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________________ संबोधि. २६९ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन २. अध्रुवे नाम संसारे, दुःखानां काममालये। यह संसार अध्रुव-अशाश्वत है और दुःखों का आलय परिभ्राम्यन्नयं प्राणी, क्लेशान् व्रजत्यतर्कितान॥ है। इसमें परिभ्रमण करता हआ प्राणी अतर्कित क्लेशों को प्राप्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ महावीर ने कहा-संसार दुःख है। बुद्ध ने भी भिक्षुओं को कहा-'भिक्षुओ! दुःख है, इसका अनुभव करो।' महावीर और बुद्ध दुःखी नहीं थे, जिस अर्थ में सामान्य मानव है। किन्तु दुःख की वास्तविकता उनके पास थी। उन्होंने देखा-उत्पन्न होना दुःख है, फिर मरना दुःख है। उत्पत्ति और मृत्यु के मध्य बुढ़ापा, रोग, शोक, प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग ये भी दुःख हैं। दुःख का कारण है और उसके नाश का उपाय है। वे दुःख से कतराए नहीं, किंतु जागे और दुःखोच्छेद के लिए कटिबद्ध हो गए। दुःख है-यह सामान्य व्यक्ति का भी अनुभव है, किंतु जागरण नहीं है। दुःख सुख में बदल जाएगा, इसी आशा से मानव घसीटा चला जा रहा है। लेकिन आशा कभी सफल नहीं हुई। न पहले किसी की हुई है और न होगी। जो सुख आता हुआ दिखाई दे रहा है, जैसे ही आया, फिर विषाद का क्रम शुरू हो जाता है। धर्म वह खोज है जिससे आदमी सदा-सदा के लिए दुःख से मुक्त हो जाए। वह बाहर सुख की खोज नहीं करता। बाहर तो जन्मों-जन्मों में देखते आए हैं, उससे तो सुख मिला नहीं। इसलिए अब भीतर की यात्रा शुरू करना है। ३. पुनर्भवी स्ववृत्तेन, विचित्रं धरते वपुः। जीव अपने आचरण से बार-बार जन्म लेता है और विचित्र कृत्वा नानाविधं कर्म, नानागोत्रासु जातिषुः॥ प्रकार के शरीरों को धारण करता है। वह विभिन्न प्रकार के कर्मों का उपार्जन कर विभिन्न गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न होता है। ॥ व्याख्या ॥ शरीर के आधार पर जीवों के छह भेद किए गए हैं। वे ये है :-१. पृथ्वी है काय जिनकी, वे पृथ्वीकायिक जीव। २. अप् अर्थात् पानी है काय जिनकी वे अप्कायिक जीव। ३. तैजस अर्थात् अग्नि है काय जिनकी वे तैजसकायिक जीव। 8. वायु है काय जिनकी वे वायुकायिक जीव। ५. वनस्पति है काय जिनकी वे वनस्पतिकायिक जीव। ६. त्रसकायिक जीव-गमन-आगमन करने वाले जीव। - इन्द्रियों के आधार पर जीवों के भेद :-१. एक इन्द्रिय वाले जीव। २. दो इन्द्रिय वाले जीव। ३. तीन इन्द्रिय वाले जीव। ४. चार इन्द्रिय वाले जीव। ५. पांच इन्द्रिय वाले जीव । १. प्रहाण्या कर्मणां किञ्चिद्, आनुपूर्व्या कदाचन। कर्मों की हानि होते-होते जीव क्रमशः विशुद्धि को प्राप्त होते जीवाः शोधिमनुप्राप्ता, आव्रजन्ति मनुष्यताम्॥ हैं और विशुद्ध जीव मनुष्यगति में जन्म लेते हैं। ५. लब्ध्वाऽपि मानुषं जन्म, श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा। - यां श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिंसताम्॥ मनुष्य का जन्म मिलने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है, जिसे सुनकर लोग तप, क्षमा और अहिंसक वृत्ति को स्वीकार करते हैं। ६. कदाचिच्छ्रवणे. लब्धे, श्रद्धा परमदुर्लभा। श्रुत्वा नैत्रिकं मार्ग, भ्रश्यन्ति बहवो जनाः॥ कदाचित् धर्म को सुनने का अवसर मिलने पर भी उस पर श्रद्धा होना अत्यन्त कठिन है। पार पहुंचाने वाले मार्ग को सुनकर भी बहुत से लोग भ्रष्ट हो जाते हैं। .. श्रुतिश्च लब्ध्वा श्रद्धाञ्च वीर्य पुनः सुदुर्लभम्। रोचमाना अप्यनेके, नाचरन्ति कदाचन॥ धर्म-श्रवण और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी वीर्य दुर्लभ है। अनेक लोग श्रद्धा रखते हुए भी धर्म का आचरण नहीं करते।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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