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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-४
उपेक्षा का दुष्परिणाम ८. अरन्नमज्झे एगं अगाहजलं सव्वतो वणसंडमंडियं जंगल के मध्य अगाध जलवाला एक तालाब था। वह
महतं सरं अत्थि। तत्थ य बहूणि जलचर-थलचर- चारों ओर से वनखंड द्वारा मंडित था। वहां बहुत से खहचर सत्ताणि अच्छंति। तत्थ एगं महल्लं जलचर प्राणी रहते थे। स्थलचर और नभचर आते और हत्थिजूहं परिवसइ। अन्नया य गिम्हकाले तं हति वहां बैठते रहते। वहां एक बड़ा हाथियों का यूथ रहता था। थजूहं पाणियं पाउं ण्हाउत्तिन्नं मज्झण्हदेसकाले ग्रीष्म ऋतु का समय। एक दिन मध्याह्न में उस हस्तिसीयलरुक्खछायाए सुहंसुहेणं चिट्ठइ। तत्थ य समूह ने तालाब में पानी पीया, स्नान किया और उसे पार अदूरदेसे दो सरडा भंडिउमारद्धा।
कर वह एक वृक्ष की ठंडी छांह में पहुंच सुख-पूर्वक विश्राम करने लगा। हस्ति-समूह के पास ही दो गिरगिट
परस्पर लड़ रहे थे। वणदेवयाए अ ते दहें सव्वेसिं सभासाए ___वनदेवी ने उन गिरगिटों को देख सब प्राणियों के लिए आघोसियं-ता मा एते सरडे भंडते उवेक्खह, वारेह अपनी-अपनी भाषा में उद्घोषणा की-इन लड़ते हुए तुब्भे।
गिरगिटों की तुम उपेक्षा मत करो। इन्हें रोको। एवं भणिया वि ते जलचराइणो चिंतंति-किं अम्हं वनदेवी के ऐसा कहने पर उन जलचरों ने सोचा-ये एते सरडा भंडता काहिंति?
लड़ते हुए गिरगिट हमारा क्या अनिष्ट करेंगे? यह सोच
उन्होंने उपेक्षा कर दी। तत्थ य एगो सरडो भंडतो पिल्लितो। सो इधर एक गिरगिट लड़ता हुआ दूर धकेला गया। वह धाडिज्जंतो सुहपसुत्तस्स एगस्स जूहाहिवस्स दौड़ता हुआ आराम से सोए हुए उस यूथाधिपति हाथी की हत्थिस्स 'बिलं' ति काउं नासापुडं पविट्ठो। सूंड को बिल समझकर उसमें घुस गया। दूसरा गिरगिट बिइओ वि तस्स पिट्ठओ चेव पविट्ठो। ते सिर भी उसका पीछा करता हआ उसी संड में घुस गया। हाथी कवाले जुद्धं संपलग्गा। तस्स हथिस्स महंती के कपाल में पहुंच वे दोनों लड़ने लगे। इससे हाथी को अरई जाया। तओ वेयणट्टो महईए असमाहीए अत्यधिक पीड़ा हुई। पीड़ा से आहत हाथी असमाधिस्थ वट्टमाणो उठेत्ता तं वणसंडं चूरेइ। बहवे तत्थ हो गया। वह उठा और वनखंड को तहस-नहस करने विस्संता सत्ता घाइया। जलं च आडोहितेण लगा। उस वनखंड में विश्राम करने वाले बहुत से प्राणी जलचरा घाइया।
मारे गए। जल को क्षुब्ध कर देने से जलचर प्राणी मारे
गए। तलागपाली य भेइया। तलागं विणटुं। ताहे हाथी ने तालाब की पाल तोड़ दी। तालाब टूट गया जलचरा वि सव्वे विणट्ठा।
और सारे जलचर समाप्त हो गए।
संघ का स्वरूप ९. चउविहे संघे पण्णत्ते, तं जहा-समणा, संघ चार प्रकार का होता है-श्रमण, श्रमणी, श्रावक समणीओ, सावगा, सावियाओ।
और श्राविका।
१०.तित्थं भंते! तित्थं? तित्थगरे तित्थं?
गोयमा! अरहा ताव नियमं तित्थकरे। तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तं जहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ।
भंते! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं या तीर्थंकर को तीर्थ कहते हैं?
गौतम! अर्हत नियमतः तीर्थंकर होने हैं। चातुर्वर्ण श्रमणसंघ तीर्थ कहलाता है-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका।