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धर्मसंघ
गुणों का संघात संघ है। वह कर्मों का विमोचक है। वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र को संहत-समुदित करता है।
१. संघो गुणसंघाओ
संघो य विमोचओ य कम्माणं। दसणणाणचरित्ते
संघायंतो हवे संघो॥ २. आसासो वीसासो
सीयघरसमो य होइ मा भाहि। ____ अम्मापितिसमाणो
संघो सरणं तु सव्वेसिं॥
संघ आश्वास है। विश्वास है। शीतगृह-वातानुकूलित गृह के समान है। ऐसे संघ से डरो मत। यह माता-पिता के तुल्य है और सब प्राणियों के लिए शरण है।
३. भदं सीलपडागूसियस्स तवनियमतुरयजुत्तस्स।
संघरहस्स भगवओ सज्झायसुनंदिघोसस्स।
जिसके शिखर पर शील रूपी पताका फहरा रही है। तप-नियम रूपी घोड़े जुते हुए हैं। स्वाध्याय रूपी नंदिघोष हो रहा है, ऐसे भगवान संघ रथ का भद्र हो।
४. भदं धिइवेलापरिगयस्स
___ सज्झाय-जोग-मगरस्स। __अक्खोभस्स भगवओ
. संघसमुदस्स रुंदस्स॥
जो धैर्य रूपी वेला से परिगत है। जिसमें स्वाध्याय योग रूपी मगर हैं। जो अक्षुब्ध और विस्तीर्ण है। उस संघ समुद्र का भद्र हो।
५. सुहसीलाओ सच्छंदचारिणो
वेरिणो सिवपहस्स। आणाभट्ठा उ बहुजणा
उ मा भण हु संघो त्ति॥
जिस संघ में अनेक मुनि सुखशील-सुखाकांक्षी हैं, स्वच्छंदचारी हैं, मोक्षमार्ग के प्रतिकूल आचरण करने वाले हैं, आज्ञा का अतिक्रमण करने वाले हैं, उसे संघ नहीं कहा जा सकता।
६. आणाजुत्तो संघो सेसो पुण अट्ठिसंघाओ॥
संघ वह है, जहां आज्ञा प्रमाण होती है। जहां आज्ञा का महत्त्व नहीं, वह संघ केवल हड्डियों का ढेर है।
७. जहिं नत्थि सारणा वारणा य
पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो गच्छो
संजमकामीण मोत्तव्यो।
जिस गच्छ में सारणा-प्रेरणा और स्मृति कराना, वारणा-रोक-टोक करना, प्रतिचालना करना-ये नहीं हैं, वह गच्छ समदाय होकर भी गच्छ नहीं है। संयम की साधना करने वाले पुरुष के लिए ऐसा गच्छ छोड़ने योग्य है।