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संबोधि
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अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन - इस दुःखवादी दृष्टिकोण ने जैन साधक को पग-पग पर सचेष्ट रहने की प्रेरणा दी।
जैन दर्शन के चार आधार-बिन्दु हैं :-१. दुःख है। २. दुःख का कारण है। ३. मोक्ष है। 8. मोक्ष का कारण है। इन चार सत्यों के आधार पर सारा दर्शन खड़ा हुआ है।
साधक साधना-जीवन में प्रवेश करते ही पछता है-ऐसा कौन-सा कार्य है जो दःख-मक्त कर सकता है? दुःख से मुक्त होने की भावना ज्यों-ज्यों तीव्र होती है साधक का जीवन उतना ही प्रकाशमय होता जाता है।
साधक दुःख के कारणों और उनकी मुक्ति के मार्ग की खोज में जुट पड़ता है। तब उसे सत्य का बोध होता है और वह अपने लक्ष्य का निर्णय कर लेता है। यहां से सत्य की शोध, जिससे दुर्गति का अंत हो, का प्रारंभ होता है। यही दर्शन का आदि-बिन्दु है। जैन दर्शन यहां से प्रारंभ होता है और निर्वाण प्राप्ति में कतकार्य हो जाता है। ___ राजा मिलिन्द ने स्थविर नागसेन से पूछा-'प्रव्रज्या का क्या उद्देश्य है?' नागसेन ने कहा-'प्रव्रज्या का उद्देश्य है-दःख मक्ति और निर्वाण-प्राप्ति।' राजा ने पछा-'क्या आपने इसीलिए प्रव्रज्या ली थी?' नागसेन ने कहा-'नहीं। मैंने बौद्ध भिक्षुओं में बड़ा पांडित्य देखा। मैंने सोचा, मुझे भी सीखने को मिलेगा। सीखने के बाद मैंने जाना कि प्रव्रज्या का उद्देश्य क्या है।' . चार प्रकार के पुरुष होते हैं-कुछ व्यक्ति दुःख-क्षय के लिए प्रवजित होते हैं और वे उसी ध्येय पर चलते हैं। कुछ व्यक्ति प्रव्रज्या के उद्देश्य को बाद में समझते हैं, किन्तु तदनुरूप अभ्यास नहीं करते। कुछ जानते हैं और अभ्यास भी करते हैं। कुछ न जानते हैं और न तथानुरूप आचरण करते हैं। ___एक व्यक्ति ने आचार्य महाप्रज्ञ को पूछा-'प्रव्रज्या का प्रयोजन क्या है ? आपने प्रव्रज्या क्यों ली?' उन्होंने कहा
_ 'अज्ञातं ज्ञातुमिच्छामि, गूढं कर्तुमनावृतम्।
'अभूतो हि बुभूषामि, सेयं दीक्षा मर्माहती॥' मेरे प्रव्रज्या ग्रहण करने के मुख्य प्रयोजन तीन हैं-१. अज्ञात को ज्ञात करना। २. आवृत को अनावृत करना। ३. जो नहीं हो सके वैसा होना-जो रूपांतरण आज तक घटित नहीं हो सका वैसा रूपांतरण घटित करना। - ध्येय का स्पष्ट चुनाव प्रथम क्षण में बहुत कम व्यक्ति ही कर पाते हैं। उनमें से बहुत कम व्यक्ति ही उसी दिशा में गतिमान रह सकते हैं। जिनका मोहावरण कुछ क्षीण हो, विशद बोध हो, वे ही व्यक्ति दुःख-मुक्ति के लिए उत्कंधर होते है। दुःख से कैसे मुक्ति हो? इस जिज्ञासा का समाधान ऋषियों ने विभिन्न स्वरों में दिया है। किन्तु प्रतिपाद्य भिन्न नहीं है। दुःख-मुक्ति की पद्धति ही साधना-पद्धति बन गयी, योग बन गया। कर्म-योग, ज्ञान-योग, भक्ति-योग, उपासना-योग, आदि भिन्न-भिन्न नामों से उसे संबोधित किया गया है, किंतु इतना ही नहीं, जिस-जिस व्यक्ति द्वारा प्रणीत हुई उसके नाम या संप्रदाय के नाम से भी वह जुड़ गयी। जैसे-जैन साधना पद्धति, बौद्ध साधना-पद्धति, हिंदू साधना-पद्धति आदिआदि। समस्त सरिताएं अंत में जैसे सागर में विलीन हो जाती हैं वैसे ही स्वयं तक पहुंचकर साधना-विधियां भी विलीन से जाती हैं, क्योंकि सभी पद्धतियों का ध्येय है-सत्य का साक्षात्कार। साधना का अवलंबन लिए बिना सत्य का अनुभव कठिन है।
बुद्ध से पूछा गया-'कैसे मिली आपको सिद्धि ?'
बुद्ध ने कहा-'मत पूछो, कैसे मिली? जब तक किया तब तक नहीं मिली और जब करना छोड़ा, मिल गयी।' बुद्ध ने किया भी और नहीं भी किया। उस नहीं करने के लिए ही वह करना हुआ। महावीर के जीवन में भी यही घटित हुआ। वों किया और जब साक्षात्कार हुआ तब पूर्ण मौन-अक्रिय-संवर, ध्यान-मुद्रा में लीन हो गए। संतजन जिस मार्ग से चले और सत्य को उपलब्ध हुए, वही साधना-पथ बन गया। १२. सत्यधीरात्मलीनोऽसौ, सत्यान्वेषणतत्परः। उसकी बुद्धि सत्य में नियोजित हो जाती है। वह आत्म-लीन सूलसत्यं समुत्सार्य, सूक्ष्म तदवगाहते॥ और सत्य के अन्वेषण में तत्पर होता है। वह स्थूल सत्य को
छोड़कर सूक्ष्म सत्य का अवगाहन करता है।