। अन्यथा हम उसे समझ नहीं सकेंगे। नय सात हैं नैगम नय-द्रव्य के सामान्य-विशेष के संयुक्त रूप का निरूपण करने वाला विचार। संग्रह नय-केवल सामान्य का निरूपण करने वाला विचार। व्यवहार नय-केवल विशेष का निरूपण करने वाला विचार। ऋजुसूत्र नय-वर्तमानपरक दृष्टि। जैसे-तुला उसी समय तुला है जब उससे तोला जाता है। अतीत और भविष्य में तुला तुला नहीं है। शब्द नय-भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि के आधार पर शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। जै-पहाड़ का जो अर्थ है वह पहाड़ी शब्द व्यक्त नहीं कर सकता। समभिरूद नय-इसका अभिप्राय यह है कि जो वस्तु जहां आरूढ़ है, उसका वहीं प्रयोग करना चाहिए। स्थूलदृष्टि से घट, कुट, कुंभ का अर्थ एक है। परंतु समभिरूढ़ नय इसे स्वीकार नहीं करता। वह सब शब्दों में अर्थभेद मानता है। एवंभूत नय-वार्तमानिक या तत्कालभावी व्युत्पत्ति से होनेवाली शब्द की प्रवृत्ति का आशय। जैसे घट उसी Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २४६ खण्ड - ३ समय घट है जो मस्तक पर पानी लाने के लिए रखा हुआ है। घट शब्द भी वही है जो घट-क्रियायुक्त अर्थ का प्रतिपादन करे । नैगम नय ज्ञानाश्रयी विचार है जो संकल्प प्रधान होता है वह ज्ञानाश्रयी है। अर्थाश्रयी विचार वह होता है जो अर्थ को मानकर चले। संग्रह नय, व्यवहार नय और ऋजुसूत्र नय- ये तीनों अर्थाश्रयी विचार हैं। शब्द नय, समभिरूद्ध नय और एवंभूत नय ये तीनों शब्दाश्रयी विचार हैं। इनके आधार पर नयों की परिभाषा यों हो सकती है १. नैगम-संकल्प' या कल्पना की अपेक्षा होने वाला विचार। २. संग्रह - समूह की अपेक्षा से होने वाला विचार ३. व्यवहार व्यक्ति की अपेक्षा से होने वाला विचार । ४. ऋजुसूत्र - वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से होने वाला विचार । ५. शब्द - यथाकाल, यथाकारक शब्द प्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार । ६. समभिरूद - शब्द ही उत्पत्ति के अनुरूप शब्द प्रयोग की ७. एवंभूत-व्यक्ति के कार्यानुरूप शब्द प्रयोग की २०. सदसतोर्विवकेन, स्थैर्यं चित्तस्य जायते । नाऽस्थिरात्माऽपि साक्षरः ॥ २१. भविष्यति मम ज्ञानं, अध्येतव्यमतो मया । अजानन् सदसत्तत्त्वं न लोकः सत्यमश्नुते ॥ ॥ स्थितात्मा स्थापयेदन्यान, २२. लप्स्ये चित्तस्य सुस्थैर्य, अध्येतव्यमतो मया । अस्थिरात्मा पदार्थेषु, जानन्नपि विमुह्यति ॥ २३. आत्मानं स्थापयिष्यामि धर्मेऽध्येयमतो मया । धर्महीनो जनो लोके, तनुते दुःखसन्ततिम् ॥ २४. स्थितः परान् स्थापयिष्ये, धर्मेऽध्येयमतो मया । आचार्येव सदाचारं, प्रस्थापयितुमर्हति ॥ अपेक्षा से होने वाला विचार । अपेक्षा से होने वाला विचार । प्राचीन काल में शिक्षा के चार मुख्य उद्देश्य थे : सत् और असत् का विवेक होने पर चित्त की स्थिरता होती है। स्थितात्मा दूसरों को धर्म में स्थापित करता है जो स्थितात्मा नहीं होता, वह साक्षर होने पर भी वह कार्य नहीं कर सकता। 'मुझे ज्ञान होगा', इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। जो जीव सत् और असत् तत्त्वों को नहीं जानता, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता । 'मैं एकाग्र चित्त बनूंगा' - इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। अस्थिर आत्मा वाला व्यक्ति पदार्थों को जानता हुआ भी उनमें मूढ बन जाता है। 'अपनी आत्मा को धर्म में स्थापित करूंगा' - इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। जो व्यक्ति धर्महीन है, वह संसार में दुःख की परंपरा को बढ़ाता है। 'मैं स्वयं स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थापित करूंगा' - इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। आचारवान् व्यक्ति ही सदाचार की स्थापना कर सकता है। ॥ व्याख्या ॥ इन श्लोकों में 'शिक्षा क्यों' का सुन्दर समाधान दिया गया है। आज की शिक्षा का उद्देश्य है विषय का ज्ञान, बौद्धिक विकास। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २४७ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा १. ज्ञान-प्राप्ति-इससे बौद्धिक विकास के साथ-साथ सत्-असत् का विवेक भी जागृत होता है। २. मानसिक एकाग्रता-इससे लक्ष्य-प्रपप्ति की ओर सहज गति करने की क्षमता बढ़ती है, अपने आप पर नियंत्रण और धैर्य का विकास होता है। ३. धर्माचरण-ज्ञान की प्राप्ति श्रेय के प्रति प्रस्थान के लिए सहज-सरल मार्ग प्रस्तुत करती है। आगमों में कहा है 'अन्नाणी किं काही, किंवा नाहीइ छेयपावगं' अज्ञानी क्या करेगा? वह श्रेय और पाप को कैसे जानेगा? । धर्महीन व्यक्ति न वर्तमान को सुखी बना सकता है और न अनागत को। ४. दूसरों को धर्म में प्रेरित करना-ज्ञानी व्यक्ति ही विभिन्न व्यक्तियों को समझाकर धर्म में स्थापित कर सकते हैं। जो स्वयं आचारवान् नहीं होता वह दूसरों को आचार में स्थापित नहीं कर सकता। शिक्षा-प्राप्ति के इन चार उद्देश्यों से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। एकांगी विकास उपादेय नहीं हो सकता। २५.प्राणिनामुह्यमानानां, जरामरणवेगतः। जरा और मरण के प्रवाह में बहने वाले जीवों के लिए धर्म धर्मो द्वीपं प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम्॥ द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। ॥ व्याख्या ॥ 'वत्थु सभावो धम्मो' वस्तु का स्वभाव-स्वरूप धर्म है। स्वभाव व्यक्ति को कभी नहीं छोड़ता। मनुष्य स्वभाव को विस्मृत कर सकता है, किंतु स्वभाव मनुष्य को नहीं। उसके अतिरिक्त त्राण, शरण, गति और द्वीप क्या हो सकता है ? विभाव कभी शरण नहीं बनता। मनुष्य यह जानता हुआ भी स्वभाव की ओर गति नहीं करता। धर्म की शरण में 'आओ 'धम्म सरणं गच्छामि' 'धम्म सरणं पवज्जामि' मामेकं सरणं सरणं व्रज' यह उद्घोष समस्त धर्म प्रवर्तकों द्वारा हुआ है। उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि धर्म को छोड़ कर ही प्राणी अनेक आपदाएं वरण करता है। शांति का आधार धर्म है, इसलिए यहां कहा है कि स्वभाव का अनुसंधान करो। ... जरा और मृत्यु के महा प्रवाह में बहते हुए प्राणियों की रक्षा का आधार-स्तंभ यही है। उत्पन्न होना, जीर्ण होना और समाप्त होना-एक भी वस्तु इस नियम से वंचित नहीं है। परिवर्तन का चक्र सब पर चलता है। धर्म अपरिवर्तनीय है, शाश्वतिक है। यही परिवर्तन के चक्रव्यूह से व्यक्ति को मुक्त कर सकता है। २६.दुर्गतौ । प्रपतज्जन्तोर्धारणाद् धर्म उच्यते। जो दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण करता है, वह धर्म धर्मेणासौ धृतौ ह्यात्मा, स्वरूपमधिगच्छति॥ कहलाता है। अपने स्वरूप को वही प्राप्त होता है, जिसकी आत्मा धर्म के द्वारा धृत है। ॥ व्याख्या ॥ धर्म आत्म-विकास का साधन है। धर्म वैयक्तिक है; सामूहिक नहीं। समूह व्यक्ति में धर्म-भावना प्रवाहित करता है। इसलिए वह अनुपादेय नहीं होता। लेकिन जब वह व्यक्ति की स्वतंत्र-चेतना का हरण कर लेता है, तब वह पवित्र नहीं रहता। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसलिए कहा था कि 'धर्म को पकड़ो, धर्मों को नहीं। धर्म कभी अहित नहीं करता। धर्मों को पकड़ने पर अहित होता है। धर्मों का यहां अर्थ है साम्प्रदायिकता। धर्म से वैमनस्य, विरोध, विभेद आदि पैदा नहीं हुए, ये साम्प्रदायिकता से बड़े हैं। आज धर्म को मिटाने की अपेक्षा नहीं है। मिटाना है साम्प्रदायिकता को। धर्म कभी मिटता नहीं है। वह सदा अमर है। 'अमर रहेगा, धर्म हमारा'-धर्म सनातन है। धर्म की वास्तविकता में विरोध नहीं है, विरोध है उसका गलत प्रयोग करने में। र धर्म की वास्तविकता है-ज्ञान का पूर्ण विकास, श्रद्धा का पूर्ण विकास, स्व (आत्म)-भाव का पूर्ण विकास और आत्मशांति का पूर्ण विकास। अहिंसा, सत्य, कषाय-विजय, इंद्रिय-संयम, मनो-निग्रह, राग-द्वेष-विलय आदि आत्म Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २४८ खण्ड - ३ विकास के सहायक हैं। इसलिए ये धर्म हैं। किसी भी धर्म का इनके साथ विरोध नहीं है। विरोध का सबसे बड़ा कारण है, हम अपने धर्म की सीमा में घुस जाते हैं और उसी का चश्मा अपनी आंखों पर लगा लेते हैं। हम उससे भिन्न रंग को देखना नहीं चाहते । यदि अन्य धर्मों का निरीक्षण करें तो, समन्वय के तत्त्व इतने हैं कि उस सीमा को तोड़ने के लिए मजबूर होना पढ़ता है। साम्प्रदायिकता का पर्दा अधिक दिनों तक टिका रह नहीं सकता। शब्द-भेद के अतिरिक्त अर्थ की एकता अधिक निकट ले आती है। हम अधिक गहराई में न जाकर विकास की ओर बढ़ें और धर्म के साधनों का अभ्यास करें। २७. आत्मनः स्वप्रकाशाय, बन्धनस्य विमुक्तये । आनन्दाय मया शिष्य ! धर्मप्रवचनं कृतम् ॥ २८. शुभाशुभफलैरेभिः, प्रमादबहुल कर्मणां जीवः, बन्धनैर्ध्रुवम्। संसारमनुवर्तते ॥ कर्मणां बन्धनानि च । २९. शुभाशुभफलान्यत्र, छित्वा मोक्षमवाप्नोति, अप्रमत्तो हि संयतिः ॥ ३१. द्विमासमुनिपर्याय, भवनवासिदेवानां, ३०. एकमासिकपर्यायो, मुनिरात्मगुणे रतः । व्यन्तराणां च देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥ || व्याख्या ॥ धर्म अप्रमत्त अवस्था है और अधर्म प्रमत्त अवस्था । प्रमाद का स्वरूप इस प्रकार है : चार कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ । चार विकथा - स्त्रीकथा, देशकथा, राजकथा, भोजनकथा । पांच इन्द्रियां-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र | इनके विषयों में आसक्ति, मन, वाणी और शरीर की इनमें प्रवृत्ति तथा निद्रा प्रमाद है और जो निवृत्ति है वह अप्रमाद है। अप्रमत्त आत्मा कर्म - बंधनों से मुक्त होकर शुद्ध स्वरूप में ठहरती है। प्रमादी आत्मा संसार में भ्रमण करती है । संसार दुःख है और मुक्ति सुख । धर्म की अपेक्षा इसलिए है कि उससे अनंत आनंद उपलब्ध होता है। यतिः । व्यतिव्रजेत् ॥ आत्मध्यानरतो तेजोलेश्यां ३२. त्रिमासमुनिपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः । देवासुरकुमाराणां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत ॥ ३३. चातुर्मासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः । ज्योतिष्कानां ग्रहादीनां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥ शिष्य मेघ ! आत्मा के प्रकाश के लिए, बंधन की मुक्ति के लिए और आनंद के लिए मैंने धर्म का प्रवचन किया है। ३४. पञ्चमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो सूर्यचन्द्रमसोरेव, तेजोलेश्यां यतिः । व्यतिव्रजेत ॥ प्रमादी जीव शुभ-अशुभ फल वाले कर्मों के इन बंधनों से संसार में पर्यटन करता है। अप्रमत्त मुनि कर्मों के बंधनों और उनके शुभ-अशुभ फलों का छेदन कर मोक्ष को प्राप्त होता है। एक मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि व्यन्तर देवों के सुखों को लांघ जाता है, उनसे अधिक सुखी बन जाता है। दो मास का दीक्षित मुनि भवनपति (असुरवर्जित) देवों के सुखों को लांघ जाता है। तीन मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि असुरकुमार देवों के सुखों को लांघ जाता है। चार मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि ग्रह आदि ज्योतष्क देवों के सुखों को लांघ जाता है। पांच मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि ज्योतिष्क देवों के इंद्र-चांद और सूरज के सुखों को लांघ जाता है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि । २४९ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा ३५.षाण्मासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। छह मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि सौधर्म और ईशान सौधर्मेशानदेवानां, तेजोलेश्या व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३६. सप्तमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। सात मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि सनत्कुमार और सनत्कुमारमाहेन्द्र-तेजोलेश्या व्यतिव्रजेत्॥ माहेन्द्र देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३७. अष्टमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। आठ मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि ब्रह्म और लान्तक ब्रह्मलान्तकदेवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३८.नवमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। नौ मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि महाशुक्र और सहस्रार महाशुक्र-सहस्रार-तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३९.दशमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। दस मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि आनत, प्राणत, आरण . आनतादच्युतं यावत्, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ और अच्युत देवों के सुखों को लांघ जाता है। ४०. एकादशमासगत, आत्मध्यानरतो यतिः। ग्यारह मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि नव ग्रैवेयक देवों के ग्रैवेयकाणां देवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ सुखों को लांघ जाता है। ११.द्वादशमासपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। बारह मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि पांच अनुत्तर विमान अनुत्तरोपपातिक-तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ॥ व्याख्या ॥ , आत्मिक सुख की तुलना में पौद्गलिक सुख निकृष्ट होता है। पौद्गलिक सुख भी सब में समान नहीं होता। मनुष्यों की अपेक्षा देवताओं का पौद्गलिक सुख विशिष्ट होता है। देवताओं की चार श्रेणियां हैं : १. व्यंतर २. भवनपति ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक। व्यंतर देव आठ प्रकार के होते हैं : पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व। • भवपति देव दस प्रकार के होते हैं : असुरकुमार, नागकुमार, तडित्कुमार, सुपर्णकुमार, वह्निकुमार, अनिलकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। ये देव भवनों-आवासों में रहते हैं, अतः इन्हें भवनपति देव कहा गया है। ये देव कुमार के समान सुन्दर, कोमल और ललित होते हैं। ये क्रीड़ा-परायण और तीव्र रागवाले होते हैं। . ज्योतिषी देव पांच प्रकार के होते हैं : चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारक। वैमानिक देव इनके दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत। कल्पोपपन्न वैमानिक देव बारह प्रकार के हैं। इनके नाम क्रमशः उनतीसवें श्लोक से बत्तीसवें श्लोक तक दिए गए हैं। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव कल्पातीत होते हैं। ग्रैवेयक देवों के नौ और अनुत्तर देवों के पांच भेद हैं। आत्मिक सुख की तुलना पौद्गलिक सुखों से नहीं की जा सकती, क्योंकि वे क्षणिक, अशाश्वत और बाह्यवस्तु सापेक्ष होते हैं। पौद्गलिक सुख में भी तरतमता होती है। साधारण मनुष्य और असाधारण मनुष्य में विभेद देखा जाता है। देव-सुखों की तुलना में मनुष्य के सुख तुच्छ हैं। देवताओं में भी सर्वार्थसिद्ध देवों के सुख सामान्य देवताओं के सुखों से अनंतगुण अधिक हैं। लेकिन आत्मिक सुख की तुलना में सर्वार्थसिद्ध देवों के सुख भी अकिंचित्कर हैं। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २५० खण्ड - ३ इन श्लोकों का प्रतिपाद्य यही है कि साधना ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, मुनि के आनंद का भी उत्कर्ष होता जाता है। वास्तव में आत्मानंद की तुलना किसी पौद्गलिक पदार्थ से प्राप्त सुख या आनंद से नहीं की जा सकती, किंतु सामान्य बोध के लिए उसकी यह तुलना की गई है। ४२. ततः शुक्लः शुक्लजातिः, शुक्ललेश्यामधिष्ठितः । केवली परमानन्दः, सिद्धो बुद्धो विमुच्यते ॥ ४३. यो जीवान् नैव जानाति, नाऽजीवानपि तत्त्वतः । जीवाऽजीवानजानन् सः, कथं ज्ञास्यति संयमम् ॥ ४४. यो जीवानपि विजानाति, वेत्त्यजीवानपि ध्रुवम् । सम्यग् ज्ञास्यति संयमम् ॥ जीवाऽजीवान् विजानन् सः, ४५. यदा जीवानजीवांश्च द्वावप्येतौ विबुध्यते । तदा गतिं बहुविधां जानाति सर्वदेहिनाम् ॥ ४६. यदा गतिं बहुविधां जानाति सर्वदेहिनाम् । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, तदा जानाति तत्त्वतः ॥ ४७. पुण्यपापे बंधमोक्षौ यदा जानाति तत्त्वतः । तदा 'विरज्यते भोगाद, दिव्यात् मानुषकात् यथा ॥ ४८. यदा विरज्यते भोगात्, दिव्यात् मानुषकात् तथा । तदा त्यजति संयोगं, बाह्यमाभ्यन्तरं द्विधा ॥ ४९. यदा त्यजति संयोगं, बाह्यमाभ्यन्तरं द्विधा । तदा मुनिपदं प्राप्य, धर्मं स्पृशति संवरम् ॥ ५०. यदा मुनिपदं प्राप्य, धर्मं स्पृशति तदा धूतं कर्मरजः, भवत्यबोधिना संवरम् । कृतम् ॥ ५९. यदा धूतं कर्मरजः भवत्यबोधिना कृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाऽभिगच्छति ॥ उसके बाद वह शुक्ल और शुक्लजाति वाला मुनि शुक्ल लेश्या को प्राप्त होकर केवली होता है, परम आनंद में मग्न, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। जो तत्त्वतः जीव को नहीं जानता, अजीव को भी नहीं जानता, वह जीव - अजीव - दोनों को नहीं जानने वाला संयम को कैसे जानेगा ? जो जीव को जानता है, अजीव को भी जानता है, वह जीवअजीव - दोनों को जानने वाला संयम को सम्यग् प्रकार से जान लेगा। जो जीव और अजीव - दोनों को जानता है, वह जीवों की नाना प्रकार की गतियों को जानता है। जब मनुष्य जीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है तब वह तत्त्वतः पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को भी जान लेता है। जब मनुष्य पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को जान लेता है, तब मनुष्यों और देवों के जो भी भोग हैं, उनसे विरक्त हो जाता है। जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह बाह्य और आभ्यन्तर- दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है। जब मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर - दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है, तब वह मुनिपद को प्राप्त कर संवर धर्म का स्पर्श करता है। जब मनुष्य मुनिपद को प्राप्त कर संवर धर्म का स्पर्श करता है तब वह अबोध द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकंपित कर देता है। जब मनुष्य अबोधि द्वारा संचित कर्मरज को प्रकंपित कर देता है तब वह सर्वत्र - गामी ज्ञान और दर्शन केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २५१ ५२. यदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकञ्च जिनो जानाति केवली ॥ केवली । ५३. यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति आयुषोऽन्ते निरुन्धानः, योगान् कृत्वा रजः क्षयम् ॥ ५४. अनन्तामचलां पुण्यां सिद्धिं गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः सिद्धो भवति शाश्वतः ॥ ( युग्मम् ) , अ. ९ मिथ्या सम्यग् ज्ञान-मीमांसा जब मनुष्य सर्वत्र गामी ज्ञान और दर्शन केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है तब वह जिन और केवली होकर लोक अलोक को जान लेता है। केवलज्ञान की उपलब्धि होने पर जिन अथवा केवली लोक और अलोक को जान लेता है। वह आयु के अंत में मन, वचन और काय - तीनों योगों का निरोध कर, कर्मरज को सर्वथा क्षीण कर अनंत, अचल और कल्याणकारी सिद्धिगति को प्राप्त कर, शाश्वत सिद्ध होकर लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाता है। || व्याख्या || साधना का प्रथम चरण संयम है और अंतिम भी संयम है जितने भी साधक हैं संयम उनके लिए अनिवार्य है, इसे यों भी कह सकते हैं कि साधना का चिंतन और उसकी क्रियान्विति संयम से अनुबंध है। संयम के अभाव में जीवन का कोई भी क्षेत्र सुखद, सफल नहीं होता। असंयम पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों के लिए अभिशाप है शारीरिक दृष्टि से भी असंयमी व्यक्ति स्वस्थ नहीं होता। स्वास्थ्य भी संयम सापेक्ष है। इसलिए यह उद्घोष मुखर हुआ कि 'संयमः खलु जीवनम्' संयम ही जीवन है। इसका विपरीत असंयम मृत्यु है। संयम का अर्थ है-निरोध । इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है-असत् प्रवृत्ति का निरोध और सत् मैं प्रवर्तन सत् और असत् दोनों का संयम चेतना का पूर्ण विकास है। प्रस्तुत श्लोकों में इसी का दिग्दर्शन है संयम के माध्यम से ही चेतना का विकास होता है। संयम पूर्ण विकास से पूर्व साधन के रूप में प्रयुक्त होता है और विकास की पूर्णता में साध्य बन जाता है संयम की साधना के लिए जीव और अजीव के बोध की भी अपेक्षा है। इन्हें नहीं जाननेवाला संयम को कैसे जान सकेगा? किसका संयम करेगा? कौन करेगा? क्यों करेगा? पुरुष अलग है प्रकृति अलग है, किन्तु दोनों के अनुबंध से संसार होता है। वैसे ही आत्मा और कर्म दोनों भिन्नभिन्न होते हुए भी परस्पर में गहरे गूंधे हुए हैं जब तक ये दोनों विभक्त नहीं होते तब तक संसार का प्रवाह, दुःखसुख का चक्र, अधोगमन- ऊर्ध्वगमन की यात्रा निराबाध चलती रहती है। प्रकृति कर्म के इस प्रवाह का अवरोध किए बिमा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कठिन है। अजीव की माया को समझना भी बहुत दुरूह है। अनेक ज्ञानी भी कर्म - जाल से सहजतया मुक्त नहीं हो सकते। 'विचित्रा कर्मणां गतिः' कर्म की गति बड़ी विचित्र है। कर्म का उदय उन्हें भी कहां से कहां ले जाकर छोड़ देता है। असंख्य उदाहरणों से यह संसार भरा है। आत्मा अनेक उतार-चढ़ाव, सुख-दुःखों की अनुभूति इसी के प्रभाव से करती है। जीव और अजीव की इस संस्कृति की समझ आवश्यक है। संयम की साधना में इनका बोध करणीय है। जीव और अजीव के बोध से ही जीवों की विविध गतियों का बोध होता है कौन जीव कहां जाता है? कैसे जाता है ? क्यों जाता है ? तिर्यंच गति, मनुष्य गति, नरक गति और देव गति के निमित्त क्या-क्या बनते हैं ? इसके बोध से पुण्य और पाप का ज्ञान होता है। पुण्य शुभ कर्म है और पाप अशुभ कर्म पुण्य व्यक्ति को उत्कर्ष के पथ पर ले जाता है और पाप अपकर्ष के पथ पर पुण्य की महिमा से मंडित व्यक्ति पूज्य, आदेय, श्लाघ्य, कीर्तिमान बनता है और पापोदय के कारण हीन, अश्लाघ्य आदि। ऐसे अनेक अभिनयों के पीछे पुण्य पाप की छाया है पुण्य और पाप के साथ उसके बंधन और मुक्ति की क्रिया भी जुड़ी है। जब संसार की विचित्रता सामने आती है तब मन सहज ही सांसारिक विषय भोगों से उद्विग्न हो जाता है, भोगों से विरक्ति हो जाती है भोग सिर्फ रोग ही नहीं देते हैं अपितु दुःख भी देते हैं। मन की विरक्त दशा में सभी प्रकार के मानवीय, दैवीय भोग क्षुद्रतम प्रतीत होने लगते हैं। बाहर से वितृष्ण मन अंतरंग सुख में निमग्न होने लगता है। सांसारिक संबंध भी मिथ्या दिखाई देने लगते हैं। मन संयोगों से Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २५२ खण्ड - ३ मुक्त होने के लिए तरसने लगता है जब जक संयोगों के प्रति चित्त आकृष्ट रहता है तब तक परमतत्त्व से भी प्रीति नहीं होती। बाहर का राग भीतर से विराग पैदा करता है और भीतर का राग बाहर से विराग पैदा करता है। संसार संयोगों की देन है। संयोग कर्म हेतुक हैं। कर्म से पुनः कर्म का ही अनुबंध होता है। कर्म आंतरिक संयोग है। आंतरिक संयोगों के बने रहने पर बाह्य संयोगों के त्याग का वास्तविक अर्थ नहीं रहता। वस्तुतः आंतरिक संयोगों को ही त्यागना है। अन्यथा त्याग कर भी कुछ नहीं त्यागा जाता है। मन ममत्व की परिक्रमा करता ही रहता है। इसे सम्यक् समझ कर ही साधक बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों संयोगों से मुक्त होने के लिए तत्पर होता है। यह संयोग मुक्ति का संकल्प उसे मुनिपद पर आरूढ़ करता है। वह सबको संन्यास दे देता है। सही माने में अनगारता राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह आदि वृत्तियों व बाह्य रूप से सांसारिक वृत्तियों के परित्याग से ही सिद्ध होती है। संन्यस्त व्यक्ति-मुनि ही संवर धर्म का स्पर्श करता है। संवर विजातीय तत्त्व का अवरोधक है। आत्मा के असंख्य द्वार खुले हैं, जिनसे सतत कर्म तत्त्व का प्रवाह गतिमान रहता है। कर्म पौद्गलिक विजातीय हैं। जब तक इसके द्वार को रोका बंद नहीं किया जाता है तब तक आत्मा का भव भ्रमण चलता रहता है। जब साधक आत्मा के साथ एकत्व स्थापित करने लगता है, एकत्व घनीभूत होने लगता है तब उत्कृष्ट संवर की आराधना प्रारंभ हो जाती है। खुले हुए द्वार सहज ही अवरुद्ध होने लगते हैं, फलतः अबोधि- अज्ञाम द्वारा अर्जित अनंत जन्मों के कलुषित कर्म प्रकंपित होने लगते हैं पंछी जैसे अपने शरीर पर लगे रजकणों को पंखों को फड़फड़ाकर झटका देता है, वैसे ही साधना के द्वारा साधक के कर्म रज प्रकंपित होकर आत्मा से विलग हो जाते हैं। कर्मों का अलगाव ही आत्मा के सौन्दर्य को प्रकट कर देता हैं। अनंत जन्मों का तम प्रकाश की एक किरण से विलीन हो जाता है। कर्म के क्षीण होते ही ज्ञान दर्शन जो आत्मा का स्वभाव है वह व्यक्त हो जाता है। यह ज्ञान शास्त्रीय बौद्धिक ज्ञान से भिन्न है। इसमें किसी माध्यम की अपेक्षा नहीं रहती है, न इसमें निकटता या दूरी का व्यवधान रहता है। यह ज्ञान अमर्यादित - असीम होता है, विश्व-लोक के इस छोर और उस छोर की परिधि भी वहां नहीं रहती । वस्तु के अनंत धर्मों का अवलोकन अविलंब हो जाता है। इसे केवलज्ञान कहते हैं । यही कैवल्य अवस्था है। ज्ञान और दर्शन - ये दो शब्द सिर्फ वस्तु के बोध की अवस्था मात्र है। दर्शन में वस्तु का सामान्य बोध होता है और ज्ञान में वस्तु का अनंत धर्मों-पहलुओं का ज्ञान होता है। एक सामान्य जानकारी देता है और एक विशिष्ट । इस ज्ञान के अधिकारी व्यक्ति को जिन - केवल कहते हैं। लोक व अलोक के दर्शन में केवली ही सक्षम होते हैं। जिन या केवली जब अपने स्थूल शरीर का त्याग करते हैं तब कुछ ही क्षणों में मन, वाणी व देह के योगों यानी .. प्रवृत्ति का निरोध कर मेरु पर्वत की भांति अचल अवस्था को प्राप्त कर समस्त स्थूल सूक्ष्म शरीरों से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सिद्धत्व का वरण कर लेते हैं। आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। मुक्तात्मा सिद्धत्व को प्राप्त आत्मा का अवस्थान लोक का अग्रभाग है। इससे आगे न गति है और न स्थिति है। आकाश के दो विभाग हैं एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश अलोक में आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्य नहीं है। लोक में ही गति, स्थिति, जीव और पुद्गल है। गति और स्थिति द्रव्य के अभाव में जीव और पुद्गलों का अलोकाकाश में अवस्थिति नहीं होती। लोकाकाश और अलोकाकाश की मर्यादा इन्हीं के कारण से होती है। सिद्ध शुद्धात्मा है। स्थूल आदि शरीरों के छूटने पर आत्मा एक समय में लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाता है। यह आत्मा के पूर्ण मुक्त होने की अवस्था है। साधना की सिद्धि का यही अंतिम मुकाम है। ५५. अभूवंश्च भविष्यन्ति सुव्रता धर्मचारिणः । एतान् गुणानुदाहुस्ते, साधकाय शिवङ्करान् ॥ जो सुव्रत और धार्मिक हुए हैं और होंगे, उन्होंने साधक के लिए कल्याण करने वाले इन्हीं गुणों का निरूपण किया है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे मिथ्या सम्यग्ज्ञान-मीमांसानामा नवमोऽध्यायः । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १० संयतचर्या Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयतचर्या मुनि साधक है। वह मोक्ष का अधिकारी है। मोक्ष मुनि बनते ही नहीं हो जाता। यदि ऐसा होता तो समस्त संसार मुनि बनता और मुक्त हो जाता। मुनि की नैश्चयिक और व्यावहारिक साधना सम्यग् । दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र मूलक होती है। जहां इस रत्नत्रयी में स्खलना होती है, वहां साधुत्व भी अक्षुण्ण नहीं रहता। निश्चयनय की दृष्टि से रत्नत्रयी की आराधना आत्मा की आराधना है। व्यवहारनय की दृष्टि में उनकी आराधना के लिए आलंबन लेना पड़ता है। क्योंकि जब तक शरीर है, . तब तक गति, आगति, स्थिति, भाषण, आहार आदि की भी अपेक्षा रहती है। ये कैसे होने चाहिए? इन्हीं जिज्ञासाओं के समाधान भगवान् महावीर की दृष्टि में यहां प्रस्तुत हैं। मन, वाणी और शरीर की निवृत्ति है मोक्ष। किन्तु निवृत्ति सीधी नहीं आती। प्रवृत्ति और निवृत्ति का क्रम है। निवृत्ति के साथ प्रारंभ में प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति। निवृत्ति के अंतिम बिंदु पर जब साधक पहुंच जाता है तब वह प्रवृत्ति के जाल से मुक्त हो जाता है। साधक प्रारंभिक दशा में प्रवृत्ति के लिए चलता है। वह प्रवृत्ति सत् होती है। सत्प्रवृत्ति असत् का निरोध कर देती है। निवृत्ति के अंतिम बिन्दु से पहले तक प्रवृत्ति चलती है। साधक यह जानता है कि एक ही झटके में प्रवृत्ति को नहीं तोड़ा जा सकता। वह चाहता है कि अपने जीवन में निवृत्ति को प्रमुखता दे, किन्तु यह कैसे हो सकता है? प्रस्तुत अध्याय में यह प्रतिपादित है। मेघः प्राह १. कथं चरेत् कथं तिष्ठेत्, शयीतासीत वा कथम्। कथं भुजीत भाषेत, साधको ब्रूहि मे प्रभो! मेघ बोला-हे प्रभो! मुझे बताइए, साधक कैसे चले? कैसे ठहरे? कैसे सोए? कैसे बैठे? कैसे खाए? और कैसे बोले? ॥ व्याख्या ॥ मेघकुमार ने यहां छह प्रश्न प्रस्तुत किए हैं। इन छहों प्रश्नों में साधक जीवन के सारे पहलु समा जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन प्रश्नों में सारा योग समा जाता है। व्यक्ति जब साधक-जीवन में प्रवेश करता है तब उसका चलना, बैठना, खाना आदि विशेष लक्ष्य से संबंधित हो जाते हैं। अतः उसे उन सभी प्रवृत्तियों की कुशलता प्राप्त करने के लिए लंबे समय तक प्रशिक्षण लेना होता है। यहां से योग का प्रारंभ होता है। गीता में भी अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव! स्थितधीः किं प्रभाषेत, किमासीत व्रजेत् किम्॥ केशव! समाधि में स्थित स्थितप्रज्ञ की क्या परिभाषा है? वह कैसे बोले? कैसे बैठे? और कैसे चले ? Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. २५५ अ. १० : संयतचर्या भगवान् प्राह . २. यतं चरेद् यतं तिष्ठेत्, शयीतासीत वा यतम्। भगवान् ने कहा-साधक संयमपूर्वक चले, संयमपूर्वक ठहरे, यतं भुञ्जीत भाषेत, साधकः प्रयतो भवेत्॥ संयमपूर्वक सोए, संयमपूर्वक बैठे, संयमपूर्वक खाए और संयमपूर्वक बोले। उसे प्रत्येक कार्य में संयत होना चाहिए। || व्याख्या ॥ यतना का अर्थ है-जागना। जो जागता है वह पाता है और जो सोता है वह खोता है। जागरूकता प्रत्येक क्रिया में सरसता भर देती है। असावधानी सरस जीवन को भी नीरस बना देती है। भगवान् महावीर ने साधक को सचेत करते हुए कहा है-'तुम समय मात्र भी प्रमाद मत करो।' प्रमाद जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। हमारी लापरवाही हमारे लिए ही अभिशाप बनती है। कार्य को समय पर न करने से काल उसका रस पी जाता है। मनुष्य के लिए फिर अनुताप शेष. रहता है। . ३. जलमध्ये गता नौका, सर्वतो निष्परिस्रवा। जल के मध्य में खड़ी हुई नौका, जो सर्वथा छिद्ररहित हो, गच्छन्ती वाऽपि तिष्ठन्ती,परिगृह्णाति नो जलम्॥ चाहे चले या खड़ी हो, जल को ग्रहण नहीं करती। उसमें जल नहीं भरता। ४. एवं जीवाकुले लोके, मुमुक्षुः संवृतास्रवः। इसी प्रकार जिस साधक ने आसव का निरोध कर लिया, - गच्छन् वा नाम तिष्ठन् वा, नादत्ते पापकं मलम्॥ वह इस जीवाकुल लोक में रहता हुआ, चाहे चले या खड़ा रहे, पाप-मल को ग्रहण नहीं करता। ॥ व्याख्या॥ जो साधक अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ शुभ में प्रवृत्त हुआ है, उसका ध्येय है-प्रवृत्ति-मुक्त होना। प्रवृत्ति-मुक्त होने से पूर्व जो शरीरापेक्ष क्रिया करता है, वह कैसे पाप रहित हो, इसका उत्तर यहां दिया है। महावीर ने उसके लिए एक छोटा-सा सूत्र दिया है। वह है-यतना, जागरूकता, सचेतनता। यतना को धर्म-जननी कहा है-'जयणेव धम्म जननी'। यतना का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि आप जो क्रिया कर रहे हैं उसमें डूबे रहें। डूबने का अर्थ है-आपको अपना होश नहीं है। यतना अपने आप में बहुत गहरी है। उसका अभिप्राय है- प्रत्येक क्रिया के साथ आपको अपनी स्मृति रहे। जैसे-मैं चल रहा हूं, बैठ रहा हूं, बोल रहा हूं, लेट रहा हूं, भोजन कर रहा हूं, विचार कर रहा हूं आदि-आदि। . स्वयं की स्मृति सतत उजागर रहने से क्रिया में होने वाला प्रमाद स्वतः शांत होता चला जाएगा। साधक का आचार के प्रति इतना सचेतन होने की आवश्यकता नहीं है जितना कि स्व-स्मरण के प्रति है। कबीर ने कहा है-यह शरीर रूपी चादर सबको मिली है, किन्तु प्रायः सभी मैली कर देते हैं। वे यतना (जतन) नहीं रखते “दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' मैंने उस चादर को बड़ी सावधानी से धारण किया अतः वैसी की वैसी छोड़ रहा हूं। यह कठिन है इसलिए कि सावधानी नहीं है। सावधानी साधना के क्षेत्र में प्रवेश का प्रथम चरण है। पाप कर्म .का प्रवेश जागरूकता में संभव नहीं है। मेघः प्राह ५. त्यक्तव्यो नाम देहोऽयं, पुरा पश्चाद् यदा कदा। मेघ बोला-प्रभो! पहले या पीछे जब कभी एक दिन इस तत् किमर्थं हि भुञ्जीत, साधको ब्रूहि मे प्रभो! शरीर को छोड़ना है तो साधक किसलिए खाए? मुझे बताइए। भगवान् प्राह ६. बहिस्तात् उर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदाचन। भगवान ने कहा-साधक उर्ध्वलक्षी होकर कभी भी बाह्य. पूर्वकर्मविनाशार्थ, इमं देहं समुद्धरेत्॥ विषयों की आकांक्षा न करे। केवल पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे। १. यह जगत् जीवाकुल है, इसमें कोई अहिंसक कैसे रह सकता है ? इस संदर्भ में ये दो श्लोक (३,४) पठनीय हैं। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २५६ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ संसार और मोक्ष ये दो तत्त्व हैं। दोनों दो दिशाओं के प्रतिनिधि हैं। मोक्ष को अभीप्सित है आत्म-सुख और संसार को अभीप्सित है दैहिक सुख। मनुष्य जब दैहिक सुख से ऊब जाता है तब वह आत्मिक सुख की ओर दौड़ता है। फिर वह संसार में नहीं रहता। शरीर सुख आत्मिक सुख के सामने नगण्य है, लेकिन जो व्यक्ति उसे ही देखता है वह मोक्ष से दूर चला जाता है। मोक्षार्थी का लक्ष्य होता है आत्मिक सुख का आविर्भाव करना। वह दैहिक सुख से निवृत्त होता है और आत्मिक सुख में प्रवृत्त । उसे शरीर से मोह नहीं होता। वह शरीर निर्वाह के लिए भोजन करता है, न कि स्वाद के लिए। शरीर-पोषण का जहां ध्येय होता है वहां मोक्ष गौण हो जाता है। और जहां शरीर मोक्ष के लिए होता है वहां सारी क्रियाएं मोक्षोचित हो जाती हैं। . इस श्लोक में शरीर-धारण या निर्वाह का एक मुख्य कारण बताया है और वह है कर्म-क्षय। कर्म-क्षय के अनेक हेतु हैं। देहधारी व्यक्ति ही धर्म-व्यवहार कर सकता है। इसी का समर्थन अगले श्लोक में किया गया है। ७. विनाहारं न देहोऽसौ, न धर्मो देहमन्तरा। निर्वाहं तेन देहस्य, कर्तुमाहार इष्यते॥ भोजन के बिना शरीर नहीं टिकता और शरीर के बिना धर्म नहीं होता, अतः शरीर का निर्वाह करने के लिए साधक भोजन करे, यह इष्ट है। ८. व्रज्याक्षुत्शान्तिसेवायैः, प्राणसन्धारणाय च। संयमाय तथा धर्मचिन्तायै मनिराहरेत॥ मुनि व्रज्या-गमनशक्ति, क्षुधाशांति, संयमी सेवा, प्राणधारण, संयम यात्रा तथा धर्मचिंतन कर सके वैसी शक्ति बनाये रखने के लिए भोजन करे। असाध्य रोग, भयंकर उपसर्ग, शरीर में विरक्ति, ब्रह्मचर्य की: रक्षा, जीव-हिंसा से विरति, नाना प्रकार के तप और कर्म के विशोधन के लिए मुनि को भोजन का परित्याग करना उचित है। ९. आतङ्के उपसर्गे च, जातायां विरतौ तनौ। - ब्रह्मचर्यस्य रक्षायै, दयायै प्राणिनां तथा॥ १०.नानारूपं तपस्तप्तं, कर्मणां शोधनाय च। आहारस्य परित्यागः, कर्तुमर्हति संयतिः॥ (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ प्रस्तुत श्लोकों में भोजन करने और न करने के कारणों का उल्लेख है। भोजन करने के पांच कारण ये है१. क्षुधा को शांत करने के लिए। ४. संयम की सुरक्षा के लिए। २. सेवा करने के लिए। ५. धर्म-चिंता करने के लिए। ३. प्राणों को धारण करने के लिए। भोजन न करने के छह कारण ये हैं१. रोग हो जाने पर। ४. दया के लिए। २. शरीर के प्रति विरक्ति हो जाने पर। ५. संकल्प को दृढ़ करने के लिए। '३. ब्रह्मचर्य-पालन के लिए। ६. प्रायश्चित्त के लिए। ये सभी कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्दिष्ट हैं। साधक एकमात्र शरीर-निर्वहन करने के लिए खाता है, रस-तुष्टि के लिए नहीं। पुरुषार्थ की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन शरीर है। साधक के लिए उसकी सुरक्षा भी उतनी ही अपेक्षित है जितनी आत्मा की। शरीर के माध्यम से ही अशरीर की साधना की जाती है। __बौद्ध ग्रंथों में भी आहार करने की मर्यादा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि 'भिक्षु-क्रीड़ा, मद, मंडन या विभूषा के लिए भोजन न करे किन्तु शरीर को रखने के लिए, रोग के उपशमन के लिए तथा ब्रह्मचर्य के पालन के लिए भोजन करे।' Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. २५७ अ. १० : संयतचर्या ११.अल्पवास्मनासक्तः, वस्तून्यल्पानि संख्यया। जो मुनि अनासक्त भाव से एक या दो बार खाता है, संख्या __मात्रामल्पाञ्च भुजानो, मिताहारो भवेद् यतिः॥ में अल्प वस्तुएं और मात्रा में अल्प खाता है, वह मितभोजी है। १२.जितः स्वादो जितास्तेन, विषयाः सकलाः परे। जिसने स्वाद को जीत लिया, उसने सब विषयों को जीत रसो यस्यात्मनि प्राप्तः, स रसं जेतुमर्हति॥ लिया। जिसे आत्मा में रस-आनन्द की अनुभूति हो गई, वही पुरुष रस-इन्द्रिय-विषयों को जीत सकता है। १३.न वामाद् हनुतस्तावत्, संचारयेच्च दक्षिणम्। दक्षिणाच्च तथा वाम, आहरन् मुनिरात्मवित्॥ आत्मविद् मुनि भोजन करते समय स्वाद लेने के लिए दाएं जबड़े से बायीं ओर तथा बाएं जबड़े से दायीं ओर भोजन का संचार न करे। १४.स्वादाय विविधान् योगान्, न कुर्यात् खाद्यवस्तुषु। संयोजनां परित्यज्य, मुनिराहारमाचरेत्॥ मुनि स्वाद के लिए खाद्य-पदार्थों में विविध प्रकार के संयोग न मिलाए। इस संयोजना दोष का वर्जन कर वह भोजन करे। ॥ व्याख्या ॥ स्वाद-विजय परम-विजय है। जो व्यक्ति रसनेन्द्रिय पर विजय पा लेता है, उसके लिए अन्यान्य इन्द्रियों पर वेजय पाना इतना कठिन नहीं होता। - भूख को शांत करने के लिए व्यक्ति खाता है। भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट और अस्वादिष्ट भी होते हैं। जीभ का काम है-चखना। पदार्थ का स्पर्श पाकर जीभ जान लेती है कि यह स्वादिष्ट है या नहीं। इसे रोका नहीं जा सकता। प्रत्येक इन्द्रिय अपनी-अपनी मर्यादा में विषय का ज्ञान कराती है। उसे रोका नहीं जा सकता। किन्तु इन्द्रिय-विषयों के . पति होने वाली आसक्ति से बचा जा सकता है। यही साधना है। - इसी प्रकार स्वाद में आसक्त होने से बचना स्वाद-विजय है। इसके दो मुख्य उपाय हैं : १. भोजन करने के लक्ष्य का स्पष्ट अनुचिंतन। २. समता का अभ्यास। ये दोनों उपाय साधक को आत्माभिमुख करते हैं। जब उसे आत्मरस का स्वाद आने लगता है तब पौद्गलिक रस से उसका मन हट जाता है। . प्रस्तुत श्लोकों में स्वाद-विजय के तीन उपाय निर्दिष्ट हैं : १. आत्मरसानुभूति की ओर प्रवृत्ति। २. एक जबड़े से दूसरे जबड़े की ओर असंचरण। ३. स्वाद के लिए खाद्य-पदार्थों के मिश्रण का वर्जन। गीता में भी कहा है- विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः। रसवज रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तत। १५.अप्रमाणं न भुजीत, न भुञ्जीताप्यकारणम्। श्लाघां कुर्वन्न भुञ्जीत, निन्दन्नपि न चाहरेत्॥ मुनि मात्रा से अधिक न खाए, निष्कारण न खाए, सरस भोजन की सराहना और नीरस भोजन की निन्दा करता हआ न खाए। ॥ व्याख्या ॥ - इस श्लोक में भोजन करने का विवेक दिया गया है। आयुर्वेद में भी आहार के तीन प्रकार बताए गये -हीनाहार, मिताहार और अति आहार। मिताहार स्वास्थ्य के अनुकूल होता है। हीनाहार और अतिआहार स्वास्थ्य के प्रतिकूल होता है। यद्यपि कुछ व्यक्तियों का विश्वास है कि हीनाहार से पाचन-क्रिया ठीक होती है, पर आयुर्वेद की दृष्टि से वह सही नहीं है जैसा कि कहा गया है Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २५८ खण्ड-३ ___'हीन आहर से बल, सौन्दर्य और पुष्टता नष्ट होती है। आयुष्य और ओज की हानि होती है। शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रिय का विनाश होता है। तथा अस्सी प्रकार के वायु रोग उठ खड़े होते है।' आयुर्वेद में कहा है आहारमग्निः पचति, दोषानाहारवर्जितः। धातून् क्षीणेषु दोषेषु, जीवितं धातुसंक्षये॥ 'अग्नि आहार को पचाती है। आहार के अभाव में वह दोषों को पचाती है। दोष क्षीण होने पर वह धातु को और धातुओं के क्षीण होने पर वह जीवन को लील जाती है।' आहार कैसे करें?-स्वास्थ्यविदों ने भोजन करने की कुछ विधियां निश्चित की हैं। वे बहुत उपयोगी हैं। उनमें . पहली विधि यह है : १. तन्मना भुंजीत-आहार करते समय मन आहार में ही रहना चाहिए। २. नातिद्रुतमश्नीयात्-बहुत जल्दी-जल्दी नहीं खाना चाहिए। ३. नातिविलम्बितमश्नीयात्-बहुत धीरे-धीरे नहीं खाना चाहिए। ४. अजल्पन् अहसन् तन्मना भुंजीत-भोजन करते समय न बातचीत करनी चाहिए और न हंसना चाहिए। मन केवल भोजन में रहना चाहिए। ईष्याभयक्रोधपरिक्षतेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन। प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक् परिपाकमेति॥ मात्रयाप्यभ्यवहृतं, पथ्यं चान्नं न जीर्यति। चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशय्याप्रजागरैः ॥ -'भोजन करते समय मन शांत रहना चाहिए। क्योंकि ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनता, प्रद्वेष, चिंता, शोक, दुःख-शय्या और रात्रि-जागरण-इन अवस्थाओं से प्रभावित व्यक्ति जो खाता है उसका ठीक-ठीक परिपाक नहीं होता। वह यदि पथ्य आहार करता है और युक्त मात्रा में करता है, फिर भी उसका खाया हुआ भोजन उचित रूप में नहीं पचता।' मेघः प्राह १६.जायन्ते ये नियन्ते ते, मृताः पुनर्भवन्ति च। तत्र किं जीवनं श्रेयः, श्रेयो वा मरणं भवेत्॥ मेघ बोला-जिनका जन्म होता है, उनकी मृत्यु होती है, जिनकी मृत्यु होती है, उनका पुनः जन्म होता है। ऐसी स्थिति में जीना श्रेय है या मरना? भगवान् प्राह १७. संयमासंयमाभ्यां तु, जीवनं द्विविधं भवेत्। संयतं जीवनं श्रेयः, न श्रेयोऽसंयतं पुनः॥ भगवान् ने कहा-जीवन दो प्रकार का होता है-संयत जीवन और असंयत जीवन। संयत जीवन श्रेय है, असंयत जीवन श्रेय नहीं है। १८.सकामाकामभेदेन, मरणं द्विविधं सकाममरणं श्रेयः, नाऽकाममरणं स्मृतम्। भवेत्॥ मृत्यु के दो प्रकार हैं-सकाम मृत्यु-आत्मविशुद्धि की भावना से युक्त और अकाम मृत्यु-आत्मविशुद्धि की भावना से रहित। सकाम मृत्यु श्रेय है। अकाम मृत्यु श्रेय नहीं है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ ॥ व्याख्या ॥ जीवन से मरना भला, जो मर जाने कोय । मरना पहिले जो मरे, अजर-अमर सो होय ॥ कबीर ने कहा है-मरना अच्छा है अगर किसी को मरने की कला आ गई हो तो । और मृत्यु की कला यही है। कि मरने से भी पहिले व्यक्ति मृत्यु को देख ले। बस, मृत्यु खत्म हो गयी। महर्षि रमण के सम्पूर्ण जीवन का क्रांतिसूत्र मृत्यु-दर्शन ही है। एक बार वे छोटी उम्र में मरणासन्न हो गए। बचने की आशा नहीं थी । लेट गए और देखने लगे । शरीर मृतवत् निश्चेष्ट हो गया। हाथ पैर उठाने पर भी हिलते डुलते, उठते नहीं शांत स्थिति में शरीर को देखते रहे। देखते-देखते यह देख लिया कि शरीर मर चुका है। किन्तु देखने वाला (द्रष्टा ) अब भी जीवित है। मौत व्यर्थ हो गई। अजर-अमर की अनुभूति हो गई । संबोधि यहां न जीवन का मूल्य है और न मृत्यु का दोनों अनेकों बार हो चुके, किंतु मृत्यु का समुचित निरीक्षण नहीं किया, मृत्यु को जाना नहीं। जीवन का पता भी मृत्यु को जान लेने के बाद चलता है। सभी धर्म उस परम सत्य के साक्षात्कार की विधि हैं। वे मानव के मूल रूप की अभिव्यक्ति के आलंबन हैं। बुद्ध कहते हैं- 'जब तक तुम्हें ख्याल है कि तुम हो, तब तक तुम्हारा भय नहीं मिट सकता। यदि भय से मुक्त होना चाहते हो तो तुम पहले ही मान लो कि तुम हो ही नहीं। तुम इस तरह जीओ कि जैसे हो ही नहीं जिस क्षण यह अनुभव हो जाएगा, भय नहीं रहेगा।' महावीर ने इस अनुभूति के लिए कायोत्सर्ग प्रतिमा दी है। कायोत्सर्ग का अर्थ है देह के प्रति जो अनुराग है, उससे निवृत्त होना। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-काय आदि पर द्रव्यों में स्थिरत्व की बुद्धि को छोड़कर जो निर्विकल्प रूप से आत्मा का ध्यान करता है वह कायोत्सर्ग में स्थित है। देह का बार-बार विसर्जन कर मृतवत् हो सत्य का साक्षात्कार करना ही कायोत्सर्ग प्रतिमा है। 'स्यूयून' साधक से किसी ने पूछा- ध्यान क्या है? स्यूयून ने कहा- ध्यान मिटा देने में है, स्वयं को मिटा देने में है। यदि तुम भी मुर्दे की भांति स्वयं को जीवित ही मिटा दो तो तुम ध्यान में हो ।' बनयान की कविता का पद है १९. अकामं नाम बालानां मरणं जायते मुहुः । पण्डितानां सकामं तु अल्पादल्पं सकृद् भवेत् ॥ 'जीते जी मृतवत् हो जाओ, पूर्णतया मृतवत् हो जाओ। और तब जो जी में आए करो, क्योंकि तब सब ठीक है।' जीवन और मृत्यु की श्रेष्ठता का परिमापक यंत्र संयम है। संयम का अर्थ है-आत्मकेन्द्रित होना, बाहरी वृत्तियों से सर्वथा उदासीन हो जाना। जिसे स्वयं के अतिरिक्त कहीं रस प्रतीत न होता हो, वह संयम का अधिकारी होता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु स्वयं की विस्मृति में कैसे होगी ? जीवन और मृत्यु श्रेष्ठ नहीं है, श्रेष्ठ है - संयम, स्वयं में जीना, स्वयं की स्मृति में जीना । २०. पतित्वा पर्वताद् वृक्षात् प्रविश्य ज्वलने जले। म्रियते मूढचेतोभिः अप्रशस्तमिदं भवेत् ॥ - २१. ब्रह्मचर्यस्य रक्षायै प्रशस्तं मरणं प्राहुः अ. १०: संयतचर्या कुर्यात् प्राणविसर्जनम् । रागद्वेषाऽप्रवर्तनात् ॥ बाल-असंयमी जीवों का बार-बार अकाम-मरण होता है। पंडित-संयमी जीवों का सकाम-मरण होता है और वह अधिक बार नहीं होता- कम से कम एक बार और उत्कृष्टतः पन्द्रह बार होता है, फिर वह मुक्त हो जाता है। मूढ चेतना वाले लोग पर्वत या वृक्ष से नीचे गिरकर, अग्नि या जल में प्रवेश कर मरते हैं, वह अप्रशस्तमरण- अकाममरण कहलाता है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए प्राणों का विसर्जन करना प्रशस्त मरण - सकाममरण कहलाता है, क्योंकि वहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २६० खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ आत्महत्या प्रशस्त नहीं है। उसके पीछे जो हेतु है उसमें जिजीविषा का भाव प्रधान है। जिन कारणों से आत्महत्या की जाती है. उनकी पर्ति हो जाने पर वह रुक सकती है। आत्महत्या की ओर व्यक्ति तभी अग्रसर होता है ज स्वाभिमान पर चोट आती है, कोई भयंकर विपत्ति आ जाती है, गहरा आघात लगता है, जो चाहता है वह प्राप्त नहीं होता है-आदि। इन सबके मूल में राग-द्वेष प्रमुख हैं। किंतु जहां इनमें से कोई कारण उपस्थित न हो, व्यक्ति अपने नश्वर शरीर को अनुपयोगी मान राग-द्वेष से विमुक्त अवस्था में शरीर को छोड़ने का उपक्रम करता है, वह आत्महत्या नहीं है। आत्महत्या आवेश में होती है। आवेश या आवेग समाप्त हो जाने के बाद आप उसे मरने के लिए कहेंगे तो वह तैयार नहीं होगा। किंतु स्वेच्छापूर्वक शरीर के विसर्जन में कोई आवेश या आवेग नहीं है। मृत्यु चाहे आज आए या कल, उसे आप सर्वदा शांत और प्रसन्न पायेंगे। मृत्यु उसके लिए भयावह नहीं है और न पीड़ा का कारण है। २२.यस्य किञ्चिद् व्रतं नास्ति, स जनो बाल उच्यते। जिसमें कुछ भी व्रत नहीं होता, वह मनुष्य 'बाल' कहलाता.. व्रताव्रतं भवेद् यस्य, स प्रोक्तो बालपण्डितः॥ है। जिसके व्रत-अव्रत-दोनों होते हैं-पूर्ण व्रत भी नहीं होता और पूर्ण अव्रत भी नहीं होता, वह बाल-पंडित' कहलाता है। २३. पण्डितः स भवेत् प्राज्ञो, यस्य सर्वव्रतं भवेत्।। जिसके पूर्ण व्रत होता है वह प्राज्ञ पुरुष पंडित' कहलाता है। ___ सुप्तः सुप्तश्च जाग्रच्च, जाग्रदुक्तिविधानतः॥ पूर्वोक्त रीति के अनुसार पुरुषों के तीन प्रकार होते हैं : १. सुप्त, २. सुप्त-जागृत, ३. जागृत।' २४.एवमधर्मपक्षेऽपि धर्माधर्मेऽपि कश्चन। पक्ष तीन होते हैं :-१. अधर्म-पक्ष, २. धर्माधर्म-पक्ष, ३. धर्मपक्षे स्थितः कश्चित्, त्रिविधो विद्यते जनः॥ धर्म-पक्ष। इन तीन पक्षों में अवस्थित होने के कारण पुरुष भी तीन प्रकार के होते हैं : १. अधर्मी, २. धर्माधर्मी और ३. धर्मी। ॥ व्याख्या ॥ प्राणियों के इन तीन विकल्पों का आधार आंतरिक है। भेदों की मीमांसा यहां अभीष्ट नहीं है। साधक की दृष्टि अंतर्मुखी होती है। वह अंतर को देखता है। महावीर ने देखा-प्राणी अभी गहन अंधकार में पड़े हुए हैं। बहुत से मनुष्य भी तम की यात्रा पर चल रहे हैं, धर्म के प्रति उनमें कोई आकर्षण नहीं है। महावीर ने कहा-वे बाल हैं, बच्चे हैं, नादान हैं, अविवेकी हैं, वे संस्कारों के पाश में बद्ध हैं। उनका केन्द्र-बिन्दु बहिर्जगत् है। दूसरे प्रकार के व्यक्तियों को वे कहते हैं-बाल-पंडित। ये ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें विवेक भी है और अज्ञान भी है। ये पूर्णतया सोये भी नहीं हैं और पूर्णतया जगे भी नहीं हैं। इनके जीवन में जागरण और निद्रा दोनों चल रहे हैं, कुछ जागते हैं और कुछ सोते हैं। जागरण शुरु तो हो जाता है किंतु उसका पूर्ण विकास नहीं होता। इस दशा में ममत्व, आसक्ति, राग, द्वेष, मोह, क्लेश आदि वृत्तियां उठती हैं, गिरती हैं। इसलिए इस अवस्था का नाम धर्म-अधर्म पक्ष, बाल-पंडित रखा है। तीसरा पक्ष स्पष्ट है। यहां चेतना अकुशल वृत्तियों से हटकर कुशल में प्रविष्ट हो जाती है। साधक अंतर्जीवन के सघन-सागर में निमग्न रहता है। आत्म-स्मृति से प्रतिक्षण जुड़ा रहता है। संतों ने इस स्मरण को ही सार कहा है कबिरां सुमिरन सार है, और सकल जंजाल। आदि अन्त मध्य सुमिरन, बाकी है भ्रम जाल॥ यह यात्रा धर्म की है, अनासक्ति की है और सहजता की है। इसलिए इसे धर्म-पक्ष, 'पंडित' कहा है। १. अव्रती को सुप्त, व्रताव्रती को सुप्त-जागृत और सर्वव्रती को जागृत कहा जाता है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २६१ २५. हव्यवाह प्रमध्नाति जीर्ण काष्ठं यथा ध्रुवम् । तथा कर्म प्रमध्नाति, मुनिरात्मसमाहितः ॥ 'जं अण्णाणी कम्मं खवेई बहुयावि वाससयसहस्सेहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेई उच्छासमेत्तेण ॥' अज्ञानी को जिन कर्मों के क्षय करने में लाखों वर्ष लगते हैं, वहां मनोवाक्काय से संयमित ज्ञानी उन कर्मों को श्वास मात्र में क्षय कर देता है। इससे संयम -संवर या निवृत्ति की महत्ता स्पष्ट अभिलक्षित होती है। महत्त्व क्रिया का नहीं है। महत्त्व है संयमयुक्त क्रिया का यह सूत्र प्रत्येक व्यक्ति के हृदय पटल पर अंकित रहना चाहिए। योगों (मन, वचन, काय) से संयम (गुप्ति) के अभाव में कष्ट बहुत उठाया जाता है, किंतु सार बहुत कम निकलता है। समग्र साधना-पद्धति प्रवृत्तियों के संघमन की है आत्मशासित साधक वह होता है जो बाहर से सर्वथा संयमित होकर आत्म ध्यान में प्रतिष्ठित हो गया है। जिसने पिंडस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान की यात्रा का अंत कर रूपातीत की यात्रा शुरू कर दी है, जिसके ध्यान के लिए अब बाहर के विषय - अवलंबन छूट चुके हैं। वह आत्म-समाधि-संपन्न साधक कर्मों को इतनी शीघ्रता से भस्मसात् कर देता है, जैसे कि अग्नि सूखे काष्ठ को क्षणभर में ही भस्मसात् कर देती है। २६. कर्मानुभावतो जीवः, परोक्षे द्वे प्रविद्येते अ. १०: संयतचर्या जिस प्रकार अनि जीर्ण काष्ठ को भस्म कर डालती है उसी प्रकार समाधियुक्त आत्मा वाला मुनि कर्मों को भस्म कर डालता है। || व्याख्या || नानागतिसु संशयस्तत्र गच्छति । जायते ॥ कर्म के अनुभाव से जीव नाना गतियों में परिभ्रमण करता है। नरक और स्वर्ग- ये दो परोक्ष हैं। परोक्ष के विषय में संशय उत्पन्न हो जाता है। इसलिए कहा है || व्याख्या || संशय का क्षेत्र प्रत्यक्ष नहीं है। मनुष्य और तिर्यंच गति जैसे प्रत्यक्ष है वैसे नरक और देव गति नहीं है। हालांकि मनुष्य व तिच गति भी स्थूल रूप से प्रत्यक्ष है, सूक्ष्म रूप से नहीं। इनमें भी संशय के कई कारण बन सकते हैं। नरक और देव परोक्ष होते हुए भी कुछ-कुछ स्थितियों में प्रत्यक्ष जैसे परिचय करा देते हैं सूक्ष्म शरीर के फोटो, सूक्ष्म जगत की विचित्र विचित्र घटनाएं पूर्वजन्म की स्मृतियां, सूक्ष्म शरीरों की स्थूल शरीर जैसी चेष्टाएं तथा अनुकूल व्यक्तियों का सहयोग व प्रतिकूलों का असहयोग आदि ऐसे कर्तव्य हैं जिनसे उनके अस्तित्व का स्पष्ट बोध हो जाता है। प्रत्यक्षद्रष्टा - आत्मज्ञानी आप्तपुरुषों का सहवास अथवा उनका उपदेश भी संशय के निराकरण में हेतु बनता है। आत्मद्रष्टाओं के लिए कुछ भी अप्रत्यक्ष नहीं है। वे सब कुद सहज देखते हैं और जैसा देखते हैं वैसा ही निरूपण करते हैं। विश्वास या श्रद्धा के वे ही एकमात्र केन्द्र होते हैं। इसलिए कहा है-वह सत्य है, निःशंकित है, परिपूर्ण है, अनुत्तर है, जिसका निरूपण जिनों- आत्मप्रष्टाओं ने किया है।' भगवान् महावीर इसी संदेह की निवृत्ति के लिए मेघ से कह रहे हैं कि 'नरक नहीं है, स्वर्ग नहीं है' इस प्रकार 'संज्ञा' अवधारणा या कल्पना न करे।' वे हैं यह असंदिग्ध हैं। इसका कारण है-तदनुरूप कर्मों का विपाक, फल। सत्कर्मों का फल स्वर्ग है और असत् कर्मों का फल नरक ।' दुःख और सुख कर्म का ही अनुभाग - विपाक है। २७. नरको नाम नास्तीति नैवं संज्ञां निवेशयेत् । स्वर्गोऽपि नाम नास्तीति नैवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ , 'नरक नहीं है' - इस प्रकार की अवधारणा न करे । 'स्वर्ग नहीं है' इस प्रकार की अवधारणा न करे। - || व्याख्या || मनुष्य प्रत्यक्ष में संदिग्ध नहीं होता। वह संदिग्ध होता है परोक्ष में । दृश्य में जितना विश्वास है उतना अदृश्य में नहीं; जबकि सत्य दोनों हैं। प्रत्यक्ष में सत्य का आग्रह करने वाला परोक्ष की सचाई को झुठला देता है। मनुष्य और तिबंध ये दोनों योनियों प्रत्यक्ष हैं, वैसे स्वर्ग और नरक नहीं लेकिन उनके प्रत्यक्ष न होने से वे नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के ज्ञान की एक सीमा होती है। वह इस सीमा से परे का विषय है। जिस व्यक्ति का आवरण हट जाता है, उसके लिए मनुष्य जैसा ही वह प्रत्यक्ष है इसलिए अपनी क्षमता को बढ़ाए न कि सत्य को झूठलाए भगवान् महावीर ने इसलिए अपने शिष्यों से कहा कि 'नरक और स्वर्ग नहीं है' ऐसा संज्ञान मत करो। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २६२ खण्ड-३ २८.पञ्चेन्द्रियवधं कृत्वा, महारम्भपरिग्रहो। जो पुरुष पंचेन्द्रिय का वध करता है, महा-आरम्भ- हिंसा मांसस्य भोजनश्चापि, नरकं याति मानवः॥ करता है, महा-परिग्रही होता है और जो मांस-भोजन करता है, वह नरक में जाता है। २९. सरागसंयमो नूनं, संयमासंयमस्तथा। स्वर्ग में जाने के चार कारण है : १. सराग संयम-अवीतराग अकामनिर्जरा बाल-तपः स्वर्गस्य हेतवः॥ ___ का संयम, २. संयमासंयम-अपूर्ण संयम, ३. अकाम निर्जरा-जिसमें मोक्ष का उद्देश्य न हो वैसे तप से होने वाली आत्मशुद्धि और ४. बाल-तप-अज्ञानी का तप। ३०.विनीतः सरलात्मा च, अल्पारम्भपरिग्रहः। जो विनीत और सरल होता है, अल्प-आरंभ और अल्पसानुक्रोशोऽमत्सरी स, जनो याति मनुष्यताम्॥ परिग्रह वाला होता है, दयालु और मात्सर्य रहित होता है, वह मृत्यु के बाद मनुष्य-जन्म को प्राप्त होता है। ३१.मायाञ्च निकृतिं कृत्वा, कृत्वा चासत्यभाषणम्। तिर्यंच-पश-पक्षी आदि की गति में उत्पन्न होने के चार कूटं तोलं न मानञ्च, जीवस्तिर्यग्गतिं व्रजेत्॥ कारण है : १. कपट, २. प्रवंचना, ३. असत्य-भाषण और ४. कूट तौल-माप। ॥ व्याख्या ॥ इन चार श्लोकों में नरक, स्वर्ग, मनुष्य और तिर्यंच-इन चार गतियों की प्राप्ति के चार-चार कारण निर्दिष्ट हैं। इनके अध्ययन से यह सहज पता लग सकता है कि किस अध्यवसाय वाले प्राणी किस योनि में जाते हैं। कर्म का फल अवश्य होता है-यह जैन दर्शन का ध्रुव तथ्य है। अपने-अपने कर्मों के अनुसार व्यक्ति जन्म-मरण करता है। उपर्युक्त निर्दिष्ट कारण एक संकेत मात्र हैं। वे तथा उन जैसे अनेक कारणों के संयोग से व्यक्ति को वे-वे योनियां प्राप्त होती हैं। केवल ये ही कारण नियामक नहीं हैं। नरक जाने का एक हेतु मांसाहार है किन्तु मांस खाने वाले सभी व्यक्ति नरक में ही जाते हों, ऐसी नियामकता नहीं है। यह तथ्य अवश्य है कि मांसाहार व्यक्ति में क्रूरता पैदा करता है और उससे कर्म-परंपरा तीव्र होती चली जाती है। अतः इन कारणों के आलोक में हमें स्पष्ट जान लेना चाहिए कि गति की प्राप्ति में किन-किन अध्यवसायों या प्रवृत्तियों का क्या-क्या परिणाम होता है। ३२.शुभाशुभाभ्यां प्रमादबहुलो कर्माभ्यां, संसारमनुवर्तते। जीवोऽप्रमादेनान्तमृच्छति॥ प्रमादी जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में अनुवर्तन करता है और अप्रमादी जीव संसार का अन्त कर देता है। ३३. बोधिमासाद्य जायन्ते, भवभ्रमपराङ्मुखाः। अबोधिः परमं कष्टं, बोधिः सुखमनुत्तरम्॥ कुछ मनुष्य बोधि को प्राप्त कर संसार-भ्रमण से पराङ्मुख हो जाते हैं। अबोधि परम कष्ट है और बोधि अनुत्तर सुख। ॥ व्याख्या ॥ अबोधि दुःख है और बोधि सुख है। अबोधि का अर्थ-अज्ञान है और मिथ्याज्ञान भी है। अज्ञान से भी अधिक खतरनाक है मिथ्याज्ञान। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु अल्प ज्ञान है। मिथ्याज्ञान विपरीत ज्ञान है। संसार भ्रमण का मूल हेतु यही है। अबोधि संसार से विमुख नहीं करती। वह मानव को संसार की दिशा में ही लिए चलती है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २६३ अ. १० : संयतचर्या संसार की विमुखता के लिए बोधि अपेक्षित है। उसकी प्राप्ति उन्हीं से हो सकती है जो स्वयं बोधि को प्राप्त है, जिन्हें बोधि का स्पर्श हुआ है। सद्गुरु की उपासना, सत्संग का प्रयोजन का हेतु इसीलिए है सद्गुरु की सन्निधि से । अनेक लोगों ने जीवन नैय्या पार की है। सत्संग को भव सागर से पार करने के लिए नौका की उपमा ही है 'सत्सङ्गात् संजायते ज्ञानं' सत्संग से वह ज्ञान प्राप्त होता है जिसे पाकर व्यक्ति संसार से उदासीन बन जाता है, संसार के स्वरूप का उसे दिग्दर्शन हो जाता है। अबोधि ऐसा नहीं कर सकती। इसलिए अबोधि को दुःख कहा है बोधि सहज ही व्यक्ति को शनैः-शनैः आत्मस्थ बना देती है, उसके अज्ञानतम का उच्छेद कर देती है और उसे पूर्ण सुखी आनंदित बना देती है। बोधि प्राप्ति का एक उपाय है सत्संग, उसके अन्य नियम भी हैं। यह आवश्यक नहीं है कि सबको सत्संग का योग मिले ही कुछ-कुछ व्यक्ति स्वतः ही अपनी साधना के द्वारा सहज ही उसे प्राप्त कर लेते हैं, कुछ अन्य निमित्तों को पाकर बुद्धत्व को प्राप्त हो जाते हैं। ३४. स्वयं बुद्धा भवन्त्येके, केचित् स्युर्बुद्धबोधिताः । केचित् प्रत्येकबुद्धाः स्युः बोधिनांनायना भवेत् ॥ ॥ व्याख्या ॥ बोधि का अर्थ है रत्नत्रयी- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगुचारित्र इन तीनों का योग संसार का अंत करने वाला है। सम्यग्दर्शन सबका मूल है। बोधि प्राप्ति सहज नहीं है। वह कुछ व्यक्तियों को बिना उपदेष्टा के प्राप्त हो जाती है। वे 'स्वयंबुद्ध' कहलाते हैं। सभी तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं। यह पूर्व कर्म की अल्पता पर और वर्तमान की महान् तपस्या पर आधारित है। कर्म-क्षय के बिना आत्मा की शुद्धि नहीं होती। अशुद्ध आत्मा में धर्म (बोधि) का अंकुर फूटता नहीं। दूसरी श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं जो किसी उपदेष्टा के द्वारा धर्म को स्वीकार करते हैं। स्वयंबुद्ध कम होते हैं, अधिकांश व्यक्ति उपदेश से सत्य मार्ग प्राप्त करते हैं। सत्यासत्य का निर्णय करने में वे स्वतंत्र होते हैं। उपदेशक उन्हें तत्त्व-दर्शन देते हैं। तत्त्व- ज्ञान को पाकर वे मुक्ति की ओर अपने आप ही प्रेरित होते हैं और दुःखों का अंत करते हैं। वे बुद्धबोधित होते हैं। संसार का अन्त करने वालों में कुछ जीव 'स्वयंबुद्ध" होते हैं, 'बुद्धबोधित' होते हैं और कुछ 'प्रत्येक बुद्ध'' होते हैं। इस प्रकार बोधि की प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं। २ तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों को बोधि के लिए बाहरी निमित्त मिलता है। वे कोई एक विशिष्ट घटना से प्रतिबुद्ध हो जाते हैं। वे 'प्रत्येक बुद्ध' कहलाते हैं। मिट्टी कुंभकार, चाक आदि निमित्त को पाकर घड़े आदि प्रकारों में रूपांतरित हो जाती है, इसी प्रकार अंतश्चेतना बाहरी कारणों से प्रबुद्ध हो जाती है वे हैं निमित्त, न कि उपादान निमित्त का कोई अस्तित्व नहीं रहता । महात्मा बुद्ध रोगी, वृद्ध और शव का योग पाकर संसार से विरक्त बन गए। महाराज भर्तृहरि अमरफल को देख संसार से उद्विग्न हो गए। जैन आगमों में ऐसी कई घटनाएं हैं भरत चक्रवर्ती शरीर प्रेक्षा करते-करते अनित्य भाव में लीन हो गए। नमि राजर्षि- एक चूड़ी का शब्द नहीं होता, अनेक होती हैं तब होता है', यह सोच एकत्व भावना में लीन हो गए 'जो वृक्ष प्रातः फूल और पत्तों से सुशोभित था, वही अब असुन्दर सा प्रतीत होता है जीवन का भी यही क्रम है। पहले सरस लगता है और बाद में नीरस इसी भावना से नम्गति नृप बोधि को प्राप्त हो गए। ये घटनाएं प्रत्येक - बुद्धत्व की हैं। ३५. योग्यताभेदतः पुंसां रुचिभेदो हि जायते । रुचिभेदाद् भवेद् भेदः, साधनाध्वावलम्बने ॥ १. स्वयंमुख उपदेश आदि के बिना स्वतः बोध पाने वाले। २. बुद्धबोधित - बुद्धों के द्वारा प्रतिबोध पाने वाले । सभी मनुष्यों की योग्यता समान नहीं होती इसलिए उनकी रुचि भी समान नहीं होती। रुचि भेद के कारण साधना के विभिन्न मार्गों का अवलंबन लिया जाता है। ३. प्रत्येक बुद्ध - किसी एक घटना विशेष से बोध पाने वाले । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २६४ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ साधना का मूल स्रोत एक है। वह प्रत्येक साधक में भिन्नता नहीं देखता। भेद होता है बाहरी विशेषता के आधार पर। किसी साधक में श्रुत की विशेषता होती है, किसी में तप की, किसी में ध्यान की, किसी में निर्भयता की, किसी में विनय की, किसी में कष्ट-सहिष्णुता आदि की। कुछ अपनी साधना में व्यस्त रहते हैं और कुछ अपना और पराया दोनों का हित साधते हैं। यह सब रुचि-भेद है। इससे मूल में अंतर नहीं आता। बाहरी विशेषताओं को मूल मानने पर. भ्रांति हो जाती है। ३६. बुद्धा केचिद् बोधकाः स्युः, केचिद् बुद्धा न बोधकाः। आत्मानुकम्पिनः केचित्, केचिद् द्वयानुकम्पकाः॥ कुछ स्वयंबुद्ध भी होते हैं और दूसरों को बोध- उपदेश भी देते हैं। कुछ स्वयंबुद्ध होते हैं पर दूसरों को बोध नहीं देते। कुछ केवल आत्मानुकंपी होते हैं और कुछ उभयानुकंपी होते हैं। ३७. क्षपिताशेषकर्मा हि, मुनिर्भवाद् विमुच्यते। मुच्यते चान्यलिङ्गोऽपि, गृहिलिङ्गोऽपि मुच्यते॥ अशेष कर्मों का क्षय करने वाला मुनि भव से मुक्त होता है। मुक्त होने में आत्म-शुद्धि की प्रधानता है, लिंग-वेश की नहीं। जो वीतराग बनता है वह मुक्त हो जाता है, भले फिर वह अन्यलिंगी-जैनेतर साधु के वेश में हो या गृहलिंगी-गृहस्थ के वेश में हो। ॥ व्याख्या ॥ मुक्ति की आधारशिला है-आत्म-विशुद्धि। आत्म-शुद्धि के लिए वीतरागता की अपेक्षा है। राग-द्वेष से मुक्त वही होता है जो वीतराग है। आचार्य कहते हैं : सिताम्बरत्वे न दिगम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववाद। . __न पक्षपाताश्रयणाच्च मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव॥ . 'मोक्ष न श्वेत वस्त्रों के पहनने में है, न वस्त्रों का त्याग करने में है, न तर्कवाद में है, न तत्त्वचर्चा में है और न पक्षपात का आश्रय लेने में है। मुक्ति है कषाय-विजय में।' राग, द्वेष और कषाय की स्थिति में मुक्ति नहीं होती, यह ध्रुव सिद्धांत है। गीता में कहा है-'जो लोग अभिमान और मोह से मुक्त हो गए हैं, जिन्होंने आसक्तियों को जीत लिया है, जो निरंतर अध्यात्म में लीन रहते हैं, जिनकी इच्छाएं शांत हो गई हैं, जो सुख-दुःखात्मक द्वन्द्वों से विमुक्त हैं और जो अमूढ़ हैं वे शाश्वत स्थान को पाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है-'सिद्ध वे होते हैं जो शुद्ध होते हैं। शुद्धि में ही साधुता है, दर्शन है, ज्ञान है और मुक्ति है।' ___अमृतचन्द्राचार्य के शब्दों में भी यही है-आत्मा को अशुद्ध करने वाले राग, द्वेष आदि पर-द्रव्य हैं। जो इन्हें छोड़ स्व-आत्मा में रति करता है वह समस्त पर-द्रव्यों से मुक्त हो जाता है। फिर आत्म-ज्योति प्रकट होती है और चैतन्य के आलोक से वह भर जाता है, पूर्ण शुद्ध होकर फिर मुक्त हो जाता है। राग-द्वेष की मुक्ति के लिए आत्म-बल की अपेक्षा है। इसमें वर्ण, जाति, लिंग, वेश आदि का महत्त्व नहीं है। ये गौण हैं। मोक्ष अवस्था की स्थिति में प्रत्येक मुक्तात्मा में समानता होती है। मुक्ति का द्वार सबके लिए खुला है। ३८.प्रत्ययार्थञ्च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम्। यात्रार्थ ग्रहणार्थञ्च, लोके लिङ्गप्रयोजनम्॥ लोगों को यह प्रतीत हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के वेश की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा-को निभाना और 'मैं साधु हूं', ऐसा ध्यान आते रहना-इस लोक में वेश-धारण के ये प्रयोजन हैं। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २६५ || व्याख्या || प्रश्न होता है कि मुनि के लिए वेश की क्या आवश्यकता है ? प्रस्तुत श्लोक में वेश धारण के तीन कारण बतलाये हैं:-१. लोक प्रतीति, २. संयम निर्वाह, ३. स्व-प्रतीति । ये तीनों कारण मुनि की बाह्य और आंतरिक पवित्रता के हेतु बनते हैं। १. मुनि को अपने स्व- वेश में देखकर लोगों को यह प्रतीति होती है कि यह 'मुनि' है। इसके साथ हमारा क्या कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है, आदि। २. संयम निर्वाह के लिए शरीर रक्षा आवश्यक होती है। जहां शरीर है उसके निर्वहन की भावना है, वहां वस्त्रों का अपना स्थान है। जो व्यक्ति निष्पतिकर्म हो जाता है, वह चाहे वस्त्र रखे या नहीं, यह उसकी अपनी इच्छा है। किन्तु जो शरीर को चलाता है, उसे उसकी रक्षा भी करनी पड़ती है। वस्त्र शरीर निर्वाह का एक उपाय है। ३. तीसरा कारण है - स्व-प्रतीति । यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मुनि वेश में अपने को देखकर व्यक्ति के मन में यह अध्यवसाय निरंतर बना रहता है कि 'मैं साधु हूं, मुझे यह करना है, यह नहीं करना है। अपने अस्तित्व बोध का यह अनन्य उपाय है। इससे जागरूकता और अप्रमत्तता का प्रादुर्भाव होता है । ' - अ. १० : संयतचर्या ३९. अथ भवेत् प्रतिज्ञा तु, मोक्षसद्भावसाधिका । ज्ञानञ्च दर्शनं चैव चारित्रं चैव निश्चये ॥ यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा-संकल्प हो तो निश्चय दृष्टि से उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। ॥ व्याख्या ॥ मोक्ष के लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता है? सवस्त्र होना चाहिए या निर्वस्त्र ? यह प्रश्न गौण है। मोक्ष शरीर नहीं है। वस्त्र, भोजन, पानी आदि शरीर की पूर्ति के साधन हैं दर्शन और चारित्र का चरम विकास मोक्ष है। अतः अंतरंग साधन ये हैं ४०, संशयं परिजानाति, संसारं परिवेत्ति संशयं न विजानाति, संसारं परिवेत्ति सः । न ॥ و ४१. पूर्वोत्थिताः स्थिरा एके, पूर्वोत्थिताः पतन्त्यपि । नोत्थिता न पतन्त्येव भङ्ग शून्यश्चतुर्थकः ॥ मुक्ति आत्मा की पूर्ण शुद्धावस्था है। ज्ञान, वेश आदि बहिरंग साधन हैं। || व्याख्या || जिज्ञासा हमारे ज्ञान-परिवर्धन की कुंजी है वह बौद्धिकता की सूचना करती है। जिसमें जिज्ञासा नहीं है, उसमें ज्ञान का विकास भी नहीं है। जिज्ञासा को दबाने का अर्थ है ज्ञान को कटघरे में बंद रखना । जिसमें संशय - जिज्ञासा है, वह संसार को जानता है। जिसमें जिज्ञासा का अभाव है, वह संसार को नहीं जानता। कुछ पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और अंत तक उसमें स्थिर रहते हैं। कुछ पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और बाद में गिर जाते हैं। कुछ साधना के लिए न उद्यत होते हैं और न गिर हैं। इसका चतुर्थ भंग शून्य होता है बनता ही नहीं। ॥ व्याख्या ॥ व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं-१. पूर्वोत्थित और पश्चाद् स्थित। २. पूर्वोत्थित और पश्चाद् निपाती। ३. न पूर्वोत्थित और न पश्चाद् निपाती । आत्मा पर पूर्व संस्कारों का गहरा प्रभाव होता है। अच्छे संस्कार व्यक्ति को सहजतया अच्छाई की ओर खींच लेते हैं और बुरे संस्कार बुराई की ओर शुभ संस्कारी व्यक्ति ही साधना पर आरूढ़ हो सकते हैं, अशुभ संस्कारी नहीं साधना के लिए पवित्रता ही पहली शर्त है अशुभ संस्कारी व्यक्ति में वह नहीं होती। शुभ संस्कारी साधना पथ पर आने के बाद अपने संस्कारों को और अधिक पवित्र और सुदृढ़ बनाते चलते हैं अतः वे अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं होते। जो साधना क्षेत्र में प्रविष्ट होकर संस्कारों का निर्माण नहीं करते वे अशुभ संस्कारों के झंझावात में अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख पाते। वे साधना से परे हट जाते हैं जिनके संस्कारों में अशुभता की प्रबलता होती है, वे न साधना में आते हैं और न गिरते हैं। गिरते वे हैं जो चलते हैं। नहीं चलने वाले क्या गिरेंगे ! Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २६६ ४२. यत् सम्यक् तत् भवेन्मौनं, यन्मौनं सम्यगस्ति तत् । मुनिः मौनं समादाय, धुनीयाच्च शरीरकम् ॥ खण्ड - ३ जो सम्यक् - यथार्थ है, वह मौन - श्रामण्य है और जो मौन है, वह सम्यक् है। मुनि मौन को स्वीकार कर कर्मशरीर को प्रकंपित करे, शरीर मुक्त बने। || व्याख्या ॥ मुनि का कर्म मौन है। वह आत्मशुद्धिमूलक होने से सम्यक् है । एक कारण है और दूसरा कार्य। कार्य और कारण के अभेद दर्शन से सम्यक् को मौन और मौन को सम्यक् कहा है। मुनि का कर्म इसलिए सम्यक है कि उसमें राग, द्वेष, कषाय, मोह आदि का उपशम या क्षय होता है। मौन धर्म की समुपासना का फल है - स्थूल और सूक्ष्म शरीर से मुक्त होना । सूक्ष्म शरीर का जब अंत हो जाता है, तब भवचक्र रुक जाता है। समस्त सत् और असत् इच्छाओं से सर्वथा आत्मा बिलग हो जाती है अंत ही जन्म का अंत है । इच्छाओं का 'सत्य मौन में घटित होता है' - यह समस्त ऋषियों का अनुभूत स्वर है, और यह भी अनुभूत वाणी है कि सत्यवान् व्यक्ति मौन को उपलब्ध हो जाता है। इस दृष्टि से मौन और सत्य दोनों परस्पराश्रित है एक दूसरे के अभिन्न मित्र हैं। सम्यक का अर्थ है सत्य सत्य यानि अस्तित्व की अनुभूति का ज्ञान आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-साधक बाह्य वचन व्यवसाय का विसर्जन कर अंतरंग में होने वाले वाक् प्रपंच का भी विसर्जन करे। परमात्म-प्रदीप को प्रकट करने की यह संक्षिप्त योगविधि है।' वाक्जाल से मुक्त होना साधक के लिए अत्यंत अपेक्षित है। अन्यथा उसका समग्र शक्ति प्रवाह व्यर्थ अंतर्वाणी और बाह्यवाणी के व्यापार में व्यय हो जाता है। मौन केवल शारीरिक तनाव की मुक्ति के लिए नहीं है, यह उसका क्षुद्रतम उपयोग है उसकी वास्तविक उपादेयता है-चैतन्य का साक्षात्कार | जहां स्पंदन शांत हो जाते हैं, उस क्षण में हम स्वयं के भीतर होते हैं। मौन उसी चैतन्य की अनुभूति के लिए है। उसके अनेक भेद हैं। अंतर्मौन तक पहुंचने की ये प्राथमिक सीढ़ियां हैं। यथार्थ मौन वही है जहां साधक की अंतर्वाणी मुखरित. हो जाती है और बाह्य सर्वथा शांत मौन के क्षणों में फिर सत्य-अस्तित्व बोलता है, वह नहीं । उसका अपना 'मैं' 'अहं' मिट जाता है। वह उसी परम सत्य की एक कड़ी बन जाता है। मौन साधकों के लिए अंतर्मोन का अभ्यास उपादेय है। अन्यथा जहां उन्हें पहुंचना है वहां पहुंच पाना असंभव है। अंतर्मोन का अर्थ है- विचार नियमन तथा विचार शून्यता विचारों के निग्रह के लिए आपको विचारों के प्रति जागरुक या साक्षी होना होगा। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, विचारों का सिलसिला टूटता चला जाएगा। एक विचार से दूसरे विचार के उत्पन्न होने के मध्य दूरी का अनुभव होगा और इसी से शनैः-शनैः आप शून्य में प्रवेश कर जाएंगे। विचार नियमन का इससे अधिक सरल और कारगर उपाय नहीं है। यह स्पष्ट है कि विचारों का नियंत्रण दुरूह है, किन्तु साधक के आत्म-बल, दृढ भावना, श्रद्धा और सतत अभ्यास के समक्ष उसकी दुरूहता स्वयं सरलता में परिणत होती चली जाती है। साधक केवल जो जैसा आता है उसे उसी रूप में शांत समभाव से देखता रहे, न विचारों को लाने का प्रयास करे और न उन्हें हटाने का बस, वह तो उनके प्रति जागृत रहे। ४३. स्वयंबुद्ध मया बुद्धं बोधितत्त्वं सुदुर्लभम् । शरण्य! शरणं देहि, येन बोधिर्विशुद्धयति ॥ हे स्वयंबुद्ध मैंने सुदुर्लभ बोधितत्त्व को जान लिया है शरण्य! मुझे शरण दो, जिससे मेरी बोधि विशुद्ध बन जाए। ॥ व्याख्या ॥ बोधि सुदुर्लभ है, किन्तु स्वयंबुद्ध भगवान महावीर के सहवास, सान्निध्य से उसके लिए सुलभ बन गई। 'सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् सत्य को उपलब्ध पुरुषों की संगति क्या नहीं करती है? वह क्षुद्र को महान् बना देती है, भ्रांत को अभ्रान्त बन देती है, पथ-भ्रष्ट को मार्ग में सुस्थिर कर देती है और नर को नारायण, अशिव को शिव बना देती है। मेघ शिव की कोटि में आ गया। उसके रोम-रोम से आनंद का स्रोत फूट पड़ा। उसने कहा- प्रभो ! मैं अब आपकी शरण में हूं, मेरी पतवार आपके हाथों में है। मुझे आप ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि मेरी बोधि सदा विशुद्ध बनी रहे । उसमें कहीं कोई मलिनता प्रविष्ट न हो जाए। बस मेरा आपसे यही अनुनय है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे संयतचर्यानामा दशमोऽध्यायः । ... Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-११ आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन आत्मा चेतन द्रव्य है। वह स्वतंत्र है। जड़ से उसका अस्तित्व पृथक् है। जड़ से संपृक्त होते हुए भी वह जड़ नहीं है। चेतना का पूर्ण अभ्युदय होने पर आत्मा का जड़ से संबंध-विच्छेद हो जाता है। जड़-विजातीय द्रव्य की विद्यमानता में आत्मा का संचरण होता रहता है। आत्मा की विविध अवस्थाओं का हेतु है कर्म और उसकी तज्जन्य चेष्टाएं। कर्म और कर्म की प्रतिक्रिया का स्वरूप अधिगत हो जाने पर व्यक्ति कर्म पर अनुशासन कर सकता है। वह कर्म-प्रवाह को रोककर अकर्मा हो जाता है। अकर्म के लिए संसार नहीं है। कर्म का प्रवाह संसार है। __ आत्मा को स्वभाव की ओर किस प्रकार प्रेरित किया जा सकता है और वह विभाव से कैसे मुक्त हो सकती है. इसका विवेक इस अध्याय में दिया गया है। भगवान् प्राह १. अस्त्यात्मा चेतनारूपो, भिन्नः पौद्गलिकैगुणैः। स्वतन्त्रः करणे भोगे, परतन्त्रश्च कर्मणाम्॥ आत्मा का स्वरूप चेतन है। वह पौद्गलिक गुणों से भिन्न है। . वह कर्म करने में स्वतंत्र और उसका फल भोगने में परतंत्र है। || व्याख्या ॥ आत्मा और पुद्गल (Matter) दोनों भिन्न हैं। दोनों में कुछ सामान्य गुणों का एकत्व होते हुए भी चेतन का स्वबोध, ज्ञान-गुण उससे सर्वथा भिन्न है। पुद्गल में अपना कोई बोध नहीं है। वह जड़ है। निर्जीव और सजीव के बीच एक भेद-रेखा विज्ञान भी स्पष्ट देखने लगा है। शरीर से निकलने वाला वलय चेतना का ही विशेष गुण-धर्म है। प्राणी की प्राणशक्ति क्षीण होने पर आभा-वलय भी क्षीण होता हुआ देखा गया है। इससे दोनों की भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है। जड़ और चेतन की भिन्नता के द्योतक और भी कुछ लक्षण है। _ 'अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण य'-आत्मा ही सुख की कर्ता और विकर्ता है। यह वाक्य आत्म-स्वातंत्र्य का पूर्ण परिचायक है। यदि परतंत्र हो तो फिर उसके वश में कुछ नहीं होगा, फिर वह दूसरों के हाथ की कठपुतली होगी। मुक्ति या निर्वाण की बात कोई तथ्य-संगत नहीं होगी। सुख-दुःख के निर्माण में उसे पूर्ण स्वतंत्रता है। परतंत्रता है तो सिर्फ इतनी ही कि कर्म का भोग न चाहने पर भी उसे भोगना पड़ता है, क्योंकि स्वयं उसने तथानुरूप कर्मों का संग्रह किया है। यह भी स्पष्ट है कि चेतन आत्मा अचेतन कर्म का संग्रह कैसे करे? कर्म ही कर्म को आकृष्ट करता है। संस्कार अन्य संस्कार के लिए द्वार खुला रखता है। उसी मार्ग से वे आते हैं और आत्मा को बांधते हैं। वे जब आत्मा से अलग होते हैं तब स्व-बोध के कारण आत्मा रागात्मक, द्वेषात्मक और मोहात्मक रूप में परिणत नहीं होती। जिस दिन अज्ञान का आवरण मंद, मन्दतर और मन्दतम हो जाता है, उसी दिन स्वबोध, आवरण क्षय और दुःख क्षय के लिए वह सहज हो जाता है। संस्कार (कर्म) उखड़ते हैं किन्तु वह उन्हें सहारा नहीं देती, उनके साथ प्रवाहित नहीं होती। शनैः-शनैः संस्कारों का पथ उखड़ जाता है और आत्मा अपने मूलरूप में विराजमान हो जाती है। यही पूर्ण स्वातंत्र्य है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. २६९ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन २. अध्रुवे नाम संसारे, दुःखानां काममालये। यह संसार अध्रुव-अशाश्वत है और दुःखों का आलय परिभ्राम्यन्नयं प्राणी, क्लेशान् व्रजत्यतर्कितान॥ है। इसमें परिभ्रमण करता हआ प्राणी अतर्कित क्लेशों को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ महावीर ने कहा-संसार दुःख है। बुद्ध ने भी भिक्षुओं को कहा-'भिक्षुओ! दुःख है, इसका अनुभव करो।' महावीर और बुद्ध दुःखी नहीं थे, जिस अर्थ में सामान्य मानव है। किन्तु दुःख की वास्तविकता उनके पास थी। उन्होंने देखा-उत्पन्न होना दुःख है, फिर मरना दुःख है। उत्पत्ति और मृत्यु के मध्य बुढ़ापा, रोग, शोक, प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग ये भी दुःख हैं। दुःख का कारण है और उसके नाश का उपाय है। वे दुःख से कतराए नहीं, किंतु जागे और दुःखोच्छेद के लिए कटिबद्ध हो गए। दुःख है-यह सामान्य व्यक्ति का भी अनुभव है, किंतु जागरण नहीं है। दुःख सुख में बदल जाएगा, इसी आशा से मानव घसीटा चला जा रहा है। लेकिन आशा कभी सफल नहीं हुई। न पहले किसी की हुई है और न होगी। जो सुख आता हुआ दिखाई दे रहा है, जैसे ही आया, फिर विषाद का क्रम शुरू हो जाता है। धर्म वह खोज है जिससे आदमी सदा-सदा के लिए दुःख से मुक्त हो जाए। वह बाहर सुख की खोज नहीं करता। बाहर तो जन्मों-जन्मों में देखते आए हैं, उससे तो सुख मिला नहीं। इसलिए अब भीतर की यात्रा शुरू करना है। ३. पुनर्भवी स्ववृत्तेन, विचित्रं धरते वपुः। जीव अपने आचरण से बार-बार जन्म लेता है और विचित्र कृत्वा नानाविधं कर्म, नानागोत्रासु जातिषुः॥ प्रकार के शरीरों को धारण करता है। वह विभिन्न प्रकार के कर्मों का उपार्जन कर विभिन्न गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न होता है। ॥ व्याख्या ॥ शरीर के आधार पर जीवों के छह भेद किए गए हैं। वे ये है :-१. पृथ्वी है काय जिनकी, वे पृथ्वीकायिक जीव। २. अप् अर्थात् पानी है काय जिनकी वे अप्कायिक जीव। ३. तैजस अर्थात् अग्नि है काय जिनकी वे तैजसकायिक जीव। 8. वायु है काय जिनकी वे वायुकायिक जीव। ५. वनस्पति है काय जिनकी वे वनस्पतिकायिक जीव। ६. त्रसकायिक जीव-गमन-आगमन करने वाले जीव। - इन्द्रियों के आधार पर जीवों के भेद :-१. एक इन्द्रिय वाले जीव। २. दो इन्द्रिय वाले जीव। ३. तीन इन्द्रिय वाले जीव। ४. चार इन्द्रिय वाले जीव। ५. पांच इन्द्रिय वाले जीव । १. प्रहाण्या कर्मणां किञ्चिद्, आनुपूर्व्या कदाचन। कर्मों की हानि होते-होते जीव क्रमशः विशुद्धि को प्राप्त होते जीवाः शोधिमनुप्राप्ता, आव्रजन्ति मनुष्यताम्॥ हैं और विशुद्ध जीव मनुष्यगति में जन्म लेते हैं। ५. लब्ध्वाऽपि मानुषं जन्म, श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा। - यां श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिंसताम्॥ मनुष्य का जन्म मिलने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है, जिसे सुनकर लोग तप, क्षमा और अहिंसक वृत्ति को स्वीकार करते हैं। ६. कदाचिच्छ्रवणे. लब्धे, श्रद्धा परमदुर्लभा। श्रुत्वा नैत्रिकं मार्ग, भ्रश्यन्ति बहवो जनाः॥ कदाचित् धर्म को सुनने का अवसर मिलने पर भी उस पर श्रद्धा होना अत्यन्त कठिन है। पार पहुंचाने वाले मार्ग को सुनकर भी बहुत से लोग भ्रष्ट हो जाते हैं। .. श्रुतिश्च लब्ध्वा श्रद्धाञ्च वीर्य पुनः सुदुर्लभम्। रोचमाना अप्यनेके, नाचरन्ति कदाचन॥ धर्म-श्रवण और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी वीर्य दुर्लभ है। अनेक लोग श्रद्धा रखते हुए भी धर्म का आचरण नहीं करते। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २७० खण्ड-३ ८. लब्ध्वा मनुष्यतां धर्म, शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः। मनुष्य-जन्म को प्राप्त होकर जो धर्म को सुनता है, श्रद्धा वीर्य स च समासाद्य, धुनीयाद् दुःखमर्जितम्॥ रखता है और संयम में शक्ति का प्रयोग करता है, वह व्यक्ति अर्जित दुःखों को प्रकंपित कर डालता है। ॥ व्याख्या ॥ इन श्लोकों (४ से ८) में १. मनुष्यता, २. धर्म-श्रुति, ३. श्रद्धा और ४. तप-संयम में पुरुषार्थ-इन चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन है। जीवन के ये चार प्रशस्त अंग-विभाग हैं। ये अंग प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सहज प्राप्य नहीं है। चारों का एकत्र समाहार विरलों में पाया जाता है। जिनमें ये चारों नहीं पाये जाते वे धर्म की पूर्ण आराधना नहीं कर सकते। एक की भी कमी उनके जीवन में लंगड़ापन ला देती है। 'दुर्लभ त्रयमेवैतद्, देवानुग्रहहेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं, महापुरुषसंश्रयः॥' शंकराचार्य ने तीन दुर्लभ बातों का कथन किया है-मनुष्यत्व, मुमुक्षा-भाव और महापुरुषों का सहवास। चार और तीन में विशेष अंतर नहीं है। एक बात स्पष्ट है कि मानव जीवन दुर्लभ है। मनुष्य की विकसित चेतना यह स्पष्ट करती है कि अतीत में ज्ञात या अज्ञात दशा में मानवीय शरीरस्थ आत्मा ने कोई विशेष पुण्य प्रयत्न किया था, जिसके कारण यह देह मिली है। चौरासी लाख योनियों की अनंत-अनंत यात्राओं के बाद कभी इस जन्म में आने का सौभाग्य मिलता है। इसका महत्व इसलिए है कि मनुष्य जीवन सेतु है। अन्य जीवन कोई सेतु नहीं है। वे किसी न किसी किनारे का जीवन जी रहे हैं। मनुष्य बीच में आ गया। उसके हाथ में वह सत्ता आ गई कि चाहे तो उस पार जा सकता है, जहां परम तत्त्व का ' प्रत्यक्षीकरण है और चाहे फिर नीचे गिर सकता है। नीचे गिरने का अर्थ होगा-वह चौरासी लाख योनियों का जीवन। 'नों सुलभं पुणरावि जीवियं' मानव जीवन की पुनः प्राप्ति सुलभ नहीं है। यह अनुभूत सत्य की उद्घोषणा है। मेघ को महावीर ने यही कहा-'तू देख, कैसे यहां आया है ? कहां से आया है ? तू स्वयं मर गया किंतु खरगोश के शरीर पर पैर नहीं रखा। उसी अहोभाव के कारण हाथी की योनि से सम्राट् के घर मेघरूप में उत्पन्न हुआ है। अब सत्य की दिशा में विघ्नों के कारण आगे बढ़ने से कतराता है ?'मेघ की सोयी चेतना प्रबुद्ध हो उठी। कोई न कोई ऐसी घटना हमारे सबके जीवन में घटी है। संत सबके भीतर उसी संभावना को देखकर जगा रहे हैं। धर्म-श्रुति धर्म का श्रवण और भी दुर्लभ हैं। मनुष्य जीवन एक सांयोगिक घटना भी हो सकती है, किन्तु यह कुछ प्रयत्न साध्य है। जीवन के समस्त संस्कार एक पथगामी रहे हैं। धर्म-श्रवण यह एक दूसरा आयाम है। धर्म के नये संस्कार को उद्भूत करने में पुराने संस्कार चट्टानों का काम करते हैं। वे सदा से प्रिय रहे हैं और यह सर्वथा अनजाना, अप्रिय और रसहीन। इंद्रियों के संस्कार पुनः पुनः अपनी ओर खींचते रहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में लिखा है-कामभोग से संबंधित बातें सबकी सुनी हुई हैं, परिचित हैं और अनुभूत हैं, लेकिन भिन्न आत्मा का एकत्व न श्रुत है, न परिचित है और न अनुभूत है, इसलिए वह सुलभ नहीं है। धर्म का अर्थ है-स्वभाव। स्वभाव का स्वाद जिसने चखा है, वहीं स्वभाव की सुगंध मिल सकती है। जिसने स्वभाव में डूबने का प्रयास भी नहीं किया, वहां स्वभाव की बात हो सकती है किंतु जीवंत दर्शन नहीं। कहा है कि 'अप्रियस्य च सत्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभः' ऐसे वक्ता और श्रोता का मिलना संभव नहीं, किंतु कठिन है, जो अप्रिय सत्य कहने में न हिचकता हो। धर्म-श्रवण यात्रा-प्रारंभ का केन्द्र है। श्रवण पर सबने बल दिया है। 'श्रोतव्यः, मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः' में श्रवण का स्थान प्रथम है। सुने बिना मनन किसका करे और और किस पर चले। महावीर ने कहा है-अक्रिया (मुक्ति) का प्रथम द्वार है-श्रवण। सुनना क्या है? वही नहीं जो परिचित, पुनः-पुनः सुना गया हो। इन्द्रियों का रस बार-बार उन्हीं को दोहराने में है जो किया गया है। वैराग्य उसी को कहा है-दृष्ट, अनुश्रुत आदि विषयों का वितृष्ण हो जाना। अब उन्हें न दोहराकर नई दिशा में इन्द्रियों की प्रतिष्ठा करना, सुनने का एक नया द्वार खोलना, अश्रव्य की बात सुनना। धर्म-कथा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . २७१ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन का अभिप्राय यही है कि जो समस्त इन्द्रियों और मन से परे हैं, उसका श्रवण करना। उसके बोध से ही जीवन की सकल ग्रंथियां टूटती हैं। गुरु नानक साहब ने श्रवण की महिमा जपुजी में गाई है-सुनने से दुःख-पाप का नाश होता है। सुनने से योग, मुक्ति, शरीर-भेद, शाश्वत का ज्ञान होता है। सुनने से अड़सठ तीर्थो का स्नान होता है। श्रद्धा यह तीसरा तत्त्व है। श्रद्धा शब्द से यहां अभिप्रेत है-विश्वास, तैयारी, आकांक्षा। धर्म को सुना और वह प्रीतिकर लगा। किन्तु श्रद्धा आचरण की पूर्व तैयारी है। वर्षा से पूर्व किसान जैसे खेत को बीज बोने योग्य कर लेता है, वैसे ही 'सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि' ये जीवन विकास के सूत्र हैं। उनके अभाव में जीवन सरस, सुखद, स्वच्छ और शांतिमय नहीं हो सकता। साधक कहता है- मैं श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं और रुचिकर मानता हूं।' वह उन्हें देखता भी है जिन्होंने प्रत्यक्ष ऐसा जीवन जीया है और वे उस आनंद के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उसका मन आकांक्षा से भर जाता है कि निश्चित ही मैं भी इस मार्ग का अनुसरण कर इस दिशा को प्राप्त हो सकूँगा। जो फूल महावीर, बुद्ध और संतों में खिला, वह मेरे भीतर भी खिल सकता है, नहीं खिलने का कोई कारण नहीं है। कमर कसकर वह तत्पर हो जाता है। पुरुषार्थ 'जानन्ति केचिद् न तु कर्तुमीशाः, कत्तुं क्षमा ये न च ते विदन्ति। - जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कत्तुं, ते केऽपि लोके विरला भवन्ति॥' सत्य की दिशा में वीर्य को प्रवाहित करना अतिदुष्कर है। गीता में भी कहा है-'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतते सिद्धये'-हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। कुछ लोग जानते हैं किंतु आचरण करने में अक्षम होते हैं। कुछ लोग करने में समर्थ हैं किंतु जानते नहीं हैं। तत्त्व को जानते हों और आचरण के लिए भी प्रयत्न करते हों-ऐसे व्यक्ति संसार में विरल होते हैं। गलत दिशा में चलने के लिए अनेक सहयोगी और मित्र मिल सकते हैं, किंतु सही दिशासहायक मिलना कठिन होता है। घेरे से बाहर निकलना बड़ा जटिल है और फिर पुरुषार्थ के मध्य में अनेक अड़चनें खड़ी हो जाती हैं। कुछ व्यक्ति की अपनी दुर्बलता होती है, बाहर से सहयोग भी वैसा मिल जाता है। अपने बने-बनाये समस्त घरों और ममत्व को जलाने की क्षमता हो तभी यह संभव है। कबीर ने कहा है 'कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर जाले आपना, चलो हमारे साथ।।' जो अपने घर को जला सकता है वह हमारे साथ आए। क्राइष्ट ने कहा है जो अपने को बचाता है वह खो देता है. और जो अपने को खोने के लिए तैयार है वह पा लेता है। सत्य के मार्ग में मनुष्य में मुख्य विघ्न हैं-आलस्य, इन्द्रियविषयों के सेवन में रस और कर्तव्य के प्रति उदासीनता। पुरुषार्थ ही मार्ग को सरल और मंजिल को सन्निकट करता है। इस चतुष्टयी का सम्यक् अवबोध अपेक्षित है और मनुष्य जीवन में जिस परम सत्यता का बीज छिपा है उसे प्रकट करना भी। बीज वृक्ष बने इसी में जीवन की सफलता निहित है। ९. शोधिः ऋजुकभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति। शुद्धि उसे प्राप्त होती है जो सरल होता है। धर्म उसी आत्मा निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इवानलः॥ में ठहरता है, जो शुद्ध होती है। जिस आत्मा में धर्म होता है, वह घी से सींची हुई अग्नि की भांति परम दीप्ति को प्राप्त होती है। ॥ व्याख्या ॥ साधु कौन होता है ? महावीर कहते हैं-'मैं उसे साधु कहता हूं जो सरल, सीधा होता है, अनासक्त होता है, ऊर्जा को स्वयं के जागरण में नियोजित करता है।' साधु और वक्र-ये दोनों एक चौखटे में नहीं बैठते। सरलता शुद्धि का पहला १. निर्वाण का अर्थ है-शांति, बुझ जाना। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ है-दीप्ति। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २७२ खण्ड-३ चरण हैं। असरल होकर आदमी ने कुछ पाया नहीं, खोया है। लोक और परलोक दोनों उसके हाथ से निकल जाते हैं। बुद्ध ने कहा है-समुद्र को कहीं से चखो वह खारा ही खारा है। ठीक साधु को किसी तरह कहीं से देखो, ऋजुता के सिवाय और कुछ नहीं। धर्म का अवतरण सरलता में होता है। जैसे ही व्यक्ति सरल बनता है कि धर्म का मेघ बरसने लगता है, धर्म विराजमान हो जाता है, दिव्यता प्रकट हो जाती है। लाओत्से ने कहा है-'सन्त फिर से बच्चे होते हैं। बच्चे-बच्चे होते हैं किंतु अज्ञान के कारण। जैसे ही बड़े होते हैं बचपन . चला जाता है। फिर वह भोलापन, सरलता नहीं रहती। उस पर बुद्धि सवार हो जाती है, भय सवार हो जाता है और वहां जीवन का बहाव खत्म हो जाता है। सरलता बहाव है। बहाव में पवित्रता है, वह स्थिरत्व में नहीं होती। वर्तमान का जीवन नष्ट हो जाता है। संत फिर से बच्चे हो जाते हैं, अज्ञानपूर्वक नहीं, ज्ञानपूर्वक। वे अपने को इतना स्वच्छ कर लेते हैं कि अब कोई चीज छिपाने जैसी रहती ही नहीं और अतीत और अनागत से मुक्त होकर प्रतिक्षण में जीना प्रारंभ कर देते हैं। हर्मन हेस ने कहा है-'जीवन बोध से शून्य सामान्य जन और जीवन की समस्त ज्ञान गरिमा से संपन्न रागातीत परमहंस के मुख-मंडल पर खिलने वाले निश्छल हास्य में कोई अंतर नहीं होता।' महाभारत का शांति पर्व भी यही गीत गाता है 'ये च मूढ़तमा लोके, ये च बुद्धेः परं गताः। त एव सुखमेधन्ते, मध्यमः क्लिश्यते जनः॥' 'संसार में दो ही प्रकार के व्यक्ति आनंद का अनुभव कर सकते हैं, एक अज्ञानी और दूसरा परम ज्ञानी। बीच वाले मनुष्य तो केवल दुःख पाते हैं। चेतना सरल है। असरलता उसमें बाहर से प्रविष्ट हो गई। सरल होने के लिए करने की कुछ जरूरत नहीं है। जरूरत है असरलता (कपट) का प्रवेश होने न पाए। बाहर का मुखौटा हटा कि स्वयं का चेहरा उद्दीप्त हुआ (उभर आया)। स्वभाव के लिए कुछ और करना, उसे जटिल बनाने जैसा होगा। बस, उसके लिए अप्रमत्त-सजग रहना पर्याप्त है कि विभाव आपके अन्दर न घुसे। महावीर कहते हैं- जैसे ही आप स्वयं के भीतर प्रविष्ट हुए, सरल बने कि घृतसिक्त अग्नि की भांति परम तेजस्विता को उपलब्ध हो जाएंगे।' स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-'अनेक जन्मों के पुण्य से मनुष्य को सरल और उदार भाव प्राप्त होता है। मनुष्य सरल स्वभाव वाला हुए बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। १०.नियत्या नाम सजाते, परिपाके भवस्थितेः। नियति के द्वारा भवस्थिति के पकने पर जीव मोह-कर्म का मोहकं क्षपयन् कर्म, विमर्श लभतेऽमलम्॥ नाश करता हुआ विशद विचारणा को प्राप्त होता है। कता। ११.तत्किं नाम भवेत् कर्म, येनाऽहं स्यान्न दुःखभाक। जिज्ञासा जायते तीव्रा, ततो मार्गो विमृश्यते॥ वह कौन-सा कर्म है, जिसका आचरण कर मैं दुःखी न बनूं? मनुष्य में ऐसी तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उसके पश्चात् वह मार्ग की खोज करता है। ॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन दुःख-मुक्ति का दर्शन है। जैन मनीषियों ने सारे संसार को दुःखमय देखा और यहां सारे संयोग-वियोगों को दुःख परम्परा को तीव्र करने वाला माना। यहीं से जैन साधना-पद्धति का प्रारंभ हुआ। भगवान् महावीर ने कहा जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो॥ -जन्म दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। रोग दुःख है। मरण दुःख है। सारा संसार दुःखमय है जहां प्रत्येक प्राणी दुःख पा रहा है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २७३ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन - इस दुःखवादी दृष्टिकोण ने जैन साधक को पग-पग पर सचेष्ट रहने की प्रेरणा दी। जैन दर्शन के चार आधार-बिन्दु हैं :-१. दुःख है। २. दुःख का कारण है। ३. मोक्ष है। 8. मोक्ष का कारण है। इन चार सत्यों के आधार पर सारा दर्शन खड़ा हुआ है। साधक साधना-जीवन में प्रवेश करते ही पछता है-ऐसा कौन-सा कार्य है जो दःख-मक्त कर सकता है? दुःख से मुक्त होने की भावना ज्यों-ज्यों तीव्र होती है साधक का जीवन उतना ही प्रकाशमय होता जाता है। साधक दुःख के कारणों और उनकी मुक्ति के मार्ग की खोज में जुट पड़ता है। तब उसे सत्य का बोध होता है और वह अपने लक्ष्य का निर्णय कर लेता है। यहां से सत्य की शोध, जिससे दुर्गति का अंत हो, का प्रारंभ होता है। यही दर्शन का आदि-बिन्दु है। जैन दर्शन यहां से प्रारंभ होता है और निर्वाण प्राप्ति में कतकार्य हो जाता है। ___ राजा मिलिन्द ने स्थविर नागसेन से पूछा-'प्रव्रज्या का क्या उद्देश्य है?' नागसेन ने कहा-'प्रव्रज्या का उद्देश्य है-दःख मक्ति और निर्वाण-प्राप्ति।' राजा ने पछा-'क्या आपने इसीलिए प्रव्रज्या ली थी?' नागसेन ने कहा-'नहीं। मैंने बौद्ध भिक्षुओं में बड़ा पांडित्य देखा। मैंने सोचा, मुझे भी सीखने को मिलेगा। सीखने के बाद मैंने जाना कि प्रव्रज्या का उद्देश्य क्या है।' . चार प्रकार के पुरुष होते हैं-कुछ व्यक्ति दुःख-क्षय के लिए प्रवजित होते हैं और वे उसी ध्येय पर चलते हैं। कुछ व्यक्ति प्रव्रज्या के उद्देश्य को बाद में समझते हैं, किन्तु तदनुरूप अभ्यास नहीं करते। कुछ जानते हैं और अभ्यास भी करते हैं। कुछ न जानते हैं और न तथानुरूप आचरण करते हैं। ___एक व्यक्ति ने आचार्य महाप्रज्ञ को पूछा-'प्रव्रज्या का प्रयोजन क्या है ? आपने प्रव्रज्या क्यों ली?' उन्होंने कहा _ 'अज्ञातं ज्ञातुमिच्छामि, गूढं कर्तुमनावृतम्। 'अभूतो हि बुभूषामि, सेयं दीक्षा मर्माहती॥' मेरे प्रव्रज्या ग्रहण करने के मुख्य प्रयोजन तीन हैं-१. अज्ञात को ज्ञात करना। २. आवृत को अनावृत करना। ३. जो नहीं हो सके वैसा होना-जो रूपांतरण आज तक घटित नहीं हो सका वैसा रूपांतरण घटित करना। - ध्येय का स्पष्ट चुनाव प्रथम क्षण में बहुत कम व्यक्ति ही कर पाते हैं। उनमें से बहुत कम व्यक्ति ही उसी दिशा में गतिमान रह सकते हैं। जिनका मोहावरण कुछ क्षीण हो, विशद बोध हो, वे ही व्यक्ति दुःख-मुक्ति के लिए उत्कंधर होते है। दुःख से कैसे मुक्ति हो? इस जिज्ञासा का समाधान ऋषियों ने विभिन्न स्वरों में दिया है। किन्तु प्रतिपाद्य भिन्न नहीं है। दुःख-मुक्ति की पद्धति ही साधना-पद्धति बन गयी, योग बन गया। कर्म-योग, ज्ञान-योग, भक्ति-योग, उपासना-योग, आदि भिन्न-भिन्न नामों से उसे संबोधित किया गया है, किंतु इतना ही नहीं, जिस-जिस व्यक्ति द्वारा प्रणीत हुई उसके नाम या संप्रदाय के नाम से भी वह जुड़ गयी। जैसे-जैन साधना पद्धति, बौद्ध साधना-पद्धति, हिंदू साधना-पद्धति आदिआदि। समस्त सरिताएं अंत में जैसे सागर में विलीन हो जाती हैं वैसे ही स्वयं तक पहुंचकर साधना-विधियां भी विलीन से जाती हैं, क्योंकि सभी पद्धतियों का ध्येय है-सत्य का साक्षात्कार। साधना का अवलंबन लिए बिना सत्य का अनुभव कठिन है। बुद्ध से पूछा गया-'कैसे मिली आपको सिद्धि ?' बुद्ध ने कहा-'मत पूछो, कैसे मिली? जब तक किया तब तक नहीं मिली और जब करना छोड़ा, मिल गयी।' बुद्ध ने किया भी और नहीं भी किया। उस नहीं करने के लिए ही वह करना हुआ। महावीर के जीवन में भी यही घटित हुआ। वों किया और जब साक्षात्कार हुआ तब पूर्ण मौन-अक्रिय-संवर, ध्यान-मुद्रा में लीन हो गए। संतजन जिस मार्ग से चले और सत्य को उपलब्ध हुए, वही साधना-पथ बन गया। १२. सत्यधीरात्मलीनोऽसौ, सत्यान्वेषणतत्परः। उसकी बुद्धि सत्य में नियोजित हो जाती है। वह आत्म-लीन सूलसत्यं समुत्सार्य, सूक्ष्म तदवगाहते॥ और सत्य के अन्वेषण में तत्पर होता है। वह स्थूल सत्य को छोड़कर सूक्ष्म सत्य का अवगाहन करता है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २७४ खण्ड-३ १३. माता पिता स्नुषा भ्राता, भार्या पुत्रास्तथौरसाः। त्राणाय मम नालं ते, लुप्यमानस्य कर्मणा॥ सूक्ष्म सत्य का अवगाहन करने वाला इस सचाई को पा लेता है कि अपने कर्मों से पीड़ित होने पर मेरी सुरक्षा के लिए मातापिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी और औरस पुत्र-कोई समर्थ नहीं है। ॥ व्याख्या ॥ जैसे-जैसे साधक सत्य की खोज में आगे बढ़ता है, अस्तित्व के निकट पहुंचता है, वैसे-वैसे उसकी स्थूल सत्य की . कल्पनाएं गिरने लगती हैं। अब तक का जो माना हुआ कल्पित आकार था वह नष्ट होने लगता है। वह देखता है-मैं अपने को क्या समझता था? और क्या हूं? यह नाम-रूप मैं हूं? दृश्य को 'स्व' समझ रहा था। और 'पर' में आत्म-बुद्धि मान रहा था। मैं और मेरे का संबंध स्थापित किया। संयोग में शाश्वत की बुद्धि थी। अब कोई मेरा प्रतीत नहीं होता। सब अज्ञान था और सब अज्ञान में हैं। संबंधों का जाल खड़ाकर उलझ रहे हैं। मेरा मेरे अतिरिक्त कोई त्राण नहीं है। बुद्ध ने ठीक कहा है-'अपने दीपक स्वयं बनो, स्वयं ही स्वयं की शरण हो? स्व-दर्शन में झूठी मान्यता टिक नहीं सकती। प्रकाश के सामने अंधकार का अस्तित्व कब टिका है ? सत्य प्रकाश है, ज्योति है, उस ज्योति के समक्ष मिथ्या धारणाएं कैसे खड़ी रह सकती हैं ? बुद्ध को ज्ञान हुआ तब अपने मन से कहा'मेरे मन! अब तुझे विदा देता हूं। अब तक तेरी जरूरत थी शरीर रूपी घर बनाने थे। अब मुझे परम निवास मिल गया।' 'कोई अपना नहीं है'-इसे खाली दोहराओ मत। सचाई का दर्शन करो। 'नालं मम ताणाए' मेरे लिए धन, पद, यश, प्रतिष्ठा, परिवार, स्वजन आदि कोई त्राण नहीं हैं और न मैं भी उनका त्राण हूं। जिस व्यक्ति की यह घोषणा है वह प्रत्यक्षद्रष्टा है। उसने अंतर में प्रवेश कर निरीक्षण किया है। हम भी इसके साथ गहराई में उतरें और सचाई का अनुभव करें। १४.अध्यात्म सर्वतः सर्व, दृष्ट्वा जीवान प्रियायुषः। न हन्ति प्राणिनः प्राणान् भयादुपरतः क्वचित्॥ सभी जीव सब तरह से समान आत्मानुभूति रखते हैं। उन्हें जीवन प्रिय है, यह देखकर प्राणियों के प्राणों का वध न करे, भय. और वैर से निवृत्त बने-अभय बने। ॥ व्याख्या ॥ वैर वैर से शांत नहीं होता। वैर की शांति अवैर से होती है। आत्म-द्रष्टा सब प्राणियों में आत्मत्व ही देखता है। वह न किसी को शत्रु मानता है, न किसी को मित्र। शत्रु और मित्र की कल्पना सारी व्यावहारिक है। मैत्री और शत्रुता परिचित के साथ होती है। आत्मा यदि अपरिचित है तो कौन शत्रु है और कौन मित्र। अगर आत्मा परिचित है तो सब आत्माएं हैं, कोई शत्रु और कोई मित्र नहीं है। शत्रु और मित्र की बुद्धि राग-द्वेष को उत्पन्न करती है। राग से व्यक्ति प्रेम करता है और ... द्वेष से घृणा। दोनों ही बंधन हैं। सत्यद्रष्टा अभय और निर्वैर होता है। वह न किसी को डराता है और न किसी से डरता है। १५.आदानं नरकं दृष्ट्वा , मोहं तत्र न गच्छति। आत्मारामःस्वयं स्वस्मिन्लीनः शान्तिं समश्नुते॥ आदान-परिग्रह को नरक मानकर जो उससे मोह नहीं करता और स्वयं अपने में लीन रहता है, वह आत्मा में रमण करने वाला व्यक्ति शांति को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ परिग्रह आदान इसलिए है कि वह कर्म का ग्रहण करता है। कर्म के संग्रह से आत्मा का पतन होता है। सत्य-द्रष्टा परिग्रह में आसक्त नहीं होता, क्योंकि वह इसे बंधन मानता है। आत्मा की शांति परिग्रह में नहीं है, वह है आत्मलीनता में। साधक इसीलिए आत्मलीनता में व्यग्र रहता है। परिग्रह के मोह में फंसे व्यक्तियों को शांति नहीं मिलती। ये परिग्रह की आशा में ही व्यस्त रहते हैं। शंकराचार्य ने ऐसे व्यक्तियों के लिए लिखा है-'जिसका शरीर जीर्ण हो गया है, सिर के बाल सफेद हो गए हैं, मुंह दांतों से विहीन हो गया है, फिर भी वे आशा से मुक्त नहीं होते।' १. अध्यात्म के अनेक अर्थ हैं। प्रस्तुत प्रसंग में अध्यात्म का अर्थ है-आत्मानुभूति। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . २७५ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन १६.इहैके नाम मन्यन्यते, अप्रत्याख्याय पापकम्। कुछ लोग यह मानते हैं कि पाप का परित्याग करना विदित्या. तत्त्वमात्मासौ, सर्वदुःखाद्विमुच्यते॥ आवश्यक नहीं होता। जो तत्त्व को जान लेता है, वह आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। १७.वदन्तश्चाप्यकुर्वतो, बन्धमोक्षप्रवेदिनः। ___ आश्वासयन्ति चात्मानं, वाचा वीर्येण केवलम्॥ जो केवल कहते हैं, किंतु करते नहीं, बंधन और मुक्ति का निरूपण करते हैं, किंतु बंधन से मुक्ति मिले वैसा उपाय नहीं करते, वे केवल वचन के वीर्य से अपने आपको आश्वस्त कर १८.न चित्रा त्रायते भाषा, कुतो विद्यानुशासनम्। विषण्णाः पापकर्मेभ्यो, बालाः पण्डितमानिनः॥ वे अज्ञानी अपने आपको पण्डित मानते हुए भी बाल हैं। वे पाप-कर्म से विषाद को प्राप्त हो रहे हैं। उन्हें विचित्र प्रकार की भाषाएं और विद्या का अनुशासन-शिक्षण भी पाप से नहीं बचा सकता। ॥ व्याख्या ॥ - पांडित्य और सम्यग्ज्ञान का अंतर जान लेना आवश्यक है। सम्यग्ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता। उसके लिए स्वयं में प्रवेश करना होता है। पांडित्य-विद्वत्ता बाहर से आती है। जो भी अर्जित ज्ञान है वह सब पांडित्य है, उधार है, अपना नहीं है। पंडित बनने के लिए विश्व में बहुत साहित्य है, शिक्षक है, वक्ता हैं और भी विविध प्रकार के आधुनिक उपकरण हैं। वैज्ञानिक कहते हैं-मनुष्य के दिमाग में इतने प्रकोष्ठ हैं जिनमें समग्र विश्व का साहित्य संगृहीत किया जा सकता है। दुनिया के सभी पुस्तकालयों का ज्ञान उनमें भरा जा सकता है। इतनी क्षमता होते हुए भी यह स्पष्ट है कि मनुष्य स्वयं को इस ज्ञान से नहीं जान सकता। 'कन्फ्यूसियस' का बड़ा कीमती वचन है-'ज्ञानी वह होता है जो अपने को जानता है; और विद्वान् वह होता है जो दूसरों को जानता है।' विद्वान् और ज्ञानी का यह भेद स्पष्ट सूचित करता है कि ज्ञान की प्रक्रिया शिक्षा से सर्वथा भिन्न है। कबीर ने ठीक कहा है 'पंडित और मसालची, दोनूं सूझे नाय। . औरन को करै चांदनो, आप अंधेरे मांय॥' परमात्म प्रकाश में लिखा है 'आत्म-ज्ञान विण अन्य जे, ज्ञान न तेनूं नाम। ते थी रहित पण तप बने दुख कारण सुतराम्॥' विद्वत्ता के साथ आचरण भी आए, यह जरूरी नहीं है, किन्तु सम्यग् ज्ञान के साथ रूपांतरण निश्चित है। ज्ञान सक्ति है। वह यथार्थस्वरूप आपके सामने प्रस्तुत करेगा। उसे आप स्वीकार करेंगे तो निःसन्देह रूपांतरित होंगे। अन्यथा उस ओर आप आंख बन्द कर लेंगे। धर्म के वास्तविक स्वरूप-ध्यान से डरने का और कारण क्या है? वह जितनी कुरूप प्रतिमाएं छिपी हैं उन्हें प्रकाश में लाता है। इसलिए आपका वैसा रहना असंभव हो जाता है। वे मिथ्या प्रतिमाएं खंडित होंगी या फिर आप पीछे हट जाएंगे। ज्ञान से ही जो मुक्ति की बात कहते हैं-वह केवल सत्य के संबंध में सीखे हुए ज्ञान की बात है, न कि साधना द्वारा उपलब्ध ज्ञान की। महावीर के युग में ऐसी मान्यता थी, इसलिए उन्हें यह घोषणा करनी पड़ी कि विविध भाषाओं का बोध आदमी को त्राण नहीं दे सकता। उसे सम्यग् ज्ञान की आराधना करनी होगी। सम्यग्-दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् आचरण-इस त्रिवेणी में डुबकी लगाकर ही व्यक्ति कल्मष से छूट सकता है। - जैन दृष्टि से मोक्ष के उपाय हैं-सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् आचरण और सम्यग् तप। दर्शन सबका आधार है। दर्शन के अभाव में अन्य साधनों की उपादेयता नगण्य है। आधार सुदृढ़ हुआ कि भवन का निर्माण अचिर काल में हो Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ स्व थी स्व ने जाल मक्त झट थाय॥ आलोक में स्व आत्मा का दर्शन - खण्ड-३ सकता है। दर्शन की स्वीकृति नहीं हो सकती है, उसकी आराधना होती है। वह कोई बाह्य वस्तु नहीं है कि जिसका आदान-प्रदान किया जा सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उपासना करनी होती है। दर्शन का अर्थ है-देखना। प्रश्न होगा कि क्या देखें? जो हम देखते हैं वह भी दर्शन है, किन्त वह सम्यग नहीं। क्योंकि उससे हम दृश्य को ही देखते हैं। सम्यग् दर्शन तब घटित होता है जब आपके सामने कोई दृश्य न हो, जो देखने वाला है उसे आप देखें। वह सम्यग् दर्शन है। सब दृष्टियां खो जाएं, केवल द्रष्टा रहे। शुद्ध निश्चय की भाषा में आचार्यों ने इसे ही सम्यग् दर्शन कहा है। योगसार में लिखा है आत्मा दर्शन, ज्ञान गुण, आत्म गुण चारित्र। आत्मा संयम, शील, तप, प्रत्याख्यान पवित्र॥ किसी अन्य आचार्य ने कहा है . स्व थी स्व ने जीव जाणता, सम्यग् दृष्टि थाय। सम्यग् दृष्टि जीव तो, कर्ममुक्त झट थाय॥ जड़ और चेतन के मध्य का सघन आवरण सम्यग् दर्शन के द्वारा विनष्ट होता है। सम्यग् दर्शन के आलोक में स्वपर का स्पष्ट बोध उद्भाषित होता है। आगे का पथ फिर स्वतः सरल और स्पष्ट हो जाता है। मृगापुत्र ने अपने मातापिता से कहा-'जैसे घर में आग लग जाने से गृहस्वामी अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को बाहर निकालता है और तुच्छ को छोड़ देता है, ठीक इसी प्रकार मैं भी देखता हूं, मेरे घर में भी अग्नि की लपटें उठ रही हैं। घर धूं-धूं जल रहा है। वह अग्नि है-वृद्धत्व और मौत की। मैं चाहता हूं तुम्हारी आज्ञा लेकर अपनी महामूल्यवान् आत्मा को बचाना।' जिसे दर्शन होता है उसके जीवन में यह अवश्यंभावी घटने वाली घटना है। जो दूसरों को दिखाई नहीं देता, वह उसे दिखाई देता है। अब कैसे वह अपने को 'पर' में उलझाए रख सकता है ? दर्शन के साथ ही ज्ञान की घटना घटती है और उसके साथ ही चारित्र (स्व में अवस्थित होने का भाव) जागृत हो जाता है। स्व में स्थित होना तप है और वह पूरी प्रक्रिया भी तप है जिसके द्वारा स्व में अवस्थान होता है। संक्षेप में महावीर की यही साधना-पद्धति है। दर्शन उसका केन्द्र है। ध्यान दर्शन के लिए है या दर्शन ही ध्यान है। दर्शन के निष्कर्ष हैं-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य। शम का अर्थ है-शांति। शांति सम्यग् दृष्टि की झलक है। जिससे यह बोध होता है कि व्यक्ति को भीतर कुछ प्राप्त है। अशांति के जनक क्रोध, अहंकार, राग-द्वेष आदि हैं। सम्यग् दर्शन की स्थिति में इनका अस्तित्व शांत हो जाता है। संवेग का अर्थ है-दुःख-मुक्ति के लिए तीव्र उत्साह। जैसे-जैसे स्व-धारा का वेग वर्धमान होता है वैसे-वैसे साधक के चरण उस दिशा में और अधिक गतिशील हो जाते हैं। मंजिल पर पहुंचे बिना उसे चैन नहीं मिलता। . निर्वेद का अर्थ है-काम तृष्णा, भव तृष्णा आदि जो दुःख जनक हैं उनसे पार चला जाना। अब साधक को बाहर में आकर्षण नहीं रहता। सुख या वासनाएं उसे दिग्मूढ़ नहीं बना सकतीं। 'वेद' शब्द का दूसरा अर्थ-ज्ञान करें तो यह भी हो सकता है कि अब बाह्य ज्ञान के प्रति उसके मानस में कोई अनुराग नहीं रहता। आत्मज्ञान के अतिरिक्त सब ज्ञान बोझ . रूप है। इसलिए दुःख और ज्ञान-दोनों के जाल से वह छूट जाता है। अनुकंपा अर्थात् करुणा। बुद्ध ने कहा है-ध्यान के बाद यदि करुणा का जन्म न हो तो समझना चाहिए कि कहीं भूल रह गई है। 'सव्वजगजीवरक्खणट्ठाए भगवया पावयणं सुकहियं-भगवान ने सब जीवों की रक्षा के लिए प्रवचन दिया है। यह अनंत कारुणिकता का प्रतीक है। वे देखते हैं-दुःख से व्याकुल हैं प्राणी। अनंत-अनंत जन्मों से भटक रहे हैं। उनके लिए भगवान शरण बनते हैं, मार्ग-दर्शक बनते हैं और दिव्य नेत्र बनते हैं जिससे कि आदमी स्वयं को जान सके और समझ सके कि मैं क्यों और किसलिए यहां आया हूं? आस्तिक्य का अर्थ है-अस्तित्व के प्रति श्रद्धा। स्वयं के साक्षात्कार के बिना स्वयं के प्रति जो श्रद्धा है, वह सिर्फ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २७७ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन मानी हुई होती है और दर्शन के अनंतर जिस श्रद्धा का जन्म होता है, वह अनुभूत होती है। धर्म की यात्रा अनुभूति की यात्रा है, मानने की नहीं। मानने से भ्रांतियां टूटती नहीं। मिथ्यादर्शन की बेड़ियों को तोड़ने के लिए दर्शनरूपी पुरुषार्थ का हथौड़ा उठाना ही होता है। दर्शन के अनंतर दूसरा चरण उठता है-स्वयं के बोध के लिए। देखा और जाना। मैं कौन हूं ? किसने मुझे बांध रखा है ? मैं अपने ही अज्ञान के कारण बंधा रहा। स्वभाव और विभाव की रेखाएं स्पष्ट हो जाती हैं। सम्यग्ज्ञानी विभाव को काट आत्मस्थता के लिए उद्यत हो जाता है। सम्यग् चारित्र स्व स्थिति है, स्व-रमण है। बस, स्वभाव में ठहरे रहना, स्वभाव से बाहर नहीं जाना। चारित्र का यह अंतिम कदम है। उससे पूर्व कदम में वे सब साधन निहित होते हैं जिनके माध्यम से वह स्थिति बनती है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तप आदि सब इसमें समाहित किए जा सकते हैं। समाधि स्वरूप की अविच्युति है। यह चारित्र का अंतिम सोपान है। कर्मों का निरोध, कर्मों का निर्जरण और कर्मों का क्षय कर चारित्र कृतकृत्य हो जाता है। १९.ज्ञानञ्च दर्शनञ्चैव, चरित्रं च तपस्तथा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इनका समुदय मोक्ष का मार्ग ... एष मार्ग इति प्रोक्तं, जिनैः प्रवरदर्शिभिः॥ है। श्रेष्ठ दर्शन वाले वीतराग ने ऐसा कहा है। २०.ज्ञानेन ज्ञायते सर्व, विश्वमेतच्चराचरम्। ज्ञान से समस्त चराचर विश्व जाना जाता है। दर्शन-मोह की श्रद्धीयते दर्शनेन, दृष्टिमोहविशोधिना॥ विशुद्धि से उत्पन्न होने वाले दर्शन से उसके प्रति यथार्थ विश्वास होता है। २१.भाविदुःखनिरोधाय, धर्मो भवति संवरः। संवर धर्म के द्वारा भावी दुःख का निरोध होता है और कृतदुःखविनाशाय, धर्मो भवति सत्तपः॥ सम्यक् तप के द्वारा किए हुए दुःखों का नाश होता है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् का दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। केवल ज्ञान या केवल तप से मुक्ति नहीं होती। भगवान् ने कहा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इनके समन्वय से मोक्ष सधता है। जब व्यक्ति इन चारों की आराधना करता है, तब वह दुःखमुक्त होता है। ज्ञान से प्राणी हेय और उपादेय को जानता है और दर्शन से उसमें विवेक जागृत होता है तब वह सत्य की ओर बढ़ता है। जब उसमें चारित्र का विकास होता है तब हेय को छोड़ उपादेय को ग्रहण करता है। इससे आने वाले कर्मों का निरोध होता है और जो पूर्वबद्ध कर्म हैं, उनका वह तपस्या द्वारा निर्जरण करता है। इस प्रकार वह बंधन से बंधन मुक्ति की ओर बढ़ता जाता है। २२.दृष्टिमोहं परिष्कृत्य, व्रती भवति मानवः। पहले दृष्टि-दर्शन मोह का परिष्कार होता है, फिर अप्रमत्तोऽकषायी च, ततोऽयोगी विमुच्यते॥ मनुष्य क्रमशः व्रती, अप्रमत्त, अकषायी और अयोगी होकर मुक्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ -बंधन-मुक्ति सहसा नहीं सध जाती। वह क्रमशः होती है। व्यक्ति के क्रमिक अभ्यास से वह प्राप्त होती है। दशवैकालिक सूत्र में मुक्ति के क्रम का बहुत सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। ज्ञान के विकास के साथ-साथ अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा साधन है, साध्य है मुक्ति। जीव और अजीव का ज्ञान अहिंसा का आधार है और उसका फल है, मुक्ति। इन दोनों के बीच में साधना का क्रम चलता है। मुक्ति का आरोह क्रम इस प्रकार है :-१. जीव-अजीव का ज्ञान। २. जीवों की बहुविध गतियों का ज्ञान। ३. पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष का ज्ञान। ४. भोग-विरक्ति। ५. आंतरिक और बाह्य संयोगत्याग। ६. अनगार-वृत्ति। ७. अनुत्तर-संवरयोग की प्राप्ति। ८. स्वरूप बाधक कर्मों का विलय। ९. केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि। १०. अयोग-अवस्था। ११. सिद्धत्व-प्राप्ति। प्रस्तुत श्लोकों में इन सबका समावेश पांच तथ्यों में दिया गया है :-१. मोह-संवरण, २. व्रत-ग्रहण, ३. अप्रमत्त अवस्था की प्राप्ति, ४. अकषाय वीतराग अवस्था की प्राप्ति और ५. अयोग-संपूर्ण नैष्कर्म की प्राप्ति। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २३. संवृतात्मा नवं कर्म, अकर्मा जायते कर्म, नावत्तेऽनास्रवो यतिः । क्षपयित्वा पुरार्जितम् ॥ २४. अतीतं वर्तमानं च सर्वथा मन्यते त्रायी, २७८ भविष्यच्चिरकालिकम् । दर्शनावरणान्तकः ॥ २५. अन्तको विचिकित्सायाः, सर्वं जानात्यनीदृशम् । अनीदृशस्य शास्ता हि यत्र तत्र न विद्यते ॥ २६. स्वाख्यातमेतदेवास्ति सत्यमेतत् सदा सत्येन सम्पन्नो, मैत्रीं भूतेषु सनातनम् । कल्पयेत् ॥ || व्याख्या || सफलता उसे ही वरण करती है जो आस्थावान् और संदेह रहित होता है। संशयशील व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो, वह लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता श्रेष्ठी पुत्र अपने ही अविश्वास से विद्या सिद्धि में असफल रहा, जबकि चोर विद्या साध कर आकाश मार्ग में उड़ गया। 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानं' - ज्ञान का विकास पूर्ण विश्वास से ही फलित होता. है। श्रृद्धालु व्यक्ति में जैसी ज्ञान की स्फुरणा होती है वैसी दूसरे में नहीं होती। २७. वैरी करोति वैराणि, ततो वैरेण रज्यति । पापोपगानि तानीह, दुःखस्पर्शानि चान्तशः ॥ खण्ड ३ संवृत आत्मा वाला यति नए कर्मों का ग्रहण नहीं करता। उसके आसव रुक जाते हैं और वह पूर्व अर्जित कर्मों को क्षीण कर, अकर्मा हो जाता है। - दर्शनावरणीय कर्म का अंत करने वाला यति चिरकालीन अतीत, वर्तमान और भविष्य को सर्वथा जान लेता है और वह सभी जीवों का रक्षक होता है। २८. स हि चक्षुर्मनुष्याणां कांक्षामन्तं नयेत यः । लुठति चक्रमन्तेन, वहत्यन्तेन च क्षुरः ॥ जो विचिकित्सा-सन्देहों का अंत करने वाला है, वह तत्त्वों को वैसे जानता है, जैसे दूसरा नहीं जान पाता। असाधारण तत्त्व का शास्ता जहां-तहां नहीं मिलता। २९. धीरा अन्तेन गच्छन्ति, नयन्त्यन्तं ततो भवम् । अन्तं कुर्वन्ति दुःखानां सम्बोधिरतिदुर्लभा ॥ यह स्वाख्यात धर्म है, ' यही सनातन सत्य है कि व्यक्ति सदा सत्य से संपन्न बने और सब जीवों के प्रति मैत्री का व्यवहार करे। ॥ व्याख्या || मेरी सबके साथ मैत्री है किसी के साथ विरोध नहीं है, इस मानसिक शुद्धि के बिना मैत्री नहीं होती। जहां कहीं हमारा प्रेम अथवा द्वेष है वहां मैत्री नहीं है। हम शत्रु से सशंकित रहते हैं और मित्रों की चिंता करते हैं। जो विश्व को मित्र मानता है वह अभय होता है समाधि अभय व्यक्ति को प्राप्त होती है। प्रतिशोध की भावना में वैर झलकता है। वैर का परिणाम दुःखमूलक है। वैरी वैर करता है और वैर करते-करते उसमें रक्त हो जाता है और पापार्जन का हेतु है और अंत में उसका परिणाम दुःखस्पर्शी होता है। वह मनुष्यों का चक्षु है, जो आकांक्षा का अंत करता है। उस्तरा अंत - धार से चलता है। चक्का अंत-छोर से चलता है। धीर पुरुष अंत से चलते हैं- हर वस्तु की गहराई में पहुंचते हैं। इसलिए वे भव का अंत पा लेते हैं, दुःखों का अंत करते हैं। इस प्रकार की संबोधि प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है। १. जो धर्म सुध्यात और सु-तपस्थित होता है, वही स्वख्यात धर्म है। ठाणं (३/५०७) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. २७९ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन ॥ व्याख्या ॥ 'संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। नो विणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं॥' • महावीर का सन्देश है-संबोधि को प्राप्त करो। संबोधि के लिए ही जीवन उपयोगी है। आगे ऐसा अवसर दुर्लभ है। बीती हुई रात्रियां (क्षण) पुनः लौटकर नहीं आतीं और न यह मनुष्य जीवन भी पुनः सुलभ है। केनोपनिषद् संबोधि की भांति 'परब्रह्म' को जानने का आग्रह करता है। वह कहता है 'इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति, न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचिंत्य धीराः, प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥ 'इस मनुष्य जीवन में ही यदि परमात्मा को जान लिया तो बहुत अच्छा है। यदि नहीं जाना तो महान् विनाश है। धीर व्यक्ति प्राणी मात्र में परमात्मा को जानकर अमर हो जाते हैं, इस संसार में पुनःजन्म नहीं लेते।' .. सबोधि जैन दर्शन का प्रिय शब्द है और इस पुस्तक का नाम भी 'संबोधि' है। संबोधि को सुनना ही नहीं है किंतु जीवन में घटित करना है। जैसे मेघ के जीवन में वह घटी, वैसे ही हम सबके जीवन में वह घटित हो सकती है। दुःख से मुक्ति के लिए यह अनिवार्य है। 'आरुग्ण बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं किंतु'-मुझे आरोग्य, बोधि-लाभ और समाधि की प्राप्ति हो। यह एक विशुद्ध प्रार्थना है। इसके पीछे कोई भौतिक चाह नहीं है। जिस प्रार्थना में भौतिक मांग हो, वह प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंचाती। यह तो स्वभाव उपलब्धि की मांग है। साधक अपनी दुर्बलता स्वीकार करता है कि यह मेरे - वश की बात नहीं है। आपका सहास हो तो यह संभव है। वह छोड़ देता है उस अदृश्य शक्ति के हाथों में स्वयं को। संबोधि स्वभाव है। वह व्यक्ति से दूर नहीं है। उसका न होना ही आश्चर्यजनक है, होना कोई आश्चर्यजनक नहीं। स्वभाव कभी अपने केन्द्र से पृथक् नहीं होता। सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र-ये सभी संबोधि के ही रूप हैं। इसलिए कहा है-धीर पुरुष अंत से चलते हैं। धीर का अर्थ है-जो बुद्धि से सुशोभित है, जिसकी बुद्धि सत्य-शोध की ओर अभिमुख है। बुद्धि यदि यथार्थ गवैषणा में प्रवृत्त न हो तो वह यथार्थ में धीर या बुद्धिमान नहीं है। 'बुद्धेः फलं तत्वविचारणा च' बुद्धि की उपादेयता सत्य की खोज में है। 'धीरा अन्तेन गच्छन्ति' बुद्धिमान् साधक का समग्र व्यवहार अपूर्व ढंग का होता है। वह अब वैसा आचरण, व्यवहार नहीं करता, जैसा अतीत में करता था। 'अंत' का अर्थ है-आगे वैसा जीवन नहीं जीना। जीवन के समस्त पापों का अंत जागकर ही किया जा सकता है। साधना 'जागरिका' है। जीवन का प्रत्येक चरण जागरिकापूर्वक उठे। अन्यथा प्रमाद का नाश कठिन है। जहां प्रमाद होगा वहां दुःख भी होगा। धीर पुरुष होश का सहारा लेकर दुःखों का अन्त कर देते हैं। ३०. यो धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम्। जो शुद्ध परिपूर्ण और अनुपम धर्म का निरूपण करता है और अनीदृशस्य यत्स्थानं, तस्य जन्मकथा कुतः॥ यह अनुपम धर्म जिसमें ठहरता है, उसके पुनर्जन्म की बात कहां? ३१.आत्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोता अनास्रवः। जो आत्म-गुप्त है, सदा दान्त है, जिसने कर्म आने के स्रोतों - स धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम्॥ को छिन्न कर दिया है और जो अनासव हो गया है, वह परिपूर्ण अनुपम और शुद्ध धर्म का निरूपण करता है। ॥ व्याख्या ॥ यूनान के एक महान् संत से किसी ने पूछा-सबसे सरल क्या है? उसने कहा-उपदेश देना। दूसरा प्रश्न किया कि सबसे कठिन क्या है। संत ने उत्तर दिया-स्वयं को जानना। और यह बहुत ठीक है। सलाह देना, उपदेश देना-यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरल है। क्योंकि इसमें स्वयं को कुछ करना नहीं है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता। साधना नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख ली बस, लगे लेक्चर देने। जो Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २८० खण्ड-३ व्यक्ति स्वयं जिस विषय 'अ' 'आ' भी नहीं जानता वह भी दूसरों को सलाह देने में तत्पर हो जाता है। 'पिकासो' जैसे चित्रकार दुनिया में विरले हुए हैं। लेकिन लोग सलाह देने उसके पास भी पहुंच जाते थे। उसने एक 'सजेशन बाक्स'-सलाहों की पेटी बना रखी थी, जिसके नीचे कचरे की टोकरी थी। लोग आते। एक कागज पर सलाह लिखकर उस पेटी में डाल देते। पेटी के छेद से वह कागज नीचे रखी कचरे की टोकरी में चला जाता। उपदेशों के प्रभावहीन होने का कारण यह है कि व्यक्ति जैसा कहते हैं वैसा करते नहीं हैं। दूसरा कारण है-जिस विषय को स्वयं जानते नहीं हैं, उसके संबंध में कहते हैं। एक विचारक ने लिखा है-लोग धर्म के संबंध में सुनते हैं, पढ़ते हैं, लिखते हैं, भाषण करते हैं। धर्म के लिए लड़ते. हैं और मरते भी हैं। किन्तु जीते नहीं। धर्म का जीवन में परिचय हो जाये तो फिर लड़ने और मरने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। धर्म का ह्रास उसके आत्मसात् नहीं होने के कारण ही हुआ है। धर्मग्रंथ स्वयं नहीं बोलते। वे तो अनुभवी पुरुषों के स्वर हैं, चेतना जगत् से उठे हुए शब्द हैं। उसका अर्थ चेतना जगत् में प्रवेश करके ही पाया जा जा सकता है। . धर्म की व्याख्या जब चैतन्य भूमि से हटकर बौद्धिक भूमिका पर आ जाती है तब धर्म शुद्ध नहीं रहता। उसका स्वरूप और कार्य एक होते हुए भी भिन्नता परिलक्षित होती है। उसका एकमात्र कारण है-अनुभूति के स्तर पर धर्म का न होना। यहां जो धर्म-प्रवक्ता के चार लक्षण प्रस्तुत किये हैं वे यह सूचित करते हैं कि उसे कैसा होना चाहिए, जिससे धर्म की ज्योति बुझने न पाये। तथागत कौन होते हैं-इसके संबंध में कहा है-जो जैसा कहता है वैसा करता है-वह तथागत होता है। खुद्दकनिकाय में कहा है-दूसरों को उपदेश करने से पहले पंडित अपने आपको उसके अनुरूप प्रशिक्षित कर ले जिससे कि बाद में क्लेश न उठाना पड़े।' इससे यह स्पष्ट है, उपदेष्टा को केवल उपदेष्टा नहीं होना है किन्तु उस उपदेश को जीना है। धर्म-प्रवक्ता को जिन चार विशिष्ट गुणों से विभूषित होना चाहिए, वे ये हैं १. आत्मगुप्त-(आत्म-रक्षित)-आत्मा की असुरक्षा के हेतु हैं-इन्द्रियों की और मन की चंचलता। इन्द्रियां विषयों का ग्रहण करती हैं और मन को अपना संवाद पहुंचाती हैं। मन अनुरक्ति और विरक्ति, चाहिए और नहीं चाहिए की दौड़धूप में व्यग्र हो उठता है। पूर्वबद्ध संस्कारों के कारण आत्मा की ध्वनि दब जाती है और मन सक्रिय हो उठता है। यह असमाधि है, दुःख है। जिस साधक ने इन्हें ठीक समझकर, जानकर और देखकर समाधिस्थ बना लिया है, शांत बना लिया है, जिसकी इन्द्रियां अब स्वयं के अधीन हो गई हैं, जो अपना मालिक है, वह आत्म-गुप्त होता है। : २. दान्त-शान्त-जो सदा उपशांत रहता है। अशांति का हेतु है-कषाय। कषाय संसार है और अकषाय मुक्ति। कषाय हो और अशांति न हो यह संभव नहीं है। साधना कषाय की शांति के लिए है। 'कषायमुक्ति : किल मुक्तिरेव' कषाय की शांति को मुक्ति कहा है। वक्ता के लिए शांत होना अनिवार्य है। राग-द्वेषयुक्त वक्ता के द्वारा शुद्ध धर्म का निरूपण संभव नहीं है। ३. छिन्नस्रोता-जिसने कर्म आने के मार्गों को नष्ट कर दिया है। इसका एक अर्थ और भी है। संसारानुगामी लोगव्यवहार से जो ऊपर उठ जाता है वह छिन्नस्रोता हो जाता है। एक यथार्थद्रष्टा को लोक-व्यवहार से मुक्त होना आवश्यक है। धर्म के सम्यक् प्रतिपादन में लोक व्यवहार भी एक बाधा है। साधक लोकहित के लिए बोलता है, न कि लोकरंजन के लिए। 'जनरंजनाय' कहकर आचार्य ने अपना पश्चात्ताप प्रकट किया है। धर्म के प्रतिपादन का उद्देश्य होता है-लोगों को सही मार्गदर्शन देना। यह तभी संभव है जबकि साधक सत्य के अतिरिक्त किसी को महत्त्व नहीं देता। सत्य सर्वोपरि है। सत्य के मार्ग में आने-वाली सभी अड़चनों से जो मुक्त हो चुका है वह है-छिन्नस्रोता। ४. अनासव-शाब्दिक परिभाषा की दृष्टि से अनास्रव का अर्थ होता है-पांच आसव-द्वारों से रहित। इसका दूसरा अर्थ मध्यस्थ भी होता है। जो शुभ-अशुभ विचारों में सदा तटस्थ, समत्ववान्, मध्यस्थ रहता है, वह अनास्रव होता है। यहां मध्यस्थ अर्थ अधिक संगत लगता है। धर्म का उपदेष्टा यदि स्थिर न हो तो सत्य के निरूपण में बड़ी कठिनाई पैदा होगी। फिर वह कभी बायें झांकेगा और कभी दाएं। उसे दूसरों पर निर्भर होना होगा। तटस्थ व्यक्ति सदा स्थिर रहता है, न वह इधर झांकता है और न उधर। वह संतुलित रहता है। सत्य का आविर्भाव उसी स्थिति में संभव है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में लोगों को सिखाना कठिन काम है। भगवान के दर्शन के बाद-यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो तो वह लोक-शिक्षा (उपदेश) दे सकता है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २८१ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन ३२. यन्मतं. सर्वसाधूनां, तन्मतं शल्यकर्तनम्। - साधयित्वा च तत्तीर्णा, निःशल्या वतिनां वराः॥ जो सभी साधुओं का मत-इष्ट है, वह मत-निग्रंथ प्रवचन शल्य को काटने वाला है। उसकी साधना कर बहुत से उत्तमव्रती निःशल्य बनकर भव-समुद्र को तर गए। ॥ व्याख्या ॥ शल्य आंतरिक व्रण है। ऊपर की चिकित्सा साध्य है, अंतर की असाध्य है, क्योंकि वह दृश्य नहीं है। शल्य भीतर ही भीतर पलने वाला महान् दुःखदायी और विनाशक व्रण है। यह सूक्ष्म है। इसे पकड़ने के लिए पैनी दृष्टि चाहिए। गहन अंतर्दर्शन के बिना इसको पकड़ पाना कठिन है। साध्य की प्राप्ति में यह बड़ा अमंगलकारी है। साधक को पहले ही क्षण में इससे मुक्त होकर साधना में प्रवेश करना चाहिए। शल्य तीन हैं १. मायाशल्य-माया का अर्थ है-वक्रता, भ्रांति। वक्र आदमी ही घूमता है, सीधा-सरल नहीं। भ्रांति भी वक्रता में पलती है। सरल व्यक्ति के लिए स्वीकृति और साधना दोनों सरल हैं। उसकी परिणति भी सरल है, किंतु वक्र के लिए कठिन है। २. निदानशल्य-इसका अर्थ है-वैषयिक वासना का संकल्प। शरीर और इन्द्रिय-विषयों के आकर्षण को यदि साधक नहीं छोड़ पाता तो पग-पग पर उसके जीवन में संघर्ष खड़े हो जाते हैं। इन्द्रियों के लुभावने विषय उसे अपनी ओर खींच लेते हैं। वह जिसके लिए साधना में आया था, उसे भूल जाता है, और विषयों के चंगुल में फंस जाता है। ऐहिक विषयों की पूर्ति असंभव होती है तो भविष्य के सुखों के लिए भीतर ही भीतर अकेले में संरचना कर लेता है और अपने वर्तमान या सुखद साधना-पथ से च्युत होकर नरक में स्वयं को डाल देता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने पूर्वभव में इसी प्रकार की संरचना से जीवन को दुःखद बना लिया। चित्तमुनि ने जब उसे आर्य-पथ पर चलने की प्रेरणा दी, तब चक्रवर्ती ने कहा-'मैं जानता हूं धर्म को, किंतु कर नहीं सकता। और अधर्म को भी जानता हूं किंतु छोड़ नहीं सकता। यह मेरे अशुभ तीव्रतम संकल्प का परिणाम है।' ३. मिथ्यादर्शनशल्य-बुद्ध ने कहा-'भिक्षुओ! मिथ्यादृष्टि के समान दोषपूर्ण दूसरा धर्म नहीं देखता। अनिष्टकारी सभी धर्मों में मिथ्यादृष्टि सबसे बुरा धर्म है।' बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में सम्यग्दृष्टि प्रथम है और महावीर के धर्म-दर्शन में भी सम्यग्दर्शन प्रथम है। यह अध्यात्म की रीढ़ है। दृष्टि की मलिनता हटने पर ही यथार्थ का अवबोध होता है। सत्यासत्य का अवबोध सम्यग्दर्शन है। आगे के पथ की सुगमता इसी विवेक पर निर्भर है। . ३३.पण्डितो वीर्यमासाद्य, निर्घाताय प्रवर्तकम्। पण्डित व्यक्ति कर्म-क्षय के लिए प्रवर्तक वीर्य को प्राप्त धुनीयात् सञ्चितं कर्म, नवं कर्म न वा सृजेत्॥ कर पूर्वकृत कर्म की निर्जरा करता है और नये कर्म का अर्जन नहीं करता। ३४. एकत्वभावनादेव, निःसङ्गत्वं प्रजायते। एकत्व-भावना से निःसंगता-निर्लिप्तता उत्पन्न होती है। निःसङ्गो जनमध्येऽपि, स्थितो लेपं न गच्छति॥ निःसंग मनुष्य जनता के बीच रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता। ॥ व्याख्या ॥ एक उत्पद्यते तनुमानेक एव विपद्यते। एक एव हि कर्म चिनुते, सैकिकः फलमषूनुते॥ 'जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। जीव अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है।' यह एकत्व भावना का चिंतन है। इसके अभ्यास से व्यक्ति में निःसंगता पैदा होती है और अपने-आप पर निर्भर रहने की वृत्ति पनपती है। प्रत्येकबुद्ध नमि मिथिला के राजा थे। एक बार वे दाहज्वर से पीड़ित हुए। उपचार चला। रानियां स्वयं चंदन घिस रही थीं। उनके हाथों में पहने हुए कंगन बज रहे थे। उस आवाज से नमि खिन्न हो १. करण वीर्य, क्रियात्मक वीर्य। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ૨૮૨ खण्ड-३ गए। कंगन उतार दिए गए। केवल एक-एक कंगन रखा। आवाज बंद हो गई। नमि ने कारण पूछा। मंत्री ने कहा-'सभी कंगन उतार दिये गये हैं। केवल एक-एक कंगन रखा गया है। एक में आवाज नहीं होती।' नमि ने सोचा-'सुख अकेलेपन में है। जहां दो हैं वहां दुःख है।' इस एकत्व-भावना से प्रबुद्ध होकर वे प्रव्रजित हो गये। ३५.न प्रियां कुरुते कस्याप्यप्रियं कुरुते न यः। जो किसी का प्रिय भी नहीं करता और अप्रिय भी नहीं सर्वत्र समतामेति, समाधिस्तस्य जायते॥ करता, सर्वत्र समता का आचरण करता है, उसे समाधि प्राप्त होती है। ॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में आत्मनिष्ठ व्यक्ति के कर्तव्य का निर्देश है। उसमें राग-द्वेष नहीं होता। उसके लिए 'मेरा' और 'पराया' कुछ नहीं होता। वह प्रवृत्ति करता है, किसी का इष्ट या अनिष्ट करने के लिए नहीं, किन्तु अपना कर्त्तव्य-पालन करने के लिए। उसमें किसी का इष्ट सध सकता है। इष्ट या अनिष्ट प्रवृत्ति का मूल राग-द्वेष है। जो व्यक्ति इनसे प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है, वह सदा पवित्र नहीं रह सकता। जो आत्मनिष्ठ होता है, उसके लिए सब समान हैं। वह सारी प्रवृत्तियां आत्म-साक्षात्कार करने के लिए करता है। यही उसकी आत्म-निष्ठा है। यह सामान्य अवस्था नहीं है। यह ऊंची साधना से प्राप्त होती है। अप्रिय करने की बात हरेक की समझ में आ जाती है, किन्तु प्रिय न करना-यह कुछ अमानवीय तथ्य-सा लगता है, किन्तु भूमिका-भेद से यह भी मान्य होता है। सभी व्यक्तियों के कर्त्तव्य अपनी-अपनी भूमिका से उत्पन्न हैं। अतः उस ऊंची भूमिका पर पहुंचे मनुष्य के कर्त्तव्य भी भिन्न हो जाते हैं। यह समता का परम विकास है। ३६. अशंकितानि शङ्कन्ते शङ्कितेषु शङ्किताः। असंवृत व्यक्ति मुग्ध होते हैं। जो मूढ हैं, उनका मन चंचल असंवृता विमुह्यन्ति, मूढा यान्ति चलं मनः॥ होता है। वे उन विषयों में शंका करते हैं जो शंका के स्थान नहीं और उन विषयों में शंका नहीं करते, जो शंका के स्थान हैं। ॥ व्याख्या ॥ जिनकी इन्द्रियों और मन का द्वार बाहर की तरफ खुला है, वे असंवृत होते हैं। असंवृत व्यक्ति अमृत, अनश्वर में सदा सशंकित रहता है। उसका जो कुछ परिचय है, वह मृत-नश्वर से है। कुछ समझते हैं, लेकिन जानते हुए भी सशंक में अशंक की भांति हाथ डालते हैं। बुद्ध ने कहा-'नित्य प्रज्वलित इस संसार में कैसा हास्य और आनंद? अंधकार से घिरे हुए लोगो! प्रदीप की खोज क्यों नहीं कर रहे हो?' यह बुद्ध पुरुषों का दर्शन है। उन्हें आग दिखाई दे रही है। लोग जल रहे हैं। किन्तु मनुष्य को यदि आग दिखाई दे तो वह अपने को बचा सकता है। उसे दिखाई दे रही है ठंड। यह उल्टा दर्शन है। इसलिए महावीर ठीक कहते हैं-'वे लोग मूढ़ हैं जो मृत में मुग्ध हो रहे हैं। अशंकित में पैर रखते हुए शंका करते हैं और शंकित स्थानों में अशंकित होकर विहरण करते हैं। अमृत की उपलब्धि के बिना उनकी पीड़ा शांत नहीं हो सकती। अमृत को खोजो, शाश्वत को खोजो, अनश्वर को प्राप्त करो।' ३७.स्वकृतं विद्यते दुःखं, स्वकृतं विद्यते सुखम्। दुःख अपना किया हुआ होता है और सुख भी अपना किया अबोधिनाऽर्जितं दुःखं, बोधिना हि प्रलीयते॥ हुआ होता है। अबोधि से दुःख अर्जित होता है और बोधि से उसका विलय होता है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने कहा-'अन्नाणी किं काहिइ, किं वा नाहीइ छेयपावगं।' अज्ञानी को श्रेय और अश्रेय का पता नहीं होता। वह बेचारा है, दया का पात्र है, वह क्या करेगा ? कैसे पार करेगा भवसागर को ? यह करुण का परम वचन है। बुद्ध ने कहा है-'भिक्षुओ! सब मलों में अज्ञान परम मल है। इस मल को धो डालो और पवित्र हो जाओ।' गीता में कहा है-'अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः'-प्राणियों का ज्ञान अज्ञान से आच्छन्न है, इसलिए वे मूढ़ होते हैं। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. २८३ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन अज्ञान पर सब संतों ने प्रहार किया है। सारा दुःख अज्ञान से अर्जित है। मनुष्य को पता नहीं है कि कैसे वह दुःख का संग्रह कर रहा है। दुःख सबको अप्रिय है। कोई नहीं चाहता है कि दुःख मिले किन्तु आश्चर्य है कि जाने, अनजाने सब दुःख-नरक में उतर रहे हैं। दुःख ने मनुष्य को नहीं पकड़ा है, किन्तु मनुष्य ने ही उसे पकड़ रखा है। जिस दिन यह समझ में आ जाएगा, आदमी उसे छोड़ भी सकेगा। दुःखी व्यक्ति ही दूसरों को सताने का प्रयत्न करता है। महावीर, बुद्ध आदि संतों ने किसी को नहीं सताया। क्योंकि वे परम सुख में थे। जब तक आप दुःखी हैं, दूसरों को कष्ट देने से नहीं चूकेंगे। आध्यात्मिक होने की शर्त है-आप सुखी बन जाएं, दूसरों की चिंता छोड़ दीजिए। सुख उतर आएगा। सुख के लिए सुख का ज्ञान अपेक्षित है। जैसे ही ज्ञान की किरण उतरेगी अनंत जन्मों का संगृहीत दुःख एक क्षण में विदा हो जाएगा। मैं दुःख किसी से लूंगा ही नहीं तो कौन मुझे दुःख देगा? मैं हर क्षण में प्रफुल्लित मुस्कराता रहूंगा। जो कुछ भी मेरे लिए है, वह सब मंगल रूप है।' ऐसे व्यक्ति को कौन दुःखी कर सकता है? ३८.हिंसासूतानि दुःखानि, भयवैरकराणि च। हिंसा से दुःख उत्पन्न होते हैं। वे भय और वैर की वृद्धि करते पश्य-व्याहृतमीक्षस्व, मोहेनाऽपश्यदर्शन'! हैं। मोह के द्वारा अपश्य-दर्शन' बने हुए पुरुष! तू द्रष्टा की वाणी को देख। ॥ व्याख्या ॥ हिंसा का अर्थ है-असत् प्रवृत्ति। वह मानसिक, वाचिक और कायिक-तीन प्रकार की होती है। जब आत्मा असत् प्रवृत्ति में प्रवृत्त होती है, तब अशुभ कर्म-बंध होता है और अशुभ कर्म सभी दुःखों के मूल हैं। अतः हिंसा सभी दुःखों की उत्पादक शक्ति है। इससे भय और वैर बढ़ते रहते हैं। अभय वह है जो अहिंसक है। अहिंसा वैर का उपशमन करती है। ३९. धर्मप्रज्ञापनं यो हि, न्यत्ययेनाध्यवस्यति। जो धर्म के निरूपण को विपरीत रूप से ग्रहण करता है और .. हिंसया मन्यते शाति, स जनो मूढ उच्यते॥ हिंसा से शांति होगी, समस्या का समाधान होगा, ऐसा मानता है, वह मनुष्य मूढ कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ हिंसा से शांति नहीं, शस्त्रों का निर्माण होता है। अहिंसा की आत्मा को जानने वाला व्यक्ति ही हिंसा का नाश कर सकता है। हिंसा की आग कभी हिंसा से बुझ नहीं सकती। संभूम चक्रवर्ती ने ब्राह्मण से वैर लेने के लिए पृथ्वी को ब्राह्मण-हीन कर दिया तो परशुराम ने इक्कीस बार उसे क्षत्रियहीन बनाया। हिंसा प्रतिशोध को जन्म देती है। विवेकवान् व्यक्ति अहिंसा में शांति देखता है, आत्म-स्वभाव की समुपासना में धर्म को देखता है। ४०.असारे नाम संसारे, सारं सत्यं हि केवलम्। इस सारहीन संसार में केवल सत्य ही सार है। जो द्रष्टा हैं, वे . तत् पश्यन्तो हि पश्यन्ति, न पश्यन्ति परे जनाः॥ ही सत्य को देखते हैं। जो द्रष्टा नहीं हैं, वे सत्य को नहीं देख पाते। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् ने कहा-'सच्चं लोगम्मि सारभूयं'-लोक में सत्य ही सारभूत है। सत्य क्या है ? इसका उत्तर यही है कि जो वीतराग द्वारा कथित है, वही सत्य है। इसको समझना ही अपने आपको समझना है। जो व्यक्ति सत्य को देखता है वही आत्म-द्रष्टा हो सकता है। जो सत्य को नहीं देखता वह कुछ भी नहीं देखता। सत्य विराट् है। सत्य भगवान् है। सत्य असीम है। इसको परिभाषा में बांधना सहज-सरल नहीं है। ११.अस्तित्वमुच्यते सत्यं, निरपेक्षमिदं भवेत्। सत्य के अनेक अर्थ हैं। अस्तित्व निरपेक्ष सत्य है। सत्य का • सार्वभौमश्च नियमः, अपि सत्यमुदाहृतः॥ एक अर्थ है-सार्वभौम नियम। १,२. अपश्य-न पश्यतीति अपश्यः-जो द्रष्टा नहीं है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २८४ खण्ड-३ ४२.पर्याया अपि सत्यं स्याद, इदं सामयिकं भवेत्। यथार्थवचनञ्चापि, सत्यमित्युक्तमहता॥ पर्याय सामयिक सत्य है। यथार्थ वचन को भी सत्य कहा गया है। (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ सत् शब्द से सत्य की निष्पत्ति हुई है। सत् पदार्थमात्र का धर्म है। सत् का अर्थ है-अस्ति-अस्तित्व। अस्तित्व ही.' सत्य है। इस जगत में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है या अस्तित्व होने के कारण पदार्थ है। अस्तित्व के अभाव में कोई पदार्थ नहीं होता। 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः' असत् पदार्थ नहीं होता और सत् अपदार्थ नहीं होता यह समीचीन व्याख्या है। इस असार संसार में सार सत्य-अस्तित्व है। 'सच्चं लोयंमि सारभूयं सत्य ही इस श्लोक में सारभूत है, यह घोषणा द्रष्टा-पुरुषों की है। क्योंकि सत्य का दर्शन उन्हें ही होता है या वे ही सत्य का दर्शन करते हैं। अद्रष्टा व्यक्ति सत्य का दर्शन नहीं कर सकता। इससे यह फलित होता है कि सत्य को देखना है तो द्रष्टा बनो। द्रष्टा बनने का तात्पर्य है, अपने को देखना, जो स्वयं को देखता है वही सत्य को देखता है। अपने अस्तित्व दर्शन के साथ-साथ सबका अस्तित्व प्रकट हो जाता है। अस्तित्व से भिन्न कुछ है ही नहीं। सत्य की यह परिभाषा निरपेक्ष है, शुद्ध है, पूर्ण है और शाश्वतिक है। अन्य परिभाषाएं उसी से जुड़ी हुई हैं। सार्वभौम नियम को भी सत्य कहते हैं। चेतनत्व चेतन का नियम है और अचेतनत्व अचेतन का। दोनों का कभी मिश्रण नहीं होता। आत्मा अनात्मा नहीं होता और अनात्मा आत्मा नहीं होता। पदार्थ में अन्य अपनी स्वभावगत विशिष्टताएं होती हैं, वे सब सत्य हैं। उत्पत्ति और विनाश का भी अपना नियम है। यह प्रत्येक पदार्थ के साथ है, इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता है। अवस्थाओं के परिवर्तन से पदार्थ में परिवर्तन आता है, यह भी सत्य है। किन्तु यह शाश्वतिक नहीं, सामयिक है। जीव की विविध योनियों में विविध शरीरों के आधार पर भिन्न-भिन्न नामों की परिकल्पना। ये उनकी पर्यायगत अवस्थाएं हैं। अंगूठी सोने की है तो चैन भी सोने की है, कड़ा भी सोने का है-स्वर्णत्व अस्तित्व है। यह उनकी विविध पर्यायें हैं। पर्याय की दृष्टि से ये सामयिक-व्यावहारिक सत्य है। ऐसे ही दृश्य जगत के जितने स्वरूप हैं वे सब उन-उन पुद्गलों की अवस्थाएं हैं। नाम-रूप संसार की सत्यता सामयिक है, यह हमारे ध्यान में रहे। यथार्थ वाक् के रूप में जो सत्य है, हमारा परिचय अधिकांश इसी से है। सत्यवादी हरिश्चंद्र की ख्याति का कारण भी यही है। युधिष्ठिर का रथ जो अधर में रहता था, उसका हेतु भी सत्य-वचन था। समग्ररूप में इसकी आराधना भी उसी पूर्ण सत्य की प्राप्ति का निमित्त बनती है। तीर्थंकरों, आप्तपुरुषों, प्रामाणिक व्यक्तियों का 'यथावादी' एक विशिष्ट गुण होता है। महात्मा गांधी ने कहा-हंसी-मजाक में भी असत्य-अयथार्थ भाषण नहीं करना चाहिए। निःसन्देह सत्य की साधना 'असिधारा' व्रत है। सत्य बोध में साधक को इन समस्त तथ्यों पर चिंतन करना चाहिए। ४३. सिंह यथा क्षुद्रमृगाश्चरन्तः, जैसे चरते हुए छोटे पशु सिंह से डरकर दूर रहते हैं, इसी चरन्ति दूरं परिशङ्कमानाः। प्रकार मतिमान् पुरुष धर्म को समझकर दूर से ही पाप का वर्जन समीक्ष्य धर्म मतिमान् मनुष्यो, करे। दूरेण पापं परिवर्जयेच्च॥ ॥ व्याख्या ॥ पाप का अर्थ है-अशुभ प्रवृत्ति। जिस प्रवृत्ति से आत्मा का हनन होता है, वह पाप है। पाप त्याज्य है। उसके स्वरूप को पहचानकर जो व्यक्ति उससे दूर हटता है, वह धर्म के निकट चला जाता है। जो व्यक्ति आत्म-धर्म समझकर पाप से बचते हैं, वे बहुत शीघ्र धर्म के क्षेत्र में प्रवेश पा जाते हैं और जो लज्जावश या भयवश पाप से बचते हैं, वे समय आने पर स्खलित हो जाते हैं और धर्म में प्रवेश सुलभता से नहीं पा सकते। जो दिन में या रात में, अकेले में या समुदाय में, सोते हुए या जागते हुए कभी पाप में प्रवृत्त नहीं होता, वह महान् है और वही आत्मनिष्ठ हो सकता है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि. २८५ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन १४. यदा यदा हि लोकेऽस्मिन्, ग्लानिधर्मस्य जायते। इस संसार में जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब _ तदा तदा मनुष्याणां, ग्लानिं यात्यात्मनो बलम्॥ मनुष्यों का आत्मबल ग्लान-हीन हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ आत्मबल के समक्ष भौतिकबल नगण्य है। भौतिक शक्ति-संपन्न व्यक्ति कितना ही पराक्रमी हो, किन्तु दूसरों से सदा भयभीत रहता है। जिस हिटलर के नाम से विश्व कांपता था वह हिटलर अपने भीतर स्वयं कितना प्रकंपित था, यह आज स्पष्ट हो चुका है। हिटलर एक कमरे में सो नहीं सकता था। शादी भी मरने के कुछ समय पूर्व की थी। पत्नी पर विश्वास नहीं। निजी डॉक्टरों ने कहा कि वह अनेक बीमारियों से ग्रस्त था। बहुत बार बाहर जाने के लिए भी अपनी शक्ल का दूसरा नकली व्यक्ति भेजता था। प्रतिक्षण भयभीत था। क्या इसे वीरत्व कहा जा सकता है ? अस्तित्व की दिशा में जो व्यक्ति कदम उठाता है उसका आत्मबल क्रमशः वर्धमान होता रहता है। उसके पास चाहे शरीर-बल इतना न भी हो किन्तु आत्म-बल परिपूर्ण होता है। वह कांपता नहीं रहता। वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। भय जीवनैषणा के कारण है। जब जीवननैषणा ही नहीं रहती तब भय किसका? आत्मबल की क्षीणता का कारण है-धर्म-अस्तित्व के सम्यग् अवबोध का अभाव। धर्म ने कभी मनुष्य को भीरु नहीं बनाया। सही धार्मिक व्यक्ति भीरु हो भी नहीं सकता। जहां जाने से लोग डरते थे वहां महावीर महाविषधर चंडकौशिक के निवासस्थल पर जाकर ध्यानस्थ खड़े हो जाते हैं। बुद्ध 'अंगुलिमाल' के सामने उपस्थित होते हैं। महावीर का श्रावक सुदर्शन 'अर्जुनमाली' को बिना किसी शस्त्रास्त्र के परास्त कर उसे महावीर के चरणों में उपस्थित कर देता है। धर्म से जिस 'आत्मशक्ति' का जागरण होता है वैसा जागरण और किसी से नहीं होता। धर्म के प्रति उदासीन होने का अर्थ है-स्वयं के प्रति उदासीन होना। धर्म की क्षीणता में आत्मशक्ति की क्षीणता अनिवार्य है। मेघः प्राह १५. असतो वारयन्नित्यं, ध्रुवे सत्ये प्रवर्तनम्। धर्मो जागर्ति तेजस्वी, तस्य ग्लानिः कुतो भवेत्॥ मेघ ने कहा-धर्म मनुष्यों को असत् कार्य करने से रोकता है और उन्हें सदा सत्य में प्रवृत्त करता है। धर्म तेजस्वी है और सदा जागृत रहता है, ऐसी स्थिति में धर्म की ग्लानि कैसे हो सकती हैं? भगवान् प्राह १६.दृष्टिः सम्यक्त्वमाप्नोति, ज्ञानं सत्यसमन्वितम्। आचारोऽपि समीचीनः, तदा धर्मः प्रवधत॥ जब दृष्टि सम्यक् होती है, ज्ञान सही होता है और आचार समीचीन होता है, तब धर्म बढ़ता है। १७. दृष्टिविपर्ययं याति, ज्ञानमेति विपर्ययम्। जब दृष्टि, ज्ञान और आचार विपरीत होते हैं, तब धर्म की आचारोऽपि विपर्यस्तः, तदा धर्मः प्रहीयते॥ हानि होती है। १८. पालिर्जलस्य रक्षार्थ, तस्याः रक्षा प्रवर्धते। । जलाभावो न चिन्त्यः स्यात्, तदा कृषिः प्रशुष्यति॥ पाल पानी की सुरक्षा के लिए होती है। जब पाल की सुरक्षा मुख्य बन जाती है और जल का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब कृषि सूख जाती है। १९.वाटिर्धान्यस्य रक्षार्थ, तस्याः रक्षा प्रवर्धते। धान्याभावो न चिन्त्यः स्यात्, तदा कृषिर्विहीयते॥ बाड़ अनाज की सुरक्षा के लिए होती है। जब बाड़ की सुरक्षा ही मुख्य बन जाती है और अनाज का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब कृषि क्षीण हो जाती है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २८६ खण्ड-३ ५० नियमा यमरक्षार्थ तेषां रक्षा प्रवर्धते। नियम यम की सरक्षा के लिए होते हैं। जब नियमों की सरक्षा यमाभावो न चिन्त्यः स्यात्, तदा धर्मः प्रहीयते॥ ही मुख्य बन जाती है और यम का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब धर्म क्षीण होता है। ५१.यमाः सततमासेव्याः, नियमास्तु यथोचितम्। सत्यमीषां' विपर्यासे, धर्मग्लानिः प्रजायते॥ यमों का आचरण सदा करना चाहिए और नियमों का देश, काल और स्थिति के औचित्य के अनुसार। जब यम गौण और नियम प्रधान बन जाते हैं, तब धर्म की ग्लानि होती है। . ॥ व्याख्या ॥ मेघ का कथन ठीक है कि धर्म व्यक्ति के जीवन में बड़ा हस्तक्षेप करता है। लोक-जीवन का भवन झूठ पर खड़ा होता है। धार्मिक होने का अर्थ है-सत्य की दिशा में चलना। धार्मिक व्यक्ति के समस्त व्यवहारों में सत्य का प्रतिबिम्ब झलकने लगता है। अब वह पहले की तरह चल नहीं सकता, बोल नहीं सकता, लेना-देना नहीं कर सकता, बातचीत नहीं कर सकता। उसे कोई भी कार्य करते हुए यह सोचना होगा कि इससे धर्म की हानि होगी या वृद्धि ? धीरे-धीरे जीवन की असत् प्रवृत्तियां विदा होने लगेंगी। वर्षा से स्नात वनराजि की तरह एक दिन उसका जीवन दीप्तिमान हो उठेगा। किन्तु पहले ही क्षण में धर्म के इस परिणाम की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। उसके लिए बड़े उत्साह, धैर्य, त्याग और संघर्षों की आवश्यकता होती है। धर्म का जीवन प्रारंभ करते ही घर, परिवार, समाज आदि से संघर्ष का सूत्रपात भी हो जाता है। लोग नहीं चाहते कि आप सबसे उदासीन हो जाएं। आपकी उदासी भी दूसरों को पीड़ाकारक बन जाती है। लोक-भय से ही अनेक व्यक्ति उस मार्ग पर चलना छोड़ देते हैं। धर्म की तेजस्विता में कोई संदेह नहीं है, संदेह है व्यक्ति की क्षमता पर। धर्म का विकास सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् आचरण (चारित्र) पर निर्भर है। इनके अभाव में विकास नहीं, हास होता है। धर्म के जीवंत सूत्रों की उपेक्षा कर धर्म के कलेवर को जीवित रखा जा सकता है, किन्तु धर्म की आत्मा को नहीं। जितने भी अर्हत्, बुद्ध और परम प्रज्ञा-प्राप्त साधक हुए हैं, उन्होंने मूल पर बल दिया है, गौण पर नहीं। आनंद ने बुद्ध से पूछा-'निर्वाण के बाद आपके शरीर का क्या किया जाए?' बुद्ध ने कहा-'आनंद! इसमें सिर मत खपाओ, मैंने जो साधना-धर्म बताया है, उसका अभ्यास करो।' वक्कलि भिक्षु से बुद्ध कहते हैं-'जैसे यह तुम्हारा अशुचिमय शरीर है, वैसा ही बुद्ध का है। क्क्कलि! मेरे इस शरीर को मत देखो, धर्म-शरीर को देखो। जो मेरे धर्म-शरीर को देखता है वह मुझे देखता है और जो मुझे देखता है वह मेरे धर्मशरीर को देखता है।' महावीर गौतम से कहते हैं-'गौतम! सत्य की शोध में प्रमाद मत कर। मेरे से स्नेह मत कर। सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना कर मुक्त हो।' जब बाह्म क्रियाएं और चमक-दमक व्यक्ति को प्रभावित करने लगते हैं तब धर्म का मौलिक ध्येय गौण हो जाता है या मौलिक धर्म के प्रति अनुत्साह होने से बाह्य क्रियाओं का महत्त्व बढ़ जाता है। मूल छूट जाता है और बाहरी पकड़ सुदृढ़ हो जाती है। मूल छिप जाता है और गौण ऊपर आ जाता है। जिसकी सुरक्षा के लिए जो होता है, उसकी सुरक्षा प्रमुख हो जाती है और मूल धूमिल हो जाता है। धर्म की सुरक्षा प्रमुख है। इसी में प्राणिमात्र का हित है। उसके प्रति सजग होना जरूरी है। सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र जितने पुष्ट और सशक्त होंगे, धर्म उतना ही शक्तिशाली होगा। इनके बाहर धर्म नहीं है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे आत्ममूलकधर्मप्रतिपादननामा एकादशोऽध्यायः। १. सति+अमीषाम्। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-१२ शेय-हेय-उपादेय Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेय-हेय-उपादेय मुमुक्षु ज्ञान और आचार के माध्यम से सत्य को प्राप्त करता है। ज्ञानशून्य आचार और आचारशून्य ज्ञान सत्य का साक्षात्कार कराने में सिद्ध नहीं होते। दोनों का योग ही साध्य का दर्शन है। " आचारहीन ज्ञान निरर्थक है तो ज्ञान-रहित आचार भी विशद नहीं होता। 'जानो और तोड़ो' दोनों में ज्ञान की मुख्यता है, इसे नहीं भूलना चाहिए। बंधन क्या है और मुक्ति क्या है, यह बोध ज्ञान से ही संभव है। मनुष्य को बंधन प्रिय नहीं है, प्रिय है सवतंत्रता। स्वतंत्रता की प्राप्ति बंधनों को तोड़े बिना नहीं मिलती। बंधन को न जानकर तोड़ने की बात असंभव है। इसलिए यहां ज्ञेय, हेय और उपादेय-तीनों का विशद दर्शन है। 'बंधन बाधक है' जब आत्मा यह जान लेती है, तब उसे तोड़ने को भी प्रेरित होती है। बंधन टूटता है, लक्ष्य उपलब्ध हो जाता है। ___ संसार में तीन प्रकार के पदार्थ होते हैं-ज्ञेय, हेय और उपादेय। विश्व के सभी पदार्थ ज्ञेय हैं। जो ... आत्म-उत्थान में साधक होते हैं, वे उपादेय हैं और जो बाधक होते हैं, वे हेय हैं। आत्म-साधना में तीनों.. का विवेक आवश्यक होता है। इस अध्याय में इन तीनों का विशद विवेचन है। तप क्या है, उसके कितने . प्रकार हैं तथा ध्यान के प्रकार और द्वादश अनुप्रेक्षाओं का भी इसमें विस्तार से वर्णन किया गया है। मेघः प्राह १. किं ज्ञेयं किञ्च हेयं स्याद, उपादेयञ्च किं विभो! मेघ बोला-विभो! ज्ञेय क्या है? हेय और उपादेय क्या है? शाश्वते नाम लोकेऽस्मिन्, किमनित्यञ्च विद्यते॥ इस शाश्वत जगत् में अशाश्वत क्या है? . .. ॥ व्याख्या ॥ जिज्ञासा ज्ञान-प्राप्ति की सच्ची भूख है। भूखा व्यक्ति जिस प्रकार भोजन के लिए व्याकुल होता है, जिज्ञासु व्यक्ति भी उसी प्रकार सदेहशमन के लिए आतुर रहता है। मेघ का मन यह जानना चाहता है कि संसार में जानने, छोड़ने और आचरण करने की क्या चीजें हैं, जिससे मैं स्वात्महित को साध सकूँ। भगवान् प्राह २. धर्मोधर्मस्तथाकाशं. कालश्च पुद्गलस्तथा। जीवो द्रव्याणि चैतानि, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत्॥ भगवान् ने कहा-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीवपांच अस्तिकाय तथा काल-ये छह द्रव्य हैं। यह ज्ञेयदृष्टि है। ॥ व्याख्या ॥ ये छह द्रव्य विश्व-व्यवस्था के संघटक हैं। इनसे संसार के स्वरूप का बोध होता है। विश्व चेतन और अचेतन की संघटना है। संसारी आत्मा स्वतंत्र होते हुए भी सर्वथा कर्म से स्वतंत्र नहीं होती। वह कर्म-पुद्गलों के प्रभाव से सतत नाटकीय परिवर्तन करती रहती है। छह द्रव्यों का समवाय संसार है। संसार की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिकों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। कुछ जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानते हैं, कुछ प्रलय के बाद जो नया सर्जन होता है। उसे संसार कहते हैं, कुछ कहते हैं वह सृष्टि ईश्वरकृत है। जैन दर्शन की Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ संबोधि समन्वयात्मक दृष्टि ने इसे यों देखा है कि संसार न ईश्वरकृत है, न जड़ से उत्पन्न होता है और न प्रलय के बाद नया सर्जन ही होता है। वह पहले भी था, है और रहेगा। जड़ और चेतन का सनातन विरोध है। जड़ से चेतन पैदा नहीं हो सकता। गीता में कहा है-असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का विनाश नहीं होता।' केवल वस्तुओं का रूपांतरण होता है। जड़ और चेतन दोनों की पर्याएं - अवस्थाएं बदलती रहती हैं। एक जगह का विनाश दूसरी जगह को आबाद है। एक व्यक्ति एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चला जाता है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से शाश्वत है और पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत । संसार षड्द्रव्यात्मक है। उनका स्वरूप इस प्रकार है : धर्मास्तिकाय गति का माध्यम तत्त्व अधर्मास्तिकाय स्थिति का माध्यम तत्त्व आकाशास्तिकाय - अवगाह देने वाला तत्त्व काल-परिवर्तन का हेतुभूत तत्त्व | पुद्गलास्तिकाय वर्ण, गंध, रस, स्पर्शयुक्त द्रव्य जीवास्तिकाय वेतन द्रव्य । ३. जीवाऽजीवौ पुण्यपापे, आस्रवः संवरस्तथा । निर्जरा बंधमोक्षौ च ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥ मुख्यतया तत्त्व दो हैं-जीब और अजीव गये हैं। इन नौ भेदों में प्रथम भेद जीव का है, साधनों का वर्णन है। जीव-चैतन्य का अजस्र प्रवाह अजीव - चैतन्य का प्रतिपक्षी - जड़। पुण्य- शुभ कर्म - पुद्गल । पाप - अशुभ कर्म - पुद्गल । आखव - कर्म ग्रहण करने वाले आत्म परिणाम । - ॥ व्याख्या || किन्तु मोक्ष के साधन के रहस्य को बतलाने के लिए इनके नौ भेद किये अंतिम भेद मोक्ष का है और बीच के भेदों में मोक्ष के साधक और बाधक संवर-कर्म-निरोध करने वाले आत्म-परिणाम । निर्जरा-कर्म-निर्जरण से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता । बंध- आत्मा के साथ शुभ अशुभ कर्म का बंध मोक्ष -कर्म विमुक्त अवस्था । ४. अस्त्यात्मा शाश्वतो बंधः, तदुपायश्च विद्यते । अस्तिमोक्षस्तदुपायो, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥ ५. बंधं पुण्यं तथा पापं आस्रवः कर्मकारणम् । भवबीजमिदं सर्व हेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥ अ. १२ ज्ञेय हेय उपादेय : जीव, अजीव, पुण्य, पाप आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नौ तत्त्व हैं। यह ज्ञेयदृष्टि है। ६. निरोधः कर्मणामस्ति, संवरो निर्जरा तथा । कर्मणां प्रक्षयश्चैषोपादेयदृष्टिरिष्यते ॥ १. आत्मा है। २. आत्मा शाश्वत है। ३. बंध है। ४. बंध का उपाय है । ५. मोक्ष है । ६. मोक्ष का उपाय है। यह ज्ञेयदृष्टि है। पुण्य, पाप, बंध और कर्मागमन का हेतुभूत आस्रव - ये सब संसार के बीज हैं। यह यदृष्टि है। कर्मों का निरोध करना संवर है और कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मशुद्धि निर्जरा है - यह उपादेयदृष्टि है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २९० ॥ व्याख्या ॥ साधना-पथ पर अग्रसर होने से पूर्व साधक के लिए यह जानना जरूरी है कि वह क्यों इस मार्ग का चुनाव कर रहा है ? पहले या पीछे यह विवेक किए बिना साधना का शुभारंभ फलदायी नहीं होता। सामान्य जन भी बिना किसी उद्देश्य प्रवृत्त नहीं होते। दिशाहीन गति का कोई अर्थ नहीं रहता। हेय, ज्ञेय और उपादेय - इस तत्त्वत्रयी का बोध साधक को भटकने नहीं देता। वह सतत ध्येय की दिशा में बढ़ता रहता है। के जो जानने का है उसे जाने, छोड़ने का है उसे छोड़े और जो उपादेय है उसके ग्रहण में संलग्न रहे । अकुशल प्रवृत्तियों से बचना, जो हैं उन्हें हटाना और कुशल प्रवृत्ति की संरक्षा करना, तथा जो नहीं है वह कैसे संप्राप्त हो इसमें सचेष्ट रहना । साधना का यह प्रथम चरण है इसलिए जितने भी साधक हुए हैं उन्होंने अशुभ से बचने का प्रथम सूत्र दिया है। महावीर ने कहा है-'सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला' - अच्छे कर्मों का अच्छा फल और बुरे कर्मों का बुरा फल होता है। अंगुत्तर निकाय में बुद्ध ने कहा है-भिक्षुओं जैसा बीज बोता है वैसा ही फल पाता है। अच्छा कर्म करने वाला अच्छा फल पाता है और बुरा कर्म करने वालना बुरा । भिक्षुओ ! जिसकी दृष्टि मिथ्या होती है, संकल्प मिथ्या.. होते हैं, वाणी, कर्मान्त, आजीविका, व्यायाम, स्मृति, समाधि, ज्ञान, तथा विमुक्ति मिथ्या होती है, उसके कारण उसका शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक - सभी कर्म अनिष्ट दुःख के लिए होते हैं, क्योंकि उसकी दृष्टि ही बुरी होती है। पुण्य, पाप, आश्रव और बंध हेय हैं, क्योंकि इनका कार्य संसार है। पुण्य का फल अच्छा है, किन्तु अच्छा होने से संसार- विच्छेद नहीं होता। निर्वाण की अपेक्षा वह हेय है। पुण्य और पाप दोनों से मुक्त होना है। सुख-वेदन या दुःख-वेदन दोनों का क्षय करना है। संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय हैं। मोक्ष की उपादेयता निर्बाध है। क्योंकि वहां पुण्य-पाप दोनों ही नहीं हैं। वह भव का अंत है। संवर और निर्जरा मोक्ष की पृष्ठभूमि का काम करते हैं। साधक एक साथ निर्वाण को उपलब्ध नहीं कर सकता। संवर- निर्जरा की क्रमिक साधना निर्वाण को निकट करती है। उपयोगिता की दृष्टि से इनका विवेक कर योग - मार्ग में आरूढ़ होना चाहिए । ७. अमूढं आत्मगं चित्तं योगो योगिभिरिष्यते । मनोगुप्तिः समाधिश्च साम्यं सामायिकं तथा । ८. ऐकाग्रधं मनसश्चाद्ये भवेच्चान्ते निरोधनम् । मनः समितिगुप्त्योश्च सर्वो योगो विलीयते ॥ ९. मोक्षेण योजनाद् योगः, समाधिर्योग इष्यते । स तपो विद्यते द्वैधा, बाह्येनाभ्यन्तरेण च ॥ खण्ड - ३, १०. चतुर्विधस्याहारस्य, आहारस्याल्पतामाहुः, त्यागोऽनशनमुच्यते । अवमौदर्यमुत्तमम् ॥ जो चित्त आत्म-लीन एवं अमूढ - मूर्च्छाग्रस्त नहीं है, उसे योगी योग कहते हैं। मनोगुप्ति, समाधि, साम्य और सामायिक-ये सब योग के ही रूप हैं। ध्यान की दो अवस्थाएं होती हैं एकाग्रता और निरोष । प्रारंभिक दशा में मन की एकाग्रता होती है और अंतिम अवस्था में उसका निरोध होता है। मन की समिति - सम्यक् प्रवर्तन और गुप्ति-निरोध में सारा योग समा जाता है। जो आत्मा को मोक्ष से जोड़े, वह योग कहलाता है। आत्मा और मोक्ष का संबंध समाधि से होता है इसलिए समाधि को योग कहा जाता है। योग तप है। उसके दो भेद हैं-बाह्य तप और आभ्यंतर तप । अन्न, पानी खाद्य-मेवा आदि, स्वाद्य- लवंग आदि इस चार प्रकार के आहार के त्याग को अनशन कहते हैं। आहार, पानी, वस्त्र, पात्र एवं कषाय की अल्पता करने को अवमौदर्यकनोदरिका कहते हैं। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २९१ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ११.अभिग्रहो हि वृत्तीनां, वृत्तिसंक्षेप इष्यते। वृत्ति-आजीविका के अभिग्रह-प्रतिज्ञा को वृत्ति-संक्षेप भवेद् रसपरित्यागो, रसादीनां विवर्जनम्॥ कहते हैं। घी, तेल, दूध, दही, चीनी और मिठाई- इन विकृतियों के त्याग करने को रस-परित्याग कहते हैं। १२.कायक्लेशः कायसिद्धिः, वीरपद्मासनान्यपि। काय-क्लेश का अर्थ है काय-सिद्धि-काया की साधना। कायोत्सर्गश्च पर्यक, गोदोहोत्कटिकादयः॥ कायसिद्धि के लिए वीरासन, पद्मासन, कायोत्सर्ग, पर्यकासन, गोदोहिकासन, उत्कटिकासन आदि का प्रयोग किया जाता है। ॥ व्याख्या ॥ कायक्लेश के चार प्रकार हैं : १. आसन, २. आतापना ३. विभूषावर्जन और ४. परिकर्मवर्जन। १. आसन-शरीर की विशिष्ट मुद्राओं में अवस्थिति। आसन बैठे-बैठे सोकर अथवा खड़े-खड़े भी किए जा सकते हैं। आसन अनेक हैं। श्लोकगत आसनों की व्याख्या इस प्रकार है१. वीरासन-बद्ध-पद्मासन की भांति दोनों पैरों को रखकर हाथों को पद्मासन की तरह रखकर बैठना। सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर जो मुद्रा होती है उसे भी वीरासन कहते हैं। २. पद्मासन-जंघा के मध्य भाग में दूसरी जंघा को मिलाना। ३. कायोत्सर्ग-शरीर की सार-सम्हाल छोड़कर तथा दोनों भुजाओं को नीचे की ओर झुकाकार खड़ा रहना अथवा स्थान, ध्यान और मौन के अतिरिक्त शरीर की समस्त क्रियाओं को त्यागकर बैठना। ४. पर्यकासन-जिन-प्रतिमा की भांति पद्मासन में बैठना। ५. गोदोहिकासन-घुटनों को ऊंचा रखकर पंजों के बल पर बैठना तथा दोनों हाथों को दोनों साथलों पर .. टिकाना। ... ६. उत्कटिकासन-दोनों पैरों को भूमि पर टिकाकार दोनों पुतों को भूमि से न छुआते हुए जमीन पर बैठना। २. आतापना-सूर्य की रश्मियों का ताप लेना, शीत को सहन करना। निर्वस्त्र रहना। ३. विभूषावर्जन-किसी भी प्रकार का शृंगार न करना। ४. परिकर्मवर्जन-शरीर की सार-सम्हाल न करना। भगवान् ने कहा-गौतम! सुख-सुविधा की चाह से आसक्ति बढ़ती है। आसक्ति से चैतन्य मूर्छित होता है। मूर्छा पृष्टता लाती है। धृष्ट व्यक्ति विजय का पथ नहीं पा सकता। इसीलिए मैंने यथाशक्ति कायक्लेश का विधान किया है। मेघः प्राह १३. सर्वदर्शिन्! त्वया धर्मः, घोरोऽसौ प्रतिपादितः। दुःखविच्छित्तये सोऽयं, तत्र दुःखं किमिष्यते? मेघ बोला-हे सर्वदर्शिन्! आपने घोर धर्म का प्रतिपादन किया है। धर्म दुःख का नाश करता है, फिर उस धर्म में दुःख के लिए स्थान क्यों? ॥ व्याख्या ॥ बाह्य तप का विवरण सुन मेघ का मन कंपित हो उठा। उसने कहा-'भगवन्! आपने अत्यंत कठोर धर्म का प्रतिपादन किया है। यह सब के लिए कैसे संभव हो सकता है?' भगवान् ने उसका समाधान दिया। གཙམའ ས་ == བྷ ་ རྒྱུ རྒྱུ भगवान् प्राह ११.वत्स! न ज्ञातवान् मर्म, मर्म धर्मस्य किञ्चन। अममवदिनो लोकाः, सत्यं घ्नन्ति सनातनम्॥ __भगवान् ने कहा-वत्स! तूने मेरे धर्म का कुछ भी मर्म नहीं समझा। जो पुरुष मर्म को नहीं जानते. वे सनातन सत्य की हत्या कर देते हैं। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २९२ १५.न धर्मो देहदुःखार्थ, असौ सत्योपलब्धये। धर्म शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं किन्तु सत्य की न च सत्योपलब्धिः स्याद्, अहिंसाभ्यासमन्तरा॥ उपलब्धि के लिए है। अहिंसा का अभ्यास किए बिना सत्य की उपलब्धि नहीं होती। ॥ व्याख्या ॥ धर्म आत्म-स्वभाव के प्रगटीकरण का माध्यम है। शरीर, इन्द्रियां और मन-ये आत्मा के विपरीत दिशागामी हैं। जब कोई भी धर्म की यात्रा पर अभिनिष्क्रमण करता है तब ये सहायक नहीं होते हो और दूसरे लोगों की दृष्टि में भी यह यात्रा सुखद प्रतीत नहीं होती। क्योंकि लोग चलते हैं इन्द्रियों की तरफ और धार्मिक चलता है इनके विपरीत।.. मेघ को महावीर का यह मार्ग-दर्शन बड़ा अटपटा और दुर्धर्ष भी लगा। उसने विनम्र निवेदन किया-'प्रभो! आनंद की इस यात्रा में यह कष्टमय जीवन क्यों?' महावीर ने कहा-'वत्स! यह समझ का अंतर है। मैंने धर्म का प्रतिपादन सत्य के साक्षात्कार के लिए किया है। सत्य की उपलब्धि विषयाभिमुखता में कैसे होगी? सत्य-दर्शन के लिए तो हमें सत्य पथ का अनुसरण करना होगा। इन्द्रिय, मन और शरीर की अपेक्षाओं की पूर्ति में वह होता तो आज तक हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता। यह यात्रा सत्य की विरोधी है। सत्य के लिए तो पुनः स्वभाव की ओर चलना होगा। मैंने जो कुछ कहा है, वह सत्य की दिशा में अग्रसर होने के लिए कहा है। तुम देखो, लोग अर्थार्जन, परिवार आदि के लिए कितने कष्ट उठाते हैं। संयम की यात्रा में यदि कोई समर्पित होकर इससे आधा भी कष्ट उठाले तो मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। लोग भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, यातना और मृत्यु तक की पीड़ा झेल लेते हैं, तब फिर यह क्या है ? नासमझ लोगों ने धर्म को घोर दुःखमय कह दिया। धर्म में शरीर को सताने या न सताने का कोई प्रश्न ही नहीं है। वह तो सिर्फ आवरण को हटाने के लिए है। आवरण की क्षीणता का स्थूल परिणाम शरीर पर दिखाई देता है। इसलिए सामान्य जन उसे सताना या पीड़ा देना समझ लेते हैं। गौण को मुख्य मान लेते हैं और मुख्य को गौण। मेरा प्रतिपाद्य अहिंसा है और वह सम्यग् विवेक के बिना परिलक्षित नहीं होती। मैंने उसे ही तप कहा है जो अज्ञानपूर्ण क्रियाओं से दूर हो, जिसमें चित्त क्षुब्ध न हो, विचार क्लेशपूर्ण न हों और ध्यान आर्त न हो। अब तुम स्वयं सोचो-यह कैसे घोर होगा ? व्यक्ति अपनी शक्ति को तोलकर इस मार्ग में नियोजित होता है। जो अज्ञानपूर्वक तप स्वीकार करते हैं, वे धर्म के गौरव को संवर्द्धित नहीं करते, यह दोष उनका है। मैंने धर्म की यात्रा का प्रथम चरण निर्दिष्ट किया है-विवेक। जहां विवेक है वहां धर्म के विकास की संभावना है।' १६.चेतना विषयासक्ता, हिंसां समनुधावति। जो चेतना विषयों में आसक्त है, वह हिंसा की ओर दौड़ती है आत्मानं प्रति संहृत्य, तामहिंसापदं नयेत्॥ इसलिए साधक उस चेतना को आत्मा की ओर मोड़कर उसे अहिंसा में प्रतिष्ठित करे। १७.सति देहे सेन्द्रियेऽस्मिन्, सति चेतसि चञ्चले। जब तक शरीर और इंद्रियां हैं, जब तक मन चंचल है, तब इन्द्रियार्थाः प्रकृत्येष्टाः', नेष्टं तेषां विसर्जनम्॥ तक स्वभावतः इन्द्रियों के विषय अच्छे लगते है, उनका परित्याग अच्छा नहीं लगता। १८.अहिंसाथ मया प्रोक्तं, आत्मसाम्यं चिराध्वनि। साधना की चिर परंपरा में मैंने आत्म-साम्य का निरूपण तदर्थं प्राप्तदुःखानि, सोढव्यानि ममक्षभिः॥ अहिंसा के विकास के लिए किया है। मुमुक्षु व्यक्तियों को अहिंसा की साधना के मध्य जो भी दुःख प्राप्त हों, उन्हें सहना चाहिए। १९.न देहोऽधर्ममूलोऽसौ, धर्ममूलो न चाप्यसौ। देह न अधर्म का मूल है और न धर्म का। योजक के द्वारा योजितो योजनासौ, धर्माधर्मकरो भवेत॥ जिस प्रकार उसकी योजना की जाती है, उसी प्रकार वह धर्म या अधर्म का मूल बन जाता है। १. प्रकृत्या+इष्टाः-प्रकृत्येष्टाः। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २९३ २०. नास्य शक्तिः परिस्फीता', विकारोद्दीपनं सृजेत् । तेनाऽसौ कृशतां नेयः, यावदुत्सहते मनः ॥ २१. नात्मासौ शक्तिहीनानां, गम्यो भवति सर्वदा । योगक्षेमौ हि तेनास्य, कार्यावपि मुमुक्षुणा ॥ २२. न केवलमसौ देहः, कृशीकार्यो न च बृंहणीयोस्ति, मतं संतुलनं विवेकिना । मम ॥ यथा । २३. इन्द्रियाणि प्रशान्तानि विहरेयुर्यथा तथा तथा प्रवृत्तीनां, दैहीनां संयमो मतः ॥ २४. दोषनिर्हरणायेष्टा, उपवासाद्युपक्रमाः । सम्मतः ॥ प्राणसंधारणायासौ, आहारो मम २५. अहिंसाधर्मसंसिद्धौ, विवेको नाम तेन वत्स! मया धर्मः घोरोऽसौ प्रतिपादितः ॥ दुष्करः । २६. नाज्ञानचेष्टितं वत्स! न च संक्लेशसंकुलम् । नार्त्तध्यानदशां प्राप्तं तपो ममास्ति सम्मतम् ॥ २८. विशुद्ध्यै कृतदोषाणां प्रायश्चित्तं विधीयते । आलोचनं भवेत्तेषां गुरोः पुरः प्रकाशनम् ॥ अ. १२ : ज्ञेय- हेय-उपादेय बढी हुई शारीरिक शक्ति विकारों का उद्दीपन न करे, जब तक मन का उत्साह बढ़ता रहे-वह अमंगल का चिंतन न करे, तब तक शरीर को तप के द्वारा कृश करना चाहिए। २९. प्रमादादशुभं योगं, गतस्य च शुभं प्रति । क्रमणं जायते प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १. परिस्फीता - वृद्धिगता । तत्तु, शक्तिहीन मनुष्यों के लिए आत्मा गम्य नहीं होता, यह शाश्वत सिद्धांत है, इसलिए मुमुक्षु व्यक्तियों के लिए शरीर का योगक्षेम भी करणीय होता है। मेरा यह अभिमत है-विवेकी व्यक्ति न देह को ज्यादा कृश करे और न ज्यादा उपचित। देह का संतुलन ही सबसे अच्छा है। उपशांत इंद्रियां जैसे-जैसे प्रवृत्त होती हैं, वैसे-वैसे ही मनुष्य की दैही-शारीरिक प्रवृत्तियां संयत होती चली जाती हैं। दोषों को बाहर निकालने के लिए उपवास आदि उपक्रम विहित हैं । प्राण को धारण करने के लिए आहार भी मुझे सम्मत हैं। अहिंसा धर्म की संसिद्धि-साधना में विवेक होना बहुत दुष्कर है । वत्स ! इसी दृष्टि से धर्म को मैंने घोर कहा है। २७. इन्द्रियाणां मनसश्च विषयेभ्यो निवर्तनम् । स्वामिन् नियोजनं तेषां प्रतिसंलीनता भवेत् ॥ ॥ व्याख्या ॥ प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं :-१. इन्द्रिय संलीनता - इन्द्रियों के विषयों पर नियंत्रण करना। २. कषाय संलीनता - कषायों पर विजय पाना । ३. योग संलीनता - मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखना । 8. विविक्त शयन आसन- एकांत स्थान में सोना-बैठना । वत्स! मैंने उसी तप का अनुमोदन किया है, जिसमें न अज्ञान संवलित चेष्टाएं हैं, न संक्लेश हैं और न आर्त्तध्यान है। इंद्रिय और मन का विषयों से निवर्तन तथा अपने-अपने गोलक में उनका नियोजन प्रतिसंलीनता है। किए हुए दोषों की शुद्धि के लिए जो क्रिया- अनुष्ठान किया जाता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना आलोचना है। प्रमादवशअशुभ योग में जाने पर पुनः शुभ योग में लौट आना प्रतिक्रमण कहलाता है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २९४ ३०. अभ्युत्थानं नमस्कारो, भक्तिः शुश्रूषणं गुरोः । ज्ञानादीनां विनयनं विनयः परिकथ्यते ॥ ३१. आचार्य शैक्षरुग्णानां, संघस्य च गणस्य च । आसेवनं यथास्थाम, वैवावृत्त्यमुदाहृतम् ॥ ३२. वाचना पृच्छना चैव तथैव परिवर्तना । अनुप्रेक्षा धर्मकथा, स्वाध्यायः पञ्चधा भवेत् ॥ खण्ड - ३ गुरु आदि बड़ों के आने पर खड़ा होना, नमस्कार करना, भक्ति-शुश्रूषा करना और ज्ञान आदि का बहुमान करना विनय है। आचार्य, शैक्ष- नव दीक्षित, रुग्ण, गण और संघ की यथाशक्ति सेवा करना वैयावृत्त्य है। स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है- १. वाचना- पढ़ना । २. पृच्छना प्रश्न पूछना। ३. परिवर्तना कंठस्थ किए हुए शांत की पुनरावृत्ति करना। ४. अनुप्रेक्षा-अर्थ-चिंतन करना । ५. धर्मकथा प्रवचन करना । ॥ व्याख्या ॥ ·3 स्वाध्याय और ध्यान परमात्म प्रकाशन के अनन्यतम अंग हैं। ध्यान जैसे योग का एक अंग है वैसे स्वाध्याय भी । स्वाध्याय ध्यान का प्रवेश द्वार है। साधक स्वाध्याय से स्वयं की यथार्थता स्वीकार कर लेता है, तब ध्यान में प्रवेश के योग्य हो जाता है। जब तक स्वयं के रूप की स्वीकृति नहीं होती और न यथार्थ बोध होता है तब उसका परमात्मा की दिशा में दौड़ना सार्थक नहीं होता। इसलिए स्वाध्याय को सबने स्वीकृत किया है। कहा है 'स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत् । परमात्मा प्रकाशते ॥ ' स्वाध्याय - ध्यानयोगेन, -योगी स्वाध्याय से विरत हो जाने पर ध्यान करे और ध्यान से विरत हो जाने पर स्वाध्याय का अवलम्बन ले। स्वाध्याय और ध्यान की संपदा से परमात्मा प्रकाशित होता है। स्वाध्याय के जिस भाव से आज हम परिचित हैं, संभवतः आगमकालीन परंपरा से पूर्व वैसा भाव नहीं था। आगमों की रचना और उनके स्थिरीकरण के समय स्वाध्याय का नया अर्थ प्रचलित हो गया। किन्तु इसके साथ-साथ मूल हार्द हाथ से छूट गया। अब स्वाध्याय की शास्त्र-ग्रंथ पठन-पाठन की परंपरा तो रही है किन्तु जहां जीवन परिवर्तन का प्रश्न था, उसमें अंतर नहीं आया। व्यक्ति शास्त्र स्वाध्याय कर स्वयं में एक तृप्ति अनुभव करने लगा कि मैंने दैनंदिन कार्य का निर्वाह कर लिया। लेकिन स्वाध्याय तप की भावना पूर्ण नहीं हुई। उससे कोई ताप नहीं पहुंचा स्वाध्याय तप है, ताप है, तो निःसंदेह ताप से कर्मों को पिघलना चाहिए। कालान्तर में स्वाध्याय का रूप और भी शिथिल होता चला गया। आगम-मौलिक ग्रंथों का वाचन छूटकर इधर-उधर की चीजें कंठस्थ कर उनके स्मरण को भी स्वाध्याय के अंतर्गत स्थान दे दिया। शास्त्रों का अध्ययन अध्यापन सार्थक नहीं है। ऐसा प्रतिपाद्य नहीं है। उनकी उपयोगिता है और वह सिर्फ इतना ही है कि आप उनसे प्रेरणा प्राप्त कर स्वयं अनुभव की दिशा में पद - विन्यास करें। सिर्फ जाने-माने नहीं किन्तु निदिध्यासन करें। इस सदी के पश्चिम के महान् साधक 'जार्ज गुरजिएफ' ने एक जगह जान-बूझकर कहा है- 'सबके भीतर आत्मा नहीं है जो आत्मा को पैदा कर ले, उसी के भीतर आत्मा है। जिन लोगों ने समझाया, सबके भीतर आत्मा है, उन लोगों ने जगत् की बड़ी हानि की है।' मनुष्य ने मान लिया कि 'मैं आत्मा हूं' अब उसे प्रगट करने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। जब तक प्रत्यक्ष नहीं जानो तब तक सिर्फ इतना ही कहो कि मानता हूं, जानता नहीं हूं। जिससे स्वयं के अज्ञान की भी स्मृति बराबर बनी रहे, और संभवतः जानने के लिए चरण उद्यत हो जाएं।' आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है- 'शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि वे कुछ जानते नहीं हैं। इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य हैं।' शास्त्र सिर्फ संकेत हैं, उन सत्यद्रष्टा ऋषियों के दर्शन का। वह हमारा दर्शन नहीं है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. १२ ज्ञेय हेय उपादेय · संबोधि २९५ स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं-१. वाचना (पढ़ना) २. पृच्छना ३ परिवर्तना याद किए हुए पाठ को दोहराना) 8. अनुप्रेक्षा ( चिंतन) ५. धर्मकथा । शिष्य ने पूछा- भंते! स्वाध्याय का फल क्या है ? गुरु ने कहा- स्वाध्याय से ज्ञानावरण कर्म क्षीण होता है। उससे अनेक लाभ सम्पन्न होते हैं। स्वाध्याय का पहला लाभ है हम कुछ समय तक बाह्य दुनिया से अलग-थलग हो जाते हैं। मन को कुछ क्षणों के लिए उसमें उलझा देते हैं ताकि वह अपनी पुरानी स्मृतियों का ताना-बाना न बुने। यह अस्थायी चिकित्सा है, स्थायी नहीं इसमें व्यक्ति पूर्णतया स्मृतियों, कल्पनाओं तथा संवेदनाओं से मुक्त नहीं होता । स्वाध्याय का दूसरा लाभ है वाचना, पृच्छना, परिवर्तना आदि से व्यक्ति बाह्य जानकारियां अधिक संगृहीत कर लेता है। उसके जानकारी का कोश बहुत अधिक बढ़ जाता है जो ज्ञान नहीं होने वाला था वह हो जाता है। लेकिन इसका खतरा यह होता है कि व्यक्ति स्वयं में रिक्त होते हुए भी अपने को भरा हुआ समझने लगता है। स्वाध्याय का तीसरा लाभ है सत्य की दिशा में अनुगमन करना 'अनुप्रेक्षा' उसका माध्यम है। शब्द और अर्थ की अनुप्रेक्षा करता हुआ व्यक्ति अंतिम गहराई में प्रवेश कर पदार्थ का सत्यबोध कर स्वयं में प्रविष्ट हो जाता है। उस स्वाध्याय के मौलिक स्वरूप का दर्शन करें, जो कि हमारे जीवन को आमूल-चूल बदलने में सक्षम है। वही यथार्थ तप है। स्वाध्याय का अर्थ है 'स्व-आत्मा का अध्ययन करना, आत्मा को पढ़ना। दूसरों को पढ़ना सरल है, स्वयं को पढ़ना नहीं। इसलिए इसे तप कहा है। दूसरे के अध्ययन में व्यक्ति जितना व्यग्र है उतना स्वयं के अध्ययन में उत्सुक नहीं है। दृष्टि का दूसरों पर अवलंबित होना धर्म नहीं, धर्म है स्वयं को देखना। स्वदर्शन जो सहज है, वह आज के मानव के लिए असहज हो गया। इसलिए आज स्वाध्याय तप की जितनी उपेक्षा है, पहले उतनी नहीं रही। बड़े-बड़े तपस्वियों के लिए यह तप दुर्धर्ष है। धर्म का जीवंत रूप इसके बिना संभव नहीं है। सही स्वाध्याय स्वाध्याय का पहला चरण होगा कि हम अपने आमने-सामने खड़े होकर अपने को पढ़ें। दूसरों की धारणाओं को हटा दें। दूसरे लोग आपके संबंध में क्या कहते हैं- इस ओर पीठ करे दें। लोगों की अपनी-अपनी दृष्टि होती है, और अपने-अपने बटखरे होते हैं, और अपने-अपने माप होते हैं। आप उनकी चिंता करेंगे तो अपने असली चेहरे को कभी प्रगट नहीं कर सकेंगे। आपको अपना चेहरा उनके सांचे में ढालना होगा। इससे आपकी आत्मा मर जाएगी और आप संभवतया सर्वत्र सफल भी नहीं हो सकेंगे। इसलिए आप दूसरों से हटकर अपने में आएं और देखें - बड़ी ईमानदारी से कि आप कैसे है? आपके भीतर क्या है? जो है उससे डरें नहीं देखते जाएं। दूसरे चरण में - आप अकेले बैठें और सहजतापूर्वक अपनी वृत्तियों का दर्शन करते जाएं। एक-एक को प्रकट होने दें। जो हैं उन्हें अस्वीकार कैसे करेंगे? कैसे उनसे अपरिचित रहेंगे? यहां बहुत सावधानता, निर्भयता और धैर्य की अपेक्षा होगी। काम, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, वासना आदि प्रवृत्तियां आप में पहले भी विद्यमान थीं, किंतु उनका दर्शन नहीं था, अब आप उनको देख रहे हैं और उनको प्रकाश में ला रहे हैं। इसके साथ-साथ आज तक का जो आपका विकृत रूप था उसे आप स्वीकार भी करते जाइए, लेकिन एक बात का और ध्यान रखें कि आप ऐसे नहीं हैं। आपके भीतर एक विराट् शुद्धरूप और छिपा है। ये सब आपकी प्रमत्तता के कारण प्रविष्ट हो गए थे। आप ये नहीं हैं। जैसे-जैसे आप अपने को जानने लगेंगे तो आपमें बदलाहट होनी शुरू हो जाएगी। अपने को जानना और स्वीकार करना इस वृत्ति से छूटने का अमोघ उपाय है। महावीर की भाषा में यह सम्यग् ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान की स्थिति में अन्यथा होना अशक्य है। ज्ञान शक्ति है। स्वाध्याय की साधना का यही मुख्य लक्ष्य है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २९६ खण्ड-३ ३३.एकाग्रचिन्तनं योगनिरोधो ध्यानमुच्यते। एकाग्र चिंतन एवं मन, वचन और काया के निरोध को ध्यान धयं चतुर्विधं तत्र शुक्लं चापि चतुर्विधम्॥ कहते हैं। धर्म्यध्यान के चार प्रकार हैं और शुक्लध्यान के भी चार प्रकार हैं। ३४.अर्हता देशितां दृष्टिं, आलम्ब्य क्रियते यदा। पदार्थचिन्तनं यत्तत्, आज्ञाविचंय उच्यते॥ अर्हत के द्वारा उपदिष्ट दृष्टि-अतीन्द्रिय विषयों को आलंबन बना कर जो पदार्थ का एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह आज्ञा विचय है। यह धर्म्यध्यान का पहला प्रकार है। ३५.सर्वेषामपि दुःखानां, रागद्वेषौ निबंधनम्। ईदृशं चिन्तनं यत्तत्, अपायविचयो भवेत्॥ राग और द्वेष सब दुःखों के कारण हैं-इस प्रकार का जो एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह अपायविचय है। यह धर्म्यध्यान का दूसरा प्रकार है। ३६.सुखान्यपि च दुःखानि, विपाकः कृतकर्मणाम्। किं फलं कस्य चिन्तेति, विपाकविचयो भवेत्॥ सुख और दुःख कर्मों के विपाक-फल हैं। किस कर्म का क्या फल है, इस प्रकार का जो एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह विपाक-विचय है। यह धर्म्यध्यान का तीसरा प्रकार है। . ३७.लोकाकृतेश्च तवर्तिभावनां आकृतेस्तथा। लोक की आकृति और उसमें विद्यमान प्रत्येक पदार्थ की चिन्तनं क्रियते यत्तत, संस्थानविचयो भवेत्॥ आकृति के विषय में जो एकाग्र चिंतन किया जाता है, वह संस्थान-विचय है। यह धर्म्यध्यान का चौथा प्रकार है। ॥ व्याख्या ॥ ध्यान का अर्थ है-चिंतनीय विषय में मन को एकाग्र करना, एक विषय पर मन को स्थिर करना, अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निरोध करना (देखें-आठवें श्लोक की व्याख्या)। ध्याता ध्यान के द्वारा अपने ध्येय को प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसमें सफल भी होता है। ध्येय की इष्टता व अनिष्टता के आधार पर ध्यान भी इष्ट व अनिष्ट बन जाता है। सामान्यतः ध्येय अपरिमित है। जितने मनुष्य हैं, उन सबकी एकाग्रता भिन्न-भिन्न होती है।उनका प्रतिपादन करना असंभव है। संक्षेप में उसके चार प्रकार किये गये हैं। अनात्माभिमुखी जितनी एकाग्रता है वह सब आर्त्त व रौद्र ध्यान है। आत्माभिमुखी जितनी एकाग्रता है, वह सब धर्म व शुक्ल ध्यान है। आर्त्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं, अतः हेय हैं। धर्म और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं, अतः उपादेय हैं। ३८. उन्मादो न भवेद् बुद्धेः, अर्हद्वचनचिन्तनात्। अपायचिन्तनं कृत्वा, जनो दोषाद् विमुच्यते॥ अर्हत् की वाणी के एकाग्र चिंतन से बुद्धि का उन्माद अथवा अहंकार नहीं होता, यह आज्ञा-विचय का फल है। राग और द्वेष के परिणाम का एकाग्र चिंतन करने से मनुष्य दोष से मुक्त बनता है, यह अपाय-विचय का फल है। ॥ व्याख्या ॥ अयथार्थता में दोषों का परिपालन और उद्भव होता है। जब मनुष्य सत्य को निकट से देख लेता है तब सहसा असत्य के पैर लड़खड़ा जाते हैं। आत्म-हितैषी व्यक्ति फिर अहित का अनुसरण नहीं करता। आज्ञाविचय आदि ध्यानों में . रमण करने वाला यथार्थ का स्पर्श कर लेता है। उसकी मति-मूढ़ता सहज ही नष्ट हो जाती है। वह क्रमशः मुक्ति की ओर अग्रसर होता रहता है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २९७ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ३९. अशभेन रतिं याति. विपाकं परिचिन्तयन। वैविध्यं जगतो दृष्ट्वा, नासक्तिं भजते पुमान्॥ कर्म-विपाक का एकाग्र चिंतन करने वाला मनुष्य अशुभ कार्य में रति-आनंद का अनुभव नहीं करता। यह विपाक-विचय का फल है। जगत् की विचित्रता को देखकर मनुष्य संसार में आसक्त नहीं बनता, यह संस्थान-विचय का फल है। ४०.विशुद्धं जायते चित्तं, लेश्ययापि विशुद्ध्यते। धर्म्यध्यान के द्वारा प्राणियों का चित्त शुद्ध होता है, लेश्या अतीन्द्रियं भवेत् सौख्यं, धर्म्यध्यानेन देहिनाम्॥ विशुद्ध होती है और अतीन्द्रिय-आत्मिक सुख की उपलब्धि होती है। ११.विजहाति शरीरं यो, धर्म्यचिन्तनपूर्वकम्। अनासक्तः स प्राप्नोति, स्वर्ग गतिमनुत्तराम्॥ जो धर्म्य-चिंतनपूर्वक शरीर को छोड़ता है, वह अनासक्त व्यक्ति स्वर्ग और क्रमशः अनुत्तरगति-मोक्ष को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ ध्याता के लिए प्रारंभिक अवस्था में धर्म्य-ध्यान ही उपयुक्त है। धर्म चित्त-शुद्धि का केन्द्र है। राग-द्वेष व मोह आदि चित्त-अशुद्धि के मूल हैं। इनसे आत्मा बंधती है। मुक्ति के लिए वीतरागता अपेक्षित है। वीतराग व्यक्ति इन्द्रियसुखों में आसक्त नहीं होता। उसके सामने आत्म-सुख है, वह इन्द्रियों से गाह्य नहीं होता। वीतरागता आत्म-धर्म है। अतः उससे होने वाला सुख भी आत्म-सुख या अतीन्द्रिय आनंद है। धर्म्य-ध्यान से केवल चेतन का ही शोधन नहीं होता, अवचेजन मन के संस्कार भी मिटाये जाते हैं। अवचेतन मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। चेतन की अशुद्धि का मल यह अवचेतन मन ही है। ध्यान हमारे मन की गहरी तहों में घुसकर समस्त मलों का प्रक्षालन कर देता है। समतास्रोत सबके प्रति समान प्रवाहित हो जाता है। संसार में न कोई शत्रु रहता है और न कोई मित्र। अहिंसा का द्वार हमेशा के लिए खुल जाता है। इस दशा में शरीर छोड़ने वाले साधक के लिए स्वर्ग और अपवर्ग के सिवाय कोई मार्ग नहीं होता। १. आज्ञाविचय-आगम के अनुसार सूक्ष्म पदार्थों का चिंतन करना। । २. अपायविचय-हेय क्या है, इसका चिंतन करना। . . ३. विपाकविचय-हेय के परिणामों का चिंतन करना। ४. संस्थानविचय-लोक या पदार्थों की आकृतियों, स्वरूपों का चिंतन करना। .' आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान-ये ध्येय हैं। जैसे स्थूल या सूक्ष्म आलंबन पर चित्त एकाग्र किया जाता है, वैसे ही इन ध्येय-विषयों पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। इनके चिंतन से चित्त-निरोध होता है, चित्त की शद्धि होती है, इसलिए इनका चिंतन धर्म्य-ध्यान कहलाता है। - आज्ञाविचय से वीतराग-भाव की प्राप्ति होती है। अपायविचय से राग, द्वेष, मोह और उनसे उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्ति मिलती है। विपाक-विचय से दुःख कैसे होता है? क्यों होता है? किस प्रवृत्ति का क्या परिणाम होता हैइनकी जानकारी प्राप्त होती है। संस्थान-विचय से मन अनासक्त बनता है, विश्व की उत्पाद, व्यय और ध्रुवता जान ली जाती है, उसके विविध परिणाम परिवर्तन जान लिये जाते हैं, तब मनुष्य स्नेह, घृणा, हास्य, शोक आदि विकारों से विरत हो जाता है। १२.अप्युत्तमसंहननवतां पूर्वविदां भवेत्। . शुक्लस्यद्वयमाघन्तु, स्याच्च केवलिनोऽन्तिमम्॥ शक्लध्यान के प्रथम दो भेद (पृथक्त्व-वितर्क-सविचार तथा एकत्व-वितर्क-अविचार) उत्तम संहनन वाले तथा पूर्वधरों में पाये जाते हैं। शेष दो भेद केवलज्ञानी में पाए जाते हैं। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २९८ खण्ड -३ ४३.सूक्ष्मक्रियोऽप्रतिपाती, समुच्छिन्नक्रियस्तथा। क्षपयित्वा हि कर्माणि, क्षणेनैव विमुच्यते॥ सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रिय-शुक्ल-ध्यान के इन दो अंतिम भेदों में वर्तमान केवली कर्मों का क्षय कर क्षणभर में मुक्त हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं : १. पृथक्त्व-विचार-सविचार-एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का चिंतन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन होता रहता है। २. एकत्व-वितर्क-अविचार-एक द्रव्य के एक पर्याय का चिंतन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन नहीं होता। ३. सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाती-तेरहवें गुणस्थान के अंत में होने वाला ध्यान। इसकी प्राप्ति के बाद ध्यानावस्था का पतन नहीं होता। ४. समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति-अयोगावस्था में होने वाला ध्यान। इसकी निवृत्ति नहीं होती। अंतिम दो भेद केवलज्ञानी में ही पाए जाते हैं। ४४. अन्तर्मुहूर्त्तमात्रञ्च, चित्तमेवात्र तिष्ठति। छद्मस्थानां ततश्चित्तं, वस्त्वन्तरेषु गच्छति॥ छद्मस्थ का चित्त एक विषय में अंतर्मुहूर्त तक ही स्थिर रहता है, फिर वह दूसरे विषय में चला जाता है। ४५.स्थितात्मा भवति ध्याता, ध्यानमैकाग्रयमुच्यते। ध्यान के चार अंग हैं-ध्याता, ध्यान, ध्येय और समाधि। ध्येय आत्मा विशुद्धात्मा, समाधिः फलमुच्यते॥ जिसकी आत्मा स्थित होती है, वह ध्याता- ध्यान करने वाला होता है। मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। विशुद्ध आत्मा-परमात्मा ध्येय है और उसका फल है-समाधि। मेघः प्राह ४६.किमर्थं क्रियते ध्यानं? ध्यानं दुःखविमुक्तये। . मेघ बोला-भगवन्! ध्यान किसलिए किया जाता है? कुतो दुःखं मनुष्याणां? सर्वविद्! बोद्धमुत्सहे॥ भगवान् ने कहा-दुःख-मुक्ति के लिए। मेघ बोला-भंते ! मनुष्यों को दुःख कहां से होता है? सर्वविद् ! यह जानने के लिए मेरे मन में उत्साह उमड़ रहा है। भगवान् प्राह ४७.अज्ञानं प्रथमं मूर्छा, चाञ्चल्यं हीनभावना। भगवान् ने कहा-हे महाभाग! दुःख के आठ हेतु हैं-अज्ञान, अहंकारश्च संस्कारः, पूर्वाग्रहस्तथामयः॥ मूर्छा, चंचलता, हीनभावना, अहंकार, संस्कार', पूर्वाग्रह और ४८.अष्टाविमे महाभाग! संति दुःखस्य हेतवः। रोग। यात्रापायः उपायोऽपि, विद्युते जगतीतले॥ इस जगत् में जहां अपाय है, वहां उपाय भी है। (युग्मम्) ४९.स्वबोधो जागरूकत्वं, ऐकाग्रयं प्राणसंग्रहः। स्वबोध, जागरूकता, एकाग्रता, प्राण-संग्रह, अनाग्रह, अनाग्रहः सत्यनिष्ठा, सुखोपायाः इमे स्मृताः॥ सत्यनिष्ठा-ये सुख के हेतु हैं। ५०.अभ्यासेन क्षमादीनां, मनसः शोधनेन च। सुख का एक प्रकार है आरोग्य। क्षमा आदि का अभ्यास शरीरस्य श्रमेणाऽपि, स्यादारोग्यमपेक्षितम्॥ मन का शोधन और शरीर का श्रम-ये अपेक्षित आरोग्य को बढ़ाने के उपाय हैं। १. संस्कार-संचित अथवा अर्जित वृत्ति। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि २९९ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ॥ व्याख्या ॥ ध्यान की परिचर्चा सुन सहज ही यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ध्यान क्यों करे? ध्यान करने का प्रयोजन क्या है। ध्यान करने के उद्देश्य व्यक्ति की भावना के अनुरूप भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। जो कुछ प्राप्य है वह ध्यान के द्वारा ही प्राप्य है। सुख भी ध्यान के द्वारा प्राप्य है और दुःख भी, स्वर्ग भी और नरक भी, बंधन भी और मुक्ति भी। किन्तु जिस भाव से यहां चर्चा प्रस्तुत है वह सिर्फ अध्यात्म के अर्थ में है। साधक के ध्यान का उद्देश्य होता है-दुःख- मुक्ति। इसलिए कहा है-ध्यान दुःख-मुक्ति के लिए किया जाता है। मेघ के मन में फिर जिज्ञासा उभरी कि दुःख कहां से आता है ? दुःख के अनेक प्रकार हैं, उनके कारण भी अनेक हैं। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई निमित्त अवश्य होता है। यहां उन कारणों का वर्गीकरण आठ रूपों में किया गया है। समस्त दुःखों का समावेश इनमें हो जाता है। वे कारण हैं-अज्ञान, मूर्छा, चंचलता, हीनभावना, अहंकार, संस्कार। (संचित अथवा अर्जित वृत्ति), पूर्वाग्रह और रोग। इनकी निवृत्ति के उपाय भी है। अस्वास्थ्य है तो स्वास्थ्य की प्रक्रिया भी है। दोष है तो उसके निराकरण के प्रयोग भी हैं। हर क्रिया की प्रतिपक्षी क्रिया भी है। जहां चाह वहां राह की उक्ति के अनुसार प्रतिपक्षी भावना से उसका उन्मूलन किया जा सकता है। ___ अज्ञान-निवृत्ति की प्रक्रिया है-स्वबोध। यहां अज्ञान का वास्तविक संकेत आत्मज्ञान के अभाव की ओर है। अज्ञान दुःखों का मूल है। अज्ञान के उच्छेद से सब दुःखों का उच्छेद संभव है। 'सौ रोगों की एक दवा' 'सौ तालो की एक चाबी' की भांति यह स्वबोध सौ ही नहीं, हजारों-लाखों की एक चाबी है। इसमें सबका इलाज है। अज्ञान में सबकी सत्ता है और ज्ञान में सबकी असत्ता। - स्वबोध में जागरूकता की लौ सतत प्रज्वलित रहती है। मूर्छा को वहां अवकाश नहीं रहता। मूर्छा वहीं होती है जहां चित्त का बाह्य विषयों के साथ तादात्म्य होता है। पदार्थ मुख्य हो जाता है और आत्मा-चैतन्य गौण। मूर्छा उन्माद है, पागलपन है, चित्त का चेतना शून्य होना है। मूर्च्छित व्यक्ति को क्रिया-अक्रिया, कार्य-अकार्य का कोई होश नहीं रहता। उसका समग्र कार्य-कलाप करीब-करीब सुषुप्ति में होता है। मूर्छा अनेक जन्मों का अर्जित संस्कार है। स्वबोध इसे तोड़ देता है। 'मन की चंचलता भी बाहर से जुड़ी है, पुराने संस्कारों की लीक पर चलती है : स्मृति, कल्पना और चिंतन ये सब चंचलता के ही परिणाम हैं। स्व-बोध में चित्त ठहर जाता है, वह आत्म-केन्द्रित हो जाता है। चंचलता शांत हो जाती है। सुख स्वतः ही छलक आता है। मन को चेतना का अनुगामी बनाने से यह समस्या शांत हो जाती है। . स्वबोध वाले व्यक्ति में हीन भावना का प्रवेश नहीं होता। हीन भावना दूसरों के साथ तुलना करने से पैदा होती है। दूसरों में जो विशिष्टता है, अपने में नहीं है, ऐसा समझ वह अपने आपको तुच्छ मानने लगता है। इसके अनेक माध्यम बनते हैं। दुनियां में आदमी को छोड़कर कोई किसी से तुलना नहीं करता। सब अपने-अपने अस्तित्व में मस्त रहते हैं। न कोई किसी से छोटा मानता और न बड़ा। स्वबोध में छोटे-बड़े का भाव रहता ही नहीं है। वहां प्रत्येक पूर्ण है। 'णो हीणे जो अइरित्ते' न कोई हीन और न कोई विशिष्ट। यह सचाई स्वबोध से प्रकट होती है और हीन भावना जनित दुःख स्वतः ही तिरोहित हो जाता है। अहंकार भी एक वृत्ति है। वह हीन भावना की उल्टी है-हीनभाव वाला जहां अपने को क्षुद्र, साधारण मानता है वहां अहंकारी अपने को महान, बडा. विशिष्ट समझता है। यह भी कोई सुख का मूल हेतु नहीं बनती। इस विशाल जगत् में कोई एक ही हस्ती नहीं है। आत्मा की अनंत शक्ति के सामने अनेक अस्मितावान् व्यक्ति बौने बन जाते हैं। जहां वह शक्ति जिस व्यक्ति में कुछ विशिष्टता लिए हुए जागृत होती है वहां दूसरे का अहं चूर्ण हो जाता है। इस जगत् में किसका अहंकार चला है ? पूर्ण व्यक्ति अहंकार की क्षमता रखता है किन्तु वह करता ही नहीं। अपूर्ण व्यक्ति में क्षमता नहीं है और वह करता है। कहा है-संतजनों के लिए ज्ञान अहं, मद आदि के नाश का हेतु है वहां वह कुछ लोगों के लिए मान-मद आदि का हेतु बन जाता है। इस ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति को भी दुःख का अनुभव करना होता है। इसके पीछे भी अज्ञान का बोलबाला होता है। ध्यान के द्वारा जैसे-जैसे स्वबोध का मार्ग प्रशस्त होता है वैसे-वैसे अहंकार भी अपने बोरिया-बिस्तर समेट लेता है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३०० खण्ड-३ स्वबोध के अभाव में अज्ञान मुखर रहता है। संस्कार अज्ञान की देन है उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। वह स्वतंत्र शब्द का प्रयोग कर सकता है तथा अपने को स्वतंत्र मान भी सकता है किन्तु वस्तुतः वह स्वतंत्र है नहीं। स्वतंत्र वही व्यक्ति है जिसका अपना तंत्र अपना अनुशासन होता है। संस्कारों से संचालित व्यक्ति परतंत्र है, वह उनसे प्रवृत्त होकर नए संस्कारों का अर्जन करता है फिर वे संस्कार ही उसे सदा प्रेरित करते रहते हैं। इसलिए जितना भी दुःख दृश्य है उसके पीछे संस्कारों की प्रबल छाया है। ज्ञान और ध्यान दोनों की युति संस्कारों का परिशोधन व निस्तारण करती है। ज्ञान से समझ आती है और ध्यान पुराने संस्कारों का निष्कासन करता है और नयों को अर्जित होने नहीं देता। स्वबोध का मार्ग जिससे सहज ही सरल बन जाता है, संस्कारों का उच्छेद हो जाता है तथा दुःख का उन्मूलन भी । 4 धारणा, मान्यता, अल्पज्ञता, बाह्य परिवेश आदि पूर्वाग्रह के कारण बनते हैं । पूर्वाग्रही व्यक्ति की दृष्टि एकांगी होती है, वह दूसरों की यथार्थ बात को भी स्वीकार नहीं करता। उसके लिए वही यथार्थ है जो वह कहता है, सोचता है और करता है। उससे समस्याएं सर्जित होती हैं यह सभी क्षेत्रों में पाया जाता है अनेकांत या अनाग्रह दृष्टिकोण विकसित हो तो इसका समाधान निकल सकता है। अनेक स्थलों पर इसका प्रयोग होता भी है और वातावरण प्रिय भी बनता है। अनेकांत दृष्टिवाला व्यक्ति अन्य व्यक्ति के चिंतन से छिपे तथ्य को देखने, समझने का प्रयास करता है। वह जानता है कि अन्य व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से बात को रख रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के प्रतिद्वन्द्वी ने असेम्बली में कहा- आपको पता होगा कि आप कौन हैं? लिंकन ने मुस्कराते हुए कहा- मुझे पता है, मैं एक चमार का पुत्र हूं। हो सकता है आप की मेरे से कोई शिकायत हो, किन्तु मेरे पिता एक कुशल चर्मकार थे, मैं वैसा नहीं हूं। सामने वाला शांत हो गया। स्वबोध से आग्रह का शमन होता है, अनाग्रही दृष्टि विकसित होती है। दुःख मुक्ति के लिए ये विविध उपाय हैं, प्रयोग हैं। 'कम खाना गम खाना' – इनमें स्वास्थ्य आरोग्य का राज छिपा है। विवशता, दुर्बलता के बिना सहज शांत भाव से सहिष्णुता, मृदुता, अदम्भ, सरलता आदि सात्त्विक गुणों का अभ्यास आरोग्य के प्रमुख निमित्त बनते हैं। मन की अशुद्धि दुष्प्रवृत्तियों या असत् वृत्तियों से अर्जित है। सतोगुण-सात्त्विक, शम, दम, दया, अहिंसा, मैत्री आदि भावों के द्वारा मन का शोधन होता है। 'शिवसंकल्पमस्तु मे मनः मेरा मन शुभ- शिव संकल्प वाला हो ? यानी में सदा अपने मन को शुभ भावों से भावित करता रहूं इस प्रकार की जागृति से मन का परिशोधन होता है, शोधित मन शांत- तनावमुक्त रहता है, शरीर स्वतः ही प्रसन्न रहता है। आरोग्य का एक बड़ा कारण है-जीवन में श्रम की प्रतिष्ठा । काम करने वाला छोटा और न करने वाला बड़ा या दूसरों के श्रम पर जीने वाला महान् - यह धारणा किसी भी दृष्टि से यथार्थ तो नहीं है, किन्तु सामाजिक परिस्थितिवश व्यक्ति इसे अपना लेता है, किन्तु स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अहितकर होती है। आज देखते हैं-श्रम घटा, रोग बढ़ा श्रम के अभाव में सहज साध्य कार्य असाध्य बन गए, अनेक बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा जमा लिया। चौबीस घंटे ए. सी. में रहने वाले धनिक व्यक्ति से डॉक्टरों ने सलाह दी कि आप एक घंटा गर्म पानी में लेटे रहो, यही आपकी चिकित्सा है। उसने सोचा, दिनभर एयरकंडीष्नर बना रहूं और एक घंटा पानी में रहकर स्वस्थ बनूं, इससे अच्छा है - ए. सी. में रहना ही छोड़ दूं। उसने वैसा किया और स्वस्थ रहने लगा। श्रम शरीर के लिए अपेक्षित है-वह देह की प्रकृति है। प्रकृति की अवहेलना करना अहितकर है। व्यायाम, योगासन, प्राणायाम आदि भी श्रम है, शरीरतंत्र को स्वस्थ रखने में ये नितांत व्यवहार्य हैं। आरोग्य के लिए इनका अनुशीलन अपेक्षित है। मेघः प्राह ५१. जिज्ञासामि कथं नाथ! दुर्बलं जायते मनः ? कथं बलयुतं तत् स्याद्, येन शक्तिः प्रवर्धते ? मेघ बोला नाथ! मन दुर्बल कैसे होता है? वह बलवान् कैसे बनता है? जिससे शक्ति में वृद्धि हो, यह मैं जानता चाहता हूं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३०१ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ॥ व्याख्या ॥ सबल मन बहुत कम लोगों के पास है, प्रायः सभी दुर्बल मन को लेकर जी रहे हैं। बहुत यह जान भी नहीं पाते हैं कि क्या मन सशक्त बन सकता है? उन्हें इसका भी बोध नहीं है कि मन दुर्बल क्यों होता है? यह बहुत आवश्यक है कि व्यक्ति पहले दुर्बल मन के कारणों को जाने और फिर सशक्त बनाने का उपक्रम करें। मन के दर्बल होने के कारण बहत साफ हैं। आये दिन मनुष्य इन्हीं में से गुजरता है-बच्चे भी बचपन में इसके शिकार हो जाते है। फिर वह संस्कार आगे से आगे पुष्ट होता चला जाता है। भय, शोक, चिंता, क्रोधादि आवेग, संवेदन और चिरकालीन विचार ये कारण हैं। उपरोक्त कारणों से मुक्त मनुष्य का मिलना दुर्लभ है। पारिवारिक सामाजिक, राजनैतिक, वैश्विक वातावरण ही ऐसा है कि जो इन कारणों को उत्तेजित कर देते हैं। मनुष्य यह जानता है कि जो होने का है वह होगा, लेकिन फिर भी स्वसंबंधी, परिवार संबंधी तथा अन्यान्य प्रकार की चिंता उसे घेरे रहती है। भोजन, पानी, अर्थ, शादी-विवाह, संतान आदि की चिंता आगे से आगे एक न एक बनी रहती है। चिंता चिता-सम है। वह मन को बलवान् नहीं बनने देती है। इसका दुष्प्रभाव तनाव, बीमारियों आदि के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगत होता है। अप्रिय संवेदन, अप्रिय घटना, अप्रियता की आशंका शोक को जन्म देती है। आशंका के कारण मन में शोक का संस्कार पुष्ट होता रहता है। शोकग्रस्त मन के सशक्तता की कल्पना नहीं की जा सकती। क्रोध आदि आवेगों के आंतरिक कारण भी हैं और बाह्य कारण भी। बाह्य कारण ज्ञान के अभाव में आंतरिक कारणों को उत्तेजित कर देते हैं। आवेग-आवेश बाहर प्रकट हो जाते हैं। क्रोध का मुख्य निमित्त बनता है-मन के अनुकूल प्रवर्तन नहीं होना। बालक से लेकर बड़े बुजुर्गों तक में यह भाव दिखाई देता है। सच्चाई यह है कि इस जगत में 'मैं जैसा सोचूं, मैं जैसा कहूं, वही हो।' यह संभव नहीं होता है तब व्यक्ति के अहं पर चोट पहुंचती है, क्रोध का वेग सहज उभर आता है। वेगों पर नियमन न होने से संवेदन व चिंतन दीर्घकालिक बनता चला जाता है, अवचेतन मन में एक ग्रंथि निर्मित हो जाती है जिससे सहजतया छुटकारा पाना शक्य नहीं होता। जिसके मन में इनसे मुक्त होने की भावना जागृत होती है और जो अपने पर अपना अनुशासन करना चाहता है, उसके लिए मन को सशक्त बनाने की कोई कठिनाई नहीं है। जैसे ही वह जागृत होता है और उपायों का अवलंबन लेता है मन शांत संतुलित व शक्तिशाली बनने लगता है। निम्न प्रयोगों का अभ्यास मन की सशक्तता में निस्संदेह कारगार होते हैं। वे प्रयोग हैं१. दीर्घश्वास ४. संवेदन नियमन ६. शिथिलीकरण २. चित्त की एकाग्रता५. आवेग-निरोध ७. संकल्पशक्ति। - ३. विचार-संयम दीर्घश्वास-दीर्घश्वास का प्रयोग मन को स्थिर-शांत करता है। दीर्घश्वास के अभ्यास से शरीर, मन और भाव तंत्र तीनों को स्वास्थ्य प्राप्त होता है। मन की चंचलता इससे शांत होती है तथा आवेगों और आवेगों पर नियमन होना है। बीमारियां, अशांति, तनाव, क्रोध आदि आवेग छोटे श्वास की देन है। श्वास के साथ मन के उतार-चढ़ावों का घनिष्ठ संबंध हैं। दीर्घश्वास इनकी चिकित्सा हैं। जब मन शांत व प्रसन्न होता है तब अपने आप उसकी तेजस्विता और शक्ति का सर्वर्धन होने लगता है। एकाग्रता-एकाग्रता की शक्ति से कौन परिचित नहीं है ? विकास में उसकी अहं भूमिका है। लक्ष्यवेध की सफलता में अर्जुन की एकमात्र एकाग्रता की ही महत्ता थी। एकाग्रता में असीम शक्ति है। उसके द्वारा जो कार्य सधते हैं उनकी कल्पना भी सामान्य व्यक्ति के सोच से परे हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में तो इसका मूल्यांकन हजारों-लाखों वर्ष पूर्व हो चुका था। विज्ञान भी आज उसकी मूल्यवत्ता स्वीकृत कर चुका है। इसका जादू सभी क्षेत्रों में है। चित्त का एक विषय पर केन्द्रित होना एकाग्रता है। एकाग्रता के अवलंबन बाह्य भी होते हैं और आंतरिक भी। जैसे शरीर के अनेक स्थान आलंबन बनते हैं वैसे अनेक आंतरिक स्थान भी। इससे केन्द्र जागृत होते हैं और सुप्तशक्तियों का जागरण भी होता है। इससे मन को सबल बनने में सहज ऊर्जा प्राप्त हो जाती है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३०२ खण्ड-३ विचार-संयम-संकल्प, चिंतन और स्मृति-ये मन के कार्य है। मन के पास यह शक्ति नहीं है कि वह विवेक कर सके इनमें कौन-सा करणीय है और कौनसा करणीय नहीं है। वह पशु की भांति जुगाली करता रहता है। इससे उसकी कुछ हानि नहीं होती, किन्तु ऊर्जा का व्यर्थ दुरुपयोग होता रहता है। एक क्षण भी वह विश्राम नहीं लेता। आवश्यकअनावश्यक विचारों की श्रृंखला चलती रहती है। इससे उसके सबल बनने की कल्पना नहीं की जा सकती। उसका संयम-नियंत्रण हो, विवेक चेतना जागृत हो, होश-सचेतनता का अभ्यास हो तो मन पर अंकुश लग सकता है, वह कल्पना आदि से मुक्त हो सकता है। इससे उसकी शक्ति का संवर्धन भी होगा और शांति की प्राप्ति भी होगी। संवेदन नियमन-जीवन में प्रिय और अप्रिय दोनों प्रकार के प्रसंग आते हैं। उनकी प्रतिक्रिया भी प्रिय और अप्रिय दोनों रूपों में होती है। मन इन संवेदनों से प्रभावित होता है। कुछ संवेग क्षणिक होते हैं और कुछ चिरकालीन बन जाते हैं। अवचेतन मन में इन संवेदनों का स्थायित्व बन जाता है। पुनः मन इनके प्रभाव में आकर उसी प्रकार के भावों के रूप में प्रतिफलित होने लगता है। मन को शक्तिशाली बनाये बिना उन पर नियंत्रण नहीं हो सकता। संवेदना के नियमन में भी संकल्प शक्ति का और अप्रमत्त चेतना की अपेक्षा रहती है जिससे सहज ही संयम सध जाता है। आवेग-निरोध-यह प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि वह क्रोध आदि आवेगों का वशवर्ती बन अनेक अप्रिय कार्य कर लेता है, जिसका परिणाम स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए भी दुःखद बन जाता है। पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक जीवन भी आवेगों से अछूता नहीं है। छोटे-बड़े सभी पर इसकी छाया है। बड़े व्यक्तियों का आवेग बड़े पैमाने पर सर्जित होता है, जिसका नतीजा भी बड़ा होता है। कलह, कदाग्रह, युद्ध आदि इसके प्रत्यक्ष निदर्शन हैं। आवेग का संयम बहुत कम व्यक्ति कर पाते हैं। मैं इसके प्रति सहज रहूंगा और इसके वशवर्ती नहीं बनूंगा-इस भावना से इसका निरोध कर इस पर विजय पाई जा सकती है। शिथिलीकरण और संकल्प शक्ति-इनका प्रयोग भी मन को सबल बनाने में नितांत सहयोगी बनते हैं। शरीर को तनाव-मुक्त करना, रिलेक्स करना आटो-सजेशन-स्वतः सूचना के द्वारा-शरीर के प्रत्येक अंग तनाव मुक्त हो रहे हैं। इस सूचना के साथ मन भी जुड़ा हुआ हो और हमारा ध्यान भी शरीर के प्रत्येक अंग के प्रति सजग रहे तो धीरे-धीरे शरीर और मन दोनों शिथिल हो जाते हैं। शरीर मन का अनुगामी है। जैसा उसको मन सूचित करना है, वह उसी प्रकार ढल जाता है। इससे सहज ही मन की सबलता संवर्धित हो जाती है। संकल्प शक्ति के अभ्यास से भी मन की दुर्बलता का निवारण होता है। व्यक्ति जैसी भावना करता है वह वैसा ही बन जाता है। मन शक्तिशाली हो रहा है, भय, कायरता व दुर्बलता दूर हो रही है-ऐसी भावना करनी चाहिए। मन में कभी भी क्षुद्र विचारों का प्रवेश नहीं होने देना तथा नकारात्मक भावों से दूर रखना, मन को सशक्त बनाने के,सहज सिद्ध प्रयोग है। भगवान् प्राह ५२.चिन्ताशोकभयक्रोधैः, आवेगैर्विविधैश्चिरम्। संवेदनविचारैश्च, दुर्बलं जायते मनः॥ भगवान् ने कहा-चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि विविध आवेग, चिरकालीन संवेदन और चिरकालीन विचार-ये मन को दुर्बल बनाते हैं। दीर्घश्वास, चित्त का एक आलंबन पर सन्निवेश, विचारों का निरोध, संवेदन-नियंत्रण, आवेग का निरोध, शिथिलीकरण और संकल्पशक्ति का अभ्यास-ये मनोबल को बढ़ाने के उपाय हैं। ५३.दीर्घश्वासस्तथा चित्तस्यैकाग्रसन्निवेशनम्। विचाराणां निरोधो वा, संवेदननियंत्रणम्॥ ५४.आवेगानां सन्निरोधः, शिथिलीकरणं तथा। संकल्पशक्तेरभ्यासः, मनोबलनिबंधनम्॥ (युग्मम्) ५५.आत्मनः स्वात्मना प्रेक्षा, धर्म्यध्यानमुदीरितम्। प्रकृष्टां भूमिमापन्नं शुक्लध्यानमिदं भवेत्॥ आत्मा के द्वारा आत्मा की प्रेक्षा को धर्म्यध्यान कहा गया है। प्रेक्षा जब उत्कृष्ट भूमि पर चली जाती है, तब शुक्लध्यान कहलाती है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३०३ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ॥ व्याख्या ॥ प्रेक्षा का अर्थ है-निर्विकल्प रूप से देखना, जिस देखने में राग-द्वेष न हो, संकल्प-विकल्प न हो, मात्र देखना ही हो, वह है प्रेक्षा। अपने द्वारा अपने को-आत्मा को देखना है। आत्मा की अनुभूति या साक्षात् उस शांत व निर्विकल्प अवस्था में ही होता है। फिर जो भी साधन है-प्रयोग हैं वे सब आत्मा से ही सन्निविष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक प्रयोग लंबे अंतराल के बाद मन को अ-मन करते हैं। अ-मन अवस्था में द्रष्टा साक्षीरूप में खड़ा होता है और यह पकड़ सुदृढ़ होने पर सहज ही आत्मा की स्फुरणा होने लगती है। समाधि या आत्मानुभव की प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर स्थिति शुक्लध्यान-(ध्यान की उच्च-उच्चतम अवस्था) में परिणत हो जाती है। ५६.व्याधिमाधिमुपाधिञ्च, समतिक्रम्य यत्नतः। प्रेक्षाध्यान की सिद्धि में परायण व्यक्ति व्याधि, आधि और समाधि - लभते प्रेक्षाध्यानसिद्धिपरायणः॥ उपाधि का प्रयत्नपूर्वक अतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ प्रेक्षाध्यान की साधना में संलग्न साधक उत्तरोत्तर विकास करते हुए समाधि में स्थित हो जाता है। समाधि ध्यान की वह अवस्था है जहां मन, वाणी, शरीर, भावधारा आदि सब शांत हो जाते है। ऐसी निष्पन्न स्थिति का साधक 'साधो! सहज समाधि भली' कबीर की इस वाणी में जीने लगता है। वह व्याधि (शारीरिक कष्ट) आधि (मानसिक दुःख) और उपाधि-भावात्मक कष्ट-इन सबका सहज ही अतिक्रमण कर जाता है। .. ध्यान का प्रारंभ काय-स्थिरता से होता है। शरीर अस्थिर है, चंचल है तो हमारा मन भी स्थिर नहीं होता। साधक के लिए शरीर का स्थैर्य साधना भी आवश्यक है। अनुभवी पुरुषों ने कहा है-तीन घंटा एक आसन में स्थिर बैठने से आसन सिद्ध होता है। सिद्ध आसन का होना ध्यान के लिए उत्तम है। शरीर की अस्थिरता मन को एक विषय में केन्द्रित नहीं होने देती। विकेन्द्रित मन शक्ति के ऊर्ध्वगमन में अवरोधक है। . काया की स्थिरता के लिए कायोत्सर्ग और काय-गुप्ति का अभ्यास अपेक्षित है। काय-गुप्ति का अर्थ है-शरीर की हलन-चलन का गोपन-संयम। अभ्यास के द्वारा इसे साधा जा सकता है। दृढ़ अभ्यास से स्थिरता सिद्ध हो जाती है। कायोत्सर्ग शरीर को स्थिर करता है और साथ-साथ भेदविज्ञान का हेतु भी बनता है। काय-उत्सर्ग इन दो शब्दों के संयोग से कायोत्सर्ग बनता है। जिसका अर्थ है-शरीर का विसर्जन करना, शरीर के प्रति कुछ समय उदासीन हो जाना, शरीर के स्पन्दनों-गति आदि को पूर्णतया शांत कर देना। महर्षि रमण के जागरण का मूल केन्द्र-बिन्दु यही प्रयोग बना। उन्होंने देखा-शरीर मृतवान् पड़ा है। मैं उसे देख रहा हूं। द्रष्टा भिन्न और दृश्य भिन्न है। दोनों एक नहीं हैं। दोनों के एकत्व की ग्रंथि खुल गई और वे सम्यक् बोध को प्राप्त हो गये। देह की स्थिरता से आस्रव-कर्म आगमन का मार्ग पतला होता है, द्वार बन्द होने लगता है। कर्म का आगमन ही संसार का मूल है। कर्म-वासना की क्षीणता से संसार क्षीण होता है। देह की स्थिरता साधना में कितनी अपेक्षित है, इससे यह स्वतः सिद्ध होती है। ५७. कायोत्सर्गः कायगुप्तिः देहस्थैर्याय जायते। कायोत्सर्ग और कायगुप्ति देह की स्थिरता के लिए है। काया • स्थैर्य सम्यक् गते काये, आस्रवः प्रतनुर्भवेत्॥ के भलीभांति स्थिर होने पर आसव पतला हो जाता है। १८.श्वासादीनां च संप्रेक्षा, मनःसंयममाव्रजेत। श्वास आदि की संप्रेक्षा से मन का संयम प्राप्त होता है। मन ऐकाये सघने जाते, ध्यानं स्यान्निर्विकल्पकम्॥ की एकाग्रता के सघन होने पर निर्विकल्प ध्यान सिद्ध हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ निर्विकल्प ध्यान के लिए सघन एकाग्रता की अपेक्षा रहती है। श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, सुषुम्मा नाड़ी-स्थित चैतन्य केन्द्रों (चक्रों) पर, अंतर्मोन आदि किसी भी एक आलंबन पर लंबे समय तक मन को स्थिर करने से सधती है, इसलिए साधक में तीव्र साधना की पिपासा हो, उन्हें एक ही प्रयोग पर अधिक श्रम करना चाहिए, उसे ही अपना ध्यानबिन्दु बनाना चाहिए, इससे निश्चित ही निर्विकल्पता की सिद्धि होती है तथा अनेक अनुभवों की प्राप्ति भी होती है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३०४ खण्ड-३ ५९.अध्यवसायो सूक्ष्मा चित्, लेश्या भावः ततः स्फुटम्। अध्यवसाय सूक्ष्म चेतना है। लेश्या अथवा भाव की चेतना चित्तं स्थूलशरीरस्थं, इमाः चैतन्यभूयः॥ उससे प्रस्फुट-व्यक्त है। स्थूल शरीर में काम करने वाला चेतना चित्त है। ये चैतन्य की भूमिकाएं हैं। ॥ व्याख्या ॥ चेतना एक है। वह अनावृत नहीं है इसलिए उसकी रश्मियां सीधी प्रसारित नहीं है। उसे माध्यम चाहिए। वह कई . माध्यमों से प्रकट होती है। उसेके सबसे निकट का सूक्ष्मतम माध्यम है-अध्यवसाय। चेतना की पहली हलचल का यही उद्गम है। अध्यवसाय अथाह जलराशि के नीचे बुदबुदे के रूप में उठने वाला प्रथम स्पन्दन है। उसका आकलन करना दुःसाध्य है। उसके बाद वह लेश्या और भाव के रूप में प्रस्फुट होता है। कृष्ण, नील, लाल, सफेद आदि रंगों के रूप से. पहचाना जाने वाला परिणाम लेश्या है। भाव उससे कुछ ओर अधिक व्यक्त है, किन्तु इन दोनों का बोध साधारण जनों के गम्य नहीं है। हालांकि वैज्ञानिक उपकरणों ने इसे पकड़ने का प्रयास किया है, सफलता भी प्राप्त की है। ___ चित्त चेतना का स्पष्ट रूप है। स्थूल शरीर में वही काम चित्त से ही मन द्वारा संचालित होता है। वाणी और शरीर पर नियमन करने वाला मन है। चेतना की ये भूमिकाएं हैं। अध्यवसाय शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार का है। अशुद्ध अध्यवसाय से आगे का समग्र ज्ञान अशुद्ध रूप में ही कार्यशील होता है। रजस् और तमस् के रूप में इनकी परिणति देखी जा सकती है। अशुद्ध वृत्तियां जीवन विकास में सहगामी नहीं बनती। अशुद्ध जीवन वर्तमान और भविष्य दोनों के आनंद को लीलने वाला होता है। साधक का पहला कार्य है कि वह अशुद्ध अध्यवसायों को प्रशस्त करने का प्रयत्न करें। अध्यवसाय शुद्धि के बिना न मन की शुद्धि होती है, न भाव की और न लेश्या की। साधक को इसे स्मृति में रखना चाहिए कि मुझे सबसे पहले मन को पवित्र-विशुद्ध बनाना है। मन के विशद-प्रशस्त होने के साथ समूचा तंत्र शुद्धि की दिशा में गतिशील हो जाता है। संत कबीर ने कहा है-: 'कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥' यही, इसी सत्य का चित्रण है। ६०.मनःप्रवर्तकं चित्तं, वाणीदेहनियामकम्। प्रशस्तेऽध्यवसाये तु, प्रशस्ताः स्युरिमे समे॥ ६१.मनःशुद्धौ भावशुद्धिः लेश्याशुद्धिस्ततो भवेत्। अध्यवसायशुद्धिश्च, साधनायाः अयं क्रमः॥ चित्त मन का प्रवर्तक है। वह वाणी और शरीर का नियामक है। अध्यवसाय के प्रशस्त होने पर ये सब प्रशस्त हो जाते हैं। मन की शुद्धि होने पर भाव की शुद्धि होती है। भाव की शुद्धि होने पर लेश्या की शुद्धि होती है और लेश्या की शुद्धि होने पर अध्यवसाय की शुद्धि होती है। यह साधना का क्रम है। ॥ व्याख्या ॥ साधना मार्ग में कायसिद्धि और मनःसिद्धि दोनों अपेक्षित हैं। कायसिद्धि का अर्थ है-शरीर की पूर्णरूपेण स्वस्थता, वात, पित्त आदि दोषों का संतुलन, शरीर का समग्र कार्य कलाप सुचारू रूप से संचालित होना, इसी प्रकार मनःसिद्धि का अर्थ है-मन की निर्मलता, एकाग्रता, शांतता, स्थिरता, वासना-विकार, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार आदि दोषों से मुक्तत है। पंच प्राणों पर नियंत्रण से काय-सिद्धि होती है और श्वास को सम्यक् साध लेने पर मन की सिद्धि प्राप्त होती है। शरीर पंचभूतात्मक है, पंच तत्त्वों से निर्मित हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। वायु तत्त्व ही प्राण है। प्राण के द्वारा ही समस्त शरीर और मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि सक्रिय रहते हैं। प्राण, अपान आदि पांच मुख्य प्राण तथा पांच उपप्राण वायु के ही अलग अलग स्थानों से अलग-अलग नाम हैं। प्राणों के अशुद्धि से शरीर अस्वस्थ होता है, आलस्य, प्रमाद आदि दोषों से युक्त होता है। इससे प्राणमय कोश और अन्नमयकोश भी विकृत होता है। पांच प्राणों के स्थान और Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३०५ अ. १२ : ज्ञेय हेय - उपादेय कार्य को हम अपने ध्यान में लेकर फिर इन्हें सुव्यवस्थित रखने का प्रयत्न करें तो कायसिद्धि सहज प्राप्त हो सकती है। पंच प्राणों की अवस्थिति तथा कार्य १. प्राण-शरीर में कंठ से लेकर हृदय पर्यन्त जो वायु कार्य करता है, उसे 'प्राण' कहा जाता है। कार्य–यह प्राण नासिका मार्ग, कंठ, स्वर-तंत्र, वाक्-इन्द्रिय, अन्ननलिका, श्वसन तंत्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशीलता तथा शक्ति प्रदान करता है। २. अपान-नाभि के नीचे से लेकर पैर के अंगुष्ठ पर्यन्त जो प्राण कार्यशील रहता है, उसे 'अपान' प्राण कहते है। कार्य - शरीर में संगृहीत हुए समस्त प्रकार के विजातीय तत्त्वों अर्थात् मल व मूत्र आदि को बाहर कर देह - शुद्धि का कार्य 'अपान प्राण' करता है। लेकर सिर पर्यन्त देह में अवस्थित प्राण को 'उदान' कहते है । ३. उदान - कंठ के ऊपर से कार्य-कंठ से ऊपर शरीर के समस्त अंगों - नेत्र, श्रोत्र, नासिका व सम्पूर्ण मुख मंडल को ऊर्जा व आभा प्रदान कर है । पिच्युटरी व पिनियल ग्रंथि सहित पूरे मस्तिष्क को 'उदान' प्राण क्रियाशीलता प्रदान करता है। ४. समान - हृदय के नीचे से लेकर नाभि पर्यन्त शरीर में क्रियाशील प्राण को 'समान' कहते है। कार्य यकृत, आन्त्र, प्लीहा व अग्न्याशय (Pancreas) सहित सम्पूर्ण पाचन तंत्र की आंतरिक कार्य प्राणाली को नियंत्रित करता है। ५. व्यान - यह जीवनी प्राण-शक्ति पूरे शरीर में व्याप्त है। यह शरीर की समस्त गतिविधियों को नियमित तथा नियंत्रित करता है। सभी अंगों, मांस पेशियों, तन्तुओं, संधियों एवं नाड़ियों को क्रियाशीलता व ऊर्जा शक्ति 'ब्यानप्राण' ही करता है। इन पांच प्राणों के अतिरिक्त शरीर में 'देवदत', 'नाग', 'कृकल', 'कूर्म' व 'धनजय' नामक पांच उपप्राण हैं जो क्रमशः छींकना, पलक झपकना, जंभाई लेना, खुजलाना तथा हिचकी लेना आदि क्रियाओं को संचालित करते हैं। वायु-प्राण और मन का संघर्ष सतत चलता रहता है। अनेक लोग इसे नहीं जानते है और यह भी नहीं जानते कि इस संघर्ष में विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है। अन्य युद्धों से यह युद्ध अति विकट है। इसमें दूसरा कोई नहीं होता। स्वयं को स्वयं की वृत्तियों के साथ युद्ध करना होता है और उस पर विजय प्राप्त करनी होती है। प्राण में जब मन लय होता है तब तमोगुणं की वृत्तियां जोर पकड़ लेती है। व्यक्ति उनके अधीन हो जाता है। मन में यदि प्राण का लय होता है तब सृतोगुण की वृद्धि होती है। संकल्प विकल्पों की अवस्था में मन प्राण के द्वारा कार्य करने लगता है। उस अवस्था में प्राण की गति सामान्य रहती है। किन्तु संकल्प-विकल्प होने लगते हैं। तमोगुण की स्थिति में श्वास की गति तेज हो जाती है। मन और प्राण का परस्पर घनिष्ट संबंध है। कहा है-'चले प्राणे चलं चित्तं प्राण के चंचल होने पर चित्त चंचल हो जाता है और प्राण के स्थिर होने पर मन स्थिर हो जाता है। श्वास का संयम व श्वासप्रेक्षा के प्रयोग में कुशलता हासिल कर लेने पर मन की सिद्धि व कायसिद्धि दोनों सहज प्राप्त की जा सकती हैं। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर तथा मन इनके नियमन में प्राणायाम व प्राण की स्थिरता महत्त्वपूर्ण है। श्वास स्थिर व शांत होगा उतना ही अधिक व्यक्ति स्वस्थ तथा शांति का अनुभव करेगा। श्वास की संख्या भी औसत से कम होने लगेगी। श्वास दीर्घ होगा तो आयुष्य भी दीर्घ होगा। आयुष्य भी सांसों के साथ बंधा हुआ है। प्राणों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्राणायाम का प्रयोग तथा श्वास के साथ मन को संयुक्त कर उसी पर एकाग्र रहने का अभ्यास किया जाए तो सहज में ही व्यक्ति आत्म विजेता बन सकता है। ६२. प्राणे संसाधिते सम्यक् कायसिद्धिर्भवेत् ध्रुवम् । श्वासे संसाधिते सम्यक्, मनःसिद्धिर्भवत् ध्रुवम् ॥ प्राण, अपान आदि पंचविध प्राणशक्ति की सम्यक् साधना कर लेने पर निश्चित रूप से कायसिद्धि हो जाती है। श्वास की सम्यक् साधना कर लेने पर निश्चित रूप से मन की सिद्धि हो जाती है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६३. पदे पदे निधानानि, योजने भाग्यहीना न पश्यन्ति, बहुरत्ना ६४. पदे पदे सदानंदः, शक्तिस्रोतः ध्यानहीना न पश्यन्ति बहुरत्नं ३०६ रसकूपिका । वसुन्धरा ॥ पदे पदे । ६५. उपधीनाञ्च भावानां परित्यक्तो भवेद् यस्य शरीरकम् ॥ ॥ व्याख्या || वसुंधरा-वसु का अर्थ है-रत्न, हीरे, आदि । पृथ्वी इन्हें धारण करती है, अतः इसे वसुंधरा कहते हैं। इसमें अगणित धनराशि है। लेकिन प्राप्त उसे ही होती है, जो पुण्यशाली है, भाग्यवान है, भाग्य हीन को नहीं । भाग्य की अनुकूलता हो तो व्यक्ति के लिए वह सुलभ है। वह कहां से कहां छलांग लगा लेता है और भाग्य प्रतिकूल हो तो जो है उससे भी हाथ धो बैठता है। ठीक इसी प्रकार मानव शरीर बहुत रत्नों का खजाना है। उससे जैसे बाह्य सामग्री प्राप्त होती है वैसे ही अंतः समृद्धि। दोनों का माध्यम शरीर है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' - धर्म - साधना का प्रथम साधन देह है। इसी शरीर से साधक भगवान् बनता है। शरीर में जो शक्ति है वह आत्म चेतना की है। अनंत आनंद, अनंत ज्ञान, अनंत बल का दर्शन इसी में होता है। इनके अतिरिक्त गौण शक्तियां भी कम नहीं हैं। जितनी भी विस्मयकारक चेष्टाएं, दृश्य, चमत्कार, विशिष्ट शक्तियां परिलक्षित होती हैं, उन सबका आधार शरीर ही है। इन सबकी अभिव्यक्ति का साधन है ध्यान खण्ड-३ प्रत्येक पद पर निधान है, प्रत्येक योजन पर रसकूपिका है। भाग्यहीन उन्हें देख नहीं पाते। यह वसुन्धरा बहुत रत्न वाली है। चित्त जैसे-जैसे सघन होता जाता है वैसे-वैसे दिव्यताएं प्रकट होती जाती हैं। ध्यान भाग्य है। भाग्यवान को विशेष वस्तुएं, विशिष्टताएं प्राप्त होती हैं वैसे ध्यानवान व्यक्ति को ही आत्मास्थित अनन्त क्षमताएं उपलब्ध होती हैं देव और देवियां सेवा में उपस्थित रहकर अपने को धन्य मानती हैं। अष्टसिद्धि और नवनिधि भी उनके चरण चूमती है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस इनसे संपन्न थे । आचार्य शांतिसागर के पास जया, विजया, अपराजिता, लक्ष्मी - चार देवियां हाजिर रहती थीं। पदमावती और सरस्वती भी उनकी सन्निधि का लाभ लेती थी। भक्त नरसिंह के 'मायेरे' की बात प्रसिद्ध है। भक्त रैदास ने कठौती में गंगा को प्रकट कर दिया था तब से यह कहावत भी चल पड़ी की 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' प्रत्येक पद पर आनंद है और प्रत्येक पद पर शक्ति का स्रोत है। ध्यानहीन उन्हें देख नहीं पाते। यह शरीर बहुत रत्न वाला है। भगवान् महावीर, गौतम गणधर, महात्मा बुद्ध, कबीर, नानक, दादू, मीरा, सीता, सुभद्रा, आचार्य भिक्षु आदि असंख्य विभूतियों के बिखरे बीजों को संगृहीत किया जाए तो ग्रंथों के ग्रंथ भरे जा सकते हैं। यह सब ध्यान, भक्ति, जय की शक्तियों का ही प्रभाव है। क्रोधादीनां परिग्रहः । व्युत्सर्गस्तस्य जायते ॥ । ६६. भावनाभाविते चित्ते, ध्यानबीजं प्ररोहति । संस्काराः परिवर्तन्ते, चिन्तनं च विशुद्धयति ॥ उपधि-वस्त्र, पात्र, भक्त-पान तथा क्रोध आदि के परिग्रह के परित्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। व्युत्सर्ग उस व्यक्ति के होता है, जिसके उक्त परिग्रह परित्यक्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ वस्तुएं बंधन नहीं होतीं। बंधन है आसक्ति । वस्त्र, पात्र, आहार आदि शारीरिक सहायक सामग्री है। अनासक्त वशा में इनका उपयोग होता है तो ये संयमपोषक बन जाती हैं, अन्यथा शरीरपोषक शरीरपोषण आत्म धर्म नहीं है। आत्म-धर्म है संयम संयम की साधना में रत साधक देहाध्यास का परित्याग कर आत्मोपासना में दृढ़ होता है व्युत्सर्ग की साधना के बिना देहाभ्यास, ममत्व और आकर्षण छूटता नहीं। जो चित्त भावना से भावित होता है, उसमें ध्यान का बीज अंकुरित होता है, संस्कारों का परिवर्तन होता है और चित्त विशुद्ध बनता है।. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३०७ ६७. प्रेक्षया - 'सत्यसंप्रेक्षा, तत्प्राप्तिश्चानुप्रेक्षया । पुनः पुनस्तदभ्यासाद्, भावना जायते ध्रुवम् ॥ ॥ व्याख्या ॥ प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा दो शब्द है। प्रेक्षा प्रथम है और अनुप्रेक्षा है उसके बाद होनेवाली चिंतनधारा । एक में सत्य का स्पर्श होता है और दूसरे में सत्य की पृष्ठभूमी सुदृढ़ होती है। अनुप्रेक्षा का अभ्यास भावना में बदल जाता है। भावना संस्कारों को बदलती हैं, दृढबद्ध मिथ्या धारणा को विखंडित करती है, सत्य के साक्षात्कार में उसकी अहं भूमिका होती है । चित्त को विशुद्ध बनाती है। आज की भावना कल का साकार दर्शन है । यथार्थ की भावना से भावित चित्त यथार्थ अनुभव करता है। साधना के क्षेत्र में भावना का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह सकारात्मक सोच का प्रकृष्टतम रूप है, साधक के आंतरिक ऐश्वर्य के प्रकटन में इसकी भूमिका असंदिग्ध है। इसका अवलंबन प्रायः साधकों के लिए अनिवार्य बन जाता है। जाने-अनजाने इस मार्ग से उन्हें चलना ही होता है । ६८. अनित्यो नाम संसारः, त्राणाय कोऽपि नो मम । भवे भ्रमति जीवोऽसौ, एकोऽहं देहतः परः ॥ ६९. अपवित्रमिदं गात्रं, कर्माकर्षणयोग्यता । निरोधः कर्मणां शक्यो, विच्छेदस्तपसा भवेत् ॥ अ. १२ : ज्ञेय- हेय - उपादेय प्रेक्षा से सत्य का दर्शन होता है। सत्य की उपलब्धि क्रियान्वयन अनुप्रेक्षा- अनुचिंतन अथवा स्वतःसूचना से होती है। अनुप्रेक्षा का बार-बार किया जाने वाला अभ्यास भावना बन जाता है। ७०. धर्मो हि मुक्तिमार्गोऽस्ति, सुकृता लोकपद्धतिः । दुर्लभा वर्तते बोधिः, एता द्वादशभावनाः ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) ७१. मैत्री सर्वत्र सौहार्द, प्रमोदो गुणिषु स्फुरेत् । करुणा कर्मणात्तेषु, माध्यस्थ्यं प्रतिगामिसु ॥ * १. संसार अनित्य है - यह चिंतन अनित्य भावना है। २. मेरे लिए कोई शरण नहीं है - यह चिंतन अशरण भावना है । ३. यह जीव संसार में भ्रमण करता है - यह चिंतन भव भावना है। ४. 'मैं एक हूं' - यह चिंतन एकत्व भावना है। ५. 'मैं देह से भिन्न हूं' - यह चिंतन अन्यत्व भावना है । ६. शरीर अपवित्र है - यह चिंतन अशीच भावना है। ७. आत्मा में कर्मों को आकृष्ट करने की योग्यता है - यह चिंतन आस्रव भावना है। ८. कर्मों का निरोध किया जा सकता है - यह चिंतन संवर भावना है। ९. तप के द्वारा कर्मों का क्षय किया जा सकता है - यह चिंतन तप भावना है। १०. मुक्ति का मार्ग धर्म है - यह चिंतन लोक भावना है। ११. लोक पुरुषाकृति वाला है - यह चिंतन लोक भावना है। १२. बोधि दुर्लभ है - यह चिंतन बोधिदुर्लभ भावना है। ये बारह भावनाएं हैं। १. सब जीव मेरे सुहृद् हैं - यह चिंतन मैत्री भावना है । २. गुणी व्यक्तियों के प्रति अनुराग होना प्रमोद भावना है। ३. कर्मों से आर्त्त बने हुए जीव दुःख से मुक्त बनें - यह चिंतन करुणा भावना है। ४. प्रतिकूल अथवा विपरीत वृत्ति वाले व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा रखना यह माध्यस्थ भावना है।' ७२. संस्काराः स्थिरतां यान्ति, चित्तं प्रसादमृच्छति । वर्धते समभावोऽपि, भावनाभिर्ध्रुवं नृणाम्॥ १. इन चार भावनाओं के योग से भावनाएं सोलह '१२+४' होती हैं। इन भावनाओं से संस्कार स्थिर बनते हैं, चित्त प्रसन्न होता है और समभाव की वृद्धि होती है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३०८ खण्ड-३ ७३. भावनाभिर्विमूढाभिः, भावितं मूढतां व्रजेत्। मोहयुक्त भावनाओं से भावित चित्त मूढ बनता है और मोह चित्तं ताभिरमूढाभिः, भावितं मुक्तिमर्हति॥ रहित भावनाओं से भावित होकर वह मुक्ति को प्राप्त होता है। ७४.आत्मोपलब्ध्यै जीवानां, भावनालम्बनं महत्। तेन नित्यं प्रकुर्वीत, भावनाभावितं मनः॥ आत्म-स्वरूप की उपलब्धि के लिए भावना महान् आलंबन है, इसलिए मन को सदा भावनाओं से भावित करना चाहिए। ७५. भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव विद्यते। नौकेव तीरसंपन्नः, सर्वदुःखाद् विमुच्यते॥ भावना योग-अनित्य आदि भावनाओं से जिसकी आत्मा शुद्ध होती है, वह जल में नाव की भांति होती है। जैसे नाव किनारे पर पहुंचती है, वैसे ही वह दुःखों का पार पा जाता है, मुक्त हो जाता है। ७६.भवेदास्रविणी नौका, न सा पारस्य गामिनी। या निरास्रविणी नौका, सा तु पारस्य गामिनी॥ जो नाव आसविणी है-छेद वाली है, वह समुद्र के पार नहीं पहुंचती और जो निरासविणी है-छेद रहित है, वह समुद्र के उस पार चली जाती है। ॥ व्याख्या ॥ भावना-भावना का एक अर्थ होता है-वासना या संस्कार। मनुष्य का जीवन अनंत जन्मों की वासना का परिणाम है। व्यक्ति जैसी भावना रखता है वह वैसा ही बन जाता है। मनुष्य जो कुछ कर रहा है वह सब भावना का पुनरावर्तन है। साधना का अर्थ है-एक नया संकल्प या सत्य की दिशा में अभिनव भावना का अभ्यास, जिससे आत्म-विमुख भावना के मंदिर को तोड़कर आत्माभिमुखी भावना द्वारा नये भवन का निर्माण करना। किन्तु यह एक दूसरी अति न हो जाए, जिसमें व्यक्ति अन्य भावना द्वारा पहले की तरह संमोहित हो जाए। इसलिए भावना का दूसरा अर्थ है-जिस भावना से अपने को संस्कारी बना रहे हैं, ध्यान द्वारा उसे प्रत्यक्ष अनुभव करना। यदि केवल संकल्प को दोहराते चले जाएं तो फिर वह । सम्मोहन हो जाएगा। एक टूटेगी, दूसरी निर्मित होगी। किन्तु अनुभूति नहीं होगी। अमेरिका के राष्ट्रपति लिंकन की जन्म-शताब्दी मनाई जाने वाली थी। लिंकन से मिलते-जुलते व्यक्ति को उसकी भूमिका निभाने के लिए चुना गया। उसने वर्ष भर यात्रा की। लिंकन का पार्ट अदा किया। वह संस्कार इतना सघन हो गया कि वह अपने आपको लिंकन समझने लगा। वर्ष पूरा हो गया, किन्तु उसका सपना नहीं टूटा। लोगों ने बहुत समझाया कि तुम लिंकन नहीं हो। लेकिन वह किसी तरह इसको स्वीकार करने के लिए राजी नहीं हुआ। कुछ लोगों ने कहा, जैसे लिंकन को गोली मारी वैसे ही इसको भी गोली मार दो। अंततोगत्वा एक मशीन का निर्माण किया गया, जो असल को प्रगट कर सके। अनेक परीक्षण सफल हुए। किन्तु वह मशीन पर खड़ा हुआ। उसने सोचा, सब कहते हैं-तू लिंकन नहीं है, कह दूं और उससे पीछा छुड़ा लूं। वह बोला-मैं लिंकन नहीं हूं, किन्तु मशीन ने बताया कि तू लिंकन है, वह फेल हो गई। भावना का इतना गहरा असर हुआ कि लिंकन न होते हुए भी लिंकनाभास अवचेतन मन में पेठ गया। इसलिए यह अपेक्षित है कि साधक भावना के साथ-साथ सचाई के दर्शन से पराङ्मुख न हो। वह ध्यान के अभ्यास के साथ-साथ भावना का अनुशीलन करता रहे। महावीर ने भावना को नौका कहा है। जैसे नाव से समुद्री यात्रा सानन्द सम्पन्न होती है, वैसे ही भावना रूपी नौका से चित्त को साध्य के अनुरूप सुवासित कर भव-सागर को पार किया जा सकता है। सूफी संतों ने एक सुझाव साधकों को दिया है कि जो भी दिखाई पड़े, उसे परमात्मा मानकर चलना। अनुभव हो तब भी और कल्पना करनी पड़े तब भी। क्योंकि वह कल्पना एक दिन सिद्ध होगी। जिस दिन सिद्ध होगी, उस दिन किसी से क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी। इसमें भावना और अनुभूति-दोनों का स्पष्ट दर्शन है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | संबोधि ३०९ अ. १२ : ज्ञेय हेय उपादेय साधक ध्यान के पूर्व और ध्यान के बाद भावनाओं के अभ्यास का सतत स्मरण करता रहे। उनसे एक शक्ति मिलती है, धीरे-धीरे मन तदनुरूप परिणत होता है। मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर सत्य की दिशा में अनुगमन होता है और एक दिन स्वयं को तथानुरूप प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। भावना और ध्यान के सहयोग से मंजिल सुसाध्य हो जाती है। साधक इन दोनों की अपेक्षा को गौण न समझे। सभी धर्मों ने भावना का अवलंबन लिया है। भावनाएं विविध हो सकती हैं। जिनसे चित्त विशुद्धि होती है तथा अविद्या का उन्मूलन और विद्या की उपलब्धि • होती है-ये सब संकल्प और विचार भावनाओं के अंतर्गत हैं। फिर भी संतों ने उनका कुछ वर्गीकरण किया है। उन्हें बारह और चार इस प्रकार दो भागों में विभक्त किया है। बारह भावनाएं १. अनित्य भावना - जो कुछ भी दृश्य है, वह सब शाश्वत नहीं है। प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। बुद्ध ने कहा है-'सब क्षणिक है।' एक समय से अधिक कोई नहीं ठहरता। साधक की दृष्टि अगर खुल जाये तो उसे सत्य का दर्शन संसार का प्रत्येक पदार्थ दे सकता है, वही उसका गुरु हो सकता है। एक शिष्य वर्षों तक आचार्य के पास रहा परन्तु उसकी दृष्टि नहीं खुली। शिष्य हताश हो गया। गुरु ने कहा- अब तू यहां से जा, यहां नहीं सीख सकेगा।' वह आश्रम से चला आया । एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा। एक पत्ता टूट कर नीचे गिरा और दृष्टि मिल गई। गुरु के पास आया और बोला-घटना घट गई। गुरु ने पूछा- कैसे ? वृक्ष के नीचे बैठा था । पत्ता गिरा और अचानक मुझे स्मरण हो आया कि मुझे भी मरना-गिरना है। गुरु ने कहा- 'बस, उसे ही नमस्कार करना था, वही तेरा गुरु है।' भरत चक्रवर्ती अपने कांच - महल में सिंहासन स्थित शरीर का अवलोकन कर रहे थे। अचानक उन्हें शरीर के परिवर्तन का बोध हुआ। यह वह शरीर है जो बचपन में था और अब जवानी में है, कितना बदल गया। सब कुछ परिवर्तन हो रहा है, किन्तु इस परिवर्तन के पीछे जो एक अपरिवर्तनीय सत्ता है, वह जैसे पहले थी अब भी वैसी ही है और आगे भी वैसी ही रहेगी। दृष्टि उपलब्ध हो गई। एक के अनित्य का दर्शन सबका दर्शन है जैसे यह शरीर बदल रहा है वैसे ही संपूर्ण पुद्गलों का परिवर्तन चल रहा है। वे संबोधि केवलज्ञान को उपलब्ध हो गए। कारलाइल के जीवन में भी ऐसी ही घटना घटी। वह अस्सी वर्ष की अवस्था पार कर चुका था। अनेक बार बाथरूम में गया था। किन्तु जो घटना उस दिन घटी, वह कभी नहीं घटी। स्नान के बाद शरीर को पोंछते -पोंछते देखता है। वह शरीर कितना बदल गया। जीर्ण हो गया । किन्तु भीतर जो जानने और देखने वाला है वह जीर्ण नहीं हुआ, वह वैसा ही है। परिवर्तनीय के साथ अपरिवर्तनीय की झांकी मिल गई। वैज्ञानिक कहते हैं, सात साल में पूरा शरीर बदल जाता है ! सत्तर वर्ष की अवस्था में दश बार सब कुछ नया उत्पन्न हो जाता है। लेकिन इस परिवर्तन की ओर दृष्टि बहुत कम जाती है। साधक के पास सबसे निकट शरीर है। और भी जड़चेतन जगत् जो निकट है, वह उसे एक विशिष्ट दृष्टि से देखे और अनुभव करे कि यह जगत् उसके लिए एक बड़ी प्रशिक्षण शाला है जो निरंतर प्रशिक्षण दे रही है अनित्य भावना में क्षण-क्षण बदलते हुए इस जगत् को और स्वयं के निकट जो है उसका दर्शन करे। केवल संकल्प न दोहराये कि सब कुछ अनित्य है, अनित्य है, किन्तु उसका अनुभव करे और उसके साथ अंतः स्थित अपरिवर्तनीय आत्मा की झलक भी पाये। २. अशरण भावना यह भावना हमारे उन संस्कारों पर प्रहार करती है जो बाहर का सहारा ताकते हैं। यदि मनुष्य की समझ में यह तथ्य आ जाए कि अंततः मेरा कोई शरण नहीं है, तब सहज ही बाह्य वस्तु जगत् की पकड़ ढीली हो जाये। अन्यथा आदमी 'धन, परिवार, स्त्री, पुत्र, मित्र, मकान आदि सबको पकड़ता है। वह समझता है कि अंत में कोई न कोई मुझे अवलंबन देगा। यह भ्रम ही संग्रह का हेतु बनता है। धर्म कहता है-'कोई त्राण नहीं है छोड़ो अपनी पकड़ क्यों व्यर्थ ममत्व, मोह और पाप का संग्रह करते हो । बस, सिर्फ पकड़ छोड़ दो। जीवन से भागने की जरूरत नहीं । वाल्मीकि ने जब जाना तब एक क्षण में उससे मुक्त हो गया । अनाथी मुनि ने जब देखा - कोई मुझे रोग से मुक्त नहीं कर पा रहा है। सब असफल हो गये। तब दृष्टि भीतर की तरफ मुड़ी और देखा जो है, रोग उससे दूर है, मृत्यु दूर है, सब कुछ दूर है तो क्यों नहीं उसे ही अपना शरण बनाऊं। वह उसकी खोज में चला गया। सम्राट् श्रेणिक ने कहा- मैं तुम्हारा मालिक Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३१० खण्ड-३ बनूंगा।' अनाथी मुनि ने कहा- तुम मेरे मालिक क्या बनोगे? पहले अपने खुद के मालिक बनो। अभी जिनके मालिक हो उनके गुलाम भी हो। मैंने खोजा, वह अपने भीतर है। जिस दिन तुम भी खोज लोगे, मालकियत टूट जाऐगी और एक नई मालकियत का जन्म होगा ।' डेनमार्क के एक विचारक ने लिखा है- 'असली चिंता तो तब पकड़ती है जब तुम्हें लगता है कि पैर के नीचे से जमीन खिसक गई।' यही एक ऐसा क्षण है जो भविष्य का फैसला करता है। किन्तु यदि इसके पूर्व में सच्चाई का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया हुआ हो तो प्रायः व्यक्ति भविष्य को अंधकारपूर्ण बना लेते हैं। वे मरते क्षण में शरीर को छोड़ रहे हैं किन्तु वासना को नहीं। वासना अपने ही लोगों और वस्तुओं के आस-पास चील की तरह मंडराती रह जाती है, और प्राणी मर कर पुनः उनके ही इर्द-गिर्द पैदा हो जाता है। महावीर, बुद्ध आदि ने कहा है- 'अपनी ही शरण जाओ। 'धम्मं सरणं पवज्जामि–स्वभाव की शरण खोजो ।' साधक बाहर से अत्राण को देखे और भीतर देखे जो है उसे । वह सदा है, उसी को पकड़ने से त्राण पाया जा सकता है। उसकी स्मृति एक क्षण भी विस्मृत न हो। यह सुरति स्मृति योग है। गुरु नानक ने कहा है, जो उसे नहीं भूलता, वही वस्तुतः महान् है । वह सच्ची संपत्ति है जो हमारे साथ जा सकती है। ३. भव-भावना- आज के वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करते हैं कि विश्व में पदार्थ सर्वथा नष्ट नहीं होते, केवल परिवर्तन होता रहता है। धार्मिक सदा से ही यह कहते आये हैं कि जीव और अजीव, चेतन और जड़-ये दो स्वतंत्र द्रव्य हैं। यह सम्पूर्ण विश्व इन दोनों की सृष्टि है ये दोनों अनादि हैं आत्मा विजातीय तत्त्व से सर्वथा मुक्त नहीं होता, तब तक उसे संसार में भ्रमण करना होता है। भव-भावना में साधक यह देखता है, अनुभव करता है कि मैं इस संसार में कब से भ्रमण कर रहा हूं। ऐसी कोई योनि नहीं है जहां मैं जन्मा नहीं हूं । प्रत्येक गति में अनेकशः उत्पन्न हो चुका हूं। क्या मैं इस प्रकार भ्रमण करता रहूंगा? वह देखता है योनियों में विविध कष्टों को और इस भव-भ्रमण के बंधन को चाहता है तोड़ता | राग और द्वेष भव-भ्रमण के मुख्य हेतु हैं। जब तक ये विद्यमान रहते हैं तब तक आत्मा का पूर्ण स्वातंत्र्य प्रगट नहीं होता । विविध योनियों के विविध रूपों में भ्रमण का चिंतन करना भव-भावना है। ४. एकत्व भावना 'एगो से सासओ अप्पा णाणदंसण लक्खणो । सेसो मे बाहिरा भावा, सब्वे संजोगलक्खणा ॥' ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत आत्मा है, यही मैं हूं। इसके सिवा शेष सांयोगिक पदार्थ मेरे से भिन्न हैं, वे 'मैं नहीं हूं।' दूसरों के साथ अपने को इतना संयुक्त न करे कि जिससे स्वयं के होने का पता ही न चले इस एकत्व भावना में अपने को समस्त संयोगों से पृथक् देखता है। प्लोटिस ने कहा है-FLIGHT OF THE ALONE TO THE ALONE. ‘अकेले ही अकेले के लिए उड़ान है।' नमि राजर्षि ने कहा- 'संयोग ही दुःख है दो में शब्द होते हैं, अकेले में नहीं रानियां चंदन घिस रही थीं। चूड़ियों के शब्द कानों में चुभ रहे थे नमि राजर्षि ने कहा-बंद करो रानियां हाथ में एक-एक चूड़ी रख चंदन घिसने लगीं। शब्द बंद हो गया। नमि राजर्षि ने पूछा- क्या चंदन घिसना बंद कर दिया ? उत्तर मिला नहीं, घिसा जा रहा है।' तो शब्द क्यों नहीं हो रहा है, नमि ने पूछा। तब कहा - 'एक-एक चूड़ी है। एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करती।' तत्क्षण यह सुनते ही वे प्रतिबुद्ध हो गये । और साधना-पथ पर चल पड़े। साधक सर्वत्र स्वयं के अकेले का अनुभव करे। यह सिर्फ कल्पना के स्तर पर ही नहीं, वस्तुतः जो है- अस्तित्व वह एक है, अकेला है। जिस दिन चैतन्य की अनुभूति में निमज्जन होने लगता है, शांति उस दिन स्वयं ही उसके द्वार खटखटाने लगती है। ५. अन्यत्व भावना–एकत्व और अन्यत्व - दोनों परस्पर संबंधित हैं। अन्य - दूसरों से स्वयं को पृथक् देखना एकत्व है और अपने से दूसरों को भिन्न देखना अन्यत्व है । 'पर' 'पर' है और 'स्व' 'स्व' है। 'पर' को अपना न माने। 'पर के और अपने बीच जो दूरी है, वह सदा बनी रहती है। किसी ने एक होटल के मालिक से पूछा- 'वह व्यक्ति ठीक आप जैसे लगता है, क्या आप भाई-भाई हैं? एक ही हैं आप ?' उसने कहा-'नहीं, बहुत दूरी है। हम अपने पिताजी के बारह लड़के हैं। पहला मैं हूं और वह बारहवां है। यह सृष्टि संयोगात्मक है। यह एक सराय है जहां पचिक विभिन्न दिशाओं से आकर मिलते हैं, विश्राम करते हैं और Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३११ अ. १२ : ज्ञेय हेय - उपादेय फिर लौट जाते हैं। पथिकों के साथ तादात्म्य कैसा? उनका संयोग कितने दिनों का हो सकता है। एक सूफी साधक के घर बुढ़ापे में दो बच्चे पैदा हुए। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। बच्चों के प्रति उसका असीम प्यार था। वह उन्हें बिना देखे नहीं रहता था। भोजन साथ में करता, मस्जिद साथ में ले जाता । एक दिन वे दोनों बच्चे खेल रहे थे। अचानक छत ऊपर से गिरी और दोनों बच्चे उसके नीचे दब कर मर गये पत्नी ने सोचा अब कैसे समझाऊं ? भोजन के लिए साधक आया, बच्चों को देखा नहीं, पूछा- कहां है? पत्नी ने कहा- आप भोजन कर लीजिये, खेलते होंगे। भोजन कर लिया। पत्नी ने पूछा- एक आदमी दो हीरे अमानत रखकर गया था, बहुत वर्ष हो गये, वह मांगने के लिए आया है, क्या वापिस कर देने चाहिए ?” उसने कहा- 'इसमें पूछने की क्या बात है? अपना है ही नहीं, आया है तो जल्दी वापिस लौटा देने चाहिए।' पत्नी ने कहा-आओ, मैं बताऊं।' वह वहां ले गई । कपड़ा हटाया और कहा- छत गिरने से दोनों की मृत्यु हो गयी। साधक बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा- नहीं थे तब भी प्रसन्न था और अब नहीं हैं तब भी प्रसन्न यह बीच का खेल था।' समस्त योग-वियोग में अपने को अन्यों से न जोड़कर जीना ही अन्यत्व भावना का ध्येय है। ६. अशौच भावना साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह शरीर का सम्यक्दर्शन करे। आसक्ति का मूल शरीर है। शरीर के साथ सभी व्यक्ति बंधे हैं। शरीर का ममत्व नहीं टूटे तो साधना में प्रगति नहीं होती अशौच भावना उस बंधन को शिथिल करती है, तोड़ती है। बुद्ध ने इसके लिए 'कायगता स्मृति' का पूरा प्रयोग बतलाया है। 'कायगता स्मृति' की विशेषता के संबंध में बुद्ध कहते हैं 'भिक्षुओ! एक धर्म भावना करने और बढ़ाने से महा संवेग के लिए होता है, महा अर्थ (कल्याण) के लिए होता है, महा योग-क्षेम (निर्वाण) के लिए होता है, महा स्मृति - सम्प्रजन्य के लिए होता है, ज्ञान दर्शन की प्राप्ति के लिए होता है इसी जीवन में सुख से विहरने के लिए होता है। विद्या विमुक्ति फल के साक्षात्कार के लिए होता है। भिक्षुओं, वे अमृत का परियोग करते हैं जो कि कायगता स्मृति का परियोग करते हैं और भिक्षुओ, वे अमृत का परियोग नहीं करते जो कि कायगता स्मृति का परियोग नहीं करते । कायगता-स्मृति में संलग्न भिक्षु की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है- 'वह अरति (उदासी) और रति (कामभोगों की इच्छा) को पछाड़ने वाला होता है उसे अरति नहीं पछाड़ती है। वह उत्पन्न अरति को हटा हटा कर विहरता है। वह भय-भैरव को सहने वाला होता है। उसे भय भैरव नहीं पछाड़ते। वह उत्पन्न भय-भैरव को हटा हटाकर विहरता है। जाड़ा, गर्मी सहने वाला होता है। प्राण लेने वाली शारीरिक वेदनाओं को (सहर्ष) स्वीकार करने वाला होता है । ' आगम साहित्य में भी शरीर को अशुचि और अशुचि से उत्पन्न कहा है। महावीर गौतम को संबोधित कर कहते है-गौतम! तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं, इन्द्रिय और शरीर बल सब क्षीण हो रहा है तू देख और क्षणभर भी प्रमाद मत कर।' मदिरा के घड़े को कितना ही धोओ, वह अपनी गंध नहीं छोड़ता, ठीक इसी प्रकार शरीर को कितना ही स्वच्छ करो वह शुद्ध नहीं होता । प्रतिक्षण अनेकों द्वारों से अशुद्धि बाहर की ओर प्रवाहित हो रही है । मूढ़ मनुष्य उसमें शुद्धि का भाव आरोपित कर लेते हैं किन्तु विज्ञ व्यक्ति उसकी यथार्थता से परिचित होते हैं। साधक शरीर का सम्यक् निरीक्षण करे और उसकी आसक्ति को उखाड़कर अपने स्वरूप में अधिष्ठित बने । यद्यपि शरीर अपवित्र है, अशुचि है, किन्तु परमात्मा का मंदिर भी है। अशुद्धि का दर्शन कर ममत्व से मुक्त हो और साथ में परम-शुद्ध सनातनशिव- आत्मा का दर्शन भी करे केवल शरीर के प्रति घृणा का भाव प्रगाढ़ करने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। यही अशौच भावना का आशय है। ७-८. आस्रव संवर भावना आखव क्रिया है, प्रवृत्ति है और संवर अप्रवृत्ति तथा अक्रिया है आस्रव में विजातीय तत्त्व का संग्रह होता है और उससे भव-भ्रमण होता है। संवर विजातीय का अवरोधक है और संगृहीत जो है, उसका रेचन करता है, उसे बाहर फेंकता है निर्जरा तत्त्व प्रवृत्ति और निवृत्ति की चर्चा अन्यत्र की जा चुकी है। - ९. तपोभावना - योग और ध्यान प्रकरण के अंतर्गत तप का विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। " १०. धर्म भावना-धर्म का अर्थ है स्वभाव और वे साधन जिनसे व्यक्ति स्वयं में प्रतिष्ठित होता है। धर्म को त्राण, द्वीप, प्रतिष्ठा और गति कहा है। व्यक्ति जब धर्म को जान लेता है, उससे सम्यक् परिचित हो जाता है तब उसके लिए जो कुछ है वह सब धर्म ही है । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३१२ खण्ड-३ एक संत का कंबल चोरी में चला गया। उसने रिपोर्ट लिखाई कि मेरा बिछौना, सिरहाना, रजाई, कंबल चोरी में चला गया। एक दिन चोर पकड़ा गया। कंबल भी उसके पास था। थानेदार ने पूछा यह किसका है ? कहा- 'संत का है।' पूछा-' और क्या-क्या चीजें वहां से लाया ?' कहा- कुछ भी नहीं, बस यही कंबल' संत को बुलाया और पूछा- 'क्या यही है आपका कंबल ?' कहा - 'हां' थानेदार ने कहा- 'चोर कहता है आपकी रिपोर्ट झूठी है। इसके सिवाय वहां कुछ था ही नहीं। फिर आपने इतनी चीजें कैसे लिखाई ।' संत ने हंसते हुए कहा - 'यही तो सब कुछ है। सर्दी में ओढ़ लेता हूं, गर्मी में बिछा लेता हूं, सिरहाने भी दे लेता हूं।' धर्म जब सब कुछ हो जाता है तभी धर्म की सुगंध आ सकती है। धर्म का संबंध बाह्य पदार्थ-जगत् से नहीं, वह आत्मा का गुण है और उससे वही मिलना चाहिए, जो कि उसके द्वारा प्राप्य है। धर्म से अन्य उपलब्धियों की चर्चा केवल रोते हुए बच्चे को खिलौना देकर चुप करने जैसी है वे उसका स्वभाव नहीं हैं। विभाव से स्वभाव की उपलब्धि आकाश कुसुम जैसी है। धर्म ज्ञान - दर्शन - चारित्र है। धर्म निज का उदात्त, शुद्ध, आनंदमय स्वरूप है उस धर्म का अनुचिंतन कर, उसकी शरण में स्वयं को छोड़ कर साधक अंतः स्थित महान् साथी (स्वयं) को प्राप्त कर लेता है। सुकरात को जहर दिया जा रहा था। किसी ने कहा- 'यदि आप बोलना बंद कर दें तो सजा माफ की जा सकती है।' सुकरात रूढ़ियों के विरुद्ध और धर्म के यथार्थ स्वरूप की चर्चा करते थे। परम्परा के विरुद्ध बोलना लोगों को कैसे सहन हो सकता था ? सुकरात ने कहा- 'जीवन को देख लिया, अब मृत्यु को भी देख लूंगा । किन्तु बोलना कैसे रुक सकता है ?. मेरा होना ही सत्य के लिए है। मैं और सत्य भिन्न नहीं है मेरे होने का अर्थ है-सत्य का उद्घाटन। इसलिए विष बड़ी चीज नहीं है, सत्य बड़ा है।' सुकरात को जहर दे दिया गया और वे अपनी मृत्यु की घटना को देखते-देखते विदा हो गये। अपने स्वरूप का परिचय करना धर्म भावना है। ११. लोक भावना - सम्पूर्ण विश्व, जो पुरुषाकृति है, का चिंतन करना लोक भावना है। जड़ और चेतन का यह आवास स्थल है। मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, सूर्य, चन्द्र, नारक, देव और मुक्तांत्मा (सिद्धि - स्थान ) - ये सब लोक की सीमा के अंतर्गत हैं। साधक लोक की विविधता का दर्शन कर और उसके हेतुओं का विचार कर अपने अंतः स्थित चेतना (आत्मा) का ध्यान करें। वह सोचे-राग और द्वेष की उठने वाली तरंगों का यह परिणाम है। लोक-भावना का अभिप्राय है इस वैविध्य और वैचित्र्य का सम्यग् अवलोकन कर स्वयं को सतत तटस्थ बनाये रखना। १२. बोधि दुर्लभ भावना - मनुष्य का जन्म दुर्लभ है और बोधि उससे अधिक दुर्लभ है। मौनीज यहूदी संत के मृत्यु की सन्निकट वेला थी । पुरोहित पास में खड़ा मंत्र पढ़ रहा था। उसने कहा - 'मूसा का स्मरण करो, यह अंतिम क्षण है । ' मौनीज ने आंखें खोली और कहा, 'हटो यहां से। मेरे सामने नाम मत लो मूसा का । ' पुरोहित को आश्चर्य हुआ, सब देखते रहे, यह कैसी बात ? पुरोहित ने कहा- 'जीवन भर जिनका गीत गुनगुनाया, हज़ारों लोगों को सन्देश दिया और अब यह क्या कह रहे हो ? जिन्दगी की सारी प्रतिष्ठा धूल में मिला रहे हो ?' मैनीज ने कहा, मैं जानता हूं। किन्तु अभी प्रश्न वैयक्तिक है। मूसा यह नहीं पूछेगा कि तुम मूसा क्यों नहीं हुए। वह पूछेगा कि तुम मौनीज क्यों नहीं हुए? स्वयं का होना बोध है। जीवन में सब कुछ पाकर भी जिसने बोधि नहीं पाई, उसने कुछ नहीं पाया और बोधि पाकर जिसने कुछ नहीं पाया उसने सब कुछ पा लिया। मरने के बाद सब कुछ छूट जाता है, खो जाता है, वह हमारी अपनी सम्पत्ति नहीं है। संबोधि अपनी सम्पत्ति है, उसे खोजना है। अनेक अनेक योनियों में पैदा हुए और मरे, किन्तु स्वयं के अस्तित्व को नहीं पहचाना। जन्म के पूर्व और मरने के बाद भी जिसका अस्तित्व अखंड रहता है, उसकी खोज में निकलना बोधि भावना का अभिप्राय है। आचार्य शुभचंद्र ने लिखा है-'भावनाओं में रमण करता हुआ साधक इसी जीवन में दिव्य मुक्तानंद का स्पर्श कर लेता है। कषायाग्नि शांत हो जाती है, पर द्रव्यों के प्रति जो आसक्ति है वह नष्ट हो जाती है, अज्ञान का उन्मूलन होता है और हृदय में बोध- प्रदीप प्रज्वलित हो जाता है। ' बारह भावनाओं के अतिरिक्त चार भावनाओं का और उल्लेख मिलता है वे है-१. मैत्री २. प्रमोद ३. करुणा ४, उपेक्षा बुद्ध ने इन चारों को 'ब्रह्म विहार' कहा है। पतंजलि ने मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्य-विषयाणां Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३१३ अ. १२ : ज्ञेय - हेय - उपादेय भावनातश्चित्तप्रसादनम्।' सुख, दुःख, पुण्य और पाप इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, करुणा, आनंद, प्रसन्नता और उपेक्षा का भाव धारण करने से चित्त प्रसन्न होता है, ऐसा कहा है। १. मैत्री भावना - मनुष्य के ज्ञात संबंधों की कड़ी बहुत छोटी है और अज्ञात की श्रृंखला बहुत प्रलंब है। ज्ञात स्पष्ट है और अज्ञात अस्पष्ट, इसलिए शत्रु-मित्र आदि की कल्पनाएं खड़ी होती हैं। अज्ञात सामने आ जाए तो ये भाव स्वतः शांत हो सकते हैं। जन्म-मृत्यु की लंबी परंपरा कौन अपरिचित है? किन्तु इसे साधारण लोग नहीं समझते। साधक आत्म- तुला के पथ पर अग्रसर होता है, उसे यह स्पष्ट हो जाए तो बहुत अच्छा है, किन्तु बहुत कम व्यक्तियों को अतीत ज्ञात होता है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि मैं पहले भी था, अब भी हूं और आगे भी रहूंगा। अतीत में था तो कहां था, कौन मेरे संबंधी थे, आदि प्रश्न स्वतः खड़े हो जाते हैं। इस दृष्टि से साधक का मन सबके प्रति मित्रभाव धारण कर लेता है। 'मित्ति मे सव्वभूएस, वेरं मज्झ न केणई'- मेरा सबके साथ मैत्री भाव है। कोई मेरा शत्रु नहीं है।' अंतश्चेतना से जैसे-जैसे यह भाव पुष्ट होता जाता है वैसे-वैसे साधक के मन में शत्रुता का भाव नष्ट होता जाता है। मित्र मन सर्वत्र प्रसन्न ह है और अमित्र -मन अप्रसन्न शत्रु मन अशांत, हिंसक, घृणायुक्त और क्लिष्ट रहता है उसमें प्रतिशोध की आग निरंतर प्रज्वलित रहती है। मित्र- मन में ये सब दोष नष्ट हो जाते हैं। उसे भय नहीं रहता। मैत्री भावना का साधक स्वयं अपने को कष्ट में डाल सकता है, किन्तु दूसरों को कष्ट नहीं देता। उसकी दृष्टि में पर शत्रु जैसा कोई रहता ही नहीं शत्रु का भाव ही अनिष्ट करता है। खलीफा अली अपने शत्रु के साथ वर्षों लड़ता रहा। एक दिन शत्रु हाथ में आ गया। उसकी छाती पर बैठ भाला मारने वाला ही था, इतने में शत्रु ने मुंह पर थूक दिया। अली को एक क्षण गुस्सा आया और बोला- 'आज नहीं लड़ेंगे।' लोगों ने कहा, 'कैसी मूर्खता कर रहे हैं?' वर्षों से शत्रु हाथ आया और आप छोड़ रहे हैं।' अली ने कहा-'कुरान का वचन है-क्रोध में मत लड़ो।' मुझे गुस्सा आ गया। शत्रु को बड़ा 'आश्चर्य हुआ। उसने पूछा-'इतने वर्षों क्या आप बिना क्रोध के लड़ रहे थे ?' अली ने उत्तर दिया- 'हां।' शत्रु चरणों में गिर पढ़ा। उसे पता ही आज चला कि बिना क्रोध के भी लड़ा जा सकता है। वह मित्र हो गया। लड़ने का हेतु भिन्न हो सकता है, किन्तु क्रोध में नहीं लड़ना - यह मित्रता का परिचायक है। मैत्रीभाव का विराट् रूप जब सामने आता है तब द्वैत नहीं रहता। ‘आयतुले पयासु’- प्राणियों को अपने समान देखो - यह उसका फलितार्थ है । । २. प्रमोद भावना - प्रमोद का अर्थ है - प्रसन्नता । जो स्वयं में प्रसन्न नहीं होता, प्रमोद भावना को समझना उसके लिए कठिन होता है जो अपना मित्र बनता है, वही प्रमोद - प्रसन्न रह सकता है। जिसकी अपने में प्रसन्नता है उसकी सर्वत्र प्रसन्नता है। वह ·अप्रसन्नता को देखता नहीं। अपने से जो राजी नहीं है, वही दूसरों के दोष देखता है, दूसरों की प्रसन्नता - विशिष्टता से ईर्ष्या करता है। दूसरों के गुणों को देखकर व्यक्ति स्वयं का प्रमोद भावना के द्वारा कितना ही भावित करे, किन्तु ईर्ष्या की ग्रंथि खुलनी कठिन है, भले ही कुछ देर के लिए मन को तृप्त करले । जिसे ईर्ष्या से मुक्त होना है उसे सतत प्रसन्नता का जीवन जीना चाहिए। यह कोई असंभव नहीं है जो कुछ प्राप्त है, उसमें सदा प्रसन्न रहे । अतृप्ति को पास फटकने न दे। जैसे-जैसे हम अपने से राजी होते जाएंगे, कोई वासना नहीं रहेगी तब सहन ही दूसरों की विशेषताएं या अविशेषताएं हमारे लिए कोई महत्त्वपूर्ण नहीं होंगी विशेषताएं जहां प्रसन्नता के लिए होंगी वहां अविशेषताएं करुणा उत्पन्न करेंगी। जैसे एक व्यक्ति विकास के चरम पद को पा सकता है वैसे दूसरा भी पा सकता है, किन्तु वह अपने को गलत दिशा में नियोजित कर रहा है, इसलिए करुणा का पात्र है। स्वयं में प्रसन्न रहना सीखें, फिर दूसरों से अप्रसन्नता भी नहीं आयेगी और दूसरों के गुणों के उत्कर्ष से अप्रसन्नता भी नहीं होगी। ३. करुणा भावना - करुणा मैत्री का प्रयोग है जिसका सब जगत् मित्र है, उसकी करुणा भी जागतिक हो जाती है। उस करुणा का संबंध पर सापेक्ष नहीं होता। वह भीतर का एक बहाव है जो प्रतिपल सरिता की धारा की तरह प्रवाहित रहता है। महावीर, बुद्ध, जीसस आदि संत इसके अनन्यतम उदाहरण हैं। महायान बौद्ध कहते हैं-बुद्ध का निर्माण हुआ। वे निर्वाण के द्वार पर रुक गये। कहा भीतर आओ। बुद्ध कहते हैं-जब तक समस्त प्राणी दुःख से मुक्त नहीं होते तब तक मैं भीतर कैसे आ सकता हूं? प्रेम का हृदय - सागर जब छल-छला जाता है, तब करुणा की ऊर्मियां Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३१४ खण्ड - ३ तट पर टकराने लगती हैं। जितने भी संत बोले हैं, वे सब प्रेम मैत्री के मूर्त रूप थे और वह प्रेम करुणा के माध्यम से वाणी के द्वारा बाहर बहा है। अमेरीकन विचारक हेनरी धारो से एक व्यक्ति मिलने के लिए आया। हाथ मिलाया और तत्क्षण हेनरी ने हाथ छोड़ दिया। कहा- यह हाथ जीवंत नहीं है, मृत है इसमें प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहानुभूति नहीं है यह उदात्त प्रेम की सूचना है। करुणा सौहार्द्र आदि गुण मनुष्य की आंतरिक चेतना की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं। हजरत उमर ने एक व्यक्ति को किसी प्रान्त का गर्वनर नियुक्त किया। नियुक्ति पत्र लिखा और आवश्यक सूचना दी। इतने में एक छोटा बच्चा आ गया। हजरत उसे प्रेम करने लगे। उसने कहा, 'मेरे दस बच्चे हैं, किन्तु मैंने इतना प्रेम और इस प्रकार आलाप संलाप कभी नहीं किया।' हजरत ने वह नियुक्त पत्र वापिस लेकर फाड़ते हुए कहा- 'जब तुम अपने बच्चों से भी प्रेम नहीं कर सकते, तब प्रजा से प्रेम की आशा मैं कैसे करूं? एक संत के पास एक व्यक्ति संन्यासी बनने आया संत ने पूछा- क्या तुम किसी से प्रेम करते हो ?' उसने कहा----' आप क्या बात कर रहे हैं? मेरा किसी से प्रेम नहीं है।' संत ने कहा- 'तब मुश्किल है। प्रेम अगर हो तो उसे व्यापक बनाया जा सकता है, किन्तु है ही नहीं, तब मैं क्या करूं?' प्रेम, करुणा, सहानुभूति ये अंतस्तल के सूचनासंस्थान हैं। दुःखी, पीड़ित, त्रस्त व्यक्ति को देखकर जो करुणा का भाव जागृत होता है वह यह सूचना है कि आपका चित्त कोमल, मृदु और प्रेम से शून्य नहीं है। उसी करुणा को आत्मा से जोड़ना है, दुःख के कारणों को मिटाना है, जिससे अनंत करुणा का जन्म हो सके। से ४. उपेक्षा भावना - अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों ही स्थितियों में सर्वत्र सम रहना 'उपेक्षा' है। साधक को न पदार्थों जुड़ना है और न बिछुड़ना है। पदार्थ पदार्थ है। उसमें राग-द्वेष नहीं है। राग-द्वेष है अपने भीतर । जब आदमी किसी से जुड़ता है तो राग और बिछुड़ता या घृणा करता है तो द्वेष आता है। साधक को कहीं भी राग और द्वेष दिखाई दे, वह तत्काल उनकी उपेक्षा कर अपने भीतर चला जाये। यह जैसे पदार्थों के साथ होता है, वैसे व्यक्ति के व्यक्तित्व, रूप, विशिष्ट कौशल आदि पर भी होता है। भिक्षु वक्कलि बुद्ध के रूप पर इतना मुग्ध हो गया, उसे ही निहारता रहता। बुद्ध ने कहा- 'क्या है वक्कलि मेरे इस शरीर में? जैसा हाड़, मांस, रक्त आदि तुम्हारे शरीर में है, वैसे ही इसमें है। रूप को देखना है, तो बुद्ध के धर्म कार्य का रूप देखो जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है यह भी बंधन है। आनंद बुद्ध से बंधे रहे। गौतम महावीर से बंधे रहे। बंधन का मार्ग सरल है। मनुष्य बंधन-प्रिय है। पर वह बंधन छोड़ता है तो दूसरा कही न कहीं जोड़ लेता है। उपेक्षा करना कठिन है। उपेक्षा भावना का साधक कहीं किसी भी जड़ और चेतन के साथ बंधता नहीं। वह आने वाले समस्त बंधनों की उपेक्षा कर तटस्थ भाव से अपने ध्येय में गति करता रहता है। अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बने । संसद में भाषण देने जब खड़े हुए, तब किसी ने व्यंग्य कसा। कहा- आपको याद है, आप चमार के लड़के हैं। लिंकन ने कहा- धन्यवाद, आपने पिता का स्मरण दिलाया और मैं आगे आपसे कहना चाहता हूं, मेरे पिताजी कुशल चमार थे। मैं इतना कुशल राष्ट्रपति नहीं बन सकूंगा। दूसरी बार फिर कहा- 'वे जूते बनाते थे ।' लिंकन बिल्कुल उत्तेजित नहीं हुए। उसी तटस्थ भाव से कहा-'हां, किन्तु किसी ने कभी कोई शिकायत नहीं की। क्या आपको कोई शिकायत है ?' साधक जब उपेक्षा भावना में निष्णात हो जाता है तब हर्ष और विषाद, सुख और दुःख, सम्मान और अपमान आदि द्वंद्व सहजतया क्षीण होते चले जाते हैं। भावना के अभ्यास के लिए एक सहज सरल विधि का प्रयोग आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इस प्रकार बतलाया है- 'भावना का अभ्यास निम्न निर्दिष्ट प्रक्रिया से करना इष्ट सिद्धि में अधिक सहायक हो सकता है। साधक पद्मासन आदि किसी सुविधाजनक आसन में बैठ जाए। पहले श्वास को शिथिल करे फिर मन को शिथिल करे। पांच मिनट तक उन्हें शिथिल करने के लिए सूचना देता जाए। वे जब शिथिल हो जाएं तब उपशम आदि पर मन को एकाग्र करें। इस प्रकार निरंतर आधा घंटा तक अभ्यास करने से पुराने संस्कार विलीन हो जाते हैं और नए संस्कारों का निर्माण होता है।' Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३१५ ७७.सम्यग्दर्शनसंपन्नः श्रद्धावान् योगमर्हति। विचिकित्सां समापन्नः, समाधिं नैव गच्छति॥ अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय जो सम्यग् दर्शन से संपन्न और श्रद्धावान् है, वह योग का अधिकारी है। जो संशयशील है, वह समाधि को प्राप्त नहीं होता। ७८.आस्तिक्यं जायते पूर्व, आस्तिक्याज्जायते शमः। शमाद् भवति संवेगो, निर्वेदो जायते ततः॥ ७९.निर्वेदादनुकंपा स्याद्, एतानि मिलितानि च। श्रद्धावतो लक्षणानि, जायन्ते सत्यसेविनः॥ (युग्मम्) पहले आस्तिक्य होता है, आस्तिक्य से शम होता है, शम से संवेग होता है, संवेग से निर्वेद होता है और निर्वेद से अनुकंपा उत्पन्न होती है। ये सब सत्यसेवी श्रद्धावान अर्थात् सम्यगदृष्टि के लक्षण हैं। ॥ व्याख्या ॥ इन श्लोकों में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के लक्षणों का निरूपण किया गया है। वे पांच हैं : १. आस्तिक्य-आत्मा, कर्म आदि में विश्वास। २. शम-क्रोध आदि कषायों का उपशमन। ३. संवेग-मोक्ष के प्रति तीव्र अभिरुचि। ४. निर्वेद-वैराग्य। उसके तीन प्रकार हैं-संसार-वैराग्य, शरीर-वैराग्य और भोग-वैराग्य। ५. अनुकंपा-कृपा भाव, सर्वभूतमैत्री-आत्मौपम्य भाव। प्राणीमात्र के प्रति अनुकंपा। ..' अहिंसा दया का पर्यायवाची नाम है। पंचाध्यायी में इसका बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है। उसमें कहा है-'जो समग्र प्राणियों के प्रति अनुग्रह है, उस अनुकंपा को दया जानना चाहिए। मैत्रीभाव, मध्यस्थता, शल्य-वर्जन और वैर-वर्जन ये अनुकंपा के अंतर्गत हैं। इससे दया का विशद स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है। जिस दया में किसी का भी उत्पीड़न नहीं होता, वस्तुतः वही सच्ची अनुकंपा है, दया है। गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-'भंते! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है?' भगवान ने कहा-'गौतम! दर्शनसम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अंत होता है। दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं। वह अनुत्तरज्ञान से आत्मा को भावित करता रहता है। यह आध्यात्मिक फल है। व्यावहारिक . फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी गति का आयुष्य नहीं बांधता।' ८०.योगी व्रतेन संपन्नो, न लोकस्यैषणाञ्चरेत्। भावशुद्धिः क्रियाश्चापि, प्रथयन् शिवमश्नुते॥ व्रतों से संपन्न योगी लोकैषणा में नहीं फंसता। वह मानसिक शुद्धि और सक्रियाओं का विस्तार करता हुआ मोक्ष को प्राप्त होता है। ८१.न क्षीयन्ते न वर्धन्ते, सन्ति जीवा अवस्थिताः। अजीवो जीवतां नैति, न जीवो यात्यजीवताम्॥ जीव अवस्थित हैं, न घटते हैं और न बढ़ते हैं। अजीव कभी . जीव नहीं बनता और जीव कभी अजीव नहीं बनता। ८२.अवस्थानमिदं __ परिवर्तनमत्रैव, ध्रौव्यं, द्रव्यमित्यभिधीयते। अवस्थान को ध्रौव्य कहा जाता है और इसी में जो परिवर्तन पर्यायः परिकीर्तितः॥ होता है, उसे पर्याय कहा जाता है। ध्रौव्य और परिवर्तन-दोनों द्रव्य के अंश हैं। द्रव्य का अर्थ है-इन दोनों की समष्टि। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " आत्मा का दर्शन ३१६ || व्याख्या || एक बार गौतम ने पूछा-'भगवन्! तत्त्व क्या है?' भगवान् ने कहा- 'उत्पाद तत्त्व है।' गौतम की समस्या सुलझी नहीं। उन्होंने फिर पूछा- 'भगवन् ! तत्त्व क्या है ?' भगवान् ने कहा- 'विनाश तत्त्व है।' अभी भी मन समाहित नहीं हुआ। तीसरी बार गौतम ने पूछा- 'भगवन् ! तत्त्व क्या है ?' भगवान् ने कहा- 'ध्रुव तत्त्व है । ' खण्ड-३ उत्पाद, व्यय और प्रौव्य यह तत्त्व-त्रयी है। गौतम गणधर ने इसी के आधार पर वाड्मय का विस्तार किया था। उत्पाद और व्यय प्रत्येक चेतन और जड़ दोनों पदार्थों की अवस्थाएं हैं जड़ और चेतन दोनों ध्रुव है। जड़ चेतन नहीं होता और चेतन जड़ नहीं होता। अवस्थाओं का परिवर्तन इन दोनों में सतत चालू रहता है। चेतन एक अवस्था को छोड़कर अन्य अवस्था में जाता है। यह आत्मा की अमरता है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - 'पुराने कपड़े के फट जाने पर जिस प्रकार नया कपड़ा धारण किया जाता है, ऐसी प्रकार आत्मा भी अपनी वर्तमान जीर्ण स्थिति को त्यागकर नया रूप स्वीकार करती है। कभी देवत्व, कभी पशुत्व, कभी नारकीय, कभी मानवीय आकार में आत्मा का परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से युवक और युवक से बूढ़ा बन मृत्यु का आलिंगन करती है। इन सबमें आत्मा विद्यमान रहती है। ये उनकी विभिन्न अवस्थाएं हैं। चेतनत्व का विनाश नहीं होता। जड़ में भी यही परिवर्तन मिलता है। मिट्टी के अनेक आकार बनते हैं और बिगड़ते हैं। सोने की कितनी अवस्थाएं होती हैं। लेकिन स्वर्णत्व सब में वैसा ही रहता है। एक व्यक्ति सोने का घड़ा लेना चाहता है, एक व्यक्ति मुकुट और एक व्यक्ति केवल सुवर्ण । सोने का घड़ा बनने पर एक को प्रसन्नता होती है और मुकुटवाले को विषाद। लेकिन सुवर्णवाले व्यक्ति को न प्रसन्नता है, न विषाद स्वर्ण धौव्य है घट और मुकुट उनकी अवस्थाएं हैं पुद्गल जड़ के गुण किसी भी दशा में मिटते नहीं मिट्टी भले सोने के रूप में परिणत हो जाए, शरीर चिता में जलकर राख भी क्यों न बन जाये, इन सबमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श-ये सदा अवस्थित रहेंगे। एक परमाणु से लेकर अनंत परमाणुओं के स्कंध में भी इनकी अवस्थिति है। के संसार की अपेक्षा से मुक्त होने वाले जीव कम हो जाते हैं। वे अपने परमात्म स्वरूप को पाकर जन्म और मृत्यु घर को लांघ जाते हैं। किन्तु इससे आत्मा की संख्या में कोई कमी नहीं होती। आत्मत्व यहां और वहां सतत विद्यमान रहता है । संसारी आत्माएं अनंत हैं और मुक्त आत्माएं भी अनंत हैं। मुक्त जीवों की अपेक्षा संसारी जीव सदा अनंत रहे हैं और रहेंगे संसार कभी शून्य नहीं होगा मुक्ति जाने के योग्य जीव भी सदा यहां मिलते रहेंगे। श्राविका जयन्ती के प्रश्न से इनका स्पष्ट हल सामने आ जाता है। जयंती ने भगवान् महावीर से पूछा- 'भगवन् ! क्या सभी जीव मुक्त हो जायेंगे ? यदि सभी मुक्त हो जायेंगे तो संसार जीवशून्य हो जायेगा ।' भगवान् ने कहा- 'ऐसा नहीं होता । मोक्ष में वे ही जीव जाते हैं, जो भव्य होते हैं। इससे एक प्रश्न और पैदा हो जाता है कि भव्य जीव सब मोक्ष में चले जायेंगे, तो क्या संसार भव्य शून्य नहीं हो जायेगा ?' भगवान् ने कहा- ऐसा भी नहीं होगा। मोक्ष में जाने वाले भव्य जायेंगे। लेकिन वैसी अनुकूल स्थिति उत्पन्न होने पर ऐसा होता है। सब ऐसे अवसर सुलभ नहीं होते) मेघः प्राह ८३. कथं चित्तं न जानाति ? कथं जानन् न चेष्टते ? चेष्टमानं कथं नैति श्रद्धानं चरणं विभो ॥ मेघ बोला- प्रभो! चित्त क्यों नहीं जानता ? जानता हुआ उद्योग क्यों नहीं करता? उद्योग करता हुआ भी वह श्रद्धा और चारित्र को क्यों नहीं प्राप्त होता ? ॥ व्याख्या ॥ आत्मा ज्ञानमय है। मन को सब कुछ बोध होना चाहिए। उसके लिए यह अज्ञेय क्यों है कि वह कहां से आया है? कहां जायेगा ? भविष्य की घटनाएं क्यों अज्ञात रहती हैं? मेघ के मन में ये ही कुछ आशंकाएं हैं ज्ञान की पूर्णता, श्रद्धा और आचरण के विकास में कौन बाधक है ? Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३१७ अ. १२ : ज्ञेय हेय-उपादेय भगवान् प्राह ८४.आवृतं नहि जानाति, प्रतिहतं न चेष्टते। मूढं विकारमाप्नोति, श्रद्धायां चरणेऽपि च॥ भगवान् ने कहा-जो चित्त आवृत होता है, वह नहीं जानता। जो चित्त प्रतिहत होता है, वह उद्योग नहीं करता। जो चित्त मूढ होता है, वह श्रद्धा और चारित्र को प्राप्त नहीं होता। मेघः प्राह ८५. केन स्यादावृतं चित्तं? केन प्रतिहतं भवेत् ? मूढं च जायते केन? ज्ञातुमिच्छामि सर्ववित्! मेघ बोला-हे सर्वज्ञ! चित्त किससे आवृत होता है? किससे प्रतिहत होता है? और किससे मूढ बनता है? यह मैं जानना चाहता हूं। भगवान् प्राह ८६. आवृतं जायते चित्तं, ज्ञानावरणयोगतः। हतं स्यादन्तरायण, मूढं मोहेन जायते॥ भगवान् ने कहा-चित्त ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत होता है, अंतराय कर्म से प्रतिहत होता है और मोह कर्म से मूढ बनता है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर की दृष्टि में ज्ञानावरणीय, अंतराय और मोहनीय-ये तीन कर्म बाधक हैं। ज्ञान पर जो आवरण है, वह ज्ञानावरणीय है, आत्मा को जानने में यह बाधा डालता है। जब यह हट जाता है तब ज्ञान का क्षेत्र व्यापक बन जाता है। आत्म-विकास में विघ्न डालने वाला कर्म अंतराय है। वह आत्म-शक्ति के अजस्र स्रोत को रोकता है। मनुष्य यथार्थ को जानता हुआ भी उसमें उद्योग नहीं करता। यथार्थ के प्रति श्रद्धाशील न होना और न उसको स्वीकार करना यह मोहनीय कर्म की देन है। मोहोदय से मनुष्य भौतिक आकर्षणों में फंसा रहता है। सत्य के प्रति न उसकी अभिरुचि होती है, न वह सत्य का आचरण ही करता है। किन्तु उल्टा इसे अपनी शांति में बाधक मानता है। यह मूढ़ता मोहजन्य है। ८७.स्वसम्मत्याऽपि विज्ञाय, धर्मसारं निशम्य वा। मतिमान् मानवो नूनं, प्रत्याचक्षीत पापकम्॥ बुद्धिमान् मनुष्य धर्म के सार को अपनी सहज बुद्धि से जानकर या सुनकर पाप का प्रत्याख्यान करे। ॥ व्याख्या ॥ __ बुद्ध ने कहा-भिक्षुओ! मैं आदरणीय, श्रद्धेय और सम्मानीय हूं, इसलिए मेरी वाणी को स्वीकार मत करो, किन्तु अपनी मेधा-बद्धि से परीक्षण करके स्वीकार करो-'परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य मद्धचो न त गौरवात।' महावीर भी यही बुद्धि से परखो-'मइमं पास।' और भी आत्मद्रष्टा ऋषियों का यही स्वर है। मुहम्मद ने कहा है-'सब जगह मुझे ही प्रमाण मत मानो।' किन्तु व्यवहार में यह कम ही होता है। मनुष्य की बुद्धि कुछ परिपक्व होती है उससे पूर्व ही वह धर्म को पकड़ लेता है। जन्म के साथ धर्म का जन्म होना देखा जाता है। कहते हैं दुनियां में हजारों मत-मतान्तर हैं। प्रायः व्यक्ति अपनी सीमा में खड़े मिलते हैं। हिन्दु, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख आदि का चोला जन्म के साथ धारण हो जाता है। . मनुष्य में धर्म की भूख-जिज्ञासा पैदा ही नहीं होती। उससे पूर्व धर्म का भोजन उसे प्राप्त हो जाता है। सत्य का मार्ग उद्घाटित नहीं होता। सत्य की प्यास पैदा होना कठिन है और प्यास पैदा हो जाए जो फिर पानी मिलना सरल नहीं है। जीसस ने कहा है-धन्य हैं वे जिन्हें धर्म की भूख है क्योंकि उनकी भूख तृप्त हो जाएगी। सबसे पहले यह अपेक्षित है कि व्यक्ति में धर्म की भूख जागृत हो। पाप कर्म से निवृत्त होना कठिन नहीं है जितना कि धर्म की भूख का जागरण होना है। अर्जुनमाली, अंगुलिमान, वाल्मिकी आदि प्रसिद्ध हैं जिनको धर्म की प्यास पैदा होते ही मार्ग मिला और उनके पाप छटते चले गए। . ८८. उपायान् संविजानीयाद्, आयुःक्षेमस्य चात्मनः। संयमशील पण्डित अपने जीवन के कल्याणकर उपायों को क्षिप्रमेव यतिस्तेषां, शिक्षा शिक्षेत पण्डितः॥ जाने और उनका शीघ्र अभ्यास करे। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३१८ ८९. यथा कूर्मः स्वकाङ्गानि, स्वके देहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मेन समाहरेत्।। ॥ व्याख्या ॥ कछुए की उपमा साधक के लिए गीता, बुद्ध वचन, महावीर वाणी आदि में सर्वत्र प्रयुक्त हुई है। कछुवा भय-भीत स्थान में तत्काल अपने अंगों को समेट कर सुरक्षित हो जाता है। साधक के लिए कछुए की वृत्ति आवश्यक है। वह अपनी प्रवृत्तियों को सतत समेटे रखे। बाहर भय ही भय है। जहां भी अनुपयुक्त प्रमत्त हुआ कि बंधा मुक्ति के लिए अप्रमत्तता आवश्यक है। ९०. संहरेत् हस्तपादौ च मनः पंचेन्द्रियाणि च । 9 पापकं परिणामञ्च, भाषादोषञ्च तादृशम् ॥ खण्ड - ३ जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, उसी प्रकार मेधावी पुरुष अध्यात्म के द्वारा अपने पापों को समेट ले। ९१. कृतञ्च क्रियमाणञ्च भविष्यन्नाम पापकम् । सर्व तन्नानुजानन्ति, आत्मगुप्ताः जितेन्द्रियाः ॥ मेघः प्राह ९२. प्रभो ! प्रसादमासाद्य, चेतः पुलकितं मम । वाणी सुधारसासिक्ता, संतापं हरते नृणाम् ॥ मेधावी पुरुष हाथ, पांव, मन, पांच इन्द्रियों, असद् विचार और वाणी के दोष का उपसंहार करे। जो पुरुष आत्मगुप्त और जितेन्द्रिय हैं, वे अतीत वर्तमान और भविष्य के पापों का अनुमोदन नहीं करते। ॥ व्याख्या ॥ पाप अशुभ प्रवृत्ति है। अशुभ प्रवृत्ति में व्यक्ति पहले अपने को सताता है और जो स्वयं को दुःख देता है वही दूसरे को सताता है, इस दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि पाप है अपने को दुःख देना। जो आत्मस्थ हैं, स्वयं में स्थित हैं और जिनकी इन्द्रियां शांत हो गई हैं वे स्वयं में प्रसन्न हैं, आनंदित हैं। सुखी व्यक्ति न स्वयं को सताता है और न दूसरों को कष्ट देता है। इसलिए पाप का अनुमोदन उसके द्वारा संभाव्य नहीं होता। अध्यात्म की साधना है स्वयं में प्रतिष्ठित होना। पाप से बचने की अपेक्षा स्वयं में स्थित होने का प्रयत्न अधिक सशक्त है। अपने से बाहर जाना ही पाप है। मेघ बोला- प्रभो! आपका प्रसाद प्राप्त कर मेरा मन पुलकित हो उठा। आपकी सुधारस से सिक्त वाणी मनुष्यों के संताप का हरण कर लेती है। ॥ व्याख्या ॥ मन्दिर में प्राप्त होने वाला प्रसाद स्थूल है और गुरु सान्निध्य में प्राप्त होने वाला भिन्न है एक सीधा और शीघ्र प्रभावकारी होता है। 'गुरु' शब्द में ही कुछ विशिष्टता है, उस विशिष्टता से युक्त व्यक्ति हो गुरु होता है। जो 'गु' अंधकार से 'रु' प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु होता है। 'गु' अर्थात् ग्रंथातीत और 'रु' यानी रूपातीत-जो शिष्य का तीन गुणों व नाम रूप के मिच्या जगत् से सम्यग् बोध देकर मुक्ति की दिशा में अग्रसर करता है, वह गुरु होता है। ऐसे ही गुरु की उपासना संताप का उन्मूलन करती है, दिव्यदृष्टि प्रदान करती है और अज्ञान-तम को विध्वंस करती है। जिस स्वरूप-बोध के अभाव में अनंत दुःखों को भोगा, दुःखों में ही अनंत जीवन गुजरे, गुरु उस स्वरूप बोध को देकर दुःखों की जड़ें हिला देते हैं और सुख का स्रोत भीतर प्रकट कर देते हैं। शिष्य जन इस स्थिति को प्राप्त करता है, तब उसके आनंद की सीमा नहीं रहती स्वतः ही उसके मुख से अनिर्वचनीय शब्द फूट पड़ते हैं। मेघ का स्वर इसी सत्य का द्योतक है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे ज्ञेय हेय उपादेयनामा द्वादशोऽध्यायः । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १३ साध्य-साधन-संज्ञान Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधन संज्ञान आत्मा का शुद्ध स्वरूप उपादेय है। वही साध्य है। वह कैसे प्राप्त होता है, इसकी विधि का नाम साधना है। साधना को एक शब्द में बांधा जाए तो वह है संयम। संयम का अधिकारी वही होता है, जो संदेह के वातावरण में सांस नहीं लेता। साध्य की प्राप्ति में इंद्रिय, मन और शरीर बोधक होते हैं। आत्मा के साथ इनका गहरा संपर्क है। ये आत्मा को अपने जाल में यदा-कदा फंसाते ही रहते हैं। अबुद्ध आत्मा इस जाल से मुक्त नहीं हो सकती। प्रबुद्धआत्मा मन आदि के घेरे में नहीं आती। यदि मोहवश उनका शिकार हो जाती है तो वह तत्क्षण उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करती है। उसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है। उसे यह ज्ञात है कि बंधन के स्रोत कहां-कहां हैं। जिसे बंधन के मार्गों का अवबोध नहीं है वह प्रतिक्षण उनका संग्रह करता रहता है। एक के बाद दूसरी बंधन की श्रृंखला जुड़ती चली जाती है। इसलिए साध्य, साधन और उसके ज्ञान की ज्ञप्ति अत्यंत आवश्यक है। इस अध्याय में इन्हीं का विशद विवेचन है। . मेघः प्राह १. किं साध्यं? साधनं किञ्चकेन तन्नाम साध्यते? साध्यसाधनसंज्ञाने, जिज्ञासा मम वति॥ मेघ बोला-भगवन् ! साध्य क्या है? साधन क्या है? साध्य की साधना कौन करता है? मैं साध्य और साधन के विषय को जानना चाहता हूं। भगवान् प्राह २. प्रश्नो वत्स! दुरुहोऽयं, नानात्वेन विभज्यते। नानारुचिरयं लोको, नानात्वं प्रतिपद्यते॥ भगवान् ने कहा-वत्स! यह प्रश्न दुरूह है। यह अनेक प्रकार से विभक्त होता है। लोग भिन्न-भिन्न रुचिवाले होते हैं, अतः साध्य भी अनेक हो जाते हैं। ॥ व्याख्या ॥ मार्ग विविध हैं और उनके प्रवर्तक भी विविध हैं। जीवन का लक्ष्य एक होते हुए भी प्रवर्तकों की दृष्टि से उसमें भिन्नता आ जाती है। कुछ व्यक्ति आस्थावान होते हैं और कुछ अनास्थावान। कुछ ज्ञानवादी होते हैं पर आचारवान नहीं। कुछ आचार पर बल देते हैं तो ज्ञान पर नहीं। कुछ मोक्ष, स्वर्ग और नरक को केवल धार्मिकों की कल्पना मात्र कहकर उसका मखौल उड़ाते हैं। कुछ 'अस्ति चेन् नास्तिको हतः' कहते हैं। यदि मोक्ष आदि है तो बेचारे नास्तिक का क्य होगा ? आत्मा को न मानने वाले कर्म का फल भी नहीं मानते हैं। अतः उनका विश्वास हिंसा में होता है। कुछ आत्मा को मोक्ष में जड़ मानते हैं। जितने वाद हैं उनकी पृष्ठभूमि में विविधता भरी है। दार्शनिकों के मतवादों से मनुष्य अनेक मान्यताओं में विभक्त है। इसलिए उनका साध्य भी एक नहीं है। साध्य की अनेकता में साधनों की अनेकता भी अखरने वाली नहीं है। साध्य और साधन के स्पष्ट विवेक में अनेकता एकता का वरण कर लेती है। वहां सत्य का आग्रह होता है, मिथ्या Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३२९ अ. १३ : साध्य साधन-संज्ञान का नहीं। सत्याग्रही असंदिग्ध होता है। साधक के लिए दृढ़ आस्थावान होना आवश्यक है। संदिग्ध व्यक्ति साध्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता। ३. विद्यते नाम लोकोऽयं, न वा लोकोऽपि विद्यते । एवं संशयमापन्नः साध्यं प्रति न धावति ॥ विद्यते । ४. विद्यते नाम जीवोऽयं, न वा जीवोऽपि एवं संशयमापन्नः साध्यं प्रति न धावति ॥ " विद्यते । ५. विद्यते नाम कर्मेदं न वा कर्मापि एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥ ६. अस्ति कर्मफलं वेद्यं, न वा वेद्यं च विद्यते। एवं संशयमापन्नः साध्यं प्रति न धावति ॥ , , ७. अस्ति लोकोऽपि जीवोऽपि कर्म कर्मफलं ध्रुवम् । एवं निश्चयमापन्नः साध्यं प्रति प्रधावति ॥ ८. निरावृतिश्च निर्विघ्नो, निर्मोहो दृष्टिमानसौ । आत्मा स्यादिदमेवास्ति, साध्यमात्मविदां नृणाम् ॥ लोक है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। जीव है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। ९. आवरणस्य विघ्नस्य, मोहस्य दृक्चरित्रयोः । निरोधो जायते तेन, संयमः साधनं भवेत् ॥ कर्म है या नहीं - इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। कर्म का फल भोगना पड़ता है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता। ॥ व्याख्या ॥ साध्य का अधिकारी आस्थावान है, अनास्थावान नहीं। जो अनास्थावान है वह धर्म में प्रवृत्त भी नहीं हो सकता। धर्म में वहीं प्रवृत्त हो सकता है जो आस्थावान चाहता है कि मैं क्लेश से मुक्त बनूं, जन्म और मृत्यु का विजेता बनूं। मेरी आत्मा परमात्मा है। जब मेरे बंधन छूट जायेंगे तब मैं आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो सकूंगा। भोग मेरा साध्य नहीं है, मेरा साध्य है योग जीव, लोक, कर्म और कर्म-फल- ये आस्था के मूल सूत्र हैं। इनमें आस्था रखना प्रत्येक आस्तिक का कर्तव्य है।. लोक है, जीव है, कर्म है और कर्मफल भुगतना पड़ता है इस प्रकार जो आस्थावान् है, वह साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। आत्मविद्-आत्मा को जानने वाले पुरुषों के लिए निरावरण, निर्विघ्न निरन्तराय, निर्मोह और दृष्टि सम्पन्न सम्यग्दर्शन युक्त आत्मा ही साध्य है। || व्याख्या || अध्यात्म व्रष्टा व्यक्तियों का साध्य आत्मा है लेकिन वह शुद्ध आत्मा है, अशुद्ध नहीं आत्मा की अशुद्धता वास्तविक नहीं है, वह कर्मजनित है, परकृत है पर के जब संस्कार छूट जाते हैं तब आत्मा स्वरूप में स्थित हो जाती है। आत्मा का स्वरूप है-अनंत ज्ञानमय, अनंत दर्शनमय, अनंत आनंदमय और अनंत सुखमय । संयम से आवरण, विघ्न, दृष्टिमोह और चारित्रमोह का निरोध होता है इसलिए वह आत्मा की प्राप्ति-साध्य की सिद्धि का साधन है। ॥ व्याख्या ॥ अनंत ज्ञान, अनंत श्रद्धा, अनंत आनंद और अनंत शक्ति यह आत्मा का मूल स्वभाव है। यह स्वभाव कर्म से तिरोहित ढंका रहता है जब तक स्वभाव का अनावरण न हो तब तक आत्मा भ्रांत रहती है वह पर वस्तु को स्वकीय Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३२२ खण्ड-३ मान लेती है और स्व-वस्तु को परकीय इसलिए यह अपेक्षित होता है कि यह आवरण हटे। प्रकाश के सद्भाव में तम की दीवार ढह जाती है। आवरण को हटाने की अपेक्षा प्रकाश को प्रकट करना जरूरी है। साधक आवरण हटाता नहीं। आवरण हटता है वह स्वभाव को जागृत करता है। आवरण विलीन हो जाता है स्वभाव जागरण की प्रक्रिया है संयम संयम का अर्थ है - इन्द्रिय-विजय और मन - विजय। जब वह संयम अनुत्तर होता है, तब साध्य सिद्ध हो जाता है। १०. आत्मानं संयतं कृत्वा, सततं श्रद्धयान्वितः । आत्मानं साधवेच्छान्तः, साध्ये प्राप्नोति स ध्रुवम् ॥ ॥ व्याख्या ॥ साध्य को प्राप्त करने के लिए तीन उपायों का अबलंबन लेना होता है-संयम, श्रद्धा और शम। श्रद्धा के अभाव में संयम का स्वीकार नहीं होता। संयम भौतिक सुख-सुविधा का त्याग है वह तब ही होता है जब कि मन आत्मलीन होता हैं। संयम के द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएं नियंत्रित हो जाती हैं। शम संयम से भिन्न नहीं है। शम का अर्थ है- कषाय-विजय, लेकिन साधना के प्राग् अभ्यास के लिए पृथक् रूप से उल्लेख किया है, जिससे कि साधक सतत सावधान रहे कि मुझे कषाय-विजयी होना है। ११. आत्मैव परमात्मास्ति, शरीरमुक्तिमापन्नः, जो श्रद्धा संपन्न पुरुष अपने को संयमी बना आत्म साधना करता है, वह शांत-कषायरहित पुरुष साध्य को प्राप्त होता है। रागद्वेषविवर्जितः । आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा राग-द्वेष और शरीर से मुक्त भवेदशौ ॥ होकर परमात्मा हो जाता है। परमात्मा ॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन की यह मान्यता है कि आत्मा ही परमात्मा है। विश्वजनमत का बहुत बड़ा भाग आत्मा को परमात्मा नहीं मानता। वह कहता है कि परमात्मा एक है। अन्य आत्माएं उसी परमात्मा की अंश हैं। वे शुद्ध होने पर परमात्मा में ही विलीन हो जाती हैं। स्वतंत्र रूप से उनका कोई अस्तित्व नहीं है। जैन दर्शन इससे सहमत नहीं है। वह प्रत्येक आत्मा को पूर्ण स्वतंत्र मानता है। आत्मा एक अखंड द्रव्य है। उसके अंश कभी पृथक नहीं हो सकते। अंशों को यदि पृथक् रूप से मानें तो जीवात्मा आत्मा के जो सुख-दुःख के भोग होते हैं वे सब परमात्मा के होते हैं, इससे परमात्मा की शुद्धता नहीं रह सकती। क्लेश, कर्म फल और चेष्टाओं से जो अपरामृष्ट पुरुष विशेष है वह परमात्मा है परमात्मा की इस परिभाषा से अन्य आत्माओं का उसमें समावेश होना संभव नहीं हो सकता क्योंकि परमात्मा वीतराग है और अन्य आत्माएं सराग । आत्मा की स्वतंत्र सत्ता मान लेने पर परमात्मा की अनेकता में भी कोई बाधा नहीं आती। आत्मा की पृथक् सत्ता और अनंतता गीता से भी स्पष्ट है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था, तू नहीं था, ये राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा जब कि हम सब इसके बाद नहीं रहेंगे।" आत्मा को एक मान लेने पर विविध व्यक्तियों में विविधता का हेतु क्या होगा, कर्म फल की विभेवता क्यों है और मरने और जीने वाली आत्माएं क्या एक या अनेक हैं- कितने ही प्रश्न हमारे सामने हैं। आत्मा को अनेक मान लेने पर ये विरोध नहीं रहते। आत्मा और परमात्मा एक है - यह एक ही शर्त पर माना जा सकता है, वह है स्वरूप।' एक आत्मा का जैसा सत्चित्-आनन्द स्वरूप है, वही सबका है। जब आत्मा इस स्वरूप को प्राप्त कर लेती है तब वह परम आत्मा बन जाती है। स्वरूपतः सब आत्माएं एक हैं, लेकिन सत्ता की दृष्टि से एक नहीं हैं। एक आत्मा का स्वरूप आज प्रकट हुआ है और एक का हजार वर्ष बाद। स्वरूप-प्राप्ति की दृष्टि से दोनों एक कैसे हो सकती हैं ? कई दार्शनिक एक ही परमात्मा को मानते हैं। उनका कहना है, अन्य कोई परमात्मा नहीं बन सकता। 'नर से नारायण' और आत्मा ही परमात्मा है इन लोकोक्तियों का क्या अभिप्राय है, यह भी हमें समझना होगा। जैन दर्शन की मान्यता के आधार पर प्रत्येक आत्मा में परमात्मत्व का बीज विद्यमान है। जब इसे अनुकूल योग मिलता है वह परमात्मा बन जाती है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३२३ अ. १३ : साध्य-साधन-संज्ञान ___परमात्मा वही आत्मा होती है, जो राग-द्वेष और शरीर से मुक्त होती है। आत्मा और परमात्मा में केवल आवरण और अनावरण का ही अंतर है। आवृत आत्मा आत्मा है और अनावृत आत्मा परमात्मा। उनमें स्वरूप-भेद नहीं, केवल अवस्था-भेद है। १२.स्थूलदेहस्य मुक्त्याऽसौ, भवान्तरं प्रधावति। __ अन्तरालगतिं कुर्वन्, ऋजु वक्रां यथोचिताम्॥ आत्मा मृत्यु के क्षण में स्थूल शरीर से मुक्त होकर भवांतर-पुनर्जन्म के लिए प्रस्थान करती है। उस समय उत्पत्तिस्थान के अनुसार उसकी ऋजु अथवा वक्र अंतराल गति होती है। १३. यावत् सूक्ष्मं शरीरं स्यात्, तावन्मुक्तिर्न जायते। जब तक सूक्ष्म शरीर तैजस और सूक्ष्मतर शरीर कार्मण पूर्णसंयमयोगेन, तस्य मुक्तिः प्रजायते॥ विद्यमान रहता है, तब तक आत्मा मुक्त नहीं होती। आत्मा की मुक्ति पूर्ण संयम-सर्व संवर की अवस्था में होती है, तब दोनों शरीर छूट जाते हैं। ॥ व्याख्या ॥ . शरीर मुक्ति का बाधक है। मुक्तात्मा का पुनः जन्म नहीं होता। अवतार वही आत्माएं लेती हैं जो सशरीरी हैं। शरीर पांच हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। संसारी के दो और तीन शरीर सदा रहते हैं। कुछ आत्माओं में पांच शरीरों की योग्यता भी रहती है। दो शरीर में आत्मा अधिक देर नहीं रहती। उसे तीसरा शरीर शीघ्र ही धारण करना होता है। दो शरीरों का जघन्य कालमान एक समय है, और उत्कृष्ट दो, तीन या चार समय। ये दो सूक्ष्म शरीर अंतराल गति में होते हैं। आत्मा जब एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करती है, उस गमन को अंतराल गति कहते हैं। पांच शरीरों का स्वरूप-वर्णनऔदारिक शरीर जो शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न होता है वह औदारिक शरीर है। वैक्रिय आदि चारों शरीर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर पुद्गलों से बने हुए होते हैं। औदारिक शरीर आत्मा से अलग हो जाने के बाद भी टिक सकता है। परन्तु वैक्रिय आदि शरीर आत्मा के अलग होते ही बिखर जाते हैं। औदारिक शरीर का छेदन-भेदन किया जा सकता है, परन्तु अन्य शरीर में छेदन-भेदन संभव नहीं। मोक्ष की प्राप्ति भी सिर्फ औदारिक शरीर से ही हो सकती है। औदारिक शरीर में हाड़, मांस, - रक्त आदि होते हैं और इनका स्वभाव भी गलना, सड़ना, विनाश होना है। वैक्रिय शरीर जो शरीर छुटपन, बड़पन, सूक्ष्मता, स्थूलता, एकरूप, अनेक रूप आदि विविध क्रियाएं करता है, वह वैक्रिय शरीर है। जिस शरीर में हाड़, मांस, रक्त न हो तथा जो मरने के बाद कपूर की तरह उड़ जाए, उसको वैक्रिय शरीर कहते है। आहारक शरीर चतुर्दश-पूर्वधर मुनि आवश्यक कार्य उत्पन्न होने पर जो विशिष्ट पुद्गलों का शरीर बनाते हैं, वह आहारक शरीर है। . तैजस शरीर जो शरीर आहार आदि के पचाने में समर्थ है और जो तेजोमय है वह तैजस शरीर है। इसे वैद्युतिक शरीर भी कहा जाता है। कार्मण शरीर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के पुद्गल समूह से जो शरीर बनता है, वह कार्मण शरीर है। तैजस और कार्मण शरीर-ये दोनों सक्ष्म शरीर हैं। आत्मा के साथ इनका अनादि-संबंध है। औदारिक शरीर जन्म Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३२४ खण्ड-३ संबंधी है। वैक्रिय शरीर जन्म संबंधी और लब्धिजन्य भी होता है। आहारक शरीर योग- शक्तिजन्य होता है। ये तीनों शरीर सांगोपांग होते हैं ये स्थूल शरीर हैं स्थूल शरीर से मुक्त हो जाने पर आत्मा मुक्त नहीं होती है आत्मा की मुक्ति तब होती है जब सूक्ष्म शरीर भी छूट जाते हैं सूक्ष्म कार्मण शरीर से ही आत्मा स्थूल शरीर का निर्माण कर लेती है। 'कारणे सति कार्योत्पत्ति'-कार्य कारण के बिना उत्पन्न नहीं होता। सूक्ष्म शरीर न हो तो स्थूल शरीर कैसे हो सकता है? इसलिए एक शरीर से दूसरे शरीर के प्रवेश की कठिनाई नहीं रहती । आत्मद्रष्टा स्थूल शरीर को नहीं मिटाना चाहता, चाहता है मूल को उखाड़ना । जन्म और मृत्यु का मूल है सूक्ष्म शरीर । सूक्ष्म शरीर का मूलोच्छेदन तब ही होता है जबकि आत्मा पूर्ण संयम (निरोध) की स्थिति में पहुंच जाती है। वह शरीर के तीन वर्ग हैं • स्थूल शरीर औदारिक शरीर हाड़-मांस का शरीर । • सूक्ष्म शरीर वैक्रिय शरीर नाना रूप बनाने में समर्थ शरीर आहारक शरीर-विचार-संवाहक शरीर । • सूक्ष्मतम शरीर तैजस शरीर तापमय शरीर कार्मण शरीर - कर्ममय शरीर | तैजस शरीर तापमय शरीर है यह हमारी उष्मा, सक्रियता और शक्ति का संचालक है। यह न हो तो उष्मा पैदा नहीं हो सकती, पाचन नहीं हो सकता, रक्त का संचार नहीं हो सकता। यह तैजस शरीर ही हमारी स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं (संरचनाओं) का संचालन करता है। स्थूल शरीर में शक्ति का सबसे बड़ा भंडार है - तेजस शरीर । जिसका तेजस शरीर मंद है अग्नि मंद है, उसकी सारी क्रियाएं मंद हो जाती हैं। अग्नि तीव्र है तो सारी क्रियाएं तीव्र हो जाती हैं। तेजस शरीर के दो कार्य है:-१. शरीर तंत्र का संचालन २ अनुग्रह और निग्रह का सामर्थ्य | मेघः प्राह १४. भगवन् ! इन्द्रियग्रामं, चंचलं विद्यते संयमः कथमाधेयः, तात्पर्यं तस्य भृशम् । साधय ॥ मेघ बोला- भगवान् ! इन्द्रिय-समूह बहुत चंचल है। उसे संत कैसे किया जाए? आप उसका तात्पर्य मुझे समझाएं। ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य को प्रकृति ने दिव्य देह, दिव्य इन्द्रियां, दिव्य मन, दिव्य बुद्धि और दिव्य चेतना प्रदान की है। आश्चर्य होता है फिर वह दुःखी क्यों है? लगता है वह अपनी दिव्य शक्ति का सम्यक उपयोग नहीं कर रहा है। इसका कारण वह स्वयं तो है ही किन्तु इसके साथ-साथ उसके पूर्वोपार्जित संस्कार-कर्म भी है वह नहीं चाहते हुए भी संस्कारों के कारण गलत दिशा में धकेल दिया जाता है। न उसका मन पर नियंत्रण है और न इन्द्रियों पर । मन और इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाले बाह्य साधन भी उसे वैसे ही उपलब्ध हो जाते हैं, जिससे वह सहज ही गलत दिशा में जाने को विवश हो जाता है। इसका मुख्य कारण है-इन्द्रियां, मन, बुद्धि व शरीर आदि अपने स्वामी के सम्मुख नहीं है। अपने मालिक के साथ उनका जो संबंध या बोध होना चाहिए वह नहीं है। धर्म-अध्यात्म की प्रक्रिया उसे अपने स्वामी की दिशा में मोड़ने के लिए है। जिस दिन स्वामित्व का बोध होता है चंचलता की समस्या समाहित हो जाती है। जो-जो प्रयोग निर्दिष्ट हैं उनका लक्ष्य भी आवरणों मलों को क्षीण कर सत्य तत्त्व से परिचित कराना है। मेघ ने जो प्रश्न खड़ा किया है उसका समाधान विविध प्रयोगों में निहित है। १५. बाध्यमानो ग्राम्यधर्मेः रूषणं भुञ्जीत भोजनम् । प्रकुर्यादवमौदर्य, उर्ध्वस्थानं स्थितो भवेत् ॥ भगवान् ने कहा- मुनि ग्राम्य-धर्म-काम-विकार से पीड़ित होने पर रूक्ष भोजन करे, मात्रा में कम खाए और कायोत्सर्ग करे। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३२५ १६.नैकत्र निवसेन्नित्यं, ग्रामं ग्राममनुव्रजेत्। मुनि सदा एक स्थान में निवास न करे, गांव-गांव में विहार ___ व्युच्छेदं भोजनस्याऽपि, कुर्यात् रागनिवृत्तये॥ करे और राग की निवृत्ति के लिए भोजन को भी छोड़े। || व्याख्या ॥ काम-वासना (सेक्स) मनुष्य की मौलिकवृत्ति है, ऐसा मनोवैज्ञानिकों का कहना है। 'काम' ऊर्जा है। एक शक्ति है, किंतु उसके प्रयोग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे विराट् शक्ति कहते हैं और वे कहते हैं कि इससे पार नहीं हुआ जा सकता। इसमें काफी सच्चाई है। बहुत कम व्यक्ति ही इस विराट ऊर्जा को बचा सकते हैं। इसलिए साधना मार्ग को दुरूह, दुर्धर्ष कहा गया। आत्मपुराण में लिखा है 'कामेन विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः। कामेन विजितो विष्णुः, शक्रः कामेन निर्जितः॥' काम ने ब्रह्मा को परास्त कर दिया, काम से शिव पराजित हैं, विष्णु को भी काम ने जीत लिया और इन्द्र भी काम से पराजित है। संसार इससे अतृप्त है। इस दृष्टि से वैज्ञानिकों की बात ठीक है। कबीर ने इसी सच्चाई को प्रकट करते हुए कहा है-'विषयन वश त्रिहुं लोक भयो, जती सती संन्यासी।' इसके पार पहुंचना बड़े-बड़े योगी और मुनियों के लिए भी सहज नहीं है। कुछ ही व्यक्ति इसके अपवाद होते हैं, जो इस विराट् ऊर्जा को परमात्मा की ऊर्जा के साथ संयुक्त कर देते हैं। शिव और शक्ति का संयोग साधना है। इस स्वाभाविक शक्ति को कैसे ऊपर उठाया जा सके और कैसे परमात्मा की विराट् ऊर्जा में इसका प्रयोग किया जा सके ? साधक यदि इसमें दक्ष होता है तो शनैः शनै वह अपने को इस योग्य बना सकता है। यहां कुछ प्रयोग दिए हैं। इससे पूर्व हमें यह जान लेना चाहिए और स्वीकार कर लेना चाहिए कि कामवासना एक मौलिकवृत्ति है, सहज है। यह सृष्टि काम का ही विस्तार है। काम की निंदा और घृणा करने से वह नष्ट नहीं होता और न केवल दमन करने से। काम जन्म भी देता और मारता भी है। कहा है-मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं विधारणात्। ऊर्जा का क्षीण होना मृत्यु है और उसका संरक्षण जीवन है। 'खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा'-सुख स्वल्प है और दुःख अनल्प है। काम-वासना के सुख से अतृप्त व्यक्ति पुनः उसी सुख के लिए काम-वासना में उतरता है। वह जो थोड़ा सा सुख है, वह है-दो के मिलन का। मनोवैज्ञानिकों ने यह स्वीकार किया है-इस सुख की झलक ही आदमी को ध्यान समाधि की ओर प्रेरित करती है। ध्यान में व्यक्ति परम के साथ मिलता है। काम से मुक्त होने के लिए ध्यान है। गहन ध्यान समाधि में द्वैत नहीं रहता। इसलिए काम- ऊर्जा को ध्यान में रूपांतरित करना आवश्यक है। काम-ऊर्जा नीचे है, मूलाधार में स्थित है और परमात्मा ऊपर सहस्रार में स्थित है। उस ऊर्जा को सहस्रार तक ले जाना साधना है। उस परम मिलन के क्षण को शिव-शक्ति का योग कहा है-'हंसः'-हं शिव है और सः शक्ति। इसके विविध प्रयोग हैं। चित्त की एकाग्रता और निर्विचारता ऊर्जा को ऊपर उठाती है और सहस्रार में पहुंचाती है। कुछ मननीय बिन्दु (१) सबसे पहले आवश्यक है-जागरण। साधक अपने मन, वाणी और शरीर के प्रति पूर्ण होश से भरे रहने का सतत प्रयत्न करे। जब भी चित्त में काम का तूफान उठे, उसे देखे, विचार करे, यह क्या हो रहा है ? मैं कहां जा रहा हूं? क्यों अपना होश खो रहा हूं? क्या मिला है इससे? काम-वासना के साथ बहे नहीं, रुके और ध्यान करे, मन को ऊपर ले जाए और उसे सहस्रार पर स्थिर करे। ' (२) मूलबंध-श्वास का रेचन कर नाभि को भीतर सिकोड़ कर गुदा को ऊपर खींचना मूलबंध है। मूलबंध का . अभ्यास और पुनः-पुनः प्रयोग भी काम-विजय में सहायक है। 1. (३) आसन-सिद्धासन, पद्मासन, पादांगुष्ठासन आदि भी इसमें उपयोगी होते हैं। काम-केन्द्रों पर दबाव डालकर वासना को निर्जीव किया जा सकता है। (8) योगियों ने इसके लिए विविध प्राणायामों का प्रयोग भी किया है जो वीर्यशक्ति को सहस्रार में स्थित कराता Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३२६ खण्ड-३ है, वैसा अभ्यास भी साधक के लिए अपेक्षित है। 'श्वास विज्ञान' पुस्तक में से एक प्राणायाम का प्रयोग नीचे प्रस्तुत किया जाता है जननशक्ति को परिवर्तित करना-प्राणशक्ति रज या वीर्य में संग्रहीत है। जननेन्द्रिय प्राणियों के जीवन में प्राण का एक कोष रूप है। उत्पादन उसका कार्य है। इस शक्ति का प्रयोग विध्वंस में भी किया जा सकता है और विकास में भी। इस काम-शक्ति को विध्वंसात्मक न बनाकर विकास में योजित करना मानव की बुद्धिमत्ता है। इसका अभ्यास सरल है। ताल-युक्त श्वास एक साधन है। तालयुक्त श्वास का महत्त्व अत्यंत स्पष्ट और प्रभावकारी है तथा अनेक विध प्रयोगों को . सफल बनाने वाला है। _ 'शांत होकर सीधे बैठ जाओ या लेट जाओ और कल्पना करो कि जनन-शक्ति को नीचे से खींचकर ऊपर सौर्यकन्द्र में ला रहे हैं, जहां यह जननशक्ति परिवर्तित होकर प्राणरूप में संचित रहेगी। ध्यान शक्ति पर रहे। काम की कल्पना न हो, अगर आ जाये तो चिंता न करें। इस कल्पना के साथ अब तालयुक्त सम मात्रा में श्वास लें। प्रत्येक श्वास में मैं शक्ति को ऊपर खींच रहा हूं, और दृढ़ इच्छा से आज्ञा दो कि शक्ति जननेन्द्रिय से खिंच कर सौर्य-केन्द्र में चली आये। यदि ताल ठीक जम गया और कल्पना स्पष्ट हो गयी होगी तो यह स्पष्ट पता चलेगा कि शक्ति ऊपर आ रही है और उसकी उत्तेजना का अनुभव भी हो रहा है। यदि मानसिक बल बढ़ाना हो तो शक्ति को मस्तिष्क में भेजो, उसी के अनुकूल आज्ञा दो और कल्पना करो। प्रत्येक श्वास में शक्ति को ऊपर खींचो और प्रत्येक निश्वास में निर्दिष्ट स्थान पर भेजो। इससे आवश्यक शक्ति कार्य में योजित होगी और शेष सौर्य-केन्द्र में संचित रहेगी। वीर्य न ऊपर खींचा जाता है और न परिवर्तित होता है, किन्तु उसकी प्राण-शक्ति ही खींची जाती है। इस अभ्यास के समय सिर को थोड़ा आगे सरलतापूर्वक झुका लेना अच्छा होगा। भोजन शक्ति देता है। जब शक्ति से व्यक्ति भरता है तब उसका स्व-नियंत्रण नहीं रहता। उत्तेजना पैदा होती है और उसका उपयोग उचित या अनुचित किसी भी तरह हो, यह संभव है। वैज्ञानिक कहते हैं-मौलिक जीवाणु अमीबा है। अमीबा स्त्री-पुरुष दोनों में है। उसमें जनन-प्रक्रिया अद्भुत है। वह सिर्फ भोजन करता है। शक्ति मिलने से टूटता है और दो में विभक्त हो जाता है। वे दोनों भी स्त्री-पुरुष दोनों हैं। फिर वे भोजन करते हैं, शक्ति बढ़ती है। शक्ति बढ़ने से दो टुकड़ों में विभक्त होकर अमीबा जन्म देता है। और आदमी में शक्ति बढ़ने से मिलता है। वासना जागती है, वह जो मिलन में सुख होता है-वह दो के मिलन-जुड़ने से होता है।' भोजन सर्वथा छोड़ना शक्य नहीं है। इसलिए यहां कहा है कि साधक वैसा भोजन न करे; जिससे विकृति को उत्तेजना मिले। वह निम्नोक्त तथ्यों पर ध्यान दे १. चालू भोजन में परिवर्तन करे। वह गरिष्ठ, रसयुक्त और उत्तेजनात्मक भोजन को छोड़कर निस्सार और रूखा भोजन करे। २. भोज्य-पदार्थों में कमी करे और मात्रा से कम खाए। अधिक चीजें और अधिक भोजन दोनों ही स्वास्थ्य और साधना के शत्रु हैं। ३. कायोत्सर्ग करे-बार-बार शरीर का उत्सर्ग करने वाले व्यक्ति पर बाहरी परिस्थितियों का कोई असर नहीं होता। ४. एक स्थान पर सदा न रहे-एक स्थान पर अधिक रहने से स्थानीय व्यक्तियों के साथ ममत्व हो जाता है। ५. आहार का त्याग करे-काम-विकार यदि उग्र रूप से पीड़ित करने लगे तो साधक भोजन का भी निषेध करे। . भोजन के न मिलने पर शरीर स्वयं ही शांत हो जाता है। शरीर की निश्चलता से मन भी उपशांत हो जाता है। १७.श्रद्धां कश्चिद् व्रजेत् पूर्व, पश्चात् संशयमृच्छति। पूर्व श्रद्धां न यात्यन्तः, पश्चाच्छ्रद्धां निषेवते॥ १८.पूर्व पश्चात् परः कश्चित्,श्रद्धां स्पृशति नो जनः। पूर्व पश्चात् परः कश्चित, सम्यश्रद्धां निषेवते॥ (युग्मम्) कोई पहले श्रद्धालु होता है और फिर लक्ष्य के प्रति संदिग्ध बन जाता है। कोई पहले संदेहशील होता है और पीछे श्रद्धालु। कोई न पहले श्रद्धालु होता है और न पीछे भी। कोई पहले भी श्रद्धाल होता है और पीछे भी। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि . ३२७ अ. १३: साध्य-साधन-संज्ञान ॥ व्याख्या ॥ ... आत्मा इस संसार में अनंतकाल से भ्रमण करती है। उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ। यह अज्ञान ही सारे क्लेशों की जड़ है। मोह कर्म का जब उपशम या क्षयोपशम होता है तब आत्मा को अपना बोध होता है। अपने में उसकी श्रद्धा बढ़ जाती है। क्षय अवस्था में वह बोध चिरस्थायी बन जाता है, अन्यथा अज्ञान की फिर भी संभावना बनी रहती है। वह संदेहशील बन जाती है। कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिन्हें कभी आत्म-बोध का अवसर ही नहीं मिलता। वे सदा मोह से आवृत रहते हैं। इसी आधार पर व्यक्तियों के चार विभाग किए गए हैं१. श्रद्धालु और संदिग्ध आचार्य आषाढभूमि चातुर्मास के लिए अपने सौ शिष्यों के साथ उज्जयिनी आये। चातुर्मास चल रहा था। लोग धर्म रस का रसास्वाद कर रहे थे। अकस्मात् नगर में महामारी का प्रकोप हो गया। अनेक लोग काल-कवलित होने लगे। महामारी की मार से आचार्य का शिष्य-परिवार भी वंचित नहीं रहा। एक-एक कर निन्यानवे साधु उसकी चपेट में आ गये। आचार्य ने सबको समाधिस्थ रहने का मंत्र देते हुए कहा-'मरना सबको है। उसकी मृत्यु नहीं है जिसने स्वयं को जान लिया है। यह अवसर है, अपने मन को स्वयं में योजित करो।' सबके-सब शिष्य समाधि-मृत्यु को प्राप्त हुए। आ एक-एक कर सबको कहा था-एक बार स्वर्ग से पुनः लौटकर आना। किंतु आश्चर्य की बात है, कोई नहीं आया। छोटा शिष्य जो अंत में विदा हुआ था, वह भी नहीं आया। तब आचार्य की आस्था का आधारभूत भवन प्रकंपित हो गया। उन्होंने सोचा न स्वर्ग है और न नरक। ये सब झूठ हैं। साधु जीवन को छोड़कर आचार्य आषाढ़भूति ने अपना मुख पुनः संसार की ओर कर लिया। जैसे ही आचार्य साधु जीवन का त्यागकर निकले कि उस छोटे शिष्य का (देव आत्मा का) आसन प्रकंपित हुआ। उसने अपने ज्ञान से जाना कि आचार्य विदा हो गए हैं। वह आया उसने मार्ग में एक नाटक रचा। आचार्य उसे देखने में व्यस्त हो गए। नाटक पूरा हुआ, आगे बढ़े। कुछ छोटे-छोटे छह बच्चे वन्दना करने सामने आये। गहनों से लदे थे। आचार्य के मन में लोभ जागा। उन्होंने छहों बच्चों को मारकर गहनों से झोली भर ली। आगे कुछ बढ़े ही थे कि इतने में अनेक लोग सामने आ गए। भोजन के लिए लोगों ने हठ किया। आचार्य के इंकार करने पर भी लोग जबरदस्ती से झोली पकड़ कर उसमें भोजन डालने लगे। जब पात्र में गहनों को देखा तो लोग अवाक रह गए। किसी ने कहा-यह मेरे लड़के का है और किसी ने कहा-यह मेरे लड़के का। लोग धिक्कारने लगे। मन ही मन कहने लगे-भगवन् ! यह क्या? इतने में शिष्य ने सब माया समेटी और बोला-आंखें खोलो गुरुवर! आपका शिष्य सामने खड़ा है। आंखें खोली। न कोई आदमी, न गांव। पूछा-क्या बात है? देव ने कहा-यह सब मैंने किया था। देर हो गयी मेरे आने में। आप समझें, स्वर्ग है, देव है, नरक है। गुरु आश्वस्त हो गए। उन्होंने अपने को साधना पथ पर पुनः अधिरूढ़ कर जीवन का लक्ष्य प्राप्त किया। २. संदिग्ध और श्रद्धालु भवदेव और भावदेव दो भाई थे। भवदेव बड़े थे। माता के विशुद्ध संस्कारों से संस्कारित होकर वे यौवन में साधकसंत हो गए। भावदेव जवान हुए। विवाह हुआ। पत्नी को लेकर आ रहे थे। मार्ग में भवदेव के दर्शन हुए। भाई ने नश्वरता का बोध-पाठ दिया। थोड़े से जीवन को वासना की अग्नि में भस्मसात् करना क्या उचित है ? मन तो नवोढ़ा में था, किंतु भाई से संकोचवश कुछ बोले नहीं। संन्यास ले लिया। मन बार-बार पत्नी का स्मरण करता है। वे सोचते हैं-भाई की मृत्यु हो जाये तो घर जाऊं। भाई आत्मसमाधि पूर्वक मरण को प्राप्त हुए ओर उधर भावदेव घर की ओर चल पड़े। गांव के बाहर आकर उपाश्रय में ठहरे। लोगों से पूछा अपनी मां श्राविका रेवती के लिए। लोगों ने कहा-उसका स्वर्गवास हो गया। फिर अपनी पत्नी नागला के लिए पूछा। संयोग की बात थी कि जिसे पूछ रहे थे वह नागला ही थी। नागला समझ गई कि मुनि का मन अस्थिर है। वे घर आना चाहते हैं। उन्हें प्रतिबोध देना चाहिए। उसने कहा-'मुनिवर! वह अपनी 'सास' जैसी दृढ़ धर्मात्मा है, तत्वज्ञा है और शीलधर्म से सुशोभित है।' मुनि ने कहा-'मैं यह नहीं पूछता। मैं तो पूछता हूं, वह है तो सही।' उत्तर देकर वह चली गयी। एक-दो बहिनों को लेकर वह वहां पुनः चली आयी, वंदन किया और सामायिक लेकर बैठ गयी। इतने में एक छोटा बच्चा आया। वह गोद में बैठ गया और कहने लगा-'मां! तूने जो खीर खाने को मुझे दी थी, मैंने खाई। किंतु तत्क्षण वमन हो गया। किंतु मां! मैंने उसे यों ही नहीं जाने दिया वमन खा लिया।' मां सराहने लगी। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३२८ खण्ड - ३ भवदेव से रहा नहीं गया। उन्होंने कहा- क्या यह है तुम्हारी सामायिक ? क्या सामायिक में यह सब करना है? जिसको कौवे, कुत्ते खाते हैं तुम उसकी प्रशंसा करती हो ?' अवसर देख नागला ने कहा- 'मुनिवर ! आप क्या करने के लिए आये ? क्या कै खाने के लिए नहीं? जिनको त्याग दिया, फिर उस ओर मुंह करना क्या है?" मुनि सचेत हो गए। नागला ने कहा- 'मैं ही नागला हूं। यह आपको सुस्थिर करने के लिए मैंने किया ।' मुनि पुनः संयम पथ पर आरूढ़ हो गए। ३. न पहले श्रद्धालु और न पीछे एकनाथ तीर्थयात्रा के लिए चले अनेक लोग साथ में सम्मिलित हो गए। एक चोर ने भी अपनी इच्छा प्रकट की। एकनाथ ने स्वीकृति दे दी। लोगों ने कहा- यह चोर है। एकनाथ ने समझाया। चोर ने कहा- अब चोरी नहीं करूंगा। सब रवाना हो गए। चोरी की आदत थी। एक-दो दिन तो वह चुप रहा। फिर वह एक-दूसरे की वस्तुओं को इधर-उधर करने लगा। लोगों ने देखा, यह क्या मामला है। चीजों की चोरी नहीं होती किंतु किसी की कहीं मिलती है और किसी की कहीं । एकनाथ से शिकायत की। एक दिन सब सो गए। एकनाथ सोये सोये देख रहे थे। समय हुआ। चोर उठा और अपना शुरू कर दिया। चोरी का नियम था। एकनाथ ने पूछा- कौन है?' उसने कहा- 'मैं'' अरे क्या करता है?' उसने कहा- 'चोरी नहीं करता, चीजें इधर-उधर करने का नियम नहीं है।' जो भीतर से नहीं बदलता उसका बाहर बदलना भी मुश्किल है। ठाकर मंगलदास तीर्थयात्रा पर गए। साथ में बहुत से व्यक्ति थे। एक कवि भी था। आदतवश वहां भी शराब आदि चलने लगा। कवि से रहा नहीं गया। उसने एक दोहा बोल दिया 'मंगलियो तीरथ गयो, करी कपट मन चोर। नौ मन पाप आगे हुतो, सौ मन लायो और॥' ४. पहले भी श्रद्धालु और पीछे भी मुनि गजसुकुमाल श्रीकृष्ण के छोटे भाई थे। भगवान् अरिष्टनेमि द्वारका नगरी में आये भाई के साथ गजसुकुमाल भी गए। प्रवचन सुना और विरक्त हो गए। माता और भाई श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया 'तुम सुकुमार हो, यह कांटों का पथ है।' सबको संतुष्ट कर वे भगवान के चरणों में समर्पित होकर बोले-'भंते! आत्मदर्शन का पथ प्रदर्शित करें ।' भगवान् ने कहा- मन और इन्द्रियों को भीतर मोड़कर स्वयं को देखो ध्यान ही इसका सहज-सरल मार्ग है। भगवान् का आदेश लेकर वे श्मशान में रात को ध्यान के लिए अकेले आ पहुंचे और ध्यानस्थ हो गए। सोमिल नामक ब्राह्मण को पता चला कि गजसुकुमाल मुनि हो गए। मेरी लड़की से अब विवाह संबंध नहीं होगा । वह दुःखी हुआ, उद्विग्न हो गया। वह श्मशान में आया, ध्यानस्थ मुनि को देखा और क्रोध में पागल हो गया। उसने गीली मिट्टी से सिर पर पाल बांध कर श्मशान के अंगारे मुनि के सिर पर रख दिये। सिर जलने लगा। मुनि शांत रहे और स्वयं को देखते रहे। न किसी पर राग और न किसी पर द्वेष शांत, मौन, समतायुक्त वे मुनि उसी रात्रि में निर्वाण को उपलब्ध हो गए। पहले और पीछे एक समान भावधारा में विहरण करते हुए वे सदा-सदा के लिए संसार से मुक्त हो गए। १९. सम्यक् स्यादथवाऽसम्यक् सम्यक् श्रद्धावतो भवेत्। सम्यक् चापि न वा सम्यक्, श्रद्धाहीनस्य जायते ॥ कोई विचार सम्यक् हो या असम्यक्, श्रद्धावान् पुरुष में वह सम्यक्रूप से परिणत होता है और अश्रद्धावान् में सम्यक् विचार भी असम्यक्रूप से परिणत होता है। ॥ व्याख्या || विचार अपने आप में न सम्यक् है, न असम्यक् ग्राहक की बुद्धि के अनुसार वे ढल जाते हैं। शब्दों को जिस रूप में हम ओढ़ लेते हैं उसी रूप में वे दिखाई देते हैं। एक आस्थावान् व्यक्ति के लिए असम्यक् विचार भी सम्यक् रूप में परिणत हो जाते हैं और अनास्थावान् के लिए सम्यक् विचार भी असम्यक् रूप में राग-द्वेष और स्वार्थवश सम्यक् विचारों को असम्यक् का रूप देने वाले व्यक्ति कम नहीं हैं, कम हैं प्रतिकूल को अनुकूल में बदलने वाले । भगवान् महावीर के लिए संगम - कृत अनुकूल और प्रतिकूल कष्ट भी कर्म-निर्जरण के लिए बन गए। अनार्य मनुष्यों की त्रासना से वे उद्विग्न नहीं बने। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३२९ अ. १३ : साध्य-साधन-संज्ञान . आचार्य भिक्षु से किसी ने कहा-तुम्हारा मुंह देखा है इसलिए मुझे नरक मिलेगा। आचार्य भिक्षु ने पूछा-तुम्हारा मुंह देखने से क्या मिलता है? वह बोला-स्वर्ग। आचार्य भिक्षु ने कहा-मेरी यह मान्यता नहीं है लेकिन तुम्हारे कहने से मैं स्वर्ग में जाऊंगा और तुम! वह खिसियाना मुंह बनाकर चलता बना। अमेरिका के छह राष्ट्रपतियों के सलाहकार बनार्ट वरूच की वाणी अध्यात्म-निष्ठा की एक गहरी छाप छोड़ती है। किसी ने उनसे पूछा-'क्या आप अपने शत्रुओं के आक्षेपों से दुःखी होते हैं ?' उन्होंने कहा-'कोई व्यक्ति मुझे न तो दुःखी कर सकता है और न नीचा दिखा सकता है। मैं उसे ऐसा कभी करने नहीं दूंगा। लाठियां तथा पत्थर मेरी पीठ को तोड़ सकते हैं, पर शब्द मुझे चोट नहीं पहुंचा सकते।' २०.उध्वं स्रोतोऽप्यधस्स्रोतः, तिर्यकस्रोतो हि विद्यते। आसक्तिर्विद्यते यत्र, बंधनं तत्र विद्यते॥ उपर स्रोत है, नीचे स्रोत है और मध्य में भी स्रोत है। जहां आसक्ति-स्रोत है, वहां बंधन है। २१.यावन्तो हेतवो लोके, विद्यन्ते बन्धनस्य हि। इस लोक में जितने कारण बंधन के हैं, उतने ही कारण तावन्तो हेतवो लोके, मुक्तेरपि भवन्ति च॥ मुक्ति के हैं। ॥ व्याख्या ॥ - कर्म परमाणु हैं। वे समस्त लोकाकाश में परिव्याप्त हैं। आत्म-प्रदेशों में उनके समागमन का मार्ग कोई एक नहीं है। - वे सब ओर से आत्मा में आते रहते हैं। पूर्ण निवृत्त-निरोध-अवस्था में ही उनका आकर्षण नहीं होता; क्योंकि उस समय आत्मा की समस्त प्रवृत्तियों की चंचलता रुक जाती है। जहां प्रवृत्तियों का प्रवाह है वहां बंधन भी है। प्रवृत्तियों के दो रूप : है-अशुभात्मक और शुभात्मक। कहीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख भी मिलता है-अशुभात्मक, शुभात्मक और शुद्धात्मक। अशुभात्मक प्रवृत्ति से अशुभ कर्म का संग्रह होता है और शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म का। शुद्धात्मक प्रवृत्ति केवल आत्मा की शुद्ध अवस्था है। वस्तुतः वह प्रवृत्ति नहीं, किंतु आत्मा का मूल स्वभाव है। वहां कर्म का आकर्षण नहीं होता। आत्मा की शुभ और अशुभ प्रवृत्ति के साथ ही कर्म परमाणुओं का प्रवेश होना प्रारंभ हो जाता है। बन्धन और मुक्ति सापेक्ष शब्द हैं। बंधन का क्षय मुक्ति है और मुक्ति की अप्रवृत्ति बंधन है। मुक्ति के और बंधन के कारणों में कोई विशेष अंतर नहीं होता। अंतर इतना ही होता है कि एक दूसरे रूप में बदलना होता है। स्थूल दृष्टि से दोनों बिलकुल विरोधी लगते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति ही बंधन का विनाश है। बंधन के कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये सब बहिरात्मा की प्रवृत्तियां हैं। आत्मा जब स्वरूपस्थ होती है तब उसकी प्रवृत्तियां बन जाती हैं-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। इनका भाव उनका अभाव है और उनका भाव इनका अभाव। २२.सर्वे स्वरा निवर्तन्ते, तर्कस्तत्र न विद्यते। जिसे व्यक्त करने के लिए सारे स्वर-शब्द अक्षम हैं तर्क ग्राहिका न मतिस्तत्र, तत्साध्यं परमं नृणाम्॥ की जहां पहुंच नहीं है, बुद्धि जिसे पकड़ नहीं सकती, वह आत्मा मनुष्यों का परम साध्य है। ॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में आत्म-स्वरूप का प्रतिपादन है। आत्मा अमूर्त है। वह शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं हो सकती। वह अनुभूतिगम्य है। उसे तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। वह बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है। आचारांग सूत्र में इसके स्वरूप का विशेष वर्णन है। अस्तित्व का बोध असीम है। शब्द ससीम है। ससीम में असीम को बांधने से भ्रम पैदा होता है। इसलिए सभी ने स्वरूप-अस्तित्व को अवाच्य कहा है। 'अवामनसो गोचरम्' वाणी और मन का वह विषय नहीं बनता। 'नेति नेति' यह भी नहीं है, यह भी नहीं है जो शेष रह जाता है वह 'अस्तित्व' है। 'लाओत्से' ने कहा है जो उसके संबंध में लिखूगा तो वह झूठ होगा। जो लिखना है वह लिखा नहीं जाएगा। जब चीन के सम्राट ने लिखने को विवश कर दिया, तब यह लिखते हुए Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३३० खण्ड-३ प्रारंभ किया कि 'बड़ी भूल हुई जा रही है-'जो कहना है वह कहा नहीं जाता और जो नहीं कहना है वह कहा जाएगा।' मैं जानकर लिखने बैठा हूं, इसलिए जो आगे पढ़ें वे जानकर पढ़ें कि सत्य बोला नहीं जा सकता, कहा नहीं जा सकता और जो कहा जा सकता है वह सत्य नहीं हो सकता।' महावीर ने सत्य को अवक्तव्य कहा है। इसमें भी यही कहा है कि यहां न मन पहुंचता है, न शब्द और न बुद्धि। अस्तित्व का न आकार है, न रूप है, न वह स्त्री, न पुरुष, न नपुंसक है, न जाति है आदि। बुद्ध ने इसके संबंध में प्रश्न करने से भी मना कर दिया कि कोई पूछे ही नहीं। वस्तुतः यह शब्द का विषय नहीं, अनुभूति का है। शब्दों को अनुभूति समझ ली जाए तो यात्रा रुक जाती है। शब्द सिर्फ संकेतवाहक है। २३.ग्रामे वा यदि वाऽरण्ये, न ग्रामे नाप्यरण्यके। रागद्वेषलयो यत्र, तत्र सिद्धिः प्रजायते॥ सिद्धि गांव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है। वह न गांव में हो सकती और न अरण्य में। सिद्धि वहीं होती है, जहां राग और द्वेष का विलय हो जाता है। ॥ व्याख्या ॥ साधना का घनिष्ठ संबंध आत्मा से है। इसलिए साधना आत्मा ही है। आत्मा की सिद्धि में बाहरी निमित्तों का खास महत्त्व नहीं है। लेकिन फिर भी वे बनते हैं क्योंकि वे सिद्धि में सहायक हैं। कहीं-कहीं हम साधनों का उल्टा प्रभाव भी देखते हैं। एकांत स्थान जहां आत्म-साधन में सहायक है वहां वह बाधक भी बन जाता है। इसलिए एकांततः हम किसी को भी स्वीकार नहीं कर सकते। साधना के बाहरी निमित्तों पर बल देने की अपेक्षा आंतरिक पक्ष पर बल देना अधिक उपयोगी है। साधना का आंतरिक पक्ष है-राग-द्वेष पर विजय। जो राग-द्वेष का विजेता है, उसके लिए गांव, नगर, उपवन, नदी, तट आदि सब समान हैं। केवल बाह्य साधनों से साध्य सिद्ध नहीं होता। इस श्लोक में उन एकांतवासियों का खंडन है; जो यह कहते थे कि साधना जंगल में ही होती है, या नगर में ही होती है। भगवान् महावीर ने दोनों का समन्वय कर साधना का क्षेत्र सबके लिए खोल दिया। २४.न मुण्डितेन श्रमणः, न चोंकारेण ब्राह्मणः। सिर को मूंड लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार को मुनि रण्यवासेन, कुशचीरैर्न तापसः॥ जपलेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में निवास करने मात्र से कोई मुनि नहीं होता और कुश के बने हुए वस्त्र पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। . २५.श्रमणः समभावेन, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः। ज्ञानेन च मुनिर्लोक, तपसा तापसो भवेत्॥ श्रमण वह होता है, जो समभाव रखे। ब्राह्मण वह होता है, जो ब्रह्मचर्य का पालन करे। मुनि वह होता है, जो ज्ञान की उपासना करे और तापस वह होता है, जो तपस्या करे। ॥ व्याख्या ॥ 'बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तम्। आगमतत्त्वं तु बुद्धः, परीक्षते सर्वयत्नेन।' तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं (१) बाल-सामान्यजन, जो विवेक और बुद्धि से परिहीन है वह केवल बाह्य वेष-लिंग को देखता है। उसकी दृष्टि बाह्य आकार-प्रकार से दूर नहीं जाती। १. ब्रह्मचर्य-ब्रह्म विषयक आचरण। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३३१ अ. १३ : साध्य-साधन-संज्ञान (२) मध्यम बुद्धि-वह कुछ परिपक्व होता है। बुद्धि गहरी तो नहीं किंतु व्यावहारिक दृष्टि में पटु होती है। वह देखता है- आचार-विचार को। वह देखता है कि रीति-रिवाज, नियमों का जो ढांचा बना हुआ है, उस चौखटे में पूरा ठीक बैठता है या नहीं। (३) तीसरा जो ज्ञानी है, जिसने सत्य का स्पर्श किया है, जाना है कि बंधन राग-द्वेष है, अध्यात्म समता है, रागद्वेष की परिक्षीणता आत्म-रमण है, उसका परीक्षण यही होता है कि साधक कहां तक पहुंचा है? उसका आकर्षण-बिन्दुजगत् है या आत्मा ? अविद्या का बंधन टूटा है या नहीं? वह यह नहीं देखता कि लिंग, चिह्न-वेष कैसा है? आचरण कैसा है? इनका महत्त्व बाह्य दृष्टि से है, अंतर्दृष्टि से नहीं। महावीर की दृष्टि भी अंतःस्थित है। वेष से अधिक महत्त्व है उनकी दृष्टि में समता, ज्ञान-दर्शन और चारित्र का। वेष है और ज्ञान दर्शन नहीं है तो महावीर की दृष्टि में यह केवल आत्मघाती है। इसलिए वे कहते हैं-केश-लुंचन या सिर को मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। श्रमण वह होता है जो सर्वदा समस्त स्थितियों में संतुलन बनाए रखता है, राग और वेष की तरंगें जिसे प्रकंपित नहीं करती। ब्रह्म-आत्मा में निवास करने वाला ब्राह्मण होता है। मुनि वह होता है जो सम्यग् ज्ञान में स्थित है और तापस वह है जो स्वभाव की दिशा में अग्रसर होता है। चारों के चार मार्ग भिन्न नहीं हैं। शब्द भिन्न हैं, दिशा सबकी आत्मोन्मुखी है। एक दिशा का परिवर्तन ही जीवन का परिवर्तन है। वेष-भूषा है संत की और जीवन का मुख है संसार की तरफ तो उससे वांछित सिद्धि नहीं होती। २६.कर्मणा ब्राह्मणो, लोकः कर्मणा क्षत्रियो भवेत्। - कर्मणा जायते वैश्यः, शूद्रो भवति कर्मणा॥ ब्रह्मविद्या का कर्म करने वाला ब्राह्मण, सुरक्षा का कर्म करने वाला क्षत्रिय, व्यवसाय-कर्म करने वाला वैश्य और सेवाकर्म करने वाला शूद्र होता है। २७.न जातिन च वर्णोऽभूद, युगे युगलचारिणाम्। ऋषभस्य युगादेषा, व्यवस्था समजायत॥ यौगलिक युग में न कोई जाति थी और न कोई वर्ण था। भगवान् ऋषभ के युग में जाति और वर्ण की व्यवस्था का प्रवर्तन हुआ। २८. एकैव मानुषी जातिराचारेण विभज्यते। - जातिगर्यो महोन्मादो, जातिवादो न तात्त्विकः॥ मनुष्य जाति एक है। उसका विभाग आचार अथवा वर्ण के आधार पर होता है। जाति का गर्व करना सबसे बड़ा उन्माद है क्योंकि जातिवाद तात्त्विक वस्तु नहीं है। २९.जातिवर्णशरीरादि-बाझैमैदैविमोहितः । आत्माऽऽत्मसु घृणां कुर्याद, एष मोहो महान् नृणाम्॥ जाति, वर्ण, शरीर आदि बाह्य भेदों से विमूढ बनकर एक आत्मा दूसरी आत्मा से घृणा करे-यह मनुष्यों का महान् मोह है। ॥ व्याख्या ॥ ___जाति व्यवहाराश्रित है और धर्म आत्माश्रित। आत्म-जगत् में प्रत्येक प्राणी समान है। वहां जातियों के विभाग इन्द्रियों के आधार पर हैं। धर्म के आधार पर व्यक्तियों का बंटवारा करना धर्म को कभी प्रिय नहीं है। धर्म के उपदेष्टाऋषियों ने कहा-प्रत्येक प्राणी को अपने जैसा समझो। उनकी दृष्टि में भाषा-भेद, वर्ण-भेद, धर्म-भेद, जाति-भेद आदि का महत्त्व नहीं था। जातियों की कल्पना केवल कर्म-आश्रित की गयी थी। 'मनुष्य जाति एक है'-ऐसा कहकर सबमें भातृत्व के बीज का वपन किया था। किन्तु मनुष्य इस इकाई-सत्य को भूलकर अनेकता में विभक्त हो गया। वह जाति के मद में एक को ऊंचा और एक को नीचा देखने लगा। फलस्वरूप समाज में घृणा की भावना फैली। १.कर्म-वाजीविकापरक वृत्ति। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३३२ खण्ड-३ युग के आरंभ में जातियों की व्यवस्था नहीं थी। वह यौगलिक युग था। जनसंख्या भी अधिक नहीं थी। जो भाईबहन के रूप में एक साथ उत्पन्न होते और पति-पत्नी बनकर एक साथ ही मरते उन्हें युगलचारी यौगलिक कहा जाता था। यौगलिक युग पलटा और कर्म का युग आया। तब भगवान् ऋषभनाथ ने कर्म के आधार पर व्यक्तियों का विभाजन किया। समय के साथ-साथ उनमें कितने उतार-चढ़ाव आए हैं, इसे इतिहासज्ञ जानते हैं। १. ब्राह्मण-ब्रह्म-आत्मा की उपासना करना, औरों को इसका उपदेश करना ब्राह्मण का काम था। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-ब्राह्मण का काम 'माहण माहण'-'हिंसा मत करो' यह उपदेश देना था। 'माहण' शब्द ही ब्राह्मण के रूप में व्यवहृत होने लगा। गीता में प्रशान्तता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहनशीलता, ईमानदारी, ज्ञान-विज्ञान और धर्म में श्रद्धा-ये ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण हैं। २. क्षत्रिय-आततायियों से देश आदि की रक्षा करने वाला वर्ग। ३. वैश्य-व्यापार, कृषि आदि से वृत्ति करने वाला वर्ग। ४. शूद्र-समाज की सेवा करने वाला वर्ग। इस व्यवस्था में काम की मुख्यता है। जन्म मात्र से कोई ऊंचा और नीचा नहीं होता। एक ब्राह्मण भी शूद्र हो सकता है और एक शूद्र भी ब्राह्मण। यह सारी एक मनोवैज्ञानिक पद्धति थी। श्री गेलार्ड ने अपनी पुस्तक 'मैन दी मास्टर' में समाज के चतुर्विध संगठन की आवश्यकता पर जोर दिया है। ___ भगवान् महावीर जातिवाद के विरोधी थे। उन्होंने कहा-यह अधर्म है, उन्माद है, जो अतात्त्विक को तात्त्विक मानता है। जो व्यक्ति इन्हें शाश्वतता का चोला पहनाता है, वह मूढ़ है। ३०. यस्तिरस्कुरुतेऽन्यं स, संसारे परिवर्तते। जो दूसरे का तिरस्कार करता है, वह संसार में पर्यटन करता मन्यते स्वात्मनस्तुल्यान, अन्यान् स मुक्तिमश्नुते॥ है और जो दूसरों को आत्म-तुल्य मानता है, वह मुक्ति को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ मुक्ति विषमता में नहीं, समता में है। घृणा, तिरस्कार, अपमान में विषमता है। इनका प्रयोग प्रयोक्ता पर ही प्रहार करता है। वह कभी उठ नहीं सकता। शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों ही दृष्टि से उसका पतन होता है। आज के मनोवैज्ञानिकों ने इसे कसौटी पर कसा ह। 'शत्रु को बार-बार क्षमा कर दो'-इस प्रकार का आचरण कर रक्तचाप, हृदयरोग, उदर-व्रण आदि अन्य कई व्याधियों से दूर रह सकते हैं। मिल्वो की पुलिस विभाग के एक बुलेटिन में लिखा है-'जब आप जैसे के साथ तैसा करते हैं तो अपने शत्रु को दुःखी करने के बजाय आप स्वयं दुःखी बन जाते हैं। घृणा का परिणाम कभी भी अच्छा नहीं होता।' अब्राहम लिंकन ने कहा था-'उदारता सबके लिए करो, पर घृणा किसी के लिए नहीं।' बाइबिल कहती है-'प्यार से खिलाए गए कंद-मूल घृणा से खिलाये गए पकवान से अधिक स्वादिष्ट लगते हैं। ३१.अनायको महायोगी, मौनं पदमुपस्थितः। जिसका कोई नायक नहीं है, वह चक्रवर्ती मौनपद- श्रामण्य साम्यं प्राप्तः प्रेष्यप्रेष्यं, वन्दमानो न लज्जते॥ में उपस्थित होकर महायोगी बना और समत्व को प्राप्त हुआ, वह अपने से पूर्व दीक्षित अपने भृत्य के भृत्य को भी वंदना करने में लज्जित नहीं होता। ॥ व्याख्या ॥ साधुत्व समता की आराधना है। छोटे और बड़े के विचारों में अहं का जन्म होता है। साधक अहं से ऊपर विचरने वाला होता है। वहां छोटे और बड़े का भेद नहीं है। यह भेद कृत्रिम है। साधुत्व में मुख्यता है संयम की। दो व्यक्ति साथसाथ दीक्षित होते हैं-एक चक्रवती है और दूसरा उसका नौकर। संयम की दृष्टि से दोनों समकक्ष हैं। ' संयम में चक्रवर्ती और सेवक का भेद मिट जाता है। वहां समता का साम्राज्य रहता है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि अ. १३ : साध्य-साधन-संज्ञान मेघः प्राह ३२. केनोपायेन देवेदं, मनःस्थैर्य समश्नुते? स्वीकृतस्याध्वनो येनाऽप्रच्यवः सिद्धिमाप्नुयात्॥ मेघ बोला-देव! किस उपाय से मन की स्थिरता प्राप्त हो सकती है, जिससे स्वीकृत-मार्ग पर आरूढ रहने का मार्ग सिद्ध हो जाए। भगवान् प्राह ३३.मनः साहसिको भीमो, दृष्टोऽश्वः परिधावति। सम्यग् निगृह्यते येन, स जनो नैव नश्यति॥ भगवान् ने कहा-मन दुष्ट घोड़ा है। वह साहसिक और भयंकर है। वह दौड़ रहा है। उसे जो भली-भांति अपने अधीन करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता- सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। ३४.उन्मार्गे प्रस्थिता ये च, ये च गच्छन्ति मार्गतः। सर्वे ते विदिता. यस्य, स जनो नैव नश्यति॥ जो उन्मार्ग में चलते हैं और जो मार्ग में चलते हैं, वे सब जिसे ज्ञात हैं, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। ३५.आत्मायमजितः शत्रुः, कषायाः इन्द्रियाणि च। जित्वा तान् विहरेन्नित्यं, स जनो नैव नश्यति॥ कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। वह आत्मा भी शत्रु है, जो इनके द्वारा पराजित है। जो उन्हें जीतकर विहार करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। ३६.रागद्वेषादयस्तीवाः, स्नेहाः पाशा भयंकराः। ताञ्छित्वा विहरेन्नित्यं, स जनो नैव नश्यति॥ प्रगाढ़ राग-द्वेष और स्नेह-ये भयंकर पाश हैं, जो इन्हें छिन्न कर विहार करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। ३७.अन्तोहृदयसम्भूता, भवतृष्णा लता भवेत्। . विहरेत्तां समुच्छित्य, स जनो नैव नश्यति॥ यह भव-तृष्णा रूपी लता हृदय के भीतर उत्पन्न होती है। उसे उखाड़कर जो विहार करता है, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। १८. कषाया अग्नयः प्रोक्ताः , श्रुत-शील-तपोजलम्। '.एतद्धाराहता यस्य, स जनो नैव नश्यति॥ कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और तप-यह जल है। जिसने इस जलधारा से कषायाग्नि को आहत कर डाला-बुझा डाला, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता-सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। ॥ व्याख्या ॥ इन श्लोकों में कुमारश्रमण केशी और गणधर गौतम के प्रश्न और उत्तर हैं। कुमारश्रमण केशी भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के चौथे पट्टधर थे। एक बार वे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती में आए और 'तिन्दुक' उद्यान में ठहरे। भगवान् महावीर के शिष्य गणधर गौतम भी संयोगवश उसी नगर में आए और 'कोष्टक' उद्यान में ठहरे। दोनों के शिष्यों ने एक-दूसरे को देखा। बाह्य वेशभूषा, व्यवहार आदि की भिन्नता के कारण उनमें ऊहापोह होने लगा। दोनों आचार्यों ने यह सुना। वे शिष्यों की शंकाओं का निराकरण करना चाहते थे, अतः वे एक स्थान पर मिले। आपस में संवाद हुआ। प्रश्नोत्तर चले। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३३४ खण्ड - ३ शी ने गौतम से पूछा- भंते! आप दुष्ट अश्व पर चढ़कर चले जा रहे हैं, क्या वह आपको उन्मार्ग में नहीं ले जाता ? गौतम ने कहा- मैंने उसे श्रुत की लगाम से बांध रखा है। वह मेरे वश में है। वह जो साहसिक, भयंकर, दुष्ट अ है वह मन है। वह मेरे अधीन है, उस पर मेरा पूरा नियंत्रण है। इस नियंत्रण के द्वारा वह मेरी आज्ञा का पालन करता है। केशी ने पूछा- भंते! लोक में कुमार्ग बहुत हैं। आप उनमें कैसे नहीं भटकते ? गौतम ने कहा- मुने ! जो मार्ग और कुमार्ग हैं, वे सब मुझे ज्ञात हैं। जो कुप्रवचन के व्रती हैं, वे सब उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं जो बीतराग का मार्ग है, वह सन्मार्ग है, वह उत्तम मार्ग है। मैं दोनों को जानता हूं। अतः भटकने का प्रश्न ही नहीं आता। के केशी ने पूछा- भंते! तुम्हारा शत्रु कौन है ? गौतम ने कहा- मुने! एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है, कषाय और इंद्रियां शत्रु हैं। मैं उन्हें जीतकर विहरण करता केशी ने पूछा-भंते! पाश बंधन क्या है? गौतम ने कहा- मुने! प्रगाढ़ राग, प्रगाढ़ द्वेष और स्नेह-ये पाश है, बंधन हैं। इनसे जीव कर्म-बद्ध होता है। ये संसार हैं। मूल केशी ने पूछा- भंते! ह्रदय के भीतर जो उत्पन्न लता है, जिसके विषतुल्य फल लगते हैं, उसे आपने कैसे उखाड़ा ? वह लता क्या है ? गौतम ने कहा- मुने ! भव तृष्णा को लता कहा गया है। वह भयंकर है। उसमें भयंकर फलों का परिपाक होता है। मैंने उसे सर्वथा काटकर उखाड़ फेंका है। मैं विष फल के खाने से मुक्त हूं। केशी ने पूछा- भंते! अग्नि किसे कहते हैं ? गौतम ने कहा- मुने! क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार अग्नियां हैं। ये सदा प्रज्वलित रहती हैं। श्रुत, शील और तप यह जल है। श्रुत की धारा से आहत किए जाने पर, निस्तेज बनी हुई ये अग्नियां मुझे नहीं जलातीं । ३९. येनात्मा साधितस्तेन, विश्वमेतत् प्रसाधितम् । येनात्मा नाशितस्तेन, सर्वमेव विनाशितम् ॥ ४०. गच्छेद् दृष्टेषु निर्वेदं, अदृष्टेषु मतिं सृजेत् । दृष्टाऽदृष्टविभागेन, नैकान्ते स्थापयेन्मतिम् ॥ जिसने आत्मा को साध लिया, उसने विश्व को साध लिया। जिसने आत्मा को गंवा दिया, उसने सब कुछ गंवा दिया। आत्मदर्शी साधक दृष्ट- पौद्गलिक वस्तु से विरक्त बने और अदृष्ट आत्मिक तत्त्व की प्राप्ति के लिए बुद्धि लगाए। दृष्ट और अदृष्ट के विभाग को समझ कर एकांत-केवल दृष्ट में मति का नियोजन न करे। ॥ व्याख्या ॥ साध्य दृष्ट नहीं, अदृष्ट है। दृष्ट इन्द्रियां हैं और उनके विषय । जो व्यक्ति इनमें आकृष्ट होता है; वह अदृष्ट आत्मानंद से हाथ धो लेता है। आगम में कहा है-अमूर्त आत्मा मन और इन्द्रियों का विषय नहीं बन सकती । इन्द्रिय सुख अनित्य है। आत्मिक सुख नित्य है इसलिए भर्तृहरि ने साधक को सावधान करते हुए कहा है-'भोग क्षणभंगुर हैं, साधक! तू इनमें प्रेम मत कर।' साधक भोग में रोग भय देखे, अदृष्ट के प्रति पूर्ण आस्थावान बने । अदृष्ट के बिना दृष्ट का कोई अर्थ नहीं होता। दृष्ट के पीछे अदृष्ट की शक्ति काम कर रही है। यह स्पष्ट है किन्तु वहां तक पहुंच कठिन है। अंधी, बहरी 'हेलन कीलर' से पूछा - इस संसार में सबसे आश्चर्यजनक घटना क्या है ? उसने कहा- लोगों के पास कान हैं, पर शायद ही कोई सुनता हो, लोगों के पास आंखें हैं पर शायद ही कोई देखता हो और Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३३५ अ. १३ : साध्य-साधन-संज्ञान लोगों के पास हृदय है पर शायद ही कोई अनुभव करता हो। बस, यही आश्चर्यजनक घटना है। 'हेलन कीलर' का आशय है-मनुष्य अपने सेंटर (केन्द्र) अदृश्य से परिचित नहीं है। ___दृष्ट का आकर्षण व्यक्ति को मूढ़ बना देता है। जो बाहर में उलझ जाए वही मूढ़ होता है, भले, चाहे वह विद्वान् हो या अविद्वान्। वस्तुएं जब व्यक्ति को पकड़ लेती हैं। तब कैसे वह अदृष्ट को खोज सकता है। महावीर कहते हैं-दृश्य जगत ही सब कुछ नहीं है। दृश्य जगत की उपादेयता अदृश्य के होने पर ही है। इन्द्रियां, मन अदृश्य की शक्ति के बिना व्यर्थ हैं। इन्द्रिय जगत के पीछे उनका एक संचालक है। उसे भूलना ही संसार है। साधक दृष्ट में विरक्त हो और अदृष्ट में अनुरक्त हो, दृष्ट से वियुक्त हो और अदृष्ट से संयुक्त हो, दृष्ट में अज्ञ हो और अदृष्ट में विज्ञ हो-इसी से जीवन में एक नया आयाम खुल सकता है। ११.श्रमणो वा गृहस्थो वा, यस्य धर्मे मतिभवत्। ___ आत्माऽसौ साध्यते तेन, साध्ये कृत्वा स्थिरं मनः॥ जिसकी मति धर्म में लगी हुई है, वह श्रमण हो या गृहस्थ, साध्य में मन को स्थिर बनाकर आत्मा को साध लेता है। ॥ व्याख्या ॥ आत्मा की जब आत्मा में स्थिति हो जाती है, तब उसका कार्य सिद्ध हो जाता है। इसका अधिकारी मुमुक्षु है। मुमुक्षुभाव की जिसमें जितनी प्रबलता होती है, वह उतना ही आत्मा के निकट पहुंच जाता है। मुमुक्षु के लिए जाति, वर्ण, क्षेत्र आदि की कोई मर्यादा नहीं है। चाहे गृहस्थ हो या साधु, जो संयम के मार्ग पर बढ़ रहा है, जिसका मुमुक्षाभाव प्रज्वलित है, वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है। • भगवान महावीर इतने उदारचेता थे कि उन्होंने लक्ष्य-सिद्धि की बात किसी वेश, लिंग या व्यक्ति से नहीं जोड़ी। उन्होंने स्पष्ट कहा-'चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, चाहे जैन हो या जैनेतर, चाहे स्त्री हो या पुरुष-सब मुक्त हो सकते हैं, यदि वे अनुत्तर संयम का पालन करते हैं।' _ आत्मा सबमें है, किन्तु उसके होने का अनुभव सबको नहीं है। जिसमें अनुभव है, आत्मा का जन्म वहीं है। जो उसे प्रकट करने में उद्यत होता है वही साधक होता है। फिर वह चाहे श्रमण-मुनि, भिक्षु हो या गृहस्थ। आत्मा का संबंध बाहर से नहीं, अंतर्जागरण से है। उसके लिए अभीप्सा प्रबल चाहिए। महावीर का यही घोष है कि आत्मवान बनो। अपने भीतर है उसे खोजो। अनात्मवान कोई भी हो सब समान है। जिसने आत्मा को साधा, पाया वही धन्यवादाह है। बुद्ध ने आनंद से कहा-'आनंद तू धन्य है, जो प्रधान साधना में लग गया। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे साध्यसाधनसंज्ञाननामा त्रयोदशोऽध्यायः। Page #355 --------------------------------------------------------------------------  Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-१४ गृहस्थ-धर्मप्रबोधन Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ-धर्म प्रबोधन . . आचरण की दो प्रेरणाएं हैं-मूर्छा और विरति। मूर्छा-प्रेरित आचरण धर्म नहीं है। विरति-प्रेरित आचरण धर्म है। गृहस्थ पदार्थ का संग्रह करता है, पदार्थ के बीच जीता है और पदार्थ का भोग करता है। सहज ही प्रश्न होता है-पदार्थ के मध्य रहने वाला गृहस्थ धर्म की आराधना कैसे कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् महावीर ने विभज्यवादी दृष्टिकोण से दिया-गृहस्थ धर्म की आराधना कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता। मूच्र्छा या आसक्ति की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। प्रत्याख्यान' की शक्ति को विकृत बनाने वाली मूर्छा उपशांत या क्षीण होती है, तब विरति की चेतना प्रकट होती है। इस अवस्था में पदार्थ के मध्य रहने वाला गृहस्थ भी विरत हो सकता है, धर्म की आराधना कर सकता है। जितनी मूर्छा उतनी अविरति/असंयम। जितनी अमूर्छा उतनी विरति/संयम। अविरति और विरति अथवा मूर्छा और अमूर्छा के आधार पर भगवान् महावीर ने धर्म को दो भागों में विभक्त किया। प्रस्तुत अध्याय में इसी विषय की परिक्रमा है। मेघः प्राह १. गृहप्रवर्तने लग्नो, गृहस्थो भोगमाश्रितः। मेघ बोला-भगवन् ! जो गृहस्थ भोग का सेवन करता है और धर्मस्याराधनां कर्त, भगवन्! कथमर्हति? गृहस्थी चलाने में लगा हआ है, वह धर्म की आराधना कैसे कर सकता है? ॥ व्याख्या ॥ महावीर ने कहा है-व्यक्ति गृहस्थ वेश में भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है और साधु वेश में भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप तीर्थ में और इसके बाहर भी मुक्ति का द्वार बन्द नहीं है। यह दृष्टिकोण सम्पूर्ण आधारित है। मेघ की दृष्टि में यह प्रतिपादन नवीन था। उसे शंका हुई कि गृहस्थ साध्य को कैसे प्राप्त कर सकता है, जब कि वह गृहकार्यों में संलग्न रहता है ? मुक्त श्रमण ही हो सकता है, इसलिए लोग घर छोड़कर प्रव्रजित होते हैं। यदि गृहस्थ जीवन में मुक्ति साध्य हो सकती है तो कौन श्रमण, भिक्षु बनने का कष्ट उठाएगा? दूसरा कारण यह भी रहा कि श्रमण परम्परा में श्रमण होने पर बल दिया गया। गृहस्थ जीवन में सत्य की घटना घटने के विरल ही उदाहरण हैं। श्रमण ही सब पापों से मुक्त हो सकता है-ऐसे संस्कारों के कारण लोगों का झुकाव श्रामण्य की ओर हुआ, श्रमण सम्मानित हुए और गृहस्थ अपूज्य। गृहस्थों के लिए मोक्ष का द्वार प्रायः बन्द जैसा रहा। गृहस्थ कितनी ही ऊंची साधना करे, वह श्रमण से नीचा ही है-ऐसी स्थिति में यह शंका कोई आश्चर्यजनक नहीं है। भगवान् प्राह २. देवानुप्रिय! यस्य स्याद्, आसक्तिः क्षीणतां गता। भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय! जिस व्यक्ति की आसक्ति धर्मस्याराधनां कुर्यात्, स गृहे स्थितिमाचरन्॥. क्षीण हो जाती है वह घर में रहता हुआ भी धर्म की आराधना कर सकता है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३. गृहेऽप्याराधना नास्ति, गृहत्यागेऽपि नास्ति सा। ___ आशा येन परित्यक्ता, साधना तस्य जायते॥ अ. १४ : गृहस्थ-धर्म-प्रबोधन धर्म की आराधना न घर में है और न घर को छोड़ने में। उसका अधिकारी गृहस्थ भी नहीं है और गृहत्यागी भी नहीं है। उसका अधिकारी वह है, जो आशा को त्याग चुका है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् का कथन है-मैंने साधक और गृहस्थ में कोई भेद-रेखा नहीं खींची है। साध्य की साधना के लिए प्रत्येक क्षेत्र खुला है। साधना हर कहीं हो सकती है। वह दिन में भी हो सकती है और रात में भी हो सकती है। अकेले में भी हो सकती है, बहुतों के बीच भी हो सकती है। सोते भी हो सकती है और जागते हुए भी। घर में भी हो सकती है और घर का त्याग करने पर भी। इसके लिए कोई प्रतिबंध नहीं है। प्रतिबंध एक ही है और वह है-आसक्ति का त्याग होना चाहिए। इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषयों में जब तक अनुराग है तब तक मुक्ति नहीं है, फिर भले वह साधक हो या गृहस्थ। आशा, इच्छा और आकर्षण ही बंधन है। १. नाशा त्यक्ता गृहं त्यक्तं,नासौ त्यागी न वा गृही। . आशा येन परित्यक्ता, त्यागं सोऽर्हति मानवः॥ जिसने घर का त्याग किया किन्तु आशा का त्याग नहीं किया, वह न त्यागी है और न गृहस्थ। वही मनुष्य त्याग का अधिकारी है, जो आशा को त्याग चुका है। ॥ व्याख्या ॥ त्यागी वह नहीं है जिनके पास वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शय्या आदि भोग-सामग्री नहीं है किन्तु त्यागी वह है जो प्राप्त भोग-सामग्री को विरक्त होकर ठुकराता है। पदार्थों के प्रति फिर उसका कोई आकर्षण नहीं रहता। भगवान् महावीर ‘से पूछा-'भगवन् ! प्रत्याख्यान से आत्मा को क्या प्राप्त होता है ? . . भगवान ने कहा-'त्याग से व्यक्ति वितृष्ण हो जाता है। मन को भाने वाले और न भाने वाले पदार्थों में उसका रागवेष नहीं रहता।' 'उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलिया मट्टिया मया। __ दोवि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई।' (उत्तर० २५/४०) 'सूखे और गीले दो मिट्टी के गोले हैं। दोनों को भीत पर फेंका जाता है, जो सूखा होता है वह भीत पर नहीं चिपकता, किन्तु जो गीला है वह चिपक जाता है।' यह आसक्ति का स्वरूप है। आसक्ति स्नेह है। स्नेह पर रजकण चिपकते हैं, अनासक्त पर नहीं। वस्तुएं निर्जीव हैं, उनमें न बंधन है और न मुक्ति। बंधन व मुक्ति आशा और अनाशा में है। ५. पदार्थत्यागमात्रेण, त्यागी स्याद् व्यवहारत। आसक्तः परिहारेण, त्यागी भवति वस्तुतः॥ जो व्यक्ति केवल पदार्थों का त्याग करता है, किन्तु उसकी वासना का त्याग नहीं करता वह व्यवहार-दृष्टि से त्यागी है, वास्तव में नहीं। वास्तव में त्यागी वही है जो आसक्ति का त्याग - करता है। ६. पूर्णत्यागः पदार्थानां, कर्तुं शक्यो न देहिभिः। आसक्तेः परिहारस्तु, कर्तुं शक्योऽस्ति तैरपि॥ देहधारियों के लिए पदार्थों का सर्वथा परित्याग करना संभव नहीं होता किन्तु वे आसक्ति का सर्वथा परित्याग कर सकते हैं। ७. यावनाशापरित्यागः, क्रियते गेहवासिभिः। — तावान् धर्मो मया प्रोक्तः, सोऽगारधर्म उच्यते॥ गहवासी मनुष्य आशा का जितना परित्याग करते हैं, उसी को मैंने धर्म कहा है और वही अगार-धर्म कहलाता है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३४० खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ शरीर की विद्यमानता में इन्द्रियां हैं और इन्द्रियों की सत्ता में विषयों का ग्रहण भी। किन्तु ये अपने आप में बंधनकारक नहीं हैं। बंधन का निमित्त है-आशा, इच्छा, अनुराग और आसक्ति। व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों से उपरत नहीं हो सकता लेकिन उनमें जो आकर्षण है, इच्छा है, उसे वह छोड़ सकता है। आशा-त्याग ही धर्म है। गीता का अनासक्त-योग और जैन धर्म का आशा-त्याग एक ही है। किसी भी देहधारी आदमी के लिए कर्म का पूर्ण त्याग कर देना असंभव है। परन्तु जो कर्मों के फलों को त्याग देता है वही त्यागी कहलाता है। आसक्ति त्याग का जिस मात्रा में अभ्यास है उसी मात्रा के अनुसार आत्मा धर्म या मोक्ष के सन्निकट है। ८. सम्यक्श्रद्धा भवेत्तत्र, सम्यक्ज्ञानं प्रजायते। जिसमें सम्यक्-श्रद्धा होती है, उसी में सम्यक्-ज्ञान होता है सम्यक्चारित्रसम्प्राप्तः, योग्यता तत्र जायते॥ और जिसमें ये दोनों होते हैं उसी में सम्यक्-चारित्र की प्राप्ति की योग्यता होती है। ९. योग्यताभेदतो भेदो, धर्मस्याधिकृतो मया। एक एवान्यथा धर्मः, स्वरूपेण न भिद्यते॥ योग्यता में तारतम्य होने के कारण मैंने धर्म के भेद का निरूपण किया है। स्वरूप की दृष्टि से वह एक है। उसका कोई विभाग नहीं होता। १०.महाव्रतात्मको धर्मोऽनगाराणां च जायते। अणुव्रतात्मको धर्मो, जायते गृहमेधिनाम्॥ . अनगार के लिए महाव्रतरूप धर्म और गृहस्थ के लिए अणुव्रतरूप धर्म का विधान किया गया है। ॥ व्याख्या ॥ सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र (आचरण) धर्म है। जिसकी दृष्टि सम्यग् हो गई, पर-पदार्थों या , मान्यताओं से जो घिरा नहीं है, वह सम्यग् द्रष्टा होता है। सम्यग् ज्ञान भी वहीं होता है और सम्यग् चारित्र की योग्यता भी वहीं होती है। विभाजन योग्यता के आधार पर है। श्रमण और गृहस्थ-दोनों की गति एक ही दिशा की ओर है। किन्तु गति का अंतर है। एक की यात्रा 'जेट विमान' पर होती है और दूसरे की यात्रा 'कार' या 'साइकिल' पर होती है। पहुंचते दोनों हैं पर पहुंचने के समय में अंतर हो जाता है। महाव्रत की यात्रा जेट मिमान की यात्रा है। महाव्रती का मुख संसार से उदासीन होता है और परमात्मा के सम्मुख। बस, वह एकमात्र आत्मा को धुरी मानकर अनवरत उसी दिशा में बढ़ता रहता है। उसकी दृष्टि इधर-उधर नहीं जाती और जाती भी है तो तत्काल वह अपने ध्येय पर उसे, पुनः ले आता है। श्रमण होकर फिर जो अपने ध्येय-आत्मदर्शन में अप्रवृत्त रहता है तो समझना चाहिए श्रामण्य केवल बाहर से आया है, भीतर से उत्पन्न नहीं हुआ। गृहस्थ के और उसके जीवन में वेष के अतिरिक्त विशेष अंतर नहीं रहता। गृहस्थ अनासक्ति और आसक्ति के मध्य गति करता रहता है। वह सर्वथा इन्द्रिय और मन के अनुराग से मुक्त. नहीं हुआ है। उसके पैर दोनों दिशाओं में चलते हैं। लेकिन वह जानता है कि मंजिल यह नहीं है। उसे ममत्व से मुक्त होना है। इसलिए वह स्थूल से सूक्ष्म, दृश्य से अदृश्य और भ्रांति से सत्य की तरफ सचेष्ट रहता है। अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह यह व्यक्त करता है कि व्यक्ति भीतर में आसक्त है। आसक्ति के टूटने पर वस्तुओं का संग्रह हो, यह अपेक्षित-सा नहीं लगता। उसके पीछे कोई अन्य कारण हो तो भिन्न बात है। त्याग वही कर सकता है जो आसक्ति से मुक्त है। आसक्त व्यक्ति छोड़कर भी बहुत इकट्ठा कर लेता है। सामान्य व्यक्ति वस्तुओं को पकड़ते हैं और उन पर राग-द्वेष का आरोपण करते हैं, किन्तु राग-द्वेष पर प्रहार नहीं करते। जब कि मूल है-राग-द्वेष। धर्म की मूल साधना है-समता, राग-द्वेष-भुक्त प्रवृत्ति। यदि धार्मिकों का जीवन रागद्वेष से मुक्त होता तो निःसंदेह यत् किंचित् मात्रा में सफलता मिलती। लकीर को पीटने से सांप नहीं मरता। . महावीर ने कहा है-परिग्रह-मूर्छा आसक्ति है। आसक्ति का त्याग न कर, केवल जिसने घर को छोड़ दिया, वह न मुनि है और न गृहस्थ। कबीर ने कहा है-'आसन मारके बैठा रे योगी आश न मारी जोगी'-योगी आसन जमा कर बैठा है किन्तु आशा-आकांक्षा को नहीं मारा। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३४१ अ. १४ : गृहस्थ-धर्म-प्रबोधन ' वस्तुओं का संग्रह आसक्ति से होता है। आसक्त व्यक्ति बाहर से स्वयं को भरने का यत्न करता है। अनासक्त भीतर के रस से आप्लावित होता है। वह बाहर से भरने में कोई सार नहीं देखता। वस्तुओं के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण नहीं रहता। वह देखता है-पदार्थ पदार्थ हैं। इनकी उपयोगिता बाहर के लिए है, भीतर के लिए नहीं। ध्रुवीय प्रदेशों में एक एस्किमों परिवार है। धार्मिकों को भी उनसे बहुत कुछ सीखने जैसा है। एक फ्रेंच यात्री पहली बार गया। उसने लिखा है-मैंने उनसे ज्यादा सम्पन्न व्यक्ति नहीं देखे। वह उनके रीति-रिवाजों से अपरिचित था। जिस घर में वह ठहरा था, उसने वहां देखा, जूते बड़े सुन्दर हैं। मन प्रसन्न हो गया। उसने कहा-जूते सुन्दर हैं। तत्काल वे उसे दे दिए। उनके पास दूसरा जोड़ा नहीं था। और भी कोई सुन्दर चीज देखी और उसने कहा, वैसे ही चीज उसे मिल गई। उसने सोचा वह क्या बात है ? घर में एक वृद्ध सज्जन थे। उसने पूछा क्या बात है? वृद्ध ने जो कहा, वह बहुत गहरे धर्म की बात है 'चीजें-चीजें हैं वे किसी की नहीं। जिनके पास हैं उनके लिए अब व्यर्थ हो गई हैं, कोई आकर्षण नहीं रहा, किन्तु जिसके पास नहीं हैं वह सम्मोहित हो रहा है, लेने को ललचा रहा है। यदि उसे नहीं मिलेगी तो सम्मोहन-आकर्षण टूटेगा नहीं। 'जो चीज हमारी है हम मालिक हैं तो उसकी मालकियत तभी है जब किसी को दे देते हैं, अन्यथा उसके गुलाम होते हैं।' वर्ष भर में एक दिन आता है जिस दिन सभी घरों में अनावश्यक और आवश्यक वस्तुओं की छंटनी कर दी जाती है और फिर अनावश्यक लाते ही नहीं। मेघः प्राह ११.अगारिणां कथं धर्मो, व्यापतानाञ्च कर्मस। गृहिणां यदि धर्मः स्यादगारो हि को भवेत्॥ मेघ बोला-भंते! गृहस्थी में लगे हए गृहस्थों में धर्म कैसे हो सकता है? यदि गृहस्थ भी धर्म के अधिकारी हों तो फिर साधु कौन बनेगा? भगवान् प्राह १२.सत्यं देवानुप्रियैतद्, मुमुक्षा यस्य नोत्कटा। स वृत्तिमनगाराणां, न नाम प्रतिपद्यते॥ भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय! यह सच है कि जिसमें मुक्त होने की प्रबल इच्छा नहीं है, वह मुनि-धर्म को स्वीकार नहीं करता। १३. मुमुक्षा यावती यस्य, समतां तावतीं श्रितः। : आचरति गृही धर्म, व्यापृतोऽपि च कर्मसु॥ जिस गृहस्थ में मुक्त होने की जितनी भावना होती है, वह उतनी ही मात्रा में समता का आचरण करता है और जितनी मात्रा में समता का आचरण करता है, उतनी ही मात्रा में धर्म का आचरण करता है। इस प्रकार वह गृहस्थ के कार्यों में लगा रहने पर भी धर्म की आराधना करने का अधिकारी है। ॥ व्याख्या ॥ मुनि वही हो सकता है, जो संसार से उद्विग्न है, जिसमें आत्म-हित की उत्कृष्ट अभिलाषा है। भोग का वियोग देखने वाला व्यक्ति ही योग का अनुसरण कर सकता है। संवेग (मुक्ति-अभिलाषा) और निर्वेद (भव-विरक्ति) ही व्यक्ति को मुनि बना सकती है। इन दोनों की अपूर्णता में मुनि-जीवन संभव नहीं होता। किन्तु इससे हम संवेग और निर्वेद की आंशिकता का निषेध नहीं कर सकते। गृहस्थ में भी विचारों की तरतमता देखी जाती है। कुछ व्यक्ति गीता की दृष्टि में तमोगुणी होते हैं, कुछ रजोगुणी और कुछ सतोगुणी। सतोगुणी व्यक्ति सद्ज्ञान प्रधान होते हैं। वे कर्तव्य-अकर्तव्य के बीच विवेक कर सकते हैं। रजोगुणी व्यक्तियों में लोभ, इच्छा, भोग आदि Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३४२ खण्ड - ३ की प्रधानता होती है तमोगुणी अज्ञान और मूढ़ता से आच्छन्न रहते हैं ये व्यक्ति उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। विचारों की इस विविधता को हम धर्म और अधर्म के शब्दों में बांधे तो राजसिक और तामसिक गुण अधर्म है और सात्विक गुण धर्म है सरलता, समता, सद्भावना, सहिष्णुता, मनःशौच आदि गुणधर्म है जिन व्यक्तियों को इनका पूर्ण साक्षात्कार हो जाता है वे गुणातीत दशा को पा लेते हैं। लेकिन अभ्यासकाल में इन गुणों के आधार पर ही वे धार्मिक होते हैं। गृहस्थ भी समता, संवेग आदि भावों से धार्मिक हैं। जितने अंशों में इनका विकास है वह उतने ही अंशों में धार्मिक भी है। १४. द्विविधं विद्यते वीर्य, लब्धिश्च करणं तथा । अन्तरायक्षवाल्लब्धिः करणं वपुषाश्रितम् ॥ १५. वपुष्मतो भवेद् वाणी, मनोऽप्यस्यैव जायते । शारीरिकं वाचिकञ्च मानसं तत्' त्रिधा भवेत् ॥ १६. योगः कर्म प्रवृत्तिर्वा, व्यापारः करणं क्रिया । एकार्थका भवन्त्येते, शब्दाः कर्माभिधायकाः ॥ कर्म विद्यते । ततः सतोऽपि जायते ॥ १७. सदसतो प्रभेदेन द्विविधं निवृत्तिरसतः पूर्व || व्याख्या || धर्म का अभ्यास शक्ति पर निर्भर रहता हैं। शक्ति के दो रूप है-लब्धि वीर्य और करणवीर्य धर्म का संबंध केवल शारीरिक शक्ति से ही नहीं है। शारीरिक शक्ति से सम्पन्न होते हुए भी अनेक व्यक्ति हिंसा, झूठ, कुकृत्य आदि कर्मों में संलग्न रहते हैं। इसके विपरीत शरीर बल से क्षीण व्यक्ति अहिंसा, अभय, आत्म दमन आदि क्रियाओं में सावधान देखे जाते हैं। वे लब्धि-वीर्य से सम्पन्न हैं। आत्म-शक्ति को आवृत करने वाली कर्म-वर्गणाएं जब सक्रिय होती हैं, तब व्यक्ति का सामर्थ्य व्यक्त नहीं होता। उसका मन आत्मोन्मुख न होकर बहिर्मुख होता है। वह आत्म जागरण में स्वशक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता। करणवीर्य शरीर के माध्यम से व्यक्त होता है। १८. निरोधः कर्मणां पूर्ण कर्तुं शक्यो न देहिभिः । विनिवृत्ते शरीरेऽस्मिन् स्वयं कर्म निवर्तते ।। वीर्य के दो प्रकार हैं- लब्धिवीर्य योग्यतात्मक शक्ति और करणवीर्य - क्रियात्मक शक्ति । अंतराय के दूर होने पर लब्धि का विकास होता है और शरीर के माध्यम से करण का प्रयोग होता है। १९. विद्यमाने शरीरेऽस्मिन् सततं कर्म जायते । निवृत्तिरसतः कार्या प्रवृत्तिश्च सतस्तथा ॥ १. तत् इति करणवीर्यम् । जिसके शरीर होता है उसी के वाणी और मन होते हैं। इसलिए करणवीर्य तीन प्रकार का होता है शारीरिक, वाचिक और मानसिक योग, कर्म, प्रवृत्ति, व्यापार, करण और क्रिया-ये कर्म के पर्यायवाची शब्द हैं। कर्म के दो प्रकार हैं-सत् और असत् । साधना के प्रारंभ में असत्कर्म की निवृत्ति होती है और जब साधना अपने चरम रूप में पहुंचती है तब सत्कर्म की भी निवृत्ति हो जाती है। जब तक शरीर रहता है तब तक देहधारी जीव कर्म-क्रिया. का पूर्ण रूप से निरोध नहीं कर सकते शरीर के निवृत्त होने पर कर्म अपने आप निवृत्त हो जाता है। जब तक शरीर विद्यमान रहता है, तब तक निरंतर कर्म होता रहता है। इस दशा में असत्कर्म की निवृत्ति और सत्कर्म की प्रवृत्ति करनी चाहिए। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३४३ अ. १४ : गृहस्थ-धर्म-प्रबोधन २०.कुर्वन् कृषिञ्च वाणिज्य, रक्षां शिल्पं पृथग्विधम्। मेघ बोला-भगवन्! कृषि, वाणिज्य, रक्षा, शिल्प आदि . सत्प्रवृत्तिं कथं देव! गृहस्थः कर्तुमर्हति? विभिन्न प्रकार के कर्म करता हुआ गृहस्थ सत्प्रवृत्ति कैसे कर सकता है? भगवान् प्राह २१.अर्थजानर्थजा चेति, हिंसा प्रोक्ता मया द्विधा। भगवान् ने कहा-मैंने हिंसा के दो प्रकार बतलाए हैं- अर्थजा अनर्थजां त्यजन्नेष, प्रवृत्तिं लभते सतीम्॥ और अनर्थजा। गृहस्थ अनर्थजा-अनावश्यक हिंसा का परित्याग कर सकता है और जितनी मात्रा में वह उसका त्याग करता है, उतनी मात्रा में उसकी प्रवृत्ति सत हो जाती है। २२.आत्मने ज्ञातये तद्वद्, राज्याय सुहृदे तथा। अपने लिए, परिवार, राज्य और मित्रों के लिए जो हिंसा की या हिंसा क्रियते लोकैरर्थजा सा किलोच्यते॥ जाती है, वह अर्थजा हिंसा कहलाती है। २३. परस्परोपग्रहो हि, समाजालम्बनं भवेत्। तदर्थ क्रियते हिंसा, कथ्यते सापि चार्थजा॥ । परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करना समाज का आधारभूत तत्त्व है। इस दृष्टि से समाज के लिए जो हिंसा की जाती है. उसे भी अर्थजा हिंसा कहा जाता है। २४.कुर्वन्नप्यर्थजां हिंसां, नासक्तिं कुरुते दृढाम्। . तदानीं लिप्यते नासौ, चिक्कणैरिह कर्मभिः॥ अर्थजा हिंसा करते समय जो प्रबल आसक्ति नहीं रखता, वह चिकने कर्म-परमाणुओं से लिप्त नहीं होता। २५.हिंसा न क्वापि निर्दोषा, परं लेपेन भिद्यते। हिंसा कहीं भी निर्दोष नहीं होती परन्तु उसके लेप में ... आसक्तस्य भवेद् गाढोऽनासक्तस्य भवेन्मृदुः॥ अंतर होता है। आसक्त का लेप गाड़ और अनासक्त का लेप मृदु होता है। ॥ व्याख्या ॥ .. हिंसा हिंसा है। वह कभी अहिंसा नहीं होती और अहिंसा कभी हिंसा नहीं होती। अहिंसा अबंधन है और हिंसा बंधन। अहिंसा में भावों की तरतमता नहीं होती। उसका सदा पवित्र भावनाओं से संबंध है। हिंसा में राग और द्वेष की नियतता है। देखना यही है कि राग और द्वेष का प्रवाह कितना तीव्र है। एक व्यक्ति साधारण कर्म करता हआ भी उसमें अनुरक्त होता है और एक असाधारण कार्य करता हुआ भी उसमें आसक्त नहीं रहता। महाराज जनक की एक घटना से यह स्पष्ट हो जाता है। एक बार जनक किसी अन्य राजा के अतिथि बने। वे कुछ . दिन वहां रुककर जब जाने लगे तो राजा ने अतिथि से पूछा-'यहां आपको कैसा लगा?' जनक का भी संक्षिप्त-सा सहज उत्तर था-'बहुत बड़े भव्य महल में एक तुच्छ जीवन।' वहां से आते हुए मार्ग में एक साधु की कुटिया थी। कुछ दिन वहां : रहने का भी सौभाग्य मिला। वे सत्संग, ध्यान, भजन आदि नियमित कार्यों में सतत भाग लेते रहे। जब वहां से विदा होने लगे तो संत ने सहज प्रश्न किया-'यहां आपको कैसा लगा?' जनक का भी संक्षित उत्तर था-'एक छोटी-सी झोपड़ी में एक महान् जीवन।' जिस कार्य में आसक्ति की मात्रा अधिक होती है वहां कर्म का बंधन भी दृढ़ होता है, उसका फल भी कटुक होता है। जहां आसक्ति नहीं है वहां कर्म का बंधन गाढ़ नहीं होता और फल भी दारुण नहीं होता। असत् कर्म से बंधन अवश्य ..होता है, भले वह अनासक्तिपूर्वक हो या आसक्तिपूर्वक। जैन दर्शन में अनासक्ति का पूर्णरूप वहां निखार पाता है जहां सत् और असत् के प्रति भी आकांक्षा छूट जाती है। सत् कर्म में भी पुण्य कर्म प्रवाहित होता रहता है किन्तु उसका फल Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३४४ खण्ड-३ दारुण नहीं होता। आसक्ति की तीव्रता और अतीव्रता से उसके फल में वैसा ही रस पड़ता है। गीता का अनासक्ति योग और जैन के अनासक्त योग में साम्य नहीं है। अनासक्तिपूर्वक किया गया कोई भी और कैसा भी कार्य बंधन-रहित है, यह जैन धर्म को स्वीकार नहीं है। स्थितप्रज्ञ और अनासक्त के लक्षणों को देखने से लगता है, वह एक उच्च सीमा की अनासक्ति है, जहां राग, द्वेष, मोह आदि को स्थान नहीं है। मन और इन्द्रियों का भी बहिर्मुखता में अवकाश नहीं है। आत्मा क्रमशः स्वयं में ही विलीन हो जाती है। 'परमाप्नोति पुरुषः'-आत्मा परमात्मा बन जाती है। परमात्मदशा वीतराग दशा है, वहां कर्म का प्रवाह मंदतम होता है। शरीर-त्याग की स्थिति में वह सर्वथा रुक जाता है। २६.सम्यग्दृष्टेरिदं सारं, नानर्थं यत्प्रवर्तते। प्रयोजनवशाद् यत्र, तत्र तद्वान्न' मूर्च्छति॥ सम्यगदष्टि बनने का यह सार है कि वह अनर्थ-प्रयोजन बिना प्रवृत्ति नहीं करता और प्रयोजनवश जो प्रवृत्ति करता है, उसमें भी सम्यग्दृष्टि वाला आसक्त नहीं होता। २७.सम्मातनि समशेत, २७.सम्मतानि समाजेन, कुर्वन् कर्माणि मानसम्। अनासक्तं निदधीत, स्याल्लेपो न यतो दृढः॥ समाज द्वारा सम्मत कर्म को करता हुआ व्यक्ति मन को अनासक्त रखे, जिससे वह उसके दृढ़ लेप से लिप्त न हो। - बंधन के दो प्रकार हैं-अविरति और प्रवृत्ति। प्रवृत्ति कभीकभी होती है, अविरति निरंतर रहती है। २८.अविरतिः प्रवृत्तिश्च, द्विविधं बन्धनं भवेत्। प्रवृत्तिस्तु कदाचित् स्यादविरतिनिरन्तरम्॥ २९. दुष्प्रवृत्तिमकुर्वाणो, लोकः सर्वोऽप्यहिंसकः। परन्त्वविरतेस्त्यागान्, मानवः स्यादहिंसकः॥ दुष्प्रवृत्ति नहीं करने वाला यदि अहिंसक हो तो सारा संसार । ही अहिंसक हो सकता है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति निरंतर दुष्प्रवृत्ति नहीं करता। परन्तु अहिंसक वह होता है, जो अविरति का त्याग करे अर्थात् कभी और किसी प्रकार की हिंसा न करने का दृढ़ संकल्प करे। ३०.दुष्प्रवृत्तः क्वचित् साधुनाऽव्रती स्यान्मुनिः क्वचित्। सत्प्रवृत्तोऽपि नो साधुरखती जायते क्वचित्॥ साधु कहीं-कहीं प्रमादवश दुष्प्रवृत्त हो सकता है पर अव्रती कहीं भी मुनि नहीं हो सकता। अव्रती सत्प्रवृत्ति करने पर भी साधु नहीं बनता। ॥ व्याख्या ॥ अनासक्ति और आसक्ति के परिणामों के कर्मफल में भेद होता है। लेकिन प्रश्न यह होता है कि अनासक्त व्य के बंधन का हेतु क्या है, जबकि वह निःस्वार्थ वृत्ति से कार्य करता है। बंधन का मुख्य हेतु है अविरति। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह की सूक्ष्म या स्थूल जो प्रवृत्ति है या अत्यागवृत्ति है उसका नाम अविरति है। व्यक्ति जब तक अविरति से मुक्त नहीं होता तब तक कर्म का आगमन निरुद्ध नहीं होता। अविरति आत्मा की बहिर्दशा है और विरति अंतर्दशा। विरत व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में हिंसा आदि न करता है, न कराता है और न करते हुए व्यक्तियों का अनुमोदन ही करता है। हिंसा आदि कार्यों में व्यक्ति अनवरत प्रवृत्त नहीं रहता, किन्तु अविरति का प्रवाह सतत चलता रहता है। तन्द्रा और मूर्च्छित स्थिति में भी वह बंद नहीं होता। प्रवृत्ति को १. तद्वान् इति सम्यग्दृष्टियुक्तः। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A संबोधि ३४५ ही यदि हिंसा आदि का कारण मानें तो वह सबके सदा नहीं होती । व्यक्ति उसके अभाव में अहिंसक बन सकता है। यह स्थूल दोनों स्थूल सत्य है, वास्तविक नहीं। सूक्ष्म सत्य वही है जहां अविरति का त्याग है। अविरति के त्याग में सूक्ष्म और ही प्रवृत्तियां विशुद्ध हो जाती हैं। प्रश्न यह होता है कि इस प्रकार की साधना में प्रवृत्त व्यक्ति के मन में क्या दुष्प्रवृत्ति कभी नहीं आती? यदि आती है तो फिर वह अहिंसक कैसे हो सकता है ? ३९. इतस्ततः प्रसर्पन्ति, जना लोभविलाशयाः । तेन दिविरतिः कार्या गृहिणा धर्मचारिणा ॥ अ. १४ गृहस्थ धर्म-प्रबोधन अहिंसक का साध्य विशुद्ध आत्मा है वह लक्ष्य से जब भटक जाता है, तब दुष्प्रवृत्ति का शिकार हो जाता है। लेकिन वह उसका साध्य नहीं है। अतः वह पुनः अपने मार्ग में लौट आता है। उस प्रवृत्ति के प्रति उसका मन ग्लानि से भर जाता है, वह शुद्ध हो जाता है। इससे उसके साध्य में कोई अंतर नहीं आता। किन्तु जो अविरत है वह कभी मुनि नहीं बन सकता। अविरत की सत् प्रवृत्ति अच्छी है, आत्मोन्मुखी है। लेकिन वह सर्वथा विरत नहीं है। अतः सत् प्रवृत्ति वाला होते हुए भी मुनि नहीं कहला सकता। सांधुत्व के लिए एक ही मार्ग है और वह है अविरति-त्याग । गृहस्थ के लिए यह अपेक्षित है कि वह मन, वाणी और शरीर को सत् की ओर लगाये। योगों की सरलता, समता और शालीनता धार्मिक साधना की कसौटी है। वह अनर्थ हिंसा, झूठ, चोरी आदि से बचे और आवश्यक हिंसा आदि में भी मन को अनासक्त रखे, जिससे सहज में ही कर्म- बंधनों के प्रगाढ़ लेप से बच सके। - ३२. उपभोगः पदार्थानां मोहं नयति देहिनः । भोगस्य विरतिः कार्या तेन धर्मस्पृशा विशा ॥ ॥ व्याख्या || पांच अणुव्रतों में स्थूल रूप से मर्यादा की जाती है। विश्व विशाल है। मन की आकांक्षाएं भी विशाल हैं। आकांक्षा का संवरण करने के लिए व्यक्ति क्षेत्र (स्थान) का भी संवरण करे। मर्यादावान् व्यक्ति अपने सीमित क्षेत्र से बाहर व्यापार आदि नहीं करता। यह मन पर एक बहुत बड़ा नियंत्रण है अपनी त्याग वृत्ति के अनुसार पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर हर तरह के सावध कार्यों से निवृत्ति करना दिग्विरति व्रत है । लोभी मनुष्य अर्थार्जन के लिए इधर-उधर सुदूर प्रदेश तक जाते हैं इसलिए धार्मिक गृहस्थ को दिविरति दिशाओं में गमनागमन का परिमाण करना चाहिए। ३३. कल्पनाभिः प्रमादेन, दण्डः प्रयुज्यते जनैः । अनर्थदण्डविरतिः कार्या धर्मस्पृशा विशा ॥ ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य का जीवन सीमित है, लेकिन भोग्य पदार्थ सीमित नहीं हैं वह स्वल्प जीवन में असीमित पदार्थों का भोग नहीं कर सकता। - पदार्थों का भोग मनुष्य को मोह में डालता है इसलिए धार्मिक पुरुष को भोग की विरति करनी चाहिए, उसका परिमाण करना चाहिए। अतृप्ति उसे सदा सताती रहती है। भर्तृहरि ने कहा है- ' भोगों को हमने नहीं भोगा किन्तु भोगों ने हमें भोग लिया है। हमने तप नहीं किया किन्तु बिना तप किए हम तप्त हो गए। काल नहीं आया, हम काल के निकट पहुंच गए हैं और तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, हम जीर्ण हो गए।' अतृमि दुःख है और संतोष सुख । जैन दर्शन में पन्द्रह प्रकार के कर्मादान और छब्बीस प्रकार के भोगोपभोग का वर्जन है। इनकी प्रवृत्ति में मर्यादा करना - परिमाण करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है । मनुष्य अनेक प्रकार की कल्पनाओं और प्रमाद के वशीभूत को होकर दंड हिंसा का प्रयोग करता है। धार्मिक पुरुष अनर्थदंड-अनावश्यक हिंसा से निवृत्त होना चाहिए। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३४६ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ धार्मिक व्यक्ति अनावश्यक हिंसा से बचता है। अनावश्यक हिंसा के कारण हैं-मिथ्या-कल्पना, प्रमाद और अविश्वास। शीत युद्ध स्पष्टता में नहीं होता। यह अस्पष्ट हृदय की देन है। कल्पनाओं के आधार पर किया गया निर्णय नब्बे प्रतिशत मिथ्या होता है। एक-दूसरे के प्रति व्यक्ति संदिग्ध हो जाता है। संदेह भय को जन्म देता है और प्रतिकार के प्रति सचेष्ट करता है। यहीं से द्वैध बढ़ता है। प्रमाद, असावधानी, आलस्य तमोगुणी व्यक्ति का लक्षण है। प्रमादी व्यक्ति अकारण ही हिंसा कर बैठता है। अपने प्रयोजन के लिए मनुष्य पाप-कर्म करता है, अधर्म-व्यापार करता है, यह स्वाभाविक है परंतु बिना प्रयोजन, बिना स्वार्थ, व्यर्थ में अधर्म व्यापार करना, बुरे कार्य करना कहां तक उचित है ? बिना मतलब किसी पाप-कार्य में प्रवृत्ति करने का त्याग करना, अनर्थ-दण्ड-विरति व्रत है। गृहस्थ को अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करना पड़ता है। आठवां व्रत हमें यह सिखाता है कि कम-से-कम अनर्थ पाप से तो बचें। बिना प्रयोजन चलते-फिरते किसी को मार डालना, गाली देना, झगड़ा करना, ईर्ष्या करना, द्वेष करना, वनस्पति को कुचलते हुए चलना, बत्ती को. जलाकर छोड़ देना, घी-तेल के बर्तनों को खुला छोड़ देना इत्यादि ऐसे अनेक काम हैं जिनसे बचना या परहेज करना अहिंसा की दृष्टि से तो प्रशंसनीय है ही किन्तु व्यवहार-दृष्टि से भी अच्छा है। दिग्विरति, भोगोपभोग विरति और अनर्थदंड विरति-ये तीनों व्रत अणुव्रतों के पोषक हैं, अतः इन्हें गुणव्रत कहा गया है। ३४.सावद्ययोगविरतेरभ्यासो जायते ततः। जिससे सावद्य-पापकारी प्रवृत्तियों से निवृत्त होने का समभावविकासः स्यात्, तच्च सामायिकं व्रतम्॥ अभ्यास होता है, समभाव का विकास होता है, वह सामायिक' व्रत कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ धर्म समतामय है। राग-द्वेष विषमता है। समता का अर्थ है राग-द्वेष का अभाव। विषमता है राग-द्वेष का भाव। समभाव की आराधना के लिए सामायिक व्रत है। एक मुहूर्त तक सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करमा सामायिक व्रत है। यह आत्मविकास की सुन्दर प्रक्रिया है। पूर्वोक्त व्रतों की अपेक्षा इसमें आत्मा का सान्निध्य अधिक साधा जाता है। इसका काल-मान ४८ मिनट का है। इसमें मानसिक, वाचिक और कायिक समस्त असत् प्रवृत्तियों का परित्याग किया जाता है। सरिंभ-परित्यागी शब्द से सामायिक की तुलना की जा सकती है। यह स्थूल रूप से मुनि जीवन की-सी साधना है। साधक यहां आकर समता में लीन हो जाता है। उसका मन लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दाप्रशंसा और मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में सम बन जाता है। 'समलोष्टकांचनः'-उसके लिए पत्थर और सोना एक समान है। गीता में जो भक्त के लक्षण हैं वे समभावी व्यक्ति के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ होते हैं जो न प्रसन्न होता है, न द्वेष करता है, न दुःख मानता है, न इच्छा करता है और जिसने भले और बुरे दोनों का परित्याग कर दिया है इस प्रकार जो मेरी भक्ति करता है, वह मुझे प्रिय है। जो शत्रु और मित्र दोनों के साथ एक-सा बर्ताव करता है, जो सर्दी-गर्मी और दुःखसुख में एक जैसा रहता है और जो आसक्ति से रहित है, वह मुझे प्रिय है।' ईसा के शब्दों में-'वह अपने सूर्य को बुरे और भले दोनों पर उदित करता है और वर्षा को न्यायी और अन्यायी दोनों पर बरसाता है।' ३५.सावधिकञ्च हिंसादेः, परित्यागो यथाविधि। एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक जो हिंसा का क्रियते व्रतमेतत्तु, देशावकाशिकं भवेत्॥ परित्याग किया जाता है वह देशावकाशिक' व्रत कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ समभाव की प्राप्ति का साधन जागरूकता है। जो व्यक्ति पल-पल जागरूक रहता है, वही समभाव की ओर बढ़ सकता है। पहले आठ व्रतों की सामान्य मर्यादा के अतिरिक्त थोड़े समय के लिए विशेष मर्यादा करना, अहिंसा आदि की विशेष साधना करना देशावकाशिक व्रत है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३४७ अ. १४ : गृहस्थ-धर्म-प्रबोधन ३६. सावद्ययोगविरतिः, सोपवासा विधीयते। उपवासपूर्वक-१. द्रव्य-वस्तुओं की मर्यादा करना। . द्रव्यक्षेत्रादिभेदेन, पौषधं तद् भवेद् व्रतम्॥ २. क्षेत्र-क्षेत्र-संबंधी मर्यादा करना। ३. काल-अहोरात्र । ४. भाव-राग-द्वेष रहित।-इन चार प्रकार से सावध योग-असत् प्रवृत्ति की विरति करना पौषध व्रत कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ इस साधना में पूर्ण उपवास व्रत से युक्त होकर व्यक्ति एक दिन के लिए साधुचर्या में आ जाता है। उसकी गति, अगति आदि शारीरिक क्रियाएं प्रमाद-रहित होती हैं। समभाव की साधना को पुष्ट करने के लिए ऐसे लम्बे समय की अपेक्षा रहती है, वह इसमें पूर्ण हो जाती है। यह साधु-जीवन का पूर्वाभ्यास है। ३७.प्रासकं. दोषमुक्तञ्च, भक्तपानं प्रदीयते। ___ मुनये संविभज्याऽथ, संविभागोऽतिथेव्रतम्॥ अपनी वस्तु का संविभाग कर, स्वयं कुछ कम खाकर साधु को प्रासुक-अचित्त और दोष-रहित जो भोजन दिया जाता है, उसे अतिथि-संविभाग व्रत कहा जाता है। ॥ व्याख्या ॥ दान के विशुद्ध अधिकारी साधु ही हैं, जो केवल अहिंसा, आत्मसाधना और अध्यात्म-जागरण के लिए जीते हैं। वे केवल लेना ही नहीं जानते, दान का प्रतिदान भी करते हैं। किन्तु उनका प्रतिदान भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। वे मनुष्यों की अंतश्चेतना को जागृत करते हैं, उन्हें नैतिक और धर्मनिष्ठ बनाते हैं। ___साधुओं का भोजन विशुद्ध होता है। विशुद्ध का अभिप्राय है-जो भोजन मुनि के लिए निर्मित न हो, सचित्त-सजीव न हो, सचित्त वस्तुओं से स्पृष्ट न हो और जो मुनि के योग्य हो। गृहस्थ श्रावक का यह धर्म है कि वह स्वनिर्मित भोजन में से मुनि को आहार दे। दान धर्म है। दान की विशुद्ध भावना से कर्म-निर्जरा होती है और उत्कट भाव-विशुद्धि से व्यक्ति संसार का अंत कर देता है। इस दान में कोई स्वार्थ नहीं रहता। यह आत्मशुद्धिमूलक होने से मोक्ष का एक अंग है। इसी को अतिथि-संविभाग व्रत कहा है। श्रावकों के व्रतों के साथ इसका अभिन्न संबंध है। पांच अणुव्रतों की पुष्टि के लिए और आत्म-पवित्रता के लिए इन अन्य व्रतों की रचना की गई है। ३८.संलेखनां प्रकुर्वीत, श्रावको मारणान्तिकीम्। मृत्यु से न डरने वाला श्रावक मृत्यु को सन्निहित- पास में - मृत्युं सन्निहितं ज्ञात्वा, मृत्योरविचलाशयः॥ जानकर मारणान्तिक संलेखना करे। माना हा ॥ व्याख्या ॥ ... जीना जैसे एक कला है वैसे मरना भी। सहस्रों व्यक्तियों में से कोई एक व्यक्ति जीने की कला में अभिज्ञ होता है। मरने की कला जीने की कला से कोई कम नहीं है। जिसे जीने की कला आती है उसे मरने की कला भी सीखनी चाहिए। जैन दर्शन जीने और मरने दोनों की कलाएं सिखाता है। जीवन उसके लिए हर्ष नहीं है और मृत्यु विषाद नहीं है। जैन दर्शन साधक को यह संदेश देता है कि देह का भेद करो, मृत्यु से डरो मत लेकिन मौत को डरा दो। साधकों ने मृत्यु को महोत्सव माना है। ___ व्रतों की साधना में संलग्न श्रावक भी मृत्यु से डरे नहीं। वह जब देख ले कि देह जीर्ण हो रहा है, तब मृत्यु से पहले ही मौत की तैयारी कर ले। इस तैयारी का नाम संलेखना है। इसमें वह भोग्य पदार्थों से अपने मन को हटाता है। उसका चिंतन होता है-'मैंने संसार के समस्त पदार्थों का अनन्त कालचक्र में उपभोग किया है। यह सब उच्छिष्ट है। इन उच्छिष्ट पदार्थों में मेरा क्या आकर्षण ? विज्ञ पुरुषों के लिए वान्त भोजन स्वीकार्य नहीं होता। वह यों सोच सारहीन पदार्थों से जीवन'निर्वाह करने लगता है। इसके बीच कभी एक दिन का उपवास, कभी दो दिन का उपवास, कभी एक बार भोजन, कभी केवल रोटी खाकर पानी पीकर रह जाना आदि क्रियाओं के द्वारा शरीर को आमरण अनशन के लिए प्रस्तुत कर लेता है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३४८ खण्ड-३ अनशन आत्महत्या नहीं, किन्तु स्वेच्छापूर्वक देह का त्याग है, देह के ममत्व का विसर्जन है। देह के प्रति आकर्षण बढ़ता है तब तक व्यक्ति मौत से कतराता रहता है। वह डॉक्टर और दवाइयों के आश्रित पलता है किंतु जब मोह विलीन होता है तभी अनशन स्वीकृत किया जा सकता है अमरत्व की यह सबसे सुन्दर संजीवनी है कि देह के प्रति ममत्व का विसर्जन किया जाए। जैन दर्शन हर अवस्था में अनशन की अनुमति नहीं देता। उसका कथन है कि जब साधक को यह लगे कि शरीर शिथिल हो रहा है, उससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना होनी कठिन है, तब वह खान-पान के विसर्जन से देह विसर्जन की बात सोचता है। इस दिशा में वह क्रमशः गति करता है और एक दिन संपूर्ण त्याग कर समाधि मरण को प्राप्त करता है। प्रकर्षाय, प्रतिमाः प्रतिपद्येत, श्रावकः ३९. संयमस्य ४०. दर्शनप्रतिमा दृष्टिमाराधयंल्लोकः, तत्र, मनोनिग्रहहेतवे । साधनारुचिः ॥ सर्वधर्मरुचिभवत् । सर्वमाराधयेत्परम् ॥ ४१. व्रतसामायिकपौषधकार्योत्सर्गा मिथुनवर्जनकम् । सच्चित्ताहारवर्जनस्वयमारम्भवर्जने चापि ॥ ४२. प्रेष्यारम्भविवर्जनमुद्दिष्टभक्तवर्जनञ्चापि । श्रमणभूत एकादश प्रतिमा एता विनिर्दिष्टाः ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) संयम के उत्कर्ष और मन का निग्रह करने के लिए साधना में रुचि रखनेवाला श्रावक प्रतिमाओं को स्वीकार करे। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं- १. दर्शन प्रतिमा- दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करने वाला सब धर्मों-साधना के सभी प्रकारों में रुचि रखता है । दृष्टि की आराधना करने वाला सबकी आराधना कर लेता है। २. व्रत - प्रतिमा ३. सामायिक प्रतिमा ४. पौषध प्रतिमा ५ कायोत्सर्ग प्रतिमा ६ ब्रह्मचर्यं प्रतिमा । ७. सचित्ताहारवर्जन - प्रतिमा । ८. स्वयं आरंभवर्जन - प्रतिमा । ९. प्रेष्यारंभवर्जन - प्रतिमा। १०. उद्दिष्टभक्तवर्जन - प्रतिमा। ११. श्रमणभूत- प्रतिमा। ॥ व्याख्या ॥ प्रतिमा का अर्थ है अभिग्रह-अमुक प्रकार की प्रतिज्ञा, संकल्प उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं उनका विवरण इस प्रकार है : दर्शन श्रावक : यह पहली प्रतिमा है। इसका कालमान एक मास का है। इसमें सर्वधर्म विषयक रुचि होती है, किन्तु अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि का आत्मा में प्रतिष्ठापन नहीं होता। केवल सम्यग्दर्श उपलब्ध होता है। कृतव्रतकर्म : यह दूसरी प्रतिमा है। इसका कालमान दो महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धि के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि का सम्यक् प्रतिष्ठापन करता है, किन्तु वह सामायिक और देशावकाशिक का अनुपालन नहीं करता । कृतसामायिक : यह तीसरी प्रतिमा है। इसका कालमान तीन महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाध उपासक प्रातः और सायंकाल सामयिक और देशावकाशिक का पालन करता है, परंतु पर्व- दिनों में प्रतिपूर्ण पौषधोपवास नहीं करता। पौषधोपवासनिरत : यह चौथी प्रतिमा है। इसका कालमान चार महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३४९ अ. १४ : गृहस्थ- धर्म - प्रबोधन उपासक चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी आदि पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण पौषध करता है परन्तु 'एकरात्रिक उपासक प्रतिमा का अनुगमन नहीं करता। दिन मैं ब्रह्मचारी (कायोत्सर्ग प्रतिमा) : यह पांचवी प्रतिमा है। इसका कालमान पांच महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक 'एकरात्रिकी उपासक प्रतिमा' का सम्यक् अनुपालन करता है तथा स्नान नहीं करता, दिवाभोजी होता है, धोती के दोनों अंचलों को कटिभाग में टांक लेता है-नीचे से नहीं बांधता, दिवा ब्रह्मचारी और रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण करता है। दिन और रात में ब्रह्मचारी यह छठी प्रतिमा है। इसका कालमान छह महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक दिन और रात में ब्रह्मचारी रहता है। किन्तु सचित्त का परित्याग नहीं करता। सचित्त परित्यागी : यह सातवीं प्रतिमा है। इसका कालमान सात महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सम्पूर्ण सचित्त का परित्याग करता है, किन्तु आरंभ का परित्याग नहीं करता । आरंभ- परित्यागी : यह आठवीं प्रतिमा है। इसका कालमान आठ महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक आरंभ - हिंसा का परित्याग करता है, किंतु प्रेष्यारंभ का परित्याग नहीं करता । प्रेष्य-परित्यागी यह नौवीं प्रतिमा है। इसका कालमान नौ महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक प्रेष्य आदि हिंसा का परित्याग करता है, किंतु उद्दिष्टभक्त का परित्याग नहीं करता। उरिष्टभक्त परित्यागी यह दसवीं प्रतिमा है। इसका कालमान दस महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करता है। वह सिर को क्षुर से मुंडवा लेता है या चोटी रख लेता है। घर के किसी विषय में पूछे जाने पर जानता हो तो कहता है- मैं जानता हूं और न जानता हो तो कहता है-मैं नहीं जानता।' 6 श्रमण-भूत यह ग्यारहवीं प्रतिमा है। इसका कालमान ग्यारह महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सिर को क्षुर से मुंडवा लेता है या लुंचन करता है। वह साधु का वेश धारण कर ईर्यासमिति आदि साधु-कर्मों का अनुपालन करता हुआ विचरण करता है। वह भिक्षा के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश कर 'प्रतिमा सम्पन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो' - ऐसा कहता है। यदि कोई उससे पूछे कि 'तुम कौन हो ?' तो वह यह कहता है- 'मैं प्रतिमा सम्पन्न श्रमणोपासक हूं।' प्रायः वे लोग इनका स्वीकरण करते हैं : १. जो अपने आपको श्रमण बनने के योग्य नहीं पाते किन्तु जीवन के अंतिम काल में श्रमण-जैसा जीवन बिताने के इच्छुक होते हैं। २. जो श्रमण जीवन बिताने का पूर्वाभ्यास करते हैं। साधक गृहस्थ जैसे-जैसे अपने साधना - अभ्यास में सफल, प्रसन्न और आनंदित हो जाता है वैसे-वैसे ममत्व, आसक्ति और भ्रांति के क्षीण होने पर सत्य की दिशा में तीव्रगति से बढ़ने को आतुर हो जाता है साध्य-धर्म के Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३५० खण्ड - ३ अतिरिक्त फिर उसका मन अन्यत्र रमण नहीं करता। वह चलता है-मंजिल, लक्ष्य को प्राप्त करना । इस दृष्टि से जो कुछ बाह्य रूप में स्वीकृत किया था अब उसे प्रत्यक्ष अनुभूति के रूप में देखना चाहता है। अनुभूति समय सापेक्ष है। प्रतिमाओं के अभ्यास-काल में बाह्य क्रियाओं से निवृत्त होकर वह सत्य की आराधना में जीवन समर्पित करता है और सारा समय साधना की प्रक्रियाओं में योजित करता है। सफलता समय, श्रद्धा, धैर्य और निरंतरता पर आधारित है। आनंद श्रावक भगवान् का प्रमुख उपासक था। उसने चौदह वर्षों तक बारहव्रती का जीवन बिताया। पन्द्रहवें वर्ष के अंतराल में एक दिन उसके मन में धर्म-चिंता उत्पन्न हुई और वह आत्मा या सत्य की खोज तथा उसके लिए समर्पित जीवन बिताने के लिए कृतसंकल्प हुआ। दूसरे दिन अपने ज्येष्ठपुत्र को घर का भार सौंपकर भगवान् महावीर के पास उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार कर लीं। इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच वर्ष लगे। तत्पश्चात् उसने अपश्चिममरणांकि संलेखना की और अंत में एक मास का अनशन किया। - उपासक आनंद के इस वर्णन से यही फलित होता है कि उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का स्वीकरण जीवन के अंतिम भाग में किया जाता था। उसकी पूर्व भूमिका के रूप में वर्षों तक बारह व्रतों का पालन करना होता था और ये प्रतिमाएं भावी अनशन के लिए भी पृष्ठभूमि बनाती थीं । ४३. असंयमं परित्यज्य संयमस्तेन सेव्यताम् । असंयमो महद् दुःखं संयमः सुखमुत्तमम् ॥ इसलिए असंयम को छोड़कर संयम का सेवन करना चाहिए। असंयम महान् दुःख है संयम उत्तम सुख है। ॥ व्याख्या ॥ असंयम बहिर्मुखता है और संयम स्व-मुखता ( अंतर्मुखता) है। स्वभाव संयम है और विभाव असंयम । आत्मविस्मृति असंयम है और आत्मस्मृति संयम । दुःख विस्मृति है और सुख स्व-स्मृतिं। जिसे सुख प्रिय है उसे संयम होना चाहिए। संयम का फल सुख है और असंयम का दुःख । संयम के सिवाय सुख की आकांक्षा, करना मृग मरीचिका में पानी की तलाश करना है। बाहर से सुख नहीं मिला, किंतु सुखाभास अवश्य मिलता है। मनुष्य उसी सुखाभास में मुग्ध होकर पुनः पुनः दुःख, अशांति और कष्टों का अनुभव करता चला जा रहा है। इसीलिए महावीर कहते हैं - अपने अंतश्चक्षुओं को उद्घाटित कर देखो, यहां क्या मिला है ? यदि दुःख के सिवा कुछ नहीं मिला तो अब उसे छोड़कर सत्य के पथ का अनुसरण करो । इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे गृहस्थधर्मप्रबोधननामा चतुर्दशोऽध्यायः । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १५ गृहिधर्मचर्या Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहिधर्मचर्या धर्म जीवन का एक आवश्यक अंग है। इसे जो भूलता है, वह अपने आपको भूलता है। जीवन के लिए अन्य कार्य आवश्यक हैं, वैसे धर्म भी। जो इसे जानता है और विश्वास करता है, वह धर्म का आचरण भी करता है। धर्म केवल जानने का ही विषय नहीं है, वह आचरण का भी विषय है। प्रत्येक कार्य में धर्म को सामने रखा जाए तो मनुष्य अनैतिक और अधार्मिक नहीं हो सकता। आत्मा का एक शरीर में नियत-वास नहीं है। आस्तिक इसे स्वीकार करते हैं इसलिए वे यह भी स्वीकार करते हैं कि हिंसा किसी अन्य की नहीं, अपनी ही होती है। हिंसा के निमित्त हैं-राग, द्वेष, मोह, प्रमाद आदि। श्रुत और आचार की उपासना आत्म-धर्म है। श्रुत और आचार से भिन्न धर्म कर्त्तव्य और स्वभाव की दृष्टि से हैं। आत्म-विकास में वे सहयोगी नहीं बनते। मोक्ष श्रुत और आचरण का योग है। आत्मा का विकास इन्हीं के द्वारा होता है। इस अध्याय में ये ही विवेच्य विषय हैं। भगवान् प्राह १. यावद् देहो भवेत् पुंसां, तावत्कर्मापि जायते। कुर्वन्नापश्यकं कर्म, धर्ममप्याचरेद् गृही॥ भगवान् ने कहा-जब तक मनुष्य के शरीर होता है तब तक क्रिया होती है। आवश्यक क्रिया को करता हुआ मनुष्य धर्म का भी आचरण करे। ॥ व्याख्या ॥ 'किं कर्म किमकर्म च कवयोप्यत्रमोहिताः।' गीता में कहा है-'कर्म क्या है और अकर्म क्या है ? इस निर्णय में बड़े. बड़े विद्वान भी मूढ़ हो जाते हैं।' कर्म वस्तु का स्वभाव है। जो स्वभाव है वह किया नहीं जाता, प्रतिक्षण होता रहता है। इसलिए उसे अकर्म-अक्रिया कहा जाता है। अकर्म को कर्म के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। 'अकम्मुणा कम्म खति धीरा'-धीर व्यक्ति अकर्म के द्वारा कर्म (विजातीय) को नष्ट कर स्वभाव में प्रतिष्ठित होते हैं। कुछ कर्म निषिद्ध हैं और कुछ विहित, किन्तु अकर्म की दृष्टि से दोनों ही अविहित हैं। अकर्म की स्थिति प्राप्त न हो तब विहित कर्म व्यक्ति करता है, किन्तु जो अकर्म के मर्म को जानता है वह कर्म करता हुआ भी अकर्म रहता है। सामान्यतया यह कठिन है। मनुष्य कर्म . करता है अकर्म को भूलकर। कर्तृत्व का अहंकार और बाह्य प्रेरणाएं कर्म के लिए प्रेरित करती हैं। जिसे अकर्म का बोध नहीं है, वह कर्म के फल से भी सहजतया मुक्त नहीं हो सकता। यश, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि में वह प्रसन्न हो जाता है और विपरीत में अप्रसन्न। अहंकार को रस प्रदर्शन में आता है, अपनी विशिष्टता का बोध दूसरों को हो वह बताना चाहता है। अकर्म का साधक कर्म में रस नहीं लेता। वह सिर्फ अपने को एक निमित्त समझेगा और कर्म का साक्षी, द्रष्टा रहेगा। अकर्म की साधना है-आप स्वयं कुछ करें नहीं, आप सिर्फ जो पीछे अकर्मक खड़ा है, उसे देखते रहें। जेन साधक लिंची ने अपने शिष्यों से कहा""अगर चित्र बनाने में तुम्हें जरा भी श्रम मालूम पड़े तो समझना अभी कलाकार नहीं हुए हो। जिस दिन श्रम का पता न लगे उसी दिन कलाकार बनोगे।' Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३५३ अ. १५ : गृहिधर्मचर्या जर्मन विचारक हैरीगेली धनुर्विद्या सीखने जापान आया तीन साल श्रम किया अचूक निशानेबाज हो गया। फिर भी गुरु ने कहा- अभी कुछ नहीं हुआ। अभी तू चलाता है, तीर चलता नहीं। थक गया। कहा- अब मैं आज जाता हूं। उसने * घर जाने की सब तैयारी कर ली । विदा लेने आया। गुरु सिखा रहे थे। बैठ गया। अचानक उठा और तीर उठाकर चल दिया। गुरु ने कहा- हो गया काम। इतने दिन प्रयत्न में था, आज अप्रयत्न में।' साधक के लिए यह बहुत बड़ा पाठ है जो उसे पढ़ना है। २. यथाहारादि कर्माणि भवन्त्यावश्यकानि च । तथात्माराधनं चापि, भवेदावश्यकं परम् ॥ " ३. सद्यः प्रातः समुत्थाय स्मृत्वा च परमेष्ठिनम् । प्रातः कृत्यान्निवृत्तः सन् कुर्यादात्मनिरीक्षणम् ॥ जिस प्रकार भोजन आदि क्रियाएं आवश्यक होती हैं, उसी प्रकार आत्मा की साधना करना भी अत्यंत आवश्यक है। सवेरे जल्दी उठकर नमस्कार मंत्र का स्मरण कर, शौच आदि प्रातःकृत्य से निवृत्त होकर मनुष्य आत्म-निरीक्षण करे। ॥ व्याख्या ॥ आत्म-निरीक्षण के लिए एक कवि ने कहा है-सूर्य जीवन का एक भाग लेकर चला जा रहा है उठो और देखो, आज कौन सा सुकृत काम किया है।' यह धर्म का एक अंग है। सबके लिए इसकी अपेक्षा है। किन्तु एक धार्मिक व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है। आत्मदर्शन के बिना वृत्तियों का परिमार्जन नहीं होता। इसके लिए तीन चिंतन हैं १. मैंने क्या क्रिया है ? २. मेरे लिए क्या करना बाकी है? ३. ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे मैं नहीं कर सकता? जैसे शरीर के लिए आवश्यक किए जाते हैं वैसे आत्मा के लिए भी होने चाहिए एक विचारक ने कहा है मनुष्य शरीर को खुराक देता है, किन्तु आत्मा को नहीं।' आत्मा को बिना भोजन दिए मनुष्य का जीवन अंत में अर्थहीन सिद्ध होता है उसमें रस उत्पन्न नहीं होता। आदमी करीब-करीब मरा हुआ जीता है। इसीलिए यहां कहां गया है कि अपने को देखो, जानो। ४. सामायिकं प्रकृर्वीत, समभावस्य लब्धये । भावना भावयेत् पुण्याः, सत्संकल्पान् समासजेत् ॥ मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? क्या है जीवन का उद्देश्य ? क्या मैं उसकी पूर्ति का प्रयत्न कर रहा हूं ? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जो स्वयं से पूछने को हैं उत्तर की जल्दी नहीं करना है, प्रश्नों की प्यास बढ़ानी है। समभाव की प्राप्ति के लिए सामायिक' करे, आत्मा को पवित्र भावनाओं से भावित करे और शुभ संकल्प करे । ॥ व्याख्या ॥ संकल्प का अर्थ है दृढ निश्चय हम क्या हैं? अपने संकल्पों से भिन्न और कुछ नहीं हैं। जैसे हम संकल्प करते हैं वैसे ही बन जाते हैं अच्छे संकल्प अच्छा बनाते हैं, बुरे संकल्प बुरा मनुष्य अच्छा बनने के लिए बुरे संकल्पों के स्थान पर अच्छों को स्थानं दे। मैं दीन हूं, दुर्बल हूं, अज्ञ हूं, रोगी हूं, दुःखी हूं, अभागा हूं आदि हीन संकल्प मनुष्य को वैसा ही बना देते हैं। यदि इनके स्थान पर मनुष्य पवित्र संकल्पों को संजोए तो वह स्वस्थ, सशक्त, विज्ञ, सुखी और सौभाग्यशाली बन सकता है। 'मेरा मन पवित्र संकल्प वाला हो। हम दीन बन कर न जिएं। कार्य करते हुए हम सौ वर्ष तक जिएं'- ये क्या हैं जो १. सामायिक- एक मुहूर्त्त तक सावध प्रवृत्ति-अठारह प्रकार के पाप का परित्याग । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३५४ खण्ड-३ हजारों वर्षों से संकल्प का महत्त्व समझाते आ रहे हैं। आज वैज्ञानिकों ने मानस की अपार क्षमता को परखा है और वे कहते हैं-'तुम अपने संकल्प से भिन्न कुछ नहीं हो।' श्रावक आत्म-शोधन करता हुआ संकल्पवान बने। उसे क्या करना है और क्या होना है, भगवान् ने इसका जो उत्तर दिया वह इस अध्याय के दसवें श्लोक में है। ५. स्थैर्य प्रभावना भक्तिः , कौशलं जिनशासने। धर्म में स्थिरता, प्रभावना-धर्म का महत्त्व बढ़े वैसा कार्य तीर्थसेवा भवन्त्येता, भूषाः सम्यग्दृशो ध्रुवम्॥ करना, धर्म या धर्म-गुरु के प्रति भक्ति रखना, जैन शासन में कौशल प्राप्त करना और तीर्थसेवा-चतुर्विध संघ को धार्मिक सहयोग देना ये सम्यक्त्व के पांच भूषण हैं। ॥ व्याख्या ॥ सम्यक्त्व का शरीर सहज, सुन्दर होता है। जिसे वह प्राप्त है उसकी सुगंध स्वतः ही प्रस्फुटित होती है। उसका जीवन स्वयं ही एक पाठ है। वह जो कुछ करता है समभाव से भिन्न नहीं करता, दिखावा नहीं करता। जिसका होना ही धर्म को अभिव्यक्त करता है, उसका व्यवहार, आचरण भीतर से स्फूर्त होता है। कथनी और करनी में वैमनस्य का दर्शन नहीं होता। स्वभाव का स्वाद जिसने चख लिया है, वह फिर उससे भिन्न जी नहीं सकता। जो केवल बाहर से सम्यक्त्व का चोला पहन लेते हैं, उनका जीवन इनसे मेल नहीं खाता। वे अपने स्वार्थ के लिए अन्यथा आचरण कर धर्म को भी दूषित कर देते हैं। सम्यक्त्व के ये भूषण उसके शरीर की आभा को और प्रस्फुटित कर देते हैं। सौम्यता, सौहार्द, करुणा, निश्छलता और सत्यपूर्ण व्यवहार धर्म की शोभा में चार चांद लगा देते हैं। ६. भारवाही यथाश्वासान, भाराक्रान्तेऽश्नुते यथा। तथारम्भभराक्रान्त, आश्वासान् श्रावकोऽश्नुते॥ जिस प्रकार भार से लदा हुआ भारवाहक विश्राम लेता है, उसी प्रकार आरंभ-हिंसा के भार से आक्रांत श्रावक विश्राम लेता है। . ७. इन्द्रियाणामधीनात्वाद्, वर्ततेऽवद्यकर्मणि। तथापि मानसे खेदं, ज्ञानित्वाद् वहते चिरम्॥ इंद्रियों के अधीन होने के कारण वह पापकर्म-हिंसा-त्मक क्रिया में प्रवृत्त होता है, फिर भी ज्ञानवान होने के कारण वह उस कार्य में आनंद नहीं मानता, उदासीन रहता है। व्रत आदि स्वीकार करना श्रावक का पहला विश्राम है। सामायिक करना दूसरा विश्राम है। ८. आश्वासः प्रथमः सोऽयं, शीलादीन् प्रतिपद्यते। सामायिकं करोतीति, द्वितीयः सोऽपि जायते॥ प्रतिपूर्ण पौषधञ्च, तृतीयः स्याच्चतुर्थकः। संलेखना श्रितो यावज्जीवमनशनं सृजेत्॥ उपवासपूर्वक पौषध करना तीसरा विश्राम है और संलेखनापूर्ण आमरण अनशन करना चौथा विश्राम है। ॥ व्याख्या ॥ मकान, धर्मशाला, वृक्ष, नदी-तट आदि शारीरिक विश्राम-स्थल हैं। धर्म आत्म-विश्राम का केन्द्र है। गृही-जीवन आरंभ-व्यस्त जीवन है। वहां आत्म-साधना के लिए अवकाश कम मिलता है। मनुष्य का मन मोह-प्रधान है। उसे भोग, वासना और विषयों से जितना अनुराग होता है उतना धर्म से नहीं। धर्म के बिना आत्मा को शांति नहीं मिलती। श्रावक संसार के कार्यों में उलझा हुआ भी धर्म को विस्मृत नहीं करता। वह अपने और पराये व्यक्तियों के लिए हिंसा करता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता। वह मानता है कि मेरी दुर्बलता है। वह उदासीन होकर काम करता है। उसका केन्द्र-बिन्दु आत्मा है। वह आत्म-शांति के लिए जो अवलंबन लेता है वे ही विश्राम-स्थल हैं। जैसे भारवाहक के चार विश्राम-स्थल हैं :-१. गठरी को बाएं से दाएं कंधे पर रखना। २. देह-चिंता से निवृत्त होने Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३५५ अ. १५ : गृहिधर्मचर्या के लिए उसे नीचे रखना। ३. सार्वजनिक स्थान में विश्राम करना। ४. स्थान पर पहुंचकर उसे उतार देना। वैसे ही श्रावक के चार विश्राम हैं :-१. शीलव्रत, गुणव्रत तथा उपवास ग्रहण करना। २. सामायिक और देशावकाशिक व्रत लेना। ३. अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिक्रमणपूर्वक पौषध करना। ४. मारणांतिक संलेखना करना। १०.परिग्रहं प्रहास्यामि, भविष्यामि कदा मुनिः। त्यक्ष्यामि च कदा भक्तं, ध्यात्वेदं शोधयेन्निजम्॥ मैं कब परिग्रह छोडूंगा, मैं कब मुनि बनूंगा, मैं कब भोजन का परित्याग करूंगा'-श्रावक इस प्रकार के चिंतन अथवा मनोरथ से आत्मशोधन करे। ॥ व्याख्या ॥ श्रावक श्रावकत्व में ही संतुष्ट रहना नहीं चाहता। मुमुक्षु व्यक्ति का साध्य होता है-पूर्ण आत्म-स्वातन्त्र्य। आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अर्थ और काम बंधन हैं। श्रावक परिग्रह के परिमाण से अपरिग्रह की ओर बढ़ना चाहता है। मुनिजीवन के लिए पूर्ण अकिंचनता अपेक्षित है। अतः उसका पहला संकल्प है परिग्रह-त्याग का। धन, स्वर्ण, चांदी, मुक्ता, दास-दासी आदि सभी परिग्रह हैं। शरीर के प्रति जो आसक्ति है वह उसे छोड़ने का संकल्प करता है। परिग्रह बंधन है। एक कवि के शब्दों में देखिए-अर्थ की उत्पत्ति में दुःख उठाना होता है। उत्पन्न अर्थ की सुरक्षा करनी होती है। उसमें भी दुःख है। आय में दुःख है और व्यय में भी दुःख है। अतः अर्थ दुःख का स्थान है। श्रावक परिग्रह से मुक्त होने के लिए प्रतिदिन यह संकल्प करता है कि कब मैं अल्पमूल्य या बहुमूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा। दूसरा आदर्श उसके सामने मुनि का है, जिसका जीवन निश्चित, निराबाध, निर्द्वन्द्व और निरापद है। एक कवि ने गाया है-जिस साधु-जीवन में न राज्य-भय है, न चोरों का डर है, न आजीविका भय है और न किसी के वियोग का भय है, वह ऐहिक और पारलौकिक दोनों जीवन के लिए कल्याणकारी है। वहां समस्त असत् प्रवृत्तियों का निरोध होता है। आत्मा को निकट से देखने के लिए यह अति उत्तम जीवन है। अतः वह कहता है.......कब मैं मुंड हो, गृहस्थपन छोड़, साधुव्रत स्वीकार करूंगा। शरीर सब कुछ नहीं है। आत्म-धर्म के सामने यह गौण है। भोजन से शरीर टिकता है। शरीर साधन है। साध्यसिद्धि के लिए उसे भोजन दिया जाता है। जब वह जीर्ण हो जाता है, साध्य में सहायक नहीं होता, तब उसका त्याग किया • जाता है। शरीर के प्रति जो कुछ लगाव होता है उससे हटकर साधक सम बन जाता है। फिर उसे मृत्यु का डर नहीं - सताता। शरीर छूटता है, चाहे साधक उसे छोड़े या साधक को वह छोड़े। इसलिए तीसरा संकल्प है कब मैं समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त करूंगा। ११. श्रमणोपासना कार्या, श्रवणं तत्फलं भवेत्। ततः सजायते ज्ञान, विज्ञानं जायते ततः॥ श्रमणों की उपासना करनी चाहिए। उपासना का फल धर्मश्रवण है। धर्म-श्रवण से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान उत्पन्न होता है। १२.प्रत्याख्यानं ततस्तस्य, फलं भवति संयमः। अनास्रवस्तपस्तस्माद्, व्यवदानञ्च जायते॥ विज्ञान का फल है प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान का फल है संयम। संयम का फल है अनाश्रव-कर्म-निरोध। अनास्रव का फल है तप और तप का फल है व्यवदान-कर्म-निर्जरण। १३.अक्रिया जायते तस्मानिर्वाणं तत्फलं भवेत्। • महान्तं जनयेल्लाभं, महतां संगमो महान॥ व्यवदान का फल है अक्रिया-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध और अक्रिया का फल है निर्वाण। इस प्रकार महापुरुष के संसर्ग से बहुत बड़ा हित होता है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ॥ व्याख्या ॥ उपासना का अर्थ है- समीप बैठना । अच्छाई की उपासना करने से व्यक्ति अच्छा बन जाता है और बुराई की उपासना करने से बुरा। हम जिनकी उपासना करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। श्रावक के उपास्य हैं-अरिहंत, सिद्ध और धर्म उपासना केवल शारीरिक न हो, वह मानसिक भी होनी चाहिए। मन और शरीर की एकाग्रता मनुष्य को साध्य तक पहुंचा देती है। श्रावक के निकटतम उपास्य है-मुनि, श्रमण । आत्मा का दर्शन खण्ड-३ श्रमण की उपासना व्यक्ति को केवल श्रमण ही नहीं बनाती, वह मुक्त भी करती है। उपासना का आदि-चरण है। श्रवण-सुनना और अंतिम चरण है-निर्वाण उपासना के दस फल ये हैं : १. श्रवण-तत्त्वों को सुनना । २. ज्ञान-सत् और असत् का विवेक । ३. विज्ञान-तत्त्वों का सूक्ष्म और तलस्पर्शी ज्ञान । ४. प्रत्याख्यान - हेय का त्याग और उपादेय का स्वीकार । ५. संयम - आत्माभिमुखता । ६. अनाश्रव - कर्म आने के मार्गों का अवरोध । ७. तप- आत्मा को विजातीय तत्त्व से वियुक्त कर अपने आप में युक्त करना। यह बारह प्रकार का है। ८. व्यवदान - पूर्व संचित कर्मों के क्षय होने से होने वाली विशुद्धि । - ९. अक्रिया - आत्मा के समस्त कर्म जब पृथक् हो जाते हैं तब मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति रुक जाती है, वह अक्रिया है। १०. निर्वाण - आत्मा का पूर्ण उदय, कर्मों का सर्वथा विलय । सत्संगति का एक क्षण भी संसार सागर से पार कर देता है। नारद ने भगवान् से कहा- मुझे मुक्ति दो भगवान् ने कहा-मैं स्वर्ग दे सकता हूं, और कुछ दे सकता हूं, किन्तु मुक्ति नहीं । मुक्ति के लिए संतों के पास जाओ।' संत वह है जिसने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। संत होने का अर्थ है-अपने पूरे जीवन को सत्य के लिए समर्पित करना, परमात्मा के सिवाय और कुछ नहीं चाहना अस्तित्व के उद्घाटन में जो अपने जीवन को लगा देता है, जिसने सत्य साक्षात्कार कर लिया ऐसे व्यक्ति के समीप होने का अर्थ है-उपासना उसके पास धर्म होता है वह धर्म सुना सकता है। जिसके पास धर्म न हो, वह धर्म कैसे दे सकता है ? महावीर कहते हैं- संत की उपासना से व्यक्ति को धर्म का सुनना मिलता है। जीवन में सबसे पहला कदम ही मुख्य होता है। अगर वह गलत दिशा में उठ जाता है तो आदमी भटक जाता है। यदि वह सही दिशा में उठ जाए तो मंजिल निकट हो जाती है। यह कहना चाहिए कि प्रथम कदम में ही प्रायः व्यक्ति चूक जाता है। इस उलझन भरे विश्व में सही दिशाबोधक कठिनतम है एक कवि ने कहा है-'कुछ व्यक्ति अज्ञान के कारण नष्ट होते हैं, कुछ व्यक्ति प्रमाद के कारण नष्ट होते हैं, कुछ ज्ञान के अवलेप (विद्या के घमंड के कारण नष्ट होते हैं और कुछ दूसरे नष्ट व्यक्तियों के संपर्क में आकर नष्ट होते हैं।' धर्म की दिशा में पहला पाठ ठीक मिल जाए तो आत्म-दर्शन कोई असाध्य नहीं है। महावीर ने इसकी पूरी कड़ी प्रस्तुत की है। धर्म के श्रवण से उसका ज्ञान होता है और उस ज्ञान से व्यक्ति को विज्ञान - सत्यासत्य के निर्णय की क्षमता मिलती है। वह असत्य को असत्य और सत्य को सत्य देख लेता है। फिर उसके प्रत्याख्यान होता है। वह असत्य के आवरण-जाल से मुक्त हो जाता है। फिर उसके संयम होता है। वह स्वभाव में चला आता है। स्वभाव में स्थिर होने पर विजातीय तत्त्वों के आगमन का द्वार बन्द हो जाता है। भीतर तप की अग्नि प्रज्व हो जाती है। वह अग्नि कर्म (विजातीय मल) को जलाकर भस्म कर देती है। साधक शुद्ध हो जाता है। वह स्वयं के ही स्वभाव से छलाछल भर जाता है और पूर्ण अक्रिय हो जाता है। यह समुचित कदम का सुफल है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि १४. निश्चये व्रतमापन्नो, व्यवहारपटुः समभावमुपासीनोऽनासक्तः A ३५७ गृही। कर्मणीप्सिते ॥ ॥ व्याख्या ॥ श्रावक एक सामाजिक व्यक्ति होता है। उस पर घरेलू, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियां भी होती हैं। धर्म की आराधना करता हुआ वह उनसे विमुख नहीं हो सकता संयम और व्रत-त्याग में निष्ठा रखता हुआ भी व्यवहार जगत् से अपने संबंध बनाये रखता है। लेकिन अंतर इतना है कि यदि वह संयमयुक्त है तो गृह कार्य करता हुआ भी उनमें अनुरक्त नहीं होता; जबकि एक असंयमवान व्यक्ति उन्हीं कार्यों में रचा-पचा रहता है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा- 'जो केवल व्यवहार जगत् में जागरूक रहता है, वह आत्म-जगत् की दृष्टि से सुप्त है और जो आत्म जगत् में जागृत रहता है वह व्यवहार जगत् में सुप्त है। आत्म जगत् में जागृत रहने से हमारा व्यवहार बंद नहीं होता, किन्तु व्यवहार में जो आसक्ति होती है वह खत्म हो जाती है।. अ. १५ : गृहिधर्मचर्या जो गृहस्थ अंतरंग में व्रतयुक्त है और व्यवहार में पटु है, वह समभाव की उपासना करता हुआ इष्टकार्य में आसक्त नहीं होता। साधक के लिए व्यवहार गौण है और आत्मा प्रधान है। वह आत्म-हित को खोकर कहीं प्रवृत्त नहीं हो सकता । · भगवती आराधना में कहा है- 'आभ्यन्तर शुद्धि के साथ बाह्य-व्यवहार-शुद्धि तो अवश्यंभावी है । बहिरंग दोष इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति भीतर में शुद्ध नहीं है।' व्यवहार-शुद्धि धोखा भी हो सकती है। गृहस्थ श्रावक जो अपनी अंतश्चेतना में उतर गया, वह बाहर में लिप्त नहीं होता। 'अभोगी नोवलिप्यह' - आत्मानुरक्त व्यक्ति उपलिप्त नहीं होता। जीवनचर्या उसकी भी होती है, वह व्यवहार में कार्य भी करता है, किन्तु अपने केन्द्र को छोड़ता नहीं। । १५. अज्ञानकष्टं कुर्वाणा, हिंसयां मिश्रितं बहु मुमुक्षां दधतोऽप्येके, बध्यन्तेऽज्ञानिनो जनाः ॥ १६. कर्मकाण्डरताः केचिद्, हिंसां कुर्वन्ति मानवाः । स्वर्गाय यतमानास्ते, नरकं यान्ति दुस्तरम् ॥ अविवेकपूर्ण ढंग से बहुत सारे हिंसा मिश्रित कष्टों को झेलने वाले अज्ञानी लोग मुक्त होने की इच्छा रखते हुए भी कर्मों से आबद्ध होते हैं। क्रियाकाण्ड में आसक्त होकर जो लोग हिंसा करते हैं, वे स्वर्ग-प्राप्ति का प्रयत्न करते हुए भी दुस्तर नरक को प्राप्त होते हैं। ॥ व्याख्या ॥ महावीर कंष्ट सहिष्णु थे और कष्टों के आमंत्रक भी थे। समागत या आमंत्रित कष्टों में उनकी धृति अविच्युत थी। उनकी दृष्टि आत्मा पर थी। वे आत्म-निखार में सतत जागरूक थे। इसलिए उन्होंने आत्म-विस्मृत होकर कष्ट सहने का समर्थन नहीं किया? और न हिंसापूर्ण वृत्तियों का रत्नसार में आचार्य कहते हैं-क्रोध को दंडित नहीं कर शरीर को दंडित करना बुद्धिमानी नहीं है। उससे शुद्धि नहीं होती। सांप को न मार कर सर्प के बिल पर मार करने से सर्प नहीं मारा . जाता।' केवल देह-दंड से नहीं, आंतरिक कषाय शत्रुओं को परास्त करने से ही आत्म-बोध संभव है । जिस प्रक्रिया से दूसरों को उत्पीड़न न हो और विजातीय तत्त्व का रेचन हो, वह तप है। आत्म-बोध यदि तप से नहीं होता है तो वह तप अज्ञान तप की कोटि में चला जाता है। महावीर अज्ञान तप के प्रशंशक नहीं; अपितु उसके प्रबल विरोधक थे। वे शुद्ध क्रिया के समर्थक थे। चाहे कोई भी व्यक्ति कहीं पर करता हो, उनकी दृष्टि में वह समादरणीय था। अनेक अन्य मतावलंबी व्यक्तियों की भी महावीर ने प्रशंसा की थी। किन्तु हिंसापूर्ण क्रिया और आत्मज्ञान को आवृत करने वाले कार्यों से वांछित वस्तु की प्राप्ति को वे असंभव मानते थे । वे ही क्रियाकांड महत्त्वपूर्ण और उपादेय हैं जो व्यक्ति को आत्मा के निकट ले जाते हैं जिनसे आत्मा दूर होती है। वे कैसे उपादेय हो सकते हैं।' योगसार में कहा है-'गृहस्थ हो या साधु, जो आत्मस्थ होता है, वही सिद्धि - सुख को प्राप्त कर सकता है, ऐसा जिन-भाषित है।' परमात्म प्रकाश में कहा है- 'संयम, शील, तप, दर्शन और ज्ञान सब आत्म शुद्धि में Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३५८ खण्ड-३ है। आत्म-शुद्धि से ही कर्मक्षय होता है, इसलिए आत्म-शुद्धि प्रधान है।' महावीर कहते हैं-गलत दिशा में चलकर कोई भी व्यक्ति अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। इससे तो वह वहीं पहुंचता है जहां पहुंचना नहीं चाहता। साध्य और साधन-दोनों की शुद्धि अत्यंत अपेक्षित है। १७.आत्मानः सदृशाः सन्ति, भेदो देहस्य दृश्यते। स्वरूप की दृष्टि से सब आत्माएं समान हैं। उनमें केवल आत्मनो ये जुगुप्सन्ते, महामोहं व्रजन्ति ते॥ शरीर का अन्तर होता है। जो आत्माओं से घृणा करते हैं, वे महा-मोह में फंस जाते हैं। १८.उच्चगोत्रो नीचगोत्रः, सामग्रया कथ्यते जनैः। प्रशस्त सामग्री के प्राप्त होने से आत्मा उच्चगोत्र वाला और न हीनो नातिरिक्तश्च, क्वचिदात्मा प्रजायते॥ अप्रशस्त सामग्री के प्राप्त होने से वह नीचगोत्र वाला कहलाता है। वस्तुतः कोई भी आत्मा किसी भी आत्मा से न उच्च है और न नीच। १९.प्रज्ञामदं नाम तपोमदञ्च, धीर पुरुष वह होता है जो बुद्धि, तप. और गोत्र के मद का ___ निर्णामयेद् गोत्रमदञ्च धीरः। उन्मूलन करे। जो दूसरे को प्रतिबिम्ब की भांति तुच्छ मानता है, अन्यं जनं पश्यति बिम्बभूतं, उसके लिए जाति या कुल शरणभूत नहीं होते। न तस्य जातिः शरणं कुलं वा॥ ॥ व्याख्या ॥ जो धार्मिक हैं, किन्तु जिनके अज्ञान का आवरण हटा नहीं है, वे धार्मिक होते हुए भी वृत्तियों से धार्मिक नहीं होते। उनकी दृष्टि अभी बाहर स्थित है। वे बाह्य वातावरण से प्रभावित हैं तथा बाह्य वस्तुओं के संयोग-वियोग से महान् और क्षुद्र की कल्पनाएं करते हैं। धर्म का अभ्युदय होने पर बाह्य-वस्तुओं का वैशिष्ट्य समाप्त हो जाता है। एक साथ दो चीजें नहीं रह सकती। जीसस ने कहा है-'कोई दो स्वामियों की सेवा एक साथ नहीं कर सकता। चाहे ईश्वर की आराधना करो या कुबेर की। ईश्वर चाहता है-त्याग और समर्पण, और कुबेर चाहता है-संग्रह तथा शोषण।' एक और भी उनका महत्त्वपूर्ण वचन है-'मैं तुम्हारा भगवान् बड़ा मानी हूं। मैं किसी दूसरे की सत्ता को नहीं सह सकता। चाहे तुम मुझे प्रसन्न कर लो या शैतान को।' धर्म की ज्योति प्रज्वलित होने के बाद भेदों की दीवार खड़ी नहीं रह सकती। धुएं की दीवार के लिए तेज हवा का झोंका पर्याप्त है। मायाजन्य मान्यताएं-मैं बड़ा हूं, विद्वान हूं, पूज्य हैं, उच्च हूं-आदि ज्ञान के प्रकाश में कब तक टिक सकती है? व्यक्ति दूसरों को तुच्छ और घृणित तब तक ही समझता है जब तक उसे स्वयं का बोध नहीं है। मंसूर एक महान् सूफी साधक हुआ है। उसने कहा-'अगर परमात्मा भी मुझे मिल जाय तो क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी, क्योंकि उसके सिवा मैंने किसी में कुछ देखा ही नहीं।' जो सबमें आत्मा को देखने लगता है वह कैसे दूसरों का तिरस्कार कर सकेगा? आत्म-बुद्धि जागृत हो जाए तब द्वैत का प्रश्न नहीं उठता। किन्तु उससे पूर्व भी यदि धार्मिक व्यक्ति दूसरों में आत्मा-परमात्मा को देखने लगे तो अनेक आंतरिक और बाह्य समस्याएं तिरोहित हो सकती हैं और वह व्यर्थ के क्षुद्रतम पापों से निवृत्त रह सकता है। २०.नात्मा शब्दो न गन्धोऽसौ,रूपं स्पर्शो न वा रसः। आत्मा न शब्द है, न गंध है, न रूप है, न स्पर्श है, न रस है, न वर्तुलो न वा यस्रः, सत्ताऽरूपवती ह्यसौ॥ न वर्तुल-गोलाकार है और न त्रिकोण है। वह अमूर्त सत्ता है। ॥ व्याख्या ॥ वृहदारण्य उपनिषद् में जनक याज्ञवल्क्य से पूछता है कि आत्मा क्या है ? याज्ञवल्क्य ने कहा-जो वह विज्ञानस्वरूप और ज्योतिर्मय है वह आत्मा है। यह आत्मा के शुद्ध स्वरूप का निरूपण है। क्या आत्मा के शरीर, वाणी, मन, बुद्धि, आंख, नाक, कान, हाथ, पैर, मुंह, आदि है ? इनके उत्तर में हम वेदों में 'नेति' पाते हैं। ये आत्मा नहीं हैं। इनसे आत्मा का बोध होता है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३५९ अ. १५ : गृहिधर्मचर्या आत्मा अमूर्त है। शरीर, इन्द्रिय इत्यादि मूर्त हैं। मूर्त वस्तु अमूर्त को ग्रहण नहीं कर सकती। आकार-प्रत्याकार पौद्गलिक वस्तुओं के होता है, चेतन में नहीं। आत्मा की खोज आत्मा से ही होती है। प्रश्नोपनिषद् में कहा है-'तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या से आत्मा की खोज करो।' शब्दों का प्रयोग करने वाला, गंध का अनुभव करने वाला, स्पर्श और रस की अनुभूति करने वाला आत्मा है। शरीर की लंबी-चौड़ी रचना में आत्मा का योग है। जड़ शरीर में संवर्धन की शक्ति नहीं है। आत्मा अक्षुण्ण है। उसमें घटने और बढ़ने की क्रिया नहीं होती। २१.न पुरुषो न वापि स्त्री, नैवाप्यस्ति नपुंसकम्। आत्मा न पुरुष है, न स्त्री है और न नपुंसक। वह विचित्र विचित्रपरिणामेन, देहेऽसौ परिवर्तते॥ परिणतियों द्वारा शरीर में परिवर्तित होता रहता है। ॥ व्याख्या ॥ पुरुष, स्त्री आदि शब्दों का व्यवहार शरीर-रचना सापेक्ष है। शरीर आत्मा नही है किंतु आत्मा का निवासस्थान है। आत्मा विभिन्न शरीरों को धारण कर तद्रूप बन जाती है। उसे अनेक संज्ञाएं मिल जाती हैं। लेकिन आत्मा इन सबसे पृथक् है। वह चिदानंद स्वरूप है। २२. असवर्णः सवर्णो वा, नासौ क्वचन विद्यते। आत्मा न सवर्ण है और न असवर्ण। वह स्वरूप की दृष्टि से अनन्तज्ञान-सम्पन्नः, संपर्येति शुभाशुभैः॥ अनन्तज्ञान से युक्त है। शुभ, अशुभ कर्मों के द्वारा बद्ध होने के कारण वह संसार में परिभ्रमण करता है। ॥ व्याख्या ॥ वर्णसंकर-स्वर्णिक और स्पृश्य-अस्पृश्य की मान्यताएं तात्त्विक नहीं हैं। ये व्यवहार-भेद पर आश्रित हैं। आत्मा अनंत ज्ञानमय है। वह एक स्पृश्य में है, वैसे ही अस्पृश्य में है। मनुष्येतर प्राणियों में भी आत्मा के मूलरूप में कोई अंतर नहीं है। गीता कहती हैं-पंडित लोग सुशिक्षित और विनयशील ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते या चांडाल को समान दृष्टि से देखते हैं। २३. गेहाद् गेहान्तरं यान्ति, मनुष्याः गेहवर्तिनः। घर में रहने वाले मनुष्य जैसे एक घर को छोड़कर दूसरे घर ____ देहाद् देहान्तरं यान्ति, प्राणिनो देहवर्तिनः॥ में जाते हैं उसी प्रकार शरीर में रहने वाली प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं। ॥ व्याख्या ॥ शुद्ध आत्मा का संसरण नहीं होता। शरीरधारी आत्मा संसरण करती है। एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर धारण करने से आत्मा का स्वभाव परिवर्तन नहीं होता। यदि शरीर के साथ आत्मा का विनाश माना जाये तो उसका चैतन्य स्वरूप नहीं रह सकता। चैतन्य आत्मा का अनन्य सहचारी धर्म है। वह कभी पृथक् नहीं हो सकता। आत्मा अजर और अमर है। गीता में भी कहा है-'वह कभी जन्म नहीं लेता और न कभी मरता ही है। उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। वह अजन्मा, शाश्वत, नित्य और प्राचीन है। शरीर के मर जाने पर भी वह नहीं मरता। २४.नासौ नवो नवा जीर्णो, नवोपि च पुरातनः। आत्मा न नया है और न पुराना-यह द्रव्यार्थिक दृष्टि है। आत्मा आधा द्रव्यार्थिकी दृष्टिः पर्यायार्थगता परा॥ नया भी है और पुराना भी यह पर्यायार्थिक दृष्टि है। २५.नवोऽपि च पुराणोऽपि, देहो भवति देहिनाम्। शैशवं यौवनं तत्र, वार्धक्यञ्चापि जायते॥ जीवों का शरीर नया भी होता है और पुराना भी। शरीर में शैशव, यौवन और वार्धक्य-बुढ़ापा भी होता है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३६० ॥ व्याख्या ॥ आत्मा पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। नये और पुराने का व्यवहार आत्मा में इसलिए नहीं होता कि वह सर्वकालिक है न उसका स्वरूप पुराना होना है न नया। दोनों शब्द सापेक्ष हैं। एक रूप को छोड़कर दूसरे रूप में आना नया है और जिसे छोड़ा जाता है वह पुराना है। आत्मा में वैसा नहीं होता । द्रव्यार्थिकदृष्टि से वस्तु का स्वभाव-धर्म अपरिवर्तित होता है। खण्ड-३ पर्यायार्थिकदृष्टि भिन्न है वह पदार्थों की अवस्थाओं को देखती है। अवस्थाएं बदलती है अतः नये और पुराने शब्दों का व्यवहार इसमें हो जाता है। आत्मा एक अवस्था का त्याग कर दूसरी अवस्था में आती है तब वह पहले की अपेक्षा नयी है और नये की अपेक्षा पुरानी शैशव, यौवन और बुढ़ापा एक ही शरीर की तीन अवस्थाओं से आत्मा में बालक, युवक और वृद्ध शब्दों का व्यवहार हो जाता है। गीता कहती है-'इस शरीर में आत्मा बचपन, यौवन और वार्धक्य में से गुजरती है। यह शरीर की दशा है। आत्मा उसमें वही है। शरीर का अंत हो जाता है तब आत्मा नये शरीर को बना लेती है। यह क्रम मुक्ति के अनंतर रुक जाता है। प्राणों के वियोजन से धीर मनुष्य खिन्न नहीं होते। वे सत्य को जानते हैं। २६. देहस्योपाधिभेदेन यो वात्मानं जुगुप्सते । नात्मा तेनावबुद्धोऽस्ति नात्मवादी स मन्यताम् ॥ शरीर की भिन्नता होने के कारण जो दूसरी आत्मा से घृणा करता है, उसने आत्मा को नहीं जाना। उसे आत्मवादी नहीं मानना चाहिए। ॥ व्याख्या ॥ शरीर की भिन्नता के पीछे आत्मा की भिन्नता नहीं है। आत्मा एक है, सदृश है। जिसे आत्मा ज्ञात है, दृष्ट है वह आकृति को महत्त्व नहीं देता और न शरीर भेद के आधार पर किसी का आदर और अनादर करता है शरीर को महत्त्व देने का अर्थ है-राग-द्वेष को महत्त्व देना। देहाश्रित सम्मान व अपमान दोनों ही उसके लिए बंधन के कारण होते हैं। आत्मवादी बाह्य को प्राधान्य नहीं देता। वह जानता है, समझता है कि यह आकार भेद है, चैतन्य भेव नहीं किन्तु अनात्म- द्रष्टा की दृष्टि ऊपर की ओर नहीं उठती। वह इन्द्रियों के पार के जगत् को देखने में सक्षम नहीं होती। इसलिए वह बाहर ही उलझा रहता है। - जनक की सभा में स्वयं को आत्मवादी मानने वाले अनेक विद्वज्जन सम्मिलित हुए। तर्क-वितर्क भी चल रहे थे। अष्टावक्र मुनि के पिता भी वहीं थे। वे पराजित हो रहे थे । अष्टावक्र को पता चला। वे जनक की सभा में आए। विद्वानों ने देखा अष्टावक्र को, जो आठ स्थानों से टेड़े-मेढ़े थे। सभी विद्वान खिल-खिलाकर हंसने लगे। अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा- 'क्या यह चमारों की सभा है? केवल मेरी चमड़ी को देखने वाले चमार ही हो सकते हैं।' सभी सभासद् अवाक् रह गए। जनक को लगा यह बालक ज्ञानी है। उसने सिंहासन से नीचे उतर कर निवेदन किया-महलों में पधारें और मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें। 'अष्टावक्र गीता' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । मेघः प्राह २७. विशालवपुषः केचित् केचित् तुच्छशरीरकाः । किमस्ति सदृशो दोषः, तेषां प्राणातिपातने ? उम्मर खय्याम ने कहा है- जब मैं जवान था तो बहुत पंडितों के द्वार पर गया, वे बड़े ज्ञानी थे। मैंने उनकी चर्चा सुनी, पक्ष-विपक्ष में विवाद सुने। जिस दरवाजे से गया, उसी दरवाजे से वापस लौट आया। मेघ बोला- कुछ जीवों का शरीर विशाल है और कुछ जीवों का शरीर छोटा है। क्या उनकी हिंसा में दोष एक जैसा होता है? Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३६१ अ. १५ : गृहिधर्मचर्या भगवान् प्राह २८.ये केचित् क्षुद्रका जीवा, ये च सन्ति महालयाः। भगवान् ने कहा-कुछ जीवों का शरीर छोटा है और कुछ का तद्वधे सृदशो दोषोऽसदृशो वेति नो वदेत्॥ बडा। उन्हें मारने में समान पाप होता है या असमान-इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। ॥ व्याख्या ॥ यहां यह बताया गया है कि शरीर के छोटे-बड़े आकार पर हिंसा-जन्य पाप का माप नहीं हो सकता। जो व्यक्ति यह मानते हैं कि छोटे प्राणियों की हिंसा में कम पाप होता है और बड़े प्राणियों की हिंसा में अधिक पाप होता है, भगवान् महावीर की दृष्टि से यह मान्यता सम्यक् नहीं है। पाप का संबंध जीव-वध से नहीं किन्तु भावना से है। भावों की क्रूरता से जीव-हिंसा के बिना भी पापों का बंधन हो जाता है। मन, वाणी और शरीर की हिंसासक्त चेष्टा से छोटे जीव की हिंसा में भी पाप का बंध प्रबल हो जाता है और परिणामों की मंदता से वहां बड़े जीव की हिंसा में भी पाप का बंध प्रबल नहीं होता। अल्पज्ञ व्यक्तियों के लिए यह कहना कठिन है कि 'पाप कहां अधिक है और कहां कम।' परिणामों की तरतमता ही न्यूनाधिकता का कारण है। २९.हंन्तव्यं मन्यसे यं त्वं, स त्वमेवासि नापरः। जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है कोई दूसरा नहीं है। यमाज्ञापयितव्यञ्च, स त्वमेवासि नापरः॥ जिस पर तू अनुशासन करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा ३०. पारितापयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः। ___ नहीं है। जिसे तू संतप्त करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। जिसे तू दास-दासी के रूप में अपने अधीन करना चाहता यञ्च परिग्रहीतव्यं, स त्वमेवासि नापरः॥ है, वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। जिसे तू पीड़ित करना चाहता है, ३१.अपद्रावयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः। वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। सब जीवों में संवेदन-कष्टानुभूति अनुसंवेदनं ज्ञात्वा, हन्तव्यं नाभिप्रार्थयेत्॥ होती है. यह जानकर किसी को मारने की इच्छा न करे। (त्रिभिर्विशेषकम्) रापकम् . ॥ व्याख्या ॥ आत्मवादी के लिए कोई 'दूसरा' नहीं होता और अनात्मवादी के लिए कोई 'एक' नहीं होता। एक बाहर देखता है और एक भीतर। जो भीतर उतरा, उसने पाया अभेद और जो बाहर खोजता रहा उसने पाया भेद। असुर और देवता एक 'आत्मद्रष्टा ऋषि के पास पहुंचे। ऋषि से आत्मबोध की याचना की। संत ने कहा-'तत्त्वमसि'-जिसे खोज रहे हो वह तुम ही हो। दोनों चले आए। दोनों को संतोष हो गया कि यह देह ही आत्मा है। दोनों भोग-विलास में मस्त हो गए। किन्तु देवता को संतोष नहीं हुआ। उसे लगा-गुरु संत इस शरीर के लिए नहीं कह रहे हैं। यह शरीर तो प्रत्यक्ष मरणधर्मा है। वह आया और पूछा-क्या आपका अभिप्राय आत्मा शब्द से शरीर से है ? किन्तु शरीर विनश्वर है, आत्मा नहीं। संत ने उसी तत्त्व का उपदेश फिर दिया-वह तू ही है। प्राण के विषय में सोचा, किन्तु लगा प्राण तो उससे ही स्पंदित होते हैं। वह न हो तो प्राणों का क्या मूल्य! फिर मन के संबंध में सोचा। मन चंचल हैं। प्रतिक्षण बदलता रहता है। वह आत्मा तो अपरिवर्तनीय है। मैं मन से पार जो अनंत शक्ति सम्पन्न, अजर, अमर है 'वह हूं।' जिज्ञासा से अपने भीतर जो था उसे खोज लिया। असुर देह पर रुक गए। देवता मंजिल पर पहुंच गए। देवता अभेद में जीने लगे और असुर द्वैत में। महावीर का यह स्वर पूर्ण अद्वैतवाद का है। वे कह रहे हैं-दूसरा कोई नहीं है। किन्तु जिनकी प्रज्ञा-चक्षु निमीलित है, वे बाह्य भेद के आधार पर दूसरों का उत्पीड़न करते हैं, शोषण करते हैं। उन्हें अपने अधीनस्थ बनाते हैं और उन पर अनुशासन करते हैं। वस्तुतः वे स्वयं की हिंसा करते हैं; स्वयं को पीड़ित करते हैं। स्वयं की असत् प्रवृत्ति से स्वयं ही बंधन में फंसते हैं। प्रत्येक आत्मा पूर्ण स्वतंत्र है। दूसरों के निमित्त से हम अज्ञानवश स्वयं को दंड देते हैं। ज्ञान के प्रकाश में गल्ती करने वाला दंडनीय है। उसे बोध नहीं है। वह तो करुणा का पात्र है। उस पर क्रोध कर स्वयं को दंड नहीं दिया जाए। खलील जिब्रान ने कहा है-'अच्छी तरह आंख खोलकर देख, तुझे हर सूरत में अपनी सूरत नजर आएगी। अच्छी तरह कान खोल कर सुन, तुझे हर आवाज में अपनी आवाज सुनाई देगी।' Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३६२ खण्ड-३ ३२.परिणामिनि विश्वेऽस्मिन्, अनादिनिधने ध्रुवम्। सर्वे विपरिवर्तन्ते, चेतना अप्यचेतनाः॥ यह संसार नाना रूपों में निरंतर परिणमनशील और आदिअंत रहित है। इसमें चेतन और अचेतन- सब पदार्थों की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती हैं। मेघः प्राह ३३. उत्पादव्ययधर्माणो, भावा ध्रौव्यान्विताः तदा। किमात्मा शाश्वतो देहोऽशाश्वतो विद्यते विभो! मेघ बोला-प्रभो! सब पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यधर्मयुक्त हैं, तब फिर आत्मा शाश्वत और देह अशाश्वत क्यों? भगवान् प्राह ३४. पर्यायापेक्षया धीमन् आत्माप्येषु न शाश्वतः। पुद्गलापेक्षया नूनं, शरीरञ्चापि शाश्वतम्॥ भगवान् ने कहा-धीमन्! पर्याय की अपेक्षा से आत्मा भी शाश्वत नहीं है और पुद्गल की अपेक्षा से शरीर भी शाश्वत है। ॥ व्याख्या ॥ इस जगत में जितने भी द्रव्य हैं, वे शाश्वत और अशाश्वत दोनों हैं, द्रव्यत्व की अपेक्षा से शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत है। गुण और पर्याय इन दोनों का समन्वित रूप द्रव्य है? द्रव्य अपने मौलिक गुण को किसी भी अवस्था में नहीं छोड़ता। वह सतत उसके साथ रहता है। आत्मा का स्वभाव-गुण चैतन्य है, वह चैतन्य एकेन्द्रिय वाली आत्माओं में भी विद्यमान है, पंचेन्द्रिय जीवों में विद्यमान है और अतीन्द्रिय सिद्ध अवस्था में भी विद्यमान है। गीता में कहा है-वस्त्रों के जीर्ण होने पर नये वस्त्रों को जैसे धारण किया जाता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीरों को त्याग कर नये शरीरों का धारण करता है, किन्तु आत्मा वैसा का वैसा ही रहता है। यह शरीरों का धारण करना पर्यायें हैं। जैसे शरीर धारण आत्मा की पर्यायें है वैसे पुद्गलात्मक है। पुद्गलों का अपना गुण है-वे अवस्थाएं बदलने के साथ गुण को नहीं बदलते। एक ही जीवन में एक ही शरीर कितनी पर्यायें बदल लेता हैं। सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाएं तो परिवर्तन का क्रम अनवरत चलता है। बौद्ध इसी पर्यायदृष्टि को प्रधान रखकर कहते हैं-सब कुछ क्षणक्षयी है। जो पदार्थ इस क्षण है वह दूसरे क्षण में नहीं है। नदी का पानी जो बह रहा है, दूसरे क्षण वह नहीं है। भगवान् महावीर ने कहा-पर्यायों का परिवर्तन प्रतिक्षण सब द्रव्यों में होता है। आत्मा गुण की दृष्टि से शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत है। वैसे शरीर भी पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से शाश्वत है और पुद्गल के पर्याय-परिवर्तन की अपेक्षा से अशाश्वत है। मेघः प्राह ३५.आत्मास्तित्वमुपेतोऽपि, कथं दृश्यो न चक्षुषा? मेघ बोला-भगवन् ! आत्मा का अस्तित्व है फिर भी वह चक्षु के द्वारा दृश्य क्यों नहीं है? भगवान् प्राह जीवपुद्गलयोगेन, दृश्यं जगदिदं भवेत्॥ भगवान् ने कहा-वत्स! यह जगत् जीव और पुद्गल के संयोग से दृश्य बनता है। ३६. आत्मा न दृश्यतामेति, दृश्यो देहस्य चेष्टया। देहेऽस्मिन् विनिवृत्ते तु, सधोऽदृश्यत्वमृच्छति॥ आत्मा स्वयं दृश्य नहीं है, वह शरीर की चेष्टा से दृश्य बनता है। शरीर की निवृत्ति होने पर वह तत्काल अदृश्य बन जाता है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि अ. १५ : गृहिधर्मचर्या ॥ व्याख्या ॥ • विज्ञान और धर्म में कोई दूरी है तो यह है कि विज्ञान जितना दृश्य को स्वीकार करता है, उतना अदृश्य को नहीं। विज्ञान की दृष्टि है कि जिसका माप हो वही तत्त्व है। धर्म कहता हैं-अमाप्य भी तत्त्व है। आप सब कुछ माप सकते हैं। किन्तु आत्मा या अमूर्त को नहीं। दृश्य ही सब कुछ नहीं है। यह स्वयं निष्चेष्ट-निष्क्रिय है, यदि उसके पीछे अदृश्य का हाथ न हो तो। दृश्य महान् नहीं है। महान् है-अदृश्य, जिसकी सत्ता सर्वत्र काम कर रही है। पांच फुट के इस छोटे शरीर में जो स्वचालित प्रक्रिया हो रही है, यह क्या उस अदृश्य की सूचना नहीं दे रही है ? वैज्ञानिक कहते हैं-'यदि इस शरीर का निर्माण हमें करना पड़े तो कम से कम दस वर्गमील में एक कारखाना बनाना पड़े।' दृश्य शरीर की चेष्टा से अदृश्य का बोध होता है। उसे नकारा नहीं जाता। आज वैज्ञानिक भी उसके निकट पहुंच रहे हैं और उसकी सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। बहुतों ने अपनी खोज के संबंध में कहा है-इस तथ्य का पता हमें किसी अज्ञात जगत से मिला है। शरीर के सो जाने पर भी चेतना नहीं सोती। . ३७.स्पर्शाः रूपाणि गन्धाश्च, रसा येन जिहासिताः। आत्मा तेनैव लब्धोऽस्ति,स भवेदात्मविद् पुमान्॥ जिसने स्पर्श, रूप, गंध और रसों की आसक्ति को छोड़ना चाहा, आत्मा उसी को प्राप्त हुआ है और वही आत्मवित् है। ना . ॥ व्याख्या ॥ आत्मा का अनुभव इन्द्रिय-विषयों से परे हटने पर होता है। जब तक इन्द्रिय और मन की हलचल होती रहती है तब तक आत्मा सुप्त रहती है। जब आत्मा जागती है तब वे सो जाते हैं। गीता में लिखा है-'इन्द्रियों के विषय उस शरीरधारिणी आत्मा से विमुख हो जाते हैं, जो उसका आनंद लेने से दूर रहती है। परंतु उनके प्रति रस (लालसा) फिर भी बनी रहती है। जब भगवान् (आत्मा) के दर्शन हो जाते हैं तब वह रस भी जाता रहता है।' ___ फारसी धर्म में भी दो प्रकार की बुद्धि का उल्लेख है-प्राकृतिक बुद्धि और शिक्षा के द्वारा होने वाली बुद्धि। प्राकृतिक बुद्धि आत्मा के निकट की बुद्धि है। वह प्रत्येक गलत चरण को रोकने के लिए संकेत देती है। इसके ढंक जाने पर मनुष्य बाहर की दुनिया में चला जाता है। आत्मविद् वह है जो आत्म-जगत् के आनंद का अनुभव करता है। ३८.श्रुतवन्तो भवन्त्येके, शीलवन्तोऽपर जनाः। पुरुष चार प्रकार के होते हैं- १. श्रुतसंपन्न-ज्ञानवान् श्रुतशीलयुता एके, एके द्वाभ्यां विवर्जिताः॥ २. शीलसंपन्न ३. श्रुतसंपन्न और शीलसंपन्न ४. न श्रुतसंपन्न और न शीलसंपन्न। ३९.श्रुतवान् मोक्षमार्गस्य, देशेन स्याद् विराधकः। जो पुरुष केवल श्रुतसंपन्न होता है, वह मोक्ष-मार्ग का देश शीलवान् मोक्षमार्गस्य, देशेनाराधको भवेत्॥ विराधक-आंशिक रूप से विराधक होता है। जो पुरुष केवल शीलसंपन्न होता है, वह मोक्ष-मार्ग का देश आराधक-आंशिक रूप से आराधक होता है। ॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया-दोनों से मोक्ष मानता है। जो एकांतवादी दर्शन हैं वे केवल ज्ञान या केवल क्रिया से मोक्ष मानते हैं। यह अयथार्थ है। जहां श्रुत और आचार का समन्वय है, वहीं लक्ष्य की प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान व्यक्ति को मूढ़ बनाता है और ज्ञानशून्य क्रिया निराधार होती है। इसलिए ज्ञान से समन्वित क्रिया और क्रिया से समन्वित ज्ञान ही लक्ष्य-साधक होता है। ४०.इदं दर्शनमापन्नो, मुच्यते नेति संगतम्। कुछ लोगों का अभिमत है कि अमुक दर्शन को स्वीकार श्रुतशील-समापन्नो, मुच्यते नात्र संशयः॥ करने से व्यक्ति मुक्त हो जाता है किन्तु यह संगत नहीं है। सचाई यह है कि जो श्रुत और शील से युक्त होता है, वह निःसंदेह मुक्त हो जाता है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३६४ ४१. श्रुतशील - समापन्नः, सर्वथाऽऽराधको भवेत् । द्वाभ्यां विवर्जितो लोकः, सर्वथा स्याद् विराधकः ॥ खण्ड-३ जो श्रुत और शील से संपन्न है, वह मोक्ष-मार्ग का सर्वथा आराधक है जो श्रुत और शील-दोनों से रहित है, वह मोक्षमार्ग का सर्वथा विराधक है। ॥ व्याख्या ॥ सम्प्रदायों का यह स्वर सदा ही प्रबल रहा है। सभी यह दावा करते हैं 'सयं सयं उबद्वाणे, सिद्धि मेव न अन्नहा: कि मेरे सम्प्रदाय में आओ तुम्हारी मुक्ति होगी । मानो परमात्मा ने सम्प्रदायों के हाथों में प्रमाणपत्र दे दिया हो । मुक्ति का सूत्र सम्प्रदायों के पास हो सकता है किन्तु मुक्ति सम्प्रदायों में नहीं है। मुक्ति का अस्तित्व सबसे मुक्त है, स्वतंत्र है। सम्प्रदाय मुक्त नहीं करते, और न कोई व्यक्ति बंधन मुक्त करता है। 'बोधिधर्म' ध्यान परंपरा के एक महान् आचार्य हुए हैं। शिष्य ने उनसे जिज्ञासा की 'बुद्ध का नाम लेना चाहिए या नहीं ?' कहा- 'नहीं'। अगर नाम मुंह में आ जाए तो कुल्ला कर साफ कर लेना चाहिए। मार्ग में आते हुए मिल जाएं तो देखना नहीं, भाग जाना।' शिष्य को यह आशा नहीं थी। वह डरा। क्या कह रहे हैं? बोधिधर्म बोले- 'सुनो! यह तो कुछ भी नहीं है । जब मेरी सत्संग होती है तब एक बार स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि तलवार लेकर गर्दन काट देनी पड़ी, तभी मैं अपने को पा सका। शिष्य अवाक् रह गया। उसे यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि गुरु रोज बुद्ध प्रतिमा की पूजा करते हैं, नमस्कार करते हैं। शिष्य ने पूछा- 'फिर यह पूजा और नमस्कार क्यों करते हैं? 'बोधिधर्म' ने कहा वे गुरु हैं। उन्होंने स्वयं ही मुझे यह समझाया था कि जब मुझे छोड़ दोगे तभी अपने को प्राप्त कर सकोगे। यह तो सिर्फ अनुग्रह है। महावीर भी ठीक ऐसा ही गौतम से कह रहे हैं-'बोच्छिंदि सिणेहमप्पणो' मेरे साथ जो स्नेह है, उसे छोड़कर स्वयं में प्रतिष्ठित हो । महावीर ने कहा है- जो सम्यक्ज्ञान और सम्यग् आचरण - चरित्र सम्पन्न होते हैं, वे मुक्त होते हैं। बुद्ध ने शील, समाधि और प्रज्ञा का सूत्र दिया है। सम्यग् ज्ञान से स्वयं का बोध होता है, और चरित्र से स्वभाव में अवस्थित रहता है। जिसने स्वयं को जान लिया और स्वयं में अपनी प्रतिष्ठा बना ली, मुक्ति उससे कैसे दूर हो सकती है ? साध्य के लिए ज्ञान और आचरण अपेक्षित है। ४२. प्रशस्ताभिर्भावनाभिः, भावितः सुगतिं व्रजेत् । अप्रशस्तभावनया, सद्गतिः स्याद् विराधिता | प्रशस्त भावना से भावित पुरुष सद्गति को प्राप्त होता है। अप्रशस्त भावना से सद्गति विराधित होती है, दुर्गति प्राप्त हो जाती है। ॥ व्याख्या ॥ वर्तमान की नई चिंतन शैली ने इसे सिद्ध कर दिया है कि सुखी, शांत, प्रसन्न, स्वस्थ और चिंतनमुक्त व्यक्ति वही है - जिसका चिंतन सदा सकारात्मक होता है। सकारात्मक सोच, चिंतन व भाव में न अपना अहित होता है और न दूसरों का। निषेधात्मक भाव स्व और पर दोनों के लिए अनिष्टकारक होते हैं, किन्तु वे पर के लिए इतने नहीं होते जितने अपने लिए होते है। मनुष्य स्वास्थ्य चाहता है, शांति चाहता है किन्तु वह पॉजिटिव चिंतन को महत्त्व नहीं देता । पॉजिटिव सोच एक तपस्या है, एक साधना है और यह साधना ऐसी साधना है कि व्यक्ति इसके द्वारा सब कुछ प्राप्त कर लेता है। यह कथन सर्वथा सत्य है कि आप जैसा सोचते हैं वैसा ही बनते हैं बुरा सोचना नरक है और अच्छा सोचना स्वर्ग है। इसके लिए एक ही अपेक्षा है कि व्यक्ति अपने मन मैं क्षुद्र विचारों, भावों को प्रवेश न करने दें, जैसे ही लगे कि दूषित भाव की तरंगे उठ रही हैं इन्हें वहीं रोक दे, उनका नियमन कर लें और उनके स्थान पर शुभ, पवित्र, मंगलमय और कल्याणकारी भावों को विराजित करे लें। ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, बीमारी, अहंकार, दूसरों का अहित चिंतन, माया, दम्भ, भय, लालच आदि असंख्य नकारात्मक भाव हैं- ये सब हमारे मन, मस्तिष्क और हृदय को संकीर्ण, दूषित व रुग्ण बनाते हैं। इसलिए आगम तथा ऋषि साहित्य में सत्संकल्पों की एक लंबी धारा प्रवाहित हो रही है, उन संकल्पों का चयन कर चित्त को भावित करते हुए नकारात्मक सोच से अपने को मुक्त कर जीवन को स्वर्णिम बताये। 'दैवीसंपद्विमोक्षाय' मुक्ति के लिए दैवी गुणों का अवलंबन लेना। यह प्रशस्त भावना का ही रूप है। सद्गति का यह सीधा सरल पथ है। इससे उल्टे अप्रशस्तभाव आसुरी संपद बंधन के लिए है, दुर्गति के लिए है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशोधि ३६५ ४३. वाचः कायस्य कौकुच्यं कन्दर्प विकथा तथा । कृत्वा विस्मापयत्यन्यान, कान्दर्पं तस्य भावना ॥ ४४ मन्त्रयोगं भूतिकर्म, प्रयुक्ते अभियोगी भवेत्तस्य भावना सुखहेतवे । विषयैषिणः ॥ ४५. ज्ञानस्य ज्ञानिनो नित्यं संघस्य धर्मसेविनाम् । वदन्नऽवर्णानाप्नोति किल्विषिकीञ्चभावनाम् ॥ क्षमणान्न प्रसीदतः । ४६. अव्यवच्छिन्नरोषस्य प्रमादे नानुतपतः आसुरी भावना भवेत् ॥ ४७. उन्मार्गदेशको मार्गनाशकश्चात्मघातकः । मोहयित्वात्मनात्मानं संमोही भावनां व्रजेत् ॥ अ. १५ गृहिधर्मचर्या वाणी और शरीर की चपलता, कामचेष्टा और विकथा के द्वारा जो दूसरों को विस्मित करता है, उसकी भावना 'कान्दर्पी' भावना कहलाती है। विषय की गवेषणा करने वाला जो व्यक्ति सुख की प्राप्ति के लिए मंत्र और जादू-टोने का प्रयोग करता है, उसकी भावना 'अभियोगी' भावना कहलाती है। ज्ञान, ज्ञानवान्, संघ और धार्मिकों का जो अवर्णवाद बोलता है, उसकी भावना 'किल्विषिकी' भावना कहलाती है। जिसके रोष निरंतर बना रहता है, जो क्षमायाचना करने पर भी प्रसन्न नहीं होता और जो अपनी भूल पर अनुताप नहीं करता, उसकी भावना 'आसुरी' भावना कहलाती है। जो उन्मार्ग का उपदेश करता है, जो दूसरों को सन्मार्ग से भ्रष्ट करता है, जो आत्महत्या करता है, जो अपनी आत्मा को आत्मा से मोहित करता है, उसकी 'संमोही' भावना कहलाती है। ॥ व्याख्या || एडमंड वर्क भुलक्कड़ स्वभाव के थे। एक बार उन्हें किसी छोटे गांव के चर्च में भाषण देना था। समय था सात बजे का पहुंच गये घोड़े पर बैठकर चार बजे वहां कोई नहीं था सिगरेट पीने लगे। घोड़े का मुंह फेर दिया। वापिस घर चले आये दिशा के परिवर्तन होते ही सब बदल गया। जीवन भी ऐसा ही है। जीवन की दिशा बदल जाए तो संपूर्ण जीवन कांतिमय हो जाता है। भावनाओं का अभ्यास इसीलिए विकसित किया गया। मनुष्य भावना के अतिरिक्त कुछ नहीं है । वह जो कुछ करता है, वह सारा अर्जित भावना का प्रतिफल है। भावना सत् और असत् दोनों प्रकार की होती है। ये पांच भावनाएं असत् हैं। इन भावनाओं से वासित व्यक्तियों का अधःपतन होता है वे स्वयं ही अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाते हैं। जीसस ने कहा है- 'तुम अपने मुंह में क्या डालते हो, उससे स्वर्ग का राज्य नहीं मिलेगा। किंतु तुम्हारे मुंह से क्या निकलता है उससे स्वर्ग का राज्य मिलेगा।' जैसा बीज बोओगे वैसा फल मिलेगा। विचारों से व्यक्ति की अंतरिकता अभिव्यक्त होती है। ये पांच भावनाएं व्यक्तियों की विविध असत् चेष्टाओं के आधार पर निर्दिष्ट हैं। (१) कंदर्पी भावना राबर्ट रिप्ले नामक व्यक्ति के मन में प्रसिद्ध होने का भूत सवार हो गया किसी व्यक्ति से सलाह मांगी। उसने कहा- 'अपने सिर के आधे बाल कटवा लो और अपना नाम लिखा कर घूमो।' हिम्मत की और शहर में घूम गया। दूसरे दिन अखबारों में फोटो आ गया मन का संकोच भी मिट गया। अपने सामने कांच रखकर उल्टा चल अमरीका की यात्रा की। लोगों का मन रंजित करने में प्रसिद्ध हो गया। लोगों का मनोरंजन करने लगा। किंतु अंत में अनुभव हुआ कि सब व्यर्थ गया। उसने लिखा है कि प्रदर्शन में जीवन खो दिया।' (२) अभियोगी भावना - इस संसार में अंततः सब विनष्ट होता है। सुख भी मिलता हुआ लगता है किंतु पास आते ही दुःख में बदल जाता है। फिर भी मनुष्य वैषयिक सुखों के लिए किस तरह प्रयत्नरत है, यह कम आश्चर्यजनक नहीं है। भर्तृहरि ने कहा है-'मैंने धन की आशंका से जमीन को खोदा, पहाड़ की धातुओं को फूंका, मंत्र की आराधना में संलग्न 'होकर श्मशान में रात्रियां बिताई, राजाओं की सेवा की और समुद्री यात्राएं भी की किंतु फिर भी एक कानी- कोड़ी नहीं मिली हे तृष्णा ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़।' Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३६६ खण्ड - ३ (३) किल्विषिकी भावना - देवदत्त बुद्ध के चचेरा भाई था । बुद्ध उसका भी हित चाहते थे। किंतु वह ईष्यालु था । बुद्ध को मारने के लिए उसने चट्टान नीचे गिराई । गोशालक ने महावीर से बहुत कुछ पाया। शिष्यत्व स्वीकार किया। किंतु इन सबको नकार कर उसने महावीर को भस्म करने के लिए तेजोलब्धि का प्रयोग किया तथा बहुत बुरा-भला कहा। (४) सिंधु देश में वीतभयपुर का शासक राजा उदाई था । अभीचिकुमार उसका पुत्र था। राजा धार्मिक प्रवृत्ति का और श्रमणोपासक था। एक दिन अपने साधना कक्ष में अवस्थित राजा धर्म जागरण में दिन रात के एक-एक क्षण यापन कर रहा था। जीवन के परम लक्ष्य के प्रति अगाध निष्ठा और संप्राप्त करने की अदम्य भावना बढ़ रही थी। मन ही मन मैं सोचा - यदि भगवान् महावीर का यहां आगमन हो जाए तो मैं अपने लक्ष्य के लिए उनके चरणों में पूर्णतया सब कुछ त्याग कर समर्पित हो जाऊं। राजा के इस दृढ़ निश्चय को भगवान् ने जाना और उनके चरण वीतभय नगर की दिशा में बढ़ चले। लंबी दूरी तय कर भगवान् महावीर आ पहुंचे। राजा को सन्देश मिला। प्रसन्नता का सागर हिलौरें मारने लगा। वाणी सुनी और निश्चय अभिव्यक्त किया। राज्य के कार्यभार का वाहक अभीचिकुमार था। वह सर्वथा योग्य था किंतु सम्राट उदाई ने उसे राज्य ने देकर अपने भानजे केशिकुमार को दिया। इस घोषणा से सबको बड़ा आघात लगा । अभिचिकुमार भी सन्न रह गया। अपने पिता की भावना को समझ नहीं सका। वे चाहते थे कि पुत्र राज्य - भार में आसक्त होकर स्वयं को न भूले। किंतु यह सब व्यक्ति के विचारों पर निर्भर होता है। पुत्र की इच्छा का सम्मान न कर अपनी भावना को थोपना हितकर नहीं होता। राजा ने किसी की नहीं सुनी और यह कहकर कि मैंने उचित किया है, दीक्षा स्वीकार कर ली। अभीचिकुमार नगर छोड़कर चम्पा नगरी में कोणिक राजा के पास चला आया । धार्मिक था । धर्माचरण भी बराबर करता था। धार्मिक पर्वों में पूर्णतया धर्माराधन कर सबसे क्षमायाचना करता था अपने पिता को छोड़कर। उदायी नाम से उसके मन में घृणा हो चुकी थी। पिता द्वारा कृतकार्य का स्मरण कर वैराग्नि हृदय में प्रज्वलित हो उठती थी। क्रोध की जड़ें अंतःकरण में इतनी गहरी जम चुकी थी कि वे किसी तरह उखड़ नहीं पाती थीं जैसे दुर्योधन ने कहा था कि मैं धर्म को भी जानता हूं और अधर्म को भी। किंतु धर्म में प्रवृत्त नहीं होता और अधर्म को छोड़ नहीं पाता। मेरे भीतर जो आसुरी भाव है, वह मुझे जैसे नियुक्त करता है वैसा ही करता हूं। (५) संमोही भावना - जमालि भगवान् महावीर का दामाद था वह भगवान् महावीर के पास पांच सौ व्यक्तियों के साथ दीक्षित हुआ। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना में स्वयं को समर्पित किया श्रुतसागर का पारगामी बना तपः साधना भी दुर्धर्ष थी। एक दिन वह भगवान् महावीर के पास आया। वंदना की और बोला- 'भगवन्! मैं आपकी आज्ञा पाकर पांच से निर्ग्रयों के साथ जनपद विहार करना चाहता हूं। भगवान् ने सुना और मौन रहे। जमालि ने दूसरी बार तीसरी बार अपनी भावना प्रकट की, किंतु भगवान् मौन रहे । वह वंदना - नमस्कार कर पांच सौ निर्ग्रथों को ले अलग यात्रा पर निकल पड़ा। श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में ठहरा हुआ था। संयम और तप की साधना चल रही थी। कठिन तप के कारण उसका शरीर रोग से घिर गया। शरीर जलने लगा वेदना से पीड़ित जमालि ने साधुओं से बिछौना करने के लिए कहा। साधु बिछौना करने लगे । कष्ट से एक-एक क्षण भारी हो रहा था। पूछा- बिछौना बिछा दिया या बिछा रहे हो ? श्रमणों ने कहा किया नहीं किया जा रहा है। दूसरी बार कहने पर भी यही उत्तर मिला। जमालि इस उत्तर से चौंक उठा आगमिक आस्था हिल उठी। वह सोचने लगा-भगवान् का सिद्धांत इसके विपरीत है वे कहते हैं क्रियमाणकृत और संस्तीर्णमाण संसृत करना शुरू हुआ, वह कर लिया गया, बिछाना शुरू किया वह बिछा लिया गया- यह सिद्धांत गलत है। कार्य पूर्ण होने पर ही उसे पूर्ण कहना यथार्थ हैं। उसने साधुओं को बुलाया और मानसिक चिंतन कह सुनाया। कुछ एक श्रमणो को यह विचार ठीक लगा और कुछ एक को नहीं । जमालि पर जिनकी श्रद्धा थी वे जमालि के साथ रहे। मिथ्या आग्रह से वह आग्रही हो गया। दूसरों को भी उस मार्ग पर लाने का वह प्रयत्न करता रहा। अनेक लोग उसके वाग्जाल से प्रभावित होकर सत्य मार्ग से च्युत हो गए। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३६७ अ. १५ : गृहिधर्मचर्या १८.बिध्यादर्शनमापन्नाः, सनिदानाश्च हिंसकाः। जो मिथ्यादर्शन से युक्त हैं, जो भौतिक सुख की प्राप्ति का .. प्रियते प्राणिनस्तेषां, बोधिर्भवति दुर्लभा॥ संकल्प करते हैं और जो हिंसक हैं, उन्हें मृत्यु के बाद भी बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है। १९.सम्यग्दर्शनमापन्नाः, अनिदाना अहिंसकाः। जो सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, जो भौतिक सुख का संकल्प म्रियते प्राणिनस्तेषां, सुलभा बोधिरिष्यते॥ नहीं करते और जो अहिंसक हैं, उन्हें मृत्यु के उपरान्त बोधि सुलभ होती है। ॥ व्याख्या ॥ जीवन का परम ध्येय बोधि है। बोधि के अनुभव के अभाव में संसार-प्रवाह प्रक्षीण नहीं होता। जीसस ने कहा है-'पहले प्रभु का राज्य प्राप्त कर ले। शेष सब अपने आप मिल जाएगा।' अपने को पा लेने के बाद व्यक्ति को और क्या चाहिए? सभी चाह मिट जाती हैं। वह स्वयं सम्राट हो जाता है। 'चाह मिटी चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह। जिसको कुछ नहीं चाहिए सो शाहन को शाह।। बोधि का न मिलना ही दरिद्रता है। सच्ची संपत्ति वही है जो हमारे साथ जा सके। किन्तु जो केवल बाहर से ही समृद्ध होना चाहते हैं, वे असली सम्पत्ति से चूक जाते हैं। जिनकी दृष्टि सम्यग् नहीं है, विचार पवित्र नहीं है, ऐसे व्यक्तियों को बोधि अगले जन्म में भी दुर्लभ है। लेकिन जो बाहर से हटकर भीतर की यात्रा में चल पड़ते हैं, बाहर के सुखों में आसक्त नहीं होते और न उसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं उनका समस्त श्रम स्वयं की खोज में होता है। ऐसे व्यक्ति बोधि से वंचित नहीं रहते। ५०.अपापं हृदयं यस्य, जिह्वा मधुरभाषिणी। उच्यते मधुकुम्भः स, नूनं मधुपिधानकः॥ जिस व्यक्ति का हृदय पाप-रहित है और जिसकी जिह्वा मधुरभाषिणी है, वह मधुकुंभ है और मधु के ढक्कन से ढका हुआ है। ५१.अपापं हृदयं यस्य, जिह्वा कटुकभाषिणी। जिस व्यक्ति का हृदय पाप-रहित है, किन्तु जिसकी जिह्वा - उच्यते मधुकुम्भः स, नूनं विषपिधानकः॥ ___ कटुभाषिणी है, वह मधुकुम्भ है और विष के ढक्कन से ढका हुआ है। ५२.सपापं हृदयं यस्य, जिह्वा मधुरभाषिणी। : उच्यते विषकुम्भः स, नूनं मधुपिधानकः॥ __जिस व्यक्ति का हृदय पाप-सहित है, किन्तु जिसकी जिह्वा मधुरभाषिणी है, वह विषकुंभ है और मधु के ढक्कन से ढका हुआ है। ५३. सपापं हृदयं यस्य, जिह्वा कटुकभाषिणी। उच्यते विषकुम्भः स, नूनं विषपिधानकः॥ जिस व्यक्ति का हृदय पाप-सहित है और जिसकी जिह्वा कटुभाषिणी है, वह विषकुंभ है और विष के ढक्कन से ढका हुआ है। ॥ व्याख्या ॥ कुम्भ चार प्रकार के होते हैं :-१. मधुकुम्भ मधुढक्कन। २. मधुकुम्भ विषढक्कन। ३. विषकुम्भ मधुढक्कन। १. विषकुम्भ विषढक्कन। . इसी प्रकार मनुष्य चार प्रकार के होते हैं :-१. शुद्ध हृदय मधुरभाषी। २. अशुद्ध हृदय कटुभाषी। ३. शुद्ध हृदय कटुभाषी। ४. अशुद्ध हृदय मधुरभाषी। महावीर को 'सङ्गम' देवता ने छह महीने तक यंत्रणाएं, ताड़णाएं और मारणांतिक कष्ट दिये। महावीर मौन-शांत सब Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३६८ खण्ड-३ सहते गये। अंत में देवता थक गया। जब जाने लगा तब अपने असद् व्यवहार की क्षमा मांगी। महावीर ने कहा-तुमने अपना काम किया और मैंने अपना काम किया। असाधु असाधु के सिवाय और क्या कर सकता है ? तथा साधु साधुता से अन्यथा व्यवहार नहीं कर सकता। मेरा जीवन विश्व कल्याण के लिए है और तुम मेरे ही कारण अपना पतन कर रहे हो। बुद्ध एक गांव में आये। एक व्यक्ति बुद्ध पर कुद्ध था। वह आया और गालियां बकने लगा। बुद्ध सुनते रहे और हंसते रहे। क्रोध का उबाल इतना सघन हो गया कि वह उतने से ही शांत नहीं रहा। उसने क्रोधावेश में बुद्ध के मुंह पर थूक दिया। मुंह पोंछ कर बुद्ध बोले-'वत्स! और कुछ कहना है ?' आनंद गुस्से में आ गया। बुद्ध ने कहा-'इसके पास शब्द नहीं रहे, तब थूक कर अपना क्रोध बाहर फेंक रहा है। तुम अपने को दंड मत दो।' वह व्यक्ति घर चला आया। क्रोध का नशा उतरा। रातभर अनुताप किया। सुबह फिर चरणों में उपस्थित हुआ। सिर चरणों में रख दिया। कहा-क्षमा करो! बुद्ध ने कहा-'किस बात की। मैं प्रेम ही करता हूं। चाहे कोई कुछ भी करे! प्रेम के सिवा मेरे पास और कुछ है ही नहीं।' सूफी साधक वायजीद रात को अपनी मस्ती में भजन करते जा रहे थे। सामने एक युवक बाजे पर संगीत गाता हुआ आ रहा था। उसे वह भजन व्यवधान लगा। बाजे को वायजीद के सिर पर पटका और गालियां दी। बाजा टूट गया। सुबह वायजीद ने अपने आदमी के साथ एक मिठाई का थाल और पैसे भेजे। युवक से पूछा-क्यों! उस आदमी ने कहा'आपका बाजा टूट गया, इसलिए ये पैसे और गालियों से मुंह खराब हो गया इसलिए यह मिठाई भेजी है। युवक बड़ा शर्मिन्दा हुआ। बांकेई साधक के पास टोकियो युनिवर्सिटी का दर्शन-शास्त्री प्रोफेसर आया और पूछा-'धर्म क्या है ? सत्य क्या है? ईश्वर क्या है?' बांकेई ने कहा-'इतनी दूर से चल कर आये हो, विश्राम करो, पसीना सुखाओ और चाय पीओ। शायद चाय से उत्तर मिल जाए।' उसने सोचा-क्या पागल है? कहां आ गया? खैर, रुका। चाय लेकर आया, कप भर दिया। नीचे तश्तरी थी वह भी भर गई। फिर भी बांकेई चाय उडेल रहा था। प्रोफेसर ने कहा-आप क्या कर रहे हैं ? कहां है अब जगह ? बांकेई ने कहा-मैं भी तो यही देखता हूं कि तुमने प्रश्न तो इतने बड़े पूछे हैं, किन्तु भीतर जगह कहां है? जब खाली हो तब आना। उठकर चलने लगा। चलते-चलते कहा-अच्छा, खाली होकर आऊंगा। बांकेइ हंसा और बोला-फिर क्या आओगे? धूर्त व्यक्ति बाहर मीठा होता है और भीतर अशुद्ध। वह विश्वास योग्य नहीं होता। 'खुला कुंआ खतरनाक नहीं होता। वह स्पष्ट होता है। किन्तु ऊपर से ढंका हुआ कुंआ खतरनाक होता है। एक बुढ़िया शहर से सामान खरीदकर अपने गांव लौट रही थी! कुछ देर बाद पीछे से एक घुड़सवार आया। वह उस गांव में ही जा रहा था। बुढ़िया ने पूछा और कहा-यह मेरी गठरी चौराहे पर रख देगा क्या भाई? घुड़सवार ने एक बार इन्कार कर दिया। थोड़ी दूर जाकर सोचा-न यह मुझे जानती है और न मैं इसे। अपने घर ले जाता गठरी। वापिस लौटा और मधुर स्वर में कहा-मां! लाओ गठरी ले जाऊं? बुढ़िया समझ गई। वह बोली-बेटा! जो तेरे मन में कह गया वह मेरे कान में भी कह गया। अब मैं ही ले जाऊंगी। ५४.रिक्तोदरतया मत्या, क्षुधावेद्योदयेन च। आहारसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-१. खाली पेट तस्यार्थस्योपयोगेनाऽऽहारसंज्ञा प्रजायते॥ होना। २. भोजन संबंधी बातें सुनना तथा भोजन को देखना। ३. क्षुधा-वेदनीय कर्म का उदय। ४. भोजन का सतत चिंतन करना। ५५.हीनसत्त्वतया मत्या, भयवेद्योदयेन च। भयसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-१. बल की कमी। तस्यार्थस्योपयोगेन, भयसंज्ञा प्रजायते॥ २. भय संबंधी बातें सुनना तथा भयानक दृश्य देखना। ३. भय वेदनीय कर्म का उदय। ४. भय का सतत चिंतन करना। ५६.चितमांसरक्ततया, मत्या मोहोदयेन च।। मैथुनसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-१. मांस और रक्त तस्यार्थस्योपयोगेन, मैथुनेच्छा प्रजायते॥ की वृद्धि। २. मैथुन संबंधी बातें सुनना तथा मैथुन बढ़ाने वाले पदार्थों को देखना। ३. मोहकर्म का उदय। ४. मैथुन का सतत चिंतन करना। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३६९ अ. १५ : गृहिधर्मचर्या ५७. अविमुक्ततया मत्या, लोभवेद्योदयेन च। परिग्रहसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-१. तस्यार्थस्योपयोगेन, संग्रहेच्छा प्रजायते॥ अविमुक्तता-निर्लोभता न होना। २. परिग्रह की बातें सुनना और धन आदि को देखना। ३. लोभ-वेदनीय कर्म का उदय। ४. परिग्रह का सतत चिंतन करना। ॥ व्याख्या ॥ 'जैन आगम में दो शब्द व्यवहृत होते हैं-संज्ञोपयुक्त और नो-संज्ञोपयुक्त। चेतना दो प्रकार की है-संज्ञोपयुक्त चेतना और नो-संज्ञोपयुक्त चेतना। जिसमें संज्ञा होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना है और जिसकी संज्ञा समाप्त हो जाती है वह नो-संज्ञोपयुक्त चेतना है। वीतराग नो-संज्ञोपयुक्त होते हैं। उनके उपयोग में, चेतना में कोई संज्ञा नहीं होती। वह संज्ञातीत चेतना होती है। 'संज्ञातीत' चेतना का अर्थ है-विशुद्ध चेतना, केवल चेतना। जिसके साथ संज्ञा का मिश्रण होता है, जो चेतना संज्ञा से प्रभावित होती है, जो चेतना संवेदनात्मक होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना कहलाती है। संज्ञाएं दस है-१. आहार संज्ञा २. भय संज्ञा ३. मैथुन संज्ञा ४. परिग्रह संज्ञा ५. क्रोध संज्ञा ६. मान संज्ञा ७. माया संज्ञा ८. लोभ संज्ञा ९. लोक संज्ञा १०. ओघ संज्ञा। " हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य है-चेतना में से इन सारी संज्ञाओं को निकाल देना अर्थात् वीतराग बन जाना। यही उद्देश्य है हमारी अध्यात्म साधना का। चेतना के साथ जो संवेदन जुड़ा हुआ है, संज्ञा जुड़ी हुई है, उसको समाप्त कर देना, यह हमारा स्पष्ट लक्ष्य है। इसमें न कोई चमत्कारिक शक्ति प्राप्त करने का उद्देश्य है और न कोई और। केवल अपनी चेतना का संशोधन, परिमार्जन या परिष्कार करना है। जब व्यक्ति की चेतना परिमार्जित और परिष्कृत होती है तब विकास प्रारंभ हो जाता है। क्या हम आहार नहीं करें? क्या आहार संज्ञा को समाप्त करने का यही अर्थ है ? नहीं। शरीर के रहते हुए ऐसा संभव नहीं है कि हम आहार न करें। आहार किए बिना साधना नहीं हो सकती। साधना के लिए यदि शरीर जरूरी है तो शरीर के लिए आहार जरूरी है। आहार को नहीं छोड़ा जा सकता किन्तु आहार के प्रति होने वाली आसक्ति या वासना को छोड़ा जा सकता है। ५८.कारुण्येन भयेनापि, दान दस प्रकार का होता है-१. अनुकंपा दान-किसी व्यक्ति संग्रहेणानुकम्पया। की दीनावस्था से द्रवित होकर उसके भरण-पोषण के लिए दिया लज्जया चापि गर्वेण, जाने वाला दान। २. संग्रह-दान-कष्ट में सहायता देने के लिए दान अधर्मस्य च पोषकम्॥ देना। ३. भय-दान-भय से दान देना। ४. कारुण्य-दान-शोक के प्रसंग में दान देना। ५. लज्जा-दान-लज्जा से दान देना। ६. गर्व५९.धर्मस्य पोषकं चापि, दान-यश-गान सुनकर एवं बराबरी की भावना से दान देना। ७. कृतमितिधिया भवेत्। अधर्म-दान-हिंसा आदि पांच आसव-द्वार सेवन के लिए दान देना। करिष्यतीति बुझ्यापि, ८. धर्म-दान-प्राणी मात्र को अभय, संयमी को विशुद्ध भिक्षा, दानं दशविधं भवेत॥ किसी को ज्ञान, सम्यक्त्व और चारित्र की प्राप्ति करवाना। ९. (युग्मम्) करिष्यति-दान-लाभ के बदले की भावना से दान देना। १०.कृत दान-किये हुए उपकार को याद कर दान देना। ॥ व्याख्या ॥ दान शब्द का अर्थ है-देना, छोड़ना, विसर्जन करना। दान को चार प्रकार के धर्मों में एक धर्म कहा है। मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे एक भाव रहता है। प्रवृत्ति मुख्य नहीं होती, भाव मुख्य होता है। समान्यतया मनुष्य प्रत्येक क्रिया के पूर्व-यह क्यों करनी चाहिए? क्या फल है ? इसे जान लेना चाहेगा। फलाकांक्षा का त्याग साधारण बात नहीं। गीता का सार है-त्याग, फलाकांक्षा छोड देना। 'राबिया' एक सफी साधिका थी। वह एक हाथ में मशाल और एक हाथ मैं की बाल्टी लेकर भागी जा रही थी। लोगों ने पूछा-आज क्या मामला है ? 'राबिया' ने कहा-स्वर्ग को जलाने और नरक Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३७० खण्ड-३ को डुबोने जा रही हूं। लोगों ने पूछा- किसलिए ? कहा- तुम्हारे धर्म के मध्य में ये दो महान् व्यवधान हैं। नरक का भय और स्वर्ग का प्रलोभन, व्यक्ति इन दोनों से मुक्त हो कर ही शुद्ध, सत्य धर्म का स्पर्श कर सकता है। दान के पीछे जो मानसिक भाव-दशा होती है, उसी को आधार मानकर ये भेद किए गए हैं। कामना से मुक्त होने के बाद जो प्रवृत्ति होती हैं, वह वास्तविक प्रवृत्ति होती है उसमें कोई आकांक्षा प्रत्याशा नहीं रहती। दान के साथ व्यक्ति को सीखना है- फलाकांक्षा और प्रत्याशा से मुक्त होने का पाठ । सहज कर्त्तव्य बुद्धि से कार्य करना एक सही कला है। इस कला में जो निष्णात होता है, वह फिर दुःखी नहीं होता । प्राप्ति का मोह बड़ा जटिल होता है। प्रलोभन देकर आदमी से कुछ भी कराया जा सकता है। धर्म के नाम पर या धर्म होगा- बस इतना सुनना चाहिए, मनुष्य का मन द्रवित हो जाता है। लोभ का एक प्रकार नहीं है। वह जैसे धन का होता है वैसे स्वर्ग का भी होता है। दान के सभी प्रकारों से अवबुद्ध होकर व्यक्ति अपनी बुद्धि को भ्रमित न करे और यह भी न भूले कि जीवन का ध्येय है- समस्त आशंसा से मुक्त होना। अपने को केवल एक निमित्त समझना है । फलाकांक्षा और प्रत्याशा की भावना से मुक्त होने पर स्वयं को यह अनुभव होगा कि जो कुछ कर रहा हूं वह कैसा है? स्वभाव की उपलब्धि वस्तुतः सबसे बड़ा दान है, जिसमें पर का विसर्जन स्वतः निहित है स्व के अतिरिक्त फिर पकड़ या प्राप्ति का कोई प्रश्न ही नहीं रहता । ६०. धर्मो दशविधः प्रोक्तो मया मेघ विजानता । तत्र श्रुतञ्च चारित्रं, मोक्षधर्मो व्यवस्थितः ॥ मेघ! मैंने दस प्रकार का धर्म कहा है- १. ग्राम- धर्म - गांव की व्यवस्था - आचार- परम्परा । २. नगर- धर्म - नगर की व्यवस्था - आचार-परंपरा। ३. राष्ट्र-धर्म-राष्ट्र की व्यवस्थाआचार-परंपरा ४. पाषण्ड-धर्म-विविध संप्रदायों द्वारा सम्मत आचार-व्यवस्था। ५. कुल-धर्म- कुल का आचार। ६. गणधर्म - गणराज्य की आचार मर्यादा ७ संघ धर्म संघ गण समूह की सामाचारी - आचार - मर्यादा । ८, ९. श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म-आत्म उत्थान के हेतुभूत धर्म, मोक्ष के साधक धर्म । १०. अस्तिकाय धर्म पंचास्तिकाय का स्वभाव । - || व्याख्या || 'चरण नयणे कर मारग जोवतां भूल्यो सकल संसार । जेणे नयणे करि मारग जोइए नयन ते दिव्य विचार ॥" आनंदघन जी ने कहा-चर्म चक्षुओं से देखते हुए व्यक्ति मार्ग को नहीं देख सकते । मार्ग को देखने के लिए दिव्यनेत्र, अंतः चक्षु चाहिए। धर्म की अनुभूति भी अंतर्चक्षु से होती है, बाहर की आंखें धर्म को देख नहीं सकतीं। धर्म शब्द अनेकार्थक है। वस्तु के स्वभाव अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी वह अपने में अन्य अर्थों को भी समाहित रखता है। भ्रांति का या स्पष्टता के कारण नहीं होती। वह होती है अस्पष्टता तथा अनेकार्थता के कारण। इसलिए सत्य को देखने के लिए साधारण आंखें पर्याप्त नहीं होतीं। दश विध धर्म में यह अनेकता स्पष्ट परिलक्षित होती है स्वभाव, व्यवस्था, रीति-रिवाज या परंपरा आदि धर्म के अनेक अर्थ हैं। साधक को इन सबका विवेक कर स्वधर्म (आत्म-स्वभाव) में प्रवृत्त होना चाहिए। आत्म- धर्म सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र रूप है। प्रस्तुत श्लोक में आठवां नौवां भेद आत्मधर्म है, शेष व्यवहार धर्म है। प्रक्रिया या नियम आत्म-बोध को उजागर करे, अज्ञान का विध्वंश करे, वही धर्म है। धर्म से आत्मा आवृत नहीं होती । जो धर्म आत्मा को अनावृत न करे यह वस्तुतः धर्म नहीं होता। धर्म स्वयं को जानने की प्रक्रिया है 'कन्फ्यूशियस' ने कहा'अज्ञानी दूसरों को जानने की कोशिश करता है और ज्ञानी स्वयं की खोज में लगा रहता है।' महावीर का समग्र बल आत्मा को जागृत करने में है। इस लिए यह स्पष्ट विवेक दिया है और कहा है-आत्म-स्वभाव के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे गृहीधर्मचर्यानामा पञ्चदशोऽध्यायः । .. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-१६ मनःप्रसाद Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःप्रसाद धर्म का चरम फल है आत्मा का पूर्ण विकास। मनुष्य धर्म का आचरण करता है और सतत अभ्यास से अपने लक्ष्य तक पहुंचता है। जब मोहकर्म का संपूर्ण विलय हो जाता है, तब उसमें वीतरागता का प्रादुर्भाव होता है। वीतरागता का अर्थ है-समता का चरम विकास। इससे सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्ध . अवस्था को प्राप्त आत्मा अपने आनंद-स्वरूप में स्थित रहती है। दुःखों का अंत हो जाता है। न उसे बाहर से कुछ लेना होता है और न भीतर से कुछ छोड़ना होता है। जैसे वह था, है और रहेगा, उसे ही प्राप्त कर लेता है। यह अंतिम विकास की बात है, जहां न मन है, न वाणी है और न शरीर है। ___धर्म की प्रारंभिक भूमिकाओं में मन, वाणी और शरीर रहता है। वाणी और शरीर स्वाधीन नहीं हैं। वे मन के अधीन है। मन की प्रसन्नता में वे प्रसन्न हैं और अप्रसन्नता में अप्रसन्न। धर्म सब दुःखों का अंत करता है। यह बात गीता भी कहती है-'जो धर्म मन को विषाद-मुक्त नहीं करता, वस्तुतः वह धर्म भी नहीं है।' मानसिक प्रसन्नता अध्यात्म का फल है। वह कैसे मिलती है ? कहां से प्राप्त होती है? उसकी क्या साधना है ? आदि प्रश्नों का समाधान इस अध्याय में है। पिछले सभी अध्यायों का निष्कर्ष यहां उपलब्ध है। मेघः प्राह १. मनःप्रसादमामि, किमालम्बनमाश्रितः। मेघ बोला-विभो! मैं किसे आलंबन बनाकर मानसिक कथं प्रमादतो मुक्तिं, आप्नोमि ब्रूहि मे विभो! प्रसन्नता को पा सकता हूं? और मुझे बताइए कि मैं प्रमाद से मुक्त कैसे बन सकता हूं? ॥ व्याख्या ॥ जोशुआलीवयेन ने अपने संस्मरणों में लिखा है-'जब मैं जवान था तब मुझे क्या पाना है? इसका स्वप्न देखा करता था। एक सूची बनाई थी जिसके सूत्र थे १. स्वास्थ्य २. सौन्दर्य ३. सुयश ४. शक्ति ५. सम्पत्ति। बस, सतत मैं इन्हीं का स्मरण करता था और समग्र प्रयास भी इन्हें पाने के लिए था। एक अनुभवी वृद्ध सज्जन थे। मैंने सोचा-इनसे सलाह ले लूं। मैं गया और अपनी सूची सामने रखी। वृद्ध हंसा और कहा-सूची सुन्दर है किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात छोड़ दी, जिसके अभाव में सब व्यर्थ है। जोशुआलीवयेन ने कहा-मेरी दृष्टि में जो भी आवश्यक है, वह सब आ गया। कोई बची हो ऐसा नहीं लगता। वृद्ध सज्जन ने सब काटते हुए कहा-Peace of Mind 'मन की शांति' यह महत्त्वपूर्ण है। ये सब हो, और अगर मन की शांति न हो तो क्या? मेघ ने जानने की बहुत लंबी यात्रा तय की। किन्तु मन की शांति नहीं मिली। ज्ञान का परिचय और संग्रह एक अलग बात है और ज्ञान की अनुभूति भिन्न। प्रत्यक्ष पानी और अन्न की बात अलग है और शब्दमय अन्न तथा पानी की पृथक। अन्न और पानी शब्द भूख और प्यास शांत नहीं करते। केवल परिचयात्मक तत्व के संबंध में भी यही सत्य है। अनुभूत्यात्मक ज्ञान ही मनुष्य की पिपासा शांत कर सकता है। इसलिए मेघ ने कहा-'प्रभो! मानसिक सुख, प्रसन्नता की प्राप्ति कैसे हो और कैसे हो प्रमाद से मुक्ति? कृपया मुझे इसका मार्ग-दर्शन दें।' Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३७३ अ. १६ : मनःप्रसाद मेघ जानता है कि वस्तुओं से होने वाला सुख, प्रसाद या आनंद अवास्तविक है। यह क्षणिक है। आया और गया। इसमें स्थिरता नहीं है। मन एक क्षण में प्रसन्न होता है और एक क्षण में अप्रसन्न। एक क्षण सुखी होता है और दूसरे क्षण दुःखीं। मुझे वह प्रसाद सुख चाहिए जो स्थायी हो, शाश्वत हो। आचार्य विनय-विजयजी ने कहा है-यदि तुम्हारा मन संसार-भ्रमण के दुःख से ऊब गया हो और अनंत आनंद की प्यास तीव्र हो गई हो तो तुम अमृत रस से भरे हुए इस शांत सुधारस काव्य को सुनो।' सुख में पले-पुषे मेघ का मन संसार से उद्विग्न हो उठा और सुख और दुःख दोनों से परे जो प्रसाद-आनंद है उसके लिए बेचैन हो उठा। यह प्रश्न उसकी पात्रता को व्यक्त करता है। भगवान् प्राह २. अनन्तानन्दसम्पूर्ण, आत्मा भवति देहिनाम्। तच्चित्तस्तन्मना मेघ!, तदध्यवसितोभव॥ भगवान् ने कहा-आत्मा अनन्त आनंद से परिपूर्ण है। मेघ! तू उसी में चित्त को रमा, उसी में मन को लगा और उसी में अध्यवसाय को संजोए रख। ३. तद्भावनाभावितश्च, तदर्थं विहितार्पणः। भुजानोऽपि च कुर्वाणस्तिष्ठन् गच्छंस्तथा वदन्॥ मेघ! जब-जब तू खाए, कार्य करे, ठहरे, चले और बोले, तब-तब आत्मभावना से भावित बन और आत्मा के लिए सब कुछ समर्पित किए रह। ४. जीवंश्च म्रियमाणश्च, युञ्जानो विषयिव्रजम्। तू जीवनकाल में, मृत्युकाल में और इन्द्रियों का व्यापार तल्लेश्यो लप्स्यसे नूनं, मनःप्रसादमुत्तमम्॥ करते समय आत्मा की लेश्या भावधारा से प्रभावित होकर उत्तम (त्रिभिर्विशेषकम्) मानसिक प्रसाद को प्राप्त होगा। ॥ व्याख्या ॥ मन की तीन अवस्थाएं हैं-चित्त, मन और अध्यवसाय। चित्त ज्ञानात्मक अवस्था है। ज्ञान के अनंतर मननअभ्यासात्मक अवस्था मन है और अभ्यास की चिरपरिचित अवस्था अध्वयसाय है। ... आनंद का स्रोत बाहर नहीं है। हमारी आत्मा ही अनंत-आनंद से संपन्न है। चित्त, मन और अध्यवसाय जब आत्मोन्मुख होते हैं तब आनंद का उद्भव होता हैं। जब वे बाहर घूमते है तब आनंद का आभास हो सकता है, किन्तु यथार्थ आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। आनंद या मानसिक प्रसन्नता के लिए इनका आत्मा में विलीन होना आवश्यक है। ५. आत्मस्थित आत्महित, आत्मयोगी ततो भव। तू आत्मा में स्थिर, आत्मा के लिए हितकर, आत्मयोगी, आत्मपराक्रमो नित्यं, ध्यानलीनः स्थिराशयः॥ आत्मा के लिए पराक्रम करने वाला, ध्यान में लीन और स्थिर आशय वाला बन। ॥ व्याख्या ॥ महावीर मानसिक आनंद की सर्वोच्च प्रक्रिया प्रस्तुत कर रहे हैं। जब तक मन, चित्त और अध्यवसाय बाहर के आकर्षणों से मुक्त नहीं होते तब तक मानसिक प्रसाद का स्रोत प्रकट नहीं हो सकता। उसके समस्त प्रयास गज स्नानवत् होंगे। चित्त-शुद्धि सर्वप्रथम है। जो साधक ध्यान साधना में प्रविष्ट होना चाहता है उसे यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मनःशुद्धि के बिना ध्यान साधना का प्रयोजन सफल नहीं होता। वह इधर-उधर कितनी ही छलांग मारे, अंततोगत्वा अपने को वहीं खड़ा पाएगा। मन की प्रसन्नता का पहला पाठ है-मनःशुद्धि। और दूसरा पाठ है-मन को बाहर से हटाकर चेतना के साथ संयुक्त करना। · श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा....'अब तू स्वयं कुछ नहीं है। जो कुछ करना है, वह मुझे समर्पित करके कर। तू प्रत्येक क्रिया में देख कि मैं नहीं हूं, बस, जो कुछ हैं वह सब श्रीकृष्ण है।' . Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३७४ खण्ड-३ अष्टावक्र ने जनक से कहा-'तू राज्य कर, पर अब यह राज्य तेरा नहीं है। तू अपना सर्वस्व मुझे दे चुका है। यह मेरा कार्य है और तुझे करना है। ऐसा मानकर कर।' ___ साधक के लिए 'मैं' को तोड़ना अनिवार्य है। मैं करता हूं, मैं खाता हूं, मैं देता हूं आदि। मैं को तोड़ने के लिए यह सरलतम उपाय हैं। वह बीच में न आए। सब कुछ है वह गुरु है, प्रभु है। महावीर इसी भावना को. प्रस्तुत कर रहे हैं-मेघ! तू अपने मन, चित्त, अध्यवसाय को आत्मा में नियोजित कर, समस्त क्रियाएं करता हुआ आत्मा को सामने रख। जीवन और मृत्यु तथा इन्द्रियों के प्रवृत्तिकाल में आत्मा को एक क्षण भी विस्मृत मत कर। आत्मा की विस्मृति दुःख है और स्मृति सुख। प्रवृत्ति का स्रोत बदल जाने पर सब कुछ बदल जाएगा। अब तक जो कुछ करता आया था उसमें शरीर, मन, वाणी और इन्द्रियों की प्रधानता थी और अब आत्मा प्रधान हो जाएगी। बाहर की प्रवृत्ति चंचलता लाती है और अंतर् से दूर करती है। जीवन का परम सार-सूत्र है-आत्म-स्थित होना, आत्मा को सामने रखकर प्रवृत्त होना। ६. समितो मनसा वाचा, कायेन भव सन्ततम्। तूमन, वचन और काया से निरंतर समित-सम्यक् प्रवृत्ति करने गुप्तश्च मनसा वाचा, कायेन सुसमाहितः॥ वाला तथा मन, वचन और काया से गुप्त और सुसमाहित बन। ॥ व्याख्या ॥ निवृत्ति-अक्रिया जीवन का साध्य है। प्रवृत्ति साध्य नहीं, किन्तु जीवन की सहचरी है। कोई भी व्यक्ति शरीर की विद्यमानता में पूर्ण निवृत्त नहीं हो पाता। प्रवृत्ति का पहला चरण है कि वह प्रवृत्ति सुप्तदशा-यांत्रिक दशा में न हो, पूर्ण होश सजगतापूर्वक हो। प्रवृत्ति में होने वाली गन्दगी, अशुद्धि को सावधानता जला डालती है, वह उसे सम्यग् बना देती है। सजगता के अभाव में प्रवृत्ति के साथ क्रिया तन्मय होकर गन्दगी ले आती है। व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। प्रवृत्ति का दूसरा चरण है प्रवृत्ति को निवृत्ति में बदलना। गुप्ति है गोपन, संवरण। शरीर को स्थिरकर, मन को शांत कर, मौन होकर कुछ समय के लिए प्रवृत्ति को विश्राम देना, जिससे उस अक्रिय आत्मा की झांकी प्रतिबिबिंत हो सके। ७. अनुत्पन्नानकुर्वाणः, कलहांश्च पुराकृतान्। तू नये सिरे से कलहों को उत्पन्न मत कर और पहले किए नयन्नुपशमं नूनं, लप्स्यसे मनसः सुखम्॥ हुए कलहों को उपशांत कर, इस प्रकार तुझे मानसिक सुख प्राप्त होगा। ८. क्रोधादीन् मानसान् वेगान, पृष्ठमांसादनं तथा। क्रोध आदि मानसिक वेगों, चुगली और असहिष्णुता को परित्यज्याऽसहिष्णुत्वं,लप्स्यसे मनसः स्थितिम्॥ छोड़, इस प्रकार तुझे मन की स्थिरता प्राप्त होगी। ॥ व्याख्या ॥ जार्ज गुरजिएफ ने कहा है-'तुमने जो पाप किए हैं इनके कारण परमात्मा तुम्हें नरक नहीं भेज सकता, क्योंकि ये सब तुमने बेहोशी में किए हैं। बेहोश को अदालत भी माफ कर देती है।' महावीर ने मेघ को शांतिसूत्र दिया है-वर्तमान क्षण में जीना-'खणं जाणाहि पंडिए।' आदमी जीते हैं अतीत और भविष्य में। स्मृति और कल्पना में जीने का अर्थ है-बेहोशी-प्रमाद में जीना। 'समयं गोयम मा पमायए'-महावीर का यह जागरूकता-अप्रमत्तता का सन्देश लाखों, करोड़ों व्यक्तियों की जबान पर है, किन्तु कितने व्यक्तियों के जीवन का स्पर्श कर रहा है यह कहना कठिन है। वर्तमान या होश में जीने का अर्थ है-भविष्य में पाप का न होना। जो साधक मन के प्रति और शरीर के प्रति जागृत रहता है वह अंतर में उठनेवाली असत् तरंगों का वहीं निर्मूलन कर देता है, बाहर प्रकट नहीं होने देता और सतत शुभ भावों, संकल्पों से स्वयं को प्रभावित रखता है। क्रोधादि वेगों का प्रभाव बेहोशी में ही होता है। जार्ज गुरजिएफ साधकों को क्रोध करने के लिए कहता। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता कि व्यक्ति आग-बबूला हो जाता। जब पूरे क्रोध में आ जाता तब कहता-'देखो! क्या हो रहा है?.आदमी चौंककर देखता-हाथ, चेहरा, होंठ, आंखें और शरीर को एक विपरीत अस्वाभाविक दशा में और वह एक क्षण में उससे पृथक् हो जाता। समस्त पापों, अशुभों से बचने और दूर रहने का मौलिक सूत्र है-देखना, सावधान रहना। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३७५ अ. १६ : मनःप्रसाद ९. पादयुग्मञ्च संहृत्य, प्रसारितभुजोभयः। दोनों पैरों को सटाकर, दोनों भुजाओं को फैलाकर, थोड़ा . ईपन्नतः स्थिरदृष्टिर्लप्स्यसे मनसो धृतिम्॥ झुककर तथा दृष्टि को स्थिर बना, इस प्रकार मानसिक धैर्य को प्राप्त होगा। ॥ व्याख्या ॥ ध्यान के लिए चार मुद्राओं का उल्लेख मिलता है-१. जिनमुद्रा, २. योगमुद्रा, ३. वंदनामुद्रा, ४. मुक्तासुक्ति मुद्रा। चित्त को स्थिर और एकाग्र करना मुद्राओं का प्रयोजन है। इससे कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास होता है, साधक की मानसिक धृति बढ़ती है। १०.प्रयत्नं नाधिकृर्वाणोऽलब्धांश्च विषयान् प्रति। लब्धान प्रति विरज्यश्च, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥ अप्राप्त विषयों पर अधिकार करने का प्रयत्न मत कर और प्राप्त विषयों से विरक्त बन, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा। ॥ व्याख्या ॥ 'बलख' का बादशाह इब्राहिम साम्राज्य को छोड़ कर फकीर हो गया। वह फकीरी के वेष में भारत-यात्रा पर आया। एक संत से भेंट हुई। उसने पूछा-संत कौन होता है ? संत ने कहा-मिले तो खा ले और ना मिले तो सन्तोष रखे। इब्राहिम ने कहा-यह तो कोई बहुत बड़ा लक्षण नहीं है। इतना तो एक कुत्ता भी कर लेता है। संत ने कहा-तो आप बताएं। उसने कहा-जो कुछ मिले उसे बांट कर खाएं और न मिले तो समझे चलो, आज उपवास व्रत ही सही। प्राप्त में सन्तोष और अप्राप्त का आकर्षण नहीं रखना शांति का सहज उपाय है। सन्तोष वही नहीं कि आप के पास है भी नहीं, और आप उसका सन्तोष करें। सन्तोष भविष्य में नहीं, वर्तमान में है। संतुष्ट आप आज रह सकते हैं, कल में नहीं। कल अशांति का लक्षण है। महावीर कहते हैं-अप्राप्त-पदार्थों को प्राप्त करने में जो व्यग्र नहीं और प्राप्त में परम संतुष्ट है, जो मिला है, उसमें प्रसन्न रह सकता है, वह संतुष्ट है। ११.अमनोज्ञसंप्रयोगे, नातं ध्यायन् कदाचन। • ' मनोज्ञविप्रयोगे च, मनसःस्वास्थ्यमाप्स्यसि॥ अमनोज्ञ विषयों का संयोग होने और मनोज्ञ विषयों का वियोग होने पर तू आर्तध्यान मत कर अपने मानस को चिंता से पीड़ित मन बना, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा। रोग के उत्पन्न होने पर चिकित्सा के लिए आर्तध्यान मत कर तथा भौतिक फल की आशा और भोग-विषयक संकल्पों को छोड़, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा। १२. रोगस्य प्रतिकाराय, नातं ध्यायंस्तथा त्यजन्। फलाशां भोगसंकल्पान्, - मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥ १३. शोक भयं घृणां द्वेष, विलापं क्रन्दनं तथा। त्यमन्त्रज्ञानजान् दोषान्, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥ "बष, शोक, भय, घृणा, द्वेष, विलाप, क्रंदन और अज्ञान से उत्पन्न होने वाले दोषों को तू छोड़, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा। .११.लब्धानां नाम भोगानां रक्षणायाचरेज्जनः। हिंसां मषा तथाऽदत्तं, तेन रौद्रः स जायते॥ मनुष्य प्राप्त भोगों की रक्षा के लिए हिंसा, असत्य और चोरी का आचरण करता है और उससे वह रौद्र बनता है। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३७६ खण्ड-३ १५. तथाविधस्य जीवस्य, चित्तस्वास्थ्यं पलायते। संरक्षणमनादृत्य, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥ जो मनुष्य रौद्र होता है। उसका मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है। तू भोगों की रक्षा का प्रयत्न मत कर, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा। १६.रागद्वेषौ लयं यातौ, यावन्तौ यस्य देहिनः। सुखं मानसिकं तस्य, तावदेव प्रजायते॥ जिस मनुष्य के राग-द्वेष का जितनी मात्रा में विलय होता है, उसे उतनी ही मात्रा में मानसिक सुख प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ 'मेकेरियस' नामक साधक से किसी ने पूछा-कृपया बताएं कि मोक्ष का मार्ग क्या है ? संत ने कहा-'यह सामने कब्रिस्तान है। प्रत्येक कब्र पर जाओ और सबको गाली देकर आओ।' उसने सोचा कहां आ गया? इससे मोक्ष का संबंध है क्या? खैर, वह गया और गाली देकर आ गया। संत ने कहा-'एक बार फिर जाओ, और इस बार उसकी स्तुति करके आओ।' वह सब की स्तुति करके चला आया। संत ने पूछा-'किसी ने कुछ उत्तर दिया ?' कहा-'नहीं।' बस यही साधना है। यही मोक्ष का मार्ग है। जीवन में राग-द्वेष, मान-अपमान आदि सभी स्थितियों में सम रहना, भीतर भी कोई उत्तर पैदा न होना, यही है मुक्ति का मार्ग। समाधिशतक में आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः। नापमानादयस्तस्य, न क्षेपो यस्य चेतसः॥ जिसका मन शांत नहीं है, विक्षिप्त है, अपमान आदि उसी को पीड़ित करते हैं। जिस का चित्त शान्त है, उसके लिए अपमान आदि कुछ नहीं हैं।' जितनी मात्रा में राग-द्वेष की क्षीणता है उतनी ही मात्रा में मानसिक आनंद भी परिपूर्ण रूप से अभ्युदित हो जाता है। साधक के चरण पूर्णता की ओर बढ़े। इन श्लोकों (४-१६) में मानसिक स्वास्थ्य के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है। वे संक्षेप में ये हैं : (१) मानसिक आवेगों का निराकरण (२) कायोत्सर्ग का अभ्यास (३) विषयों की विस्मृति और विरक्ति (४) संयोग और वियोग में संतुलन (५) संकल्प-विकल्प से छुटकारा (६) अज्ञान का निराकरण (७) हिंसा आदि का त्याग (८) भोगों की रक्षा का त्याग (९) राग-द्वेष का विलय (१०) आत्मार्पणता (११) आत्मलीनता आदि। १७.वीतरागो भवेल्लोको, वीतरागमनुस्मरन्। उपासकदशां हित्वा, त्वमुपास्यो भविष्यसि॥ जो पुरुष वीतराग का स्मरण करता है, वह स्वयं वीतराग बन जाता है। वीतराग का स्मरण करने से तू उपासक दशा को छोड़कर स्वयं उपास्य बन जाएगा। ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य जैसा सोचता है वैसा बन जाता है। भीतर यदि जागरण न हो तो वह सोचना सम्मोहन पैदा कर देता है। आचार्य नागार्जुन के पास एक व्यक्ति मुक्ति के लिए आया। नागार्जुन ने कहा-'तीन दिन का उपवास करो, नींद मत लो। और सामने खड़ी भैंस को दिखलाकर कहा, बस यही स्मरण करो कि मैं भैंस हो गया। वह एकांत गुफा में चला गया। तीन-दिन-रात यही कहता रहा। भरोसा हो गया कि मैं भैंस हो गया। चौथे दिन सुबह नागार्जुन आए और कहा-बाहर जाओ। वह भैंस की आवाज में चिल्लाया और कहा-कैसे आऊं बाहर ? नागार्जुन ने सिर पकड़कर हिलाया और कहा-कहां भैंस हो तुम? सम्मोहन टूट गया। वीतरागता साध्य है। वीतराग आदर्श है। साधक आदर्श को सतत सामने रखे। राग-द्वेष को जीतकर ही वीतराग बना जा सकता है। वह उसके प्रति सदा जागृत रहे। राग-द्वेष की मुक्ति ही उपासना की स्थिति को उपास्य में परिवर्तित करती है। १८.इन्द्रियाणि च संयम्य, कृत्वा चित्तस्य निग्रहम। संस्पृशन्नात्मनात्मानं, परमात्मा भविष्यसि॥ इन्द्रियों का संयम कर, चित्त का निग्रह कर, आत्मा से आत्मा का स्पर्श कर, इस प्रकार तू परमात्मा बन जाएगा। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३७७ || व्याख्या || परमात्मा होने का राज इस छोटी सी प्रक्रिया में निहित है। प्रत्याहार, प्रतिसंलीनता - यह योग साधना का एक अंग है। इसमें यही सूचित किया है कि इन्द्रिय और मन को बाहर से समेट कर केन्द्र पर ले आओ, जहां से इन्हें शक्ति प्राप्त होती है और उसी के साथ योजित कर दो। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाते जाओ। एक दिन परमात्मा का स्वर प्रगट हो जाएगा और तुम्हारा स्वर शांत हो जाएगा जब तक तुम बोलते रहोगे, परमात्मा मौन रहेगा। उसे मुखरित होने का तुमने अवसर ही नहीं दिया । इन्द्रियों और मन की चेतना से जो युति है वही परमात्मा की अभिव्यक्ति का मूल स्रोत है। १९. यल्लेश्यो म्रियते लोकस्तल्लेश्यश्चोपपद्यते । तेन प्रतिपलं मेघ ! जागरूकत्वमर्हसि ॥ २०. जीवनस्य तृतीयेऽस्मिन, भागे प्रायेण देहिनाम् । आयुषो जायते बन्धः, शेषे तृतीयकल्पना ॥ अ. १६ मनः प्रसाद २१. तृतीयो नाम को भागो नेति विज्ञातुमर्हसि । सर्वदा भव शुद्धात्मा तेन यास्यसि सद्गतिम् ॥ यह जीव जिस लेश्या - भावधारा में मरता है उसी लेश्या के अनुरूप गति में उत्पन्न होता है। इसलिए हे मेघ! तू प्रतिफल आत्मा के प्रति जागरूक बन । जीवों के जीवन के तीसरे भाग में नरक आदि आयु में किसी एक आयु का बंधन होता है। जीवन के तीसरे भाग में आयु का बंधन न हुआ तो फिर तीसरे भाग के तीसरे भाग में आयु का बंध होता है उनमें भी बंधन न हुआ हो तो फिर अवशिष्ट के तीसरे भाग में आयु का बंधन होता है। इस प्रकार जो आयु शेष रहती है, उसके तीसरे भाग में आयु का बंधन होता है। जीवन का तीसरा भाग कौन-सा है, इसे तू जान नहीं सकता। इसलिए सर्वदा अपनी आत्मा को शुद्ध रख, इस प्रकार तू सद्गति को प्राप्त होगा। || व्याख्या || जीवन ओस की बूंद की तरह है, कब गिर जाए यह पता नहीं है, इसलिए 'प्रमाद मत करो यह आत्म-द्रष्टाओं का उद्घोष है। मनुष्य यह बुद्धि से जानता है, किन्तु जागरूक नहीं रहता। जापानी कवि 'ईशा' के संबंध में कहा जाता है - बत्तीस, तेतीस वर्ष की उम्र में उसके परिवार के पांच सदस्य- पत्नी, बच्चे मर गए। बड़ा दुःखी हो गया। कहीं शांति नहीं मिली। किसी व्यक्ति ने उसे संत के पास भेज दिया। आया। संत ने कहा- 'आंख खोलकर देखो', 'जीवन ओस की बूंद की तरह है, अब गया, तब गया। सबको जाना है।' शांति मिली एक कविता लिखी निश्चित ही जीवन एक ओस का का है। मैं पूर्णतया सहमत हूं कि जीवन एक ओस का कण है। फिर भी यह आशा नहीं छूटती सब देख लेने, जान लेने के बाद भी आदमी भविष्य की कल्पनाओं में जीने लगता है। वर्तमान को छोड़ देता है। महावीर कहते हैं गौतम ! शांति का सूत्र है जागरूकतापूर्वक जीना। जागरूक व्यक्ति प्रमत्त नहीं होता। वह प्रत्येक क्षण शुभ भावना से भावित रहता है। इसलिए उसे मृत्यु का भय नहीं रहता । मृत्यु कभी आए, उसका भविष्य सुरक्षित है। किन्तु जो प्रमत्त हैं, खतरा उन्हीं के लिए है । वे अशुभ भावों से घिरे रहते हैं। वे हिंसा, झूठ, ईर्ष्या, द्वेष, राग, कलह आदि से मुक्त नहीं होते। इन स्थितियों में वर्तमान और भविष्य दोनों सुखद नहीं होते। जैसे भावों में व्यक्ति मरता है वह वैसी ही गति में उत्पन्न होता है। आयुष्य कर्म का बंध जीवन के तीसरे भाग में होता है। उस तीसरे का पता नहीं चलता कि यह तीसरा है। असावधान व्यक्ति वह क्षण चूक जाता है और उस क्षण को चूकने का अर्थ है-जीवन को चूक जाना इसलिए मैं कहता हूं-क्षण-क्षण जागृत रहो। यह समझते रहो यह तीसरा ही क्षण है जो इस प्रकार जीवनयापन करता है, सावधान, जागृत रहता है वह मृत्यु पर विजय पा लेता है, भय से मुक्त हो जाता है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३७८ खण्ड-३ २२. कृष्णा नीला च कापोती, पापलेश्या भवन्त्यमूः। तैजसी पद्मशुक्ले च, धर्मलेश्या भवन्त्यमूः॥ पाप-लेश्याएं तीन हैं-कृष्ण, नील और कापोत। धर्म लेश्याएं भी तीन हैं-तैजस, पद्म और शुक्ल। २३. तीव्रारम्भपरिणतः, क्षुद्रः साहसिकोऽयतिः। पञ्चासवप्रवृत्तश्च, कृष्णलेश्यो भवेत् पुमान्॥ जो तीव्र हिंसा में परिणत है, क्षुद्र है, बिना विचारे कार्य करता है, भोग से विरत नहीं है और पांच आसवों में प्रवृत्त है, वह व्यक्ति कृष्णलेश्या वाला होता है। २४. ईर्ष्यालुद्देषमापन्नो, गृद्धिमान् रसलोलुपः। अहीकश्च प्रमत्तश्च, नीललेश्यो भवेत् पुमान्॥ जो ईष्यालु है, द्वेष करता है, विषयों में आसक्त है, सरस आहार में लोलुप है, लज्जाहीन और प्रमादी है, वह व्यक्ति नीललेश्या वाला होता है। २५. वक्रो वक्रसमाचारो, मिथ्यादृष्टिश्च मत्सरी। औपधिको दुष्टवादी, कापोतीमाश्रितो भवेत्॥ जिसका चिंतन, वाणी और कर्म कुटिल होता है, जिसकी दृष्टि मिथ्या है, जो दूसरे के उत्कर्ष को सहन नहीं करता, जो दंभी है, जो दुर्वचन बोलता है, वह व्यक्ति कापोतलेश्या वाला होता है। २६.विनीतोऽचपलोऽमायी. दान्तश्चावद्यभीरुकः। प्रियधर्मी दृढधर्मा, तैजसीमाश्रितो भवेत्॥ - जो विनीत है, जो चपलता-रहित है, जो सरल है, जो इंद्रियों का दमन करता है, जो पापभीरु है, जिसे धर्म प्रिय है और जो धर्म में दृढ़ है, वह व्यक्ति तैजसलेश्या वाला होता है। २७. तनुतमक्रोध-मान-माया-लोभो जितेन्द्रियः। प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, पद्मलेश्यो भवेत् पुमान्॥ जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ बहुत अल्प हैं, जो जितेन्द्रिय है, जिसका मन प्रशांत है और जिसने आत्मा का दमन किया है, वह व्यक्ति पद्मलेश्या वाला होता है। २८.अन्तेिः सर्ववितुनः अर्क्सशक्थे भव साधा। २८.आर्त्तरौद्रे वर्जयित्वा, धर्म्यशक्ले च साधयेत्। उपशान्तः सदा गुप्तः शुक्ललेश्यो भवेत् पुमान्॥ जो आर्त्त और रौद्रध्यान का वर्जन करता है, जो धर्म्य और शुक्लध्यान की साधना करता है, जो उपशांत है और जो निरंतर मन, वचन और काया से गुप्त है, वह व्यक्ति शुक्ललेश्या वाला होता है। २९.लेश्याभिरप्रशस्ताभिर्मुमुक्षो! दूरतो व्रज। प्रशस्तासु च लेश्यासु, मानसं स्थिरतां नय॥ हे मुमुक्षु! तू अप्रशस्त लेश्याओं से दूर रह और प्रशस्त लेश्याओं में मन को स्थिर बना। ॥ व्याख्या ॥ लेश्या जैन पारिभाषिक शब्द है। उसका संबंध मानसिक विचारों या भावों से है। यह पौद्गलिक है। मन, शरीर और इन्द्रियां पौद्गलिक हैं। मनुष्य बाहर से पुद्गलों को ग्रहण करता है और तदनुरूप उसकी स्थिति बन जाती है। आज की भाषा में इसे 'ओरा' या 'आभा मंडल' कहा जाता है। इस पर बहुत अनुसंधान हुआ है। इसके फोटो लिए गए हैं। जीवित और मत का निर्णय इसी आधार पर किया जा सकता है। योग-सिद्ध गुरु के लिए आवश्यक है कि.वह 'ओरा' का विशेषज्ञ हो। शिष्य की परीक्षा 'ओरा' देखकर करें। वह शिष्य पर दृष्टि डालकर प्रकाश को देखता है और निर्णय लेता है। 'ओरा' हमारी आंतरिक स्थिति का प्रतिबिंब है। आप अपने को कितना ही छिपाएं, किन्तु आभामंडल के विशेषज्ञ व्यक्ति Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 संबोधि ३७९ अ. १६ : मनः प्रसाद से गुप्त नहीं रह सकते। आपके विचारों या भावों का प्रतिनिधित्व शरीर से निकलने वाली आभा प्रतिक्षण कर रही है। वह रंगों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। हम महापुरुषों के सिर के पीछे आमा वलय देखते हैं वह और कुछ नहीं, मन की पूर्ण शांत स्थिति में निर्मित 'ओरा' - आभा मंडल है । शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म प्रकाश किरणों का 'अंडाकार' आभा मंडल 'ओरा' है। इसे साइकिक एटमोसफियर, मेग्नेटिक एटमोसफियर भी कहते हैं। यह शरीर से दो तीन फुट की दूरी तक रहता है। मानस परिवेश ६ से १० फुट तक रहता है। यह शरीर के मध्य में बहुत गहरा और आसपास हल्का होता है। जिनके आचार-विचार में स्थायित्व आ जाता है उनका 'ओरा' स्थायी बन जाता है, अन्यथा वह प्रतिक्षण भावों के साथ बदलता रहता है। ओरा के रंग तथा छाया आश्चर्यजनक व रुचिकर होते हैं। स्थूल शरीर की भांति मेण्टल - मानसिक शरीर भी बड़ा इण्टरेस्टिंग है। ओरा को समुद्र की तरह समझा जा सकता है। कभी शांत और कभी भयंकर अशांत । - मानव ओरा का मूल द्रव्य प्राण है प्राण जीवन का आधार है। भावना का संबंध प्राण से है प्राण का रंग भाव-विचारों के बदलते ही बदल जाता है। वही बाहर प्रकट होता है। प्राण ओरा के पार्टिकल्स सबके भिन्न भिन्न होते हैं। आदमी के चले जाने के बाद भी जो परमाणु शेष रहते हैं उनसे आदमी के संबंध में जाना जा सकता है। प्राण ओरा में बहुत अधिक प्रकाशशील स्फुलिंग होते हैं। व्यक्ति से प्रभावित और अप्रभावित होने में ओरा का हाथ है। लेश्या के नामों से यह अभिव्यक्त होता है कि ये नाम अंतर से निकलने वाली आभा के आधार पर रखे गए हैं। उनका जैसा रंग है, व्यक्ति का मानस भी वैसा ही है। प्रशस्त और अप्रशस्त में रंगों का प्राधान्य है। कृष्ण, नील और कापोत- अप्रशस्त हैं, तेजस, पद्म और शुक्ल प्रशस्त हैं। वैज्ञानिकों ने 'ओरा' के प्रायः ये ही रंग निर्धारित किए हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि बाहर के रंग भी व्यक्ति को प्रभावित करते हैं बाहरी रंगों का ध्यान-चिंतन कर हम आंतरिक रंगों को भी परिवर्तित कर सकते हैं। रंग हमारे शरीर को प्रभावित करता है, हमारे मन को प्रभावित करता है। रंग चिकित्सा पद्धति आज भी चलती है। 'कलर थेरापी' यह पद्धति चल रही है। एक पद्धति है 'कास्मिक घेरापी' अर्थात् दिव्य किरण चिकित्सा। इसका भी रंग के साथ संबंध है रंग और सूर्य की किरण दोनों के साथ इसका संबंध है। प्रकाश के साथ यह संयुक्त है रंग हमारे शरीर और मन को विविध प्रकार से प्रभावित करता है उससे रोग मिटते हैं, फिर वे रोग शारीरिक हो या मानसिक मानसिक रोग चिकित्सा में भी रंग का विशिष्ट स्थान है पागलपन को रंग के माध्यम से समाप्त कर दिया जाता है। रंग थोड़ा सा विकृत हुआ कि आदमी पागल हो जाता है। रंग की पूर्ति हुई कि आदमी स्वस्थ हो जाता है। शरीर में रंग की कमी के कारण अनेक बीमारियां उत्पन्न होती हैं। 'कलर थेरापी का यह सिद्धांत है कि बीमारी के कोई कीटाणु नहीं होते। रंग की कमी के कारण बीमारी होती है। जिस रंग की कमी हुई, उसकी पूर्ति कर दो, आदमी स्वस्थ हो जाएगा, बीमारी मिट जाएगी। तो बीमारी का होना या बीमारी का न होना या स्वस्थ होना, यह सारा रंगों के आधार पर होता है। हमारे चिंतन के साथ भी रंगों का संबंध है। मन में खराब चिंतन आता है, अनिष्ट बात उभरती है, अशुभ सोचते हैं, तब चिंतन के पुद्गल काले वर्ण के होते हैं लेश्या कृष्ण होती है अच्छा चिंतन करते हैं, हित चिंतन करते हैं, शुभ सोचते हैं तब चिंतन के पुद्गल पीत वर्ण के होते हैं, पीले वर्ण के होते हैं। लाल वर्ण के भी हो सकते हैं और श्वेत वर्ण के भी हो सकते हैं। उस समय तेजोलेश्या होगी या पद्म लेश्या होगी या शुक्ल लेश्या होगी। बुरे चिंतन के पुद्गलों का वर्ण है काला और अच्छे पुद्गलों का वर्ण है पीला, लाल या श्वेत कितना बड़ा संबंध है रंग का चिंतन के साथ जिस प्रकार का चिंतन होता है उसी प्रकार का रंग होता है। । शरीर के साथ रंग का गहरा संबंध है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर के आस-पास रंग का एक आभामंडल है। उसमें अनेक रंग होते हैं। किसी के आभामंडल का रंग काला होता है, किसी के नीला और किसी के लाल और किसी के सफेद। अनेक वर्णों का भी होता है आभा मंडल आपकी आंखों को वे रंग नहीं दिखते। पर वे हैं अवश्य ही ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं होता जिसके चारों ओर आभा मंडल न हो। इसका स्वयं पर भी असर होता है और दूसरों पर भी असर होता Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३८० खण्ड-३ है। आप किसी व्यक्ति के पास जाकर बैठते हैं। बैठते ही आपके मन में एक परिवर्तन होता है। लगता है कि आपको अपूर्व शांति का अनुभव हो रहा है। आप का मन आनंदित है और अन्दर ही अन्दर एक संगीत चल रहा है। आप किसी दूसरे व्यक्ति के पास जाकर बैठते हैं। अकारण ही उदासी छा जाती है। मन उद्विग्न हो जाता है। मन में क्षोभ और संताप उत्पन्न हो जाता है। वहां से उठने की शीघ्रता होती है। यह सब क्यों होता है ? भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के पास बैठ कर हम भिन्नभिन्न भावनाओं से आक्रांत होते हैं। यह सब क्यों और कैसे होता है? इसका कारण है व्यक्ति-व्यक्ति का आभामंडल-आभावलय। सामने वाले व्यक्ति का जैसा आभामंडल होता है, आभा-वलय होता है, उसके रंग होते हैं, वें पास वाले व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति चाहे या न चाहे वह उन रंगों से प्रभावित अवश्य होता है। जिस व्यक्ति आभामंडल श्वेत वर्ण का है, नीले वर्ण का है, पीले वर्ण का है, उसके पास जाकर बैठते ही मन शांत हो जाता है। मन शांति से भर जाता है। उद्विग्नता मिट जाती है। प्रसन्नता से चेहरा खिल उठता है। जिसका आभामंडल विकृत है, कृष्णवर्ण के पुद्गलों से निर्मित है तो उस व्यक्ति के पास जाते ही अकारण ही चिंता उभर आती है, उदासी छा जाती है, मन . उद्विग्नता से भर जाता है और ईर्ष्या, द्वेष, बुरे विचार मन में आने लगते हैं। इससे स्पष्ट है कि रंग हमें प्रभावित करते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक रंग के सात प्रकार मानते हैं-लाल, हरा, पीला, आसमानी, गहरा नीला; काला और हल्का नीला। उसके अनुसार रंग मौलिक नहीं है। यह सात रंगों के एकीकरण से बनता है। रंगों का प्राणी-जीवन के साथ गहरा संबंध है। ये हमारे शरीर तथा मानसिक विचारों को भी प्रभावित करते हैं। लेश्या के सिद्धांत द्वारा इसी भावना की व्याख्या की गई है। . वैज्ञानिक परीक्षणों के द्वारा रंगों की प्रकृति पर काफी प्रकाश डाला गया है। देखिये यंत्रनाम प्रकृति लाल नारंगी लाल नारंगी पीला गर्म किन्तु लाल नारंगी से कम हल्का गुलाबी बादामी . गर्म बहुत गर्म हरा नीला न अधिक गर्म, न अधिक ठंडा गहरा नीला या आसमानी ठंडा शुभ्र (बफ़नशी) न गर्म, न ठंडा इनमें नारंगी लाल रंग के परिवार का रंग है। बैंगनी और जामुनी रंग नीले रंग के परिवार के हैं। रंगों का शरीर पर प्रभाव लाल : स्नायुमंडल को स्फूर्ति देना। नीला : स्नायविक दुर्बलता, धातुक्षय, स्वप्न-दोष में लाभ पहुंचाना और हृदय तथा मस्तिष्क को शक्ति देना। पीला : मस्तिष्क की शक्ति का विकास, कब्ज, यकृत और प्लीहा के रोगों को शांत करने में उपयोगी। हरा : ज्ञान-तंतुओं और स्नायु-मंडल को बल देना, वीर्य-रोग के उपशम में उपयोगी। गहरा नीला : गर्मी की अधिकता से होने वाले आमाशय संबंधी रोगों के उपशमन में उपयोगी। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३८१ अ. १६ : मनःप्रसाद शुभ्र : नींद के लिए उपयोगी। नारंगी : दमा तथा वात-व्याधियों के रोगों को मिटाने में उपयोगी। बैंगनी : शरीर के तापमान को कम करने में उपयोगी। रंगों का मन पर प्रभाव काला रंग मनुष्य में असंयम, हिंसा और क्रूरता के विचार उत्पन्न करता है। नीला रंग मनुष्य में ईर्ष्या, असहिष्णुता, रसलोलुपता और आसक्ति का भाव उत्पन्न करता है। कापोत रंग मनुष्य में वक्रता, कुटिलता और दृष्टिकोण का विपर्यास उत्पन्न करता है। अरुण रंग मनुष्य में ऋजुता, विनम्रता और धर्म-प्रेम उत्पन्न करता है। पीला रंग मनुष्य में शांति, क्रोध, मान, माया और लोभ की अल्पता व इन्द्रिय-विजय का भाव उत्पन्न करता है। सफेद रंग मनुष्य में गहरी शांति और जितेन्द्रियता का भाव उत्पन्न करता है। मानसिक विचारों के रंगों के विषय में एक दूसरा वर्गीकरण भी मिलता है, जिसका प्रथम वर्गीकरण के साथ पूर्ण सामंजस्य नहीं है। यह इस प्रकार है : विचार 'लाल भक्तिविषयक . आसमानी कामोद्वेगविषयक तर्कवितर्कविषयक . पीला प्रेमविषयक गुलाबी स्वार्थविषयक हरा क्रोधविषयक लाल-काले रंग का मिश्रण इन दोनों वर्गीकरणों के तुल रात्मक अध्ययन से प्रतीत होता है कि प्रत्येक रंग दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त। कृष्ण, नील और कापोत-अप्रशस्त कोटि के ये तीनों रंग मनुष्य के विचारों पर बुरा प्रभाव डालते हैं तथा अरुण, पीला और सफेद-प्रशस्त कोटि के ये तीनों रंग मनुष्य के विचारों पर अच्छा प्रभाव डालते है। मोरा दर्शन की प्रक्रिया भौतिक रंगों की तरह ओरा के रंग भी सत्य है। आंखें अर्धनिमीलित रखें। इस प्रकार बंद करें कि नीचे की पलकों के नीचे देखा जा सके। फिर किसी स्वस्थ व्यक्ति को मंद प्रकाश में बैठाकर देखते रहें। कुछ समय बाद उसे ज्ञात होगा कि स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से एक, दो इंच की दूरी तक कुछ कम्पन दीख रहे हैं। प्रतिदिन के अभ्यास से यह और स्पष्ट होता चला जाएगा। जो व्यक्ति ध्यानस्थ या सद्विचारशील है उसके मस्तिष्क के पीछे इसे देखा जा सकता है। इसी प्रकार अपनी अंगुलियों या हाथ की प्राण ओरा को भी देखा जा सकता है। हाथ या अंगुलि को काले गत्ते पर 'या बोर्ड पर रख, अधखुली पलकों से देखें। अभ्यास सधने पर उसकी 'ओरा' दीखने लग जाएगी। 'ओरा'-आभामंडल या लेश्या विज्ञान के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए आचार्य महाप्रज्ञ की पुस्तक 'आभामंडल' पठनीय है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३८२ खण्ड-३ ३०. उपकारापकारौ च, विपाकं वचनं तथा। कुरुष्व धर्ममालम्ब्य, क्षमां पञ्चावलम्बनाम्॥ पांच कारणों से मुझे क्षमा का सेवन करना चाहिए वे पांच ये हैं-१. इसने मेरा उपकार किया है इसलिए इसके कथन या प्रवृत्ति पर मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए। २. क्षमा नहीं रखने से अर्थात् क्रोध करने से मेरी आत्मा का अपकार-अहित होता है। ३. क्रोध का परिणाम बड़ा दुःखद होता है। ४. आगम की वाणी है कि क्रोध नहीं करना चाहिए। ५. क्षमा मेरा धर्म है। ३१.आर्जवं वपुषो वाचो, मनसः सत्यमुच्यते। असंवादयोगश्च, तत्र स्थापय मानसम्॥ काया, वचन और मन की जो सरलता है, वह सत्य है। कथनी और करनी की जो समानता है, वह सत्य है। उस सत्य में तू मन को रमा। ॥ व्याख्या ॥ 'मनस्येकं वचस्येकं, कर्मण्येकं महात्मनाम्। मनस्यन्यद् वचस्यन्यत, कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्॥' -मन, वचन और कर्म में एकरूपता-यह महान् पुरुषों का लक्षण है, और भिन्नता साधारण पुरुषों का लक्षण है। साधक के लिए साधना का महान् सूत्र है कि वह जैसा कहे, वैसा करे और जैसा करे, वैसा ही कहे। अनेकरूपता साधक का धर्म नहीं होता। जिसमें भीतर और बाहर का एकत्व नहीं है, वह साधना के योग्य नहीं है। ३२.अश्रद्धानं प्रवचने, परलाभस्य तर्कणम्। आशंसनं च कामानां, स्नानादिप्रार्थनं तथा॥ मुनि के लिए चार दुःख-शय्याएं हैं-१. निग्रंथ प्रवचन में अश्रद्धा करना। २. दूसरे श्रमणों द्वारा लाई हुई भिक्षा की चाह रखना। ३. काम-भोगों की इच्छा करना। ४. स्नान आदि की अभिलाषा करना। इन कारणों से साधु का चित्त अस्थिर बनता है और उसके संयम की हानि होती है, अतः निग्रंथ के लिए ये चार दुःख-शय्याएं हैं। ३३.एतैश्च हेतुभिश्चित्तं, उच्चावचं प्रधारयन्। निर्ग्रन्थो घातमाप्नोति, दुःखशय्यां व्रजत्यपि॥ (युग्मम्) ३४.श्रद्धाशीलः प्रवचने, स्वलाभे तोषमाश्रितः।। मुनि के लिए चार सुख-शय्याएं हैं- १. निग्रंथ प्रवचन में अनाशंसा च कामानां, स्नानाद्यप्रार्थनं तथा॥ श्रद्धा करना। २. भिक्षा में जो वस्तुएं प्राप्त हों, उन्हीं से संतुष्ट रहना। ३. काम-भोगों की इच्छा न करना। ४. स्नान आदि की ३५. एतैश्च हेतुभूभिश्चित्तं, उच्चावचमधारयन्। इच्छा न करना। इन कारणों से साधु का चित्त स्थिर बनता है और निग्रंथो मुक्तिमाप्नोति, सुखशय्यां व्रजत्यपि॥ वह मुक्ति को प्राप्त होता है, अतः निग्रंथ के लिए ये चार सुख (युग्मम्) शय्याएं हैं। ॥ व्याख्या ॥ शय्या का अर्थ है-आश्रय-स्थान। सुख और दुःख के चार-चार आश्रय-स्थान हैं। मुनि का मन संयम से विचलित होता है। उसके मुख्य कारण चार हैं : (१) संयम के प्रति अश्रद्धा, (२) श्रम से जी चुराना, (३) विषयों में आसक्ति, (४) शृंगार की भावना। ये चार दुःख के आश्रय-स्थान हैं। मुनि के संयम में स्थिर रहने के चार कारण हैं : (१) संयम के प्रति श्रद्धा, (२) श्रमशीलता, (३) विषय-विरक्ति, (४) शृंगार-वर्जन। ये चार सुख के आश्रय-स्थान हैं। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि ३८३ अ. १६ : मनःप्रसाद ३६.दुष्टा व्यद्ग्राहिता मूढा, दुःसंज्ञाप्या भवन्त्यमी। तीन प्रकार के व्यक्ति दुःसंज्ञाप्य' होते हैं-दुष्ट, सुसंज्ञाप्या भवन्त्यन्ये, विपरीता इतो जनाः॥ व्युग्राहित–दुराग्रही और मूढ। इनसे भिन्न प्रकार के व्यक्ति सुसंज्ञाप्य होते हैं। ॥ व्याख्या ॥ द्वेष करने वाले, दुराग्रही और मोहग्रस्त-ये तीन प्रकार के व्यक्ति सद्ज्ञान (शिक्षा) के लिए पात्र नहीं हैं। शिक्षा या सद्बुद्धि का अंकुर वहीं पल्लवित हो सकता है जहां अनाग्रह, नम्रता और सरलता है। द्विष्ट-चित्त वाला व्यक्ति अपने मन में ईर्ष्या, क्रोध, अभिमान, आग्रह आदि का पोषण करता है। वह अज्ञान और मोह से घिरा रहता है। मूढ़ मनुष्य को हिताहित का विवेक नहीं होता। भर्तृहरि ने मूढ़ और दुराग्रही के लिए यहां तक कहा है कि उन्हें ब्रह्मा भी रंजित नहीं कर सकते-'अज्ञ व्यक्ति को समझाना सरल है। विद्वान् को समझाना सरलतम है किन्तु जो दोनों के बीच के अर्धपंडित हैं उन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता।' भगवान् महावीर ने शिक्षा के योग्य व्यक्ति के लिए कुछ विशेष बातों की ओर संकेत किया है। वे हैं-'नम्रता, सहिष्णुता, दमितेन्द्रियता, अनाग्रह-भाव, सत्यरतता, क्रोधोपशांति, क्षमा, सद्भाव और वाक्-संयम। ३७. पूर्व कुग्राहिताः केचिद्, बालाः पण्डितमानिनः। नेच्छन्ति कारणं श्रोतुं, द्वीपजाता यथा नराः॥ जो पूर्वाग्रह रखते हैं और जो अज्ञानी होने पर भी अपने को पंडित मानते हैं, वे अशिष्ट पुरुषों की भांति बोधि के कारण को सुनना नहीं चाहते। ॥ व्याख्या ॥ विकास के क्षेत्र में पूर्व-मान्यता या पूर्वाग्रह का स्थान नहीं है। पूर्वाग्रही व्यक्ति के लिए सत्य-स्वीकृति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। उसे वही सत्य लगता है जो अपनी मान्यता पर खरा उतरता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किसी ने कहा है-ये कुआं मेरे पिता का बनाया हुआ है। मैं इसी का पानी पीऊंगा। भले इसमें पानी खारा ही है। वे सम्यग् ज्ञान का उपदेश सुनना नहीं चाहते। अगर सुन भी लेते हैं तो उनके दिमाग में उसे प्रवेश नहीं मिल सकता। क्योंकि उनका दिमाग पहले से भरा रहता है। जब हम अपने दिमाग को रिक्त कर लेते हैं तब उसमें किसी अन्य शिक्षा का प्रवेश हो सकता है। भगवान् महावीर ने मेघ से कहा-मेघ! पंडित-मन्यता और पूर्वाग्रह-इन दोनों से मुक्त होने पर ही सत्य का मार्ग अनावृत हो सकता है। .. एक बार दो चींटियां आपस में मिलीं। एक नमक के पहाड़ पर रहती थी और दूसरी चीनी के पहाड़ पर। चीनी के पहाड़ पर रहने वाली चींटी ने दूसरी चींटी को आमंत्रित किया। नमक के पहाड़ पर रहने वाली चींटी वहां गई और एक वाना चीनी का मुंह में लिया। उसने थूकते हुए कहा-'अरे, यह भी खारा है।' वहां की निवासिनी चींटी ने कहा-'बहन! चीनी मीठी होती है। वह कभी खारी नहीं होती।' आगन्तुक चींटी ने कहा-'मेरा मुंह तो खारा हो गया है। मैं कैसे मानूं कि चीनी मीठी होती है!' यह सुनकर वह असमंजस में पड़ गई। उसने आगन्तुक चींटी का मुंह देखा। उसमें नमक की एक हली थी। उसने कहा-'बहन! नमक को छोड़े बिना मुंह मीठा कैसे होगा?' यह संस्कारों के आग्रह की कहानी है। आग्रह को छोड़े बिना सत्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। ३८.उपदेशमिदं श्रुत्वा, प्रसन्नात्मा महामना। मेघः प्रसन्नया वाचा, तुष्टुवे परमेष्ठिनम्॥ महामना मेघ यह उपदेश सुन बहुत प्रसन्न हुआ और प्रांजल वाणी से भगवान् महावीर की स्तुति करने लगा। १. जिन समझाया न जा सकें। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३८४ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ मेघ की जागृत आत्मा आराध्य के प्रति कृतज्ञ हो गई। मन का मैल धुल गया, वाणी विशुद्ध हो गई और शरीर शांत हो गया। मन अनंत. श्रद्धा से भगवान् की आत्मा में विलीन हो गया। वाणी में अनंत श्रद्धा है और शरीर श्रद्धा से नत है। आत्मा की श्रद्धा शब्दों का चोला नहीं पहन सकती और पहनाया भी नहीं जा सकता। किन्तु श्रद्धालु के पास उसके सिवाय कोई चारा भी नहीं है। वह नहीं चाहता कि अनन्य श्रद्धा शब्दों के माध्यम से बाहर आए, लेकिन वाणी मुखरित हो जाती है। श्रद्धा के वे अल्प शब्द अनंत श्रद्धालुओं के लिए प्राण, जीवन और संजीवनी बन जाते हैं। ___ मेघ की आलोकित आत्मा अंत में कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है, जिसका एक-एक शब्द श्रद्धा से स्पन्दित है और भावों की विशुद्धि लिए हुए है। मेघः प्राह ३९.सर्वज्ञोऽसि सर्वदर्शी, स्थितात्मा धृतिमानसि। अनायुरभयो ग्रन्थादतीतोऽसि भवान्तकृत्॥ . मेघ ने कहा-आर्य! आप सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, स्थितात्मा हैं, धैर्यवान् हैं, अमर हैं, अभय हैं, राग-द्वेष की ग्रंथियों से रहित हैं और संसार का अंत करने वाले हैं। ४०. पश्यतामुत्तमं चक्षुर्जानिनां ज्ञानमुत्तमम्। तिष्ठतां स्थिरभावोऽसि, गच्छतां गतिरुत्तमा।। आप देखने वालों के लिए उत्तम चक्षु हैं, ज्ञानियों के लिए उत्तम ज्ञान हैं, ठहरने वालों के लिए उत्तम स्थान हैं और चलने वालों के लिए उत्तम गति हैं। ४१.शरणं चास्पऽबन्धूनां, प्रतिष्ठा चलचेतसाम्। आप अशरणों के शरण हैं, अस्थिर चित्त वाले मनुष्यों के पोतश्चासि तितीषूणां, श्वासः प्राणभृतां महान्॥ लिए प्रतिष्ठान है, संसार से पार होने वालों के लिए नौका हैं और प्राणधारियों के लिए आप श्वास हैं। ४२.तीर्थनाथ! त्वया तीर्थमिदमस्ति प्रवर्तितम्। स्वयंसम्बुद्ध! सम्बुद्ध्या, बोधितं सकलं जगत्॥ हे तीर्थनाथ! आपने इस चतुर्विध संघ का प्रवर्तन किया है। हे स्वयंसंबुद्ध ! आपने अपने ज्ञान से समस्त संसार को जागृत किया है। ४३.अहिंसाराधनां कृत्वा, जातोऽसि पुरुषोत्तमः। जातः पुरुषसिंहोऽसि, भयमुत्सार्य सर्वथा॥ भगवन् ! आप अहिंसा की आराधना कर पुरुषोत्तम बने हैं, भय को सर्वथा छोड़ पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी बने हैं। ४४. पुरुषेषु पुण्डरीकः, निर्लेपो जातवानसि। पुरुषेषु गन्धहस्ती, जातोऽसि गुणसम्पदा॥ निर्लेप होने के कारण आप पुरुषों में पुण्डरीक- कमल के समान हैं। गुण-संपदा से समृद्ध होने के कारण आप पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं। ४५.लोकोत्तमो लोकनाथो, लोकद्वीपोऽभयप्रदः। दृष्टिदो मार्गदः पुंसां प्राणदो बोधिदो महान्। भगवन् ! आप संसार में उत्तम हैं, संसार के एकमात्र नेता हैं, संसार के द्वीप हैं, अभयदाता हैं, महान् हैं तथा मनुष्यों को दृष्टि देने वाले हैं, मार्ग देने वाले हैं, प्राण और बोधि देने वाले हैं। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि महाप्रभः । ४६. धर्मवरचातुरन्त चक्रवर्ती शिवोऽचलोऽक्षयोऽनन्तो धर्मदो धर्मसारथिः ॥ , ३८५ ४७. जिनश्च जापकश्चासि तीर्णस्तथासि तारकः । बुद्धश्च बोधकश्चासि मुक्तस्तथासि मोचकः ॥ अ. १६ मनः प्रसाद प्रभो! आप धर्म चक्रवतीं हैं। आप महान् प्रभाकर हैं, शिव हैं, अचल हैं, अक्षय हैं, अनन्त हैं, धर्म का दान करने वाले हैं। और धर्म - रथ के सारथि हैं। प्रभो! आप आत्म-जेता हैं और दूसरों को विजयी बनाने वाले हैं। आप स्वयं संसार सागर से तर गए हैं और दूसरों को उससे तारने वाले हैं। आप बुद्ध हैं और दूसरों को बोधि देने वाले हैं। आप स्वयं मुक्त हैं और दूसरों को मुक्त करने वाले हैं। ॥ व्याख्या ॥ इस संसार में सबसे अलभ्य घटना है-शिष्य होना। किसी ने सत्य कहा है एक चीज ऐसी है जिसके देने वाले बहुत ..हैं और लेने वाले कम । वह है- उपदेश । सब गुरु बनना चाहते हैं, शिष्य नहीं। शिष्य वह होता है जिसमें सीखने की उत्कट अभिलाषा हो। 'इजिप्त' में कहावत है जब शिष्य तैयार होता है तो गुरु मौजूद हो जाता है। गुरु की उपलब्धि भी सहजसरल नहीं है। जब शिष्य ही न हो तो गुरु का मिलना कैसे संभव हो ? शिष्य कैसे गुरु की खोज करे? उसमें यदि इतनी योग्यता हो तो फिर वह गुरु से भी ऊंचा हो जाता है। कहते हैं-गुरु ही शिष्य को खोजते हैं। बायजीद गुरु के पास वर्षों रहा। गुरु ने अनेक ऐसे अवसर दिए कि श्रद्धा प्रकंपित हो जाए। अनेक शिष्य चले गए किन्तु वायजीद स्थिर रहा। साधना पूरी हो गई। गुरु ने कहा- मेरे संबंध में कुछ पूछना है वायजिद हंसा और बोला- वह सब नाटक था। मुझे अपने काम की जरूरत थी । फ्रेकक्रैन ने कहा है- सर्वोत्तम गुरु वह है जो आपको आत्म-परिचय कराने के लिए आपका पथ-दर्शन करे। गुरु बांधना नहीं चाहते, वे चाहते हैं मुक्त करना । जापान के आश्रम में तब कोई शिष्य सीखने आता है तो गुरु उसे मार्ग-दर्शन दे देते और कहते- 'यह चटाई है, आना, इस पर बैठकर अपना काम करना और जिस दिन कार्य पूर्ण हो जाए चटाई को गोल कर चले जाना। मैं समझ लूंगा कि काम हो गया है।' धन्यवाद की भी आकांक्षा नहीं रखते। शिष्य कैसे उस कृतज्ञता को भूल सकता है। गुरु लेन-देन, व्यवसाय की बात नहीं चाहते। किन्तु शिष्य का स्वर मुखरित हुए बिना कैसे रख सकता है?. मेघ ने जो कुछ कहा है, वह यही स्वर है। महावीर ने कह दिया- मुझे भी मत पकड़ना । मेरे साथ भी स्नेह मत करना, अन्यथा यात्रा बीच में रह जाएगी बस पकड़ना है केवल अपने को मेघ ने महावीर को बीच से हटा दिया। वह अकेला, | अनवरत साधना-पथ पर बढ़ता रहा । साधना सिद्ध हुई और महावीर सामने खड़े हो गए। अब मेघ और महावीर के द्वैत नहीं रहा । कृतज्ञता के स्वरों में मेघ की आत्मा नर्तन करने लगी । साधक सहजोबाई ने कहा है- भगवान् को छोड़ सकती हूं पर गुरु को नहीं । भगवान् ने कांटे ही कांटे बिछाए और गुरु ने सबको दूर हटा दिया। उसने बड़े मीठे, सरस और उपालंभ भरे पद कहे हैं राम तजू पे गुरु न बिसारूं, गुरु को सम हरि को न निहारूं । हरि ने जनम दिया जग मांही, गुरु ने आवागमन छुड़ाहि । हरि ने पांच चोर दिए साथा, गुरु ने लाई छुड़ाया अनाथा ॥ हरि ने कुटुम्ब जालन में गेरी, गुरु ने काटी ममता वेरी । हरि ने रोग भोग उरझायो, गुरु जोगी कर सर्व छुड़ायो । हरि ने मोसूं आप छिपायो, गुरु दीपक देताहि दिखायो । फिर हरि बंधि मुक्ति गति लाये, गुरु ने सबही भर्म मिटाये ॥ चरण दास पर तन मन बारूं, गुरु न तजूं हरि को तज डारूं ॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३८६ ४८.निर्ग्रन्थानामधिपतेः, प्रवचनमिदं महत्। निग्रंथों के अधिपति भगवान् महावीर के इस महान् प्रवचन प्रतिबोधश्च मेघस्य शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः॥ को और प्रतिबोध को जो सुनता है, श्रद्धा रखता है, उसकी ष्टि निर्मल होती है, उसे सम्यग-पथ की प्राप्ति होती है, मोह के बंधन ४९.निर्मला जायते दृष्टिः, मार्गः स्याद् दृष्टिमागतः। टूट जाते हैं और वह मुक्त बन जाता है। मोहश्च विलयं गच्छेत, मुक्तिस्तस्य प्रजायते॥ (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ ___मेघ के माध्यम से 'संबोधि' का जन्म हुआ। मेघ ने महावीर से सुना, समझा और श्रद्धा-पूर्वक उसका अनुशीलन किया। हम सबके अंतस्तल में सच्ची प्यास प्रकट हो और हम महावीर के पवित्र चरणों में अपने आपको सहज भाव से समर्पित कर उस परम सत्य का रसास्वादन करें। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे मनःप्रसादनामा षोडशोऽध्यायः। - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड-४ प्रायोगिक বৃত্তি Page #407 --------------------------------------------------------------------------  Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १ समत्व Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय पृ.सं. पृ.सं. ३८९ ४०४ ३९० ४०४ ३९१ ४०४ ४०४ ३९२ ३९३ १.वंदना और जिज्ञासा २. समता : सब जीवों के प्रति ३. समता : अनुकूलता-प्रतिकूलता में ४. महावीर और ग्वाला ५. महावीर और शूलपाणि यक्ष ६. महावीर के दस स्वप्न३९ ७. भगवान महावीर और चंडकौशिक ८. समत्व : मदपरिहार ९. मुनि हरिकेशबल १०. मानवीय एकता ११. समत्व : अहिंसा १२. धर्म और संप्रदाय एक नहीं १३. मानसिक अहिंसा १४. वाचिक अहिंसा १५. कायिक अहिंसा १६. दासप्रथा का उन्मूलन : चन्दनबाला १७. अहिंसा का कल्याणकारी स्वरूप १८. अपरिग्रहमूलक अहिंसा १९. समत्व और अपरिग्रह २०. महर्षि कपिल २१. इषुकार और कमलावती २२. अपरिग्रह : अनासक्ति ४०५ ४०९ ४१० ४१० ३९६ ३९९ ४०० ४०३ ४०३ ४११ ४१३ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्व वंदना और जिज्ञासा १. केसी कुमारसमणे, गोयमे य महायसे। उभओ निसण्णा सोहंति चंदसूरसमप्पभा॥ केशी अर्हत् पार्श्व के शिष्य और गौतम भगवान् महावीर के शिष्य थे। चन्द्र और सूर्य के समान प्रभास्वर कुमारश्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम दोनों श्रावस्ती नगरी के तिंदुक वन में बैठे हुए शोभित हो रहे हैं। केशी उवाच : २. अंधयारे तमे घोरे चिट्ठति पाणिणो बहू। को करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं? केशी-असूझ गहन अंधकार में बहुत लोग रह रहे हैं। इस समूचे लोक में उनके लिए प्रकाश कौन करेगा? गौतम उवाच: ३. उम्गओ विमलो भाणू सव्वलोगप्पभंकरो। गौतम-समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक निर्मल .. सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं॥ सूर्य उदित हो गया है। वह सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करेगा। ४. जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो। जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं॥ जगत् की जीव योनियों के ज्ञाता, जगद्गुरु, जगत् को आनंद देने वाले, जगन्नाथ, जगत्-बंधु और जगत्पितामह भगवान् महावीर की जय हो! ५. जयइ सुयाणं पभवो,तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ। जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो॥ शास्त्र के मूलस्रोत, अंतिम तीर्थंकर, लोकगुरु, महान आत्मा महावीर की जय हो। केशी उवाच : ६. कहं व णाणं? कह दंसणं से? सीलं कहं णायसुयस्स आसि? जाणासि णं भिक्खु! जहातहेणं अहासुयं बूहि जहा णिसंतं॥ केशी-गौतम! ज्ञातपुत्र भगवान महावीर का ज्ञान कैसा है? दर्शन कैसा है? उनका शील/सदाचार कैसा है? आप उसके प्रत्यक्ष द्रष्टा हैं। इसलिए यथार्थ रूप में जैसा आप जानते हैं, जैसा आपने सुना है, जैसा आपने अवधारित/हृदयंगम किया है, वह हमें बताएं। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३९० खण्ड-४ गौतम उवाच: ७. से सव्वदंसी अभिभूय णाणी गौतम-वे सर्वदर्शी हैं। वे ज्ञान के आवरण को हटाकर णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा।। केवली बन चुके हैं। वे विशुद्धभोजी, धृतिमान और ' अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं स्थितात्मा हैं। वे संपूर्ण लोक में अनुत्तर हैं। वे विद्वान्, गंथा अतीते अभए अणाऊ॥ अपरिग्रही और अभय हैं। वे अनायु-जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हैं। जंबू उवाच : ८. कयरे मम्गे अक्खाते, माहणेण मतीमता। जं मग्गं उज्जु पावित्ता ओहं तरति दुत्तरं? जंबू-मतिमान् श्रमण भगवान् महावीर ने वह कौन-सा मार्ग बतलाया है, जिस मार्ग को पाकर मनुष्य आसानी से दुस्तर प्रवाह को तर जाता है ? सुधर्मा उवाच: ९. समता धम्ममुदाहरे मुणी। सुधर्मा-भगवान महावीर ने समता धर्म का प्रतिपादन किया है। १०.समयं लोगस्स जाणित्ता. एत्थ सत्थोवरए।' सब आत्माएं समान हैं-यह जानकर मनुष्य समूचे जीव लोक की हिंसा से उपरत हो जाए। समता : सब जीवों के प्रति . ११.सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा। सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं। दुःख से घबराते हैं। उन्हें वध अप्रिय है। जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं। १२.पुढवीजीवा पुढो सत्ता आउजीवा तहागणी। वाउजीवा पुढो सत्ता तणरुक्खा सबीयगा। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और बीज पर्यन्त तृण व वृक्ष-ये सब जीव पृथक् सत्त्व हैं-स्वतंत्र अस्तित्व वाले हैं। १३.अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया। इत्ताव एव जीवकाए णावरे विज्जती कए॥ सब गतिशील प्राणी त्रस हैं। इस प्रकार छह जीवकाय बतलाए गये हैं। जीवकाय इतने ही हैं। इनसे अतिरिक्त कोई जीवकाय नहीं है। १४. सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं मइमं पडिलेहिया। सव्वे अकंतदुक्खा य अतो सव्वे अहिंसया।। मतिमान् मनुष्य सभी अनुयुक्तियों सम्यक् हेतुओं से जीवों की पोलोचना करे। सब जीवों को दुःख अप्रिय है, इसलिए किसी की भी हिंसा न करे। १५.एयं खुणाणिणो सारं जंण हिंसति कंचणं। अहिंसा समयं चेव एतावंतं विजाणिया॥ ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है-इतना ही उसे जानना है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन १६. ते सव्वे पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापण्णा णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाज्झवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंधं किच्चा सव्वे एगओ चिट्ठति । पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावादुए.... एवं वयासी - हंभो पावादुया ! इमं ताव तुब्भे सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुण्णं हाय मुहुत्तगं-मुहुत्तगं पाणिणा धरेह | णो बहु संडासगं संसारियं कुज्जा । णो बहु अग्निथंभणियं कुज्जा | णो बहु. साहम्मियवेयावडियं कुज्जा । णो बहु परधम्मियवेयावडियं कुज्जा। उज्जुया णियागपडिवण्णा अमायं कुव्वमाणा पाणि पसारेह - इति वुच्चा से पुरिसे तेसिं पावादुयाण तं सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडास एणं गाय पाणिसुं णिसिरति । तए णं ते पावादुया.........पाणि पडिसाहरंति । तए णं से पुरिसे ते सव्वे पावादुए...... वयासी- भो 'पावादुया! ....... कम्हा णं तुब्भे पाणि एवं पडिसाहरह ? पाणि णो डज्झेज्जा ? दड्ढे किं भविस्सइ ? दुक्खं । दुक्खं तिमण्णमाणा पडिसाहरह ? एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे । पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे । ३९१ १७. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ ॥ अ. १ : समत्व अनेक प्रावादुक धर्म के प्रवर्तक, विभिन्न प्रज्ञा वाले, विभिन्न अभिप्राय वाले हैं। वे विविध शील, विविध दृष्टि, विविध रुचि, विविध आरंभ और विविध अध्यवसाय से युक्त हैं। वे सब एक बड़ी मंडली बनाकर एक स्थान पर बैठे हैं। उस समय कोई पुरुष जलते हुए अंगारों से भरे पात्र को लोहे की संडासी से पकड़ कर उन प्रावादुकों से कहता है - तुम सब जलते हुए अंगारों से भरे इस पात्र को मुहूर्त (क्षण) भर हाथ में पकड़ कर रखो। इसे न संडासी से पकड़कर दूसरे के हाथ में दो, न अग्निस्तंभिनी विद्या का प्रयोग करो, न साधर्मिक के लिए अग्निस्तंभन करो और न परधर्म वालों के लिए अग्निस्तंभन करो । पंक्तिबद्ध बैठ शपथपूर्वक इंद्रजाल का प्रयोग न करते हुए हाथ को फैलओ। इस प्रकार कहता हुआ वह पुरुष जलते हुए अंगारों से भरे पात्र को लोहे की संडासी से पकड़ता है। और उन प्रावादुकों के हाथ की ओर बढ़ाता है। प्रावादुक अपना हाथ पीछे खींच लेते हैं। वह पुरुष उन प्रावादुकों से कहता है- तुम हाथ को पीछे किसलिए खींच रहे हो ? क्या हाथ नहीं जल जायेगा ? हाथ जलने से क्या होगा ? दुःख होगा। दुःख होगा, यह मानकर तुम हाथ पीछे खींच रहे हो। इससे यह स्पष्ट है-दुःख सबका समान है। कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता। यही तुला है, यही प्रमाण है और यही समवसरण - समवाय है। प्रत्येक के लिए यही तुला है, प्रत्येक के लिए यही प्रमाण है और प्रत्येक के लिए यही समवसरण है। समता : अनुकूलता-प्रतिकूलता में प्रज्ञावान लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निंदा - प्रशंसा, मान-अपमान - इन सब द्वंद्वों में सम रहता है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३९२ खण्ड-४ महावीर और ग्वाला १८.तत्थ एगो गोवो। सो दिवसं बइल्ले वाहेत्ता गामसमीवं पत्तो। ताहे चिंतेति-एते गामसमीवे खेत्ते चरंतु। अहंपि ता गाइओ दोहेमि। सोऽवि ताव अंतो परिकम्मं करेति। ते बइल्ला चरंता अडविं पइट्ठा। सो गोवो निग्गतो। ताहे पुच्छति-कहिं ते बइल्ला? ताहे सामी तुण्हिक्को अच्छति। सो चिंतेइ-एस ण जाणति। तो मग्गितुमाढत्तो। ते य बइल्ला जाहे धाता ताहे गामसमीवं आगता। माणुसं दळूण रोमंथेता अच्छंति। ताहे सो आगतो पेच्छति तत्थेव निविठे। ताहे आसुरुत्तो। कर्मार ग्राम में एक ग्वाला रहता था। वह एक दिन बैलों को हांकता हआ गांव के समीप पहुंचा। ये बैल गांव . के इस निकटवर्ती खेत में चरते हैं, तब तक मैं अपनी गायों को दुह लेता हूं, यह सोच वह बाड़े में जाकर दुहने की तैयारी करने लगा। बैल चरते हुए जंगल में चले गए। ग्वाला बाड़े से निकला। बैलों को वहां न देख उसने महावीर से पूछा-मेरे बैल कहां गये? महावीर मौन रहे। उसने सोचा, शायद यह नहीं जानता। वह बैलों को खोजने लगा। बैल तृप्त होकर गांव के समीप लौट आए। वहां मनुष्य (महावीर) को खड़ा देख बैठ गए और जुगाली करने लगे। उस समय ग्वाला भी वहां आ गया। एकाएक महावीर के पास बैठ बैलों को देख वह क्रुद्ध हो उठा। इसने ही मेरे बैल चुराए हैं। मैं बैलों को लेकर बाद में जाउंगा। पहले इसकी खबर लेता हूं-यों कहता हुआ वह चाबुक लेकर महावीर की ओर दौड़ा। देवराज इन्द्र उस समय यह जानने के लिए एकाग्र हुआ कि दीक्षा के प्रथम दिन महावीर क्या कर रहे हैं? उसने देखा-ग्वाला चाबुक लेकर महावीर की ओर दौड़ रहा है। देवराज इन्द्र ने उसे वहीं स्तंभित कर दिया और निकट आकर डांटते हुए कहा अरे दुरात्मन् ! तू नहीं जानता ये सिद्धार्थराज के पुत्र महावीर हैं। आज ही दीक्षित एतेण दामएण हणामि। एतेण मम चोरिता एते बइल्ला। पभाए घेत्तुं वच्चीहामि। ताहे सक्को देविंदो देवराया चिंतेइ-किं अज्ज सामी पढमदिवसे करेति? जाव पेच्छति तं गोवं धावंतं। ताहे सो तेण थंभितो। पच्छा आगतो तं तज्जेति-दुरात्मा! न जाणसि सिद्धत्थरायपुत्तो अज्ज पव्वतितो।...... ताहे सक्को भणति-भगवं! तुब्भ उवसग्गबहुलं, इन्द्र महावीर के निकट आकर बोला-प्रभो! आपके तो अहं बारसवासाणि वेयावच्चं करेमि। साधना काल में बहुत उपसर्ग आने वाले हैं। आप मुझे अनुमति दें। मैं बारह वर्ष तक आपकी सेवा में रहूं। ताहे सामिणा भण्णति-नो खलु सक्का! एवं भूअं इन्द्र के इस निवेदन पर महावीर बोले-शक्र! ऐसा वा भव्वं वा भविस्सइ वा जं णं अरिहंता देविंदाण न कभी हुआ है, न होता है और न कभी होगा। अर्हतों वा असुरिंदाण वा नीसाए केवलणाणं उप्पा.सु वा ने कभी किसी देवेन्द्र अथवा असुरेन्द्र के सहारे न उप्पाडेंति वा उप्पाडिस्संति वा, तवं वा करेंसु वा केवलज्ञान प्राप्त किया है, न करते हैं और न करेंगे। तप करेंति वा करिस्संति वा, सद्धिं वा वच्चिंसु वा न किसी के सहारे किया है, न करते हैं और न करेंगे। वच्चंति वा वच्चिस्संति वा। णण्णत्थ सएणं यात्रा न किसी के सहारे की है, न करते हैं और न उट्ठाण- कम्म - बल - विरिय - पुरिसक्कार . ___ करेंगे। वे केवल अपने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, परक्कमेणं। पुरुषकार और पराक्रम के सहारे केवलज्ञान प्राप्त करते Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ३९३ . महावीर और शूलपाणि यक्ष १९. तत्थ पुण अतिगामे वाणमंतरघरे जो रत्तिं परिवसति, तत्थ सो सूलपाणी संनिहितो। तं रत्तिं वाहेत्ता पच्छा मारेति । ताहे तत्थ लोगो दिवसं अच्छिऊणं पच्छा विगाले अन्नत्थ वच्चति । इंदसम्मोऽवि धूवं दीवगं दातुं दिवसतो चेव जाति। इतो य तत्थ सामी आगतो दूइज्जंतगाण पासाती । तत्थ य सव्वलोगो तद्दिवसं पिंडितो अच्छति। सामिणा देवकुलितो अणुन्नवितो । सो भणति - गामो जाणति । सामिणा गामो मिलितओ अन्नवितो । सो गामो भइ - ण सक्का एत्थ सिउं पुज्जे ! सामी भणति - णवर तुभे अणुजाण । ता भणति - ट्ठाह, तत्थेक्क्रेक्का वसहिं देंति । सामि च्छति । भगवं जाणति - सो संबुज्झि• हितित्ति । ताहे गंता एगकोणे पडिमं ठितो । ताहे सो. इंदसम्मो सूरे धरेंते चेव धूवपुप्फं दाऊण कम्पडियकरोडिया सव्वे पलोएत्ता तंपि देवज्जगं भणति - तुब्भे वि णीह, मा मारिज्जिहि । भगवं तुसिणीओ अच्छति । ताहे सो वंतरो चिंतेति - देवकुलिएण गामेण य भन्नतोऽवि न जाति, पेच्छ से अज्ज जं करेमि । ताहे सझाए अट्टट्टहासं मुयंतो बीहावेइ। भीमं अट्टहासं मुयंतो ताहे भेसेउं पवत्तो। ताहे सव्वो लोगो तं सद्दं सोऊण भीतो । भणति - एस सो देवज्जतो मारिज्जति । तस्थ य उप्पलो नाम नेमित्तिओ । भोमउप्पातसिमिणतलिक्ख अंगसरलक्खणवंजणअट्ठगमहा-निमित्त जाणओ जणस्स सोऊण चिंतेति-मा अ. १ : समत्व हैं, तप करते हैं और स्वतंत्र चर्या करते हैं। अस्थिक गांव में एक व्यंतरगृह था। वहां शूलपाणि यक्ष रहता था । जो कोई रात्रि में वहां प्रवास करता उसे पहले वह कष्ट देता और फिर मार देता । इसलिए उधर आने वाले राहगीर दिन में वहां ठहरकर संध्या के समय अन्यत्र चले जाते । व्यंतरगृह का पुजारी इन्द्रशर्मा भी धूपदीप कर दिन रहते-रहते अपने घर चला जाता। स्वामी (भगवान् महावीर ) ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए वहां आए। उस दिन गांव के सभी लोग वहां एकत्रित थे। महावीर ने पुजारी से व्यंतरगृह में रहने की अनुमति मांगी। पुजारी ने इस बात को ग्रामवासियों पर छोड़ दिया। महावीर ने ग्रामवासियों से अनुमति चाही । प्रत्युत्तर में लोगों ने कहा- आप यहां रह नहीं सकेंगे। मैं केवल तुम्हारी अनुमति चाहता हूं- महावीर ने कहा। अच्छा, आप ठहरें। पर यहां नहीं, हमारी बस्ती में उपस्थित लोगों ने प्रार्थना की। महावीर ने इसे अस्वीकार कर दिया। क्योंकि वे जानते थे कि वहां रहने से यक्ष को संबोध प्राप्त होगा । अतः व्यंतरगृह में रहने की अनुमति प्राप्त कर महावीर उसमें गए और एक कोने में ध्यान प्रतिमा में स्थित हो गए। दिन रहते-रहते धूप-दीप कर इन्द्रशर्मा ने भिक्षाचरों को देखा। वहां कोई नहीं था। महावीर से कहा -देवार्य ! तुम भी यहां मत रहो। यहां रहकर मौत को निमंत्रण मत दो। महावीर मौन रहे। यक्ष से सोचा- पुजारी और ग्रामवासियों के कहने पर भी यह नहीं जाता है तो देखो, आज मैं क्या करता हूं ? सन्ध्या को भयंकर अट्टहास करता हुआ यक्ष महावीर को भयभीत करने लगा। उस अट्टहास को सुन सब लोग भय से कांप उठे । परस्पर कहने लगे-देखो, वह देवार्य मारा जा रहा है। उसी गांव में उत्पल नाम का नैमित्तिक था। वह अष्टांग महानिमित्त-भौम, उत्पात, स्वप्न, अंतरिक्ष, अंग, स्वर, लक्षण एवं व्यंजन का ज्ञाता था। लोगों की बात Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन तित्थकरो होज्जत्ति अद्धितिं करेति, बीहेति य तत्थ रत्तिं गंतुं । ३९४ ताहे सो वाणमंतरो जाहे सद्देण ण वीहेति ताहे हत्थिरूवेण उवसग्गं करेति पिसायरूवेण य । एतेहि वि जाहे ण तरति खोभेउं ताहे पभायसमए सत्तविहं वेयणं करेति, तं जहा- १. सीसवेयणं, २. कन्नवेयणं, ३. अच्छिवेयणं, ४. दंतवेयणं, ५. णहवेयणं, ६. नक्कवेयणं, ७. पिट्ठिवेयणं । एक्केक्का वेयणा समत्था पागतस्स जीतं कामेतुं । किं पुण सत्तताओ उज्जलाओ। भगवं अहियासेति । ताहे सो देवो जाहे न तरइ चालेउं वा खोभेउं वा ताहे तंतो संतो परितंतो पायपडिओ खामेइ-खमेह भट्टारगत्ति । ताहे सिद्धत्थो उद्धातितो-हं भो सूलपाणी ! अपत्थियपत्थया ! न जाणसि सिद्धत्थरायसुयं भगवंतं तित्थगरं । जति सक्को देवराया जाणतो तो ते णं पावेंतो। ताहे सो भीतो दुगुणं खामेति । ताहे सिद्धत्थो धम्मं कहेति । तत्थ उवसंतो सामिस्स महिमं करेति । महावीर के दस स्वप्न २०. तत्थ लोगो चिंतेति सो तं देवज्जतं मारेत्ता इयाणि कीलेति । सामी य देसूणचत्तारि जामे अतीव परितावितो समाणो भाकाले मुहुत्तमेत्तं निहापमादं गतो । तत्थिमे दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धो, तं जहा १. एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुमिणे पराजितं पासित्ताणं पडिबुद्धे । २. एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं पुंसकोइलगं खण्ड - ४ सुनकर वह अधीर हो उठा। कहीं यह कोई तीर्थंकर तो नहीं है? पर रात्रि में उसकी वहां जाने की हिम्मत नहीं हुई। इधर यक्ष के अट्टहास से जब महावीर भयभीत नहीं हुए तब वह हाथी का रूप बनाकर उपसर्ग करने लगा। उससे भी भयभीत नहीं हुए तब उसने पिशाच का रूप बनाया। इतना करने पर भी जब वह महावीर को क्षुब्ध न कर सका तो उसने प्रभात काल में सात प्रकार की वेदना--सिर, कान, आंख, दांत, नख, नाक और पीठ में उत्पन्न की। साधारण व्यक्ति के लिए एक-एक वेदना भी प्राणलेवा थी। फिर ये सातों एक साथ प्रज्वलित हों तो कितना भयानक होता है। भगवान महावीर उन सबको सहते रहे। आखिर प्रभु को विचलित करने में स्वयं को असमर्थ पा यक्ष श्रान्त, क्लान्त हो गया। थक गया। महावीर के चरणों में गिर कर बोला- पूज्य ! मुझे क्षमा करें। इस बीच सिद्धार्थ यक्ष भी वहां पहुंच गया। उसने कहा - अनिष्ट को 'आमंत्रित करने वाले ओ शूलपाणि ! क्या सिद्धार्थराज के पुत्र तीर्थंकर महावीर को तू नहीं जानता? देवराज इन्द्र को ज्ञात होने पर तुम्हारी क्या दशा होगी ? वह भयभीत होकर पुनः पुनः महावीर से क्षमा मांगने लगा । सिद्धार्थ ने उसे धर्म का बोध दिया। यक्ष शांत होकर भगवान की महिमा करने लगा । ग्रामस्थित लोग सोच रहे थे- वह यक्ष इस देवार्य को मारकर अब क्रीड़ा कर रहा है। भगवान को कुछ न्यून चार प्रहर तक अतीव परिताप दिया गया। फलतः प्रभातकाल में भगवान को मुहूर्त मात्र नींद आ गई। निद्राकाल में महावीर ने दस स्वप्न देखे और जाग गए। स्वप्न इस प्रकार हैं १. महान घोर रूपवाले दीप्तिमान एक तालपिशाच (ताड़ जैसे लंबे पिशाच) को स्वप्न में पराजित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए । २. श्वेत पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को स्वप्न Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ३९५ अ.१: समत्व __ • सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ३. एगं च णं महं चित्तविचित्तं पक्खगं ___३. चित्रविचित्र पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे।। स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ४. एगं च णं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुमिणे ४. सर्वरत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में पासित्ता णं पडिबुद्धे। देखकर प्रतिबुद्ध हुए। । ५. एगं च णं महं सेतं गोवग्गं सुमिणे पासित्ता णं ५. एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में देखकर पडिबुद्धे। प्रतिबुद्ध हुए। ६. एगं च णं महं पउमसरं सव्वओ समंता ६. चिहुं ओर कुसुमित एक बड़े पद्मसरोवर को कुसुमितं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। । ७. एगं च णं महं सागरं उम्मी-वीची-सहस्स- ७. स्वप्न में हजारों ऊर्मियों और वीचियों से परिपूर्ण कलितं भुयाहिं तिण्णं सुमिणे पासित्ता णं एक महासागर को भुजाओं से तीर्ण हुआ पडिबुद्धे। देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ८. एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं सुमिणे ८. तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य को स्वप्न पासित्ता णं पडिबुद्धे। __ में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ९. एगं च णं महं हरि-वेरुलिय-वण्णाभेणं ९. स्वप्न में भूरे व नीले वर्णवाली अपनी आंतों से नियएणमंतेणं माणसत्तरं पव्वतं सव्व मानुषोत्तर पर्वत को चारों ओर से आवेष्टित ओसमंता आवेढियं . सुमिणे पासित्ता णं और परिवेष्टित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। पडिबुद्ध। . १०. एगं च णं महं मंदरे पव्वत्ते मंदरचूलियाए १०. स्वप्न में महान् मन्दर पर्वत की मन्दर चूलिका उवरिं सीहासणवरगयमत्ताणं सुमिणे पासित्ता . पर अवस्थित सिंहासन के ऊपर अपने आपको णं पडिबुद्धे। बैठे हुए देखकर प्रतिबुद्ध हुए। लोगो पभाते आगतो। उप्पलो य इंदसम्मो य। ते प्रातःकाल लोग आए। उत्पल और इन्द्रशर्मा भी अच्चणियं दिव्वं गंधचुन्नपुप्फवासं च वासंति। आए। उन्होंने अर्चनीय दिव्य गंध चूर्ण और पुष्पों की वर्षा भट्टारगं च अक्खयसव्वंगे। ताहे सो लोगो सव्वो की। महावीर को देखा कि उनके सभी अंग अक्षत हैं। उस सामिस्स उक्किट्ठिसीहणादं करेंतो पादेसु पडितो समय सब लोग आनन्दमय सिंहनाद करते हुए भगवान के भणति-जहा देवज्जतेण देवो उवसामितो। महिमं चरणों में प्रणत हो गए और बोले-आपने यक्ष को उपशांत पगतो। किया है। हम आपकी महिमा करते हैं। उप्पलोऽवि सामि दटुं पहठो वंदति। ताहे उत्पल महावीर को देखकर हर्षित हुआ। वह वंदना भणति-सामी! तुब्भेहिं अंतिमरातीए दससमिणा। कर बोला-स्वामिन् ! आपने रात्रि के अंतिम प्रहर में दस दिवा। तेसिं इमं फलं ति स्वप्न देखे हैं, उनका फलादेश यह है१. जो तालपिसायो हतो तमचिरेण मोहणिज्जं १. आपने तालपिशाच को पराजित देखा, उसके उम्मूलेहिसि। फलस्वरूप आप शीघ्र ही मोहनीय कर्म का उन्मूलन करेंगे। २. जो य सेय सउणो तं सुक्कज्झाणं झाहिसि। २. आपने श्वेत पंखवाले पुंस्कोकिल को देखा, उसके फलस्वरूप आप शुक्लध्यान को प्राप्त होंगे। ३. जो विचित्तो कोइलो तं दुवालसंगं पन्नवेहिसि। ३. आपने चित्र-विचित्र पंखवाले पुंस्कोकिल को लचाए Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३९६ खण्ड-४ ४. गोवग्गफलं च ते चउब्विहो समणसंघो भविस्सति। ५. पउमसरो चउब्विहदेवसंघातो भविस्सति। ६.जंच सागरं तिन्नो तं संसारमुत्तरिहिसि। ७. जो य सूरो तमचिरा केवलनाणं ते उप्पज्जिहिति। ८. जं च अंतेहिं माणुसुत्तरो वेढितो तं ते निम्मल जसकित्तिपयावा सयले तिहुयणे भविस्सति। देखा, उसके फलस्वरूप आप द्वादशांगी की प्ररूपणा करेंगे। ४. आपने गो वर्ग देखा, उसके फलस्वरूप आपके चतुर्वर्णात्मक श्रमण संघ होगा। ५. आपने पद्म सरोवर देखा, है, उसके फलस्वरूप आपकी परिषद् में चतुर्विध देवों का समवाय होगा अथवा आप चतुर्विध देवों की प्ररूपणा करेंगे। ६. आपने भुजाओं से महासागर को तीर्ण हुआ देखा है, उसके फलस्वरूप आप संसार समुद्र का पार पाएंगे। ७. आपने सूर्य को देखा है, उसके फलस्वरूप आपको शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न होगा। ८. आपने अपनी आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित देखा है, उसके फलस्वरूप सम्पूर्ण त्रिभुवन में आपका निर्मल यश, कीर्ति और प्रताप फैलेगा। . ९. आपने अपने को मन्दराचल पर आरूढ़ देखा है, उसके फलस्वरूप आप सिंहासनस्थ होकर देव, मनुष्य और असुर परिषद के बीच धर्म का आख्यान करेंगे। आपने स्वप्न में जो दो मालाएं देखी हैं, उनका फल मैं नहीं जानता। महावीर ने कहा-उत्पल! जिसे तुम नहीं जानते हो वह यह है-मैं दो प्रकार के धर्म-अगार धर्म और अनगार धर्म का प्ररूपण करूंगा। उत्पल ने महावीर को वंदना की और चला गया। ९. जं च मंदरमारूढोसि तं सीहासणत्यो सदेवमणुयासुराए परिसाए धम्म पन्नवेहिसित्ति। दामदुगं पुण ण जाणामि। सामी भणति-हे उप्पला! जणं तुम न याणसि तं णं अहं दुविहमगाराणगारियं धम्मं पन्नवेहामित्ति। ततो उप्पलो वंदित्ता गतो। भगवान महावीर और चंडकौशिक २१.ताहे सामी उत्तरवाचालं वच्चति। तत्थ अंतरा कणकखलं णाम आसमपदं। दो पंथा-उज्जुओ य वंको य। जो सो उज्जुओ सो कणगखलमज्झेण वच्चति । वंको परिहरंतो सामी उज्जुएण पधाइतो। महावीर उत्तर वाचला की ओर जा रहे थे। मार्ग के मध्य कनकखल नाम का आश्रम था। आश्रम से दो मार्ग निकलते थे। एक सीधी पगडंडी और एक टेढा मार्ग। सीधी पगडंडी कनकखल के मध्य से होकर जाती थी। महावीर टेढे मार्ग को छोड़ सीधी पगडंडी से चले। चरवाहों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका-स्वामी! इस मार्ग में दृष्टिविष सर्प रहता है इसलिए आप इधर न तत्थ सामी गोवालएहिं वारितो। जथा एत्थ दिदिठविसो सप्पो। मा एतेण वच्चह। जाएं। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ठितो। प्रायोगिक दर्शन ३९७ अ.१: समत्व सामी जाणति-जहा सो भव्वत्ति संबुज्झिहिति। महावीर ने अपने ज्ञान से जाना यह सर्प भव्य ताहे गतो। गंता जक्खघरगमंडवियाए पडिमं । (रूपान्तरण के योग्य) है। बोधि को प्राप्त होगा। इसलिए चरवाहों की बात को सुना-अनसुना कर महावीर उसी पगडंडी से चले। वहां पहुंचकर, एक देवालय के मंडप में कायोत्सर्ग प्रतिमा में स्थित हो गए। सो पुण सप्पो को पुव्वभवे आसि? खमओ वह सर्प पूर्वभव में कौन था? अतीन्द्रिय ज्ञान के पारणए खुड्डएण समं वासियस्स गतो। तेण द्वारा उन्होंने जान लिया-पूर्वभव में यह एक तपस्वी था। मंडुक्कलिया विराहिता। सो खुड्डएण एक बार नवदीक्षित मुनि को साथ ले वह वर्षाकाल में पडिचोदितो। ताहे सो अण्णं मतेल्लितं दावेति। भिक्षा के लिए गया। मार्ग में एक मेंढ़की उसके पांव से भणति, इमावि मए मारिता? जातो लोएण कुचली गई। शिष्य ने तपस्वी को इस विषय में निवेदन मारियाओ ताओ दावेति। किया। तपस्वी ने शिष्य के कथन की उपेक्षा की। थोड़ा आगे चलने पर एक मरी हुई मेंढ़की का ओर संकेत करते हुए तपस्वी ने कहा-क्या यह भी मेरे द्वारा मारी गई? इस प्रकार रास्ते में जितनी भी मरी हुई मेंढ़कियां आईं, उन सबकी ओर इंगित करता हआ तपस्वी यही कहता रहा-क्या यह भी मेरे द्वारा मारी गई है? क्या यह भी मेरे द्वारा मारी गई है? ताहे खुड्डएण णातं वियाले आलोएहिति। सो शिष्य ने सोचा, संभव है संध्या के समय तपस्वी वियाले आवस्सग-आलोयणाए आलोइत्ता आलोचना कर लेगा। वह समय भी बीत गया। शिष्य ने णिविट्ठो। खुड्डओ चिंतेति-णूणं से विस्सरितं। सोचा, तपस्वी मेंढ़की की आलोचना करना भूल गया है। तेण सारितो। रुट्ठो खुड्डगस्स आहणामित्ति पुनः स्मृति करवाई। तपस्वी क्रुद्ध हो गया। शिष्य को उद्घातितो। तत्थ खंभे आवडितो, मतो, मारने दौड़ा। वह एक खंभे से टकराकर गिर गया। विराहितसामन्नो कालगतो। जोइसिएहिं उववन्नो। श्रामण्य की विराधना की, मरकर ज्योतिष्क देव बना। • ततो चुतो कणगखले पंचण्हं तावससयाणं ज्योतिष्क का आयुष्य पूर्णकर वह कनकखल आश्रम कुलवइस्स तावसी पोठे आयातो। दारओ जा- में कुलपति के घर जन्मा। वह पांच सौ तापसों का तो। तत्थ से कोसिओत्ति नामं कत। सो य तेण अधिपति था। जातक का नाम कौशिक रखा गया। वह सभावेण अतीव चंडकोवो। तत्थ य अन्नेऽवि अत्थि स्वभाव से अत्यंत क्रोधी था। वहां कौशिक नाम के दूसरे कोसिया। ताहे से चंडकोसिओत्ति णामं कतं। तापस पुत्र भी थे। इसलिए स्वभावानुरूप उसका नाम चंडकौशिक कर दिया गया। सो य कुलवती जातो। सो तत्थ वणसंडे मुच्छितो एक दिन वह आश्रम का कुलपति बन गया। उस तेसिं तावसाणं ताणि फलाणि ण देति। ते अलभंता वनखंड में वह बहुत अधिक आसक्त था। तापसों को उस दिसोदिसिं गता। जो व तत्थ गोवालगादि एति वनखंड के फल नहीं लेने देता। फल-फूल आदि न पाकर तंपि हतूणं धाडेति। तापस इधर-उधर बिखर गए। उधर जो कोई चरवाहे आदि आते उन्हें भी वह मार भगाता। तस्स य अदूरे सेयविया णाम णगरी। ताओ उस वनखंड के समीप श्वेतविका नाम की नगरी थी। रायपुरोहिं आगतेहिं विहरितपडिणिवेसेण भग्गो वहां के राजकुमार क्रीड़ा करने के लिए उस आश्रम में विणासिओ य। तस्स गोवालेहिं कहितं। सो आए। ईर्ष्या के वशीभूत हो उसे विनष्ट करने लगे। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३९८ कंटियाणं गतओ। ताओ छड्डेत्ता परसुहत्थगता चरवाहों ने इसकी सूचना चंडकौशिक को दी। वह जंगल रोसेणं धगधगेंतो कुमारेहिं एंतो दिठो। ते तं में ईंधन लाने के लिए गया हुआ था। उसे छोड़ कुल्हाड़ा दळूण पलायंति। सोऽवि कुहाडहत्थो पहावितो। हाथ में लिए आश्रम की ओर दौड़ा। क्रोध से लाल-पीले आवडितो पडितो। सो कुहाडो से अद्दो ठितो। बने उस चंडकौशिक को कुमारों ने आते हुए देखा। वे तत्थ से सिरं दो भागे कयं। तत्थ मतो तंमि चेव दौड़ने लगे। चंडकौशिक कुल्हाड़ा हाथ में लिए उनका वणसंडे दिट्ठीविसो सप्पो आयातो। तेण रोसेण पीछा करने लगा। मार्ग में ठोकर खाकर गिर पड़ा। लोभेण य तं वणसंडं रक्खति। ते तावसा सव्वे __कुल्हाड़ा सीधा उसके सिर पर जा लगा। सिर दो भागों में दद्धा। जे अदड्ढगा ते णट्ठा। सो तिसञ्झं तं विभक्त हो गया। वह मरकर उसी वनखंड में दृष्टिविष वणसंड परियंतेऊणं जं सउणगमवि पासति तं । सर्प हुआ। क्रोध और लोभ के वशवर्ती बना हुआ, वह डहति। उस वनखंड की रक्षा करता था। उसने वहां रहने वाले सभी तापसों को अपने दृष्टिविष से जला दिया। जो शेष बचे, वे भाग गए। वह तीनों सन्ध्याओं में वनखंड की परिक्रमा करने लगा। किसी पक्षी को भी देखता तो उसे जला देता। ताहे सामि तेण दिट्ठो। भगवं च गंतूण तत्थ . चंडकौशिक ने देखा-महावीर कायोत्सर्ग की मुद्रा में पडिमं ठितो। आसुरुत्तो ममं ण जाणसित्ति खड़े हैं। वह क्रुद्ध हो गया। क्या तू मुझे नहीं सूरिएणाझाइत्ता पच्छा सामिं पलोएति, जाव सो ण जानता ?-ऐसा कह उसने सूर्य की ओर दृष्टि डाल डज्झति जहा अन्ने। एवं दो तिन्नि वारे। महावीर की ओर देखा। दूसरे लोग उसके दृष्टि प्रक्षेप मात्र से जल जाते थे। महावीर नहीं जले। उसने दो तीन बार अपनी विषबुझी आंखों से महावीर की ओर देखा। पर महावीर पर कोई असर नहीं हुआ। ताहे गंतूण डसति, डसित्ता सरत्ति अवक्कमति मा चंडकौशिक रेंगता हुआ महावीर के निकट पहुंचा। मे उवरिं पडिहिति। तहवि ण मरति। एवं तिन्नि उन्हें काटा। यह मेरे ऊपर न गिर जाए यह सोच पीछे वारे। ताहे पलोएंतो अच्छति अमरिसेणं। तस्स तं हटकर ठहर गया। महावीर न गिरे और न मृत्यु ने उनका रूवं पलोएंतस्स ताणि विसभरिताणि अच्छीणि वरण किया। उसने तीन बार महावीर को काटा। पर विज्झातानि सामिणो कंतिं सोम्मतं च दळूणं। ताहे महावीर के कुछ नहीं हुआ। इस असफलता के कारण सामिणा भणियं-उवसम भो चंडकोसिया! अमर्ष से भरकर वह महावीर को देखने लगा। इस प्रकार उवसमित्ति, ताहे तस्स ईहावूहमग्गणगवेसणं देखते-देखते महावीर की कांति और सौम्यता उसकी करेंतस्स जातिस्सरणं समुप्पन्न। आंखों में उतर आई। उसकी आंखों का विष धुल गया। चंडकौशिक के बदलते हुए रूप को देख महावीर बोले-चंडकौशिक! शांत हो जाओ। शांत हो जाओ। यह शब्द सुनकर वह ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने लगा। उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। ताहे तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदति उसने तीन बार प्रदक्षिणा की। मन से वंदना की। णमंसति, णमंसेत्ता ताहे भत्तं पच्चक्खाति। नमस्कार किया और उसी समय उसने.अनशन स्वीकार कर लिया। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ३९९ अ.१: समत्व ताहे सो बिले तोंडं छोणं एवं ठिओ, माऽहं रुट्ठो वह अपने मुंह को बिल में डालकर बैठ गया। 'मैं समाणो लोग मारेहं। रुष्ट होकर लोगों को न मारूं'-इस भावना से उसने ऐसा किया। सामी तत्थ अणुकंपणट्ठाए अच्छति। तं सामी भगवान वहीं खड़े रहे। महावीर को खड़े देख चरवाहे दतॄण गोवालगवच्छवालगा अल्लियंति। रुक्खे. उनके निकट आए। वे वृक्षों की ओट लेकर सर्प पर पत्थर हिं आवरेत्ता अप्पाणं पाहाणे खिवंति, ण चलंतित्ति फेंकने लगे। सर्प हिला-डुला नहीं। वे उसके और निकट अल्लीणा, रुद्धेहिं घटितो तहवि ण फंदति। तेहिं आए। छेड़-छाड़ की। फिर भी उसमें स्पंदन नहीं हुआ। लोगस्स सिट्ठ। उन्होंने गांव के लोगों को इसकी सूचना दी। चंडकौशिक के उपशांत होने की बात सुन लोग वहां आए।' ताहे लोगो आगंतुं सामिं वंदित्ता तंपि सप्पं वंदति सर्वप्रथम महावीर की वंदना की। फिर उस सर्प की महं च करेति। अन्नाओ य घयविक्किणियातो तं वन्दना की और उत्सव मनाया। अहिरिणियों ने सप्पं घतेण मक्खंति, फरुसो त्ति। सो पिपीलियाहिं चंडकौशिक के शरीर को रूक्ष समझ उसे घी से चुपडा। गहितो। तं वेयणं सम्म अहियासेति। अद्धमासस्स घी की गंध पा चींटियां उसके शरीर पर चढ़ गईं। काटने कालगतो, सहस्सारे उववन्नो। लगीं। उसने उस वेदना को समभाव से सहा। पन्द्रह दिनों का अनशन सम्पन्न कर वह सहस्रार-कल्प (आठवें देवलोक) में उत्पन्न हुआ। समत्व : मदपरिहार २२.जो परिभवई परं जणं, जो गोत्र आदि की हीनता के कारण दूसरे की संसारे परिवत्तई महं। - अदु इंखिणिया उ पाविया, होता रहता है। वह अवहेलना पाप को उत्पन्न करने वाली इइ संखाय मुणी ण मज्जई॥ या पतन की ओर ले जाने वाली है-यह जानकर मुनि मद न करे। २३.जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया। इद मोणपयं उवठिए, णो लज्जे समयं सया चरे॥ एक सर्वोच्च अधिपति हो और दूसरा उसके सेवक का सेवक हो। सेवक पूर्व प्रव्रजित हो और अधिपति बाद में। वह अपने पूर्व प्रव्रजित सेवक को वन्दन करने में लज्जा का अनुभव न करे। वह सदा समता का आचरण करे। २४.जे यावि अप्पं वसुमं ति मंता, जो अपने आपको संयमी और ज्ञानी मानकर परीक्षा, ___ संखाय वायं अपरिच्छ कुज्जा। किए बिना आत्मोत्कर्ष दिखाता है-मैं सबसे बड़ा तपस्वी तवेण वाहं अहिए ति मंता, . हूं, ऐसा मानकर दूसरे लोगों को प्रतिबिंब जैसा देखता है। अण्णं जणं पस्सति बिंबभूतं॥ २५.एगंत कूडेण तु से पलेइ, वह एकांत माया के द्वारा संसार में भ्रमण करता है। न विज्जई मोणपदंसि गोते। मुनि-पद में गोत्र (उच्चत्वाभिमान) नहीं होता। जो सम्मान . जे माणणठेण विउक्कसेज्जा, के लिए संयम अथवा अन्य किसी प्रकार का उत्कर्ष वसुमण्णतरेण अबुज्झमाणे। दिखाता है, वह परमार्थ को नहीं जानता। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-४ मुनि हरिकेशबल २६.सोवागकुलसंभूओ गुणुत्तरधरो मुणी। हरिएसबलो नाम आसि भिक्खू जिइंदिओ॥ मणगुत्तो वयगुत्तो कायगुत्तो जिइंदिओ। भिक्खट्ठा बंभइज्जम्मि जन्नवाडं उवदिओ॥ चांडाल कुल में उत्पन्न, ज्ञान आदि उत्तम गुणों को धारण करने वाला, धर्म-अधर्म का मनन करने वाला हरिकेशबल नामक जितेन्द्रिय भिक्षु था। ___ वह मन, वचन और काया से गुप्त और जितेन्द्रिय था। वह भिक्षा लेने के लिए यज्ञ मंडप में गया। वहां ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे। ___ वह तप से कृश हो गया था। उसके उपधि और उपकरण प्रान्त-जीर्ण और मलिन थे। उसे आते देख वे अनार्य हंसे। - जाति मद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी पुरुषों ने परस्पर इस प्रकार कहा-' तं पासिऊणमेज्जंतं तवेण परिसोसियं। पंतोवहिउवगरणं उवहसंति अणारिया। जाईमयपडिथद्धा हिंसगा अजिइंदिया। अबंभचारिणो बाला इमं वयणमब्बवी॥ कयरे तुम इय अदंसणिज्जे ओ अदर्शनीय मूर्ति! तुम कौन हो? किस आशा से काए व आसा इहमागओसि? यहां आए हो? अधनंगे तुम पांशुपिशाच (चुडेल) से लग ओमचेलगा पंसुपिसायभूया रहे हो। जाओ, आंखों से परे चले जाओ, यहां क्यों खड़े गच्छक्खलाहि किमिहं ठिओसि? हो? जक्खो तहिं तिंदुयरुक्खवासी ___ उस समय महामुनि हरिकेशबल की अनुकम्पा करने अणुकंपओ तस्स महामुणिस्स। ___ वाला तिन्दुक (आबनूस) वृक्ष का वासी यक्ष अपने शरीर पच्छायइत्ता नियगं सरीरं का गोपन कर मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो इस प्रकार ___ इमाई वयणाइमुदाहरित्था॥ बोलासमणो अहं संजओ बंभयारी मैं श्रमण हूं, संयमी हूं, ब्रह्मचारी हूं, धन, पचनविरओ धणपयणपरिग्गहाओ। पाचन और परिग्रह से विरत हूं। यह भिक्षा का काल है। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले मैं सहज निष्पन्न भोजन पाने के लिए यहां आया हूं। अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि॥ वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई य आपके यहां बहुत सारा भोजन दिया जा रहा है, अन्नं पभूयं भवयाणमेयं। खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है। मैं भिक्षा-जीवी हूं। जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति यह आपको ज्ञात होना चाहिए। अच्छा ही है-कुछ बचा सेसावसेसं लभऊ तवस्सी॥ भोजन इस तपस्वी को मिल जाए। उवक्खडं भोयण माहणाणं सोमदेव-यहां जो भोजन बना है, वह केवल ब्राह्मणों अत्तठ्यिं सिद्धमिहेगपक्खं। के लिए ही बना है। वह एक पाक्षिक है-अब्राह्मण को नऊ वयं एरिसमन्नपाणं अदेय है। ऐसा अन्न-पान हम तुम्हें नहीं देंगे, फिर यहां दाहामु तुझं किमिहं ठिओसि? क्यों खड़े हो ? थलेसु बीयाइ ववंति कासगा यक्ष-अच्छी उपज की आशा से किसान जैसे स्थल तहेव निन्नेसु य आससाए। (ऊंचीभूमि) में बीज बोते हैं, वैसे ही नींची भूमि में बोते एयाए सद्धाए दलाह मज्झं हैं। इसी श्रद्धा से मुझे दान दो। पुण्य की आराधना करो। आराहए पुण्णमिणं ख खेत्तं॥ यह क्षेत्र है। बीज खाली नहीं जाएगा। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए जहिं पकिण्णा विरुहंति पुण्णा । "जे माहणा जाइविज्जोववेया होय माणो य वह य जेसिं ताई तु खेत्ताइं सुपेसलाई ॥ माहा जाइविज्जाविहूणा तुभेत्थ भो ! भारधरा गिराणं उच्चावयाइं मुणिणो चरंति मोसं अदत्तं च परिग्गहं च । अठ्ठे न जाणाह अहिज्ज वेए । ताई तु खेत्ताइं सुपावयाई ॥ अज्झायाणं पडिकूलभासी ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई ॥ पभाससे किं तु सगासि अम्हं । अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स एयं दंद्रेण फलेण हंता ४०१ न य णं दाहामु तुमं नियंठा ! गुत्तीहि गुत्तस्स जिइंदियस्स ॥ ज मे न दाहित्थ अहेसणिज्जं किमज्ज जण्णाण लहित्थ लाहं ॥ के एत्थ खत्ता उवजोइया वा 'अज्झावया वा सह खंडिएहिं । कंठम्म घेत्तू खज्ज जो णं ? अज्झायाणं वसुत्ता दंडेहि वित्तेहि कसेहि चेव उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा । नरिंददेविंदऽभिवंदिएणं समागया तं इसि तालयंति ॥ रन्नो तहिं कोसलियस्स धूया भद्द त्ति नामेण अणिदियंगी। तं पासिया संजय हम्ममाणं देवाभिभोगेण निओइएणं कुद्धे कुमारे परिनिव्ववे ॥ दिन्ना मुरण्णा मणसा न झाया। जेहि वंता इसिणा स एसो ॥ अ. १ : समत्व सोमदेव-जहां बोए हुए सारे के सारे बीज उग जाते हैं, वे क्षेत्र इस लोक में हमें ज्ञात हैं। जो ब्राह्मण जाति और विद्या से युक्त हैं, वे ही पुण्यक्षेत्र हैं। यक्ष - जिनमें क्रोध है, मान है, हिंसा है, झूठ है, चोरी है और परिग्रह है - वे ब्राह्मण जाति-विहीन, विद्या विहीन और पाप - क्षेत्र हैं। हे ब्राह्मणो! इस संसार में तुम केवल वाणी का भार ढो रहे हो । वेदों को पढ़कर भी उनका अर्थ नहीं जानते । जो मुनि उच्च और निम्न उच्च और निम्न घरों में भिक्षा के लिए जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं। सोमदेव - ओ अध्यापकों के प्रतिकूल बोलने वाले साधु ! हमारे समक्ष तू क्या बढ़-चढ़ कर बोल रहा है ? हे निर्ग्रथ! यह अन्न-पान भले ही सड़ कर नष्ट हो जाए, किन्तु तुझे नहीं देंगे। यक्ष - मैं समितियों से समाहित, गुलियों से गुप्त और जितेन्द्रिय हूं। यह एषणीय- विशुद्ध आहार यदि तुम मुझे नहीं दोगे, तो इन यज्ञों का आज तुम्हें क्या लाभ होगा ? सोमदेव - यहां कौन है क्षत्रिय, रसोइया, अध्यापक या छात्र जो डंडे और फल से पीट, गलहत्था दे इस निर्ग्रथ को यहां से बाहर निकाले ? अध्यापकों का वचन सुनकर बहुत से कुमार उधर दौड़े। डंडों, बेंतों और चाबुकों से उस ऋषि को पीटने लगे । राजा कौशलिक की सुन्दर पुत्री भद्रा यज्ञ मंडप में मुनि को प्रताड़ित होते देख क्रुद्ध कुमारों को शान्त करने लगी। भद्रा-राजाओं और इन्द्रों से पूजित यह ऋषि है। इसने मेरा त्याग किया था। देवता के अभियोग से प्रेरित होकर राजा द्वारा मैं इसे सौंपी गई। किन्तु इसने मुझे मन से भी नहीं चाहा। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४०२ खण्ड-४ यह महान् यशस्वी है। महान् अनुभागअचिन्त्यशक्ति से सम्पन्न है। घोर व्रती है। घोर पराक्रमी है। इसकी अवेहलना मत करो। यह अवहेलनीय नहीं है। कहीं यह अपने तेज से तुम लोगों को भस्म न कर डाले। __ सोमदेव पुरोहित की पत्नी भद्रा के सुभाषित वचनों को सुनकर यक्ष ने ऋषि का वैयावृत्त्य (परिचर्या) करने के लिए कुमारों को भूमि पर गिरा दिया। महाजसो एस महाणुभागो घोरव्वओ घोरपरक्कमो य। मा एयं हीलह अहीलणिज्ज मा सव्वे तेएण भे निदहेज्जा॥ एयाइं तीसे वयणाइ सोच्चा पत्तीइ भंडाइ सुहासियाई। इसिस्स वेयावडियट्ठयाए जक्खा कुमारे विणिवाडयंति॥ ते घोररूवा ठिय अंतलिक्खे असुरा तहिं तं जणं तालयंति। ते भिन्नदेहे रुहिरं वमंते पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो॥ गिरिं नहेहिं खणह अयं दंतेहिं खायह। जायतेयं पाएहि हणह जे भिक्खं अवमन्नह॥ घोर रूप वाला यक्ष आकाश में स्थिर होकर उन छात्रों को मारने लगा। उनके शरीरों को क्षत-विक्षत और उन्हें रुधिर का वमन करते देख भद्रा फिर बोली आसीविसो उग्गतवो महेसी घोरव्वओ घोरपरक्कमो य। अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा जे भिक्खयं भत्तकाले वहेह॥ सीसेण एवं सरणं उवेह समागया सव्वजणेण तुब्भे। जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा लोगं पि एसो कुविओ डहेज्जा॥ अवहेडिय पिदिसउत्तमंगे पसारिया बाहु अकम्मचेठे। निब्भेरियच्छे रुहिरं वमते उड्ढंमुहे निग्गयजीहनेत्ते॥ जो इस भिक्षु का अपमान कर रहे हैं, वे नखों से पर्वत खोद रहे हैं। दांतों से लोहे को चबा रहे हैं और पैरों से अग्नि को रौंद रहे हैं। यह महर्षि आशीविष-लब्धि से सम्पन्न है। उग्र तपस्वी है। घोर व्रती और घोर पराक्रमी है। भिक्षा के समय जो व्यक्ति इस भिक्षु का वध कर रहे हैं, वे पतंगसेना की भांति अग्नि में झंपापात कर रहे हैं। यदि तुम जीना चाहते हो, ऐश्वर्य को चाहते हो तो सब मिलकर मुनि को नमन करो और इस मुनि की शरण में आओ। कुपित होने पर यह समूचे संसार को भस्म कर सकता है। ___ भद्रा यह चेतावनी दे ही रही थी कि उन छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गए। उनकी भुजाएं फैल गईं। वे निष्क्रिय हो गए। उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं। मुंह से रुधिर निकलने लगा। मुंह ऊपर को हो गए। जीभ और नेत्र बाहर निकल आए। उन छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देख सोमदेव ब्राह्मण चिंतातुर हो गया और घबराया हुआ अपनी पत्नी सहित मुनि के पास आया। उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगा-भंते! हमने जो अवहेलना और निंदा की है, उसे क्षमा करें। भंते! मूढ बालकों ने अज्ञानवश जो आपकी अवहेलना की, उसे आप क्षमा करें। ऋषि प्रसाद-गुण सम्पन्न होते हैं। वे किसी पर कुपित नहीं होते। ते पासिया खंडिय कट्ठभूए विमणो विसण्णो अह माहणो सो। इसिं पसाएइ सभारियाओ हीलं च निंदं च खमाह भंते! बालेहि मूढेहि अयाणएहिं - जं हीलिया तस्स खमाह भंते! महप्पसाया इसिणो हवंति न ह मुणी कोवपरा हवंति॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४०३ अ.१: समत्व पुट्विं च इण्हिं च अणागयं च मेरे मन में कोई प्रद्वेष न पहले था, न वर्तमान में है मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ। और न भविष्य में होगा। यक्ष मेरी उपासना कर रहा था। जक्खा हु वेयावडियं करेंति उसी के द्वारा कुमार प्रताड़ित हुए हैं। ___ तम्हा हु एए निहया कुमारा॥ अत्यं च धम्मं च वियाणमाणा आप अर्थ और धर्म के ज्ञाता हैं। आप भूतिप्रज्ञ-मंगल तुम्भे न वि कुप्पह भूइपण्णा। प्रज्ञा युक्त हैं। आप कोप नहीं करते। इसलिए हम सब तुम्भं तु पाए सरणं उवेमो मिलकर आपके चरणों की शरण ले रहे हैं। समागया सव्वजणेण अम्हे॥ अच्चेमु ते महाभाग! महाभाग! हम आपकी अर्चा करते हैं। आपका कुछ नते किंचि न अच्चिमो। भी ऐसा नहीं है जिसकी हम अर्चा न करें। आप नाना भुंजाहि सालिम कूरं . व्यंजनों से युक्त चावल निष्पन्न भोजन लेकर हमें कृतार्थ नाणावंजणसंजुयं॥ करें। इमं च मे अत्थि पभूयमन्नं . मेरे यहा यह प्रचुर भोजन पड़ा है। हमें अनुगृहीत सू अम्ह अणुग्गहट्ठा। करने के लिए आप कुछ खाएं। महात्मा हरिकेशबल ने बाढं ति पडिच्छइ भत्तपाणं उनकी प्रार्थना स्वीकार की और एक मास की तपस्या का मासस्स ऊपारणए महप्या॥ पारणा करने के लिए भक्त-पान ग्रहण किया। तहियं गधोदयपुप्फवासं देवों ने वहां सगंधित जल. पष्प और दिव्य रत्नों की दिव्वा तहिं क्सुहारा य वुट्ठा। वर्षा की, आकाश में दुन्दुभि बजाई और अहोदानम्पहयाओ दुंदुहीओ सुरेहि आश्चर्यकारी दान का घोष किया। आगासे अहो दाणं च घुटुं॥ सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो यह प्रत्यक्ष तप की महिमा दिखाई दे रही है। जाति न दीसई जाइविसेस कोई। की कोई विशेषता नहीं है। जिसकी ऋद्धि ऐसी महान् सोवागपुत्ते हरिएससाहू (अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न) है, वह हरिकेश मुनि चांडाल जस्सेरिसा इड्ढि महाणुभागा। का पुत्र है। मानवीय एकता २७. एक्का मणुस्सजाई। मनुष्य जाति एक है। २८. कम्मुणा बंभणो होई कम्मुणा होइ खत्तिओ। मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है। कर्म से क्षत्रिय होता वइस्सो कम्मुणा होइ सुहो हवइ कम्मुणा॥ है। कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। समत्व : अहिंसा जंबू आह२९.को सासओ धम्मो? जंबू-भंते! शाश्वत धर्म कौन सा है? सुधर्मा आह३०.सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा सुधर्मा-मैंने भगवान से सुना है-किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन न करे। उन पर शासन न करे। उन्हें दास न बनाए। उन्हें परिताप न दे। उनका Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४०४ खण्ड-१ प्राण-वियोजन न करे ३१.एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए। यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने जीवलोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया है। इस शाश्वत धर्म का प्रतिपादन केवल महावीर ने ही नहीं किया, सभी अर्हतों ने ऐसा किया है। जे अईया, जे य पड़प्पण्णा; जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति। धर्म और संप्रदाय एक नहीं ३२.चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा रूवं णाममेगे जहति, णो धम्म, धम्मं णाममेगे जहति, णो रूवं, एगे रूवंपि जहति, धम्मं पि, एगे णो रूवं जहति, णो धम्म। ३३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- . धम्म णाममेगे जहति, णो गणसंठितिं, गणसंठितिं णाममेगे जहति, णो धम्म, एगे धम्मं वि जहति, गणसंठितिं वि, एगे णो धम्मं जहति णो गणसंठिति। पुरुष के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं-कुछ पुरुष वेश का त्याग कर देते हैं, धर्म का त्याग नहीं करते। कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं, वेश का त्याग नहीं करते। कुछ पुरुष वेश का भी त्याग कर देते हैं और धर्म का भी त्याग कर देते हैं। कुछ पुरुष न वेश का त्याग करते हैं और न धर्म का त्याग करते हैं। पुरुष के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं-कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं, गण-संस्थिति (गण मर्यादा) का त्याग नहीं करते। कुछ, पुरुष गण-संस्थिति का त्याग कर देते हैं, धर्म का त्याग नहीं करते। कुछ पुरुष धर्म का भी त्याग कर देते हैं और गण-संस्थिति का भी त्याग कर देते हैं। कुछ पुरुष न धर्म का त्याग करते हैं और गण-संस्थिति का त्याग करते हैं। मानसिक अहिंसा ३४.संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई॥ यत्नशील यति संरंभ, 'समारंभ और आरंभं में प्रवर्तमान मन का निवर्तन करे। संरंभ-किसी का अनिष्ट करने का संकल्प। समारंभ-अनिष्टकारक साधन सामग्री का चिंतन। आरंभ-अनिष्ट करने का आवेशपूर्ण ध्यान-मानसिक एकाग्रता। वाचिक अहिंसा ३५.संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य। वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई। यत्नशील यति संरंभ, समारंभ और आरंभ में प्रवर्तमान वचन का निवर्तन करे। संरंभ-गाली देने की संकल्प सूचक ध्वनि। समारंभ-गाली देने का वाचिक प्रयत्न, आरंभ-गाली देना। कायिक अहिंसा ३६.संरंभसमारंभे आरंभे तहेव य। कायं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई। यत्नशील यति संरंभ, समारंभ. और आरंभ में प्रवर्तमान शरीर का निवर्तन करे। संरंभ-मारने के संकल्प के अनुरूप शरीर चेष्टा, समारंभ-मारने की साधन Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४०५ णाम दासप्रथा का उन्मूलन : चन्दनबाला ३७. तती कोसंबिं गतो । तत्थ य सयाणिओ राया । तस्स मिगावती देवी । तच्चावादी धम्मपाठओ। सुगुत्तो अमच्चो। णंदा से महिला । सासमणोवासिया । सा सड्ढी त्ति मिगावतीए वयंसिया । तत्थेव णगरे धणवहो सेट्ठी । तस्स मूला भारिया । एवं ते सकम्मसंपउत्ता अच्छंति। सामी य इमं एतारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हति कुम्मासे सुप्पकोणेणं । एलुगं विखंभतां । नियत्तेसु भिक्खायरेसु । जदि रायधुया दासत्तणं पत्ता, णियलबद्धा, मुंडियसिरा, रोयमाणी, अब्भत्तट्ठिया एवं कप्पति, संण कप्पति । कालो य पोसबहुलपाडिवओ । एवं अभिग्गहं घेत्तू कोसंबी अच्छति । दिवसे दिवसे य : भिक्खायरियं फासेति । किं णिमित्तं ? बावीसं परिसहा भिक्खायरियाए उदिरिज्जति । एवं चत्तारि मासे कोसंबीए हिण्डति । ता नंदा घरमणुपविट्ठो । ताते सामी जातो । ताए परेण आदरेण भिक्खा णीणिता । सामी विनिग्गतो। सा अधितिं पकता । ताहे दासीओ भांति - एस देवज्जओ दिवे दिवे एत्थ एति । ता ता तं - भगवतो कोति अभिग्गहो । ताहे निरायं चेव अद्धिती जाया । सुगुत्तो अमच्चो आगतो। ताहे सो पुच्छति, भणति - किं अद्धितिं करेसि ? ताए से कहितं भणति-किं अम्हं 'अमच्यत्तणेण ? एच्चिरं कालं सामी भिक्खं ण भति । किं च ते विन्नाणेणं ? जदि एतं अभिग्गहं न सामग्री जुटाना, आरंभ - वध करना । अ. १ : समत्व भगवान महावीर कौशंबी नगरी में विहार कर रहे थे। शतानीक वहां का राजा था। उसकी रानी का नाम था मृगावती । तत्त्ववादी उसका धर्मपाठक था । सुगुप्त अमात्य था। नंदा सुगुप्त की पत्नी थी। वह श्रमणोपासिका थी । श्रमणोपासिका होने के कारण वह मृगावती की सखी थी। उसी नगरी में धनावह श्रेष्ठी रहता था । मूला उसकी पत्नी थी। सब अपने-अपने कर्त्तव्य में संलग्न थे । भगवान महावीर ने इस प्रकार अभिग्रह (संकल्प) किया छाज के कोने में पड़े उड़द । देने वाली का एक पैर देहली के भीतर और दूसरा बाहर | भिक्षाचर भिक्षा लेकर लौट गए हों। राजकुमारी दासी बनी हुई हो, उसके हाथ-पैरों में बेड़ियां हों, सिर मुंडा हुआ हो, नेत्र अश्रुपूरित हों, वह भूखी हो - ऐसी भिक्षा मिलेगी तो लूंगा, अन्यथा नहीं । पौषकृष्णा प्रतिपदा का समय। इस प्रकार " का अभिग्रह ग्रहण कर भगवान महावीर कौशंबी में विहरण कर रहे थे। वे प्रतिदिन भिक्षा के लिए जाते क्योंकि भिक्षाचर्या में बाईस ही प्रकार के परीषहों की उदीरणा होती है। इस प्रकार वे चार महीने तक कौशंबी में घूमते रहे। एक दिन भगवान श्रमणोपासिका नंदा के घर भिक्षा के लिए गए। उसने भगवान को पहचान लिया। वह अत्यंत आदर के साथ भिक्षा लेकर आई। पर महावीर भिक्षा लिए बिना ही लौट गए। नंदा के धैर्य का बांध टूट गया। दासियों ने कहा- आप इतनी अधीर क्यों होती हैं ? यह देवार्य तो प्रतिदिन ही यहां भिक्षा के लिए आता है और कुछ लिए बिना ही वापस चला जाता है। नंदा ने जाना - भगवान के अवश्य कोई अभिग्रह है । तब वह और अधिक अधीर हो उठी। अमात्य सुगुप्त घर आया। उसने पूछा–आज इतनी अधीर क्यों हो रही हो ? नंदा बोली- आपके मंत्री पद से क्या लाभ? भगवान को इतने लंबे समय से भिक्षा नहीं मिल रही है। और क्या लाभ आपके बुद्धिकौशल का यदि आप भगवान का Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन जाणसि । तेण सा आसासिता कल्ले समाणे दिवसे जहा लभति तहा करेमि । ४०६ एताए कहाए बट्टमाणीए विजया णामं पडिहारी मिगावतीए सतिया । सा केणवि कारणेण आगता । सा तं उल्लावं सोऊणं मिगावतीए साहति । मिगावतीवितं सोऊण महता दुक्खेण अभिभूता । सा चेडगधूता अतीव अद्धितिं पकया। राया य आगतो पुच्छति, भणति - किं तुज्झ रज्जेण मए वा ? एवं सामिस्स एवतियं कालं हिंडतस्स अभिग्गहो ण णज्जति, ण वा जाणसि एत्थ विहरंतं । तेण आसासिता - तहा करेमि जहा कल्ले लभति । ताहे सुगुतं अमच्यं सदावेति, अंबाडेति य जहा तुमं सामि आगतं ण जाणसि ? अज्ज किर चउत्थो मासो हिंडतस्स । ताहे तच्चावादी सहावितो । ताहे सो पुच्छति सवणिएणं तुझं धम्मसत्ये सव्वा पाडाणं आयारा आगता ते तुमं साहह । इमोऽवि भणितो- तुमं बुद्धिबलिओ साह । ते भांति - बहवे अभिग्गहा । ण णज्जति अभिप्पाओ । ताहे रन्ना सव्वत्य संविट्ठा। लोगेण वि परलोककंखिणा कता । सामी आगतो ण य तेहिं पगारेहिं गिण्हति । एवं च ताव एवं खण्ड-४ अभिग्रह भी नहीं जान सके। सुगुप्त ने नंदा को आश्वस्तं करते हुए कहा- कल ही मैं इस बात की खोज करूंगा और भगवान को भिक्षालाभ हो, ऐसा प्रयत्न करूंगा। यह कथा चल ही रही थी कि मृगावती की प्रतिहारी विजया किसी कार्य से वहां आई। उसने वह संवाद सुना। वहां से महारानी मृगावती के पास आई जो कुछ वहां सुना, वह सारा वृत्तांत महारानी को सुना दिया । मृगावती भी यह सुन महान् दुःख से अभिभूत हो गई। वह श्रमणोपासक राजा चेटक की पुत्री थी। महावीर को भिक्षा न मिलने का संवाद सुन उसका अधीर होना स्वाभाविक. था। महाराज शतानीक अंतःपुर में आए महारानी से अधीरता का कारण जानना चाहा। महारानी ने अपनी अंतर्व्यथा प्रकट करते हुए कहा क्या लाभ अपने इस राज्य से ? हम यह भी नहीं जान पाए कि यहां इतने लंबे समय से भगवान महावीर घूम रहे हैं उन्हें मिक्षा नहीं मिल रही है। न जाने उनके कौन सा अभिग्रह है ? राजा ने महारानी को आश्वासन देते हुए कहा-मैं कल ही ऐसा प्रयत्न करूंगा, जिससे स्वामी को भिक्षा लाभ हो । राजा ने मंत्री सुगुप्त को बुलाया और उपालंभ के स्वर में कहा- तुम्हें अब तक यह भी पता नहीं है कि भगवान महावीर कौशंबी में आए हुए हैं। वे भिक्षा के लिए चार महीनों से घूम रहे हैं। राजा का निर्देश पा मंत्री ने धर्मपाठक को बुलाया। राजा ने कहा- तुम्हारे धर्मशास्त्रों में सभी पार्षडौंसम्प्रदायों का आचार वर्णित है। वह बताओ । सुगुप्त अमात्य से भी कहा- तुम्हारे पास बुद्धिकौशल है। तुम भी कुछ कहो । उन्होंने कहा - अभिग्रह अनेक प्रकार के होते हैं। स्वामी ने कौन-सा अभिग्रह स्वीकार किया है, कहा नहीं जा सकता। उनकी बात सुन राजा ने शहर के सब लोगों को अभिग्रह के विषय में सूचना दी। परलोक की आकांक्षा से जनता ने भी अभिग्रह को पूरा करने की चेष्टा की। महावीर भिक्षा के लिए आए। पर कुछ लिया नहीं । वे पूर्ववत् घूमते रहे। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४०७ अ.१: समत्व इओ य. सयाणिओ चंपं पधाविओ दहिवाहणं इधर राजा शतानीक ने दधिवाहन का निग्रह करने के गेहामित्ति। णावाकडएण गतो। एगाए रत्तीए लिए चंपा पर आक्रमण किया। नौ सेना को लेकर गया। • अचिंतिया चेव णगरी वेढिया। तत्थ दहिवाहणो एक रात में ही चंपा नगरी अचानक शत्रु सेना से घिर पमातो। रन्ना जग्गहो घोसितो। एवं जग्गहे दिन्ने। गई। दधिवाहन कहीं पलायन कर गया। राजा ने नगर दहिवाहणस्स रन्नो धारणी देवी। तीसे धूया लूटने की घोषणा की। इस लूट खसोट में राजा दधिवाहन वसमती। सा सह धूयाए एगेण ओटिएण गहिता। की रानी धारिणी देवी और उसकी पुत्री वसुमती को एक उष्ट्र सैनिक ने अपने अधिकार में ले लिया। राया नियत्तो। शतानीक वापस चला गया। सो उटितो चिंतेति, भणइ य-एस मे भज्जा। इयं औष्ट्रिक ने सोचा और मन ही मन कहा-यह रानी च दारियं विक्केसं। मेरी पत्नी बन जाएगी और इस कन्या को मैं बेच दूंगा। सा देवी तेण मणोमाणसिएण दुक्खिएण अप्पणो धारिणी देवी मानसिक दुःख से व्यथित हो उठी। धूयाए य एस ण णज्जति किं ममं पावेहिति, एयं वा उसके मन में एक विकल्प उपजा-पता नहीं यह पुरुष चेहिं एवं सा अंतरा कालगता। मुझे और इस कन्या को कहां ले जाएगा। इस आघात से मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो गई। पच्छा तस्स उट्टियस्स चिंता जाता-दुळं मए इस घटना से औष्ट्रिक चिन्तित हुआ। मैंने उसके भणितं महिला होहितित्ति। एवं न भणामि। मा सामने पत्नी बनने की बात कह अच्छा नहीं किया। इस एसावि मरिहिति, तो मे मोल्लंपि ण होहिति। ताहे कन्या को अब कुछ नहीं कहूंगा। कहीं मां की तरह यह भी अणुयत्तंतेण आणीता। प्राण न त्याग दे। यह मर जायेगी तो मुझे इसका मूल्य भी नहीं मिलेगा। यह सोच उसने उसके साथ अनुकूल बर्ताव किया। : वीहीए ओट्टिया। धणवाहेण दिट्ठा औष्ट्रिक उसे अपने साथ ले उस स्थान पर पहुंचा, अणलंकितलावन्ना। अवस्सं रन्नो ईसरस्स वा जहां मनुष्यों का विक्रय हो रहा था। श्रेष्ठी धनावह ने एसा। मा आवई पावउत्ति, जत्तियं सो भणति कन्या को देखा। अलंकार के बिना भी उसका लावण्य तत्तिएण मोल्लेण गहिता। तेण समं ममं सुहं तत्थ फूट रहा था। यह किसी राजा अथवा श्रेष्ठी की पुत्री होनी णगरे आगमणं गमणं च होहितित्ति। तेण नियगं चाहिए। इसे कहीं विपत्ति का सामना न करना पड़े, ऐसा घरं णीता। पुच्छिता का सि तुमंति? ण साहति। सोच उसने उसे मुंहमांगा मूल्य देकर खरीद लिया। इसके पच्छा तेण धूतत्ति गहिता।.....मूलिगावि पितृनगर में मेरा आना-जाना सहज हो जाएगा। उसे अपने भणिता-जहा एस तुज्झ धूयत्ति। घर ले आया। परिचय पाने की दृष्टि से श्रेष्ठी ने पूछा-तुम कौन हो? वह मौन रही। श्रेष्ठी ने उसे पुत्री रूप में स्वीकार कर लिया और अपनी पत्नी मूला से कहा-तेरे लिए पुत्री लाया हूं। एवं सा तत्थ जहा नियए घरे तह सुहंसुहेण वसुमती अपने घर की तरह सुखपूर्वक रहने लगी। अच्छति। ताएवि सो सपरिजणो लोगो सीलेण य अपने शील और विनय से पूरे परिवार को उसने अपना विणएण य सव्वो अप्पणिज्जओ कओ। बना लिया। ताझे ताणि भणंति सव्वाणि-अहो इमा , सब लोग कहते-यह स्वभाव से चंदन है। इसीलिए 'सीलबंदणत्ति। ताहे से बितियंपि य णामं कयं वसुमती का दूसरा नाम चंदना हो गया। चंदणत्ति। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४०८ खण्ड-४ एवं य कालो वच्चति। ताए य घरिणीए अवमाणो समय की सूई अपनी गति से चल रही थी। चंदना जायति मच्छरिज्जति य। को जाणति कयाइ एस की बढ़ती हुई प्रशंसा को मूला ने अपना अपमान समझा। एतं पडिवज्जेज्जा? ताहे अहं घरस्स अस्सामिणी वह उससे ईर्ष्या करने लगी। कौन जाने कब यह श्रेष्ठी भविस्सामि। इसे अपनी पत्नी बना ले? फिर मैं घर की स्वामिनी नहीं रहूंगी। तीसे य बाला अतीव रमणिज्जाऽतिकिण्हा य। चन्दना के केश अत्यंत सुन्दर और श्याम थे। एक अन्नया कयाई सो सेट्ठी मज्झण्हे जणविरहिते दिन श्रेष्ठी धनावह मध्याह्न के समय घर आया। पैर धोने आगतो जाव णत्थि कोयि जो पादे सोचेति। ताहे के लिए जल लाने वाला कोई दूसरा नौकर नहीं था। सा पाणितं गहात निग्गता। तेण वारिया। सा चंदना जल का बर्तन लेकर श्रेष्ठी के पास आई। श्रेष्ठी ने मड्डाए पधोता। ताए धोवंतीए ते बाला वड्ढेलगा उसे रोका। वह आग्रहपूर्वक पांव धोते समय उसके लंबेफिट्टा। मा चिक्खल्ले पडिहिंतित्ति तस्स य हत्थे लंबे बाल जमीन पर फैलने लगे। श्रेष्ठी ने सोचा, कहीं ये लीलाकट्ठतं तेण ते धरिता बद्धा य। कीचड़ से न भर जाएं। इसलिए उसने अपनी क्रीडायष्टि से उन्हें ऊपर लेकर व्यवस्थित कर दिया। मूला य ओलोयणवरगता पेच्छति। ताए मूला झरोखे में बैठी यह सारा दृश्य देख रही थी। णायं-विणासितं कज्जं, जदि किहइ परिणेति तो उसने सोचा-अनर्थ हो गया। यदि श्रेष्ठी इसे पत्नी बना अहं का? सा सामिणी। वासो नगरेवि मे णत्थि। लेगा तो मेरा क्या होगा? घर की स्वामिनी यह बन जाव तरुणओ वाधी ताव णं तिगिच्छामित्ति। जायेगी। यहां तक कि मैं नगर में भी नहीं रह पाऊंगी। अच्छा हो, यह व्याधि बढ़े उससे पहले ही मैं इसकी चिकित्सा कर दूं।' सेट्ठिंमि निग्गए ताहे य णहावितं वाहरावेत्ता एक दिन सेठ घर से बाहर, गया हुआ था। मूला ने बोडाविता, णियलेहि य बद्धा, पिट्टिया य। नाई को बुलाकर चंदना का सिर मुंडा दिया। हाथों और परियणो य आणाए वारिता-जो वाणियगस्स ___ पांवों में बेड़ियां डाल दीं। पिटाई की और सभी नौकारों को साहति सो मम णत्थि। आज्ञा देते हुए कहा- यदि किसी ने श्रेष्ठी से इस विषय में कहा तो वह इस घर में रह नहीं सकेगा। सभी नौकर उससे भयभीत हो मौन हो गए। ताए सो पिल्लितल्लओ। घरे छोदण बाहिरि चंदना को तलघर में बंदकर ताला लगा दिया। कुडंडिता। सो कमेण आगतो पुच्छति-कहिं चंदणा? समय पर श्रेष्ठी घर आया। चंदना को न देख उसने पूछा-चंदना कहां है? न कोतिवि साहति भएण। मूला के भय से किसी ने उत्तर नहीं दिया। सो जाणति-नूणं सा रमति उवरिं वा। एवं रत्तिपि श्रेष्ठी ने सोचा-कहीं ऊपर क्रीड़ा कर रही होगी। पुच्छिता। जाणति सा सुत्ता णूणं। बितियदिवसेवि रात्रि के समय में भी श्रेष्ठी ने उसके विषय में पूछा। पर ण दिट्ठा। ततिए दिवसे घणं पुच्छति, साहह, मा। किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। श्रेष्ठी ने सोचा, वह सो भे मारेह। गई होगी। दूसरे दिन भी श्रेष्ठी ने चंदना को नहीं देखा। तीसरे दिन गंभीरता से पूछा-बताओ चंदना कहां है ? मैं तुम्हें दंडित नहीं करूंगा। ताहे थेरदासी एगा चिंतेति-किं मम जीवितेणं? एक बूढ़ी दासी ने सोचा-मेरे जीने से क्या लाभ? Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन जीव राई । एकहितं - असुगघरे । तेण उग्घाडिया। छुहाहतं पेच्छिता ! कूरं पमग्गितो जाम (समा) वत्तीय णत्थि । ताहे कुंमासा दिट्ठा । दउं लोहारघरं गतो, जा णियलाणि छिंदावेमि । ता साहत्थी जथा कुलं संभरितुमारा । एलुग विक्खंभतित्ता तेहिं पुरतो कएहिं हिदयब्भंतरतो रोवति । सामी य अतिगतो। ताए चिंतियं - एतं सामिस्स देमि मम एतं अधम्मफलं, भणति - भगवं ! कप्पति ? ४०९ सामिणा पाणी पसारितो । पंच दिव्वाणि । ते से बाला तदवत्था।' ताहे चेव ताणि नियलाणि फुट्टाणि । सोवन्निताणि कडग़ाणि णीउराणि य जाताणि । ३८. एसा सा भगवती अहिंसा जा साभीयाणं पिव सरणं, 'तिसियाणं पिव सलिलं, ३९. समुज्झे व पोतवहणं, दुहटियाणं व ओसहिबलं, पक्खीणं पिव गयणं । खुहियाणं पिव असणं ॥ चउप्पयाणं व आसमपयं । अहिंसा का कल्याणकारी स्वरूप अडवीमज्झे व सत्थगमणं ॥ अ. १ : समत्व बेचारी वह जीवन को प्राप्त करे, यह सोच उसने कहा - चंदना तलघर में है। सेठ ने तलघर का कपाट खोला। भूख से व्याकुल चंदना को देखा। रसोईघर में उसे बासी चावल भी दिखाई नहीं पड़े। केवल थोड़े से उबले हुए उड़द पड़े थे। वें लाकर चंदना को दिये और उसकी बेड़ियां तुड़वाने के लिए लुहार के घर गया। १. पांच दिव्य सुगंधित जलवृष्टि, सुगंधित पुष्पवृष्टि, रत्नवृष्टि, दिव्यध्वनि, देवदुंदुभि । २. आश्रम प्राचीनकाल में शिकार का प्रचलन था। जिस किसी पशु को जहां कहीं देखते वहीं निशाना बना लेते। पर आश्रम में रहने वाले पशु अवध्य होते थे। उनको मारना निषिद्ध था । इसलिए आश्रम चतुष्पदों के लिए निरापद स्थल था। 'आश्रममृगोऽयं न हन्तव्यः - अभिज्ञान चन्दना को अचानक इस बीच अपने अपहरण की बात याद आ गई। वह देहली के बीच में ही बैठी थी । सामने रखे उड़दों को देख मन ही मन रोने लगी। उसी समय भगवान महावीर वहां आ गए। वह सोचने लगी - यह मेरे किस पाप का फल है कि मैं ऐसी निकृष्ट वस्तु स्वामी को दे रही हूं ? उसने पूछा- भगवन् ! क्या ये उड़द आपके लिए कल्पनीय हैं ? महावीर ने हाथ फैलाया । भिक्षा ग्रहण की। पांच दिव्य पदार्थ प्रकट हुए। चन्दना के सिर पर पुनः बाल आ गए। बेड़ियां स्वतः टूट गईं एवं हथकड़ियां सोने के कंगन और नूपुर के रूप में परिणत हो गईं। अहिंसा प्राणियों के लिए वैसे ही आधारभूत है, जैसे डरे हुए मनुष्यों के लिए शरण, पक्षियों के लिए गगन, प्यासों के लिए जल, भूखों के लिए भोजन, समुद्र में डूबते हुए मनुष्यों के लिए नौका, चतुष्पदों के लिए आश्रम, रोगियों के लिए औषध और जंगल को पार करने के लिए सार्थगमन (संघबद्ध यात्रा)। शाकुन्तलम् १ / १९' ३. सार्थ : प्राचीनकाल में यातायात के साधन नहीं के बराबर थे। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में मध्य भयंकर जंगल थे । उन जंगलों में हिंस्र पशुओं एवं चोर लुटेरों का सदा भय रहता था। अकेले व्यक्ति के लिए उन जंगलों को पार करना सहज नहीं था । इसलिए लोग समूह बनाकर व्यापार के लिए जाते थे। वह समूह सार्थ कहलाता था । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४०. एत्तो विसिट्ठतरिका अहिंसा, जा सा पुढवि-जल अगणि मारुय वणप्फइ बीज हरित - जलचर थलचर खहचर तस थावरसव्वभूय खेमंकरी । · अपरिग्रहमूलक अहिंसा ४१. बुज्झेज्ज तिउट्ठेज्जा बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरे ? किं वा जाणं तिउट्टइ ॥ ४२. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि । अण्णं वा अणुजाणा एवं दुक्खा ण मुच्चई || ४३. सयं तिवात पाणे अदुवा अण्णेहिं घायंए । हतं वाणुजाणा वेरं वड्ढइ अप्पणो ॥ ४४. जस्सिं कुले समुप्पण्णे जेहिं वा संवसे णरे । माती लुप्ती बाले अण्णमण्णेहिं मुच्छिए । ४५. वित्तं सोयरिया चैव सव्वमेयं ण ताणइ । संधाति जीवितं चैव कम्मुणा उतिउट्टा || ४१० ४६. जे पावकम्मेहि धणं मणूसा पहाय ते पास पयट्टिए नरे समाययन्ती अमई गहाय । खण्ड- ४ अहिंसा इनसे अधिक मूल्यवान् है। वह पृथ्वी, जल, अग्नि, हवा, वनस्पति, बीज, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, त्रस, स्थावर - सभी प्राणियों के लिए क्षेमंकरीकल्याणकारी है। (पर्यावरण की सभी समस्याओं का समाधान इसमें निहित है | ) वेराणुबद्धा नरयं उवेंति ॥ सुधर्मा - बोधि को प्राप्त करो। बंधन को जानों और उसे तोड़ डालो। जंबू - महावीर ने बंधन किसे कहा है, जिसे जान लेने पर उसे तोड़ा जा सकता है ? सुधर्मा - जो मनुष्य चेतन या अचेतन पदार्थों में किंचित् भी परिग्रह- बुद्धि / ममत्व रखता है, दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है, वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। परिग्रही मनुष्य प्राणियों का स्वयं हनन करता है, दूसरों से हनन करवाता है अथवा हनन करने वालों का अनुमोदन करता है, वह अपने वैर की परंपरा को बढ़ाता है। जो मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है और जिनके साथ संवास करता है, वह उनमें ममत्व बुद्धि रखता है। वे भी उसमें ममत्व बुद्धि रखते हैं। इस प्रकार परस्पर होने वाली मूर्च्छा से मूर्च्छित होकर वह बाल / अज्ञानी नष्ट होता रहता है। समत्व और अपरिग्रह धन और भाई-बहिन- ये सब त्राण नहीं हैं। जीवन बीत रहा है - इस सत्य को जान लेने पर मनुष्य कर्म के बंधन को तोड़ डालता है। मनुष्य कुमति को स्वीकार कर पापकारी प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, उन्हें देख। वे धन को छोड़कर मौत के मुंह में जाने को तैयार हैं। वे वैर (कर्म) हुए मरकर नरक में जाते हैं। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४७. ते ही संधिमुहे गहीए सकम्मुणा किच्च पावकारी । एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ॥ ४८. संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा बंधवयं उवेंति ॥ ४९. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते ४११ इममि लोए अटुवा परत्था । नेयाज्यं दठुमदठुमेव।। ५०. हिरणं सुवणं णि मुत्तं कंसं दूसं च वाहणं । कोसं वड्ढावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया ! ॥ दीप्पणट्ठे व अनंतमोहे ५१. सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुखस्स न तेहिं किंचि इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥ ५२. पुढवी साली जवा चेव हिरण्णं पसुभिस्सह । पडणं नागस्स इह विज्जा तवं चरे ॥ महर्षि कपिल ५३. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीए णयरीए जितसत्तू राया। कासवो बंभणो चोइसविज्जाठाणपारगो । रायाणो बहुमतो । वित्ती से उवकप्पिया । तस्स जसा णाम भारिया । तेसिं पुत्तो कविलो णामा । कासवो तंमि कविले खुड्डलए चेव कालगतो। ताहे तंमि मए तं पयं राइणा अण्णस्स मरुयगस्स दिण्णं । सो य आसेण छत्तेण य धरिज्जमाणेण अ. १ : समत्व जैसे सेंध लगाते हुए पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्म से ही छेदा जाता है, उसी प्रकार इसलोक और परलोक में प्राणी अपने ही कृतकर्मों से छेदा जाता है। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। संसारी प्राणी अपने बंधुजनों के लिए जो साधारण कर्म - इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी ऐसा कर्म करता है, उस कर्म के फल भोग के समय वे बंधुजन बंधुता नहीं दिखाते - उसका भाग नहीं बंटाते । प्रमत्त मनुष्य इसलोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता। अंधेरी गुफा में जिसका दीपक बुझ गया हो, उसकी भांति अनंत मोह वाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को देखकर भी नहीं देखता । ब्राह्मण वेष में समागत इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा- हे क्षत्रिय ! अभी तुम चांदी, सोना, मणि, मोती, कांस्य, वस्त्र, वाहन और भंडार की वृद्धि करो, फिर मुनि बन जाना। नाम राजर्षि-यदि कैलाश पर्वत के समान सोने और चांदी के असंख्य पर्वत हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ नहीं होता। क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है। पृथ्वी, अनाज, सोना और पशु-ये सब एक व्यक्ति की भी इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यह जानकर मनुष्य को तप - अपरिग्रह का आचरण करना चाहिए। कौशंबी नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसके राज्य में रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि चौदह विद्यास्थानों का पारगामी काश्यप नाम का ब्राह्मण था । राजा उसका बहुमान करता था । उसकी जीविका निश्चित थी । उसकी पत्नी का नाम था यशा । पुत्र का नाम था कपिल । जब कपिल छोटा 'था, तभी काश्यप की मृत्यु हो गई। राजा ने काश्यप की मृत्यु के बाद उसके स्थान पर दूसरे ब्राह्मण को नियुक्त कर दिया। वह ब्राह्मण जब घर Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४१२ खण्ड -४ वच्चइ। तं दठूण जसा परुण्णा। कविलेण पुच्छिया। ताए सिठं-जहा पिया ते एवंविहाए इड्ढीए णिगच्छियाइओ। तेण भण्णति-कथं? सा भणति-जेण सो विज्जासंपण्णो। सो भणइ-अहंपि अहिज्जामि। सा भणइ-इहं तुमं मच्छरेण ण कोइ सिक्खवेति। वच्च सावत्थीए नयरीए। पिइमित्तो इदंदत्तो णाम माहणो। सो ते सिक्खावेहित्ति। सो गतो तस्स सगासं। तेण पुच्छितो-कओऽसि तुमं? तेण जहा- वत्तं कहियं। से दरबार में जाता तो घोड़े पर सवार हो छत्र धारण करता था। एक दिन काश्यप की पत्नी यशा ने जब उसे देखा तो वह पति की स्मति से विह्वल हो रोने लगी। कपिल ने रोने का कारण पूछा। यशा ने कहा-एक समय था, जब तुम्हारे पिता भी इसी प्रकार छत्र धारण कर, घोड़े पर सवार हो राज्यसभा में जाया करते थे। मां! वे राज्यसभा में क्यों जाते थे? वे विद्यासम्पन्न थे। मां! मैं भी पढूंगा। पुत्र! इस नगरी में तुम्हें कोई नहीं पढ़ाएगा। यहां सभी ब्राह्मण ईर्ष्यालु हैं। तू श्रावस्ती नगरी में चला जा। वहां तुम्हारे पिता के परम मित्र इन्द्रदत्त नाम के ब्राह्मण हैं। वे तुम्हें विद्या देंगे। कपिल इन्द्रदत्त के पास विद्याध्ययन के लिए चला गया। इन्द्रदत्त ने पूछा-तुम कौन हो? कपिल ने सारा वृत्तांत सुना दिया। वह इन्द्रदत्त के पास अध्ययन करने लगा। उसी नगरी में शालिभद्र नाम का श्रेष्ठी रहता था। उपाध्याय के कहने से श्रेष्ठी के घर कपिल के भोजन की व्यवस्था हो सो तस्स सगासे अहिन्जिउं पयत्तो। तत्थ सालिभद्दो णाम इब्भो। सो से तेण उवज्झाएण, णेच्चतिय दवावितो। सो तत्थ जिमितो जिमितो अहिज्जइ। दासचेडी य तं परिवेसेइ। सो य हसणसीलो। तीए सद्धिं संपलग्यो। गई। तीए भण्णइ-तुमे मे पितो, ण य ते किंचिवि। णवरि मा रुसिज्जासि, पोत्तमुल्लणिमित्तं अहमण्णेहिं समं अच्छामि। इयरहाहं तुज्झ आणाभोज्जा। अण्णया दासीणं महो दुक्कइ। सा तेण समं णिविण्णिया। णिइं सा न लहइ। तेण पुच्छिया-कतो ते अरती? तीए भण्णति-दासीमहो उवदिठंतो। मम पत्तपुप्फाइमोल्लं णत्थि । सहीजणमज्झे विगुप्पिस्सं। ताहे सो अधितिं पगतो। ताए भण्णति-मा अद्धिति करेहि। एत्थ धणो णाम सिट्ठी। अप्पभाए चेव जे णं पढमं वद्धावेइ से दो सुवण्णए मासए देइ। वहां एक दासी पुत्री उसे भोजन परोसा करती थी। कपिल हंसमुख स्वभाव वाला था। वह कभी-कभी उससे परिहास कर लेता था। धीरे-धीरे उनका संबंध गाढ़ हो गया। दासी पुत्री ने कपिल से कहा-तुम मुझे प्रिय हो। पर तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूं। मैं वस्त्रों के लिए दूसरों के पास रह रही हूं, अन्यथा तुम्हारी आज्ञा में रहती। एक दिन दासी-महोत्सव का अवसर आया। वह सोयी हुई थी। उस रात उसे नींद नहीं आ रही थी। कपिल ने पूछा-तुम उदास क्यों हो? वह बोली-दासी-महोत्सव का समय आ गया है। पत्र, पुष्प आदि खरीदने के लिए मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। सखियों के मध्य मैं उपहास की पात्र बनूंगी। दासी पुत्री की बात सुनकर कपिल अधीर हो गया। दासी पुत्री ने कहा-तुम अधीर न बनो। इस नगर में धन नामक श्रेष्ठी रहता है। जो प्रभातकाल से पूर्व सबसे पहले Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४१३ अ. १: समत्व तत्थिमं गंतूण तं वज्रावेहि) उसका वर्धापन करता है, उसे वह दो माशा सोना देता है। तुम वहां जाओ और उसका वर्धापन करो। आमंति तेण भणियं। तीए लोभेण मा अण्णो कपिल ने दासी पुत्री की बात को स्वीकार किया। गच्छिहित्ति अतिपभाए पेसितो। श्रेष्ठी के पास कोई दूसरा पहले न पहुंच जाए-इस लोभ में दासी पुत्री ने अंधेरे-अंधेरे ही उसे विदा कर दिया। वच्चंतो य आरक्खियपुरिसेहिं गहितो बद्धो य। नगररक्षक घूम रहे थे। उन्होंने उसे चोर समझकर ततो पभाए पसेणइस्स रण्णो उवणीतो। पकड़ा और बंदी बना लिया। प्रातःकाल होते ही राजा प्रसेनजित के सामने नगर-रक्षकों ने उसे उपस्थित किया। राइणा पुच्छितो, तेण सब्भावो कहितो। राइणा राजा ने उसे रात्रि में अकेले घूमने का कारण पूछा। भणितो जं मग्गसि तं देमि। कपिल ने सच-सच बता दिया। उसकी सत्यवादिता से प्रसन्न हो राजा ने कहा-आज तुम जो मांगो, वही दूंगा। सो भणति-विचिंतिउं मग्गामि। ___ मैं सोचकर मांगूंगा। राइणा तहत्ति भणिए। राजा ने उसे स्वीकृति दी। असोगवणियाए चिंतेउमारद्धा-किं दोहिं मासेहिं वह अशोकवाटिका में पहुंच सोचने लगा-दो माशा साडिगाभरणे पडिवासिगा जाणवाहणा- सोने से क्या होगा? क्या इससे साड़ी, आभूषण, इत्रउज्जाणोवभोगा- मम वयस्साणं पव्वागयाण घरं फुलेल आदि द्रव्य ला सकूँगा? यान-वाहन, वाद्य आदि भज्जाचउट्ठयं जंचण्णं उवउज्जं? एवं जाव का उपयोग कर सकूँगा? उत्सव पर आए मित्रों का कोडीएवि ण ठाएति। चितितो सुहन्झवसाणो स्वागत कर सकूँगा? घर बना सकूँगा? पत्नी की मांगें संवेगमावण्णो जाइं सरिऊण सयंबुद्धो। पूरी कर सकूँगा? अन्य आवश्यक सामग्री खरीद सकूँगा? इस प्रकार अधिक मांगने का विकल्प करतेकरते वह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं तक पहुंच गया। वहां पहुंचने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। सोचते-सोचते उसका चिंतन बदला। अध्यवसाय शुभ हुए। वह संवेग से भर गया। उसे जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। वह स्वयं बुद्ध बन गया। ५४.कसिणं पि जो इमं लोयं धन धान्य से परिपूर्ण यह समूचा लोक भी यदि किसी पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। एक व्यक्ति को दिया जाए, तब भी वह उससे संतुष्ट नहीं तेणावि से न संतुस्से होता। इतना दुष्पूर है यह आत्मा। इइ दुप्पूरए इमे आया॥ ५५.जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई। जैसे लाभ होता है, वैसे ही लोभ होता है। लाभ से दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निट्ठियं॥ लोभ बढ़ता है। दो माशा सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ों से भी पूरा नहीं हुआ। इषुकार और कमलावती ५६. पुरोहियं तं ससुयं सदारं पुरोहित अपने पुत्रों और पत्नी के साथ भोगों को सोच्चाभिनिक्खम्म पहाय भोए। छोड़कर प्रव्रजित हो चुका है-यह सुन राजा इषुकार उसके ___ कुटुंबसारं विउलुत्तमं तं प्रचुर और प्रधान धन-धान्य आदि को राज्य कोष के लिए रायं अभिक्खं समुवाय देवी॥ मांगने लगा। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-४ वंतासी पुरिसो रायं! न सो होइ पसंसिओ। तब महारानी कमलावती ने कहा-राजन् ! वमन खाने माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि॥ वाले पुरुष की कभी प्रशंसा नहीं होती। आप ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हैं। यह क्या है? सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे। यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन सव्वं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव॥ तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए. पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा। मरिहिसि रायं! जया तया वा राजन् ! इन मनोरम काम-भोगों को छोड़कर जब कभी मणोरमे कामगुणे पहाय। मरना होगा। हे नरदेव! एक धर्म ही त्राण है। उसके एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं सिवाय कोई दूसरी वस्तु त्राण नहीं दे सकती। न विज्जई अन्नमिहेह किंचि॥ नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा जैसे पक्षिणी पिंजरे में आनंद नहीं मानती, वैसे ही संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं। मुझे इस बंधन में आनंद नहीं मिल रहा है। मैं स्नेह के अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा जाल को तोड़कर अकिंचन, सरल क्रियावाली, परिग्गहारंभनियत्तदोसा॥ विषयवासना से दूर और परिग्रह एवं हिंसा के दोषों से मुक्त होकर मुनिधर्म का आचरण करूंगी। दवग्गिणा जहा रण्णे डज्झमाणेसु जंतुसु। जैसे दवाग्नि लगी हुई है, अरण्य में जीव जन्तु जल अन्ने सत्ता पमोयंति रागहोसवसं गया॥ रहे हैं, उन्हें देख रागद्वेष के वशीभूत होकर दूसरे जीव प्रमुदित होते हैं। . एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया। उसी प्रकार कामभोगों में मूर्छित होकर ह्म मूढ़ लोग डज्झमाण न बुज्झामो रागहोसग्गिणा जगं॥ यह नहीं समझ पाते कि यह समूचा संसार रागद्वेष की अग्नि से जल रहा है। गिदोवमे उ नच्चाणं कामे संसारवडढणे। गीध की उपमा से काम-भोगों को संसार-वर्धक उरगो सुवण्णपासे व संकमाणो तणुं चरे॥ जानकर मनुष्य को इनसे इसी प्रकार शंकित होकर चलना चाहिए, जिस प्रकार गरुड़ के सामने सांप शंकित होकर चलता है। नागो व्व बंधणं छित्ता अप्पणो वसहिं वए। जैसे बंधन को तोड़कर हाथी अपने स्थान एवं पत्थं महारायं! उसुयारि त्ति मे सुयं॥ (विंध्याटवी) में चला जाता है, वैसे ही हमें अपने स्थान (संयम) में चले जाना चाहिए। हे महाराज इषुकार! यह पथ्य है, इसे मैंने ज्ञानियों से सुना है। चइत्ता विउलं रज्जं कामभोगे य दुच्चए। महारानी कमलावती का उपदेश सुन राजा इषुकार निव्विसया निरामिसा निन्नेहा निप्परिग्गहा॥ प्रबुद्ध हो गया। वे दोनों विपुल राज्य और दुष्त्यज काम भोगों को छोड़ निर्विषय, अनासक्त, निर्मोह और अपरिग्रही हो गए। अपरिग्रह : अनासक्ति ५७.जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं, खेत्तवत्थु भूमि और घर में ममत्व रखने वाले अविद्यावान ममायमाणाणं। मनुष्यों को विपुल समृद्धिपूर्ण जीवन प्रिय होता है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ.१: समत्व प्रायोगिक दर्शन . ५८.आरतं विरतं मणिकुंडल-सहहिरण्णेण, . इत्थियाओ परिगिज्म तत्येव रत्ता। वे रंग-बिरंगे मणि, कुंडल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त हो जाते हैं। ५९.ण एत्य तवो, दमो वा, णियमो वा विस्सति। जहां परिग्रह की आसक्ति है वहां न तप होता है, न दम (इंद्रिय-निग्रह) और न नियम। ६०.संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासुवेह। . अज्ञानी पुरुष ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की कामना करता है। वह बार-बार सख की कामना करता है। इस प्रकार वह अपने द्वारा कृत कामना की व्यथा से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है। Page #437 --------------------------------------------------------------------------  Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-२ सम्यग्दर्शन Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय . . पृ. सं. ४२५ पृ.सं. ४१९ ४१९ ४१९ ४२५ १. सम्यक्त्व की परिभाषा २. सम्यक्त्व के प्रकार ३. मिथ्यात्व के प्रकार ४. सम्यक्त्व की महत्ता ५. सम्यक्त्व के अंग ६. निःशंकिता ७. सार्थवाहपुत्र और मयूरी के अंडे ८. अमूढदृष्टि ९. श्रमणोपासक अर्हन्नक १०. सम्यक्दर्शन का विघ्न : मिथ्याआग्रह । ११. कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी १२. लोहवणिक् १३. सम्यक्त्व के स्थान १४. मिथ्यात्व के स्थान ४३० ४३० ४२० ४२० ४२१ ४३३ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन १. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं जहा-आरंभे चेव, परिग्गहे दो हेतुओं को जानकर और छोड़कर आत्मा केवली भाषित धर्म को सुन सकता है। वे दो हेतु हैं। आरंभ (हिंसा) और परिग्रह। चेव। २. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलं बोधिं दो हेतुओं को जानकर और छोड़कर आत्मा विशुद्ध बुज्झेज्जा, तं जहा-आरंभे चेव. परिग्गहे चेव। बोधि का अनुभव कर सकता है। वे दो हेत हैं-आरंभ और परिग्रह। सम्यक्त्व की परिभाषा ३. जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा। जीव, अजीव, बंध, पुण्य पाप, आश्रव, संवर, संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव॥ निर्जरा, और मोक्ष-ये नौ तत्त्व हैं। १. तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं। - भावेणं सहहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं॥ इन तत्त्वों के अस्तित्व में जो भावपूर्वक श्रद्धा करता है, उस श्रद्धा का नाम है सम्यक्त्व-सम्यक् दर्शन। ५. अरहंतो मह देवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। - जिणपण्णत्तं तत्तं इय सम्मत्तं मए गहियं॥ अर्हत् मेरे देव हैं। जीवन भर आचार की सम्यक् साधना करने वाले साधु मेरे गुरु हैं। अर्हत् द्वारा प्रतिपादित तत्त्व मेरा धर्म है। यह सम्यक्त्व मैंने ग्रहण किया है। सम्यक्त्व के प्रकार ६. सम्मत्तं दुविह-अभिगम-सम्मत्तं निसग्ग-सम्मत्तं सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं-अभिगम सम्यक्त्व, निसर्ग सम्यक्त्व। च। मिथ्यात्व के प्रकार ७. दसविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते, तं जहा अधम्मे धम्मसण्णा। धम्मे अधम्मसण्णा। उम्मग्गे मग्गसण्णा। मम्गे उम्मग्गसण्णा। अजीवेसु जीवसण्णा। जीवेसु जीवसण्णा। मिथ्यात्व के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैंअधर्म में धर्म की संज्ञा। धर्म में अधर्म की संज्ञा। उन्मार्ग में मार्ग की संज्ञा। मार्ग में उन्मार्ग की संज्ञा। अजीव में जीव की संज्ञा। जीव में अजीव की संज्ञा। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४२० खण्ड-४ असाहुसु साहुसण्णा। साहुसु असाहुसण्णा। अमुत्तेसु मुत्तसण्णा। मुत्तेसु अमुत्तसण्णा। असाधु में साधु की संज्ञा। साधु में असाधु की संज्ञा। अमुक्त में मुक्त की संज्ञा। मुक्त में अमुक्त की संज्ञा। . सम्यक्त्व की महत्ता ८. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहणं दसणे उ भइयव्वं। सम्मत्तचरित्ताई जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं॥ सम्यक्त्व के बिना चारित्र का विकास नहीं होता, यह एक नियम है। सम्यक्त्व अवस्था में चारित्र का विकल्प है-वह हो भी सकता है और नहीं भी। सम्यक्त्व और चारित्र एक साथ उत्पन्न होते हैं और जहां वे एक साथ उत्पन्न नहीं होते, वहां पहले सम्यक्त्व होता है। ९. नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नेत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥ सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता। चारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती। मुक्ति के बिना निर्वाण नहीं होता। सम्यक्त्व के अंग १०.निस्संकिय निक्कंखिय सम्यक्त्व के आठ अंग हैनिवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। १. निःशंकित : शंका न होना। उववूह थिरीकरणे २. निष्कांक्षित : कांक्षा न होना। वच्छल्ल पभावणे अट्ठ॥ ३. निर्विचिकित्सित : चित्त-विप्लव न होना। ४. अमूढदृष्टि : दृष्टि की मूढ़ता न होना। ५. उपबृंहण : सद्गुणों को बढ़ावा देना। ... ६. स्थिरीकरण : सम्यक्दर्शन में स्थिर करना। ७. वात्सल्य : सम्यकदर्शनी/साधर्मिक के प्रति वत्सलता का भाव रखना। ८. प्रभावना : धर्मसंघ की प्रभावना करना। निःशंकिता ११. जिणवरभासियभावेसु भावसच्चेसु भावओ मइम। मतिमान मनुष्य अर्हत् द्वारा भाषित सत्य भावोंनो कुज्जा संदेहं सदेहोऽणत्थहेउ ति॥ पदार्थों में संदेह न करे। संदेह अनर्थ का हेतु है, इसलिए संदेह मुक्त रहे। १२.निसंदेहत्तं पुण, गुणहेउं जं तओ तयं कज्ज। एत्थं दो सेठिसुया अंडयगाही उदाहरणं॥ निःसंदेह होना गुण को बढ़ावा देना है। अतः मनुष्य सदा सत्य भावों के प्रति असंदिग्ध रहे। भगवान ने श्रद्धा और अश्रद्धा का मर्म सेठ/सार्थवाह के दो पुत्रों के उदाहरण से समझाया है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४२१ अ. २ : सम्यग्दर्शन सार्थवाह पुत्र और मयूरी के अंडे १३.तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। चम्पा नाम की नगरी। उस नगरी के बाहर तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे ईशानकोण में सुभूमिभाग नाम का उद्यान। वह सब दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे सव्वोउय- ऋतुओं में होने वाले फूलों और फलों से समृद्ध तथा पुप्फ-फल-समिद्धे सुरम्मे नंदणवणे इव सुह- सुरम्य था। नन्दनवन के समान सुखकर, सुरभित और सुरभि-सीयलच्छायाए समणुबद्धे। शीतल छाया देने वाला था। तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में एक प्रदेश में एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था। मालुकाकच्छ था। तत्य णं एगा वणमयूरी दो पुढे परियागए वहां एक वनमयूरी ने दो अंडे दिए। वे अंडे पुष्ट और पिठंडी-पंडुरे निव्वणे. निरुवहए भिण्ण- परिपूर्ण थे। चावलों की पिंडी जैसे उजले थे। उनमें कहीं मुठ्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडाए पसवइ, पसवित्ता सएणं छेद नहीं था। कोई खरोंच नहीं थी। वे बन्द मुट्ठी जितने पखवाएणं सारक्खमाणी. संगोवेमाणी बड़े थे। वनमयूरी उन अंडों को अपनी पांखों से ढककर संविठेमाणी विहरइ।. . सेने लगी। पालन, संगोपन और पोषण करने लगी। तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्थवाहदारगा उस चम्पानगरी में दो सार्थवाहपुत्र रहते थे। एक था परिवसंति, तं जहा-जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते जिनदत्त-पुत्र और दूसरा था सागरदत्त-पुत्र। वे दोनों ही य-सहजायया सहवड्ढियया सहपंसुकीलियया साथ-साथ जनमे, साथ-साथ बड़े हुए, साथ-साथ खेले, सहदारदरिसी अण्णमणुरत्तया अण्णमण्णमणुव्वयया साथ-साथ विवाहित हुए। दोनों ही एक दूसरे में अनुरक्त अण्णमण्णच्छंदाणुवत्तया अण्णमण्णहिय-इच्छिय. थे। एक दूसरे का अनुगमन करते थे। एक दूसरे की इच्छा कारया अण्णमण्णेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाई का अनुवर्तन करते थे। एक दूसरे की इच्छा को पूर्ण करते पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। थे। दोनों अपने करणीय कार्यों को एक दूसरे के घर सम्पादित करते हुए रह रहे थे। तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अण्णया कयाई एक दिन वे सार्थवाहपुत्र एक स्थान पर बैठे थे। वे एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं परस्पर बात करने लगे-देवानुप्रिय! हमारे सामने सुख या • सण्णिविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे दुःख, परिव्रजन या विदेश-गमन का कोई भी प्रसंग आएसमुप्पज्जित्था-जण्णं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा हमें मिलजुल कर एक साथ उसको पूरा करना है। हम यह दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, प्रतिज्ञा करते हैं। इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे अपने-अपने तण्णं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा नित्थरियव्वं ति काम में जुट गए। कटु अण्णमण्णमेयारूवं संगारं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। तए पां ते सत्थवाहदारगा जेणेव से मालुयाकच्छए एक दिन सार्थवाह पुत्र मालुकाकच्छ गए। तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं सा वणमयूरी ते सत्यवाहदारए एज्जमाणे वनमयूरी ने उन्हें आते देखा। उन्हें देखते ही वह डरी, पासइ, पासित्ता भीया तत्था महया महया सद्देणं सहमी-सी ऊंचे स्वर से केकास्व करती हुई मालुकाकेकारखं विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी कच्छ से बाहर निकल गई व एक वृक्ष की डाल पर बैठ मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता उन सार्थवाह-पुत्रों और मालुका-कच्छ को अनिमेष दृष्टि • एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्थवाहदारए से निहारने लगी। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन मालुयाकच्छगं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेच्छमाणी चिट्ठा । तए णं ते सत्थवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी - जहा णं देवाणुप्पिया ! एसा वणमयूरी अम्हे एज्जमाणे पासित्ता भीया तत्था सिया उब्विग्गा पलाया महया - महया सदेणं केकारवं विणिम्मुयमाणी - विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा अम्हे मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेच्छमाणी चिट्ठइ । तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं ति कट्टु मालुयाकच्छयं अंतो अणुप्पविसंति। तत्थ णं दो पुट्ठे परियागए पिट्टुंडी - पंडुरे निव्वणे, निरुवह भिण्णमुप्पमाणे मयूरी - अंड पासित्ता अण्णमण्णं सहावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी - सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमे वणमयूरी - अंडए साणं जातिमंताणं कुक्कुडियाणं अंडएस पक्खिवावित्तए । तणं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ एए अंडए स य अंडएसएणं पंखवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति । ४२२ तणं अम्हं एत्थं दो कीलावणगा मयूरीपोयगा भविस्संति त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता सएसए दासचेडए सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाप्पिया ! इमे अंडए गहाय सगाणं जातिमंताणं कुक्कुडीणं अंडएसु पक्खिवह जाव ते वि पक्खिवेंति । तत्थ णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए से णं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव से वणमूयरी - अंड तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सि मयूरी - अंडयंसि संकिए कंखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे ravi ममं एत्थ कीलावणए मयूरी - पोयए भविस्सइ उदाहु नो भविस्स त्ति कट्टु तं मयूरी अंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं उव्वत्तेइ परियत्तेइ खण्ड - ४ उस समय सार्थवाहपुत्र एक दूसरे को कहने लगेदेवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें इधर आते देखकर डरीसहमी-सी उद्विग्न हो यहां से चली गई। अब यह ऊंचे स्वर में केकारव करती हुई मालुका- कच्छ से बाहर निकली है। वह एक वृक्ष की डाल पर बैठ हमें और मालुकाकच्छ को अनिमेष दृष्टि से निहार रही है। यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए ऐसा सोच उन्होंने मालुकाकच्छ के भीतर प्रवेश किया। वहां उन्होंने मयूरी के अंडे देखे । वे पुष्ट और परिपूर्ण थे। चावलों की पिंडी जैसे उजले थे। उनमें कहीं छेद नहीं था। कोई खरोंच नहीं थी। वे बन्द मुट्ठी जितने बड़े थे। उन अंडों को देख वे एक दूसरे को कहने लगे - देवानुप्रिय ! हम इन वन-मयूरी अंडों को अपनी जाति सम्पन्न मुर्गियों के अंडों के साथ रख दें। ऐसा करने से वे जाति-सम्पन्न मुर्गियां इन अंडों का और अपने अंडों को अपनी पांखों से ढककर सेने लगेंगी। पालन, संगोपन और पोषण करने लगेंगी। इन अंडों से निष्पन्न मयूरी के दो बच्चे हमारी क्रीड़ा के साधन बन जायेंगे। उन्होंने एक दूसरे के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया और कहा- देवानुप्रियो ! तुम इन अंडों को लेकर जाओ और अपनी जाति-सम्पन्न मुर्गियों के अंडों के साथ रख दो। दासपुत्रों ने आज्ञा का पालन किया । सार्थवाह सागरदत्तपुत्र प्रातः काल वनमयूरी के अंडे को देखने आया । वह मयूरी के अंडे के प्रति शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से भर गया। इस अंडे से मेरा क्रीडासाधन- मयूरी का बच्चा होगा अथवा नहीं होगा ? ऐसा सोच वह उसे अंडे को बार-बार उलटने पलटने लगा। इधर-उधर खिसकाने लगा । हिलाने-डुलाने लगा, छूने लगा, चलाने लगा और कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाने लगा। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४२३ आसारेइ संसारेइ चालेइ फंदेइ घट्टेइ खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्ठियावे । तए णं से मयूरी - अंडए अभिक्खणं- अभिक्खणं उव्वत्तिज्जमाणे परियत्तिज्जमाणे आसारिज्जमाणे संसारज्जमाणे चालिज्जमाणे फंदिज्जमाणे घट्टिज्जमा खोभिज्जमा अभिक्खणंअभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टिया - वेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था । तणं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अण्णया कयाई जेणेव से मयूरी - अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मयूरी अंडयं पोच्चडमेव पासइ, अहो णं ममं एत्थ कीलावणए मयूरी- पोयए न जाए त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियाइ । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निम्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएंसु निग्गंथे पावयणे संकिए कंखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाणं य हीलणिज्जे ....... परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि । बहूणं दारिद्दाणं बहूणं 'दोहग्गाणं..... अभागी भविस्सति । अणादियं च णं अणवयम्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो - भुज्जो अणुपरियटिस्सइ । तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मयूरी - अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरीअंडयंसि निस्संकिए निक्कंखिए निव्वितिगिंछे सुव्वत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मयूरी - पोयए भविस्स त्ति कट्टु तं मयूरी अंडयं अभिक्खणंअभिक्खणं नो उव्वत्तेइ नो परियत्तेइ नो आसारेइ नो संसारेइ नो चालेइ नो फंदेइ नो घट्टेइ नो खोइ अभिक्खणं- अभिक्खणं कण्णमूलंसि नो टिट्ठियावेइ । तए णं से मयूरी - अंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे कालेणं समएणं उब्भिन्ने अ. २ : सम्यग्दर्शन इस प्रकार बार-बार उलटने, पलटने, सरकाने, दूर तक सरकाने, हिलाने, छूने, क्षुभित करने और कान के पास ले जाकर बार-बार बजाने से वह मयूरी का अंडा सारहीन हो गया। एक दिन सार्थवाह सागरदत्तपुत्र मयूरी के अंडे के पास आया। उसे सारहीन हुआ देख सोचने लगा- अहो ! इसमें से मेरा क्रीडासाधन- मयूरी का बच्चा उत्पन्न नहीं हुआ । वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबा हुआ चिंतामग्न हो गया । आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो निर्ग्रथ और निग्रंथी आचार्य, उपाध्याय के पास मुंड हो, अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित हो, पांच महाव्रतों, षड्जीव- निकायों और निर्ग्रथ प्रवचन में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा करता है, दुविधा में रहता है, उन्हें दोषपूर्ण मानता है वह इस जीवन बहुत श्रमण-श्रमणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं द्वारा निंदनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और भवनीय होता है। उसे परलोक में भी अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करना होता है। वह बार-बार दरिद्रता और दुर्भाग्य को प्राप्त होगा। अनादि, अनंत, प्रलंबमार्ग तथा चातुरंत संसार कान्तार में पुनः पुनः अनुपरिवर्तन करेगा। जिनदत्तपुत्र मयूरी अंडे के पास आया। उसे मयूरी के अंडे के प्रति कोई शंका, कांक्षा और विचिकित्सा नहीं हुई। इस अंडे से मेरा क्रीडासाधन- मयूरी का बच्चा होगा, ऐसा निश्चय कर उस मयूरी के अंडे को न बार-बार उलटता है, न पलटता है, न सरकाता है, न चलाता है, न हिलाता है, न छूता है, न क्षुभित करता है और न कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाता है। बार-बार छेड़छाड़ न करने के कारण वह मयूरी का अंडा फटा और उससे बच्चा उत्पन्न हुआ। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४२४ मयूरी - पोय एत्थ जाए। तणं से जिणदत्तपुत्ते तं मयूरी- पोययं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठे मयूर - पोसए सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इमं मयूरपोयगं बहूहिं मयूर-पोसण-पाओग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेह नदुल्लगं च सिक्खावेह । तणं ते मयूर - पोसगा जिणदत्तपुत्तस्स एयमट्ठ पडिसुणेंति, तं मयूर - पोयगं गेण्हंति, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति, तं मयूर - पोयगं बहूहिं मयूर - पोसण - पाओग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेंति, नदुल्लगं च सिक्खावेंति । तए णं से मयूर - पोयए उम्मुक्कबालभावे...... जोव्वणगमणुपत् लक्खण- वंजण-गुणोववेए माणुम्माण- पमाणपडिपुण्णपक्ख- पेहुणकलावे विचित्तपिच्छसतचंदए नीलकंठए नच्चणसीलए एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाई नदुल्लगसयाइ केकाइयसयाणि य करेमाणे विहरs | तए णं ते मयूर - पोसगा तं मयूर - पोयगं उम्मुक्कबालभावं जाव केकाइयसयाणि य करेमाणं पासित्ता णं तं मयूर - पोयगं गेण्हंति, गेण्हित्ता जिणदत्तपुत्तस्स उवणेंति । तणं से जिणदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए मयूर - पोयगं उम्मुक्कबालभावं जाव केकाइयसयाणि य करेमाणं पासित्ता हट्ठतुट्ठे तेसिं विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दल, दलइत्ता पडिविसज्जेइ । तए से णं मयूर - पोयगे जिणदत्तपुत्तेणं एगाए चप्पुडिया कयाए समाणीए नंगोला - भंग - सिरोधरे सेयावंगे ओयारिय-पइण्णपक्खे उक्खित्तचंदकाइयकलावे केकाइयसयाणि मुंचमाणे नच्चइ । तणं से जिणदत्तपुत्ते तेणं मयूर - पोयएणं चंपाए नयरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क- चच्चर- चउम्मुहमहापहपसु सएहि य सयसहास्सिएहि य पणिएहिं खण्ड-४ जिनदत्तपुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा। उसे देख हर्षित और संतुष्ट हो मयूर पोषकों को बुलाकर कहा- देवानुप्रियो ! इस मोर के बच्चे का पोषणयोग्य द्रव्यों से संरक्षण, संगोपन एवं संवर्द्धन करो। इसे नृत्य सिखाओ। मयूर - पोषकों ने जिनदत्तपुत्र के अनुरोध को स्वीकार किया। मोर के बच्चे को ले अपने घर आए। पोषण योग्य द्रव्यों से उसका संरक्षण, संगोपन और संवर्द्धन करने लगे। नृत्य सिखाने लगे। वह मोर का बच्चा शैशव को पारकर युवा हो गया। लक्षण, व्यंजन की विशेषता से युक्त, मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण पंख और कलाप वाला हो गया। सैकड़ों चंदवा से युक्त रंग-बिरंगी पांखें आ गईं। वह नीलकंठ नृत्य में निष्णात हो गया । चुटकी बजाते ही सैकड़ों प्रकार के नृत्य और सैकड़ों प्रकार के केकारव करने लगा। मयूरपोषकों ने उस युवा मोरं को सैकड़ों प्रकार से कारव करते देखा। वे उसे जिनदत्तपुत्र के पास लाए और उसे सौंप दिया। जिनदत्तपुत्र उस युवा मोर को सैकड़ों प्रकार के नृत्य और केकारव करते देख हर्षित और संतुष्ट हुआ। उसने मयूरपोषकों को जीवन-निर्वाह योग्य विपुल प्रीतिदान देकर विदा किया। जिनदत्तपुत्र के द्वारा एक चुटकी बजाते ही वह युवा मोर सिंह की पूंछ की भांति गर्दन को टेढ़ा, श्वेत पृष्ठभाग को अनावृत कर, पांखों की छतरी तानकर, चंदवायुक्त कलाप को ऊपर उठा सैकड़ों प्रकार के केकारव करता हुआ नृत्य करने लगा। जिनदत्तपुत्र उस युवा मोर के कारण चंपानगरी के दुराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चौहट्टों और राजमार्गों में सैकड़ों, हजारों और लाखों के दांव जीतता हुआ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन जयं करेमाणे विहरs | एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्सकिए निक्कंखिए निव्वितिगिंछे से णं इहभवे a. बहू समणा बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाणं य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे ...... भवइ ।..... पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं. संसारकंतारं वीईवइस्सर । १४. कत्थइ मइदुब्बल्लेण, गहणत्तणेणं, १५. हेउदाहरणासंभवे य, सव्वण्णुमयमवितहं, ४२५ १६. अणुवकय- पराणुग्गहं, जिय-राग-दोस- मोहा, तव्विहायरियविरहओ वावि । नाणावरणोदयेणं च ॥ अमूढ़दृष्टि सुजं न बुझेज्जा । तहावि इइ चिंतए मइमं ॥ परायणा उ जिणा जगप्पवरा । यन्नावाइणो तेण ॥ अ. २ : सम्यग्दर्शन घूमने लगा । आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो निर्ग्रथ और निर्ग्रथी आचार्य उपाध्याय के पास मुंड हो, अगार से अनगार रूप में प्रव्रजित हो, पांच महाव्रतों, षड्जीवनिकायों और निर्ग्रथ प्रवचन में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा नहीं रखता, वह इस जीवन में सबके लिए अर्चनीय और वंदनीय होता है। वह अनादि, अनंत, प्रलंब मार्ग तथा चातुरंत संसार कान्तार का पार पा लेगा। श्रमणोपासक अर्हन्नक • १७. तेण कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जणवए होत्था । तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था । तथ णं चंपाए नयरीए चंदच्छए अंगराया होत्था । तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहण्णगपामोक्खा बहवे संजत्ता - नावावाणियगा परिवसंति - अड्ढा जाव बहुजणस्स अपिरभूया । तए णं से अरहण्णगे समणोवासए यावि होत्था - अहिगयजीवाजीवे । तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्ता मति की दुर्बलता, सम्यक् मार्गदर्शक आचार्य का अभाव, ज्ञेय ग्रहण का असामर्थ्य, ज्ञानावरणीय कर्म का उदय, हेतु और दृष्टांत का अभाव - इन कारणों से कदाचित् सम्यक् बोधि न हो तो भी मतिमान मनुष्य यह सोच - सर्वज्ञ द्वारा अनुमत तत्त्व अवितथ है- सत्य है । अकारण परोपकारपरायण, राग-द्वेष और मोह - विजेता, लोकोत्तम जिन अन्यथा भाषण - अयथार्थ निरूपण नहीं करते। अंग नाम का जनपद । चम्पा नाम की नगरी । उसे नगरी में चन्द्रच्छाय नाम का राजा। वहां अर्हन्त्रक आदि पोतवणिक रहते थे। वे सम्पन्न और प्रभावशाली थे। अर्हन्नक श्रमणोपासक था। वह जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों को जानने वाला था । एक दिन वे पोतवणिक परस्पर वार्तालाप करने Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४२६ खण्ड-४ लगे-हम गणना करने योग्य, तोलने योग्य, मापने योग्य और परीक्षा करने योग्य वस्तुओं को लेकर नौका द्वारा लवण समुद्र (हिन्द महासागर) की यात्रा करें। सबने एकमत से इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। विक्रेय वस्तुओं का संग्रह किया। गाड़ियों में भरा। शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, संबंधियों और कौटुम्बिकों को प्रीतिभोज दिया। भोजन के बाद उन सबसे अपनी यात्रा के विषय में अनुमति लेकर वाहन तैयार किये। नावावाणियगाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था- सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुई पोयवहणेणं ओगाहित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता.... भंडगं गेण्हंति, गेण्हित्ता...सगडी-सागडियं भरेंति। सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहृत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्तनाइ-नियग सयण-संबंधि- परिजणं भोयणवेलाए भुंजावेंति, भुंजावेत्ता मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडीसागडियं जोयंति।। चंपाए नयरीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगडी-सागडियं मोयंति, पोयवहणं सज्जेंति, .....भंडगस्स पोयवहणं भरेंति, तंदुलाण य समियस्स य तेल्लस्स य घयस्स य गुलस्स य गोरसस्स य उदगस्स य भायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य अण्णेसिं च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेंति। तए णं तेसिं अरहण्णग-पामोक्खाणं बहूणं संजत्ता-नावावाणियगाणं मित्त-नाइ-नियग-सयण- संबंधि-परियणा ताहिं इठाहिं वग्गृहिं अभिनंदंता य अभिसंथुणमाणा य एवं वयासीअज्ज! ताय! भाय! माउल! भाइणेज्ज! भगवया समुद्देणं अभिरक्खिज्जमाणा-अभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लद्धढे कयकज्जे अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए पासामो त्ति कटु ताहिं सोमाहिं निद्धाहिं दीहाहिं सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरिक्खमाणा मुहत्तंमेत्तं संचिट्ठति। तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु दिन्नेसु सरस- रत्त-चंदण-दहर-पंचंगुलितलेसु, अणुक्खित्तंसि धूवंसि, पूइएसु समुहवाएसु, संसारियासु वलयासु, चम्पानगरी के बीचोंबीच होकर वे गंभीरक पोत-पत्तन पहुंचे। गाड़ियों को खाली कर नौका तैयार की। विक्रेय . वस्तुएं भरने लगे। चावल, गेहूं का आटा, तेल, घी, गुड़, दूध, दही, पानी, बर्तन, औषध, भैषज्य, तृण, काष्ठ, कपड़े, शस्त्र आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं से नौका को भरा। अर्हन्नक आदि पोतवणिकों के मित्र और परिजन इष्ट वाणी से उनका अभिनंदन करते हुए बोले हे दादा! हे तात! हे भ्रात! हे मातुल! हे भागिनेय! भगवान् समुद्र के संरक्षण में आप चिरंजीवी हों। आपका कल्याण हो। आप अपने उद्देश्य में सफल हो शीघ्र घर लौटें। यही हमारी मंगल कामना है। सौम्य, स्नेहिल, खुली, प्यासी और अश्रुपूरित आंखों से उन्हें निहारते हुए वे मुहूर्त भर वहीं खड़े रहे। सामुद्रिक यात्रियों ने अपने-अपने कुलदेव की पूजाअर्चना की। हथेली से सरस चंदन के छापे लगाए। समुद्रवात-समुद्र के अधिष्ठायक देव का पूजन किया। धूप Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४२७ अ. २ : सम्यग्दर्शन ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु, पड्डुप्पवाइएसु तूरेसु खेया। पतवारें उचित स्थान में नियोजित कीं। श्वेत जइएसु सव्वसउणेसु, गहिएसु रायवरसासणेसु पताकाओं के ध्वजाग्र ऊपर उठे। वाद्यकला में निष्णात महया उक्किट्ठ-सीहनाय-बोल-कलकलरवेणं व्यक्यिों द्वारा बाजे बजाए गए। विजय सूचक सभी शकुन पक्खुभियमहासमुहरवभूयं पिव मेइणिं करेमाणा हए। ऐसे मंगल क्षणों में समुद्र यात्रा के लिए एगदिसिं एगाभिमुहा अरहण्णगपामोक्खा संजत्ता- राजाज्ञा-पारपत्र प्राप्त कर एक दिशा एवं एक लक्ष्य की नावाणियगा नावाए दुरूढा। ओर अभिमुख हुए। वे पोतवणिक तरंगों से क्षुब्ध महासागर के गरिव की भांति विदाई और मंगल कामनाओं के स्वरों से पृथ्वी को अनुगुंजित करते हुए नौका पर आरूढ़ हुए। तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु-हं भो ! सव्वेसिमेव मंगल पाठाकों ने मंगल पाठ पढ़ा-हे समुद्रयात्रियो! भे अत्यसिद्धी, उवठियाई कल्लाणाई, पडिहयाइं आप सबको अर्थलाभ हो। कल्याण उपस्थित है। कोई सव्वपावाई, जुत्तो 'पूसो, विजओ मुहत्तो अयं दोषपूर्ण योग नहीं है। इस समय चन्द्र के साथ पुष्य नक्षत्र देसकालो। का योग है। विजय मुहर्त है। यह देश-काल उपयुक्त है समुद्र यात्रा के लिए। ताओ पुस्समाणवेणं वक्कमुदाहिए हट्ठतुट्ठा मंगलपाठकों का आशीर्वाद प्राप्त कर कर्णधार (नौ कण्णधार-कुच्छिधार-गन्भिज्ज-संजत्ता-नावावा. चालक), कुक्षिधार (नौका के पार्श्वभाग में नियुक्त णियगा वावारिंसु, तं नावं पुण्णुच्छंगं पुण्णमुहिं पतवार चालक), कर्मचारी और पोतवणिक अपने-अपने बंधणेहिंतो मुंचंति। कार्यों में संलग्न हो गए। चालकों ने नौका का लंगर खोल दिया। तए णं सा नावा विमुक्कबंधणा पवणबल- बंधनमुक्त, वायुप्रेरित, उन्नत पाल वाली वह नौका समाहया ऊसियसिया विततपक्खा इव गरुलजुवई पंख फैलाए गरुड़ युवती जैसी लग रही थी। गंगा की गंगासलिल-तिक्खसोयवेगेहिं संखुब्भमाणी- तीक्ष्ण धाराओं के वेग से पुनः पुनः संक्षुब्ध होती, संखुब्भमाणी उम्मीतरंग मालासहस्साइं टकराती हजारों-हजारों ऊर्मियों और तरंगों को चीरती वह समइच्छमाणी-समइच्छमाणी कइवएहिं अहोरत्तेहिं कुछ ही दिनों में लवणसमुद्र के सैकड़ों योजनों के पार लवणसमुई अणेगाइं जोयणसयाइं ओगाढा। चली गई। तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्ता- समुद्र यात्रा में अर्हन्नक आदि पोतवणिकों के समक्ष नावावाणियगाणं लवणसमुहं अणेगाइं जोयणसयाइं सैकड़ों बाधाएं उपस्थित हुईं-अकाल में मेघों का गर्जना, ओगाढाणं समाणाणं बहूइं उप्पाइयसयाइं बिजली का कौंधना और कुतूहलप्रिय देवों द्वारा बार-बार पाउब्भूयाई, तं जहा-अकाले गज्जिए अकाले आकाश में नर्तन करना। विज्जुए अकाले थणियसद्दे अभिक्खणंअभिक्खणं आगासे देवयाओ नच्चंति। तए णं ते अरहण्णगवज्जा संजत्ता-नावावाणियगा उस समय अर्हन्नक को छोड़ सभी पोतवणिकों ने एक एगं च णं महं तालपिसायं पासंति...पासित्ता विशालकाय तालपिशाच को देखा। उसे देखकर सभी भीया...अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा- अत्यंत उद्विग्न और भयाक्रांत हो गए। भय से एक दूसरे समतुरंगेमाणा बहूणं इंदाण य खंदाण य रुहाण य के शरीर का आश्लेष करते हुए अपने-अपने इष्ट सिवाण य वेसमणाण य नागाण य भूयाण य देव-इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रवण, नाग, भूत, यक्ष, जक्खाण य अज्ज-कोट्टकिरियाण य बहणि आर्या एवं कोट्टक्रिया (दुर्गा) की मनौतियां करने लगे। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४२८ उवाइयसयाणि उवाइमाणा चिट्ठेति । तए णं से अरहणए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिण्णमुहरागनयणवण्णे अदीण-विमण माणसे पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थंतेणं भूमिं पमज्जइ, पमज्जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं अत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी - नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं... जइ णं हं तो उवसग्गाओ मंचामि तो मे कप्पइ पारित्तए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ न मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयव्वे ति कट्टु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ । तए णं से पिसायरूवे जेणेव अरहण्णगे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहणगं एवं वयासी- हंभो अरहण्णगा ! अपत्थियपत्थिया ! दुरंत-पंत- लक्खणा! हीणसिरि-हिरि - धिइ कित्तिपुण्ण चाउहसिया ! परिवज्जिया ! नो खलु कप्पर तव सीलं.... चालित्तए ..... । तं जइ णं तुमं सीलं..... न चालेसि ....तो ते अहं एयं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेहामि, गेण्हित्ता सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढ वेहासं उव्विहामि अंतोजलंसि निव्वोलेमि, जेणं तुमं अट्ट- दुहट्ट-वसट्ठे असामाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्ज्सि । तणं से अरहणगे समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी- अहं णं देवाणुप्पिया ! अरहण्णए नामं समोवास अहिगयजीवाजीवे । नो खलु अहं सक्के के देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्त..... । तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कट्टु...... धम्मज्झाणोवगए विहर | तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं समणोवासगं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी - हंभो अरहणगा! जावधम्मज्झाणोदगए विहरइ | तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं धम्मज्झाणेवयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं खण्ड-४ अर्हन्त्रक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाच को अपनी ओर आते देखा। उसे देख वह न भयभीत हुआ, न घबराया और न आकुल व्याकुल हुआ। यहां तक कि उसके चेहरे का रंग भी नहीं बदला। उसने अदीन और शांत मन से नौका के एक भाग का वस्त्रखंड से प्रमार्जन किया और कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। बद्धांजलि - प्रदक्षिणा की ओर अंजलि को मस्तक पर टिकाकर बोला- अर्हत् भगवान को मेरा नमस्कार हो। मैं अपना कायोत्सर्ग तभी पूरा करूंगा, जब यह उपद्रव टल जाएगा। अन्यथा मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा। इस प्रकार उसने साकार - सविकल्प अनशन स्वीकार किया। दिव्य पिशाच अर्हनक श्रमणोपासक के पास आया और कहने लगा- अर्हन्नक! अपने अहित को निमंत्रण देने वाले! अशुभ लक्षण वाले ! अंधेरी अमावस को जनमे ! श्री, लज्जा, धृति और कीर्ति से शून्य ! तू अपने संकल्प के शील आदि से विचलित नहीं हो सकता, पर अनुसार मैं चेतावनी देता हूं कि यदि तू अपने शील आदि से विचलित नहीं होता है तो मैं नौका को मात्र दो अंगुलियों से पकड़कर सात-आठ तल (भौम, मंजिल) प्रमाण ऊपर आकाश में उछालता हूं। समुद्र में डुबोता हूं। तू आर्त्त, पीड़ित और परवश बना हुआ असमाधि को प्राप्त होगा, असमय में ही मृत्यु का वरण करेगा । अर्हक श्रमणोपासक ने मन ही मन उस देव से कहा- देवानुप्रिय ! मैं अर्हनक नाम का श्रमणोपासक जीव और अजीव का ज्ञाता हूं। कोई भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग या गन्धर्व निर्ग्रथ प्रवचन से मुझे विचलित नहीं कर सकता। तुम जैसा चाहो वैसा करो, ऐसा कह वह धर्म्य - ध्यान में लीन हो गया। दिव्य पिशाच ने अर्हन्नक श्रमणोपासक को दूसरी तीसरी बार भी चेतावनी दी। पर वह विचलित नहीं बार, हुआ । दिव्य पिशाच ने अर्हन्त्रक श्रमणोपासक को जब धर्म्यध्यान में लीन देखा तो प्रबल क्रोध से तमतमाते हुए Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन आसुरर्त्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्es, गेण्हित्ता सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढं वेहासं उव्विes, उव्विहित्ता अरहण्णगं एवं वयासी- हंभो अरहणगा !..... तं जइ णं तुमं सील.....न चालेसि..... तो ते अहं एयं पोयवहणं अंतो जलंसि निब्बोलेमि, जेणं तुमं अट्ठ- दुहट्ट - वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ४२९ बरोविज्जसि । तए णं से अरहण्णगे समणोवासए...... अदीणविमण- माणसे निच्चले निप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ । तणं से पिसायरूवे अरहण्णगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए ..... ताहे संते तंते परितंते निव्विण्णे तं पोयवहणं सणियं -सणियं उमरिं जलस्स ठवेइ, ठवेत्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरेइ, पडिसाहरेत्ता दिव्वं देवरूवं विउव्वइअंतलिक्खपडिव सखिखिणीयाई दसद्धवण्णाई स्थाई पवरपरिहिए अरहण्णगं समणोवासगं एवं वयासी- हंभो अरहणगा! समणोवासया ! धन्नेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! पुणेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! कत्थेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! कयलक्खणेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! सुलद्धे णं तव देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया । एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सभाए हम्मा बहूणं देवा मज्झगए महया-महया सद्देणं एवं आइक्ख....एवं खलु देवा ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए अरहण्णए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे । नो खलु सक्के के देवेण वा दावेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए ... । तणं अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो नो एयमट्ठं सद्दहामि, पत्तियामि रोएमि । तएं णं मम इमेयारूवे अज्झत्थिए ....मणोगए अ. २ : सम्यग्दर्शन उसने नौका को दो अंगुलियों से पकड़ा। सात-आठ तल प्रमाण ऊपर आकाश में उठाया और कहा- अरे ! ओ अर्हनक ! यदि तू अपने शील आदि से विचलित नहीं होता है तो मैं इस नौका को पानी में डुबोता हूं । तू आर्त्त, परवश और असमाधिस्थ बना असमय में ही मृत्यु को प्राप्त करेगा। दिव्य पिशाच के ऐसा कहने पर भी अर्हन्नक श्रमणोपासक अदीन, अनातुर, निश्चल, निःस्पंद और मौनभाव से धर्म्यध्यान में लीन रहा । दिव्य पिशाच जब अर्हन्नक को निर्ग्रथ प्रवचन से विचलित नहीं कर सका तो श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और खेदखिन्न हो उसने नौका को धीरे-धीरे पानी पर रख दिया। अपने पिशाच रूप को समेटा । दिव्य रूप को प्रकट किया। घुंघरू लगे सुन्दर पचरंगे वस्त्र पहने। आकाश में स्थित हो गया और श्रमणोपासक अर्हन्नक को संबोधित कर कहा- देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, पुण्य हो, कृतार्थ और कृत-लक्षण हो। तुमने मनुष्य जीवन को सफल बनाया है। निर्ग्रथ प्रवचन में तुम्हारी दृढ़ आस्था है, विश्वास है। तुमने उसे भलीभांति हृदयंगम किया है। देव ने अपने आगमन का प्रयोजन बताते हुए कहादेवानुप्रिय ! प्रथम स्वर्ग के सौधर्मावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में देवराज इन्द्र उपस्थित थे। वहां देवों की सभा जुड़ी थी। इन्द्र ने उस सभा को संबोधित करते हुए कहा- जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में चम्पा नाम की नगरी है। वहां अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक रहता है। वह जीव और अजीव का ज्ञाता है। उसे कोई भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व निग्रंथ-प्रवचन (जिनशासन) से विचलित नहीं कर सकता । देवराज इन्द्र के इस कथन पर मुझे न श्रद्धा हुई, न प्रतीति हुई और न रुचि हुई। मैंने अपने मन में निश्चय किया Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४३० खण्ड-४ संकप्पे समुप्पज्जित्थागच्छामि णं अहं अरहण्णगस्स अंतियं मैं जाऊं और अर्हन्नक के समक्ष प्रकट हो उसकी पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहण्णगं-किं . परीक्षा करूं-वह प्रियधर्मा है या नहीं? दृढ़धर्मा है या पियधम्मे नो पियधम्मे? दढधम्मे नो दढधम्मे? नहीं? शील आदि से विचलित होता है या नहीं? यह सील....किं चालेइ नो चालेइ?....त्ति कटु एवं सोच मैंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। तुम्हें देखा। संपेहेमि, संपेहेत्ता ओहिं पउंजामि, पउंजित्ता तुम्हारे पास पहुंचने के लिए ईशानकोण में गया। उत्तरदेवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि, आभोएत्ता वैक्रिय-यहां आने योग्य रूप का निर्माण किया। अति उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमामि उत्तर- त्वरित गति से लवणसमुद्र में तुम्हारे पास आया। उपसर्ग वेउब्वियं रूवं विउव्वामि, विउव्वित्ता ताए किया। पर तुम उपसर्ग से विललित नहीं हुए। भयभीत उक्किट्ठाए देवगईए जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव नहीं हुए। देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता देवाणुप्पियस्स उवसगं करेमि, नो चेव णं देवाणुप्पिए भीए...... तं ज णं सक्के देविदे देवराया एवं वयइ, सच्चे णं मैंने अनुभव किया-देवराज इन्द्र का कथन सही है। एसमठे। तं दिढे णं देवाणुप्पियस्स इड्ढी जुई तुम्हारी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार और जसो बलं वीरियं पुरिसकार-परक्कमे लढे पत्ते । पराक्रम को मैंने जान लिया है। देवानुप्रिय! मैंने तुम्हें जो अभिसमण्णागए। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! कष्ट दिया, उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। तुम क्षमा खमेसु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरिहसि णं करने में समर्थ हो। मुझे क्षमा करो। मैं फिर कभी ऐसा देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कटु नहीं करूंगा। ऐसा कह बद्धांजलि हो देव अर्हन्नक के पंजलिउडे पायवडिए एयमठं विणएणं भुज्जो- चरणों में झुक गया और विनयपूर्वक अपने अपराध के भुज्जो खामेइ। लिए पुनः क्षमा मांगने लगा। अरहण्णगस्स य दुवे कुंडलजुयले दलयइ, दलइत्ता अर्हन्नक को कुण्डल-युगल उपहार में देकर दिव्य जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं पिशाच जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। से अरहण्णए निरुवसग्गमिति कटु पडिम पारेइ। संकट टल गया। अर्हन्नक ने कायोत्सर्ग सम्पन्न किया। सम्यक्दर्शन का विघ्न : मिथ्या आग्रह कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी १८. तए णं पएसी राया केसिं कुमार-समणं एवं श्वेतविका नगरी। प्रदेशी राजा। चित्त नाम का वयासी-एवं खलु भंते! मम अज्जगस्स एस सारथी/सचिव। प्रदेशी का अभिमत था-जीव और शरीर सण्णा....जहा-तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो एक हैं। एक दिन प्रदेशी ने कुमारश्रमण केशी से अण्णं सरीरं। कहा-भंते! मेरे दादा की मान्यता थी-जीव और शरीर एक हैं। वे भिन्न-भिन्न नहीं हैं। तयाणंतरं च णं ममं पिउणो वि एस सण्णा.... मेरे पिता की भी यही मान्यता रही-जीव और शरीर जहा-तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं ___एक हैं। वे भिन्न-भिन्न नहीं हैं। सरीरं। तयाणंतरं मम वि एस सण्णा.....जहा तज्जीवो तं मैं भी ऐसा ही मानता हूं-जीव और शरीर एक हैं। वे सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं। तं नो खलु भिन्न-भिन्न नहीं हैं। (यद्यपि मैंने जीव और शरीर की Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४३१ अहं बहुपुरिसपरंपरागयं कुलणिस्सियं दिठिं छड्डेस्सामि । लोहवणिक १९. तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वयासी - मा णं तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भवेज्जासि जहा व से पुरिसे अयहारए । के णं भंते! से अयहारए ? पएसी ! से जहाणामए - केइ पुरिसा अत्थत्थी अत्थगवेसी अत्थलुद्धगा अत्थकंखिया अत्थपिवासिया अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडा सुबहु भत्तपाण-पत्थयणं गहाय एवं महं • अगामियं छण्णावायं दीहमद्धं अडविं अणुपविट्ठा । तणं ते पुरिसा तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एगमहं अयागरं प्रासंति-अएणं सव्वतो समंता आइण्णं.....पासंति, पासित्ता हट्ठतुट्ठा.... । अण्णमण्णं सहावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! अयभंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मामे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं अयभारयं बंधत्त त कट्टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिसुर्णेति, अयभारं बंधंति, बंधित्ता अहाणुपुव्वीए संपत्थिया । तणं ते पुरिसा तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमा अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एगं महं तउआगरं पासंति-तउएणं आइण्णं विच्छिण्णं पासंति, पांसित्ता हट्ठतुट्ठा..... । - अण्णमण्णं सहावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी - एस णं देवाणुप्पिया ! तउयभंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे। अप्पेणं चेव तउएणं सुबहुं अए लब्भति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अयभारयं छड्डेत्ता तउयभारयं बंधित्त त्ति कट्टु अण्ममण्णस्स अंतिए एयमठ्ठे पडिसुणेंति । अयभारं छड्डेंति तउयभारं बंधंति । तत्थ णं एगे पुरिसे णो संचाएइ अयभारं छड्डेत्तए, तज्यभारं बंधित्तए । तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं एवं अ. २ : सम्यग्दर्शन भिन्नता का सिद्धांत आपसे समझ लिया है, फिर भी कुल परंपरा से चली आ रही मान्यता को मैं नहीं छोडूंगा ।) प्रदेशी ! यदि तुम अपने आग्रह को नहीं छोड़ते हो तो फिर लोहवणिक् की तरह पछताओगे । भंते! वह लोहवणिक् कौन था ? प्रदेशी ! कुछ पुरुष अर्थोपार्जन के लिए जा रहे थे। उन्होंने अपने साथ विपुल मात्रा में खाद्य सामग्री ली। चलते-चलते वे एक विशाल जंगल में पहुंचे। दूर-दूर तक उसके पास कोई गांव नहीं था। लोगों का आवागमन भी उस जंगल में नहीं के बराबर था। वे थोड़ी ही दूर चले कि उन्होंने एक बड़ी लोहे की खान देखी । उसमें चारों ओर लोहा ही लोहा था । उसे देखकर वे अत्यंत प्रसन्न हुए। परस्पर एक दूसरे से कहने लगे- यह लोहे की खान अत्यंत सुन्दर, प्रिय और मनोज्ञ है। इसलिए उचित होगा कि हम इस लोहे का एक-एक भार बांध लें। सब इस मंत्रण से सहमत हो गये। उन्होंने लोहे के भारे बांधे और आगे बढ़ गए। चलते-चलते उन्होंने एक रांगे की खान देखी। उसे देख उनका हृदय प्रसन्नता से भर गया। वे परस्पर बताने लगे-यह रांगे की खान सुन्दर, प्रिय और मनोज्ञ है। थोड़े से रांगे से हम बहुत-सा लोहा प्राप्त कर सकेंगे। अतः अच्छा हो, इस लोह - भार को यहीं गिरा रांगे का भारा बांध लें। उन्होंने लोहार को गिरा रांगे के भारे बांधे। एक व्यक्ति ने लोह को गिरा रांगे का भार बांधना पसंद नहीं किया। शेष व्यक्तियों ने उससे कहा Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४३२ वयासी - एस णं देवाणुप्पिया ! तउयभंडे इट्ठे कंते पि मणुणे मणा । अप्पेणं चेव तउएणं सुबहु अए लब्भति । तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया! अयभारगं, तयभारगं बंधाहि । तए णं से पुरिसे एवं वयासी - दूराहडे मे देवाणुप्पिया! अए, णो संचाएमि अयभारगं छड्डेत्ता तउभारगं बंधित्तए । तणं ते पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचाएंति बहूहिं आघवणाहिय....। तया अहाणुपुव्वीए संपत्थिया । तए णं ते पुरिसा..... दीहमदाए अडवीए कंचि देसं अणुपत्ता समाणा एवं महं तंबागरं पासंति... एगं महं रुप्पागरं पासंति..... एगं महं सुवण्णागरं पासंति.....एगं महं रयणागारं पासंति.... एगं महं वइरागरं पासंति,....। रयणभारं छड्डेंति । वइरभार बंधति । तणं से पुरिसे णो संचाएइ अयभारं छड्डेत्तए, aseभारं बंधित्तए । तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं एवं वयासी- एस णं देवाप्पिया! वइरभंडे इट्ठे.... अप्पेणं चेव वइरेणं सुबहुं अए लब्भति । तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया! अयभारगं। वइरभारगं बंधाहि । तए णं से पुरिसे एवं वयासी- दूराहडे मे देवाप्पिया! अए, चिराहडे मे देवाणुप्पिया ! अए, अइगाढबंधणबद्धे मे देवाणुप्पिया ! अए,....णो संचाएमि अयभारगं छड्डेत्ता वइरभारयं बंधित्तए । तणं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साईसाइं नगराई तेणेव उवागच्छंति, वइरवेयणं करेंति, सुबहुं दासी - दास- गो-महिस - गवेलगं गिण्हंति, अट्ठतलमूसिय-पासावडेंसगे करावेंति....इट्ठे सह-फरिस - रस- रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुभवमाणा विहरंति । तणं से पुरिसे अयभारए जेणेव सए नगरे तेणेव उवागच्छइ । अयभारगं गहाय वेयणं करेति । तंसि अयपुग्गलंसि निट्ठियंसि झीणपरिव्वए ते पुरिसे उप्पिं पासायवरगए....। इट्ठे सह-फरिस - रसरूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभो पच्चणुभवमाणे विहरमाणे पासति, पासित्ता एवं खण्ड - ४ देवानुप्रिय ! यह रांगा सुन्दर, प्रिय और मनोज्ञ है। थोड़े से रांगे से बहुत-सा लोहा प्राप्त किया जा सकता है। देवानुप्रिय ! तुम लोहार को छोड़ दो और रांगे का भारा बांध लो। मित्रो! मैं इसे बहुत दूर से उठाकर लाया हूं। इसलिए मैं इस लोहभार को छोड़ रांगे का भार नहीं बांधूंगा । मित्रों के बहुत कहने पर भी लोहवणिक् ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। वहां से वे आगे चले। उन व्यक्तियों ने क्रमशः तांबे की खान, चांदी की खान, सोने की खान, रत्नों की खान और वज्र (हीरा) की खान देखी। वे पहले भारे को छोड़ते गए और नया भारा बांध गए। अंत में उन्होंने वज्र के भारे बांधे । लोहवणिक् ने लोहभार को गिरा वज्र का भारा बांधना पसंद नहीं किया। उन्होंने लोहवणिक् से कहा- देवानुप्रिय ! यह वज्र इष्ट है। थोड़े से वज्र से बहुत-सा लोहा प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए इस लोहभार को छोड़ वज्र का भारा बांध लो। लोहवणिक् ने कहा- देवानुप्रिय ! मैंने इस लोह का दूर तक भार ढोया है, चिर काल तक भार ढोया है, इसे गाढ़ बंधन से बांध रखा है। मैं इसे छोड़ वज्र का भारा नहीं बांधूंगा । वे वणिक् स्वदेश लौटे और अपने-अपने नगरों में चले गए। वज्र को बेच बहुत अर्थार्जन किया। बहुत से दास, दासी, गाय, भैंस और भेड़ें खरीदीं। आठ मंजिल ऊंचे विशिष्ट प्रासाद बनवाये । विविध प्रकार से आमोदप्रमोद करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे। लोहवणिक् लोहार को लेकर अपने नगर पहुंचा । लोहे को बेचा। उसे थोड़ा-सा धन मिला। कुछ ही दिनों में सारा धन समाप्त हो गया। वह दीन-हीन हो गया। एक दिन उसने अपने साथियों को बहुमंजिले प्रासादों में आमोद-प्रमोद करते देखा। वह अपने आप को कोसने लगा-मैं कितना अधन्य हूं, अपुण्य हूं। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४३३ अ. २ : सम्यग्दर्शन यदि मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों और स्वजनों की बात मान लेता तो मैं भी आज इसी तरह आमोद-प्रमोद के साथ सुखपूर्वक रहता। बयासी-इहां णं अहं अधण्णे अपुण्णे.....। जति णं अहं मित्ताण वा णाईण वा नियगाण वा सुणेतओ तो णं अहं पि एवं चेव....इठे सह- फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चुभवमाणे विहरतो। से तेणठेणं पएसी! एवं वुच्चइ-मा णं तुम पएसी! पच्छाणुताविए भवेज्जासि जहा व से पुरिसे अयभारए। प्रदेशी ! इसीलिए मैं कह रहा हूं फिर तुम को पछताना न पड़े, जैसे वह लोहवणिक् पछताया। सम्यक्त्व के स्थान २०.गत्थिन अविणासधम्मी। करेई वेएइ अस्थि णिव्वाणं। अत्थि य मोक्खोवाओ। छस्सम्मत्तस्स ठाणाइं॥ सम्यक्त्व के छह स्थान हैं१. आत्मा है। २. आत्मा अविनाशी/शाश्वत है। ३. आत्मा सुख-दुःख का कर्ता है। ४. आत्मा कृत कर्म का भोक्ता है। ५. निर्वाण है। ६. निर्वाण का उपाय है। मिथ्यात्व के स्थान २१.णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ। कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं। णत्थि य मोक्खोवाओ। छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई॥ मिथ्यात्व के छह स्थान हैं१. आत्मा नहीं है। २. आत्मा नित्य नहीं है। ३. आत्मा सुख-दुःख का कर्ता नहीं है। ४. आत्मा कृत कर्म का भोक्ता नहीं है। ५. निर्वाण नहीं है। ६. निर्वाण का उपाय नहीं है। Page #455 --------------------------------------------------------------------------  Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-३ सम्यग्ज्ञान Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय पृ.सं. पृ. सं. ४३७ ४३९ ४३९ १. ज्ञान का फल : आचार २. अस्तिकायवाद ३. श्रमणोपासक मदुक और अन्यतीर्थिक ४४१ ४. महावीर द्वारा मदुक की प्रशंसा ५. ज्ञान के पांच प्रकार ६. कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी ४४२ ४४२ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान १. जेण तच्चं विबुझेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। ___ जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं गाणं जिणसासणे॥ जिससे तत्त्व का बोध होता है. चित्त का निरोध होता है, आत्मा विशुद्ध होती है, उसे जिन-शासन में ज्ञान कहा गया है। जिससे राग-विमुक्ति होती है, श्रेय में अनुरक्ति होती है और मैत्री भाव पुष्ट होता है, उसे जिन-शासन में ज्ञान कहा गया है। २. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। ... जेण मित्ती पभावेज्ज, तं गाणं जिंणसासणे॥ ज्ञान का फल : आचार ३. पढमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान होता है फिर दया-आचरण/संयम। ४. अन्नाणी किं काही, किं वा नाहि छेय-पावगं? ५. सोच्चा जाणा कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं। उभयं पि जाणई सोच्चा. जं छेयं तं समायरे॥ अज्ञानी क्या करेगा? क्या क्या जानेगा-क्या श्रेय है और क्या पाप? __ प्राणी सुनकर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं। इसलिए जो श्रेय है. उसी का आचरण करे।। ६. जो जीवे वि न याणाइ, अजीवे वि न याणई। .. जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहिह संजमं? । जो जीव को भी नहीं जानता, अजीव को भी नहीं जानता। जीव और अजीव-दोनों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा? ७. जो जीवे वि वियाणाइ, अजीवे वि वियाणई। - जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहिइ संजमं॥ जो जीव को जानता है, अजीव को जानता है। जीव और अजीव-दोनों को जानता है, वही संयम को जानेगा। ८. जया जीवे अजीवे य, दो वि एए वियाणई। - तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणई॥ जीव और अजीव-दोनों को जानता है, तब वह सब जीवों की विविध गतियों को जान लेता है-पुनर्जन्म को जान लेता है। ९. जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणई। तया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणई। सब जीवों की विविध गतियों को जान लेता है-पुनर्जन्म का ज्ञान हो जाता है, तब वह पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को जान लेता है। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४३८ खण्ड-४ १०.जया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्ख च जाणई। तया निव्विंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे॥ पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को जान लेता है, तब वह दिव्य और मानुषी भोगों से विरक्त हो जाता है। ११.जया निव्विंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे। तया चयइ संजोगं, सब्भिंतरबाहिरं। दिव्य और मानुषी भोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह आंतरिक संयोग-संवेग जनित संयोग, बाह्य संयोगपारिवारिक संयोग-दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है। १२.जया चयइ संजोगं, सब्भिंतरबाहिरं। तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं। आंतरिक संयोग-संवेग जनित संयोग, बाह्य संयोगपारिवारिक संयोग-दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है, तब वह मुंड हो गृहत्यागी हो जाता है। १३.जया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं। तया संवरमुक्किटं, धम्मं फासे अणुत्तरं॥ मुंड हो गृहत्यागी हो जाता है, तब वह उत्कृष्ट संवरधर्म (प्रवृत्ति-निरोध) का स्पर्श करता है। १४.जया संवरमुक्किठें, धम्म फासे अणुत्तरं। तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसं कडं॥ . उत्कृष्ट संवरधर्म (प्रवृत्ति-निरोध) का स्पर्श करता है, तब वह अबोधि की मलिनता से संचित कर्मरज को धुन डालता है। १५.जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसं कडं। तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छई।। अबोधि की मलिनता से संचित कर्मरज को धुन डालता है, तब वह सर्वत्रगामी (सब द्रव्यों और पर्यायों को जानने वाला) ज्ञान और दर्शन-केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। १६.जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छई। तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली॥ ...सर्वत्रगामी (सब द्रव्यों और पर्यायों को जानने वाला) ज्ञान और दर्शन-केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब वह जिन और केवली होकर लोकअलोक को जान लेता है। १७.जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जई। जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता है, तब वह योग (मन, वचन व काया की प्रवृत्ति) का निरोध कर शैलेशी (सर्वथा अप्रकंप) अवस्था को प्राप्त कर लेता है। १८.जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जई। तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ॥ योग (मन, वचन व काया की प्रवृत्ति) का निरोध कर शैलेशी (सर्वथा अप्रकंप) अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब वह कर्मों का क्षय कर रजमुक्त बन सिद्धि को प्राप्त होता है। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन १९. जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥ ४३९ २०. जहा सुई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥ श्रमणोपासक मदुक और अन्यतीर्थिक २१. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे | गुणसिलए चेइए | तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे. अण्णउत्थिया परिवसंति, तं जहा - कालोदाई, सेलोदाई.... सुहत्थी गाहावई । तए णं तेसिं अण्णउत्थियाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं.... मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था - एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्थिकायं अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं जीवत्थिकायं पोगलत्थिकायं । तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पण्णवेति, तं जहा - धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, पोग्गलत्थिकायं । एगं च णं समणे नायपुत्ते जीवत्थिकायं अरूविकायं जीवकायं पण्णवेति । अ. ३ : सम्यग्ज्ञान कर्मों का क्षय कर रजमुक्त हो सिद्धि को प्राप्त होता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित हो शाश्वत सिद्ध हो जाता है। अस्तिकायवाद तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अरूविकाए पण्णवेति, तं जहा - धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवत्थिकायं । एगं च णं समणे नायपुत्ते पोग्गलत्थिकायं रूवि - कायं अजीवकायं पण्णवेति । से कहमेयं मन्ने एवं ? तत्थ णं रायगिहे नगरे मदुए नामं समणोवासए परिवसति ।.....अभिगयजीवाजीवे जाव विहरह | तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव , गुणसिलए चेइए तेणेव समोसढे । परिसा जाव पज्जुवासति । जिस प्रकार धागे में पिरोई हुई सूई गिरने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र - ज्ञानी मनुष्य संसार चक्र में विनष्ट नहीं होता । राजगृह नाम का नगर । गुणशिल नाम का चैत्य । उस चैत्य के पास बहुत से अन्यतीर्थिक रहते थे - कालोदाई, शैलोदाई आदि परिव्राजक तथा सुहस्ती नामक गृहपति । एक दिन वे गोष्ठी कर रहे थे। परस्पर चर्चा चलीश्रमण ज्ञातपुत्र महावीर पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं। वे पंचास्तिकाय हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर चार अस्तिकाय को अजीव (अचेतन) बतलाते हैं। जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर एक जीवास्तिकाय को अरूपी और जीव (चेतन) बतलाते हैं। श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर चार अस्तिकाय को अरूपी (अचेतन) बतलाते हैं। जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर एक पुद्गलास्तिकाय को रूपी और अजीव बतलाते हैं, यह कैसे ? उसी राजगृह नगर में मदुक नाम का श्रमणोपासक रहता था। वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। श्रमण भगवान महावीर जनपद विहार करते हुए राजगृह नगर में आए। गुणशिल चैत्य में ठहरे। नगरवासी पर्युपासना करने लगे। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४४० खण्ड-१ तए णं मदुए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धठे मदुक श्रमणोपासक ने भगवान महावीर के आगमन की सूचना सुनी। वह हृष्ट और तुष्ट हुआ। उसका चित्त गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता प्रसन्नता से भर गया। वह भगवान को वन्दन करने के पादविहारचारेणं रायगिह नगरं मज्झमज्झेणं लिए घर से निकला। अन्यतीर्थिकों के चैत्य के निकट से निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता तेसिं अण्णउत्थियाणं गुजरा। अदूरसामंतेणं वीईवयइ। तए णं ते अण्णउत्थिया मदुयं समणोवासयं अन्यतीर्थिकों ने मदुक श्रमणोपासक को अपने अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं पासंति, पासित्ता निकट से जाते देख परस्पर वार्तालाप किया-हम अपने अण्णमण्णं सहावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी-एवं इस उलझन भरे प्रश्न को मदुक से पूछे। इस प्रस्ताव पर खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अविप्पकडा, सब सहमत हुए। वे मदुक के पास आए। बोले-मदुक! इमं च णं मदुए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर वीईवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं मदुयं पांच अस्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं, यह कैसे? ... समणोवासयं एयमढें पुच्छित्तएत्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतियं एयमठें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव मद्दए समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मदुयं समणोवासयं एवं वदासी-एवं खलु मदुया! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे नायपुत्ते पंच अस्थिकाए पण्णवेइ।....... से कहमेयं मया ! एवं? . तए णं से मदुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं मद्दुक ने उनसे कहा यदि कार्य हो रहा है, हम वयासी-जति कज्जं कज्जति जाणामो-पासामो, जानते-देखते हैं। यदि कार्य नहीं हो रहा है, हम नहीं अहे कज्ज न कज्जति न जाणामो न पासामो। जानते-देखते हैं। तए णं ते अण्णउत्थिया मदुयं समणोवासयं एवं अन्यतीर्थिकों ने मदुक श्रमणोपासक से कहा-तुम वयासी-केस णं तुम मद्या! समणोवासगाणं कैसे श्रमणोपासक हो जो इस अर्थ को नहीं जानते-देखते भवसि, जे णं तुम एयमळं न जाणसि न पाससि? हो? तए णं से मदुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं मद्दुक श्रमणोपासक ने अन्यतीर्थिकों से कहावयासी-अत्थि णं आउसो! वाउयाए वाति? आयुष्मन्! हवा चल रही है? हंता अत्थि। हां, चल रही है। तुब्भे णं आउसो! वाउयायस्स वायमाणस्स रूवं आयुष्मन् ! आप चलती हुई हवा का रूप देख रहे हैं? पासह? नो इणढे समठे। नहीं। अत्थि णं आउसो! घाणसहगया पोग्गला? आयुष्मन्! नाक में गंधयुक्त पुद्गल प्रविष्ट होते हैं? हंता अत्थि। हां, होते हैं। तुब्भे णं आउसो! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं आयुष्मन्! आप नाक में प्रविष्ट गंधयुक्त पुद्गलों पासह? का रूप देखते हैं? नो इणठे समठे। अत्थि णं आउसो! अरणिसहगए अगणिकाए? आयुष्मन्! अरणि में अग्नि होती है? ' नहीं। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४४१ तुन्भे णं आउसो अरणिसहगयस्स अगणि कायस्स रूवं पासह ? नो इट्ठे समट्ठे । अत्थि णं आउसो ! समुहस्स पारगयाइं रुवाइं ? हंता अत्थि । तुब्भे णं आउसो ! समुहस्स पारगयाई रुवाई पासह ? नो इट्ठे समट्ठे । अत्थि णं आउसो ! देवलोगगयाई रुवाई ? हंता अत्थि । तुब्भेणं आउसो ! देवलोगगयाई रुवाई पासह ? नो इट्ठे समट्ठे । एवामेव आउसो ! अहं वा तुब्भे वा अण्णो वा छउमत्थो जइ जो जं न जाणइ न पासइ तं सव्वं न भवति, एवं भे सुबहुए लोए न भविस्सति । ते अण्णउत्थिए एवं पडिभणइ, पडिभणित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासति । महावीर द्वारा मदुक की प्रशंसा मदुयादी! समणे भगवं महावीरे मदुयं समणोवासगं एवं वयासी - सुगुणं मदुया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहू णं मदुया ! तुमं ते अण्णउत्थि एवं वयासी, जे णं मदुया ! अट्ठं वा हे वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णायं अदिट्ठ • अस्सुतं अमुयं अविण्णायं बहुजणमज्झे आघवेति पण्णवेति.... से णं अरहंताणं आसादणाए वट्टति, अरहंत- पण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणाए वट्टति, केवलणं आसादणा वट्टति, केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणा वट्टति, तं सुठु णं तुमं मदुया ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहू णं तुमं मद्द्या! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी । तणं मदुए समणोवासए समणेणं भगवया महाबीरेणं एवं वृत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे ।.... अ. ३ : सम्यग्ज्ञान हां, होती है। आयुष्मन् ! आप अरणि में रही हुई अग्नि का रूप देखते हैं। नहीं। आयुष्मन्! समुद्र के पार रूप-पदार्थ हैं ? हां, हैं । आयुष्मन् ! आप समुद्र के पार रूपों को देखते हैं ? नहीं । आयुष्मन् ! देवलोक में रूप होते हैं ? हां, होते हैं। आयुष्मन् ! आप देवलोक में विद्यमान रूपों को देखते हैं ? नहीं । आयुष्मन् ! इसी प्रकार मैं, आप या अन्य कोई छद्मस्थ जिस पदार्थ को नहीं जानता देखता है, वह सब नहीं होता, ऐसा स्वीकार करने पर आपके जगत का बहुत बड़ा भाग नहीं होगा। इस प्रकार अन्यतीर्थिकों के प्रश्नों को उत्तरित कर मदुक गुणशिल चैत्य में श्रमण भगवान महावीर के पास आया और विधिवत् उपासना करने लगा । श्रमण भगवान् महावीर ने कहा- मदुक ! तुमने अन्यतीर्थिकों से जो कहा, वह अच्छा कहा। साधु कहा। जो व्यक्ति अज्ञात (अमूर्त होने के कारण जो ज्ञात नहीं है।) अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और अविज्ञात अर्थ, हेतु, प्रश्न और उत्तर का बहुत व्यक्तियों के मध्य बिना जाने प्रतिपादन करता है, वह अर्हत् की आशातना करता है, अर्हत्- प्रज्ञप्त धर्म की आशातना करता है । केवली की आशातना करता है। केवली - प्रज्ञप्त धर्म की आशातना करता है, मदुक ! तुमने अन्यतीर्थिकों को जो कहा, वह अच्छा और साधु कहा । भगवान महावीर से यह सुन मदुक हृष्ट और तुष्ट हुआ। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४४२ खण्ड ज्ञान के पांच प्रकार कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी २२.तए णं से पएसी राया चित्तेण सारहिणा सद्धिं राजा प्रदेशी चित्त सारथी के साथ कुमारश्रमण केशी जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ। के पास पहुंचा। बोला-भंते! क्या तुम्हारे पास अतीन्द्रिय केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं ज्ञान है ? क्या तुम जीव को शरीर से भिन्न मानते हो? वयासी-तुब्भेणं भंते! अहोऽवहिया अण्णजीविया? तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं केशीकुमार-प्रदेशी! जैसे कोई अंकवणिक अथवा वयासी-पएसी! से जहा णामए अंकवाणिया इ वा शंखवणिक शुल्क से बचने के लिए सीधे मार्ग से होकर संखवाणिया इ वा सुकं भंसेउकामा णो सम्म पंथं नहीं जाते। इसी प्रकार तुम भी विनय के मार्ग को छोड़ पुच्छति। एवामेव पएसी! तुमं वि विणयं सम्यक् प्रकार से नहीं पूछ रहे हो। भंसेउकामो नो सम्म पुच्छसि। से णूणं तव पएसी! ममं पासित्ता अयमेयारूवे प्रदेशी! मुझे देखकर तुम्हारे मन में इस प्रकार के अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे विचार आए ये जड़ लोग जड़ की उपासना कर रहे हैं। ये समुप्पज्जित्था-जडा खलु भो! जड्ड मुंड लोग मुंड की उपासना कर रहे हैं। ये मूढ लोग मूढ पज्जुवासंति। मुंडा खलु भो! मुंडं पज्जुवासंति। की उपासना कर रहे हैं। ये अपंडित लोग अपंडित की मूढा खलु भो! मूढं पज्जुवासंति। निविण्णाणा उपासना कर रहे हैं। ये अज्ञानी लोग अज्ञानी की उपासना खलु भो! निविण्णाणं पज्जुवासंति। से केस णं कर रहे हैं। यह जड़, मुंड, मूढ, अपंडित और अज्ञानी एस पुरिसे जड्डे मुंडे मूढे अपंडिए निविण्णाणे, पुरुष कौन है ? श्री, ही से युक्त और दीप्तिमान शरीर सिरीए हिरीए उवगए, उत्तप्पसरीरे? एस णं पुरिसे वाला यह कौन है? यह क्या आहार करता है? क्या किमाहारमाहारेइ ? किं परिणामेइ ? किं खाइ ? किं परिणमन करता है? क्या खाता है ? क्या पीता है? क्या पियइ? कि दलयइ? किं पयच्छइ? जे णं एमहालियाए मणुस्सपरिसाए महया-महया सद्देणं परिषद् को ऊंचे-ऊंचे स्वर में सम्बोधित कर रहा है। मैं बूया। साए वि णं उज्जाणभूमीए नो संचाएमि सम्मं अपनी उद्यानभूमि में भी स्वतंत्रता से विचरण नहीं कर पकामं पवियरित्तए। से णूणं पएसी! अत्थे समत्थे? सकता। प्रदेशी ! क्या यह बात ठीक है? हंता! अत्थि। हां, ठीक है। तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं भंते तुम्हारे पास वह कौन-सा ज्ञान एवं दर्शन है, वयासी-से केस णं भंते! तुज्झं नाणे वा दसणे वा, जिससे तुमने मेरे आंतरिक चिंतन, अभिलाषा और जेणं तुब्भं मम एयारूवं अज्झत्थियं चिंतियं पत्थियं मनोगत संकल्प को जान लिया है-देख लिया है। मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणह-पासह ? तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं प्रदेशी! श्रमण निग्रंथों के ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्स वयासी-एवं खलु पएसी! अम्हं समणाणं हैं-आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिनिग्गंथाणं पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा- ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे। से किं तं आभिणिबोहियणाणे? आभिनिबोधिकज्ञान क्या है? आभिणिबोहियणाणे चउविहे पण्णत्ते. तं जहा- आभिनिबोधिक ज्ञान के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं-अवग्रह, Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४४३ अ.३ : सम्यग्ज्ञान ईहा, अवाय और धारणा। श्रुतज्ञान क्या है? उम्गहो ईहा अवाए धारणा। से किं तं सुयणाणं? सुयणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंगपविठं च, अंगबहिरगं च। से किं तं ओहिणाणं? ओहिणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-भवपच्चइयं च खओवसमियं च। से किं तं मणपज्जवणाणे? मणपज्जवणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उज्जुमई य विउलमई य। से किं तं केवलणाणं? केवलणाणं दुबिहं पण्णत्तं, तं जहा-भवत्थकेवलणाणं च सिद्धकेवलणाणं च। तत्य णं जे से आभिणिबोहियणाणे, से णं ममं अत्थि। तत्थ णं जे से सुयणाणे, से वि य ममं अत्थि। तत्थ णं-जे से ओहिणाणे, से वि य ममं अस्थि। तत्थं णं जे से मणपज्जवणाणे, से वि य ममं अत्थि। तत्थ णं जे से केवलणाणे से णं ममं नत्मि। से णं अरहताणं भगवंताणं। इच्चेएणं पएसी! अहं तव चउब्विहेणं छाउमथिएणं णाणेणं इमेयारूवं अज्झत्थियं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकम्पं समुप्पण्णं जाणामि-पासामि। तं (नाणं) समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं • 'जहा-पच्चक्खं च परोक्खं च। से किं तं पच्चक्खं? पचाक्खं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-इंदिय-पच्चक्खं च नोइंदियपच्चक्खं च। श्रुतज्ञान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। अवधिज्ञान क्या है? अवधिज्ञान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-भवप्रत्ययिक, (जन्मसिद्ध) और क्षायोपशमिक (साधना सिद्ध)। मनःपर्यवज्ञान क्या है? मनःपर्यवज्ञान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-ऋजुमति और विपुलमति। केवलज्ञान क्या है? केवलज्ञान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-संसारी आत्मा का केवलज्ञान और मुक्त आत्मा का केवलज्ञान। जो आभिनिबोधिक ज्ञान है, वह मुझे प्राप्त है। जो श्रुतज्ञान है, वह भी मुझे प्राप्त है। जो अवधिज्ञान है, वह भी मुझे प्राप्त है। जो मनःपर्यवज्ञान है, वह भी मुझे प्राप्त है। जो केवलज्ञान है, वह मुझे प्राप्त नहीं है। वह अर्हतों को होता है। प्रदेशी! मैं चतुर्विध छामस्थिकज्ञान से तुम्हारे आंतरिक चिंतन, अभिलाषा और मनोगत संकल्प को जानता-देखता हूं। संक्षेप में ज्ञान के दो प्रकार प्रज्ञप्स हैं-१. प्रत्यक्ष, २. परोक्ष। प्रत्यक्ष ज्ञान क्या है? प्रत्यक्ष ज्ञान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-१. इन्द्रियप्रत्यक्ष, २. नोइंद्रिय प्रत्यक्ष। २३.से किं तं परोक्खं? परोक्खं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-आभिणिबोहियनाणपरोक्खं च सुयनाणपरोक्खं च। परोक्ष ज्ञान क्या है? परोक्ष ज्ञाम के दो प्रकार प्रज्ञप्स हैं-आभिनिबोधिक ज्ञान परोक्ष, श्रुतज्ञान परोक्ष। Page #465 --------------------------------------------------------------------------  Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-४ सम्यकचास्त्रि Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय पृ.सं.. ४६८ ४६८ ४६९ १. चारित्रधर्म के प्रकार २. महावीर का अभिनिष्क्रमण ३. मुनिधर्म ४. मृगापुत्र का गृहत्याग ५. मुनि के लिए अवश्य करणीय प्रयोग ६. मुनि के नियम ७. मुनि के तीन मनोरथ ८. मुनि की चार सुखशय्या ९. मुनिधर्म में स्थिरीकरण का प्रयोग १०. विविक्तचर्या ११. साध्वी राजीमती और मुनि रथनेमि १२. गृहस्थधर्म १३. श्रमणोपासक आनंद १४. श्रमणोपासक के व्रत १५. अहिंसा अणुव्रत १६. सत्य अणुवव्रत १७. अचौर्य अणुव्रत १८. स्वदारसंतोष अणुव्रत १९. इच्छापरिमाण अणुव्रत २०. दिग्व्रत २१. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत २२. अनर्थदंड विरमण व्रत २३. सामायिक व्रत २४. देशावकाशिक व्रत २५. पौषधोपवास व्रत २६. अतिथि संविभाग व्रत ४४७ २७. संलेखना ४४७ • श्रमणोपासक व्रत के अतिचार. ४४८ •सम्यक्त्व के अतिचार ४४९ २८. अहिंसा अणुव्रत के अतिचार । ४६७ ४५३ २९. सत्य अणुव्रत के अतिचार. ४६७ ४५३ ३०. अचौर्य अणुव्रत के अतिचार ४६७ ४५४ ३१. स्वदारसंतोष व्रत के अतिचार ४५४ ३२. इच्छापरिमाण व्रत के अतिचार ४६८ ४५५ ३३. दिगवत के अतिचार ४५९ ३४. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत के अतिचार ४६९ ४६१ ३५. कर्मादान ४६२ ३६. अनर्थदंडविरमण व्रत के अतिचार ४७० ४६२ ३७. सामायिक व्रत के अतिचार ४७० ४६३ ३८. देशावकाशिक व्रत के अतिचार ४७० ४६३ ३९. पौषधोपवास के अतिचार ४७१ ४६३ ४०. यथासंविभाग व्रत के अतिचार ४७१ ४६३ ४१. संलेखना के अतिचार ४७१ ४६३ ४२. आनंद की धर्म जागरिका ४३. आनंद द्वारा प्रतिमाओं का स्वीकरण - ४७३ ४६४४४. तानाजागारका ४६४४५. श्रमणोपासक का स्वरूप ४६४ ४६. उपासना के पांच अभिगम ४६४ ४७. श्रमणोपासक की प्रतिमाएं ४६४४८. श्रमणोपासक के तीन मनोरथ ४६४.४९. श्रमणोपासक के चार आश्वास स्थान ४७६ ४६४ ५०. श्रमणोपासक के प्रकार ४७७ ४७१ ४७४ ४७५ ४७६ ४७६ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यकचारित्र १. जम्हा दंसणनाणा संपुण्णफलं न दिति पत्तेयं। चारित्तजुया दिति उ विसिस्सए तेण चारित्तं॥ दर्शन और ज्ञान-ये अकेले रहकर पूरा फल नहीं देते। ये चारित्र से जुड़कर पूरा फल देते हैं। इसलिए ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न होकर चारित्र विशिष्ट बन जाता है। २. असुहादो विणिवित्ती, - सुहे पवित्तीय जाण चारित्तं॥ बदसमिदिगुत्तिरूवं, . ववहारणया दु जिणभणियं॥ अशुभ से निवृत्त होना और शुभ में प्रवृत्त होना चारित्र है। व्रत, समिति एवं गुप्ति का पालन व्यवहारनय सम्मत चारित्र है। ३. णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्सम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ आत्मा से आत्मा में लीन रहना निश्चयनय सम्मत चारित्र है। चारित्र की सम्यक् आराधना करने वाला योगी निर्वाण को प्राप्त होता है। ४. जंजाणिऊण जोई, ___- परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं। . तं चारित्तं भणियं, अवियप्पं कम्मरहिएहिं॥ जिसे जानकर योगी पुण्य और पाप दोनों का परिहार कर देता है, वह निर्विकल्प चारित्र-संवर अथवा निर्विकल्प समाधि है। ५. नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सरहे। ___चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई॥ ___ जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शोधन करता है-अर्जित संस्कारों को क्षीण करता है। चास्त्रि धर्म के प्रकार ६. चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा अगारचरित्तधम्मे चेव। अणगारचरित्तधम्मे चेव। चारित्र धर्म के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैंगृहस्थ का चारित्रधर्म। मुनि का चारित्रधर्म। महाबीर का अभिनिष्क्रमण '७. तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे-मग्गसिरबहुले, तस्स णं हेमंत ऋतु के प्रथम मास का पहला पक्ष। मिगसर का कृष्णपक्ष। दशमी का श्रेष्ठ दिन। विजयमुहूर्त। उत्तरा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४४८ खण्ड-४ फाल्गुनी नक्षत्र का योग। पूर्वाभिमुख छाया। अंतिम प्रहर का समय। दो दिन का निर्जल उपवास। एक शाटक-उत्तरीय वस्त्र साथ ले सहस्रों द्वारा ले जाई जाने वाली चन्द्रप्रभा शिविका-पालकी में बैठ महावीर ने अभिनिष्क्रमण किया। देव, मनुष्य और असुर उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। वह शिविका उत्तर क्षत्रिय कुंडपुर . सन्निवेश के बीचों बीच गुजरी और ज्ञातखंड उद्यान में पहुंची। शिविका को धीरे-धीरे भूमि से लगभग एक हाथ ही ऊंचाई पर रखा गया। महावीर धीरे-धीरे चन्द्रप्रभा शिविका से नीचे उतरे। पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बैठे। आभरण, अलंकार आदि उतारे। मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिव- सेणं, विजएणं मुहत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, छठेणं भत्तेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए सिवियाए सहस्स- वाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए समण्णिज्जमाणे-समण्णिज्जमाणे उत्तरखत्तियकुंडपुरसंणिवेसस्स मज्झमज्झेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता जेणेव णायसंडे उज्जाण तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ईसिं रयणिप्पमाणं अच्छुप्पेणं भूमिभागेणं सणियं सणियं चंदप्पभं सहस्सवाहिणिं ठवेइ, ठवेत्ता सणियं-सणियं चंदप्पभाओ सिवियाओ सहस्सवाहिणीओ पच्चोयरइ, पच्चोयरित्ता सणियं सणियं पुरत्थाभिमुहे सीहासणे णिसीयइ, आभरणालंकारं ओमुयइ। तओ णं वेसमणे देवे जन्नुव्वायपडिए समणस्स भगवओ महावीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आभारणालंकारं पडिच्छइ। तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेइ। . तओ णं सक्के देविदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नुव्वायपडिए वयरामएणं थालेणं केसाइं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता अणुजाणेसि भंते त्ति कटु खीरोयसायरं साहरइ। तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ, करेत्ता सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं ति कट्ट सामाइयं चरित्तं पडिवज्जइ, सामाइयं चरित्तं पडिवज्जेत्ता देवपरिसं मणुयपरिसं च आलिक्खचित्तभ्यमिव 8वेइ। वैश्रमण देव ने घुटनों के बल बैठ अलंकारों को एक श्वेत वस्त्र-खंड में ग्रहण किया। महावीर ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर का एवं बायें हाथ से बायीं ओर का पंचमुष्टि केशलुंचन किया। देवराज शक्र ने घुटनों के बल बैठ महावीर की ... केशराशि को व्रजरत्नमय थाल में ग्रहण किया। 'भंते! आपकी आज्ञा है'-ऐसा कह उसने उस केशराशि को क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर दिया। महावीर ने पंचमुष्टि केशलुंचन कर सिद्धों (मुक्त आत्माओं) को नमस्कार किया। 'आज से मेरे लिए सब प्रकार के पापकर्म अकरणीय हैं'-इस संकल्प के साथ उन्होंने सामायिक चारित्र स्वीकार किया। उस समय देवपरिषद और मनुष्यपरिषद भित्तिचित्र की भांति हो गई। मुनिधर्म ८. अहिंस सच्चं च अतेणगं च । तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च। पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज्जधम्मं जिणदेसियं विऊ॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांच महाव्रतों को स्वीकार कर विद्वान मुनि वीतराग उपदिष्ट धर्म का आचरण करे। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४४९ अ. ४ : सम्यक्चारित्र ९. इच्चेयाइं पंचमहव्वयाइं राईभोयणवेरमणं छट्ठाई अत्तहियट्ठयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। ये पांच महाव्रत और छट्ठा रात्रिभोजन विरमण-मैं आत्महित के लिए इनको स्वीकार कर विहार कर रहा हूं। मृगापुत्र का गृहत्याग १०.सुग्गीवे नयरे रम्मे काणणज्जाणसोहिए। राया बलभदो त्ति मिया तस्सग्गमाहिसी॥ तेसिं पुत्ते बलसिरी मियापुत्ते त्ति विस्सुए। अम्मापिऊण दइए जुवराया दमीसरे॥ कानन और उद्यान से शोभित, सुरम्य सुग्रीव नगर में बलभद्र राजा था। मृगा उसकी पटरानी थी। उनके बलश्री नाम का पुत्र था। वह मृगापुत्र नाम से विश्रुत था। वह. माता-पिता को प्रिय, युवराज और दमीश्वर-इन्द्रियों का निग्रह करने वाला था। वह दोगुन्दग देवों की भांति सदा प्रमुदित रहता हुआ आनन्ददायक प्रासाद में स्त्रियों के साथ क्रीडा में रत रहता नंदणे सो उ पासाए कीलए सह इत्थिहिं। देवो दोगंदगो चेव निच्चं मइयमाणसो॥ था। मणिरयणकुटिमतले आलोएइ नगरस्स पासायालोयणठिओ। चउक्कतियचच्चरे॥ अह तत्थ अइच्छंतं पासई समणसंजयं। तवनियमसंजमंधरं सीलड्ढं गुणआगरं॥ तं देहई मियापुत्ते ठिीए अणिमिसाए उ। कहिं मन्नेरिसं रूवं दिठ्ठपुव्वं मए पुरा॥ मणि और रत्न जड़ित फर्श वाले प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ मृगापुत्र नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था। उसने उस मार्ग से जाते हुए एक संयमी मुनि को देखा। वह तप, नियम और संयम का धारक, शील से समृद्ध एवं गुणों का आकर था। मृगापुत्र ने अनिमेष दृष्टि से उसे देखा और मन ही मन चिंतन-आलोचन किया-मैंने ऐसा रूप पहले कहीं देखा है। ____साधु-दर्शन, अध्यवसाय-विशुद्धि और सम्मोहन की अवस्था में उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो गई। जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न होने पर मृगापुत्र को पूर्व जन्म में जो मुनिधर्म का पालन किया था, उसकी स्मृति हो आई। साहुस्स दरिसणे तस्स अन्झवसाणम्मि सोहणे। मोहंगयस्स संतस्स जाईसरणं समुप्पन्नं॥ जाईसरणे समुप्पन्ने मियापुत्ते महिड्ढिए। सरई पोराणियं जाइं सामण्णं च पुराकयं॥ मृगापुत्र विसएहि अरज्जतो रज्जतो संजमम्मि य। अम्मापियरं उवागम्म इमं वयणमब्बवी॥ सुगाणि मे पंच महव्वयाणि नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु। निविण्णकामो मि महण्णवाओ अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो! अम्मताय! मए भोगा भुत्ता विसफलोवमा। पच्छा कडुयविवागा अणुबंधदुहावहा॥ वह विषयों से अनासक्त और संयम में अनुरक्त हो गया। माता-पिता के समीप आ उसने कहा___ मैं पांच महाव्रतों को जानता हूं। नरक और तिर्यंच योनियों में होने वाले दुःख को भी जानता हूं। मैं संसार समुद्र से विरक्त हो गया हूं। माता-पिता! मैं मुनि बनना चाहता हूं। आप मुझे अनुज्ञा दें। माता-पिता! मैंने भोग भोगे हैं। वे विषफल के तुल्य हैं। उनका परिणाम कटु होता है। वे निरंतर दुःख देने वाले हैं। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४५० खण्ड-४ इमं सरीरं अणिच्चं असासयावासमिणं असुइं असुइसंभवं। दुक्खकेसाणभायणं॥ असासए पच्छा सरीरम्मि पुरावचइयव्वे रई मोवलभामहं। फेणबुब्बुयसन्निभे॥ माणसत्ते असारम्मि वाहीरोगाण आलए। जरामरणपत्थम्मि खणं पि न रमामहं॥ यह शरीर अनित्य है। अशुचि है। अशुचि से उत्पन्न है। यह आत्मा का अशाश्वत आवास है। दुःख और क्लेशों का घर है। इस अशाश्वत शरीर में मुझे आनंद नहीं मिल रहा है। इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है। यह फेन के बुलबुले के समान अस्थिर है। यह मनुष्य शरीर सारहीन है। व्याधि और रोगों का घर है। जरा और मरण से ग्रस्त है। इस शरीर में मुझे क्षणभर के लिए भी आनंद नहीं मिल रहा है। जन्म दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। आश्चर्य है, संसार दुःख ही दुःख है जहां प्राणी कष्ट पा रहे हैं। भूमि, घर, सोना, पुत्र, स्त्री, स्वजन और इस शरीर को छोड़कर मुझे विवश हो एक दिन यहां से चले जाना जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य। अहां दुक्खो ह संसारो जत्थ कीसंति जंतवो॥ खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पुत्तदारं च बंधवा। चइत्ताणं इमं देहं गंतव्वमवसस्स मे॥ जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरो॥ अद्धाणं जो महंतं तु अपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो दुही होइ छुहातण्हाए पीडिओ॥ एवं धम्मं अकाऊणं जो गच्छइ परं भवं। गच्छंतो सो दुही होइ वाहीरोगेहिं पीडिओ॥ अद्धाणं जो महंतं तु सपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो सुही होइ छुहातण्हाविवज्जिओ॥ जिस प्रकार किम्पाक-फल खाने का परिणाम सुन्दर नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता। जंगल का लंबा मार्ग, पास में पाथेय नहीं, वह यात्री भूख और प्यास से पीड़ित हो दुःखी होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य जीवन में धर्म करता नहीं और परलोक में चला जाता है, वह जीवन यात्रा में व्याधि और रोग से पीड़ित हो दुःखी होता है। जंगल का लंबा मार्ग, पास में, पाथेय है, ऐसा यात्री भूख और प्यास से पीड़ित नहीं होता। सुख पूर्वक जंगल को लांघ देता है। इसी प्रकारं जो मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह अल्पकर्म और वेदना से मुक्त होता है। उसकी जीवनयात्रा सुखपूर्वक चलती है। __ घर में पलीता लग गया। गृहस्वामी सार द्रव्यों को घर से निकल लेता है, असार को छोड़ देता है। इसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु की आग से जल रहा है। इस आग से मैं अपने को बाहर निकालना चाहता हूं। आप मुझे अनुज्ञा दें। एवं धम्मं पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं। गच्छंतो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे॥ जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पहू। सारभंडाणि नणेइ असारं अवउज्झइ॥ एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य। अप्पाणं तारइस्सामि तुम्भेहिं अणुमन्निओ॥ १. किम्पाक एक प्रकार का विष वृक्ष है। इसका फल देखने में अति सुन्दर और खाने में अति स्वादिष्ट होता है। पर इसको खाने का परिणाम है मृत्यु। (उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ४५४) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन अ. ४: सम्यक्चारित्र माता-पिता आह तं बिंतम्मापियरो सामण्णं पुत्त! दुच्चरं। पुत्र! श्रामण्य-मुनिधर्म का आचरण बहुत कठिन है। • गुणाणं तु सहस्साई धारेयव्वाइं भिक्खूणो॥ जो हजारों गुणों को धारण करता है, वही मुनि होता है। समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे। विश्व के सभी जीवों-शत्रु और मित्र के प्रति समता, पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करा॥ प्राणवध से विरति। आजीवन इनका अनुशीलन बहुत दुष्कर है। निच्चकालप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं। निरन्तर जागरूकता पूर्वक असत्य से दूर रहना, भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं॥ हितकर और सत्यवचन बोलना, सदा जागरूक रहना बहुत कठिन है। दंतसोहणमाइस्स अदत्तस्स - विवज्जणं। बिना दी हुई दतौन जैसी छोटी वस्तु का भी वर्जन, अणवज्जेसणिज्जस्स गेण्हणा अवि दुक्करं॥ अनवद्य और एषणीय वस्तु का ग्रहण बहुत दुष्कर है। विरई अबंभचेरस्स कामभोगरसण्णुणा। काम भोग का रस जानने वाले व्यक्ति के लिए उम्गं महव्वयं बंभं धारेयव्वं सुदुक्करं॥ अब्रह्मचर्य की विरति करना और उग्र ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना बहुत दुष्कर है। धणधन्नपेसवग्गेसु परिग्गहविवज्जणं। धन-धान्य और नौकर-चाकर के परिग्रहण का वर्जन, सव्वारंभपरिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं॥ सब प्रकार के आरंभ को छोड़ना और ममत्व का विसर्जन बहुत दुष्कर है। चउब्विहे वि आहारे · राईभोयणवज्जणा। चतुर्विध आहार-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य को रात्रि सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करो॥ में खाने का परित्याग करना, सन्निधि और संचय का वर्जन बहुत दुष्कर है। सुहोइओ तुमं पुत्ता! सुकुमालो सुमज्जिओ। पुत्र! तू सुख भोगने योग्य है, सुकुमार है, स्वच्छ न हसी पभू तुमं पुत्ता! सामण्णमणुपालिउं॥ रहने वाला है। पुत्र! तू श्रामण्य का पालन करने में समर्थ नहीं है। मृगापुत्र आह- तं बिंतम्मापियरो! एवमेयं जहां फुडं। माता-पिता! जो आपने कहा, वह सही है। किन्तु इहलोए निष्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं। जिस व्यक्ति की ऐहिक सुखों की प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। जारिसा माणुसे लोए ताया! दीसंति वेयणा। माता-पिता! मनुष्यलोक में जैसी वेदना है, एत्तो अणंतगुणिया नरएसु दक्खवेयणा॥ उससे अनंत गुणा अधिक दुःख देने वाली वेदना नरकलोक में है। सव्वभवेसु अस्साया वेयणा वेइया मए। मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया निमेसंतरमित्तं पि जं साया नत्थि वेयणा॥ है। वहां क्षणभर भी सुखमय संवेदना नहीं थी। माता-पिता आह तं वितम्मापियरो छंदेणं पुत्त! पव्वया। पुत्र! तुम्हारी इच्छा है तो मुनि बन जाओ। पर मुनि नवरं पुण सामण्णे दुक्खं निप्पडिकम्मया॥ जीवन में रोगों की चिकित्सा नहीं कराई जाती, यह बहुत दुष्कर है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४५२ खण्ड-१ मृगापुत्र आह सो बिंतम्मापियरो! एवमेयं जहाफुडं। पडिकम्मं को कुणई अरण्णे मियपक्खिणं? माता-पिता! आपने जो कहा वह ठीक है। किन्त जंगल में रहने वाले पशु-पक्षियों की चिकित्सा कौन करता ह एगभूओ अरण्णे वा जहा उ चरई मिगो। एवं धम्मं चरिस्सामि संजमेण तवेण य॥ जया मिगस्स आयंको महारण्णम्मि जायई। अच्छंतं रुक्खमूलम्मि को णं ताहे तिगिच्छई? को वा से ओसहं देई? को वा से पुच्छई सुहं? को से भत्तं च पाणं च आहरित्त पणामए? जैसे जंगल में पशु अकेला विचरता है, वैसे मैं भी संयम और तप के द्वारा धर्म आचरण करूंगा। जब महारण्य में पशु के शरीर में आतंक-रोग उत्पन्न होता है, तब वह किसी वृक्ष के पास बैठ जाता है। उसकी चिकित्सा कौन करता है? कौन उसे औषधि देता है? कौन उससे सुख प्रश्न करता है? कौन उसे खाने-पाने को भोजन-पानी लाकर देता है? जब वह स्वस्थ हो जाता, तब खाने-पीने के लिए चरागाह में जाता है, लतानिकुंचों और जलाशयों में जाता जया य से सुही होइ तया गच्छइ गोयरं। भत्तपाणस्स अट्ठाए वल्लराणि सराणि य॥ लतानिकुंजों और जलाशयों में वह खा-पीकर घूमने लग जाता है। खाइत्ता पाणियं पाउं वल्लरेहिं सरेहि वा। मिगचारियं चरित्ताणं गच्छई मिगचारियं॥ माता-पिता आहमिगचारियं चरिस्सामि एवं पुत्ता! जहासुहं। अम्मापिऊहिंऽणुण्णाओ जहाइ उवहिं तओ॥ इड्ढि वित्तं च मित्ते य पुत्तदारं च नायओ। रेणुयं व पडे लग्गं निश्रुणित्ताण निग्गओ॥ पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो य। सभिंतरबाहिरओ तवोकम्मंसि उज्जओ॥ निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारखो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य॥ मैं मृग-चर्या का आचरण करूंगा। 'पुत्र! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।' माता-पिता की अनुमति पाकर वह उपधि-परिग्रह को छोड़ देता है। ऋद्धि, धन, मित्र, पत्नी और ज्ञातिजनों को कपड़े पर लगी धूलि की भांति झटकाकर वह मुनि बन गया। वह पांच महाव्रतों से युक्त, पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, आंतरिक और बाहरी तपस्या में तत्पर हो गया। . ___ ममता और अहंकार से रहित, असंग (अनासक्त), गर्वमुक्त, त्रस एवं स्थावर सभी जीवों में समभाव रखने वाला बन गया। वह लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दाप्रशंसा, मान-अपमान-इन द्वन्द्वों में सम हो गया। वह गर्व, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बंधन से रहित हो गया। वह इहलोक-परलोक में अनिश्रित-अप्रतिबद्ध, वसूले से काटने व चंदन लगाने तथा आहार मिलने या न मिलने की स्थिति में सम रहता। लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ॥ गारवेसु कसाएसु दण्डसल्लभएसु या नियत्तो हाससोगाओ अनियाणो अबंधणो॥ अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पो य असणे अणसणे तहा॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन मुनि के लिए अवश्य करणीय प्रयोग ११. दसविधे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा खंती मुत्ती अज्जवे महवे लाघवे सच्चे संजमे तवे चियाए भरवासे । नियम १२. अणारंभा अपरिग्गहा इरिवासमिए भासासमिए सणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चार- पासवण खेल-सिंघाण जल्ल-पारिट्ठा वणिवासमिए मणसमिए वइसमिए कायसमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते चाई लज्जू धन्ने ४५३ खंतिखमे जिइदिए सोहिए अनियाणे श्रमणों के लिए अवश्य करणीय धर्म के दस प्रयोगक्षांति-क्षमा, सहिष्णुता । मुक्ति- अलोभ, अनासक्ति । आर्जव - ऋजुता, अविसंवाद । अ. ४ : सम्यक् चारित्र मार्दव - मृदुता, आठ प्रकार के मद का निग्रह | लाघव - आकिंचन्य, शरीर आदि के प्रति निर्ममत्व । सत्य - निरवद्य भाषण | संयम - मन, वचन एवं शरीर के योग का निग्रह । तप - द्वादशविध तप । त्याग–व्युत्सर्ग, संविभाग । ब्रह्मचर्यवास- गुरुकुलवास । आरंभ (हिंसा) न करने वाला । संग्रह न रखने वाला । जागरूक दृष्टि से मार्ग को देखकर चलने वाला । विवेकपूर्वक निरवद्य वचन बोलने वाला । विवेकपूर्वक आहार करने वाला | विवेकपूर्वक वस्त्र आदि को उठाने वाला । विवेकपूर्वक उत्सर्ग आदि करने वाला । संयमपूर्वक मन की प्रवृत्ति करने वाला | संयमपूर्वक वचन की प्रवृत्ति करने वाला | संयमपूर्वक काया की प्रवृत्ति करने वाला । मन का निरोध करने वाला। वचन का निरोध करने वाला । काया का निरोध करने वाला। सहिष्णु लज्जावान्—–आत्मानुशासी । कृतार्थ - संयम की साधना में सफलता का अनुभव करने वाला समर्थ होने पर भी क्षमाशील । इन्द्रियजयी । ऋजु और निर्मल चित्त वाला | पौद्गलिक सुखों की प्राप्ति के लिए संकल्प नहीं करने वाला। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन अप्पुस्सुए अब हल्लेसे सुसामण्णरए दंते । ४५४ मुनि के तीन मनोरथ १३. तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिज्जिस्सामि ? कया णं अहं एकल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरिस्सामि ? कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियाइक्खित्ते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि ? मुनि की चार सुखशय्या १४. चत्तारि सुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते णिव्वितिगिच्छिए णो भेदसमावणे णोकलुस -मावण्णे णिग्गंथं पावयणं सहइ पत्तियइ रोएति, णिग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्तियमाणे रोएमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जिति - पढमा सुहसेज्जा । अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए सएणं लाभेणं तुस्सति परस्स लाभं णो आसाएति णो पीहेति णो पत्थेति णो अभिलसति, परस्स लाभमणासाएमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जतिदोच्चा सुहसेज्जा । अहावरा तच्चा सुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए दिव्वमाणुस्सए कामभोगे णो आसाएति गो पीहेति णो पत्थेति णो खण्ड - ४ पौद्गलिक पदार्थों के प्रति उत्सुकता नहीं रखने वाला । जिसकी भावधारा संयम से बाहर नहीं जाती । दसविध श्रमण धर्म में रत रहने वाला। क्रोध आदि कषायों से उपशांत । तीन स्थानों से श्रमण निग्रंथ महानिर्जरा तथा महापर्यवसान वाला होता है मैं अल्प या बहुत श्रुत का अध्ययन करूंगा। कब मैं एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार करं विहार करूंगा। मैं अपश्चिम-मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर, भक्त-पान का परित्याग कर, प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विहरण करूंगा । सुखशय्या के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं पहली सुखशय्या - कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर निर्ग्रथ प्रवचन में निःशंक, निष्कांक्ष, निर्विचिकित्सित, अभेदसमापन्न, अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रथ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है। वह निर्ग्रथ प्रवचन में श्रद्धा करता हुआ प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है। दूसरी सुखशय्या - कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से. अनगारत्व में प्रव्रजित होकर अपने लाभ से संतुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता। वह दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ, मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है। तीसरी सुखशय्या- कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर देवों तथा मनुष्यों के कामभोगों का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४५५ अ. ४: सम्यक्चारित्र अभिलसति, दिव्वमाणुस्सए कामभोगे प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता। वह उनका अणासाएमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो। नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में विणिघातमावज्जति- तच्चा सुहसेज्जा। समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है। अहावरा चउत्था सुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता चौथी सुखशय्या कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं एवं अनगारत्व में प्रव्रजित होने के बाद ऐसा सोचता हैं-जब भवति-जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा अरोगा अर्हन्त भगवान हृष्ट, नीरोग, बलवान तथा स्वस्थ होकर बलिया कल्लसरीरा अण्णयराइं ओरालाई भी कर्मक्षय के लिए उदार, कल्याण, विपुल, प्रयतकल्लाणाई विउलाई पयताई . पग्गहिताइं सुसंयत, प्रगृहीत–सादर स्वीकृत, महानुभाग- अमेय महाणुभागाई कम्मक्खयकरणाइं तवोकम्माइं शक्तिशाली और कर्मक्षयकारी विचित्र तपस्याएं स्वीकृत पडिवज्जति, किमंग पुण अहं अब्भोवगमि- करते हैं, तब मैं आभ्युपगमिकी तथा औपक्रमिकी वेदना ओवक्कमियं वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि को ठीक प्रकार से क्यों नहीं सहन करता हूं। तितिक्खेमि अहियासेमि? ममं च णं अब्भेवगमिओवक्कमियं सम्ममसह- यदि मैं आभ्युपगमिकी तथा औपक्रमिकी वेदना को माणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खमाणस्स ठीक प्रकार से सहन नहीं करूंगा तो मुझे क्या होगा? . अणहियासेमाणसं किं मण्णे कज्जति? एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति। मुझे एकांत पापकर्म होगा। ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं सम्मं यदि मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को सहमाणस्स खममाणस्स तितिक्खेमाणस्स ठीक प्रकार से सहन करूंगा तो मुझे क्या होगा ? अहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति-चउत्था सुह- मुझे एकांत निर्जरा होगी। सेज्जा। मुनिधर्म में स्थिरीकरण का प्रयोग १५.इह खलु भो! पव्वइएणं, उप्पन्नदुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं, ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव, हयरस्सि-गयंकुस-पोयपडागा-भूयाई इमाइं अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिलेहियव्वाइं भवंति तं जहा मुमुक्षुओ ! निग्रंथ-प्रवचन में जो प्रव्रजित है किन्तु उसे मोहवश दुःख उत्पन्न हो गया। संयम में उसका चित्त अरति-युक्त हो गया। वह संयम को छोड़ गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता है। किन्तु अभी तक गया नहीं है, उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भलीभांति आलोचन करना चाहिए। अस्थितात्मा के लिए इनका वही स्थान है जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका का है। वे अठारह स्थान इस प्रकार हैं ओह! इस दुष्षमा (दुःख बहुल पांचवें आरे) में लोग बड़ी कठिनाई से जीविका चलाते हैं। गृहस्थों के कामभोग स्वल्प-सार-युक्त और अल्पकालिक हैं। हं भो! दुस्समाए दुप्पजीवी। लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४५६ खण्ड-४ भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा। इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सई। ओमजणपुरक्कारे। वंतस्स य पडियाइयणं। अहरगइवासोवसंपया। दुल्लभे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिवासमज्झे वसंताणं। आयके से वहाय होइ। संकप्पे से वहाय होइ। मनुष्य प्रायः मायाबहुल होते हैं। यह मेरा परीषह-जनित दुःख चिरकाल स्थायी नहीं होगा। गृहवासी को नीचजनों का पुरस्कार-सत्कार करना होता है। संयम को छोड़ घर में जाने का अर्थ है-वमन को वापस पीना। संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है-नारकीय जीवन का अंगीकार। ओह! गृहवास में रहते हुए गृहस्थ के लिए धर्म का अनुपालन निश्चय ही दुर्लभ है। वहां आतंक वध के लिए होता है। पता नहीं, कंब सद्योघाती रोग हो और व्यक्ति मर जाए। वहां संकल्प वध के लिए होता है। पता नहीं, कब मन में नाना प्रकार के संकल्प-मानसिक रोग उत्पन्न हो और वे व्यक्ति को मौत की ओर ले जाएं। गृहवास क्लेश सहित है, मुनि-पर्याय क्लेश राहा गृहवास बंधन है, मुनि-पर्याय मोक्ष है। गृहवास सावध है, मुनि-पर्याय अनवद्य है। गृहस्थों के कामभोग बहुजन सामान्य-सर्व सुलभ हैं। पुण्य और पाप अपना-अपना होता है। ओह! मनुष्यों का जीवन अनित्य है। कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है। ओह! मैंने इससे पहले बहुत ही पापकर्म किए हैं। ओह! दुश्चरित्र और दुष्ट पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अर्जित किए हुए पापकर्मों को भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है-उनसे छटकारा होता है। उन्हें भोगे बिना अथवा तप के द्वारा क्षीण किए बिना मोक्ष नहीं होता-उनसे छुटकारा नहीं होता। सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए। बंधे गिहवासे। मोक्खे परियाए। सावज्जे गिहवासे। अणवज्जे परियाए। बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा। पत्तेयं पुण्णपावं। अणिच्चे खलु भो! मणुयाण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले। बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं। पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुब्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। १६.जया च चयई धम्म अणज्जो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए बाले आयइं नावबुज्झइ॥ अनार्य पुरुष जब भोग के लिए धर्म को छोड़ता है, तब वह भोग में मूर्च्छित बना अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता। १७.जया ओहाविओ होइ इंदो वा पडिओ छम। सव्वधम्मपरिब्भट्ठो ‘स पच्छा परितप्पइ॥ जब कोई साधु उत्प्रवजित होता है-गृहवास में प्रवेश करता है, तब वह धर्मों से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है जैसे देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमितल पर पड़ा हुआ इन्द्र। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४५७ अ. ४ : सम्यक्चारित्र १८.जया य वंदिमो होइ पच्छा होइ अवंदिमो। देवया व चुया ठाणा स पच्छा परितप्पइ॥ प्रव्रजित काल में साधु वंदनीय होता है। वही जब उत्प्रव्रजित होकर अवंदनीय हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे अपने स्थान से च्युत देवता। १९.जया य पूइमो होइ पच्छा होइ अपूइमो। राया व रज्जपब्भट्ठो स पच्छा परितप्पइ॥ प्रव्रजित काल में साधु पूज्य होता है। वही जब उत्प्रवजित होकर अपूज्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे राज्य-भ्रष्ट राजा। २०.जया य माणिमो होइ पच्छा होइ अमाणिमो। सेठिव्व कब्बडे छूढो स पच्छा परितप्पइ॥ प्रव्रजित काल में साधु मान्य होता है। वही जब उत्प्रव्रजित होकर अमान्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे कर्बट (छोटे से गांव) में अवरुद्ध किया हुआ श्रेष्ठी। २१.जया य थेरओ होइ समइक्कंतजोव्वणो। मच्छो व्व गलं गिलित्ता स पच्छा परितप्पइ॥ यौवन के बीत जाने पर जब उत्प्रव्रजित साधु बूढ़ा होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे कांटे को निगलने वाला मत्स्य। २२.जया य कुकुडंबस्स कुतत्तीहिं विहम्मइ। हत्थी व बंधणे बद्धो स पच्छा परितप्पइ॥ उत्प्रव्रजित साधु जब कुटुम्ब की दुश्चिन्ताओं से प्रतिहत होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे बंधन में बंधा हुआ हाथी। २३.पुसदारपरिकिण्णो मोहसंताणसंतओ। पंकोसन्नो जहा नागो स पच्छा परितप्पइ॥ पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परंपरा से परिव्याप्त उत्प्रव्रजित साधु वैसे ही परिताप करता है जैसे पंक में फंसा हुआ हाथी। २४.अन्ज आहं गणी हुंतो भावियप्पा बहुस्सुओ। जई हं रमंतो परियाए सामण्णे जिणदेसिए॥ यदि जिनोपदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) में रमण करता तो आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत गणी होता। २५.देवालोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं। रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो॥ संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते, उनके लिए वही महानरक के समान दुःखद होता है। २६.अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं रयाण परियाए तहारयाणं। . निराओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए॥ संयम में रत मुनियों का सुख देवों के समान प्रबलतम जानकर तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों का दुःख नरक के समान प्रबलतम जानकर पंडित मुनि संयम में ही रमण करे। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४५८ खण्ड-४ २७. धम्माउ भट्ठ सिरिओ-ववेयं जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों, उस घोर विषधर जण्णग्गि विज्झायमिवप्पतेयं।। सर्प की साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही हीलंति णं दुविहियं कुसीला धर्म-भ्रष्ट, चारित्र रूपी श्री से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि दाढद्धियं घोरविसं व नागं॥ की भांति निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील व्यक्ति भी निंदा करते हैं। २८.इहेव धम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेन्जं च पिहुज्जणम्मि। चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेट्ठओगई॥ धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चरित्र का खंडन करने वाला साधु इसी मनुष्य जीवन में अधर्म का आचरण करता है। उसका अयश और अकीर्ति होती है। साधारण लोगों में भी उसका दुर्नाम होता है तथा उसकी अधोगति होती है। २९.भुंजित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविहं कटु असंजमं बहुं। गइंच गच्छे अणभिज्झियं दुहं बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो॥ संयम से भ्रष्ट साधु आवेगपूर्ण चित्त से भोगों को भोगकर, तथाविध प्रचुर असंयम का आसेवन कर, अनिष्ट एवं दुःखपूर्ण गति में जाता है। बार-बार जन्ममरण करने पर भी उसे बोधि सुलभ नहीं होती। ३०.इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो। पलिओवमं झिज्जइ सागरोवम किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं? दुःख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन नारकीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है तो फिर यह मेरा मनोदुःख कितने काल का है। ३१.न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई असासया भोगपिवास जंतुणो। नचे सरीरेण इमेण वेस्सई अविस्सई जीवियपज्जवेण मे॥ यह मेरा दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीवों की भोग पिपासा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर के होते हए न मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो वह अवश्य मिट ही जाएगी। ३२.जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ चएज्ज देहं न हु धम्मसासणं। तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया उवेंतवाया व सुदंसणं गिरिं॥ जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चित (दृढ़ संकल्पयुक्त) होती है-'देह को त्याग देना चाहिए पर धर्म शासन को नहीं छोड़ना चाहिए'-उस दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियां उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार वेग पूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को। ३३.इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं नरो आयं उवायं विविहं वियाणिया। कारण वाया अदु माणसेणं तिगत्तिगत्तो जिणवयणमहिदिठज्जासि॥ बुद्धिमान मनुष्य इस प्रकार सम्यक् आलोचना कर तथा विविध प्रकार के लाभ और उनके साधनों को जानकर तीन गुप्तियों-काय से, वाणी से और मन से गुप्त होकर जिनवाणी का आश्रय ले। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन विविक्तचर्या ३४. अणुसोयपट्ठिए बहुजणम्मि पडिसोयमेव अप्पा ३५. अणुसोयसुहोलोगो अणुसओ संस ३६. तम्हा आयारपरक्कमेण य चरिया गुणा य नियमा य पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥ पडिसोयलद्धलक्खेणं । दायव्वो होउकामेणं ॥ ३७. अणिएयवासो समुयाणचरिया अप्पोवही कलहविज्जणा य ४५९ होति साहूण दट्ठव्वा ॥ अन्नायउंछं पइरिक्कया य। गामे कुले वा नगरे व देसे १८. न पडिण्णवेज्जा सयणासणाई संवरसमाहिबहुलेणं । विहारचरिया इसिणं पसत्था ॥ सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं । १९. गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा • असंकिलिट्ठेहिं समं वसेज्जा मत्तभावं न कहिं चि कुज्जा ॥ अभिवायणं वंदण पूयणं च । मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी ।। : सम्यक्चारित्र अ. ४ : अधिकांश लोग अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे हैं- भोग मार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषयभोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिएविषयानुरक्ति में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए । जन-साधारण को स्रोत के अनुकूल 'चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु जो सुविहित - चारित्र सम्पन्न है उसका प्रतिस्रोत आश्रम - विश्रामस्थल है। अनुस्रोत संसार है - जन्म मरण की परंपरा है और प्रतिस्रोत उसका उतार है - जन्म-मरण का पार पाना है। इसलिए आचार में पराक्रम करने वाले, संवर में प्रभूत समाधि रखने वाले साधुओं को चर्या, गुणों तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए । · अनिकेतवास (गृहवास का त्याग), समुदान चर्या ( अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना, एकांतवास, उपकरणों की अल्पता और कलह का वर्जन - यह विहारचर्या (जीवन-चर्या) ऋषियों के लिए प्रशस्त है। साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा न दिलाए कि वह शयन, आसन, उपाश्रय, स्वाध्याय- भूमि जब मैं लौटकर आऊं तब मुझे ही देना । इसी प्रकार भक्त पान मुझे ही देना - यह प्रतिज्ञा भी न कराए। गांव, कुल, नगर या देश में कहीं भी ममत्व भाव न करे। साधु गृहस्थ का वैयावृत्त्य न करे। अभिवादन, वन्दन और पूजन न करे। मुनि संक्लेश-रहित साधुओं के साथ रहे जिससे कि चरित्र की हानि न हो। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४०. नया लभेज्जा निउणं सहायं एक्को वि पावाइं विवज्जयंतो ४१. संवच्छरं चावि परं पमाणं विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ हवा गुण समं वा । बीयं च वासं न तहिं वसेज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ॥ ४२. जो पुव्वरत्तावररत्तकाले किं मे कडं किं च मे किच्च सेसं ४४. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं ४६० किं सक्कणिज्जं न समायरामि ॥ पिक्खई अप्पगमप्पएणं । ४३. किं मे परो पासइ किं व अप्पा किं वाहं खलियं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो अणागयं नो पडबंध कुज्जा ॥ कारण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा आइओ खिप्पमिवक्खलीणं ॥ ४५. जस्सेरिसा जोग जिइंदियस्स तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी धिइमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । सो जीवइ संजमजीविएणं ॥ ४६. अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो अरक्खिओ जाइपहं उवेइ सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं । सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ खण्ड - ४ यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुणवाला निपुण साथी न मिले तो पाप कर्मों का वर्जन करता हुआ काम-भोगों में अनासक्त रह अकेला ही (संघ स्थित) विहार करे। जिस गांव में मुनि काल के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह चुका हो (वर्षाकाल में चतुर्मास और शेषकाल में एक मास) वहां दो वर्ष (दो चातुर्मास और दो मास) का अंतर किए बिना न रहे। भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग से चले। सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दे वैसे चले। जो साधु रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में अपने आप अपना आलोचन करता है-मैंने क्या किया ? मेरे लिए क्या कार्य करना शेष है ? वह कौन-सा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूं पर प्रमादवश नहीं कर रहा हूं। क्या मेरे प्रमाद को कोई दूसरा देखता है अथवा अपनी भूल को मैं स्वयं ही देख लेता हूं ? ऐसी कौन-सी स्खलना है, जिसे मैं नहीं छोड़ रहा हूं। इस प्रकार सम्यक् रूप से आत्मनिरीक्षण करता हुआ व्यक्ति अनागत का प्रतिबंध न करे - असंयम में न बंधे। जहां कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे तो धीर व्यक्ति वहीं सम्भल जाए। जैसे जातिमान अश्व लगाम को खींचते ही संभल जाता है। जिस जितेन्द्रिय, धृतिमान सत्पुरुष के योग सदा इस प्रकार के होते हैं, उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहा जाता है। जो ऐसा होता है, वही संयमी जीवन जीता है। सब इन्द्रियों को समाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। अरक्षित आत्मा जातिपथ- संसार-चक्र में भ्रमण करता है। सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त जाता है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४६१ अ. ४ : सम्यक्चारित्र साध्वी राजीमती और मुनि रथनेमि १७.गिरिं रेवययं जंती वासेणुल्ला उ अंतरा। साध्वी राजीमती भगवान अरिष्टनेमि को वन्दन करने वासंते अंधयारम्मि अंतो लयणस्स सा ठिया॥ के लिए रैवतक पर्वत (गिरनार) पर जा रही थी। मार्ग में तेज वर्षा होने लगी। सारे वस्त्र भींग गए। चारों ओर अंधेरा छा गया। राजीमती एक गुफा में ठहरी। चीवराई विसारंती जहाजाय त्ति पासिया। राजीमती ने अपने वस्त्र सुखाने के लिए फैलाये। रहनेमी भग्गचित्तो पच्छा दिट्ठो य तीइ वि॥ राजीमती को यथाजात-निर्वस्त्र अवस्था में देख रथनेमि विचलित हो गया। राजीमती ने भी रथनेमि को देख लिया। भीया य सा तहिं दलू एगते संजयं तयं। एकांत में मुनि रथनेमि को देख राजीमती भयभीत बाहाहिं काउं संगोफ वेवमाणी निसीयई। हुई। वह दोनों भुजाओं के गुंफन से वक्ष को ढांक कर कांपती हुई बैठ गई। अह सो वि . रायपुत्तो समुहविजयंगओ। उस समय राजा समुद्रविजय के पुत्र मुनि रथनेमि ने . भीयं पवेवियं दटुं इमं वक्कं उदाहरे॥ राजीमती को भीत और प्रकंपित देखकर वचन कहारहनेमी अहं भहे! सुरूवे! चारुभासिणि! भद्रे! सुरूपे! चारुभाषिणि! सुतनु! मैं रथनेमि हूं। ममं भयाहि सुयणू! न ते पीला भविस्सई॥ तुम मुझे स्वीकार करो। तुम्हें कोई पीड़ा नहीं होगी। एहि ता भुंजिमो. भोए माणुस्सं खु सुदुल्लहं। आओ, हम भोग भोगें। निश्चित ही मनुष्य जीवन भुत्तभोगा तओ पच्छा जिणमग्गं चरिस्सिमो॥ बहुत दुर्लभ है। भोग भोगने के बाद हम मुनि बन जाएंगे। दळूण रहनेमिं तं 'भग्गुज्जोयपराइयं। रथनेमि को संयम में उत्साहहीन और भोगों से राईमई असंभंता अप्पाणं संवरे तहिं॥ पराजित देख राजीमती व्याकुल नहीं हुई उसने वहीं अपने शरीर को वस्त्रों से ढंक लिया। अह सा रायवरकन्ना सुदिठया नियमव्वए। नियम और व्रत में सुस्थित राजकन्या राजीमती ने जाई कुलं च सीलं च रक्खमाणी तयं वए॥ जाति, कुल और शील की रक्षा करते हुए रथनेमि से कहाजइ सि रूवेण वेसमणो ललिएण नलकूबरो। भले तुम रूप से वैश्रमण हो, लालित्य से नलकूबर । वि ते न इच्छामि जइ सि सक्खं पुरंदरो॥ हो. और तो क्या, साक्षात इन्द्र हो तब भी मैं तुम्हारी इच्छा नहीं करती। पक्खदे जलियं जोइं धूमकेउं दुरासयं। अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प प्रज्वलित, विकराल, नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे॥ धूमशिखा वाली अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं। परन्तु जीने के लिए वमन किये हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते। धिरत्थु ते जसोकामी! जो तं जीवियकारणा। ___हे यशःकामिन् ! धिक्कार है तुम्हें, जो तुम क्षणभंगुर वंतं इच्छसि आवेडे सेयं ते मरणं भवे॥ जीवन के लिए वमी (अरिष्टनेमि द्वारा परित्यक्त) वस्तु को पीने की इच्छा करते हो। इससे तो तुम्हारा मरण ही श्रेयस्कर है। अहं च भोयरायस्स तं च सि अंधगवण्हिणो। मैं भोजराज की पुत्री हूं और तुम अंधकवृष्णि के पुत्र मा कुले गंधणा होमो संजमं निहुओ चर॥ हो। हम कुल में गंधन सर्प की भांति न हों। तुम स्थिरमन से संयम का पालन करो। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४६२ खण्ड-४ जइ तं काहिसि भावं जा-जा दच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो अदिठअप्पा भविस्ससि॥ गोवालो भंडवालो वा जहा तहव्वऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि॥ यदि तुम जिस किसी स्त्री को देख उसके प्रति रागभाव करोगे तो वायु से आहत हट-शैवाल की तरह अस्थितात्मा हो जाओगे। गोपाल और भांडपाल जैसे गायों और किराने के स्वामी नहीं होते, इसी प्रकार तुम भी श्रामण्य के स्वामी नहीं रहोगे। साध्वी राजीमती के इन सुभाषित वचनों को सुन रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गए जैसे अंकुश से हाथी। तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ॥ गृहस्थधर्म श्रमणोपासक आनंद ४८.तए णं से आणदे गाहावई समणस्स भगवओ आनंद गृहपति। एक दिन उसने श्रमण भगवान महावीरस्स अंतिए धम्मं । सोच्चा निसम्म महावीर से धर्म सुना। हृदयंगम कर वह हृष्ट हुआ, तुष्ट हठ्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हुआ। मानसिक प्रसन्नता से भरा हुआ वह उठा। श्रमण हरिसवस-विसप्पमाणहियए उठाए उठेइ, भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दनउठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो नमस्कार किया और बोलाआयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीसदहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! मैं निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! मैं निग्रंथ प्रवचन पर प्रतीति करता हूं। रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! निग्रंथ प्रवचन में मेरी रुचि हुई है। अब्भुढेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। भंते! मैं इस निग्रंथ प्रवचन को स्वीकार करने के लिए उपस्थित हूं। एवमेयं भंते! भंते! आपने जो कहा है, वह ऐसी ही है। तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! भंते! वह तथ्यपूर्ण, यथार्थ और असंदिग्ध है। इच्छियमयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! भंते! वह इष्ट और स्वीकार्य है। इच्छियपडिच्छियमेयं भंते!..... जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर- भंते! आपके पास बहुत से राजा, अमात्य, तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेदिठ-सेणावइ- नगररक्षक, सीमावर्ती राजा, मांडलिक राजा, कृषि सत्थवाहप्पभिझ्या मुंडा भवित्ता अगाराओ व्यवसायी, व्यापारी, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि ने अणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंड हो गृहवास छोड़ मुनिधर्म को स्वीकार किया है। मुझ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अहं में वह सामर्थ्य नहीं कि मैं मुंड हो गृहवास छोड़ मुनिधर्म णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खा- स्वीकार करूं। वइयं-दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जिस्सामि। भंते! मैं आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत इस बारह व्रतवाले श्रावक धर्म को अंगीकार करना चाहता हूं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि। देवानुप्रिय! जैसा चाहो, विलंब न करो। . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४६३ श्रमणोपासक के व्रत अहिंसा अणुव्रत ४९. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए थूलयं पाणाइवायं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं-न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा । सत्य अणुव्रत ५०..... थूलयं मुसावायं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं-न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा । अचौर्य अणुव्रत ५१..... थूलयं अदिण्णादाणं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं-न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा । स्वदार संतोष अणुव्रत ५२.....सदारसंतोसीए परिमाणं करेइ- नन्नत्थ एक्काए सिवनंदाए भारियाए अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ । इच्छापरिमाण अणुव्रत ५३..... इच्छापरिमाणं करेमाणे (क) हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाणं करेइ - नन्नत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं निहाणपउत्ताहिं, चउहिं वढि उत्ताहिं, चउहिं पवित्थर - पउत्ताहिं, अवसेसं सव्वं हिरण्णसुवण्णविहिं पच्चक्खाइ । (ख) ...चउप्पयविहिपरिमाणं करेइ- नन्नत्थ चउहिं वहिं दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अवसेसं सव्वं चउप्पयविहिं पच्चक्खाइ । (ग) ... खेत्तवत्थुविहिपरिमाणं करेइ- नन्नत्थ पंचहिं हलसएहिं नियत्तण' - सतिएणं अवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहिं पच्चक्खाइ । हलेणं, अ. ४ : सम्यक्चारित्र गृहपति आनंद श्रमण भगवान महावीर के पास सर्वप्रथम आजीवन स्थूल (संकल्प - पूर्वक) प्राणवध करने का प्रत्याख्यान करता है। उसका स्वरूप स्वयं नहीं करूंगा, दूसरे से नहीं कराऊंगा, मनसा, वाचा, कर्मणा । दूसरे व्रत में वह आजीवन स्थूल (संकल्पूर्वक) असत्य बोलने का प्रत्याख्यान करता है। उसका स्वरूपस्वयं नहीं बोलूंगा, दूसरों से नहीं बुलाऊंगा, मनसा, वाचा, कर्मणा । तीसरे व्रत में वह आजीवन स्थूल (संकल्पपूर्वक) अदत्त वस्तु के ग्रहण का प्रत्याख्यान करता है। उसका स्वरूप - स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों से ग्रहण नहीं कराऊंगा, मनसा, वाचा, कर्मणा । चतुर्थ व्रत में वह अपनी पत्नी के सिवाय अन्य किसी के साथ मैथुन सेवन करने का प्रत्याख्यान करता है। पांचवें व्रत में वह इच्छाओं का परिमाण करता है। (क) हिरण्य - सुवर्ण विधि का परिमाण करता है - चार करोड़ हिरण्यं (मुद्राएं) खजाने में, चार करोड़ हिरण्य ब्याज में, चार करोड़ हिरण्य कृषिव्यवसाय में प्रयुक्त करने के सिवाय शेष सब हिरण्य और सुवर्ण का प्रत्याख्यान करता है। (ख) चतुष्पद - गौ आदि पशुओं का परिमाण करता है - दस-दस हजार गायों का एक व्रज, ऐसे चार ब्रजों को छोड़कर शेष सब पशुओं को रखने का प्रत्याख्यान करता है। (ग) क्षेत्र (खेत की भूमि, खुली भूमि), वास्तु (घर) आदि का परिमाण करता है - सौ निवर्तन का एक हल, ऐसे पांच सौ हलों के अतिरिक्त शेष क्षेत्र और वास्तु का प्रत्याख्यान करता है। १. निवर्तन-चार बद्धमुष्टि हाथ का एक दंड, दस दंड का एक रज्जु और तीन रज्जु का एक निवर्तन होता है। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४६४ खण्ड-४ (घ) ....सगडविहिपरिमाणं करेइ-नन्नत्थ पंचहिं (घ) बैलगाड़ी का परिमाण करता है-पांच सौ सगडसएहिं दिसायत्तिएहिं, पंचहिं सगडसएहिं दिशायात्रिक (यातायात के काम आने वाले) शकट एवं संवहणिएहिं, अवसेसं सव्वं सगडविहिं। पांच सौ भार ढोने के काम आने वाले शकटों को छोड़कर पच्चक्खाइ। शेष सबका प्रत्याख्यान करता है। . (ड) ....वाहणविहिपरिमाणं करेइ-नन्नत्थ चउहिं (ड) चार दिशायात्रिक वाहन और चार भार ढोने वाहणेहिं दिसायत्तिएहिं, चउहिं वाहणेहिं वाले वाहनों को छोड़कर शेष सब वाहनों का प्रत्याख्यान संवहणिएहिं, अवसेसं सव्वं वाहणविहिं करता है। पच्चक्खाइ। दिखत ५४. दिसिवए तिविहे पण्णत्ते-उड्ढदिसिविसए, अहोदिसिविसए, तिरियदिसिविसए। दिव्रत के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं-ऊर्ध्वदिव्रत, अधोदिखत, तिर्यकदिखत। आनंद इन तीनों दिशाओं में जाने का परिमाण करता है। उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रत ५५.....उवभोग-परिभोगविहिं पच्चक्खायमाणे (क) नन्नत्थ एगाए गंधकासाईए अवसेसं सव्वं उल्लणियाविहिं पच्चक्खाइ। (ख) .......नन्नत्थ एगेणं अल्ललट्ठीमहुएणं, अवसेसं सव्वं दंतवणविहिं पच्चक्खाइ। (ग) ......नन्नत्थ एगेणं खीरामलएणं, अवसेसं सव्वं फलविहिं पच्चक्खाइ। . (घ) ....नन्नत्थ सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं, अवसेसं सव्वं अन्भंगणविहिं पच्चक्खाइ। (ड) ......नन्नत्थ एगेणं सुरभिणा गंधट्टएणं, अवसेसं सव्वं उव्वट्टणाविहिं पच्चक्खाइ। (च) ....नन्नत्थ अट्ठहिं उटिएहिं उदगस्स घडेहिं, अवसेसं सव्वं मज्जणविहिं पच्चक्खाइ। (छ) ....नन्नत्थ एगेणं खोमजुयलेणं, अवसेसं सव्वं वत्थविहिं पच्चक्खाइ। आनंद अपने व्यक्तिगत उपभोग-परिभोग के प्रकारों का प्रत्याख्यान करता है (क) उल्लणियाविधि-एक गंधकाषायिक (अंगोछे) को छोड़कर शेष सबका प्रत्याख्यान करता है। (ख) दंतवनविधि-एक हरी मुलेठी की लकड़ी को छोड़कर शेष सब दतौन का प्रत्याख्यान करता है। (ग) फलविधि-मधुर आंवले को छोड़कर शेष सब फल प्रकारों का स्नान के लिए काम में लेने का प्रत्याख्यान करता है। (घ) अभ्यंगनविधि-शतपाक, 'सहस्रपाक तैल को छोड़कर शेष सब अभ्यंग तैलों का प्रत्याख्यान करता है। (ड) उद्वर्तनविधि-सुरभित गंधचूर्ण को छोड़कर शेष सब उबटन का प्रत्याख्यान करता है। (च) मज्जनविधि-जल के आठ घड़ों को छोड़कर अतिरिक्त जल से स्नान करने का प्रत्याख्यान करता है। (छ) वस्त्रविधि-एक सूती वस्त्र का जोड़ा (उत्तरीय और अधोवस्त्र) को छोड़कर शेष सब वस्त्रों का प्रत्याख्यान करता है। (ज) विलेपनविधि-अगरू, कुंकुम और चन्दन के अतिरिक्त शेष सब विलेपनों का प्रत्याख्यान करता है। (झ) पुष्पविधि-एक शुद्ध पद्म और मालती के फूलों की माला को छोड़कर शेष सब फूलों का प्रत्याख्यान करता है। (ज) ....नन्नत्थ अगरु-कुंकुम-चंदणमादिएहिं, अवसेसं सव्वं विलेवणविहिं पच्चक्खाइ। (झ) ....नन्नत्थ एगेणं सुद्धपउमेणं मालइकुसुमदामेण वा, अवसेसं सव्वं पुप्फविहिं पच्चक्खाइ। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४६५ अ. ४ : सम्यक्चारित्र (अ) ....नन्नत्थ मट्टकण्णेज्जएहिं नाममुहाए य, (अ) आभरणविधि-कानों के कुंडल और नामांकित अवसेसं सव्वं आभरणविहिं पच्चक्खाइ। मुद्रिका को छोड़कर शेष सब आभरणों का प्रत्याख्यान करता है। (ट) ....नन्नत्थ अगरु-तुरुक्क-धूवमादिएहिं, (ट) धूपनविधि-अगरू, तुरुक्क के अतिरिक्त शेष अवसेसं सव्वं धूवणविहिं पच्चक्खाइ। सब धूपन खेने का प्रत्याख्यान करता है। .....भोयणविहिपरिमाण करेमाणे भोजनविधि का परिमाण(क) ....नन्नत्थ एगाए कट्टपेज्जाए, अवसेसं (क) काष्ठपेय-मूंग आदि के जूस को छोड़कर शेष सव्वं पेज्जविहिं पच्चक्खाइ। पेय का प्रत्याख्यान करता है। (ख) ....नन्नत्थ एगेहिं घयपुण्णेहिं खंडखज्जएहिं (ख) घेवर और खंडखाद्य (पेठा आदि) को छोड़कर वा, अवसेसं सव्वं भक्खविहिं पच्चक्खाइ। शेष भक्ष्य का प्रत्याख्यान करता है। (ग) ....नन्नत्थ कलमसालिओदणेणं, अवसेसं (ग) कलमी चावल को छोड़कर शेष सब ओदन का सव्वं ओदणविहिंपच्चक्खाइ। . प्रत्याख्यान करता है। (घ) ....नन्नत्थ कलायसूत्रेण वा मुग्गसूवेण वा (घ) मसूर का सूप, मूंग का सूप और उड़द का सूप माससूवेण वा, अवसेसं सव्वं सूवविहिं इनको छोड़कर शेष सब सूप प्रकारों का प्रत्याख्यान पच्चक्खाइ। करता है। (ड) ....नन्नत्थ सारदिएणं गोघयमंडेण, अवसेसं (ड) शरद ऋतु के गोघृत को छोड़कर शेष सब घृतों सव्वं घयविहिं पच्चक्खाइ। . का प्रत्याख्यान करता है। (च) ....नन्नत्थ वत्थुसाएण वा तुंबसाएण वा (च) बथुआ, घीया, शितिवार (सुत्थिय) और सुत्थियसाएण वा मंडुक्कियसाएण वा, अवसेसं मंडूकपर्णी (ब्राह्मी) को छोड़कर शेष सब शाकों का सव्वं सागविहिं पच्चक्खाइ। प्रत्याख्यान करता है। .. (छ) ....नन्नत्थ एगेणं पालंकामाहुरएणं, अक्सेसं (छ) पालक के अतिरिक्त शेष सब मधुरक का सव्वं माहुरयविहिं पच्चक्खाइ। प्रत्याख्यान करता है। (ज) ....नन्नत्थ सेहंबदालियबेहिं, अवसेसं सव्वं (ज) दही-बड़े और कांजी, बड़े के अतिरिक्त अन्य ...तेमणविहिं पच्चक्खाइ। तेमन (व्यंजन) का प्रत्याख्यान करता है। (झ) ....नन्नत्थ एगेणं अंतलिक्खोदएणं, अवसेसं (झ) वर्षा के पानी को छोड़कर शेष सब पानी का सव्वं पाणियविहिं पच्चक्खाइ। प्रत्याख्यान करता है। (अ) ....नन्नत्थ पंच सोगंधिएण' तंबोलेणं, अव- (अ) पंच सुगंधि युक्त तंबोल को छोड़कर शेष सब सेसं सव्वं मुहवासविहिं पच्चक्खाइ। मुखवास का प्रत्याख्यान करता है। अनर्थदंडविरमण व्रत ५६.चउन्विहं अणट्ठादंड पच्चक्खाइ. तं जहा वह चार प्रकार के अनर्थदंड का प्रत्याख्यान करता १. अवज्झाणाचरितं। १. अपध्यानाचरित-आर्त-ध्यान, रौद्र-ध्यानयुक्त प्रवृत्ति। १. इलायची, लवंग, कपूर, कंकोल और जेवंतरी। २.कर्तव्यनिर्वाह, अर्थ और काम के अतिरिक्त निष्प्रयोजन की जाने वाली हिंसा अनर्थदंड कहलाती है। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २. पमायाचरितं । ३. हिंसप्पयाणं । ४. पावकम्मोवदेसे। सामायिक व्रत ५७. सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च । देशावकाशिक व्रत ५८. दिसिव्वयगहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणं परिमाणकरणं देसावगासियं । पौषधोपवास व्रत ५९. पोसहोववासे चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा१. आहारपोसहे । २. सरीरसक्कारपोसहे । ३. बंभचेरपोसहे । ४. अब्बावारपोसहे। अतिथिसंविभाग व्रत ६०. अतिि अन्नपाणाईणं संजयाणं दाणं । ४६६ संविभागो नाम..... कप्पणिज्जाणं दव्वाणं.... आयाणुग्गहबुद्धीए संलेखना ६१. अपच्छिमा मारणंतिया-संलेहणाझूसणाराहणया । ६२. एअस्स पुणो समणोवासगधम्मस्स मूलवत्युं सम्मत्तं । सम्यक्त्व के अतिचार - ६३. आणंदाइ ! समणे भगवं महावीरे आणंद समणोवासगं एवं बयासी एवं खलु आणंदा! समणोवासरणं अभिगयजीवाजीवेणं.. अभिगयजीवाजीवेणं...पंच अतियारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा २. प्रमादाचरित -प्रमादपूर्ण प्रवृत्ति । ३. हिंस्रप्रदान- शस्त्र देना । ४. पापकर्मोपदेश - हिंसा का प्रशिक्षण देना । सामायिक का अर्थ है - सावद्य प्रवृत्ति का वर्जन करना और निरवद्य प्रवृत्ति का आसेवन करना । आनंद सामायिक व्रत को स्वीकार करता है। खण्ड-१ दिशाव्रत में दिशा में जाने का जो परिमाण किया है, उसका प्रतिदिन संकोच करना देशावकाशिक व्रत है। आनंद देशावकाशिक व्रत को स्वीकार करता है। पौषधोपवास व्रत के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. आहार का पौषध २. शरीर सत्कार का पौषध ३. ब्रह्मचर्य पौषध ४. प्रवृत्ति - वर्जन रूप पौषध । आनंद पौषधोपवास व्रत को स्वीकार करता है। श्रमणोपासक व्रत के अतिचार यथासंविभाग (अतिथि संविभाग) का अर्थ है संयमी मुनि को आत्मानुग्रह की बुद्धि से कल्पनीय आहार, पानी आदि द्रव्य देना। आनंद यथासंविभाग व्रत को स्वीकार करता है। मारणांतिक संलेखना की आराधना । इस श्रमणोपासक धर्म का मूल तत्त्व है - सम्यक्त्व । श्रमण भगवान महावीर ने आनंद को संबोधन कर कहा - आनंद! जीव अजीव को जानने वाले श्रमणोपासक को सम्यक्त्व उपलब्ध होता है उसके पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं है - Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४६७ अ. ४ : सम्यक्चारित्र १.संका २. कंखा ३. वितिगिच्छा ४. परपासंडपसंसा १. शंका-तत्त्व के विषय में संदेह करना। २. कांक्षा-प्रदर्शन आदि से प्रभावित होकर कुमत को स्वीकार करने की इच्छा करना। ३. विचिकित्सा-धर्म के फल में संदेह करना। ४. परपाषंडप्रशंसा-परपाषंड-एकांतवादी मतों की प्रशंसा करना। ५. परपाषंडंसंस्तव-परपाषंड-एकांतवादी मतों से संपर्क रखना। ५. परपासंडसंथवो। अहिंसा अणुव्रत के अतिचार ६४....थूलयस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा.. १. बंधे श्रमणोपासक के लिए स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं २. वहे . ३. छविच्छेदे . ४. अतिभारे ५. भत्तपाणवोच्छेदे। १. बंध-मनुष्य, पशु आदि को गाढ बंधन से बांधना। २. वध-लाठी आदि से प्रहार करना। ३. छविच्छेद-अंग-भंग करना। ४. अतिभार-अतिभार लादना। ५. भक्तपानव्यवच्छेद-भोजन पानी (आजीविका) का विच्छेद करना। सत्य अणुव्रत के अतिचार ६५....थूलयस्स मुसावायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा... १. सहसाभक्खाणे श्रमणोपासक के लिए स्थूल मृषावाद विरमणव्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं २. रहस्सब्भक्खाणे ३. सदारमंतभोए १. सहसाभ्याख्यान-बिना सोचे-समझे अकस्मात् किसी पर आरोप लगाना। २. रहसाभ्याख्यान-रहस्यपूर्ण वृत्त के आधार पर आरोप लगाना। ३. स्वदारमंत्रभेद-अपनी पत्नी के रहस्य को प्रकट करना। ४. मृषोपदेश-गलत पथदर्शन करना। ५. कूटलेखकरण-जाली हस्ताक्षर और दस्तावेज तैयार करना। . . .. ४. मोसोवएसे ५. कूडलेहकरणे। अचौर्य अणुव्रत के अतिचार ६६.....थूलयस्स अदिण्णादाणवेरमणस्स समणो- वासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा१. तेणाहडे श्रमणोपासक के लिए स्थूल अदत्तादानविरमणव्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. स्तेनाहृत-चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु लेना। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४६८ खण्ड-१ २. तक्करप्पओगे २. तस्करप्रयोग-चोरी करने में सहयोग देना। ३. विरुद्धरज्जातिक्कमे ३. विरुद्धराज्यातिक्रम-राज्यनिषिद्ध वस्तुओं का आयात-निर्यात करना। ४. कूडतुल-कूडमाणे ४. कूटतोल-कूटमान-झूठा तोल-माप करना। ५. तप्पडिरूवगववहारे। ५. तत्प्रतिरूपक व्यवहार-असली वस्तु के स्थान पर नकली वस्तु देना। स्वदारसंतोष व्रत के अतिचार ६७.....सदार'-संतोसीए समणोवासएणं पंच श्रमणोपासक के लिए स्वदारसंतोषव्रत के पांच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा. तं जहा- अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं१. इत्तरियपरिग्गहियागमणे १. इत्वरिकपरिगृहीतागमन-परस्त्रीगमन करना। २. अपरिग्गहियागमणे २. अपरिगृहीतागमन वेश्यागमन करना। ३. अणंगकिड्डा ३. अनंगक्रीड़ा-अप्राकृतिक मैथुन सेवन करना। . ४. परवीवाहकरणे ४. परविवाहकरण-व्यावसायिक वृत्ति से विवाह संबंध जोड़ना। ५. कामभोगे तिव्वाभिलासे।' ५. कामभोगतीव्राभिलाषा-काम-भोग की तीव्र इच्छा करना। इच्छापरिमाण व्रत के अतिचार ६८.....इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पंच श्रमणोपासक के लिए इच्छापरिमाणव्रत के पांच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा- अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं१. खेत्तवत्थुपमाणातिक्कमे १. क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिरेक-खेत और घर के प्रमाण का अतिक्रमण करना। २. हिरण्णसुवण्णपमाणातिक्कमे २. हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिरेक-हिरण्य और सुवर्ण के प्रमाण का अतिक्रमण करना। ३. धणधण्णपमाणातिक्कमे ३. धनधान्यप्रमाणातिरेक-धन और धान्य के प्रमाण का अतिक्रमण करना। ४. दुप्पयचउप्पयमाणातिक्कमे ४. द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिरेक-नौकर, पक्षी, पशु आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना। . ५. कुवियपमाणातिक्कमे। ५. कुप्यप्रमाणातिरेक-गृहसामग्री के प्रमाण का अतिक्रमण करना। दिव्रत के अतिचार ६९.....दिसिवयस्स समणोवासएणं पंच अतियारा श्रमणोपासक के लिए दिव्रत के पांच अतिचार जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं१. उड्ढदिसिपमाणातिक्कमे। १. ऊर्ध्वदिशा के परिमाण का अतिक्रमण। २. अहोदिसिपमाणातिक्कमे। २. अधोदिशा के परिमाण का अतिक्रमण। . ३. तिरियदिसिपमाणातिक्कमे। ३. तिर्यदिशा के परिमाण का अतिक्रमण। ४. खेत्तवुड्ढी। ४. एक दिशा का परिमाण घटाकर, दूसरी दिशा के १. प्रस्तुत संदर्भ में जहां स्त्री का प्रसंग हो, वहां पुरुष को ग्रहण करना चाहिए। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५. सतिअंतरद्धा । उपभोग - परिभोग- परिमाण व्रत के अतिचार ७०..... उवभोग - परिभोग दुविहे पण्णत्ते, तं जहा अतियारा भोयणओ कम्मओ य । पंच भोयणओ समणोवासएणं जाणिव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा१. सचित्ताहारे । २. सचित्तपडिबद्धाहारे । ३. अप्पउलिओसहिभक्खणया । ४. दुप्पउलिओसहिभक्खणया । ५. तुच्छोसहिभक्खणया । कर्मादान ७१. कम्मओ णं समणोवासएणं पण्णरस कम्मादाणाई जाणियव्वाइं न समायरियव्वाइं तं जहा १. इंगालकम्मे २. वणकम्मे ३. साडीकम् ४. भाडीकम् ५. फोडीकम्मे ६. दंतवाणिज्जे ७. लक्खवाणिज्जे ८. रसवाणिज्जे ९. विसवाणिज्जे १०. केसवाणिज्जे ४६९ ११. जंतपीलणकम्मे १२. निल्लंछणकम्मे १३. दवग्गिदावणया १४. सरदहतलागपरिसोसणया १५. असतीजणपोसणया । परिमाण का विस्तार करना । अ. ४ : सम्यक्चारित्र ५. दिशा के परिमाण की विस्मृति । उपभोग - परिभोग के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं- भोजन और कर्म । भोजन की अपेक्षा श्रमणोपासक के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. प्रत्याख्यान के उपरांत सचित्त वस्तु का आहार करना । २. प्रत्याख्यान के उपरांत सचित्त प्रतिबद्ध वस्तु का आहार करना। कर्म । ३. अपक्व धान्य का आहार करना। ४. अर्द्धपक्व धान्य का आहार करना । ५. असार धान्य का आहार करना । कर्म की अपेक्षा श्रमणोपासक के पन्द्रह कर्मादान ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. अंगारकर्म - अग्नि के महारंभ वाला उद्योग । २. वनकर्म - वन कटाने का उद्योग । ३. शाकटकर्म - वाहन का उद्योग । ४. भाटककर्म - वाहन के द्वारा माल ढोने का उद्योग । ५. स्फोटकर्म - खदान से खनिज निकालने का उद्योग । ६. दंतवाणिज्य - हाथी दांत आदि का व्यवसाय । ७. लाक्षावाणिज्य - लाखा का व्यवसाय । ८. रसवाणिज्य - शराब आदि का व्यवसाय | ९. विषवाणिज्य - विष का व्यवसाय । १०. केशवाणिज्य - भेड़ आदि के पालन का व्यवसाय । ११. यंत्रपीलन- कोल्हू चलाने का उद्योग । १२. निलांछनकर्म - बैल आदि को नपुंसक बनाने का १३. दवाग्निदानता–जंगलों को जलाना । १४. सरद्रहतडागशोषण - जलाशयों को सुखाना । १५. असतीजनपोषण-मुर्गीपालन तथा हिंस्रप्राणियों का पोषण । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४७० • खण्ड-१ अनर्थदंडविरमण व्रत के अतिचार ७२.....अणट्ठादंडवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा तं जहा१.कंदप्पे। २. कुक्कुइए। श्रमणोपासक के लिए अनर्थदंडविरमण व्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. कंदर्प-कामोद्दीपक क्रियाएं। २. कौत्कुच्य-भांड-चेष्टा-भांड की भांति चेष्टा करना, हसोड़ प्रवृत्तियां ३. मौखर्य-वाचालता। ४. संयुक्ताधिकरण-शस्त्रों के पुर्जे तैयार करना एवं उनका संयोजन करना। ५. उपभोग-पारिभोगातिरेक-सीमा से अतिरिक्त उपभोग-परिभोग करना। ३. मोहरिए। ४. संजुत्ताहिकरणे। ५. उवभोगपरिभोगातिरित्ते। सामायिक व्रत के अतिचार ७३......सामाइयस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा१. मणदुप्पणिहाणे। २. वइदुप्पणिहाणे। ३. कायदुप्पणिहाणे। ४. सामाइयस्स सतिअकरणया। ५. सामाझ्यस्स अणवट्ठियस्स करणया। श्रमणोपासक के लिए सामायिक व्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. मन की असम्यक् प्रवृत्ति। २. वचन की असम्यक् प्रवृत्ति। ३. शरीर की असम्यक् प्रवृत्ति। ४. सामायिक की विस्मृति। ५. नियत समय से पहले सामायिक को सम्पन्न करना। देशावकाशिक व्रत के अतिचार ७४.देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा१. आणवणप्पओगे। २. पेसणवणप्पओगे। श्रमणोपासक के लिए देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. आनयनप्रयोग-दिव्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर की वस्तु मांगना। २. प्रेष्यप्रयोग-दिग्वत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर की वस्तु मंगाने के लिए प्रेष्य को भेजना। ३. शब्दानुपात-दिव्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर शब्द कर कार्य करवाना। ४. रूपानुपात-दिव्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो. उससे बाहर अंगुली आदि का संकेत कर कार्य करवाना। ५. बहिर्युद्गलप्रक्षेप-दिग्व्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर किसी वस्तु को फेंककर कार्य करवाना। ३. सहाणुवाए। ४. रूवाणुवाए। ५. बहियापोग्गलपक्खेवे। १. जो दिग्व्रत स्वीकार किया है, उसका अल्पकालिक संक्षेपीकरण देशावकाशिक व्रत है अथवा पूर्ववर्ती व्रतों की अल्पकाल के लिए और अधिक मर्यादा करना देशावकाशिक व्रत है। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन पौषधोपवास व्रत के अतिचार ७५. पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा १. अप्पडिलेहिय - दुप्पडिलेहिय-सिज्जासंथारे। २. अप्पमज्जिय- दुप्पमज्जिय-सिज्जासंथारे। ३. अप्पडिलेहिय- दुप्पडिलेहिय-उच्चारपासवणभूमी । 8. अप्पमज्जिय- दुप्पमज्जिय-उच्चारपासवण भूमी । ५. पोसहोववासस्स सम्मं अणणुपालणया । यथासंविभाग व्रत के अतिचार ७६..... अहासंविभागस्स पंच समणोवासणं अतियारा जाणिवव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा १. सचित्तनिक्खेवणया । २. सचित्तपिहणया । ३. कालातिक्कमे । ४. परववदेसे। ४७१ ५. मच्छरियया । संलेखना के अतिचार ७७. अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाराहणाए पंच अतियारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा १. इहलोगासंसप्पओगे । २. परलोगासंसप्पओगे । ३. जीवियासंसप्पओगे । ४. मरणासंसप्पओगे । ५. कामभोगासंसप्पओगे । मानंद की धर्मजागरिका ७८. तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स च्चावएहिं सीलव्वय-गुण- वेरमणपच्चक्खाण अ. ४ : सम्यक् चारित्र श्रमणोपासक के लिए पौषधोपवास व्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. स्थान और बिछौने का प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । २. स्थान और बिछौने का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । ३. उच्चार- प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । ४. उच्चार- प्रस्रवण भूमि का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना । ५. पौषधव्रत का सम्यक् प्रकार से पालन न करना । श्रमणोपासक के लिए यथासंविभाग व्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. मुनि के लिए ग्रहणीय वस्तु को सचित्त वस्तु के ऊपर रखना। २. मुनि के लिए ग्रहणीय वस्तु को सचित्त वस्तु से ढकना । ३. भिक्षा के काल का अतिक्रमण करना । ४. अपनी वस्तु न देने की भावना से दूसरों की बतलाना । ५. दूसरे को दान देते देखकर प्रतिस्पर्धात्मक भाव से दान देना । मारणांतिक संलेखना व्रत के पांच अतिचार ज्ञातव्य हैं, आचरणीय नहीं हैं १. इहलोक संबंधी सुखों की अभिलाषा । २. परलोक संबंधी सुखों की अभिलाषा । ३. जीने की आकांक्षा । ४. मरने की आकांक्षा । ५. काम - भोग की आकांक्षा । श्रमणोपासक आनंद अल्पाधिक मात्रा में शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४७२ खण्ड-४ पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणस्स चोइस अपने आपको भावित कर रहा था। इस प्रकार चौदह वर्ष संवच्छराइं वीइक्कंताई। पण्णरसमस्स। बीत गए। पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था। एक बार मध्यरात्रि संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अण्णदा कदाइ के समय धर्मजागरिका करते हुए उसे मानसिक संकल्प पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागर- उत्पन्न हुआ-इस वाणिज्यग्राम नगर में राजा, अमात्य, माणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए नगररक्षक, सीमावर्ती राजा, श्रेष्ठी, सेनापति और मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं सार्थवाह सभी लोग अनेक कार्य, कारणों, समस्याओं, वाणियगामे नयरे बहूणं राईसर-तलवर-माडंबिय- गुह्यवार्ताओं, मंत्रणाओं तथा नैश्चयिक और व्यावहारिक कोडुंबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थ-वाहाणं बहूसु । प्रसंगों में मुझे पूछते हैं, मेरा परामर्श लेते हैं, अपने कुटुंब कज्जेसु य कारणेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु में भी मैं मेढी (खलिहान का खंभा) प्रमाण, आधार, य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य । आलंबन और चक्षु हूं। इस विक्षेप के कारण मैं श्रमण आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं भगवान महावीर के पास स्वीकृत धर्मप्रज्ञप्ति की आराधना कुडंबस्स मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, नहीं कर सकता। मेढीभूए पमाणभूए, आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए सव्वकज्जवड्ढावए तं एतेणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। तं सेयं खलु ममं कल्लं.......विपुलं असण-पाण- मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल ही विपुल अशनखाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइ-नियग- पान-खाद्य-स्वाद्य रूप भोजन सामग्री तैयार करवाऊं, सयण-संबंधिपरिजणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ- मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, संबंधियों और कुटुंबिकों को नियग-सयण-संबंधि-परिजणं विपुलेणं असण- भोजन के लिए आमंत्रित करूं, उन्हें प्रीतिदान देकर पाण-खाइम-साइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य । सम्मानित करूं तथा उनके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र को सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग- कुटुम्ब के प्रमुख रूप में स्थापित कर कोलाग सन्निवेश में सयण-संबंधि-परिजणस्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुडंबे ज्ञात या नागकुल की पौषधशाला का प्रतिलेखन कर' ठवेत्ता तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं श्रमण भगवान महावीर के पास स्वीकृत धर्मप्रज्ञप्ति की जेठ्ठपुत्तं च आपुच्छित्ता, कोल्लाए सण्णिवेसे आराधना करूं। नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपन्जित्ता णं विहरित्तए-एवं संपेहेइ...... ७९.तए णं से आणदे समणोवासए तस्सेव मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि-परिजणस्स पुरओ जेठपुत्तं कुटुंबं ठावेति, ठावेत्ता एवं वयासी-मा णं देवाणुप्पिया! तुब्भे अज्जप्पभिई केइ ममं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुडुंबेसु य गुज्झेसु य निच्छाएसु य ववहारेसु य आपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेउ वा उवक्करेउ वा। दूसरे दिन अपने इस चिंतन की क्रियान्विति करते हुए श्रमणोपासक आनंद ने मित्रों आदि के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब-प्रमुख के रूप में स्थापित किया और कहादेवानुप्रिय आज के बाद तुम किसी भी कार्य, कारण, समस्या, गुप्तवार्ता, मंत्रणा, नैश्चयिक और व्यावहारिक किसी भी प्रसंग में मुझे मत पूछना। मेरा परामर्श मत लेना और मेरे लिए अशन-पान आदि किसी प्रकार की भोजन सामग्री भी तैयार मत करना। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४७३ ८०. तए णं से आणदे समणोवासए जेठपुत्तं मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि - परिजणं च आपुच्छर, आपुच्छित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वाणियगामं नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लाए सण्णिवेसे, जेणेव नायकुले, जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चार- पासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारयं संथरेइ, संथरेत्ता दब्भसंधारयं दुरुहइ, दुरुहित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणि-सुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे. निक्खित्त - सत्थमुसले एगे अबीए दम्भ - संथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । आनंद द्वारा प्रतिमाओं का स्वीकरण ८९. तए णं से आणंदे समणोवासए पढमं उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरं । ८२. तए णं से आणदे समणोवासए पढमं उवासगपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ कित्तेइ आराहे । ८३. तए णं आणंदे समणोवासए दोच्चं उवासगपडिमं, एवं तच्चं चउत्थं, पंचमं, छट्ठ, सत्तमं, अट्ठमं, नवमं, दसमं, एक्कारसमं उवास पडिमं अहासुतं अहाकप्पं.. आराहेइ । ८४. तए णं से आणदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणदे किडकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए। तीन जागरिका ८५. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी - मा णं अज्जो! तुब्भे संखं अ. ४ : सम्यक् चारित्र श्रमणोपासक आनंद ने ज्येष्ठपुत्र और मित्रों आदि की अनुमति प्राप्त की। अपने घर से अभिनिष्क्रमण किया । वाणिज्यग्राम नगर के मध्य से होता हुआ कोलागसन्निवेश में ज्ञात या नागकुल की पौषधशाला में आया। पौषधशाला का प्रमार्जन किया, उच्चार- प्रस्रवणभूमि का प्रतिलेखन किया । दर्भ का बिछौना किया। उस पर बैठकर पौषधव्रत स्वीकार करते हुए ब्रह्मचर्य की साधना का संकल्प किया। मणि-स्वर्ण का परित्याग किया। मालावर्ण-विलेपन आदि का उपयोग न करने की प्रतिज्ञा की। शस्त्र, मूसल आदि का प्रयोग छोड़ा। अकेला और अद्वितीय बनकर श्रमण महावीर के पास स्वीकृत धर्मप्रज्ञप्ति की आराधना करने लगा। श्रमणोपासक आनंद ने पहली उपासक प्रतिमा स्वीकार की। प्रथम उपासक प्रतिमा स्वीकार कर यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातथ्य, सम्यक् प्रकार से काया से आचरण, पालन, शोधन, पूर्णकीर्तन और पालन करने लगा । श्रमणोपासक आनंद इसी प्रकार दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं एवं ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा का यथासूत्र, यथाकल्प आराधन करने लगा। इस प्रकार के उदार, विपुल, संयत और स्वीकृत तपःकर्म के कारण श्रमणोपासक आनंद का शरीर सूखा रूखा और मांसरहित हो गया। हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया। चलते समय हड्डियां कट कट बोलने लगीं। कृश हो गया। धमनियों का जाल मात्र रह गया। पोक्खली आदि श्रावकों ने शंख श्रावक की अवहेलना की तब श्रमण भगवान महावीर ने कहा- हे आर्यो ! तुम Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन समणोवासगं हीलह निदंह खिंसह गरहह अवमण्णह । संखेणं समणोवासए पियधम्मे चेव, दढधम्मे चेव, सुदक्खु जागरियं जागरिए । ८६. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - कतिविहा णं भंते! जागरिया पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्णत्ता, तं जहा १. बुद्धजागरिया २. अबुद्धजागरिया ३. सुदक्खुजागरिया । ८७. से केणट्ठेणं भंते!. गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णनाणदंसणधरा सव्वण्णू सव्वदरिसी एएणं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति । भगवंतो.....मणसमिया ८८. जे इमे अणगारा वइसमिया कायसमिया मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता.... एए णं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति । ८९. जे इमे समणोवासगा अभिगय-जीवाजीवा .... एए णं सुदक्खुजागरियं जागरंति । ९०. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा...... जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, वंदंति, नमंसंति, वंदित्ता नमसित्ता एयमठं सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेंति । ४७४ श्रमणोपासक का स्वरूप ९१. • अभिगयजीवाजीवा • उवलद्वपुण्णपावा । • आसव संवर-निज्जर- किरिया अहिगरणबंधमोक्खकुसला । खण्ड - ४ श्रमणोपासक शंख की अवहेलना मत करो। निंदा मत करो । तिरस्कार मत करो। गर्हा और अवमानना मत करो। शंख श्रमणोपासक प्रियधर्मा है, दृढधर्मा है और सुदक्खु जागरिका – सम्यक् द्रष्टा की जागरिका में जागृत है। गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना की, नमस्कार किया और बोले- भंते! जागरिका कितने प्रकार की होती है ? गौतम! जागरिका के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. बुद्ध जागरिका । २. अबुद्ध जागरिका । ३. सुदक्खु जागरिका । भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? गौतम ! जो अर्हत् भगवान उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे बुद्ध हैं। उनकी जागरिका बुद्ध जागरिका है। जो अनगार भगवान मन, वचन, काया से समित और गुप्त हैं, वे अबुद्ध हैं। उनकी जागरिका अबुद्ध जागरिका है। जो श्रमणोपासक जीव और अंजीव के ज्ञाता उनकी जागरिका सुदक्खु जागरिका है। पोक्खली आदि श्रमणोपासक श्रमण भगवान महावीर से यह सुनकर शंख श्रमणोपासक के पास आए। वंदननमस्कार किया और अपने अविनय के लिए बार-बार क्षमा मांगी। • जीव और अजीव के ज्ञाता । • पुण्य और पाप के मर्मज्ञ । • आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के विषय में कुशल | Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ अ. ४ : सम्यक्चारित्र प्रायोगिक दर्शन • असहेज्जा। • सत्य के प्रति निश्चल-विपत्ति के क्षणों में भी किसी दिव्य शक्ति के सहयोग की अपेक्षा न रखने वाले। • देवगणों द्वारा निग्रंथ प्रवचन से अविचलनीय। • देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा। • निग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया निवितिगिच्छा। • विणिच्छियट्ठा। • अद्विमिंजपेमाणुरागरत्ता। • चाउद्दसट्ठमुहिठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेत्ता। . . फासुएसणिज्जेणं असण-पाण....विहरंति। • अप्पिच्छा। • अप्पारंभा। • अप्पपरिग्गहा। • धम्मिया। : • धम्माणुया। • धम्मिट्ठा। .धम्मक्खाई। धम्मप्पलोई। .धम्मपलज्जणा। .धम्मसमुदायारा। धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा। • सुसीला। .सुव्वया। • सुप्पडियाणंदा। • निग्रंथ प्रवचन में शंका रहित, कांक्षा रहित, विचिकित्सा रहित। • यथार्थ का निश्चय करने वाले। .निग्रंथ प्रवचन में प्रेमानराग से रक्त अस्थिमज्जा वाले। • चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् पालन करने वाले। • श्रमण निग्रंथों का प्रासुक-एषणीय अशन, पान, पीठ फलक आदि का दान देने वाले। • अल्प इच्छा वाले। • अल्प आरंभ (हिंसा) वाले। • अल्प संग्रह वाले। • धार्मिक। • धर्म का अनुगमन करने वाले। • धर्मिष्ठ। • धर्म का आख्यान करने वाले। • धर्म के प्रति जागरूक • धर्म में अनुरक्त • धर्मयुक्त शील और आचार वाले। • धर्म के द्वारा आजीविका करने वाले। • सुशील। सुव्रत। • प्रत्युपकारकारी। उपासना के पांच अभिगम ९२.. सच्चित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए। • अचित्ताणं दव्वाणं य विओसरणयाए। • एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं। • चक्खुप्फासे अंजलिप्पग्गहेणं। मणसो एगत्तीकरणेणं। • सचित द्रव्यों को छोड़ना, जैसे-पुष्प आदि। • अचित्त द्रव्यों को भी छोड़ना, जैसे-छत्र, शस्त्र, जूते आदि। • एक-पटी चादर से उत्तरासंग करना। • गुरु के दृष्टिगोचर होते ही हाथ जोड़ना। • मन को उसी में एकाग्र करना। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४७६ खण्ड-४ श्रमणोपासक की प्रतिमाएं ९३.एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा १. सणसावए। २. कयव्वयकम्मे। ३. सामाइअकडे। ४. पोसहोववासनिरए। ५. दिया बंभयारी रत्तिं परिमाणकडे। ६. दियावि राओवि बंभयारी असिणाई वियडभोई मोलिकडे। श्रमणोपासक की ग्यारह प्रतिमाएं प्रज्ञप्त हैं१. दर्शन श्रावक। २. कृतव्रत कर्म। ३. कृतसामायिक। ४. पौषाधोपवासनिरत। ५. दिन में ब्रह्मचारी और रात्रि में अब्रह्मचर्य का । परिमाण करने वाला। ६. दिन और रात में ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, स्नान न करने वाला, दिन में भोजन करने वाला और कच्छा न बांधने वाला। ७. सचित्त परित्यागी। ८. आरंभ परित्यागी। ९. प्रेष्य परित्यागी। १०. उद्दिष्टभक्त-परित्यागी। ११. श्रमणभूत। ७. सचित्तपरिण्णाए। ८. आरंभपरिणाए। ९. पेसपरिण्णाए। १०. उद्दिट्ठभत्तपरिण्णाए। ११. समणभूए। श्रमणोपासक के तीन मनोरथ ९४.तिहिं ठाणेहिं समणोवासए महाणिज्जरे महा पज्जवसाणे भवति, तं जहा१. कया णं अहं अप्पं वा बाहुयं वा परिग्गहं परिचइस्सामि? २. कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारितं पव्वइस्सामि? ३. कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसलेहणा- झूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियाइक्खित्ते पाओवगते कालं अणवकंखमाणे विहरिस्सामि? तीन स्थानों से श्रमणोपासक महानिर्जरा तथा महापर्यवसान वाला होता है- ' १. कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह का परित्याग करूंगा। २. कब मैं मुंड हो अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होऊंगा। ३. कब मैं अपश्चिम-मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्त हो, भक्त-पान का परित्याग कर, प्रायोपगमन अनशन कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विहरण करूंगा। श्रमणोपासक के चार आश्वास स्थान ९५.भारण्णं वहमाणस्स चत्तारि आसाया पण्णत्ता, तं जहा१. जत्थ णं अंसाओ अंसं साहरइ, तत्थ वि एगे आसासे पण्णत्ते। २. जत्थवि य णं उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते। ३. जत्थवि य णं णागकुमारावासंसि वा सुवण्ण भारवाही के लिए चार आश्वास स्थान (विश्राम स्थल) प्रज्ञप्त हैं १. पहला आश्वास तब होता है, जब वह भार को एक कंधे से दूसरे कंधे पर रख लेता है। २. दूसरा आश्वास तब होता है, जब वह लघुशंका या बड़ी शंका करता है। ३. तीसरा आश्वास तब होता है, जब वह नागकुमार, Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४७७ कुमाराचासंसि वासं उवेति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते । ४. जत्थवि य णं आवकहाए चिट्ठति, तत्थ विय से एगे आसासे पण्णत्ते । एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता, त जहातं १. जत्थवि य णं सीलव्वत-गुणव्वत-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवज्जति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते । २. जत्थवि य णं सामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपाले, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते । ३. जत्थवि य णं चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते । ४. जत्थवि य णं अपच्छिम-मारणंतियसंलेहणाझूसणा-झूसिते. भत्तपाण -पडियाइक्खित्ते पाओवगते कालमणवकंखमाणे विहरति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते । श्रमणोपासक के प्रकार ९६. चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा१. अम्मापिति समाणे २. भातिसमाणे ३. मित्तसमाणे ४. सवत्तिसमाणे । ९७. चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा १. अागसमाणे २. पडागसमाणे ३. खाणुसमा ४. खरकंटयसमाणे । अ. ४ : सम्यक् चारित्र सुपर्णकुमार आदि के आवासों में निवास करता है। ४. चौथा आश्वास तब होता है, जब वह कार्य को सम्पन्न कर भारमुक्त हो जाता है। इसी प्रकार श्रमणोपासक के लिए भी चार आश्वास प्रज्ञप्त हैं १. जब वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास को स्वीकार करता है, तब पहला आश्वास होता है। २. जब वह सामायिक तथा देशावकाशिक व्रत का सम्यक् अनुपालन करता है, तब दूसरा आश्वास होता है। ३. जब वह अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण-दिनरात भर पौषध का सम्यक् अनुपालन करता है, तब तीसरा आश्वास होता है। ४. जब वह अंतिम मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर, भक्तपान का त्याग कर, प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर, मृत्यु के लिए अनुत्सुक होकर विहार करता है, तब चौथा आश्वास होता है। ... श्रमणोपासक के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. माता-पिता के समान २. भाई के समान । ३. मित्र के समान ४. सोत के समान । श्रमणोपासक के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. दर्पण के समान २. पताका के समान ३. स्थाणु-सूखे ठूंठ के समान ४. तीखे कांटों के समान । Page #499 --------------------------------------------------------------------------  Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-५ ज्ञान-क्रिया-समन्वय Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय पृ.सं. पृ. सं. ४८४ १. एकांतवाद का मिथ्या आश्वासन २. एकांतवादी दृष्टिकोण का परिणाम ३. ज्ञान-क्रिया ४. अंध और पंगु ४८१ ४८१ ४८२ ४८३ ५. आचरणयुक्त ज्ञान की सार्थकता ७. आचरण शून्य ज्ञान की व्यर्थता ८. चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान-क्रिया-समन्वय १. जावन्तऽविज्जापुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्यन्ति बहुसो मूढा संसारंमि अनंत ॥ २. समिक्ख पंडिए तम्हा पासज़ाईपहे बहू । अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भएसु कप्पए । ४. भणंता अकरेंता य बन्धमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेण समासासेिं अप्पयं ॥ एकांतवाद का मिथ्या आश्वासन ३. इहमेगे उ मन्नन्ति अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदिताणं सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ ५. न चित्ता तायए भासा कओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पावकम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो ॥ जितने अविद्यावान् पुरुष हैं वे सब दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं। वे मूर्च्छा से अभिभूत होकर अनन्त संसार बार-बार लुप्त होते हैं, विनष्ट होते हैं। इसलिए पंडित पुरुष पाशों - बंधनों व जन्म-मरण के मार्गों की समीक्षा करे। स्वयं सत्य की खोज करे और सबके प्रति मैत्री का आचरण करे। ६. उज्जेणी नाम नगरी । तत्था सोमिलो नाम बंभणो परिवसई । सो य अंधलीभूओ । तस्स य अट्ठ पुत्ता। तेसिं अट्ठ भज्जाओ । सो पुत्तेहिं भन्नतिअच्छीणं किरिया कीरउ । सो पडिभणइ-तुम्भ अट्ठण्णं पुत्ताणं सोलस अच्छीणि । सुण्हाण वि सोलस। बंभणीए दोन्नि, एते चउत्तीसं । अन्नस्स य परियणस्स जाणि अच्छीणि ताणि सव्वाणि मम । 'एते चेव पभूया । कुछ लोग ऐसा मानते हैं - पाप का त्याग किए बिना ही तत्त्व को जानने मात्र से जीव सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। ज्ञान से ही मोक्ष होता है जो ऐसा कहते हैं, पर उसके लिए कोई क्रिया नहीं करते, वे केवल बंध और मोक्ष के सिद्धांत की स्थापना करने वाले हैं। वे वाक् शौर्य से अपने आपको आश्वस्त करते हैं। विविध भाषाएं त्राण नहीं होतीं। विद्या का अनुशासन भी कहां त्राण देता है ? अपने आपको पंडित मानने वाले अज्ञानी मनुष्य पाप कर्मों द्वारा विषाद को प्राप्त हो रहे हैं। एकांतवादी दृष्टिकोण का परिणाम उज्जयिनी नगरी । सोमिल ब्राह्मण। उसकी आंखों में मोतिया उतर आया। उसके आठ पुत्र और आठ पुत्रवधुएं थीं। एक दिन पुत्रों ने कहा- आप आंखों की शल्यचिकित्सा करवा लें। उसने उत्तर दिया- तुम आठ पुत्र हो । तुम्हारी सोलह आंखें हैं। सोलह ही पुत्रवधुओं की आंखें हैं और दो आंखें तुम्हारी माता की हैं। इस प्रकार ये चौंतीस आंखें हैं। अन्य परिजनों की जितनी आंखें हैं, वे भी सब मेरी ही हैं। यह ही बहुत हैं। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन अन्नया घरं पलित्तं । तत्थ अप्पदन्नेहिं सो न चतिओ नीणिउं तत्थेव रडतो दड्ढो । ७. नाणं सविसयनिययं मम्गण्णू दिट्ठतो न नाणामित्तेण कज्जनिप्फत्ती । ८. आउज्जनट्टकुसलावि जोगं अजुंजाणी ९. जाणतोऽवि य तरिउं सो वुझइ सोए १०. सुबहुपि सुमहीयं अंधस्स जह पलित्ता होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥ ४८२ ज्ञान-क्रिया नट्टिया तं जणं न तोसेइ । १२. जहा खरो चंदणभारवाही, निंद खिंसं च सा लहई ॥ काइयजोगं न जुंजइ नईए । एवं नाणी चरणहीणो ॥ किं काही चरणविप्पहीणस्स ? दीवसयसहस्सकोडीवि ॥ ११. अप्पंप सुयमहीयं पयासयं होई चरणजुत्तस्स । इक्कोव जह पईवो सचक्खुअस्सा पयासेई | एवं खु नाणी चरणेण हीणो, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । नास भागी न हु सोम्मईए ।। खण्ड - ४ एक दिन घर में आग लग गई। कुटुम्बीजन आत्मरक्षा तत्पर हो गए। उस वृद्ध को बाहर निकालना भूल गए । वह रोता- चिल्लाता वहीं जल गया। १३. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो अ अंधओ ॥ १. आत्मरक्षण तत्पर ज्ञान का अपना निश्चित विषय है। उसकी सीमा है। मात्र ज्ञान से कार्य निष्पन्न नहीं होता । दृष्टांत की भाषा में कहा गया- मार्ग को जानने वाला यदि सचेष्ट है तो वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है और यदि सचेष्ट नहीं है तो एक चरण भी आगे नहीं बढ़ पाता। वाद्यकला और नृत्यकला में कुशल नर्तकी जब तक नृत्य नहीं करती, तब तक वह लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकती, अपितु वह निंदा और अवहेलना को ही प्राप्त होती है। तैरने की विद्या को जानता हुआ तैराक यदि तैरने के लिए नदी में अपने हाथ-पांव नहीं फैलाता है तो वह प्रवाह में बह जाता है, वैसे ही चरित्रहीन ज्ञानी पुरुष लक्ष्य को नहीं पा सकता। पढ़ा हुआ बहुत ज्ञान भी आचारहीन को क्या लाभ देगा ? अंधे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने का क्या अर्थ है ? पढ़ा हुआ अल्प ज्ञान भी आचारवान को प्रकाश से भर देता है। चक्षुष्मान् को प्रकाश देने के लिए एक दीपक भी काफी है। चंदन का भार ढोने वाला गधा केवल भार का भागी होता है, चंदन की सुगंध का नहीं। उसी प्रकार चरित्रहीन ज्ञानी केवल जान लेता है, सद्गति को प्राप्त नहीं कर सकता। आचारहीन ज्ञान पंगु है और ज्ञानहीन आचार अंधा है। पंगु आग को देखता हुआ भी जल जाता है और अंधा Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४८३ अ.५: ज्ञान-क्रिया-समन्वय दौड़ता हुआ भी आग की चपेट में आ जाता है। अंध और पंगु १४.एगंमि महाणगरे पलीवणं संवुत्तं। तंमि य अणाहा दुवे जणा पंगलो य अंधलो य। ते णगरलोए लणसंभमभंतलोयणे पलायमाणे। पासंतो पंगुलओ गमणकिरियाऽभावाओ जाणओऽवि पलायणमग्गं कमागएण अगणिणा दड्ढो। पोऽवि गमणकिरियाजत्तो पलामणमग्गम- जाणतो तुरितं जलणंतेण गंतुं अगणिभरियाए खाणीए.परिऊण दड्ढो। एक महानगर में आग लग गई। वहां दो अनाथ व्यक्ति रहते थे-एक पंगु और दूसरा अंधा। अग्नि से भयभीत हए नागरिक-जन अपने-अपने बचाव के लिए दौड़ने लगे। पंगु व्यक्ति उन्हें दौडते हुए देख रहा था, पर वह दौड़ने में असमर्थ था। वह बचाव का रास्ता जानता था, पर पंगु होने के कारण चल नहीं सका। आग में जल गया। अंध व्यक्ति दौड़ता हुआ अग्निकुंड में जा गिरा। वह बचाव का मार्ग देख नहीं पा रहा था। १५.सजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नहु एगचक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा॥ दो का संयोग मिलने पर ही कार्य की निष्पत्ति होती है। एक चक्के से रथ नहीं चलता। जंगल में अंधा और पंगु मिल गए तो परस्पर के सहयोग से नगर में प्रविष्ट १६. णाणं पयासगं सोहओ तवो'संजमो य गुत्तिकरो। तिहपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥ ज्ञान प्रकाश देता है। तप शोधन करता है और संयम निरोध करता है। इन तीनों का सम्यक् योग होने पर मोक्ष होता है। चूर्णिकार आह १७. एगंमि रण्णे रायभएण णगराओ उव्वसिय लोगो . ठितो। पुणावि धाडिभयेण पवहणाणि उझिअ पलाओ। तत्थ दुवे अणाहप्पाया अंधो पंगू य उज्झिया। गयाए धाडीए लोगग्गिणा वातेण वणदवो लग्गो। ते य भीया। अंधो छुट्टकच्छो अग्गितेण पलायइ। पंगुणा भणितं-अंध! मा इतो णास। णणु इतो चेव अग्गी। तेण भणितं-कुतो पुण गच्छामि? पंगुणा भणितं-अहंपि पुरतो अतिदूरे मम्गदेसणाऽसमत्थो पंगु। ता मं खंधे करेहि जेण अहिकंटकजलणादि अवाए परिहरावेतो सुहं ते नगरं पावेमि। तेणं तहत्ति पडिवज्जिय अणुदिठतं पंगुवयणं| गया य खेमेण दोवि णगरं ति। कुछ लोग राजभय से नगर छोड़ जंगल में जाकर रहने लगे। वहां एक बार डकैतों ने हमला किया। डकैतों के भय से वे अरण्यवासी अपने वाहनों को छोड़कर जान बचाने के लिए भागे। दो अनाथ व्यक्ति वहीं रह गए। उनमें एक अंध था और एक पंगु। डकैत वहां से लौट गए। जंगल में लोगों द्वारा आग जलाई गई थी। हवा के योग से उसने दावानल का रूप ले लिया। वे दोनों भयभीत हुए। अंधा व्यक्ति जंगल को छोड़कर अग्नि की ओर दौड़ा। पंगु ने कहा-ओ अंधे! इधर मत जाओ। आगे अग्नि है। अंधे ने पूछा-तो फिर मैं किधर जाऊं? मैं तुम्हें दूर तक मार्ग दिखाने में असमर्थ हूं। क्योंकि मैं पंगु हूं। इसलिए तुम मुझे अपने कंधे पर बिठाओ। मैं सर्प, कांटे और अग्नि आदि सभी बाधाओं से दूर रखते हुए सुखपूर्वक तुम्हें नगर में पहुंचा दूंगा। अंधे ने पंगु के प्रस्ताव को स्वीकार किया। उसने पंगु को अपने कंधे पर बिठाया। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४८४ आचरणयुक्त ज्ञान की सार्थकता १८. तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी - माणं तुमं पएसी ! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि, जहा से वणसंडेह वा, णट्टसालाइ वा इक्खुवाडेइ वा, खलवाडेइ वा। कहं णं भंते! वणसंडे पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवति ? पएसी ! जया णं वणसंडे पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे चिट्ठइ तया णं वणसंडे रमणिज्जे भवति । जया णं वणसंडे नो पत्तिए नो पुप्फिए नो फलिए नो हरियगरेरिज्जमाणे णो सिरीए अईव - अईव उवसोभेमाणे चिट्ठई तया णं जुण्णे झडे परिसडिय - पंडुपत्ते सुक्करुक्खे इव मिलायमाणे चिट्ठइ, तया णं वणसंडे णो रमणिज्जे भवति । कहं णं भंते! णट्टसाला पुव्विं रमणिज्जा भवित्ता पच्छा अरमणिज्जा भवति ? पएसी ! जया णं णट्टसाला गिज्जइ वाइज्जइ नच्चिज्जइ अभिणिज्जइ हसिज्जइ रमिज्जइ, तया णं णट्टसाला रमणिज्जा भवइ । जया णं णट्टसाला णो गिज्जइ णो वाइज्जइ णो नच्चिज्जइ णो अभिणिज्जइ णो हसिज्जइ णो रमिज्जइ, तया णं णट्टसाला अरमणिज्जा भवइ । कहं णं भंते! इक्खुवाडे पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवति ? कहं णं भंते! इक्खुवाडे पुव्विं रमणिज्जा भवित्ता पच्छा अमरणिज्जा भवति ? पएसी ! जया णं इक्खुवाडे छिज्जइ भिज्जइ लुज्जइ खज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया णं इक्खुवाडे रमणिज्जे भवइ । जया णं इक्खुवाडे णो छिज्जइ णो भिज्जइ णो लुज्जइ णो खज्जइ णो पिज्जइ णो दिज्जइ, तया णं इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ । खण्ड-४ पंगु के पास दृष्टि थी और अंधे के पास पैर थे। दोनों मिलकर कुशलता से नगर में पहुंच गए। प्रदेशी ! अब तुम रमणीय हो गए हो, पुनः अरमणीय मत हो जाना, जैसे - वनखंड, नाट्यशाला, इक्षुवाटक और खलियान होते हैं। भंते! वनखंड पहले रमणीय, फिर अरमणीय कैसे हो जाता है ? प्रदेशी ! जैसे वनखंड पत्तों, फूलों, फलों, सघन हरीतिमा और वनश्री से अतीव अतीव शोभित होता है। तब रमणीय होता है। जब उसके पत्ते गिर जाते हैं, फूल मुरझा जाते हैं, फल गिर जाते हैं, हरियाली सूख जाती है, वनश्री से शोभित नहीं होता है तब वनखंड जीर्ण-शीर्ण, पत्रशून्य, सूखे वृक्ष की भांति म्लान हो जाता है। फिर वह रमणीय नहीं रहता। भंते! नाट्यशाला पहले रमणीय, फिर अरमणीय कैसे हो जाती है ? प्रदेशी ! नाट्यशाला में जब गीत गाए जाते हैं, वाद्य बजते हैं, नृत्य होता है, अभिनय किया जाता है, हास्य क्रिया (विदूषक कर्म) होती है, क्रीड़ा होती है तब वह रमणीय होती है। जब न गीत गाए जाते हैं, न वाद्य बजते हैं, न नृत्य होता है, न अभिनय किया जाता है, न हास्य होता है और न क्रीड़ा होती है तब नाट्यशाला अरमणीय हो जाती है। भंते! इक्षुवाटक पहले रमणीय, फिर अरमणीय कैसे हो जाता है ? प्रदेशी ! इक्षुवाटक में जब ईख छेदा जाता है, भेदा जाता है, पेरा जाता है, खाया जाता है, पीया जाता है और दिया जाता है तब वह रमणीय होता है। जब इक्षुवाटक में ईख न छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न पेरा जाता है, न खाया जाता है और न पीया जाता है तब इक्षुवाटक अरमणीय हो जाता हैं। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४८५ अ. ५ : ज्ञान-क्रिया-समन्वय कहं णं भंते! खलवाडे पुब्विं रमणिज्जे भवित्ता भंते! खलियान पहले रमणीय फिर अरमणीय कैसे हो पच्छा अरमणिज्जे भवति? जाता है? पएसी! जया णं खलवाडे उच्छुब्भइ उडुइज्जइ प्रदेशी! खलियान में जब धान्य रखा जाता है, कूटा मलइज्जइ पुणिज्जइ खज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया जाता है, मर्दन किया जाता है, पवन किया जाता है, खाया णं खलवाडे रमणिज्जे भवति। जया णं खलवाडे जाता है, पीया जाता है, दिया जाता है, तब वह रमणीय णो उच्छुब्भइ णो उडुइज्जइ णो मलइज्जइ नो होता है। जब वहां धान्य न रखा जाता है, न कूटा जाता पुणिज्जइ नो खज्जइ णो पिज्जइ णो दिज्जइ, तया है, न मर्दन किया जाता है, न पवन किया जाता है, न णं खलवाडे अरमणिज्जे भवति। खाया जाता है, न पीया जाता है, न दिया जाता है तब खलियान अरमणीय हो जाता है। से तेणठेणं पएसी! एवं वुच्चइ-मा णं तुमं प्रदेशी ! इसलिए मैंने कहा-तुम वनखंड, नाट्यशाला, पएसी! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे इक्षवाटक और खलियान की तरह पहले रमणीय फिर भविज्जासि। जहा से वणसंडेइ वा णट्टसालाइ अरमणीय मत बन जाना। वा, इक्खुवाडेइ वा खलवाडेइ वा। तए णं पएसी केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-णो प्रदेशी ने कुमारश्रमण केशी से कहा-भंते! मैं खलु भंते! अहं पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा वनखंड, नाट्यशाला, इक्षुवाटक और खलवाटक की तरह अरमणिज्जे भविस्सामि, जहा से वणसंडेइ वा । पहले रमणीय हो फिर अरमणीय नहीं बनूंगा। मैं णसालाइ वा, इक्खुवाडेइ वा, खलवाडेइ वा।। श्वेतविका नगरी सहित सात हजार ग्रामों को चार भागों अहं णं सेयवियापामोक्खाई ‘सत्तगामसहस्साइं में विभक्त करूंगा। एक भाग सेना को सौंप दूंगा। एक चत्तारि भागे करिस्सामि-एगं भागं बलवाहणस्स भाग भंडार के लिए सुरक्षित रखूगा। एक भाग अंतःपुर के दलइस्सामि। एगं भागं कोठागारे छुभिस्सामि। लिए रखूगा। एक भाग से एक विशाल कूटाकारशाला एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं बनाऊंगा। वहां अनेक वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा विपुल महतिमहालियं कूडागारसालं करिस्सामि। तत्थ णं । अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार कराऊंगा। वहां बहुत से बहूहिं पुरिसेहिं दिण्णभइ-भत्तवेयणेहिं विउलं असणं । श्रमणों, माहणों, भिक्षुओं और राहगीरों को भोजन .पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता बहूणं समण- वितरित करता हुआ मैं शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, माहण-भिक्खुयाणं पंथिय-पहियाणं परिभाएमाणे, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से अपने को भावित करता बहूहिं सीलव्वय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण- हुआ रहूंगा। पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणे विहरिस्सामि। आचारणशून्य ज्ञान की व्यर्थता चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त १९.जाईपराजिओ खलु जाति से पराजित हुए संभूत ने हस्तिनापुर में निदान कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि। (चक्रवर्ती होऊ-ऐसा संकल्प) किया। वह पद्मगुल्म नाम चुलणीए बम्भदत्तो के विमान में देव बना। वहां से च्युत होकर चुलनी की उववन्नो पउमगुम्माओ॥ कोख में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में उत्पन्न हुआ। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन कम्पिल्ले संभूओ चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि । धम्मं सोऊण पव्वइओ ।। सेट्ठिकुलम्मि विसाले कम्पिल्लम्मिय नरे सुहदुक्खफलविवागं कति ते एक्कमेक्कस्स ॥ चक्कवट्टी महिड्ढीओ बम्भदत्तो महायसो । भायरं बहुम इमं वयणमब्बवी ॥ आसिमो भायरा दो वि अन्नमन्नवसाणुगा । अन्नमन्नमणूरत्ता अन्नमन्नहिएसिणो ॥ दासा दसणे आसी मिया कालिंजरे नगे । हंसा मयंगतीरे सोवागा कासिभूमि ॥ समागया दो वि चित्तसम्भूया । देवा य देवलोगम्मि आसिअम्हे महिड्ढिया । इमा नो छट्ठिया जाई अन्नमन्त्रेण जा विणा ॥ कम्मा नियाणप्पगडा तुमे राय ! विचिंतिया । तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया ॥ सच्चसोयप्पगडा कम्मा मए पुरा कडा । ते अज्ज परिभुंजामो किं नु चित्ते वि से तहा ? सव्वं सुचिणं सफलं नराणं कडा कम्माण न मोक्ख अत्थि । अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहिं आया ममं पुण्णफलोववेए । जाणासि संभूय ! महाणुभागं ४८६ महिड्ढियं पुण्णफलोववेयं । चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया ॥ गाहाणीया नरसंघमज्झे । महत्थरूवा वयणप्पभूया भिक्खुणो सीलगुणोववेया sesज्जयंते समणो म्हि जाओ ॥ खण्ड - ४ संभूत कांपिल्य नगर में उत्पन्न हुआ। चित्त पुरिमताल में एक विशाल श्रेष्ठी - कुल में उत्पन्न हुआ। वह धर्म सुन प्रव्रजित हो गया। कांपिल्य नगर में चित्त और संभूत दोनों मिले। दोनों ने परस्पर एक दूसरे के सुख-दुःख के विपाक की बात की। महान् ऋद्धिसम्पन्न और महान् यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने बहुमान पूर्वक अपने भाई से इस प्रकार कहाहम दोनों भाई थे। एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी । हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चांडाल थे। हम दोनों सौधर्म देवलोक में महान ऋद्धि वाले देव थे। यह हमारा छट्ठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से बिछुड़ गए। मुनि - राजन् ! तूने निदानकृत ( भोग-प्रार्थना से बद्धमान) कर्मों का चिंतन किया। उनके फल विपाक से हम बिछुड़ गए। चक्री - चित्त ! मैंने पूर्व जन्म में सत्य और शौचमय शुभ अनुष्ठान किए थे। आज मैं उनका फल भोग रहा हूं। क्या तू भी वैसा ही भोग रहा है ?" मनुष्यों का सब सुचीर्ण/सुकृत सफल होता है । कृत कर्मों का फल भोगे बिना मुक्ति नहीं होती। मेरी आत्मा उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्य फल से युक्त है। सम्भूत! जिस प्रकार तू अपने को महान् अनुभाग (अचिन्त्य शक्ति) सम्पन्न, महान ऋद्धिमान् और पुण्य फल से युक्त मानता है, उसी प्रकार चित्त को भी जान | राजन् ! उसके पास भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति थी । स्थविरों ने जनसमुदाय के बीच अल्पाक्षर और महान् अर्थ वाली जो गाथा गाई, जिसे शील और श्रुत से संपन्न भिक्षु बड़े यत्न से अर्जित करते हैं, उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४८७ अ. ५ : ज्ञान-क्रिया-समन्वय उच्चोयए महु कक्के य बंभे । उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्म ये प्रधान पवेइया आवसहा य रम्मा। प्रासाद और दूसरे अनेक रम्य प्रासाद हैं। पंचालदेश की इमं गिहं चित्तधणप्पभूयं विशिष्ट वस्तु से युक्त और प्रचुर एवं विचित्र हिरण्य पसाहि पंचालगुणोववेयं॥ आदि से पूर्ण यह घर है। इसका तू उपभोग कर। नटेहि गीएहि य वाइएहिं ___ हे भिक्षु! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारीजनों नारीजणाई परिवारयंतो। को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भोग। यह मुझे भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू! रुचता है। प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है। मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं॥ तं पुवनेहेण कयाणुरागं, धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले ___नराहिवं कामगुणेसु गिद्धं। चित्त मुनि ने पूर्वभव के स्नेहवश अपने प्रति अनुराग रखने धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही, वाले, कामगुणों में आसक्त राजा से यह वचन कहा. चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था॥ सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नट विडंबियं। सब गीत विलाप हैं। सब नाट्य विडंबना हैं। सब सव्वे आभरणा भारा सव्वे कामा दुहावहा॥ आभरण भार हैं और सब कामभोग दुष्कर हैं। बालाभिरामेसु दुहावहेसु न तं सुहं कामगुणेसु रायं। राजन् ! अज्ञानियों के लिए रमणीय और दुःखकर विरत्तकामाण तवोधणाणं कामगुणों में वह सुख नहीं है, जो सुख कामों में विरत, जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं॥ शील और गुण में रत तपोधन भिक्षु को प्राप्त होता है। तीसे य जाईइ उ पावियाए __हम दोनों ने कुत्सित चांडाल जाति में जन्म लिया वुच्छामु सोवागनिवेसणेसु। और चांडालों की बस्ती में निवास किया। सब लोग हमसे सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा घृणा करते थे। इस जन्म में जो उच्चता प्राप्त हुई है, वह इहं तु कम्माइं पुरेकडाइं॥ शुभ कर्मों का फल है। सो दाणि सिं राय! महाणुभागो उसी के कारण वह तू महान् अनुभाग (अचिंत्यमहिड्ढिओ पुण्णफलोववेओ। शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्यफल युक्त चइत्तु भोगाइं असासयाई राजा बना है। इसलिए तू अशाश्वत भोगों को छोड़कर आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि॥ चरित्रधर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर। इह जीविए राय! असासयम्मि राजन्! जो इसे अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ . धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुंह में जाने पर से सोयई मच्चुमुहोवणीए पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना नहीं होने के धम्मं अकाऊण परंसि लोए॥ कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। जहेह सीहो व मियं गहाय ___ जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले। उसी प्रकार अंतकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। न तस्स माया व पिया व भाया काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं कालम्मि तम्मिंसहरा भवंति॥ होते-अपने जीवन का भाग देकर बचा नहीं पाते। न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ ___ ज्ञाति, मित्रवर्ग, पुत्र और बांधव उसका दुःख नहीं न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। - एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन चेच्चा दुपयं चउप्पयं च खेत्तं हिं धणधनं च सव्वं । कम्मप्पवीओ अवसो पयाइ परं भवं सुंदर पावगं वा ॥ तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से चिईगयं डहिय उ पावगेणं । भज्जा य पुत्ता वि य णायओ य दायारमन्नं अणुसंकiति ॥ उवणिज्जई जीवियमप्पमायं ४८८ वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं । पंचालराया ! वयणं सुणाहि मा कासि कम्माई महालयाई ॥ अहं पि जाणामि जहेह साहू ! जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकरा हवंति जे दुज्जया अज्जो ! अम्हारिसेहिं ॥ खण्ड - ४ यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धनं, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़कर केवल अपने किए कर्मों को साथ लेकर सुखद या दुःखद परभव में जाता है। उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जलाकर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते हैं। राजन् ! कर्म बिना भूल किए निरंतर जीवन को मृत्यु के समीप ले जा रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य के वर्ण (स्निग्ध कांति) का हरण कर रहा है। पंचालराज! मेरा वचन सुन। प्रचुर कर्म मत कर। हे साधो ! तू जो मुझे यह वचन जैसे कह रहा है, वैसे मैं भी जानता हूं कि ये भोग आसक्तिजनक हैं, किन्तु आर्य! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए ये दुर्जय हैं। ... Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-६ धर्मसंघ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. उपेक्षा का दुष्परिणाम २. संघ का स्वरूप ३. संघबद्ध साधना के सूत्र ४. सामाचारी ५. व्यवहार संघीय व्यवस्था के सूत्र ६. एकाकी बिहार के अयोग्य ६. एकाकी बिहार के दोष ७. एकलविहार प्रतिमा का अधिकारी ८. गणधर की अर्हता षष्ठ अध्याय पृ.सं. ४९२ ४९२ ४९३ ४९३ ४९३ ४९४ ४९५ ४९५ ४९५ ९. गणिसंपदा १०. साधु-साध्वी : पारस्परिक व्यवहार ११. गण में विग्रह के हेतु १२. आचार्य गर्ग और अविनीत शिष्य १३. गण निष्कासन के हेतु १४. संघसेवा कर्मक्षय का हेतु : १५. मेघकुमार १६. उपेक्षा सेवा की : विधान प्रायश्चित्त का पृ. सं. ४९६ ४९६ ४९७ ४९७ ४९८ ४९९ ४९९ ५०१ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसंघ गुणों का संघात संघ है। वह कर्मों का विमोचक है। वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र को संहत-समुदित करता है। १. संघो गुणसंघाओ संघो य विमोचओ य कम्माणं। दसणणाणचरित्ते संघायंतो हवे संघो॥ २. आसासो वीसासो सीयघरसमो य होइ मा भाहि। ____ अम्मापितिसमाणो संघो सरणं तु सव्वेसिं॥ संघ आश्वास है। विश्वास है। शीतगृह-वातानुकूलित गृह के समान है। ऐसे संघ से डरो मत। यह माता-पिता के तुल्य है और सब प्राणियों के लिए शरण है। ३. भदं सीलपडागूसियस्स तवनियमतुरयजुत्तस्स। संघरहस्स भगवओ सज्झायसुनंदिघोसस्स। जिसके शिखर पर शील रूपी पताका फहरा रही है। तप-नियम रूपी घोड़े जुते हुए हैं। स्वाध्याय रूपी नंदिघोष हो रहा है, ऐसे भगवान संघ रथ का भद्र हो। ४. भदं धिइवेलापरिगयस्स ___ सज्झाय-जोग-मगरस्स। __अक्खोभस्स भगवओ . संघसमुदस्स रुंदस्स॥ जो धैर्य रूपी वेला से परिगत है। जिसमें स्वाध्याय योग रूपी मगर हैं। जो अक्षुब्ध और विस्तीर्ण है। उस संघ समुद्र का भद्र हो। ५. सुहसीलाओ सच्छंदचारिणो वेरिणो सिवपहस्स। आणाभट्ठा उ बहुजणा उ मा भण हु संघो त्ति॥ जिस संघ में अनेक मुनि सुखशील-सुखाकांक्षी हैं, स्वच्छंदचारी हैं, मोक्षमार्ग के प्रतिकूल आचरण करने वाले हैं, आज्ञा का अतिक्रमण करने वाले हैं, उसे संघ नहीं कहा जा सकता। ६. आणाजुत्तो संघो सेसो पुण अट्ठिसंघाओ॥ संघ वह है, जहां आज्ञा प्रमाण होती है। जहां आज्ञा का महत्त्व नहीं, वह संघ केवल हड्डियों का ढेर है। ७. जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो गच्छो संजमकामीण मोत्तव्यो। जिस गच्छ में सारणा-प्रेरणा और स्मृति कराना, वारणा-रोक-टोक करना, प्रतिचालना करना-ये नहीं हैं, वह गच्छ समदाय होकर भी गच्छ नहीं है। संयम की साधना करने वाले पुरुष के लिए ऐसा गच्छ छोड़ने योग्य है। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४९२ खण्ड-४ उपेक्षा का दुष्परिणाम ८. अरन्नमज्झे एगं अगाहजलं सव्वतो वणसंडमंडियं जंगल के मध्य अगाध जलवाला एक तालाब था। वह महतं सरं अत्थि। तत्थ य बहूणि जलचर-थलचर- चारों ओर से वनखंड द्वारा मंडित था। वहां बहुत से खहचर सत्ताणि अच्छंति। तत्थ एगं महल्लं जलचर प्राणी रहते थे। स्थलचर और नभचर आते और हत्थिजूहं परिवसइ। अन्नया य गिम्हकाले तं हति वहां बैठते रहते। वहां एक बड़ा हाथियों का यूथ रहता था। थजूहं पाणियं पाउं ण्हाउत्तिन्नं मज्झण्हदेसकाले ग्रीष्म ऋतु का समय। एक दिन मध्याह्न में उस हस्तिसीयलरुक्खछायाए सुहंसुहेणं चिट्ठइ। तत्थ य समूह ने तालाब में पानी पीया, स्नान किया और उसे पार अदूरदेसे दो सरडा भंडिउमारद्धा। कर वह एक वृक्ष की ठंडी छांह में पहुंच सुख-पूर्वक विश्राम करने लगा। हस्ति-समूह के पास ही दो गिरगिट परस्पर लड़ रहे थे। वणदेवयाए अ ते दहें सव्वेसिं सभासाए ___वनदेवी ने उन गिरगिटों को देख सब प्राणियों के लिए आघोसियं-ता मा एते सरडे भंडते उवेक्खह, वारेह अपनी-अपनी भाषा में उद्घोषणा की-इन लड़ते हुए तुब्भे। गिरगिटों की तुम उपेक्षा मत करो। इन्हें रोको। एवं भणिया वि ते जलचराइणो चिंतंति-किं अम्हं वनदेवी के ऐसा कहने पर उन जलचरों ने सोचा-ये एते सरडा भंडता काहिंति? लड़ते हुए गिरगिट हमारा क्या अनिष्ट करेंगे? यह सोच उन्होंने उपेक्षा कर दी। तत्थ य एगो सरडो भंडतो पिल्लितो। सो इधर एक गिरगिट लड़ता हुआ दूर धकेला गया। वह धाडिज्जंतो सुहपसुत्तस्स एगस्स जूहाहिवस्स दौड़ता हुआ आराम से सोए हुए उस यूथाधिपति हाथी की हत्थिस्स 'बिलं' ति काउं नासापुडं पविट्ठो। सूंड को बिल समझकर उसमें घुस गया। दूसरा गिरगिट बिइओ वि तस्स पिट्ठओ चेव पविट्ठो। ते सिर भी उसका पीछा करता हआ उसी संड में घुस गया। हाथी कवाले जुद्धं संपलग्गा। तस्स हथिस्स महंती के कपाल में पहुंच वे दोनों लड़ने लगे। इससे हाथी को अरई जाया। तओ वेयणट्टो महईए असमाहीए अत्यधिक पीड़ा हुई। पीड़ा से आहत हाथी असमाधिस्थ वट्टमाणो उठेत्ता तं वणसंडं चूरेइ। बहवे तत्थ हो गया। वह उठा और वनखंड को तहस-नहस करने विस्संता सत्ता घाइया। जलं च आडोहितेण लगा। उस वनखंड में विश्राम करने वाले बहुत से प्राणी जलचरा घाइया। मारे गए। जल को क्षुब्ध कर देने से जलचर प्राणी मारे गए। तलागपाली य भेइया। तलागं विणटुं। ताहे हाथी ने तालाब की पाल तोड़ दी। तालाब टूट गया जलचरा वि सव्वे विणट्ठा। और सारे जलचर समाप्त हो गए। संघ का स्वरूप ९. चउविहे संघे पण्णत्ते, तं जहा-समणा, संघ चार प्रकार का होता है-श्रमण, श्रमणी, श्रावक समणीओ, सावगा, सावियाओ। और श्राविका। १०.तित्थं भंते! तित्थं? तित्थगरे तित्थं? गोयमा! अरहा ताव नियमं तित्थकरे। तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तं जहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ। भंते! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं या तीर्थंकर को तीर्थ कहते हैं? गौतम! अर्हत नियमतः तीर्थंकर होने हैं। चातुर्वर्ण श्रमणसंघ तीर्थ कहलाता है-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४९३ संघबद्ध साधना के सूत्र जतितव्वं ११. अट्ठहिं ठाणेहिं सम्मं घडितव्वं परक्कमितव्वं अस्सिं च णं अट्ठे णो पमाएतव्वं भवति १. असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणत्ताए अब्भुट्ठेतव्वं भवति । २. सुत्ताणे धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अभुट्ठेतव्वं भवति । ३. णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति । ४. पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिंचणताएं विसोहणता अब्र्भुट्ठेतव्वं भवति । ५. असंगिहीतपरिजणस्स संगिण्हणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति । ६. सेहं आयारगोयरं गाहणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति । ७. गिलाणस्स अगिलाए, वेयावच्चकरणताए अट्ठेयव्वं भवति । ८. साहम्मियाणमधिकरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सितो अपक्खग्गाही मज्झत्थ भावभूते कहण्णु साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पझंझा अप्पतुमतुमा उवसामणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति । १२. पढमा आवस्सिया नाम बिइया य निसीहिया । आपुच्छणा य तझ्या चउत्थी पडिपुच्छणा ॥ पंचमा छंदणा नाम इच्छाकारो य छट्ठओ । सत्तमो मिच्छकारो य तहक्कारो य अट्ठमो ॥ अब्भुट्ठाणं नवमं, दसमा उवसंपदा । एसा दसंगा साहूणं सामायारी पवेइया || सामाचारी १३. पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा'आगमे, सुते, आणा, धारणा, जीते। १. व्यवहार - प्रवृत्ति और निवृत्ति की हेतुभूत व्यवस्था । मुनि आठ स्थानों में सम्यक् चेष्टा, सम्यक् प्रयत्न और सम्यक् पराक्रम करे। इन आठ स्थानों में किंचित् भी प्रमाद न करे १. अश्रुत धर्मों-विषयों को सम्यक् प्रकार से सुनने के लिए जागरूक रहे। अ. ६ : धमेघ २. सुने हुए धर्मों-विषयों के ग्रहण और उनकी स्थिरता के लिए जागरूक रहे । ३. संयम के द्वारा नए कर्मों का संचय न करने के लिए जागरूक रहे। ४. तपस्या के द्वारा पुराने कर्मों का पृथक्करण और विशोधन करने के लिए जागरूक रहे । ५. जो शिष्य नहीं बने हैं, उनका संग्रह करने के लिए जागरूक रहे। ६. जो शिष्य बन चुके हैं, उन्हें आचार-गोचर सिखाने के लिए जागरूक रहे। ७. ग्लान की अग्लानभाव से परिचर्या करने के लिए जागरूक रहे। ८. साधर्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न होने पर अनिश्रितोपाश्रित- लिप्सा और अपेक्षा रहित निष्पक्ष एवं मध्यस्थ भाव से उन्हें उपशांत करने के लिए जागरूक रहे। यह चिंतन करे कि ये मेरे साधर्मिक किस प्रकार अपशब्द, कलह और तू-तू, मैं-मैं से मुक्त हों । भगवान ने साधुओं के लिए दस प्रकार की सामाचारी का निरूपण किया है १. आवश्यकी ४. प्रतिपृच्छा ७. मिथ्याकर १०. उपसंपदा । व्यवस्था : संघीय व्यवस्था के सूत्र २. नैषेधिकी ५. छंदना ८. तथाकार ३. आपृच्छा ६. इच्छाकार ९. अभ्युत्थान व्यवहार' के पांच प्रकार हैं १. आगम २. श्रुत ३. आज्ञा ४. धारणा ५. जीत । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४९४ , खण्ड-४ १४.जहा से तत्थ आगमे सिया, आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। णो से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुते सिया, सुतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। णो से तत्थ सुते सिया जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। णो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। णो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीते सिया, जीतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। इच्चेतेहिं पंचहिं ववहारं पट्ठवेज्जा-आगमेणं सुतेणं आणाए धारणाए जीतेणं। जधा-जधा से तत्थ आगमे सुते आणा धारणा जीते तधा-तधा ववहारं पट्ठवेज्जा। से किमाहु भंते! आगमबलिया समणा णिग्गंथा? जहां आगम हो, वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आगम न हो, श्रुत हो, वहां श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां श्रुत न हो, आज्ञा हो, वहां आज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आज्ञा न हो, धारणा हो, वहां धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां धारणा न हो, जीत हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करे-आगम से, श्रुत से, आज्ञा से, धारणा से, जीत से। जिस समय आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत में से जो प्रधान हो उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करे। भंते! आगमबलिक-आगमज्ञ श्रमण-निग्रंथों ने इस विषय में क्या कहा है? आयुष्मन् श्रमणो! इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो, तब-तब वहां-वहां उसका अनिश्रितोपाश्रित-मध्यस्थभाव से सम्यग् व्यवहार करता हुआ श्रमण निग्रंथ आज्ञा का आराधक होता है। इच्चेतं पंचविधं ववहारं जया-जया जहिं-जहिं तया-तया तहिं-तहिं अणिस्सितोवस्सितं सम्मं ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराधए भवति। एकाकी विहार के अयोग्य १५.इहमेगेसिं एगचरिया भवति-से बहुकोहे बहुमाणे कुछ साधु अकेले रहकर साधना करते हैं, किन्तु कोई बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे भी एकचारी साधु जो अतिक्रोधी, अतिमानी, अतिमायी, आसवसक्की पलिउच्छन्ने, उठ्ठियवायं पवयमाणे अतिलोभी, अतिआसक्त, नट की भांति बहुत रूप मा मे केइ अदक्खू। अण्णाणपमायदोसेणं सययं बदलने वाला, नाना प्रकार की शठता और संकल्प करने मूढे धम्म णाभिजाणइ। वाला, आस्रवों (हिंसा आदि) में आसक्त और कर्म से आच्छन्न होता है, हम धर्म करने के लिए उद्यत हुए हैं-ऐसी घोषणा करता है, कोई देख न ले-इस आशंका से छिपकर अनाचरण करता है वह अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ़ बना हुआ एकचारी होकर भी धर्म को नहीं जानता। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४९५ अ. ६ : धर्मसंघ एकाकी विहार के दोष १६:गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परक्कंतं जो भिक्षु अव्यक्त (अपरिपक्व) अवस्था में अकेला भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो। ग्रामानुग्राम विहार करता है उसकी यात्रा दुर्यात्रा होती है और उसका पराक्रम दुष्पराक्रम होता है। १७.वयसा वि एगे बुझ्या कुप्पंति माणवा। अपरिपक्व भिक्षु थोड़े-से प्रतिकूल वचन सुनकर कुपित हो जाता है। १८.उन्नयमाणे य णरे, महता मोहेण मुन्झति। अपरिपक्व भिक्षु थोड़ी-सी प्रशंसा सुनकर महान मोह से मूढ़ हो जाता है। १९.संवाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। अज्ञानी और अद्रष्टा भिक्षु बार-बार आने वाली बहुत सारी बाधाओं का पार नहीं पा सकता। २०.एयं ते मा होउ। मैं अव्यक्त अवस्था में अकेला विहार करूं-यह तुम्हारे मन में भी न हो। २१.एयं कुसलस्स दंसणं। यह महावीर का दर्शन है। एकलविहार प्रतिमा का अधिकारी २२.अट्ठहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार एकलविहार । एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, तं प्रतिमा-संघमुक्त साधना को स्वीकार कर विहार कर जहा सकता है१. सड्ढी पुरिसजाते २. सच्चे पुरिसजाते १. श्रद्धावान २. सत्यवादी ३. मेहावी पुरिसजाते ४. बहुस्सुते पुरिसजाते ३. मेधावी ४. बहुश्रुत ५. सत्तिम ६. अप्पाधिगरणे ५. शक्तिमान ६. कलहमुक्त .७. धितिमं८. वीरियसंपण्णे ७. धृतिमान ८. वीर्यवान। गणधारण की अर्हता . २३.अट्ठवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले आठ वर्ष की दीक्षा पर्यायवाला श्रमण निग्रंथ यदि संजमकुसले पवयणकुसले पण्णत्तिकुसले आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्सिकुशल, संगहकुसले उवग्णहकुसले अक्खयायारे संग्रहकुशल, उपग्रहकुशल, अक्षत-आचार, अशबलअसबलायारे अभिन्नायारे असंकिलिट्ठायारे आचार, अभिन्न-आचार, असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुस्सुए बब्भागमे जहण्णेणं ठाणसमवायधरे कप्पइ बहुश्रुत हो, अनेक आगमों का ज्ञाता हो और कम से कम आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए पवत्तित्ताए थेरत्ताए स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता हो, उसे आचार्य, 'गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उहिसित्तए। उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक का पद दिया जा सकता है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४९६ २४.अठविहा गणिसंपया पण्णत्ता. तं जहा १. आचारसंपया २. सुयसंपया ३. सरीरसंपया ४. वयणसंपया ५. वायणासंपया ६. मतिसंपया ७. पओगसंपया ८. संगहपरिण्णा। गणिसंपदा गणिसंपदा के आठ प्रकार हैं१. आचार सम्पदा २. श्रुत सम्पदा ३. शरीर सम्पदा ४. वचन सम्पदा ५. वाचना सम्पदा ६. मति सम्पदा ७. प्रयोग सम्पदा ८. संग्रह सम्पदा। साधु-साध्वी : पारस्परिक व्यवहार २५.कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए साधु-साध्वियां यथारात्निक-बड़े-छोटे के क्रम से किइमम्मं करेत्तए। वंदन करें। २६. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा । आहाराइणियाए सेज्जा संथारए पडिग्गाहित्तए। साधु-साध्वियां यथारात्निक-बड़े-छोटे के क्रम से शय्या-संस्तारक-स्थान-बिछौना ग्रहण करें। २७.कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए चेलाइं.पडिग्गाहित्तए। साधु-साध्वियां यथारात्निक-बड़े-छोटे के क्रम से वस्त्र लें। २८.निग्गंथस्स णं नवडहरतरुणस्स आयरियउवज्झाए वीसंभेज्जा, नो से कप्पइ अणायरिय-उवज्झायस्स होत्तए। कप्पइ से पुव्वं आयरियं उहिसावेत्ता तओ से पच्छा उवज्झायं। किमाहु भंते? दुसंगहिए समणे निग्गंथे. तं जहा-आयरिएणं उवज्झाएणं य। शैक्ष (नवदीक्षित और बाल) व तरुण मुनि का आचार्य-उपाध्याय दिवंगत हो,जाए तो वह आचार्यउपाध्याय के बिना नहीं रह सकता। उसे पहले आचार्य और बाद में उपाध्याय की स्थापना करनी चाहिए। भंते! ऐसा क्यों? श्रमण निग्रंथ द्विसंगृहीत-आचार्य और उपाध्याय के आदेश-निर्देश में रहने वाला होता है। २९.निग्गंथीए णं नवडहरतरुणीए आयरियउवज्झाए पवत्तणी य वीसंभेज्जा, नो से कप्पइ अणायरिय- उवज्झाइयाए अपवत्तणीए य होत्तए। कप्पइ से पुव्वं आयरियं उहिसावेत्ता तओ पच्छा उवज्झायं तओ पच्छा पवत्तिणिं। से किमाहु भंते? तिसंगहिया समणी निग्गंथी, तं जहा-आयरिएणं उवज्झाएणं पवत्तिणीए य। शैक्ष (नवदीक्षित और बाल) व तरुण साध्वी का आचार्य, उपाध्याय व प्रवर्तिनी दिवंगत हो जाए तो वह आचार्य, उपाध्याय व प्रवर्तिनी के बिना नहीं रह सकती। उसे पहले आचार्य, फिर उपाध्याय और बाद में प्रवर्तिनी की स्थापना करनी चाहिए। भंते! ऐसा क्यों? साध्वी त्रिसंगृहीत-आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी के आदेश-निर्देश में रहने वाली होती है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ३०. आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच वुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा १. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वाणो सम्मं परंजित्ता भवति । २. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आधारातिणियाए कितिकम्मं णो सम्मं पउंजित्ता भवति । ३. आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले णो सम्ममणुप्पवाइत्ता भवति । ४. आयरियउवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्ममब्भुट्ठित्ता भवति । ५. आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणापुच्छियचारी यावि हवइ, णो आपुच्छिंयचारी । आचार्य गर्ग और अविनीत शिष्य ३१. धेरे गणहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए । आइण्णे गणिभावम्मि समाहिं पडिसंधए ॥ वहणे वहमाणस्स कंतारं जोए वहमाणस्स संसारो ४९७ अश्वत्तई । अश्वत्तई ॥ खलुंके जो उ जोएइ विहम्माणो किलिस्साई । असमाहिं च वेएइ तोत्तओ य से भज्जई ॥ खलुंका जारिसा जोज्जा जोया धम्मजाणम्मि दुस्सीसा वि हु तारिसा । भज्जंति धिइदुब्बला ॥ इड्ढीगारविए एगे एगेत्थ रसगारवे । सायागारविए एगे एगे सुचिरकोहणे ॥ विग्रह के अ. ६ : धर्मसंघ आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में विग्रह के पांच हेतु हैं १. आचार्य तथा उपाध्याय गण में आज्ञा व धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। २. आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथारात्निक - दीक्षा पर्यायानुसार बड़े-छोटे के क्रम से कृतिकर्म-वंदन आदि का प्रयोग न करें। ३. आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन सूत्र पर्यवजात - सूत्र और अर्थ के प्रकारों को धारण करते हैं, उनकी उचित समय पर गण को सम्यक् वाचना न दें। ४. आचार्य तथा उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित साधुओं का वैयावृत्त्य करने के लिए जागरूक न रहें। ५. आचार्य तथा उपाध्याय गण को पूछे बिना ही सुदूर क्षेत्रों में चले जाएं, पूछकर न जाएं। एक गर्ग नामक स्थविर मुनि हुआ। वह गणधर और शास्त्र - विशारद था। वह गुणों से आकीर्ण था। गणी पद पर स्थित होकर समाधि की खोज करता था। उसके शिष्य अविनीत थे। उनकी अविनीत दशा को देखकर गर्गाचार्य ने कहा जैसे वाहन को वहन करते हुए बैल के अरण्य स्वयं उल्लंघित हो जाता है, वैसे ही योग को वहन करते हुए मुनि के संसार स्वयं उल्लंघित हो जाता है। जो अयोग्य बैलों को जोतता है, वह उनको चलाता हुआ क्लेश पाता है। उसे असमाधि का संवेदन होता है। उसका चाबुक टूट जाता है। जैसे जुते हुए अयोग्य बैल वाहन को भग्न कर देते हैं, वैसे ही दुर्बल धृतिवाले शिष्यों को धर्म यान में जोत दिया जाता है तो वे उसे भग्न कर डालते हैं। कोई शिष्य ऋद्धि का गौरव / गर्व करता है। कोई रस का गौरव करता है। कोई साता का गौरव करता है। कोई चिरकाल तक क्रोध रखने वाला होता है। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४९८ खण्ड-४ भिक्खालसिए एगे एगे ओमाणभीरुए थद्धे। कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है। कोई अपमानएगं च अणुसासम्मी हेऊहिं कारणेहिं य॥ भीरू और अहंकारी है। किसी को गुरु हेतुओं व कारणों द्वारा अनुशासित करते हैं। सो वि अंतरभासिल्लो दोसमेव पकुव्वई। गुरु द्वारा अनुशासित होने पर बीच में ही बोल उठता आयरियाणं तं वयणं पडिकूलेइ अभिक्खणं॥ है। मन में द्वेष प्रकट करता है तथा आचार्य के वचन बार बार उलटना चाहता है। न सा ममं वियाणाइ न वि सा मज्झ दाहिई। गुरु प्रयोजनवश किसी श्राविका के घर से कोई वस्तु निग्गया होहिई मन्ने साहू अन्नोत्थ वच्चउ॥ लाने का निर्देश देते हैं तो वह अविनीत शिष्य कहता है-'वह मुझे नहीं जानती। वह मुझे नहीं देगी। संभव है, वह अभी घर से बाहर गई होगी। इस कार्य के लिए मैं ही क्यों? कोई दूसरा साधु चला जाए।' । पेसिया पलिउंचंति ते परियंति समंतओ। ___ किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है तो वे कार्य किए रायवेदिठं व मन्नंता करेंति भिउडिं मुहे। बिना ही लौट आते हैं। पूछने पर कहते हैं-उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था? वे चारों ओर घूमते हैं, किन्तु गुरु के पास कभी नहीं बैठते। कभी गुरु का कहा कोई काम करते हैं तो उसे राजा की बेगार की भांति मानते हुए मुंह पर भृकुटि तान लेते हैं-मुंह को मचोट लेते हैं। वाइया संगहिया चेव भत्तपाणे य पोसिया। ___ आचार्य सोचते हैं-मैंने इन्हें पढ़ाया। संगृहीत-दीक्षित जायपक्खा जहा हंसा पक्कमति दिसोदिसिं॥ किया। भोजन-पानी से इनका पोषण किया। किन्तु कुछ योग्य बनने पर ये मुझसे वैसे ही दूर हो रहे हैं, जैसे पंख आने पर हंस (पक्षीपोत) विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं। अह सारही विचिंतेइ खलुंकेहिं समागओ। ___ कुशिष्यों द्वारा खिन्न होकर आचार्य सोचते हैं-इन किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई। दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या? इनके संसर्ग से मेरी आत्मा व्याकुल होती है। जारिसा मम सीसा उ तारिसा गलिगदहा। जैसे मेरे शिष्य हैं, वैसे ही गली-गर्दभ होते हैं। इन गलिगबहे चइत्ताणं दढं परिगिण्हई तवं॥ गली-गर्दभों को छोड़कर गर्गाचार्य ने दृढ़ता के साथ तपः मार्ग को अंगीकार किया। गण निष्कासन के हेतु ३२.पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे साहम्मियं संभोइयं पांच स्थानों से श्रमण-निग्रंथ अपने साधर्मिक विसंभोइयं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा- सांभोजिक को विसांभोजिक-मंडलीबाह्य करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता१. सकिरियट्ठाणं पडिसेवित्ता भवति। १. जो क्रियास्थान-हिंसा आदि विशेष दोष का प्रतिसेवन करता है। २. पडिसेवित्ता णो आलोएइ। २. प्रतिसेवन कर आलोचना नहीं करता। ३. आलोइत्ता णो पट्ठवेति। ३. आलोचना कर प्रायश्चित का प्रस्थापन/पालन करने में प्रवृत्त नहीं होता। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४९९ अ. ६ : धर्मसंघ ४. पट्ठवेत्ता णो णिव्विसति। ४. प्रायश्चित्त की प्रस्थापना कर उसका वहन नहीं करता। ५. जाइं इमाइं थेराणं ठितिपकप्पाइं भवंति ताई ५. जो स्थविरों के लिए निर्दिष्ट स्थितकल्प (मर्यादा अतियंचिय-अतियंचिय पडिसेवेति, से हंदहं व्यवस्था) का उच्छंखलतापूर्वक प्रतिसेवन पडिसेवामि किं मे थेरा करेस्संति? करता है। दसरों के पछने पर कहता है-लो. मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूं, स्थविर मेरा क्या करेंगे? संघसेवा : कर्मक्षय का हेतु ३३.पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महा- पांच स्थानों से श्रमण निग्रंथ महानिर्जरा (महापज्जवसाणे भवति, तं जहा कर्म-विशुद्धि) तथा महापर्यवसान (महाकर्मक्षय) वाला होता हैअगिलाए आयरियवेयावच्चं करेमाणे, १. अग्लान भाव से आचार्य की सेवा करता है। अगिलाए उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे, २. अग्लान भाव से उपाध्याय की सेवा करता है। अगिलाए थेरवेयावच्चं करेमाणे, ३. अग्लान भाव से स्थविर की सेवा करता है। अगिलाए तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे, ४. अग्लान भाव से तपस्वी की सेवा करता है। अगिलाए गिलाणवेयावच्चं करेमाणे। ५. अग्लान भाव से रोगी की सेवा करता है। ३४.पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा१. अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, पांच स्थानों से श्रमण निग्रंथ महानिर्जरा तथा महापर्यवसान करनेवाला होता है १. अग्लानभाव से शैक्ष-नवदीक्षित की सेवा करता २. अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, ३. अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, ...'४. अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, १. ५. अगिलाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे। २. अग्लान भाव से कुल की सेवा करता है। ३. अग्लान भाव से गण की सेवा करता है। ४. अग्लान भाव से संघ की सेवा करता है। ५. अग्लान भाव से साधर्मिकों की सेवा करता है। मेघकुमार ३५.जहिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चा- वरहकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जासंथारएसु विभज्जमाणेसु मेह- कुमारस्स दारमूले सेज्जा-संथारए जाए यावि होत्था। तए णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोग- चिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छ- मेघकुमार जिस दिन मुंड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ, उसी दिन के अंतिम प्रहर में दीक्षा-पर्याय के क्रम से श्रमण निग्रंथों के शयन-स्थल और संस्तारकों का विभाग किया गया। मेघकुमार को सोने का स्थान दरवाजे के पास मिला। मध्यरात्रि के समय तक वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धर्मानुयोग चिंतन तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए श्रमण निग्रंथ आते-जाते रहे। इस आवागमन में कुछ श्रमण Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५०० खण्ड-४ माणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं मेघकुमार के हाथ को छू जाते। कुछ पैर को छू जाते। कुछ हत्थेहिं संघटेति अप्पेगइया पाएहिं संघटेंति, अप्पे- सिर को छू जाते। कुछ पेट को छू जाते और कुछ पूरे गइया पोट्टे संघटेंति सीसे संघटेंति, अप्पेगइया शरीर को छू जाते। कुछ एक बार, कुछ अनेक बार उसे पोट्टे संघटेंति अप्पेगइया कायंसि संघटेंति लांघकर चले जाते। कुछ अपने पैरों की धूलि से उसे अप्पेगइया ओलंडेंति अप्पेगइया पोलंडेंति अप्पेगइया लिप्त कर देते। इन सभी विक्षेपों से मेघकुमार क्षण भर भी पायरय-रेणु-गंडियं करेंति। एमहालियं च रयणिं मेहे आंख नहीं मूंद सका। कुमारे नो संचाएइ खणमवि अच्छिं निमीलित्तए। तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे मेघकमार के मन में उस समय इस प्रकार का अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे मनोभाव उत्पन्न हुआ-मैं राजा श्रेणिक का पुत्र और समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं सेणियस्स रण्णो पुत्ते । धारिणी देवी का आत्मज मेघ हं। मैं उन्हें इष्ट, कांत और धारिणीए देवीए अत्तए मेहे इठे कंते पिए...। प्रिय था। तं तया णं अहं अगारमज्झावसामि तया णं मम ___ मैं जब गृहवासी था, तब ये श्रमण निग्रंथ मेरा आदर समणा निग्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति करते थे। मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे। सम्माणेति, अट्ठाई हेऊइं पासिणाइं कारणाई वा- सम्मान करते थे। अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण गरणाई आइक्खंति, इट्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं का आख्यान करते थे। इष्ट और कमनीय वाणी से आलवेंति-संलवेंति। जप्पभिई च णं अहं मुंडे आलाप-संलाप करते थे। जिस क्षण से मैं मुंड हुआ हूं, भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभिई च अगार से अनगार बना हूं, उस क्षण से ये श्रमण-निग्रंथ णं ममं समणा निग्गंथा नो आढायंति नो मेरे साथ वैसा व्यवहार नहीं कर रहे हैं। परियाणंति नो सक्कारेंति नो सम्माणेति नो अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाई वागरणाइं आइक्खंति, नो इट्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेंतिसंलवेंति। तं सेयं खलु मज्झ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए ___अतः मेरे लिए उचित है कि मैं प्रातः सूर्योदय होते ही जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे श्रमण भगवान महावीर से पूछ पुनः घर में चला जाऊं। तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता इस चिंतन के साथ अत्यंत खिन्न और दुःखी मन से मुनि पुणरवि अगारमज्झावसित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, मेघकुमार ने नरक के समान कष्टकारी रात बिताई। संपेहेत्ता अट्ट-दुहट्ट-वसट्ट-माणसगए निरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ।..... कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव रात ढली। पौ फटी। सूर्योदय हुआ। मुनि मेघकुमार उठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा भगवान महावीर के पास आया। उसने महावीर की दाई जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दन-नमस्कार किया उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं और भगवान की उपासना करने लगा। तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइनमंसइ जाव पज्जुवासइ। तए णं मेहाइ! समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं श्रमण भगवान महावीर ने मुनि मेघकुमार को वयासी से नणं तुम मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्त- संबोधित करते हए कहा-मेघ ! मध्यरात्रि में श्रमण निग्रंथों Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ प्रायोगिक दर्शन अ. ६ : धर्मसंघ काल-समयंसि समणेहिं निग्गंथेहि.....एमहालियं द्वारा उत्पन्न विक्षेपों से तुम रात में मुहूर्त भर भी आंख च णं राइं तुमं नो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं नहीं मूंद सके। निमिल्लावेत्तए। मेघ! तब तुमने ऐसा चिंतन किया कि जब मैं पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था जया णं गृहवासी था, तब ये श्रमण निग्रंथ मेरा आदर करते थे। अहं अगारमज्झावसामि तया णं ममं समणा मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे। सम्मान निम्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति करते थे। अर्थ. हेत. प्रश्न. कारण और व्याकरण का सम्माणेति अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाई वा- आख्यान करते थे। इष्ट और कमनीय वाणी से आलापगरणाई आइक्खंति। इठाहिं कंताहिं वग्गूहिं संलाप करते थे। जिस क्षण से मैं मुंड हुआ हूं, अगार से आलवेति-संलवेति। जप्पभिइंच णं मंडे भवित्ता अनगार बना हं। ये श्रमण-निग्रंथ न मेरा आदर करते हैं, अगाराओ अणगारियं पव्वयामि तप्पभिइं च णं ममं न इष्ट एवं कमनीय वाणी से आलाप-संलाप करते हैं। समणा निग्गंथा नी आढायंति जाव संलवेंति। अदुत्तरं च णं ममं समणा निम्गंथा राओ पुव्वरत्ता- ये श्रमण-निग्रंथ मध्यरात्रि में विक्षेप पैदा कर देते हैं। वरत्त-कालसमयंसि अप्पेगइया जाव पाय-रय- अतः मेरे लिए उचित है कि मैं प्रातः होते ही श्रमण रेण-गंडियं करेंति। तं सेयं खल मम कल्लं भगवान महावीर को पूछ पुनः घर में चला जाऊं। पाउप्पभायाए रयणीए जाव समणं भगवं महावीर आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझे आवसित्तए..... से नूणं मेहा! एस अत्थे समत्थे? मेघ! क्या यह बात सही है? हंता! अत्थे समत्थे। हां, भंते!, ......अज्जप्पभित्ती णं भंते! मम दो अच्छीणि भगवान महावीर के द्वारा संबुद्ध होने पर मुनि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं निग्गंथाणं निसट्टे मेघकुमार ने पुनः संकल्प किया-दो आंखों के सिवाय मैं त्ति कटु पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ । अपने अवशेष शरीर का श्रमण निग्रंथों के लिए व्यत्सर्ग नमंसइ। करता हूं। शैक्ष की सेवा न करने पर उसमें इस प्रकार की मनोवृत्ति उत्पन्न होती है। उपेक्षा सेवा की : विधान प्रायश्चित्त का ३६.जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा ण गवेसति, णं गवसंतं जो भिक्षु किसी श्रमण को बीमार सुनकर उसकी • वा सातिज्जति। गवेषणा नहीं करता और गवेषणा न करनेवाले दूसरे का अनुमोदन करता है। ३७.जे भिक्खु गिलाणं सोच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छति, गच्छंतं वा सातिज्जति। जो भिक्ष किसी श्रमण को बीमार सनकर उन्मार्गमूल मार्ग को छोड़कर प्रतिमार्ग-पगडंडी से चला जाता है और जानेवाले दूसरे का अनुमोदन करता है। ३८.जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुदिठयस्स सएण जो भिक्षु रुग्ण मुनि की सेवा में उपस्थित हो, उसे लाभेण असंथरमाणस्स, जो तस्स न पडितप्पति, प्राप्त होने वाला लाभ-भोजन-पानी पर्याप्त उपलब्ध न Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५०२ खण्ड-४ __ न पडितप्पंतं वा सातिज्जति। हुआ हो, इस स्थिति में वह रुग्ण मुनि को भोजन-पानी आदि से तृप्त नहीं करता है और न करनेवाले दूसरे का अनुमोदन करता है। ३९.जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुदिठए गिलाण- पाउग्गे दव्वजाए अलब्भमाणे, जो तं न पडियाइ- क्खति, न पडियाइक्खंतं वा सातिज्जति। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं। जो भिक्षु रुग्ण मुनि की सेवा में उपस्थित है, रुग्ण मुनि ने कोई द्रव्य मंगवाया, वह द्रव्य उपलब्ध नहीं हुआ, रुग्ण मुनि को पुनः उसकी सूचना नहीं देता और न देनेवाले दूसरे का अनुमोदन करता है-वह चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय - ७ जिनशासन Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. तीर्थंकर परम्परा २. भगवान महावीर की शिष्य संपदा ३. स्थविरावलि सप्तम अध्याय पू. सं. ५०६ ५०६ ५०८ ४. जिनशासन में प्रव्रजित चक्रवर्ती और राजे ५. राजर्षि दशार्णभद्र पृ.सं. ५१० ५१२ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनशासन १. अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं णेता मुणी कासवे आसुपण्णे। इदे व देवाण महाणुभावे . सहस्सणेता दिवि णं विसिठे॥ आशुप्रज्ञ काश्यप मुनि पूर्ववर्ती सभी तीर्थकरों के अनुत्तर धर्म के नेता थे, जैसे स्वर्ग में इन्द्र अधिक प्रभावी और हजारों देवों का नेता होता है। .२. जमल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं। तं सव्वजीवसरणं णंददु जिणसासणं सुइरं॥ जिसमें लीन होकर जीव अनंत संसार-सागर का पार पा जाते हैं, जो सब जीवों के लिए शरणभूत है, वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध बना रहे। ३. जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुह-विरेयणं अमिदभूयं। : जरमरणवाहिहरणं, . खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥ जिनवचन-जिनशासन एक अमृत तुल्य औषध है। उससे विषय सुख का विरेचन, जरा-मरण और व्याधि का हरण तथा सब दुःखों का क्षय होता है। १. अणण्णदेसजाया अणण्णाहारवढियसरीरा। जिणसासणमणुपत्ता सव्वे तं बंधवा मुणिया॥ जो भिन्न-भिन्न देशों में जन्मे हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार से जिनके शरीर का संवर्धन हुआ है, जिनशासन की शरण में आ गए वे सब बंधु बन गए। ५. तम्हा सव्वपयत्तेण जो णमुक्कारधारओ। -- सावगो सोवि दट्ठव्वो जहा परमबंधवो॥ इसलिए संपूर्ण प्रयत्न इस मानसिकता में लगे-जो नमस्कार महामंत्र को धारण करने वाला है, वह श्रावक है। उसे परम बंधु माना जाए। ६. जिणक्यणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेंति भावेण। अमला असंकिलिट्ठा .. ते होंति परित्तसंसारी॥ जो जिनवचन में अनुरक्त हैं, भावपूर्वक जिनवचंन की अनुपालना करते हैं, अमल हृदयवाले और संक्लेश रहित हैं, वे परित्तसंसारी होते हैं-उनके जन्म-मरण का चक्र सीमित हो जाता है। .. इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलं पडिपुण्णं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं सिलिमगं मुत्तिमम्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहम- यह निग्रंथ प्रवचन-जिनशासन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, मोक्ष तक पहुंचाने वाला है। पवित्र एवं अंतःशल्य को काटने वाला है। सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५०६ खण्ड-४ विसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। एत्थं ठिया जीवा मार्ग, निर्याण का मार्ग और निर्वाण का मार्ग है। अवितथ सिझंति बुझंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्व. है, अविच्छिन्न है। सब दुःखों के क्षय का मार्ग है। इस दुक्खाणं अंतं करेंति। निग्रंथ प्रवचन में स्थित जीव सिद्ध हो जाते हैं, प्रशान्त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं और सब दुःखों का अन्त कर देते हैं। तीर्थंकर परम्परा ८. नमो चउवीसाए तित्थगराणं उसभादिमहावीर- ऋषभ से लेकर महावीर पर्यंत २४ तीर्थंकर का पज्जवसाणाणं नमस्कार है। वे २४ तीर्थंकर हैंउसभमजियं च वदे १. ऋषभ २. अजित संभवमभिनंदणं च सुमइंच। ३. संभव ४. अभिनंदन पउमप्पहं सुपासं ५. सुमति ६. पद्मप्रभ. जिणं च चंदप्पहं वदे॥ ७. सुपार्श्व ८. चन्द्रप्रभ सुविहिं च पुप्फदंतं ९. सुविधि/पुष्पदंत १०. शीतल सीअल सिज्जंस वासुपुज्नं च। ११. श्रेयांस १२. वासुपूज्य विमलमणंतं च जिणं १३. विमल १४. अनन्त धम्म संतिं च वंदामि॥ १५. धर्म . १६. शाति कुंथु अरं च मल्लिं १८. अर वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च। १९. मल्लि . २०. मुनिसुव्रत वंदामि रिट्ठनेमिं . २१. नमि २२. अरिष्टनेमि पासं तह वद्धमाणं च॥ . २३. पार्श्व २४. वर्द्धमान भगवान महावीर की शिष्य संपदा ९. समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते णं। श्रमण भगवान महावीर। उनका गोत्र था काश्यप। १७. कुंथु । श्रमण भगवान महावीर के ११ गणधर थे। जैसे १०.समणस्स णं भगवओ महावीरस्स एक्कारस गणहरा होत्या, तं जहा१. इंदभूती २. अग्गिभूती ३. वायुभूती ४. वियत्ते ५.सुहम्मे ६. मंडिए ७. मोरियपुत्ते ८. अकंपिए ९. अयलभाया १०. मेतज्जे ११. पभासे १. इन्द्रभूति २. अग्निभूति ४. व्यक्त ५. सुधर्मा ७. मौर्यपुत्र ८. अकंपित १०. मेतार्य ११ प्रभास ३. वायुभूति ६. मंडित ९. अचलभ्राता ११......समणस्स भगवओ महावीरस्स इंदभूइपामोक्खाओ चोइससमणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था। श्रमण भगवान महावीर के इन्द्रभूति आदि १४ हजार शिष्य थे। यह उनकी उत्कृष्ट श्रमण संपदा थी। १२.समणस्स भगवओ महावीरस्स अज्जचंदणापामोक्खाओ छत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ श्रमण भगवान महावीर के आर्या चंदनबाला आदि ३६ हजार साध्वियां थीं। यह उनकी उत्कृष्ट आर्यिका Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था । ५०७ १३. समणस्स भगवओ महावीरस्स संख सयगपामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी अणट्ठिं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया होत्था। १४. समणस्स भगवओ महावीरस्स सुलसा रेवई पामोक्खाणं समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ अट्ठारस य सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था । १५. समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सया चोस - पुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर - सन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं, उक्कोसिया चोहसपुव्वीणं संपया होत्था । १६. समणस्स भगवओ महावीरस्स तेरस सया ओहिणाणीणं अतिसेसपत्ताणं उक्कोसिया ओहिणाणीणं संपया होत्था । १७. समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्तसया केवलणाणीणं संभिन्नवरनाणदंसणधराणं उक्कोसिया केवलनाणिसंपया होत्था । १८. समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्तसया वेउव्वीणं अदेवाणं देवढिपत्ताणं उक्कोसिया वेउव्विसंपया होत्था । १९. समणस्स भगवओ महावीरस्स पंचसया विउलमईणं अड्ढाइज्जेसु दीवेसु दोसु समुद्देसु सत्रीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं जीवाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं उक्कोसिया विउलमईणं संपया होत्था । संपदा थी। अ. ७ : जिनशासन श्रमण भगवान महावीर के शंख, शतक आदि १ लाख ५९ हजार श्रमणोपासक (बारहव्रती ) थे। यह उनकी उत्कृष्ट श्रमणोपासक संपदा थी। श्रमण भगवान महावीर के सुलसा, रेवती आदि ३ लाख १८ हजार श्रमणोपासिकाएं थीं। यह उनकी उत्कृष्ट श्रमणोपासका संपदा थी । श्रमण भगवान महावीर के ३०० चतुर्दशपूर्वी थे। वे जिन नहीं थे, किन्तु जिनतुल्य थे। उन्हें सर्वाक्षरसन्निपाती लब्धि - अक्षरों के सब संयोगों को जानने वाली शक्ति प्राप्त थी। वे जिन की भांति यथार्थ व्याकरण-तत्त्व का निरूपण और प्रश्न का समाधान करते थे। यह उनकी चतुर्दश पूर्वियों की उत्कृष्ट संपदा थी। श्रमण भगवान महावीर के १३०० अतिशय प्राप्त अवधिज्ञानी थे। यह उनकी अवधिज्ञानियों की उत्कृष्ट संपदा थी। श्रमण भगवान महावीर के ७०० संपूर्ण ज्ञानदर्शन के धारक केवलज्ञानी थे। यह उनकी केवलज्ञानियों की उत्कृष्ट संपदा थी। श्रमण भगवान महावीर के ७०० वैक्रिय लब्धि संपन्न शिष्य थे। वे देव नहीं थे, किन्तु देवर्द्धि-नाना रूप निर्माण की शक्ति से सम्पन्न थे । यह उनकी वैक्रियलब्धि संपन्न शिष्यों की उत्कृष्ट संपदा थी । श्रमण भगवान महावीर के ५०० विपुलमतिवाले मनः पर्यवज्ञानी थे। वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में विद्यमान पर्याप्त संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानते थे। यह उनकी विपुलमतिवाले शिष्यों की उत्कृष्ट संपदा थी। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २०. समणस्स भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेवमणुयासुराए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाइसंपया होत्था । २१. समणस्स महावीरस्स भगवओ अंतेवासिसयाइं सिद्धाइं जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई, चउदस अज्जियासयाइं सिद्धानं । ५०८ सत्त २२. समणस्स भगवओ महावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं गइकल्लाणाणं ट्ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभद्दाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयाणं संपया होत्था । २३. समणस्स भगवओ महावीरस्स दुव अंतकडभूमी होत्था, तं जहा - जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य । जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी चउवासपरियाए अंतमकासी । २४. समणस्स भगवओ महावीरस्स कासगोत्तस्स अज्जसुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणसगोत्ते । २५. थेरस्स णं अज्जसुहम्मस्स अग्गिवेसायणसगोत्तस्स अज्जजंबुनामे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । २६. थेरस्स णं अज्जजंबुनामस्स कासवगोत्तस्स अज्जप्पभवे थेरे अंतेवासी कच्चायणसगोत्ते । २७. थेरस्स णं अज्जप्पभवस्स कच्चायणसगोत्तस्स अज्जसेज्जंभवे थेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छसगोत्ते । खण्ड-४ श्रमण भगवान महावीर के ४०० वादी - शास्त्रार्थ कुशल शिष्य थे। मनुष्य की बात ही क्या, वे देव और असुर से भी वाद में पराजित नहीं होते थे। यह उनकी वादी - शिष्यों की उत्कृष्ट संपदा थी । स्थविरावलि श्रमण भगवान महावीर के ७०० अंतेवासी श्रमण तथा १४०० आर्यिकाएं सिद्ध हुईं यावत् सब दुःखों का क्षय किया । श्रमण भगवान महावीर के ८०० शिष्य अनुत्तरोपपातिक देव हुए। उनकी गति कल्याणकारी है, स्थिति कल्याणकारी है और उनका भविष्य भी कल्याणकारी है। यह उनकी अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले शिष्यों की उत्कृष्ट संपदा थी। श्रमण भगवान महावीर के दो अंतकर भूमियां थीं१. युगांतकर भूमि २. पर्यायांतकर भूमि । श्रमण भगवान महावीर के बाद तीसरे पुरुषयुग-जंबू स्वामी तक युगान्तकर भूमि - निर्वाण गमन का क्रम रहा। भगवान महावीर को केवलज्ञान हुए चार वर्ष हुए थे, उसी समय से उनके शिष्य मोक्ष जाने लगे। काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य सुधर्मा । उनका गोत्र था अग्निवैश्यायन । अग्निवैश्यायनगोत्रीय स्थविर आर्य सुधर्मा के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य जंबू । उनका गोत्र था काश्यप । काश्यपगोत्रीय स्थविर आर्य जंबू के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य प्रभव। उनका गोत्र था कात्यायन । शिष्य कात्यायनगोत्रीय स्थविर आर्य प्रभव के अंतेवासी हुए स्थविर आर्य शय्यंभव। वे मुनि मनक के पिता थे। उनका गोत्र था वत्स । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन २८. थेरस्स णं अज्जसेज्जंभवस्स मणगपिउणो वच्छसगोत्तस्स । अज्जजसभद्दे थेरे अंतेवासी 'तुंगियायणसगोत्ते । ५०९ २९. संखित्तवायणाए अज्जजसभद्दाओ अग्गओ एवं रावली भणिया, तं जहा थेरस्स णं अज्जजसभइस्स तुंगियायणसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अज्जसंभूयविजए माढरसगोत्ते, थेरे अज्जभद्दबाहू पाईणसगोत्ते । ३०. रस्स णं अज्जसंभूयविजयस्स मांढरसगोत्तस्स . अंतेवासी थेरे अज्जथूलभद्दे गोयमसगोत्ते । ३१. थेरस्स णं अज्जथूलभहस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा- थेरे अज्जमहागिरी एलावच्चसगोते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिट्ठसग़ोत्ते । ३२. रस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिट्ठसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा - सुट्ठियसुप्पडिबुद्धा कोडिय - काकंदगा वग्धावच्चसगोत्ता । ३३. थेराणं सुट्ठियसुप्पडिबुखाणं कोडिय-काकंदगाणं वग्धावच्चसगोत्ताणं अंतेवासी थेरे अज्जइंददिने कोसियगोत्ते । ३४. थेरस्स णं अज्जइंददिन्नस्स कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जदिने गोयमसगोत्ते । ३५. थेरस्स णं अज्जदिन्नस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जसीहगिरी जाइस्सरे कोसियगोत्ते । ३६. थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जाइसरस्स कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरे गोयमसगोत्ते । अ. ७ : जिनशासन वत्सगोत्रीय मुनि मनक के पिता स्थविर आर्य शय्यंभव के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य यशोभद्र । उनका गोत्र था तुंगियायण । संक्षिप्त वाचना के अनुसार आर्य यशोभद्र से आगे स्थविरावलि इस प्रकार है तुंगियायणगोत्रीय आर्य यशोभद्र के दो अंतेवासी शिष्य हुए-आर्य संभूतिविजय और आर्य भद्रबाहु । आर्य संभूतिविजय का गोत्र था माठर और आर्य भद्रबाहु का गोत्र था प्राचीन । माठरगोत्रीय आर्य संभूतविजय के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य स्थूलभद्र । उनका गोत्र था गौतम । गौतमगोत्रीय आर्य स्थूलभद्र के दो अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य महागिरि और स्थविर आर्य सुहस्ति । आर्यमहागिरि का गोत्र था एलापत्य और आर्य सुहस्ति का गोत्र था वाशिष्ठ | वाशिष्ठगोत्रीय आर्य सुहस्ति के दो अंतेवासी शिष्य हुएस्थविर सुस्थित और स्थविर सुप्रतिबुद्ध। ये दोनों कोडियकाकंदक कहलाते थे। इन दोनों का गोत्र था व्याघ्रापत्य । व्याघ्रापत्यगोत्रीय, कोडिय - काकंदक स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य इन्द्रदत्त | उनका गोत्र था कौशिक | कौशिकगोत्रीय आर्य इन्द्रदत्त के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य दत्त | उनका गोत्र था गौतम । गौतमगोत्रीय आर्य दत्त के अंतेवासी शिष्य हुए स्थविर आर्य सिंहगिरि । उनका गोत्र था कौशिक | उन्हें जातिस्मरणज्ञान था। जातिस्मरणज्ञान से सम्पन्न, कौशिकगोत्रीय स्थविर आर्य सिंहगिरि के अंतेवासी शिष्य हुए आर्य वज्र । उनका गोत्र था गौतम | Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५१० खण्ड-४ जिनशासन में प्रव्रजित चक्रवर्ती और राजे ३७.किरियं च रोयए धीरे, अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिठिसंपन्ने धम्म चर सदच्चरं।। धीर-पुरुष को क्रियावाद पर रुचि करनी चाहिए और अक्रियावाद को त्याग देना चाहिए। सम्यक् दृष्टि के द्वारा दृष्टि-सम्पन्न होकर तुम सुदुश्चर धर्म का आचरण करो। ३८.एयं पुण्णपयं सोच्चा, अत्थंधम्मोवसोहियं। भरहो वि भारहं वासं, चेच्चा कामाइ पव्वए। अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पवित्र उपदेश को . सुनकर भरत चक्रवर्ती ने भारतवर्ष और काम-भोगों को . छोड़कर प्रव्रज्या ली। ३९.सगरो वि सागरन्तं भरहवासं नराहिवो। इस्सरियं केवलं हिच्चा दयाए परिनिव्वुडे॥ सगर चक्रवर्ती सागर पर्यन्त भारतवर्ष और पूर्ण . ऐश्वर्य को छोड़, संयम की आराधना कर मुक्त हुए। ४०.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिडिढओ। पव्वज्जमब्भुवगओ मघवं नाम महाजसो॥ ४१.सणंकुमारो-मणुस्सिन्दो चक्कवट्टी महिड्ढिओ। पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं सो वि राया तवं चरे॥ महर्द्धिक और महान् यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या ली। महर्द्धिक राजा सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तपश्चरण किया। ४२.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिड्ढिओ। सन्ती सन्तिकरे लोए पत्तो गइमणुत्तरं॥ महर्द्धिक और.लोक में शांति करनेवाले शांतिनाथ ... चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति प्राप्त की। ४३.इक्खागरायवसभो कुन्थू नाम नराहिवो। विक्खायकित्ती धिइमं मोक्खं गओ अणत्तरं। इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ, विख्यात कीर्ति. वाले, धृतिमान भगवान कुन्थु नरेश्वर ने अनुत्तर मोक्ष प्राप्त किया। ४४.सागरंतं जहित्ताणं भरहं वासं नरीसरो। अरो य अरयं पत्तो पत्तो गइमणुत्तरं॥ सागर पर्यन्त भारतवर्ष को छोड़कर, कर्मरज से मुक्त होकर अर नरेश्वर ने अनुत्तर गति प्राप्त की। ४५.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी नराहिओ। चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे॥ विपुल राज्य, सेना और वाहन तथा उत्तम भोगों को छोड़कर महापद्म चक्रवर्ती ने तप का आचरण किया। ४६. एगच्छत्तं पसाहित्ता महिं माणनिसूरणो। हरिसेणो मणुस्सिंदो पत्तो गइमणुत्तरं।। शत्रु-राजाओं का मान-मर्दन करने वाले हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एक-छत्र शासन किया, फिर अनुत्तर गति प्राप्त की। ४७.अन्निओ रायसहस्सेहिं सपरिच्चाई दमं चरे। जयनामो जिणक्खायं पत्तो गइमणुत्तरं। जय चक्रवर्ती ने हजार राजाओं के साथ राज्य का परित्याग कर जिनभाषित दम का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ४८. दसणरज्जं मुइयं चइत्ताणं मुणी चरे । दसण्णभो निक्खंतो सक्खं सक्केण चोइओ ॥ ४९. नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ । चइऊण गेहं वइदेही सामण्णे पज्जुवट्ठिओ ॥ ५०. करकंडू कलिंगेसु पंचालेसु य नमी राया विदेहेसु गंधारेसु य ५१. एए नरिंदवसभा निक्खंता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं सामण्णे पज्जुवट्ठिया || ५२. सोवीररायवसभो चेच्चा रज्जं उहायणो पव्वइओ पत्तो ५३. तहेव कासीराया सेओ कामभोगे परिच्चज्ज पहणे ५६. देवा भवित्ताण पुरे भवम्मी दुम्मुहो । नग्गई ॥ ५४. तहेव विजओ राया अणट्ठाकित्ति पव्वए । रज्जं तु गुणसमिद्धं पयहित्तु महाजसो ॥ ५५. तहेवुग्गं तवं किच्चा अव्वक्खित्तेण चेयसा । महाबालो रायरिसी अद्दाय सिरसा सिरं ॥ पुरे पुराणे सुयारनामे मुणी चरे । गइमणुत्तरं ॥ सच्चपरक्कमे । कम्ममहावणं ॥ केई चुया एगविमाणवासी । ५७. सकम्मसेसेण पुराकएणं खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे ॥ निव्विण्णसंसारभया जहाय कुसु दग्गेसु य ते पसूया । जिणिदमग्गं सरणं पवन्ना ॥ ५११ अ. ७ : जिनशासन साक्षात् शक्र के द्वारा प्रेरित दशार्णभद्र ने दशार्ण देश का प्रमुदित राज्य छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनिधर्म का आचरण किया। विदेह के अधिपति नमिराज ने, जो गृह को त्याग कर श्रामण्य में उपस्थित हुए और देवेन्द्र ने जिन्हें साक्षात प्रेरित किया, आत्मा को नमा लिया- वे अत्यन्त नम्र बन गए । कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गान्धार में नग्गति राजाओं में वृषभ के समान ये अपने-अपने पुत्रों को राज्य पर स्थापित कर जिनशासन में प्रव्रजित हुए और श्रमण-धर्म में सदा यत्नशील रहे। सौवीर राजाओं में वृषभ के समान उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की । इसी प्रकार श्रेय और सत्य के लिए पराक्रम करने वाले काशीराज ने काम-भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन का उन्मूलन किया। इसी प्रकार विमल कीर्ति, महायशस्वी विजय राजा ने गुण से समृद्ध राज्य को छोड़कर जिनशासन में प्रव्रज्या ली। इसी प्रकार अनाकुलचित्त से उग्र तपस्या कर राजर्षि महाबल ने अपना शिर देकर शिर (मोक्ष) को प्राप्त किया। पूर्वजन्म में देवता होकर एक ही विमान में रहने वाले कुछ जीव देवलोक से च्युत हुए, उस समय इषुकार नाम का एक नगर था - प्राचीन, प्रसिद्ध, समृद्धिशाली और देवलोक के समान । उन जीवों के अपने पूर्वकृत पुण्यकर्म शेष थे। फलस्वरूप वे इषुकार नगर के उत्तम कुलों में उत्पन्न हुए। संसार के भय से खिन्न होकर उन्होंने भोगों को छोड़ा और जिनेन्द्र मार्ग की शरण में चले गए। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५१२ खण्ड-४ राजर्षि दशार्णभद्र ५८.दसन्नभदो राया। निवेइयं राइणो पउत्तिकहगेहि जहा देव! भगवं महावीरो समागओ। परितुदो राया। वंदितो तत्थेव भावेण। दिन्नं पारितोसियं। यण चिंतियं चाणेण-अम्हारिसेहिं सारासारविभागवियाणएहिं समग्गसामग्गिएहिं चिंतामणिस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स विसेसेण सविडिढपया काउं जज्जइ त्ति. ता कल्लं सविडिढए तहा वंदिस्सं भयवं जहा न केणइ वंदियपुव्यो। बीयदिवसे पहायसमए य कयगोसकिच्चो, ण्हायविलित्तालंकियदेहो उदाररूवजोव्वण-लायन्नने- वत्येण पंचसइकेणाऽवरोहेण सलिं, मंडिया- लंकियाए चाउरंगिणीए सेणाए परिगओ। पवर- जाणारूढेहिं बहुहिं सामंत-मंति-सेदिठ-सत्थवाह- पउरजणसहस्सेहिं अण्णिज्जमाणो। भंभाभेरिमाइ आउज्जरवबहिरियदिगंतरो, पढंतेहिं मागहेहिं गायंतेहिं गंधव्विएहिं नच्चंतीहिं विलासिणीहिं गओ भगवतो वंदणत्थं। विसुज्झमाणभावेण वंदितो भयवं। कयत्थो म्हि त्ति हरिसिओ राया। राजा दशार्णभद्र। एक दिन प्रवृत्तिवादकों (सूचनाकारों) ने राजा से निवेदन किया-देव! भगवान महावीर दशार्णपुर नगर में पधारे हैं। संवाद सुन राजा परितुष्ट हुआ। वहीं से भावपूर्ण वंदना की। प्रवृत्तिवादकों को पारितोषिक दिया। राजा ने सोचा-सार-असार का विवेक करने वाले, . समग्र साधनों से सम्पन्न हम जैसे लोगों के लिए यह उचित है कि त्रिभुवन चिंतामणि श्रमण भगवान महावीर की विशिष्ट ऋद्धि के साथ वंदना करें। कल मैं अपनी समस्त ऋद्धि के साथ वैसी वंदना करूंगा, जैसी आज तक किसी ने नहीं की है। दूसरा दिन। प्रभात का समय। प्राभातिक कृत्य से निवृत्त हो स्नान, विलेपन कर शरीर को अलंकृत किया। उसके साथ रूप, यौवन और लावण्य से युक्त सुन्दर वेशभूषावाली पांच सौ रानियां थीं। सुसज्जित चतुरंगिणी सेना थी। प्रवर यानों पर आरूढ़ बहुत से सामंत, मंत्री, श्रेष्ठी, सार्थवाह और हजारों पौरजन उसकी अगवानी कर रहे थे। भंभा, भेरी, आतोद्य आदि के शब्दों से दिशाएं बधिर बन रही थीं। मागध मंगलपाठ कर रहे थे। गान्धर्विक गा रहे थे। नृत्यांगनाएं नाच रही थीं। दशार्णभद्र ऐसी ऋद्धि के साथ भगवान महावीर को वंदन करने के । लिए गया। विशुद्धभावों से प्रभु को वंदन कर उसने कृतार्थता का अनुभव किया। हर्षित हुआ। इत्यंतरे सक्केण चिंतियं महापुरिसो दसण्णभदो शक्र ने उस समय चिंतन किया-महापुरुष दशार्णभद्र पडिबुझिस्सइ इमिणा वइयरेण, अतो महाविभूईए इस घटना से प्रतिबुद्ध होगा। अतः मैं महान विभूति के वंदामि भयवंतं। साथ भगवान महावीर को वंदना करूं। विउब्बिया एरावए अट्ठदंता, दंते दंते अट्ठ पो- शक्र ने एक एरावत का निर्माण किया। उसके आठ क्खरणीतो, पुक्खरणीए पुक्खरणीए अट्ठ पउमा, दांत थे। प्रत्येक दांत में आठ-आठ पुष्करणियां। प्रत्येक पउमे पउमे अट्ठ पत्ता, पत्ते पत्ते अट्ठ बतीसबछा पुष्करणी में आठ-आठ कमल। प्रत्येक कमल के आठरासपेक्खणा। एवं विभूईए एरावणं पयाहिणेऊण आठ पत्र और पत्र-पत्र पर बत्तीसविध नाटकवाली आठवंदितो भयवं देविदेण। आठ रासप्रेक्षाएं। इस विभूति के साथ ऐरावत को दाहिनी ओर रखकर देवेन्द्र ने भगवान की वंदना की। तं दतॄण चिंतियं दसण्णभइणं-अहो! खलु दशाणभद्र ने उसे देखकर सोचा-अहो! मैं कितना तुच्छोऽहं जेण इमीए वि तुच्छाए सिरीए गव्वो तुच्छ हूं। मैंने अपनी अल्प ऋद्धि पर गर्व किया अथवा कओ। ऐसा होता ही है Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५१३ अ.७ : जिनशासन अहवां अदिट्ठभहा थेणेव वि हुंति उत्तुणाणीया। जिन्होंने बहुत समृद्धि नहीं देखी है, वे थोड़े में गर्वोन्नत णच्चइ उत्तालकरो हु मूसगो विहिमासज्न॥ हो जाते हैं, जैसे चूहा चावलों को देख उछल-कूद करता हुआ नाचने लगता है। कओ अणेण सुद्धधम्मो तेण एरिसा रिद्धी। ता इसने (इन्द्र ने) शुद्ध धर्म की आराधना की थी, अहं पि तं चेव करेमि, किमेत्थ विसाएणं? इच्चाइ- जिससे इसे ऐसी ऋद्धि मिली है। अतः मैं भी शुद्ध धर्म की संवेगमावणाए पडिबुद्धो। खओवसममुवगयं आराधना करूं। विषाद करने से क्या होगा, इस प्रकार चारित्तमोहणीयं भणियं च तेण-भयवं! वह संवेगभावना (मुमुक्षु भाव) से प्रतिबुद्ध हो गया। निविण्णोऽहं भवचारगतो। ता करेह मे चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम हुआ। उसने निवेदन वयप्पयाणेणाऽणुग्गहं ति। किया-भगवन् ! मैं भवभ्रमण से निर्विण्ण हो गया हूं। अतः आप मुझ पर व्रतप्रदान करने का अनुग्रह करें। दिक्खितो य भयवया। वंदितो सक्केण, पसंसितो भगवान ने उसे दीक्षित किया। शक्र ने उसकी वंदना य-धन्नो कयत्थो तुमं जेणेरिसा रिद्धी सहसच्चिय की और प्रशंसा के स्वर में बोला-आप धन्य हैं। कृतार्थ परिचत्ता य नियपइन्ना तुमे। . हो गए हैं, जिन्होंने इस प्रकार की ऋद्धि का सहसा परित्याग कर दिया है। आपने अपनी प्रतिज्ञा को सत्यापित कर दिया है। Page #535 --------------------------------------------------------------------------  Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-८ शिक्षा Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्रुत अध्यापन के उद्देश्य २. श्रुत अध्ययन के उद्देश्य, ३. शिक्षार्थी की अर्हता ४. शिक्षा के बाधक तत्त्व ५. शिक्षा के साधक तत्त्व५१ अष्टम अध्याय पृ.सं. ५१७ ५१७ ५१८ ५१८ ९ ६. आचार्य भद्रबाहु और मुनि स्थूलभद्र ७. वाचना के अयोग्य ८. वाचना के योग्य ९. शिक्षा का प्रायोगिक रूप १०. अप्रमाद का शिक्षण पू. सं. ५१९ ५२१ *५२१ ५२२ ५२३ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा १. सिद्धाणं नमो किच्चा , संजयाणं च भावओ। . अत्यधम्मगई तच्चं अणुसदिळं सुणेह मे॥ सिद्धों और संयत-आत्माओं को भावभरा नमस्कार कर मैं अर्थ (साध्य) और धर्म का ज्ञान करानेवाली तथ्यपूर्ण अनुशासना का निरूपण करता हूं। वह मुझसे सुनो। २. सिक्खा दुविहा १. गहणसिक्खा २. आसेवणसिक्खा य। शिक्षा के दो प्रकार हैं१. ग्रहण शिक्षा-ज्ञानात्मक शिक्षा। २. आसेवन शिक्षा-प्रयोगात्मक शिक्षा। ३. चउव्विहा खलु सुयसमाही भवइ, तं जहा श्रुत एक समाधि-समाधान है। उसके चार उद्देश्य हैं१. सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। १. मुझे ज्ञान प्राप्त होगा, इसलिए मुझे पढ़ना चाहिए। .. २. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं २. मैं एकाग्रचित्त बनूंगा, इसलिए मुझे पढ़ना चाहिए। भवइ। ३. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। ३. मैं अपने आपको स्थिर बनाऊंगा, इसलिए मुझे पढ़ना चाहिए। ४. ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। ४. मैं स्थिर होकर दूसरों को स्थिर बनाऊंगा, इसलिए मुझे पढ़ना चाहिए। श्रुत अध्यापन के उद्देश्य ४. पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएज्जा, तं जहा आगम सूत्र की वाचना (अध्यापन) के पांच उद्देश्य १. संगठ्याए १. संग्रह-शिष्यों को श्रुतसंपन्न करने के लिए। २. उवग्गहृट्ठयाए २. उपग्रह-भक्तपान व उपकरण प्राप्ति की क्षमता उत्पन्न करने के लिए। ३. णिज्जरट्ठयाए ३. निर्जरा-आत्मविशुद्धि के लिए। ४. सुत्ते वा मे पज्जवयाते भविस्सति ४. ज्ञान की निर्मलता बढ़ाने के लिए। ५. सुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्ठयाए। ५. श्रुतपरंपरा को अविच्छिन्न रखने के लिए। श्रुत अध्ययन के उद्देश्य ५. पंचहि ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेज्जा, तं जहा श्रुत अध्ययन के पांच उद्देश्य हैं१. णाणट्ठयाए १. ज्ञान-अभिनव तत्त्वों की उपलब्धि के लिए। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५१८ खण्ड-४ २. दंसणट्ठयाए ३. चरित्तट्ट्याए ४. वुग्गहविमोयणट्ठयाए २. दर्शन-तत्त्वरुचि को पुष्ट करने के लिए। ३. चारित्र-आचार विशुद्धि के लिए। ४. व्युद्ग्रह विमोचन-दूसरों को मिथ्या अभिनिवेश से मुक्त करने के लिए। ५. यथार्थ भावों को जानने के लिए। ५. अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीति कट्ट। शिक्षार्थी की अर्हता ६. अह अट्ठहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई। आठ हेतुओं से व्यक्ति शिक्षाशील कहलाता है अहस्सिरे सया दंते न य मम्ममुदाहरे॥ १. हास्यशील नहीं होता। २. इन्द्रिय और मन पर नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। सदा नियंत्रण रखता है। ३. मर्म प्रकाशन नहीं करता। ४. अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई। शील रहित नहीं होता। ५. शील के दोषों से कलुषित नहीं होता। ६. अतिलोलुप नहीं होता। ७. क्रोध नहीं करता। ८. सत्य में रत रहता है। ७. विवत्ती अविणीयस्स संपत्ती विणीयस्स य। जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ।। "अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पत्ति होती है-ये दोनों जिसे ज्ञात हैं, वही शिक्षा को प्राप्त होता है। ८. वसे गुरुकुले निच्चं जोगवं उवहाणवं। जो सदा गुरुकुल में वास करता है, योगवान और : पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लद्धमरिहई। तपस्वी होता है, मृदु व्यवहार करता है, मृदु बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। '' शिक्षा के बाधक तत्त्व ९. अह पंचहिं ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लब्भई। अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य ये पांच __ थंभा कोहा पमाएणं रोगेणाऽलस्सएण य॥ शिक्षा के विघ्न हैं। इनके होते हुए शिक्षा उपलब्ध नहीं होती। १०.अह चउदसहिं ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छई। निम्न निर्दिष्ट चवदह प्रवृत्तियों का आसेवन करने वाला अविनीत-शिक्षा के अयोग्य कहलाता है। वह निर्वाण-मानसिक शांति को प्राप्त नहीं होता अभिक्खणं कोही हवइ पबंधं च पकुव्वई। मेत्तिज्जमाणो वमइ सुयं लभ्रूण मज्जई। अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु कुप्पई। सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासइ पावगं। पइण्णवाई दुहिले थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई। १. जो बार-बार क्रोध करता है।२. क्रोध को टिकाकर रखता है। ३. मैत्री रखने वाले के साथ भी अमैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है। ४. ज्ञान का मद करता है। ५. किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है। ६. मित्रों पर कुपित होता है। ७. प्रियता रखने वाले मित्र की भी एकांत में बुराई करता है। ८. असंबद्धभाषी है। ९. द्रोही है। १०. अभिमानी है। ११. लुब्ध है। १२. जितेन्द्रिय Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५१९ अ. ८ : शिक्षा नहीं है। १३. संविभाग नहीं करता है। १४. विश्वसनीय अथवा प्रीतिकर नहीं है। शिक्षा के साधक तत्त्व ११.अह पन्नरसहिं ठाणेहि सुविणीए त्ति वुच्चई। निम्न निर्दिष्ट पन्द्रह प्रवृत्तियों का आसेवन करनेवाला नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले॥ सुविनीत शिक्षा के योग्य कहलाता हैअप्पं चाहिक्खिवई पबंधं च न कुव्वई। १. जो नम्र होता है। २. चपल नहीं होता। ३. मायावी मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लद्धं न मज्जई॥ · नहीं होता। ४. कुतूहल नहीं करता। ५. किसी पर आक्षेप न य पाक्परिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई। नहीं करता। ६. क्रोध को टिकाकर नहीं रखता। ७. मैत्री अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई॥ रखनेवाले के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है। ८. ज्ञान कलहडमरवज्जए बुद्धे अभिजाइए। का मद नहीं करता। ९. स्खलना होने पर किसी का हिरिमं पडिसलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई॥ तिरस्कार नहीं करता। १०. मित्रों पर क्रोध नहीं करता। ११. अप्रियता रखनेवाले मित्र की भी एकांत में प्रशंसा करता है। १२. कलह और हाथापाई का वर्जन करता है। १३. कुलीन होता है। १४. लज्जावान होता है। १५. प्रतिसंलीन-इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला होता है। आचार्य भद्रबाहु और मुनि स्थूलभद्र १२.तंमि य काले बारसवरिसो दुक्कालो उवठितो। संजता इतो इतो य समुइतीरे अच्छित्ता पुणरवि पाडलिपुत्ते मिलिता। तेसिं अण्णस्स उद्देसओ अण्णस्स खंडं। एवं संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि। दिदिठवादो नत्थि। मुनि स्थूलभद्र ने श्रुत का मद किया। आचार्य भद्रबाहु ने उन्हें वाचना के अयोग्य मान लिया-एक बार बारह वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ। साधु संघ समुद्र के किनारे चला गया। सुभिक्ष होने पर पाटलिपुत्र में पुनः मिला। दुर्भिक्ष के समय बहुत श्रुतधर मुनि स्वर्गवासी हो गए। जो शेष बचे उनमें से किसी को श्रुत का उद्देशक याद रहा, किसी को उसका एक अंश। संघ के अग्रणी मुनियों ने उन सबको व्यवस्थित रूप में संकलित किया। इस प्रकार ११ अंग संकलित हो गए। दृष्टिवाद को जानने वाला कोई मुनि नहीं बचा। उस समय आचार्य भद्रबाह नेपाल देश में थे। वे चतुर्दश पूर्वी थे। संघ ने परामर्श कर एक सिंघाड़ा (दो मुनि) वहां भेजा और निवेदन करवाया-आप यहां आकर दृष्टिवाद की वाचना दें। उन मुनियों ने वहां जाकर उनके सामने संघ का आवेदन प्रस्तुत किया। भद्रबाहु ने कहा-पहले दुष्काल था, इसलिए मैं महाप्राण की साधना में प्रविष्ट नहीं हुआ। अब मैंने उसकी साधना प्रारंभ की है, अतः मैं वाचना देने के लिए आने में असमर्थ हूं। . नेपालवत्तणीए य भहबाहुस्सामी अच्छंति . चोहसपुव्वी। तेसिं संघेणं पत्थवितो संघाडओ दिदिठवादं वाएहित्ति। गतो। निवेदितं संघकज्जं तं। ते भणंति-दुक्कालनिमित्तं महापाणं ण पविठो मि। इयाणिं पविट्ठो मि तो न जाति वायणं दातुं। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५२० खण्ड-४ पडिनियत्तेहिं संघस्स अक्खातं। तेहिं अण्णोवि मुनियों ने लौटकर सारा वृत्त संघ को बताया। संघ ने संघाडओ विसज्जितो-जो संघस्स आणं दूसरा सिंघाड़ा भेज कहलवाया-जो संघ की आज्ञा का अतिक्कमति तस्स को डंडो? ते गता। कहितं। तो अतिक्रमण करता है, उसके लिए कौन-सा दंड है? अक्खाइ-उग्घाडेज्जइ। ते भणंति-मा उग्घाडेह। सिंघाड़ा गया और सारी बात कही। संघ की आज्ञा के पेसेह मेहावी सत्त पाडिपुच्छगाणि देमि अतिक्रमण का अर्थ होता है-संघ से बहिष्कार। भद्रबाह ने कहा-ऐसा मत करो। कुछ मेधावी साधुओं को भेजो। मैं प्रतिदिन सात वाचना दूंगा१. भिक्खायरियाए आगतो १. भिक्षाचरी से आने के बाद २. कालवेलाए २. स्वाध्याय के समय ३. सण्णाए आगतो ३. शौच से आने के बाद ४. वेयालियाए ४. विकाल बेला में ५. आवस्सए पडिपुच्छा तिण्णि। ५. आवश्यक के बाद प्रतिपृच्छा के लिए तीन ।' महापाणं किर जदा अतिगतो होति ताहे उप्पण्णे जब महाप्रयाण ध्यान सम्पन्न हो जाता है, उस कज्जे अंतोमहत्तेण चोइसवि पुव्वाणि अणुप्पे- व्यवस्था में प्रयोजन उत्पन्न होने पर अंतर्मुहूर्त में चौदह हेज्जंति। उक्कइओवइयाणि करेति। पूर्वो की अनुप्रेक्षा की जा सकती है। उनका अनुलोमविलोम पद्धति अथवा पूर्वानुपूर्वी-पश्चानुपूर्वी से परिवर्तन . किया जा सकता है। ताहे थूलभद्दसामिप्पमुक्खाणि पंच मेहावीणं संघ ने सिंघाड़े से यह संवाद पाकर स्थूलभद्र आदि । सताणि गयाणि। ते य पपढिमा। मासेण एक्केण ५०० मेधावी मुनियों को वहां भेजा। उन्होंने वाचना प्रारंभ दोहिं तिहिंति सव्वे ओसरिता। न तरंति की। प्रायः सभी मुनि एक, दो, तीन महीनों में लौट गए। पाडिपुच्छएणं पढितं। थूलभदसामी ठितो। थेवाव- उन्होंने कहा-हम प्रतिपच्छक के बिना पढ़ नहीं सकते। सेसे महापाणे पुच्छितो-न ह किलंमसि? न केवल स्थूलभद्रस्वामी वहां रहे। किलंमामि। खमाहि कंचि कालं। तो दिवसं सव्वं महाप्राण ध्यान की साधना थोड़ी शेष रही, तब वायणा होहिति। पुच्छति-किं पढितं? केत्तियं वा भद्रबाहु ने पूछा-तुम खिन्न तो नहीं हो रहे हो ? स्थूलभद्रअच्छति? आयरिया भणंति-अट्ठासीतिं सुत्ताणि। मैं खिन्न नहीं हो रहा हूं। भद्रबाहु-कुछ दिन प्रतीक्षा करो, सिद्धत्थकेण मंदरेण य उपमाणं। भणिओ य-एतो फिर मैं तुम्हें पूरे दिन वाचना दूंगा। स्थूलभद्र-मैंने कितना ऊणतरेणं कालेणं पढिहिसि। मा विसादं पढ़ा है, कितना शेष रहा है ? भद्रबाहु-तुम ८८ सूत्र पढ़ वच्चेज्जासि। चुके हो। सरसों जितना पढे हो। मंदर जितना पढ़ना शेष है। किंतु विषाद मत करो। जितना समय लगा है, उससे कम समय में तुम पढ़ पाओगे। समत्ते महापाणे किर पढियाणि णव पडिपण्णाणि। महाप्राण ध्यान सम्पन्न हो गया। स्थूलभद्र ने प्रतिपूर्ण दसमकं च दोहिं वत्थूहिं ऊणकं। एतंसि अन्तरे नौ पूर्व पढ़ लिए। वस्तुओं (विभागों) से न्यून दसवां पूर्व विहरन्ता आगता पाडलिपुत्तं। थूलभहस्स य ताओ भी पढ़ लिया। भद्रबाहु और स्थूलभद्र नेपाल से प्रस्थान भगिणीओ सत्तवि पव्वइतिकाओ भणंति- कर पाटलिपुत्र आ गए। स्थूलभद्र की सात बहिनें प्रव्रजित आयरिका! भाउकं वंदका वच्चामो। उज्जाणे किर हुई थीं। वे आचार्य भद्रबाहु और अपने भाई स्थूलभद्र को ठितेल्लका। आयरिए वंदित्ता पुच्छंति-कहिं वंदन करने गईं। आचार्य भद्रबाहु उद्यान में ठहरे हुए थे। जेठभाते? भणति-एताए देवकुलिकाए गुणति। उन्होंने वंदन कर पूछा-हमारा ज्येष्ठ भ्राता कहां है? Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५२१ अ.८: शिक्षा तेण य ‘चिंतितं-भगिणीणं इड्ढिं दरिसेमित्ति भद्रबाहु-इसी देवकुल में परावर्तन कर रहा है। स्थूलभद्र ने सीहरूवं विउव्वितं। ताओ सीहं पेच्छंति। ताउ चेव आती हुई बहिनों को देखा। उन्होंने सोचा-बहिनों को भीता नट्ठाओ। भणंति-सीहेण खइओ। अपनी ऋद्धि दिखाऊं और सिंह का रूप बना लिया। आयरिएणं भणितं-ण सो सीहो। थूलभहो। जाह साध्वियों ने सिंह को देखा। वे डरकर लौट आईं। आचार्य इदाणि। ताहे गताओ। वंदिओ य। खेमकुसलं से बोलीं-स्थूलभद्र को सिंह खा गया। भद्रबाहु बोले-वह पुच्छति। जथा सिरिओ पव्वइतो अब्भत्तठेणं सिंह नहीं है, स्थूलभद्र है, पुनः जाओ। साध्वियां आई। कालगतो। महाविदेहे य पुच्छिका गता अज्जा। स्थूलभद्र को वंदन किया। कुशल-क्षेम पूछा। उन्होंने दोवि अज्झयणाणि भावणा विमोत्ती य अणिताणि श्रीयक की दीक्षा का वृत्तांत सुनाया। उपवास में उसका वंदित्ता गताओ। स्वर्गवास हो गया। हमारे मन में संदेह हो गया कि हमने आहार नहीं करने दिया, इसलिए उसकी मृत्यु हो गई। देवता हम दो साध्वियों को महाविदेह में ले गए। हमने तीर्थंकर से पूछा संदेह निवृत्त हो गया। वहां हमें दो अध्ययन-भावना और विमुक्ति प्राप्त हुए। इस प्रकार वार्तालाप कर वे चली गईं। बितियदिवसे · उद्देसणकाले उवठितो। न दूसरे दिन वाचना के समय स्थूलभद्र भद्रुबाहु के उदिसंति। किं कारणं? अजोगो। तेण जाणितं सामने उपस्थित हुए। भद्रबाहु ने वाचना नहीं दी। कल्लत्तणकं। भणति-ण कहामि। स्थूलभद्र ने सोचा, क्या कारण है जिससे मुझे वाचना के योग्य नहीं माना। उन्होंने इस पर ध्यान केन्द्रित किया और जाना-इसका कारण कल की घटना है। वे बोले-मैं भविष्य में ऐसा नहीं करूंगा। . भणति-ण तुमं काहिसि। अण्णे काहिंति। पच्छा ___भद्रबाहु बोले-तुम नहीं करोगे, पर दूसरे कर लेंगे। महता किलेसेण पडिवण्णा उवरिल्लाणि चत्तारि बहुत प्रार्थना करने पर बड़ी कठिनाई से वाचना देना पुव्वाणि पढाहि। मा अण्णस्स देज्जासि। स्वीकार किया। उन्होंने स्थूलभद्र से कहा-अवशिष्ट चार पूर्व तुम पढ़ो, पर दूसरों को उनकी वाचना नहीं दोगे। ते चत्तारि ततो वोच्छिण्णा। दसमस्स य दो स्थूलभद्र के बाद अंतिम चार पूर्व विच्छिन्न हो गए। पच्छिमाणि वत्थूणि वोच्छिण्णाणि। दस पुव्वाणि दसवें पूर्व की अंतिम दो वस्तुएं भी विच्छिन्न हो गईं। दस अणुसज्जति। पूर्व की परम्परा उनके बाद भी चली। वाचना के अयोग्य १३.चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा चार अवाचनीय-वाचना देने के अयोग्य होते हैं१. अविणीए २. विगइपडिबद्धे ३. अविओस- १. अविनीत २. लोलुप ३. अव्यवशमित प्राभृतवितपाहुडे ४. माई। कलह का उपशमन नहीं करने वाला ४. मायावी। वाचना के योग्य १४.चत्तारि वायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा चार वाचनीय-वाचना देने के योग्य होते हैं१. विणीते २. अविगतिपडिबुद्धे ३. विओसवित- १. विनीत २. अलोलुप ३. व्यवशमित प्राभृत-कलह ___पाहुडे ४. अमाई। का उपशमन करने वाला ४. अमायावी। १. आयारचूला के दो अध्याय। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५२२ खण्ड-४ शिक्षा का प्रायोगिक रूप १५.तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ। सयमेव मुंडावेइ। सयमेव सेहावेइ। सयमेव सिक्खावेइ। सयमेव आयार-गोयरविणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ-एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुंजियव्वं, एवं भासियव्वं, एवं उठाए उठाय पाणेहिं, भूएहिं, जीवहिं, सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्वं अस्सिं च णं अट्ठे नो पमाएयव्वं । श्रमण भगवान महावीर मेघकुमार को स्वयं प्रव्रजित करते हैं। स्वयं मुंडित करते हैं। स्वयं दीक्षित और शिक्षित करते हैं। स्वयं उसे आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, चरण, करण और जीवन यात्रा से संबंधित धर्म का आख्यान करते हैं-देवानुप्रिय! तुम्हें ऐसे (संयमपूर्वक) चलना है। ऐसे खड़े होना है। ऐसे सोना है। ऐसे खाना और बोलना है। तुम इस उत्थान (आत्मबोध) से उत्थित हुए हो इसलिए तुम्हें प्राण, भूत जीव व सत्त्व के प्रति संयम का आचरण करना है। इस कार्य में तुम किचिंत भी प्रमाद नहीं करोगे। १६.अणुसासणमोवायं दुक्कडस्स य चोयणं। हियं तं मन्नए पण्णो वेसं होइ असाहुणो॥ मृदु या कठोर वचनों से किया जाने वाला अनुशासन दृष्कृत का निवारक होता है। प्रज्ञावान मुनि उसे हित मानता है। अप्रज्ञावान के लिए वह द्वेष का हेतु बन जाता है। १७.खड्डया मे चवेडा मे अक्कोसा य वहाय मे। कल्लाणमणुसासंतो पावदिदिठ त्ति मन्नई। पापदृष्टि वाला शिष्य गुरु के कल्याणकारी, अनुशासन को भी ठोकर मारने, चांटा जड़ने, गाली देने व प्रहार करने के समान मानता है। , . १८.पुत्तो मे भाय नाइ त्ति साह कल्लाण मन्नई।, पावदिछी उ अप्पाणं सासं दासंघ मन्नई। गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह अपना समझकर शिक्षा देते हैं। ऐसा सोच विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है, परन्तु अविनीत शिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास तुल्य मानता है। १९.अणासवा थूलवया कुसीला मिउं वि चण्डं पकरेंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया पसायए ते हु दुरासयं पि॥ आज्ञा को न मानने वाले और असंबद्ध बोलनेवाले कुशील शिष्य कोमल स्वभाववाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। चित्त के अनुसार चलने वाले और पटुता से कार्य को सम्पन्न करनेवाले शिष्य दुराशय-शीघ्र कुपित होने वाले गुरु को भी प्रसन्न कर देते हैं। २०.किं ताए पढियाए पयकोडीए वि पलालभूयाए। जइ इत्तो वि न जाणं परस्स पीडा न कायव्वा॥ उन करोड़ों पद्यों को पढ़ने से क्या, जो व्यक्ति को इतना विवेक भी नहीं दे सकते कि दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहिए। पर-पीड़ा को नहीं समझने वाले का ज्ञान पलाल की तरह निस्सार होता है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५२३ अ.८: शिक्षा अप्रमाद का शिक्षण २१.दुमपत्तए पंडुयए जहा रात्रियां बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार निवडइ राइगणाण अच्चए। गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन एवं मणुयाण जीवियं समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी समयं गोयम! मा पमायए॥ प्रमाद मत कर। २२.कुसग्गे जह ओसबिंदुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम! मा पमायए॥ कुश की नोक पर लटकते हुए ओस-बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की गति है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। २३.इइ इत्तरियम्मि आउए जीवियए बहुपच्चवायए। विहुणाहि रयं पुरे कडं समयं गोयम! मा पमायए॥ यह आयुष्य क्षण-भंगुर है। यह जीवन विघ्नों से भरा हुआ है, इसलिए हे गौतम! त पूर्व-संचित कर्म-रज को प्रकंपित कर। क्षण भर भी प्रमाद मत कर। २४.दुल्लहे खलु माणुसे भवे चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। गाढा य विवागकम्मुणो, समयं गोयम! मा पमायए॥ सब प्राणियों को चिरकाल तक भी मनुष्य-जन्म मिलना दुर्लभ है। कर्म के विपाक तीव्र होते हैं, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। २५.पुढविक्कायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। . कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए॥ पृथ्वीकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अप्काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है. इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। २६.आउक्कायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। - कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए॥ २७.तेउक्कायमइगओ . उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए॥ तेजस्काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। २८.वाउक्कायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं समयं गोयम! मा पमायए। वायुकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५२४ खण्ड-४ २९.वणस्सइकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालमणंतदुरंत समयं गोयम! मा पमायए। वनस्पतिकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक दुरंत अनंत काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। द्वीन्द्रिय-काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक संख्येयकाल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तु क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ३०.बेइंदियकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखिज्जसन्नियं समयं गोयम! मा पमायए॥ ३१. तेइंदियकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखिज्जसन्नियं समयं गोयम! मा पमायए॥ त्रीन्द्रिय-काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक संख्येयकाल तक वहां रह जाता है. इसलिए हे गौतम! तु क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ३२.चउरिदियकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखिज्जसन्नियं समयं गोयम! मा पमायए। चतुरिन्द्रिय काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से . अधिक संख्येयकाल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ३३.पंचिंदियकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। सत्तट्ठभवग्गहणे समयं गोयम! मा पमायए॥ पंचेन्द्रिय काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक सात-आठ जन्म-ग्रहण तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ३४.देवे नेरइए य अइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे। इक्किक्क-भवग्गहणे समयं गोयम!मा पमायए॥ देव और नरकयोनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक एक-एक जन्म-ग्रहण तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ३५. एवं भवसंसारे संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं। जीवो पमायबहुलो समयं गोयम! मा पमायए॥ इस प्रकार प्रमाद-बहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्म-मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। मनुष्य जन्म दुर्लभ है। उसके मिलने पर भी आर्य देश में जन्म पाना और भी दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मनुष्य होकर भी दस्यु और म्लेच्छ होते हैं, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ३६.लखूण वि माणुसत्तणं आरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं। बहवे दसुया मिलेक्खुया समयं गोयम! मा पमायए। ३७.लखूण वि आरियत्तणं अहीणपंचिंदियया हु दुल्लहा। विगलिंदियया हु दीसई समयं गोयम! मा पमायए। आर्य देश में जन्म मिलने पर भी पांचों इन्द्रियों से पूर्ण स्वस्थ होना दुर्लभ है। बहुत सारे लोग इन्द्रियहीन दीख रहे हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५२५ अ.८: शिक्षा ३८.अहीण पंचिंदियत्तं पि से लहे पांचों इन्द्रियां पूर्ण स्वस्थ होने पर भी उत्तम धर्म की उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा। श्रुति दुर्लभ है। बहुत सारे लोग कुतीर्थिकों की सेवा कुतित्थिनिसेवए जणे करनेवाले होते हैं, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी समयं गोयम! मा पमायए॥ प्रमाद मत कर। ३९.लखूण वि उत्तमं सुई सदहणा पुणरावि दुल्लहा। मिच्छत्तनिसेवए जणे समयं गोयम! मा पमायए॥ उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना और अधिक दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन करनेवाले होते हैं, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ४०.धम्म पि हु सहस्तया .दुल्लहया काएण फासया। इह कामगुणेहि मुच्छिया समयं गोयम! मा पमायए। उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण करनेवाले दुर्लभ हैं। इस लोक में बहुत सारे लोग कामगुणों में मूर्छित होते हैं. इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ४१.परिजूरह ते सरीरयं केसा पंडुरया हवंति ते। : से सव्वबले य हायई - समयं गोयम! मा पमायए। तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं, और सब प्रकार का पूर्ववर्ती बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। १५२.अरई गंडं विसूइया आयंका विविहा फुसंति ते। विवडइ विद्धंसह ते सरीरयं समयं गोयम! मा पमायए॥ पित्त-रोग, फोड़ा-फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाती रोग शरीर का स्पर्श करते हैं, जिनसे यह शरीर शक्तिहीन और विनष्ट होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। १३.वोच्छिंद सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं। से सम्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम! मा पमायए। जिस प्रकार शरद्-ऋतु का कुमुद (रक्त-कमल) जल में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तु अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त बन। हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। Page #547 --------------------------------------------------------------------------  Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-९ धर्म Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्म के प्रकार २. धर्म के द्वार ३. श्रामण्य का सार : उपशम ४. धर्म का प्रथम द्वार : क्षांति ५. भगवान गौतम और श्रमणोपासक आनंद ६. धर्म का द्वितीय द्वार निर्लोभता ७. धर्म का तृतीय द्वार ऋजुता ८. धर्म का चतुर्थ द्वार मृदुता ९. धर्म के विविध रूप १०. मोक्ष का साधक तत्त्व संवरयोग ११. भगवान महावीर और मंडितपुत्र १२. त्रिगुप्ति साधना १३. स्थविर और वैश्यपुत्र कालास १४. मोक्ष का साधक तत्त्व : तपोयोग १५. बाह्यतप १६. अनशन १७. उनोदरी १८. भिक्षाचर्या १९. रसपरित्याग २०. कायक्लेश २१. प्रतिसंलीनता २२. आभ्यन्तर तप नवम अध्याय पृ. सं. ५२९ ५२९ ५२९ ५३० ५३० ५३२ ५३२ ५३२ ५३३ ५३३ ५३३ ५३४ ५३५ ५३७ ५३७ ५३७ ५३७ ५३७ ५३८ ५३८ ५३८ ५३८ २३. प्रायश्चित्त २४. श्रमणोपासक महाशतक का प्रायश्चित्त २५. विनय २६. वैयावृत्त्य २७. स्वाध्याय २८. ध्यान २९. आर्त्तध्यान ३०. रौद्रध्यान ३१. धर्म्यध्यान पृ. सं. ५३८ ३८. महान् तपस्वी धन्य अनगार ३९. तपस्या की अर्हता ४०. मोक्ष का बाधक तत्त्व : आश्रव ४१. मोक्ष का बाधक तत्त्व : बंध .५३९ ५४१ ५४१ ५४१ ५४१ ५४१ ५४२ ५४२ ३२. शुक्लध्यान ५४३ ३३. व्युत्सर्ग. ५४५ ३४. व्युत्सर्ग का प्रयोग ५४५ ३५. श्रमणोपासक सुदर्शन और मालाकार अर्जुन ५४५ ३६. तितिक्षा का प्रयोग मुनि अर्जुन का अभिग्रह ५४९ ३७. तपसमाधि के प्रकार : ५४९ ५५० ५५१ ५५२ ५५२ ४२. मोक्ष का बाधक तत्त्व : पुण्य-पाप ५५२ ४३. अप्रमाद के सूत्र ५५२ ४३. श्राविका जयन्ती के प्रश्न महावीर के उत्तर ५५३ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म १. धम्मोमंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति ,जस्स धम्मे सया मणो॥ धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप . उसके स्वरूप हैं। जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। २. दुविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा सुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव। धर्म के प्रकार धर्म के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. श्रुत धर्म। २. चारित्र धर्म। १. तिविहे भगवता धम्मे पण्णत्ते, तं जहा १. सुअधिज्झिते, २. सुज्झाइते, ३. सुतवस्सिते जया सुअधिज्झितं भवति तदा सुन्झाइतं भवति। जया सुल्झाइतं भवति तदा सुतवस्सितं भवति। से सुअधिज्झिते सुज्झाइते सुतवस्सिते सुयक्खाते णं भगवता धम्मे पण्णत्ते। धर्म के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. सम्यक् स्वाध्याय २. सम्यक् ध्यान ३. सम्यक् तप जब सम्यक् स्वाध्याय होता है, तब वह सम्यक् ध्यान होता है। जब सम्यक् ध्यान होता है, तब वह सम्यक् तप होता है। सम्यक् स्वाध्याय, सम्यक् ध्यान और सम्यक् तप का अर्थ है-स्वाख्यात धर्म। धर्म के द्वार 2. चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं जहा १.खंती. २. मुत्ती ३. अज्जवे ४. महवे। धर्म के चार द्वार प्रज्ञप्त है१. क्षांति २. मुक्ति ३. आर्जव ४. मार्दव। श्रामण्य का सार : उपशम ५. भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं विओसवित्ता विओसवियपाहुडे इच्छाए परो आढाएज्जा, इच्छाए परो नो आढाएज्जा, इच्छाए पिरो अब्भुटेज्जा, इच्छाए परो नो अब्भुढेज्जा, इच्छाए परो वंदेज्जा, इच्छाए परो नो वदेज्जा, इच्छाए परो संभंजेज्जा, इच्छाए परो नो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो संवसेज्जा, इच्छाए परो किसी के साथ कलह होने पर भिक्षु उसका उपशमन कर दे। कलह का उपशमन कर देने पर सामने वाला उसे बहमान दे या न.दे, उसके आने पर खड़ा हो या न हो, उसे वंदन करे या न करे, उसके साथ भोजन करे या न करे, उसके साथ रहे या न रहे, वह कलह का उपशमन करे या न करे। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-४ नो संवसेज्जा, इच्छाए परो उवसमेज्जा, इच्छाए परो नो उवसमेज्जा। जे उवसमइ, तस्स अत्थि आराहणा, जे न उवसमइ, तस्स नत्थि आराहणा। तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं। जो कलह का उपशमन करता है, उसके आराधना होती है। जो उपशमन नहीं करता उसके आराधना नहीं होती है। इसलिए व्यक्ति अपनी ओर से कलह का उपशमन करे। भंते! इसका अर्थ क्या है? श्रामण्य का सार है-उपशम। से किमाहु भंते? उवसमसारं सामण्णं। धर्म का प्रथम द्वार-क्षांति ६. खंतीए णं भंते! जीवे किं जणयइ? खंतीए णं परीसहे जिणइ। भंते ! शांति सहिष्णुता से जीव क्या प्राप्त करता है? क्षांति से वह परीषहों-कष्टों एवं कठिनाईयों पर विजय प्राप्त कर लेता है। ७. खामेमि सव्वजीवे सव्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणई॥ . - मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। सबके साथ मेरी मैत्री है। किसी के साथ मेरा वैरविरोध नहीं है। शत्रुता नहीं है। भगवान गौतम और श्रमणोपासक आनंद ८. तए णं से आणदे समणोवासए भगवं गोयमं श्रमणोपासक आनंद ने गौतम को आते हुए देखा। एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणदिए देखते ही उसका चित्त आह्लाद से भर गया। भगवान पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण- गौतम को वन्दन-नमस्कार कर उसने कहा-भंते! इस हियए भगवं गोयमं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता उदार, विपुल, संयत और स्वीकृत तपःकर्म के कारण मेरा एवं वयासी-एवं खलु भंते! अहं इमेणं ओरालेणं शरीर सूखा, रूखा और मांसरहित हो गया है। मैं हड्डियों विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लु- का ढांचा मात्र रह गया हूं। मेरी हड्डियां कटकट बोल रही क्खे निम्मंसे अठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए है। मैं कृश हो गया हूं। धमनियों का जाल मात्र रह गया किसे धमणिसंतए जाए, णो संचाएमि हूं, इसलिए मैं सामने आकर आपके चरणों में तीन बार देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउन्भवित्ता णं तिक्खुत्तो। मस्तक झुकाकर अभिवादन करने में समर्थ नहीं हूं। भंते! मुद्धाणेणं पादे अभिवंदित्तए। तुब्भे णं भंते! आप अपने इच्छाकार और स्वतंत्रभाव से कृपया इधर इच्छाकारेणं अणभिओएणं इओ चेव एह, जेणं आएं, जिससे मैं आपके चरणों में तीन बार मस्तक देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पादेसु वंदामि झुकाकार वन्दन-नमस्कार कर सकूँ। णमंसामि। तए णं से भगवं गोयमे जेणेव अणदे समणोवासए ___ श्रमणोपासक आनन्द की इस प्रार्थना पर भगवान तेणेव उवागच्छइ। गौतम उसके पास आए। तए णं से आणदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स श्रमणोपासक आनंद ने तीन बार मस्तक झुकाकर तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पादेसु वंदइ णमंसइ, वंदित्ता भगवान गौतम के चरणों में वन्दन-नमस्कार किया और णमंसित्ता एवं वयासी-अत्थि णं भंते! गिहिणो कहा-भंते! क्या एक गृहस्थ को गृहवास में रहते हुए Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन गिमज्झा वसंतस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ ? हंता अस्थि । जइ णं भंते! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, एवं खलु भंते! मम वि गिहिणो गिहिमज्झावसंतस्स ओहिणाणे ५३१ समुपणे पुरत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाई खेत्तं जाणामि पासामि । दक्खिणे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाइं खेत्तं जाणामि पासामि । पच्चत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाई खेत्तं जाणामि पासामि । उत्तरे णं जाव चुल्लहिमवंतं वासधपव्वयं जाणामि पासामि उड़ढं जाव सोहम्मं कप्पं जाणामि पासामि । अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुच्चुतं नरयं जाणामि पासामि । तणं से भगवं गोयमे आणंद समणोवासयं एवं वयासी-अत्थि णं आणंदा! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, नो चेव णं एमहालए। तं णं तुमं आणंदा ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि.....अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तणं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! जिणवयणे संताणं तच्चाणं तहियाणं सब्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ ..... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जिज्जइ ? नो इट्ठे समट्ठे । जणं भंते! जिणवयणे संताणं तच्चाणं तहियाणं सम्भूयाणं भावाणं नो आलोइज्जइ.... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं नो पडिवज्जिज्जइ, तं णं भंते! तुब्भे चेव एयस्स ठाणस्स आलोएह...... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेह । तणं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए वित्तिगिच्छसमावण्णे आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दूइपलासे चेहए ...... जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए। तं णं भंते! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं पडिक्कमेयव्वं निंदेयव्वं अ. ९ : धर्म अवधिज्ञान (अतीन्द्रियज्ञान) उत्पन्न हो सकता है ? हां, हो सकता है। भंते! यदि गृहस्थ को गृहवास में रहते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो भंते! मुझे गृहवास में रहते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। मैं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में से प्रत्येक दिशा में लवण समुद्र के पांच सौ योजन पर्यंत क्षेत्र को जानतादेखता हूं। उत्तर दिशा में चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत पर्यंत क्षेत्र को जानता देखता हूं। ऊर्ध्वदिशा में सौधर्मकल्प पर्यंत क्षेत्र को जानता देखता हूं। अधोदिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के लोलुयच्युत नरकावास पर्यंत क्षेत्र को जाता देखता हूं। श्रमणोपासक आनंद के ऐसा कहने पर भगवान गौतम ने कहा- आनंद! गृहस्थ को गृहवास में रहते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, पर इतना बड़ा नहीं । इसलिए आनंद तुम इस कथन की आलोचना करो। यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करो । श्रमणोपासक आनंद ने भगवान गौतम से कहा-भंते! क्या जिनशासन में सत्य, तत्त्व, तथ्य और सद्भूत भावों की आलोचना की जाती है ? उसका यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार किया जाता है ? नहीं । भंते! यदि जिनशासन में सत्य, तत्त्व, तथ्य और सद्भुत भावों की आलोचना नहीं की जाती है, यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार नहीं किया जाता है तो भंते! आप ही इस कथन की आलोचना करें। यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करें। श्रमणोपासक आनंद के ऐसा कहने पर गौतम शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से भर गए । वे तत्काल वहां से चलकर दूतीपलाश चैत्य में श्रमण भगवान महावीर के पास पहुंचे। उन्होंने कहा - भंते! उस आलोचनीय स्थान का यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म श्रमणोपासक आनंद Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५३२ खण्ड-४ गरिहेयव्वं विउट्टेयव्वं विसोहेयव्वं अकरणयाए को स्वीकार करना चाहिए या मुझे? अब्भुठेयव्वं अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेयव्वं उदाहु मए? गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करते वयासी-गोयमा! तुमं चेव णं तस्स ठाणस्स हुए कहा-गौतम! उस कथन की आलोचना तुम्ही करो। आलोएहि..... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म तुम्ही यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करो पडिवज्जाहि। आणंदं च समणोवासयं एयमठं और उस स्थान के लिए श्रमणोपासक आनंद से खामेहि। क्षमायाचना करो। ' तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महा- श्रमण भगवान महावीर के वचन को गौतम ने वीरस्स तहत्ति एयमझें विणएणं पडिसुणेइ, तहत्ति-ऐसा कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया। उस पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ पडिक्कमइ आलोचनीय स्थान का यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म निंदइ गरिहइ विउट्टइ विसोहइ अकरणयाए स्वीकार किया। श्रमणोपासक आनंद से क्षमायाचना की। अब्भुठेइ अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जइ, आणंदं च समणोवासयं एयमलैं खामेइ। धर्म का द्वितीय द्वार-निर्लोभता ९. मुत्तीए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! मुक्ति/निर्लोभता से जीव क्या प्राप्त करता है? मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ। अकिंचणे य जीवे मुक्ति से वह अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचन अत्थलोलाणं अपत्थणिज्जो भवइ। पुरुष अर्थ-लोलुप व्यक्तियों द्वारा प्रार्थनीय नहीं होता। उसके पास कोई याचना नहीं करता। धर्म का तृतीय द्वार-ऋजुता १०.अज्जवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! ऋजुता से जीव क्या प्राप्त करता है? अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं ऋजुता से वह काया की सरलता, भाव की सरलता, भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायण- भाषा की सरलता और कथनी-करनी की एकरूपता को संपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ। प्राप्त होता है। कथनी-करनी की एकरूपता से जीव धर्म का आराधक होता है। ११.सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो सरल होता है। जो शुद्ध निव्वाणं परं जाइ, घयसित्तव्व पावए। होता है, उसमें धर्म ठहरता है। वह घृत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण (दीप्ति) को प्राप्त होता है। धर्म का चतुर्थ द्वार-मृदुता १२.महवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! मदता से जीव क्या प्राप्त करता है? मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ। अणुस्सियत्ते णं मृदुता से वह विनम्र मनोभाव को प्राप्त होता है। विनम्र जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयठाणाइं निवेइ। मनोभाव वाला व्यक्ति मृदु-मार्दव-अंतरंग और बहिरंग मार्दव से सम्पन्न होता है। वह आठ प्रकार के मद स्थानों का विनाश कर देता है। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५३३ धर्म के विविध रूप १३. दसविधे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा १. गामधम्मे २. णगरधम्मे ३. रट्ठधम्मे ४. पासंडधम्मे ५. कुलधम्मे ६. गणधम्मे ७. संघधम्मे ८. सुयधम्मे ९. चरित्तधम्मे १०. अत्थिकायधम्मे मोक्ष का साधक तत्त्व-संवरयोग १४. पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा संमत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं, अजोगित्तं । १५. तिउट्टती उ मेहावी जाणं लोगंसि पावगं । तुति पावकम्माणि णवं कम्ममकुव्वओ ॥ १६. अकुव्वओ णवं णत्थि कम्मं णाम विजाणतो । णच्चाण से महावीरे जे ण जाई ण मिज्जती ॥ भगवान महावीर और मंडितपुत्र १७. से जहानामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे बोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठति । आहे णं केइ पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं नावं सतासवं सतच्छिदं ओगाहेज्जा, से नूणं मंडित्ता ! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी- आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ? अ. ९ : धर्म १. ग्रामधर्म - गांव की व्यवस्था - आचार परंपरा । २. नगरधर्म - नगर की व्यवस्था । ३. राष्ट्रधर्म - राष्ट्र की व्यवस्था । ४. पाषण्ड धर्म-पाषंडों-श्रमण संप्रदायों का आचार। ५. कुलधर्म–उग्र आदि कुलों का आचार । ६. गणधर्म - गण - राज्यों की व्यवस्था । ७. संघधर्म - गोष्ठियों की व्यवस्था । ८. श्रुतधर्म- ज्ञान की आराधना, द्वादशांगी की आराधना। ९. चारित्र धर्म-संयम की आराधना । १०. अस्तिकाय धर्म - गतिसहायक द्रव्य-धर्मास्तिकाय । संवर के पांच प्रकार हैं सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, अयोग । मेधावी पुरुष लोक में पाप को जानता हुआ उससे मुक्त होता है। वह नए कर्मों के लिए अकर्ता है। उसके पाप कर्म टूट जाते हैं। जो नए कर्मों का कर्त्ता नहीं है, विज्ञाता / द्रष्टा है, उसके नए कर्म का बंधन नहीं होता है। इसे जानकर जो ज्ञाताभाव - चैतन्य के शुद्ध स्वरूप में महापराक्रमशील होता है, वह न जन्म लेता है, न मरता है। वह मुक्त हो जाता है। मंडितपुत्र ने भगवान से जीव की अंतक्रिया के बारे में जिज्ञासा की । भगवान ने एक उदाहरण से उसकी जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा मंडितपुत्र! जैसे कोई ग्रह (नद) जल से भरा हुआ, परिपूर्ण, छलकता हुआ, हिलोरे लेता हुआ, चारों ओर से जलजलाकार हो रहा है। कोई व्यक्ति उस द्रह में एक बहुत बड़ी सैकड़ों आश्रवों और सैकड़ों छिद्रोंवाली नौका उतारे । मंडितपुत्र ! वह नौका उन आश्रव द्वारों के द्वारा जल से भरती हुई परिपूर्ण हो जाती है, भर जाती है ? छलकती हुई, हिलोरे लेती हुई, चारों ओर से जल जलाकार हो जाती है ? Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५३४ खण्ड-४ हंता चिट्ठति। हां, हो जाती है। अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता यदि कोई पुरुष उस नौका के आश्रव द्वारों को चारों आसवदाराइं पिहेइ, पिहेत्ता नावाउस्सिंचणएणं ओर से रोक दे, उन्हें रोककर उत्सेचन द्वारा नौका के उदयं उस्सिंचेज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता! सा नावा जल को उलीच दे, मंडितपुत्र ! क्या वह नौका उस पानी . तंसि उदयंसि उस्सितंसि समाणंसि खिप्पामेव के बाहर निकल जाने पर शीघ्र ही ऊपर आ जाती है? उदाइ? हंता उदाइ। हां, आ जाती है। एयामेव मंडियापुत्ता! अत्तत्ता-संवुडस्स अणगार- मंडितपुत्र ! इसी प्रकार जो अनगार आत्मना संवृत है, स्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणा- विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक समियस्स आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमियस्स आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्र, पात्र आदि उच्चारपासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठा- को लेता और रखता है, विवेकपूर्वक मल-मूत्र, श्लेष्म, वणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमियस्स नाक के मैल, शरीर के गाढ़ मैल. का परिष्ठापन कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स (विसर्जन) करता है। मन की संयत प्रवृत्ति करता है, वचन गुत्तस्स गुत्तिंदियस्स गुत्तबंभयारिस्स, आउत्तं- की संयत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संयत प्रवृत्ति करता गच्छमाणस्स चिट्ठमाणस्स निसीयमाणस्स है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थपडिग्गह-कंबल- शरीर का निरोध करता है, अपने आपको सुरक्षित रखता पायपुंछणं गेण्हमाणस्स निक्खिवमाणस्स जाव . है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया सुहुमा इरियावहिया रखता है, उसके उपयोगपूर्वक चलते, खड़े रहते, बैठते, किरिया कज्जइ। सोते तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कंबल पादप्रोञ्छन लेते-रखते समय, उन्मेष-निमेष करते समय भी विविध मात्रावाली सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया होती है। सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, बितियसमयवेड्या वह प्रथम समय में बद्ध, स्पृष्ट होती है, दूसरे समय ततियसमयनिज्जरिया। सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया में उसका वेदन होता है, तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो वेइया निज्जिण्णा सेयकाले अकम्मं वावि भवति। जाती है। वह बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित, वेदित, निर्जीर्ण तथा अगले समय में अकर्म भी हो जाती है। से तेणठेणं मंडियपुत्ता! एवं वुच्चइ-जावं च णं से मंडितपुत्र! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है जब जीव जीवे सया समितं नो एयति नो वेयति नो चलति नो सदा, प्रतिक्षण, एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ ना उदीरइ नो तं तं भावं क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के अंतिम समय में अंतकिरिया भवइ। अंतक्रिया होती है। त्रिगुप्ति साधना १८.एगग्गमणसन्निवेसणयाए णं भंते! जीवे किं भंते! एक आलंबन पर मन को स्थापित करने से जणयइ? जीव क्या प्राप्त करता है? एगग्गमणसन्निवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ। ___ एक आलंबन पर मन को स्थापित करने से जीव चित्त का निरोध करता है। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन १९. मणगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ । एगग्गचित्ते जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । ५३५ २०. वइगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? गुत्तयाए णं निव्वियारं जणय । निव्वियारेणं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते यावि भवइ । २१. कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ । संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ । स्थविर और वैश्यपुत्र कालास २२. ते काले तेणं समएणं पासावच्चिज्जे कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं बयासी थेरा सामाइयं न याणंति, थेरा सामाइयस्स अट्ठ न याणंति । धेरा पच्चक्खाणं न याणंति, थेरा पच्चक्खाणस्स अठ्ठे न याति । धेरा संजम न याणंति, थेरा संजमस्स अट्ठ न याणंति । थे संवरं न याणंति, थेरा संवरस्स अट्ठ न याणंति । - थेरा विवेगं न याणंति, थेरा विवेगस्स अट्ठ न याणंति । पेरा विउस्सम्गं न याणंति, थेरा विउस्सग्गस्स अळं न याणंति । तप णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वदासी जागामो णं अज्जो ! सामाइयं, जाणामो णं अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठं । अ. ९ : धर्म भंते! मनोगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता को प्राप्त करता है। एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ संकल्पों से मन की रक्षा करने वाला और संयम की आराधना करने वाला होता है। भंते! वचनगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? वचनगुप्ति से जीव निर्विचार भाव को प्राप्त करता है। निर्विचार भाव को प्राप्त जीव सर्वथा वाग्गुप्त होता है एवं उसके अध्यात्म-योग सध जाता है। भंते! कायगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त करता है। संवर के द्वारा कायिक स्थिरता को प्राप्त करता है और वह पापास्रव - पाप कर्म के उपादानों-हेतुओं का निरोध कर देता है। भगवान पार्श्व का परम्परित शिष्य वैश्यपुत्र कालास नामक अनगार स्थविरों के पास आया और बोला आप सामायिक नहीं जानते हैं। सामायिक का अर्थ नहीं जानते हैं। प्रत्याख्यान नहीं जानते हैं। प्रत्याख्यान का अर्थ नहीं जानते हैं। संयम नहीं जानते हैं। संयम का अर्थ नहीं जानते हैं। संवर नहीं जानते हैं। संवर का अर्थ नहीं जानते हैं। विवेक नहीं जानते हैं। विवेक का अर्थ नहीं जानते हैं। व्युत्सर्ग नहीं जानते हैं । व्युत्सर्ग का अर्थ नहीं जानते हैं। स्थविरों ने वैश्यपुत्र कालास अनगार से इस प्रकार कहा आर्य! हम सामायिक जानते हैं। सामायिक का अर्थ जानते हैं। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५३६ खण्ड-४ आर्य! हम प्रत्याख्यान जानते हैं। प्रत्याख्यान का अर्थ जानते हैं। आर्य! हम संयम जानते हैं। संयम का अर्थ जानते हैं। . आर्य! हम संवर जानते हैं। संवर का अर्थ जानते हैं। आर्य! हम विवेक जानते हैं। विवेक का अर्थ जानते आर्य! हम व्युत्सर्ग जानते हैं, व्युत्सर्ग का अर्थ जानते वैश्यपुत्र कालास अनगार ने उन स्थविरों से इस प्रकार कहा-आर्य! यदि आप सामायिक जानते हैं, सामायिक का अर्थ जानते हैं यावत् व्युत्सर्ग जानते हैं, व्युत्सर्ग का अर्थ जानते हैं तो आर्य! आपकी सामायिक क्या है? सामायिक का अर्थ क्या है? यावत् व्युत्सर्ग क्या है? व्युत्सर्ग का अर्थ क्या है? जाणामो णं अज्जो! पच्चक्खाणं, जाणामो णं अज्जो! पच्चक्खाणस्स अट्ठ। जाणामो णं अज्जो! संजमं, जाणामो णं अज्जो! संजमस्स अट्ठ। जाणामो णं अज्जो! संवरं, जाणामो णं अज्जो! संवरस्स अळं। जाणामो णं अज्जो! विवेगं. जाणामो णं अज्जो! विवेगस्स अट्ठ। जाणामो णं अज्जो! विउस्सगं, जाणामो णं अज्जो! विउस्सग्गस्स अट्ठ। तते णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे ते थेरे भगवंते एवं वयासी-जइ णं अज्जो! तुब्भे जाणह सामाइयं, तुब्भे जाणह सामाइयस्स अट्ठ जाव जइ णं अज्जो! तुब्भे जाणह विउस्सगं, तुब्भे जाणह विउस्सग्गस्स अट्ठ। के भे अज्जो! सामाइए ? के भे अज्जो! सामाइयस्स अट्ठे? जाव के भे अज्जो! विउस्सग्गे? के भे अज्जो! विउस्सग्गस्स अठे? तए णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासीआया णे अज्जो! सामाइए, आया णे अज्जो! सामाइयस्स अट्ठे। आया णे अज्जो! पच्चक्खाणे, आया णे अज्जो! पच्चक्खाणस्स अट्ठे। आया णे अज्जो! संजमे, आया णे अज्जो! संजमस्स अट्ठे। आया णे अज्जो! संवरे, आया णे अज्जो! संवरस्स अठे। आया णे अज्जो! विवेगे, आया णे अज्जो! विवेगस्स अट्ठे। आया णे अज्जो! विउस्सग्गे, आया णे अज्जो! विउस्सग्गस्स अट्ठे। स्थविरों ने वैश्यपुत्र कालास अनगार से इस प्रकार कहा आर्य! आत्मा हमारे सामायिक है। आत्मा हमारे सामायिक का अर्थ है। आर्य! आत्मा हमारे प्रत्याख्यान है। आत्मा हमारे - प्रत्याख्यान का अर्थ है। ___ आर्य! आत्मा हमारा संयम है। आत्मा हमारे संयम का अर्थ है। ___ आर्य! आत्मा हमारा संवर है। आत्मा हमारे संवर का अर्थ है। आर्य! आत्मा हमारा विवेक है। आत्मा हमारे विवेक का अर्थ है। आर्य! आत्मा हमारा व्यत्सर्ग है। आत्मा हमारे व्युत्सर्ग का अर्थ है। २३. संजमेणं भंते! जीवे किं जणयइ? संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ। भंते! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है? संयम से जीव अनास्रव को प्राप्त होता है-आश्रव के द्वारों को बन्द कर देता है। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५३७ अ.९ : धर्म मोक्ष का साधक तत्त्व-तपोयोग २४.जहा महातलायस्स सन्निरुद्धे जलागमे। जल सूखने के तीन उपाय हैंउस्सिंचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे॥ १. जल आने के मार्ग को रोकना। २. जल को उलीचना। ३. सूर्य का ताप। २५.अवकोटासचिर्यजस्म वित्त २५.एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ॥ जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब इन उपायों से सूख जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष पाप कर्म आने के मार्ग का निरोध कर करोड़ों भवों के संचित कर्म तपस्या द्वारा निर्जीर्ण कर देता है। २६.सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भन्तरो तहा। __बाहिरो छव्यिहो वुत्तो एवमब्भन्तरो तवो॥ तप के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-१. बाह्य । २. आभ्यन्तर। बाह्य तप के छह प्रकार हैं, इसी प्रकार आभ्यंतर तप के भी छह प्रकार हैं। बाह्य तप २७.अणसणमूणोयरिया, बाह्य तप के छह प्रकार हैं-१. अनशन-उपवास भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। आदि तप। २. ऊनोदरी-कम खाना, उपकरण आदि की कायकिलेसो संलीणया । अल्पता करना। ३. भिक्षाचर्या-अभिग्रह-आहार प्राप्ति के य बज्झो तवो होइ॥ स्रोतों का संकोच। ४. रस परित्याग। ५. कायक्लेश कायसिद्धि। ६. संलीनता। अनशन २८.अणसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इत्तरिए य। . आवकहिए य। अनशन के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-१. इत्वरिक (अल्पकालिक)। २. यावत्कथिक (आजीवन)। ऊनोदरी २९.ओमोदरियाओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा उवगरणदव्वोमोदरिया य। भत्तपाणदव्योमोदरिया य। भावोमोदरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाअप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोहे, अप्पसहे, अप्पझंझे। द्रव्य ऊनोदरी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. उपकरण द्रव्य ऊनोदरी। २. भक्तपान द्रव्य ऊनोदरी। भाव ऊनोदरी के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं। जैसे-क्रोध की अल्पता, मान की अल्पता, माया की अल्पता, लोभ की अल्पता, भाषा की अल्पता, कलह की अल्पता। भिक्षाचर्या ३०.भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहावव्वाभिग्गहचरए, खेत्ताभिग्गहचरए, काला- भिग्गहचरए, भावाभिग्गहचरए। भिक्षाचर्या के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्रव्य विषयक अभिग्रह, क्षेत्र विषयक अभिग्रह, काल विषयक अभिग्रह, भाव विषयक अभिग्रह। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५३८ खण्ड-४ रसपरित्याग ३१.खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं। परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं॥ दूध, दही, घृत आदि रसों तथा प्रणीत पान-भोजन का वर्जन रसपरित्याग है। कायक्लेश ३२.ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा। उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं॥ आत्मा के लिए सुखकर वीरासन आदि उत्कट आसनों के अभ्यास का नाम कायक्लेश है। प्रतिसंलीनता ३३.से किं तं पडिसंलीणया? पडिसंलीणया चउम्विहा पण्णत्ता. तं जहाइंदियपडिसलीणया, कसायपडिसंलीणया, जोगपडिसंलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया। प्रतिसंलीनता के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता २. कषाय प्रतिसंलीनता ३. योग प्रतिसंलीनता ४. विविक्त शयनासन।' ३४.एगन्तमणावाए सयणासणसेवणया इत्थीपसुविवज्जिए। विवित्तसयणासणं॥ एकांत, आवागमनवर्जित और स्त्री-पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना विविक्तशयनासन है। यह संलीनता का ही दूसरा नाम है। . आभ्यन्तर तप ३५.पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभिंतरो तवो॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-ये छह आभ्यन्तर तप हैं। . प्रायश्चित्त ३६.आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं। जे भिक्ख वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं॥ आलोचनाह आदि जो दस प्रकार का प्रायश्चित्त है, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है। ३७.दसविधे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा १. आलोयणारिहे २. पडिक्कमणारिहे ३. तदुभयारिहे ४. विवेगारिहे ५. विउस्सम्गारिहे ६. तवा- रिहे ७. छेयारिहे ८. मूलारिहे ९. अणवठ्ठप्पारिहे १०. पारंचियारिहे। प्रायश्चित्त के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. आलोचना-गुरु के समक्ष दोषों का निवेदन। २. प्रतिक्रमण-मेरा दुष्कृत निष्फल हो, इसका भावनापूर्वक उच्चारण। ३. तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण। ४. विवेक-अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग। ५. व्युत्सर्गकायोत्सर्ग। ६. तप-अनशन, ऊनोदरी आदि। ७. छेददीक्षा पर्याय का छेदन। ८. मूल-पुनर्दीक्षा। ए. अनवस्थाप्य तपस्यापूर्वक पुनर्दीक्षा। १०. पारंचितभर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक पुनर्दीक्षा। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५३९ अ. ९ : धर्म श्रमणोपासक महाशतक का प्रायश्चित्त ३८.गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम को वयासी-एवं खलु गोयमा! इहेव रायगिहे नगरे ममं संबोधित कर कहा-गौतम! इस राजगृह नगर में मेरा अन्तेवासी महासतए नाम समणोवासए पोसह- अंतेवासी महाशतक नाम का श्रमणोपासक रहता है। सालाए अपच्छिममारणंतियसलेहणाए झूसियसरीरे पौषधशाला में उसने मारणांतिक संलेखना में शरीर को भत्तपाणपडियाइक्खिए, कालं अणवकंखमाणे झोंक दिया है। वह भक्त-पान का परित्याग कर मृत्यु की विहरइ। आकांक्षा न करता हुआ रह रहा है। तए णं तस्स महासतगस्स समणोवासगस्स रेवती श्रमणोपासक महाशतक की गृहस्वामिनी रेवती है। गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं । वह मत्त, चंचल, केशों को बिखेर कर अपनी ओढ़नी को विकढमाणी-विकढमाणी जेणेव पोसहसाला, बार-बार खींचती हुई पौषधशाला में श्रमणोपासक जेणेव महासतए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, महाशतक के पास आई। मोह और उन्माद को पैदा करने उवागच्छित्ता मोहुम्मायजणणाई सिंगारियाई वाले कामुक स्त्रैण-भावों का प्रदर्शन करती हुई इत्थिभावाई उवदंसेमाणी-उवदंसेमाणी महासतयं श्रमणोपासक महाशतक से कहती हैसमणोवासयं एवं वयासीह भो! महासतया! समणोवासया! किं णं तब्भं ओ श्रमणोपासक महाशतक! तुम्हारे धर्म, पुण्य, देवाणुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मो. स्वर्ग और मोक्ष से क्या लाभ जबकि तुम मेरे साथ प्रचुर क्खेण वा, जं णं तुम मए सद्धिं ओरालाई मानवीय भोगों का भोग नहीं कर रहे हो? माणुस्सयाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे नो विहरसि? तए णं से महासतए समणोवासए रेवतीए गाहाव- श्रमणोपासक महाशतक रेवती गृहस्वामिनी के इस इणीए एयमठं नो आढाइ नो परियाणाइ, कथन का कोई समादर और अनुमोदन नहीं करता है। वह अणाढायमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए मौनभाव से धर्मध्यान में लीन रहता है। धम्मज्झाणोवगए विहरइ। तए णं सा रेवती गाहावइणी महासतयं गृहस्वामिनी रेवती श्रमणोपासक महाशतक के पास समणोवासयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी। उसी बात को दो-तीन बार दोहराती है। तए णं से महासतए समणोवासए रेवतीए गाहाव- श्रमणोपासक महाशतक के दो-तीन बार ऐसा कहने इणीए दोच्चं पि तच्चं पि एवं वत्ते समाणे आसरत्ते पर लाल-पीला हो जाता है। उस पर रोष और क्रोध करने ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, लगता है। अवधिज्ञान का प्रयोग करता है। गृहस्वामिनी आभोएत्ता रेवति गाहावइणिं एवं वयासी रेवती से कहता हैहं भो! रेवती! एवं खलु तुम अंतो सत्तरत्तस्स ___ओ रेवती ! तू सात रात के भीतर विसूचिका (हैजा) अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट से पीड़ित हो, आर्तध्यान करती हुई असमाधिस्थ अवस्था वसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे में मर जाएगी। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के लोलुयच्युत नरक इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए में ८४ हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक आवासों में चउरासीति-वाससहस्सदिइएसु नेरइएसु नैरयिक रूप में उत्पन्न होगी। नेरइयत्ताए उववन्जिहिसि। नो खलु कप्पइ गोयमा! समणोवासगस्स अप- गौतम! मारणांतिक संलेखना में जिसने शरीर को च्छिम -मारणंतिय-संलेहणाझूसणा-झूसियस्स झोंक दिया है, भक्त-पान का परित्याग कर दिया है, ऐसे भत्तपाण-पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं तच्चेहिं श्रमणोपासक को अनिष्ट, अकांत, अप्रिय और असुंदर Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन तहिहिं सन्भूहिं अणिट्ठेहिं अकंतेहिं अप्पिएहिं अमणेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए । तं गच्छ णं देवाणुप्पिया! तुमं महासतयं समणोवासयं एवं वयाहि नो खलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसियस्स भत्तपाण- पडियाइक्खियस्स परो संतेहि..... अमणामेहिं वागरणेहि वागरित्तए । तुमे य णं देवाणुप्पिया ! रेवती गाहावइणी संतेहि....... अप्पिएहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरिया । तं णं तुमं एयस्स ठाणस्स आलोएहि.... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमट्ठे विणएणं पडिसुणेइ, पडणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता यहिं नरं मज्झमज्झेण अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासतगस्स, समणोवासगस्स गिहे जेणेव महासतए समणोवासए, तेणेव ५४० उवागच्छइ । तए णं से महासतए समणोवासए भगवं गोयमं एज्जमानं पासइ, पासित्ता हट्ठ- तुट्ठ चित्तमादि भगवं गोयमं वंदइ नमसइ । तणं से भगवं गोयमे महासतयं समणोवासयं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ - नो खलु कप्पर देवाणुप्पिया ! सोवासस अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणा-झूसियस भत्तपाण-पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं..... अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए । तुमेणं देवाणुप्पिया ! रेवती गाहावइणी संतेहिं.... अमणामेहिं वागरणेहिं वागरिया । तं णं तुमं देवाणुप्पिया ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि...... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तए णं से महासतए समणोवासए भगवओ गोयमस्स तह त्ति एयमट्ठं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ..... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जइ । खण्ड-४ वचन नहीं कहना चाहिए, चाहे वह सत्य, तत्त्व; तथ्य, यथार्थ और सद्भूत ही क्यों न हो। इसलिए देवानुप्रिय ! तुम जाओ और श्रमणोपासक महाशतक से कहो संलेखना की स्थिति में सत्य होने पर भी ऐसी अप्रिय बात तुम्हारे लिए कथनीय नहीं है। रेवती गृहस्वामिनी को तुमने संलेखना की स्थिति में ऐसी अप्रिय बात कही है, तुम अपने उस कथन की आलोचना करो और प्रायश्चित्त रूप यथायोग्य तपःकर्म स्वीकार करो। भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को. विनयपूर्वक स्वीकार करते हैं। गौतम प्रवास स्थान से निकलते हैं और नगर के मध्य से होते हुए श्रमणोपासक महाशतक के पास आते हैं। श्रमणोपासक महाशतक भगवान गौतम को आते देख हृष्ट, तुष्ट और अनंदित चित्त हो उन्हें वंदन - नमस्कार करता है। भगवान गौतम श्रमणोपासक महाशतक से कहते हैं देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर ने कहा है-मारणांतिक संलेखना में स्थित श्रमणोपासक को सद्भूत पदार्थों का कथन भी यदि वह अप्रिय हो तो नहीं करना चाहिए । देवाप्रिय ! तुमने गृहस्वामिनी रेवती को यथार्थ किंतु अप्रिय बात कही है, इसलिए देवानुप्रिय ! तुम उस कथन की आलोचना करो और प्रायश्चित्त रूप यथायोग्य तपः कर्म स्वीकार करो। श्रमणोपासक महाशतक भगवान गौतम के इस कथन को स्वीकार करता है। अपने उस अनुचित कथन कीं आलोचना करता है और प्रायश्चित्त रूप यथायोग्य तपः कर्म स्वीकार करता है। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन विनय ३९. अम्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ ॥ वैयावृत्त्य ४०. आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे । आसेवणं जहाथामं वेयावच्चं तमाहियं ॥ ४१. दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं जहा १. आयरियवेयावच्चे २. उवज्झायवेयावच्चे ३. थेरवेयावच्चे ४. तवस्सिवेयावच्चे ५. गिलाणवेयावच्चे ७. कुलवेयावच्चे ९. संघवेयावच्चे ६. सेहवेयावच्चे ८. गणवेयावच्चे १०. साहम्मियवेयावच्चे। स्वाध्याय ४२. वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्मका सज्झाओ पंचहा भवे ॥ ४३. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा१. अट्टे झाणे ३. धम्मे झा ५४१ २. रोहे झाणे ४. सुक्के झाणे । आर्तध्यान ४४. अट्टे झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा१. अमणुण्ण-संपओग संपउत्ते, तस्स विप्पओगसति - समण्णागते यावि भवति । २. मणुण्ण - संप ओग - संपउत्ते, तस्स अविप्पओगसति समण्णागते यावि भवति । ३. आतंक - संपओग - संपउत्ते, तस्स विप्पओगसति समण्णागते यावि भवति । ४. परिजुसित कामभोगसंपओग - संपउत्ते, तस्स 'अविप्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति । ध्यान खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरु की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय तप है। आचार्य आदि से संबंधित दस प्रकार के वैयावृत्त्य का यथाशक्ति आसेवन करना वैयावृत्त्य तप है। वैयावृत्त्य के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं अ. ९ : धर्म १. आचार्य वैयावृत्त्य ३. तपस्वी वैयावृत्त्य ५. ग्लान वैयावृत्त्य ७. कुल वैयावृत्त्य ९. संघ वैयावृत्त्य २. उपाध्याय वैयावृत्त्य ४. स्थविर वैयावृत्त्य ६. शैक्ष वैयावृत्त्य ८. गण वैयावृत्त्य १०. साधर्मिक वैयावृत्त्य स्वाध्याय के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. वाचना - अध्यापन २. प्रच्छना - प्रश्न पूछना ३. परिवर्तना - पुनरावृत्ति ४. अनुप्रेक्षा- अर्थ का अनुचिंतन ५. धर्मकथा - धर्मोपदेश । ध्यान के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. आर्त्तध्यान ३. धर्म्यध्यान २. रौद्रध्यान ४. शुक्लध्यान । आर्त्तध्यान के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. अमनोज्ञ पदार्थ का संयोग होने पर उसके वियोग की चिंता में लीन रहना । २. मनोज्ञ पदार्थ का संयोग होने पर उसके वियोग न होने की चिंता में लीन रहना । ३. आतंक - सद्योघाती रोग होने पर उसके वियोग की चिंता में लीन रहना । ४. प्रीतिकर कामभोगों का संयोग होने पर वियोग न होने की चिंता में लीन रहना । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५४२ खण्ड आर्तध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं ४५.अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा१.कंदणता २.सोयणता ३. तिप्पणता ४. परिदेवणता। १. आक्रंदन करना। ३. आंसू बहाना। २. शोक करना। ४. विलाप करना। रौद्रध्यान ४६.रोहे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा १. हिंसाणुबंधि २. मोसाणुबंधि ३. तेणाणुबंधि ४. सारक्खणाणुबंधि। रौद्रध्यान के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. हिंसानुबंधी-जिसमें हिंसा का अनुबंध-सत प्रवर्तन हो। २. मृषानुबंधी-जिसमें मृषा का अनुबंध हो। ३. स्तेयानुबंधी-जिसमें चोरी का अनुबंध हो। ४. संरक्षणानुबंधी-जिसमें विषय के साधनों संरक्षण का अनुबंध हो। रौद्रध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं ४७.रुहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं । जहा१. ओसण्णदोसे २. बहुदोसे ३. अण्णाणदोसे १. उत्सन्नदोष-प्रायः हिंसा आदि में प्रवृत्त रहना। २. बहुदोष-हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों संलग्न रहना। ३. अज्ञानदोष-अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृ रहना। ४. आमरणांत दोष-मारणांतिक हिंसा में प्रव रहना। ४. आमरणंतदोसे। धर्म्यध्यान ४८.धम्मे झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा धर्म्यध्यान चार पदों-स्वरूप, लक्षण, आलंबन और अनुप्रेक्षा में अवतरित होता है। उसके चार प्रकार प्रज्ञा १. आणाविजए २. अवायविजए ३. विवागविजए १. आज्ञा विचय-अतीन्द्रिय विषय को ध्येय बन उसमें एकाग्र होना। २. अपाय विचय-राग-द्वेष आदि दोषों के उत्पनि एवं क्षय को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना। ३. विपाक विचय-कर्म फल को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना। ४. संस्थान विचय-विविध पदार्थों की विभिन आकृतियों तथा उनकी विभिन्न पर्यायों को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना। ४. संठाणविजए। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५४३ अ. ९ : धर्म धर्म्य ध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं १९.धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा१. आणाई २.णिसग्गरुई ३. सुत्तरुई १. आज्ञा रुचि-अतीन्द्रिय विषय में रुचि होना। २. निसर्ग रुचि-सत्य में सहज रुचि होना। ३. सूत्र रुचि-संक्षिप्त पद्धति से सत्य के प्रति रुचि होना। ४. अवगाढ़ रुचि-विस्तृत पद्धति से सत्य में रुचि होना। ४. ओगाढरुई। धर्म्य ध्यान के चार आलंबन प्रज्ञप्त हैं ५०.धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा१. वायणा २. पडिपुच्छणा ३. परियट्टणा ४. अणुप्पेहा। १. वाचना-अध्यापन। २. प्रतिप्रच्छना-प्रश्न पूछना। ३. परिवर्तना-पुनरावर्तन। ४. अनुप्रेक्षा-अर्थ का अनुचिंतन। धर्म्य ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं प्रज्ञप्त हैं ५१.धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- . १. एगाणुप्पेहा २. अणिच्चाणुप्पेहा १. एकत्व अनुप्रेक्षा-अकेलेपन का अनुचिंतन। २. अनित्य अनुप्रेक्षा-पदार्थ की अनित्यता का अनुचिंतन। ३. अशरण अनुप्रेक्षा-अशरण दशा का अनुचिंतन। ४. संसार अनुप्रेक्षा-जन्म-मरण के चक्र का अनुचिंतन। ३. असरणाणुप्पेहा ४. संसाराणुप्पेहा। शुक्लध्यान ५२.सुक्के झाणे चउविहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तं जहा १. पुरुत्तवितक्के सवियारी शुक्ल ध्यान चार पदों-स्वरूप, लक्षण, आलंबन और अनुप्रेक्षा में अवतरित होता है। उसके चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. पृथक्त्व वितर्क सविचारी-किसी एक वस्तु को ध्येय बनाकर अन्य सभी पदार्थों से उसके भिन्नत्व में एकाग्र हो जाना। उसमें एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर, शब्द से अर्थ पर एवं एक योग से दूसरे योग पर परिवर्तन होता रहता है। २. एकत्व वितर्क अविचारी-सब पदार्थों के अभेद बोध में एकाग्र हो जाना। इसमें शब्द, अर्थ और २. एगत्तवितक्के अवियारी Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५४४ खण्ड ३. सुहमकिरिए अणियट्टी योग का परिवर्तन नहीं होता। ३. सूक्ष्यक्रियाअनिवृत्ति-जिसमें केवल श्वोसाच्छ वास की सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, वह सूक्ष्म क्रिया-ध्यान है। इसमें निवृत्ति नहीं होती, इसलिए अनिवृत्ति है। ४. समुच्छिन्नक्रियअप्रतिपाति-जिसमें श्वासोच्छवास की सूक्ष्मक्रिया भी समाप्त हो जाती है, वह समुच्छिन्नक्रिय ध्यान है। उसका पतन नहीं होता, इसलिए वह अप्रतिपाति है। ४. समुच्छिण्णकिरिए अप्पडिवाती। शुक्ल ध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं ५३.सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा१. अव्वहे २. असम्मोहे १. अव्यथ-क्षोभ का अभाव। २. असम्मोह-सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढ़ता का अभाव। ३. विवेक-शरीर और आत्मा के भेद का बोध। ४. व्युत्सर्ग-शरीर और उपाधि के प्रति ममत्व का विसर्जन। ३. विवेगे ४. विउस्सग्गे। शुक्लध्यान के चार आलंबन प्रज्ञप्त हैं ५४.सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा१.खंती २. मुत्ती ३. अज्जवे ४. महवे। १. क्षमा ३. ऋजुता २. निर्लोभता ४. मृदुता। . भ.. ५५.सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ, शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं प्रज्ञप्त हैंपण्णत्ताओ, तं जहा१. अणंतवत्तियाणुप्पेहा १. अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा-संसार परम्परा के अनुचिंतन। २. विप्परिणामाणुप्पेहा २. विपरिणाम अनुप्रेक्षा-वस्तुओं के विविध ___ परिणामों का अनुचिंतन। ३. असुभाणुप्पेहा ३. अशुभ अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का ____ अनुचिंतन। ४. अवायाणुप्पेहा। ४. अपाय अनुप्रेक्षा-राग-द्वेष आदि दोषों का अनुचिंतन। ५६.अट्टरुहाणि वज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए। सुसमाहित मुनि आर्त्त और रौद्रध्यान को छोड़कर धम्मसुक्काइं झाणाई झाणं तं तु बुहा वए॥ धर्म्य और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करे। ज्ञानी पुरुषों ने इसे ध्यान कहा है। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन व्युत्सर्ग ५७. सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो छट्ठो सो परिकित्तिओ ॥ ५४५ त्सर्ग का प्रयोग श्रमणोपासक सुदर्शन और मालाकार अर्जुन ५८. तए णं तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एवं सोच्चा निसम्म अयं अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोग संकप्पे समुप्पज्जित्था - एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि - एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल - परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी - एवं खलु अम्मयाओ ! समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तं गच्छामि गं समणं भगवं महावीरं वंदामि नम॑सामि सक्कारेमि सम्माणेमि ।.. तए णं सुदंसणं सेठिं अम्मापियरो एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं अण्णाइट्ठे समाणे रायगिहस्स नयरस्स परिपेरंतेणं कल्लाकल्लिं बहिया इत्थिसत्तमे छ पुरिसे घाएमाणे-घाएमाणे विरह । तं मागं तुमं पुत्ता ! समणं भगवं महावीरं वंदए निग्गच्छाहि, मा णं तव सरीरयस्स वावत्ती भविस्सह । तुमण्णं इह गए चेव समणं भगवं महावीरं वंदाहि । तए णं से सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरं एवं वयासी- किण्णं अहं अम्मयाओ! समणं भगवं महावीरं इहमागयं इह पत्तं इह समोसढं इह गए चेव बंदिस्सामि ? तं गच्छामि णं अहं अम्मयाओ ! तुम्मेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणं भगवं महावीरं बंदए । तणं सुदंसणं सेट्ठि अम्मापियरो जाहे नो संचारति बहूहिं आघवणाहिं पण्णवणाहिं ...... मवेत ताहे एवं वयासी - अहासुहं देवाणुप्पिया ! पहिबंध करेहि । अ. ९ : धर्म सोने, बैठने या खड़े रहने के समय जो भिक्षु कायिक चेष्टा का परिहार करता है, उसे व्युत्सर्ग तप कहा जाता है । यह आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। राजगृह नगर । सेठ सुदर्शन ने बहुत लोगों से सुना-नगर के बाहर उद्यान में श्रमण महावीर पधारे हैं। उसके मन में संकल्प जागा- मैं वहां जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करूं। इस संकल्प के साथ वह अपने माता-पिता के पास आया, बद्धांजलि हो अंजलि को सिर पर टिका बोला- माता-पिता! श्रमण भगवान महावीर यहां पधारे हैं। मैं चाहता हूं कि वहां जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करूं । उनका सत्कार और सम्मान करूं । सुदर्शन से यह सुन माता-पिता बोले- पुत्र ! नगर के परिसर में मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट मालाकार अर्जुन . है। वह प्रतिदिन छह पुरुषों और एक स्त्री की हत्या करता है। इसलिए पुत्र! तुम भगवान महावीर को वन्दन करने मत जाओ। तुम्हारे शरीर का कोई अनिष्ट न हो, अतः तुम यहीं बैठ श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करो। सुदर्शन ने माता-पिता से कहा- माता-पिता ! भगवान महावीर यहां आए हैं। यहां प्राप्त हैं। यहां समवसृत हैं। मैं उन्हें यहां बैठे-बैठे ही वन्दन- नमस्कार करूं, यह कैसे हो सकता है ? मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए वहीं जा रहा हूं। सुदर्शन के माता-पिता अनेक प्रकार की प्रज्ञापनाओं से जब उसे न समझा सके, तब बोले- देवानुप्रिय ! तुम स्वतंत्रतापूर्वक जैसा चाहो वैसा करो । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५४६ खण्ड-४ तए णं से सुदंसणे अम्मापिईहिं अब्भणुण्णाए माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर सुदर्शन ने स्नान समाणे पहाए सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई किया। पवित्र स्थान में प्रवेश करने योग्य मंगल वस्त्र पवर-परिहिए अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे पहने। अल्पभार व बहुमूल्य आभरणों से शरीर को सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अलंकृत किया और नगर के मध्य से निर्गमन किया। पायविहारचारेणं रायगिहं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ।..... मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणस्स मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन के पास से होकर जहां अदूरसामंतेणं जेणेव गुणासिलाए चेइए जेणेव गुणशिलक चैत्य है, वहां जाने लगा। समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सदसणं मुद्गरपाणि यक्ष ने श्रमणोपासक सुदर्शन को अपनी समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं ओर आते देखा। वीईवयमाणं पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते रुठे कुविए वह रुष्ट और कुपित हो गया। प्रबल क्रोध से. जलने चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तं पलसहस्सणिप्फण्णं लगा। एक हजार पल भारवाले लोहमय मुद्गर को अओमय मोग्गर उल्लालेमाणे जेणेव सुदसणे आकाश में उछालता हआ श्रमणोपासक सुदर्शन की ओर समणोवासए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। बढ़ा। तए णं से सुदंसणे समणोवासए मोग्गरपाणिं सुदर्शन श्रमणोपासक ने मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी जक्खं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अतत्थे ओर आते देखा। उस अवस्था में भी वह न डरा, न अणुव्विग्गे अक्खुभिए अचलिए असंभंते। वत्थंतेणं संत्रस्त हुआ,, न उद्विग्न हुआ, न क्षुब्ध हुआ, न चंचल भूमि पमज्जइ....... हुआ और न घबराया। उसने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रमार्जन किया। करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए बद्धांजलि हो अंजलि को मस्तक पर टिकाकर अंजलिं कद एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहंताणं बोला-सिद्धिगति को प्राप्त अर्हत् भगवान् को मेरा जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं। नमोत्थु णं नमस्कार हो। सिद्धिगति प्राप्त करने वाले श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव महावीर को मेरा नमस्कार हो।' सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपाविउकामस्स। पुव्विं पि णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स भगवान महावीर के पास मेरे द्वारा पहले से ही स्थूल अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, स्वदारसंतोष एवं थूलए मुसावए थूलए अदिण्णादाणे सदारसंतोसे इच्छा परिमाण व्रत यावज्जीवन के लिए स्वीकार किए हुए कए जावज्जीवाए, इच्छापरिमाणे कए जाव- हैं। ज्जीवाए। तं इदाणिं पि णं तस्सेव अंतियं सव्वं पाणाइवायं आज मैं पुनः उन्हीं के साक्ष्य से सर्वप्राणातिपात, पच्चक्खामि जावज्जीवाए मुसावायं अदत्तादाणं मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का यावज्जीवन मेहुणं परिग्गहं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। के लिए परित्याग करता हूं। सव्वं कोहं जाव मिच्छादसण-सल्लं पच्चक्खामि क्रोध यावत् मिथ्यादर्शन शल्य पर्यंत सब पापों का जावज्जीवाए, यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता हूं। सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउब्विहं पि सब प्रकार के अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-चतुर्विध आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। आहार का भी यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता है। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५४७ जइ णं एत्तो उवसग्गाओ मुच्चिस्सामि तो मे कप्प पारेत्तए । अहण्णं एत्तो उवसग्गाओ न च्चिसाम तो मे तहा पच्चक्खाए चेव त्ति कट्टु सागारं पडिमं पडिवज्जइ । तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे तं पलसहस्सणिप्फण्णं अओमयं मोग्गरं उल्लालेमाणेउल्लालेमाणे जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव उवागए। नो चेव णं संचाएइ सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तए । तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं सव्वओ समंता परिघोलेमाणेपरिघोलेमाणे जाहे नो चेव णं संचाएइ सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तए ताहे सुदंसणस्स समणोवासयस्स पुरओ पक्खि सपडिदिसिं ठिच्चा सुदंसणं समणोवासयं अणिमिसाए दिट्ठीए सुचिरं निरिक्खई, निरिक्खित्ता अज्जुणयस्स मालागारस्स सरीरं विप्पजहs, विप्पजहित्ता तं पलसहस्सणिप्फण्णं अओमयं मोग्गरं गहाय जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तणं से अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं विप्पमुक्के समाणे धस त्ति धरणियलंसि सव्वंगेहिं निवडिए । तणं से सुदंसणे समणोवासए निरुवसग्गमित्ति • कट्टु पडिमं पारे । तए णं से अज्जुणए मालागारे तत्तो मुहुत्तंतरेणं आसत्थे समाणे उट्ठेइ, उट्ठेत्ता सुदंसणं . समणोवासयं एवं वयासी - तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! के कहिं वा संपत्थिया ? तणं से सुदंसणे समणोवासए अज्जुणयं मालागारं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सुदंसणे नामं समणोवासए अभिगयजीवाजीवे गुणसिलए चेइए समणं भगवं महावीरं वंद संपत्थिए । तएं णं से अज्जुणए मालागारे सुदंसणं समणोवासयं एवं वयासी-तं इच्छामि णं अ. ९ : धर्म यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊं तो मैं इन प्रत्याख्यानों से मुक्त हूं। यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त नहीं होता हूं तो मैंने जैसा प्रत्याख्यान किया, वह बना रहेगा। ऐसा कहते हुए उसने सागार कायोत्सर्ग प्रतिमा स्वीकार की । मुद्गरपाणि यक्ष लोहमय मुद्गर को आकाश में उछालता हुआ श्रमणोपासक सुदर्शन के पास आ पहुंचा। पर वह सुदर्शन को अपने तेज से अभिभूत न कर सका। मुद्गरपाणि यक्ष श्रमणोपासक सुदर्शन को सब प्रकार से विचलित करने का प्रयत्न करता हुआ भी जब उसे परास्त न कर सका तो सुदर्शन के ठीक सामने खड़ा होकर अनिमिष दृष्टि से उसे देर तक देखता रहा। तभी वह यक्ष मालाकार अर्जुन के शरीर को छोड़ लोहमय मुद्गर को ले जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। मद्गरपाणि यक्ष के शरीर से बाहर होते ही मालाकार अर्जुन धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। श्रमणोपासक सुदर्शन ने उपसर्ग को टला हुआ जान कायोत्सर्ग प्रतिमा सम्पन्न की। मुहूर्त्तभर पश्चात् मालाकार अर्जुन आश्वस्त हुआ। उसने खड़े होकर श्रमणोपासक सुदर्शन से कहादेवानुप्रिय ! तुम कौन हो ? कहां जा रहे हो ? सुदर्शन ने मालाकार अर्जुन से कहा- मेरा नाम सुदर्शन है। मैं श्रमणोपासक हूं। मैं जीव और अजीव आदि तत्त्वों को जानने वाला | मैं गुणसिलक चैत्य में भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए जा रहा हूं। श्रमणोपासक सुदर्शन की बात सुन मालाकार अर्जुन ने कहा- देवानुप्रिय ! मैं भी तुम्हारे साथ भगवान महावीर Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन देवाणुप्पिया ! अहमवि तुमए सद्धिं समणं भगवं महावीरं वंदित्तए जाव पज्जुवासित्तए । अहासु देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि । ५४८ तए णं से सुदंसणे समणोवासए अज्जुणएणं मालागारेणं सद्धिं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जुणएणं मालागारेणं सद्धिं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स समणोवासगस्स अज्जुणयस्स मालागारस्स तीसे य महइमहालिया परिसाए मज्झगए विचित्तं धम्ममाइक्ख । सुदंसणे पडिगए । तणं से अज्जुणए मालागारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठ तुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदिता नमंसित्ता एवं वयासी - सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, रोएम णं भंते! निग्गंथं पावयणं, अब्भुट्ठेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि । खण्ड-४ को वन्दन-नमस्कार करने के लिए जाना चाहता हूं। उनकी उपासना करना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! तुम स्वंतत्रतापूर्वक जैसा चाहो, वैसा करो । तए णं से अज्जुणए मालागारे उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जाव अणगारे जाए, से णं वासीचंदणकप्पे समतिणमणिलेट्ठकंचणे समदुखे इहलोग - परलोग - अप्पडिबद्धे जीविय - मरण- निरखकंखे निग्घायणट्ठाए एवं च णं विहरइ । संसारपारगामीकम्म श्रमणोपासक सुदर्शन मालाकार अर्जुन के साथ गुणसिलक चैत्य में श्रमण भगवान महावीर के पास आया । मालाकार अर्जुन के साथ श्रमण महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए वंदन-नमस्कार किया और उपासना में बैठ गया। भगवान महावीर ने श्रमणोपासक सुदर्शन, मालाकार अर्जुन एवं विशाल परिषद के बीच विविध प्रकार के धर्म का आख्यान किया। सुदर्शन प्रवचन सुन अपने घर चला गया। मालाकार अर्जुन ने महावीर से धर्म सुना। उसे हृदयंगम किया। प्रसन्न हो प्रदक्षिणापूर्वक तीन बार महावीर को वन्दन नमस्कार किया और बोला- भंते! मैं निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं, रूचि करता हूं। मैं इस निर्ग्रथ प्रवचन को स्वीकार करने के लिए उपस्थित हूं। देवानुप्रिय ! तुम स्वतंत्रता पूर्वक जैसा चाहो, वैसा करो । मालाकार अर्जुन ईशान कोण में गया। अपने हाथ से पंचमुष्टि लुंचन कर भगवान महावीर के पास मुनि बन गया। उसने महावीर के निर्देशानुसार समता की विशेष साधना प्रारंभ की। समता की साधना करते-करते वह स्थितात्मा की स्थिति तक पहुंच गया। उस अवस्था में भले कोई कुल्हाड़ी से काटे अथवा चंदन का लेप करे, वह सम हो गया। तृण और मणि, ढेला और स्वर्ण के विषय में उसकी समत्व बुद्धि जाग गई। वह सुख-दुःख में सम हो गया । इहलोक एवं परलोक के विषय में अप्रतिबद्ध हो गया। जीवन तथा मृत्यु से निरपेक्ष बन गया। संसार समुद्र का पार पाने के लिए समुद्यत वह कर्मक्षय के लिए विहार करने लगा। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५४९ अ.९ : धर्म तितिक्षा का प्रयोग : मुनि अर्जुन का अभिग्रह ५९.तए णं से अज्जुणए अणगारे जं चेव दिवसं मुंडे मुनि अर्जुन जिस दिन मुनि बना, उसी दिन भगवान भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए तं चेव महावीर को वन्दन-नमस्कार कर बोला-भंते! मैं दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता यावज्जीवन निरंतर बेल-बेले तप (दो दिन का उपवास) नमंसित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं ओगेण्हइ-कप्पइ का अभिग्रह स्वीकार करना चाहता हूं। भगवान की मे जावज्जीवाए छठें छठेणं अणिक्खित्तेणं तवो- अनुज्ञा प्राप्त कर उसने अभिग्रह स्वीकार किया और बेले. कम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स विहरित्तए ति बेले तप करने लगा। कद अयमेयारूवं अभिग्गहं ओगेण्हइ, ओगेण्हित्ता जावज्जीवाए छटठंछटठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं से अज्जुणए अणगारे छट्ठक्खमण- मुनि अर्जुन बेले-बेले तप के पारणे में प्रथम प्रहर में पारणयंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, स्वाध्याय करता, द्वितीय प्रहर में ध्यान करता, तृतीय बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए प्रहर के समय राजगृह नगर में भिक्षा के लिए जाता और रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मन्झिमाइं कुलाइं उच्च, निम्न व मध्यम कुलों की सामुदायिक भिक्षा ग्रहण घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडइ। करता। तए णं तं अज्जुणयं अणगारं रायगिहे नगरे उच्च- मुनि अर्जुन जब भिक्षा के लिए राजगृह नगर के घरों नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खाय- में जाता तो स्त्रियां, पुरुष, बच्चे, बूढ़े और युवक इस रियाए अडमाणं बहवे इत्थीओ य पुरिसा य डहरा प्रकार कहते-इसने मेरे पिता को मारा है। इसने मेरी माता य महल्ला य जुवाणा य एवं वयासी-इमेण मे पिता को मारा है। मेरे भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री और मारिए। इमेण मे माता मारिया। इमेण मे भाया पुत्रवधू इसके द्वारा मारे गए हैं। हमारे कौटुम्बिक जनों का भगिणी भज्जा पुत्ते धूया सुण्हा मारिया। इमेण मे हत्यारा भी यही है। इस प्रकार वे उसे कोसते। उसकी अण्णयरे सयणसंबंधि-परियणे मारिए त्ति कटु अवहेलना करते। निंदा करते। अवर्णवाद बोलते। गर्दा अप्पेगइया अक्कोसंति, अप्पेगइआ हीलंति निंदंति करते। तर्जना और ताड़ना देते। खिसंति गरिहंति तज्जति तालेति। तए णं से अज्जुणए अणगारे तेहिं बहूहिं इत्थीहि य मुनि अर्जुन उन लोगों द्वारा आक्रुष्ट और ताड़ित पुरिसेहि य....आओसिज्जमाणे जाव तालेज्जमाणे होता हुआ भी मन में किंचित् द्वेष नहीं करता। सम्यक् तेसिं मणसा वि अपउस्समाणे सम्मं सहइ सम्मं प्रकार से उन सबको सहता। उसे कहीं भोजन मिलता तो खमइ सम्मं तितिक्खइ सम्मं अहियासेइ, सम्मं पानी नहीं मिलता। कहीं पानी मिलता तो भोजन नहीं सहमाणे सम्मं खममाणे सम्मं तितिक्खमाणे सम्मं मिलता। अहियासेमाणे रायगिहे नयरे उच्च-णीय-मज्झिमकुलाई अडमाणे जइ भत्तं लभइ तो पाणं न लभइ, अह पाणं लभइ तो भत्तं न लभइ। तप समाधि के प्रकार १० तवेणं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! तप से जीव क्या प्राप्त करता है? तवेणं वोदाणं जणयइ। तप से जीव व्यवदान-पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर विशुद्धि को प्राप्त होता है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड-४ आत्मा का दर्शन ६१.चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ तं जहा १. नो इहलोगट्ठयाए तवमहिढेज्जा। २. नो परलोगट्ठयाए तवमहिलॅज्जा। तप समाधि के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। २. पारलौकिक भोगाभिलाषा के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। ३. कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। ४. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए। ३. नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तव महिढेज्जा। ४. नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिछेज्जा। ६२.विविहगुणतवोरए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए। तवसा धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए। सदा विविध गुणवाले तप में रत रहने वाला मुनि पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है। वह केवल निर्जरा का अर्थी होता है। वह तप के द्वारा पुराने कर्मों का विनाश करता है और सदा तप समाधि में युक्त रहता है। राजगृह नगर। गुणसिलक चैत्य। श्रेणिक राजा। भगवान महावीर का आगमन। श्रेणिक ने भगवान महावीर से धर्म सुना। उसके मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उसने महावीर को वन्दननमस्कार कर पूछा-भंते! आपके इन्द्रभूति आदि १४ हजार शिष्यों में महादुष्कर तप और महान् निर्जरा करने वाला मुनि कौन है? महान् तपस्वी धन्य अनगार ६३.तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। सेणिए राया।......समणे भगवं महावीरे समोसढे।....... तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इमासि णं भंते! इंदभइपामोक्खाणं चोइसण्हं समणसाहस्सीणं कतरे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव। एवं खलु सेणिया! इमासि णं इंदभूइपामोक्खाणं चोइसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव। से केणठेणं भंते!...... इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे जावज्जीवाए छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिल-परिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरित्तए। छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि कप्पइ मे आयंबिलं पडिगाहेत्तए, नो चेव णं अणायंबिलं। तं पि य संसठं, नो चेव णं असंसठं। तं पि य णं उज्झियधम्मियं, नो चेव णं अणुज्झियधम्मियं। तं पि य जं अण्णे बहवे समण- श्रेणिक! मेरे इन्द्रभूति प्रमुख १४ हजार शिष्यों में मुनि धन्यकुमार महादुष्कर तप करनेवाला और महान् निर्जरार्थी है। यह कैसे? तब भगवान ने धन्य अणगार का जीवन वृत्त बताया। धन्य अणगार दीक्षित होकर मेरे पास आकर बोलाभंते! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर आजीवन निरन्तर आयंबिल युक्त बेला (दो दिन का उपवास) की तपस्या स्वीकार करता हूं। मैं इस तपस्या से अपने आपको भावित करता रहूंगा। पारणा के दिन आचाम्ल योग्य आहार लूंगा। उसके विपरीत आहार नहीं लूंगा। मैं संसृष्ट आहार लूंगा। असंसृष्ट आहार नहीं लूंगा। वह भी जो Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५५१ अ. ९ : धर्म माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा नावकंखंति। फेंकने योग्य है, वह लूंगा, जो फेंकने योग्य नहीं है, उसे नहीं लूंगा। उसमें भी वह आहार लूंगा, जिसे बहुत से श्रमण, माहण, अतिथि, कपण, वनीपक लेना नहीं चाहते। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि। ___ मैने कहा-देवानुप्रिय! स्वतंत्रतापूर्वक जैसा चाहो, वैसा करो। तए णं से धण्णे अणगारे.....तहारूवाणं थेराणं धन्य अणगार ने तथारूप स्थविरों के पास आचारांग अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। संयम और तप से अहिज्जइ, अहिन्जित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं अपने आपको भावित करता हुआ रहने लगा। भावेमाणे विहरइ। तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ महा- राजा श्रेणिक श्रमण भगवान महावीर से धन्य वीरस्स अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे अनगार की तपस्या का विवरण सुनकर-समझकर प्रसन्न • समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- हुआ। श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की। पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ-नमंसइ, वंदित्ता- वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर धन्य नमंसित्ता जेणेव धण्णे अणगारे तेणेव उवागच्छइ, अनगार के पास आया। तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दनउवागच्छित्ता धण्णं अणगारं तिक्खत्तो आयाहिण- नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर बोला-देवानुप्रिय! पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ-नमसइ, वंदित्ता- तुम धन्य हो। देवानुप्रिय! तुम पुण्यशाली हो। देवानुप्रिय! नमसित्ता एवं वयासी-धण्णेसि णं तुमं तुम कृतार्थ हो। देवानुप्रिय! तुम कृतलक्षण हो। देवानुप्रिय! : देवाणुप्पिया! सुपुण्णे सि णं तुमं देवाणुप्पिया! तुमने मनुष्य जन्म का फल प्राप्त कर लिया है। ऐसा कह सुकयत्ये सि णं तुमं देवाणुंप्पिया! कयलक्खणे सि वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर श्रमण णं तुम देवाणुप्पिया! सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव भगवान महावीर के पास आया। तीन बार प्रदक्षिणा की। . माणुस्सए जम्मजीवियफले ति कटु वंदइ-नमसइ, वन्दन-नमस्कार किया और जिस दिशा से आया था, वंदित्ता-नमंसित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उसी दिशा में चला गया। उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइनमंसइ, वंदित्ता-नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तपस्या की अर्हता ६४.बलं थामं च पेहाए सद्धामारोग्गमप्पणो। अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर, · खेत्तो कालं च विन्नाय तहप्पाणं निजुंजए॥ क्षेत्र व काल को जानकर अपनी शक्ति के अनुसार आत्मा को तप आदि में नियोजित करे। ६५.सो हु सवो कायव्वो जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ। वही तप करना चाहिए जिससे मन में अमंगल का जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा ण हायंति॥ भाव पैदा न हो, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो और योग-मन, वचन एवं काया की शक्ति नष्ट न हो। ६६.सुहेणं भाविदं गाणं दुहे जादे विणस्सदि। • तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए। सुख से भावित ज्ञान दुःख आने पर नष्ट हो जाता है। अतः योगी को शक्ति के अनुसार अपनी आत्मा को कष्टों से भावित करना चाहिए। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ खण्ड-४ आत्मा का दर्शन ६७.ण दुक्खं ण सुखं वा वि, जहाहेतु तिगिच्छिति। रोग की चिकित्सा का लक्ष्य है-रोग का प्रतिकार। दुःख और सुख उसका लक्ष्य नहीं है। चिकित्सा में प्रवृत्त व्यक्ति को दुःख भी हो सकता है और सुख भी हो सकता है। तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं॥ ६८.मोहक्खए उ जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं। मोहक्खए जहाहेउ, मोह की चिकित्सा का लक्ष्य है-मोह का प्रतिकार। दुःख और सुख उसका लक्ष्य नहीं है। मोह क्षय में प्रवृत्त होने पर साधक को दुःख भी हो सकता है और सुख भी हो सकता है। मोह क्षय साधना का अंग होने से वह अनिष्टकारी नहीं होता है। न दुक्खं न वि वा सुहं॥ मोक्ष का बाधक तत्त्व-आश्रव ६९.पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा १.मिच्छत्तं २. अविरती ३. पमादो ४. कसाया ५.जोगा। आश्रव के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. मिथ्यात्व २. अविरति . ३. प्रमाद ४. कषाय ५. योग। मोक्ष का बाधक तत्त्व-बंध ७०.रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। रागयुक्त आत्मा ही कर्मबंध करती है। राग रहित एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो॥ आत्मा कर्मों से मुक्त होती है। यह निश्चय से संक्षेप में जीवों के बंध का कथन है। मोक्ष के बाधक तत्त्व-पुण्य-पाप ७१.कम्मं पुण्णं पावं मंदकसाया सच्छा कर्म के दो प्रकार हैं-पुण्यरूप और पापरूप। पुण्यकर्म हेऊं तेसिं व होति सच्छिदरा।। के बंध का हेतु स्वच्छ या शुभभाव है और पापकर्म के बंध का हेतु अस्वच्छ या अशुभ भाव है। मंद कषायी जीव तिव्वकसाया असच्छा हु॥ स्वच्छभाव वाले होते हैं तथा तीव्रकषायी जीव अस्वच्छ भाव वाले होते हैं। अप्रमाद के सूत्र ७२.जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स अफला जंति राइओ॥ जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं। ७३.जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति राइओ॥ जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। धर्म करने वाले की रात्रियां सफल होती हैं। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५५३ अ.९: धर्म ७४.जहा य तिन्नि वणिया मूलं घेत्तूण निग्गया। जैसे तीन वणिक् मूल पूंजी को लेकर निकले, उनमें ___ एगोऽत्थ लहई लाहं एगो मूलेण आगओ॥ से एक लाभ उठाता है। एक मूल लेकर लौटता है। ७५.एगो मूलं पि हारित्ता आगओ तत्थ वाणिओ। बवहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह॥ एक मूल को भी गंवाकर वापस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए। ७६. माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे। मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुवं॥ मनुष्यत्व मूल धन है। देवगति लाभ रूप है। मल को खोने वाले प्राणी निश्चित ही नरक और तिर्यंच गति में जाते हैं। जयंती श्रमणोपासिका ने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुना, हृदयंगम किया, हर्षानुभूति की। श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार कर बोली-भंते! जीव भारी कैसे होता है ? श्राविका जयंती के प्रश्न : महावीर के उत्तर - ७७.तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ-तुट्ठा। समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कहण्णं भंते! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति? जयंती! पाणाइवाएणं......जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति। . कहण्णं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति? जयंती! पाणाइवायवेरमणेणं.....जीवा लहयत्तं हव्वमागच्छंति। जयंती! प्राणातिपात आदि पापों के द्वारा जीव भारी होता है। भंते! जीव हलका कैसे होता है? जयंती! प्राणातिपात आदि पापों के विरमण से जीव हलका होता है। ७८.सुत्ततं भंते साहू! जागरियत्तं साहू ? .' जयंती! अत्थेगतियाणं जीवाणं सत्ततं साहू अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साह। से केणठेणं भंते!.. जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया......एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू। एए णं जीवा सुत्ता समाणा नो बहणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिट्टणयाए परियावणियाए वटंति। एएणं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा 'परं वा तदुभयं वा नो बहूहिं अझम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। एएसिणं जीवाणं सुत्ततं साहू। जयंती! जे इमे जीवा धम्मिया.....एएसिणं जी- वापं जागरियत्तं साहू। एए णं जीवा जागरा समाणा बहणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं भंते! सोना अच्छा है या जागना ? जयंती! कुछ जीवों का सोना अच्छा है, कुछ जीवों का जागना अच्छा है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? जयंती! जो जीव अधार्मिक हैं उन जीवों का सोना अच्छा है। ये जीव सोए रहेंगे तो बहुत से प्राण-भूत-जीवसत्त्वों को दुःख नहीं देंगे, शोकाकुल नहीं करेंगे, खिन्न नहीं करेंगे, न उन्हें रुलाएंगे, न उन पर प्रहार करेंगे और न परितापित करेंगे। ये जीव सुप्त रहते हुए न स्वयं को, न दूसरे को और न दोनों को अधार्मिक संयोजना से संयोजित करेंगे। इसलिए उनका सोना अच्छा है। जयंती। जो जीव धार्मिक हैं उन जीवों का जागना अच्छा है। ये जीव जाग्रत रहते हुए बहुत से प्राण-भूतजीव-सत्त्वों को दुःख नहीं देंगे, शोक संतप्त नहीं करेंगे, न Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन अदुक्खणयाए असोयणा अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए वति । एएणं जीवा जागरा समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति । एए णं जीवा जागरा समाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति । एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू । ७९. बलियत्तं भंते साहू ? दुब्बलियत्तं साहू ? जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू । सेकेणट्ठेणं भंते!..... जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया..... एएसि णं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू । ...... जे इमे जीवा धम्मिया, एसि णं जीवाणं बलियत्तं साहू । ८०. दक्खत्तं भंते साहू? आलसियत्तं साहू ? जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू । अत्थेगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू । सेकेणट्ठेणं भंते!...... ५५४ जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया..... एएसि णं जीवाणं आलसियत्तं साहू !...... जे इमे जीवा धम्मिया.... एएसि णं जीवाणं दक्खत्तं साहू । खण्ड-४ उन्हें रुलायेंगे, न उन पर प्रहार करेंगे और न उन्हें परितापित करेंगे। ये जीव जाग्रत रहेंगे तो स्वयं को, दूसरे को या दोनों को धार्मिक संयोजना से संयोजित करेंगे। इसलिए उनका जागना अच्छा है। भंते! बलवान होना अच्छा है या दुर्बल होना अच्छा है ? जयंती ! कुछ जीवों का बलवान होना अच्छा है। कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहां जा रहा है ? जयंती ! जो जीव अधार्मिक हैं उन जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। जो जीव धार्मिक हैं उन जीवों का बलवान होना अच्छा है। भंते! दक्ष होना अच्छा है या आलसी होना ? जयंती ! कुछ जीवों का दक्ष होना अच्छा है, कुछ जीवों का आलसी होना अच्छा है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? जयंती! जो जीव अधार्मिक हैं उन जीवों का आलसी होना अच्छा है। जो जीव धार्मिक हैं, उन जीवों का दक्ष होना अच्छा है। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १० वीतराग साधना Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसम अध्याय पृ.सं. ९५८ १. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं २. शरीर और जीव का संबंध ३. धर्मसाधना और शरीर रक्षा पृ.सं. ५५७ ५५७ ५५८ ४.सार्थवाह धन और विजय तस्कर ५. अनासक्त योग ५६४ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मिच्छादिट्ठी । २. सासायणसम्मदिट्ठी । ३. सम्मामिच्छदिट्ठी । ४. अविरयसम्मदिट्ठी । ५. विरयाविरए । वीतराग साधना १. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा ६. पमत्तसंजए। • ७. अप्पमत्त संजए। आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं ८. नियबारे । ९. अनियठिबायरे । १०. सुहुमसंपराए - उवसमए वा खवए वा । ११. उवसंतमोहे । १२. खीणमोहे । १३. सजोगीकेवली । १४. अजीगीकेवली । २. सरीरमाहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वत्तो जं तरन्ति महेसिणो ॥ ३. छहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारमाहारेमाणे णातिक्कमति, तं जहावेण वेयावच्चे, तह पाणवत्तिया, ईरियट्ठाए य संजमट्ठाए । विशुद्धि की मार्गणा के आधार पर जीवस्थानों के चवदह प्रकार प्रज्ञप्त हैं शरीर और जीव का संबंध छठ्ठे पुण धम्मचिंताए ॥ १. मिध्यादृष्टि २. सास्वादनसम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्-मिथ्यादृष्टि ४. अविरत सम्यग्दृष्टि ५. विरताविरत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. वृत् ९. अनिवृत्ति बादर १०. सूक्ष्मसंपराय-उपशमक या क्षपक ११. उपशांतमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगीकेवली १४. अयोगीकेवली । शरीर नौका है। जीव नाविक है। संसार समुद्र है। मोक्ष की अन्वेषणा करने वाले इसका पार पा जाते श्रमण-निर्ग्रथ छह कारणों से आहार करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता १. वेदना - भूख की पीड़ा मिटाने के लिए। २. वैयावृत्त्य करने के लिए। ३. ईर्यासमिति का पालन करने के लिए। ४. संयम की रक्षा के लिए। ५. प्राणधारण के लिए। ६. धर्मचिंता के लिए। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५५८ खण्ड-४ ४. छहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारं वोच्छिंदमाणे श्रमण-निग्रंथ छह कारणों से आहार का परित्याग णातिक्कमति, तं जहा करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करताआतंके उवसग्गे, १. आतंक-ज्वर आदि आकस्मिक बीमारी हो जाने तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए। पर। पाणिदया-तवहेउं, २. राजा आदि का उपसर्ग हो जाने पर। सरीरखुच्छेयणट्ठाए॥ ३. ब्रह्मचर्य की तितिक्षा (सुरक्षा) के लिए। ४. प्राणीदया के लिए। ५. तपस्या के लिए। ६. शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए। धर्मसाधना और शरीर रक्षा ५. सिवसाहणेसु आहार-, आहार के बिना शरीर मोक्ष की साधना में प्रवृत्त नहीं विरहिओ जंन वट्टए देहो। हो सकता इसलिए साधु आहार से शरीर का वैसे ही तम्हा धणो व्व विजयं, पोषण करे जैसे धन श्रेष्ठी ने विजय चोर का पोषण साहू तं तेण पोसेज्जा॥ किया। सार्थवाह धन और विजय तस्कर ६. तए णं से पंथए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स सार्थवाह धन के घर पंथक नाम का एक दासपुत्र बालग्गाही जाए। देवदिन्नं दारगं कडीए गेण्हइ, रहता था। वह सार्थवाह धन के पुत्र देवदत्त को क्रीड़ा गेण्हित्ता बहहिं.....कमारएहि य कमारियाहि य करवाता था। जहां बहत से किशोर-किशोरियां क्रीडा सद्धिं संपरिखुडे अभिरमइ। करते, वहां प्रतिदिन उसे गोद में लेकर जाता। तए णं सा भद्दा सत्थवाही अण्णया कयाइ देवदिन्नं एक दिन सार्थवाह धन की पत्नी ने अपने पुत्र देवदत्त दारयं ण्हायं कयबलिकम्मं कयकोउय-मंगल- को स्नान करवाया। उसके काजल, तिलक, दिठौना आदि पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता लगाया। उसे सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया पंथयस्स दासचेडगस्स हत्थयंसि दलया। और दासपुत्र पंथक के हाथ में सौंप दिया। तए णं से पंथए दासचेडए भद्दाए सत्थवाहीए दासपुत्र पंथक ने भद्रा सार्थवाही के हाथ से बालक हत्थाओ देवदिन्नं दारगं कडीए गेण्हइ। गेण्हित्ता देवदत्त को अपनी गोद में भरा और घर से बाहर निकला। सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ।.....जेणेव राजमार्ग पर आया। बालक देवदत्त को एक ओर बिठाया रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं एगंते ठाडेइ. ठावेत्ता बहहिं डिभएहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिखडे पमत्ते यावि विहरइ। इमं च णं विजए तक्करे रायगिहस्स नगरस्स इधर विजय तस्कर राजगृह नगर के बहुत सारे बहूणि वाराणि य अववाराणि य सुन्नघराणि य ____ अपद्वारों और सूने घरों को देखता हुआ, उनकी मार्गणा आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसमाणे जेणेव देवदिन्ने और गवेषणा करता हुआ वहां आया जहां बालक देवदत्त दारए तेणेव उवागच्छइ। बैठा था। देवदिन्नं दारगं सव्वालंकारविभूसियं पासइ, उसने बालक देवदत्त को गहनों से लदा हुआ देखा। पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेस देखते ही वह उन आभरणों और अलंकारों में मूर्छित हो मुच्छिए। गया। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५५९ अ. १० : वीतराग साधना दासपुत्र पंथक को देवदत्त की ओर लापरवाह बना हुआ देखा। इधर-उधर दिशावलोकन किया। बालक देवदत्त को उठाया। बगल में छिपाया। उत्तरीय वस्त्र से ढका। अत्यंत शीघ्र गति से राजगृह नगर के अपद्वार से बाहर निकला और जीर्ण उद्यान के भग्नकूप के पास पहुंचा। बालक देवदत्त को मारकर उसके सब गहने उतारे और उसके मृत शरीर को भग्नकूप में डाल दिया। स्वयं मालुका कच्छ में जाकर छिप गया। निश्छल, निःस्पन्द और मौन हो वहीं दिन बिताने लगा। पंथयं दासंचेडयं पमत्तं पासइ, पासित्ता दिसालोयं करेइ, करेत्ता देवदिन्नं दारगं गेण्हइ, गेण्हित्ता कक्खंसि अल्लियावेइ, अल्लियावेत्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ, पिहेत्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं रायगिहस्स नगरस्स अवहारेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छइ। देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेइ, ववरोवेत्ता आभरणालंकारं गेण्हइ, गेण्हित्ता देवदिन्नस्स दार गस्स सरीरं निप्पाणं निच्चेजें जीवविप्पजढं भग्गकूवए पक्खिवइ, पक्खिवित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता निच्चले निप्फंदे तुसिणीए दिवसं खवेमाणे चिट्ठइ। तए णं से पंथएं दासचेडए तओ मुहुत्तंतरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए • ठविए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ। देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता.....पायवडिए धणस्स सत्थवाहस्स एयमढं निवेदेइ। तए णं से धणे सत्थवाहे पंथयस्स दासचेडगस्स एयमढं सोच्चा निसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूए समाणे परसु-णियत्ते व चंपगपायवे 'धसत्ति' धरणीयलंसि सव्वंगेहिं सण्णिवइए। तए णं से धणे सत्थवाहे तओ मुहत्तंतरस्स आसत्थे पच्चागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ। देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छा । महत्थं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिन्ने मुहूर्त भर पश्चात् दासपुत्र पंथक जहां बालक देवदत्त को बिठाकर गया था, वहां आया। देवदत्त को वहां न देख वह रोता, चिल्लाता हुआ चारों ओर बालक देवदत्त की खोज करने लगा। जब उसे बालक देवदत्त का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा संवाद नहीं मिला तो वह लौटा। सार्थवाह धन के पास आया और उसके चरणों में गिरकर सारा वृत्तांत सुना दिया। दासपुत्र पन्थक से यह सुन-समझ सार्थवाह धन पुत्रशोक से अत्यंत विह्वल हो उठा। वह कुल्हाड़ी से काटे गये चम्पक वृक्ष की भांति धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। मुहूर्त भर पश्चात् सार्थवाह धन आश्वस्त हुआ। चेतना लौटी। पुनः प्राण का संचार हुआ। उसने चारों ओर बालक देवदत्त की खोज प्रारंभ की। जब उसे बालक देवदत्त का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा संवाद नहीं मिला तो वह घूमघाम कर अपने घर लौट आया। वह मूल्यवान उपहार ले नगर-आरक्षकों के पास पहुंचा। उन्हें उपहार भेंट करते हुए बोला देवानुप्रिय! मेरा प्रिय पुत्र देवदत्त जिसके दर्शन की तो बात ही क्या, नाम-श्रवण भी हमारे लिए उदम्बर पुष्प के Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५६० खण्ड-४ नाम दारए इढे जाव उंबरपप्पं पिव दुल्लहे समान दुर्लभ है। सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए। तए णं सा भद्दा देवदिन्नं ण्हायं सव्वालंकार- मेरी पत्नी भद्रा ने देवदत्त को नहलाकर, सब प्रकार विभूसियं पंथगस्स हत्थे दलाइ जाव पायवडिए के अलंकारों से विभूषित कर पन्थक के हाथ में सौंपा म निवेदेइ। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! यावत् पंथक ने सूचना दी कि देवदत्त खो गया है। देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणग- देवानुप्रिय! मैं चाहता हूं, बालक देवदत्त की सर्वत्र खोज वेसणं कयं। की जाए। तए णं ते नगरगोत्तिया धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता सार्थवाह धन की बात सुन नगर-आरक्षक सार्थवाह समाणा.... धणेण सत्थवाहेण सद्धिं रायगिहस्स धन को साथ ले राजगृह नगर के प्रवेश मार्गों एवं प्याउओं नगरस्स बहुसु अइगमणेसु य जाव पवासु य में बालक की खोज करते-करते नगर के बाहर आए। मग्गण-गवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नगराओ जीर्ण उद्यान में स्थित भग्नकूप के पास पहुंचे। उसमें पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव । उन्होंने बालक देवदत्त के निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छंति, शरीर को देखा। उवागच्छित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटें जीवविप्पजढं पासंति। हा हा अहो! अकज्जमिति कट्ट देवदिन्नं दारगं हा! हा! अहो! अनर्थ हो गया-इस प्रकार कहते हुए भग्गकूवाओ उत्तारेंति, धणस्स सत्थवाहस्स हत्थे बालक देवदत्त के मृत शरीर को भग्नकूप से बाहर दलयंति। निकाला और सार्थवाह धन के हाथ में सौंप दिया। तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स नगर आरक्षक विजय तस्कर के पद-चिह्नों का पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव अनुगमन करते हुए मालुकाकच्छ में आए। वहां उन्होंने उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं विजय को रंगे हाथों पकड़ लिया। अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोढं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गेण्हंति।...... जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवाग- उसे ले राजगृह नगर में प्रविष्ट हुए। नगर के दुराहों, च्छित्ता...सिंघाडग-तिग चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- तिहारों, चौहारों, चौकों, चोहट्टों, राजमार्गों और गलियों महापहपहेसु कसप्पहारे य छिवापहारे य लयापहारेय से गुजरे। उसके शरीर पर बार-बार चाबुक और बेंतों के निवाएमाणा-निवाएमाणा छारं च धूलिं च कय-वरंच प्रहार कर रहे थे। उसके शरीर पर राख, कचरा और धूल उवरिं पकिरमाणा-पकिरमाणा महया-महया सद्देणं उछाल रहे थे और ऊंचे स्वरों में उद्घोषणा कर रहे उग्रोसेमाणा एवं वयंति-एस णं देवाणुप्पिया!विजए थे-देवानुप्रियो! यह विजय चोर बालघातक और . नामं तक्करे....बालघायए बालमारए। बालमारक है। तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयस्स केइ राया वा देवानुप्रियो! इसको दंडित करने में राजा मंत्री का कोई रायमच्चे वा अवरज्झइ। नन्नत्थ अप्पणो सयाई दोष नहीं है। यह केवल अपने आचरणों से ही अपराधी कम्माई अवरज्झंति त्ति कटु जेणामेव चारगसाला बना है, यों कहते हुए वे उसे कारागृह में ले गए। उसे तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हडिबंधणं करेंति। हडिबंधन-काठ के खोड़े में डाल दिया। भत्तपाणनिरोहं करेंति, करेत्ता तिसंझं कसप्पहारे खाना-पीना बंद कर दिया और कारागृह-अधिकारी य छिवापहारे य लयापहारे य निवाएमाणा तीनों संध्याओं में उसे चाबुक और बेंतों से पीटने लगे। विहरंति। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५६१ तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाई लहुसयंसि रायावराहंसि संपलित्ते जाए यावि 'होत्था । तए णं ते नगरगुत्तिया धणं सत्थवाहं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव चारए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चारगं अणुप्पवेसंति, अणुप्पवेसित्ता विजएणं तक्करेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेंति । तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेइ, भोयणपडियं करे ....... एगं च सुरभि - वारिपडिपुण्णं दगवारयं करेइ, करेत्ता पंथयं दासचेडयं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुमं देवाप्पिया ! इमं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं गहाय चारगसालाए धणस्स सत्थवाहस्स उवणेहि । तए णं से पंथए...... जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भोयणपिडयं ठवेइ, ठवेत्ता उल्लंछेइ, उल्लंछेत्ता भोयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता भायणाई ठावइ, ठावित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धणं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असण- पाण- खाइम साइमेणं परिवेसेइ । तणं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं वयासीतुम्भे णं देवाणुप्पिया! ममं एयाओ विपुलाओ असण- पाण- खाइम- साइमाओ संविभागं करेहि। तए णं से धणे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं बयासी - अवियाई अहं विजया ! एयं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं कायाण वा सुणगाण वा दलज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं छड्डेज्जा नो चेव णं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स बेरियस्स पडणीयस्स पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असण- पाण- खाइम - साइमाओ संविभागं करेज्जामि । तणं से धणं सत्थवाहे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तं पंथयं पडिविसज्जेइ । तर णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारियस्स समाणस्स उच्चार पासवणे णं उव्वाहित्था । अ. १० : वीतराग साधना एक बार धन सार्थवाह किसी साधारण से राजकीय अपराध में फंस गया। नगर- आरक्षक सार्थवाह धन को कारागृह में ले गए। विजय- तस्कर के साथ ही उसका पैर खोड़े में डाल दिया। रात्रि व्यतीत हुई। पौ फटी । सूर्योदय हुआ । भद्रा सार्थवाही ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार किया। भोजन पिटक तैयार किया। सुगंधित जल से एक झारी भरी। दास पंथक को बुलाया और कहा- देवानुप्रिय ! तू जा और यह भोजन पिटक कारागृह में सार्थवाह धन को दे आ। पंथक कारागृह में सार्थवाह धन के पास आया । भोजन पिटक रखा। उसे खोला और भोजन निकाला । भोजन पात्र रखे। सार्थवाह धन के हाथ धुलाए और भोजन परोसा | विजय तस्कर ने सार्थवाह धन से कहा- देवानुप्रिय ! मुझे भी भोजन का थोड़ा-सा हिस्सा दो । सार्थवाह धन ने विजय तस्कर से कहा- मैं यह भोजन चाहे कौवों और कुत्तों को दे दूं, कूड़े और कचरे में डाल दूं, किन्तु मेरे पुत्र के हत्यारे को इसका थोड़ा भी हिस्सा नहीं दूंगा। सार्थवाह धन ने भोजन किया और पंथक को विसर्जित कर दिया। विपुल भोजन के पश्चात् सार्थवाह को मल-मूत्र की बाधा उत्पन्न हुई। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५६२ तए णं से धणे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी - एहि ताव विजया ! एगंतमवक्कमामो जेणं अहं उच्चार- पासवणं परिट्ठेवेमि । तए णं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं वयासी - तुझं देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारियस्स अत्थि उच्चारे वा पासवणे वा । ममं णं देवाणुप्पिया ! इमेहिं बहूहिं कसप्पहारेहि य छिवापहारेहि य लयापहारेहि य तहाए य छुहाए य परज्झमाणस्स नत्थि केइ उच्चारे वा पासवणे वा । तं छंदेणं तुमं देवाणुप्पिया ! एगते अवक्कमित्ता उच्चारपासवणं परिट्ठवेहि । तणं से धणे सत्थवाहे विजएणं तक्करेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ । तणं से धणे सत्थवाहे मुहुत्तंतरस्स बलियतरागं उच्चारपासवणेणं उव्वाहिज्जमाणे विजयं तक्करं एवं वयासी - एहि ताव विजया ! एगंतमवक्कमामो जेणं अहं उच्चारपासवणं परिट्ठवेमि । तणं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं वयासी - जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! ताओ विपुलाओ असण- पाण- खाइम साइमाओ संविभागं करेहि, ओहं तुमेहिं सद्धिं गतं अवक्कमामि । तणं से धणे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी - अहं णं तुब्भं ताओ विपुलाओ असणपाणखाइम साइमाओ संविभागं करिस्सामि । तणं से विजये तक्करे धणस्स सत्थवाहस्स एयमठ्ठे पडिसुणेइ । तणं से धणे सत्थवाहे विजएण तक्करेण सद्धिं एगते अवक्कमइ । उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ । आयंते चोक्खे परमसुइभूए तमेव ठाणं उवसंकमित्ता णं विहरइ । तए णं से धणे सत्थवाहे विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण - पाण- खाइम - साइमाओ संविभागं करेइ । तणं से पंथ भोयणपिडयं गहाय..... जेणेव भद्दा सत्थवाही तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भदं सत्थवाहिं एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिए ! धणे सत्थवाहे तवपुत्तघायगस्स..... तओ विपुलाओ खण्ड - ४ सार्थवाह धन ने विजय तस्कर से कहा- जरा आओ, हम एकांत में चलें। मैं बाधा का निवारण कर आऊं । विजय तस्कर ने सार्थवाह धन से कहा- देवानुप्रिय ! तुमने विपुल भोजन किया है। तुम्हें मल-मूत्र विसर्जन की अपेक्षा है। मैं इन बहुत से चाबुक के प्रहारों, एडी और बेंतों के प्रहारों तथा भूख और प्यास से पराभूत हूं। अतः मुझे मल-मूत्र विसर्जन की कोई अपेक्षा नहीं है। देवानुप्रिय ! तुम अपनी इच्छा से एकांत में जाओ और मल-मूत्र का विसर्जन करो। विजय तस्कर का यह उत्तर सुन सार्थवाह धन मौन हो गया। कुछ समय पश्चात् सार्थवाह धन के मल-मूत्र का वेग बलवान हो गया। उसने पुनः विजय तस्कर को साथ चलने के लिए कहा। विजय तस्कर ने सार्थवाह धन से कहा- यदि तुम मुझे भोजन का हिस्सा दो तो मैं तुम्हारे साथ एकांत में चलूं । सार्थवाह धन ने विजय तस्कर से कहा- मैं तुम्हें भोजन का संविभाग दूंगा। विजय तस्कर ने भी सार्थवाह धन की बात को स्वीकार किया। सार्थवाह धन विजय तस्कर के साथ एकांत में गया। मल-मूत्र का विसर्जन किया। शौचकर्म कर अपने स्थान पर लौट आया। अगले दिन सार्थवाह धन ने विजय तस्कर को भोजन का संविभाग दिया। पंथक भोजन पिटक लेकर भद्रा सार्थवाही के पास पहुंचा, बोला- देवानुप्रिये ! सार्थवाह धन ने तुम्हारे पुत्र के हत्यारे उस विजय तस्कर को भोजन का संविभाग दिया है। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५६३ अ.१०: वीतराग साधना यह बात सुनते ही भद्रा सार्थवाही कुपित हो उठी। सार्थवाह धन के प्रति उसके मन में प्रगाढ़ द्वेष का भाव जाग गया। कुछ समय पश्चात् सार्थवाह धन ने अर्थबल से अपने आपको राजदंड से मुक्त करवा लिया। बंदीगृह से निकल वह अपने घर आया। अपनी पत्नी भद्रा के पास पहुंचा। असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथगस्स दासचेडगस्स 'अंतिए एयमझें सोच्चा आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणी धणस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ। तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाई..... अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ, मोयावेत्ता चारगसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता.....जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ। तए णं से धणे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ। तए णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ नो परिजाणइ। अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठइ। तए णं से धणे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी- किण्णं तज्झं देवाणप्पिए! न तटठी वा न हरिसो वा नाणंदो वा, जं मए सएणं अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पा विमोइए। तए णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एवं वयासी-कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्ठी वा हरिसो वा आणंदो वा भविस्सइ? जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडणीयस्स प्रच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण-पाणखाइम-साइमाओ संविभागं करेसि। तए णं से धणे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासीनो खलु देवाणुप्पिए! धम्मो त्ति वा तवोत्ति वा कय-पडिकया इ वा लोगजत्ता इ वा नायए इ वा पाडियए इ वा सहाए इ वा सुहि त्ति वा विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण-पाण-खाइमसाइमामो संविभागे कए। नण्णत्थ सरीरचिंताए।' तए णं सा भहा....खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छित्ता हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल- पायच्छित्ता विपुलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणी भद्रा ने सार्थवाह धन को आते देखा, पर उसने न प्रसन्नता व्यक्त की और न उसे आदर दिया। वह पीठ फेर, मौन होकर बैठ गई। सार्थवाह धन ने पत्नी भद्रा से पूछा-देवानुप्रिये! क्या बात है? आज तझे न खशी है, न हर्ष है, और न आनंद है, जबकि मैं कारावास से मुक्त होकर आया हूं। भद्रा ने कहा-देवानुप्रिय! मुझे खुशी, हर्ष और आनंद कैसे होगा। आप मेरे पुत्र के हत्यारे, बैरी, अमित्र विजय तस्कर को भोजन का संविभाग देते थे। सार्थवाह धन ने पत्नी से कहा-देवानप्रिय! मैंने विजय तस्कर को धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोकयात्रा की दृष्टि से अथवा उसे अपना ज्ञाती, सहचारी, सखा या सुहृद मानकर भोजन का संविभाग नहीं दिया। केवल शरीर चिंता के लिए उसे संविभाग देना पड़ा। तब भद्रा ने कुशलक्षेम पूछा और पूर्ववत् दिनचर्या में संलग्न हो गई। जा गं जंबू! धणेण सत्थवाहेणं नो धम्मो त्ति वा तवो ति वा कयपडिकया इ वा लोगजत्ता इ वा जम्बू! जैसे सार्थवाह धन ने विजय तस्कर को न तो धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोकयात्रा की दृष्टि से भोजन Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५६४ खण्ड-४ नायए इ वा घाडियए इ वा सहाए इ वा सुहित्ति वा का संविभाग दिया और न ही उसे ज्ञाती, सहचारी, विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण- सहायक और सुहृद मानकर भोजन का संविभाग दिया। पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए। नण्णत्थ केवल शरीर संरक्षण के लिए उसे संविभाग दिया। सरीरसारक्खणट्ठाए। एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा जम्बू! इसी प्रकार जिनशासन में प्रव्रजित निग्रंथ आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंड़े भवित्ता अगाराओ अथवा निग्रंथी आचार्य-उपाध्याय के पास मुंड हो, साधुत्व अणगारियं पव्वइए समाणे ववगयण्हाणुमहण- स्वीकार कर स्नान, मर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-विभूसे इमस्स ओरालिय- और विभूषा से उपरत रहता है, वह इस औदारिक शरीर सरीरस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं के वर्ण, रूप, बल और विषयपूर्ति के लिए भोजन नहीं वा नो विसयहेउं वा तं विपुलं असणं पाणं खाइमं करता। केवल ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अनुपालना के . साइमं आहारमाहारेइ। नण्णत्थ नाणदंसणचरित्ताणं लिए भोजन करता है। वहणट्टयाए। अनासक्त योग ७. उबलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई। भोगों में उपलेप होता है। अभोगी व्यक्ति लिप्त नहीं भोगी भमइ संसारे अभोगी विप्पमुच्चई। होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है। ८. उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मटियामया। दो वि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सो तत्थ लग्गई। मिट्टी के दो गोले हैं-एक गीला और दूसरा सूखा। दोनों भींत पर फेंके गए। जो गीला था वह चिपक गया। जो सूखा था, वह स्पृष्ट होकर नीचे गिर गया। ९. एवं लग्गति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा।। विरत्ता उ न लग्गंति जहा सुक्को उ गोलओ॥ इसी प्रकार काम-भोगों में आसक्त दुर्मेध मनुष्य विषयों से चिपट जाते हैं। विरक्त मनुष्य सूखे गोले की तरह अस्पृष्ट रहते हैं। १०.भावे विरत्तो मणुओ विसोगो ___ एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त होता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहता हुआ दुःख परंपरा से लिप्त नहीं होता है। इस प्रकार इन्द्रिय और मन के विषय रागी मनुष्य के लिए दुःख के हेतु बनते हैं। वीतराग के लिए वे कमी किंचित भी दुःखदायी नहीं होते हैं। ११.एविंदियत्था य मणस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि॥ १२.न कामभोगा समयं उर्वति न यावि भोगा विगई उति। जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवे॥ कामभोग अपने आप में न समता के हेतु हैं और न विकार के हेतु हैं। जो पुरुष उनके प्रति द्वेष या राग करता है, वह तद्-विषयक मोह के कारण विकार को प्राप्त होता है। . Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५६५ अ. १० : वीतराग साधना १३.एवं ससंकप्पविकप्पणासो समता में उपस्थित व्यक्ति के संकल्प और विकल्प संजायई समयमुवट्ठियस्स। का नाश हो जाता है। जब वह अर्थों-विषयों का संकल्प अत्थे असंकप्पयओ तओ से नहीं करता है तो उसकी काम विषयों में होने वाली तृष्णा पहीयए कामगुणेसु तण्हा॥ भी क्षीण हो जाती है। १४.ण सक्का ण सोउं सहा सोयविसयमागता। श्रोत्रेन्द्रिय में आने वाले शब्द न सुने, यह शक्य नहीं है। किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे। रागदोसा उ जे तत्थ . ते भिक्खू परिवज्जए॥ १५.णो सक्का रूवमदहें चक्खविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥ चक्षु इन्द्रिय के सामने आने वाले रूप न देखे, यह शक्य नहीं है। किन्तु राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उनके प्रति होने वाले राग द्वेष का वर्जन करे। १६.णो सक्का ण गंधमग्घाउं णासाविसयमागयं। घ्राणेन्द्रिय में आनेवाली गंध का आघ्राण न करे, यह शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का रागदोसा उजे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥ १७.णो सक्का रसमणासाउं जीहाविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए। रसनेन्द्रिय द्वारा चखे जानेवाले रस का आस्वाद न ले, यह शक्य नहीं है। किंतु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले रागद्वेष का वर्जन करे। १८.णो सक्का ण संवेदेउं फासविसयमागयं। . रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्ख परिवज्जए॥ स्पर्शनेन्द्रिय से स्पृष्ट होनेवाली वस्तु का संस्पर्श न करे, यह शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले रागद्वेष का वर्जन करे। १९.वत्थगन्धमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे न भुंजंति न से चाइ त्ति वुच्चइ॥ जो परवश-अभावग्रस्त होने के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शयन और आसन का उपभोग नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहलाता। २०.जे य कंते पिए भोए लद्धे विपिट्ठि कुव्वई। साहीणे चयइ भोए से ह चाइ त्ति वुच्चई। त्यागी वही कहलाता है जो कांत और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है, स्वेच्छा से उनका परित्याग करता है। Page #587 --------------------------------------------------------------------------  Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-११ विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मनुष्य का वर्गीकरण : आधार अशांति और शांति का २. शस्त्र के प्रकार ३. रथमूसल संग्राम और नागदौहित्र वरुण एकादश अध्याय पू. सं. ५६९ ५६९ ५७० ४. वरुणमित्र का संकल्प ५. आत्मयुद्ध ६. युद्ध और मनोदशा पृ.सं. ५७३ ५७४ ५७५ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण १. जे य बुद्धा अइक्कंता जे य बुद्धा अणागया। जो बुद्ध (तीर्थंकर) हो चुके हैं और जो भविष्य में संती तेसिं पइट्ठाणं भूयाणं जगई जहा॥ होंगे, उन सबका आधार है शांति, जैसे जीवों का पृथ्वी। ___ मनुष्य का वर्गीकरण : आधार अशांति और शांति का २. इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में कुछ मनुष्य संतेगइया मणुस्सा भवंति-महिच्छा महारंभा महान इच्छावाले महाआरंभी, महापरिग्रही, अधार्मिक, महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्माणुया अधम्मिट्ठा अधर्म का अनुगमन करने वाले, अधर्म में स्थित होने अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोइणो वाले, अधर्म का आख्यान करने वाले, अधर्म का जीवन अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदाचारा अधम्मेण जीने वाले, अधर्म को देखने वाले, अधर्म में अनुरक्त, चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। अधर्मयुक्त शील और आचार वाले, अधर्म के द्वारा आजीविका करने वाले होते हैं। ३. इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसीलसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा . .विहरंति। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में कुछ मनुष्य अल्प इच्छा वाले अल्प आरंभ वाले, अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्म का अनुगमन करने वाले, धर्म में स्थित होने वाले, धर्म का आख्यान करने वाले, धर्म को देखने वाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मयुक्त शील और आचार वाले, धर्म के द्वारा आजीविका करने वाले होते हैं। ४. इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में कुछ मनुष्य संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंभा अनारंभी, अपरिग्रही, धार्मिक, धर्म का अनुगमन करने अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा वाले, धर्म में स्थित होने वाले, धर्म का आख्यान करने धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा वाले, धर्म को देखने वाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मयुक्त धम्मसीलसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा शील और आचार वाले, धर्म के द्वारा आजीविका करने विहरंति। वाले होते हैं। शस्त्र के प्रकार ५. दसविधे सत्थे पण्णत्ते, तं जहा शस्त्र के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैंसत्थमग्गी विसं लोणं सिणेहो खारमंबिलं। १. अग्नि, २. विष, ३. लवण, ४. स्नेह, ५. क्षार, दुप्पउत्तो मणो वाया काओ भावो य अविरती॥ ६. अम्ल, ७. दुष्प्रयुक्त मन, ८. दुष्प्रयुक्त वचन, ९. दुष्प्रयुक्त काया, १०. अविरति। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५७० खण्ड-४ इनमें अंतिम चार भाव शस्त्र हैं। ६. संजुत्ताहिकरणे। शस्त्र के पुर्जे आदि बनाना और अलग-अलग पुर्जी को मिलाकर उसे प्रयोग योग्य बनाना। अहिंसा का अणुव्रत स्वीकार करनेवाले श्रावक के लिए यह अनाचरणीय है। ७. अत्थि सत्थं परेण परंणत्थि असत्थं परेण परं। शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है। अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता। वह एक रूप होता है। रथमूसल संग्राम और नागदौहित्र वरुण ८. बहुजणे णं भंते! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव गौतम ने प्रश्न किया-भंते! बहुत से लोग परस्पर परूवेइ-एवं खलु बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु इस प्रकार चर्चा कर रहे थे कि छोटे-बड़े किसी संग्राम में उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा युद्ध करते समय बहुत से व्यक्ति हत-प्रहत हो जाते हैं। वे कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएस आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देवत्ताए उववत्तारो भवंति। देवरूप में उत्पन्न होते हैं। से कहमेयं भंते! एवं? भंते! यह कैसे? . गोयमा!.....जे ते एवमाहंस मिच्छं ते एवमाहंस। गौतम ! ऐसा जो कहते हैं, वह सही नहीं है। गौतम! अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि- मैं इस विषय में ऐसा कहता हूंएवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वैशाली नाम की नगरी। 'नाग का दौहित्र वरुण वेसाली नाम नगरी होत्था। तत्थ णं वेसालीए कुमार। वह ऋद्धि युक्त यावत् . अनेक लोगों द्वारा नगरीए वरुणे नामं नागनत्तुए परिवसइ। अड्ढे जाव अपराभूत। वह श्रमणों का उपासक था। जीव-अजीव का अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे। ज्ञाता था। तए णं से वरुणे नागनत्तुए अण्णया कयाइ रथमूसल संग्राम के उपस्थित होने पर गणराज्य तथा रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं सेना के निर्देशानुसार वरुण ने संग्राम में भाग लिया। रहमुसले संगामे आणत्ते समाणे छट्ठभत्तिए संग्राम में जाने के पूर्व उसने तेले की तपस्या की। तपस्या अट्ठमभत्तं अणुवट्टेति, अणुवढेत्ता पूर्ण कर कौटुंबिक पुरुष-अधिकारी व्यक्तियों को बुलाया कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी- और कहा-चातुर्घटिक अश्वरथ को तैयार करो। खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरह चतुरंगिणी सेना को सजाओ। पूरी तैयारी कर मुझे इस जुत्तामेव उवट्ठावेह। हय-गय-रह-पवर- विषय में सूचना दो। जोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता १. भगवान महावीर के समय यह मत प्रचलित था कि युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में जाता है। गीताकार ने भी इसी मान्यता का समर्थन करते हुए कहा-'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग.......'। लोकवाद में भी यह सूक्त प्रचलित था-प्रमाद 'जिते च लभ्यते लक्ष्मीः मृते चापि सुरांगना। क्षणभंगुरको देहः का चिंता मरणे रणे॥ भगवान महावीर अहिंसा के प्रवचनाकार थे। उन्हें यह मत मान्य नहीं था। युद्ध के विरोध में उन्होंने एक सशक्त स्वर उठाया और इस बात का प्रतिवाद किया कि युद्ध लड़ने से कोई स्वर्ग में जाता है। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५७१ मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव चाउरघंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठावेंति..... जेणेव वरुणे नागनत्तुए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । तए णं से वरुणे नागनत्तुए..... जेणेव बाहिरिया उवठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे, महयाभड - चडगरविंदपरिक्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहमुसलं संगामं ओयाए । तणं से वरुणे नागनत्तुए रहमुसलं संगामं ओयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हs - कप्पति रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स जे पुव्विं पहणइ से पडिहणित्तए । अवसेसे नो कप्पतीति अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ, अभिगेण्हेत्ता रहमुसलं संगामं संगामेति । तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए सरित्तए सरिव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरहं हव्वमागए। तणं से पुरिसे वरुणं नागनत्तुयं एवं वदासीपण भो वरुणा ! नागनत्तुया ! पहण भो वरुणा ! नागनत्तुया ! नो तसे वरुणे नागनत्तु तं पुरिसं एवं वदासीखलु मे कप्पर देवाणुप्पिया ! पुव्विं अहयस्स पहणित्तए । तुमं चेव णं पुव्वि पहणाहि । तणं से पुरिसे वरुणेणं नागनत्तुएणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते..... धणुं परामुसइ, परामुसित्ता उसुं परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाति, ठिच्चा आययकण्णाययं उसुं करेइ, करेत्ता वरुणं नागनत्यं गाढप्पहारीकरे । तए णं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं अ. ११ : विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण अधिकारी व्यक्तियों ने विनत हो वरुण की आज्ञा स्वीकार की। शीघ्र ही चातुर्घंटिक अश्वरथ को तैयार किया और वरुण को इसकी सूचना दी। वरुण बाहरी उपस्थानशाला में आया । चातुर्घंटिक रथ पर आरोहण किया। चतुरंगिणी सेना और वीर योद्धाओं सेवेष्टित वह रथमूसल संग्राम में पहुंचा। संग्राम स्थल पर वरुण ने संकल्प किया- मुझ पर जो प्रहार करेगा, मैं उसी पर प्रहार करूंगा जो मुझ पर प्रहार नहीं करता, उस पर मैं हथियार नहीं उठाऊंगा। इस संकल्प के साथ वह रथमूसल संग्राम में उतर गया । उसके सामने प्रतिपक्षी के रूप में एक योद्धा उपस्थित हुआ। वह आकार-प्रकार, त्वचा और अवस्था से वरुण के समान था। उसके शस्त्रास्त्र भी उस जैसे ही थे । वह वरुण की तरह ही रथ पर आरूढ़ था । उसने वरुण को चुनौती देते हुए कहा- ओ वरुण ! तू शस्त्र चला। देखता क्या है ? वरुण ! तू शस्त्र चला। वरुण ने कहा- मैं पहले प्रहार नहीं कर सकता। मैंने यह संकल्प किया है - जो मुझ पर प्रहार नहीं करता, उस पर मैं हथियार नहीं उठाता । अतः तू ही पहले शस्त्र चला । वरुण के ऐसा कहने पर क्रोध से तमतमायमान प्रतिपक्षी ने धनुष उठाया, बाण उठाया। वह धनुष चलाने की मुद्रा में खड़ा हुआ और कान तक बाण को खींचते हुए उसने नागदौहित्र वरुण पर गंभीर प्रहार किया। उस प्रहार से कुपित हो वरुण ने धनुष-बाण हाथ में Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५७२ खण्ड-४ गाढप्पहारीकए समाणे आसुरुत्ते.....धणुं परामुसइ, उठाया और उसे कान तक खींचकर प्रतिपक्षी पर छोड़ा। परामुसित्ता उसु परामुसइ, परामुसित्ता एक ही प्रहार में उसे धराशायी बना परलोक पहुंचा दिया। आययकण्ण्णाययं उसुं करेइ, करेत्ता तं पुरिसं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेइ। तए णं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं प्रतिपक्षी के तीव्र प्रहार से वरुण का स्थाम, बल, गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम क्षीण हो गया। उसे लगने. अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कटु लगा कि अब उसका शरीर टिकेगा नहीं, अतः उसने घोड़े तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं परावत्तेइ, की लगाम संभाली और रथ को युद्धभूमि से मोड़ा। परावत्तेत्ता रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खमति। एगंतमंतं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तुरए एकांत स्थान पर पहुंच घोड़ों का निग्रह कर रथ को निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता रहाओ ठहराया। नीचे उतरा। घोड़ों को विसर्जित किया। दर्भ का पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता तुरए मोएइ, मोएत्ता तुरए बिछौना तैयार किया। विसज्जेइ, विसज्जेत्ता दब्भसंथारगं संथरइ। दब्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे दर्भ के बिछौने पर पूर्वाभिमुख हो पर्यंकासन में बैठा। संपलियंकनिसण्णे करयलपरिग्गहियं दसनहं ____ मस्तक पर अंजलि टिकाकर बोला-नमस्कार हो अर्हत् सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी- भगवंतों को यावत् जो सिद्धिगति को प्राप्त कर चुके हैं। नमोत्थु णं अरहताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपत्ताणं। नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स नमस्कार हो श्रमण भगवान महावीर को जो आदिकर आदिगरस्स जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं हैं यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने वाले हैं। संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेष्टा हैं। मैं यहीं बैठा उन्हें वंदन धम्मोवदेसगस्स। वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं कर रहा हूं। वे वहीं से मुझे देखें। इहगए। पासउ मे से भगवं तत्थगए इहगयं। इति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वह एक बार फिर वंदन-नमस्कार कर बोला-मैंने वयासी-पुवि पि णं मए समणस्स भगवओ महा- पहले ही श्रमण भगवान महावीर के पास स्थूल वीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का यावज्जीवन के लिए जावज्जीवाए, एवं जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए प्रत्याख्यान किया है। अब मैं उनकी साक्षी से सर्व जावज्जीवाए। इयाणिं पि णं अहं तस्सेव भगवओ प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का यावज्जीवन के महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि लिए प्रत्याख्यान करता हूं। जावज्जीवाए जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। सव्वं असण-पाण-खाइम-साइम-चउव्विहं पि सब प्रकार के अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। चतुर्विध आहार का भी यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता हूं। जं पि य इमं सरीरं इठं कंतं पियं.....एयं पिणं जो शरीर इष्ट, कांत और प्रिय है उसका अंतिम चरिमेहिं ऊसास-नीसासेहिं वोसिरिस्सामि त्ति उच्छवास-निःश्वास पर्यंत व्युत्सर्ग करूंगा-ऐसा कटु सण्णाहपट्ट मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेइ, मानसिक संकल्प कर उसने कवच उतारा। शल्य Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५७३ अ. ११ : विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण करेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते आणुपुल्वीए निकाला। आलोचना व प्रतिक्रमण कर क्रमशः समाधिस्थ कालगए। हो आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। • वरुणे णं भंते! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा भंते! वरुण मृत्यु को प्राप्त कर कहां गया है ? कहां कहिं गए? कहिं उववण्णे? उत्पन्न हुआ है? गोयमा! सोहम्मेकप्पे, अरुणाभे विमाणे देवत्ताए। गौतम ! सौधर्मकल्प के अरुणाभ विमान में देवरूप में उववण्णे। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि उत्पन्न हआ है। उस देवलोक में उत्पन्न होने वाले कुछ देव पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता। चार पल्योपम की स्थिति वाले होते हैं। गार वरुणमित्र का संकल्प ९. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्सुयस्स एगे नागदौहित्र वरुण का एक मित्र और बालमित्र था। पियबालवयंसए रहमूसलं संगामं संगामेमाणे एगेणं रथमूसल संग्राम में युद्ध करते हुए उस पर एक पुरुष ने पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले तीव्र प्रहार किया। उससे उसका स्थाम, बल, वीर्य, अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति पुरुषकार और पराक्रम क्षीण हो गया। उसने वरुण को कटु वरुणं नागनत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओ रथमूसल संग्राम से लौटते हुए देखा। पडिणिक्खममाणं पास। तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता जहा वरुणे जाव तुरए उसने अपने घोड़ों का निग्रह किया। निग्रह कर यावत् विसज्जेति। वरुण की तरह घोड़ों को विसर्जित कर दिया। पडसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे कपड़े के बिछौने पर बैठा। पूर्वाभिमुख हो पल्यंकासन संपलियंकनिसण्णे करयल-परिग्गहियं दसनहं में बैठ मस्तक पर अंजलि टिकाकर बोलासिरसावत्तं मत्थए अजलिं कद एवं वयासीजाइ णं भंते! मम पियबालवयंसस्स वरुणस्स भंते! मेरे प्रिय बालमित्र वरुण के शील, व्रत, गुण, नागनत्तुयस्स सीलाई वयाई गुणाई वेरमणाई। वेरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास जिस रूप में है, पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं ताइ णं मम पि भवंतु मेरे भी वैसे हों। ऐसा संकल्प कर उसने कवच उतारा। त्ति कटु सण्णाहपटें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं शल्य निकाला और उसी की तरह अनशनपूर्वक मृत्यु का करेइ, करेत्ता आणुपुवीए कालगए। वरण किया। १०.वरुणस्स णं भंते! नागनत्तुयस्स पियबालवयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने? भंते! वरुण का वह प्रिय, बालमित्र मृत्यु को प्राप्त कर कहां गया है, कहां उत्पन्न हुआ है ? ११.गोयमा! सुकुले पच्चायाते। गौतम ! वह श्रेष्ठ मनुष्य कुल में उत्पन्न हुआ है। १२.ते णं भंते! मणुया निस्सीला निग्गुणा निम्मेरा निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा रुट्ठा परिकुविया समरवहिया अणुवसंता कालमासे कालं किच्चा कहिं गया? कहिं उववन्ना? भंते! उस रथमूसल संग्राम में शील, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित एवं रुष्ट, कुपित, समर में एकचित्त, अनुपशांत योद्धा थे। वे मृत्यु को प्राप्त कर कहां गए हैं और कहां जाकर उत्पन्न हुए हैं ? १३.गोयमा! तत्थ णं दस साहस्सीओ एगाए गौतम! उस संग्राम में मरने वाले व्यक्तियों में दस Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन मच्छियाए कुच्छिंसि उववन्नाओ। एगे देवलोगेसु उववन्ने। एगे सुकुले पच्चायाए। अवसेसा उस्सण्णं नरग - तिरिक्खजोणिएसु उववन्ना । राजर्षि नमि और इन्द्र का संवाद १४. जे केइ पत्थिवा तुब्भं नानमंति नराहिवा ! वसे ते ठावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया ! १५. जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥ १६. अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुमेह ॥ १७. पंचिंदियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं ॥ आत्मयुद्ध १८. पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणि च । उस्सूलगसयग्घीओ तओ गच्छसि खत्तिया ! १९. सद्धं खंति नगरं किच्चा निउणपागारं तिगुत्तं ५७४ २१. तवनारायजुत् भेत्तूर्ण मुणी विगयसंगामो भवाओ तवसंवरमग्गलं । दुप्पधंसयं ॥ २०. धणुं परक्कमं किच्चा जीवं च इरियं सया । धिनं च केयणं किच्चा सच्चेण पलिमंथए । कम्मर्कचयं । परिमुच्चए ॥ खण्ड - ४ हजार मनुष्य एक मछली की कुक्षि में उत्पन्न हुए । एक व्यक्ति देवलोक में उत्पन्न हुआ। एक व्यक्ति मनुष्य योनि प्राप्त कर अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ और शेष व्यक्ति प्रायः नरक और तिर्यंच योनि में पैदा हुए। हे नराधिप क्षत्रिय ! जो राजा तुम्हारे सामने नहीं झुकते, उन्हें वश में करो, फिर मुनि बन जाना। नमि- दुर्जेय संग्राम में कोई दस लाख योद्धाओं को जीतता है। कोई व्यक्ति अपने आपको जीतता है। इन दोनों की तुलना की जाए तो परम विजय वह है, जिसमें अपने आपको जीता जाता है। आत्मा के साथ युद्ध करना ही श्रेयस्कर है। बाहरी युद्ध से क्या लाभ? आत्मा को आत्मा के द्वारा जीतने वाला व्यक्ति ही सुख को उपलब्ध होता है । पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन ये दुर्जेय हैं। जो व्यक्ति अपनी एक आत्मा को जीत लेता है उसके द्वारा सब अपने आप जीत लिए जाते हैं। इन्द्र-हे क्षत्रिय ! तुम अपने राज्य की सुरक्षा के लिए परकोटा, बुर्जवाला नगर द्वार, खाई और शतघ्नी-(एक बार मे सौ व्यक्तियों का संहार करने वाला यंत्र ) बनवाओ। फिर मुनि बन जाना। नमि-आत्मा की सुरक्षा के लिए मैंने श्रद्धा का नगर बनाया है, तप और संयम उसकी अर्गला है। क्षमा बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय है। मन, वचन और काय गुप्ति रूप सुरक्षा में निपुण और दुर्जेय परकोटा बनाया है। पराक्रम मेरा धनुष है। ईर्या उसकी डोर है । धृति उसकी मूठ है जो सत्य से बंधी हुई है। तपरुपी लोह-बाण मेरे पास है। मैं इससे कर्म रूपी कवच को भेद डालूंगा। ऐसा सोचने वाला ज्ञानी व्यक्ति संग्राम को समाप्त कर युद्ध की समस्या से मुक्त हो जाता है। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५७५ युद्ध और मनोदशा २२. तओ परिसजाया पण्णत्ता, तं जहाजुज्झित्ता णामेगे सुमणे भवति । जुज्झित्ता णामेगे दुम्मणे भवति । जुज्झित्ता णामेगे णोसुमणेदुम्मणे भवति । २३. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा जुज्झामीतेगे सुमणे भवति । जुज्झामीतेगे दुम्मणे भवति । जुज्झामीतेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति । २४. तओ परिसजाया पण्णत्ता, तं जहा जुज्झिस्सामीतेगे सुमणे भवति । जुज्झिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति । जुज्झिस्सामीतेगे णोसुमणे• गोदुम्मणे भवति । २५. तओ परिसजाया पण्णत्ता, तं जहा अजुज्झित्ता णामेगे सुमणे भवति । अजुज्झित्ता णामेगे दुम्मणे भवति । अजुज्झित्ता णामेगे गोमणे - गोदुम्मणे भवति । २६. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा जुज्झामीतेगे सुमणे भवति । ण जुज्झामीतेगे दुम्मणे भवति । ण जुज्झामीतेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति । अ. ११ : विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष युद्ध करने के बाद सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष युद्ध करने के बाद दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष युद्ध करने के बाद न सुमनस्क होते हैं, और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष युद्ध करता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष युद्ध करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष युद्ध करता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष युद्ध करूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष युद्ध करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष युद्ध करूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष युद्ध न करने पर सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष युद्ध न करने पर दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष युद्ध न करने पर न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं। परिस्थितियों का प्रभाव सब मनुष्यों पर समान नहीं होता है। एक ही परिस्थिति मानसिक स्तर पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती है। प्रस्तुत प्रसंग में युद्ध की स्थिति उत्पन्न होने पर होनेवाली विभिन्न मानसिक स्थितियों का चित्रण है। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन भवति । २७. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहाण जुज्झिस्सामीतेगे सुमणे जुझा भवति । जुज्झिस्सामीतेगे णोमणे - णोदुम्मणे भवति । दु ण ण २८. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा जत्ता णामेगे सुमणे भवति । जइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति । जइत्ता णामेगे णोसुमणे - णोदुम्मणे भवति । २९. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा जिणामीतेगे सुमणे भवति । जिणामीतेगे दुम्मणे भवति । जिणामीतेगे णोसुमणे-णोदुम्मणे भवति । ५७६ ३०. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहाजिणिस्सामीतेगे सुमणे भवति । जिणिस्सामीतेगे दुम्मणे भवति । जिणिस्सामीतेगे णोसुमणेदुम्मणेभवति । ३१. तओ पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा अजइत्ता णामेगे सुमणे भवति । अजइत्ता णामेगे दुम्मणे भवति । अजइत्ता णामेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति । ... खण्ड - ४ ३. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करता हूं इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष युद्ध नहीं करूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष जीतने के बाद सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष जीतने के बाद दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष जीतने के बाद न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष जीतता हूं इसलिए सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष जीतता हूं इसलिए दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष जीतता हूं, इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष जीतूंगा इसलिए सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष जीतूंगा इसलिए दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष जीतूंगा इसलिए न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। पुरुष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं १. कुछ पुरुष जीतने पर सुमनस्क होते हैं। २. कुछ पुरुष जीतने पर दुर्मनस्क होते हैं। ३. कुछ पुरुष जीतने पर न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १२ आत्मवाद Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय ५७९९४.१० ५९२ १. आत्मा का अस्तित्व और पुनर्जन्म २. कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी ३. जीव और शरीर की भिन्नता ४. अपराधी को मुक्ति कहां? ५. लोहकुंभी और चोर ६. कूटागारशाला और भेरीवादक ७. लोहकुंभी बनाम कृमिकुंभी ८. लोहपिंड और अग्नि ९. तरुणपुरुष और बाण १०. तरुणपुरुष और लोहभार ११. तरुणपुरुष और काबर १२. जीवित चोर और मत चोर का मापन १३. हवाभरी मशक और खाली मशक पृ.सं. १४. मूढ लकडहारा ५८० १५. क्या जीव देखा जा सकता है? ५८० १६. जीवत्व की समानता ५८१ १७. हाथी और कुंथु ५८३ १८. कूटागारशाला और दीपक ५८४ १९. आत्मकर्तृत्व ५८५ २०. संकल्प द्वारा वेदना का उपशमन ५८५ २१. मुनि अनाथी और राजा श्रेणिक ५८६ २२. आत्मकर्तृत्व के कुछ पहलू ५८७ २३. आत्मकर्तृत्व और नियतिवाद ५८७ २४. श्रमणोपासक कुंडकौलिक ५८८ २५. भगवान महावीर और सद्दालपुत्र . ५८९ २६. परमात्मा ५९३ ५९४ ५९५ ५९५ ५९८ ५९९ '५९९ ६०१ ६०३ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का अस्तित्व और पुनर्जन्म १. सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायंइहमेगेसिं नो सण्णा भवइ, तं जहापुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहंमंसि उड़ढाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, आहे वा दिसाओ आगओ अहमंसि अण्णयरीओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि अदिसाओ वा आगओ अहमंसि । एवमेसि णो णातं भवति अत्थि मे आया ओववाइए, णत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी ? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? पुण जाणेज्जा आत्मवाद सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा, तं जहा पुरत्प्रिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि दक्खिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि उड्ढाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि आयुष्मान् ! मैंने सुना है। भगवान ने यह कहा - इस जगत् में कुछ मनुष्यों को यह संज्ञा नहीं होती, जैसेमैं पूर्व दिशा से आया हूं। दक्षिण दिशा से आया हूं। पश्चिम दिशा से आया हूं। उत्तर दिशा से आया हूं। ऊर्ध्व दिशा से आया हूं। अधो दिशा से आया हूं। किसी अन्य दिशा से आया हूं। अथवा अनुदिशा से आया हूं। इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है। मेरी आत्मा पुनर्जन्म नहीं लेने वाली है। मैं पिछले जन्म में कौन था । मैं यहां से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा ? कोई मनुष्य पूर्वजन्म की स्मृति से, पर- प्रत्यक्ष ज्ञानी के निरूपण से, अन्य - प्रत्यक्ष ज्ञानी के द्वारा श्रुत व्यक्ति के पास सुनकर, यह जान लेता है, जैसे मैं पूर्व दिशा से आया हूं। दक्षिण दिशा से आया हूं। पश्चिम दिशा से आया हूं। उत्तर दिशा से आया हूं। ऊर्ध्व दिशा से आया हूं। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन अहे वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि । ५८० ४. एवमेगेसिं जं णातं भवइ-अत्थि मे आया ओववाइए। जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सोहं । जीव और शरीर की भिन्नता ५. तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सद्धिं केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसइ । केसिं कुमारसमणं एवं वयासी - तुब्भं णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं एस सण्णा..... जहा - अण्णो जीव अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं ?" कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी ६. तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीपएसी ! अम्हं समणाणं णिग्गंथाणं एस सण्णा....जहा- अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं । ७. तए णं से पएसी केसिं कुमारसमणं एवं वयासीजति णं भंते! तुब्भं समणाणं णिग्गंथाणं एस सण्णा.... जहा - अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं । ८. एवं खलु ममं अज्जए होत्था । इहेव सेयवियाए णगरीए अधम्मिए जाव सयस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेति । से णं तुब्भं वत्तव्वयाए सुबहु पावकम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएस रइयत्ताए उववण्णे । तस्स णं अज्जगस्स अहं णत्तु होत्था - इट्ठे..... अधोदिशा से आया हूं। किसी अन्य दिशा से आया हूं। अथवा अनुदिशा से आया हूं। १. जीव अरूपी है। वह आंखों का विषय नहीं है, इसी कारण कुछ लोग जीव के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। राजा प्रदेशी भी जीव के अस्तित्व के विषय में संदिग्ध था। खण्ड- ४ कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात होता है-मेरी आत्मा . पुनर्जन्म लेने वाली है। जो इन दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करती है, जो सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करती है वह मैं हूं। राजा प्रदेशी चित्त सारथी के साथ कुमारश्रमण कैशी . के पास बैठा। उसने कुमारश्रमण केशी से कहा-भंते! आप श्रमण निर्ग्रथों का क्या यह अभिमत है - जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है ? केशी - प्रदेशी ! हां, हमारा यह अभिमत है-जीव अन्य : है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। प्रदेशी - भंते! आपका यह अभिमत है-जीव अन्य है, शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है। मैं इससे सहमत नहीं हूं। भंते! इसी श्वेतविका नगरी में मेरे दादा थे। आपके मतानुसार वे अधार्मिक थे। वे जनपद में रहने वाले नागरिकों से कर ग्रहण, भरण-पोषण आदि का व्यवहार सम्यक् प्रकार से नहीं करते थे। आपकी वक्तव्यता के अनुसार वे अत्यधिक पाप का संचय कर नरक में गए होंगे। मैं उनका पौत्र हूं। मैं उनके लिए बहुत प्रिय था। कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी के बीच इस विषय में लंबी चर्चा हुई। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५८१ - से अज्जमं आगंतुं वज्जा - एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जए होत्था इहेव सेयाविया नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेमि । तणं अहं सुबहु पावकम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए उववण्णे । तं मा णं नत्तुया ! तुमं पि भवाहि अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेहि । मा णं तुमं पि एवं चेव सुबहु पावकम्मं कलिकलुस समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु.रइयत्ताए उववज्जिहिसि । तं जणं से अज्जए ममं आगंतुं वएज्जा तो णं अहं सहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा - अण्णो जीव अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं । जम्हा णं से अज्ज़ए ममं आगंतुं नो एवं वयासी, तम्हा सुपइट्ठिया मम पइण्णा समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं । अपराधी को मुक्ति कहां ? ९. तए णं से केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी - अत्थि णं पएसी ! तव सूरियकंता णामं देवी? हंता अत्थि । जणं तुमं पएसी ! तं सूरियकंतं देवि .....केणइ पुरिसेणं.... सद्धिं इट्ठे सद्द-फरिस - रस रूव-गंधे पंचविहे माणुसते कामभोगे पच्चणुब्भवमाणि पासिज्जासि । तस्स णं तुमं पएसी ! पुरिसस्स कं. डंड निव्वत्तेज्जासि ? अहं णं भंते! तं पुरिसं हत्थच्छिण्णगं वा पायच्छिण्णगं वा सूलाइगं वा सूलभिण्णगं वा एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवएज्जा । अहं णं पएसी से पुरिसे तुमं एवं वदेज्जा - मा ताव सामी ! मुहुत्तागं हत्थच्छिण्णगं वा पायछण्णगं वा सूलाइगं वा सूलभिण्णगं वा एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेहि। जाव ताव अहं मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि अ. १२ : आत्मवाद वे यदि आकर मुझे यह कहें- पौत्र ! मैं इसी श्वेतविका नगरी में तेरा दादा था। मैंने धर्म का आचरण नहीं किया । अपने ही जनपद में रहने वाले नागरिकों से कर ग्रहण, भरण-पोषण आदि का व्यवहार सम्यक् प्रकार से नहीं किया। उस कारण विपुल पाप का संचय कर मैं मरकर नरक गया हूं। मैं तुझे चेताने आया हूं कि तू पाप कर्म मत करना । प्रजा से अतिरिक्त कर मत लेना। यदि पाप कर्म करेगा तो तुझे भी नरक में जाना पड़ेगा । यदि मेरे दादा यहां आकर ऐसा कहें तो मैं आपके इस कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि कर सकता हूं-'जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है । ' यदि मेरे दादा आकर मुझे ऐसा नहीं कहते हैं तो मेरा पक्ष स्थापित है - जीव और शरीर एक है। प्रदेशी ! तुम्हारे सूर्यकांता नाम की रानी है ? हां भंते! यदि तुम्हारी रानी सूर्यकान्ता किसी पुरुष के साथ मनोज्ञ, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध इन पांच प्रकार के काम-भोगों को भोग रही हो। तुम उसे अपनी आंखों से देख लो तो प्रदेशी ! तुम उस पुरुष को क्या दंड दोगे ? भंते! मैं उस पुरुष के हाथ- पावों का छेदन कर दूंगा । उसे फांसी पर चढ़ा दूंगा। एक ही झटके में उसे प्राणविहीन कर दूंगा। प्रदेशी ! यदि वह व्यक्ति ऐसा कहे - तुम मुहूर्त भर के लिए मेरे हाथ-पांव मत काटो। मुझे फांसी पर मत चढ़ाओ। मेरे प्राण मत लूटो । मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों आदि से कहकर आ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन परिजणं एवं वयामि - एवं खलु देवाणुप्पिया ! पावाई कम्माई समायरेत्ता इमेयारूवं आवई पाविज्जामि, तं माणं देवाप्पिया! तुब्भे वि केइ पावाइं कम्माई समायरह । मा णं से वि एवं चेव आवई पाविज्जिहिह, जहा णं अहं । तस्स गं तुमं पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमठ्ठे पज्जासि ? णो तिट्ठे समट्ठे । कम्हाणं ? जम्हा णं भंते! अवराही णं से पुरिसे । एवामेव पएसी ! तव वि अज्जए होत्था ।..... से णं इच्छइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएइ....... तं सद्दहाहि णं पएसी ! जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं । ५८२ १०. तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेण पुण कारणं ना उवागच्छइ ११. एवं खलु भंते! मम अज्जिया होत्था इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया धम्मिट्ठा.....सा णं तुझं वत्तव्वयाए सुबहु पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा । तीसे णं अज्जियाए अहं नत्तुए होत्था । इट्ठे..... तं जइ णं सा अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्जा - एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होत्था । इहेव सेयवियाए नयरीए धम्मिया धम्मिट्ठा... धम्मेण चैव वित्तिं कप्पेमाणी...... विहरामि । तए णं अहं सुबहुं पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता.... देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा । तं तुमं पित्तुया ! भवाहि धम्मिए.....तए णं तुमं पि एयं सुबहु पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जिहिसि । खण्ड - ४ जाऊं-मैंने ऐसे पापकर्म किये हैं, जिनके कारण मुझे इ विपत्ति का सामना करना पड़ा है। इसीलिए तुम्हें यह चेताने आया हूं कि तुम ऐसे पापकर्म मत करना, जिससे तुम्हें ऐसी विपत्ति का सामना करना पड़े। प्रदेशी ! क्या तुम थोड़ी देर के लिए भी उस व्यक्ति को जाने की अनुमति दोगे ? नहीं । क्यों ? भंते! क्योंकि वह अपराधी है। प्रदेशी ! तुम्हारा दादा भी इसी तरह अपराधी है। वह इस मनुष्य लोक में आना चाहे तो भी नहीं आ सकता । अतः प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो - जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। प्रदेशी - भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है इसीलिए मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूं। भंते! इसी श्वेतविका नगरी में मेरी दादी रहती थी। आपके मतानुसार वह धार्मिक व धर्मिष्ठ थी। आपकी वक्तव्यता के अनुसार उसने बहुत पुण्य का उपचय किया। वह मरकर किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई है। मैं उस दादी का प्रिय पौत्र हूं। मेरी दादी यदि आकर कहे - पौत्र ! मैं तेरी वह दादी हूं। मैंने धर्म का आचरण किया। धर्म के आधार पर जीवन यापन किया। बहुत पुण्य का उपचय कर मैं देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हूं। पौत्र ! तूं भी धर्माचरण कर। जिससे बहुत से पुण्य का उपचय कर देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होगा। . Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५८३ अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्जा तो णं अहं सहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा - अण्णो जीवो अण्णं सरीरं णो तज्जीवो तं सरीरं । हा सा अज्जिया ममं आगंतुं णो एवं वयासी, तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा - तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं । संदर्भ देवमंदिर का १२. तरणं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीजति णं तुमं पएसी ! हायं..... देवकुलमणुपविसमाणं केइ पुरिसे वच्चघरंसि ठिच्चा एवं वदेज्जा - एह ताव सामी ! इह मुहुत्तागं आसयह वा चिट्ठह वा निसीयह वा तुट्टह वा । तस्स णं तुमं पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमठ्ठे पडिणिज्जासि ? णो तिट्ठे संमट्ठे । कम्हाणं ? जम्हाणं भंते! असुई असुइ सामंतो । एवामेव पएसी ! तव वि अज्जिया होत्था इहेव सेविया री धम्मिया... इच्छइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए ।..... तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा - अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं । १३. तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छति । लोहकुंभी और चोर १४. एवं खलु भंते! अहं अण्णया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए......विहरामि । तए णं मम जगरगुत्तिया ..... चोरं उवणेंति । तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतं चेव अओकुंभीए पक्खिवावेमि । अओमएणं पिहाणएणं पिहावेमि । अएण य तउण य कायावेमि, आय- पच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खामि । तए णं अहं अण्णया कयाई जेणामेव सा अओकुंभी अ. १२ : आत्मवाद भंते! यदि मेरी दादी मुझे आकर कहे तो मैं आपके कथन पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि कर सकता हूं-जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। यदि मेरी दादी आकर ऐसा नहीं कहती है तो मेरा पक्ष स्थापित है- जीव और शरीर एक है। वे अलग-अलग नहीं हैं। प्रदेशी ! तुम नहा-धोकर देव मंदिर में जाने की तैयारी कर रहे हो। उस समय शौचालय में खड़ा हुआ कोई पुरुष कहे-स्वामी! कुछ समय के लिए आप इस शौचालय में आएं, खड़े रहें, बैठें और सोएं तो क्या तुम उस व्यक्ति की इस प्रार्थना को क्षणभर के लिए स्वीकार करोगे ? भंते! नहीं। क्यों ? वह स्थान अत्यंत अपवित्र और अशुचिमय है। प्रदेशी ! इसी प्रकार देवलोक में उत्पन्न तुम्हारी दादी तुम्हें चेताने के लिए आना चाहे तो भी नहीं आ सकती। अतः प्रदेशी ! तुम श्रद्धा करो - जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। प्रदेशी ! भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है, इसीलिए मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूं । एक दिन मैं बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था । उस समय नगर रक्षक चोर को लेकर मेरे सामने उपस्थित हुए । मैंने उस चोर को जीते जी लोह की कुंभी में डलवा दिया। उसे मजबूत लोह ढक्कन से ढकवा दिया। लोह तथा रांगे से सील बंद करवा दिया और अपने विश्वस्त व्यक्तियों को उसकी चौकसी में नियुक्त कर दिया । कुछ दिनों के बाद मैं उस लोह कुंभी के पास जाता " Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५८४ खण्ड-४ हूं। उस कुंभी की सील को तोड़ता हूं और देखता हूं- चोर मरा हुआ है। उस कुंभी में कोई ऐसा छिद्र, विवर, अंतर और रेखा नहीं थी जिससे जीव बाहर निकला हो। तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता तं अओकुंभिं उम्गलच्छावेमि, उग्गलच्छावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि। णो चेव णं तीसे अओकुंभीए केइ छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा, जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए। जइ णं भंते! तीसे अओकुंभीए होज्ज केई छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा, जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए तो णं अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तज्जीवो तं सरीरं। जम्हा णं भंते! तीसे अओकुंभीए णत्थि केई छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा, राई वा, जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया निग्गए, तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइण्णा जहा-तज्जीवो तं सरीरं, णो अण्णो जी- वो अण्णं सरीरं। भंते! उस कुंभी में यदि कोई छिद्र, विवर, अंतर और . रेखा होती, जिसके माध्यम से जीव भीतर से बाहर आता. तो मैं यह श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता-जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं हैं। भंते! उस जीव के बाहर निकलने पर भी कोई छिद्र, विवर, अन्तर और रेखा नहीं हुई। इससे मेरा पक्ष स्थापित है-जीव और शरीर एक है। वे अलग-अलग नहीं हैं। कूटागारशाला और भेरीवादक १५.तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी- प्रदेशी! एक कूदागारशाला है। वह दोनों ओर से. पएसी! से जहाणामए कूडागारसाला सिया-दुहओ लिपी हुई है। उसका द्वार ढका हुआ है। हवा के प्रवेश के लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा। लिए कहीं कोई अवकाश नहीं है। वह बहुत गहरी है। अह णं केइ पुरिसे भेरिं च दंडं च गहाय उस कूटागारशाला में कोई भेरीवादक अपनी भेरी कूडागारसालाए अंतो-अंतो अणुप्पविसति।..... (ढोलक) और दंड को लेकर प्रविष्ट होता है। वह उसके दुवारखयणाई पिहेइ। तीसे कूडागारसालाए द्वार को बंद कर मध्य भाग में जा बैठता है और जोर-जोर बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरिं दंडएणं महया- से भेरी को बजाता है। प्रदेशी! क्या उस भेरी का स्वर , महया सद्देणं तालेज्जा। से णूणं पएसी! से सद्देणं बाहर आता है? अंतोहितो बहिया णिग्गच्छइ ? हंता णिग्गच्छइ। हां, आता है। अत्थि णं पएसी! तीसे कूडागारसालाए केइ छिड्डे प्रदेशी! क्या उस कूटागारशाला में कोई छिद्र, विवर, इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा , जओ णं से अंतर और रेखा है, जिससे होकर भेरी का शब्द बाहर सद्दे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए? आता हो? नो तिणढे समठे। एवामेव पएसी! जीवे वि अप्पडिहयगई पुढविं प्रदेशी ! इसी प्रकार जीव की गति भी अप्रतिहत होती भिच्चा सिलं भिच्चा पव्वयं भिच्चा अंतोहितो है। वह पृथ्वी, शिला और पर्वत के भीतर से ही चला बहिया णिग्गच्छइ। तं सइहाहि णं तुमं पएसी! आता है। अतः प्रदेशी! तुम इस बात पर श्रद्धा करो-जीव अण्णो जीवो अण्णं सरीरं। णो तज्जीवो तं सरीरं। अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। नहीं। १६.तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं प्रदेशी-भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५८५ अ. १२ : आत्मवाद है, इसलिए मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूं। वयासी अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छइ। भंते! मैं एक दिन बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था। नगर रक्षक चोर को पकड़ कर लाए। मैंने उस चोर को मारकर लोहे की कुंभी में डलवा दिया और उसे सील बंध करवा दिया। ___कुछ दिनों बाद उस कुंभी को खोलकर देखा। मैं देखता हूं वह लोहकुंभी मानो कृमि कुंभी ही बन गई हो। लोहकुंभी बनाम कृमिकुंभी १७.एवं खलु भंते! अहं अण्णया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए.....विहरामि। तए णं ममं णगरगुत्तिया.....चोरं उवणेति। तए णं अहं तं पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि, ववरोवेत्ता अओकुंभीए पक्खिवावेमि, अओमएणं पिहाणएण पिहावेमि। अएण य तउएण य कायावेमि, आयपच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि। तए णं अहं अण्णया कयाइ जेणेव सा कुंभी तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता तं अओकुंभिं- उग्ग- लच्छावेमि, तं अओकुंभिं किमिकुंभिं पिव पासामि। णो चेव णं तीसे अओकुंभीए केइ छिड्डे इ वा..... जतो णं ते जीवा बहियाहिंतो अणुपविट्ठा। जति णं तीसे अओकुंभीए होज्ज केइ छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा, जतो णं ते जीवा बहियाहिंतो अणुपविट्ठा, तो णं अहं सद्दहेज्जा . पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तज्जीवो तं सरीरं। जम्हा णं तीसे अओकुंभीए णत्थि केइ छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा..... तम्हा सुपतिठिया मे पइण्णा जहा-तज्जीवो, तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं। उस कुंभी में कोई छिद्र नहीं था, जिससे जीव बाहर से भीतर जा सके। उस कुंभी में यदि जीव बाहर से भीतर आने का कोई छिद्र, विवर, अंतर और रेखा होती तो मैं इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता-जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। भंते! उस कुंभी में कोई छिद्र, विवर, अंतर और रेखा, नहीं हुई। इससे मेरा पक्ष स्थापित है-जीव और शरीर एक है। वे अलग-अलग नहीं हैं। प्रदेशी! क्या कभी तुमने धौंकनी से लोहे को धमा है अथवा धमवाया है? हां। लोहपिण्ड और अग्नि १८.तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी-अत्थि णं तुमे पएसी! कयाइ य अए घंतपुव्वे वा धम्मावियपुव्वे वा? हंसा अत्थि। से गुणं पएसी! अए धंते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवति? हंता भवति। अत्थि णं पएसी! तस्स अयस्स केइ छिड्डे इ वा...जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुपविठे? प्रदेशी! क्या धमने पर लोहा अग्निमय हो जाता है-क्या उसमें अग्नि पैठ जाती है? हां। . प्रदेशी! क्या उस लोह पिंड में कोई छिद्र, विवर, अंतर और रेखा है जिससे अग्नि ने बाहर से भीतर प्रवेश किया? Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५८६ खण्ड-४ नो तिणढे समठे? एवामेव पएसी! जीवो वि अप्पडिहयगई पुढविं भिच्चा सिलं भिच्चा पव्वयं भिच्चा बहियाहिंतो अंतो अणुपविसइ। तं सहहाहि णं तुम पएसी! जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तज्जीवो तं सरीरं। भंते! नहीं। प्रदेशी! इसी प्रकार जीव गति भी अप्रतिहत होती है। वह पृथ्वी, शिला, पर्वत को भेद कर बाहर से भीतर चला आता है। अतः प्रदेशी! तुम इस बात पर श्रद्धा करो- जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। प्रदेशी-भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है इसलिए मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूं। १९.तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा। इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइतरुण पुरुष और बाण भंते! से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं.... पभू पंचकंडगं निसिरित्तए? हंता पभू। जति णं भंते! सच्चेव पुरिसे बाले....पभू होज्जा पंचकंडगं निसिरित्तए तो णं अहं सहहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा, जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं। जम्हा णं भंते! सच्चेव पुरिसे.....णो पभू पंचकंडयं निसिरित्तए। तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा-तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं। भंते! कोई बलिष्ठ और तरुण युवक पांच बाणों को एक साथ छोड़ने में समर्थ है? . हां, समर्थ है। भंते! यदि वह पुरुष बाल्यावस्था में ऐसा करने में समर्थ होता तो मैं श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता। जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। भंते! बाल्यावस्था में ऐसा होता नहीं, इसलिए मेरा पक्ष स्थापित है-जीव और शरीर एक है। वे अलग-अलग नहीं हैं। हां। २०.तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी- प्रदेशी! शक्तिशाली, तरुण और सूक्ष्म शिल्प में दक्ष से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं.... युवक पांच बाणों को तब एक साथ छोड़ सकता है, जब णिउणसिप्पोवगए णवएणं धणुणा नवियाए जीवा, उसका धनुष नया हो, बाण नया हो और जीवा नई हो? नवएणं उसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए? हंता पभू। सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए प्रदेशी! यदि उस शक्तिशाली तरुण और सूक्ष्म कोरिल्लएणं धणुणा कोरिल्लयाए जीवाए शिल्प में दक्ष युवक के पास धनुष, बाण और जीवा कोरिल्लएणं उसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए? पुरानी हो तो क्या वह एक साथ पांच बाणों को छोड़ सकता है? णो तिणठे समठे। नहीं। कम्हा णं? प्रदेशी ! क्यों नहीं? भंते! तस्स पुरिसस्स अपज्जत्ताई उवगरणाई भंते! क्योंकि उस पुरुष के पास उपकरण-साधनहवंति। सामग्री पर्याप्त नहीं हैं। एवामेव पएसी! सो चेव पुरिसे बाले.... प्रदेशी! इसी प्रकार धनुष चलाने वाला पुरुष Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५८७ अत्तोवर णो पभू पंचकंडयं निसिरित्तए । तं सहाहि णं तुमं पएसी जहा - अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं । २१. तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा । इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ । तरुण पुरुष और लोहभार भंते! से जहाणामए - केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगते पभू एगं महं अयभारगं वा तयभारगं वा सीसंगभारगं वा परिवहित्तए ? हंता पभू । सो चेवणं भंते! पुरिसे जुण्णे जराजज्जरियदेहे..... नो पभू एवं महं अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए । जति णं भंते! सच्चेन पुरिसे जुण्णे जराजज्जरियदेहे .... पभू एगं महं अयभारगं...... परिवहित्तए, तो णं अहं सहहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा, जहा - अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं । जम्हा णं भंते! सच्चेव पुरिसे जराजज्ज़रियदेहे .....नो पभू एगं महं अयभारगं वा तयभार वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए, तम्हा सुपतिट्ठिता मे पइण्णा जहा - तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं । तरुण पुरुष और काबर २२. तरणं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीसे जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए णवएहिं सिक्कएहिं णवएहिं पच्छियापिड एहिं पहू एवं महं अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए ? 'हंता पभू । पएसी ! से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउण अ. १२ : आत्मवाद बाल्यावस्था में अपर्याप्त उपकरण वाला - अविकसित अवयव वाला होने के कारण एक साथ पांच बाणों को नहीं छोड सकता। अतः तुम इस बात पर श्रद्धा करो - जीव अन्य है, शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है, इसलिए मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूं । भंते! क्या कोई शक्तिशाली तरुण और सूक्ष्म शिल्प में दक्ष पुरुष एक क्विन्टल लोहे, तांबे अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ है ? हां, समर्थ है। भंते! वही पुरुष जब वृद्ध होता है, जरा से जर्जर देहवाला होता है। तो वह एक क्विन्टल लोहे, तांबे अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ नहीं होता है। भंते! यदि वह वृद्ध पुरुष उस भार को उठाने में समर्थ होता तो मैं यह श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता - जीव अन्य है, शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है। भंते! वह वृद्ध पुरुष भार को उठाने में असमर्थ है। इसलिए मेरा पक्ष - स्थापित है - जीव और शरीर एक है। वे अलग-अलग नहीं हैं। प्रदेशी ! शक्तिशाली तरुण और शिल्प में दक्ष पुरुष क्या भार उठाने में तभी समर्थ होता है, जब उसका काबर नया हो, रस्सियां नई हों और पिटक नए हों ? हां। प्रदेशी ! वह शक्तिशाली तरुण और सूक्ष्म शिल्प में Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५८८ खण्ड-४ दक्ष पुरुष क्या उस समय भार को उठा सकता है, जब उसके काबर का दंड, रस्सियां और पिटक जीर्ण-शीर्ण हों, उनके घुन लग गए हों? सिप्पोवगए जुण्णियाए दुब्बलियाए घुणक्खइयाए विहंगियाए, जुण्णएहिं दुब्बलएहिं घुणक्खइएहिं सिढिल-तयापिणद्धएहिं सिक्कएहिं, जुण्णएहिं दुब्बलएहिं घुणक्खइएहिं पच्छियापिडएहिं पभू एगं महं अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए? णो तिणठे समझें। कम्हा णं? भंते! तस्स पुरिसस्स जुण्णाई उवगरणाइं भवंति। नहीं। प्रदेशी! क्यों? भंते! क्योंकि उसके पास भार उठाने के उपकरण जीर्ण-शीर्ण हैं। प्रदेशी! इसी प्रकार वह वृद्ध जर्जर देह वाला व्यक्ति लोहे, तांबे अथवा सीसे के एक क्विन्टल भार को नहीं उठा सकता। अतः तुम इस बात पर श्रद्धा करो-जीव और शरीर एक नहीं है। एवामेव पएसी! से चेव पुरिसे जुण्णे जराजज्जरियदेहे......नो पभू एगं महं अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए, तं सहहाहि णं तमं पएसी! जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं। २३.तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ। भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है इसीलिए मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूं।। जीवित चोर और मृत चोर का मापन २४. एवं खलु भंते! अहं अण्णया कयाइ बाहिरियाए एक दिन मैं बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था। नगर उवट्ठाणसालाए..... विहरामि। तए णं मम रक्षक मेरे सामने चोर को लेकर उपस्थित हुए। मैंने चोर णगरगुत्तिया चोरं उवणेति। तए णं अहं तं पुरिसं को जीवित अवस्था में तोला। उसके शरीर को किचित् भी जीवंतगं चेव तुलेमि, तुलेत्ता छविच्छेयं अकुव्वमाणे क्षतविक्षत किए बिना निष्प्राण बनाया। उस स्थिति में उसे जीवियाओ ववरोवेमि। मयं तुलेमि। णो चेव णं तोला। दोनों अवस्थाओं के तोल में कोई अन्यत्व, तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स, मुयस्स नानात्व, न्यूनता, तुच्छता, गुरुता और लघुता नहीं थी। वा तुलियस्स केइ अण्णत्ते वा नाणत्ते वा ओमत्ते वा तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लहुयत्ते वा।। जति णं भंते! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा भंते! जीवित और मृत व्यक्ति के तोल में कोई गुरुता - तुलियस्स, मुयस्स वा तुलियस्स केइ......गुरुयत्ते ___और लघुता होती तो मैं इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और वा लइयत्ते वा, तो णं अहं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा रुचि करता-जीव अन्य है और शरीर अन्य है। जीव और रोएज्जा जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो शरीर एक नहीं है। तज्जीवो तं सरीरं। जम्हा णं भंते! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा भंते! जीवित और मृत व्यक्ति के तोल में कोई तुलियस्स, मुयस्स वा तुलियस्स नत्थि केइ...... तुच्छता, गुरुता और लघुता नहीं है।, इसलिए मेरा पक्ष गुरुयत्ते वा लहुयत्ते वा, तम्हा सुपतिठिया मे स्थापित है-जीव और शरीर एक है। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन अ.१२ : आत्मवाद पइण्णा, जहा-तज्जीवो तं शरीरं, णो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं। हवाभरी मशक और खाली मशक २५.तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी- प्रदेशी! क्या तुमने कभी मशक को हवा से भरा है अस्थि णं पएसी! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुव्वे वा अथवा किसी से भरवाया है ? धमावियपुव्वे वा? हंता अत्थि। हां, भंते! अत्थि णं. पएसी! तस्स वत्थिस्स पुण्णस्स वा प्रदेशी! क्या हवा भरी मशक और खाली मशक के तुलियस्स, अपुण्णस्स वा तुलियस्स केइ..... तोल में कोई अंतर होता है? गरुयत्ते वा लहुयत्ते वा? - णो तिणठे समठे। एवामेव पएसी! जीवस्स अगरुलघुयत्तं पडुच्च प्रदेशी ! इसी तरह जीव भी अगुरुलघु-न भारी होता जीवंतस्स वा तुलियस्स, मुयस्स वा तुलियस्स है और न हलका। इसी अगुरुलघुता की अपेक्षा उसके नत्थि केइ......गुरुयत्ते वा लहुयत्ते वा, तं सहहाहि जीवित और मृत अवस्था के तोल में कोई गुरुता और णं तुमं पएसी! जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो लघुता नहीं होती है। अतः तुम यह श्रद्धा करो-जीव अन्य तज्जीवो तं सरीरं। है, शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है। नहीं। २६. तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-अस्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ। भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है, इसलिए मैं आपके इस कथन से सहमत नहीं है। २७.एवं खलु भंते! अहं अण्णया कयाइ बाहिरियाए .. उवट्ठाणसालाए..... विहरामि। तए णं ममं णगरगुत्तिया.... चोरं उवणेति। तए णं अहं तं पुरिसं सव्वतो समंता समभिलोएमि। नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि। तए णं अहं तं पुरिसं दुहा फालियं करेमि, करेत्ता सव्वतो समंता समभिलोएमि। नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि। एवं तिहा चउहा संखेज्जहा फालियं करेमि, करेत्ता सव्वतो समंता समभिलोएमि। णो चेव णं तत्थ जीवं पासामि। . जइणं भंते! अहं तंसि पुरिसंसि, दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखेज्जहा वा फालियंमि जीवं पासंतो, तो णं अहं सहहेज्जा, पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा- अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं। जम्हा णं भंते! अहं तंसि दुहा वा तिहा वा चउहा भंते! एक दिन मैं बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था। नगररक्षक मेरे सामने चोर को लेकर उपस्थित हए। मैंने चोर को चारों ओर से भलीभांति देखा-उसमें जीव है या नहीं? पर मुझे उसमें कहीं भी जीव दिखाई नहीं दिया। मैंने चोर के दो टुकड़े कर उसे भलीभांति देखा। पर मुझे जीव दिखाई नहीं दिया। मैंने उसके तीन-चार पांच यावत् संख्यात टुकड़े कर दिए फिर भी मुझे कहीं जीव दिखाई नहीं दिया। . भंते! यदि कहीं जीव का निशान भी मिल जाता तो मैं यह श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता-जीव अन्य है शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है। भंते! चोर के टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी मुझे जीव Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन वा संखेज्जहा वा फालियंमि जीवं न पासामि तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइण्णा, जहा - तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं । ५९० मूढ लकडहारा २८. तणं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीमूढतराए णं तुमं पएसी ! ताओ तुच्छतराओ । के णं भंते! तुच्छतराए ? पएसी ! से जहाणामए - केइ पुरिसा वणत्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोई च जोइभायणं च गहाय कट्ठाणं अडविं अणुपविट्ठा। तए णं ते पुरिसा तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एवं पुरिसं एवं वयासी - अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अडविं पविसामो । एत्तो णं तुमं जोइभायणाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि । अह तं जोइभायणे जोई विज्झवेज्जा, तो णं तुमं कट्ठाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि त्ति कट्टु कट्ठाणं अडविं अणुपविट्ठा । तणं से पुरसे तओ मुहुत्तंतरस्स तेसिं पुरिसाणं असणं साहेमि त्ति कट्टु जेणेव जोतिभायणे तेणेव उवागच्छइ । जोइभायणे जोइं विज्झायमेव पासति । तणं से पुरिसे जेणेव से कट्ठे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं कट्ठ सव्वओ समंता समभिलोएति । नो चेव णं तत्थ जोइं पासति । तणं से पुरिसे परियरं बंधइ, फरसुं गेण्हइ, तं कट्ठे दुहा फालियं करेइ, सव्वतो समंता समभिलोएइ | णो चेव णं तत्थ जोइं पासइ । एवं तिहा चउहा संखेज्जहा वा फालियं करेइ, सव्वतो समंता समभिलोएइ। नो चेव णं तत्थ जोइं पासइ । तए णं से पुरिसे तंसि कट्ठसि ..... जोइं अपासमाणे संते तंते परिस्संते निव्विण्णे समाणे परसुं एगंते एडेइ, परियरं मुयइ, मुइत्ता एवं वयासी अहो ! म तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिए त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविट्ठे खण्ड - ४ कहीं दिखाई नहीं दिया इसलिए मेरा पक्ष स्थापित हैजीव और शरीर एक है। प्रदेशी ! तुम उस लकड़हारे से भी अधिक मूढ़ और तुच्छ बुद्धिवाले प्रतीत होते हो । भंते! मूढ़ और तुच्छ बुद्धिवाला वह लकड़हारा कौन था ? प्रदेशी ! कुछ वनोपजीवी व्यक्ति लकड़ियों की खोज में निकले। वे अग्नि और अग्निपात्र अपने साथ ले गए। चलते-चलते वे काष्ठवन में प्रविष्ट हुए। यातायात रहित गहन जंगल में पहुंच उन्होंने अपने एक साथी से कहादेवानुप्रिय ! हम काष्ठ वन में जा रहे हैं। तुम अग्निपात्र में से अग्नि निकालकर भोजन तैयार करना । यदि अग्नि बुझ गई हो तो अरणि-काष्ठ से अग्नि पैदा कर भोजन तैयार कर लेना। ऐसा कह वे लकड़ियां लाने जंगल में चल गए। कुछ समय बाद वह व्यक्ति भोजन बनाने के लिए उठा। अग्नि पात्र के पास आया और देखा अग्नि बुझी हुई है। वह अरणि काष्ठ के पास आया। काष्ठ को हाथ में लेकर चारों ओर से भलीभांति देखा पर कहीं भी अग्नि दिखाई नहीं दी। उसने कमर कसी । हाथ में फरसी ली । काठ के दो टुकड़े किए। पुनः चारों ओर देखा । पर कहीं अग्नि दिखाई नहीं दी। यहां तक कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी कहीं अग्नि का निशान नहीं मिला। अरणि काष्ठ में अग्नि नहीं मिलने से वह श्रांत, क्लांत और उदास गया। फरसी को एक ओर रख कमर खोली और मन ही मन कहा अहो ! मैं उन व्यक्तियों के लिए भोजन तैयार नहीं कर सका। वह थका-हारा-सा शोक सागर में निमज्जित, Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५९१ अ. १२ : आत्मवाद करयल-पल्लत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगय. हथेली पर मुंह को टिका, उदासीन और चिंतातुर मुद्रा में दिदिठए झियाइ। दृष्टि को भूमि पर गड़ाकर बैठ गया। तए णं ते पुरिसा कट्ठाई छिंदति। जेणेव से पुरिसे वे पुरुष जंगल से लकड़ी काटकर आए। उन्होंने उसे तेणेव उवागच्छंति, तं पुरिसं ओहयमणसंकप्पं..... चिंतातुर देख पूछा-देवानुप्रिय! तुम उदास क्यों हो? पासंति, पासित्ता एवं वयासी-किं णं तुम देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पे.....झियायसि? तए णं से पुरिसे एवं वयासी-तुब्भे णं उसने कहा-देवानुप्रिय! काष्ठवन में जाते समय आप देवाणुप्पिया! कट्ठाणं अडविं अणुपविसमाणा ममं लोगों ने मुझे कहा-देवानुप्रिय! हम काष्ठ वन में जा रहे एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया! कट्ठाणं अडविं हैं। तुम इस अग्निपात्र से अग्नि निकालकर भोजन तैयार पविसामो। एत्तो णे तुमं जोइभायणाओ जोइं गहाय कर लेना। यदि अग्निपात्र में अग्नि बुझ जाए तो तुम अम्हं असणं साहेज्जासि। अह तं जोइभायणे जोई काष्ठ से अग्नि जलाकर हमारे लिए भोजन तैयार कर विझवेज्जा तो णं तुम कट्ठाओ जोई गहाय अम्हं देना। असणं साहेज्जासित्ति कटु कट्ठाणं अडविं अणुपविट्ठा। तए णं अहं तओ मुहुत्तंतरस्स तुब्भं असणं साहेमि आपके चले जाने पर थोड़ी देर बाद मैं भोजन बनाने त्ति कद जेणेव जोइभायणे तेणेव उवागच्छामि के लिए उठा। अग्निपात्र को संभाला यावत् अग्नि पैदा न जाव झियामि। कर सकने के कारण शोकाकुल हो गया। तए णं तेसिं पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए दक्खे.....ते उन व्यक्तियों में से एक दक्ष, कुशल और बुद्धिमान पुरिसे एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! पुरुष बोला-तुम सब स्नान आदि करो। मैं भोजन तैयार व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता कर देता हूं। यह कहकर उसने कमर बांधी। फरसी हाथ में हव्वमागच्छेह जा णं अहं असणं साहेमित्ति कटु ली और उस लकड़ी से ही काठ का घर्षण करने के लिए परियरं बंधइ, परसुं गिण्हइ, सरं करेइ, सरेण एक बाण तैयार किया। उससे काठ को मथा। अग्नि पैदा अरणिं महेइ, जोइं पाडेइ, जोइं संधुक्खेइ, तेसिं की। उसे सुलगाया और भोजन तैयार किया। पुरिसाणं असणं साहेइ। तए णं तें पुरिसा पहाया कयबलिकम्मा वे पुरुष नहा-धोकर भोजन करने के लिए आए। कयकोउयमंगल-पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव भोजन बनानेवाले व्यक्ति ने उन्हें अच्छी तरह आसन पर उवागच्छंति। तए णं से पुरिसे तेसिं पुरिसाणं बिठाकर भोजन परोसा। सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइम साइमं उवणेइ। तए णं ते पुरिसा.....जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं भोजन करने के बाद उन्होंने हाथ-मुंह धोया और उस समाणा आयंता चोक्खा परमसुईभूया तं पुरिसं एवं व्यक्ति को बुलाकर कहा-तुम जड़, मूढ़ हो जो काठ के वयासी-अहो! णं तुम देवाणुप्पिया! जड्डे मूढे जे __टुकड़े-टुकड़े कर अग्नि को खोज रहे हो। णं तम इच्छसि कटठंसि.....संखेन्जहा फालियंसि वा जोतिं पासित्तए। से एएणठेणं पएसी! एवं वुच्चइ मूढतराए णं तुमं प्रदेशी ! तुम उस पुरुष से भी मूढ़ और मन्दमति पएसी! ताओ तुच्छतराओ। वाले हो। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५९२ खण्ड-१ क्या जीव देखा जा सकता है? २९.तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं प्रदेशी-भंते! आप निपुण हैं, दक्ष हैं, ज्ञानी हैं, कुशल वयासी-तुब्भे णं भंते! इय छेया दक्खा पत्तट्ठा। हैं, महामति सम्पन्न हैं, उपदेश देने में कुशल हैं। क्या कुसला महामई विणीया विण्णाणपत्ता उवएस- आप मुझे जीव को सरीर में से निकालकर दिखाने में लद्धा। समत्था णं भंते! ममं करयलंसि वा समर्थ हैं जैसे मेरी हथेली में आंवला? आमलयं जीवं सरीराओ अभिणिवटित्ताणं उवदंसित्तए। ३०.तेणं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रण्णो अदूरसामंते वाउयाए संवुत्ते। तणवणस्सइकाए एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ। राजा प्रदेशी जिस समय कुमारश्रमण केशी से बात कर रहा था, उस समय तेज हवा चल रही थी। तृण और पौधे हिल रहे थे। कंपित हो रहे थे, एक दूसरे को छू रहे थे। ३१.तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी- कुमारश्रमण केशी ने प्रदेशी से कहा-प्रदेशी! क्या पाससि णं तुमं पएसी राया! एयं तणवणस्सइकायं, तुम हिलते हुए तृण और पौधों को देख रहे हो? एयंत वेयंतं चलंतं फंदंतं घटतं उदीरंतं तं तं भावं परिणमंतं? हंता पासामि। हां, देखता हूं। जाणासि णं तुमं पएसी! एयं तणवणस्सइकायं किं प्रदेशी! तुम जानते हो तृण और पौधों को कौन हिला देवो चालेइ?......... रहा है? क्या कोई देव हिला रहा है? हंता जाणामि-णो देवो चालेइ।..... वाउयाए भंते! मैं जानता हूं, तृण और पौधों को कोई देव नहीं चाले। हिला रहा है। हवा हिला रही है। पाससि णं तुमं पएसी! एयस्स वाउकायस्स प्रदेशी! क्या तुम रूप, कर्म, राग, मोह, वेद, लेश्या सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स समोहस्स एवं शरीर धारण करनेवाली इस हवा को देख रहे हो? . सवेयस्स सलेसस्स ससरीरस्स रूवं? णो तिणठे समझें। नहीं। जइ णं पएसी! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स प्रदेशी ! जब तुम रूप, कर्म, राग आदि से युक्त वायु सकम्मस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स-' को भी नहीं देख रहे हो तो प्रदेशी! मैं तुम्हारी हथेली में सलेसस्स ससरीरस्स रूवं न पाससि, तं कहं णं रखे आंवले की भांति शरीर में स्थित अरूपी जीव को पएसी! तव करयलंसि वा आमलगं जीवं शरीर से अलग करके कैसे दिखा सकता हूं। अतः सरीराओ अभिणिवटित्ताणं उवदंसिस्सामि? तं प्रदेशी! तुम श्रद्धा करो-जीव अन्य है, शरीर अन्य है। सदहाहि णं तुमं पएसी! जहा-अण्णो जीवो अण्णं जीव और शरीर एक नहीं है। सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं। जीवत्व की समानता हाथी और कुंथु ३२.तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं भंते! क्या हाथी और कुंथु में जीव एक समान है? Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५९३ वयासी - से णूणं भंते! हत्थिस्स कुंथुस्स य समे चैव जीवे ? तापसी ! हत्थस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे । से भंते! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव अप्प किरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव अप्पाहारतराए चेव अप्पनीहारतराए चेव अप्पुस्सासतराए चेव अप्पनीसासतराए चेव अप्पिड्ढितराए चेव अप्पमहतराए चेव अप्पज्जइतराए चेव कुंथुओ हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतंराए चेव महासवतराए चेव महाहारतराए चेव महानीहारतराए चेव महाउस्सासतराए चेव महानीसासतराए चेव महिड्ढितराए चेव महामहतराए चेव महज्जुइतराए चेव ? हंता पएसी ! म्हाणं भंते! हत्थस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ? कूटागारशाला और दीपक ३३. पएसी ! से जहाणामए कूडागारसाला सियादुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा । अह णं केइ पुरिसे जोई व दीवं व गहाय तं कूडागारसालं अंतो- अंतो अणुपविसइ, से कूडागारसाला सव्वतो समंता घणनिचियनिरंतर - णिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेति । तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा । तए णं से पईवे तं कूडागारसालं अंतोअंतो ओभासेइ उज्जोवेइ तावेति पभासेइ णो चेव बाहिं । अहां से पुरिसे तं पईवं इड्डरएणं पिज्जा, तए णं से पईवे तं इड्डरयं अंतो- अंतो ओभासेइ उज्जोवेइ तावेति पभासेइ । णो चेव णं इड्डरगस्स बाहिं णो चेव णं कूडागारसालं, णो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं।..... एवामेव पएसी! जीवे वि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोंदिं णिव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपदेसेहिं सचित्ती करेइ-खुड्डियं वा महालियं वा । अ. १२ : आत्मवाद हां, प्रदेशी ! भंते! क्या हाथी की अपेक्षा कुंथु में कर्म, क्रिया, आश्रव, आहार, निहार, उच्छ्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महात्म्य और द्युति-ये सब अल्प होते हैं और कुंथु की अपेक्षा हाथी में ये सब अधिक होते हैं ? हां, प्रदेशी ! भंते! हाथी और कुंथु में जीव समान कैसे हो सकता है ? प्रदेशी ! एक कूटागारशाला है। वह दोनों ओर से लिपी हुई है। उसका द्वार गुप्त है। हवा का कोई प्रवेश नहीं है। उस कूटागारशाला में कोई पुरुष मशाल या दीपक लेकर जाता है। कूटागारशाला के समस्त छिद्रों को और द्वार को अच्छी तरह से बंद कर देता है। कूटागारशाला के बीचोंबीच जलता हुआ दीपक रखता है। उस स्थिति में वह दीपक कूटागारशाला के भीतर-भीतर ही प्रकाश करेगा, बाहर नहीं । उस दीपक पर ढक्कन रख दिया जाए तो वह उसी के भीतर प्रकाश करेगा, ढक्कन के बाहर नहीं । न कूटागारशाला में ही प्रकाश करेगा न उसके बाहर ही । प्रदेशी ! इसी प्रकार जीव अपने पूर्व कर्म के अनुसार छोटे बड़े जिस शरीर का निर्माण करता है, उसे अपने असंख्य प्रदेशों द्वारा सचित्त - चेतना युक्त बना लेता है। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५९४ खण्ड-१ आत्मकर्तृत्व ३४.अज्जोति! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निग्रंथों णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी-किं भया पाणा? को आर्य इस संबोधन से आमंत्रित कर कहा-आयुष्मन समणाउसो! श्रमणो! जीव किससे भयभीत होते हैं? . गोतमादी समणा णिग्गंथा समणं भगवं महावीर गौतम आदि श्रमण निग्रंथ भगवान महावीर के निकट उवसंकमंति, उवसंकमित्ता वंदंति णमंसंति, वंदित्ता आए। वन्दन-नमस्कार किया और बोले-देवानुप्रिय! हम णमंसित्ता एवं वयासी-णो खलु वयं देवाणुप्पिया! इस अर्थ को नहीं जान रहे हैं। नहीं देख रहे हैं। यदि एयमट्ठं जाणामो वा पासामो वा। तं जदि णं आपको इस अर्थ का परिकथन करने में खेद न हो तो हम देवाणुप्पिया! एयमह्र णो गिलायंति परिकहित्तए, आपके पास इसे जानना चाहेंगे। . तमिच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमझें जाणित्तए। अज्जोति! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निग्रंथों निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी को सम्बोधित कर कहादुक्खभया पाणा समणाउसो! आयुष्मन् श्रमणो! जीव दुःख से भयभीत होते हैं। से णं भंते! दुक्खे केण कडे? भंते! दुःख किसने किया है? जीवेणं कडे पमादेणं। जीव ने किया है अपने प्रमाद से। से णं भंते! दुक्खे कहं वेइज्जति? भंते! दुःख का वेदन कैसे होता है? अप्पमाएणं। जीव के अपने अप्रमाद से। जीवाणं भंते! किं अत्तकडे दुक्खे? परकडे दु- भंते! जीवों के दुःख आत्मकृत होता है ? परकृत होता क्खे? तदुभयकडे दुक्खे? है? अथवा उभयकृत होता है ? गोयमा! अत्तकडे दुक्खे, नो. परकडे दुक्खे, नो गौतम ! दुःख आत्मकृत होता है। न परकृत होता है, तदुभयकडे दुक्खे। न उभयकृत होता है। . जीवा णं भंते! किं अत्तकडं दुक्खं वेदेति ? परकडं भंते! जीव आत्मकृत दुःख का वेदन करता है? दुक्खं वेदेति? तदुभयकडं दुक्खं वेदेति? परकृत दुःख का वेदन करता है? अथवा उभयकृत दुःख का वेदन करता है? गोयमा! अत्तकडं दुक्खं वेदेति, नो परकडं दुक्खं गौतम ! जीव आत्मकृत दुःख का वेदन करता है। न वेदेति, नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति। परकृत दुःख का वेदन करता है, न उभयकृत दुःख का वेदन करता है। संकल्प द्वारा वेदना का उपशमन मुनि अनाथी और राजा श्रेणिक ३५.पभूयरयणो राया सेणियो मगहाहिवो। प्रचुर रत्नों से सम्पन्न, मगध का अधिपति राजा विहारजत्तं निज्जाओ मण्डिकच्छिंसि चेइए॥ श्रेणिक मण्डीकुक्षि नाम के उद्यान में विहारयात्रा (क्रीडायात्रा) के लिए गया। ३६.नाणादुमलयाइण्णं . नाणाकुसुमसंछन्नं नाणापक्खिनिसेवियं। उज्जाणं नन्दणोवमं॥ वह उद्यान नाना प्रकार के दूमों और लताओं से आकीर्ण. नाना प्रकार के पक्षियों से आश्रित, नाना Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ३७. तत्थ सो पासइ साहुं संजयं निसन्नं रुक्खमूलम्मि सुकुमालं सुसमाहियं । सुहोइयं ॥ ३८. तस्स रूवं तु पासित्ता राइणो तम्मि संजए । अच्चन्तपरमो आसी अउलो रूवविम्हओ ॥ ५९५ ३९. अहो ! वण्णो अहो ! रूवं अहो ! अज्जस्स सोमया । अहो ! खन्ती अहो ! मुत्ती अहो ! भोगे असंगया ॥ ४०. तस्स पाए उ. वंदित्ता काऊण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने पंजली पडिपुच्छई ॥ ४१. तरुणों सि अज्जो ! पव्वइओ वओि सिसामण्णे भोगकालम्मि संजया । मट्ठे सुमिता ॥ ४२. अणाहो मि महाराया! नाहो मज्झ न विज्जई | अणुकम्पगं सुहिं वावि कंचि नाभिसमेमहं || ४३. तओ सो पहसिओ राया सेणिओ मगहाहिवो । एवं ते इड्ढिमंतस्स कहं नाहो न विज्जई ? ४४. होमि नाहो भयंताणं भोगे भुंजाहि मित्तनाईपरिवुडो माणुस्सं खु संजया । सुदुल्लाहं ॥ ४५. अप्पणा वि अणाहो सि सेणिया! मगहाहिवा । अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि ? अ. १२ : आत्मवाद प्रकार के कुसुमों से पूर्णतः ढका हुआ और नन्दनवन के समान था । वहां राजा ने संयत, मानसिक समाधि से सम्पन्न, वृक्ष के पास बैठे हुए सुकुमार और सुख भोगने योग्य साधु को देखा। उसके रूप को देखकर राजा उस संयत के प्रति आकृष्ट हुआ और उसे अत्यंत उत्कृष्ट और अतुलनीय विस्मय हुआ । आश्चर्य! कैसा वर्ण और कैसा रूप है। आश्चर्य ! आर्य की कैसी सौम्यता है। आश्चर्य! कैसी क्षमा और निर्लोभता है। आश्चर्य! भोगों में कैसी अनासक्ति है। उसके चरणों में नमस्कार और प्रदक्षिणा कर न अतिदूर न अतिनिकट रह राजा ने हाथ जोड़कर पूछा आर्य! अभी तुम तरुण हो । संयत! तुम भोगकाल में प्रव्रजित हुए हो, श्रामण्य के लिए उपस्थित हुए हो, इसका क्या प्रयोजन है? मैं सुनना चाहता हूं। महाराज! मैं अनाथ हूं। मेरा कोई नाथ नहीं है। मुझ पर अनुकंपा करनेवाला या मित्र कोई नहीं पा रहा हूं। यह सुनकर मगधाधिपति राजा श्रेणिक जोर से हंसा और उसने कहा- तुम ऐसे सहज सौभाग्यशाली हो, फिर कोई तुम्हारा नाथ कैसे नहीं होगा ? हे भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूं। संयत! मित्र और ज्ञातियों से परिवृत होकर विषयों का भोग करो। यह मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है। मगध के अधिपति श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो ! स्वयं अनाथ होते हुए भी तुम दूसरों के नाथ कैसे होओगे ? Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४६. एवं वृत्तो नरिंदो सो सुसंभंतो सुविम्हिओ । वयणं अस्सुयपुव्वं साहुणा विम्हयन्निओ ॥ ४७. अस्सा हत्थी मणुस्सा मे पुरं अन्तेउरं च मे । भुंजामि माणुसे भोगे आणाइस्सरियं च मे ॥ ४८. एरिसे संपयग्गम्मि सव्वकामसमप्पिए । कहं अणाहो भवइ ? माहु भंते! मुसं वए ॥ ४९. न तुमं जाणे अणाहस्स अत्थं पोत्थं व पत्थिवा! जहा अणाहो भवई सणाहो वा नराहिवा ! ५०. सुणेह मे महारायं ! अव्वक्खित्तेण चेयसा । जहा अणाहो भवई जहा मे य पवत्तियं ॥ ५१. कोसंबी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी । तत्थ आसी पिया मज्झ पभूयधणसंचओ ॥ ५२. पढमे वए महाराय ! अउला मे अच्छिवेयणा । अहोत्था विउलो दाहो ! सव्वंगेसु य पत्थिवा ॥ ५३. सत्थं जहा परमतिक्खं सरीरविवरंतरे। पवेसेज्ज अरी कुद्धो एवं मे अच्छिवेयणा ॥ ५४. तियं मे अंतरिच्छं च उत्तमंगं च पीडई । इन्दासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ॥ ५९६ ५५. उवट्ठिया मे आयरिया विज्जामंततिगिच्छ्गा । अबीया सत्थकुसला मंतमूलविसारया ॥ खण्ड - ४ श्रेणिक पहले ही विस्मित बना हुआ था। साधु के द्वारा - तू अनाथ है-ऐसा अश्रुतपूर्व वचन सुनकर वह अत्यंत व्याकुल और अत्यंत आश्चर्यमग्न हो गया। मेरे पास हाथी और घोड़े हैं। नगर और अंतःपुर हैं। मैं मनुष्य संबंधी भोगों को भोग रहा हूं। आज्ञा और ऐश्वर्य मेरे पास हैं। जिसने मुझे सब कामभोग समर्पित किए हैं, वैसी उत्कृष्ट सम्पदा मेरे पास होते हुए भी मैं अनाथ कैसे हूं? भदंत ! असत्य मत बोलो। हे पार्थिव ! तू अनाथ शब्द का अर्थ और उसकी उत्पत्ति (मैंने तुझे अनाथ क्यों कहा) नहीं जानता । इसलिए जैसे अनाथ या सनाथ होता है, वैसे नहीं जानता । महाराज ! तू अव्याकुल चित्त से सुन-जैसे कोई पुरुष अनाथ होता है और जिस रूप में उसका मैंने प्रयोग किया है। प्राचीन नगरों में असाधारण, सुन्दर कोशाम्बी नाम की नगरी है। वहां मेरे पिता रहते हैं। उनके पास प्रचुर धन का संचय है। महाराज ! प्रथम वय ( यौवन) में मेरी आंखों में असाधारण वेदना उत्पन्न हुई। पार्थिव ! मेरा समूचा शरीर पीड़ा देने वाली जलन से जल उठा। . जैसे कुपित बना हुआ शत्रु शरीर के छेदों में अत्यंत तीखे शस्त्रों को घुसेड़ता है, उसी प्रकार मेरी आंखों में वेदना हो रही थी। मेरे कटि, हृदय और मस्तिष्क में परम दारुण वेदना हो रही थी, जैसे इन्द्र का वज्र लगने से घोर वेदना होती है। विद्या और मंत्र के द्वारा चिकित्सा करने वाले मंत्र और औषधियों के विशारद, अद्वितीय, शास्त्रकुशल Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५९७ ५६. ते मे तिगिच्छं कुव्वंति चाउप्पायं जहाहियं । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया | ५७. पिया मे सव्वसारं पि दिज्जाहि मम कारणा । न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया ॥ ५८. माया य मे महाराय ! पुत्तसोगदुहट्टिया । न य दुक्खा विग़ोएइ एसा मज्झ अणाहया || ५९. भायरो मे महाराय ! सगा जेट्ठकणिट्ठगा । नय दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया || ६०. महणीओ मे महाराय ! सगा जेट्ठकणिट्ठगा । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ॥ ६९. भारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया । अंसुपुण्णेहिं नयणेहिं उरं मे परिसिंचई ॥ ६२. अन्न पाणं च ण्हाणं च गंधमल्लविलेवणं । भए नायमणायं वा सा बाला नोवभुंजई ॥ ६३. खणं पि मे महाराय ! पासाओ वि न फिट्टई । नय दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया || ६४. तओ हं एवमाहंसु दुक्खमा हु पुणो पुणो । वेयणा अणुभविडं जे संसारम्मि अनंतए ॥ ६५. सहं च जइ मुच्चेज्जा वेयणा विउला इओ । खंतो दंतो निरारंभो पव्वए अणगारियं ॥ अ. १२ : आत्मवाद प्राणाचार्य मेरी चिकित्सा करने के लिए उपस्थित हुए। उन्होंने जैसे मेरा हित हो वैसे चतुष्पाद चिकित्सा (वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक) की। किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके यह मेरी अनाथता है। मेरे पिता ने मेरे लिए उन प्राणाचार्यों को बहुमूल्य वस्तुएं दीं। किन्तु वे (पिता) मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके- यह मेरी अनाथता है। महाराज ! मेरी माता पुत्रशोक के दुःख से पीड़ित होती हुई भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी यह मेरी अनाथता है। महाराज! मेरे बड़े-छोटे सगे भाई भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके - यह मेरी अनाथता है । महाराज ! मेरी बड़ी-छोटी सगी बहिनें भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकीं - यह मेरी अनाथता है। महाराज! मुझ में अनुरक्त और पतिव्रता मेरी पत्नी आंसू भरे नयनों से मेरी छाती को भिगोती रही। वह बाला मेरे प्रत्यक्ष या परोक्ष में अन्न, पान, स्नान, गंध, माल्य और विलेपन का भोग नहीं कर रही थी । महाराज । वह क्षण भर के लिए मुझ से दूर नहीं हो रही थी । किन्तु वह मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकीयह मेरी अनाथता है। तब मैंने इस प्रकार कहा- इस अनंत संसार में बारबार दुस्सह वेदना का अनुभव करना होता है। इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार ही मुक्त हो जाऊं तो क्षांत, दांत और निरारंभ होकर अनगारवृत्ति को स्वीकार कर लूं। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५९८ खण्ड-8 ६६. एवं च चिंतइत्ताणं पसुत्तो मि नराहिवा! हे नराधिप! ऐसा चिंतन कर मैं सो गया। बीतती हुई परियटतीए राईए वेयणा मे खयं गया। रात्रि के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई। ६७.तओ कल्ले पभायम्मि आपुच्छित्ताण बंधवे। खंतो दंतो निरारंभो पव्वइओऽणगारियं॥ उसके पश्चात् मैं प्रभातकाल में स्वस्थ हो गया। मैं अपने बंधुजनों को पूछ क्षांत, दांत और निरारंभ होकर अनगार वृत्ति में आ गया। ६८.ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य। तब मैं अपना और दूसरों का रस और स्थावर सब सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाणं थावराण य॥ जीवों का नाथ हो गया। आत्मकर्तृत्व के कुछ पहलू ६९.अप्पा णई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही. कूटअप्पा कामदहाधेण अप्पा मे नंदणं वणं॥ शाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नंदनवन है। ७०.अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। आत्मा ही दुःख-सुख को करने वाली और उनका अप्पा मित्तममित्तं च दप्पट्ठियसुपट्ठिओ। क्षय करने वाली है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है। ७१.न तं अरी कण्ठछेत्ता करेई । ____जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो॥ दुष्प्रवृत्ति जो अनर्थ उत्पन्न करती है वह अनर्थ गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्ति करने वाला दया-विहीन मनुष्य मृत्यु के मुख में पहुंचने के समय पश्चात्ताप के साथ इस तथ्य को जान पाएगा। ७२.सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं। प्रमत्त को सब ओर से भय होता है। अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। ७३.कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिसकारणेगंता। मिच्छतं ते चेवा समासओ होति सम्मत्तं॥' ___काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (अदृष्ट) और पुरुषरूप कारण विषयक एकांतवाद मिथ्यात्व अर्थात् अयथार्थ हैं, और वे ही वाद समास से (परस्पर सापेक्ष रूप से) मिलने पर सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थ हैं। भंते! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंधन करते ७४.जीवा णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधति? हंता बंधंति। हां, करते हैं। १. आत्मकर्तृत्ववाद का सिद्धांत एक नय है। प्रत्येक नय सापेक्ष होता है। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ-ये सब नय हैं। इनकी सापेक्षता के द्वारा ही आत्मकर्तृत्ववाद की व्याख्या की जा सकती है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ५९९ अ. १२ : आत्मवाद भंते! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंधन कैसे करते कहण्णं भंते! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्म बंधंति? गोयमा! पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च। सेणं भंते! पमादे किंपवहे? गोयमा! जोगप्पवहे। से णं भंते! जोए किंपवहे? गोयमा! वीरियप्पवहे। से णं भंते! वीरिए किंपवहे? गोयमा! सरीरप्पवहे। से णं भंते! सरीरे किंपवहे? गोयमा! जीवप्पवहे। एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार-परम्कमेइ वा। गौतम! उसके दो कारण हैं-प्रत्यय हेतु-प्रमाद और निमित्त हेतु-योग। भंते! प्रमाद की प्रवृत्ति किससे होती है ? गौतम! प्रमाद की प्रवृत्ति का स्रोत है-योग। भंते! योग की प्रवृत्ति किससे होती है? गौतम! योग की प्रवृत्ति का स्रोत है-वीर्य। भंते! वीर्य की प्रवृत्ति किससे होती है? गौतम! वीर्य की प्रवृत्ति का स्रोत है-शरीर। भंते! शरीर की प्रवृत्ति किससे होती है ? गौतम! शरीर की प्रवृत्ति का स्रोत है-जीव। इस प्रकार कांक्षामोहनीय कर्मबंध का कारण हैउत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम। आत्मकर्तृत्व और नियतिवाद श्रमणोपासक कुंडकौलिक ७५.तए णं समणे भगवं महावीरे कुंडकोलियस्स श्रमण भगवान महावीर ने श्रमणोपासक कुंडकौलिक समणोवासयस्स तीसे य महइमहालियाए परिसाए और विशाल परिषद् के बीच धर्म का आख्यान किया। - जाव धम्म परिकहेइ। कुंडकोलियाइ! समणे भगवं महावीरे कुंडकोलियं श्रमण भगवान महावीर ने कुंडकौलिक श्रमणोपासक समणोवासयं एवं वयासी से नूणं कुंडकोलिया! को संबोधित करते हुए कहा-कुंडकौलिक! कल अपराह्न कल्लं तुम्भं पच्चावरण्हकालसमयंसि असोग- के समय तुम्हारे सामने अशोकवनिका में एक देव प्रकट वणियाए एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था। हुआ। तए णं से देवे नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च उस देव ने पृथ्वी शिलापट्ट से एक नामांकित मुद्रिका पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ, गेण्हित्ता अंतलि. और उत्तरीय ग्रहण किया। वह अंतरिक्ष में स्थित हुआ। क्खपडिवण्णे सखिखिणियाई पंचवण्णाई वत्थाइं धुंधरू लगे पंचवर्णी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए देव ने कहापवरपरिहिए तुमं एवं वयासी-हं भो! कुंडकोलिया! श्रमणोपासक कुंडकौलिक! मंखलिपुत्र गोशालक की यह समणोवासया! सुंदरी णं देवाणुप्पिया! गोसालस्स धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर है-'उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, मंखलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती नत्थि उट्ठाणे इ वा पराक्रम, कुछ नहीं है। सब भाव नियत हैं।' श्रमण कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कार- भगवान महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर नहीं है। वे मानते परक्कमे इ वा। नियता सव्वभावा। मंगुली णं हैं-'उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम सब कुछ समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती- हैं। सब भाव अनियत है।' अत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा परिसक्कार-परक्कमे इ वा। अणियता सव्वभावा। .तए णं तुमं तं देवं एवं वयासी-जइ णं तब तुमने उस देव से कहा-देवानप्रिय! यदि Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-४ देवाणुप्पिया! सुंदरी णं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखलिपुत्र गोशालक की नियतिवादी मान्यता सुन्दर है धम्मपण्णत्ती।.....मंगुली णं समणस्स भगवओ और श्रमण भगवान महावीर की मान्यता सुन्दर नहीं, तो महावीरस्स धम्मपण्णत्ती।.....तुमे णं देवाणुप्पिया! देवानप्रिय! तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि, द्युति और प्रभाव कैसे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे प्राप्त हुआ? देवाणुभावे किण्णा लद्धे?..... किं उट्ठाणेणं जाव पुरिसक्कार-परक्कमेणं? वह उत्थान यावत् पराक्रम से प्राप्त हुआ अथवा बिना उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कार- उत्थान यावत् बिना पराक्रम के? परक्कमेणं? तए णं से देवे तुमं एवं वयासी-एवं खलु देव ने तुम्हें कहा-देवानुप्रिय! मैंने जो दिव्य ऋद्धि, देवाणुप्पिया! मए इमा एयारूवा दिव्या देविड्ढी द्युति और प्रभाव प्राप्त किया है, वह बिना ही उत्थानदिव्वा देवज्जई दिव्वे देवाणुभावे अणुट्ठाणेणं जाव यावत् पराक्रम से प्राप्त किया है। अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। तए णं तुमं तं देवं एदं वयासी-जइ णं देवानुप्रिय! यदि तुमने दिव्य ऋद्धि, धुति और प्रभाव देवाणुप्पिया! तुमे इमा एयारुवा दिव्वा देविड्ढी बिना उत्थान यावत् बिना पराक्रम के प्राप्त किया है तो दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे अणुट्ठाणेणं जाव जिन जीवों के उत्थान यावत् पराक्रम नहीं हैं, वे देव क्यों अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धे पत्ते अभिसम नहीं हुए ? ण्णागए, जेसि णं जीवाणं नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा, ते किं न देवा? अह तुम्भे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि, द्युति और प्रभाव उत्थान यावत् देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे उट्ठाणेणं जाव पराक्रम से प्राप्त हुआ है लो तुम जो गोशालक की परक्कमेणं लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, तो जं वदसि धर्मप्रज्ञप्ति को सुन्दर बताते हो और भगवान महावीर की सुंदरी णं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स धम्म- धर्मप्रज्ञप्ति को असुन्दर बताते हो, तुम्हारा कथन मिथ्या पण्णत्ती।..... मंगुली णं समणस्स भगवओ महा- हो जाएगा। वीरस्स धम्मपण्णत्ती।.... तं ते मिच्छा। तए णं से देवे तुम एवं वुत्ते समाणे संकिए....नो तुम्हारे ऐसा कहने पर वह देव संदिग्ध हो गया। वह संचाएइ तुब्भे किंचि पमोक्खमाइक्खित्तए, तुम्हारे प्रश्नों को उत्तरित नहीं कर सका। देव ने नामांकित नाममुद्दगं च उत्तरिज्जयं च पुढविसिलापट्टए मुद्रिका और उत्तरीय पृथ्वी शिलापट्ट पर रखा एवं जिस ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसं पाउब्भूए, तामेव दिसं दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। पडिगए। से नूणं कुंडकोलिया! अढे समठे ? कुंडकौलिक! क्या यह सही है? हंता अत्थि। हां, सही है। अज्जोति! समणे भगवं महावीरे समणा निग्गंथा श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निग्रंथ एवं निग्रंथियों य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-जइ ताव को आमंत्रित कर कहा-आर्यो! गृहवास में रहते हुए अज्जो! गिहिणो गिहिमज्झावसंता अण्णउत्थिए गृहस्थी भी अन्यतीर्थिकों को अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और अद्वेहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य व्याकरण से निरुत्तर कर सकते हैं। . वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणे करेंति। सक्का पुणाई अज्जो! समणेहिं निग्गंथेहिं फिर श्रमणों का कहना ही क्या! आर्यो! द्वादशांग Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६०१ दुवालसंगं गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं अण्णउत्थिया अट्ठेहि य......निप्पट्ठपसिणवागरणा करेत्तए । तणं समणा निम्गंथाय निग्गंधीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमट्ठं विणएणं पडिसुणेंति । भगवान महावीर और सद्दालपुत्र ७६. तेण कालेणं तेणं समएणं पोलासपुरं नामं नयरं । तणं से समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचसु कुंभारावणसएसु...... विहर | तणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अण्णदा कदाइ वाताहतयं कोलालभंड अंतो सालाहिंतो बहिया नीणेs, नीणेत्ता आयवंसि दलय । तए णं समणे भगवं महावीरे सहालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी - सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभंडे कहं कतो ? तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी - एस णं भंते! पुव्विं • मट्टिया आसी । तओ पच्छा उदएणं तिम्मिज्जइ, तिम्मिज्जित्ता छारेण य करिसेण य एगयओ मीसिज्जइ, मीसिज्जित्ता चक्के आरुभिज्जति । 'तओ बहवे करगा य वारगा य पिहडगा य घडगा य अघडगा य कलसगा य अलिंजरगा य जंबूलगा य उट्टियाओ य कज्जति । तणं समणे भगवं महावीरे सहालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी - सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभंडे किं उट्ठाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कार-परक्कमेणं कज्जति, उदाहु अणुट्ठाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं कज्जंति ? तणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महाबीरं एवं वयासी - भंते! अणुट्ठाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कार-परक्कमेणं । नत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कार- परक्कम्मे इ वा । नियता सव्वभावा । अ. १२ : आत्मवाद गणिपिटक का अध्ययन करनेवाले श्रमण निग्रंथ अन्ययूथिकों को अर्थ, हेतु आदि से निरुत्तरित करने में समर्थ हैं। श्रमण निग्रंथ और निर्ग्रथियों ने भगवान महावीर के इस कथन को तहत्ति - ऐसा ही है, कह कर विनयपूर्वक शिरोधार्य किया । पोलासपुर नाम का नगर । श्रमण भगवान महावीर आजीवक मत के उपासक सद्दालपुत्र की पांच सौ दुकानों वाली कुंभकारशाला में ठहरे। सद्दालपुत्र मिट्टी के पात्रों को हवा में सुखाने के लिए बाहर ले जा रहा था। उपस्थानशाला महावीर ने पूछा—सद्दालपुत्र ! ये मिट्टी के पात्र कैसे निष्पन्न हुए हैं ? भंते! सबसे पहले मिट्टी होती है। उसे पानी में भिगोया जाता है। उसके बाद राख और गोबर उसके साथ मिलाए जाते हैं। फिर उसे चाक पर चढ़ाया जाता है। उससे मिट्टी के अनेक प्रकार के पात्र बनाए जाते हैं। सद्दालपुत्र ! ये मिट्टी के पात्र उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से निष्पन्न होते हैं। अथवा उत्थान यावत् पराक्रम के बिना ही निष्पन्न होते हैं ? भंते! ये अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम से निष्पन्न हैं। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम का कोई अस्तित्व नहीं है । सब भाव नियत हैं। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन तणं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी - सहालपुत्ता ! जइ णं तुब्भं hs पुरिसे वाताहतं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंड अवहरेज्ज वा विक्खिरेज्ज वा भिंदेज्ज वा अच्छिदेज्ज वा परिट्ठवेज्ज वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स कं दंड वत्तेज्जासि ? ६०२ भंते! अहं णं तं पुरिसं आओसेज्ज वा हणेज्ज वा बंधेज्ज वा महेज्ज वा तज्जेज्ज वा तालेज्ज वा निच्छोडेज्ज वा निब्भच्छेज्ज वा, अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेज्जा । सद्दालपुत्ता! नो खलु तुब्भं केइ पुरिसे वाताहतं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरइ वा विक्खिरइ वा भिंदइ वा अच्छिंदइ वा परिट्ठवेइ वा, अग्गमित्त भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमा विहर। नो वा तुमं तं पुरिसं आओसेसि वाहणेस वा बंधेसि वा महेसि वा तज्जेसि वा तालेसि वा निच्छोडेसि वा निब्भच्छेसि वा अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेसि, जइ नत्थि उट्ठाणे इ कम्मे वाले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा । नियता सव्वभावा । अहणं तुब्भं केइ पुरिसे वाताहतं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंड अवहरेइ वा विक्खिरेइ वा भिंदेइ वा अच्छिंदेइ वा परिट्ठवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । तुमं वा तं पुरिसं आओसेसि वा हणेसि वा बंधेसि वा महेसि वा तज्जेसि वा तालेसि वा निच्छोडेसि वा निब्भच्छेसि वा, अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेसि, तो जं वदसि नत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा, नियता सव्वभावा, तं ते मिच्छा । एत्थं णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए संबुद्धे । खण्ड-४ श्रमण भगवान महावीर ने आजीवक मत के उपासक सद्दालपुत्र को संबोधित कर कहा - सद्दालपुत्र ! कोई पुरुष तुम्हारे हवा में सुखाए हुए और पकाए हुए मिट्टी के पात्रों का अपहरण करे, बिखेरे, भेदन करे, छेदन करे और परिष्ठापित करे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोगों का भोग करे तो तुम उसे क्या दंड दोगे ? भंते! मैं उस पुरुष पर आक्रोश करूंगा, उसे पीलूंगा, बांधूंगा, मधूंगा, तर्जना दूंगा, ताड़ना दूंगा, अपमानित करूंगा, भर्त्सना दूंगा और अकाल में ही उसे मार डालूंगा । सद्दालपुत्र! कोई पुरुष न तो तुम्हारे हवा में सुखाए हुए और पके हुए मिट्टी के पात्रों का अपहरण करने वाला हैं, न बिखरने वाला है, न भेदन करने वाला है, न छेदन करने वाला है, न परिष्ठापित करने वाला है अथवा न तुम्हारी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोगों को भोगने वाला है और न ही तुम उस पुरुष पर आक्रोश करने वाले हो, न पीटने वाले हो, न बांधने वाले हो, न मथने वाले हो, न तर्जना देने वाले हो, न ताड़ना देने वाले हो, न अपमान करने वाले हो, न भर्त्सना करने वाले हो और न ही उसे अकाल में ही मारने वाले हो, यदि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम कुछ नहीं है। सब भाव नियत हैं। यदि कोई पुरुष हवा में सुखाए हुए और पके हुए तुम्हारे पात्रों का अपहरण करता है, बिखेरता है, भेदन करता है, छेदन करता है, परिष्ठापित करता है अथवा तुम्हारी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता है और बांधते तुम उस पुरुष पर आक्रोश करते हो, पीटते हो, मथते हो, तर्जना देते हो, ताड़ना देते हो, अपमानित करते हो, अकाल में ही उसे मार देते हो तो तुम जो कह रहे हो कि उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम कुछ नहीं सब भाव नियत हैं, वह मिथ्या है। भगवान महावीर का यह वचन सुनकर आजीवक मत का उपासक सद्दालपुत्र संबुद्ध हो गया । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ७७. अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमइओ अणण्णमओ । लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ॥ ७८. आरोग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु । ७९. चदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ ८९. सव्वे सरा णियति । ' ८०. सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाह मपुणरावित्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं । ८२. तक्का जत्थ ण विज्जइ । ८३. मई तत्थ ण गाहिया । ६०३ ८४. ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयण्णे । परमात्मा ८५. से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, णं तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले । ८६.ण किण्हे, न णीले, ण लोहिए, ण हालिद्दे, ण सुकिल्ले । अ. १२ : आत्मवाद आत्मा का ध्यान करनेवाला दर्शन और ज्ञानमय होकर आत्मा से अनन्य हो जाता है। ऐसा पुरुष शीघ्र मुक्त आत्मा-परमात्मा बन जाता है। सिद्ध मुझे आरोग्य, बोधि और उत्तम समाधि दें। चन्द्रमा से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रकाशकर, समुद्र से अधिक गंभीर सिद्ध मुझे सिद्धि दें। सिद्ध वह है जो शिव, अचल, अरुज (नीरोग) अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति - जहां जाने के बाद पुनरावर्तन नहीं होता इन विशेषणों से विशिष्ट सिद्धिगति नामवाले स्थान को प्राप्त होता है। परमात्मा शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है। सब शब्द वहां तक पहुंच कर लौट जाते हैं। वह तर्कगम्य नहीं है-वहां तक कोई तर्क पहुंचता नहीं वह मति के द्वारा ग्राह्य नहीं है । वह अकेला है - राग-द्वेष रहित है। वह अप्रतिष्ठानशरीर मुक्त है। वह क्षेत्रज्ञ - ज्ञाता है। वह न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, और न परिमंडल है। वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और शुक्ल है। ८७. सुभिगंधे, ण दुरभिगंधे । ८८.ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण • महुरे । १. केशी और प्रदेशी के संवाद से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। आत्मा की शुद्ध स्थिति है- परमात्मा । वह न सुगंध है और न दुर्गन्ध है। वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय और न मधुर है। न अम्ल है Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६०४ ८९. कक्खडे, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिखे, ण लुक्खे। ९०. ण काऊ । ९१. रुहे। ९२. ण संगे । ९३. ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णा । ९४. परिण्णे सण्णे । ९५. उबमा ण विज्जए । ९६. अल्वी सत्ता । ९७. अपयस्स पयं णत्थि । ९८. सेण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे । खण्ड-४ वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न रूक्ष है। वह शरीरवान नहीं है। वह जन्मधर्मा नहीं है। वह लेप - आसक्ति युक्त नहीं है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है। वह परिज्ञ है, संज्ञ है-सर्वतः चैतन्यमय है। उसका बोध करने के लिए कोई उपमा नहीं है। वह अमूर्त अस्तित्व है। वह पदातीत है। उसका बोध करने के लिए कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है और न स्पर्श है। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १३ कर्मवाद Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय . पृ. सं. ६०७ - EMN4 ६१५ ६१५ ६०९ ६१५ १. विभक्तिभाव की कारण मीमांसा २. कर्म : चैतन्यकृत या अचैतन्यकृत ? ६०७ ३. पाप का पौद्गलिकत्व ६०८ ४. जीव और कर्म की अंतः क्रिया ५. कर्म के प्रकार ६०९ ६. कर्म का उपचय स्वाभाविक या प्रायोगिक? ६०९ ७. कर्मों की प्रकृतियां और उनके दृष्टांत ६१० ८. कर्मों के फल विपाक की प्रकिया ९.कर्म की अवस्थाएं १०. एवंभूत वेदना-अनेवंभूत वेदना ११. वेदना और निर्जरा १२. दुःख का वेदन-अवेदन १३. जीव की स्वतंत्रता और परतंत्रता १४. मृगापुत्र १५. मृगापुत्र का पूर्वभव १६. एक्काई राठौड १७. जीव का भारीपन और हल्कापन १८. लेश्या और उसके परिणाम ६१९ ६१० ६१२ ૬૨૨ ६२३ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद विभक्तिभाव की कारण मीमांसा १. कम्मओ णं भंते! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ? २. कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ? हंता गोयमा ! कम्मओ णं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ । कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणम | जीवाणं भंते! किं चेयकडा कम्मा कज्जंति ? अधेयकडा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जंति, नो अधेयकडा कम्मा कज्जति । कर्म : चैतन्यकृत या अचैतन्यकृत ? सेकेणट्ठेण भंते! एवं बुच्चइ - जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला तहा ताणं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! भंते! जीव का विभक्तिभाव-विभाजन कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता। क्या यह सही है ? ट्ठाणेसु, दुसेज्जासु, दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोम्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! भंते! जगत का विभक्तिभाव-विभाजन कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता। क्या यह सही है ? हां गौतम ! जीव का विभक्तिभाव कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता। जगत का विभक्तिभाव कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता । भंते! जीवों में कर्म चेतस (चैतन्य) कृत होते हैं। अथवा अचेतस (अचैतन्य) कृत होते हैं ? गौतम! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते ? गौतम! जैसे जीव आहार, शरीर और कलेवर प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करते हैं। वे पुद्गल आहार, शरीर और कलेवर के रूप में परिणत होते हैं। वैसे ही जीव कर्म प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करते हैं और वे कर्मरूप में परिणत होते हैं। अतः कर्म अचैतन्यकृत नहीं होते, आयुष्मन् श्रमण ! जैसे जीव अशुद्ध वातावरण वाले स्थान, बस्ती और निषद्या में अशुद्ध पुद्गलों का ग्रहण करते हैं और वे पुद्गल अशुद्ध रूप में परिणत होते हैं, वैसे ही जीव कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करते हैं और वे कर्म रूप में परिणत हेते हैं। अतः कर्म अचैतन्यकृत नहीं होते, आयुष्मन् श्रमण ! Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६०८ खण्ड-४ ५. आयके से वहाए होति, संकप्पे से वहाए होति, जैसे जीव आतंक, संकल्प और मरण के पुद्गलों को मरणंते से वहाए होति तहा-तहा णं ते पोग्गला ग्रहण करते हैं और वे पुद्गल आतंक, संकल्प और मरण परिणमंति नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो। के रूप में परिणत होते हैं, वैसे ही जीव कर्म प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करते हैं और वे कर्म रूप में परिणत होते हैं, अतः यह पक्ष सही है कि कर्म अचैतन्यकृत नहीं होते हैं, आयुष्मन् श्रमण।। ६. से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवाणं चेयकडा गौतम! इसलिए यह कहा जा रहा है कि जीवों के कर्म कम्मा कज्जंति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जंति। चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते। पाप का पौद्गलिकत्व ७. अह भंते! पाणाइवाए, मुसावाए, अदिण्णादाणे, भंते! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और मेहुणे, परिग्गहे-एस णं कतिवण्णे, कतिगंधे, परिग्रह में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं ?. . कतिरसे, कतिफासे पण्णत्ते? गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे गौतम! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श पण्णत्ते। होते हैं। भंते! क्रोध में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते ८. अह भंते! कोहे.......एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते? गोयमा! पचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते? गौतम! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श होते हैं। भंते! मान में कितने वर्ण, गंध. रस और स्पर्श होते हैं? ९. अह भंते! माणे....एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते? गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते। गौतम! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श होते हैं। ____भंते! माया में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते १०.अह भंते! माया........एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते? गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते। गौतम! पांच वर्ण, दो गंध. पांच रस और चार स्पर्श होते हैं। भंते! लोभ में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते ११.अह भंते! लोभे........एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते? गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते। गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श होते हैं। १२.अह भंते! पेज्जे, दोसे, कलहे, अभक्खाणे, भंते! प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ अ. १३ : कर्मवाद प्रायोगिक दर्शन पेसुन्ने, . परपरिवाए, अरतिरती, मायामोसे, मिच्छादसणसल्ले-एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते? गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते। परपरिवाद, अरति-रति, मायामृषा और मिथ्यादर्शन-शल्य में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं? गौतम! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श होते हैं। जीव और कर्म की अंतःक्रिया १३.जं जं समयं जीवो आविसइ जेण जेण भावेण। सो तंमि तंमि समए सुहासुहं बंधए कम्म॥ जिस-जिस समय में जीव जिस-जिस भाव में आविष्ट होता है, वह उस-उस समय में शुभ अथवा अशुभ कर्म का बंध करता है। १४.जम्हा कम्मस्स फलं विसयं ____ फासेहिं भुञ्जदे णियदं। जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि॥ कर्म के फलभूत विषय इन्द्रियों के द्वारा भोगे जाते हैं, यह निश्चित है। सुख-दुःख का संवेदन भी इन्द्रियों द्वारा होता है। इन्द्रियां मूर्त हैं। इसलिए कर्म भी मूर्त हैं। १५.मुत्तो फासदि मुर्त मुत्तो.मुत्तेण बंधमणुहवदि। जीवो मुत्तिविरहिदो : गाहदि ते तेहिं उग्गहदि॥ मूर्त ही मूर्त का स्पर्श करता है और मूर्त ही मूर्त के द्वारा बंध का अनुभव करता है। जीव अमूर्त है फिर भी उसे मूर्त बनाने वाले राग आदि परिणामों के द्वारा वह मर्त कर्मों का अवगाहन करता है और वह उन कर्म पुद्गलों के द्वारा अवगाहित-बद्ध होता है। १६. कम्मगसरीरे चउफासे। कार्मणशरीर चतुःस्पर्शी-स्निग्ध-रूक्ष, शीत-उष्णस्पर्शवाला है। कर्म के प्रकार १७.चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा कर्म के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. पगडीकम्मे १. प्रकृति कर्म-कर्म पुद्गलों का स्वभाव। २. ठितीकम्मे २. स्थिति कर्म-कर्म पुद्गलों की काल मर्यादा। ३. अणुभावकम्मे ३. अनुभाव कर्म-कर्म पुद्गलों के फल देने का सामर्थ्य। ४. पदेसकम्मे ४. प्रदेश कर्म-कर्म पुद्गल की द्रव्यराशि। कर्म का उपचय स्वाभाविक या प्रायोगिक? १८.वत्थस्स णं भते! पोग्गलोवचए किं पयोगसा? भंते! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग से होता है वीससा? अथवा स्वभाव से? गोयमा! पयोगसा वि, वीससा वि। गौतम! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६१० खण्ड-8 १९.जहा णं भंते! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा भंते! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग से भी वि, वीससा वि, तहा णं जीवाणं कम्मोवचए किं होता है. स्वभाव से भी होता है, वैसे ही जीवों के कर्मों का पयोगसा? वीससा? उपचय प्रयोग से होता है अथवा स्वभाव से? गोयमा! पयोगसा, नो वीससा। गौतम ! जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं। से केणठेणं? भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गोयमा! जीवाणं तिविहे पयोगे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग प्रज्ञप्त हैं मणप्पयोगे, वइप्पयोगे, कायप्पयोगे। इच्चेएणं जैसे-मन का प्रयोग, वचन का प्रयोग और शरीर का तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो प्रयोग। इस त्रिविध प्रयोग से जीवों के कर्म का उपचय वीससा। प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवाणं गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है कि जीवों के कर्म कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा। का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। कर्मों की प्रकृतियां और उनके दृष्टांत २०.नाणस्सावरणिज्जं दंसणावरणं तहा। कर्म की मूल प्रकृतियां आठ हैंवेयणिज्ज तहा मोहं आउकम्मं तहेव य॥ १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय : ३. वेदनीय ४. मोहनीय २१.नामकम्मं च गोयं च अंतरायं तहेव य। ५. आयुष्य ६. नाम एवमेयाइ कम्माई अठेव उ समासओ॥ ७. गोत्र . ८. अंतराय २२.पड परिहारसिमज्जा ज्ञानावरणीय कर्म पट्ट के समान, दर्शनावरणीय कर्म हडि चित्त कुलाल भंडयारीणं। प्रतिहार के समान, वेदनीय कर्म मधुलिप्स तलवार के समान, जह ऐदसिं भावा मोहनीय कर्म मद्यपान के समान, आयुष्य कर्म खोड़े के तह वि य कम्मा मुणेयव्वा॥ समान, नामकर्म चित्रकार के सम्रान, गोत्रकर्म कुंभकार के समान और अंतराय कर्म कोषाध्यक्ष के समान है। कर्मों के फल विपाक की प्रक्रिया २३.तए णं से कालोदाई अणगारे अण्णया कयाइ एक दिन कालोदायी अनगार श्रमण भगवान महावीर के जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, पास आया। वंदन-नमस्कार किया और बोला-भंते! जीवों उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ-नमंसइ, के पापकर्म क्या पापफलविपाक देते हैं? १. आठ कर्मों को आठ दृष्टांतों द्वारा समझाया गया है। पर्दा जाती है। जैसे खोडे में डाला हुआ व्यक्ति बंधा हुआ जैसे देखने से रुकावट डालता है, वैसे ही ज्ञानावरणीय रहता है, वैसे ही जीवन आयुष्य कर्म से बंधा रहता है। कर्म ज्ञान का आवरण है। द्वारपाल जैसे बाहर से आने चित्रकार जैसे चित्रों का निर्माण करता है, वैसे ही वाले को रोक देता है, वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म दर्शन- नामकर्म से शरीर, शरीर के अवयव आदि का निर्माण समान्य अवबोध को रोकता है। जैसे कोई मधुलिप्त होता है। कुंभकार जैसे छोटे-बडे घडों का निर्माण करता तलवार को चाटता है। मधु मीठा लगता है उसके समान है, वैसे ही गोत्रकर्म से व्यक्ति छोटा बडा बनता है। जैसे सातवेदनीय और जीभ कट जाती है, उसके समान कोषाध्यक्ष के दिए बिना वस्तु नहीं मिलती, वैसे ही असातवेदनीय है। मद्यपान से जैसे व्यक्ति मूर्छा में चला अंतराय कर्म दूर हुए बिना प्राणी को वीर्य शक्ति प्राप्त जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म से चेतना विकृत बन नहीं होती। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६१९ वंदित्ता -नमंसित्ता एवं वयासी-अत्थि णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ? हंता अत्थि । २४. कहण्णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए भद्दए भवइ । तओ पच्छा परिणममाणे- परिणममाणे दुरूवत्ताए दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ताए जाव दुक्खत्ताएनो सुहत्ताए भुज्ज़ो - भुज्जो परिणमति । एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा विपरिणममाणे विपरिणममाणे दुरूवत्ताए दुवण्णत्ताए दुगंधत्ताए - जाव दुक्खत्ताएनो सुहत्ताए भुज्जो - भुज्जो परिणमति । एवं खलु 'कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागजुत्ताकति । २५. अत्थि णं भंते! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाण- फलविवागसंजुत्ता कज्जंति ? हंता अत्थि । २६. कहणं भंते! जीवाणं कल्लाणं कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जति ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं ओसहमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा । तस्स णं भोयणस्स आवाए नो भe भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे- परिणममाणे सुरुवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ता-नो दुक्खत्ता भुज्जो भुज्जो परिणमति । एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, तस्स णं आवाए नो भइए भवइ, तओ हां, देते हैं। अ. १३ : कर्मवाद भंते! जीवों के पापकर्म पाप का फलविपाक कैसे देते हैं ? कालोदायी! जैसे पुरुष मिट्टी की हांडी में पकाया हुआ मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है। वह भोजन आपातभद्र-प्रारम्भ में अच्छा होता है। उसके पश्चात् जब वह अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होता है, तब उसके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं और वह दुःखद होता है, सुख देनेवाला नहीं होता । कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पाप आपातभद्रप्रवृत्तिकाल में अच्छे लगते हैं। पर जब वे अपने अन्तर्निहित नियम से विपरिणत होते हैं, तब उनके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं। वह दुःखद होता है, सुख देनेवाला नहीं । कालोदायी! इस प्रकार जीवों के पापकर्म पाप फलविपाक देते हैं। भंते! जीवों के कल्याण कर्म कल्याण फलविपाक देते हैं ? हां, देते हैं। भंते! जीवों के कल्याण कर्म कल्याण फलविपाक कैसे देते हैं ? कालोदायी! जैसे कोई पुरुष मिट्टी की हांडी में पकाया हुआ मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त, औषध (सूंठ, लवंग आदि) मिश्रित भोजन करता है, वह भोजन प्रारम्भ में अच्छा नहीं होता है। उसके पश्चात् जब वह अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होता है, तब उसके रूप, वर्ण आदि अविकृत होते हैं। वह सुखद होता है। दुःख देनेवाला नहीं होता। कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह विरमण, क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक अपने प्रवृत्तिकाल में अच्छे नहीं लगते हैं। पर जब वे Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६१२ खण्ड-४ पच्छा परिणममाणे-परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्ण- अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होते हैं, तब उनके रूप, ताए जाव सुहत्ताए-नो दुक्खत्ताए भुज्जो-भुज्जो वर्ण आदि अविकृत होते हैं। वह सुखद होता है, दुःख परिणमइ। एवं खलु कालोदाई! जीवाणं कल्लाणा देनेवाला नहीं होता। कालोदायी! इसी प्रकार जीवों के कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जति। कल्याण कर्म कल्याण फलविपाक देते हैं। कर्म की अवस्थाएं २७.बंधणसंकमणुव्वट्टणा य जीव के परिणाम से कर्मस्कंधों में विशेष प्रकार की अववट्टणा उदीरणया। व्यवस्था होती है, उसका नाम है करण। वे आठ हैं:-१. उवसामणा निहत्ती बन्धन, २. संक्रमण, ३. उद्वर्तना, ४. अपवर्तना, ५. निकायणा च त्ति करणाइं॥ उदीरणा, ६. उपशामना, ७. निधत्ति, ८. निकाचना। २८.चउब्विहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा १. पगति बंधे २. ठितिबंधे ३. अणुभावबंधे ४.पदेसबंधे। बन्ध के चार प्रकार प्रज्ञाप्त हैं१. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बन्ध ३. अनुभाव बन्ध ४. प्रदेश बन्ध। .. २९.चउविहे उवक्कमे पण्णत्ते, तं जहा १. बंधणोवक्कमे २. उदीरणोवक्कम ३. उवसमणोवक्कमे ४. विप्परिणामणोवक्कमे। उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं- १.बन्धन उपक्रम २. उदीरणा उपक्रम ३. उपशमन उपक्रम ४. विपरिणामन उपक्रम। . ३०.बंधणोवक्कमे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा १. पगतिबंधणोवक्कमे २. ठितिबंधणोवक्कमे ३. अणुभावबंधणोवक्कमे ४. पदेसबंधणोवक्कमे। बंधन उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञाप्त है१. प्रकृति बन्धन उपक्रम २. स्थिति बन्धन उपक्रम ३. अनुभाव बन्धन उपक्रम ४. प्रदेश बन्धन उपक्रम। ३१.उदीरणोवक्कमे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा १. पगतिउदीरणोवक्कमे २. ठितिउदीरणोवक्कमे ३. अणुभावउदीरणोवक्कमे १.१. बन्धन-आत्म प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का संबंध। २. संक्रमण-कर्म की एक सजातीय प्रकृति का दूसरी सजातीय प्रकृति में बदल जाना। ३. उद्वर्तना-कर्म की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होना। ४. अपवर्तना-कर्म की स्थिति और अनुभाग में हास होना। ५. उदीरणा-जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट नहीं हैं, उन्हें प्रयत्न द्वारा उदयावलिका में लाना। ६.उपशामना-स अवस्था में उदीरणा उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञप्त है१. प्रकृति उदीरणा उपक्रम २. स्थिति उदीरणा उपक्रम ३. अनुभाव उदीरणा उपक्रम उदय, उदीरणा, निपत्ति और निकाचना नहीं होते। .. निपत्ति-कर्म का निवेचन। इस अवस्था में उद्वर्तना, अपवर्तना के अतिरिक्त शेष करण नहीं होते। ८. निकाचना-यह कर्मबन्धन की गाड़तम अवस्था है। इस अवस्था में कोई करण नहीं होता। . २. कर्म बंधन आदि का हेतुभूत वीर्य उपक्रम कहलाता है। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन अ. १३ : कर्मवाद ४. पदेसउदीरणोवक्कमे। ४. प्रदेश उदीरणा उपक्रम। ३२.उवसामणोवक्कमे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा १. पगतिउवसामणोवक्कम २. ठितिउवसामणोवक्कमे ३. अणुभावउवसामणोवक्कम ४. पदेसउवसामणोवक्कमे उपशमन उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. प्रकृति उपशमन उपक्रम २. स्थिति उपशमन उपक्रम ३. अनुभाव उपशमन उपक्रम ४. प्रदेश उपशमन उपक्रम ३३.विप्परिणामणोवक्कमे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा १. पगतिविप्परिणामणोवक्कमे २. ठितिविप्परिणामणोवक्कमे ३. अणुभावविप्परिणामणोवक्कमे ४. पएसविप्परिणामणोवक्कमे। विपरिणामन उपक्रम के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. प्रकृति विपरिणामन उपक्रम २. स्थिति विपरिणामन उपक्रम ३. अनुभाव विपरिणामन उपक्रम ४. प्रदेश विपरिणामन उपक्रम ३४.चउब्विहे अप्पाबहुए पण्णत्ते, तं जहा १. पगतिअप्पाबहुए २. ठितिअप्पाबहुए ३. अणुभावअप्पाबहुए ४. पएसअप्पाबहुए। अल्पबहुत्व के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. प्रकृति अल्पबहुत्व २. स्थिति अल्पबहुत्व ३. अनुभाव अल्पबहुत्व ३. प्रदेश अल्पबहुत्व ३५.चउब्विहे संकमे पण्णत्ते, तं जहा १. पगतिसंकमे २. ठितिसंकमे ३. अणुभावसंकमे ४. पएससंकमे। संक्रम के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. प्रकृति संक्रम २. स्थिति संक्रम ३. अनुभाव संक्रम ४. प्रदेश संक्रम ३६. चउब्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा• : १. सुभे णाममेगे सुभे २. सुभे णाममेगे असुभे कर्म के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१.कुछ कर्म शुभ-पुण्य प्रकृति वाले होते हैं और उनका - अनुबंध भी शुभ होता है। २. कुछ कर्म शुभ होते हैं, पर उनका अनुबंध अशुभ होता है। ३. कुछ कर्म अशुभ होते हैं, पर उनका अनुबन्ध शुभ होता है। ४. कुछ कर्म अशुभ होते हैं और उनका अनुबन्ध भी अशुभ होता है। ३. असुभे णाममेगे सुभे ४. असुभे णाममेगे असुभे। ३७.चव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा १. सुभे णाममेगे सुभविवागे कर्म के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. कुछ कर्म शुभ होते हैं और उनका विपाक भी शुभ होता है। २. कुछ कर्म शुभ होते हैं, पर उनका विपाक अशुभ होता है। २. सुभे णाममेगे असुभविवागे Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६१४ खण्ड-४ ३. असुभे णाममेगे सुभविवागे ३. कुछ कर्म अशुभ होते हैं, पर उनका विपाक शुभ ___होता है। ४. कुछ कर्म अशुभ होते हैं और उनका विपाक भी अशुभ होता है। ४. असुभे णाममेगे असुभविवागे। ३८.चउविहे णिधत्ते पण्णत्ते, तं जहा- . १. पगतिणिधत्ते २. ठितिणिधत्ते ३. अणुभावणिधत्ते ४. पएसणिधत्ते। निधत्त के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. प्रकृति निधत्त २. स्थिति निधत्त ३. अनुभाव निधत्त ४. प्रदेश निधत्त। ३९.चउविहे णिगायिते पण्णत्ते, तं जहा १. पगतिणिगायिते २. ठितिणिगायिते ३. अणुभावणिगायिते ४. पएसणिगायिते। निकाचित के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. प्रकति निकाचित २. स्थिति निकाचित ३. अनुभाव निकाचित ४. प्रदेश निकाचित .. एवंभूत वेदना-अनेवंभूत वेदना ४०.अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति जाव भंते! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् परूवेंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे प्ररूपणा करते हैं सब प्राण, सब भूत, सब जीव और सब सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति। सत्त्व एवंभूत (जिस प्रकार कर्मों का बन्धन होता है उसी प्रकार कर्मों का वेदन करना) वेदना का अनुभव करते हैं। से कहमेयं भंते! एवं? भंते! यह वक्तव्य कैसा है? गोयमा! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति गौतम! वे अन्यूयथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं जाव सव्वे सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति। जे ते यावत् सब सत्त्व एवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं, जो वे एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा! ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-अत्थेगइया पाणा आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं-कुछ प्राण, भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति, अत्थेगइया भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत वेदना, का अनुभव करते हैं, पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेदणं वेदेति। कुछ प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत (कर्मों के बन्धन में परिवर्तन लाकर) वेदना का अनुभव करते हैं। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया पाणा भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कुछ प्राण, भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति, अत्थेगइया भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं, पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेदणं वेदेति? कुछ प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं? गोयमा! जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा गौतम! जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व जैसे कर्म किए कम्मा तहा वेदणं वेदेति, ते णं पाणा भूया जीवा वैसे ही वेदना का अनुभव करते हैं, वे प्राण, भूत, जीव और सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति।। सत्त्व एवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं। जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो ___जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व जैसे कर्म किए वैसे तहा वेदणं वेदेति, ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता वेदना का अनुभव नहीं करते हैं, वे प्राण, भूत जीव और अणेवंभूयं वेदणं वेदेति। सत्त्व अनेवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं। से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया पाणा गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कुंछ प्राण, Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेंति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेदणं वेदेति । ६१५ वेदना और निर्जरा ४१. से नूणं भंते! जा वेदणा सा निज्जरा ? जा निज्जरा सा वेदणा ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । से तेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ-जा वेदणा न सा निज्जरा ? जा निज्जरा न सा वेदणा ? गोयमा! कम्मं वेदणा, नोकम्मं निज्जरा । भंते! क्या जो वेदना है, वह निर्जरा है और जो निर्जरा है, वह वेदना है? गौतम! ऐसा नहीं है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं है और जो निर्जरा है, वह वेदना नहीं है ? गौतम! वेदना कर्म की होती है। निर्जरा नोकर्म (अकर्म) की होती है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं है। जो निर्जरा है वह वेदना नहीं है । दुःख का वेदन - अवेदन से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जा वेदणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेदणा । ४२.जीवे णं भंते! सयंकडं दुक्खं वेदेइ ? गोमा ! अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ । से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ - अत्थेगइयं वेदेइ ? अत्थेगइयं नो वेदेइ ? गोमा ! उदिण्णं वेदेइ, नो अणुदिण्णं वेदे । से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ - अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदे । अ. १३ : कर्मवाद भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं। कुछ प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं। ४३. कम्मं चिणंति सवसा तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होंति । रुक्खं दुरुह सवसो विगलइ स परव्वसो तत्तो ॥ ४४. कम्मवसा खलु जीवा जीववसाई कहिंचि कम्माई । कत्थइ धणिओ बलवं धारणिओ कत्थई बलवं ॥ भंते! क्या जीव स्वयंकृत दुःख का वेदन करता है ? गौतम ! किसी दुःख का वेदन करता है और किसी दुःख का वेदन नहीं करता | भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव किसी दुःख का वेदन करता है और किसी दुःख का वेदन नहीं करता ? जीव की स्वतंत्रता और परतंत्रता गौतम! वह उदीर्ण (उदय प्राप्त) दुःख का वेदन करता है और अनुदीर्ण (अनुदय प्राप्त) दुःख का वेदन नहीं करता । गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव किसी दुःख का वेदन करता है और किसी दुःख का वेदन नहीं करता। जीव कर्म करने के काल में स्वतंत्र है और उसके उदय काल में भोगने में परतंत्र है। जैसे कोई पुरुष वृक्ष पर चढ़ने में स्वतंत्र है, किन्तु प्रमाद-वश नीचे गिरते समय वह परतंत्र हो जाता है। कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। ऋण देने में ऋणदाता और ऋण लौटाने में ऋण लेने वाला बलवान होता है। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-४ ४५.न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं॥ ज्ञाति, मित्र, पुत्र और बांधव व्यक्ति का दुःख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है, क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। ४६. तेणे जहा संधिमुहे गहीए सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि॥ जैसे सेंध लगाते हुए पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्म से ही छेदा जाता है, उसी प्रकार इसलोक और परलोक में प्राणी अपने कृत कर्मों से ही छेदा जाता है। कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। ४७.संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्म। कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा बंधवयं उति॥ - संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो सामुदायिक कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी-ऐसा कर्म) करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते, उनका भाग नहीं बंटाते। मृगापुत्र ४८.तए णं से भगवं गोयमे.......जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं......वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता.... एवं वयासी-अत्थि णं भंते! केइ पुरिसे जाइअंधे जायअंधारूवे? हंता अत्थि। कह णं भंते! से पुरिसे जाइअंधे जायअंधारूवे? भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर के पास आए। वंदन-नमस्कार किया। अंजलि को सिर पर टिका कर बोले-भंते! क्या कोई पुरुष जन्म से अन्धा और अन्धरूप है? हां, है। भंते! वह जन्म से अन्धा और अन्धरूप पुरुष कैसा गौतम! इसी मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का बालक है। वह जन्म से अन्धा और अंधरूप है। उस बालक के हाथ, पांव, कान, आंख और नाक नहीं हैं। उसके अंगोपांगों की रचना आकति मात्र है। एवं खलु गोयमा! इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नाम दारए जाइअंधे जायअंधारूवे। नत्थि णं तस्स दार- गस्स हत्था वा पाया वा कण्णा वा अच्छी वा नासा वा। केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगिती आगितिमेत्ते। तए णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी-पडिजागरमाणी विहरइ।। तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मियापुत्तं दारगं पासित्तए। मृगादेवी उस मृगापुत्र बालक को प्रच्छन्न भूमिगृह में रखती है। प्रच्छन्न रूप से ही भोजन, पानी आदि के द्वारा उसका पोषण करती है। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया और बोले-भंते! आपकी अनुमति हो तो मैं बालक मृगापुत्र को देखना चाहता हूं। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६१७ अहासु देवाणुप्पिया! तणं से भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अम्भणुण्णा, समाणे हट्ठतुट्ठे..... अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे- सोहेमाणे जेणेव मियग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मियग्गामं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव मियादेवीए गिहे तेणेव उवागच्छइ । तए णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठ.......आसणाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठेत्ता सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदs नमसs, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीसंदिसंतु णं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पओयणं ? तए णं से भगवं गोयमे मियं देविं एवं वयासी- अहं णं देवाप्पिए! तव पुत्तं पासिउं हव्वमागए । तए णं सा मियादेवी मियापुंत्तस्स दारगस्स अणुमग्गजायए चत्तारि पुत्ते सव्वालंकारविभूसिए करेह, करेत्ता भगवओ गोयमस्स पाएस पाडेइ, पाडेत्ता एवं वयासी- एए णं भंते! मम पुत्ते पासह । तए णं से भगवं गोयमे मियं देविं एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिए! अहं एए तव पुत्ते पासिउं हव्वमागए। तत्थ णं जे से तव जेट्ठे पुत्ते मियापुत्ते दारए जाइअंधे जायअंधारूवे, जं णं तुमं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी- पडिजागरमाणी विहरसि, तं णं अहं पासिउं हव्वमागए । तणं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी-से के णं गोयमा ! से तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा, जेणं एसमट्ठे मम ताव रहस्सीकए तुब्भं हव्वमक्खाए, जओ णं तुब्भे जाणह ? तणं भगवं गोयमे मियं देविं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिए! मम धम्मायरिए समणे भगवं महाबीरे तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा, जेणं . एसमट्ठे तव ताव रहस्सीकए मम हव्वमक्खाते, जओ णं अहं जाणामि । जावं च णं मियादेवी भगवया गोयमेण सद्धिं अ. १३ : कर्मवाद देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो । भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर की अनुमति प्राप्त कर प्रसन्न और तुष्ट हुए। वे मंद, अचपल और अनुद्विग्न गति से युगमात्र ( शरीर प्रमाण) भूमि को देखते हुए, ईर्या का शोधन करते हुए मृगाग्राम नगर में आए। मृगाग्राम नगर के मध्य से होते हुए मृगादेवी के घर पहुंचे। मृगादेवी भगवान गौतम को आते देख प्रसन्न और तुष्ट हुई। आसन से उठी । सात-आठ कदम सामने गई। तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन - नमस्कार किया और बोली- देवानुप्रिय ! आपके आगमन का प्रयोजन क्या है, बतलाएं ? भगवान गौतम ने मृगादेवी से कहा- मैं तुम्हारे पुत्र को देखने आया हूं। मृगादेवी ने मृगापुत्र बालक के बाद में जनमे हुए चारों पुत्रों को सर्वालंकार से विभूषित किया। भगवान गौतम के चरणों में लाई और बोली- भंते! देखें, ये मेरे पुत्र हैं। भगवान गौतम ने मृगादेवी से कहा- देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने नहीं आया हूं। तुम्हारा ज्येष्ठपुत्र, बालक मृगापुत्र है, जो जन्म से अंधा और अंधरूप है और जिसका तुम प्रच्छन्न भूमिगृह में प्रच्छन्न रूप से भोजन, पानी आदि के द्वारा पोषण करती हो, मैं उसे देखने आया हूं। मृगादेवी ने भगवान गौतम से कहा- गौतम ! ऐसा कौन ज्ञानी और तपस्वी है, जिसने मेरे इस रहस्य को आपके सामने प्रकट किया है और जिससे आपने यह सब ज्ञात किया है ? भगवान गौतम ने मृगादेवी से कहा- देवानुप्रिये ! मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर ऐसे ज्ञानी और तपस्वी हैं, जिन्होंने तुम्हारा यह रहस्य बतलाया है। उसीसे मैंने यह जाना है। मृगादेवी भगवान गौतम के साथ इस विषय में बात Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६१८ खण्ड-४ एयमढं संलवइ, तावं च णं मियापुत्तस्स दारगस्स कर रही थी, तभी बालक मृगापुत्र के भोजन का समय हो भत्तवेला जाया यावि होत्था। गया। तए णं सा मियादेवी भगवं गोयम एवं वयासी- मृगादेवी ने भगवान गौतम से कहा-भंते! आप यहीं तुब्भे णं भंते! इहं चेव चिट्ठह जा णं अहं तुब्भं ठहरें। मैं आपको बालक मृगापुत्र दिखलाती हूं, ऐसा कह वह मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि त्ति कटु जेणेव भत्तघरए भोजनशाला में गई। वस्त्र परिवर्तित किए। काठ की गाड़ी. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, वत्थपरियट्टयं ली। उसमें विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भरा। काठ करेइ। कट्ठसगडियं गिण्हइ। विउलस्स असण- की गाड़ी को खींचती हुई भगवान गौतम के पास आई। पाण-खाइम साइमस्स भरेइ। तं कट्ठसगडियं अणुकड्ढमाणी-अणुकड्ढमाणी जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ। भगवं गोयम एवं वयासी-एह णं भंते! तुब्भे मए भगवान गौतम से बोली-भन्ते! आप मेरे पीछे-पीछे सद्धिं अणुगच्छह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारगं आएं। मैं आपको मृगापुत्र बालक दिखलाती हूं। ' उवदंसेमि। तए णं से भगवं गोयमे मियं देविं पिट्ठओ भगवान गौतम मृगादेवी के पीछे-पीछे चले। समणुगच्छइ। तए णं सा मियादेवी तं कट्ठसगडियं मृगादेवी उस काठ की गाड़ी को खींचती हुई भूमिगृह के अणुकड्ढमाणी-अणुकड्ढमाणी जेणेव भूमिघरए । पास आई। चार तहवाले वस्त्र से मुंह बांधती हुई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चउप्पुडेणं वत्थेणं बोली-भंते! आप भी मुखवस्त्रिका से मुख बांध लें। मुहं बंधमाणी भगवं गोयम एवं वयासी-तुब्भे विणं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंधह। तए णं से भगवं गोयमे मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे भगवान गौतम ने मृगादेवी के ऐसा कहने पर । मुहपोत्तियाए मुहं बंधे। मुखवस्त्रिका से मुख बांध लिया। तए णं सा मियादेवी परंमुही भूमिघरस्स दुवारं मृगादेवी ने मुंह फेर भूमिगृह का द्वार खोला। दुर्गंध आने विहाडेइ। तए णं गंधे निग्गच्छइ, से जहानामए- लगी जैसे कोई मृत कलेवर पड़ा हो। अहिमडे इ वा......। तए णं से मियापुत्ते दारए तस्स विउलस्स असण- मृगापुत्र बालक विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पाण-खाइम-साइमस्स गंधेणं अभिभूए समाणे की गंध से अभिभूत हो उस खाद्य सामग्री में मूर्छित हो मुंह तंसि विउलंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि में खाने लगा। खाया हुआ भोजन तत्काल विध्वस्त हो मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे तं विउलं गया। पीव ओर रुधिर रूप में परिणत हो गया। उस पीव व असण-पाण-खाइम-साइमं आसएणं आहारेइ, रुधिर को वह पुनः खाने लगा। आहारेत्ता खिप्पामेव विद्धंसेइ, विद्धंसेत्ता तओ पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए य पारिणामेइ, तं पि य णं पूयं च सोणियं च आहारेइ। तए णं भगवओ गोयमस्स तं मियापुत्तं दारगं बालक मृगापुत्र को देखकर भगवान गौतम के मन पासित्ता अयमेयारूवे.....संकप्पे समुप्पज्जित्था- में संकल्प उत्पन्न हुआ-अहो! यह बालक पूर्वकृत अहो णं इमे दारए पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं । दुश्चीर्ण, दृष्प्रतिक्रांत, अशुभ, पापकारी कर्मों का दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पापफल भोग रहा है। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६१९ अ. १३ : कर्मवाद पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ। न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा। पच्चक्खं खलु मैंने नरक और नारकीय जीवों को नहीं देखा है। पर यह अयं पुरिसे निरयपडिरूवियं वेयणं वेदिति त्ति पुरुष प्रत्यक्ष रूप से नरक सदृश वेदना भोग रहा है, ऐसा कटु मियं देविं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता मियाए दे- सोच मृगादेवी को पूछ वहां से चले। वीए गिहाओ पडिनिक्खमइ।..... जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, भगवान महावीर के पास आए। तीन बार प्रदक्षिणा की। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदन-नमस्कार किया और बोलेआयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीसे णं भंते! पुरिसे पुव्वभवे के आसि? किं नामए भंते! वह पुरुष पूर्व जन्म में कौन था? उसका नाम, वा किंगोत्ते वा? कयरंसि गामंसि वा नयरंसि वा? गोत्र क्या था? किस ग्राम, नगर का निवासी था? उसने किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता, क्या दिया, क्या भोगा और क्या आचरण किया ? वह किन केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं पूर्वकृत दुश्चीर्ण, दुष्प्रतिकांत, अशुभ, पापकारी कर्मों का असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्ति- पापफल भोग रहा है? विसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ? मृगापुत्र का पूर्वभव एक्काई राठौड़ ४९.गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित कर - वयासी-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं कहा-गौतम ! उस काल और उस समय में जंबूद्वीप द्वीप के समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे - भरतक्षेत्र में शतद्वार नाम का नगर था। नामं नयरे होत्था। तत्थ णं सयदुवारे नयरे धणवई नाम राया होत्था। शतद्वार नगर में धनपति नाम का राजा था। तस्स णं सयदुवारस्स नयरस्स अदूरसामंते शतद्वार नगर के परिपार्श्व में दक्षिण-पूर्व दिशा में दाहिण-पुरत्थिमे दिसीभाए विजयवद्धमाणे नामं विजयवर्धमान नाम का खेड़ा था। खेडे होत्था। तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच विजयवर्धमान खेड़ा के अधिकार में ५०० ग्राम थे। गामसयाई आभोए यावि होत्था। तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेडे एक्काई नाम विजयवर्धमान खेड़ा में एक्काई नाम का राठौड़ था। वह रट्ठकूडे होत्था-अहम्मिए.....दुस्सीले दुव्वए अधार्मिक, दःशील. दाव्रती और दुष्कत में आनन्द दुप्पडियाणंदे। मनानेवाला था। से णं एक्काई रट्ठकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स एक्काई राठौड़ विजयवर्धमान खेड़ा के ५०० ग्रामों का पंचण्हं गामसयाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं..... करेमाणे आधिपत्य कर रहा था। पालेमाणे विहरइ। तए णं से एक्काई रट्ठकूडे विजयवद्धमाणस्स एक्काई राठौड़ विजयवर्धमान खेड़ा के ५०० ग्रमों पर खेडस्स पंच गामसयाई बहूहिं करेहि य भरेहि य बहुत अधिक कर लगाता। दिया हुआ अन्न दुगुना वसूल विल्द्धीहि य उक्कोडाहि य पराभवेहि य देज्जेहि य करता। ब्याज कड़ा लेता। रिश्वत लेता। लोगों को Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६२० य पंथकोट्टेह विहम्मेमाणे- विहम्मेमाणे तालेमाणे तालेमाणे निद्धणे भेज्जेहि य कुंतेहि य लंछपोसेहि य आलीवणेहि य ओवीलेमाणे- ओवीलेमाणे तज्जेमाणे तज्जेमाणे करेमाणे - करेमाणे विहरs | · तणं से एक्काई रट्ठकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राईसर-तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय - इब्भ-सेट्ठि- सेणावइ- सत्थवाहाणं अण्णेसिं च बहूणं गामेल्लग - पुरिसाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य गुज्झएसु य निच्छएसु य ववहारेसु य सुणमाणे भणइ न सुणेमि, असुणमाणे भणइ सुणेमि । पस्समाणे भणइ न पासेमि, अपस्समाणे भणइ पासेमि । भासमाणे भणइ न भासेमि, अभासमाणे भणइ भासेमि । गिण्हमाणे भणइ न गिण्हेमि, अगिण्हमाणे भणइ गिण्हेमि । जाणमाणे भणइ न जाणेमि, अजाणमाणे भणइ जाणेमि । तए णं एक्काइ रट्ठकूडे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणमाणे विहरइ । तए णं तस्स एक्काइस्स रट्ठकूडस्स अण्णया काइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउब्भूया, तं जहा सासे कासे जरे दाहे, कुच्छिसूले भगंदले, अरिसा अजीरए दिट्ठी - मुद्रसूले अकारए । अच्छिवेयणा कण्णवेयणा कंडू उदरे कोढे ।। तणं से एक्काई रट्ठकूडे सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभू समाणे कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेडे सिंघाडग-तिग- चउक्क चच्चर चउम्मुह - महापहपहेसु महया - महया सद्देणं उग्घोसेमाणाउग्घोसेमाणा एवं वयह- इहं खलु देवाणुप्पिया ! एक्काइस्स रट्ठकूडस्स सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउब्भूया | खण्ड - ४ अपमानित करता। आरोप लगाकर दंडित करता। परिवारों में फूट डाल देता । अत्यधिक जुर्माना लगाकर गांवों को हड़पता। चोरों का पोषण करता। लोगों को उत्पीड़ित करने के लिए गांवों में आग लगा देता, राहगिरों को मारपीट कर लूट लेता। ऐसे आचरणों से गांवों को पीडित करता, हत-प्रहत करता, तर्जना देता, ताड़ना देता और उन्हें निर्धन बना देता । एक्काई राठौड़ विजयवर्धमान खेड़ा के राजा, ईश्वर (सामंत) आदि के कार्यों में, कारणों में, गुप्त-मंत्रणाओं में, नैश्चयिक और व्यावहारिक प्रसंगों में सुनता हुआ कहता, मैं नहीं सुन रहा हूं। नहीं सुनता हुआ कहता, मैं सुन रहा हूं। देखता हुआ कहता, मैं नहीं देख रहा हूं। नहीं देखता हुआ कहता, मैं देख रहा हूं। बात कहता हुआ कहता, मैं नहीं कह रहा हूं। बात नहीं कहता हुआ कहता, मैं कह रहा हूं। लेता हुआ कहता, मैं नहीं ले रहा हूं। नहीं लेता हुआ कहता मैं ले रहा हूं। जानता हुआ कहता, मैं नहीं जान रहा हूं। नहीं जाता हुआ कहता, मैं जान रहा हूं। एक्काई राठौड़ ने ऐसा कर्म और आचरण कर बहुत से पापकर्मों से अपने आपको मलिन बना लिया। किसी समय एक्काई राठौड़ के शरीर में एक साथ सोलह रोग और आतंक पैदा हो गए। जैसे श्वास, खांसी, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगंदर, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तकशूल, भोजन के प्रति अरुचि, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, खुजली, जलोदर और कुष्ठ । एक्काई राठौड़ ने इन सोलह रोगों व आतंक से अभिभूत हो कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा देवानुप्रियो ! तुम विजयवर्धमान खेड़ा में जाओ। उसके दुराहों, तिराहों और चौराहों पर जाकर उच्च स्वर से उद्घोषणा करो - देवानुप्रियो ! एक्काई राठोड़ के शरीर में सोलह रोग और आतंक उत्पन्न हुए हैं। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६२१ अ. १३ : कर्मवाद तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया! वेज्जो वा वेज्जपुत्तो देवानुप्रियो! जो कोई वैद्य, वैद्यपुत्र (शिष्य), वैद्य शास्त्र वा जाणुओ वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छिओ वा का ज्ञाता, वैद्यशास्त्र के ज्ञाता का पुत्र, चिकित्सक, तेगिच्छियपुत्तो वा एक्काइस्स रट्ठकूडस्स तेसिं चिकित्सक पुत्र एक्काई राठौड़ के सोलह रोग और आतंक सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायकं में एक भी रोग और आतंक को उपशांत करने की इच्छा उवसामित्तए तस्स णं एक्काई रट्ठकूडे विउलं रखता है, उसको एक्काई राठौड़ विपुल अर्थसम्पदा देगा। अत्थसंपयाणं दलयइ। दोच्चं पि तच्चं पि यह उद्घोषणा दो-तीन बार करो। उद्घोषणा करके इस उग्धोसेह, उग्घोसेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। आज्ञा को मुझे पुनः समर्पित करो। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव तमाणत्तियं कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा को पुनः समर्पित किया। पच्चप्पिणंति। तए णं विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं विजयवर्धमान खेड़ा में इस प्रकार की उद्घोषणा सुनसोच्चा निसम्म बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य समझ बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र, वैद्यशास्त्र के ज्ञाता, वैद्यशास्त्र जाणुया य जाणुयपुत्ता य तेगिच्छिया य के ज्ञाता के पुत्र, चिकित्सक, चिकित्सक पुत्र औषधि और तेगिच्छियपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया सएहि-सएहिं शल्य चिकित्सक के उपकरणों की पेटी साथ ले अपनेगिहेहितो पडिनिक्खमंति। अपने घर से निकले। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मज्झं मझेणं जेणेव विजयवर्धमान खेड़ा के मध्य से होते हुए एक्काई राठौड़ एक्काई-रट्ठकूडस्त्र गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवाग- के घर आए। उसके शरीर का स्पर्श किया। रोग और च्छित्ता एक्काई-रट्ठकूडस्स सरीरगं परामुसंति, आतंक का कारण पूछा। परामुसित्ता तेसिं रोगायंकाणं निंदाणं पुच्छंति। एक्काई-रट्ठकूडस्स बहूहिं अब्भंगेहि य कारण जानकर अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नेहन, वमन, उबट्टणाहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेचन और स्वेदन-पंचकर्म की चिकित्सा की। लोहे की विरेयणेहि य सेयणेहि य अवद्दहणाहि य कुश आदि से चमड़ी को दागा। औषध मिश्रित जल से अवण्हाणेहि य अणुवासणाहि य वत्थिकम्मेहि य स्नान करवाया। अनुवासन, वसति और निरूह का प्रयोग निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य किया। शिरावेध, शस्त्र से चमड़ी काटना, सूक्ष्म औजारों से सिरवत्थीहि य तप्पणाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि चमड़ी की परतों को उतारना, शिरोवसति का प्रयोग, तर्पण, य बल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि (शरीर को पुष्ट करनेवाले स्निग्ध द्रव्य) पुटपाक, (विविध य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य औषधियों से भावित द्रव्य) छाल, बल्ली, मूल, कंद, पत्र, ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसिं सोलसण्हं पुष्प, फल, बीज, चिरायता, गुटिका, औषध एवं भैषज्य रोगायंकाणं एगमवि रोगायकं उवसामित्तए, नो चेव आदि के द्वारा रोग और आतंक उपशांत करना चाहा। पर वे णं संचाएंति उवसामित्तए। सोलह रोग और आंतक में से एक भी रोग और आतंक को उपशांत करने में सफल नहीं हुए। तए णं से बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य वे चिकित्सक सोलह रोग और आतंक में से एक भी जाणुयपुत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपुत्ता य जाहे रोग और आतंक का उपशमन नहीं कर सके तो श्रांत, नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि क्लांत और निर्विण्ण हो जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा रोगायक उवसामित्ताए, ताहे संता तंता परितंता में चले गए। जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। तए णं एक्काई रट्ठकूडे वेज्ज-पडियाइक्खिए एक्काई राठौड़ वैद्यों के द्वारा उत्तर दे देने पर, परियारगपरिचत्ते निविण्णोसहभेसज्जे सोलस- परिचारकों द्वारा छोड़ दिए जाने पर औषध-भैषज्य के प्रति Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६२२ रोगा केहि अभिभूए समाणे रज्जे य रट्ठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे रज्जं च रट्ठं च कोसं च कोट्ठागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे अट्टदुहट्टवसट्टे अड्ढाइज्जाई वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमट्ठिइएस नेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णे । से णं तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववण्णे । ५०. तए णं से इंदभूई नामं अणगारे जायसड्ढे जाव एवं वयासी-कहण्णं भंते! जीवा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति ? खण्ड-४ उदासीन हो गया। वह राज्य आदि में और अधिक मूर्च्छित और आसक्त हो गया। आर्त्तध्यान का वशवर्ती हो २५० वर्ष की उत्कृष्ट आयु को पूर्णकर, मृत्यु को प्राप्त हो रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। उसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की थी। जीव का भारीपन और हल्कापन गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कतुंबं निच्छिदं निरुवहयं दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिंपित्ता उहे दलयs, दलयित्ता सुक्कं समाणं दोच्चंपि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिंपित्ता उन्हे दलयइ, दलयित्ता सुक्कं समाणं तच्वंपि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, मट्टियालेवेणं लिंपइ, उण्हे दलयइ, एवं खलु एएवाणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिंपमाणे अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अट्ठहिं मट्टियालेवेहिं लिंपइ । अत्थाहमतारम-पोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा से नूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवेणं गरुययाए भारिययाए गरुय - भारिययाए उप्पिं सलिलमइवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवइ । एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जिणित्ता तासिं गरुययाए भारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमईवइत्ता अहे वहां से आयु पूर्ण कर इस मृगाग्राम नगर के विजय क्षत्रिय की पत्नी मृगादेवी की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। इन्द्रभूति अनगार के मन में एक श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे भगवान महावीर के पास आए और बोले- भंते! जीव गुरुता और लघुता को कैसे प्राप्त होते हैं ? गौतम! जैसे कोई पुरुष एक बड़े निश्छिद्र, निरुपहत, सूखे तुम्बे को डाभ और कुश से वेष्टित करता है। उस पर मिट्टी का लेप करता है। उसे धूप में रखता है। जब वह सूख जाता है तो दूसरी बार भी डाभ और कुश से वेष्टितकरता है। उस पर मिट्टी का लेप करता है, उसे धूप में रखता है। जब वह सूख जाता है तो तीसरी बार भी उसे ST और कुश से वेष्टित करता है, उस पर मिट्टी का लेप करता है और धूप में रखता है। इस प्रकार आठ आवृत्तियां करता है। फिर उसे अथाह पानी में प्रक्षिप्त कर देता है। गौतम ! मिट्टी के लेप की उन आठ आवृत्तियों से वह तुम्बा गुरु और भारी बना सतह को छोड़कर नीचे धरती के तल में प्रतिष्ठित हो जाता है। गौतम ! इसी प्रकार जीव भी प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के कारण क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियों का अर्जन करते हैं। उससे प्राप्त गुरुता और भारीपन के कारण वे मरकर धरणीतल का अतिक्रमण कर नीचे नरकतल में प्रतिष्ठित Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६२३ अ. १३ : कर्मवाद नरगतल-पइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा! हो जाते हैं। गौतम! इस प्रकार जीव गुरुता को प्राप्त होते हैं। जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति। ५१.अह णं गोयमा! से तुंबे तंसि पढमिल्लुंगंसि मट्टियालेवंसि तित्तंसि कुहियंसि ईसिं धरणियलाओ उप्पतित्ता णं चिट्ठइ। तयाणंतरं दोच्चं पि मट्टियालेवे तित्ते कुहिए परिसडिए ईसिं धरणियलओ उप्पतित्ता णं चिट्ठइ। एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु तित्तेसु कुहिएसु परिसडिएसु से तुंबे विमुक्कबंधणे अहे धरणियलमइवइत्ता उप्पिं सलिलतलपइठाणे गौतम! उस प्रथम मिट्टी के लेप के आर्द्र, कुथित और परिशटित होने पर वह तुम्बा धरती के तल से कुछ ऊपर आ जाता है। तदनन्तर दूसरे मिट्टी के लेप के भी आर्द्र, कुथित और परिशटित होने पर वह धरती के तल से कुछ और ऊपर आ जाता है। इस प्रकार उन आठों ही लेपों के आर्द्र, कुथित और परिशटित होने पर वह बन्धन मुक्त होकर धरती के निम्न तल का अतिक्रमण कर, ऊपर जल पर प्रतिष्ठित हो जाता है। भवइ। एवामेव गोयमा! जीवा. पाणाइवायवेरमणेणं जाव गौतम! इसी प्रकार जीव प्राणातिपात विरमण यावत् मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्म- मिथ्यादर्शनशल्य विरमण की प्रक्रिया से क्रमशः आठ कर्म पगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं प्रकृतियों को क्षीण कर, गगनतल में उठकर ऊपर लोकाग्र लोयम्गपइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा! जीवा में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। गौतम! इस प्रकार जीव लघुता को लइयत्तं हव्वमागच्छंति। प्राप्त होते हैं। लेश्या और उसके परिणाम ५२.कति णं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ? भंते! कितनी लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा- गौतम ! छह लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा॥ ५३.पंचासवप्पवत्तो, तीहिं अगुत्तो छसु अविरओ य। तिव्वारंभपरिणओ, खुदो साहसिओ नरो॥ जो मनुष्य पांचों आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों से अगुप्त है, षट्काय में अविरत है, तीव्र आरंभ (सावद्यव्यापार) में संलग्न है, क्षुद्र है. बिना विचारे कार्य करने वाला है। ५४.निबंधसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदिओ। - एयजोगसमाउत्तो, किण्हलेसं तु परिणमे॥ लौकिक और पारलौकिक दोषों की शंका से रहित मन वाला है, नृशंस है, अजितेन्द्रिय है-जो इन सभी से युक्त है, वह कृष्ण लेश्या में परिणत होता है। ५.इस्साअमरिसअतवो अविज्जमाया अहीरिया य। गेली पओसे य सढे पमत्ते, रसलोलुए सायगवेसए य॥ जो मनुष्य ईर्ष्यालु है, कदाग्रही है, अतपस्वी है, अज्ञानी है, मायावी है, निर्लज्ज है, गृद्ध है, प्रद्वेष करने वाला है, शठ है, प्रमत्त है, रस-लोलुप है, सुख का गवेषक है। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६२४ खण्ड-४ ५६.आरंभाओ अविरओ, खुदो साहसिओ नरो। आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, बिना विचारे कार्य करने एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे॥ वाला है जो इन सभी से युक्त है, वह नील लेश्या में परिणत होता है। ५७.वंके वंकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए, मिच्छदिट्ठी अणारिए। जो मनुष्य वचन से वक्र है, जिसका आचरण वक्र है, माया करता है, सरलता से रहित है, अपने दोषों को छुपाता है, छद्म का आचरण करता है, मिथ्यादृष्टि है, अनार्य हैं। ५८. उप्फालगदुद्रुवाई य, तेणे यावि य मच्छरी। एयजोगसमाउत्तो, काउलेसं तु परिणम।। हंसोड़ है, दुष्ट वचन बोलनेवाला है, चोर है, मत्सरी है-जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह कापोत लेश्या में परिणत होता है। ५९.नीयावित्ती विणीयविणए अचवले, अमाई दंते, जोगवं अकुऊहले। उवहाणवं॥ जो मनुष्य नम्रता से बर्ताव करता है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहली है, विनय करने में निपुण है, दान्त है, समाधि युक्त है, उपधान-श्रुत अध्ययन करते समय तप करने वाला है। ६०.पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे॥ धर्म में प्रेम रखता है, धर्म में दृढ़ है, पापभीरु है, हित चाहनेवाला है जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। ६१.पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए। पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं॥ जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, समाधियुक्त है, उपधान करनेवाला है। ६२.तहा पयणुवाई य उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे॥ अत्यल्प भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। ६३.अट्टरुहाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिहिं॥ जो मनुष्य आर्त और रौद्र-इन दोनों ध्यानों को छोड़कर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में लीन रहता है, प्रशान्तचित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, समितियों से समित है, गुप्तियों से गुप्त है। ६४.सरागे वीयरागे वा उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे॥ उपशान्त है, जितेन्द्रिय है जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शक्ल लेश्या में परिणत होता है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-१४ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय पृ.सं. ६३० १. निश्चयनय और व्यवहारनय २. नय के प्रकार ३. द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय ४. जीव : शाश्वत-अशाश्वत ५. परमाणु : शाश्वत-अशाश्वत पृ.सं. ६२७ ६२८ ६२९ ६२९ ६२९ ६३० ६. नय के तीन दृष्टांत ७. प्रस्थक दृष्टांत ८. वसति दृष्टांत ९. प्रदेश दृष्टांत १०. निक्षेप की परिभाषा६३ ६३१ ६३२ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद १. तित्थयरवयणसंगह तीर्थंकर के वचन सामान्य-विशेषात्मक होते हैं। इसके विसेसपत्थारमूलवागरणी। प्रतिनिधि नय दो हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक दव्वढिओ य पज्जव नय का विषय है-सामान्य (अभेद) तथा पर्यायार्थिक नय णओ य सेसा वियप्पा सिं॥ का विषय है-विशेष (भेद)। द्रव्यार्थिक नय निश्चय नय है और पर्यायार्थिक नय व्यवहार नय है। शेष नय दो नयों के विकल्प हैं। निश्चयनय और व्यवहारनय २. फाणियगुले णं भंते! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते?, गोयमा! एत्थ णं दो नया भवंति, तं जहा- नेच्छइयनए य, वावहारियनए य वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले। नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पण्णत्ते। भंते! फाणित (राब) में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श कितने होते हैं? गौतम! इसकी वक्तव्यता दो नयों से होती है-१. नैश्चयिक नय २. व्यावहारिक नय। व्यावहारिक नय की अपेक्षा फाणित मधुर है। नैश्चयिक नय के अनुसार वह पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श वाला है। ३. भमरे णं भंते! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते? 'गोयमा! एत्य णं दो नया भवंति, तं जहानेच्छइयनए य वावहारियनए य। वावहारियनयस्स कालए भमरे। नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अठफासे पण्णत्ते। भंते! भ्रमर में वर्ण. गंध, रस और स्पर्श कितने होते हैं? गौतम! इसकी वक्तव्यता दो नयों से होती है-१. नैश्चयिक नय २. व्यावहारिक नय। व्यावहारिक नय की अपेक्षा भ्रमर काला है। नैश्चयिक नय की अपेक्षा वह पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्शवाला है। १. सयपिच्छे णं भंते! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते? भंते! तोते के पंख में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श कितने होते हैं? . ५. एवं चेव, नवरं वावहारियनयस्स नीलए सुयपिच्छे। नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पण्णत्ते। गौतम! इसकी वक्तव्यता दो नयों से होती है-१. नैश्चयिक नय २. व्यावहारिक नय। व्यावहारिक नय की अपेक्षा तोते का पंख नीला है। नैश्चयिक नय की अपेक्षा वह पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्शवाला है। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन एवं एएणं अभिलावेणं लोहिया मंजिट्ठिया, पीतिया हालिद्दा, सुक्किलए संखे, सुब्भिगंधे कोट्ठे, दुब्भिगंधे मयगसरीरे, तित्ते निंबे, कडुया सुंठी, कसाए कविट्ठे, अंबा अंबिलिया, महुरे खंडे, कक्खडे वइरे, मउए नवणीए, गरुए अए, लहुए उलुयपत्ते, सीए हिमे, उसिणे अगणिकाए, ि तेल्ले | ६. छारिया णं भंते! पुच्छा । गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति तं जहानेच्छयनए य वावहारियनए य । वावहारियनयस्स लुक्खा छारिया । नेच्छइयनयस्स पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता। ७. सत्त मूलणया पण्णत्ता, त जहा गमे, संग, ववहारे, उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे एवंभूते । ८. दव्वट्ठियनयपयडी पडिरूवे पुण वयणत्थ ९. मूलणिमेणं पज्जवतस्स उ साईआ १०. नेगेहिं माणेहिं सुद्धा संगहपरूवणाविसओ । ६२८ निच्छओ तस्स ववहारो ॥ गौतम ! इसकी वक्तव्यता दो नयों से होती है- १. नैश्चयिक नय २. व्यावहारिक नय । व्यावहारिक नय की अपेक्षा राख रूक्ष है। नैश्चयिकनय की अपेक्षा वह पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श वाली है। नय के प्रकार णयस्स उज्जुसुयवयणविच्छेदो । साहपसाहा सुहुमभेया ॥ खण्ड - ४ इसी प्रकार व्यावहारिक नय की अपेक्षा मजीठ लाल, हल्दी पीली, शंख सफेद, कोठा सुरभियुक्त, मृतक शरीर दुर्गन्धयुक्त, नीम तिक्त, सौंठ कटु, कैथ कसैला, इमली अम्ल, खांड मीठी, वज्र खुरदरा, नवनीत मृदु, लोह भारी, ऊलुकपत्र हल्का, हिम शीत, अग्नि उष्ण, तैल स्निग्ध है। मिrs त्ति नेगमस्स य निरुत्ती । ११. संगहिय - पिंडियत्थं संगहवयणं समासओ बेंति । वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सव्वदव्वेसु ॥ हैं ? भंते! राख में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श कितने होते मूल नय सात प्रज्ञप्त हैं। १. नैगम, २. संग्रह, ३. व्यवहार, ४. ऋजुसूत्र, ५. शब्द, ६. समभिरूद, ७. एवंभूत । द्रव्यार्थिक नय की प्रकृति शुद्ध है। उसका विषय है - संग्रह (अभेद) की प्ररूपणा करना । प्रत्येक वस्तु के विषय में होने वाले पदार्थ का निश्चय संग्रह का व्यवहार है। संग्रह नय अपरिमित अभेद का ग्रहण करता है। व्यवहार नय उसका एक परिमित खंड है। ऋजुसूत्र नय का वचन विभाग पर्यवनय का मूल आधार है। शब्द, समभिरूद और एवंभूत- ये तीन नय ऋजुसूत्र नय की ही उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदवाली शाखा - प्रशाखाएं हैं। से अनेक मानों - अभेद, भेद, संकल्प आदि दृष्टिकोणों वस्तु का मान अथवा ज्ञान करना, यह नैगम शब्द की निरुक्ति है। संग्रह नय का वचन संगृहीत और पिंडित अर्थ का प्रतिपादन करता है। व्यवहार नय सब द्रव्यों के विषय में विनिश्चित अर्थ का प्रतिपादन करता है। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६२९ अ.१४: नयवाद १२.पच्चुप्पण्णग्गाही उज्जुसुओ नयविही मुणेयव्वो। इच्छइ विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं नओ सहो॥ ऋजुसूत्र नय प्रत्युत्पन्न का ग्रहण करता है-कालकृत भेद के आधार पर वस्तु का विभाग करता है। शब्द नय काल, लिंग आदि के भेद से वर्तमान का भेद करता है। १३.वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थू नए समभिरूढे। वंजण-अत्थ-तदुभयं वस्तु का दूसरे अर्थ में संक्रमण होने पर वह अवस्तु बन जाती है, इसलिए समभिरूढ़ प्रतिपाद्य अर्थ के अनुरूप शब्द का ग्रहण करता है। एवंभत नय शब्द और अर्थ दोनों को विशेषित कर देता है। वह वर्तमान क्रिया में परिणत अर्थ को ही उसके वाचक शब्द का वाच्य मानता एवंभूओ विसेसेइ॥ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय १४.दव्वठियवत्तव्वं द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य पर्यायार्थिक की दृष्टि में . अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स। नियमतः अवस्तु है। इसी तरह पर्यायार्थिक का वक्तव्य तह पज्जववत्थु - द्रव्यार्थिक की दृष्टि में अवस्तु है। अवत्थुमेव दव्वट्ठियनयस्स॥ १५.दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि। उप्पाय-दिठइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं॥ द्रव्य उत्पाद और व्यय रूप पर्याय से रहित नहीं होता। इसी प्रकर पर्याय द्रव्य (ध्रुवांश) से रहित नहीं होता। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-तीनों मिलकर द्रव्य का लक्षण बनते हैं। जीव : शाश्वत-अशाश्वत १६.जीवाणं भंते! किं सासया? असासया? भंते! जीव शाश्वत हैं या आशाश्वत? ... गोयमा! जीवा सिय सासया, सिय असासया। गौतम! जीव कथंचित् शाश्वत हैं कथंचित् अशाश्वत हैं। ' से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ-जीवा सिय भंते! यह कथन किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव सासया? सिय असासया? कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं? गोयमा! दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए गौतम! द्रव्य की अपेक्षा जीव शाश्वत हैं और भाव असासया। से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवा (पर्याय) की अपेक्षा जीव अशाश्वत हैं। इस अपेक्षा से यह सिय सासया। सिय असासया। कहा जा रहा है-जीव कथंचित शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं। परमाणु : शाश्वत-अशाश्वत १७.परमाणुपोग्गले णं भंते! किं सासए? असासए? गोयमा! सिय सासए, सिय असासए। भंते! परमाणु पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? गौतम! कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६३० खण्ड-8 से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ-सिय सासए सिय असासए? गोयमा! दव्वट्ठयाए सासए। वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं . फासपज्जवेहिं असासए। से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-सिय सासए, सिय असासए। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है परमाणु पुद्गल कथंचित् शाश्वत है, कथंचित् अशाश्वत है? गौतम! द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है। वर्णपर्यव, गंधपर्यव, रसपर्यव और स्पर्शपर्यव की अपेक्षा अशाश्वत है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-परमाणु पुद्गल कथंचित् शाश्वत है, कथंचित् अशाश्वत है। नय के तीन दृष्टांत १८.से किं तं नयप्पमाणे? नयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-पत्थगदिढ़तेणं, वसहिदिढ़तेणं, पएसदिळेंतेणं। नय प्रमाण क्या है? नय प्रमाण के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, यथा-प्रस्थक दृष्टांत, वसति दृष्टांत, प्रदेश दृष्टांत। प्रस्थक दृष्टांत १९.से किं तं पत्थगदिट्टतेणं? पत्थगदिढ़तेणं से जहानामए केइ पुरिसे परसुं गहाय अडविहत्तो गच्छेज्जा। तं च केइ पासित्ता वएज्जा-कहिं भवं गच्छसि? अविसुद्धो नेगमो भणति-पत्थगस्स गच्छामि। प्रस्थक दृष्टांत क्या है? । प्रस्थक दृष्टांत-जैसे कोई पुरुष कुल्हाड़ा लेकर अटवी की ओर जाता है, उसे देखकर कोई कहता है-आप कहां जाते हैं? अविशुद्ध नैगम नय कहता है-प्रस्थक के लिए जाता तं च केइ छिंदमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं छिंदसि? विसुद्धो नेगमो भणति-पत्थगं छिंदामि। तं च केइ तच्छेमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं तच्छेसि? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पत्थगं तच्छेमि। तं च केइ लिहमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं उक्किरसि? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पत्थगं उक्किरामि। तं च केइ उक्किरमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं लिहसि? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पत्थगं लिहामि। उसे वृक्ष को काटते हुए देखकर कोई कहता है-आप क्या काटते हैं? विशुद्ध नैगम नय कहता है-प्रस्थक काटता हूं। उसे छीलते हुए देख कर कोई कहता है-आप क्या छीलते हैं? विशुद्धतर नैगम नय कहता है-प्रस्थक छीलता हूं। उसे उकेरते हुए देखकर कोई कहता है-आप क्या उकेरते हैं? विशुद्धतर नैगम नय कहता है-प्रस्थक उकेरता हूं। उसे लेखनी से अंकित करते हुए देखकर कोई कहता है-आप क्या अंकित कर रहे हैं? विशुद्धतर नैगम नय कहता है-प्रस्थक अंकित कर रहा हूं। इसी तरह विशुद्धतर नैगम नय नामांकित होने पर उसे प्रस्थक मानता है। इसी प्रकार व्यवहार नय भी पूर्वोक्त.सभी अवस्थाओं को प्रस्थक मानता है। एवं विसुद्धतरागस्स नेगमस्स नामाउडिओ पत्थओ। एवमेव ववहारस्स वि। १. धान्यमाप का पात्र, पायली। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन अ.१४ : नयवाद संगहस्स चिओ मिओ मेज्जसमारूढो पत्थओ। धान्य से व्याप्त और पूरित होने पर मेय समारूढ़ होता है, इसलिए संग्रह नय उसे प्रस्थक मानता है। उज्जुसुयस्स पत्थओ वि पत्थओ, मेज्जं पि ऋजुसूत्र नय प्रस्थक को भी प्रस्थक मानता है और पत्थओ। मेय को भी प्रस्थक मानता है। तिण्हं सहनयाणं पत्थगाहिगारजाणओ पत्थओ, तीन शब्द नय प्रस्थक के अर्थाधिकार को जानने वाले जस्स वा वसेणं पत्थओ निप्फज्जइ। व्यक्ति को प्रस्थक मानते हैं। अथवा जिसके बल (प्रस्थकाधिकार को जानने वाले के उपयोग-चैतन्य-व्यापार) से प्रस्थक निष्पन्न होता है, वह प्रस्थक कहलाता है। वसति दृष्टांत २०.से किं तं वसहिदिट्टतेणं? वसति दृष्टांत क्या है? वसहिदिट्टतेणं-से जहानामए केइ पुरिसे कंचि वसति दृष्टांत-जैसे कोई पुरुष किसी पुरुष से कहता पुरिसं वएज्जा-कहिं भवं वससि? है-आप कहां रहते हैं? अविसुद्धो नेगमो भणति-लोगे वसामि। अविशुद्ध नैगम नय कहता है-लोक में रहता हूं। लोगे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-उड्ढलोए अहेलोए लोक के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं-ऊर्ध्वलोक, अधोलोक तिरियलोए, तेसु सव्वेसु भवं वससि? और तिर्यक् लोक। क्या आप उन सबमें रहते हैं ? विसुद्धो नेगमो भणति-तिरियलोए वसामि। विशुद्ध नैगम नय कहता है-तिर्यक् लोक में रहता हूं। तिरियलोए जंबुद्दीवाइया सयंभूरमणपज्जवसाणा तिर्यक्लोक में जंबूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण तक असंखेज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता, तेसु सब्बेसु भवं असंख्य द्वीप-समुद्र हैं। क्या आप उन सबमें रहते हैं ? वससि? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-जंबुद्दीवे वसामि। विशुद्धतर नैगम नय कहता है-जम्बूद्वीप में रहता हूं। जंबुद्दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जहा-भरहे एरवए जंबूद्वीप में दस क्षेत्र प्रज्ञप्त हैं-भरत, ऐरवत, हैमवत, हेमवए हेरण्णवए हरिवस्से रम्मगवस्से देवकुरा । हेरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यक्वर्ष, देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्वविदेह उत्तरकुरा पुव्वविदेहे अवरविदेहे, तेसु सव्वेसु भवं और अपरविदेह। क्या आप उन सबमें रहते हैं? . वससि? . विसुद्धतराओ नेगमो भणति-भरहे वसामि। विशुद्धतर नैगम नय कहता है-भरत में रहता हूं। भरहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-दाहिणड्ढभरहे य भरत के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-दक्षिणार्ध भरत और उत्तरड्ढभरहे य, तेसु सव्वेसु भवं वससि? उत्तरार्ध भरत। क्या उन दोनों में रहते हैं ? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-दाहिणडढभरहे विशुद्धतर नैगम नय कहता है-दक्षिणार्ध भरत में वसामि। रहता हूं। दाहिणड्ढभरहे अणेगाई गामागर-नगर-खेड- दक्षिणार्ध भरत में अनेक ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-संबाह-सण्णि- कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संबाह और सन्निवेश वेसाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि? हैं। क्या आप उन सबमें रहते हैं? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-पाडलिपुत्ते वसामि। विशुद्धतर नैगम नय कहता है-पाटलिपुत्र में रहता हूं। पाडलिपुत्ते अणेगाइं गिहाई, तेसु सव्वेसु भवं पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, क्या आप उन सबमें वससि? रहते हैं? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-देवदत्तस्स घरे विशुद्धतर नैगम नय कहता है-देवदत्त के घर में वसामि। रहता हूं। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६३२ खण्ड-४ देवदत्तस्स घरे अणेगा कोट्ठगा, तेसु सव्वेसु भवं देवदत्त के घर में अनेक कोठे हैं, क्या आप उन सब वससि? में रहते हैं? विसुद्धतराओ नेगमो भणति-गब्भघरे वसामि। विशुद्धतर नैगम नय कहता है-गर्भगृह में रहता हूं। एवं विसुद्धतरागस्स नेगमस्स वसमाणो वसइ। इस प्रकार विशुद्धतर नैगम नय जो व्यक्ति, जहां जब निवास करता है, उसे उसमें रहने वाला मानता है। .. एवमेव ववहारस्स वि। व्यवहार नय की भी यही वक्तव्यता है। संगहस्स संथारसमारूढो वसइ। संग्रह नय बिछौने पर बैठे हुए व्यक्ति को ही वहां वास करने वाला मानता है। उज्जुसुयस्स जेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु ऋजुसूत्र नय व्यक्ति जितने आकाश प्रदेशों में वसइ। अवगाहन करता हुआ रहता है, केवल उसी वास को मानता है। तिण्हं सहनयाणं आयभावे वसइ। तीन शब्द नयों की दृष्टि से व्यक्ति आत्मभाव-आत्मस्वरूप में अवस्थित रहता है। प्रदेश दृष्टांत २१.से किं तं पएसदिळेंतेणं? पएसदिठंतेणं नेगमो भणति-छण्हं पएसो, तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो देसपएसो। एवं वयंतं नेगम संगहो भणति-जं भणसि छण्हं पएसो तं न भवइ। कम्हा? जम्हा जो देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्स। जहा को दिळंतो? दासेण मे खरो कीओ। दासा वि मे खरो वि मे। तं मा भणाहि-छहं पएसो। भणाहि पंचण्हं पएसो, तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो। प्रदेश दृष्टांत के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण क्या है? प्रदेश दृष्टांत-नैगम नय कहता है-छहों का प्रदेश, जैसे-धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश, स्कन्ध का प्रदेश और देश का प्रदेश। नैगम नय के ऐसा कहने पर संग्रह नय कहता है-तुम कहते हो छहों का प्रदेश-वह उचित नहीं है। किसलिए? इसलिए कि जो छटठा देश का प्रदेश है. वह उसी द्रव्य का है। जैसे यहां कोई दृष्टांत है? मेरे दास ने गधा खरीदा। दास भी मेरा है और गधा भी मेरा है। इसलिए यह मत कहो-छहों का प्रदेश। यह कहो-पांचों का प्रदेश। जैसे-धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश। संग्रह नय के ऐसा कहने पर व्यवहार नय कहता है-तुम जो पांचों का प्रदेश कहते हो, वह उचित नहीं है। किसलिए? यदि पांचों मित्रों का कोई सामान्य (एक) द्रव्य समूह है, जैसे-हिरण्य, सुवर्ण, धन या धान्य। वैसे ही यदि पांचों का प्रदेश सामान्य है तो यह कहना उचित हो सकता है, जैसे-पांचों का प्रदेश। इसलिए मत कहो पांचों एवं वयंतं संगहं ववहारो भणसि-जं भणति पंचण्हं पएसो तं न भवइ। कम्हा? जइ पंचण्हं गोठ्ठियाणं केइ दव्वजाए सामण्णे, तं जहा-हिरण्णे वा सुवण्णे वा धणे वा धण्णे वा तो जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्ह पएसो तं मा भणाहि-पंचण्हं पएसो, भणाहि-पंचविहो पएसो, तं जहा-धम्म- Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६३३ अ. १४ : नयवाद पएसो अधस्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो का प्रदेश। यह कहो पांच प्रकार का प्रदेश। जैसे-धर्म का खंधपएसो। प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश। एवं वयंत ववहारं उज्जुसुओ भणति-जं भणसि व्यवहार नय के ऐसा कहने पर ऋजुसूत्र नय कहता पंचविहो पएसो, तं न भवइ। है-तुम जो पांच प्रकार का प्रदेश कहते हो, उचित नहीं कम्हा? जइ ते पंचविहो पएसो-एवं ते एक्केक्को पएसो पंचविहो–एवं ते पणवीसतिविहो पएसो भवइ, तं मा भणाहि-पंचविहो पएसो,भणाहि-भइयव्वो पएसो- सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो सिय । आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो। एवं वयंतं उज्जुसुयं संपइ सहो भणति-जं भणसि भइयव्वो पएसो, तं न भवइ। कम्हा? जइ ते भइयव्वो पएसो, एवं ते-धम्मपएसो वि-सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो।। अधम्मपएसो वि-सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो। आगासपएसो वि-सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो। जीवपएसो वि-सिय धम्मपएसो सिय अधम्म...पएसो सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो। खंधपएसो वि-सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो सिय आगासपएसो सिय जीवपएसो सिय खंधपएसो। एवं ते अणवत्था भविस्सइ, तं मा भणाहि- भइयव्वो पएसो, भणाहि-धम्मे पएसे से पएसे धम्मे, अधम्मे पएसे से पएसे अधम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे, जीवे पएसे से पएसे किसलिए? यदि तुम्हारे मन में पांच प्रकार का प्रदेश है तो इस प्रकार प्रत्येक प्रदेश के पांच प्रकार होने पर वह प्रदेश पच्चीस प्रकार का होता है। इसलिए मत कहो-पांच प्रकार का प्रदेश। यह कहो-प्रदेश भाज्य (विकल्पनीय) है-स्यात् धर्म का प्रदेश है, स्यात् अधर्म का प्रदेश है, स्यात् आकाश का प्रदेश है, स्यात् जीव का प्रदेश है, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश है। ऋजुसूत्र के ऐसा कहने पर सम्प्रति शब्द नय कहता है-तुम जो कहते हो-प्रदेश भाज्य है, वह उचित नहीं है। किसलिए? तुम्हारे मत में प्रदेश भाज्य है तो इस प्रकार धर्म का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। अधर्म का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। आकाश का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। जीव का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। स्कन्ध का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् - अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। इस प्रकार अनवस्था हो जाएगी। इसलिए मत कहो-प्रदेश भाज्य है। यह कहो-जो धर्मात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश धर्म है। जो अधर्मात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश अधर्म है। जो आकाशात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश आकाश Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६३४ खण्ड-४ नोजीवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे। एवं वयंतं सई संपइ समभिरूढो भणति-जं भणसि धम्मे पएसे से पएसे धम्मे जाव खंधे पएसे से पएसे नोखंधे, तं न भवइ। कम्हा? एत्थ दो समासा भवंति, तं जहा-तप्पुरिसे य कम्मधारए य। तं न नज्जइ कयरेणं समासेणं भणसि? किं तप्पुरिसेणं! किं कम्मधारएणं? जइ तप्पुरिसेणं भणसि तो मा एवं भणाहि. अह कम्मधारएणं भणसि तो विसेसओ भणाहि-धम्मे य से पएसे य सेसे पएसे धम्मे, अधम्मे य से पएसे य सेसे पएसे अधम्मे, आगासे य से पएसे य सेसे पएसे आगासे, जीवे य से पएसे य सेसे पएसे नोजीवे, खंधे य से पएसे य सेसे पएसे नोखंधे। है। जो जीवात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश नोजीव है। जो स्कन्धात्मक प्रदेश हे, वह प्रदेश नोस्कन्ध है। शब्द नय के ऐसा कहने पर समभिरूढ़ नय कहता है-तुम जो कहते हो-जो धर्मात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश धर्म है यावत् जो स्कन्धात्मक प्रदेश है, वह प्रदेश नोस्कन्ध है, वह उचित नहीं है। किसलिए? यहां धर्म प्रदेश पद में दो समास हैं। जैसे-तत्पुरुष और कर्मधारय। अतः यह नहीं जाना जाता कि किस समास से कहते हो? क्या तत्पुरुष समास से कहते हो? क्या कर्मधारय समास से कहते हो? यदि तत्पुरुष समास से कहते हो तो यह मत कहो। यदि कर्मधारय समास से कहते हो तो विशेषण सहित कहो। प्रदेश जो धर्म (धर्मात्मक) है, वह धर्म प्रदेश है। प्रदेश जो अधर्म (अधर्मात्मक) है, वह अधर्म प्रदेश है। प्रदेश जो आकाश (आकाशात्मक) है, वह आकाश प्रदेश है। प्रदेश जो जीव (जीवात्मक) है, वह नोजीव प्रदेश है। प्रदेश जो स्कन्ध (स्कन्धात्मक) है, वह नोस्कन्ध प्रदेश है। समभिरूद 'नय के ऐसा कहने पर सम्प्रति एवंभूत नय कहता है-जिस धर्मास्तिकाय आदि के संबंध में तुम जो कहते हो, वह सब कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरवयव और एक शब्द के द्वारा अभिधेय है। क्योंकि मेरी दृष्टि में देश भी वास्तविक नहीं है और प्रदेश भी वास्तविक नहीं है। वह प्रदेश दृष्टांत है। वह नयप्रमाण है। एवं वयंतं समभिरूढं संपइ एवंभूओ भणति-जं जं भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं एगग्गहणगहीयं। देसे वि मे अवत्थू, पएसे वि मे । अवत्थू, से तं पएसदिढ़तेणं। से तं नयप्पमाणेणं। २२.णिययवयणिज्जसच्चा सब नय अपने-अपने वक्तव्य में सत्य हैं। यदि एक सव्वनया परवियालणे मोहा।। नय दूसरे नय के वक्तव्य का खंडन करे तो वह अर्थहीन ते उण ण दिट्ठसमओ या असत्य हो जाता है। अनेकांत सिद्धांत की मर्यादा को विभयइ सच्चे व अलिए वा॥ जानने वाला यह नय सत्य है, यह नय असत्य है-ऐसा विभाग नहीं करता। २३.जावइया वयणवहा तावइया चेव होति णयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया॥ वचन के जितने मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय-अन्यदर्शन हैं। २४. तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसब्भावा।। अपने-अपने पक्ष को निरपेक्ष सत्य मानने वाले सभी नय मिथ्यादृष्टि वाले हैं। यदि वे परस्पर सापेक्ष हों तो सम्यक्दृष्टि वाले हो जाते हैं। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६३५ अ.१४: नयवाद २५.नामाइ भेअ सहत्य निक्षेप की परिभाषा जिस वस्तु के नाम आदि भेदों में शब्द, अर्थ और बुद्धिपरिणाम भावओ निययं। बुद्धि का परिणमन होता है-वाचक, वाच्य और ज्ञान तीनों की परिणति होती है, वह सर्ववस्तु इस लोक में निश्चित चउपज्जायं तयं सव्वं॥ ही नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार पर्यायों से युक्त है। जंवत्थुमत्थि लोए २६.अह्मा वत्थूभिहाणं नाम ठवणा य जो तयागारो। कारणया से दव्वं वस्तु का अभिधान नाम निक्षेप है। उसका आकार स्थापना निक्षेप है। वस्तु की कारणता-उत्पत्ति का हेतु द्रव्य निक्षेप और कार्य रूप में उसकी परिणति भाव निक्षेप है। __कज्जावन्नं तयं भावो॥ २७.जत्य यजं जाणेज्जा , जहां जितने निक्षेप ज्ञात हो, वहां उन सभी (निक्षेपों) निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। का न्यास किया जाए। जहां बहुत निक्षेप ज्ञात न हों, वहां - जत्थ वि य न जाणेज्जा कम से कम निक्षेप चतुष्टय (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव) ... चउक्कयं निक्खिवे तत्थ॥ का न्यास किया जाए। २८. नामजिणा जिणणामा ठवणजिणा हुंति पडिमाओ। . दव्वजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था। 'जिन' यह जिन का नाम निक्षेप है। 'जिन प्रतिमा' जिन का स्थापना निक्षेप है। 'जिन जीव' जिन का द्रव्य निक्षेप है। 'समवसरण में विराजमान जिन' जिन का भाव निक्षेप है। Page #657 --------------------------------------------------------------------------  Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय- १५ अनेकांतवाद Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश अध्याय पृ. सं. ६४२ ६३९ ६३९ ६४२ ६४३ ६४० १.जीव का परिणमन २.सोमिल के प्रश्न ३. अस्ति-नास्ति ४. कालोदाई आदि का सन्देश ५. त्रिभंगी ६. सप्तभंगी ७. लोक : शाश्वत-अशाश्वत ८. अनगार जमाली ९. पुद्गल का परिणमन १०. राजा जितशत्रु : अमात्य सुबुद्धि ११. अनेकांत और व्यवहार १२. विभज्यवाद ६४३ ६४० ६४१ ६४१ ६४७ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांतवाद १. जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥ २. से नूणं भंते! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ ? अधिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ ? हंता गोयमा ! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ। अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ । ३. जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदर घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ ? जीव का परिणमन हंता मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समितं एयति • वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणम | सोमिल के प्रश्न ४. एगे भवं ? दुवे भवं ? अक्खए भवं ? अव्वए भवं ? अवट्ठिए भवं ? अणेगभूय-भाव-भविए भवं ? सोमिला ! एगे वि अहं जाव अगभूय-भाव भविए वि अहं । जिसके बिना लोक का व्यवहार भी नहीं चल सकता विश्व के उस एक मात्र गुरु अनेकांतवाद को प्रणाम । सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ - एगे वि अहं जाव अगभूय-भाव-भवि वि अहं ? भंते! क्या अस्थिर में परिवर्तन होता है, स्थिर में परिवर्तन नहीं होता? क्या अस्थिर भग्न होता स्थिर भग्न नहीं होता ? हां गौतम ! अस्थिर में परिवर्तन होता है, स्थिर में परिवर्तन नहीं होता। अस्थिर भग्न होता है, स्थिर भग्न नहीं होता। भंते! क्या जीव सदा प्रतिक्षण एजन (कम्पन) वेजन (प्रकंपन) करता ? एक स्थान से दूसरे स्थान में चलित होता है? स्पंदन करता है ? पदार्थांतर का स्पर्श करता है ? पृथ्वी में प्रविष्ट होता है ? अन्य पदार्थों को चलित करता है और नाना अवस्थाओं में परिणमित होता है। हां मंडितपुत्र! जीव सदा प्रतिक्षण एजन-वेजन करता है। एक स्थान से दूसरे स्थान में चलित होता है | स्पंदन करता है। पदार्थांतर का स्पर्श करता है। पृथ्वी में प्रविष्ट होता है। अन्य पदार्थों को चलित करता है और नाना अवस्थाओं में परिणमित होता है। भंते! आप एक हैं ? दो हैं ? अक्षय हैं ? अव्यय हैं ? अवस्थित हैं ? भूत, वर्तमान और भविष्य संबंधी अनेक अवस्थाओं के धारक हैं ? सोमिल! मैं एक भी हूं, दो भी हूं, अक्षय भी हूं, अव्यय भी हूं, अवस्थित भी हूं और भूत, वर्तमान एवं भविष्य संबंधी अनेक अवस्थाओं का धारक भी हूं। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-मैं एक भी हूं यावत् भूत, वर्तमान और भविष्य संबंधी अनेक Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६४० खण्ड-४ अवस्थाओं का धारक भी हूं। सोमिला! दव्वट्ठयाए एगे अहं। नाणदंसणठ्ठयाए सोमिल! द्रव्य की अपेक्षा मैं एक हूं। ज्ञान, दर्शन की दुविहे अहं। पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए अपेक्षा दो हूं। प्रदेश की अपेक्षा मैं अक्षय भी हूं, अव्यय वि अहं, अवट्ठिए वि अहं। उवयोगट्ट्याए भी हूं, अवस्थित भी हूं। उपयोग की अपेक्षा मैं भूत, अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं। से तेणठेणं जाव वर्तमान एवं भविष्य संबंधी अनेक अवस्थाओं का धारक अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं। भी हूं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-मैं एक भी हूं यावत् भूत, वर्तमान और भविष्य संबंधी अनेक अवस्थाओं का धारक भी हूं। अस्ति-नास्ति ५. से नूणं भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ? नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ? हंता गोयमा! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ। जं णं भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तं किं पयोगसा? वीससा? भंते! क्या अस्तित्व (उत्पाद-पर्याय) अस्तित्व में परिणत होता है? क्या नास्तित्व (व्ययपर्याय) नास्तित्व में परिणत होता है? हां गौतम! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है। नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। ___ भंते! जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वह किसी प्रयोग से होता है अथवा विस्रसा-स्वभाव से? गौतम! वह प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है। गोयमा! पयोगसा वि तं, वीससा वि तं। ६. जहा ते भंते! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ? हंता गोयमा! जहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ। जहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ। भंते! जैसे आपका अस्तित्व अस्तित्व रूप में परिणत होता है, वैसे ही नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है? जैसे आपका नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वैसे ही अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है? हां, गौतम! मेरा अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, वैसे ही मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। जैसे मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वैसे ही अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है। कालोदाई आदि का संदेह ७. तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं अदूरसामतेणं वीईवयमाणं पासंति, पासित्ता अण्णमण्णं सहावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अविप्पकडा, अयं च णं गोयमे अदूरसामंतेणं वीईवयइ। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं गोयमं एयमझें पुच्छित्तए त्ति कटु कुछ अन्यतीर्थिक राजगृह नगर में वार्तालाप कर रहे थे। उन्होंने अपने पास से जाते हुए भगवान गौतम को देखा। वे परस्पर एक दूसरे को कहने लगे-देबानुप्रिय! पंचास्तिकाय के सबंध में हमारी अवधारणा अस्पष्ट है। गौतम हमारे पास से होकर जा रहे हैं। हमारे लिए यह उचित होगा कि हम इस संबंध में गौतम को पछे। परस्पर Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रायोगिक दर्शन ६४९ अण्णमण्णस्सं अंतिए एयमठ्ठे पडिसुणंति, पडिसुणित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति, तं जहाधम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं । ..... से कहमेयं गोयमा ! एवं ? नए णं से भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-नो खलु वयं देवाणुप्पिया ! अत्थि भावं नत्थि त्ति वदामो, नत्थि भावं अत्थि त्ति वदामो । अम्हे णं देवाणुप्पिया ! सव्वं अत्थिभावं अत्थि त्ति वदामो। सव्वं नत्थिभावं नत्थि त्ति वदामो । ८. आया भंते! दुपएसिए खंधे ? अण्णे दुपएसिए खंधे ? गोयमा! दुपएसिए खंधे— १. सिय आया २. सिय नोआया ३. सिय अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य । सेकेणट्ठेणं भंते ?......... गोयमा ! अप्पणो आदिट्ठे आया, परस्स आदिट्ठे नोआया, तदुभयस्स आदिट्ठे अवत्तव्वं दुपएसिए खंधेआयाति य नोआयाति य । ९. सत्तेवहुति भंग सिय सावेक्खं पमाणं अव्यत्तव्वा ते तह १०. अत्थित्ति णत्थि दोवि य त्रिभंगी पमाणणयदुणयभेदजुत्तो वि । 'णण णय दुण्णय णिरवेक्खा ॥ अ. १५ : अनेकांतवाद मंत्र कर वे गौतम के पास आए और पूछने लगे- आपके धर्माचार्य, धर्मगुरु, श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकाय का प्रज्ञापन करते हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । यह कैसे ? गौतम ने उनसे कहा- देवानुप्रिय ! हम अस्तित्व को नास्तित्व नहीं कहते और नास्तित्व को अस्तित्व नहीं कहते । देवानुप्रिय ! हम संपूर्ण अस्तिभाव को अस्तित्व कहते हैं और संपूर्ण नास्तिभाव को नास्तित्व कहते हैं। अव्वत्तव्वं सिएण संजुत्तं । पमाणभंगी मुणेयव्वा॥ सप्तभंगी भंते! क्या द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा है-उसका अस्तित्व है अथवा अन्य है-उसका नास्तित्व है ? गौतम ! द्विप्रदेशी स्कंध १. कथंचित् आत्मा है, उसका अस्तित्व है। २. कथंचित् आत्मा नहीं है, उसका अस्तित्व नहीं है। ३.. कथंचित् अवक्तव्य है, उसका युगपत् अस्तित्व भी है, नास्तित्व भी है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? गौतम ! १. स्वद्रव्य स्वपर्याय की अपेक्षा उसका अस्तित्व है । २. परद्रव्य अथवा परपर्याय की अपेक्षा उसका अस्तित्व नहीं है। ३. एक साथ दोनों की अपेक्षा से अवक्तव्य है- उसका स्वद्रव्य अथवा स्वपर्याय की अपेक्षा अस्तित्व है। परद्रव्य अथवा परपर्याय की अपेक्षा नास्तित्व है। प्रमाण, नय और दुर्नय के भेद से वस्तु प्रतिपादन के सात भंग होते हैं। स्यात् सापेक्ष वचन प्रमाण है। एक धर्म अथवा पर्याय का प्रतिपादन करने वाला सापेक्ष वचन नय है। एक धर्म अथवा पर्याय का प्रतिपादन करनेवाला निरपेक्ष वचन दुर्नय है। स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य - ये सात प्रमाण के भंग हैं। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६४२ खण्ड-४ लोक : शाश्वत-अशाश्वत अनगार जमाली ११.तए णं से जमाली अणगारे.......समणं भगवं अनगार जमाली ने श्रमण भगवान महावीर से महावीरं एवं वयासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे कहा-भंते! आपके बहुत से शिष्य श्रमण निर्ग्रन्थ अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं छद्मस्थ अपक्रमण से अपक्रान्त हुए हैं। मैं छद्मस्थ अवक्कंता। नो खलु अहं तहा छमत्थावक्कमणेणं अपक्रमण से अपक्रान्त नहीं हआ हं। मैंने ज्ञान, दर्शन को अवक्कंते। अहं णं उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे उपलब्ध होकर अर्हत् जिन और केवली होकर केवली केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते। अपक्रमण से अपक्रमण किया है। तए णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं अनगार जमाली की यह बात सुन भगवान गौतम ने . वयासी-नो खलु जमाली! केवलिस्स नाणे वा। कहा-जमाली ! केवली का ज्ञान-दर्शन पर्वत, स्तंभ, स्तूप दंसणे वा सेलंसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आदि से आवृत नहीं होता, निवारित नहीं होता। ज़माली! आवरिज्जइ वा निवारिज्जइ वा। जदि णं तुमं यदि तुम ज्ञान-दर्शन को उपलब्ध होकर, अर्हत् जिन और जमाली! उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली केवली होकर केवली अपक्रमण से अपक्रान्त हुए हो तो भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते, तो णं इन दो प्रश्नों का उत्तर दोइमाइं दो वागरणाइं वागरेहि-सासए लोए १. लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जमाली! असासए लोए जमाली? सासए जीवे २. जीव शाश्वत है या अशाश्वत? जमाली! असासए जीवे जमाली? तए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं गौतम के इस प्रश्न पर जमाली का चित्त शंका, कांक्षा वत्ते समाणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए और विचिकित्सा से भर गया। वह खिन्न चित्तवाला हो भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे जाए या वि होत्था। गया। वह टूटा-टूटा-सा और कलुषित हो गया। गौतम के नो संचाएति भगवओ गोयमस्स किंचि वि प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ हो गया। पमोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीए संचिठ्ठइ। जमालीति! समणे भगवं महावीरे जमालिं भगवान महावीर ने जमाली को संबोधित करते हुए अणगारं एवं वयासी-अत्थि णं जमाली! ममं बहवे कहा-जमाली ! मेरे बहुत से शिष्य छद्मस्थ होते हुए भी अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू एयं इन प्रश्नों को मेरी तरह समाहित करने में समर्थ हैं। पर वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं। नो चेव णं तुम्हारी तरह मिथ्या आलाप नहीं करते। एतप्पगारं भासं भासित्तए, जहा णं तुम। सासए लोए जमाली! जं न कयाइ नासि, न जमाली! लोक शाश्वत है-वह कभी नहीं था, नहीं है कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ-भुविं च और नहीं होगा-ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, वर्तमान भवइ य, भविस्सइ य-धुवे, नितिए, सासए, में है और भविष्य में रहेगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे। है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। असासए लोए जमाली! जं ओसप्पिणी भवित्ता जमाली! लोक अशाश्वत है-अवसर्पिणी के बाद उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी उत्सर्पिणी आती है और उत्सर्पिणी के बाद अंवसर्पिणी भवइ। आती है। सासए जीवे जमाली! जं न कयाइ नासि, न जमाली ! जीव शाश्वत है-वह कभी नहीं था, नहीं है कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ-भुविं च, और नहीं होगा-ऐसा नहीं है। वह अतीत में था, वर्तमान Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४३ प्रायोगिक दर्शन अ. १५ : अनेकांतवाद भवइ य, भविस्सइ य-धुवे, नितिए, सासए, में है और भविष्य में होगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे। है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। असासए जीवे जमाली! जण्णं नेरइए भवित्ता जमाली! जीव अशाश्वत है-वह नैरयिक योनि से तिरिक्खजोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता तिर्यंच योनि में जाता है, तिर्यंच से मनुष्य बनता है और मणुस्से भवइ, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ। मनुष्य से देव बनता है। पुद्गल का परिणमन राजा जितशत्रु : अमात्य सुबुद्धि १२.तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी- राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से कहा-देवानुप्रिय अहो णं देवाणुप्पिया सुबुद्धी! इमे मणुण्णे असण- सुबुद्धि! यह अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य मनोज्ञ है यावत् पाण-खाइम-साइमे जाव सव्विंदियगाय- सब इन्द्रियों को प्रह्लादित करनेवाला है। पल्हायणिज्जे। तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स रण्णो एयमढं नो अमात्य सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु के इस कथन का न आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ। आदर किया और न अनुमोदन ही किया। मौन रहा। तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं दोच्चंपि तच्चंपि एवं राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि को दूसरी-तीसरी वयासी-अहो णं देवाणुप्पिया सुबुद्धी! इमे मणुण्णे बार भी कहा-देवानुप्रिय सुबुद्धि ! यह अशन, पान, खाद्य, असण-पाण-खाइम-साइमे जाव सव्विंदियगाय- स्वाद्य मनोज्ञ है यावत् सब इन्द्रियों को प्रह्लादित करने पल्हायणिज्जे। वाला है। तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा राजा जितशत्रु के दूसरी-तीसरी बार ऐसा कहने पर दोच्चंपि तच्चं पि वुत्ते समाणे जियसत्तुं रायं एवं सुबुद्धि ने कहा-स्वामिन् ! अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य की वयासी-नो खलु सामी! अम्हं एयंसि मणुण्णंसि मनोज्ञता पर हमें कोई विस्मय नहीं है। असण-पाण-खाइम-साइमंसि केइ विम्हए। एवं खलु सामी! सुन्भिसहा वि पोग्गला स्वामिन् ! अच्छे शब्दवाले पुद्गल बुरे शब्द के रूप दुन्भिसहत्ताए परिणमंति। दुब्भिसद्दा वि पोग्गला में परिणत हो जाते हैं और बुरे शब्दवाले पुद्गल अच्छे सुभिसहत्ताए परिणमंति। सुरुवा वि पोग्गला ____ शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरूप पुद्गल दरूवत्ताए परिणमंति। दरूवा वि पोग्गला कुरूपता में परिणत हो जाते हैं और कुरूप पुद्गल सुरूवत्ताए परिणमंति। सुन्भिगंधा वि पोग्गला सुरूपता में परिणत हो जाते हैं। सुगंधित पुद्गल दुर्गध दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति। दुब्धिगंधा वि पोग्गला रूप में परिणत हो जाते हैं और दुर्गंधित पुद्गल सुगंध सुब्भिगंधत्ताए परिणमंति। सुरसा वि पोग्गला रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरस पुद्गल दुरस रूप में दरसत्ताए परिणमंति। दुरसा वि पोग्गला सुरसत्ताए परिणत हो जाते हैं और दुरस पुद्गल सुरस रूप में परिणमंति। सुहफासा वि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणत हो जाते हैं। सुख स्पर्श वाले पुद्गल दुःख स्पर्श परिणमंति। दहफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुख स्पर्शवाले पुद्गल परिणमंति। पओगवीससा-परिणया वि य णं सुख स्पर्श रूप में परिणत हो जाते हैं। स्वामिन् ! पुद्गलों सामी! पोग्गला पण्णत्ता। का यह परिणाम प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है। तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि के इस कथन का न एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स आदर किया और न अनुमोदन ही किया। मौन रहा। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन परूवेमाणस्स एयमट्ठ नो आढाइ नो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठर । तणं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ ण्हाए आसखंधवरगए महयाभडचडगर- आसवाहिणिआए निज्जायमाणे तस्स फरिहोदयस्स अदूरसामंतेणं वीsaas | तए णं जियसत्तू राया तस्स फरिहोदगस्स असुभेणं गंधेणं अभिभूए समाणे सएणं उत्तरिज्जगेणं आसगं पिहेइ, पिहेत्ता एगंतं अवक्कमइ । अवक्कमित्ता बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी - अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अणुणे गंधेण अमणुण्णे रसेणं अमुणुण्णे फासे णं से जहानामए - अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते । तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी - तहेव णं तं सामी ! जं णं तुब्भे वयह।...... तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी - अहो णं सुबुद्धी ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वणं अमणुणे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं । ६४४ से जहानामए-अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते । तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुस्स रण्णो एयमट्ठे नो आढाइ नो परियाणाइ । तुसिणीए संचिट्ठइ । तणं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी । तणं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चपि तच्वंपि एवं वृत्ते समाणे एवं वयासी - नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केह विम् । पओग - वीससा-परिणया वि य णं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता । तणं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासीमाणं तुमं देवाणुप्पिया! अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूणि य असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेण य वुग्गामाणे वुप्पाएमाणे विहराहि । खण्ड - ४ राजा जितशत्रु स्नान कर श्रेष्ठ अश्व स्कंध पर आरूढ़ हो अपने परिवार के साथ खाई में भरे हुए पानी के पास से निकला । राजा जितशत्रु उस खाई के पानी की अशुभ गंध से अभिभूत हो अपने उत्तरीय से मुंह ढांक, शीघ्र वहां से आगे बढ़ गया। ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से कहा- देवानुप्रियो ! इस खाई के पानी का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अमनोज्ञ है। यह सर्प के मृत कलेवर से भी अधिक दुर्गंध मार रहा है। ईश्वर, सार्थवाह आदि ने कहा - स्वामिन्! इस खाई का पानी वैसा ही है जैसा आप कह रहे हैं। राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से कहा - सुबुद्धि ! इस खाई के पानी का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श अमनोज्ञ है। यह सर्प के मृत कलेवर से भी अधिक दुर्गंध मार रहा है। सुबुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस कथन का न आदर किया, न अनुमोदन किया। मौन रहा। · राजा जितशत्रु ने दूसरी-तीसरी बार भी इसे दोहराया। राजा जितशत्रु के दूसरी-तीसरी बार ऐसा कहने पर सुबुद्धि ने कहा - स्वामिन्! खाई के इस पानी में हमें कोई विस्मय नहीं है। पुद्गल स्वभाव से और प्रयोग से इस प्रकार बदलते रहते हैं । राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से कहादेवानुप्रिय ! तुम ऐसा मत कहो। तुम्हारी यह क्या आद हो गई है। तुम अयथार्थ की अभिव्यक्ति और मिथ्या अभिनिवेश के द्वारा स्वयं के लिए, दूसरों के लिए और Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६४५ अ. १५ : अनेकांतवाद दोनों के लिए विग्रह का वातावरण बना देते हो। अमात्य सुबुद्धि के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ-राजा जितशत्रु को अर्हत् द्वारा कहे हुए सद्भूत (पारमार्थिक) तत्त्वों का ज्ञान नहीं है, अतः मेरे लिए उचित है कि राजा जितशत्रु को अर्हत् द्वारा कहे हुए सद्भूत तत्त्वों का ज्ञान कराऊं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। तए णं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे....संकप्पे समप्पज्जित्था-अहो णं जियसत्तू राया संते तच्चे तहिए अवितहे सब्भूए जिणपण्णत्ते भावे नो उवलभइ। तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स रण्णो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भूयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमझें उवाइणावेत्तए-एवं संपेहेइ। संपेहेत्ता पच्चइएहिं पुरिसेहिं सद्धिं अंतरावणाओ नवए घडए य पडए य गेण्हइ। संझाकालसमयंसि विरलमणूसंसि निसंतपडिनिसंतंसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ। संप्रेक्षा कर अपने विश्वस्त पुरुषों द्वारा दुकानों से नए घड़े और नए वस्त्र मंगवाए। सन्ध्याकाल का समय। जब गमनागमन कम हो गया, स्थान सूना-सा हो गया, तब वह घड़ों और वस्त्रों को लेकर खाई के पास आया। खाई के पानी को लिया। नए वस्त्रों से छाना। नए घड़ों में भरा। उनमें साजी भस्म डाला और उन्हें सील बंद कर सात दिन-रात के लिए रख दिया। जल परिवासित हो गया तो दूसरी बार उसे नए कपड़े से छाना। नए घड़ों में भरा। उनमें साजी भस्म डाला और उन्हें सील बंदकर सात दिन-रात के लिए रख दिया। फरिहोदगं गेण्हावेइ, गेहावित्ता नवएसु पडएसु - गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवा- वेत्ता लंछिय-मुहिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ। परिवसावेत्ता दोच्चंपि नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवा- वेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ। पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुहिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ। . परिवसावेत्ता तच्चंपि नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवा- वेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुहिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरत्तं संवसावेइ। एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गालावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतरा य संवसावेमाणे सत्तसत्त य राइं दियाइं परिवसावेइ। तए णं से फरिहोदए सत्तमंसि सत्तयंसि परिणममाणंसि उदगरयणे जाए यावि होत्था। अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फालियवण्णाभे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए आसायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिंहणिज्जे सव्विंदियगाय- तीसरी बार पुनः उसे नए कपड़ों से छाना। नए घड़ों में भरा। उनमें साजी भस्म डाला और उन्हें सील बंद कर सात दिन-रात के लिए रख दिया। इस प्रकार पानी को छानने, नये घड़ों में भरने और साजी भस्म से परिवासित करने का यह क्रम सात सप्ताह तक चला। __खाई का पानी सातवें सप्ताह में उदक रत्न (श्रेष्ठ उदक) बन गया। वह निर्मल, आरोग्यवर्धक, उत्तमगुणों से युक्त, हल्का और स्फटिक वर्ण की आभावाला हो गया। शुभ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त आस्वादनीय, पुष्टिकारक, प्रीतिकारक, दीपनीय, दर्पणीय, मदनीय, बृंहणीय और Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन पल्हायणिज्जे । तए णं सुबुद्धी जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलंसि आसादेइ, आसादेत्ता तं उदगरयणं वण्णेणं उववेयं..... जाणित्ता हट्ट तुट्ठे बहूहिं उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेइ, संभारेत्ता जियसत्तुस्स रण्णो पाणियघरियं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - तुमं णं देवाप्पिया ! इमं उदगरयणं गेण्हाहि, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेज्जासि । तए णं से पाणियघरिए सुबुद्धिस्स एयमट्ठ पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं उदगरयणं गेण्हs, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवे । ६४६ तणं से जियसत्तू या तं विपुलं असण- पाणखाइम साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ । जिमियत्तत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तंसि उदगरयणंसि जाय-विम्हए ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी - अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगाय - पल्हायणिज्जे । तणं ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–तहेव णं सामी ! जण्णं तुब्भे वयह—इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्वंदियगाय पल्हायणिज्जे । तणं जियसत्तू राया पाणियघरियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - एस णं तुमे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे कओ आसादिते ? तए णं से पाणियघरिए जियसत्तुं एवं वयासी - एस णं सामी ! मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसादिते । तणं जियसत्तू सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - अहो णं सुबुद्धी ! केणं कारणेणं अहं तव अणिट्ठे अकंते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे जेणं तुमं मम कल्ला कल्लिं भोयणवेलाए इमं उदगरयणं न उवट्ठवेसि ? तं एस णं तुमे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे कओ उवलद्धे ? खण्ड - ४ समस्त इन्द्रियों को प्रह्लादित करने वाला हो गया। सुबुद्धि उस उदकरत्न के पास आया। उसे हाथ में ले चखा। उसे वर्ण आदि से युक्त जानकर अत्यन्त प्रसन्न और तुष्ट हुआ। उदक में डालने योग्य अनेक सुगंधित द्रव्यों से उसे सुगंधित किया। राजा जितशत्रु की जलसेवा करनेवाले परिचारक को बुलाकर कहा- देवानुप्रिय ! इस उदकरत्न को लो और भोजन बेला के समय राजा जितशत्रु के समक्ष प्रस्तुत करो । जलसेवक ने सुबुद्धि के इस कथन को स्वीकार किया । उदक रत्न लिया और भोजन बेला में राजा जितशत्रु के सामने प्रस्तुत कर दिया। राजा जितशत्रु ने भोजन किया। भोजनोपरांत चुल्लू करने के बाद उस निर्मल जल के विषय में विस्मित हो ईश्वर, सार्थवाह आदि से कहा- देवानुप्रियो ! यह उदक रत्न निर्मल और समस्त इन्द्रियों को पह्लादित करनेवाला है। ईश्वर, सार्थवाह आदि ने राजा के कथन का अनुमोदन किया। राजा जितशत्रु ने जलसेवक को बुलाकर कहा—देवानुप्रिय! तुझे यह उदकरत्न कहां से प्राप्त हुआ? जलसेवक ने राजा जितशत्रु से कहा - स्वामिन्! मुझे यह उदकरत्न सुबुद्धि के यहां से प्राप्त हुआ । राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि को बुलाकर कहा - सुबुद्धि ! मैं किस कारण से तुम्हें इतना अप्रिय लगता हूं, जिससे तुम प्रतिदिन मेरे लिए ऐसा उदकरत्न नहीं लाते हो । देवानुप्रिय ! तुम्हें यह उदकरत्न कहां से प्राप्त हुआ ? Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक दर्शन ६४७ सणं. सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी - एस णं सामी ! से फरिहोदए । . तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-केणं कारणेणं सुबुद्धी ! एस से फरिहोदए ? तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी - एवं खलु सामी ! तुब्भे तया मम एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस एयमठ्ठे नो सहहह । ....... तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए । माणस्स तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स एवमाइक्खभासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमट्ठे नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे अब्भिंतरठाणिज्जे पुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाप्पिया ! अंतरावणाओ नव घडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेह । ते वि तहेव संभारेंति, संभारेत्ता जियसत्तुस्स उवणेंति । तणं से जियसत्तू राया तं उदगरयणं करयलंसि आसाएइ, आसाएत्ता आसायणिज्जं सम्बिंदियगायपल्हायणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - सुबुद्धी ! एए णं तु संता तच्चा तहिया अवितहा सब्भूया भावा कओ उवलद्धा ? जाव तणं सुबुद्धीजियसत्तुं एवं वयासी - एए णं सामी ! मए संता तच्चा तहिया अवितहा सन्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा । तणं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामित्तए । १३. अणादीयं परिण्णाय अणवदग्गं ति वा पुणो । सासयमसासए वा इइ दिट्ठि ण धारए । अ. १५ : अनेकांतवाद सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से कहा - स्वामिन् । यह उसी खाई वाला पानी है। १४. एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विज्जई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं विजाण ॥ राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा - सुबुद्धि ! यह उसी खाई का पानी कैसे हो सकता है ? सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से कहा - स्वामिन्! 'पुद्गलों का परिणमन होता रहता है'- जब आपको मेरे इस कथन पर श्रद्धा नहीं हुई तब मैंने यह सारा प्रयत्न किया । स्वामिन्! इस प्रकार खाई का वह पानी उदकरत्न बन गया। राजा जितशत्रु को सुबुद्धि की बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने अपने अंतरंग सेवकों को बुलाया और कहा- देवानुप्रियो ! तुम जाओ। दुकानों से नए घड़े और नए कपड़े लाओ। यावत् जल को सुगंधित द्रव्यों से सुगंधित करो। सेवकों ने वैसा ही किया और जितशत्रु के सामने उस जल को प्रस्तुत किया। राजा जितशत्रु ने उदकरत्न हाथ में लेकर चखा। उसे सब इन्द्रियों को प्रह्लादित करने वाला जानकर अमात्य सुबुद्धि को बुलाया और कहा- तुमने ये यथार्थ तत्त्व कहां से उपलब्ध किए ? सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से कहा- स्वामिन्! मुझे ये यथार्थ तत्त्व जिनवाणी से उपलब्ध हुए हैं। अनेकान्त और व्यवहार राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा- देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे पास जिनवाणी को सुनना चाहता हूं। इस जगत को अनादि - अनन्त या सादि सांत बतलाया जाता है-ऐसा जानकर यह शाश्वत है या अशाश्वत है - ऐसी दृष्टि को धारण न करे। इन दोनों स्थानों से व्यवहार घटित नहीं होता। इन दोनों स्थानों से अनाचार होता है - ऐसा जाने । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६४८ खण्ड-४ १५.समुच्छिज्जिहिंति सत्यारो सव्वे पाणा अणेलिसा। गंठिगा वा भविस्संति सासयं ति व णो वए॥ शास्ता उच्छिन्न होंगे। सब प्राणी एक दूसरे से अनीदृश हैं। सब प्राणी ग्रन्थि-कर्मबद्ध होंगे अथवा शास्ता-शाश्वत होंगे, सब प्राणी सदृश या कर्ममुक्त होंगे-ऐसा न बोले। १६. एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विज्जई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं विजाणए। इन दोनों स्थानों से व्यवहार घटित नहीं होता। इन दोनों स्थानों से अनाचार होता है-ऐसा जाने। १७. जे केइ खुडुगा पाणा अदुवा संति महालया। जो कोई छोटे प्राणी हैं अथवा बड़े प्राणी हैं उन्हें मारने पर कर्म का बंध सदृश होता है या असदृश होता है-ऐसा न बोले। सरिसं तेहिं वरं ति असरिसं ति य णो वए॥ १८.एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विज्जई। इन दोनों स्थानों से व्यवहार घटित नहीं होता। इन एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं विजाणए॥ दोनों स्थानों से अनाचार होता है-ऐसा जाने। - विभज्यवाद १९.विभज्जवायं च वियागरेज्जा। प्रतिपादन में विभज्यवाद-भजनीयवाद या स्याद्वाद का प्रयोग करे। १. किसी बात को विभक्त कर अथवा विश्लेषणपूर्वक कहने की पद्धति का नाम विभज्यवाद है। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड- ५ समणसुतं Page #671 --------------------------------------------------------------------------  Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-१ ज्योतिर्मुख Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय गाथाएं १. मंगलसूत्रण २. जिनशासनसूत्र ३. संघसूत्र ४. निरूपणसूत्र ५. संसारचक्रसूत्र ६. कर्मसूत्र ७. मिथ्यात्वसूत्र ८. रागपरिहारसूत्र १७-२४ २५-३१ ३२.४४ ४५-५५ ५६-६६ ६७-६६ ७१-८१ ९. धर्मसूत्र १०. अपरिग्रहसूत्र ११. अपरिग्रहसूत्र १२. अहिंसासूत्र १३. अप्रमादसूत्र १४. शिक्षाव्रत १५. आत्मसूत्र गाथाएं ८२-१२१ १२२-१३९ १४०-१४६ १४७-१५९ १६०-१६९ १७०-१७६ १७७-१९१ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्मुख मङ्गलसूत्र मंगल सूत्र १.णमो अरहताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आयरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥ अर्हतों को नमस्कार। सिद्धों को नमस्कार। आचार्यों को नमस्कार। उपाध्यायों को नमस्कार। लोकवर्ती सर्वसाधुओं को नमस्कार। २. एसो पंचणमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥ यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का विनाश करनेवाला है और समस्त मंगलों में प्रथम मंगल है। ३.५. अरहंता मंगलं। सिद्धा मंगलं। साहू मंगलं। केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं॥ अर्हत मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं। साधु मंगल हैं। केवलि-प्रणीत धर्म मंगल है। अरहंता लोगुत्तमा। सिद्धा लोगुत्तमा। साहू लोगुत्तमा। _ केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो॥ अर्हत् लोकोत्तम हैं। सिद्ध लोकोत्तम हैं। साधु लोकोत्तम हैं। केवलि-प्रणीत धर्म लोकोत्तम है। अरहते सरणं पव्वज्जामि। सिद्धे सरणं पव्वज्जामि। साहू सरणं पव्वज्जामि। केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि॥ अर्हतों की शरण स्वीकार करता हूं। सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूं। साधुओं की शरण स्वीकार करता हूं। केवलि-प्रणीत धर्म की शरण स्वीकार करता हूं। ६. मायहि पंच वि गुखे, मंगलचउसरणलोयपरियरिए। गर-सुर-खेयर-महिए, आराहणणायगे वीरे॥ मंगलस्वरूप, चतुःशरणरूप तथा लोकोत्तम, परम आराध्य एवं नर-सुर-विद्याधरों द्वारा पूजित, कर्मशत्रु के विजेता पंच गुरुओं 'परमेष्ठी' का ध्यान करना चाहिए। ७. पणघाइकम्ममहणा,तिहुवणवरभव्व-कमलमत्तंडा। अरिहा अणंतणाणी, अणुवमसोक्खा जयंतु जए॥ सघन घातिकर्मों का आलोडन करनेवाले, तीनों लोकों में विद्यमान भव्यजीवरूपी कमलों को विकसित करनेवाले सूर्य, अनंतज्ञानी और अनुपम सुखमय अर्हत् की जगत् में जय हो। . भट्ठविहकम्मवियला, णिठियकज्जा पणठ्ठसंसारा। दिठ्ठसयलत्थसारा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंत॥ अष्टकर्मों से रहित, कृतकृत्य, जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त तथा सकल तत्त्व-रहस्य के द्रष्टा सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें। Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६५२ खण्ड-५ ९. पंचमहव्वयतुंगा,तक्कालिय-सपरसमय-सुदधारा। पंच महाव्रतों से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और णाणागुणगणभरिया, आइरिया मम पसीदंतु॥ परसमय रूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना गुणसमूह से परिपूर्ण आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों। १०.अण्णाणघोरतिमिरे, दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं। भवियाणुज्जोययरा, उवज्झाया वरमिदं देंतु॥ जिसका अंत पाना कठिन है, उस अज्ञानरूपी घोर अंधकार में भटकनेवाले भव्य जीवों के लिए ज्ञान का प्रकाश देनेवाले उपाध्याय मुझे उत्तम वर दें। ११.थिरधरियसीलमाला, ववगयराया जसोहपडिहत्था। बहुविणयभूसियंगा, सुहाइं साहू पयच्छंतु॥ शीलरूपी माला को स्थिरतापूर्वक धारण करनेवाले, राग-रहित, यशःसमूह से परिपूर्ण तथा प्रवर विनय से अलंकृत शरीर वाले साधु मुझे सुख प्रदान करें। १२.अरिहंता असरीरा, आयरिया, उवल्झाय मुणिणो। पंचक्खरनिप्पण्णो, ओंकारो पंच परमिट्ठी॥ अर्हत् अशरीरी (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय तथा' मुनि-इन पांचों के प्रथम पांच अक्षरों (अ+अ+आ+उ+ म्) को मिलाकर ॐ (ओंकार) बनता है जो पंच-परमेष्ठी का वाचक है-बीजरूप है। १३.उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च समुइं च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वदे॥ मैं १. ऋषभ, २. अजित, ३. सम्भव, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति, ६. पद्मप्रभ, ७. सुपार्श्व तथा चन्द्रप्रभ को वन्दन करता हूं। १४. सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयंस वासुपुज्जं च। विमलमणंत-भयवं, धम्म संतिं च वंदामि॥ मैं ९. सुविधि (पुष्पदन्त), १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शांति को वंदन करता हूं। १५.कुंथु च जिणवरिंद, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमि। वंदामि रिठ्ठणेमि, तह पासं वहृमाणं च॥ मैं १७. कुन्थु, १८. अर, १९. मल्लि , २०. मुनिसुव्रत, २१. नमि, २२. अरिष्टनेमि, २३. पार्श्व तथा २४. वर्धमान को वन्दन करता हूं। १६.चदेहि णिम्मलयरा, आइच्चेहिं अहियं पयासंता। सायरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ चन्द्र से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रकाश करनेवाले, सागर की भांति गंभीर सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि (मुक्ति) प्रदान करें। जिनशासन सूत्र जिनशासन सूत्र १७.जमल्लीणा जीवा, तरंति संसारसायरमणंतं। तं सव्वजीवसरणं, गंददु जिणसासणं सुइरं॥ जिसमें लीन होकर जीव अनन्त संसार-सागर को पार कर जाते हैं तथा जो समस्त जीवों के लिए-शरणभूत है, वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे। . Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं. अ. १ : ज्योतिर्मुख १८.जिणवयणमोसहमिणं, विसयसह-विरेयणं अमिदभयं। जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥ यह जिनवचन विषयसुख का विरेचन, जरा-मरणरूपी व्याधि का हरण तथा सब दुःखों का क्षय करनेवाला अमृततुल्य औषध है। जा जर १९.अरहंतभासियत्थं, गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म। पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोदहिं सिरसा।। जो अर्हत् के द्वारा अर्थरूप में उपदिष्ट है तथा गणधरों के द्वारा सूत्ररूप में सम्यक् गुंफित है, उस श्रुतज्ञानरूपी महासिन्धु को मैं भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं। २०.तस्स मुहुग्गंदवयणं, पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं। आगममिदि परिकहियं, तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था॥ अर्हत् के मुख से उद्भूत, पूर्वापरदोष-रहित शुद्ध वचनों को आगम कहते हैं। उस आगम में जो कहा गया है वह यथार्थ है। २१.जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण। ... अमला असंकिलिह, ते होति परित्तसंसारी॥ जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरणवाले) हो जाते हैं। २२.जय वीयराय ! जयगुरू! - - होउ मम तुह पभावओ भयवं! भवणिव्वेओ मग्गाणुसारिया इट्ठफलसिद्धी॥ हे वीतराग!, हे जगद्गुरु! हे भगवन! आपके प्रभाव से मुझे संसार से विरक्ति, मोक्षमार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल की प्राप्ति होती रहे। २३.ससमय-परसमयविऊ, जो स्वसमय व परसमय का ज्ञाता है, गंभीर, . .. गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो।। दीप्तिमान, कल्याणकारी और सौम्य है तथा सैकड़ों गुणों गुणसयकलिओ जुत्तो, से युक्त है, वही निग्रंथ प्रवचन के सार को कहने का पवयणसारं परिकहेउं॥ अधिकारी है। २४.जं इच्छसि अप्पणतो,जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं॥ दूसरों के लिए वही चाहो जो तुम अपने लिए चाहते हो। जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी न चाहो। यह जिनशासन है-तीर्थंकर का उपदेश है। संघ सूत्र . संघ सूत्र २५.संघो गुणसंघाओ, संघो य विमोचओ य कम्माणं। दसणणाणचरित्ते, संघायंतो हवे संघो॥ गुणों का समूह संघ है। संघ कर्मों का विमोचन करनेवाला है। जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संघात (रत्नत्रय की समन्विति) करता है, वह संघ है। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६५४ खण्ड-५ २६.रयणत्तयमेव गणं,गच्छं गमणस्स मोक्खमग्णस्स। संघो गुण संघादो, समयो खल णिम्मलो अप्पा॥ रत्नत्रय ही 'गण' है। मोक्षमार्ग में गमन ही 'गच्छ' है। गण का समूह ही 'संघ' है तथा निर्मल आत्मा ही समय है। २७.आसासो वीसासो, सीयघरसमो य होइ मा भाहि। अम्मापितिसमाणो, संघो सरणं. तु सव्वेसिं॥ संघ भयभीत व्यक्तियों के लिए आश्वासन, निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतगृहतुल्य, अविषमदर्शी होने के कारण मातापितातुल्य तथा सब प्राणियों के लिए शरणभूत होता है, इसलिए तुम संघ से मत डरो। २८.नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति॥ संघस्थित साधु ज्ञान का भागी (अधिकारी) होता है, दर्शन व चारित्र में विशेषरूप से स्थिर होता है। वे धन्य है जो जीवन-पर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते। ' २९.जस्स गुरुम्मि न भत्ती, नय बहुमाणो न गउरवं न भयं। न वि लज्जा न वि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स? जिसमें गुरु के प्रति न भक्ति है न बहुमान है, न गौरव है, न भय (अनुशासन) है, न लज्जा है तथा न स्नेह है, उसका गुरुकुलवास में रहने का क्या अर्थ है ? ३०-३१. कम्मरयजलोहविणिग्गयस्स, सुयरयणदीहनालस्स। पंचमहव्वयथिरकण्णियस्स, गुणकेसरालस्स। संघ कमलवत् है। (क्योंकि) संघ कर्मरजरूपी जलराशि से कमल की तरह ही.ऊपर तथा अलिप्त रहता है। श्रुतरत्न (ज्ञान या आगम) ही उसकी दीर्घनाल है। पंच महाव्रत ही उसकी स्थिर कर्णिका है तथा उत्तरगुण ही उसकी मध्यवर्ती केसर है। जिसे श्रावकजनरूपी भ्रमर सदा घेरे रहते हैं, जो जिनेश्वरदेवरूपी सूर्य के तेज से प्रबुद्ध होता है तथा जिसके श्रमणगणरूपी सहस्रपत्र है, उस संघरूपी कमल का कल्याण हो। सावगजणमहुयरपरिखुडस्स, जिणसूरतेयबुद्धस्स। संघपउमस्स भई, समणगणसहस्सपत्तस्स॥ (युग्मम्) निरूपण सूत्र निरूपण सूत्र ३२.जो ण पमाणणयेहिं, णिक्खेवेणं णिरिक्खदे अत्थं। तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं च पडिहादि॥ जो प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का बोध नहीं करता, उसे अयुक्त युक्त तथा युक्त अयुक्त प्रतीत होता है। ३३.णाणं होदि पमाणं, णओ वि णादुस्स हिदयभावत्थो। णिक्खेओ वि उवाओ, जुत्तीए अत्थपडिगहणं॥ ज्ञान प्रमाण है। ज्ञाता का हृदयगत अभिप्राय नय है। जानने के उपायों को निक्षेप कहते हैं। इस तरह युक्तिपूर्वक अर्थ ग्रहण करना चाहिए।. Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५५ ३४. णिच्छयववहारणया, मूलभेया णयाण सव्वाणं । च्छियसाहणहे, पज्जयदव्वत्थियं मुणह ॥ ३५. जो सिय भेदुवयारं, धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणियो, विवरीओ णिच्छयो होइ ॥ ३६. ववहारेणुवदिस्सह, णातिस्स चरित्तं दंसणं णाणं । णविणाणं ण चरित्तं, न दंसणं जाणगो सुद्धो ॥ ३७. एवं ववहारणओ, पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण । णिच्छयणयासिदा पुण, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥ ३८. जह ण वि सक्कमणज्जो, तह ववहारेण विणा, अज्जभासं विणा उगाहेउं । परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ ३९. ववहारोऽभूत्थो भूत्थो देसिदो दु सुखणओ । · भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥ ४०. निच्छयमवलंबता, निच्छयतो निच्छयं अजाणता । नासंति चरण- करणं बाहिर-करणालसा केई ॥ ४९. सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभाव-दरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमे ठिदा भावे ॥ अ. १ : ज्योतिर्मुख निश्चय और व्यवहार-ये दो नय ही समस्त नयों के मूल हैं तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय निश्चय के साधन में हेतु हैं। जो एक अखंड वस्तु के विविध धर्मों में कथंचित् (किसी अपेक्षा) भेद का उपचार करता है वह व्यवहार नय है। जो ऐसा नहीं करता अर्थात् अखंड पदार्थ का अनुभव अखंड रूप से करता है, वह निश्चय नय है। व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि ज्ञानी के चारित्र होता है, दर्शन होता है और ज्ञान होता है। किन्तु निश्चयनय से उसके न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है। ज्ञानी तो शुद्ध ज्ञायक है। इस प्रकार आत्माश्रित निश्चयनय के द्वारा पराश्रित व्यवहारनय का प्रतिषेध किया जाता है। निश्चयनय का आश्रय लेनेवाले मुनिजन ही निर्वाण प्राप्त करते हैं। जैसे अनार्य पुरुष को अनार्य भाषा के बिना समझाना संभव नहीं है, वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना संभव नहीं है। व्यवहार अभूतार्थ (असत्यार्थ) है और निश्चय भूतार्थ (सत्यार्थ) है। भूतार्थ का आश्रय लेनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि होता है। निश्चय का अवलंबन करनेवाले कुछ जीव निश्चय को निश्चय से न जानने के कारण बाह्य आचरण में आलसी या स्वच्छन्द होकर चरण-करण (आचार-क्रिया) का नाश कर देते हैं। (ऐसे लोगों के लिए आचार्य कहते हैं कि) परमभाव के द्रष्टा जीवों के द्वारा शुद्ध वस्तु का कथन करनेवाला शुद्धनय (निश्चय नय) ही ज्ञातव्य है । किन्तु अपरमभाव में स्थित जनों को व्यवहारनय के द्वारा ही उपदेश करना उचित है। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६५६ ४२. निच्छयओ दुण्णेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो । ववहारओ उ कीरइ, जो पुव्वट्ठिओ चरित्तम्मि॥ ४३. तम्हा सव्वे वि णया, मिच्छादिट्ठी सपक्ख पडिबद्धा । अन्नोन्न- णिस्सिया उण, हवंति सम्मत्त सब्भावा ॥ ४४. कज्जं णाणादीयं, उस्सग्गाववायओ भवे सच्चं । तं तह समायरंतो, तं सफलं होइ सव्वं पि ॥ संसारचक्र सूत्र ४५. अधुवे असासयम्मि, किं नाम होज्ज तं कम्मयं, संसारम्मि दुक्ख-पउराए । जेणाऽहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ? ॥ ४६. खणमेत्त - सोक्खा बहुकाल - दुक्खा, पगाम- दुक्खा अणिगाम - सोक्खा ॥ संसार- मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥ ४७. सुठुवि मग्गिज्जंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो । नत्थ सुहं सुट्ठं विगविट्ठे ॥ इंदिअ-विसएसुतहा, ४८. नरविबुहेसर - सुक्खं, दुक्खं परमत्थओ तयं बिंति । परिणाम- दारुणमसासयं च जं ता अलं तेण ॥ ४९. जह कच्छुल्लो कच्छु, कंडुयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं । मोहाउरा मणुस्सा, तह काम दुहं सुहं बिंति ॥ खण्ड - ५ निश्चय नय से यह जानना कठिन है कि कौन श्रमण किस भाव में स्थित है, अतः जो चारित्र पर्याय में पहले से स्थित है, उन्हें वन्दना की जाती है यह व्यवहार नय के आधार पर होने वाला आचरण है। अतः अपने-अपने पक्ष का आग्रह रखनेवाले सभी नय मिथ्या हैं और परस्पर सापेक्ष होने पर वे ही सम्यक्भाव को प्राप्त हो जाते हैं। ज्ञान आदि कार्य उत्सर्ग ( सामान्य विधि) और अपवाद (विशेष विधि) दोनों के समन्वित प्रयोग से सत्य होते हैं। वे इस तरह किये जाएं कि सब कुछ सफल हो।' संसारचक्र सूत्र (कपिल मुनि ने चोरों से कहा-) 'अध्रुव, अशाश्व और दुःख - बहुल संसार में ऐसा कौन सा कर्म अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति मैं. न जाऊं ?" (भृगु पुत्रों ने अपने पिता से कहा - ) 'ये काम भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देने वालें हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले हैं, संसार- मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं। बहुत खोजने पर भी - केले के तने के छिलके उतरते रहने पर भी जैसे उसके भीतर पेड़ में छिलके के अतिरिक्त कोई सार नहीं निकलता, वैसे ही इन्द्रियविषयों में बहुत खोजने पर भी उनका बार-बार सेवन करने पर भी उनमें कोई सुख उपलब्ध नहीं होता । नरेन्द्र, सुरेन्द आदि का सुख परमार्थतः दुःख ही है। उसका परिणाम दारुण होता है, और वह सुख अशाश्वत है । फिर हमें उस सुख से क्या ? खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुःख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को भी सुख मानता है। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ६५७ अ. १ : ज्योतिर्मुख ५०.भोगामिस-दोस-विसन्ने, (कपिल मुनि ने चोरों से कहा-) 'आत्मा को दूषित हियनिस्सेयसबुद्धि-वोच्चत्थे। करने वाले भोगामिष (आसक्ति-जनक भोग) में निमग्न, “बाले य मन्दिए मूढे, हित और श्रेयस् में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञानी, मंद और बज्झई मच्छिया व खेलम्मि॥ मूढ जीव उसी तरह (कर्मो से) बंध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी । ५१.जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जम्म-जरा-मरण-संभवं दुक्खं। न य विसएसु विरज्जई, ___ अहो सुबद्धो कवड-गंठो॥ मनुष्य जन्म, जरा और मरण से होने वाले दुःख को जानता है, उसका चिंतन भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता। अहो! माया की गांठ कितनी सुदृढ होती है। ५२.जो खलु संसारत्थो, ___ • जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म, कम्मादो होदि गदिसु गदी॥ संसारी जीव के (राग-द्वेष रूप) परिणाम होते हैं। राग-द्वेषात्मक परिणामों से कर्म-बंध होता है। कर्म-बंध के कारण जीव चार गतियों में गमन करता है जन्म लेता है। ५३.गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विसयग्गहणं, तत्तो रागो वा दोसो वा॥ जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियां प्राप्त होती हैं। उनसे जीव विषयों का ग्रहण करता है। उनसे फिर रागद्वेष पैदा होता है। ५४.जयदि जीवस्सेवं, भावो संसार-चक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो, - अणादिनिधणो सणिधणो वा॥ इस प्रकार जीव संसार-चक्र में परिभ्रमण करता है। उसके परिभ्रमण का हेतुभूत परिणाम (सम्यग्दृष्टि उपलब्ध न होने पर) अनादि-अनन्त और (सम्यग्दृष्टि के उपलब्ध होने पर) अनादि-सान्त होता है। ५५.जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो॥ जन्म, बुढापा, रोग और मरण दुःख है। अहो! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। कर्म सूत्र कर्म सूत्र ५६.जो जेण पगारेणं, भावो णियहो तमन्नहा जो तु। मन्नति करेति वदति व, विप्परियासो भवे एसो॥ जो भाव जिस प्रकार से नियत है, उसे अन्य रूप से मानना, कहना या करना विपर्यास-विपरीतबुद्धि है। ५७.जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण। सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्म॥ जिस समय जीव जैसे भाव करता है, उस समय वह वैसे ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध करता है। १८.कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे च इत्थिसु। . दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मटियं॥ जो शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है, वह राग और द्वेष-दोनों से उसी प्रकार Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६५८ खण्ड-५ कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केंचुआ) मुख और शरीर-दोनों से मिट्टी का। ५९.न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, (संभूत मुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से कहा-) 'ज्ञाति, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा।। मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बटा सकते। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है, क्योंकि कर्म कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म॥ कर्ता का अनुगमन करता है। ६०.कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परवसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्यसो तत्तो॥ जीव कर्मों का बन्ध करने में स्वतंत्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरने में परवश हो. जाता है। ६१.कम्म-वसा खलु जीवा, जीव-वसाई कहिंचि कम्माई। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। जैसे कहीं (ऋण देते समय) धनी बलवान् होता है तो कहीं (ऋण लौटाते समय) कर्जदार बलवान होता है। ६२. कम्मत्तणेण एक्कं, दव्वं भावो त्ति होदि दुविहं तु। पोग्गल-पिंडो दव्वं, तस्सत्ती भाव-कम्मं तु॥ सामान्य की अपेक्षा से कर्म एक है और द्रव्य तथा. भाव की अपेक्षा से दो है। कर्म-पुद्गलों का पिण्ड द्रव्य. कर्म है और उसमें रहने वाली शक्ति या उनके निमित्त से जीव में होने वाला राग-द्वेष रूप विकार भाव-कर्म है। ६३.जो इंदियादि-विजई, भवीय उवओगमप्पगं झादि। कम्मेहिं सो ण रंजदि, किह तं पाणा अणुचरंति॥ जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय (ज्ञान दर्शनमय) आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मों से नहीं बंधता। अतः प्राण उसका अनुसरण कैसे कर सकते हैं? उसे नया जन्म धारण नहीं करना पड़ता। ६४.नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउ-कम्मं तहेव य॥ ६५.नाम-कम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माई, अद्वैव उ समासओ॥ ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयु कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और अंतराय कर्म-संक्षेप में ये आठ कर्म हैं। ६६.पड-पडिहार-सि-मज्ज, हड-चित्त-कुलाल-भंडगारीणं। On EFag rum Hard For Vh natk ___ इन कर्मों का स्वभाव परदा, द्वारपाल, तलवार, मद्य, हलि, चित्रकार, कुम्भकार तथा भंडारी के स्वभाव की तरह है। १. स्पष्टीकरण :-१. जैसे परदा कमरे के भीतर की वस्तु का ज्ञान नहीं होने देता, वैसे ही ज्ञानावरण-कर्म ज्ञान को रोकने या अल्पाधिक करने में निमित्त है। इसके उवय की हीनाधिकता के कारण कोई विशिष्ट ज्ञानी और कोई Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं . मिथ्यात्व सूत्र अ. १ : ज्योतिर्मुख मिथ्यात्व सूत्र हा! खेद है कि मति की मूढता के कारण सुगति का मार्ग न जानता हुआ जीव भयानक और घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा है। ६७.हाजह मोहिय-मइणा,सग्गइ-मग्गं अजाणमाणेणं। भीमे भवकंतारे सचिरं भमियं भयकरम्मि॥ ६८.मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीय-दंसणो होइ। ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो॥ जो जीव मिथ्यात्व का वेदन करता है, उसकी दृष्टि विपरीत होती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वर-ग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता। ६९.मिच्छत्त-परिणदप्पा,तिव्व-कसाएण सुछ आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं, मण्णंतो होदि बहिरप्पा॥ मिथ्यादृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर आत्मा और शरीर को एक मानता है, इसलिए वह बहिरात्मा है। ७०.जो जहवायं न कुणई, जो जैसे कहता है, वैसे आचरण नहीं करता, उससे मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्नो। बड़ा मिथ्यादृष्टि और दूसरा कौन हो सकता है? वह वड्ढइ य मिच्छत्तं, कथनी और करनी की विषमता के कारण दूसरों को .. - परस्स संकं जणेमाणो॥ शंकाशील बना कर मिथ्यात्व को बढाता रहता है। राग-परिहार सूत्र - राग-परिहार सूत्र ७१.रागो य दोसो वि य कम्म-बीयं, राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म कम्मं च मोह-प्पभवं वयंति। मोह से उत्पन्न होता है, वह जन्म-मरण का मूल है और कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं, - जन्म-मरण दुःख का मूल है। __ दुक्खं च जाई-मरणं वयंति॥ ७२.न वि तं कुणइ अमित्तो, अत्यंत तिरस्कृत समर्थ शत्रु भी उतनी हानि नहीं .. . सुट्ठ वि य विराहिओ समत्थो वि। पहुंचाता, जितनी हानि अनिगृहीत राग और द्वेष जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य॥ पहुंचाते हैं। ७३.न य संसारम्मि सुहं, जाइ-जरा-मरण-दुक्ख-गहियस्स। जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवादेओ॥ अल्पज्ञानी बनता है। २. जैसे द्वारपाल दर्शनार्थियों को राजदर्शन आदि से रोकता है, वैसे ही दर्शन का आवरण करने वाला दर्शनावरण कर्म है। ३. जैसे तलवार की धार पर लगा मधु चाटने से मधुर स्वाद अवश्य आता है, फिर भी जीभ के कट जाने का असह्य दुःख भी होता है, वैसे ही वेदनीय कर्म सुख-दुःख का निमित्त है। ४. जैसे मद्यपान से मनुष्य मदहोश हो जाता है-सुध-बुध खो बैठता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से विवश जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है। ५. जैसे हलि काठ-बंध (खोडा) में पांव फंसा देने पर मनुष्य रुका रह जाता है। इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सख नहीं है। अतः मोक्ष ही उपादेय है। वैसे ही आयु-कर्म के उदय से जीव शरीर में निश्चित समय तक रुका रहता है। ६. जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नाम कर्म के उदय से जीवों के नानाविध देहों की रचना होती है। ७. जैसे कुंभकार छोटे बडे बर्तन बनाता है, वैसे ही गोत्र कर्म के उदय से जीव को उच्चता या नीचता मिलती है। ८. जैसे भंडारी (खजांची) दाता को देने से और याचक को लेने से रोकता है, वैसे ही अंतराय-कर्म के उदय से दान-लाभ आदि में बाधा पडती है। इस तरह ये आठों कर्मों के स्वभाव हैं। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७४. तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भव सायरस्स घोरस्स । तो तव - संजम - भंड, सुविहिय! गिण्हाहि तूरंतो ॥ ७५. बहु-भयकर-दोसाणं, न हुवसमागतव्वं, सम्मत्त चरित-गुण-विणासाणं । रागद्दोसाण पावाणं ॥ ७६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागी ॥ ७७. जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं । मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतओ होइ असंवेगी ॥ ७८.एवं संकप्प-विकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स । अत्थे य संकम्पयओ तओ से, पीय काम-गुणेसु तहा ॥ ७९. अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवु त्ति निच्छियमईओ । दुक्ख - परिकिलेसकरं, छिंद ममत्तं सरीराओ ॥ ८०. कम्मासव - दाराई, निरुंभियव्वाइं इंदियाई च । हंतव्वा य कसाया, तिविहं - तिविहेण मोक्खत्थं ॥ ६६० ८१. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह - परंपरेण । न लिप्पई भव- मज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी - पलासं ॥ खण्ड - ५ हे सुविहित ! यदि तू घोर भवसागर के पार जाना तो शीघ्र ही तप-संयत रूपी नौका को ग्रहण चाहता कर । राग और द्वेष-ये दोनों सम्यक्त्व, चारित्र आदि गुणों के विनाश करने वाले तथा भय हेतु हैं, अतः इनके वशवर्ती नहीं होना चाहिए। सब जीवों के और क्या देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतराग उस दुःख का अन्त पा जाता है।. जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका पूर्ण आदर भाव से आचरण करना चाहिए। विरक्त व्यक्ति दुःख परंपरा से मुक्त हो जाता है और आसक्त व्यक्ति की दुःख- परम्परा अनन्त होती है। इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संकल्प और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थों - इन्द्रियविषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों में होने वाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती हैं। निश्चय दृष्टि के अनुसार शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। आत्मा और शरीर की एकत्व - बुद्धि से दुःख और क्लेश उत्पन्न होता है। अतः दुःख और क्लेश उत्पन्न करने वाले शरीर के ममत्व को छिन्न कर डाल । मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्म के आस्रव और इन्द्रियों का मनसा, वाचा, कर्मणा (त्रिकरण) और कृत, कारित, अनुमोदन (त्रियोग) पूर्वक निरोध और कषायों का अंत करना चाहिए। भाव में विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह इस संसार में रह कर भी अनेक दुःखों की परंपरा से लिप्त नहीं होता। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६१ समणसुत्तं • धर्म सूत्र ८२. धम्मो मंगलमुकिटं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ अ. १ : ज्योतिर्मुख धर्म सूत्र धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। ८३.धम्मो वत्थु-सहावो, खमादि-भावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो॥ वस्तु का स्वभाव धर्म है। दशविध-क्षमा आदि भाव धर्म है। रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र) धर्म है। जीवों की रक्षा अहिंसा धर्म है। ८४. उत्तमखम-महवज्जव-सच्च-सउचं च संजमं चेव। तव-चाग-मकिंचण्हं, बम्ह इदि दसविहो धम्मो॥ उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य-ये दस धर्म है। ८५.कोहेण जो ण तप्पदि, . सुर-णर तिरिएहि कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा णिम्मला होदि॥ देव, मनुष्य और तिर्यंचों (पशुओं) के द्वारा घोर व भयानक उपसर्ग करने पर भी जो क्रोध से तप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमाधर्म होता है। (यही उत्तम क्षमाधर्म है।) ८६.खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे, जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केण वि॥ मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है। मेरा किसी से भी वैर नहीं है। ८७.जइ किंचि पमाएणं,न सुठु भे वट्टियं मए पुव्विं। अल्पतम प्रमादवश भी यदि मैंने आपके प्रति उचित तंभे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ व्यवहार नहीं किया हो तो मैं निःशल्य और कषायरहित होकर आपसे क्षमायाचना करता हूं। ८८.कुल-रूव-जादि-बुद्धिसु, तव-सुद-स वं किंचि। जो णवि कुव्वदि समणो, महव-धम्म हवे तस्स॥ जो श्रमण कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील का तनिक भी गर्व नहीं करता, उसके उत्तम मार्दव धर्म होता है। ८९.जो अवमाण-करणं, दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्तो। सो णाम होदि माणी, ण दु गुणचत्तेण माणेण॥ जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का त्याग कर निर्दोष प्रवृत्ति करता है, वही सच्चा मानी है। किन्तु गुणशून्य होकर अभिमान करने से कोई मानी नहीं होता। ९०.से असइं उच्चागोए असई नीआगोए. यह पुरुष अनेक बार उच्च गोत्र और नीच गोत्र का नो हीणे नो अइरित्ते।। अनुभव कर चुका है। अतः न कोई हीन है और न कोई नोऽपीहए इति संखाए, अतिरिक्त, (इसलिए वह उच्च गोत्र की) स्पृहा न करे। के गोयावाई के माणावई॥ (यह पुरुष अनेक बार उच्च गोत्र और नीच गोत्र का Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६६२ खण्ड-५ अनुभव कर चुका है-) यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा? ९१. जो चिंतेइ ण बंकं, ण कणदि वंकं ण जंपदे वंक। ण य गोवदि णियदोसं,अज्जव-धम्मो हवे तस्स॥ जो वक्र विचार नहीं करता, वक्र कार्य नहीं करता, वक्र वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है। ९२.परसंतावय-कारण-वयणं,मोत्तण स-पर-हिद-वयणं। जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्सदुधम्मो हवे सच्च॥ जो भिक्षु (श्रमण) दूसरों को संताप पहुंचाने वाले वचनों का त्याग कर स्व-पर-हितकारी वचन बोलता है उसके चतुर्थ उत्तम सत्य धर्म होता है। ९३.मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय होता एवं अदत्ताणि समाययंतो, है। इस प्रकार वह रूप में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ दुःखी और आश्रय-हीन हो जाता है। ९४.पत्थं हिदयाणिठं,पि भणमाणस्स सगणवासिस्स। कड़गं व ओसहं तं,महुर-विवायं हवइ तस्स॥ अपने गणवासी (साथी) द्वारा कही हुई हितकर बात, भले ही वह मन को प्रिय न लगे, कटक औषध की भांति परिणाम में मधुर ही होती है। ९५.विस्ससणिज्जो माया, व होइ पुज्जो गुरु व्व लोअस्स। सयणु व्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ॥ सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वज़न की भांति सबको प्रिय होता है। ९६.सच्चम्मि तवो, सच्चम्मि संजमो तह वसे सेसा वि गुणा। सच्चं णिबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं॥ सत्य में तप, संयम और समस्त गुणों का वास होता है। जैसे समुद्र मत्स्यों का आश्रय स्थान है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का आश्रय स्थान है। ९७.जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमास-कयं कज्ज, कोडीए वि न निठ्ठियं॥ जैसे लाभ होता है, वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढता है। दो माशा सोने से होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी पूरा नहीं होता।' ९८.सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे, (नमि राजर्षि ने इंद्र से कहा-) 'कदाचित् सोने और सिया हु केलास-समा असंखया। चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं, तो भी नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता (तृप्ति नहीं इच्छा हु आगास-समा अणंतिया॥ होती), क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। १. यह निष्कर्ष कपिल नामक व्यक्ति की तृष्णा के उतार-चढाव के परिणाम को सूचित करता है। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तं ९९. जहा य अंड-प्पभवा बलागा, एमेव मोहाययणं खु तण्हा, १००. सम-संतोस - जलेणं, अंडं बलाग-प्पभवं जहा य । मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥ १०१. वय समिदि कसायाणं, जो धोवद तिव्व-लोहमल पुंजं । भोयण-गिद्धि-विहीणो, तस्स सउचं हवे विमलं ॥ दंडाणं तह इंदियाण पंचन्हं । धारण- पालण - णिग्गह १०६. चाय - ज़ओ संजमो भणिओ ॥ १०२. विसय कसाय - विणिग्गह- भावं, १०५. होऊण य णिस्संगो, णिदेण दु वट्टदि काऊणं झाण-सज्झाए । जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ॥ १०३. णिव्वेद - तियं भावइ, मोहं चइऊण- सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिदेहिं ॥ ६६३ १०४. जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥ • अहमिक्को खलु सुद्धो, णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं । अणयारो तस्साss किंचण्णं ॥ ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि, दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी । अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥ अ. १ : ज्योतिर्मुख जैसे बलाका अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। जो समता व संतोष के जल से तीव्र लोभ के मल समूह को धोता है, और जिसमें भोजन की लिप्सा नहीं है उसके विमल उत्तम शौच धर्म होता है। व्रत धारण, समिति - पालन, कषाय- निग्रह, मानसिक, वाचिक, कायिक दंड का त्याग, पंचेन्द्रियजय- इन सबको संयम धर्म कहा जाता है। यही उत्तम संयम धर्म है। इंद्रिय विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है, उसके तप होता है। यही उत्तम तप धर्म है। जो सब द्रव्यों से होने वाले मोह को त्याग कर निर्वेद त्रिक (संसार-वैराग्य, देह-वैराग्य तथा भोग- वैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। यही उत्तम त्याग धर्म है। त्यागी वही कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर, उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है । जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निःसंग हो जाता है, अपने सुखद व दुःखद भावों का निग्रह कर निर्द्वद्व विचरता है, उसके उत्तम आकिंचन्य धर्म होता है। यही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। मैं एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूं। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरा नहीं है, परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६६४ खण्ड-५ १०७. सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो नत्थि किंचण। मिहिलाए डझमाणीए, न मे डज्झइ किंचण॥ (नमि राजर्षि ने इन्द्र से कहा-) 'हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, सुख पूर्वक रहते हैं और सुखपूर्वक जीते हैं। मिथिला जल रही है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है।' १०८. चत्त-पुत्त-कलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खुणो। पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त पियं न विज्जई किंचि,अप्पियं पि न विज्जए॥ भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती। १०९. जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलितं कामेहि, तं वयं बूम माहणं॥ (जयघोष मुनि ने कहा-) "जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते है। . ११०. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, ___ जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। ___ मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया। लोहो हओ जस्स न किंचणाई॥ जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया। १११.जीवो बंभ जीवम्मि, आत्मा ही ब्रह्म है। उस (ब्रह्म) में चर्या-रमण करना चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। वही ब्रह्मचर्य है। जो संयमी है और देहासक्ति से मुक्त. तं जाण बंभचेरं, होता है, उसी के ब्रह्मचर्य होता है। यही उत्तम ब्रह्मचर्य विमुक्क-परदेह-तित्तिस्स॥ धर्म होता है। ११२. सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं। सो बम्हचेरभावं, सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि॥ स्त्रियों के सर्वांगों को देखते हुए भी उनमें दुर्भाव नहीं करता-विकार को प्राप्त नहीं होता, वही वास्तव में दुर्द्धर ब्रह्मचर्यभाव को धारण करता है। ११३. जउकुंभे जोइसुवगूढे,आसुभितत्ते नासमुवयाइ।, एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण नासमवयंति॥ जैसे अग्नि के पास रखा हुआ लाख का घड़ा तप्त होने पर शीघ्र ही नष्ट होता है, वैसे ही स्त्री के निकट संपर्क में रहने वाला ब्रह्मचारी नष्ट हो जाता है। ११४. एए य संगे समइक्कमित्ता, जो मनुष्य इन काम विषयक आसक्तियों का पार पा सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा।। जाता है, उसके लिए शेष सारी आसक्तियां वैसे ही सुख जहा महासागरमुत्तरित्ता, से पार पाने योग्य हो जाती हैं, जैसे महासागर का पार पा नई भवे अवि गंगासमाणा॥ जाने पर गंगा जैसी बड़ी नदी। Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुतं ११५. जह सील-रक्खयाणं, पुरिसाणं णिंदिदाओ महिलाओ । तहसील- रक्खयाणं, ११६. किं पुण गुण-सहिदाओ, महिलाणं णिंदिदा पुरिसा ॥ इत्थीओ अत्थि वित्थड - जसाओ । णरलोग देवदाओ, देवेहिं वि वंदणिज्जाओ ॥ ११७. तेल्लोक्काडवि - डहणो, ६६५ कामग्गी विसय-रुक्ख पज्जलिओ । जोव्वणतणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हवइ धण्णो ॥ ११८. जा जा वच्चइ रयणी, न सा पंडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जम्ति राइओ ॥ १२१. अप्पा जाणइ अप्पा, १९. जहा यतिणि वणिया, मूलं घेत्तूण निम्गया । एगोत्थ लहई लाहं, एगो मूलेण आगओ ॥ १२०. एगो मूलं पि हारिता, आगओ तत्थ वाणिओ । ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह ॥ अप्पा करेइ तं तह, जहट्ठिओ अप्पसक्खिओ धम्मो । जह अप्पा सुहावहो होइ ॥ संयम सूत्र २२. अप्पा गई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहाणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ १३. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिअ सुपट्ठिओ ।। अ. १ : ज्योतिर्मुख जैसे शील- रक्षक पुरुषों के लिए स्त्रियां निन्दित हैं, वैसे ही शील रक्षिका स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दित हैं। स्त्री पुरुष की और पुरुष स्त्री की काम-वासना के उभरने में निमित्त बनता है, इस दृष्टि से विरोधी लिंग को निन्दित कहा गया है। किन्तु ऐसी भी शीलगुण सम्पन्न स्त्रियां हैं, जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। वे मनुष्य-लोक की देवता हैं और देवों के द्वारा वन्दनीय हैं। विष वृक्ष से प्रज्वलित होने वाली कामाग्नि तीन लोकरूपी अटवी को जला देती है। यौवनन-तृणवान् प्रदेश में संचरण करने वाली कामाग्नि जिस व्यक्ति को नहीं जलाती, वह धन्य है । जो जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं। जैसे तीन वणिक् मूल पूंजी को लेकर निकले। उनमें से एक लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है। तथा एक मूल को भी गंवा कर वापिस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए। आत्मा यथास्थित आत्मा को जानता है। धर्म आत्मसाक्षिक होता है। इस धर्म का पालन आत्मा वैसे ही करता है जैसे कि वह अपने लिए सुखकर हो । संयम सूत्र (अनाथी मुनि ने वणिक् से कहा-) 'मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही कामदुधा धेनु है और आत्मा ही नंदनवन है । ' आत्मा ही दुःख-सुख का कर्त्ता और विकर्त्ता (विनाशक) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-५ १२४. एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी॥ (गौतम ने केशी से कहा-) 'एक अविजित आत्मा ही शत्रु है। कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। हे मुने! मैं उन्हें जीत कर नीति के अनुसार विचरण करता हूं।' १२५. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ॥ (नमि राजर्षि ने इन्द्र से कहा-) जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा यदि वह अपने आपको जीतता है, यह उसकी परम विजय है। १२६. अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सहमेहए। स्वयं अपने से ही युद्ध करो। बाहरी युद्ध से तुझे क्या? अपने से अपने को जीत कर ही मनुष्य सुख पाता है। १२७. अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा ह खलु दुइमो। अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य॥ . आत्मा को ही अनुशासित करना चाहिए, क्योंकि आत्मा पर ही अनुशासन करना कठिन है। अनुशासित आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होता है। १२८. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य॥ अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपने आपको अनुशासित करूं। दूसरे लोग बंधन और वध के द्वारा मुझ पर अनुशासन करें-यह अच्छा नहीं है। १२९. एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं॥ एक स्थान से निवृत्ति और एक स्थान में प्रवृत्ति करे। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करे। १३०. रागहोसं य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे। राग और द्वेष-ये दो पाप पापकर्म के प्रवर्तक हैं। जो जे भिक्खू संभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले॥ भिक्षु इनका सदा निरोध करता है, वह मंडल (संसार) में नहीं रहता-मुक्त हो जाता है। १३१. नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बला निरुब्भंति। इंदियविसय-कसाया, धरिया तुरगा व रज्जूहिं॥ __ ज्ञान, ध्यान और तपोबल-इस साधना की सामर्थ्य से इन्द्रिय-विषयों और कषायों को निगृहीत किया जाता है जैसे कि लगाम के द्वारा अश्व को। १३२. उवसामं पुवणीता, गुणमहता जिण-चरित्त-सरिसं पि। पडिवातेंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे। उपशम श्रेणी में आरूढ अर्हत के समान चारित्र वाले महागुणी मुनि भी कषाय के द्वारा प्रतिपतित हो जाते हैं (गिर जाते हैं) फिर सराग मुनियों का तो कहना ही क्या? Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ६६७ अ. १ : ज्योतिर्मुख १३३. जति-उपसंत-कसाओ. यदि कषाय की उपशांत स्थिति को प्राप्त पुरुष भी लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं। अंतहीन पतन (विशुद्ध अध्यवसाय की अनन्त हानि) को • नहु भे वीससियव्वं, प्राप्त हो जाता है, फिर शेष रहे हुए स्वल्प कषाय पर कैसे थोवे वि कसाय-सेसम्मि॥ विश्वास किया जा सकता है? १३४. अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ॥ ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को अल्प मानकर विश्वस्त हो नहीं बैठ जाना चाहिए। क्योंकि इनका स्वल्प अंश भी बढते-बढते बहुत हो जाता है। १३५. कोहो पाइं पणासेइमाणो विणय-नासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो॥ क्रोध प्रीति को नष्ट करता है. मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है। १३६. उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे। मायं चऽज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे॥ शांति से क्रोध को क्षीण करें, मृदुता से मान को, ऋजुता से माया को और संतोष से लोभ को जीतें। १३७. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावेहिं अप्पाणं, अज्झप्पेण समाहरे॥ जैसे कछुआ (सियार आदि से बचने के लिए) अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही साधक इंद्रिय-विकारों से बचने के लिए अपनी इंद्रियों को एकाग्रता और वैराग्य के द्वारा अध्यात्म में समेट लेता है। १३८. से जाणमजाणं वा कटु आहम्मि पयं। __ संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे॥ जाने या अनजाने कोई अधर्म कार्य कर बैठे, तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा ले। फिर दूसरी बार वह कार्य न करे। १३९. धम्माराम चरे भिक्ख धिइमं धम्म-सारही। धम्माराम-रए दन्ते. बंभचेर-समाहिए॥ धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलाने वाला, धर्म के आराम में रत, दान्त और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पाने वाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे। अपरिग्रह सूत्र अपरिग्रह सूत्र १४०. संग-निमित्तं मारइ, भणइ अलीअं करेइ चोरिक्कं। सेवह मेहुणमिच्छं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो॥ जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अपरिमित इच्छा करता है। (इस प्रकार परिग्रह पांचों पापों की जड़ है।) १४१. चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि। अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चई॥ जो अणुमात्र भी सजीव या निर्जीव वस्तु का परिग्रह करता है अथवा किसी परिग्रह करने वाले का अनुमोदन करता है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन १४२. जे ममाइय मतिं जहाति से जहाति ममाइयं । से हु विट्ठ- पहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइयं ॥ १४३. मिच्छत्त- वेद-रागा, तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरा गंथा ॥ १४४. बाहिर संगा खेतं, वत्थु धण-धन्न - कुप्प भंडाणि । चेव सयणासणे य तहा ॥ दुपय- चउप्पय-जाणाणि, १४५. सव्य-गंध-विमुक्को, जं पावइ मुत्ति-सुहं, ६६८ सीईओ पसंत चित्तो अ न चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥ १४६. गंथ - च्चाओ इंदिय- णिवारणे, रस्स खाइया वि, अंकुसो व हत्यिस्स । इंदि-गुत्ती असंगतं ॥ अहिंसा सूत्र १४७. एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ कंचणं । अहिंसा-समयं चेव, एयावंतं वियाणिया ॥ १४८. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाण-वहं घोरं निम्गंथा वज्जयंति णं ॥ १४९. जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा ण हणे णो वि घायए ॥ १५०. जह ते न पिअं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्व-जीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥ खण्ड ५ जो ममत्व की बुद्धि का त्याग करता है, वही ममत्व को त्याग सकता है। उसी मुनि (ज्ञानी) ने पथ को देखा है, जिसके ममत्व नहीं है। परियह दो प्रकार का है-आभ्यन्तर और बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है - ९. मिथ्यात्व, २. स्त्रीवेद, ३. पुरुषवेद, ४. नपुंसकवेद, ५. हास्य, ६. रति, ७. अरति, ८. शोक, ९. भय, १०. जुगुप्सा, ११. क्रोध, १२. मान, १३. माया, १४. लोभ । बाह्य परिग्रह दस प्रकार का है- १. खेत, २. मकान, ३. धन-धान्य, ४. वस्त्र, ५. भांड, (घरेलू उपकरण), ६. नौकर-नौकरानी, ७. पशु, ८. यान, ९. शयन, १०. आसन । जो सब ग्रन्थियों (परिग्रह, इच्छा, मूर्च्छा आदि) से मुक्त है, जिसके कषाय शान्त हैं, चित्त शांति से भरपूर है, वह पुरुष वैसा मुक्ति सुख प्राप्त करता है जैसा सुख चक्रवर्ती भी प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे हाथी को वश में करने के लिए अंकुश होता है और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है, वैसे ही इन्द्रियविजय के लिए परिग्रह का त्याग आवश्यक होता है। परिग्रह त्याग से इन्द्रिय गुप्ति और असंगता प्राप्त होती है। अहिंसा सूत्र ज्ञानी के ज्ञान का सार अहिंसा है समता (आत्मतुला या आत्मौपम्य बुद्धि) ही अहिंसा है। यह जानकर किसी की भी हिंसा न करे। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं अतः प्राणवध को भयानक जानकर निर्बंध उसका वर्जन करते हैं। लोक में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं, निर्बंध जान या अजान में उनका हनन न करे और न कराए। जैसे तुम्हे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं. ६६९ अ. १ : ज्योतिर्मुख १५१. जीव-वो अप्प-वहो, जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी जीव-दया अप्पणो दया होइ। ही दया है। अतः आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की ता सव्वजीव-हिंसा, जीव-हिंसा का परित्याग किया है। परिचत्ता अत्त-कामेहिं॥ १५२. तुमं सि नाम सच्चेव, जं हंतव्वंति मनसि। तुमं सि नाम सच्चेव, जं अज्जावेयव्वंति मन्नसि॥ जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। ती १५३. रागादीणं अणुप्पाअ, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए। तीर्थंकरों ने कहा है-राग आदि की उत्पत्ति का न तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिहिट्ठा॥ होना अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है। १५४. अज्झवसिएणबंधो, सत्ते मारेज्जमा व मारेज्ज। एसो बंध-समासो, जीवाणं णिच्छय-णयस्स॥ हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है, फिर कोई जीव मरे या न मरे। निश्चयनय के अनुसार जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है। १५५. हिंसादो अविरमणं,वह-परिणामो य होइ हिंसा हु। ... तम्हा पमत्तजोगो, पाण-वबरोवओ णिच्चं॥ हिंसा से विरत न होना और हिंसा का परिणाम (अध्यवसाय) होना हिंसा ही है। इसलिए जिसकी प्रवृत्ति प्रमादपूर्ण है वह सदा हिंसक है। १५६. णाणी कम्मस्स खयत्थ ज्ञानी कर्म-क्षय के लिए तत्पर रहता है, हिंसा के मुदिठदो णोदिठदो य हिंसाए। लिए नहीं। वह निश्छलभाव से अहिंसा के लिए प्रयत्न अददि असढं अहिंसत्यं, करता है। इसलिए जो अप्रमत्त होता है, वही अहिंसक - अप्पमत्तो अवधगो सो॥ है। १५७. अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समए। .. जो टेदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो॥ आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है-यह निश्चय-नय की दृष्टि से आगम में प्रतिपादित है। जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक है और जो प्रमत्त है, वह हिंसक है। १५८. तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि। जैसे मेरु पर्वत से कोई ऊंचा और आकाश से कोई ___जह तह जयंमि जाणसु,धम्ममहिंसासमं नत्थि॥ विशाल नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। १५९. अभओ पत्थिवा! तुम्भं, अभयदाया भवाहि य। * अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि॥ (मुनि ने कहा-) पार्थिव! तुझे अभय है और तू भी अभयदाता बन। इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है? Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६७० खण्ड-५ अप्रमाद सूत्र अप्रमाद सूत्र १६०. इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं। तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरन्ति त्ति कहं पमाए? (सम्भूत ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से कहा-) 'यह मेरे . पास है और यह नहीं है, यह मुझे करना है और यह नहीं करना है-इस प्रकार प्रलाप करते हुए पुरुष को उठाने वाला (काल) उठा लेता है। इस स्थिति में प्रमाद कैसे .. किया जाए? १६१. सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था। तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्म॥ लोक में ज्ञान आदि सारभूत अर्थ हैं। जो पुरुष सोते हैं उनके वे अर्थ नष्ट हो जाते हैं। अतः सतत जागृत रहकर पूर्वार्जित कर्मों (ज्ञान आदि के आवरणों) को प्रकंपित करो। १६२. जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया। वच्छाहिव-भगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए॥ 'धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है'-ऐसा भगवान् महावीर ने वत्सदेश के राजा शतानीक की बहन जयन्ती से कहा था। १६३. सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिए आसुपण्णे। घोरा मुहुत्ता अबलं शरीरं, भारुंड-पक्खी व चरप्पमत्तो॥ आशप्रज्ञ पण्डित सोए हुए व्यक्तियों के बीच भी । जागृत रहे। प्रमाद में विश्वास न करे। मुहूर्त (काल) बड़े घोर (निर्दयी) होते हैं। शरीर दुर्बल है, इसलिए तू भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त होकर विचरण कर। १६४. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं। तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा॥ प्रमाद को कर्म (आस्रव) और अंप्रमाद को अकर्म (संवर) कहा है। प्रमाद की अपेक्षा से मनुष्य बाल (अज्ञानी) होता है। अप्रमाद की अपेक्षा से वह पण्डित (ज्ञानी) होता है। १६५. न कम्मुणा कम्म खवेति बाला. अकम्मुणा कम्म खति धीरा। मेधाविणो लोभ-मया वतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं॥ मेधावियो लोप भजाम्बुमा काम खति अज्ञानी पुरुष कर्म-प्रवृत्ति के द्वारा कर्म का क्षय होना मानते हैं किन्तु वे कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नहीं कर सकते। धीर पुरुष अकर्म (संवर या निवृत्ति) के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं। मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा संतोषी होकर पाप नहीं करते। १६६. सव्वओ पमत्तस्स भयं, प्रमत्त को सब ओर से भय होता है। अप्रमत्त को सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं। किसी ओर से भय नहीं होता। १६७. नाऽऽलस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निहया। न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालया॥ आलसी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु विद्याभ्यासी नहीं हो सकता, ममत्व रखने वाला वैराग्यवान् नहीं हो सकता, और हिंसक दयालु नहीं हो सकता। ' Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ६७१ अ. १ : ज्योतिर्मुख १६८. जागरहे नरा! निच्चं, मनुष्यो! सतत जागृत रहो। जो जागता है उसकी __जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वह धन्य नहीं है। धन्य वह है जो सवहण सोधन्नो, जो सदा जागता है। जो जग्गा सोसया धन्नो॥ १६९. आदाणे णिक्खेवे, वोसिरणे ठाण-गमण-सयणेसु। सव्वत्थ अप्पमत्तो, दयावरो होदि हु अहिंसओ॥ वस्तुओं के लेने-रखने, मल-मूत्र का विसर्जन करने, बैठने तथा चलने-फिरने और शयन करने में जो सदा अप्रमत्त रहता है, वही दयाल और अहिंसक होता है। शिक्षा सूत्र शिक्षा सूत्र १७०. विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणीअस्स य। जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छह॥ अविनयी के ज्ञान आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, यह उसकी विपत्ति है और विनयी को ज्ञान आदि गुणों की सम्प्राप्ति होती है, यह उसकी सम्पत्ति है। इन दोनों का ज्ञाता ही (ग्रहण और आसेवनरूप) सच्ची शिक्षा प्राप्त करता है। १७१. अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्बई। थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य॥ अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य-इन पांच स्थानों (कारणों) से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। १७२. अह अट्ठहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई। इन आठ स्थानों से मनुष्य को शिक्षाशील कहा जाता स्सिरे सया दंते. न य मम्ममदाहरे॥ है-१. हंसी-मजाक नहीं करना, २. सदा इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करना ३. किसी का रहस्योद्घाटन न १७३. नासीले न विसीले, न सिया अइलोलए। करना, ४. अशील (सर्वथा आचारविहीन) न होना, ५. अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई॥ विशील (दोषों से कलंकित) न होना, ६. अति लोलुप न होना, ७. अक्रोधी रहना तथा ८. सत्यरत होना। १७४. नाणमेगग्गचित्तो य ठिओ ठावयई परं। सुयाणि य अहिज्जित्ता, रओ सुय-समाहिए॥ अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान होता है और चित्त की एकाग्रता होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में रत हो जाता है। १७५. बसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं। पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लछुमरिहई॥ जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो समाधियुक्त होता है, जो उपधान (तप) करता है, जो प्रिय करता है और प्रिय बोलता है वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। १७६. जह दीवा दीव-सयं,पइप्पए सो य दिप्पए दीवो। दीव-समा आयरिया, दिप्पंति परं च दीति॥ जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन आत्म सूत्र १७७. उत्तमगुणाण धामं सव्वदव्वाण उत्तमं दब्बं । तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥ १७८. जीवा हवंति तिविहा, बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि यदुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ॥ १७९. अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा हु अप्प-संकप्पो । कम्म-कलंक - विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥ १८०. ससरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणिय-सयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा, सव्युत्तम सुक्ख संपत्ता । १८१. आरुहवि अंतरप्पा, झाइज्जइ परमप्पा, १८२. चउगइ भवसंघमणं, ६७२ बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण । उवहट्ठं जिणवरिदेहिं ॥ जाइ जरा मरण-रोय सोका थ कुल जोणि जीव मग्गण-ठाणा, जीवस्स णो संति ॥ - १८३. वण्ण-रस-गंध-फासा, संठाणा संहणणा, थी-पुंस वंसयादि पज्जाया । सब्वे जीवस्स णो संति। १. जैन दर्शन में जीव और आत्मा एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। खण्ड-५. होते हैं। वे स्वयं प्रकाशवान् रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं। आत्म सूत्र तुम यह जानो कि वास्तव में जीव उत्तम गुणों का आश्रय, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और सब तत्त्वों में परमतत्त्व है। जीव (आत्मा) तीन प्रकार का है-बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । परमात्मा के भी दो प्रकार हैं - अर्हत् और सिद्ध इन्द्रिय समूह को आत्मा मानने वाला बहिरात्मा है। आत्मा में आत्मा का संकल्प करने वाला अंतरात्मा है। कर्म-कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा या देव कहलाता है। केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जानने वाला सशरीरी जीव (मनुष्य) अर्हत् है सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञान- शरीरी जीव सिद्ध होते हैं। तीर्थंकरों ने यह पथ दिखलाया है तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो। जीव' में चतुर्गतिरूप भव-भ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक तथा कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं होते। जीव में वर्ण, रस, गंध, स्पर्श तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्याय तथा संस्थान और संहनन नहीं होते हैं। Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तं १८४. एदे सव्वे भावा, ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु । सव्वे सिद्ध-सहावा, सुद्ध-णया संसिदी जीवा ॥ १८५. अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसहं । जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठ- संठाणं ॥ १८६. णिइंडो, णिहंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिहोसो, णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा || १८७. णिग्गंथो णीरागो, ६७३ सिल्लो सयलदोस- णिम्मुक्को । णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥ १८८. णवि होदि अप्पमत्तो, ण पत्तो जाणओ द जो भावो । दु एवं भांति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव ॥ १८९. णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं ॥ १९०. को नाम भणिज्ज बुहो, णाउं सव्वे पराइए भावे । मज्झमिणं ति य वयणं, जाणंतो अप्पयं सुद्धं ॥ १९१. अहमिक्को खलु सुखो, णिम्ममओ णाण- दंसण - समग्गो । तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं मि॥ अ. १ : ज्योतिर्मुख जीव में ये (चतुर्गति रूप भव-भ्रमण आदि) सब भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से कहे जाते हैं। शुद्धनय ( निश्चय नय) की अपेक्षा से संसारी जीव सिद्ध स्वरूप है। शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चैतन्य गुणवाला, अशब्द, अलिंगग्राह्य (अनुमान से परे) और संस्थान - रहित (निराकार) है। आत्मा निर्दण्ड (मन, वचन और काय रूप दण्ड से रहित), निर्द्वन्द्व - ( अकेला), निर्मम - (ममत्व रहित), निष्कल - ( शरीर रहित), निरालम्ब - ( पर द्रव्यालंबन से रहित), वीतराग, वीतद्वेष, अमूढ तथा निर्भय है। आत्मा निग्रंथ, नीराग, निःशल्य, सर्व दोषों से निर्मुक्त, निष्काम, निःक्रोध, निर्मान तथा निर्मद है। आत्मा ज्ञायक है। जो ज्ञायक होता है वह न अप्रमत्त होता है और न प्रमत्त। जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वह शुद्ध होता है। आत्मा ज्ञायक रूप में ही ज्ञात है, तथा वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है । ' मैं (आत्मा) न शरीर हूं, न मन हूं, न वाणी हूं और न उनका कारण हूं। मैं न कर्ता हूं, न कराने वाला हूं और न कर्ता का अनुमोदक ही हूं। आत्मा को शुद्ध - चैतन्यमय जानने वाला, शेष सब भाव पराए हैं - यह जान कर, कौन ज्ञानी कहेगा - यह पदार्थ मेरा है। मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममतारहित हूं, और ज्ञान दर्शन से परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब ( वैभाविक पर्यायों) का क्षय करता हूं। १. गुणस्थानों की दृष्टि से जीव को छठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवें से अप्रमत्त कहा जाता है। ये दोनों दशाएं शुद्ध जीव की नहीं हैं। Page #697 --------------------------------------------------------------------------  Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-२ मोक्षमार्ग Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय १६. मोक्षमार्गसूत्र १७. रत्नत्रयसूत्र १८. सम्यक्त्वसूत्र १९. सम्यग्ज्ञानसूत्र २०. सम्यक्चारित्रसूत्र . २१. साधनासूत्र २२. द्विविधधर्मसूत्र २३. श्रावकधर्मसूत्र २४. श्रमणधर्मसूत्र गाथाएं १९२-२०७ २०८-२१८ २१९-२४४ २४५-२६१ २६२-२८७ २८८-२९५ २९६-३०० ३०१-३३५ ३३६-३६३ २५. व्रतसूत्र २६. समितिगुप्तिसूत्र २७. आवश्यकसूत्र २८. तपसूत्र २९. ध्यानसूत्र ३०. अनुप्रेक्षासूत्र ३१. लेश्यासूत्र ३२. आत्मविकाससूत्र गुणस्थान ३३. संलेखनासूत्र 'गाथाएं ३६४-३८३ ३८४-४३८ ४१७-४३८ ४३९-४८३ ४८४-५०४ ५०५-५३० ५३१-५४५ ५४६-५६६ ५६७-५८७ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग सूत्र मोक्षमार्ग सूत्र मोक्षमार्ग सूत्र १९२. मग्गो मग्गफलं ति य, जिनशासन में 'मार्ग' तथा 'मार्गफल' ये दो निर्दिष्ट . दुविहं जिणसासणे समक्खादं। हैं। मोक्ष का उपाय 'सम्यक्त्व मार्ग' है। मार्ग का फल . मग्गो खलु सम्मत्तं, निर्वाण है। मम्गफलं होइ णिव्वाणं॥ १९३. दंसण-णाण-चरित्ताणि, मोक्ख-मग्गो त्ति सेविदव्वाणि। - साधूहि इदं भणिदं, .' तेहिं दुबंधो व मोक्खो वा॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र को तीर्थंकरों ने मोक्ष का मार्ग कहा है। वह निश्चय और व्यवहार दो प्रकार का है। शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है। १९४. अण्णाणादो णाणी, . जदि मण्णदि सुद्ध-संपओगादो। हवदि त्ति दुक्ख-मोक्खं, . परसमय-रदो हवदि जीवो॥ अज्ञानवश यदि ज्ञानी भी ऐसा मानता है कि शुद्ध सम्प्रयोग (भक्ति आदि शुभ भाव) से दुःख-मुक्ति होती है तो वह परसमय-रत होता है। १९५. वद-समिदी-गुत्तीओ, सील-तवं जिणवरेहि पण्णत्तं। कुव्वंतो वि अभव्वो, अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु॥ अभव्य मनुष्य तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप इस व्यावहारिक चारित्र का पालन करते हुए भी चरित्र-शून्य, अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही रहता है। अण्णाया। १९६. णिच्छय-ववहार-सरूवं, जिन प्रवचन के अनुसार जो निश्चय और . जो रयणत्तयं ण जाणइ सो।। व्यवहार-इस उभय स्वरूप वाले रत्नत्रय (दर्शन, ज्ञान, जंकीरइ तं मिच्छा-रूवं, चारित्र) को नहीं जानता, वह जो करता है वह सब सव्वं जिणुहिट्ठ॥ मिथ्यादृष्टि युक्त आचरण है। १९७. सहहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोग-णिमित्तं, ण दु सो कम्म-क्खय-णिमित्तं॥ अभव्य मनुष्य यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका पालन भी करता है, किन्तु यह सब वह प्राप्ति के लिए करता है, कर्म क्षय (निर्जरा) के लिए नहीं करता। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६७८ खण्ड-५ १९८. सुह-परिणामो पुण्णं, असुहो पाव त्ति भणियमन्नेसु। परिणामो णन्नगदो, दुक्खक्खय-कारणं समये॥ जिन प्रवचन के अनुसार पर द्रव्य के प्रति होने वाला शुभ परिणाम पुण्य और अशुभ परिणाम पाप कहलाता है। अनन्यगत (-आत्म-स्वरूप में होने वाला) परिणाम दुःखों के क्षय का कारण होता है। १९९. पुण्णं पिजो समिच्छदि,संसारो तेण ईहिदोहोदि। पुण्णं सुगई-हेहूँ, पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं॥ जो पुण्य की इच्छा करता है वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है। २००. कम्ममसुहं कुसीलं, अशुभ कर्म कुशील और शुभ कर्म सुशील के रूप में सुह-कम्मं चावि जाण व सुसील।। माना जाता है। किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है कह तं होदि सुसीलं, जो संसार में प्रविष्ट कराता है? जं संसारं पवेसेदि॥ २०१. सोवणियं वि णियलं, बंधदि कालायसं पिजह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं॥ बेडी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेडियां बांधती हैं। इसी प्रकार जीव के शुभ-अशुभ कर्म उसे बांधते हैं। २०२. तम्हा दु कसीलेहि य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं। साहीणो हि विणासो, कुसील-संसग्ग-रायेण॥ अतः (परमार्थतः) दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि कुशील के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है। २०३. वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं।। छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरु-भेयं॥ व्रत व तप आदि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नरकादि के दुःख उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहना रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं अच्छा है। . २०४. खयरामर-मणुय-करंजलि मालाहिं-च संथुया विउला। चक्कहररायलच्छी, लब्भई बोही ण भव्वणुआ॥ शुभ कर्म से विद्याधरों, देवों तथा मनुष्यों की करांजलि-बद्ध स्तुतियों से स्तुत चक्रवर्ती सम्राट् की विपुल राज्यलक्ष्मी उपलब्ध हो सकती है, किन्तु संबोधि प्राप्त नहीं होती। २०५. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउ-क्खए चुया। उति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायए॥ (शुभ कर्म के उदय से देवलोक में उत्पन्न जीव) वां अपनी शील-आराधना के अनुरूप स्थानों में रहते हुए आयु-क्षय होने पर वहां से च्युत होते हैं, फिर मनुष्य योनि को प्राप्त कर दशांग भोग सामग्री से युक्त होते हैं। . Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ६७९ अ. २ : मोक्षमार्ग २०६. भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं॥ जीवन-पर्यंत अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर पूर्व __पुठ्वं विसुद्धसद्धम्मे केवलं बोहि बुझिया॥ जन्म में आकांक्षारहित तप करने वाले होने के कारण विशुद्ध बोधि का अनुभव करते हैं। २०७. चउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजमं पडिवज्जिया। ___ तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए॥ चार अंगों (मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा तथा वीर्य) को दुर्लभ मानकर वे संयम स्वीकार करते हैं। फिर तपश्चर्या से कर्म के सब अंशों को धुन कर शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं। रत्नत्रय सूत्र (व्यवहाररत्नत्रय) रत्नत्रय सूत्र २०८. धम्मादी सहहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं। चिव तवंसि चरिया, ववहारो मोक्ख-मग्गो ति॥ धर्म आदि (छह द्रव्य) का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तप में प्रयत्नशीलता सम्यक् चारित्र है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग है। २०९. नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सहहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई। मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से विशुद्ध होता है। २१०. नाणं चरित्त-हीणं, लिंग-ग्गहणं च दंसण-विहीणं। . संजम-हीणं च तवं, जो चरइ निरत्थयं तस्स॥ (एक दूसरे से शून्य होकर वे अर्थ-साधक नहीं होते।) चारित्र के बिना ज्ञान, सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र का स्वीकार और संयम विहीन तप का आचरण करना निरर्थक है। २११: मादंसणिस्स नाणं, असम्यक्त्वी के सम्यक् ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के नाणेण विणा न हुंति चरण-गुणा। बिना चारित्र-गुण नहीं होते। अगुणी व्यक्ति की मुक्ति - अगुणिस्स णत्थि मोक्खो, नहीं होती और अमुक्त का निर्वाण नहीं होता। . नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥ २१२. हयं णाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगलो डड्ढो, धावमाणो य अंधगो॥ क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है। जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल गया और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल गया। २१३. संजोअ सिद्धीइ फलं वतंति, नहु एग-चक्केण रहो पयाति। ___ अंधो य पंगू य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता णगरं पविट्ठा। संयोग के सिद्ध होने से ही फल की प्राप्ति बताई गई है। वन में पंगु और अंधे-दोनों मिले और वे पारस्परिक सहयोग से नगर में प्रविष्ट हो गए। Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६८० खण्ड-५ निश्चय रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रय २१४. सम्मइंसण-णाणं, सब नयों के पक्षों (एकांगी दृष्टिकोणों) से रहित एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। अनेकांत दृष्टिकोण ही समयसार (आगम या आत्मा का सव्व-णय-पक्ख-रहिदो, सार) है। केवल वही सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान की भणिदो जो सो समयसारो॥ संज्ञा को प्राप्त होता है। २१५. सण-णाण-चरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो॥ साधु को दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सतत आसेवन (अभ्यास) करना चाहिए। तुम जानो-निश्चय नय से आत्मा ही सम्यग् ज्ञान, आत्मा ही सम्यग् दर्शन और आत्मा ही सम्यक् चारित्र है। २१६. णिच्छय-णयेण भणिदो, तेहि तेहिं सम अप्पा । _ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो ति॥ जो आत्मा इन तीनों (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र) से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ नहीं करता और न कुछ छोड़ता है, उसी को निश्चय नय से मोक्षमार्ग कहा गया है। २१७. अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुड जीवो। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्त-मग्गु त्ति॥ (इस दृष्टि से) आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दष्टि होता है। जो आत्मा को यथार्थ रूप में जानता है वही सम्यग्ज्ञान है, और उसमें स्थित रहना ही सम्यक् चारित्र है। २१८. आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्ते य। आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे॥ आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सब आत्म रूप ही हैं। सम्यक्त्व सूत्र २१९. सम्मत्त-स्यण-सारं, मोक्ख-महारुक्ख-मूलमिदि भणियं। तं जाणिज्जइ, णिच्छय-ववहार-सरूव-दो-भेयं॥ - सम्यक्त्व सूत्र रत्नत्रय में सम्यक्त्व ही श्रेष्ठ है और इसी को मोक्ष रूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार रूप में दो प्रकार का है। . २२०. जीवादी-सहहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं। ववहारा णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ सम्मत्तं॥ व्यवहारनय से जीव आदि तत्त्वों के श्रद्धान को तीर्थंकरों ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय नय से आत्मा ही सम्यक्त्व है। २२१. जं मोणं तं सम्म, सम्म तमिह होइ मोणं ति। निच्छयओ इयरस्स उ,सम्म सम्मत्त-होऊ वि॥ निश्चय से जो मौन (आत्म ज्ञान) है वही सम्यक्त्व है और जो सम्यक्त्व है वही मौन है। जो निश्चय सम्यक्त्व के हेतु हैं, वे भी व्यवहार नय से सम्यक्त्व हैं। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं २२२. सम्मत्त - विरहिया णं, लहंति बोहि-लाहं, अवि वास - सहस्स- कोडीहिं । २२३. दंसण-भट्ठा भट्ठा, सुठु वि उग्गं तवे चरंता णं । दंसण-भट्ठस्स णन्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरिय भट्ठा, २२४. दंसण-सुद्धो सुद्धो, २२५. सम्मत्तस्स य लंभो, दंसण- विहीण पुरिसो, २२६. किंबहुणा भणिएणं, दंसण-भट्ठा ण सिज्झति ॥ दंसण-सुद्धो लहेइ णिव्वाणं । न लहइ तं इच्छियं लाहं ॥ तेलोक्कस्स म हवेज्ज जो लंभो । सम्मइंसणलंभो, वरं खु तेलोक्क - लंभादो ॥ ६८१ जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणह सम्म माहप्पं ॥ २२७. जह सलिलेण ण लिप्पइ, २२९. सेवतो वि ण सेवइ, कमलिणी-पत्तं सहाव-पयडीए । तह भावेण ण लिप्पइ, कसाय विसएहिं सप्पुरिसो ॥ २२८. उवभोगमिंदिये हिं, दव्वाणमचे दणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जर - णिमित्तं ॥ असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरण - चेट्ठा कस्स वि, णय पायरणो त्ति सो होई ॥ अ. २ : मोक्षमार्ग सम्यक्त्व-विहीन व्यक्ति हजार करोड़ वर्षों तक भलीभांति उग्र तप करने पर भी बोधिलाभ प्राप्त नहीं करता । जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे ही भ्रष्ट हैं। दर्शन- भ्रष्ट को निर्वाण प्राप्त नहीं होता । चरित्र विहीन ( वेष और चर्या विहीन- व्यवहार चारित्र विहीन ) सम्यग् दृष्टि सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, किंतु सम्यग्दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है वही शुद्ध है। सम्यक् दर्शन - शुद्ध पुरुष को ही निर्वाण प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन विहीन पुरुष उस निर्वाण रूपी इष्ट लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता । एक ओर सम्यग्दर्शन का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य के ऐश्वर्य का लाभ हो तो त्रैलोक्य के ऐश्वर्य के लाभ से सम्यग्दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है। अधिक क्या कहें? अतीत काल में जो श्रेष्ठ जन सिद्ध हुए हैं और जो आगे सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व का माहात्म्य है। जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से अंतःकरण में कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता । सम्यग्दृष्टि मनुष्य अपनी इन्द्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है। कोई पुरुष (राग-द्वेष से अलिप्स) विषयों का सेवन करते हुए भी उनका सेवन नहीं करता, और कोई (राग - द्वेष लिप्स) विषयों का सेवन न करते हुए भी उनका सेवन करता है, जैसे कोई कर्मचारी व्यवसाय कार्य में लगा रहने पर भी कर्मचारी कार्य का स्वामी नहीं होता । Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६८२ खण्ड-५ २३०.न कामभोगा समयं उति, नयावि भोगा विगई उति। जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥ सम्यग्दर्शन-अंग २३१. निस्संकिय निक्कंखिय, निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अठ॥ ___कामभोग न समभाव उत्पन्न करते हैं और न विकृति (विषमता)। जो उनके प्रति आसक्त होकर उनका परिग्रहण (भोग) करता है वह तद्विषयक मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन-अंग निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। २३२. सम्मदिट्ठी जीवा, णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभय-विप्पमुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका॥ सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं और इसी कारण निर्भय भी होते हैं। वे सात प्रकार के भयो. (इहलोक; परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मृत्यु, वेदना और अकस्मात् भय) से रहित होते हैं, इसीलिए निःशंक होते हैं। २३३. जो दु ण करेदि कंखं, जो ज्ञानी समस्त कर्मफलों में और सम्पूर्ण वस्तु-धर्मों _कम्मफलेसु तह सव्व-धम्मेसु। (पर्यायों) में किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखता, सो णिक्कंखो चेदा, उसी को निष्कांक्ष (निष्काम) सम्यग्दृष्टि समझना सम्मादिट्ठी मणेयव्वो॥ चाहिए। २३४. नो सक्कियमिच्छई न पूर्य, नो वि य वन्दणगं कुओ पसंसं? से संजए सुव्वएत वस्सी, सहिए आय-गवेसए स भिक्ख॥ जो सत्कार, पूजा और वन्दना की इच्छा नहीं करता वह प्रशंसा की इच्छा कैसे करेगा? जो संयत, सुव्रत, तपस्वी, दूसरे भिक्षुओं के साथ रहने वाला और आत्मगवेषक है-वह भिक्षु है। २३५. खाई-पूया-लाहं, सक्काराई किमिच्छसे जोई। इच्छसि जइ परलोयं, तेहिं किं तुज्झ परलोए॥ हे योगी ! यदि तू परलोक चाहता है तो ख्याति, पूजा, लाभ और सत्कार आदि क्यों चाहता है? क्या इनसे तुझे परलोक का सुख मिलेगा? २३६. जो ण करेदि जुगुप्पं,चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं। जो ज्ञानी समस्त धर्मों (वस्तु पर्यायों) के प्रति ग्लानि सो खलु णिव्विदिगिच्छो,सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥ नहीं करता, वही निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि है। २३७. जो हवइ असम्मूढो,चेदा सहिट्ठी सव्व-भावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥ जो ज्ञानी समस्त भावों के प्रति जागरूक है, निर्धान्त सम्यग् दृष्टि-सम्पन्न है, वह अमूढदृष्टि सम्यग्दृष्टि है। २३८. णो छादए णोऽवि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च। ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा, ण याऽऽसियावाद वियागरेज्जा॥ अमूढदृष्टि न सिद्धांत के अर्थ को छिपाए और न अपसिद्धांत के द्वारा शास्त्र की असम्यक् व्याख्या करे। न मान करे और न अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करे। न किसी प्राज्ञ का परिहास करे और न किसी को आशीर्वाद दे। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ६८३ अ. २ : मोक्षमार्ग २३९. नाणेणे देसणेणं च चरित्तेणं तहेव य। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शांति (क्षमा) एवं मुक्ति . खंतीए मुत्तीए, वड्ढमाणो भवाहि य॥ (निर्लोभता) के द्वारा आगे बढ़ना चाहिए-जीवन को वर्धमान बनाना चाहिए। (यह उपबंहण सम्यग्दृष्टि है)। २४०. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, कारण वाया अदु माणसेणं। तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्नओ खिप्पमिवक्खलीणं॥ जहां कहीं भी मन, वचन तथा काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे, तो ज्ञानी पुरुष वहीं सम्हल जाए, जैसे जातिमान् अश्व लगाम के खींचते ही सम्हल जाता है। २४१. तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारं गमित्तए, ' समयं गोयम! मा पमायए॥ तू महासागर को तो पार कर गया, अब तट के निकट पहुंच कर क्यों खड़ा है ? उसे पार करने में शीघ्रता कर। हे गौतम! क्षणभर का भी प्रमाद मत कर। (यह स्थिरीकरण सम्यग्दृष्टि है।) २४२. जो धम्मिएसु भत्तो, जो धार्मिक जनों में भक्ति (अनुराग) रखता है, परम अणुचरणं कुणदि परम-सद्धाए। श्रद्धापूर्वक उनका अनुसरण करता है तथा प्रिय वचन पिय-वयणं जपंतो, बोलता है, वह भव्य वात्सल्य सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न होता __वच्छल्लं तस्स भव्वस्स॥ है। २४३. मम्मकहा-कहणेण य, धर्मकथा के कथन द्वारा और निरवद्य वाह्य-योग बाहिर-जोगेहिं चावि अणवज्जे। विशिष्ट तपस्या के द्वारा तथा जीवों पर दया व अनुकंपा धम्मो पहाविदव्वो, के द्वारा धर्म की प्रभावना करनी चाहिए। (यह प्रभावना जीवेसु दयाणुकंपाए॥ सम्यग्दृष्टि है)। .२४४. पावयणी धम्मकही, ___प्रवचन-कुशल, धर्मकथा करने वाला, वादी, निमित्तवाई नेमित्तिओ तवस्सी य। शास्त्र का ज्ञाता, तपस्वी, विद्यावान्, ऋद्धि-सिद्धियों का विज्जा सिद्धो य कवी, स्वामी और कवि-ये आठ पुरुष धर्म-प्रभावक कहे गए हैं। अठेव पभावगा भणिया॥ सम्यग्ज्ञान सूत्र सम्यग्ज्ञान सूत्र २१५. सोच्चा जाणइ कल्लाणं.सोच्चा जाणइ पावगं। मनुष्य सुनकर ही कल्याण को जानता है और उभयं पि जाणइ सोच्चा, जे छेयं तं समायरे॥ सुनकर ही पाप को जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं। वह इन दोनों में जो श्रेष्ठ है उसी का आचरण करे। २४६. णाणाऽऽणत्तीए पुणो, दसण-तव-नियम-संजमे ठिच्चा। ' विहरह विसुन्झमाणो, जावज्जीवं पि निक्कंपो॥ ज्ञान के आदेश द्वारा सम्यग्दर्शन मूलक तप, नियम, संयम में स्थित होकर कर्ममल से विशुद्ध (संयमी साधक) जीवन पर्यन्त निष्कंप (स्थिरचित्त) होकर विहार करता है। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६८४ खण्ड-५ २४७. जह जह सुयमोगाइ, जैसे-जैसे मुनि अतिशयरस के अतिरेक से युक्त अइसय रसपसर-संजुयमपुव्वं। अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नित-नूतन तह तह पल्हाइ मुणी, वैराग्य-युक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है। __ नव-नव-संवेग-सद्धाओ॥ २४८. सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे॥ जैसे धागा पिरोई हुई सूई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञान युक्त जीव संसार में रहता हुआ भी नष्ट नहीं होता। २४९. सम्मत्तरयण-भट्ठा, जाणंता बहुविहाइं सत्थाई। आराहणा-विरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव॥ सम्यक्त्व रूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधना-विहीन होने से संसारउन-उन जन्म-स्थानों में भ्रमण करते रहते हैं। ' २५०. परमाणुमित्तयं पिहु, रायादीणं तु विज्जदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं, तु सव्वागमधरो वि॥ २५१. अप्पाणमयाणंतो,अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी, जीवाजीवे अयाणंतो॥ (युग्मम्) जिस व्यक्ति में परमाणु भर भी रागादि भाव विद्यमान है, वह समस्त आगम का ज्ञाता होते हुए भी आत्मा को नहीं जानता। जो आत्मा को नहीं जानता और अनात्मा को भी नहीं जानता, आत्मा और अनात्मा दोनों को नहीं जानता, वह सम्यग्दृष्टि कैसे होगा? २५२. जेण तच्चं विबुज्झज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्जतं णाणं जिण-सासणे॥ जिससे तत्व का ज्ञान होता है, जिससे चित्त स्थिर (शांत) होता है, तथा आत्मा विशुद्ध होती है, जिनशासन में वही ज्ञान है। २५३. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे॥ जिससे मनुष्य राग से विरक्त होता है, जिससे श्रेय में अनुरक्त होता है, और जिससे मैत्री भाव प्रभावित होता है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। २५४. जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढं अणन्नमविसेसं। अपदेस-सुत्त-मज्झं, पस्सदि जिण-सासणं सव्वं॥ जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (देह और कर्म से न बद्ध और न स्पृष्ट), अनन्य (अचेतन से भिन्न), अविशेष (भेद रहित), तथा आदि-मध्य और अंतविहीन (निर्विकल्प) देखता है, वह समग्र जिनशासन को देखता है। २५५. जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नम्। जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं॥ जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः भिन्न तथा ज्ञायक-भावरूप जानता है, वह समस्त शास्त्रों को जानता है। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं २५६. सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो। जाणतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥ २५७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ॥ २५८. जे एगं जाणइ, से सव्वं जे सव्वं जाणइ, से एगं व्यवहार चारित्र २५९. एदम्हि रदो णिच्च, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥ २६०. जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्त-गुणत्त- पज्जयत्तेहिं । सो जादि अप्पाणं, मोहो खलु जदि तस्स लयं ॥ २६२. ववहार-णय चरित्ते, णिच्छय-णय-चारित्ते, २६१. लहूणं णिहिं एक्को,तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते। तह णाणी णाण- णिहिं, भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ॥ २६३. असुहादो विणिवित्ती, जाणइ । जाणइ ॥ ववहार-णयस्स होदि तवचरणं । तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥ वद-समिदि-गुत्ति- रूवं, ६८५ हे पवित्तीय जाण चारितं । २६४. सुय-नाणम्मि वि जीवो, ववहार-या दु जिण भणियं ॥ जो तव -संजम - मइए, वट्टतो सो न पाउणति मोक्खं । अ. २ : मोक्षमार्ग जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है और जो आत्मा को अशुद्ध अर्थात् देह आदि युक्त जानता है, वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य (भौतिक) को जानता है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। जोगे न चएइ वोढुं जे || १. तेरह प्रकार के चारित्र का कथन आगे यथास्थान किया गया है। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। जो सबको जानता है वह एक को जानता है। तू इस आत्मा में सदा लीन रह । इसीमें सदा संतुष्ट रह। इसी से तृप्त हो। इसीसे तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा । जो अर्हत् (शुद्ध आत्मा) को द्रव्य-गुण- पर्याय की अपेक्षा से (पूर्णरूपेण) जानता है, वही आत्मा को जानता है । उसका मोह निश्चय ही विलीन हो जाता है। जैसे कोई व्यक्ति निधि को पाकर उसका उपभोग स्वजनों के बीच करता है, वैसे ही ज्ञानी ज्ञान-निधि का उपभोग पर भावों से विलग होकर स्व में ही करता है। व्यवहार चारित्र व्यवहार-नय के चारित्र में व्यवहार-नय का तपश्चरण होता है। निश्चय-नय के चारित्र में निश्चय नय का तपश्चरण होता है। अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति व्यवहार चारित्र है, जो पांच व्रत, पांच समिति व तीन गुप्ति के रूप में अर्हतों द्वारा प्ररूपित है। श्रुतज्ञान से सम्पन्न मनुष्य भी यदि तप-संयम रूप योग को धारण करने में असमर्थ हो तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २६५. सक्किरिया विरहातो, इच्छित संपावयं ण नाणं त्ति । मम्गण्णू वाऽचेट्ठो, वात- विहीणोऽधवा पोतो ॥ २६६. सुबहु पि सुयमहीयं, किं काहि चरण- विप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीव सय सहस्स- कोडी वि॥ २६७. थोवम्मि सिक्खिदे जिणs, जो पुण चरितहीणो, बहुसुदं जो चरित संपुण्णो । निश्चय चारित्र २६८. णिच्छय-णयस्स एवं, किं तस्स सुदेण बहुएण ॥ अप्पा अप्पम्म अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरितो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ २६९. जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणा पुण्ण पावाणं । तं चारितं भणियं अवियप्यं कम्म रहिएहिं ॥ २७०. जो पर- दव्वम्मि सुहं, अहं रागेण कुणदि जदि भावं । सो सग चरित्त भट्ठो, पर चरिय चरो हवदि जीवो २७१. जो सव्व संग मुक्कोऽणन्नमणो, जाणदि पस्सदि णियदं, अप्पणं सहावेण । सो सग चरियं चरदि जीवो। २७२. परमट्ठम्हि दु अठिदो, तं सव्वं बाल-तवं, ६८६ जो कुणदि तवं वदं च धारेई । बाल-वदं बिंति सव्वण् ॥ खण्ड- ५ ( शास्त्र द्वारा मोक्षमार्ग को जान लेने पर भी सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का ज्ञाता चले बिना और जलपोत अनुकूल वायु के बिना गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुंच सकता। चारित्र शून्य पुरुष का पढा हुआ विपुल श्रुतज्ञान भी क्या करेगा? जैसे कि अंधे के आगे जलाए हुए लाखोंकरोड़ों दीपकों का प्रकाश उसे आलोकित नहीं करता । जो चारित्र से सम्पन्न है, वह अल्पज्ञानी होने पर भी बहुश्रुत को जीत लेता है और जो चारित्र से हीन होता है; उसको बहुत ज्ञान से भी क्या लाभ होगा ? निश्चय चारित्र निश्चय नय के अनुसार आत्मा आत्मा के लिए आत्मा में सुरत (लीन) होता है, वही सुचरित्र है- सम्यक चारित्र है। ऐसा सम्यक् चारित्र सम्पन्न योगी निर्वाण कों प्राप्त होता है। - जिसे जानकर योगी पाप-पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, उसे ही अर्हतों ने निर्विकल्प चारित्र कहा है। जो राग के वशीभूत होकर परं द्रव्यों में शुभाशुभ भाव करता है, वह जीव अपने चारित्र से च्युत होकर पराए चरित्र का आचरण करता है। जो सर्व संग (आसक्ति) से मुक्त होकर तथा समग्र मानसिक चेतना को आत्मा में नियोजित कर आत्मा को चैतन्यमय रूप में सतत जानता देखता है वह पुरुष अपने चरित्र का आचरण करता है। जो परमार्थ में स्थित नहीं है उसके तपश्चरण वा व्रताचरण आदि सबको सर्वज्ञ देव ने बालतप और बालव्रत कहा है। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुतं २७३. मासे- मासे तु जो बालो, न सो सुक्खाय- धम्मस्स, २७४. चारित्तं खलु धम्मो, मोह- खोह - विहीणो, धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो । २७६. सुविदिद- पयत्थ- सुत्तो, परिणामो अप्पणो हु समो ॥ २७५. समदा तह मज्झत्थं, सुद्धो भावो य वीयरायत्तं । तह चारित्तं धम्मो, सहाव - आराहणा भणिया ।। समणो सम-सुह- दुक्खो, संजम-तव-संजुदो विगदरागो । भणिदो सुद्धोवओओ ति ॥ कुसग्गेणं तु भुंजए। कलं अग्घइ सोलसिं ॥ २७७. सुखस्स य सामण्णं, भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । . सुखस्स य णिव्वाणं, सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ॥ २७८. अइसयमाद - समुत्थं, विसयातीदं अणोवममणंतं । अब्बुच्छिन्नं च सुहं, सुद्धवओग - प्पसिद्धाणं ॥ २७९. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्व दव्वेसु । णाssसवदि सुहं असुहं, सम सुह- दुक्खस्स भिक्खुस्स ॥ समन्वय ६८७ १८०. णिच्छय सज्झ - सरूवं, सराय तस्सेव साहणं चरणं । पढिज्जमाणं पबुज्झेह॥ • तम्हा दो वि य कमसो, अ. २ : मोक्षमार्ग जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) मनुष्य मास-मास की तपस्या के अनन्तर कुश की नोक पर टिके उतना आहार करे, तो भी सुआख्यात धर्म (सम्यक् चारित्र) की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता । वास्तव में चारित्र ही धर्म है। जो धर्म है वह समता है। मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही समता है। समता, मध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र धर्म और स्वभाव-आराधना-ये सब शब्द एकार्थक हैं। जिसने (स्व- द्रव्य व पर- द्रव्य के भेद विज्ञान के द्वारा ) पदार्थों तथा सूत्रों को भलीभांति जान लिया है, जो संयम और तप से युक्त है, विगतराग है, सुख-दुःख में सम है, उसी श्रमण को शुद्ध उपयोग (शुद्ध चैतन्य की प्रवृत्ति वाला) कहा जाता है। शुद्ध उपयोग वाले पुरुष के ही श्रामण्य होता है, दर्शन और ज्ञान होता है। वही निर्वाण और सिद्ध पद प्राप्त करता है। उसे मैं नमस्कार करता हूं। जिनके शुद्ध उपयोग सिद्ध हो गया है, उन्हें अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत (अतीन्द्रिय), अनुपम, अनन्त और निर्बाध सुख प्राप्त होता है। जिसका किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है तथा जो सुख-दुःख में सम है, उस भिक्षु के शुभअशुभ कर्मों का आस्रव नहीं होता । समन्वय निश्चयचारित्र ( वीतराग चारित्र) साध्य रूप है, व्यवहारचारित्र (सराग चारित्र) उसका साधन है । इसलिए दोनों चारित्रों का क्रमशः प्रतिपादन किया गया है। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६८८ खण्ड-५ २८१. अब्भंतर-सोधीए,बाहिर-सोधी वि होदि णियमेण। अब्भंतर-दोसेण ह. कणदि णरो बाहिरे दोसे॥ आभ्यन्तर-शुद्धि होने पर बाह्य शुद्धि भी नियमतः होती है। आभ्यन्तर दोष से ही मनुष्य बाह्य दोष करता है। २८२.मद-माण-माय-लोह-विवज्जिय-भावो दु भावशुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं, लोया-लोय-प्पदरिसीहिं॥ मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है। लोक-अलोक के द्रष्टा अर्हतों ने ऐसा कहा है।" २८३. चत्ता पावारंभ, समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी, ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं॥ पाप-आरंभ (प्रवृत्ति) को त्यागकर शुभ अर्थात् व्यवहार-चारित्र में आरूढ रहने पर भी यदि जीव मोह आदि भावों से मुक्त नहीं होता, वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता। २८४. जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण। तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णिय-आदं॥ जैसे शुभ चारित्र के द्वारा अशुभ (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है, वैसे ही शुद्ध (उपयोग) के द्वारा शुभ (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है। अतएव इसी क्रम से व्यवहार और निश्चय के पूर्वापर क्रम से योगी अपनी आत्मा का ध्यान करे। २८५. निच्छय-नयस्स चरणाय विधाए नाण-दसण-वहोऽवि। ववहारस्स उ चरणे, हयम्मि भयणा हु सेसाणं॥ निश्चय-नय के अनुसार चारित्र-आत्मा (भाव शुद्धि) का विघात होने पर ज्ञान-दर्शन का भी विनाश हो जाता है, परन्तु व्यवहार नय के अनुसार चारित्र का विघात होने पर ज्ञान-दर्शन का विनाश हो भी सकता है, नहीं भी। (वस्तुतः ज्ञान-दर्शन की व्याप्ति भाव शुद्धि के साथ है, बाह्य क्रिया के साथ नहीं।) २८६. सद्धं नगरं किच्चा, तव-संवरमग्गलं। खंतिं निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पघंसयं॥ (नमि राजर्षि ने कहा-) 'श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त-बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन-वचन-काय गुप्ति से सुरक्षित दुर्जेय और सुरक्षा-निपुण परकोटा बनाओ। २८७. तव-नाराय-जुत्तेण, भेत्तूणं कम्म-कंचुयं। मुणी विगय-संगामो, भवाओ परिमुच्चए॥ तप रूप बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म-कवच को भेद डाले। इस प्रकार संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है। साधना सूत्र साधना सूत्र २८८. आहारासण-णिहाजयं, च काऊण जिणवर-मएण। झायव्यो णिय-अप्पा झाऊणं गुरु-पसाएण॥ अर्हत् की साधना-पद्धति के अनुसार आहार, आसन तथा निद्रा पर विजय प्राप्त करने का ज्ञान गुरु-प्रसाद से प्राप्त कर निज आत्मा का ध्यान करना चाहिए। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ६८९ अ.२: मोक्षमार्ग २८९. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाशन, अज्ञान और मोह का नाश अण्णाण-मोहस्स विवज्जणाए। तथा राग-द्वेष का क्षय होने से आत्मा एकान्त सुखमय . रागस्स दोसस्स य संखएणं, मोक्ष को प्राप्त होता है। एगंत-सोक्खं समुवेइ मोक्खं॥ २९०. तस्सेस मग्गो गुरु-विद्ध-सेवा, विवज्जणा बाल-जणस्स दूरा। सज्झाय-एगंत-निवेसणा य, सुत्तत्थ-संचिंतणया धिई य॥ गुरु तथा वृद्धों (स्थविर मुनियों) की सेवा करना, अज्ञानीजनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकांत वास करना,, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिंतन करना तथा धैर्य रखना यह मोक्ष का मार्ग है। २९१. आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थ-बुद्धिं। निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं, . समाहि-कामे समणे तवस्सी॥ समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण परिमित तथा एषणीय आहार की इच्छा करे, साधना में निपुण बुद्धि वाले गीतार्थ को सहायक बनाए, विविक्त (स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित) स्थान में रहे। २९२. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। जो हित-मित-अल्प आहार करते हैं, उनकी न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा॥ चिकित्सा वैद्य क्या करेगा? वे स्वयं अपने चिकित्सक हैं। २९३. रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं। ...दितं च कामा समभिहवंति, दुमं जहा साउ-फलं व पक्खी ॥ रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। जिसकी धातुएं उद्दीप्त हैं उसे काम-भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। २९४. विवित्त-सेज्जाऽऽसण-जंतियाणं, ओमाऽसणाणं दमिइंदियाणं। न राग-सत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं॥ जो विविक्त शय्या और आसन से नियंत्रित होते हैं, अल्प आहारी हैं, और जितेन्द्रिय होते हैं उनके चित्त को राग-शत्रु वैसे ही पराजित नहीं कर सकते जैसे औषधि से पराजित व्याधि देह को। २९५. जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वडढई। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे॥ जब तक बुढापा पीड़ित न करे, व्याधि न बढे, और इन्द्रियां क्षीण न हो, तब तक धर्म का आचरण करे। द्विविध धर्म सूत्र द्विविध धर्म सूत्र २९६. दो चेव जिणवरेहि, जाइ-जर-मरण-विप्पमुक्केहि। . लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वा वि॥ जन्म, जरा और मरण से मुक्त अर्हतों ने इस लोक में दो मार्ग बतलाए हैं-एक है उत्तम श्रमणों का और दूसरा है उत्तम श्रावकों का। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन २९७. दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । झणझणं मुक्खं, इ-धम्मे तं विणा तहा सो वि ॥ २९८. सन्ति एहिं भिक्खुहिं, गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थेहि य सव्वेहिं साहबो संजमुत्तरा ॥ २९९. नो खलु अहं तहा, संचाएमि मुंडे पव्वत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं, अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावश्यं । दुवालसविहं गिहि- धम्मं पडिवज्जिस्सामि ॥ ३००. पंच य अणुव्वयाई, ६९० सत्त उ सिक्खाउ देस - जइ - धम्मो । सव्वेण व देसेण व ते जुओ होइ देस - जई ॥ श्रावक धर्म सूत्र ३०१. संपत्त- दंसणाई, पइदियहं जइ जणा सुणेई य । सामायारिं परमं, जो खलु तं सावगं बिंति ॥ ३०२. पंचुंबर सहियाई, सत्त वि बिसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्त विसुद्ध मई, सो दंसण सावओ भाणिओ ।। ३०३. इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य दंड फरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त बसणाई | ३०४. मंसासणेण वड्ढइ, दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं पि वण्णिए पाउणइ दोसे ॥ , ३०५. लोइयसत्यम्मि वि वण्णियं जहा गयणगामिणो विप्या भुवि मंसासणेण पडिया, तम्हा ण पउंजए मंसं ॥ खण्ड - ५ श्रावक धर्म में दान (अतिथि संविभाग) और पून (उपासना) मुख्य हैं। इनके बिना श्रावक नहीं होता तथा श्रमण धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य हैं, इनके बिना श्रमण नहीं होता। कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है। किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है। (श्रद्धालु गृहस्थ कहता है) मैं मुनि की भांति मुंड होकर प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हूं। भगवन्! मैं आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप गृहस्थ धर्म को स्वीकार करूंगा।' श्रावक धर्म में पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत होते हैं। जो व्यक्ति इन सबका या इनमें से कुछ का आचरण करता है वह देश यति (श्रावक) कहलाता है। श्रावक धर्म सूत्र जिसे सम्यक् 'दर्शन, ज्ञान और देश चारित्र प्राप्त है और जो प्रतिदिन यतिजनों से परम सामाचारी (आचारविषयक उपदेश) श्रवण करता है, उसे श्रावक कहते हैं। जिसकी मति सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हो गयी है, उसे पांच उदुम्बर फल (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल तथा बड) तथा सात व्यसनों का त्याग करना चाहिए। परस्त्रीगमन, द्यूत-क्रीड़ा, मद्यपान, शिकार, कठोर वचन का प्रयोग, कठोर दंड तथा आर्थिक असदाचार (चोरी आदि) ये सात व्यसन हैं। (श्रावक इनका त्याग करता है।) मांसाहार से दर्प बढता है। दर्प से मद्यपान की अभिलाषा जागती है और वह जुआ भी खेलता है। इस प्रकार मांसाहारी मनुष्य इन सब दोषों को प्राप्त होता है। लौकिक शास्त्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि मांस खाने से आकाशगामी विप्र भूमि पर गिर पड़े। अतः मांस का सेवन नहीं करना चाहिए। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ३०६. मज्जेण णरो अवसो,कुणेइ कम्माणि शिंदणिज्जाइं। इहलोए परलोए,अणुहवइ अणंतयं दुक्खं॥ अ. २ : मोक्षमार्ग मनुष्य मद्यपान से विवश होकर निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुःखों का अनुभव करता है। ३०७.संवेग जणिद करणा,णिस्सल्ला मंदरोव्व णिक्कंपा। जस्स दढा जिण-भत्ती,तस्स भयं णत्थि संसारे॥ वैराग्य उत्पन्न करने वाली, शल्य रहित और मेरु की भांति निष्कंप दृढ जिन-भक्ति जिसके हृदय में है, उसे संसार में कोई भय नहीं है। ३०८. सत्तू वि मित्त-भावं,जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणओ तिविहेण तओ, कायव्यो देस-विरएण॥ शत्रु भी विनयशीलता के कारण मित्र बन जाता है। इसलिए अणुव्रती श्रावक को मनसा, वाचा कर्मणा विनम्र होना चाहिए। ३०९. पाणिवह-मुसावाए, अदत्त-परदार-नियमणेहिं च। अपरिमिइच्छाओऽवि य, अणुव्वयाई विरमणाई॥ प्राणि-वध (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण (चोरी), परस्त्री सेवन (कुशील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) इन पांचों पापों से विरति अणुव्रत है। ३१०. बंध-वह-च्छवि-च्छेए, : कोहाइ-दूसिय-मणो, गो-मणुयाईण नो कुज्जा॥ प्राणिवध से विरत श्रावक क्रोध आदि कषायों से मन को दूषित कर पशु व मनुष्य आदि का बंधन, डंडे आदि से हनन, अंगोपांगो का छेदन, अतिभार आरोपण तथा खान-पान का विच्छेद न करे। ३११. थूल-मुसावायस्स उ, स्थूल असत्यविरति श्रावक दूसरा अणुव्रत है। इसके विरई दुच्चं स पंचहा होइ। पांच भेद हैं-कन्या-अलीक-वैवाहिक संबंध के विषय में कन्ना-गो-भूमालिय, झूठ बोलना गो-अलीक-पशु विक्रय के विषय में झूठ . नास-हरण-कूड सक्खिज्जे॥ बोलना व भू-अलीक-भूमि-विक्रय के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना। इनका त्याग स्थूल असत्य-विरति है। ३१२. सहसा अब्भक्खाणं, रहसा य सदार मंत भेयं च। मोसोवएसयं, कूडलेह करणं च वज्जिज्जा॥ सत्य-अणुव्रती सहसा किसी पर आरोप न लगाए, किसी का रहस्योद्घाटन न करे, अपनी पत्नी की कोई गुप्त बात मित्रों आदि में प्रकट न करे, मिथ्या उपदेश न करे और कूटलेख-क्रिया (जाली हस्ताक्षर या जाली दस्तावेज आदि) न करे। ३१३. वज्जिज्जा तेनाहड __ अचौर्य अणुव्रती श्रावक चोरी का माल न खरीदे, तक्करमान तक्करजोगं विरुद्ध रज्जं च। चोरी में प्रेरक न बने। झठा तोल-माप न करे तथा असली कूडतुल-कूडमाणं, माल दिखाकर नकली माल न दे, मिलावट न करे, जाली तप्पडिरूवं च ववहारं॥ सिक्के, नोट आदि न चलाए। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३१४. इत्तरिय परिग्गहिया sपरिगहिया गमणा-णंगकीडं च । कामे तिव्वाभिलासं च ॥ परविवाहक्करणं, ३१५. विरया परिग्गहाओ, बहुदोस - संकुलाओ, अपरिमिआओ अणंततण्हाओ । नरय- गइ-गमण-पंथाओ ॥ ३१६. खित्ताइ हिरण्णाई ६९२ धणाइ दुपयाइ - कुवियगस्स तहा। सम्मविसुद्ध - चित्तो, ३१७. भाविज्ज य संतोसं, थोवं पुणो न एवं न पमाणाइक्कमं कुज्जा ॥ ( युग्मम्) गहियमियाणि अजाणमाणेणं । गिस्सामो त्ति चिंतिज्जा ॥ ३१८. जं च दिसा- वेरमणं, अणत्थ- दंडाउ जं च वेरमणं । देसावगासियं पि य, गुण- व्वयाइं भवे ताई ॥ ३१९. उड्ढमहे तिरियं पिय, दिसासु परिमाण करणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलु, ३२१. अट्ठेण तं न बंधइ, अट्ठे कालाईया, सावग - धम्मम्मि वीरेण ॥ ३२०. विरई अणत्थ दंडे, तच्चं स चउव्विहो अवज्झाणो । पमायायरिय हिंस-प्पयाण पावोवएसे य ॥ मट्ठे तु थोव-बहु- भावा । नियामगा न उ अणट्ठाए ॥ खण्ड- ५ स्वदारसंतोष (ब्रह्मचर्य) अणुव्रती श्रावक विवाहित या अविवाहित स्त्रियों के साथ सहवास न करे। अनंगक्रीडा न करे, अपनी संतान को छोड़ दूसरों के विवाह न कराए और अत्यंत कामासक्त न बने। परिग्रह-परिमाण का अणुव्रती श्रावक अपरिमित, . अनन्त तृष्णा उत्पन्न करने वाले बहु दोष तथा नरक गति की ओर ले जाने वाले पथ रूप से विरत होता है। अतः वह सम्यक् विशुद्ध चित्त वाला अणुव्रती क्षेत्रमकान, सोना-चांदी, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद आदि परिग्रह की स्वीकृत मर्यादा का अतिक्रमण न करे।. . परिग्रह - परिमाण के अणुव्रती को संतोषी होना चाहिए। उसे ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि "इस समय मैंने बिना जाने थोडा परिमाण किया, आगे आवश्यक होने पर पुनः अधिक ग्रहण कर लूंगा । " श्रावक के सात शिक्षा व्रतों में ये तीन गुणव्रत होते हैं- दिशा- विरति, अनर्थदंडविरति तथा देशावकाशिक । (व्यापार आदि के क्षेत्र को परिमित करने के अभिप्राय से) ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशाओं में गमनागमन-या संपर्क की सीमा करना दिव्रत नामक प्रथम गुणव्रत है। (प्रयोजन - विहीन कार्य करना अनर्थदंड कहलाता है।) इसके चार भेद हैं-अपध्यान, प्रमादपूर्ण आचरण, घातक - शस्त्रों का प्रदान और पाप उपदेश । इन चारों का त्याग अनर्थदंड - विरति नामक तीसरा गुणव्रत है। सप्रयोजन कार्य में वह कर्म-बंध नहीं होता, जो निष्प्रयोजन कार्य में होता है। अल्प और अधिक कर्म-बंध का कारण यह है कि पहले कार्य में आवश्कता प्रधान होती है और दूसरे कार्य में प्रमाद प्रधान होता है। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ३२२. कंदप्पं कुक्कुइयं, मोहरियं संजुयाहिगरणं च । उपभोग- परीभोगा- इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥ ३२३. वय-भंग - कारणं होई, जम्मि देसम्म तत्थ नियमेण । कीर गमण - णित्ती, ३२४. भोगाणं परिसंखा, सामाइय- अतिहि संविभागो य । पोसह - विही य सव्वो, चउरो सिक्खाउ वृत्ताओ ॥ ३२५. वज्जणमणंत - गुंबर तं जण गुण व्वयं विदियं ॥ अच्चगाणं च भोगओ माणं । कम्मयओ खर- कम्मा ३२६. सावज्ज-जोग-परिरक्खणट्ठा, गहत्थ - धम्मा परमं ति नच्चा, ३२७. सामाइयम्मि उ कए, इयाण अवरं इमं भणियं ॥ सामाइयं केवलियं पसत्थं । कुज्जा बुह आय-हियं परत्था ॥ समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ . ३२८. सामाइयं ति काउं, परचिंतं जो उ चिंतई सड्ढो । अट्टवसट्टोवगओ, निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥ ३२९. आहार- देह-सक्कार देसे सव्वे य इमं, भावावर पोसह यण्णं । चरमे सामाइयं णियमा ॥ अ. २ : मोक्षमार्ग अनर्थदंड - विरत श्रावक कन्दर्प ( हास्यपूर्ण अशिष्ट वचन प्रयोग), कौत्कुच्य (शारीरिक कुचेष्टा), मौखर्य (वाचालता), हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग - परिभोग की मर्यादा का अतिरेक न करे। ६९३ जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमें दोष लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक नामक दूसरा गुणव्रत है। चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं-भोगों का परिमाण, सामायिक, पौषधोपवास और अतिथि संविभाग | भागोपभोग परिमाणव्रत दो प्रकार का है-भोजनरूप तथा व्यापाररूप। कन्दमूल आदि अनन्तकायिक वनस्पति, उदुम्बर फल तथा मद्यमांस आदि का त्याग या परिमाण भोजन विषयक भोगोपभोग व्रत है और खरकर्म अर्थात् हिंसापरक आजीविका आदि का त्याग व्यापारविषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है। सावद्ययोग - हिंसा आदि की निवृत्ति के लिए विशुद्ध सामायिक प्रशस्त है। उसे श्रेष्ठ गृहस्थधर्म जानकर ज्ञानी आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए सामायिक करे। सामायिक काल में श्रावक श्रमण के समान हो जाता है। अतएव बार-बार सामायिक करना चाहिए । सामायिक करते समय जो श्रावक पर चिन्ता (आत्म साधना से भिन्न चिंतन) करता है, वह आर्त्त ध्यान को प्राप्त होता है। उसकी सामायिक अर्थहीन हो जाती है। आहार त्याग, शरीर-संस्कार त्याग, अब्रह्म तथा आरंभ-त्याग ये चार पौषध के अंग हैं। पौषध आंशिक भी होता है और प्रतिपूर्ण भी होता है। जो प्रतिपूर्ण पौषध करता है, उसमें नियमतः सामायिक होती है। Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३३०. अन्नाईणं सुद्धाणं, कप्पणिज्जाण देस-काल- जुत्तं । दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥ ३३१. आहारोसह-सत्थाभय-भेओ जं चउव्विहं दाणं । तं वच्चइ दायव्वं, णिद्दिट्ठमुवासयज्झयणे ॥ ३३२. दाणं भोयण- मेत्तं दिज्जइ धन्नो हवेइ सायारो । पत्तापत्त-विसेसं, संदंसणे किं वियारेण ॥ ३३३. साहूणं कप्पणिज्जं, जं न वि दिण्णं कहिं पि किंचि तहिं । धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न भुंजंति ॥ ३३४. जो मुणि-भुत्त-विसेसं, संसार-सार-सोक्खं, भुंज सो भुंजए जिणुवदिट्ठं । कमसो णिव्वाण - वर - सोक्खं ॥ ३३५. जं कीरइ परिरक्खा, णिच्चं मरण - भयभीरु - जीवाणं । तं जाण अभय-दाणं, सिहामणिं सव्व - दाणाणं ।। श्रमणधर्म सूत्र ६९४ ३३६. समणो त्ति संजदो त्तिय, रिस मुणि साधु त्ति वीदरागो ति । णामाणि सुविहिदाणं, अणगार भदंत दंतो त्ति ॥ ३३७. सीह-गय-वसह मिय-पसु, खिदि-उरगंबरसरिसा, मारुद सूरूवहि-मंदरिंदु-मणी । परम-पय-विमग्गया साहू ॥ खण्ड - ५ उद्गम आदि दोषों से रहित देशकालानुकूल, शुद्ध अन्न आदि का उचित रीति से मुनियों को दान देना गृहस्थों का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है। आहार, औषध, शास्त्र ज्ञान और अभय-दान चार प्रकार का कहा गया है। उपासक अध्ययन (श्रावकाचार ) में उसे देने योग्य कहा गया है। मुनि को भोजनमात्र का दान करने से ही गृहस्थ धन्य होता है। भिक्षा के लिए उपस्थित होने पर पात्र और अपात्र का विचार नहीं किया जाता। शास्त्रोक्त आचरण करने वाले धीर सुश्रावक साधुओं को कल्पनीय (उनके अनुकूल) यत्किञ्चित् दान दिए बिना भोजन नहीं करते। जो गृहस्थ मुनि को अर्हतों द्वारा उपदिष्ट भोजन का दान देने से पूर्व भोजन नहीं करता है, वह संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है। मृत्यु-भय से भयभीत जीवों की रक्षा करना ( उनकी हिंसा न करना) । अभय दान है। वह सब दानों का शिरोमणि है। श्रमणधर्म सूत्र श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, ये सब सम्यग् विधि से आचरण करनेवाले मुनि के एकार्थक नाम हैं। सिंह के समान अपराजेय, हाथी के समान शक्तिशाली, वृषभ के समान धुरा को वहन करनेवाला, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान अप्रतिबद्ध, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर, मेरु के समान अप्रकंप, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान एक लक्ष्यदृष्टि तथा आकाश के समान निरालंब साधु परमपद मोक्ष की खोज में रहते हैं। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ३३८. बहवे इमे - असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो । नवे असाहु साहु त्ति, साहु साहु त्ति आलवे ॥ ३३९. नाणदंसणसंपण्णं, संजमे य तवे रयं । -गुण-समा संजयं हुवे ॥ ६९५ ३४०. न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्ण-वासेणं, कुस- चीरेण न तावसो ॥ ३४१. समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥ ३४२. गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिहाहि साहू - गुण मुंचऽसाहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समोस पुज्जो ॥ ३४३. देहादिसु अणुरत्ता, विसयासत्ता कसाय - संजुत्ता । अप्प - सहावे सुत्ता, साहू सम्मपरिचत्ता ॥ ३४४. बहुं सुणेइ कण्णेहिं बहुं अच्छीहिं पेच्छइ । न यदिट्ठे सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ ३४५. सज्झाय-ज्झाणजुत्ता, रत्तिं ण सुयंति ते पयामं तु । सुत्तत्थं चिंतंता, णिद्दाय वसं ण गच्छंति ॥ ३४६. निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्त-गारवो । समो य सव्व-भूएस, तसेसु थावरेसु य ॥ अ. २ : मोक्षमार्ग ऐसे बहुत-से असाधु हैं जो जन साधारण में साधु कहलाते हैं । किन्तु असाधु को साधु नही कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए । ३४७. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निन्दा - पसंसासु, तहा माणावमाणओ ॥ ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न संयम और तप में रतइस प्रकार गुण- समायुक्त संयमी को ही साधु कहना चाहिए। केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता । ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश-चीवर पहनने से कोई तपस्वी नहीं होता। समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तेजस्वी होता है। गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु । अतः साधु गुणों-साधुता को ग्रहण कर और असाधुगुणों-असाधुता को छोड़। आत्मा को आत्मा के द्वारा कर जो राग-द्वेष में सम रहता है, वह पूज्य है। देह आदि में अनुरक्त, विषयों में आसक्त, कषाय से युक्त तथा आत्मस्वभाव में सुप्त साधु सम्यक्त्व से (अथवा समता से) शून्य होते हैं। भिक्षुकानों से बहुत सुनता है, आंखों से बहुत देखता है, किन्तु सब देखे और सुने को कहना उसके लिए उचित नहीं है। स्वाध्याय- ध्यान में रत साधु रात में बहुत नहीं सोते । सूत्र और अर्थ का चिंतन करते हैं, निद्रा के अधीन नहीं होते। साधु ममत्व-रहित, निरहंकारी, निस्संग, गौरव से रहित तथा त्रस और स्थावर जीवों के प्रति सम रहे । वह लाभ अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निंदा और प्रशंसा में तथा मान-अपमान में सम रहे। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-५ ३४८. गारवेसु कसाएसु, दंड-सल्ल-भएसु य। नियत्तो हास-सोगाओ, अनियाणो अबन्धणो॥ वह गौरव, कषाय, दंड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बंधन से मुक्त रहे। ३४९. अणिस्सिओ इह लोए, परलोए अणिस्सिओ। वासी-चन्दण-कप्पो य, असणे अणसणे तहा॥ वह इसलोक व परलोक में अनासक्त, बसूले से छीलने या चंदन का लेप करने पर तथा आहार के मिलने या न मिलने पर सम रहे। ३५०. अप्पसत्थेहिं दारेहिं. सव्वओ पिहियासवो। अप्रशस्त द्वारों से आनेवाले कर्म पुद्गलों का सर्वतो. अज्झप्पज्झाण-जोगेहिं, पसत्थ-दम-सासणे॥ निरोध करने वाला, अध्यात्म-ध्यान योग से प्रशस्त एवं उपशम-प्रधान शासन में रहे। ३५१. खहं पिवासं दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरई भयं। अहियासे अव्वहिओ, देहे-दुक्खं महाफलं॥ भूख, प्यास, दुःशय्या-विषम भूमि पर सोना शीत. उष्ण, अरति और भय को अव्यथित चित्त से सहन करे। क्योंकि देह में उत्पन्न दुःख को सहन करना महाफल का हेतु होता है। ३५२. अहो निच्चं तवोकम्म. सव्वबुद्धेहिं वणियं। जा-य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं॥ अहो, सभी तीर्थंकरों ने श्रमणों के लिए संयम के अनुकूल-वृत्ति और देह पालन के लिए एक बार भोजन-इस नित्य तपःकर्म का उपदेश दिया है। .. ३५३. किं काहदि वणवासो, कायकिलेसो विचित्त- उववासो। अज्झयण-मोण-पहुदी, समदा-रहियस्स समणस्स। वनवास, कायक्लेश, नानाविध-तप, अध्ययन और मौन-ये सब समता-रहित श्रमण का क्या हित करेंगे? ३५४. बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गामगए नगरे व संजए। संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए॥ तू गांव या नगर में संयत, बुद्ध और उपशांत होकर विचरण कर, शांति मार्ग को बढा। हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद.मत कर। ३५५. न हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहमए दिस्सई मग्गदेसिए। संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए॥ 'आज जिन दिखाई नहीं दे रहे हैं। जो मार्ग-दर्शक हैं वे एक मत नहीं हैं'-अगली पीढी को इस कठिनाई का अनुभाव होगा, किन्तु अभी मेरी उपस्थिति में तुझे पार ले जाने वाला पथ प्राप्त है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। वेश लिंग वेश-लिंग ३५६. वेसो वि अप्पमाणो,असंजम पएसु वट्टमाणस्स। किं परियत्तिय-वेस, विसं न मारेइ खज्जंतं॥ असंयम स्थान में वर्तमान श्रमण का वेश प्रमाण नहीं होता-वेश श्रामण्य का मानदंड नहीं होता। क्या रूपांतरित खाया हुआ विष खाने वाले को नहीं मारता ? Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ६९७ अ. २ : मोक्षमार्ग ३५७. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं। लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए जत्तत्यं गहणत्थं च, लोगे लिंग-पओयणं॥ नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए और 'मैं साधु हूं' ऐसा ध्यान आते रहना-लोक में वेष-धारण के ये प्रयोजन हैं। ३५८. पासंडी-लिंगाणि व, ___गिहि-लिंगाणि व बहु-प्पयाराणि। घित्तुं वदंति मूढा, लिंगमिणं व मोक्ख-मग्गो ति॥ लोक में साधुओं तथा गृहस्थों के नाना प्रकार के लिंग प्रचलित हैं जिन्हें धारण करके मूढजन ऐसा कहते हैं कि अमुक लिंग वेश मोक्ष का कारण है। ३५९. पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे, ___ अयन्तिए कूड-कहावणे वा। राढामणी वेरुलिय-प्पगासे, अमहग्यए होइ य जाणएसु॥ जो पोली मुट्ठी की भांति निस्सार है, खोटे सिक्के की भांति अयन्त्रित है, कांचमणि होते हुए भी वैडूर्य जैसे चमकता है, वह जानकार व्यक्तियों की दृष्टि में मूल्यहीन होता है। ३६०. भावो हि पढम-लिंग, ण कव्व-लिंगं च जाण परमत्थं। __ भावो कारण-भूदो, गुण-दोसाणं जिणा बिंति॥ भाव ही मुख्य लिंग है। द्रव्य लिंग परमार्थ नहीं है, क्योंकि जिन-वाणी के अनुसार भाव ही गुण और दोष का कारण होता है। ३६१. भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिर-गंथस्स कीरए चाओ। बाहिर-चाओ विहलो.अभंतर-गंथ-जत्तस्स॥ भावों की विशद्धि के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके अंतःकरण में परिग्रह की ग्रंथि है, उसका बाह्य परिग्रह का त्याग अर्थ-हीन होता है। ३६२. परिणामम्मि असुद्धे, गंथे मुंचेइ बाहिरे य जई। बाहिर-गंथ-च्चाओ,भाव-विहणस्स किं कुणइ?॥ अशुद्ध परिणाम (भावधारा) के रहते हुए यदि बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है, उस भाव-शून्य व्यक्ति का बाह्य परिग्रह-त्याग क्या हित करेगा? ३६३. देहादि-संग-रहिओ, ___माण-कसाएहिं सयल-परिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रओ, स भावलिंगी हवे साहू॥ जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जिसकी आत्मा आत्मा में रत है, वह साधु भाव-लिंगी होता है। व्रत सूत्र - व्रत सूत्र ३६४. अहिंस-सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च। पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चारिज्ज धम्मं जिण-देसियं विऊ॥ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन पांच महाव्रतों को स्वीकार कर ज्ञानी पुरुष जिन-उपदिष्ट धर्म का आचरण करे। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६९८ खण्ड-५ ३६५. णिस्सल्लस्सेव पुणो, शल्य-मुक्त पुरुष के जीवन में ही ये सब महाव्रत महव्वदाइं हवंति सव्वाइं। निष्पन्न होते हैं। निदान, मिथ्यात्व और माया-ये तीन वदमुवहम्मदि तीहिं दु, शल्य हैं, इनके द्वारा व्रत उपहत हो जाते हैं। णिदाण-मिच्छत्त-मायाहिं॥ ३६६. अगणिअ जो मुक्ख-सुहं, कुणइ निआणं असार-सुह-हेडं। स कायमणिकएणं, वेरुलियमणिं पणासेइ॥ जो पुरुष मोक्ष-सुख की अवगणना कर असार सुख की प्राप्ति के लिए निदान करता है, वह कांचमणि के लिए वैडूर्यमणि को गंवाता है। ३६७. कुल-जोणि-जीव-मग्गण ठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं। तस्सारंभ-णियत्तण-परिणामो होइ पढम-वदं॥ कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि में जीवों को जानकर उनसे संबंधित आरंभ से निवृत्तिरूप (आभ्यन्तर) परिणाम प्रथम अहिंसा व्रत है। '' ३६८. सव्वेसिमासमाणं,हिदयं गब्भो व सव्व-सत्थाणं। सव्वेसिं वद-गुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु॥ अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत सार है। ३६९. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए। सत्यव्रती स्वयं अपने या दूसरों के लिए क्रोध या भय से पीडाकारक सत्य और असत्य न बोले, और न दूसरों से बुलवाए। ३७०.गामे वा णयरे वा, रणे वा पेच्छिऊण परमत्थं। जो मुंचदि गहण-भावं, तिदिय-वदं होदि तस्सेव॥ ग्राम, नगर अथवा अरण्य में दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव त्याग देनेवाले व्रती के तीसरा अचौर्य-व्रत होता है। ३७१. चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। दंतसोहण-मत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया॥ अचौर्यव्रती सजीव या निर्जीव, अल्प अथवा बहुत दन्त शोधन मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आज्ञा लिए बिना ग्रहण नहीं करते। ३७२. अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी। कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मियं भूमि परक्कमे॥ गोचरी के लिए जानेवाला मुनि वर्जित भूमि में प्रवेश न करे। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि में प्रवेश करे। ३७३. मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गिं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥ अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महान् दोषों का समूह है। इसलिए निग्रंथ मैथुन-संसर्ग का वर्जन करते हैं। ३७४. मादु-सुदा-भगिणीव य, दह्रणित्थित्तियं य पडिरूवं। इत्थिकहादिणियत्ती, तिलोयपुज्जं हवे बंभं॥ वृद्धा, बालिका और युवती स्त्री के इन तीन रूपों तथा इनके प्रतिरूपों (चित्रों या मूर्तियों) को देखकर माता, पुत्री और बहन के रूप में देखना और स्त्री-कथा आदि से निवृत्त होना ब्रह्मचर्य-व्रत है। यह तीनों लोकों में पूज्य है। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ३७५. सव्वेसिं गंथाणं, चागो णिरवेक्ख-भावणापुव्वं। पंचम-वदमिदि भणिदं, चारित्त-भरं वहंतस्स॥ अ. २ : मोक्षमार्ग निरपेक्ष भावनापूर्वक सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना, चारित्र का भारवहन करनेवाले साधु का पांचवां महाव्रत कहलाता है। ३७६. किं किंचणत्ति तक्कं, अपुणब्भव-कामिणोध देहे वि। - संग त्ति जिणवरिंदा, णिप्पडिकम्मत्तमहिठा॥ जब अर्हतों ने मोक्षाभिलाषी को 'शरीर भी परिग्रह है' कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है? ३७७. अप्पडिकुठें उवधि, अपत्थणिज्जं असंजद-जणेहिं। मुच्छादि-जणण-रहिदं, गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं॥ जो अनिवार्य होने के कारण अप्रतिषिद्ध है, साधारण होने के कारण गृहस्थों द्वारा अनभिलषणीय है, ममत्व आदि पैदा करनेवाले नहीं है। ऐसे अल्प उपकरण ही श्रमण के लिए उपादेय है। ३७८. आहारे व विहारे, देसं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो, वट्टदि जदि अप्पलेवी सो॥ आहार अथवा विहार में देश, काल, श्रम, सामर्थ्य तथा उपधि को जानकर व्यवहार करनेवाला श्रमण अल्पलेपी-अल्प बंध वाला होता है। ३७९. न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। ... मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा॥ सब जीवों के त्राता नागपुत्र महावीर ने कहा-उपधि परिग्रह नहीं है। मूर्छा परिग्रह है। ३८०. सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए। संयमी मुनि लेप लगे उतना भी संग्रह न करे-बासी पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए॥ न रखे। पक्षी की भांति कल की अपेक्षा न रखता हुआ पात्र लेकर भिक्षा के लिए पर्यटन करे। पागल ३८१. संथार-सेज्जासण-भत्तपाणे, .. . अप्पिच्छया अइलाभे वि संते। जो एवमप्पाणंभितोसएज्जा, संतोस-पाहन्न-रए स पुज्जो ॥ संस्तारक, शय्या, आसन, भोजन और पानी का अधिक लाभ होने पर भी जो अल्पेच्छ होता है। अपनेआप को संतुष्ट रखता है और जो संतोषप्रधान जीवन में रत है, वह पूज्य है। ३८२. अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए। . आहारमइयं सव्वं, मणसा वि ण पत्थए॥ साधु सूर्यास्त से पुनः सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करे। ३८३. संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा। जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे?॥ समिति गुप्ति सूत्र अष्ट प्रवचन माता ३८४. इरिया-भासेसणाऽऽदाणे, उच्चारे समिई इय। मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा॥ जो त्रस और स्थावर सूक्ष्म प्राणी हैं, उन्हें रात्रि में नहीं देखता हुआ निर्ग्रन्थ एषणा कैसे कर सकता है। समिति-गुप्ति सूत्र अष्ट प्रवचनमाता ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग-ये पांच समितियां हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्तिये तीन गुप्तियां हैं। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ३८५. एदाओ अट्ठ पवयण-मादाओ णाण- दंसण- चरितं । रक्खति सदा मुणिणो, मादा पुत्तं व पयदाओ ॥ ३८६. एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो ॥ ३८७. जह गुत्तस्सिरियाई, न होंति दोसा तव समियस्स गुत्ती ट्ठियप्पमायं, रुंभइ समिई सचेट्ठस्स ॥ ३८८. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो, ३८९. आहच्च हिंसा समितस्स जा तु हिंसा - मेत्तेण समिदीसु ॥ सा दव्वतो होति ण भावतो उ। भावेण हिंसा तु असंजतस्स, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥ ३९०. संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, ७०० सा दव्वहिंसा खलु भावतो य । अज्झत्थ-सुद्धस्स जदा ण होज्जा, aण जोगो दुहतो वsहिंसा ।। ३९१-३९२. उच्चालियम्मि पाए, हितग्घाद- णिमित्तो, इरियासमियस्स णिग्गमणट्ठाए । आबाधेज्ज कुलिंगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥ बंधो सुमो वि देसिओ समए । मुच्छा परिग्गहो त्तिय, अज्झप्प - पमाणदो भणिदो ॥ ( युग्मम् खण्ड-५ ये आठ प्रवचन माताएं मुनि के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का वैसे ही रक्षण करती हैं। जैसे सावधान माताएं अपने पुत्रों का । ये पांच समितियां चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और मियां सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए हैं। जैसे प्रवृत्ति से निवृत्त पुरुष को गमन-आगमन आदि मूलक दोष नहीं लगते, वैसे ही सम्यक् प्रवृत्त पुरुष को भी वे दोष नहीं लगते। जैसे निवृत्त पुरुष प्रमाद को रोकता. है, वैसे ही सम्यक् प्रवृत्त पुरुष क्रियाशील होने पर भी प्रमाद को रोकता है। जीव मरे या न मरे, प्रमत्त पुरुष को हिंसा का दोष अवश्य लगता है-कर्म-बंध अवश्य होता है। किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उससे किसी प्राणी के मर जाने पर भी कर्म - बंध नहीं होता । समिति का पालन करते हुए साधु से जो आकस्मिक हिंसा हो जाती है, वह केवल द्रव्य हिंसा है, भाव हिंसा नहीं। जो असंयमी या प्रमत्त होते हैं। वे सदा जीव-वध नहीं करते, फिर भी उनके भाव - हिंसा होती है। असंयमी या प्रमत्त के द्वारा प्राणी का वध हो जाने पर द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की हिंसा होती है, अध्यात्म शुद्धि से युक्त पुरुष द्वारा (मनःपूर्वक) किसी का वध नहीं होता तब उसके द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की अहिंसा होती है। ईर्यासमितिपूर्वक चलनेवाले के पैर के नीचे अचानक कोई छोटा-सा जीव आ जाए और उसके योग से मर जाये उस वध के निमित्त से उसके सूक्ष्म मात्र भी बंध नहीं होता। यह आगम का निर्देश है। जैसे अध्यात्म (शास्त्र) में मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है, वैसे ही उसमें प्रमाद को हिंसा कहा गया है। Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७०१ अ. २ : मोक्षमार्ग ३९३. पउमिणि-पत्तं व जहा, जैसे स्नेहगुण से युक्त कमलिनी का पत्र जल से उदयेण ण लिप्पदि सिणेह-गुण-जुत्तं। लिप्त नहीं होता, वैसे ही समितिपूर्वक जीवों के बीच तह समिदीहिंण लिप्पा, विचरण करनेवाला साधु पाप से लिस नहीं होता। साधु काएसु इरियंतो॥ ३९४. जयणा उ धम्म-जणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव। तब्बुढिकरी जयणा, एगंत-सुहावहा जयणा॥ यतना (अप्रमत्त चर्या) धर्म की जननी है। यतना धर्म की रक्षिका है। यतना धर्म को बढाती है। यतना एकांत सुखावह है। ३९५. जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। . जयं भुंजतो भासतो, पावं कर्म न बंधइ॥ समिति यतना (संयम) पूर्वक चलने, यतनापूर्वक रहने, यतनापूर्वक बैठने, यतनापूर्वक सोने, यतनापूर्वक खाने और यतनापूर्वक बोलने वाला साधु पाप-कर्म का बंध नहीं करता। समिति कार्यवश दिन में प्रासुक (जीव-रहित) मार्ग से युगमात्र (शरीर-प्रमाण) भूमि को आगे देखते हुए, जीवों की विराधना न करते हुए गमन करना ईर्या-समिति है। ३९६. फासुय-मग्गेण दिवा जुगंतर-प्पेहिणा सकज्जेण। __ जंतूण परिहरते-णिरिया-समिदी हवे गमणं॥ ३९७. इन्दियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए॥ इन्द्रियों के विषय तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय का वर्जन कर केवल गमन-क्रिया में ही तन्मय हो, उसी को प्रमुख बनाकर उपयोगपूर्वक चलना चाहिए। ३९८. तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया। त उज्जु न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे॥ इसी प्रकार नाना प्रकार के प्राणी (पशु-पक्षी आदि) भोजन के निमित्त एकत्रित हों, उनके सम्मुख न जाए। उन्हें त्रास न देता हुआ यत्नापूर्वक जाए। ३९९. पेसुण्ण-हासकक्कस परणिंदप्पप्पसंसा-विकहादी। .. वन्मित्ता सपर-हियं, भासा-सामिदी हवे कहणं॥ पैशून्य (चुगली) हास्य, कर्कश-वचन, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, विकथा का वर्जन कर स्व-पर हितकारी वचन बोलना प्रतिपूर्ण भाषा समिति है। १००. न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरढं न मम्मयं। अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा॥ भाषा-समित पुरुष किसी के पूछने पर भी अपने, पराए अथवा दोनों के प्रयोजन के लिए अथवा अकारण ही सावध न बोले, निरर्थक न बोले और मर्मभेदी वचन न बोले। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७०२ खण्ड-५ ४०१. तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी। सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो॥ इसी प्रकार परुष और महान् जीव-वध करनेवाली सत्य भाषा भी न बोले, क्योंकि इससे पाप कर्म का बंध होता है। ४०२. तहेव काणं काणे त्ति. पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगी त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए॥ इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे। मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं। __ अयंपिरमणब्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं॥ आत्मवान् पुरुष दृष्ट, परिमित, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण, व्यक्त, परिचित, वाचालता-रहित और उद्वेग (भय या क्षोभ) रहित भाषा बोले। ४०४. उग्गम-उप्पादण-एसणेहिं, पिंडं च उवधि सज्जं वा। सोधंतस्स य मुणिणो, पिरसुज्झइ एसणा समिदी॥ उद्गम-दोष', उत्पादन-दोष और एषणा दोषों से रहित भोजन उपधि और शय्या (वसति) आदि का विवेक करनेवाले मुनि के एषणा-समिति शुद्ध होती है। ४०५. दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहा दाई मुहा जीवी, दोवि गच्छंति सोग्गइं॥ मुधादायी (प्रतिफल पाने की आशंसा-रहित) दुर्लभ हैं और मुधाजीवी (प्रतिफल देने की आशंका-रहित) भी दुर्लभ हैं। मुधादायी और मुधाजीवी दोनों ही सुगति को प्राप्त होते हैं। ४०६. ण बलाउ-साउअट्ठ, ण सरीरस्सुवचयट्ठ तेजठं। णाणट्ठ-संजमहें झाणहें चेव भुंजेज्जा॥ साधक को न तो बल या आयु बढाने के लिए आहार करना चाहिए, न स्वाद के लिए और न शरीर के उपचय या तेज के लिए। ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार करना चाहिए। ४०७-४०८. जहा दुमस्स पुप्फेसु,भमरो आवियइ रसं। ण य पुप्पं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं॥ एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया॥ (युग्मम्) जैसे भ्रमर पुष्पों को तनिक भी पीड़ा पहुंचाये बिना रस ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक में विचरण करनेवाले बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण दाता को किसी भी प्रकार का कष्ट दिए बिना उसके द्वारा दिया गया प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। यही उनकी एषणा समिति है। ४०९. आहाकम्म-परिणओ, फासुभोई वि बंधओ होई। सुद्धं गवेसमाणो, आहाकम्मे वि सो सुद्धो॥ यदि प्रासुक-भोजी साधु आधाकर्म दोष से परिणत भोजन करता है तो वह दोष का भागी हो जाता है। किन्तु यदि वह सभी जीवों की गवेषणा कर शुद्ध जानकर कदाचित् आधाकर्म से युक्त भोजन कर भी लेता है तो कहते हैं। आहार की गवैषणा के समय होने वाले दोष एषणा-दोष कहलाते हैं। १. आहार बनाने में होनेवाले दोषों को उद्गमदोष कहते हैं। आहार-ग्रहण करने में होनेवाले दोषों को उत्पादनदोष Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७०३ अ. २ : मोक्षमार्ग (भावों से शुद्ध होने के कारण) वह शुद्ध है। ४१०. चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई। आइए निक्खिवेज्जा वा,दुहओवि समिए सया। यतना (संयम) पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला मुनि अपने दोनों प्रकार के उपकरणों को आंखों से देख तथा प्रमार्जन कर उठाये और रखे। (यह आदान-निक्षेप समिति है।) ४११. एगंते अच्चित्ते दूरे, गूढे विसालमविरोहे। उच्चारादिच्चाआ, पदिठावणिया हवे समिदी॥ साधु को मल-मूत्र का विसर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहां एकांत हो, हरित् (गीली) वनस्पति तथा त्रस जीवों से रहित हो, गांव आदि से दूर हो, जहां कोई देख न सके, विशाल-विस्तीर्ण हो, कोई विरोध न करता हो। यह प्रतिष्ठापना या उत्सर्ग समिति है। ४१२. संरंभसमारंभे, 'आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई॥ यतनासंपन्न (जागरूक) यति-मुनि संरम्भ, समारंभ व आरंभ में प्रवर्त्तमान मन को रोके-उसका योपन करे। ४१३. संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य। वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेन्ज जयं जई॥ यतनासंपन्न यति संरम्भ, समारंभ व आरंभ में प्रवर्त्तमान वचन को रोके उसका गोपन करे। ४१४. संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य। कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई॥ यतनासंपन्न यति संरम्भ, समारंभ व आरंभ में प्रवर्त्तमान काया को रोके उसका गोपन करे। ४१५. खेतस्स वई णयरस्स,खाइया अहव होइ पायारो। तह पावस्स गिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहस्स॥ जैसे खेत की बाड़ और नगर की खाई या प्राकार उनकी रक्षा करते हैं, वैसे ही पाप-निरोधक गुप्तियां साधु के संयम की रक्षक होती हैं। ४१६. एया पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए॥ जो मुनि इन आठ प्रवचन-माताओं का सम्यक् आचरण करता है, वह ज्ञानी संसार से शीघ्र मुक्त हो जाता है। आवश्यक सूत्र आवश्यक सूत्र ४१७. एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं। . तं दढ करण निमित्तं,पडिक्कमणादी पवक्खामि॥ इस प्रकार के भेद-ज्ञान का अभ्यास हो जाने पर जीव माध्यस्थ भावयुक्त हो जाता है और इससे चारित्र होता है। इसी को दृढ़ करने के लिए प्रतिक्रमण आदि (षट् आवश्यक क्रियाओं) का कथन करता हूं। ४१८. परिचत्ता परभाव, अप्पाणं झादि णिम्मल-सहावं। अप्पवसो सो होदि हु, तस्स दुकम्म भणंति आवासं॥ पर-भाव का त्याग करके निर्मल-स्वभावी आत्मा का ध्याता आत्मवशी होता है। उसके कर्म को आवश्यक कहा जाता है। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७०४ खण्ड-५ ४१९. आवासं जह इच्छसि, अप्पसहावेसु कुणहि थिरभावं। तेण दु सामाइय-गुणं, संपुण्णं होदि जीवस्स॥ यदि तू प्रतिक्रमण आदि आवश्यक-कर्म की इच्छा रखता है, तो अपने को आत्मस्वभाव में स्थिर कर। इससे जीव का सामायिक गुण पूर्ण होता है-उसमें समता आती है। ४२०. आवासएण हीणो, ___ पन्भट्ठो होदि चरणदो समणो। पुव्वुत्तकमेण पुणो, तम्हा आवासयं कुज्जा॥ जो श्रमण आवश्यक-कर्म नहीं करता, वह चारित्र से . भ्रष्ट होता है। अतः पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक अवश्य करना चाहिए। ४२१. पडिकमणपहुदिकिरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं। तेण दु विरागचरिए, समणो अब्भुठिदो होदि॥ प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं निश्चयनय से चारित्ररूप हैं। जो श्रमण इनको करता है वह श्रमण वीतराग-चारित्र में समुत्थित या आरूढ़ होता है। ४२२. वयणमयं पडिकमणं, वयणमयं पच्चक्खाण णियमं च। आलोयणं वयणमयं, तं सव्वं जाण सज्झाउं॥ (परन्तु) वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना-ये सब तो केवल स्वाध्याय हैं, (चारित्र नहीं हैं।) ४२३. जदि सक्कादि कादं जे, पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं। सत्तिविहीणो जा जइ, सइहणं चेव कायव्वं॥ यदि करने की शक्ति हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करो। इस समय यदि करने की शक्ति नहीं है तो उन पर श्रद्धा अवश्य करनी चाहिए। ४२४. सामाइयं पडिक्कमणं चउवीसत्थओ वंदणयं। काउस्सग्गो पच्चक्खाणं॥ सामायिक, चतुर्विशति जिन-स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-य छह आवश्यक हैं। ४२५. समभावो सामाइयं, तणकंचण-सत्तुमित्तविसिओ ति। निरभिस्संगं चित्तं उचियपवित्तिप्पहाणं च॥ तृण और स्वर्ण में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामायिक है। उचित प्रवृत्तिप्रधान अनासक्त चित्त को भी सामायिक कहते हैं। ४२६. वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण। जो झायदि अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स॥ जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परमसमाधि अर्थात् सामायिक होती है। ४२७. विरदो सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे॥ जो सर्व-सावध प्रवृत्ति से विरत है, त्रियुप्तिगुप्त है तथा जितेन्द्रिय है, उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा जिनशासन में कहा गया है। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७०५ ४२८. जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा । तस्स सामायिगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥ ४२९. उसहादिजिणवराणं, काउण अच्चिदूण य, ४३०. दव्वे खेत्ते काले, णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च । तिसुद्धिपरिणामो थवो णेओ ।। जिंदणगहरणजुत्तो, ४३१. आलोचणणिंदणगरह तं भावपडिक्कमणं, मणवचकायेण पडिक्कमणं ॥ •ाहिं अब्भुट्टिओ अकरणाए । पुण दव्वदो भणिअं ॥ ४३२. मोत्तूण वयणरयणं, अप्पाणं जो झायदि, भावे य कयावराहसोहणयं । ४३३. झाणणिलीणो साहू 4 तस्स दु होदि त्ति पडिक्कमणं । हा दु झाणमेव हि, २३५. जे केइ उवसग्गा, रागादीभाववारणं किच्चा । परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमणं ॥ ४३४. देवस्सियणियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुणचिंतणत्तो, काउस्सग्गो तणुविसग्गो ॥ 'ते सव्वे अधिआसे, देवमाणुस - तिरिक्खऽचेदणिया । काउस्सग्गे ठिदो संतो ॥ अ. २ : मोक्षमार्ग जो सर्वभूतों (स्थावर व त्रस जीवों) के प्रति समभाव रखता है, उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा जिनशासन में कहा गया है। ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नामों की निरुक्ति तथा उनके गुणों की कीर्तन एवं अर्चा (उपासना) करके, मन, वचन, और काय की शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है। निन्दा तथा गर्हा से युक्त साधु का मन वचन काय के द्वारा, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के व्रताचरण विषयक दोषों या अपराधों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है। आलोचना, निन्दा तथा गर्हा के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने में उद्यत साधु के भावप्रतिक्रमण होता है। शेष सब (प्रतिक्रमण-पाठ आदि करना) द्रव्य - प्रतिक्रमण है। वचन - रचना मात्र को त्यागकर जो साधु रागादि भावों को दूर कर आत्मा को ध्याता है, उसी के ( पारमार्थिक) प्रतिक्रमण होता है। ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है। इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों (दोषों) का प्रतिक्रमण है। दिन, रात, पक्ष, मास, चातुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्र भगवान् के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना. कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है। कायोत्सर्ग में स्थित साधु देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत तथा अचेतनकृत ( प्राकृतिक, आकस्मिक) समस्त उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७०६ खण्ड-५ ४३६. मोत्तूण सयलजप्पमणागय सुहमसुहवारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि, पच्चक्खाणं हवे तस्स॥ समस्त वाचिक विकल्पों का त्याग करके तथा अनागत शुभाशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को . ध्याता है, उसके प्रत्याख्यान नामक आवश्यक होता है। ४३७.णियभावं ण वि मुच्चइ, परभावं व गेण्हए केइं। जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी॥ जो निज-भाव को नहीं छोड़ता और किसी भी परभाव को ग्रहण नहीं करता तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, ... वह (परम-तत्त्व) 'मैं' ही हूं। आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसा चिंतन करता है। ४३८. जं किंचि मे दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण वोसिरे। सामाइयं तु तिविहं, करोमि सव्वं णिरायारं॥ (वह ऐसा भी विचार करता है कि-) जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उस सबको मैं मन, वचन, कायपूर्वक छोड़ता.' हूं और निर्विकल्प होकर विविध सामायिक करता हूं। तप सूत्र तप सूत्र बाह्य तप बाबा तप ४३९. जत्थ कसायणिरोहो, जहां कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, बंभं जिणपूयणं अणसणं च। जिनपूजन-भाव पूजा तथा अनशन (आत्मलाभ के लिए) सो सव्वो चेव तवो, किया जाता है, वह सब तप है। विशेषकर मुग्ध अर्थात् विसेसओ मुद्धलोयंमि॥ भक्तजन यही तप करते हैं। ४४०. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भतरो तहा। बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभंतरो तवो॥ तप दो प्रकार का है बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य तप छह प्रकार का है। इसी तरह आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा गया है। ४४१. अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ॥ अनशन, अवमोदर्य (ऊनोदरिका), भिक्षाचर्या, रस. परित्याग, कायक्लेश और संलीनता (प्रतिसंलीनता)-इस तरह बाह्यतप छह प्रकार का है। ४४२. कम्माण णिज्जरलैं, आहारं परिहरेइ लीलाए। एगादिणादिपमाणं, तस्स तवं अणसणं होदि॥ जो कर्मों की निर्जरा के लिए एक-दो दिन आदि का (यथाशक्ति) प्रमाण तय करके आहार का त्याग करता है, उसके अनशन तप होता है। ४४३. जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए। जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरियो सो छुहाहारो॥ आगम में उन्हें तपस्वी कहा है जो श्रुत (शास्त्राभ्यास) के लिए आहार का परिहार करते हैं। जो श्रुतविहीन (ज्ञान शून्य) तप है वह मात्र भूखे रहना है। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ४४४. सो नाम अणसणतवो, - जेण न इंदियहाणी, मंगलं न चिंतेइ । जेण य जोगा न हायंति ॥ ४४५. बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥ ४४६. उवसमणो अक्खाणं, उववासो वण्णिदो समासेण । तम्हा भुंजंता वि य, जिदिंद्रिया होंति उववासा ॥ ४४७. छट्ठट्ठम - दसम दुवालसेहिं, तत्तो बहुतरगुणिया, अबहुस्सुयस्स जा सोही । हविज्ज जिमियस्स नाणिस्स ॥ ४४८. जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे । जहनेणेगसित्थाई, एवं दव्वेण उ भवे ॥ - २४९. गोयर पमाणदायग ७०७ • भायणणाणाविधाण जं गहणं । तह सणस्स गहणं, विविधस्स य वुत्तिपरिसंखा ॥ ४५०. खीर - दहि- सप्पिमाई पाणभोयणं । पणीयं परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रस - विवज्जणं ॥ ४५१. एगंतमणावा, सयणासणसेवणया, अ. २ : मोक्षमार्ग वास्तव में वही अनशन तप है जिससे मन में अमंगल की चिंता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता ) न हो तथा मन वचन कायरूप योगों की हानि (गिरावट ) न हो । इत्थीपसुविवज्जिए । विवित्तसयणासणं ॥ अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए। (क्योंकि शक्ति से अधिक उपवास करने से हानि होती है ।) संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। अतः जितेन्द्रिय साधु भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं। अबहुश्रुत अर्थात् अज्ञानी तपस्वी की जितनी विशुद्धि दो-चार दिनों के उपवास से होती है, उससे बहुत अधिक विशुद्धि नित्य भोजन करनेवाले ज्ञानी की होती है। जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम से कम एक सिक्थ अर्थात् एक कण अथवा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना द्रव्यरूपेण ऊनोदरी तप है। आहार के लिए निकलनेवाले साधु का, वह वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है, जिसमें वह ग्रहण का प्रमाण करता है कि आज भिक्षा के लिए इतने घरों में जाऊंगा, अमुक प्रकार के दाता द्वारा दिया गया अथवा अमुक प्रकार के बर्तन में रखा गया आहार ग्रहण करूंगा, अमुक प्रकार का जैसे मांड, सत्तू आदि का भोजन मिलेगा तो करूंगा आदि-आदि। दूध, दही, घी आदि पौष्टिक भोजन-पान आदि रसों के त्याग को रस परित्याग नामक तप कहा गया है। एकान्त, अनापात (जहां कोई आता जाता न हो) तथा स्त्री, पशु आदि से रहित स्थान में शयन एवं आसन ग्रहण करना, विविक्त शयनासन (प्रतिसंलीनता) नामक तप है। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७०८ खण्ड-५ ४५२. ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा। गिरा, कन्दरा आदि भयंकर स्थानों में, आत्मा के उग्गा जहा धरिज्जति, कायकिलेसं तमाहियं॥ लिए सुखावह, वीरासन आदि उग्र आसनों का अभ्यास करना या धारण करना कायक्लेश नामक तप है। ४५३. सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए॥ सुखपूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान दुःख के आने पर नष्ट हो जाता है। अतः योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के द्वारा अर्थात् कायक्लेशपूर्वक आत्मा को भावित करना चाहिए। ४५४-४५५. ण दुक्खं ण सुखं वा वि, जहा-हेतु तिगिच्छिति। तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं॥ मोहक्खए उ जुत्तस्स दुक्खं वा जइ वा सुह। मोहक्खए जहाहेउ, न दुक्खं न वि वा सुहं॥ रोग की चिकित्सा में रोगी का न सुख ही हेतु होता है, न दुःख ही। चिकित्सा कराने पर रोगी को दुःख भी हो । सकता है और सुख भी। इसी तरह मोह के क्षय में सुख और दुःख दोनों हेतु नहीं होते। मोह के क्षय में प्रवृत्त होने पर साधक को सुख भी हो सकता है और दुःख भी।' आभ्यन्तर तप आभ्यन्तर जप ४५६. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-इस तरह आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है। ४५७. वद-समिदि-सील संजम-परिणामो करणणिग्गहो भावो। सो हवदि पायच्छित्तं, अणवरयं चेव कायव्वो॥ व्रत, समिति, शील,, संयम-परिणाम तथा इन्द्रियनिग्रह-भाव ये सब प्रायश्चित्त तप हैं जो निरन्तर करणीय हैं। ४५८. कोहादि सगम्भाव __क्खयपहुदि-भावणाए णिग्गहणं। पायलियपदि-भावणाए णिग्गहणं। को णियगुणचिंता य णिच्छयदो॥ ४५९. गंताणंतभवेण, समज्जिअ-सुहअसुहकम्म संदोहो। तवचरणेण विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा॥ क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय या उपशम आदि की भावना करना तथा निजगुणों का चिंतन करना निश्चय-प्रायश्चित्त तप है। अनन्तानन्त भवों में उपार्जित शुभाशुभ कर्मों के समूह का नाश तपश्चरण से होता है। अतः तपश्चरण करना प्रायश्चित्त है। ४६०. आलोयण पडिकमणं, प्रायश्चित्त दस प्रकार का है-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो। उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार तथा तव छेदो मूलं वि य, परिहारो चेव सद्दहणा॥ श्रद्धान। १. कायक्लेश तप में साधक को शरीरगत दुःख या बाह्य व्याधियों को सहन करना पड़ता है। लेकिन वह मोहमय की साधना का अंग होने से अनिष्टकारी नहीं होता। Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७०९ अ.२: मोक्षमार्ग ४६१. अणाभोगकिदं कम्म, जं किं पि मणसा कदं। तं सब्दं आलोचेज्ज ह अव्वाखित्तेण चेदसा॥ जो अनाभोगकृत कर्म मन से भी किये हो। उनकी सबकी अव्याक्षिप्त चित्त से आलोचना करनी चाहिए।' ४६२. जह बालो जंपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को वि॥ जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक (मां के समक्ष) व्यक्त कर देता है, वैसे ही साधु को भी अपने समस्त दोषों की आलोचना माया-मद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए। ४६३.४६४. जह कंटएण विद्धो, जैसे कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा __ सव्वंगे वेयणहिओ होइ। होती है और कांटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य तह चेव उद्धियम्मि उ, अर्थात सर्वांग सखी हो जाता है. वैसे ही अपने दोषों को निस्सल्लो निव्वुओ होइ॥ प्रकट न करनेवाला मायावी दुःखी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेण दुक्खिओ होइ। होकर सुखी हो जाता है-मन में कोई शल्य नहीं रह सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ॥ जाता। ४६५. जो पस्सदि अप्पाणं,समभावे संठवित्तु परिणाम। आलोयणमिदिजाणह,परमजिणिंदस्स उवएसं॥ अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्र का उपदेश है। ४६६. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं। गुरुभत्ति भावसुस्सूसा,विणओ एस वियाहिओ॥ गुरु तथा वृद्धजनों के आने पर खड़े होना, हाथ जोड़ना, उन्हें उच्च आसन देना, भावपूर्वक भक्ति तथा सेवा करना विनय तप है। ४६७. सण-णाणे विणओ, · चरित्त-तव-ओवचारिओ विणओ। .. ' पंचविहो खलु विणओ, पंचम-गइ-णाइगो भणिओ॥ दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय-ये विनय तप के पांच भेद कहे गये हैं, जो पंचम गति अर्थात मोक्ष में ले जाते हैं। ४६८. एकम्मि हीलियम्मि, हीलिया हंति ते सव्वे। एकम्मि पूइयम्मि पूइया हुंति सव्वेते॥ . संघ के एक सदस्य के तिरस्कार में सबका तिरस्कार होता है और एक की पूजा में सबकी पूजा होती है। ४६९. विणओ सासणे मूलं विनय जिनशासन का मूल है। संयम तथा तप से विणीओ संजओ भवे। विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा विणयाओ विप्पमुक्कस्स, धर्म और कैसा तप? कओ धम्मो को तवो?॥ १. मन-वचन-काय द्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ कर्म दो प्रकार के होते हैं-आभोगकृत और अनाभोगकृत। दूसरों 'द्वारा जाने गये कर्म आभोगकृत हैं और दूसरों द्वारा न जाने गये कर्म अनाभोगकृत हैं। दोनों प्रकार के कर्मों की तथा उनमें लगे दोषों की आलोचना गुरु या आचार्य के समक्ष निराकुल चित्त से करनी चाहिए। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७१० खण्ड-५ ४७०. विणओ मोक्खद्दारं, विणयादो संजमो तवो णाणं। विणएणाराहिज्जदि, आइरिओ सव्वसंघो य॥ विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त होता है। विनय से आचार्य तथा सर्वसंघ की आराधना होती है। ४७१. विणयाहीया विज्जा, देति फलं इह परे य लोगम्मि। न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई॥ विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इसलोक तथा परलोक में फलदायिनी होती है और विनयविहीन विद्या फलप्रद नहीं होती, जैसे बिना जल के धान्य नहीं उपजता। ४७२. तम्हा सव्वपयत्ते, विणीयत्तं मा कदाइ छंडेज्जा। अप्पसुदो वि य पुरिसो, खवेदि कम्माणि विणएण॥ इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके विनय को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। विनय के द्वारा अल्पश्रुत पुरुष भी कर्मों का नाश देता है। ४७३. सेन्जोगासणिसेज्जो, ___ तहोवहि-पडिलेहणाहि उवग्गहिदे। आहारोसहवायण विकिंचणं वंदणादीहिं॥ शय्या, वसति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधुजनों की आहार, औषधि, वाचना, मल-मूत्र विसर्जन तथा वन्दना आदि से सेवा-शश्रूषा करना वैयावृत्य तप है। ४७४. अद्धाणतेणसावद-रायणदीरोधणासिवे ओमे। वेज्जावच्चं उत्तं, संगह-सारक्खणोवेदं॥ जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर, श्वापद (हिंस्रपशु), राजा द्वारा व्यथित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सारसम्हाल तथा रक्षा करना वैयावृत्य है। ४७५. परियट्टणा य वायणा, पडिच्छणाणुवेहणा य धम्मकहा। थुदिमंगलसंजुत्तो, पंचविहो होइ सज्झाओ॥ स्वाध्याय तप पांच प्रकार का है-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और स्तुति-मंगलपूर्वक धर्मकथा करना। ४७६. पूयादिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए। कम्ममल-सोहणठें, सुयलाहो सुहयरो तस्स॥ आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिन-शास्त्रों को पढता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है। ४७७. सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य। होइ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू।। स्वाध्यायी अर्थात् शास्त्रों का ज्ञाता साधु पांचों इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है। . . Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं अ.२ : मोक्षमार्ग ४७८. णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं। णिज्जरणफलं मोक्खं,णाणब्भासं तदो कुज्जा॥ ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए। ४७९. बारसविहम्मि वि तवे, सभिंतरबाहिरे कुसलदिठे। न वि अत्थि न वि य होही, सज्झायसमं तवोकम्म। बाह्याभ्यन्तर बारह तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है, न होगा। ४८०. सयणासण-ठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे। कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिओ॥ भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत् रहना, छठा कायोत्सर्ग तप है। ४८१. देहमइजड्डसुद्धी, सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा। झायइ य सुहं झाणं एगग्गो काउसग्गम्मि॥ कायोत्सर्ग करने से ये लाभ प्राप्त होते हैं-१. देहजाड्यशुद्धि २. मतिजाड्यशुद्धि ३. सुख-दुःख तितिक्षा ४. अनुप्रेक्षा और ५. एकाग्रता।' ४८२. तेसिं तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। . जे नेवन्ने वियाणंति, न सिलोर्ग पवेज्जइ॥ उन महाकुलवालों का तप भी शुद्ध नहीं है, जो प्रव्रज्या धारणकर पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं। इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह तप करना चाहिए कि दूसरे लोगों को पता तक न चले। अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए। ४८३. नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो-मओ अग्गी। संसारकरणबीयं; दहइ दवग्गी व तणरासिं॥ ज्ञानमयी वायुसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी अग्नि संसार के कारणभूत कर्म-बीज को वैसे ही जला देती है, जैसे वन में लगी प्रचंड आग तण-राशि को। ध्यान सूत्र ध्यान सूत्र ४८४. सीसं जहा सरीरस्स, हा मूलं दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते॥ जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। ४८५. जं थिरमज्झवसाणं; तं झाणं जं चलंतयं चित्तं। स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता॥ ध्यान है और जो चित्त की चंचलता है, उसके तीन रूप हैं-भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता। १. देहजाड्यशुद्धि-श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है। २. मतिजाड्यशुद्धि- जागरुकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। ३. सुख-दुःख तितिक्षा-सुख-दुःख को सहने की शक्ति का विकास होता है। ४. अनुप्रेक्षाभावनाओं के लिए समुचित अवसर का लाभ होता है। ५. एकाग्रता-शुभध्यान के लिए चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ४८६. लवण व्व सलिलजोए, तस्स सुहासुहडहणो, ४८७. जस्स न विज्जदि रागो, झाणे चित्तं विलीयए जस्स । अप्पाअणलो पयासेइ ॥ दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी ॥ ४८८. पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व, होऊण सुइ- समायारो । झाया समाहिजुत्तो, सुहासणत्थो सुइसरीरो ॥ ४८९-४९०. पलियंकं बंधेजं, निसिद्ध-मण- वयण- काय-वावारो । नासग्ग-निमिय- नयणो, मंदीकय- सास- नीसासो ॥ ७१२ गरहिय-निय दुच्चरिओ, खामिय- सत्तो नियत्तियपमाओ। निच्चलचित्तोता झाहि, जाव पुरओव्व पडिहाइ ॥ ४९१. थिर-कय-जोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चल - मणाणं । गामम्मि जणाइणे, सुणे रणे व ण विसेसो ॥ ४९२. जे इंदियाणं विसया मणुण्णा, न याऽमणुणेसु मणं पि कुज्जा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । ४९४. पुरिसायारो अप्पा, ४९३. सुविदिय - जग-स्सभावो, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ निस्संगो निब्भओ निरासो य । वेरग्ग- भाविय-मणो, झामि सुनिच्चलो होइ ॥ जोई वर णाण- दंसण - समग्गो । जो झायदि सो जोई, पावहरो हवदि णिहंदो ॥ 3 खण्ड - ५ जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है, उसके चिर संचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है। जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं है तथा मन-वचनकायरूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है । पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठनेवाला शुद्ध आचार तथा पवित्र शरीरवाला ध्याता सुखासन से स्थित हो समाधि में लीन होता है। वह ध्याता पल्यंकासन बांधकर और मन-वचन-काय के व्यापार को रोककर दृष्टि को नासिकाग्र पर स्थिर करके मंद-मंद श्वासोच्छ्वास ले। और अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्छल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं। जिन्होंने अपने योग को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता। समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल विषयों (शब्द-रूपादि) में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे। जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशारहित है तथा जिसका मन वैराग्य भावना से युक्त है, वही ध्यान में सुनिश्चल - भलीभांति स्थित होता है। जो योगी पुरुष के आकारवाली तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन से पूर्ण आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मबंधन को नष्ट करके निर्द्वन्द्व हो जाता है। Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७१३ अ. २ : मोक्षमार्ग १९५. देहविवित्तं पेच्छा , अप्पाणं तह य सव्व-संजोगे। - देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ॥ ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य संयोगों से विविक्त (भिन्न) देखता है अर्थात् देह तथा उपधि का सर्वथा त्याग करके निःसंग हो जाता है। १९६. णाहं होमि परेसिं, ण मे परे संति णाण-मह-मेक्को । ___ इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा॥ वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तन करता है कि 'मैं न 'पर' का हूं, न 'पर' (पदार्थ) मेरे हैं, मैं तो एक (शुद्ध-बुद्ध) ज्ञानमय (चैतन्य) हूं।' १९७. झाणदिठओ हु जोई जइ णो संवेय णियय-अप्पाणं। तो ण लहइ तं सुद्धं भग्गविहीणो जहा रयणं॥ ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता। १९८. भावेज्ज अवत्थतियं, ध्यान करनेवाला साधक पिंडस्थ, पदस्थ और पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं। रूपातीत-इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे। छउमत्थ-केवलित्तं सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो॥ पिंडस्थध्यान का विषय है-छद्मस्थत्व-देह-विपश्यत्व। पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व-केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचिंतन और रूपातीतध्यान का विषय है सिद्धत्व-शुद्ध आत्मा। १९९. अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे॥ भगवान् उकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊंचे-नीचे और तिरछे लोक में होनेवाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्मसमाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प-मुक्त थे। १००. णातीतमढ् ण य आगमिस्सं, . .. अळं नियच्छति तहा गया उ। विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥ तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। कल्पना मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। ५०१. मा चिट्ठह मा जंपह, . मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिरो। .. अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव वरं हवे झाणं॥ हे ध्याता! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर, इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायेगा-तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी। यही परम ध्यान है। ५०२. न कसाय-समुत्थेहि य, ___ वाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहि। ईसा-विसाय सोगा इएहिं, झाणोवगय-चित्तो॥ जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित (ग्रस्त या पीड़ित) नहीं होता। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७१४ खण्ड-५ ५०३. चालिज्जइ बीभेइ य,धीरो न परीसहोवसग्गेहि। सुहमेसु न संमुच्छइ, भावेसु न देवमायासु॥ वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित और भयभीत होता है तथा न ही सूक्ष्म भावों व देवनिर्मित मायाजाल में मुग्ध होता है। ५०४. जह चिरसंचिय-मिंधण मनलो पवण-सहिओ दुयं दहइ। तह कम्मेंधणममियं, खणण झाणानलो डहइ॥ जैसे चिरसंचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है। अनुप्रेक्षा सूत्र अनुप्रेक्षा सूत्र ५०५. झाणोवरमेऽवि मुणी, णिच्च-मणिच्चाइ-भावणा-परमो। होइ सुभाविय-चित्तो, धम्मज्झाणेण जो पुब्बिं॥ मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्य-अशरण आदि भावनाओं के चिन्तन में लीन रहे। ५०६. अर्धव-मसरण-मेगत्त अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, मन्नत्त-संसार-लोय-मसुइत्तं।। अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि-इन आसव-संवर-णिज्जर, बारह भावनाओं का चिंतन करना चाहिए। धम्मं बोधिं च चिंतिज्ज॥ ५०७. जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं। लच्छी विणास-सहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह॥ जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्धावस्था के साथ। लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार (संसार में) सब-कुछ क्षणभंगुर है-अनित्य है। ५०८. चइऊण महामोहं, विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं, जेण सुहं उत्तम लहह॥ महामोह को तजकर तथा सब इन्द्रिय-विषयों को क्षण-भंगुर जानकर मन को निर्विषय बनाओ, ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो। ५०९. वित्तं पसवो यणाइओ, तं बाले सरणं ति मण्णइ। एए मम तेसिं वा अहं, णो ताणं सरणं ण विज्जई॥ अज्ञानी जीव धन, पशु तथा ज्ञातिवर्ग को अपना रक्षक या शरण मानता है कि ये मेरे हैं और मैं इनका हूं। किन्तु वास्तव में ये सब न तो रक्षक हैं और न शरण। ५१०.संगं परिजाणामि, __ सल्लं पि य उद्धरामि तिविहेणं। गुत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च॥ मैं परिग्रह का (विवेकपूर्वक) त्याग करता हूं और माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों को भी मनवचन-काय से दूर करता हूं। तीन गुप्तियां और पांच समितियां ही मेरे लिए रक्षक और शरण है। ५११. धी संसारो जहियं, जुवाणओ परमरूवगव्वियओ। मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कलेवरे नियए॥ इस संसार को धिक्कार है, जहां परम रूप-गर्वित युवक मृत्यु के बाद अपने उसी त्यक्त (मृत) शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं .७१५ अ. २: मोक्षमार्ग ५१२. सो नत्थि इहोगासो,लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि। इस संसार में बालाग्र जितना भी स्थान ऐसा नहीं है ____ जम्मणमरणाबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता॥ जहां इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो। ५१३. वाहि-जर-मरण-मयरो, निरंतरुप्पत्ति-नीरनिकुरूंबो। परिणामदारुणदुहो, अहो दुरंतो भवसमुद्दो॥ अहो! यह भवसमुद्र दुरन्त है-इसका अंत बड़े कष्ट से होता है। इसमें व्याधि तथा जरा-मरणरूपी अनेक मगरमच्छ हैं, निरन्तर उत्पत्ति या जन्म ही जलराशि है। इसका परिणाम दारुण दुःख है। ५१४. रयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं। संसारं तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए। (वास्तव में) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर को पार करता है। ५१५. पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्म-फल-मणुहवंताणं।। यहां प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही ____को कस्स जए सयणो? भोगता है। ऐसी स्थिति में यहां कौन किसका स्वजन है को कस्स व परजणो भणिओ?॥ और कौन किसका पर जन? ५१६. एगो मे सासओ अप्पा, नागदंसणसंजुओ। : सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वें संजोगलक्खणा॥ ज्ञान और दर्शन से संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत हैं शेष सब भाव संयोगलक्षणवाले हैं उनके साथ मेरा संयोगसंबंध मात्र है। वे मुझसे अन्य ही है। ५१७. संजोगमूला जीवेणं, पत्ता दुक्खपरंपरा। तम्हा संजोग-संबंध, सव्वभावेण वोसिरे॥ इस संयोग के कारण ही जीव दुःखों की परंपरा को प्राप्त हुआ है। अतः संपूर्णभाव से मैं इस संयोग-संबंध का त्याग करता हूं। ५१८. अणुसोअइ-अन्नजणं, अन्न-भवंतर-गयं तु बालजणो। नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुहे॥ अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हुए दूसरे लोगों के लिए तो शोक करता है, किन्तु भव-सागर में कष्ट भोगनेवाली अपनी आत्मा की चिंता भी नहीं करता! ५१९. अन्नं इमं सरीरं, अन्नोऽहं बंधवाविमे अन्ने। .' एवं नाऊण खमं, कुसलस्स न तं खमं काउं? यह शरीर अन्य है, मैं अन्य हूं, बंधु-बान्धव भी मुझसे अन्य हैं। ऐसा जानकर कुशल व्यक्ति उनमें आसक्त न हो। ५२०. जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिन्ने। अप्पाणं पिय सेवदि, कज्जकरं तस्स अण्णत्तं॥ जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का अनुचिंतन करता है, उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है। ५२१. मंसठिसंघाए, मुत्तपुरीसभरिए नवच्छिहे। असुइं परिस्सवंते सुहं सरीरम्मि किं अत्थि॥ मांस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के द्वारा अशुचि पदार्थ को बहानेवाले शरीर में Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७१६ खण्ड-५ क्या सुख हो सकता है? ५२२. एदे मोहय-भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो। हेयं ति मन्नमाणो आसवअणुवेहणं तस्स। मोह के उदय से उत्पन्न होनेवाले इन सब भावों को त्यागने योग्य जानकर उपशम (साम्य) भाव में लीन मुनि इनका त्याग कर देता है। यह उसकी आस्रव अनुप्रेक्षा है। ५२३. मण-वयण-काय-गुत्तिं दियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स। आसवदारणिरोहे, णवकम्मरयासवो ण हवे॥ तीन गुप्तियों के द्वारा इन्द्रियों को वश में करनेवाला तथा पंच समितियों के पालन में अप्रमत्त मुनि के आस्रव द्वारों का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म-रज का आगमन नहीं होता है। यह संवर अनप्रेक्षा है। ५२४. णाऊण लोगसारं, णिस्सारं दीहगमणसंसारं। लोयग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सहवासं॥ लोक को निःसार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहां मुक्त (सिद्ध) जीव सुखपूर्वक सदा निवास करते हैं। ५२५. जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं॥ जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-ड्रबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है। . ५२६. माणुस्सं विग्गहं लधु, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जति, तवं खंतिमहिंसयं॥ मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण और भी कठिन है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाए। ५२७. आहच्च सवणं ल , सद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ। कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाये, तो उस पर श्रद्धा होना महा कठिन है। क्योंकि बहुत से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते हैं। ५२८. सुइं च लधु सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं। बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए॥ धर्म-श्रवण तथा (उसके प्रति श्रद्धा हो जाने पर भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यंत दुर्लभ है। बहुत-से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यकप से स्वीकार नहीं कर पाते। ५२९. भावणाजोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। नावा व तीरसंपण्णा, सव्वदुक्खा तिउट्टइ॥ भावना-योग से शुद्ध आत्मा को जल में नौका के समान कहा गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुंच जाती है, वैसे ही शुद्ध आत्मा संसार के पार पहुंचती है, जहां उसके समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुतं . ५३०. बारस अणुवेक्खाओ, आलोयणं समाही, पच्चक्खाणं तहेव पडिक्कमणं । म्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥ लेश्या सूत्र ५३१. होंति कमविसुद्धाओ, धम्मज्झाणोवगयस्स, ५३२. जोग - पउत्ती लेस्सा, तत्तो दोहं कज्जं, लेसाओ पीयपम्हसुक्काओ । तिव्व - मंदाइभेयाओ ॥ कसाय-उदयाणु-रंजिया होई । बंधचउक्कं समुद्दिट्ठं । ५३३. किण्हा णीला काऊ, ७१७ तेऊ पहाय सुक्कलेस्सा य । लेस्साणं णिसा, छच्चेव हवंति णियमेण ॥ ५३४. किण्हा नीला काऊ, ५३५. तेऊ पम्हा सुक्का, तिणि वि एयाओ अहम्मलेसाओ । एयाहि तिहिं वि जीवो,दुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥ तिणि वि याओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहिं वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥ १३६. तिव्वतमा तिव्वतरा, मंदतरा मंदतमा, अ. २ : मोक्षमार्ग अतः बारह अनुप्रेक्षाओं का तथा प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना एवं समाधि का बार-बार चिन्तन करते रहना चाहिए। तिव्वा असुहा सुहा तहा मंदा । छट्ठाणगया हु पत्तेयं ॥ लेश्या सूत्र धर्मध्यान से युक्त मुनि के क्रमशः विशुद्ध पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं होती हैं। इन लेश्याओं के तीव्र - मंद के रूप में अनेक प्रकार हैं। कषाय के उदय से अनुरंजित मन-वचन-काय की योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इन दोनों अर्थात् कषाय और योग का कार्य है चार प्रकार का कर्म बंध। कषाय से कर्मों के स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं, योग से प्रकृति और प्रदेश- बंध। लेश्या के छह प्रकार हैं- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । कृष्ण, नील और कापोत ये तीनों अधर्म लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव अनेक वार दुर्गति को प्राप्त होता है । जो, पद्म और शुक्ल ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव अनेक वार सद्गति को प्राप्त होता है। कृष्ण, नील और कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं में से प्रत्येक के तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन भेद होते हैं। शेष तीन शुभ लेश्याओं में से प्रत्येक के मंद, मन्दतर और मंदतम ये तीन भेद होते हैं। तीव्र और मंद की अपेक्षा से प्रत्येक में अनन्त भाग- वृद्धि, असंख्यात भाग- वृद्धि, संख्यात भाग-वृद्धि, संख्यात गुण- वृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, अनन्त गुण-वृद्धि ये छह वृद्धियां और इन्हीं नाम की छह हानियां सदैव होती रहती हैं। इसी कारण लेश्याओं के भेदों में भी उतार-चढाव होता रहता है। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७१८ खण्ड-५ ५३७-५३८. पहिया जे छप्पुरिसा, छह पथिक थे। जंगल के मध्य जाने पर वे भटक परिभट्ठारण्ण-मज्झ-देसम्हि। गये। भूख सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा फलभरियरुक्खमेगं, एक वृक्ष दिखाई दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। पेक्खित्ता ते विचिंतंति॥ वे मन ही मन विचार करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को णिम्मूल-खंधसाहु-वसाहं जड़-मूल से काटकर इसके फल खाये जाएं। दूसरे ने छित्तुं चिणित्तु पडिदाई। सोचा कि केवल स्कंध ही काटा जाए। तीसरे ने विचार खाउं फलाइं इदि, किया शाखा ही तोड़ना ठीक रहेगा। चौथा सोचने लगा जं मणेण वयणं हवे कम्मं॥ कि उपशाखा (छोटी डाल) ही तोड़ ली जाए। पांचवां चाहता था कि फल ही तोड़े जाएं। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर नीचे गिरे हुए पके फल ही चुनकर क्यों न खाए जाएं। इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमशः छाहों लेश्याओं के उदाहरण हैं। ५३९. चंडो ण मुंचइ वेरं, भंडणसीलो य धरमदयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं,लक्खणमेयं तु किण्हस्स॥ स्वभाव की प्रचंडता, वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू वृत्ति, धर्म और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नहीं मानना, ये कृष्णलेश्या के लक्षण हैं। ५४०. मंदो बुद्धिविहीणो, मन्दता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषयलोलुपता-ये णिव्विण्णाणी य विसयलोलो य। संक्षेप में नीललेश्या के लक्षण हैं। लक्खणमेयं भणियं, समासदो नीललेस्सस्स। ५४१. रूसइ णिंदइ अन्ने, दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो। ण गणइ कज्जाकज्ज,लक्खणमेयं तु काउस्स॥ जल्दी ष्ट हो जाना, दूसरों की निन्दा करना, दोष लगाना, ॐ गोकाकुल होना, अत्यंत भयभीत होना-ये कापोतलेश्या के लक्षण हैं। ५४२. जाणइ कज्जाकज्ज, सेयमसेयं च सव्वसमपासी। दयदाणरदो य मिद्, लक्खणमेयं त तेउस्स॥ कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति समभाव, दया-दान में प्रवृत्ति-ये तेजोलेश्या के लक्षण हैं। ५४३. चागी भहो चोक्खो, अज्जव-कम्मो य खमदि बहगं पि साहु-गुरु-पूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स॥ त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता, कार्य में ऋजुता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों की पूजा-सेवा में तत्परता ये पद्मलेश्या के लक्षण हैं। ५४४. ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसिं। णत्थि य रायदोसा, णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स। पक्षपात न करना, भोगों की आकांक्षा न करना, सबमें समदर्शी रहना, राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना-शुक्ललेश्या के लक्षण हैं। . Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७१९ अ. २ : मोक्षमार्ग ५४५: लेस्सासोधी अज्झवसाण आत्मपरिणामों में विशुद्धि आने से लेश्या की विसोधीए होइ जीवस्स। विशुद्धि होती है और कषायों की मंदता से परिणाम अज्झवसाणविसोधी, मंदकसायस्स णायव्वा॥ विशुद्ध होते हैं। आत्मविकास सूत्र आत्म विकास सूत्र ५४६. जेहिं दु लक्खिज्जते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं। जीवा ते गुणसण्णा, णिहिठा सव्वदरिसीहिं॥ मोहनीय आदि कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि) से होने वाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव ने 'गुण' या 'गुणस्थान' संज्ञा दी है।' ५४७-५४८. मिच्छो सासण मिस्सो, मिथ्यादृष्टि, सास्वादन सम्यक्दृष्टि मिश्र, अविरत • अविरदसम्मो य देसविरदो य। सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, विरदो पमत्त इयरो, अपूर्वकरण (निवृत्तिबादर), अनिवृत्तिकरण (अनिवृत्तिअपुव्व अणियट्टि सुहुमो य॥ बादर), सूक्ष्म-सम्पराय, उपशांत-मोह, क्षीणमोह, उवसंत खीणमोहो, सयोगिकेवलीजिन, अयोगिकेवलीजिन-ये क्रमशः चौदह सजोगि-केवलि-जिणो अजोगी य।। जीव-स्थान या गुणस्थान हैं। सिद्ध जीव गुणस्थानातीत चोइस गुणठाणाणि य, होते हैं। कमेण सिद्धा य णायव्वा।। ५४९. तं मिच्छत्तं जमसदहणं तच्चाण होदि अत्थाणं। संसइद-मभिग्गहियं, अणभिग्गहियं तु तं तिविहं॥ तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव मिथ्यात्व है यह तीन प्रकार का है-संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत। ५५०. सम्मत्त-रयण-पव्वय सम्यक्त्व-रत्नरूपी पर्वत के शिखर से गिरकर जो सिहरादो मिच्छभाव-समभिमुहो।। जीव मिथ्यात्व भाव के अभिमुख हो गया है, वह ‘णासिय-सम्मत्तो सो, नाशित (पतित) सम्यक्त्व सास्वादन-सम्यक्त्व नामक सासण-णामो मुणेयव्वो॥ गुणस्थान है। ५५१. दहि-गुडमिव व मिस्सं, पिहुभावं णेव कारिदुं सक्कं। ___. एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो॥ दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित भाव या परिणाम-जिसे अलग नहीं किया जा सकता, सम्यक्-मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाता है। ५५२. णो इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सहहइ जिणत्तुं, सम्माइट्ठी अविरदो सो॥ जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रसस्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है। २. सास्वादन सम्यक्दृष्टि १. सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएं-श्रेणियां- भूमिकाएं गुणस्थान कहलाती है। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५५३. जो तस - वहाउ - विरदो, णो विरओ एत्थ - थावर - वहाओ । विरयाविरओ जिणेक्कमई ॥ पडिसमयं सो जीवो, ५५४. वत्तावत्त-पमाए, सल-गुण-सील - कलिओ, जो वसइ पमत्त संजओ होइ। ५५५. गट्ठा-सेस पमाओ अणुवसमओ अखवओ, वयगुण-सीलोलिमंडिओ गाणी | ७२० ५५६. एयम्मि गुणट्ठाणे, झाणणिलीणो ह अपमत्तो सो॥ पुव्वमपत्ता जम्हा, महव्वई चित्तलायरणो ॥ बिसरिससम्यट्ठिएहिं जीवेहिं । होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥ ५५७ तारिसपरिणामट्ठियजीवा, मोहस्सऽपुण्यकरणा ५५८. होंति अणियट्टिणो ते, जिणेहिं गलिय तिमिरेहिं । खवणुवसमणुज्जया भणिया ॥ पडिसमयं जेसि मेक्क- परिणामा । विमलयर झाण- हुयवह सिहाहिं णिढकम्मवणा ॥ ५५९. कोसुंभो जिह राओ, अब्भंतरदो व सुहुम-रत्तो य एवं सुहुम- सराओ, सुहुमकसाओ ति णायव्वो । १. सील गुण-शील के १८००० अंग होते हैं उन्हें धारण करने वाला मुनि होता है। २. विशेष ज्ञातव्य - अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे दो श्रेणियां प्रारंभ होती हैं-उपशम और क्षपक । उपशम श्रेणीवाला तपस्वी मोहनीय कर्म का उपशम करते हुए ग्यारहवें गुणस्थान तक चढने पर पुनः मोहनीय कर्म का खण्ड-५ जो त्रस जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है, परन्तु स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं हुआ है तथा एकमात्र जिन भगवान् में ही श्रद्धा रखता है, वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। जो महाव्रत धारण कर सकल शील-गुण से समन्वित हो गया है। फिर भी अभी जिसमें व्यक्त-अव्यक्तरूप में प्रमाद शेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। इसका आचरण किंचित् सदोष होता है। जिसका संपूर्ण प्रमाद निःशेष हो गया है, जो ज्ञानी होने के साथ-साथ व्रत, गुण और शील की माला से सुशोभित है, फिर भी जो न तो मोहनीय कर्म का उपशम करता है और न क्षय-केवल आत्मध्यान में लीन रहता है, वह श्रमण अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । इस आठवें गुणस्थान में बिसवृश समयों में स्थित जीव ऐसे-ऐसे अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते हैं, जो पहले कभी भी नहीं हो पाये थे इसीलिए इसका नाम अपूर्वकरण (निवृत्ति बंदर) गुणस्थान है। अज्ञानान्धकार से रहित जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्वपरिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है । वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाले होते हैं, जिनके प्रति समय (निरंतर) एक ही परिणाम होता है। ये जीव निर्मलतर ध्यानरूपी अग्निशिखाओं से कर्म-वन को भस्म कर देते हैं। कुसुम्भ के हल्के रंग की तरह जिनके अंतरंग में केवल सूक्ष्म राग रह गया है, उन मुनियों को सूक्ष्म सराग उदय होने से नीचे गिर जाता है और दूसरा क्षपक श्रेणीवाला मोहनीय कर्म का समूल क्षय करते हुए आगे बढ़ता जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है। ३. मोहनीय कर्म का क्षय व उपशम तो नौवें और दसवें गुणस्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है। Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तं ५६०. सकदक-फल-जलं वा, सयलोवसंतमोहो, ५६१. णिस्सेस- खीणमोहो, सरए सरवाणियं व णिम्मलयं । उवसंत - कसायओ होदि ॥ फलहाल - भायणुदय - समचित्तो । णिग्गंथो वीयराएहिं ॥ खीणकसाओ भण्णइ, ५६२-५६३. केवलणाण-दिवायर णव- केवल-लडुग्गम असहाय णाणदंसण किरणकलाव -प्पणासि - अण्णाणो । पाविय परमप्प ववएसो ॥ सहिओ वि हि केवली हि जोएण । अणाइणिहणारिसे वृत्तो ॥ जुत्तो त्ति सजोइजिणो, ५६४. सेलेसिं संपत्तो, णिरुद्ध - णिस्सेस-आसओ जीवो। गयजोगो केवली होइ ॥ कम्मरयविप्पमुक्को, ५६५. सा तम्मि चेव समये, ७२१ लोगे उड्ढ-गमण - सब्भाओ । पवरट्ठगुणप्पओ णिच्चं ॥ संचिट्ठइ असरीरो, ५६६. अट्ठविह-कम्म-वियडा, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अट्ठगुणा कयकिच्चा, लोयग्ग- णिवासिणो सिद्धो ॥ १. फिर भी जैसे जल के हिल जाने से बैठी हुई मिट्टी ऊपर आ जाती है, वैसे ही मोह के उदय से यह उपशांत कषाय 'श्रमण स्थानच्युत होकर सूक्ष्म-सराग दशा में पहुंच जाता है। २. नौ केवललब्धियां सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अ. २ : मोक्षमार्ग या सूक्ष्म कषाय (सूक्ष्म- संपराय) जानना चाहिए । जैसे निर्मली - फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर का जल (मिट्टी के बैठ जाने से) निर्मल होता है, वैसे ही जिनका संपूर्ण मोह उपशांत हो गया है, वे निर्मल परिणामी उपशांत-कषाय कहलाते हैं। " सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है, उन्हें वीतराग देव ने क्षीण- कषाय निर्ग्रथ कहा है। केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियों के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काय योग से युक्त होने से सयोगी केवली ( तथा घाति - कर्मों के विजेता होने से ) जिन कहलाते हैं। ऐसा अनादिनिधन जिनागम में कहा गया है। जो जीव शैलेषी अवस्था को प्राप्त हो गये हैं। पांच आस्रवों का सम्पूर्ण निरोध कर लिया हैं। ( देहधारी होते हुए भी) कर्म - रज (बंधन) से मुक्त हो गये हैं और जो योग-प्रवृत्ति से रहित हैं वे अयोगी केवली होते हैं। इस (चौदहवें) गुणस्थान को प्राप्त कर लेने के उपरांत ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला वह अयोगीकेवली अशरीरी तथा प्रवर आठ गुण सहित होकर एक समय में लोक के अग्रभाग पर चला जाता है। सदा के लिए वहां स्थित हो जाता है। लोकाग्र में रहने वाले सिद्ध जीव अष्टकर्मों से रहित, सुखमय, निरंजन, नित्य, अष्टगुण- सहित तथा कृतकृत्य होते हैं। अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग । ३. आठ गुण - केवलज्ञान, केवलदर्शन, असंवेदन, आत्मिक सुख, अटल अवगाहन, अमूर्ति, अगुरुलघु और निरन्तराय । Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ खण्ड-५ आत्मा का दर्शन __ संलेखना सूत्र संलेखना सूत्र ५६७. सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो॥ शरीर को नौका जीव को नाविक और संसार को समुद्र कहा गया है, जिसे महर्षिजन (मोक्ष के गवेषक) तैर जाते हैं। ५६८. बहिया उड्ढमादाय, नावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्मक्खयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे॥ ऊर्ध्व अर्थात् मुक्ति का लक्ष्य रखनेवाला साधक कभी भी बाह्य विषयों की आकांक्षा न रखे। पूर्वकर्मों का क्षय करने के लिए ही इस शरीर को धारण करे। . ५६९. धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं॥ निश्चय ही धैर्यवान् को भी मरना है और कापुरुष को भी मरना है। जब मरण अवश्यंभावी है, तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है। ५७०. इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि। तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सम्मओ होइ॥ ___ एक पण्डितमरण (ज्ञानपर्दूक मरण) सैंकड़ों जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाए। ५७१. इक्कं पंडियमरणं,पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो। खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं॥ ५७२. चरे पयाइं परिसंकमाणो, जंकिंचि पासं इह मन्नमाणो। लाभंतरे जीविय बूहइत्ता, पच्छा परिण्णाय मलावधंसी॥ असंभ्रान्त (निर्भय) सत्पुरुष एक पण्डितमरण को प्राप्त होता और शीघ्र ही अनन्त-मरण-बार-बार मरण का अंत कर देता है। साधक पग-पग पर दोषों की आशंका (संभावना) को ध्यान में रखकर चले। छोटे से छोटे दोष को भी पाश समझे, उससे सावधान रहे। नये-नये लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे। जब जीवन तथा देह से लाभ होता हुआ दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे। ५७३. तस्स ण कप्पदि भत्त पइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो।। सो मरणं पत्थितो, होदि हु सामण्ण-णिब्विण्णो॥ (किन्तु) जिसके सामने (-अपने संयम, तप आदि साधना का) कोई भय या किसी भी तरह की क्षति की आशंका नहीं है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है। फिर भी वह यदि मरना ही चाहता है तो कहना होगा कि वह मुनित्व से ही विरक्त हो गया है। ५७४. संलेहणा य दुविहा,अभिंतरिया य बाहिरा चेव। अभिंतरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे॥ संलेखना दो प्रकार की है-आभ्यन्तर और बाह्य। कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य संलेखना है। ५७५. कसाए पयणुए किच्चा अप्पाहारे तितिक्खए। अह भिक्ख गिलाएज्जा,आहारस्सेव अन्तियं॥ (संलेखना धारण करनेवाला साधु) कषायों को कृश करके धीरे-धीरे आहार की मात्रा घटाये। यदि वह रोगी Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्तं ५७६. न वि कारणं तणमओ संथारो, वियफासुया भूमी । अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स || ५७७- ५७८. न वि तं सत्थं च विसं च, दुप्पउत्तु-व्व कुणइ वेयालो । जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो ॥ ७२३ भावसलं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि । दुल्लह-बोहीयत्तं, अनंत संसारियत्तं च ॥ ५७९. तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भव-लयाणं । मिच्छादंसण- सल्लं, मायासल्लं नियाणं च ॥ १८०. मिच्छदंसण - रत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं, दुलहा भवे बोही ॥ १८१. सम्मदंसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही ॥ ८२. आरोहणा कज्जे, परियम्मं सव्वदा वि कायव्वं । सुहसज्झाऽऽराहणा होइ ॥ परियम्मभाविदस्स हु, १८३-५८४. जह रायकुलपसूओ, जोगं णिच्चमवि कुणइ परिकम्मं । तो जिदकरणो जुद्धे, कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ॥ इय सामण्णं साधूवि, कुण्णदि णिच्चमवि जोगपरियम्मं । तो जिदकरणो मरणे, ज्झाणसमत्थो भविस्सति ॥ अ. २ : मोक्षमार्ग है- शरीर अत्यंत क्षीण हो गया है तो आहार का सर्वथा त्याग कर दे। . संलेखनाधारी के लिए प्रासुक भूमि में तृणों का संस्तारक लगाया जाता है, जिस पर वह विश्राम करता है। इसी को जिसका मन विशुद्ध है, उसका संस्तारक' न तो तृणमय है और न प्रासुक भूमि है। उसकी आत्मा ही उसका संस्तारक है। दुष्प्रयुक्त शस्त्र, विष, भूत तथा दुष्प्रयुक्त यंत्र तथा कुद्ध सर्प आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना अनिष्ट समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व व निदान शल्य करते हैं। इससे बोधि (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा संसार का अंत नहीं होता । अतः अभिमान-रहित साधक पुनर्जन्मरूपी लता के मूल अर्थात् मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अंतरंग से निकाल फेंकते हैं। इस संसार में जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदानपूर्वक तथा कृष्णलेश्या की प्रगाढ़ता सहित मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि - लाभ दुर्लभ है। जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदान - रहित तथा शुक्ललेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है । (इसलिए) मरण - काल में रत्नत्रय की सिद्धि या सम्प्राप्ति के अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह पहले से ही निरन्तर परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि का अनुष्ठान करता रहे, क्योंकि परिकर्म या अभ्यास करते रहनेवाले की आराधना सुखपूर्वक होती है। राजकुल में उत्पन्न राजपुत्र नित्य समुचित शस्त्र अभ्यास करता रहता है तो उसमें दक्षता आ जाती है और वह युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार जो समभावी साधु नित्य ध्यान अभ्यास करता है, उसका चित्त वश में हो जाता है और मरणकाल में ध्यान करने में समर्थ हो जाता है। लक्ष्य करके यह भाव कथन किया गया है। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७२४ ५८५. मोक्खपहे अप्पाणं, ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव। तत्थेव विहर णिच्चं, मा विहरसु अन्न-दव्वेसु॥ भो भव्य! तू मोक्षमार्ग में ही आत्मा को स्थापित कर। उसी का ध्यान कर। उसी का अनुभव कर तथा उसी में विहार कर। अन्य द्रव्यों में विहार मत कर। ५८६. इहपरलोगासंस-प्पओग, तह जीयमरणभोगेसु। वज्जिज्जा भाविज्ज य, असुहं संसार-परिणामं॥ संलेखना-रत साधक को मरण-काल में इस लोक और परलोक में सुखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम सांस तक संसार के अशुभ परिणाम का चिंतन करना चाहिए। ५८७. परदव्वादो दुग्गइ, सहव्वादो हु सुग्गई होई। इय णाऊ सदव्वे, कुणह रइं विरई इयरम्मि॥ पर-द्रव्य अर्थात् धन-धान्य, परिवार व देहादि में अनुरक्त होने से दुर्गति होती है और स्व-द्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है। ऐसा जानकर स्व-द्रव्य में रत रहो और पर-द्रव्य से विरत। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-३ নন্ত-গুলি Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय १. तत्त्वसूत्र २. द्रव्यसूत्र गाथाएं ५८८-६२३ ६२४-६५० ३. सृष्टिसूत्र गाथाएं. ६५१-६५९ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व सूत्र ५८८. जावन्तऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्यन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्त ॥ ५८९. समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइ- पहे बहू। अप्पणा सच्च मेसेज्जा, मेत्तिं भूएस कप्पए ॥ ५९०. तच्वं तह परमठ्ठे, दव्वसहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा || ५९१. जीवाऽजीवा य बन्धो य, तत्त्व-दर्शन पुण्णं पावाऽऽसवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥ ५९२. उवओग- लक्खण-मणाइ निहण-मत्थंतरं सरीराओ । जीवमरूविं कारिं, भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥ ५९३. सुहदुक्खजाणणा वा, हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं । 'जस्सण विज्जदि णिच्चं, तं समणा बिंति अज्जीवं ॥ ५९४. अज्जीवो पुण ओ, पुग्गल धम्मो अहम्म आयासं । कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा 'हु ॥ तत्त्व सूत्र समस्त अविद्यावान् (अज्ञानी पुरुष ) दुःखी है -दुःख के उत्पादक हैं। वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं। इसलिए पण्डितपुरुष अनेकविध पाश या बंधनरूप स्त्री- पुत्रादि के संबंधों की, जो कि जन्म-मरण के कारण हैं, समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे। तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर- अपर, ध्येय, शुद्ध, परम- ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये नौ तत्त्व या पदार्थ हैं। जीव का लक्षण उपयोग है। यह अनादि निधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है और अपने कर्म का कर्ताभोक्ता है। श्रमणों ने उसे अजीव कहा है जिसे सुख-दुःख का ज्ञान नहीं होता, हित के प्रति उद्यत और अहित का भय नहीं होता। अजीव द्रव्य पांच प्रकार का है - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें से पुद्गल रूपादि गुण युक्त होने से मूर्त है। शेष चारों अमूर्त हैं। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ५९५. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावाविय होइ निच्चो । अज्झत्थहेउं निययऽस्स बन्धो, संसारहेउं च वयन्ति बन्धं ॥ ५९६. रत्तो बंधदि कम्मं, एसो बंधसमासो, मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा | जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥ ५९७. तम्हा णिव्वुदिकामो, ७२८ रागं सव्वत्थ कुणदिमा किंचि । सो तेण वीदरागो, भवियो भवसायरं तरदि । ५९८. कम्मं पुण्णं पावं, हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा । मंदकसाया सच्छा, तिव्वकसाया असच्छा हु ॥ ५९९. सव्वत्थ वि पियवयणं, दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं । सव्वेसिं गुणगहणं, मंदकसायाण दिट्ठता ॥ ६००. अप्प-पसंसण-करणं, पुज्जेसु वि दोस- गहण - सीलत्तं । वेर-धरणं च सुइरं, तिव्व - कसायाण लिंगाणि ॥ ६०१. रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई । आसवदारेहिं अवि-गुहेहिं तिविहेण करणेणं ॥ ६०२. आसवदारेहिं सया, हिंसाईएहिं कम्म मासवइ । जह नावाइ विणासो, छिद्देहि जलं उयहि-मज्झे ॥ ६०३. मणसा वाया कायेण, का वित्तस्स विरिय - परिणामो । जीवस्स-प्पणिओगो, जोगो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो ॥ खण्ड - ५ आत्मा (जीव) अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आंतरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बंध के कारण हैं और बंध को संसार का हेतु कहा गया है। रागयुक्त आत्मा ही कर्मबंध करती है। रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होती है। यह निश्चय से संक्षेप में जीवों के बंध का कथन है। इसलिए मोक्षाभिलाषी को तनिक भी राग नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से वह वीतराग होकर भवसागर को तैर जाता है। कर्म दो प्रकार का है - पुण्य और पाप । पुण्यकर्म के बंध का हेतु स्वच्छ शुभभाव है और पापकर्म के बंध का हेतु अस्वच्छ अशुभ भाव है। मंदकषायी जीव के भाव स्वच्छ होते हैं तथा तीव्रकषायी जीव के अस्वच्छ । सर्वत्र ही प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन बोलने वाले को भी क्षमा करना तथा सबके गुणों को ग्रहण करना - ये मंदकषायी जीवों के लक्षण हैं। अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, दीर्घकाल तक वैर की गांठ को बांधे रखना ये तीव्र कषाय वाले जीवों के लक्षण या चिह्न हैं। रागद्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होकर मनवचन-काय के द्वारा उसके आस्रव द्वार बराबर खुले रहने के कारण निरंतर कर्म करता रहता है। हिंसा आदि आस्रवद्वारों से सदा कर्मों का आगमन होता रहता है, जैसे कि समुद्र में जल के आने से सछिद्र डूब जाती है। (योग भी आस्रव है।) मन, वचन, काय से युक्त जीव का जो वीर्य परिणाम या प्रदेश परिस्पन्दनरूप प्राणियोग होता है, उसे योग कहते हैं। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७२९ अ. ३ : तत्त्व-दर्शन ६०४. जहा जहा अप्पतरो से जोगो, जैसे-जैसे योग अल्पतर होता है, वैसे-वैसे बंध भी तहा तहा अप्पतरो से बंधो। अल्पतर होता है। योग का निरोध हो जाने पर (वैसे ही) निरुद्ध-जोगिस्स व से ण होति, बंध नहीं होता; जैसे कि छेदरहित जहाज में जल प्रवेश अछिहपोतस्स व अंबुणाथे॥ नहीं करता। ६०५. मिच्छत्ताविरदी वि य, कसाय जोगा व आसवा होति। संजम-विराय-दसण-जोगाभावो य संवरओ॥ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव हैं। संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव-ये संवर हैं। ६०६. रुंधिय छिहसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि। मिच्छत्ताइ-अभावे, तहजीव संवरो होइ। जैसे जलयान के हजारों छेद बंद कर देने पर उसमें पानी नहीं घुसता, वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर होता है। ६०७. सब्वभूयऽप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई॥ जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी के पापकर्म का बंध नहीं होता। ६०८. मिच्छत्तासव-दारं, रुंभइ सम्मत्तं दिढ-कवाडेण। हिंसादि-दुवाराणि वि, दिढ-वय-फलहेहिं संभंति॥ मुमुक्ष सम्यक्त्वरूपी दृढ कपाटों से मिथ्यात्वरूपी आस्रव द्वार को रोकता है तथा दृढ व्रतरूपी कपाटों से हिंसा आदि द्वारों को रोकता है। ६०९-६१०. जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे॥ एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। . भवकोडीसंचियं कम्मं, तवसा निज्जरिज्जइ॥ जैसे बड़ा तालाब जल के मार्ग को बंद करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, वैसे ही पापकर्म के प्रवेश-मार्ग को रोक देने से संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म तप से निर्जरा को प्राप्त होता है-नष्ट होता है। ६११. तवसा चेव ण मोक्खो , संवर-हीणस्स होइ जिणवयणे। ... ण हुसोत्ते पविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं॥ यह जिन-वचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता: जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता। ६१२. जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं वासकोडीहिं। अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों वर्षों में जितने तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं॥ कर्मों का क्षय करता है, ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा उच्छवास मात्र में उतने कर्मों का नाश कर डालता है। और ६१३. सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई। - एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए॥ जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं। . Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७३० खण्ड-५ ६१४. कम्म-मल-विप्पमुक्को, कर्म मल से विमुक्त जीव ऊपर लोकान्त तक जाता उड्ढे लोगस्स अंत-मधिगंता। है और वहां वह सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी के रूप में सो सव्वणाण-दरिसी, इन्द्रियातीत अनन्तसुख भोगता है। लहदि सुह-मणिंदिय-मणतं॥ ६१५. चक्कि -कुरु-फणि-सुरेदेसु, . अहमिंदे जं सुहं तिकाल-भवं। तत्तो अणंत-गुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि॥ चक्रवर्ती, देवकुरु, उत्तरकुरु के यौगलिक, नागेन्द्र सुरेन्द्र एवं अहमिन्द्रों को त्रिकाल में जितना सुख मिलता है उस सुख से सिद्धों के एक क्षण का सुख अनन्त गुना होता है। ६१६. सव्वे सरा नियटति, तक्का जत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने॥ मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है, क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है। न वहां तर्क का ही प्रवेश संभव है, क्योंकि वहां मानस-व्यापार संभव नहीं है। मोक्षावस्था संकल्प-विकल्पातीत है। साथ ही समस्त मलकलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं है। रागातीत होने के कारण सातवें नरक तक की भूमि का ज्ञान होने पर भी वहां किसी प्रकार का खेद नहीं है। जहां न दुःख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा,, न मरण है न जन्म, वहीं निर्वाण है। ६१७. ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ___ण वि पीडा व विज्जदे बाहा। ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥ ६१८. ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हयो ण णिहा य। ण य तिण्हा व छहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥ जहां न इन्द्रियां हैं न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है न तृष्णा और न भूख, चहीं निर्वाण है। ६१९. ण वि कम्मं णोकम्म, ण वि चिंता णेव अट्टहाणि। ण वि धम्मसुक्क-झाणे,तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥ जहां न कर्म है न नोकर्म, न चिन्ता है न आर्त-रौद्र ध्यान, न धर्मध्यान है और न शुक्लध्यान, वहीं निर्वाण है। ६२०. विज्जदि केवल-णाणं, केवल-सोक्खं च केवलं विरयं। केवलदिदिठ अमत्तं, अत्थित्तं सप्पदेसत्तं॥ वहां अर्थात् मुक्तजीवों में केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य, अरूपता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व-ये गुण होते हैं। ६२१. निव्वाणं ति अबाहंति, सिद्धी लोगग्गमेव य। खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो॥ जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्तं ६२२. लाउअ एरण्डफले, गइ पुव्व-पओगेणं, अग्गी-धूमे उसू धणु-विमुक्के । एवं सिद्धाण वि गती तु ॥ ६२३. अव्वाबाह- मणिदिय मणोवमं पुण्ण- पाव णिम्मुक्कं । पुणरागमण-विरहियं, णिच्चं अचलं अणालंबं ॥ द्रव्य सूत्र ६२४. धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो । एस लोगो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ ६२५. आगास-काल पुग्गल तेसिं अचेदणत्तं, धम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा । भणिदं जीवस्स चेदणदा ॥ ६२६. आगास-काल- जीवा, धमाधम्मा य मुत्ति-परिहीणा । मुत्तं पुग्गल - दव्वं, जीवो खलु चेदणो तेसु ॥ ६२७. जीवा पुग्गलकाया, ७३१ सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा । पुग्गलकरणा जीवा, खंधा खलु कालकरणा दु ॥ ६२८. धम्मो अहम्मो आगासं, अताणि यदव्वाणि, दव्वं इक्किक्क- माहियं । कालो पुग्गल जंतवो ॥ अ. ३ : तत्त्व-दर्शन जैसे मिट्टी से लिप्स तुम्बी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही ऊपर तैरने लग जाती है। अथवा जैसे एरण्ड का फल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को ही जाते हैं अथवा जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान् होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर होती है परमात्म-तत्त्व अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप-रहित, पुनरागमनरहित, नित्य, अचल और निरालंब होता है। द्रव्य सूत्र परमदर्शी जिनवरों ने कहा है लोक धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक है। आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यों में के गुण नहीं होते, इसलिए इन्हें अजीव कहा गया है। जीव का गुण चेतनता है। आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्तिक हैं । पुद्गल द्रव्य मूर्त्त है। इन सबमें केवल जीव द्रव्य ही चेतन है। जीव और पुद्गलकाय ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। शेष सब द्रव्य निष्क्रिय हैं। जीव के सक्रिय होने का बाह्य साधन कर्म नोकर्मरूप पुद्गल है और पुद्गल के सक्रिय होने का बाह्य साधन कालद्रव्य है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक है। काल (व्यावहारिक), पुद्गल और जीव ये तीनों द्रव्य अनंत अनंत हैं। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७३२ खण्ड-५ ६२९. धम्माधम्मे य दोऽवेए, लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए॥ धर्म और अधर्म ये दोनों ही द्रव्य लोकप्रमाण है। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल केवल समयक्षेत्र अर्थात् मनुष्यक्षेत्र में ही है। ६३०. अन्नोन्नं पविसंता, दिता ओगास-मन्नमन्नस्स। मेलंता वि य णिच्चं, सगं संभावं ण विजहंति॥ ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए हैं, किन्तु अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। ६३१. धम्मात्थिकाय-मरसं, अवण्ण-गंधं असह-मप्फासं। लोगागाढं पुढं, पिहुल-मसंखादिय-पदेसं॥ धर्मास्तिकाय रस, रूप, स्पर्श, गंध और शब्द-रहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखंड है, विशाल है और असंख्यातप्रदेशी है। ६३२. उदयं जह मच्छाणं,गमणाणुग्गयरं हवदि लोए। तह जीव-पुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाणेहि॥ . जैसे इस लोक में जल मछलियों के गमन में सहायक होता है, वैसे ही धर्मद्रव्य जीवों तथा पुद्गलों के गमन में सहायक या निमित्त बनता है। ६३३. ण य गच्छदि धम्मत्थी, गमणं ण करेदि अन्न-दवियस्स। हवदि गती सप्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च॥ धर्मास्तिकाय स्वयं गमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यों को गमन के लिए प्रेरित करता है। वह जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है। ६३४. जह हवदि धम्मदव्वं, तहतं जाणेह दव्व-मधम्मक्खं। ठिदि-किरिया-जुत्ताणं, ___ कारणभूदं तु पुढवीव॥ ___धर्मद्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु अंतर यह है कि यह स्थितिरूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति में पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है। ६३५. चेयण-रहिय-ममुत्तं, अवगाहण-लक्खणं च सव्वगयं। लोयालोय-विभेयं, तं णह-दव्वं जिणुहिठं॥ जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है। ६३६. जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए॥ यह लोक जीव और अजीवमय है। जहां अजीव का एकदेश (भाग) केवल आकाश पाया जाता है, उसे अलोक कहते हैं। ६३७. पास-रस-गंध-वण्ण ____ व्वदिरित्तो अगुरु-लहुग-संजुत्तो। वत्तण-लक्खण-कलियं, कालसरूवं इमं होदि॥ स्पर्श, गन्ध, रस और रूप रहित, अगुरु-लघु गुण युक्त तथा वर्तना लक्षणवाला कालद्रव्य है। Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तं ६३८. जीवाणं पुग्गलाणं, एदाणं पज्जाया, हुति परियट्टणा विविहार । वते मुक्ख-काल- आधारे ॥ ६३९. समयावलि - उस्सासा, ववहारकालणामा, पाणा थोवा य आदिआ भेदा । णिहिट्ठा वीय एहिं ॥ ६४०. अणुखंधवियप्पेण दु, पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं । खंधा हु छप्पयारा, परमाणू चेव दुवियप्पो ॥ ६४१. अइथूल- थूल थूलं, थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च । सुमं अइसहमं इदि धरादियं होदि छन्भेयं ॥ '६४२. पुढवी जलं च छाया, चउरिंदिय-विसय कम्मपरमाणू । छव्विह-मेयं भणियं, पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं || ६४३. अंतादिमज्झहीणं अपदेसं इंदिएहिं ण ह गेज्झं । जं दव्वं अविभत्तं तं परमाणुं कहति जिणा || ६४४. वण्ण-रस-गंध-फासे, पूरण- गलणाइ सव्वकालम्हि । खंद इव कुणमाणा, ७३३ ६४५. पाणेहिं चदुहिं जीवदि, परमाणू पुग्गला तम्हा ॥ जीवस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं । सो जीवो, पाणा पुण बल - मिंदि - माउ उस्सासो ॥ अ. ३ : तत्त्व-दर्शन जीवों और पुद्गलों में होनेवाले अनेक प्रकार के परिवर्तन या पर्यायें मुख्यतः कालद्रव्य के आधार से होती हैं। अर्थात् उनके परिणमन में कालद्रव्य निमित्त होता है। ( इसी को आगम में निश्चयकाल कहा जाता है | ) १. पृथ्वी अतिस्थूल का, जल स्थूल का, छाया-प्रकाश आदि इन्द्रिय-विषय स्थूल सूक्ष्म का रस-गंध-स्पर्श आदि वीतराग ने बताया है कि व्यवहार काल समय, आवलिका, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक आदि रूपात्मक है। अणु और स्कंध के रूप में पुद्गल द्रव्य दो प्रकार का है। स्कंध छह प्रकार का है और परमाणु दो प्रकार का - (कारण परमाणु और कार्य - परमाणु ।) स्कंध पुद्गल के छह प्रकार ये हैं-अतिस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म । पृथ्वी आदि इसके छह दृष्टांत हैं। पृथ्वी, जल, छाया, नेत्र तथा शेष चार इंद्रियों के विषय, कर्म तथा परमाणु - इस प्रकार जिनेश्वर ने स्कंधपुद्गल के छह दृष्टांत दिये हैं। जो आदि मध्य और अंत से रहित है, जो केवल अप्रदेशी है और जो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। वह विभागविहीन द्रव्य परमाणु है । जिसमें पूरण गलन की क्रिया होती है अर्थात् जो टूटता जुड़ता रहता है, वह पुद्गल है। स्कंध की भांति परमाणु के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में सदा पूरणगलन क्रिया होती रहती है, इसलिए परमाणु पुद्गल है। जो चार प्राणों से वर्तमान में जीता है, भविष्य में जयेगा और अतीत में जिया है वह जीव द्रव्य है। प्राण चार हैं- बल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास । शेष इन्द्रिय-विषय सूक्ष्म स्थूल का, कार्मण- स्कंध सूक्ष्म का तथा परमाणु अतिसूक्ष्म का दृष्टांत है। Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६४६. अणु-गुरु- देह- पमाणो, असमुहदो ववहारा, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा । णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥ ६४७. जह पउमराय-रयणं, तह देही देहत्थो, खित्तं खीरे पभासयदि खीरं । सदेहमत्तं पभासयदि ॥ ६४८. आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाण-मुद्दिट्ठ । यं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥ ७३४ ६४९. जीवा संसारत्था, णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा । उवओगलक्खणा वि य, देहादेहप्पवीचारा ॥ ६५०. पुढविजलतेयवाऊ वणफदी विविथावरेइंदी । तसजीवा होंति संखादी ॥ बिग-तिग-दु-पंचक्खा, सृष्टि सूत्र ६५१. लोगो अकिट्टिमो खलु, अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो । जीवाजीवेहिं फुडो, सव्वागासावयवो णिच्चो ॥ ६५२. अपदेसो परमाणू, पदेसमेत्तो य सयमसहो जो । द्धिो वा लुक्खो वा, दुपदेसादित्त - मणुहवदि ॥ ६५३. दुपदेसादी खंधा, सुहुमा वा बादरा ससंठाणा । पुढवि-जल- तेउवाऊ, सगपरिणामेहिं जायंते ॥ खण्ड - ५ व्यवहारनय की अपेक्षा समुद्घात अवस्था को छोड़कर संकोच विस्तार की शक्ति से जीव अपने छोटे या बड़े शरीर के बराबर परिमाण (आकार) का होता है। किन्तु निश्चयनय से जीव असंख्यातप्रदेशी है। जैसे पद्मरागमणि दूध में डाल देने पर अपनी प्रभा से दूध को प्रभासित करती है अन्य पदार्थ को नहीं करती, . वैसे ही जीव शरीर में रहकर अपने शरीर मात्र को प्रभासित करता है - अन्य किसी बाह्य द्रव्य को नहीं । (इस प्रकार व्यवहारनय से जीव शरीरव्यापी है, किन्तु ) वह ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है तथा ज्ञेय लोक- अलोक है, अतः ज्ञान सर्वव्यापी है। ज्ञान -प्रमाण आत्मा होने से आत्मा भी सर्वव्यापी है। जीव दो प्रकार हैं-संसारी और मुक्त। दोनों ही चेतना स्वभाववाले और उपयोग लक्षणवाले हैं। संसारी जीव सशरीरी होते हैं और मुक्तजीव अशरीरी । संसारी जीवों में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये सब एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं। सृष्टि सूत्र वस्तुतः यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन स्वभाव से ही निर्मित है, जीव व अजीव द्रव्यों से व्याप्त है, संपूर्ण आकाश का ही एक भाग है तथा नित्य है । पद्गल - परमाणु अप्रदेशी है और प्रदेश जितना है तथा वह शब्द नहीं है, उसमें स्निग्ध व रूक्ष स्पर्श का ऐसा गुण है कि एक परमाणु दूसरे परमाणुओं से जुड़ने पर दो प्रदेशी आदि स्कन्ध बन जाते हैं। द्विप्रदेशी आदि सारे सूक्ष्म और बादर (स्थूल) स्कंध अपने परिणमन के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के रूप में अनेक आकारवाले बन जाते हैं। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७३५ अ.३: तत्त्व-दर्शन ६५४. ओगाढ-गाढ-णिचिदो, यह सम्पूर्ण लोक इन सूक्ष्म-बादर पुद्गल-स्कंधों से पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो। ठसाठस भरा हुआ है। उनमें से कुछ पुद्गल कर्मरूप में - सहुमेहि बादरेहि य परिणमन के योग्य होते हैं और कुछ अयोग्य। . अप्पाओगेहिं जोग्गेहिं॥ कर्मरूप में परिणमित होने के योग्य पुद्गल जीव के रागादि (भावों) का निमित्त पाकर स्वयं ही कर्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। जीव स्वयं उन्हें (बलपूर्वक) कर्म के रूप में परिणमित नहीं करता। ६५५. कम्मत्तणपाओग्गा, खंधा जीवस्स परिणइं पप्प। गच्छंति कम्मभावं, . नहि ते जीवेण परिणमिदा॥ ६५६. भावेण जेण जीवो, __ पेच्छदि जाणादि आगदं विसये। रज्जदि तेणेव पुणो, बन्झदि कम्म त्ति उवदेसो॥ जीव अपने राग या द्वेषरूप जिस भाव से संपृक्त होकर इन्द्रियों के विषयों के रूप में आगत या ग्रहण किये गये पदार्थों को जानता-देखता है, उन्हीं से उपरक्त होता है और उसी उपरागवश नवीन कर्मों का बन्ध करता है। ६५७. सव्वजीवाणं कम्मं तु, संगहे छहिसागयं। सव्वेसु वि. पएसेसु, सव्वं सव्वेण बलगं॥ सभी जीवों के लिए संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्मपुद्गल छहों दिशाओं में सभी आकाशप्रदेशों में विद्यमान हैं। वे आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं। ६५८. तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं। कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं॥ व्यक्ति सुख-दुःखरूप जो भी कर्म करता है, वह अपने उन कर्मों के साथ ही परभव में जाता है। ६५९. ते ते कम्मत्तगदा, . पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स। . . संमायते देहा, देहतर-संकमं पप्प॥ इस प्रकार कर्मों के रूप में परिणत वे पुद्गल-पिंड देह से देहान्तर को प्राप्त होते रहते हैं। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म के फलरूप में नया शरीर बनता है और नया शरीर पाकर नवीन कर्म का बंध होता है। Page #759 --------------------------------------------------------------------------  Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय-४ च्यादाद Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अनेकांतसूत्र २. प्रमाणसूत्र ३. नयसूत्र ४. स्याद्वाद व सप्तभंगीसूत्र चतुर्थ अध्याय गाथाएं ६६०-६७३ ६७४-६८९ ६९०-७१३ ७१४-७२१ ५. समन्वयसूत्र ६. निक्षेपसूत्र ७. समापन ८. वीर - स्तवन गाथाएं ७२२-७३६ ७३७-७४४ ७४५-७४९ -७५०-७५६ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद अनेकांत सूत्र अनेकांत सूत्र ६६०. जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा ण निव्वहइ। तस्स भुवणेक्कगुरुशो, णमो अणेगंतवायस्स॥ जिसके बिना लोक का व्यवहार बिलकुल नहीं चल सकता, विश्व के उस एकमात्र गुरु अनेकांतवाद को प्रणाम करता हूं। ६६१. गुणाण-मासओ दव्वं, एग-दव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे॥ जो गुणों का आश्रय होता है, वह द्रव्य है। जो एक (केवल) द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण होते हैं। द्रव्य और गुण-दोनों के आश्रित रहना पर्याय का लक्षण है। ६६२. दव्वं पम्जव-विउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि। उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं॥ पर्याय के बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं। उत्पाद, स्थिति (ध्रुवता) और व्यय (नाश) द्रव्य का लक्षण है। अर्थात् द्रव्य उसे कहते हैं जिसमें प्रति समय उत्पाद आदि तीनों घटित होते रहते हैं। ६६३. ण भवो भंगविहीणो, उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता और व्यय उत्पाद के . .भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। बिना नहीं होता। इसी प्रकार उत्पाद और व्यय दोनों उप्पादो वि य भंगो, त्रिकाल-स्थायी ध्रौव्य अर्थ (आधार) के बिना नहीं होते। - ण विणा धोव्वेण अत्थेण॥ ६६४. उप्पाद-दिदि-भंगा, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (उत्पत्ति, विनाश और विज्जते पज्जएस पज्जाया। " स्थिति) ये तीनों द्रव्य में नहीं होते, अपितु द्रव्य की नित्य दव्वं हि संति नियदं, परिवर्तनशील पर्यायों में होते हैं। परन्तु पर्यायों का समूह तम्हा दव्वं हवदि सव्वं॥ द्रव्य है, अतः सब द्रव्य ही है। ६६५. समवेदं खलु दव्वं, _संभव-ठिदि-णाससण्णिदह्रहि। एक्कम्मि चेव समये, तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं॥ द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य नामक अर्थों के साथ समवेत एकमेक है। इसलिए ये तीनों वास्तव में द्रव्य हैं। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन . ७४० खण्ड-५ ६६६. पाडुब्भवदि य अन्नो, द्रव्य की अन्य (उत्तरवर्ती) पर्याय उत्पन्न (प्रकट) __पज्जाओ पज्जाओ वयदि अन्नो। होती है और कोई अन्य (पूर्ववर्ती) पर्याय नष्ट (अदृश्य) दव्वस्स तं पिदव्वं, हो जाती है। फिर भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न णेव पणठंणेव उप्पन्नं॥ नष्ट होता है-द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव (नित्य) रहता है। ६६७. पुरिसम्मि पुरिससहो, ___ जम्माई-मरण-काल-पज्जन्तो। तस्स उ बालाईया, पज्जव-जोया बहुवियप्पा॥ पुरुष में पुरुष का व्यवहार जन्म से लेकर मरण तक होता है। परन्तु इसी बीच बचपन-बुढ़ापा आदि अनेक पर्यायें उत्पन्न हो-होकर नष्ट होती जाती हैं। ६६८. तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जवोस सामन्नं। जो विसरिसो विसेसो, समओऽणत्थंतरं तत्तो॥ (अतः) वस्तुओं की जो सदृश पर्याय-दीर्घकाल तक बनी रहनेवाली समान पर्याय है, वही सामान्य है और उनकी जो विसदृश पर्याय है वह विशेष है। ये दोनों पर्याय उस वस्तु से अभिन्न (कथंचित्) मानी गयी हैं। ६६९. सामन्नं अह विसेसे दव्वे गाणं हवेह अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं, णह पुण तं तस्स विवरीयं॥ सामान्य तथा विशेष इन दोनों धर्मों से युक्त द्रव्य में होनेवाला अविरोध ज्ञान ही सम्यक्त्व का साधक होता है। उसमें विपरीत ज्ञान साधक नहीं होता। ६७०. पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं एग-पुरिससंबंधो। णय सो एगस्स पिय, त्ति सेसयाणं पिया होइ॥ एक ही पुरुष में पिता, पुत्र, पौत्र, भानेज, भाई आदि अनेक संबंध होते हैं। परंतु एक का पिता होने से वह सबका पिता नहीं होता। (यही स्थिति सब वस्तुओं की है।) ६७१. सवियप्प-णिवियप्पं इय, पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं। सवियप्यमेव वा णिच्छएण, __ण स निच्छओ समए॥ निर्विकल्प तथा सविकल्प उभयरूप पुरुष को जो केवल निर्विकल्प अथवा.सविकल्प (एक ही) कहता है, उसकी मति निश्चय ही शास्त्र में स्थिर नहीं है। ६७२. अन्नोन्नाणुगयाणं 'इमं व तं वत्ति विभयण-मजुत्तं। ____जह दुद्ध-पाणियाणं, जावंत विसेस-पज्जाया॥ - दूध और पानी की तरह अनेक विरोधी धर्मों द्वारा परस्पर घुले-मिले पदार्थ में 'यह धर्म' और 'वह धर्म' का विभाग करना उचित नहीं है जितनी विशेष पर्याय हों, उतना ही अविभाग समझना चाहिए। ६७३. संकेज्ज याऽसंकित-भाव भिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा। भासाद्गं धम्मसमुदिठतेहिं, वियागरेज्जा समया सुपन्ने॥ सूत्र और अर्थ के विषय में शंकारहित साधु भी गर्वरहित होकर स्याद्वादमय वचन का व्यवहार करे। धर्माचरण में प्रवृत्त साधुओं के साथ विचरण करते हुए सत्यभाषा तथा व्यवहार भाषा का प्रयोग करे। धनी या निर्धन का भेद न करके समभावपूर्वक धर्म-कथा कहे। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुतं प्रमाण सूत्र पंचविध ज्ञान ६७४. संसयविमोह - विब्भम विवज्जियं अप्प पर सरुवस्स । सायार-मणेय भेयं 'तु ॥ गणं सम्मं णाणं, ७४१ ६७५. तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं । ओहीनाणं तइयं, मणनाणं च केवलं ॥ ६७६. पंचेव होंति णाणा, . खयउवसमिया चउरो, मदि-सुद-ओही मणं च केवलयं । केवलणाणं हवे खइयं ॥ शे. १७. ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा' य गवेसणा । सण्णा सती मती पण्णा, सव्वं आभिणिबोधियं ॥ ६७८. अत्थाओ अत्यंतर - मुवलंभे तं भांति सुयणाणं । आभिणिबोहिय-पुव्वं, णियमेण य सहयं मूलं ॥ ६७९. इंदिय-मणोनिमित्तं, जे विण्णाणं सुयाणुसारेणं । निययतत्थुत्ति - समत्थं, तं भावसुयं मई सेसं ॥ ६८०. मइपुव्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं । पुव्वं पूरणपालण-भावाओ जं मई तस्स ॥ १. धुआं देखकर होनेवाला अग्नि का ज्ञान लिंगज है और वाचक शब्द सुन या पढ़कर होनेवाला ज्ञान शब्दज है। आगम में शब्दज श्रुतज्ञान का प्राधान्य है । प्रमाण सूत्र अ. ४ : स्याद्वाद पंचविध ज्ञान संशय, विमोह (विपर्यय) और विभ्रम (अनध्यवसाय) इन तीन मिथ्याज्ञानों से रहित स्व और पर के स्वरूप का ग्रहण करना सम्यग्ज्ञान है। यह वस्तुस्वरूप का यथार्थ निश्चय कराता है, अतएव इसे साकार अर्थात् सविकल्पक (निश्चयात्मक) कहा गया है। इसके अनेक भेद हैं। ज्ञान पांच है- आभिनिबोधिक - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इस प्रकार मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल के रूप में ज्ञान केवल पांच ही हैं। इनमें से प्रथम चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, और केवलज्ञान क्षायिक है। ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, शक्ति, मति और प्रज्ञा- ये सब आभिनिबोधिक है। ( अनुमान या लिंगज्ञान की भांति ) अर्थ (शब्द) को जानकर उस से अर्थान्तर ( वाच्यार्थ ) को ग्रहण करना श्रुतज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान नियमतः आभिनिबोधिक ज्ञानपूर्वक होता है। इसके दो भेद हैं-लिंगजन्य और शब्दजन्य । ' इन्द्रिय और मन के निमित्त से श्रुतानुसारी होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। वह अपने विषयभूत अर्थ को दूसरे से कहने में समर्थ होता है। शेष इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाला अश्रुतानुसारी अवग्रहादि ज्ञान मतिज्ञान है | आगम में कहा गया है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नहीं होता। यही दोनों में २. इस मतिज्ञान से स्वयं तो जाना जा सकता है, किन्तु दूसरे को नहीं समझाया जा सकता। Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ६८१. अवहीयदित्ति ओही, सीमाणाणेत्तिं वण्णियं समए । तमोहिणाण त्तिणं बिंति ॥ ६८२. चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतियं अणेयभेयगयं । मणपज्जव त्ति णाणं, जं जाणइ तं तु णरलोए ॥ भवगुणपच्चय-विहियं, ७४२ ६८३. केवलमेगं सुद्धं, सगल-मसाहारणं अनंतं च । पायं च नाणसद्दो, नाम - समाणाहिगरणोऽयं ॥ ६८४. संभिन्नं पासंतो, लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं । तं नत्थि जं न पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ॥ प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण ६८५. गेहणइ वत्थुसहावं, अविरुद्धं सम्मरूवं जं णाणं । भणियं खु तं पमाणं, पच्चक्खपरोक्खभेएहिं ॥ ६८६. जीवो अक्खो अत्थव्ववण तं पइ वट्टइ नाणं, भोयणगुणन्निओ जेणं । जे पच्चक्खं तयं विविहं ॥ खण्ड - ५ अंतर है। 'पूर्व' शब्द 'प' धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है पालन और पूरण। श्रुत का पूरण और पालन करने से मतिज्ञान पूर्व में ही होता है। अतः मतिपूर्वक ही श्रुत कहा गया है। ‘अवधीयते इति अवधिः' - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा पूर्वक रूपी पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसे आगम में सीमाज्ञान भी कहा है। इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । जो ज्ञान मनुष्यलोक में स्थित जीव के चिन्तित, अचिंतित, अर्धचिंतित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान है। केवल शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि अर्थ हैं। अतः केवलज्ञान एक है अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता से रहित है और उसके होने पर अन्य सब ज्ञान निवृत्त हो जाते हैं, इसीलिए केवलज्ञान एकाकी है। मलकलंक से रहित होने से शुद्ध है। सम्पूर्ण ज्ञेयों का ग्राहक होने से सकल है। इसके समान और कोई ज्ञान नहीं है, अतः असाधारण है। इसका कभी अंत नहीं होता। अतः अनंत है। केवलज्ञान लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे केवलज्ञान नहीं जानता । प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण जो ज्ञान वस्तु-स्वभाव को यथार्थस्वरूप कोसम्यकरूप 'से जानता है, उसे प्रमाण कहते हैं। इसके दो. भेद हैं- प्रत्यक्षप्रमाण और परोक्षप्रमाण । जीव को 'अक्ष' कहते हैं। यह शब्द 'अशु व्याप्तौ' धातु से बना है। जो ज्ञानरूप में समस्त पदार्थों में व्याप्त है, वह अक्ष अर्थात् जीव है। 'अक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति भोजन के अर्थ में 'अश्' धातु से भी की जा सकती है। जो तीनों लोक की समस्त समृद्धि आदि को भोगता है अक्ष अर्थात् जीव है। इस तरह दोनों व्युत्पत्तियों से Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७४३ अ. ४ : स्याद्वाद (अर्थव्यापन व भोजनगुण से) जीव का अक्ष अर्थ सिद्ध होता है। उस अक्ष से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके तीन भेद हैं-अवधि, मनःपर्यव और केवल। ६८७. अक्खस्स पोग्गलकया, जंदग्विन्दियमणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व॥ पौद्गलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियां और मन ‘अक्ष' अर्थात् जीव से 'पर' (भिन्न) हैं। अतः उनसे होनेवाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैसे अनुमान में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है, वैसे ही परोक्षज्ञान भी 'पर' के निमित्त से होता है। ६८८. होति परोक्खाई मइ.. सुयाइं जीवस्स परनिमित्ताओ। पुव्वावलद्धसंबंध सरणाओ वाणुमाणं व॥ जीव के मति और श्रुत-ज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष हैं। अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण से होने के कारण भी वे परनिमित्तक हैं।' ६८९. एगंतेण परोक्खं,लिंगिय-मोहाइयं च पच्चक्खं। इंदियमणोभवं जं, तं संववहार-पच्चक्खं॥ धूम आदि लिंग से होनेवाला श्रुतज्ञान तो एकान्तरूप से परोक्ष ही है। अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान एकांतरूप से प्रत्यक्ष ही हैं। किन्तु इन्द्रिय और मन से होनेवाला मतिज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। . नय सूत्र ६९०. ज णाणीण वियप्पं, सुयभेयं वत्थुअंस-संगहणं। तं इह णयं पउत्तं, णाणी पुण तेण णाणेण॥ नय सूत्र श्रुतज्ञान के आश्रय से युक्त वस्तु के अंश को ग्रहण करनेवाले ज्ञानी के विकल्प को 'नय' कहते हैं। उस ज्ञान से जो युक्त है वही ज्ञानी है। ६९१. जम्हा ण णएण विणा, होइ णरस्स सियवाय-पडिवत्ती। तम्हा सो बोहव्वो, एयंतं हतुकामेण॥ नय के बिना मनुष्य को स्यादवाद का बोध नहीं होता। अतः जो एकांत का या एकांत आग्रह का परिहार करना चाहता है, उसे नय को अवश्य जानना चाहिए। ६९२. धम्मविहीणो सोक्खं, तण्हाछेयं जलेण जह रहिदो। - तह इह वंछइ मूढो, णयरहिओ दव्वणिच्छिती॥ जैसे धर्मविहीन मनुष्य सुख चाहता है या कोई जल के बिना अपनी प्यास बुझाना चाहता है, वैसे ही मूढ़ जन नय के बिना द्रव्य के स्वरूप का निश्चय करना चाहता है। ६९३. तित्थयर-वयण-संगह विसेस-पत्थार-मूलवागरणी। दव्वढिओ य पज्जवणओ, य सेसा वियप्पा सिं॥ १. परनिमित्तक अर्थात् मन और इन्द्रियों की सहायता से होनेवाला ज्ञान। तीर्थंकरों के वचन दो प्रकार के हैं-सामान्य और विशेष। दोनों प्रकार के वचनों की राशियों के (संग्रह के) मूल प्रतिपादक नय दो ही हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। शेष सब नय इन दोनों के ही अवान्तर भेद हैं। २. द्रव्यार्थिक नय वस्तु के सामान्य अंश का प्रतिपादक है और पर्यायार्थिक विशेष अंश का। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७४४ खण्ड-५ ६९४. दव्वठियवत्तव्वं, द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य (सामान्यांश) अवत्थु णियमेण पज्जव-णयस्स। पर्यायार्थिक नय के लिए नियमतः अवस्तु है और तह पज्जववत्थु, पर्यायार्थिक नय की विषयभूत वस्तु (विशेषांश). अवत्थुमेव दव्वठिय-नयस्स॥ द्रव्यार्थिक नय के लिए अवस्तु है। ६९५. उप्पज्जति वियंति य, भावा नियमेण पज्जव-नयस्स। दव्वट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्न-मविणठं॥ पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पदार्थ नियमतः उत्पन्न होते हैं। और द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सकल पदार्थ सदैव अनुत्पन्न और अविनाशी होते हैं। ६९६. दव्वट्ठिएण सव्वं, दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो। हवदि य अन्नमणन्नं, तक्काले तम्मयत्तादो॥ द्रव्यार्थिक नय से सभी द्रव्य हैं और पर्यायार्थिक नय से वह अन्य-अन्य है, क्योंकि जिस समय में जिस नय से वस्तु को देखते हैं, उस समय वह वस्तु उसी रूप में दृष्टिगोचर होती है। ६९७. पज्जयं गउणं किच्चा, जो ज्ञान पर्याय को गौण करके लोक में द्रव्य का ही दव्वं पि य जो हु गिण्हइ लोए। ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। जो द्रव्य सो दव्वत्थिय भणिओ, को गौण करके पर्याय का ही ग्रहण करता है, उसे विवरीओ पज्जयत्थिणओ॥ पर्यायार्थिक नय कहा गया है। ६९८. नेगम-संगह-ववहार-उज्जुसुए चेव होई बोधव्वा। सहे य समभिरूढे,एवंभूए य मूलनया॥ मूल नय सात हैं नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत।, ६९९. पढम-तिया दव्वत्थी, पज्जय-गाही य इयर जे भणिया। ते चदु अत्थपहाणा, सहपहाणा हु तिण्णि या॥ इनमें से प्रथम तीन द्रव्यार्थिक हैं और शेष चार नंय पर्यायार्थिक हैं। सातों में से पहले चार नय अर्थप्रधान हैं और अंतिम तीन नय शब्दप्रधान हैं। ७००. गाई माणाई, सामन्नोभय-विसेसनाणाइं। जं तेहिं मिणइ तो, णेगमो णओ णेगमाणो ति॥ सामान्यज्ञान, विशेषज्ञान तथा उभयज्ञान रूप से जो अनेक मान लोक में प्रचलित हैं उन्हें जिसके द्वारा जाना जाता है वह नैगम नय है। इसीलिए उसे 'नयिकमान' अर्थात् विविधरूप से जानना कहा गया है। ७०१. णिव्वित्त दव्वकिरिया, वट्टणकाले दु जं समाचरणं। तं भूय-णइगम-णयं, जह अज्जदिणं निव्वुओ वीरो॥ (भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से नैगमनय तीन प्रकार का है।) जो द्रव्य या कार्य भूतकाल में समाप्त हो चुका हो उसका वर्तमान काल में आरोपण करना भूत नैगमनय है। जैसे हजारों वर्ष पूर्व हुए महावीर के निर्वाण के लिए कहना कि 'आज के दिन महावीर का निर्वाण हुआ है। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं, ७०२. पारद्धा जा किरिया, लोय पुच्छमाणे, पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धं । तं भण्णइ वट्टमाणणयं ॥ ७०३. णिप्पण्णमिव पयंपदि, अप्पत्थे जह पत्थं, भण्णइ सो भावि णइगमो त्ति णओ ॥ ७०४. अवरोप्परम-विरोहे, होइ तमेव असुद्ध भाविपदत्थं णरो अणिपण्णं । सव्वं अस्थि त्ति सुद्धसंगहणे । ·इगजाइविसेसगहणेण ॥ ७०५. जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्धं सुद्धं वा । सो घवहारो दुविहो, असुद्ध - सुद्धत्थ - भयकरो ॥ ७०६. जो एयसमयवट्टी, सो रित्तो सुमो, ७०७. मणुयाइय-पज्जाओ, ७४५ ७०८. सवणं सपइ स तेणं, गिइ दव्वे धुवत्त-पज्जायं । सव्वं पिस जहा खणियं ॥ सो त सगट्ठिदीसु वट्टतो। जो भइ तावकालं, सो थलो होइ रिउसुत्तो ॥ व सप्पए वत्थु जं तओ सद्दो । तस्सत्थ- परिग्गहओ, नओ वि सद्दो त्ति हेउ व्व ॥ ७०९. जो वट्टणं ण मण्णइ, एयत्थे भिन्नलिंगआईणं । सो सद्दणओ भणिओ, ओ पुस्साइआण जहा ॥ अ. ४ : स्याद्वाद जिस कार्य को अभी प्रारंभ ही किया है उसके बारे में लोगों के पूछने पर पूरा हुआ कहना' जैसे भोजन बनाना प्रारंभ करने पर ही यह कहना कि 'आज भात बनाया है' यह वर्तमान नैगमनय है। जो कार्य भविष्य में होनेवाला है उसके निष्पन्न न होने पर भी निष्पन्न हुआ कहना भावी नैगमनय है। जैसे जो अभी गया नहीं है उसके लिए कहना कि 'वह गया' । संग्रहनय के दो भेद हैं- शुद्धसंग्रहनय और अशुद्धसंग्रहनय । शुद्धसंग्रहनय में परस्पर में विरोध न करके सत्रूप से सबका ग्रहण होता है। उसमें से एक जातिविशेष को ग्रहण करने से वही अशुद्धसंग्रहनय होता है। जो संग्रहनय द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थ का भेद करता है, वह व्यवहारनय है। यह भी दो प्रकार का है - एक अशुद्धार्थ भेदक और दूसरा शुद्धार्थ भेदक । जो द्रव्य में एक समयवर्ती (वर्तमान) अध्रुव पर्याय को ग्रहण करता है उसे सूक्ष्मऋजुसूत्रनय कहते हैं। जैसे सब सत्क्षणिक है। (और) जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहनेवाली मनुष्यादि पर्याय को उतने समय तक एक मनुष्यरूप से ग्रहण करता है, वह स्थूलऋजुसूत्रनय है । शपन अर्थात् आह्वान शब्द है, अथवा जो 'शपति' अर्थात् आह्वान करता है वह शब्द है। अथवा ' शप्यते' जिसके द्वारा वस्तु को कहा जाता है वह शब्द है। उस शब्द का वाच्य जो अर्थ है, उसको ग्रहण करने से नय को भी शब्द कहा गया है। जो एकार्थवाची शब्दों में लिंग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है, उसे शब्दनय कहा गया है। जैसे पुष्य शब्द पुल्लिंग में नक्षत्र का वाचक है और पुष्या स्त्रीलिंग तारिका का बोध कराती है। Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७४६ खण्ड-५ ७१०. अहवा सिद्धे सहे, अथवा व्याकरण से सिद्ध शब्द में अर्थ का जो कीरइ जं किं पि अत्थववहरणं। व्यवहार किया जाता है, उसी अर्थ को उस शब्द के द्वारा तं खलु सद्दे विसयं, ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे देव शब्द के द्वारा उसका 'देवो' सहेण जह देवो॥ सुग्रहीत अर्थ देव अर्थात् सुर ही ग्रहण करना। ७११. सहारूढो अत्थो, अत्थारूढो तहेव पुण सहो। भणइ इह समभिरूढो, जह इंद पुरंदरो सक्को॥ जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने वाचक अर्थ में. आरूढ़ है। उसी प्रकार प्रत्येक शब्द भी अपने-अपने अर्थ में आरूढ़ है। अर्थात् शब्दभेद के साथ अर्थभेद होता ही है। जैसे इन्द्र, पुरन्दर और शक्र तीनों शब्द देवों के राजा के बोधक हैं, तथापि इन्द्र शब्द से उसके ऐश्वर्य का बोध होता है, पुरन्दर से अपने शत्रु के पुरों का नाश करनेवाले का बोध होता है। इस प्रकार शब्द भेदानुसार अर्थभेद करनेवाला 'समभिरूढ़नय' है। (यह शब्द. को अर्थारूढ़ और अर्थ को शब्दारूढ़ कहता है।). ७१२. एवं जह सइत्थो, संतो भूओ तदन्नहाऽभूओ। तेणेवंभूय-नओ, सइत्थपरो विसेसेण॥ एवं अर्थात् जैसा शब्दार्थ हो उसी रूप में जो व्यवहृत होता है वह भूत अर्थात् विद्यमान है। और जो शब्दार्थ से अन्यथा है वह अभूत अर्थात् अविद्यमान है। जो ऐसा मानता है वह ‘एवंभूतनय' है। इसलिए शब्दनय और समभिरूढनय की अपेक्षा एवंभूतनय विशेषरूप से शब्दार्थ तत्पर नय है। ७१३. जं जं करेइ कम्म, देही मणवयणकायचेट्ठादो। जीव अपने मन, वचन व काय की क्रिया द्वारा जो-जो तं तं खु णामजुत्तो, एवंभूओ हवे स णओ॥ __ काम करता है, उस प्रत्येक कर्म का बोधक अलग-अलग शब्द है और उसीका उस समय प्रयोग करनेवाला एवंभूतनय है। जैसे मनुष्य को पूजा करते समय ही पुजारी और युद्ध करते समय ही योद्धा कहना। स्याद्वाद व सप्तभंगीसूत्र स्याद्वाद-सप्तभंगी सूत्र ७१४. अवरोप्परसावेक्खं, ___णायविसयं अह पमाणविसयं वा। तं सावेक्खं भणियं, णिरवेक्खं ताण विवरीयं॥ नय का विषय हो या प्रमाण का, परस्पर-सापेक्ष विषय को ही सापेक्ष कहा जाता है और इससे विपरीत को निरपेक्ष कहा जाता है।' ७१५. णियम-णिसेहण-सीलो, णिपादणादो य जो हु खलु सिद्धो। सो सियसो भणिओ, जो सावेक्खं पसाहेदि॥ १. प्रमाण का विषय सर्व नयों की अपेक्षा रखता है और नय का विषय प्रमाण की तथा अन्य विरोधी नयों की अपेक्षा जो सदा नियम का निषेध करता है और निपात रूप से सिद्ध है, उस शब्द को 'स्यात्' कहा गया है। यह वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है। रखता है, तभी वह विषय सापेक्ष कहलाता है। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७४७ अ.४: स्याद्वाद ७१६. सत्तेव हुंति भंगा पमाण-णय-दुणय-भेदजुत्ता वि। • सिय सावेक्खं पमाणं, णएण णय दुणय णिरवेक्खा । (अनेकांतात्मक वस्तु की सापेक्षता के प्रतिपादन में प्रत्येक वाक्य के साथ 'स्यात्' लगाकर कथन करना स्याद्वाद का लक्षण है।) इस न्याय में प्रमाण, नय और दुर्नय के भेद से युक्त सात भंग होते हैं। 'स्यात्'-सापेक्ष भंगों को प्रमाण कहते हैं। नय-युक्त भंगों को नय कहते हैं और निरपेक्ष भंगों को दुर्नय। ७१७. अत्थि त्ति णत्थि दो वि य, अव्वत्तव्वं सिएण संजुत्तं। अव्वत्तव्वा ते तह, पमाणभंगी सुणायव्वा॥ स्यात् अस्ति, स्यात्नास्ति, स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य, स्यात् नास्ति-अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति-अवक्तव्य-इन्हें प्रमाण सप्तभंगी जानना चाहिए। ७१८. अस्थिसहावं दव्वं, सहव्वादीसु गाहिय-णएण। तं पि य णत्थिसहावं, परदव्वादीहि गहिएण॥ स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा द्रव्य अस्तिस्वरूप है। वही पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा नास्तिस्वरूप है। ७१९. उहयं उहय-णएण, अव्वत्तव्वं च तेण समुदाए। ते पिय अव्वत्तव्वा, णिय:णिय-णय-अत्थसंजोए॥ स्व-द्रव्यादि चतुष्टय और पर-द्रव्यादि चतुष्टय दोनों की अपेक्षा लगाने पर एक ही वस्तु स्यात्-अस्ति और स्यात्नास्ति स्वरूप होती है। दोनों धर्मों को एक साथ कहने की अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है। इसी प्रकार अपने-अपने नय के साथ अर्थ की योजना करने पर अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। ७२०. अत्थि त्ति णत्थि उहयं, . अव्वत्तव्वं तहेव पुण तिदयं। .. तह सिय णय-णिरवेक्खं, जाणसु दव्वे दुणयभंगी॥ स्यात् पद तथा नय-निरपेक्ष होने पर यही सातों भंग दुर्नय-भंगी कहलाते हैं। जैसे वस्तु अस्ति ही है, नास्ति ही है, उभयरूप ही है, अवक्तव्य ही है, अस्ति-अवक्तव्य ही है, नास्ति-अवक्तव्य ही है या अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है। ७२१. एकणिरुद्धे इयरो, वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करने पर उसके प्रतिपक्षी पडिवक्खो अवरे य सब्भावो। दूसरे धर्म का भी ग्रहण अपने-आप हो जाता है, क्योंकि सव्वेसिं स सहावे, कायव्वा होइ तह भंगा॥ दोनों ही धर्म वस्तु के स्वभाव है। अतः सभी वस्तु-धर्मो के सप्तभंगी की योजना करना चाहिए। समन्वय सूत्र समन्वय सूत्र ७२२. सव्वं पि अणेयंतं, परोक्ख-रूवेण जं पयासेदि। तं सुयणाणं भण्णदि, संसय-पहदीहि परिचत्तं॥ जो परोक्षरूप से समस्त वस्तुओं को अनेकांतरूप दर्शाता है और संशय आदि से रहित है, वह ज्ञान श्रुतज्ञान है। १. किसी एक ही पहलू या दृष्टिकोण पर जोर देना या आग्रह रखना तथा दूसरे की सर्वथा उपेक्षा करना दुर्नय है। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७४८ खण्ड-५ ७२३. लोयाणं ववहार,धम्म-विवक्खाइ जो पसाहेदि। जो वस्तु के किसी एक धर्म की विवक्षा या अपेक्षा से सुयणाणस्स वियप्पो,सो वि णओ लिंगसंभूदो॥ लोक-व्यवहार को साधता है, वह नय है। नय श्रुतज्ञान का भेद है और लिंग से उत्पन्न होता है। ७२४. णाणा धम्मजुदं पि य, एयं धम्म पि वुच्चदे अत्थं। तस्सेय-विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं॥ अनेक धर्मों से युक्त वस्तु के किसी एक धर्म को ग्रहण करना नय का लक्षण है। क्योंकि उस समय उसी धर्म की विवक्षा है, शेष धर्मों की विवक्षा नहीं है। ७२५. ते सावेक्खा सुणया, वे नय (विरोधी होने पर भी) सापेक्ष हों तो सुनय णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति। कहलाते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय। सुनय से ही सयल-ववहार-सिद्धी,सुणयादो होदि णियमेण॥ नियमपूर्वक समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है। ७२६. जावंतो वयणपहा,तावंतो वा नया 'वि' सहाओ। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सव्वे॥ (वास्तव में देखा जाय तो लोक में-) जितने वचन के पंथ हैं, उतने ही नय हैं, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिप्राय या अर्थ को सूचित करते हैं और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यता होती है। अतः जितने नय सावधारण (हठग्राही) हैं, वे सब पर-समय हैं, मिथ्या हैं; और अवधारणरहित (सापेक्षसत्यग्राही) तथा स्यात् शब्द से युक्त समुदित सभी नय सम्यक् होते हैं। ७२७. परसमएग-नयमयं, तप्पडिवक्ख-नयओ निवत्तेज्जा। समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए॥ नय-विधि के ज्ञाता को पर-समयरूप (एकांत या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए। तथा स्वसमयरूप जिन-सिद्धांत में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से कोई निरपेक्ष पक्ष अपना लिया हो तो उसका भी निवर्तन (निवारण) करना चाहिए।' ७२८.णियय-वयणिज्ज-सच्चा, सव्वनया पर-वियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठ-समओं, विभयइ सच्चे व अलिए वा॥ सभी नय अपने अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, किन्तु दूसरे नयों के वक्तव्य का निराकरण करते हैं तो मिथ्या हैं। अनेकांत दृष्टि-शास्त्र का ज्ञाता उन नयों का ऐसा विभाजन नहीं करता कि 'ये सच्चे हैं और वे झूठे हैं। ७२९. न समेन्ति न य समेया, सम्मत्तं नेव वत्थुणो गमगा। वत्थु-विघायाय नया, विरोहओ वेरिणो चेव॥ निरपेक्ष नय न तो सामुदायिकता को प्राप्त होते हैं और न वे समुदायरूप कर देने पर सम्यक् होते हैं। क्योंकि प्रत्येक नय मिथ्या होने से उनका समुदाय तो महामिथ्यारूप होगा। समुदायरूप होने से भी वे वस्तु के Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७४९ अ. ४ : स्याद्वाद गमक नहीं होते, क्योंकि पृथक्-पृथक अवस्था में भी वे गमक नहीं हैं। इसका कारण यह है कि निरपेक्ष होने के कारण वैरी की भांति परस्पर विरोधी हैं। ७३०. सव्वे समयंति सम्म, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि। भिच्च-ववहारिणो इव, राओदासीण-वसवत्ती॥ जैसे नाना अभिप्रायवाले अनेक सेवक एक राजा, स्वामी या अधिकारी के वश में रहते हैं, या आपस में लड़ने-झगड़नेवाले व्यवहारी-जन किसी उदासीन (तटस्थ) व्यक्ति के वशवर्ती होकर मित्रता को प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही ये सभी परस्पर विरोधी नय स्याद्वाद की शरण में जाकर सम्यक्भाव को प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् स्याद्वाद की छत्रछाया में परस्पर विरोध का कारण सावधारणता दूर हो जाती है और वे सब सापेक्षतापूर्वक एकत्र हो जाते हैं। . मा ७३१. जमणेगधम्मणो वत्थुणो,तदंसे च सव्वपडिवत्ती। - अंध व्व गयावयवे तो, मिच्छादिट्ठिणो वीसु॥ जैसे हाथी के पूंछ, पैर, सूंड आदि टटोलकर एक-एक अवयव को ही हाथी माननेवाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करके 'हमने पूरी वस्तु जान ली है' ऐसी प्रतिपत्ति करनेवालों का उस वस्तु विषयक ज्ञान मिथ्या होता है। ७३२. जं पुण समत्तपज्जाय तथा जैसे हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को वत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं। हाथी जाननेवाले चक्षुष्मान् का ज्ञान सम्यक् होता है, वैसे सम्मत्तं चक्खुमओ, __ ही समस्त नयों के समुदाय द्वारा वस्तु की समस्त पर्यायों सव्व-गयावयव-गहणे व्व॥ को जाननेवाले का ज्ञान सम्यक होता है। ७३३. पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं। ___पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो॥ संसार में ऐसे बहुत-से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं। शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवां भाग ही प्रज्ञापनीय (कहने योग्य) होता है। इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवां भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है। ७३४. सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं।। इसलिए जो पुरुष अपने मत की प्रशंसा करते हैं तथा जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥ दूसरे के वचनो की निन्दा करते है और इस तरह अपना पांडित्य-प्रदर्शन करते हैं, वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए हैं-दृढ़-रूप में आबद्ध हैं। ७३५. णाणाजीवा णाणाकम्म, णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयण-विवाद,सग-पर-समएहिं वज्जिज्जा॥ इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं. नाना प्रकार की लब्धियां हैं, इसलिए कोई Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७३६. भई मिच्छादंसण समूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ, ७३८. दव्वं विविहसहावं, तस्स निमित्तं कीरह, निक्षेप सूत्र ७३७. जुत्ती सुजुत्तमम्गे, जं चउभेएण होइ खलु ठेवणं । कज्जे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समए ॥ ७५० संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ जेण सहावेण होइ तं ज्ञेयं । एक्कं पि य दव्व चउभेयं ॥ ७३९. णामट्ठवणा दव्वं, भावं तह जाण होइ णिक्खेवं । दव्वे सण्णा णामं, दुविहं पि य तं पि विक्खायं ॥ ७४०. सायार इयर ठवणा, कित्तम इरा दुबिंबजा पढमा । इरा इयरा भणिया, ठवणा अरिहो य णायव्वो ॥ ७४१-७४२. दव्यं खु होइ दुविहं, णो आगमं पि तिविहं, णाणिसरीरं तिविहं, आगमणो आगमेण जह भणियं । अरहंत सत्थ- जाणो, अणतो दव्य- अरिहंतो ॥ देहं णाणिस्स भाविकम्मं च। चुद चत्तं चाविदं चेति ॥ खण्ड - ५ स्वधर्मी हो या पर धर्मी, किसी के भी साथ वचन- विवाद करना उचित नहीं । मिथ्यादर्शनों के समूहरूप, अमृतरस प्रदायी और अनायास ही मुमुक्षुओं की समझ में आनेवाले वन्दनीय जिनवचन का कल्याण हो। निक्षेप सूत्र प्रमाण और नय के द्वारा निर्णीत मार्ग में पदार्थ की नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव में स्थापना करने को निक्षेप कहा जाता है। L द्रव्य विविध स्वभाववाला है। उनमें से जिस स्वभाव के द्वारा वह ध्येय या ज्ञेय ( ध्यान या ज्ञान का विषय ) होता है उस स्वभाव के निमित्त एक ही द्रव्य के ये चार भेद किये जाते हैं। निक्षेप के चार प्रकार है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । पदार्थ के संज्ञकरण को नाम निक्षेप कहा जाता है। उसके दो प्रकार हैं- यादृच्छिक और यावत्कथिक । यह अप्रस्तुत निराकरण और प्रस्तुत बोध के लिए किया जाता है। जहां एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु में आरोप किया जाता है वहां स्थापना निक्षेप होता है। यह दो प्रकार का है - साकार और निराकार जैसे कृत्रिम या अकृत्रिम अर्हत् की प्रतिमा साकार स्थापना है। किसी अन्य पदार्थ में अर्हत् की स्थापना करना निराकार स्थापना है। जब वस्तु की वर्तमान अवस्था का उल्लंघन कर उसका भूतकालीन या भावी स्वरूपानुसार व्यवहार किया जाता है, तब उसे द्रव्यनिक्षेप कहते हैं उसके दो भेद हैं-आगम और नोआगम अर्हन्तकथित शास्त्र का जानकार जिस समय उस शास्त्र में अपना उपयोग नहीं लगाता, उस समय वह आगम द्रव्यनिक्षेप से अर्हन्त है। नो आगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेद हैं-ज्ञायक शरीर, भावी और कर्म। जहां वस्तु के ज्ञाता के शरीर को उस वस्तुरूप Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं अ.४: स्याद्वाद माना जाए वहां ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे राजनीतिज्ञ के मृत शरीर को देखकर कहना कि राजनीति मर गयी। ज्ञायकशरीर भी भूत, वर्तमान और भविष्य की अपेक्षा तीन प्रकार का तथा भूतज्ञायक शरीर च्युत, त्यक्त और च्यावित रूप से पुनः तीन प्रकार का होता है। वस्तु को जो स्वरूप भविष्य में प्राप्त होगा उसे वर्तमान में ही वैसा मानना भावी नो-आगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे युवराज को राजा मानना तथा किसी व्यक्ति का कर्म जैसा हो अथवा वस्तु के विषय में लौकिक मान्यता जैसी हो गयी हो उसके अनुसार ग्रहण करना कर्म या तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे जिस व्यक्ति में दर्शनविशुद्धि, विनय आदि तीर्थंकर नामकर्म का बंध करानेवाले लक्षण दिखायी दें उसे तीर्थंकर ही कहना अथवा पूर्णकलश, दर्पण आदि पदार्थों को लोकमान्यतानुसार मांगलिक कहना। ७४३-७४४. आगम-णपआगमदो, तहेव भावो कि होदि दव्वं वा। अरहंत-सत्थजाणो, - आगमभावो दु अरहंतो॥ तग्गुणए य परिणदो, णो आगमभाव होइ अरहंतो। तग्गुणएई झादा, केवलणाणी हु परिणदो भणिओ॥ तत्कालवर्ती पर्याय के अनुसार ही वस्तु को संबोधित करना या मानना भावनिक्षेप है। इसके भी दो भेद हैं-आगम और नोआगम। जैसे अर्हन्त-शास्त्र का ज्ञायक जिस समय उस ज्ञान में अपना उपयोग लगा रहा है उसी समय अर्हन्त है; यह आगमभावनिक्षेप है। जिस समय उसमें अर्हन्त के समस्त गुण प्रकट हो गये हैं उस समय उसे अर्हन्त कहना तथा उन गुणों से युक्त होकर ध्यान करनेवाले को केवलज्ञानी कहना नोआगमभावनिक्षेप है। . .. समापन समापन ७४५. एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदंसणधरे। अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए॥ इस प्रकार यह हितोपदेश अनुत्तरज्ञानी अनुत्तरदर्शी तथा अनुत्तरज्ञानदर्शन के धारी नागपुत्र भगवान् महावीर ने विशाला नगरी में दिया था। ७४६. णहि णूण पुरा अणुस्सुयं, अदुवा तं तह णो समुठ्ठियं। मुणिणा सामाइ आहियं, नाएणं जगसव्वदंसिणा॥ सर्वदर्शी नागपुत्र भगवान् महावीर ने सामायिक आदि का उपदेश दिया था, किन्तु जीव ने उसे सुना नहीं अथवा सुनकर उसका सम्यक् आचरण नहीं किया। ७४७-७४८. अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं. जो आगतिं जाणइ णागतिं च। जो सासयं जाण असासयं च, जातिं मरणं च चयणोववातं॥ जो आत्मा को जानता है, लोक को जानता है, आगति और अनागति को जानता है, शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण, च्यवन और उपपाद को जानता है, आस्रव और संवर को जानता है, दुःख और निर्जरा को जानता है Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७५२ खण्ड-५ अहोवि सत्ताण वि उड्ढंच, वही क्रियावाद का अर्थात् सम्यक आचार-विचार का जो आसवं जाणति संवरं च। कथन कर सकता है। दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च, सो भासिउमरिहति किरियवादं॥ ७४९. लद्धं अलद्धपुव्वं, जिणवयण-सुभासिदं अमिदभूदं। गहिदो सुग्गइ-मग्गो, __णाहं मरणस्स बीहेमि॥ जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ. वह अमतमय सुभाषित जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नहीं है। वीरस्तवन वीरस्तवन ७५०. णाणं सरणं मे, ज्ञान मेरी शरण है, दर्शन मेरी शरण है, चारित्र मेरी दंसणं च सरणं च चरिय सरणं च।। शरण है, तप और संयम मेरी शरण है तथा भगवान् तव संजमं च सरणं, महावीर मेरी शरण हैं। भगवं सरणो महावीरो॥ ७५१. से सव्वदंसी अभिभूयणाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा। अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ॥ वे भगवान् महावीर सर्वदर्शी, केवलज्ञानी, मूल और उत्तर-गुणों सहित विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले, धैर्यवान् और ग्रंथातीत अर्थात् अपरिग्रही थे। अभय थे और आयुकर्म से रहित थे। ' ७५२. से भूइपण्णे अणिएयचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू। अणुत्तरे तवति सूरिए व, वइरोयणिंदे-व तमं पगासे॥ वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसारसागर को पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सूर्य की भांति अतिशय तेजस्वी,थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अंधकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होंने भी अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थों के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था। ७५३. हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, निव्वाणवादीणिह नायपुत्ते॥ जैसे हाथियों में ऐरावत, मृगों (पशु जाति) में सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में वेणुदेव (गरुड़) श्रेष्ठ हैं, उसी तरह निर्वाणवादियों में नागपुत्र (महावीर) श्रेष्ठ थे। ७५४. दाणाण सेठं अभयप्पयाणं, ___ सच्चेसु या अणवज्जं वयंति। तवेसु वा उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते॥ जैसे दानों में अभयदान श्रेष्ठ है, सत्यवचनों में अनवद्य वचन (पर-पीड़ाजनक नहीं) श्रेष्ठ है। जैसे सभी सत्यतपों में ब्रह्मचर्य उत्तम है, वैसे ही नागपुत्र श्रमण लोक में उत्तम थे। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणसुत्तं ७५३ अ. ४ : स्याद्वाद ७५५. जयइ जगजीवजोणी, जगत् के जीवों की योनि अर्थात् उत्पत्तिस्थान को वियाणओ जगगुरू जगाणंदो। जाननेवाले, जगत् के गुरु, जगत् के आनन्ददाता, जगत् - जगणाहो जगबंधू, के नाथ, जगत् के बंधु, जगत् के पितामह भगवान् जयइ जगप्पियामहो भयवं॥ जयवन्त हों। ७५६. जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ। जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो॥ द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान के उत्पत्तिस्थान जयवंत हों, तीर्थंकरों में अन्तिम जयवंत हो। लोकों के गुरु जयवंत हों। महात्मा महावीर जयवंत हों। ... Page #777 --------------------------------------------------------------------------  Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. पारिभाषिक शब्दकोश २. प्रयुक्त ग्रंथ सूची Page #779 --------------------------------------------------------------------------  Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग / अंगविट्ठ अंगबहिरंग अंतकभूमि अंतकिरिया अंतराय अंतेवासि अकसाय अकिरिय (वाय) अगणिजीव अगारधम्म अगारचरित अचित्त अचेलय अजीव अजोगिकेवलि अज्जिया अज्झवसाण अट्टज्झाण : जैनशास्त्र | : स्थविरों द्वारा रचित शास्त्र । : जिस भूमि से निर्वाण की प्राप्ति हो । जन्म-मरण की परंपरा का अंत । : आत्मशक्ति को प्रतिहत करने वाला कर्म । : शिष्य । .: क्रोध आदि कषाय-चतुष्टय का परिशिष्ट- १ पारिभाषिक शब्दकोश अभाव । : आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष आदि में विश्वास न करने वाले । : जिन जीवों का शरीर अग्नि है। : गृहस्थ धर्म । : गृहस्थ का आचार | : चैतन्य रहित । : निर्वस्त्र | : अचैतन्यवान पदार्थ | : केवली के योग - मन, वचन व शरीर की प्रवृत्ति की निरोधात्मक अवस्था । ः साध्वी । : चेतना का सूक्ष्म स्तर । : प्रिय के संयोग और अप्रिय के वियोग के लिए एकाग्र होना । : तीन दिन का उपवास । मुनि धर्म | अट्ठमभत्त अणगारधम्म अणगारचरित्त : साधु का आचार। अट्ठादंड : निष्प्रयोजन हिंसा । अणवज्ज अणसण : : निष्पाप । : अल्पकालिक अथवा यावज्जीवन * अणासव अघातिय अणुभाव अणुव्वय अणुज्झियधम्मिय : जो फेंकने योग्य न हो। धम्मया : परंपरा का निर्वाह । अगंतवाय अण्णउत्थिय अण्णाउंछ अतिहिसंविभाग अत्थिकाय अधम्मत्थिकाय भोजन का परिहार | • गृहस्थ की आचारसंहिता । : एक ही वस्तु में सापेक्ष दृष्टि से अनेक विरोधी युगलों का प्रतिपादन | अणेवंभूय (वेदणा) : कर्म-बंधन के अनुरूप कर्म का अनियट्टिबायर : व्युत्क्रम | : आज्ञा का अतिक्रमण करने वाला । : जिस प्रायश्चित्त में कोई परिवर्तन न किया जा सके। अपच्छिम : पुनः पुनः अनुचिंतन से अपने आपको भावित करना । : कर्म का फल | : • गृहस्थ द्वारा स्वीकृत छोटे-छोटे संकल्प | वेदन न करना । : दूसरे संप्रदाय के साधु । : अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना । : मुनि को अपनी वस्तु का विभाग देना । : त्रैकालिक सत्तावाला सावयव अर्थात् सप्रदेश पदार्थ | : जीव और पुद्गल की स्थिति में उदासीन भाव से सहायक द्रव्य । अनिवृत्ति—–सदृशपरिणाम-विशुद्धि और बादर कषाययुक्त जीव की अवस्था । : अंतिम । Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७५८ परिशिष्ट अपरिच्छममारणंतिय : यावज्जीवन के लिए किए जाने आउजीव : जिन जीवों का शरीर जल है। संलेहणा वाले अनशन से पूर्ण स्वीकार की आगम (ववहार) : केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, जानेवाली तपस्या। . अवधिज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर एवं अप्पमत्तसंजय : संयमी साधक की प्रमाद रहित दशपूर्वधर-इन आगम पुरुषों के अवस्था। निर्देशानुसार व्यवहार करना। अप्पसागारिय : एकांत, निर्जन प्रदेश। आगमबलिया : शास्त्रों के ज्ञाता श्रमण।. अफासुग सजीव। आगासत्थिकाय : सब पदार्थों को आश्रय देनेवाला अब्भुट्ठाण : आचार्य आदि गुरुजनों के आने पर द्रव्य। खड़ा होना, सम्मान करना। आणपाणवग्गणा : श्वासोच्छवास के रूप में प्रयुक्त अब्भोवगमिया : अपने आप उत्पन्न वेदना। होनेवाले सजातीय पुद्गल द्रव्य। अभवसिद्धिक : अभव्य। आणा (ववहार) : एक आचार्य द्वारा दूसरे आचार्य से अभिगम : गुरु के उपपात में जाने की विधि। गूढ़ पदों में आलोच्य विषय की ' अभिगम सम्मत्त : गुरु के उपदेश से प्राप्त सम्यक्त्व। जानकारी प्राप्त करना। अभिग्गह : संकल्प। आपुच्छणा (सामायारी) : कार्य करने से पूर्व गुरु की अमुत्त : अमूर्त-जिसमें वर्ण, गंध, रस, अनुमति लेना। स्पर्श न हो। आभिणिबोहिय : मतिज्ञान इन्द्रिय एवं मन के द्वारा अमूढदिठि : दृष्टि की मूढता न होना। ___ होनेवाला भावबोध। अरतिरति : संयम में अरति, असंयम में रति। आयंबिल नमक, मिर्च, घी, तेल आदि से : अरिहंत : जिसके ज्ञान और दर्शन के आवरण • रहित कोई एक अन्न एक ही बार तथा मोह और अंतराय क्षीण हो खाकर किया आने वाला तप। चुके हैं। आयारसंपया : संयम की समृद्धि। अरूविकाय : अमूर्त द्रव्य, जिसमें वर्ण, गंध, रस आयावणभूमि : आतापनभूमि। और स्पर्श न हो। आराधय : स्वीकृत नियमों की सम्यक् अलोय : जिसमें धर्म, अधर्म आदि पांच द्रव्य आराधना करने वाला। न हो, केवल एक आकाश हो। आवस्सगः पूर्वरात्रि और पश्चिम रात्रि के समय अववट्टणा : कर्मों की स्थिति और अनुभाग में अवश्यकरणीय आलोचना सूत्र। हानि। आवस्सिया (सामायारी) : मुनि द्वारा उपाश्रय से बाहर अवाय : निर्णयात्मक ज्ञान। जाते समय आवश्यकी-आवश्यक अविरयसम्मदिट्ठि : तत्त्व में श्रद्धा होने पर भी संयम कार्य के लिए जा रहा हूं, ऐसा कहना। साधना से विरत जीव की अवस्था। आसव : कर्म पुद्गलों को आकृष्ट करनेवाले असंसट्ठ : सजातीय प्रासुक आहार से अलिप्त आत्म-परिणाम। हाथ, पात्र, आदि। आसास : विश्राम-स्थल। - अहाराइणिय : दीक्षाक्रम। आहारवग्गणा : आहारक शरीर के रूप में प्रयुक्त अहिंसा : समता, संयम। होने वाले सजातीय पुद्गल द्रव्य अह : अधोलोक। इच्छाकार (सामायारी) : कार्य करने की इच्छा जताना, अहोऽविहिय : सर्व अवधि से पूर्व होनेवाला ज्ञान। जैसे-आप चाहें तो मैं अमुक कार्य आउ : जिस कर्म से जीव भवस्थिति को करूं। प्राप्त होता है। इरियावहियाकिरिया : वीतराग के कर्मबंधन की क्रिया। Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७५९ आत्मा का दर्शन ईहा : अमुक होना चाहिए, ऐसा प्रत्यय। उवसामणा मोहकर्म को उदय, उदीरणा आदि उक्कुडुय : उत्कटुक आसन। के अयोग्य करना। उग्गह : स्थान। उवहाणवं श्रुत आराधना के लिए विशिष्ट उग्गह : इन्द्रिय और पदार्थ का संयोग होने तपस्या को वहन करनेवाला। पर हाने वाला सामन्य अवबोध। उवासगपडिमा श्रमणोपासक की साधना का उज्जुमइ : सामान्य रूप से मानसिक पुद्गलों विशिष्ट प्रयोग। को ग्रहण करनेवाली मति। : कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि। उज्जुसुत : वर्तमान पर्याय को स्वीकार करने उस्सप्पिणी : काल का वह विभाग, जिसमें वाला अभिप्राय। . पदार्थों की शक्ति में क्रमशः वृद्धि उज्झियधम्मिय : फेंकने योग्य। होती है। उड्ढ :: ऊर्ध्वलोक ऊणोयरिया/ भोजन, वस्त्र, कषाय आदि की उत्तरगुण : महाव्रतों को पुष्ट करनेवाले नियम।। ओमोरिया अल्पता। उत्तरवेउब्विय : नए रूप-निर्माण की शक्ति। एकल्लविहारपडिमाः साधना का विशेष प्रयोग-एकाकी उदीरणा : निश्चित समय से पूर्व कर्मों का विहार। उदय में आना एवंभूत (णय) : क्रिया-परिणति के अनुरूप ही शब्द उदुबद्रिय : चातुर्मास काल से अतिरिक्त प्रयोग को स्वीकार करनेवाला समय। अभिप्राय। उद्देसणकाल : एक वाचना का समय। एवंभूय (वेदणा : जिस प्रकार कर्म-बंध हो, उसी उप्पन्ननाणसणधर : केवलज्ञान एवं केवलदर्शन के धारक। प्रकार कर्म का वेदन करना। उवक्कम • कर्म स्कंधों को विविध रूप में ओरालवग्गणा : औदारिक शरीर के रूप में प्रयुक्त परिणत करने में हेतुभूत वीर्य। होनेवाले सजातीय पुद्गल द्रव्य। • कर्म स्कंधों की विभिन्न ओसप्पिणि : काल का वह विभाग, जिसमें परिणतियों का प्रारंभ। पदार्थों की गुणवत्ता का क्रमशः उवक्कमिया . : अपने प्रयत्न से उत्पन्न वेदना। हास होता है। उवभोग-परिभोग (चय) : भोजन, व्यवसाय आदि का अतींदियनाण : रूपी द्रव्यों एवं अरूपी द्रव्यों का परिसीमन। . साक्षात्कार करने वाला ज्ञान। उववाय. देव और नारक का जन्म। कंखामोहणिज्ज : मिथ्यात्व मोहनीय। उववूह : सद्गुणों को बढ़ावा देना। कम्म : जीव की शुभ, अशुभ प्रवृत्ति से उवसंतमोह : मोहकर्म का सर्वथा उपशम आकृष्ट सुख, दुःख एवं आवरण करनेवाले जीव की अवस्था। . के हेतुभूत पुद्गल-स्कंध। उपसंपदा (सामायारी): ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए कम्मगसरीर : कर्मसमूह से निष्पन्न शरीर। ___ गुरु के पास विनम्र भाव भाव कम्मादाण : कर्म बंधन के हेतु। से रहना। कम्माययण : कर्म आने के स्थान। • ज्ञानाराधना आदि के लिए करण : दुसरेगण में जाना। होने वाली विशेष प्रकार की उवसग्ग. साधना में देव, मनुष्य वतियंच व्यवस्था। कृत बाधा। कार्तित : मूत्र । उपसमय मोहकर्म का उपशमन करने वाला। कायकिलेस : कायोत्सर्ग आदि आसन करना। Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन कायगुत्त कालवेला कितिकम्म किरिय (वाय) कुल कुलगर केवलनाण केवलिपण्णत्त खओवसम खंडिय खीणमोह गण गणहर गणिपिडग गणिसंपया गति गुण गुणव्यय गुत्ति गोय चरित्तधम्म चरिया चारित्तमोहणीय चित्तमंत चोइसपुब्वि : शरीर का निग्रह करने वाला । : स्वाध्याय का समय। : वंदन | छउमत्थ आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने वाले । : एक आचार्य के शिष्यों का समूह। यौगलिक युग के कुल व्यवस्थापक । : समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का साक्षात्कार करने वाला ज्ञान । वीतराग पुरुषों द्वारा कथित तत्त्व। : कर्मों का हल्कापन | विद्यार्थी : मोह कर्म का सर्वथा क्षय करने वाले जीव की अवस्था। : कुल का समुदाय - दो आचार्यों का शिष्य समूह | : आचार्य । : द्वादशांगरूप शास्त्र | : आचार्य की समृद्धि । : एक भव से दूसरे भव में जाना । : चारित्र को पुष्ट करने वाली भावनाएं । चउत्थ/चउत्थभत्त: उपवास। चयणकाल चरित ७६० स्वीकृत व्रतों में गुणों का अधान करने वाले व्रत। प्रवृत्ति का निरोध। जीव को अच्छी या बुरी दृष्टि से देखे जाने में निमित्तभूत कर्म । 00 : देवों के च्यवन का समय। : महाव्रत आदि का आचरण । : आचारधर्म : मूल व उत्तरगुण रूप चारित्र । : चारित्र को विकृत करनेवाला कर्म । सजीव । : चवदहपूर्व विशिष्ट ज्ञानराशि का ज्ञाता । : अकेवली-जिसे केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हो । हुआ छंदणा (सामायारी) : भिक्षा के लाए आहार के लिए साधर्मिक साधु को आमंत्रित करना । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस -छह प्रकार के जीवों क छज्जीवणिकाय छट्ठखमण जत्ता जयणा जवणिज्ज जाइसरण जिइंदिय जिण जिणकण्प जीत जीवट्ठाण जीवत्थिकाय जोगवं ठाण ठिति ठित ठितिपकप्प णय णिच्छियणय णिसेज्जा णेगम (णय ) परिशिष्ट : दो दिन का उपवास । : संयम - यात्रा । : संयम । इन्द्रिय और मन का संयम : पूर्वजन्म की स्मृति । : इन्द्रिय और मन का निग्रह करने, वाला । : बीतराग पुरुष । : जिन - वीतराग के सदृश आचार का ? पालन । : आलोच्य विषय में किसी आचार्य; • एवं बहुश्रुत साधु द्वारा निष्पक्ष भाव से दिया गया निर्णय | : चैतन्ययुक्त पदार्थ । : समाधियुक् 해 विशुद्धि के आधार पर होनेवाल जीव की अवस्था : आसन । : वर्तमान भवस्थिति । : कर्मों का आत्मा के साथ लगे रहने का कालमान। : मर्यादा, व्यवस्था । : वस्तु के एक अंश को जानने वाला तथा अन्य अंशों को सापेक्ष दृष्टि से समझने वाला ज्ञाता की अभिप्राय । : यथार्थ का प्रतिपादन करने वाला अभिप्राय । : स्वाध्याय भूमि । : सामान्य- विशेष अथवा संकल्प पर सापेक्ष दृष्टि से विचार करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७६१ आत्मा का दर्शन दसण तस .: हित की प्रवृत्ति और अहित की धारणा (ववहार) : गीतार्थ आचार्य द्वारा किसी निवृत्ति के लिए गमनागमन परिस्थिति में दिए गए प्रायश्चित्त करने वाले जीव। अथवा कृत प्रवृत्ति को याद रखकर तहकार (सामायारी) : आचार्य के वचनों को स्वीकार वैसी परिस्थिति में उस प्रायश्चित्त करना। विधि अथवा प्रवृत्ति का प्रयोग करना। सिस्थयर : तीर्थ-श्रमणसंघ के प्रवर्तक। धारणा :निर्णायक ज्ञान को स्मृति के आधार तिरियलोय : मध्यलोक। पर स्थिर रखना। नलणा/तुला : जिनकल्पी द्वारा स्वीकृत तप, सत्त्व धिक्कार : यौगलिक युग की दंडनीतिआदि भावनाएं। धिक्कार है, तूने यह क्या किया। तयवग्गणा : तेजस शरीर के रूप में परिणत नाणावरणोदय : ज्ञान को आवृत करनेवाले कर्म की होनेवाला सजातीय पुद्गल द्रव्य। उदयावस्था। तेरिच्छिय : तिर्यंच संबंधी। निकायणा : जिस कर्म का उद्वर्तन, अपवर्तन, थावर : हित की प्रवृत्ति एवं अहित की उदीरणा, संक्रमण और निधत्ति न निवृत्ति के लिए गमनागमन करने में असमर्थ जीव। निक्खमण : दीक्षा। थिरीकरण : सम्यक दर्शन-धर्मश्रद्धा में स्थिर निग्गंथ : जैन श्रमण। करना। निज्जरा : तप के द्वारा कर्म विलय से दंड :: हिंसा। होनेवाली आत्मा की उज्ज्वलता। : तत्त्वश्रद्धा। नियट्टिबायर : निवृत्ति-असदृश परिणाम विशुद्धि दव्ववग्गणा : जीव के प्रयोग में आनेवाले पुद्गलों और बादर कषाययुक्त जीव की का समूह। अवस्था। दसम : चार दिन का उपवास। नियम : अभिग्रह रूप प्रतिज्ञाएं। देसावगासिय : परिमित समय के लिए हिंसा आदि निसग्गसम्मत्त : सहज प्राप्त सम्यक्त्व। का त्याग करना। निसीहिया : स्वाध्यायभूमि। दव्वट्ठियणय : जहां पर्याय गौण और द्रव्य मुख्य निसीहिया(सामायारी) : मुनि द्वारा कार्य से निवृत्त होकर हो। आने पर नैषेधिकी-मैं निवृत्त हो दिसिव्वय - : यातायात से संबंधित श्रावक का चुका हूं, ऐसा कहना। छट्ठा व्रत। निहत्ति : उद्वर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय दुवालस : पांच दिन का उपवास। शेष छह कारणों के अयोग्य कर्म दुस्सम-सुसमा : दुःख-सुखमय कालखंड। पुद्गलों की अवस्था। दुस्समा : दुःखमय कालखंड। नोइंदिय : मन। धम्मकहा : धर्मचर्चा, धर्मोपदेश। पइरिक्कया : एकांतवास। धम्मझाण : वस्तु के धर्म स्वरूप को यथार्थ : आत्मा और कर्म पुद्गलों का रूप से जानने के लिए होनेवाली एकीभाव। चित्त की एकाग्रता। पओगसंपया : वाद-कौशल। धम्मत्थिकाय : जीव और पुद्गल की गति में पंचिंदिय :: पांच इन्द्रियों वाला प्राणी। उदासीन भाव से सहायक द्रव्य। पंडियमरण : संयमी अवस्था में होने वाली मृत्यु। धम्मपण्णत्ती धर्मोपदेश। पक्खखमण : पन्द्रह दिन का उपवास। का यथार्थ पएस उदासान Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन पगडि पज्जवलियणय पज्जवणय : कर्मों का स्वभाव । : जहां द्रव्य गौण और पर्याय मुख्य हो । : पर्याय के आधार पर तत्त्व का प्रतिपादन करने वाला अभिप्राय । पडिम्गह : पात्र । पडिपुच्छग : वाचना । पडिपुच्छणा (सामायारी) : एक कार्य के बाद दूसरा कार्य करते समय पुनः गुरु की अनुमति लेना। दूसरों का कार्य करने की अनुमति लेना । पणियभूमि पडिगुद्धजीवी पडिमा पडिलीणया / संलीणया पत्तसंयय परमाणु - पोग्ल परिग्गह परियट्टणा परियाय परिहारट्ठाण परीसह पलिओवम ७६२ पवत्तणी : अनार्यभूमि । जितेन्द्रिय, धृतिमान और संयत योग वाला साधक । : प्रतिज्ञा । इन्द्रिय और मन को नियंत्रित रखना । संयमी साधक की प्रमाद सहित अवस्था । : अविभाज्य पुद्गल । : पदार्थ और उसके प्रति होने वाली मूर्च्छा। : दोहराना । : मुनि जीवन । प्रायश्चित्त का स्थान । : भूख, प्यास आदि कष्टों को सहन करना । : चार कोश की लंबाई-चौड़ाई और गहराई वाले कुएं को नवजात यौगलिक शिशु के केशों के असंख्य खंडों से ठूंस ठूंस कर भरा जाए और प्रति सौ वर्ष के अंतर से एक-एक केश खंड निकालतेनिकालते जितने काल में वह कुआं खाली हो, उस काल को पल्य कहा जाता है पल्य से उपमित कालखंड पल्योपम कहा जाता है। : साध्वी संघ का नेतृत्व करने वाली। पारणय पाव पावावुय पाड पिंड पुच्छणा पुढ़वीजीव पुण्ण पुलाग पुव्व पोरसी पोसहोववास फासुग बंध बंधण बक्कुस बहुस्सुय बायर (खंघ) बालमरण बोहि भत्तपच्चक्खाण भद्द भवपच्चश्य भवसिद्धिय भाव भावियप्पा : तप की परिसमाप्ति । कर्मपुद्गलों का अशुभ रूप में : उदय । : अन्यतीर्थिक श्रमण। : धर्मसम्प्रदाय । : भोजन । : जिज्ञासा । जिन जीवों का शरीर पृथ्वी है। : कर्म पुद्गलों का शुभ रूप में उदय । : संयम को कुछ असार करने वाला । : द्वादशांगी में बारहवें आगम का एक अंश । सूर्योदय से सूर्यास्त तक के कालमान का चतुर्थ भाग । : उपवास के साथ एक दिन-रात के लिए पापकारी प्रवृत्तियों का : परिशिष्ट परित्याग | : निर्जीव । : कर्म पुद्गलों का ग्रहण | : आत्मा और कर्म का संबंध । चारित्र में अतिचार के धब्बे लगानेवाला । : अनेक आगम ग्रंथों का ज्ञाता। : स्थूल पुद्गल समूह | : असंयमी अवस्था में होने वाली मृत्यु | सम्यग दर्शन । भवत्थकेवलणाण : संसारी जीवों का केवलज्ञान । : भव हेतुक | : भव्य । : पदार्थ । : अनशन । : दो दिन के ऊर्ध्व कायोत्सर्ग में की जानेवाली साधना और तपस्या V : ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं विविध प्रकार की अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास करने वाला । Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट भासा (समिक) भासावग्गणा भिक्खायरिया मक्कार मणगुप्त मणपज्जवणाण मणवग्गणा मणोमाणसिय मतिसंपया महव्वय महाणिज्जरा महापज्जवसाण महापाप महाभद्द : संयम पूर्वक बोलना । : बोलने में सहायक होने वाले रूविकाय पुद्गल । मिक्षा | रसपरिच्चाअ (६) झाण : यौगलिक युग की दंडनीति-मत करो, इस प्रकार का कथन । : मन का निग्रह करने वाला । : संज्ञी जीव के मानसिक भावों को हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन पापकारी प्रवृत्तियों का पूर्णतः प्रत्याख्यान | : कर्मों का विपुल मात्र में क्षय । अपुनर्भरण | • प्राण साधना का विशिष्ट प्रयोग | : चार दिन के ऊर्ध्व कायोत्सर्ग में की जानेवाली तपस्या और साधना । मिच्छकार ( सामायारी) भूल होने पर स्वयं उसकी आलोचना करना । साक्षात् जानने वाला ज्ञान । चिंतन में सहायक होने वाले पुद्गल : ७६३ द्रव्य । मानसिक भाव । बुद्धिकौशल । ': विपरीत तत्त्व श्रद्धा । मिच्छत्त मिच्छादंसणसल्ल : विपरीत श्रद्धा से बंधने वाला पापकर्म । मिच्छाविठि मुत्त मोक्ख मोह/ मोहणिज्ज : मोहनीय कर्म । रयहरण तत्त्व में विपरीत श्रद्धा रखने वाली जीव की अवस्था । मूर्त-वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्शयुक्त पदार्थ । : जीव की कर्म मुक्त अवस्था । : प्रमार्जन के काम आनेवाला मुनि का एक उपकरण - रजोहरण । दूध, दही आदि विकृतियों का परित्याग । : भौतिक विषयों की सुरक्षा के लिए तथा हिंसा, असत्य, चोरी आदि लोग लिंग लोगट्ठिति लोय वद वयगुप्त वयणसंपया ववहार ववहार (णय) बसुमं बाउजीव वायणा वायणासंपया वासरत वासावास विउलमह विउब्ववग्गणा विउस्सग्ग विगड़ विगलिंदिय विपरिणामण वियट्टभोह बिरति विरयाविरय आत्मा का दर्शन दुष्प्रवृत्तियों से अनुबंधित चिंतन | : वर्ण, गंध, रस और स्पर्श युक्त पदार्थ | जिसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-छह द्रव्य हौं । : मुनि का वेश । : लोक व्यवस्था। : केशों का अपनयन | : व्रत । : वचन का निग्रह करनेवाला । वचन कौशल। जैन श्रमण संघ में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति की हेतुभूत व्यवस्था । : भेद के आधार पर तत्त्व का प्रतिपादन करने वाला अभिप्राय । : संयमी । : जिन जीवों का शरीर वायु है। : अध्यापन । : अध्यापन कौशल। चातुर्मास । चातुर्मास । : : विशेष मानसिक अवस्थाओं का बोध करने वाला सजातीय पुद्गल मनः पर्यवज्ञान - मानसज्ञान | : वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत होने वाला सजातीय पुद्गल समूह | शरीर की प्रवृत्ति को छोड़ना। : दूध, दही, मिठाई आदि पदार्थ । : दो, तीन एवं चार इन्द्रिय वाले जीव । : क्षय, क्षयोपशम, उद्वर्तन, अपवर्तन आदि के द्वारा कर्म स्कंधों में नई-नई अवस्थाएं उत्पन्न करना । : प्रतिदिन भोजन करनेवाला। : त्याग । : संयम और असंयम - दोनों से युक्त जीव की अवस्था । Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का दर्शन ७६४ परिशिष्ट विवाग : कर्मों का शुभ-अशुभ रूप में उदय। वाले जीव की अवस्था। विवित्तसयणासण : एकांतवास/स्त्री, पशु एवं नपुंसक सयंबद्ध : स्वयं बोधि प्राप्त करनेवाला। से रहित स्थान। सरीरसंपया : शारीरिक सौन्दर्य। विहारचरिया : जीवनचर्या । सव्वओभद्द : दस दिन के ऊर्ध्व कायोत्सर्ग में की :: वितर्क। जाने वाली तपस्या और साधना। वेयाणिज्ज (कम्म) : सुख-दुःख का हेतुभूत कर्म। सव्वदरिसी : सम्पूर्ण सामान्य अवबोध। वेयालिय : विकाल वेला-तीनों सन्ध्याओं का सागरोवम : दस कोड़ाकोड़ पल्योपम का एक समय। सागरोपम। वेयावच्च : सेवा। सागारपडिमा : सविकल्प अनशन। वोदाण : कर्म पुद्गलों का क्षय। सागारभत्त : सविकल्प अनशन। संकमण : सजातीय कर्म प्रकृतियों का एक सामाइय :४८ मिनिट के लिए समय-आत्मा दूसरे में परिणमन। . में रहने के अभ्यास का प्रयोग। संगह : अभेद के आधार पर तत्त्व का सामाइयचरित्त : यावज्जीवन के लिए पापकारी प्रतिपादन करने वाला अभिप्राय। प्रवृत्ति का परित्याग। संगहपरिण्णा : संघ-व्यवस्था। सामायारी : संघीय आचार की व्यवस्था। ... संघाडअ : दो मुनियों का समुदय। सावग : जैनधर्म के प्रति आस्था रखनेवाला संवर : पापकारी प्रवृत्ति का निरोध। व्यक्ति। सजोगीकेवलिकेवली के योग-मन, वचन व शरीर सावज्ज : पापकारी प्रवृत्ति। की प्रवृत्त्यात्मक अवस्था। सासायसम्मदिवि : सम्यक्त्व से च्यवमान-उपशम सज्झाय : अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन। सम्यक्त्व से च्युत, मिथ्यात्व को सण्णा : शौच। अप्राप्त जीव की अवस्था। : काल आदि के भेद से ध्वनि में साहम्मिय : एक आचार वाले श्रमण एवं श्रावक। अर्थभेद को स्वीकार करने वाला। सिक्खावय : अहिंसा, सत्य आदि व्रतों की पुष्टि अभिप्राय। करने वाले व्रत। समणोवासय : जैन श्रमणों की उपासना सिद्धकेवलणाण : मुक्त आत्माओं का केवलज्ञान।। करनेवाला। सीतोदग : सजीव जल। समभिरूढ : पर्यायवाची शब्दों में निरुक्त के भेद सुक्कझाण . : ध्यान का वह बिन्दु, जिसमें परिपूर्ण से अर्थभेद को स्वीकार करने वाला समाधि हो। अभिप्राय। सुत्त (ववहार) : आगम व्यवहारी की अनुपस्थिति में : • अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों बृहत्कल्प, व्यवहार आदि शास्त्रों में रहने वाला संतुलन। के आधार पर संघीय व्यवस्था का • सब जीवों को समान समझना। संचालन। समिति : सम्यक् प्रवृत्ति। सुयधम्म : ज्ञान एवं दर्शन। समुयाणचरिया : अनेक कुलों से भिक्षा लेना। सुयनाण : शब्द, संकेत, आदि से होनेवाला समोसरण : तीर्थंकरों का प्रवचन-स्थल। ज्ञान। सम्मत्त : यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा-जीव आदि तत्त्वों सुयसंपया : श्रुत की समृद्धि। में सम्यक् श्रद्धा। सुयसमाहि : ज्ञान से होनेवाली समाधि। सम्मामिच्छद्दिदिठ : सम्यक और मिथ्या-मिश्रित रुचि सुसमदुस्समा सुख-दुःखमय कालखंड। सह समया Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७६५ आत्मा का दर्शन सुसम-सुसमा ..: अति सुखमय कालखंड। सुसमा सुखमय कालखंड। सुहसेज्जा : समाधि का स्थान। सुहम (खंध) : सूक्ष्म पुद्गल रचना। सुहुमसंपराय संज्वलन कषाय के सूक्ष्म लाभांश सेज्जा सेह वाले जीव की अवस्था। बस्ती। : नवदीक्षित मुनि। : यौगिलिक युग की एक दंडनीतिहा! तूने यह क्या किया। Page #789 --------------------------------------------------------------------------  Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ प्रयुक्त ग्रंथ सूची १. अंतकृत्दशा २. अनुत्तरोपपातिक दशा ३. अनुयोगद्वार ४. आचारांग ५. आचारांग चूर्णि ६. आयारचूला ७. आवश्यक ८. आवश्यक चूर्णि ९. आवश्यक नियुक्ति १०. आवश्यक वृत्ति (हारिभद्रीय) ११. आवश्यक वृत्ति (मलयगिरि) १२. उत्तराध्ययन १३. उत्तराध्ययन. (बृहद्वृत्ति) १४. उपासक दशा १५. औपपातिक १६. कर्मप्रकृति १७. कल्पसूत्र १८. चैत्यवंदन (कालकावृत्ति) १९. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति २०. ज्ञाताधर्मकथा .. २१. दशवैकालिक २२. दशवैकालिक चूर्णि २३. दशाश्रुत स्कंध २४. नंदी २५. निशीथ २६. निशीथचूर्णि २७. पंचसंग्रह २८. पंचास्तिकाय २९. प्रश्न व्याकरण ३०. भगवती ३१. महानिशीथचूर्णि ३२. राजप्रश्नीय ३३. विपाकसूत्र ३४. विशेषावश्यक भाष्य ३५. वृहत्कल्प ३६. वृहत्कल्पभाष्य ३७. व्यवहार ३८. संबोधि (संपूर्ण) ३९. सन्मतितर्कप्रकरण ४०. समणसुत्तं (सम्पूर्ण) ४१. समवायांग ४२. सूत्रकृतांग. ४३. सूत्रकृतांगवृत्ति ४४. स्थानांग Page #791 --------------------------------------------------------------------------  Page #792 -------------------------------------------------------------------------- _