________________
संबोधि
१७९
अ. ४ : सहजानंद-मीमांसा
यह सूक्ष्म माया चमत्कारों और विभूतियों की है। इनकी पकड़ में आ जाने के बाद छूटना सहज नहीं होता। 'आत्मलीनो महायोगी'-यह पद ध्यान की विशेष उपलब्धि की ओर संकेत करता है। ध्यान का सतत, सविधि और श्रद्धा से जो अभ्यास करता है, उसके फल से वंचित नहीं रहता। ध्यान का बीज बोओ और काटो, उसमें विलंब नहीं होता। एक वर्षीय ध्यान साधक किस प्रकार सुखों की सीमा का अतिक्रमण कर जाता है, आगम के आधार पर इसका चित्रण प्रस्तुत किया गया है। गोरक्षसंहिता भी उपरोक्त तथ्य को अभिव्यक्त करती है। कहा है-'दृढ़ संकल्प वाला साधक ब्रह्मचर्यवान, परिमितभोजी. समस्त आकर्षणों से मुक्त और योग में दत्त-चित्त होकर एक वर्ष की स्थिति में सिद्धत्व (योग-सिद्धि) को प्राप्त कर लेता है। इसमें कुद भी तर्कणीय, विचारणीय नहीं है।
मानवीय जीवन में सुखों की कल्पना देवताओं से की जाती है। इसलिए यहां बतलाया गया है कि साधक क्रमशः एक महीने यावत् वर्ष भर में साधना के तीव्र अभ्यास से देवताओं के सुखों को पीछे छोड़ सकता है। 'आत्मलीनो महायोगी'-ये दो शब्द साधक की महत्ता के विशेष द्योतक हैं। वह महायोगी है इसलिए कि संपूर्ण शक्ति को आत्मा के अतिरिक्त कहीं नियोजित नहीं कर रहा है। ऐसा साधक तुच्छ और भौतिक सुखों के अभिमुख नहीं हो सकता?' कबीर ने ठीक कहा है
कबीर मारग कठिन है, ऋषि मुनि बैठे थाक।
. तहां कबीर चढ़ गया, गह सतगुरु का हाथ॥ ऋषि मुनि जहां थक जाते हैं, कबीर पहुंच जाते हैं तो निःसन्देह इसमें कुछ रहस्य है और वह है-सम्यग् गुरु द्वारा सम्यग् मार्ग-दर्शन। .. ११.ऐन्द्रियं मानसं सौख्यं, साबाधं क्षणिकं तथा। इंद्रिय तथा मन के सुख बाधासहित और क्षणिक होते हैं। . आत्मसौख्यमनाबाधं, शाश्वतञ्चापि विद्यते॥ आत्म-सुख बाधारहित और स्थायी होता है।
१२.सर्वकर्मविमुक्तानां, जानतां पश्यतां समम्।
सवपिक्षाविमुक्तानां, सर्वसङ्गापसारिणाम्॥ १३. मुक्तानां यादृशं सौख्यं, तादृशं नैव विद्यते। संपन्नसर्वकामानां, नृणामपि सुपर्वणाम्॥
(युग्मम्)
जो सब कर्मों से विमुक्त हैं, जो सब कुछ जानते-देखते हैं, जो सब प्रकार की अपेक्षाओं से रहित हैं और जो सब प्रकार की. आसक्तियों से मुक्त हैं, उन मुक्त आत्माओं को जैसा सुख प्राप्त होता है वैसा सुख काम-भोगों से सम्पन्न मनुष्यों और देवताओं को भी प्राप्त नहीं होता।
१५.सुखराशिर्विमुक्तानां, सर्वाद्धापिण्डितो भवेत्। यदि मुक्त आत्माओं की सर्वकालीन सुख-राशि एकत्रित हो सोऽनन्तवर्गभक्तः सन्, सर्वाकाशेऽपि माति न॥ ___ जाए, उसे हम अनंत वर्गों में विभक्त करें और एक-एक वर्ग को
आकाश के एक-एक प्रदेश पर रखें तो वे इतने वर्ग होंगे कि सारे आकाश में भी नहीं समायेंगे।
॥ व्याख्या ॥ '.. अर्हत् और सिद्ध दोनों के आनंदानुभव में कोई भेद नहीं है। आनंद का स्रोत दोनों का एक है। जिसे स्वयं में आनंद का सागर लहराता दृष्टिगत हो गया, वह अन्यत्र क्या आनंद की खोज करेगा? आनंद स्वयं के भीतर है, वह बाहर कैसे समुपलब्ध होगा? उस आनंद को किसी के द्वारा मापा भी नहीं जा सकता। जो माप्य है वह कभी अनंत नहीं हो सकता और न सदा समान हो सकता है। फिर भी कल्पना के द्वारा उसका निदर्शन कराया जा सकता है। लेकिन वह काल्पनिक है, यथार्थ नहीं।
अनंत को मापने के लिए हमारे समक्ष कोई अनंत वस्तु ही होनी चाहिए। वह है आकाश। आकाश के दो विभाग कल्पित हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश। लोकाकाश लोक तक सीमित है और अलोकाकाश असीम। १. देखें अ. ९, श्लोक २४ से ३५।