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संबोधि
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अ. ४ : सहजानंद-मीमांसा
॥ व्याख्या ॥ । मेघ ने सुख का एक पक्ष देखा, वह विनश्वर सुख का पक्ष था। किन्तु उस विनश्वरता से भी वह सीख नहीं सका कि सुख का एक ऐसा भी पक्ष है जो विनश्वर नहीं है। इस सत्य की खोज में उसने चरणन्यास अवश्य किया किन्तु गहन अभीप्सा के साथ नहीं। अन्यथा वह महावीर के शब्दों में सशंकित नहीं होता। महावीर जिस आनन्द-सुख में निमज्जित हो रहे हैं, वह सुख और दुःख दोनों सापेक्ष शब्दों से भिन्न है। वे कोई तीसरे सुख की बात कर रहे हैं जो पदार्थ-निरपेक्ष है। साधारणतया मनुष्य का मन तरंगों की तरह है। लहर को सागर का कभी अनुभव नहीं होता, क्योंकि वह सिर्फ आती है, जाती है, रुकती नहीं। इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है कि 'मनुष्य का मन घड़ी के 'पेंडुलम्' की भांति है।' मन को निर्विचार करना जिसे आ जाता है, वह इस आनंद का अनुभव कर सकता है। । आचार्य विनयविजय जी कहते हैं
'सकृदपि यदि समतालवं, हृदयेन लिहन्ति। .
विदितरसास्तत इह रति, स्वत एव वहन्ति॥' जिसने संतुलन, समता या माध्यस्थ्य रस का हृदय से एक छोटा-सा कण भी चख लिया है, फिर वह स्वयं ही उस ओर अग्रसर होता जाएगा। उसे किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं रहेगी।
मेघ ने जो प्रश्न उपस्थित किए हैं, वे सब मन, वाणी, शरीर और कल्पना से संबंधित हैं। उसके लिए यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि वह उससे आगे कुछ देख ही नहीं सका। ये प्रश्न मेघ के ही नहीं हैं, मेघ जैसे अनेक लोगों के हैं। यह प्रश्न-परंपरा प्राचीन ही नहीं, अर्वाचीन भी है। आज भी ये प्रश्न उत्तरित होकर भी अनुत्तरित हैं। आगे भी बुद्धि उसका उत्तर खोज सके यह संभव नहीं है। क्योंकि बुद्धि की अपनी सीमा है। असीम के सामने बुद्धि निरुत्तर हो जाती है। उसके लिए सिर्फ अनुभूति पर्याप्त है।
मोक्ष आत्मा की विशुद्ध दशा है; विभाव की विमुक्ति और स्वभाव की प्राप्ति आत्म-रमणता है। वहां शरीर, मोह, द्वेष, मद, विस्मय, पीड़ा, भौतिक सुख-दुःख, जन्म-मरण आदि क्लेशों का सर्वथा अंत है तथा मन, वाणी और इन्द्रियों का अभाव है। मेघ का मनं इसलिए सशंक है कि सुख-दुःखात्मक अनुभूति के साधन हैं-मन, वाणी और इन्द्रियां। निर्वाण में झका अभाव है। व्यक्ति बिना किसी माध्यम के सुखानुभव कैसे कर सकता है? ऊपर से यह तर्क असंगत भी नहीं लगता। बहुत से व्यक्तियों की यह धारणा भी है कि मोक्ष में है ही क्या? हम क्यों उसके लिए प्रयत्नशील रहें ? कौन आनंद का अनुभव करता है और वह कैसा है, उसे कैसे पहचाना जाए? वर्तमान सुख प्रत्यक्ष है, अनुभूतिगम्य भी है। इसको छोड़ अप्राप्त आनंद की ओर जनता को प्रेरित कर रहे हैं। जो सुख परोक्ष या अनुभूति का विषय है, उसे प्राप्त करने की विधि बताते हैं। मेघ यही जानना चाहता है कि आखिर उसका हेतु क्या है? क्या वह सुख वास्तविक और बुद्धिगम्य है? भगवान् प्राह ६. यत्सुखं कायिकं वत्स! वाचिकं मानसं तथा। भगवान् ने कहा-वत्स! जो-जो कायिक, वाचिक और । अनुभूतं तदस्माभिः, अतः सुखमितीष्यते॥ मानसिक सुख है, उसका हमने अनुभव किया है, इसीलिए वह
सुख है-ऐसा हमें प्रतीत होता है।
.७: नानुभूतश्चिदानन्द, इन्द्रियाणामगोचरः। 'वितों मनसा नापि, स्वात्मदर्शनसंभवः॥
हमने चिद् के आनंद का अभी अनुभव नहीं किया है, क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं है, मन की वितर्कणा से परे है। आत्मसाक्षात्कार से ही उसका प्रादुर्भाव होता है।
८. इन्द्रियाणि निवर्तन्ते, मनस्ततो निवर्तते।
तत्रात्मदर्शनं पुण्यं, ध्यानलीनस्य जायते॥
इन्द्रियां अपने विषयों से निवृत्त होती हैं, तब मन अपने विषय से निवृत्त होता है। जहां इन्द्रिय और मन की अपने-अपने विषयों से निवृत्ति होती है, वहां ध्यान-लीन व्यक्ति को पवित्र आत्मदर्शन की प्राप्ति होती है।