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________________ प्रायोगिक दर्शन ४५७ अ. ४ : सम्यक्चारित्र १८.जया य वंदिमो होइ पच्छा होइ अवंदिमो। देवया व चुया ठाणा स पच्छा परितप्पइ॥ प्रव्रजित काल में साधु वंदनीय होता है। वही जब उत्प्रव्रजित होकर अवंदनीय हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे अपने स्थान से च्युत देवता। १९.जया य पूइमो होइ पच्छा होइ अपूइमो। राया व रज्जपब्भट्ठो स पच्छा परितप्पइ॥ प्रव्रजित काल में साधु पूज्य होता है। वही जब उत्प्रवजित होकर अपूज्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे राज्य-भ्रष्ट राजा। २०.जया य माणिमो होइ पच्छा होइ अमाणिमो। सेठिव्व कब्बडे छूढो स पच्छा परितप्पइ॥ प्रव्रजित काल में साधु मान्य होता है। वही जब उत्प्रव्रजित होकर अमान्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे कर्बट (छोटे से गांव) में अवरुद्ध किया हुआ श्रेष्ठी। २१.जया य थेरओ होइ समइक्कंतजोव्वणो। मच्छो व्व गलं गिलित्ता स पच्छा परितप्पइ॥ यौवन के बीत जाने पर जब उत्प्रव्रजित साधु बूढ़ा होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे कांटे को निगलने वाला मत्स्य। २२.जया य कुकुडंबस्स कुतत्तीहिं विहम्मइ। हत्थी व बंधणे बद्धो स पच्छा परितप्पइ॥ उत्प्रव्रजित साधु जब कुटुम्ब की दुश्चिन्ताओं से प्रतिहत होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे बंधन में बंधा हुआ हाथी। २३.पुसदारपरिकिण्णो मोहसंताणसंतओ। पंकोसन्नो जहा नागो स पच्छा परितप्पइ॥ पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परंपरा से परिव्याप्त उत्प्रव्रजित साधु वैसे ही परिताप करता है जैसे पंक में फंसा हुआ हाथी। २४.अन्ज आहं गणी हुंतो भावियप्पा बहुस्सुओ। जई हं रमंतो परियाए सामण्णे जिणदेसिए॥ यदि जिनोपदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) में रमण करता तो आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत गणी होता। २५.देवालोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं। रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो॥ संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते, उनके लिए वही महानरक के समान दुःखद होता है। २६.अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं रयाण परियाए तहारयाणं। . निराओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए॥ संयम में रत मुनियों का सुख देवों के समान प्रबलतम जानकर तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों का दुःख नरक के समान प्रबलतम जानकर पंडित मुनि संयम में ही रमण करे।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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