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________________ ज्ञेय-हेय-उपादेय मुमुक्षु ज्ञान और आचार के माध्यम से सत्य को प्राप्त करता है। ज्ञानशून्य आचार और आचारशून्य ज्ञान सत्य का साक्षात्कार कराने में सिद्ध नहीं होते। दोनों का योग ही साध्य का दर्शन है। " आचारहीन ज्ञान निरर्थक है तो ज्ञान-रहित आचार भी विशद नहीं होता। 'जानो और तोड़ो' दोनों में ज्ञान की मुख्यता है, इसे नहीं भूलना चाहिए। बंधन क्या है और मुक्ति क्या है, यह बोध ज्ञान से ही संभव है। मनुष्य को बंधन प्रिय नहीं है, प्रिय है सवतंत्रता। स्वतंत्रता की प्राप्ति बंधनों को तोड़े बिना नहीं मिलती। बंधन को न जानकर तोड़ने की बात असंभव है। इसलिए यहां ज्ञेय, हेय और उपादेय-तीनों का विशद दर्शन है। 'बंधन बाधक है' जब आत्मा यह जान लेती है, तब उसे तोड़ने को भी प्रेरित होती है। बंधन टूटता है, लक्ष्य उपलब्ध हो जाता है। ___ संसार में तीन प्रकार के पदार्थ होते हैं-ज्ञेय, हेय और उपादेय। विश्व के सभी पदार्थ ज्ञेय हैं। जो ... आत्म-उत्थान में साधक होते हैं, वे उपादेय हैं और जो बाधक होते हैं, वे हेय हैं। आत्म-साधना में तीनों.. का विवेक आवश्यक होता है। इस अध्याय में इन तीनों का विशद विवेचन है। तप क्या है, उसके कितने . प्रकार हैं तथा ध्यान के प्रकार और द्वादश अनुप्रेक्षाओं का भी इसमें विस्तार से वर्णन किया गया है। मेघः प्राह १. किं ज्ञेयं किञ्च हेयं स्याद, उपादेयञ्च किं विभो! मेघ बोला-विभो! ज्ञेय क्या है? हेय और उपादेय क्या है? शाश्वते नाम लोकेऽस्मिन्, किमनित्यञ्च विद्यते॥ इस शाश्वत जगत् में अशाश्वत क्या है? . .. ॥ व्याख्या ॥ जिज्ञासा ज्ञान-प्राप्ति की सच्ची भूख है। भूखा व्यक्ति जिस प्रकार भोजन के लिए व्याकुल होता है, जिज्ञासु व्यक्ति भी उसी प्रकार सदेहशमन के लिए आतुर रहता है। मेघ का मन यह जानना चाहता है कि संसार में जानने, छोड़ने और आचरण करने की क्या चीजें हैं, जिससे मैं स्वात्महित को साध सकूँ। भगवान् प्राह २. धर्मोधर्मस्तथाकाशं. कालश्च पुद्गलस्तथा। जीवो द्रव्याणि चैतानि, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत्॥ भगवान् ने कहा-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीवपांच अस्तिकाय तथा काल-ये छह द्रव्य हैं। यह ज्ञेयदृष्टि है। ॥ व्याख्या ॥ ये छह द्रव्य विश्व-व्यवस्था के संघटक हैं। इनसे संसार के स्वरूप का बोध होता है। विश्व चेतन और अचेतन की संघटना है। संसारी आत्मा स्वतंत्र होते हुए भी सर्वथा कर्म से स्वतंत्र नहीं होती। वह कर्म-पुद्गलों के प्रभाव से सतत नाटकीय परिवर्तन करती रहती है। छह द्रव्यों का समवाय संसार है। संसार की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिकों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। कुछ जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानते हैं, कुछ प्रलय के बाद जो नया सर्जन होता है। उसे संसार कहते हैं, कुछ कहते हैं वह सृष्टि ईश्वरकृत है। जैन दर्शन की
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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