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स्व थी स्व ने जाल
मक्त झट थाय॥
आलोक में स्व
आत्मा का दर्शन
- खण्ड-३ सकता है। दर्शन की स्वीकृति नहीं हो सकती है, उसकी आराधना होती है। वह कोई बाह्य वस्तु नहीं है कि जिसका आदान-प्रदान किया जा सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उपासना करनी होती है।
दर्शन का अर्थ है-देखना। प्रश्न होगा कि क्या देखें? जो हम देखते हैं वह भी दर्शन है, किन्त वह सम्यग नहीं। क्योंकि उससे हम दृश्य को ही देखते हैं। सम्यग् दर्शन तब घटित होता है जब आपके सामने कोई दृश्य न हो, जो देखने वाला है उसे आप देखें। वह सम्यग् दर्शन है। सब दृष्टियां खो जाएं, केवल द्रष्टा रहे। शुद्ध निश्चय की भाषा में आचार्यों ने इसे ही सम्यग् दर्शन कहा है। योगसार में लिखा है
आत्मा दर्शन, ज्ञान गुण, आत्म गुण चारित्र।
आत्मा संयम, शील, तप, प्रत्याख्यान पवित्र॥ किसी अन्य आचार्य ने कहा है
. स्व थी स्व ने जीव जाणता, सम्यग् दृष्टि थाय।
सम्यग् दृष्टि जीव तो, कर्ममुक्त झट थाय॥ जड़ और चेतन के मध्य का सघन आवरण सम्यग् दर्शन के द्वारा विनष्ट होता है। सम्यग् दर्शन के आलोक में स्वपर का स्पष्ट बोध उद्भाषित होता है। आगे का पथ फिर स्वतः सरल और स्पष्ट हो जाता है। मृगापुत्र ने अपने मातापिता से कहा-'जैसे घर में आग लग जाने से गृहस्वामी अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को बाहर निकालता है और तुच्छ को छोड़ देता है, ठीक इसी प्रकार मैं भी देखता हूं, मेरे घर में भी अग्नि की लपटें उठ रही हैं। घर धूं-धूं जल रहा है। वह अग्नि है-वृद्धत्व और मौत की। मैं चाहता हूं तुम्हारी आज्ञा लेकर अपनी महामूल्यवान् आत्मा को बचाना।'
जिसे दर्शन होता है उसके जीवन में यह अवश्यंभावी घटने वाली घटना है। जो दूसरों को दिखाई नहीं देता, वह उसे दिखाई देता है। अब कैसे वह अपने को 'पर' में उलझाए रख सकता है ? दर्शन के साथ ही ज्ञान की घटना घटती है और उसके साथ ही चारित्र (स्व में अवस्थित होने का भाव) जागृत हो जाता है। स्व में स्थित होना तप है और वह पूरी प्रक्रिया भी तप है जिसके द्वारा स्व में अवस्थान होता है। संक्षेप में महावीर की यही साधना-पद्धति है। दर्शन उसका केन्द्र है। ध्यान दर्शन के लिए है या दर्शन ही ध्यान है।
दर्शन के निष्कर्ष हैं-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य।
शम का अर्थ है-शांति। शांति सम्यग् दृष्टि की झलक है। जिससे यह बोध होता है कि व्यक्ति को भीतर कुछ प्राप्त है। अशांति के जनक क्रोध, अहंकार, राग-द्वेष आदि हैं। सम्यग् दर्शन की स्थिति में इनका अस्तित्व शांत हो जाता है।
संवेग का अर्थ है-दुःख-मुक्ति के लिए तीव्र उत्साह। जैसे-जैसे स्व-धारा का वेग वर्धमान होता है वैसे-वैसे साधक के चरण उस दिशा में और अधिक गतिशील हो जाते हैं। मंजिल पर पहुंचे बिना उसे चैन नहीं मिलता। .
निर्वेद का अर्थ है-काम तृष्णा, भव तृष्णा आदि जो दुःख जनक हैं उनसे पार चला जाना। अब साधक को बाहर में आकर्षण नहीं रहता। सुख या वासनाएं उसे दिग्मूढ़ नहीं बना सकतीं। 'वेद' शब्द का दूसरा अर्थ-ज्ञान करें तो यह भी हो सकता है कि अब बाह्य ज्ञान के प्रति उसके मानस में कोई अनुराग नहीं रहता। आत्मज्ञान के अतिरिक्त सब ज्ञान बोझ . रूप है। इसलिए दुःख और ज्ञान-दोनों के जाल से वह छूट जाता है।
अनुकंपा अर्थात् करुणा। बुद्ध ने कहा है-ध्यान के बाद यदि करुणा का जन्म न हो तो समझना चाहिए कि कहीं भूल रह गई है।
'सव्वजगजीवरक्खणट्ठाए भगवया पावयणं सुकहियं-भगवान ने सब जीवों की रक्षा के लिए प्रवचन दिया है। यह अनंत कारुणिकता का प्रतीक है। वे देखते हैं-दुःख से व्याकुल हैं प्राणी। अनंत-अनंत जन्मों से भटक रहे हैं। उनके लिए भगवान शरण बनते हैं, मार्ग-दर्शक बनते हैं और दिव्य नेत्र बनते हैं जिससे कि आदमी स्वयं को जान सके और समझ सके कि मैं क्यों और किसलिए यहां आया हूं?
आस्तिक्य का अर्थ है-अस्तित्व के प्रति श्रद्धा। स्वयं के साक्षात्कार के बिना स्वयं के प्रति जो श्रद्धा है, वह सिर्फ