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संबोधि
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अ. १६ : मनःप्रसाद
मेघ जानता है कि वस्तुओं से होने वाला सुख, प्रसाद या आनंद अवास्तविक है। यह क्षणिक है। आया और गया। इसमें स्थिरता नहीं है। मन एक क्षण में प्रसन्न होता है और एक क्षण में अप्रसन्न। एक क्षण सुखी होता है और दूसरे क्षण दुःखीं। मुझे वह प्रसाद सुख चाहिए जो स्थायी हो, शाश्वत हो। आचार्य विनय-विजयजी ने कहा है-यदि तुम्हारा मन संसार-भ्रमण के दुःख से ऊब गया हो और अनंत आनंद की प्यास तीव्र हो गई हो तो तुम अमृत रस से भरे हुए इस शांत सुधारस काव्य को सुनो।' सुख में पले-पुषे मेघ का मन संसार से उद्विग्न हो उठा और सुख और दुःख दोनों से परे जो प्रसाद-आनंद है उसके लिए बेचैन हो उठा। यह प्रश्न उसकी पात्रता को व्यक्त करता है।
भगवान् प्राह २. अनन्तानन्दसम्पूर्ण, आत्मा भवति देहिनाम्।
तच्चित्तस्तन्मना मेघ!, तदध्यवसितोभव॥
भगवान् ने कहा-आत्मा अनन्त आनंद से परिपूर्ण है। मेघ! तू उसी में चित्त को रमा, उसी में मन को लगा और उसी में अध्यवसाय को संजोए रख।
३. तद्भावनाभावितश्च, तदर्थं विहितार्पणः। भुजानोऽपि च कुर्वाणस्तिष्ठन् गच्छंस्तथा वदन्॥
मेघ! जब-जब तू खाए, कार्य करे, ठहरे, चले और बोले, तब-तब आत्मभावना से भावित बन और आत्मा के लिए सब कुछ समर्पित किए रह।
४. जीवंश्च म्रियमाणश्च, युञ्जानो विषयिव्रजम्। तू जीवनकाल में, मृत्युकाल में और इन्द्रियों का व्यापार तल्लेश्यो लप्स्यसे नूनं, मनःप्रसादमुत्तमम्॥ करते समय आत्मा की लेश्या भावधारा से प्रभावित होकर उत्तम
(त्रिभिर्विशेषकम्) मानसिक प्रसाद को प्राप्त होगा।
॥ व्याख्या ॥ मन की तीन अवस्थाएं हैं-चित्त, मन और अध्यवसाय। चित्त ज्ञानात्मक अवस्था है। ज्ञान के अनंतर मननअभ्यासात्मक अवस्था मन है और अभ्यास की चिरपरिचित अवस्था अध्वयसाय है। ... आनंद का स्रोत बाहर नहीं है। हमारी आत्मा ही अनंत-आनंद से संपन्न है। चित्त, मन और अध्यवसाय जब आत्मोन्मुख होते हैं तब आनंद का उद्भव होता हैं। जब वे बाहर घूमते है तब आनंद का आभास हो सकता है, किन्तु यथार्थ आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। आनंद या मानसिक प्रसन्नता के लिए इनका आत्मा में विलीन होना आवश्यक है। ५. आत्मस्थित आत्महित, आत्मयोगी ततो भव। तू आत्मा में स्थिर, आत्मा के लिए हितकर, आत्मयोगी, आत्मपराक्रमो नित्यं, ध्यानलीनः स्थिराशयः॥ आत्मा के लिए पराक्रम करने वाला, ध्यान में लीन और स्थिर
आशय वाला बन।
॥ व्याख्या ॥ महावीर मानसिक आनंद की सर्वोच्च प्रक्रिया प्रस्तुत कर रहे हैं। जब तक मन, चित्त और अध्यवसाय बाहर के आकर्षणों से मुक्त नहीं होते तब तक मानसिक प्रसाद का स्रोत प्रकट नहीं हो सकता। उसके समस्त प्रयास गज स्नानवत् होंगे। चित्त-शुद्धि सर्वप्रथम है। जो साधक ध्यान साधना में प्रविष्ट होना चाहता है उसे यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मनःशुद्धि के बिना ध्यान साधना का प्रयोजन सफल नहीं होता। वह इधर-उधर कितनी ही छलांग मारे, अंततोगत्वा अपने को वहीं खड़ा पाएगा। मन की प्रसन्नता का पहला पाठ है-मनःशुद्धि। और दूसरा पाठ है-मन को बाहर से हटाकर चेतना के साथ संयुक्त करना। · श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा....'अब तू स्वयं कुछ नहीं है। जो कुछ करना है, वह मुझे समर्पित करके कर। तू प्रत्येक क्रिया में देख कि मैं नहीं हूं, बस, जो कुछ हैं वह सब श्रीकृष्ण है।' .