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आत्मा का दर्शन
अप्पुस्सुए
अब हल्लेसे
सुसामण्णरए
दंते ।
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मुनि के तीन मनोरथ
१३. तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा
कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिज्जिस्सामि ?
कया णं अहं एकल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरिस्सामि ?
कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणा-झूसिते भत्तपाणपडियाइक्खित्ते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि ?
मुनि की चार सुखशय्या
१४. चत्तारि सुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते णिव्वितिगिच्छिए णो भेदसमावणे णोकलुस -मावण्णे णिग्गंथं पावयणं सहइ पत्तियइ रोएति, णिग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्तियमाणे रोएमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जिति - पढमा सुहसेज्जा । अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए सएणं लाभेणं तुस्सति परस्स लाभं णो आसाएति णो पीहेति णो पत्थेति णो अभिलसति, परस्स लाभमणासाएमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जतिदोच्चा सुहसेज्जा ।
अहावरा तच्चा सुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए दिव्वमाणुस्सए कामभोगे णो आसाएति गो पीहेति णो पत्थेति णो
खण्ड - ४
पौद्गलिक पदार्थों के प्रति उत्सुकता नहीं रखने
वाला ।
जिसकी भावधारा संयम से बाहर नहीं जाती । दसविध श्रमण धर्म में रत रहने वाला। क्रोध आदि कषायों से उपशांत ।
तीन स्थानों से श्रमण निग्रंथ महानिर्जरा तथा महापर्यवसान वाला होता है
मैं अल्प या बहुत श्रुत का अध्ययन करूंगा।
कब मैं एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार करं विहार करूंगा।
मैं अपश्चिम-मारणांतिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर, भक्त-पान का परित्याग कर, प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विहरण करूंगा ।
सुखशय्या के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं
पहली सुखशय्या - कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर निर्ग्रथ प्रवचन में निःशंक, निष्कांक्ष, निर्विचिकित्सित, अभेदसमापन्न, अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रथ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है। वह निर्ग्रथ प्रवचन में श्रद्धा करता हुआ प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है।
दूसरी सुखशय्या - कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से. अनगारत्व में प्रव्रजित होकर अपने लाभ से संतुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता। वह दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ, मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है।
तीसरी सुखशय्या- कोई व्यक्ति मुंड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर देवों तथा मनुष्यों के कामभोगों का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता,