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आत्मा का दर्शन
तहिहिं सन्भूहिं अणिट्ठेहिं अकंतेहिं अप्पिएहिं अमणेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए । तं गच्छ णं देवाणुप्पिया! तुमं महासतयं समणोवासयं एवं वयाहि
नो खलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसियस्स भत्तपाण- पडियाइक्खियस्स परो संतेहि..... अमणामेहिं वागरणेहि वागरित्तए । तुमे य णं देवाणुप्पिया ! रेवती गाहावइणी संतेहि....... अप्पिएहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरिया । तं णं तुमं एयस्स ठाणस्स आलोएहि.... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमट्ठे विणएणं पडिसुणेइ, पडणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता
यहिं नरं मज्झमज्झेण अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासतगस्स, समणोवासगस्स गिहे जेणेव महासतए समणोवासए, तेणेव
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उवागच्छइ ।
तए णं से महासतए समणोवासए भगवं गोयमं एज्जमानं पासइ, पासित्ता हट्ठ- तुट्ठ
चित्तमादि भगवं गोयमं वंदइ नमसइ । तणं से भगवं गोयमे महासतयं समणोवासयं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ - नो खलु कप्पर देवाणुप्पिया ! सोवासस अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणा-झूसियस भत्तपाण-पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं..... अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए । तुमेणं देवाणुप्पिया ! रेवती गाहावइणी संतेहिं.... अमणामेहिं वागरणेहिं वागरिया । तं णं तुमं देवाणुप्पिया ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि...... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तए णं से महासतए समणोवासए भगवओ गोयमस्स तह त्ति एयमट्ठं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ..... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जइ ।
खण्ड-४
वचन नहीं कहना चाहिए, चाहे वह सत्य, तत्त्व; तथ्य, यथार्थ और सद्भूत ही क्यों न हो। इसलिए देवानुप्रिय ! तुम जाओ और श्रमणोपासक महाशतक से कहो
संलेखना की स्थिति में सत्य होने पर भी ऐसी अप्रिय बात तुम्हारे लिए कथनीय नहीं है। रेवती गृहस्वामिनी को तुमने संलेखना की स्थिति में ऐसी अप्रिय बात कही है, तुम अपने उस कथन की आलोचना करो और प्रायश्चित्त रूप यथायोग्य तपःकर्म स्वीकार करो।
भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को. विनयपूर्वक स्वीकार करते हैं। गौतम प्रवास स्थान से निकलते हैं और नगर के मध्य से होते हुए श्रमणोपासक महाशतक के पास आते हैं।
श्रमणोपासक महाशतक भगवान गौतम को आते देख हृष्ट, तुष्ट और अनंदित चित्त हो उन्हें वंदन - नमस्कार करता है।
भगवान गौतम श्रमणोपासक महाशतक से कहते हैं देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर ने कहा है-मारणांतिक संलेखना में स्थित श्रमणोपासक को सद्भूत पदार्थों का कथन भी यदि वह अप्रिय हो तो नहीं करना चाहिए ।
देवाप्रिय ! तुमने गृहस्वामिनी रेवती को यथार्थ किंतु अप्रिय बात कही है, इसलिए देवानुप्रिय ! तुम उस कथन की आलोचना करो और प्रायश्चित्त रूप यथायोग्य तपः कर्म स्वीकार करो।
श्रमणोपासक महाशतक भगवान गौतम के इस कथन को स्वीकार करता है। अपने उस अनुचित कथन कीं आलोचना करता है और प्रायश्चित्त रूप यथायोग्य तपः कर्म स्वीकार करता है।