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________________ आत्मा का दर्शन ३७६ खण्ड-३ १५. तथाविधस्य जीवस्य, चित्तस्वास्थ्यं पलायते। संरक्षणमनादृत्य, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि॥ जो मनुष्य रौद्र होता है। उसका मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है। तू भोगों की रक्षा का प्रयत्न मत कर, इस प्रकार तू मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होगा। १६.रागद्वेषौ लयं यातौ, यावन्तौ यस्य देहिनः। सुखं मानसिकं तस्य, तावदेव प्रजायते॥ जिस मनुष्य के राग-द्वेष का जितनी मात्रा में विलय होता है, उसे उतनी ही मात्रा में मानसिक सुख प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ 'मेकेरियस' नामक साधक से किसी ने पूछा-कृपया बताएं कि मोक्ष का मार्ग क्या है ? संत ने कहा-'यह सामने कब्रिस्तान है। प्रत्येक कब्र पर जाओ और सबको गाली देकर आओ।' उसने सोचा कहां आ गया? इससे मोक्ष का संबंध है क्या? खैर, वह गया और गाली देकर आ गया। संत ने कहा-'एक बार फिर जाओ, और इस बार उसकी स्तुति करके आओ।' वह सब की स्तुति करके चला आया। संत ने पूछा-'किसी ने कुछ उत्तर दिया ?' कहा-'नहीं।' बस यही साधना है। यही मोक्ष का मार्ग है। जीवन में राग-द्वेष, मान-अपमान आदि सभी स्थितियों में सम रहना, भीतर भी कोई उत्तर पैदा न होना, यही है मुक्ति का मार्ग। समाधिशतक में आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः। नापमानादयस्तस्य, न क्षेपो यस्य चेतसः॥ जिसका मन शांत नहीं है, विक्षिप्त है, अपमान आदि उसी को पीड़ित करते हैं। जिस का चित्त शान्त है, उसके लिए अपमान आदि कुछ नहीं हैं।' जितनी मात्रा में राग-द्वेष की क्षीणता है उतनी ही मात्रा में मानसिक आनंद भी परिपूर्ण रूप से अभ्युदित हो जाता है। साधक के चरण पूर्णता की ओर बढ़े। इन श्लोकों (४-१६) में मानसिक स्वास्थ्य के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है। वे संक्षेप में ये हैं : (१) मानसिक आवेगों का निराकरण (२) कायोत्सर्ग का अभ्यास (३) विषयों की विस्मृति और विरक्ति (४) संयोग और वियोग में संतुलन (५) संकल्प-विकल्प से छुटकारा (६) अज्ञान का निराकरण (७) हिंसा आदि का त्याग (८) भोगों की रक्षा का त्याग (९) राग-द्वेष का विलय (१०) आत्मार्पणता (११) आत्मलीनता आदि। १७.वीतरागो भवेल्लोको, वीतरागमनुस्मरन्। उपासकदशां हित्वा, त्वमुपास्यो भविष्यसि॥ जो पुरुष वीतराग का स्मरण करता है, वह स्वयं वीतराग बन जाता है। वीतराग का स्मरण करने से तू उपासक दशा को छोड़कर स्वयं उपास्य बन जाएगा। ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य जैसा सोचता है वैसा बन जाता है। भीतर यदि जागरण न हो तो वह सोचना सम्मोहन पैदा कर देता है। आचार्य नागार्जुन के पास एक व्यक्ति मुक्ति के लिए आया। नागार्जुन ने कहा-'तीन दिन का उपवास करो, नींद मत लो। और सामने खड़ी भैंस को दिखलाकर कहा, बस यही स्मरण करो कि मैं भैंस हो गया। वह एकांत गुफा में चला गया। तीन-दिन-रात यही कहता रहा। भरोसा हो गया कि मैं भैंस हो गया। चौथे दिन सुबह नागार्जुन आए और कहा-बाहर जाओ। वह भैंस की आवाज में चिल्लाया और कहा-कैसे आऊं बाहर ? नागार्जुन ने सिर पकड़कर हिलाया और कहा-कहां भैंस हो तुम? सम्मोहन टूट गया। वीतरागता साध्य है। वीतराग आदर्श है। साधक आदर्श को सतत सामने रखे। राग-द्वेष को जीतकर ही वीतराग बना जा सकता है। वह उसके प्रति सदा जागृत रहे। राग-द्वेष की मुक्ति ही उपासना की स्थिति को उपास्य में परिवर्तित करती है। १८.इन्द्रियाणि च संयम्य, कृत्वा चित्तस्य निग्रहम। संस्पृशन्नात्मनात्मानं, परमात्मा भविष्यसि॥ इन्द्रियों का संयम कर, चित्त का निग्रह कर, आत्मा से आत्मा का स्पर्श कर, इस प्रकार तू परमात्मा बन जाएगा।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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