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________________ 4 संबोधि ३७९ अ. १६ : मनः प्रसाद से गुप्त नहीं रह सकते। आपके विचारों या भावों का प्रतिनिधित्व शरीर से निकलने वाली आभा प्रतिक्षण कर रही है। वह रंगों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। हम महापुरुषों के सिर के पीछे आमा वलय देखते हैं वह और कुछ नहीं, मन की पूर्ण शांत स्थिति में निर्मित 'ओरा' - आभा मंडल है । शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म प्रकाश किरणों का 'अंडाकार' आभा मंडल 'ओरा' है। इसे साइकिक एटमोसफियर, मेग्नेटिक एटमोसफियर भी कहते हैं। यह शरीर से दो तीन फुट की दूरी तक रहता है। मानस परिवेश ६ से १० फुट तक रहता है। यह शरीर के मध्य में बहुत गहरा और आसपास हल्का होता है। जिनके आचार-विचार में स्थायित्व आ जाता है उनका 'ओरा' स्थायी बन जाता है, अन्यथा वह प्रतिक्षण भावों के साथ बदलता रहता है। ओरा के रंग तथा छाया आश्चर्यजनक व रुचिकर होते हैं। स्थूल शरीर की भांति मेण्टल - मानसिक शरीर भी बड़ा इण्टरेस्टिंग है। ओरा को समुद्र की तरह समझा जा सकता है। कभी शांत और कभी भयंकर अशांत । - मानव ओरा का मूल द्रव्य प्राण है प्राण जीवन का आधार है। भावना का संबंध प्राण से है प्राण का रंग भाव-विचारों के बदलते ही बदल जाता है। वही बाहर प्रकट होता है। प्राण ओरा के पार्टिकल्स सबके भिन्न भिन्न होते हैं। आदमी के चले जाने के बाद भी जो परमाणु शेष रहते हैं उनसे आदमी के संबंध में जाना जा सकता है। प्राण ओरा में बहुत अधिक प्रकाशशील स्फुलिंग होते हैं। व्यक्ति से प्रभावित और अप्रभावित होने में ओरा का हाथ है। लेश्या के नामों से यह अभिव्यक्त होता है कि ये नाम अंतर से निकलने वाली आभा के आधार पर रखे गए हैं। उनका जैसा रंग है, व्यक्ति का मानस भी वैसा ही है। प्रशस्त और अप्रशस्त में रंगों का प्राधान्य है। कृष्ण, नील और कापोत- अप्रशस्त हैं, तेजस, पद्म और शुक्ल प्रशस्त हैं। वैज्ञानिकों ने 'ओरा' के प्रायः ये ही रंग निर्धारित किए हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि बाहर के रंग भी व्यक्ति को प्रभावित करते हैं बाहरी रंगों का ध्यान-चिंतन कर हम आंतरिक रंगों को भी परिवर्तित कर सकते हैं। रंग हमारे शरीर को प्रभावित करता है, हमारे मन को प्रभावित करता है। रंग चिकित्सा पद्धति आज भी चलती है। 'कलर थेरापी' यह पद्धति चल रही है। एक पद्धति है 'कास्मिक घेरापी' अर्थात् दिव्य किरण चिकित्सा। इसका भी रंग के साथ संबंध है रंग और सूर्य की किरण दोनों के साथ इसका संबंध है। प्रकाश के साथ यह संयुक्त है रंग हमारे शरीर और मन को विविध प्रकार से प्रभावित करता है उससे रोग मिटते हैं, फिर वे रोग शारीरिक हो या मानसिक मानसिक रोग चिकित्सा में भी रंग का विशिष्ट स्थान है पागलपन को रंग के माध्यम से समाप्त कर दिया जाता है। रंग थोड़ा सा विकृत हुआ कि आदमी पागल हो जाता है। रंग की पूर्ति हुई कि आदमी स्वस्थ हो जाता है। शरीर में रंग की कमी के कारण अनेक बीमारियां उत्पन्न होती हैं। 'कलर थेरापी का यह सिद्धांत है कि बीमारी के कोई कीटाणु नहीं होते। रंग की कमी के कारण बीमारी होती है। जिस रंग की कमी हुई, उसकी पूर्ति कर दो, आदमी स्वस्थ हो जाएगा, बीमारी मिट जाएगी। तो बीमारी का होना या बीमारी का न होना या स्वस्थ होना, यह सारा रंगों के आधार पर होता है। हमारे चिंतन के साथ भी रंगों का संबंध है। मन में खराब चिंतन आता है, अनिष्ट बात उभरती है, अशुभ सोचते हैं, तब चिंतन के पुद्गल काले वर्ण के होते हैं लेश्या कृष्ण होती है अच्छा चिंतन करते हैं, हित चिंतन करते हैं, शुभ सोचते हैं तब चिंतन के पुद्गल पीत वर्ण के होते हैं, पीले वर्ण के होते हैं। लाल वर्ण के भी हो सकते हैं और श्वेत वर्ण के भी हो सकते हैं। उस समय तेजोलेश्या होगी या पद्म लेश्या होगी या शुक्ल लेश्या होगी। बुरे चिंतन के पुद्गलों का वर्ण है काला और अच्छे पुद्गलों का वर्ण है पीला, लाल या श्वेत कितना बड़ा संबंध है रंग का चिंतन के साथ जिस प्रकार का चिंतन होता है उसी प्रकार का रंग होता है। । शरीर के साथ रंग का गहरा संबंध है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर के आस-पास रंग का एक आभामंडल है। उसमें अनेक रंग होते हैं। किसी के आभामंडल का रंग काला होता है, किसी के नीला और किसी के लाल और किसी के सफेद। अनेक वर्णों का भी होता है आभा मंडल आपकी आंखों को वे रंग नहीं दिखते। पर वे हैं अवश्य ही ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं होता जिसके चारों ओर आभा मंडल न हो। इसका स्वयं पर भी असर होता है और दूसरों पर भी असर होता
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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