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संबोधि
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अ. १६ : मनःप्रसाद ९. पादयुग्मञ्च संहृत्य, प्रसारितभुजोभयः। दोनों पैरों को सटाकर, दोनों भुजाओं को फैलाकर, थोड़ा . ईपन्नतः स्थिरदृष्टिर्लप्स्यसे मनसो धृतिम्॥ झुककर तथा दृष्टि को स्थिर बना, इस प्रकार मानसिक धैर्य को
प्राप्त होगा।
॥ व्याख्या ॥ ध्यान के लिए चार मुद्राओं का उल्लेख मिलता है-१. जिनमुद्रा, २. योगमुद्रा, ३. वंदनामुद्रा, ४. मुक्तासुक्ति मुद्रा।
चित्त को स्थिर और एकाग्र करना मुद्राओं का प्रयोजन है। इससे कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास होता है, साधक की मानसिक धृति बढ़ती है।
१०.प्रयत्नं नाधिकृर्वाणोऽलब्धांश्च विषयान् प्रति।
लब्धान प्रति विरज्यश्च, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥
अप्राप्त विषयों पर अधिकार करने का प्रयत्न मत कर और प्राप्त विषयों से विरक्त बन, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
॥ व्याख्या ॥
'बलख' का बादशाह इब्राहिम साम्राज्य को छोड़ कर फकीर हो गया। वह फकीरी के वेष में भारत-यात्रा पर आया। एक संत से भेंट हुई। उसने पूछा-संत कौन होता है ? संत ने कहा-मिले तो खा ले और ना मिले तो सन्तोष रखे। इब्राहिम ने कहा-यह तो कोई बहुत बड़ा लक्षण नहीं है। इतना तो एक कुत्ता भी कर लेता है। संत ने कहा-तो आप बताएं। उसने कहा-जो कुछ मिले उसे बांट कर खाएं और न मिले तो समझे चलो, आज उपवास व्रत ही सही। प्राप्त में सन्तोष और अप्राप्त का आकर्षण नहीं रखना शांति का सहज उपाय है। सन्तोष वही नहीं कि आप के पास है भी नहीं, और आप उसका सन्तोष करें। सन्तोष भविष्य में नहीं, वर्तमान में है। संतुष्ट आप आज रह सकते हैं, कल में नहीं। कल अशांति का लक्षण है। महावीर कहते हैं-अप्राप्त-पदार्थों को प्राप्त करने में जो व्यग्र नहीं और प्राप्त में परम संतुष्ट है, जो मिला है, उसमें प्रसन्न रह सकता है, वह संतुष्ट है।
११.अमनोज्ञसंप्रयोगे, नातं ध्यायन् कदाचन। • ' मनोज्ञविप्रयोगे च, मनसःस्वास्थ्यमाप्स्यसि॥
अमनोज्ञ विषयों का संयोग होने और मनोज्ञ विषयों का वियोग होने पर तू आर्तध्यान मत कर अपने मानस को चिंता से पीड़ित मन बना, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
रोग के उत्पन्न होने पर चिकित्सा के लिए आर्तध्यान मत कर तथा भौतिक फल की आशा और भोग-विषयक संकल्पों को छोड़, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
१२. रोगस्य प्रतिकाराय,
नातं ध्यायंस्तथा त्यजन्। फलाशां भोगसंकल्पान्,
- मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥ १३. शोक भयं घृणां द्वेष,
विलापं क्रन्दनं तथा। त्यमन्त्रज्ञानजान् दोषान्,
मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥
"बष,
शोक, भय, घृणा, द्वेष, विलाप, क्रंदन और अज्ञान से उत्पन्न होने वाले दोषों को तू छोड़, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा।
.११.लब्धानां नाम भोगानां रक्षणायाचरेज्जनः।
हिंसां मषा तथाऽदत्तं, तेन रौद्रः स जायते॥
मनुष्य प्राप्त भोगों की रक्षा के लिए हिंसा, असत्य और चोरी का आचरण करता है और उससे वह रौद्र बनता है।