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________________ २८९ संबोधि समन्वयात्मक दृष्टि ने इसे यों देखा है कि संसार न ईश्वरकृत है, न जड़ से उत्पन्न होता है और न प्रलय के बाद नया सर्जन ही होता है। वह पहले भी था, है और रहेगा। जड़ और चेतन का सनातन विरोध है। जड़ से चेतन पैदा नहीं हो सकता। गीता में कहा है-असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का विनाश नहीं होता।' केवल वस्तुओं का रूपांतरण होता है। जड़ और चेतन दोनों की पर्याएं - अवस्थाएं बदलती रहती हैं। एक जगह का विनाश दूसरी जगह को आबाद है। एक व्यक्ति एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चला जाता है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से शाश्वत है और पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत । संसार षड्द्रव्यात्मक है। उनका स्वरूप इस प्रकार है : धर्मास्तिकाय गति का माध्यम तत्त्व अधर्मास्तिकाय स्थिति का माध्यम तत्त्व आकाशास्तिकाय - अवगाह देने वाला तत्त्व काल-परिवर्तन का हेतुभूत तत्त्व | पुद्गलास्तिकाय वर्ण, गंध, रस, स्पर्शयुक्त द्रव्य जीवास्तिकाय वेतन द्रव्य । ३. जीवाऽजीवौ पुण्यपापे, आस्रवः संवरस्तथा । निर्जरा बंधमोक्षौ च ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥ मुख्यतया तत्त्व दो हैं-जीब और अजीव गये हैं। इन नौ भेदों में प्रथम भेद जीव का है, साधनों का वर्णन है। जीव-चैतन्य का अजस्र प्रवाह अजीव - चैतन्य का प्रतिपक्षी - जड़। पुण्य- शुभ कर्म - पुद्गल । पाप - अशुभ कर्म - पुद्गल । आखव - कर्म ग्रहण करने वाले आत्म परिणाम । - ॥ व्याख्या || किन्तु मोक्ष के साधन के रहस्य को बतलाने के लिए इनके नौ भेद किये अंतिम भेद मोक्ष का है और बीच के भेदों में मोक्ष के साधक और बाधक संवर-कर्म-निरोध करने वाले आत्म-परिणाम । निर्जरा-कर्म-निर्जरण से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता । बंध- आत्मा के साथ शुभ अशुभ कर्म का बंध मोक्ष -कर्म विमुक्त अवस्था । ४. अस्त्यात्मा शाश्वतो बंधः, तदुपायश्च विद्यते । अस्तिमोक्षस्तदुपायो, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥ ५. बंधं पुण्यं तथा पापं आस्रवः कर्मकारणम् । भवबीजमिदं सर्व हेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥ अ. १२ ज्ञेय हेय उपादेय : जीव, अजीव, पुण्य, पाप आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नौ तत्त्व हैं। यह ज्ञेयदृष्टि है। ६. निरोधः कर्मणामस्ति, संवरो निर्जरा तथा । कर्मणां प्रक्षयश्चैषोपादेयदृष्टिरिष्यते ॥ १. आत्मा है। २. आत्मा शाश्वत है। ३. बंध है। ४. बंध का उपाय है । ५. मोक्ष है । ६. मोक्ष का उपाय है। यह ज्ञेयदृष्टि है। पुण्य, पाप, बंध और कर्मागमन का हेतुभूत आस्रव - ये सब संसार के बीज हैं। यह यदृष्टि है। कर्मों का निरोध करना संवर है और कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मशुद्धि निर्जरा है - यह उपादेयदृष्टि है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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