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________________ आत्मा का दर्शन ३७८ खण्ड-३ २२. कृष्णा नीला च कापोती, पापलेश्या भवन्त्यमूः। तैजसी पद्मशुक्ले च, धर्मलेश्या भवन्त्यमूः॥ पाप-लेश्याएं तीन हैं-कृष्ण, नील और कापोत। धर्म लेश्याएं भी तीन हैं-तैजस, पद्म और शुक्ल। २३. तीव्रारम्भपरिणतः, क्षुद्रः साहसिकोऽयतिः। पञ्चासवप्रवृत्तश्च, कृष्णलेश्यो भवेत् पुमान्॥ जो तीव्र हिंसा में परिणत है, क्षुद्र है, बिना विचारे कार्य करता है, भोग से विरत नहीं है और पांच आसवों में प्रवृत्त है, वह व्यक्ति कृष्णलेश्या वाला होता है। २४. ईर्ष्यालुद्देषमापन्नो, गृद्धिमान् रसलोलुपः। अहीकश्च प्रमत्तश्च, नीललेश्यो भवेत् पुमान्॥ जो ईष्यालु है, द्वेष करता है, विषयों में आसक्त है, सरस आहार में लोलुप है, लज्जाहीन और प्रमादी है, वह व्यक्ति नीललेश्या वाला होता है। २५. वक्रो वक्रसमाचारो, मिथ्यादृष्टिश्च मत्सरी। औपधिको दुष्टवादी, कापोतीमाश्रितो भवेत्॥ जिसका चिंतन, वाणी और कर्म कुटिल होता है, जिसकी दृष्टि मिथ्या है, जो दूसरे के उत्कर्ष को सहन नहीं करता, जो दंभी है, जो दुर्वचन बोलता है, वह व्यक्ति कापोतलेश्या वाला होता है। २६.विनीतोऽचपलोऽमायी. दान्तश्चावद्यभीरुकः। प्रियधर्मी दृढधर्मा, तैजसीमाश्रितो भवेत्॥ - जो विनीत है, जो चपलता-रहित है, जो सरल है, जो इंद्रियों का दमन करता है, जो पापभीरु है, जिसे धर्म प्रिय है और जो धर्म में दृढ़ है, वह व्यक्ति तैजसलेश्या वाला होता है। २७. तनुतमक्रोध-मान-माया-लोभो जितेन्द्रियः। प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, पद्मलेश्यो भवेत् पुमान्॥ जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ बहुत अल्प हैं, जो जितेन्द्रिय है, जिसका मन प्रशांत है और जिसने आत्मा का दमन किया है, वह व्यक्ति पद्मलेश्या वाला होता है। २८.अन्तेिः सर्ववितुनः अर्क्सशक्थे भव साधा। २८.आर्त्तरौद्रे वर्जयित्वा, धर्म्यशक्ले च साधयेत्। उपशान्तः सदा गुप्तः शुक्ललेश्यो भवेत् पुमान्॥ जो आर्त्त और रौद्रध्यान का वर्जन करता है, जो धर्म्य और शुक्लध्यान की साधना करता है, जो उपशांत है और जो निरंतर मन, वचन और काया से गुप्त है, वह व्यक्ति शुक्ललेश्या वाला होता है। २९.लेश्याभिरप्रशस्ताभिर्मुमुक्षो! दूरतो व्रज। प्रशस्तासु च लेश्यासु, मानसं स्थिरतां नय॥ हे मुमुक्षु! तू अप्रशस्त लेश्याओं से दूर रह और प्रशस्त लेश्याओं में मन को स्थिर बना। ॥ व्याख्या ॥ लेश्या जैन पारिभाषिक शब्द है। उसका संबंध मानसिक विचारों या भावों से है। यह पौद्गलिक है। मन, शरीर और इन्द्रियां पौद्गलिक हैं। मनुष्य बाहर से पुद्गलों को ग्रहण करता है और तदनुरूप उसकी स्थिति बन जाती है। आज की भाषा में इसे 'ओरा' या 'आभा मंडल' कहा जाता है। इस पर बहुत अनुसंधान हुआ है। इसके फोटो लिए गए हैं। जीवित और मत का निर्णय इसी आधार पर किया जा सकता है। योग-सिद्ध गुरु के लिए आवश्यक है कि.वह 'ओरा' का विशेषज्ञ हो। शिष्य की परीक्षा 'ओरा' देखकर करें। वह शिष्य पर दृष्टि डालकर प्रकाश को देखता है और निर्णय लेता है। 'ओरा' हमारी आंतरिक स्थिति का प्रतिबिंब है। आप अपने को कितना ही छिपाएं, किन्तु आभामंडल के विशेषज्ञ व्यक्ति
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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