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संबोधि .
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अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन १६.इहैके नाम मन्यन्यते, अप्रत्याख्याय पापकम्। कुछ लोग यह मानते हैं कि पाप का परित्याग करना विदित्या. तत्त्वमात्मासौ, सर्वदुःखाद्विमुच्यते॥ आवश्यक नहीं होता। जो तत्त्व को जान लेता है, वह आत्मा सब
दुःखों से मुक्त हो जाता है।
१७.वदन्तश्चाप्यकुर्वतो, बन्धमोक्षप्रवेदिनः। ___ आश्वासयन्ति चात्मानं, वाचा वीर्येण केवलम्॥
जो केवल कहते हैं, किंतु करते नहीं, बंधन और मुक्ति का निरूपण करते हैं, किंतु बंधन से मुक्ति मिले वैसा उपाय नहीं करते, वे केवल वचन के वीर्य से अपने आपको आश्वस्त कर
१८.न चित्रा त्रायते भाषा, कुतो विद्यानुशासनम्। विषण्णाः पापकर्मेभ्यो, बालाः पण्डितमानिनः॥
वे अज्ञानी अपने आपको पण्डित मानते हुए भी बाल हैं। वे पाप-कर्म से विषाद को प्राप्त हो रहे हैं। उन्हें विचित्र प्रकार की भाषाएं और विद्या का अनुशासन-शिक्षण भी पाप से नहीं बचा सकता।
॥ व्याख्या ॥ - पांडित्य और सम्यग्ज्ञान का अंतर जान लेना आवश्यक है। सम्यग्ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता। उसके लिए स्वयं में प्रवेश करना होता है। पांडित्य-विद्वत्ता बाहर से आती है। जो भी अर्जित ज्ञान है वह सब पांडित्य है, उधार है, अपना नहीं है। पंडित बनने के लिए विश्व में बहुत साहित्य है, शिक्षक है, वक्ता हैं और भी विविध प्रकार के आधुनिक उपकरण हैं। वैज्ञानिक कहते हैं-मनुष्य के दिमाग में इतने प्रकोष्ठ हैं जिनमें समग्र विश्व का साहित्य संगृहीत किया जा सकता है। दुनिया के सभी पुस्तकालयों का ज्ञान उनमें भरा जा सकता है। इतनी क्षमता होते हुए भी यह स्पष्ट है कि मनुष्य स्वयं को इस ज्ञान से नहीं जान सकता। 'कन्फ्यूसियस' का बड़ा कीमती वचन है-'ज्ञानी वह होता है जो अपने को जानता है; और विद्वान् वह होता है जो दूसरों को जानता है।' विद्वान् और ज्ञानी का यह भेद स्पष्ट सूचित करता है कि ज्ञान की प्रक्रिया शिक्षा से सर्वथा भिन्न है। कबीर ने ठीक कहा है
'पंडित और मसालची, दोनूं सूझे नाय।
. औरन को करै चांदनो, आप अंधेरे मांय॥' परमात्म प्रकाश में लिखा है
'आत्म-ज्ञान विण अन्य जे, ज्ञान न तेनूं नाम।
ते थी रहित पण तप बने दुख कारण सुतराम्॥' विद्वत्ता के साथ आचरण भी आए, यह जरूरी नहीं है, किन्तु सम्यग् ज्ञान के साथ रूपांतरण निश्चित है। ज्ञान सक्ति है। वह यथार्थस्वरूप आपके सामने प्रस्तुत करेगा। उसे आप स्वीकार करेंगे तो निःसन्देह रूपांतरित होंगे। अन्यथा उस ओर आप आंख बन्द कर लेंगे। धर्म के वास्तविक स्वरूप-ध्यान से डरने का और कारण क्या है? वह जितनी कुरूप प्रतिमाएं छिपी हैं उन्हें प्रकाश में लाता है। इसलिए आपका वैसा रहना असंभव हो जाता है। वे मिथ्या प्रतिमाएं खंडित होंगी या फिर आप पीछे हट जाएंगे।
ज्ञान से ही जो मुक्ति की बात कहते हैं-वह केवल सत्य के संबंध में सीखे हुए ज्ञान की बात है, न कि साधना द्वारा उपलब्ध ज्ञान की। महावीर के युग में ऐसी मान्यता थी, इसलिए उन्हें यह घोषणा करनी पड़ी कि विविध भाषाओं का बोध आदमी को त्राण नहीं दे सकता। उसे सम्यग् ज्ञान की आराधना करनी होगी। सम्यग्-दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् आचरण-इस त्रिवेणी में डुबकी लगाकर ही व्यक्ति कल्मष से छूट सकता है। - जैन दृष्टि से मोक्ष के उपाय हैं-सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् आचरण और सम्यग् तप। दर्शन सबका आधार है। दर्शन के अभाव में अन्य साधनों की उपादेयता नगण्य है। आधार सुदृढ़ हुआ कि भवन का निर्माण अचिर काल में हो