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________________ आत्मा का दर्शन १७८ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ आत्म-सुख की उपलब्धि का साधन ध्यान है। इससे शरीर, वाणी और मन की स्थिरता होती है। इन्द्रियों की स्वविषयों से उपरति होती है, तब वे अंतर्मुखी बन जाती हैं। इन्द्रियों की अंतर्लीनता से मन का बहिर्विहार भी रुक जाता है। उस समय केवल चेतना का व्यापार चालू रहता है। शरीर और इन्द्रियां जड़ हैं। वे अनुभूतिशून्य हैं। अनुभूति चेतना का धर्म है। चेतना आत्मा का गुण है, आत्मा की आत्मलीनता है; आत्म-दर्शन है। जब आत्म-दर्शन का स्पर्श होता है, तब आत्म-सुख की प्रतीति होने लगती है। वह अनुभूति इन्द्रिय, शरीर और मानसिक तर्क का विषय नहीं बनती। ९. सहज-निरपेक्षञ्च, निर्विकारमतीन्द्रियम्। आनंदं लभते योगी, बहिरव्यापृतेन्द्रियः॥ जिसकी इन्द्रियों का बाह्य पदार्थों में व्यापार नहीं होता, वह योगी सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय आनंद को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ आनंद के चार रूप हैं-सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय। भौतिक सुख असहज, सापेक्ष, विकृत और इन्द्रियजन्य होता है, इसलिए वह कृत्रिम है। उसमें सतत अतृप्ति बनी रहती है। ___ आत्म-आनंद इसका सर्वथा विरोधी है। उसका स्पर्श ही ऐसा है कि व्यक्ति फिर उससे विमुख हो ही नहीं सकता। वह बिना किसी प्रेरणा के स्वतः ही अग्रसर होता रहता है। वह आनंद स्वाभाविक होता है। वहां आकांक्षा का स्रोत सूख जाता है। उसमें बाहरी पदार्थों की अपेक्षा नहीं रहती। उनके न रहने पर आनंद का अभाव नहीं होता। वही पवित्र और शुद्ध होता है जिसका किसी के साथ कुछ लगाव नहीं रहता और जो इन्द्रिगम्य नहीं है। पदार्थ-सापेक्ष सुख ठीक इससे उल्टा है। वह सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय नहीं होता। पदार्थ के परिवर्तित होते ही सुख में परिवर्तन हो जाता है। यह सबका अनुभव है कि जो पहले प्रिय था, वही बाद में अप्रिय हो जाता है। प्रेम घृणा में, राग विराग में और सुख दुःख में बदल जाता है। वसतुतः इस जगत् में 'है' जैसी कोई चीज नहीं है। प्रतिक्षण सब बदल रहा है। सन्त सहजो ने कहा है-सुखी केवल इस संसार में संत हैं, जो नित्य-शाश्वत में विचरण कर रहे हैं। शेष सब दुःखी हैं, चाहे किसी को देखो। ___'मुए दुःखी जीवित दुःखी, दुखिया भूख अहार। साध सुखी सहजो कहे, पायो नित्य विहार॥' . अनित्य से नित्य का अनुभव कैसे संभव है? नित्य की अनुभूति के लिए नित्य का दर्शन अपेक्षित है। नित्य में समस्त अपेक्षाएं हट जाती हैं। वहां जैसा जो है, वह प्रत्यक्ष हो जाता है। . १०.आत्मलीनो महायोगी, वर्षमात्रेण संयमी। जो संयमी आत्मा में लीन और महान योगी है, वह वर्षभर में अतिक्रामति सर्वेषां तेजोलेश्यां सुपर्वणाम्॥ दीक्षा-पर्याय में समस्त देवों की तेजोलेश्या-सुखासिका अथवा सुख को लांघ जाता है अर्थात् उनसे अधिक सुखी बन जाता है। ॥ व्याख्या ॥ बहुत लोगों के मानस में यह जिज्ञासा उठती है कि ध्यान की निष्पत्ति क्या है? वे प्रत्यक्षतः कोई उपलब्धि नहीं देखते। वे चाहते हैं कोई चमत्कार या कोई विशेष विभूति दृष्टिगत हो। उनकी दृष्टि में ध्यान यहीं समाप्त हो जाता है। यदि कुछ उपलब्धि हो गई तो ध्यान की सार्थकता है, अन्यथा व्यर्थ। सामान्य लोगों का यह तर्क असहज नहीं है। जो जहां तक देखते हैं, सुनते हैं वहां से आगे की कल्पना उनके लिए अशक्य है। ध्यान का यही फल होता तो यह अन्य तरीकों से भी साधा जा सकता है, और साधा जाता भी है। किन्तु ध्यान के मुख्य उद्देश्य के लिए यह बाधक है, इसे स्मृति से ओझल नहीं करना चाहिए। कबीर ने कहा है 'मोटी माया सब तजी, झीणी तजी न जाय। पीर पैगम्बर ओलिया, झीणी सबको खाय॥'
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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