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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
अलोकाकाश अनंत है। किन्तु अनंत आत्मिक आनंद के लिए वह भी छोटा पड़ता है। यही इस श्लोक का प्रतिपाद्य है। ईशावास्योपनिषद् का निम्नोक्त श्लोक इसका साक्ष्य है
___ 'ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमवावशिष्यते॥' 'जो पूर्ण है, जिससे उत्पन्न हुआ है वह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण कम नहीं होता। प्रत्युत जितना है उतना ही रहता है।
१५.यथा मूकः सितास्वादं, काममनुभवन्नपि।
मानधातमापनो न वाचा वनमाईति॥
जैसे मूक व्यक्ति चीनी की मिठास का भलीभांति अनुभव काता हुआ भी वाणी रूपी साधन के अभाव में उसे बोलकर बता
इन्द्रिय और मन के द्वारा जो पदार्थ जाने जाते हैं, उन्हें समझने के लिए तर्क का प्रयोग किया जाता है, उससे आगे तर्क की गति
२०.इन्द्रियाणां मनसश्च, भावा ये सन्ति गोचराः।
तत्र तर्कः प्रयोक्तव्यः, तर्को नेतः प्रधावति॥
नहीं है।
॥ व्याख्या ॥ आज विज्ञान भी इस सत्य को स्वीकार करने लगा है कि दृश्य जगत् के परे भी कुछ और है। दृश्य भी अभी तक पूरा दृश्य नहीं बना है। यदि सब कुछ दृश्य देख लिया जाता तो विज्ञान का एक कार्य सम्पन्न हो जाता, किन्तु वह भी बहुत अवशेष है और रहेगा। लेकिन दृश्य के पीछे एक अदृश्य की सत्ता को स्वीकार करना बुद्धि की ससीमता का द्योतक है। महावीर इसी ओर संकेत कर रहे हैं-तर्क के परे भी एक चीज है, उसे तुम तर्क से कभी प्राप्त नहीं कर सकोगे।
दार्शनिक परमात्मा के इतना निकट नहीं होता जितना कि एक संत। दर्शनिक अपनी पहेलियों के अंतिम क्षण तक सुलझा नहीं पाता। पश्चिम के इस सदी के महान् दशनिक 'वर्टेण्ड रसल' ने यहां तक कहा है-'अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि मेरा एक भी सवाल हल नहीं हुआ बल्कि नये सवाल खड़े हो गए।'
तर्क से अतर्क्स कैसे हाथ लग सकता है ? महावीर ने कहा है-'तक्का तत्थ न बिज्जई'-तर्क की वहां पहुंच नहीं है।
तर्क लचीला होता है। जिसके पास बौद्धिक क्षमता अधिक होती है, वह अपने तर्क-बल से संगत को असंगत और असंगत को संगत कर सकता है। आस्तिकों और नास्तिकों के तर्क-जाल से न तो आज तक 'आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो पाया है और न नास्तित्व। आज भी 'आत्मा है' और आत्म नहीं है'-दोनों वाद वैसे ही खड़े हैं, जैसे सहस्राब्दियों पहले खड़े थे। नेपोलियन के सामने वैज्ञानिक लापलेस ने पांच भागों में लिखी विश्व की पूरी व्यवस्था के संबंध में पुस्तक प्रस्तुत
आज विज्ञान भी इस सत्य को स्वीकार करने लगा है कि दृश्य जगत् क पर भा कुछ आर ह। दृश्य भा अभा तक पूरा दृश्य नहीं बना है। यदि सब कुछ दृश्य देख लिया जाता तो विज्ञान का एक कार्य सम्पन्न हो जाता, किन्तु वह भी बहुत अवशेष है और रहेगा। लेकिन दृश्य के पीछे एक अदृश्य की सत्ता को स्वीकार करना बुद्धि की ससीमता का द्योतक है। महावीर इसी ओर संकेत कर रहे हैं-तर्क के परे भी एक चीज है, उसे तुम तर्क से कभी प्राप्त नहीं कर सकोगे।
दार्शनिक परमात्मा के इतना निकट नहीं होता जितना कि एक संत। दर्शनिक अपनी पहेलियों के अंतिम क्षण तक सुलझा नहीं पाता। पश्चिम के इस सदी के महान् दशनिक 'वर्टेण्ड रसल' ने यहां तक कहा है-'अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि मेरा एक भी सवाल हल नहीं हुआ बल्कि नये सवाल खड़े हो गए।'
तर्क से अतर्क्स कैसे हाथ लग सकता है ? महावीर ने कहा है-'तक्का तत्थ न बिज्जइ'-तर्क की वहां पहुंच नहीं है।
तर्क लचीला होता है। जिसके पास बौद्धिक क्षमता अधिक होती है, वह अपने तर्क-बल से संगत को असंगत और असंगत को संगत कर सकता है। आस्तिकों और नास्तिकों के तर्क-जाल से न तो आज तक 'आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो पाया है और न नास्तित्व। आज भी 'आत्मा है' और आत्म नहीं है'-दोनों वाद वैसे ही खड़े हैं, जैसे सहस्राब्दियों पहले खड़े थे। नेपोलियन के सामने वैज्ञानिक लापलेस ने पांच भागों में लिखी विश्व की पूरी व्यवस्था के संबंध में पुस्तक प्रस्तुत