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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
चरण हैं। असरल होकर आदमी ने कुछ पाया नहीं, खोया है। लोक और परलोक दोनों उसके हाथ से निकल जाते हैं। बुद्ध ने कहा है-समुद्र को कहीं से चखो वह खारा ही खारा है। ठीक साधु को किसी तरह कहीं से देखो, ऋजुता के सिवाय और कुछ नहीं। धर्म का अवतरण सरलता में होता है। जैसे ही व्यक्ति सरल बनता है कि धर्म का मेघ बरसने लगता है, धर्म विराजमान हो जाता है, दिव्यता प्रकट हो जाती है।
लाओत्से ने कहा है-'सन्त फिर से बच्चे होते हैं। बच्चे-बच्चे होते हैं किंतु अज्ञान के कारण। जैसे ही बड़े होते हैं बचपन . चला जाता है। फिर वह भोलापन, सरलता नहीं रहती। उस पर बुद्धि सवार हो जाती है, भय सवार हो जाता है और वहां जीवन का बहाव खत्म हो जाता है। सरलता बहाव है। बहाव में पवित्रता है, वह स्थिरत्व में नहीं होती। वर्तमान का जीवन नष्ट हो जाता है। संत फिर से बच्चे हो जाते हैं, अज्ञानपूर्वक नहीं, ज्ञानपूर्वक। वे अपने को इतना स्वच्छ कर लेते हैं कि अब कोई चीज छिपाने जैसी रहती ही नहीं और अतीत और अनागत से मुक्त होकर प्रतिक्षण में जीना प्रारंभ कर देते हैं।
हर्मन हेस ने कहा है-'जीवन बोध से शून्य सामान्य जन और जीवन की समस्त ज्ञान गरिमा से संपन्न रागातीत परमहंस के मुख-मंडल पर खिलने वाले निश्छल हास्य में कोई अंतर नहीं होता।' महाभारत का शांति पर्व भी यही गीत गाता है
'ये च मूढ़तमा लोके, ये च बुद्धेः परं गताः।
त एव सुखमेधन्ते, मध्यमः क्लिश्यते जनः॥' 'संसार में दो ही प्रकार के व्यक्ति आनंद का अनुभव कर सकते हैं, एक अज्ञानी और दूसरा परम ज्ञानी। बीच वाले मनुष्य तो केवल दुःख पाते हैं।
चेतना सरल है। असरलता उसमें बाहर से प्रविष्ट हो गई। सरल होने के लिए करने की कुछ जरूरत नहीं है। जरूरत है असरलता (कपट) का प्रवेश होने न पाए। बाहर का मुखौटा हटा कि स्वयं का चेहरा उद्दीप्त हुआ (उभर आया)। स्वभाव के लिए कुछ और करना, उसे जटिल बनाने जैसा होगा। बस, उसके लिए अप्रमत्त-सजग रहना पर्याप्त है कि विभाव आपके अन्दर न घुसे। महावीर कहते हैं- जैसे ही आप स्वयं के भीतर प्रविष्ट हुए, सरल बने कि घृतसिक्त अग्नि की भांति परम तेजस्विता को उपलब्ध हो जाएंगे।'
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-'अनेक जन्मों के पुण्य से मनुष्य को सरल और उदार भाव प्राप्त होता है।
मनुष्य सरल स्वभाव वाला हुए बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। १०.नियत्या नाम सजाते, परिपाके भवस्थितेः। नियति के द्वारा भवस्थिति के पकने पर जीव मोह-कर्म का
मोहकं क्षपयन् कर्म, विमर्श लभतेऽमलम्॥ नाश करता हुआ विशद विचारणा को प्राप्त होता है।
कता।
११.तत्किं नाम भवेत् कर्म, येनाऽहं स्यान्न दुःखभाक।
जिज्ञासा जायते तीव्रा, ततो मार्गो विमृश्यते॥
वह कौन-सा कर्म है, जिसका आचरण कर मैं दुःखी न बनूं? मनुष्य में ऐसी तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उसके पश्चात् वह मार्ग की खोज करता है।
॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन दुःख-मुक्ति का दर्शन है। जैन मनीषियों ने सारे संसार को दुःखमय देखा और यहां सारे संयोग-वियोगों को दुःख परम्परा को तीव्र करने वाला माना। यहीं से जैन साधना-पद्धति का प्रारंभ हुआ। भगवान् महावीर ने कहा
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो॥ -जन्म दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। रोग दुःख है। मरण दुःख है। सारा संसार दुःखमय है जहां प्रत्येक प्राणी दुःख पा रहा है।