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________________ संबोधि १८३ ॥ व्याख्या ॥ भगवान् ने यहां साक्षात् अनुभूति पर बल दिया है। तार्किक, काल्पनिक और सुनी हुई बातें सत्य होती हैं और नहीं भी किन्तु अनुभूति सदा सत्य होती है। तार्किक और काल्पनिक बातों से व्यक्ति मानने की ओर अग्रसर होता है और अनुभूति से वह जानने लगता है। मानना और जानना दो बातें हैं। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने लिखा है- मानने के नीचे वैसे ही अंधकार होता है, जैसे दीपक के तल में अंधकार। जानना वैसे ही सर्वतः प्रकाशमय होता है, जैसे सूर्य । सूय बादलों से घिरा होता है, प्रकाश मंद हो जाता है। ज्ञान आवरण और व्यवधान से घिरा होता है जानना मानने में बदल जाता है। सूर्य को मैं जानता हूं किन्तु मानता नहीं हूं। सुमेरु को मैं मानता हूं किन्तु जानता नहीं हूं। अस्तित्व के साथ मैं सीधा सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा जानना - प्रत्यक्षानुभूति है अस्तित्व के साथ मैं किसी माध्यम से सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा मानना है-परोक्षानुभूति है। प्रकाश जैसे-जैसे आवृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं जानने से मानने की ओर झुकता जाता हूं। प्रकाश जैसे-जैसे अनावृत . होता जाता है, वैसे-वैसे मैं मानने से जानने की ओर बढ़ता जाता हूं। मानने से जानने तक पहुंचना भारतीय दर्शन का ध्येय है, और पहुंच जाना अस्तित्व का प्रत्यक्ष- बोध है। मैं सूर्य को जानता हूं, उससे सूर्य का अस्तित्व नहीं है। बीहड़ जंगलों में विकसित फूल को मैं नहीं जानता, उससे फूल का अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व अपनी गुणात्मक सत्ता है। वह न जाननेमानने से बनती है और न जानने से विघटित होती है। फूल की उपयोगिता न मेरे जानने से नहीं होती और न जानने से उसकी उपयोगिता विघटित नहीं हो जाती । उपयोगिता मेरा और अस्तित्व का योग है। अस्तित्व दो का योग नहीं है किन्तु वह निरपेक्ष है। मैं हूं यह निरपेक्ष अस्तित्व है। दूसरे मुझे अनुभव करते हैं, इसलिए मैं नहीं हूं किन्तु मैं हूं, इसलिए मुझे दूसरे अनुभव करते हैं। मैं अपने आप में अपना अनुभव करता हूं, इसलिए मैं हूं'। अ. ४ सहजानंद मीमांसा संशय के बादलों को छिन्न-भिन्न करते हुए बड़े मधुर शब्दों में महावीर कहते हैं - मेघ ! उस आनंद का मैं प्रमाण मुझे देख। यह जो कुछ मैंने कहा है वह मेरा अनुभव है, प्रत्यक्ष दर्शन है। इसमें तर्क का कोई अवकाश नहीं है और न इसमें किसी शाब्दिक प्रमाण की आवश्यकता है। पराया पराया है और अपना अपना । तू समस्याओं से मुक्त हो और स्वयं प्रत्यक्षीकरण का पथिक बन अनुभव सदा सत्य होता है। ३०. आगमानामधिष्ठानं उपादिदेश भगवान्, वेदानां वेद उत्तमः । आत्मानन्दमनुत्तरम् ॥ भगवान् ने अनुत्तर आत्मानंद का उपदेश दिया। वे आगमों के अधिष्ठान-आधार और वेदों शास्त्रों में उत्तम शास्त्र हैं।' इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे सहजानन्दमीमांसानामा चतुर्थोऽध्यायः ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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