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संबोधि .
२७१ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन का अभिप्राय यही है कि जो समस्त इन्द्रियों और मन से परे हैं, उसका श्रवण करना। उसके बोध से ही जीवन की सकल ग्रंथियां टूटती हैं।
गुरु नानक साहब ने श्रवण की महिमा जपुजी में गाई है-सुनने से दुःख-पाप का नाश होता है। सुनने से योग, मुक्ति, शरीर-भेद, शाश्वत का ज्ञान होता है। सुनने से अड़सठ तीर्थो का स्नान होता है। श्रद्धा
यह तीसरा तत्त्व है। श्रद्धा शब्द से यहां अभिप्रेत है-विश्वास, तैयारी, आकांक्षा। धर्म को सुना और वह प्रीतिकर लगा। किन्तु श्रद्धा आचरण की पूर्व तैयारी है। वर्षा से पूर्व किसान जैसे खेत को बीज बोने योग्य कर लेता है, वैसे ही 'सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि' ये जीवन विकास के सूत्र हैं। उनके अभाव में जीवन सरस, सुखद, स्वच्छ और शांतिमय नहीं हो सकता। साधक कहता है- मैं श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं और रुचिकर मानता हूं।' वह उन्हें देखता भी है जिन्होंने प्रत्यक्ष ऐसा जीवन जीया है और वे उस आनंद के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उसका मन आकांक्षा से भर जाता है कि निश्चित ही मैं भी इस मार्ग का अनुसरण कर इस दिशा को प्राप्त हो सकूँगा। जो फूल महावीर, बुद्ध और संतों में खिला, वह मेरे भीतर भी खिल सकता है, नहीं खिलने का कोई कारण नहीं है। कमर कसकर वह तत्पर हो जाता है। पुरुषार्थ
'जानन्ति केचिद् न तु कर्तुमीशाः, कत्तुं क्षमा ये न च ते विदन्ति।
- जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कत्तुं, ते केऽपि लोके विरला भवन्ति॥' सत्य की दिशा में वीर्य को प्रवाहित करना अतिदुष्कर है। गीता में भी कहा है-'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतते सिद्धये'-हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। कुछ लोग जानते हैं किंतु आचरण करने में अक्षम होते हैं। कुछ लोग करने में समर्थ हैं किंतु जानते नहीं हैं। तत्त्व को जानते हों और आचरण के लिए भी प्रयत्न करते हों-ऐसे व्यक्ति संसार में विरल होते हैं। गलत दिशा में चलने के लिए अनेक सहयोगी और मित्र मिल सकते हैं, किंतु सही दिशासहायक मिलना कठिन होता है। घेरे से बाहर निकलना बड़ा जटिल है और फिर पुरुषार्थ के मध्य में अनेक अड़चनें खड़ी हो जाती हैं। कुछ व्यक्ति की अपनी दुर्बलता होती है, बाहर से सहयोग भी वैसा मिल जाता है। अपने बने-बनाये समस्त घरों और ममत्व को जलाने की क्षमता हो तभी यह संभव है। कबीर ने कहा है
'कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जाले आपना, चलो हमारे साथ।।' जो अपने घर को जला सकता है वह हमारे साथ आए। क्राइष्ट ने कहा है जो अपने को बचाता है वह खो देता है. और जो अपने को खोने के लिए तैयार है वह पा लेता है। सत्य के मार्ग में मनुष्य में मुख्य विघ्न हैं-आलस्य, इन्द्रियविषयों के सेवन में रस और कर्तव्य के प्रति उदासीनता। पुरुषार्थ ही मार्ग को सरल और मंजिल को सन्निकट करता है।
इस चतुष्टयी का सम्यक् अवबोध अपेक्षित है और मनुष्य जीवन में जिस परम सत्यता का बीज छिपा है उसे प्रकट करना भी। बीज वृक्ष बने इसी में जीवन की सफलता निहित है। ९. शोधिः ऋजुकभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति। शुद्धि उसे प्राप्त होती है जो सरल होता है। धर्म उसी आत्मा निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इवानलः॥ में ठहरता है, जो शुद्ध होती है। जिस आत्मा में धर्म होता है, वह
घी से सींची हुई अग्नि की भांति परम दीप्ति को प्राप्त होती है।
॥ व्याख्या ॥ साधु कौन होता है ? महावीर कहते हैं-'मैं उसे साधु कहता हूं जो सरल, सीधा होता है, अनासक्त होता है, ऊर्जा को स्वयं के जागरण में नियोजित करता है।' साधु और वक्र-ये दोनों एक चौखटे में नहीं बैठते। सरलता शुद्धि का पहला
१. निर्वाण का अर्थ है-शांति, बुझ जाना। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ है-दीप्ति।