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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
अष्टावक्र ने जनक से कहा-'तू राज्य कर, पर अब यह राज्य तेरा नहीं है। तू अपना सर्वस्व मुझे दे चुका है। यह मेरा कार्य है और तुझे करना है। ऐसा मानकर कर।'
___ साधक के लिए 'मैं' को तोड़ना अनिवार्य है। मैं करता हूं, मैं खाता हूं, मैं देता हूं आदि। मैं को तोड़ने के लिए यह सरलतम उपाय हैं। वह बीच में न आए। सब कुछ है वह गुरु है, प्रभु है। महावीर इसी भावना को. प्रस्तुत कर रहे हैं-मेघ! तू अपने मन, चित्त, अध्यवसाय को आत्मा में नियोजित कर, समस्त क्रियाएं करता हुआ आत्मा को सामने रख। जीवन और मृत्यु तथा इन्द्रियों के प्रवृत्तिकाल में आत्मा को एक क्षण भी विस्मृत मत कर। आत्मा की विस्मृति दुःख है और स्मृति सुख। प्रवृत्ति का स्रोत बदल जाने पर सब कुछ बदल जाएगा। अब तक जो कुछ करता आया था उसमें शरीर, मन, वाणी
और इन्द्रियों की प्रधानता थी और अब आत्मा प्रधान हो जाएगी। बाहर की प्रवृत्ति चंचलता लाती है और अंतर् से दूर करती है। जीवन का परम सार-सूत्र है-आत्म-स्थित होना, आत्मा को सामने रखकर प्रवृत्त होना। ६. समितो मनसा वाचा, कायेन भव सन्ततम्। तूमन, वचन और काया से निरंतर समित-सम्यक् प्रवृत्ति करने
गुप्तश्च मनसा वाचा, कायेन सुसमाहितः॥ वाला तथा मन, वचन और काया से गुप्त और सुसमाहित बन।
॥ व्याख्या ॥
निवृत्ति-अक्रिया जीवन का साध्य है। प्रवृत्ति साध्य नहीं, किन्तु जीवन की सहचरी है। कोई भी व्यक्ति शरीर की विद्यमानता में पूर्ण निवृत्त नहीं हो पाता। प्रवृत्ति का पहला चरण है कि वह प्रवृत्ति सुप्तदशा-यांत्रिक दशा में न हो, पूर्ण होश सजगतापूर्वक हो। प्रवृत्ति में होने वाली गन्दगी, अशुद्धि को सावधानता जला डालती है, वह उसे सम्यग् बना देती है। सजगता के अभाव में प्रवृत्ति के साथ क्रिया तन्मय होकर गन्दगी ले आती है। व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। प्रवृत्ति का दूसरा चरण है प्रवृत्ति को निवृत्ति में बदलना।
गुप्ति है गोपन, संवरण। शरीर को स्थिरकर, मन को शांत कर, मौन होकर कुछ समय के लिए प्रवृत्ति को विश्राम देना, जिससे उस अक्रिय आत्मा की झांकी प्रतिबिबिंत हो सके।
७. अनुत्पन्नानकुर्वाणः, कलहांश्च पुराकृतान्। तू नये सिरे से कलहों को उत्पन्न मत कर और पहले किए नयन्नुपशमं नूनं, लप्स्यसे मनसः सुखम्॥ हुए कलहों को उपशांत कर, इस प्रकार तुझे मानसिक सुख प्राप्त
होगा। ८. क्रोधादीन् मानसान् वेगान, पृष्ठमांसादनं तथा। क्रोध आदि मानसिक वेगों, चुगली और असहिष्णुता को परित्यज्याऽसहिष्णुत्वं,लप्स्यसे मनसः स्थितिम्॥ छोड़, इस प्रकार तुझे मन की स्थिरता प्राप्त होगी।
॥ व्याख्या ॥ जार्ज गुरजिएफ ने कहा है-'तुमने जो पाप किए हैं इनके कारण परमात्मा तुम्हें नरक नहीं भेज सकता, क्योंकि ये सब तुमने बेहोशी में किए हैं। बेहोश को अदालत भी माफ कर देती है।' महावीर ने मेघ को शांतिसूत्र दिया है-वर्तमान क्षण में जीना-'खणं जाणाहि पंडिए।' आदमी जीते हैं अतीत और भविष्य में। स्मृति और कल्पना में जीने का अर्थ है-बेहोशी-प्रमाद में जीना। 'समयं गोयम मा पमायए'-महावीर का यह जागरूकता-अप्रमत्तता का सन्देश लाखों, करोड़ों व्यक्तियों की जबान पर है, किन्तु कितने व्यक्तियों के जीवन का स्पर्श कर रहा है यह कहना कठिन है। वर्तमान या होश में जीने का अर्थ है-भविष्य में पाप का न होना। जो साधक मन के प्रति और शरीर के प्रति जागृत रहता है वह अंतर में उठनेवाली असत् तरंगों का वहीं निर्मूलन कर देता है, बाहर प्रकट नहीं होने देता और सतत शुभ भावों, संकल्पों से स्वयं को प्रभावित रखता है। क्रोधादि वेगों का प्रभाव बेहोशी में ही होता है। जार्ज गुरजिएफ साधकों को क्रोध करने के लिए कहता। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता कि व्यक्ति आग-बबूला हो जाता। जब पूरे क्रोध में आ जाता तब कहता-'देखो! क्या हो रहा है?.आदमी चौंककर देखता-हाथ, चेहरा, होंठ, आंखें और शरीर को एक विपरीत अस्वाभाविक दशा में और वह एक क्षण में उससे पृथक् हो जाता। समस्त पापों, अशुभों से बचने और दूर रहने का मौलिक सूत्र है-देखना, सावधान रहना।