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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
१३. माता पिता स्नुषा भ्राता, भार्या पुत्रास्तथौरसाः।
त्राणाय मम नालं ते, लुप्यमानस्य कर्मणा॥
सूक्ष्म सत्य का अवगाहन करने वाला इस सचाई को पा लेता है कि अपने कर्मों से पीड़ित होने पर मेरी सुरक्षा के लिए मातापिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी और औरस पुत्र-कोई समर्थ नहीं है।
॥ व्याख्या ॥ जैसे-जैसे साधक सत्य की खोज में आगे बढ़ता है, अस्तित्व के निकट पहुंचता है, वैसे-वैसे उसकी स्थूल सत्य की . कल्पनाएं गिरने लगती हैं। अब तक का जो माना हुआ कल्पित आकार था वह नष्ट होने लगता है। वह देखता है-मैं अपने को क्या समझता था? और क्या हूं? यह नाम-रूप मैं हूं? दृश्य को 'स्व' समझ रहा था। और 'पर' में आत्म-बुद्धि मान रहा था। मैं और मेरे का संबंध स्थापित किया। संयोग में शाश्वत की बुद्धि थी। अब कोई मेरा प्रतीत नहीं होता। सब अज्ञान था और सब अज्ञान में हैं। संबंधों का जाल खड़ाकर उलझ रहे हैं। मेरा मेरे अतिरिक्त कोई त्राण नहीं है। बुद्ध ने ठीक कहा है-'अपने दीपक स्वयं बनो, स्वयं ही स्वयं की शरण हो?
स्व-दर्शन में झूठी मान्यता टिक नहीं सकती। प्रकाश के सामने अंधकार का अस्तित्व कब टिका है ? सत्य प्रकाश है, ज्योति है, उस ज्योति के समक्ष मिथ्या धारणाएं कैसे खड़ी रह सकती हैं ? बुद्ध को ज्ञान हुआ तब अपने मन से कहा'मेरे मन! अब तुझे विदा देता हूं। अब तक तेरी जरूरत थी शरीर रूपी घर बनाने थे। अब मुझे परम निवास मिल गया।'
'कोई अपना नहीं है'-इसे खाली दोहराओ मत। सचाई का दर्शन करो। 'नालं मम ताणाए' मेरे लिए धन, पद, यश, प्रतिष्ठा, परिवार, स्वजन आदि कोई त्राण नहीं हैं और न मैं भी उनका त्राण हूं। जिस व्यक्ति की यह घोषणा है वह प्रत्यक्षद्रष्टा है। उसने अंतर में प्रवेश कर निरीक्षण किया है। हम भी इसके साथ गहराई में उतरें और सचाई का अनुभव करें।
१४.अध्यात्म सर्वतः सर्व, दृष्ट्वा जीवान प्रियायुषः।
न हन्ति प्राणिनः प्राणान् भयादुपरतः क्वचित्॥
सभी जीव सब तरह से समान आत्मानुभूति रखते हैं। उन्हें जीवन प्रिय है, यह देखकर प्राणियों के प्राणों का वध न करे, भय. और वैर से निवृत्त बने-अभय बने।
॥ व्याख्या ॥ वैर वैर से शांत नहीं होता। वैर की शांति अवैर से होती है। आत्म-द्रष्टा सब प्राणियों में आत्मत्व ही देखता है। वह न किसी को शत्रु मानता है, न किसी को मित्र। शत्रु और मित्र की कल्पना सारी व्यावहारिक है। मैत्री और शत्रुता परिचित के साथ होती है। आत्मा यदि अपरिचित है तो कौन शत्रु है और कौन मित्र। अगर आत्मा परिचित है तो सब आत्माएं हैं, कोई शत्रु और कोई मित्र नहीं है। शत्रु और मित्र की बुद्धि राग-द्वेष को उत्पन्न करती है। राग से व्यक्ति प्रेम करता है और ... द्वेष से घृणा। दोनों ही बंधन हैं। सत्यद्रष्टा अभय और निर्वैर होता है। वह न किसी को डराता है और न किसी से डरता है।
१५.आदानं नरकं दृष्ट्वा , मोहं तत्र न गच्छति।
आत्मारामःस्वयं स्वस्मिन्लीनः शान्तिं समश्नुते॥
आदान-परिग्रह को नरक मानकर जो उससे मोह नहीं करता और स्वयं अपने में लीन रहता है, वह आत्मा में रमण करने वाला व्यक्ति शांति को प्राप्त होता है।
॥ व्याख्या ॥ परिग्रह आदान इसलिए है कि वह कर्म का ग्रहण करता है। कर्म के संग्रह से आत्मा का पतन होता है। सत्य-द्रष्टा परिग्रह में आसक्त नहीं होता, क्योंकि वह इसे बंधन मानता है। आत्मा की शांति परिग्रह में नहीं है, वह है आत्मलीनता में। साधक इसीलिए आत्मलीनता में व्यग्र रहता है।
परिग्रह के मोह में फंसे व्यक्तियों को शांति नहीं मिलती। ये परिग्रह की आशा में ही व्यस्त रहते हैं। शंकराचार्य ने ऐसे व्यक्तियों के लिए लिखा है-'जिसका शरीर जीर्ण हो गया है, सिर के बाल सफेद हो गए हैं, मुंह दांतों से विहीन हो गया है, फिर भी वे आशा से मुक्त नहीं होते।' १. अध्यात्म के अनेक अर्थ हैं। प्रस्तुत प्रसंग में अध्यात्म का अर्थ है-आत्मानुभूति।