________________
आत्मा का दर्शन १८२
खण्ड-३ २७.कायिके वाचिके सौख्ये, तथा मानसिकेऽपि च। जो मनुष्य कायिक, वाचिक और मानसिक सुख में ही रज्यमानस्ततश्चोवं, न लोको द्रष्टुमर्हति॥ अनुरक्त रहता है वह उससे आगे देख नहीं सकता।
॥ व्याख्या ॥ आनंद के बाधक तत्वों और उसके उद्घाटन की प्रक्रिया दोनों का उपरोक्त पद्यों में स्पष्ट दर्शन है। मानवीय जीवन इन्द्रिय, मन और शरीर की परिक्रमा किये चलता है। मनुष्य केन्द्र की ओर नहीं मुड़ता। तेली का बैल कितना ही चले, पर पहुंचता कहीं नहीं है। व्यक्ति भी यदि शरीर, मन और इन्द्रियों की दिशा में कितना ही भ्रमण करता रहे, वह कभी अपने केन्द्र का स्पर्श नहीं कर सकता। परिधि का मुख कभी केन्द्र की ओर नहीं होता। परिधि पर आनंद नहीं है। जैसे ही कोई व्यक्ति परिधि से हटकर केन्द्र की तरफ उन्मुख होता है, उसकी गति बदल जाती है। बाहर से वह भीतर की तरफ मुड़ जाता है। प्रत्याहार प्रतिसंलीनता योग का जो एक अंग है, वह दिशा का परिवर्तन है। जैसे-जैसे वह केन्द्र के सन्निकट बढ़ता है, वह आनंद की महान् राशि को अपने भीतर देखने लगता है। उसकी वाणी मौन होने लगती है, शरीर स्थिर होने लगता है और चित्त निर्विचार। तीनों की चंचलता ही स्वयं को स्वयं से दूर किए हुए है। उनके स्थिर होते ही आनंद का उत्स फूट पड़ता है। कबीर ने इस बात को इस प्रकार कहा है
'तन थिर, मन थिर, वचन थिर, सुरति निरत थिर होय। कहे कबीर उस पलक को, कलप न पावे कोय॥'
२८. विहाय वत्स! संकल्पान्, नैष्कर्मण्यं प्रतीरितान्।
संयम्येन्द्रियसंघातं, आत्मनि स्थितिमाचर॥
वत्स! नैष्कर्म्य-योग के प्रति तेरे मन में जो संकल्प-विकल्प हुए हैं, उन्हें छोड़ और इन्द्रिय-समूह को संयत बनाकर आत्मा में अवस्थित बन। .
॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में संकल्प-विकल्प के त्याग और संयम की बात कही गई है।
संकल्प का अर्थ है-बाह्य द्रव्यों में 'यह मेरा है'-इस प्रकार का ममत्व करना। 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं'-इस प्रकार के हर्ष और विषादगत परिणामों को विकल्प कहा जाता है। संकल्प और विकल्प से आत्मा का सान्निध्य प्राप्त नहीं होता। उसके लिए निर्विकल्प होने की अपेक्षा होती है। निर्विकल्प अवस्था तक पहुंचने के लिए सर्वप्रथम इन्द्रिय-संयम अपेक्षित होता है। असंयम हमारी शक्तियों को कुंठित करता है, उनमें जड़ता उत्पन्न करता है।
संयम 'स्व' की ओर ले जाने वाला तत्त्व है। वह उपास्य है। वह अध्यात्म का प्राण है। भगवान महावीर ने साधक के लिए मन, वचन और काया के संयम का उपदेश दिया है। संयम साधना का आदि-बिन्दु है। ज्यों-ज्यों साधना बढ़ती जाती है, संयम पुष्ट होता जाता है।
बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग और क्या है? वह संयम की ओर प्रयाण है। समस्त पापों का न करना ही कुशल की उपसंपदा है, यही बुद्ध-शासन है।
गीता में कहा है-'असंयत व्यक्तियों के लिए 'योग' दुर्लभ है। संयत व्यक्ति अपने दृढ़ संकल्प और समुचित साधनों से 'योग' को प्राप्त कर सकते हैं।'
२९.न चेयं तार्किकी वाणी, न चेदं मानसं श्रुतम्।
अनुभूतिरियं साक्षात्, संशयं कुरु माऽनघ!
पुण्यात्मन् ! मैं जो कह रहा हूं वह कोरी तार्किक वाणी नहीं है, काल्पनिक या सुनी हुई बात भी नहीं है। यह मेरी साक्षात् अनुभूति है, इसमें सन्देह मत कर।