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________________ आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन आत्मा चेतन द्रव्य है। वह स्वतंत्र है। जड़ से उसका अस्तित्व पृथक् है। जड़ से संपृक्त होते हुए भी वह जड़ नहीं है। चेतना का पूर्ण अभ्युदय होने पर आत्मा का जड़ से संबंध-विच्छेद हो जाता है। जड़-विजातीय द्रव्य की विद्यमानता में आत्मा का संचरण होता रहता है। आत्मा की विविध अवस्थाओं का हेतु है कर्म और उसकी तज्जन्य चेष्टाएं। कर्म और कर्म की प्रतिक्रिया का स्वरूप अधिगत हो जाने पर व्यक्ति कर्म पर अनुशासन कर सकता है। वह कर्म-प्रवाह को रोककर अकर्मा हो जाता है। अकर्म के लिए संसार नहीं है। कर्म का प्रवाह संसार है। __ आत्मा को स्वभाव की ओर किस प्रकार प्रेरित किया जा सकता है और वह विभाव से कैसे मुक्त हो सकती है. इसका विवेक इस अध्याय में दिया गया है। भगवान् प्राह १. अस्त्यात्मा चेतनारूपो, भिन्नः पौद्गलिकैगुणैः। स्वतन्त्रः करणे भोगे, परतन्त्रश्च कर्मणाम्॥ आत्मा का स्वरूप चेतन है। वह पौद्गलिक गुणों से भिन्न है। . वह कर्म करने में स्वतंत्र और उसका फल भोगने में परतंत्र है। || व्याख्या ॥ आत्मा और पुद्गल (Matter) दोनों भिन्न हैं। दोनों में कुछ सामान्य गुणों का एकत्व होते हुए भी चेतन का स्वबोध, ज्ञान-गुण उससे सर्वथा भिन्न है। पुद्गल में अपना कोई बोध नहीं है। वह जड़ है। निर्जीव और सजीव के बीच एक भेद-रेखा विज्ञान भी स्पष्ट देखने लगा है। शरीर से निकलने वाला वलय चेतना का ही विशेष गुण-धर्म है। प्राणी की प्राणशक्ति क्षीण होने पर आभा-वलय भी क्षीण होता हुआ देखा गया है। इससे दोनों की भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है। जड़ और चेतन की भिन्नता के द्योतक और भी कुछ लक्षण है। _ 'अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण य'-आत्मा ही सुख की कर्ता और विकर्ता है। यह वाक्य आत्म-स्वातंत्र्य का पूर्ण परिचायक है। यदि परतंत्र हो तो फिर उसके वश में कुछ नहीं होगा, फिर वह दूसरों के हाथ की कठपुतली होगी। मुक्ति या निर्वाण की बात कोई तथ्य-संगत नहीं होगी। सुख-दुःख के निर्माण में उसे पूर्ण स्वतंत्रता है। परतंत्रता है तो सिर्फ इतनी ही कि कर्म का भोग न चाहने पर भी उसे भोगना पड़ता है, क्योंकि स्वयं उसने तथानुरूप कर्मों का संग्रह किया है। यह भी स्पष्ट है कि चेतन आत्मा अचेतन कर्म का संग्रह कैसे करे? कर्म ही कर्म को आकृष्ट करता है। संस्कार अन्य संस्कार के लिए द्वार खुला रखता है। उसी मार्ग से वे आते हैं और आत्मा को बांधते हैं। वे जब आत्मा से अलग होते हैं तब स्व-बोध के कारण आत्मा रागात्मक, द्वेषात्मक और मोहात्मक रूप में परिणत नहीं होती। जिस दिन अज्ञान का आवरण मंद, मन्दतर और मन्दतम हो जाता है, उसी दिन स्वबोध, आवरण क्षय और दुःख क्षय के लिए वह सहज हो जाता है। संस्कार (कर्म) उखड़ते हैं किन्तु वह उन्हें सहारा नहीं देती, उनके साथ प्रवाहित नहीं होती। शनैः-शनैः संस्कारों का पथ उखड़ जाता है और आत्मा अपने मूलरूप में विराजमान हो जाती है। यही पूर्ण स्वातंत्र्य है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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