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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-४
भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा। इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सई।
ओमजणपुरक्कारे।
वंतस्स य पडियाइयणं।
अहरगइवासोवसंपया।
दुल्लभे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिवासमज्झे वसंताणं। आयके से वहाय होइ।
संकप्पे से वहाय होइ।
मनुष्य प्रायः मायाबहुल होते हैं।
यह मेरा परीषह-जनित दुःख चिरकाल स्थायी नहीं होगा।
गृहवासी को नीचजनों का पुरस्कार-सत्कार करना होता है।
संयम को छोड़ घर में जाने का अर्थ है-वमन को वापस पीना।
संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है-नारकीय जीवन का अंगीकार।
ओह! गृहवास में रहते हुए गृहस्थ के लिए धर्म का अनुपालन निश्चय ही दुर्लभ है।
वहां आतंक वध के लिए होता है। पता नहीं, कंब सद्योघाती रोग हो और व्यक्ति मर जाए।
वहां संकल्प वध के लिए होता है। पता नहीं, कब मन में नाना प्रकार के संकल्प-मानसिक रोग उत्पन्न हो और वे व्यक्ति को मौत की ओर ले जाएं।
गृहवास क्लेश सहित है, मुनि-पर्याय क्लेश राहा गृहवास बंधन है, मुनि-पर्याय मोक्ष है। गृहवास सावध है, मुनि-पर्याय अनवद्य है। गृहस्थों के कामभोग बहुजन सामान्य-सर्व सुलभ हैं। पुण्य और पाप अपना-अपना होता है।
ओह! मनुष्यों का जीवन अनित्य है। कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है।
ओह! मैंने इससे पहले बहुत ही पापकर्म किए हैं।
ओह! दुश्चरित्र और दुष्ट पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अर्जित किए हुए पापकर्मों को भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है-उनसे छटकारा होता है। उन्हें भोगे बिना अथवा तप के द्वारा क्षीण किए बिना मोक्ष नहीं होता-उनसे छुटकारा नहीं होता।
सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए। बंधे गिहवासे। मोक्खे परियाए। सावज्जे गिहवासे। अणवज्जे परियाए। बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा। पत्तेयं पुण्णपावं।
अणिच्चे खलु भो! मणुयाण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले। बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं। पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुब्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता।
१६.जया च चयई धम्म अणज्जो भोगकारणा।
से तत्थ मुच्छिए बाले आयइं नावबुज्झइ॥
अनार्य पुरुष जब भोग के लिए धर्म को छोड़ता है, तब वह भोग में मूर्च्छित बना अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता।
१७.जया ओहाविओ होइ इंदो वा पडिओ छम।
सव्वधम्मपरिब्भट्ठो ‘स पच्छा परितप्पइ॥
जब कोई साधु उत्प्रवजित होता है-गृहवास में प्रवेश करता है, तब वह धर्मों से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है जैसे देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमितल पर पड़ा हुआ इन्द्र।