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प्रायोगिक दर्शन
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अ. ९ : धर्म
श्रमणोपासक महाशतक का प्रायश्चित्त ३८.गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम को वयासी-एवं खलु गोयमा! इहेव रायगिहे नगरे ममं संबोधित कर कहा-गौतम! इस राजगृह नगर में मेरा अन्तेवासी महासतए नाम समणोवासए पोसह- अंतेवासी महाशतक नाम का श्रमणोपासक रहता है। सालाए अपच्छिममारणंतियसलेहणाए झूसियसरीरे पौषधशाला में उसने मारणांतिक संलेखना में शरीर को भत्तपाणपडियाइक्खिए, कालं अणवकंखमाणे झोंक दिया है। वह भक्त-पान का परित्याग कर मृत्यु की विहरइ।
आकांक्षा न करता हुआ रह रहा है। तए णं तस्स महासतगस्स समणोवासगस्स रेवती श्रमणोपासक महाशतक की गृहस्वामिनी रेवती है। गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं । वह मत्त, चंचल, केशों को बिखेर कर अपनी ओढ़नी को विकढमाणी-विकढमाणी जेणेव पोसहसाला, बार-बार खींचती हुई पौषधशाला में श्रमणोपासक जेणेव महासतए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, महाशतक के पास आई। मोह और उन्माद को पैदा करने उवागच्छित्ता मोहुम्मायजणणाई सिंगारियाई वाले कामुक स्त्रैण-भावों का प्रदर्शन करती हुई इत्थिभावाई उवदंसेमाणी-उवदंसेमाणी महासतयं श्रमणोपासक महाशतक से कहती हैसमणोवासयं एवं वयासीह भो! महासतया! समणोवासया! किं णं तब्भं ओ श्रमणोपासक महाशतक! तुम्हारे धर्म, पुण्य, देवाणुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मो. स्वर्ग और मोक्ष से क्या लाभ जबकि तुम मेरे साथ प्रचुर क्खेण वा, जं णं तुम मए सद्धिं ओरालाई मानवीय भोगों का भोग नहीं कर रहे हो? माणुस्सयाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे नो विहरसि? तए णं से महासतए समणोवासए रेवतीए गाहाव- श्रमणोपासक महाशतक रेवती गृहस्वामिनी के इस इणीए एयमठं नो आढाइ नो परियाणाइ, कथन का कोई समादर और अनुमोदन नहीं करता है। वह अणाढायमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए मौनभाव से धर्मध्यान में लीन रहता है। धम्मज्झाणोवगए विहरइ। तए णं सा रेवती गाहावइणी महासतयं गृहस्वामिनी रेवती श्रमणोपासक महाशतक के पास समणोवासयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी। उसी बात को दो-तीन बार दोहराती है। तए णं से महासतए समणोवासए रेवतीए गाहाव- श्रमणोपासक महाशतक के दो-तीन बार ऐसा कहने इणीए दोच्चं पि तच्चं पि एवं वत्ते समाणे आसरत्ते पर लाल-पीला हो जाता है। उस पर रोष और क्रोध करने ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, लगता है। अवधिज्ञान का प्रयोग करता है। गृहस्वामिनी आभोएत्ता रेवति गाहावइणिं एवं वयासी
रेवती से कहता हैहं भो! रेवती! एवं खलु तुम अंतो सत्तरत्तस्स ___ओ रेवती ! तू सात रात के भीतर विसूचिका (हैजा) अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट से पीड़ित हो, आर्तध्यान करती हुई असमाधिस्थ अवस्था वसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे में मर जाएगी। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के लोलुयच्युत नरक इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए में ८४ हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक आवासों में चउरासीति-वाससहस्सदिइएसु नेरइएसु नैरयिक रूप में उत्पन्न होगी। नेरइयत्ताए उववन्जिहिसि। नो खलु कप्पइ गोयमा! समणोवासगस्स अप- गौतम! मारणांतिक संलेखना में जिसने शरीर को च्छिम -मारणंतिय-संलेहणाझूसणा-झूसियस्स झोंक दिया है, भक्त-पान का परित्याग कर दिया है, ऐसे भत्तपाण-पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं तच्चेहिं श्रमणोपासक को अनिष्ट, अकांत, अप्रिय और असुंदर