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________________ संबोधि २७७ अ. ११ : आत्ममूलकधर्म-प्रतिपादन मानी हुई होती है और दर्शन के अनंतर जिस श्रद्धा का जन्म होता है, वह अनुभूत होती है। धर्म की यात्रा अनुभूति की यात्रा है, मानने की नहीं। मानने से भ्रांतियां टूटती नहीं। मिथ्यादर्शन की बेड़ियों को तोड़ने के लिए दर्शनरूपी पुरुषार्थ का हथौड़ा उठाना ही होता है। दर्शन के अनंतर दूसरा चरण उठता है-स्वयं के बोध के लिए। देखा और जाना। मैं कौन हूं ? किसने मुझे बांध रखा है ? मैं अपने ही अज्ञान के कारण बंधा रहा। स्वभाव और विभाव की रेखाएं स्पष्ट हो जाती हैं। सम्यग्ज्ञानी विभाव को काट आत्मस्थता के लिए उद्यत हो जाता है। सम्यग् चारित्र स्व स्थिति है, स्व-रमण है। बस, स्वभाव में ठहरे रहना, स्वभाव से बाहर नहीं जाना। चारित्र का यह अंतिम कदम है। उससे पूर्व कदम में वे सब साधन निहित होते हैं जिनके माध्यम से वह स्थिति बनती है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तप आदि सब इसमें समाहित किए जा सकते हैं। समाधि स्वरूप की अविच्युति है। यह चारित्र का अंतिम सोपान है। कर्मों का निरोध, कर्मों का निर्जरण और कर्मों का क्षय कर चारित्र कृतकृत्य हो जाता है। १९.ज्ञानञ्च दर्शनञ्चैव, चरित्रं च तपस्तथा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इनका समुदय मोक्ष का मार्ग ... एष मार्ग इति प्रोक्तं, जिनैः प्रवरदर्शिभिः॥ है। श्रेष्ठ दर्शन वाले वीतराग ने ऐसा कहा है। २०.ज्ञानेन ज्ञायते सर्व, विश्वमेतच्चराचरम्। ज्ञान से समस्त चराचर विश्व जाना जाता है। दर्शन-मोह की श्रद्धीयते दर्शनेन, दृष्टिमोहविशोधिना॥ विशुद्धि से उत्पन्न होने वाले दर्शन से उसके प्रति यथार्थ विश्वास होता है। २१.भाविदुःखनिरोधाय, धर्मो भवति संवरः। संवर धर्म के द्वारा भावी दुःख का निरोध होता है और कृतदुःखविनाशाय, धर्मो भवति सत्तपः॥ सम्यक् तप के द्वारा किए हुए दुःखों का नाश होता है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् का दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। केवल ज्ञान या केवल तप से मुक्ति नहीं होती। भगवान् ने कहा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इनके समन्वय से मोक्ष सधता है। जब व्यक्ति इन चारों की आराधना करता है, तब वह दुःखमुक्त होता है। ज्ञान से प्राणी हेय और उपादेय को जानता है और दर्शन से उसमें विवेक जागृत होता है तब वह सत्य की ओर बढ़ता है। जब उसमें चारित्र का विकास होता है तब हेय को छोड़ उपादेय को ग्रहण करता है। इससे आने वाले कर्मों का निरोध होता है और जो पूर्वबद्ध कर्म हैं, उनका वह तपस्या द्वारा निर्जरण करता है। इस प्रकार वह बंधन से बंधन मुक्ति की ओर बढ़ता जाता है। २२.दृष्टिमोहं परिष्कृत्य, व्रती भवति मानवः। पहले दृष्टि-दर्शन मोह का परिष्कार होता है, फिर अप्रमत्तोऽकषायी च, ततोऽयोगी विमुच्यते॥ मनुष्य क्रमशः व्रती, अप्रमत्त, अकषायी और अयोगी होकर मुक्त होता है। ॥ व्याख्या ॥ -बंधन-मुक्ति सहसा नहीं सध जाती। वह क्रमशः होती है। व्यक्ति के क्रमिक अभ्यास से वह प्राप्त होती है। दशवैकालिक सूत्र में मुक्ति के क्रम का बहुत सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। ज्ञान के विकास के साथ-साथ अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा साधन है, साध्य है मुक्ति। जीव और अजीव का ज्ञान अहिंसा का आधार है और उसका फल है, मुक्ति। इन दोनों के बीच में साधना का क्रम चलता है। मुक्ति का आरोह क्रम इस प्रकार है :-१. जीव-अजीव का ज्ञान। २. जीवों की बहुविध गतियों का ज्ञान। ३. पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष का ज्ञान। ४. भोग-विरक्ति। ५. आंतरिक और बाह्य संयोगत्याग। ६. अनगार-वृत्ति। ७. अनुत्तर-संवरयोग की प्राप्ति। ८. स्वरूप बाधक कर्मों का विलय। ९. केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि। १०. अयोग-अवस्था। ११. सिद्धत्व-प्राप्ति। प्रस्तुत श्लोकों में इन सबका समावेश पांच तथ्यों में दिया गया है :-१. मोह-संवरण, २. व्रत-ग्रहण, ३. अप्रमत्त अवस्था की प्राप्ति, ४. अकषाय वीतराग अवस्था की प्राप्ति और ५. अयोग-संपूर्ण नैष्कर्म की प्राप्ति।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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