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________________ प्रायोगिक दर्शन ४५५ अ. ४: सम्यक्चारित्र अभिलसति, दिव्वमाणुस्सए कामभोगे प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता। वह उनका अणासाएमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो। नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में विणिघातमावज्जति- तच्चा सुहसेज्जा। समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है। अहावरा चउत्था सुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता चौथी सुखशय्या कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं एवं अनगारत्व में प्रव्रजित होने के बाद ऐसा सोचता हैं-जब भवति-जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा अरोगा अर्हन्त भगवान हृष्ट, नीरोग, बलवान तथा स्वस्थ होकर बलिया कल्लसरीरा अण्णयराइं ओरालाई भी कर्मक्षय के लिए उदार, कल्याण, विपुल, प्रयतकल्लाणाई विउलाई पयताई . पग्गहिताइं सुसंयत, प्रगृहीत–सादर स्वीकृत, महानुभाग- अमेय महाणुभागाई कम्मक्खयकरणाइं तवोकम्माइं शक्तिशाली और कर्मक्षयकारी विचित्र तपस्याएं स्वीकृत पडिवज्जति, किमंग पुण अहं अब्भोवगमि- करते हैं, तब मैं आभ्युपगमिकी तथा औपक्रमिकी वेदना ओवक्कमियं वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि को ठीक प्रकार से क्यों नहीं सहन करता हूं। तितिक्खेमि अहियासेमि? ममं च णं अब्भेवगमिओवक्कमियं सम्ममसह- यदि मैं आभ्युपगमिकी तथा औपक्रमिकी वेदना को माणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खमाणस्स ठीक प्रकार से सहन नहीं करूंगा तो मुझे क्या होगा? . अणहियासेमाणसं किं मण्णे कज्जति? एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति। मुझे एकांत पापकर्म होगा। ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं सम्मं यदि मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को सहमाणस्स खममाणस्स तितिक्खेमाणस्स ठीक प्रकार से सहन करूंगा तो मुझे क्या होगा ? अहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति-चउत्था सुह- मुझे एकांत निर्जरा होगी। सेज्जा। मुनिधर्म में स्थिरीकरण का प्रयोग १५.इह खलु भो! पव्वइएणं, उप्पन्नदुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं, ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव, हयरस्सि-गयंकुस-पोयपडागा-भूयाई इमाइं अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिलेहियव्वाइं भवंति तं जहा मुमुक्षुओ ! निग्रंथ-प्रवचन में जो प्रव्रजित है किन्तु उसे मोहवश दुःख उत्पन्न हो गया। संयम में उसका चित्त अरति-युक्त हो गया। वह संयम को छोड़ गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता है। किन्तु अभी तक गया नहीं है, उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भलीभांति आलोचन करना चाहिए। अस्थितात्मा के लिए इनका वही स्थान है जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका का है। वे अठारह स्थान इस प्रकार हैं ओह! इस दुष्षमा (दुःख बहुल पांचवें आरे) में लोग बड़ी कठिनाई से जीविका चलाते हैं। गृहस्थों के कामभोग स्वल्प-सार-युक्त और अल्पकालिक हैं। हं भो! दुस्समाए दुप्पजीवी। लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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