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________________ संबोधि ३७७ || व्याख्या || परमात्मा होने का राज इस छोटी सी प्रक्रिया में निहित है। प्रत्याहार, प्रतिसंलीनता - यह योग साधना का एक अंग है। इसमें यही सूचित किया है कि इन्द्रिय और मन को बाहर से समेट कर केन्द्र पर ले आओ, जहां से इन्हें शक्ति प्राप्त होती है और उसी के साथ योजित कर दो। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाते जाओ। एक दिन परमात्मा का स्वर प्रगट हो जाएगा और तुम्हारा स्वर शांत हो जाएगा जब तक तुम बोलते रहोगे, परमात्मा मौन रहेगा। उसे मुखरित होने का तुमने अवसर ही नहीं दिया । इन्द्रियों और मन की चेतना से जो युति है वही परमात्मा की अभिव्यक्ति का मूल स्रोत है। १९. यल्लेश्यो म्रियते लोकस्तल्लेश्यश्चोपपद्यते । तेन प्रतिपलं मेघ ! जागरूकत्वमर्हसि ॥ २०. जीवनस्य तृतीयेऽस्मिन, भागे प्रायेण देहिनाम् । आयुषो जायते बन्धः, शेषे तृतीयकल्पना ॥ अ. १६ मनः प्रसाद २१. तृतीयो नाम को भागो नेति विज्ञातुमर्हसि । सर्वदा भव शुद्धात्मा तेन यास्यसि सद्गतिम् ॥ यह जीव जिस लेश्या - भावधारा में मरता है उसी लेश्या के अनुरूप गति में उत्पन्न होता है। इसलिए हे मेघ! तू प्रतिफल आत्मा के प्रति जागरूक बन । जीवों के जीवन के तीसरे भाग में नरक आदि आयु में किसी एक आयु का बंधन होता है। जीवन के तीसरे भाग में आयु का बंधन न हुआ तो फिर तीसरे भाग के तीसरे भाग में आयु का बंध होता है उनमें भी बंधन न हुआ हो तो फिर अवशिष्ट के तीसरे भाग में आयु का बंधन होता है। इस प्रकार जो आयु शेष रहती है, उसके तीसरे भाग में आयु का बंधन होता है। जीवन का तीसरा भाग कौन-सा है, इसे तू जान नहीं सकता। इसलिए सर्वदा अपनी आत्मा को शुद्ध रख, इस प्रकार तू सद्गति को प्राप्त होगा। || व्याख्या || जीवन ओस की बूंद की तरह है, कब गिर जाए यह पता नहीं है, इसलिए 'प्रमाद मत करो यह आत्म-द्रष्टाओं का उद्घोष है। मनुष्य यह बुद्धि से जानता है, किन्तु जागरूक नहीं रहता। जापानी कवि 'ईशा' के संबंध में कहा जाता है - बत्तीस, तेतीस वर्ष की उम्र में उसके परिवार के पांच सदस्य- पत्नी, बच्चे मर गए। बड़ा दुःखी हो गया। कहीं शांति नहीं मिली। किसी व्यक्ति ने उसे संत के पास भेज दिया। आया। संत ने कहा- 'आंख खोलकर देखो', 'जीवन ओस की बूंद की तरह है, अब गया, तब गया। सबको जाना है।' शांति मिली एक कविता लिखी निश्चित ही जीवन एक ओस का का है। मैं पूर्णतया सहमत हूं कि जीवन एक ओस का कण है। फिर भी यह आशा नहीं छूटती सब देख लेने, जान लेने के बाद भी आदमी भविष्य की कल्पनाओं में जीने लगता है। वर्तमान को छोड़ देता है। महावीर कहते हैं गौतम ! शांति का सूत्र है जागरूकतापूर्वक जीना। जागरूक व्यक्ति प्रमत्त नहीं होता। वह प्रत्येक क्षण शुभ भावना से भावित रहता है। इसलिए उसे मृत्यु का भय नहीं रहता । मृत्यु कभी आए, उसका भविष्य सुरक्षित है। किन्तु जो प्रमत्त हैं, खतरा उन्हीं के लिए है । वे अशुभ भावों से घिरे रहते हैं। वे हिंसा, झूठ, ईर्ष्या, द्वेष, राग, कलह आदि से मुक्त नहीं होते। इन स्थितियों में वर्तमान और भविष्य दोनों सुखद नहीं होते। जैसे भावों में व्यक्ति मरता है वह वैसी ही गति में उत्पन्न होता है। आयुष्य कर्म का बंध जीवन के तीसरे भाग में होता है। उस तीसरे का पता नहीं चलता कि यह तीसरा है। असावधान व्यक्ति वह क्षण चूक जाता है और उस क्षण को चूकने का अर्थ है-जीवन को चूक जाना इसलिए मैं कहता हूं-क्षण-क्षण जागृत रहो। यह समझते रहो यह तीसरा ही क्षण है जो इस प्रकार जीवनयापन करता है, सावधान, जागृत रहता है वह मृत्यु पर विजय पा लेता है, भय से मुक्त हो जाता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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