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________________ संबोधि १८१ अ. ४: सहजानंद-मीमांसा की । नेपोलियन ने देखा उसमें ईश्वर का नाम नहीं है। नेपोलियन के मंत्री ने कहा- 'वह तो होना चाहिए, क्योंकि मैं मानता हूं कि ईश्वर है । लेखक ने कहा- 'मैं मानता हूं कि ईश्वर नहीं है।' नेपोलियन ने विवाद को शांत ढंग से समेटते हुए कहा- 'तुम दोनों ठीक हो । न तुमने देखा है कि ईश्वर है और न लेखक ने देखा है कि वह नहीं है। तुम दोनों सिर्फ मानते हो । मानने का क्या मूल्य होता है ?' जबलपुर के महान् ख्याति प्राप्त वकील हरिसिंह की घटना तर्क की सार्थकता और निरर्थकता का स्पष्ट बोध कराती है। एक बार वे कोर्ट में अपने पक्ष की और से बोलने खड़े हुए, किन्तु भूल गए और बोलने लगे प्रतिपक्ष की ओर से। इतने अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए कि सभी हतप्रभ रह गए। प्रतिपक्षी वकील बड़ा प्रसन्न हो रहा था। सेक्रेटरी का साहस नहीं हुआ बीच में कह दे । जब बीच में पानी पीने लगे तब संकेत किया कि यह आपने क्या किया ? हमें प्रतिपक्ष के लिए नहीं बोलना था । हरिसिंह ने कहा- ठीक है। फिर बोलने लगे और कहा - अभी तक मैंने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं वे विरोधी की ओर से थे। वह क्या कहने वाला है, यह आपके समक्ष रखा, अब मैं अपने तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं। बस, उसी सचोट भाषा में उनके उत्तर दिए और अपने पक्ष की सत्यता प्रमाणित की । वे जीत गए। यह है तर्क का चक्र । आप घुमाने में कुशल हैं तो चाहे जिस ओर घुमा सकते हैं। महावीर कहते हैं - मैं तर्क को बुरा नहीं मानता। बुद्धिवाद व्यर्थ नहीं है । किन्तु वह सर्वत्र सार्थ भी नहीं है। उसकी . सीमा पहचाननी चाहिए । तर्क से ज्ञात होने वाले पदार्थों में ही तर्क काम कर सकता है। उसके आगे नहीं। पदार्थों की अपनी-अपनी परिधि है । पदार्थ तर्कगम्य और श्रद्धागम्य दोनों हैं। इनका विवेक अपेक्षित है। श्रद्धा - विश्वास की सुस्थिरता हमें ज्ञान के अंतिम चरण तक पहुंचा देती है। अज्ञान विलीन हो जाता है। ज्ञान के एक-एक रहस्य खुलकर हमारे सामने आने लगते हैं। तर्क उन रहस्यों का पता अनेक जन्म तक भी नहीं पा सकता, क्योंकि जो विषय अंतर्कणीय है, उसके लिए तर्क का जाल बिछाना अर्कित्किर हैं। पदार्थों की यह स्वयं मर्यादा है। कुछ तर्क से पकड़े जा सकते हैं, कुछ नहीं। ' श्रद्धा और तर्क का समन्वय समुचित है। सत्य तक पहुंचने के लिए दोनों का आलंबन आवश्यक है, किन्तु उनकी सीमाओं का ज्ञान अपेक्षित होता है। २१. तुम् भावेषु, युञ्जानस्तर्कपद्धतिम् । अहेतुगम्ये श्रद्धावान्, सम्यग्दृष्टिर्भवेज्जनः ॥ २२. आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्णं दृष्टिकारणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥ २३. इन्द्रियाणां मनसश्च रज्यन्ति विषयेषु ये । तेषां तु सहजानन्द - स्फुरणा चैव जायते ॥ २४. सुस्वादाश्चः केचित् गन्धाश्च केचन प्रियाः । सन्तोऽपि हि न लभ्यन्ते, विना यत्नेन मानवैः ॥ २५. तथाऽस्मिन् महान् राशिः, आनन्दस्य च विद्यते । इन्द्रियाणां मनसश्च, चापलेन तिरोहितः ॥ ( युग्मम् ) बहिर्व्यापारवर्जनम् । तावत्तस्य न चांशोऽपि प्रादुर्भावं समश्नुते ॥ २६. यावन्नान्तर्मुखी वृत्तिः, जो हेतुगम्य पदार्थों में हेतु का प्रयोग करता है और अगम्य पदार्थों में श्रद्धा रखता है, वह सम्यग्दृष्टि है। अतीन्द्रिय पदार्थों का अस्तित्व जानने के लिए आगम-श्रद्धा और उपपति-तर्क दोनों अपेक्षित हैं। ये मिलकर ही दृष्टि को पूर्ण बनाते हैं। : इन्द्रिय और मन के विषयों में जिनकी आसक्ति बनी रहती है, उन्हें सहज आनंद का अनुभव नहीं होता। कुछ रस बहुत स्वादपूर्ण हैं और कुछ गंध बहुत प्रिय हैं, किन्तु वे सब तक प्राप्त नहीं होते जब तक उनकी प्राप्ति के लिए यत्न नहीं किया जाता। वैसे ही आत्मा में आनंद की विशाल राशि विद्यमान है, किन्तु वह मन और इंद्रियों की चपलता से ढंकी हुई है। जब तक वृत्तियां अंतर्मुखी नहीं बनतीं और उनका बहिर्मुखो व्यापार नहीं रुकता, तब तक आत्मिक आनंद का अंश भी प्रकट नहीं होता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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