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________________ आत्मा का दर्शन २७० खण्ड-३ ८. लब्ध्वा मनुष्यतां धर्म, शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः। मनुष्य-जन्म को प्राप्त होकर जो धर्म को सुनता है, श्रद्धा वीर्य स च समासाद्य, धुनीयाद् दुःखमर्जितम्॥ रखता है और संयम में शक्ति का प्रयोग करता है, वह व्यक्ति अर्जित दुःखों को प्रकंपित कर डालता है। ॥ व्याख्या ॥ इन श्लोकों (४ से ८) में १. मनुष्यता, २. धर्म-श्रुति, ३. श्रद्धा और ४. तप-संयम में पुरुषार्थ-इन चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन है। जीवन के ये चार प्रशस्त अंग-विभाग हैं। ये अंग प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सहज प्राप्य नहीं है। चारों का एकत्र समाहार विरलों में पाया जाता है। जिनमें ये चारों नहीं पाये जाते वे धर्म की पूर्ण आराधना नहीं कर सकते। एक की भी कमी उनके जीवन में लंगड़ापन ला देती है। 'दुर्लभ त्रयमेवैतद्, देवानुग्रहहेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं, महापुरुषसंश्रयः॥' शंकराचार्य ने तीन दुर्लभ बातों का कथन किया है-मनुष्यत्व, मुमुक्षा-भाव और महापुरुषों का सहवास। चार और तीन में विशेष अंतर नहीं है। एक बात स्पष्ट है कि मानव जीवन दुर्लभ है। मनुष्य की विकसित चेतना यह स्पष्ट करती है कि अतीत में ज्ञात या अज्ञात दशा में मानवीय शरीरस्थ आत्मा ने कोई विशेष पुण्य प्रयत्न किया था, जिसके कारण यह देह मिली है। चौरासी लाख योनियों की अनंत-अनंत यात्राओं के बाद कभी इस जन्म में आने का सौभाग्य मिलता है। इसका महत्व इसलिए है कि मनुष्य जीवन सेतु है। अन्य जीवन कोई सेतु नहीं है। वे किसी न किसी किनारे का जीवन जी रहे हैं। मनुष्य बीच में आ गया। उसके हाथ में वह सत्ता आ गई कि चाहे तो उस पार जा सकता है, जहां परम तत्त्व का ' प्रत्यक्षीकरण है और चाहे फिर नीचे गिर सकता है। नीचे गिरने का अर्थ होगा-वह चौरासी लाख योनियों का जीवन। 'नों सुलभं पुणरावि जीवियं' मानव जीवन की पुनः प्राप्ति सुलभ नहीं है। यह अनुभूत सत्य की उद्घोषणा है। मेघ को महावीर ने यही कहा-'तू देख, कैसे यहां आया है ? कहां से आया है ? तू स्वयं मर गया किंतु खरगोश के शरीर पर पैर नहीं रखा। उसी अहोभाव के कारण हाथी की योनि से सम्राट् के घर मेघरूप में उत्पन्न हुआ है। अब सत्य की दिशा में विघ्नों के कारण आगे बढ़ने से कतराता है ?'मेघ की सोयी चेतना प्रबुद्ध हो उठी। कोई न कोई ऐसी घटना हमारे सबके जीवन में घटी है। संत सबके भीतर उसी संभावना को देखकर जगा रहे हैं। धर्म-श्रुति धर्म का श्रवण और भी दुर्लभ हैं। मनुष्य जीवन एक सांयोगिक घटना भी हो सकती है, किन्तु यह कुछ प्रयत्न साध्य है। जीवन के समस्त संस्कार एक पथगामी रहे हैं। धर्म-श्रवण यह एक दूसरा आयाम है। धर्म के नये संस्कार को उद्भूत करने में पुराने संस्कार चट्टानों का काम करते हैं। वे सदा से प्रिय रहे हैं और यह सर्वथा अनजाना, अप्रिय और रसहीन। इंद्रियों के संस्कार पुनः पुनः अपनी ओर खींचते रहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में लिखा है-कामभोग से संबंधित बातें सबकी सुनी हुई हैं, परिचित हैं और अनुभूत हैं, लेकिन भिन्न आत्मा का एकत्व न श्रुत है, न परिचित है और न अनुभूत है, इसलिए वह सुलभ नहीं है। धर्म का अर्थ है-स्वभाव। स्वभाव का स्वाद जिसने चखा है, वहीं स्वभाव की सुगंध मिल सकती है। जिसने स्वभाव में डूबने का प्रयास भी नहीं किया, वहां स्वभाव की बात हो सकती है किंतु जीवंत दर्शन नहीं। कहा है कि 'अप्रियस्य च सत्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभः' ऐसे वक्ता और श्रोता का मिलना संभव नहीं, किंतु कठिन है, जो अप्रिय सत्य कहने में न हिचकता हो। धर्म-श्रवण यात्रा-प्रारंभ का केन्द्र है। श्रवण पर सबने बल दिया है। 'श्रोतव्यः, मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः' में श्रवण का स्थान प्रथम है। सुने बिना मनन किसका करे और और किस पर चले। महावीर ने कहा है-अक्रिया (मुक्ति) का प्रथम द्वार है-श्रवण। सुनना क्या है? वही नहीं जो परिचित, पुनः-पुनः सुना गया हो। इन्द्रियों का रस बार-बार उन्हीं को दोहराने में है जो किया गया है। वैराग्य उसी को कहा है-दृष्ट, अनुश्रुत आदि विषयों का वितृष्ण हो जाना। अब उन्हें न दोहराकर नई दिशा में इन्द्रियों की प्रतिष्ठा करना, सुनने का एक नया द्वार खोलना, अश्रव्य की बात सुनना। धर्म-कथा
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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