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सहजानंद-मीमांसा
सुख मनुष्य का प्रथम या चरम लक्ष्य है। वह जो कुछ करता है उसके अग्र और पृष्ठ में सुख का चित्र अंकित रहता है। इंद्रियों को मनोज्ञ विषय मिलते हैं, सुख का संवेदन होता है। मन भी अपने मनोज्ञ विषयों को पाकर सुख की अनुभूति करता है। अमनोज्ञ का योग मिलते ही सुख दुःख में बदल जाता है। उस दुःखानुभूति के क्षण में एक नई प्रेरणा जागती है-क्या सुख क्षणिक ही है? क्या सुख के बाद दुःख का आना उतना ही जरूरी है, जितना दिन के बाद रात का आना है? क्या सुख स्थायी भी हो सकता है? क्या ऐसे भूखंड की कल्पना की जा सकती है, जहां केवल दिन हो, रात न हो? इस खोज में मानवीय चेतना आगे बढी और उसे इस सत्य का साक्षात्कार हआ अतीन्द्रिय चेतना के स्तर पर सहज और निरपेक्ष सख उपलब्ध है। वह स्थायी है, शाश्वत है। प्रस्तुत अध्याय में क्षणिक और शाश्वत-दो सुखानुभूतियों के बीच भेद-रेखा खींचने का एक विनम्र प्रयत्न है।
मेघः प्राह
१. सुखानां नाम सर्वेषां, शरीरं साधनं प्रभो!
विद्यते तन्न निर्वाणे, तत्रानन्दः कथं स्फुरेत्॥
मेघ बोला-प्रभो! सब सुखों का साधन है शरीर। निर्वाण में वह नहीं रहता, फिर आनंद की अनुभूति कैसे होगी? ।
२. मानसानाञ्च भावानां. प्रकाशो वचसा भवेत।
अवाचां कथमानन्दः, प्रोल्लसेद् ब्रूहि देव! मे॥
मन के भावों का प्रकाशन वाणी के द्वारा होता है। जहां वाणी न हो, वहां आनंद कैसे विकसित होगा? देव! आप बताएं।
३. चिन्तनेन नवीनानां, कल्पनानां समुद्भवः।
सदा चिन्तनशून्यानां, परितृप्तिः कथं भवेत् ?
चिंतन से नई-नई कल्पनाएं उदभूत होती हैं। जो सदा चिंतन से शून्य हैं, उन्हें परितृप्ति कैसे मिलेगी?
४. इन्द्रियाणि प्रवृत्तानि, जनयन्ति मनःप्रियम।
इन्द्रियेण विहीनानां, · अनुभूतिसुखं कथम्?
इन्द्रियां जब अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं तब वे मानसिक प्रियता उत्पन्न करती हैं। जो इंद्रियों से विहीन हैं, उन्हें अनुभवजन्य सुख कैसे मिलेगा?
५. साधनेन विहीनेस्मिन्, पथि प्रेरयसि प्रजाः।
किमत्र कारणं ब्रूहि, देव! जिज्ञासुरस्म्यहम्॥
यह पथ साधन-विहीन है, जहां मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति को रोकने का यत्न किया जाता है। आप उस पथ पर लोगों को चलने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रेरणा का कारण क्या है? देव! मैं यह जानना चाहता हूं।